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________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय कल्पप्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर, पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर, साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर, व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः। कल-आगम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञ कल्प विद्वन्मान्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. निर्मित श्री अभिधानराजेन्द्रः (सकल आगमों के समस्त संकलित शब्दों का ससंदर्भ ज्ञानमय कोष अर्थात जिनागम कुञ्जी) चतुर्थो भागः ('ज' से 'नोमालिया') मुनिराज दीपविजय यतीन्द्रविजयाभ्यां प्रथमा आवृति संशोधिता संपादिता च प्रस्तुत तृतीय संस्करण प्रकाशन के प्रेरणादाता सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती-राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्करनेकांत के जगप्रस्तोता-श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब प्रकाशक श्री राजेन्द्रसूरि शताब्दि शोध संस्थान, उज्जैन (M.P.)
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________________ प्रकाशकः राजेन्द्रसूरी शताब्दि शोध संस्थान 87/2 विक्रम मार्ग, टावर चोक, एस.एम.कॉम्पलेक्ष, फ्रीगंज, उज्जैन (M.P.)/ प्राप्ति स्थान: श्री अभिधानराजेन्द्र प्रकाशन संस्था श्री राजेन्द्रसूरी जैन ज्ञान मन्दिर, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट: शेखनो पाडो, रीलीफ रोड, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र जयंतसेन म्युजियम : मोहनखेडा तीर्थ मार्ग, राजगढ़, (M.P.) पार्श्व पब्लिकेशन : 102, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाम, अहमदाबाद-३८०००६ विक्रम संवत् - 2071 वीर संवत - 2540 राजेन्द्रसूरि संवत - 108 तृतीय आवृत्ति इस्वीसन - 2014 सुकृत् सहयोगी) श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताबर संघ सुभाष चोक, गोपीपुरा, सुरत टाईप सेटिंग : श्रीमद् जयन्तसेनसूरि सत्साहित्य कृते श्री देवचन्द सुखराम डोलिया इन्दौर (M.P.) मुद्रण व्यवस्था: खुश्बू प्रकाशन 103, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाँव, अहमदाबाद-६ मूल्यः संपूर्ण 7 भाग रु : 6000-00
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________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरुदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज શકે અગ दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी - राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुतः / / सधस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान ? // 1 //
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________________ श्री अभिधानराजेन्द्रः 2014 अनुक्रमणिका 1. प्रस्तावना-तृतीय आवृत्ति 2. सौधर्म बृहत्ततपोगच्छीय पट्टावली 3. प्रस्तावना-द्वितीय आवृत्ति आभार प्रदर्शन 7-11 12-13 14-30 घण्टापथः प्रशांत-वपुषं श्रीराजेन्द्रसूरि नुमः 7. श्रीअभिधानराजेन्द्रः-चतुर्थो भागः 31-31 1363-2778
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________________ प्रस्तावना (तृतीय आवृत्ति) कलिकाल सर्वज्ञ कल्प-प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में तब हुए जब मुगल साम्राज्य डाँवाडोल हो चुका था, मराठा परास्त हो चुके थे और इनके साथ ही राजपूत और नवाब सभी अंग्रेजों की कूटनीतिज्ञ चाल के सामने समर्पित हो चुके थे। भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात अपनी चरम सीमा पर था। अंग्रेज अपनी योजित शैली में भारत की अन्तरात्मा कुचलने में सफल हो रहा था। भारत के सभी धर्मावलम्बियों में शिथिलाचार जोर पकड़े हुए था। ऐसे असमंजस भरे काल में विविध जीवनदर्शक साठ ग्रंथों के साथ अभिधान राजेन्द्रः (ज्ञान कोश) लेकर एक देदीप्यमान सूर्य के समान प्रकट हुए। इस ग्रंथ के निर्माण के साथ ही वे एक महान साधक, तपोनिष्ठ, क्रान्तिकारी युगदृष्टा के रूप में समाज और जगत् के असर कारक अप्रतिम पथ प्रदर्शक के रूप में अवतरित हुए। आचार्य प्रवर का यह ग्रन्थराज भगवान् महावीर की वाणी का गणधरों द्वारा प्रश्रुत आर्षपुरुषों की अर्धमागधी भाषा, जिसमें सभी आगमों का संकलन हुआ है, शताब्दी का शिरमोर व विश्ववन्द्य ग्रन्थ है। यह विश्वकोश आगम साहित्य के संदर्भ ग्रन्थ के रूप में अत्यन्त मूल्यवान है। इस ग्रन्थराज की सुसमृद्ध संदर्भ सामग्री ने, जिससे संसार सर्वथा अनभिज्ञ था, भारतीय विद्वता का मस्तक ऊँचा किया है और यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थराज की मुक्तकंठ से भरपूर प्रशंसा की है। यह सत्यान्वेषक तथा अनुसन्धानकर्ताओं के लिए मूल्यवान पोषक रहा है। इस ग्रन्थराज के विशद ज्ञान गाम्भीर्य और विद्योदधि श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजी की चमत्कारपूर्ण अद्वितीय सृजन-शक्ति के प्रति हर कोई नतमस्तक हुए बिना नहीं रहता। इस ग्रंथराज के अवलोकन करनेवालों को जैन धर्म तथा दर्शन के अपरिहार्य तथ्यों की जानकारी मंत्रमुग्ध किये बिना नहीं रहती। सूरिजी ने अंधकार-युग में अपना मार्ग स्वयं ही प्रशस्त किया और वे जगत् के लिए पथ-प्रदर्शक बने / उनका चारित्रिक बल, उनकी विद्वता और निर्भीकता प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि समस्त विद्वज्जगत पर महान अनुग्रह हुआ है। इस महर्द्धिक ग्रन्थराज के निर्माण ने विद्वत्संसार को चमत्कृत ढंग से प्रभावित किया। इसके अनुकरण और इसकी
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________________ सहायता तथा मार्गदर्शन पाकर अनेक विद्वानों ने पूरी शताब्दी भर अपने-अपने कोश-निर्माण की भावना में इस ग्रंथराज के बीजरूप में ही रखी है। यह ग्रन्थराज बीसवीं शताब्दी की एक असाधारण घटना ही है। इसने जैन-जैनेतर सभी विद्वन्मण्डल को निरन्तरउपकृत किया है और करता रहेगा। इस ग्रन्थराज में तमाम जैनागमों के अर्धमागधी भाषा के प्रत्येक शब्द का संकलन किया गया है और प्रत्येक शब्द का संस्कृत अनुवाद, लिंग,व्युपत्ति, अर्थ तथा सूत्रानुसार विवेचन और संदर्भ सहित ज्ञान सुविधापूर्वक दिया है, जो सुगम और अवबोध्य है। इस ग्रन्थराज ने लुप्तप्राय अर्धमागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने के साथ ही इसे अमरत्व प्रदान किया है। आगम शास्त्र जिज्ञासुओं के लिए उनकी तमाम शंकाओं के समाधान के लिए यह अक्षय भंडार है। इस ग्रंथराज के प्रथम खण्ड के अनेकांतवाद, अस्तित्ववाद, अदत्तादान, आत्मा (अप्पा), अभय, अभयारण्य, अर्हन्त जैसे विषयों पर संदर्भ सहित विशद व्याख्या के साथ प्रत्येक पाठक को आश्चर्यचकित करे, इतना ज्ञान आकर्षक रूप से व्याख्यायित है, जिनके अर्थबोध को पाकर हर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस ग्रंथराज के निर्माण के समय कुछ अक्षरों की अनुपलब्धता के कारण उनके स्थान पर वैकल्पिक अक्षर का उपयोग किया गया था जिससे पाठक-वृंद को पठन करने में जो असुविधा होती रही है उसका इस आवृत्ति में जिन वैकल्पिक अक्षरों का उपयोग किया गया था, उन्हें दूर कर दिया गया है तथा सर्वबोध्य अक्षरों का उपयोग कर लिया गया है। जिनके लिए वैकल्पिक अक्षर उपयोग में लिये गये थे वे हैं-अ, इ,उ, ऊ, ऋ, छ, झ, ठ, ड, ढ, द,द्भ, द्ग, द्व्य, भ, ल, ट्ठ, क्ष, ज्ञ, त्र, द्ध, द्व, क्व, क्त, ह्र / अब इस प्रथम भाग की तृतीय आवृत्ति में वैकल्पिक रूप हटाकरप्रवर्त्तमान प्रचलित अक्षरों का यथास्थान उपयोग कर लिया गया है। प्रज्ञा-पुरुष के इस ग्रन्थराज के विषय में, इसकी ज्ञान-गरिमा और आध्यात्मिक साधना की अभिव्यक्ति के विषय में कुछ कहना दैदीप्यमान सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अन्त में इतना ही कि यह चिर प्रतिक्षित संशोधित आवृत्ति आपके हाथों में रखते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है / आचार्य जयन्तसेनसूरि
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________________ श्रीमहावीरस्वामीशासननायक 1 श्रीसुधर्मास्वामी 2 श्रीजम्बूस्वामी 3 श्रीप्रभवस्वामी 4 श्रीसय्यंभवस्वामी श्रीयशोभद्रसूरि श्रीसंभूतविजयजी श्रीभद्रबाहुस्वामी श्रीस्थूलभद्रस्वामी श्रीआर्यसुहस्तीसूरि श्रीआर्यमहागिरि श्रीसुस्थितसूरि श्रीसुप्रतिबद्धसूरि 10 श्रीइन्द्रदिन्नसूरि 11 श्रीदिन्नसूरि 12 श्रीसिंहगिरिसूरि 13 श्रीवज्रस्वामीजी 14 श्रीवज्रसेनसूरिजी 15 श्रीचन्द्रसूरिजी 16 श्रीसामन्तभद्रसूरि 17 श्रीवृद्धदेवसूरि 18 श्रीप्रद्योतनसूरि 16 श्रीमानदेवसूरि 20 श्रीमानतुङ्गसूरि 21 श्रीवीरसूरि 22 श्रीजयदेवसूरि 23 श्रीदेवानन्दसूरि श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली 24 श्रीविक्रमसूरि 48 श्रीसोमतिलकसूरि 25 श्रीनरसिंहसूरि 46 श्रीदेवसुन्दरसूरि 26 श्रीसमुद्रसूरि 50 श्रीसोमसुन्दरसूरि 27 श्रीमानदेवसूरि 51 श्रीमुनिसुन्दरसूरि 28 श्रीविवुधप्रभसूरि 52 श्रीरत्नशेखरसूरि 26 श्रीजयानन्दसूरि 53 श्रीलक्ष्मीसागरसूरि 30 श्रीरविप्रभूसरि 54 श्रीसुमतिसाधुसूरि 31 श्रीयशोदेवसूरि 55 श्रीहेमविमलसूरि 32 श्रीप्रद्युम्नसूरि 56 श्रीआनन्दविमलसूरि 33 श्रीमानदेवसूरि 57 श्रीविजयदानसूरि 34 श्रीविमलचन्द्रसूरि 58 श्रीहीरविजयसूरि 35 श्रीउद्योतनसूरि 56 श्रीविजयसेनसूरि 36 श्रीसर्वदेवसूरि श्रीविजयदेवसूरि 37 श्रीदेवसूरि श्रीविजयसिंहसूरि 38 श्रीसर्वदेवसूरि 61 श्रीविजयप्रभसूरि श्रीयशोभद्रसूरि 62 श्रीविजयरत्नसूरि श्रीनेमिचन्द्रसूरि 63 श्रीविजयक्षमासूरि 40 श्रीमुनिचन्द्रसूरि 64 श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि 41 श्रीअजितदेवसूरि 65 श्रीविजयकल्याणसूरि 42 श्रीविजयसिंहसूरि 66 श्रीविजयप्रमोदसूरि श्रीसोमप्रभसूरि 67 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि श्रीमणिरत्नसूरि 68 श्री विजयधनचन्द्रसूरि 44 श्रीजगचन्द्रसूरि 66 श्री विजयभूपेन्द्रसूरि श्रीदेवेन्द्रसूरि 70 श्री विजययतीन्द्रसूरि श्रीविद्यानन्दसूरि 71 श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि 46 श्रीधर्मघोषसूरि 72 प्रवर्तमान आचार्य 47 श्रीसोमप्रभसूरि श्री विजयजयन्तसेनसूरि 36 43
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________________ GOOODCHING राजेन्द्र कोश धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. मोहनविजयजी म.सा. भूपेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्री गुलाबविजयजी म.सा. विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा.
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________________ - प्रस्तावना (द्वितीयावृत्ति) अनादि से प्रवहमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त होकर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करती है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान में होता है, परन्तु अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं ; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्वका सूर्योदय होते ही मिथ्यात्वकाघना अंधेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होती है। यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रेसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लोकोत्तर भावों की चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ।' संसार परिभ्रमण का प्रमुख कारण है आश्रव और बन्ध / दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जरा भी आवश्यक है। बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वंय को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहें। कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है, अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है, जैसे खदान में रहे हुए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है। मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब दोनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को कोई मिट्टी कहता है। ठीक इसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्रा के प्रयोग द्वारा अपने में से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्वलता प्रकट कर देती है। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म के फल भुगतने के लिए प्रेरित करती रहती है। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में है, ऐसे संसारीजीवों की कर्म प्रकृतियाँ विभाव परिणमन करा लेती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आँखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत कर लेता है। इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है। दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को राजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्मजीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है, अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है। __ मधुलिप्त असिधार के समान है वेदनीय कर्म / यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है। साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है,पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटने वाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है, पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन करता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करने वाला मनुष्य अपने होश-हवास खो बैठता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित
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________________ जीव अपने आत्म-स्वरूप को भूल जाता है और पर पदार्थो को आत्म स्वरूपमान लेता है। यही एक मात्र कारण है जीव के संसार परिभ्रमण का। 'मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकुंभरमत बादि।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रा के मार्ग में रुकावट डालता है। जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता, वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममत्व जब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हम मोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और ममत्व जितना जितना घटता जाता है, उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोह राजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगे कूच करती है। जीवको भेद विज्ञान से वंचित रखनेवाला यही कर्म है। इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में भटकाये रखा है। और बेड़ी के समान है आयुष्य कर्म / इसने जीव को शरीर रूपी बेड़ी लगा दी है, जो अनादि से आज तक चली आ रही है। एक बेड़ी टूटती है, तो दूसरी पुनः तुरंत लग जाती है। सजा की अवधि पूरी हुए विना कैदी मुक्त नहीं होता, इसी प्रकार जब तक जीव की जन्म जन्म की कैद की अवधि पूरी नहीं होती, तब तक जीव मुक्ति का आनंद नहीं पा राकता। नाम कर्म का स्वभाव है चित्राकार के समान चित्रकार नाना प्रकार के चित्र चित्रपट पर अंकित करता है, ठीक इसी प्रकार नाभ कर्म चर्तुगति में भ्रमण करने के लिए विविधजीवों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान करता है। इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक गति में भ्रमण करता है। गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है। गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है- राजा के खजाँची के समान। खजाने में माल तो बहुत होता है पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है, अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। यही कार्य अन्तराय कर्म करता है। इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती / दान, लोभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्म शक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। संक्षेप में ही है, जैन दर्शन का कर्मवाद। इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नवतत्व, मोक्ष मार्ग आदि ऐसे विषयों का समावेश है, जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है। आत्म कल्याण की कामना करने वालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन् अत्यंत आवश्यक है। संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्व-स्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन-धर्म-दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं 'सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरण व्रज।' बुद्धं शरणं गच्छामि............ धम्म सरणं गच्छामि। और केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि। इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान, केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है। जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव को परमात्म प्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है, जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात जीव को परमात्म स्वरूप ही माना गया है। यह जैनधर्म की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप,सप्तभ्गी एवं स्याद्वादशैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न संदर्भ ग्रन्थों का अनुशीलन अत्यंत आवश्यक है। आजरोसा साल पूर्व उचित साधनों का अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था। विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुंजी तलाश रहे थे, जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध तपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया। वे दिव्य पुरुष थे उत्कृष्ट चारित्रा क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज। उन्होंने जिनागम की कुंजी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छत्रछाया में अपने हाथ में लिया। कुंजी निर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलती रही और सूरत में कुंजी बन कर तैयार हो गयी। यह कुंजी है 'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैनागमों में निर्दिष्ट वस्तुतत्त्व जो अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्रा हो या न हो, पर जो नहीं हैवह कहीं नहीं है। यह महान ग्रन्थ जिज्ञासुकी तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है।
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________________ भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परम्परा आज तक चली आ रही है। निघंटु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यास्क' की रचना निरुक्त' में और पाणिनी के ' अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्द संग्रह दृष्टिगोचर होता है ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। - इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्यरचनाकाल / जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है-अनेकार्थक कोश। कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का 'त्रिकाण्ड' और धनवन्तरी का निघण्ट्र, इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य। उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का'अमरकोश' अत्यधिक प्रचलित है। धनपाल का 'पाइयलच्छी नाम माला' 276 गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें६६८ शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनञ्जय ने 'धनञ्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक शब्द बन जाते हैं-जैसे भूधर, कुधर इत्यादि। इस पद्धति से अनेक नये शब्दों का निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनञ्जय ने 'अनेकार्थनाममाला' की रचना भी की है। कलिकाल, सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि', 'अनेकार्थ संग्रह', निघण्टु संग्रह और ' देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा 'शिलोंछ कोश' 'नाम कोश'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', शब्दभेद नाममाला' ' नाम संग्रह' , शारदीय नाममाला', शब्द रत्नाकर','अव्ययैकाक्षर नाममाला' शेष नाममाला, 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्न प्रदीप', 'विश्वलोचन कोश','नानार्थ कोश' पंचवर्ग संग्रह नाम माला', 'अपवर्ग नाम माला', एकाक्षरी नानार्थ कोश,''एकाक्षर नाममलिका', एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सद्दमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', 'जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' इत्यादिअनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। ___ इनमें से कई कोश ग्रन्थ' अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त कोश ग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दीया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार इस महाग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है, फिर भी इसकी कुछ विशेषताएं प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। 'अभिधान राजेन्द्र अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृतलोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमी को धर्म का मर्म समझाया। यही कारण है कि जैन आगमों की रचना अर्धमगामी प्राकृत में की गई। इस महाकोष में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म'अकारादिक्रम से समझाया है , यह इस महाग्रंथ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अर्थस्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रूप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है, इसके अलावा उन शब्दों के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद, सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है। सत्तानवे सन्दर्भ ग्रंथ इसमें समाविष्ट हैं। वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ-साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजों में विस्तारित है। इसमें धर्म-संस्कृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थव्यख्यायित हुए हैं। उनकी पुष्टि-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इसके सात भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे, तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा। इस महाग्रंथ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महाग्रंथ लिखा गया, उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी भी नहीं किया। कहते हैं वे कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे। एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा। चार्तुमास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे। मालवा, मारवाड़, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दीर्घ विहार किये , प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक
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________________ कार्य सम्पन्न किये, जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक संताप भी सहन किये। साथ-साथध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही। ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ, यह एक महान आश्चर्य है। इस महान ग्रंथ के प्रणयन ने उन्हें विश्वपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्टित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है। श्रीमद विजय यशोदेव सूरिजी महाराज 'अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं-आज भी यह (अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है, इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न होता है, क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश की रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और इस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने पालन भी किया। यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्रा में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौन सी है, तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा, जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है। प्रस्तुत बृहद् विश्वकोश को पुनः प्रकाशित करने की हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बंबई चार्तुमास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ। जो भी मिला उसने यही कहा कि अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुलर्भ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो, तो हमें इनके प्रकाशन का अधिकार दीजिये। हमनें उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है।' अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा। श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये।तामिलनाडू राज्य की राजधानी है यह मद्रास दक्षिण में बसे हुए टूर-दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चार्तुमास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चार्तुमास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चार्तुमास समाप्ति के पश्चात् पौष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमी प्रातः स्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेव श्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते हुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में 'अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्यांकन करते हुए इसके पुर्नमुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया। इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया। आह्वान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ। ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई, पर 'श्रेयांसि बहुविध्नानि की उक्ति के अनुसार हमें यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशन को स्थगित करना सबके लिए दुःखदथा, पर मैं मजबूर था।आंतरिक विरोधको जन्म देकर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है। हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया- दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओं ने .. ................ / उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया। श्रीमद् गुरुदेव ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा, व्यवसायियों के लिए नहीं। यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया कि इसके पुनःप्रकाशनका अधिकार त्रिस्तुतिकसकल संघको है।' त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोल धरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था / ऐसा न करके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है। श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मवृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने-कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए उपस्थित हुए।पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा। अधिवेशन प्रारंभ हुआ। संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व की असाधारण कृत्ति इस अभिधान राजेन्द्र के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा / श्री संघ ने हार्दिक प्रसन्नता व हार्दिक व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी / परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है। और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्मबृहत्तयोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोश ग्रन्थ पुनर्मुद्रित होकर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है, यह हम सबके लिए परम आनंद का विषय है।
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________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्टप्रभाकर-चत्राचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज राम तोलार विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरसवद्विलासम् / हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् // 1 //
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________________ इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है, फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देने वाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अ.भा सौ.ब.त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता / इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं। इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है / प्रेसकार्य, प्रफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते। त्रिस्तुतिक संघ के समस्तगुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गई है। वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है / शुभम् / नेनावा (बनासकांठा) दिनांक 2-12-1955 - आचार्य जयन्तसेनसूरि
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________________ 12 आभार-प्रदर्शनम् / --0-- सुविहितसूरिकुलतिलकायमान-सकलजैनागमपारदृश्व-आबालब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराजक्रियाशुद्ध्युपकारक-श्रीसौधर्मबहत्तपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य-गुरुदेव भट्टारक श्री 1008 प्रभु श्रीमदविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'श्रीअभिधानराजेन्द्र' प्राकृतमागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्री सियाणा नगर में संवत् 1646 के आश्विनशुक्लद्वितीया के दिन शुभ लग्न में आरम्भ किया। इस महान् संकलनकार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराज ने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् 1960 चैत्र-शुक्ला 13 बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण (तेयार) हुआ। गवालियर-रियासत के राजगढ (मालवा) में गुरुनिर्वाणोत्सव के समय संवत् 1663 पौष-शुक्ला 13 के दिन महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय -छोटे बड़े ग्राम-नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक-मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि-मर्तुम-गुरुदेव के निर्माण किए हुए 'अभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लाभ प्राप्त कर सकें, इसलिए इसको अवश्य छपाना चाहिए, और इसके छपाने के लिए रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्भुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखबदासजीत्-भागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्- प्यारचंदजी और गोमाजी गंभीरचंदजीत्- निहालचंदजी, आदि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीअभिधानराजेन्द्र- कार्यालय और 'श्रीजैनप्रभाकरप्रिन्टिगप्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिए। कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का समस्त-भार दिवंगत पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सोंपा जाए। बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० 1664 श्रावणसुदी 5 के दिन उक्त कोश को छपाने के लिए रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य-मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुआ, जो सं० 1981 चैत्रवदि 5 गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त हुआ। इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभञ्जनकेसरीकलिकालसिद्धान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-आचार्यश्रीमद्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सच्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवाहेवाक-मुनिश्रीहुकुमविजयजी महाराज, सत्क्रियावान्-महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज, साहित्यविशा-- रद-विद्याभूषण-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी मुनिश्री-लक्ष्मीविजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्रीहंसविजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी, आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार में दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे देकर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहुँचाई, और स्वयं भी अनेक भाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आभारी है। जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाक्षरी नामावली इस प्रकार है - श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा-- श्रीसंघ-रतलाम, वाँगरोद, राजगढ़,जावरा, वारोदा-बड़ा,झाबुवा,बड़नगर, सरसी, झकणावदा,खाचरोद,मुंजाखेड़ी, कूकसी.
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________________ सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती-राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर-अनेकांत के जगदर्शन श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि व प्रेरणा पुंज-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत् के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब
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________________ 13 मन्दसोर, खरसोद-बड़ी, आलीराजपुर, सीतामऊ, चीरोला-बड़ा, रींगनोद, निम्बाहेड़ा, मकरावन, राणापुर, इन्दौर, बरड़िया, पारा, उज्जैन, (भाट) पचलाना, टांडा, महेन्दपुर, पटलावदिया, बाग, नयागाम, पिपलोदा, खवासा, नीमच-सिटी, दशाई, रंभापुर, संजीत, बड़ी-कड़ोद, अमला, नारायणगढ़, धामणदा, बोरी, बरड़ाबदा, राजोद, नानपुर श्रीसौधर्मबहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात श्रीसंघ-अहमदाबाद, थिरपुर (थराद्), ढीमा, वीरमगाम, वाव, दूधवा, सूरत, भोरोल, वात्यम, साणंद, धानेरा, वासण , बम्बई, धोराजी, जामनगर, पालनपुर, डुवा, खंभात, श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर, भीनमाल, शिवगंज, आहोर, साचोर, कोरटा, जालोर, बागरा, फतापुरा, भेंसवाड़ा, धानपुर, जोगापुरा, रमणिया, आकोली, भारुंदा, मांकलेसर, साथू, पोमावा, देवावस, सियाणा, बीजापुर, विशनगढ़, काणोदर, बाली, मांडवला, देलंदर, खिमेल, गोल, मंडवारिया, सांडेराव, साहेला, बलदूट, खुडाला, आलासण, जावाल, राणी, रेवतड़ा, सिरोही, खिमाड़ा, धाणसा, सिरोड़ी, कोशीलाव, बाकरा, हरजी, पावा, मोदरा, गुडाबालोतरा, एंदला का गुड़ा, थलवाड़, भूति, चाँणोद, मेंगलवा, तखतगढ़, डूडसी, सूराणा, सेदरिया, थाँवला, दाधाल, रोवाडा, जोयला, धनारी, भावरी, काचोली, इनके सिवाय दुसरे भी कई गाँवो के संघों की ओर से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है। श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय, रतलाम (मालवा) || श्रीः॥ मत्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितोविजयराजेन्द्रात्परोन्यो स्तिकः।।
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________________ घण्टापथः। चतुर्थभाग-घण्टापथः। अर्हम्। इह हि प्रायोऽनवद्यहृद्यविद्याविद्योवितान्तःकरणानामनवरतान्तः स्थमहासपत्नपरासनप्रयतानाममेध्यहेयहिंसाऽऽदिगद्यपदार्थसार्थगहनतरगहनागमविच्छेदपर्श्वधिधाराधराणामधरीकृतधराधरक्षमाधराणामपूर्वपूर्वभवोपार्जितशुभयुकर्मपरिपाकसमुखीनानामसंमुखीकृतपरावज्ञाऽज्ञानतिमिराणाममितचरित्रपवित्रितान्तःकरणानां विलक्षणलक्षणानां स्वेतरदोषदर्शनदवीयसां मनस्विमहीयसां दुरितभरितक्षीवक्षितिपतिप्रसादनिरादराणामहो खलु साम्प्रतं मम पचेलिम भागधेयमिति मन्यमानानां द्राघिष्ठमुदकमुन्निनीषूणां विगतकुहनाऽऽटोपाना मुक्तिमहेलासंवरणोत्सुकानां प्रादुर्भूतविशङ्कट बोधानां किम्पचानप्रतिपन्थिनां समवगलितनवतत्त्वनिकुरकुरम्बाना महत्याऽऽरभट्या धर्मदेशनाश्रावणाऽभयविश्राणनसमुत्सुकानां खलोक्तिकाटवमपि मर्षणीयमिति निर्धारितमानसानां प्रपदनिमग्ननृपतिनिटिलकिरीटानां वरिष्ठ प्रष्ठानां सततमहोत्सवमासेदुषां विदुषां परमहंसानां मानसं स्वच्छन्दोच्छलदच्छसंवराऽऽशयसमं सन्मतावागाहनाऽवसरे मध्यमभुवनभागधेयपरिपाक स्वरूपं तत्त्वाप्रस्थितिशुभशृङ्गाटकानुकारि मिथ्यात्विदर्शनाकूपाराऽऽचान्त्यै लोपामुद्राधवमुद्राधरं गाधीकृतसौगतशासनाऽऽशयनिगूढतत्त्वं प्रालेयमहीध्रवन्नितान्तयशोविशदमस्तोकमुक्ताफलाऽऽपीडवशिरसा श्लाधनीयमुत्कटप्रत्यग्रप्रसृमरनीरन्ध्रसदुपदेशसुधाविन्दुवृष्टिभिराप्याचितभव्यभविकस्वान्तक्षेत्रं पठनाऽऽकर्णनाभ्यां माध्वीकमृद्वीकयोरप्यधरीकृतमाधुर्य जनिताऽऽमोदभूमो-- दयं मानसकासारमिवाऽऽर्हन्मतमेवाजस्रं धिनोति / यत्र शृङ्गग्राहिकया जीवाजीवाऽऽदिसमस्तवस्तुविवेचन विधीयते यत्र च सुखतल्पकल्पेऽनल्पनिद्रामुद्रितनयनस्य विद्रावितद्वापरस्याऽऽकल्पं निद्राणस्याकुतोभयस्य जल्पाकेन साकं जल्पाऽऽयासावसरमपि नायाति, गम्भीरगर्जनविद्रावितगिरिग्रावस्य गिरिगर्भ शयानस्य पञ्चाननस्येव यस्य नामश्रवणमात्रेण मदमलिनगण्डाऽऽभोगाः पद्मिन इव कुमतावलम्बिनो गृहीतदिकाः पुनरावर्तनमपि न स्पृहयन्ति, येनाऽऽस्थानीमास्थितस्य वादकथासंप्रलग्नरस निकटं जयोऽवश्यमभ्युपैति, कौक्षेयकमिव यमवलम्ब्य प्रत्यर्थिप्रवर्तितप्रेतानुकारिनिग्रहस्थानकन्धराकर्तनाय कुशलीभवति भव्यवर्गः, योयुपगतोपघ्नानां निजनिघ्नानां विघ्नसङ्घ मपहस्तयते / प्रातिस्विकरूपेण निर्धारितोऽयमर्थः प्रथमभागोपोद्घातेऽस्माभिरित्यलं प्रसक्तानुप्रसक्त्याऽकाण्डताण्डवाऽऽडम्बरेण वा / किं बहुना यत्प्रवर्तका एव परार्थसंपादनसमर्पितजीविताः स्वार्थनिरपेक्षाः समस्तजीवजीवातुप्रदानदक्षाः सौधर्मेन्द्राऽऽदिनिर्वर्तितजन्माभिषेकाः सुधाधोरणीकल्प- | नजदेशनया संसारासातसंतप्तजन्तूनां विहितसेका अष्टमहाप्रातिहार्यपरिकलिताश्चतुस्त्रिंशदतिशयविराजिता रागद्वेषाऽऽद्यन्तरङ्गारिविप्रमुक्ता पराभिसंधानाध्ययनविमुखास्तत्त्वपारावारतलस्पर्शिनः परमदुर्गतिसमापन्नदुर्भगजनतानिरीक्षणसमुत्पन्नकरुणरसोद्गारपुलकितान्तः करणा दरीदृश्यन्ते, तद्वचनसुधासारणीसमवगाहनसुखैषिणः पुरोभागिभिन्नाः के वा न भवेयुः? यद्यपि तृतीयभागप्रस्तावे समारोन निरूपितोऽयं विषयः प्रयत्नप्रयतैरस्माभिस्तथापि वाचकवर्गमनः पोषाय कदाग हग हिलतोषाय सोहापोहं भगवता तीर्थकृतां रागद्वेषविप्रमुक्तत्वमेवोद्घाट्यते, यत्सत्तायामेव तेषामुपादेयवचनताऽनिर्वचनीयतामावहति / तथाहि-ननु तीर्थकृतां रागाऽऽदिभिः सहाऽऽत्यन्तिको वियोगोऽसंभवी, प्रमाणवाधनात् / तच्च प्रमाण-मिदम् यदनादिमद् न तद्विनाशमाविशति, यथाऽऽकाशम्, अनादिमन्तश्व रोगाऽऽदय इति / किश-रागाऽऽदयो धर्माः,ते च धर्मिणो भिन्नाः, अभिन्ना वा? यदि भिन्ना स्तर्हि सर्वेषामविशेषेण वीतरागत्वप्रसङ्गः, रागेभ्यो भिन्नत्वात्, विवक्षितपुरुषवत् / अथाभिन्नास्तर्हि तत्क्षये धर्मिणोऽप्यात्मनः क्षयः, तदभिन्नत्वात्, तत्स्वरूपवत्, इति कुतस्तेषां वीतरागत्वम्? तस्यैवाऽभावादिति / अत्रोच्यते-इह यद्यपि रागाऽऽदयो दोषा अनादिमन्तः, तथापि कस्यचित स्त्रीशरीराऽऽदिषु यथाऽवस्थितवस्तुतत्त्वावगमेन तेषां रागाऽऽदीनां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृश्यते, ततः संभाव्यते-- विशिष्टकालाऽऽदिसामग्रीसद्भावे भावनाप्रकर्षविशेषभावतो निर्मूलमपि क्षयः / अथ यद्यपि प्रतिपक्षभावनात : प्रतिक्षणमपचयो दृष्टस्तथाऽपि तेषामात्यन्तिकोऽपि क्षयः संभवतीति कथमसेयम्? उच्यते-अन्यत्र तथा प्रतिबन्धग्रहणात् / तथाहि- शीतस्पर्शसंपाद्या रोमहर्षाऽऽदयः, ते च शीतप्रतिपक्षस्य वहेमन्दतायां मन्दा उपलब्धाः,उत्कर्षे च निरन्वयविनाशधर्माणः / ततोऽन्यत्रापि बाधकस्य मन्दतायां बाध्यस्य मन्दतादर्शनाद बाधकोत्कर्षेऽवश्यं बाध्यस्य निरन्वयो विनाशो वेदितव्यः, अन्यथा बाधकामन्दतायां मन्दताऽपि न स्यात् / अथाऽस्ति ज्ञानस्य ज्ञानाऽऽवरणीय कर्म बाधक, ज्ञानाऽऽवरणीयकर्ममन्दतायां च ज्ञान-स्यापि मानगमन्दता / अथ च प्रबलज्ञानाऽऽवरणीयकर्मोदयोत्कर्षेऽपि ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशः / एवं प्रतिपक्षभावनोत्कर्षेऽपि न रागाऽस-दीनामत्यन्तोच्छेदो भविष्यतीति / तदयुक्तम् / द्विविधे हि बाध्यम् संहभूतस्वाभावमभूतम्, सहकारिसंपाद्य स्वभावभूतं च। तत्र यत् सहभूत्स्वभावभूतं, तन्न कदाचिदपि निरन्वयविनाशमाविशति, ज्ञानं चाऽऽत्मनः सहभूतस्वभावभूतम्, आत्मा च परिणामी नित्यः, ततोऽत्यन्तप्रकर्षवत्यपि ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मोदये न निरन्वयविनाशो ज्ञानस्य रागाऽऽदयस्तु लोभाऽऽदिकर्मविपाकोदयसंपादितसत्ताकाः, ततः कर्मणो निर्मूलमपगमे तेऽपि निर्मूलमपगच्छन्ति / नन्वा सता कर्मसंपाद्या रागाऽऽदयः, तथापि कर्मनिवृत्तौ ते निवर्तन्ते इति नावश्यं नियमः। न हि दहननिवृत्तौ तत्कृता काटेऽङ्गारता निवर्तते। तदसत्। यत इह किशित्वचित् निवर्त्य-विकार
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________________ घण्टापथः। मापादयति, यथाऽग्निः सुवर्णे द्रक्ताम् / तथाहि-अग्निनिवृत्ती हेतुरुपलभ्यते, तस्मात्तदप्यन्यथाभवनं कर्महेतुकमेष्टव्यम्। तथा च सति तत्कृता सुवर्णे द्रवता निवर्तते / किञ्चित् पुनः क्वचित् अनिवw- कर्मवैकमभ्युपगम्यतां, किमन्तर्गडुना तद्धेतुतया कफाऽऽदिपरिणतिविकाराऽऽरम्भकम्। यथा-स एवाऽग्निः काष्ठे, न खलु श्यामतामात्रमपि विशेषाभ्युपगमेन? किश-अभ्यासजनितप्रसराः प्रायो रागाऽऽदयः / काष्ठे दहनकृतं तन्निवृत्तौ निवर्तते / कर्म चाऽऽत्मनि निवर्त्यविकाराऽऽ- तथाहि-यथा यथा रागाऽऽदयः सेव्यन्तेतथा तथाऽभिवृद्धिरेव तेषामुपरम्भकम् / यदि पुनरनिवर्त्यविकाराऽऽरम्भकं भवेत्तर्हि यदपि तदपि कर्मणा जायते, न प्रहाणिः। तेन समानेऽपि कफाऽऽदिपरिणति विशेष कृतं न कर्मनिवृत्तौ निवर्तेत, यथाऽग्निना श्यामतामात्रमपि काष्ठे तदवस्थेऽपि च देहे यस्येह जन्मनि परस्त्र वा यस्मिन् दोषेऽभ्यासः स तस्य कृतमग्निनिवृत्तौ / ततश्च यदेकदा कर्मणाऽऽपादितं मनुष्यत्वममरत्वं प्राचुर्येण प्रवर्तते, शेषस्तु मन्दतया, ततोऽभ्यास-संपाद्यकर्मोपचयहेतुका कृमिकीटत्वमज्ञत्वं शिरोवेदनाऽऽदि, तत्सर्वकालं तथैवावतिष्ठत, न चैतद् एव रागाऽऽदयो, न कफाऽऽदिहेतुका इति प्रतिपत्तव्यम् / अन्यच्च-यदि दृश्यते, तस्मान्निवर्त्यविकाराऽऽरम्भकं कर्म, ततः कर्मनिवृत्तौ रागाऽऽदी- कफहेतुको रागः स्यात्, ततः कफवृद्धौ रागवृद्धिः स्यात्, पित्तप्रकर्षे नामपि निवृत्तिः। अत्राऽऽहुर्बार्हस्पत्या:-"नैते रागाऽऽदयो लोभाऽऽदि- तापप्रकर्षवत्, न च भवति; तदुत्कर्षात्थपीडावाधिततया द्वेषस्यैव कर्मविपाकोदयनिबन्धनाः, किन्तु कफाऽऽदिप्रकृतिहेतुकाः।" तथाहि- दर्शनात् / अथ पक्षान्तरं गृह्णीथाः- यदुत न कफहेतुको रागः, किन्तु कफहेतुको रागः, पित्तहेतुको द्वेषः, बातहेतुकश्च मोहः / कफाऽऽदयश्च कफाऽऽदिदोषसाम्यहेतुकः। तथाहि-कफाऽऽदिदोषसाम्ये विरुद्धव्यासदैव सन्निहिताः, शरीरस्य तदात्मकत्वात्, ततो न वीतरागत्वसंभवः। ध्यभावतो रागोद्भवो दृश्यत इति / तदपि न समीचीनम् / व्यभिचारतदयुक्तम् / रागाऽऽदीनां कफाऽऽदिहेतुकत्वाऽऽद्ययोगात् / तथाहि-स दर्शनात् न हि यावत् कफाऽऽदिदोषसाम्यं तावत् सर्वदैव रागोद्भवोsतद्धेतुको, यो यं न व्यभिचरति, यथा धूमोऽग्निम्। अन्यथा प्रतिनियत- नुभूयते, द्वेषाऽद्युद्भवस्यानुभवात्। न च यद्भावेऽपियन्न भवति तत्तद्धेतुकं कार्यकारणभावव्यवस्थाऽनुपपत्तिः / न च रागाऽऽदयः कफाऽऽदीन् न सचेतसा वक्तुं शक्यम्। अपि च एवमभ्युपगमे ये विषमदोषास्ते रागिणो व्यभिचरन्ति, व्यभिचारदर्शनात्। तथाहि-वातप्रकृतेरपिदृश्येते रागद्वेषौ, न प्राप्नुवन्ति, अथ च तेऽपि रागिणो दृश्यन्ते, स्यादेतत्, अलं वैस्तकफप्रकृतेरपि द्वेषमोहौ, पित्तप्रकृतेरपि मोहरागौ, ततः कथं रागाऽऽदयः र्यात् / तत्त्वं निर्वच्मिशुक्रोपचयहेतुको रागो नान्यहेतुक इति / तदपि न कफाऽऽदिहेतुकाः? अथ मन्येथाः-एकैकाऽपि प्रकृतिः सर्वेषामपि दोषाणां युक्तम् / एवं ह्यत्यन्तस्त्रीसेवापरतया शुक्रक्षयतः क्षरत्क्षतजानां रागितान पृथग् पृथग्जनिका, तेनायमदोष इति। तदयुक्तम्। एवं सति सर्वेषामपि स्यात्। अथ वा-एतेऽपि तस्यामवस्थायां निकामं रागिणो दृश्यन्ते। किं जन्तूनां समरागाऽऽदिदोषप्रसक्तेः, अवश्यं हि प्राणिनामेकतमया प्रकृत्या च-यदि शुक्रस्य रागहेतुता, तर्हि तस्य सर्वस्त्रीषु साधारणत्वात् कयाचिद् भवितव्यम् / सा चाविशेषेण रागाऽऽदिदोषाणामुत्पादिकेति नैकस्त्रीनियतो रागः कस्यापि भवेत्, दृश्यते च कस्याप्येकस्त्रीनियतो सर्वेषामपि समानरागाऽऽदिताप्रसक्तिः। अथास्ति प्रतिप्राणि पृथक् पृथग- रागः। अथोच्यते-रूपातिशयलुब्ध स्तस्यामेव रूपवत्यामभिरज्यते, न वान्तरः कफाऽऽदीनां परिणतिविशेषः, तेन न सर्वेषां समरागाऽऽदिता- योषिदन्तरे। उक्तं च- "रूपा-तिशयपाशेन, विवशीकृतमानसाः / स्वां प्रसङ्गः। तदपि न साधीयः। विकल्पयुगलानतिक्रमात् / तथाहि- योषितं परित्यज्य, रमन्ते योषिदन्तरे।।१।।'' इति तदपि न मनोरमम् / सोऽप्यवान्तरः कफाऽऽदीनां परिणतिविशेषः सर्वेषामपि रागाऽऽदीना- रूपरहितायामपि क्वापि रागदर्शनात्। अथ तत्रोपचारविशेषः समीचीनो मुत्पादकः, आहोस्विदेकतमस्यैव कस्यचित्? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तर्हि भविष्यति, तेन तत्राभिरज्यते। उपचारोऽपि च रागहेतुर्न रूपमेव केवलम्, यावत् स परिणतिविशेषः तावदेककालं सर्वेषामपि रागाऽऽदीनामुत्पाद- तेनायमदोष इति / तदपि व्यभिचारि / द्वयेनापि विमुक्तायां क्वचिद् प्रसङ्गः। न चैकका-लमुत्पाद्यमाना रागाऽऽदयः संवेद्यन्ते, क्रमेण तेषां रागदर्शनात्। तस्मादभ्यासजनितोपवयपरिपाकं कर्मव विचित्रस्वभाववेदनात् / न खलु रागाध्यवसायकाले द्वेषाध्यवसायो, मोहाध्यवसायो तया तदा तदा तत्तत्कारणापेक्षं तत्र तत्र रागाऽदिहेतुरिति कर्महतुका वा संवेद्यते। अथ द्वितीयः पक्ष:- तत्रापि यावत् स कफाऽऽदिपरिण- रागाऽऽदयः। एतेन यदपि कश्चिदाह- पृथिव्यादिभूतानां धर्मा एते तिविशेषस्तावदेक एव कश्चिद्रागाऽऽदिदोषः प्राप्नोति। अथ च तदवस्था रागाऽऽदयः। तथाहि-पृथिव्यम्बुभूयस्त्वे रागः, तेजोवायुभूयस्त्वे द्वेषः, एव कफाऽऽदिपरिणतिविशेषे सर्वेऽपि दोषाः क्रमेण परावृत्त्योपजाय- जलवायुभूयस्त्वे मोह इति / तदपि निराकृतमवसेयम्, व्यभिचारात् / माना उपलभ्यन्ते / अथादृश्यमान एव केवलकार्यविशेषदर्शनो- तथाहि-यस्यामेवावस्थायां द्वेषो मोहोऽपि तस्यामेव दृश्यते, ततएतदपि त्रीयमानसत्ताकस्तदा तदा तत्तद्रागाऽऽदिदोषहेतुः कफाऽऽदिपरि- यत्किश्चित् / तस्मात् कर्महेतुका रागाऽऽदयः / ततः कर्मनिवृत्ती णतिविशेषो जायते, तेन न पूर्वोक्तदोषावकाशः। ननु यदि स परिणति- | निवर्तन्ते / प्रयोगश्चात्रये सहकारिसंपाद्या यदुपधानादपकर्षिणस्ते विशेषः सर्वथाऽननुभूयमानस्वरूपोऽपि परिकल्प्यते, तर्हि कर्मैव किं तदत्यन्तवृद्धौ निरन्वयविनाशधर्माणी, यथा रोमहर्षाऽऽदयो वह्निवृद्धौ, नाभ्युपगम्यते? एवे हि लोकशास्त्रमार्गोऽप्याराधितो भवति / अपि च- भावनोपधानादपकर्षिणश्च सहकारिकर्मसंपाद्या रागाऽऽदय इति। यदपि स कफाऽऽदिपरिणतिविशेषः कुतस्तदा तदाऽन्यान्यरूपेणोपजायते, प्रागुपन्यस्तं प्रमाणम्-यदनादिमद् न तद्विनाशमाविशति, इति वक्तव्यम्। देहादिति चेत्, ननु तदवस्थेऽपि देहे भवद्भिः कार्यविशेष- यथाऽऽकाशम् / तदप्यप्रमाणम् / हेतोरनैकान्तिकत्वात्-प्रागभावेन दर्शनतस्तस्यान्यथाभवनमिष्यते, तत्कथं तद्देहनिमित्तम् ? नहि व्यभिचारात् / तथाहि-प्रागभावोऽनादिमानपि विनाशमाविशति, यदविशेषेऽपि यद्विक्रियते स विकारस्त तुक इति वक्तुं शक्यम्। नाप्यन्यो ___ अन्यथा कार्यानुत्पत्तेः / भावनाऽधिकारी च सम्यग्दर्शनाऽऽदिरत्नत्रय
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________________ घण्टापथः। (16) संपत्समन्वितो वेदतिव्यः, इतरस्य तदनुरूपानुष्ठानप्रवृत्त्यभावेन तस्य मिथ्यारूपत्वात्। आह च-"नाणी तवम्मि निरओ, चारित्ती भावणाइजोगे' त्ति। सा च रागाऽऽदिदोषनिदानस्वरूपविषयफलगोचरा यथाऽऽगममेवमवसेया'ज कुच्छियाणुओगो, पयइविसुद्धस्स होइ जीवस्स। एएसि भो नियाणं, बुहाण न य सुंदरं एयं // 1 // रुवं पि सकिलेसो-ऽभिस्संगा पीइमाइ लिंगो उ। परमसुहपचणीओ, एअंपि असोहणं चेव।।२।। विसओ यभंगुरो खलु, गुणरहिओ तह तहारुवो। संपत्तिनिप्फलो केवलं तु मूल अनत्थाणं / / 3 / / जम्मजरामरणाई, विचित्तरूवो फलं तु संसारो। बहुजणनिव्वेयकरो, एसो वि तहाविहो चेव // 5 // " इति। अपि च-सूत्रानुसारेण ज्ञानाऽऽदिषु यो नैरन्तर्येणाभ्यासस्तद्रूपाऽपि भावना वेदितव्या, तस्या अपि रागाऽऽदिप्रतिपक्षत्वात्। न हि तत्त्ववृत्त्या सम्यग्ज्ञानाऽऽद्यभ्यासे व्यापृतमनस्कस्य स्वीशरीररामणीयकाऽऽदिविषये चेतः प्रवृत्तिमातनोति, तथाऽनुपलम्भात्। एतेन सिद्ध रागाऽऽदिविरहवत्त्वं तीर्थकृता भगवताम्। अत एव रागद्वेषाऽऽदिशत्रून् जयन्त्यभिभवन्तीति तीर्थकृत् पर्यायस्य जिनशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं च भावयन्ति भावुकाः। सिद्धे च तस्मिन् रागाऽऽद्यभावेऽनृतभाषणकारणाभावात् समुपादेयवचनताऽनिर्वचनीयतामावहत्येव जिनवरस्य। उक्तं च-''रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। यस्यतु नैते दोषास्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात्? / / 1 / / ' किश-"अणुवकयपरागुग्गहपरायणा ज जिणा जगप्पवरा। जियरागदोसमोहा, य नऽण्णहावाइणो तेणं // 50 // " इति सिद्ध पराभिसंधानविमुखत्वेन जिनवचनस्य विविश्वस्तसूत्रितत्वम् / अस्तुतावत् तीर्थकृतां जितरागद्वेषत्वं तथाऽपि मिथ्यादर्शनसमूहमयत्वाद् जिनवचनस्य कथं प्रामाण्यमङ्गीकरणीयम्? जिनवचनस्य मिथ्यात्विदर्शनसमूहरूपत्वं तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरोऽप्यभ्युपगच्छति। तथाहि-"भदं मिच्छादसणसमूहमइयरस अमयसारस्स। जिणवयणस्स भवगओ, सविग्गसुहाहिगम्मस्स // 66 // ' (सम्म०३ काण्ड) ततश्चयन्मिथ्यादर्शनसमूहमयं तत्कथं सम्यग्रपतामासादयति? न हि विषकणिकासमूहमयस्यामृतरूपतापत्तिः प्रसिद्धा / अत्र प्रतिविधीयतेनैतद् युक्तम् / परस्पर-निरपेक्षसंग्रहाऽऽदिनयरूपाऽऽपन्नसा ख्याऽऽदिमिथ्यादर्शनानां परस्परसव्यपेक्षतासमासादितानेकान्तरूपाणां विषकणिकासमूहविशेषमयस्यामृतसंदोहस्येव सम्यक्त्वाऽऽपत्तेः / दृश्यन्ते हि विषाऽऽदयोऽपि भावाः परस्परसंयोगविशेषमवाप्ताः समासादितपरिणत्यन्तरा अगदरूपतामात्मसात्कुर्वाणाः, मध्वाज्यग्रभृतयस्तु विशिष्ट संयोगावाप्तद्रव्यान्तरस्वभावा मृतिप्राप्तिनिमित्तविषरूपतामासादयन्तः / न चाध्यक्षप्रसिद्धार्थस्य पर्यनुयोगविषयता, अन्यथाऽग्न्यादेरपि दाह्मदहनशक्त्यादिपर्यनुयोगाऽऽपत्तेः / अत एव निरपेक्षा नैगमाऽऽदयो दुर्णयाः, सापेक्षास्तु सुनया उच्यन्ते / अभिहितार्थसंवादि चेदं वादिवृषभस्तुतिकृत्सिद्धसेनाऽऽचार्यवचनम्-'नयास्तव स्यात्पदलाच्छना इमे, रसोपविष्टा इव लोहधातवः। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः।।१।।" इति / अथवा साड् ख्याऽऽदेरेकान्तवादिदर्शनसमूहमयस्य चूर्णनस्वभावस्य, मिथ्यादृष्टिपुरुषसमूहविघटनसमर्थस्य वा / यद्वा-मिथ्यादर्शनसमूहा नैगमाऽऽदयः, एकै क नैगमाऽऽदेनयस्य शतविधत्वात् “एकको वि सयविहो।" | इत्याद्यागमप्रामाण्यात् अवयवा यस्य तन्मिथ्यादर्शनसमूहमयम, जिनवचनस्य नैगमाऽऽदयः सापेक्षाः सप्ताऽवयवाः, तेषामप्येकैकः शतधा व्यवस्थित इत्यभिप्रायः। समूहरूपसप्तनयोदाहरणापेक्षया च सप्तभङ्गीप्रदर्शनमागमज्ञो विदधति,सामान्यविशेषाऽऽत्मकत्वात् वस्तुतत्वस्य,सामान्यस्यैकत्वात, तद्विवक्षायां यदेव घटाऽऽदिद्रव्यं स्यादेकमिति प्रथमभङ्गीविषयः, तदेव देशकालप्रयोजनभेदाद् नानात्वं प्रतिपद्यमान तद्विवक्षया स्यादनेकमिति द्वितीयभङ्गविषयः, तदेवोभयाऽऽत्मकमेकदैकशब्देन यदाऽभिधातुं न शक्यते तदा स्यादवक्तव्यमिति तृतीयभङ्गविषयः, यदेवावकाशदातत्वेनासाधारणेनैकमाकाश. तदेवावगाह्यावगाहकावगाहनक्रियाभेदादनेकं भवति, तद्रूपैर्विना तस्या वस्तुत्वाऽऽपत्तेः, प्रदेशभेदापेक्षयाऽपि च तदनेकम्। अन्यथा हिमवद् विन्ध्ययोरप्येकदेशताप्राप्तेः। तस्य च तथाविवक्षायां स्यादेकं चानेकं चेति चतुर्भङ्गविषयता। यदेकमाकाशं भवतः प्रसिद्धं तदेकस्मिन्नवयवे विवक्षिते एकमबयवस्यावयवान्तराद् भिन्नभिन्नानां वाचकस्य शब्दस्याऽभावादवक्तव्य चेति, तथा विवक्षायां स्यादेकमवक्तव्यं चेति पक्षमभङ्ग विषयः। तद् यदेवैकमाकाशं प्रसिद्धं भवतः, तदवगाह्याऽवगाहनक्रियाभेदादनेकम् एकाऽनेकत्वप्रतिपादकशब्दाभावादवक्तव्यं चेति षष्ठभङ्गविषयः। यदेवैकमाकाशाऽऽत्मकतयाऽऽकाशं भवतः प्रसिद्धं, तदेव तथैकमवगाह्यावगाहनक्रियाऽपेक्षयाऽने कं, युगपत्प्रतिपादनापेक्षयाऽवक्तव्यं चेति स्यादेकमनेकमवक्तव्यं चेति सप्तमभङ्ग विषयः / एवं स्यात् सर्वगतः स्यादसर्वगतो घटाऽऽदिरित्यादिकाऽपि सप्तभङ्गीवलव्या एन मिथ्यादशनसमूहमयत्वेऽपि जिनवचनस्य, विषकणिकासमूहविशेषमयस्यामृतसारवदुपादेयत्वमविरुद्धम् / विशेषविस्तरस्तु 'जिणवयण' शब्द 1503 पृष्ठादारभ्य 1505 पृष्ठपर्यन्तं विपश्चिद्भिरवलोकनीयः। ततः स्थितमेतत्"जिणवयणकप्परुक्खो,अणेगसुत्तत्थसालवित्थिन्नो। तवनियमकुसुमगुच्छो, सुग्गइफलबंधणो जयइ। 1 // सव्वे विय सिद्धता, सदव्वरयणामया सतेल्लोक्का। जिणवयणस्स भगवओ, न तुल्लमिय तं अणग्घेय // 2 // " "जयति जगदेकमङ्गल-मपहतनिःशेषदुरितघनतिमिरम्। रविबिम्बमिव यथास्थित-वस्तुविकाशं जिनेशवयः॥१॥" 'नर-नरग तिरिय सुरगण-संसारियसव्वदुक्खरोगाणं। जिणवयणमेगमोसह--मपवग्गसुहक्खयं फलयं / / 1 / / जिणवयणमोयगस्स य, रत्तिं व दिवा य खजभाणस्स। तित्तिं बुहो न गच्छइ, हेउसहस्सोवगूढस्स॥२॥ जीवाइवत्थुचिंतण-कोसल्लगुणेणऽनन्नसरिसेण। सेसवयणहिँ अजियं, जिणिंदवयणं महातिसयं / 3 // " "जन्मजरामरणभयै-रभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते जिनवरवचनादन्य-त्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके / / 1 / / " तस्मात्। जिनवचनरुचिनाऽविप्रतिपन्नेन भव्येन भाव्यम्। यतः"सवणकरणेसु इच्छा, होइ राई सद्दहाणसंजुत्ता। एईइ विणा कत्तो, सुद्धी सम्मत्तरयणस्स // 1 // " ततः"जिणवयणे अनुरत्ता, जिणवयणं जे करिति भावेण /
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________________ (17) घण्टापथः। अमला असकिलिट्ठा, ते हुंति परित्तसंसारी / / 1 / / " अथवा किंबहुना"कूरा वि सहावेणं, विसयविसवसानुगा वि होऊण। भावियजिणवयणमणा, तेल्लोक्कसुहावहा होति / / 1 / / " यतः"सुस्सूस धम्मराओ, गुरुदेवाणं जहासमाहीए। वेयावचे नियमो, सम्मद्दिहिस्स लिंगाई॥१॥" "एतेन तृतीयभागप्रस्तावोपन्यस्तपराभिसंधानविमुखत्वं भगवतस्तीर्थकरस्य रागद्वेषजेतृत्वेन सर्वतोभावेन समर्थितम् / किञ्चसमवसरणाऽऽदिसमये देशनाऽपरपर्यायेण जिनवचनेन योऽर्थः समर्थितस्तत्र विप्रतिपन्नस्य जमालेरिव दुर्गतिगमनमवश्यमेव संपद्यते। तथाहि तृतीयभागप्रस्तावे- “से नूणं भंते ! चलमाणे चलिए'' इत्यादि भगवत्प्ररूपितार्थवाचकं प्रश्रोत्तररूपं सूत्रमुपन्यस्तम्। तत्र विप्रतिपन्नस्य जमालेश्वरितमित्थम्-इहैव भरतक्षेत्रे कुण्डपुरं नामं नगरम्, तत्र भगवतः श्रीमन्महावीरस्य भागिनेयो जमालि म राजपुत्र आसीत्, तस्य च भार्या श्रीमन्महावीरस्य दुहिता सुदर्शना, अथकदाचित्पञ्चशतपुरुषपरिवारो जमालिभगवतो महावीरस्याग्रे प्रव्रज्यां जग्राह, सुदर्शनाऽपि सहस्रस्त्रीपरिवारा तदनु प्रव्रजिता। ततश्चैकादशस्वङ्गेष्वधीतेषु जमालिना भगवान् विहारार्थमुत्कलापितः, ततो भगवता तूष्णीमास्थाय न किश्चित् प्रत्युत्तरमदायि, तत एवममुत्कलितोऽपि पञ्चशतसाधुपरिवृतो निर्गतः श्रीमन्महा-वीरान्तिकात्, ग्रामानुग्रामंच पर्यटन गतः श्रावस्तीनगर्याम्, तत्र च तैन्दुकाभिधानोद्याने कोष्ठकनाम्नि चैत्ये स्थितः, ततश्च तत्र तस्यान्तप्रान्ताऽऽहारैस्तीव्रो रोगाऽऽतङ्कः समुत्पन्नः, तेन च न शक्नोत्युपविष्टः स्थातुम, ततो वभाण श्रमणान्-मन्निमित्तं शीघ्रमेव संस्तारकमास्तृणीत,येन तत्र तिष्ठामि, ततस्तैः कर्तुमारब्धोऽसौ / वाढ च दाहज्वराभिभूतेन जमालिना पृष्टम्-संस्तृतः संस्तारको, न वेति? साधुभिश्च संस्तृतप्रायत्वादर्धसंस्तृतेऽपि प्रोक्तम्-संस्तृत इति। ततोऽसौ वेदनावित लितचेता उत्थाय तत्र तिष्ठासुरर्द्धसंस्तृतं तद् दृष्ट्वा क्रुद्धः'क्रियमाणं कृतम्।' इत्यादिसिद्धान्तवचनं स्मृत्वा मिथ्यात्वमोहनीयोदयतो वक्ष्यमाणयुक्तिभिर्वितथमिति चिन्तयामास / ततः स्थविरैर्वक्ष्यमाणाभिरेव युक्तिभिः प्रतिबोधितो यदा कथमपि न प्रतिबुद्ध्यते, तदा गतास्तं परित्यज्य भगवत्समीपे, अन्ये तु तत्समीपमेव स्थिताः / सुदर्शनाऽपितदा तत्रैव श्रावकढङ्ककुम्भकारगृहे आसीत्। जमाल्यनुरागेण च तन्मतमेव प्रपन्ना, ढङ्कमपि तद् ग्राहयितुं प्रवृत्ता / ततो ढङ्केन मिथ्यात्वभुपगतेयमिति ज्ञात्वा प्रोक्तम् नेदृशं वयं किमपि जानीमः, अन्यदा च पाकाग्निमध्ये मृद्भाजनोद्वर्तनपरावर्तने कुर्वताऽङ्गारकमेकं प्रक्षिप्य तत्रैव प्रदेशे स्वाध्यायं कुर्वत्याः सुदर्शनायाः संघाट्यश्चलो दग्धः। तत-स्तया प्रोक्तम्-श्रावक ! किं त्वया मदीयसंघाटी दग्धा? तेनोक्तम्-- ननु 'दह्यमानमदग्धं, भवति, इति भवत्याः सिद्धान्तः, ततः क्व केन त्वदीया सङ्घाटी दग्धा? इत्यादि तदुक्तं परिभाव्य संबुद्धाऽसौ सम्यप्रेरिताऽस्मीस्यभिधाय मिथ्यादुष्कृतं ददाति, जमालिं च गत्वा प्रज्ञापयति / यदा चासौ कथमपि न प्रज्ञाप्यते, तदाऽसौ सपरिवारा, | शेषसाधवश्वकाकिनं जमालिं मुक्त्वा भगवत्समीपं जग्मुः, जमालिस्तु बहुजनं व्युद्ग्राह्य अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालमासे काल कृत्वा किल्विषिकदेवेषूत्पन्नः। एतच्च चरितं विस्तरतः प्रज्ञापनासूत्रादवसेयम्। अथ जमालेर्विप्रतिपत्तिरुद्भाव्यतेसर्वमपि वस्तु क्रियमाणं कृतं न भवति, किन्तु कृतमेव कृतमुच्यते, ततो भगवत्यादौ यदुक्तम्- "चलमाणे चलिए, उदीरिजमाणे उदीरिए, वेइज्जमाणे वेइए।" इत्यादि, तत्सर्वं मिथ्या। किञ्चयस्य क्रियमाणं वस्तु कृतमित्यभ्युपगमः, तेनेह विद्यमानस्य करणरूपाः क्रिया अङ्गीकृताः, तथा च सति बहूनां दोषाणां प्रतिपत्तिर्मवति। तथाहि-इह क्रियमाणं कृतं न भवतीति प्रतिज्ञा कृतस्य विद्यमानत्वादिति हेतुः, चिरन्तनघटवदिति दृष्टान्तः / अथ कृतमपि क्रियत इत्यभ्युपगम्यते, तर्हि नित्यमनवरतमेव क्रियताम्, कृतकत्वाविशेषात्, एवं च सति न कदाचिदपि कार्यक्रियापरिसमाप्तिरिति। यदिच क्रियमाणं कृतमिष्यते, तर्हि घटाऽऽदिकार्यार्थ या मृन्मर्दनचक्रभ्रमणाऽऽदिका क्रिया, तस्या वैफल्य प्राप्नोति, तत्काले कार्यस्य कृतत्वाभ्युपगमात् / तथा च प्रयोगः-इह यत्कृतं, तक्रिया विफलैव, यथा चिरनिष्पन्नघटे कृतं चाभ्युपगम्यते क्रियाकाले कार्य , ततो विफला तत्र क्रियेति / किञ्च क्रियमाणकृतवादिना कृतस्य (विद्यमानस्य) क्रियेति प्रतिपादितं भवति, एवं च प्रत्यक्षविरोधः, यस्मादुत्पत्तिकालात् पूर्वमविद्यमानमेव कार्ये जायमानं दृश्यते, उत्पत्तिकाले तस्मात् क्रियमाणमकृतमेवेति। किञ्च आरम्भक्रियासमय एव कार्यमुत्पद्यते इति तवाभ्यु-पगमः। एतचायुक्तम्। यस्माद्घटाऽऽदिकार्याणामुत्पद्यमानानां दीर्घ एव निर्वर्तनक्रियाकालो दृश्यत इति / ननु दृश्यतां नाम दीर्घः क्रियाकालः, परं घटाऽऽदिकार्यमारम्भक्रियासमय एव, शिवकाऽऽदिकाले वा द्रक्ष्यत इति चेत्, तदयुक्तम्। यतो नाऽऽरम्भक्रियासमय एव घटाऽऽदिकार्य भवद् दृश्यते, नाऽपि शिवकस्थासकोशकुशूलाऽऽदिसमयेष्वपि दृश्यते, किन्तु दीर्घक्रियाकालस्यान्ते घटाऽऽदिकार्य भवद् दृश्यत, तस्मान्न क्रियाकाले कार्य युक्तं, तस्य तदानीमदर्शनात्। दीर्घक्रियाकालस्यान्ते तु युक्त कार्यम्, तदानीमेव तस्य दर्शनादिति सकलजनस्य प्रत्यक्षसिद्धमेवेदम्। तदा जमालेरेवमाचक्षाणस्य अप्येके निर्ग्रन्था एनमर्थ श्रद्दधति, अप्येके न श्रद्दधति, तत्र ये न श्रद्दधति, ते एवमाहुः-भगवन् ! भवतोऽयमाशयः- "यथा घटः पटो नैव, पटो वान घटो यथा। क्रियमाणं कृतं नैव, कृतं न क्रियमाणकम्॥१॥" प्रयोगश्चयौ निश्चितभेदौ, न तयोरैक्यम्, यथा घटपटयोः, निश्चितभेदे च कृतक्रियमाणके। अत्र चाऽसिद्धो हेतुः। तथाहि-कृतक्रियमाणे किमेकान्तेन निश्चितभेदे, अथकथञ्चित्? यद्येकान्तेन, तत्किं तदैक्ये रातोऽपि करण-प्रसङ्गतः उत क्रियाऽनुपरमप्राप्तेः, आहोस्वित् प्रथमाऽऽदिसमयेष्वपि कार्योपलम्भप्रसक्तेः, अथ क्रियावैफल्याऽऽपत्तितो दीर्घक्रियाकालदर्शनानुपपत्तेर्वा? तत्र न तावत् सतोऽपि करणप्रसङ्गत इति युक्तम्। असत्करणे हि खपुष्पाऽऽदेरेव करणमापद्यत इति कथञ्चित् सत एव करणमस्माभिरभ्युपगतम्, न चाभ्युपगतार्थस्य प्रसञ्जनं प्रयुज्यते।। नाऽपि क्रियाऽनुपरमप्राप्तेः, यत इह क्रिया किमेकविषया, भिन्नविषया वा? यधेकविषया, न दोषः। तथाहि-यदि कृतं क्रियमाणमुच्यते तदा तन्मतेन निष्पन्नमेव कृतमिति, तस्यापि क्रियमाणतायां क्रियाऽनुपरमप्राप्तिलक्ष
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________________ घण्टापथः। (18) णो दोषः स्यात् / न तु क्रियमाणं कृतमिति, तथोक्तौ च तत्र क्रियावेशसमय एव कृतत्वाभिधानात् / उक्त हि-क्रियाकालनिष्ठाकालयोरैक्यमिति / अथैवमपि कृतक्रियमाणयोरैक्ये कृतस्य सत्त्वात् / सतोऽपि करणे तदवस्थप्रसङ्गः स्यात्, नतु क्रियासमकालसत्ताऽवाप्तौ / अथ भिन्नविषया क्रिया, तदा सिद्धसाधनम् / प्रतिसमयमन्यान्य- / कारणतया वस्तुनोऽभ्युपगमनेन भिन्नविषयक्रियाऽनुपरमस्यास्माकं सिद्धत्वात् / अथ प्रथमाऽऽदिसमयेष्वपि कार्योपलम्भप्रसक्तेरिति पक्षे क्रियमाणस्य हि कृतत्वप्रथमाऽऽदिसमयेष्वपि सत्त्वादुपलम्भः प्रसज्यत इति। तदपिनातदा हि शिवकाऽऽदीनामेव क्रियमाणता, ते चोपलभ्यत एव / उक्तं च विशेषाऽऽवश्यके-"अन्नारंभे अन्नं, कह दीसउ जह घडो पडाऽऽरंभे / सिवगाऽऽदयोन कुंभो, किह दीसउ सो तदद्धाए? // 2316 / / " घटगताभिलाषतया च मूढः शिवकाऽऽदिकरणेऽपि घटमहं करोमीति मन्यते / तथा चाऽऽह-"पइसमयकजकोडी-निरवेक्खं घडगयाभिलासोऽसि / पइसमयकजकालं, थूलमई ! घडम्मि लाएसि // 2318||" नापि क्रियावैफल्याऽऽपत्तितः, यतः प्रागवाप्तसत्ताकस्य करणे क्रियावैफल्यं स्यात्, न तु क्रियमाणकृतत्वे, तत्रहि क्रियमाणं क्रियाऽपेक्षमिति तस्याः साफल्यमेव, अनेकान्तवादिनां च केनचिद्रूपेण प्राक् सत्त्वेऽपि रूपान्तरेण करणं न दोषाय / दीर्घक्रियाकालदर्शनानुपपत्तिरित्यपि न युक्तम् यतः शिवकाऽऽद्युत्तरोत्तरपरिमाणविशेषविषय एव दीर्घक्रियाकालोपलम्भो, न तु घटक्रियाविषयः। उक्तं हि- "पइसमयउप्पणाणं, परोप्परविलक्खणाणं सुबहूणं / दीहो किरियाकालो, जइ दीसइ किं च कुंभस्स / / 2315 // ' अथ कथञ्चिनिश्चितभेदे कृतक्रियमाणे, तत्तीर्थकृदुक्तमेव, निश्चयव्यवहारानुगतत्वात्तद्वचसः, तत्र च निश्वयनयाऽऽश्रयणेन कृतक्रियमाणयोरभेदः / यदुक्तम्-''क्रियमाणं कृतं दग्ध, दह्यमानं स्थितं गतम् / तिष्ठच गम्यमानं च, निष्ठितत्वात् प्रतिक्षणम् / / 1 / / " व्यवहारनयमते तु नानात्त्वमप्यनयोः, तथा च क्रियमाणं कृतमेव, कृतं तु क्रियमाणमेव स्यात्, क्रियमाणं क्रियावेशसमये, क्रियोपरमे पुनरक्रियमाणमिति / उक्तं च- "तेणेह कज्जमाणं, नियमेण कय कयं तु भयणिज्ज / किञ्चिदिह कज्जमाणं, उवरयकिरियं च होजाहि।।२३२०||" किञ्च भवतो मतिः-क्रियाऽन्त्यसमय एवाभिमतकार्यभवनं, तत्रापि प्रथमसमयादारभ्य कार्यस्य कियत्यपि निष्पत्तिरेष्टव्या, अन्यथा कथमकस्मादन्त्यसमये सा भवेत् ? उक्तंच"आद्यतन्तुप्रवेशे च, नोतं किञ्चिद्द्यदा पटे। अन्त्यतन्तुप्रवेशे च, नोतं स्यान्न पटोदयः।।१।। तस्माद् यदि द्वितीयाऽऽदि-तन्तुयोगात् प्रतिक्षणम्। किञ्चित् किञ्चिदुतं तस्य, यदुतं तदुतं हि तत्॥२॥" इह प्रयोगः-यद् यस्याः क्रियाया आद्यसमये न भवति, तत्तस्या अन्त्यसमयेऽपि न भावि, यथा घटक्रियाऽऽदिसमयेऽभवन्पटो, न भवति च कृतक्रियमाणयोर्भेद क्रियाऽऽदिसमये कार्यम, अन्यथा घटान्त्यसमयऽपि पटोत्पत्तिः स्यात्। एवं च-"यथा वृक्षोधवश्चेति, न विरुद्धं मिथो द्वयम्। क्रियमाणं कृतं चेति, न विरुद्धं तथोभयम्॥२॥" प्रयोगश्च-यद् येनाविनाभूतं, नतदेकान्तेन भिद्यते, यथा वृक्षत्वाधवत्वम्, कृतत्वाविनाभूतं च क्रियमाणत्वमिति, सकललोकप्रसिद्धत्वाच्च भेदस्य घटपट योस्तदाश्रयेणैवमुक्त संस्तारकाऽऽदावपि योज्यम् / तत्प्रतिपद्यस्व भगवन् / ''चलमाणे चलिए।" इत्यादि तीर्थकृतां चात्यन्तमवितत्थमिति। स चैवमुच्यमानोऽपि न प्रतिपन्नवान, किन्तु पूर्वोक्तयुक्तिभिः संबुद्धाः शेषसाधव एकाकिनं जमालिं मुक्त्वा गता जिनसमीपम्। जमाली तु (महावीरजिननिह्नवरूपः) कालमासे कालकृत्वा लान्तके कल्पे त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु किल्विषिकेषु देवेषु देवत्वेनोत्पन्नः, तस्य पञ्चदशभवाः सन्ति। तस्मान्न जिनवचनेषु कदाचनापि संशयितव्यमिति चतुरस्रम्। विस्तरतो दर्शनच्छुभिः 'जमालि' शब्दे 1401 पृष्ठादारभ्य 1413 पृष्ठपर्यन्तं विलोकनीयम् / जमालिभवप्रसङ्गानुप्रसङ्गाद् जिज्ञासोत्पद्यतेकेन प्रकारेण जन्म जीवानां जायते? अत्राऽऽहस्त्रीपुंसयोर्वेदोदये सति पूर्वकर्मनिवर्त्तितायां योनौ मैथुनप्रत्यायिको रताभिलाषोदयज-नितोऽग्निकारणयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगः समुत्पद्यते, तत्संयोगे च तच्छुक्रशोणिते समुपादाय तत्रोत्पित्सयो जन्तवस्तैजसकार्मणाभ्यां कर्मरज्जुसंदानितास्तत्रोत्पद्यन्ते / ते च प्रथममुभयोरपि स्नेहमाचिन्वन्त्यविध्वस्तायां योनौ सत्यामिति, विध्वस्यते तु योनिः- 'पञ्चपञ्चाशिका नारी सप्तसप्ततिः पुरुष इति।' तथा द्वादश मुहूर्तानि यावत् शुक्रशोणिते अविध्वस्तयोनिके मयतः, तत ऊर्ध्व ध्वंसमुपगच्छत इति। तत्र जीवा उभयोरपि स्नेहमाहार्य स्वकर्मविपाकेन यथास्वं स्त्रीपुनपुंसकभावेन समुत्पद्यन्ते, तदुत्तरं स्त्रीकुक्षी प्रक्षिप्ताः सन्तः स्त्रियाऽऽहारितस्याऽऽहारस्य निर्यासंस्नेहमाददति, तभेदेन च तेषां जन्तूनां कर्मोपचयाऽऽदानेन क्रमेण निष्पत्तिरुपजायते / "सत्ताहं कललं होइ, सत्ताह होइ बुब्युयं।'' इत्यादि। तदेवमनेन क्रमेण तदेकदेशेन वा मातुराहारमोजसा मिश्रेण वा लोमभिर्वाऽऽनुपूर्येणाऽऽहारयन्ति, यथाक्रममानुपूर्येण वृद्धिमुपगताः सन्तो गर्भपरिपाकमुपपन्नाः, ततो मातुः कायादभिनिवर्तमानाः पृथग्भवन्तः सन्तस्तद्योनेर्निर्गच्छन्ति, ते च तथावि-धकर्मोदयादात्मनः स्त्रीपुंनपुंसकभावं जनयन्ति / तथोक्तम्- "अज्ञानपांशुपिहितं, पुरातनं कर्मवीजमविनाशि / तृष्णाजलाभिषिक्तं, मुञ्चति जन्माकुरं जन्तोः।।१।" इति। जम्म' शब्दे विस्तरतो विवेचितमिति 1414 पृष्ठे विलोकनीयम् / पूर्वोक्तवचनानुरोधेन निर्धार्यतेऽयमों यत् सुकर्मदुष्कर्मवशादेव जन्तुरनीशो जन्मजरामरणाऽऽदिक्लेशाननुभूय पुनरपि गडरिकाप्रवाहन्यायेन तेष्वेव निपततीति / अत एव जिनवचनाऽविश्वासरूपदुष्कृतिपरिणामतो जमालेः किल्यिषिकदेवेषूत्पत्तिावर्णिता, भगवद्वचसि श्रद्धामादधती जयन्ती श्राविका तु सुगतिमुररीचकारेति निर्विवादम् / इत्थं च"समस्तवस्तुविस्तारे, व्यासर्पत् तैलवज्जले। जीयात् श्रीशासनं जैन, धीदीपोद्दीप्तिवर्धनम्॥१॥" तस्माद् जिनवचनश्रद्धायांयतनावता भव्येन भाव्यम्। उक्तं च सैद्धान्तिकैः"जयणेह धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव। तववुड्डिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा / / 1 / / जयणाएँ वट्टमाणो, जीवो सम्मत्तनाणचरणाणं / सद्धाबोहाऽऽसेवण-भावेणाऽऽराहगो भणिओ // 2 // " किश्च"यत्नं विना धर्मविधायपीह, प्रवर्तमानोऽसुमतां विघातम्। करोति यस्माच ततो विधेयो, धर्मात्मना सर्वपदेषु यत्नः / / 1 / / '' अथ (जमालिप्रसङ्गादेव) तृतीयभागस्थप्रस्तावस्य 2 पृष्ठे च
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________________ (16) घण्टापथः। त्वार्येव भूतानि तत्त्वम्, न तु तद्व्यतिरिक्तो भवान्तरानुसरणव्यसनवानात्मेति चार्वाकचर्चापराकरणं विधाय जीवसिद्धिरुपपादिता इह तु जीवाजीवाऽऽदिनवतत्त्वनिरूपणप्रवणे श्रीमदर्हच्छाशने तस्य जीवस्य कथञ्चिन्नित्यत्वं कथञ्चिदनित्यत्वं जमालिमभिमुखीकृत्य भगवानाह"सासए जीवे जमाली ! जण कयाइणासि० जाव णिचे / असासए जीवे जमाली ! जंणेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भवित्ता देवे भवइ।'' ननु कोऽसौ जीवो जीव इति भवद्भिरुघुष्यते, यस्य वा सिद्धिरुपपादिता? इत्यत्राऽऽह'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिवासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरिष्टाः, तेषां वियोगीकरणं च हिंसा // 1 // ' इत्यादिवचनप्रसिद्धान् दशविधप्राणान् जीवति कोऽर्थो धरतीति शब्दार्थवशादेव जीवन्नेव जीव उच्यते। तादृशः संसार्येव भवति, सिद्धस्तु जीवशब्देनन व्यपदिश्यते। तथा च नयोपदेशे-" सिद्धोनतन्मते जीवः, प्रोक्तः सत्त्वाइऽदिसंड्यति। महाभाष्ये च तत्त्वार्थभाष्ये धात्वर्थबाधतः॥४०॥" एवं च सिद्धासिद्धत्वेन सेन्द्रियानिन्द्रियत्वेन सकायिकाऽकायिकत्वेन संयोगायोगत्वेन सवेदकावेदकत्वेन सकषायाकषायत्वेन सलेश्याsलेश्यात्वेन ज्ञान्यज्ञानित्वेन साकारोपयुक्तानाकारोपयुक्तत्वेन आहारकानाहारकत्वेन भाषकाभाषकत्वेन चरमाचरमत्वेन जीवाना द्वैविध्यम्, त्रसस्थावरनोत्रसस्थावरत्वेन परीतापरीतनोपरीतापरीतत्वेन स्त्रीपुरुषनपुंसकत्वेन सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिसम्यमिथ्यादृष्टित्वेन पर्याप्तकापर्याप्तकनोपर्याप्तकापर्याप्तकत्वेन सूक्ष्मबादरनोसूक्ष्मबादरत्वेन संजयसंझिनोसंज्ञयसंज्ञित्वेन भवसिद्धिकाऽभवसिद्धिकनोभवसिद्धिकाभवसिद्धिकत्वेन जीवानां त्रैविध्यम्, नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवत्वेन मनोयोगिवचोयोगिकाययोग्ययोगित्वेन स्त्रीवेदकपुरुषवेदकनपुंसकवेदकावेदकत्वेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दशनावधिदर्शनकेवलदर्शनत्वेन संयतासंयतसंयतासंयतनोसंयतासंयतत्वेन जीवानां चातुर्विध्यम्, एकद्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियत्वेन नैरयिकतिर्यग्यो निकमनुष्यदेवसिद्धत्वेन, क्रोधमानमायालोभकषायित्वाकषायित्वेन जीवानां पञ्चविधत्वम्, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिकत्वेन, आभिनिबोधिकाऽऽदिपशविधज्ञानित्वेन अज्ञानित्वेन च, एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियत्वेन अनिन्द्रयत्वेन च, औदारिकवैक्रियकाऽऽहारकतैजसकार्मणशरीरत्वेन असरीरत्वेन च जीवानां षविधत्वम् नैरयिकतिर्यग्योनिकत्वेनतिर्यग्योनिकत्वेन च मनुष्यमानुषीदेवदेवीत्वेन, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिअराकायिकाकायिकत्वेन, कृष्णनीलकापोततेजः पद्मशुक्ललेश्याऽलेश्यात्वेन जीवानां सप्तविधत्वम्, प्रथमाप्रथमसमयनैरयिकत्वेन प्रथमाप्रथमसमयतिर्यग्योनिकत्वेन प्रथमाप्रथमसमयमनुष्यत्वेन प्रथमाप्रथमसमयदेवत्वेन; नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवसिद्धत्वेन तिर्यग्योनिकामानुपीदेवीत्वेन च जीवानामष्टविधत्वम्, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियत्वेन; अथवा-एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियनैरयिकपोन्द्रियतिर्यग्यो निकमनुष्यदेवसिद्धत्वेन, प्रथमाप्रथमसमयनैरयिक प्रथमसमयतिर्यग् योनिकप्रथमाप्रथमसमयमनुष्यप्रथमाप्रथमसमयदेवसिद्धत्वेन जीवानां नवविधत्वम्, प्रथमाप्रथमसमयैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियत्वेन, पृथिव्यप्रतेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियानिन्द्रियत्वेन, प्रथमाप्रथमस मयनैरयिकतिर्यग् योनिकमनुष्यदेवसिद्धत्वेन जीवानां दशविधत्वम् सूक्ष्मापर्याप्तकपर्याप्तकबादरापर्याप्तकपर्याप्तकद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञयसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकत्वेन जीवानां चतुर्दशविधत्वं च 'जीव' शब्दे 1525 पृष्ठे न्यक्षेण निरूपितमिति / किं नाम जीव इति प्रश्नस्य यद्यपि प्रकारद्वयेन लेशतो भावितमुत्तरं तथाऽपि विशेषबुबोधयिषया किञ्चिदिह प्रतायतेउपशमौदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकैर्भावः संमिश्र द्रव्यंजीवशब्देनोच्यते। आह-औदयिकान् भावान् परित्यज्य किमितीहौपशमिकस्य भावस्य साक्षादुपादानम्? उच्यतेइह जीवस्य स्वरूपं तदेव वक्तव्यं यदसाधारण स्वरूपम् / एवे हि पदार्थान्तरस्वरूपेभ्यो वैविक्त्येन तत् प्रतिपादितं भवति, नान्यथा, औदयिकपारिणामिकौ च भावावजीवानामपि भवतः, अतस्तौ साक्षान्नोपात्तौ, क्षायिकोऽपि च भाव औपशमिकभावपूर्वकः, न खल्वौपशमिकभावमनासाद्यकश्चिदपि क्षायिकं भावमासादयति, क्षायोपशमिकोऽपि च भावो नौपशमिका भावाद् अत्यन्तभेदी, तत इह साक्षादौपशमिकस्य भावस्योपादानमिति। ततः कस्य प्रभवः स्वामिनो जीवाः इति प्रश्नावसरे, आत्मीयस्य रूपस्योत्तरम् / तथाहि कर्मविनिर्मुक्तस्वरूपा आत्मानो न केषामपि प्रभवः, किन्तु स्वरूपस्यैव, तथास्वाभाव्यात्। यस्तु स्वस्वामिभावः संसारे, सकर्मोपाधिजनितत्वादौपाधिकः, न परमार्थिक इति। ननु केन निर्मिता जीवा इति प्रश्ने कृते सति समाधिः न केनचित् कृताः, किन्तु न भस्वद्वदकृत्रिमा एव,यथा चाकृत्रिमता जीवानां तथा धर्म संग्रहणीटीकार्या संप्रपञ्चं व्याख्याता, विशेष--जिज्ञासुभिस्ततएवावधार्या। ननु किंजीवाः शरीरे लोके वाऽवतिछन्ते? इति प्रश्ररयोत्तरम्-सामान्यचिन्तायां लोके, नालोके, आलोके स्वभावत एव धर्माधर्मास्तिकायजीवपुद्गलानामसंभवात्। विशेषचिन्तायां शरीरे, नान्यत्र, शरीरपरमाणुभिरेव सह आत्मप्रदेशानां क्षीरनीरवदन्योन्यानुगमभावात् / उक्तं च- "अन्नोन्नमणुगयाई, इमं च तं च त्ति विभयणमजुत्तं / जह खीरपाणियाई।" इति / सर्वकालमेव जीवा भवन्ति, अनादिनिधनाश्च जीवा इति मुक्त्यवस्थायामपि जीवा न विनश्यन्ति, किन्तु ज्ञानाऽऽदिके स्वस्वरूपेऽवतिष्ठन्ते इति श्रद्धेयम् / तेन यत् कैश्चिदुक्तम् -"दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम / दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चिद्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम्॥१|| जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिंगच्छति नान्तरिक्षम् / दिशं न काञ्चिद् विदिश न काञ्चिद्, स्नेहक्षयात् केवलमेति-शान्तिम् / / 2 / / अर्हन्मरणचित्तस्य, प्रतिसन्धिर्न विद्यते / प्रदीपस्येव निर्वाण, विमोक्षस्तस्य चेप्सितः // 3 // " इति / तदपास्तं द्रष्टव्यम्। सतः सर्वथा विनाशायोगात्, तथादर्शनादिति कृतं प्रसङ्गेन। विस्तरेच्छभिः 'जीव' शब्दो वीक्ष्यः। त्रिषष्ट्यधिकपञ्चशतभेदा जीवानां 'जीव' शब्दे 1536 पृष्ठेद्रष्टव्याः। जिनवचनस्य श्रद्धाऽऽस्पदत्वादेव'चंदो चंदो अभिवडिओ य चंदमभिवड्डिओ चेव / पंचसहियं जुगमिणं, दिटुं तेल्लोकदसीहिं।।१।। पढमविइयाउचंदा, तइयं अभिवड्डियं वियाणाहि। चंदे चेव चउत्थ, पंचममभिवड्डियं जाण / / 2 / / ' इति सुगवचनाऽऽदि 'जुग' शब्दे 1567 पृष्ठत आरभ्य 1573 पृष्ठपर्यन्त निरीक्षणीयम्। पूर्वोक्ताकारणादेव ज्योतिष्कानां पञ्चविधत्यनिरूपणानन्तरंचलत्वस्थिरत्वविचारः, सर्वलोके प्रतिद्वीपंप्रतिसमुद्रं चन्द्राऽऽदीनांपरिमाणप्रतिपादनार्थमन्यतीथिकानांद्वा
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________________ घण्टापथः। (20) दश प्रतिपत्तीः परिभाव्य भगवत्सिद्धान्तनिरूपणम् / जम्बूद्वीपगत- नारोप्याऽशुचिराशिषु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते / / 1 / / '' मनुष्यक्षेत्रस्य चन्द्रसूर्याऽऽदीनां संख्यानिर्देशः, चन्द्राऽऽदयो यत्र यथा यतोऽर्हद्वचनमेवास्माकं जीवातुभूतं ततस्तदनुज्ञातं नवकार' भ्रमन्ति तन्निरूपणमित्यादि एकपञ्चाशद्विषयप्ररूपणप्रस्तावे मनुष्य चिन्तनं विधेयम्क्षेत्रप्ररूपणमित्थम्-'जंबूदीवो लवणो-दही च दीवो य धायईरांडे / "सत्त पण सत्त सत्त य, नवऽक्खरपमाणपयडपंचपयं। कालोदहिपुक्खरवर-दीवड्ढो माणुसं खेत्तं / / 1 / / एतं माणुसखेत्तं, एत्थ तित्तीसक्खरचूलं, सुमिरह नवकारवरमंतं / / 1 / / विचारीणि जोइसगणाणि। परतो दीवसमुद्दे, अवडियं जोइस जाण / / 2 / / '' एसो पचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। तत्र च- "चंदा सूरा य गहा, नक्खत्ता तारया य पंच इमे / एगे मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं / / 2 / / चलजोइसिया, घंटायारा थिरा अवरे।।१४७॥" तथा च- "दो चंदा दो अरिहंतनमुक्कारो, जीवं मोएइ भवसमुद्दाओ। सूरा, णक्खत्ता खलु हतिछप्पण्णा। वावत्तर गहसतं, जंबुद्दीवे वियारीणं भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए॥३॥" / / 1 / / एमं च सयसहस्सं, तित्तीसं खलु भवे सहस्साई / णव य सता पण्णासा, तारागणकोडिकोडीणं / / 2 / / " सर्वं चैतत् 'जोइसिय' शब्दे ननु सूत्र संक्षेपविस्तरावतिक्रम्य न वर्तते, तत्र संक्षेपवयथा सामायिक सूत्रम्, विस्तरवद् यथा चतुर्दश पूर्वाणि, इदं पुनर्नमस्कारसूत्रमुभयाविद्वद्भिर्विलोकनीयम् / जिनवचनमेतत् जिनाऽऽगमेयोगादेव कर्मक्षयो तीतं, यतोऽत्र न संक्षेपो, नापि विस्तरः। यद्ययं संक्षेपः स्यात् ततस्तस्मिन् भवतीति तस्य योगस्य माहात्म्यम्, तथा च योगमार्गाधिकारिणः, सति द्विविध एव नमस्कारो भवेत् सिद्धसाधुभ्यामिति, परिनिर्वृतार्हदायोगनिष्पन्नस्य चिहानि। तथाहि-'अलौल्यमारोग यमनिष्ठुरत्वं, गन्धः दीनां सिद्धशब्देन ग्रहणात्, संसारिणां तु साधुशब्देनेति। संसारिणो हि शुभो मूत्रपुरीषमल्पम्। कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च, योगप्रवृत्तेः प्रथम अहंदाचार्याऽऽदयो न साधुत्वमतिवर्तन्ते।। यद्ययं विस्तरः। तदप्ययुक्तम् / हि लिङ्गम् // 1 / / '' इत्यादि त्रिंशद् विषयाः "जोग" शब्दे सम्यक यतो विस्तरतोऽनेकविधो नमस्कारः प्राप्नोति। तथाहि-ऋषभाजितप्रतिपादिताः। तथा-'गुरुभत्तो अपमत्तो, खंतो दंतो य निरायगत्तोय। संभवा-ऽऽदिभ्यो नामग्राहं सर्वतीर्थकरेभ्यः। तथा सिद्धेभ्योऽप्येकद्वित्रिथीरचित्तो दढसत्तो, विणयजुतो भवविरत्तोय।।१।। जियलोहो जियनिहो, चतुष्पशाऽऽदिसमयसिद्धेभ्यो यावदनन्तसमयसिद्धेभ्यः / तथाहियपियमियजंपिरो मिउ-असत्थो / अप्पाहारो अप्पो-वही य दक्खो तीर्थलिङ्ग प्रत्येकबुद्धाऽऽदिविशेषणविशिष्टेभ्य इत्यादिभिर्भेदैर्विसुदक्खिन्नो / / 2 / / पंच-समिओ तिगुत्तो, उज्जुत्तो संजमे तवे चरणे / स्तरतोऽनन्तभेदो नमस्कारः प्राप्नोति / यतश्चैवं तस्मादमुं पक्षद्वपरिसहराहुहोइ मुणी, विसेसओ जोगवाहि त्ति // 3 // कयसोहिलोयकम्मे, यमगीकृत्य पश्चविधोऽयं नमस्कारो न युज्यत इति / इह चेदं प्रतितिवासपरिया-इएण कालेणं / आयारपकप्पाई, उदिसिउं कप्पई जुग्गो विधानम्-न संक्षेपो नापि विस्तर इत्येतदसिद्धम्, संक्षेपत्वा-दस्य / / / 4 / / '' इत्यादि तु 'इत्यादि तु जोगविहि' शब्दे द्रष्टव्यम्। तथा जिनोक्तं किञ्च-इहार्हदादयो नियमात् साधवः, तद्गुणानामपि तत्र भावात् / ध्यानस्वरूपं, ध्यानाध्यानयोर्विवेचनं, ध्यानस्यैव भेदाः, प्रशस्ता साधवस्तु तेष्वर्हदादिषु विकल्पनीयाः, यतस्तेन सर्वेऽप्यर्हदादयः कि प्रशस्तानिध्यानानि, ध्यातव्यभेदाः,ध्यातुः स्वरूपं, संसारप्रतिपक्षतया तर्हि, केचिदर्हन्तः, येषां तीर्थकरनामकर्मोदयोऽस्ति, केचित्तु सामान्यमोक्षहेतुान, ध्यानस्य फलानि चेत्यादि 'झाण' शब्दे 1661 पृष्ठत केवलिनः, अन्ये त्वाचार्या विशिष्टसूत्रार्थदेशकाः, अपरे तूपाध्यायाः आरभ्य 1673 पृष्ठपर्यन्तं द्रष्टव्यम्। सूत्रपाठकाः, अन्ये त्वेतदविशिष्टाः सामान्यसाधव एव शिक्षकाऽऽदयो, तथा च-- नपुनरर्हदादयः / तदेवं साधूनामर्हदादिषु व्यभिचाराद्यन्नमस्करणेऽपि "ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतम्। नार्हदादिनमस्कारसाध्यस्य विशिष्टस्य फलसिद्धिः। ततश्च संक्षेपेण मुनेरनन्यचित्तस्य, तस्य दुःख न विद्यते॥१॥ द्विविधनमस्करणमयुक्तमेव, अव्यापकत्वादिति / तस्मात् संक्षेपतोऽपि ध्याताऽन्तराऽऽत्मा ध्येयस्तु, परमाऽऽत्मा प्रकीर्तितः। पञ्चविध एव नमस्कारो, न तु द्विविधः, अव्यापकत्वात् / विस्तरतस्तु ध्यानं चैकाग्रसंवित्तिः, समापत्तिस्तदेकता / / 2 / / नमस्का-रोन विधीयते, अशक्यत्वात्। ननु जिनवचनस्य मिथ्यादर्शनजितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिराऽऽत्मनः / समूहमयत्वेऽपि प्रामाण्यमभ्युपगच्छभिनयनिकुरम्बोपन्यासः कृतस्तत्र किं नाम नयत्वम् ? उच्यते-बहुधा वस्तुनः पर्यायाणां संभवाद् सुखाऽऽसनस्य नाशाग-न्यस्तनेत्ररय योगिनः / / 3 / / विवक्षितपर्यायेण यन्नयनमधिगमनं परिच्छेदोऽसौ नयो नाम / तथाहिरुद्धबाह्यमनोवृत्ते- धारणाधारया स्यात्। इह हि जिनमते सर्व वस्त्वनन्तधर्माऽऽत्मकतया संकीर्णस्यभावमिति प्रसन्नस्याप्रमत्तस्य, चिदानन्दसुधालिहः / / 4 / / तत्परिच्छेदकेन प्रमाणेनापि तथैव भवितव्यमित्यसंकीर्णप्रतिनियतसाम्राज्यमप्रतिद्वन्द्व-मन्तरे च वितन्वतः। धर्मप्रकारकव्यवहारसिद्धये नयानामेव सामर्थ्यम्। तदुक्तम्ध्यानिनो नोपमा लोके, सदेवमनुजेऽपि हि // 15 // " "निःशेषांशजुषां प्रमाणविषयीभूयं समासेदुषां, एतादृशध्यानविरहितो रागाऽऽधुपहतचेतास्तु परमार्थमजाना- वस्तूनां नियतांशकल्पनपराः सप्त श्रुताऽऽसङ्गिनः। नोऽतत्स्वभावेऽपितत्स्वभावाऽऽरोपणेनान्धादप्यन्धतमः कामी मोदते। औदासीन्यपरायणारतदपरे चांशे भवेयुर्नयातत आह श्वेदेकान्तकलङ्कपड्फकलुषास्ते स्युस्तदा दुर्नयाः / / " "दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, नयोपपत्त्यादयस्तु 'णय' शब्दे 1853 पृष्ठत आरभ्य 1601 रागान्धस्तु यदस्ति तत् परिहरन् यन्नास्ति तत्पश्यति / पृष्टपर्यन्तं विस्तरतो निरूपिताः। ननु यदुक्तं जिनवचनमनाचरतो कुन्देन्दीवरपूर्णचन्द्रकलशश्रीमल्लतापल्लवा नियमाद निरयाऽऽदिषु पातो भवति, तत्र कीदृशी यातनाऽनुभू
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________________ (21) घण्टापथः। यते प्राणिना? उच्यते-दुःसहे तीव्र खदिरागारमहाराशितापादनन्तगुणेऽभितापे बहुवेदनेऽपरित्यक्तविषयाभिष्वङ्गा जिनवचनानादरपराः स्वकृतकर्मगुरवः पतन्ति निरयाऽऽदिषु, तत्र च नानारूपा वेदनाः समनुभवन्ति। तथा चोक्तम्"गिद्धमुहणिद्धउक्खि-तबंधणोम्मुक्तकंधरकबंधे। दढगहियतत्तसंडा-सयग्गविसमुक्खुडियजीहे॥१॥ तिक्खंकुसग्गकड्डिय-कंटयरुक्खग्गजज्जरसरीरे। निमिसंतरं पिदुल्लह-सुक्खेऽवक्खेवदुक्खम्मि॥२॥ बद्धंधयारदुर्ग-धबंधणायारदुद्धरकिलेसे। भिन्नकरचरणसंकर-रुहिरवसादुग्गमप्पवहे॥३॥ सुष्माकंदकडाहु-कढतदुक्कयकयंतकम्मंते। मूलविभिन्नुक्खित्तु-द्धदेहणितंतपब्भारे ||4|| जतंऽतरभिजंतु-च्छलंतसंसहभरियदिसिविवरे। मजंतुप्फिडियसमुच्छलंतसीसट्ठिसंघाए॥५॥ इय भीसणम्मि निरए, पडंति जे विविहसत्तवहनिरया। सव्वब्भट्ठा य नरा, जयम्मि कयपावसंधाया // 6 // " इत्थं च बहवोऽपि विषया नरकसंबन्धिनः 'णरग' शब्दे विषयसूच्या 1625 पृष्ठे विभावनीयाः / प्रत्यक्षपरोक्षत्वेन ज्ञानस्य द्वैविधेयम्, केवलनोकेवलज्ञानत्वेन प्रत्यक्षस्याऽपि वैविध्यम्, अवधिमनःपर्यवज्ञानत्वेन केवलज्ञानस्यापि द्वैविध्यम्, परोक्षज्ञानस्य तु आभिनिबोधिकश्रुतज्ञानत्वेन द्वैविध्यम् / ननु यदि चैतन्यं ज्ञानमात्मनोऽत्यन्तव्यतिरिक्तम्, तदा कथमात्मनः संबन्धि ज्ञानमिति व्यपदेशः? यद्यात्मनो ज्ञानादव्यतिरिक्तत्वमिष्यते, तदा दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावाद् बुद्ध्यादीनां नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदावसरे आत्मनोऽप्युच्छेदः स्यात्, तदव्यतिरिक्तत्वात अतोभिन्नाभिन्नमेवाऽऽत्मनो ज्ञानं यौक्तिकमिति / प्रपञ्चितं चैतत् 'णाण' शब्दे 1658 पृष्ठेन्यक्षेण परतीर्थिकमतोपन्यासनिरसनाभ्याम्। ज्ञानाज्ञानाभ्यां यद् भवति तदाह"मज्जत्यज्ञः किलाज्ञाने, विष्ठायामिव शूकरः। ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ||1|| निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यद् मुहुर्मुहुः। तदेव ज्ञानमुत्कृष्ट, निर्बन्धो नास्ति भूयसा / / 2 / / स्वभावलाभसंस्कार-स्मरण ज्ञानमिष्यते। ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत्, तथा चोक्तं महात्मना ||3|| वादाँश्च प्रतिवादाँश्च, वदन्तोऽनिश्चिताँस्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ // 4 // अस्ति चेद् ग्रन्थिभिद्ज्ञानं, किं चित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः। प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत्॥५॥ पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनौषधम्। अनन्यापेक्षमैश्वर्य, ज्ञानमाहुर्मनीषिणः॥६॥" "जो विणओ तं नाणं, जनाणं सो अवुचई विणओ। विणएण लहइ नाणं, नाणेण वि जाणई विणयं // 7 // " "क्रियानयः क्रियां बूते, ज्ञानं ज्ञाननयः पुनः। मोक्षस्य कारणं तत्र, भूयस्यो युक्तयो द्वयोः / / 8 / / नित्यनैमित्तिकैरेव, कुर्वाणो दुरितक्षयम्। ज्ञानं च विमलीकुर्व-न्नभ्यासेन तु पाचयेत्।।६।। अभ्यासात् पक्वविज्ञानः, कैवल्यं लभते नरः॥" "नाणी गिण्हइ नाणं, मुणेइ नाणेण कुणइ किचाई। भवसंसारसमुई, नाणी नाणट्टिओ तरति // 1 // " "तम्हा न वज्झकरणं, मज्झ एमाणं न यावि चारित्तं। नाणं मज्झ पमाणं, नाणे च ट्ठियं जओ तित्थं // 1 // " परन्त ज्ञानिनाऽपि चरणवता भाव्यम्"जाणतो वि अ तरिउं, काइयजोगं न जुंजई जोगं / सो वुडुइ सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो।।१।।" ननु तत्र तत्र जिनवचने निगोदजीवानां चर्चा कृताऽस्तीति के ते निगोदजीवाः? उच्यते "जह अयगोलो धंतो, जाओ तत्ततवणिजसंकासो। सव्वो अगणिपरिणओ, णिगोयजीवे तहा जाण / / 16 / / एगरस दोण्ह तिण्ह व, संखेजाणं व पासिउंसक्का! दीसति सरीराई, णिगोयजीवाणऽणंताणं // 20 // " यथाऽयोगोलो ध्मातः सन् तप्ततपनीयसंकाशोऽग्निपरिणतो भवति, तथा निगोदजीवानपि जानीहि, निगोदरूपेऽप्येकै कस्मिन् शरीरे तच्छरीराऽऽत्मकतया अनन्तान् जीवान् जानीहि। ननु कथं निगोदरूप शरीर नियमादनन्तजीवपरिणामाऽऽविर्भावितं भवतीति? उच्यतेजिनवचनात् / तदम्- "गोला य असंखेज्जा, होति निगोया असंख्या गोले। एकेको य निगोओ, अणतजीवो मुणेयव्यो / / 1 / / " तभेदास्तु "णिगोय" शब्दे 2026. पृष्ठे द्रष्टव्याः। जिनवचनादेव 'निर्गन्थ' शब्दे पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकभेदेन पञ्चविधनिर्गन्थस्वरूपनिरूपणानन्तरं तेषां साधकविचारः, कूजनताकर्करणताऽऽपध्यानताऽऽदिभेदेन निर्ग्रन्थानां, निर्ग्रन्थीनामसुखत्वाऽऽदि प्ररूप्य तद्वैपरीत्वेन सुखत्वाऽऽदिनिरूपणमेवमादयो विषयाः पश्चचत्वारिंशद द्रष्टव्याः / निर्ग्रन्थीशब्दे निग्रन्थीनामाचाराऽऽदिनिर्देशः / 'णितियवास' शब्दे साधुसाध्वीनां नित्यवास एकत्र निषिद्धः। तथाहि-विहारपरिहारेण सर्वदैकत्र निवासवतां प्रासुकैषणीयवसतिलाभाभावाद् गृहस्थाइवाऽऽश्रयाभावेषु मुक्तसमस्तजीवोपमर्दाऽऽदयः स्वयंग्रहकरणकारणानुमोदनाऽऽदौ प्रवर्त्तन्ते, ततश्चैषणायामपिजीवनिकायानामाकुट्यापि विराधनोत्पद्यते, ततश्च प्राणातिपातविरमणमहाव्रतभड्गनिरर्थकताया अपि शिरस्तुण्डमुण्डनाऽऽदेवैययं स्यात्। अन्यथैकत्र निवासे प्रतिदिनमाहाराऽऽदिदानवन्दनाऽऽदिप्रतिपत्त्योपगृहीतानां साधूनामनादिभवाभ्यासवशवर्तिनां प्रतिबन्धाऽऽदयः संभवन्ति। उक्तंच - "पडिबंधोलहुयत्तं, न जणुवयारो न देसविन्नाण।नाणाऽऽराहणमेए,दोसा अविहारपक्खम्मि।।१।।" ततश्च प्रतिबन्धात् संबन्धः संबन्धात् चित्तविप्लुतिः, चित्तविप्लुतेरकार्यप्रवृत्तिरिति। यदा च चित्तविप्लुत्या प्रेरितः स्त्रीसेवाऽऽदौ प्रवर्तते, तदान केवलं प्रथमव्रतभङ्गः, अपितु पञ्चानामपीति। किन्तु "जो होज्जउ असमत्थो, रोगेण व पेल्लिओ झुसियदेहो। सय्वमवि जहाभणिय, कयाइ न तरिज काउं जे / / 1 / / सो विय निययपरकम-ववसायधिइबलं अगूहेंतो। मोत्तूण कूडचरियं, जयइ जइ तो अवस्स जई।२।। निम्मम निरहंकारा, उज्जुत्ता नाणदंसणचरित्तम्मि। एगक्खेत्ते वि ठिया, खवेंति पोराणयं कम्मं // 3 // जियकोहमाणमाया, जियलोभपरीसहा य जे धीरा। बूढावासेऽवि ठिया, खवेंति पोराणयं कम्मं / / 4 / /
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________________ घण्टापथः। (22) पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे। वाससयं पि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया // 5 // " नित्यवासविषये संगमस्थविरचरितं तु 2071 पृष्ठे द्रष्टव्यम्। ननु जिनवचन श्रद्धावतो निर्वाणं श्रूयते, तत्किं नाम निर्वाणम् / तथाहि"मनसि किं दीवस्सव, नासो निव्वाणमस्स जीवरस। दुक्खक्खयाइरूवा, किं होज्जव से सओऽवत्था / / 1675 // " तद् यथा सोगताः प्राऽऽहु:"दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काश्चित, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् / / 1 / / जीवस्तथा निवृतिमभ्युपेतो, नवावनिं गच्छति तान्तरिक्षम्। दिशं न काश्चिद् विदिशं न काश्चिद, क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् // 2 // " किं वा यथा जैनाः प्राऽऽहुस्तथा निर्वाणं भवेत्? तथाहि-रागद्वेषमदमोहजन्मजरारोगाऽऽदिदुःखक्षयरूपा विशिष्टा काचिदवस्था विद्यमानरय जीवस्य। उक्तंच-"केवलसंविदर्शनरूपाः सर्वार्तिदुःखपरिमुक्ताः। मोदन्ते मुक्तिगताः, जीवाः क्षीणान्तरांरिंगणाः।।१।।' अथवा-खस्येवानादित्वात् कर्मजीक्योः संयोगस्यावियोगात् संसाराभाव एव न भवत्। जीवाऽऽकाशयोरिव ययोरनादिः संयोगः त्रयोवियोगो न भवति, अनादिश्च जीवकर्मणोः संयोगः, ततो वियोगाऽनुपपत्तिः, ततश्न न संसाराभावः, तथा च सति कुतो मोक्षः? अथात्रैव प्रतिविधीयते नायमेकान्तो यदनादिसंयोगो न भिद्यते यतः काञ्चनधातुपाषाणयोरनादिरपि संयोगोऽग्न्यादिसंपर्केण विघटत एव, तद्वद् जीवकर्मरायोगस्यापि सम्यग् ज्ञानक्रियाभ्यां वियोगो मण्डिकवत् प्रतिपद्यताम्। ननु यथा कर्मणो नाशे संसारो नश्यति, तथा तन्नाशे जीवत्वस्यापि नाशाद् मोक्षा भावो भविष्यति? एतदप्यसारम् / यतः कर्मजनितः संसारः, तन्नाशे संसारस्य नाशो युज्यत एव, कारणाऽभावे कार्याऽभावस्य सुप्रतीतत्वात्। जीवत्वं पुनरनादिकालप्रवृत्तत्वात् कर्मकृतं न भवति, अतस्तन्नाशे जीवस्य न कशिद नाशः, कारणव्यापकयोरेव कार्यव्याप्यनिवर्तकत्वात, कर्म तु जीवस्य न कारण, नापि व्यापकम् / इतव जीवो न नश्यति-"न विगारानुवलंभादागास पि व विणासधम्मो सो / इह नासिणो विगारो, दीसइ कुंभरस वाऽवयदा / / 1681 // कालंतरनासी वा, घडो व्व कागाइओ मई होजा / नो पद्धसाभावो, भुवि तसग्मा विजं निचो / / 1982 / / " इति। अथ यदुक्तम्-दीपो यथा निर्वृतिभित्यादि।तत्रोत्तरम्"न य सव्वहा विणासोऽणलरस परिणामओ पयरसेव। कुंभरस कवालाण व, तहा विगारोवलंभाओ 111687 // ततः-"जह दीवो निव्वाणो, परिणामंतरमिओ तहा जीवो / भण्णइ परिनिव्वाणो, पत्तोऽणावाहपरिणाम।।१६६१।।"किञ्च- "मुत्तरसं परं सोक्खं, णाणाणावाहओ जहा मुणिणो / तद्धम्मा पुण विरहादावरणाऽऽवाह-हेऊणं / ||1662 // " इत्यादि निर्वाणविषयविस्तरः "णिव्वाण' शब्दे निर्वाणजिज्ञासुभिर्निपुर्ण निभालनीयः। तच्च निर्वाणं तपोऽन्तरा न लभ्यते इति प्रसङ्गतः तपःस्वरूपमुच्यते-"ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात् तपः। तदाभ्यन्तरमेवेष्ट, बाह्य तदुपबृहकम्॥१॥ तदेव हि तपः कार्य, दुनि यत्र नो भवेत्। येन योगान हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि वा॥२॥ मूलोत्तरगुणश्रेणि-प्राज्यसाम्राज्य-सिद्धये। बाह्यमाभ्यन्तर चेत्थं, तपः कुर्याद महामुनिः / / 3 / / '' "एसो वारसभेओ, सुत्तनिवदो तवो मुणेयव्यो। एय विसेसो उ इमो, पइण्णगोऽणेगभेउ त्ति // 4 // तित्थयरनिगमाई, रावगुणपसाहणं तवो होइ। भव्वाण हिओ नियमा, विसेसओपढमाणीण // 5 // " जम्हा एसो सुद्धो, अणियाणो होइ भावियमईणं / तम्हा करेइ सम्म, जह विरहो होइ क माणं // 44 // " सो हु तवो कायव्वो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ / जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति / / 4 / / '' "तपश्च त्रिविधं ज्ञेयमफलाऽऽकाहि भिर्नरैः। श्रद्धया परया तप्तं, सात्विक तप उच्यते / / 1 / / सत्कारमान पूजाऽर्थ तपो दम्भेन चैव यत्। क्रियतेतदिह प्रोक्तं, राजसंचलमध्रुवम्।।२।। मूढग्रहेण यचाऽऽत्मपीडया क्रियते तपः। परस्योच्छेदनार्थ वा, तत्तामसमुदाहृतम् / / 3 / / " इति। अनेकजन्माभ्यस्ततपःप्रभावात् तीर्थकरनामकर्मणी संवद्ध्य निर्वाणभधिरोहति जीव इति सिद्धान्तमनुस्मृत्य तीर्थकरविषयमेटावता-रयामः। तथाहि-तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः, अचिन्त्यप्रभावमहापुण्यसंज्ञिततन्नामकर्मविपाकतः, तस्यान्यथा वेदनायोगात्। तत्र येनेह जीवा जन्मजरामरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीर महाभीषणकषायपातालं सुदुर्लध्यमोहाऽऽवतरौद्र विचित्रदुःखौघदुष्टश्वापदंरागद्वेषपवनविक्षोभितं संयोगवियोगवीचीयुक्तं प्रबलमनोरथवेलाऽऽकुलं सुदीर्घ संसारसागरं तरन्ति तत्तीर्थमिति / एतच यथाऽवस्थितसकलजीवाऽऽदिपदार्थप्ररूपकम् अत्यन्तानवधान्याविज्ञातचरणकरणक्रियाऽऽधारं त्रैलोक्यगतशुद्धधर्मसंपयुक्तमहासत्त्वाऽऽश्रयम् अचिन्त्यशक्तिरामन्विताविसंवादिपरमबोहित्थकल्पं प्रवचनं, निराधारस्य प्रवचनस्या-संभ वात सङ्घो वा ततश्चैतदुक्तं भवतिघातिकर्मक्षये ज्ञानकैवल्ययोगात् तीर्थकरनामकर्मोदयस्तत्स्वभावतया आदित्याऽऽदिप्रकाशनिदर्शनतः शास्त्रार्थप्रणयनाद् मुक्तकैवल्ये तदसंभवेनाऽऽगमानुपपत्तेः, भव्यजनधर्मप्रवर्तकत्वेन परम्पराऽनुग्रहकरास्तीर्थकरा इति तीर्थकरत्वरि-द्धिः / किश-सर्वेऽपि निरुपमधृतिसंहननाश्छद्मस्थावस्थावां चतुर्माना अतिशयसत्त्वसंपन्ना अच्छिद्रपाणिपात्रा जितसमस्तपरीषहाश्च यस्मात्तेन वजाभावेऽपि संयमविराधनाऽऽदीन् दोषान् न प्राप्नुवन्ति / तथा व सवस्त्रा एव साधवश्चिरं स्थास्यन्ति इत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थ गृहीतैकवस्त्राः सर्वेऽपि तीर्थकृतोऽभिनिष्क्रामन्ति, तस्मिश्च वस्त्रे क्वापि पतिते वस्त्ररहितास्ते भवन्ति, न पुनः सर्वदा। ननु सर्वोऽपि प्रेक्षावान फलार्थी प्रवर्तते, अन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षतिप्रसङ्गः। ततोऽसौ तीर्थ कुर्वन्नवश्यं फलमपेक्षते, फलं चापेक्षमाणोऽस्मादृश इव व्यक्तमवीतरागः। तदयुक्तम्। यतस्तीर्थकरः स एव भवति, यस्तीर्थकरनामकर्मोदयसमन्वितः। न हि सर्वेऽपि भगवन्तो वीतरागास्तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तन्ते, तीर्थकरनामकर्मव तीर्थप्रवर्तनफलम्। ततो भगवान् वीतरागोऽपि तीर्थकरनामकर्मोदयतस्तीर्थप्रवर्तनस्वभावः सवितेव प्रकाशमुपकार्योपकारानपेक्षं तीर्थ प्रवर्तयतीति न कश्चिद्दोषः / उक्तंच-"तीर्थप्रवर्तनफलं, यत्प्रोक्तं कर्म तीर्थकरनाम।
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________________ (23) घण्टापथः। तस्योदयात् कृतार्थो-ऽप्यर्हस्तीर्थ प्रवर्तयति।।१।। तत्स्वाभाव्यादेव, प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम्। तीर्थप्रवर्तनाय, प्रवर्तते तीर्थकर एवम् / / 2 / / ननु तीर्थप्रवर्तन नाम प्रवचनार्थप्रतिपादन, प्रवचनार्थ चेद् भगवान् प्रतिपादयति, तर्हि नियमादसर्वज्ञः, सर्वस्यापि वक्तुरसर्वज्ञतयोपलम्भात्। तथा चात्र प्रयोगः विवक्षितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति, वक्तृत्वात, रथ्यापुरुषवदिति। तदसत्। सन्दिग्धव्यतिरेकतया हेतोरनैकान्तिकत्वात्। तथाहि वचनं न सर्ववेदनेन सह विरुद्ध्यते, अतीन्द्रियेण सह विरोधानिश्चयात्। द्विविधो हि विरोधः- परस्परपरिहारलक्षणः, सहानवस्थानलक्षणश्च। तत्र परस्परपरिहारलक्षणः तादात्म्यप्रतिषेधे,यथा घटपटयोः / न खलु घटः पटाऽऽत्मको भवति, नापि पटो घटाऽऽत्मको भवति, ''न सत्ता सत्ताऽन्तरसुपैति / " इति वचनात्, ततो नानयोः परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः / एवं सर्वेषामपि वस्तूनां भावनीयम् / अन्यथा वस्तुसाङ्कर्यप्रसक्तेः / यस्तु सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, स परस्परबाध्यबाधकभावसिद्धौ सिद्धयति, नान्यथा, यथा वह्नि-शीतयोः। तथाहि-विवक्षिते प्रदेशे मन्दमन्दमभिज्वलनवति वह्नौ शीतस्यापि मन्दनन्दभावः / यदा पुनरत्यर्थज्वालामतिविमुञ्चति वह्निस्तदा सर्वथा शीतस्याभाव इति भवत्यनयोर्विरोधः। उक्तं च- "अविकलकारणमेकं, तदपरभावे यदाऽऽभवन्न भवेत् / भवति विरोधः स तयोः, शीतहुताशाऽऽत्मनोदृष्टः / / 1 / / " नचैवं वचनसंवेदयोः परस्परं बाध्यबाधकभावः, न हि संवेदनेतारतम्येनोत्कर्षमासादयति वचखितायाः तारतम्येनापकर्ष उपलभ्यते, तत्कथमनयोः सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, अथ सर्ववेदी वक्ता नोपलब्ध इति विरोध उघुष्यते। तदयुक्तम् / अत्यन्तपरोक्षो हि भगवान्, ततः कथमनुपलम्भमात्रेण तस्याभावनिश्चयः, अदृश्यविषयस्यानुपलम्भस्याभावनिश्वायकत्वायोगात्। सर्वे चैते तीर्थकरसंबन्धिविषयाः 'तित्थयर' शब्दे 2246 पृष्ठतः 2312 पृष्ठपर्यन्तं विद्वद्भिर्विलोकनीयाः। अथ द्रव्यस्तव-भावस्तवयोः को विशेषः, कुत्र च फलाऽऽधिक्यमित्यत्राऽऽहननु वित्तपरित्यागाऽऽदिना द्रव्यस्तव एव ज्यायानिति अल्पबुद्धीना शङ्कासंभवः, तत्राऽऽह-"दव्वत्थओ य भावत्थओ य दव्वत्थओ बहुगुणो त्ति / बुद्धि सिया अनिउणमइवयणमिणं छजीवहियं / / 4 / / छज्जीवकायसंजमों दव्वथए सो विरुज्झई कसिणो। तो कसिणसंजमविऊ, पुप्फाईयं न इच्छति // 5 // " यद्येवं किमयं द्रव्यस्तव एकान्ततो हेय एव वर्तते, आहोस्विदुपादेयोऽप्यस्ति? उच्यते-साधूनां हये एव, श्रावकाणामुपादेयोऽपि / तथाहि- ''अकसिणपवत्तयाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणे, दव्वत्थऍ कूवदिटुंतो | // 6 // " आह-यः प्रकृत्येवासुन्दरः स कथं श्रावकाणामपि युक्तः? उच्यते-कूपदृष्टान्तोऽत्र बोद्धव्यः। यथा कोऽपि तृषाऽपनोदार्थ कूपं खनति / यद्यपि पूर्व तस्य मृत्तिकाकर्दमाऽऽदिना शरीरं मलिनीभवति, तथाऽपि तदुद्गतेन पानीयाऽऽदिना प्रक्षाल्यते गात्रं, ततः स अन्ये च जनाः, सुखभाजना भवन्ति / एवं द्रव्यस्तवेऽपि यद्यप्यसंयमस्तथाऽपि तत एव सा परिणामबुद्धिर्भवति, याऽसंयमवर्ज सर्वनिरवशेष क्षपयति। किश-"अप्पविरियस्स पढ़मो, सहकारिविसेसभूअओ सेओ। इयरस्स बज्झचाया, इयरो चिय एस परमत्थो।।२। दव्वत्थयं पिकाउं,ण तरइ जो अप्पवीरियत्तेणं / परिसुद्धं भावथयं, काही सो संभवो एस // 3 // " एतदेव स्पष्टयति-"जो वज्झच्चाएणं,णो इत्तरिअंपिणिग्गहं कुणइ। इह अप्पणो सयासे, सव्वच्चारण कह कुजा? // 5 // " किञ्च-आरम्भत्यागेन ज्ञानाऽऽदिगुणेषु वर्धमानेषु द्रव्यस्तवहानिरपिन भवति कर्तुः दोषाय। विवेचनमस्य 'थय' शब्दे 2385 पृष्ठपर्यन्तं द्रष्टव्यं प्रज्ञावद्भिः / 'थविरकप्प' शब्दे 2386 पृष्ठे स्थविरकल्पविचारः। तथाह-द्विविधा भवन्ति साधवः / गच्छप्रतिबद्धवाः, गच्छबहिर्गताश्च / पुनरेकैकशी द्विधा जिनकल्पिकाः, स्थविरकल्पिकाश्च / एतेषां स्थविरकल्पिकजिनकल्पिकानां परस्परमयं विशेषः। तथाहि"थेराणं नाणत्तं, अतरंतं अप्पिणंति गच्छस्स। गच्छे निरवजेण, करति सव्वं पि पडिकम्मं / / 1 / / एकेकपडिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंति थेरा उ। जेसिं उण जिनकप्पे, न य तेसिं वत्थपायाणि / / 2 / / निप्पडिकम्मसरीरा, अवि अच्छिमलं पि नेव अवणिति। विसहति जिणा रोग, कारेंति कयाइ न तेगिच्छं॥३॥ संजमकरणुज्जोया, णिप्फातग णाणदंसणचरित्ते / दीहाउ वुड्डवासे, वसहीदोसेहि य विमुक्का।।४।। मोत्तुं जिणकप्पठिई,जा मेरा एस वन्निया हेट्ठा। एसा उ दुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पस्स // 5 // " इति। ननु द्रव्यस्तवो गृहस्थैः कर्तव्य इति पूर्व यदुक्तं तत्र "वाक्यार्थज्ञाने पदार्थज्ञानस्य कारणता" इति न्यायाद् द्रव्यस्वरूपनिर्वचनं कर्तव्यम्। उच्यते- "गुणपर्याययोः स्थानमेकरूपं सदाऽपि यत् / स्वजात्या द्रव्यमाख्यातं, मध्ये भेदो न तस्य वै / / 1 / / ' व्याख्या चैषागुणपर्यायजिनं कालत्रये एकरूपं द्रव्यं स्वजात्या निजत्वे एकस्वरूपं भवति, परं पर्यायवदन परावृत्तिं लभते तद्रव्यमुच्यते। यथा ज्ञानाऽऽदिगुणपर्यायभाजनंजीवद्रव्यम्, रूपाऽऽदिगुणपर्यायभाजनं पुद्गलद्रव्यम्, सर्वरक्तत्वाऽऽदिघटत्वाऽऽदिगुणपर्यायभाजनं मृद्रव्यम् / यथा वा तन्तवः पटापेक्षया द्रव्य, पुनस्तन्तवोऽवयवापेक्षया पर्यायाः / कथम् ? यतः पटविचाले पटावस्थाविचाले च तन्तूनां भेदो नास्ति,तन्त्ववयवावस्थायामन्वयत्वरूपो भेदोऽस्ति, तस्मात्पुद्गलस्कन्धमध्ये द्रव्यपर्यायत्वमापेक्षिकं बोध्यम् / अथ कश्चिदेवं कथयिष्यतिद्रव्यत्वं तु स्वाभाविकं न जातम्, आपेक्षिकं जातं, तदा त समाधत्तेयत् सकलवस्तूनां व्यवहारापेक्षयैव जायते, न तु स्वभावेनैव, तस्मादत्र न कश्चिद् दोषः। ये च समवायिकारणप्रमुखैर्द्रव्यलक्षणं मन्यते, तेषामपि अपेक्षामनुसतय्यैवेति / 'गुणपर्यायव द्रव्यम्।' इति तत्त्वार्थे / 'सहभावी गुणो धर्मः, पर्यायः क्रमभाव्यथ। भिन्ना अभिन्नास्विविधाः, त्रिलक्षणयुता इमे // 1 // मुक्ताभ्यः श्वेतताऽऽदिभ्यो, मुक्तादाम यथा पृथक्। गुणपर्याययोर्व्यक्त-द्रव्यशक्तिस्तथाऽऽश्रिता॥२॥" किञ्च–'गुणाऽऽश्रयो द्रव्यम्।' यदुक्तम्-"गुणाणमासओ दव्यं, एगदव्वस्सिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणंतु, दुहओ अस्सिया भवे // 6 // " तथाहिगुणानामाश्रयो, यत्रस्थास्ते उत्पद्यन्ते, उत्पद्य चावतिष्ठन्ते, प्रलीयन्तेच तद्रव्यम्। अनेन रूपाऽऽदय एव वस्तु, न तव्यतिरिक्तमन्यदितिताथाग
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________________ घण्टापथः। (24) तमतमपास्तम् / तथाहि-यदुत्पादविनाशयोर्न यस्योत्पादविनाशी, न तत्ततोऽभिन्नम्, यथा घटात्पटः, न भवतः पर्यायोत्पादविनाशयोर्द्रव्यस्योत्पादविनाशौ / न चायमसिद्धो हेतुः, स्थासकोशकुशूलाऽऽद्यवस्थासु मृदादिद्रव्यस्याऽऽनुगामित्वेन दर्शनात् / न चास्य मिथ्यात्वं, कदाचिदन्यथादर्शनासिद्धः। उक्तं च-"यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः, संख्येय्येतान्यथा पुनः / स मिथ्या न तु तेनैव , यो नित्यमवगम्यते / / 1 / / " तथैकस्मिन् स्वाऽऽधारभूते द्रव्ये आश्रिता गुणाः रूपाऽऽदयः। एतेन च ये द्रव्यमेवेच्छन्ति, तद्व्यतिरिक्ताँश्च रूपाऽऽदीन अविद्योपदर्शितानाहुः, तन्मतनिषेधः कृतः / संविन्निष्ठा हि विषयव्यवस्थितयः / न च रूपाऽsद्युत्कलितरूपंकदाचित् केनचिद्रव्यमवगतम्, अवगम्यतेवा, अतस्तद्विवर्त एव रूपाऽऽदयो, न तु तात्त्विकाः केचन तद्भेदेन सन्ति / नन्वेवं रूपाऽऽदिविवर्ता द्रव्यमित्यपि किंन कल्पते? अथ तथैव प्रतीतिः, एवं सति प्रतीतिरुभयत्र साधारणेत्युभयमुभयाऽऽत्मकमस्तु / अनेन च य एवमाहुः यदाधन्तयोरसत, मध्येऽपि तत्तथैव, यथा गरीचिकाऽऽदौ जलाऽऽदि। न सन्ति च कुशूलकपालाऽऽद्यवस्थयोर्घटाऽऽदिपर्यायाः, ततो द्रव्यमेवाऽऽदिमध्यान्तेषु सत्, पर्यायाः पुनरसन्तः, वैराकाशकेशाऽऽदिभिः सदृशा अपि भ्रान्तैः सत्यतया लक्ष्यन्ते / यथोक्तम्''आदावन्ते च यन्नास्ति, मध्येऽपि हि न तत्तथा। वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः।।।१॥" ते अपाकृताः। तथाहि-आद्यन्तयोरसत्वेन मध्येऽप्यसत्त्वं साधयतामिदमाकृतम्-यत् कृचिदसत् तत् रार्वरिमन्नसत् इति, ततश्च मृद्रव्यैः अव्यस्यासत्त्वात् सर्वस्मिन्नप्यसत्त्वप्रसङ्गः / अथेष्टमेवैतत्, सत्तामात्रस्यैव तत्त्वत इष्टत्वात्। उक्तं हि'सर्वमकं सदविशेषात्। नन्वेवमभावे भावाभावाभावस्यापि सर्वत्राभावप्रसङ्गः, तस्माद्बाधकप्रत्ययोदय एवासत्त्वेऽपि निबन्धनमिति न क्वचिदसत्त्वे तस्यावश्यंभावः, ततो द्रव्यवत् पर्यायाणाभप्यबाधितबोधविषयत्वे सत्यमस्तु, तथा गुणेष्वपि नवपुराणाऽऽदिपर्यायाः प्रत्यक्षप्रतीता एके कियत्कालभाविनः, प्रतिसयमभाविनस्तु पुराणत्वाऽऽद्यन्यथाऽनुपपत्तेरनुमानतोऽवसीयन्ते। ततश्च द्रव्यगुणपर्यायाऽऽत्मकमेक सबलमणिवत् चित्रपतङ्गाऽऽदिवद् वा वस्त्विति स्थितम् / "दव्वं पज्जवविजुतं, दव्वविउत्ता य पज्जवा नऽस्थि / उप्पायटिइभंगा, हदि दवियलक्खणं एयं ||12||" अथ द्रव्यभेदा इमे- "धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं // 7 // " अनन्तरोक्तद्रव्यषट्काऽऽत्मकत्वलोकस्य। उक्तं हि- "धर्माऽऽदीना वृत्तिव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम्। तैव्यैः सह लोकः, तद्विपरीतं ह्यलोकाऽऽख्यम्॥१॥" किञ्च-एतेऽपि भेदवन्तः। तथा चाऽऽह-''धम्मो अधम्मो आगासं एगं दव्वं वियाहियं / अणंताणि उ दव्वाणि, कालो पोग्गलजंतवो॥८॥"वैशेषिकरीत्या द्रव्यप्रतिपादनं, तत्खण्डनच 'दव्व' शब्दे 2465 पृष्टे द्रष्टव्यम्। जिनवचनादेवाभयदानाऽऽदीनां महाफल दत्वमुक्तमस्ति। तथाह"दानेन महाभोगो, देहिनां सुरगतिश्च शीलेन। भावनया च विमुक्तिः, तपसा सर्वाणि सिद्ध्यन्ति // 1 // " 'दाणं च तत्थ तिविह, नाणपयाणं च अभयदाणं च / धम्मोवग्णहदाणं, च नाणदाणं इमं तत्थ // 52 // "दितो य नाणदा भुवणे जिणसासणं सगुद्धरइ। सिरिपुंडरीयगणहर, इव पावइ परमपयमतुलं / / 65|| ता दायव्यं नाणं, अणुसरियव्वा सुनाणिणो मुणिणो। नाणस्स सया भत्ती, कायव्वा कुसलकामेहिं / / 66|| वीयं तु अभयदाणं, तं इह अभयेण, सयल्जीवाणं / अभउ त्ति धम्ममूलं, दयाइधम्मो पसिद्धमिणं // 17 // इक्क चिअ अभयपया-णमित्थ दाऊण सव्वसत्ताणं। वजाऽऽउह व्व कमसो, सिज्झति पहीणजरमरणा ||8||" "धम्मोवग्गहदाणं, तइयं पुण असणवसणमाईणि। आरंभनियत्ताणं, साहूणं हुति देयाणि // 100 / / तित्थयरचक्कवट्टी-बलदेवा वासुदेवमंडलिया। जायंति जगब्भहिया, सुपत्तदाणप्पभावेणं // 101 / / जह भयवं रिसहजिणो, घयदाणवलेण सयलजयनाहो। जाओ जह भरहवई, भरहो मुणिभत्तदाणेणं / / 10 / / दंसणमित्तेण-वि मुणि-वराण नासेइ दिणकयं पावं / जो देइ ताण दाणं, तेण जए किं न सुविद्वत्तं / / 103 // " "न तवो सुठु गिहीणं, विसयाऽऽसत्ताण होइन हु सील। सारंभाण न भावो, तो साहीणं सया दाणं / / 106 / / " "ता तेसिं दायव्वं, सुद्धं दाणं गिहीहिँ भत्तीए। अणुकंपोचियदाणं, दायव्वं निययसत्तीए।।१०५॥" अनूदितं चैतत् श्रीहेमसूरिभिः"प्रायः शुद्धस्विविधविधिना प्रासुकैरेषणीयैः, कल्पप्रायैः शुद्धस्विविधविधिना प्रासुकैरेषणीयैः, कल्पप्रायैः स्वयमुपहितैः वस्तुभिः पानकाऽऽद्यैः। काले प्राप्तान् सदनमसमश्रद्धया साधुवर्गान्, धन्या केचित् परमविहिताः, हन्त समानयन्ति // 1 // " तथा च दाने मनोहारिणी कृतपुण्यकथा 2461 पृष्टे विलोकनीया। दानं प्रति विधिनिषेधविचारौ 2466 पृष्ठे विद्वद्भिरवधायौँ / जिनवचनप्रसङ्गात् साम्प्रत ज्ञानत्रयभावाभावयोर्दी क्षाऽधिकारित्वानधिकारित्वप्रतिपादनायाऽऽह- "अस्मिन् सति दीक्षायाः, अधिकारी तत्त्वतो भवति सत्त्वः / इतरस्य पुनर्दीक्षा, वसन्तनृपसन्निभा ज्ञेया // 1 // " इत्यादि दीक्षासंबन्धिन सर्व विषयं दिक्खा' शब्दे 2506 पृष्टतः 2508 पृष्ठपर्यन्तं विलक्षणविचक्षणाः पश्यन्तु! दीक्षाया दुःखनिवारकत्वेन फलदत्वमुक्तम्।दुःखस्वरूपंतुजिनवचने"दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवेद् गर्भवासो नराणां, बालत्वे चाऽपि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयःपानमिश्रम् / तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः,संसारे रेमनुष्याः ! वदतयदिसुखं स्वल्पमप्यस्ति किश्चित्? // 1 // " तथाहि-- "जाणंति अणुहवंति य, अणुजम्मजरामरणसंभवे दुक्खे / न य विसएसु विरजति, दुग्गइगमणपत्थए जीवे // 1 // " "दुक्खमेवमवीसाम, सव्वेसिं जगजंतुणो / एग समय तसभावे, जं सम्म अहियासियं / / 1 / / " "सर्वं परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम् / एतदुक्तं सभासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः // 1 // " पुण्यापेक्षमपि होवं, सुख परवशं स्थितम् / ततश्च दुःखमेवैतद, ध्यान तात्त्विकं सुखम् // 1 // " तथा च "सूईहिं अग्गिवन्नाहिं, संभिन्नस्स निरंतरं। जावइयं गोयमा ! दुक्खं, गब्भे अट्ठगुणं तओ।।१।।
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________________ (25) घण्टापथः। गब्भाओ निप्पडतस्स, जोणिजंतनिपीलणे। कोटीगुणं तयं दुक्खं, कोडकोडीगुणं पि वा / / 2 / / जायमाणाण जं दुक्खं, मरमाणाण जंतुणो। तेण दुक्खविवागेण, जाइंन सरति अप्पणो॥३॥" तथाचदुःखवर्णकः "कालं गति दुक्खेहि, मणुया पुन्नेहि उज्झिया। दुक्खं मणुयजाईणं, गोयम ! जं तं नियोधत // 1 // जमणुसमयमणुभवंताण, सयहा उब्वेइयाण वि। निविण्णाणं पिदुक्खेहिं, वेरगनतहा भवेशा" अच्छिनिमीलणमित्तं, नऽत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं / नरए नेरइयाणं, अहोनिसं पचमाणाणं ||1|| जंनिरए नेरइया, दुक्खं पार्वति गोयमा! तिक्खं / तंपुण निगोयमज्झे, अणंतगुणियं मुणेयव्वं / / 1 / / " इत्यादि सर्व 'दुक्ख' शब्दे विवृतम्।। जिनवचनाऽश्रद्दधानस्य जमालेरिव 'दोकिरिय' शब्दे आर्यगङ्गस्य चरितम् / तथाहि-उल्लुकातीरं नाम नगरम्, तत्र च महागिरिशिष्यो धनगुप्तो नाम, तस्यापि शिष्य आर्यगङ्गो नामाऽऽचार्यः। अयं च नद्याः पूर्वतटे, तदाचार्यास्त्वपरतटे, ततोऽन्यदाशरत्समये सूरिवन्दनार्थं गच्छन् गङ्गो नदीमुत्तरति, स च खल्वाटः। ततस्तस्योपरिष्टाद् उष्णेन दह्यते खल्ली, अधस्तात्तु नद्याः शीतलजलेन शैत्यमुत्पद्यते / ततोऽत्रान्तरे कथमपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयादसौ चिन्तितवान्-अहो सिद्धान्ते किल युगपत् क्रियाद्वयानुभवो निषिद्धः, अहं त्वेकस्मिन् एव समये शैत्यमौष्ण्यं चवेदयामि, अनु-भवविरुद्वत्वान्नेदमागमोक्तं शोभनमाभातीति विचिन्त्य गुरुभ्यो निवेदयामास। ततस्तैर्वक्ष्यमाणयुक्तिभिः प्रज्ञापितोऽसौ यदा च स्वाग्रहास्तबुद्धित्वाद् न किञ्चित् प्रतिपद्यते, तदा उद्घाट्यबाह्यः कृतो विहरन् राजगृहनगरमागतः / तत्र च महातपस्तीरप्रभवनाम्नि प्रश्रवणे मणिनागनाम्नो नागस्य चैत्यमस्ति। तत्समीपे च स्थितो गङ्गः पर्षत्पुरस्सरं युगपत् क्रियाद्वयवेदनंप्ररूपयति स्म। तच्च श्रुत्वा प्रकुपितो मणिनागः तमवादीत्-अरे दुष्ट शिक्षक ! किमेवं प्रज्ञापयसि? यतोऽत्रैव प्रदेशे समवसृतेन श्रीमद्वर्धमानस्वामिना एकस्मिन् समये एकस्याएव क्रियाया वेदनं प्ररूपितम् / तचेह मयाऽपि श्रुतम्। तत् किं ततोऽपि लष्टतरः प्ररूपको भवान्, येनैवं युगपत् क्रियाद्वयवेदनं प्ररूपयसि? तत् परित्यज चैतां कूटप्ररूपणाम्, अन्यथा नाशयिष्यामि त्वाम्। इत्यादि तदुदितभयवाक्यैर्युक्तिवचनैश्च प्रबुद्धौऽसौ मिथ्यादुष्कृतं दत्वा गुरुमूलं गत्वा प्रतिक्रान्त इति। 'दोकिरिय' शब्दे 2635 पृष्ठत आरभ्य विलोकनीयोऽयं विषय इति विस्तरभयाद् विरम्यतेऽस्मिन् विषयेऽस्माभिः / ननु जिनवचनश्रवणं जिनाऽऽज्ञापालनं च जैनानां सम्यक्त्विनां परमो धर्म इति धर्मपदार्थसार्थनिरूपणा निरूपयितव्येति तामेवाऽऽचष्ट द्विधा हि धर्मशब्दस्य प्रवृत्तिलॊके विलोक्यते / तथाहि सर्वत्र वस्तुनि यद् वस्तुनः स्वभावः स धर्म उच्यते।यथा घटे घटत्वं, मनुष्ये मनुष्यत्वमित्यादि। तथा चोक्तम्-"धर्माः सहभाविनः, पर्यायाः क्रमभाविनः।" 'धम्मो त्ति वा सभावो त्ति वा एगट्ठा। 'दुर्गतौ प्रपतन्तं जीवं धारयतीति धर्मः, स च क्लेशनिवृत्तिनिर्वृतिप्राप्तिसाधनः स्वर्गमोक्षाऽऽदिप्रापको मनुष्येणेतिकर्तव्यतारूपो हृदयसंवेद्यो मातापितृसुहृत्संवेद्यः संसारगर्ताऽऽवटनिपतनप्रहाणप्रवणः परमपुनीतः कस्य चेतो नावस्कन्दति। / तत्र शब्दप्रवृत्तिनिमित्तरूपस्य (गौणस्य) धर्मस्य धर्मिणा सहकान्तेन भेदेऽभ्युपगम्यमाने धर्मिणो निःस्वभावताऽऽपत्तिः, स्वभावस्य धर्मत्यात् तस्य च ततोऽन्यत्वात् , स्वो भावः स्वभावः, तस्यैवाऽऽत्मीया सत्ता, न तु तदर्थान्तरं धर्मरूपं, ततो न निःस्वभावताऽऽपत्तिरिति चेत्।न। इत्थं स्वरूपसत्ताऽभ्युपगमे तदपरसत्तासामान्ययोगकल्पनाया वैयर्थ्यप्रसङ्गात्। अपि च यद्येकान्तेन धर्म-धर्मिणोर्भेदः ततो धर्मिणो ज्ञेयत्वाऽऽदिभिधर्मरननुवेधात् तस्य सर्वथाऽनवगमप्रसङ्गः, न ह्यज्ञेयस्वभावं ज्ञातुं शक्यते इति। तथा च सति तदभावप्रसङ्गः, कदाचिदप्यवगमाभावात्, तथाऽपि तत्सत्त्वापगमेऽतिप्रसङ्गः, अन्यस्यापितस्य कस्यचित् कदाचिदप्यनवगतषष्ठभूताऽऽदेर्भावाऽऽपत्तेः। एवं च धर्म्यभाये धर्माणामपि ज्ञेयत्वप्रमेयत्वाऽऽदीनां निराश्रयत्वादभावाऽऽपत्तिः / न हि धाधाररहिताः क्वापि धर्माः संभवन्ति, तथाऽनुपलब्धेः। अन्यच-परस्परमपि तेषां धर्माणामेकान्तेन भेदाभ्युपगमे सत्त्वाऽऽद्यननुवेधात् कथं भावाभ्युपगमः? तदन्यसत्त्वाऽऽदिधर्माभ्युपगमे च धर्मित्वप्रसक्तिरनवस्था च / तन्नैकान्ताभेदपक्षे धर्मधर्मिभावः / नाप्येकान्तभेदपक्षे, यतस्तस्मिन् अभ्युपगम्यमाने धर्ममात्र वा स्यात्, धर्मिमात्रं वा? अन्यथैकान्तभेदानुपपत्तेः, अन्यतराभावाद् वा अन्यतरस्याप्यभावः, परस्परनान्तरीयकत्वात् / धर्मनान्तरीयको हि धर्मी , धर्मिनान्तरीयकाश्च धर्माः, ततः कथमेकाभावे पररूपावस्थानमिति? कल्पितो धर्मधर्मिभावस्ततो न दूषणमिति चेत्तर्हि वस्त्वभावप्रसङ्गः। न हि धर्मधर्मिस्वभावरहितं किञ्चिद वस्त्वस्ति, धर्मधर्मिभावश्च कल्पित इति तदभावप्रसङ्गः / धर्मा एव कल्पिता न धर्मी, तत्कथमभावप्रसङ्ग इति चेत्, नाधमार्णा कल्पनामात्रभावत्वाभ्युपगमेन परमार्थतोऽसत्त्वाभ्युपगमात् तदभावे च धर्मिणोऽप्यभावाऽऽपत्तिः / अथ तदेवैकं स्वलक्षणं स कलसजातीयविजातीयव्यावृत्त्येकस्वभावाः धर्मिव्यावृत्तिनिबन्धनाश्च या व्यावृत्तयो भिन्ना इव विकल्पितास्ता धर्मास्ततो न कश्चिद्दोषः। तदप्यसङ्गतम्। एवं कल्पनायां वस्तुनोऽनेकान्तात्मकताप्रसक्तेः / अन्यथा सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्त्ययोगात्, न हि येन निजस्वभावेन घटाद् व्यावर्तते पटस्तेनैव स्तम्भादपि, स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तेः / तथाहि-घटाद् व्यावर्तते घटव्यावृत्तिस्वभावतया, स्तम्भादपि चेत् घटव्यावृत्तिस्वभावतयैव व्यावर्तते, तर्हि बलात् स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तिः / अन्यथा-ततः तत्स्वभावतया व्यावृत्त्ययोगात्। तस्माद्द्यतो यतो व्यावर्तते तत्तद्व्यावृत्तिनिमित्तभूताः स्वभावा अवश्यमभ्युपगन्तव्याः, ते चानेकान्तेन धर्मिणो भिन्नाः, तदभावप्रसङ्गात्। तथा च तदवस्थ एव पूर्वोक्तो दोषः, तस्माद् भिन्ना अभिन्नाश्च / भेदाभेदोऽपि धर्मधर्मिणोः कथमिति चेत्, उच्यते-इह यद्यपि तादात्म्यतोधर्मिणा धर्माः सर्वेऽपिलोलीभावेन व्याप्ताः तथाऽप्ययं धर्मी, एते धर्मा इति परस्परं भेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तद् भावानुपपत्तिः। तथा च सति प्रतीतिबाधा, मिथो भेदेऽपिच विशिष्टान्योन्यानुवेधेन सर्वधर्माणां धर्मिणा व्याप्तत्वादभेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तस्य धर्मा इति प्रसङ्गानुपपत्तेरित्यलमप्रासङ्गिकवस्तुस्वभावरूपधर्मनिरूपणेन।
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________________ घण्टापथः। (26) अथ प्रकृतं निर्वृतिप्राप्तिसाधनीभूतं धर्म प्रस्तुमः''वचनादविरुद्धाद्य-दनुष्ठानं यथोदितम्। मैत्र्यादिभावसंमिश्र, तद्धर्म इति कीत्र्षते // 3 // " तथाहि- यदनुष्ठानमिहलोकपरलोकावपेक्ष्य हेयोपादेययोरर्थयोरिहैव शास्त्रे वक्ष्यमाणलक्षणा प्रवृत्तिरिति तद्धर्म इति कीय॑ते / “धर्मश्चित्तप्रभवो, यतः क्रियाऽधिकरणाऽऽश्रयं कार्यम् / मलविगमेनैतत् खलु, पुष्ट्यादिमदेष विज्ञेयः / / 2 / / रागाऽऽदयो मलाः खल्वागमसद्योगतो विगम एषाम् / तदयं क्रियात एव हि, पुष्टिश्चित्तस्य शुद्धस्य / / 3 / / पुष्टिः पुण्योपचयः, शुद्धिः पापक्षयेण निर्मलता। अनुबन्धिनि द्वयेऽस्मिन्, क्रमेण मुक्तिः परा क्ज्ञेया / / 4 / / '' अमुमेव धर्म भेदतः प्रभेदतश्च वर्णयन्ति वसिततिपतय:-'स द्विधा स्यादनुष्ठातृगृहिबतिविभागतः / सामान्यतो विशेषाच, सृहिधर्मोऽप्ययं द्विधा / / 4 / / '' 'धम्मो वावीसविहो, अगारधम्मोऽणगारधम्मो य। पढमा य वारसविहो, दसहा पुण वीयओ होइ।।१२॥" व्यासार्थ चाऽऽहुः सूरयः... 'सम्मत्तमूलमणुवयपणगं तिन्नि उगुणव्वया होति। सिक्खावयाइँ चउरो, वारसहा होइ गिहिधम्मो॥२॥" तथा च- "पाणे य नाइवाएजा, अदिन्नं वि य णादए। सादिणएंण मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमओ।।१६।। अतिकम ति वायाए, मणसा वि न पत्थए। सव्वओ संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे / / 20 // " सम्यगभ्यस्तश्रावकधर्मस्यातितावस्यैकान्ततो भवभ्रमणविमुखस्य संयतातिशिवसुखाभिलाषाऽतिरेकस्य यतिधर्मकरणश्रद्धोत्पद्यते, अतस्तत्स्वरूपनिरूपणायेदमाह- "खंतीय मद्दवऽजव, मुत्ती तव संजमे य बोधव्वे / सच सोयं आकि-चणं च बंभं च जइधम्मो॥४॥' तथाहि"पश्चाऽऽश्रवाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः। दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः / / 1 / / " "दुविहो उ भावधम्मो, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य / सुयधम्मे सज्झाओ, चरित्तधम्मे समणधम्मो ||1 // ' अथवा-"दुह होइ भावधम्मो, सुयचरणे या सुयम्मि सज्झाओ। चरणम्मि समणधम्मो, खंती मुत्ती भवे दसहा॥१॥" अथवा "लोइयलोउत्तीओ, दुविहो पुण होति भावधम्मो छ दुविहो वि दुविहतिविहो. पंचविहो होति णायव्यो।।१।।" तथाहि-भावधर्मो नोआगमतो द्विविधः तद्यथा-लौकिको, लोकोत्तरश्च / तत्र लौकिको द्विविधः-गृहस्थानां, पाखण्डिनां च / लोकोत्तरस्त्रिविधः- ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात् / तत्राप्याभिनिबोधिकं ज्ञानं पञ्चधा / दर्शनमप्यौपशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकवेदकक्षायिकवेदात् पञ्चविधम्। चारित्रमपि सामायिकाऽऽदिभेदात् पञ्चविधन्। “दव्व च अस्थिकाओ, पयारधम्मो य भावधम्मा य। दव्वस्स पजवा जे, तेधम्मा तस्सदव्वस्स / / 40 // तथाहि-''धम्मत्थिकायधम्मो, पयारधम्मो य विसयधम्मो उ। लोइय कुप्पावणिओ, लोगुत्तरलोगिणेगविहो / / 41 / / " अनेकविधत्वं तु- 'गम्मपसुदेसरजे, पुरवरगामगणिगोडिराईण / सावजो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि उ पसत्थी // 42 // " औदार्यदाक्षिण्यं, पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोधः। लिङ्गानिधर्मसिद्धेः, प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥२॥'आरोग्ये सति यद्वद्, व्याधिविकारा भवन्ति नो पुंसाम्। तद्वद्धर्माऽऽरोग्ये, पापविकारा अपि ज्ञेयाः।।१।।" तन्नास्य विषयतृष्णा, प्रभवत्युच्चैर्न दृष्टिसंमोहः। अरुचिर्न | धर्मपथ्ये, न च पापा क्रोधकण्डतिः // 2 // " "जीवदय सचवयणं परधणपरिवजणं सुसील च। खंती पंचिंदियनि-गहो यधम्मस्स मूलाई ||1||" धर्मानधिकारिणस्तु-"सुत्तेण चोइओ जो, अप्पं उदिसिय तंणं पडिवज्जे / सो तत्तवादबज्झो, न होइ धम्मम्मि अहिनारी // 6 // " सद्धर्मग्रहणयोग्यस्तु-"संविग्रस्तच्छुतेरेव, ज्ञाततत्त्वो नरोऽनघः / दृढ स्वशक्त्या जातेच्छ:, संग्रहेऽस्य प्रवर्तते // 20 // " किञ्च-चः कश्चिद् विदितसंसारस्वभावतया धर्मचरणैकप्रवणमनाः पूर्व प्रव्रज्याऽवसरे संयमानुष्ठानोत्थायी , पश्वाच्च अद्धासंवेगतया विशेषेण वर्द्धमानपरिणामो नो निपाती, सिंहतया निष्क्रान्तः, सिंहतया विहारी च, गणधराऽऽदिवत् / अथवा पूर्वोत्थायी, पुनर्विचित्रत्वात् कर्मपरिणतेस्तथाविधभवितव्यतानियोगात् पश्चान्निपाती स्यात्, नन्दिषेणाऽऽदिवत्। कश्चिद् गोष्ठामाहिलवत् दर्शनतोऽपि, इत्यादि सर्वे 'धम्म' शब्दे 2673 पृष्ठे विवृतम्। तदुद्भावकाश्चामी-"प्रावचनीधर्मकथी, वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च / विद्यासिद्धः ख्यातः, कविरपि चोद्भावकाश्चामी // 1 // " तथा च परिपक्वबुद्धित्वात् मध्यमक्या विशेषतो धर्हिः / यत उक्तमाचाराड़े-''मज्झिमणं वयसा एगे संबुज्झमाणा समुट्टिता सोचा मेधावी वयणं पडियाणं णिसामित्ता समयाए धम्मे आयरियेहिं पवेदिते ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा णो परिग्गहावंति, सव्वावंति च णं लोगसि णिहाय दंड पाणेहिं अकुव्वमाणे एस महं अगथे वियाहिए।" ततश्च- "धम्मो गुणा अहिंसा--इया उते परममंगलपइन्ना / देवा वि लोगपुज्जा, पणमंति सुधम्ममिइ हेऊ // 1 / / दिलुतो, अरंहता अणगारा य बहवो उ जिणसीसा / वत्तणुवत्ते नजइ, जं नरवइणो वि पणमति / / 2 / / उवसंहारो देवा, जह तह राया वि पणमइ सुधम्मं / तम्हा धम्मो मंगलमुक्किट्टमिइ य निगमणं ति // 3 // " साम्प्रतं प्रतिज्ञाशुद्धिरभिधीयते--"जह जिणसासणनिरया धम्म पालेंति साहवो सुद्ध। न कुतित्थिएसु एवं, दीसइ परिपालणोवाओ॥१३॥' अत्राऽऽह त्वेष्वपि च तन्त्रान्तरीयधर्मेषु धर्मशब्दो लोके रूढः, तथा च यथातथ नैजमेवधर्म प्रशंसन्ति, ततश्च कथमेतदिति? अत्रोच्यतेननूक्तः पूर्व सावद्यः कुतीर्थिकधर्मः तीर्थकरैः, षड्जीवनिकायपरिज्ञानाऽऽद्यभावादेवेत्यत्रापि बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, विस्तरभ्यात् 1 तथा च-तन्त्रान्तरायेषु धर्मेषु धर्मशब्दो यः स उपचारेण, निश्चयेन तु जिनशासने, यथा सिंहशब्दः सिंहे प्राधान्येन व्यवस्थितः,उपचारेण तु माणवकाऽऽदौ / उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्याऽऽदयः, धर्मेत्वहिंसाऽऽद्यभिधानाऽऽदयः। हेतुविशुद्धिस्तु-"जंभत्तपाणउवगर-णवसहिसयणाऽऽसणाइसुजयंति। फासुय अकयअकारिय-अणणुमयाणुदिट्ठभोईय।।६७॥" तदन्ये पुनः"अप्फासुयकयकारिय-अणुमयउद्दिट्ठभोइणो हंदि। तसथावरहिंसाए, जणा अकुसला उ लिप्पंति।।६८" दृष्टान्तविशुद्धिः- "जहा दुभस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं / ण य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं // 2 // ' अत्र चैवं व्यवस्थिते सति कोऽपि ब्रूयात्-यदिदं पाकनिर्वर्तनं गृहिभिः क्रियते, इदं पुण्योपादानसंकल्पेन श्रमणानां क्रियते सुविहितानां, गृह्णन्ति च ते ततो भिक्षामित्यतः पाकोपजावन
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________________ (27) घण्टापथः। इति कृत्वा लिप्यन्ते आरम्भदोषेणाऽऽहारकरणक्रियाफलेनेति / लौकिका अप्याहुः-"क्रयेण क्रायको हन्ति, उपभोगेन खादकः। घातको वधचित्तेन, इत्येष त्रिविधो वधः।।१॥" अत्र प्रतिविधीयते-"वासइन तणस्स कए, न नणं वड्डइ कए मयकुलाणं / न य रुक्खा सयसाहा, फुल्लंति कए महुयराणं / / 103 // " पुनरपि चोदको वदति-इह यदुक्तं-- वर्षति न तृणार्थमित्यादि / तदसाधु / यतः-"अग्गिम्मि हवी हूयइ, आइयो तेण पीणिओ संतो। वरिसइ पयाहिएण, तेणोसहिओ परोहंति // 104 // " अत्र पुनः प्रतिविधीयते-यद्येवं, किंदुर्भिक्षं जायते? यतः तद्धविः सदा हूयत एव, ततश्च कारणाविच्छेदेन कार्यविच्छेदोऽयुक्त एव / अथ भवेद् दुर्नक्षत्रं, दुर्यजनंवा? अत्राप्युत्तरम्-किंजायते सर्वत्र दुर्भिक्षम्, नक्षत्रस्य दुरिष्टस्य वा नियतदेशविषयत्वात्. सदैव सद्यज्वनां भावात्? उक्तं च--"सदैव देवाः सद्गावो, ब्राह्मणाश्च क्रियापराः। यतयः साधवाश्चैव, विद्यन्ते स्थितिहेतवः।।१।।" साम्प्रतं परामिप्रायः प्रदर्श्यते--"कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावइणा / सत्ताणं तेण दुमा, पुप्फती महुयरिगणट्ठा // 108||" अत्र प्रतिविधीयते- "तं पभवइ जेण दुभा, नामागोयस्स पुव्वविहियस्स / उदयेणं पुप्फफलं, निवत्तइंती इमं चऽन्नं ||106 // अत्थि बहू वणसंडा, भमरा जत्थन उति नवसंति। तत्थ वि पुप्फति दुमा, पगई एसा दुभगणाणं / / 110 // " अत्रोच्यते यदि प्रकृतिः, किमिति पुनः सर्वकालं न प्रयच्छन्ति पुष्पफलम्, यन्नियते एव काले पुष्प-- फलं ददति; अत एव एषा पादपाना प्रकृतिर्यद् ऋतुसमये वसन्ताऽऽदावागते सति वृक्षसंघाताः पुष्यन्ति, तथा फलं च कालेन बध्नन्ति, तदर्थानभ्युपगते तु नित्यप्रसङ्गः। साम्प्रतं प्रकृतेऽप्युक्तार्थयोजनामुपन्यस्यति-"किंतु गिही रंधती, समणाणं कारणा अहासमये। मासमणा भगवंतो, किलामएजा अणाहारा // 113 // " अत्राऽऽहन ह्येते हिरण्यग्रहणाऽऽदिनाऽस्माकमनुकम्पां कुर्वन्ति इति मत्वा भिक्षादानार्थ पाक निर्वर्तयन्त्यतः श्रमणानुकम्पानिमित्तं, तथा सामान्येन पुण्यनिमित्तं च गृहनिवासिन एव पाकं कुर्वन्ति / नैतदेवम् / यतः कान्तारे दुर्भिक्षे, ज्वराऽऽदौ महति समुत्पन्ने रात्रौ श्रमणाः सर्वाऽऽहारं न भुञ्जते, अथ किमित पुनर्गृहस्थास्तत्रापि आदरतरेण राध्यन्ति, अतः प्रकृतिरेषा गृहिणां वर्तते यद् गृहिणो ग्रामनगरनिगमेषु राध्यन्ति आत्मनः परिजनस्यार्थाय, तत्र श्रमणाः तपस्विनः परार्थमारब्धं परार्थ च निष्ठितं धूमरहितमाहा-रमेषन्ते मनोयोगाऽऽदीना संयमयोगानां वा साधनार्थम्। "ण हणइण हणावेइ, हणतणाणुजाणइ। न किणइन किणावेइ, किणतं नाणुजाणइ / न पयइ न पयावेइ, पयंतं नाणुजाणइ / ' एताभिनवकोटिभिः परिशुद्ध, तथोद्गमोत्पादनैषणाशुद्धम्-"वेयण वेयावचे, इरियट्टाएय संजमट्ठाए। तह पाणवित्तियाए, छट्ठ पुण धम्मचिंताए।।१।।" इति षट्स्थानरक्षणार्थं भवान्तरे प्रशस्तभावनाऽभ्यासादहिंसाऽनुपालनार्थच भुञ्जते। किच-"अवि भमरमहुपरिगणा, अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं। समणा पुण भगवंतो, नादिन्नं भोत्तुमिच्छति॥१२६॥" 'जह कुमगणा उ तह नगरजणवया पयणपायणसहावा / जह भमरा तह मुणिणो, नवरि अदत्तं न भुंजंति॥१३२।। कुसुमे सहावफुल्लं, आहारंति भमरा जह तहा उ। भत्तं सहावसिद्धं, समणसुविहिया गवेसंति॥१३३।।'' | 'तम्हा दयाइगुणसुट्ठिएहिँ भमरोव्व अवहवित्तीहिं। साहूहिं साहिओत्ती, उक्किट्ठ मंगलं धम्मो // 137 // " 'पडिपुण्णधम्मवियलत्त णेण इह अंतरायवियराओ। जीवाण हुँति णियमा,तो जत्तो तत्थकायव्वो॥१॥" लब्भइ सुरसामित्तं, लब्भइ पहुअत्तणं न संदेहो। इक्को नवरिनलब्भइ, जिणिंदवरदेसिओ धम्मो / / 1 / / धम्मो पवित्तिरूवो, लब्भइ कइया वि निरयदुक्खभया / जो नियवसुस्सहावो, सो धम्मो दुल्लहो लोए / / 2 / / नियवत्थुसवणधम्म, दुल्लह वुत्तं जिणिंदआणा या अंतप्फासणमेग-त्त हुति के सिंचि धीराणं / / 3 / / जउ धम्माउ सोहाग,धम्मेणं हृति सयलरिद्धीओ। धम्मेणं पवररूवं, संविग्गए भणियं / / 1 / / " तथा च"भद्दा सयलं किरियं, कुणति मुणिणो सिवत्थमेव सया।तं पुण लब्भइ गयसय-लरागदोसेण धम्मेण // 13 // " किञ्च- "धम्मेण सरागेण उ, लब्भइ सग्गाइयं फलं सो वि। जायइ परंपराए नियमेणं सुक्खहेउ त्ति // 14 // " धर्मस्य मोक्षकारणत्वमित्थमामनन्ति जैनप्रौढा:- "जे धम्म सुद्धमवखंति, पडिपुण्णमणेलिसं। अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कओ? ||16|" तथोक्तम्-“दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ् कुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाड्कुरः / / 1 / / " किञ्चान्यत्- "कओ कयाइ मेधावी, उप्पजति तहागया। तहागया अपडिपुन्ना, चक्खूलोगस्सऽणुत्तरा // 20 // " केवलि-प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रवणताऽपि दुर्लभा सामान्यलोकस्य। यतोऽवा–चि "सुलहा सुरलोयसिरी, रयणायरमेहला मही सुलहा। निव्वुइसुहजणियरुई, जिणवयणसुई, जए दुलहा / / 1 / / '' श्रुतस्य वा श्रद्धानता दुर्लभा। उक्तंच-''आय सवणलद्धं, सद्धा सवण-दुल्लहा। सोचा नेयाउयं मागं, बहवे परिभस्सइ ||1 // " "भक्ष्या भक्ष्यविवेकाच, गम्यागम्यविवेकतः। तपोदयाविशेषाच, सधर्मो व्यवतिष्ठते॥१॥" इत्यलंबहुविस्तरोपन्यासेना प्रकृतमनुसरामःइह हि दुरन्तानन्तचतुरन्तासारविसारिसंसारापारपारावारे निमज्जता भव्यजन्तुना जिनप्रवचनप्रतीतचोल्लकाऽऽदिदशनिदर्शनदुष्प्रापां कथमपि प्रशस्तसमस्तमनुजजन्माऽऽदिसामग्रीमवाप्य भवजलधिसमुत्तरणप्रवणप्रवहणस्वधर्मसद्धर्मविधाने प्रयत्नो विधेयः / यदवादि'भवकोटीदुष्प्रापाम्, अवाप्य नृभवाऽऽदिसकलसामग्रीम्। भवजलधियानपात्रे, धर्मे यत्नः सदा कार्यः ||1 // " कामार्थयोस्तु बाधायामपि धर्मो रक्षणीयः,धर्ममूलत्वादर्थ-कामयोः। उक्तं च-"धर्मश्चन्नावसीदेत, कपालेनापि जीवतः। आढ्योऽस्मीत्यवगन्तव्यं, धर्मवित्ता हि साधवः // 1 // " अथवा धर्मावाप्तौ कामार्थयोः क्षतिरत्यादरणीया- "जाव न दुक्खं पत्ता, माणभंसंच पाणिणो पायं। ताव न धम्मं गेण्हंति भावओ तेयलिसुयव्व।।१।।" अथवा-"नेह लोके सुखं किञ्चिच्छादितस्याहसा भृशम् / मितं च जीवितं नृणां तेन धर्मे मतिं कुरु // 1 // '' प्रक्रान्तमेव समर्थयन्नाह- "जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्डइ। जार्विदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे // 36 // " "ते धन्ना जे धम्म, चरित जिणदेसियं पयत्तेणं / गिडिपासबन्धणाओ, उम्मुक्का सव्वभावेणं // 1 // " तथाहि"निर्वाणाऽऽदिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते, लब्ध स्वल्पमचारु कामजसुखं नो सेवितुंयुज्यते।
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________________ घण्टापथः। (28) वैयूर्याऽऽदिमहोपलौघनिचित, प्राप्तेऽपि रत्नाकरे, लातुं स्वल्पमदीप्ति काचशकलं, किं चोचितं साम्प्रतम्॥१॥" अपरश- वदत यदीह कश्चिदनुसंततसुखपरिभोगलालितः / प्रयत्नशतपरोऽपि विगतव्यथमायुरवाप्तवान् नरः / / 1 / / न खलु नरः सुरौघसिद्धासुरकिन्नरनायकोऽपि यः / सोऽपि कृतान्तदन्तकुलिशाऽऽक्रमेण कृशितो न नश्यति / / 2 / / ' मृत्युमुखप्रतिषेधस्योपायोऽपि न कश्चिदस्तीति। उक्तं च"नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां, चरति गुरुव्रतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातरः। तपति तपांसि खादति मितानि करोति च मन्त्रसाधनं, तदपि कृतान्तदन्तयन्त्रक्रकचक्रमणैर्विदार्यते॥१॥" अथवा-"जो वाससयं जीवइ, सुहीभोगे य भुंजइ। तस्स वि सेविउं सेओ, धम्मो य जिणदेसिओ // 22 / / किं पुण सपच्चवाए. जो नरो निचदुक्खिओ। सुळुयरं तेण कायव्यो, धम्मो व जिणदेसिओ॥२३॥" तस्मात्-''नंदमाणो चरे धम्म, वरं मे लट्ठतरं भवे। अनंदभाणो वि चरे, मा मे पावतरं भवे // 24 // " किञ्च-"न विजाइं कुलं वा वि, विज्जा नावि सुसिक्खिया। तारेइ नर व नारि वा, सव्वं पुन्नेहि वड्डई / / 25 / / " पुग्नेहि हीयमाणेहि, पुरिसागारो वि हायई। पुन्नेहिं वड्डमाणेहिं, पुरिसागारो वि वड्डई // 26 // ' अथवा-"संवयणं संठाणं, उच्चत्तं आउयं च मणुयाण / अणुसमयं परिहावइ, ओसप्पिणिकालदोसेणं / / 1 / / " कोहमयमाणलोभा, ओसन्न वड्डए य मणुयाणं / कुडतुलकूडमाणा, तेणऽणुमाणेण सव्वं ति / / 2 / / विसमा अन्ज तुलाओ, विसमाणि य जणवएसु जाणाणि। विसमा रायकुलाई, जेण उ विसमा वासाइँ / / 3 / / विसमेसुव वासेसुं. हुति असाराइँ ओसहिवलाई। ओसहिदुब्बल्लेण य, आऊ परिहायइ नराण // 4 // एवं परिहायमाणे, लोए चंदुव्व कालपक्खम्मि / जे धम्मिया मणुस्सा, सुजीवियं जीविय तेसिं॥५॥" यतो नरणसमये-''पुत्ता चयंति मित्ता, चयति भज्जा वि णंऽम्मयं चयति / तं मरणदेसकाले, ण चयइ सुविअजिओ धम्मो // 11|| धम्मो ताणं धम्मो सरणं, धम्मो गई पइट्ठा याधम्मेण सुवरिएणय, गम्मइ अजरामरं ठाणं॥१३३। पीइकरो वन्नकरो, भासकरो जसकरो रइकरो या अभयकरो निवुइकरो, परत्त वी अजिओ धम्मो / / 13 / / अमरवरेसु अणोवमरूवं भोगोवभोगरिद्धी य / विन्नाण नाणमेव य, लब्भइ सुकएणधम्मेण // 14 // देविंदचक्कवट्टित्तणाइँ रजाइँ इच्छिया भोगा / एयाइँ धम्मलाभो,फलाइँ जं चावि निव्वाणं // 15 // ' किञ्च-"दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून्, यस्माद् धारयते ततः / धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः // 1||" तस्मात्-'धम्माओ धणलाभो, तिजं पिवुत्तं तयं पिन हुजुत्तं / सव्वो विहू पुरिसत्थो, धम्माउ चिय जओ भणिया / / 15 / / " उक्त च-"धनदोधनार्थिनां धर्मः, कामदः सर्वकामिनाम्। धर्म एवापवर्गस्य, परम्पर्येण साधकः॥१६॥" 'धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनदः कामार्थिनां कामदः, सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः किमथवा पुत्रार्थिनां पुत्रदः। राज्यार्यिष्वपि राज्यदः किमपरं नानाविकल्पैर्नृणा, तत् किं यन्न ददाति किञ्च तनुते स्वर्गापवर्गावपि // 54 // " एवं च-"धर्मश्रवर्ण यत्नः, सततं कार्या बहुश्रुतसमीपे। हितकाक्षिभिर्नृसिंह-वचन ननु हारिभद्रीयम्॥१७॥" अनेकविद्याविशारदोऽपि धर्मशासनानभिज्ञो विकल एव / यदुक्तम्"साहित्यस्य विशारदो यदि पर जानाति सल्लक्षणं, तर्के कर्कशमानसोऽतविभुता यद्यस्ति सा ज्योतिषि / किचानेककलाऽऽलयोऽपि विकलः प्राणी परं गीयते, यो जानाति न स्वर्गमोक्षसुखदं धर्मानुगं शासनम् / / 1 / / '' अथवा कियब्रूमः"यत्प्रोद्दाममदान्धसिन्धुरघट साम्राज्यमासाद्यते, यनिःशेषजनप्रमोदजनकं संपद्यते वैभवम्। यत्पूर्णेन्दुसमद्युतिर्गुणगणः संप्राप्यते यत्परं, सौभाग्यं च विजृम्भते तदखिलं धर्मस्य लीलायितम् // 1 // " किञ्च"यन प्लावयति / क्षिति जलविधिः कल्लोलमालाऽऽकुलो, यत् पृथ्वीमखिलां धिनोति सलिलाऽऽसारेण धाराधरः। यच द्रोष्णरुची जगत्युदयतः सर्वान्धकाराच्छिदे, तन्निशेषमपि ध्रुवं विजयते धर्मस्य विस्फूर्जितम // 1 // " किन्तु साम्प्रतमनेकानि धर्माभिधेयधुराधराणि मिथ्यात्विमतानि प्रचलितानि सन्ति, ततो विवेकः कर्तव्यः / यदुक्तम्- "तं शब्दमात्रेण वदन्ति धर्म , विश्वेऽपि लोका न विचरियन्ति। स शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेदैर्विभिद्यते क्षीरमेवार्जुनीयम् // 1 // " यथा “लक्ष्मी विधातु सकला समर्थ, सदुर्लभ विश्वजननिमेनम् / परीक्ष्य गण्हन्ति विचारदक्षाः, सुवर्णवद्धन्त न भीतचित्ताः॥१॥' अथवा--''सत्कारयशोलाभार्थिभिश्च मूरिहान्यतीर्थकरैः। अवसादितं जगदिद, प्रियाण्यपथ्यान्युपदिशद्भिः // 1 // " किञ्च-"प्रायेण हि यदपथ्ये, तदेव चातुरजनप्रियं भवति / विषयाऽऽतुरस्य जगतस्तथाऽनुकूलाः प्रिया विषयाः / / 1 / / " अन्यच्च"पूर्वापरविरुद्धानि, हिंसाऽऽदेः कारकाणि च / वचांसि चित्ररूपाणि, व्याकुर्वद् - भिर्निजेच्छया // 3 // " कुतीर्थिकैः प्रणीतस्य, सद्गतिप्रतिपन्थिनः। धर्मस्य सकलस्यापि, कथं स्वख्यातता भवेत् ? ||4|| यच तत्समये क्वापि, दयासत्याऽऽदिपोषणम् / दृश्यते तद् वचोमात्रं, बुधैज्ञेयं न तत्त्वतः // 5 // '' किन्तु-"स्वाऽऽख्यातः खलु धर्मोऽयं, भगवद्भिर्जिनोत्तमैः / य समालम्बमानो हि, न मजेद् भवसागरे / / 1 / / " अतः-"अर्हता कथितो धर्मः, सत्योऽयमिति भावयन् / सर्वसंपत्करे धर्म, धीमान् दृढतरो भवेत्॥१॥' अत एवोक्तम्- "न श्रद्धयैव त्वपि पक्षपातो, न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु / यथा वदाप्तत्वपरीक्षया तु, त्वामेव वीरं प्रभुमाश्रयामः / / 1 / / " अथवा-''पश्यैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम्। अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम्॥१।।" इति / इह हि हेयोपादेयाऽऽदिपदार्थसार्थपरिज्ञानप्रवीणस्य जन्मजरामरणरोगशोकाऽऽदिदुर्गदौर्गत्यनिपीडितस्य भव्यसत्त्वस्य स्वर्गापवर्गाऽऽदिसुखसंपत् संपादनाबन्ध्यनिबन्धनं सद्धर्मरत्नमुपादा-तुमुचितं, तदुपादानोपायश्व गुरूपदेशमन्तरेण न सम्यक् विज्ञायते, न चानुपायप्रवृत्तानाममीष्टार्थासिद्धिरिति / स चाऽऽज्ञाऽऽदिपदार्थसार्थस्वरूपपयोलोचनैकाग्रतारूपस्य धर्मस्यध्यानावस्थितिरिति। तच्च ध्यान द्विविधम्बाह्यम्, आध्यात्मिकंचा तत्र बाह्यम्सूत्रार्थपर्यालोचनम्, दृढव्रतता, शील
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________________ (26) घण्टापथः। गुणानुरागों, निभृतकायवागव्यापाराऽऽदिरूपम् / यदुक्तं दशवैकालिकटीकायाम्- "सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनाऽऽगमहेतुचिन्ता। पझेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यानं तु धर्ममिति संप्रवदन्ति, तज्ज्ञाः / / 1 // " आत्मनः स्वसंवेदनाग्राह्यमन्येषामनुमेयमाध्यात्मिकं तु तत्त्वार्थसंग्रहाऽऽदौ चातुर्विध्येन प्रदर्शितं, संक्षेपतोऽन्यत्र दशविधाम् / तद् यथा-"अपायोपायजीवाजीवविपाकविरागभवसंस्थानाऽऽज्ञाहेतुविचयानि चेति / " तथाहि दुष्टमनोवाक्कायव्यापारविशेषाणामपायः कथमनुमानं स्यादित्येवंभूतः संकल्पमबन्धो दोषपरिवर्जनस्य कुशलप्रवृत्तित्वादपायश्चियम्। तेषामेव कुशलानां स्वीकरणमुपायः स कथमनुमेयः स्यादिति संकल्पप्रबन्ध उपायविचयम् / असंख्येयप्रदेशाऽऽल्मकसाकारानाकारोपयोगलक्षणानादिस्वकृतकर्मफलोपभोगित्वाऽऽदिजीवस्वरूपानुचिन्तनं जीवविचयम् / धर्माधर्माऽऽकाशकालपुद्गलानामनन्तपर्यायाऽऽत्मकानामजीवानामनु चिन्तनमजीवविचयम / मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नस्य पुद्गलाऽऽत्मकस्य मधुरकटुफलस्य कर्मणः संसारिसत्त्वविषयविपाकविशेषानुचिन्तनं विपाकविचयम्। कुत्सितमिदं शरीरकं शुक्रशोणितममुद्-भूतमशुचिभृतघटोपममनित्यमपरित्राणं गदाशुचि नवछिद्रतथाऽशुचि आधेयाशौचं न किञ्चिदत्र कमनीयतरं समस्ति, किम्पाकफलोपभोगोपमाः प्रमुखरसिका विपाककटयः प्रकृत्या भङ्गुराः पराधीनाः सन्तोषामृताऽऽस्वादपरिपन्थिनः सनिनिन्दिता विषयाः, तदुद्भवंचसुखं दुःखानुषङ्गि दुःखजनके च, नातो भोगिनां तृप्तिः, न चैतदात्यन्तिकमिति नाऽत्राऽऽस्था विवेकेनाऽऽधातुं युक्तेति विरतिरेवातः श्रेयस्कारिणीत्यादिविरागहेतुचिन्तनं वैराग्यविचयम्। प्रेत्य स्वकृतकर्मफलोपभोगार्थं पुनः प्रादुर्भावो भवः, स चारघट्टघटी यन्त्रवद् मूत्रपुरीषान्त्रतन्त्रनिबद्धदुर्गन्धजछरपुरकोटराऽऽदिष्वजसमावर्तनं, न चात्र किञ्चिद् जन्तोः स्वकृतकर्मफलमनुभवतश्वेतनमचतनं वा सहायभूतं शरणतां प्रतिपद्यवइत्यादिभवसंक्रान्तिदोषपर्यालोचनं भवविचयम् / तथा च "संसाराम्बुनिधौ सत्त्वाः, कार्मिपरिघट्टिताः / संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते, तत्र कः कस्य बान्धवः? // 1 // " अत्यायतेऽस्मिन् संसारे, भूयो जन्मनि जन्मनि / सत्त्वो नैवास्त्यसौ कश्चिद, यो नबन्धुरनेकधा।॥१॥" भवनवननगसरित्समुद्रभूरुहाऽऽदयः पृथ्वीव्यवस्थिताः, साऽपि घनोदधिधनवाततभुवातप्रतिष्ठा, तेऽप्याकाशप्रतिष्ठाः, तदपि स्वाऽऽत्मप्रतिष्ट, तचाधोमुखमल्लकसंस्थान वर्ण यन्त्यधोलोकमित्यादिसंस्थानानुचिन्तनं संस्थानविचयम् / अतीन्द्रियत्वाद् हेतूदाहरणाऽऽदिसद्भावेऽपि बुद्धयतिशयशक्तिविकलैः परलोकबन्धमोक्षधर्माधर्माऽऽदिभविष्वत्यन्तदुःखबोधेष्याप्तप्रामाण्यात् तद्विषयं तद्वचनं तथैवेत्याज्ञाविचयम् / आगमविषयप्रतिपत्तौ तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः स्याद्वादप्ररूपकाऽऽगमस्य कषच्छेदतापशुद्धिसमाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तनं हेतुविचयम् / एतच सर्व धर्मध्यानम्, श्रेयोहेतुत्वात् इति सर्वं सुस्थम्। इतोऽप्यधिकविषयजिज्ञासुभिः सूक्ष्मधिया धर्मशब्दोऽत्र निरीक्षणीयः। प्रतायते नेह, विस्तरभयादिति।। उपसंहारःइह संसारे स्वभावत एव शरीरिमात्रमिष्टमभिलाषुकधानिष्ट व्युदसिसिषु चास्तीतीष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारोपायप्रकाशनैदम्पर्येण भगवाँस्तीर्थरच क्रचूडामणिर्वद्धमानो जीवाजीवाऽऽदिनवतत्त्वविभागप्रविभागभक्तां सर्वाभ्युदयसाधनां नानाविधसमष्टिव्यष्टिफला द्वादशाङ्गीमेकादशाड़ी वाऽर्थतो विदधदभिदधौ तन्नित्कर्ष निजचरणान्तेवासभ्यो धर धौरेयेभ्यो गणधरप्रवरेभ्यो गौतगाऽऽदिभ्यः। जग्रन्थुश्व सुधर्मस्वामिप्रमुखा जम्बूस्वामिप्रभृतिमुपलक्ष्यार्धमागधीभाषयाऽङ्गोपाङ्गानि / गहनातिगहनतया च तद्विषयाणां संक्षिप्ततराणां तेषां क्रमशो विस्तारमारेभिरेऽन्ये चाऽऽचार्याः। य अपि किल दुष्पमारप्रभावतः पुरुषाणां मन्दमतितया स्मरणशुक्तिदौर्बल्यतया च श्रीमाद् भद्रबाहुस्वामी तत्तद्विषयमात्रसूचिकाभिर्नियुक्तिगाथाभिर्निवबन्धविषयान् सद्याः स्फूर्तिकराभिः, तथापि साऽप्रतकालीनबलउत्तर पञ्चमकालप्राज्यसाम्राज्यतो दुर्बलतरधिषणानां जनानां मनःसु कथाशेषतामेवागमत् तद् जैनसिद्धान्त-- रहस्यमिति सम्प्रधायैव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरमहानुभावाः सङ्गितमु तानबह र्थगुम्फितं परमोपयोगिसकलाऽऽगमविषयसंग्रहाऽऽत्मक कोशमसुं व्यरीरचन्निति क्रियासमभिहारेण तत्र तत्रोपोद्धातप्रस्तावभूमिकाऽऽदौ निरूपितमस्माभिः / श्रीमन्तो विजयराजेन्द्रसूरीश्वराः खलु दुर्लभगुणगणमूर्तय इत्यत्र किमिव बहु बूमः? किन्त्वेतावदेव पर्याप्त नाम, यदिह प्रायोऽनेकगुणगणभाजोऽन्ये सूरयो देशनामादिशन्तोऽपि नो खलु प्राप्नुवन्ति तथाविधं विपश्चिचित्ताऽऽसेचनकवैदुष्यशालित्वम्। अथवा किंबहुना सकललोकप्रसिद्धस्यतस्य परिचयप्रदानेन / प्रकृतं प्रस्तुमः एतद्ग्रन्थपरिशोधनविषये छेदाऽऽदिग्रन्थानां केवलमे के काऽऽदर्शपुस्तकलाभात् लेखकानवधानतो द्विरावृत्तिपड्क्तिवैकल्याऽऽदिदोषाऽऽघ्रातत्वाच तेषामनेककालतः पठनपाठनपरिपाटीविरहात् बहुषु स्थलेषु सामञ्जस्याभावात् सम्भत्यादितर्कग्रन्थानामपि जटिलातिजटिलविषयेषु विज्ञेतरलेखकलेखनमन्तुप्रभावतोऽलग्नकत्वाद् महती दुःस्थता समुद्भूता,तथापि श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि।' इति स्मरणात् "प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः। विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्य मानाः, प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति // 1 // " इत्यनु-स्मरणाच मूलग्रन्थं टीकातो, टीकाग्रन्थं च मूलतो विविज्य, निशीथमहानिशीथाऽऽदिकेवलाऽर्धमागधीग्रन्थानां टीकाविकलानां प्राकृतव्याकृत्याऽऽदिसाहाय्यात् तत् प्रकृतविषयप्रतिपादकग्रन्थान्तरमननाच गुरुचरणसरोजमकरन्दसमास्वादनलब्धनवनवोन्मेषशालिप्रज्ञावद्भिरस्माभिर्दत्ताबधानतः संशोधितोऽयं कोशग्रन्थो, विशेषतश्चायं भागः, परन्तु Ideem no skill in acting perfect, till the learned are satisfied; the heart of even those that are deeply read, has little confidence in itself. 372191-when delegated agents successfully carry out any great undertaking the credit of success belongs to their masters a: Could dawn ever dispel darkness, had not the thousandrayed luminary placed her, in front of his car? इति निवेदयन्तिसंशोधकाः।
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________________ घण्टापथः। (30) अर्हम्। ग्रन्थनिर्माणकारणम्श्रीवर्धमानजिनगौतमसत्सुधर्मजम्बूमुनीन्द्रजगदर्चितभद्रबाहोः / यो वर्धितो निजकृतोदकसेचनाभिधर्मद्रुमो निखिलधर्मतरुप्रधानः ||1|| काले गते बहुतिथेऽथ विलुण्ठितं तं, मूलार्थविप्लवनसाहसमाश्रयद्भिः / मिथ्यात्विभिः पुनरपीह समुद्विधीर्षुः, सूरीश्वरो भुवि दयोदधिराविरासीत् // 2 / / कामाऽऽदिवैरिनिवहोन्मथनाद्त्सुहृष्टः, बाह्याऽऽन्तरोभयविचित्रचरित्रदृष्टः / कारुण्यपूर्णरसपूरितभव्यपुण्यनीराब्धिसंगतसुधोन्मथने समर्थः / / 3 / / चेतोऽन्धकारोद्धरणे विरोचनो, राजेन्द्रसूरिर्विबुधार्चिताघ्रिकः / संघोपकर्ता न च कोऽपि तादृशः पुण्यैकमूर्ति विकौघबोधदः ||4|| निजमतच्युतिजैनमतग्रहान्यतरमाहवभङ्गपणं दिशन् / विततवादकथासमरे परान्, व्यजयताऽजयतां प्रथयन्निजाम् // 5 // अथ विजित्य दिशो दश शिष्यतां, गतवतः करुणावरुणाऽऽलयः / मुनिगणान् नववादरणाऽङ्गणे, निजधियाऽजधिया समयोजयत् // 6|| सूत्राण्युपास्य तदुपोदलितैः स्ववाक्यैराख्यानकैश्च विततैर्निजदेशनाभिः / यो जैनसंघमखिलं कृपयोद्दधार, सूरिः स वै विजयते स्म पवित्रकीर्तिः / / 7 / / इत्थं स जैनाऽऽगममत्र लोके, सम्यग् व्यवस्थाप्य न संतुतोष / कालक्रमेणास्य पुनर्विनाश-- माशङ्कमानो विजितान्यमानः ||8|| ततोऽभ्यगात् शिष्यगणैः सुविज्ञैवृतो विहारेण मरुस्थलं तु / उवास कालं चिरमात्मतत्त्वं, तान् बोधयन् धर्मशिरःप्रतिष्ठम् ||6|| अथैकदा संसदि सन्निविष्टो, निजाऽऽप्तशिष्याऽऽदिविभूषितायाम् / सङ्घोपकण्ठं च निजाभिलार्ष, व्यजिज्ञपत् सूरिवरः कृपालुः ||10|| जैनाऽऽगमानां निजयुक्तियोगात्, संयोक्तुमेकत्र नवीनरीत्या / / कोशं विधित्सामि जिनेन्द्रभाषामयं न लुप्येत यतः कदाचित् // 11 / / श्रुत्वा पुनस्तमुपदेशवरं प्रहृष्टामूर्नाऽग्रहीषत गुरोरनुशासनं तत् / संगृह्य द्रव्यमतुल्यं च ततोऽभिधानराजेन्द्रकोशममलं निरमापयँस्ते // 12 // इति विज्ञपयन्तिश्रीमदुपाध्यायमोहनमुनयः।
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________________ (31) प्रशान्त-वपुषं श्रीमद् राजेन्द्रसूरिं नुमः प्रशान्त विद्यालकरणं सुधर्मशरणं मिथ्यात्विनां दूषणं, विद्न्मण्डलमण्डनं सुजनता सदोधिबीजपदम् / सच्चरित्रनिधिं दयाभरविधि प्रज्ञावतामादिमम्, जैनानां नवजीवनं गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः // 1 // धुर्यो यो दशसंख्येकेऽपि यतिनां धर्मे दृढः संयमे, सत्वात्मा जनतोमकारनिरतो भव्यात्मनां बोधकः / शास्त्राणां परिशीलने दृढमतिानी क्षमावारिधि स्तं शान्तं करुणावतारमनिशं राजेन्द्रसूरिं नुमः // 2 // वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिमहाजजुला, संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा / बुद्धिलॊकसुखानुचिंतनपरा कल्याणकों नृणां, लोके सुप्रथिपताऽस्ति तं गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः / / 3 / / यकर्ता जिनबिम्बकाञ्जनशलाका नामनेकाऽऽत्मनां, __मूर्तिश्चापि जिनेश्वरस्य शतशः प्रातिष्ठिपन्मन्दिरे / जीर्णोद्धारमनेकजैननिलयस्याचीकरच्छावकै स्तं सत्कार्यकरं मुदा गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः // 4 / / लोके यो विहरन् सदा स्ववचनैर्वरं मिथो देहिनां, दूरीकृत्य सहानुभूतिरुचिरां मैत्री समावर्धयत् / मूढाँश्चापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मनः संव्यधाद्, देशोपद्रवनाशकं तमजित राजेन्दसूरि नुमः / / 5 // यो गङ्गाजलभिर्मलान् गुणगुणान् संधारयन् वर्णिराङ्, यं यं देशमञ्चकार गरनैस्तं तं त्वपायीन्मुदा। सच्छास्त्रामृतवाक्यावर्षणवशाद् मेधव्रतं योऽधरन्, तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्दसूरिं नुमः // 6 // तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताचलः, शास्त्रार्थेषु परान् विजित्य विविधैनिस्तथा युक्तिभिः / शिष्यांस्तानकरोत्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुः प्रभु स्ते सूरिप्रवरं प्रशान्त-वपुषं राजेन्द्रसूरिः नुमः // 7 // लोकान्मंदमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून् वीक्ष्य यो, जैनाचार्यनिबद्धसर्वनिगमानालोङय बुद्ध्या चिरम् / मान् बोधियितुं सुखेन विशदान् धर्मान्महामागधीकोशं संव्यत्तनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरि नुमः / / 8 / / गुरुवरगुणराजिभ्राजितं सारभूतं, परिपठति मनुष्यो योऽष्टकं शुद्धमेत्तद् / अनुभवति स सर्वां सम्पदं मानावानामिति वदति मुनीशो वाचको मोहनाख्यः || 6 || -उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज
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________________ // श्री वीतरागाय नमः // अभिधानराजेन्द्रः / नमिऊण वद्धमाणं, सारं गहिऊण आगमाणं च / अहुणा चउत्थभागं, वोच्छं अभिहाणराइंदे ||1|| जकार ज पुं० (ज) जकारो व्यञ्जनवर्णभेदः स्पर्शसंज्ञकः, तस्योच्चारणस्थानं तालु, आभ्यन्तरप्रेयत्नः जिह्वामध्यभागेन तालुस्पर्शः। बाह्यप्रयत्नाश्च घोषसंवारनादाः, अल्पप्राणश्च ।वाच०। जिजन-जुवाडः / मृत्युञ्जये, जन्मनि, पितरि, जनार्दने, त्रि० / विषे, मुक्तौ, तेजसि, पिशाचे, वेगे, जेतरि। वाच० "जः पुमान् विजये मरौ, विस्तरे मत्सरे जने // 24 // जस्तृयाविरते शब्दे, जा स्त्रियां देववाहिनी। योनिः समुद्रवेला च, जं नपुंसकमम्बुनि' / / 25 / / एका० / गुरुमध्ये प्रान्तयोलघुद्वययुक्ते छन्दःशास्त्रप्रसिद्धे (151) त्रिवर्णे जगणे च। वाच०। *य त्रि० "यकारः पुंसि यवनो-पमे, दातरि, मातरि / / 70 / / त्यागावयवयोः शिष्ये, विनये कल्पपादपे / सा स्त्रियामनसूयायां, शोभालक्ष्मयां च निर्मितो // 71 / / नपुसंक यकारस्तु यशोरूपकयोर्भवेत्' / इत्यादि। एका०। *यद् त्रि० यज अदि-डिच / 'जो' इत्येवं बुद्धिविशेषविषये, वाच०। अनिर्दिष्टनिर्देश्ये, नं०। आ० म०नि० चू०। 'जे त्ति वा से त्ति वा के त्ति वा एवमादिनिवेसवायगा होति। जेकारस्स निद्देस-निदरिसणं, जे असंतएण अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाइ' इत्यादि। नि० चू० / "जेगारो पुण अणिद्दिद्ववायगुद्देसे, जहा तेण च जं च पडुचेत्या-दि। अहवा-जहा इमो चेवजेगारो उस्सग्गऽववायचिएण पडिसेवियं वत्तिन निट्टि गुरुं लहुं वा जयणाए, जयणाहि वा, तेण जेगारेण निद्देसा कृतेत्यर्थः / अहवा-जेकारेण अनिद्दिट्ठ-भिक्खुस्स निदेसो कतो"। नि० चू०२० उ० / यदित्युद्देशः / आव०४ अ०। जइ पुं० (यति) यत्-इन् / यतते चारित्रं प्रति प्रयतो भवतीति यतिः / चरणोद्यते साधौ, औ० / यतते उत्तरगुणेषु विशेषत इति यतिः। विचित्रद्रव्याऽऽद्यभिग्रहाऽऽद्युपेते साधौ, रा०ातपस्विनि साधौ, आव०१ अ०1 साधौ, दर्श०४ तत्त्व / प्रयत्नवति, द्वा०६६ द्वा०। 'यती' प्रयत्ने, "जयमाणो जई होइ" नि० चू०२० उ० यतमानो भावतस्तथा तथा गुणेषु यतिर्भवेत्। द्वा०५ द्वा०। धर्मक्रियासु प्रयत (प्रवर्त) माने, भ०६ श०३३ उ०। ओघ०। प्रव्रजिते, पं०व०२ द्वार। नि० चू० / गृहीतप्रव्रज्यो यतिरुच्यते। तथा च धर्मबिन्दुः- "एवं यः शुद्धयोगेन, परित्यज्य गृहाऽऽश्र-मम्। संयमे रमते नित्यं, स यतिः परिकीर्तितः // 1 // " ध०३ अधि० / संवासानुमतेरपि विरते, क० प्र० / मुनौ, पञ्चा०१ विव०। संयते, दश०३ अ०। उत्तमाऽऽश्रमिणि, द्वा०२६ द्वा०। ध०। "ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथा।" इति लोक प्रसिद्धचतुर्थाऽऽश्रमिणि, नि०३ वर्ग / यम्यते जिह्वा यत्र। यम-क्तिन / छन्दोग्रन्थविख्याते जिह्वाया विश्रामस्थाने उच्चारणकालविच्छेदे, स्त्री० / सा च "क्वचित् छन्दस्यास्ते यतिरभिहिता पूर्वकृतिभिः / पदान्ते सा शोभा व्रजति पदमध्ये त्यजति च।' इत्याधुक्त्या, सुप्तिडन्तरूपपदान्ते एव छन्दोग्रन्थानुसारेण जिह्वाया विश्रामरूपोचारणाभावरूपा। विधवाया, रागे, सन्निधौ, पाठविच्छेदे, निकारे, विष्णौ, वाद्याङ्गप्रबन्धभेदे च / यत् -परिमाणे डतिः। यत्परिमाणे, त्रि० / वाच० स्था०। *यतिन् पुं० यम-भावे क्तः। यतं यमन, यतमनेन इनिः। संन्यासिनि परिव्राजके, विधवायां, स्त्री०। डीप् / वाच० / विच्छेदे, आ० म०प्र०। विरती, अनु०।''ज्ञेया सकामा यतिनाम'' इति योगशास्त्रे हैमप्रयोगः। *जयिन् त्रि० जयवति, औ०। *जविन् त्रि० वेगवति, औ०। *यदि अव्य० यद् णिच् इन् णिलोपः / पक्षान्तरे, संभावनायां, गर्रयां, विकल्पे च / वाच० / अभ्युपगमे, नि० चू० 1 उ० / जी01 पञ्चा०। आव० / आ० म०। विशे०।यदीतिपराभ्युपगमसंसूचकः / दश०१अ०। जइअव्यन० (यतितव्य) कार्येप्रयन्ते, पं०व०१द्वार। "जइअव्वं जाया" प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयन्तः कार्यः / भ०६ श० 33 उ० / ऐहिकाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्यः। प्रयतितव्ये, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। कार्ये उद्यमे, पं०५०१ द्वार। घटितव्य, नि० चू०११ उ०। जइकिचन० (यतिकृत्य) साधोः कर्तव्ये, पञ्चा०१२विव०। साध्वनुष्ठाने, जीवा० 25 अधि०। जइच्छा स्त्री० (यदृच्छा) यद्-ऋच्छ-अ-टाप / स्वातन्त्र्ये स्वैरतायां च। 'यदृच्छालाभसंतुष्ट" वाच० / अनभिसंधिपूर्विकार्थप्राप्ता, (आचा०) यदृच्छा तोऽपि नास्तित्वमात्मनः, का पुनर्यदृच्छा ? अनभिसंधि-पृर्विकाऽर्थप्राप्तिर्पदृच्छा। 'अतर्कि तोपस्थितमेव सर्व, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् / काकम्य तालेन तथाऽभिघातो, न बुद्धि पूर्वोऽव वृथाऽभिमानः / / 1 / / सत्यं पिशाचस्य वने वसामो, भेरी कराग्रैरपि न स्पृशामः / यदृच्छया सिद्ध्यति लोकयात्रा, भेरी पिशाचा: परिताडयन्ति" // 2 // यथा काकतालीयमबुद्धि पूर्वकं, न काकस्य बुद्धिरस्तिमयि तालं पतिष्यति, नापि तालस्याभिप्रायः - काकोपरि पतिष्यामि, अथ तत्तथैव भवति, एवमन्यदप्यतर्कि तोपगतम जाकृषाणीयमातुरभेषजीवमन्धकण्टकीयमित्यादि द्रष्टव्यम् / एवं
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________________ जइच्छा 1364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जइस सर्वजातिजरामरणाऽऽदिकं लो यादृच्छिकं काकतालीया- | जइणटिप्पणग न० (जैनटिप्पनक) जैनाऽऽम्नारोन निष्पादित टिप्ानके, ऽऽदिकल्पमवसेयम्। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। एतमेव यदृच्छया तट्टिप्पनकं त्वधुना सम्यग न ज्ञायते। कल्प०७ क्षण। गोपालदारकादेनमि क्रियते 'डित्थ, रुवित्थ' इत्यादि / आ० म० जइणवायाम पुं० (जविनव्यायाम) शीघ्रव्यापारे, ''लंघणप वणजइणवायामसमत्थे" उत्त०६ अ०। जविनशब्दः शीघ्रटचन / जइच्छावाइ(ण) पुं० (यदृच्छावादिन) अकारणोत्पत्तिवादिनि, अनु० / न०। यदपि यदृच्छावादिनः प्रलपन्ति-न खलु प्रतिनियमो वस्तूनां जइणवेग पुं० (जयिवेग) शेषवेगवद्वेगजयिनि वेगे, भ०१ श० कार्यकारणभाव इत्यादि / तदपि च कार्याकार्यविवेचनपपटीयः २उ०। शेमुषीविकलतासूचकम्, कार्यकारणभावस्य प्रतिनियततया संभवात्। जइणी स्त्री० (जैनी) जिनसबन्धिन्याम, पञ्चा०३ विव० प्रति०। तथाहि-यः शालूकादुपजायते शालूकः स सदैव शालूकादेव, न *जयिनी स्त्री० जयवत्याम, औ०। गागयादपि। योऽपिच गोमयादुपजायते शालूकः सोऽपि सदैव गोभयादेव, *जविनी स्त्री० वेगवत्याम, औ०। न शालूकादपि। न चानयोरेकरूपता, शक्तिवर्णाऽऽदिवै। चत्र्यतः परस्पर जइत्ता अव्य० (जित्वा) जयं कृत्वेत्यर्थे, स्था०६ठा०२ उ०। जात्यन्तरत्वात। योऽपि च वढेरुपजायते वह्निः सोऽपि सदैव वहेरेव, *जेत्री स्त्री० रिपुबलजयकाम, स्था०६ ठा०२ उ०। नारणिकाष्ठादपि / योऽपि चारणिकाष्ठादुपजायते सोऽपि सर्वदाऽरणिकाष्टादेव, न वहेरपि / यदपि चोक्तम्- बीजादपि जायते जइदेवुत्तरवे उब्विय न० (यतिदेवोत्तरवैक्रिय) यतिदेव मूल शरीरापेक्षयोत्तरकालं क्रियमाणे वैक्रियशरीरे, तत्र यतयश्व कदलीत्यादि / तत्रापि परस्परं विभिन्नत्वादेतदेवोत्तरम् / अपि चन्या साधबो देवाश्च सुरा यतिदेवाः। कर्म०१ कर्म०। कन्दादुपजायते कदली. साऽपि परमार्थतो बीजादेव वेदितव्या, परम्परया बाजस्यैव कारणत्वात् / एवं वटाऽऽदयोऽपि शाखैकदेशादुपजायमानाः जइदोस पुं० (यतिदोष) छन्दःशास्वप्रसिद्धयतिभङ्गे, अस्थानविरतौ, परमार्थतो बीजादवगन्तव्याः, शाखातः शाखा प्रभवति, न च सा शाखा सर्वथा विरतौ वा विशे०। अनु०। अस्थानविच्छेदे, तदकरणे वः। आ० शाखाहेतुका लोके व्यवह्रियते, किन्तु बटधीजस्यैव, सकलशाखा म०प्र०। तदात्मके सूत्रदोषभेदे, बृ०१ उ०। प्रशाखाऽऽदि समुद्रायस्य वटहेतुत्वेन प्रसिद्धत्वात् / एवं जइधम्म पु० (यतिधर्म) क्षान्त्यादिके दंशावधे यतिधर्म, उत्त० शाखेकदेशादुपजायमानो वटः परमार्थतो मूलवटप्रशाखारूप इति 5 अ०।"खंती अज्जव मद्दव, मुत्ती तव संजमे य बोधव्ये / सच्च सोय मूलवट बीजहेतुक एव सोऽपि वेदितव्यः / तस्मान्न क्वचिदपि आकिंचण च बंभं च जइधम्मो // 14 // " नवतत्त्वे (विशेषव्याख्या कार्यकारणव्यभिचारः, निपुणविचारप्रवीणेन च प्रति-पत्त्रा भवितव्यं, 'अणगारधम्म' शब्दे प्रथमभागे 276 पृष्ठे लिखिता) ततो न कश्चिदोषः / एवं च यदुच्यते-न खल्वन्यथा वस्तुसद्गावं जइपज्जवपुं० [यति(पर्याय) पर्यव)] यतिदीक्षापालनकाल, पर्यायो द्विधा पश्यन्तोऽन्यथाऽऽन्मानं प्रेक्षावतः परिक्लेशयन्तीति वाङ्गात्रमिति गृहस्थपर्यायो, यतिपर्यायश्च / प्रव०६७ द्वार। स्थितम्। नं०। जइपज्जाय पुं० (यतिप)(याय) र्यव 'जइपज्जव' शब्दार्थे, प्रव०६७ द्वार। जइजणपुं० (यतिजन) साधुलोके आव०६अ। सूत्र०। श्रा०।"वजेयब्धो जइपञ्जुवासणपर त्रि० (यतिपर्युपासनपर) साधुसेवापरायणे, पञ्चा० यसया, सुयप्पमाओ जइजणेणं'। सूत्र०१ श्रु०२ अ० 1 उ०। 6 विव०। जइजीयक प्प पु० (यतिजीतकल्प) श्रीसोमप्रभसूरिविरचिते जइपरिसा स्त्री० (यातपर्षत) चरणोद्यतसाधूनां पर्षदि, औ० / यतिजीतकल्पनामके प्रकरणे, एतद्वृत्तिश्च श्रीसाधुरत्नसूरिकृताऽस्ति / विचित्रद्रव्याद्यभिग्रहाऽऽद्युपेतानां साधूनां पर्षदि, रा०।। ग०१ अधि०। जइपुच्छा स्त्री० (यतिपृच्छा) साधुशरीरसंयमबाापृच्छने, पञ्चा० 1 विव०। जइजुत्त त्रि० (यतियुक्त) परिवारभूत साधुभिर्मिश्रिते, ध०३ अधि० / जइय त्रि० (जयिक) जयावहे, "जइएसुसव्वसउणेसु' जयिकेषु जयावहेषु जइजोग पुं० (यतियोग) स्वाध्यायादिसाधुव्यापारे, पञ्चा०६ विव०। सर्वशकुनेषु वायसादिषु। ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। कल्प० जइण त्रि० (जैन) जिनः केवली, तस्यायं जैनः / जिनसंबन्धिनि, विशे०।। *यदिअव्य० (च) यदीत्यर्थे, कल्प०४क्षण। सर्वज्ञसंबन्धिनि, नि० चू० 1 उ० / “जइणसासणबइरित्ता जइवंस पुं० (यतिवंश) यतीनामन्वये, समवायाङ्गनामकचतुर्थाङ्ग च / परा'' | नि० चू०१ उ० / अतिशीघ्रगतो, "लंधव-पवण-जइण तदशस्य तत्र समतसरणाधिकारे प्रतिपादितत्वात्। स०। समत्थे' रा०ा जी०। (एतद्वक्तव्यता 'जिण' शब्दे चतुर्थभागे 1456 जइया अव्य० (यदिवा) प्रकारान्तरे, अथ वेत्यर्थे, व्या० 1 उ०। पृष्ठे वक्ष्यते) जइविस्सामण न० (यतिविश्र)(श्रा)मण यतिदेहस्वेद विनोदने, यतीनां *जयिन् त्रि०। जयवति, औ०। साधूनां वैयावृत्याऽऽदिभिः श्रान्तानां पुष्टाऽऽलम्बनेन तथाविध*जविन त्रि० वेगवति, "लंघव-वग्गण-धावण-धोरण-तिबई-जइण- श्रावकादैरपि देहखंदापनोदमिच्छता विश्रमण खेदविनोदनं सिक्खिअ गईण।" वृत्तिर्यथा-जयिनी गमनान्तरजय-वती, जविनी यतिविश्रमणम, करणीयामति गम्यते / एवं सर्वत्रोचितक्रियाऽध्याहारः वा वेगवती। औ० / जविन शब्दः शीघ्रवचनः। अनु० / शीघे, कार्यः / प्राकृतत्वाचविश्राभ्य-तेरुषान्त्यदीर्घत्वम् / यद्वा-विश्राम्यतः "उवइयउप्पइयतुरियचवलजइणसिग्घवेगाहिं" औ० / करणमिति शतृडन्तस्था कारिते घुटि च विश्रामणमिति भवति। पञ्चा० *जविन त्रि० अतिशीघ्रगती, "लंघण-पवण-जइण-पमण-समत्थे' १विव०। रा० जइस त्रि० (यादृश) अपभंशे यादृगर्थे "अतां ड इसः" /
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________________ जइस 1365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंघाचर 141403 // इति सूत्रेण अदन्तानां यादृशादीनामादेरवयवस्य डित् 'अइस' | जंगम त्रि० (जङ्गम) गम-यङ्-अच् / सततगतियुते, "शरीरिणां इत्यादेशो भवति / 'जइसो' / प्रा० 4 पाद। स्थावरजङ्गमानाम्" "गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः" वाचला द्वीन्द्रियादित्रजउगोल पुं० (जतुगोल) लाक्षागोलके, स्था० 4 ठा० 4 उ०। सजन्तौ, श्रा० / स्था०। जउणपुं० (यमुन) तन्नामकराजविशेषे,यो०वि०। संथा०। (तत्कथानकं | जंगमविस न० (जङ्गमविष) जङ्गमप्राणिनां नखदंष्ट्रादिगते विषे, दुष्टस्य तु 'आप(व)ई' शब्दे द्वितीयभागे 246 पृष्ठे संगृहीतम्) प्राणिनो दंष्ट्राविषादिना यत् पीडाकारि तदपि जङ्गम-विषम्। स्था०६ ठा०। जउणअड त्रि० (यमुनातट) कालिन्दीतीरे, "दीर्घन्हस्वौ मिथो वृत्तौ" 1811141 इति सूत्रेण पक्षे -हस्वता। प्रा०१ पाद। जंगल न० (जगल) गल-यङ्-अच्-पृषो० / बने, रहसि, मांसे, वाच०। निर्वारिदेशे, बृ० / देशो द्विधा-अनूपो, जङ्ग लश्च / नद्यादिपानीयजउणराय पुं० (यमुनराज) यमुनाख्यराजविशेषे, आव० 4 अ०। बहुलोऽनूपः तद्विपरीतो जङ्गलः, निर्जल इत्यर्थः / बृ० 1 उ० / जउणा स्त्री० (यमुना)"यमुनाचामुण्डाकामुकातिमुक्तके मोऽनुना अहिच्छत्राप्रतिबद्धे आर्यदेशे च / प्रव०।१४८ द्वार / प्रज्ञा०। सूत्र०। सिकश्च"।८१।१७८। इति सूत्रेण मकारलोपः / प्रा० 1 पाद। कालिन्द्यः जंगा (देशी) गोचरभूमौ, दे० ना० 3 वर्ग। नद्या यमभगिन्यां सूर्यसुतायाम, दुर्गायाम्, वाच०। सा च गङ्गां संगच्छते। जंगिय न० (जाङ्गगमिक) जङ्गमजन्त्ववयवनिष्पन्ने कम्बलादौ वस्त्रभेदे, स्था० 1 ठा०२ उ०। यमुनानदीफूले पूर्वादिग्वधूकण्ठनिवेशित जग मारत्रसास्तदवयबनिष्पन्नं जाङ्ग मिकं कम्बलादि। मुक्ताफलकण्ठिकेव कौशाम्बी नाम नगरी। विशे०। इह गाथेजउणाअड त्रि० (यमुनातट) कालिन्दीतीरे, प्रा० १पाद। "जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं च पंचेंदि। जउणाउर यमुनापुर-मथुराया भागविशेष, मथुराया यमुनापुरे समुद्रः / एकेक पि य पत्तो, होइ विभागेणऽणेगविहं / / 1 / / ती०४५ कल्प। पट्टसुवण्णे मलए, अंसुऐं चीणंसुए य विगलिंदी। जउणावंक न० (यमुनावक्र) यमुनातटबर्तिनिस्वनामकोद्याने, यो० वि०। उण्णोट्टियमियलोमे, कुतवे किट्टीथ पंचें दी।शा" ''इत्थ जउणावके जउणराएण हयस्स दंडअणगारस्स केवले उप्पन्ने पट्टः सुवर्ण सुवर्णसूत्रं कृमिकाणां मलये, मलयविषय एव महिमत्थं इंदो आगओ।" ती०६ कल्प०। अंशुकं श्लक्ष्णपट्टे, चीनांशुकं कोसिकारचीनविषये वा यद्रवति जउप्पल न० (जयोत्पल) विंशतिव्याकरणेषु तन्नामके व्याकरणे० कल्प० श्लक्ष्णात् पट्टादिति मृगरोमजं शशलोमजं मूषकरोमजं या, १क्षण। कुतपश्छागले किट्टिजमेतेषामेवावयव-निष्पन्नमिति। स्था०५ जउव्येयपुं०(यजुर्वेद) यजुषामृक्सामभिन्नानांमन्त्राणां प्रतिपादको वेदः / ठा०३ उ०। सूत्रे प्राकृतत्वाद्मकारलोपः। बृ०२ उ०। "जंगिओ वेदभेदे, स च शुक्लकृष्णभेदेन द्विधा / तद्विवरणं चरणव्यूहे / वाच०। अंडगाई" नि० चू०१ उ०। "रिउव्वेए जउव्येए, समावेए अथव्वणे।" विपा०१श्रु०५ अ०। "चत्तारि | जंगुलि पु० (जाइ गुलि) गम-यङ्-जुक वा गुलिः / विषवैद्ये, वेया।" अनु०। वाच० / स्त्री० / गारुडिमन्त्रविशेषे, "जागर्ति ज्ञानदृष्टि श्वेत, जओ अव्य० (यतः) यस्मादित्यर्थे, यत्रेत्यर्थे च। उत्त०१ अ०। तृष्णाकृष्णाहिजाङ्गुलिः / पूर्णानन्दस्य तत् किं स्यात्, जं अव्य० (यत्) यस्मादित्यर्थे, नि० चू०१५ अ०। "जंपिय मए इमरस दैन्यवृश्चिकवेदना ? ||1||" अष्ट०१अष्ट। धम्मस्स" इत्यादिसूत्रे यमिति विभक्तिव्यत्ययाद्यः प्राणातिपात इति जंगुलिविज्ञा स्त्री० (जाड्गुलिविद्या) विषविद्यायां, श्रावस्त्यां श्रीसंभवदेवो योगः / भाषामात्रे वा यदिति पदं व्याख्येयम् / पा० / अम्बुनि, जाङ्गुलिविद्याऽधिपतिः / ती०४५ कल्प० / यशोरूपकयोः, एका०। जंगोल न० (जाङ्गोल) विषविघातक्रियाविधायके गदतन्त्रे, तद्धि जंकिंचिभासग पुं० (यत्किञ्चिद्धाषक) असंबद्धपलापिनि, पं० व० 4 द्वार। सर्पकीटलूतादष्ट विषविनाशार्थं विविधविषसंप्रयोगप्रशमनार्थ जंकिं चिमिच्छापडिक्कमण न० (यत् किञ्चिन्मिथ्याप्रतिक्रमण) च / विपा० 1 श्रु० 7 अ० / एतद्धि आयुर्वेदस्य पञ्चमो भेदः / वाचा षड्भेदप्रतिक्रमणस्य पञ्चमे भेदे, "जं किंचि मिच्छ ति" / खेलसिङ्घाणाविधिनिसर्गाभोगानाभोगसहसाकारद्य संयम स्वरूपं यत् जंगोली स्त्री० (जङ्गोली) विषविद्यातन्त्रे, स्था० 8 ठा०। किचित् मिथ्या असम्यक् तद्विषयं मिथ्येदमित्येवं प्रतिपत्तिपूर्वक जंघट्टिया स्त्री० (जङ्गास्थिका) ऊर्यो : प्रतिष्ठानभूते जाया मिथ्यादुष्कृतकरणं यत्किञ्चिन्मिथ्याप्रति-क्रमणमिति। उपरिभागवर्तिनि अस्थिनि, जास्थितकयोहरूप्रतिष्ठितौ, तं०। उक्तंच जंघलोह पुं० (जङ्घलोह) अनागतोत्सर्पिणीकालभाविनि द्वितीय प्रतिवासुदेवे, ति०। "संजमजोगे अब्भु-ट्ठियस्स जं किंचि तह समायरियं / जंघा स्त्री० (जना) जङ्घन्यते कुटिलं गच्छति। गत्यर्थकस्य हन्तेः कौटिल्ये मिच्छा एवं ति विया-णिऊण मिच्छ त्ति कायव्वं" ||1|| यड-लुकि-अच-पृषो० / गुल्फजान्वोरन्तराले अवयवे, पादजङ्घयोः तथा संधाने गुल्फः, जड़योः संधाने जानु नाम। "चत्वार्यरत्निकास्थीनि, खेलं सिंघाणं वा, अप्पडिलेहापमजिओ तह य / जड्डयोस्तावदेव च।" वाच० / जो जान्वोरधोवर्तिन्यौ / उत्त० 2 वोसिरिय पडिक्कमई,तं पिय मिच्छुक्कडं देइ / / 1 / / " इत्यादि।। अ० / जं०। स्था०६ठा०। जंघाचर पुं० (जघाचर) पादचारिणी, अनु० /
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________________ जंघाचारण 1366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबुल जंघाचारण पुं० (जड्याचारण) चारणमुनिभेदे, ये चारित्र- तिलादिक्षोदात्तद्गतत्रसजीववधाच / लौकिका अप्याहुः- "दशशूना सम तपो विशेष प्रभावतः समुद्भूतगमनागमनविषयलब्धिसंपन्नास्ते चक्रम्" इति। ध०२ अधि० / प्रव०॥ जनाचारणाः / प्रव०६७ द्वार / आ० म०। प्रज्ञा०। प्रति० / रा०। जंतपीलणकम्म न० (यन्त्रपीडनकर्म) 'जंतपिल्लणकम्म' शब्दार्थे, नं० / लूतातन्तुनिवर्तितपुटकतन्तून् रविकरान् वा निश्रां कृत्वा उत्त०१०। जनाभ्यामाकाशेन चरतीति जकाचारणः / अस्य च साति - जंतपुरिस पुं० (यन्त्रपुरुष) लोहमये यन्त्रेण च पुरुषचेष्टाकारके, पुत्तलके, शयाष्ट मलक्षणेन विकृष्टतपसा सर्वदैव तपस्यतो जन चारपलब्धिरुपजायते / विशे० / पा० / जङ्घाव्यापरोपकृताश्चारणाः आ० म०प्र०। जड़ाचारणाः / भ०२०श०८ उ०। ('चारण' शब्दोऽस्मिन्नेव भागे जंतलट्ठी स्त्री० (यन्त्रयष्टी) यन्त्रोपयोगिनि लकुटे, दश०७ अ०। 1173 पृष्ठे विशेषव्याख्योक्ता) जंतवाडयचुल्ली यन्त्रपा(वा) टकचुल्ली-यन्त्रनिक्षुपीडनयन्त्रंतत्प्रधानः जंघाबल न० (जघाबल) जानुसामर्थ्य, जी०१ प्रति०। पा(वा)टका यन्त्रपा(वा) टकः, तत्र चुल्ली यन्त्रपा(वा) टकचुल्ली। जंघासंतारिम त्रि० (जघासंतार्य) जानुदध्नादिके उदकादौ, आचाo इक्षुरसपाकाय कृतायां चुल्ल्याम्, जी०३ प्रति०। स्था०। 2 श्रु०३ अ०२ उ०। जंतवाहणन० (यन्त्रवाहन) पञ्चदशकर्मादानान्तर्गतयन्त्र-पीडनकर्मणि, जंणाम त्रि० (यन्नाम) यानि नामानि यस्येति यन्नामा। यदभिधाने प्रश्न० प्रव०६द्वार। 1 आश्र० द्वार। जंतु पुं० (जन्तु) जन-तुन् / जायते इति जन्तुः / उत्त० 3 अ / जंत न० (यन्त्र) यत्रि-अच् / संयमने, प्रपञ्चविशेषे, रा० / जी० / भ० / प्राणिनि, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०२ उ०। पं०व० / आचा० / आ० म०। विशे०। जीवद्रव्ये, उत्त० 13 अ०। "विजाहरजमलजुगलजंताणि' जी०३ प्रति०। रक्षादियन्त्रे, जै० गा० / उच्चाटनाद्यर्थकरलेखनप्रकारके, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / यन्त्राणि | जंतुगन० (जन्तुक) वनस्पतिविशेषे, सूत्र०२ श्रु०२ अातृणविशेषोत्पन्ने नानाप्रकाराणि / जी०३ प्रति०। प्रज्ञा०। तद्यथा-जलयन्त्रमरघट्ट संस्तारके, आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ०। कादि। स्था० 6 ठा० / प्रश्न संथा०। प्रव० / तिलवन्त्रं प्राणकादि। जंतुजोहण न० (जन्तुयोधन) कुक्कुटादीनां परस्परेणाहनने, ध० प्रश्न०२ आश्र द्वारा जलसंग्रामादियन्त्राणि। प्रश्न०२ आश्र० द्वार।। 2 अधि०। पाषाणक्षेपयन्त्रम् / औ०। स०। रथोपकरणविशेषाः / ज्ञा०१ श्रु०१ जंपंत त्रि० (जल्पत) ब्रुवाणे, प्रश्न०३ सम्ब० द्वार। सूत्र०। अ० / शिलोदूखलसुशलादि / प्रव०६ द्वार / तन्त्रोक्ते देवाद्यधिष्ठाने, जंपग त्रि० (जल्पक) भाषके, "बहुबिहअलियसयजययाणं' वृत्तिः चक्रभेदे, औषधपाकार्थ पात्रभेदे, ज्योतिश्चक्राद्यवेक्षणसाधने, बहुविधालीकशतजल्पकानाम्। प्रश्न०३ आश्र० द्वार। पदार्थभेदने, सूत्रधारा-देरिर्वधकादौ पदार्थे, अन्यादेः क्षेपणसाधने पदार्थे अग्नियन्त्रे, वाचन जंपमाण त्रि० (जल्पमान) बुवाणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। जंतगन० (जन्त्रक) यन्त्रमिव इवार्थे कन्। दारुभ्रामकथन्त्रभेदे, वाच०। जपाण न० (जम्पान) द्विहस्तप्रमाणे चतुरो वेदिकोपशोभिते गन्त्र्वादौ, ध०२ अधि०। गोल्लदेशप्रसिद्ध युग्यनानि वाहने, कूटाकारच्छादितायां शिविकायाम, पुरुषप्रमाणायां स्थन्दमानिकायां च / स्था० 4 ठा०३ उ० / अनु० / जंतपत्थर पुं० (यन्त्रप्रस्तर) गोफणादि (यन्त्रमुक्त) पाषाणे, प्रश्न० औ० / जं० जी०। ज्ञा० 1 पर्यादौ, दशा०६ अ०। 2 आश्र० द्वार। घरट्टादौ, वाच०। जंपिर त्रि० (जल्पिन) "शीलाद्यर्थस्येरः" / / 2 / 15 / इति जंतपासगपु० (यन्त्रपाशक) द्यूते जयार्थ यन्त्रस्थापितेपाशके, आ०म० सूत्रेणेरादेशः / जल्पनशीले, प्रा० 2 पाद। प्र०। जंबवइ स्त्री० (जाम्बवती) कृष्णाग्रमहिष्याम्, आ० चू० 1 अ० / आ० जंतपिल्लणकम्म न० (यन्त्रपीडनकर्मन्) उपभोगपरिभोगा म० / विशे० / सा च अरिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य संलेखनां कृत्वा ख्यसप्तमव्रतस्य कर्मतोऽतिचारेष्वे कादशेऽतिचारे, यन्त्रण सिद्धेत्यन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गस्थषष्ठेऽध्ययने सूचितम्। अन्त० 4 वर्ग / तिलेक्षुप्रभृतीनां यत्पीडनरूपं कर्म तत् यन्त्रपीडनकर्म तस्मिन्, उत्त०१ स्था०। अ०भ०आ० चू० / श्रा०। पञ्चा० आव०। यन्त्रे उदूखलादौ, पीडनं जंबाल पुं० (जम्बाल) जम्ब-घञ् -जम्बमालाति आदत्ते आला-कः / धान्यखण्डन तेन कर्म जीविका यन्त्रपीडनकर्म (ध०) यन्त्रपीडनकर्म शैबाले, वाच० / कर्दमे, स्था० 3 ठा०३ उ०। जरायौ च / जरायुजा शिलोदुखलमुशलघरट्टारघट्टकङ्कतादिविक्रयः तिलेक्षुसर्षपैरण्डफलादि जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते, ते च गोमहिषा-जाविकमनुष्यादयः। सूत्र० तस्य पीडन दलतैलविधानज-लयन्त्रवाहनादि वा / यतः 1 श्रु०७ अ० / जलनील्याम्, दे० ना० 3 वर्ग। "तिलेक्षुसर्षपैरण्ड-जल-यन्त्रादिपीडनम् / दलतैलस्य च कृतिर्यन्त्रपीडा प्रकीर्तिता' / / 1 / / अत्र यन्त्रशब्दः प्रत्येकं संबध्यते, तत्र जंबुन० (जम्बु) जम्बूफले, "जम्बु भक्खेमो' आव० 4 अ० जम्बूफलादिषु तिलयन्त्रं तिलपी-डनोपकरणम्, इक्षुयन्त्र कोल्हुकादि, सर्षपैरण्डयन्त्रे, कृष्णो वर्णः / जं०३ वक्ष०। प्रज्ञा०॥ तत्पीडनोपकरणे, जलयन्त्रमरघट्टादि, दलतिलं यत्र दलं तिलादि दीयते जंबुद्दीवन०(जम्बूद्वीप) 'जंबूदीव' शब्दार्थे, जं०१ वक्ष०। तैलं च प्रतिगृह्यते तद्दलतैलं, तस्य कृतिर्विधानम् / अत्र दोषस्तु | जंबुल (देशी) वानीरे, मद्यभाजने, दे० ना० 3 वर्ग।
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________________ जंबू 1367- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबू जंबू स्त्री० (जम्बू) 'जम' अदने, कू-नि०-बुक् / वृक्षविशेष, वाच०। "ऊगारंता जंबू / ' एतद्वृतिः- जम्बूः स्त्रीलङ्गवृत्तिर्वनस्पतिविशेषः / अनु० / प्रज्ञा० / त्रयोदशजिनस्य चैत्यवृक्षो जम्बूः / स्था० 1 ठा० 1 उ०। पृथ्वी परिणामरूपायां (स०८ सम० ) जम्बूवृक्षाकारायां सर्वरत्नमय्या सुदर्शनानाम्न्यां शाश्वतायामनावृतदेवावासभूतायां जम्ब्वाम, एतयैवायं जम्बूद्वीपोऽभिधीयते। निपेक्षःजम्बूशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्की निपेक्षः। तत्र नामम्बूर्यस्य जम्बूरिति नाम, यथा-जम्बूरन्तिमके वली, जम्बाऽभिधानं वा / स्थापनाजम्बूफ जम्बूरिति स्थापना क्रियते / यथा--चित्रलिखितजम्बूवृक्षादि / द्रव्यजम्बूद्धिंधा आगमतो नो आगमतश्च / आगमतस्तदर्थज्ञातानुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयव्यतिरिक्तभेदात्त्रिधा / तत्राऽद्यौ भेदौ सुप्रतीतौ / उभयव्यतिरिक्तद्रव्यजम्बूरपि त्रिधा, | एक भविक बद्धा-युष्काभिमुखनामगोत्रजन्तु भेदात् / तत्रैकभविको नामय एक भवानन्तरं जम्बूत्वेनोत्पत्स्यते, बद्धायुष्कस्तु येनजम्ब्वायु-र्वद्धम, अभिमुखनामगोत्रस्तु यस्य जम्ब्वा नामगोत्रे कर्मणी अन्तर्मुहूर्तानन्तरमुदयमायास्थत इत्ययं त्रिविधोऽपि भाविभावजम्बूकारणत्वाद् द्रव्यजम्बूरिति / भावजम्बूरपि द्विधा आगमतो, नो आगम-तश्च / तत्रागमतो | ज्ञानोपयुक्तः, नो आगमतस्तु जम्बूद्रुम एव / जम्बूद्रुमनामगोत्रकर्मणी वेदयन्निति आह-यथा अभिमुखजम्बूभावस्य जीवस्य द्रव्यजम्बूत्वम्, “भाविनि भूतवदुपचारः" इति न्यायात्, तथाऽऽसन्नपश्चात्कृत-जम्बूभावस्थाऽपि,"भूतपूर्वकस्तदुपचारः" इतिन्यायात्। कथं नद्रव्यजम्बूत्वं निर्दिष्टम् ? उच्यतेइदमुपलक्षणं, तेन तस्याऽपि द्रव्यनिक्षेप एवान्तर्भावः, भूतस्य भाविनो वेत्यादि द्रव्यलक्षणस्य सद्भावात् / अत्रानिर्देशकारणं तु श्रीउत्तराध्ययनद्रुमपत्रीया-ध्ययनानियुक्ती श्रीभद्रबाहुस्वाभिपादैः द्वमनिक्षेपेऽविवक्षणम्, तत्तुल्यन्यायत्वादस्य निक्षेपस्येति, प्रस्तुते च नोआगमतो भावजम्ब्वाधिकारः। जं०१ वक्षः। कहि णं भंते ! उत्तरकु राए कु राए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते / गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं मदरस्स उत्तरेणं मालवंतवक्खारपव्वयस्स पचच्छिमेणं सीआए महाणईए पुरच्छिमिल्ले कूले, एत्थ णं उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते / पंच जोअणसयाई आयामविक्खंभेणं, पण्णरसएकासीयाइं जो अणसयाई किं चि / विसेसाहियाइ परिक्खेवेणं बहुमज्झदेसभाए वारस जोअणाई बाहल्लेणं, तथणंतरं च णं मायाए मायाए पदेसपरिहाणीए पदेसपरिहाणीए सव्वेसु णं चरिमपेरंतेसु दो दो गाउआई बाहल्लेणं सव्वजंबूणयामए अच्छे,से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते, दुण्हं पि वण्णओ तस्स णं जंबूपेढस्स चउद्दिसि एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूपगा पण्णत्ता। वण्णओ० जाव तोरणाई, तस्स णं जंबूपेढस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं मणिपेढि आ पण्णत्ता। अद्धजोअणाई आयामदिक्खंभेण, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, तीसे णं मणिपेढिआए उम्पि एत्थ णं जंबू सुदंरणा पण्णत्ता / अट्ठ जोअणाइं उढे उच्चत्तेणं अद्धजोअणं उव्वेहेणं, तीसे णं खंधो दो जोअणाई उड्नं उच्चत्तेणं अद्धजोअणं बाहल्लेणं. तीसे णं सालाछ जो अणाई उडू उच्चत्तेणं बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोअणाई आयाम-विक्खंभेणं साइरेगाई अट्ठ जोअणाई सव्वग्गेणं, तीसे णं अयमेयारूवे वण्णावासे वइरामयमूला रययसुपइट्ठिअविडिमा० जाव अहिअमणणिव्वुइकरी पासाईआ दरिसणिज्जा, जंबूए णं सुदंसणाए चउदिसिं चत्तारि साला पण्णत्ता। तेसिणं सालाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं सिद्धायतणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणं कोसं उड्डे उच्चत्तेणं अणेगस्वंभसय-सण्णिवि४० जाव दारा पंच धणु सयाई उड्ढे उच्चत्तेणं० जाव वण्णमालाओ मणिपेढिआ, पंच धणुसंयाई आयामविक्खंभेणं अवाइजाई धणुसयाइं बाहल्लेणं; तीसे णं मणिपेढिआए उप्पि देवच्छंदए पंचधणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं साइरेगाइं पंचधणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं जिणपडिमावण्णओ णेयव्वो त्ति / तत्थ णं जे से पुरच्छिमिल्ले साले एत्थ णं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, एवमेव णवरमित्थ सयणिज्जं सेसेसु पासायवडेंसया सीहासणा यसयरिवारा इति, जंबूए णं बारसहिं पउमवरवेझ्याहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, वेइआणं वण्णओ, जम्बू णं अण्णेणं अट्ठसएणं जंबूणं तदद्धचत्ताणं सव्वओ समंता संपरिखित्ता, तासि णं वण्णओ, ताओ णं जंबू छहिं पउमवरवेइयाहिं संपरिक्खित्ता, जंबूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरच्छिमेणं उत्तरपञ्चच्छिमेणं एत्थ णं अणाढिअस्स देवस्स चउण्हं सामाथिअसाहरसीणं चत्तारि जंबूसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तीसे णं पुरच्छिमेणं चउण्हं अग्गमाहिसीणं चत्तारि जम्बूओ पण्णत्ताओ, "दक्खिणपुरच्छिमेणं, दक्खिणेणं तह अवरदक्खिणेणं च / अट्ठदसवारसेव य, भवंति जंबूसहस्साई 1 अणिआहिवाण पचच्छिमेण सत्तेव हो ति जंबूओ / सोलस साहस्सीओ, चउद्दिसिं आयरक्खाणं // 2 // " जंबूए णं तिहिंसइएहिं वणसंडेहिं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता जंबू ए णं पुरच्छिमेणं पण्णासं जोअणाइंपढमं वणसंडं ओगाहित्ता, एत्थं णं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, सो चेव वण्णओ, सयणिजं च, एवं सेसासु वि दिसासु भवणा, जंबूए णं उत्तरपुरच्छिमेणं पढमं वणसंड पण्णासं जोअणाइं उग्गाहित्ता, एत्थ णं चत्तारि पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-पउमा, पउमप्पभा, कुसुदा, कुमुदप्पभा। ताओ णं कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, पंचधणुसयाइं उव्वे हेणं, तासि णं मज्झे पासायवडे संगा
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________________ जंबू 1368 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, वण्णओ-सीहासणा सपरिवारा, एवं सेसासु वि दिसासु / गाहा"पउमा एउमप्पभा चेव, कुमुदा कुमुदप्पभा / उप्पला गुम्म णलिणा, उप्पला उप्पलुजला ||1|| भिंगा भिंगप्पभा चेव, अंजणा कजलप्पभा / सिरिकता सिरिमहिआ, सिरिचंदा चेव सिरिनिलया"|| जंबूए णं पुरच्छिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमिल्लस्स पासायवडे सगस्स दक्खिणेणं, एत्थ णं कूडे पण्णत्ते, अट्ठ जोअणाई उर्ल्ड उच्चत्तेणं, दो जोअणाई उव्वेहेणं, मूले अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं बहुमज्झदेसभाए छ जोअणाइं आयामविक्खंभेणं उवरिं चत्तारि जोअणाई आयामविक्खंभेणं / "पणवीस-ट्ठारसवा-रसेव मूले अमज्झि उपरिंच सविसेसाई परिओ, कूडस्स इमस्स बोधव्वो" ||1|| मूले वित्थिण्णे मज्झे संखित्ते उवरिं तणुए सव्वकणगामए अच्छे, वेइआवणसंडवण्णओ, एवं सेसा वि कूडा जंबूए णं सुदंसणाए दुवालस णामधेजा पण्णत्ता / तं जहा"सुदंसणा अमोहा य, सुप्पबुद्धा जसोहरा / विदेहजंबूसोमणसा, णियया णिचमंडिया / / 1 / / सुभद्दा य विसाला य, सुजाया सुमणा वि य / सुदंसणाए जंबूए, णामधेजा दुवालस / / 2 / / " जंबूए णं अट्ठट्ट मंगलगा, से केणटेणं भंते ! एवं वुच-इ ? गोयमा ! जबूए सुंदसणाए अणाढिए णामं जंबूदीवाहिवई परिवसइ, महिड्डिए, से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं, जाव आयरक्खसाहस्सीणं जंबूदीवस्सणं दीवस्स जंबूए सुदंसणाए अणादियाए रायहाणीए अण्णेसिंच बहूणं देवाण य० जाव विहरइ, से तेणटेणं गोअमा ! एवं बुच्चइ, अदुत्तरेणं च णं गोयमा ! जाव जंबू सुदंसणा० जाव भुर्वि च धुवाणि अ आसासया अक्खया अवड्डिया 1 कहिणं भंते ! अणादि-अस्स देवस्स अणाढिआ णामं रायहाणी पण्णत्ता। गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणंजंचेव पुव्ववण्णिअंजमिगपमाणं तं चेव णेयव्वं० जाव उववाओ अभिसेओ अ निरवसेसो त्ति / व भदन्त! उत्तरकुरुषु जम्बूपीठंप्रज्ञप्तम् ? निर्वचनसूत्रे गौतमेत्यामन्त्रण गम्यम्, नीलक्तो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य गजदन्तापरपर्यायस्य पश्चिमेन पश्चिमायां सीताया महानद्याः पूर्वकूले, सीता द्विभागौकृतोत्तरकुरुपूर्वाः, तत्रापि मध्यभागे, अत्रान्तरे उत्तर कुरुषु जम्बूपीठं नाम पीठ प्रज्ञप्तं, पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भेन, योजनानां पञ्चदश तान्येका-शीत्यधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण बहुमध्यदेशभागे विवक्षितदिक्प्रान्तादर्धतृतीयशत-योजनातिक्रमे इत्यर्थः / बाहल्येन द्वादश योजनानि, तदनन्तरं मात्रया 2 क्रमेण 2 प्रदेशपरिहाण्या परिहीयमाणः 2 "सव्वेसु त्ति' प्राकृतत्वात्पञ्चम्यर्थे सप्तमी। तेन सर्वेभ्यः चरमप्रान्तेषु मध्यतोऽर्द्धतृतीययोजनशतातिक्रमे इत्यर्थः / द्वौ द्वौ क्रोशौ बाहल्येन सर्वात्मना जम्बूनदमयम् 'अच्छं'' इत्यादि / "से णं एगाए पउम'' इत्यादि। तदिति अनन्तरोक्तं जम्बूपीठम्, एकपद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः समन्तात्, संपरिक्षिप्तमिति शेषः / द्वयोरपि पावरवेदिकावनखण्डयोर्वर्णकः स्मर्तव्यः प्राक्तनः तच्च जघन्यतोऽपि चरमान्ते द्विचरमान्ते द्विकोशोचम, कथं सुखारोहावरोहमित्याशक्याह- "तस्स णं'' इत्यादि। तस्य जम्बूपीठस्य चतुर्दिशि एतानि दिग्नामोपलक्षितानि चत्वारि त्रि-सोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, एतानि च त्रीणि मिलितानि द्विकोशोचानि भवन्ति / क्रोशविस्तीर्णानि, अत एव प्रान्ते द्विक्रोशबाहल्यात्पीठात् उत्तरत एव भरतैरावतांच सुखा-वहद्वारभूतानि, वर्णकश्च तावद्वक्तव्यो यावत् तोरणानि "तस्स णं" इत्यादि व्यक्तम्। "तीसे ण'' इत्यादि / तस्या मणिपीठिकाया उपरि, अत्र जम्बूः सुदर्शनानाम्नी प्रज्ञप्ता, अष्टयोजनान्यू॰चत्वेन, अर्द्धयोजनमुद्रुधेन प्रवेशः / अथास्या एवोचत्वस्याष्टयोजनानि विभागतो द्वाभ्यां सूत्राभ्यां दर्शयति- "तीसे णं' इत्यादि / तस्याः जम्वाः स्कन्धः स्कन्धादुपरितनः शाखाप्रभवपर्यन्तोऽष्टयोजनेऊोच्चत्वेनार्ध-योजन बाहल्येन पीठन तस्याः शाला-विडिमापरपर्यायाया दिक् प्रसृता शाखामध्यभागप्रभवा ऊर्द्धगता शाखा षट्योजना-न्यू॰चत्वेन, तथा बहुमध्य-देशभागे प्रकरणात्, जम्बूरिति गम्यम् / अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, तान्येव अस्याः स्कन्धोपरितनभागे चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकमेकैका शाखा निर्गता च, क्रोशोनानि चत्वारि योजानानि, तेन पूर्वापरशाखादैर्घ्य-स्कन्धबाहल्यसंबन्ध्यर्द्धयोजनमीलनेनोक्त संख्यानयनं, बहुमध्यदेशभागश्चात्र व्यावहारिको ग्राह्यः, वृक्षादीनां शाखा-प्रभवस्थाने मध्यदेशस्य लोकै र्व्यवहियमाणत्वात्, पुरुषस्य कटिका इव, अन्यथा विडिमायाः द्वियोजनाऽतिक्रमे निश्चयप्राप्तस्य मध्यभागस्य ग्रहणे पूर्वापरशाखाद्वय-विस्तारस्य ग्रहणसंभवः, विषमश्रेणिकत्वात् / अथवा बहुमध्यदेशभागः, शाखानामिति गम्यते। कोऽर्थः ? यतश्चतुर्दिक्शाखामध्यभागः, तस्मिन्नित्यर्थः / अष्टयोजनानयनं तु तथैव, उच्चत्वेन तु सर्वाग्रेण सर्वसंख्यया स्कनधविडिमापरिमाणमीलने सातिरेकाण्यष्टौ योजनानीति / अथास्या वर्णकमाह"तीसे णं'' इत्यादि / तस्या जम्ब्या अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तःवजमयानि मूलानि यस्याः सा वज्रमयमूला / तथा रजतमयी विडिमा बहुमध्यदेशभागे ऊर्द्धविनिर्गता शाखा यस्याः सा रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा, ततः यावत्पदात् चैत्यवृक्षवर्णकः सर्वोऽप्यत्र वाच्यः। कियत्पर्यन्तमित्याह अधिकमनो-निवृतिकरी प्रासादीया दर्शनीया इत्यादि। अथास्याः शाखाव्यक्तिमाह- "जंबूएणं' इत्यादि।जम्ब्वाः सुदर्शनायाःचतुर्दिशि चतस्रःशालाः वा शाखाः प्रज्ञाताः। तासांशालानां बहुमध्यदेशभागे उपरितनविडिमाशालायामित्यध्याहार्य, जीवाऽभिगमे तथा-दर्शनात् / शेष सुलभम्, वैताट्य-सिद्धकूटगतसिद्धायतन-प्रकरणतो ज्ञयेमित्यर्थः / अत्र पूर्व, शालादौ यत्र यदस्ति तत्र तद्वक्तुमाह- "तत्थ ण' इत्या
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________________ जंबू 1366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबू दि। तत्र तासु चतसृषुशालासु, या सा पौरस्त्या शाला, सूत्रे प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः / अत्रं भवनं प्रज्ञप्त, क्रोशमायामेन, एवमेवेति सिद्धायतनवदिति, अर्द्धकोशं विष्कम्भेन देशोनं क्रोशसुच्चत्वेनेति प्रमाणं, द्वारादिवर्णकच वाच्यः / नवरमत्र शयनीयं वाच्यम्, शेषासु दाक्षिणात्यादिशालासु प्रत्येक-मेकैकभावेन त्रयः प्रासादावतंसकाः सिंहासनानि सपरि-वाराणि च बोद्धव्यानि, तेषां प्रमाण च भवनवत्, तत्र दापनोदाय भवनेषु शयनीयानि प्रासादेषु त्वास्थानसभा इति। ननु भवनानि विषमायामविष्कम्भानि, पद्मद्रहादि-मूलपद्मभवनादिषु तथा दर्शनात्, प्रासादास्तु समायाम-विष्कम्भाः, दीर्घवैताढ्यकूटगतेषु वृत्तवैताट्यगतेषु वैजया-दिराजधानीगतेषु अन्येष्वपि विमानादिगतेषु च प्रासादेषु समचतुरसत्वेन समायाभविष्कम्भत्वस्य सिद्धान्त-सिद्धत्वात्, तत्कथमत्र प्रासादानां भवनतुल्यप्रमाणता घटते? उच्यते- "तेपासाया कोसं, समूसिआ अद्धकोसवित्थिण्णा / " इत्यस्य पूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणोपज्ञक्षेत्र-विचारगाथार्द्धस्यवृत्तौते प्रासादाः, क्रोशमेकं देशोनमिति शेषः, समुच्छ्रिता उचाः क्रोशार्द्धमर्द्धक्रोशं विस्तीर्णाः, परिपूर्णमेकं क्रोशं दीर्घा इति श्रीमलयगिरिपादाः। तथा जम्बूद्वीपसमासप्रकरणे प्राच्ये शाले भवनम्, इतरेषु प्रासादमध्ये सिद्धायतनसर्वाणि विजयार्द्धमानानीति श्रीउमास्वातिवाचकपादाः। तथा तपागच्छाधिराजपूज्यश्री सोमतिलकसूरिकृतनव्यबृहत्क्षेत्रविचारसत्कायाः, 'पासाया सेसदिसा, सालासु विअडगिरिगय टब तओ।" इत्यस्या गाथाया अवचूर्णी शेषासु तिसृषु शाखासु प्रत्येकमेकैकभावेन तत्र त्रीणिआस्थानोचितानि मन्दिराणि, देशोनं क्रोशमुचाः क्रोशार्द्ध विस्तीर्णाः पूर्णक्रोशं दीर्घा इति श्रीगुणरत्नसूरिपादाः यदाहुः, तदाशयेन प्रस्तुतोपङ्ग स्योत्तरत्र जम्बूद्वीपपरिक्षेपकवनवापीपरिगत प्रासादप्रमाणस्तदनुसारेण चेत्येवं निश्चिनुमो जम्बूप्रकरणप्रासादा विषमायामविष्कम्भा इति। यत्तु श्रीजीवाभिगमसूत्रवृत्तौ क्रोशमेकमूर्द्धमुच्चैस्त्वेन, अर्द्धक्रोश विष्कम्भे ने त्युक्तं, तद् गम्भीराशयं न विद्मः / अथास्याः पद्मवरवेदिकादिस्वरूपमाह- "जम्बूए णं" इत्यादि। जम्बू‘दशभिः पद्मवरवेदिकाभिः प्राकारविशेषरूपाभिः सर्वतः समन्तात् सपरिक्षिप्ता वेदिकानां वर्णकः प्राग्वत्, इमाश्च जम्बूमूलं जम्बूपरिवृत्य स्थिताः ज्ञातव्याः / या तु पीठपरिवेष्टिका सा तु प्रागेवोक्ता / अथास्याः प्रथमपरिक्षेपमाह- "जंबूए णं'' इत्यादि / जम्बूः णमितिवाक्यालकारे / अन्येनाष्टशतेन जम्बूनां जम्बूवृक्षाणां तदोच्चत्वानां, तस्या मूलं जम्ब्वा अर्द्धप्रमाणमुचत्वं यासा तास्तथा तासां, सर्वतस्समन्तात् संपरिक्षिप्ता उपलक्षणं चैतत् तेनोवैधायामविस्तारा अपि अर्द्धप्रमाणा ज्ञेयाः / तथाहि ता अष्टाधिकशतसंख्या जम्ब्या प्रत्येक चत्वारि योजनान्युचैस्त्वेन क्रोशमेकमवगाहनम्, एक योजनमुचः स्कन्धः त्रीणि योजनानि विडिमा सर्वाग्रणोचैस्त्वेन सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि, तत्रैकैका शाखा, अर्द्धकोशहीने द्वे योजने दीर्घा, क्रोशपृथुत्वः स्कन्ध इति भवति सर्वसंख्यया आयामविष्कम्भतश्चत्वारि योजनानि, आसु चानादृतदेवस्याभरणादीनि तिष्ठन्ति / एतासां वर्णकज्ञापनायाह (तासिणं वण्णओ ति) तासां च वर्णको मूलजम्बूसदृश एवेति। अथासा यावस्त्यः पद्मवरवेदिकाः ता आह 'ताओ णं' इत्यादि उत्तानार्थ, नवरं प्रतिजम्बूवृक्षषट्षट्पद्मवरवेदिका इत्यर्थः / एतासु च 108 जम्बूषु, अत्र सूत्रे जीवाभिगमे बृहत् क्षेत्रविचारादौ सूत्रकृ द्भिः वृत्तिकृ द्भिश्च जिनभवनप्रासादचिन्ता काऽपि न चक्रे , बहवोऽपि च बहुश्रुता श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णिकारादयो मूलजम्बूवृक्षगतप्रथम-वनखण्डगत कूटाष्टकजिनभवनैः सह सप्तदशोत्तरं शतं जिनभवनानां मन्यमाना इहाप्येकैकं सिद्धायतनं पूर्वोक्तमानं मेनिरे, ततोऽत्र तत्त्वं केवलिनो विदुरिति। संप्रति शेषान् परिक्षेपान् वक्तुं सूत्रचतुष्टयमाह--"जंबूएणं" इत्यादि / जम्ब्वाः सुदर्शनाया उत्तरपूर्वस्यामीशानकोण उत्तरस्यामुत्तरपश्चिमायां कोणे, अत्रान्तरे, दिक्त्रयेऽपि इत्यर्थः / अनादृतनाम्नो जम्बूद्वीपाधिपतेर्देवस्य चतुर्णा सामानि-कसहस्राणां चत्वारि जम्यूसहस्राणि प्रज्ञप्तानि / "तीने णं' इत्यादि कण्ठ्यम् / गाथाबन्धेन पार्षद्यदेवजम्यूराह- "दक्खिण" इत्यादि। दक्षिणपौरस्त्य आग्नेयकोणे, दक्षिणस्याम्, अपरदक्षिणस्यां नैर्ऋतकोणे, चः समुच्चयार्थः / एतासु तिसृषु दिक्षु यथासंख्यं अष्टादश द्वादश जम्बूना सहस्राणि भवन्ति, एवोऽवधारणे, तेन नाधिकानि, न न्यूनानीत्यर्थः / चः प्राग्वत् / अनीकाधिपजम्बूस्तृतीयपरिक्षेपजम्बूश्व गाथाबन्धेनाह"अणियाहिबाण'' इत्यादि। अनीकाधिपकानां गजादि-कटकाधीशानां सप्तानां सप्तैव जम्ब्वः पश्चिमायां भवन्ति, तृतीयः परिक्षेपः पूर्णः / अथ तृतीयमाह- आत्मरक्षाणामनादृतदेव-सामानिकचतुर्गुणानां षोडशसहस्राणां जम्न्यः एकैकासु दिक्षु चतुस्सहस्रसहरत्रसद्भावात् षोडशसहस्राणि भवन्ति, यद्यपि चानयोः परिक्षेपयोः जम्बूनामुच्चत्वादिप्रमाणं न पूर्वाचायश्चिन्तिः तं, तथाऽपि पद्मदपद्मपरिक्षेपन्यायेन, पूर्वपूर्वपरिक्षेपजम्ब्वपेक्षयोत्तरोत्तरपरिक्षेपजम्ब्वोऽर्द्धमाना ज्ञातव्याः। अत्राप्येकैकस्मिन् परिक्षेपे एकैकस्यां पक्तौ क्रियामपेक्ष्य क्षेत्रसांकीर्णेनावकाशदोषस्तथैवोद्भावनीयः तेन परिक्षेपजातयस्तथैव वाच्याः / संप्रत्यस्या एव वनत्रयपरिक्षेपान् वक्तुमाह-"जंबूएणं'' इत्यादि। सा चैबपरिवारेति गम्यत्। त्रिभिः शतिकर्योजनशतप्रमाणैर्वनखण्डैः सर्वतः संपरिक्षिप्तः / तद्यथा- अभ्यन्तरेण, मध्यमेन, बाह्येनेति / अथाऽत्र यदस्ति तदाह"जम्यूए '' इत्यादि। जम्ब्वाः सपरिवारायाः पूर्वेण पञ्चाशद्योजनानि प्रथमवनखण्डमवगाह्य, अत्रान्तरे भवनं प्रज्ञप्तं, क्रोश-मायामेन, उच्चत्वादिकथनायातिदेशमाह- स एव मूल-जम्बूपूर्वशाखागतभवनसंबन्धी वर्णको ज्ञेयः। शयनीयं चानादृतयोग्यम् / एवं शेषास्वपि दक्षिणादिदिक्षु दिशिपञ्चाशद्योजनान्यवगाह्याद्ये वने भवनानि वाच्यानि। अथात्र वने वापीस्वरूपमाह- "जबूए णं उत्तर'' इत्यादि। जम्ब्वा उत्तरपौरस्त्यदिग्भागे प्रथमं वनखण्ड पञ्चाशद्योजना-न्यवगाह्यात्रान्तरे चतस्रः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः। एताश्च न सूचीश्रेण्या व्यवस्थिताः, किंतु स्वाविदिग्गतप्रासादं परिक्षिप्य स्थिताः, तेन प्रादक्षिण्येन तन्नापान्येवम- पद्मा पूर्वस्यां, पद्मप्रभा दक्षिणस्यां, कुमुदा पश्चिमाया, कुमुदप्रभा उत्तरस्याम् / एवं दक्षिणपूर्वादिविदिग्गतवापीष्वपि वाच्य, ताश्च क्रोशमायामेन, अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेन, पञ्चधनु:-शतास्तुद्वेधेनेति / अथात्र वापीमध्यगतप्रासादस्वरूपमाह- "तासि णं" इत्यादि। तासा वापीनां चतसृणां मध्ये प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, बहुवचनं च उक्तवक्ष्यमाणानां वापीनां प्रासादापेक्षया द्रष्टव्यं, तेन प्रतिवापीचतुष्कमेकैकप्रासादभावेन चत्वारः प्रासादाः। एवं निर्देशो
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________________ जंबू 1370 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 लाघवार्थ, क्रोशमायामेनार्द्धक्रोशं विष्कम्भेन, देशोनं क्रोशमुच्च-त्वेन, / स्यैवायोगात, सुष्ठ अतिशयेन प्रबुद्धा उत्फुल्ल-योगादियमप्युत्फुल्ला, वर्णको मूलजम्बूदक्षिणशाखागल प्रासादवज्ज्ञेयः / एषु चानादृतदेवस्य •सकलभुवनव्यापकं यशो धरतीति यशोधरा, लिहादित्वादच्, जम्बूद्वीपो क्रीडार्थ सिंहासनानि सपरिवाराणि वाच्यानि, जीवाभिगमे ह्यनया जम्ब्या भुवनत्रयेऽपि विदितमहिमः, ततः संपन्न त्वपरिवाराणि, एवं शेषासु दक्षिणपूर्वादिषु दिक्षुवाप्यः प्रासादस्य यथोक्तयशोधारित्व-मस्याः विदेहेषु जम्बूविंदेहजम्बूः, विदेहान्तवक्तव्याः / एतासां नामदर्शनाय गाथाद्वयम्- पद्मादयः प्रागुक्ताः, पुनः र्गतोत्तरकुरुकृतनिवासत्वात् सौमनस्यहेतुत्वात् सौमनस्या, निहिता पद्मबन्धत्वेन संगृहीता इति न पुनरुक्तिः / एताश्च सर्वा अपि पश्यतः कस्याऽपि मनोदुष्टं भवति केवलं तां दृष्ट्वा प्रीतमनास्ता त्रिसोपानचतुर्दारा पद्मवरवेदिकावनखण्डयुक्ताश्च बोध्याः / अथ तदधिष्ठातारं च प्रशंसतीति, नियता सर्वकालमवस्थिता शाश्वतत्वात्, दक्षिणपूर्वस्थामुत्पलगुल्मा, पूर्वस्यां नलिना, दक्षिणस्यामुत्पलोजवला, नित्यं मण्डिता सदा भूषणभूषितत्वात्, सुभद्रा शोभनकल्याणभाजिनी, पश्चिमायामुत्पला, उत्तरस्यां तथा अपरदक्षिणस्या भृङ्गा, भृङ्गप्रभा, न ह्यस्याः कदाचिदुपद्रवसंभवो, महर्द्धिकेनाश्रितत्वात्, चः समुच्चये, अञ्जना, कज्जलप्रभा / तथा अपरोत्तरस्यां श्रीकान्ता, श्रीमहिता, विशाला विस्तीर्णा, चः पूर्वत्, आयामविष्कम्भाभ्यामुञ्चत्वेन चाष्टश्रीचन्द्रा, श्रीनिलया। चैवशब्दः प्राग्वत्। अथास्य वनस्य मध्यवर्ती नि योजनप्रमाणत्वात् शोभनं यातं जन्म यस्याः सा सुजाता, स्वरूपतो लक्षयति- "जंबूए ण" इत्यादि / जम्ब्वा अस्मिन्नेव प्रथमे विशुद्धमणिकनकरत्नमूल्यद्रव्यजनित तया जन्मदोषरहितेति भावः, वनखण्डे पौरस्त्यस्य भवनस्य उत्तरस्याम, उत्तरपौरस्त्यस्य शोभनं मनो यस्याः सकाशाद्भवति सासुमनाः, अपिचेति समुच्चये। अत्र ईशानकोणसत्कस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणस्याम्, अत्रान्तरे कूट जीवाभिगमादिषु चेदं जम्वादीनां सुभद्रादीनां च नाम्नां व्यत्यासेन पाठो प्रज्ञप्तम् / अष्ट योजनान्यू॰-चत्वेन द्वे योजने उद्वेधेन वृत्तत्वेन य एव दृश्यते, तत्रापि न कश्चिद्विरोध इति / 'जंबूए णं अट्ठट्ठमंगलाए" इति आयामः स एव विष्कम्भ इति मूलेऽष्टयोजना-न्यायामविष्कम्भाभ्यां व्यक्तम् / उपलक्षणात् ध्वजछत्रादिसूत्राणि वाच्यानि इति / संप्रति बहुमध्यदेशभागे, भूमितश्चतुर्षु योजनेषु गतेष्वित्यर्थः / षड्योज- सुदर्शनाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं पिपृच्छिषुरिदमाह- "से केण?णं'' इत्यादि नान्यायामविष्कम्भाभ्यामउपरि शिखरभागे चत्वारि योजनान्या- प्रश्नः प्रतीतः / उत्तर-सूत्रे-गौतम ! जम्ब्वां सुदर्शनायामनादृतो नाम यामविष्कम्भाभ्याम्। अथामीषा परिधिकथनाय पद्ममाह-"पणवीस'' जम्बूद्वीपाधिपतिर्न आदृता आदरविषयीकृता शेषजम्बूद्वीपगता देवा इत्यादिकं सर्व प्रथमपाठगतऋषभकूटाभिलापानुसारेण वाच्य / नवरं येनात्म-नोनन्यसदृशं महर्द्धिकत्वमीक्षमाणेन सोऽनादृत इति यथार्थनामा पञ्चविंशतियोजनानि विशेषाणि किश्चिदधिकानि मूले परित इत्यादि परिवसतिः महर्द्धिक इत्यादि प्राग्वत् / स च तत्र चतुर्णा यथा-संख्ययोज्यम् / जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणैस्तु 'अठु सह सामानिकसहरमाणां यावदात्मरक्षसहस्राणां जम्बूद्वीपस्य जम्ब्वाः कूडसरिसा, सव्वे जम्यूणया मया भणिया।" इत्यस्यां गाथायामृषभ- सुदर्शनाया अनादृतनाम्न्या राजधान्या अन्येषां च बहूनां देवानां देवीना कूटसमत्वेन भणितत्वात् द्वादश योजनानि अष्टौ मध्ये चेत्यूचे तत्त्वं तु चानादृतराजधा-नीवास्तव्यानामाधिपत्यं पालयन् यावद्विबहुश्रुतगम्यम् / एषु च प्रत्येक जिनगृहम् एकैकं विडिमागतजिन- हरति / तदेतेनार्थेन एवमुच्यते- जम्बूः सुदर्शनेति, कोऽर्थः ? गृहतुल्यमिति। अथ शेषकूटवक्त-व्यमतिदेशेनाह-"एवं सेसा वि कूडा" अनादृतदेवस्य दृशमात्मनि महर्द्धिकत्वदर्शनमत्र कृता-वासस्येति सुन्छु इति / एवमुक्तरीत्या वर्णप्रमाणपरिध्याद्यपेक्षया शेषाण्यपि सप्त कुटानि शोभनमिति यावत्, अनादृतदेवस्य यस्याः सकाशात् सा सुदर्शना इति। बोध्यानि स्थानविभागस्त्वेषः / तथाहि पूर्वदिग्भाविनो भवनस्य यद्यप्यनादृतराजधानी प्रश्नोत्तरसूत्रे सुदर्शनाशब्दप्रवृत्ति निमित्त दक्षिणतो दक्षिणपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावंतसकस्योत्तरतो द्वितीय कूट, प्रश्नोत्तरसूत्रनिगमनसूत्रान्तर्गत बहुष्वादशेषु दृष्ट, तथाऽपि "से तेणट्टेण" तथा दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य पूर्वतो दक्षिणपूर्वदिग्भाविनः इत्यादि-निगमनसूत्रम् उत्तरसूत्रानन्तरमेव वाचयितृणा-मव्यामोहार्थ प्रासादावतंसकस्य पश्चिमायां तृतीयं, तथा दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य / सूत्रपाठेऽस्माभिलिखितं, व्याख्यातंच उत्तरसूत्रानन्तरं, निगमनसूत्रस्यैव पश्चिमायां दक्षिणापरदिग्भाविनः प्रासादावतंसकपूर्वतश्चतुर्थ , तथा यौक्तिकत्वादिति / अथापरं गौतम ! यावच्छब्दाजम्ब्वाः सुदर्शनाया पश्चिमदिग्भाविनः प्रासादावतंसक-पूर्वतश्चतुर्थ, तथा पश्चिमदिग्भाविनो एतच्छाश्वं नामधेयं प्रज्ञप्तं, यन्न कदाचिन्न स्थादित्यादिकं ग्राह्यं, नाम्नः भवनस्य दक्षिणाऽपरादिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्योत्तरतः पञ्चमम्, शाश्वतत्व दर्शितम्। अथ प्रस्तुतवस्तुनः शाश्वतत्वमस्ति न येत्याशङ्कां तथा पश्चिमदिग्भाविन उत्तरत उत्तरपश्चिमदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य परिहरन्नाह- "जंबू सुदंसणा'' इत्यादि / व्याख्याऽस्य प्राग्वत्। अथ दक्षिणतः षष्ठं, तथा उत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पश्चिमायाम् प्रस्ताबादस्य राजधानी विवक्षुराह- "कहिणं भंते ! अणाढियस्स" उत्तरपश्चिमदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य पूर्वतः सप्तमं, तथा इत्यादि गतार्थम्, नवरं यदेव प्राग्वर्णितंयमिका-राजधानीप्रमाणं तदेव उत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पूर्वत उत्तरपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य नेतय्य, यावदनादृतदेवस्योपपातोऽभिषेकश्च निरवशेषो, वक्तव्य इति अपरतोऽष्टममिति / अत्र स्थापना। अथ जम्ब्वा नामोत्कीर्तनमाह- शेषः / ज० 4 वक्ष० / जी० / स्था० / सुधर्मगणधरशिष्ये, पुं०। "जंबूए णं'' इत्यादि / जम्ब्वाः सुदर्शनायाः द्वादश नामघयानि प्रश्न०१ आश्र०। द्वार। विपा० / अन्त०। अणु०। कल्प० / 'थेरस्स प्रज्ञप्तानि। तद्यथा- सुष्टु शोभनं नयनमनसोरानन्दकत्वेन दर्शनं यस्याः णं अज्जसुहम्मस्स अग्गिवेसायणगुत्तस्स अजजंबूनामेणं थेरे अंतेवासी सा तथा, अमोधा सफला, इयं हि स्वस्वामिभावेन प्रतिपन्ना सती कासवगोत्ते" कल्प०८क्षण। "जम्बूणामं च कासयं," काश्यपः / जम्बूद्वीपाधिपत्यं जनयति / तदन्तरेण तद्विषयस्य स्वाभिभाव- | नं०। अवसर्पिण्यां जन्म चरमशरीरिणां नियमतस्तृतीय
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________________ जंबू 1371 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूदीव चतुर्थारकयोः, सिद्धिगमनं तु केषाचित् पञ्चमे ऽपयरके , यथा जम्बूस्वामिनः। नं०। श्रीजम्बूस्वामिस्वरूपं चेदम्राजगृहे ऋषभधारिण्योः पुत्रः पञ्चमस्वर्गाच्च्युतो जम्बूनामा श्रीसुधर्मस्वामिसमीपे धर्मश्रवणपुरस्सरं प्रतिपन्नशील-सम्यक्त्वोऽपि पित्रोद्देढाग्रहवशादष्टौ कन्याः परिणीतः, पर तासां सस्नेहाभिर्वाभिर्न व्यामोहितः / यतः-- "सम्यक्त्व-शीलतुम्बाभ्यां, भवाब्धिस्तीर्यते सुखम् / ते दधानो मुनिर्जम्बूः, स्वीनदीषु कथंबुडेत् ? ||1 // " ततो रात्रौ ताः प्रतिबोधयन् चौर्थार्थमागतं चतुःशतनवनवतिचौरपरिकरिते प्रभवमपि प्रावोधयत् ततः प्रातः पञ्चशत-चौरप्रियाष्टकतजनकजननीस्वजन क जननीभिः सह स्वय पञ्चशतसप्तविंशतितमो नवनवतिकनककोटीः परित्यज्य प्रव्रजितः क्रमात् केवलीभूत्वा षोडश वर्षाणि गृहस्थत्वे विंशतिः छाद्यस्थ्ये चतुश्चत्वारिंशत्के वलित्वे अशीतिवर्षाणि सर्वायुः परिपाल्य श्रीप्रभवं स्वपदे संस्थाप्य सिद्धिंगतः। अत्रः कविः"जम्बूसमस्तलारक्षो, न भूतो न भविष्यति / शिवाध्ववाहकान् साधून्, चौरानपिचकार यः॥१|| प्रभवोऽपि प्रभुर्जीयात्, चौर्येण हरता धनम्। लेभेऽनाचौर्यहरं, रत्नत्रितयमद्भुतम् // 2 // " तत्र "वारसवरिसे हिँ गो अमु, सिद्धो वीराउ वीसहि सुहम्मो / चउसट्टीए जंबू, वुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा / / 3 / / मण 1 परमोहि 2 पुलाए 3, आहार 4 खवग 5 उवसमे 6 कप्पे 7 संजमतिअ 8 केवल : सि-ज्झणा य 10 जंबुम्मि वुच्छिन्ना' / / 4 / / (मण त्ति) मनःपर्यायज्ञानम्, (परमो हि ति) परमावधिर्यास्मिन्नुत्पन्नेऽन्तर्मुहूर्तान्तः के बलोत्पत्तिः (पुलाए त्ति) पुलाकलब्धिर्यया चक्रवर्तिसैन्यमपि चूर्णीकर्तुं प्रभुः स्यात्, (आहारण त्ति) आहारकशरीरलब्धिः (खवग त्ति) क्षपक-श्रेणिः (उवसम त्ति) उपसमश्रेणिः (कप्पत्ति) जिनकल्पः (संजमतिअत्ति) संयमत्रिकंपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपराययथाख्यात-चारित्रलक्षणम् / अत्रापि कविः"लोकोत्तरं हि सौभाग्यं, जम्बूस्वामिमहामुनेः। अद्यापि यं पतिं प्राप्य, शिब श्रीनन्यिमिच्छति / / 1 / / ' कल्प० 8 क्षण / विशे० / संभूतविजयाचार्यस्य द्वादशानां शिष्याणांमध्ये दशमे शिष्ये गौतमगोत्रीये स्थविर, "थेरं च अजजंबु, गोयमगुत्तं नमसा मि // 6 // ' कल्प०७ क्षण। श्रीजम्बू-प्रभव-स्वामिभ्यां सार्द्ध तपस्या गृहीता, श्रीजम्बूस्वामिनश्च सर्वायुरशीतिवर्षाणि श्रीप्रभवस्वामिनः स्वर्गभाक्त्वं संपनीपोत, तेनैव तत्पट्टावलीगतं लेख्यकं कथं मिलतीति प्रश्ने, उत्तरम्-श्रीजम्बूस्वामिदीक्षाऽनन्तरं कियद्भिर्वर्षेः श्रीप्रभवस्वामिनो दीक्षा समाव्यते, तथा च सतिन कोऽपि विरोधः / यदुक्तं परिशिष्टपर्वणि"पञ्चमः श्रीगणधरोऽ-प्येवमभ्यर्थितस्तदा। तस्मै सपरिवाराय, ददौ दीक्षां यथाविधि / / 1 / पितृनापृच्छ्य चान्येद्युः प्रभवोऽपि समागतः। जम्बूकुमारमनुयान्, परिव्रज्यामुपाददे" ||2|| 278 प्र०। सेन० 3 उल्ला०। जंबूणय-न० (जाम्बूनद) जम्बूनद्यां भवम्, अण्। सुवर्ण विशेषे, आ०म० | प्र० / जी० / जं० / 'जंबूणयस्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकुरग्गसिहरा / " वृत्तिर्यथा-जाम्बूनदाजाम्बूनदनाम-कसुवर्णविशेषमया रक्ता रक्तवर्णा मृदवो मनोज्ञाः सुकुमाराः सुकु मारस्पर्शा ये प्रवाला ईषदुन्मीलितपत्रभावाः पल्लवाः संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा अड्कुराः प्रथममुद्भिद्यमाना अड्कुरास्तान् धनन्तीति जाम्बूनदरक्तमृदुसुकुमारप्रवा-लपल्लबाड्कुरधराः / क्वचित्पाठः " जंबूणयरत्तमउय'' इत्या-दि। तत्र जाम्बूनदानि रक्तानि मृदूनि अकठिनानि सुकुमाराणि अकर्कशस्पर्शानि कोमलानि मनोज्ञानि प्रवालपल्लवाड्कु रा यथोदितस्वरूपा अग्रशिखराणि य येषां ते तथा / जी० 3 प्रति०। अन्ये तु जाम्बूनदमया अग्रप्रवाला अड्कुरापरपर्याया राजता इत्याहुः / जी०३ प्रति० / "जंबूणयमयकलावजोत्तपइविसिट्ठो' जाम्बूनदमयौ कलापौ ग्रीवाभरणविशेषौ योक्त्रे च कण्ठबन्धनरज प्रतिविशिष्ट शोभने यस्य स तथा। उत्त० 4 अ०। 'जंबूणयमयाइं गत्ताई' जाम्बूनदमयानि गात्राणि / रा०। जंबूदाडिम-पुं० (जम्बूदाडिम) लक्ष्मणार्यायाः पितरि स्वनामके राजविशेषे, महा०६ अ०। जंबूदीव-पुं० (जम्बूद्वीप) न० / जम्ब्वा सुदर्शनापरनाम्न्याउनादृतदेवावासभूतया उपलक्षितो द्वीपः तत्प्रधानो वा द्वीपो जम्बूद्वीपः / आव०१ अ०। सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरीभूते स्वनामके द्वीपे, जी० 3 प्रति०। ल० द्वी०। स०। अनु०। जम्बूद्वीपबक्तव्यताविषये गौतमो वीरं प्रश्नयतिकहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे, के महालए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे, किंसंठिए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे, किमायारभावपडोयारे णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे पण्णत्ते गोयमा ! अयं णं जंबूद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वन्भंतरए सव्वखुड्डाए वढे तेल्लापूयसंठाणसंठिए वट्टे रहचक्कठालसंठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए वट्टे पडिपुण्ण चंदसंठाणसंठिए एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खं भेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साइं सोलससयसहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते / व कस्मिन् देशे भंते त्ति' गुरोरामन्त्रणम् / जम्बूद्वीपो, वर्तते इति शेषः / अनेन जम्बूद्वीपस्य स्थानं पृष्टम् / तथा भदन्त! किंप्रमाणो महानालय आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपोयस्य स तथा, कियत्प्रमाणस्य महत्वमित्यर्थः। एतेन प्रमाण पृष्टम् / अथ भदन्त ! किं संस्थान यस्य स तथा। एतेन संस्थानं पृष्टम्। तथा भदन्त ! आकारभाबः स्वरूपविशेषः कस्या-कारभावस्य प्रत्यवतारो यस्य सः किमाकारभावप्रत्यवतारः बहुलग्रहणाद्वैयधिकरण्येऽपि समासः। यद्वा-आकारस्य स्वरूपं भावाश्च जगतीवर्षधराद्यास्तगतपदार्था आकार-भावाः, येषां प्रत्यवतारोऽवतरणम्, आविर्भाव इति यावत्, आकारभावप्रत्यवतारः कः कीदृग, आकारभावप्रत्यवतारो यस्मिन् स तथा ! अनेन जम्बूद्वीपस्वरूपं, तगतपदार्थाश्च पृष्टाः इति इन्द्रभूतिना प्रश्नचतुष्टये कृते प्रतिवचः श्रवणाय सोत्साहताक रणार्थ जगत प्रसिद्धगोत्राभिधानं
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________________ जंबूदीव 1372 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूदीव न तमामन्त्र्य निर्वचनचतुष्टयीं भगवानाह- गौतमेत्यत्र दीर्घत्वमामन्त्रणप्रभवत्, तेन हे गौतम ! अयं, यत्र वयं वसामः / अनेन समयक्षेत्रबहिर्वर्तिनामसंख्येयानां जम्बू-द्वीपानां व्यवच्छेदः / जम्बूद्वीपो नाम द्वीपः / कथंभूत इत्याह- सर्वद्वीपानां धातकीखण्डादीनां सर्वसमुद्राणां लवणोदादीनां सर्वात्मना सामस्त्येन अभ्यन्तरः सकलतिर्यग्लोकमध्यवर्ती, सर्वाभ्यन्तर एव सर्वाभ्यन्तरकः, स्वार्थेकः प्रत्ययः / अभ्यन्तरमानं धातकीखण्डोऽपि पुष्करवरद्वीपो-क्षयाऽस्ति, अतः सर्वशब्दोपादानमिति। अनेन जम्बूद्वीपस्या-वस्थानमुक्तम्।तथासर्वेभ्योऽपि शेषद्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको लघुः। तथाहि-सर्वलवणादयः समुद्रा धातकीखण्डादयश्च द्वीपा जम्बूद्वीपादारभ्य द्विगुणद्विगुणविष्कम्भायामपरिधयः ततः शेषद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽयं लघुरिति। दीर्घत्वं प्राकृत-त्वात् / अनेन सामान्यतः प्रमाणमभिहितं, विशेषस्त्वायामादिगतं प्रमाणमग्रे वक्ष्यति 2 / अत्र विशेषतः प्रमाणमवसरप्राप्तमपि यन्त्रोक्तं तत्सूत्रकाराणां विचित्रा प्रवृत्तिरिति / तथा वृत्तः, स च शुषिरवृत्तोऽपि स्यादत आह-तैलापूपसंस्यानसंस्थितः- तैलेन पक्वोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति, न घृतपक्क इति तैलविशेषणं, तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितः / अत्र तैलादित्वाल्लकारस्य द्वित्वम् / तथा वृत्तोरथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, रथस्यावयवे समुदायोपचारात् रथाङ्गस्य चक्रवालं मण्डलं तस्येव संस्थानेन संस्थितः / अथवा-चक्रवाल मण्डलं मण्डलत्वधर्मयोगाच रथचक्रमपिरथचक्रवालं, शेष प्राग्वत्। एवं वृत्तः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितः, पुष्करकर्णिका पद्मबीजकोशः, कमलमध्यभाग इति यावत्। वृत्तः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः, प्राग्वत्पदद्वयं भावनीयम्। एकेनैव चरितार्थकत्वेऽपि नाना-देशजवियेयानां क्षयोपशमवैचित्र्यात्कस्यचित् किञ्चित् बोधकमित्युपमा-पदनानात्वम् / अत एव प्रत्युपमापदं योज्यमानत्वात् वृत्तपदस्य न पौनरुक्त्यशङ्काऽपि / एतेन संस्थानमुक्तम्। अथ सामान्यतः प्रागुक्तं प्रमाणं विशेषतो निर्वक्तु माह- एकं योजनशतससप्रमाणाङ्गुतानिष्पनं, योजनलक्षमित्यर्थः / आयामविष्कम्भेन, अत्र च समाहार-द्वन्द्वः, तेन क्लीबे एकवद्भावः, आयामविष्कम्भाभ्या-मित्यर्थः / / अत्राह परः जम्बूद्वीपस्य योजनलक्ष प्रमाणमुक्तं, तच पूर्वपश्चिमयोर्जगतीमूलविष्कम्भसत्कद्वादशद्वादशयोजनक्षेपे चतुर्विशन्यधिकं भवति, तथा यथोक्त मानं विरुध्यत इति न जम्बूद्वीपभगतीविष्कम्भेन सहैव लक्षं पूरणीयं, लवण-समुद्रजगतीविष्कम्भेन च लवणसमुद्रलक्षद्वयम् / एवमन्येष्वपि द्वीपसमुद्रेषु, अन्यथा समुद्रमानात् जगतीमानपृथग्भणने मनुष्यक्षेत्रपरिधिरतिरिक्तः स्यात् / स हि पञ्चचत्वारिंशल्ल-प्रमाणक्षेत्रापेक्षयाऽभिधीयते / अयमेवाशयः श्रीअभयदेवसूरिभिः चतुर्थाङ्ग वृत्तौ पञ्चपञ्चाशत्तमे समवाये प्रादुष्कृतोऽस्तीति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडशशतसहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके दयः क्रोशा अष्टाविंशमष्टाविंशत्याधिक धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलानि अ गुलंच किञ्चिद्विशेषाधिकमित्येतावान् परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तः। अत्र सप्तविंशमष्टाविंशमित्यादिकाः शब्दाः / / 'अधिकं तत्संख्यमस्मिन् शतसहस्रे शतिशशान्ताया डः" // 7 / 1 / 154 / / इति (हैम) सूत्रेण डप्रत्यये, सप्तविंशत्याधिकमष्टविंशत्यधिक-मित्यर्थः / परिध्यानयनोपायस्त्वयं चूर्णिकारोक्तः"विक्खंभवग्गदहगुण-करणी वट्टस्स परिरओ होइ। विक्संभपायगुणिओ, परिरओ तस्स गणियपयं / / 1 / / " अत्र व्याख्या वृत्तस्य वृत्तक्षेत्रस्य च वो बिष्कम्भो विष्कम्भपरिमाणं तस्य वर्गो विधीयते, वर्गो नाम-तेनैव राशिना तस्य गुणनं, तथा चतुष्कस्य चतुष्केण गुणने षोडश चतुष्कस्य वर्गः / ततः (दहगुण त्ति) दशभिर्गुणनात्, ततः करणरीतिर्वर्गमूलानयनं, ततो वृत्तस्य परिरयः परिमाणं भवति, तथा तस्य वृत्तस्य परिरयो, विष्कम्भस्य पादेन चतुर्थोशन गुणितः सन् गणितपदं भवति।जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भो व्यासः, स्थापना यथा-१००००० तद्वर्गः तद्गुणो वर्ग इति वचनाल्लक्षं लक्षण गुण्यते, जातम्-१००००००००००, सच दशगुणः क्रियते, शून्यानि 11, तदनु करणीति वर्गमूलमानीयते। तथाहि"विषमात्पदतस्त्यक्त्या, वर्गस्थानमुच्यते न मूलेन। द्विगुणेन भजेच्छेषं, लब्धं विनिवेशयेव्यक्तम्।।१।। तद्वर्गं संशोध्य, द्विगुणीकुर्वीत पूर्ववल्लब्धम्। उत्सार्य ततो विभजे-च्छेषं द्विगुणीकृतं च नयेत्' / / 2 / / इत्यनेन करणेनानीते वर्गमूले जातोऽधस्तनः छेदराशिः-६३२४४७ / अत्र सप्तकरूपोऽन्त्योऽङ्केन द्विगुणीकृत इति तद्वर्जशेषं सर्वमप्यर्ट्स क्रियते, लब्धं योजनानि 316 227, छेदराशिश्च सप्तकेऽपि द्विगुणीकृते जातः 632454, उपरि शेषांशाः 484471, एते च योजनस्थानीया इति क्रोशानयनाथ चतुर्गुणा जाताः 1637884, छेदराशिना भागे लब्ध क्रोशाः 3, शेषम् 40522 धनुरानयनाय द्विसहस्रगुणं जातम् ८१०४४०००,छेदराशिना भागे लब्धानि धपि 128, शेषम् 86885 षण्णवत्यङ्गुलमानधनुषोऽल्गुलानयनार्थ पण्णवतिगुणं जातम् 8626248, छेदेन भागे लब्धमङ्गुलानि 13, शेषम् 407346, अर्थ राशिः अर्धाइ गुलानयनाय दुगुणी क्रियते, जाता अष्टौ लक्षाः चतुर्दशसहस्राणि षट्शतानि द्विनवत्यधिकानि८१४६६२छेदराशिः, स एकलब्धमेकमर्धाङ्गुलम्। अत्र व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरितिन्यायात यवादिकमप्यानीयते / तथाहि-ते ह्यड्गुलाशा अष्टभिर्यवैरङगुलमिति अष्टभिर्गुण्यन्ते जाताः 3258768 छेदः स एव, लब्धाः यवाः 5, ततोऽप्यष्टगुणेन यूकादयः स्युः तत्र यूका 1, एतत् सर्वभप्य‘गुलस्य किञ्चि-दिशेषाधिकत्वकथनेन सूत्रकारेणापि सामान्यतः संगृहीतमिति बोध्यम् / गणितपदं तत्करणं च सोदाहरणमग्रेभावयिष्यते इति। ज०१ वक्ष०जी० अथाकारभावप्रत्यवतारविषयकप्रश्नं निर्वक्तुमाहसे णं एगाए वइरामईए जगईए सवओ समंता संपरिक्खित्ते। (से णं एगाए त्ति) सोऽनन्तरोदितायामविष्कम्भ परिक्षेपपरिमाणो जम्बूद्वीपः णमिति पूर्ववत्, एकया एकसङ्ख्यया अद्वितीयया, वज्रमय्या वजरत्नात्मिकया, जगत्या जम्बूद्वीपप्रकाररूपया द्वीपसमुद्रसीमारिण्या महानगरप्राकार-कल्पया, सर्वतो दिक्षु समन्तादिक्षु संपरिक्षिप्तः सम्यग् वेष्टितः / प्राकृतत्वाद्दीर्घत्वं वज्रशब्दस्य। जं०१ वक्ष०। जी० / भ० / (जगतीप्रतिवद्धविशेष-वक्तव्यता तु 'जगई' शब्देऽत्रैव भागेऽग्रे दर्शयिष्यते) संप्रति जम्बूद्वीपस्य द्वारप्ररूपणार्थमाहजंबूदीवस्स णं भंते ! दीवस्स कइ दारा पण्णत्ता ? गो
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________________ जंबूदीव 1373 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूदीव यमा ! चत्तारिदारा पण्णत्ता। तं जहा-विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। "जंबूद्दीवस्स णं भंते !" इत्यादि जम्बूद्वीपस्य, णमिति प्राग्वत्। भदन्त ! द्वीपस्य कति द्वाराणि प्रज्ञाप्तानि? भगवानाह गौतम! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि / तद्यथा- विजयम्, वैजयन्तम्, जयन्तम्, अपराजितं वा / जी०३ प्रति०। (द्वारप्रतिबद्धविशेषवक्तव्यताऽपि 'दार' शब्देविलोकनीया) संप्रति जम्बूद्वीपमध्यवर्तिपदार्थानां संग्रहगाथामाहखंडा१जोयण र वासा 3, पव्वय 4 कूडा५य तित्थ६ सेढीओ 7 विजय हह ह सलिलाओ 10 अपिंडए होइ संगहणी / / 1 / / संग्रहवाक्यस्य संक्षिप्तत्वेन दुर्बोधत्वात् सूत्रकृदेव प्रश्नोत्तररीत्या विवृणोति जंबूदीवे णं भंते ! दीवे भरहप्पमाणमेत्तेहिं खंडेहिं केवइअं खंडगणिएणं पण्णत्ते ? गोयमा ! णउअखंडसयगणिएणं पण्णत्ते / जम्बूद्वीपो भदन्त ! द्वीपो भरतप्रमाणं षट्कलाधिकषबिंशतियोजनाधिकपञ्चशतयोजनानि तदेव मात्रा परिमाणं येषां तानि तथा एवंविधैः खण्डैः शकलैरित्येवंरूपेण खण्डगणितेन खण्डसंख्यया कियाम् प्रज्ञप्त? भगवानाह- गौतम ! नवत्यधिक खण्डशतं खण्डगणितेन प्रज्ञप्तः / कोऽर्थः ? भरतप्रमाणैः खण्डै: नवत्यधिकशतसंख्याकै मिलितैर्जम्बूद्वीपः संपूर्णः लक्षप्रमाणो भवति। अथथोजनेति द्वारसूत्रम्जंबूदीवे णं भंते ! दीवे केवइयं जोअणणगणिएणं पण्णत्ते ? गोयमा!"सत्तेव य कोडिसया, णउआ छप्पण्णसयसहस्साइं। चउणउइंच सहस्सा, सयं दिवढंच गणियपयं" ||1|| जम्बूद्वीपो भदन्त! द्वीपः कियान् योजनगणितेन समचतुरस्रयोजन प्रमाणखण्डः सर्वसंख्यया प्रज्ञप्तः ? भगवानाह- गौतम ! सप्तकोटिशतानि, एवोऽवधारणे / च उत्तरत्र संख्यासमुच्चयार्थः / नवतीति नवतिकोट्यधिकानि इति व्याख्येयं, प्रस्तावात्। अन्यथा कोटिशततो द्वितीयस्थाने सत्सु लक्षादिस्थानेषु नवदशकरूपा नवतिर्न युज्यते, गणितशास्त्रविरोधात् तथा षट्पञ्चाशचछतसहस्राणि, लक्षाणीत्यर्थः / चतुर्नवतिं च सहस्राणि शतं च व्यर्द्ध सार्द्ध पञ्चाशदधिकं योजनमित्येतावत्प्रमाणः जम्बूद्वीपस्य गणितपदं क्षेत्रमित्यर्थः। सूत्रे च योजनसंख्यायाः प्रक्रान्तत्वात्योजनावधिरेव संख्या निर्दिष्टा, अन्यत्र तु भगवतीवृत्त्यादौ साधिकत्वं विवक्षितम्। तचेदम् - "गाउअमेगं पणरस, धणुस्सया तह य धणूणि पण्णरस / सदिच अंगुलाई, जंबूद्दीवस्स गणियपया॥१॥" इति इयं च व्यक्तैव, करणं चात्र-"विक्खंभपायगुणिओ, अपरिरओतस्स गणिअपअं"। इति वचनात् जम्बूद्वीपपरिधिस्विलक्षषोडशसहसद्विशतसप्तविंशतियोजनादिको जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भस्य लक्षरूपस्य पादेन चतुर्थाशन पञ्चविंशतिसहस्ररूपेणगुणितो जम्बूद्वीप-गणितपदमिति। तथाहि-जम्बूद्वीपपरिधिस्तिस्रो लक्षाः, षोडश सहस्राणि, द्वे शते सप्तविंशत्यधिके योजनाना, तथा गव्यूतत्रयम्, अष्टाविंशत्यधिकं शतं धनुषां त्रयोदशाङ्गुलानि एकं चाभ गुलं, यवादयस्तु श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण-प्रणीतक्षेत्रविचारसूत्रवृत्त्यादौन विवक्षिता, अतो न तद्विवक्षा क्रियते / तत्र योजनराशौ पञ्चविंशतिसहस्रैर्गुणिते सप्तकोटीशतानि नवतिकोटयः षट्पञ्चाशल्लक्षाः पञ्चसप्ततिसहस्राणि भवन्ति, तथा क्रोशत्रये पञ्चविंशतिसहस्रगुणिते जातं पञ्चसप्तति सहस्राणि गव्यूतानाम्, एषांचयोजनानयनार्थ चतुर्भिर्भाग हृते लब्धान्यष्टादश सहस्राणि सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि योजनानाम्, अस्मिँश्च सहस्रादिके पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि 63 सहस्राणि 7 शतानि 50 अधिकानि, कोट्यादिका संख्या तु सर्वत्र तथैव, तथा धनुषामष्टाविंशं शतं पञ्चविंशतिसहस्रैर्गुण्यते जाता द्वात्रिंशल्लक्षा धनुषाम् 320000, अष्टाभिश्च धनुःसहस्रैर्योजन भवति, ततो योजनानयनार्थमष्टाभिः सहस्रगिलब्धानि चत्वारि योजनशतानि, अस्मिँश्च पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि 64 सहस्राणि, शतं पञ्चाशदधिकम्, अगुलान्यपि त्रयोदशपञ्चविंशतिसहीगुण्यन्ते, जातानि त्रीणि लक्षाणि पञ्चविंशतिसहस्राधिकानि अर्धाङ्गुलमपि पञ्चविंशति-सहरसैरभ्यस्यते, जातान्यर्द्धगुलानां पञ्चविंशति-सहस्राणि, तेषामद्धेलब्धान्यड्गुलानांद्वादश सहस्राणि पञ्चाशताधिकानि, तेषु पूर्वोक्ताङ्गुलराशौ प्रक्षिप्तेषु जातोऽङ्गुलराशिस्त्रीणि लक्षाणि सप्तत्रिंशत्सहस्राणि पञ्चा-शदधिकानि एषां धनुरानयनाय षण्णवत्या भागे हृते लब्धानि धनुषां पञ्चत्रिंशच्छतानि पञ्चदशाधिकानि, शेषं षष्टि-रगुलानि, अस्य धनूराशेर्गव्यूतानयभाय सहस्रद्वयेन भागे हृते लब्धमेकं गव्यूतं, शेषं धनुषां पञ्चदशशतानि पञ्चदशाधिकानि, सर्वाग्रेण जातमिदं योजनानां सप्त-कोटिशतानि नवति-कोट्यधिकानि षट्पञ्चाशल्लक्षाः चतुर्णवतिसहस्राणि शतमेकं पञ्चाशदधिकं,तथा गव्यूतमेकं धनुषां पञ्चदशशतानि पञ्चदशाधिकानि अङ्गुलानां षष्टिरिति / गतं योजनद्वारम्। ०६वक्षा अथवर्षाणिजम्बूदीवेणं भंते ! कति वासा पण्णत्ता? गोयमा! सत्त वासा। तंजहा-भरहे, एरवए, हेमवए, हेरण्णवए, हरिवासे, रम्मगवासे, महाविदेहे। भरतमैरावतं हैमवत् हिरण्यवत् हरिवर्षरम्यकवर्षे महाविदेहः / जं०६ वक्ष०ाज्यो। स्था०। (महाविदेह-क्षेत्रविभागीकरणे तुदश वर्षाणि) अथ पर्वतद्वारम्जंबूदीवे णं भंते ! दीवे केवइया वासहरा पव्वया पण्णत्ता ? केवइआ मंदरा पव्वया, केवइया चित्तकूडा, केवइया विचित्तकूडा, केवइया जमगपव्वया, केवइया कंचणगपव्वया, के वइया वक्खारा, केवइया दीहवेयड्डा, केवइया वट्टवेयड्ढा पण्णत्ता? गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे छ वासहरपव्वया, एगे मंदरपव्वए, एगे चित्तकूडे, एगे विचित्तकूडे, दो जमगपव्वया, दो कंचणगपव्वयसया, वीसं वक्खारपव्वया, चोत्तीसंदीहवेयड्डा, चत्तारि वट्टवेअड्डा, एवामेव सपुव्वावरेणं जंबूद्दीवे दीवे दुण्णिआ उणत्तरा पव्वयसया भवंतीति मक्खायं ति।
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________________ जंबूदीव 1374 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूदीव प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् / उत्तरसूत्रे संख्यामीलनाय किञ्चिदुच्यते षट् वर्षधराः क्षुल्लहिमवदादयः एको मन्दरो मेरुः एकश्चित्रकूटः एकश्च विचित्रकूटः, एतौ च यमलजातकाविव द्वौ गिरिदेवकुरुवर्तिनौ द्वौ यमकपर्वतौ तथैवोत्तरकु रुवर्तिनौ द्वेकापश्चनकपर्वतशीते देवकुरुत्तरकुरुवर्तिहृदयदशकोभयकूलयोः प्रत्येक दशदशकाञ्चनकसद्भावात् तथा विंशतिर्वक्षस्कारपर्वताः तत्र गजदन्ताकाराः गन्धमा-दनादयश्चत्वारः, तथा चतुष्प्रकारे महाविदेहे प्रत्येक चतुष्कचतुष्कसद्भावात् / षोडश चित्रकूटादयः सरलाः द्वयेऽपि मिलिताः यथोक्तसंख्याः / तथा चतुस्त्रिंशद्दीर्घवैताढ्याः द्वात्रिंशद्विजयेषु भरतराव्रतयोश्च प्रत्येकमेकैकभावात् चत्वारो वृत्तवैताढ्यहैमवतादिषु चतुषु वर्षेषु एकै कभावात् 'एवामेव सपुव्वावरणं ति' प्राग्वत्। जम्बूद्वीपेद्वीपे एकोनसप्तत्यधिके पर्वतशते भवत इत्याख्यातं मया, अन्यैश्च तीर्थकृद्धिः। जं०६ वक्ष०। अथ क्षेत्राणिजंबूद्दीवे दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता / तं जहा- भरहे, एरवए, हेमवए, हेरन्नवए, हरिवासे, रम्मगवासे, पुव्वविदेहे, अवरविदेहे, देवकुरा, उत्तरकुरा। स्था० 10 ठा०। अथ कूटानिजंबूदीवे णं भंते ! दीवे के वइया वासहरकूडा, के वइया वक्खारकूडा, केवइया वेअड्डकूडा केवइया मंदरकूडा पण्ण / त्ता ? गोयमा! छप्पण्णं वासहरकूडा, छण्णउइंव-क्खारकूडा, तिण्णि छलुत्तरा वेअडकूडसया, नव मंदरकूडा पण्णत्ता / एवा मेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चत्तारि सत्तट्ठा कूडसया भवंतीति मक्खायं / / जम्बूद्वीपे कियन्ति वर्षधरकूटानि इत्यादि प्रश्नसूत्रं व्यक्तम्। उत्तर सूत्रे--षट्पञ्चाशद्वर्षधरकूटानि। तथाहि-क्षुद्रहिमवच्छिखरिणोः प्रत्येकमेकादश, महाहिमवद्रुक्मिणोः प्रत्येकमष्टौ, निष-धनीलवतोः प्रत्येकं नव, सर्वसंख्यया 56 / वक्षस्कारकूटानिषण्णवतिः। तद्यथा सरलवक्षस्कारेषु षोडशसु 16 प्रत्येकं चतुष्ट भावात् 64 गजदन्ताकृ तिवक्षस्कारेषु गन्धमादनसौमनसयोः सप्त 2 माल्यवद्विद्युत्प्रभयोः नव इति, उभयमीलने यथोक्तसंख्या, त्रीणि षडुत्तराणि वैताढ्यकूटशतानि, तन्न भरतैरावतयोर्विजयानां च वैताळ्येषु चतुस्त्रिंशति प्रत्येकनवसंभवादुक्तसंख्यानयनं वृत्तवैताद्व्येषु च कूटाभावः / अत एव वैताढ्यसूत्रे न दीर्घ-पदोपादानं, विशेषणस्य व्यवच्छेदकत्वात्, अत्र चव्यवच्छेद्य-स्याभावादिति। मेरौ नव,तानि चन्दनवनगतानि ग्राह्याणि, न भद्रशालवनगतानि दिग्घस्तिकूटानि, तेषां भूमिप्रतिष्ठित-त्वेन स्वतन्त्रकूटत्वादिति / संग्रहणिगाथायाम् "पव्वयकूडाय' इत्यत्र चोऽनुक्तसमुये। तेन चतुस्त्रिंशद्वृषभकूटानि, तथाअष्टौ जम्बूवनगतानि, तावन्त्येव शाल्मलीवनगतानि भद्धशालवनगतानि च सर्वसंख्याऽष्टपञ्चाशत्संख्याकानि अग्राणि। ननु तर्हि एतद्गाथाविवरणसूत्रे- "चत्तारि सत्त सट्ठा कूडसया'' इत्येवंरूपे संख्याविरोधः। उच्यते-एषां नियताधारकत्वेन स्वतन्त्रगिरित्वान्न | कूटेषु गणना। अयमेवाशयः ऋषभकूटसंख्यासूत्रपृथक्करणेन सूत्रकृता स्वयमेव दर्शयिष्यते, यच्च प्राक् ऋषभक्टाधिकारे-"कहिणंभंते! जंबुद्दीवे दीवे उसभकूटे णाम पव्वए पण्णत्ते / " इति सूत्रम्, तच्छिलोचयमात्रतापरं व्याख्येयमिति सर्वं सम्यक् / जं०६ वक्षः। स्था०। अथ तीर्थानिजम्बूद्दीवे णं भंते ! दीवे भरहे वासे कति तित्था पण्णत्ता? गोयमा! तओ तित्था पण्णत्ता। तं जहा-मागहे, वरदामे, पभासे / जंबुद्दीवे णं दीवे एरवए वासे कति तित्था पण्णता? गोयमा! तओ तित्था पण्णत्ता। तं जहामागहे, वरदामे, पभासे। जंबुद्दीवे णं दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चक्कवट्टिविजए कति तित्था पण्णत्ता? गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता। तं जहामागहे, वरदामे, पभासे / एवामेव सपुव्वा-वरणेणं जंबुद्दीवे दीवे एगं वि उत्तरे तित्थसए भवतीति मक्खायं ति।। प्रश्नसूत्रे तीर्थानि चक्रिणां स्वस्वक्षेत्रसीमासु, साधनार्थ महाजलावतरणस्थानानि / उत्तरसूत्रे भरते त्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि। तद्यथा-मागधं पूर्वस्यां गङ्गासङ्गमे समुद्रस्य, वरदाम दक्षिणस्यां प्रभास, पश्चिमायां सिन्धुसङ्गमे समुद्र-स्य, / एवमै-रावतसूत्रमपि भावनीयम् / नवरं नद्यौ चात्र रक्तारक्तवत्यौ, तयोः समुद्रसङ्गमे मागधप्रभासे वरदामाख्ये च तत्रत्यापेक्षया तथैव, विजयसूत्रे चायं विशेषः-विजयसत्का गङ्गादि 4 महानदीनां यथार्ह शीताशीतोदयोः संगमे मागधप्रभासाख्यानि भावनीयानि, वरदामाख्यानि तेषां मध्यगतानि भाव्यानि, एवमेव पूर्वापरमीलनेन एकं व्युत्तरं तीर्थशतं भवतीत्याख्यातमिति। जं०६ वक्ष०। स्था०। अथ श्रेणयःजंबूद्दीवे णं भंते ! दीवे के वइयाओ विजाहरसेढीओ, केवइयाओ आमिओगसेढीओपण्णत्ताओ? गोय-मा ! जंबुद्दीवे दीवे अट्ठसठ्ठी विजाहरसेढीओ, अट्ठसठ्ठी आभिओगसेढीओ पण्णत्ताओ। एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीससेढीसए भवतीति मक्खायं / / प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् / उत्तरसूत्रे गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अष्टषष्टिविद्याधरश्रेणयः विद्याधरावासभूता वैताढ्यानां पूर्वापरोदध्यादिपरिच्छिन्ना आयतमेखला भवन्ति चतुस्त्रिशत्यपि वैताढ्येषु दक्षिणत उत्तरतश्च एकैकश्रेणिभावात्तथै-वांष्टषष्टिराभियोग्यश्रेणयः एवमेव पूर्वापरमीलनेन जम्बूद्वीपे द्वीपे षट्त्रिंशदधिक श्रेणिशतं भवतीत्याख्यातम्। अथ विजया:जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया चक्कवट्टिविजया, केवइआओ रायहाणीओ, के बइआओ तिमिसगुहाओ, के यइआओ खंडप्पवायगुहाओ, केवइया कयमालया देवा, के वइया णट्टमालया देवा, केवइया उसभकूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे चोत्तीसं चक्कवट्टिविजया, चोत्तीसं रायहाणी ओ, चोत्तीसं तिमिसगुहाओ, चोत्तीसं खंडप्पवायगुहाओ, चोत्तीसं कयमालगा देवा, चोत्तीसं णट्टमालगा, देवा, चोत्तीसं उसभकूडा पव्वया पण्णत्ता।
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________________ जंबूदीव 1375 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूदीव प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् / उत्तरसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुस्विंशचक्रव- दाशरथिर्लक्ष्मणशब्दसाहचर्यात् प्रतीयेत, न तु रेणुकासुत इति। जं०६ तिविजयास्तत्र द्वात्रिंशन्महाविदेहविजयाःद्वे च भरतैरावते, अवयोरपि वक्ष०। चक्रवर्तिविजेतव्यक्षेत्रखण्डरूपस्य चक्रवर्तिविजयशब्दवाच्यस्य जंबूदीवे दीवे हरिवासरम्मगवासेसु दो चउवीसा सलिलासत्त्वात्, एवं चतुस्त्रिंशत् राज-धान्यश्चतुस्त्रिंशत्त मिश्रागुहाः, सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं / / प्रतिवैताढ्यमेकैकसंभवात्, एवं चतुस्त्रिंशत् खण्डप्रतापगुहाः, तथा "जंबुद्दीवे'' इत्यादि सुबोधंद्वयोर्वर्षयोः सहोक्तौ हेतुः प्राग्वदेव, चतुस्त्रिंशत् कृतमालदेवाः चतुरित्रशन्नक्तमालका देवाश्चतुस्विंशत् (हरीति) हरिसलिला पूर्वार्णवगा, हरिवर्षेहरि-कान्ता चापरार्णवगा, ऋषभकूटनामकाः पर्वताः प्रज्ञप्ताः, प्रतिक्षेत्रं संभवतः चक्रवर्तिनो रम्यके नरकान्ता पूर्वार्णवगा, नारीकान्ता चापरार्णवगा सर्वसंख्यया दिग्विजय-सूचक-नामन्यासार्थमकैकसद्भावात्, यच्चात्र विजयद्वारे जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्षरम्यकवर्षयोर्द्ध चतुर्विशतिसहस्राधिके प्रक्रान्ते राजधान्यादि प्रश्नोत्तरसूत्रेतद्विजयान्तर्गतत्वेनेति। सलिला-शतसहस्रे भवत इति षट्पञ्चाशत्सहस्राणां चतुर्गुणने अथ ह्रदाः एकभावत एव लाभात् / अत्रापि सहस्रपरतथा व्याख्यानं प्राग्वत्। जंबूद्दीवे दीवे केवइया महदहा पण्णत्ता ? गोयमा ! सोलस जं०६वक्ष० महदहा पण्णत्ता। जंबूद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरपव्वयस्स दक्खिणेणं केवइया प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् / उत्तरसूत्रे षोडश महाहदाः, षड्वर्षधराणां / सलिलासयसहस्सा पुरच्छिमपचच्छिमाभिमुहा लवणसमुद्धं शीताशीतोदयोश्च प्रत्येकं पञ्च। जं०६वक्ष०। स्था०। समप्पें ति? गोयमा ! एगे छण्णउए सलिला सयसहस्से अथसलिला: पुरच्छिमपञ्चच्छिमाभिमुहे लवणसमुदं समप्येति त्ति / जंबुद्दीवे जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे केवइआओ महाणईओवासहरपवहाओ, णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं के वइया केवइआओ महाणईओ कुंड-प्पवहाओ पण्णत्ताओ? गोअमा ! सलिलासयसहस्सा पुरच्छिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्पेंति? जंबुद्दीवे दीवे चोद्दस महाणईओ वासहरपवहाओ, गोयमा! एगे छण्णउए सलिलासयसहस्से पुरच्छिमपचच्छिमाछावत्तरिमहाणईओ कुंडप्पवहाओ, एवामेव सपुटवावरेणं भिमुहे. जाव समप्पेइ / जंबूद्दीवे णं भंते ! के वइया जंबुद्दीवे दीवे णउतिं महाणईओ भवंतीति मक्खायं। सलिलासयसहस्सा पुरत्थाभिमुहा लवणसमुदं समप्पेंति ? जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्यो महानद्यो वर्षधरेभ्यः "तात्स्थ्यात् गोअमा! सत्त सलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा०जाव तव्यपदेशः' इति / वर्षधरहदेभ्यः प्रवहन्ति निर्गच्छन्तीति समप्यति / जंबुद्दीवे णं भंते ! केवइया सलिलासयसहस्सा, वर्षधरप्रवहाः / अन्यथा कुण्ड प्रभवाणामपि वर्षधरनितम्ब पचच्छिमाभिमुहा लवणसमुहं समति ? गोयमा ! सत्त स्थकुण्डप्रभवत्वेन वर्षधरप्रभवा इति वाच्यं स्यात् / कियत्यः सलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा० जाव समप्पेंति, कुण्ड प्रभवा वर्षधरनितम्बवर्तिकुण्ड निर्गताः प्रज्ञप्ता ? एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोद्दस सलिलासयसहस्सा गौतम ! जम्बूद्वीपे चतुदर्शमहानद्यो वर्षधरहदप्रभवाः भरतगङ्गादयः छप्पण्णं च सहस्सा भवंतीति मक्खायं / / प्रतिक्षेत्रं द्विद्विभावात् कुण्डभवाः षट्सप्त-तिर्महानद्यः, तत्र शीताया अथ मेरुतो दक्षिणस्यां कियत्थो नद्य इत्याह- "जंबुद्दीवे दीवे उदीच्येष्वष्ठसु विजयेषु शीतोदाया याम्येष्वष्टासु विजयेषु च मंदरपव्वय'' इत्यादि व्यक्तम् / नवरम् उत्तरसूत्रे एकं षएकैकभावेन षोडश गङ्गाः षोडश सिन्धवश्च तथा शीतायायाम्येष्वष्टसु ण्णवतिसहस्राधिक सलिलाशतसहस्रम् / तथाहि-भरते गङ्गायाः विजयेषु शीतोदाया उदीच्येष्वष्टसु विजयेष्वष्टसु चैकैकभावेन षोडश सिन्धोश्च चतुर्दशचतुर्दशसहस्राणि, हैमवते रोहिताया रक्ता रक्तवत्यश्व, एवं चतुःषष्टिः द्वादशच प्रागुक्ता अन्तर्नद्यः सर्वमीलने रोहितांशायाश्चाष्टाविंशतिरष्टाविंशतिसहस्राणि, हरिवर्षे हरिसलिलाया षट्सप्ततिरिति कुण्डप्रभवानां तु शीताशीतोदापरिवारभूतत्वेनाऽ- हरिकान्तायाश्च षट्पञ्चाशत् २सहस्राणि, सर्वमीलने यथोक्तसंख्या। संभवदपि महानदीत्वं स्वस्वविजय-गतचतुर्दशसहस्रनदीपरिवार अथ मेरोरुत्तर-वर्तिनीनां संख्यांप्रश्नयितुमाह-"जंबुद्दीवे'' इत्यादि संपदुपेतत्वेन भाव्यम् / एवमेव पूर्वापरेण चतुर्दशषट्सप्तरूप- व्यक्तम्। नवरम् उत्तरसूत्रे सर्वसंख्या दक्षिणसुत्रवद्भावनीया, वर्षाणां संख्यामीलनेन जम्बूद्वीपे नवतिर्महानद्यो भवन्तीत्याख्यातमिति। जं० नदीनां च विशेषः स्वयं बोध्यः / ननु मेरुतो दक्षिणोत्तरनदी६वक्ष०ा स्था०। स०। (तासांचतुर्दशमहानदीनां नदीपरिवारसंख्या संख्यामीलने सपरिवारे उत्तरदक्षिणप्रवहे शीताशीतोदे कथं न समुद्रप्रवेशदिग्‘महाणई' शब्दे वक्ष्यते) मिलिते ? उच्यते--प्रश्नसूत्रं हि मेरुतो दक्षिणोत्तरदिग्भागवर्ति जंबद्दीये दीवे हेमवयहे रणवएसु वासेसु वारसुत्तरे पूर्वापरसमुद्र प्रवेशरूपविशिष्टार्थविषयकं , ते न मेरुतः सलिलासयसहस्से भवंतीति मक्खायं / / / शुद्धपूर्वापरसमुद्रप्रवेशिन्योरनयोर्निर्वचनसूत्रेऽनन्तर्भावः, जम्बूद्वीपे हैमवतहरण्यवतयोः क्षेत्रयोदशसहस्रोत्तर नदी- यथाप्रश्न निर्वचनदानस्य शिष्टव्यवहारात्। अथ पूर्वाऽभिमुखाः शतसहस्रं भवतीत्येवमाख्यातम् / अत्र शतसहस्रशब्द- क्रियत्यो लवणोदं प्रविशन्तीत्याह- "जंबुदीवे दीवे" इत्यादि। साहचर्यादग्रसंख्यायां सहस्राणि प्रतीयन्ते / अन्यथा षट्पञ्चाशत् जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्यो नद्यः पूर्वाभिमुखाः लवणोदं प्रविशन्ति, सहस्राणां चतुर्गुणने संख्याशास्त्रबोधः स्यात, दृश्यते च कियत्यः पूर्वसमुद्रप्रवेशिन्य इत्यर्थः / इदं च प्रश्नसूत्रं केवलं शब्दसाहचर्या दर्थप्रतिपतिः। यथा-रामलक्ष्मणा-वित्यत्र रामशब्देन / नदीनां पूर्व दिग्गमित्वरूपप्रष्टय॑ विषयकं, तेन पूर्वस्मात
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________________ जंबूदीव 1376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूदीव प्रश्नसूत्रादिभिद्यते, उत्तरसूत्रे सप्त नदीलक्षणानि, अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि यावत् समुपसर्पन्ति / तद्यथापूर्वसूत्रे मेरुतो दक्षिणदिग्बार्तिनीनामेकंषण्णवतिसहस्राधिकं लक्षमुक्तं, तदर्दू पूर्व पूर्वाब्धिगामीत्यागतान्यष्टानवतिः सहस्राणि, एवमुदीच्यनदीनामप्यवष्टानवतिः सहस्राणि शीतापरिक रनद्यश्च लक्षाणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि च, सर्वपिण्डे यथोक्तं मानम् / अथ | पश्चिमाब्धिगामिनीनां संख्याप्रश्नार्थमाह-"जंबुद्दीवे दीवे'' इत्यादि। | इदं चानन्तरसूत्रवत् वाच्यं, संख्या योजनीया, परस्परं निर्विशेषत्वात् / संप्रति सर्वसरित् संकलनामाह ''एवामेव सपुव्वारेणं' इत्यादि व्यक्तं, नवरम् जम्बूद्वीपे द्वीपे पूर्वाब्धिगामिनीनामपराब्धिगामिनीनां च नदीनां संयोजने चतुर्दशलक्षाणि षट्पञ्चाशत् सहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातम्। ननु इयं सर्वसरित्संख्या केवलपरिकरनदीनां, महानदीसहितानां वा तासाम् ? उच्यते--महानदीसहितानामिति संभाव्यते, संभावनाबीज तु कच्छविजयगतसिन्धुनदीवर्णनाधिकारे प्रवेशे च सर्व-संख्यया आत्मना सह चतुर्दशभिर्नदीसहस्रः समन्विता भवतीति श्रीमलयगिरिकृतबृहत्क्षेतविचारवृत्त्यादिवचन-मिति / श्रीरत्नशेखरसूरयस्तुस्वक्षेत्रसमासे-"अडसयरि महाणइओ, वारस अंतरणईउ सेसा उ / परिअरणईउ चउदस, एवं छप्पण्णसहसा य॥१॥' इति महानदीनां पृथग्गणनं चक्रु -रिति / तत्त्वं तु बहुश्रुतगम्यम् / नन्वत्र प्रत्येकमष्टाविंशति सहस्रनदीपरिवारा द्वादशान्तनद्यः सर्वनदी संकलनायां कथंनगणिताः? उच्यते-इयं सर्वसरित् संख्या चतुर्दशलक्षादिलक्षणं श्रीरत्नशेखरसूरिभिः स्वोपज्ञक्षेत्र-समासवृत्तौ, तथा प्रतिमहानदीपरिवारमीलने स्वस्वक्षेत्र-विचारसूत्रे श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणादिसूत्रकारैः श्रीमलयगिर्यादिभिर्वृत्तिकारश्चान्तर्नदीपरिवाराः संग्रहेण चोक्ताः / श्रीहरिभद्रसूरिभिस्तु- "खंडा जोअणं' इत्यादि गाथायाः संग्रहण्यां चतुरशीतिप्रमाणा कुरुनदीरनन्तर्भाव्य तत्स्थाने इमा एव द्वादश नदीः चतुर्दशभिः 2 नदीसहस्रैः सह निक्षिप्य यथोक्तसंख्याऽपूरि / तद्यथा- "चउदस सहस्सगुणिआ, अडतीसणईउ विजयमज्झिल्ला। सीआणइणिवडती, सीओआए विएमेव / / 1 / / " कैश्चित्तु जयविजयगतयोः गङ्गासिन्ध्वोः रक्तारक्तवत्यो अष्टाविंशतिसहस्रनदीलक्षणः परिवारः, स एवासन्नतयोपचारेणान्तर्नदीनां परिवारतयोक्त इत्यतोऽवसीयते, यदन्तर्नदीपरिवारमाश्रित्य मतवैचित्र्यदर्शनादिना केनाऽपि हेतुना प्रस्तुतसूत्रकारेणाऽपि सर्वनदीसंकलनायां गणिता इति। अत्रापि तत्त्वं बहुश्रुतगम्यमेव। यदि चान्तर्नदीपरिवारनदीसंकलनाऽपि -क्रियते तदा जम्बूद्वीपे द्विनवतिसहस्राधिकाः सप्तदश लक्षाः नदीनां भवन्ति / यदुक्तम्"सुत्ते चउदसलक्खा, छप्पण्ण-सहस्सजंबुदीवम्मिा हुंति उसत्तरस लक्खा, वाणउई सहस्ससलिला उ / / 1 / / '' इति / एतेषां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युक्तार्थानां पिण्डके मीलके विषयभूते इयं संग्रहगाथा भवतीति / अथ जम्बूद्वीपव्यासस्य लक्षप्रमाणताप्रतीत्यर्थ दक्षिणोत्तराभ्यां क्षेत्रयोजनसर्वाग्रमीलनं जिज्ञासूनामुपकाराय दर्श्यते। यथा-१०००००, अत्र सर्वाग्रं दिग्गतमुखवने-ऽन्तर्भावनीय इति। जं०६ वक्षः। अथ जम्बूद्वीपे चन्द्रादिसंख्यां पृच्छतिजंबूद्दीवे णं भंते ! दीवे कइ चंदा पभासिंसु, पभासिंति, पभासिस्संति; कइसूरिसा तवइंसु, तवेंतितविस्संति; केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु, जोअंति, जोइस्संति, केवइआ महग्गहा चार चरिंसु चरंति, चरिस्संति; केवइआओ तारागणकोडाकोडीओ सोभिंसु, सोभिंति, सोभिस्संतिय? गोयमा! दो चंदा पभासिंसु०३, दो सूरिआ तवइंसु०३, छप्पण्णं णक्खत्ता जोगं जोइंसु०३० छावत्तरं महग्सहसयं चारं चरिंसु०३। “एगं च सयसस्सं, तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई। णव य सया पण्णासा, तारागणकोडिकोडीणं / / 1 / / " जम्बूद्वीपे भगवन् ! द्वीपे कति चन्द्राः प्रभासितवन्तः- प्रकाशनीयं वस्तुसयोतितवन्तःप्रभासयन्ति उद्द्योत-यन्ति, प्रभासयिष्यन्ति सद्योतयिष्यन्ति, उद्योत-नामकमों दयाश्चन्द्रमण्डलानामनुष्णप्रकाशो हि जने उद्द्योत इति व्यवहियते तेन, तथा प्रश्ने अनादिनिधने यं जगत्स्थितिरिति जानतः शिष्यस्य कालत्रयनिर्देशन प्रश्नः प्रष्टव्यं तु चन्द्रादिसंख्या / तथा कति सूर्यास्तापितवन्तः आत्मव्यतिरिक्तवस्तुनि तापं जनितवन्तः, एवं तापयन्ति, तापयिष्यन्ति आतपनामकर्मोदयाद् विमण्डलानामुष्णः प्रकाशस्ताप इति लोके व्यवह्रियते, तेन तथा प्रश्नोक्तिः, तथा कियन्ति नक्षत्राणियोगं स्वयं नियतमण्डलचारित्वेऽप्यनियताऽनेकमण्डलचारिभिर्निजमण्डलक्षेत्रमागतैहैः सह संबन्धंयुक्तवन्ति प्राप्तवन्ति, युञ्जन्ति प्राप्नुवन्ति, योक्ष्यन्ति प्राप्स्यन्ति / तथा कियन्तो महाग्रहा अङ्गारकादयश्चार मण्डलक्षेत्रपरिभ्रमि चरितवन्तो अनुभूतवन्तः, चरन्ति अनुभवन्ति, चरिष्यन्ति अनुभविष्य-न्ति ? यद्यपि समयक्षेत्रवर्तिनां सर्वेषामपि ज्योतिष्काणां गतिश्चार इत्यभिधीयते, तथाऽप्यन्यव्यपदेशविशेषाभावेन वक्रातिचारादिभिर्गतिविशेषैर्गतिमत्त्वेन चैषां सामान्यगतिशब्देन प्रश्नः। तथा कियत्यस्तारागणकोट्यः शोभितवत्यः शोभां धृतवत्यः, शोभन्ते, शोभिष्यन्ति ? एषां च चन्द्रादिसूत्रोक्तकारणाभावेन बहुलपक्षादौ भास्वरत्वमात्रेण शोभमानत्वादित्थं प्रश्नाऽभिलापः / अत्र सूत्रेऽनुक्तोऽपि काशब्दो विकल्पद्योतनार्थं प्रतिप्रश्नंबोध्यः। भगवानाह-गौतम ! द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ, प्रभासेते, प्रभासिष्येते च / जम्बूद्वीपे क्षेत्रे सूर्याक्रान्ताभ्यां दिग्भ्यामन्यत्रशेषयोर्दिशोश्चन्द्राभ्यां प्रकाश्यमानत्वात्, प्रश्नसूत्रे च प्रभासितवन्त इत्यादौ यो बहुवचनेन निर्देशः स प्रश्नरीतिर्बहुवचनेनैव भवतीतिज्ञापनार्थः / एका-द्यन्यतरनिर्णयस्य तु सिद्धान्तोत्तरकाले संभवः, एवं सूर्यसूत्रेऽपि भावनीयम्। तथा द्वौ सूर्यो तापितबन्ती, जम्बूद्वीपक्षेत्रमिति शेष, अस्मिन्नेव क्षेत्रे चन्द्राक्रान्ताभ्यां दिग्भ्यामन्यत्राशेषयोर्दिशोः सूर्याभ्यां ताप्यमानत्वात् तथा षड्पञ्चाशन्नक्षत्राण्येकैकस्य चन्द्रस्य प्रत्येकमष्टाविंशतिनक्षत्रपरिवारान् योगयुक्तवन्तीत्यादि प्राग्बत्। तथाषट्सप्ततिषसप्तत्युत्तरं महाग्रहशतम्, एकैकस्य चन्द्रस्य प्रत्येकमष्टाशीतेग्रहाणां परिवारभावात् चारं चरितवदित्यादि।तथा पद्येनतारामानमाह-"तारागणकोटिकोटीनामेकलक्षं त्रयस्त्रिंशच सहस्राणि, नव च शतानि, पञ्चाशानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति / प्रतिचन्द्रं तारागणकोटीकोटीनां षट्षष्टिसहस्रनवशताधिकपञ्चसप्ततेर्लभ्य-मानत्वादिति / जं०६ वक्ष०।
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________________ जंबूदीव 1377 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूदीव जम्बूद्वीपे निधिसंख्यां प्रष्टुमाह चक्रवर्तिरत्नसंख्या पिपृच्छिषुराह- (जम्बुद्दीवे त्ति) जम्बुद्वीपे द्वीप जंबूद्दीवे दीवे केवइया निहिरयणा सव्वग्गेणं पण्णत्ता? गोयमा! भदन्त ! कियन्ति पोन्द्रियरत्नादि सेनापत्यादीनि, तेषां शतानि तिण्णि छलुत्तरा णिहिरयणस या सव्वग्गेणं पण्णत्ता / जंबुद्दीवे सर्वाग्रण प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-गौतम ! द्वे दशोत्तरं पञ्चेन्द्रियरत्नशते दीवे केवइआ णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? सर्वाग्रण प्रज्ञप्ते। तद्यथा-उत्कृष्टपदभाविना त्रिंशतां चक्रिणां प्रत्येकं सप्त गोयमा ! जहण्णपए छत्तीसं, उक्कोसपए दोणि सत्तरा पञ्चेन्द्रियरत्नसद्भावेन सप्तसंख्या त्रिंशतागुण्यते, भवति यथोक्तं मानस् / णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति / जंबुद्दीवे दीवे ननु निधिसर्वाग्रपृच्छाया चतुस्त्रिंशता गुणनं, पञ्चेन्द्रियरनतसर्वाग्रकेवइया पंचिंदियरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! दो च्छायां तु किमिति त्रिंशता गुणनम् ? उच्यते- चतुर्पु वासुदेवविजयेषु दसुत्तरा पंचिंदियरयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता। जम्बूद्दीवे दीवे तदा तेषामनुपलम्भात् निधीनां तु नियतभावत्वेन सर्वदाऽप्युपलब्धेः जहण्णपदे वा उक्कोसपदे वा केवइआ पंचिं दियरयणसया तेन रत्न-सर्वाग्रसूत्रे रत्न-परिभोगसूत्रे च न कश्चित्संख्याकृतो विशेष परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं इति / अथ रत्नपरिभोगप्रश्नसूत्रमाह- "जम्बुद्दीवे'' इत्यादि प्रायो उक्कोसपए दोण्णि दसुत्तरा पंचि-दियरयणसया परिभोगत्ताए व्याख्यातत्वाव्यक्तम्। अथैकेन्द्रियरत्नानि प्रश्नयितुमाह-"जंबुद्दीवे" हव्वमागच्छंति। जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे केवइआएगिदियरयण- इति व्यक्तम् / नवरम्, एकेन्द्रियरत्नानि चक्रिणां चक्राणां चक्राद्दीनि तेषां सया सव्वग्गेणं पण्णत्ता? गोयमा ! दो दो दसुत्तरा एगिदियर- शतानि इति। अथैकेन्द्रियरत्न परिभोगसूत्रं पृच्छन्नाह - 'जंबुद्दीवे त्ति" यणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता / जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया ध्यक्तम्। अथ जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भादीनि पृच्छन्नाह (जंबुद्दीवे त्ति) अत्र एगिदियरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! सूत्रे विष्कम्भायामपरिक्षेपाः प्राग्व्याख्याताः, पुनः प्रश्नविषयीकरणं तु जहण्णपए अट्ठावीसं, उक्कोसेणं दोण्णि दसुत्तरा एगिदियरय- उद्वेधादिक्षेत्रधर्मप्रश्नकरणस्य प्रस्तावाद्विस्मरणशीलविनेयजनणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति / जंबूद्दीवे णं भंते ! दीवे स्मरणरूपोपकारायेति / तेनोद्वेधादिसूत्रे, जम्बूद्वीपं द्वीपम्, अत्र केवइ आयामविक्खंभेणं, केवइ परिक्खे बेणं, केवइअं द्वीपशब्दस्य क्लीबत्वनिर्देशः क्लीवेऽपि वर्तमानत्वात्, कियदुद्वेधत्वेन, उव्वेहेणं, केवइ उड्ड उच्चत्तेणं, केवइ सव्वग्गेणं पण्णत्ता? भूमिप्रविष्टत्वेनेत्यर्थः / कियदूोच्चत्वेन, भूनिर्गतत्वोचत्वेनेत्यर्थः / गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे एगं जोअणसयसहस्सं आयाम- कियच सर्वाग्रेण तुण्डत्वोचत्वमीलनेन प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ! विक्खंभेणं, तिण्णि जोअणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई विष्कम्भायाम-परिक्षेपविषयं निर्वचनसूत्रं प्राग्वत्, उद्वेधादिनिर्वचनसूत्रे दोण्णि अ सत्तावीसे जोअणसए तिण्णि अकोसे अट्ठावीसं च तु एक योजनसहसमुद्वेधेन सातिरेकाणि नवनवतियोजनसहस्राणि, धणुसयं तेरस य अंगुलाई अर्द्धगुलं च किं चि विसेसा-हिअं ऊोचत्वेन सातिरेकं योजनशतसहस्र सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तम् / ननु परिक्खे वेणं, एग जोअणसहस्सं उव्वे हेणं, णवणउति- तुण्डत्वव्यवहारो जलाशयादौ, उच्चत्वव्य-वहारस्तु पर्वतविमानादौ जोअणसहस्साइं साइरेगाई उड्वं उच्चत्तेणं, साइरेगं जोअण- प्रसिद्धः, द्वीपे तु स किं, व्यवहाराविषयत्वादिति ? उच्यते-समभूतलासयसहस्सं सव्वग्गेणं पण्णत्ते। दारभ्य रत्नप्रभायामधः सहस्रायोजनानि यावगमनेऽधोग्रामविजयादिषु "जंबुद्दीवे'' इत्यादि / जम्बूद्वीपे द्वीपे कियन्ति निधिरत्नानि जम्बूद्वीपव्यवहारस्योपलभ्यमानत्वेनोचत्व-व्यवहारः सुप्रसिद्ध एव / उत्कृष्टनिधानानि, यानि गङ्गादिनदीमुखस्थानि चक्रवर्ती हस्तगतपरि- तथा जम्बूद्वीपोत्पन्नानां तीर्थकृतां जम्बूद्वीपमेरोः पण्डगवनापूर्णषट्खण्डादिदिग्विजयव्यावृत्तोऽष्टमतपः करणानन्तरं स्वसात्करोति, भिषेकशीलायामभिषिच्यमानत्वात् जम्बूद्वीपव्यपदेशपूर्वकम-भिषेकस्य तानि सर्वाग्रेण सर्वसंख्यया प्रज्ञप्ता-नि? भगवानाह-- गौतम ! त्रीणि जायमानत्वेनोचत्वव्यवहारोप्यागमे सुप्रसिद्ध एवेति। जं०७ वक्षः / षडुत्तराणि निधिरत्नशतानि सर्वाग्रण प्रज्ञप्तानि / तद्यथा-नवसंख्या अथास्यैव शाश्वतभावादिकं प्रश्नयन्नाहकानि निधानानि चतुस्त्रिशता गुण्यन्त इति यथोक्ता संख्येति / इयं च जम्बूद्दीवे णं भंते ! दीवे किं सासए, किं असासए ? सत्तामाश्रित्य प्ररूपणा कृता / अथ निधिपतीनां कति निधानानि गोअमा! सिअसासए, सिअ असासए / से केणटेणं भंते ! एवं विवक्षितकाले भोग्यानि भवन्तीति प्रश्नमाह- "जंबुद्दीवे दीवे" वुचइ सिअसासए, सिअअसासए ? गोयमा! दव्वट्ठयाएसासए, इत्यादि / जम्बूद्वीपे कियन्ति निधिरत्नशतानि परिभोग्यतया उत्पन्ने वण्णपज्जवेहिं गंधरसफासय-पज्जवेहिं असासए, से तेणटेणं प्रयोजने चक्रवर्तिभिर्व्यापार्यमाणत्वेन ''हव्वं इति'' शीघ्रं चक्रा- गोअमा! एंव वुच्चइ-सिअसासए, सिअ असासए। जम्बूद्दीवे णं भिलाषोत्पत्त्यनन्तरं, निर्विलम्बमित्यर्थः, आगच्छन्ति ? भगवानाह- भंते ! दीवे कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! ण कया वि गौतम ! जघन्यपदे षट्त्रिंशत् जघन्यपदभाविनां चक्रवर्तिनां नव णासि,ण कया विणत्थि,ण कया वि भविस्सइ, भविंसुअभवइ निधानानि चतुर्गुणितानि यथोक्तसंख्या प्रदानीति, उत्कृष्टपदे तु द्वे अ, भविस्सइअ,धुवे णिअए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिएणिचे सप्तत्यधिके निधिरत्नशते परिभोग्यतया शीघमागच्छतः, जंबूद्दीवे दीवे पण्णत्ते। उत्कृष्टपदभाविनां चक्रिणां त्रिंशता नव नव निधानानि भवन्तीति नव ''जबुद्दीवेणं'' इत्यादि / इदं च यथा प्राक् पद्मवरवेदिकात्रिंशता गुण्यन्ते, इत्युपपद्यते यथोक्तसंख्येति / अथ जम्बूद्वीपवर्ति- | धिकारे व्याख्यातम्, तथाऽत्र जम्बूद्वीपपव्वपदेशेन बोध्यमिति।
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________________ जंबूदीव 1378 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूदीव एवं च शाश्वताऽशाश्वतो घटो निरन्वयविनश्वरो दृष्टः, किमसावपि तद्वत्, उत नेत्याह- "जंबूद्दीवे णं" इत्यादि / इदमपि प्राक् पद्मवरवेदिकाऽधिकारे व्याख्यातमिति / ज०। ___ अथ किं परिणामोऽसौ द्वीप इति पिपृच्छिषुराहजंबूद्दीवे णं भंते ! दीवे किं पुढविपरिणामे, आउपरिणामे, जीवपरिणामे, पुग्गलपरिणामे ? गोयमा ! पुढविपरिणाम वि, आउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि, पुग्गलपरिणामे वि। जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपः किं पृथ्वीपरिणामः पृथिवीपिण्डमयः, किं जलपरिणामः जलपिण्डमयः / एतादृशौ च स्कन्धावचित्तरजः स्कन्धादिवद जीवपरिणामावपि भवत इत्याशड्क्याहकिं जीवपरिणामः जीवमयः / घटादिर-जीवपरिणामोऽपि भवतीत्या-शङ्कयाह - किं पुद्रलपरिणामः पुद्गलस्कन्धनिष्पन्नः केवलपुरलपिण्डमय इत्यर्थः / तेजसस्त्वेकान्तसुषमादावुत्पन्नत्वेन एकान्तदुःषमादौ तु विध्वस्तत्वेन जम्बूद्वीपस्य तत्परिणामे ऽङ्गीक्रियमाणे कादाचित्कत्वप्रसङ्गः, वायोस्त्वतिचलत्वेन तत्परिणामे द्वीपस्यापि चलत्वापत्तिरिति तथोः स्वत एव संदेहाविषय-त्वेन न प्रश्नसूत्रे उपन्यासः। भगवानाह-गौतम ! पृथिवीपरिणामोऽपि, पर्वतादिमत्त्वात् / अप्परिणामोऽपि नदीहृदादिमत्त्वात् / जीवपरिणामोऽपि मुखवनादिषु वनस्पत्यादिमत्त्वात् / यद्यपि स्वसमये पृथिव्यप्कायपरिणामत्व ग्रहणेनैव जीवपरिणामत्वं सिद्धम्, तथाऽपि लोके, तयोर्जीव-त्वस्याव्यवहारात् पृथग्रहण, वनस्पत्यादीनां तु जीवत्वव्यवहारः स्वपरसंमत इति पुद्गलपरिणामोऽपि मूर्तत्वस्य प्रत्य-क्षसिद्धत्वात् कोऽर्थः ? जम्बूद्वीपो हि स्कन्धरूपः पदार्थः, स चावयवैः समुदितैरेव भवति, समुदायरूपत्वात् समुदायिन अनन्तकृत्वः-अनन्तवारान् संसारस्यानादित्वादिति। अथ जम्बूद्वीपेतिनाम्नो व्युत्पत्तिनिमित्तं जिज्ञासिषुः पृच्छतिसे के णटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंबुद्दीवे दीवे ? गोयमा ! जंबूद्दीवे णं दीवे तत्थ तत्थ देसेहिं देसेहिं बहवे जंबूरुक्खा जंबूवणा जंबूवणसंडा णिचं कुसुमिआ जाव पिंडिममेज रिविडेंसगधरा सिरीए अईव अवसोभेमाणा चिट्ठति / जंदुए सुदंसणाए अणाढिए णामं देवे महिड्डिए० जाव पलिओवमट्टिईर परिवसइ, से तेणटेणं गोअमा ! एवं वुच्चइ जंबूद्दीवे दीवे। अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जम्बूद्वीपो द्वीपः ? भगवानाहगौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे तत्र तत्र देश तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवे जम्बूवृक्षा एकैकरूपा विरलस्थितत्वात्, तथा बहूनि जम्बूवनानि जम्बूवृक्षा एव समूहभावेना-वस्थिताः, अविरलस्थितत्वात् / "एक जातीयतरुसमूहो वनम्” इति वचनात् / तथा बहयो जम्बूवनखण्डाः जम्बूवृक्षसमूहा एव विजातीयतरुमिश्रिताः "अनेकजातीयतरूसमूहो वनखण्डः' इति वचनात्। तत्राऽपि जम्बूवृक्षाणामेव प्राधान्यमिति प्रस्तुते वर्णक साफल्यम् / अन्यथा अपरवृक्षाणां वनखण्डैनिभित्त-भूतैजम्बूद्वीपपपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेऽसाङ्गत्यात्। तेच कथंभूता इत्याह-नित्यं सर्वकालं कुसुमिताः, यावत्पदात् “णिचं माझ्या णिचं लवइआ णिच्च थवइआ० जाव णिचं कुसुमिअ-माइए लवइअथवइअ-गुलुइय-गोच्छइअ-जमलिअ-जु वलिअ-विणमिश्रपणमिअसुविभत्ता'' इति ग्राह्यम्। एतद्-व्याख्यानं प्राग्वनखएडवर्णक कृतमिति ततो ज्ञेयम् / उक्तवर्णकोपेताश्च वृक्षाः श्रिया अतीव उपशोभमानास्तिष्ठन्ति / इदं च नित्यकु सुमितत्वादिकं जम्बू. वृक्षाणामुत्तरकुरुक्षेत्रापेक्षया बोध्यम् / अन्यथैषां प्रावृट्कालभाविपुष्पफलोदयवत्त्वेन प्रत्यक्षबाधात्, एतेन जम्बूवृक्षबहुलो द्वीपो जम्बूद्वीप इत्यावेदितं भवति / अथवाजम्ब्बां सुदर्शनाऽभिधानायामनाहतनामा, पूर्वजम्बूवृक्षाधिकारे व्याख्यातनामा देवो महर्द्धिको, यावत्करणात ''महज्जुइए" इत्यादि ग्राह्यम् / पल्योपमस्थितिकः परिवसति; अथ तेनार्थन भदन्त ! एवमुच्यते स्वाधिपत्यनाद्दतनादेवाश्रयभूतया जम्बोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीप इति, सूत्रैकदेशो ह्यपर सूत्रैकदेश स्मारयति इति। “अदुत्तरं च णं जबुद्दीवरस सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ ण आसी, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ० जाब णिचे' इति ज्ञेयं, जीवा-भिगमादशै तथा दर्शनात् / एतेन किमाकारावप्रत्यवतारो जम्बूद्वीप इति चतुर्थः प्रश्नो नियूंढ इति। ज० 7 वक्ष०। जी०। जम्बूद्वीपस्य मध्ये च मेरुनामा पर्वतोऽस्ति। तथाहिमहीइ मज्झम्मि ठिते णगिंदे, पन्नायते सूरियसुद्धलेसे। एवं सिरीए उ स भूरिवन्ने, मणोरमे जोइ अचिमाली / / 13 / / मह्या रत्नप्रभापृथिव्यां, मध्यदेशे जम्बूद्वीपः, तस्यापि बहु-मध्यदेशे सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवन्तदष्ट्रापर्वत चतुष्टयो पशोभितः समभूभागेदशसहसविस्तीर्णः शिरसि सहस्रमेकमधस्तादपिदशसहस्राणि नवतियोजनानि योजनेकादशभागैर्दशभिरधिकानि विस्तीर्णश्चत्वारिशद्योजनोठूितचूडोपशोभितो नगेन्द्रः पर्वतप्रधानो मेरुः प्रकर्षण लोके ज्ञायते इति। अथ यदि चायं जीवपरिणामरूपस्तर्हि सर्वे जीवा अत्रो त्पन्नपूर्वाः उत नेत्याशझ्याहजंबूदीवेणं भंते ! दीवे सव्वपाणा सव्वजीवा सव्वभूआसव्वसत्ता पुढविकाइयत्ताए आउकाइअत्ताए तेउकाइयत्ताए वाउकाइअत्ताए वणस्सइकाइअत्ताए, उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो॥ जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सर्वे प्राणाः द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सर्वे जीवाः पञ्चेन्द्रियाः, सर्वे भूतास्तरवः, सर्व सत्त्वाः पृथिव्य-प्लेजोवायुकायिकाः। अनेन च सांव्यवहारिकराशिविषयक एवायं प्रश्नः, अनादिनिगादनिर्गतानामेव प्राणजीवादिरूपविशेषपर्यायप्रतिपत्तेः / पृथिवीकायिकतया अप्कायिकतया तेजस्कायिकतथा वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया उपपन्नपूर्वा उत्पन्नपूर्वाः ? भगवानाह- " हता गोयमा ! एवं गौतम ! यथैव प्रश्नसूत्रं तथैव प्रत्युचारणीयम्पृथिवीकायिकतया यावद्वनस्पतिका-यिकतया उपपन्नपूर्वाः कालक्रमेण: संसारस्यानादित्वात्, न पुनः सर्वे प्राणादयो जीवविशेषा युगपदुत्पन्नाः सकलजीवानामे ककालं जम्बूद्वीपे पृथियादि-भावनोत्पादे सकलदेवनारकादिभेदाभावप्रसक्तेः / न चैतदस्ति, तथा जगत्स्वभावादिति / कियन्तो वारानुत्पन्ना इत्याह- असकृदनेकशः अथवा
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________________ जंबूदीव 1376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जंबूसाला सूर्यवच्छुद्धलेश्य आदित्यसमानतेजाः, एवमनन्तरोक्तप्रकारया श्रिया, बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं तुशब्दात विशिष्ट तरया, स मेरुभूरिवर्णोऽनेकवर्णोऽनेकवर्णरत्नो- बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं मज्झगए एवमाइक्खइ, एवं भासइ, पशोभितत्वात् मोनऽन्तःकरण रमयतीति मनोरमोऽर्चिमालीव आदित्य एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ - जंबूदीवपण्णत्ती णाम' अञ्जो ! इव स्वतेजसा द्योतयति दशदिशः प्रकाशयतीति। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। अज्झयणे अटुं च हेउंच पसिणं च कारणं च वागरणं च भुजो स०। स्था०। भुजो उवदंसेइत्ति बेमि / / जम्बूद्वीपनाम्नाऽन्येऽपि द्वीपा वर्तन्ते। तथाहि "तए णं'' इत्यादि / शाश्वतत्वात् शाश्वतनामकत्वाच सद्रूपोऽयं के वतिया णं भंते ! जंबूदीवे नामधे जेहिं पण्णत्ते ? जम्बूद्वीपरूपो भावः, सन्तं हि भावनापलपन्ति वीतरा-गाः। ततः श्रमणो गोयमा! असंखेजा जंबूदीवा दीवा नामधेज्जेहिं पण्णत्ता। भगवान् महावीरो मिथिलायां नगर्या माणिभद्रे चैत्ये बहूनां श्रमणानां बहूनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणांबहूनां श्राविकाणांबहूनां देवानां बहूना कियन्तो भदन्त ! जम्बूद्वीपाः प्रज्ञप्ताः, जम्बूद्वीप इति नाम्ना कियन्तो देवीनां मध्ये गतो, न पुनरेकान्ते एकतरस्य कस्यचित् पुरतः एवं द्वीपाः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः? एवमुक्तेभगवानाह-गौतम ! असंख्येयाजम्बूद्वीपा यथोक्तमुक्तानुसारेण इत्यर्थः, आख्याति प्रथमतो वाच्यमात्रकथनेन, दीपाः प्रज्ञप्ताः, जम्बूद्वीप इतिनाम्ना असंख्येया द्वीपा इति भावः। जी० एवं भाषते विशेष-वचनकथनतः, एवं प्रज्ञापयति व्यक्तपर्यायवचनतः, 3 प्रति०। स्था०। एवं प्ररूप-यत्युपपत्तितः / आख्येयस्याऽभिधानमाह-जम्बूद्वीपजंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपच्चच्छिमेणं दो प्रज्ञप्तिरिति नाम षष्ठोपाङ्ग मिति शेषः / जं०७ वक्ष० / (प्रमेयरत्नखित्ता पण्णत्ता / तं जहा-बहुसमउल्ला अविसेसा० जाव मञ्जूषानाम्नी अस्य टीकेति 'पमेजरयणमंजूसा' शब्दे टीकाकरणपुव्यविदेहे चेव, अदरविदेहे चेव। प्रस्तावः) (पुरच्छिमपञ्चच्छि मेणं) पुरस्तात् पूर्वस्यां दिशि, पश्चात् / जंबूदीवाहिवइपुं० (जम्बूद्वीपाधिपति) अनादृताख्ये देवे, द्वी०। पश्चिमायामित्यर्थः / यथाक्रम पूर्वश्चासौ विदेहश्चेति पूर्वविदेहः एवमपरविदेह | जंबूपल्लवपविभत्ति स्त्री० (जम्बूपल्लवप्रविभक्ति) द्वात्रिंशद्विधइति। एतेषां चाऽऽयामादिन्थान्तरादवसेय इति। स्था०२ ठा० 3 उ० / दिव्यनाट्यस्य विंशतितमविधौ, रा०।। अथ जम्बूद्वीपवेदिका जंबूपेढ न० (जम्बूपीट) यन्नाम्ना इदं जम्बूद्वीपं ख्यातं तस्याः जंबूदीवस्स णं दीवस्स वेदिया दो गाउयाई उद्धं उच्चत्तेणं सुदर्शनानाम्न्या जम्ब्वा अधिष्ठाने, जं०४ वक्ष०। (तद्वक्तव्यता च 'जम्बू' पण्णत्ता। शब्दे 1367 पृष्ठेऽनुपदमेव प्रदर्शिता) "जंबू'' इत्यादि कगठ्यम्, नवरं वज्रमय्या अष्टयोजनो-च्छ्यायाः | जंबूफल न० (जम्बूफल) जाम्बवे, रा०। चतुर्द्वादशोपर्यधो विस्तृताया जम्बूद्वीप-नगरप्राकारकल्पाया जगत्या जंबूफलअसणकु सुमबंधणनीलुप्पलपुप्फ पत्तनिकरमरगयद्विगट्यूतोच्छ्रितेन पञ्च-धनुश्शतविस्तृतेन नानारत्नमयेन जालकटकेन आसगनयणकीयाऽसिवन्ने / परिक्षि-ताया उपरि वेदिकेति, पद्मवरवेदिकेत्यर्थः / पञ्चधनुःशत- जम्बूफलानि प्रतीतानि, असनकुसुमबन्धनम् असन-पुष्पवृन्तं विस्तीर्णगवाक्षहेमकिङ्किणीघण्टायुक्ता देवानामा-सनशयनमोहन-- नीलोत्पलपुष्पपत्रनिकरो मरकतमणिः प्रतीतः / आसासको विविधक्रीडास्थानमुभयतो वनखण्डवतीति। स्था०२ ठा० 3 उ०।। वीयकाभिधानो वृक्षो, नयनकीका नेत्रमध्यतारा, असिः खङ्गं तेषामिव जंबूदीवग त्रि० [जम्बूद्वीपक(ग)] जम्बूद्वीपस्येदं जम्बूद्वीपकम् / तं वा वर्णो यस्य स तथा। रा०। औ०।"जंबूफलपुट्ठवण्णा" जी०३ प्रति०। गच्छतीति जम्बूद्वीपगम् / जम्बूद्वीपसत्के, स्था० 4 ठा० 2 उ० / जंबूफलकालिया स्त्री० (जम्बूफलकालिका) जम्बूफलवत्कृष्णवर्णायाम्, जम्बूद्वीपोत्पन्नमनुष्ये, पुं०। स्था०६ ठा०। जी० 3 प्रति० / जम्बूफलसत्ककाष्ये, जी०३ प्रति०। जंबूदीवपण्णत्ति स्त्री० (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) जम्बूद्वीपस्य प्रकर्षेण | जंबूलय पुं० (जम्बूलक) लोकरूढ्यवसेये चञ्चुनामके जलाधारे पात्रे, नि:शेषकुतीर्थिकसार्थागम्ययथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन उपा०७ अ०। ज्ञप्तिापनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ, ज्ञप्तिान वा यम्याः सकाशात् सा | जंबूसंड पुं० (जम्बूखण्ड) स्वनामके ग्रामे, आ० म० द्वि० / आ० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः / अथवा-जम्बूद्वीप प्रान्ति पूरयन्ति स्वस्थित्येति चू० / यत्र विहारक्रमेणागत्य वीरजिनः गोशालश्च क्षीरसंमिश्रकूरं जम्बूद्वीपप्राः जगतविर्षवर्षधाराद्यस्तेषां ज्ञाप्तिर्यस्याः सकाशात् सा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः। जं०१ वक्ष। स्वनाम्ना प्रसिद्ध पञ्चमोपाङ्गे इदं च जंबूसामि पु० (जम्बूस्वामिन) सुधर्मगणधरशिष्ये, आ० म० द्वि० स्था० ज्ञाताधर्मकथाख्यषष्ठाङ्गस्योपाङ्गम्। जं० 1 वक्ष०। पा०। (तच्चरित 'जंबू' शब्दे 1371 पृष्ठे प्रदर्शितम्) अथ प्रस्तुततीर्थद्वादशाङ्गीसूत्रसंसूत्रणाविश्वकर्मा श्रीसुधर्मस्वामी जंबूसाला स्त्री० (जम्बूशाला) जम्बूवृक्षशाखायाम्, "एगो परिवायगो पोट्ट स्वस्मिन् गुरुत्वाभिमानं परिजिहीर्षुः प्रस्तुतग्रन्थनामोपदर्शनपूर्वक लोहपट्टण बंधित्ता जंबूसाल च गहाय हिंडइ, पुच्छितो भणइ-नाणेन निगमनवाक्यमाह पोट्ट फुट्टइ, तो लोहपट्टण बद्धं जंबूसालं, जहा एत्थ जंबूदीवे नत्थि मम तएणं समणे भगवं महावीरे मिहिलाए णयरीए माणिभद्दे चेइए / पडिवादी' / आ० म० द्वि०।
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________________ जंभग 1380- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जक्खकद्दम जंभग पुं० (जम्भक) जृम्भन्ते विज़म्भन्ते स्वच्छन्दचारितया जृम्भाकारके, रुद्रगणभेदे, वाच०। चेष्टन्ते ये ते जृम्भकाः / तिर्यग्लोकवासिव्यन्तरविशेषपदेवेषु, भ०१४ जंभगामर पुं० (जृम्भकामर) जृम्भकनाम्ना ख्याते देवे, "अभूश०८ उ०। आ० म०। ज्ञा० / आ० क०। द्वविभोजीवः, प्राग्भवे जृम्भकामरः" / आ० क०। एतेषां स्वरूपं त्वेवम् - जंभणओ (देशी) यथेष्टवक्तरि, दे० ना०३ वर्ग। अत्थि णं भंते ! जंभया देवा, जंभया देवा ? हंता अस्थि / से | जंभणी स्त्री० (जम्भणी) तन्त्रप्रसिद्ध विद्याविशेषे, सूत्र० 2 श्रु० के णटे णं भंते ! एवं वुचइ-जंभया देवा, जंभया २अ०। देवा ? गोयमा ! जंभगा णं देवा णिचं पमुइयपक्कीलिया जंभा स्त्री० (जृम्भा) भावे अः। आलस्यश्रमगर्भादिजनितजाड्ये, वाच। कंदप्परतिमेहुणसीला, जेणं ते देवे कुद्धे पासेज्जा, सेणं महंत अजसं पाउणेजा, जे णं ते देवे तुढे पासेज्जा, से णं महतं जसं *जुम्भ धा० / विजृम्भणे,"अवेर्ज़म्मो जंभा" / / 8 / / 157 / इति पाउणेज्जा, से तेणढेणं गोयमा ! जंभगा देवा, जंभया देवा / सूत्रेण 'जंभा" आदेशे "स्वरादनतो वा"।८।४।२४०। इति सूत्रेण कइविहा णं भंते ! जंभगा देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा विकल्पादकारागमे च जम्भते, "जंभाइ-जंभाअई' इति रूपे सिध्यतः। पण्णत्ता / तं जहा - अण्णजंभगा पाणजंभगा वत्थजंभगा वि उपसर्गे तु 'केलिपसरो विअभइ'' प्रा० 4 पाद। लेणजभगा सयणजंभगा पुप्फज भगा फलजंभगा पुप्फ- जंभाइय न० (जृम्भित) विवृतवदनस्य प्रबलपवननिर्गमे, आव० फलजंभगा विजाजंभगा अवियत्तजंभगा। जंभगा णं भंते ! देवा | 5 अ०। आ० चू०। ध०।। कहिं वसहि उवेंति ? गोयमा ! सव्वेसु चेव दीहवेयड्ढे सु | जंभायंत त्रि० (जृम्भमाण) विजृम्भमाणे, शरीरचेष्टाविशेषं विदधाने, चित्तविचित्तजमगंपव्वए सुकंचणपव्वएसुय, एत्थणं जंभगा देवा ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ वसहिं उर्वति / जंभगाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई जंभायमाण त्रि० (जृम्भमाण) 'जंभायंत' शब्दार्थे ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। पण्णत्ता ? गोयमा ! एगपलिओवमं ठिई पण्णत्ता। जंभियगाम पुं० (जृम्भिकग्राम) स्वनामके मगधदेशान्तर्गत ग्राम, आचा० (जंभग त्ति) जृम्भन्ते विजृम्भन्ते स्वच्छन्दचारितया चेष्टन्ते ये ते 3 चू० / अत्र हि देवेन्द्रेण भगवतो महावीरस्यामुकेषु दिवसेषु गतेषु ज्ञान जम्भकास्तिर्यग्लोकवासिनो व्यन्तरदेवाः (पमुइय-पक्कीलिय त्ति) समुत्पत्स्यते इति कथितं, तद्ग्रामस्य बहिस्ताच ऋजुपालिकाया प्रमुदिताश्च ते तोषवन्तः प्रक्रीडिताश्च प्रकृष्टक्रीडाः प्रमुदितप्रक्रीडिताः नद्यास्तीरे शालवृक्षस्याधो भगवतः केवलज्ञानमुत्पन्नम्। आ०म० द्वि० / (कंदप्परइ ति) अत्यर्थ केलिरतिकाः (मेहुणसील त्ति) निधुवनशीलाः आ० चू०। कल्प०। (अजसं ति) उपलक्षणत्वादस्यानर्थं प्राप्नुयात् (जसं ति) उपलक्षणत्वादस्थार्थ वैक्रियलब्ध्यादिकं प्राप्नुयाद्वैरस्वामिवत् जंभियग्गाम पुं० (जृम्भिकग्राम) भियगाम' शब्दार्थे आचा० 3 चू०। शापानुग्रहकरणसमर्थत्वात् तच्छीलत्वाच्च तेषामिति / "अण्ण जंभो (देशी) तुषे. दे० ना०३ वर्ग। जंभया" इत्यादि। अन्ने भोजनविषये तदभावसद्भा-वाल्पत्वबहुत्व- जक्ख पुं० (यक्ष) पूजायाम्, यक्ष्यते / यक्ष-कर्मणि-घञ्। सरसत्वनीरसत्वादिकरणतो ज़म्भन्ते विजृम्भन्ते ये ते तथा, एवं वाच० / व्यन्तरविशेषे, रा० / सू० प्र० / जी० / औ० / स०। पानादिष्वपि वाच्यं, नवरम् (लेणं ति) लयनं गृहम् (पुप्फपलजंभग ज्ञा० / उत्त० अनु० / अष्ट भेदव्यन्तराणां मध्ये तृतीयभेदे त्ति) उभयजृम्भकाः, एतस्य च स्थाने मंतजंभग त्ति' वाचनान्तरे यक्षाः / प्रव० 164 द्वार / ते च त्रयोदशविधाः / तद्यथा-पूर्णभद्राः, दृश्यते / (अविय-त्तजंभगत्ति) अव्यक्तया अन्नाद्यविभागेन जम्भका माणिभद्राः, श्वेतभद्राः, हरितभद्राः, सुमनोभद्राः, व्यतिपातिकभद्राः, ये ते तथा / क्वचितु "अहिवइजंभग त्ति' दृश्यते, तत्र चाधिपतौ सुभद्राः, सर्वतोभद्राः मनुष्ययक्षाः, वनाधिपतयो, वनाहाराः, रूपयक्षाः, राजादिनायकविषये जम्भका ये ते तथा (सव्वेसु चेव दीहवेयड्ढेसु यक्षोत्तमाः। प्रज्ञा० 1 पद / जिनानां यक्षाः सन्ति / प्रव० 17 द्वार। त्ति) सर्वेषु प्रतिक्षेत्रं तेषां भावात् सप्त-त्यधिकशतसङ्खयेषु दीर्घ (तन्नामानि तु 'जिनजक्ख' शब्देऽभिधास्यामः) वृक्षवासिसुरे. उत्त० विजयार्द्धषु पर्वतविशेषु, दीर्घ-ग्रहणंच वर्तुलविजयार्द्धव्यवच्छेदार्थम् 16 अ० / देवे च / यथा यक्षेण देवेन आविष्टो यक्षाविष्ट इति। स्था०५ (चित्तविचित्तजमग-पटवएसु त्ति) देवकु रुषु शीतोदानद्या ठा० 1 उ०। स्वनामख्याते वणिजि च / 'पुव्वं किर सिरिकन्नउज्जनगरे उभयपार्श्वताश्चित्र-कूटश्च पर्वतः तथा उत्तरकुरुषु शीताऽभिधाननद्या जक्खो नाम नेगमो हुत्था" ती० 26 कल्प। कौशाम्ब्यां धनयक्षाभिधानी उभयतो यमकाभिधानौ पर्वतौ स्तः, तेषु (कंचणपव्वएसु त्ति) श्रेष्ठिनौ / हा० 23 अष्ट०। इति द्वौ यक्षनामानौ वणिजौ। स्वनामख्याते उत्तरकु रुषु शीतानदीसंबन्धिनां पञ्चानां नीलवदादिहृदानां द्वीपे, समुद्रे च। चं० प्र०२० पाहु०1 क्रमव्यवस्थितानां प्रत्येकं पूर्वापरतटयोर्दश-दशकाचनकाऽभिधाना जक्खकद्दम पुं० (यक्षकर्दम) यक्षप्रियः कर्दम इव इति द्वौ यक्षनामानौ गिरयः सन्ति, ते च शतं भवन्त्येवं देवकुरुष्वपि शीतोदानद्याः वणिजौ। स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च / चं० प्र०२० पाहु०। यक्षे द्वीपे संबन्धिनां निषधहदादीनां पञ्चानां हृदानामिति। तदेवं द्वे शते, एवं यक्षभद्रयक्षमहाभद्रौ, यक्षे समुद्रे यक्षवरयक्ष-महावरौ / चं० प्र० 20 धातकीखण्डपूर्वार्धादिष्वप्यत-स्तेष्विति / भ०१४ श०८ उ०। पाहु०।
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________________ जक्खगुहा 1381 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जक्खाइट्ठ जक्खगुहा स्त्री० (यक्षगुहा) यक्षनिवासभूतायां गुहायाम्, "यथार्थरक्षिताचार्याः मथुरानगरी गताः / तत्र यक्षगुहायां च, / व्यन्तरायतने स्थिताः ।।१।।"आ० क०। जक्खग्गह पुं० (यक्षग्रह) यक्षावेशे, जी० 3 प्रति० / उन्मत्तताहेतौ यक्षकृतोपद्रवे, ज०२ वक्ष०। जक्खणायग पुं० (यक्षनायक) वैश्रमणे, अनु०। जक्खदित्त न० (यक्षदीप्त) एकस्यां दिशि अन्तराऽन्तरा दृश्यमाने विद्युत्सदृशप्रकाशे, प्रव०२६ द्वार। जक्खदिन्ना स्त्री० (यक्षदत्ता) स्थूलभद्रस्य सप्ताना भगिनीना मध्ये द्वितीयायां भगिन्याम, आ० क०। आ० चू०। आव०। कल्प०। ति०। जक्खपडिमा स्त्री० (यक्षप्रतिमा) यक्षप्रतिकृती, ''दो जवख पडिमाओ" जी०३ प्रति०। जक्खभह पु० (यक्षभद्र) यक्षद्वीपाधिपतौ देवे, सू० प्र० 20 पाहु०।। चं० प्र०। जक्खमंडलपविभत्ति स्त्री० (यक्षमण्डलप्रविभक्ति) द्वात्रिं शद्विधनाट्यस्य दशमभेदान्तर्गते नाट्ये, रा०। जक्खमह पुं०(यक्षमह) यक्षार्थविहितमहोत्सवे, आचा०२ श्रु०१ अ० 2 उ०। जक्खमहामह पुं० (यक्षमहाभद्र) यक्षद्वीपाधिपतौ देवे, सू० प्र० 20 पाहु० / चं० प्र०। जक्खरत्ती (देशी) दीपालिकायाम, दे० ना० 3 वर्ग। जक्खवर पुं० (यक्षवर) यक्षसमुद्राधिपतौ देवे, सू० प्र०१६ पाहु०। जक्खा स्त्री० (यक्षा) स्थूलभद्रस्य सप्तानां भगिनीनां मध्ये प्रथमायां भगिन्याम्, आ० क० / ति० / आ० चू० / वाच०। (तत्कथानकं तु 'थूलभद्द' शब्दे तचरित्रवर्णने दृष्टव्यम्) जक्खाइट्ठ त्रि० (यक्षाविष्ट) देवाधिष्ठिते, स्था० 5 ठा० 2 उ० / ओघ०।"जक्खाइट्ठो, पीयमजो वा जातो कायविक्खेवकि-रियाओ दंसेइ।" आ० म०प्र०। जक्खाइ8 भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेदियस्स निहित्तए० जाव रोगातकांतो विप्प-मुक्के, तओ० पच्छा तस्स अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टविपव्वे सिया॥ यक्षाविष्टं भिक्षुग्लायन्तं यस्य सकाशमागतं तस्य गणायच्छदिनो न कल्पते निर्वृहितुमपाकर्तुं वैयावृत्य-करणादिना, ढिं त्वाग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्यं तावत् यावत् सरोगातकाद्विप्रमुक्तो भवति, ततः पश्चात् तस्य प्रगुणीभूतस्य सतो यथासघुस्वको यथो-चितस्वरूपो व्यवहारः प्रायश्चित्तः प्रस्थापयितव्यो दातव्यः स्यात्। व्य० अ०२ उ०। संप्रति यतो यक्षाविष्टो भवति तत्प्रतिपादनार्थमाहपुव्वमवियवरेणं, अहवा रागेण रागितो संतो।। एएहिँ जक्खविट्ठो, सेट्ठीसज्झिलग वेसादी॥६८] पौर्वभविकेन पूर्वभवभाविना वैरेण, अथवा रागेण रञ्जितः सन् यक्षराविश्यते / एताभ्यां द्वेषरागाभ्यां यक्षाविष्टो भवति / तथा श्रेष्ठी द्वेष्यभार्यया मृतिकया, (सज्झिल त्ति) लघुभ्राता ज्येष्ठभार्यवा, द्वेष्यादिभिरित्यत्रादिशब्दात् प्रभृतिकाष्ठेषु भार्यया परिग्रहः // 68|| तत्र श्रेष्ठयाधुदाहरणमाहसेविस्स दोणि महिला, पिया य वेस्सा य वंतरी जाया। सामण्णम्मि पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं // 6 // "एगो सेट्ठी, तस्स दो महिला, एगा पिया, एगा वेस्सा य, तत्थ सा वेस्सा अकामनिजराएमरिऊणं वंतरी जाया, सेट्ठी वि तथारूवाणं थेराण अंतिए धम्म सोचा पव्वइतो, साय वंतरी पुव्वभववरेण छिद्दाणि मग्गइ, अन्नया पमत्तं दळूण छलियातो।" अक्षरार्थस्त्वयम्-श्रेष्ठिनोद्वे महिले, तद्यथा-एका प्रिया, अपरा द्वेष्या / तत्रैका मृता व्यन्तरी जाता, सा श्रामण्ये स्थितं श्रेष्ठिनं प्रमत्तं दृष्ट्वा पूर्ववैरेण छलितवती / गाथायामतीतकालेऽपि वर्तमानता प्राकृतत्वात् // 66 / / संप्रति लघुभ्रातृदृष्टान्तमाहजेट्ठगभाउगमहिला, अज्झोवण्णा उ होइ खुडलए। धरमाण-मारियम्मी, पडिसेहे वंतरी जाया / / 7 / / "एगम्मि गामे दो भायरो, तस्स भारिया खुड्डुलगे अज्झोववण्णा, सा तं पत्थेइ, खुडुलगो नेच्छइ, भणइ-तुम मम जेट्ठभाउयं धरमाणं न पाससि, तीए चिंतियं-जावजीवइ ताव मे नत्थि एसो देवरो त्ति, तओ छिदंलहिऊण विससंचारेण मारितो नियभत्ता, ततो भणियं-जस्स भयं कासी सोमओ, इयाणिपूरेहि मे मणोरहं, तेण चितियं-तूणमेतीए मारितो जेट्ठभाउगो, धिरत्थु कामभोगाणमिति संवेगतो पव्वइतो, इयरी वि दुहसंतत्ता अकामनिजराए मरिऊण वंतरी जाया, ओहिणा पुव्वभावं पासइ, दिहो देवरो सामन्ने ठितो, ततो नाहमणेण इच्छिय त्ति पुव्वभववरण सरंतीए पमत्तो छलितो" | अक्षरयोजना त्वियम्- ज्येष्ठमातृमहेला क्षुल्लके लघौ भातरि अध्युपपन्ना जातानुरागा, सा च तेन ज्येो भ्राता धरन्तं जीवन्तं न पश्यसीति प्रतिषिद्धा, मारिते प्रव्रज्यादिप्रतिपत्तितः प्रतिषिद्धा व्यन्तरी जाता / अत्र पूर्वं रागः पश्चाद् द्वेषः / / 70|| दृतिकादृष्टान्तमाहभतिया कुटुंबिएणं, पडिसिद्धा वाणमंतरी जाया। सामण्णम्मि पवन्नं, छलेति तं पुव्ववेरेण ||71 / / एगो कुहुबितो उरालसरीरो एगाए भइगाए उरालसरीराए पत्थितो, सा तेण नेच्छिया, तओ सा गाढमज्झुववण्णा, तेण सह संपओगमलभमाणी दुक्खसागरमोगाढा अकामनिजराए मरिऊणं वंतरी जाया, सो य कुडुबिओतहारूवाण थेराणं अंतिए पव्वइओ, सो तीए अभोगितो अन्नया पमत्तं दटूण छलिया तो'' | अक्षरार्थस्त्ययम् --भृतिका कर्मकरी, कौटुम्बिकप्रतिषिद्धा व्यन्तरी जाता, ततस्तं कौटुम्बिक श्रामण्याश्रितं प्रमत्तं सन्तं पूर्ववरेण (छ्लेति त्ति) छलितवती / / 71 / / संप्रत्येवं छलितस्य यतनामाहतस्स उ भूयतिगिच्छा, भूयरवावेसेण सयं वा वि। नीयुत्तमं तु भावं, नाउं किरिया जहा पुचि // 72||
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________________ जक्खाइट्ठ 1382- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जगई तस्य रागेण द्वेषेण वा व्यन्तरादिना छलितस्य, पुनः क्रिया कर्तव्येति योगः / कथमित्याह-तस्य भूतस्य नीचमुत्तमं तु भावं ज्ञात्वा, कथं ज्ञात्वेत्यत आह-यथाऽभिहितं पूर्वम्, किमुक्तं भवति ? कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य तद्वचनतः, का क्रिया कर्तव्येत्यत आह-भूतचिकित्सा भूतोचाटिनी चिकित्सा भूतचिकित्सा ।।७२|घ्य०२ उ०। एवमेव निर्ग्रन्थी विषयीकृत्य सूत्रं यथाजक्खाइटिं निग्गंथि निग्गंथो गिण्हमाणे नाइक्कमइ। यतश्च सायक्षाविष्टा भवति, तत्प्रतिपादनं तूपरितन-ग्रन्थवदेव, केवलं स्त्रीलिङ्गाभिलापेन वाच्यम् / बृ०६ उ०। जक्खादित्तय न० (यक्षादीप्तक) एकस्यां दिशि अन्तराऽन्तरा दृश्यमाने विद्युत्सदृशे प्रकाशे, व्य०७ उ०। आकाशे व्यन्तर-कृतज्वलने, भ०३ श०६ उ० / नभसि दृश्यमानेऽग्निसहिते पिशाचे च, जी०३ प्रति०। अनु० / "जक्खालित्तं जक्खादित्तं आगासे भवई'' आ० चू० 4 अ०। स्था०। जक्खालित्तय न० (यक्षादीप्तक) 'जक्खादित्तय' शब्दार्थ, जी०३ प्रति०। जक्खावेस पुं० (यक्षावेश) देवाधिष्ठितत्वरूपे उन्मादे, स्था०२ ठा०१ उ०। बृ० / (केवलिनो यक्षावेशो न भवतीति 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 457 पृष्ठ गतम्) जक्खसिरी स्त्री० (यक्षश्री) सोमभूतिब्राह्मणस्य स्वनाम्न्यां स्त्रियाम्, ज्ञा० १श्रु०१५ अ०। जक्खिंद पुं० (यक्षेन्द्र) यक्षाणामिन्द्रे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / अष्टादशजिनयक्षे, प्रव० / श्रीअरजिनस्य यक्षेन्द्रो यक्षः षण्मुखस्त्रिनेत्रः श्यामवर्णः शङ्क शिखिवाहनो द्वादशभुजो बीजपूरकवाणखग मुद्गरपाशकाभययुक्तदक्षिणकरषट्को नकुलधनुः फलकशूलाड्कुशाक्षसूत्रयुष्वामपाणिषट्कश्च / प्रव०२६ द्वार। भ०। जक्खिणी स्त्री० (यक्षिणी) यक्षयोनिकायां व्यन्सरदेव्याम्, “सा मया जक्खिणी जाया" / आ० म० द्वि०। अरिष्टनेमेः प्रथम-प्रवर्तिन्याम, आ० म०प्र० स०। आ० चू०। अन्त०। जक्खुत्तम पुं० (यक्षोत्तम) यक्षाणां त्रयोदशभेदेष्वन्तिमे भेदे, प्रज्ञा०१ पद० जग पुं० (जग) जन्तुषु, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। जगत् न० गच्छति ताँस्तान् नारकादिभावानिति जगत् / भ० 12 श० 6 उ० / अष्ट० / पञ्चास्तिकायरूपे चराचरे, नं० / लोके, संथा। लोकालोके, नं०।संसारे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। चराचरभूतग्रामे, सूत्र०१ श्रु०१५ अ० / सकलसत्त्वे, नं०। दश० / प्राणिसमूहे, सूत्र०१ श्रु०१० अ० / संज्ञिपश्चेन्द्रियसमूह, नं०। पृथिव्याम्, सूत्र०१ श्रु०२ अ० 1 उ०। "भुवणं जगं च लोओ।" को० / गम-क्विप्-नि०-द्वित्वम् - तुक् च / वायौ, जङ्गमे, त्रि०ा वाच०। जगई स्वी० (जगती) गम-विप्। 'वर्तमानेपृषन्महबृहज्जगच्छ-तृवच" इति कात्यायनिवचनात् शतृतुल्यत्वात् डीप / भुवन, पृथिव्याम्, आर्यभट्टमते भूमेश्चलत्वाद् गतिमत्त्वेन तथात्वम् / अन्यमते जगदाधारत्वात् तस्यास्तथात्वमिति भेदः। द्वादशाक्षरपादके छन्दोभेदे, वाच० / "भूयाणं जगई जहा।" जगती पृथ्वी / उत्त० 1 अ०। द्वीपसमुद्रसीमाकारिणि महानगरप्राकार कल्पे वज्रमये जम्बूद्वीपप्राकारे, जं० 1 वक्ष० / जी०। तद्वक्तव्यता यथासे णं एगाए वइरामईए जगईए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते / सा णं जगई जोयणाई उर्ल्ड उच्चत्तेणं, मूले वारस जोअणाई विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, उप्पिं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, मूले वित्थिण्णा, मज्झे संक्खित्ता, उप्पिं तणुया गोपुच्छसंठाणसठिया सव्ववइरामई अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा पीरया णिम्मला णिप्पंका णिक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउञ्जोया पासादीया दंसणिज्जा अभिरूया पडिरूवा / / "से णं इत्यादि / सोऽनन्तरोक्तायामविष्कम्भपरिक्षेपपरिमाणो जम्बूद्वीपः णमिति वाक्यालङ्कारे, एकया जगत्या सुनगर-प्राकारकल्पया, सर्वतः सर्वासु दिक्षु, समन्ततः सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः सम्यग् वेष्टितः। "साणं जगई' इत्यादि। सा च जगती ऊर्द्धवमुच्चैस्त्वेन अष्टौ योजनानि, मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन, मध्ये अष्टौ, उपरी चत्वारि, अत एव मूले विष्क- म्भमधिकृत्य विस्तीर्णा, मध्ये संक्षिप्ता, त्रिभागोनत्वात, उपरि तनुका, मूलापेक्षया त्रिभागमात्रविस्तारभावात् / एतदेवोपमया प्रकट यति- (गोपुच्छसंठाणसंठिया) गोपुच्छस्येव संस्थान गोपुच्छसंस्थानं, तेन संस्थिता, "ऊर्धीवकृतगोपुच्छाकारेति भावः / (सव्ववइरामई) सर्वात्मना सामस्त्येन वज्रमयी वज्ररत्नात्मिका, अच्छा आकाशस्फटिकवदतिस्वच्छा (सण्हा) श्लक्षणपुरस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत्, (लण्हा) मसृणा घुण्टितपटवत्, (घट्टा) घृष्टा इव घृष्टा खरशाणया पाषाणप्रतिभावत्, तथा मृष्टा इवं मृष्टा सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमावत्, नीरजाः स्वाभाविकरजोरहितत्वात्, निर्मला आगन्तुकमलाभावात, निष्पका कलङ्कविकला कर्दमरहिता वा (निक्ककडच्छाया इति) निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणा, निरुपघातेति भावार्थः / छाया दीप्तिर्य स्याः सा निष्कङ्कटकच्छाया सप्रभा स्वरूपतः प्रभावती समरीचा बहिर्विनिर्गत-किरणजाला, अत एव सोद्योता बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकरी, प्रसादाय मनःप्रसत्तये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया, मनः प्रहत्तिकारिणीति भावः / दर्शनीया दर्शनयोग्या, यां पश्यतश्चक्षुषीश्रमं न गच्छत इति। (अभिरुवा इति) अभि सर्वेषां द्रष्ट्रावां मनःप्रसादानुकूलतया अभिमुखं रूपं यस्याः सा अभिरूपा, अत्यन्तक मनीया इति भावः / अत एव प्रतिरूपा प्रतिविशिष्टमसाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा। अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा। जी०३प्रति०। अथात्र सूत्रेऽनुक्तोऽपि वाचयितॄणामधिकारार्थजिज्ञापयिषया जगत्या इष्टस्थाने विस्तारानयनोपायः प्रदीत-तत्र मूले मध्ये उपरिच विष्कम्भ परिमाणं साक्षादेव सूत्रेलभ्यते, अपान्तराले उपरिष्टादधोगमनेऽयमुपायः जगती-शिखरादधो यावदुत्तीर्ण तस्मिन्नेकेन भक्ते सति यल्लब्धं तचतुर्भिर्युत-मिष्ट स्थाने विस्तारः / तथाहि-उ परितनभागाद्योजनमेकं गव्यूताधिक्रमव
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________________ जगई 1383 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जगट्ठभासि(ण) तीर्ण, ततो राशेरेकेन भागे हृते लब्धमेकं योजनं गव्यूताधिकं, तच (पावरवेदिकावक्तव्यता तु"पउमवरवेझ्या" शब्दे वक्ष्यते) योजनचतुष्कयुतं क्रियते, जातानि पञ्चयोजनानि गव्यूताधिकानि, जगती "जगई' शब्दार्थे, जं०१ वक्ष जगतीपार्श्वे मक्षिकापक्षएतावाँस्तत्र प्रदेशे विष्कम्भः एवं सर्वत्र भाव्यम्। संप्रति मूलादूर्द्ध गमने प्रमाणं जलं कथितमस्ति, तत्र सर्वदा मक्षि-कापक्षप्रमाणं, कि वा विस्तारानयनोपायः मुलादूर्द्ध गमने यावदूर्द्ध गतं, तस्यैकेन भागे हृते वेलाया, आगमने न्यूनाधिक्यं वा भवतीति प्रश्ने, उत्तरम्यल्लब्धं तस्मिन्मूलविस्तराच्छोधिते यच्छेषं स तत्र योजना- मक्षिकापक्षप्रमाणं यत्र जलमस्ति तत्र सर्वदा सदृशं भवति, परं दावतिक्रान्ते विस्तारः / तद्यथा-मूलादुत्पद्य योजनमेकं गव्यूतद्वयाधिकं वेलाप्रयोगेण न्यूनाधिक्यज्ञानं नास्तीति। 52 प्र० / सेन० 4 उल्ला० / गतः, ततो योजनस्य गव्यूतद्वयाधिकस्यैकेन भागे हृते लब्धं योजन जगईपव्वयग पु० (जगतीपर्वतक) सूर्याभविमानपरिसरवर्तिगध्यूतद्वयाधिक म्, एतन्मूलसंबन्धिवो द्वादशयोजनप्रमाण- वनखण्डगतक्षुद्रवापी प्रदेशवर्तिषु पर्वतविशे-षेषु, रा०। विस्तारादपनीयते, स्थितानि दश योजनानि गव्यूतद्वयाधिकानि, जगगुरु पुं० (जगद्गुरु) जगतः सचराचरभुवनस्य गुणैर्गुरुत्वात् जगतां वा एतावत्प्रमाणः सार्द्धयोजनातिक्रमे विस्तारः एवं सर्वत्राऽपि भाव्यम् / जङ्ग मानां यथावद्वस्तुतत्त्वोपदेशनात् तेषामेव वा गौरवार्हत्वा-द् एवमृषभकूट जम्बूशाल्मलीवृक्षवनगतकूटानामिष्टस्थाने विस्तारा गुरुर्जगद्गुरुः / पञ्चाः 4 विव० / त्रिभुवननाथे जिने, पञ्चा० ४विव० / नयनामिदमेव करणं भाव्यम्। जं०१ वक्षः / हा०। __ अथास्यां गवाक्षकटकवर्णनायाऽऽह जगचंदसूरि पुं० (जगचन्द्रसूरि) स्वनामके तपागच्छाचार्ये, कर्म०६ सा ण जगई एगेणं महंतगवक्खकडएणं सव्वओ संमंता कर्म०। संपरिक्खित्ता, से णं गवक्खकडए अद्धजोअणं उड्ड उच्चत्तेणं तद्वृत्तान्तस्त्वयम्पंचधणुसयाई विक्खं भेणं सव्वरयणामए अच्छे जाव "शिष्या मणिरत्नगुरो-स्ततो जगचन्द्रसूरयोऽभूवन्। पडिरूवे॥ भूतलविदिता नूतन-वैराग्यावेगभाजस्ते // 27 // साऽनन्तरोदितस्वरूपा जगती, 'ण' इति प्राग्वत्। जगती एकेन महता श्रीचैत्रगणाम्भोधौ, विधूपमाईवभद्रगणिमिश्रात्। गवाक्षकटकेन बृहज्जालकसमूहेन, सर्वतः सर्वासु दिक्षु, समन्तात् उपसपद्माश्चरण, विधिना संवेगवेगयुताः।।२८।। सामस्त्येन, संपरिक्षिप्ता व्याप्तेत्यर्थः / स गवाक्षकटक ऊोच्चत्वेना- आचाम्लाख्यतपोभि-ग्रहवन्तो व्यधुर्विधूतमलाः। चयोजनं द्वेगव्यूते, विष्कम्भेन पञ्चधनुशतानि, सर्वात्मना रत्नमयः / शरकरटितरणि(१२८५) वर्षे, ख्यातस्तत इति तपागच्छः / / 26 / / तथा अच्छः अत्र यावत्करणात् प्राग्व्यावर्णितं विशेषणापदवृन्दंग्राह्यम्। ग०४ अधि०। इयं च गवाक्षश्रेणिर्मवणोदयाच जगतीभित्तिबहुमध्यभागगताऽवगन्तव्या, "क्रमात्प्राप्ततपाचार्ये त्यभिख्या भिक्षुनायकाः / रिरंसुदेवविद्याधर-वृन्दरमणस्थानम्। समभूवन् कुले चान्द्रे, श्रीजगचन्द्रसूरयः / / 1 / / अथ जगत्युपरिभागवर्णनायाऽऽह कर्म० 5 कर्म०। ध००। तीसे णं जगईए उप्पिं बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महई एगा | जगचंदसूरिपुं० (जगच्चन्द्रसूरि) 'जगचंदसूरि' शब्दार्थे, कर्म०६ कर्म०। पउमवरवेइया पण्णत्ता। अद्धजोयणं उर्दू उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई जगजीवजोणीवियाणय पुं० (जगजीवयोनिविज्ञायक) जगद् विक्खंभेणं जगईसमिया परिक्खेवेणं सव्वरयणामई अच्छा० 'धर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायरूप जगत् सचराचरम्" इति वचनात् जाव पडिरूवे॥ जीवा इतिजीवन्ति प्राणान् धारयन्तीति जीवा योनय इति (नं०) युक' तस्या यथोक्तस्वरूपाया जगत्या उपरितनतले यो बहु-मध्यदेशलक्षणोः मिश्रणे, युवन्ति तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकशरीरेण भागः भागश्च प्रदेशलक्षणोऽपि स्यात्तत्र च पद्मवरवेदिकाया वैक्रियशरीरेण वाऽऽस्विति योनयो जी-वानामेवोत्पत्तिस्थानानि, ताश्च अवस्थानासंभवः, अतो देशग्रहणेन महान् भाग इत्यर्थः / स च सचित्तादिभेदभिन्ना अनेक-प्रकाराः / उक्तं च-सचित्तशीतसंवृतेतरचतुर्योजनात्मकजगत्युपरितनतलस्य मध्ये पञ्चधनुःशतात्मक इति / मिश्रास्तद्योनय इति / जगच जीवाश्च योनयश्च जगजीवयोनयः तासा सूत्रे एकारो मागधभाषालक्ष्यानुरोधात्। अत्र एतस्मिन् बहुमध्यदेशभागे, विविधमनेक-प्रकारमुत्पाद्यानन्तधर्मात्मकतया जानातीति विज्ञायको 'ण' इति प्राग्वत्। महती एका पद्मवरवेदिका देवभोगभूमिः प्रज्ञप्ता, मया जग-जीवयोनिविज्ञायकः। केवलज्ञानिनि, नं०। शेषैश्च तीर्थकरैः / सा च ऊर्बोचत्वेन अर्द्धयोजन, पञ्चधनुःशतानि जगजीवण पुं० (जगज्जीवन) जगन्ति जङ्गमानि अहिंसकत्वेन जीवयतीति विष्कम्भेन, जगत्याः समा समाना जगतीसमा, सा च जगतीसमिका, जगज्जीवनः। जिनेश्वरे, स०३० सम०। दशा० परिक्षेपेण परिरयेण, कोऽर्थः ? जम्बूद्वीपस्य सर्वतो वलयाकारेणः जगजीववियाणयपुं० (जगजीवविज्ञायक) सर्वज्ञ, व्य० 3 उ०। व्यवस्थिताया जगत्या यावदुपरितगं तलं चतुर्योजनविस्तारात्मक जगट्ठभासि(ण) पुं० (जगदर्थभाषिन् ) जगत्यां जगदा ये तस्माल्लवणदिशि देशोनयोजनद्वयात्पङ्क्तेरर्गक् यावान् जगतीपरि- यथा व्यवस्थिताः पदार्थाः तानाभाषितु शील मस्य रयस्तावानस्यापीति, सर्वरत्नमयी सामस्त्येन रत्नखचिता, "अच्छा जगदर्थभाषी तद्यथा-ब्राह्मण डोडमिति ब्रूयात्, तथा वणिजं सण्हा'' इत्यादि विशेषणकदम्ब पाढतोऽर्थतश्चप्राग्वत् / जं०१ वक्ष०। किराटमिति, शूद्रमाभीरमिति, श्वपाकं चाण्डालमित्यादि / तथा
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________________ जगट्ठभासि (ण) 1354 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जगणंदण काणं काणमिति, तथा खजं कुब्ज वडभमित्यादि, तथा कुष्टिनं भॊजनार्थमुपविष्टः तस्मिन्नवसरे कोऽपि योगी गृहद्वारे प्राप्तः। पत्नी प्राह क्षयिणमित्यादि, यो यस्य दोषस्तं तेन खरं परुषं बूयात् यः स श्रेष्ठीसद्योग्यां रसवती परिपूर्णपुरुषाहारप्रमाणां अस्य देहि, सा तथा जगदर्थभाषी। अप्रियसन्यभाषिणि, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। करोति, योगी न लाति, तया स्वपतेः प्रोक्तम् / पुनस्तेनोक्तम्*जयार्थ भाषिन् पु० जयार्थभाषी यथैवात्मनो जयो भवति रूप्यस्थालं वर्तुलिकासहित देहीति, तथा कृते तुष्टो योगी ब्रूते-भोः तथैवाविद्यमानमप्यर्थं भाषये तच्छीलच, येन के नचित्प्रका दातृशिरोमणे ! तव परीक्षायैः आगतोऽहं भुवं भिक्षार्थ भ्रमन्, यतो मम रेणासदर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीत्यर्थः / असदर्थभाष-णेनापि दातृपुरुषविलोकयतुः षण्मासा गताः परं न कोऽपि दृष्टः, त्वं त्यद्य दृष्टः आत्मनो जयमिच्छति, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। जगदुद्धरणक्षमः / साधुराह-ममेदृग्धनं व? योगी प्राह-एष पाषाणः जगडिओ (देशी) विद्राविते, दे० ना०३ वर्ग। सद्रव्योऽस्ति इत्युक्त्वा स्थितो योगी / साधुरपि तत्पूजायै यावद्वर्यदुकूलाद्यानयति तावत्स गतः सर्वत्र विलोकितोऽपि न लब्धः। जगडिजंत जागर्यमाण-उत्थाप्यमाने, "धन्नाणं तु कसाया, जगडिजंता साधुना चिन्तितमसौ योगी न हि, किं तु मम पूर्वसंबन्धी कोऽपि देवः वि परकसाएहिं / निच्छति समुट्टित्ता, सुनिविट्ठो पंगुलो चेव।।१॥"द० पुण्यकीर्तिदाता, विलोकितः पाषाणः एकत्र कारी दत्ता, दृषदो दूरीकृताः प० 4 प०। दृष्टानि तत्र पञ्चस्पर्शपाषाणखण्डानि, स्पर्शपःषाण योगेन लोहं स्वर्णी जगडू पुं० (जगडू) स्वनामके अन्नदानलब्धकीर्ती महर्धिक श्रेष्ठिनि, भवेत् / ततो गुरूक्तं सत्यं मन्यमानो जगडूजगदुद्धरणाय मनोऽकरोत् / उपदेशतरङ्गिणी। यथा-पञ्चालदेशमण्डने भद्रेसरग्रामे श्रीमालीयज्ञातिः सर्वदेशेषु धान्यसंग्रहमकार्षीत् / दुर्भिक्षे पतिते दिल्ली-स्तम्भनसासोलाऽभिधो व्यवहारिमुख्यः, तस्याङ्गजो जगडूनामा श्राद्धः, एकदा पुरधवलक्काणाहिल्लपत्तनादिषु द्वादशोत्तरशतसत्रागारान-मण्डयत्। तेषु पौषधागारे प्रतिक्रान्त विधाय मौनेन नमस्कारान् गुणयन्नस्ति, लोकानां सारभोजनं सघृतं दीयते यथेच्छम् / यतः "नउकरवाली रात्रिप्रहरानन्तरं यतिभिश्चन्द्रेण रोहिणीशकटं भिद्यमानं दृष्ट्वा गुरुपाचे मणिअडा, ते अगीला चारि / दानसाल जगडू तणी, दीसइ पृष्टम् भगवन् ! एवंविधो भवन्नस्ति / गुरुभिरपि विलोक्योक्तम् -अत्र पुहविमझारि / / 21 / / ' दुष्टनृपग्रहणभीत्या रङ्कयोग्या एते इति कोऽप्यस्ति न ? साधुभिरुक्तम्-न कोऽपि / ततो गुरुभिरुक्तम् संवत् सकलकोष्ठेषु नाम दत्तम् / “अट्ठय मूडसहस्सा, वीसलदेवस्स वार 1315 मिते रौरवं दुर्भिक भविष्यति / साधुभिः पृष्टम् --भगवन् / कोऽपि हम्मीरे / इगवीस य सुरताणे, दुभिक्खे जगडूसाहुणा दिना' // 22 // जगदुद्धर्ताऽस्ति, न वेति / गुरुणोक्तम् अस्माकं मन्त्रा-धिष्ठायकदेवेन एवंविधां जगडूकीर्ति श्रुत्वा स्पर्धया वीसलदेवराजेन वीसलनगरे पूर्वमेवादिष्टमस्ति-अनेन प्रकारेण जगजगदुद्धर्ता भविष्यति। तैरुक्तम् सत्रागारो मण्डितः / संपत्त्यभावात्तैलं परिवेषयति, कियहिनैस्तैलमपि अस्येदृग्धनं क्वास्ति ? गुरुः प्राह- "अस्य गृहवाटके-ऽर्कस्याधः निवारितम्, एकदाराज्ञा कार्यविशेषेण जगडूसाधुराकारितः, स नृप कोटित्रयप्रमाणं धनमस्ति'' इत्यादि गुरुवचः श्रुत्वा जगडूश्चिन्तयति नत्वोपविष्टः, राजाऽऽदेशे 'जी जी' इति भणति / तदा चारणेनोक्तम्अहो मम महद्भाग्य, यद् गुरुमुखादेवं श्रूयते। ततो रात्री मौनेन स्थितः "वीसलदेव रुऊ करइ,जगडू कहावइ जी।तइंपरिसइ फालिसिउ, ए शालायां, ततः प्रभाते विलोकितंतदृष्टकथितं रात्रौ तद्वचनं, तेन धान्य परीसावइघी' // 23 // तदनुमत्सरं मुक्त्वा जगडूपाान्निजप्रणामकरणं ग्रहणचिकीर्षुरभूत् / इतश्च साधुजगडूकस्य वणिकपुत्राः वखा-रिस्थाः निषिद्धम्, प्रभाते तत्रोपविश्य दानमण्डपिकायां द्रव्यदानं ददाति जगडूः मलवारे सन्ति, तत्र बहूना व्यवहारिणां वखारिरस्ति। तत्रजगडूवखारि तत्र यवनिका बन्धयति, यतः लज्जया कुलीनाः प्रकट न गृह्णन्ति, तेषां रपरव्यवहारिवखारिद्वयान्तराले एका पाषाणशिलाऽस्ति / तत्र दानार्थ, सलज्जया च यवनिकान्तरिताः स्वकरं जगडू श्रेष्ठ्यगे द्वयोर्वखारिधनिकयोः प्रातर्दन्त-धावनकरणस्थानम् / एकदा विस्तारयन्ति, तदनु यथाभाग्यानुसारेण हाटकट-ङ्करूप्यटङ्कस्पर्द्धकसमकालमेव तौ दन्तधावनायागतौ, एक एव तत्रोपवेष्टुं शक्नोति, न द्रम्मशतादि ददाति / अत्रावसरे वीसलदेवभूपः स्वभाग्यपरीक्षार्थ द्वावपि / तेनैयः कथयति-अत्राहं प्रथममुपविश्य दन्तधावन करिष्ये। वस्त्रादिवेषं परावर्त्य एकाकी निजकरं यवनिकान्तस्थ उड्डयामास / द्वितीयस्तु वक्ति- अहं प्रथमं करिष्ये इत्यादि विवादे जायमाने जगडूनानप्रकारलक्षणताम्रताकठिनताधनभाग्यसंपद्यशः सौख्यविद्याअहड्कृतितोऽत्यन्तं हठो जातः, राजवर्गीयनरैः पर्यवसायितावपि न दिबहुरेखाङ्कितं तं करं दृष्ट्वा जगजनमान्यस्य कस्यापि नरेन्द्रस्य मन्येते / ततस्तैरुक्तम् -यो राज्ञः षट्श-तस्पर्द्धकानि दास्यति सोऽत्र संप्रतीदृशीमवस्था प्राप्तस्य तथा करोमि यथा यावजीवं सुखी स्यात् दन्तधावनं करिष्यति / एवं बहुधन वद्धितं, मम श्रेष्ठी लजते यदि इति विचिन्त्य स्वकराड्गुलीतो मणिमण्डितमुद्रिका उत्तार्य प्रदत्ता। पश्चाद्भवामि / यतः "क्षत्राः शस्त्रैर्बुधाः शास्दै-रिभ्याः स्वैः पामराः करैः। गालीभिरङ्गनाः शृङ्गैः पशवः कलिकारिणः / / 20 / / '' एवं युद्धे सकौतुकेन भूपेन क्षणं स्थित्वा वामः करउड्डितः। तत्रापि द्वितीया मुद्रिका यावदेकोऽपि न निवर्तते तावत् होडकोडस्य विलोक्यते। अतो मम श्रेष्ठी मुक्ता / मुद्राद्वयं गृहीत्वा भूपः स्वावासे गतः / द्वितीयदिने नामितोमा भूत् ततो जगडूवणिकपुत्रेण पञ्चविंशतिशतस्पर्द्धकैः गृहीतः जगडूसाधुमाकार्य किमेतदिति दर्शितवान् मुद्राद्वयम् / साधुनोक्तम् - सपाषाणः 'चारचलावई पानबोलावई हाथहलावई धनंहुफावइ'' इति "जत्थ गओ तत्थ गओ, सामलसीहो न जुज्जए अहलं / जत्थगओ तत्थ लोकोक्तिः रात्या, तेन श्रेष्टिना ज्ञापितो वृत्तान्तः / जगडूः प्राह-- वयं गओ, एत्थ रओ पाणियं वहई" ||24|| हठात् मुद्राद्वयं परिधाप्य कृतंयन्मम महत्वं प्रदेशेरक्षितम्। ततः स पाषाणः स्वस्थाने आनायितः / हस्तिस्कन्धमारोप्य गृहे प्रेषित इति जगडूसाधुप्रबन्धः / उपदेशतरङ्गिणी। जगडूरपि तत्रोपविश्य दन्तधावनं करोति / एकदा मध्याहे जगडू- | जगणंदण पुं० (जगन्नन्दन) जिनेश्वरे, स्वनामक चारणमुनौ
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________________ जगणंदण 1385 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जच्चकणग च / तथाहि - ''सयंपभा कन्ना अभिणंदणजगणंदणचारणसमीवे | जग्ग धा० (जागृ) निद्राक्षये, "जागेर्जग्गः" ||8480|| 'जग्गई' पक्षे सुअधम्मसंमत्त पडिवन्ना" / सङ्घा। 'जागरइ' जागर्ति / प्रा०४ पाद। जगणाह पुं० (जगन्नाथ) जगतः सकलचराचररूपस्य यथा- जग्गण न० (जागरण) अनिद्रागमने, प्रश्न 1 आश्र० द्वार। वस्थितस्वरूपप्ररूपणद्वारेण वितथप्ररूपणापायेभ्यः पालनाच्च नाथ इव | जग्गह पुं०(यद्ग्रह) यत्प्राप्यते तद् गृह्यतामित्याकारिकायां राजाज्ञायाम्, नाथो जगन्नाथः / जिनेश्वरे, नं०। "रण्णा जग्गहो घोसितो' | आ० म०प्र० / "यरहो घोषितस्तत्र, जगणिस्सिय त्रि० (जगन्निश्रित) जगल्लोकस्तत्र निश्रित आश्रितः / शतानीकमही भुजा / तदनीकभटाश्चम्पां, स्वेच्छया मुमुषुस्ततः" / / लोकस्थिते वस्तुनि, "जगणिस्सिएहिं भूएहिं" उत्त०८ अ०। आ० क०। जगदुचरियन०(जगदुश्चरित) जगतां प्राणिनां दुश्चरितं हिंसादिनिबन्धनं | जग्गाहपु०(यद्ग्राह)'जग्गह' शब्दार्थे, आ० क०। कर्म / प्राणिनां दुराचारे, हा० 26 अष्ट० / जघण न० (जधन) वक्रं हन्ति / हन-यड्-अच्-पृषो०। वाच० / स्त्रिया जगपागड त्रि० (जगत्प्रकट) जङ्गमजन्तूना प्रत्यक्षप्रमाण सिद्धतया प्रकटे, अग्रेतनकट्यधो भागे, कल्प० 2 क्षण / 'सुंदरथणजघनप्रश्न०१आश्र० द्वार। वयणकरचरणनयणलावण्णविलास कलिया" ! औ० / भगरूपे स्त्रीकटेरग्रभागे च। तं०। जगपियामह पु० (जगत्पितामह) जगतां सकलसत्त्वानां नारकादिकुगतिविनिपातभयापायरक्षणात् पितेव पिता सम्यग्दर्शनमूलोत्तरगुण जच्च त्रि० (जात्य) जातौ भवः यत्। कुलीने, श्रेष्ठे, कान्ते, सुन्दरे, "किंवा जात्याः स्वामिनो हेपयन्ति'" / "जात्यस्तेना-ऽभिक्षातेन, शूरः संहतिस्वरूपो धर्मस्तस्यापि च पिता भगवान्, अर्थतस्तत्प्रणीतत्वात्। नं०1जिनेश्वरे, ब्रह्मणि च। "ब्रह्मा जगत्पितामहः" सूत्र०१ श्रु०१ अ० शौर्ययता कुशः' / 'सर्ववर्णेषु तुल्यासु, पत्नीष्वक्षतयो-निषु / आनुलोभ्येन संभूताः / जात्या जातास्तथैव ते / / 1 / / " वाच०। ३उ०। स्वाभाविके, तं० / भ० / प्रश्न० / सजातीये अविजातिमति, जी० जगबंधु पुं० (जगद्वन्धु) जगतः सकलप्राणि समुदायरूपस्याव्या 3 प्रति० / नाशुद्धमपि जात्यरत्नं समानमजात्यरत्नेन / लं०। "जह पादनोपदेशप्रणयनेन मुखस्यापकत्वात् बन्धुरिय बन्धुः। जिनेश्वरे, नं० / जचबाहलाण, अस्साण जणवएसु जायाणं" / आ० क०। जगय न० (यकृत) यं संयमं करोति, कृ-क्विप-तुक्च। कुक्षौ दक्षिणभागरथे जचंजण न० (जात्याञ्जन) मर्दितेऽञ्जने, कल्प० 2 क्षण। प्रधाने, मांसपिण्डे, तद्बर्द्धके रोगभेदे च। अस्य शसादौ भत्वे च यकन्नादेशः। सौवीरके च / ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। वाच०।"आसरसणं धावमाणस्स हिययस्सय जगयस्सय अंतराले।" जचंजणभमरजलयपयरि उजुयसमसंहियतणु अआभ०१०श०३ उ०। इज्जलडहसुकुमालमउ अरमणिज्जरोमराई। जगलं (देशी) पतिलायाम्, सुरायाम्, दे० ना०३ वर्ग। जात्याञ्जनं मर्दितं तैलादिनाऽञ्जनम् (भमरजलयपयरि त्ति) जगसव्वदंसि(ण) पु० (जगत्सर्वदर्शिन्) जगतः सर्वभावदर्शिनि ज्ञातपुत्रे भ्रमराणां प्रसिद्धाना जलदानां च मेधानां यः प्रकर: समूहस्तत्समहावीरे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। दृशीतत्समानवर्णतया जात्याञ्जनभ्रमर-जलदप्रकरी इव (उज्नुअत्ति) जगसहाव पुं० (जगत्स्वभाव) जगतः चराचरस्य स्वो भावः / ' जन्म ऋजुका प्रध्वरा, अत एव (सम त्ति) समा अविषमा संहिता निरन्तरा मरणं च नियत, बन्धुर्दुःखाय धनमनिर्वृतये / तन्नास्ति यन्न विपदे, (तणुअ त्ति) तनुका सुक्ष्मा (आइज त्ति) आदेया सुभगा (लडह त्ति) तथाऽपिलोको निरालोकः / / 1 / / " इत्यादिलक्षणे विश्वस्वभावे, आव० लटभा चिलासमनोहरा (सुकुमालमउअ त्ति) सुकुमाले भ्यः शिरीषपुष्पादिवस्तुभ्योऽपि मृदुका, तत एव (रमणिज्ज त्ति) रमणीया 4 अ०। (रोमराइ त्ति) रोमराजिर्यस्याः सा तथा ताम्। कल्प०२ क्षण। जगहित त्रि० (जगद्धित) पुरुषार्थोपयोगितया विश्वहितावहे, स० जचंजणभिंगभेयरिट्ठगभमरावलिगवलगुलियकज्जलसम३२ सम०। प्पभेसु // जगहिय त्रि० (जगद्धित) 'जगहित' शब्दार्थे, स०३२ सम० / जात्यं प्रधानं यदञ्जनं सौबीरकं भृङ्ग भेदः भृङ्गाभिधान-कीटविशेषः जगाणंद पुं० (जगदानन्द) जगतां संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाममृतस्य- विदलिताङ्गारोवा, रिष्टकं रत्नविशेषः / भ्रमरावली प्रतीता, गवलगुटिका न्दिमूर्ति दर्शनमात्रतो निःश्रेयसाभ्युदयसाधकधर्मोपदेशद्वारेण महिषशृङ्गगुटिका, कजल मषी, एतत्समप्रभेषु कृष्णेष्वित्यर्थः / ज्ञा०१ चानन्दहेतुत्वात् ऐहिकामुष्मिकप्रमोद कारणत्वात् जगदानन्दः / श्रु०१ अ०। जिनेश्वरे, नं० जचंदण (देशी) अगरौ, कुडकुमे, दे० ना० 3 वर्ग। जगार पुंज (य)]कार जवणे, यवणे, यच्छब्दे च / "जगारुद्दि-ट्ठाण | जच्चकंचणुज्जलंतरूव त्रि०(जात्यकाञ्चनोज्ज्वलद्रूप) जात्य-काञ्चनवत् तगारेण निद्देसो कीरति" / नि० चू०१ उ०। उत्तमसुवर्णवत् उत्प्राबल्येन दीप्यमानं रूपं यस्य / उत्तमसुवर्णवद् जगारी स्त्री० (जगारी) (राजगरो) इतिनाम्ना प्रसिद्ध क्षुद्रधान्ये, 'असणं दीप्यमानरूपे, कल्प०३ क्षण। ओयण--सत्तुग मुग्ग-जगारीइ" / इह 'जगारी शब्दः समयसिद्धः, जचकणग न० (जात्यकनक) उत्तमसुवर्णे, "जचकणगं व जायसवे'। आदिशब्दात् क्षैरेयीकरम्बकादिग्रहः / पञ्चा०५ विव०॥ कल्प०६क्षण। प्रश्न
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________________ जच्चकमलकोमल 1386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जडु जच्चकमलकोमल त्रि० (जात्यकमलकोमल) उत्तमजातिसंभव वामलवत् कोमल, कल्प०२क्षण। जचण्णिय त्रि० (जात्यान्वित) विशिष्टजातिस भूते. 103 उ०। सुकुलोत्पन्ने, सूत्र० 1 श्रु०१० अ०। जच्चन्निय त्रि० (जात्यान्वित) विशिष्टजाति संभूते, य०३ 30 // जच्चमणि पु० (जात्यमणि) पद्मरागादिप्रधानमणी, पं०व०६ द्वार। जचसुवण्ण जात्यसुवर्ण-पारमार्थिक सुवर्णे, दश० 10 अ० जचसुवन्न जात्यसुवर्ण... 'जच्चसुवण्ण' शब्दार्थे, दश० 1 अ० / जच्चिर न० (यचिर) यावत्काले, व्य०७ उ०। जच्चो (देशी) पुरुषे, दे० ना०३ वर्ग। जच्छधा० (यम्) उपरमे, "गमिष्यमाऽऽसांछ:"।४।२१५। इत्यन्तस्य छः। 'जच्छइ' यच्छति / प्रा०४ पाद। जच्छंत त्रि० (यच्छत्) ददति, अष्ट०३ अष्ट। जच्छंदओ देशी-स्वच्छन्द, दे० ना० 3 वर्ग। जजुब्वेय पु० (यजुर्वेद) द्वितीयवेदे, भ०२श० 1 उ०। ओ०। यजुर्वेदाहिती निर्णये, व्यापारे च स्था०३ठा०३ उ०। जजा त्रि० (जय्य) जेतु शक्यः / जि-यत् / क्षय्य जय्या शक्यार्थे ' / 6 / 1 / 81 / (पाणि० ) जेतुं भक्ये, वाच० / "द्यय्यर्या जः' 8 / 2 / 24 / इति य्यस्य ज्ञः। प्रा०२ पाद। जज्जरिय त्रि० (जर्जरित) जर्जरं करोति, जर्ज-णिच् कर्मणि क्तः।। जीर्णीकृते, शकलीकृते, 'जराजर्जरितं पतिम' वाच० / "कुतग्गभिन्नजजरिय सव्वदेहा'' प्रश्न०१ आश्र० द्वार। राजीयुक्ते, स्था० 4 टा०४ उ०। जञ्जरियसद्द जर्जरित(झझरित)-पु० (शब्द) तन्त्रीक रहिट कादिवाद्यशब्दवद् झर्झर (जर्जर) ध्वनियुक्त शब्दे, स्-RETO १०टा० जट्ट पु०(जर्त) वाहीकदेशे, सोऽभिजनोऽस्य अचाबहुषु जनपद लुप। तद्देशवासिघु, व०व० वाच०। "तस्याधूर्तादौ १८/२२३०इति सूत्रे तेस्यदृ: / प्रा०२पाद। जट्ठ न० (इष्ट) कृतयजने, "अहो जन्निएण जट्ट' आ० म०प्र०। यज्ञ च। उत्त०२५ अ०। जट्ठि स्त्री० (यष्टि) यत्र -क्तिन् नि न संप्रसारणम् / ध्वजादिदण्डे, भुजाववलम्बने दण्डे च / क्तिच् / तन्ती, हारलतायां भार्या मधूकायाम् वाच० / 'जट्टिमुट्टिकोप्परप्पहारहिं हणामिति' / नि० चू०१ उ०। जड त्रि० (जड) जलति घनी भवति / जल अच्, डस्यलः। 'इष्टं वाऽनिष्ट वा, नवेत्ति किञ्चित्तुयो मोहात्। परवशगः स भवेदिह, नाम्ना जडसंज्ञकः पुरुषः" / उक्तलक्षणे मन्द बुद्धौ, मूर्ख, वेदग्रहरणासमर्थे, "अनंशी क्लीवपतिती, जात्यन्धवधिरी तथा / उन्मत्तजड़मूकाव, ये च केचिन्निरिन्द्रियाः" | बेदग्रहणासमर्थो जड इति दायभागः / हिमग्ररते, हिमेन मन्दक्रिये, मूके, अल्पज्ञे, जले, न० / सीसके, न०।चेतनभिन्न अज्ञानादि समूहे, वेदान्तमते हि पदार्थो द्विधा-जमोऽजमक्ष / तत्र जडोऽज्ञानतत् कार्यसङ्घः। अजडश्चेतन इति भेदः।''नापृष्टः कस्यचिद् बूयात, न चान्यायेन पृच्छतः / जानन्नपि हि मेधावी, जडवल्लोक आचरेत् // 1 // वाच०1 अपगतकर्तव्याकर्तव्यविवेके, आचा) 1 श्रु०२ अ० 2 उ० / स्थाद्वादस्वरूपोपलम्भरहिते, अष्ट०७ अष्ट० / तत्त्वावबोधविधुरबुद्धौ, स्या० / "जडा खलु भो जडं पञ्जुशासंति' / जडमूढापण्डितनिर्विज्ञानशब्दा एकार्थकाः रा०। जडाभारपुं० (जटाभार) जटासमूह, "जडाभारेण सव्वं सरीरंपाणिएण उल्लेत्ता सामिस्स उवरि ठाउं धुणइ" आ० म० द्वि०। जडाल पुं० (जटाल) जटा अस्त्यर्थे सिध्मा० लच् / वटवृक्षे, कचुरे, मुष्कके, गुग्गले च / जटायुक्ते, त्रि० / चोरिणः शिखिनश्वाम्य, जटालो शिरोरुहाः" / जटामास्याम, स्त्री०। वाच०। स्वनामख्याते गृहविशषे, कल्प०६क्षण / चं० प्र०। *जटावत् त्रि० जटा अस्त्यर्थे मतुप, मस्य वः / वाच० / प्राकृते च "आल्विल्लोल्लालवन्तमन्तेत्तरमणामतोः" / / 8 / 2 / 156 // इति सूत्रेण आलादेशः / 'जडालो' जटावान्। प्रा०२ पाद। जटायुक्त, वाच०। जडि(ण) पुं० (जटिन) जटा अस्त्यस्य इतिप्लक्षे, अश्व-त्थतुन्यपत्रयुक्ते वृक्षभेदे, वाच०। त्रि० / जटाधरे, भ०६ श०१३ उ० / ज० औ०। जडियाइलग पुं० (जटाल) अष्टाशीतिग्रहाणां त्रिपश्चाशत्तमे, स्वनामख्याते ग्रहे, चं० प्र०२० पाहु०। "दो जडियाइलगा'" स्था० 2 ठा० 3 उ०। जडिआइलय पुं०(जटाल) 'जडियाइलग' शब्दार्थे, चं० प्र०२० पाहु० / जडिअं(देशी) खचिते, दे० ना०३ वर्ग। जडिल पुं० (जटिल) जटा अस्त्यर्थे पिच्छा-इलच् / सिंह, जटायुक्त, त्रि० / “विवेश कश्चिजटिलस्तपोवनम्" / वाच० / "उमडफुडकुडिलजडिलकक्खडविकडफडाडोवकरणदच्छा'' वृत्तिः-- जटिलः स्कन्धदेशे केसरिणाभिवाहीनां सरसद्भावात्। भ०१५ श) १उ०। ज्ञा० उ० / जटाधारिवनवासिपाखण्डिनि, प्रव०६४ द्वार / वलितोद्वलिते च / 'एगं महं कोसं व गंडियं सुक्क जडिलं गंठिन्लं" 170 16 श०३ उ०। जडिलय पुं० (जटिलक) राहौ, सू० प्र०२० पाहु०। चं० प्र०। जडु पुं०(जड्ड) भाषया शरीरेण क्रियया वा जडे, स्थूले, दीक्षाऽनहे, प्रव० 107 द्वार। तिविहो य होइ जड्डो, भासै सरीरे य करण जड्डो य / भासाजड्डो चउहा, जल एलग मम्मण दुमेहो।। जल जलवुड्डो भासइ, जलमूओ एव भासति अवत्तं / जह एलगो व्व एवं, एलगमूगो वलवलेति / / मम्मणमूओ वोव्वडो, खलेइ वाया हु अवि सदा जस्स। दुम्मेहस्स ण किंची, घोसंतस्सावि ठाय इहा। दंसणणाणचरित्ते, तवे य समितीस करणजोगे या उवइ8 पि न गेण्हइ, जलमूगो एलमूगो य / / नाणा दट्ठा दिक्खा, भासाजड्डो अपचलो तस्स।
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________________ जड्ड 1357- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जण सोववहिरो य नियमा, गहणे उड्डाहाँ अहिगरणं / / तिविहो सरीरजड्डो, पत्थे भिक्खे तहेव वंदणए। एतेहि कारणे हिं, सरीरजडुं न दिक्खेजा / / अइणे वा पलिमंथो, भिक्खायरियाएँ अपरिहत्थो य / उड्डस्सासपरिक्कम-अहिअग्गीउदगमादीसु॥ आगाढगिलाणस्स य, असमाही वा वि होज मरणं वा।। जड्डे पासे वि ठिए, अन्ने य भवे इमे दोसा // देसेण कक्खमादी, कुच्छणववणुप्पलावणे दोसा / णऽत्थि गलओ य चोरो, णिदियमुंडो य जणवादो // णेगे सरीरजड्डो, एमादीया हवंति दोसा तु / तम्हा तं न वि दिक्खे, गच्छे महल्ले अणुन्नाओ / / इरियासमिए भासे- सणासु आदाणसमिइगुत्तीसु / ण वि ठाति चरणकरणे, कम्मुदएणं करणजड्डो / / जलमूग एलमूगो, अतिथूलसरीरकरणजड्डो य / दिक्खंतस्सेते खलु, चतुगुरु सेसेसु मासलहु / / भासाजडुं मम्मण, सरीरजडं च णातिथूरं च / जावन्जिय परियट्टे, करणे जडुं तु छम्मासे / / मोत्तुं गिलाणकजं, दुम्मेहं वा वि पाढे छम्मासो / तो हेतुं दुम्मेहं, जो वि य करणम्मि सो जड्डो / / छण्हुवरिं तो दोण्ह वि, आयरिओ अन्ने गाहें धम्मासा / पच्छा अन्नो ततिओ, सो वि य छम्मासपरिअट्टे / / जो चियतंगाहेती, सिस्सो तस्सेवसो हवति ताहे। तह विन गिण्हइ जदिहू, कुलगणसंघे विगिचणता। पं०भा०। जड्डस्त्रिधाभाषया, शरीरेण, करणेन च। भाषाजकुः पुनस्त्रिधाजलमूको, मन्मनमूकः, एलकमूकश्च / तत्र जलमग्न इव बुडबुडायमानो यो वक्ति स जलमूकः / यस्य तु वदतः खच्यमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमूकः / यश्चैलक इवाव्यक्तं मूकतया शब्दमात्रमेव करोति स एलकमूकः / तथा यः पथि भिक्षाऽटने वन्दनादिषु चातीव स्थूलतयाऽशक्तो भवति स शरीरजड्डुः / करण क्रिया, तस्यां जडुः करणजडुः समितिगुप्तिप्रत्यवेक्षणादिक्रियां पुनः पुनरुपदिश्यमानामप्यतीव जडुतया यो ग्रहीतुं न शक्नोति सः, करणजडु इत्यर्थः / तत्र भाषाजडुस्विविधोऽपि ज्ञानग्रहणेऽसमर्थत्वान्न दीक्ष्यः / शरीरजडुस्तु मार्गगमनभक्तपानानयनादिष्वशक्तो भवति, तथाऽतिजड्डस्य प्रस्वेदेन कक्षादिषु कुथितत्वं भवति, तेषां जलेन क्षालनेषु क्रियमाणेषु कीटिकादिप्लावना संभवति, ततः संयमविराधना, तथा लोकोऽतिनिन्दा करोति बहुभक्षीति, तथोर्द्धश्वासो भवति ततोऽसौ न दीक्षणीयः / ध० 3 अधि० / प्रव० / पं० चू० / नि० चू० / व्य० / आव० ! ग०1 हस्तिनि, पुं०। बृ०१ उ०। नि० चू०। जीत० / द्रव्यभावमूर्खे, त्रि०। तं०। "जड्डाणं वड्डाणं, निस्विन्नाणं च निव्विसेसाणं / संसार-सूयराणं, कहियं पि निरत्थय होइ'' // 1 // त० / *जाड्यन० जडस्य भावः ष्यञ् / जडतायाम्, सौख्ये च। "आलस्य- | श्रमगर्भाधैर्जाड्यं जृम्भासितादिकृत' / "इदं जाड्यमिदं मौढ्यमिदमत्यद्भुतं वचः" / वाच० / जढ त्रि०(त्यक्त)"क्तेनाप्फुण्णादयः" / / 4 / 258 / इति सूत्रेण 'जढ' आदेशः / परित्यक्ते, दश०६ अ० / 0 / पं०व०। आचा०। नि० चू० / संथा। जण पुं० (जन) जायते इति जनः / आ० म०प्र० / नं० / आचा० / विशे० / सूत्र०। जन-अच् / वाच० / लोके, उत्त०५ अ० / सूत्र० / आव०। आचा० / स० / नगरीवास्तव्वलोके, "पमुइअजणजाणवया" / रा०। भ० / औ० / नि०। ज्ञा० / प्राकृतपुरुषे, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ०२ उ० / आ० म० / स० / प्राणिनिवहे, पं० व० 4 द्वार। आचा०। मातापितृपुत्रकलत्रादौ, कौटुम्बिकजने च / आचा० 1 श्रु०६ अ० 4 उ०। जणइआ पुं०(जनयितृ) जन--णिच-तृच / पितरि, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। उत्पादके, त्रि०। मातरि, स्त्री०। डीए। वाच०। "जणइता णाममेगे" | जनयिता मेघो यो वृष्ट्या धान्यमुद्गम-यति। स्था०६ ठा० 6 उ०। जणइता पुं० 'जणइआ' शब्दार्थे, स्था० 6 ठा० 6 उ० / जणक्खय पुं० (जनक्षय) लोकमरणेषु, भ०३ श० 6 उ० / जणक्खयकर त्रि० (जनक्षयकर) लोकविघातकारके, "बहुज णक्खयकरा संगामा" / प्रश्न० 4 आश्र० द्वार / जणकलकल पुं० (जनकलकल) जनानामुपलभ्यमानवर्णविभागे ध्वनी, रा०। जणग पुं० (जनक) जन-णिच्–ण्वुल् / वाच० / पितरि, प्रव० १द्वार। सूत्र०। ज्ञा० / उत्पादके, त्रि० / वाच०। मातापित्रादौ, "माता पिआ अ कंदकारी जणगा रुदंति" आचा० 1 श्रु०८ अ०८ उ०। मातापित्रोः आचा०२ श्रु०४ अ०१ उ०। जना लोकास्त एजनकाः / जने, 'जणगा तं सुणेह मे" / सूत्र०१ श्रु०६ अ०। सीतायाः पितरि, विदेहनृपभेदे, वाच०। चरमजिनसमयवर्तिनितत्पूजके मिथिलानृपे च / "मिहिलाजणओ य धरणो य" / मिथिलायां जनको राजा धरणश्च नागकुमारेन्द्रः भगवतः पूजां कृतवान् / आ० म०प्र० / जणजत्ता स्त्री० (जनयात्रा) अत्यन्तलोकतप्तिसंभाषणे, "जण जत्तारहियाणं, होइ जइत्तं जईण सया" / दर्श०४ तत्त्व / / जणट्ठाण न० (जनस्थान) दण्डकारण्ये, वाच० / नासिक्यपुरे च (ती० ) "अन्नया देवजाणी नाम सुक्कस्स महग्गहस्स धूआ जणट्ठाणपुरे कीलती दंडयराएण दिट्ठा, रूववइ ति वला मोडिआ, भग्गं च तीसे सीलव्वयं, तस्स सरूवं उबलब्भ सुक्कमहागहेणं रोसबसेणं सावो दिण्णो-एयं नयरं दंडयरायसहियं सत्तदिबसब्भंतरे छाररासी भविस्सइ ति, तं च नायं नारयरिसिणा, दंडयरायस्स कहि, तं च सोऊण भीओ दंडयराया सयलं जणं सह आणेउं चदंप्पहसामिणं सरणं पवन्नो, बुडो अ, तप्पभिइ जणट्ठाणं ति तस्स नरयरस पसिद्ध नामधिज्ज, एवं परतित्थिया वि जस्स तित्थस्स
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________________ जणट्ठाण 1388 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जणाउल माहप्पं उववणिति, तस्स आरहंतलोगा कहं नो वण्णिहिति? ती०२८ | द्वार। "जणवयपरिवायाए" जनपदानां लोकानां परिवादाय। आचा० कल्प। १श्रु०३ अ०२ उ०। 'जानपद' इत्यनुवादेतुतत्र भवे, "जणवयवहाए" जणणिकुच्छिमज्झन० (जननीकुक्षिमध्य) मातृजठरान्तरे, तं०। / जनपदे भवाः जानपदाः कालद्रष्ट्रादयो राजादयो वा तद्वधाय। आचा०१ जणणिबह पुं० (जननिवह) महति नगरभोजिकादि वृन्दे, बृ०४ उ०। श्रु०३ अ०२ उ०। जणणी स्वी० (जननी) जनयति प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी। उत्त०२ | जणवयक हा स्त्री० (जनपदकथा) मालवकादिदेश प्रशंसाअाजन-णिच् अनि० जन अपादाने, अनि० वा डीप / वाच०। मातरि, निन्दाऽत्मिकायां देशकथायाम्, उत्त०१२ अ०। औ०। प्रव०१ द्वार। पञ्चा० / कल्प० / आव०। सूत्र०। "आ स्तन्यपानजननी जणवयपाल पुं० (जनपदपाल) जनपदं पालयति इति जनपदपशूना-मा दारलाभाच नराधमानाम् / आ गेहकृत्यावधि मध्यमाना पालः। जनपदरक्षके, औ०। माजीवितात्तीर्थमिवोत्तमानाम्"||१|| कल्प० 4 क्षण। उत्पादकस्त्रीमात्रे जणवयपिया पुं० (जनपदपितृ) जनपदानां हितत्वात् (औ०) पिते-व। च! वाच०। लोकपितरि, स्था०६ ठा०। सूत्र० / जणद्दण पुं० (जनार्दन) जनैरर्वते याच्यते 'अर्ह' याचने, कर्मणि ल्युट्। / जणक्यपुरोहिय पुं० (जनपदंपुरोहित) जनपदस्य शान्तिकारितया जनमर्दति हिनस्ति ताडयति जनान् समुद्र-वासिनोऽसुरभेदान् पुरोहित इव जनपदपुरोहितः / जनपदशान्तिकरे, रा०। औ०। सूत्र० / अर्दयति वा कर्तरिल्युट्। विष्णौ, वाच०।"काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, जणवयप्पहाण त्रि० (जनपदप्रधान) लोकोत्कृष्ट, "भजाहिं य जणवयप्पमेघान्धकारासु च शर्वरीषु'" जगत्पीडके, त्रि०। आव०१ अ०। हाणाहिं लालियंता' प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। जणपरिभूय त्रि० (जनपरिभूत) लोकगर्हिते, पं०व०१द्वार। जणवयवग्ग पुं० (जनपदवर्ग) देशसमूहे. भ० 3 श०६ उ०। जणपिच्छणिज्जरूव त्रि० (जनप्रेक्षणीयरूप) जनानां प्रेक्षणीयंद्रष्टुं योग्यं / जणवयसच्च न० (जनपदसत्य) जनपदेषु देशेषु यद् यदर्थवाचक-तया रूपं स्वरूपं यस्य तत्तथा। दर्शनीयरूपकलिते, कल्प० 3 क्षण। रूढं देशान्तरेऽपितत् तदर्थवाचकतया प्रयुज्यमानं सत्य-मवितथमिति जणपुज त्रि० (जनपूज्य) लोकामान्येषु, जीवा० 13 अधि०। जनपदसत्यम्। यथा कोणादिषु पयः पत्तं नीरमुदकमित्यादि। सत्यत्वं जणपूयणिज त्रि० (जनपूजनीय) राजामात्यगुरुश्रेष्ठि प्रभृतिषु | चास्यादुष्ट विवक्षाहेतुत्वात् / नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकतया लोकमान्येषु, पञ्चा० 2 विव०।। व्यवहारप्रवृत्तेः / दशविधसत्यस्य प्रथमे भेदे, स्था० 10 ठा० / ध०। जणप्पमह पुं० (जनप्रमर्द) लोकचूर्णने, भ०७ श०६ उ०। जणवयसच्चा स्त्री० (जनपदसत्या) जनपदमधिकृत्येष्टार्थ प्रतिपत्तिजनकजणप्पियत्त न० (जनप्रियत्व) लोकप्रियत्वे, "युक्तं जनप्रियत्वं शुद्ध तया व्यवहारहेतुत्वात् सत्या जनपदसत्या।दशविधायाः सत्यभाषायाः तद्धर्मसिद्धिफलदमलम्। धर्मप्रशंसनादे-बींजाधाना-दिभावेन''||१|| प्रथमे भेदे, प्रज्ञा० 12 पद। षो०४ विव०॥ जणवहा स्त्री० (जनव्यथा) लोकपीडायाम्, भ०७ श०६ उ०। जणवह पुं० (जणवध) लोकधाते, भ०७ श०६ उ०। जणवायपुं० (जनवाद) जनानां परस्परेण वस्तुविचारणे, औ०। स्वनामजणबोलपुं० (जनबोल) जनानामव्यक्तवर्णे ध्वनौ, विपा०१ श्रु०१अ०। ख्याते कलाभेदे, जं० 2 वक्ष० / स० / लोकापवादे च / वाच०। "जणवायभएणं"। आव०६ अ०। भ०। जणमणोहर त्रि० (जनमनोहर) लोकचेतोहारिणि, पञ्चा०६ विव०।। जणवूह पुं० (जनव्यूह) जनसमुदाये, भ०६ श०३४ उ० / चक्राद्याका रजनसमूह, जनव्यूहस्य शब्दोऽपि तदभेदाज्जनव्यूह एवोच्यते। विपा०१ जणमेजय पु० (जनमेजय) जनमेजयति / एज-णिच्-खश् / / श्रु०१अ01 परीक्षितनृपतेः पुत्रे, कुरुनामभूपपुत्रभेदे, पुरञ्जयनृपपुत्रे च / वाच०। क्रोधाजनमेजयो विननाश। ध०१ अधि०1 जणव्वूह (जनव्यूह 'जणवूह' शब्दार्थे, विपा० 1 श्रु०१ अ01 जणय पुं० (जनक) 'जणग' शब्दार्थे, प्रव० 1 द्वार। जणसद्द पुं० (जनशब्द) जनानां परस्परालापरूपे ध्वनौ, औ० / रा०। दशा०। जणयंत त्रि० (जनयत्) उत्पादयति, पञ्चा० 11 विव०। जणसम्मद्दपुं०(जनसंमर्द) जनानां परस्परं संघर्षणे, स्था० 4 ठा० जणवय पुं० (जनपद) जनाः पद्यन्ते गच्छन्ति यत्र / पद आधारे घः।। १उ०। वाच० / देशे० / प्रश्न०५ आश्र० द्वार।तं० / स्था० / कल्प० / आचा० / उत्त० / बृ० / आ० म० / जनानां लोकानां पदान्यवस्थानानि येषु ते जणसंवट्टकप्प त्रि० (जनसंवर्तकल्प) जनसंवर्त इव लोक-संहारसदृशे, जनपदाः / साधुविहरणयोग्येषु अवन्त्यादिषु अर्ध-षड्विशतिदेशेषु, भ०७ श०६ उ०। आचा० 1 श्रु०६ अ०५ उ०। राष्ट्र, रा०। मनुष्यलोके, भ०७ श०६ [ जणाउत्तो (देशी) ग्रामप्रधानपुरुष, विटे च। दे० मा० 3 वर्ग। उ० / तन्निवासिलो के षु च / ''हरंति धणध-णदव्वजायाणि जणाउल त्रि० (जनाकुल) भोजिकादिभिरिति प्रभूतैर्जनैराकीणे, व्य० .जणवयकुलाणं" जनपदकुलानां लोकगृहाणा-म् / प्रश्न०३ आश्र० 204 उ०!
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________________ जणाकुल 1386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जण्णोवईय जणाकुल त्रि० (जनाकुल) 'जणाउल' शब्दार्थे, व्य०४ उ०। जणाववायभीरुत्त न० (जनापवादभीरुत्व) जनापवादाद् मरणान्नि विशिष्यमाणाद् भीरुत्वं भीतिभावः / लोकापर्वादभीती, द्वा०१२ द्वा०। जणि अव्य० (इव) "इवार्थ नं-नउ-नाइ-नावइ-जणिजणवः" 184444 // इति सूत्रेणापभ्रंशे इवार्थे जणिप्रयोगः / प्रा०४ पाद / इवेत्यर्थे, "चंपयकुसुमहो मज्झि सहिभसमुपयट्टय / सोहइ इंदनीलुमणि जणि कणइ वइट्टउ" | प्र०४ पाद। जणिअत्रि० (जनित) उत्पादिते. नि० चू० 1 उ० / आव०। जणिय त्रि० (जनित) जणिभ् शब्दार्थे, नि० चू०१ उ०। जणु अव्य० (इ) "इवार्थ नं-नठ-नाइ-नावइ-जणिजणवः" ||41444 / इति सूत्रेणापभ्रंशे इवशब्दस्य 'जणु' इत्यादेशः। इवेत्यर्थे, 'निरुवमरसुपिएँ पिए विजणु' / प्रा० 4 पाद। जणुम्मि स्त्री० (जनोर्मि) जनसंबाधे, रा०। जणुल्लापपुं० (जनोल्लाप) जनानां काक्वा वर्णने, औ०। जणेमाण त्रि० (जनयत्) उत्पादयति, तं०। जणोह पुं० (जनौघ) जनसमुदाये, बृ०३ उ०। जणोवयारपुं०(जनोपचार) स्वजनादिलोकपूजायाम, पञ्चा०२ विव०। / जण्ण पुं० (यज्ञ) यज-भावे नः / यागे, वाच०। स त्रिविधः"अफलाकातिभिर्यज्ञो, विधिद्रष्टो य उच्यते। यष्टव्यमेवेति मनः, समाधाय स सात्त्विकः।। अभिसंधाय तु फलं, दम्भार्थमपि चैव यत्। इज्यते भरतश्रेष्ठ ! तं यज्ञं विद्धि राजसम् / / विधिहीनमसृष्टान्नं, मन्त्रहीनमदक्षिणम्। श्रद्धाविरहितं यज्ञ, तामसं परिचक्षते" || सच नानाविधः"द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञाः, योगयज्ञास्तथा परे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च, यतयः संशितव्रताः" / / पञ्च गृहस्थकर्तव्या यज्ञा यथा"अध्यापनं ब्रह्म यज्ञः, पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो देवो बलिर्भातो, नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्" / विष्णौ च / वाच०। नागादीनां पूजायाम, आ०म० प्र०। भ०। ज्ञा०। प्रश्न०। सूत्र०। प्रतिदिवसं स्वस्वेष्टदेवतापूजायाम, जी० 3 प्रति०। श्राद्धे च / जी०३ प्रति०। जः / सयूपो यज्ञ एव हि क्रतुरुच्यते, यूपरहितस्तु दानादिक्रियायुक्तो यज्ञ इति / विशे०। जण्णइज्ज न० (यज्ञीय) यज्ञाय हितं तस्येदं वा / वाच० / स्वनामख्याते (जयघोषविजयघोषमुनिवक्तव्यताप्रतिबद्धे) उत्तराध्ययनसूत्रस्य पञ्चविंशतितमेऽध्ययने, स०३३ सम० / उत्त०। जण्णग्गि पुं० (यज्ञाग्नि) अग्निष्टोमानले, दश०१ चू०। जण्णजस पुं० (यज्ञयशस्) स्वनामख्याते नारदपितामहे तापसे, "आसीद्यदा सौर्यपुरे, समुद्रविजयो नृपः। तदा यज्ञयशास्तत्र, तापसस्तस्य वल्लभः।। सोममित्रासुतो यज्ञ-दत्तस्सोमयशा स्नुषा। तत्पुत्रो नारदस्तेषा-मुञ्छवृत्त्या च भोजनम्" || आ० क०। आ० चू०। जण्णजाइ(ण) पुं० (यज्ञयाजिन्) यजनशील, नि० चू० 1 उ० / औ०। भ०। जण्णट्ठ पुं० (यज्ञार्थ) यहकप्रयोजने द्विजे, यज्ञनिमित्ते, उत्त० 25 अ०। जण्णट्ठाण न० (यज्ञस्थान) नासिक्यपुरे, ती० 28 कल्प० / ''एवं नासिक्कपुरे कालंतरे पुण्णभूमिं नाउं आगओ मिहिलाहिंतो, तत्थ जणयराओ तेण य तत्थ दस जण्णा कारिया" ततः "जण्णट्ठाणं ति तन्नयरं रूढ' / ती०२८ कल्प०1 यज्ञवाटे च / वाच०। जण्णदत्त पुं०(यज्ञदत्त) स्वनामख्याते नारदपितरि, आ० के० आव०। आ० चू० / स्वनामख्याते कौशाम्बीवास्तव्ये सोमदत्ते, सोमदेवपितरि च। उत्त० 1 अ० / भद्रवाहुस्वामितृतीयशिष्ये, कल्प०८ क्षण। जण्णदेवपुं० (यज्ञदेव) क्षितिप्रतिष्ठितनगरीये चिलातपुत्र-पूर्वभविकजीवे स्वनामख्याते द्विजे, आव०१० जण्णमुह न० (यज्ञमुख) यज्ञोपाये, उत्त०२५ अ०॥ जण्णवक्क पुं० (याज्ञवल्क्य) शुक्लयजुःप्रवर्तक मुनिभेदे, वाच०। (वेदाः) अनार्यास्त् पश्चातु सुतसायाज्ञवल्क्यादिभिः कृताः" आ० म०प्र० / तन्नामकधर्म संहिताकर्तरि ऋषौ च / वाच०। याज्ञवल्क्यप्रभृतिऋषिप्रणीतधर्मसंहिताभिश्चिन्तयन्ति ते धर्मचिन्तकाः। अनु०। जण्णवाड पु० (यज्ञवा)(पा)ट यज्ञस्थाने, वाच०। आ० म० / उत्त०। आव०। जण्णसेट्ठपुं० (यज्ञश्रेष्ठ) यज्ञेषु श्रेष्ठोयज्ञश्रेष्ठः। अथवा श्रेष्ठोयज्ञः श्रेष्ठयज्ञः / प्राकृतत्वात् यज्ञश्रेष्ठः। (उत्त०) उत्तमयज्ञे, "वोसट्ठकाया सुइचत्तदेहा, महाजयं जयइजण्णसेट्ठ" उत्त०१२ अ०। जण्णिय पु० (याज्ञिक) यज्ञेन जयति लोकान् इति याज्ञिकः / आ० म० प्र० / आचा०। यज्ञाय हितः यज्ञः प्रयोजनमस्य वा ठक् / याजके ऋत्विगादौ, यजमाने च / वाच०। जण्णोवईय न० (यज्ञोपवीत) यज्ञेन संस्कृतमुपवीतम् / वाच० / ब्राह्मणकण्ठसूत्रे, उत्त०२ अ०। तत्प्रसिद्धिस्त्वित्थम्भरतश्च श्रावकानाहूयोक्तवान् भवद्भिः प्रतिदिनं मदीयं भोक्तव्यं, कृष्यादि चन कार्यम्, स्वाध्यायपरैरासितव्यं, भुक्तेच मदीयगृहद्वारा-सन्नव्यवस्थिततैर्वक्तव्यम्-जितो भवान्, वर्धते भयं, तस्मान्मा हन मा हनेति। ते तथैव कृतवन्तः। भरतश्चरति साग-रावगाढत्वात् प्रमत्तत्वात् तच्छन्दाकर्णनोत्तरकालमेव केनाहं जित इति ? आः ज्ञातं-कषायैः, तेभ्यः एव वर्द्धते भयमित्यालोचनापूर्वक संवेग यातवानिति / अत्रान्तरे लोकबाहुल्यात् सूपकाराः पाकं कर्तुमशक्नुवन्तो भरताय निवेदितवन्तः, नेह ज्ञायते कः श्राव-कः, को वा नेतीतिलोकस्य प्रचुरत्वात्। आह भरतः-पृच्छापूर्वक
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________________ जण्णोवईस 1360 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जत्तिय देयमिति। ततस्तान पृष्टवन्तस्ते-को भवान्, श्रावकाणां कतिव्रतानि? (जयण त्ति) प्रवृत्तिः। भ०१८ श०१० उ०। स आह-श्रावकाणां न सन्ति व्रतानि, किं तु अस्माकं पश्चाऽणुव्रतानि। अत्र प्रासङ्गिके शङ्कासमाधाने यथाकति शिक्षाव्रतानि? ते उक्तवन्तः सप्त शिक्षाव्रतानि / य एवं भूतास्ते "नो यात्रा प्रतिमानतिव्रतभृता साक्षादनादेशनात् , राझो निवेदिताः। स च काकणीरत्नेन तान् लाञ्छितवान्, पुनः षण्मासेन तत्प्रश्नोत्तरवाक्य इत्यपि वचो मोहज्वरावेशजम्। योग्या भवन्ति, तानपि लाञ्छितवान् / षण्मासकालादनुयोगं कृतवानेवं मुख्यार्थः प्रथिता यतो व्यवहृतिः शेषान् गुणान् लक्षयेत्, ब्राह्मणाः संजाता इति। ते च स्वसुतान् साधुभ्यो दत्तवन्तः, ते च प्रव्रज्यां सामर येण हि यावताऽस्ति यतना यात्रा स्मृता तावता // 47 // " चक्रुः / परीषहभीरवस्तु श्रावका एवासन्निति। एचंच भरतराज्यस्थितिः / प्रति०। एतद्व्याख्यानं चेइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1220 पृष्ठद्रष्टव्यम्) आदित्ययशसस्तु काकणीरत्नं नासीत्, सुवर्णमयानि यज्ञो-पवीतानि क्षायिकमिओपशमिकलक्षणे भावे, आव०३ अ०1 देवोद्देशेनोत्सवभेदे, कृतवान्, महाशयःप्रभृतयस्तु केचन रूप्यमयानि, केचन रथयात्रादौ, वाच०। महोत्सव एव यात्रा, नतु देशान्तरगमनम्। ध०२ विचित्रपट्टसूत्रमयानि, इत्येवं यज्ञोपवीत- प्रसिद्धिः। आ० म०प्र०। अधि०। पञ्चा०। सा च यात्रा त्रिविधा-अष्टाहिका, रथयात्रा, तीर्थयात्रा जण्णोववीय न० (यज्ञोपवीत) 'जण्णोवईय' शब्दार्थे, आ० म०प्र०। च। ध०२ अधि०। (तत्राष्टाहिकास्वरूपं रथयात्रास्वरूपंच 'अणुजाण' जण्णोहणो (देशी) राक्षसे, दे० ना०३ वर्ग। शब्दे प्रथमभागे 367 पृष्ठे दर्शितम्) स च सविस्तरं सर्वचैत्यपरिपाटीजण्हली (देशी) नीव्याम, दे० ना०३ वर्ग। करणादिमहोत्सवोऽष्टाहिकायात्रा, इयं चैत्ययात्राऽप्युच्यते / ध० 2 जण्हु पुं० (जडु) "सूक्ष्मष्णस्नह्नवक्ष्णां ण्हः" ||8/275 / / इति अधि०। (तीर्थयात्रास्वरूपंच 'तित्थजत्ता' शब्दे दृश्यम्) देशान्तरगमने, प्राकृतसूत्रेण होः राहुः। प्रा०२ पादाभरतवंश्ये आजबीढनृपपुत्रे, नृपभेदे, स्था० 4 ठा० 1 उ०। ज्ञा०। औ०। विजिगीषया राज्ञांगमने, गमनमात्रे, यापने उपाये च। वाच०। वाच०को०। जण्हुसुयास्त्री० (जह्वसुता) गङ्गानद्याम्, "गंगा भागीरही य जण्हुसुया।" जत्ताभयग पुं० (यात्राभृतक) यात्रा देशान्तरगमनं, तस्यां सहाय इति भियते यः स यात्राभृतकः / देशाटनसमयोपयोगिन्यनुचरे, स्था० 4 ठा० को०। १उ०। जइअव्य० (यदि) यद्-णिच्-इन, णिलोपः। पक्षान्तरे, संभावनायाम, जत्ता ति होति गमणं, उभयं वा एत्तिय धणेण / पं० भा०। गर्हायां, विकल्पे च / वाच०। "जति ण चोरं लभसि ततो ते जीवित नऽस्थि' / नि० चू०१ उ०। "जत्ताभयगो नाम तुमे अम्ह इमा जत्ता कायव्वा'' / स्वय यात्रा गन्तुमशक्नुक्ता यात्रासिद्ध्यै वेतनेन व्यापारितेऽनुचरे च। पं० चू० / जतमाण त्रि० (यतमान) प्राणिविषये यत्नवति, आचा०१ श्रु०६ अ०२ | जत्ताभिमुह त्रि० (यात्राऽभिमुख) गमनाभिमुखे, औ०। उ०। यत्नवति च / आचा०१ श्रु० 4 अ०१ उ०। जत्ताविहाण न० (यात्राविधान) जिनोत्सवविधौ, तत्प्रतिपादके जति अव्य० (यदि) जइ' शब्दार्थ, नि० चू० 1 उ०। यात्राविधिप्रकरणाख्ये हारिभद्रे नवमे पश्चाशके च / पशा०६ जतिय त्रि० (यावत्) यत्परिमाणे, वाच० / "अण्णं पिजतियं जाणंति'' विव०। (तद्वक्तव्यता अणुजाण' शब्दे प्रथमभागे 337 पृष्ठे क्लिोक्या) नि० चू० 16 उ०। जत्तासिद्ध पुं० (यात्रासिद्ध) कृतसमुद्रयात्रे, यो द्वादशवारं समुद्रमवग्राह्य जतुकुंभपुं० (जतुकुम्भ) जातुषे घटे, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ० 10 // कृतकार्यः क्षेमेणाऽऽयाति स यात्रासिद्धः / अन्येऽपि पोतेन गन्तुकामा जतुगोलसमाण त्रि० (जतुगोलसमान) डिम्भरूपक्रीडनकज- यात्रासिद्धाः प्रेक्ष्यन्ते। तुगोलकप्रमाणे अनति महति, भ० 16 श०३ उ०। यात्रासिद्धकथा चेयम् - जतुगोलासमाणपुं० (जतुगोलसमान)'जतुगोलसमाण' श-ब्दार्थे, भ० "वेलाकूलेऽभवत् कोऽपि, वणिक् तुण्डिकनामकः / 16 श०३ उ०। तस्याब्धौ लक्षशो भग्नं, वोहित्थं स तु नाभनक् / / 1 / / जतो अव्य० (यतस्) यस्मात् कारणादित्यर्थे, पञ्चा० 6 विव० / जले नष्टं जले एव, लभ्यते प्रोक्तवानिति। जत्तपुं० (यत्न) वेलाविधानाधाराधनोद्यमे, पञ्चा० 3 क्वि०। नाग्रहीद्दत्तमप्यन्यैः जगाम पुनरम्बुधौ / / 2 / / जत्ततिग न० (यात्रात्रिक) जिनयात्रात्रिके, ध० 2 अधि० / / स्वयं समुद्रस्तुष्टोऽथ, तत्थ प्राज्यं धनं ददौ। "अष्टाहिकाऽभिधामेकां, रथयात्रामथापराम् / तृतीयां तीर्थयात्रा चे- भणितश्चान्यदपि ते, किं ददामीति सोऽवदत् // 3 // त्याहुर्यात्रां त्रिधा बुधाः ।।१॥"ध०२ अधि०। मम नाम गृहीत्वा यः, समुद्रमवगाहते। जत्ता स्त्री० (यात्रा) या-ष्ट्रन्। वाच०। यानं यात्रा।तपोनियम- संयोगादिषु / सोऽविपन्नः समभ्येतु, समुद्रस्तत्प्रपन्नवान्॥४॥" प्रवृत्ती, भ०१८ श०१० उ०। आव०। यात्रा द्विधाद्रव्यतो, भावतश्च। आ० क० / रा०। द्रव्यतस्तापसादीनां स्वक्रियोत्सर्पमाना, भावतः साधूनामिति। आव० जत्ति जगारपविभत्ति न० (ज इति जकारप्रविभक्ति) द्वात्रिंश३ अ०। द्विधनाट्यभेदे, रा०। किं ते भंते ! जत्ता ? सोमिला ! जं मे तवणिय-मसंजमस- जत्तिय त्रि० (यावत्) यत्परिमाणे, वाच०। 'जत्तियं गहियं तत्तिय ठियं / " ज्झायज्झाणआवस्सयमादिएसु जोगेसु जयणा, से तं जत्ता। | आ० म०प्र० /
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________________ जत्तो 1361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जम जत्तो अव्य० (यतम्)"त्तो दो तसो वा" 82 / 160 / इति प्राकृतसूत्रेण तसः 'तो' इत्यादेशः / प्रा०२पाद। यस्मात्कारणादित्यर्थे, पञ्चा० १०विव०। जत्थकामोसाइत्तन० (यत्रकामावसायित्व) स्वाभिलषितस्य समाप्ति पर्यन्तनयने योगसिद्धिभेदे, द्वा०२६ द्वा०। जत्थ अय्य०(जत्थ) (यत्र यत्र) यद्-त्रल। यस्मिन् यस्मिन्नित्यर्थे, वाच०। "उवहाण जत्थ जत्थ जं सुत्ते, एसा सुत्तवीप्सा, जत्थ उद्देसगे, जत्थ अज्झयणे, जत्थ सुयक्खधे, जत्थं अंगे का-लुकालिय अंगाणंगेसु णेया।" नि० चू०१ उ०। जदिअव्य०(यदि) अभ्युपगमे, नि० चू०२ उ०। जदिच्छा स्त्री० (यदृच्छा) अभिसंधिराहित्ये, बृ०३ उ०। जदुणंदण पुं० (यदुनन्दन) श्रीकृष्णे, स्था० 8 ठा०। जपधा० (जप) उच्चारणे, वाचि च / भ्वा०-पर०-सक०-सेट्। अभि आभिमुख्येन जपे, सम्यक् कथने च / उप-भेदे, न०। वाच०। भावे अप। पुं०। मन्त्राभ्यासे, अनु०॥ तत्प्रकारो यथा"मनः संहृत्य विषया-न्मन्त्रार्थगतमानसः। न द्रुतं न विलम्बं च, जपेन्मौक्तिकपङ्क्तिवत्॥ जपः स्यादक्षरावृत्ति-मानसोपांशुवाचिकैः। धिया यदक्षरश्रेणी, वर्णस्वरपदात्मिकाम् / / उच्चरेदर्थमुद्दिश्य, मानसः स जपः स्मृतः। जिह्वोष्ठौचालयेत् किञ्चित्, देवतागतमानसः।। किञ्चिच्छ्रवणयोग्यः स्या-दुपांशुः स जपः स्मृतः। मन्त्रमुचारयेद्वाचा, वाचिकः स जपः स्मृतः।। उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्या-दुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपः शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः।। जिह्वाजपः स विज्ञेयः, केवलं जिह्वाया बुधैः" / वाच०। जप्पपु० (जल्प) छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भपरे भाषणे, स्था० ६ठा०। नि० चू०। स०। जप्पभिइ अव्य० (यतः प्रभृति) यस्मात्कालादारभ्येत्यर्थे, "तप्पभिइंच णं अम्हं एसदारए कुच्छिसिगब्भत्ताए वक्कतेतप्पभिइचणं अम्हे हिरण्णेण, जाव पीइसक्कारेणं अईव अइव वड्डामो" / कल्प०४ क्षण। जम धा० (यम) उपरतौ, भ्वा०-पर०-सक० -अनिट् / उदित् क्त्वा वेट् / आ-दीर्धीकरणे, उप-विवाहे, 'यम' परिवेषणे, चुरा०-उभ०सक० -सेट्० -वा-घटा० / वाच० | यम-धा० -घम् / प्राणातिपातविरल्यादिरूपेषु पञ्चसु महाव्रतेषु, पुं० / उत्त० 25 अ० / "दो यमा' स्था० 2 ठा०३ उ० / ज्ञा० / ध०र० / तत्र महाव्रतपदेनैते जिनेरभिधीयन्ते, व्रतपदेन भागवतैः धर्मपदेन पाशुपतैः सांख्ययासमतानुसारिभिश्च यमपदेनाभिधीयन्ते, कुशलधर्मपदेन च बौद्धरभिधीयन्ते, वैदिकादिभिश्च ब्रह्मादि-पदेनाभिधीयन्ते / द्वा० 8 द्वा० / हा०। तत्स्वरूपं त्वेवम्अहिंसासूनृताऽस्तेय-ब्रह्माकिञ्चनता यमाः। दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाः, सार्वभौमा महाव्रतम्।। प्राणवियोगप्रयोजनो व्यापारो हिंसा, तदभावोऽहिंसा / वाङ्मन- | सोर्यथार्थत्वं सूनृतम् / परस्वापहरणं स्तेयं, तदभावोऽस्तेयम्। उपस्थसंयमो ब्रह्म / भोगसाधना नामस्वीकारोऽकिश्चनता, एतेयमाः / तदुक्तम् - "अहिंसासत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः" इति / दिगदेशस्तीर्थादिः, कालश्चतुर्दश्यादिः, आदिना ब्राह्मण्या-दिरूपाया जातेर्बाह्यणादिप्रयोजनरूपस्य समयस्य च ग्रहः / ततो दिक्कालादिना अनवच्छिन्नाः "तीर्थे कञ्चन न हनिष्यामि'' "चतुर्दश्यांन हनिष्यामि" "ब्राह्मणान्न हानिष्यामि'' "देवब्राह्मणाद्यर्थव्यतिरेकेण नकमपि हनिष्यामि'' इत्येवंविधावच्छेदव्यतिरेकेण सर्वविषया अहिंसा-दयो यमाः, सार्वभौमाः सर्वासु क्षिप्राद्यासुचित्तभूमिषु संभवन्तो महाव्रतमित्युच्यन्ते। तदुक्तम् - "एते तु जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥सा द्वा०२१ द्वा०। इच्छायमादिचतुर्भेदेषु, तथाहियमाश्चतुर्विधा इच्छा-प्रवृत्तिस्थैर्यसिद्धयः। (25) (यमा इति) यमाश्चतुर्विधाः- इच्छायमाः प्रवृत्तियमाः, स्थिरयमाः, सिद्धियमाश्च। (२५)द्वा०१६ द्वा०। इच्छायमो यमेष्विच्छा, युता तद्वत्कथामुदा। स प्रवृत्तियमो यत्तत्, पालनं शमसंयुतम्।।२६।। तद्वता यमवतां कथातो या मुत्प्रीतिः, तया युता सहिता यमेष्विच्छा इच्छायम उच्यते / यत्तेषां यमानां पालनं शमसंयुतमुपशमान्वितं स प्रवृत्तियमः / तत्पालनं चात्राविकलमभिप्रेतम्, तेन न कालादिविकलतत्पालनक्षणे इच्छायमेऽतिव्याप्तिः / / न च सोऽपि प्रवृत्तियम एव, केवलं तथाविधसाधुचेष्टया प्रधान इच्छायम एव तात्विक-पक्षपातस्यापि द्रव्यक्रियातिशायित्वात्। तदुक्तम्- ''तात्त्विकः पक्षपातश्च, भावशून्या च या क्रिया / अनयो रन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव'' ||1|| संविग्नपाक्षिकस्य प्रवृत्तचक्रत्वानुरोधे तु प्रवृत्तियम एवायं, तस्य शास्त्रयोगानियतत्वादिति नयभेदेन भावनीयम् // 26 // सत्क्षयोपशमोत्कर्षा-दतिचारादिचिन्तया। रहिता यमसेवा तु, तृतीयो यम उच्यते / / 27 / / सतो विशिष्टस्य क्षयोपशमस्य उत्कर्षादुद्रेकादतिचारादीनां चिन्तया रहिता, तदभावस्यैव विनिश्चयात् / यमसेवा तु तृतीयो यमः स्थिरयम उच्यते॥२७॥ परार्थसाधिका त्वेषा, सिद्धिः शुद्धान्तरात्मनः। अचिन्त्यशक्तियोगेन, चतुर्थो यम उच्यते // 28|| (परार्थेति) परार्थसाधिका स्वसन्निधौ परस्य वैरत्यागादिकारिणी तु एषा यमसेवा सिद्धिः / शुद्धः क्षीणमलतया निर्मलोऽन्तरात्मा यस्य अचिन्त्याया अनिर्वचनीयायाः शक्तेः स्ववीर्योल्लासरूपायाः योगेन चतुर्थो यम उच्यते // 28|| द्वा० 16 द्वा०। यमयति-अच् / वाच० / दक्षिणदिक्पालनिकायाश्रिते लोकपाले, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / भरणीनक्षत्राधिपतौ, सू० प्र० 10 पाहु० / जं० / ज्यो० / स्था० / यमदग्निगुरौ तापसविशेषे, आ० म०प्र० / आ० चू०। आ० क०। "यमाख्यस्तापसस्तत्र, स तत्पाद्येऽग्निकोऽगमत्। प्रपन्नस्तस्य शिष्यत्वं, स घोरं तप्यते तपः॥ यमशिष्योऽनिक इति, यमदग्निरिति श्रुतः।" आ० क०। "जमो नाम से तावसो" आ० म० द्वि०। आ० चू० / संयमने, आ०
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________________ जम 1392 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमग म०प्र० / मृत्यौ, मृत्युहेतुत्वात् / आव०४ अ० 1 एकगर्भजायमाने यमजे, त्रि०। वाच० द्वित्वसंख्यायां च / वाच०। जमईयन० (यमतीत) यमतीतेत्याद्यक्षरे, आदाननाम्नि सूत्र-कृताङ्गस्य पञ्चदशेऽध्ययने, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। स०। प्रश्न०1 आव०। जमकाइय पुं० (यमकायिक) दक्षिणदिक्पालदेवनिकायाश्रितेष्वम्बा द्यसुरविशेषेषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। जमग पुं० (यमक) शकुनिविशेषे, जी० 3 प्रति० / स्वनामख्याते पर्वतविशेष, (जी०) संप्रति उत्तरकुरुभावियमकपर्वतवक्तव्यतामाहकहि णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जमगा नाम दुवे पव्वता पण्णत्ता? गोयमा ! नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं अट्ठ चोत्तीसंजोयणसते चत्तारिय सत्तभागे जोयणसहस्सं आवाधाए सीताए महाणईएउभओ कूले, एत्थणं उत्तरकुराए कुराए जमगा णाम दुवे पव्वता पण्णत्ता। एगमेगेणं जोयणसहस्सं उड्ढ उचत्तेणं अड्डाइजाई जोयणसयाई उव्वेहेणं मूले एकमेकं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं मज्झे अट्ठमाइं जोयणसताई आयामविक्खंभेणं उवरिं पंचजोयणसयाई आयामविक्खंभणं मूले तिण्णि जोयणसहस्साइं एकं वावटुंजोयणसयं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं दो जोयण-सहस्साइं तिण्णि य वावत्तरे जोयणसते किं चिवि-सेसूणपरिक्खे वेणं उवरिं पण्णरस एकासीते जोयणसते किं चिविसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता, मूल वित्थिन्ना मज्झे संखित्ता उप्पिं तणुया गो-पुच्छसंठाणसंठिया सव्वकणगामया अच्छा सण्हा० जाव पडिरूवा पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेतिया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता, वण्णओ, दोण्ण वि तेसि णं जमगपव्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जभूमिभागे पण्णत्ते, वण्णओ० जाव आसयंति / तेसि गं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागासं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसका पण्णत्ता। तेणं पासायवडेंसका वावडिंजोयणाई अद्धजोयणं च उड्डे उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं अब्मुग्गतमूसितवण्णओ भूमिभागओ उल्लोता, दो जोयणाई मणिपेढियाओ उवरि सीहासणा सपरिवारा० जाव जमगा चिट्ठति / से केणट्टेणं भंते ! एवं बुचंतिजमगा पव्वया, जमगा पव्व-या ? गोयमा ! जमगेसु णं पव्वतेसु तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहूओ खुड्डियाओ वावीओ० जाव विलवंतियाओ तासुर्ण खुड्डाखुड्डिया० जाव विलवंतियासु बहूई उप्पलाइं० जाव सतसहस्सपत्ताई जमगप्पभाई जमगवण्णाई जमगा, एत्थ णं दो देवा महिड्डिया० जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति / ते णं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं० जाव जमगाणं पव्वयाणं जमिगाण य रायहाणीणं / अण्णेसिं च बहूर्ण वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवचं० जाव पालेमाणा विहरंति / से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइजमगपव्वया जमगपव्वया, अदुत्तरं च णं गोयमा ! जाव णिचा। कहि णं भंते ! जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! जमगाणं पव्वयाणं उत्तराणं ति तिरियमसंखेजदीवसमुद्दे बीतीवतित्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे वारस जोयणसहसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ वारसजोयणसहस्साई जहा विजयस्स० जाव महिड्डिया जमगा देवा / / "कहिणं भंते !" इत्यादि। क्व भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ? भगवानाह-गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणान्त्याचरमान्तात् चरमरूपात् पर्यन्तादष्टौ योजनशतानि चतुरिंवंशानि चतुस्त्रिंशदधिकानि चतुरश्च योजनस्य सप्त भागान् अवाधया कृत्वा अपान्तराले मुक्तेति भावः। अत्रान्तरे शीताया महानद्याः पूर्वपश्चिमयोर्दिशोरुभयोः कूलयोः, अत्र एतस्मिन् प्रदेशे यमको नाम द्वौ पर्वती प्रज्ञप्तौ / तद्यथा-एकः पूर्वकूले, एकः पश्चिमकूले, प्रत्येकं योजनसहस्रमुचैस्त्वेन, अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि उद्धेन, अवगाहेन मेरुव्यतिरेकेण शेषशाश्वतपर्वतानां सर्वेषामपि विशेषेणोच्चैस्त्वापेक्षया चतुर्भागस्थावगाहभावात्, मूले एकंयोजनसहस्रं विष्कम्भः 1000, मध्ये अष्टिमानि योजनशतानि 750, उपरि पञ्चयोजनशतानि 500, मूले त्रीणि योजनशतानि एकं च द्वाषष्ट द्वाषष्टयधिक योजनशतं किञ्चिद् विशेषाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तौ 3162, मध्ये द्वे योजनसहने त्रीणि योजनशतानि द्वासप्ततानि द्वासप्तत्यधिकानि 2372, किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तौ, उपरि एक योजनसहसं पञ्च शतानि एकाशीतानि एकाशीत्यधिकानि योजनशनानि किश्चिद्विशेषाधिकानि 1581 परिक्षेपेण, एवं चतौ मूले विस्तीर्णी मध्ये संक्षिप्तौ उपरि तनुकावत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितौ (सव्वकणगामया इति) सर्वात्मना कनकमयौ "अच्छा० जाव पडिरूवा'' इति प्राग्वत्। तौ च प्रत्येकं प्रत्येक पद्मवरवेदकिया परिक्षिप्तौ, प्रत्येकं प्रत्येकं वनखण्डपरिक्षिप्तौ, पद्मवरवेदिक वर्णको, वनखण्डवर्ण कश्व जगत्युपरि पद्मवरवेदिकावनखण्डवर्णकवत् वक्तव्यः।''जमगपव्वयाणं'' इत्यादि। यमकपर्वतयोरुपरि प्रत्येक बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः। भूमिभागवर्णनं च"से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा'' इत्यादि प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावत् "बाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति० जाव पद्मणुभवमाणा विहरति। "तेसिणं'' इत्यादि। तयोर्वहुसमरमणीययोर्भूमिभागयोर्वहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येकं प्रासादावतंसकौ प्रज्ञप्तौ। तौ च प्रासादावतंसको द्वाषष्टियोजनानि अर्द्धयोजनं चोर्ध्वमुच्चैस्त्वेन, एकत्रिंशद्योजनानि क्रोश चैकं विष्कम्भेन, "अब्भुग्गयमूसियपहसियाइ वा'' इत्यादि यावत् 'पडिरूवा'' इति प्रासादावतंसकवर्णनम्, उल्लोचवर्णनम्, भूमिभागवर्णनम्, मणिपीठिकावर्णनम्, सिंहासनवर्ण -
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________________ जमग 1393 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमग नम्, विजयदूष्यवर्णनम्, अकुशवर्णनम्, दामवर्णनं च निरवशेष प्रान्वद्वक्तव्यम् / नवरमत्र मणिपीठिकायाः प्रमाण-मायामविष्कम्भाभ्यां द्वे योजने, बाहल्येन एकं योजनम्, शेषं तथैव। "तेसिणं सीहासणाणं" इत्यादि। तयोः सिंहासनयोः प्रत्येकम् "अवरुत्तरेणं' अपरोत्तरस्यां, वायव्यामित्यर्थः। उत्तरपूर्वस्यांच दिशि, अत्र एतासु तिसृषु दिक्षु यमकयोर्यमकनाम्नार्यमकपर्वतस्वामिनोर्देवयोः प्रत्येक प्रत्येकं चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि / एवमेतेन क्रमेण सिंहासनपरिवारो वक्तव्यः, यथा प्राग् विजयदेवस्य / "तेसिणं' इत्यादि।तथोः प्रासादावतंसकयोः प्रत्येकमुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, इत्याद्यपि प्राग्वत् तावद्वक्तव्यं यावत् "सयसहस्सपत्तगा'' इति पदम्। संप्रतिनामनिबन्धं पिपृच्छिषुरिदमाह"से केण?णं' इत्यादि / अथ केनार्थेन केन कारणेन एवमुच्यते - यमकपर्वतो, यमकपर्वताविति ? भगवानाह-गौतम ! यमकपर्वतयोः णमिति वाक्यालङ्कारे, क्षुल्लिकासु वापीषु पुष्करिणीषु यावद्विलपक्तिषु,बहूनि उत्पलानियावत्सहस्रपत्राणि यमकप्रभाणि, यमका नाम शकुनिविशेषाः, तत्प्रभाणि तदाकाराणि। एतदेव व्याचष्टेयमकवर्णाभानि, यमकसदृशवर्णानीत्यर्थः / यमकौ च यमक नामानौ च, तर तयोर्यमकपर्वतयोः स्वामित्वेन द्वौ देवो महर्द्धिको यावद् महाभागी पल्योपमस्थितिको परिवंसतः। तौ च तत्र प्रत्येकं प्रत्येकंचतुर्णा सामानिक सहस्त्राणा चतसृणामग्रमहिषीणां सपरियाराणा तिसृणामभ्यन्तरमध्यबाहारूपाणां यथासंख्यमष्टादशद्वादशदेवसहस्रसंख्याकानां सप्तानामनीकाधिपतीनांषोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणाम् "जमगाणं पव्वयाणं जमिगाण य रायहाणीणं'' इति। स्वस्य स्वस्य यमकपर्वतस्य स्वस्याः यमिकाऽभिधायाः राजधान्याः, अन्येषां च बहूनां वाणमन्तराणां देवानां देवीनां च स्वरस्वयमिकाऽभिधरा-जधानीवास्तव्यानामाधिपत्य यावद्विहरतः। यावत्करणात् - "पारेवच्च सामित्तं भट्टित्तं" इत्यादिपरिग्रहः / ततो यमकाकारयमकवर्णोत्पलादियोगात् यमकाभिधदेवस्वामिकत्वाच तौ यमकपर्वतावित्युच्येते। यथा चाह- "से तेण?णं" इत्यादि / संप्रति यमिकाभिधराजधानीस्थानम्- "कहि णं भंते !" इत्यादि। क्व भदन्त: यमकयोर्देवयोः संबन्धिन्यौ यमिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञ-प्से ? भगवानाह-गौतम ! यमक पर्वयोरुत्तरतोऽन्यस्मिन् असंख्येयतमे जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादशयोजनसहस्राण्यवगाह्य, अत्रान्तरे यमकदेवयोः संबन्धिन्यौ यमिकराजधान्यौ प्रज्ञप्ते, ते चाविशेषण विजयराजधानीसदृश्यौ वक्तव्ये / जी० 3 प्रति० / शब्दालङ्कारभेदे, वाच०। पुनर्यमकपर्वतप्ररूपणाकहिणं भंते ! उत्तरकु राए जमगा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता ? गो अमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ अट्ठ चउत्तीसे जोअणसए चत्तारि असत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सीआए महाणईए उभओ कूले, एत्थ णं जमगा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता, जोअणसहस्सं उड्ढे उच्चत्तेणं अड्डाइजाई जो अणसयाई उत्वे हेणं मूले एगं जो अणसहस्सं आयामविक्खं भेणं मज्झे अद्धट्ठमाणि जोअणसयाइं आयामविक्खंभेणं उवरिपंच जोअणसयाई आयामविक्खंभेणं मूले तिण्णि जोअणसहस्साई एगं च वाव जोअणसयं किं चि विसेसाहिअंपरिक्खे वेणं मज्झे दो जोअणसहस्साई तिण्णि य वावत्तरे जो अणसए किं चि विसेसाहि परिक्खेवेणं उवरि एगं जोअणसहस्सं पंच य एकासीए जोअणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं मूले वित्थिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पिंतणुआए जमगसंठाणसंठिआ सव्वकणगामया अच्छा सण्हा पत्तेअं पत्तेअं पउमवरवेइआ परिक्खित्ता पत्तेअं पत्तेअं वणसंडा परिक्खित्ता, ताओ णं पउमवरवेइआओ दो गाउआइं उठें उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं वेइआवणसंडवण्णओ भाणिअव्वो / तेसि णं जमगपव्वयाणिं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे पण्णत्ते० जाव तेसिणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं दुवे पासायवडें सगा पण्ण-त्ता। ते णं पासायवडेंसगा वावडिं जोअणाइं अद्धजोअणं च उड्ढे उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोअणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं पासायवण्णओ भाणिअव्वो, सीहासणा सपरिवारा० जाव एत्थ णं जमगाणं देवाणं सोलसण्हआयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। सेकेण?णं भंते ! एवं वुचइजमगाय पव्वया, जमगाय पव्वया ? गोअमा! जमगपव्वएसुणं तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे खुड्डा खुड्डियासु वावीसु० जाव विलपंतियासु बहवे उप्पलाइं० जाव जमगप्पभाइंजमगबण्णाभाईजमगा य, एत्थ दुवे देवा महिड्डिया, तेणं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं, जाव भुंजमाणा विहरंति। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुचइजमगपव्वया जमगपव्वया, अदुत्तरं चणं सासए णामधिज्जे०जाव जमगपव्वया जमगपव्वया / कहि णं भंते ! जमगाणं देवाणं जमगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अण्णम्मि जंबूद्दीवे दीवे वारस जोअणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णताओ, वारस जोअणसहस्साई आयामविक्खं भेणं सत्ततीसं जोअणसहस्साई णव य अडयाले जोअणसए किं चि विसेसाहिए परिक्खे वेणं पत्तेअं पत्ते पायारप-रिक्खेत्ता, ते णं पागारासत्त तीसंजोअणाइंअद्धजोअणं च उड्डं उच्चत्तेणं मूले अद्धतेरसजोअणाई विक्खंभेणं मज्झे छस्सकोसाइंजोअणाई विक्खंभेणं उवरिं तिण्णि सअद्धकोसाई जोअणाई विक्खंभेणं भूले वित्थिण्णा मज्झे संखित्ताउप्तिणुआ बाहिं वट्टा अंते चउरंसा सव्वरयणामया अच्छा, ते णं पागारा
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________________ जमग 1364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमग णाणामणिपंचवण्णेहिं कविसीसएहिं उवसोहिआ / तं जहा अणेगखंभसयसण्णिविट्ठा सभावण्णओ ! तासि णं सभाग किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहि, ते णं कविसीसगा अद्धकोसं सुहम्माणं तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता। तेणं दारा दो जोअणाई आयामेणं देसूर्ण अद्धकोसं उड्डे उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं जोअणं विक्खंभेणं तावइअं चेव पवेसेणं सेआ बाहल्लेणं सव्वमणिमया अच्छा, जमिगाणं रायहाणीणं एगमेगाए वण्णओ, जाव वणमाला। तेसि णं दाराणं पुरओ पत्तेअं पत्ते बाहाए पणवीसं पणवीसं दारसए पण्णत्ते / ते णं दारा वावडिं तओ मुहमंडवा पण्णत्ता, ते णं मुहमंडवा अद्धतेरस जोअणाई जोअणाई अद्धजोअणंच उड्ढे उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोअणाई कोसं आयामेणं छस्सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं साइरेगाई दो च विक्खंभेणं तावइअंचेव पवेसेणं सेआ वरकणकथूभिए, एवं जो अणाइ उद्धं उच्चत्तेण जाव दारा भूमिभागा य, रायप्पसे णइज्जविमाण-वत्तव्वयाए दारवण्णओ० जाव पेच्छाघरमंडवाणं तं चेव पमाणं भूमिभागोमणिपेढियाओ, ताओ अट्ठमंगलगाई ति, जमियाणं रायहाणीणं चउद्दिसिं पंच पंच णं मणिपेढियाओ जोअणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोअणं जोअणसए आवाहाए चत्तारि वणसंडा / पण्णत्ता / तं जहा बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ सीहासणा भाणिअव्वा / तेसि पं असोगवणे, सत्तिवण्णवणे, चंपगवणे, चूअवणे / ते णं वणसंडा पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ मणिपेढिआओ पण्णत्ता / ताओ पं साइरेगाइं बारस जोअण-सहस्साई आयामेणं पंच जोअणसया मणिपेदि आओ दो जोअणाई आयामविक्खंभेणं जो अण विक्खं भेणं पत्ते अं पत्तेअं पागारपरिक्खित्ता किण्हा बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ। तासि णं उप्पि पत्तेअं पत्तेअंतओ वणसंडवण्णओ भूमिओ पासायवडें सगा य भाणिअव्वा, थूभा, ते णं थूभा दो जोअणाई उड्ढे उच्चत्तेणं दो जोअणाई जमिगाणं रायहाणी अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, आयामविक्खंभेणं सेआय संखदल० जाव अट्ठट्ठमंगलया। तेसि णं थूभाणं चउद्दिसिं चत्तारि मणिपे ढियाओ पण्णवण्णओ त्ति / तेसि णं बहु-समरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थणं दुवे उवयारियालेणा पण्ण-त्ता / बारस त्ताओ / ताओ णं मणिपेदिआओ जोअणं आयामविक्खंभेणं अद्धजो अणं बाहल्लेणं जिणपडि माओ वत्तवाओ। जोअणसयाई आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोअणसहस्साई सत्त चेइअरुक्खाणं मणिपेदिआओदो जोअणाई आयाम-विक्खंभेणं य पंचाणउए जोअणसए परिक्खेवेणं अद्धकोसं च बाहल्लेणं जोअणं बाहल्लेणं चेइअरुक्खवण्णओ, तेसिणं चेइअरुक्खाणं सव्वजंबूणयामया अच्छा पत्ते अं पत्ते अं पउमवरवेइआ पुरओ तओ मणिपे ढि आओ पण्णत्ताओ / ताओ णं परिक्खित्ता, पत्तेअं पत्ते वणसंडवण्णओ भाणिअव्वो, मणिपे ढि आओ जो अणं आयामविक्खं भेणं अद्धजोअणं तिसोवाण पडिरूवगा तोरणा चउद्दिसिं भूमिभागो अ भाणि बाहल्लेणं, तासिणं उप्पिं पत्तेअंपत्तेअंमहिंदज्झया, पण्णता, अव्वो / तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे पासायवडेंसए ते णं अट्ठ महिंदज्झया अट्ठमाइं जोअणाई उड्ढे उचत्तेणं पण्णत्ते, वावडिंजोअणाई अद्धजोअणंच उड्ढे उच्चत्तेणं इकतीसं अद्धकोसं उव्वेहेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं वइरामयवट्टवण्णओ, जोअणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं वण्णओ, उल्लोआ चेइआ वणसंडा तिसोवाणतोरणा य भाणिअव्या, तासिणं सभाणं भूमिभागा सीहासणा सपरिवारा, एवं पासायपंतीओ वि। तत्थ सुहम्माणं छच मणोगुलिआसाहस्सीओ पण्ण-त्ताओ। तं जहापढमा पंतीते णं पासायवडेंसगा एकतीसं जोअणाई कोसं च पुरच्छिमेणं दो साहस्सीओ पण्णत्ताओ, पञ्चच्छिमेणं दो उड्ळ उच्चत्तेणं साइरेगाइं अद्धसोलस जो अणाई साहस्सीओ, दक्खिणेणं एगासाहस्सी, उत्तरेणं एगा० जाव दामा आयामविक्खंभेणं / विइअपासायपंती-ते णं पासायवडेंसया चिट्ठति / एवं गोवाणसिआओ णवरं, धूवघडिआओ, तासिणं साइरेगाइं अद्धसोलसजोअणाई उड़े उच्चत्तेणं साइरेगाई सुहम्माणं सभाणं अंते बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / अद्धट्ठमाई जोअणाई आया-मविक्खंभेणं / तइअपासायपंती- मणिपेदि आ दो जो अणाई आयामविक्खं भेणं, जो अणं ते णं पासायवडेंसया साइरेगाई अट्ठमाइं जोअणाई उड्ढे | बाहल्लेणं, तासि णं मणिपेढिआणं उप्पि माणवए चेइअखंभे उच्चत्तेणं, साइरेगाइं अट्ठजो अणाई आयामविक्खं भेणं, महिंदज्झयप्पमाणे उवरि छक्कोसे उग्गाहित्ता हिट्ठा छक्कोसे वण्णओ-सीहासणा सपरिवारा। तेसिणं मूलपासायवडिंसयाणं वज्जित्ता जिणसकहाओ पण्णत्ताओ / माणवगस्स पु-ट्वेणं उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, एत्थ णं जमगाणं देवाणं सभाओ | सीहासणा सपरिवारा, पचच्छिमेणं सयणिञ्जावण्णओ, सुहम्माओ पण्णत्ताओ, अद्धतेरस जोअणाई आयामेणं / सयणिजाणं उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए खुडगमहिंदज्झया मणिछस्सकोसाईजोअणाई विक्खंभेणं णव जोअणाइं उद्धं उच्चत्तेणं / पेढिआविहूणा महिंदज्झयप्पमाणा, तेसिं अवरेणं चोप्फला 5
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________________ जमग 1365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमग पहरणकोसा, तत्थ णं बहवे फलिहरयण-पामुक्खा० जाव चिट्ठति / सुहम्माणं उपि अट्ठट्ठमंगलगा, तासि णं उत्तरपुरच्छिमेणं, णवरं इमंणाणत्तं, एतेसिणं बहु-मज्झदेसभाए पत्ते पत्तेअं मणिपेदिआओ दो जोअणाई आयामविक्खंभेणं जोअणं बाहल्लेणं, तासिं उप्पि पत्ते पत्तेअं देवच्छंदया / पण्णत्ता। दो जोअणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई दो जोअणाई उड्ढे उच्चत्तेणं सव्वरयणामया जिणपडिमावण्णओ० जाव धूव-कडुच्छगा, एवं अवसेसाण वि सभाणं० जाव उववायसभाए सयणिजंदहओ अ अभिसेअसभाए बहुआभिसिक्के भंडे अलंकारिअसभाएसु बहु अलं-कारिअभंडे चिट्ठइ ववसायसभासु पुत्थयरयणा-णंदापुक्खरिणीओ वलिपेढा दो जोअणाई आया-मविक्खंभेणं जोअणं बाहल्लेणं० जाव त्ति। "उववाओ संकप्पो, अभिसेअं विहूसणा य ववसाओ। अचणिअ सुधम्मगमो, जहा य परिचारणा इड्डी / / 1 / / जावइयम्मि पमाणे, विहुति जमगाओं णीलवंताओ। तावइअर्मतरं खलु, जमगदहाणं दहाणं च ॥शा "कहि णं' इत्यादि। क्व भदन्त ! उत्तरकुरुषु यमको नाम द्वो पर्वती प्रज्ञप्ता ? गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणा-त्याचरमान्तात्, इत्यत्र दाक्षिणात्य चरमान्तम् आरभ्येति ज्ञेयं, ल्यबलोपे पञ्चमी / दाक्षिणात्याचरमान्तादारभ्यार्वाक दक्षिणाभिमुखमित्यर्थः / अष्टो योजनशतानि तु त्रिंशदधिकानि चतुरश्व सप्त भागान् योजनस्याबाधया, अपान्तराले कृत्वेति शेषः / शीताया महानद्या उभयोः कूलयोः एकः पूर्वकूल, एकः पश्चिमकूले इत्यर्थः। अत्रान्तरे यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्ती, एक योजनसहस्रमुवोच्चत्वेन, अर्द्धतृतीयानि योजनशतान्युद्वेधेन उच्छ्यचतुर्थाशस्य भूम्यवगाहात्, मूले योजनसहरमायामविष्कम्भाभ्यां वृत्ताकारत्वात, मध्ये भूतलतः पञ्चयोजनशतातिक्रमेऽर्हृष्टमानियोजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्याम्, उपरि सहस्रयोजनातिक्रमे पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्या, मूले त्रीणि योजनसहस्राणि, एक च योजनशतं द्वापश्यधिक किञ्चिद्विशेषाधिक, किं कि-यत्कलामित्यर्थः / परिक्षेपेण, एवं मध्यपरिधिरुपरितनपरिधिश्च स्वयमभ्यूह्यो, मूले विस्तीर्णो मध्ये संक्षिप्तावुपरितनुकौ यमको यमलजातौ भ्रातरो तयोर्यत् संस्थानं तेन संस्थितौ, परस्परं सदृशसंस्थानावित्यर्थः / अथवायामका नाम शकुनिविशेषात् संस्थानसंस्थित्तौ संस्थानं चानयोर्मूलतः प्रारभ्य संक्षिप्तसंक्षिप्तप्रमाणत्वेन गोपुच्छस्येव बोध्यं, सर्वात्मना कनकगया, शेषं व्यक्तम, अष्टादशताद्योपत्तिरेवम्- नीलवद्वर्षधरस्य यमकयोश्चान्तरमेक यमकं, तयोः प्रथमहस्य च द्वितीय, प्रथम-हृदस्य द्वितीयहूदस्य च तृतीय, द्वितीयहदस्य तृतीयहृदस्य चतुर्थ, तृतीयहृदस्य चतुर्थहदस्य पञ्चम, चतुर्थहदस्य पञ्चमहदस्य षष्ठं पञ्चमहृदस्य च वक्षस्कारगिरिपर्यन्तस्य च सप्तमम् / एतानि च सप्ताप्यन्तराणि समप्रमाणानि, ततश्च कुरुविष्कम्भात् योजन 11852 कला 2. इत्येवंरूपात् योजनसहस्रायामयोर्यमकयोः योजन सहस्रायामकं तावत्प्रमाणायामानां पञ्चानां हृदानां च योजनसहस्रमेकम्, उभयोमर्मीलने / योजनसहस्रषटकं शोध्यते च जातं योजन 5842 कला 2, ततः / सप्तभिगि हृते 834 / 4, यच्चावशिष्टं कुरुसत्कं कलाद्वयं तदल्पत्वान्न विवक्षितमिति। अत्रैवानन्तरोक्तवेदिकावनखण्डमप्रमाणाद्याह- "ताओ गं'' इत्यादि व्यक्तम्। संप्रत्येतयोर्यदस्ति तदाह- "तेसिणं' इत्यादि। तयोर्यमकपर्वतयोरुपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः। अत्र पूर्वोक्तः सर्वो भूभागवर्णक उन्नेतव्यः / कियत्पर्यन्तमित्याह- यावत्तयोर्बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे द्वौ प्रासादावतंसको प्रज्ञप्तौ / अथ तयोरुचत्वाद्याह- "ते णं" इत्यादि निरवशेष विजयदेवप्रासादसिंहासनादिव्यवस्थितिसूत्र वद्धक्तव्यं, नवरं यमकदेवाभिलापेनेति / अथानयो मार्थ प्रश्रयन्नाह- "से केणं" इत्यादि प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् / उत्तरसूत्रे यमकपर्वतयोस्तत्र देशे तत्र प्रदेशे क्षुद्रक्षुद्रिकासु यावद्विलपङ्क्षुि बहुन्युत्पलानि / अत्र यावत्पदात् कुमुदादीनि वाध्यानि, तथा यमकप्रभाणीति परिग्रहः तत्र यमको यमकपर्वतस्तत् प्रभाणि, तदाकाराणीत्यर्थः / यमकवर्णाभानि, यमकवर्णसदृशवर्णानीत्यर्थः / यदि वायमकाभिधानौ द्वौ देवी महर्द्धिको, अत्र परिवसतः तेन यमकाविति, शेषं प्राग्वत् / अथानयो राजधानी प्रश्रावसर:- "कहिणं" इत्यादि। क भदन्त ! यमकयोर्देवयोर्यमिकानामराजधान्यौ प्रज्ञप्ते ? गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेणाऽन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादशयोजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे यमकयोर्दैवयोर्यमिके नाम राजधान्यौ प्रजप्ते, द्वादशयोजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां सप्तत्रि-शद्योजनसहस्राणि नव च योजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपण प्रत्येक प्रत्येकं वे अपि प्राकारपरिक्षिप्ते / कीदृशौ तौ प्राकाराविति ? तत्स्वरूपमाह- "ते णं पागारा'' इत्यादि / तौ प्राकारौ सप्तत्रिंशद्योजनानि योजना सहितानिऊोचत्वेन मूले अर्द्ध त्रयोदशं योजनं येषु तान्यर्द्धत्रयोदशानियोजनानि विष्कम्भेण मध्ये पट् सक्रोशानियोजनानि विष्कम्भेण मूलविष्कम्भतो मध्यविष्कम्भरयार्द्धमानत्वात्, उपरित्रीणि सार्धनि क्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण, अस्याऽपि मध्यविष्कम्भतोऽर्द्धमानत्वात्। अत एव मूले विस्तीर्णावित्यादिपदत्रय विवृतप्रायम् , बहिर्वृतौ कोणा-वनुपलक्ष्यमाणत्वात्, अन्तश्चतुरस्रः उपलक्ष्यमाणकोणत्वात् / अथानयोः कपिशीर्षकवर्णकमाह- "ते णं पागारा णाणामणि' इत्यादि / तौ प्राकारौ नानामणीनां पद्मरागस्फटिकमरकताञ्जनादीनां पञ्च प्रकारा वर्णा येषु तानि यैः तथा तैः कपिशीर्षकैः प्राकारागैरुपशोभितौ / एतदेव विवृणोति-तद्यथा-कृष्ण विच्छुक्लैरिति / अथैतेषां कपिशीर्षकाणा-मुचत्वादिमानमाह - "ते ण इत्यादि निगदसिद्धम्। अथानयोः कियन्ति द्वाराणीत्याह "जमि-गाणं' इत्यादि / यमिकयो: राजधान्योर के कस्या बाहायां पावें पञ्चविंशत्यधिक 2 द्वारशतं प्रज्ञसम् / तानि द्वाराणि द्वाषष्टियोजनानि अयोजनं चो चत्वेन एकत्रिंशद्योजनानिक्रोशं च विष्कम्भेण तावदेव प्रवेशेन श्वेतानि वरकन-कस्तूपिकानि०, लाघवार्थमतिदेशमाह-एवं राजप्रश्रीये यद्विमानं सूर्याभनामक, तस्य वक्तव्यताया यो द्वारवर्णकः स इहापि ग्राह्यः / कि यत्पर्यन्तमित्याह -यावदष्टाष्टमङ्गलकानि, अत्रातिदिष्टमपि सूत्रं न लिखितं, विजयद्वारप्रकरणे सूत्रतोऽर्थतश्च लिखितत्वात्, अतिदिष्टत्वस्योभ-यत्रापि साम्याचेति।अर्थानयोबहिर्भाग वनखण्डवक्त व्यमाह- "जमियाणं'' इत्यादि / यमिकयो राजधा
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________________ जमग 1396 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमग न्योश्चतुर्दिशि, चतसृणां दिशां समाहारश्वतुर्दिक, तस्मिस्तथा, पूर्वादिष्वित्यर्थः / पञ्च पञ्च योजनशतान्यबाधयाऽपान्तराले कृत्वे ति गम्यते / चत्वारि वनखण्डानि, प्रज्ञप्तानि / तद्यथा-अशोकवनं, सप्तपर्णवनं, चम्पकवनम्, आम्रवनमिति। अथैतेषामायामाद्याह'' तेणं वणसंडा" इत्यादि / ते च वनखण्डाः सातिरेकाणि द्वादश योजनसहस्राणि आयामेन पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेण प्रत्येक प्रत्येक प्राकारैः परिक्षिप्ताः, कृष्णा इति उपलक्षितो जम्बूद्वीपपद्मवरवेदिका प्रकरणलिखितः पूर्णो वनखण्डवर्णको, भूमयः, प्रासादावतंसकाश्च भणितव्याः। भूमयश्चैवम्- "तेसि णं वनसंडाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता / से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा० जाव णाणाविहपंचवण्णे हिं मणीहिं अईवउवसोभिआ'' इति / प्रासादसूत्रमप्येवम्-"तेसिणं वणसंडाणं बहुमज्झदसभागेपत्तेअंपत्तेअं पासायव.सए पण्णत्ते / ते णं पासायवडेंसया वावडिं जोअणाई अद्धजोअणं च उट्ठ उचतेणं इकतीसं जोअणाई कोसं च विक्खंभेण अब्भुग्गयमूसिअपहसिआइ य तहा बहुसमरमणिज्जे भूमिभाए उल्लोओ सीहासणा सपरिवारा, तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिआ० जाव पलिओवमट्टिईआ परिवसति / तं जहा--असोए, सत्तिवण्णे, चंपए, चूअवणे' इति। अत्राशोक-वनप्रासादेऽशोकवननामा देवः, एवं त्रिष्वपि * तन्नामा देवः परिवसतीत्यर्थः / अथानयोरन्तभगिवर्णकमाह''जमिगाणं'' इत्यादि / यमिको राजधान्यो रन्तर्मध्यभागे बहुसमरणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः / वर्णक इति सूत्रगतपदेन"आलिंगपुक्खरेइ वा० जाव पंचवण्णे हिं मणीहि उवसोभिए वणसंडविलण्णो० जाय बहवे देवा य देवीओ य आसायंति० जाव विहरति'' इत्यन्तो ग्राह्यः / अत्र च उपकारि-कालंयनसूत्रमादर्शेष्वदृश्यमानमपि राजप्रश्रीयसूर्याभविमानव-र्ण के च दृश्यमानत्वात् "तिणि जोअणसहस्साई सत्तया पंचाणउए जोअणसए परिक्खेवेणं" इत्यादिसूत्रस्यान्यथानुपपत्तेश्च जीवाभिगमतो लिख्यते, आदर्शेष्वदृश्यमानत्वं च लेखकवैगुण्यादेवेति / तद्यथा- "तेसि ण'' इत्यादि। तेषां बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे, अत्रान्तरे द्वे उपकारिकालयने प्रज्ञप्ते, उपकरोत्युपष्टभ्नाति प्रासा-दावतंसकादीनीत्युपकारिका राजधानी प्रभुसत्कप्रासा-दावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र त्वियमुपकार्योपकारिकेति प्रसिद्धा / उक्तं च-''गृहस्थानां स्मृता राज्ञामुप-कार्योपकारिका' / इति सालपनमिव गृहमिव ते च प्रतिराजधानीभव इति द्वे उक्ते, द्वादश योजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनसहखाणि सप्तचयोजनशतानि पञ्चनवत्यधिकानि परिक्षेपेण अर्द्धक्रोशं धनुःसहस्रपरिमाणं बाहल्येन सर्वात्मना जाम्बूनदमये अच्छे प्रत्येकं प्रत्येक प्रत्युपकारिकालयने पद्मवरवेदिके परिक्षिप्ते, प्रत्येक प्रत्येकं वनखण्डवर्णको भणितव्यः / स च जगतीगलपद्मवरवेदिकास्थवनखण्डानुसारेणेति, त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि आरोहावरोहमार्गस्थानि चतुर्दिशि पूर्वादिदिक्षु ज्ञेयानि, तोरणानि चतुर्दिशि भूमिभागश्च कारिकालयनमध्यगतो भणितव्यः / तत् सूत्राणि जीवाभिगमोपाङ्गगतानि क्रमेणैवम्-"सेणं वणसंडे देसूणाईजोअणाईचक्कवालविक्खंभेणं उवयारिआलयणसमए परिक्खेवेणं, तेसिणं उवयारिआलयणाणं चउदिसिं चत्तारि तिसोवाण पडिरूवगा पण्णत्ता / वण्णओ, तेसि णं तिसोवाण पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअंपत्तेअं तोरणा पण्णत्ता। वण्णओ, तेसि ण उवयारियालयणाणं उप्पि बहुसमरगणिज्जभूमिभागे पण्णत्ते० जाव मणीहिं उवसोभिए' इति / अत्र व्याख्या सुगमा / अथ यमकदेवयोर्मूलप्रासादस्वरूपमाह- "तस्स णं" इत्यादि / तस्योपकारिकालयनस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्रान्तरे एकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः। द्वाषष्टियोजनान्यद्धयोजनं चोर्दोच्चत्वेन, एकत्रिंशद्योजनानिक्रोश चायाम-विष्कम्भाभ्यां वर्णको विजयप्रासादस्येव वाच्यः। उल्लोचावुपरि भागे भूमिभागावधोभागो सिंहासने, सपरिवारो सामानिकादिपरिवारभद्रासनव्यवस्था सहिते, यचात्र उपकारिकालयनस्य प्रासादावतंसकस्य चैकवचनेन विवक्षातावद् द्विवचनेन विवक्षा, तत्सूत्रकाराणां विचित्रप्रवृत्तिकत्वादिति। अथास्य परि-वारप्रासादप्ररूपणमाह- "एवं पासायपंतीओ वि' इत्यादि / एवं मूलप्रासादा-वतंसकानुसारेण परिवारप्रासादपतयो ज्ञातव्याः जीवाभिगमतः, पक्तयश्चात्र मूलप्रासादतश्चतुर्दिक्षु पद्मानामिव परिक्षेपरूपा अवगन्तव्याः, न पुनः सूचि श्रेणिरूपाः / तत्र प्रथमप्रासादपक्तिपाठ एवम्- “से गं पासायवडेंसए अण्णेहिं चउहिं तद चत्तपमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसएहि सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते ' स प्रासादावतंसकोऽन्यैश्चतुर्भिः प्रासादाक्तंसकैस्तदोचत्व प्रमाणमात्रैः, अत्रोचत्वशब्देनोत्सेधो गृह्यते, प्रमाणशब्देन च विष्कम्भायामः, तेन मूलप्रासादापेक्षया अझैचत्वविष्कम्भायामैरित्यर्थः। सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः / एषामुच्चत्वादिक तु साक्षात् सूत्रकृदेवाह- एक-त्रिंशद्योजनानि क्रोशं चोचत्वेन, सार्द्धद्वाषष्टियोजनानामर्द्ध एतावत एव लाभात्। सातिरेकाण्यर्द्धक्रोशाधिकानि, अर्द्धषोडशानि सार्द्धपञ्चदशयोजननानि विष्कम्भायामाभ्यामिति / अथ द्वितीयप्रासाद पङ्क्तिः / तत्पाठश्चैवम्- "ते णं पासायव.सया अण्णेहिं चउहिं तदभुच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसएहिं सएहिं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता" इति। ते प्रथमपङ्क्तिगताश्चत्वारः प्रासादाः प्रत्येकान्यैश्चतुर्भिस्तदोच्चत्वविष्कम्भायामैर्मूलप्रासादापेक्षया चतुर्भागप्रमाणैः प्रासादैः परिक्षिप्ताः अत्र एवैते षोडश प्रासादाः सर्वसङ्ख्यया स्युः / एषामुचत्वादिकं तु साक्षादेव सूत्रकृदाहते प्रासादाः सातिरेकाणि अर्द्धक्रोशाधिकानि सार्द्ध-पञ्चदशयोजनान्युच्चत्वे न सातिरेकाणि क्रोशक्रोश-चतुर्थांशाधिकानि, अष्टि-मयोजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामिति / अथ तृतीया पङ्क्तिः / तत्सूत्रमेवम्- "तेणं पासायवडेंसया अण्णेहिं चउहिं तदद्धचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता'' ते द्वितीयपरिधिस्थाः षोडश प्रासादाः प्रत्येकमन्यैश्चतुभिस्तदों कात्वविष्कम्भायामै मूलप्रासादा-पेक्षया- अष्टांश प्रमाणोचत्वविष्कम्भायामैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः / अत एवैते तृतीयपक्तिगताश्चतुषष्टि प्रासादाः / एतेषामुचत्वादि प्रमाणं सूत्रकृदाहते चतुःषष्टिरपि प्रासादाः सातिरेकाण्यष्टिमयोजनान्युश्चत्वेन, सातिरेकत्वं च प्राग्वत् / अष्टिानि अर्द्ध-तृतीयानि सातिरेकाणि सार्द्धक्रोशाष्टांशाधिकानि विष्कम्भायामाभ्याम् / एषां सर्वेषां वर्णकःसिंहासनानि च सपरिवाराणि प्राग्वत्। अत्र च पङ्क्तिप्रासादेषु सिंहासन प्रत्येकमेकं, मूल प्रासादे तु मूलसिंहासनपरिवारोपेतमित्यादिना क्षेत्र-समासवृत्तौ श्रीमलयगिरिपादाः / तथा प्रथमतृतीयपक्तया मूलप्रासादे सपरिवारे भद्रासनानि, द्वितीयपङ्क्तौ च परिवारे पद्मासनानि जीवाभिगमोपाङ्ग इत्यादि विसंवादसमाधानं बहुश्रुतगम्यम्। यद्यपि जीवाभिगमे विजयदेवप्रकरणे, तथा श्रीभगवत्यङ्ग वृत्ती चरमप्रकरणे, प्रासादपङ्क्तिचतुष्क, तथाऽप्यत्र यमकाधिकारे
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________________ जमग 1397 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमग 16 पङ्क्तित्रयं बोध्यम्। पङ्क्तित्रय-प्रासादसंग्रहश्चैवम् मूलप्रासादेन सह सर्वसंख्यया पञ्चाशीतिः प्रासादाः 85 / अथा-त्र सभा पञ्चकं प्रपञ्चयितुकामः सुधर्मसभास्वरूपं निरूपयति- "तेसिं णं" इत्यादि / तयोर्मूलप्रासादाव तंसकयोरुत्तरपूर्व-स्यामीशानकोणेऽतस्मिन् भागे मूल प्रा. 1 यमकयोर्दैवयोर्योग्ये सुधर्मनामे सभे प्रज्ञप्ते / सुधर्मासब सं. 85 शब्दार्थस्तुसुष्टु शोभनो धर्मो देवानां माणवकस्तम्भवर्तिजिनसक्थ्याशातनाभीरुकत्वेन देवाङ्ग नाभोगविरतिपरिणामरूपो यस्यांसा तथा / वस्तुतस्तुसुष्टु शोभनो धर्मो राजधर्मः, समन्तुनिर्मन्तुनिग्रहानुग्रहस्वरूपो यस्यां सा तथा / ते चार्द्धत्रयोदशयोजनान्यायामेन सक्रोशानिषट्योजनानि विष्कम्भेण नवयोजनान्यू चत्वेन। अत्र लाघवार्थ सभावर्णक सूत्रमतिदिशति-अनेक स्तम्भशत सन्निविष्टत्यादिपदसूचितः सभावर्णको जीवाभिगमोक्तो ज्ञेयः। स चैवम्"अणेगखंभसयसण्णिविट्ठाओ अब्भुग्गयसुकयवइरवेइआतोरणवररइअसालभंजिआसुसिलिट्टविसिट्ठ संठिअपसत्थवेरुलिअविमलखंभाओणाणामणिकणगरयणखचिअउज्जलबहुसमसुविभत्तभूमिभागाओ ईहामिगउसभतुरगणगरमगरविहगबालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजर वणलयपउगलयभत्तिचित्तओ खंभुग्गय-वइरवेइ-आपरगियाभिरामाओ विजाहरजमलजुअल-जत्तजुत्ताओ विव अचासहस्समालणीआओ रूवणसहस्सकलिआओ भिसमाणीओ निम्भिसमाणीओ चवखुल्लोअणलेसाओ सुहफासाओ सस्सिरीअसुरूवाओ कंचणमणिरयणथूमिअग्गाओणाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडिअअग्गसिहराओ धवलाओ भरीइकवयविणिम्मुअंतीओ लाउल्लोइअमहिआओ गोसीससरससुरभिरतचंदणददरदिण्ण पंचंगुलितलाओ उवचिअवंदणकलसाओ वंदणघडसुकयतोरण पडिदुवारदेसभागाओ आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारिअनल्लकलावाओ पंचवण्ण-सरससु-रहिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिआओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवडज्झंतमघमघंतगंधधूआभिरामाओ सुगंधवरगंधिआओ गंधिवट्टिभूआओ अच्छरगणसंघविकिण्णाओ दिव्वतुडिअसद्दसंपण्णदिआओ सव्वरयणामईओ अच्छाओ० जाव पडिरूवाओ' इति / अत्र व्याख्या तु सिद्धायतनतोरणादिवर्णकषु उञ्छवृत्तिन्यायेन सुलभेतिन पुनरुच्यते, नवरम्अप्सरोगणानाम् अप्सरः परिवाराणां यः संघः समुदायस्तेन सम्यक् रमणीयतया विकीर्णा आकीर्णा दिव्यानां त्रुटितानामातोद्यानां ये शब्दास्तेः सम्यक्श्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षण नदिता शब्दवती, शेष प्राग्वत् / अथास्तां कति द्वाराणीत्याह- "तासि ण सभाणं" इत्यादि। तयोः सभयोः सुधर्मयोस्विदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, पश्चिमायां द्वाराभा-वात् / तानि द्वाराणि प्रत्येक द्वे योजने ऊोचत्वेन योजनमेकं प्रवेशेन, श्वेता इत्यादिपदेन सूचितः परिपूर्णो द्वारवर्णको वाच्यो यावद्वनमाला। अथ मुखमण्डपपरिषनिरूपणामाह- "तेसिणंदाराण'' इत्यादि / तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयो मुखमण्डपाः प्रज्ञप्ताः सभाद्वाराग्रवर्तिनो मण्डपा इत्यर्थः / ते च मण्डपा अर्द्धत्रयोदशयोजनान्यायामेन षट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण सातिरेके द्वे योजने ऊर्बोचत्वेन / एतेषामपि "अणेगखंभसयसण्णिविट्ठा'' इत्यादिवर्णनं सुधर्मासभा इव निरवशेषं द्रष्टव्यं यावहाराणां भूमिभागानां च वर्णनं, यद्यप्यत्र द्वारान्तमेव सभावर्णनं, तदतिदेशेन मुखमण्डपसूत्रेऽपि तावन्मात्रमे वायाति, तथापि जीवाभिगमादिषु मुखमण्डपवर्ण के भूमिभागवर्णकस्य दृष्टत्वात् अत्रातिदेशः / अथ प्रेक्षामण्डपवर्णक लाघवादाह- "पेच्छाघरमंडवाणं" इत्यादि / प्रेक्षागृहमण्डपानां रङ्गमण्डपानां तदेव मुखमण्डपोक्तमेव प्रमाणं भूमिभाग इति पदेन सर्व द्वारादिकं भूमिभागपर्यन्तं वाच्यम् / एषु च मणिपीठिका वाच्या / एतावदर्थसूचकमिदं सूत्रम्- "तेसिणं मुहमंडवाणं पुरओ पत्तेअंपत्तेअं पेच्छाघरमंडवा पण्णता, ते णं पेच्छाघरमंडवा अद्धतेरसं जोअणाई आयामेण० जाव दो जोअणाई उड्ढें उच्चत्तेण० जाव मणिफासा, तेसिणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेअंपत्तेअंवइरामया अक्खाड्या पण्णत्ता, तेसिणं बहुमज्झदेसभाएपत्तेअंपत्तेअंमणिपेढिआओ पण्णत्ताओ ति" उक्तप्रायं, नवरमक्षपाटः चतुरस्राकारो मणिपीठिकाधार विशेषः। अस्याः प्रमाणाद्यर्थमाह-"ताओणं मणिपेढिआओ जोअणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोअण बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ सीहासणा भाणिअव्वा'' इति। अत्र सिंहासनानि भणितव्यानि, सपरिवाराणीत्यर्थः। शेषव्यक्तम्। अथ स्तूपावसर:- "तेसि ण" इत्यादि / तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतो मणिपीठिकाः, अत्र बहुवचनं न प्राकृतशैलीभवं, यथा द्विवचनस्थाने बहुवचनं 'हत्था पाया" इत्यादिषु, किंतु बहुत्वविवक्षार्थ, तेनात्र तिसृषु प्रेक्षा-गृहमण्डपद्वारदिक्षु एकैकसद्भावात् तिस्रो ग्राह्याः, अन्यत्र जीवाभिगमादिषु तथादर्शनात् / अथैतासां मानमाह- "ताओ णं'' इत्यादि कण्ठ्यम्, यद्यप्येतत्सूत्रादशेषु "जोअणं आया-मविक्खभेण अद्धजोअण बाहल्लेणं" इति पाठो दृश्यते, तथाऽपि जीवाभिगमपाठदृष्टत्वेन राजप्रश्नीयादिषु प्रेक्षामण्डपमणिपीठिकातः स्तूपमणिपीठिकाया द्विगुणमानत्वेन दृष्टत्वाचायं सम्यक् पाठः संभाव्यते। आदर्शेषु लिपिप्रमादस्तु सुप्रसिद्ध एव / अथ स्तूपवर्णनायाह- "तासि ण'' इत्यादि / तासा मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येकं त्रयः स्तूपाः प्रज्ञप्ताः / जीवाभिगमादौ तु चैत्यस्तूपा इति योजने' ऊर्बोच्चत्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्या, व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति देशोने द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां ग्राह्यः, अन्यथा मणिपी-ठिकास्तूपयोरभेद एव स्यात्। जीवाभिगमादौ तु सातिरेके द्वे योजने उच्चत्वमित्यर्थः। तेच श्वेताः, श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति-(संखदल त्ति) यावत्करणात् - "संखदलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफे णययनिअरप्पगासा सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा'' इति प्राग्वत्। कियद् दूर ग्राह्यमित्याह-याव-दष्टाष्टमङ्गलकानीति / अथ तचतुर्दिशि यदस्ति तदाह-"तेसिणंथूभाण" इत्यादि। तेषां स्तूपानां प्रत्येकं चतुर्दिक्षुचतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञाप्ताः / ताश्च मणिपीठिका योजनमाया-मविष्कम्भेण अर्द्धयोजनं बाहल्येन अत्र जिनप्रतिमावक्तव्याः, ततसूत्रं चेदम्- "तासि ण मणिपीढिआणं उप्पि पत्ते अं पत्ते अं चत्तारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहप्पमाणमेत्ताओ पलिअंकणिसण्णाओ थूभाभिमुहीओ सण्णिक्खित्ताओ चिट्ठति / तं जहा- उसभा वद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा'' इति / एतद्वर्णनादिकं वैताढ्ये सिद्धायतनाधिकारे प्रागुक्तम्। गताः स्तूपाः। 'चेइअक्खाण'' इत्यादि व्यक्तम् / अत्र चैत्य-वृक्षवर्णको जीवाभिगमोक्तो वाच्यः। स चायम्-"तेसिणंचेइअरुक्खाणं अयमेआरूवे वण्णावासे पण्णत्ते / तं जहावइरमूलरययसुपइट्ठिअविडिमारिट्ठामय
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________________ जमग 1368 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमग कंदा वेरुलिअरुइलखंधा सुजायवरजायरूव-पढ़म-विसालसाला णाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलिअरत्ततवणिजपत्तवें टा जंबूणयरत्तमउअसुकुमालपवाल-पल्लवंकुरग्गधरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफल-भरणमिअसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीआ सउज्जोआ अमयरससमरसफला अहिअनयणमण-विणव्वुइकरा पासादी आ० जाव पडिरूवा 4' इति / अत्र व्याख्या- तेषां चैत्यवृक्षाणामयतेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः। तद्यथा- 'वज्ररत्नमयानि मूलानि येषां तेवजमलाः तथा रजता रजतमया सुप्रतिष्ठिता विडिमा बहमध्यदेशभागे ऊर्द्ध-विनिर्गता शाखा येषां ते तथा / ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः / रिष्टरत्नमयः कन्दो येषां ते, तथा वैडूर्यरत्नमयो रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, सुजातं मूलद्रव्यशुद्धं वरं प्रधानं यजातरूपं रूप्यंतदात्मिकाः प्रथमिका मूलभूता विशाला शालाः शाखा येषां ते तथा, नानामणिरत्नात्मिका विविधाः शाखामूलशाखा विनिर्गतशाखाः प्रशाखा येषां ते तथा। तथा वैडूर्याणि वैडूर्यमयाणि पत्राणि येषां ते तथा। तथा तप्ततपनीयानि तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि येषां ते तथा। ततः पूर्ववत् पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः / जाम्बूनदा जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्तवर्णा मृदुसुकुमारा अत्यन्तकोमलाः प्रवाला ईषदुन्मीलितपत्रभावाः पल्लवजातपूर्ण-प्रथमपत्रभावरूपा वराकुराः प्रथममुद्भिद्यमानास्तदग्रान् धरन्ति ते तथा। विचित्रमणिरत्नमयानि सुरभीणि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेणं नमिता नामग्राहिताः शाखा येषां तेतथा, सती शोभना छाया येषां ते सच्छायाः, एवं सत्प्रभाः। अत एव सच्छ्रीकाः / तथा सोद्योताः मणिरत्नानामुयोतभावात्। अमृतरससमरसानि फलानि येषां ते तथा। अधिक नयनमनोनिवृतिकराः, शेषं प्राग्वत्। "ते णं चेइअरुक्खा अन्नहिं बहूहि तिलयलवयछत्तोक्ग सिरीससत्तिवण्णदहिवण्णलोहधवचंदणनीवकुडयकयंवपणसतालमालपिआलपियंगुपारावयरायरुक्खनंदिरुक्खे हिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता" इति / ते चैत्यवृक्षा अन्येबहुभिस्तिलकलवगछत्रोपगशिरीषसप्तपर्पदधिपर्णलोध्रधवचन्दननीपकुटजकदम्बपनसतालतमालप्रियालप्रियङ्गुपारापतराजवृक्षनन्दिवृक्षैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः। एते च वृक्षाः केचिन्नाम कोशतः केचिल्लोकतश्चावगन्तव्याः।"तेणं तिलया० जाव नंदिरुक्खा मूलवंतो कंदवंतो० जाव सुरम्मा' ते च तिलकादयो वृक्षा मूलवन्तः कन्दवन्त इत्यादि वृक्षवर्णनं प्रथमोपाङ्गतोऽवसेयं, यावत् सुरभ्या इति। "ते णं तिलया० जाव नंदिरुक्खा अन्नाहिं बहूहिं पउमलयाहि जाव सामलयाहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता !" ते च तिलकादयो वृक्षा अन्याभिर्बहुभिः पदालताभिर्यावच्छ्याभलताभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिताः। यावच्छब्दादत्र नागलताचम्पकलताद्या ग्राह्याः। "ताओ णं पउमलयाओ० जाव सामलयाओ निचं कुसुमिआओ० जाव पडिरूवाओ।" ताश्च पद्मलताद्या नित्य कुसुमिता इत्यादि लतावर्णनं यावत्प्रतिरूपाः " तेसि णं चेइअरुक्खाणं उप्पिं अट्ठमंगलया बहवे झया छत्ताइच्छत्ता'' तेषां चैत्य वृक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजाः छत्रातिच्छत्राणि इत्यादि चैत्यस्तूपकवक्तव्यम् / गताश्चैत्यवृक्षाः। अथ महेन्द्रध्वजावसर:- "तेसिणं चेइअरुक-खाणं' इत्यादि / तेषां चैत्यवृक्षाणां पुरतस्तिस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः / ताश्च मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भाभ्याम अर्द्धयोजनं बाहल्येन, "तासि उप्पि पत्तेअं" इत्यादि। तासा मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक प्रत्येकं महेन्द्रध्वजाः प्रज्ञप्ताः / ते चार्धाष्टमनि सार्द्धसप्तयोजनानि ऊौं चत्वेन अर्द्धक्रोश धनुःसहस्रमुद्वेधेनो चत्वेन तदेव बाहल्येन ''वइरामथवट्ट'' इति पाठोपलक्षित परिपूर्णो जीवाभिगमायुक्तवर्णको ग्राह्यः / स चायम् "वइरामयवट्टलट्ठसंठिअसुसिलिट्ठपरिघट्टमट्टसुपइडिआ अणे गवरपंचवण्णकुंडलीसहस्सपरिमंडि आभिरामा वाउर्दू अविजयवे जयंतीपडागा छत्ताइच्छरा-कलिआ तुंगा गगणतलमभिलंघमाणा सिहरा पासादीआ० जाव पडिरूवा'" इति। अत्र व्याख्यावजमयाः तथा वृत्तं वर्तुलं लष्ट मनोज्ञ संस्थितं संस्थानं येषां तेतथा, तथा सुश्लिष्टा यथा भवन्ति एवं परिघृष्टाः खरशाणपाषाणप्रतिमेव सुश्लिष्टपरिघृष्टाः, तथा मृष्टशः सुकुमारशाणया पाषाण प्रतिमेव तथा सुप्रतिष्ठिता मनागप्यचलनात् तथा अनेकैर्वरैः प्रधानैः पञ्चवर्णैः कुण्डलीनां लघुपताकाना सहनैः परिमण्डिताः सन्तोऽभिरामाः, शेषं प्राग्वत् / "ते सि णं महिंदज्झयाण उम्पि अट्ठमंगलयाझया छत्ताइच्छत्ता" इत्यादि सर्व तोरणवर्णक इव वाच्यं जीवाभिगमत इति। उक्ता मेहन्द्रध्वजाः / अथ पुष्करिण्यः / ताश्च- "चेइआवणसंड' इत्यादिपर्यन्तसूत्रेण संगृह्यते। तथाहि- "तेसिणं महिंदज्झयाणं पुरओ तिदिसिं तओ णंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ / अद्धतेरसजोअणाई आयामेवं छरसकोसाइं जोअणाई विक्खंभेण दस जोअणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणीवण्णओ, पत्ते पत्ते पउमवरवेइआपरिक्खित्ताओ पत्तेअं पत्तेअं वणसंडपरिक्खित्ताओ वण्णओ'। तथा 'तासि णं णंदापुक्खरिणीणं पत्तेअंपत्तेअंतिदिसि तओ तिसोवाण पडिरूवगा पण्णत्ता / तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णओ, तोरणवण्णओ अ भाणिअव्वो० जाव छत्ताइच्छत्ता'' इति / अत्र जगतीगतपुष्करिणीवत् सर्व वाच्यम्। अथ सुधर्मसभायां यदस्ति तदाह "तासि णं'' इत्यादि / तयोः सभयोः सुधर्मयोः षट् मनोगुलिकानां पीठिकानां सहस्राणि प्रज्ञाप्तानि। तथाहि-पूर्वस्या द्वे सहस्रे, पश्चिमायांद्वे सहसे, दक्षिणस्यामेकं सहस्रम्, उत्तरस्यामेकं सहस्रम्, "जाव दामा" इत्यत्र यावत्पदादिदं ग्राह्यम- "तासु णं मणोगुलिआसु बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता / तेसि णं सुवण्णरुप्पमएसु फलगेसु बहवे वइरामया णागदतगा पण्णत्ता / तेसु णं वइरामएसु नागदतएसु बहवे किण्हसुत्तवग्धारिअमल्ल-दामकलावा० जाव सुकिल्लसुत्तवग्धारिअमल्लदामकलावा तेणंदामा तवणिज्जलंबूसगा चिट्ठति'' इति सर्व विजयद्वारवद् वाच्यम्। अनन्तरोक्तं गोमानसिकासूत्रेऽतिदिशति-"एवं गोमाणसिआओ' इत्यादि / एवं मनोगुलिकान्यायेन गोमानस्यः शय्यारूपाः स्थानविशेषा वाच्याः, नवरं दामस्थाने धूपवर्णको वाच्यः। अथास्या एव भूभागवर्णकमाह- "तासि णं" इत्यादि। तयोः सुधर्मयोः सभयोः अन्तर्बहुसमरणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः / अत्र मणिवर्णादयो वाच्याः, उल्लोचाः पद्मलतादयोऽपि च चित्ररूपाः। अत्र विशेषतोयद्वक्तव्यं तदाह- "मणिपेढिआ'' इत्यादि। अत्र सुधर्मयोर्मध्यभागे प्रत्येक मणिपीठिका वाच्या, वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां, योजन बाहल्येन / "तासिणं" इत्यादि / तयोर्मणिपीठिकयोरुपरि प्रत्येक माणवकनाम्नि चेत्यस्तम्भमहेन्द्रध्वजसमाने प्रमाणतोऽष्टिमयोजनप्रमाणतोऽष्टिमयोजनप्रमाण इत्यर्थः / वर्णकतोऽपि महेन्द्रध्वजवत् उपरि
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________________ जमग 1366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमग षट् क्रोशानवग्राह्य, उप-रितनषट्क्रोशान् वर्जयित्वेत्यर्थः / अधस्तादपि षट् क्रोशान् वर्जयित्वा मध्येऽर्धपञ्चमेषु योजनेषु इति गम्यम् (जिणसकहाउ त्ति) जिनसक्थीनि जिनास्थीनीत्यन्तर्जातीयानां जिनदंष्ट्राग्रहणेऽनधिकृतत्वात् सौधर्मेशानचरमबलीन्द्राणामेव तद्ग्रहणात प्रज्ञप्तानीति, शेषो वर्णकश्चात्र जीवाभिगमोक्तो ज्ञेयः। स चायम्-"तस्स णं माणवगचेइअस्स खंभस्स उवरिंछकोसे ओगाहित्ता हिट्ठा विछक्कोसे वजित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोअणेसु, एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता / तेसु णं बहवे वइरामया णागदंतया पण्णत्ता / तेसु णं बहवे रययमया सिक्वागा पण्णत्ता / तेसु ण बहवे वइरामया गोलबट्टया समुग्गया पण्णत्ता, तेसु णं बहवे जिणसकहाओ सणिक्खित्ताओ चिट्ठति / जाओ णं जमगाणं देवाणं अन्नेसिं च बहूण देवाण य देवीण य अचिजाओ वंदणिज्जाओ पूअणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगल देवयं चेइ पञ्जुवासणिज्जाओ" इति। अत्र व्याख्या"तस्स णं'' इत्याद्यारभ्य "वजित्ता'' इति पर्यन्त प्रायः प्रस्तुतसूत्रे साक्षाद् दृष्टत्वादनन्तरमेव व्याख्यातम, मध्येऽर्द्ध पञ्चमेषु योजनेषु, अवशिष्टयोजनेष्वित्यर्थः / अत्रान्तरे बहूनि सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु फलकेषु बहवो वजमया नागदन्तकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि शिक्यकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु शिक्यकेषु बहवो वजमयाः गोलको वृत्तोपलस्तदवद् वृत्ताः समुद्गकाः प्रसिद्धाः प्रज्ञप्ताः, तेषु समुद्गकेषु बहूनि जिनसक्थीनि संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, यानि यमकयोर्देवयोरन्येषां च बहूनां यमकराजधानीवास्तव्यानां वाणमन्तराणा देवानां देवीनां च अर्चनीयानि चन्दनादिना, वन्दनीयानि स्तुत्यादिना, पूजनीयानि पुष्पादिना, सत्कारणीयानि वस्त्रादिना, समाननीयानि बहुमानकरणतः कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति पर्युपासनीयानीति / एतदाशातनाभीरुतयैव तस्मात्तेदेवा देवयुवतिभिर्न संभोगादिकमाद्रियन्ते, नापि मित्रदेवादिभिहस्यिक्रीडादिपराः स्युरिति / ननु जिनगृहादिषु जिनप्रतिमानां देवानामर्चनीयत्वादिकमाशातनात्यागश्च युक्तः, तासां सद्भावस्थापनारूपत्वेनाराध्यतासंकल्पप्रादुर्भावसंभवात्, न तथा जिनदंष्ट्रादिषु, तेन कथं तौ घटेते ? पूज्यानामङ्गानि पूज्या इव पूज्यानीति संकल्पस्यात्रापि प्रादुर्भावात् / पूज्यत्वं महावैरोप-शमकगुणवत्त्वेन च। अस्मिन्नर्थे पूज्यश्रीरत्नशेखरसूरीन्द्रोपज्ञश्रावकविधिवृत्तिसमतिः / तथाहि-परीक्षाप्राप्तनिर्लोभतागुणा रत्नसारकुमारं प्रति चन्द्रशेखरसुरेणोचे"हरिषेणाणीहरिणे- गमेष्यनिमिषाग्रणीः / युक्तमेव हि त्वत्श्लाघां, कुरुते सुरसाक्षिकम् / / 1 / / वक्ति स्म विस्मयस्मेरः, कुमारः स सुराग्रणीम्। मामश्लाघ्यं ग्लाधते किं. सोऽप्युवाच शृणु ब्रुवे // 2 // नवोत्पन्नतयाऽन्यर्हि, सौधर्मेशानुशक्रयोः। विवादोऽभूद्विमानार्थ, हार्थमित्र हर्मिणोः / / 3 / / विमानलक्षा द्वात्रिंशत, तथाऽष्टाविंशतिः क्रमात्। सन्त्येतयोस्तथाऽप्येतौ, विवदेते स्म धिग् भवम् / / 4 / / तयोरिवोवीश्वरयो-विमानर्द्धिप्रलुब्धयोः / नियुद्धादिमहायुद्धाः, अप्यभूवन्ननेकशः / / 5 / / निवार्यते हि कलह-स्तिरवां तरसा नरैः। नराणां च नराधीशै-नराधीशां सुरैः वचित्।।६।। सुराणां च सुराधीशां, कलहो वा पुनः कथम्। केन वा स निवार्येत, वज्राग्निरिव दुःशमः? |7|| माणवकाख्यस्तम्भस्था- ऽहंदंष्ट्राशान्तिवारिणा। साधिव्याधिमहादोष- महावैरनिवारिणा ||8|| कियत्कालव्यतिक्रान्ते, सिक्तौ महत्तरैः सुरैः। बभूवतुः प्रशान्तौ तौ, किं वा सिट्टयन्न तज्जलात् ? ||6|| युग्मम् ततस्तयोमिथस्त्यक्त-वैरयोः सचिवैर्द्वयोः। प्रोचे पूर्वव्यवस्थैवं सुधियां समये हि गीः // 10|| सा चैवम्दक्षिणस्या विमाना ये, सौधर्मेशस्य तेऽखिलाः। उत्तरस्यां तु ते सर्वेऽपीशानेन्द्रस्य सत्तया / / 11 / / पूर्वस्थामपरस्यां च, वृत्ताः सर्वे विमानकाः / त्रयोदशापीन्द्रकाश्च, स्युः सौधर्मसुरेशितुः / / 12 / / पूर्वापरदिशोः त्र्यसा-श्वतुरस्राव ते पुनः / सौधर्माधिपतेर , ईशानचक्रिणः पुनः / / 13 / / सनत्कुमारमाहेन्द्रे-ऽप्येष एव भवेत्क्रमः। वृत्ता एव हि सर्वत्र, स्युर्विमानेन्द्रकाः पुनः / / 14 / / इत्थं व्यवस्थया चेतः- स्वाध्यमास्थाय सुस्थिरौ। विमत्सरौ गतक्रोधौ, जज्ञाते तौ सुरेश्वरौ / / 15 / / अथ प्रकृत प्रस्तूयते- 'माणवगस्स'' इत्यादि / माण-वकचैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि सुधर्मायामेव सभायां सिंहासने सपरिवारे स्तः, यमकदेवयोः प्रत्येकमेकैक-सद्भावात्। तस्मादेव पश्चिमायां दिशिशयनीये वर्णकश्चैतदीयः श्रीदेवीवर्णनाधिकारे उक्तः,शयनीययोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि क्षुल्लकमहेन्द्रध्वजौ स्तः,तौ च मानतो महेन्द्रध्वजप्रमाणौ सार्द्धसप्तयोजनप्रमाणावुच्चत्वेन अर्द्धक्रोशमुद्वेधेन, बाहल्याभ्यामित्यर्थः / ननु यदीमौ प्रागुक्तमहेन्द्रध्वजतुल्यो तदा किमिमौ क्षुल्लकेन विशेषितौ ? उच्यते-मणिपीठिकाविहीनौ अत एव क्षुल्लकावित्यर्थः / द्वियोजनप्रमाणमणिपीठिकोपरिस्थितत्वेन पूर्वे महान्तौ महेन्द्रध्वजास्तदपेक्षया इमौ च क्षुल्लकावित्यर्थादागतमिति / तयोः क्षुल्लमहेन्द्रध्वजयोरेकैक-राजधानी संबन्धिनौ 2 परेण पश्चिमाया "चोप्फाला' नाम, प्रहरणकोशः प्रहरण-भाण्डागार, तत्र बहूनि परिघरत्नप्रमुखाणि यावत्पदात्प्रहरणरत्नानि संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्तिता "सुहम्माण' इत्यादि। सुधर्मयोरुपर्यष्टाष्टमङ्गलकानि इत्यादितावद्वक्तव्यं यावबहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया इत्यादि। सुधर्मसभातः परं किमस्तीत्याह- "तासि णं' इत्या-दि। तयोः सुधर्मयोः सभयोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि द्वे सिद्धायतने प्रज्ञप्ते, इति शेषः / प्रतिसभमेकैकसद्भावादिति / अत्र लाघवार्थमतिदेशमाह- एष एव सुधर्मासभोक्त एव जिनगृहाणामपिगमः पाठोऽवगन्तव्यः। स चायम्-"तेणं सिद्धाययणअद्धतेरसजोअणाई आयामेणं छस्सकोसाइं विक्खंभेणं णव जोअणाई उचउच्चत्तेणं अणेगखंभसय-सण्णिविट्ठा' इत्यादि / यथा सुधर्मायास्त्रीणि पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि द्वाराणि, तेषां च पुरतः प्रेक्षामण्डपाः, तेषां पुरतः स्तूपाः, तेषां पुरतीत्यवृक्षाः, तेषां पुरतो महेन्द्रध्वजाः, तेषां पुरती नन्दापुष्करिण्य उक्ताः तदनु सभायां षण्मनोगुलिकासहस्राणि, षडूगोमानसीसहस्राण्युक्तानि / एवमनेनैव क्रमेण सर्व वाच्यम् /
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________________ जमग 1400 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमदगि अत्र सुधर्माती यो विशेषस्तभाह-"णवरं इमं णाणत्तं'' इत्यादि व्यक्तम्।। कारितया यमः, स चासौ यज्ञः यमयज्ञः / हिंसामये द्रव्ययज्ञे, उत्त० अथ सुधर्मासभोक्तमेव सभाचतुष्कमरिदिशन्नाह-"एवं अवसेसाण वि'' 25 अ०। इत्यादि। एवं सुधर्मान्यायेनावशिष्टानामुपपातसभादीनां वर्णनं ज्ञेयम्।। जमणिया स्त्री० (यमनिका) यमनिकाख्ये साधूपकरणविशेषे, स्था०६ कियत्पर्यन्तमित्याहयावदुपपातसभायामुत्पित्सुर्दैवोत्पत्त्युपलक्षित | ठा०। सभायामभिनवोत्पन्नदेवाभिषेकमहोत्सवस्थानभूतायां बहु जमदग्गि पुं० [य(ज)मदग्नि)] परशुरामपितरि तापसविशेषे, आभिषेक्यमभिषेकयोग्यं भाण्ड वाच्यम् / तथाऽलङ्कारसभायाम- (आ० क०)। भिषिक्तसुरभूषणपरिधानस्थशयनीयं वर्णनीयं, तच्च प्राग्वत्। तथा ह्रदश्च तत्कथा चैवम्वक्तव्यो नन्दापुष्करिणीमानः, सचोत्पन्नदेवस्य शुचित्वजलक्रीडादिहेतुः, वसन्तपुरवास्तव्यः, कश्चिदुत्रान्नवंशकः। ततोऽभिषेकसभायां स्त्यानरूपाया सुबहलङ्कारिकभाण्डमलङ्कारयोग्य देशान्तरं व्रजन सोऽथ, भ्रष्टोऽगाद् भौतपल्लिकाम् / / 1 / / भाण्ड तिष्ठति / व्यवसायसभयोरलंकृतसुरशुभाध्यवसायानुचिन्तन- यमाख्यस्तापसस्तत्र, स तत्पार्श्वेऽग्निको गमत्। स्थानरूपायाः पुस्तकरत्ने, ततो बलिपीठ अर्चनीयोत्तरकालं नवोत्पन्न- प्रपन्नस्तस्य शिष्यत्व, सघोरंतप्यते तपः / / 2 / / सुरयोर्बलिविसर्जनपीठे द्वियोजन आथामविष्कम्भाभ्यां योजन यमशिष्योऽग्निक इति, यमदग्निरिति श्रुतः। बाहल्येन, यावत्पदात् "सव्वरयणामया अच्छा पासाईआ 4" ततो इतश्च जैनमाहेशा-वभूता द्वौ सुरौ दिवि।।३।। नन्दाभिधाने पुष्करिण्योर्बलिक्षेपोत्तरकालं सुधर्मासभा जिगमिष- स्वस्वधर्म प्रशंसन्ता-वूयतुः साधुतापसी। तोरभिनवोत्पन्नसुरयोर्हस्तपादप्रक्षालनहेतुभूते, अत एव सूत्रे प्रथमोक्ते परीक्षा युज्यते धर्मे, कर्तुमेकत्र तत्त्वधीः ||4|| अपि नन्दापुष्करिण्यौ प्रयोजनक्रमवशात् पश्चाद् व्याख्याते ऊचे श्राद्धः परीक्ष्यो नः, शैक्षोवस्तापसोत्तमः। क्रमप्राधान्याद्वयाख्यानस्य, अथयथा सुधर्मासभात् उत्तरपूर्वस्यां दिशि अथ तावागतौ स्वर्गाद, मर्त्यलोके परीक्षितुम् / / 5 / / सिद्धायतनम्, तथा तस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि उपपातसभा,एवं पूर्वस्मात् अग्रे च मिथिलापुर्या, राजा पद्मरथस्तदा। पूर्वस्मात् परम्परमुत्तरपूर्वस्यां वाच्यं, यावदलिपीठादुत्तरपूर्वस्यां नन्दा- व्रतार्थी याति चम्पायां, वासुपूज्यजिनान्तिके // 6 // पुष्करिणीति / अत्र च- 'जमिगाओ रायहाणीओ' इत्यादिसूत्रेषु गच्छतस्तस्य राजर्षेः, समुत्क्षिप्ते सति क्रमे। द्विवचनेन "तासिं० जाव उपि माणवगचेइअखंभे" इत्यादि सर्वतः सूक्ष्ममण्डूक्यः, क्रियन्ते स्म निरन्तराः // 7 // सूत्रेष्वेकवचनेन निर्देशः। सूत्रकाराणां प्रवृत्तिवैचित्र्यादिति वर्णित स उत्क्षिप्ताहि रेवास्था-जीवहिंसाभयात्प्रधीः / यमिकाभिधे राजधान्यौ, अथ तयोरधिपयोर्यमक-देवयोरुत्पत्त्यादि- धीरश्चुक्षोभ नो मेघ-कुमारः प्राग्भवेऽभवत् // 8 // स्वरूपाख्यानाय विस्तररुचिः सूत्रकृत् संग्रहगाथामाह- "उवयाओ दयालुं तन्मनो ज्ञात्वा, तौ ताः संहृत्य जग्मतुः। संकप्पो'" इत्यादि। उपपातो यमकयोर्देवयोरुत्पत्तिर्वाच्या, तत उत्पन्नयोः यमदनेः परीक्षार्थं, पुरातनमहा ऋषेः / / 6 / / सुरयोः शुभव्यवसायचिन्तितरूपः संकल्पः। ततः अभिषेक इन्द्राभिषेकः, कृत्वा चटकयुग्मस्य, रूप तत्कूर्चपञ्चरे। ततः विभूषणा अलङ्कारसभायामल-झारपरिधानम्, ततो व्यवसायः स्थित्वोचे चटकः कान्ते !, याम्यहं हिमवगिरिम्॥१०॥ पुस्तकरत्नोद्धाटनरूपः, ततुः अर्चनिका सिद्धायतनाद्या, ततः सोचे त्वं नेष्यसि ततो, लुब्धस्तचटिकारते। सुधर्मायां गमनं, यथा च परिचारणापरिचारकरणं परिचारणा स चक्रे शपथान् गाढान्, प्रत्येतिन तथाऽपि सा // 11 // स्वस्वोक्तदिशि परिचारस्थापनाम् यथा यमकयोदेवयोः सिंहासनयोः ऊचे प्रत्येमि चेदेन, शपथं कुरुषे प्रिय ! / परितो वामभागे चतुःसहस्र-सामानिकभद्रासनस्थापनं सैव ऋद्धिः ऋषेरेतस्य पापेन, लिप्ये नायामि यद्यहम्॥१२॥ संपत / रूपनिष्पत्तिस्तु-"णिज बहलं नानः कृगादिषु'' ||34|42 / / उवाच चटकः कान्ते!, शपथं न करोम्यमुम्। इत्यनेन (हैमसूत्रेण) कारणार्थम् "णिवेत्त्यासश्रन्थघट्टवन्देरनः" महर्षिः क्षुभितोऽवोच-तौ पाणिभ्यां विवृत्य सः॥१३॥ 153 / 11 / इत्यनेन चानप्रत्यये स्त्रीलिङ्गीयअपप्रत्यये साधु / तथा वा आः पापौ ! पातकं किं मे, यदेवं जल्पतो मिथः। वाच्य जीवा-भिगमादिभ्यः। अथयमकौ द्रहाश्च यावता अन्तरेण परस्पर ऊचतुस्तौ महर्षे ! त्वं, मा कुपः शृणु नौ वचः।।१४।। स्थितास्तविणेतुमाह- "जावइयं" इत्यादि। यावति प्रमाणे अन्तर्माने अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गो नैव च नैव च। नीलवतो यमकौ भवतः / खलु निश्चितं यावदन्तरं 'जनसप्तभागचतु तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा, पश्चात्स्वर्ग गमिष्यसि // 15 // भागाभ्यधिकंचतुस्त्रिंशदधिकाष्टशतयोजनरूपं यमकद्रहयोः, इह द्रहाणां स मुनिरतद्वचो मेने, मुक्तौ तौ जग्मतुर्दिवम् / च बोध्यमिति शेषः / उपपत्तिस्तु प्राग्वत्। जं०४ वक्षः। मिथ्यादृगथ संबुद्धो, देवः सम्यक्त्वमात्तवान्।।१६।। जगमसमग अव्य० (यमकसमक) युगपदित्यर्थे , जं०३ वक्ष० / तत्त्यक्त्वा तापनाकष्ट, समासहस्रपालितम्। जी०: ज्ञा०। यमदग्निर्ययौ मूढो, नगरं मृगकोष्टकम्॥१७॥ जमघोसपुं० (यमघोष) ऐश्वतक्षेत्रे आगामिन्यां चतुर्विशतिकायां भाविनि जितशत्रुपस्तत्र, प्रणम्येत्याह किं ददे ? / चतुर्थे जिने, प्रव०७ द्वार। सऊचे शतपुत्रीक ! पुत्रीमेकां प्रयच्छ मे॥१८|| जमजन्न पुं० (यमयज्ञ) यमाः प्राणातिपातविरत्यादिरूपाः पञ्च, त एव शापभीरुनूपोऽवादीद्, या त्वामिच्छति साऽस्तुते। यज्ञो भावपूजात्मकत्वात् विवक्षितपूज्यं प्रति इति यमयज्ञः / स कन्यान्तःपुरं प्राप्तस्ताभिस्तं वीक्ष्यथूत्कृतम्॥१६।। अहिंसदियमपालनरूपे भावयज्ञे, (उ० )"यम इव प्राण्युपसंहार- | ऊचुश्च किं तवोद्,ि कालो मूष किं मृतेः?
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________________ जमदग्गि 1401 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि सोऽथ तच्चेष्टया रुष्टः, शप्त्वा कुब्जीचकार ताः॥२०॥ खेलन्ती रेणुनैकाऽभूत, सुताऽस्यै ढौकितं फलम्। उक्ता चेच्छसि साऽऽदत्त, तत्करेणाऽऽददे स ताम्।।२१।। ता अथोपस्थिताः कुब्जाः, श्यालिकात्वादृजूकृताः। स सगोदासिकाद्यां तां, दत्तां राज्ञाऽऽश्रमेऽनयत्॥२२।। पाणिग्रहणकाले च,स तस्याः पाणिग्रहीत्। ऋतुकाले च तामूचे, चरुंब्राह्यं पचामि ते / / 23 / / भवत्वेवं तथा कान्त ! स्वसा मे हस्तिनापुरे। अनन्तवीर्यभार्याऽस्ति, तस्याः क्षात्रं चरुं पच॥२४॥ स पक्त्वा द्वौ चरू तस्याः, आर्पयत् साऽप्यचिन्तयत्। जाताऽटवीमृगी तावदहं मैवं सुतोऽप्यभूत॥२५|| ततः क्षात्रं स्वयं प्राश, ब्राह्म जाम्यै न्ययोजयत्। अभूद्रामः सुतोऽथास्याः, कार्तवीर्यः स्वसुः पुनः।।२६।। रामेऽथो यौवन प्राप्ते, तत्रागात्कोऽपि खेचरः। स चाकस्मादभून्मन्दो, रामेण प्रतिपालितः // 27 // पशुविद्या स तस्यादात्तां च सोऽसाधयद्वने। पशुराम इति ख्यातः, ततः सपर्युशस्वतः।।२८॥ अन्यदा रेणुकाऽयासीद्, भगिनीवेश्म तत्र च / भगिनीवल्लभाऽऽसङ्गाद्, पुत्ररत्नमजीजनत् / / 26 / / जमदग्निरथानषीत्सपुत्रामपि तां ततः। रुषा व्यनीनशद्रामात्सपुत्रामपि रेणुकाम् / / 30 / / तद्भगिन्यां श्रुतं तच्च, कथितं स्वपतेस्ततः / सोऽथाऽऽगत्याऽऽश्रमं भक्त्वा , गृहीत्वा गास्ततोऽव्रजत्॥३१॥ पश्चात् परशुरामेण, धावित्वा पशुना हतः। कार्तवीर्योऽभवद्राजा,ताराजानिस्तदङ्गजः॥३२॥ सोऽथान्यदा पितुर्मृत्यु, ज्ञात्वा रामकृतं रुषा। आगत्य पितरं तस्य, जमदग्निममारयत्॥३३॥ ज्वलत्प रथागत्य, रेणुकेयो रुषाऽरुणः॥ कार्तवीर्यं रणे हत्वा, स्वयं राज्यं प्रपन्नवान् / / 34 / / इतः पलायिता राज्ञी, ताराऽगात्तापसाऽऽश्रमम् / संभ्रमेणापतद् गर्भः, तस्या गृह्णन् भुवं रदैः॥३५॥ सुभूम इति दत्ताहो, ववृधे तापसाश्रमे। परशुःपशुरामस्य, जज्वाल क्षत्रियान्तकृत् // 36 / / अन्यदाऽऽश्रमपाइँन, पशुरामस्य गच्छतः। पर्शी ज्वलति तेनोक्ताः, भौताः स्वं क्षत्रियं जगुः / / 37 / / पशुरामः सप्तकृत्वः, क्षितिं निःक्षत्रियां व्यधात्। स्थालं बभार दंष्ट्राभिस्तेषां मुक्ताकणैरिव // 38 / / एवं व्यधायि च क्रोधाद्रामेण क्षत्रियक्षयः। नमयन्तःक्रुधं धन्याः, नमोऽर्हाः स्युः पुनर्जिनाः // 36 // " आ०क०आ०चून आ०म० जमदग्गिजडा स्त्री०(जमदग्रिजटा) बालके, गन्धद्रव्यविशेष च।। उत्त०३अ०। जमदग्गिपुत्त पुं०(जमदग्निपुत्र) पशुरामे, जी०३ प्रति० जमपुरिससंकुल त्रि०(यमपुरुषसंकुल) यमस्य दक्षिणदिक्पालस्य पुरुषा अम्बादयोऽसुरविशेषास्तैः संकुला ये ते तथा। परमाधार्मिककलितेषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। जमपुरिससंनिभ त्रि०(यमपुरुषसन्निभ) परमाधार्मिकतुल्ये क्रूरजने, प्रश्न०३आश्र०द्वार। जमप्पभ पुं०(यमप्रभ) चमरेन्द्रस्य यममहाराजस्य स्वनामके उत्पातक उत्पातपर्वते, स्था०१० ठा। जमल न०(यमल) यमं योग लाति। ला-कः। युग्मे, वाचा समश्रेणीके, रा०। जं०। उत्त० जी० भ०। अनु०। ज्ञान "विजाहरजमलजुअलजंतजुत्तं / "भ०६श०३१ उ०। समसंस्थितद्वयरूपे, रा०। औला "चक्कगयभुसुडिउरोहसयग्धिजमलकवाडघणदुप्पवेसा।"औ०समे, ज्ञा०१ श्रु० ८अ० औ०। 'निल्लालियजमलजुअलजीह" ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। सहवर्तिनि, "जमलजुअलचंचलचलंतजीहं / " यमलं सहवर्ति युगलं द्वयं चञ्जलं यथा भवत्येवं चलन्त्योरतिचफ्लयोर्जि योर्यस्य स तथा तमः प्राकृतत्वाच्चैवं समासः / भ०१५ श०१उ०। समानजातीययोर्युग्मे, राका जमलको ट्ठिया स्त्री०(यमलकोष्टिका) समतया व्यवस्थापितकु शलिकाद्वये, उत्त०२अ०1"जमलकोट्ठियासठाणसंठिया।" उत्त०२अ०॥ जमलजुअल न०(यमलयुगल) समश्रेणीके युग्मे,रा० जी०। समनशीलेषु द्वन्द्वेषु, रा०। आ०म०। 'विजाहरजमलजुअलाइं / ' आ०म०प्र० जमलज्जुणभंजग त्रि०(यमलार्जुनभञ्जक) श्रीकृष्णे, स हि पितृवैरिणी विद्याधरौ रथारूढस्य गच्छतो मारणार्थ पथि विकुर्वितयमलार्जुनवृक्षरूपी सरथस्य मध्येन गच्छतः चूर्णनप्रवृत्तौ हतवान्। प्रश्न०४ आश्र० द्वार। जमलपद न०(यमलपद) प्रायश्चित्तविशेष, 'यमलपदं नामतवकाला तेहिं विससिया कजंति पढमपए दोहिंलघु, वितियपए कालगुरु, ततियपए तवगुरु, चउत्थपए दोहिं वि गुरु।" नि० चू०१ उ०॥ जमलपय न०(यमलपद) 'जमलपद' शब्दार्थे , नि०चू०१ उ०। "जमलपया" इतितपःकालयोः संज्ञा।बृ०१ उ०) समयपरिभाषयाऽष्टानामष्टानामङ्कस्थानानां यमलपदमिति संज्ञा / प्रज्ञा० 12 पद। जमलपाणि पुं०(यमलपाणि) मुष्टौ, भ०१६ श०३उ०। जमलिय त्रि०(यमलित) यमलं नाम सजातीययोर्युग्मं, तत् संजा–तमेषां ते यमलिताः / रा०। जं० जी०। युग्मीभूय व्यवस्थितेषु, समश्रेणितया व्यवस्थितेषु च। ज्ञा०१ श्रु०१अ०ा औ०। भ०। जमलोइय पुं०(यमलौकिक) अम्बादिषु परमाधार्मिकेषु, सूत्र० 1 श्रु० 12 अ०। जमा स्त्री०(याम्या) यमो देवता यस्याः सा याम्या / भ०१० श०१ उ०। दक्षिणस्यां दिशि, ओघा जमालि पुं०(यमालि) महावीरजिनस्य जामातरि स्वनामख्याते प्रथम निहवे, आ०क०। उत्त। स्था०। कल्प। तत्प्रबन्धश्चैवम्तस्स णं माहणकुं डग्गामस्स णयरस्स पचच्छि मेणं, एत्थ णं खत्तियकुं डग्गामे णाम णयरे होत्था / वण्णओ
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________________ जमालि 1402 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि तत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे णयरे जमाली णाम खत्तियकुमारे खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे०जाव सव्वण्णू परिवसइ, अड्डे दित्ते०जाव अपरिभूए, उत्पिपासायवरगए सव्वदरिसीमाहणकुंडग्गामस्स णयरस्स बहिया बहुसालए चेइए फुट्टमाणेहिं मुयंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धेहिं नाडएहिं णाणाविह- अहारूवं उग्गहं०जाव विहरइ। तं णं एए बहवे उग्गा भोगा०जाव वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणच्चिज्जमाणे उवणच्चिज्जमाणे उवगि- अप्पेगइया वंदणवत्तियं०जाव णिग्गच्छंति। तए णं जमाली ञ्जमाणे उवगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे पाउ- खत्तियकुमारे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म सवासारत्त सारदहेमंत-ससिर-वसंत-गिम्हपजंते छप्पि उऊ हट्ठतुढे कोडं बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासीजहाविभवेणं माणमाणे कालं गालेमाणे इट्टे सद्दे फरिस खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव रसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पचणुब्भवमाणे वि उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह / तए णं ते हरइ। तए णं खत्तियकुंडग्गामे णयरे सिंघाडगतिगचउक्कचचर० कोडु बियपुरिसा जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता समाणा पचप्पिणंति / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे जेणेव मजणघरे जाव बहुजणसद्देइ वा जहा उववाइए०जाव एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आदि तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता बहाए कयवलिकम्मे जहा गरे०जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी माहणकुंडग्गामस्स णयरस्स उववाइए परिसावण्णाओ, तहा भाणियव्यंजाव चंदणोक्खित्तबहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवंजाव विहरइ, तं मह गायसरीरे सव्वालंकारविभूसिए मजणधराओ पडिणिक्खइ पडिणिक्खमइत्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेवचाउग्घंटे प्फलंखलु देवाणुप्पिया!तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं जहा आसरहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता चाउग्घंटं आसरह उववाइए०जाव एगा भिमुहे खत्तियकुंडग्गामं णयरं मज्झं मज्झेणं दुरूहइ, दुरूहइत्ता सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरि-जमाणेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे णयरे जेणेव महया भडचडगरपहकरविंदपरिक्खित्ते खत्तियकुंड-ग्गामणयरं बहुसालए चेइए, एवं जहा उववाइएन्जाव तिविहाए पज्जुवासणाए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छई, णिग्गच्छइत्ताजेणेव माहणकुंडग्गामे पञ्जवासइ, तए णं तस्सजमालिस्स खत्तिय--कुमारस्सतं महया णयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जणसई वा०जाव सण्णिवायं वा सुणमा-णस्स वा पासमाणस्स तुरिए निगिण्हेइ, निगिण्हेइत्ता रहं ठवेइ, ठवेइत्ता रहाओ वा अयमेयारूवे अब्भत्थिए०जाव समुप्पञ्जित्था, किं णं अज्ज पच्चोरुहइ, पचोरुहइत्ता पुप्फतंबूलाउहमाइयवाण-हाओ य खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहेइ वा खंदमहेइ वा मुगुंदमहेइ वा विसजेइ, विसजेइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करेइत्ता णागमहेइ वा जक्खमहेइ वा भूयमहेइ या कूवमहे इ वा आयंते चोक्खे परमसुइब्भूए अंजलिमउलियहत्थे जेणेव समणे तडागमहेइ वा नईमहेइ वा दहमहेइ वा पटवय-महेइ वा भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं रुक्खमहेइ वा चेइयमहेइ वा थूवमहेइवा, जंणं एए बहवे उग्गा महावीरं तिक्खुत्तो०जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ / तए भोगा राइण्णा इक्खागा णाया कोरवा खत्तिया खत्तियपुत्ता भडा णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स खत्तियकु-मारस्स तीसे य भडपुत्ता सेणावती पसत्थारो लेच्छइ माहणा इब्भा जहा उववाइए महइ महालियाए इसिजाव धम्मक हा० जाव पडि सा सत्थवाहप्पमितयो ण्हाया कयबलिकम्मा जहा उववाइए०जाव पडिगया। तए णं जमाली खत्तियकुमारे समणस्स भगवओ णिग्गच्छंति, एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता एवं कंचुइज्जपुरिसे सद्दावेइ, महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ०जाव हियए सद्दावे इत्ता एवं वयासी-किं णं देवाणु-पिया ! अञ्ज उढाए उढेइ, उद्वेइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो० जाव खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहेइ वाजाव णिग्ग-च्छंती, तए णं णमंसित्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, से कंचुइज्जपुरिसे जमालिणामेणं खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ते समाणे पत्तियामि णं भंते ! णिग्गथं पावयणं, रोएमि णं भंते ! णिग्गंथं हतुढे समणस्स भगवओ महावीरस्स आगम-णगहिय- पावयणं, अब्भुढेमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते! विणिच्छए करयल०जमालिं खत्तियकुमारं जएणं विजएणं णिग्गंथं पावयणं, तहमेयं भंते ! णिग्गथं पावयणं, अवि-तहमेयं बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता एवं वयासी-णो खलु देवाणु-प्पिया ! अज्ज भंते ! असंदिद्धमेयं भंते !०जाव से जहेयं तुब्भे वदह, जं णवरं खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहेइ वाजाव णिग्ग-च्छति / एवं/ देवाणुप्पिया ! अम्मापिअरो आपुच्छामि, तर णं देवा
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________________ जमालि 1403 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि णुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वयामि? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तोजाव णमंसित्ता तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, दुरूहइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता सकोरंटमल्लदामेणंजाव धरिज्जमाणेणं महया भडचमगरजाव परिक्खित्ते जेणेव खत्तियकुंडग्गामे णयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता खत्तियकुंडग्गामं णयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तुरिए निगिण्हइ, निगिण्हइत्ता रहं ठावेइ, ठावेइत्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता जेणेव अभिंतरिया उवट्ठाणसाला जेणेव अम्मापिअरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अम्मापिअरो जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्म! ताओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म निसंते सेवियधम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापिअरो एवं वयासी-धण्णे सि णं तुम्मं जाया ! कयत्थे सिणं तुम्मं जाया ! कयपुण्णे सिणं तुम्मं जाया ! कयलक्खणे सिणं तुम्मं जाया ! जेणं तुम्मे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं निसंते सेवियधम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापिअरो दोचं पि एवं वयासीएवं खलु मए अम्म ! ताओ ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म निसंतेजाव अभिरुइए, तएणं अहं अम्म! ताओ! संसारभयउव्विग्गे भीए जम्मजरामरणेणं तं इच्छामि णं अम्म! ताओ ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, तएणं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया तं अणिटुं अकंतं अप्पियं अमणुण्णं अमणामं अस्सुयपुव्वं गिरं सोचा णिसम्म सेयागयरोमकूवपगलंतविगलीनगत्ता सोगभरप्पवेवियंगमंगी नित्तेया दीणविमणवयणा करयलमलियव्व कमलमाला तक्खाउलुग्गदुव्वलसरीरलायण्णसुण्णनिच्छायगइसिरीया पसिढिलभूसणपडियखुण्णियसंचुण्णियधवलवलया पब्भट्ठ- | उत्तरिजा मुच्छावसतद्धचेतगरुई सुकुमालविकिपणकेसहत्था परसुनियत्त व्व चंपगलया निव्वत्तमह व्व इंदलठ्ठी विमुक्कसंधिबंधणा कोटिमतलंसि धस त्ति सव्वंगेहिं सन्निवडिया, तएणं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ससंभमोयत्तियाए तुरियं कंचणभिगारमुहविणिग्गयसीयलविमलजलधारपरिसिंचमाणनिव्वावियगायलट्ठी उक्खेवयतालियंटवीयणगजणियवाएणं संफुसिएणं अंतेउरपरियणेणं आसासिया समाणी रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी-तुमं सिणं जाया ! अम्मं एगे पुत्ते इढे कंते पिए मणुण्णे मणाभे थेन्जे वेसासिए संमए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणभूए जीवियउस्सविए हिययणंदजणणे उवरपुप्फ पि व दुल्लहे सवणयाए किमंग ! पुण पासवणयाए, तं णो खलु जाया! अम्हे इच्छामो तुभं खणमवि विप्पओगं,तं अत्थाहि ताव जाया! जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं समाणे हिं परिणयवओ वड्डियकुलवंसतंतुकअम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारिअं पव्वइहिसि / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापिअरो एवं वयासी-तहा वि णं तं अम्म! ताओ ! जंणं तुब्भे ममं एवं वदह-तुम्मं सिणं जाया ! अम्मं एगे पुत्ते इहे कंते तं चेव०जाव पव्वइहिसि, एवं खलु अम्म! ताओ! माणुस्सए भवे अणेमजाइजरामरणरोगसारीरमाणसपकामदुक्खवेयणवसणसओवद्दवाभिभूए अधुवे अणितिए असासए संझन्भरागसरिसे जलवुव्वुदसमाणे कुसग्गजलविंदुसण्णिभे सुविणगदंसणोवडे विजुयाचंचले अणिच्चे सडणपडणविद्धंस-णधम्मे पुट्विं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियव्वे भविस्सइ, से केस णं जाणइ-अम्म ! ताओ ! के पुट्विंगमणयाए,के पच्छागमणयाए, तं इच्छामि णं अम्म ! ताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स०जाव पव्वइत्तए? तर णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-इमं च णं तं जाया ! सरीरगं पविसिट्ठरू वलक्खणवंजणगुणोववेयं उत्तमबलबीरियसत्तजुत्तं विण्णाणवियक्खणससोभग्गगुणसमुस्सियअमिजायमहक्खमं विविहवाहिरोगरहियं निरुवहयउदत्तलट्ठपंचिंदियपडुपढमजोव्वणत्थमणेगउत्तमगुणेहिं जुत्तं तं अणुहोहि ताव० जाव जाया! नियगसरीररूवसोहग्गजोव्व-गुणे तओ पच्छा अणुभूय नियगसरीररूवसोहग्गजोव्वणगुणे अम्हेहिं कालगएहिं समाणे हिं परिणयवओ वड्डियकु लवंसतंतुकन्जनिरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पच्वइहिसि / तए णं से जमाली खत्तियकु मारे अम्मापियरो एवं बयासी-तहा विणं तं अम्म ! ताओ ! जं णं तुडभे मम एवं वदह-इम च णं ते जाया ! सरीरगं तं चेव०जाव पव्वइहिसि, एवं खलु
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________________ जमालि 1404 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि अम्म ! ताओ ! माणुस्सग सरीरं दुक्खाययणं विविहवाहिसयसंनिकेयं अट्ठिकढट्ठिछिराण्हारुजालउवणद्धसंपिणद्धमट्टियभंडं व दुब्बलं असुइसंकिलिलैं अणिट्ठवियसव्वकालसंठप्पयजराकुणिमजज्जरधरं व सडणपडणविद्धंसणधम्मं पुट्विं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियव्वं भविस्सइ। से केस णं जाणइअम्म ! ताओ ! के पुट्विं तं चेव०जाव पव्वइत्तए / तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-इमाओ य ते जाया ! विउलबालियाओ सरिसयाओ सरित्तयाओ सरिट्वयाओ सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाओ सरिसएहितो कुलेहिंतो आणिएल्लियाओ कलाकुसलसव्वकाललालियसुहोचियाओ मद्दवगुणजुत्तनिउणविणओवयारपंडियवियक्खणाओ मंजुलमियमहुरमणियविहसियविप्पेक्खियगईविलासचिट्ठियविसारयाओ अविकलकुलसीलसालियाओ विसुद्धकुलवं ससंताणतंतुविबद्धणप्पगब्भवयमाविणीओ मणाणुकूलहियइच्छियाओ अट्ठ तुज्झ गुणवल्लहाओ उत्तमाओ णिचं भावाणुरत्तसव्वंगसुंदरीओ भारियाओ तं भुंजाहि ताव जाव जाया ! एयाहिं सद्धिं विउले माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी विसयविगयवोच्छिण्णको उहल्ले अम्हे हिं कालगएहिं०जाव पव्वइहिसि / तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहा विणं तं अम्म ! ताओ ! जंणं तुब्भे मम एवं वदह-इमाओ य ते जाया ! विउलकुल०जाव पटवइहिसि, एवं खलु अम्म ! ताओ ! माणुस्सया कामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा उच्चारपासवणखेलसिंघाणवंतपूयसुक्कसोणियसमुभवा अमणुण्णदुरूवमुत्तपूइयपुरीसपुण्णा मियगंधुस्सासअसुभनिस्सासउटवेयणगा वीभत्था अप्पकालिया लहूसगा कलमलाहिया सदुक्खबहुजणसाहारणा परिकिलेसकिच्छदुक्खसज्झा अबुहजणसेविया सदा साहुगरहणिज्जा अणंतसंसारबद्धणा कडुयफलविवागा चुडुलि व्व अमुचमाणदुक्खाणुबंधिणो सिद्धिगमणविग्घा, से केसणं जाणइ अम्म! ताओ ! के पुट्विं गमणयाए, के पच्छा? तं इच्छा मिणं अम्म! ताओ !०जाव पव्वइत्तए / तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापिअरो एवं वयासी-इमे य ते जाया ! अजयपज्जयपिउपज्जयागए य बहुहिरण्णे य सुवण्णे य कंसे य दूसे य विउलधणकणग०जाव संतसारसावएज्जे अलाहि०जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं परिभाएत्तुं तं अणाहोहि ताव जाया ! विपुले माणुस्सए इड्डिसक्कारसमुदए, तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे वड्डियकु लवंसजाव पव्वइहिसि / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापिअरो एवं वयासी-तहा वि णं अम्म ताओ ! जणं तुज्झे मन एवं वदह-इमं च ते जाया ! अज्जयपञ्जय०जाव पव्वइहिसि / एवं खलु अम्म ! ताओ ! हिरणे य सुवण्णे य०जाव सावएस अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए मचुसाहिए दाइयसाहिए अगिसामण्णे०जाव दाइयसामण्णे अधुवे अणितिए असासए पुट्विं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियव्वं भविस्सइ, से केसणं जाणइ तं चेव०जाव पव्वइत्तए / तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अन्म-याओ जाहे नो संचाएइ, विसयाणुलोमेहिं बहूहिं आघवणाहिय पण्णवणाहि य विण्णवणाहि य सपणवणाहि य आघवेत्तए वा सण्णिवेत्तए वा विण्णवेत्तए वा तहेव विसयपडिकूलाहिं संजमभयउटवेयणकरीहिं पण्णवणाहिं पण्णवेमाणा एवं वयासी-एवं खलु जाया ! णिग्गंथे पावयणे सचे अणुत्तरे केवले जहा आवस्सए०जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ, बहीव एगंत.-दिट्टिए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया जवा चावेयव्वा बालु-याकवले इव निस्सारे, गंगेव महानदी पडिसोतगमणयाए महासमुद्दो व्व भुयाहिं दुत्तरो तिक्खं कमियव्वं गुरुयं लंवेयव्वं, असिधारागं वयं चरियव्वं, णो खलु कल्पइ जाग ! समणाणं णिग्गंथाणं आहाकम्मिएइ वा उद्देसिएइ वा मिस्सजाएइ वा उज्झोयरिएइ वा पूइएइ वा कीएइए वा पाडिच्चेइ वा अच्छेज्जेइ वा अणिसिटेइ वा अभिहडे इ वा कं तारभत्तेइ वा दुभिक्खभत्तेइ वा गिलाणभत्तेइ वा वद्दलियाभत्तेइ वा पाहुणभत्तेइ वा सेज्जायरपिंडेइ वा रायपिंडेइ वा मूलभोयणेइ वा कंदभोयणेइ वा फलभोयणेइ वा बीयभोयणेइ वा हरियभोयणेइ वा भुत्तए वा पायए वा तुम्मं सिचणं जाया! सुहसमुचिएणो चेवणंदुहसमुचिए नालं सीयं नालं उण्हं नालं खुहा नालं पिवासा नालं चोरा नालं बाला नालं दंसा नालं मसगा नालं वाइयपित्तियसिं भियसण्णिवाइयविविहे रोगायं के परीसहोवसग्गे उदिण्णे अहियासेत्तए, तंणो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुज्झं खणमवि विप्पओगं, तं अत्थाहिताव जाया ! जाव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं०जाव पव्वइहिसि / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहा विणं तं अम्म ! ताओ ! जण्णं तुब्भे ममं एवं वदह-एवं खलु जाया ! णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले तं चेव०जाव पव्वइहिसि, एवं खलु अम्म ! ताओ ! णिग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबंधाणं परलोगपरंमुहाणं विसयति
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________________ जमालि 1405 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि सिया णं दुरणुचरे पामरजणस्स, धीरस्स णिच्छियस्स ववसि-- यस्स णो खलु एत्थ किंचि वि दुक्करं करणयाप, तं इच्छामि णं अम्म! ताओ ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स०जाव पव्वइत्तए / तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापिअरो जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य 4 आघवेत्तए वा०जाव विण्णवेत्तए वा, ताहे अकामाई चेव निक्कमणं अणुमण्णित्था / तए णं तस्स जमालिस्सखत्तियकुमारस्स पिया कोई बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया ! खत्तियकुंडग्गामं नयरं सभिंतरबाहिरियं आसियसम्मज्जिओवलित्त जहा उववाइएन्जाव पञ्चप्पिण्णंति। तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोन पि कोड़ेबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महाघं महरिहं विपुलणिक्खमणाऽभिसेयं उवट्ठवेह। तए णं ते कोडंबियपुरिसा तहेव०जाव पञ्चप्पिणंति / तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं निसीयावेइ, निसीयावेइत्ता अट्ठसएणं सोवणियाणं कलसाणं एव जहा रायप्पसेणिए०जाव अट्ठसयाणं भोमेज्जाणं कलसाणं सव्विड्डिएन्जाव महया रवेणं महया महया निक्खमणाभिसेगेणं अभिसिंचते, अभिसिंचतेत्ता करयल०जाव जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता एवं वयासी-भण जाया ! किं देसो, किं पयच्छामो, किं णु वा ते अट्ठो? तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-इच्छामिणं अम्म ! ताओ ! कुत्तियावणाओ रयहरण च,पडिग्गहं च माणेउं, कासवगं च सद्दाविउं। तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दोवइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सिरिघराओ तिण्णि सयसहस्साइं गहाय दोहिं सयसहस्से हिं कुत्तियावणाओ रयहरणं च पडिग्गहं च आणेह, सयसहस्से---णं कासवगं सद्दावेह / तए णं से कोडु बियपुरिसे जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठकरयल०जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सिरिघराओतिणि सयसहस्साई तहेव०जाव कासवगं सद्दावेइ। तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडंवियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हटे तुढे पहाए कयवलिकम्मे०जाव सरीरे जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करयल०जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पियरं जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता एवं वयासी-संदिसह तुम देवाणुप्पिया! जं मए करणिज्जं / तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवगं एवं वयासी-तुमं देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवजे णिक्खमणप्पओगे अग्गकेसे कप्पेह / तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुढे करयल०जाव एवं सामी ! तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेइत्ता सुरभिणा गंधोदएणं हत्थपाए पक्खाले इ, पक्खाले इत्ता सुद्धाए अट्ठपडलाए पोत्तिए मुहं बंधइ, बंधइत्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवजे निक्खमणप्पओगे अग्गकेसे कप्पेइ / तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसल-- क्खणेणं पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छइ, पडिच्छइत्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ, पक्खालेइत्ता अग्गेहिं वरे हिं गंधे हिं मल्लेहिं अंचेइ, अंचेइत्ता सुद्धणं वत्थेणं बंधेइ, बंधेइत्ता रयणकरंहगंसि पक्खिवइ, पक्खिवइत्ता हारवारिधारसिंदुवारच्छिण्णमुत्तावलिप्पगासाइं सुतविओगदूसहाई अंसूहिं विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी एवं वयासी-एस णं अम्हं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बहूसु य तिहीसु य पटवणीसु य उस्सवसु य जण्णेसु य छण्णेसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सतीति कट्ट उसीसगमूले ठवेइ / तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रया-ति, रयावेंतित्ता जमालिं खत्तियकुमारं सेयपीएहिं कलसेहिं ण्हावेंति, सेयपीयेहिं कलसेहिं ण्हावेंतित्ता पम्हलसुकुमालाए सुरभिएणं गंधकासाइएणं गायाइंलहेंति, लूहेंतित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिपति, गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिं पित्ता णासाणिस्सासबज्झं चक्खुहरं वण्णफरिससंजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलकणगखचितंतकम्म महरिहं हंसलक्खणपडसाडगं परिहिइ, परिहिइत्ता हारं पिणखेति पिणखेतित्ता अद्धहार पिणखेति, पिणङ्केतित्ता एवं जहा सूरियाभस्स अलंकारो तहेव चित्तरयणसंकडुक्कडं मउडं पिणखें ति, किं बहुणा गंथिमवेढिमपूरिमसंघातिमेणं चउविहेणं मल्लेणं कप्परुक्खग पि व अलंकियविभूसियं करेइ, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया ! अणेगखं भसयसण्णिविढं लीलट्ठियसालिभंजियागंजहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवण्णओ जाव मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं उवट्ठवेह, उवट्ठवेहइत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणहा तए णं ते कोडुवियपु
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________________ जमालि 1406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि रिसाजाव पचप्पिणंति / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे के सालंकारेणं वत्थालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं चउविहेणं अलंकारेणं अलंकारिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टेइत्ता सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे सीयं दुरूहइ, दुरूहइत्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे सणिसण्णे / तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया पहायाजाव सरीरा हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी सीयं दुरूहइ, दुरूहइत्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणेणं पासेणं भद्दासणवरं सि सण्णिसण्णा, तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मधाती ण्हाया० जाव सरीरा रयहरणं पडिग्गहं च गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी सीयं दुरूहइ, दुरूहइत्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स वामे पासे भद्दासणवरंसि सण्णि-सण्णा / तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठओ एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगय०जाव रूवजोव्वणवि-सालकलिया सुंदरथणहिमरययकुमुदकुंदेंदुप्पगासं सकोरंट-मल्लदामं धवलं आयवत्तं गहाय सलीलं उवधरेमाणी 2 चिट्ठा तए णं तस्स जमालिस्स०उमओ पासिं दुवे वरतरुणीओ सिंगारागारचारु०जाव कलियाओ णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखंक-कुंददगरयअमियमहियफेणपुंजसण्णिगासाओ धवलाओ चामराओ गहाय सलील वीयमाणीओ वीयमाणीओ चिट्ठति। तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स उत्तरपुरच्छिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागार०जाव कलिया से तं रथयामयं विमल-सलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकिइसमाणं भिंगारंगहाय चिट्ठइ। तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणपुरच्छिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागारजाव कलिया चित्तकणगदंड तालपटं गहाय चिट्ठइ / तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमा-रस्स पिया कोडु बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता | एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयं सरित्तयं सरिव्वयं सरि-सलावण्णरूवजोव्वणगुणोक्वेयं एगाभरणवसणगहियनिजोयं कोडं बियवरतरुणसहस्सं सद्दावेह / तए णं ते कोडुंबियपुरिसा० जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं०जाव सद्दावें ति, तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुंबियपुरिसेहिं सहाविया समाणा हट्ठतुट्ठा पहाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता एगाभरणवसणगहियनि--जोया जेणेव जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करयल० जाव बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेहिं करणिजं, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कोडं बियं वरतरुण-सहस्सं पि एवं क्यासी-तुज्झे णं देवाणुप्पिया ! पहाया कय-वलिकम्मा०जाव गहियणिजोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहेह / तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तिय-कुमारस्स सीयं परिवहें ति। तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय-कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठट्ठमंगला पुरओ अहाणुपुव्वीए संपढिया / तं जहासोत्थियसिरिवत्थ०जाव दप्पणं, तदाणं तरं च गं पुण्णकलसभिंगार जहा उव्वाइए० जाव गयणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुटवीए संपट्ठिया एवं जहा उववाइए तहेव भाणियव्यं०जाव आलोयं च करेमाणा जयजयस वा पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिया, तयाणंतरं च गं बहवे उग्गा भोगा जहा उववाइए०जाव महापुरिसवग्गुरा परिक्खित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ मग्गओ य पासओ य अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया, तए णं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया ण्हाया कय०जाव विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं उद्धृत्वमाणीहिं उद्धुव्वमाणीहिं हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महया भडचडगरजाव परिक्खित्ते जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठओर अणुगच्छइ / तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा आसवरा उभओ पासिं णागा णागवरा पिट्ठओ रहा रहसंगेल्ली। तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अब्भुग्गयभिंगारे परिग्गहियतालियंटे ऊसवियसेयछत्ते पवीइयसयचामरवालवीयणीए सटिवड्डीएन्जाव णाइयरवेणं, तयाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गहा कुंतग्गहाजाव पुत्थियग्गहाजाव वीणग्गहा, तयाणंतरं च णं अट्ठसयं गयाणं अट्ठसयं तुरियाणं अट्ठसयं रहाणं, तदाणंतरं च णं लउडअसिकों तहत्था णं बहू णं पायत्ताणी णं पुरओ संपट्ठिया, तयाणंतरं च णं बहवे राइसरतलवर०जाव सत्थवाहप्पभियओ पुरओ संपट्ठिया खत्तियकुंडग्गामे णयरे मज्झं मज्झेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे णयरे जेणेव बहुसालए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स खत्तियकुंडग्गामं णयरं मज्झं मझेणं णिग्गच्छमाणस्स सिंघाडगतिगचउक्काजाव पहेसु बहवे अत्थच्छिया जहा /
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________________ जमालि 1407 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि उववाइए जाव०अभिणंदंताय अभित्थुणंताय एवं वयासी-जय जय णंदा धम्मेणं, जय जय णंदा तवेणं, जय जय णंदा भदं ते, अभग्गेहिं णाणदंसणचरित्तमुत्तमेहिं अजियाइं जिया-हि इंदियाई, जितं पालेहि समणधम्मं, जियविग्घो वि य वसा--हि य देव ! सिद्धिमज्झे, निहणाहि रागदोसमल्ले तवेणं, धिइधणियबद्धकच्छे मद्दाहि अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो, हराहि आराहणपडागं च धीर ! तेलोकरंगमज्झे, पावय वितिमिरमणुत्तरं च केवलणाणं, गच्छ य मोक्खं परं पदं जिणवरोवदितुणं सिद्धिमग्गेण अकुडिलेन, हंता परीसहचडूं, अभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धमत्थुत्ति कट्ट अभिणंदंति य, अभित्थुणंति य / तए णं से जमाली खत्तिय-- कुमारे णयणमालासहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणे एवं जहा उववाइए कूणिओ०जाव णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे णयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता छत्ताईए तित्थगर इसए पासइ, पासइत्ता पुरिससहस्सवाहणिं सीयं ठवेइ, ठवेइत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पचोरुहइतएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग-- च्छइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तोजाव णमंसित्ता एवं वयासी-- एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते इटे कंतेजाव किमंग ! पुण पासणयाए से जहानामए उप्पलेइ वा पउमेइ वा०जाव सहस्सपत्ते वा पंके जाए जले संवुड्ढे णोवलिप्पइपंकरएणं, णोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामे हिं जाए भोगेहिं संवुड्डे णोवलिप्पइ कामरएणं, णोबलिप्पइ भोगरएणं, णोवलिप्पइ मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं, एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभयउव्विग्गे भीए जम्मजरामरणेणं इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, तं एस णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सीसभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सीसभिक्खं / अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो०जाव णमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमइत्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं उम्मुयइ। तएणं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणे णं पडसाड एणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छइ, पडिच्छइत्ता हारवारिधारक जाव विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी-घडियव्वं जाया ! जइयव्वं जाया ! परक्कमियव्वं जाया ! अस्सिं च णं अढे णो पमादेयत्वं त्ति कटु जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वंदंति, णमंसंति, जामेव दिसिं पाउडभूया तामेव दिसिं पडिगया / तए णं से जमाली खत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेइत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता एवं जहा उसभदत्तो तहेव पव्वइओ, णवरं पंचहिं पुरिससरहिं सद्धिं तहेव०जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जइत्ता बहूहिं चउत्थछट्ठट्ठम०जाव मासद्धमासक्खमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं से जमाली अणगारे अण्णया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीर वंदइ, णमंसइ,वंदित्ता णमंसइत्ता एवं वयासी-इच्छामिणं भंते! तुज्झेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए / तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमह्र णो आढाइ, णो परिजाणइ, तुसिणीए चिट्ठइ / तए णं से जमाली अणगारे समणे भगवं महावीरे दोचं पि तचं पि एवं वयासी-इच्छामिणं भंते! तुज्झेहिं अब्भ-णुण्णाए समाणे पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं०जाव विहरित्तए? तएणं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोचं पितचं पि एयमढे णो आढाइ, जाव०तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिआओ बहुसा-लाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णामं णयरी होत्था, वण्णओ, कोट्ठए चेइए वण्णओ०जाव वणसंडस्स / तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था, वण्णओपुण्णभद्दे चेइए वण्णओ०जाव पुढवीसिलापट्टओ। तए णं से जमाली अणगारे अण्णया कयाइं पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव कोट्ठए चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हइत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाईपुव्वाणुपुट्विं चरमाणे०जाव सुहं सुहेणं विहरमाणे वाजेणेव चंपा णयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्दइ, उवाग
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________________ जमालि 1408 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि च्छइत्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हइ, उग्गिण्हइत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य विरसेहि य अंतेहि य पंतेहि य लूहेहि य तुच्छेहि य कालाइक्कं तेहि य पमाणाइकंतेहि स सीएहिं पाणभोअणे हिं अण्णया कयाई सरीरगंसि विउलरोगातं के पाउन्भूए उज्जले तिउले पगाढे कक्कसे कडुए चंडे दुक्खे दुग्गे तिव्ये दुरहियासे पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवुकंतिए यावि विहरइ। तए णं से जमाली अणगारे वेदणाए अभिभूए समाणे समणे णिग्गंथे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासीतुज्झेणं देवाणुप्पिया ! ममं सेज्जासंथारयं संथरह / तए णं समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमह विणएणं पडिसुणे ति, पडिसुणे तित्ता जमालिस्स अणगारस्स सेज्जासंथरगं संथरेंति / तए णं से जमाली अणगारे बलियतरं वेदणाए अभिभूए समाणे दोघं पि समणे णिग्गंथे सद्दावेइ, सद्दावे इत्ता एवं वयासीममं गं देवाणुप्पिया ! सेज्जासंथारए किं कडे कज्जइ ? तए णं समणा णिग्गथा तं जमालिं अणगारं एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया! णं सेज्जासंथारए कडे कन्जइ / तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिएन्जाव समुप्पज्जित्था, जं णं समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइन्जाव एवं परूवेइ, एवं खलु चलमाणे चलिए उदीरिजमाणे उदीरिए०जाव णिजरिज्जमाणे णिज्जिपणे, तं ण मिच्छा, इमं च णं पञ्चक्खमेव दीसइसेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे,संथारिजमाणे असंथरिए, जम्हा णं सेज्जासंथारए कजमाणे अकडे संथरिजमाणे असंथरिए, तम्हा चलमाणे वि अचलिए०जाव णिज्जरिज्जमाणे वि अणिजिण्णे,एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता समणे णिग्गंथे सदावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासीजं णं दे वाणु प्पिया ! समणे भगवं महावीरे / एवमाइक्खइ०जाव परूवेइ, एवं खलु चलमाणे चलिए तं चेव सव्वं०जाव णिज्जरिजमाणे अणिज्जिण्णे। तएणं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स०जाव परू वे मा-णस्स अत्थेगइया समणा णिग्गंथा एयम४ सद्दहति, पत्तियंति, रोयंति, अत्थेगइयासमणा णिग्गंथा एयम8 णो सद्दहति, णो पत्तियंति,णो रोयंति, तत्थ णं ज त समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमट्ठ सद्दहंति, पत्तियंति, रोयंति, ते णं जमालिं चेव अणगारं उवसंपज्जित्ता णं विहरति / तत्थ णं जे ते समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमढे णो सद्दहंति, णो पत्तियंति, णो रोयंति, ते णं जमालिस्स अणगारस्स अतियाओ कोट्ठयाओ / चेइयाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमइत्ता पुटवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा णयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं वंदंति, णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उवसंपजित्ता णं विहरंति / तए णं से जमाली अणगारे अण्णया कयाई ताओ रोगातंकाओ विप्पमुक्के हढे तुढे जाए अरोए बलियसरीरे सावत्थीओ णयरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता पुव्वाणु पुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा णयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था भवित्ता छउमत्थावक-मणेणं अवक्कमंता, णो खलु अहं तहा चेव छ उमत्थे भविता छउमत्थावक्कमणेणं अवकंते,अहं णं उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलीअक्कमणेणं अवकंते / तए णं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं एवं क्यासीणो खलु जमाली! केवलिस्स णाणे वा दंसणे वा सेलसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आवरिजइवा, णिवारइज्जइ वा, जइणं तुम्मं जमाली ! उप्पएणणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलीअवक्कमणेणं अवकंते, ताणं इमाइं दो वागरणाई वागरेहि, सासए लोए जमाली !, असासए लोए जमाली ! सासए जीवे जमाली !, असासए जीवे जमाली !? तए णं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए०जाव कलुससमावण्णे जाए यावि होत्था, णो संचाएइ भगवओ गोयमस्स किंचि वि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीए संचिट्ठइजमाली। समणे भगवं महावीरे जमालिं अणगारं, एवं वयासी-अत्थि णं जमाली ! ममं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था, जे णं पभू एयं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं णो चेव णं एतप्पगारं भास भासित्तए जहा णं तुमं सासए लोए जमाली ! जंणं ण कदायि णासि, ण कदायि ण भवइ, ग कदायि ण भविस्सइ, भुविंच, भवइ, भविस्सतिय,धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवड्डिए णिचे असासए लोए जमाली ! ज ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ, सासए जीवे जमाली ! जण कदायि णासिजाव णिचे असासए
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________________ जमालि 1406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि जीवे जमाली ! जणं णेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भवित्ता देवे भवइ / तए णं से जमाली अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स एवमाइक्खमाणस्स०जाव एवं परूवेमाणस्स एयमटुं णो सद्दहइ, णो पत्तियइ, णो रोयइ, एयम४ असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे दोचं पि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आताए अवक्कमइ, दोचं पि आताए अवक्कमित्ता बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूइं वासाइंसामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणइत्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झसेइत्ता तीसं भत्ताई अणसणाई छेदेइ, छेदेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकं ते कालमासे कालं किचा लंतए कप्पे तेरससागरोवमाइं ठिईए देवकिदिवसिएसु देवेसु देवकिदिवसियत्ताए उववण्णे / तए णं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं कालगयं जाणि ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवाग-- च्छइ, उवागच्छइत्ता समर्ण भगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से जमाली णामं अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं / गए, कहिं उववण्णे ? गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली णाम अणगारे, से णं तदा मम एवभाइक्ख माणस्स 4 एयम8 णो सद्दहइ 3, एयमट्ट असद्दहमाणे दोचं पि मम अंतियाओ आताए अवक्क मइ, अवक्कमइत्ता बहू हिं असम्भावुब्भावणाहिं तं चेवन्जाव देवकिव्विसियत्ताए उववण्णे। (भ०) जमाली णं भंते ! अणगारे अरसाहारे विरसा-हारे अंताहारे पंताहारे लूहाहारे तुच्छाहारे अरसजीवी०जाव तुच्छजीवी उवसंतजीवी पसंतजीवी विवित्तजीवी?हंता गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे०जाव विवित्तजीवी। जइणं भंते ! जमाली अणगारे अरसाहारे०जाव विवित्तजीवी, कम्हा णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरस सागरोवमट्ठिईएसु देवकिदिवसिएसु देवेसु देवत्ताए उववरणे ? गोयमा ! जमाली णं अणगारे आयरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारएन्जाव वुप्पाएमाणे बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणेइ, पाउणइत्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताइंअणसणाइंछेदेइ, छेदेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइमपडिकंते कालमासे कालं किचालंतए कप्पे०जाव उववण्णे / जमाली णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं०जाव कहिं उववजिहि त्ति? गोयमा ! चत्तारिपंच तिरिक्खजोणियमणुस्सदेव-भवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति० जाव अंतं काहिति सेवं भंते ! भंते त्ति जमाली सम्मत्तो। अथ भगवता श्रीमन्महावीरेण सर्वज्ञत्वादमु तद्व्यतिकरं जानताऽपि किमिति प्रताजितोऽसाविति? उच्यते-अवश्य भाविभावनां महानुभावैरपि प्रायो लङ्कथितुमशक्यत्वादित्थमेव वा गुण-विशेषदर्शनात अगूढलक्षा हि भगवन्तोऽर्हन्तो न निष्प्रयोजनं क्रियासु प्रवर्तन्ते। भ०६ श०३३ उ०॥ अथ संपिण्ड्य सामान्यतः सूचितमेवार्थ मेकेकनिहवं प्रति व्यक्तितो निर्दिशन्नाहचोदसव वासाणि तया, जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्स। तो बहुरयाण दिट्ठी, सावत्थीए समुप्पन्ना / / 2306 / / चतुर्दश वर्षाणि तदा जिनेन श्रीमन्महावीरेणोत्पादितस्य केवलज्ञानस्य ततोऽवान्तरे बहुरतनिहवानां दर्शनं दृष्टिः श्रावस्त्यां नगर्या समुपन्नेति / / 2306 / / सा च यथोत्पन्ना तथा दिदर्शयिषुः संग्रह गाथामाहजिट्ठा सुदंसण जमा-लिणोज सावस्थितिंदुगुजाणे। पंच सया य सहस्सं,डंकेण जमालि मोत्तूणं // 2307 / / अन भावार्थस्तावत्कथानकेनोच्यते-इहैव भरतक्षेत्रे कुण्डपुरं नाम नगरम् / तत्र भगवतः श्रीमन्महावीरस्य भागिनेयो जमालिन म राजपुत्र आसीत्। तस्य च भार्या श्रीमन्महावीरस्य दुहिता। तस्याश्च जेष्ठेति वा, सुदर्शनेति वा, अनवद्याङ्गीति वा नामेति। तत्र पञ्चशतपुरुष्ज्ञपरिवारो जमालिर्भगवतो महावीरस्यान्तिके प्रव्रज्यां जग्राह / सुदर्शनाऽपि सहसस्त्रीपरिवारा तदनु प्रव्रजिता / ततश्चैका-दशस्वङ्गे ष्वधीतेषु जमालिना भगवान् विहारार्थं मुत्कलापितः। ततो भगवतातूष्णीमास्थाय न किश्चित्प्रत्युत्तरमदायि, तत एव-ममुत्कलितोऽपि पञ्चशतसाधुपरिवृतो निर्गतः श्रीमन्महावीरान्तिकात् / ग्रामानुग्रामं च पर्यटन् गतः श्रावस्तीनगर्या, तत्र च तेन्दुकाऽभिधानोद्याने कोष्ठकनाम्नि चैत्ये स्थितः, ततश्च तत्र तस्यान्तः प्रान्ताहारैरस्तीव्रो रोगातङ्गः समुत्पन्नः, तेन च न शक्नोत्युपविष्टः स्थातुम् / ततो बमाण श्रमणान्- मन्निमित्तं शीघ्रमेव संस्तारक-मास्तृणीत, येन तत्र तिष्ठामि / ततस्तैः कर्तुमारब्धोऽसौ / वाढ च दाहज्वराभिभूतेन जमालिना पृष्टम्-संस्तृतः संस्तारको न वेति? साधुभिश्च संरतृतप्रायत्वादर्धसंस्तृतेऽपि प्रोक्तम्- संस्तृत इति / ततोऽसा वेदना विह्न लितचेता उत्थाय तत्र तिष्ठासुरर्द्धसंस्तृत तत् दृष्ट्वा क्रुद्धः-- 'क्रियमाणं कृतम्' / इत्यादि सिद्धान्तवचनं स्मृत्वा मिथ्यात्वमोहनीयोदयतो वक्ष्यमाणयुक्तिभिर्वितथमिति चिन्तयामास / ततः स्थविरैर्वक्ष्यमाणाभिरेव युक्तिभिः प्रतिबोधितो यदा कथमपि न प्रतिबुध्यते, तदा गतास्तं परित्यज्य भगवत्समीपे। अ-ये तु तत्समीप एव स्थिताः। सुदर्शनाऽपि तदा तत्रैव श्रावकढङ्ककुम्भकारगृहे आसीत्। जमाल्यनुरागेण च तन्मतमेव प्रपन्ना, ढङ्कमपि
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________________ जमालि 1410 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि तद्ग्राहयितुं प्रवृत्ता, ततो ढलेन मिथ्यात्वमुपगतेयमिति ज्ञात्वा प्रोक्तम्नेदृशं किमपि वयं जानीमः / अन्यदा चापाकाग्निमध्ये मृदाजनोद्वर्तनपरावर्तने कुर्वता अङ्गारकमेकं प्रक्षिप्य तत्रैव प्रदेशे स्वाध्यायं कुर्वत्याः सुदर्शनायाः सङ्घाट्यञ्चलो दग्धः / ततस्तया प्रोक्तम-श्रावक ! किं त्वया मदीयसकाटी दग्धा? तेनोक्तम्-ननु 'दह्यमानमदग्धम्' इति भवति भवत्यास्सिद्धान्तः, ततः क केन त्वदीया सनाटी दग्धा? इत्यादि तदुक्तं परिभाव्य संबुद्धाऽसौ सम्यक् प्रेरिताऽस्मीत्यभिधाय मिथ्यादुष्कृत ददाति, जमालिं च गत्वा प्रज्ञापयति / यदा चासौ कथमपि न प्रज्ञाप्यते, तदाऽसौ सपरिवारा शेषसाधवश्चैकाकिनं जमालि मुक्त्वा भगवत्समीप जग्मुः। जमालिस्तु बहुजनं व्युद्ग्राह्यानालोचितप्रतिक्रान्तः कालं कृत्वा किल्विषिकदेवेषूत्पन्नः / व्याख्याप्रज्ञप्त्यागमाचेतत् चरितं विस्तरतोऽवसेयमिति। एष संग्रहगाथाभावार्थः / अक्षरार्थस्त्वयग-(जंहासुदंसण जमालिणोज त्ति) ज्येष्ठा, सुदर्शना, अनवद्याङ्गीति जमालिगृहणीनामानि / अन्ये तु व्याचक्षतेज्येष्ठा महती सुदर्शना नाम भगवतः श्रीमन्महावीरस्य भगिनी, तस्याः पुत्रो जमालिः, अनवद्यागी नाम भगवतो दुहिता जमालिगृहिणीति श्रावस्त्यां नगर्या तैन्दुकोद्याने जमालिनिवदृष्टिरुत्पन्नेति वाक्यशेषः। तत्र पञ्च शतानि साधूनां, सहरसं चार्यिकाणाम, एतेषां मध्ये यः स्वयं न प्रतिबुद्धःतं जमालि मुक्त्वा ढकेन प्रतिबोधितः / इति नियुक्तिगाथार्थः // 2307 / / अथ भाष्यकारो येन विप्रतिपत्त्यभिप्रायेण जमालिनिहवो जातस्तं प्रकटयन्नाहसक्खं चिय संथारो, न कञ्जमाणो कउ त्ति मे जम्हा। वेइ जमाली सव्वं, न कञ्जमाणं कयं तम्हा // 2308|| (जे जम्ह ति) यस्मान्मम साक्षात्प्रत्यक्षमेवेदं वृत्तं, यदुत कम्बलास्तरणरूपः संस्तारकः क्रियमाणो न कृतः,संतीर्यमाणो न संस्तृतः। तस्माजमालिब्रवीति-सर्वमपि वस्तु क्रियमाणं कृतं न भवति, किंतु कृतमेव कृतमुच्यते / ततो भगवत्यादिषु यदुक्तम्-'चालमाणे चलिए उईरिजमाणे उईरिए, वेइज्जमाणे वेइए" इत्यादि, तत्सर्व मिथ्येत्यभिप्रायः / / इति // 2308|| अपि च, क्रियमाणं कृताऽभ्युपगमे बहवो दोषाः, क एते? इत्याहजस्सेह कज्जमाणं, कयं ति तेणेह विज्जमाणस्स। करणकिरिया पवन्ना, तहा य बहुदोसपडिवत्ती।।२३०६।। इह यस्य वादिनः क्रियमाणं वस्तु कृतमित्यभ्युपगमः, तेनेह विद्यमानस्य सतः करणरूपाः क्रियाः करणक्रियाः प्रतिपन्ना अङ्गीकृताः / तथा च सति वक्ष्यमाणानां बहूनां दोषाणां प्रतिपत्तिरभ्युपगमरूपा कृता भवतीति // 230611 तथाहिकयमिह न कज्जमाणं, सब्भावाओ चिरंतनघडो व्व / अहवा कयं पि कीरई, कीरउ निचं न य समत्ती / / 2310 / / इह क्रियमाणं कृतं न भवतीति प्रतिज्ञा, सद्भावात्- कृतस्य विद्यमानत्वादिति हेतुः, चिरन्तनघटवदिति दृष्टान्त: विपर्यये बाधकमाह-अथ कृतमपि क्रियत इत्यभ्युपगम्यते, तर्हि नित्यम- 1 नवरतमेव क्रियता, कृतकत्वाविशेषात् / एवं च सति न कदाचिदपि कार्यक्रियापरिसमाप्तिरिति // 2310 / / किमेतावन्मात्रमेव दूषणं? नेत्याहकिरियावेफल्लं ति य, पुव्वमभूयं च दीसए होतं / दीसइदीहो य जओ, किरियाकालो घडाईणं // 2311 / / यदि च क्रियमाणं कृतमिष्यते, तर्हि घटादिकार्यार्थ या मृन्मर्दनचक्रभ्रमणादिका क्रिया, तस्याः वैफल्यं प्राप्नोति, तत्-काले कार्यस्य कृतत्वाभ्युपगात / प्रयोगः-इह यत्कृतं, तक्रिया विफलैव, यथा चिरनिष्पन्नघटे, कृतं चाऽभ्युपगम्यते क्रियाकाले कार्य , ततो विफला तत्र क्रियेति। किं च-क्रियमाणकृतवादिना कृतस्य विद्यमानस्य क्रियेति प्रतिपादित भवति / एवं च प्रत्यक्ष-विरोधः, यस्मादुत्पत्तिकालात्पूर्वमभूतमविद्यमानमेव कार्य भवज्जायमानं दृश्यते, उत्पतिकाले तस्मारिक यमाणमकृ तमे वेति / किं च-आरम्भक्रि यास मय एव कार्यमुत्पद्यत इति तवाभ्युपगमः / एतच्चायुक्तम् / कुतः? यस्मात् घटादिकार्याणामुत्पद्यमानाना दीर्घ एव निर्वर्तनक्रियाकालो दृश्यत इति // 2311 // दृश्यता नाम दीर्घः क्रियाकालः, परं घटादिकार्यमारम्भक्रियासमय एव शिवकादिकाले वा द्रक्ष्यत इति चेत्, तदयुक्तम्। कुत इत्याहनारंभे चिय दीसइ,न सिवादद्धाएँ दीसइ तदंते। तो न हि किरियाकाले, जुत्तं कजं तदंतम्मि॥२३१२।। नारम्भक्रियासमय एव घटादिकार्य भवद दृश्यते, नापि शिवाद्यदायाम्-शिवकस्थासकोशकुशूलादिसमयेष्वपि न दृश्यत इत्यर्थः कतर्हि दृश्यते? इत्याह-तदन्तेदीर्घक्रियाकालस्यान्तेघटादिकार्य भयद् दृश्यते, तस्मान्न क्रियाकाले कार्य युक्तं, तस्य तदानीमदर्शनात्। तदन्ते तु दीर्धक्रियाकालस्यान्ते युक्तं कार्य , तदानीमेव तस्य दर्शनादिति सकलजनस्य प्रत्यक्षसिद्धमेवेदम् / इति जमालिपूर्वपक्षः / / 2312 // ___ अत्र स्थविराः प्रतिविदधति स्म / कथमित्याहथेराण मयं नाकय--मभावओ कीरए खपुप्फं व / अहव अकयं पि कीरइ, कीरउ तो खरविमाणं पि / / 2313 // स्थविराः श्रुतवृद्धा गीतार्थाः साधवः, तेषां मतम्-कुप्ररूपणां कुर्वन्त जमालिं ते एवं प्रज्ञापयन्तीत्यर्थः-नाकृतमविद्यमानं घटादिकार्य क्रियते. असत्त्वात, आकाशकुसुमवत् / अथाकृतम-विद्यमानमपि क्रियते, क्रियता तर्हि खरविषाणमपि, अकृतत्वाविशेषादिति / / 2313 / / यदुक्तम्- 'कीरउ निचं न य रामत्ती' (2310) इत्यादि, तत्राहनिचकिरियाइदोसा, नणु तुल्ला असइ कट्ठतरगा था। पुटवमभूयं च न ते, दीसइ किं खरविसाणं पि॥२३१४|| नन्वसत्यविद्यमाने वस्तुनि करणक्रियाभ्युपगमे, नित्यक्रियादिदोषाः, आदिशब्दादिक याऽपरिसमाप्तिक्रि यावेफ ल्यपरिगृहः, आवयो स्तुल्याः समाः, यथा कृतपक्षे त्वया दत्तास्तथा अकृतपक्षेऽप्यापतन्तीत्यर्थः / किं तुल्या एव? नेत्याह-कष्टतरका
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________________ जमालि 1411 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि वा। विद्यमाने हि वस्तुनि पर्यायविशेषाधानद्वारेण कथञ्चित्करणब्रियाद्युपथतएव, यथा- "आकाशं कुरु, पादौ कुरु, पृष्ठ कुरु'' इत्यादि। अविद्यामाने तु सर्वथा नायं न्यायः संभवति, सर्वथा असत्त्वात् खरविषाणवदिति / यदि च पूर्व कारणावस्थायामभूत-मसत् कार्य जायते, तर्हि मृत्पिण्डाद्घटवत् खरविषाणमपि जायमानं किं न दृश्यते, असत्त्वाविशेषाद् ? अथ खरविषाणं भवन्न दृश्यते, तर्हि घटोऽपि तथैवास्तु, विपर्ययो वेति / / 2314|| यदुक्तम्-"दीसइ दीहो य जओ''(२३११) इत्यादि, तत्राहपइसमउप्पन्नाणं, परोप्परविलक्खणाण सुबहूणं। दीहो किरियाकालो, जइ दीसइ किं त्थ कुंभस्स // 2315 / / यदि नाम प्रतिसमयोत्पन्नानां परस्परविलक्षणस्वरूपाण सुबह्वीनां शिवकस्थासकोशकुशूलादिकार्यकोटीनां क्रियाकलनिष्ठाकालयोरेकत्वेन प्रतिप्रारम्भसमयनिष्ठाप्राप्तानां दीर्घक्रियाकालो दृश्यते, तर्हि कुम्भस्य घटस्य किमत्रायातम्? इदमुक्तं भवतिमृदानयनमर्दनपिण्डविधानादिकालः सर्वोऽपि घटनिर्वर्तनक्रियाकाल इति तवाभिप्रायः / अयं चायुक्त एव / अतः तत्र प्रतिसमयमन्यान्येव कार्याण्यारभ्यन्ते, निष्पाद्यन्ते च, कार्यस्य कारणकालनिष्ठाकालयोरेकत्वात् / घटस्तु पर्यन्त समय एवारभ्यते, तत्रैव च निष्पद्यत इति कोऽस्य दी? निर्वर्तनक्रियाकालः? इति / / 2315|| अथान्यप्राक्तनकालसमयेष्वपि घटः किं न दृश्यते? इत्याहअन्नारभे अन्नं, किह दीसउ जह घडो पडारंभे / सिवकादओ न कुंभो, किह दीसऍ सो तदद्धाए॥२३१६|| अन्यस्य शिवकादेरारम्भे अन्य घटलक्षणं कार्य कथं दृश्यते? न हि पटारम्भे घटः कदाचिदपि दृश्यते / अतः किमुच्यते- 'नारंभे चिय दीसई' त्ति / शिवकादयोऽपि कुम्भरूपा न भवन्ति,किं तु ततोऽन्य एवेति कथं तदद्धायामप्यसौ कुम्भो दृश्यते? अतएवतदप्यज्ञतया प्रोच्यते "न सिवादद्धाए" इति // 2316 / / यत्तूक्तम्-"दीसइ तदंते' इति, तत्राहअंते चिअ आरद्धो, जह दीसइ तम्मि चेव को दोसो ? अकयं व संपइ गए, कह कीरउ कह व एस्सम्मि? // 2317|| अन्त एव क्रियाक्षणे प्रारब्धो घटो यदि तत्रैव दृश्यते तर्हि को दोषः? न कश्चिदित्यर्थः / यदुक्तम्- "तो न हि किरियाकाले' इत्यादि। तत्राह"अकयं वा'' इत्यादि / यदि च संप्रति वर्तमान-क्रियाक्षणे न कृतं कार्यमितोष्यते तदा गते अतिक्रान्ते, एष्यति-अनागते च क्रियाक्षणे कथं नाम तत्कार्य क्रियताम्? न कथञ्चिदित्यर्थः / तथाहि-नातीतभविष्यत्क्रियाक्षणी कार्यकारको, विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वात् / खरविषाणवत्, अतः कथं क्रियान्ते कार्य स्यात्? तस्मास्क्रियामाणमेव कृतमिति / यदि च क्रियमाणमपि न कृतं. कतर्हि कृतमिति वक्तव्यम् ? क्रियाविगम इति चेत्। तदयुक्तम् / तदानीं क्रियाया असत्त्वात्तदसत्त्वेऽपि च कार्योत्पताविष्यमाणायां क्रियारम्भात्प्रागपि कार्योत्पत्तिः स्यात्, क्रिया - सत्त्वाविशेषाद् / अथ संप्रतिसमयः क्रियमाणकालः, सदनन्तरस्तु कृतकालो, नचं क्रियमाणकाले कार्यमस्ति, इत्यतः खल्वकृतं क्रियते, | नतु कृतमित्यभिधत्से।नन्येतदिह प्रष्टव्योऽसि-किं भवतः कार्य क्रियया क्रियते, उत तामन्तरेणाऽपि भवति? यदि क्रियया, तर्हि कथं साऽन्यत्र समये, अन्यत्र तु कार्यम्? न हि खदिरे छेदनक्रियायां पलाशे छेदः सदुपजायते। किं च- "क्रियोपरमे कार्य भवति, न तु क्रियासद्भावे" इति वदता प्रत्युत कार्योत्पत्तेर्विघ्नहेतुः क्रियेति प्रतिपादितं भवति / ततश्च कारणमप्यकारणमिति प्रत्यक्षादिविरोधः। अथ क्रियामन्तरेण कार्यमुपजायते इत्यभ्युपगम्यते, तर्हि घटादिकार्यार्थिनां निरर्थकः सर्वोऽपि मृन्मर्दनपिण्डविधान-चक्रारोपणभ्रमणादिक्रियारम्भः, अतोन कर्तव्यं मुमुक्षुभिरपि तपः संयमादिक्रियानुष्ठानं, तदनन्तरेणापि मुक्तिसुखसिद्धेः / न चैवम्, तस्मात् क्रियाकाल एव कार्य , न पुनस्तदुपरम इति / / 2317|| पुनरप्याह-ननु मृदानयनतन्मर्दनादिकश्चक्रादिच्छिन्नताकरणकार्यपर्यन्तो दीर्घ एव मया घटनिवर्तनक्रियाकालोऽनुभूयते, नतु यत्रैव समये प्रारभ्यते तत्रैव निष्पद्यत इत्यनुभूयते, तदेतत्कथ-मित्याहपइसमयकज्जकोडी-निरवेक्खो घडगयाहिलासो सि। पइसमयकजकालं, थूलमई ! घडम्मि लाएसि // 2318|| हन्त ! यद्यपि प्रतिसमयमन्यान्यरूपाः कार्यकोटयः तत्रोत्पद्यन्ते, तथाऽपि तन्निरपेक्षस्त्वम्-निष्प्रयोजनत्वेनाविवक्षितत्वादुत्पद्यमाना अपितास्त्वं न गणयसीत्यर्थः / कुतः? यस्माद् घटगताऽभिलाषोऽसि, सप्रयोजनत्वेन तस्यैव प्रधानतया विवक्षितत्वात्। 'घट इहोत्पत्स्यते' इत्येवं तत्रैव तवाभिलाषः, अतः प्रतिसमयकार्यकोटीनामदर्शकत्वेन स्थूलमते ! प्रतिसमयकार्यसंबन्धिनमपि कालं सर्वमपि घटे लगयसि'सर्वोऽप्ययं घटोत्पत्तिकालः' इत्येवमध्य-वस्यसि, त्वमित्यर्थः, अतो मिथ्यानुभवोऽयं तवेत्यभिप्रायः, एकसामयिक एव घटोत्पत्तिकाले बहुसामयिकत्वग्रहणेन प्रवृत्तेः। अत्राह-ननु प्रतिसमयं कार्यकोटय उत्पद्यमानास्तत्र न काश्चन् संवेद्यन्ते, किं त्वपान्तराले शिवकस्थासकोशादीनि कानिचिदेव कार्याणि संवेद्यन्ते। सत्यम्, किं तु स्थूलान्येव शिवकादिकार्याणि, यानि तु प्रतिसमयभावीनि सूक्ष्मकार्याणि तानि छद्मस्थो व्यक्त्या नावधारयितुं शक्नोति, परं प्रतिसमयकार्याणां ग्राहकाण्यनन्त-सिद्धकेवलिना ज्ञानान्युत्पद्यन्ते, तान्यपि तत्रापान्तराले कार्या–ण्येव, इति घटन्त एव प्रतिसमयं कार्यकोटय इति॥२३१८|| अत्र प्रेरकः प्राहको चरमसमयनियमो, पढमे चिय तो न कीरए कजं / नाकारणं ति कजं, तं चेवं तम्मि से समए / / 2319 / / ननु यदि कार्यस्य दीर्घः क्रियाकालो नेष्यते, किं त्वेकसामायिक एव, तर्हि कोऽयं चरमसमयनियमो, येन तत्रैवोत्पद्यते घटादिकार्यम्-नघटत एवायं नियम इत्यर्थः / तत एतन्नियमाभा-वात् किं प्रथमसमय एव कार्य न क्रियते ?-अपितु क्रियत एवेति काक्वा नीयते। अत्रोत्तरमाह-अकारणं कार्य न भवति, तचान्त्यसमये, एव (से) तस्य घटस्य कारणमस्ति, न तत्प्रथमसमये, अतः कथं तत्रोत्पद्यते? अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि कार्यकारणभावः, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां चान्त्यसमय एव घटादेः कारण लक्ष्यत इति तत्रैव तदुत्पद्यत इति युक्त एव घरमसमयनियम इति // 2316 / /
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________________ जमालि 1412 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालि अथोपसंहरस्तात्पर्यमाहतेणेह कञ्जमाणं, नियमेणं कयं कयं तु भयणिज / किंचिदिह कज्जमाणं, उवरयकिरियं च होज्जाहि / / 2320|| तेन उक्तप्रकारेण क्रियमाणं वर्तमानक्रियाक्षणभावि कार्य नियमेन कृतमेवोच्यते यत्तु कृतं तद्भजनीय विकल्पनीयम् / कथम? इत्याहकिंचिदिह कृतं क्रियाप्रवृत्तिकालभावि क्रियमाणमुच्यत, अन्यत्तूपरतक्रिय चक्रापाकाद्युत्तीर्ण कृतं घटाद्विकार्य न क्रियमाणमुच्यते, उपरतक्रियत्वादिति // 2320 / / तदेवं सामान्येन प्रतिपाद्य प्रस्तुते जमालिसंस्तारकेऽमुं सक लमपि स्थविरोक्तं युक्तिकलापमायोजयन्नाहजं जत्थ नभोदेसे, अत्थुवइ जत्थ जत्थ समयम्मि। तं तत्थ तत्थ मत्थुय, मत्थुव्वंतं पितं चेव / / 2321 / / आस्तीर्यमाणसंस्तारकस्य यद्यावन्मात्रं नभोदेशे यत्र यत्र समये (अत्थुव्वइ) आस्तीर्यते तत् तावन्मानं तस्मिन्नभोदेशे तत्र तत्र समये आस्तीर्णमेव भवति, आस्तीर्यमाणमपि च तदेवोच्यते। इदमुक्तं भवतिसर्वोऽपि संस्तारक आस्तीर्यमाणो नास्तीर्ण इति क्रियमाणं कृतम्' इत्यादि महावीरवचनं व्यलीकमेव जमालिमन्यते / एतच्चायुक्तम्, भगवद्वचनाभिप्रायापरिज्ञानात्। सर्वनयात्मकं हि भगवद्वचनम् / ततश्च 'क्रियामाणमकृतम्' इत्यपि भगवान् कथंचिद् व्यवहारनयमतेन मन्यत एव, परम् "चलमाणे चलिए, उईरिजमाणे उईरिए'' इत्यादिसूत्राणि निश्चयनयमतेनैव प्रवृत्तानि / तन्मतेन च क्रियमाणं संस्तृतम्, इत्यादि सर्वमुपपद्यत एव। निश्चयो हि मन्यते-प्रथमसयादेव घटः कर्तुं नारब्धः, किं तु मृदानयनमर्दनादीनि प्रतिसमयं परापरकार्याण्यारभ्यन्ते.तेषां च मध्ये यद्यत्र समये प्रारभ्यते तत्तत्रैव निष्पद्यते, कार्यकालनिष्ठाकालयोरेकत्वात्, अन्यथा पूर्वोक्तदोषप्रसंगात्। ततः क्रियमाणं कृतमेव भवति / एवं प्रस्तुतः संस्तारकोऽपि नाद्य समयात्सर्वोऽपि संरतरीतुमारभ्यते, किंत्वपरापरे तदवयवाः प्रतिसमयमास्तीर्यन्ते, तेषा च मध्ये यो यत्र समयेऽवयवः संस्तरीतुमारभ्यते स तत्रैवास्तीर्यते, परिपूर्णस्तु संस्तारकश्चरमसमय एव संस्तरीतुमारभ्यते तत्रैव च निष्पद्यत इति। संस्तीर्यमाणं संस्तीर्णमेव भवतीति।।२३२१॥ "दीसइ दीहो यजओ"(२३११) इत्यत्राहवहुवत्थत्तरणविभिण्ण-देसकिरियाइकज्जकोडीणं / मन्नसि दीहं कालं, जइ संथारस्स किं तस्स / / 2322 / / यदि नाम बहुवस्त्रास्तरणविभिन्नदेशक्रियादिकार्यकोटीना संबन्धिन दीर्घकालं मन्यसे जानासि त्वं, ततः संस्तारकस्य तस्य किमायातम? इत्यक्षरघटना। विभिन्नो देशो यासा ता विभिन्नदेशाः, ताश्च ताः क्रियाश्च विभिन्नदेशक्रियाः, वस्त्रस्योपलक्षणत्वात् कम्बलानां चास्तरण वरखकम्बलास्तरण, तस्य विभिन्नदेशक्रिया वरखकम्बलास्तरणविभिन्नदेशक्रियाः, तदादयश्च ताः कार्यकोट्यश्च तास्तथा, बढ्यश्च ता वस्त्रकम्बलास्तरणविभिन्नदेशक्रियादिकार्यकोटयश्च बहुवस्त्रकम्बलास्तरणविभिन्नदेशक्रियादिकार्यकोटय इति समासः, तासामिति / आदिशब्दः स्वगतानेकभेदख्यापकः, कार्यणां च कोटिसंख्यत्वमिहापि पूर्ववद्भावनीयमिति // 2322 // ननु यदि पूर्वमराषराणि कार्याणि निष्पद्यन्ते, संस्तारकस्तु पर्यन्तसमय एवारभ्यते, निष्पद्यते च कार्यक्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात् तर्हि / कथं संस्तारकस्यैव मदीर्घः क्रियाकालो मयाऽनुभूयते ? इत्याहपइसमयकजकोडी-विमुहो संथारयाहिकयकजो। पइसमयकञ्जकालं, कहं संथारम्मि लाएसि? ||2323 / / गतार्था, नवरं संस्तारकेणाधिकृतं प्रस्तुत कार्य यरयासौ संस्तारकाधिकृतकार्य इति समासः // 2323|| तदेवं स्थविरैर्युक्तिभिः संबोध्यमाने तस्मिन् किं संजातमित्याहसो उज्जुसुयनयमयं, अमुणंतो न पडिवजए जाहे। ताहे समणा केई, उवसंपण्णा जिणं चेव / / 2324 / / पियदंसणा विपइणो-ऽणुरागओ तम्मयं चिअपवण्णा। ढंकोवहियागणिद-ढवत्थदेसा तयं भणइ // 2325 / / सावय ! संघाडी मे, तुमए दड्ड त्ति सो वि अतमाह / नणु तुज्झ डज्झमाणं, ददुति मओ न सिद्धंतो / / 2326 / / दडं न डज्झमाणं, जइ विगएडणागए व का संका ? काले तयभावाओ, संघाडी कम्मि ते दड्डा? ||2327 / / चतस्रोऽपि गाथा गतार्थाः, नवरम् ऋजुसूत्रो निश्चयनयविशषः / (पियदसणा वित्ति) आहननु पूर्वं 'सुदर्शना' इति तस्या नाम प्रोक्तं, कशमिदानीं प्रियदर्शनेत्युच्यते? सत्यं, किं त्विदमपि तस्या नाम द्रष्टव्यम् / तथा चोक्तम्-"तेयसिरिंच सुरूवं, जणइय य पियदसणं धूयं " इति। "ढकोवहिय" इत्यादि / स्वाध्यायपौरुषी कुर्वत्यास्तस्या आपाकाद् गृहीत्वा ढङ्केनोपहितः क्षिप्तो योऽग्निस्तेन दग्धो वस्त्रदेशो यस्याःसा ढकोपहिताग्निदग्धवस्त्रदेशा सती तं ढाई भणति, सोऽपि तां प्रियदर्शनामाह- "दई'' इत्यादि चतुर्थगाथाया अयं भावार्थः / ननु यदि दह्यमानं दाहक्रियाक्षणे वर्तमाने वस्त्र न दाधमिति भवद्भिरुच्यते, ततो विगते उपरते, अनागते वा भविष्यति दाहक्रियाकाले का शङ्का वस्त्रदाहविषया? तदभावाद्-दाहक्रियाया विनष्टानुत्पन्न वेन सर्वथा अभावादित्यर्थः / अतो वर्तमानातीतानागतलक्षणे कालत्रये प्युक्तयुक्तितोऽदग्धत्वात् कस्मिन् काले आर्ये ! ते तव सङ्घाटी मया दग्धेत्युच्यताम् ? इति // 2324 // // 2325||2326||2327|| अथ आर्ये ! त्वमेवं मन्यसे, किम्? इत्याह-- अहवा न डज्झमाणं, द४ दाहकिरियासमत्तीए। किरियाऽभावे दडं, जइ दढे किं न तेलुकं ? ||2328|| अथ चैवं ब्रूषे-दह्यमानं न दग्धं, किंतु दाहक्रियासमाप्तौ दग्धम्। नन्वेवं सति दाहक्रियाऽभावे दग्धमित्युक्तं भवति / एतच्चायुक्त म.यतो यदि दाहक्रियाऽभावे दग्ध, तर्हि त्रैलोक्यमपि किं न 'दग्धम्' इत्यत्रापि संबध्यते, यथा वस्त्रे तथा त्रैलोक्ये ऽपि दाह क्रियाऽभाव-स्य तुल्यत्वादिति / / 2328 / / ततः किमिह स्थितमित्याहउज्जुसुयनयचमयाओ, वीरजिणिंदवयणावलंबीणं। जुज्जेज डज्झमाणं, दटुं वोत्तुं न तुज्झ त्ति / / 2326 / / उत्तानार्था // 2326 / /
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________________ जमालि 1413 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जमालिअज्झयण ननु दह्यमानदग्धवादिनोऽप्यञ्चलमात्रदेशे दह्यमाने सड्घाटी कथं दग्धेति व्यपदिश्यते? इत्याहसमए समए जो जो, देसोऽगणिभावमेइ डज्झमाणस्स। तं तम्मि डज्झमाणं,द8 पि तमेव तत्थेव / / 2330 / / यो यो दाह्यस्य पटादेर्देशस्तन्त्वादिः समये समयेऽग्निभावमेति दात इत्यर्थः / तत्तद्देशरूपं वस्तुतस्मिन् समये दह्यमानं भण्यते, तथा दग्धमपि तदेव वस्तु तस्मिन्नेव समये भण्यते, अतो 'दह्यमानमेव दग्धम्' यत्तु देशमात्रेऽपि दग्धे सङ्घाटी मे दग्धेति त्वं वदसि, तत्सङ्घाट्येकदेशेऽपि संघाटीशब्दोपचारादिति मन्तव्यमिति // 2330|| ततः किमिह स्थितम्? इत्याहनियमेण डज्झमाणं, दटुंदढ तु होइ भयणिज्जं / किंचिदिह डज्झमाणं, उवरयदाहं च होजाहि॥२३३१।।। व्याख्या प्रागुक्तानुसारेण कार्येति // 2331 / / इत्यादिढङ्को क्तयुक्तिभिः संबुद्धा प्रियदर्शना, शेषसाधवश्च 'आर्य! इच्छामः सद्भूतमिदं त्वदीयसंबोधनम्' इत्येवढङ्काभिमुखमभिधाय एकाकिनं जमालिनं मुक् त्वा सर्वाण्यपि गतानि जिनसमीपमिति एतदेवाहइच्छामो संवोहण-मजो! पियंदसणादओ ढंकं / वोत्तुं जमालिमेकं, मोत्तूण गया जिणसगासं // 233|| उक्तार्थव / इति पञ्चविंशतिगाथार्थः / / 2332 / / विशे०। आ० म० आ०चूला ''तएणं जमालिस्स एवमाइक्खमाणस्स अत्थेगइया निग्गंथा एयनत्थं सद्दहति, अत्थेगइया णो सद्दहति' (उत्त०) इत्यस्योपरि उत्तराध्ययनवृत्तिगत विवरण प्रदर्श्यत-तत्र येन श्रद्दधति, ते एवमाहुःभगवन् ! भवतोऽयमाशयः- "यथा घटः पटो नैव, पटो वा नघटो यथा / क्रियमाणं कृतं नैव, कृतं न क्रियमाणकम्" ||1|| प्रयोगश्चयौ निश्चितभेदी, न तयोरैक्यं, यथा घटपटयोनिश्चितभेदे च कृतक्रियमाणके, अत्र चासिद्धो हेतुः, तथाहि-कृतक्रियमाणे किमेकान्तेन निश्चित भेदे, अथ कथञ्चित् यद्येकान्तेनतत्किं तदेक्ये सतोऽपिकरणप्रसङ्गतः उत क्रियाऽ-नुपरमप्राप्तेराहोस्वित्प्रथमादिसमयेष्वपि कार्योपलम्भप्रशक्तेः, अथ क्रियावैफल्यापत्तितो दीर्घक्रियाकालदर्शनानुपपत्तेर्वा तत्र न तावत्सतोऽपि करणप्रसङ्ग इति युक्तम- सत्करणे हि खपुष्पादेरेव करणमापद्यत इति कथञ्चित्सत एव करणमस्माभिरभ्युपगतम्, न चाभ्युपगमार्थस्य प्रसञ्जनं प्रयुज्यते। नाऽपि क्रियानुपरमप्राप्तेः, यत इह क्रिया किमेकविषया, भिन्नविषया वा ? यद्येकविषया न दोषः। / तथाहि-यदि कृतं क्रियमाणमुच्यते, तदा तन्मतेन निष्पन्नमेव कृतमिति, तस्यापि क्रियमाणतायां क्रियाऽनुपरमप्राप्तिलक्षणो दोषः स्यात् न तु क्रियमाणं कृतमिति उक्तौ तत्र क्रियावेशसमय एव कृतत्वाऽभिधानात्। उक्तं हि-क्रियाकालनिष्ठाकालयोरैक्यमिति। अथैवमपि कृतक्रियमाणयोरैक्ये कृतस्य सत्त्वात्सतोऽपि करणे तदवस्थः प्रसङ्गः। तदसत्। पूर्व हि लब्धसत्ताकस्य क्रियायामयं प्रसङ्गः स्यात् न तु क्रियासमकालसत्तावाप्तौ अथ भिन्नविषया क्रिया तदा सिद्धसाधनं, प्रतिसमयमन्यान्यकारणतया वस्तुनोऽभ्युपगमनेनभिन्नविषयक्रियानुपरमस्यास्माक सिद्धत्वात् / अथ प्रथमादिसमयेष्वपि कार्योपलम्भप्रसक्तेरिति पक्षे क्रियमाणस्य हि कृतत्वप्रथमादिसमयेष्वपि सत्वादुपलम्भः प्रसज्यत इति, तदपि न, तदा हि शिवकादीनामेव क्रियमाणता, ते चोपलभ्यन्त एव / उक्तं च विशेषावश्यके- “अन्नारंभे अन्नं, कह दीसउ जह घडो पडारंभे। सिवगादओ न कुंभो, किह दीसउ सो तदद्धाए" // 2316 / / घटगताऽभिलापतया च मूढः शिवकादिकरणेऽपि घटमहं करोमीति मन्यते / तथा चाह- "पइसमयकज्जकोडी, निरवेक्खंघडगयाभि-लासो सि। पइसमयकज्जकालं, थूलमई घडम्मि लाएसि // 2318|| (विशे०) नापि क्रियावैफल्यापत्तितः, यतः प्रागवाप्तसत्ताकस्य करणे क्रियावैफल्यं स्यात्, न तु क्रियमाणकृतत्वे, तत्र हि क्रियमाणं क्रियापेक्षमिति तस्याः साफल्यमेव अनेकान्तवादिनां च केनचिद्रूपेण प्राग् सत्त्वेऽपि रूपान्तरेण करण न दोषाय, दीर्धक्रियाकालदर्शनानुपपत्तिरित्यपि न युक्तम् / यतः शिवकाद्युत्तरोत्तरपरिणामविशेषविषय एव दीर्घक्रियाकालोपलम्भो, न तु घटक्रियाविषयः / उक्त हि-- "पतिसमयउप्पण्णाणं, परोप्परविलकखणाण सुबहूणं / दीहो किरियाकालो, जइ दीसइ किं च कुंभस्स / / 2315 / / '' (विशे०) अथ कथञ्चिनिश्चितभेदे कृतक्रियमाणे तत्तीर्थकृदुक्तमेव निश्चयव्यवहारानुगतत्वात् तद्वचसः, तत्र च निश्चयनयाश्रयणेन कृतक्रियमाणयोरभेदः / यदुक्तम्-"क्रियमाणं कृतं दग्ध, दह्यमानं स्थितं गतम् / तिष्ठच गम्यमानं च, निष्ठितत्वात् प्रतिक्षणम् // 1 // '' व्यवहारनयमतेन तु नानात्वमप्यनयोः, तथा च क्रियमाणं कृतमेव, कृतं तु क्रियमाणमेव स्यात्, क्रियमाणं क्रियावेशसमये क्रियोपरमे पुनरक्रियमाणमिति / उक्तं च- "तेणेह कजमाणं, नियमेण कयं कयं तु भयणिज्ज / किंचिदिह कज्जमाणं, उवरयकिरिवं च होजाहि" / / 2320 / / (विशे०) किं च--भवतो मतिः क्रियाऽन्त्यसमय एवाऽभिमतकार्यभवन, तत्राऽपिप्रथमसमयादारभ्य कार्यस्य कियत्यपि निष्पत्तिरेष्टव्या, अन्यथा कथम-कस्मादन्त्यसमये सा भवेत्। उक्तम्"आद्यतन्तुप्रवेशे च, नो तं किञ्चिद्यदा पटे। अन्त्यतन्तुप्रवेशे च, नो तं स्यान्न पटोदयः'' ||1|| तस्माद्यदि द्वितीयादि-तन्तुयोगात्प्रतिक्षणम्। किश्चित्किञ्चिदुतं तस्य, यदुत तदुतं हि तत्॥२॥ इह प्रयोगः, यद्यस्याः क्रियायाः आद्यसमये न भवति तत्तस्या अन्त्यसमयेऽपि न भावि, यथा घटक्रियादिसमये अभवन् पटोन भवति च कृतक्रियमाणयोर्भेदे क्रियादिसमये कार्यम्, अन्यथा घटान्तसमयेऽपि पटोत्पत्तिः स्यात् / एवं च-"यथा' 'वृक्षो धवश्चेति', न विरुद्धं मिथो द्वयम्। 'क्रियमाणं कृतं चेति', न विरुद्धं तथोभयम् / / 1 / / प्रयोगश्च-यद् येनाविनाभूतं न तत् एकान्तेन भिद्यते, यथा-वृक्षत्वाद् धवत्वं, कृतत्वाविनाभूतं च क्रियमाण-त्वमिति सकललोकप्रसिद्धत्वाच्च घटपटयोस्तदाश्रयेणैवमुक्तं संस्तारकादावपि योज्यम। तत्प्रतिपद्यस्व भगवन् ! 'चलमाणे चलिए'' इत्यादि तीर्थकृता चात्यन्तमवितथ्यमिति, स चैवमुच्यमानोऽपि न प्रतिपन्नवान् / उत्त०३ अ० जमालेः कियन्तो भवा इति प्रश्नस्योत्तरम्-यथा भगवतीमूलकर्णिकावृत्तिवीरचारित्राद्यनुसारेणजमालेः पञ्चदश भवा ज्ञायन्ते। ही०३प्रका०। *जमालिन् पुं०। महावीरजिनप्रथमनिहवे, विशे०) जमालिअज्झयण न०(जमाल्यध्ययन) वाचनान्तरापेक्षया अन्तकृद्दशाध्ययनानां षष्ठेऽध्ययने, इदानीं तनम् अन्तकृद्दशासु तदनुपलब्धः। स्था०१० ठा०।
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________________ जमालिपभव 1414 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जम्मणगर जमालिपभव पुं०(जमालिप्रभव) जमालेः प्रभव एतत्तीर्थापेक्षया प्रथमा उपलब्धिरेषां न पुनः सर्वथोत्पत्तिरेव, प्रागप्येवंविधाभिप्रायसम्भवात तेऽमी जमालिप्रभवाः। जमालिमताभ्युपगन्तृबहुरतनिहवेषु, उत्त०३ अ०। जमावण न०(जन्मापन) विषमाणां समीकरणे, नि०चू०१उ०। जम्म पुं० न० (जन्मन्) जन-भावे-मनिन्। 'न्मो मः" ||8/2161 / / इति अधोलोपापवादः / “अन्त्यव्यञ्जनस्य" / / 8 / 1 / 11 / / इत्यन्त्यनकारलोपः / "स्नमऽदामशिरोनमः" / / 8 / 1 / 32 / / इति सूत्रेणचास्य पुंसि प्रयोगः। "जम्मो जम्म" उत्पत्तौ, स्था०६ डा। अने० गर्भवासतो योनिद्वारा निस्सरणे, वाच०। कर्मकृतप्रसूती, औ०। न्यायाधुक्ते अपूर्वदेहग्रहणे, वाच०। तत्र जन्म चतुर्विधम्-अण्डजं, पोतज, जरायुजम् / औपपातिकं च। अण्डजाः हंसादयः, पातजा हस्त्यादयः, जरायुजा मनुष्याः, औपपातिकाः देवनारकाः / विशे०। आ० चू० आ०म० विवक्षाभेदे त्वष्टविधमपि जन्म। तथाहि अण्डाजाता अण्डजाः पक्षिगृहको-किलादयः / पोता एव जायन्ते पोतजाः "अन्येष्वपि दृश्यन्ते'' इति जातेर्डः प्रत्ययः, ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलूकादयो, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः पूर्ववत् डप्रत्ययः, गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः / रसाज्जाता रसजास्तत्रारनालदधितीमना-दिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति, संस्वेदाजाताः सस्वेदजाः मत्कुणयूकाशतपदिकादयः संमूर्च्छनाजाताः संमूर्छनजाः शलभ . पिपीलिकामक्षिकाशालिकादयः, उद्धेदनमुद् भित् ततो जाता उद्भिज्जाः, पृषोदरादित्वात्तलोपः / एवं खञ्जरीटपारिप्लवादयः, उपपाताजाता उपपातजाः / अथवा-उपपाते भवा औपपातिकाः देवा नारकाश्च / एवमष्टविधजन्म यथासंभवं संसारिणो नातिवर्तन्ते, एतदेव शास्त्रान्तरे त्रिविधमुपन्यस्तं, संमूंछनगर्भा पपातजन्मरसस्वेदजो द्विजानां संमूर्छनजान्तःपातित्वात अण्डजपोतजजरायुजान गर्भजान्तःपातित्वात् देवनारकाणामीपपातिकान्तः-पातित्वात् इति त्रिविधं जन्मेति / इह चाष्टविध, सोत्तरभेदत्वादिति। आचा०१ श्रु०१ अ०६उ० अथ जन्म केन प्रकारेण जायते इत्यादिस्वरूपं प्रदर्श्यतआयाणामनार्याणां च कर्मभूमिजाऽकर्मभूमिजादीनां मनुष्याणानानाविधयोनिकानां स्वरूपं वक्ष्यमाणनीत्या समाख्यातम् / तेषां च रबीनपुंसकभेदभिन्नाना यथा बीजनेति। यद्यस्य बीज तत्र स्त्रियाः संबन्धि शोणितं पुरुषस्य शुक्रम्, एतदुभयमप्यविध्वस्तं शुक्राधिकं सन्मनुष्यस्य, शोणिताधिकं स्त्रियाः, तत्समता नपुंसकस्य कारणता प्रतिपद्यते। तथा यथावकाशेनेति / योयस्यावकाशो मातुरुदरकुक्ष्यादिकस्तत्रापि किल वामा कुक्षि, स्त्रियो, दक्षिणा कुक्षिः पुरुषस्य, उभयाश्रितः षण्ढ इति / अत्र धाविध्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजमिति चत्वारो भगाः, तत्राप्याद्य एव भङ्गक उत्पत्तेरवकाशो, नशेषेषु त्रिष्विति। अव च स्त्रीपुसयोर्वेदोदये सति पूर्वकर्मनिवर्तितायां योनौ मैथुनप्रत्यायिको रताऽभिलापोदयज-- नितोऽग्निकारणयोररणिकाष्टयोरिव संयोगः समुत्पद्यते, तत्संयोगे च तच्छुक्रशोणिते समुपादाय तत्रोत्पित्सवो जन्तवस्तैजसकार्मणाभ्यां शरीराभ्यां कर्मरज्जुसंदानितास्तत्रोत्पद्यन्ते, ते च प्रथममुभयोरपि स्नेहमाचिन्वन्त्यविध्वस्तायां यौनौ सत्यामिति। विध्वस्थतेतु योनिः। 'पञ्चपञ्चाशिका नारी सप्तसप्ततिः पुरुषः" इति / तथा द्वादश मुहूर्तानि यावच्छुक्रशोणिते अविध्वस्तयोनिके भवतस्ततऊर्ध्व समाज इति / तत्र जीवा उभयोरपि स्नेह-माहायस्वकर्मविपाकेन यथारवं स्त्रीपुन्नपुंसकभावेन (विउद्दति त्ति) वर्तन्ते समुत्पद्यन्ते इति सावत्, तदुत्तरकालं च स्त्रीकुक्षौ प्रक्षिताः सन्तःस्त्रियाऽऽहारितस्याहार निर्यासं स्नेहमाददति, तत्स्नेहेनच तेषाजन्तूना क्रमोपचयादानन क्रमेण निष्पत्तिरुपजायते। "सत्ताहं कलल होइ, सत्ताहं होइ दबयंइत्यादि। तदेवमनेन क्रमेण तदेकदेशेन वा मातुराहारमोजसा मिश्रण पालोमभिर्वाऽऽनुपूर्येणाहारयन्ति यथाक्रममानुपूर्येण वृद्धिमुपागता तो गर्भ. परिपाक गर्भनिष्पत्तिमनुपपन्नाः / ततो मातुः कायाभिनिवतमानाः पृथरभवन्तः सन्तस्तद्योनेर्निर्गच्छन्ति, तेच तथा विधकम दया-दात्मनः वीभावमप्येकदा जनयन्त्युत्पादयन्ति / अपरे केचन चुनावम् नपुंसकभावं च / इदमुक्तं भवति-स्त्रीपुनपुंसकभावः प्राणिना स्वकृतकर्मनिवर्तितो भवति, न पुनर्यो यादृगिह भवे सोऽमुष्मिन्नेव तादृगे वेति, ते च तदहर्जातबालकाः सन्तः पूर्वभवाभ्यासादाहाराभिलाषिणो भवन्ति / मातुः स्तन्यमाहारयन्ति। तदाहारेण चानुपूर्येण च वृद्धास्तदुत्तरकालं नवनीतत्ध्योदनादिकं यावत्कुलमाषान् भुञ्जन्ते, तथाहारत्वेनोपगतारत्रसान् स्थावरांश्च प्राणिनस्ते जीवा आहारयन्ति, तथा नानाविध पृथिवीशरीरं लवणादिकं सचेतनं वा आहारयन्ति, तचाहारितयात्मसात्कृतं सारूप्यमापादितं सत् 'रसासृङमांसमेदोऽस्थिमञ्जाशुक्राणि धातवः' इति सप्तधा व्यवस्थापयन्त्यपराण्यपि तेषां नानाविधमनुष्याणां शरीराणि नानावणान्याविर्भवन्ति, ते च तद्योनिकत्वात्तदाधारभूतानि नानावर्णानि शरीराण्याहारयन्तीत्येवमाख्यातमिति। सूत्र०२ श्रु०३अ०। जम्मंकुर न०(जन्माडुर) पुनरुत्पत्तिरूपे अड्डरे / 'अज्ञानपांशु-पिहित, पुरातनं कर्मवीजमविनाशि / तृष्णाजलाभिषिक्तं मुश्चति जन्माद कुरं जन्तोः / / 1 / / ' आ०म०द्विा जम्मंतर न०(जन्मान्तर) अन्यान्यजन्मनि, पुनर्जन्मनिच। आ०म०वि० (जन्मान्तरोपपत्तियुक्तयस्तु परलोग' शब्दे विलोक्याः जम्मकहा स्त्री०(जन्मकथा) जातो मृतो वेत्येवं रूपायां वार्तायां, जन्मचरित्रे च / सूत्र०१8०१ अ०२उ०। जम्मजरामरण न० (जन्मजरामरण) जन्म च जरा च मरण चेति जन्मजामरणानि। स्वस्वशब्दप्रदर्शितावस्थात्रये, "जम्मजरामरणकरणगभीरदुक्खपक्खुभिअपउरसलिल'' वृत्ति:- जन्मज-रामरणान्येव करणानि साधनानि यस्य तत्तथा, तच्च गभीरदुःख तदेव प्रक्षुभित संचलितं प्रचुरं सलिलं यत्र स तथा / प्रश्न०३ आश्व० द्वार। जम्मजीवियफल न०(जन्मजीवितफल) जन्मनो जीवितस्य च फले, भ०१५ श०१उ०। जम्मण न०(जन्मन्) उत्पादे, भ० 25 श०६ उ०। प्रश्न। "जम्मणजरामरणबाहिपरियट्टणारघट्ट'। वृत्तिः-जन्मजरामरणव्याधीनां याः परिवर्तनाः पुनःपुनर्भवनानि ताभिररघट्टो यासाम्। प्रश्न०१ आश्रद्वार। जम्मणगर न०(जन्मनगर) 'जम्मणयर' शब्दार्थे, जं०५ यक्षा
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________________ जम्मणचरियणिबद्ध 1415 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयंत जम्मणचरियणिबद्ध त्रि०(जन्मचरितनिबद्ध) तीर्थकरजन्माऽभि 5. नात्यविधी, रा० जम्भमनहिमा पु०(जन्ममहिमन) जन्मोत्सवे, भ०१४ श०२उ०। जायर न०(जन्मनगर) यस्मिन् नगरे यस्य जन्म भवति तत्तस्य भ्। उत्पत्तिपुरे, जं०५ वक्ष। जम्मदति(ण) त्रि०(जन्मदर्शिन्) जन्मनः स्वरूपतो वेत्तरि, परिहरति, आचरति च। "जे गब्भदंसी से जम्मदंसी,जे जम्मदंसी से मारदंसी" आचारशु०३ अ०४ उ० जम्मदोस पुं०(जन्मदोष) जन्मदोषनिमित्तके तज्जातदोषविशेषे, सच''रोल्लुबाएँघोडीऍजाओ जो गद्दहेण छड्डेण। तस्स महायणमज्झे, आयारा पायडा हुति।।१॥" इत्याद्यनेकविधः / जन्मसहभाविदोष च। स्था०१० ठा०। जम्मपक्क त्रि०(जन्मपक्च) स्वयमेव पक्कीभूते, विपा०१ श्रु०८अ० जम्मपवाह पुं०(जन्मत्रवाह) भवपरंपरायाम, आव०३अ०। जम्मप्पबाह पुं०(जन्मप्रवाह) जम्मपवाह' शब्दार्थे, आव०३ अ०। जम्भप्पभिइ अव्य०(जन्मप्रभृति) जन्मन आरभ्येत्यर्थे, दर्श०१ तत्त्व। जम्मफल न०(जन्मफल) जन्मसाध्ये, पञ्चा०८विव०॥ जम्मभूमि स्त्री०(जन्मभूमि) जन्मस्थाने, 'जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी'। वाचला "अवसे सा तित्थयरा, निक्खंता जम्मभूमीसु"। स० जम्ममह पुं०(जन्ममह) जन्ममहोत्सवे, श्रीमदर्हता जनुर्महोत्स--वकरणे देवानां देहानि कियन्मात्रोच्चैस्तराणीति प्रश्ने, उत्तरम्-महोत्सवावसरे देवानां देहान्यभिषिच्यमानजिनसमानकालीनमनुजशरीरोचितानि संभाव्यन्त इति 55 प्र०ा सेन०२ उल्ला०) जम्मा स्वी०(याम्या) दक्षिणस्यां दिशि, आ०म०प्र०। विशे०। जम्मादिदोसविरह पुं०(जन्मादिदोषविरह) जातिजरामरणप्रभृतिदूषणवियोगे, पञ्चा०८विव०॥ जम्माभाव पुं०(जन्माभाव) अनुत्पत्तौ, दश०४ अ०। जम्मावट्ट पुं०(जन्मावर्त) भवचक्रे, ''रागद्वेषरसाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् / जन्मावर्ते जगत् क्षिप्त, प्रमादाद् भ्राम्यते भृशम् // 1 // " आचा०१ श्रु०३अ०१३० जम्मुप्पत्ति स्त्री०(जन्मोत्पत्ति) जन्मना कर्मकृतप्रसूत्या उत्पत्तिर्या सा तथा। औ०। प्रसवेनोत्पत्तौ, "सिद्धाणं कम्मवीरा दच्छे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवति" औ०। जय पु०(जय) 'जि' जये, भावे अच् / परैरनभिभूयमानतायाम्, प्रतापवृद्धौ, राग ज्ञा०शवशीकरणे, द्वा०२६ द्वारा परापेक्षया उत्कर्षलाभे, शत्रुपराङ् मुखीकरणे, संग्रामादिजये, वाचा 'जएणं विजएण बद्धावें ति / " रा०। विपा०। औ०। कल्प०। नि०। तत्र जयः परैरनभिभूयमानता, प्रतापवृद्धिश्च / विजयस्तु परेषामसहमानानामभिभवोत्पादः / रा०। जयः सामान्यो विघ्नादिविषयः / विजयः रस एव विशिष्टतरः प्रचण्डप्रतिपन्थादिविषयः औ०। जयः स्वदेशे। विजयः परदेशे कल्प०१क्षण। "जयविजयमंगलसएहिं / औ०। जयविजयेत्या- | दिभिर्मङ्गला भिधायकवचनशतैरित्यर्थः / औ० जिकर्तरि अच्। वाचा स्वनामख्याते एकादशे चक्रवर्तिनि, प्रव० 207 द्वार / ति० स०। विमलजिनप्रथमभिक्षादातरि, स०। आ०म० लीलावतीगुणधरयोः पितरि श्रेष्ठिविशेषे, दर्श०१ तत्त्व / तिथिशब्दस्य पुंसि निर्दिष्टतया तद्विशेषवाचकानां नन्दादिशब्दानामपि पुंसि प्रयोगे तु जय इति तृतीयाष्टमीत्रयोदशीषु तिथिषु, जं०१वक्ष०। *जगत् न० / अतिशयगमनात् जगत् / भ०२० श०२उ०। जीवे, पञ्चास्तिकायात्मके लोके, नं०। (अधिकार्थस्तु 'जग' शब्दे अस्मिन्नैव भागे 1382 पृष्ठ दृश्यः) *यत पुं० / 'यम' उपरमे, यमनं यतं तद्विद्यते यस्य स यतः / " अभ्रादिभ्यः" ||72 / 46 // इत्यप्रत्ययः / प्रमत्तगुणस्थानकवर्तिनि साधौ, कर्म०४ कर्म०। यतमाने, त्रि०। उत्त०? सूत्र०। उपयुक्ते, आव०४ अ० जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। जयं भुजंतों भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ॥८॥ एतद्वृत्तिर्यथा यतंचरेत् सूत्रोपदेशेन ईर्यासमितः, यतं तिष्ठेत् समाहितः। हस्तपादाद्यविक्षेपेण / यतमासीत उपयुक्त आकुञ्चना-द्यकरणेन / यत स्वपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण / यतं भुजानः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहभक्षितादिना / एवं यतं भाषमाणः साधुभाषया मृदुकालप्राप्तम् (8) दश०४ अ०ा 'गडभस्स अणुकंपणहाए जयं चिट्ठति, जयं आसयति, जयं सुविति'' यतनया यथा गर्भबाधा न भवति तथा तिष्ठति ऊर्द्धस्थानेन आस्ते आश्रयति चासनं, स्वपितिचेति ज्ञा०१ श्रु०१०॥ जयइ धा०(जयति)जि धातूनामनेकार्थकत्वाद्। बध्नाति इत्यर्थे , प्रा०। जयंत न०(जयन्त) द्वीपसमुद्राणां चतुषु द्वारेषु स्वनामख्याते पश्चिमदिग्वर्तिनि द्वारे, (जी०) (एतद्विशेषवर्णकस्तु 'विजय' शब्दे विजयद्वारवद् ज्ञेयः) तत्र तावजम्बूद्वीपसत्कजयन्तद्वारवक्तव्यता यथाकहि णं भंते ! जंबूदीवस्स जयंते णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्छिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साइं जंबुद्दीवे पञ्चच्छिमापरंते लवणसमुद्दे पचच्छिमद्धस्स पुरच्छिमेणं सीतोदाए महानदीए उप्पिं एल्थ णं जंबुद्दीवस्स जयंते णामं दारे पण्णत्ते / तं चेव सोपमाणं जयंते देवे पचच्छिमेणं से रायहाणीए०जाव महिड्डीए। अथ लवणसमुद्रसत्कजयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाह'कहिणं भंते !" इत्यादि। क भदन्त ! लवणसमुद्रस्य जयन्तं द्वारं प्रज्ञप्तम् / भगवानाह-गौतम ! लवणसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्ते धातकीखण्डपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः सीताया महानद्या उपरि लवणसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् / एतद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारवद्वक्तव्या, नवरं राजधानीजयन्तद्वारस्य पश्चिमभागेन वक्तव्या। जी०३ प्रति०। एवं शेषद्वीपसमुद्राणामपि जयन्तद्वारमभ्यूह्यम, पञ्चानुत्तरविमानेषु स्वनामख्याते तृतीये विमाने, "उडलोगेणं पंच अणुत्तरा महइमहा
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________________ जयंत 1416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयंती लया महाविमाणा पण्णत्ता तं जहा-विजये वेजयंते जयंते अपराजिए सव्वट्ठसिद्धे'। स्था०५ ठा०३उ०। तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेशो, यथापञ्चालदेशनिवासिनः पञ्चालाः इति, तद्वासिषु अनुत्तरदेवेषु, प्रज्ञा०१ पद / मेरोरुत्तरस्यां दिशि रुचकवरपर्वत-स्याष्टसु कूटेषु स्वनामख्याते सप्तमे कूटे, स्था०४ ठा०। जि०-डः।वाच०। पञ्चविधानुत्तरोपपातिकानां देवानां तृतीये जयन्तविमानोगवे देवभेदे, पुं० प्रज्ञा०१ पद / स० आगामिकालभाविनि प्रथमं बलदेवे, ती०२१ कल्प / वज्रसेनसूरिणा चतुर्षु शिष्येषु मध्ये स्वनामख्याते तृतीये शिष्ये, यतः किल तन्नाम्नी शाखा निर्गता। कल्प०८ क्षण। इन्द्रपुत्रे, "यथा जयन्तेन शचीपुरंदरौ'' "त्रिविष्ट-पस्येव पति जयन्तः" इति। वाचा जयंती स्त्री०(जयन्ती) जि-डः / गौरा०-डीप् / वाच० / स्वनामख्यातायां वीरजिनपरमश्राविकायाम्, बृ०१ उ०| तत् प्रबन्धो यथातेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी णामं णयरी होत्था, वण्णओ-चंदोत्तरायणे चेइए, वण्णओ-तत्थ णं कोसंवीए णयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो पोत्ते सयाणीयस्स रण्णो पुत्ते चेडगस्स रण्णो नत्तुए मिगावतीए देवीए अत्तए जयंतीए समणोवासियाए भत्तिज्जए उदायणे णामं राया होत्था। वण्णओतत्थ णं कोसंबीए णयरीए सहस्सणीयस्स रण्णो सुण्हा सयाणीयस्स रण्णो भजा चेडगस्स रण्णो धूया उदायणस्स रण्णो माया जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मियावती णामं देवी होत्था। वण्णओ-तं जहा-०जाव सुरूवा समणोवासिया०जाव विहरइ / तत्थ णं कोसंबीए णयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो धूया सयाणीयस्स रण्णो भगिणी उदायणस्स रण्णो पिउत्था, मिगावतीए देवीए णणंदा वेसालीसावयाणं अरहंताणं पुव्वसिजातरी जयंती समणो वासिया होत्था, सुकुमालजाव सुरूवा / अभिगय०जाव विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसड्डेजाव परिसा पञ्जुवासइ / तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हद्वतुढे कोडं बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावे इत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कोसंबिं णयरिं सभिंतरबाहिरियं एवं जहा कूणिओ तहेव सव्वंजाव पज्जुवासइ। तए णं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ठतुट्ठाजेणेव मिगावती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता एवं वयासी-एवं जहा णवमसए उसभदत्तो० जाव भविस्सइ / तए णं सा मियावई देवी जयंतीए समणोवा-सियाए जहा देवाणंदा०जाव पडिसुणेइ। तए णं सा | मियावई देवी कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्ता रोहिया०जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठावेह०जाव उवट्ठवें ति०जाव पञ्चप्पिणंति। तएणं सा मियावई देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं ण्हाया कयवलिकम्मा०जाव सरीरा बहूहिं खुजाहिं०जाव अंतेउराओ णिग्गच्छंति णिग्गच्छतित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवगच्छइत्ता० जाव दुरूढा। तएणं सा मिगावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी णियगपरियाल जहा उसभदत्तो०जाव धम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुहइ / तए णं सा मियावई देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं बहूहिं खुजाहिं जहा देवाणंदाजाव वंदइ णमंसइ उदायणं रायं पुरओ कट्ट ठिइया चेव पज्जुवासइ / तए णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रणो मियावईए देवीए जयंतीए समणोवासियाए तीसे य महइ०जाव धम्म परिकहेइ० जाव पडि सा पडि गया उदायणे पडिगए मिगावई वि पडिगया। तएणं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावी-रस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठा समर्ण भगवं महावीरं वंदइ, णमसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीकहण्ण भंते ! जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छंति? जयंती ! पाणाइवाएणं०जाव मिच्छादसणसल्लेणं एवं खलु जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छंति / एवं जहा पढमसएन्जाव वीईवयंति। भवसिद्धियत्त णं भंते ! जीवा णं किं सभावओ य परिणामओ य? जयंती ! सभावओ य णो परिणामओ य / सव्वे विगं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति? हंता जयंती ! सध्ये विणं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति। जइणं भंते ! सव्वे वि भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति तम्हा णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ? णो इणढे समढे / से के णं खाइण्णं अट्ठपं भंते ! एवं वुच्चइ सव्वे विणं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति। णो चेव णं भवसिद्धि-यविरहिए लोए भविस्सइ? जयंती ! से जहाणामए सव्वागास-सेढी सिया अणादिया अणवदग्गा परित्ता परिवुडा सा णं परमाणुपोग्गलमेत्तेहिं खंडे हिं समए समए अवहीरमाणी अवहीरमाणी अणंताहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहि अवहीरइ णो चेवणं अवहिरिया सिया, से तेणटेणं जयंती ! एवं वुचइ सव्वे विणं०जाव भविस्सइ। सुत्तत्तं भंते ! साहू जागरियत्तं साहू? जयंती! अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू / से के ण णं भंते ! एवं वुचइ अत्थेगइयाणं०जाव साहू? जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अहम्मपलाई अहम्मपल
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________________ जयंती 1417 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयंती ज्जणा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं सुत्तत्तं साहू, एएणं जीवा सुत्ता / समाणा णो बहूणं पाणभूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खाणयाए सोयणयाए०जाव परियावणयाए वटुंति एएणं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वाणो बहूहिं अहम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति एएणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू | जयंती ! जे इमे जीवा धम्मत्थिया धम्माणुगा०जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू एएणं जीवा जागरमाणा बहूणं पाणाणं अदुक्खणयाए०जाव अपरियावणयाए वटुंति, तेणं जीवा जागरा समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा वबूहि धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति, एएणं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू, से तेणटेणं जयंती ! एवं वुचई अत्थेगगइयाणं जीवाणं सुत्ततं साहू, अत्थेगझ्याणं जीवाणं जागरियत्तं साहू / बलियत्तं भंते ! साहू दुवलियत्तं साहू? जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहू अत्थे-गइयाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू / से केणतुणं भंते ! एवं वुधइन्जाव साहू ? जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया०जाव विहरंति, एएसि णं जीवाणं दुब्वलियत्तं साहू एएणं जीवा, एवं जहा सुत्तस्स तहा दुब्बलियत्तस्स वत्तव्वया भाणियव्वा, बलियत्तस्स जहा जागरस्स तहा भणियध्वंजाव संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं बलियत्तं साहू से तेणद्वेणं जयंती! एव वुच्चइतं चेव०जाव साहू ! दक्खत्तं भंते ! साहू आलसियत्त साहू? जयंती ! अत्थेग इयाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू अत्थेगइ-याणजीवाणं आलसियत्त साहू। से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ ते चेव०जाव साहू? जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया०जाव विहरंति / एएसि णं जीवाणं आलसियत्त साहू एएसि ण जीवा अलसाउमाणा णो बहूणं जहा सुत्ता तहा अलसा माणियव्वा जहा जागरा तहा दक्खा माणियव्वा०जाव संजोएत्तारो भवंति। एएणं जीवा दक्खा समाणा बहहिं आयरियवेयावचेहिं उवज्झायवेयावचेहिं थेरवयावचेहिं तवस्सीवे यावच्चे हिं गिलाणवेयावचोह से हवे यावच्चे हिं कुलवेयावचेहिं गणवेयावच्चे हिं संघवियावच्चे हिं साहम्मियवेयावधेहिं अत्ताण संजोएत्तारो भवति, एएसिणं जीवाणं दक्खत्तं साहू से तेणटेणं तं चेव०जाव साहू / सोइंदियवसट्टेणं भंते! जीवे किं बंधइ एव जहा कोहवसट्टे तहेव०जाव अणुपरियट्टइ। एव चक्खिंदियवसट्टे वि,जाव फासिंदियवसट्टे वि,०जाव अणुपरियट्टइ / तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठा सेसं जहा देवाणंदा तहेव पव्वइए०जाव सव्वदुक्खपहीणा सेवं भंते! भंतेत्ति॥ "तेणं कालेण'' इत्यादि। (पोत्ते त्ति) पौत्रः पुत्रस्यापत्यम् (चेडगस्स ति) वैशालीराजस्य (नत्तुए त्ति) नप्ता दौहित्रः (भाउज त्ति) भातृजाया (वेसाली सावगाणं अरहताणं पुव्वसिज्जायरी ति) वैशालिको भगवान् महावीरस्तस्य वचनं शृण्वन्ति श्रावयन्ति वा तद्रसिकत्वादिति, वैशालिकश्रावकास्तेषाम् आर्हतानां अर्हद्वेक्तानां, साधूनामिति गम्यम् पूर्वशय्यातरा प्रथमस्थानदात्री साधवो ह्यपूर्वे समायातास्तद्गृह एव प्रथम वसतिं याचन्ते, तस्याः स्थानदातृत्वेन प्रसिद्धत्वादिति, सा पूर्वशय्यातरा (सभाववो त्ति) स्वभावतः पुद्गलाना मूर्तत्ववत् (परिणामओ त्ति) परिणामो नाभूतस्य भवनेन पुरुषस्य तारुण्यवत् / (सव्वे विणं भंते ! भव-सिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति त्ति) भवा भाविनी सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकास्ते सर्वेऽपि भदन्त ! जीवाः सेत्स्यन्तीति प्रश्नः / हन्तेत्यादि तूत्तरम् अयं चास्यार्थः-समस्ता अपि भवसिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्ति अन्यथा भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादिति / अथ सर्वभवसिद्धिकानां सेत्स्यमानताऽभ्युपगमें भवसिद्धिकं शून्यता लोकस्य स्यात् / नैवं समयज्ञता। तथाहि सर्व एवानागतकाल-समया वर्तमानतालप्स्यन्ते / "भवति स नामातीतः, प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वम् / एष्यश्च नाम स भवति, यः प्राप्स्यति वर्त्तमानत्वम् ||1||" इत्यभ्युपगमान्न चानागतकालसमयविरहितो लोको भविष्यतीति / अथैतामेवाशङ्का जयन्ती प्रश्नद्वारेणाऽस्मदुक्तसमयज्ञातापेक्षया ज्ञातान्तरेण परिहर्तुमाह"जह णं'' इत्यादि। इत्येके व्याख्यान्ति। अन्ये तु व्याचक्षते-सर्वेऽपि भदन्तः भवसिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्ति, ये केचन सेत्स्यन्ति ते सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव, नाभवसिद्धिका एकोऽप्यन्यथा भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादित्यभिप्रायः, 'हन्ता' इत्याधुत्तरम्। अथ यदि ये केचन सेत्स्यन्ति ते सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव, नाभवसिद्धिक एकोऽपीत्यभ्युपगम्यते, तदा कालेन सर्वभवसिद्धिकानां सिद्धिगमनात् भव्यन्यूनतो जगतः स्यादिति जयन्त्याः शङ्का तत्परिहारं च दर्शयितुमाह-"जइ णं'' इत्यादि / (सव्वागाससेढि त्ति) सर्वाकाशस्य वु-ध्या चतुरस्रप्रतरीकृतस्य श्रेणिः प्रदेशपड् िक्तः सर्वाकाशश्रेणिः (परित ति) एक प्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमिता (परिवुड त्ति) श्रेण्यन्तरैः परिकरिता स्वरूपमेतत्तस्याः। अत्रार्थे वृद्धोक्ता भावनागाथा भवन्ति"तो भणइ किंण सिझंति, अहव किमभटव सावसेसत्ती। निल्लेवणं न जुज्जइ, तेसिं तो कारणं अन्नं // 1 // " अयमर्थः-यदि भवसिद्धिकाः सेत्स्यन्तीत्यपगम्यते, ततो भणति शिष्यः करमान्न ते सर्वेऽपि सिध्यन्ति, अन्यथा भवसिद्धिकत्वस्यैवाभावात्। अथवा-अपरं दूषणं कस्मादभव्यसावशेषत्वादभव्यावशेषत्वेन अभव्यान् विमुच्येत्यर्थः / तेषां भव्याना निर्लेपनं न युज्यते युज्यत एवेति भावः / यस्मादेवं ततः कारणं सिद्धर्हेतुरन्यद्भव्यत्वातिरिक्तं वाच्यं, तत्र सति सर्वभव्यनिर्लेपनप्रसङ्गादिति।
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________________ जयंती 1418 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयकेसरसूरि "भण्णइ तेसिमभटवे, विपइ अनिल्लेवण न उ विरोहो। ननु सव्वभव्वसिद्धी, सिद्धा सिद्धतसिद्धीओ।।२।।'' अयगर्थो भण्यते-अनोत्तरं भव्यत्वमेव सिद्धिगमनकारणं न त्य-न्यति कशित्तत्र च सत्यपि भव्यत्वे सिद्धिगमनकाराणे तेषां भव्यानामभव्यानामपि प्रति भव्यानप्याश्रित्य अनिर्लेपनमव्यवच्छेदः, अभव्यानवशिष्य यद्व्यानां निर्लेपनमुक्तम् तदपि नेत्यर्थः / न तु न पुनरिहार्थे विरोधो बाधाऽस्ति सिद्धान्तसिद्धत्वादेतदेवाह-ननु इत्यादि न हि सर्वभव्यसिद्धिः सिद्धा सिद्धान्तसिद्धेरिति। "किह पुण भव्य बहुत्ता, सव्वागासपएसदिट्टता। न वि सिज्झिहिंति तो भण-इ किं तु भवत्तणं तेसि / / 3 / / जइ होऊणं भव्वा, वि केइ सिद्धि न चेव गच्छति। एवं ते वि अभव्वा, को विं विसेसो भवे तेसिं / / 4 / / भण्णइ भव्यो जोगो, दारुदलियति वा विपज्जाया। जोगो वि पुण न सिज्झइ, कोइ रुक्खाइदिहता / / 5 / / पडिमाईण न जोग्गा, बहवो गोसीसचंदणदुमाइ। संति अजोगा वि इह, अण्णे एरंडभंडाई॥६॥ न य पुण पडिमुप्पायण-संपत्ती होइ सब्वजोग्गाणं। जेसि पि असंपत्ती, नयतेसिंजोग्गया होइ 7|| कि पुण जा संपत्ती, सा नियमा होइ जोग्गरुक्खाणं / न य होई अजोग्गाणं, एमेव य भव्वसिज्झणया॥८॥ सिज्झिरसंति य भवा, सव्वे वित्ति भणियं च ज पहुणा। तं पि य एयाए चिय, दिट्टीए जयंति पुच्छाए।।६।। भव्यानामेव सिद्धिरित्येतया दृष्ट्या मतेनेति। अहवा-पडुच कालं, न सव्वभव्वाण होइ वोच्छिती।।१०।। जंतीतणागयाओ, अद्धाओ दो वि तुल्लाओ। तत्थतीतद्धाए, सिद्धी एक्को अणतभागो सिं। कामं तावइओ चिय, सिज्झिहिइ अणागयद्धाए / / 11 / / ते दो वणतभागा, होउं सो चिय अणंतभागो सिं। एवं पि सव्वभव्वाण सिद्धिगमणं च णिहि॥१२॥" तो द्वावप्यनन्तभागी, मीलितौ सर्वजीवानामनन्त एव भाग इति / यत्पुनरिदमुच्यते-अतीताद्धातोऽनागताद्धाऽनन्तगुणेति / तन्मतान्तरं, तस्य चेदं बीजं, यदि द्वे अपि ते समाने स्याता, तदा मुहूर्तादावतिक्रान्ते अतीताद्धा समधिका, अनागताद्धा च हीनेति हतं समत्वम्, एवं च मुहूर्तादिभिः प्रतिक्षणं क्षीयमाणाऽप्यनागताद्धा, यतो न क्षीयते ततोऽवसितं ततः साऽनन्त गुणेति, यच्चोभयोः समत्वं तदेवं यथाऽनागताद्वाया अन्तो नास्ति एवमतीताद्धाया आदिरिति समतेति जीवाश्च न सुप्ताः सिध्यन्ति, किं तर्हि जागरा एवेति सुप्त-जागरसूत्रं, तत्र च (सुत्त रा ति) निद्रावशत्वम् (जागरियत ति) जागरणं जागरः सोऽस्यास्तीति जागरिकस्तरावो जागरिकत्वम् (अहम्मिय त्ति) धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकास्तन्नि-षेधादधार्मिकाः / कुत एतदेवमित्यत आह-(अहम्माणुया) धर्म श्रुतरूपमनुगच्छन्तीति धर्मानुगास्तन्निषेधादधर्मानुगाः। कुत एतदेवमित्यत आह-(अहग्गिहा) धर्मः श्रुतरूप एवेष्टो वल्लभः पूजितो वा येषां ते धर्मेष्टाः, धर्मिणां वष्टा धर्मेष्टाः, अतिशयेन वा धर्मिणो धर्मिष्ठास्तन्निषेधादधर्मिष्ठाः। अधर्मेष्टाः।। अधर्मिष्ठा वा, अत एव (अहम्मक्खाइ) न धर्ममाख्यान्तीत्येवशीला अधर्माख्यायिनः। अथवा-न धर्मात् ख्यातिर्येषां तेऽधर्मख्यातयः। (अहम्मपलोइ ति) नधर्ममुपादेयतया प्रलोकयन्तियेतेऽधर्मप्रलोकिनः। (अहम्मपलजण त्ति) नधर्मे प्ररज्यन्ते आसञ्जन्ति येते अधर्मप्र-रखनाः / एवं च-(अहम्मसमुदायार त्ति) न धर्मरूपश्चारित्रात्मकः समुदाचार-- स्समाचारः स प्रमोदो वाऽचारो येषां ते तथा, अत एव ''अहम्ण" इत्यादि / अधर्मेण चारित्रश्रुतविरूद्धरुपेण वृत्तिं जीविका कल्प्यन्तः कुर्वाणा इति, अनन्तरं सुप्तजाग्रता साधुत्वं प्ररूपितम्। अथ दुर्बलादीना तथैव तदेव प्ररूपयन् सूत्रद्वयमाह-"वलियत्तं भंते!" इत्यादि। (वलियत ति) बलमस्यास्तीति बलिकरतद्भावो बलिकत्वम् (दुबलियत्तं ति) दुष्ट बलमस्यास्तीति दुर्बलिकस्तद्भावो दुर्बलिकत्वं, दक्षत्वं च तेषः साधु येनेन्द्रियवशानां यद्भवति तदाह-"सोइंदिय" इत्यादि। (सोइंदियवसट्टे त्ति) श्रोत्रेन्द्रियवशेन तत्पारतन्त्र्येण ऋतः पीडितः श्रोत्रेन्द्रियवशातः, श्रोत्रेन्द्रियवशं वा, ऋतौ गतः श्रोत्रेन्द्रियवशातः / भ०१२ श०२उ०। सप्तमबलदेवस्य मातरि, स० आव०ा अकम्पिताऽभिधष्टमगणधरस्य मातरि, आ०म०प्र०ा पार्श्वशिष्यायां पश्चात् परिवाजिकीभूतायामुत्पलभगिन्याम, सा हि स्वभगिनी सोमासहिता चोरिकसन्निवेशे अवटे क्षिप्यमाणं भगवन्तं राजपुरुषानुपशमय्य मुमोच / आ०म०प्र०। पूर्वरुचकवास्तव्यायां सप्तम्यां दिक्कुमार्याम, द्वी०जाआ०म० ति०। आ०चू०। स्था०। सर्वेषां ग्रहाणां चतसृष्वग्रमहिषीषु तृतीयायामग्रमहिष्याम्, जं०७ वक्ष०ा जी० भ०) पश्चिमविदेहस्य सताया उत्तरदिगवर्तिमहावप्रविजयराजधान्याम, जं०४ वक्ष०ा स्थान रतिकरपर्वतराजधानीविशेषे, द्वी०। अञ्ज-नकपर्वतसत्कपुष्करिणीविशेषे, ती०२४ कल्प। जी० स्था० नवम्यां तिथी, ज०७०। कल्प०। चं०प्र०ा पुरीविशेषे, यत्र किल गुणचन्द्रर्षिणा सुरद नगृहपतिभाया वसुन्धरा मालाहृतभिक्षां दातुमुद्यता विनिवारिता / पिं०। अष्टमजिनशिविकायाम, स०। महौषधिविशेषे, ती०७ कम्प। तथा हि! "जयन्ती मदगन्धाढ्या, तिक्ता चैव कटूष्णिका। कृमिमूत्रामजित् ख्याता, कण्ठशोषणकृन्मता / / 1 / / कृष्णा रसायनी तत्र, सैव सर्वत्र पूज्यते। तच्छाकं विषदोषघ्नं चक्षुष्यं मधुरं हिमम्"। पताकायाम, वाचा "दो जयंतीओ"। स्था०. ठा०३ उ०! "पूवसिजायरी जयंती' इत्यत्र पूर्वशय्यातरीशब्दस्यार्थः। प्रस्याध्य इति प्रश्रे, उत्तरम्-अपूर्वसाध्वादिः समायातस्तद्गृह एव प्रथम वसति याचते तस्याश्च स्थानदातृत्वेन प्रसिद्धत्वात्पूर्व-शय्यातरीति ! भगवतीसूत्रवृत्त्य नुसारेण पूर्व शय्यातरीशब्दार्थो तेय इति / १२७प्र०सेन०१ उल्ला) जयकित्ति पु०(जयकीर्ति) अशलगच्छीये मेरुतुरु सूरिशिष्ये जयकेशरिसूरिशीलरत्नसूरिणो गुरौ, विक्रमसंवत् 1433 वर्ष अयं जातः, 1444 वर्षे प्रव्रजितः, 1467 वर्षे सूरिपदं प्राप्तः, 1473 वर्षे गच्छेशपदं प्राप्तः, 1500 वर्षे स्वर्गमगमत्। एतन्नामा द्वितीयो विजयसिंहसूरेः शिष्य आसीत्,येन शीलोपदेशमाला नाम ग्रन्थो विरचितः। जैइ०। जयकेसरसूरि पुं०(जयकेशरसूरि) अशलगच्छीये जयकार्तिसरिशिष्ये सिद्धान्तसागरगुरौ, विक्रमसंवत् 1461 वर्षे जातः,१४७५ दीक्षितः, 1464 आचार्यो जातः, 1501 गच्छनायकः, 1542 स्वर्गतश्वयमभवत / जै०इ०॥
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________________ जयघोस 1416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयघोस जयघोस पुं०(जयघाष) स्वनामख्याते मुनौ, (उत्त०) वाराणस्यां किल द्विजो यमलौ भ्रातरौ जयघोषविजयघोषौ अभूतां तयोरेको जयघोषनामा गङ्गायां स्नातु गतः, कुररसर्पमण्डूकग्रासं दृष्ट्वा प्रव्रजितः / तद्वार्ता चैवम्माहणकुलसंभूओ, आसि विप्पो महाजसो। जायाई जमजण्णम्मि, जयघोसे त्ति नामओ।।१।। ब्राह्मणकुले संभूतः विप्रकुले समुत्पन्नः, 'जयघोष' इति नामतो विप्र आसीत् / अत्र हि यत् ब्राह्मणकुलसंभूतःविप्र आसीत् इत्युक्त तत् ब्राह्मण-जनकादुत्पन्नोऽपि जननीजातिहीनत्वेऽब्राह्मणः स्यात् अतो विप्र इत्युक्तम् / कीदृशो जयघोषः? (जमजण्णम्मि) यमं यज्ञे यायाजी यायजीत्येवंशीलो यायाजी यमाः अहिंसासत्याऽस्त्येयब्रह्मनिर्लोभाः पञ्च, ते एव यज्ञो यमयज्ञस्तस्मिन् यमयज्ञे अति-शयेन यज्ञकरणशीलः अर्थात्पञ्चमहाव्रतरूपे यज्ञे याज्ञिको जातः, यतिर्जात इत्यर्थः // 1 // इंदियग्गामनिग्गाही, मग्गगामी महामुणी। गामाणुगामं रीयंतो, पत्तो वाणारसिं पुरिं / / 2 / / स महामुनिःएकाकी साधुर्गामानुग्रानम् (रीयंतो इति) विचरन् वाराणसी पुरीं प्राप्तः / कीदृशः स महामुनिः? इन्द्रियग्रामनिग्राही इन्द्रियाणां ग्राम समूहम् इन्द्रियपञ्चकं निगृह्णाति मनोजयेन वशीकरोतीति इन्द्रियग्रामनिग्राही, पुनःकीदृशः? स मार्गगामी मार्ग मोक्षं गच्छति स्वयम्, अन्यान् गमयति इति मार्गगामी। वाणारसीए बहिया, उज्जाणम्मिमणोरमे। फासुए सिजसंथारे, तत्थ वासुमुवागए।।३।। स साधुराणस्या बाह्ये, मनोरमे मनोहरे, उद्याने प्रासुके जीवरहिते शय्यासंस्तारके दर्भतृणादिरचिते शयनोपवेशनस्थितौ तत्र (वासं इति) वसतिं कर्तुमुपागतः॥३॥ अह तेणेव कालेणं, पुरीए तत्थ माहणे। विजयघोसे त्ति नामेणं, जन्नं जयइ वेयवी॥३।। अथ अनन्तरं तस्मिन्नेव काले यस्मिन् काले साधुर्वने समागतः तस्मिन्नेव काले तस्यां वाराणस्या पुर्या 'विजयघोष' इति नामा ब्राह्मणो यशं यजति यज्ञ करोति। कीदृशो विजयघोषः? वेदवित् वेदशः / / 4 / / अह से तत्थ अणगारे, मासक्खमणपारणे। विजयघोसस्स जन्नम्मि,भिक्खट्ठा उववट्टिए।।५।। अथ अनन्तरं तत्र विजयघोषस्य यज्ञे स पूर्वोक्तो जयघोषोऽनगारो मासक्षमणस्य पारणे भिक्षाया अर्थ भिक्षायै उपस्थितः॥५॥ समुवट्ठियं तहिं संतं, जायगो पडिसेहए। नहुदाहामि ते भिक्खं, भिक्खू जायाहि अण्णओ॥६॥ तदा याजको यजमानो विजयघोषो ब्राह्मणस्तत्र भिक्षार्थ समु-पस्थितं सन्तं तं साधु प्रतिषिध्यति निवारयति, कथं निवारयतीत्याह-हे भिक्षो ! त्वम् अन्यतोऽन्यत्र याहि (ते) तुभ्यं भिक्षां न ददामि // 6 // जे य वेयविओ विप्पा, जण्णट्ठा य जिइंदिया। जोइसंगविओ जे य, जे य धम्मस्स पारगा / / 7 / / जे समत्था समुद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य / तेसिं अन्नमिणं देयं, भो भिक्खू व्वकामियं ॥चा युग्मम् विजयघोषो वदति-हे भिक्षो ! अस्मिन् यज्ञे इदं प्रत्यक्ष दृश्यमानम् अन्नं सर्वकामिक षट्रससिद्ध तेषां पात्राणां देयं वर्तते तेभ्यो देयमस्ति। न तु तुभ्यं देयं वर्तते। तेषां केषाम्? ये आत्मानं स्वक यमात्मानम् च पुनः,परं परस्यात्मानं समुद्धर्तुं समर्थाः। ये संसार-समुद्रात् आत्मानं तारयितुं समर्थाः परमपि तारयितुं समर्थाः / तेषां प्रदेयमस्ति इति भावः // 7|| पुनः केषां प्रदेयमन्नं वर्तते? ये विप्रा वेदविदो वेदज्ञाः तेषाम् / पुनर्ये यज्ञार्थाः यज्ञ एव अर्थः प्रयोजनं येषां ते यज्ञार्थास्तेषाम्। पुनर्ये जितेन्द्रिया इन्द्रियाणां जेतारस्तेषाम्। पुनर्ये ज्योतिषाङ्ग विदःज्योतिः शास्त्रस्याङ्ग वेत्तारः। यद्यपिज्योतिः शास्त्र वेदस्याङ्गमेवास्ति वेदविद इत्युक्ते आगतम् तथापि अत्र ज्योतिःशास्त्रस्य पृथगुपादानं प्राधान्यख्यापनार्थ तस्मात् एतद्- गुणविशिष्टा ये ब्राह्मणास्तेषां देयमस्ति, पुनर्ये धर्मशास्त्राणां पारगा-स्तेषां देयम् अत्र अन्नं वर्तत, इत्यर्थः / / 8 / / सो तत्थेवं पडिसिद्धो, जायगेण महामुणी। न वि रुट्ठोन वि तुट्ठो, उत्तमट्ठगवेसओ॥६il स महा मुनिर्जयघोषः तत्र यज्ञे(एव) अमुना प्रकारेण विजयघोषण याजकेन यज्ञकारकेण प्रतिषिद्धः सन् निवारितः सन् नापि रुष्टो नापि तुष्टः समभावयुक्तोऽभूत् / कीदृशः स महामुनिः? उत्तमार्थगवेषको मोक्षाभिलाषी // 6 // नऽन्नटुं पाणहेउं वा, न वि निव्वाहणाय वा। तेसिं विमोक्खणट्ठाए, इमं वयणमव्ववी।।१०।। स महामुनिस्तेषां विजयघोषादिब्राह्मणानां विमोक्षणार्थ कर्मबन्धनात् मुक्तिकरणार्थम् इदं वचनम् अब्रवीत्-परम् अन्नपानलाभार्थन अब्रवीत्। एवं ज्ञात्वा न अब्रवीत् येन अहं एभ्य उपदेशं ददामि एते प्रसन्ना मां सम्यग् अन्नपानं ददति इति बुद्ध्या न अब्रवीत् / किं तु तेषां संसारनिस्तारार्थमवदत् / वा अथवा-निर्वाहणाय अपि न वस्त्रपात्रादिकानां निर्वाह एभ्यो मम भविष्यति तेन हेतुना न अब्रवीदिति भावः / / 10|| न विजाणासि वेयमुहं, न वि जन्नाण जं मुहं। नक्खत्ताण मुहं जंच, जं च धम्माण वा मुहं / / 11 / / किम अब्रवीत? इति आह-भो ब्राह्मण ! विजयघोष ! त्वं वेदमुखं न विजानासि / पुनर्यत् यज्ञानां मुखं वर्तते तदपि त्वं न जानासि / पुनर्यत् नक्षत्राणां मुखं तदपि त्वं न जानासि।च पुनर्यद्धर्माणां मुखं वर्तत तदपि त्वं न जानासि // 11 // पुनः स साधुर्विजयघोषं ब्राह्मणं प्रति पृच्छतिजे समत्था समुद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य। ण ते तुम विजाणासि, अह जाणासि तो भण? ||12|| हे विजयघोष ! ये परं च पुनः आत्मानम् / एवं समुद्धर्तु संसारात् निस्तारयितुं समर्थास्तान स्वपरनिस्तारकान्त्वं न जानासि। अथ चेत् त्व जानासि तदा (भण) कथय? 1112 // तस्स खेवपमोक्खं च, अचयंतो तहिं दिओ। सपरिसो पंजलिउमो, पुच्छई तं महामुणिं!|१३॥
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________________ जयघोस 1420 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयघोस (तर्हि इति) तत्र यज्ञे द्विजो विजयघोषः प्राञ्जलिपुटो बद्धाञ्जलिः सन्, तं महामुनिं पृच्छति-कीदृशो द्विजः? सपरिषत् बहुभिर्मनुष्यैः सहितः। पुनः स द्विजः कीदृशः सन्? तस्य साधोराक्षेपं प्रश्नस्तस्य प्रमोक्ष प्रतिवचनमुत्तरम् (अचंयतो इति) दातुम् अशक्नुवन् प्रश्नस्योत्तरं दातुमसमर्थः सन् दातुमित्यध्याहारः / / 13 / / वेयाणं च मुहं बूहि, बूहि, जन्नाणजं मुहं। नक्खत्ताण मुहं बूहि, जं च धम्माण वा मुह / / 14 / / हे महामुने ! त्वमेव वेदानां मुखं ब्रूहि ? पुनर्यत् यज्ञानां मुखं तन्मे ब्रूहि? पुनर्नक्षत्राणां मुखं ब्रूहि? पुनर्यत् धर्माणां मुखं तन्मे ब्रूहि / / 14 / / जे समत्था समुद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य / एयं मे संसयं सव्वं, साहू कहसु पुच्छिओ / / 15 / / पुनर्ये पुरुषाः परं, च पुनरात्मानमपि संसारात् उद्धर्तु समर्थाः सन्ति एतन्मे मम शंसयविषयं वेदमुखादिकम् अस्ति। हे साधो ! त्वं मया पृष्टः सन् सर्वं कथयस्व / / 15 // इत्युक्ते पुनराहअग्गिहोत्तमुहा वेया, जन्नट्ठी वेयसा सुहं। नक्खत्ताण मुहं चंदो, धम्माणं कासवो मुहं / / 16 / / हे विजयघोष ! वेदा अग्निहोत्रमुखाः, अग्निहोत्र मुखं येषां तेअग्निहोत्रमुखाः वेदानां मुखमग्निहोत्रम् / अग्निहोत्रं हि अग्निकारिका, सा च इयम्"कर्मेन्धन समाश्रित्य, दृढा सद्भावनाहुतिः / धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीक्षितेनाग्निकारिका / / 1 // " इत्यादि यज्ञविधि-विधायिका कारिका गृह्यते / वेदानां यज्ञानां एषा एव कारिका मुखं प्रधानम् / अस्याः कारिकायाः अर्थ:-कमा णि इन्धनानि कृत्वा उत्तमा भावना आहुतिविधया धर्मध्यानाग्नौ दीक्षितेन इयम् अग्निकारिका विधेया पुन ब्राह्मण ! विजयधोष ! यज्ञार्थी पुरुषो वेदसां यज्ञानां मुखं वर्तत, यज्ञो दशप्रकारधर्मः। "सत्यं तपश्च सन्तोषः, क्षमा चारित्रमार्जवम् / श्रद्धा धृतिरहिंसा च,सम्बरश्च तथा परः / / 1 / / '' इति दशप्रकारः। स चात्र प्रस्तावादावयज्ञस्तं यज्ञम् अर्थयति अभिलषतीतियज्ञार्थी स एव यज्ञाना मुखं वर्तते। नक्षत्राणां अष्टाविंशतीना मुखं चन्द्रो वर्तते, धर्माणां श्रुतधर्माणां चारित्र धर्माणां काश्यपः आदीश्वरो मुखं वर्तते / धर्माः सर्वेऽपि तेनैव प्रकाशिता इत्यर्थः / / 16 / / जहा चंदं गहाईया, चिटुंति पंजलीउडा। वंदमाणा णमंसंति, उत्तम मणहारिणो / / 17 / / यथा ग्रहादिका अष्टाशीतिग्रहाः नक्षत्राणि अष्टाविंशतिप्रमितानि एवं सर्वे ज्योतिष्का देवाश्चन्द्रं प्राञ्जलिपुटाः बद्धाञ्जलयस्तिष्ठन्ति सेवन्ते / एवं श्रीऋषभदेवम् उत्तम प्रधानं यथा स्यात्तथा मनोहारिणस्त्रिभुवनवर्तिनो भव्याः वन्दमानाः स्तवना कुर्वन्तो नमस्कुर्वन्ति विनये प्रवर्तन्ते इति भावः / / 17 // अजाणगाजण्णवाई, विजामाहणसंपया। मूढा सज्झायतवसा, भासच्छन्ना इवऽग्गिणो।।१८।। हे विजयघोष ! विद्याब्राह्मणसंपदामजानानाः पुनर्यज्ञवादिनस्ते त्वया पात्रत्वेन मन्यन्ते / विद्या आरण्यकब्रह्माण्डपुराणात्मिकास्ता एव ब्राह्मणसंपदो विद्याब्राह्मणसंपदस्तासाम् अज्ञास्सन्तो यज्ञवादिनो वर्तन्ते / चेत् बृहदारण्यकाद्युक्तं यज्ञम् एते जानन्ते, तदा कथं एतादृश यज्ञं कुर्युः / तस्माद् वृथैव वयं याज्ञिकाः इत्यभिमानं कुर्वन्ति / पुनः कथंभूताः? स्वाध्यायतपसा वेदाध्यनोपवासादिना मूढाः बहि: संवृतिमन्तः आच्छादिततत्त्वज्ञानाः। एते के इव? भस्मच्छन्नाः अग्रण इव / रक्षाच्छादित बय इव / इत्यनेन बाह्ये शीतत्वे प्राप्ताः परं कषायाग्निना मध्ये सन्तप्ता एवेति भावः / / 18 / / पुनस्साधुर्वदतिजो लोए वम्भणो वुत्तो, अग्गीव महिओ जहा। सया कुसलसंदिटुं, तं वयं वूम माहणं / / 16 / / हे विजयघोष ! वदं तं ब्राह्मणं ब्रूमः / तं कम्? यो मुनिभिब्राह्मण उक्तः। यदा कैश्चित् अज्ञैः अब्राह्मणोऽपि ब्राह्मणोऽयमित्युक्तस्तं ब्राह्मणं न ब्रूमः इति भावः / कथं भूतः सः? लोकैर्महितः पूजितः सन्दीप्यते। क इव? अग्निरिव। यथाऽग्निः पूजितो घृतादिसिक्तो दीप्यते। कीदृशंतं ब्राह्मणम् ? सदा कुशलसन्दिष्टं कुशलैस्तत्त्वाभिज्ञैः संदिष्टं कथितम्।।१६।। अथ कुशलसंदिष्टस्वरूपमाह-- जो न सज्जइ आगंतुं,पव्वयंतो न सोयइ। रमई अजवयणम्मि, तं वयं वूम माहणं / / 20 / / हे विजयघोष ! तं वयं ब्राह्मणं बूमः / तम् इति किम् ? यः(आगंतु इति बहुभ्यो दिनेभ्यः प्राप्त स्वजनादिकं वल्लभंजनंन स्वजति ना लिङ्गति। अथवा-(आगतुं इति) स्वजनादिस्थानमागत्य स्वजनादिकं न स्वजति न अभिष्वङ्गं करीति, पुनर्यः प्रव्रजन् स्थानात् अन्यत्स्थानं स्थानान्तर गच्छन् अर्थात विच्छुटन् न शोचते न शोक कुरुते / पुनर्य आर्यवचने तीर्थकरवाक्ये रमते तं वयं ब्राह्मणं वदामः / / 20 / / जायरूवं जहाऽऽमिटुं,निद्धत्तमलपावगं। रागदोसभयातीतं, तं वयं वूम माहणं // 21|| हे विजयघोष ! वयं तं ब्राह्मणं ब्रूमः। की दृशम्? जातरूपं स्वर्ण इट आमृष्टं तेजो वृद्धये मनःशिलादिना परामृष्ट कृतवर्णिकावर्द्धनमनेन बाह्यगुण उक्तः / यथाशब्द इबार्थे / पुनः कीदृशं तम् ? (निद्धत्तमलपावर्ग) नितरामतिशयेन ध्मातं मलं किमु तद्रूपं पातक यस्य तन्निर्मातमलपातकम् अनेन च अन्तरो गुण उक्तः। पुनः कथंभूतः? रागद्वेषभयातीत रागः प्रेमरूपः द्वेषोऽप्रीतिरूप स्ताभ्यामतीतो दूरीभूतस्तं वयं विप्रं वदामः // 21 // तवस्सियं किसं दंतं, अवचियमंससोणियं / सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं वूम माहणं / / 22 / / हे विजयघोष ! वयं तं ब्राह्मण ब्रूमः / तं कं तपस्विनम् / अत एव कृतं दुर्बलम् / पुनः कीदृशम् ? दान्तं जितेन्द्रियम् / पुनः कीदृशम्? अपचितमासशोणितं शोषितमासरुधिरम्। पुनः कीदृशम्? सुव्रतं सम्यक् व्रतानां धर्तारम् / पुनः कीदृशम् ? प्राप्तनिर्वाणं प्राप्तं कषायाग्निशमनेन निर्वाणं शीतिभावं येन स प्राप्तनिर्वाणस्तम् // 22 // तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण यथावरे।
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________________ जयघोस 1421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयघोस जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं // 23 // हे ब्राह्मण ! तं वयं ब्राह्मणं ब्रूमः / तम् इति कम् ? यस्त्रसान् प्राणान् पुनः स्थावरान् संग्रहेण समासेन संक्षेपेण विज्ञाय त्रिविधेन मनोवाकायेन करणकारणानुमतिभेदेन नवविधेन न हन्ति, त ब्राह्मणं वच्म इति भावः / / 23 / / कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया। मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं // 24|| हे विजयघोष ! यः क्रोधात्, यदि वा अथवा हासात्, वा अथवा लोभात्, अथ भयात् मृषाम् असत्यवाणी न वदति, तं वयं ब्राह्मणं ब्रूमः // 24|| चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जदि वा बहु। न गिण्हइ अदत्तं जे, तं वयं बूम माहणं // 24 // हे ब्राह्मण ! यश्चित्तमन्तं सचित्तम् / अथवा-अचित्तं प्रासुकम् अल्पं स्तोकम्, यदि वा बहुप्रचुरम् अदत्तं दायकेन अनर्पित स्वयमेव नगृह्णाति तं वयं ब्राहाणं वदामः / / 25 / / / दिव्वमाणुस्सतेरिच्छं, जो ण सेवइ मेहुणं। मनसा कायवक्केणं, तं वयं बूम माहणं // 26|| पुनर्यो दिव्यमानुष्यतिरश्चीनं मैथुनं मनसा कायेन वचसा कृत्वा न / सेवते। वयं तं ब्राहाणं वदामः // 26 // जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामे हिं, तं वयं बूम माहणं / / 27 / / हे ब्राह्मण ! पुनस्तं वयं ब्राह्मणं वदामः / तं कीदृशम् ? (एवं) अ-मुना प्रकारेण अनेन दृष्टान्तेन कामैः अलिप्तं भागैः असंलग्रं येन दृष्टान्तेन यथा पद्म जले जातं परं तत् पद्मं वारिणा न उपलिप्यते जलं त्यक्त्वोपरि तिष्ठति तथा भोगैरुत्पन्नोऽपि भोगैरलिप्तो यस्तिष्ठति स ब्राह्मणो ज्ञेयः // 27 // अलोलुयं मुहाजीवी, अणगारं अकिंचणं / असंसत्तं गिहत्थेसु, तं वयं बूम माहणं // 28|| मूलगुणमुक्त्वा उत्तरगुणमाह-पुनर्वयं तं ब्राह्मणं ब्रूमः / कीदृशं तं ब्राह्मणम् ? अलोलुपम् आहारादिषु लाम्पट्यरहितम्। पुनः कीदृशम्? मुधाजीविनम् अज्ञातगृहेषु आहारादि गृहीत्वा आजीविकां कुर्वाण संयमजीवितव्यधारकम् इत्यर्थः / पुनः कीदृशम्? गृहस्थेषु असंसक्तं गृहस्थ प्रतिबन्धरहितम् // 28 // जहित्ता पुय्वसंजोग, नातिसंगे य बंधवे / जो न सज्जइ भोगेसु, तं वयं बूम माहणं // 26 // पुनस्तं वयं ब्राह्मणं वदामः / तमिति कम् ? यो ज्ञातौ स्वकीयगोत्रे च पुनः सङ्गे स्वसुरादिसंबन्धे पुनर्बान्धवे पूर्वसंयोगं मातापित्रादि-स्नेहं त्यक्त्वा पुनरेतेषु पूर्वोक्तेषु न स्वजति रागासक्तो न भवति। तंवयं ब्राह्मणं वदामः // 26 // पसुवंधा सव्ववेया, जटुं च पावकम्मुणा। न तं तायंति दुस्सीलं, कम्माणि वलवंतिह।।३०।। भो विजयघोष ! सर्ववेदाः पशुबन्धाः वर्तन्ते पशूना बन्धो विनाशाय नियन्त्रणं यैस्ते पशुबन्धाः केवलं वेदाः पशुहननहेतवो वर्तन्ते / न तु मोक्षहेतवः / हिंसायाः प्ररूपकत्वात् यतो हि वेदवा-क्यभिदं श्रूयताम् "भूतिकामो वायव्यां दिशि श्वेतं छागमालभेत'' इत्यादिपशुबन्धे हेतुभूतं वेदवाक्यं च पुनः (जट्ठ इति) इष्ट यजनं यज्ञः पापकर्मणामुत्पद्यते तत् इष्ट पापकर्मणा पापकारणपशुबन्धाद्यनुष्ठानेन तं वेदानाम् अध्येतारं यज्ञकर्तारं वा न जायन्ते यज्ञकर्तारं वा दुःशीलं दुराचारं पापशास्त्राणां पठनेन पापकर्मकरणेन दुष्टाचारम् इह कर्माणि बलवन्ति वर्तन्ते दुष्टकर्माणि बलेन पापकर्मकरि नरकं नयन्ति। अतः कारणात् एतस्मात् यागात् ब्राह्मणः पात्रभूतोऽस्ति। किं तु अनन्तरोक्तगुणवान् एव ब्राह्मण इति भावः // 30 // न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। न मुणीऽरन्नवासेणं, कुसचीरेण न तावसो // 31|| हे विजयघोष ! मुण्डितेन श्रमणो निर्ग्रन्थो न स्यात् / ओङ्कारेण ऊँ भूर्भुवः स्वस्तीत्यादिना ब्राहाणो न स्यात् / तथा-अरण्यवासेन मुनि! च्यते / कुशो दर्भस्तन्मयं चीरं उपलक्षणत्वाद् वल्कलं कुशचीर तेन कुशचीरेण कुशोपलक्षितवल्कलवस्त्रेण तापसो न भवेत्॥३१॥ समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होई, तवेण होइ तावसो / / 32 / / (समया) समयत्वेन शत्रुमित्रयोरुपरि समानभावेन श्रमणो भव--ति। ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणो भवति, ब्रहा पूर्वोक्तम् 'अहिंसासत्यचौर्याभावामैथुननिर्लोभरूपं तस्य ब्राह्मणश्चरणमङ्गीकरणं ब्रह्मचर्य तेन ब्राह्मण उच्यते, ब्रह्मत्वयुक्तो ब्राह्मण इत्यर्थः / ज्ञानेन मुनिर्भवति मन्यते जानाति हेयोपादेयविधी इति मुनिः। स च ज्ञानेनैव स्यात्। तथा तपसा द्वादशविधन तापसो भवति / / 3 / / कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो। वयसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा / / 33 / / कर्मणा क्रियया ब्राह्मणो भवति, "क्षमा दानं दमो ध्यानं, सत्यं शौचं धृतिघृणा / ज्ञानविज्ञानमास्तिक्यमेतत् ब्राह्मणलक्षणम् / / 1 / / " अनया क्रियया लक्षणभूतया ब्राह्मणः स्यात् / क्षत्रियः शरणागतत्राणलक्षणक्रियया क्षत्रिय उच्यते, न तु केवलं क्षत्रियकुले जातिसमुत्पन्ने सति शस्त्रबन्धनत्वेनैव क्षत्रिय उच्यते।एवं वैश्योऽपिकर्मणा क्रिययाएव स्यात् कृषिपशुपाल्यादिक्रियया वैश्य उच्यते / कर्मणा एव शूद्रो भवति शोचनादिहेतुप्रेषणभारोद्वहनजलाद्याहरणचरणमर्दनादिक्रियया शूद्र उच्यते / अत्र ब्राह्मणलक्ष्णावसरे अन्येषां वर्णत्रयाणां लक्षणाविधानं व्याप्तिदर्शनार्थम् // 33 // एए पाउकरे बुद्धे, जेहिं होइ सिणायओ। सव्वकम्मविणिम्मुक्कं , तं वयं बूम माहणं // 34 // बुद्धो ज्ञाततत्त्वः श्रीमहावीरः एतान् अहिंसाद्यर्थान प्रादुरकार्षीत् प्रकटी चकार / यैर्गुणैः कृत्वा सर्वकर्मविनिर्मुक्तो भूत्वा स्नातको भवति केवली भवति। प्राकृतत्वात् प्रथमास्थाने द्वितीया। तम् एतादृशगुणयुक्तं स्नातकं वा वयं ब्राह्मणं वदामः॥३४॥ एवं गुणसमाउत्ता, जे भवंति दिउत्तमा / ते समत्था वि उद्धत्तुं, परं अप्पाणमेव य॥३५॥
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________________ जयघोस 1422 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयण एवंगुणसमायुक्ताः ये द्विजोत्तमाः ब्राह्मणश्रेष्ठाः भवन्ति। ते ब्राह्मणोत्तमाः परमात्मानम् अपि उद्धर्तुं समर्था भवन्ति / / 35 / / एवं तु संसए छिन्ने, विजयधोसे य माहणे। समुदाय तयं तं तु, जयघोसं महामुणिं / / 36 / / ततस्तदनन्तरं विजयघोषो ब्राह्मणः जयघोष महामुनि उवा च इदं वचनम्- उदाह कथयति इति संबन्धः किं कृत्वा ? तं मुनि जयघोषं / समादाय सम्यक् उपलक्ष्य ज्ञात्वा, व सति (एवं) पूर्वोक्त–प्रकारेण विजयघोषस्य शंसये छिन्ने सति॥३६॥ तुट्ठो य विजयघोसे, इणमुदाहु कयं जली। माहणत्तं जहाभूयं, सुट्ठ मे उवदंसियं / / 37 / / विजयघोषस्तुष्ट इदं वचनंजयघोषमुनये आह-कीदृशो विजयघोषः? कृताञ्जलिः, हे मुने ! मे मम ब्राह्मणत्वं यथाभूतं यथा स्वरूपं सुष्ट सम्यगुपदर्शितम्॥३७॥ तुब्भे जइया जन्नाणं, तुभं वेयविओ विऊ / जोइसंगविओ तुब्भे, तुब्भे धम्माण पारगा॥३८|| किं वचनम्? आह-हे महामुने ! (तुब्भे इति) यूयं यज्ञाना यष्टारः, यूयं वेदविदः वेदवित्सु विदो ज्ञातारो वेदविदाम्बराः यूयम् एव / पुन!यम् एव ज्योतिषाङ्ग विदः / यूयम् एव धर्माणां पारगाः धर्माचारपारगाः // 38 // तुब्भे समत्था उद्धत्तुं,परं अप्पाणमेव य। तमणुग्गहं करे अम्हं, भिक्खेणं भिक्खुउत्तमाः !||36 / / पुनर्हे महामुने ! यूयं परं पुनः आत्मानं समुद्धर्तु संसारात् निस्तारयितु समर्थाः / (तं इति) तस्मात् कारणात् भो भिक्षुत्तमाः ! साधुश्रेष्ठाः ! भिक्षया भिक्षाग्रहेण अस्माकम् अनुग्रहं यूयं कुरुथ // 36 // ण कजं मज्झ भिक्खेणं, खिप्पं निक्खम सूदिया। मा भमिहिसि भयावट्टे,घोरे संसारसागरे॥४०॥ तदा जयघोषमुनिराह-हे द्विज ! मम भिक्षया कार्य नास्ति / त्वं क्षिप्रं शीघ्र क्षमस्व दीक्षा गृहाण / हे द्विज ! घोरे भीषणे संसारसागरे भ्रमसि मिथ्यात्वेन त्वं संसारसमुद्रे भ्रमिष्यसि / तस्मान्मिथ्यात्वं त्यज, जैनी दीक्षा गृहाणेति भावः / कथं भूते संसारसमुद्रे ? भयावर्ते सप्तभयजलभ्रमयुक्ते / / 4 / / उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पइ। भोगी भमई संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई // 41 // हे विजयघोष ! भोगेषु भुज्यमानेषु सत्सु उपलेपः कर्मोपचयरूपो बन्धः स्यात् / अभोगी भोगानाम् अभोक्ता, कर्मणा न उपलिप्यते / पुनर्भोगी भोगानां भोक्ता, संसारे भ्रमति। अभोगी भोगानाम् अभोक्ता, कर्मलेपाद् विमुच्यते // 41 // कर्मलेपे दृष्टान्तमाहउल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टिया मया। दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोऽत्थ लग्गइ // 42 // / उल्ल आर्द्रः, च पुनः शुष्कः, एतौ द्वौ मृत्तिकामयौ गोलको कुड्ये भित्तौ / उच्छढी आक्षिप्तौ तत्र आपतितौ भित्तौ आस्फालितौ सन्तो। अत्र द्वयोः मृत्तिकामयगोलकयोर्मध्ये य उल्लः आज़े, मृद्गोलकः स कुको लगति।।४।। एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा। विरत्ता उन लग्गति, जहा से सुक्कगोलए॥४३|| (एवं) अमुना प्रकारेण आर्द्रमृत्तिकागोलकदृष्टान्तेन दुर्मेधसो दुष्टबुद्धयो ये नराः कामलालसाः भोगेषु लम्पटाः (लग्गति) संसारे आसक्ताः भवन्ति / तु पुनः विरक्ताः कामभोगेभ्यो विमुखनराः (न लग्गति) संसारासक्ता न भवन्ति / यथा शुष्को मृद्रोलको भित्तौ न लगति // 43 // एवं से विजयघोसे, जयघोसस्स अंतिए। अणगारस्स निक्खंत्तो, धम्मं सोचा अणुत्तरं / / 44 / / (एवं) अमुनाप्रकारेण स विजयघोषो ब्राह्मणो जयघोषस्य अनगा-रस्य अन्तिके समीपे निष्क्रान्तो दीक्षां प्राप्तः / किं कृत्वा? अनुक्तर धर्म श्रुत्वा // 44 // खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य। जयघोसविजयघोसा, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ॥४५॥ति वेमि जयघोषविजयघोषौ उभावपि अनुत्तरा प्रधानां गतिं सिद्धि प्राप्तौ / किं कृत्वा ? संयमेन, च पुनस्तपसा पूर्वकर्माणि, क्षपयित्वा / इति अहं ब्रवीमि। सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं प्राह // 15 // उत्त०२५ अ०) जयचंद पुं०(जयचन्द्र) सोमसुन्दरसूरिशिष्यपञ्चकमध्ये द्वितीये शिष्ये, ग०४अधि०। अनेन, विक्रमसंवत् 1506 प्रतिक्रमणविधिनामा ग्रन्थो विरचितः। जै०इ०। जयजयसद्द पु०(जयजयशब्द) जयजयारवे, औ०। जयजयारव पुं०(जयजयारव) जयजयेत्याशीर्वादशब्दे, "जय जय नंदा जय जय भद्दा जय जय खचियवरवसहा' वृत्तिः-संभ्रमे द्विवचनम्। इह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्। अथवा-जयत्वं जगन्नन्द! भुवनसमृद्धिकारक एवं जगद्भद्र ! जगत् कल्याणकर ! औ०। "जय जय णंदा धम्मेणं जय जय गंदा तवेण'' वृत्तिः-जय जयेत्याशीर्वचनं भक्तिसंभ्रमे च द्विवचन नन्द वर्द्धस्व धर्मेण एवं तपसाऽपि। अथवा-जय जय विपक्षं, केन धर्मण इह नन्देत्येवमक्षरघटना कार्या। भ०६श०३३उ०। जयट्ठभासि(ण) पुं०(जयार्थभाषिन) यथैवात्मनो जयो भवति तथैवाविद्यमानमप्यर्थं भाषते तच्छीलः जयार्थभाषी। येन केन प्रकारेणासदर्थभाषणेनाप्यात्मनोजयमिच्छतिजने, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०॥ जयण न०(यजन) यागे, गायत्र्यादिपाठपूर्वक विप्राणां संध्या र्चनरूपायां पूजायाम्, अनु०। अभयस्य दाने च,प्रश्न०१ सम्ब० द्वार / हयसंनाहे,दे०ना०३वर्ग। *यतन न० / प्राणिरक्षणे, प्रश्न०१ सम्ब० द्वार। प्राप्तेषु योगेषु उद्यमकरणे, (अणु०) "जयणघडणजोगचरितं"वृत्तिः-यतनं प्राप्तेषु योगेषु उद्यमकरणं घटनं चाप्राप्तानां तेषां प्राप्त्यर्थ यत्नः यतनघटनप्रधाना योगाः संयमव्यापारा मनःप्रभृतयो वा चारित्रे तत्तथा। अणु०३ वर्ग। अजयं चरमाणो अ, पाण भूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइकडुअं फलं / / 1 / /
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________________ जयण 1423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयणा अजयं चिट्ठमाणो य, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से हो इ कडुयं फलं // 2 // अजयं आसमाणो अ, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से हॉइ कडअं फलं // 3 // अजयं सयमाणो अ, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ||4|| अजयं भुंजमाणो अ, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से हो इ कडुअं फलं / / 5 / / अजयं भासमाणो अ, पाणभूया. हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से हों इ कडुअं फलं / / 6 / / अयतं चरन्नयतमनुपदेशेनासूत्राज्ञया इति। क्रियाविशेषणमेतत्, चरन् गच्छन् / तुरेवकारार्थः / अयतमेव चरन् ईर्थासमितिमुल्लङ्घ्य न त्वन्यथा, किमित्याह-प्राणिभूतानि हिनस्ति। प्राणिनो द्वीन्द्रियादयः, भूतान्येकेन्द्रियाः तानि हिनस्ति, प्रमादानाभोगाभ्यां व्यापादयतीति भावः। तानि च हिंसन् बध्नाति पापं कर्म अकुशलपरिणामादादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि, तत् (से) भवति कटुकफलम्, तत् पापं कर्म 'से' तस्यायतचारिणो भवति / कटुकफलमित्यनुस्वारोऽलाक्षाणिकः / अशुभफलं भवति मोहादिहेतुतया विपाकदारुणमित्यर्थः / / 1 / / एवमयतं तिष्ठन् ऊर्ध्वस्थानेनासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन् शेषं पूर्ववत्॥२।। एम-यतम् आसीनो निषण्णतया अनुपयुक्तः सन् आकुञ्चनादिभावेन, शेष पूर्ववत् / / 3 / / एवमयतं स्वपन्नसमाहितो दिवा प्रकामशय्या-दिना, शेष पूर्ववत् // 4 / / एवमयतं भुजानो निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालभक्षितादिना, शेषं पूर्ववत् / / 5 / / एवमयतं भाषमाणो गृहस्वभाषया निष्ठुरमन्तरभाषादिना, शेषं पूर्ववत्॥६॥ कहं चरे कह चिट्टे, कहमासे कहं सए। कहं भुजंतों भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ / / 7 / / अत्राह-यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः "कहं चरे'' इत्यादि / कथं केन प्रकारेण चरेत? कथं तिष्ठेत् ? कथमासीत? कथं स्वपेत? कथ भुञ्जानः? कथं भाषमाणः? पापं कर्म न बध्नाति इति / / 7 / / जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। जयं भुजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ / / 8 / / आचार्य आह-"जयं चरे'' इत्यादि / यतं चरेत् / सूत्रोपदेशेनेसमितः!यत तिष्ठत समाहितो हस्तपादाद्यविक्षेपेण, यतमासीत, उपयुक्त आकुञ्चनाद्यक रणेन, यतं स्वपेत् समाहितो रात्री प्रकामशय्यादिपरिहारेण, यतं भुजानः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहभक्षितादिना, एवं यतं भाषमाणः साधुभाषया मृदु कालप्राप्तं च / पाप कर्म क्लिष्टमकुशलानुबन्धि ज्ञानावरणीयादि न बध्नाति नादत्ते। निराश्रयत्वात् विहितानुष्ठानपरत्वादिति / / 8|| दश०४०। जयणा स्त्री०(यतना) यत्ने, नि०चू०१उ०। स्वशक्त्याअकल्पपरिहारे, आ०चू०६अ०। पृथिव्यादिष्वारम्भपरिहाररूपे यत्ने, दश०४ अ० अष्टादशानां शीलाङ्ग सहस्राणां संपूर्णानाम् अखण्डिताविराधिताना यावजीवमहर्निशमनुसमयं धरणरूपायां कृत्स्नायां संयमक्रियायाम, महा०२धूल। उपयुक्तस्ययुगमात्रदृष्टत्वे च / आचा०२ श्रु०३अ०१उ०) यतना च चतुर्विधा तथाहिदव्वओ खित्तओ चेव, कालओ भावओ तहा। जयणा चउव्विहा वुत्ता, तं मे कित्तयतो सुण // 6 // दव्वओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खित्तओ। कालओ जावरीएज्जा,उवउत्ते य भावओ ||7|| यतनेतिद्वारं बुभूर्भुराह- "दव्वओ' इत्यादि। सुगममेव, नवरं तामिति चतुर्विधयतनां मे कीर्तयतः समयक् प्ररूपाऽभिधानद्वारेण, संशब्दयतः शृण्वाकर्णय शिष्येति गम्यते / यथा प्रतिज्ञातमेवाह-द्रव्यत इति / जीवादिकं द्रव्यमाश्रित्येय यतना, यच्चक्षुषां दृष्ट्या प्रेक्षतावलोकययेत्, प्रक्रमाजीवादिकं द्रव्यमवलोक्य च / संयमात्मविराधनापरिहारेण गच्छेदिति भावः / युगमात्रं च चतुर्हस्तप्रमाणप्रस्तावात् क्षेत्रं प्रेक्षेत, इयं क्षेत्रतो यतना। कालतो यतना यावत् (रीएज त्ति) रीयते यावन्तं कालं पर्यटन्ति तावत् कालमभिगम्यते उपयुक्तश्च / भावतो दत्तावधानो यत् रीयते, इयं भावमङ्गी कृत्य यतना। उत्त०२४ अ०। मुनिना हि श्वासोच्छासावपि यतनया कार्यों। तदेवाह-"जेसि सोत्तूण उस्सासं, नीसासंवाऽणुजाणिणं तमविजयणाए न सव्वहा अजयणाएऊससंतस कओ धम्मो कोतवो' / महा०६०। श्रावकेणापि यतनया प्रवर्तितव्यमित्याह-यतनां विना प्रवृत्तौ च सर्वत्रानर्थदण्ड एव, अतः सद्यतनया सर्वव्यापारेषु सर्वशक्त्या श्रावकेण यतनायां यतनीयम्। ध०२अधि० जिन भवनकरणेऽपि यतना विध्यङ्गमेवेत्याह-यतनाऽपि जिनभवनकरणविध्यङ्ग मेव अयतनावतो हि कुशलक्रियासु प्रवर्तमानस्यापि प्रभूतसत्त्वसंघातसंभवेन कुशलाशयात्सम्यग् धर्मो नःभवति यतः''यत्नं विना धर्मविधावपीह, प्रवर्तमानोऽसुमता विघातम्। करोति यस्माच ततो विधेयो, धर्मात्मना सर्वपदेषु यत्नः // 1 / / दर्श०१ तत्त्व / उक्तं च सैद्धान्तिकैः"जयणेह धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव / तवबुद्विकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा / / 50|| यतनेह धर्मजननी ततः प्रसूतेः, यतना धर्मस्य पालनी चैव प्रसूतरक्षणात् / तपोवृद्धिकारिणी यतना इत्थं तच्छुद्धेः, एकान्तसुखावहा सर्वतो द्रव्यादिति गाथार्थः // 50 // जयणाए वट्टमाणो, जीवो सम्मत्तनाणचरणाणं। सद्धावोहासेवण-भावेणाराहगो भणिओ॥५१।। यतनायां वर्तमानो जीवः परमार्थे सम्यक्त्वज्ञानचरणानां त्रयाणामपि श्रद्धावोधासेवनाभावेन हेतुनाऽऽराधको भणितस्तथा प्रवृत्ते रिति गाथार्थः / / 51 // एसाय होइ णियमा, न यहियदोसणिवारिणी जेण। तेण पवित्तिपहाणा, विष्णेया बुद्धिमंतेणं / / 12 / / एषा न भवति नियमात् येनाधिकदोषनिवारणी इयम् नानुबन्धे-न। तेन प्रवृत्तिप्रधाना तत्वत्तो विज्ञेया बुद्धिमता सत्त्वेन / / 52 / / सा इह परिणयजलदल-विसुद्धरूवाओ होइ विण्णेया।
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________________ जयणा 1424 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जयाइच अव्वत्थओ महंतो, सव्वो सो धम्महेउत्ति" // 53 // जयसंध पु०(जयसन्ध) पुण्डरीकनृपस्यामात्ये, "जयसंधो अमचो" सा यतनेह जिनभवनादौ परिणतजलदलविशुद्धिरूपे च भवति।। आ०चू०४अ०॥ प्राशुकग्रहणेन अर्थतया यद्यपि महोत्सवप्रापितवासो धर्महेतु: जयसंधि पु०(जयसन्धि) पुण्डरीकनृपस्यामात्ये, 'जयसंधिणा स्थाननियोगादिति / प्रतिका अमचेण" आव०४ अ० जयना स्त्री० / जयनशीलायाम्, "जयणाए गइए' / वृत्तिः- शेषगति- जयसद्द पुं०(जयशब्द) जयसूचकः शब्दः / शाक०त०। जय ध्वनी, उद् जयनशीलया। कल्प०२क्षण। घुष्टनैकजयशब्दविराधितायाम्, वाच०। 'मंगलजयसद्दकयालोए'' जयणाजुत्त त्रि०(यतनायुक्त) यतनोपेते, नि०चू०१उ०। मंगलाय जयशब्दः कृतो जने नालोके यस्य स तथा / आग जयणाम पु०(जयनामन) जयाऽभिधाने एकादशे चक्रवर्तिनि, स्था०१० "जयसद्दग्धोसएणं" जयेतिशब्दस्य य उद्घोषः उद्घोषण तेन मिश्री ठा०ा आवा यः स तथा तेन। भ०६श०३३उ० जयणावरणिज्ज न०(यतनावरणीय) चारित्रविशेषवीर्यान्तरायलक्षणे | जयसिंह पुं०(जयसिंह) दक्षिणमथुरोद्भवे, अन्निकापुत्रमातामहे वणिग्भेदे, कर्मणि, भ०६ श०३१ उ०॥ दर्श०४ तत्त्व / ती०। जयतिलगसूरि पुं०(जयतिलकसूरि) तपागच्छीये रत्नसिंहसू रिशिष्ये, | जयसिंहदेव पुं०(जयसिंहदेव) सिद्धराजोपाये चौलुक्यवंशोद्भवे तेनच मलयसुन्दरीचरित्रं तथा सुलसाचरित्रं च निर्ममे। जै०इ०। गुर्जरनृपे, ती०५ कल्प: जीवा०। जयदेव पुं०(जयदेव) ऋषभदेवस्वामिनश्चतुरशीतितमे पुत्र, कल्प०७ जयसिंहसूरि पुं०(जयसिंहसूरि) सर्वदेवसूरिशिष्ये, दर्श०५ तत्व / क्षण। प्रश्नवाहनकूले हर्षपुरीयगच्छसंजाते अनुयोगद्वारसूत्रवृत्तिकृच्छ्रीजयदेववागरण न०(जयदेवव्याकरण) जयदेवकृतव्याकरणे, कल्प०१ मद्धेमचन्द्राचार्य गुर्व भयदेवसूरेगुरो, अनु०। अन्योऽप्ये तन्नामा क्षण। अचलगच्छीय आर्यरक्षितसुरेः शिष्यो धर्मघोषसूरेर्गुरुरासीत्। अस्य च जयदेवसूरि पुं०(जयदेवसूरि) भक्तामरकर्तुमानतुङ्ग सूरेः पट्टवर्तिनो पिता वाहडनामा नाघीनाम्नी च माता कोङ्कणदेशे सोपारकनगरेऽयं वीरसूरेः शिष्ये, ग०४अधिक। विक्रमसंवत् 1176 वर्षे जातः,सं०११६० वर्षेऽयं दीक्षितः, सं०१११२ जयद्दह पुं०(जयद्रथ) सिन्धुदेशाधिपवृद्धक्षेत्रसते राजभेदे, स च / वर्षे सूरिपदं, प्राप्तः स० 1256 वर्षे (80 वयसि) स्वर्गमगमत्। जै०३० धृतराष्ट्रकन्या दुःशल्यामुपयेमे / स च सौवीरदेशाधिपः "जयद्रथो नाम | जयसिरि स्त्री०(जयश्री) विजयलक्ष्म्याम, आ०म०प्र० यदि श्रुतस्ते, सौवीरराजस्सुभगे स एषः / " वाच०। गंगेनविदुरघोण- | जयसुंदरी न०(जयसुन्दरी) कृतमङ्गलापुरीयधनश्रेष्ठिसुतायाम्। जयद्दह" ज्ञा०१ श्रु०१६अ। ''कयमंगलापुरीए, धणसिद्विसुया उ वालविहवाऽऽसी / जयसुंदरि त्ति जयपुर न०(जयपुर) नगरविशेषे, यत्र किल धर्मरुचिमुनिर्भालादा-हृत्य तीसे, भत्तिजुया भायरा पंच / / 1 / / " सड्याला भिक्षादातुमुद्यतां वसुमती निवारितवान्। दर्श०३ तत्त्व। वर्तमानकाल- जयसे हर पुं०(जयशेखर) अञ्चलगच्छीयमहेन्द्रसूरिशिष्ये, स च वर्तिनि मरुधरमण्डलशृङ्गारे स्वनामाख्याते रम्यनगरे च। पिं०। विक्रमसंवत् 1436 विद्यमान असीत् / उपदेशचिन्तमाणिप्रबोधजयप्पपुं०(यतात्मन्) ध्यानैकनिषण्णे, आ०म०वि०) चिन्तामणि जैनकुमारसंभवधम्भिल्लचरित्रादीनां काव्यानां कर्ताऽभवत्। जयप्पभ पुं०(जयप्रभ) प्रवचनसारोद्धारविषमपदटीकाकरणे उदयप्रभसूरेः जै००। साहाय्यकारके आचार्य , जै०इ०। जयसोमसूरि पुं०(जयसोमसूरि) स्वनामके प्रमोदमाणिक्यसूरिगुरौ, जयमंगला स्त्री०(जयमङ्गला) मदनवल्लभकथानक प्रसिद्धायां अयमाचार्यः विक्रमसंवत् 1657 आसीत् / विचाररत्नसंग्रहनामानं च राजकुमार्याम्, दर्श०३तत्त्व। ग्रन्थं चकार। जै००। जयमाण त्रि०(यतमान) क्रियायां यत्नपरे, दश०६अ०१3०। ओघा | जया स्त्री०(जया) वासुपूज्यजिनमातरि, प्रव०११ द्वार / आव०॥ संयमानुष्ठाने परि समन्तान्मूलोत्तरगुणेषु उद्यम कुर्वति, सूत्र०१ श्रु०६ अ०/ तृतीयाऽष्टमीत्रयोदशीरूपासु तिथिषु, सू०प्र०१० पाहु० जी०। द०प० आचाof संविग्ने, व्य०१3०। "जतमाणा तत्थ तिहा, नाणत्था चं०प्र०। मघवन्नाम्नः स्तृतीयचक्रवर्तिनः स्थीरत्ने, सा पार्श्वजिनाधिदसणचरित्ते।" आ०म०प्र०) छात्रीदेवीविशेषे, ती०६ कल्प। जयन्तीवृक्षे, रोगजयात्तस्यास्तथात्वम्। जयराम पुं०(जयराम) शत्रुजयसिद्धे मुनिभेदे, 'जयरामादिराज र्षि- वाचा सा च गुच्छाकारा, तथाहि-गुच्छास्तुवृन्ताकीकासीजयाऽऽद्धकोटित्रयमिहागमत् / ती०१कल्प। कीतुलसीकुस्तुम्भरीपिप्पलीनीलादयः / आचा०१ श्रु०११०५उ०। जयवल्लइ पुं०(जयवल्लभ) नृपभेदे, "जलयसुंदरं नाम नयरं, तत्थ | हरीतक्याम्, विजयायाम्, "भंग' इति नाम्ना लोके ख्यातायाम् / जयवल्लहो राया, कतिकंदलो से भारिया, दुहिया लीलालया'' दर्श०१ नीलदूर्वायाम्, अग्निमन्थवृक्षे, पताकाभेदे,वाचा तत्त्व०॥ जयाइच्च पुं०(जयादित्य) पाणिनिव्याकरणे काशिकाकरणे वाम*जगद्वल्लभ त्रि०। सर्वजनप्रिये च। दर्श०१ तत्त्व। नाचार्यस्य साहाय्यकारिणि, जै०इo।
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________________ जयाणंद 1425 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जल जयाणंद पुं०(जयानन्द) विवुधप्रभसूरिशिष्ये, "हरिभद्रमित्रो ह्यभवत, सूरिः पुनरेव मानदेवगुरुः / विवुधप्रभश्च सूरिः, तस्मात्सूरिर्जयानन्दः / ग०४अधि०। सोमतिलकसूरिशिष्ये च। तथाहितेषा तयो विनेयाः, तत्र श्रीचन्द्रशेखरः प्रथमः। सूरिजयानन्दोऽन्य-स्तृतीयका देवसुन्दरा गुरवः। श्रीसामतिलकसूरे-स्तएव पट्टाम्बरादित्याः। ग०४अधि०। जर धा(ज) जरायाम, दिवा०पर०अक०सेट् / वाच० "ऋवर्णस्यारः" ||14|234|| इति प्राकृतसूत्रेण ऋकारस्यारादेशः। 'जरइ' जीर्यते / प्रा०४ पाद। *जर पुं० ज्दृ०भावे अप। जराया, विनाशन च / वाचा *ज्वर पुं० / ज्वर-भावे-घञ्। स्वनामख्याते रोगभेदे, वाच० / विपा०। ज्ञा० जरदुमार पुं०(जराकुमार) श्रीकृष्णज्येष्ठभातरि, ग०२ अधि। जरग त्रि० (जरत्क) जीर्णे , "जरग्गओवाणहे त्ति वा'' जरत्का जरती जीर्णेत्यर्थः सा चासौ उपानच जरत्कोपानत्। अणु०३ वर्ग। जरग्गव पुं०(जरगव) कर्म०टच् / वाचा जीर्णबलीवर्दे,बृ० १उ०। सूत्र०। "जरग पाए जरद्वपादः / अणु०३ वर्ग01 जरठ त्रि०(जरठ) ज़-वा-अठ-कर्कशे , कठिने, पाण्डुनृपे, पुं०ा जीर्णे, त्रिका जरायाम्, "नीरन्ध्रास्तनुमालिखन्तु जरठच्छेदा-नलग्रन्थयः " अयमतिजस्ठा प्रकामगुर्वी परिणते च / "जरठकम-लकन्दच्छेदगौरैर्मयूखैः'। वाच! "निद्भूय जरटपंडुपत्ता" वृत्तिः-निर्धूतानि अपनीतानि जरठानि पाण्डुपत्राणि येभ्यस्ते निर्धूतजर-ठपाण्डुपत्राः / राला सौग जरपागपुं० (जरापाक) षष्टिवर्षपर्याय सप्ततिवर्षजन्मके मानुषे, व्य०७उ०। जरय न० (ज्वरक) गावलीगतमहानरकविशेषे, स्था०६ ठा०। जरयमज्झए०(जरकमध्य) उत्तरदिगावलीगतमहानरकविशेषे, स्था०६ टा० जरयावत्त न०(जरकावर्त) पश्चिमदिगावलीगतमहानरकविशेष, स्था०६ ठा जरयावसिट्ठ न०(जरकावशिष्ट) दक्षिणदिगावलीगतमहानरकवि-शेषे, स्था०६ टा जरलछिओ (देशी) ग्रामीणे, देवना० 3 वर्ग। जरलविओ (देशी) ग्रामीणे, देखना०३ वर्ग। जरसमण न०(ज्वरशमन) ज्वरापहारे, "जरसमणाई रयणा, अण्णायगुणा वि ते समिति जहा" वृत्तिः-ज्वरशमनादीनि ज्वरापहारप्रभृतानि आदिशब्दाच्छूलशमनादिग्रहो रत्नानिमाणिक्यान्यज्ञातगुणान्यपि रोगिभिरविदितज्वरादिशमनसामान्यपि न केवलं ज्ञातगुणान्येव तावत् ज्वरादिरोगान् शमयन्ति विनाशय-न्ति। पञ्चा०४ पं०सू०। प्रज्ञा०ा लाद्वा०। सू०प्र०ा वृद्धत्वे, संथाला तथा स्था०। उत्त०। जीवानां जराशोकादिको धर्मःजीवाणं भंते ! किं जरा सोगे ? गोयमा ! जीवाणं जरा वि सोगे वि / से केणटेणं भंते !०जाव सोगे वि? गोयमा ! जेणं जीवा सारीरवेदणं वेदें ति / तेसिणं जीवाणं जरा, जेणं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं सोगे। से तेणढेणं जाव सोगे वि एवं णेरइयाण वि / एवं०जाव थणियकुमाराणं / पुढविकाइयाणं भंते ! जरासोगे ? गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा, णो सोगे / सेकेणतुणं० जाव णो सोगे ? गोयमा ! पुढवीकाइयाणं सारीरं वेदणं वेदें ति। णो माणसं वेदणं वेदेति / से तेण?णं ०जावणो सोगे। एवं जाव चरिंदियाणं,सेसं जहा जीवाणं०जाव वेमाणियाणं / सेवं भंते ! भंते ! त्तिजाव पजुवासइ। (जर त्ति) 'ज' वयोहानौ इति वचनात् / जरणं जरा वयोहानिः शारीरदुःखस्वरूपा वा इयमतो यदन्यदपि शारीर दुःखं तदनयोपलक्षितम्, ततश्च जीवानां किं जरा भवति / (सोगे त्ति) शोचनं शोको दैन्यमुपलक्षणत्वादेव चास्य सकलमानसदुःखपरिग्रहस्ततश्च उतशोको भवतीति। चतुर्विशति दण्डकेच येषां शरीरं तेषां जरा,येषां तु मनोऽप्यस्ति तेषामुभयमिति / भ०१६ श०२उ०। जराभिभूतविग्रहा जघन्यतरामवस्थामनुभवन्ति / जरणपरिणामे, “अङ्गेष्वेव जरां यातु यत्त्वयोपकृत मम' हा०२१ अष्ट। जरासंध पुं०(जरासंध) स्वनामख्याते राजनि, श्रीहेमनेमिचरित्रे कृष्णजरासन्धयुद्धाधिकारे जरामोचनशझे श्वरपार्श्वनाथनयनाधिकारः कथं नोक्तः सोऽधिकारः शास्त्रीयो नवेति प्रश्ने, उत्तरम्तीर्थकल्पादौ सोऽधिकारोऽस्तीति शास्त्रीय एवेति / 230 प्र०ा सेन०३ उल्ला०। पाण्डवचरित्रे जरासन्धसत्कहिरण्यनाभसेनानी भीमेन हतो हैमायनेमिचरितादौ चानादृष्टिसेनान्याहत इति कथं मिलतीत प्रश्ने, उत्तरम् अत्रापि मतान्तरमदसेय मिति। 62 प्र० सेन०१उल्ला०/ जल धा०(जल) आच्छादने, चुतरा०उभ०सक०सेट् / जालयति / अजीजलत् / तीक्ष्णीभवने, जीवनोपयोगिक्रियायां च / अक० भ्वा० पर० सेट् / जलति। अजालीत् / जजाल। जेलतुः / ज्वलादि। जलः जालः / वाचला जल। अलच्-त्रि०ावाच०। "लोलः" / / 4 / 308|| इति लस्य लः पैशाच्याम् / डस्य लो वा / प्रा०४ पाद / जडे, वाच०। उदके, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२उ०। पानीये,उत्त० 35 अ०1 जलकान्तेन्द्रस्य प्रथमे लोकपाले, स्था०४ ठा०१उ० भ० अप्कायजीवे, कर्म०४कर्म०। प्रश्न। ह्रीवेरे गन्धद्रव्ये, ज्योतिषोक्ते लग्नावधिके चतुर्थस्थाने, पूर्वाषाढानक्षत्रे च। न०। "तदङ्ग निष्पन्दजलेन लोचने'' ''जलाभिलाषी जलमाददा-नाम्" "न तज्जलं यन्न सुचारु पङ्कजम् " तृषिताय रोगिणेऽपि जलं देयम्। तथा च'पानीयं प्राणिनां प्राणा-स्तदायत्तं हि जीवनम् / तस्मात्सर्वास्ववस्थासु, न क्वचिद्वारि वार्यते।।१।। अन्नेनापि विना जन्तुः, प्राणान् धारयते चिरम्। तोयाभावे पिपासातः,क्षणात् प्राणैर्वियुज्यते / / 2 / / विवश जरा स्त्री०(जरा)ज-अड्-गुणः / वाच०। 'जू' वयोहानौ इति वचनात्। जरणं जरा / वयोहानौ, भ०१६ श०२ उ०। आ०म० उत्त०ा आवा
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________________ जल 1426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जलयर तृषितो मोहमायाति, मोहात् प्राणान् विमुञ्चति। वा वैश्वानरस्य ज्वलने, प्रकाशकरणाय दीपप्रबोधने, प्रश्र०३ सम्ब० तस्माजलमवश्यं हि,दातव्यं भेषजैः समम्॥३॥" वाच०। द्वार। ज्ञानादिगुणोद्भासने, प्रव० 148 द्वार। णिचू०। भरमीकरणेच ज्वल धा। दीप्तौ, चलने च / भ्वा० / पर०अक०सेट् / ज्वलति / ग०२ अधिन अज्वालीत् / घटा०।ज्वलयति। ज्वलाला ज्वलः-ज्वालः। "जज्वाल जलणप्पवेस न०(ज्वलनप्रवेश) बालमरणभेदे, नि०चू०११ उ०म० लोकस्थितये स राजा' "जागर्ति लोको ज्वलति प्रदीपः,सखीगणः जलणसिह पुं०(ज्वलनशिख) सुरभिपुरवास्तव्ये स्वनामख्याते बाहर पश्यति कौतुकेन / मुहूर्तमानं कुरु नाथ ! धैर्य , बुभुक्षितः किं द्विकरण शुभमतेः पितरि, दर्श०२ तत्त्व। भुङ्क्ते // 1 // " उदादिपूर्वकस्य तत्तदुपसर्गद्योत्यार्थयुक्तदीप्तौ,वाचा जलणसिहर पुं०(ज्वलनशिखर) वैतादयगिरेर्दक्षिणे शिवमन्दरे का 'ज्वल' दीप्तौ / वा अच्। दीप्तिविशिष्टे. न०। वाच०। देदीप्यमाने,सूत्र०१ | स्वनामख्याते, राज्ञि, उत्त०१३अ०। श्रु०५ अ०१उ०। रा० जलणसिहा स्वी०(ज्वलनशिखा) स्वनामख्यातायां पाटलिपुत्रनगरव. जलंत त्रि०(ज्वलत) देदीप्यमाने,सूत्र०१ श्रु०२अ०। स्था०। उत्त०।। स्तव्यहुताशनब्राह्मणभार्यायाम, आव०४ अ०। आ०५०। दर्श ज्वाला मुञ्चति, उत्त०११ अ०। महा०। जाज्वल्यमाने, उत्त०१६ अ०। विजयपुरनगरवास्तव्यरुद्रसोमद्विजभार्यायां च। सङ्घा०। आoकc कल्प जलदचरण पुं०(जलदचरण) जलदमवष्टभ्याप् कायिकजीवपीडजलकंत पुं०(जलकान्त) मणिविशेषे, उत्त०३६ अ०। प्रज्ञा० सूत्र | मजनयति, प्रव०१८ द्वार। आ०म०ा उदधिकुमाराणां दक्षिणेन्द्रे, भ०३ श०८ उ०। स्था०। प्रज्ञा० / जलदिट्ठि स्वी०(जलदृष्टि) द्वि०ब०। उदकस्य विषये लोचनप्रस:स०। जलकान्तेन्द्रस्य तृतीये लोकपाले, स्था०४ ठा०१उ०। लक्षणयोर्मिलितयोरर्थयोः, आव०३ अ०॥ जलकिट्ट न०(जलकिट्ट) असा मले, रा०। जलपक्खंदण न०(जलप्रस्कन्दन) बालमरणभेदे नि०चू० ११उन जलकीडा स्त्री०(जलक्रीडा) तडागजलयन्त्रादिषु मजनोन्मजन- जलपूया स्त्री०(जलपूजा) प्रतिदिन त्रिसन्ध्यमपि पवित्रगलितउ शृङ्गि काच्छोटनादिरूपाया क्रीडायाम, ध०२ अधि०। देहशुद्धावपि लभृतभाजनानां जिनपुरतो ढौकने, कर्पूरपूरसगोशीर्षघुसृणसाजलेनाभिरतौ, भ०११ श०६उ०। रसरससुरभिसम्मिश्रपवित्रजलभृतककनककलशैर्जलमजने च। दर्शक जलकीला स्त्री०(जलक्रीडा) जलकीडा' शब्दार्थ , भ०११ श०६ उ०। / तत्त्व। जलग पुं०(ज्वलक) वैश्वानरे, पिं०। जलप्पभ पुं०(जलप्रभ) उदधिकुमाराणां स्वनामख्याते उत्तरेन्द्रे, स्थाः जलगय पुं०(जलगत) पूतरकादिवसेषु, शेवालादिवनस्पतिकायिकेषु ठा०३३०। भला जलकान्तेन्द्रस्य स्वनामख्याते चतुर्थे लोकपाटे. जीवेषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। स्था०४ ठा०१३० भ०। जलचक्कवाल न०(जलचक्रवाल) तोयमण्डले, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। जलप्पवेस पुं०(जलप्रवेश) जले प्रविश्य म्रियते। बालमरणभेदे, स्थाः जलचार पुं०(जलचार) नावादिना संचरणे, आचा०२ श्रु०५ अ०१उ०। ठा०४३०। भ०ा नि०चू। जलचारण पुं०(जलचारण) जलपरिणामकु शलेषु, जलमुपेत्य जलभूमिआ खी०(जलभूमिका) जलाधारभूमौ, प्रज्ञा०२ पद। वापीनिम्नगासमुद्रादिष्वप् कायिकजीवानविराधयत्सु, जले भूमाविव जलमग्ग पुं०(जलमार्ग) नावादिगम्ये पथि, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। जलस्य पादोत्क्षेपकुशकेषु, ग०२ अधिक। तद्वाहस्य मार्गप्रणाल्याम्, वाचा जलचारिया स्त्री०(जलचारिका) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। जलमज्जण न०(जलमज्जन) जलेन देहशुद्धिमात्रे, भ०११ 206301 जलजलित त्रि०(जाज्वल्यमान) देदीप्यमाने, कल्प०२क्षण। जलमंडूअ पुं०(जलमण्डूक) कुडुण्डुभे जलव्याले, नि०चू०१304 जलट्ठाण न०(जलस्थान) जलाशयेषु, प्रज्ञा०२ पद। जलमय त्रि०(जलमय) अप्कायिकेषु जीवेषु, प्रश्न०१ आ०० द्वार। जलण त्रि०(ज्वलन) ज्वल-ताच्छील्यादौ युच्। दीप्तिशीले, वाचला अग्नौ, जलमाला वी०(जलमाला) प्रचुरजले.सूत्र०२ श्रु०१अ०। सूत्र०१ श्रु०३ अ०२उ०। आव०। वैश्वानरे, आ०म०। आत्मानं चारित्रं जलमूअ पुं०(जलमूक) मूकभेदे, आव०४ अ०। गाधा नि० चू० वा ज्वालयति दहतीति ज्वलनः / क्रोधे, सूत्र०१ श्रु०१अ०४३०| जलय न०(जलज) सहस्रपत्रादिषु, प्रज्ञा०१ पद / आ०। म०। रा०॥ पाटलिपुत्रे हुताशनब्राह्मणभार्यायां ज्वलनशिखायां जाते स्वनामख्याते | जलयर पुं०(जलचर) जले चरति पर्यट तीति जलचरः पुत्रे, आ०चू०४ अ०आवला आ०कला चित्रकवृक्षे च। पुं०। वाच०। भावे ''आधाराद्' / / 5 / 1 / 137 / / इत्यधिकारे / 'चरेष्ट:" ल्युट / अग्रेरुद्दीपने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। शैत्यापनोदनाय शोधनार्थं / // 5 / 1 / 138 // इति टप्रत्ययः।"कगचजतदपयवां प्रायो लुक्" // 6
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________________ जलयर 1427- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जलहि 1 / 177 / इति यलुकि जलअरः' तदभावे जलयरो' जलचरश्वा प्रा०१ से किं तं जलयरीओ ? जलयरीओ पंचविधाओ पाद / ते च पश्शेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पण्णत्ताओ / तं जहा-मच्छीओ०जाव सुंसुमारीओ / सेत्तं (प्रज्ञा०) जलयरीओ।। जी०२ प्रति से किं तं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया? जलयरपंचिं- जलयामलगंधिय पुं०(जलजामलगन्धिक) जलजानामिवजलदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-मच्छा जकुसुमानामिव मलो न तु कुद्रव्यसम्मिश्रो यो गन्धः स विद्यते येषां ते कच्छभा (हा) गाहा मगरा सुंसुमारा। जलजामलगन्धिकाः / तेषु, 'अतोऽनेक स्वरात्" / / 72 / 6 / / अथ के ते जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः? सूरिराह-जलचरप-- इतीकप्रत्ययः / पबैकगन्धिनी, जी०३ प्रतिकाराला क्षेन्द्रियतिर्यग्यो निकाः पशविधाः प्रज्ञप्ताः / तदेव पशविधत्वं जलरक्खस पुं०(जलराक्षस) पञ्चमे राक्षसभेदे, प्रज्ञा०१ पद। तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति-मत्स्याः कच्छपाः सूत्रे पकारस्य भकार: जलमरण न०(जलरमण) जलक्रीडायाम, ज्ञा०१श्रु०१३अ०। प्राकृतत्वात् / ग्राहाः मकराः शिशुमाराः प्राकृतत्वात् सूत्रे 'सुंसुमारा'' जलरुह पुं०(जलरुह) जले रुहन्तीति जलरुहाः। उदकावकपन कादिके इति पाटः। (प्रज्ञा०) वनस्पतिकायभेदे, जी०१ प्रति०। भ०। जलरुहा उदका–वकपनजे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तं जहा- कशैवलकलम्बुकापावककशेरुकोत्पलपद्मकुमुदनलिनपुण्डरीकादयः / संमुच्छिमा य गब्भववंतिया य, तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते आचा०१ श्रु०१अ०५उ०। सव्ये णपुंसगा तत्थ णं जे ते गब्भवक्कं तिया, ते तिविहा पण्णत्ता। से किं त जलरुहा? जलरुहा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-- तं जहा-इत्थी पुरिसा णपुंसगा। उदए अवए पणए सेवाले कलंवुया हठे कसेरुया कत्थभाणी तेजलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः समासतः संक्षेपेण द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / उप्पले पउमे कुमुदे णलिणे सुभए सुगंधिए पौंडरीए महापोंडरीए संमूर्छिमाश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च / 'मूर्जा' मोहसमुच्छ्रा-ययोः / अस्मात् सयवत्ते सहस्सवत्ते कल्हारे कोकणदे अरविंदे तामरसे भिसे संपूर्वत्सम्मूर्छन संमूर्छः "अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् // 3 / 3 / 16 / / त्ति समुणाले पोक्खले पोक्खलछिलए,जे यावण्णे तहप्पगारा। इति (पाणि०) भावे घञ्प्रत्ययः। गर्भोपपातव्यतिरेकेण एवमेव सेत्तं जलरुहा / / प्रज्ञा०१ पद।। प्राणिनामुत्पाद इति भावः / तेन निर्वृत्ताः संमूर्छिमाः "भवादिमः | जलरूव पुं०(जलरूप) उदधिकुमारेन्द्रस्य जलकान्तस्य स्वनाम-ख्याते // 6 / 4 / 21 / / " इति इमप्रत्ययः। गर्भे व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तिर्येषा, व्युत द्वितीये लोकपाले भ०३ श०८उ०। क्रान्तिशब्दोऽत्रोत्पत्तिवाची / तथा पूर्वाचार्यप्रसिद्धेः / यदि वागर्भात जललिल्लिर न०(जललिल्लिर) जलोत्पन्ने वस्तुभेदे, "जलगर्भावासात व्युत्क्रान्तिनिष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, "शेषाद् लिल्लिरचिरनिवसियं" दर्श०१ तत्त्व। वा' 17 / 3 / 17 / / इति कप् समासान्तः / चशब्दौ प्रत्येक जलवासि(न्) पुं०(जलवासिन्) परतीर्थिक तापसभेदे, 'जलवासिणी स्वगतानेकभेदसूचकौ / तत्र ये ते संमूर्छिमास्ते सर्वे नपुंसकाः त्ति" ये जलनिमग्ना एवासते। भ०११ श०६ उ०। नि०ा औ०। संमूर्छिमभावस्य नपुंसकत्वाविनाभावित्वात्, ये तुगर्भव्युत्क्रान्तिकास्ते जलविच्छुय पुं०(जलवृश्चिक) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१पदा त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-स्त्रियः पुरुषाः नपुंसकाः एतेषां चोभयेषामपि जलवीरिय पुं०(जलवीर्य) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति शरीरावगाहनादिषु यचिन्तनं यच गर्भव्युत्क्रान्तिकाना स्त्रीपुनपुसकानां परस्परमल्पबहुत्वचिन्तनं तज्जीवाभिगमटीकायां कृतमिति ततोऽवधार्यम्। ऋषभस्वानिः सप्तमे तद्वंश्ये नृपे, स्था०८ ठा० आवा एतेसि णं एवमाइयाणं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जलवुवुअ न०(जलवुवुद) जलस्य गोलाकारे विकारभेदे, याचा पञ्जत्तापजत्ताणं अद्धतेरस जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसह ___ "विसयसुहं जलवुव्वुअसमाणं' औ०। स्सा भवंतीति अक्खायं / सेत्तं जलयरपंचिंदिय तिरिक्खजो जलसिद्धि स्त्री०(जलसिद्धि) जलावगाहनात् सिद्धौ, ''मुसंवयं ते णिया। जलसिद्धिमाहु'" जलावगाहनात् सिद्धिमाहुस्ते मृषा वदन्तीति। सूत्र०१ 'एतेसि णं' इत्यादि / एतेषामेवमादिकानामुपदर्शितप्रकारादीनां श्रु०७ अot जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पर्याप्तापर्याप्तानां सर्व संख्येया | जलसूग न०(जलशूक) जलस्य शूकमग्रम् / शैवाले, वाच०। इन्द्रस्य द्धत्रयोदशजातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि योनिप्रवाहानि शत- | जलक्रान्तस्य स्वनामख्याते द्वितीये लोकपाले, स्था० 4 ठा०१ उ०॥ सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं भगवद्भिस्तीर्थकरैः / उपसंहारमाह--"सेत्त" जलसोयवाइ(न्) पुं०(जलशौचवादिन) परतीर्थिकभेदे, "जलसोयंजे इत्यादि / तदेवमुक्ता जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः / प्रज्ञा०१ पद / अ इच्छति'' ये चान्ये जलशौचमिच्छन्ति भागवतादयस्ते स०। उत्त०। जी०। औ०। आचा। सूत्रका स्था०। जलचराः जलजीवाः। सर्वेऽप्यप्राशुकाहारभोजित्वात् कुशीला इति। सूत्र०१ श्रु०७ अ० कल्प०३क्षण। जलहर पुं०(जलधर) महामेघे, कल्प०२ क्षण / वाच०। कोन जलयरी स्त्री०(जलचरी) जलचरतिर्यग्योनिस्त्रियाम्, (जी०) जलहि पुं०(जलधि) जलानि धीयन्तेऽव / धा०किला समुद्रे,
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________________ जलहि 1428 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जल्ल तोयधिप्रभृतयोऽप्यत्र / चक्षुःसंख्यायाम, संख्याभेदे, वाच०। पञ बहुजलयरजीवखयकारी" प्रव०६ द्वार! शङ्कर्जलधिरन्त्यं मध्य परार्द्ध च / कल्प०८ क्षण। जलिंत त्रि०(ज्वालयत्) दीपयति, महा०७ अ० जलाबण न०(ज्वालन) उद्दीपने, "जलणजलावणविदसणे हिं" जलिय त्रि०(ज्वलित) ज्वल-क्त–दग्धे, दीप्ते, उज्ज्वले, भास्वरे च। (जलावणं ति) स्वतः परतो वाऽग्नेरुद्दीपनमिति। प्रश्न०१ आश्र0 द्वार। वाच०। ज्वालाकुले, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ० प्र०। "पक्खंदे जलिय जलाभिसे यक ढिणगाय पुं०(जलाभिषेककठिनगात्र) वानप्रस्थ जोयं''ज्वलितं ज्वालामालाकुलं मुर्मुरादिरूपम्। दश०२ अ०। उत्त) तापसभेदे,ये अस्नात्वा न भुञ्जते स्नानाद्वा पाण्डुरीभूतगात्राः 'इति "जलियहुआसणो वि व तेजसा जलंते' प्रश्र०५ सम्ब० द्वार। वृद्धाः / भ०११ श०१उ०। निका जलियचुडिली स्त्री०(ज्वलितचुडिली) प्रदीप्ततृणपूलिकायाम्, जलाभिसेयक ढिणगायभूय पुं०(जलाभिषेककठिनगात्रभूत) वान "जलियचुडिलीविव अमुचमाणमहणसीलाओ" (जलिय चुडिलीवित्र प्रस्थतापसभेदे, / "जलाभिसेयकठिणगत्ता'' क्वचित "जलाभिसेय- / त्ति) प्रदीप्ततृणपूलिकेव दहनशीला ज्वलनस्वभावा इति। तं०। कविणगायभूय' 'त्ति। दृश्यते तत्र जलाभिषेक कठिनं गात्रं भूताः प्राप्ता ये | जलूया स्त्री०(जलौकस्) जलमोको वसतिरस्याः / जलजे दोते तथा। भ०११ श०१ उ०ा नि०। न्द्रियजीवविशेषे, अणु०३ वर्ग। जलौका जलजो द्वीन्द्रियजीवविशे थे। जलासय पुं०(जलाशय) सरःप्रभृतौ जलस्थाने, (प्रज्ञा०) भ०१३ श०६ उ०। जलौकसो दुष्टरक्ताऽकर्षिण्यः। उत्त०३६ अ आवक बादरापकायिकानां स्थानमधिकृत्य प्रज्ञा०। जी०। बृ० आव०आचा०। दश०। आ०म०। नि०चूछ। खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकचर्मपक्षिभेदे, जी०१ प्रति०प्रज्ञा अगडेसु तलाएसु सरेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु *जलूका स्त्री० / जलूकेति अनेषणाप्रवृत्तदायकस्य मृदुभावनिवाविलपंतियासु उज्झरेसु णिज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु रणार्थसूचकत्वात्। द्रुमपुष्पिकाध्ययने, दश०१ अ० वेप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलठ्ठाणेसु जलोयर न०(जलोदर) जलप्रधानमुदरं यस्मात् 5 व०ा उदराम यरोगभेदे,वाच०। "पृथक् समस्तैरपि चानिलाद्यैः, प्लीहोदरं बह्मगुद जलभूमिआसु। तथैव / आगन्तुकं सप्तममष्टमं तु, जलोदरं वेति भवन्ति तानि // 1 // " किम्बहुना सर्वेष्वेव जलाशयेषु एतदेव व्याचष्टेजलस्थानेषु / प्रज्ञा०२ आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०) पद / जी जलोयारि(न्) पुं०(जलोदरिन्) उदररोगविशेषवति, वाच०। वातराज्ञा अन्येन वा ईश्वरेण कूपतडागसत्रदानाद्युद्यतेन पुण्य पित्तादिसमुत्थमष्टधोदरं तदस्यास्त्युदरी तत्र जलोदर्यसाध्यः शेषाः सद्भाव पृष्टमुर्मुक्षुभिर्यद्विधेयं तदर्शयितुमाह स्थविरोत्थिताः साध्या इति। आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। दुहुओ वि ते ण भासंति, अत्थि वा नत्थि वा पुणो। जलोयरिणी स्त्री०(जलोदरिणी) कपिलसुतस्य कल्पस्य स्वनामआयं रयस्स हेचाणं, निव्वाणं पाउणंति ते॥२१।। ख्यातायां भार्यायाम्, आ०का यदि अस्ति पुण्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्त्वानां सूक्ष्मबादराणां जलोया पुं०(जलौकस्)'जलूया' शब्दार्थे , अणु०३ वर्ग। सर्वदा प्राणत्याग एव स्यात् / प्रीणनमात्रं तु पुनः स्वल्पानां जल्ल पुं०(यल्ल) याति च लगति चेति यल्लः / रजोमात्रे, संथा०म० स्वल्पकालीयमतोऽस्तीति न वक्तव्यम् / नास्ति भुण्यमित्येवंप्रति औ०। शरीरादिमले, स०२२ समाध० प्रश्न०। जं०। विशे०। स्था०। षेधेऽपि तदर्थनामन्तरायः स्यात्, इत्यतो द्विधाष्यस्ति नास्ति वा आव०। यल्लो मलविशेष इति / प्रश्न०५ सम्ब० द्वार / यल्लः पुण्यमित्येवं ते मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते। किं तु-पृष्टैस्सद्भिर्मोन शरीवस्त्रादिकमलम् / स०२२ समा यल्लो मलः कर्णवदननासिसमाश्रयणीयम् / निर्बन्धे कस्माकं द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जित आहारः कानयनजिह्वासमुत्थः शरीरसंभवश्च / भव०७ द्वार। कल्पते / एवंविधविषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्तीति / उक्तं च *जल्ल पुं० / देहप्रभवपड़े.दर्श०३ तत्त्व / जल्लोऽस्थिरो मालि"सत्यवप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीत्वा प्रकाम, व्युच्छिन्नाशेषतृष्णाः न्यहेतुरिति / ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०) जल्लः शुष्कः प्रस्वेद इति। सूत्र०१ प्रमुदितमनसः प्राणिसार्था भवन्ति / शोषं नीते जलौघे दिनकरी श्रु०३ अ०१उला यातिचलगति चेति जल्लः। पृषोदरादित्वान्निष्पत्तिः / करणैर्यान्त्यनन्ता विनाशं, तेनोदासीनभाव व्रजति मुनिगणः स्वल्पप्रयत्नापनेयः / जी०३ प्रतिक्षा तं०। औ०। जल्लं कठिनतापन्न कूपवादिकार्ये / / 1 / / " तदेवनुभयथाऽपि भाषिते रजसः कर्मण आयो मलमिति। उत्त०३ अ०। जल्लो नाम मलः कठिनीभूत इति / दशा०७ लाभो भवतीत्यतस्तं चायं रजसो मौनेनानवद्यभाषणेन वा हित्वा त्यव अ० "जल्लो उ होइ कमठं'' निचू० 3 उ०।''जल्लो कमटीभूतो" त्वा तेऽनवद्यभाषिणो निर्वाणं मोक्षं प्राप्नुवन्ति इति / सूत्र०१ श्रु०११ नि०चू०१ उ०। 'मलथिग्गलं जल्लो भणति'' नि०चू० 330 / अन वरत्राखेलके, राज्ञः स्तोत्रपाठके च / जल्लाः वरनाखेलका राज्ञः / जलासयसोस पुं०(जलाशयशोष) जलाशयानां सरः प्रभृतीनां शोषणम्। स्तोत्रपाठका इत्यन्ये / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ०। अनु०। कल्पका जीवा सरः प्रभृतीनां शोषणे, तच कर्मादानम्। यदुक्तम्-"सरदहतलायसोसो, दशा० ज० प्रश्नाराण म्लेच्छभेदे च। प्रश्न०१ आश्र० द्वार।
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________________ जल्लपरीसह 1426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जवणं पान जल्लपरीसह पुं० य(ज)ल्लपरीषह) यल्ल इति मलः स एव परीषहो विशेषसंपन्ने साधौ च / आ०चू०१अ०। ग० आ०म०। स्था०। विशे०। यल्लपरीषहः / अष्टादशे मलपरीषहे,उत्त०६अ० स० जल्लो मलस्तत्परिषहणं च देशतः सर्वतो वा स्नानोद्वर्तनादिवर्जनम् / भ०८ जल्लोसहिपत्त त्रि०(यल्लौषधिप्राप्त) यल्लो मलं, स एवौषधिर्यश०८ उ०प्रव० ल्लौषधिस्ता प्राप्तो यल्लौषधिप्राप्तः / यल्लौषधि लब्धिविशेष प्राप्ते, अथ तृणादिस्पर्शात् शरीरे प्रस्वेदात् रजःस्पन्मिलोपचयः औ०। 'जल्लोसहिपत्तेहिं" प्रश्न०१ सम्ब० द्वार। स्यात् तदा मलपरीषहोऽपि सोढव्यः / अतस्तमाह जव पुं०(जप) जप-अच् / वेदमन्त्रादेरावृत्तौ, असकृदुचारणे, जपकिलिन्नगायमेहावी, पंकेण य रएण वा। स्तद्भाषणं ध्येयसम्मुखीकरण मुनेः इत्युक्ते मन्त्रादिभाषणे च / वाचा धिंसु वा परितावेणं, सायं नो परिदेवए॥३५।। करजापो नन्दावर्तशङ्कावर्तादिरपि बहुफलः / उक्तं च- "करआवत्ते पंच, मेधावी साधुः 'घिसु' ग्रीष्मकाले, वाशब्दात् शरदि अपि परितापेन मंगला साहुपडिमसंखाए। णव वारा आवत्तइ, छलंतितंनो पिसायाई / ' गाढोष्मणा पडून प्रस्वेदात् आर्दीभूतमलेन। अथवा-रजसा आर्द्रमलेन बन्धनादिकष्ट तु विपरीतशङ्खावर्तादिनाऽक्षरैः पदैर्वा विपरीतनमस्कार परिशुष्य काठिन्यं प्राप्तेन धूल्या वा क्लिन्नगात्रः सन् बाधितशरीरः सन् लक्षादि जपेत् / सद्यः क्लेशनाशः स्यात् / यद्यपि मुख्यवृत्त्या निर्जरायै (सात) सुखेन परिदेवेत मला पहारात् सुखं न वाञ्छेत् सातार्थ विलाप एव सम्यग दृशां गणनमुचितं तथापि तत्तद्रव्यक्षेत्रकालभावसामग्रीन कुर्यादित्यर्थः / / 35|| वशेनैहिकाद्यर्थमपि स्मरणं कदाचिदुपकारीति शास्त्रे उपदिष्ट दृश्यते। तदा किं कुर्यादिति? आह यतो योगशास्त्रं-''पीतं स्तम्भेऽरुणं वश्ये, क्षोभणे विद्रुमप्रभम् / कृष्णं विद्वेषणे ध्यायेत्, कर्मधाते शशिप्रभम् / / 1 / / " इति। करजापाद्यशक्तस्तु वेइज्ज निजरापेही, आरियं धम्ममगुत्तरं / रत्नरुद्राक्षादिजपमालया स्वहृदयसमश्रेणिस्थया परिधानवस्त्रजाव सरीरभेउ त्ति, जल्लं कारण धारए॥३६।। चरणादावलगन्त्या मेर्वनुलङ्घनादिविधिना जपेत्। निर्जरापेक्षी कर्मक्षयमीप्सुः साधुस्तावत्कायेन जल्लं धारयेत् देहेन यतःमल धारयेत्। पुनः मलपरीषहं (वेइज्ज) वेदयेत् सहेत तावत्कथं यावत "अमुल्यग्रेण यज्जप्त, यजप्तं मेरुलङ्घने। शरीरस्य पातः स्यात्। साधुः कीदृशः सन् ? आर्य श्रुतचारित्ररूपं धर्म प्रपन्नः सन् इत्यध्याहारः। कीदृशं धर्मम् ? अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टम् // 36|| व्यग्रचित्तेन यज्जप्त, तत्प्रायोऽल्पफलं भवेत्।।१।। उत्त०२० संकुलाद्विजने भव्यः, सशब्दान् मौनवान् शुभः। जल्लपेडा स्त्री०(जल्लप्रेक्षा) जल्ला वस्त्राखेलकाराः स्तोत्रपाठका मौनजान मानसः श्रेष्ठो, जापः श्लाघ्यः परः परः" // 2 // इत्यपरे, तेषा प्रेक्षा जल्लप्रेक्षा / जल्लप्रेक्षणे, जी०३ प्रतिका श्रीपादलिप्तसूरिकृतप्रतिष्ठापद्धतावप्युक्तम्-जापः त्रिविधो माजल्लमल पुं०(यल्लमल) याति च लगति चेति जल्लः / पृषोदरा नसोपांशुभाष्यभेदात् / तत्र मानसो मनोमात्रवृत्तिनिवृत्तः / स्वसंवेद्यः। दित्वान्निष्पत्तिः / स चासौ मलश्च यल्लमलः / यल्लरूपे मले, उपाशुस्तुपरैर श्रूयमाणोऽन्तःसंजल्परूपः / यस्तु परैः श्रूयते स भाष्यः / "जल्लमलकलंकसेयरयदोसवज्जियसरीरनिरुवलेवा" / तं०औ०। अयं यथाक्रममुत्तममध्यमाधमसिद्धिषु शान्तिपु-ट्यभिचारादिरूपासु जल्लमलपंकिय त्रि०(यल्लमलपङ्कित) बहुमलस्निग्धाङ्गे,जल्लमल नियोज्यः। मानसस्य यत्नसाध्यत्वात्। भाष्यस्याधमसिद्धिफलत्वात्। पंकिआण विलावन्नसिरीओ जहा सि देहे णं''।जल्लमलपङ्कितानामपि उपांशोः साधारणत्वादिति।ध०२ अधिका बहुमलस्निग्धाङ्गानामपीति भावः / पं०व० 3 द्वार। "जल्लो कमढीभूतो *यव पुं०। यु-अच्- स्वनामख्याते शूकधान्यभेदे "वसन्ते सर्वशस्यानां मलो उव्वट्टितो फिडत्ति पंकिता णाम जलमल्लेन ग्रस्ता इति"। जायते पत्रशातनम् / मोदमानाश्च तिष्ठन्ति, यवाः कणिशनि०चू०१उ01 शालिनः / / 1 / / " वाच०। ज०। यवा हयप्रिया इति / जं० 2 वक्षः। जल्लिय न०(जल्लक) शरीरमले, (जल्लियं ति) आर्षत्वात् जल्लो ओषधिभेदे, प्रज्ञा०१ पद / आचा०) यवैरङ्गुष्ठम ध्यस्थैर्विद्यामलः / उत्त०२४ अग ख्यातिविभूतयः / शुक्लपक्षे तथा जन्म, दक्षिणाङ्गुष्ठगैश्च तै" / / कल्प०१ *यल्लित त्रि० / यानलगनधर्मोपेतमलयुक्ते, भ०६ श०३उ०। क्षण। यूकाष्टकमिते परिमाणभेदे च / 'परमाणू तसरेणू, रहरेणू अग्गयं च जल्लेस त्रि०( यल्लेश्य) यस्याः लेश्यायाः संबन्धिनि द्रव्यादौ, बालस्स / / लिक्खा जूया य यवो, अट्टगुणविवड्डिया कमसो / / 1 / / " "जल्ले साई दव्वाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्ले से सु स्था०८टा०ा ज्यो० नं०। प्रव०। उववजई" या लेश्या येषां द्रव्याणांतानि यल्लेश्यानियस्या लेश्यायाः यापि या० णिच्- "यापेजवः 11814/50 / / इति प्राकृतसूत्रेण संबन्धिनीत्यर्थः। भ०३श०४उ० यातेय॑न्तस्य 'जव' इत्यादेशो वा भवति। 'जवइ जावेइ / प्रा०४ पाद। जल्लोसहि स्त्री० (जल्लौषधि) जल्लो मलः कर्णवदननासिका / जवओ (देशी) जवाड्दुरे, देना०३ वर्ग। नयनजितासमुद्भवः शरीरसमुद्भवश्च / स एवौषधिर्यस्यासौ यत्प्रभावती जवजव पुं०(यवयव) यवविशेषे, भ०६ श०६उ०। बृ०ा जंग। स्था०| जल्लः सर्वरोगापहारकः सुरभिश्च भवति स जल्लौषधिः / लब्धिभेदे, / आचा। प्रव० 266 द्वार / लब्धिलब्धिमतोरभेदोपचारात् / यल्लौषधिलब्धि- | जवणं (देशी) हलशिखायाम, देना०३ वर्ग।
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________________ जवण 1430- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जवराज जवण पुं०(जवन) वेगे, आ०म०प्र०ा शीघ्र, जवनशब्दः शीघ्र-वचनः। आच्छादक (परदा) पटे, वाचा भ०१४ श०१ उ०। वेगवति शीघ्रगे घोटके, वाचा परमोत्कृष्ट- | *यवनिका स्त्री०पुं०(युवन्त्यस्यां) ल्युट डीप कन् अत इत्वम् / वेगपरिणामोपेता जवनाः। आ०म०प्र०ा यवनिकायाम, वाच० "अभिंतरियं जवणियं अच्छावे इत्ता"। *यवन पुं०।म्लेच्छजातिभेदे, सू०प्र०२० पाहु०। प्रवका सूत्र०ा देशभेदे, आभ्यन्तरिकीमास्थानशालाम् अभ्यन्तरभागवर्तिनी यवनिका तद्देशस्थे जने च / वेगे, अधिकवेगवत्यश्वे गोधूमे, गर्जरतृणे, काण्डपटम्" अच्छावेइ ति" आयतां कारयतीति। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०/ तुरुष्कजातौ,ययातिशप्तस्यतत्पुत्रस्य तुर्वसोर्यश्ये जातिभेदे च। वेगवति, विशेष त्रिगावाच जवण्ण न०(जवान्न) व्यञ्जनभेदे, सू०प्र०२० पाहु०। स्था०। *यापन न०ा संयमभारोद्वाहिदेहपालने, “यवणट्ठया समुयाणं च निच" जवपाणिय न०(यवपानीय) यवोदके, "जवपाणियं अपेयं" संस०नि०॥ संयमभारोद्वाहिदेहपालनाय / दश०अ०३उ० "जवणट्टाए निसेवए जवमज्झ त्रि०(यवमध्य) यवस्येव मध्यं मध्यभागो यस्य विपुमन्थु' यापनार्थं शरीरनिर्वाहारार्थमिति। उत्त०८अ०॥ लत्वसाधात् तद्यवमध्यम् / यवाकारे, भ०२५ श०३उ०। क०प्र० जवणद्दीवपुं०(यवनद्वीप) यवनानां निवासभूते द्वीपभेदे, आ०चू० १अ०) अष्टाभियूकाभिः परिमिते प्रमाणभेदे च / न०। प्रव० 254 द्वार / ज्योग। जवणा स्त्री०(यापना) शरीरनिहि, उत्त०८अ० यापनाऽपि द्विविधा नं०। यवाकृतिमध्यं यस्य / चान्द्रायणभेदे, प्रथमदिनादापशदशद्रव्यतो भावतश्च / द्रव्यतः शर्कराद्राक्षादिसदौषधैः कायस्य दिनमेकैकग्रासवृद्ध्या तदुत्तरं च अपञ्चदशदिन क्रमेणैकग्रासहान्या समाहितत्वात् / भावतश्च इन्द्रियनोइन्द्रियोपशान्तत्वेन शरीरस्य माससाध्ये व्रते, तस्य मध्यवदिवसानां हि बहुलग्रासवत्त्वेन यवमध्यसमाहितत्वम्। प्रव०२ द्वार। आव०। तुल्यत्वम्। वाचन जवणाणिया स्त्री०(यवनानिका) ब्राझ्या लिपेर्लेख्यविधानभेदे, प्रज्ञा०१ जवमज्झचंदपडिमा स्त्री०(यवमध्यचन्द्रप्रतिमा) यवस्येव मध्यं यस्याः पाद। सा यवमध्या चन्द्र इव कला वृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमेति जवणालिया स्त्री०(ययनालिका) कन्याचोलके, आ०म०प्र०॥ यवमध्यचन्द्रप्रतिमा। स्था०३ ठा०३उ०। प्रतिमाभेदे, "उवमा जवेण यवनालको नाम कन्याचोलकः / स च मरुमण्डलादिप्रसिद्धः चदेण वा वि जवमज्झचंदपडिमाए'"-जव-मध्यचन्द्रप्रतिमायाम, चरणकरूपेण कन्यापरिधानेन सह सेवितो भवति येन परिधानं न खसति यवेनोपमाचन्द्रेण च यवस्येवमध्ये यस्याः सा यवमध्या चन्द्राकारा प्रतिमा कन्यानां चैष मस्तकप्रदेशेन प्रक्षिप्यते अत एवायमूर्द्धः सरकञ्चुक इति चन्द्रप्रतिमेति व्युत्पत्तेः। व्य०२ उता शुक्लप्रतिपदि एकं कवलमभ्यवहृत्य व्यपदिश्यते / तथा च भाष्यकृत्- "जवनालतो ति भणिनो,तुम्भे ततः प्रतिदिनं कवल-वृद्ध्या पञ्चदश पूर्णमास्याम, कृष्णप्रतिपदि च सरकंचुओ कुमारीए'' आ०म०प्र०ा विशे०। प्रज्ञा० नं० पञ्चदश भुक्त्वा प्रतिदिनमेकहान्या अमावस्यायामेकमेव यस्यां भुङ्क्ते जवणाली स्त्री०(यवनाली) यस्यां नालिकायां यवा उप्यन्ते / तस्याम्, सा यवमध्या चन्द्रप्रतिमेति / स्था०२ ठा०३उ०। "जवणाली णाम जाए णालीए जवा उप्पंते तस्याम् वाविज्ञति सा जवमज्झा स्त्री०(यवमध्या) प्रतिमाभेदे, यवमध्या या यववदनि जवणाली भण्णति" आ०चू०१ अ०१ कवलादिभिराद्यन्तयो_ना मध्ये च वृद्धति / स्था०४ ठा०१उ०। जवणिज त्रि०(यापनीय) वंश्ये, "जत्ता ते भंते ! जवणिज्ज अव्वावाह जवरओ (देशी) जवारे, देखना०३ वर्ग। फासुयविहार" (जवणिज्जं ति) यापनीयं मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक जवराज पुं०(यवराज) अनिलनरेन्द्रसुते स्वनामख्याते राजनि, (वृ०) इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः। भ०१ श०१० उ०। कः पुनर्यव इति? आहजवणिजे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-इंदियजवणिज्जे य णोइंदियजवणिज्जे य / से किं तं इंदियजवणिज्जे ? इंदियजवणिजे, यवराजदीहपट्ट-सचिवो पुत्तो य गद्दभो तस्स। जे इमे सोइंदियचक्खिंदियघाणिंदियजिभिंदियफासिंदियाई धुत्ता अहोलिया ग-दभेण छूढा अगमियम्मि।। णिरुदहयाई वासे वर्दृति, सेत्तं इंदियजवणिज्जे / से किं तं पव्वयणं च नरिंदे, पुणरागममडोलि चेडाण। णोइंदियजवणिजे? णो इंदियजवणिजे जं मे कोहमाणमाया- जव पत्थ णं खरस्स उ, उवस्सए परुससालाए।। लोभा वोच्छिण्णा णोउदीरेंति / सेत्तं णोइंदियजवणिज्जे / सेत्तं यवो नाम राजा तस्य दीर्घपृष्ठः सचिवः, गर्दभश्च पुत्रः, दुहिता अडोलिका, जवणिज्जे। सा च गर्दभेन तीव्ररागाध्युपपन्नेन अगमे भूमिगृहे विषयसेवार्थ क्षिप्ता : (इंदियजवणिज ति) इन्द्रियविषयं यापनीयं वश्यत्वमिन्द्रियया- तच ज्ञात्वा वैराग्योत्तरङ्गितमनसो नरेनद्रस्यं प्रव्रजन पुत्रस्नेहाच पनीयम् / एवं नोइन्द्रिययापनीयं नवरं नोशब्दस्य मिश्रवचनत्वादि- तस्योजयिन्यां पुनः पुनरागमनम् अन्यदा च--चेटरूपाणाम् अडोलिकयां न्द्रियैर्मिश्राः। सहार्थत्वाद्वा इन्द्रियाणांसहचरिता नोइन्द्रियाः कषायाः। क्रीडनं खरस्य यवप्रार्थनं ततश्चोपाश्रये पुरुषः कुम्भकारस्तस्य ध०३अधि०। ज्ञा०। प्रा०। शालायामित्यक्षरार्थः। भावार्थः पुनरयम्- "उजेणी नगरी तत्थ अनिलसुओ जवणिया स्त्री०(जवनिका)जवन्त्यस्यांजू-ल्युट्स्वार्थे कन् अत इत्वम्।) यवो नाम राया. तस्स पुत्तो गहभो नाम जुवराया, तरस धूया गद्धभस्स
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________________ जवराज 1431 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जवासा जुवरण्णो भइणी अडोलिया णाम ! सा य अतीवरुववती / तस्स वि जुकरण्णो दीहपुट्ठो अमचो / ताहे सो जुवराया तं अडोलियं भगिणी पासित्ता अज्झोववन्नो दुव्वलीभवति / अमचेण पुच्छिओ निव्वंधे सिटुं अमचेण भन्नति-सागारियं भविस्सति।ताए सा भूमिघरि वुज्झति तत्थ भुलाहि ताए समं भोए लोगो जाणिस्सति। सा कहिं पि विनट्ठा एवं होउत्ति कय। अन्नया सो राया तं अकजं नाउँ निव्वरेण पव्वतिओ। गद्दभो राया जातो सो य जवो नेच्छति पढिउ पुत्तनेहेण य पुणो पुणो उज्जेणिं एति। अन्नया सो उज्जेणीए अदूरसामते जवखेत्तं तस्स समीवे वीसमति। तं च जवखेत एगो खेत्तपालओ रक्खति / इओ य एगो गद्दभो तं जवखेत्तं चरिउ इच्छति। ताहे तेण खेत्तपा--लएण सो गद्दभो भन्नति-"आधावसी पधावसी, ममं चावि निरि-क्खसी / लक्खितो ते मया भावो, जवं पत्थसि गद्दहा ! // 1 // " अयं भाष्यान्तर्गतः श्लोकः कथानकसमाप्त्यनन्तरं व्याख्यास्यते। एवमुत्तरावपि श्लोको। "तेण साहुणा सो सिलोगो गहिओ। तत्थ य चेडरूपाणि रमंति अडोलियाए उंदोइयाए त्ति भणिय होइ सा य तेसिं रमंताणं अडोलिया नट्टा विले पडिया। पच्छा वाणि चेडरू वाणि इओ तओय मग्गति, तं अडोलियन पासंति। पच्छा एगेण चेटरूवेण तं विलंपासित्ताण यजाएत्थनदीसति सातूणं एयम्मि विलम्मि पडिया ताहे तेण भन्नति-"इओ गया इओ गया, मग्गिजंती नदीसंति। अहमेयं वियाणामि,अगडे छूढा अडोलिया // 2 // ' सो विणणं सिलोगो पढिओ। पच्छा तेण साहुणा उज्जेणिं पविसित्ता कुंभकारसालाए उवस्सए गाहेओ सो य दीहपुट्ठो अमचो तेणं जाव साहुणा रायत्ते वि गहिओ ताहे अमचो चिंतेतिकहं एयस्सवेरं निजपमित्ति काओ गद्दभराय भणति-एस प्रीसहपराजिओ रजं पेल्लेउकामो जति नपत्तिवसिपेच्छह से उवस्सए आउहाणि तेणं अमचेण पुव्वं चेव ताणि आउहाणि तम्मि उवस्सए भूमियाणि पत्तियावणनिमित्तं रन्ना दिट्टाणि पत्तिजिउ तीए अ। कुंभकारसालाए उंदुरो दुक्किओ उसरति भएणं ताहे तेणं कुंभकारेणं भणति-"सुकुमालग ! भद्दलग, रत्तिं हिंडणसीलग। भयं तेनस्थि मंडूला, दीहपुटाउ ते भयं" ||3|| मो विणेण सिलोगो गहिओ। ताहे सो राया तं पिअर मारेउकामो रहं मग्गइ पगासेउ उड्डाहो होहित्ति काओ अमचेण मम रत्तिं करुससालं अल्लीणो अच्छति / तत्थ तेण साहुणा पढिओ पढमो सिलोगो-'आधावसी पधावसी, ममं चावि णिक्खसी। लक्खितो ते मया भावो, जवं पत्थेसि गद्दभा" ||1|| रत्ता नायं चेति जामो धुवं अतिसेसी एस साधू / तओ वितिओ पढिओ- "इओ गया इओ गता, मगिजंतीण दीसइ। अहमेयं विजाणामि अगडे छूढा अडोलिया॥२॥" | तं पिणेण परिगय जहा-नामयं एतेण तओततितो पढिओ-“सुकुमालग ! भद्दलग, रतिं हिंडणसीलग। भयं ते णस्थि मंडूला, दीहपुट्ठाउ ते भय"||३सताहे जाणति एस अमचोममंचेवमारेउकामो कओ मम पितरो ताहे ओसंते भोए परिव्वइत्ता पुणो ते चेव पेच्छतिएस अमच्चो मम मारेउकामेण वंजत्तं करेति / ताहे राया अमच्चस्स सीस छेत्तुं साधुस्स उवगंतु सव्वं कहेति-खामेइ य" अथ श्लोकत्रयस्याक्षरार्थः-आईषत् आभिमुख्येन वा धावसि प्रकर्षेण पृष्ठतो धावसि मामपि च निरीक्षसे, लक्षितस्ते मया भावोऽभिप्रायो यथायवधान्यचरितं प्रार्थयति भो गईभ ! द्वितीतीयपक्षे यवनामानं राजानं मारयितुं भो गर्दभनृपते ! प्रार्थयतीति प्रथमश्लोकः / / 1 / / इतो गता 2 मृग्यमाणा न दृश्यते अहमेतद्विजानामि अगड़े भूमिगृहे गर्तायां चाक्षिप्ता अडोलिका उंदोयिका नृपतिदुहिला, वा द्वितीय श्लोकः / एष कस्य राज्ञस्त्रशरसौकुमार्यभावात् सुकुमारक ! इत्यामन्त्रणं (भद्दलग त्ति) भद्राकृते ! रात्रौ हिण्डनशील! मूषकस्य दिवा मानुषावलोकनचकिततया। राज्ञस्तु वीरचर्यया रात्रौ पर्यटनशीलत्वात्। भयं ते तव नास्ति मन्मूलात्मन्निमित्तात्। किन्तु दीर्घपृष्ठात् एकत्र सात् अपरत्र अमात्यात्। (ते) तव भयमिति। तृतीयश्लोकः / ततः स राजर्षिश्चिन्तयतिसिक्खियव्वं मणूसेणं, अवि जारिसतारिसं। पेच्छ मुद्धसिलोगेहिं, जीवियं परिरक्खियं / / शिक्षितव्य मनुष्येण अपि यादृशतादृशम्। पश्य मुग्धैरपि श्लोकैर्जीवितं परिरक्षितम् / / 1 / / तथापुव्वविराहियसचिवे, सामत्थणरत्तिआगमो गुणना। नाउम्मि सचिवधायण-खामणगमणं गुरुसगासे।। पूर्व विराधितो यः सचिवस्तस्य राज्ञा सह (सामत्थण) पर्यालोचनं ततस्तयोः रात्रौ तत्रागमस्तस्य च राजर्षेस्तदानीं पूर्वपठितश्लोकत्रयस्य गुणना, ततो ज्ञातोऽस्म्यहं नूनमतिशयज्ञानी मदीयः पिता कुतो वैष महात्मा पटप्रान्तलग्नतृणवल्लीलयैव राज्यं परित्यज्य भूयस्तदङ्गीकारं कुरुते, तदेष सर्वोऽप्यस्यैवामात्यस्य कूटरचनाप्रपञ्च इति परिभाव्य सचिवघातनं कृत्वा स्वपितुः क्षामणं कृतवान्। ततस्तस्य राजर्षे : अहो भगवन्तो मामनेकेशो भणन्ति स्म / आचार्यादधीष्व सूत्रं परमहमात्मवैरिकतया ना पठियं यदि नामेदृशानामपि मुग्धश्लोकानां पठितानामीदृशं फलमाविरभूत् किं पुनः सर्वज्ञोपज्ञश्रुतस्य भविष्यतीति विचिन्त्य गुरुसकाशे गमनं, ततो मिथ्यादुष्कृतं दत्त्वा सम्यक् पठितुं लग्न इति / बृ०१ उ० जवल न०(जवर) "हरिद्रादौ लः" ||1254 // इति सूत्रेण रस्य लः / प्रा०२ पाद / उदरे, स्थान जववारय पुं०(यववारक) शरावादिरोपिते यवारे, "जववारयवण्णय सधिगादि महारम्भं" पञ्चा०८ विवाधा जवस न०(यवस) यु-असच् घासे, तृणे च / वाच०। गोधूमादिधान्ये, "जवसाणि वा "यवसं गोधूमादिधान्यमिति। आचा०२ श्रु०३अ०२उ०। जवसाग पुं०(यवशाक) यवस्य शाके, "जवसागरलनालं परिमुच्छने च कप्पिय होइ'' संस०नि० जवा स्त्री०(जपा) वनस्पतिविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ जवासय पुं०(यवासक) वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। स्वार्थे कः। वाचा जवासा स्त्री०(यवासा) रक्तपुष्पे वृक्षभेदे, "यवासाकुसुमेइवा' 'प्रज्ञा० / 17 पद। मुण्डासिनीतृणे, वाच०।
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________________ जवि(ण) 1432 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जसमद्द जवि(ण) (जविन्) घोटके, वाच०। सूत्र। जवित्तए अव्य०(यापयितुम) वर्तयितुमित्यर्थे , व्यवस्थापयितुमि-त्यर्थे च। सूत्र०१ श्रु०३ अ०२० जवोदग न०(यवोदक) यवधावनजले, दर्श०४ तत्त्व / पञ्चा०। कल्प। "सीयं च सोवीरजवोदगं च''। यवोदकं यवप्रक्षालनजलम् / उत्त०१५ अ० स्था० जवोदण न०(यवौदन) यवभक्ते. "आयामगं चेव जवोदणं च'' यवौदनं यवभक्तम्। उत्त०१५ अ01 जस पुं० न०(यशस्) "स्नमदामशिरो नमः" ८/१।३२सा दामन्शिरसनभस्वर्जितं सकारान्तं नकारान्तं च शब्दरूपं पुसि प्रयोक्तव्यम्। इति प्राकृलसूत्रेण प्राकृते पुंस्त्वम् / संस्कृते तु नपुंसकत्वम् / अशअसुन्-धातोः युट् च / शौर्यादिभूते ख्यात्यपरपर्याये सर्व-दिग्गामिनि प्रसिद्धिविशेषे, वाचला यशः पराक्रमकृता ख्यातिर्यश इति / स्था०३ ठा०४ उ०। प्रश्नका औ०। ज्ञा० सर्वदिग्गामिनीप्रख्यातियश इति / भ० १४श०५ उ०। कीम्, दशा०६ अ० स०। आचा०। (यश: कीयोर्विशेषः 'जसकित्ति' शब्दे अनुपदमेव द्रष्टव्यम्) श्लाघायाम्, चं०प्र०१७ पाहु०। सूत्रका संयमे,"जम्हा जसो वण्णो य संजमो'' यशो वर्णः संयम इत्येकार्थाः। "जसो त्ति वा संजमो ति वा वण्णो त्ति वा एगट्ट'' इति वचनात् / व्य०१ उ०) "जसं संरक्खमप्पणो'' यशः संरक्षन्नात्मनो यशःशब्देन संयमोऽभिधीयते। दश०५ अ०२उ०। विनये च। "जसं संचिणु खतिए'' यशः संयम विनयं वा संचिनु। उत्त०३ अ०। स्वनामख्यातेऽनन्तजिनस्य प्रथमशिष्ये, स० / ''पण्णासाऽणंतजिणा पढमसिस्सो जसो नाम'' ती०८ कल्प / पार्श्वनाथस्य स्वनामख्याते अगष्टमे गणधरे च / कल्प०७ क्षण / स०। जसंसि(न्) पुं०(यशस्विन) ख्यातिमति, अनुस्वारः प्राकृतत्वात्। नि०१ / वर्गका ज्ञा० भ०। आचाला यशस्विनः पराक्रमं प्राप्य प्रसिद्धि प्राप्तत्वात् / स०ा श्लाघान्विते, उत्त०५ अ०। कीर्तिमति, आचा०२ श्रु०२ अ०१उ०॥ 'जसस्सिणो चक्खुपहडियस्स' सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। ''अणुत्तरेणाणधरे जसंसी" उत्त०३१ अ० श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सिद्धार्थापरनामध्येये पितरि च। आचा०३ चू०। कल्प० / जसकर त्रि०(यशस्कर) यशः सर्वदिग्गामिप्रसिद्धिविशेषः। तत्करो यशस्करः / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। सर्वदिगव्यापिकीर्तिकरे, त०। आ०म०। भगवत ऋषभस्य स्वनामख्याते एकोनचत्वारिंशत्तमे पुत्रे, कल्प०७ क्षण / जसकित्ति स्त्री०(यशःकर्ति) यशसा सर्वदिग्गामिप्रख्यातिरुपेण पराक्रमकृतेन वा सह कीर्तिरेकदिग्गामिनी प्रख्यातिनिफलभूता वा यशःकीर्तिः / यशसा श्लाघने, कर्म०१कर्मा पं०सं०। यशः कीर्योश्चाय विशेषः-कीर्तिर्दानपुण्यफला,यशः पराक्रमकृतम्। आ०म०प्र०॥ "अविसेसितो जसो। विसेसिता कित्ती' आचू०१अगदानपुण्यफला कीर्तिः / पराक्रमकृतं यशः / आ०म०प्र०) बहुसमरसंघट्टनिवर्हणशौर्यलक्षणम् यशः, दानसाध्या कीर्तिरिति। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। एकदिग्गामिनी / कीर्तिः / सर्वदिग्व्यापकं यशः इति प्रसिद्धिः / उत्त०१ अ०1। कीर्तिरेकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः सर्वदिग्गामिनी सैव वर्णो यशःपर्यायत्वादस्य / अथवा-दानपुण्यफला कीर्तिः पराक्रमकृतं यशः / स्था०३ ठा०३उ०। कर्म०। भगवत ऋषभस्य स्वनामख्यातेऽष्टत्रिंशत्तमे पुत्रे च / पु०॥ कल्प०७क्षण। जसकित्तिणाम न०(यशःकीर्तिनामन्) तपः शौर्यत्यागादिना समुपार्जितेन यशसा कीर्तनं संशब्दने श्लाघनं यशःकीर्तिरुच्यते। कर्म०१ कर्म०। यद्वा-यशः सामान्येन ख्यातिः कीर्तिर्गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा। अथवा--सर्वदिग्गामिनी पराक्रमकृता वा सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यशः एगदिग्गामिनी दानपुण्यकृता वा कीर्तिस्ते यदुदयाद् भवतस्तद्यशःकीर्तिनाम। शुभनामकर्मभेदे, पं०सं०३द्वार। सा यशःकीर्तिनामोदयाद् यशः कीर्तिर्भवति। कर्म०१कर्मा प्रव०। उत्ता यदुदयवशान्मध्यस्थजनप्रशस्यो भवति तद्यशः कीर्तिनामेति / कर्म०६कर्म० श्रा० जसघाइ(न) त्रि०(यशोघातिन्) यशोनाशके, "दंसणनाणचरित्ते, तवविणए निचकालपासत्था। एए अवंदणिज्जा, जे जसघाईपवयणस्स" आव०३ अ० 'पुव्वं समणगुणेहिं अहिजतेहिं जसो आसी इमेहिं सेवंतेहि ताणि ठाणाणि जसोघाति तेणं ते जसघाती एए पवयणस्स" आचू०३ अ०॥ जसचंद पुं०(यशश्चन्द्र) स्वनामख्याते गणिनि,(भ०) तथा च भवगतीसूत्रवृत्तावभयदेवसूरि:'श्रीमजिनेश्वराचार्य-शिष्याणां गुणशालिनाम्। जिनभद्रमुनीन्द्राणा-मस्माकं चाहिसेवितः।। यशश्चन्द्रगणगढि साहाय्यात् सिद्धिमागता। परित्यक्तान्यकृत्यस्य, युक्तांयुक्तविवे किनः / भ०४२ श० १उo जसजीविय न०(यशोजीवित) जीवितभेदे, तच्च भगवतो वर्द्धमान स्वामिनः "जसकित्ती य भयवतो" आ०म०द्वि०। जसद पुं०|जस(रा)द] धातुविशेषे, औ०। येन वायुना शीयते / वाच०। जसदपाय न०(जसदपात्र) जसदधातुविशेषनिर्मिते पात्रे, "जसदपायाणि वा" औला जसदेव पुं०(यशोदेव) स्वनामख्याते आचार्य , ग०४ अधि०। स्थानाङ्ग वृत्तावभयदेवसूरि:-श्रीमजिनचन्द्राचार्यान्तेवासियशोदेवगणिसाधोसत्तरसाधकस्येव विद्याक्रियाप्रधानस्य साहाय्येन समर्थितम्। स्था०१० ठा०। यशोदेवः पूनमियागच्छे चन्द्रसूरि-शिष्यः पाक्षिकसूत्रवृत्तिपिण्डविशुद्धिवृत्तिग्रन्थयोः कर्ता स च विक्रमसंवत् 1176 / विद्यमान आसीत् द्वितीयश्च यशोदेवसूरिःप्रवचनसारोद्धारकर्तुमिचन्द्र सूरेर्गुरुभ्राता प्रथमपञ्चाशकचूर्णिनामग्रन्थकर्ता / जै०इ०। जसधण न०(यशोधन) स्वनामख्याते नृपे, तं०। जसभद्द पुं०(यशोभद्र) गुरुचन्द्रसूरेः शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, "जातौ तस्य विनेयौ, सूरी यशोभद्रने मिचन्द्राहो"। ग०४ अधिका आचार्य शय्यं भवस्य शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, नि०चू०५ उ01 "सय्यं भवस्स सीसो, जसभद्दो नाम आस गुण
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________________ जसमद्द 1433 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जसोकित्तिणाम रासी'' ती०१३ कल्प। "जसभ तुंगियं वंदे," शय्यं भवशिष्यं यशोभद्रं तुङ्गिक तुङ्गिडगणं व्याघ्रापत्यगोत्रं वन्दे / नं०। "थेरस्सणं अजजसभहस्स तुंगियायणसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा, थेरे अजसंभूयविजए माढरसगुने, थेरे अज्जभडवाहू पाईणसगुत्ते"। श्रीयशोभद्रं स्वपदे संस्थाप्य श्रीवीरादष्टनवतिवर्ष H स्वर्जगाम इति श्रीयशोभद्रसूरिरपि श्रीभद्रबाहुसंभूतविजयाख्यौ शिष्यौ स्वपदेन्यस्य स्वर्लोकमलं चक्रे / कल्प०८ क्षणा आर्यसंभूतविजयस्यमाढरसगोत्रस्य शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, कल्प०८ क्षण साकेतनगरवास्तव्यस्य पुण्डरीकराजस्य स्वनामख्याते युवराजे, आ०चू०४ अ०। आव०ा आ०का पक्षस्य पञ्चदशसु दिवसेषु चतुर्थे दिवसे, ज्यो०४ पाहु०। जं० चं०प्र०) कल्प०। यशोभद्रात् भारद्वाजसगोत्रात् निर्गतस्य उरूपपाटिकगणस्य स्वनामख्याते कुलभेदे, न०। कल्प०८ क्षण / साकेतनगरस्य पौण्डरीकनृपतेर्युवराजस्य कण्डरीकस्य स्वनामख्यातायां भार्यायाम, स्त्री० आ०चू०१अ०। आदला आ०क०। जसभद्दसूरि पुं०(यशोभद्रसूरि) षोडशप्रकरणविवरणकारके आचार्य, षो० 16 विवा धर्मघोषसूरेहिं स शिष्यः स्था द्वादरहस्यनामग्रन्थस्य कर्ता। जै००। जसमंत त्रि०(यशस्वत्) यशस् मतुप् मस्य वः / यशोविशिष्टे , विनियशस्वीत्यप्यत्र / वाचला भरतवर्षभवे स्वनामख्याते कुलकरे, पुंग स्था०७ठा०। ती०जंगआ०म०1 कल्प० आ०चूला आ०कला स्त्रियां डीप डीवन्तस्तु तत्र ज्योतिष्मत्याम् यवतिक्तायाम्, वनकारियां च / वाचन जसमित्त पुं०(यशोमित्र) शत्रुजयशैलस्थश्रीशान्तिमरुदेवयोश्चैत्यस्यो द्वारके श्रावके, ती०१ कल्प। जसवई स्त्री०(यशोमती) वर्तमानावसर्पिण्या द्वितीयचक्रवर्तिनः सगरस्य मातरि, स०। आव०। पृष्ठिचम्पापुरस्थशालमहाशालयो-भगिन्या पिढरभार्यायां काम्पिल्यपुरस्थायां गागलीमातरि, आ०चू०१अ०। ती०। आ०म० श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य नपत्र्या प्रियदर्शनायाः पुत्र्याम्, आचा० 3 चू०कल्प० पक्षस्य तृतीयायामष्टम्याध त्रयोदश्यां च रात्रितिथी. चं०प्र०१०पाहुजंगा सू०प्र०ाज्यो०। दशपुरनगरस्थस्य शाण्डिल्यस्य ब्राह्मणस्य दास्यांच। उत्त०१३अ० कम्पिल्यनगरस्थस्य ब्रह्मदत्तस्यान्तः पुरप्रधानायां भार्यायां पक्षरहितपुत्र्याम्, उत्त०१३अ०। जसवंसपुं०(यशोवंश) मूर्तो यशसां वंश इव पर्वप्रवाह इव यशोवंशः। यशसां पर्वप्रवाहभूते, "जसवंसो नागहत्थीणं' नं0 जसवाय पुं०(यशोवाद) साधुवादे, “जसवएणं वड्डित्ता'' कल्प० 4 क्षण। जसविजय पुं०(यशोविजय) द्वात्रिंशिकाविवरणद्रव्यगुणपर्यायभापाविवरणद्वात्रिंशदष्टकप्रतिमाशतकनयोपदेशविवरणादिकारके आचार्य, द्रव्या०१४ अध्या०॥ द्वात्रिंशिकावृत्तौ नयविजयवर्णकमधिकृत्य - "यशोविजयनाम्ना त-चरणाम्भोजसेविना। द्वात्रिंशिकानां विवृति-श्चक्रे तत्त्वार्थदीपिका(६)। द्वा०३२द्वा०। द्वात्रिंशत्तममष्टक-मुवाच श्रीमद्यशोविजयः॥१॥"अष्ट०३२ अष्टा प्रतिमाशतके नयविजयमधिकृत्य"तदीयचरणाम्बुजश्रवणविस्फुरदारतीप्रसादसुपरीक्षितप्रवरशास्त्ररत्नोच्चयैः / जिनागमविवेचने शिवसुखार्थिनां श्रेयसे, यशोविजयवाचकैरयमकारि तत्त्वश्रमः // 16 // पूर्वन्यायविशारदत्वविरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैयायाचार्यपदं ततः कृतशतग्रन्थस्य यस्यार्पितम्। भव्यप्रार्थनयाऽनयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशुः, सोऽयं तत्त्वमिदं यशोविजय इत्याख्याभृदाख्यातवान् / / 17 / / " प्रतिका नयोपदेशवृत्तौ"गच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छैर्गुणानां गणैः, प्रौदि प्रौढिमधाम्नि जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः। तत्सातीर्थ्यभृता नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशुस्तत्वं किंचिदिदं यशोविजय इत्याख्याभृदाख्यातवान्॥१॥" नयो। 'तर्कप्रमाणनयमुख्यविवेचनेन, प्रोद्बाधितादिममुनिश्रुतकेवलित्वाः। चक्रुर्यशोविजयवाचकराजमुख्याः, ग्रन्थेऽत्र मय्युपकृति परिशोधनाद्यैः / / " ध०४अधि०। अयमाचार्यः विक्रमसंवत्सराणां सप्तदशके शतके आसीत्। जै०इ० जसहर पुं०(यशोधर) भारतवर्षभवेऽतीतेऽष्टादशमे जिने, प्रव०५ द्वार। भारतवर्षभवे भविष्यत्येकोनविंशे जिने, प्रव०७ द्वार। द्वीपायनस्य जीवं यशोधरनामानं जिनमेकोनविंशं वन्दे, प्रव०४६द्वार। भगवत ऋषभस्य द्वादशे पुत्रे, कल्प०७ क्षणा धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य पीठानीकाधिपती, "जसोधरे आस राया पीढानीयाहिवई" स्था०५ ठा०१उ०। पक्षस्य पञ्चदशसु दिवसेषु पञ्चमे दिवसे, जं०७ वक्ष०ा चं०प्र०ा कल्प०| ग्रैवेयकविमानप्रस्तटे च। स्था०६ ठा०। साकेतनगरस्थस्य विनयन्धरनृपस्यात्मजे स्वनामख्याते कुमारे, ध००। दश०। (यशोधरचरितं तु धर्मरत्नप्रकरणादवसेयम्) दक्षिणरुचकवास्तव्यास्वष्टसु दिशाकुमारीषु चतुर्थदिशाकुमार्याम्, स्त्री०। स्था०८ ठा०। दी०। आ०चूला ती०। आ०का आव०ा आ०म० ज०। पक्षस्य पञ्चदशसु रात्रिषु चतुर्थरात्रौ, ज्यो०४ पाहु०॥ जंगकल्पवासकलभुवनव्यापियशोधरतीति यशोधरा / लिहादित्वादच् / जम्बूसुदर्शनायाम्, जम्बूद्वीपो हि विदितमहिमा भुवनत्रयेऽप्यनया जम्ब्वोपलक्षितस्ततो भवति यथोक्तम्।यशोधारित्वमस्या इति। जी०३ प्रति० ज०। जसा स्त्री०(यशा) कौशाम्बीवास्तव्यस्य काश्यपस्य भार्यायां, कपिलमातरि, उत्त० अ०। ती०॥ जसोकामि(न) पुं०(यशस्कामिन्) कीर्तिकामिनि, "धिगत्थु ते जसोकामी'' दश०२ अ०॥ जसोकित्ति स्त्री०(यशःकीर्ति) 'जसकित्ति' शब्दार्थे , आ०चू०१ अ० जसोकित्तिणाम न०(यशःकीर्तिनामन्) 'जसकित्तिणाम' शब्दार्थे, कर्म०१ कर्मा
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________________ जसोचंद 1434 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जहण्णपय जसोचंद पुं०(यशश्चन्द्र) 'जसचंद' शब्दार्थे, भ०४२ 20130 / चारानुक्रमेण / उत्त०२३अ० "जहक्कम कामगुणेसु चेव" यथाक्रम जसोजीविय न०(यशोजीवित) 'जसजीविय' शब्दार्थे, आ०म० वि०॥ यथावसरमिति / उत्त०१४ अ० "जहक्कमंते" यथाक्रम क्रमेणैव / जसोद पुं०[जस(श)द] जसद' शब्दार्थे, औला पञ्चा०६ विवा जसोदपाय न०(जसदपात्र) 'जसदपाय' शब्दार्थ, औ०। जहक्खाय न०(यथाख्यात) अथाख्यातापरनामधेये चारित्रभेदे, जसोदेव पुं०(यशोदेव) 'जसदेव' शब्दार्थे, ग०४ अधिo (आ०म०प्र०) जसोधण न०(यशोधन) जसधण' शब्दार्थ,तं०। अथ यथास्थातचारित्रं विवृण्वन्नाहजसोभह पुं०(यशोभद्र) 'जसभद्द' शब्दार्थे, ग०४ अधि०। अहसदो जाहत्थे, आडोऽभिविहीऍ कहियमक्खायं / जसोमंत त्रि०(यशस्वत्) 'जसमंत' शब्दार्थे, स्था०७ ठा०। चरणमकसायमुदितं, तमहक्खायं "जहक्खायं" // 1276 / जसोमित्त पुं०(यशोमित्र) 'जसमित्त' शब्दार्थे, ती०१ कल्प। यथाख्यातमिति द्वितीय नाम। तस्यायमर्थः-यथा सर्वस्मिन् जीवलोके जसोय पुं०(यशोद) यशो ददाति दा-क / पारदे, यशोदातरि त्रिका ख्यातं प्रसिद्धमकषायं भवति चारित्रमिति। तथैव यत् तद्यथाख्यात नन्दगोपपल्ल्याम्, स्त्री०। वाचा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य भार्यायां प्रसिद्धं सर्वस्मिन् जीवलोके / आ०म० प्र०। विशे०। (अथाख्यातच। आ०चू०३ अ०। 'समणस्सण भगवओ महावीरस्स भज्जा जसोया विवरणम् 'अहक्खाय' शब्दे प्रथमभागे 861 पृष्ठे विलोकनीयम्) गोरोण कोंडिण्णा' आचा०३ चू०। 'कारेंति पाणिमहणं जहग पुं०(जहक) सेल्हके, विशे० जसोयवररायकन्नाए" ती०२१ कल्प। आ०म०) जहट्ठियवत्थुवाइ(ण) पुं०(यथास्थितवरतुवादिन्) यथाजसोवई स्त्री०(यशोमती) जसवई' शब्दार्थे, स० स्थितमभिलाप्यानभिलाप्यत्वादिना प्रकारेण स्थितं वस्तुवदितुंशीलाः जसोवंसपुं०(यशोवंश) जसवंश' शब्दार्थे, नं०। यथावस्थितवस्तुवादिनः / येन प्रकारेण वस्तुनो वादिनि, पं०सू०१ सूत्र० जसोवाय पुं०(यशोवाद) जसवाय' शब्दार्थे, कल्प०४ क्षण। जहण न०(जघन) वक्र हन्ति। हन्-यड्-अच्–पृ०। स्त्रीणां श्रोणिपुरोभागे, श्रोणी चावाचा जघनं पूर्वः कटिभाग इति। विपा०१ श्रु०२ अन जसोविजय पुं०(यशोविजय) 'जसविजय' शब्दार्थे, द्रव्या०१४ अध्या०। जसोहर पुं०(यशोधर) 'जसहर' शब्दार्थे, प्रव०८ द्वार। जहणरोहो (देशी) ऊरी, दे०ना०३ वर्ग। जहणवर न०(वरजघन) श्रेष्ठजघने, वरशब्दस्य विशेषणस्याऽपि सतः जह अव्य०(यथा) यत् प्रकारे, थात् "वाऽव्ययोत्खाता-दावदातः" 851167 / इति प्राकृतसूत्रेणाव्ययेषूत्खातादिषु च शब्देषु आदेराकारस्यावा परनिपातः प्राकृतत्वात् / जी०३ प्रति / प्रा०१ पाद / येन प्रकारेणेत्यर्थे , आचा०१ श्रु०६ अ० ३उ० "जह जहणिज त्रि०(हेय) त्याज्ये, ज्ञा०१ श्रु०१० सुत्तं तह अत्थो" (26) यथा येन प्रकारेण यथापद्धत्या सूत्रं व्यवस्थित जहणूसवं (देशी) अर्धारुके, देखना०३ वर्ग। तथा तेनैव प्रकारेणाऽर्थो व्याख्येयः / सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। अनु०॥ | जहण्ण त्रि०(जघन्य) हन्-यड्-अच्-पृ० जघनमिव इवार्थे यत् वा। आचा०। उपप्रदर्शने, पञ्चा०१४ विव०। सूत्र०ा अनु०। आ०म० अधमे, वाचला आव०। निकृष्ट, भ०२ श०१उ०। सर्वहीने, स्था०४ उदाहरणोपन्यासे, दर्श०४ तत्त्व। पिण्डा आव०। सूत्र०ा उत्ता आ०म० ठा०२उ०। सर्वाल्ये, स्था०१ ठा०१उ०। चरमे गर्विते च / शूद्रे, पुं०। "जह मंगलाभिहाणं" विशे०। यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः / जघनमनुशीलितम् यस्य। पुंसां लिङ्गे / वाच०। यथैतत्तथान्यदप्यनया दिशा द्रष्टव्यम् / आचा०१ श्रु०८अ०१उ०। जहण्णगुणकालग पुं०(जघन्यगुणकालक) जघन्येन जघन्यदृष्टान्तोपदर्शने, जी०३ प्रति०1 तं०। सूत्र०। ज्ञा०। स्था०। जंग | संख्याविशेषेणैकेनेत्यर्थः गुणो गुणनं ताडनं यस्य स तथाविधः कालो वाक्योपन्यासे, सादृश्ये, योग्यतायाम्, आनुरूप्ये, पदार्थानातिवृत्तौ च / वर्णो येषां ते जघन्यगुणकालकाः। तेषु, / स्था०१ ठा०१3०। वाचन जहण्णविइय त्रि०(जघन्यस्थितिक) जघन्या जघन्यसंख्या समयापेक्षया *यत्र अव्य० / "त्रपो हि-ह-त्थाः" ||82 / 161 / / इति प्राकृतसूत्रेण स्थितिर्येषां तेजघन्यस्थितिकाः एकसमयस्थितिके, स्था०१ठा०१3०1 त्रपः हः 'जह' इति प्रा०२ पाद। यस्मिन्नित्यर्थे , वाचा जहण्णपएसिय पुं०(जघन्यप्रदेशिक) जधन्याः सर्वाल्याः प्रदेशाः जहंत त्रि०(जहत्) त्यजति, "जिणवयण भावतो जहंतस्स'' व्य०३ उ०। परमाणवस्ते सन्ति येषा ते जघन्यप्रदेशिकाः। व्यणुकादिके, स्था०१ जहकम अव्य०(यथाक्रम) क्रमस्थानुरूप्यतस्यानतिक्रमो वा। अव्ययी०। ठा०१उ०। क्रमानुरूप्ये, क्रमानतिक्रमे च। वाचा जहण्णपय न०(जघन्यपद) पद्यते गम्यते इति पदं पदसंख्यास्थान यथाक्रमं परिपाट्येति / दश०५ अ०॥ "अट्ट कम्माइँ वोच्छामि, तचानेकधेति जघन्य सर्वहीनं पदं जघन्यपदम्। सर्वहीने संख्यास्थाने, आणुपुटिव जहक्कम' उत्त०३२ अ०। विहरामि यथाक्रमं साध्वा- स्था०४ ठा०२७०।
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________________ जहण्णपुरिस 1435 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जहाभूय विशेष पहण्णपुरिस पुं०(जघन्यपुरुष) पुरुषविशेषे, स्था०३ ठा०१ उ० / 'से जहाणामए के इ पुरिसे" स यथानामको यत्प्रकारनामा (जनपुरिसा तिविहा 'पुरिस' शब्दे वक्ष्यन्ते) देवदत्तादिनमित्यर्थः। अथवा-(से) इति सः यथेति दृष्टान्तार्थः नामेति जहण्णु को सग त्रि०(जघन्योत्कर्षक) जघन्यो निकृष्टः काशिद् / संभावनायाम्। 'ए इति वाक्यालङ्कारे। तं०। अनु० जी०। ज्ञा०। स्था०। व्यक्तिमाश्रित्य स एव च व्यक्त्यन्तरापेक्षयोत्कर्ष उत्कृष्टोजघन्योत्कर्षः। | जहातच अय्य०(यथातथ्य) यथासत्यमित्यर्थे, "जहातचमिणं ति वेमि" काञ्चिद व्यक्तिमाश्रित्य निकृष्टे,व्यक्त्यन्तरापेक्षयोत्कृष्ट च / भ० 25 यथासत्यं यथातथ्यमित्यर्थे,। आचा०१ श्रु०४अ०२उ०।"अंजु धर्म श०१० जहातचं'। यथातथ्यं यथाव्यवस्थितम् / सूत्र०१ श्रु०६ अ० "तं भे जहण्णोगाहणग त्रि०(जघन्यावगाहनक) अवगाहन्ते आसते यस्यां पवक्खामि जहातचेणं" यथातथ्येनावितथं प्रतिपादयामीति / सूत्र०१ साऽवगाहना क्षेत्रप्रदेशरूपा सा जघन्या येषां ते / स्वार्थिककप्रत्य- श्रु०५ अ०१उला यथातथ्येन यथाव्यवस्थितंतथैव कथयामीति। सूत्र०१ याजधन्यावगाहनकाः / एकप्रदेशावगाढे, स्था०१ ठा०१उ०। श्रु०५ अ०२उ०। जहत्थ अव्य०(यथार्थ) अर्थमनतिक्रम्य,अव्ययी०। अर्थस्यानतिक्रमे, जहातह अव्य०(यथातथ) तथाऽनतिक्रम्य अनतिवृत्तौ, अव्ययी० पं०सं०१ द्वार। अन्वर्थयुक्ते, त्रि०। पञ्चा०१५ विवा यथार्थ प्रदीपादि। ___ याथार्थ्य, यस्य वस्तुनो यद्रूपमुचितं तथारूपभावे, यथायथमप्यत्रार्थे, स्था०१ ठा०१०। वोच्छामि पंचसंग्रहमेवमहत्थं जहत्थं वा''। यथार्थ वाचा यथावस्थितः प्रवचनाविरोधी अर्थो यस्मिन् तम् / यद्वा अर्थस्य *याथातथ्य अव्य०) सूत्रकृताङ्गस्य त्रयोदशेऽध्ययने, धर्मसमाधिप्रवचनोक्तस्यानतिक्रमेण न स्वमनीषिकया यथार्थम् / पं०सं०१ द्वार। मार्गसमवरणाख्येषु यदवितथं याथातथ्येन व्यवस्थितम्, यच्च विपरीतं "सव्वं दव्याइ जाणइ जहत्थं यथार्थ यथावयथासर्वज्ञेनोक्तं तथेति। वितथं तदपि लेशतोऽत्र, प्रतिपादयिष्यत इति / नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे याथातथ्यमिति नाम। (सूत्र०) अस्याध्ययनस्य याथातथ्यमिति नाम / जहत्थणिययन०(यथार्थनियत) व्यञ्जनाक्षरभेदे, "तत्थजहत्थ निययं, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० "जाणानि णं भिक्खु, जहातहेणं' याथातथ्येन तं जहा-दहतीति दहणो तवतीति तवणो एवमादि' आ०चू०१०॥ त्वं जानासि सम्यगवगच्छसीति। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। जहत्थाम अव्य०(यथास्थाम) यथावलं शक्त्यनतिक्रमेणेत्यर्थे , "गँजइ जहातहज्झयण न०(याथातथ्याध्ययन) सूत्रकृताङ्गस्य त्रयो य जहत्थाम' पञ्चा०१५ विव०। दशेऽध्ययने, (सूत्र०) जहप्प न०(याथात्म्य) यथातत्त्वे, स्था०५ ठा०१३०। अस्यार्थाऽधिकारो यथाजहवा अव्य०(यथावा) प्रकारान्तरदर्शने, दश०१ अ०। जह सुत्तं तह अत्थो, चरणं चारो तह त्ति नायव्वं / जहवाय अव्य०(यथावाद) आप्तवचनानतिक्रमेणेत्यर्थे , पञ्चा० 11 विव०। संतंमि य पसंसाए, असतीपगयं दुगुंछाए।।२६।। जहा अव्य०(यथा) 'जह' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। "जह सुत्त' इत्यादि। यथा येन प्रकारेण यथापद्धत्या सूत्रं व्यवस्थित जहाइत्ता अव्य०(हित्वा) त्यक्त्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०२१०१ उ०।''तयसं तथा तेनैव प्रकारेणार्थो व्याख्येयोऽनुष्ठे यश्च / एतद्दर्शयतिचजहाइसेरयं'' सूत्र०१ श्रु०२ अ०२उ०॥ चरणमाचरणमनुष्ठातव्यम्। यदि वा-सिद्धान्तसूत्रस्य चारित्रमेवाचरणजहाकाल अव्य०(यथाकाल) यथावसरमित्यर्थे, आचा०१ श्रु०२ मतो यथा सूत्रं तथा चारित्रमेतदेव चानुष्ठेयम् एतच्च याथातथ्यमिति अ०१२०१ वोसिरइ मुणी जहाकालं'। यथाकालं यथावसरम्। संथा। ज्ञातव्यम्, पूर्वार्द्धस्यैव भावार्थ गाथापश्चार्द्धन दर्शयितुमाह-यद्वस्तुजातं जहागम अव्य०(यथागम) यथासूत्रमित्यर्थे, 'आराहिंता जहागम' प्रकृतं प्रस्तुतं यथार्थमधिकृत्य सूत्रमकारि तस्मिन्नर्थे सति विद्यमाने पं०६०६ द्वार। यथावद् व्याख्यायमाने संसारोत्तारणकारणत्वेन प्रशस्यमाने वा जहाच्छन्द पु०(यथाच्छन्द) स्वच्छन्दे, स्था०६ ठा०३उ०। याथातथ्यमिति भवति, विवक्षिते त्वर्थे सत्यविद्यमाने संसारकारणत्वेन जहाजाय त्रि०(यथाजात) जातं समयविशेषमनतिक्रम्य यथाजातं, वा जुगुप्साया सत्यां सम्यगनुष्ठीयमाने वा याथातथ्यं न भवति। इदमुक्तं तदस्यास्ति अच् / मूर्खे, नीचे च / वाच० "जहा-जायपसूभूया।" भवति-यदि यथासूत्रं येन प्रकारेण व्यवस्थितम्। तथैवार्थो यदि भवति यथाजातपशुभूताः शिक्षामरणादिवर्जितबलीवादिसदृशाः निर्विज्ञान- व्याख्यायतेऽनुष्ठीयते च संसारनिस्तरणसमर्थश्च भवति, ततो त्वादिसाधर्म्यात्। प्रश्न०३ आश्र० द्वार। यथाजातं श्रमणत्वभवनलक्षणं याथातथ्यमिति भवति / असति त्वर्थे क्रियमाणे संसारकारणत्वेन जन्माश्रित्य योनिनिष्क्रमणलक्षणंच। तत्र रजोहरणमुखवस्त्रिकाचोल- जुगुप्सिते वा भवति। याथातथ्यमिति गाथातात्पर्यार्थः / सूत्र०१ श्रु० पट्टमात्रया श्रमणोजातो, रचितकरपुटस्तुयोन्या निर्गत एवंभूत एवं वन्दते। 13 अ०॥ तदव्यतिरेकाद्वा यथाजातम्। कृतिकर्मणि, न० स०१२ सम०। जहापवट्टकरण न०(यथाप्रवृत्तकरण) करणभेदे, आचा०१ श्रु०६ जहाजेट्ठ अव्य०(यथाज्येष्ठ) ज्येष्ठस्यानतिक्रमेणेत्यर्थे , अनु०॥ अ०१उ० जहाणामय पुं०(यथानामक) अनिर्दिष्ट नामके, कस्मिंश्चित्, जी०३ प्रतिका जहाभूय त्रि०(यथाभूत) यथावृत्ते, / 'जहाभूयमवितहसमंदि8''। "जहानामको कोइ मिच्छो''। यथानामकः कश्चित्म्लेच्छः। आ०म०प्र०ा | यथाभूतं यथावृत्तम्। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०नि०चू०।
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________________ जहामालिय 1436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जहामालिय अव्य०(यथामालित्) यथाधारितमित्यर्थे, "जहामालियं वाचा ओमोघ दलइ'। यथामालित यथाधारितं, यथापरिहितमित्यर्थः / / जहिच्छिय अव्य०(यथेप्सित) ईप्सितस्यानतिक्रमे, अव्ययी०। भ०११श०११उ०॥ स्वाच्छन्द्ये, "अर्श आदिभ्योऽच्" / / 5 / 2 / 127 / / यथाभीष्ट, त्रि० जहारिह अव्य०(यथार्ह) अर्हा योग्यतामनतिक्रम्य , अव्ययीला यथायोग्ये, यथेष्टमप्यत्र / वाच०। ''साहेइ जहिच्छियं कज्ज'' साधयति यथेप्सितं ततः। 'अर्श आदिभ्योऽच्" // 5 / 2 / 127 / सत्यभूते पदार्थ, त्रि०ा वाचा कार्यम्। पञ्चा०१ विव०॥ "जहारिहं होइ कायव्वं" पञ्चा०१७ विव०। यथार्ह यथायोग्यम्।दश०७ जहिच्छियकामकामिन् पुं०(यथेप्सितकामकामिन्) यथेप्सितान अ०। पं०सं०। यथार्ह यथोचितम्। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। "जहारिह जस्स मनोवाञ्छितान् कामान् शब्दादीन् कामयन्त इत्येवंशीला यथेजंजुग्गं" यथा योग्यम् / आव०६अ। प्सितकामकामिनः / जी०३ प्रति०। मनोवाञ्छितकामभोजिनि, जहारूव अव्य०(यथारूप) रूपानतिक्रमे , “यथा नेत्रं तथा शीलं, यथा "जहिच्छियकामकामिणो'' यथेप्सितान् कामान् शब्दादीन कामयन्ते नासा तथाऽऽर्जवम्। यथा रूपं तथा वित्तं, यथा शीलं तथा गुणाः।।१।।" अर्थाद्भुञ्जन्ते इत्येवं शीला ये देतथेति। जं० वक्षः। आव०४ अ०॥ जहिट्ठिल पुं०(युधिष्ठिर) युधि युद्धे स्थिरः "गवियुधिभ्यां स्थिरः" जहाल पु०(जहाल) देशभेदे, कल्प०७ क्षण। / / 8 / 3 / 15 / / इति (पाणि०) षत्वम् / "उतो मुकुलादिष्वत्" जहालाह अव्य०(यथालाभ) यथासंपत्तीत्यर्थे, पञ्चा०४ विव०। / / 8 / 1 / 107 / / इति प्राकृतसूत्रेणादेरुतोऽत्वम्। प्रा०१ पादा पाण्डवश्रेष्ठ, जहालंदीगण पुं०(यथालन्दिगण) लन्दिकानां पञ्चको गणः परं तेषां वाचा कल्पस्य कालमानं कियत् परिहारविशुद्धिकानामिवाष्टादश- / *जहिमा (देशी) विदग्धरचितायां गाथायाम, दे०ना०३ वर्ग। मासकालमानं चोनाधिकं वेति, प्रश्रे, उत्तरम् यथालन्दिकाना कालमानं जहुट्ठिल पुं०(युधिष्ठिर) 'जहिट्ठिल' शब्दार्थे , प्रा०१ पाद। तु परिहारविशुद्धिकसाध्वतिदेशवाक्यं पञ्चकल्पचूादावुपलभ्यमान- जहुत्त त्रि०(यथोक्त) येन प्रकारेणोक्ते, “परक्कमती जहुत्तमाउत्ते" यथा त्वेनाष्टादश मासाः संभाव्यन्त इति। 42 प्र०। सेन०२ उल्ला 0 उक्तं यथोक्तमिति। नि०चू०१ उ०॥ जहावाइ(ण) पुं०(यथावादिन) येन प्रकारेण वादिनि, (स्था०) 'णो | जहुत्तकारिन् पुं०(यथोक्तकारिन्) यथोक्त क्रियाकलापं कर्तु शीलमस्येति जहावाई तहाकारी याऽवि भवई" सामान्यतो नो यथा वादी तथा कारी। यथोक्तकारी। आव०३ अ०। भगवदाज्ञाराधके, बृ०१उ०। स्था०७ ठा० जहुत्तर अव्य०(यथोत्तर) उत्तरस्यानतिक्रमे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३उ०। जहाविभव अव्य०(यथाविभव) विभवानुरूपमित्यर्थे , 'ततो अ | जहोइय वि०(यथोदित) येन प्रकारेण प्रतिपादिते, वचनाद् विरुद्धाद्यजहाविभयं।" विभवारूपमित्यर्थः / पं०व०१ द्वार। 'दानं च यथाविभवं, नुष्ठानं यथोदितम्। यथा येन प्रकारेण कालाधाराधनानुसाररूपेणोदित दातव्यं सर्वसत्त्वेभ्यः।" यथाविभव विभवानुसारेणेत्यर्थः। षो०६ विव०॥ प्रतिपादितम् यथोदितम्। ध०३अधिका जहाविहि अव्य०(यथाविधि) सम्यगित्यर्थे, पं०व० 4 द्वार। जहोवइट्ठ अव्य०(यथोपदिष्ट) यथोक्तमित्यर्थे , "जहोवइल अभिकंखजहासंख अव्य०(यथासङ्ख्य) संख्यानतिक्रमे, "यथासंख्यमनुदेशः | माण''। यथोपदिष्ट यथोक्तमेव / दश०६ अ०२७०। समानाम् / / 1 / 3 / 10 // इति (पाणि०) न्यायात्। आ०म०प्र०। जहोवएसकारि(न्) पुं०( यथोपदेशकारिन्) उपदेशःसदसत्कजहासत्ति अव्य०(यथाशक्ति) शक्तेरानुरूप्यम् / आनुरूप्येऽव्ययी० / र्तव्यादेशः तस्यानतिक्रमेण कारिणि, आचा०१ श्रु०२ अ०३उ०। शक्तरानुरूप्ये, शक्त्यनुसरे च / वाचला "सेसा उजहासत्ति, आपुच्छित्ता ! जा स्त्री०(जा)जायायाम,जनन्याम्, शय्यायाम्, एका०। देववाहिन्याम्, ठवति सहाणे" यथाशक्ति शक्त्यनुरूपम्। आव०५ अ०। सामर्थ्यानति- योनौ, समुद्रवेलायाम्. एका०) क्रमेणेति। पञ्चा०६ विवा'दाणमह जहासत्ती" यथाशक्ति शक्तेरनति *यावत् त्रि०ा परिमाणमस्य / "यावत्तावजीवितावर्तमानावटप्राक्रमेण चित्तवित्तानुरूपमित्यर्थः। पञ्चा०३ विव०। "सेवगा जहासत्ति" वारक-देवकुलैवमेवे वः"||८/१।२७१।। इति सूत्रेण वकारस्य वा यथाशक्ति, शक्त्यतिगृहनेन / पञ्चा०११ विव०॥ लुक् / प्रा०१ पाद। यत्परिमाणे, यावति, साकल्ये, व्याप्ती, सीमायां च जहासमाहि अय्य० (यथासमाधि) समाधानानतिक्रमे, पक्षा। अव्या वाचला "एवं जा छम्मासा''। 'जा' इति यावत्षण्मासानिति। १विव० पञ्चा०१० विव० जहासुय अव्य०(यथाश्रुत) श्रुतानतिक्रमे, "अहसुयं वदिरसामि'' *ज्या स्त्री०। जरायां, या०। पर०अक अनिट् / जिनाति अज्यासीत्। यथाश्रुतं यथासूत्रं वा वदिष्यामि। आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। अङ्। धनुषे, गुणे, मौाम्, मातरि; भूमौ, वा / वाच०। *यथासूत्र अव्य०। सूत्रानतिक्रमे, आचा०१ श्रु०६ अ०१3०। *या गतौ, अदादि-पर०सक० अनिट् / याति, अयासीत् / वाच०। जहि अव्य०(यत्र)"त्रयो हि-ह-त्थाः // 8/20161 // इतिप्राकृत--सूत्रेण अनुसूयायाम, शोभायाम्, लक्ष्म्याम् निर्मिती, स्त्री०। एका०ा रामायाम्, प्रत्ययस्य एते आदेशाः / जहि-जह-जत्था प्रा०२ पाद। यस्मिन्नित्यर्थे , | मातरि, पात्र्याम्, युक्तौ, यातायाम्, एका०।
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________________ जाइ 1437 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाइ जाइ स्त्री०(जाति) जनवं जातिः / उत्त०३ अ०। आचा०। जन् तिन् / जन्मनि, "जाईजरामरणबंधणविप्पमुक्का'' प्रज्ञा०२ पद / ल०। आचा०। आव०) सूत्रका स्था०''जाइं च मरण च जणोववायं / ' जातिमुत्पत्तिं नारकतिर्यड्मनुष्यामरजन्मलक्षणां च / सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। जातिर्वारकादिषु प्रसूतिरिति / विशे०। जायन्ते जन्तवोऽस्यामिति जातिः। उत्त०३ अ०। अनुगतैकाकारबुद्धिजननसमर्थे अवयवव्यङ्गये सकृदुपदेशगम्ये च धर्मभेदे, यथा गोत्वमनुष्यत्वादि ब्राह्मणत्वशूद्रत्वादि च / वाचा एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियत्वादिरूपसमानपरिणतिलक्षण-मेकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेशभाक् यत्सामान्य सा जातिः / उक्तंच-अव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्मा जातिरिति / कर्म०१कर्म०। प्रज्ञा०। पं०सं० "जाइकुलरूवलक्खणं'(४५) जातिः पुरुषत्वादिकेति। सम्म०१ काण्ड। जातिरेकेन्द्रियादिः। स्था०६ ठा०। आचा०। एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रियत्वादिकाजातिरिति / आचा०१ श्रु०४ अ०२उ०। जातिगुणवन्मातृकत्वम् / स्था०४ठा०२०। मातृसमुत्था जातिरिते। सत्र०६U०१३ अ०/उत्तापं०चु०। कल्पा औ०। आचा०| स्था०। जातिर्मातृकी पित्रादिका वा। प्रव०१६५ द्वार। जातिर्मातृ-पक्षः ब्राह्मणादिका वा। तं०। जातयः क्षत्रियाद्याः इति / उत्त०३ अ०। सत्ता सामण्णं पिय,सामण्णविसेसया विसेसोय (2423) सामान्य त्रिविधिम् / तद्यथा-सत्ता१, सामान्यं२, सामान्यविशे–वश्व इति / तत्र द्रव्यगुणकर्मलक्षणेषु त्रिषु पदार्थेषु सद्बुद्धिहेतुः सत्ता 1 / सामान्य द्रव्यत्वगुणत्वादि 2 / सामान्यविशेषस्तु पृथ्वीत्वजलत्वकृष्णत्वनीलत्वाद्यवान्तरसामान्यरूप इत्यादि 3 / अन्ये त्वित्थं सामान्यस्य त्रैविध्यमुपवर्णयन्ति- अविकल्पं महा सामान्यम् 1 / त्रिपदार्थसद्बुद्धिहेतुभूता सत्ता 2 / सामान्यविशेषो द्रव्यत्वादि 3 / नहासामान्यसत्तयोर्विशेषणव्यत्यय इत्यन्ये / द्र-व्यगुणकर्मपदार्थत्रयसद्बुद्धिहेतुः सामान्यम्। अविकल्पा सत्तेत्यर्थः। सामान्यविशेषस्तुद्रव्यत्वादिरूप एव इत्यल प्रसङ्गेन इति। विशेषश्चान्त्यः। विशे०। सामान्य विशेषाँश्चायमभ्युपगच्छति, अतः कथंभूतस्ता निच्छति? इत्याहसामन्नमन्नदेव हि, हेऊ सामन्नबुद्धिवयणाणं। तस्स विसेसो अन्नो, विसेसमइवयणहेउ त्ति // 2156 / / सामान्य विशेषेभ्योऽन्यदेव हेतुश्च तत्सदिति सामान्यबुद्धेः सामान्यवचनस्य च / तस्मादपि सामान्यादन्योऽभिन्न एव नित्यद्रव्यवर्ती अन्त्यो विशेषः / स च हेतुर्विशेषो विशेष इति मतेर्वचनस्य च। प्रयोगो-भिन्नौ परस्परं सामान्याविशेषाँ, भिन्नकार्यत्वात्, घटपटादिवदिति // 2186 // न केवलं सामान्यविशेषौ नैगमः परस्परं भिन्नौ मन्यते, किं तु स्वाश्रयादापे गोपरमाण्वादेस्तयोर्भेदमेवायमिच्छतीति दर्शयन्नाह-. सदिति भणिए ऽभिमन्नइ, दव्वादत्थंतरं ति सामन्नं / अविसेसओ मईए सव्वत्थाणुप्पवित्तीए॥२१६०।। सदिति यतो "द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता'' इति वचनात् / सत्तासमवायादेव परस्परविलक्षणेषु द्रव्यगुणकर्मसु सदित्येकाकारा बुद्धिः प्रवर्तते. अतः सदिति भणिते द्रव्यादिभ्योऽर्थान्तरमेष सामान्यं मन्यते नैगमः / कुतः ? इत्याह-सदित्य विशेषितमतेर्वचनस्य च सर्वत्र द्रव्यगुणकर्मस्वन्योऽन्यमतिविलक्षणेष्वपि अविशेषेण प्रवृत्तेः / इदमुक्त भवति-यदि सत्तासामान्यं द्रव्यादिभ्योऽभिन्नं स्यात् तदा द्रव्यादिवत्तस्यापि भिन्नत्वात्ततः सर्वत्र सदित्यभिन्ना बुद्धिर्न स्यात् / न हि भिन्नादभिन्नबुद्धिप्रसवो युज्यते, घटस्तम्भादिभ्योऽपि तत्प्रसङ्गाद्। तस्माद् भिन्नेष्वभिन्नबुद्ध्यन्यथानुपपत्तेर्द्रव्यादिभ्योऽर्थान्तरमेव सामान्यमिति // 2160 // गोत्यादिसामान्यं तर्हि कथंभूतम्? इत्याहगोत्तादओ गवाइसु, नियया धाराणुवित्तिबुद्धीओ। परओ य निवित्तीओ, सामन्नविसेसनामाणो॥२१९१।। गोत्वगजत्वादयस्तु गोगजाद्याश्रयवृत्तयः सामान्यविशेषनामनो मन्तव्याः / कुतः? इत्याह-निजकाधारेषु गोगजादिष्वनुवृत्तिबुद्धितःअनुगताकारबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यनामानः, परतस्तु तुरगमहिषादेर्निवृत्तितो निवर्तनाद्विशेषनामानः / तेऽपिच गोत्वादयो भिन्नेष्वभिन्नबुद्धिहेतुत्वात् स्वाश्रयाद्भिन्ना एवास्य मतेन मन्तव्या इति / तदेवं निरूपितं सामान्यम्॥२१६१।। अथ विशेषस्वरूपनिरूपणार्थमाहतुल्लागइगुणकिरिए-गदेसतीयागए ऽणुदव्वम्मि। अन्नत्तबुद्धिकारण-मंतविसेसो त्ति से बुद्धी॥२१६२।। आकृतिश्च गुणाश्च क्रिया च आकृतिगुणक्रियाः, तुल्या आकृतिगुणक्रिया यस्य तत् तुल्याकृतिगुणक्रियम्, अतीतमतिक्रान्तमपगतम.आगतं तु प्रतीतम्, अतीतं च तदागतं च अतीतागतम्, एकदेशादतीतागतमेकदेशातीतागतम्, तुल्याकृतिगुणक्रियं च तदेकदेशातीतागतं च तथा तरिम स्तुल्याकृतिगुणक्रियैकदेशतीतागते परमाणुद्रव्ये अयमस्यादन्यः परमाणुरित्येवंभूतायाः योगिनामन्यत्वबुद्धेर्यः कारणं हेतुर्भवति सोऽन्त्यो विशेष इति। (से) तस्य नैगमस्य बुद्धिरभिप्रायः / इदमुक्तं भवति-परिमण्डलसंस्थानाः सर्वेऽपि परमाणव इति वैशेषिकाः। ततस्तेषु तुल्याकृतिष्वपि सर्वेषु परमाणुषु भिन्नाः, एतेन त्वभिन्ना इत्येवं येयं परस्परमन्यत्वग्राहिका योगिनां वुद्धिरुत्पद्यते तद्धेतुभूतः परमाणुद्रव्यवर्ती अन्त्यो विशेष उच्यते / यथाभूता हि प्रथमेऽणौ विशेषान तथाभूता एव द्वितीये, यथाभूताश्च द्वितीयेन तथाभूता एव प्रथम, अन्यथैकत्वप्रसङ्गात् इतीह भावार्थः / तथा पार्थिवा अणवःसर्वे ऽपि परस्परं तुल्यगुणाः। तथा-अणुमनसोराद्य कर्मादृष्टकारितम्, यथा अग्नेरुव॑ज्वलनम्, वायोस्तिर्यग्गमनमिति / सर्वेऽप्यणवस्तुल्यक्रिया H / तथा-एक-स्मादाकाशदेशादाकाशप्रदेशाद् यदैवैकः परमाणुः स्थितिक्षया-दत्येति। अन्यत्र गच्छति-तदैव यदाऽन्यः परमाणुस्तत्स्थित्यु-द्भवात्तत्रैवाकाशप्रदेशे समागत्य तिष्ठति, तदा एकदेशातीताऽऽगत-त्वम् / अत एवं वैशेषिकप्रक्रियया तुल्याकृतिषु, तुल्यगुणेषु, तुल्यक्रियेषु,एकप्रदेशनिर्गतागतेषु च, परमाणुद्रव्येषु यदन्यत्वबुद्धेः कारणं सोऽन्त्यो विशेष इति (से) तस्य नैगमस्य बुद्धिः। स चाकृत्यादिना तुल्येष्वतुल्यबुद्धिहेतुत्वादणुभ्यो भिन्न एवेति / / 2162 / / एवं सामान्यविशेषेषु प्ररूपितेषुपरः प्राहनणु दव्वपज्जवट्ठिय-नवावलंवि त्ति नेगमो चेव। सम्मविट्ठी साहु, व्व कीसमिच्छत्तभेओऽयं ? ||2163 / / आह-नन्वेवं सति यत्सामान्यं तद्रव्यम्, विशेषास्तुपर्यायाः,ततो द्रव्यपर्यायास्तिकनबद्धयमतावलम्बित्वात् सम्यग्दृष्टिरेवायं नै
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________________ जाइ 1438- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाइ गमनयः, जैनसाधुवत् / न हि जैनसाधवोऽपि द्रव्यपर्यायोभयरूपाद वस्तुनोऽन्यत् किञ्चिदिच्छन्ति / तत्किमित्यसौ मिथ्यात्वभेदः? इति // 2163 / / अत्रोत्तरमाहजं सामन्नविसेसे, परोप्परं वत्थुओ य सो भिन्ने / मन्नइ अच्चतमओ, मिच्छादिट्ठी कणादो व्य / / 2164|| दोहिं वि नएहिँ नीयं, सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं / जं सविसयप्पहाण-तणेण अन्नोन्ननिरवेक्खा।।२१६५|| यद् यस्मात् सामान्यविशेषौ नैगमनयः परस्परमत्यन्तभिन्नौ मन्यते. वस्तुनोऽप्याधारभूतात् द्रव्यगुणक र्मपरमाणुरूपादत्यन्तभिन्नी स तायिच्छति: जैनसाधवस्तु परस्परं स्वाधारास कथंचिदेव तो भिन्नाविच्छन्ति, अतो मिथ्यादृष्टिरेवाय, कणादवदिति / / 2164 // तथाहि-द्वाभ्यामपि द्रव्यपर्यायास्तिकनयाभ्यां सर्वमपि निज शास्त्रनीतं समर्थितमुलूकेन तथाऽपि तन्मिथ्यात्वमेव यद्यस्मात्स्वस्वविषयप्राधान्याभ्युपगमेनोलूकाऽभिमतौ द्रव्यपर्यायास्तिकनयावन्योऽन्यनिरपेक्षा जैनाभ्युपगतो पुनस्तौ परस्परसापेक्षौ, स्याच्छब्दलाञ्छितत्वादिति // 2165 // अथ सिद्धान्तवादी स्थितपक्षदर्शनार्थमेकान्तवादिनं नैगम दूषयितुमाहजइ सामन्नं सामन्न बुद्धिहेउत्ति तो विसेसो वि। सामन्नमन्नसाम-नवुद्धिहेउ त्ति को भेओ? // 2166|| यदि गौ:गौः इत्यादिसामान्यबुद्धिवचनहेतुरितिकृत्वा सामान्य त्वयेष्यते,हन्त ! तर्हि परमाणुगतोऽन्त्यो विशेषोऽपि सामान्यं प्राप्नोति, विशेषो विशेष इत्यन्यसामान्यबुद्धिवचनहेतुत्वात् / न च विशेषष्वपि सामान्यमस्ति, द्रव्यगुणकर्मस्वेव तद्वत्यभ्युपगमाद। अथवागोत्वगजत्वादिको विशेषोऽपि सामान्य प्राप्नोतिगोत्वगजत्वादिसामान्येष्वऽपि सामान्यं प्राप्नोतीत्यर्थः / सामान्य सामान्यमिति बुद्धिवचनयोस्तत्रापि प्रवृत्तेः / न च सामान्येष्वपि सामान्यमस्ति "निःसामान्यानि सामान्यानि" इति वचनात्। ततश्चोक्तयुक्तेर्विशेषस्यापि सामान्यत्वात् को भेदः सामान्यविशेषयोः? न कश्चिदित्यर्थः इति // 2166|| सामान्यस्यापि च विशेषरुपता प्राप्नोतीत दर्शयन्नाह-- जइ जे ण विसेसिज्जइ, सविसेसो तेण जं पि सामण्णं / तं पि विसेसोऽवस्सं, सत्ताइविसेसयत्ताओ॥२१६७।। यदि येन वस्तुना बुद्धिर्वचनं च विशेष्यते स विशेष उच्यते, तेन ततो यदपि परमपरं च सत्ता गोत्वादिकं सामान्यं तदपि विशेषः प्राप्नोति, कुतः? सत्तादीनामपि विशेषकत्वात्, तथाहि- सत्ता-सामान्यमपि गोत्वादिभ्यो बुद्धिवचने विशेषयति, गोत्वादयोऽपि च सत्तादिभ्यस्ते विशेषयन्त्येव, प्रयोगः-सामान्यमपि विशेष एव, बुद्धिवचनविशेषकत्वात्, अन्त्यविशेषवदिति। तदेवं 'विशेषोऽपि सामान्यम्, सामान्यमपि विशेषः प्राप्नोतीत्युक्तम् / / 2167|| किं च--"त्रिपदार्थसत्करी सत्ता" इति वचनात्सत्तासमवायात्सत्त्वं भवताऽभ्युपगम्यते तच्चायुक्तम्। कुतः? इत्याह सत्ताजोगादसओ,सओ व सत्तं हवेज दव्वस्स। असओन खपुप्फस्स, वसओ व किं सत्तया कजं? ||2168 यत्सत्तायोगाद्वस्तुनः सत्त्वमिष्यते तत्स्वरूपेण किंसतोऽसतो वा भवेत्? इति वक्तव्यम्। न तावदसतः खपुष्पस्येव सत्त्वं युज्यते। यदि तु स्वरूपेणैव सदस्तु, तर्हि सत्तया किं कार्यम्? तामन्तरेणापि स्वरूपेणैव वस्तुनः सत्त्वादिति // 2168 // अपि चपइवथु सामन्नं, जइ तोऽणेगं न यावि सामन्नं / अह दव्वेसु तदेगं, तह विसदेसं न सामन्नं / / 2166 / / यदि तत्सामान्य प्रतिवस्तु वर्तते तर्हि नैकम्, प्रतिवस्तुवृत्तित्वाद्. प्रतिवस्तुरवात्मवत् / यदि वा-न तत्सामान्य प्रतिवस्तुवृत्तित्वात्, प्रतिवस्तुस्वात्मवत् / अथ बहुषु द्रव्येषु वृत्तमपि तदेकं तथाऽपि सदेश प्राप्नोति,अदेशस्य परमाणोरिव बहुषु वृत्तियोगात्। सदेशत्वे च सति न सामान्यं, देशभेदे देशिनोऽपि तदव्यतिरिक्तस्य भेदादिति / / 2166 / / अथ प्रतिवस्तु वर्तमानमपि तदेकमिष्यते तथापि दोष इति दर्शयन्नाहअह पइवत्थुमिहेगं,च तह वितं नत्थि खरविसाणं च / न य तदुबलक्खणं तं, सव्वगयत्तओ खं व // 2200 / / अथ प्रतिवस्तु वर्तते तत्,एकं चेष्यते, तथापि तन्नास्ति, अनुपलभ्यमानत्वात्, खरविषाणवत् / न च तस्य स्वाश्रयभूतस्य गवादेरुपलक्षणमुपलक्षकं तद् युज्यते, सर्वगतत्वात, गणादिव्यक्तिभ्योऽन्यत्वाच, आकाशवदिति // 2200 / / किंचसामन्नविसेसकयं, जइ नाणं तेसु किं निमित्तं तो। अह तत्तो चिय तम्हा, तं परहेउ त्ति ऽणेगंतो / / 2201 / / यदि गोर्गारित्यादि सामान्यज्ञानं वचनं च सामान्यहेतुकं प्रवर्तत, तथा परमाणुष्वयमस्माद्विशिष्ट इति विशेषज्ञानं वचनं च यदि विशेषकृतम, ततस्तेषु गोत्वतुरगत्वादिसामान्येषु सर्वत्र सामान्य सामान्यमिति ज्ञानं वचनं च तथा तेषु विशेषेषु सर्वत्र विशेषो विशेषः इति विशेषबुद्धिर्वचनं च किं निमित्तमिति वक्तव्यम्? न च सामान्येष्वपि सामान्यमस्ति, नापि विशषेष्वन्ये विशेषाः सन्ति,येन तेषु तन्निमित्ते ते स्याताम्। अथ तत एव तेभ्य एव गोत्वादिसामान्येभ्योऽपरसामान्यमन्तरेणापि सामान्यज्ञानवचनेऽभ्युपगम्येते, विशेषेभ्य एव चान्यविशेषनिरपेक्षेभ्यो विशेषज्ञानवचने इष्येते, तस्मात् तर्हि तत्सामान्य विशेषज्ञानं वचनं च परहेतुकं सामान्यविशेषनिमित्तमेवेति नायमेकान्तः, सामान्यविशेषविषयाभ्यामेव सामान्यविशेषज्ञानवचनाभ्यां व्यभिचारादिति। 2201 / / अथ सिद्धान्तवादी स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह-- तम्हा वत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जवो ससामन्नं / जो विसरिसो विसेसो, समओ ऽणत्थंतरं तत्तो / / 2202 / / तरमाद्वस्तूनामेव गवादीनां खुरक कुदलाङ्ग लविषाणसास्नादिमत्त्व लक्षणों यः सदृशः पर्यायः स एव सामान्य , न पुनरे कनित्यनिरवयवाऽक्रियसर्वगतत्वादिधर्मोपेतं पराभ्युपगतम् / यस्तुतेषामेव गवादीनां शाबलेवधावलेयत्वादिको पिसदृशोऽन्योऽ
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________________ 1436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाइ न्यं विलक्षणः पर्यायः स विशेषः / स च सामान्यरूपो विशेषरूपश्च पर्यायस्ततो वस्तुनोऽनन्तरमभिन्नः, कथञ्चित्तु पररूपतादिभिभित्रोऽपि न त्वेकान्तेनाभिन्नो भिन्नो वेति द्रष्टव्यमिति / तदेवमुक्तो नैगमनयः // 2202 / / अथ संग्रहनयं व्याचिख्यासुराहसंगहणं संगिण्हइ, संगिज्झंते व तेण जं भेया। तो संगहो त्ति संगहि-य पिंडियत्थं वओ जस्सा / / 2203|| संग्रहण सामान्यरूपतया सर्ववस्तूनामाक्रोडनं संग्रहः / अथवासामान्यरूपतया सर्व संगृह्णातीति संग्रहः / अथवायद्यस्मात्सर्वेऽपि भेदाः सामान्यरूपतया संगृह्यन्तेऽनेनेति संग्रहः / संग्रहीतं च तत्पिण्डितं च संगृहीतपिण्डित, तदेवार्थोऽभिधेयं यस्य तत्संग्रहीतपिण्डितार्थम् / एवंभूतं वचो वचनं यस्य संग्रहस्येति॥२२०३।। तत्र संगृहीतपिण्डितार्थं, किमुच्यते? इत्याहसंगहियमागहीयं, संपिडियमेगजाइमाणीयं / संगहियमणुगमो वा, वइरेगो पिंडियं भणियं // 2204 / / अहव महासामन्नं, संगहियं पिंडियत्थमियरंति। सव्वविसेसाणन्नं,सामन्नं सव्वहा भणियं / / 2205 / / सामान्याऽभिमुखेनाऽऽग्रहणमागृहीतुं संग्रहीतमुच्यते, पिण्डितं त्वेकजातिमानीतमभिधीयते, तदेवंभूतं वस्तु अर्थोऽभिधेयं यस्य तत्संगृहीतपिण्डितार्थ वचनं संग्रहनयस्येति स्वयमेव द्रष्टव्यम्। अथवासंगृहीतमनुगमोऽभिधीयते, सर्वव्यक्तिष्वनुगतस्य सामान्यस्य प्रतिपादनमित्यर्थः / व्यतिरे कस्तु पिण्डितमुच्यते / विशेषप्रतिपादकपरमतनिराकरणमित्यर्थः / ततश्च संगृहीतपिण्डितार्थमनुगमव्यतिरेकार्थ संग्रहवचनमिति दृश्यम्॥२२०४॥ अथवा-सत्तास्यं महासामान्य संगृहीतमुच्यते, इतरतु गोत्वादिकमवान्त-रसामान्य पिण्डितार्थमभिधीयते / ततः संगृहीतपिण्डितार्थ परा-परसामान्यार्थ संग्रहवघः। किं बहुनोक्तेन? सर्वे विशेषा अनन्या अभिन्ना यस्य तत्सर्वविशेषानन्यम्।अतः क्रोडीकृतसर्वविशेष सामान्यमेव सर्व प्रकारैः संग्रहवचन स्याऽभिधेयतया भणितमिति॥२२०५|| कथंभूतं पुनः सामान्यं संग्रहो मन्यते? विशेषाँस्तु कुतोऽसौ नाभ्युपगच्छति ? इति दर्शनार्थमाहएवं निचं निरवयव-मक्कियं सव्वगं च सामन्नं / निस्सामन्नत्ताओ, नऽत्थि विसेसो खपुष्पं व // 2206 / / एकं सामान्यम्, सर्वत्र तस्यैव भावात्, विशेषाणां चाभावात्; तथानित्यं सामान्यम्, अविनाशात्; तथा-निरवयवम्, अदेशत्वात्; अक्रि यं, देशान्तरगमनाभावात; सर्वगत च सामान्यम्, अकि यत्वादिति। विशेषास्तु न सन्ति, निःसामान्यत्वात्। सामान्यव्यतिरेकिणां तेषामभावात्। इह यत्सामान्यातिरिक्तं तन्नास्ति, यथा खपुष्पमिति // 2206 // एतदेव समर्थयतिसदिति भणियम्मि जम्हा, सव्वत्थाणुप्पवत्तए वुद्धी। तो सव्वं सम्मत्तं, नऽत्थि तदत्थंतरं किंचि // 2207 // यस्मात् सदित्येवंभणिते सर्वत्र भुवनत्रयान्तर्गते वस्तुनिबुद्धिरनुप्रवर्तते प्रधावति। न हि तत्किमपि गस्त्यस्ति। यत्सत् इत्युक्ते झगिति बुद्धौ न प्रतिभासते। ततस्तस्मात्सर्वं तन्मात्रमेव सत्तामात्रमेव, न तदर्थान्तरं किञ्चिदस्ति यद्विशेषतया कल्पेत इति // 2207 / / __ सत्तामात्रत्वमेव सर्वभावानां भावयन्नाहकुंभो भावाणन्नो, जइ तो भावो अहन्नहाऽभावो। एवं पडादओ विहु, भावाणन्न त्ति तम्मत्तं / / 2208|| कुम्भो घटः स भावात् सत्तातोऽन्यः, अनन्यो वा? यद्यऽनन्योऽ-भिन्नः, तर्हि भावः सत्तामात्रमेवाऽसौ (अहन्नह त्ति) अथान्यथाभावाद्भिन्नोऽभ्युपगम्यत इत्यर्थः, तहभावोऽसन्नेवासी, भावादन्यत्वात्, खरविषाणवदिति / एवं पटादयोऽपि प्रत्येकं वाच्याः / ततस्तेऽपि द्वितीयपक्षेऽसत्त्वप्रसंगाद् भावादनन्येऽभ्युपगन्तव्याः, इति सर्वमेव घटपदादिक वस्तु तन्मात्रं सत्तामात्रमेवेति॥२२०८।। अथवा-अयमेवार्थोऽन्यथाऽभिधीयचते। कथम्? इत्याहतम्मत्तमिह विसेसो, सामन्नं पिव पमेयभावाओ। सव्वत्थ सम्मईओ, वभिचाराभावओ वा वि॥२२०६।। तन्मात्रमिह विशेषा इति प्रतिज्ञा, प्रमेयत्वात्, सामान्यवत्। अथवा-- अन्यो हेतुः-सर्वत्र सन्मतेर्व्यभिचाराभावात्। सर्वत्र सन्मतिप्रवृत्तेरित्यर्थः / इति / / 2206 / / प्रकारान्तरेणापि विशेषाणां सामान्यरूपता साधयितुमाहचूओ वणस्सइ चिय, मूलाइगुणो त्ति तस्समूहो व्व। गुम्माओ वि एवं, सव्वे ण वणस्सइविसिट्ठा // 2210 / / चूतो वनस्पतिःसामान्यरूप एव, मूलादिगुणत्वात्, तत्समूह-वत्चूतादिवृक्षसमूहवत्। गुल्मो लतासमूहः, तदादयोऽपि सर्व वृक्षविशेषा वनस्पते रविविशिष्टा एव, इति सामान्यमेवास्ति, न विशेषा इति // 2210|| किंचसामन्नाउ विसेसो, ऽन्नोऽणन्नो व नत्थि जइ अन्नो। निस्सामन्नत्ताओ,ऽणन्नो सामन्नमेत्तं सो॥२२११।। सामान्याद्विशेषोऽन्यः, अनन्यो वा? यद्यन्यः, तर्हि नास्त्यसौ, सामान्यबहिर्भूतत्वात्, खरविषाणवत् / अथ अनन्यः तर्हि सामान्यमात्रमेवासौ, तत्स्वरूपवदिति।तदेवमुक्तः संग्रहः / / 2211 / / विशेषण एके तीर्थिकाः सामान्यरूपमेव वाच्यतया अभ्युपगच्छन्ति। ते च द्रव्यास्तिकनयानुपातिनो मीमांसकभेदाः अद्वैतवादिनः सांख्याश्च / केचिव विशेषरूपमेवं वाच्य निर्वचन्ति। तेच पर्यायास्तिकनयानुसारिणः सौगताः। अपरेच-परस्परनिरपेक्षपदार्थपृथग्भूतसामान्यविशेषयुक्तं वस्तु वाच्यत्वेन निश्चिन्यते। ते च नैगमनयानुरोधिनः काणादाः, अक्षपादाश्च / एतच पक्षत्रयमपि किञ्चिचर्यते / तथाह-संग्रहनयावलम्बिनो वादिनः प्रतिपादयन्तिसामान्यमेव तत्त्वं, ततः पृथग्भूतानां विशेषाणामदर्शनात्। तथा सर्वमेकमविशेषेण सदिति ज्ञानाऽभिधानानुवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताकत्वात्। तथा द्रव्यत्वमेव तत्त्वं, ततोऽर्थान्तरभूतानां धर्माऽधर्माऽऽकाशकालपुद्गलजीवद्रव्याणामनुपलब्धेः / किं च ये सामान्यात् पृथग्भूता अन्योऽन्यव्यावृत्त्यात्मका विशेषाः कल्प्यन्ते, तेषु विशेषत्वं विद्यते न
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________________ जाइ 1440- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाइ वा? नो चेन्निःस्वभावताप्रसंगः, स्वरूपस्यैवाऽभावात् / अस्ति चेत्तर्हि तदेव सामान्यम् / यतः समानानां भावः सामान्यम् / विशेषरूपतया च सर्वेषां तेषामविशेषेण प्रतीतिः सिद्धैव / अपि च-विशेषाणां व्यावृत्तिप्रत्ययहेतुत्वं लक्षणम् / व्यावृत्तिप्रत्यय एव च विचार्यमाणो न घटते। व्यावृत्तिर्हि विवक्षितपदार्थे इतरपदार्थप्रतिषेधः / विवक्षितपदार्थश्च स्वस्वरूपव्यवस्थापनमात्रपर्यवसायी कथं पदार्थान्तरप्रतिषेधे प्रगल्भते? न च स्वरूपसत्वादन्यत्तत्र किमपि, येन तन्निषेधः प्रवर्तते। तत्र च व्यावृत्तौ क्रियमाणायां स्वात्मव्यतिरिक्ता विश्वप्रयवर्तिनोऽतीतवर्तमानाऽनागताः पदार्थाः, तस्माद् व्यावर्तनीयाः / ते च नाज्ञातस्वरूपाव्यावर्तयितुं शक्याः। ततश्चैकस्यापि विशेषस्य परिज्ञाने प्रमातुः सर्वज्ञत्वं स्यात्। न चैतत्प्रातीतिकं, यौक्तिकं वा / ध्यावृत्तिस्तु निषेधः / स चाभावारूपत्वात्तुच्छः कथं प्रतीतिगोचरमञ्चति खपुष्पवत्। तथा येभ्यो व्यावृत्तिस्ते सद्रूपा असदूपा वा? असदूपाश्चेत्तर्हि खरविषाणात् किं न व्यावृत्तिः? सद्रूपाश्चेत्सामान्यमेव / या चेयं व्यावृत्तिर्विशेषः क्रियते सा सर्वासु विशेषव्यक्तिष्येकाऽनेका वा ? अनेका चेत्तस्या अपि विशेषत्वापत्तिरनेकरूपत्वैकजीवितत्वाद्विशेषाणाम्। ततश्च तस्या अपि विशेषत्वान्यथानुपपत्तेावृत्त्या भाव्यम् / व्यावृत्तेरपि च व्यावृत्तौ विशेषाणामभाव एव स्यात्, तत्स्वरूपभूताया व्यावृत्तेः प्रतिषिद्धत्वात्, अनवस्थापाताच / एका चेत्सामान्यमेव संज्ञान्तरेण प्रतिपन्न स्यादनुवृत्तिप्रत्ययलक्षणाऽव्यभिचारात्। किं घाऽमी विशेषाः / सामान्याद भिन्नाः अभिन्ना वा ? भिन्नाश्चेत् मण्डूकजटाभारानुकाराः / अभिन्नाश्चेत्तदेव तत्स्वरूपवत् / इति सामान्य कान्तवादः / पर्यायनयान्वयिनस्तुभाषन्तेविविक्ताः क्षणक्षयिणो विशेषा एव परमार्थः, ततो विष्वग्भूतस्य सामान्यस्याप्रतीयमानत्वात्। न हि गवादिव्यक्त्यनुभवकाले वर्णसंस्थानात्मक व्यक्तिरूपमपहायाऽन्यत किंचिदेकमन्यायि प्रत्यक्ष प्रतिभासते; तादृशस्यानुभवाभावात्। तथा च पठन्ति"एतासु पञ्चस्ववभासिनीषु, प्रत्यक्षबोधे स्फुटमङ्गुलीषु। साधारणं रूपमवेक्षते यः, शृङ्ग शिरस्यात्मन ईक्षते सः॥१॥" एकाकारपरामर्शप्रत्ययस्तु स्वहेतुदत्तशक्तिभ्यो व्यक्तिभ्य एवोत्पद्यते। इति न तेन सामान्यसाधनं न्याय्यम् / किं च यदिदं सामान्य परिकल्प्यते, तदेकमनेकं वा? एकमपि सर्वगतमसर्वगतं वा? सर्वगतं चेत किं न व्यक्तयन्तरालेषूपलभ्यते? सर्वगतैकत्वाभ्युपगमे चतस्य यथा गोत्वसामान्यं गोव्वतीः क्रोडीकरोति। एवं किं न घटपटादिव्यक्तीरपि; अविशेषात्? असर्वगतंचेत् विशेषरूपापत्तिरभ्युपगमबाधश्चा अथाऽनेकं गोत्वाश्वत्वघटत्वपटत्वादिभेदभिन्नत्वात्ते तर्हि विशेषा एव स्वीकृताः, अन्योऽन्यं व्यावृत्तिहेतुत्वात् / न हि यगोत्वं तदशवत्वात्मकमिति / अर्थक्रियाकारित्वं च वस्तुनो लक्षणम्। तच विशेषेष्वेव स्फुट प्रतीयते। न हि सामान्येन काचिदर्थक्रिया क्रियते, तस्य निष्क्रियत्वात्, वाहदोहादिकास्वर्थक्रियासु विशेषाणामेवोपयोगात् / तथेदं सामान्य विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा? भिन्नं चेदवस्तु, विशेषविश्लेषेणार्थक्रियाकारित्वाऽभावात् / अभिन्नं चेत् विशेषा एव तत् स्वरूपवत् / इति विशेषकान्तवादः / मैगमनयानुगामिनस्त्वाहुःस्वतन्त्रौ सामान्यवि-शेषौ, तथैव प्रमाणेन प्रतीतत्वात् / तथाहि-सामान्यविशेषावत्यन्तभिन्ना, विरुद्धधर्माध्यासितत्यात्।यावेवं तावेवं यथा पाथः पावको / तथा चैतौ।। तस्मात्तथा / सामान्यं हि गोत्वादिसर्वगतम्। तद्विपरिताश्च शबलशाबलेयादयो विशेषास्ततः कथमेषामैक्यं युक्तम् ? न सामान्यात् पृथक विशेषस्योपलम्भ इति चेत् कथं तर्हि तस्योपलम्भ इति वाच्यम् ? सामान्यव्याप्तस्येति चेत् न तर्हि स विशेषोपलम्भः, सामान्यस्यापि तेन ग्रहणात् / ततश्च तेन बोधेन विविक्तविशेषग्रहणाभावात् तद्विशेषवाचकध्वनि तत्साध्यं च व्यवहार न प्रवर्तयेत् प्रमाता / न चैतदस्ति. विशेषाभिधानव्यवहारयोः प्रवृत्तिदर्शनात् / तस्माद् विशेषमभिलषत तत्र च व्यवहारं प्रवर्तयता तद्ग्राहको बोधो विविक्तोऽभ्युपगन्तव्यः। एक सामान्यस्थाने विशेषशब्दं विशेषस्थाने च सामान्यशब्दं प्रयुञ्जानेन सामान्येऽपि तद्ग्राहको बोधो विविक्तोऽङ्गीकर्तव्यचः। तस्मात् स्वस्वग्राहिणि ज्ञाने पृथक् प्रतिभासमानत्वात् द्वावपीत तरविशकलितौ / ततो न सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते इति स्वतन्त्रसामान्य विशेषवादः / तदेतत्पक्षत्रयमपि न क्षमते क्षोद, प्रमाणबाधितत्वात् सामान्यविशेषोभयात्मक स्यै य च वस्तुनो निर्विगानमनुभूयमानत्वात् / वस्तुनो हि लक्षणमर्थक्रियाकारित्वम् : तच्चानेकान्तवादे एवाविकलं कलयन्ति परीक्षकाः / तथाहि-यथा गौरित्युक्तेखुर-ककुदसास्नालाइ गलविषाणाद्यवयवसंपन्नं वस्तु स्वरूप सर्वव्य-क्त्यनुयायि प्रतीयते तथा महिष्यादिव्यावृत्तिरपि प्रतीयते। यत्रापिच शबला गौरित्युच्यते तत्रापि यथा विशेषप्रतिभासस्तथा गोत्दप्रतिभासोऽपि स्फुट एव / शबलेति केवलविशेषणोचारणेऽपि अर्थात. प्रकरणात वा गोत्वमनुवर्तते / अपि च शबलत्वमपि नानारूपं, तथा दर्शनात् / ततो वक्ता शबलेत्युक्ते क्रोडीकृतसकलशबलसामान्य विवक्षितगोव्यक्तिगतमेव शबलत्वव्यवस्थाप्यते / तदेवमाबालगोपालं प्रतीतिसिद्धेऽपि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वे तदुभयकान्तवादः प्रलापमात्रम् / न हि क्वचित्कदाचित्केनचित्सामान्य विशेषं विना कृतमनुभूयते / विशेषा वा तद्विना कृताः। केवलं दुर्णयप्रभावितमतिव्यामोहवशादेकमपलप्यान्यतरव्यवस्थापयन्ति बालिशाः। सोऽयम्अन्धगजन्यायः। येऽपि च तदेकान्तपक्षोपनिपातिनः प्रागुक्ता दोषास्तेऽपि अनेकान्तवादप्रचण्डमुद्ररप्रहारजर्जरितत्वान्नोच्छ्रसितुमपि क्षमाः। स्वतन्त्रसामान्यविशेषवादिनस्त्वेवं प्रतिक्षेप्याः-सामान्य प्रतिव्यक्ति कथश्चिदभिन्नं, कथंचित्तदात्मकत्वाद्विसदृशपरिणामवत् / यथैव हि काचिद् व्यक्तिरुपलभ्यमाना व्यक्त्यन्तराद्विशिष्टा विशदृशपरिणामदर्शनादवतिष्ठते तथा सदृशपरिणामात्मकसामान्यदर्शनात् समानेति, तेन समानो गौरयं सोऽनेन समानः इति प्रतीतेः। न चास्य व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वात् सामान्यरूपताव्याघातः। यतो रूपादीनामपि व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वमस्ति, न च तेषां गुणरूपताव्याघातः / कथंचिद् व्यतिरेकस्तु रूपादीनामिव सदृशपरिणामस्याप्यस्त्येव / पृथक् व्यपदेशादिभाक्त्वात् / विशेषा अपि नैकान्तेन सामान्यात् पृथर भवितुमर्हन्ति / यतो यदि सामान्यं सर्वगतं सिद्धं भवेत्तदा तेषामसर्वगतत्वेन ततो विरुद्धधर्माध्यासः स्यात् / न च तस्य तत्सिद्धम् प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात्, सामान्यस्य विशेषाणां च कथंचिता. रस्पराव्यतिरेकेणकानेकरूपतया व्यवस्थितत्वात्। विशेषेभ्योऽव्यतिरिक्तत्वाद्वि सामान्यमप्यनेकमिष्यते / सामान्यात्तु विशेषाणाभव्यति. रेकेण तेषामप्येकरूपता इति / एकत्वं च सामान्यस्य संग्रहनयार्पणात सर्वत्र विज्ञेयम्, प्रमाणार्पणात्तस्य सदृशपरिणामरूपस्य विसदृशपरि..
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________________ जाइ 1441 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाइ णामवत्कथाञ्चित्प्रतिव्यक्ति भेदात्। एवं चासिरु सामान्यविशेषयोः सर्वथा विरुद्धधर्मासितत्वम्। कथञ्चिद्विरुद्धधर्माध्यासस्य कथञ्चिम्देदाविनाभूतत्वात्। पाथः पावकदृष्टान्तोऽपि साध्यसाधनविकलः, तयोरपि कथंचिदेव विरुद्धधर्माध्वासितत्वेन भिन्नन्वेन च स्वीकरणात्। पयस्त्वपावकत्वादिना हि तयोर्विरुद्धधर्माध्यासो भेदश्च, द्रव्यत्वादिना पुनस्तद्विपरीतमिति। तथा च-कथं न सामान्य विशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटत? इति। स्था०१४ श्लोका तथा सूत्रकृताङ्गवृत्तौ-सर्वमपि यदस्ति तत्सामान्यविशेषात्मकं नरसिंहाकारमुभयस्वभावमिति। तथा चोक्तम्"नान्वयः सह भेदत्वा-न्न भेदोऽन्वयवृत्तितः। मृद्धेदद्धयसंसर्ग-वृत्तिजात्यन्तरं घटः / / 1 / / " तथा"नरस्व सिंहरूपत्वा-न सिंहो नररुपतः। शब्दविज्ञानकार्याणा, भेदाजात्यन्तरं हि सः // 2 / / " इत्यादि। सूत्रा०१ श्रु०१२ अ० "व्यक्तेरभेदस्तुल्यत्वं, शङ्करोऽथानवस्थितिः। रुपहानिरसंबन्धो जातिबाधकसंग्रहः / / 1 / / " इति। अस्य व्याख्या-आकाशत्वं न जातिः। व्यक्त्यैक्यात्।। घटत्वकलशत्व न जाती। व्यक्तितुल्यत्वात् / / भूतत्वमूर्तत्वेन जाती। आकाशे भूतत्वस्यैव मनसि च मर्तत्वस्यैव सद्भावेऽपि पृथिव्यादिचतुष्टये उभयोः सद्भावात् सङ्करप्रसङ्गः।३। जातेरपिजात्यन्तराङ्गकारेऽनवस्थाप्रसङ्गः।४। अत्यन्तविशेषता न जातिः। तदङ्गीकारे तत्स्वरुपच्यावृत्ति हानिः स्यात्।। समवायता ने जातिः संबन्धाऽभावात् / 6 / इत्येत जातिबाधकाः। स्था० 8 श्लोका कर्मवशादसुमतां विचित्रा जातिगमनाजतेरशाश्वतत्वम्। अतोनजातिमडो विधेय इति। यदपि कैश्चिदुच्यते यथा ब्राह्मणा ब्रह्मणो मुखाद्विनिर्गताः बाहुडयांक्षत्रियाः, ऊरुभ्यां वैश्याः, पदभ्या शूद्राः इति। एतदप्यप्रमाणत्वादतिफल्गुप्रायं, तदभ्युपगमे न विशेषो वर्णाना स्यादेकस्मात् प्रसूतेर्बुन्धाशासाप्रतिशाखाग्रभूतपनसोदुम्बरा दिफलवब्रह्मणो वा मुखादेरवयवानां चातुर्वर्ण्यावाप्तिः स्यात्न चैतदिष्यते भवद्भिस्तथा यदि ब्राह्यणादीनां ब्रह्मणो मुखादेरुद्भवः। सांप्रत कि न जायते ? / अथ युगादावेतदित्येवं सति दृष्टहानिरदृष्टकल्पना स्यादिति। तथा यदि कैश्चिदभ्यधायि सर्वज्ञनिक्षेपावसरे तद्यथा सर्वज्ञरहितोऽतीतः कालः कालत्वाद्वर्त्तमानकालवदेवं च सत्वेतदपि शक्यते वक्तुं यथा नाऽतीतः कालो ब्रह्ममुखादिविनिर्गतचातुर्वर्ण्यसमन्वितः। कालत्वाद्वर्तमानकालवद्भवति च विशेषे पक्षीकृते सामान्यहेतु रित्यतः प्रतिज्ञार्थ कदेशासिद्धता ना शङ्कनीयते। जातेश्चानित्य त्वं युष्मत्सिद्धान्त एवाऽभिहितम्। तद्यथा-शृगलो वा एष जायते यः स पुरीषो दह्यत इत्यादिना। तथा-"सद्यः पतति मांसेन, लाक्षया लवणेन च। गहन शूद्रीभवति, ब्राह्मणः क्षीरविक्रयी // 1 // " इत्यादि लोके चावश्यं भावी जातिपातः। यत उक्तम्-"काविके कर्मणां दोषे-याति स्थावरता नरः। वाचिकैः पक्षिमृगता, मानसैरन्त्यजातिताम्॥१॥" इत्यादिगुणैरप्येवविधैर्न ब्राह्मणत्वं युज्यते। सूत्रा०२ श्रु०३ अ० ग्राह्यणत्वादिजातिश्च न कस्य चित् कारणम्। स्मृतावप्युक्तम् - "कैवर्ती गर्भसंभूतो, व्यासो नाम महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातः, तस्माज्जातिरकाणम् / / हरिणीगर्भसंभूतो, हैरण्योऽपि महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जतिरकारणम्।।" दर्श०२ तस्व। क्रियाकर्मविभागेन हि चातुर्वण्येव्यवस्था वत उक्तम् - "एकवर्णामिदं सर्वे ,पूर्वमासीद् युधिष्ठिर!। क्रियाकर्मविभागेन, चातुर्वर्ण्य व्यवस्थितम् / / 1 / / ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण, यथा शिल्पेन शिल्पकः। अन्यथा नाम मात्रां स्या-दिन्दूगोपककीटवत्।। उत्त०२६ अ०। (सप्तानां वर्णानां नवानां च वर्णान्तराणामुत्पत्तिः 'बंभ' शब्दे वक्ष्यते) व्याकरणोक्ते पौत्राद्यपत्यात्मके गोत्र, वेदशाखा भेदं च। न्यायोक्ते साधर्म्यवैधाभ्यां व्याप्तिनिरपेक्षाभ्या वादि वाक्येषु दूषणदानरूपे वाक्ये, वाचला तथा सम्यग्घेतो हेत्वा भासे वा वादिना प्रयुक्ते झटिति तद्दोषतत्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिविम्बन प्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जातिर्दूषणाभास इत्यर्थः। सा च चतुर्विशतिभेदा साधादिप्रत्यवस्थानभेदेन। यथा साधर्म्य वैधर्योत्कर्षापकर्षवाऽवाविकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्ति प्रसङ्ग प्रतिदृष्टान्तानुत्पत्ति संशयप्रकरणाऽहेत्वर्थापत्यविशेषोप पत्युपलब्धनुपब्धिनित्यानित्यकार्यसमाः। तत्र साधइँण प्रत्य वस्थानं साधर्म्यसमा जालिर्भवति। 'अनित्यः शब्दः कृत कत्वाद् घटवदिति प्रयोगे कृते साधर्म्यप्रयोगेणैव प्रत्यवस्थानम्। 'नित्यः शब्दो' निरवयवत्वात् आकाशवत्। न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधात् कृतकत्वात् अनित्यः शब्दो, न पुनराकाशसाधान्निरवयत्वात् नित्य इति। वैधhण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्यसमा जातिर्भवति। 'अनित्यः शब्दः कृत कत्वाद् घटवदिति। अौव प्रयोगे स एव प्रतिहेतुर्वैधर्येण प्रयुज्यते (घटस्थ हि निरवयवित्वं वैधयें स्वयं सावयवत्वाद्वै धर्म्यम्) नित्यः शब्दो निरवयवत्वात्। अनित्यं हि सावयवं दृष्टं घटादीति न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधात् कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुनस्तद्वैधात् निरवयवत्वान्नित्य इति। उत्कर्षापकर्षाभ्यां प्रत्यवस्थानमुत्कर्षापकर्षसमे जाती भवतः। तत्रैव प्रयोगे दृष्टान्तधर्मे कञ्चित्साध्यधर्मिण्यापादयत्रुत्कर्ष समां जातिं प्रयुडक्ते। यदि घटवत् कृतकत्वात् अनित्यः घटवदेव मूर्तो ऽपि भवतु। न चेन्मूर्तो घट वदनित्योऽपि मा भूदितिशब्दे धर्मान्तरोकर्षमापाडयति। अपकर्षस्तु घटः कृतकः सन् अश्रावणो दृष्टः। एवं शब्दोऽप्यस्तु। नो चेद् घटवदनित्योऽपि मा भूदिति। शब्दे श्रावणत्वधर्ममपकर्षतीति। इत्येताश्चतस्त्रो दिङ्मात्रदर्शनार्थ जातव वक्ताः। एवं शेषा अपि विंशतिरक्षपादशास्त्रादवसेयाः। स्या० 10 श्लोक दूषणाभासास्तुजातयस्तता सम्यक् दूषणस्याऽपिनतत्वव्यवस्थितिरनियतत्वात्। अनियतत्वं च वदेवैकस्मिन् सम्यग् दूषणं तदेवान्यत्रा दुषणा भासं पुरुषशक्यपेक्षत्वाच दूषणाभासव्यस्थितेरनियतत्वमिति। कुतः पुनर्दुषणाभासरुपाणां जातीनामवास्तुवत्वात्तासामिति। सूत्रा०१श्रु० 12 अ०। षड्जातिषु, सप्तसु स्वरेषु, असङ्कारभेदे, चुल्लयाम्, आमलक्याम्. काम्पिल्पे, छन्दसि, जातिफले, मालत्याम, पुष्पप्रधाने वृक्षभेदे च। वाच०। रा०ा प्रज्ञा०। कल्पना आचा०। ज्ञा०। जातिकुसुमवणे , मद्यभेदे, ''मेहुं च मेरगं च जाई च'' जातिश्च जातिकुसुमवणे मद्यमेव। विपा० 1 श्रु०२ अ०। जातिनपुंसकगर्भजतिर्यगमनुष्यमध्ये सम्यक्तवं प्राप्यतेनवेति। प्रश्ने, उत्तरम् जातिनपुंसकमध्ये
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________________ जाई 1442 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाइणाम सम्यक्तवं देशविरतिश्च प्राप्यत इति आवश्यकादावस्तीति। 126 प्र०। सेन०२ उल्ला०) जाइअंतर न०(जात्यन्तर) नरसिंहत्वादिके विलक्षणजातो, "नरस्य सिंहरूपत्वा-अ सिंहो नररुपतः। शब्दविज्ञानकार्याणां, भेदाजात्यन्तरं हि सः॥१॥" सूत्रा०१श्रु 12 अ०॥ जाइअंधपुं० (जात्यन्ध ) जन्मकावादारभ्यान्धे, (विपा०) 'केइ पुरिसे जाइअंधे जाइअंधारुवे' जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः। विपा०१श्रु० 1 अ०॥ जाइआजीवणा स्त्री (जात्याजीवना) आजीवनाभेदे, पिं०। जाइआजीवय पुं० (जात्याजीवक) जातिब्रह्मणादिकामा जीवति उपजीवति तजातीयमात्मानं सूचादिनोपदर्य ततो भक्तादिकं गृहातीति जात्याजीवकः। आजीवकभेदे, स्था० 5 ग०१ ड०। यथा कञ्चन भिल्लमालादिजातीयमीश्वरं दृष्टवा ग्राहाऽहमपि भिल्लमालादिजातीयः स चैकजातिसंबन्धात् तस्य भिक्षादानादिकां प्रतिपत्ति करोति। इति जात्युपजीवी। प्रव०२ द्वार। जाइआरियपुं० (जात्यार्य ) जातितिकः पक्षः तया आर्या अपापा निर्दोषा जात्यार्या। विगुरुमातृके, (स्था०) छव्विहा जाइआरिया मणस्सा पन्नत्ता। तं जहा"अंवट्ठा य कलंदा य, विदेहा वेदिगाइया / हरिया चुंचुणा चेव, ठप्पया इन्भजाइओ" ||1|| अम्बष्ठेत्यादि अनुष्टुपप्रतिकृतिः षडप्येता इभ्यजातय इति / इभमर्हन्तीति इभ्याः यद् "द्रव्यस्तूपान्तरित उच्छ्रितकदलिकीदण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्याः इति श्रुतिः। तेषां जातव इभ्यजातयस्ता एता इति। स्था०६ ठा। जाइआसीविस पुं० (जात्याशीविष) आइयो दंष्ट्राः तासु विषं येषां ते आशीविषाः / जातित आशीविषा जात्याशीविषाः / वृश्चिकादिके, स्था० 4 ठा० 4 उ०। ('आसीविस' शब्दे द्वितीयभागे 486 पृष्ठे विशेषवक्तव्यता। जाइकहा स्त्री० (जातिकथा) विकथाभेदे, नि० चू० 1 उ०। जाइकुलन०(जातिकुल)जातिसंबन्धिनि कुले, "तेसिण भंते! जीवाणं | कइ जाइकुलकोडीजोणिप्पमुहसयसहस्सा पण्णत्ता' / जातिरिति किल तिर्यग् जातिस्तस्याः कुलानि कृमिकीटवृश्चिकादीनि / जी०३ प्रति०) जाइचउक्क न० (जातिचतुष्क) एके न्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिस्वरूपे, कर्म०२ कर्म०। जाइच्छ त्रि० (यादृक्) यस्येव दर्शनमस्य यद्-दृश-क्त-क्किप वा। यत्सदृशे, यथाविधे, टान्तात्तु स्त्रियां डीप् / वाच०। *जातेच्छ त्रि०लब्धचिकीर्षापरिणामे, ध०१ अधिक। जाइच्छिय त्रि० (यादृच्छिक) यदृच्छयचा आगतः ठक् / यथेच्छया प्राप्ते, वाच० / अतर्कितोपस्थिते काकतालीयादिकल्पे वस्तुनि, तथा च यदृच्छावादिनः। आचा०१ श्रु०१अ०१०। अनर्थक डित्थादिनाम्नि, न०। स्था०२ ठा०४ उ०। तल्लक्षणं चेदम्"यद्वस्तुनोऽभिधानं, स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम्। पर्यायानभिधेयं, च नाम यादृच्छिकं च तथा॥१॥" विनेयाऽनुग्रहार्थमेतद्व्याख्या यवस्तुन इन्द्रादिरभिधानमिन्दू इत्यादि वर्णावलीमात्रमिदमेव आवश्यकलक्षणवर्णचतुष्टयावली मात्रां यत्तदो नित्याभिसंबन्धात् तन्नामेति संटङ्कः। अथ प्रकारान्तरेण नाम्रो लक्षणमाड-(स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षं पर्यायानभिधेवं चेति) तदपि नाम यत्कथंभूतामित्याह-अन्यश्चासावर्थश्चान्यार्थो गोपालदारकादिलक्षणः। तत्र स्थितम् अन्योन्द्रादावर्थे यथार्थत्वेन प्रसिद्ध तदन्यत्र गोपाल दारकादौ पदारोपितमित्यर्थः। अत एवाङ-(तदर्थनिरपेक्षम् इति) तस्येन्द्रादिनाम्रोऽर्थः परमैश्वर्यादिरुपस्तदर्थः स चासावर्थश्चेति वा तदर्थस्तस्य निरपेक्ष गोपालदारकादौ तथा तदर्थस्याभावात्। पुनः किंभूतं तत् ? इत्याह - पर्यायानिभधेय मिति। पर्यायाणां शक्रपुरन्दरादीनामनभिधेयमवाच्यं गोपालदार कादयो हीन्द्धादिशब्दैरुच्यमाना अपि शचीपत्यादिरिच शक्रपुरन्दरादिशब्दै भिधीयन्ते अतस्तन्नामाऽपि, नामतद्वतोरभेदोपचारात् पर्यायानभिधेर्या मत्युच्यते। चशब्दान्नाम्न एवलक्षणान्तरसूचक शचीपत्याडौ प्रसिद्धंतन्नामवाच्यार्थशून्ये अन्यत्र गोपालदारकादौ यदारोपितं तदपि नामेति तात्पर्यम्। तृतीयप्रकारेणापि लक्षणमाह- (यादृच्छिकं च तथेति) तथाविधव्युत्पत्तिशून्य मित्थकपित्थादिरुपयादृच्छिक स्वेच्छया नाम क्रियते तदपि नामेत्यार्यार्थः / / 1 / / अनु०॥ जाइजरामरणसोगप्पणासन त्रि० (जातिजरामरणशोक-प्रणाशन जातिर्जन्म, जरा बिस्वसा, मरणं प्राणनाशः, शोको मानसो दुःखविशेषः, तान् प्रणाशयत्यपनयति इति जरामरण शोकप्रणाशनः। जातिजरामरणापनयनसमर्थे ,ध०२ अधि० स०। जाइजुत्त त्रि० (जातियुक्त) मातृपक्षयुते, जातिर्मातुकी तथा युक्त विनयादिगुणवान् भवतीति। प्रव०६४ द्वार। जाइजंत त्रि०(यात्यमान) यज-क्तिन् जातस्य संस्कारार्थे कर्तव्या दृष्टिः। भागभेदः। जातकर्माख्ये संस्कारभेदे, वाचा सण जाइट्ठिअत्रि (यद्यदृष्ट)यद्यदृष्ट तत्तदित्यस्मिन्नथें, यद्यदृष्ट तत्तदित्यस्य जाइठि / जइ रचसि, जाइडिअ / जइ रचसि, जाइट्ठिअएहिअकासुद्धसहावा लौह फुट्टणएण जिम्बघणासहेसइ ताव''। प्रा०४ पाइ। जाइणाम न०(जातिनामन्) नामकर्मभेदे, (कर्म) एकेन्द्रियाद्दीनामकेन्द्रियत्वादिरुपसमानपरिणतिलक्षणम् एकेन्द्रियवादिशब्दव्यपदेशभाक यत्सामान्य सा जातिः, तद्विपाकवेद्या कर्म प्रकृतिरपि जातिः। इदमत्र तात्पर्यम्-द्रव्यरुपमिन्द्रियमङ्गोपाङ्गन्द्रियपर्याप्तिनामकर्मसाभार सिद्धं, भावरूपं तु स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमसामथ्र्यात "ज्ञायोपशमिकानि इन्द्रियाणि'' इति वचनात्। यत्पुनरेकेन्द्रियादिशब्दप्रवृत्तिनिबन्धन तथा रुपसमानपरिणति लक्षणं सामान्य तदव्यभिचारासाध्यत्वाजतिनामसाध्यम्। उक्तं च-अव्यभिचारिणः सादृश्येन एकीकृतोऽर्थात्मा। उक्तं च-अव्यभिचारिणा सादृश्येन एकीकृतोऽर्थात्मा जातिः तन्निमित्तं जातिनाम। कर्म०६ कर्म० प्रज्ञा पं० सं० तच पञ्चधा-- जातिनामेणं भंते ! कम्मे पुच्छा? गोयमा! पंचविहे पणत्ते / तं जहा-एगिदियजातिनामे वेइंदियजातिनामे तेइंदिय जातिनामे चउरिदियजातिनामे पंचिंदियजातिनामे।
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________________ जाइणाम जाइमय 1443 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 प्रज्ञा० 23 पद। एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातीनाम्, त्रीन्द्रियजाति- शब्देन एकादश प्रकृतयो गृह्यन्ते। कर्म०५ कर्म०। नाम, चतुरिन्द्रियजातिनाम, पञ्चेन्द्रियजातिनाम। कर्म०६ कर्म०। आol - जाइथेर पुं०(जातिस्थविर) जातिर्जन्म तथा स्थविरः जाति स्थविरः। स्थविरभेदे, ''सद्धिवासजाए समणे णिग्गथे जाइथेरे" स्था० 3 ठा० जाइणामगोयनिउत्त त्रि०(जातिनामगोत्रनियुक्त) जातिनाम गोत्र च 3 उ०। नियुकं यैस्ते तथा। नियुक्तजातिनामगोत्र नारकादौ, म०६श० 8 उ०। जाइदोस पुं० (जातिदोष) जातिनिष्ठे दोषे, "स्त्रीजाती दाम्भिकता, जाइणामगोयनिउत्ताउय त्रि०(जातिनामगोठानियुक्तायुष) जातिनाम्ना भीलुकता भूयसी वणिसजातौ! रोषः क्षत्रियजातौ, द्विजातिजाती गोत्रोण च सह नियुक्तमायुर्यैस्ते तथा। जातिनाम्ना गोत्रोण च सह पुनर्लोभः ।।१॥"ता नियुक्तायुषि, भ० 6 श० 8 उ० जाइधम्मय त्रि० (जातिधर्मक) उत्पत्तिधर्मके, "इमं पि जाइधम्म' जाइणामगोयनिहत्त त्रि०(जातिनामगोत्रानिधत्त) जातिनाम गोत्रां च ___ जननं जातिरुपत्तिस्तकर्मकम्। आचा०१ श्रु०१ अ० 5 उ०। निधत्तं यस्ने तथा निधत्तजातिनामगोत्रो, भ०६ श०८ उ०। जाइपह पुं० (जातिपथ) जातीनामेकेन्द्रियादीनां पन्थाः जातिपथः। जाइणामगोयनिहत्ताउय त्रि० (जातिनामगोत्रनिधत्तायुष ) जातिनाम्नो जातिमार्गे , ''जाईपइं अणुपरिवट्टमाणे सूत्रा० 1 श्रु०६ अ० गोत्रोण च सह निधत्तमायुर्यैस्ते तथा। जातिनाम्रा गोत्रोण च सह 'पासजाइपहे वहू'। पाशा अत्यन्तपारवइयहेतवः। कलत्रादिनिधत्तायुषि, म० 6 श०७ उम संबन्धास्त एव तीव्रहोदयादिहेतुतवा जातीणां पन्थानस्तत्प्रापकत्वाजाइणामनिउत्त त्रि० (जातिनामनियुक्त) जातिनाम नियुक्तं नितरां युक्तं न्मार्गाः। उत्त०६अ। संसारे, "अरक्खिओ जाइपई उवेइ" संबद्धं निकाचितं बेदने वा नियुक्तं यैस्ते तथा। नियुक्तजातिनाकर्मणि जातिपन्थानं जन्ममार्गे संसारमुपैति। दश०२ चू०। प्रौवे, भ०६ श०५ उ०। जाइपुम न०(जातिपुट) जातिः पुष्पजातिविशेषः पुटं पत्रादि मयं तद्भाजन जाइणामिनिउत्ताउय त्रि० (जातिनावनियुक्तयुष्) जातिनाम्ना सह नियुक्त ___ जातिपुटम्। जातिपुष्पस्व पत्रादिमये भाजने, ज्ञा०१ श्रु० 16 अ०। निकाचितं वेदयितुमारब्धं वाऽऽयुयैस्ते तथा। जाति नाम्ना सह 'जाइपुकाण वारा नियुक्तायुषि, भ० 6 श० 8 उ01 जाइप्पसण्णा स्त्री० (जातिप्रसन्ना) जातिपुष्पवासिता प्रसन्ना जाइणामनिइत्ताउय न० (जातिनामनिधत्तायुष) जातिरे के न्द्रिय जातिप्रसन्ना। सुराभेदे, "जाइप्पसन्नाइ वा जी० 3 प्रति०। जात्यादि : पञ्चधा सैव नाम इति नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जाइप्पायपुं० (जातिप्राय) दूषणाभासकरपे, "जातिप्रावश्च बाध्योऽयं, जीवपरिणामो वा तेन सह निधत्तं निषिक्तं यदायुस्तजाति- प्रकृतान्यविकल्पनात्'। जातिप्रायश्च दूषणाभास कल्पश्च बाध्यः नामनिधत्तायुः। जातिनाम्ना निधत्ते आयुषि, भ०६ श० 8 उ०। प्रतीतिकल्पाभ्यामयं कुतर्क इति। द्वा० 23 द्वा०। जातिनाम्ना सह निधतमायुर्यैस्ते तथा। जातिनाम्ना सह निधत्तायुषि जाइबंझा स्त्री० (जातिबन्ध्या) जातेर्जन्मत, आरभ्य बन्ध्या निवर्वीजा जीवे, भ०६ श०८ उ०। स्थान जातिबन्ध्या। जन्मत आरम्य निर्वीजायाम्, स्था० 5 ग०२ उ०। जाइणिवद्धन० (जातिनिबद्ध) भावसूठास्य श्रुतस्य भेदे, (सूत्रा०) जाइभेय -पुं० (जातिभेद) सामान्यलक्षणायां घटत्वादिजाती, जातिनिबद्धं तु चतुर्की / तद्यथा तस्मात् यतो यतोऽर्याना, व्यावृत्तिस्तन्निबन्धनाः। कथनीयं कथ्यम् उत्तराध्ययनज्ञाताधर्मकथादि। पूर्व पिंचरितकथा जातिभेदाः प्रकल्पयन्ते, तद्विशेषावगाहिनः।। नकप्रायत्वात्तस्य। तथा गद्यम्-ब्रह्मचर्याध्ययनादि। तथा पद्यम् तस्मात् स्वपरव्यावृत्तिरुपात् हेतोः यतः यतः सजातीयात् विजातीयाच छन्दोनिदरुम्। तथा गेयम् -- यत् स्वरसंचारेण गीतिप्राय निवद्धम्। अर्थात् घटादीनां व्यावृत्तिर्भिन्नरुपता तन्निबन्धना व्यावृत्तिहेतुका तद्यथा-कापिलीयमध्य यनम्-" अधुवे असासयम्मि संसारम्मि जातिभेदाः परपरिकल्पितसामान्य लक्षणाः प्रकल्पयन्ते / कीदृशाः? दुक्खपउराए' इत्यादि। सूत्र०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। जाइ(य) णिहुया- इत्याह - (तद्विशेषावगाहिन इति) तस्य स्वपरच्यावृत्तिभाजः जातिनिर्ह (ई)ता-स्त्रीला जातान्यपत्यानि निर्हतानि निर्यातानीत्यर्थो स्वलक्षणस्य विशेषामार्तत्वा पाटलीपुत्रकत्ववासन्तकत्वरक्तत्वादियस्याः सा। जातनिहता ना। विहतापत्यायाम्, "विजयमित्तस्स लक्षणास्तान् विकल्प वलायातानवगाहन्ते अवलम्बन्ते इत्येवं शीला ये सत्थवाहस्स सुभद्दा भारिया जाइ (व) णिया वि होत्था''। विपा०१ ते तथा। अने०१ अधि। श्रु०२ अग जाइमण्वग पुं० (जातिमण्डपक) जातिर्मालती तन्मयो मण्डपको जाइतिगन० (जातित्रिक) जातिशब्देनोपलक्षितं त्रिकम्। 'जाइसगइ'' जातीमण्डकपकः। जातीमये मण्डपके जं०१ वक्ष०ा जी०। ति गाथावयदोक्त जातित्रये, तत्र जातयः एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय जाइमंत त्रि० (जातिमत्) सुजातो, "जाइमंता तिवा' आचा०२ श्रु०४ चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाख्याः पञ्च / गतयः सुरनरतिर्यग्नरकरुपाः। चतरत्रः अ०२ उ०। खगतिः प्रशस्ताऽप्रशस्त विहायागतिभेदेन द्विधा। इत्येवं जातित्रिक- | जाइमय पु० (जातिमद) जात्या मदो जातिमदः। मदस्यानभेदे,
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________________ जाइमय 1444 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाइसरण स०७ सम०। "जाइमएण वा'स्था० 1 ठा०। प्रश्न०। जात्या जाइसरण न० (जातिस्मरण) आभिजिवोधिकज्ञानविशेषे, आचा०१ ब्राह्मणब्राह्मण्युद्भवत्वेन मदोऽहंकारो जातिमदः। जात्यहंकारे, उत्त०३ श्रु०१ अ० 1 उ०। प्राग्भवे ज्ञानमति, "जाईसरणं समुप्पएणं" अ०। जातिमदं विदधातो जन्तुरन्यजन्मनि तामेव जातिहीलनां सभते जातिस्मरणम्। उत्त० अ० दशला तं० जातिस्मरणं द्विविधम्विकटां च भवाटवीं पर्यटतीति। प्रव० 166 द्वार। सनिमित्तकम् अनिमित्तकं च। तत्रा यद्वाह्यं निमित्तमुद्छिश्य सर्वेषां मदस्थानानमुत्पत्तेरारभ्य जातिमदो बाह्यनिमित्त निरपेक्षो यतो जातिस्मरणमुपजायते तस्सनिमित्तकम्। यथा वस्कल-चीरप्रभृतीनाम्। भवत्यतस्तमधिकृत्याह वत्पुनरेव तदावारककर्मणां क्षयोपशमेनोत्पद्यते तदनिमित्तकं तथा स्वयं जे माहणो खत्तियजायए वा, तहुग्गपत्ते तह लेच्छई वा। वुद्धकपिलादीनाम्। वृ०१ उ०। जातिस्मरणं च संज्ञिजातिविषय कमेव जे पव्वईए परदत्तभोई, गोत्तेण जे थब्मति माणवद्धे / / 10 / / "सन्निपुव्वेजाइसरणे यत्स्मरणं तत्संझिपूर्वजातिस्मरणम्। व्यस्तनिर्देश यो हि जात्या ब्राह्मणो भवति, क्षत्रियो वा इक्ष्वाकुवंश्यादिकः। तद्भेदमेव तुसंज्ञी पूर्वो भवो यत्रा तत्संज्ञिपूर्वी संज्ञीतिच विशेषणं स्वरुपज्ञापनार्थन दर्शयति-उग्रपुत्राः क्षत्रियविशेष जातीयः। तथा (लेच्छई त्ति) ह्यसंज्ञिजाति विषयं स्मरणमुत्पद्यत इति। ज्ञा०१ श्रु०१अ॥ क्षत्रियविशेष एव तदेवमादिविशि ष्टकुलोद्भूतो यथावस्थितसंसार तथा चोत्तराध्यवनेस्वभाववेदितया वः प्रव्रजितः त्वक्तराज्यादि गृहपाशबन्धनः परैर्दत्त भोक्तु देवलोगधुओ संतो, माणसं भवमागओ। शीलमस्य परदत्तभोजी सम्यक् संयमानुष्ठायी गोत्रे उचैर्गोत्र हरिवंश सन्निनाणसमुप्पन्ने, जाइसरणं पुराणयं / / 6 / / स्थानीये समुत्पन्नोऽपि नैव स्तम्भं गर्वमुपयायादिति / किंभूते गोत्रो? देवलोकात् च्युतः सन्मानुष्यं भवमागतः इति संज्ञिज्ञाने समुत्पन्ने सति अभिमानव अभिमानास्पदे इति। एतदुक्तं भवति-विशिष्टजातीवतवा पुराणकं प्रचीनं जातिस्मरणमभूदिति शेषः। संज्ञिनो गर्भजपञ्चेन्द्रियस्य सर्वलोकाऽभिमान्योऽपि प्रव्रजितः सन् कृत शिरस्तुण्कमुणडनो भिक्षार्थं ज्ञानं संज्ञिज्ञानं तस्मिन् संज्ञिज्ञाने। उत्त० 16 अ०। परगृहाण्यटन कथं हास्यास्पदं गर्वं कुर्यात् नैवासौ मानं कुर्यादिति जातिस्मरणं कस्मात्तदाह - तात्पर्यार्थः // 10 // सूत्रा०१श्रु०१३ अ० संस्कारे पूर्वजातीनाम्,............... (6) जाइमयपडि बद्धा पुं० (जातिमदप्रतिबद्ध) जात्यहंकारेणानने , संस्कारे स्मृतिमात्राफले जात्यायु गलक्षणे च ''एवं मया 'जाइमयपडिबद्धा हिंसगा अजिइंदिया'' जात्या ब्राह्मण - सोऽर्थोऽनुभूतः, एवं मया सा क्रिया कृता" इति भावनया संयमात ब्राह्मण्युद्धवत्वेन यो मदोऽहं कारस्तेन प्रतिस्तब्धाः अननाः जाति पूर्वजातीनां प्रागनुभूतजातीनां धीरनुस्मृतिवबोधकमन्तरेणैव भवति। मदप्रतिस्तब्धाः। उत्त०१२ अ० तदुक्तम् - "संस्कारस्य साक्षातकरणात् पूर्वजातिज्ञानम्" (6) द्वार जाइय न०(जाचिन) वाच भावेक्ता वाचनवृत्तौ, वाञ्चावां चा कर्मणि क्त। २६द्वारा प्रार्थिते, त्रि०। वाच०। उत्त०। “सव्वं से जाइयं होइ, नत्थि किं वि जातिस्मरणकारणानि योगविन्दौ यआअजाइयं" आ० म०द्धि ब्रह्मचर्येण तपसा, सद्धेदाध्ययनेन च। जाइयगमएण न० (याचितकमण्डन) मागिताभरणे, पूर्णतायाम, परोपाधेः विद्यामन्त्राविशेषेण, सत्तीसेवनेन च // 57|| सावाचितकमण्डनम्। अष्ट०१अष्ट। ब्रह्मचर्येण भावतो वस्तिनिरोधरुपेण, तपसा उपवासादिना, जाइलिंग न० (जातिलिङ्ग) शिरः पाण्यादिके प्राण्यवयवे, जातिनि- सद्वेदाध्ययनेन च सता सुन्दरेणात्मानुग्रहादि परिणामयुक्ततवा वेदस्य लिङ्गानि प्राण्यवयवाः शिरःपाण्यादयस्तैर्हि गोत्वादिलक्षणा सदभूतार्थागमस्याध्ययनेन वाचनापृच्छनादिस्वभावेन। चः समुचयः। जातिलिंङ्गयते इति। सम्म०३ काण्ड विद्यामन्त्राविशेषेण संसाधना स्त्रीस्वामिका वा विद्या, मन्त्राद जाइवर पुं० (जातिवर) जात्युत्तमे, "जाइवरसाररक्खियं" प्रश्न० 4 तदितररुपः। ततो मन्त्रव्याकरण प्रसिद्धयोर्विद्यामन्त्रयोर्विशेषेण भेदेन सम्ब०द्वारा सत्तीर्था सेवनेन च सतः सातिशयस्य व्यसनसलिलनिधिनिस्तारणो जाइसंपण्ण पुं० (जातिसंपन्न) उत्तममातृकपक्षयुते, औ०। स्था०। रा०| पायस्य स्थावरजङ्ग-भेदभिन्नस्य तीर्थस्य आसेवनेन पर्युपासनेन। थः नि०। ज्ञा०। यदाह - "जाइकुलसंपन्नो पावमकिञ्च ने सेवइ किंचि प्राग्वत्।।५७ तथाआसेविउंच पच्छा तग्गुणओ सम्ममालोए"त्ति। गुणयन्मातृत्वे, स्था०६ पित्रोः सम्यगुपस्थानात्, ग्लानभैषज्यदानतः। देवादिशोधनाचैव, भवेज्जातिस्मरः पुमान्॥५८|| जाइसर त्रि०(जातिस्मर) जातिं पूर्वजन्म स्मरति। स्मृ-अच् / पित्रोः जननीजनकयोः सम्यक्यथावत्तपस्थांना त्रिसंध्यप्रणामादिअतीतजन्मवृत्तान्तस्मृतियुक्ते, वाच० "जाईसरो च भयवं'' जाति विनयरुपात्, "पूजनंचास्य विज्ञेयं, त्रिसंध्यं नमनक्रिया' इत्यादि वक्ष्यस्मरतीति जातिस्मरो भगवान्। "लिहादिभ्यः" / 5 / 1150 / माणत्। ग्लानभैषज्यादानतं, ग्लानानां ज्वरादिरोगोपहतशरीरशक्तीना इत्यणपवादोऽन् / आ० म० प्र०) "भवे जातिस्मरः पुमान् / भैषज्यस्यौषधस्यदानतो वितरणात्, "देवादिशोधनाचैव' देवदेवस्थाजातिस्मरोऽनुभूतभवस्मर्ता। वो० वि०। | पुस्तकैसा धूपाश्रयादेर्धर्मकार्यो पयोगिनः। 'शोधनात्" तथाविधाला ठा।
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________________ जाइसरण 1445 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाइसरण पनयनेन निर्मलीकरणाद्भवेज्जायते जातिस्मरोऽनुभूतभवस्मर्ता पुमान् प्राणी ब्रह्मचर्यादीनां योगविशेषाणां ज्ञानावरणहासान्त रङ्गकरणत्वात्। अत्रैव प्रसङ्गसिद्धिमाहअत एव नं सर्वेषामेतदागमनेऽपि हि। परलोकात् यथैकस्मात्, स्थानात् तनुभृतामिति / / 56|| "अत एव'' इत्यादि। अत एव ब्रह्मचर्यादार्तिस्मरण हेतुत्वादेव (न) नैव सर्वेषां देहिनाम्। एतत् जातिस्मरणम्, आगमनेऽपि ह्यप्यागतोवपि किं पुनर्लोकायतमतेन तद्भाव इत्यपिहिशब्दार्थः। परलोकात् परभवात्। "यथा'' इतिदृष्टान्तार्थ एकस्मात् स्थानात् पाटलिपुत्राकादेरागमनेऽपि तनुभृताम् तत्रानुभूतार्थस्मरणम्। 'इतिः' वाक्यपरिसमाप्तौ। इदमुक्त भवति - यथैकस्मात् पाटलिपुत्राकादेः स्थानादागता नामपि सुबहूनां पथिकाना क्वचिद्विवक्षिते स्थाने च सर्वेषां प्रागनुभूतार्थस्मृतिरुपजायते, किं तु केषांचिदेव, एवं भवान्त रस्मृतावपि योजना स्यादिति न चाल्पवबहूत्वेन स्मर्तृणां दृष्टान्तदान्तिकयोर्वेषम्यमुद्भावनीयं, स्मर्तृसंभवमात्रस्य प्रतिपादयितु मिष्टत्वात् दृष्टान्तदार्शन्तिकयोः सर्वदा, साधा भावाच // 56 // एतदेव भावयन्नाहन चैतेषामपि ह्येतदुन्मादग्रहयोगतः। सर्वेषामनुभूतार्थ-स्मरणं स्याद्विशेषतः // 60il (न च) नैव। एतेषामप्येकस्थानादागतानां किं पुनर्भवान्तरा दागतानामपि इत्यपिशब्दार्थः। हिः यस्मात् एतदिदम्। उन्माद ग्रहयोगतः उन्मादो मोहावेशों ग्रहश्च भूतावशस्तत उन्मादग्रह योर्योगः संबन्धस्तस्मात्। सर्वेषां समस्तानाम्। किमित्याह-अनुभूतार्थस्मरण (स्याद्) भवेद् विशेषतः सर्वान् विशेषान प्रतीत्य किं तु सामान्येनैव // 60 // अथ दान्तिके सर्वेषां सामान्येन स्मृतिर्यथा स्यात्तयाहसामान्येन तु सर्वेषां, स्तनवृत्यादिचिहितम्। अभ्यासातिशयात् स्वप्न-वृत्तितुल्यं व्यवस्थितम्॥६१।। सामान्येन साधारणतया। तुः विशेषणार्थः। सर्वेषां समस्तानां प्राणिनाम। स्तनवृत्यादिचिन्हित स्तनवृत्तिस्तदहर्जा तानां स्तनपानरुपा। आदिशब्दात् रमणीयरुपकन्दुकाद्यवलोकनकुतूहलादिका विविधा चेष्टा गृह्यते। तथा चिन्हित व्यक्तिभावमानीतम् 'जातिस्मरणम्' इति गम्यते। कीदृशमित्याह.- (अभ्यासातिशयात्) पुनः पुनरासेवनमभ्यास स्तस्यातिशय उत्कर्षस्तस्मात्। (स्वप्नवृत्तितुल्यम्)। स्वप्नकालोपलभ्यमानदिवसानुभूतवनदेवकुलादिविहारादि व्यवहारसमम्। (व्यवस्थितम्) प्रतिष्ठितम्। यथाभ्यासतिशयात् स्वप्ने दिनानभूतोऽर्थ उपलभ्यते, एवं स्तनवृत्यादिको व्यवहारः प्राग्भवानुभूतो भवान्तर इति // 61 // ननु स्वप्नवृत्तिः पश्चादपि स्मर्यते न त्वेवं स्तनादिवृत्तिर्भवान्तर संवन्धिना इह स्मयेत इति कथम् अनयो दृष्टान्तरदान्तिकभाव इत्याशङ्कयाह - स्वप्ने वृत्तिस्तथाभ्यासा-द्धिशिष्टस्मृतिवर्जिता।। जाग्रतोऽपि कृचित्सिद्धा, सृदमबुद्धया निरुप्यताम्॥६२।। स्वप्ने प्रवृत्तिरुक्तरुपां (तथाभ्यासात्) तत्प्रकारादभ्यासात्, मन्दाभ्यासादित्यर्थः। (विशिष्टस्मृति वर्जितां) स्फुटप्रतिभासरूपस्मरणरहिता। 'क्वचित् सिद्धा" इत्युत्तरेण योगः। तथा (जाग्रतोऽपि) क्षीणनिद्रस्य कस्यचित् कि पुनरन्यस्येति क्वचित् क्षेत्रो काले वा (सिद्धा) सर्वलोक संमत्या प्रतिष्ठिता वृत्तिर्गच्छत्ततृणस्पर्शादिका तथाऽभ्यासादेव स्मृतिवर्जिता। एतदर्थप्रतीतावुपदेशमाह - (सूक्ष्मवुद्धया) निपुणाभोगेन (निरूप्यताम्) परिभाव्यतामेदन्यथा उक्तस्या प्यर्थस्य सम्यगवगमाभावात् // 62 / / अथ प्रकारान्तरत एव जातिस्मरणादात्मसिद्धिम भिधित्सुराह - श्रूयन्ते च महात्मानः, एते दृश्यन्ते इत्यपि। क्वचित्संवादिनस्तस्मा-दात्मादेर्हन्त निश्चयः // 63|| (श्रूयन्ते) समाकर्ण्यन्ते कथानकेषु भरूकच्छाद शकूनिकाजीवराजपुत्रीसुदर्शनादयः। चकारी हेत्वन्तरसमुचये। (महात्मानः) प्रशस्तस्वभावाः। (एते) जातिस्मरकाः। (दृश्यन्ते इत्यपि) दृश्यन्ति साक्षादेव क्वचित् इदानीमप्युपलभ्यन्ते। कीदृशाः? इत्याह-(संवादिनः) विसवादविकलवचनाः। ततः किमित्याह - (तस्मात्) जाति स्मरकादिसेवादात् (आत्मादेः) जीवकर्मादेरतीन्द्रियस्यापि कथचिद्। "हंत'' इति कोमलामन्त्रण। निश्चयः संपद्यते इति॥६३।। अथ निगमयन्नाहएवं च तत्वसंसिद्धेोग एवं निबन्धनम् (64) (एवम्) चोक्तन्यायेनैव (तत्वसंसिद्धेः) आत्मादृष्टादिप्रतीतेः योग एव नापरं किञ्चित् (निबन्धन) हेतुर्वर्तते। (64) यो० वि०। ननु नवमासमत्रान्तरितमपि प्राक्तनं भवं सामान्यजीवः कथं स्मरतीत्याहजायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो। तेण दुक्खेण संमूढो, जाइं सरइन अप्पणो // 2 // जायमानस्य गर्भानिस्सरमाणस्य उत्पद्यमानस्य वा यत् दुःखं भवति (वा) अथवा पुनर्मियमाणस्य पञ्चत्वं कुर्वाणस्य च यत् दुःखं भवति। तेन दारुणदुःखेन समूह्ये महामोहभावं प्राप्तः जाति प्राक्तनभवमात्नीय स्वकीयं मूढात्मा प्राण। न स्मरति कोऽहं पूर्वभवे देवादिकोऽभवमिति न जानातीति ॥शता (न जानाति 'दिसा' शब्दे दृष्टान्तः।) जातिस्मरण संख्यातभवनि र्णायकं न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - जातिस्मरणमपि समतिक्रान्तं संख्यातभवावगमस्वरुपं मतिज्ञानभेद एवेति कर्मग्रन्थवृत्या चाराङ्गवृत्यनुसारेण संख्यातभवनिर्णायकं जाति स्मरण ज्ञायत इति। 130 प्र०। सेन०१ उल्ला०) कर्म ग्रन्थवृत्तौजाति स्मरणमपि अतीतसंख्यात-भवावग स्वरूपं मतिज्ञानमेवेत्युक्त मस्ति "पुज्वभवा सो पिच्छइ, इक्क दो तिन्नि जाव नवगं वा। उवरि तस्स अधिसओ, सहावओ जाइसरणस्स / / 1 / / " इतिगाथायां तु नवैव भवाः जातिस्मरणस्य विषयास्तत्कथमिति प्रश्नानत्तरम् - जातिस्मरणवान् आचाराङ्ग-वृत्याद्यभिप्रायेणा तीतानसंख्यात् भवान् पश्यतीति ज्ञायते कर्मग्रन्थवृत्तावपि स एवाभिप्रायोऽस्ति 'पुत्वभवा सोपिछइ' इयं गाथा तु बूढितपत्रास्था न तु तथाविधग्रन्थस्था तेन निर्णायिका न भवतीति / 341 प्र० सेन०३ उल्ला०। इदानीं भ
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________________ जाइसरण 1446- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जागर रते मनुजाना, तिरश्चां च जातिस्मरणमस्ति न वा? यदि नास्ति तदा कुतो व्यवच्छिन्नं तथाऽवधिज्ञानमपीदाभीमस्ति न वा? इत्यपि च प्रसाध्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्-वर्तमानकाले जाति स्मरणाद्यवधिज्ञानस्य व्यवच्छेदः शास्त्रे प्रतिपादितो नास्तीति। 198 प्र० सेन०३ उल्ला जाइसरणवरणिज्ज न०(जातिस्मरणावरणीय) मतिज्ञानावरणायकर्मभेदे, जातिस्मरणावरणीयानि च कर्माणि मतिज्ञानावरणभेदाः। क्षयोपशम् चदितानां क्षयोऽनुदितानां विष्कम्भितोदयत्वमिति। ज्ञा०१ श्रु०१ अग जातिसुमिण न०(जातिस्मरण) 'जाइसरण' शब्दार्थे , सेन० / 3 उल्ला जाईहिंगुलुयपुं० (जातिहिड्डलुक) रक्तवर्णे वर्णकद्रव्यभेदे, “जाइहिगुलुए वा जातिहिष मुकेन वर्णकद्रव्येण स कृत्रिमोऽपि भवतीति जात्याविशेषितः। ज्ञा० 1 श्रु० 1 / अ०। जात्यः प्रधानो हिङ्गुलुको जात्यहिडसुकः। प्रज्ञा०१ पद। जाई स्वी०(जाती) जन-क्तिच्-डीप् / मालत्याम्, तत्पुष्पे लताभेदे च। वाचा जं०। सुरायाम, दे० ना० 3 वर्ग। जाईफल न०(जातीफल) गन्धप्रधाने वस्तुनि, आचा० 1 श्रु० 1 अ०१ उ०। (जायफल) इतिख्याते फले चा वाच०। जाईमंडवग पुं०(जातीमण्डपक) 'जाइमंडवग' शब्दार्थे , जं० 1 वक्षन जाईय त्रि०(जातीय) जातौ भवः छः। समानजातियुक्ते सजातीये, वाचा आ० म०। "एकग्रहणे, तज्जातीयग्रहणम्" इति न्यायः। आ० म०) किचिच्छब्दात् जातीयप्रत्ययः। प्रकाराथें। "गुणालओ पंचजातीय" पञ्चप्रकारम्। विशे०। यथा ताकिंक जातीयः तार्किकप्रकारः। वाचा जाईसर त्रि०(जातिस्मर) 'जाइसर' शब्दाथ, आ० म०प्र०) जाईसरण - न० (जातिस्मरण) 'जाइसरण' शब्दार्थे , आचा० १श्रु०१ अ०१ उ01 आईसरणावरणिज्ज न०(जातिस्मरणावरणीय) 'जाईसरपवरणिज' शब्दार्थे, ज्ञा०१श्रु०१ अ० जाईहिंगुलुय पुं० (जातिहिङ्गलुक) 'जाइहिंगुसुय' शब्दार्थे, का०१ श्रु०१अ० जातं-त्रि० (यावत्) यत् परिमाणस्य मतुप! "यावत्तावतोर्वा ऽऽदेर्म डं महिं"७।४।४०६। यावत्तावदित्यनयोरन्यययोर्वका रादेवयवस्य 'मतं-महिं' इत्येते त्रय आदेशाः भवन्ति। प्रा० 4 पादा यत्परिमाणे, साकल्ये, अवधौ, व्याप्तौ, माने, अवधारणे चा वाच०। जाउया स्त्री० (यात) या--तृच। देवरपल्यास, यातरौ तृत। गन्तरि, त्रिका यातारौ। वाच० "जाउयामो जाणिस्संति'।"जाउयाओ त्ति' देवराणां जायाः। ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० "जाउग त्ति यातरो ज्येष्ठदेवरजायाः। 0900 जाउल पुं० (जातुल्ल) गुच्छात्मके वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। जाऊकएणं पुं० (जातृकर्ण) मुनिभेदे, वाच०। गोत्रभेदे, न० ज० 7 वक्षा जाऊकण्णीय न०(जातृकर्णीय) गोत्रभेदे, स०प्र०१० पाहु०। चं० प्र० जाऊरो (देशी) कपित्थे, देठना०३ वर्ग जाओगण पुं०( यादोगण) जलजन्तुगणे, वाचला "सारक्ख माणे से चिट्ठति। नानाविधाँस्तु यादसां गणान् संरक्षद् सह या यादोगणैरात्मानमारक्षन्। आचा० 1 श्रु०५ अ५ उ०। जांववई स्त्री० (जाम्बवती) जाम्बवतोऽपत्यं स्त्री०। कृष्णावासु देवस्य स्वनामख्यातायां पल्याम्, कल्प०६ क्षणा नागदमन्वां चा वाच०। जांवूणय न०(जाम्यूनद) जम्बूनदे भवस्-अणा स्वर्णे, तीरमृत तदूसंप्राप्य सुखवायुविशोषिता जाम्बूनदाख्यं भवति सुवर्णे सिद्धभूषणम् इत्युक्ते सुवर्णभेदे, तद्रसंजम्बूरसम्। धुस्तूरे च। वाचला जा जागपुं० (याग) यज-धजामन्त्रकरणके वायाधधिकरणे हविष्प्रक्षेपल्ये यज्ञे, वाचा यजनं यागः। पूजने, “अखिवगुणा धिकसद्योगसारसद्रह्ययागपरः'' यागो यजनं पूजनं तत्परः तत्प्रधानः। षो० 6 विव० आचा०। ज्ञा०। देवपूजायाम्, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। श्री सिद्धार्थनृपस्य यागकरणप्रौढिर्दशाहोत्सवे, सिद्धार्थराजव्यतिकरे यागशब्देन देवपूजा कृतेति समर्थितम्। प्रति०। देवतापूजावसरभाविनि ब्राह्मणप्रसिद्ध पूजाविशेषे, अनु०। ज्ञा०। अश्वमेधादिके च। पिं०। जागभागदायसहस्सपडिच्छय त्रि०( यागभागदायसह-सयतीच्छक) यागा पूजाविशेषाः भागा विंशतिभागादयो दायाः सामान्यदानान्येतेषा सहस्राणि प्रतीच्छतीति। तथाभृते औ०। जागर पुं० (जागर) जागृ–अप् / निद्राभावे, जागरणे, कवचे च ! वाच०। जागर्तीति जागरः। अपगतनिद्रे, "जागरवेरोवरए'' असंयमनिद्रापगमाजागीति जागरः। आचा०१ श्रु०३ अ० 170 / 'सुत्ता अमुणीउ सया, मुणी ज्ञ सुत्ता वि जागरा होति' आचा०नि०१ श्रु०३ अ०१ उ० / द्रव्यजागरो निद्रारहितः। भावजागरः सम्यजागरः सम्यग्दृष्टिः। आ० म० द्विा विशेष अथ विरत्यपेक्षया जीवादीनां पञ्चविंशतेः पदानां सुप्तवजागरत्ये प्ररूपयन्नाहजीवाणं भंते! सुत्ता, जागरा, सुत्तजागरा? गोयमा! जीवा सुत्ता वि, जागरा वि, सुत्तजागरा वि। नेरइयाणं भंते! किं सुत्ता पुच्छा? गोयमा ! णेरइया सुत्ता / णो जागरा, णो सुत्तजागरा / एवं जाव चरिंदिया। पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं ते! किं सुत्ता पुच्छा? गोयमा! सुत्ता / णो जागरा / सुत्तजांगरा वि। मणस्सा / जहा जीवा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा णेरझ्या / सत्तति) सर्वविरतिरुपनैश्चयिक प्रबोधाभावात् / (जागर)
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________________ जागर 1447 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जागरिता त्ति) सर्वविरतिरूपप्रवरजागरणसद्भावात्। (सुत्तजागर ति) मविरातिविरतिरूपसुप्तिप्रबुद्धतासद्भावादिति।भ०१६श०६उ० स्या०) संजयमणुस्साणं सुत्ताणं पंच जागरा पणत्ता। तं जहा सद्दा० जाव फासा। "संजय" इत्यादि। व्यक्तम्। नवरं संयतमनुष्याणां साधूनां सुप्तानां निद्रावतां जाग्रतीति जागरा असुप्ता जागरा असुप्ता जागरा। इव जागरा इयमव भावना-शब्दादयो हि सुप्तानां संयतानां जाग्रद्धद्विवदप्रतिहतशक्तयो भवन्ति कर्मबन्धाभावकरणस्याप्रमादस्य तदानीं तेषामभावात् कर्म अन्धकारणं भवतीत्यर्थः। संजयमणुस्साणं जागराणं पंच सुत्ता पण्णत्ता। तं जहा सद्दा० जाव फासा। द्वितीयसुठाभावना तु-जागराणां शब्दादवः सुप्ता इद सुप्ता स्मछन्नानिवत् प्रतिहतशक्तयो भवन्तिा कर्मबन्धकारणस्य प्रमादस्य तदानीं तेशामभावात् कर्मबन्धकारणं भवतीत्यर्थः। __ सयमविपरीता हासंयता इति। तानधिकृत्वाहअसंजयमणुस्साणं सुत्ताणं वा जागराणं वा पंचजागरापण्णत्ता। तं जहा-सद्दा० जाव फासा। "असंजय'' इत्यादि। व्यक्तम्। नवरम्। असंषतानां प्रमादिणया अवस्थाद्वयेऽपि कर्मबन्धकारणताऽप्रतिहतशक्ति त्साद अन्दादयो जागरा इव, जागरा भवन्तीति भावनः। स्था०५ ठा०२ उ० जागरण न०(जागरण) निद्राक्षये ज्ञा०१ श्रु०२ अ०अवबोधे, ध०३ अधिका जागरणे गुणा :"जागरह णरा णिचं,जागरमाणस्स वड्डए वुद्धी। णो सुअइण सो धण्णो, जो जग्गइ सो सया धण्णो।।१।। सुअइ सुअंतस्स सुअं, संकियस्रलियं भवेपमत्तस्स। सागरमाणस्य सुअं, थिरपरिचियमप्पमत्तस्स / / 2 / / बालस्सेणं समं सोक्खं,ण विज्जा सह निद्दया। ण वेरमा पमादेण, णारभेण दयासुआ॥३॥ सागरिया धम्मीणं, अहम्मीणं तु सुत्तिया सेया। पच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए॥४॥ सुवइय अयगरभूओ, सुयं पिसे णस्सती अमयभुयं। दोही गोणतभूभो, णट्ठम्मि सुए अमयभूए'' ||5|| आचा० 1 श्रु०३ अ०१ उ० निशान्त्ययामे जागर्या, गुरोश्चावश्यकक्षणे। उत्सर्गो देवगुर्वादि-नतिः स्वाध्यायतिष्ठता।।२०।। निशाया राोरन्त्ययामे चतुर्थयामे जागर्या जागरणं निद्रात्यान इत्यर्थः। सापेक्षयतिधर्मो भवतीति योजना। अग्रेऽपि सर्वत्रा वसे या जागरणविधिश्च-''जामिणिपच्छिमजामे, सव्वे जग्गंति बालवुड्डाई। परमिद्विपरममंतं, भणंति सत्तद्ववाराओ।।१।।" इत्यादि। विशेषगृहस्थधर्माधिकारे प्रदर्शितं एव निशान्त्ययामे जागरणम्। किमविशेषेण सर्वेषामेव उत केषांचिदेवेति जिज्ञासायामाह - (गुरोः) प्रव्राजकस्य दिगाचार्यादा चकारात् स्नातादे। आवश्यकक्षणे प्रतिक्रमणकरणावसरे जाना तागुरोः तृतीयप्रहरेऽस्वापस्व वक्ष्यमाणत्वात्। ग्लानादेस्तु झरीरमान्द्यात् प्रतिक्रमणवेलाया मुचितमेव जागरणम्। उक्तमपि प्रवचनसारोद्धारे "सव्वे वि पढमयामे, दुन्नि अदसहाण आइमा जामा। तइओ होइ गुरुणं, चउत्थे, सव्वे गुरु सुअइ॥६०॥" सर्वेऽपि साधवः प्रथमे यामे रात्रिप्रथमप्रहरं यावत्। स्वाम वायाध्यनादिकुर्वाणाः जाग्रति द्वौ च आधौ दासौ वृषभाणां वृषभा इव वृषभागीतार्थाः साधवः तेषामवमर्थो द्वितीये यामे ये सूत्रवन्तः साधवस्ते स्वपन्ति। वृषभास्तु जाग्रति ते च जाग्रतः। प्रज्ञापनादिसूत्रार्थे परावर्तयन्तिा तृतीयप्रहरो भवति गुरुणां कोऽर्थप्रहरद्वयानन्तरं वृषभाः स्वपन्ति। गुरुवस्तूत्थिताः प्रज्ञापनादिगुणवन्ति चतुर्थप्रहरं यावत्। चतुर्थे च प्रहरे। सर्वे साधवः समुत्थाय वैरात्रिककालं गृहीत्वा कालिक श्रुतं परावर्तयान्ति। गुरवः पुनः स्वपन्ति। अन्यथा प्रातर्निद्राघूर्णमानलोचनास्तद्वशादेव भज्यमानपृष्ठका व्याख्यानभव्व अनोपदेशादिकं कर्तुं ते सोद्यमाः सन्तो न शक्नुवन्तीति। (प्रव०१२८ द्वार) प्रतिक्रमणवेला च तत्परिसमाप्तिदशोपकरणप्रत्यु पेक्षणासमनन्तरभाविसूर्योदयापरिमेया। यतः-"आवस्सयस्स समए, जिद्दामुदं चयंति आयरिया। तह तं कुणंति तह दस, पडिलेहाऽणंतरं सुरो" ||1|| जागरणानन्तर कर्तव्यमाह-(तत्सर्ग इति) कायोत्सर्गः स चर्यापथिकीप्रतिक्रमण-पूर्वकः कु स्वप्नदुःस्वप्ननि धारणनिमित्तः प्राणिवधादिकु स्वप्न-भावे शतोच्वासमानो मैधुन कु स्वप्रभावे तु चतुरुद्योतकरोपर्येक - नमस्कारचिन्तनादष्ट शतो च्छवासमानोऽवसेयः। यतो यतिदिनचर्यायास"इरिअंपडिक्कमंतो, कुसुमणि दुसुमिण निवारणुस्सग्ग। सम्म कुणति निजिअ-पमायणिद्दा महामुणिणो॥१।। पाणिवहप्पसुहाणं, कुसुमिणभावे भवंति उज्जोआ। चत्तारि चिंतणिज्जा, सनमुक्कारा चउत्थस्स // 2 // " ति / ततश्च (देवगुर्वादिनतिरिति) देवनतिश्चैत्यवन्दनम्।गुर्वादिनतिश्चतुर्भिः क्षमाश्रमणैर्गुदिनमस्किया ततोऽनन्तरं च (स्वाध्यायतिष्ठतेति) स्वाध्यायो वाचनादिः तस्मिन् ग्रथा संभवं तिष्ठता एकाग्रता उपलक्षणत्वात्! पूर्वगृहीततपोनियमाभिग्रह चिन्तनधर्मजागरिकाकरणादि। यतः"जिणनमणमुणिनमंसण - पुव्वं तत्तो कुणंति सज्झायं। चिंतिति पुव्वगहियं, तवनियमाऽभिग्गहप्पसुहं / / 1 / / किं तकणिज्जकज्ज, न करेमि अभिग्गहाय को वचिओ। किं मह खलिअजायं, कद्ददिभद्दा मज्झ वचंति / / 2 / / कह न हुपमायके, खुप्पिस्सं किं परोव अप्पो वा। मह पिच्छइ अश्यारं, इअकुजा धम्मजागरि॥३॥ ब्राहो च मुहूर्ते निर्मलबुद्धयुदयाद्भवतिधर्मकर्मोपायचिन्तनं सफलमिति। धर्ममनोरथान चिन्तयेति भावार्थः। यतस्तत्रौव "जामिणिविरामसमए, सरए सलिलं च निम्मलं जाणं। इअ तत्थं धम्मकर्म, आयमुवायं विचिंतेजा ||1||" ध०३ अधिo जागरमाण न०(जाग्रत्) जागृ--शत-इन्द्रियादिभिर्विषयज्ञान योग्यावस्थायाम्। तद्वति, त्रि०ा स्त्रियां ड्रीप् / वाच०। निद्रावियुक्ते च! पा०ा "जागरमाणी जागरइ'' जागरणं कुर्वत्या जागतिं निद्रानाशं कुरुत इति। नं0 "निदाए भावतोवि य जागरमाणां चउण्हमण्णयरं " / निद्रारहिते, आ० म० द्वि० जागरिता त्रि०(जागरिह) जागृ-त। जागरके, स्था० 4 ठा०२ उ०।
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________________ जागरिय 1448 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जागिणिपुर जागरिय पुं० (जागरिक) जागरणं जागरः। सोऽस्यास्तीति जागरिकः। सुत्ता समाणा णो बहूणं पाणभूयाणं जीवाणं सुत्ताणं दुक्खाणयाए भ० 12 श०२ उ०। निद्रारहिते, आ० म० द्वि० सोयणयाए० जाव परियावणयाए वट्टति। एएणं जीवा सुत्तासमाणा *जागरित त्रि०ा जागृता इन्द्रियैर्विषयोपलब्ध्ययोग्या वस्थायाम्, जीवो अप्पाणं वा परंवा तदुभयं वा णो वहूहिं अहम्मियाहिं संजोयणाहिं हि स्वमादिदेतुकर्मनाशे इन्द्रियविषयान, अनुमेयाँ श्च स्थूलविषयान्, संजोएत्तारो भवंति। एएणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू। जयंती! जे इमे व्यवहारिकॉश्च पदार्थान्, यस्यामवस्थायामनुभवति तत् जागरितम्। जीवा धम्मत्थिया धम्माणुगा० जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्येमाण कर्तरिक्त / जागरणयुक्त, त्रिला वाचा विहरंति / एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू एएणं जीवा जागरिया स्त्री०(जागरिका) जागरणे, आ०१ श्रु०१ अ०! जागरमाणा बहूणं पाणाणं अदुक्खणयाए० जाव अपरियावणयाए "पुव्वरतावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरित्ता भवइ।" वटुंति, ते णं जीवा जागरा समाणा अप्पाणं वा परं तदुभयं वा जागरिका निद्राक्षयेण बोधः। स्था० 4 ठा०२ उ०। वहूहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। एएणं जीवा कइविहा णं भंते! जागरिया पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति, एएसि जागरिया पण्णत्ता / तं जहा-बुद्धजागरिया, अबुद्ध जागरिया, णं जीवाणं जागरियत्तं साहू से तेणटेणं जयंती! एवं वुचइ सुदक्खुजागरिया। से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ तिविहा जागरिया अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं पण्णत्ता? तं जहा-बुद्धजागरिया, अबुद्धजागरिया, जागरियत्तं साहू। सुदक्खुजागरिया। गोयमा! जे इमे अरइंता भगवंतो उप्पण्णा (सुत्तत्तं ति) निद्रावशत्वम्। (जागारियत्तं ति) जागरणं जागरः ण्णदंसणंधरा जहा खंदए.जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी एएणं बुद्धा सोऽस्यास्तीति जागरिकत्तङ्गावो जागरिकत्वम्। (अडम्मिय ति) धर्मेण बुद्धजागरियं जागरंति। जे इमे अणगारा भगवंतो इरियासमिया श्रुतचारित्रारुपेण चरन्तीति धार्मिका स्तनिषेधाइधार्मिकाः। कुट मासासमिया० जाव गुत्तवंभयारि एएणं अबुद्धा अबुद्धजागरियं एतदेवमित्यत आइ-- (अहम्माणुया) धर्मं श्रुतरूपमनुगच्छन्तीति जागरंति। जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा० जाव धर्मानुगास्तन्निषे घादधर्मानुगाः। कुत एतदेवमित्यत आह-(अहम्मिट्टा) विहरंति एएणं सुदक्खुजागरियं जागरंति। से तेणटेणं गोयमा! धर्मः श्रुतरूप एवेष्टो वल्लभः पजितो वा, येषां ते धर्मेष्टाः। धर्मिणां वा एवं वुचइ तिविहा जागरिया जाव० सुदक्खुजागरिया। (बुद्धा इटाः धर्मीष्टाः। अतिशयेन वा धर्मिणो धर्मिष्ठाः तन्निपेधात् अधर्मिष्ठाः, बुद्धजागरियं त्ति) बुद्धाः केवलावबोधेन ते च बुद्धानां व्यपोढा अधर्मेष्टाः अधर्मीष्टा वा अत एव। (अहम्मक्खाई) न धर्ममाक्यान्ति ज्ञाननिद्राणां जागरिकाप्रबोधो बुद्धजागरिका, तां जाग्रति इल्येवंशीला अधर्माख्यायिनः, अथवा-न धर्मात् ख्यातिर्येषां ते कुर्वन्ति (अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति त्ति) अबुद्धाः अधर्मख्यातयः (अहम्मपलोई त्ति) न धर्मपादेयतया प्रलोकयन्ति ये केवलज्ञानाभावेन यथासंभवं शेषज्ञानसद्भावाच बुद्ध सदृशास्ते च अबुद्धानां छद्मथज्ञानवतां या जागरिकासा तथा तां जाग्रति। ते अधर्मप्रलोकिनः। (अहम्मपलजण त्ति) न धर्मे प्ररज्यन्ते आसजन्ति ये ते अधर्म प्ररञ्जना एवं च-(अहम्मसमुदायार त्ति) न धर्मरूपश्चारिभ०१२श०१ उ० जागरिता धम्मीणं, अधम्पियाणं च सुत्तिया सेया। त्रात्मकः समुदाचारः समाचारः सप्रमोदो वा आचारो येषां ते तथा अत वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए॥२०६|| एव–'अहम्मेण चेव'' इत्यादि। अधर्मेण चारित्रा श्रुतविरुद्धरुपेण वृत्ति वच्छजणवए कोसंवी णयरी, तस्स अधिवो सताणितो राया, तस्स जीविका कल्पयन्तः कुर्वाणां इति। भ०१२ श०२ उ०। जन्मतः षष्ठयां भगिणो जयंती, तीए भगवओ वद्धमाणो पुच्छितोधम्मियाणं किं सुत्तिया रात्रौ भवे रात्रिजागरणरूपे तत्सवविशेषे चा विपा० 1 श्रु० 2 अ०। रा० सेया, जागरिया वां सेया? भगवया वागरियं धम्मीणं जागिरिया सेया, 'छट्टे दिवसे जागरियं करेंति' रात्रिजागरण-रूपमुत्सवविशेषम्। भ० णो सुत्तिया, अधम्मियाणं सुत्तिया सेया, णो जागरिया। (अकहिंसूत्ति) ११श०११उ अत्तीए एवं कहियवान्। नि० चू०१६ उ०। *जागर्या स्त्री० जागृ-शा जागरणे, अ-जागराप्यत्राा वाच०॥ जीवाश्च न सुप्ताः सिद्धयन्ति। किं तर्हि जागरा एव इत्याह - 'निशान्त्ययामे जागर्या गुरोश्चावश्यकक्षणे' जागर्या जागरणं सुत्तत्तं भंते! साहू, जागरियत्तं साहू? जयंती! अत्थेगश्याणं निद्रात्याग इत्यर्थः। ध० 3 अधि०। जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्येगश्याणं जीवाणं जागरियत्तं साहू से जागसहस्सभागपडिच्छय त्रि०(यागसहस्रभागप्रतीच्छक) यागाः केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ-अत्थेगइयाणं० जाव साहू? जयंती! | पूजाविजेषाः ब्राह्मणप्रसिद्धाः तत्सहस्राणां भागमंशं प्रतीच्छति जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अभव्यत्वात् यत्। तथाभूते, औol अहम्मपलोई अहम्मपलज्जमाणा अहम्म-समुदायारा अइम्मेणं | जागिणिपुर न०(जाकिनीपुर) स्वनामख्याते पुरे, "इओ असिरिजाचेव वित्तिकप्पेमाणा विहरंति। एएसिणं सुत्तत्तं साहू, एएणं जीवा गिणिपुरे सिरिमहम्मदसाहिसगाहिराओ'' ती०४६ कल्य!
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________________ जागिणी 1446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाणविमाण जागिणी स्त्री० (जागिणी) हरिभदूसुरेः प्रतिबोधिकायां निग्रन्थ्याम्, *ज्ञायक त्रिका ज्ञातरि, विज्ञ, पुं० चूना नं०'जाणयति ज्ञायको ज्ञातेति। 'महत्तराया जाकिन्या, धर्मपुत्रोण चिन्तिता। आचार्यहरिभद्रेण, टीकेयं औ०। शिष्याबोधिनी // 1 // " दश०२ चूना जाणगय त्रि०(यानगत) यानानि शकटादीनि। तत्र गते, औ०। जाडी (देशी) गुल्मे, दे० ना०३ वर्ग। जाणगसरीर न० (ज्ञशरीर) "जाणगत्ति" ज्ञायको, ज्ञो वा तस्य शरीर जाण न०(यान) या भावे ल्युट् / गमने, वाच० स्था०। तक। सूत्रा। ज्ञशरीरम्। जीवरहिते जानतः शरीरे, उत्त०१ अ०। नि० चू०। ज्ञातवान् उपचितशक्ते राज्ञः मूलराष्ट्रादिरक्षां कृत्वा रिपोरास्कन्दना गमने चा वाच०। इति ज्ञः। प्रतिक्षणं शीर्यत' इति शरीरम्। ज्ञस्य शरीरम् ज्ञशरीरम्। अनु०। यायतेऽनेनेति यानम्। स०१ सम० करणे ल्युट्। गमनसाधनेरथादौ, जाणगसेवा स्त्री०( ज्ञसेवा) ज्ञातुः सेवायाम्, "जिज्ञासा तदसंज्ञेवा, वाचा यानानि सामान्यातः। शेषाणि वाहनानीति। रा० जी०। यानानि सदनुष्ठानलक्षणम्"। द्वा०२३ द्वा०। नौकादीनि। वाहनानि वेसरादीनि। दशा० 6 अ०"दिट्टी जाणं सुउत्तम'' जाणगिह न० (यानगृह) यत्रा यानानि तिष्ठन्तिा तस्मिन् गृहे, यानं यानमात्र सूत्तममतिप्रधानमच्छिरुमित्यर्थः। ग० 1 अधिवा यान "जाणगिहाणि वा आचा०२ श्रु०२ अ०२ उ०। वाहनमिति। रा०। यानं स्थादिकमिति। प्रश्न०५ सम्ब० द्वारा रा०ा औ०) जाणणन० (ज्ञान) अवगमने, आव०६ अ० प्रा०। स्था। याननि शकटादीनि। रा०ा औ०। ज्ञा०। स्था०। वत्ता यानं जाणणा स्त्री०(ज्ञा) ज्ञानं ज्ञा संवित्तौ, आ०म० द्वि०। अनु०। गन्यादि। अनु० जी०। यानं गन्त्रीविशेष इति। प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। जाणणाणयपुं० (ज्ञाननय)नयभेदे, "जाणणाणयो" ज्ञानोपसब्धिमात्रः। यानं लघुगन्त्रीति। भ० 8 श०६त्ता यानं शिविकादीति। स्था०१० अविशेषितं द्रव्यास्तिक इत्यर्थः। आ० चू०३ अ० ठा। आचा०। यानं इस्त्यादीति। आ० का आ० म०। उत्ता "जाणं तु जाणणासंखास्त्री०(ज्ञानसंख्या) "जाणणा''ज्ञानं संख्यायते निश्चीयते आसमाई" यानानि पुनरश्वादीनि, आदिशब्दात्, गजवृषभरथशिवि वस्त्वनयेति संख्या, ज्ञानरूपा संख्या ज्ञानसंख्या। संख्याभेदे, अनु०॥ से किं तं जाणणासंखा?| जाणणासंखा जो जं जाणइ। कादीनि। वृ० 1 उ०। ''चत्तारि जाणा पण्णत्ता। तं जडा-जुत्ते णाममेगे तं जहा-सई सदिओ, गणिअं गणिओ, निमित्तं नेमित्तिओ, जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते अजुत्ते। (स्था०) चत्तारि कालं कालणाणी, वेजयं वेजो। सेत्तं जाणणासंखा। जागा पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणए जुत्ते णाममेगे "से किं तं जाणणासंखा' इत्यादि। "जाणणा" ज्ञानं संख्यायते अजुत्तपरिणए 4 (स्था०) चत्तारि जाणा पण्णत्ता। तं जदा-जुत्ते णाममेगे निश्चीयते वस्त्वनयेति संख्या, ज्ञानरूपा संख्या ज्ञानसंख्या / का जुत्तरुवे जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे 4 (स्था०) चत्तारि जाणा पण्णत्ता। तं पुनरियमुच्यते-यो देवदत्तादिर्यच्छब्दादिकं जानाति स तज्जानाति तच जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तसोमे 4" स्था० 4 ठा० 3 उ01 " जंति वीरा जानन्नसाव भेदोपचारात् ज्ञानसंख्येत्युपस्कारः। शेष पाठसिद्धम्। अनु०। महाजाण'' यान्त्यनेन मोक्षमिति यानम्। चारित्रो, आचा०१ श्रु०३ अ० जाणणासुद्ध न० (ज्ञानशुद्ध) "पचक्खाणं जाणइ, कप्पे जं जम्मि होइ 6 उ०ा यात्येतदिति यानम्। "कृत्यल्युटो बहुलम् ||3 / 3 / 113 / इति कायवं। मूलगुणत्तरगुणे तं जाणसु जाणणासुद्धं" इत्युक्तलक्षणे (पाणि०) वचनात्कर्मणि ल्युट्। गन्तव्ये च। त्रि०ा आव०६ अ० ज्ञा० प्रत्याख्यानभेदे, आव०६ अ० आ० चू०। *ज्ञा भयबोधने, क्यादि० पर० सक० अनिट् / "ज्ञो जाणमुणौ" जाणयपुं० (ज्ञ) 'जाणग' शब्दार्थे , अनु०। ||17|| इति प्राकृतसूत्रेण जाण आदेशः 'जाणइ मुणइ' जाणिअं जाणयसरीर न०(ज्ञशरीर) 'जाणगसरीर' शब्दार्थे, उत्त०१ अ०) जाणिऊणा प्रा० 4 पादा तुम किं जाणयंसि कूवमंडुक्को'' नि० चू०१ जाणयसेवा स्त्री० (ज्ञसेवा) 'जाणगसेवा' शब्दार्थे, द्वा० 23 द्वा०) उ०। 'ज्ञा' झपधात्वर्थे। चुरा०। उभ० सक० सेट्ाज्ञपयति। अजिज्ञपत्। जाणरह पुं० (यानरथ) रथविशेष, रथा द्विविधाः-यानरथाः, 'ज्ञा' प्ररणे, चुरा० उभ० संक० सेट् वाच०। संग्रामरथाश्च। तत्र संग्रामरथस्य प्राकारानुकारिणी फलकमया वेदिका, जाणं त्रि० (जानत्) अवगच्छति ''अजाणओ मे मुणि वूहिजाणं।" अपरस्य तु न भवतीति विशेषः जी०३ प्रतिका जानन्नवगच्छन्। सूत्रा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। स्था०ा वृ०। ''अजाणता जाणरूव त्रि० (यानरूप) शिवकाद्याकारवति, "समोहय-जाणरूवेणं' विउस्सित्ता'' सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ० जान न्नववुव्यमानः। विशे०। यानप्रकारेण शिविकाद्याकारवतेति। म०३ श०४ उ०। उत्तवा "आसुपएणेण जाणया"।जानता ज्ञानोपयुक्तेन। आचा०१श्रु० / जाणवय त्रि०(जानपद) जनपदे भवः, तत आगतो वा अण। देशस्थे, 8 अ०१ उ०। देशदागते चा जनपदानांवृत्तौ, स्त्रीगीपण वाचा रा०ा औ०। आचा०। जाणंत त्रि० (जानत्) 'जाणं' शब्दार्थे , सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। सू० प्र०। "पमुइयजणजाणवया" जनपदे भवाः जानपदा जानान त्रि० जणंत' शब्दार्थे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। विशिष्टार्यदेशोत्पन्नाः। सूत्रा०२ श्रु०१ अ०। 'बहवे जाणवया लुसिंसु" जाणग् पुं० (ज्ञ) ज्ञा-का ब्रह्मणि, पण्डिते, सोमपुत्रे, बुधे च। वाचला अनु०॥ आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। जाणविमाण त्रि० (यानविमान) यानञ्च तद्विमानं च। यानाथवा * ज्ञक त्रि० ज्ञानिनि, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। गमनाय विमानं यानविमानम् / स्था० 4 ठा०३ उ०। या - उत्त
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________________ जाणविमाण 1450 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाबगहेर नंगमनं तदर्थे विमानम्। यायतेऽनेनेति यानम् तदेव विमानं यानविमानम्। ज्ञानपूर्विका व्यावृत्तिः सा तदभेदात् "जाणुत्ति गदिता'' स्था० 3 ठाः स्था० 1 ठा० 1 उ०। यानरूपं वाहनरूपं विमानं यानविमानम्। रा०। 4 उ०) देवानां गमनसाधने नगराकारे वाहने, "दसण्ह इंदाणं दस परियाणिया | जाणहईस्त्री० (जान्हवी) गङ्गायाम्, "जापहवीइ मुहे''जान्हव्या गङ्गाम जाणविमाणा पण्णत्ता। तं जहा-पालए पुप्फए जाव विमलबरे मुखे, स्था०६ ठा०। विशेष सव्वओभद्दे' यानं शिविकादि तदाकाराणि विमानानि देवाश्रयाणि जावग पु० (थापक) यापयतीतियापकः। जी०३ प्रति० उपदेशदानादिन यानविमानानि न तु शाश्चतानि नगराकाराणीत्यर्थः। स्था० 10 ठा०1 भव्यसरस्वैरागादियापके जिने, कल्प०२क्षणा जिणाणं जादया।" "दिव्वं जाणविमाणं विडव्वेह' राण राम रागादीनेव सदुपदेशापिना यापयन्तीति जापकाः। ध०१ जाणसाला स्त्री० (यानशाला) या यानानि निष्पाद्यन्ते तस्यां अधिकाला शालायाम,। "जाणसालाओ वा'| आचा०२ श्रु०२ अ०२ उ०। आo | "जाणसालाआवा / आचा०२ शु०२ अ०२ उ०। आ० जावगहेउ पुं० (यापकहेतु) यापयतीति यापकः। यापकश्चात्रौ हेतुरु म० दशा०॥ यापकहेतुः हेतुभेदे, (दश) जाणाविय त्रि०(ज्ञापित) बोधिते, "अभयकुमारेण जाणावितो" आ० "जावग' (86 नियु०) भेदव्याचिख्यासयाहम०द्विन उन्भामिगा य महिला, जावगहेउम्मि उंटलिंभाई। जाणिअत्रि० (ज्ञात) अवमते, प्रा० 4 पाद। "वलावलं जाणिय अप्पणो गाथादलम्। अस्य व्याख्या - (उब्भामिग त्ति) असती महिसा। किं य' आत्मनो बलाबलं ज्ञात्वा परीषहादि सहनसामर्थ्य विचार्य। उत्त० यापयतीति यापकः। यापकश्चासौ हेतुश्च यापकहेतुः। तस्मिन 21 अ० "निरओवमं जाणिव दुक्खमुत्तमं ज्ञात्वा विज्ञायेति। दश०१ उदाहरणमिति शेषः। उष्ट्रलिण्डानीति कथानक संसूचकमेतर चू। "महयं पलिगोव जाणिया''। ज्ञात्वा स्वरूपतस्तद्विपाकतो वा इत्यक्षरार्थः। भावार्थ: कथानकादवसे यः तच्चेदं कथानकम्परिच्छिया सूत्रा०१श्रु०२ अ०२ उ०। एगोवाणिअओ भज़ गिण्हेऊण पञ्चतंगओ। पावेण खीणदव्या धणियपरह जाणिऊण अव्य० (ज्ञात्वा) विज्ञायेत्यर्थे, प्रा० 4 पादा आचा०। कयावराहा य पचंतं सेवंती पुरिसा दुरदीयविज्जा य सा य महिल जाणित्तु अव्य० (ज्ञात्वा) विज्ञायेत्यर्थे "जाणित्तु धम्मं अहा तहा''| आचा० उब्भामिया एगम्मि पुरिसे लग्गा तं वाणिययं सागारियंति चिंतिऊ. 1 श्रु०६ अ०१ उ० प्रा० भणति-वच वाणिजेण! तेण भणिया किं घेत्तूण वचामि। सा भण्इजाणियव्यंगसामत्थजुत्त त्रि० (ज्ञातव्यसामर्थ्ययुक्त) विज्ञप्ति-करणे, उद्दलिंडियाओ घेत्तूण वच्च उज्जेणि। सगमं भरेत्ता उज्जेणिं गतो। ताए भनिने "जाणितव्वगतामत्थजुत्तति वा विणात्तिहेउभूयंति वा एगट्ठा'' आ० चू० य जहा एक्कक्कयं दीणारेण दिजहत्ति। सा चिंतेति। वरं खु चिरं खिप्यंत १अ० अत्थत्ता तेण ताओ वीहीए उड्डियाओ को इण पुच्छई। मूलदेवेण दिई जाणिया स्त्री० [ज्ञि (ज्ञ)का 'ज्ञा' अवबोधने। जानातीति, ज्ञा। "इगुपधज्ञप्रीकिरः // 3 / 1 / 135|| इतिक प्रत्ययः। अतो लोपः पुच्छिओ या सिढतेण मूलदेवेण चिंतिय। जहा एस वराओ महिलय // 64 / 48 / / इति च (पाणि०) अकारलोपः। ततः। 'अजाद्यतष्टाप्" ठोभिओ। ताह मूलदेवेण भण्णति अहमेया उ नव विक्किणामि जति गम / / 4 / 1 / 4 / / इति स्त्रियामाप्। जैव ज्ञिका। स्वार्थिकः कः प्रत्ययः। ततः विमुल्लस्स अरूं देहि। तेण भणियं देमि त्ति। अब्भुवगने पच्छा मूलदेवेग "स्वज्ञाञ्चभस्वाऽधातुत्ययकात् // 2 / 4 / 10611 इत्यापः स्थाने वा सो हंसो जाएऊण आगासे उप्पओ णगरस्स मज्झे ठाइऊण भणतिइकारादेशः। कप्रत्ययाश्च परतः स्त्रियामाण ततः सिद्धं ज्ञिके ति। जस्स गलए चेडरूवस्स उट्टलिंडिया न वद्धा तं मारेमि। अहं देवो पच्छ परिज्ञानवत्याम, "खीरमिव जहा हंसा जे धुरंति इह गुरूगुणसमिधा सत्वेण लोएणं भीएण दीणारिकाओ उट्टलिंभि आओ गहियाओ। दोसे य विवजंती तं जाणसु जाणियं परिसंइत्युक्ते परिषद्भेदे चा नं०। विझिययाओ या ताहे तेण मूलदेवस्स अद्धं दिन्नं मूलदेवेण य सो * ज्ञात्वाअव्य०। विज्ञायेत्यर्थे , प्रा० 4 पाद। भणणति-मंदभग्ग! तव महिलाधुत्ते लग्गा। ताहे तव एयं कयंणपत्तिपतिः जाणुन० (जानु) जन-जुणा ऊरूजइयोर्मध्यभागे, स्वार्थे कञ्अौवार्थे, मूलदेवेण भण्णति-एहि वचामो जा ते दरिसेमि। जदिण पत्तियसि ताहे वाच०। प्रज्ञा०। उत्त०। "समुग्गनिमग्गगूढजाणू तं०। जाणुस्सेहप गया अन्नाए लेसाए वियाले उवासो मग्गिओ। ताहे दिण्णो तत्थ एगम्मि माणमित्ते" स०३४ सम० एएसे ठिया। सो धुत्तो आगतो इयरी विधुत्तेण सह पिये उमाढता इमंच जाणुकोप्परमाया स्त्री० [जानुकूर्परमात्रा(ता)]जानुकूर्पराणा-मेव माता गायइजननी जानुकूर्परमाता एतान्येव शरीरां शभूतानि तस्यास्तवौ स्पृशन्ति "इरि मंदिर पत्तहारओ, महुकं तु गतो वणिजारओ। नापत्यम्। अथवा - जानुकूर्परा ण्येव मात्रा परप्राणादेः साहाय्यसमर्थः वरिसाण सयं च जीवउ,मा जीवंतु घरं कयाइ एउ।।१॥" उत्संगनिवेशनीयो वा परिकरो यस्याः,नपुत्रालक्षणः सा जानुकूपरमात्रा। मूलदेवो भणति कयलीवणपत्तवेढिया, पडभणामि। देव ज मद्दलए अपत्थरहितायाम्, "जाणुकोप्परमाया वि होत्था' नि०३ वर्ग। ज्ञा०। गजती सुणउ तं मुहुत्तमेव पच्छा / मूलदेवेण भण्णति। किं धुत्ते ततो जाणय त्रि० (ज्ञापक) वेदिनि, "जाणुयाय जाणुयपुत्ताय" ज्ञा० 1 श्रु० पभाए / निग्गंतूणं पुणरवि आगतो तीए पुरतो ठिओ सा सहसा संभता 13 अ०। विपा० अदभुठिया। तओ खाणपिवणे वढते तेण वाणिएणं सव्वं तीए गीयपजत्यं जाण स्त्री० (ज्ञा) व्यावृत्तिभेदे, यज्ञस्य हिंसादेर्दे तुस्वरूपफ लविदुषो / संभारिय। एसोलोइओ हेतु। लोउत्तरे वि चरणकरणानुयोगे एवं सी
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________________ जाबगहेन 1451 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाय पराश सो वि केइ पयत्थे असद्दहतो कालेण विजादीहिं देवतं आयं पइत्ता महाव्रतानीति। स्था० 6 ठा०। क्योविशेषे, ज्ञानदर्शनचारित्रोषु च। सबहादेयव्यो। तहा दव्वाणुओगे विपडिवातिनाऊण तहा बिसेसणवहुलो 'माहणेणं मइमया जामा तिणि ओदाहिया""जामा" इत्यादि। यामा हेलु कायव्यो जहा कालजावणा हवइतओ सो णावगच्छइएगयं कुचियावण व्रतविशेषाः त्रयः उदाहताः। तद्यथा-प्राणातिपातो, मृषावादः, परिग्रहच चश्वरी वा कजइ जहा सिरिगुत्तेण छलुए कया। उक्तो यापकहेतुः। दश० इति। अदत्तादानमैथुनयोः परिग्रह एवान्तर्भावालायग्रहणम्। यदि वा१० यामा वयोविशेषाः। तद्यथा- अष्टवर्षाद् द्वात्रिशतः प्रथमः, तत जावणन० (यापन) या–णिच्-ल्युटा कालादेः क्षेपणे, निरसनेचा वाचा ऊर्द्धमाषष्टद्वितीयः, तत ऊर्द्ध तृतीय इति। अतिबालवृद्धयोर्यु दासः। वर्तने, 'मज्झेण मुणिजावए यापयेदात्मानं वर्तयत्। सूत्रा०१श्रु०१ यदि वा-यस्य ते उपरम्यते संसारभमणादेभिरित यामा अ०३ उ०। अट्टमासे अजावए / अजापयद्वर्तितवान्। आचा०१ श्रु०६ ज्ञानदर्शनचारित्राणीति ते उदाहता व्याख्याताः। आचा०१ श्रु०६ अ० अ० 4 उ०। देह प्रतिपालने च। "अह जावइत्थ लूहेणं' धर्माधारं देह १उ०। यापसतिस्मा आचा०१ श्रु० अ०४ उ०। स्त्रियां युच्यापनातौवार्थे जामइल्ल त्रि० (यामवत्) "आल्विल्लोल्लालवंतमंतेत्तेर यापना द्विविधा द्रव्यतो, भावतश्च। द्रव्यत औषधादिना कायस्य। मणामतोः / / 8 / 2 / 156 / / इति प्राकृतसूत्रोण मतोः स्थाने ''इल्ल" भावतस्तु इन्द्रियण्नोइन्द्रियोपशमेन शरीरस्य क्षामणा। आव० 3 अ०। आदेशः। प्रा०२पादा विद्यमानयामके, वाचा जावणिज त्रि० (यापनीय) यापयतीति यापनीयः 'या' प्रापणे। अस्य जामदग्ग पु० (जामदग्नय) जमदन्येरप्यत्वं यञ् / यमदग्निपुत्रे पशुरामे, णवन्तस्य कर्तर्यनीयः। आव०३ अ०॥ शक्तिसमन्विते, "जावणिज्जाए वाचा विशे० णिसीहियाए'' अत्र नैषेधिक्येति विशेष्यम्,यापनीयेति विशेषणम्। 'या' जामद्ध न० (यामार्द्ध) यामं प्रहरं तस्यार्द्धम् यामार्द्धम्। चतुर्घटिके प्रापणे। अस्य णियन्तस्य युगागमे यापयतीति यापनीया प्रवच- | समयविशेषे, ग०१ अधिन नीयादित्वात् कर्तर्यनीयः तया शक्तिसमन्वितयेत्यर्थः। ध०३ अधि० जामहिं त्रि० (यावत्) "यावत्तावतोऽऽदेमं-उ-महिं" भा० चू। ||8|4|406 / / इति प्राकृतसूत्रोण वकारादेहिं इत्यादेशो वा। प्रा० 4 जावणिज्जतंत न० (यापनीयता) ग्रन्थभेदे, ध०२ अधिका पाए। यत्परिमाणमस्य मतुप। यत्परिमाणे, साकल्ये, अवधौ व्याप्ती, जावय पुं० (यापक) "जावग" शब्दार्थे, जी०३ प्रतिका माने, अवधारणे च। अव्य०। वाचला "जामन निवडइ कुंभडइ, जावयहेउपुं० (यापकहेतु) 'जावगहेउ' शब्दार्थे, दश०१अ०। सीहचपेडचत्तका तामसमत्तई भवगलह, परप इबज्जइ ढक्का" प्रा०४ जावलिपुर न० (जावलिपुर) पुरभेदे, तथा च हारिभद्राष्टक वृत्ती, पादा ''श्रीजावलिपुरे रम्ये, वृत्तिरेषा समापिता" हा०३२ अष्ट। जामाउपुं० (जामातृ)"उद्दत्वादौ" 11811 / 131 / / इति प्राकृत सूत्रोण जावि(जंपि)य त्रि० (यापित) कालान्तरं प्राप्ते, "जंपिय तिलकीडगाय ऋकारस्योकारः। प्रा० 1 पादा जायां माति मिनोति मिमीते वा। तृच। त्ति'' यापिताः कालान्तरं प्राप्ताः ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०) दुहितृपतौ, वसुभे स्वामिनिचा वाचा जाम पुं० (याम) यम् -- घज। समये, प्रहरे च। "यामो जात स्तथापि जामाउय पुं० [जा(या)मातृक] दुहितभर्तरि, विपा० 1 श्रु०३ अ०। नायातः" वाचाधासच रात्रोदिनस्यचचतुर्थभागः। स्था०३ठा०२ | जामि स्त्री० [ जा(या)मि] जन-मिण-वृद्धिः। अथवायम - उ० इन्। भगिन्याम, दुहितरि, स्नुषायाम्, कुलस्त्रियाम्, सन्निहित स्त्रियाम, तओ जामा पन्नत्ता / तं जहा-पढमे जामे मज्झिमे जामे | "यामयो यानि गेहानि। वाचती०"जामी एगे" गत्वेत्यर्थे , स्था० पच्छिमे जामे। तिहिं यामेहिं आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज, 1 ठा। सवणयाए तं जहा--पढमे जामे मज्झिमे जामे पच्छिमे जामे जामिणी स्वी० (यामिनी) यामास्त्रिसंख्याताः सन्त्यस्य बाहुल्ये एवं० जाव केवलनाणं उप्पामेजा पढमे जामे मज्झिमे नामे इति। रात्रौ, हरिद्धायां च "निसा जामिणी राई" को। पच्छिमे जामे। जामिय पुं० (यामिज) भगिनीपुत्रो, "भद्धाङ्गजो द्विजो दत्तः, कालिका"तओ जामा'' इत्यादि। स्पष्टम्। केवलं यामो रादिनस्य च चार्यजामिजः''। आ० का चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धस्तथापीह त्रिभाग एव दिवक्षितः / जामुणकुसुम न० (जपाकुसुम) रक्तपुष्पस्य वृक्षभेदस्य पुष्पे, 'जामुणपूर्वरात्रमध्यरात्रापरराजलक्षणो यमाश्रित्य रात्रिः त्रियामा इत्युच्यते। कुसुमोई वा राम एवं दिनस्यापि। अथवा-चतुर्भाग एव सः। किं त्विह चतुर्थो न विवक्षितः जामेय पुं० (जामेय) भगिनीपुत्रो, "राज्ये निवेश्य जामेयं, प्रवज्यां त्रिस्थानकानुरोधादित्येवमपि त्रयो यामा इत्यभिहितमेवा ''याव त्ति" _स्वयमग्रहीत् आ० कला करणादिदं दृश्यम्-" केवल वोहिं वुज्झेजा मुंडे भवित्ता भागाराओ जाय न० (जात) जन-क्त। समूह, व्यक्ते, जन्मनि। वाचला जातो, प्रकारे अणगरिय पव्वएना केवल बंभ चेरवामसावसेजा। एवं खंजमेणं संजमेजा च / स्था० 10 ठा०। जातमुत्पत्तिधार्मेकम्। तच व्यक्ति वस्तु / अतो संवरेणं संवरिजा आभिणिवोहियणाणं उप्पाडेजा'' इत्यादि। स्था०३ भाषायाः जातनि व्यक्तिवस्तूनि भेदाः प्रकाराः। (स्था०) जातं प्रकारः। ठा०२ उ० प्राणतिपाठविरमाणादिके व्रतविशेषे, आचा०१श्रु०८ अ० स्था० 4 ठा० 1 उ०। “अट्टजाए वि दुटुव्वं' जातशब्दो भेदवाचकः। 1 उ०॥"आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चाउजाम धम्म पन्नवित्ता'' यामा / नि० चू०१ उ०
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________________ जाय १४५२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जायणापरीसह 'जाय' सद्दो प्रकारवाची। नि० चू०१६ उ०। आ० म०। बृ०ा उत्पन्ने, त्रि० स्था०६ ठा०। सूत्रा। उत्ता बृor 'कारणजाए' जाते समुत्पन्ने दर्श० 4 तत्व / “एत्थ पाणा अणुप्पसूया एत्थ पाणा जाया' नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमकार्थिकान्येवैतानि। आचा०२ श्रु०१ अ० 8 उ०। प्रवृत्ते, रा०। औ०। विद्यमाने च / विशे०। पुत्रो, पुं०। सरपायं च जायाए'' सूत्र 1 श्रु० 4 अ०२ उ०। "जाए फले समुपण्णे'' सूत्रा०१ श्रु० 4 अ०२ उ०ा "धण्णो सिणं तुम जाया (जायत्ति) हे पुत्र! भ०६ श० 33 उ०। बृ०। जातस्य निक्षेपः षड्डिधः तथा चाचाराङ्गनियुक्ती...............,जाए छकं च होईणायव्वं / जातशब्दस्य तुं षटकनिक्षेपोऽयं ज्ञातव्यो नामस्थापनाद्रव्य क्षेत्राकालभावरूपः तत्रा नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यजातं तु नो आगमतो व्यतिरिक्तम्। नियुक्तिगाथाकारो गाथापश्चार्द्धन दर्शयतिउप्पत्तीए तह पन्ज - वंतरे जायं गहणे वि।।१।। तचतुर्विधम्-उत्पत्तिजातम्, पर्यवजातम्, अन्तरजातम्, ग्रहणजातम्। तत्रोत्पत्तिजातं नाम-यानि द्रव्याणि भावावर्गणान्त :- पाती नि काययोगगृहीतानि वागयोगेन निसृष्टानि भावात्वे नोत्पद्यन्ते तदुत्पत्तिजातम्, यद् द्रव्यं भावात्वेनोत्पन्न-मित्यर्थः। पर्यवजातं तैरेव वाग्रिसृष्टभावाद्रव्यैः यानि विश्रेणिस्थानि भावावर्गणान्तर्गतानिसृष्टद्रव्यपरघातेन भावापर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते तानिद्रव्याणि पर्यवजातमित्युच्यते। यानित्वन्तराले समश्रेण्यामेव निसृष्टद्रव्यमिति तानि भावापरिणाम भजन्ते तान्यन्तरजातमित्युच्यते। यानि पुनद्रव्याणि समश्रेणिविश्रेणिस्थानि भाषात्वेन परिणतानिऊर्णशन्कुलीविवरप्रविष्टानि गृह्यन्ते तानि चानन्तप्रदेशिकानि द्रव्यतः। क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढानि कालत एकद्रयादि यावदसंख्येयसमयस्थितिकानि भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति तानि चैवंभूताग्रहणजातमित्युच्यते। उक्तं द्रव्यजातम्। क्षेत्रादिजातं तु स्पष्टत्वान्नियुक्तिकारेण नोक्तम्। तत्रौवंभूतं यस्मिन् क्षेत्रे भाषाजातं व्यावर्ण्यते यावन्मात्रं वा क्षत्रां स्पृशति तत् क्षेत्रजातमा एवं कालजातमपि। भावजातं तु तान्येवोत्पत्ति पर्यवान्तरग्रहणद्रव्याणि श्रोतरि यदाशब्दोऽयमिति बुद्धिमुत्पादयन्तीति। आचा०२ श्रु० 4 अ० 1 उ०। गमनक्रियायाम, आचा० 1 श्रु०५ अ० 4 उ० गते, त्रि०ा सूत्र०१ श्रु० 3 अ०१ उ०। प्राप्ते च। "असुद्धे सिया जाए न दूसएजा'' सूत्रा०१ श्रु० १०अ०। जायंत त्रि० (याचमान) याचनं कुर्वति, "जायंता पाणिय'' याचमानः पानीयम्। प्रश्न०३ आश्र० द्वार। जायअंधारूवग पु० (जातान्धरूपक)जातमुत्पन्नमन्ध कनयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सितमङ्गरूपं यस्यासौ। जातान्धरूपके, विपा०१ श्रु० १अ० जायकप्पपुं० (जातकल्प) कल्पभेदे, जाता निष्पन्नाः श्रुत संपदुपेततया लब्धात्मलाभाः साधवस्तदव्यतिरेकात्कल्पोऽपि जात उच्यते। ध०३ अधि०। पञ्चा जायकम्म न० (जातकर्मन्) जातस्य कर्म / मन्त्रवत्सर्पिष्प्राश नादि / संस्कारभेदे, वाचा नालच्छेदादिके प्रसवकर्मणि च / “पढमे दिवसे जायकम्मं करेंति' जातकर्म प्रसवकर्म नालच्छेदननिखननादिकम्। ज्ञा० | 1 श्रु० 1 अ० "णिवत्ते असुइं जायकम्मकरणे" जातकर्मणा प्रसवव्यापाराणां करणं विधानम्। तस्मिन्, स्था० 6 ठा०। औ०। जायकोऊहल त्रि० (जातकुतूहल) जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहलः। जातौत्सुक्ये, रा०ा सू० प्र०। जायग न० (जातक) जातस्य हितम्-कन्। जातस्य शुभाशुभ निर्णायके बृहज्जातकादौ ग्रन्थे, जातकर्मरूपे संस्कारभेदे चा वाच०। *जायक न०। जयति गन्धान्तरं जि–णवुल। पीतवर्णे सुगन्धि काठे, वाचन *याचक त्रि०। याच-णवुल। याञ्चाकारके, वाचा देवैर्भगवत्स कथादी (सकथा जानुः) गृहीते सति श्रावका देवानतिशय भक्तया याचितवन्तः देवा अपि तेषां प्रचुरत्वान्महता योन याचनाऽभिहता आहुः- "अहो याचकाः" इति। तत एव याचका रूढाः। आ० म०प्र०। "ते च सढा अग्गिसकदधादीणि जायंति ताहे देवेहि भणित-इमे के रिसस, "जायगा" ततो जायगसहो जातो। ताहे अग्गिं घेत्तुं तेसएसुसएसु गेहेसु ठवें ति।" आ० चु० 1 अ *याजक पुं०। याजयति - यज्-णिच् - णवुल। धनादिलाभाय परार्थ यज्ञकर्तरि, ऋत्त्विगादौ, वाचा "सो तत्थ एव पडिसिद्धो, जायगेण महामुणी" याजकेन यज्ञकारकेण। उत्त०२६ अ०॥ जायण न० (याचन) याच-ल्युट्ा याञ्चायाम्, वाचा पञ्चा० प्रार्थने, प्रव०६६ द्वारा मार्गणे च / आव० 4 अ० यात्रन न०। कदर्थने, प्रश्न०२ आश्रद्वार। जायणजीवण त्रि० (याचनजीवन) याचनेन जीवनं प्राणधार णसस्येति याचनजीविनः। आर्षत्वदिकारः। उत्त० 12 अ० *याचनजीविन् त्रि०ा याचनेन जीवनशीले च। "जाणाहि मेजा यणजीविणोति" उत्त०१२ अ०॥ जायणा स्त्री० (याञ्चा) याच् -- नङ्। प्रार्थनायाम, वाच०ज्ञा०। उत्त०/ मार्गणे चा आव० 4 अ०॥ यातनास्त्री०। चुरा० यत्-युच्। तीव्रवेदनायाम्, वाचा कदर्थन नायाम्, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति पर्यायाः आव० 6 अ० "जायणा करणसयाणि'' कदर्थनहेतु शतानि। प्रश्न 3 आश्र० द्वारा जायणापरीसह पुं० (याञ्चापरीषह) याचनं याञ्चा प्राथनेत्यर्थः। सैव परीषहो याञ्चापरीषहः। प्रव०६ द्वारा उत्तका परीषहभेदे, (आव०) भिक्षोहिं वस्त्रपात्रान्नपानप्रतिश्रयादिपरतो लब्धव्यं सर्वमेव शालीनतया च न याचा प्रत्याद्धियते। साधुना तु प्रागल्भ्यभाजा सा जाते कार्य स्वधर्मकाय परिपालनाय याचनमश्वयं कार्य मित्येवमनुतिष्टता याञ्चापरीषहविजयः कृतो भवति / आव० 4 अ० प्रव०। पं० सं० आ० चू० याञ्चापरीषहमाह - दुक्करं खलु भो निचं, अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वं सेजाइ त होइ, णत्थि किंचि अजाइतं // 28|| गोयरगपविट्टस्स, पाणी णो सुप्पभारए। सेओ आगारवासो त्ति, इइ भिक्खू न चिंतए|२६||
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________________ जायणापरीसह 1453 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जायमजायपारिट्ठावणिथा दुष्करसूत्रम् -दुःखेन क्रियते इति दुष्करम् / दुरनुष्ठानं खलुर्विशेषणे। निरूपकारिण इति विशेष द्योतयति। भो इत्यामन्त्रणे। नित्यं सर्वकालं यवद्धजीवमित्यर्थः। अनगारस्य भिक्षोरिति। चः प्राग्वत्। किं तत् दुष्करमित्याह - यत्सर्वमाहारो पकरणादि (से) तस्य याचितं भवति। नास्ति किञ्चिद् दन्तशोधनाद्यप्ययाचितं ततः सर्वस्यापि वस्तुनो याचनमिति गम्यमानेन विशेषेण दुष्करमित्यस्य सम्बन्ध इति सूत्रार्थः ॥२८ततश्च गोचरसूत्राम् गोरिव चरणं गोचरो, यथाऽसौ परिचितापरिचितविशेषमपहायैव प्रवर्तता तथा साधुरपि भिक्षार्थ तस्याग्रं प्रधानं यतोऽसौ एषणयुक्तो गृणहति। न पुनगौरवि। यथाकथंचित्तस्मिन् प्रविष्टो गोचराग्रप्रविष्टः तस्य पाणिर्हस्तो (नो) नैव सुखेन प्रसार्यते पिण्डादिग्रहणार्थ प्रवर्तते इति सुप्रसारः स एव सुप्रसारकः कथं हि निरूपकारिणा परः प्रतिदिनं प्रणयितुं शक्य उत्तरत्र, इति शब्दस्य भिन्नक्रमत्वा दित्यस्माद्धेतोः श्रेयानतिशयप्रशस्योऽगारवासं गार्हस्थ्य तत्रा हि न कश्चिद् याच्यते, स्वभुजार्जितं च दीनादिभ्यः संविभज्य भुज्यते इत्येतद्भिक्षुर्न चिन्तयेत्। यतो गृहवासो बहुसावधो गृहिभ्यः पिण्डादिग्रहणं न्याय्यमिति भावः। इति सूत्रार्थः // 26 // सांप्रतं ग्रामद्वारं तत्र "दुक्करं खलु भो निचं' इत्यादि। सूत्राम्। अर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह-जायण गाहरूंजायणपरसिहम्मि य बलदेवो इत्थ आहरणम्। याञ्चापरीषहे बलदेवोऽत्रा भवति (आहरणम्) उदाहरणम्। अत्र संप्रदाय :- "जया सो वासुदेवो सव्वं वहतो सिद्धत्थेणं पडिवाहिओ कण्हस्स सरीरं सक्कारेउं कयसामाइयो लिंगपडि वजिओ तु गोसिहरे एवं तप्पमापोण कह भिचाण भिक्खउं अलीइस्संतणकठाहाराईण भिक्खं गेहति न गामं न नगरं अल्लियत्ति। तेण सो णाभियासिओ जायणपरीसहो एवं न कायव्वं। अण्णे भणति -- बलदेवस्स भिक्खं भमतस्स बहुओ जणो तस्स नयेण खित्तोण किंचि अएणं जाणत्ति तचित्तो चेव वेठ्ठति तेण न सो हिंडति गामनगरादिजहा पडियाहिंतो चेव भिक्खं जायइ ति। एस जायणापरीसहो पसत्थो" एवं शेष साधुभिरपि याञ्चापरीषहः सोढव्य इति। उत्त०२ अ० "परदत्तोप-जीवित्वात्, यतीनां नास्ति जीवितम्। यतोऽतो यावता दुःखं, क्षाम्ये नेच्छेदगारिताम् // 1 // " आ० म०द्धिा योगशास्त्रवृत्तौ-नायचितं यतीनां यत्, परदत्तोपजीविनाम्। याञ्चादुःखं प्रतीच्छेत्तन्नेच्छेत्पुनरगारिताम्॥१४|| ध०३ अधिन सांप्रतं याञ्चापरीषहमधिकृत्याह - सदा दत्तेसणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया (6) यतीन सदा सर्वदा दन्तशोधनाद्यपि परेण दत्तमेषणीय मुत्पादा घेषणादोषरहितमुपभोक्तव्यमित्यतः क्षुधादिवेदनातीनां यावज्जीव परदत्तषणादुखं भवति। अपिचेयं याञ्चापरीषहोऽल्पसत्त्वैर्दुःखेन प्रणोद्यते त्यज्यते। तथा चोक्तम्"डिज्झाइ मुहलावण्णं, वाया घोलेई कंठमज्झम्मि। कढ कह कहेई हिययं, देहि त्ति परं भणतस्स // 1 // गति भ्रंशो मुखे दैन्यं, ग्राास्वेदो विवर्णता। मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिन्हानि याचके / / 2 / / " इत्यादि। एवंदुस्त्यजं याञ्चापरीषह परित्यज्य गताऽभिमाना महासत्त्या ज्ञानाद्यभिवृद्धये महापुरुषसेवितंपन्थानमनुव्रजन्तीति। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०॥ जायणी स्त्री०(याचनी) याच्यतेऽनयेति याचनी। भाषाभेदे, स्था०४ ठा० 1 उ०। याचन। कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति मार्गणरूपे भाषाभेदे, प्रज्ञा०११ पद। भला दश०। संथा०। जायतेय पुं० (जाततेजस्) अग्नौ, "जायतेयं न इच्छति' दश०६ अ० "जायतेयं समारम्भ, बहुओ रुभिया जणा। अंतोधूमेण मारेइ, महामोहं पकुव्वइ स०३० सम० जायथाम त्रि० (जातस्थामन्) उत्पन्नयले, "वसभो इव जायथामे" गौरिवोत्पन्नबलः। स्था०६ ठा०। जायपक्ख पुं० (जातपक्ष) जाततन्तुरूहे, "जायपक्खा जहा हंसा' उत्त०२३ अ०॥ जायपुंखाइपुं० (जातपुख्याति) उत्पन्नगुणपुरूषविवेक प्रख्यातो, तत्पर जातपुख्याते, ठा० 1 ठा जायफल न० (जातफल) पुत्रारूपे फले, "जायफले समुप्पण्णे" जातः पुत्राः स एव फलं गृहस्थानां तथाहि पुरूषाणां कामभोगः फलम् तेषामपि प्रधानकार्य पुत्रजन्मेति। सूत्रा०१ श्रु०४ अ०२ उ०) जायमजायकप्प पुं० (जाताऽजातकल्प) कल्पभेदे, (पं० प्रा०) जातमजावो अहुणा, दोण्ह वि एते समं तु वचंति। जातं णिप्पण्णंति य, एगढ़ होति णायव्वं। जातमजातं करणं, जाते करणे गती तिहा ठिण्णा। अजाए करणम्मि तु अ-ण्णतरिं तं गती जाइ। जातं खलु णिप्पण्णं, सुत्तेण ऽत्थेण तदुभयेएणं च। चरणेण य संजुत्तं, वतिरित्तं होति य अजातं। जातकरणेण ठिण्णा, नरगतिरिक्खा गती उदोण्णि भवे। अहवा वि तिहा ठिन्ना, नरगतिरिक्खा मणुस्सगती। दो वेसु वि तिहि गती, ठिण्णा वेमाणिएसु उवउत्ती। चउसु विगतीसु गच्छति, अण्णतरि अजातकरणेणं। एसो जातमजाते, कप्पो अभिहितो श्याणिं तु / पं०भा०। इयाणिं जायमजायकप्पं समं च वयंति। जातो निष्पन्न इत्यर्थः। अहवाजायकप्पो संविगीयत्थाणं, इथरेसिं संविग्गासंविग्गाणं, अगीयत्थाणं अजायकप्पो। जइजायकरण जायकप्पो असद्धृतमजातमित्यनान्तरम् अजातकरणम जातकल्पः जायकरणे विदो नरगतिरिक्खजाणी य गईओ छिन्नाओ, अजायकरणे चउसु वि गईसु अन्नयरि गई गच्छइ। जायमजायकरणा। पं० चूना जायमजायपारिट्ठावणिया स्त्री० (जाताजातपारिष्ठापनिका) द्वि० वा जाताजातपारिष्ठापनिकयोः (ग०) जाताजातस्वरूपं यथा - "आहारम्मि उ जाया, सा दुविहा होइ आणुपुव्वीए। जाया चेव सुविहिया, नायव्वा तह अजाया य॥१॥ आहाकम्मे य तहा, लोभविलआभिओगिए गहिए।
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________________ जायमजायपारिट्ठावणिथा 1454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाया एएण होइ जायं, वोच्छं से विही इवोरिसरणं / / " जायरूवे जंच प्रवालगवत् जानंतं जायरूवं भण्णति नि० चू० 130) आधाकर्मणि च तथा लोभाद् गृहीते, विषकृते गृहीते, मक्षिकादि विपस्या रूप्ये च, "हिरणं जायरूव च, मणसा विण चिंतए" जातरूपं रूप्यम् / जाते. आभियोगिके वशीकरणादिमन्त्राऽभिसंस्कृते, ततोऽन्यथात्वाद- उत्त० 35 अग लिङ्ग तो ज्ञाते सति एतेनाधाकर्मादिदोषेण जाता स्यात्। (से) तस्य जायरूवकंभ न०(जातरूपकाण्ड) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः वोडशसु विधिना व्युत्सर्जनं वक्ष्ये // 2 // काण्डेषु त्रयोदशे काण्डे, स्था० 10 ठा०। "एगंतमणावाए, अचित्ते थंडिले गुरूवइटे। जायव पु० (यादव) यदोरपत्यम्। यदु-अण। यदुवंशजे, "पज्जुण्णपईववारेण अक्कमित्ता, तिट्टाणं सावणं कुजा // 3 // " संवअणिरूद्धणिसढउसुयसारणगयसुमुहदुम्मुहाईणं जायवाणं"। श्रीन वारान् श्रावणं कुर्यात्, अमुकदोषादिदं त्यज्यते इति | प्रद्युम्रप्रतीपशाम्बानिरूद्धनिषधोल्मुक सारणगज-सुमुखदुर्मुखादीना निरूच्चरेत् // 3 // यदोरपत्यानाम्। प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। "भायरिए य गिलाणे, पाहुणए दुल्लभे सहस लाभे। जायवेय पुं० (जातवेदस) जातान् प्राणिनः विन्दते जठरानलत्वेन। 'विट्ट एसा उ खलु अजाया. वोच्छसि विहीइ वोसिरणं // 4 // " लाभ। असुन्। वहौ, "जायवेयं पाएहिं हणाह जे भिक्खु अवमन्नह" आचार्याद्यर्थ तथा दुर्लभे विशिष्ट द्रव्ये सति सहसा च तल्लाभे जाते जातवेदसमनिमा उत्त०२२ अ०। चित्रकक्षेचा वाच०। सति इत्यादि। हेतोरधिकग्रहणं स्यात्। एषा अजातपारिष्ठापनिका // 3 // | जायसंसय त्रि० (जातसंशय) जातः संशयो यस्य स जात संशयः "एगतमणावाए, अचित्थंडिले गुरूवइटे। उत्पन्नसंशये, सू०प्र०१ पाहु०। औ०। ज्ञा० चं० प्र०। जंगा राम आलोए तिण्णि पुंजा, तिवाणं सावणं कुजा / / 5 // " जायसढ त्रि०(जातश्राद्ध) जाता प्रवृत्ता श्रद्धा इच्छा विशेषो यस्यासी आलोके प्रकाशेशुद्धाहारस्यत्रीन् पुञ्जान् कुर्यात्, आधाकर्मादि जातश्राद्धः। प्रवृत्तेच्छाविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। चं० प्र०। सू० प्र०) मूलगुणदुष्ट एकः। उत्तरगुणदुष्टे तुद्वौ, इति विशेषः। पूर्ववत् त्रि:- श्रावणं राग जं०ा नि० औ01 कुर्यात् एवमुपकरणविषयेऽपि जाताजाते पारिष्टापनिकंज्ञेय इति। ग०२ जाया स्वी० (यात्रा) या-ट्रना जिगीषया राज्ञा गमने, गमनमात्रे, अधिo देवोद्देशेनोत्सवभेदे, रथयात्रादौ चा वाचला निहि च।''भारस्स जाता जायमजायाहार पुं० (जाताऽजाताधार) आवश्यकपारिष्ठा / मुणि भुंजएजा यात्रार्थं पञ्चमहाव्रत भारनिर्वाहणार्थम्। सूत्रा० 1 श्रुक पनिकानिर्युक्तयुक्तजाताख्यपारिष्ठापनिकाविधिज्ञ, (ग०) "जायम 7 अ० भ० जायाहारे' (जायमजायाहारे ति) मकारस्यालाक्षणि कत्वात् *जाया स्त्रीला जन-यका भार्यायाम, (भ०)। स्त्रीत्वेन जायाम्बयोः। जाताधारः। आवश्यकपारिष्ठापनिकानिर्युक्तजीताख्य पारिष्ठानिका- कान्ताजनन्योः प्रति० भ०॥ विधिज्ञ इत्यर्थःनि०२ अधि० समणोवासगस्स णं भंते! सामाइयकमस्स समणोवासए जाताजाताहार पुं०1 "कृताकृताहारे (ग०) "जायमजायाहारे' अत्थमाणस्स केइ जायं चरेज्जा / स णं भंते! किं जायं चरइ, (जायमजायाहारे त्ति) मकारस्यालाक्षणिकत्वात्। जातः संपन्नोऽजा- अजायं चरइ?। गोयमा! जायं चरइ, नो अजायं चरइ। तस्सणं तश्चासंपन्न आहारो यस्यासौ जाताहारः। कदाचित् कृताहार: भंते! तेहिं सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहोववासेहिंसा कदाचिदकृता हार इत्यर्थः। तत्रशुद्धे लब्धे जाताहारः। अलब्धे, अशुद्धे जाया अजाया भवई?। हंता भवइ। से केणं खाइयं अटेणं भंते! वा लब्धे, अजाताहारः। उक्तं च - "अलब्धतपसो बुद्धिलब्धे देहस्य एवं वुचइ-जायं चरइ, नो अजायं चरइ? गोयमा! तस्स णं एवं धारणेति"ग०२ अधिo भवइनो मे माया, णो मे पिया, नो मे भाया, णो मे भइणी, नो *यात्रामात्राहार पुंगा यात्रााये मात्रयाऽऽहारो यस्या- सौ यात्राहारः। मे भजा, नो मे पुत्ता, नो मे धूया, नो मे सुण्हा, पेजबंधणे पुण संयमस्वाध्यायादिनिहाय मात्रयाऽऽहारं कुर्वति, "जायमजायाहारे'' से अव्वोच्छिण्णे भवइ, से तेणटेणं गोयमा! जाव नो अजायं अथवा-यात्रायै मात्रायाऽऽहारो यस्यासौ यात्राहारः। आर्षत्वात् चेत्थं चरइ। सिद्धिः। तत्र यात्रा संयमस्वाध्याय रूपा, मात्रा तु तदर्थमेव पुरूषस्त्री- (केइ जायं चरेत्ति) कश्चिदुपपत्तिरित्यर्थः। जायां भार्या चरेत सवेत षण्ढानां क्रमेण द्वात्रिंशदष्टा विंशतिचतुर्विशति कवलप्रमाणाहारि- (सुण्ह ति) स्नुषा पुत्रभार्या (पेजबंधणे त्ति) प्रेमैव प्रीतिरेव बन्धनं तत्पुनः मध्यादेकद्धियादि कवलेनाहारग्रहणमिति / ग०२ अधिक। 'से' तस्य श्राद्धस्य अव्यवच्छिन्न भवति। अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात्। जायमक पुं० (जातमक्) जन्मतो मूके, विपा० 1 श्रु०१ अ०। प्रेमानुबन्धस्य चानुमतिरूप त्वादिति। भ०८ श०५ उ०। चमरस्याजायरूवन० (जातरूप) जातं रुपमस्य प्रशस्तवर्ण , वाचा सुवर्णे, राधा सुरेन्द्रस्य स्वनामख्यातायां बाह्यायां पर्षदि, स्था०३ठा०२ उ०'बाहि प्रश्न। ज्ञा०ा स्थान जातं लब्धं रूपं स्वरूप रागदिकुद्रव्यविरहादु येन जाया" जी०३ प्रतिक स तथा स्था०६ ठा०। सुवर्णविशेषे, राधा जंगा "जायरूवमईओ | *जाता स्वी०। प्रकृतिमहत्ववर्जितत्वेनास्थानाकोपादीनां जातत्वाओहाडणीओ" जातरूपं सुवर्णविशेषः। जी०३ प्रति० "अहवा-- | आता / चमरादिदेवेन्द्राणां बाह्यपर्षदि, भ०१२०१ उ०
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________________ जायाइन) 1455 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जालगंठिया पायाइनि]यायाजिन पुंग यायजतीत्येवंशीलो यायाजी। वजनशीले, "जायाई जम जन्नम्मि' यमयज्ञ यायाजी। उत्त० 25 अ०॥ जायामाया स्त्री० (जात्रामात्रा) यात्रा संयमयात्रा तस्यां मात्रा यात्रामात्र "आयागुत्ते णयाधीरे जायामाथाए'। आचा० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। संधमार्थ परिमिताहारग्रहणे, नं० जायामायावित्ति स्त्री० (जावामात्रावृत्ति) संयमयात्राप्रमाणायां जीविकायाम्, "जायामायावित्ती होत्था'' संयमयात्राप्रमाणाजीविकाऽभवत्। सूत्रा०२ श्रु०२ अ० "जायामायावित्तीओ'। यात्रा संयमयात्रा मात्रा तदर्थमेव परिमिताहारग्रहणम्, वृत्तिर्विविधैरभिग्रहविशेषेर्वर्तनम्। भ० 25 श०३ उ०ा नं जार पु० (जार) जीर्यतेऽनेन 'ज' करणे घञ् / उपपत्तौ, वाच०। मणिलक्षणविशेषे चा जारमारेति लक्षणविशेषौ सम्यग्मणि लक्षणवेदिनी लोकाद्धेदितव्यौ। जी०३ प्रति०। रा०जं०। आ० म०। जारिश त्रि० (यादृश) यस्येव दर्शनमस्या यद्-दृश टः। दृशःकिप्टक सकः॥८।१।१४२।। एतदन्तस्य दृशेर्ऋतोरिः। प्रा०१पादा यत्सदृशे, यथाविथे, स्त्रियां ड्रीप। वाचा आ० म०प्र०। "जारिसओ ज नामा, जह य कओ जारिसं फलं देंति'' याद्दशको यत्स्वरूपकः यादृशं यद्रूपम्। प्रश्न०१ आश्र० द्वारा "जंजारिसं पुव्वमकारि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए। यत्कर्म यादृशं यदनुभावं यादृकस्थितिकं वा। सूत्रा० 1 श्रु०५ भ०२ उन जारूकण्हं पुं० (जारूकृष्ण) वशिष्ठगोत्रान्तर्गते गोत्रभेदे, स्था०७ ठा०। जाल पुं० (जाल) चुरा० 'जल' सेवरणे। घाघाते, 'जल घातने णिच्अच। कदम्बवृक्षे, गवाक्षे, वाच० रा०ा जंग। सच्छिद्रे, गवाक्षविशेषे च। जालं सच्छिद्रो गवाक्षविशेषः। ज्ञा०१ श्रु०१ अ० जालकं विद्रान्वितो गृहावयवविशेषः। प्रश्न० 1 आश्र० द्वारा ओ०। 'जालानि जालकाभवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि। रा० जी०। सू० प्र०) चं० प्र०) सा जी0। "जालंतरत्यदीवप्पहोवमो कड्डगावही होइ" अपवरकजालकान्तरस्थप्रदीपप्रभोपमः। विश० गवाक्षछिद्रे, ''गवाक्षजालैरभिनिष्पतन्त्यः' इति भट्टिः! मत्स्यधारणार्थे शणसूत्रानिर्मिते स्वनामख्याते आनाथे, वाचा 'जासुच्छिप्पणाणि''| जालेन वाऽऽनायेनोत्क्षेपणानि प्रश्न०१ आश्र0 द्वार। मत्स्यबन्धनविशेषे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वारा विपा०। "तहेव कोंचा समइक्कमंता, तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा''। जालानि बन्धनविशेषरूपाणि उत्त० 14 अ० "विंदसएहिं जालेहि" उत्त०१ अ० "छिदित्तु जालं अवलंवरोहिया" उत्त० 14 अ० अस्फुटकलिकायाम्, क्षुद्रफले, मृगपक्ष्यादिधारणार्थे पाशे, शाढये, दम्भे, समूहे च, वाचा जं०ा आ० म०ा द्रव्या०। सन्ताने, आव० 4 अ०। इन्द्रजाले, वाचला चरणामरणविशेषे चा न०। औ०। जालंतररयण त्रि०(जालान्तररत्न) जालान्तरेषु जालक मध्यभागेषु रत्नानि वस्था तस्मिन्, जालकानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतान्येव तदन्तरेषु च शोभा) रत्नानि संभवन्त्येव। सकारागाचं० प्र० जी०। सू०प्र० जालंधर पुं० (जालन्धर) त्रिगर्तास्ये देशे, तद्देशस्थे जने चा व०च०। स्वनामख्याते योगिराजे, वाच०। गोत्राभेदे च / "देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए / कल्प० १क्षण। आ०० चू०। जालंधरायण पुं० (जालन्धरायण) गोत्रभेदे, "देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणसगुसत्ताए। आचा०३ चू०। जालकडगपुं०(जालकटक)जालानिजालकानि भवनभित्तिषु लोकेऽपि प्रसिद्धानि तेषां कटकः समूहो जालकटकः। जी० 3 प्रति०। जालकटकाकीर्णे रम्यसंस्थाने प्रदेशविशेषे, जी०३ प्रति०ा "विजवस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसिहियाए दो दोजालकण्गा पण्णत्ता'। जालकटको जालकटकाकीर्णी प्रदेशविशेषौ। जं० 1 वक्ष०ा "सा णं जगतीए केणं जालकडएणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता' जी०३ प्रति०। जालकटकाकीर्णा रम्यसंस्थानप्रदेशयिविशेषपङ्किरिति भावः। जी०३ प्रति जालग पुं० (जालक) स्वार्थे -कन्। गवाक्षठिद्रे, पुं०। मोचकफले, नवकलिकासमूहे, क्षारके च। न०। वाच०। छिद्रान्विते गृहावयवविशेष, प्रक्ष०१आश्र० द्वारा जालकं विच्छित्तिठिद्रवत् गृहायवयवविशेषः। ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। जालकानि भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि। रा०ा जी०। स०। सृ० प्र०ा च० प्र० जी०। चरणाभरण विशेष च। औ०। "सखिखिणीजालपरिक्खित्ताणं " सह किङ्किणिकाभिः क्षुद्रधण्टिकाभिः यज्जालं जालकं तदाभरणविशेषस्तेन परिक्षिप्ताः परिकरिताः ये ते तथा तेषाम्। औ०। जालगंठिया स्त्री० (जालग्रन्थिका) जालं मत्स्यबन्धनं, तस्येव ग्रन्थयो यस्यां सा जालग्रन्थिका। जालवद् ग्रन्थियुतायाम्, किं स्वरूपा सा? इत्याहजालगंठियाइ वा, आणुपुट्विगंठिया वा अणंतरगंठिया परंपरगठिया अण्णमण्णगंठिया अण्णमण्णगुरूयत्ताए अण्णमण्णभारियत्ताए अण्णमण्णगुरूयसंभारियत्ताए अण्णमप्ताघडत्ताए चिट्ठति। (जालगंठिय त्ति) जालं मत्स्यबन्धनं तस्येव ग्रन्थयो यस्यां सा जालग्रन्थिका। किं स्वरूपा सा? इत्याह - (आणुपुद्विगंठिय त्ति) आनुपूर्त्या परिपाट्या ग्रथिता गुम्फिता आधुचितग्रन्थीनामादौ विधानादन्तोचितानां च क्रमेणान्त एव करणात्, एतदेव प्रपञ्चयन्नाह - (अणंतरगठिय त्ति) प्रथमग्रन्थीनामनन्तरव्यवस्थापितैग्रैन्थिभिः सह ग्रथिता अनन्तरग्रथिता एवं परम्परैर्व्यवहितैः सह ग्रथिता परम्परग्रथिता कि मुक्तं भवति -- (अन्नमन्नगठिय त्ति) अन्योऽन्यं परस्परेण एकेन ग्रन्थिना सहान्यो ग्रन्थिरन्येन सहान्य इत्येवं ग्रथिता अन्योऽन्यं ग्रथिता एवं च-(अन्नमन्नगुरूयत्ताएत्ति) अन्योन्येन ग्रन्थनात्गुरुकता विस्तीर्णता अन्योऽन्यगुरूकता तया (अन्नमभारियत्ताए त्ति) अन्योऽन्यस्य यो भारः स विद्यते यत्रा तदन्योऽन्यभारिकं तद्भावस्तत्ता तथा एतस्यैव प्रत्येकी
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________________ जालगंठिया 1456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जाव तार्थद्रयस्य संयोजनेन तयोरेव प्रकर्थमभिधातुमाह - (अन्नमन्न- सामी समोसढे सेणिओ णिग्गओ जालि जहा मेहे तहा गुरूयसंभारियत्ताए त्ति) अन्योऽन्येन गुरूकं यत्संभारिक च तत्तथा जालविनिग्गतो तहेव निक्खंतो जहा मेहो एक्कारस अंगोई तद्भावस्तत्ता तया - (अन्नमनघडात्ताए ति) अन्योऽन्यं घटा अहिज्जति अहिज्जतित्ता गुणरयणतवोकम्मं जहा खंदयस्स एवं० समुदायरचना या तदन्योऽन्यघटं तद्भावस्तत्ता तया - (चिट्टइ त्ति) जाव खंदयस्स वत्तवया सो चेव वायणा आपुच्छतिथेरेहिं सद्धिं आस्ते, इति। भ० 5 श०३ उ०। विपुले तहेव दुरूहति, नवरं सोलम वासाई सामाणि--परियागं जालघरग न०(जालगृहक) जालकान्विते गृहे, ज्ञा० 1 श्रु० 3 अ० पाउणित्ता काले मासे कालं किच्चा उड्डे चंदिमसोहम्मीसाण० जालगृहकाणि गवाक्षयुतानि गृहकाणि। रा०1 जी०। दादिमय- जाव अरणअचुए कप्पे नवयगेविजुयविमाणे पत्थडे उड्ढ दुरवीति जालकप्रायकुडयं यत्रा मध्यव्यवस्थितं वस्तु बहिः- स्थितैर्न चउवत्ता विजए विमाणे देवत्ताए उववण्णे तेणं हेरे भगवओ जालि दृश्यते। ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। औ| अणगारे कालगयं जाणित्तापरिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति जालपंजर न० (जालपञ्जर) गवाक्षे, जालपज्जरणि गवाक्षापर पर्यायाणि। करेंतित्ता पत्तचीवराइ गिण्हति / तहेव उत्तरंति० जाव इमीसे जी० 3 प्रति०। रा०ा जं०। आयरे भंडए भंते! भगवं गोयमे ! जाव एवं खलु देवाणुप्पियाणं जालपगट पुं० (जालप्रकट) ज्वालासमूहे, कल्प०३ क्षण। अंतेवासी जालिनामं अणगारं पगतिभद्दए सेणीआ जालिअण जालविंद न० (जालवृन्द) गवाक्षसमूहे, जी०३ प्रति०। गारे कालगए कहिं उववण्णे एवं खलु गोयमा! मम अंतेवासी जाला स्वी० (ज्वाला) बादरतेजस्कायभेदे, प्रज्ञा०१ पद। "जालाए त्ति तहेव० जाव खंदयस्स कालगए उद्धं चंदिम० जाव विजयविमाणे वा" ज्वाला अनलसंबद्धेति। जी०३ प्रतिका'जाला तु रंधनठिन्ना।" देवत्ताए उववण्णे जालिसमणं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिती ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० ज्वाला अनलसंबद्धा दीपशिखेत्यन्ये। जी०१ पण्णत्ता? गोयमा! वत्तीसं सागरोवमा य ठित्ती पण्णत्ता। से णं प्रति०। ज्वालानाम् अनलसंबद्ध-स्वरूपाणाम्। भ० 14 श० 7 उ०। मंते! ततो देवलोगातो आउक्खएणं कहिं गच्छहित्ति ज्वालाग्निशिखा ठिन्नमूला। स्था०५ टा०३ उ०। ज्वालाछिन्नमूलानङ्गार गच्छहित्ता? गोयमा! महा विदेहे वासे सिज्झिहि त्ति। एवं खलु प्रतिबद्धेति। आचा० 1 श्रु० 1 अ० 4 उ०। ज्वाला ठिन्नमूला जंबू! समणेणं० जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइय-दसाणं पढमस्स ज्वलनशिखैवा उत्त० 36 अ०। हस्तिनापुरवास्तव्यस्य पद्योत्तर वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। अणु०१ वर्ग। नृपतेर्भार्यायाम्, "हत्थिणाउरे तत्थ य पउमुत्तरो राया जाला तस्स अन्तकृदृशाप्रथमवर्गाद्याध्ययनप्रतिवद्धवक्तव्यतावोऽनगादे च। देवी 'ती० 21 कल्पा महापद्मचक्रवर्तिनो मातरि, स०। आव०। तद्वक्तव्यताचन्द्रप्रभजिनस्य शासनदेवतायाम्, "अचुयसंता जाला'' (337) पढपस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अहे पणते? एवं खलु जंबू! तस्याः वर्णको यथा-श्रीचन्द्रप्रभस्य ज्वाला। मतान्तरेण भृकुटिदेवी / तेणं कालेणं तेणं समणेणं वारवती नयरी तीसे जहा पढमे० पीतवर्णा वरालकाख्यजीवविशेषवाहना चतुभुर्जा खङ्ग मुद्ररभूषित- जाव कण्हे वासुदेवे आहेबच्च० जाव विहरति। तत्थ णं वारवतीए दक्षिणकरद्वया फलकपरशुयुतवामपाणिद्वया चा प्रव० 27 द्वार। णयरीए वासुदेवो राया, धारणा देवी, वण्णओ जहागोयमो णवरं जालाउ पु० (जालायुष) द्वीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। जी०। जालिकुमारे पणासतो दातो वारसंगी सोलस-वासपरियाओ जालाउय पुं०(जालायुष्क) 'जालाउ' शब्दार्थे, प्रज्ञा०१ पद) सेसं जहा गोयरस० जाव सेत्तुंजे सिद्धो / अन्त०४ वर्ग। जालामालिणी स्त्री० (ज्वालामालिनी) प्रभासस्थायां देवतायाम्, ती० | जालिय त्रि० (ज्वालित) दीपिते, आ० म० द्वि०ा जी०। 45 कल्पन जालिया स्त्री० (जालिका) वृन्ते, एकाथिकानधिकृत्य (अन्तः जालावंत त्रि० (ज्वालयत्) दीपयति, भडा०७ अ०। 4 वर्ग०) जालकं, जालिका, वृन्तम्, इति। विशे। लोह कञ्चुके च। जालि पुं० (जालि) अनुत्तरोपपातिकदशाप्रथमवर्गाद्याध्ययन प्रतिवन- | प्रश्न०३ आश्र० द्वारा वक्तव्यताकेऽनगारे, (अणु०) जालुज्जल त्रि० (ज्वालोज्जवल) प्रभोजवले, औ०। तद्भुक्तव्यता जालुज्जलपहसियाभिराम त्रि० (ज्वालोज्जवलप्रहसिताभिराम) ज्वाल पढमस्स णं भंते। अज्झयणस्स अणुत्तरोववाइयस्स समणेणं० एव यत् उज्जवलं प्रहसितमिव प्रहसितं तेनाऽभिरामो ज्वालोज्जवलजाव० संपत्तेण के अढे पण्णत्ते?। एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं प्रहसिताऽभिरामः। ज्वालात्मकोजवलप्रहसितेना ऽभिरमणीये, जी० तेणं समएणं रायगिहे नयरे रिसृत्यमिय-समद्धिगुणसीले चेइए | 3 प्रतिका सेणिए राया धारिणी देवी सीहो सुमिणो 'जालिकुमारे' जहा | जाव त्रि० (यावत्) यत्परिमाणस्य मतुप / "अन्त्यव्यञ्जनस्य" मेहो अट्ठट्ठ तु दातो०माव उप्पिंपासाए फुटति० जाव विहरति। 1 / 11 / इति प्राकृतसूत्रोण तज्ञोपः। प्रा० 1 पाद। यत्परिमाणे -
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________________ जाव 1457- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जावजीवा साकल्ये, व्याप्तौ, वाचा परिमाणे, मर्यादायाम्, अवधारणे च। अल्प अव्या आ० चूल। उत्त०। (अा विशेषो 'जावजीवा' शब्दे द्रष्टव्यः) / जावइय त्रि० (यावत्क) यत्परिमाणे, पो०७ विव०। "अहवा जो जस्स जावइओ"। (जावइओ त्ति) यत्परिणामो यावान् स एव यावत्को मुहूर्तादिपरिणामः स तस्य तावत्कः पूजाकालो भवति। पञ्चा० 4 विव०। जावई स्त्री० (यावती) गुच्छात्मके वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद जावं च णं अव्य० (यावच णम्) यावति काले, "जावंचणं ति''यावन्तं कालमित्यर्थः। भ०१श०८ उ० जावंतपु० (यावत्) भगवत्याः प्रथमशतकस्य षष्ठे उद्देशे, "जावंते ति" यावच्छशब्दोपलक्षितः षष्ठः, यावतो भदन्ताव काशान्तरासूर्य इत्यादिसूत्रश्चासौ। भ०१२०१ उ०। जावग पुं० (यापक) हेतुनेदे, (स्था०) यापयति वादिनः कालयापना करोति। यथा काचिदसती एकैकरूपकैणेकैकमुष्टा लिण्डं दातव्यमिति दत्तशिक्षस्य पत्युस्त द्विक्रयार्थमुजयिनी प्रेषणोपायेन विट् सेवायां कालयापनां कृतवतीति यापकः। उक्तं च - "उम्भामिया य महिला जावगहेउम्मि उट्टलिंडाई हृता इह वृद्धव्याख्यातम्-प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा विशेषणबहुलो हेतुः कर्तव्यो यथा कालयापना भवति। ततोऽसौ नावगच्छाति प्रकृतमिति स चेहराः संभाव्यते, सचेतना वायवोऽपरप्रेरणे सति तिर्यगनियतत्वाभ्यां गतिमत्वात् गोशरीरवदिति। अयं हि हेतु विशेषण बहुलतया परस्य दुर धिगमत्वात् वादिनः कालयापनां करोति। स्वरूपमस्यानबवुध्यमानो हि परोनझटित्येवानैकान्तिकत्वादिददूषणोङ्गावनाय प्रवर्तितुं शक्कोल्यतो भवत्यस्माद्वादि नः कालयापनेति। अथ वा - योऽतीतिव्याप्तिकतया व्याप्तिसाधकप्रमाणान्तरसव्यपेक्षत्वान्न झटित्येव साध्ये प्रतीति करोति, अपि तु कालक्षेपेणेत्यसौ साध्यप्रतीति प्रति कालयापनाकारित्वात् यापकः, यथा क्षणिकं वस्त्विति पक्षे बौद्धस्य सत्वादिति हेतुने हि सत्वश्रवणादेव क्षणिकत्वं प्रत्येतिपरः, इत्यतो बौद्धाः सत्वं क्षणिकत्वेन व्याप्त मिति प्रसाधयितुमुपक्रमन्ते। तथा हिं- सत्वं नाम अर्थक्रियाकारित्वमेव, अन्यथा-वन्ध्यासु स्यापि सत्वप्रसङ्ग अर्थक्रिया तु नित्यस्यैक रूपत्वात्, न क्रमेण नापि योगपद्येन क्षणान्तरे अकर्तृत्वप्रसङ्गात्। इत्यतोऽर्थक्रियालक्षणं सत्वमक्षणिकान्निवर्तमानं क्षणिक एवावतिष्ठत इत्येवं क्षेपेण साध्य साधने कालयापनाकारित्वाद् यापकः सत्वलक्षणो हेतुरिति। स्था० 4 ठा०३ उ०। जावंताव अव्य०(यावत्तावत्) यावच तावच, द्वं०। बीजगणितप्रसिद्ध अव्यक्तमानानयनाय कल्प्ये प्रथमे राशी, वाचल। स्था० "जावंताव त्ति वा गुणकारो त्ति वा एगट्ट'' इति वचनात्। गुणकारस्तेन यत्संख्यानं तत्तथैवोच्यते तच प्रत्युत्पन्नामिति लोकरूढम्। अथवा-यावतः कुतोऽपि तावत एव गुणकाराद्यदृष्टिकादित्यर्थः। यत्र विवक्षितं संकलनादिकमानीयते तत यावत्तावत्संख्यानमिति। संख्यानभेदे, स्था० 10 ठा०। गणितभेदे, सूत्रा०२ श्रू०१ अ०। तत्रोदाहरणम् - "गच्छो वाञ्छाभ्यस्तो, वाञ्छयुतो गच्छसंगुणः कार्यः। द्विगुणीकृतवाच्छहते, वदन्ति संकलितमाचार्याः।।१।।" अत्रा किल गच्छो दश 10 ते च वाञ्छया यादृच्छिकगुणका रेणाष्टकेनाभ्यस्ता जाताऽशीतिः 80 ततो वाञ्छायुतास्ते अष्टाशीतिः 88 पुनर्गच्छन दशभिः संगुणिता अष्टौ शतान्यशीतत्वधिकानिजातानि, 880 ततो द्विगुणीकृतेन यादृच्छिकगुणकारेण षोडशभिर्भागे दृते तद्दशानां संकलितमिति 55 // इदं च पाटीगणितं श्रूयते। स्था० 10 ठा०। जावजीव अव्य० (यावज्जीव) यावदिति अयं शब्दोऽवधारणे वर्तते। (आ०म०) जीवनं जीवः, इति क्रियाशब्दः। आ०म०द्वि०। यावज्जीवो जीवनं प्राणधारणं यावजीवम्। "यावदवधारणे' ||2 / 1 / 8 / / इति (पाणि०) अव्ययीभावसमासः। आ०म०द्वि०। पा०। यावत् प्राणधारणमित्यर्थे, स्था०३ ठा०१ उ०। दर्शा पं०स०। "जावजीवं परिसहा उवसग्गा य संखया"। "यावज्जीवं" यावत् प्राणधारणम् / आचा०१ श्रु०म० 8 उ०। आजन्मेत्यर्थे च। "जावजीवदुद्धराई। आजन्माप्यनुद्धारणीयानि। प्रश्न०२ आश्र० द्वार। 'जावजीवं पि इम, वजइएयम्मिलोयम्मि (22) यावज्जीवम् आजन्मा पञ्चा० 10 विव०॥ "जावजीवं वंधणाय करिति / प्रश्न०३ आश्र० द्वार। जावजीवा स्त्री०यावज्जीव--अव्य०। (जावजीवाए त्ति) प्राकृतत्वात्। जीवन जीवः प्राणधारणं यावज्जीवो यावञ्जीवनं यावदित्यनेनाऽव्ययीभावसमासः। ततश्च यावजीवम् प्राणधारणं यावत् इत्यर्थ, पा०। "जावजीवाए अणिस्सिओ'' यावज्जीवं प्राणधारणं यावतु। पा०। आ०म० 'करेमि भंते! सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पञ्चक्खामि जावजीवाए'' यावच्छब्दः परिमाणमर्यादावधारणवचनः। तत्र परिमाणेयावन्मम जीवनपरिमाणं तावत्प्रत्याख्यामिति। मर्यादायामयावज्जीवनमिति प्राणधारण मर्यादीकृत्य , अवधारणे यावजीवनमेव प्रत्याख्यामिः, न तस्मात् परत इत्यर्थः। जीवनं जीवेत्ययं क्रियाशब्दः परिगृह्यते तया। अथवा प्रत्याख्यानक्रिया परिगृहते यावजीवो यस्यां सा यावज्जीवा। आ० म०द्विा यावच्छब्दार्थमाह-- जावदयं परिमाणे, मज्जायाए ऽवधारणे चेइ। तावजीवं जीवण-गरिमाणं जत्तियम्मि त्ति ||3516|| जावजीवमिहाऽऽरेण, मरणमञ्जायओन उपरओ॥३५१७॥ इह यावत्' अयं शब्दस्विष्वर्थेषु वर्तते, तद्यथा-परिमाणे, मर्यादायाम, अवधारणे च इति। तत्रा परिमाणार्थ तावदाह-(जावजीवमिति) किमुक्त भवति? यावन्मे जीवनपरिमाणमिह भवायुष्कस्य परिमाणं तावन्तं कालं प्रत्याचक्षे इति। मर्यादार्थ-माह - "जावजीवं'' इत्यादि। अत्र यावज्जीवमिति। किमुक्तं भवति?- आरेण मरणमर्यादायाः अर्वाक् प्रत्याचक्षे, नपुनस्तत्कालं प्रत्याख्यानग्रहणकाल एव, किंतु मरणसीमा यावत्प्रत्या-ख्यामीति। अवधारणेऽपि - यावद् इहभवे जीवनं तावदेव प्रत्याचक्षे, न तु परतो, देवाद्यवस्थायामविरतत्वे प्रत्याख्यानभङ्गप्रसङ्गात्। परतो मुत्कलमिति। विधिरपि न कर्तव्यो, भोगार्शसादोषानुषङ्गादिति स्वयमेव द्रष्टध्यमिति।३५१६।३५१७। अत्राक्षेपपरिहारावाह - जावजीवं पत्ते, जावज्जीवाए लिंगवचासो। भावप्पच्चयओ वा, जा जावजीवया ताए।।३५१८।।
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________________ जावजीवा 1458 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिइंदिय ननु उक्तन्यायेन यावज्जीवमिति निर्देश प्राप्ते यावजीवया इति निर्देशः 'जीव' प्राणधारणे इति वचनात्। ततो यावजीवया प्रत्याख्यामीति किमर्थे भगवता सूत्रकृता विहित? इति शेषः। अत्रा परिहारमाह - | कोऽर्थः आप्राणधारणं यावत् पापनिवृत्तिरिति, परतस्तु न विधि पि (लिंगवसातो त्ति) लिङ्गध्यत्ययोऽठा भगवतोऽभिवतः, तेनेत्थं निर्देश: प्रतिवेधः। विधावाशंसादोषप्रसङ्गात्। प्रतिषेधे तु सुरादिषूत्पन्नस्य कृत इत्यर्थः। अथवा-यावजीवशब्दात् भावप्रत्ययः उत्पाद्यते, ततश्चेत्यं भङ्ग प्रसङ्गात्। इह जीवनं जीव इति क्रियाशब्दो न जीवतीति जीव भावप्रत्यये उत्पादिते या यावजीवता इति निष्पद्यते, तया यावज्जीवतया आत्मपदार्थः। जीवनं च प्राणधारणम्। आ० म० प्र०ा "जावजीवाए जाव प्रत्याख्यामीति संबध्यत इति / / 3518|| से अट्टी यावज्जीक्या यावज्जीवतया वा, आजन्मत्यर्थः: प्रश्न०४ सम्ब० नन्बित्थमपि "यावजीवतया" इति प्राप्ते यावज्जीवया इति कथं द्वार। जीवनं जीवा यावत्परिमाणा जीवा जावजीवा। परिमाणवति भवतीत्याह - मर्यादावति अवधारणवति च जीविते, विशे०। जावज्जीवतया इति, जावज्जीवाए वण्णलोवाओ। जावज्जीवा खी०(यावजीवा) 'जावजीवा' शब्दार्थे, विशेषण जावज्जीवो जीसे, जावजीवाहवा सा उ॥३५१६।। जावमि पुं० (जावभि) मधुमतीनगरवास्तव्ये स्वनाम्ख्याते श्रेष्ठिनि, यावज्जीवतयेति निर्देश प्राप्ते यत् यावज्जीवया इत्युक्त तत्तकारलक्षण (ती०) वर्णलोपादिति द्रष्टव्यम्। तृतीयं परिहारमाह अथवा-जीवन जीवो 'मधुमत्या पुरि श्रेष्ठि, वास्तव्यो जावडिः पुरा। यावजीवो यस्यां सा यावज्जीवा इति बहुव्रीहिस्तया यावञ्जीवया' इत्येवं अष्टोत्तरे वर्षशते-ऽतीते श्रीविक्रमादिह / / 1 / / द्रष्टव्यमिति // 3516 // बहुव्यव्ययाद्विम्ब, जावडिः सन्यवीविशता ती०१ कल्पा तत्कथा अत्र विनेयपृच्छाम उत्तरं चाह - 'सेत्तुंजय' शब्द) का पुण सा संवज्झइ, पच्चक्खाणकिरिया तया सव्वं / जावसिय पु०(जावसिक) जवस मुद्रभाषादिद्रव्यं तेन चरन्तीति जावजीवाए ऽहं, पचक्खामिति सावजं // 3520 / / जावसिकाः। बृ० 1 उ०ा यासवाहिके, ओघ०। का पुनः पूर्वोक्तबहुव्रीहावन्यपदार्थे संबध्यत? इत्याह - प्रत्याख्यान जास पुं०(जाष) पिशाचभेदे, प्रज्ञा० 1 पदा क्रियात, तया यावजीवया प्रत्याख्यानक्रियया सर्व सावद्ययोगमहं *यास पुन यस-कर्तरिसंज्ञाया घञ्। दुरालभायाम्, प्रयासे, वाचा जासुमण पुं० न०(जपासुमनस्) जपा वनस्पतिविशेषः तस्याः सुमनसः 'प्रत्याख्यामि' इति संबन्ध इति // 3520 / / पुष्पाणिा जपापुष्पे, अन्त० 4 वर्ग। "जासुमण कुसुमेइ वा प्रज्ञा० 17 परिहारान्तरमाह -- पदा (जासुमणकुसुमरासित्ति) जपा कुसुमपुष्पस्य ज' इति लाकप्रसिजीवणमहवा जीवा, जावज्जीवा पुरा व सा नेया। द्धस्य यो राशिः। कल्प०३क्षणा वृक्षविशेषेचा जपासुमन्सश्च वृक्षविशेषः। तीए पाययवयणे, जावजीवाइतइएयं // 3521 / / ज्ञा०१ श्रु०१० अथवा जीवनं जीवा इति स्त्रीलिङ्गऽभिधायक एवाय शब्दः साध्यते, न जाहग पुं० (जाहक) सेहके, आ० म० प्र० तिर्यगविशेषे, आC म०प्र०। तु जीव इति पुंल्लिङ्गाऽभिधायकः। ततश्च यथा पुरापूर्व तथा अत्राप्यर्थ नं0 "स्तोकं स्तोकं पयः पीत्वा, जाहको लेडिपार्श्वतः " आ० क०। त्रयवृत्तिना यावच्छब्देन सह समासे सा यावज्जीवा ज्ञेयाः, तद्यथा-- जाहत्थन०(याथार्थ्य) यथार्थस्य भावः। सत्यत्वे, वास्तविकत्वे, वाचा यावत्परिमाणा जीवा यावजीया एवं मर्यादावधारणयोरपि समासः कार्यः, भा० मा तया यावज्जीवया प्रत्याख्यामिः, प्राकृतवचने न पर्यन्ते एकारनिर्देशने जाहे अव्य०(यदा) यद्-दाच यस्मिनकाले इत्यर्थे, "जाहेणं सक्के देविंदे तृतीययमवसेयेति॥३५२१।। विशे०। देवे राया" (जाहणं ति) यदा। भ०१श०६ उol *यावजीवता स्त्रीला यावजीवो जीवनं प्राणधारणं यावज्जीवम् "यावदव जि अव्य० (एव) "पश्चादेवमेवैवेदानी प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्बइ धारणे"।२।१।। इत्यव्ययीभावसमासः। यावजीवं भावो यावजीवता जि एम्वहिं पचलिउ एत्तहे" ||8|4|420 // इतिप्राकृतसूत्रोणापभ्रंशे प्राकृतेऽन्यतकारस्यालाक्षणिको लोप इति "जावजीवाए' इति सिद्धम। एवस्य जिः। प्रा०४ पाद। इण-वन्। सादृश्ये, अनियोगे अवधारणे, आ०म० द्विका अलाक्षणिक-वर्णलोपात्। थावजीव भावो यावज्जीवता। चारनियोगे, विनिग्रहे, परिभवे, ईषदर्थे च। विशेष्यसंगतः अन्ययोगव्यआप्राणोपरमादित्यर्थे, पा०ा वच्छेद, विशेषणसंगतः अयोगव्य पच्छेदे, वाचा *यावज्जीवा स्त्रीला यावज्जीवो यस्यां सा यावजीवा, जीवित परिमाणवत्यां *जि धागा अभिभवे, भ्वादि-अनिट् / जयति। अजैषिता वाच०। प्रत्याख्यानादिक्रियायाम्, (आ०म०) जिइंदिय पु० (जितेन्द्रिय) इन्द्रियविकाराभावात्। भ० 2001 उ०॥ जितानि अधुना यावजीवयेति व्याख्यायते तत्रादौ भावार्थमभिधित्सुराह - स्वविषयप्रवृत्तिनिषेधेन इन्द्रियाणि येन स जितेन्द्रियः। सूत्र० 2 श्रु०६ जावदवधारणम्मी, जीवणमवि पाणधारणे भणियं। अ०। जितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि स्पर्शनादीन्यननेति जिलेन्द्रियः। आपाणधारणातो, पावनिवित्ती इहं अत्थे।। उत्त०१२ अ०॥ जिताः स्वरुपोपयोगीकृताः। अष्ट० 3 अष्टावश्येन्द्रिय यावदित्ययं शब्दोऽवधारणे वर्तते। जीवनमपि प्राणधारण भणितम्। सूत्र० 1 श्रु० 11 अ01 "जिइंदिओ वजू"आ० म०प्र०। वशी --
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________________ जिइंदिय 1456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जि कृतस्पशनादीन्द्रियकलापः। दश०२चूला विषयेषु रागादिनिरोद्धा। ज्ञा० स्यात्। अथ पुत्रादीनां सप्रज्ञत्वेन अन्येषां निष्प्रज्ञत्वेन महदन्तरं तदा 1 श्रु०१३ अ०) "आयगुत्ता जिइंदिया'' जितानि वशीकृतानि पित्रादिरेवं प्रतिबोध्वः। भो अहाभाग! सप्रज्ञोऽपि तव पुत्राः अन्येभ्यो इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि यैस्ते तथा। एवं भूताः पापकर्म नाऽनुजानन्ति बहुभ्यो लघुर्भविष्वति तव पुत्रोच ज्येष्ठे तवैव गौरतम्, एवं प्रज्ञापितः। स इति। सूत्रा० 1 श्रु० 8 अ० "धितिभंता जिइंदिया। जितानि यदि अनुमन्यते, तदा पुत्रादिः प्रथमम् उपस्थापनीयः, नान्यथा, इति वशीकृतानि स्वविषयरागद्वेष विजयनेन्द्रियाणि यैस्ते जितेन्द्रियाः कल्प०१क्षण। सूत्र० 1 श्रु०६ अ0 जितेन्द्रियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिताः। दश०३ जिट्ठभूइ पुं० (ज्येष्ठभूति) काश्यपमोत्रोत्पन्ने स्वनामख्याते अमणे, अ01 औ01 "चउइसवरिमसतेहिं, वोच्छेदो जिद्धमूइसमणम्मिा कासवगोशेणेओ, जिइंदियकसाय त्रि०(जितेन्द्रियकषाय) न्यत्कृतकरण कोपादिभावे, कप्पव्ववहारसुत्तस्स // 1 // ' ती०१७ कल्पना "पियदडधम्मा जिइंदियकसाया''पञ्चा० 14 विव०॥ जिट्ठयर त्रि० (ज्येष्ठत्तर) अतिश्रेष्ठे, प्रा०२ पादा जिन्ध (जिंघ) - धा० (जिघ्र) जा-गन्धग्रहणे, भ्वा० पर० अक्ष०। / जिट्ठास्त्री० (ज्येष्ठा) ज्येष्ठभगिन्यास, बयोज्येष्ठायाम, ज्येष्ठस्य पत्न्याम, ग्रहणभावे, सक० अनिट्। जिन्नति। अघ्रात्। अघ्रासीत्। वाचा ___गङ्गायाम्, अलक्ष्याम्, अश्विन्यबधिके अष्टादशे नक्षत्रेचा वाचला जा “जिग्घइ नि० चू०१० जिण पुं० (जिन) जयति निराकरेति रागद्वेषादिरूपानराती नितिजिनः। *जाण ना वायतेऽनेनेति। व्रा-ल्युटा नासिकायाम्, गन्धग्रहणे, वाचा स०१ सम०। औणादिको नक् प्रत्ययः। वं०। जयति रागद्वेषमोहरूपानि०५०। ('गंध' शब्देऽौव भागे 765 पृष्ठे विशेषः) नन्तरङ्गान् रिपूनिति जिनः। ध०२ अधिकारागद्वेष कषायेन्द्रियपरीषजिंडहगे ड्डिआइरमण न० (जिण्डइगिडिक्कादिरमण) कन्दुकगि होपसर्गाष्ट्रप्रकाराकर्मजेतृत्वात् जिनः। आ० म०प्र०ादशा औ०। स्या०। डिकादिभिः क्रीडने, प्रव० ३८द्वार। "जिंडहगेड्डिआइरमणं जिनभव- पं०सं०। कर्म दर्श०। केवलिनि, विशे० जिनाः सामान्यकेवलिनः। नस्य चतुरशीत्याशातनासु त्रिषष्टितम आशातनाभेदे, ध०२ अधिक प्रज्ञा० 1 पद। रागद्वेषादिशशु जेतारो जिना भवस्थकेवलिनः। पा०। जिगीसु पुं० (जिंगीसु) जि-सन्। जयेच्छावति, रत्ना०८ परि०। चतुर्दशपूर्विणि, जिनाश्च केवलिनः चतुर्दशपूर्विणश्च। उत्त० 5 म०। जिट्ट त्रि० (ज्येष्ठ) वृद्ध–इष्टन ज्यादेशः। अतिबुद्धे, श्रेष्ठे च। अग्रजे, गच्छतिर्यगसाधुविशेषे च। स्था० 3 ठा० / ऋषभादिके चतुर्विशतिपुंग (30) संख्याक तीर्थकरे चा सूत्रा०१श्रु०६ अ० जिनकल्पिकेचा "अक्खोडभो "उचिअंएअंपि सहो-अरम्मि जं निअइ अप्पसममे होइ जिण चिण्णो'' जिनाः श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानवन्तो जिट्ठ व कणिटुं पिहु, बहु मन्नइ सव्वकज्जेसु॥८॥" जिनकल्पिकाश्च, तैइचीर्णः आचरितो जिनचीर्णः। पञ्चा० 4 विव०। (निअइ ति) पश्यति (जिठं व त्ति) ज्येष्ठो भ्राता पितृतुल्य स्तमिव "जिनवरवसहस्स वद्धमाणस्स। रागादिजयाजिनाः अवधिमनः तथा। ध०२ अधि। पर्यवोपशान्तमोहाः क्षीणमोहाः तेषां मध्ये वराः प्रधानाः जत्य य जिट्ठकणिट्ठो, जाणिज्जइ जिट्ठवयणबहुमाणो। सामान्यकेवलिनः संथा०। "जिणाणं जावयाण रागद्वेषकषायेन्द्रियदिवसेण विजो जिट्ठो, न य हीलिज्जइस गोयमा! गच्छो / 60 परिषहोपसर्गघातिकर्मशत्रून जितवन्तो जिनाः। जी०३ प्रति०। कल्प यत्रा च गणे ज्येष्ठः कनिष्ठश्च ज्ञायते। तत्र ज्येष्ठः पर्यायेण वृद्धः कनिष्ठः "अरिहा जिणे केवली "जिनो रागादिजेतृत्वात्। उपा०७ अ० अर्हन, पर्यायेण लघुः तथा यत्रा ज्येष्ठस्य वचनमादेशाजयेष्ठवचनं तस्य बहुमानः जिनः, केवली, इत्येकार्थ शब्दत्रायं चतुर्थस्वातकभेदार्थाऽभिधायकम्। सन्मानः ज्ञायते। "जिट्ट विणयवहुमाणे त्ति' पाठे तु ज्येष्ठस्य भ० 25 श०६ उ०। आव०। 'अणुत्तरं धम्ममिण जिणाणं' (8) विनयबहुमानो ज्ञायते। तथा याच दिवसेनापियो ज्येष्ठःसनहील्यते जिनानामृषभादि तीर्थकृताम्। सूत्र०१ श्रु०६ अ० "जिणदिट्टे ण।'' चकारात् यत्रा पर्यायेण लंघुरपि गुणवृद्धो न हील्यते सिंहगिरिशिष्यैर्वज तीर्थकराभिमतेन। अनु० "लोगस्सुजोयगर, धम्मितित्थयरे जिणे। शिशुरिया हे गौतम! स गच्छो ज्ञेय इति। गीतिछब्दः।६०। ग०२ अधिo अरहते कित्तइस्सं, चउवीस पि केवली / / 1 / / " रागद्वेष कषायोन्द्रिय*जेष्ठ पुंगा ज्येष्ठानक्षेत्रण युक्ता पौर्णमासी ज्येष्ठी साऽस्मिन् मासे अण। परीषहोपसर्गाष्टप्रकारक कर्मजेतृत्वाजिनास्तान्। आ० म० द्वि०। स्वनामख्याते चान्द्रे मासे, वाचा "वावीसइंच निजिय परीसहकसायविग्धसंघाया। अजियाईया भविआजिट्ठकप्पन० (ज्येष्ठकल्प) ज्येष्ठो रत्नाधिकः स एव कल्पो वृद्धलघुत्व- रविंदरविणो जियंति जिणा / / 2 / / " तिला "उवसमेण हणे कोहं, भाणं व्यवहारो ज्येष्ठकल्पः। कल्पभेदे, (कल्प०) तत्र आधान्तिमजिनयतीना- महवया जिणे।" सूत्रा०२ श्रु०३ अ"जियकोहमाणमाया, जिअलोहा मुपस्थापनातः प्रारभ्य दीक्षापर्यायगणना, मध्यभजिनयतीनां च ते जिणा हों ति।'' जितक्रोधमानमाया जितलोभा येन कारणेन निरतिचारचारिकत्वात् दीक्षादिनात् एव, अथ पिता पुत्रामाता भगवन्तस्तेन कारणेन ते जिनाः भवन्तीति / आ० म० द्वि०। न च दुहितराजमात्यश्रेष्ठवणिक पुत्रादीनां सार्द्ध गृहीतदीक्षाणामुपस्थापने को रागादीनामसत्वं, प्रतिप्राणि अनुभवसिद्धत्वात्। न चानुभवोऽपि भ्रान्तः, विधिः? उच्यते-यदि पित्रादयः पुत्रादयश्च समकमेव षट्जीवनि- सुखदुःखाद्यनुभवोष्वपि भ्रान्तिप्रसङ्गात्। एवं च जेयसंभवाजिनत्वकायाध्ययनयोगोद् वहनादिभिर्योग्यता प्राप्तस्तदा अनुक्रमेणै- मविरुद्धम्। ध० भ्रान्तिप्रसङ्गात्। एवं च जेयसंभवाजिननत्वमविरूद्धम्। वोपस्थापना, अथ स्तोकमन्तरं तदा कियद् चिलम्बेनापि पित्रादीनामेव ध०२ अधि०। "जिणाणं जावयाण " जिनेभ्यो जापकेभ्यः। तत्रा प्रथममुप स्थापना, अन्यथा पुत्रादीनां बृहत्वेन पित्रादीनामप्रीतिः | रागद्वेषकषायेन्द्रियपरी महापसगंधातिकर्मजेतृत्वाञ्जिनाः, न
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________________ जिण 1460- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिण खल्वेषामसतां जयः, असत्वादेव हि सकलव्यवहारगो चरातीतत्वेन जयविषयतायोग्यत्वात्। भ्रान्तिमााकल्पनाऽप्येषाम् सङ्गतैष निमित्तमन्तरेण भ्रान्तेरयागात्, चासदेव निमित्तमतिप्रसङ्गात्, चितिमात्रादेव तुतदभ्युपगमेऽनुपरम इत्यनिर्मोक्षप्रसङ्गः। तथापि तदसत्वे अनुभवबाधा, न हि मृगतृष्णिकादावपि जलाद्यनुभवः, आत्मनाऽप्यसन्ने व अविद्धङ्गनादिसिद्धमेतत्। न चायं पुरूषमात्रानिमित्तः सर्वत्र सदाभान्नेऽनुपपत्तेः, नेह मृगतृष्ण-कादावपि जलाद्यनुभवो चितिमात्रनिबन्धना रागादय इति भावनीयम्। एवं च तथा भ्रमत्वादिसामग्रीसमुदभूतचरण परिणामतो रागादि जेतृत्वादिना तात्विकजिनादिसिद्धिः। ला "भई जिणस्स वीरस्स'' व्याक्याभद्धं जिनस्य वीरस्य। जयति रागादिशत्रुगणमिति जिनः। औणादिको नक् प्रत्ययः। तस्य भद्रं भवतु। अनेनापायातिशयमाह - 'अपायो विश्लेषः' तस्यातिशयः प्रकर्षभावोऽपायातिशयो रागादिभिस्सहात्यन्तिकां वियोग इत्यर्थः। ननु रागादिभिः सहात्यन्तिको वियोगोऽसंभवी प्रमाणवाधनात्, तच प्रमाणमिदम्- 'यदनादिमत्तद्धिनाशमाविशति यथा-आकाशम्, अनादिमन्तश्च रागादय इति। किञ्चरागादयो धर्मास्तेचधर्मिणो भिन्नाः अभिन्ना वा?। यदि भिन्नाः तर्हि सर्वेषामविशेषेण वीतरागत्वप्रसङ्ग, रागेभ्यो भिन्नत्वात् विवक्षित पुरूषवत्। अथ अभिन्नास्तर्हि तत्क्षये धर्मिणोऽप्यात्मनः क्षयः। तदभिन्नत्वात् तत्स्वरूपवत्। कुतस्तस्य वीतरागत्वम्, तस्यैवा भावादिता अन्नोच्यते-इह यद्यपि रागादयो दोषा अनादि मन्तस्तथापि कस्यचित् स्त्रीशरीरादिषु यथावस्थितवस्तुतत्वा वगमेन तेषां रागादीनां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो ....., ततः संभाव्यते विशिष्टकालाणिसामग्रीसङ्गावे भावनाकर्ष विशेषभावतो निर्मूलमपि क्षयः। अथ यद्यपि प्रतिपक्ष भावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृष्टः तथापि तेषामात्यन्तिकोऽपि क्षयः संभवतीति कथमवसेयम्?। उच्यते-- अन्यत्र तथा प्रतिबन्धग्रहणात्। तथाहि-शीतस्पर्शसंपाद्या रोमहर्षादयः शीतप्रतिपक्षस्य बहर्मन्दतायां मन्दा उपलब्धाः, उत्कर्षे च निरन्वय विनाशधर्माणः। ततोऽन्यत्रापि बाधकस्य मन्दतायां बाध्यस्य मन्दतादर्शनाद्वाधकोत्कर्षः। अवश्य बाध्यस्य निरन्वयो विनाशो वेदितव्यः। अन्यथा--बाधकमन्दतायां मन्दतापि न स्यात्। अथास्ति ज्ञानस्य ज्ञानावरणीयं कर्म बाधकं ज्ञानावरणीयकर्ममन्दतायां च ज्ञानस्यापि मनाक मन्दता। अथ च-प्रवलज्ञानावरणीयकर्मो दयोक्तवेंऽपि ज्ञानस्य निरन्वयो विनाशः। एवं प्रतिपक्षभावनोत्कर्षेऽपि न रागादीनामत्यन्लोच्छेदो भविष्यतीति। तदयुक्तमद्धिविधं हि बाध्यम्सहभूतस्यभावभूतम, सहकारिसंपाद्यस्वभावभूतंचा तत्र यत्सहभूतस्वभावभूतं तच कदाचिदपि निरन्यविनाशमा विशति ज्ञानं चात्मनः सहभूतस्वभावभूतम् आत्मा च परिणामी नित्यः, ततोऽत्वन्तप्रकर्षवत्यपि ज्ञानावरणीयकर्मो द येन निरन्वयविनाशो ज्ञानस्य, रागादयस्तु लोभादिकर्मविपाको दयसंपादितसत्ताकाः ततः कर्मणो निर्मूलमपगमेतेऽपि निर्मूलम पगच्छन्ति, नन्वासतां कर्मसंपाद्या रागादयः। तथापिकर्मनिवृत्तौ ते निवर्तन्ते इति नावश्यं नियमो, न हि दहननिवृत्तौ तत्कृता काठेऽङ्गारता निवर्तते। तदसत। यत इह किञ्चित् / कचित् निवर्त्य विकारमापादयति यथाऽग्निः सुवर्णे द्रवताम्, तथा हिअग्निनिवृत्तौ तत्कृता सुवर्णे द्रवता वियर्तत। किञ्चित् पुनः कचिदनिवर्त्य विकारारम्भकम्। यथा-स एवाग्निः काष्ठेन खलु श्यामतामात्रमपि काठे दहनकृतं तन्निवृत्तौ निवर्तते। कर्मचात्मनि निवर्त्य विकारारम्भकम्, यदि पुनरानवर्त्य विकारारम्भकं भवेत्तर्हि यदपि तदपि कर्मणा कृतं न कर्मनिवृत्तौ निवर्ते त्। यथाऽग्निना श्यामतामात्रामपि काष्ठे कृतम्। अग्रिनिवृत्तौ, ततश्च यदेकदा कर्मणापादितं मनुष्यत्वममरत्वं कृमिकीटत्वमज्ञत्वं शिरोवेदनादि तत्सर्वकाल तथैवावतिष्ठेन। न चैतत् दृश्यते। तस्मान्निवर्त्य विकारारम्भक कर्म, ततः कर्मनिवृत्तौरागादीनामपि निवृत्तिः। अत्राहुर्हिस्पत्याः नैते रागादयो लोभादि कर्मविपाको दयनि बन्धनाः, किं तु कफादिप्रकृतिहेतुकाः। तथाहि- कफहेतुको रागः, पित्तहेतुको द्वेषः, वातहेतुकश्च मोक्षः। कफादयश्च सदैव संनिहिताः शरीरस्य तदात्मकत्वात् ततो नवीतरागत्वसंभवः। तदयुक्तमा रागादीनां कफादिहेतुकत्वाद्ययोगात्। तथाहि-सतहेतुको योऽयं न व्यभिचरति, यथाधूमोऽग्रिमा अन्यथा-प्रतिनियतकार्यकरणाभावव्यवस्थानुपपत्तेः। न च रागादयः कफादीन्न व्यभिचरन्ति, व्यभिचारदर्शनात्। तथाहिवातप्रकृतेरपि दृश्यते रागद्वेषौ, कफप्रकृतेरपि द्वेषमोहौ, पित्तप्रकृतेरपि मोहरायो। ततः कथं रागादयः कफादिहेतुकाः अथ मन्येथाः-एकैकाऽपि प्रकृतिः सर्वेषामपि दोषाणां पृथक-पृथक जनिका तेनायमदोष इति तदयुक्तम्--एवं सति सर्वेषामपि जन्तूनां समरागादिदोषाप्रसक्तेः अवश्य हि प्राणि नामेकतमया कदाचित् प्रकृत्या भवितव्यम्। सा चाविशेषण रागदिदोषेण रागदिदोषाणमुत्पादिकति, सर्वेषामपि समानराग दिताप्रसक्तिः। अथास्ति प्रतिप्राणी पृथक पृथगवान्तरः कफादीना परिणतिविशेषः, तेन न सर्वेषां समरागाद्विताप्रसङ्ग। तदपि न साधीयः। विकल्पयुगलानतिक्रनात्। तथाहि-सोऽप्यवान्तरः कफादिना वीरणति विशेषः, सर्वेषामपि रागादीनामुत्पादकः, आहोस्विंदकतमस्यैव कस्यचित्। तत्रा यद्याद्यः पक्षस्तहि-यावत् स परिणतिविशेषः ताय देककालं सर्वेषामपि रागादीनामुत्पादप्रसङ्गन चैककालमुत्पाद्यमान रागादयः संवेद्यन्ते क्रमेण तेषां वेदनान्न खलु रागाभ्यवसायकाले द्वेषाध्यवसायो मोहाभ्यवसायी वा संवेद्यते। अथ द्वितीयः पक्ष-तत्रापि यावत्स कफादिपरिणतिविशेष स्तावदेक एव कश्चिद्रागादिदोयः प्राप्नोति। अथ च - तदवस्थ एव कफदिपरिणतिविशेष सर्वेऽपि दोषाः क्रमेण परावृत्योपजाय माना उपलभ्यन्ते। अथादृश्यमानएव केवलकार्यविशेषदर्शनो क्षीयमानसत्ताकस्तदा तदा तत्तद्धागादिदोषहेतुः कफादि परिणतिथिविशेषो जायते। तेन पूवोक्तदोषावकाशाः। ननु यदि स परिणतिविशेषः सर्वथाऽननुभूयमानस्वरूपोऽपि परिकल्प्यते, तर्हि कर्मट किं नाभ्युपगम्यते। एवं हि लोकशास्त्रमार्गोऽप्याराधितो भवति। अपिल - स कफादिपरिणतिविशेषः कुतः तदा तदा अन्यान्यरूपेणोपजायते इति वक्तव्यं देहादिति चेत्, ननु तदवस्थेऽपि देहे भवद्भिः कार्यविशेषदर्शनातः तस्यान्यथाभवन मिष्यते। तत्कथम्? तद्देहनिमित्तं न हि यदविशेषेऽपि तद्विक्रियते स विकारस्तद्धेतुक इति वक्तुं शक्यमा नाप्यन्यो हेतुरूपलभ्यते, तण्णात्तदप्यन्यथाभवनं कर्महतुकसेष्टव्यम्। तथा च सतिकर्मवे कमभ्युपगम्यताम् किमन्तर्गरूना?, त तुलया कफादिपरिणति विशेषाभ्युपगमेन, किं चाभ्यासजनितप्रसराः प्राया रागादयः। तथाहि-यथा यथा रागादयः सेव्यन्ते, तथा तथा अभिवृद्धिरेव, तेषामुपजायसे। न प्रहाणिः। तेन समानेऽपि कका
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________________ जिण 1461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिण दिपरिणतिविशेषे तदवस्थेऽपि च देहे यस्येह जन्मनि परत्रा वा यस्मिन् दोषोऽभ्यासः स तस्य प्राचुर्येण प्रवर्तते / शेषस्तु मन्दतया, ततोऽभ्याससंपाद्यकर्मोपचयहेतुका एव रागादयः, न कफादिहेतुकाः, इति प्रतिपत्तव्यम्। अन्यच्च-यदि कफहेतुको रागः स्यात्ततः कफवृद्धौ रागवृद्धिर्भवत्, पित्तप्रकर्षे तापप्रकर्षवत्। न च भवति, तदुत्कर्षोत्थपीडाबाधिततया द्वेषस्यैव दर्शनात्। अथ पक्षान्तरं गृहीथाः, यदुत न ककहेतुको रागः किं तु क कादिदोषसाम्यहेतुकः। तथाहिकफादिदोषसाम्ये विरूद्धव्याध्यभावतो रागोद्भवो दृश्यते इति। तदपिन समाचीन व्यभिचारदर्शनात्, न हि यावत्कफादिदोप सापसाम्यं तावत्सर्वदैव रागोद्भवोऽनुभूयते, दूंषाद्युद्भवस्यानुभवात्। न च यद्भावेऽपि यन्न भवति तत्तद्धतुकं स चेतसा वक्तुं शक्यम्। अपि य-एवमभ्युपगमे ये विषमदोषाः ते रागिणो न प्राप्नुवन्ति। अथ च-तेऽपि रागिणो दृश्यन्ते। स्यादेतत् अलं वैस्तर्यात्। तत्वं निर्वच्मिशुक्रोपचयहेतुको रागो नान्यहेतुक इति तदपि न युक्तमेवं ह्यत्यन्तस्त्री सेवापरतया शुक्रक्षयतः क्षरत्क्षतजानां रागिता न स्यात्। अथवैतेऽपि तस्यामवस्यायां निकामं रागिणो दृश्यन्ते। किं च-यदि शुक्रस्य रागहेतुता, तर्हि तस्य सर्वस्त्राषु साधारणत्वात्। नैकस्त्रीनियतो रागः कस्यापि भवेत्, दृश्यते च कस्याप्येकस्वीनियतो रामः। अथोच्येत-रूपस्यापि कारणगत्वाद्रपातिशयलब्धः तत्यामेव रूपवत्यामभिरजयते। न योषिदन्तरे। सूक्तं च - "रूपातिशयपाशेन, विवशीकृतमानसाः। स्वां योषितं परित्यज्य, रमन्ते योषिदन्तरे।।१।।" तदपि न मनोरमम्। रूपरहितायामपि क्षापि रागदर्शनात्। अथ तत्रोपचारविशेषः समीचीनो भविष्यति, तेन तत्राभिरज्यते उपचारोऽपि चरागहेतुर्नरूपमेव केवलम्। तेनायमदोष इति। तदपि व्यभिचारि द्वयेनापि विमुक्तायां क्वचिद्रागदर्शनात् तस्मादभ्यासजनितो पचयपरिपाकं कर्मव विचिास्वभावतया तदा तदा तत्तकारणापेक्षं तत्र तत्रा रागादिहेतुरिति। कर्महेतुका रागादयः। एतेन यदपि कश्चिदाह - पृथिव्यादिभूतानां धर्मा एते रागादयः। तथाहि-पृथिव्यम्बुभूपस्त्वे रागः, तेजोवायुभूयस्त्वे द्वेषो, जलवायुभूयत्वे मोह इति। तदपि निराकृतमवसेयम्, व्यभिचारात्। तथाहि-यस्यामे वावस्थायां द्वेषो मोहोऽपि दृश्यते तत एतदपि यात्किंचित्। तस्मात्कर्महतुका रागादयः। ततः कर्म निवृत्ती निवर्तन्ते। प्रयोगश्चात्र ये सहकारिसंपाद्या यदुपधातादपकर्षिणाः ते तदत्यन्तवृद्धौ निरन्वयविनाशधर्माणः यथा रोमहर्षादयो वन्हिवृद्धौ भावनोपधानादपकर्षिणश्चा सहकारिकर्मसंपाद्या रागादय इति। अत्र सहकारितासंपाद्या इति विशेषणं सहभूतस्वभावबोधादिव्यवच्छेदार्थम्। यदपि प्रागुपन्यस्तं प्रमाण यदनादिमत् न तद्विनाशमाविशति / यथाकाशमिति। तदम्यप्रमाणम्। हेतोरनैकान्तिकत्वात्। प्रागभावेन व्यभिचारात्। तथाहि-प्रागभावोऽनादिमानपि विनाश माविशता अन्यथा कार्यानुत्पत्तो भावनाधिकारी च सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयसम्पत्समन्दितो वंदितव्यः इतरस्य तदनुरूपानुष्ठानप्रवृत्यभावेन तस्य नित्यारूपत्वात्। आह च"नाणी तवम्मि निरओ, चारित्ती भावणाइजोगो त्ति'' सा च रागादिदोषनिदानस्वरूप विषफलगोचरा यथागममेवमवसेया। "ज कुच्छ्यिाणुयोगो, पयइविसुद्धस्स होइ जीवस्सा एएसि भो! नियाण, वुहाण न य सुंदर एयं / / 1 / / रूव पि सकिलेसो-ऽभिस्संगा पीइमाइलिंगो स। परमसुहपचणीओ, एअंपि असोहणं चेव।।२।। विसओ य भंगुरो खलु, गुणरहिओ तह तहा रूवो। संपत्तिनिप्फलो के --वले तु मूलं अणत्थाणं / / 3 / / जम्मजरामरणाई-विचित्तरूवो फलं तु संसारो। बहुजणनिव्वेयकरो, एसो वि तहा विहो चेव।।४।। अपि च-सुत्रानुसारेण ज्ञानादिषु यो नैरन्तर्येणाभ्यासस्त द्रूपाऽपि भावना वेदितव्या। तस्या अपि रागादिप्रतिपक्षत्वात्। न हि तत्त्ववृत्या सम्यग्ज्ञानाद्यभ्यासे व्याप्तमनस्कस्य स्त्री शरीररामणीयकादि-विषये चेतः प्रवृत्तिमातनोति। तथानुपलम्भात्। नं०। ते च जिनाः त्रिविधाः तथा च - "तओ जिणा पण्णत्ता। तं जहा-ओहिनाणाजिणे, मणपज्जवनाणजिणे, केवलनाणजिणे' "तओ जिणे इत्यादि। सुगमा, नवरं रागद्वेषमोहान जयन्तीति जिनाः सर्वज्ञाः। उक्तं च - "रागद्वेषस्तथा मोहो, जितो येन जिनो ह्यसौ। अस्त्रीशस्त्राक्षमालत्वादर्हन्नवानुमीयते / / 1 / / '' इति। तथा जिना इव ये वर्तन्ते निश्चयप्रत्यक्षज्ञानतयातेऽपि जिनाः, तत्रावाधि-प्रधानो जिनोऽवधिज्ञानजिन एवमितरावपि, नवरमाद्यावुपचरिता-वितरो निरूपचार उपचारकारणं तु प्रत्यक्ष ज्ञानित्वमिति। स्था० 3 टा० 4 उ० "वंदामि जिणवरिंद'' जयन्ति रागादिशशुनभि-भवन्ति जिनाः। ते चतुर्विधाः। तद्यया-श्रुतजिनाः। अथचिजिनाः मनः पर्यायजिनाः। केवलिजिनाः। प्रज्ञा०१ पद। जिननिक्षेपश्चतुर्था''चउह जिणा नामठाव-दव्वभावजिणभेएहिं / / 31 // नामजिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिणिंदपडिमाओ। दव्यजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था 32 "ध००। जिनाश्चतुर्था-नामजिनाः, स्थापनाजिनाः द्रव्यजिनाः, भावजिनाश्चेति। तत्रा जिनाना तीर्थकृतां नामानि ऋषभाजित संभवादीनि। नाम जिनाः। तथा अष्टमहाप्रातिहार्या दिसमृद्धिं साक्षादनुभवन्तः। केवलिनः समुत्पन्नकेवलज्ञानाः शिवगताश्च परमपदं प्राप्ताः। भावतः सद्भावतो जिनाः, भावजिनाः। गाथानुलोभ्याच अनानूपूर्या भावजिनाः व्याख्याताः स्थापनाजिनाः प्रतिमाः काञ्चनमुक्ताशैलमरकतादिभिनिर्मिताः, द्रव्यजिना ये जिनत्वेन भाविनो भविष्यन्ति जीवाः श्रेणिकादय इति। प्रव० 42 द्वार। जिनानां सर्वथास्तित्वम्अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवा वि भविस्सइ। मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खू न चिंतए / / 45|| अभूवन भासन जिंना रागादिजेतारः अस्ति' इति विभक्तिप्रतिरूपको निपातः। ततश्च विद्यन्ते जिनाः अस्य कर्मप्रवादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्धततया वस्तुतः सुधर्मस्वाभिनैव जम्बूस्वामिन प्रति प्रणीतत्वात् तत्काले च जिनसंभवादित्यमुक्तं विदेडादिक्षेत्रान्तराप्रेक्षया वा इति भावनीयम्। (अदुवेत्ति) अथवा-अपिभिन्नकमः (भविस्सइ त्ति) वचनव्यत्ययादविष्यन्ति जिना इत्यपि मृषा अली कं ते जिना अस्तित्ववादिन एवमनन्तरोक्त-न्यायेन (आहंसुत्ति) आहुः ध्रुवत इति भिक्षुर्न चिन्तयेत। जिनस्य सर्वज्ञाधिक्षेप प्रतिक्षेपादिषु प्रमाणोपपन्नतया प्रतिपादनात्तदुपदेशमूलत्वाचसकलैहिकामु पिकव्यवहाराणामितिसूत्रार्थः। उत्त०३ अग
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________________ जिण 1462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प "जिनैस्तदुक्तं जीवो वा, धर्माधर्मी भवान्तरम्। परोक्षत्वान्मृषा नैवं, जिणंत त्रि० (जयत्) अभिभवति, दश०४ अ०॥ चिन्तयेत् महतो ग्रहात्॥१॥" श्रा०म० द्वि०। जिणंतर न० (जिनान्तर) जिनयोर्व्यवधाने, "एएसिणं भंते! चउव्वीसाए अणुवकयपरागुग्गइ-परायणा जं जिणा जगप्पवरा। तित्थगराणे कइ जिणंतरा पण्णता? गोयमा ! तेवीसं जिणंतरा पण्णत्ता। जिअरागदोसमोहा, य ण ऽणण्णहावाइणो तेणं / / 50|| भ०३ श०२ उ०। (विशेषतः जिनान्तराणि 'अंतर' शब्दे प्रथमभागे 65 अनुपक्षते परैरवर्तिते सति परानुग्रहपरायणाः धर्मोपदेशादिना / पृष्ठे रूष्टव्यानि) वरानुग्रहोयुक्ताः इति समासः। यत यस्मात् कारणात् के जिनाः जिणकप्प पुं० (जिनकप्प) जिनाः गच्छनिर्गतसाधुविशेषः तेषां कल्पः प्रा निरूपितशब्दार्थः। त एव विशेष्यन्ते। जगत्प्रवराः चराचरश्रेहा समाचारः। प्रव० 53 द्वार / जिनानां कल्पो जिन कल्पः। कल्पो इत्यर्थः। एवं विधा अपि कदाचिद्धागादिभावात् वितथवादिनो भवन्ति? नीतिमर्यादा समाचारी। पं० चू० जिनानामिव कल्पो जिनकल्पः। अत आह-जिना निरस्ता रागद्वेषमोहा यैस्ते तथाविधाः उग्रविहारविशेष, ध०३ अधि०। अभ्युद्यत विहारे, बृ०१ उ०। तत्राऽभिष्वङ्गलक्षणो रागः, अप्रीतिलक्षणो द्वेषः, अज्ञानलक्षणश्च मोहः। विषय सूचीचशब्दः एतदभावगुणसमुचयार्थः। नान्ययावादिनः तेनेति, तेन कारणेन (1) जिनकल्पिकानाश्रित्य द्वारसंग्रहः। तेनान्यथावादिनः इति। उक्त च- "रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते (2) प्रव्रज्याद्वारम 'पव्वज्जा'शब्दे। ह्यनुतम्। यस्य तु नैते दोषा-स्तस्यानृतकारणं किं स्यात् / / 1 / / ' इति | (3) शिक्षाद्वारम 'सिक्खा' शब्दे। अस्य प्रकृतयोजनाौवा गाथार्थः। आव०४ अ०। (4) अनन्तरोक्तेनानियतवासेन वक्ष्यमाणविहारद्धारेण च सह "जिनभवनं जिनबिम्ब, निष्पत्तिद्वारम्। जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात्। निष्पत्तिद्वारे प्रतिद्वारभूतमुपसंपदादिद्वारचतुष्टयम्। तस्य नरामर शिवसुख तत्र प्रथममुपसंपदद्वारम्। तच अन्योक्तिदृष्टान्तेन त्रिभिः प्रकारैश्च फलानि करपल्यवस्थानि // 1 // " प्रतिका सह उपवर्णितम्। जिनवर्णको यथा (7) ता द्वितीयमस्थिरत्वद्वारम्। तचात्मपरोभयतुलनया द्धिविधम्। "श्रियां निवासं निखिलार्थवेदकं, तेच तुलने प्रत्येकं चतुर्विधा सुरेन्द्रसंसेवितमन्तरारिघमा (8) तत्र तृतीयं प्रतीच्छनाद्वारमा तच्च सोपनयेन स्नुषा दृष्टान्तेन प्रमाणयुङ् न्यायनयप्रदर्शक, समन्वितम्। नमामि जैन जगदीश्वरं महः / / 1 / / '' द्रव्या०१ अध्या०। (8) ता चतुर्थं वाचनाद्वारम्। तचोपदेशस्मारणाप्रति स्मरणामिः "पुइत्तु नमित्तु जिण्ण, वंदारुजणे गयम्मि सुठाणे। त्रिविधम्। घट्टना दिष्टान्तायेण, निष्काशनादि विधिना स्थिरीविहिणा वंदिय देवे,नंदो इय पुणइ जिणनाई।।२६।। करणीय राजदृष्टान्तेन चोपदर्शितम्। जय जय सामिय जिणवर!, केवलाकलियवत्थुपरमत्थ! (10) विहारद्वारम्। तत्रा जिनकल्पिकमाश्रित्य प्रतिद्वाररूपाणि। मत्थयमणिकरभासुर,! सुरवरलयनमियकमकमल! / / 30 // अव्यवच्छित्तिमन आदीनि षट् द्वाराणि। मलरोगमुक्तविग्गहा गहवइदिप्पंतकंतभावलय!। (11) तत्रा द्वितीयमाचार्यादिरूपपचतुलनात्कम्। लयपत्तज्झाण सोहिय! हियकर! नी सेससत्ताणं // 31 // (12) तत्र चतुर्थ! परिकर्मद्वारम्। अस्य द्विविधत्वमस्यैवाधि कारस्य अन्नो हं जेण मए, अणोरपारम्मि भवसमुद्दम्मि। (16) अङ्के द्रष्टव्यम्। भवसयसहस्सदुहलं, जंपहु तुह दंसणं लरूं / 3 / " (ध०२०) (13) तत्र पञ्चमं तपआदिपचकानां पचतुलनाभावनारूपम् / अत्रैव "सजज्ञानलोचनविलोकिसर्वभावं, प्रथमा! द्वितीया सत्वभावना सत्तभावणा' शब्द। तृतीय सूत्राभावना निःसीमभीमभवकाननदाहदावम्। 'सुत्तभावणा'' शब्दे। विश्वार्चित प्रवरचारूसुधर्मरत्न (14) तुलनाभावनापञ्चके चतुयें कत्वभावना सदृष्टान्ता। रत्नाकरं जिनवरं प्रयतः प्रणौमि ॥२॥"ध००। (15) तुलनाभावनापञ्चके दिव्याधुपसर्गसहनरूपा पञ्चमी बलभावना "यथास्थिताशेषपदार्थसार्थ भावबलेन शारीरबलेन च द्विविधा। कमार्थसंधाविधिप्रवीणम्। पूर्वोक्तं परिकर्म पाणिप्रतिग्रहपरिकर्मभ्यां सचेलाऽचेन्न परिकर्मभ्याजिनं जनानन्दकरं कृपाब्धि, माहारोपधिभेदाभ्यां च द्विविधम्, पुनः केनाऽऽसनेन कर्थनृतेषु नमामि भव्याम्बुजबोधसूरम / / 1 / / '' दशा०१ अ०। संस्तारकेषु चोपविशति जिनकल्पिक इति। जिनानां स्वरूपवर्णको यथा (17) बिहारद्धारगतषष्ठं वटवृक्षद्धारम्। द्रव्याद्याऽऽनुकूल्ये, कस्यपाचे, "पुरवरकवाडवत्था, फलिउभुआ दुंदुहित्थणिअघोसा। कस्य तरोरधस्तनप्रदेशे वा जिनकल्पिकत्व स्वीकरणीयम्। तय सिरिवत्थकिअवस्था, सव्वे वि जिणा चउव्वीस ||1||" अनु०॥ केन विधिना। ततः क्षामणम्। शेषाः किं कुर्वन्ति। क्षामणायां के जयति संसारं, जि-नक्। बुद्धे, विष्णौ च। जित्वरे, त्रि०ा वाचा गुणाः। जिनपदस्थापितसूरेरनुशिष्टिं साधूनामनुशिष्टिं प्रदाय कि *जि-जये, भ्वादि-पर० सक० अनिट् "चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू करोतीत्यादि प्रतिपादितम्। पू-धू-गांणो हस्वश्च" [4241 / इति प्राकृतसूत्रोणपा-मन्ते / (18) सामाचारीद्धारम्। आवश्यक्यादिपञ्चसामाचार्यो जिनकल्पिक: णकारगमः हस्वश्चा जिणइ जय। प्रा०४ पाद। प्रयुद्धते अन्याःन। आदेशान्तरमप्यौवोक्तम्। (16) पूवात शा
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________________ जिणकप्प 1463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प (16) श्रुतादिकाना वक्ष्यमाणसामाचारीणां सप्तविंशतिद्वार संग्रहगाथा। (20) श्रुतादिसप्तविंशतिद्वारेषु सप्तविंशमासकल्पद्वारम्। (21) जिनकल्पी षडूवीध्या भ्रमतीति विस्तरः। (22) देयाहाराऽयोग्यतायां श्राविकाविचाराः। (23) कल्पशब्दार्थः, वीध्यां भ्रमतस्तद्भक्तं पूतिकं भवति। (24) शिषु दिवसेषु पूतिकं न कल्पते। किंतु सप्तने दिवसे कल्पत इति, सप्तमदिवसे पर्यटतः श्राविकापृच्छा। (25) द्वितीयाऽऽदेश यादेशान्तरम्। (26) जिनकल्पिकाः कल्पकाले मारणान्तिके च चिकित्सांनकारयन्ति। अक्षिमलमपि नापनयन्ति। के तत्र प्रविशन्तिा के च निर्गच्छन्ति। प्रत्येकमेकैकपतद्धहधारिणः सप्रावरणाश्च भवन्तीत्यादि। (27) जिनकल्पिकयोर्मध्ये कतरो महर्द्धिकः स च दीपादिदृष्टान्तेन अर्थोपनयेन च समन्वितः। (28) सोपनयेन महिलाद्वयदृष्टान्तेन गोवर्गद्वयदृष्टान्तेन च जिनकल्पि कत्व एवावश्यं स्थातव्यमित्युक्तम्। गच्छः जिनकल्पिकादिरत्ना नामुत्पत्तिस्थानमिति गच्छस्य रत्नाकरोपमा। (26) छिद्रपापयच्छिरूपाणिभेदाभ्यां जिनकल्पिकस्य द्विवि वत्वम्। (30) जिनकल्पिका एकस्यरूपाः पृथकस्वरूपा वा भवन्तीति शङ्का। एतेषामेव द्विविधत्वम्। (31) जिनकाल्पिकी द्वादशविधोपधिः स सर्वेषामेकविधो वा नेत्यष्टौ विकल्पाः। (32) केन विधिना के न च जिनकल्पोऽभिहितः। जिनकल्पिका स्तित्वमागमे प्रतीतम्। व्यवच्छेदस्तु केन वचनेनतीर्थकरैरुक्तमिति च सोत्तरम्। (1) प्रथमं जिनकल्पिकानाश्रित्य द्वारसंग्रहगाथामाह - पव्वजां सिक्खा-पयमत्थग्गहणं च अनियओ बासो। निष्फत्तीय विहारो, सामायारी ठिई एव।। प्रथमं प्रव्रज्यावक्तव्या, कथमसौ जिनकल्पिकः प्रव्रजित इति। ततः / शिक्षापदं, ग्रहणासेवनाविषयम्। ततो ग्रहणशिक्षयाऽधीतं, सूत्रातोऽर्थग्रहणम्। ततो नानादेशदर्शनं कुर्वतो यथाऽनियतो वा सो भवति। ततः शिष्याणां निष्पत्ति। तदनन्तरं विहारः। ततो जिनकल्प प्रतिपन्नस्य समाचारी। ततस्तस्यैव स्थितिः क्षेत्राकासादिकाऽभिधातव्येति गाथासमुदा यार्थः। एषां द्वाराणां क्रमशो व्याख्यां / बृ० 1 उ०। (2) (प्रव्रज्या द्वारम 'पव्यज्जा' शब्दे) (3) (सिक्षाद्वार 'सिक्खा' शब्दे) अथ तत् प्रकृतयोजना कुर्वन्नाह जिणकप्पिएण पगयं, जिणेकाले हेउ केवीणं वा। सो भणइ एव भणितो, कल्प अहीयं भयंतेहिं। अत्रा जिनकल्पिकेन प्रकृतं स तु जिनकल्पिको नियमाज्जिनस्य तोर्यकरस्य काले वा स्यात्, अपरेषां वा गणधरदीनां केवलिनां करते? ततः स शिष्यः एवं हेतुदृष्टान्तैर्भणितः प्रज्ञापितो भणति। भगवन्! यद्येवं ततः पठाम्यहं, परमाचक्षतां पूज्याः कुत्रा भदन्तैवद्भिरधीतं, यस्मादसौ शिष्यौ जिनकल्पिको भविष्यति। स च जिनकाले वा भवेत् केवलिकाले वा? अतः स आचार्यः प्रतिघूयातअंतरमणंतरे वा, इति उदिए धूलिनायमाहंसु। चिक्खल्लेण य नायं, तम्हा उदयामि जिणमूलं / / अन्तरं परकेण मया अधीतम्। अनन्तरं वा। तत्र यदि स आचार्यों गणधरशिष्यस्तस्याप्याराद्वा। ततः परंपरकणाधात मित्य-भिदव्यात्। अथासौ गणधर एव। ततोऽनन्तरं जिनसकाश एव मयाधीतमिति ब्रूयात, इत्येवमुदित आचार्य णाऽभिहिते स शिष्यो धूलिज्ञातं चिक्खलुज्ञातं चाक्यातवान्। यथाधूलिरे कत्रा स्थापयित्वा तत उद्धृत्यान्यता यत्रास्तीर्यते तत्रा वश्यं किंचित्प रिशटति। यथा वा प्रासादे लिप्यमाने मनुष्यपरम्परया चिक्ख ल्लप्रत्यर्पमाणो बहुपरिशटितः स्तोकमात्रावशेष एव सर्वान्तिममनुष्यस्य हस्तं प्राप्नोति।। कैः पुनस्तत्परिशटतीत्याहपयपायमक्खरेहिं, मत्ताघोसेहिं वा विपरिहीण। अवि य रविं-राय-हत्थी, पगास सेवा पया चेव।। पदैः पादैरक्षरैर्मात्राया धोषैर्वा अपिशब्दात बिन्दुना वा परिहीनं भवति। परम्परया अधीयमानं श्रुतमिति प्रक्रमः अपि चेत्यभ्युश्चये। भगवतः समीपे अधीयानाना कारणान्तरमप्यस्तीति। किममात्यादीनां सेवा संपादयति। याद्दशानि वा महान्ति हस्तिनः पादानि, ईदृशानि किं कुन्यूनां संभवयन्ति?। एवं यादृशानि महार्थानि भगवतस्तीर्थकृतो वचनानि ईदृशान्यपरेषां किं कदाचिद्भवन्ति इत्यतस्तीर्थकरी पकपठमेव व्रजामि। इत्थ शिष्येणोक्ते सुरिराह - कोट्ठाइवुद्धिणा अ-त्थि संपयं एरिसाणि मा जंप। अवि य तहिं वाउलणा, विरयाण वि कोउयाईहिं।। यथा कोष्ठके धान्यं प्रक्षिप्तं, तदवस्वमेव चिरमप्यवतिष्ठते। न क्रिमपि कोलान्तरेऽपि गलति, एवं येषु सूत्रार्थो निक्षिप्तः, तदवस्थश्चैव चिरमप्यवतिष्ठते. ते कोष्ठबुद्धयः। आदिशब्दात्पदानुसारिबुद्धयो बीजबुद्धयश्च गृह्यन्ते। तत्र ये गुरूमुखादेकसुत्रपदमनुसृत्य शेषमपि भूयस्तपदनिकुरूम्ब वगाहन्तेतेपदानुसारिबुद्धयः। ये त्वेक बीजभूतमर्थपदमनुसूत्य शेषमवितथमेव प्रभूततरमर्थपदनिवहमवगाहन्ते ते बीजबुद्धय। एवं विधाः कोष्टादिबुद्धयः सांप्रतमपि सन्ति येषु सूत्रार्थो न परिशटित इति भावः। तत ईदृशानि धूलिज्ञातादीनि मा जल्प मा ब्रूहि। अपि च -तत्रा भगवतः समीपे अधीयानानां विरतानामपि साधूनामपि कौतुकादिभिर्व्याकुलना व्याकुलीकरणं भवति। सकलस्याऽपि लोकस्य कौतुक हेतुत्वात्। कौतुकं समवसरणम्। आदिग्रहणेन भगवतो धर्मदेशनाश्रन्न णादिपरिग्रहः। बृ० 1 उ०। (क्षिक्षाद्वारविशेषः 'सिक्खा' शब्दे) पुनः प्रकृतयोजनांकुर्वन्नाहतित्थयरस्य सभीवें, वक्खेवो तत्य एवमाईहिं। सुत्तग्गहणं ताहे, करेइ सो वारसममाओ। तीर्थक रस्य समीपे तत्रा समवसरणे एवमादिभिः प्रकारैरध्वय नस्य व्याक्षे पो भवति, इत्युक्ते सति शिष्याः, पाह - भगवन् /
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________________ जिणकप्प 1464 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प सत्यमेवैतत यदादिशत् यूयम्। अन इहैव पठामीत्युक्तवा सूत्रा ग्रहणं द्वादश वर्षाणि करोति। द्वादशभिवर्षेः सकलस्याऽपि सूत्रारयाध्ययनं विद्धातीत्यर्थः। गतं शिक्षाद्वारम्। बृ० 1 उ०। (4) अनन्तरोक्तैनानियतयासेन वक्ष्यमाणविहारद्वारेण च सह निष्पत्तिद्वारम्। तचानन्तराक्तेऽनियतवासद्वारे वक्ष्यमाणविहारद्वारे च संभवति। तत्रानियतवासद्वारं तावदृर्श्यते इत्थं तेन देशदर्शन कुवेता शिष्याः प्रतीच्छाकाश्च समाचार्या सूत्रार्थग्रहणायां च निष्पादयितव्या, इत्यात्रान्तरे यदुक्तं प्रतिद्वारगाथायाम्-"कात्त सुयं दायव्यं, अविणीयाणं विवेगो य॥ (5) निष्पत्तिद्वारे प्रतिद्वारभूतमुपसंपदादिद्वारचतुष्टयसंग्रह गाथामाह उवसंपज थिरत्तं, पडिच्छाणा वायणोल्लछगणे य। घट्टणरूंचणपत्ते, दुट्ठा य तहिं गए राया / / प्रथमं प्रतीच्छकाः यथा तमुसंपद्यन्ते तथा वक्तव्यम्। ततः आत्मनः प्रतीच्छकानां च यथा स्थिरत्वं तुलनया करोति। ततस्तेषां प्रतीच्छना वाचना च यथा भवति ततः प्रसाध्यताम्। आर्द्रदूगणदृष्टान्तो घटनारूञ्चनापदृष्टान्ताश्च यथाभिधायन्ते दुष्टाश्च विषयं दृष्टान्तं यथा साधव आचार्यानुद्दिश्य दर्शयन्ति। (तहिं गए त्ति) यत्राचार्यास्तिष्ठन्ति, तागतानां यथा राजदृष्टान्तः सुरिभिरूदाहियते, तदेतत्सर्व वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः। (6) तत्रोसंपदद्वारमन्योक्तिदृष्टान्तेन त्रिभिः प्रकारेश्च सह विभणिषुर्गाथामाह - काहिइ अवोच्छित्तिं, सुत्तत्थाणं ति सो तदट्ठाए। अभिगम्मइ ऽगेगेहिं, पडिच्छएहिं विहरमाणो।। एष महाभागः सूत्रार्थयोरव्यवच्छित्तिं करिष्यतीति बुद्धया स भव्याचार्यस्तदर्थं सूत्रार्थग्रहणनिमित्तमभिगम्यते अनेकैः प्रतीच्छकैर्विहरमाणो देशदर्शनं कुर्वन्निति। आह-किमसौ डिण्डिमाडम्बरेण घोषयति, यथा, अहं बहुश्रुतोऽहं बहुश्रुत इति, यदेवनेकैः प्रतीच्छकैरभिगम्यते। नैव खमु शुद्धिविवेक सुधाधाराधौतचेतसः सन्तः कदाचनापि स्वगुणविकत्थने प्रवृत्तिमातन्वते। मिथ्याभिगम्यताक्षप्रवलतमतमस्तिस्कृत संज्ञानलोचनप्रसराणाम् इतरजतूनामेव तत्र प्रवृत्तिसंभवात्। उक्तं च- "मोहस्य तदपि विलसितमभिमानो यः परप्रणीतायाः। ततमसोऽपि तमिअं, याऽऽत्मस्तुतिरात्मना क्रियते॥१॥" यद्येवं ततः कथमित्र सोऽत्रा तमेव प्रसिद्धिमारो हतीत्युच्यतेवासावजविहारी, जडविन य विकत्थए गुणे नियए। अभणंतो वि मुणिज्जइ, पगइ चिय सा गुणगणाणं / / वर्षावर्जविहारी वर्षासु चतुरो मासाने कत्रा स्थायी अन्यदा पुनरनियतविहारी इत्युक्तं भवति। स एवंविधो यद्यपि न विकथ्यतं निजकानात्मीयान् गुणान। तथाप्यभणन्नपि स्वगुणान कीयत्तयन्नपि ज्ञाप्यते। कुत इत्याह - प्रकृतिरेव सा गुणगणानां ज्ञानादिगुणसमूहानाम्। तदुक्तम् - 'अभणतो वि हु भजंति, सप्पुरिसा गुणगणेहिं नियएहिं। बोल्लंती य मणीओ, जाओ लक्खेहिं घिप्पंति' // 1 // एतदेवान्योक्तिदृष्टान्तेन दृश्यतिभमरेहि महुयरीहिं, सूइज्जइ अप्पणो य गधेणं / पाउमकालकयंबो, जइ वि निगूडो वणनिगुंजे / ततः प्रावृटकाले यः कदम्बः स यद्यपि वनीनकुञ्ज निगूढो गुप्तस्तिष्ठति. तथापि भ्रमरैमधुकरीभिश्च आत्मनः संबन्धिना गन्धेन च प्रसरता रतव्यते ज्ञाप्यते, यथा--अत्रा कदम्बवृक्षस्तिष्ठति। एवमयमपि भ्रमरमधुरीकल्पाभिः साधुसाध्वीभिः एरिमलकल्पेनच निजगुणनिकुरूम्बेन प्ररपंता कदम्बवदुद्याना दावत्यन्तनिगूढोऽपि तिष्ठन् सूच्यते। यदि वाकत्थ व जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होई। कत्थ वरलक्खणधरा, न पायडा हॉति सप्पुरिसा।। कुावा न ज्वलति नदीप्यतेऽनिः। कुत्र वा चन्द्रः उदयं प्राप्तः प्रकटोन भवति। कुत्रावावराण्युत्तमानिलक्षणान्यभ्यन्तरतो ज्ञानादीनि, बाह्यतः शरीरसौन्दर्यादीनि शङ्गचक्रादीनि, वा धारयन्तीति, वरलक्षणधराः सत्पुरुषाः प्रकटा न भवन्तिा अत्रा परोऽनुपपत्तिमुद्भावयन्नाह - उदए न जलइ अग्गी, अब्भच्छन्नो न दीसई चंदो। मुक्खेसु महाभागा, विज्जा पुरिसान भायंति।। उदके न ज्वलत्यग्निः। किं तु विध्यायति। अभ्रच्छन्नश्चन्द्रो न दृश्यते। मूर्खे षु मूर्खाणां पुरतो महाभागाः विद्याप्रधानाः पुरूषाः विद्यापुरूषास्तेऽपि न भान्ति न शोभन्ते। ततः- "कत्थ व न जलड़ अग्गी" इत्यादि नोपपद्यते। तदयुक्तम्- अभिप्रायपरिज्ञानात्। इह हि स्वविषय एवाग्निचन्द्रसत्पुरुषाणां ज्वलनादि सामर्थ्य चिन्त्यते न त्वन्यविषये। कः पुनरमीषां स्वविषय इत्याह - सुक्किंणधम्मि दिप्पइ, अग्गी मेहरहिओ ससी भाइ। तव्विहजाण य निउणे, विजापुरिसा वि भायंति / / शुष्कन्धनं शुष्ककाष्ठादौ दीप्यतेऽग्निः। मेघरन्तिः शरदादिकाले अभैरच्छन्नः शशी भाति प्रकाशते। तद्विधज्ञानं च तादृशे सहृदयलोके निपुणे व्याकरणप्रमाणादिशास्त्रकुशले विद्यापुरूषा अपि भान्ति शोभा लभन्ते। एव त्रयाणामप्यमीषां स्वविषयोऽा सर्वत्राप्यमी दीप्यन्ते न किञ्चिदनुपपन्नम्। तत्रौवापरं दृष्टान्तमाहकुमुउयररसमुद्धा, किं न विवोहिंति पुंडरीयाई। सूरकिरणा संसिस्स व, कुमुयाणि अपंकयरसन्ना / / नय अप्पगासगत्तं, चंदाइचाण सविसए होइ। इय दिप्पंति गुणड्डा, मुक्खेसु हसिञ्जमाणा वि।। कुमुदानामुदराणि कुमुदोराणि तेषु रसो मकरन्दस्तस्मिन् मुब्धा, अनभिज्ञास्तदानीं तेषामप्रबुद्धत्वात् / ईदृशोऽमीषां मकरन्द इति न विदन्तीत्यर्थः। एवंविधः सूर्यकिरणा यदि अविषयत्वात् कुमुदानि न विबोधयन्ति। ततः किं स्वविषयभूतानि पुण्डरीकाणि न बोधयन्ति? बोधयन्त्येव। शशिना वा किरणा यद्यपङ्कजरसज्ञाः पङ्कजरसाखादमुग्धास्ततः किं स्वविषयभूतानि कुमुदानि न बोधयन्ति। ततश्च न च नैद प्रकाशकत्वं चन्द्रादिन्ययोः स्वविषये भवति। किंतुप्रकाशकत्वमेव इत्यसु
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________________ जिणकप्प 1465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प मैव प्रकारेण गुणैर्ज्ञानादिभिराढ्याः समृद्धाः मूर्खषु पशुप्रायेषु हल्यमाना अघि दीप्यन्ते, सदयहृदयेषु प्रकाशन्ते। उक्तमानुचडिकम्। प्रकृतमनुसन्धीयतेसो चरणसुट्ठिअप्पा, नाणपरो सूइओ अमाहूहिं। उवसंपया य तेसिं, पडिच्छणे चेव साहूणं / स इति भविष्यदाचार्यः चरणसुस्थितात्मा, तथा ज्ञानपरः सूत्राथपारुषीकरण प्रति उद्युक्तः, परां निष्ठां प्राप्तो वा दर्शनाविमा - भावित्वाम्, ज्ञानस्य दर्शनपर इत्यपि द्रष्टव्यम्। स च साधुभिः स्वपरिवारवर्तिभिरपरेषां साधूनां तस्यान्तिके उपलभति। तेन च तेषां यथाविधि प्रतीच्छना कर्तव्या, इति एष उपसंपदः प्रकार उक्तः। अथ द्वितीयप्रकारमाह - एहाणइसमोसरणे, परियट्टित्तं सुणित्तु मो साहुं। अट्टित्ति य पडिचोयण-उवसंपय-दीवणा अत्थो। स्नानादौ, आदिशब्दात् रथयात्रादौ समवसरणे साधुमीलनके (अटेन्नोए इति) व्यञ्जनभेददूषितं सूत्रां परिवर्तयन्तं, साधु कमपि श्रुत्वा सम्पति नोदनां करोति। (अहेलोए इति) पाठेस प्राह-किमिति गीतार्थो ब्रूते-(अट्ठ इति) अर्थो न मिमति। इतरः प्राह-किमस्यार्थोऽप्यस्ति, बाद नमस्कारमादिं कृत्वा सर्वस्यापि श्रुतस्यार्थी विद्यते स आह-यद्येवं तर्हि "अट्टित्ति'' पदस्य कोऽर्थः। वच्यते-आर्त्तश्चतुर्द्धा नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्। नामस्थापने सुगमे। द्रव्यतः सचित्तादिद्रव्यैरप्राप्तैः प्राप्तवियुक्तर्वा य आर्तः य द्रव्यानः। क्रोधादिभिरभिभूतो भावार्तः। एवं प्रकारद्वये नाय लोक आतॊ वर्त्तने, इत्याकर्ण्य प्रभुदितः। स साधुश्चिन्तयति अहो अस्य सूत्रालवस्य एताहग हृदयङ्गमोऽर्थः, ततो यदि सर्वस्याधीत स्यार्थमवबुद्धयते ततः सुन्दरं भवति। इत्यभिसंधायार्थग्रहणार्थ तस्यैव पाश्वें उपसंपदं प्रतिपद्यते। ततोऽसौ विधिना तस्यार्थदीपनं करोति, अर्थकथयतीत्यर्थः। एष द्वितीयः प्रकारः। अथ तृतीयमपि प्रकारमाह - अहवा वि गुरूसमीवं, उवागए देसदसणम्मि कए। उवसंपय साहूणं, होअइ कयम्मि दिसावंधे।। अथवा-देशदर्शने कृते सति यदाऽसौ गुरूणां समीपमुपागतो भवति। तदा गुरूभिराचार्यपदे प्रतिष्ठाय दिग्बन्धे कृतेऽनुज्ञाते सति, विहारं कुर्वताऽस्य पार्श्वे प्रतीच्छकसाधूनामुपसंपद्भवतीति व्याख्यातं त्रिभिः प्रकारैरूप संपदद्वारम्। (7) ता द्वितीयमस्थिरत्वद्वारम्। तचात्मपरोभयतुलनया द्विविधम्। ते च तुलने प्रत्येकं चतुर्विधेआयपरोमयतुलणा, चउव्विहा सुत्तसागणित्तरिया। तिण्हट्ठा संविग्गे, इयरे चरणे-हरा नेच्छे / / तत्रासावात्मपरोभयविषयां तुलनां करोति। सा च प्रत्येक चतुर्विधा वक्तव्या। तथा-ये केचिदुणवर्जिता आगरिणः प्रवजन्ति। तेषामुपसपन्नानां चासौ सूत्रासारणां करोति, सूत्रां पाठयतीत्यर्थः। उपलक्षणं चैतत्। तेनासेवनां शिष्यमपि ग्राहयति। तया तेष्ज्ञामुमधेषामप्यसो इत्वरां दिशं बध्नातिा यथा यावदा-चार्याणां सकाशं व्रजामः, तावद दृष्टवाऽयमाचार्यो ऽहमेव चोपाध्यायस्तत्र गतानामाचार्या ज्ञापका इति (तिण्हवा संविग्गे त्ति) ये संविग्नाः साधवस्ते त्रयाणां ज्ञानदर्शनचारित्राणामर्थायोपसंपद्यमानाः प्रत्येष्टव्याः (इयरे चरणि त्ति) इतवे पार्श्वस्थादयो यदि चरणार्थमुपसंपद्यन्ते, ततस्तेऽपि संग्राहाः (इहरानेच्छे इति) इतरथा ज्ञानदर्शननिमित्तं सूत्रार्थग्रहणदर्शप्रभावकशास्वाध्यय नार्थमिति भावः। यदि उपसंपद्यन्ते, ततो नेच्छेत्, नोपसंपदं ग्राहयेदित्यर्थः। अथ यदुक्तमात्मपरोभयतुलना चतुर्विधेति। तत्रारमतुलनोतावद्भावयतिआहाराई दव्वे, उप्पाए७ सयं जइसमत्थो। खेत्तउ विहारजोग्गा, खेत्ता विहतारणाईया।। कालम्मि ओमाइं, भावे अतरंमाइपाउग्गं। कोहाइनिग्गइंवा, जं कारणसारणा वा वि।। इहात्मतुलनाचतुर्विधा-द्रव्यतः क्षेत्रतः,कालतो, भावतश्चा तत्रा द्रव्यत एषामुपसंपन्नानां यद्येषणीयान्याहारादीनिः / क्षेत्रात ऋतुबद्धविहारयोग्यानि वर्षावासयोग्यानि वा क्षेत्राणि उत्पादयितुं शक्नोमि। न वा विहमित्यध्वा तस्मात्तारण पारनयनम्, आदिशब्दात् राजद्विष्टादिनारणानि कर्तुमहं समर्थो न वेति। काले अवमं दुर्भिक्षम् तत्रादिग्रहणादशिवमयादी निर्वाहयितुं शक्तोऽस्मि न वेति? भावे-(अतरंत त्ति) ग्लानीभूतानामादिशब्दाद्वालवृद्धा दीनां वा एषां प्रायोग्यभुत्पादयितुं समर्थोऽहं नवेति। अथवा-शक्नोमि क्रोधनिग्रहं कत्तुं नवेति? आदिग्रहणन्मानमायालोभ निग्रहपरिग्रहः। यदा-यत्कारणं ज्ञानादिक निमित्तमुद्दिश्यते, उपसंपद्यन्ते, तख्याहं सारणां कर्तुमीशो नवेति? गतमाम तुलनाद्वारम्। आहारद्वारमाहआहाराइ-अनियाओ, लंभो सो विरयमाइ-निष्ठडो। उब्भामग! खलु खेत्तं, अरिउहियाओ अवमहाओ।। ऊणाइरित्तवासां, अकालभिक्खपुरिमडओमाई। भावे कसायनिग्गह, चोयणनयपोरूसी नियया।। ते प्रतीच्छकाः प्रथममेवोच्यन्ते। द्रव्यत आहारादीनां लाभोऽनियतः कदाचिद्भवति, कदाचिन्नै ति। योऽपि भवति सोऽपि विरसः। पुराणौदनादिरादिशब्दादरसस्य हिङ्ग्वाद्यसंस्कृतस्य रूक्षस्य च वल्लणकादेर्ग्रहणं सोऽपि निगूढ उज्झितप्रायः। क्षेत्रत उद्धामका भिक्षाचर्यायां गन्तव्यं, बहिमिषु भिक्षार्थे यत्पर्यटनं, सा उद्धामकभिक्षाचर्या तथा खलु क्षेत्राणि नाम यत्राल्पो लोकः प्रदाता, सोऽपि च स्तोकमेव ददाति। तत्र विहर्त्तव्यम्, अनृतुहिताश्च प्रायो वसतयः प्राप्यन्ते। यो यदा ऋतुर्यन्त तस्य तदाऽननुकूला इत्यर्थः। कालतः कदाचिन्मासकल्पस्थाने वर्षावासस्थाने वा ऊतम् अतिरिक्तं वा कालकरणे वामोऽवस्थानं भवेत्। काऽपि क्षेत्रो अकाले सूत्रा पौरुष्या अर्थपौरूष्या वा वेलायां भिक्षाप्राप्ये ततः सूत्रार्थहानिरपि भाविनी, कुत्रापि पूर्वार्द्ध ऽपि पूर्णो वम स्वादरपूरकाडारमात्राया न्यूनं लभ्येत्, आदिग्रहणात्पानक मपि न संपद्यते। भावे-भावतः कषायनिग्रहखरपुरूषनोदनायामपि कर्तत्तव्यः। न
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________________ जिणकप्प 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प त्त नियतावश्यंभाविनी सूत्रार्थयोः पौरूषी, कदाचिदस्माकं धर्मकथादिव्यग्रतया सूत्रार्थयोाघातोऽपि भवन्तं भवेदित्यर्थः। तदेतत्सर्वमपियद्यङ्गीकर्तुमुत्साहः ततः प्रतिपद्यध्वमुपसंपदमिति। अत्तणियपरे चेव, तुलणा उभयथिरकारणे वुत्ता। आत्मविषया परविषया च तुलना उभयोरपि स्थिरताकारणं करणार्थमेवमुक्ता। गतं स्थिरत्वद्वारम्। (c) तत्र तृतीयं प्रतीच्छनाद्वार तच्च सोपनयेन स्नुषादृष्टातेन सहोपवर्णितम्पडिवज्जते चेव, करिति सुण्हाए दिहत। “पडिवजते' इत्युत्तरार्द्ध सर्वमनन्तरोक्तमथें यदि प्रतीच्छाः प्रतिपद्यन्ते। तदा स्नुषया बध्वा दृष्टान्तमाचार्याः कुर्वन्तिा तमेवाहआसरहाई ओलो-यणाइभीयाऽऽउले अपेहंती। सकुलघरपरिचएणं, वारिजइ सुसुरमाईहिं॥ खिंसिज्जइ हम्मइ वा, नाणिज्जइ वा घरा अठायंति। नीया पुण से दोसे, छायंतिन निच्छुभंते य / / यथा--काचिद्वधूः स्वकुलगृहस्य स्वकीयपितृगृहस्य संबन्धी यः परिचयो रमणीयवस्तुदर्शनहेवाकस्तेनाश्वरथान्। आदिग्रहणेन हस्त्यादीन, अवलोकनं गवाक्षस्तेन आदिशब्दाद परेण वा जालकादिना भीतानाकुलाँश्च जनान् प्रेक्षमाणा सती वार्यते। पुत्रि! मा अवलोकिष्ठा, इति प्रतिषिध्यते। स्वपुरादिभिः मा भूदरयाः प्रसङ्गतः परपुरुषविषयोऽप्यलोकनहेवाक इति। यदि वारिता सती नोपरमते ततः (खिसिज्जइ त्ति) निन्द्यते-आ: कुलपां सुखे! किमेवं करोषीत्यादि। तथापि यदि न निवर्तते ततो हुन्यते। केशादिभिस्ताडयते एवमपि यदिन, ततोऽतिष्ठन्ती गृहात निष्काश्यते। मा भृदपरासामपि गृहमहेलानामस्याः प्रसङ्ग जनित एवंविध एव कुहेवाक इति कृत्वा ये तु तस्या निजकाः पितृगृहसंबद्धाः स्वजनाः (से) तस्याः दोषान् छादयन्ति कथं-चिदुपालभ्यप्रदानादिना / छादयन्ति। अपि न गृहान्निष्काशयन्ति। गौरवार्हत्वात्तत्र तस्याः। एष स्नुषादृष्टान्तः। अथाथापनयमाहमरिसिञ्जइ अप्पो वा, सगणे दंभो न या विनिच्छभणं ।अम्हे पुण न सहामो, सुसुरकुलं चेव सुण्हाए / / ते आचार्याः भणन्ति--आर्याः पितृगृहस्थानीषो युष्माकं स्वगच्छ: स्वसुरस्थानीया वयम्, अश्वरथाद्यवलोकनस्थानीय प्रमादासेवन, गवाक्षादिस्थानीयान्ययुष्टालम्बनानि, ततो युष्माकं स्वगणे प्रमादासेवन कृतमपि मृश्यते क्षम्यते। अल्पोवा दण्डः प्रायश्चित्तलक्षणः प्रमादप्रत्ययो भवतां ता दीयते, न च महत्यपि अपराधे गच्छात् निष्काशनं, गौरवाईतया भवतां भवति। वयं पुनः स्वल्पमप्यपराधं भवतां न सहामः। श्वसुरकुलमिव स्नुषाया बध्वाः संबन्धिनमपराधामित्युक्तेः। यदि ते प्रतीच्छका भणेयुः। एवमेतद्यदादिशन्ति भगवन्तः, ततस्ते प्रतीष्ठन्ता एते च द्विधा, पार्श्वस्थादयो वा भवेयुः, संविग्ना वा। तत्र ये पार्श्वस्थादयस्ते पार्श्वस्थादिमुण्डिता वाऽपि समनोज्ञा वा अमनोज्ञा वा। सर्वेषानप्येषां विधिमाहपामत्थाइमुंडिए, आलोयण होइ दिक्खपभिईओ। संविग्गपुराणे पुण, जप्पमिइं चेव ओसन्नो // समणुन्नमसमणुन्ने, जप्पभिई चेव निग्गओ गच्छा। सोहिं पडिच्छिऊणं, सामायारि पयंतीय॥ यः पार्श्वस्थादिभिरेव मुण्डितस्तस्त दीक्षाप्रभृति दीक्षादि नादारण्य अलोचना भवति। यस्तुसंविनमुण्डितत्वात्पूर्व संविग्नः पश्चादवसन्नीभूतः स पुराणसंविग्न उच्यतो गाथायां प्राकृतत्वात् व्यत्यासेन पूर्वरनिपातः स यत्प्रभृति यदिनादारभ्यावसन्नः संजातस्तत्प्रभृत्येवालोचना दाप्यते। यस्तु संविनः य द्विधासमनोज्ञः साम्भोगिकोऽसमनोज्ञः सांभोगिकः। म द्विविधोऽपि वत्प्रभृति स्वगच्छन्निर्गतस्तत एव दिनादारभ्य अलोचना दापयितव्यः। ततः शोधिर्मालोचनां प्रतीच्छनीयो यक्ष परछेदं मूलं वा प्रायश्चितमापन्नस्तस्य तदत्वा स्वकीयां सामाचारीमाचार्याः दर्शयन्ति। किं कारणमिति चेदित्याहअवि गीयसुयहराणं, वाइजंताण मा हु अचियत्तं। मेरासु य पत्तेयं-मा संखडं पुव्वकरणेणं / ये गीतार्थाः श्रुतधरा बहुश्रुता गणिवाचकादिशब्दाभिधेवा इत्यर्थः। तेषामपि किं पुनरितरेषामित्यपिशब्दार्थः। वितथसामाचारीकरणेनोद्यच्छमानानां मैवं सामाचारीमन्यथा कारं कार्वीरित्यादिवचनैर्मा भूत (अचियत्त) अप्रीतिकं यतोऽ न्योऽन्यं गच्छानां काश्चिदनीदृश्यः सामाचार्यस्ततः प्रत्येकं पृथग पृथक् मर्यादासु सामाचारीषु वर्तमानासु प्रवाहतः पूर्वन्य स्ताया एव सामाचार्याः करणेन प्रतिनोदितानां मा (असंखड) कलहो भवेदित्यस्मात्सा चक्रवालसामाचारी कथयितव्या आह कथं पुनरभिधीयमानेऽप्रीतिकं भवेदुच्यतेगच्छइ वियारभूमा-इ वायओ देह कप्पियारं से। तम्हा उ चक्कवालं, कहिंति अणहिंडिय निसिं वा / / अयं वाचको विचारभूम्याम्। आदिशब्दात् भक्तपानग्रहणादौ गच्छति, अतो ददत, कल्पितारं कमपि कल्पकंसाधु (से) तस्य वाचकस्य येन सामाचारी दर्शयति। एवमभिधीयमाने तस्य वाचकस्य महदप्रीतिक भवति। यथाऽहो स्वगणं विमुच्य परमणमुपसंपन्ना वयमप्येवं परिभूयामहे इति, यत एवं तस्माचक्रवालसामाचारी प्रतिदिन क्रियाकलापरूपां तेषा पुरत आचार्याः कथयन्तिा यथा ते कल्पिका भवन्तिा यावच सा तेषा प्ररूप्यते। ताचत् (अणहिंडिय त्ति) तेभिक्षार्थ न हिण्डाप्यन्ते, मा भूतेषां सामाचारीशिक्षणव्याघातः। अथ न संस्तरन्ति, ततो निशि रात्रौ ते सामाचारी ग्राहयितव्या इति। गतं प्रतीच्छनाद्वारम्। (6) तत्रा चतुर्थं वाचनाद्वार तचोपदेशस्मारणा प्रतिस्मारप्पामिः त्रिविधम्। घट्टना दिदृष्टान्तत्रयेण, निष्काशना दिविधिना स्थिरीकरणस्य राजदृष्टान्तेन सह दर्शितम् * गृहीतसामाचारीकाणां सूाार्थवाचनादातव्या, वाच्यमानानां च तेषां सामाचारीकरणे प्रमाद्यतां यो बिधिस्तमभिधित्सुर श्लोष्कामाह उवएसो सारणे चेव, तइया पडिसारणा। छंद अवट्टमाण जं, अप्पच्छंदेण वजेजा।
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________________ जिणकप्प 1467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प उपदेशः, स्मारणे चैव, तृतीया प्रतिस्मारणा चैव। ततः छन्दे उपदेशेऽवर्तमानं विनेयं गुरूरपि आत्मच्छन्देनात्माभिप्रायेण वर्जयेत्. परित्यजे दिति वियुक्तिश्लोकसमासार्थः। अथ विस्तरावस्तत्र गुरूभिस्तान्प्रति वक्तव्यमस्माकमेषा सामाचारी, यन्निछाविकल्प्रादयः प्रमादाः परिहर्तव्या एष उपदेशः। अथ स्मारणामाह - निद्दापमायाइसु, सई तु खलियस्स सारणा होइ। नणु कहिय ते पमाया, मा सीयसु तेसु जाणंतो।। निद्वैव प्रमादो निद्धाप्रमादः आदिशब्दादप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्यु पेक्षितादिपरिग्रहः। तेषु सकदेकवारं स्खलितस्य स्मारणा कर्तव्या भवति। यथा-भो महाभाग! नन्वेते पूर्वमेवास्माभिस्तव प्रमादाः कथिताः, ततो जानन्नपि तेषु--मा सीदेत्येषा स्मारणा। अथ प्रतिस्मारणामाह - फुड रूक्खं अचियत्तं, गोणो तुदिओ व मा हु पेलेजा। सजं अओ न भणइ, धुव सारण तं वयं भणिमो / स्फुटं नाम, यस्तेन प्रमादः कृतः परिस्फुटं नाभिधीयते, किं त्यन्यव्यपदेशेन भणितव्यम्। रूक्षं नाम, निष्पिंष्य स यथा-निर्धर्म! निरक्षर! निःस्वक! इत्यादि, तदपि न वक्तव्यं, यतः स्फुट रूक्षेऽभिधीयमानमप्रीतिकं भवति। अत्र च गोदृष्टान्तो यथा गोर्बलीवर्दो महता भारेण लक्षितो, हल वा वहमानः, प्रतोदेनातितोदितः सन्, तू दयित्वा भारं पातयति। हल वा भनक्ति। एवमयमपि स्फुटाक्षरं रूक्षभणित्या वा भणितः, कषायितत्वादसंखडकृत्वा गच्छात् निर्गच्छेत्। अत एवाह-गौरविवाशब्दस्योपमानार्थस्य च सम्बन्धादसावपितुदितः, खर पुरूषीभणनप्रतोदेन व्यथितः सन्, मा ह निश्चित प्रेरयेत्। संयमभारं बलादपहस्त्यायातयेत्। अत एव च सद्यस्तत्कालं यदा प्रमादः कृतस्तदैव भण्यते (धुव सारणं ति) स वक्तव्यो वत्स! ध्रुवमवश्यं कर्तव्य, संयमयोगेषु सीदता सारणा। तथा च मौनीन् वचनम् - 'रूसओ वा परो मा वा, विसं वा परियत्तओ। भासियव्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया''तत्तस्मात् जिनाज्ञाराधनाय वयं भवन्तमेवं भणामो, न पुनर्मत्सरप्रद्वेषादिना। अय "सज्ज अओ न भन्नइत्ति'' पदव्याव्यानार्थमाह - तदिवसं विइए वा, सीयंतो वुच्चए पुणो तइयं / एगो वराहो सोढो, वीयं पुण ते न विसहामो / / सीदन् सामाचार्यो प्रमाद्यान्, तस्मिन्नेव दिवसेऽन्यस्यां वेलावां द्वितीये वा दिवसे पुनर्भूयोऽप्युच्यते, तृतीया प्रति स्मारणा। एक उपदेशो, द्वितीया स्मारणा, तृतीया प्रतिस्मारणेति कृत्वा कथमित्याह - एकस्तव महानपराधः सोढस्तितिक्षितोऽस्माभिर्यदि पुनद्वितीयं स्वल्पमप्यपराधं करिष्यसि ततो वयं ते न विषहामो, न सहिष्यामः।। तथा चार्द्धछगणदृष्टान्तः क्रियतेगोणइ-हरणगहिओ, मुक्को य पुणो सहोढगहिओ उ। उल्लोलछगण - हारी, न मुच्चए जायमाणो वि / / यथा कश्चिचौरो गवादिहरणं कुर्वन्नारक्षकाहीतस्ततो मुञ्चत्, मामे कवारं नाहं भूयः स्वल्पमपि चौर्य करिष्यामीत्युक्ते, दवालुत्वादपरोपपरोधात्तैर्मुक्तः। पुनद्वितीयवे लायां पूर्वाभ्यासवाशात् यदि आर्द्रछगणहारी भवति, स्वल्प चौर्यकारीति भावः। तथापि सहोढः सलोपुत्रो गृहीतः सन्, याचमानोऽपि मोक्षयं न मुच्यते। एवं भवतोऽप्येकवार महदपि प्रमादपदं तितिक्षितमस्माभिः। इत उर्दू तु स्तोकमपि न तिति क्षामहे। इत्थमुक्तोऽपि बहि प्रमाद्यति, तदा स लघु दण्डं दत्वा, द्वितीय घट्टनादृष्टान्तं कुर्वन्ति। तमेवाहघट्टिजंतं वुच्छं, इति उदिए दंडणा पुणो विइयं / यथा दुमादू रहितं सत् वद्यच्छमानं चाल्यमानमपि "वुष्ठति'' देशीपदत्वादबदग्धं विनष्टमिति। यावदेवं भवानप्यस्माभिरित्थं स्मारणादिना घट्टमानोऽपि प्रमादमेव सेवितवानित्येवमुदिते कथिते सति वदि भूयः प्रमाद्यति, तदा पुनरपि दण्डना मासलघुप्रायश्चित्त-रूपा कर्तव्या (विश्यंति) एतत् द्वितीयमुदाहरणम्। इत्थं दण्डितोऽपि यदि प्रमादान्नोपरमते, तदा रूचनादृष्टान्तो वक्तव्यःपासाणो संवुत्तो, अइरूचियं कुकुमं तइए।। "पासाणो'' इत्यादि। अति अतीव रूचितं पिट्ट कुङ्कुम किं पाषाणः संवृत्तः। एवं भवानपि महता प्रयासेन प्रतिनोद्यमानः किं प्रमत्तः संवृत्तः, इत्येवं तृतीयमुदाहरण कृत्वा, तथैव मासलघु दीयते। अथ यदुक्तं प्राक् (अविणीयाण विवेगो यति) तदिदानीं भाव्यते। भविनीता नाम, ये बहुशोऽपि प्रतिनोद्यमानाः। ते च छन्दे अवर्तमाना भण्यन्ते। ताश्च सूरय आत्मच्छन्देन वर्जययुः। कः पुनरात्मच्छन्दो येन ते परिहियन्ते। प्राग द्धारगाथा सूचितपत्रादृष्टान्तश्च उच्यतेतेण परं निच्छुभणा, आउट्टो पुण सयं परेहिं वा। तंबोलपत्तनायं, नासेहिसि मज्झ अन्ने वि।। ततः परं वारत्रयादूर्ध्व यदि न निवर्त्तते, तदा निष्काशना कर्तव्या, निर्गच्छ मदीयगच्छादिति। अथासौ स्वयं परेण वा प्रज्ञापितः सन्नावृत्तः प्रमादात्प्रतिनिवृत्तः प्रतिभणति, भगवन्। क्षमध्व, मदीयमपराधनिकुरम्बं न पुनरेवं करिष्यामीति। ततो वद् द्वारगाथायां पत्रज्ञातं, सूचित तदुपवर्ण्यते (तंबोलफत्तनायं ति) यथा तम्बोलपत्रनं कुथितं सत्यदिन परित्यज्यते, ततः शेषाण्यपि पत्राणि कोषयति। एवं त्वमपि स्वयं विनष्टो, मम अन्यानपि साधून विनाशयिष्यसीति कृत्वा भिष्कासितोऽस्माभिः। संप्रत्यप्रमत्तेन भवितव्यं, मासगुरू च ते प्रायश्चितम्। अथ निष्काशनस्यैव विधिमाह - सुहमेगो निच्छुभई, णेगा भणिया वि जइ न वचंति। अन्नावएस उवहिं, जग्घावण मारि कह गमणं।। ते पुनः प्रमाद्यन्ते, एको वा वाऽनेके वा। यद्येकस्ततः सुखेनैव निर्गच्छ मगच्छादित्यभिधाय निष्कास्यते। अथाने के वहवस्ततस्ते यदि निर्गच्छतेति भणिताः अपि, वयं वहवस्तिष्टाम्, इत्यवष्टम्भं कृत्वा न व्रजन्ति, ततः शेष साधून रहस्यं ज्ञापयित्वाऽन्येन केनाप्यपदेशेन मिषेण यथा न तेषां शङ्का भवति, तथोपधिं विहारयोग्यं कारयित्वा अन्यव्यपदेशेनैव चिरं जागरण कारापणीया। यथान प्रातःशीघ्रमुत्तिष्ठन्ति (सारिक त्ति) सागारिकः शय्यातरस्तस्याग्रतो रहसि कथनीयं, यथा वयं प्रभात एवामुकं ग्राम प्रजिष्यामि। यदि कोऽपि महता निर्बधेन
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________________ जिणकप्प 1468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकर युष्मान् प्रश्नयेत, यथा आचार्याः क्व गता इति। ततो भवद्भिस्तस्य उ, भच्छिसूलपसमणी उ, ताहिं अंजिएसु अच्छीसुतिव्वयरा दुरहियार यथावान्निवेदनीयम्। (गमणं ति) ततो गमनं कर्तव्यम्। वेयणा भवति। मुहत्तं जइ न वि मे मारणाए संदिसासाहि, तो अंजों गतेषु च यदि ते ब्यु:-- अच्छीण। 'न मारेमि त्ति' अब्भुवगए। अजिएसु अच्छीसु तिव्वतरा वेया मुक्का मो दंडसइणो, भणंति इह तेन तेसु अहिगारो। जाया ताहे रन्ना भणियं, अच्छीणि मे पाडयाणि मारेहं तं वेळी ते! सेज्जायरनिब्बंधे, कहय गया न विणयहाणी।। अब्भुवगंतुन मारिओ। मुहुत्तंतरेण उवसंता वेयणा। पोराणाणि अच्छी अहो सुंदरं समजनि। यद्दण्डव्यसनिन आचार्यात् मुक्ता वयम्। इति ये जायाणि। विजो पूओ' अथ गाथाक्षरार्थः-अक्ष्णक्षुषोर्या रूप भणन्ति, न तेष्वधिकारः। ये पुनः परित्यक्ताः सन्तो गाढं परितष्यन्ते। रोगस्तद्वान् कश्चित् नरेन्द्रः। तस्य चागन्तुकवैद्येन गुटिकानां शंसन आः कष्टम्। उज्झिता वयं च कारायां। निःसंबन्धा बन्धुभिस्तैर्भगवद्भिः स्वरूपकथना / ततो राज्ञा विषहाम्यहं वेदनामिति भणिते, वैहान अतः कथमिव भविष्यामः। इति ते शय्यातरं महता निर्बन्धेन पृच्छन्ति चक्षुर्गुटिकाभिरञ्जनम्। ततो वेदना पश्चात्क्रमेण संजातम्। प्रगुणीभू कथय, कुत्रास्मान् विमुच्य, गताः क्षमाश्रमणाः। स प्राह-अमुकं ग्रामम्। अक्षिणी। एष दृष्टान्तः। अयमर्थो पनयः - यथा तस्य राज्ञन्तत्कालततस्तेन कथिते त्वरितमागतानां तेषां न विनयहानिः कर्तव्या। कि तु- दुस्सहमपि गुटिकाव्जनं क्रमेण चक्षुषोःप्रगुणीकरणात् परिणामसुन्दर प्रा०००देवाभ्युत्थानं दण्डकादिग्रहणं च कर्तव्यमा ततस्ते बद्धाञ्जलिपुटाः समजनि। एवं भवतामपि स्मारणादिकं, खरपुरूषत्वात् यद्यद पादपतिताश्यत्तमुक्ता, बलिप्रकाशान्यश्रूणि विमुञ्चन्तो विज्ञपयन्ति। पातकदुखं, तथापि परिणामसुन्दरमेव द्रष्टव्यम्। इह परत्रा च सकलभगवन् ! क्षमस्व अस्मदीयमपराधं, विलोकयतास्मान् प्रसाद मन्थरवा कल्याणपरम्पराकारणत्वादिति।(उक्तो निष्कासनविधिः) दृशा, प्रतिपद्यध्वं भूयः स्वप्रतीच्छकतया, कुरूतानुग्रहं स्मारणादिना। अथ संग्रहमाह - 'प्रणपात-पर्यवसितप्रकोपा हि भवन्ति महात्मानः' इत ऊर्द्ध वयं प्रमाद इय अविवेगो य विगिं-चियाणं च संगहो पुणब्भूओ। प्रयत्नतः परिहरिष्याम इति। ततो गच्छसत्काः साधवः सूरीन जे उ निसग्गविणीया, सारणया केवलं तेसिं / / कृताञ्जवयः प्रसादयन्ति। गुरवो बुवते, आर्या अलं मम दुष्टाश्च (इय) एवमविनीतानाविवेकः परित्यागो (विगिंचियाणं च ति. सारथिकत्वकल्पनामून प्रत्याचार्यकरणेन। परित्यक्तानां पुनरावृत्तानां भूयः संग्रहो विधेयः। ये तु निसर्गेण स्वभावेन एवमुक्ते साधवो भणन्ति विनीतास्तेषां स्मारणेव केवलं कर्तव्या। यथेदमित्थं कर्त्तव्यमिति। को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए। उपसंहरन्नाह - दुढे वि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं विति।। एवं पडिच्छिउणं, निप्फत्तिं कुणइ बारम समा उ। को नाम सारथिनां मध्ये स भवति, यो भद्धवाजिनो विनीता नश्वान् एवं देशदर्शनं कुर्वन् शिष्यः। प्रतीच्छकान् प्रतीत्य, निष्पति दमयेत् मा कश्चिदसौ, असारथिरेवेत्यर्थः। दुष्टानविना तामपि योऽश्वान् / सूत्रार्थग्रहणादिना द्वादश समाः संवत्सराणि करोति। गतं निष्पतिद्वारम् दमयति, शिक्षा ग्राहयति। तामश्विकमश्वदमं ब्रुवते लौकिकाः। अथ विहारद्वारं व्याख्यायतेअपि च एमो चेव विहारो, सीसनिप्फाययंतस्स / / हों ति हुपमायखलिया, पुव्वन्भासा य दुच्चया भंते! "एसोचेव' इत्यादि। एष एव विहारः शिष्यान् निष्पादयतो वेदितव्यः। न चिरं वजंतणा य, हिया य अचंतियं अंते / / इयमव भावनातस्य दर्शनं कृत्वा गुरूपादमूलमागतस्य गुरूभिराचार्यपदभदन्त! परमकल्याणयोगिन्! पूर्वाभ्यासादनादिभवाभ्या सतया, मध्यारोप्य, दिग्बन्धानुज्ञायां विहितायां नवकल्पविधिना विहरतो, यः दुस्त्यजानि प्रमादस्खलितानि भवन्ति। प्रायो जन्तूनां प्रमादा शिष्य निष्पादनविधिः स एवमेव द्वादश वर्षाणि यावत् विज्ञेयः निद्राविकथादयः स्खलितान्युपयुक्तागमनभाषणादीनि। न चेयं तुल्यवक्तव्यत्वादिति स्मारणादिरूपा यन्नणा चिरं चिरकालं भाविनी सात्मीभावमुपगते, (10) विहारद्वारम्। तत्र जिनकल्पिकमाश्रिव प्रतिद्वाररुपारी ह्यमीषामप्रमादं को नाम स्मारणादिकं करिष्यतीति भावः। ने | अव्यवच्छित्तिमनआदीनि षट् द्धाराणि चेयमापातवत् परिणामेऽपि दुस्सहा, किंतु हिता च पथ्या आत्यन्ति व्याचिख्यासुर्धारगाथामाह - कमतिशयेन अन्ते अवसाने; परिणामे इत्यर्थः। अव्वोच्छित्तिमणपंच-तुलण उवगरणमेव परिकम्मे। वच परिणामसुन्दरं तदापतकममुष्योपादेयम्, अत्रान्तरे सूरयस्तेषां तवमत्तसुएगत्ते, उवसग्गमहे य वङरूक्खे / / प्रमादिसाधूनां तीव्रतरं संवेगमवगम्य तेनैव स्थिरीकर्तु राजदृष्टान्ते अध्ययच्छित्तिविषयं मनः प्रयुङ्क। पञ्चानामार्याणां तुलना, कुर्वन्ति -- स्वयोग्यताविषया भवति / उपकरणं, जिनकल्पोचितमेव गृह्यतिः अच्छिरूयालुनारिंदो आगंतुअविजगुलियसंसणया। परिकर्म, इन्द्रियादिजयरूपं करोति। तपःमत्वश्रुतैकत्वानि, विसहामि। त य भणिणं-ऽभणं वेयण सुहं पच्छा।। उपसर्गसहश्चेति, पञ्च भावना भवन्ति / वटवृक्ष इति, जिनकल्प "एगो राया तस्स अच्छिया जाया, वत्थव्वविजेहिं न सकिउं। तीर्थकरादीनामभावे वटवृक्षस्याधस्तात् प्रतिपद्यते। इति द्धाग्गाथायचागेच्छिउं। अन्नो अ आगंतुओ विजो, आगंतुं भणइ। मम अच्छिगुलिया | मानार्थः।
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________________ जिणकप्प 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प अथैनामेव विवरीषुराहअणुपालिओ यदीहो, परियाओ वायणा वि मे दिना। निप्फाइया य सीसा, मेओ हियमप्पणो काउं / / तेनाचार्येण सूत्रार्थयोरव्यवच्छिंतिं कृत्वा, पर्यन्ते पूर्वापरा रात्राकालसमये धर्मजागरिका जाग्रतेत्थं चिन्तनीयम्। यथा-अनुपालितो | मया दीर्घः पर्यायः प्रवज्यारूपो, वाचनापि मया दत्ता, उचितेभ्यः। निष्पादिताश्च भूयांसः शिष्याः। तदेवं कृता तीर्थ स्याव्यवच्छित्तिः। तत्करणेन विहितमात्मन ऋणमोचनम्। अत उद्धे श्रेपः प्रशस्यतरं ममात्मनो हितं कर्तुम्। किं नाम हितमिति चेदुच्यतेकिं तु विहारेण ऽन्भु-ज्जएण विहरामि ऽणुत्तरगुणेणं / आउ अब्भुजयसास-णेणं विहिणा अणु मरामि / / किंतुरिति वितको अभ्युद्यतविहारेण जिनकल्पादिना, अनुत्तरगुणेनानुत्तरा। अनन्यसामान्या गुणा निर्ममत्वादयो यस्मिन् स तथा, तेनाहं विहारामि। (आउ त्ति) उताहो (अब्भुज्जयसासणेणं ति) सूत्रत्वात सूत्रस्य अभ्युद्यतमरणविशेषे शासनोक्तेन विधिना मिये। अनु पश्चात् संलेखनाद्युत्तरकालं मरणं प्रतिपद्येऽहमिति। (बृ०) इह चायं विधिः। यदि स्तोकमेवायुरवशिष्यते, ततः पादपो पगमनादीनामेकतरमभ्युद्यतमरण प्रतिपद्यते। अथ प्रचुरमायुः पर जङ्गबलपरिक्षीणः, ततो वृद्धावासमध्यास्ते, अथायुर्दीर्घ चनजङ्गाबलक्षीणस्तदाभ्युद्यतविहारं प्रतिपद्यत इति, गतम व्यवच्छित्तिमनोद्वारम्। (11) तत्रा द्वितीयमाचार्यादिरूप-पञ्चतुलनात्मकम्। पञ्चानामाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणवच्छेदकानां तुलना भवति। यथा त्रयाणां अभ्युद्यतविहाराणां कतरं प्रतिपद्यामहे। चैत एव प्रावोऽभ्युद्यतविहारस्याधिकारिण इति कृत्वा पञ्चेति सङ्गानियमः कृतः। इत्थमात्मानं तोलयित्वा यदि जिनकल्पं प्रतिपित्सुस्तदा इत्थं विधि करोतिगणनिक्खेवित्तरिओ, गणिस्स जो वठविओ जहिं ठाणे। गणिन आचार्यस्य गणनिक्षेपः। इत्वरः परिमितकालापन्नो भवति। यो वा उपाध्यायदिर्या स्थाने पदे स्थापितः, स तत्पद्दमेकतुल्यगुणे साधावित्वरनिक्षेपेण निक्षिपति। आह किमर्थमसावित्वरं गणादिनिक्षेपं विदधाति, न यावजीविकम्? उच्यते-इह च काष्ठकविवरगामिता शिलीमुखेन वामलोचने पुत्रिकाया वेधनमिव दुष्करं गणाद्यनुपालनम्। अतः पश्या मस्तावदेवेति। न या-ऽऽचार्यप्रभृतयः किमस्य गणादेरनुपालनं कर्तुं यथावदीशते, वा न वा। यदि नेशते। ततो मया न प्रतिपत्तव्यो जिनकल्पः। यतो जिनकल्पानुपालनादपि श्रेष्ठतरमितरस्य यथाविधस्याभावे सूत्रोक्तनीत्या गणाद्यनुपालना बहुतरनिर्जरालाभकारणत्वात्। नच बहुगुण परित्यागेन स्वल्पगुणोपादाबं विदुषां कर्तुमुचितं। सुप्रतिष्ठित कार्यारम्भकत्वात्तेषामित्यभिसंधाय, स भगवानित्वरं गणादि निक्षेप विदधातीति। वक्तं च पञ्चवस्तुशास्त्रे इहैव प्रक्रने श्री हरि भद्रपूज्यैः"पिच्छासु ताव एए, केरिसगा होति अस्स ताणऽस्स। जोगाण वि पाएणं, निव्वणं दुक्करं होइ।। मय बहुगुणचाएणं, अप्पगुणपसाहणं जह वुहाणं।। इह काउं कञ्जुक-सलाण सुपइट्टियाऽरंभा''।। (गतं पञ्चतुलनाद्वार) उवहिं च अहागडयं, गेण्हइ जाव ऽन्नणुप्पाए।। अथोपकरणद्वारमाह- "उवहिं च'' इत्यादि। यावदम्बं जिनकल्पप्रायोग्यं शुद्धषणायुक्त प्रमाणोपेतं चौपधिं वस्त्रादि, नोत्पादयति, तावद्यथाकृतमेव गृहति। ततः स्वकल्पप्रायोग्ये उपकरणे लब्धे सति प्राक्तनमुपकरणं व्युत्सृजतीति। गतपुपकरणद्वारम्। (12) तत्र चतुर्थ परिकर्मद्वारम्। अस्य द्विविधत्वमस्यैवाधिकारस्य (16) अङ्के द्रष्टव्यम्। परिकर्मेति वा भावनेति वा एकार्थी तत आत्मनं भावनाभिः सम्यक् भावयति। आह-सर्वेऽपि साधवस्तावद्भावितान्तरात्मनो भवन्ति। अतः किं पुनर्भावयितव्यम्? उच्यतेइंदियकसायजोगा, विनियमिया जइ वि सव्वमाहहिं। तइ विजयो कायव्यो, तज्जयसिद्धिं गणंतेणं। यद्यपि सर्वसाधुभिरिन्द्रियकषाययोगान, विविधैः प्रकार निवमिता जितास्तथाऽपि जिनकल्पं प्रतिपत्तुकामेन पुनरेतेषां जयः कर्तव्यः। तत्रौहिकाऽमुष्मिकापायपरिभावनादिना इन्द्रियाणां जयस्तथा कर्तव्यो, यथेष्टानिष्टविषयेषु गोचर मुपागतेषु रागद्वेषयोरुत्पत्तिरेव न भवति। कषायाणामपि जयस्तथा कर्त्तव्यो, यथा-आक्षेपांदुर्वचनश्रवणादि ब्राह्य कारण मवाप्यान्वितेषु तेषामुपचय एव माविर्भवति। योगानामपि मनः प्रभृतीनां जयस्तथा यतितव्यं यथा-तेषामार्तध्यानादिकं, दुष्प्राणिनामिव नोदयमासादयति। अथ किमर्थमित्थमिन्द्रिय कषाययोगानां जयः कर्तव्य इत्याह - तेषामिन्द्रियादीनां जयस्तजयेन सिद्धिर्जिन कल्पपारप्राप्तिस्तां गणयता मन्यमाने नेन्द्रियादीनां जयः करणीयाः। बृ०१ उ०। (इतोऽग्रे 'भावणा' शब्दे) (१३)ता पञ्चमं तपआदिपञ्चकानां पञ्चतुलना भावानारूपम्। द्वितीया सत्वभावना 'सत्तभावणा' शब्दे। तृतीया सूत्रभावना ‘सुत्तभावणा' शब्दे। तावत् प्रथमां तपोभावनामाहबवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण या तुलण्णा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवजओ। तपसा, सत्वेन, सूत्रोण, एकत्वेन, बलेनच, एवं तुलना भावना पञ्चधा प्रोक्ता। जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्येति नियुक्तिगा थासमासार्थः। अथ विस्तरार्थमभिधिन्सुराह - जो जेण अणब्भत्थो, पोरिसिमाई तवो उतं तिगुणं / कुणइ छुहाविजयडे, गिरिणइसीहो य दिटुंतो / / यद्येन पौरूष्यादिकं तपोऽनभ्यस्तंसात्मीभावसमानानीतं तत् त्रिगुणं, श्रीन् वारान् करोति। यथा-प्रथमं पौरूषी वाराया ऽऽसेवनेन सात्मीभावमानीय ततः पूर्वार्द्ध तथैवासेव्य सात्मीभावमानयति। एवमेकाननिविकृतिकादिष्वपि द्रष्टव्यम्। किमर्थमित्याह-क्षुद्धिजयार्थ यथा क्षुत्परीषहसहने सात्म्यं भवतीत्यर्थः। अथ गिरिनदीसिंहेन दृष्टान्तः यथा असौ गिरिनदी तरन् परतटे चिहं करोति / यथा सुष्कप्रदेशे वृक्षाधुपलक्षिते मया गन्थ्यमिति संचरन् तीक्ष्णेनोदकवेगेनापहियते। ततो व्यावृत्य भूयः प्रगुणमेवोत्तरति। यदि हियते। ततो भूयः तथैवोत्तरति। एवं यावत् सकलामपि गिरिनदी प्रगुणमेवोत्तरीतुं शक्रोति, ता
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________________ जिणकप्प 1470 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकपः यत्तदुत्तरणाभ्यास न मुञ्चति। एवं सोऽपि यावद्ववक्षितं तपः सात्मीभाव न वाति, तावत्तदभ्यास न मुच्यति। एतदेवाहएकेकं ताव तवं, करेइ जह तेण कीरमाणेणं / हाणी न होइ जइया, वि होज छम्मासउवसग्गो।। एकै क तपस्तावत्करोति। यथा तेन तपसा क्रियमाणेनापि विहितानुष्ठानस्य हानिर्म भवति। यदापि कथंचित् भवेत्वणमाप्तान् यावदुपसर्गो देवादिकृतोऽनेषणीयकरणादिरूपः तदापि पणूमासान यावदुपोषित्त आस्ते। न पुनरनेषणीयमाहारं गृण्हाति। तपस एव गुणान्तरमाहअप्पाहारस्सन इं-दियाइँ विसएसु संपवत्तंति। नेव किलिस्सइ तवसा, गसिएसुन सज्जए वा वि।। तपस्म क्रिवमाणेनाल्पाहारस्य सतो नेन्द्रियाणि विषयेषु स्पर्शादिषु संवर्तन्ते, न चल्काम्यति, बाधामनुभवति। तपसा नैव च रसिकेषु मधुरेषु अशनादिषु सजति, सङ्गं करोति। सुपरिभोगाभावेनादराभावात्। अपिचतवभावणाई पंचिं-दियाणि दंतानि जस्स बसमिति। इंदियजोगायरिओ, समाहिकरणाइँ कारणए / तपोभावनया हेतुभूतया पञ्चोते संख्याकानीन्द्रियाणि दान्तानि सन्ति। यस्य वशमायत्ततामागच्छन्तिा स इन्द्रिययो ग्याचार्यः, इन्द्रिगुणनक्रियागुरूः समाधिकरणानि समाधि व्यापाराणि कारयतीतिन्द्रयाणि यथा यथा ज्ञानादिषु समाधि रूत्पद्यते. तथा तथा तानि कारयतीत्यर्थः। उक्ता तपोप्रावना। बृ० 1 उ०) (14) तुलनाभावनापञ्चके चतुर्थ्य कत्वभावनामाह - जइ वि य पुव्वममत्तं, छिन्नं साहूहिँ दारमाईस। आयरियाइममत्तं, तहा वि संजायए पच्छा। यद्यपि च-पूर्व गृहवासकालभावि ममत्वं साधुभिराकलत्रां तेष्वादिग्रहणात्पुत्रादिषु छिन्नमेवा तथाऽप्याचार्यादिविवयं ममत्वं पञ्चात् प्रव्रज्यापर्यायकाले संजायते। तच कथं परिहा पयितव्यम्। उच्यतेदिट्ठिनिवायालावे, अ परोप्परकारियं स पडिपुच्छं। परिहासमिहो य कहा, पुव्वपवित्ता परिहावे॥ गुर्वादिषु ये पूर्व दृष्टिनिपाताः सस्निग्धावलोकनानि ये च तैः सहालापस्तान्। तथा परस्परोपकारिता मिथो भक्तपानदानग्रहणधुपकारं प्रति पृच्छन सूत्रादिप्रतिपृच्छया सहितं, परिहासं हास्य, मिथः कथाश्च परस्परवार्ताः पूर्वप्रवृत्ताः सर्वा अपि परिहायपयति। ततश्चतणुईकयम्मि पुव्वं, वाहिरपेम्मे सहायमाईसुआहारे उवहिम्मि | य, देहे य न सज्जए पच्छा / सहायः साङ्घसटिकसाधुस्तद्विषये, आदिशब्दादाचार्यादि विषग्रे च.' बाह्यप्रेमाणि पूर्व तनुकीकृते परिहाषिते सति, ततः पश्चादाहारे उपयो, देहे च, न सज्जति, न ममत्वं करोति। ततः किं भवतीत्याह - पुव्वं छिन्नममत्तो, उत्तरकालं वविजमाणे वि। साभावियइयरे वा, कुसइ दटुं न संगइए / / पूर्व छिन्नममत्वः सर्वेऽपि जीवा असकृदनन्तशो वा सर्वजन्तून स्वजनभावेन शत्रुभावेन च संजाताः। अतः कोऽत्रा नःस्वः को वा परः इति भावनया त्रुटितप्रेमबन्धः, स तूत्तरकालं जिनकल्पप्रतिपत्यनन्तर, व्यापाद्यमानानपि संगतिकान् स्वजनान् स्वभाविकानितरान् व वैक्रियशक्तया देवादिनिर्मितान् दृष्टवा, न क्षुभ्यति, ध्यानात न चलति अत्र दृष्टान्तमाहपुप्फपुरपुप्फकेउ, पुप्फवई देवी जुअलय पसुवे। पुत्तं च पुप्फचलं, धूअं च सनामियं तस्स / / सहवद्धियाणुरागो, रायत्तं चेव पुप्फचूलस्स। घरजामाए दाणं, मिलए निसि केवलं तेणं / / पव्वज्जा य नरिदें, अणुपव्वयणं च णेगत्ते / बीमंसा नवसग्गे, विमेहिँ समुहिं च कंदणया / / पुप्फपुर नयरं। तत्थ पुप्फकंउ राया। पुप्फवई देवी। सा अणया, जुयालं पसूया। पुप्फचूलो दारओ। पुप्फचूला दारिया ताणि दो वि सहवड्डियापि, परोप्पर अईव अणुरत्ताणि अन्नया पुप्फचूलोराया पव्वइओ। अणुराणेग पुप्फचूला विभगिणी पव्वइया। सो य पुप्फचूलो। अन्नया जिणकर्ण पडिवजिउकामो। एगत्तभावणाए अप्पाणं भावेइ। इओ य एगेणं देदेष वीमसणा निमित्तं पुप्फचूलाए अजाए रूवं विउव्विया तं धुत्ता धरिसित पव्वत्ता। पुप्फचूलो य अणगारो तेणं ओगासेणं वोलेइ। ताहे सा पुप्फबूल अजा जेठजसरणं भवाहि ति। वाहइ, सो य भगवं वुच्छित्तपेमबंधण "एगोहं णऽस्थि मे को वि, नाहमन्नस्स कस्स वि"। इचाइ एगत्तभावा भावितो गओ सठाण। एवं एगत्तभावणाए अप्पाणं भावेयत्वो त्ति गाथाक्षरयोजना त्वेवम्-पुष्पपुरे, पुष्पकेतु राजा। पुष्पवती देवी, युगलं प्रसूते। वर्तमाननिर्देश स्तत्कालविवक्षया पुत्रंच पुष्पचुलं दुहिता च तसा सनामिकां समानाभिधानां तयोश्च सह व र्द्धितयोरनुरागो। राजत्वं चैट पुष्पचूलस्य पुष्पचूलायाश्च गृहजामात्रे दान। साचतेन भाा समं केवल निशि रात्रौ मिलति। प्रवज्या च नरेन्द्रपुष्पस्या तदनुरागेणानुप्रवाजन पुष्पचूलायाः। ततो जिनकल्प प्रति पित्सुरेकत्वभावनां भावयितुं लग्नः। विमर्शपरीक्षा। तदर्थं देवेनोपसर्ग क्रियमाणे विटैः सम्मुखीं पुप्पचूलांकृत्या धर्षणं कर्तुमारब्धं, ततः क्रन्दनाम्। आर्य! शरण शरणमिति। अयोपसंहारमाहएगत्तभावणाए, पकामभोगे गणे सरीरे णो। सज्जइ वेरग्गओ, फासेइ अणुत्तरं करणं / / एकत्वभावनया भाव्यमानप्रकामभोगेषु शब्दादिषु गोर
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________________ जिणकप्प 1471 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प च्छे शरीरे वा न सजति, न सङ्ग करोति। किंतु वैराग्यं गतः सन् स्पृशति, वचनादेतेन "अव्वोच्छित्तीमण' इत्यादिद्वारगाथायाः 'उपसगसहे' इति आराधयति। अनुत्तरं करणं प्रधानयोगसाधनं जिनकल्पपरिकमेंति। गता यत्पदं, तद्भावतं बलभावनया, उपसर्गसहत्वभावादिति। गता एकत्वभाटनाः बलभावना(१५) अथ बलभावना। तत्रा बलं द्विधा-भावबलं शारीरिबलं चा तत्र अथ (उवसग्गसहे यत्ति) इत्यत्रायः चशब्दः सोऽनुक्तसमुच्यते वर्तते। भावबलमाह - अतस्तदर्थलब्धं विधिशेषमाहभावो उ अभिस्संगो, सो उपसत्थो उ अप्पसत्थो वा। जिणकप्पियपडिरूवी, गच्छे वसमाण दुविहपरिकम्मं / नेहगुणओ उ रागो, अपसत्थप्पसत्त्थओ चेव।। ततिए भिक्खायरिया, पंतं लूहं अभिग्गहिया // भावो नाम अभिष्वङ्गा स तु द्विधा-अप्रशस्तः प्रशस्तश्च। तत्रापत्य- एवमसौ पञ्चभिविनानि वितान्तरात्मा जिनकल्पिकस्य प्रतिरूपी कलादिषु हस्तजनितो रागः, सोऽप्रशस्तः। यः पुनराचार्योपाध्यायादिषु तदनुरूपो भूत्वा, गच्छ एव वसन, द्विविधं परिकम वक्ष्यमाणनीत्या गुणाबहुमानप्रत्ययो रागः प्रशस्तः। सत्य द्विविधस्थापि भावस्य येन | करोतितथा तृतीयस्यां पौरूष्यां भिक्षाचर्या, तत्रापि प्रान्तं रूक्षमाहारं मानसावष्टम्भेनासौ व्युत्सर्ग करोति, तद्भावकाले मन्तव्यम्। शारीरमपि गृह्यति। एषणा वाभिगृहीताऽभिग्रहयुक्ता। बलम्- शेष जनापेक्षया जिनकल्पाईस्यातिशायिकमिष्यत इत्याह- / तथातपोज्ञामप्रभृतिभिः भावनाभिर्भावयतः कृशतरं शरीरं भवति। ततः परिणामजोगसोही, उवहिविवेगो य गणविवेगो य। कुतोऽस्य शारीरबलं भवतीत्युच्यते "कामं तु शारीरबलम्"। सिञ्जासंयारविसो-हणं च विगईविवेगोय।। हायइ परमणु तवना-णभावणजुअस्स देहोवचए वि। तो पच्छिमम्मि काले, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं / सती जह होइ धिई, थिरा तहा ऽसो जयइ कामं / / पच्छा णिच्छयमज्झं, उवेइ जिणकप्पियविहारं / / अनुरवधारणे। अनुमतमेवास्माकं यत्तपोज्ञानभावनायुक्तस्य शरीरबलं परिणामस्य गुर्वादिममत्वविच्छेदेन योगाना चावश्यकव्यापाराणां हीयते। परं देहोपचयेऽपि ति गथा धृतिर्मानसावष्टम्भल लक्षणा निश्चला यथाकालमेव करणेन शुद्धिः। तथा प्राकृतस्योपधेर्विवेको गणविवेकश्च। भवति तथासौ यतते धृतिबलेन सम्यगात्मानं भावयतीत्यर्थः। शय्यासंस्तारस्य विशोधनं चा विकृतिविवेकश्च। तदातेन कर्तव्यः। ततः आह-इत्थं धृतिबलेन भावयतः को नाम गुणः स्यादुच्यते पश्चिमे काले तीर्थव्यवच्छित्तिकरणानन्तरं सत्पुरूषनिषेवितं कसिणा परिसहचम्, जइ ओठिजा हि मोवसग्गा वि। धीरपुरूषाराधितं परमघोरमत्यन्तदुरनुचरं पश्चादायतौ निश्चयमध्यदुद्धरपहकरवेगा, भयजणाणी अप्पसत्ताणं।। मेकान्तहितं जिनकल्पिकविहारमुपैति। घिइधणियबद्धकच्छो, जो होइ अणाउलो तमव्वहिओ। (16) पूर्वोक्त परिकर्म , पाणि-प्रतिग्रह परिकर्मभ्यां वलभावणाए धीरो, संपुण्णमणोरहो हो। सचेलाऽचेलपरिकर्मभ्यामाहारोपधिभेदाभ्यां च द्विविधिम, पुनः कृत्सना संपूर्णाः परीषहचमूर्गािचयवते, निर्जरार्थं परिषोढव्याः केनाऽऽसनेन कथभुतेषु संस्तारकेषु चोपविशति जिनकल्पिक इति। परीषहाः क्षुदादयः। त एव तेषां वा चमूः सेना सा यद्युत्तिष्ठेत्, सम्मुखीभूय अथ द्विविधं परिकर्म व्याख्यानयतिपरिभावनाय प्रगुणा भवेत्। सोपस गापि दिव्याधुपसर्गः कृतसहायकापि। पाणिपडिम्मगहेण य, सचेलं अचेलओ जहा भविया। तथा-दुर्द्धरं दुर्वहं पन्थानं सम्यग्दर्शनादिरूपं मोक्षमार्ग करोति, इति दुर्द्धरपथकरः तथाविधो वेगः प्रसरो यस्याः सा दुर्द्धरपथकरवेगा। सो तेण पगारेणं, भावेइ अणागयं चेव॥ भयजननीं त्रासकारिणीं अल्पसत्वानां कापुरूषाणां तामेवंविधामपि स द्विविधं परिकर्म। तद्यया-पाणिपरिकर्म, प्रतिग्रहपरिकर्म च। अथवाजिनकल्पप्रतिपत्तुकामो योधयति। कथंभूतो श्रृतिरेव "धणिय' सचेलपरिकर्म, अचलपरिकर्म च ता यो यथा पाणिपात्राधारकः, अत्यर्थम्, बद्धा कक्षा येन स तथा। अनाकुलः औत्सुक्यरहितः। प्रतिग्रहधारको वा। सचेलकोऽचेलको वा भविता, स तेनैव प्रकारेण अव्यथितो निष्प्रकम्पमानः स बलभावनाय तां योधयित्वा, धीरः पाणिपात्राभोजित्वादिना अनागत मेवात्मानं भावयति। सत्वसंपन्नः सन् संपूर्णमनोरथो भवति। परीषहोपसगीन् पराजित्थ, प्रकारान्तरमाहस्वप्रतिमा पूरयतीत्यर्थः। आहारे उवहिम्मि य, अहवा दुविहं तु होइ परिकम्मं / अपि च अग्गहो दोसु पंचसु, अभिग्गहो अन्नतरियाए।। धिइबल पुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। अथवा द्विविधं परिकर्म। आहारे, उपधौ च। तत्राहारं तावदसौ तं तु न विजइ सज्झं, जं धिइमंतो न साहेइ॥ तृतीयपौरूष्यामवगाढायां गृह्यतिः तं चाऽलेपकृतमवे तत्राप्य-संसृष्टादीनां सर्वा अप्येताः तपःप्रभृतयो भावनाः धृतिबलपुरस्सरा भवन्ति। न हि सप्तानां पिण्डैषणानां मध्यावयाराद्ययोरेषणयारग्रहः सर्वथैवास्वीकारः। घृतिबलमन्तरेण पाण्मासिकतपः करणाद्यनु गुणास्तास्तथा भावयितुं उपरितनासु पञ्चसु उद्धृताल्पलेपाव-गृहीतापगृहीतोज्झित धर्मिकासु शक्यन्ते। किं वा (तं तु) तत्पुनः साध्यं कार्य जगति न विद्यते, वद् ग्रहणं तत्राप्यभिग्रहोऽन्यतरस्यामेषणयामेकया भक्तं अपरयापानकमिति धृतिमान् सात्विकः पुरूषो न साधयति "सर्वं सत्वे प्रतिष्ठितम्" इति | नियन्त्र्यशेषा भिस्तिसुभिस्तहिवसमग्रहणमित्यर्थः। उपधौ तु वस्त्रपात्र
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________________ जिणकप्प 1472- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प योः प्रतिमाचतुष्टयं यत्पीठिकायामुक्तं तत्राद्यद्वयवर्जमुत्तरयोरेव ग्रहणं कथं पुनरित्याहतत्राप्यन्तरस्यामभिग्रहः। जइ किं विपमाएणं, न सुट्ट भे वट्टियं मए पुव्यं / अथ' 'पंतं लूह ति'' व्याचष्टे तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ। निप्फावचणकुम्मा, अंतं पंतं तु होइ बावन्नं / धदि-किंचित्प्रमादेनानाभोगादिना न सुष्ठ (भे) भवतां भवावर्तित पूर्व, नेहरहियं तु लूहं,जं वुबलद्धं सभावेण / / तद् (भं) युष्मान् क्षमयाम्यहं निःशल्यो निष्कषायश्च / निष्पावाः वल्लाः चणकाः प्रतीताः आदिशब्दात् कुस्माषा दिकं च इत्थं तेन क्षमिते सति शेषसाधवः किं कुर्वन्तीत्याह'अन्तम्' इत्युच्यते। 'प्रान्त' पुनस्तदेव व्यापन्नं, विनष्ट, यत्पुनः स्नेहरहिते आणंदअंसुपायं, कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा। तद्रूक्षं, यद्वा-स्वभावेनोपलब्धादिकं तदपि रूक्षं मन्तव्यम्। खामिति जहरिहं खलु, जहारिहं खामिता तेणं / / अौव विधिविशेषमाह तेऽपि साधवः आनन्दाश्रुपातं कुर्वाणा भूमिगतशीर्षाः क्षिति उकुडुयासणसमुई, करेइ पुढवीसिलाइसूवविसे। निहितशिरसः सन्तः क्षमयन्ति। यथार्ह यो यो रत्नाधिकः स सः पडिवन्नो पुण नियमा, उक्कुडुओ केई य भयंति / / प्रथममित्यर्थः। तेनाचार्येण यथार्ह यथापर्यायज्येष्ठं क्षामिताः सन्तः इति। तं तु न जुञ्जइ जम्हा, अणंतरो णऽत्थि भूमिपरिभोगो। अथेत्थं क्षामण्णायां के गुणा इत्याह - तम्मि य हु तस्स काले, ओवग्गहिओवह। नत्थि॥ खामिंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लयविणयदीवणामग्गे। (उकुरूयासणसमुई ति) देशीवचनत्वादभ्यासं करोति / पृथिवी लाघवियं एगत्तं, अप्पडिवंधो अ जिणकप्पे / / शिलादिषु वा पृथिवीशिलापट्टके, आदिशब्दादपरेष्वपि तथाविधेषु जिनकल्पे प्रतिपद्यमाने साधून क्षमयन्तः खलु एते गुणाः। तद्यथायथासंस्तृतेषु उपविशेद्वा जिनकल्पं प्रतिपन्नः। पुनर्नियमादुत्कुटुकः के निःशल्यता मायादिशल्याभावो भवति। विनयश्च प्रयुक्तो भवति। मार्गस्य चिद्भजन्ति। विकल्पं कुर्वन्ति। उत्कुटुको षा तिष्ठत्, उपविशेद्वा, तत्तु न दीपना कृता भवति। इत्थमन्यैरपि क्षामणकपुरस्सरं सर्व कर्तव्यमिति। युज्यते, यस्मादनन्तरोऽव्यग्रहितो नास्ति साधूनां भवेद्भुमिपरिभोगः लाघवमपराधभारापगमतो लघु भाव उपजायते। एकत्वं क्षामिता मया मा सीद् च। इतः ऊर्द्धमक एवास्मीत्यनुध्यानं भवति। अप्रतिबन्धश्च, ''सुद्धपुढवीए न सिएत्ति' वचनात्। तस्मिँश्च जिनकल्पकाले ममत्वस्य छिन्नत्वाद् भूयः शिष्येषु प्रतिबन्धो न भवति। औपग्रहिकोप धिर्नास्तिा तदभावाच निषद्यापि नास्ति, इति गम्यते। अथ जिपनपदस्थापितस्य सूरेरनुशिष्टिमाहततश्चार्धादापन्नं तु उत्कुटुक एव तिष्ठति। उक्तश्चशब्द सूचितो विधिशेषः। अह ते सबालवुड्डो गच्छो साइज णं अपरितंते। (17) विहारद्वारगतं षष्ठ वटवृक्षद्वारम्। द्रव्याद्यानुकूल्पे, कस्य पायें, ण य साहु परंपरओ, तुम पि अंते कुणसु एवं / / कस्यतरोरधस्तनप्रदेशेवा, जिनकल्पं स्वीकरणीयम्। तच केन विधिना। पुटवपवित्तं विणयं, मा हुपमाए हि विणयजोगेसु / ततः क्षामणम्। शेषाः किं कुर्वन्ति। क्षामणायां के गुणाः जिनपदस्था जो जेण पगारेणं, उवउज्जइ तं च जाणाहि / / पितसूरेरनुशिटिं। साधूनामनुशिष्टिं प्रदाय किंकरोतीत्यादिप्रतिपादितम्। अथैव (ते) तव सवालवृद्धो गच्छो निसृष्ट इति शेषः। अतो दव्वाइं अणुकूले, संघ समिल्ले य तो गणं असइ। ऽपरितान्तोऽनिर्विण्णो (ण) एनं गच्छं सान्तयः संगोपयेः, स्मारणाजिण-गणहरे य चउदस--अभिन्ने य असइ वडमाई।। वारणादिना सम्यक् पालयेरित्यर्थः। न च परित्यक्तोऽहममीभिरित्यादिइत्थमात्मान परिकर्म। द्रव्ये, आदिशब्दात क्षेत्रो, काले, भावे च, पिरभाव्या यतः एव एव परंपरकः शिष्याचार्यक्रमो यदव्यवच्छित्तिकारक अनुकूले प्रशस्ते सङ्घ मालयित्वा, सङ्घघस्यासत्यभावे गणं शिष्य निष्पाद्य, शक्तौ सत्यामभ्युद्यतविहारः प्रतिपत्तव्यः। त्वमप्यन्ते स्वकीयमवश्यमेव समाडुय, ततः प्रथमं जिनः, तीर्थकरस्तस्या न्तिके। शिष्यनिष्पादना दिकार्यपर्यवसाने एवमेव कुर्याः। ये च बहुश्रुतपर्यायतदभावे गणधरः तन्निधाने। तदलाभे, चतुर्दशपूर्वधरा-नितके। तदसंभवे, ज्येष्ठादयो विनयं योग्या गौरवास्तेिषु पूर्वप्रवृत्तं यथोचितं विनयं मा अभिन्नदशपूर्वधरपावें / तस्याप्यसति, वटवृक्षस्याधः। आदिग्रहणात्तद प्रमादयः, प्रमादेनं परिहापवेः। यश्च साधुर्यन तपः स्वाध्यायक्वैयावृत्याप्राप्तावशोकवृक्षा दीनामधस्ताजिकल्पं प्रतिपद्यते। दिनाप्रकारेणोपयुज्यते, निर्जराप्रन्युपयोगमुपयति तं च जानीहि, त केन विधिनेत्याह -- तथैव प्रवर्तयेत्यर्थः। गणि-गणहरं ठवेत्ता, खामे अगणी उ केवलं खामे / अथ साधूनामनुशिष्टिं प्रयच्छति सव्वं च बालवुड, पुव्यविरुद्धे विसेसेणं / / ओमो ग्रह राइणिओ, अप्पतरसुओ ऽज्ज मा अओ तुब्भे। गणी, गच्छाधिपाचार्यः। स पूर्वमित्वरनिक्षिप्तगणं स्वशिष्यगणधर परिभवह तुम्ह एसो, विसेसओ संपयं पुञ्जो।। स्थापयित्वा श्रमणसङ्खयं क्षमयति। (अगणि त्ति) यस्तु गणी न भवति, अवमोऽयम् अथरत्निाकोऽयम् अल्परश्रुतो वा अयमस्मद् पेक्षया, अतः किं तु सामान्यसाधुः स केवलं क्षमयति। न तु किमपि स्थापयति। किं , किमर्थमस्याज्ञानिर्देशं वयं कुमंह, इति माऽद्य यूयमसुं परिभवत्। यत एष पुनः क्षयमतीत्याह - सर्वं सकल मपि सङ्घ, च शब्दात्तदभावे स्वगच्छ युष्माक सांप्रतमस्मत्स्यानांवत्वाद्गुरूतरगुणाधिकत्वाच विशेषतः पूज्यो बालवृद्धाकुन्न, ये च पूर्वविरुद्धाः प्रागविराधितास्ताद विशेषेण क्षमयति। / न पुनरवज्ञातुमचत इति भावः।
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________________ जेणकप्प 1473 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प इत्यमुमयेषामप्यनुशिष्टिं प्रदाय किं करोतीत्याह - पक्खिव्व पत्तसहिओ, सभंडगो वि विजणिज्ज निरवेक्खो। ना तइया ता विहरो, से चउत्यी ठाइनण्णासु।। यया पक्षी पाभ्यां पक्षाभ्यां सहितः, प्राक्तनस्थाननिरपेक्षः स्थानान्तरं व्रजति। एवमपि भगवान सभाण्डकः पात्रासहितो, निरपेक्षा गच्छसत्कापेक्षारहितः, एकान्तं मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्र व्रजति। अयं च यावत्तृतीयपौरूषी, तावद् गच्छति। यतस्तस्यामेव (से) तस्य विहारो, नान्यासु पौरूषीषु। यत्र तु चतुर्थी पौरूषी भवति, तत्र नियमात् तिष्ठति तस्मिन्निर्गत शेषसाधवः किं कुर्वन्तीत्याहसीहमिव मंदरकंद-रात्तो नीअम्मिए तओ तम्मि। चक्खुविसयं अइगए, अइंति आणंदिया साहू।। सिंह इव मन्दरकन्दरायास्तस्मिन्ननगारे सिंहे, गच्छात (नीअम्मिए) निर्गले सति, कियन्तमपि भूभागनुगमनं विधाय, ततश्चक्षुर्विषवमतिक्रान्ते अदर्शनीभूते, आयान्ति स्ववसतिं आनन्दिताः अहो अयं भगवान सुखसेवनीयस्थविरकल्पविहारं विहायातिदुष्करमभ्युद्यतविहारमभ्युरैति, इति परिभावनया दृष्टाः सन्तः साधवः इति। इदमेव विशेषमाहनिचेलसचेले वा, गच्छारामा विणिग्गए तम्मि। चक्खुविसयं अईए, अइंति आणंदिया साहू।। निश्वेलो वा सचेलो वा। गच्छारामात् सुखसेवनीयाद्विनिर्गते, तस्मिन् चक्षुर्विषयमतीते, आयान्तिआनन्दिताः साधवः। ___ अथासौ विवक्षितं क्षेत्रं गत्था-किं करोतीत्याहआमोएउ खेत्तं, निव्वाघाएणमासनिव्वाहं। गंतूण तत्थ विहरइ, एस विहारो समासेणं / / आभोग्य विज्ञाय क्षेत्रां, नियाघातेन विघाभावेन मासनिर्वाह मासनिर्वहणसमर्थं गत्वा-तत्र क्षेत्रे विहरति स्वनीति परिपालयन्ति। एव विहारो विशेषनुष्ठानरूपोऽस्य भगवतः समासेन प्रतिपादितः। इत्युक्तं विहारद्वारम्। बृ० 1 उ० (18) सामाचारीद्धारम्। आवश्यक्यादिपञ्चसामाचारी जिंनकल्पिकः प्रयुक्ते अन्याः ना आदेशान्तरमप्यत्रौवोक्तम्। मर्थतासां मध्याजिनकल्पिकाः सामाचार्या भवन्तीत्युच्यते आवासिइनिसीहिमि-च्छाअपुच्छुबसंपदं च गिहिए। अन्ना सामायारी,न हों ति सेसे सिया पंच।। आवश्यकी, नैषेधिकी, मिथ्याकारं, आपृच्छाम्, उपसंपदं च, गृहिषु गृहस्थविषयाम्। एताः पञ्च सामाचारीजिनकल्पिकः प्रयुङ्क्ते। अन्याः सामाचार्या न भवन्ति, तस्य (सेसे) शेषाः पञ्च मिथ्याकाराद्याः। प्रयोजनाभावात्। आदेशान्तरमाहआवासिई निसिहिइं, मोत्तुं उवसंपयं च गिहिए। सेसा सामायारी,न हों ति जिणकप्पिए सत्ता।। आवश्यकीं नैषेधिकी मुक्तवा, उपसंपदं च गृहिषु गृहस्थ विषया, | जिनकल्पिक स्य शेषाः सामाचार्यो मिथ्याकाराद्याः सप्त न भवन्ति। तद्विषयस्य स्खलितादेरभावात्। अहवा वि चक्कवाले,सामायारी उ जस्स जा जोग्गा। सा सव्वा वत्तव्वा, सुआइआ वा इमा मेरा।। अथवाऽपि, चक्रवाले प्रत्युपेक्षणादौ निन्यकर्मणि, यस्य जिनकल्पिकादेया सामाचारी योग्या, सा सर्वा अत्र सामाचारी द्वारे वक्तव्या। श्रुतादिका वा इयं वक्ष्यमाणा मेरा मर्यादा सामाचारी। (16) श्रुतादिकाना वक्ष्यमाणसामाचारीणां सप्तविंशतिद्धाराणि - तामेवाभिधित्सुरिगाथात्रयमाह - सूयमंघयणुवसग्गा, आयंका वेदणा कइ जणाय। थंडिल्लवसहिके चिर-मोचारो चेव पासवणो। ओवासो तणफलयं, सारक्खणया य संठवणया या पाहुडिओऽगी दीवा, ओहाण-वसे कइजणा उ। भिक्खायरियापाणग-लेवालेवा तहा अलेवा या आयंविलपडिमाओ, जिणकप्पे मासकप्पो य। श्रुतं 1 संहननं 2 उपसर्गः 3 आतङ्को 4 वेदना 5 कति जनाइच 6 स्थण्डिलंह वसतिः 8 कियचिरंह उच्चारश्चैव 10 प्रभ्रवणं 11 अवकाशः १२तृणफलकं 13 संरक्षणताच 14 संस्था पनताच 15 प्राभृतिका 16 अग्निः 17 प्रदीपः 18 अवधानं 16 वत्स्यथ कति जनाश्च 20 भिक्षाचर्या 21 पानकं 22 लेपालेपः 23 तथा अलेपश्च 24 आचाम्लं 25 प्रतिमा 26 मासकल्पश्च 27 (जिणकप्पेत्ति) एतानि सप्तविंशतिद्वाराणि जिनकल्प विषयानि वक्तव्यानि इति गाथात्रयसमुदायार्थः। अथावयवार्थे प्रतिद्वारं प्रतिपिपादयिषुर्यथोद्देशं निर्देश इति न्यायतः प्रथमं श्रुतद्वारमाह - आयारवत्थु तइयं, जहन्नयं होइ नवमपुव्वस्स। अहिए कालण्णाणं, दस पुण उक्कोसभिण्णाई।। जिनकल्पिकस्य जघन्यकश्रुतं, नवमपूर्वस्य प्रत्याख्याननामकस्याऽऽ श्राराख्यं तृतीयं वस्तु। तस्मिन्नधीते सति, कालज्ञानं भवतीत्यतस्तदर्वाक श्रुतपर्याये वर्तमानस्य न जिनकल्पिकस्य प्रतिपत्ति। उत्कर्षतो दशपूर्वाणि भिन्नानि। श्रुतपर्यायः संपूर्णदशपूर्वधरः। पुनरमोघववनतया प्रवचनप्रभा वना-परोपकारादिद्वारेण च, बहुतरं निर्जरालाभमासादयति। अतो नासौ जिनकल्पं प्रतिपद्यते। उक्तं श्रुतद्वारम्। अथ संहननद्वारमाहपढमिल्लगुसंघयणा, धिइए पुण वज्जकुड्वसामाणा। जिनकल्पाः प्रथमिल्लुकसंहननाः वज्रऋषभनारासंहननोपेताः। धृत्या अङ्गीकृतनिर्वाहक्षममनःप्रणिधानरूपया वजकुङ्यसमानाः। * अथोपसर्गद्वारमाह* उप्पजंतिन वा सिउ-वसग्गा एस त्ति पुच्छा उ।। अथोपसर्गद्धारम-उत्पद्यन्ते न वा अमीषामुपसर्गा दिव्यादयः इत्येषा पृच्छा। अत्रोत्तरमाह - जइ वि य उप्पज्जंते, सम्म वि सहति ते उ उवसग्गे। नायमेकान्तो यदवश्यमेतेषामुपसर्गा उतपद्यन्ते, परं यद्यप्युल्पद्यन्ते, तथाऽपि सम्यगदीनमनसो विषहन्ते तानुपसर्गान्। अथाऽऽतङ्कद्वारमाहरोगातंका चेवं, भइआ जइ हों ति विसहति / /
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________________ जिणकप्प 1474 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प आतङ्कद्वारमतिदिशति-रोगाश्च कालसडाः। आतङ्काश्च सद्यो घातिनः। एवमेव भाच्या उत्पद्यन्ते, वा न वा / यदि भवन्त्युपद्यन्ते, ततो नियमाद्विषहन्ते। वेदनाद्वारमाहअब्भुवगमाओवक-मा य तेसि वेयणा भवे दुविहा। धुक्लोआइपढमा ज - राविवागाइ विई एक्को / आभ्युपगमिकी, औपकमिकी चा तेषां जिनकल्पिकानां द्विविधा वेदना भवति। तत्रा प्रथमा–धुवलोचाद्या धुवः प्रतिदिन भावीलोचः, आदिशब्दादातापनातः प्रभृतिपरिग्रहः। द्वितीयाचौपक्रमिकी जराविपाकादिः, जरा प्रतीता। विपाकः कर्मणामुदयस्तत्समुत्था। अथ "कियन्तोजना" इति द्वारम्-(एको त्ति) एक एवायं भगवान् भवति। यदिवेद द्वारमुपरिष्ठात् व्याख्यास्यते। अथ स्थण्डिलद्वारमाहउच्चारे पासवणे, उस्सग्गं थंडिले कुणइ पढमे। तत्थेव य परिजुण्णे, कयकिच्चो उज्झए वत्थे / / उचारस्य प्रश्रवणस्य चोत्सर्ग परित्याग प्रथमे अनापाते असलोके / स्थण्डिले करोतिातीव प्रथमस्थण्डिले कृतकार्यों विहितशीतत्राणा- 1 दिवस्त्रकार्यः, उज्झति वस्वाणि। अयं च संज्ञां व्युत्सृज्य न निर्लेपयति। कुत इति चेत्? उच्यतेअप्पमभिन्नं कच्चं, अप्पं लूहं च ओअणं भणियं / दीहे विउ उवसग्गे, उभयमवि अ थंडिले न करे / / अल्पमभिन्नं च वर्चः पुरीषमस्य भवति। कुत इत्याह-यतोऽल्पं रूक्ष च भोजनमस्य भणितं भगवद्भिः। अल्पाभिन्न वर्चस्कतया तथाकल्पत्वाचासौ न निर्लेपयति। न चासौ दीर्धेऽपि बहुदैवसिके उपसर्गे उभयेऽपि संज्ञा कायिकीं वा स्थण्डिले आपातादिदोषयुक्ते भागे करोति। वसतिद्वारमाह - अममत्ता-ऽपरिकम्मा, नियमा जिणकप्पियाण वसहीओ। एमेव य थेराणं, मुत्तूण पमज्जणं एकं / / अममत्वाममेयमित्यभिष्वङ्करहिताः। अपरिकर्मा साधर्षमुपलेपनादिपरिकर्मवर्जिता, नियमात जिनकल्पिकानां वसतिः। स्थविरकल्पिकानामप्येवं वसतिरममत्वा, अपरिकर्मा च, द्रष्टव्या। मुक्तवा प्रमार्जनामेकामन्यत्परिकर्मे तिन कुर्वन्ति, इत्यर्थः। एतदेव स्पष्टयतिविले न ढवंति न खज्जमाणिं, गोणो य वारिंति न भज्जमाणिं दारे न ढकिंति, न वल्लगिंति, दप्पेण थेरा भइया उ कजे।। एते भगवन्तो बिलानि धूल्यादिना न स्थगयन्ति। न वा गवादिभिः खाद्यमाना भज्यमानां वा यसतिं निवारयन्तिा द्वारे न ढकिंति कन्नायाभ्यां न संयोजयन्ति। स्थविरकल्पिका अपि दर्पण कार्याभावे एवमेव वसतेः परिकर्म न कुर्वन्तिा कायें तु पुष्टावलम्बन भाज्याः परिकम कुर्वन्त्यपि, इतिभावः। कियचिरो-चार-प्रश्रवणा-वकाश-तृणफलक-संरक्षण संस्थापनाद्वाराणि गाथाद्वयेन भावयतिकिंचिरकालं वसिहि, इत्थ य उच्चारमाइए कुणसु। इह अत्थसु मा इह य, इह तणफलए गिण्हह मा य / / यस्यां वसतौ याच्यमानायां तदीयस्वामिन इन्थ भणन्ति, कियत् चिरंकालं वत्स्यथ यूय। यद्धा अा प्रदेशे उच्चारादीनि पुरीषप्रश्रवणादीनि कुरू। अत्र तु मा कुरू। इहास्मिन्नवकाशे आसीथ, इह मेति। एतानि का हस्तसंज्ञया निर्दिश्यमाननि तृणफलकानि गृहीयाः, मा एतानीति। सारक्खइ गोणाई, मा य पडिंति उविक्खइ उ भंते ! अन्नं वा अभियोगं, नेच्छति अचियत्तरिहारी॥ संरक्षत वा गवादीन् बहिर्निगच्छतो यूयमस्माकं क्षेत्रादौ गताना व्याकुलानां वा, मा च पतन्तीं वसतिमुपेक्षध्व। किं सुसंस्थापना पुनः संस्काररूपा विधेया (संठवण्या य त्ति) द्वारगाथायां यश्चशब्दः तेन सुचितम्-अन्यं वा स्वाध्याय निषेधादिरूपं यत्रा वसतिस्वामी अभियोग्य नियन्त्राणां करोति, तं मनसापि नेच्छन्ति। सूक्ष्मस्याप्यप्रीतिकस्य परिहारिणो अमी भगवन्त इति। प्राभृतिकाग्निदीपावधानद्वाराणि व्याचष्टेपाहुडियदीवओ वा, अग्गिपगासो व जत्थ न वसति। जत्थ य भणंति भंते! ओहाणं देहि गेहे वि।। यस्यां वसती प्राभृतिक बलिः क्रियते, दीपको वा यस्यां विधीयते / अग्निरङ्गारजवालादिकस्तस्य प्रकाशो वा या नवसन्ति। यत्रा च तिष्ठत्सु रात्सु अगारिणी भणन्ति, अस्माकमपि गेहे अवधानमुपयोगं ददत इति। तत्रापि नावतिष्ठन्ते। वत्स्यथ कति जना इति द्वारमाह - वसतिं अणुणवितो, जइ भणइकइ जणा वि न वत्थ बसे। सुहुमं पि न सो इच्छइ, परस्स अप्पित्तियं भगवं / / वसतिमनुज्ञामनुज्ञापयन् यद्यसौ भणति, कति जना यूयं वस्त्यथेति तत्रापि न वसति। कुत इत्याह- सूक्ष्ममपि नासा विच्छति परस्याप्रीतिक भगवान्। (कइ जणा उत्ति) अत्र यस्तुशब्दस्तेनान्यामपीषदप्रीतिकजननी वसतिमसौ परिहरति, इतिगम्यते। उक्तंच-पञ्चवस्तुके–'सुहुमं पि हु अचियत्तं, परिहरए सो परस्स नियमेणं। जे तेण तुसहाओ, वज्जइ अण्णं पि तजणणिं // भिक्षाचर्यापानकलेपालेपालेपद्वाराणि विवृणोति - तइयाइ भिक्खचरिया, पग्गहिया एसणा य पुववुत्ता। एमेव पाणगस्स वि, गिण्हइ अ अलेवडे दो वि।। तृतीयस्यां पौरूष्यां, भिक्षाचर्या एषणाच, प्रगृहीता अभिग्रह युक्ता, सा च (पंचसुग्गहवोसग्गहु) इत्यादिना पूर्वमेवोक्ता एवमेव पानकस्यापि तृतीयपौरुष्या प्रगृहीतया वैषणया ग्रहण कराति। तत्रा शिष्यः पृच्छति (लेवालेवेत्ति) किमसौ विकल्पको लेपकृतं गृह्यति उतालपकृतम्। अन्न सूरिः "अलेव त्ति पदं विवृणवन्नुत्तरमाह- द्वेऽपि भक्तपाने अलेपकृते वल्लचणकसौ वीरादिरूपे गृह्यति, न लेपकृते।
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________________ जिणकप्प 1475 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प आचामाम्लप्रतिमाद्वारद्वयमाह - आयंविलं न गेण्हइ, जंच अणायंविलं विलेवाडं। न य पडिमा पडिवज्जइ, मासाई जा य सेसा उ॥ आयामाम्लमसौ न गृण्हाति। पुरीषाभेदा विदोषसंभवात्। अनायामाम्लमपि, यल्लेपकृतं तन्न गृह्यति। न च प्रतिमा मासिक्यादिका, असौ प्रतिपद्यते। याश्च शेषा भद्रमहाभद्रादिकाः प्रतिमा स्ता अपि न प्रतिपद्यते। स्वकल्पस्थितिप्रतिपालनमेव, तस्य विशेषाभिग्रह इति भावः। बृ०१ उ०। (20) धुतादिसप्तविंशतिद्वारान्तर्गतं, सप्तविंशं मासकल्पद्वारम्। अथ मासकल्प इति द्वारमभिधित्सुराहकप्पे सुत्तत्थविसा-रयस्स संह गुणवीरियजुत्तस्स। जिणकप्पियस्स कप्पइ, अभिगहिया एसणा निचं // कल्पे जिनकल्पविषयो यौ सूत्रार्थी, तत्र विशारदस्य निपुणस्य, सहननं शारीरबलं, वीर्य धृतिस्ताभ्यां युक्तस्य, जिनकल्पिकस्य कल्पते। अभिग्रहीता साऽभिग्रहा एषणा। (21) जिन कल्पी षट्वीथ्यां भ्रमवीति विस्तरः। सा च मासकल्पस्थितिमनुपालयतो भवतीति। अतस्तस्यैव विधिमाहछवीहीओ गाम, काउं एक्किक्कियं तु सो अडइ। वजेतुं होइ सुहं, अनिययवित्तिस्स कम्माइं / / पत्रासौ मासकल्पं करोति, तं ग्रामं षट्वीCHहपङ्किरूपाः कृत्वा, ततः प्रतिदिनमकैका वीथीमटति। यावत्यष्टमे दिवसे षष्ठीं। कुत इत्याह - अनियतवृतेरपरापरवीथीषु पर्यटतः, कर्मादि आधाकर्मपूतिकर्मादिक सुखं वर्जयितुं शक्यत इति भावः। कथं पुनराधाकर्मादिसंभवो भवतीत्याशङ्कत्य, तत्संभवादिदर्शयिषुराहअभिगहे दट्ट करणं, भत्तोगाहिमं तिण्णि पूईयं / तुदगो एगमणेगे, कप्पो त्तिय सत्तमे सत्त / / तस्य भगवतः प्रथमवीथीमटतः कयाचिदगार्या श्रद्धातिरेकात्, घृतमधुसंयुक्त भैक्षमुपनीत। तेन च न कल्पते मे, लेपकृता भिक्षेति न गृहीत। तत एवमादीनभिग्रहान् दृष्टवा, कर्मणः करणं भवति। तच्च भक्तमवगाहिम वा भवेत्, त्रीणि च दिवसानि तत्पूतिकं। नोदकः प्रश्नयीतिश् एक ग्राम किमनेकान् षट्वीथीरूपान् करोति। सुरिराह - कल्प एषोऽमीषां, यत् षट् कल्पवीथीः कृत्वा, सप्तमे दिवसे पर्यटन्ति सप्त च जना, एकरयां वसतौ च, संभवन्तीति समासार्थः। (22) देयाऽऽहाराऽयोग्यतायां श्राविका-विचारः। अथ विस्तारार्थमाहदवण य अणगारं, सडा संवेगमागया काइ। नत्थि महं तारिसयं, अन्नं जमलज्जिाया दाहं / / तमनगारंतपः शोषितं मलपटलजटिलं च परूषं दृष्टवा, हा काचितका, परसंवेगमागता सती चिन्तयति। किं मे जीवितेन,यदीदृशस्य महात्मनो भिक्षा न दीयते। नास्ति मम तादृशं शोभनं, यदहमलजिता सती दास्यामि तत:सध्वपयत्तेण अहं, कल्ले काऊण भोअणं विउलं / दाहामि तुट्ठमणसा, होहिइ मे पुण्णलाभो त्ति / / सर्वप्रत्यनेन अहं, कल्पे द्वितीये अहनि, भोजन विपुलं कृत्वा दास्यामि तुष्टमनसा प्रहष्टन चेतसा। ततो भविष्यति मे महान् पुण्यलाभः। इत्थं विचिन्त्य, द्वितीये दिवसे, विपुलमशनादिभक्तमवगाहिमं चोपस्कृत्य, तं भगवन्तं, प्रतीक्षमाणा तिष्ठति। ततः किमभूदित्याहफेडितवीहीएहिं, अणंतवरनाणदंसणधरेहिं। अद्दीणअपरिहंता, विइयं च पडिहिंडिया तत्थ / / स्फे टिता परिहता वीथी यैस्तेर्जिनकल्पिकैः कथंभूतैरनन्त वरज्ञानदर्शनधरैः, इहानन्तज्ञानमयत्वादनन्तास्तीर्थकरास्तैरू पदिष्टे, वरे उत्तमे जिनकल्पिकानां ये ज्ञानदर्शने, उपलक्षणत्वा चारित्रं च, तानि धारयन्तीत्यनन्तवरज्ञानदर्शनधरास्तैः। आह चूर्णिकृत्-"अणतं नाणं जेसिं ते अणंता तित्थकरा तेहिं जिणकप्पियाणं वरं नाणं दंसणं चरितं च जं भणियं तद्धरेहिं ति" ततस्ते अदीनमनसः अविषणाः, अपरितान्ताः कायेना निर्विण्णाः, द्वितीयां वीथीं क्रमागतां पर्यटितास्तत्र क्षेत्रो, एक वचनप्रक्र मेऽपि बहुवचनाभिघानमन्येषामपि, जिनकल्पिकाना मेवंविधवृत्तान्तसंभवख्यापानार्थम्। (23) कल्पशब्दार्थः। वीथ्यां भ्रमतस्तद्भक्तं, पूतिकं भवति। अत्रा चेयं व्यवस्थापढमदिवसोवक्कयं, तिण्णि दिवसाई पूइयं होइ। पूतिसु तिसुन कप्पइ, कप्पइ तईउ जया कप्पो।। प्रथमे दिवसे तद्भक्तमुपस्कृतमाधाकर्म, त्रीणि दिवसानि यावत् तद् गृह पूति भवति। तेषु च त्रिषु पूतिदिनेषु, तस्मिन् गृहे अन्यदपि किञ्चिन्न कल्पते। यदा तु तृतीयः कल्पो गतो भवति, तदा कल्पते। कल्पशब्देनेह दिवस उच्यते। उक्तं च पञ्चवस्तुटीकायाम्, कल्पतेतृतीये कल्पे दिवसे गते अपरस्मिन् अहनीति। (24) त्रिषु दिवसेषु पूतिक न कल्पते, किन्तु षष्ठे सप्तमे च दिवसे कल्पत इति सप्तमदिवसे पर्यटतः श्राविका पृच्छा चा इदमेव स्पष्टयन्नाहविइयदिवसम्मि कम्म, तिन्नि उ दिवसाइं पूइयं होइ। तिसु कप्पेसु न कप्पइ, कप्पइ तं छट्ठदिवसम्मि। यस्मिन् दिवसे स जिनकल्पिकः प्रथमवीथ्यामटन् तया दृष्टः तदपेक्ष्य द्वितीये दिवसे तद्भक्तमाधाकर्म, तदनन्तरं त्रीणि दिवसानि पृतिकं भवति। तेषु त्रिषु, कल्पेषु दिवसेषु, न कल्पते, किंतुकल्पते तत् षष्ठे दिवसे। अथावगाहिमविषयं विधिमाह - कल्ले से दाहामि, ओगाहिमंगणं णागता अज्ज / तइए दिवसे तं हो-इ पूइयं कप्पए छ8।। (अवगाहिम) दिनद्वयमपि क्षमत इति कृत्वा, सा श्राद्धा विनयवती। यदर्थमयवमवगाहिमपाको मया कृतः, स मुनिरद्य मद्गृहाङ्गणं नागतः। अतः कल्पे (से) तस्याहं दास्यामि। इदमवागहिममिति विचिन्त्य, तहानार्थं यदि स्थापपति, तदा तृतीय दिवसे कमै व भवति। यत्पुनस्तारिमन्नेव दिवसेऽव्यवछिन्न भावा सा, आत्मार्थितं करोति, तदवगा हिममपि भक्तवन् मौलदिवसापेक्षया द्वितीयादिवसे कर्म, तृतीयादिषु तद् गृहं पूतिक्रं, षष्ठे तु दिवसे कल्पते।
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________________ जिणकप्प 1476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप एतदेव स्पष्टयतिएमेवोगाहिगम, नवरं तइयम्मि जमवि दिवसे तं। कम्मं तिसु पूइन, कप्पइ तं सत्तमे दिवसे / / एवमेव भक्तवदवगाहिममपि, यत्तदिवस एवात्मार्थी कृतं, तद्वितीये दिवसे कर्म, तृतीयादिषु त्रिषु पूर्ति, षष्ठे तु कल्पने। नवरं यत्तदिवसे नात्मार्थयति, ततृतीयेऽपि दिवसे कर्मी ततः शिषु दिवसेषुतत्पृतिकमिति कृत्वा, न कल्पते। किंतु कल्पते तद्ग्रहं सप्तमे, दिवसे, अत एव चासो भूयः सप्तमे दिने तस्यां वीथ्यांपर्यटति। आह-यद्येवं तर्हि , यदि तस्मिन्नेव दिवसे तं प्रथमवीथीमट तं द्रष्टवा, कश्चिदाधाकर्मादि कुर्यात मोदकादिकं वा. तदर्थ कृत्वा सप्तमदिवस यावदव्यवच्छिन्नभाव स्थापयेत्। तदा नामासौ कथं जानाति?। कथं वा परिहरति इति? उच्यतेचोयग! तं चेव दिणं, जइ वि करिजाहिं कोइ कम्माई। नहु सो तं न विजाणइ, एसो पूण सिं अहाअप्पो / हे नोदका तस्मिन्नेव दिवसे यद्यपि कुर्यात् कश्चित् किञ्चिदाधाकर्मादि, (नहु) नैव सतन्न विजानति "द्वौ नौ प्रकृत्यर्थ गमयत्' इति वचनात्, जानात्येवासौ श्रुतोपयोग बलेना आह-यद्यसौ श्रुतोपयोगप्रामापयादेव जानीतं, ततः किमर्थमेकंग्राममनेकभागान्परिकल्प्य पर्यटति? उच्यतेकल्प एषः (सिं) अमीषां भगवता। यत् सप्तमे दिवसे भूयः प्रयमवीथ्यां पर्यटन्ति। ततश्च, तं सप्तमे दिवसे प्रथमवीथी पर्यटन्तं दृष्ट्वा, सा श्राविका यात्किं नाग या थ तइया, असव्वओ मे क ओ तुह निमित्तं! इह पुट्ठो सो भगवं, तदानीं यूयं कि नागताः। 'थेति' निपातः पूरणार्थः। मया हित्वन्निमित्तं विलुपं भक्तादिकमुपस्कुर्वन्त्या युष्मदनुपयोगात् असद्व्ययः कृतः इति पृष्टोऽसौ भगवान् तूष्णीकं आस्ते, इति शेषः। (25) द्वितीयादेश-यादेशान्तरम् विझ्याएसे इमं भण।। द्वितीयादेशे आदेशान्तरे पुनरिदं भणति। किं तत्? इत्याह अनियता उ वसईओ, भमरकुलाणं च गोकुलाणं च। समणाणं सउणाणं, सारइआणं च मेहाणं / / अनियता वसतयः स्थानानि, उपलक्षणत्वात् परिभ्रमणानि च। केषामित्याह-भ्रमरकुलानां च, गोकुलानां च, श्रमणानां, शकुनानां, शारदानां, च मेघानाम, इत्थं न नियतचर्यया भिक्षाटने श्रद्धावतामपि प्राणिना, नाधाकर्मदिकरणे भूयः प्रवृत्ति रूपजायत इति। अथ "सत्त ति" पदं विवृणोतिएकाए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्त जणा। अवरोप्पसंभासं, चयन्ति अन्नोन्नवीहिं च / / एकस्यां वसतावुत्कर्षत् सप्त जनाः जिनकल्पिका वसन्ति। ते चैक्षत्र / वसन्तोऽपि परस्परं भाषणं त्यजन्ति। न कुर्वन्तीत्यर्थः। अन्योऽन्यवीथिं च त्यजन्तिा यस्मिन् दिने, यस्यां वीथ्याभेकः पर्यटाते। न तस्मिन्नेव, तस्यामपर इत्यर्थः। गतं सामाचारी द्वारम्। अथ स्यिांतद्वारमनिधित्सुराह खंत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय-आगमे वेए। कप्पे लिंगे लेस-ज्झाणे जगणाऽअभिग्गहा य / / पव्वावण मुण्डवणे, मणसावन्ने वि से अणुग्घाया। कारण-निप्पडिकम्म, भत्तं पंथो य तइयाए।। एकस्मिन् क्षेत्रऽमी भगवन्तो भवन्ति १एवं काले 2 चरित्रो 3 तीर्थ पर्याय 5 आगमे 6 भेदे 7 कल्पे 8 लिङ्गे लेश्यायां 10 ध्वनि 1 गणनायां 12 अमिग्रहाश्चामीषां भवन्ति न वा? 13 प्रव्रजनायो 11 मुण्डापनायां च कीदृशी स्थितिः 15 मनसाऽऽपन्नेऽपराधे (से तस्यानुद्घाताश्चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम् 16 कारणं 17 निःप्रतिकर्म 18 भक्तं, पन्थाश्च, तृतीयस्यां पौरूष्याम् 16-20 इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः। व्यासार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुः प्रथमतः क्षेत्राद्वारमङ्ग कृत्याहजम्मणसंतीभावे, स होज सव्वासु कम्मभूमीसु। साहरणे पुण भइयं, कम्मे च अकम्मभुमे वा।। क्षेत्रविषया द्विविधा मार्गणा। जन्मतः सद्भावतश्च! जन्मतो यत्र के अयं प्रथम उत्पद्यते। सदावतस्तु यत्रा जिनकल्पं प्रतिपन्नो, वाऽस्ति ताजन्मसद्भावयोरुभयोरपि, अयं सर्वासुकर्मभूमिषु, भरतपञ्चकैराटतपञ्चकविदेह पञ्चकलक्षणासु भवेतु। संहरणे देवादिना अन्या नग्ने, पुनर्भाज्य भजनीयं, कर्मभूमौ वाभवेदकर्मभूमौ वा। एतच सद्भावमाश्नित्योक्तं। जन्म तस्तु, कर्मभूमावेवायं भवतीत्युक्तं क्षेत्रद्वारम्। अथ कालद्वारमाह - ओमप्पिणीइ दोसुं, जम्मणतो तिसु संतीभावेणं। उस्सप्पिणिविवरीया, जम्मणतो संतीभावे य॥ अवमपिण्यां जन्मतो द्वयोः सुषमदुष्पमसुष्ज्ञमयोः तृतीय चतुर्थरकयोर्भवेत्। सद्रावतस्तुत्रिषु तृतीयचतुर्थ-पञ्चमारकेषु (सुषमदुष्यमदुष्षमसुषम-दुष्षमरूपेषु) दुष्पमरसुषमाया अन्ते जातो दुष्षमादा जिनकल्पं प्रतिपद्यते। इति कृत्वा उत्सर्पिणीविपरीता। जन्मतः सद्भावतश्या इदमुक्तं भवति-उत्सर्पिण्या दुष्षमदुष्षमसुवसुषमदुष्पमा तिसृषु समासुजन्मश्रुते दुष्पमसुषमसुषदुष्षमासु द्वयोरमुकल्प प्रतिपद्यते दुषमायां तीर्थ नास्तीति कृत्वा तस्यां जातस्यापि दुष्पमसुषमायामेव कल्पप्रतिपत्तिरिति। णोंसप्पिणुस्सप्पिणी-भवंति पलिभागतो चउत्थाम्मि। काले पलिभागेसु अ, साहरणे होंति सव्वेसु // नोऽवसर्पिण्युन्सर्पिणीरूप अवस्थितकाले, चत्वारः प्रतिभा गास्ताद्यथा--सुषमसुषमाप्रतिभागः। सुषमाप्रतिभागः सुषम-दुष्षमाप्रतिभागः। दुष्षमसुषमाप्रतिभागश्चेति। तत्राद्यो देवकुरुत्तरकुवोद्वितीय रम्यकहरिवर्षयोस्तृतीयो हैमवतैरण्यव-तयोश्चतुर्थस्तु महाविदेहेषु।ता चतुर्थे प्रतिभागे जन्मतः सद्भावतश्चामी भवन्ति। नाद्येषु त्रिषु प्रतिभागेषु (काले त्ति) यो सहाविदेहे जिनकल्पिकः ससुषमादिषु षट्स्यपि काले संहरणतो भवेत् (पलिभागेषु अत्ति) भरतैरावतमहाविदेहेषु संभूतः संहरणतः सर्वेष्वपि प्रतिभागेषु देवकुर्वा दिसंबन्धिषु भवन्तीति। चारित्राद्वारमाह - पढमे वा विईए वा, पडिवज्जइ संजमम्मि जिणकप्पं / पुवपडिवणओ पुण, अण्णयरे संजमे होज्जा / /
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________________ जिणकप्प 1477 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प प्रथमे या सामायिकाख्ये, द्वितीये वा छेदोपस्थापनीयनाम्नि सयमे वर्तमानो, जिनकल्पं प्रतिपद्यते। तत्र मध्यमतीर्थकरवि देडतीर्थकृतशीर्थवर्ती , प्रथमे संयमे। पूर्वपश्चिमतीर्थवर्ती तु द्वितीये, इति मन्तव्यं। पूर्वप्रतिपन्नः पुनरसौ जिनकल्पिकोऽन्य तरस्मिन् सूक्ष्मसंपरायादावपि संयमे भवेत्। तीर्थ-पर्याय-द्वारद्वयमाह नियमा होइ स तित्थे, गिहिपरियाए जहन्नगुणतीसा। जइपरियाए बीसा, दोसु वि उक्कोसदेसूणा / / स जिनकल्पिको नियमात्तीर्थो भवति। न पुनर्व्यवच्छिन्ने, उत्पन्ने वा | तीर्थो * पर्यायों द्विधा * गृहिपर्यायो यतिपर्यायश्च-तत्र गृहिपर्यायो जन्मपर्यायो इत्यकोऽर्थः। तत्रा जघन्यतः, एकोनविंशत् वर्षाणि। यतिपर्याये, तु, जघन्यतो विंशतवर्षाणि। उत्कर्षतस्तु, द्वयोरपि गृहिपर्याययतिपर्याययोर्देशोनांपूर्वकोटी यदा प्राप्तो भवति तदा जिनकल्पं प्रतिपद्यते। तथा-ऽऽगम-वेद-द्धारे आहन करिति आगमं ते, त्थीवजेनं वेदो इक्कतरो। पुव्वपडिवन्नओ पुण, होज सवेओ अवेओवा।। न कुवन्ति ते जिनकल्पिकाः आगमम्। पूर्वश्रुताध्ययनं, तत्तु श्रुतं। विश्रोतसिकाक्षयहेतोरेकाग्रमनाः सम्यगनुस्मरन्ति। वेदमंगीकृत्य प्राप्तिकाले स्त्रीवर्ज , एकतरः पुरूषवेदो, नपुंसकवेदोवा, असंक्लिष्टस्तस्य भवेत्। पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सवेदोऽवेदो वा भवेत्। तत्रा जिनकल्पिकस्य तद्भवे केवलोत्पत्ति प्रतिबेधादुपशमश्रेण्या वेदे उपशमिते सत्यवेदत्वम्। तदुक्तम्- "उवसमसेढीए खलु, वेदे उवसनियम्मि उभवेदो आ न उ खबिए तं जम्मे, केवलपडिसेहभावाओ। " शेषकालं तु सर्वद इति। अथ कल्प-लिङ्ग-लेश्या-द्धाराण्याहठियमठियम्मि कप्पे, लिंगे भयणा उ दव्वलिगेणं / तेअहिं सुद्धाहिं पढ-मया अपढमया होज सव्वासु।। स्थितकल्पे, अस्थितकल्पे च, मध्यमजिनमहाविदेह जिनभक्तोऽमी भवेयु* लिङ्गे चिन्त्यमाने* नजना तु, द्रव्यलिङ्गेन कार्या। तु शब्दो विशेषणे। कि विशिनष्टि-प्रथमतः प्रतिपद्यमानो, द्रव्यलिङ्गयुक्त एव भवति। ऊर्ध्वमपि भावलिङ्ग नियमाद्भवति। द्रव्यलिङ्गं शु, जीर्णत्वाचौरादिभिरूपहृतत्वाद्वा, कदाचित्तम-भवत्यपि, वक्तं च - "इयरं तु जिण्णभावा, एहिं सययं न होइ विख्यान य तेण विणा वि तहा, जायइ से भाव परिहाणी" न इतरदिति द्रव्यलिङ्गम् ** लेश्यासु तेजशादिकासु, प्रथमकाः प्रतिपद्यमाना भवन्ति। अप्रथमकास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः, सर्वास्वपि शुद्धासु लेश्यासु भवेयुः। केवल मशुद्धासु वर्तमानो नात्यन्तं संक्लिष्टासु वर्तते, नच भूयासं कालमिति। ध्यान-गणना-द्वारद्वयमाहधम्मेण उ पडिवाइ, इयरेसु वि होञ्ज अट्टझाणेसु / पडिवत्तिसयपुहत्तं, सहसपुहत्तं च पडिवन्ने / / धर्मेण ध्यानेन, तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात्। प्रवर्द्धमानेन सता, कल्पं प्रतिपद्यते। पूर्वप्रतिपन्नस्तु, इतरेष्वप्यादिषु ध्यानेषु कर्मवैचित्र्यबलाद्भवेदपि, केवलं कुशलपरिणामस्योद्वा मत्वात्तीवकमंपरिणतिजनितः सोऽपि रौद्रार्तभावोऽस्य प्रायो निरनुबन्धो भवति। तदुक्तम्- "एवं च कुसलजोगो उन्धा मे तिव्व धम्मपरिणामो। रूद्देसु विभावो, इमस्स पायं निरणुबंधो''।। गणनाद्वारे प्रतिपत्ति, प्रतिपद्यमानतामंगीकृत्योत्कर्षतः, शतपृथक्तवमेकस्मिन् समये अमीषां भगवतां प्राप्यते। पूर्वप्रति पन्नकानां पुनरूत्कर्षतः सहस्त्रपृथक्तवं। कर्मभूमिपञ्चदशमप्येता मेवोत्कर्षतः प्राप्यमानत्वात्। जघन्यतस्तु प्रतिपद्यमानका एको, द्वौ, त्रयो, वेत्यादि। पूर्वप्रति पन्नास्तु जघन्यतोऽपि सहस्रपृथक्तवमेव। महाविदेहपञ्चके, सर्वदवैतावतामवाप्यमानत्वात्। नवरमुत्कृष्टपदाजघन्यपदं लघुतरमिति। अभिग्रह-प्रव्राजना-मुण्डापना-द्वाराणि व्याचष्टे। भिक्खायरियाईया, अभिग्गहा नेव सो उपव्वावे / उवदेसं पुण कुणती, धुव पव्वेणंति जाणित्ता / / भिक्षाचर्या ऋज्वा गत्या प्रत्यागतिकादयो गोचरचर्यावि शेषा स्तदादर्याऽभिग्रहाः, इत्वरत्वादस्य न भवन्ति / जिनकल्प एव हि यावत्कथिकस्तस्याऽभिग्रहस्ता च प्रतिनियता निरपवादाश्च गोचरादयस्तस्तत्पालनमेवास्य परमं विशुद्धिस्थान। यदाह- "एयम्मि गोयराति, नियया नियमेण निरत्रावादा या तप्पालनं चिय परं, एअस्स विसुद्धिट्ठाण तु'' तथा नवा सावन्यं प्रव्राजयन्ति। उपलक्षणत्वात् न च मुण्डापयति। कल्प स्थितिरियमिति कृत्वा-उपदेश पुनः करोति। प्रयच्छन्ति धुव प्रवाजिनमश्वयप्रव्रजनशीलं विज्ञाया कञ्चन तं च संविन गीतार्थसाधूनां समीपे प्रहिणोति। अथ मणसावन्ने वि से अणुग्घाय त्ति द्वारा मनसापि सूक्ष्मतिचारमात्रापन्नस्यास्य सर्वजघन्यं चतुर्गुस्कं प्रायश्चित्तम्। अथकारण-निष्प्रतिकर्म-द्वारे आहनिप्पडिकम्मसरीरा, न कारणं अत्थिं किंचि नत्थाई। जंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नावजे / निष्प्रतिकर्मशरीरा, अमी भगवन्तो, नाक्षिमतादिकमप्य पनयन्तिान वा चिकित्सादि कारयन्ति* न च तेषां कारणम्,* आलम्बनं ज्ञानादि किञ्चिद्विद्यते, यद्वलाखे द्वितीयपदा सेवनं विदध्युः। भक्तः* पन्थाञ्च * तृतीयस्यामिति द्वारम्। तृतीयस्यां पौरूष्यां भिक्षाकालो, विहारकालोऽस्य भवति। शेषाषु तु पौरूषीषु प्रायः कायोत्सर्गेणास्ते * जङ्घावले परिक्षीणे पुनरविहरन्नपि विहारमकुर्वन्नपि नापद्यते, कमपि दोषं, किंत्वे कौव क्षेत्रो स्वकल्पस्थिति स तु पालयतीति व्याख्यातं स्थितिद्वार, तद्व्याख्याने चाभिहितः कल्पविहारः। बृ०१ उ०। व्यासार्थस्त्वस्याः प्रस्तुतं द्वारमेवसयमे आउकालं, गाउं पुच्छित्तु वा बहूसेसं / सुवहुगुणलाभकंखी, विहारमब्भुज्जयं भयई // 377 / / स्वयमेवायुष्कालं ज्ञात्वा, बहुशेषं श्रुतातिशयेन पृष्टा च भुताति शययुक्तमन्य बहुशेषं ज्ञात्वा, सुबहुगुणलाभकाङ्ग सन्, साधुविहारं क्रियारूपमभ्युद्यतं भजतं प्रधानमिति गाथार्थः। प्रसङ्गभिधाय पञ्चतुलनेति द्वारं व्यचिख्यासुगाहगणि-उवझाय-पवित्ति+थेर-गणावछेइआइमे पंच। पायमहिगारिणो इह, तेसिमिमा होइ तुलणओ // 370 / /
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________________ जिणकप्प 1478 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिमकप्प गणी गच्छाधिपः, आचार्यः, उपाध्यायः सूत्रप्रदः, प्रवृत्तिरूचितो प्रवर्तकः, स्थविरः, स्थिरीकरणात्, गणावच्छेदको गणादेशपालनक्षमः, एते पञ्चपुरुषाः, प्रायोऽधिकारिण इहाभ्युद्यतविहारे। एतेषामियं वक्ष्मयमाणा भवति, तुलनेति गाथार्थः। गणणिक्खेवित्तरओ, गणिस्स जो वा ठिओ जहिं ठाणे। सो तं अप्पसमस्से-वंणि णिक्खिवइ इत्तरं चेव / / 367 / / गणनिक्षेप इत्यरः परिमितकालो, गणिनो भवति। तो वा स्थितो या रथाने उपाध्यायादौ, सतत्पदमात्मसमस्यैव निक्षिपतीत्व रमेवापरस्य साधोरिति गाथार्थः। पिच्छासु ताव एए, केरसिया होंतिमस्स ठाणस्स। जोगाण वि पाएणं, णिव्वहणं दुक्करं होई // 360|| पश्यामस्तावदेते अभिनवाचार्यदयः, कीदृशा भवन्त्यस्य स्थानस्य प्रस्तुतस्येति तानवेति। अयोग्यानामनारोपण मेवेत्याशङ्कयाह - योग्यानामपि सामान्येन प्रायो निर्वहणं, प्रस्तुतस्य दुष्करं भवति, लोकसिद्धमेतदिति गाथार्थः। युक्तया तुलनाप्रयोजनमाह - ण य बहुगुणचाएणं, योवगुणपसाहणं वुहजणाणं। इ8 कयाइ कजं, कुसला सुपइट्ठियारंभा॥३८१।। न च बहुगुणत्यागेन प्रामणिकेन, स्तोकगुणप्रसाधनं, बुधज गाना विदुषामिष्ट, कदाचित्कार्य , नैवेत्यर्थः। किमित्यत आह कुशलाः सुप्रतिष्टितारंभा भवन्तीति गाथार्थः। उपकरणद्धारमाश्रित्याहउवगरणं सुद्धेण, माणजुअंजमुचिअं सकप्पस्स। तं गेणहइ तयभावे, अहागभं जाव उचिअंतु // 372 / / उपकरणं वस्त्रविशुद्धषणामानयुक्तं, यदुचितं स्वकल्पस्य समयमील्या, तन्नत्युत्सर्गणादित एव, तदभावे सति, यथाकृतं गृह्यति। यावदुचितमन्यद्भवति, तावदेवेतिगाथार्थः। जाए उचिए अतयं, वोसिरइ अहागम विहाणेण। इय आणाविरयस्सिइ, विण्णेअंतं पितेण समं!|३७३|| जातु सत्युचितोपकरणे, तत् प्राक्तनं व्युत्सृजति। यथाकृत मुपकरणं, विधानेन सौत्रोण, इयत्यागो निस्पृहतया आज्ञाविरत स्येह लोकेऽपि विज्ञेयं। तदपि मौलमुपकरणं तेन समं पाश्चात्येनेति गाथार्थः। किमित्यत आह - आणा इत्थ पमाणं, विण्णेआ सव्वहेण परलोए। आराहणाअतीए, धम्मो वज्मं पुण निमित्तं // 374 / / आज्ञाऽत्रा प्रमाणं विज्ञेया। सर्वथैव परलोके, न त्वन्यत् किञ्चित् आराधनेन तस्या धर्मः। आज्ञाबाह्य पुननिर्मितर्मिति गाथार्थः उवगरणं उवगारे, तीए आराहणस्सऽवट्टतं। पावइ जहत्यनाम, इहरा अहिगरणमो भणि॥३७६।। उपकरणमप्युपकरोतस्याऽऽज्ञाया आराधनस्याववर्तमानंस प्राप्रोति, यथार्थनामोपकरणमितिा इतरथा तदाराधनोप काराभावे सत्यधिकरणमेव भणितं तदुपकरणमिति गाथार्थः। परिकर्मद्वारमभिधातुमाह - परिकम्मं पुण इहिंदि-आइं विणिअमणभावणा नेआ। तमवादालोअण-विहिणा सम्मंतओ कुणइ / / 366 // परिकर्म, पुनरिह प्रक्रमे इन्द्रियादिविनियमभावना ज्ञेया भावनाभ्यासः' तत्परिकर्म अपायाद्यालोचनविधीनेन्द्रियादीनां सम्यक्तवतः करोतीति गाथार्थः। इंदिअकसायजोगा, विणम्मिआ तेण पुव्वमेव णणु! सचंतहा विजयए, तज्जयसिद्धिं गणतो सो।।३७६।। इन्द्रियकषायसोगाः सर्व एव विनियमितास्तेन साधुना पूर्व मेव ननु अत्रोत्तर-सत्यमेतत्, तथापि यतते, स तज्जयादि न्द्रियादिजयात्सिहि गणयन् प्रस्तुतस्येतिगाथार्थः। इंदिअजोगेहिं तहा, ऐहऽहिगारो जहा कसाएहिं। एएहिँ विणा णेए, दुहुवुड्डीवीअभूआआ।।३८६॥ इन्द्रिययोगैस्तथा नेहाधिकारः प्रक्रमे। यथा कषायैः किमित्यत्राह - एभिर्विना नैते इन्द्रिययोगा दुःखवृद्धिवीजभूताः। इति गाथार्थः। जेण उ ते वि कसाया, गो इंदिअयोगविरहिआ हुंति। तव्विणियमणं पितओ, तयत्थमेवेत्थ कायव्वं // 76|| येन पुनः कारणेन, तेऽपि कषायाः नेन्द्रिययोगविरहिता भवन्ति तद्विनियमनमपि ततः कारणात्। तदर्थमेव कषायवि नियमनर्थमन्त्र कर्तव्यमिति गाथार्थः तपोभावनादिप्रतिपादनायाह - इअ परिकम्मिअभावो-ऽणब्भत्थं पोरिसाइतिमुणतवं। कुणइ छुहाविजयट्ठा, गिरिणइंसीहण दिद्वंता॥३६०॥ (इय त्ति) ऐवं परिकर्मितभावः सन्नेन्द्रियादिविनियमनेना नभ्यस्तमसात्मीभूतं पूर्व पौरूष्याद्यभ्युपलक्षमेतत् त्रिगुणं तपः, करोति। त्रिवारासेवनेन इन्द्रियजयाय सात्मीभावेन क्षुद्धिजयार्थम्। गिरिनदीसिंहेनाऽऽ दृष्टान्तः। यथाऽसौ गिरिनदी वेगवती मसकृदुत्तरणेनपि, प्रगुणमुत्तत्येवमसांवयाधकं तपः करोतीति गाथार्थः। एतदेवाहइक्किकं ताव तवं, करेइ जइ तेण कीरमाणेणं। हाणी ण होइ जइआ, वि होइ छम्मासुवस्सग्गो // 361|| एकैक पौरूष्यादितावत्तपः करोति सात्मीभावेन। यथा तेन तपसाहअप्पहारस्सण ई-दिआई विसएसु संपयट्टति। नेअ किलम्मइ तवसा, रसिएसुन सज्जई आवि॥३९२| अल्पाहारस्य तपसा, नेन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि, विषयेषु स्पर्शनादिषु संप्रवर्तन्ते। धातू काभावान्न च काम्यति। तपसारसिकेष्यशनादिषु, सज्जतं चापि। अपरिभोगेनानादरा दिति गाथार्थः। तवभाणणाएपंचिं-दिआणि दंताणि जस्स वसमिति। इंदियजोग्गाइरिओ, समाहिकरणई कारेइ // 363|| तपोभावनया हेतुभूतया, पञ्चेन्द्रियाणि दान्तानि सन्ति यस्य वशमागंच्छिन्ति प्राणिनः, स इन्द्रिययोग्याचार्यः इन्द्रिय
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________________ जिणकप्प 1476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प णनक्रियागुरूः। समाधिकरणानि, समाधिव्यापारान् कारयतीन्द्रियाणि, ___ मेघादिछन्नेषु विभागेषूभयकालं प्रारम्भसमप्तिरूपम्। अथवो पसर्गे इति गाथार्थः। दिव्यादी। प्रेक्षादवुपकरणस्य भिक्षापथे औचित्येन जानाति, कालं योग्य द्वारान्तरसंबन्धाभिधित्सयाह विना स्थापयतीति गाथार्थः। इअ तवणिम्माओ खलु, पच्छा सो सत्तभावणं कुणइ। एकत्वभावनामभिधातुमाह - निद्दाभवविजयटुं, तत्य उपडिमा इमा पंच॥३६४|| एगत्तभावणं तह, गुरूमाइस दिट्ठिमाइपरिहारा! (इअ) एवं तपोनिर्मातः खलु, पश्चादसौ मुनिः सत्वभावनां करोति। भावइ छिण्णममत्तो, तत्तं हिअयम्मि काउण।।४०२।। सत्वाभ्यासमित्यर्थः। निद्राभयविजयार्थमतस्करोति। तत्र तु प्रतिमाः एकत्वभावनां, तथाऽसौ, यतिगुर्वादिषु दृष्टयादिपरिहाराह र्शनालापसत्वभावनायामेताः पञ्चेति गाथार्थः। परिहारेण भावयत्वभ्यस्यति। छिन्नममत्व संस्तत्वं हृदयेकृत्वावक्ष्यपढमा उवस्सयम्मि, वीया वहिं तइया चउक्कम्मि। माणमिति गाथार्थः। मुण्णघराम्मि चउत्थी, तह पंचमिआ मसाणम्मि / / 366 / / एगो आया संजो-गिअं, तुऽसेसं इमस्स पाएणं / प्रथमोपाश्रये प्रतिमा, द्वितीया बहिरूपाश्रयस्य, तृतीया चतुर्थे स्थाने दुक्खणिमित्तं सव्वं, मोत्तुं मज्झत्थ भावं तु ||403|| संबन्धिनि, शून्यगृहे-चतुर्थी स्थानसंबन्धिन्वे, तथा पञ्चमी श्मशाने प्रतिमा। इति गाथार्थः। एक आत्मा तत्वतः संयोगिकी त्वशेषमस्य देहादि, प्रायेण दुःखनिमित्त एयासु चेव थोवं, पुव्वपव्वत्तं जिणइ निहमसो। सर्वमेजत्। हितस्तु मध्यस्थभावो यस्य सर्वन्नेति गाथार्थः। मूसगछिक्काओ तह, भयं च सहसुब्भवं अजिअं // 366 / / इय भावियपरमत्थो, समसुहदक्खोवहीअरो होइ। एतासु प्रतिमासु स्तोकस्तोकं, यथा समाधिना पूर्वप्रवृत्तां जयति तत्तो असो क्रमेणं, साहेइ जहिच्छिअंकजं / / 440 / / निद्रामसौ मूषिकपृष्टादौ। तथा आदिशब्दात्मार्जरादिपरिग्रहः। भयं च टीका तु - (मूलप्रतावप्रतापवान्नलिखिता) सहसोद्भवमजितं जयतीति गाथार्थः। एगत्तभावणाए, ण कामभोगे गणे सरीरे वा। एएए सो कमेणं, डिंभगतक्करसुराइकयमे। सज्जइ वेरगओ, फासेइ अगुत्तरं करणं / / 10 / / जिणिउण महासत्तो, वहइ भयं निब्भओ सयल।।३६७|| एकत्वभावनया भाव्यमानया, न कामभोगयोस्तथा, गणे, शरीरे वा, अनेनासौ क्रमेण यथोपन्यस्तेन, डिम्भकतस्करसुरादिकृत मेतद्भयं | सजने, सङ्गं गच्छति। एवं वैराग्यगतः सन्, स्पृशत्यनुत्तरं करणं, प्रधानजित्वा महासत्वः सर्वासु प्रतिमासु वहति भयं प्रस्तुतं निर्भयः सकलमिति | योगनिमित्तमितिगाथार्थः। गाथार्थः बलभावनमाह - श्रुतभावनामाह इअ एगत्तसमेओ, सारीरं माणसं च दुविहं पि। अह सुत्तभावणं सो, एगग्गमणाऽणाउलो उ भयवं / भावइ बलं महप्पा, उस्सग्गधिईसरूवं तु // 406 / / कालपरिमाणहेउ, सव्वत्थं सव्वहा कुणइ॥३६०।। एवमेकत्वभावनासमेतः सन्, शरीरं, मानसं च, द्विविध मप्येतत् अथ सूत्राभावनामसौऋषिरेकाग्रमना अन्तःकरणेन अनाकुलो बहिर्वृत्या भावयति बलम्, महात्माऽसौ, कायोत्सर्गधृतिस्वरूपं यथा संख्यमिति भगवानसौ, कालपरिमाणहेतोस्तदभ्या सादेव तद्धतेः स्वभ्यस्ता सर्वथा गाथार्थः। करोत्युच्छासादिमानेनेति गाथार्थः। पायं उस्सग्गेणं, तस्स ठिईभावणावला एसो। एतदेवाह संघयणे वि हु जायइ, एण्हिं भाराइबलतुल्लो // 407 / / उस्सासाओ पाणा, तओ अथोवो तओ वि अमुहुत्तो। प्रायः कायोत्सर्गेण तस्य यतेः स्थितिभावनाबलाचैष कायोत्सर्ग, एएहिं पोरिसीओ, ताहिं वि णिसाइ जाणेइ / / 366 / / संहननेऽपि सति जायते। इदानीं भारादिबलतुल्यः, शक्तौ सत्यामप्यवच्छवासात् प्राणादित्युच्छासनिःश्वासः। ततश्च प्राणात्, स्तोकः भ्यासतो भारवहनिदर्शनादिति गाथार्थः। सप्तप्राणमानाः। ततोऽपिचस्तोकान्महूर्ता द्विघटिककालः। एभिमुहूर्तः पौरूष्यः। ताभिरपि पौरूषीभिः, निशादिवसादि जानितः सूत्राभ्यासतः। सइ सुहभावेण तहा, जंतं सुहभावठिजरूवाओ। इति गाथार्थः। एतो चिय कायव्वा, धिई णिहाणाइलाभो व्व // 400 / / एत्तो उवओगाउ, सदेव सो मूढलक्खयाए उ। सदा शुभभावेन, तथा तस्य स्थितिरिति वर्तते। यद्यम्मादेवं तच्छुभदोसं अपावमाणो, करेइ किचं अविवरीअं // 400 / / भावस्थैर्यरूपा। अत एव स्थितिसंपादनार्थं कर्तव्या धृतिस्तेन अत उपयोगात् सूत्राभ्यसगर्भात्, सदैवासौऽमूढलक्षतयां कारणेन निधानादिलाभ इवेष्टसिद्धेरिति गाथार्थः। दोषमप्राप्नुवन, निरतिचारः, सन् करोति कृत्यं, विहितिनुष्ठानविपरीत- धिइवलए-वद्धकच्छो, कम्म जयठाउ ओज्जओ मइमो। मिति गाथार्थः। सव्वत्था, अविसाई, उवसग्गसहो दढं होइ॥४०६|| महाइछण्णेसुंउ-भओ कालमहावा उवस्सग्गे। धृतिबलनिबद्धकक्षः सत्कर्मजयार्थमुद्यतो, मतिमानेष सर्वत्राविषादिपेहाइभिक्खपंथे, जाणइ कालं विणा ठाइ / / 401 / / भावेनोपसर्गसहो, दृढमत्यर्थ भवतीति गाथार्थः।
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________________ जिणकप्प 1480- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प चरमभावनामभिधाय विशेषमाह -- सव्वासु भावणासुं, एसो विही उ होजइ ओहेणं। एत्थं चसद्गहिओ, तयणंतरं चेव केइ त्ति // 410|| सर्वासु भावनासु अनन्तरोदितासु, एष विधिस्तु वक्ष्यमाणो भवत्योधन। अत्र चशब्दगृहीतो द्वारगाथायां, तदनन्तरं विन्यन्तरमेव केवनेति गाथार्थः। जिणकप्पिअपडिरूवी, गच्छे चिअ कुणइ दुविहपरिकम्म। आहारोवहिमाई-सु ताहे पडिवज्जए कप्पं / / 411 / / जिनकल्पिकप्रतिरूपी तत्सदृशो गच्छ एव स्थितः सन्, करोति द्विविध परिकर्म, बाह्यमान्तरं च, आहारोपध्यादिषु चिषयेषु, ततस्त कृत्वा प्रतिपद्यते कल्पमिति गाथार्थः। एतदेवाहतइआएऽलेवाड, पंचऽण्णराअं भयइ आहारं। दोण्हऽण्णयराअ पुणो, उवहिं च अहागमं चेव // 412 / / तृतीयायां पौरूष्यामलेकृतं वल्लादि, पञ्चान्यतरया एषणया, भजते सेवते आहारं, द्वयोरन्यतरया पुनरेषणयोपधिं च भजते। यथाकृतं चैवोपधिं, नान्यं, तत्रौधतं एवैषणा हारारस्य सप्त। यथोक्तम् - "संसठासंसठा, उरूड़ा तह होड़ अप्पलेवा या उग्गहियापग्गहिया, ओज्झियधम्मा य सप्तमिया' ||1|| "तत्थ पंचसुग्गहो, एक्काए अभिग्गही असणस्सा एक्काए चेव पाणस्स,"। वस्त्रस्य त्वेषणाश्चतस्रो। यथोक्तम् - "ठइिट्टपेह- अंतर-मोज्झिअकम्मा चउव्विहा भणिया। वत्थेसणा जईणं, जिणेहि जिअरागदोसेहिं''। 'वत्थं पि दोसु गिण्हइ' इति गाथाभावार्थः। पाणिपडिग्गइपत्तो, सचेलभेएण वा वि दुविहं तु! जो जहरूवो होहिइ, तह परिकम्म अप्पं // 413 // पाणिप्रतिग्रहपात्रावद्भेदेन सचेलाचेलभेदेन चापि, द्विविधं तु प्रस्तुतं परिकर्म। यो यथारूपो भविष्यति जिनकल्पिकः। स तथा तेनैव प्रकारेण, परिकर्भयत्यात्मानमिति गाथार्थः। चरमद्वाराभिधित्सयाह - निम्माओ अ तहिं सो, गच्छाइं सव्वहाऽणुजाणित्ता। पुवोइआण सम्म, पच्छा उववृहिउं विहिणा।।४१४|| निर्मातश्च, तत्रा परिकर्मण्यसौ, गच्छादिसु सर्वथाऽनुज्ञाय प्रागुक्तं पदं, पूर्वो दिताना, सम्यगित्वरस्थापितानां, पश्चादुपबंध विधिना तेनैवेति गाथार्थः। खामेइ तओ संघ,सवालवुड जहोचिअं एवं / अचंतं संविग्गो, पुव्वविरुद्ध विसेसेणं / / 415|| क्षामयति ततः सङ्घ, सामान्येन सवालवृद्धं यथोचितमेवा / वक्ष्यमाणनीत्या अत्यन्तं संविग्नः सन् पूर्वविरुद्धान विशेषेण काश्चनेति गाथार्थः। जं किंचि पमाएणं, ण सुदु भे वट्टि मए पुट्विं / तंभे खामेमि अहं,णिस्सल्लो णिक्कसाओ ति॥४१६|| वत्किंचित् प्रमादेन हेतुना न सुष्टु (भे) भवतां वर्तितं मया पूर्व तद् (भे) युष्मान् क्षमपाम्राई। निःशल्या, निःकषायोऽस्मि संवृत्त इति गाथार्थः। दव्वाई अणुकूले, महाविभूइए अह जिणाईणं।। अब्भासे परिवज्जइ, जिणकप्पं असइ वडरूक्खे / / 417|| द्रव्यादावनुकूले सति महाविभूत्या दानादिकया, अथ जिनादिनामतिशयिनामभ्यासे, प्रतिपद्यते जिनकल्पमुत्सर्गेणा असति च वटवृक्षेऽपवाद / इति गाथार्थः। दाराणुवायो इह, सो पुण तइयाश्च भावणासारं। काउण तं विहाणं, गिरविक्खो सव्वहा वयइ॥४१६॥ द्वारानुपातो द्रष्टवयः। स पुनर्ऋषिस्तृतीयायां पौरूष्यां भावनासारं सत्कृत्वा, तन्नमस्करादिप्रतिपत्तिविधान, निरपेक्षः सन्, सर्वथा व्रजति ततः। इति गाथार्थः। पक्खीपत्तुवगरणे, गच्छारामाउ विणिग्गए तम्मि। चक्खुविसयं अईए, अइंति आणंदिया साहू ||416 // पक्षिपत्रोपकरणे अमुकस्तोकोपधौ, गच्छारामात्सुखसंव्या द्विनिर्गत तस्मिन् जिनकल्पिके, चक्षुर्विषयमतीले अदर्शनीभूते, आगच्छन्ति स्ववसतिमानन्दिताः, साधवः तत्प्रतिपत्तयेति गाथार्थः। आभोएउखेत्तं,णिव्वाघाएण मासाणिव्वाइं। गंतुण तत्थ विहरइ, एस विहारो समासेणं / / 430 / / (आनुद्य) विज्ञाय क्षेत्र नियाघातेन हेतुभूतेन, (मासणिव्वाह) मासनिर्वहणसमर्थं गत्वा-तत्र क्षेत्रं विहरति / स्वनीति पालयति रष विहारः, समासेनास्य भगवतः, इति गाथार्थः। एत्थ य सामायारी, इमस्म जा होइ तं पवक्खामि। भयणाअ दसविहाणं, गुरूवएसाणुसारेण // 421 / / अा च क्षेत्रो सामाचारी स्थितिरस्य या एवं जिनकल्पिकस्या तां प्रवक्ष्यामि। भजनया विकल्पेन दशविधायां सामाचार्या वक्ष्यमाणायां गुरूपदेशानुसारेण, न स्वमनीषिकयेति गाथार्थः। दशविधनेवादेश ह– इच्छा मिच्छा तहका-रो आवस्सिइ निसी हिइऽऽपुच्छा। पडिपुच्छ-छंदण-निमं-तणा य उवसंपया चेव // 422 / / इच्छा, मिथ्या, तथाकार, इति। कारशब्दः प्रत्येकमभिसंबंध्यते इच्छाकारो, मिथ्याकारः, तथाकार, इति। तथा परभणने सर्वत्रच्छाकाराः। दोष मोदने मिथ्याकारः। तथा आवश्यकी नैषेधिकी च आपृच्छा, वसतिनिर्गमे आवश्यकी, प्रवेशे नैषेधिकी, चस्वकार्यप्रवृत्ता वा, पृच्छा तथा प्रतिपृच्छा, छन्दना निमन्त्राणा, च तत्रादिष्टकरणकाले, प्रतिपृच्छापूर्व गृहीतेनाशनादिना उन्दना निमन्त्रणा भवत्यगृहीतेन उपसंपञ्चैव, श्रुतादिनिमित्तरिमिति गाथार्थः। अत्रा जिनकल्पिकसामाचारीमाह - आवस्सिणिसीहिमिच्छाऽऽपुच्छणमुवसंपयम्मिति गिहेसु। अण्णा सामायारी, ण होई सेसे सिआ पंच / / 423 / / आवश्यकीं नै षेधिकीं मिथ्ये ति। मिथ्याकारपृच्छामुपसंपद
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________________ जिणकप्प 1481 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प गृहिस्वौचित्येनसर्वं करोति। अन्याः सामाचार्य इच्छाकायद्यान भवन्ति (से) तस्य शेषाः पञ्च प्रयोजनाभावादिति गाथार्थः। आदेशान्तरमाहआवस्मिअंनिसीहिअ, मोत्तुं उवसंपयं च गिहिएसु। सेसा सामायारी, ण होइ जिणकप्पिए सत्ता / / 424 / / आवश्यकी नैषेधिकी मुक्तवा उपसंपदं च, गृहिष्वारामादिष्वोघतः शेषाः सामाचार्यः पृच्छाया अपि न भवन्ति। जिनकल्पिके सप्ता प्रयोजनाभावादेवेति गाथार्थः। अहवा वि चकवाले, सामायारी उ जस्स जा जोग्गा। सा सव्वा वभव्वा, सुअमाईआइमा मेरा ||426 / / अथवाऽपि चक्रवाले नित्यकर्मणि, सामाचारी तु यस्य या योग्या जिनकल्पिकादेः। सा सर्वा वक्तव्या। अत्रान्तरे श्रुतादिका चेयं मर्यादा वक्ष्यमाणा। इति गाथार्थः। सुअ-संघयणु-वसग्गो, आयंको वेअणा कइजणाय। थंडिल्ल-वसहि केचिर-मोचारे चेव पासवणे // 426 / / श्रुतसंहननोपसर्गा इत्येतद्विषयोऽस्य विधिर्वक्तव्यः। तथा आतङ्कः, वेदना कियन्तो जनाश्चेति, द्वारत्रयमाश्रित्य, तथा स्थाणिडल्यवसति-कियचिरं, द्वाराण्याश्रित्य-तथा-उच्चारे चैव गक्षवणे चेत्येतद्विषये। इति गाथार्थः। ओआसे तणफलए, सारक्खणया य संठवण्या य। पाहुडिओऽग्गीदीवे, ओहाण वसे कइ जणा उ॥४२७|| तथा अवकाशे तृणफलक एतद्विषय इत्यर्थः। तथा संरक्षणता च संस्थापना चेति द्वारद्वयमाश्रित्य-तथा- प्राभृतिकानि दीपेष्वेतद्विषयन्तयावधानं वत्स्यन्ति कति जनाश्चेत्येतद् द्वारद्धयमाश्रित्येति च गाथासमुदायार्थः। भिक्खायरिआ-पाणय-लेवालेवे अ तह अलेवे अ। आयंबिल-पडिमाअ, जिणकप्पे मासकप्पे य॥४२०|| भिक्षाचार्य-पानक इत्येताद्विषयो, लेपालेपे वस्तुनि, तथाअलपेचैतद्विषयश्चेत्यर्थः। तथा-चाम्ल-प्रतिमे, समाश्रित्य-जिनकल्पे, मासकल्पे चैतद् द्वारमधिकृत्य-विधिर्वक्तव्यः। इति गाथासमुदायार्थः। / एतास्तिस्त्रोऽपि द्वारगाथाः। आसामवयवार्थः प्रतिद्वारे स्पष्ट उच्यते। तत्रा श्रुत-द्वारमधिकृत्याहआयारवत्यु तइयं, जहण्णय होइ नवमपुव्वस्स। तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिण्णाइं॥४२६।। आचारवस्तु तृतीयं, संख्यया जघन्यकं भवति। नवमपूर्वस्य संबन्धिश्रुतपर्यायस्ता कालज्ञानं भवतीति कृत्वा-दशपूर्वाण्युत्कृष्टतस्तु भिन्नानि श्रुतपर्यायतः। इति गाथार्थः। संहनन द्वारमाश्रित्याहपढमिल्लुगसंघयणा, धिइए पुण वजकुड्डसामाणा! पडिवजंति इमं खलु, कप्पं सेसाण तु कयाइ 1430 // प्रथमिल्लुकसंहननात् वज्रऋषभनाराचसंहनना इत्यर्थः। धृ (वृ) त्या पुनर्वजकुभयसमानाः प्रधानवृत्तय इति भावः। प्रतिपद्यन्ते एनं खलु कल्पमधिकृतं जिनकल्प। शेषाणां तु कदाचित्तदन्यसंहनिनः। इति / गाथार्थः। उपसर्ग-द्वारविधिमाहदिव्वाई उवसग्गा, भइआ एअस्स जइ पुण हवंति। तो अव्वहिओ विसहइ, णिचलचित्तो महासत्तो।।४३१।। दिव्यादय उपसर्गा भाज्याः। अस्य जिनकल्पिकस्य भवन्ति, वा नवा? यदि पुनर्भवन्ति कथञ्चित्, ततोऽव्यथितः सन्विसहने तानुपसर्गान्। निश्चलचित्तो महासत्वः स्वल्पस्वभावेन-इति गाथार्थे / आतङ्क-द्वारविधिमाह -- आतंको जरमाई, से विहु भईओ इमस्स जइ होइ। णिप्पडिकम्मसरीरो, अहियासइ तं पि एमेव।।४३२।। आतड़ो ज्वरादिः, सद्योघाती रोगोऽसावपि भाज्योऽस्य भवति। वा यदि भवति कथांचत्ततः निष्प्रतिकर्मशरीरः सन्नधिसहते, तमप्यातङ्कमेवमेव। निश्चलचित्तयेति गाथार्थः। वेदना-द्वारविधिमाहअब्भुवगमिआ उवक्क-माय तस्स वेअणा भवे दुविहा। धुवलोआई पढमा, जराविवागाइआ विइआ||४३३|| आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकीचा तस्य जिनकल्पिकस्य वेदना भवति द्विविधाः ध्रुवलोचाद्या प्रथमा वेदना। ज्वरविपाकादिका द्वितीया वेदनेति गाथार्थः। कियन्तो जना इति द्वारविधिमाह - एगो अ एस भयवं, णिविक्खाअ सव्वहेव सव्वत्थ / भावेण होइ निअमा, वसहिम्मिदव्वओ भइओ।।४३४।। एक एवैष भगवान जिनकल्पिकः, निरपेक्षया सर्वथैव सर्वत्र वस्तुनि, भावेनानभिष्वङ्गन भवति नियमात्। वसत्यादौ द्रव्यतो भाज्यः। एकान्तोऽनेको वेति गाथार्थः। स्थाडिडल्य-द्वारमाहउच्चारे पासवणे, उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे। तत्थेव य पडिजिण्णे, कयकिच्चो उज्जए वत्थे॥४३४॥ उचारे प्रश्रवण एतद्विषयमित्यर्थः। व्युत्सर्ग करोति। स्थण्डिले प्रथमेऽनवपातादिगुणवति। तत्रौव च परिजीर्णानि सन्ति। कृतकृत्यः स तूज्झति, वस्त्राणीति गाथार्थः। वसति-द्वारविधिमाहअममत्ताऽपरिकम्मा, दारविलभग्गजोगपरिहीणा। जिणवसहीथेराण वि, मोत्तूण पमज्जणमकज्जे / / 436 / / अममत्वाऽममे यमित्यभिष्वङ्ग रहिता। अपरिकर्मा-साधुनिभित्तमालेपनादिपरिकर्मवर्जिता। द्वारविल-भग्नयोग-परिक्षीणा, द्वारविलयोगः, स्थगनं पूरणरूप। भगयोगः, पुनः संस्करणमेत-च्छून्या जिनवसति। अस्यानपवादनुष्ठानपरत्वात्। स्थविराणा-मप्येवंभृतैव वसति। मुक्तवा प्रमार्जनं वसतेरेवाकार्य मिति पुष्टमालम्बनं विहायैवंभूतेति गाथार्थः। कियचिर-द्वारविधिमाह - केचिरकालं वसहिहि, एवं पुच्छंति जायणा समए। जत्थ गिही सा वसही, ण होइ एअस्स णिअमेण / / 437 / /
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________________ जिणकप्प 1452- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प कियचिरं कालं वत्स्यय यूयमेयं पृच्छन्ति, याचनासमये काले, यत्र गृहिणस्तत्स्वामिनः, सा वसतिरेव भूता न भवत्येव, तस्य जिनकल्पिकस्य नियमेन सूक्ष्माममत्वयोगादिति गाथार्थः। उच्चार-द्वारविधिमाह - नो उच्चारो एत्थं, आयरिअव्वो कयाऽदवि जत्थ। एवं भणंति ते सा, विहु पडिकट्ठ चिअ एअस्स / / 438|| नोचारोऽत्रा प्रदेश आचरितय्यः कदाचिदपि। यत्रा वसतावेव भणन्ति दातारः साऽपि प्रतिकुष्टव, भगवत एतस्य वसतिरिति गाथार्थः। प्रश्रवण द्वारविधिमाहपासवणं पि अ एत्थ, इयम्मि देयम्मि ण उण अणत्थ। कायव्वं ति भणंति हु, जीए एसा वि णो जोग्गा // 436 / / प्रश्रवणमपि वाऽत्रा वसतौ, अस्मिन् देशे विवक्षित् एवा नपुनरन्यत्रा देशे कर्तव्यमिति भणन्ति, यस्यां वसतौ। एषा पिन योग्याऽस्येति गाथार्थः। व्याख्याता प्रथमा द्वारगाथा। द्वितीय व्याख्यायते। तत्रावकाश-द्वारविधिमाह - ओवासो वि अ एत्थं, एसो तुज्झं तिन पुण एरो वि। एव वि भणंति जहिअं, मा वि ण सुद्धा इमस्स भवे // 440|| अवकाशोऽपि चात्र वसतौ, एष युष्माकं नियतः।नपुनरेषो ऽपि, एवमपि भणन्ति, यस्यां वसतौ दातारः। सापि न शुद्धाऽस्य भवेदसतिरिति गथार्थः। तृणफलक-द्वारविधिमाह - एवं तणफलगेसु वि, जत्थ विआरो उ होइ निअमेणं / एसा वि हुदहव्वा, इमस्स एवं विहा चेव ! / 441 / / एवं तृणफलकेष्वपि, यत्रा विचारस्तु भवति, तडतनियमेनैषापि वसतिर्द्रष्टव्याः, पुरुषे एवं विधा चैवाशुद्धेति गाथार्थः। संरक्षण-द्वारविधिमाहसारक्ख त्ति तत्थेव, किंचि वत्थु अहिगिच्च गोणाई। जीए तस्मारक्खण-माह, गिही सा वि हु अजोग्गा / / 442 // सारक्षणेति तौव वसतौ, किञ्चिद्वस्तु अधिकृत्य, गवादि वस्यां तत्संरक्षणमाह गृही। गवाद्यपि रक्षणीयमिति। साऽपि वसतिरयोग्येति गथार्थः ___ संस्थापना-द्वारविधिमाहसंठवणा सक्कारो, पडमाणीएऽणुवेहमो भंते ! कायव्वं ति अजीए, वि भणइ गिहीऽसो विजोग त्ति // 443|| संस्थापना संस्कारोऽभिधीयते! पतन्त्याः सत्या अनुत्प्रेक्षा भदन्त! कर्तव्येति च नोपेक्षितव्येत्यर्थः। यस्यामपि भणति गृही, ततोऽसावप्ययोग्या वसतिरिति गाथार्थः। मूलगाथाचशब्दार्थमाहअण्णं वा अभिओगं, चमद्दसंसूइअं जहं कणइ। दाया चित्तसरूवं, जोगा णेसा वि एअस्स / / 444 / / अन्यं चाभियोगं चशब्दसंसूचित,यत्रा करोति वसतौ दाता चित्रास्वरूप। योग्यानैषाऽप्येतस्य वसतिरिति गाथार्थः। प्राभृतिका-द्वारविधिमाह - पाहुडिआ जीएँ वली, कज्जइ ओसप्पणाइअंतत्था विक्खित्तठाणसउणा-इ अग्गहणे अंतरायं च // 445 / / प्राभृतिका यस्यां वसतौ, बलिः क्रियतेऽवसर्पणादि तत्र तद्भक्तया भवति। विक्षिप्यस्य बलैः स्थानात्कायोत्सर्गतः शकु नाद्यग्रहणे सत्यन्तराय च भवतीति गाथार्थः। अग्नि-द्धारविधिमाह - अग्गित्ति साऽगिणीजा, पमञ्जणे रेणुमाइवाघाओ। अपमज्जणे आके रिआ, जोईफुसणम्मि य विभासा // 446 / / अनिरिति, साऽग्रिर्या वसतिप्रमार्जने तत्रा रेणुकादिना व्याधा तोनः। अप्रमार्जनसत्यक्रिया आज्ञाभङ्गो, ज्योति-स्पर्शने च विभाष्ज्ञाजवालन चाङ्गारदाघिति गाथार्थः। दीप-द्वारविधिमाह - दीविते सदीवा जा, तीए विसेसो उ होइ जोइम्मि। एत्तो चिअइह भेओ, सेसा पुव्वाइआ दोसा।।४४७|| दीपिते सदीपाया वसतिः, तस्यां विशेषस्तुसदीपायां भवति ज्योतिषि। तद्भावेन स्पर्शसंभवादत एव कारणदिडाभेदो द्वारस्या द्वारान्तराच्छेषाः पूर्वोक्ता दोषाः प्रमार्जनादयः। इति गाथार्थः। अवधान-द्वारविधिमाह - ओहाणं अम्हाण वि गेहेसु-वओगदायगो तंसि। होहिसि भणंति टुंति, जीए एसा वि से ण भवे // 448|| अवधान नामास्माकमपि गृहस्योपयोगदाता त्वमसि भगवन्न भविष्यसि? भणन्ति, तिष्ठति सति यस्यां वसती, एषापि (से) तस्य जिनकल्पिकस्य न भवेदिति गाथार्थः। कियजन-द्वारविधिमाह - तह कइ जणा त्ति तुम्हे, वसहिह एत्थं ति एवमवि जीए। भणइ गिहीऽणुण्णाए, परिहरए णवरमेअंपि॥४४६।। तथा कियन्तो जना इति यूयं वत्स्यथाऽत्र वसताविति? एवमपि यस्यां वसतौ भणति, गृही दाता ऽनुज्ञायां प्रस्तुतायां। परिहरत्यसो महामुनिर्नवरमेतामपि वसतिमिति गाथार्थः। परिहारप्रयोजनमाह - सुहुममवि हु अचि अत्तं, परिहरए सो परस्स निअमेणं। जं तेण तुसद्दाओ, वजइ अण्णं पि तज्जणणिं / / 450 / / सूक्ष्ममप्यचियत्तमप्रीतिलक्षणं परिहरत्यस्रौ भगवान् परस्य नियमेन। यद् यस्माद् तेन कारणेन तुशब्दात् मूलगाथोपात्ताद् वर्जयत्यन्यामपि वसतिं तज्जननीमीषदप्रीतिजननीं न च ममत्व मन्तरेण तथा तथा विचारः क्रियत इति गाथार्थः। व्याख्याता द्वितीया मूलगाथा। अधुना तृतीया व्याख्यायते। तत्र भिक्षाचर्याद्वारविधिमाह - भिक्खायरिआणिअमा, तइआए एसणा अभिग्गहिआ। एअस्स पुव्वभणिआ, एका चिअहोइ भत्तस्स / / 451 / / भिक्षाचर्यानियमानि, योगेन तृतीयायां पौरूष्यामेषणा च ग्रहणैषणाऽभिगृहीता भवत्यस्य पूर्वभणितां जिनकल्पिकस्या एकैव भवति भक्तस्य न, द्वितीयेति गाथार्थः। पानक-द्वारविधिमाहपाणगगहणे एवं, ण सेसकालं पओअणाभावो।
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________________ जिणकप्प 1483 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प जाणइ सुआइसयउ, सद्धमसद्धा च सो सव्वं / / 452 / / पानकग्रहणेऽप्येवमस्य न शेषकालं, प्रयोजनाभावकारणात्। संसक्तग्रहणदोषपरिहारमाह-जानाति, श्रुतातिशयेनैव शुद्धमशुद्ध च, स सर्व पानकमिति गाथार्थः। लेपालेप-द्वारविधिमाह - लेवालेव ति इह, लेवाडेणं अलेवर्ड जंतु। अण्णण समं मिस्सं, दुगं पि इह होइ विणेअं॥४५३॥ लेपालेपमित्यत्राधिकारलेपवता व्यञ्जनादिना, लेपवत् यदोदनादि। किमुक्तं भवति-अन्येन संमिश्र वस्त्वन्तरेण, द्वितीय मप्यत्र भवतीति विज्ञेया भक्तं पानं चेति गाथार्थ: अलेप-द्वारविधिमाह - अल्लेवं पयईए, केवलग पि हुन तस्सरूवं तु। अण्णे उडलेवकारी, अलेवमिति सूरओ विति।।४५४।। अलेप, प्रकृत्या स्वरूपेण, केवलमपि सन्, न तत्स्वरूपं। तुलने लस्वरूपमेव जगायामवान्। अन्ये त्वलेपकारिणामले पमित्येवं, सूरय आचार्या वुवत इति गाथार्थः। आचामाम्ल-द्वारविधिमाह - णायं विलमेअंपि हु, अइसोसपुर। सभेअदोसाओ। उस्सग्गियं तु किं पुण, पायइए अणुगुणं जे से // 455 / / नायामाम्लमेतदप्यले पकारि। अतिशोषपुरीषभेददोषाद् व्याप्या विधातुभावेना औत्सर्गिकमेवौदनरूपं किं पुनः प्रकृते देहरूपाया अनुगुणं यदल्लादि (से) तस्येति गाथार्थः। प्रतिमा-द्वारविधिमाह - पंडिमंति अमासाइ-सदा य अभिग्गहा सेमा। णो खलु एस पवजइ, जं तत्थ ठिओ विसेसेण / / 456|| प्रतिमा मासाद्या, आदिशब्दान्मूलगाथागताद्यभिग्रहाः, शेषा अकण्डूयनादयो, न खल्वेष प्रतिपद्यते। जिनकल्पिको यत्तत्रार्भिग्रहे स्थितो विशेषेणेति गाथार्थः। ___ 'जिणकप्पे' इति मूलद्वारगाथावयवं व्याचिख्यासुराहजिणकप्पे त्ति अ दारं, अनेनदाराण विसयमो एस। एअंमि एस मेरा, अववायविवजिआ णियमा।।४५७11 जिनकल्प इतिचद्वारा मूलगाथागमशेषद्वाराणां श्रुतसंहननादीनां विषय | एष वर्तते। इति एतस्मिन् जिनकल्पे, एषा मर्यादा श्रुतदियोक्तपवादविवर्जिता नियमादेकान्तेनेति गाथार्थः। 'मासकप्पो' इति द्वारवयवार्थमाहमासं निवसइ खित्ते, छव्वीहीओ अकुणइ तत्थ वि अ। एगेगमण्डकम्मा-इ वज्जणत्थं पइदिणं तु // 45 // मासं निवसति क्षेत्रो। एवं षड्वीथी: करोति गृहपङ्किरूपाः परिकल्प्य, | तत्रापि च वीथीकदम्बकेएकैकामटति वीथीकर्मादिवर्जनार्थमनिबद्धतया प्रतिदिनमिति गाथार्थः। व्याख्याता तृतीया द्वारगाथा। सांप्रतमत्र प्रासङ्गिकमाहकहपुण होज्जा कम्म, एत्थ पसंगेण सेसयं किं पि। वोच्छामि समासेणं, सीसजणाविवोहणट्ठाण // 456 / कथं पुनर्भवेत्कर्मान्य अटतः। अत्र प्रसङ्गेन शेष किमप्येतद्वक्तव्यतागतमेव वक्ष्यामि समासेना किमर्थमित्याह-शिष्यजविबोधनार्थमिति गाथार्थ आभिग्गहिए तत्थ, भत्तोगाहिमग वीइ तिअ पूई। चुअगो णिव्वयणति अ, उक्कोसेणं च सत्त जणा।।४६०॥ आभिग्रहिके जिनकल्पिक उपलब्धे श्रद्धोपजायते अगार्याः। तत्र भक्तोदग्राहिम केति, सा एतदुभयं करोति। द्वितीयेऽहनि त्रीन् दिवसान् पूति। तद्भवतां वक्ष्यामः। अत्रान्तरे चोदको निर्वचनमितिभवति। उत्कृष्टश्चोत्सर्गपदेन सप्त जना, एते एकव सतौ भवन्तीति गाथासमुदायार्थः। सरच्छोडगाहातोऽवयवार्थमाहजिणकप्पाभिग्गहिअंदटुं तवसोसिअंमहासत्तं। संवेगा गयसद्धा, काई सड्डा भणिज्जाहि।।४६१।। जिनकल्पाऽभिग्रहाकमृषिं दृष्ट्वा तपः शाषितं महासत्वं, संवेगात्ततश्च गतश्रद्धा सती, काचित् श्राद्धी योषिगणेत्, ब्रूया दिति गाथार्थः। किं काहामि अहण्णा, एसो साहू न गिण्हए एअं। णत्थि महं तारिसयं, अण्णं जमलजिआ दाइं॥४६२।। किं करिष्यामि। अधन्याहम्। एष साधून गृह्यति, एततत्रा नूनं नास्ति। मम तादृशमनयच्छोभना यदलजिता दास्यामीति गाथार्थः। सव्वपयत्तेण अहं, कल्ले काउण ओहणं विउलं। दाहामि पयत्तेणं, ताहे भणऐ असो भयवं / / 463 / / सर्वप्रयत्नेनाहं कल्ले कृत्वा-भोजनं साधु विपुलं दास्यामि प्रयत्नेन तदा भणति चासौ भगवाँ स्तच्छत्वोक्तया निवारणायेति गाथार्थः। अणिआओ वसहीओ, भमरकुलाणं च गोकुलाणं च / समणाणं सउणाणं, आरइआणं च मेहाणं // 464|| अनियता वसतयः केषामित्याह भ्रमरकुलानां च, गोकुलानां च, तथा श्रमणानां, शकुनानां सारदीनां च, मेघानामित्यर्थः। तीए व उवक्खडिअं, मुक्का वीही अ तेण धीरेणं / अघीणमपरिभंतो, विइव पडिंडिओ वीहिं / / 465 / / तया वा अगार्यों पस्कृतमनाभोगात् मुक्ता वीथी च तेन धीरेणा द्वितीयेऽहनि अदीनचेतसाऽपरिभ्रान्तकायेन, द्वितीयां च, क्रमागतां प्रपर्यटितो वीथिमसाविति गाथार्थः। तत्रेयं व्यवस्थापढमदिवसम्मि कम्म, तिण्णि अदिवसाणि पूइअंहोइ। पूइसु तिसु णो कप्पइ, कप्पइ तइए गए कप्पे // 466 / / प्रथमदिवसं कर्म, तदुपस्कृतं त्रीन् दिवसाने पूति भवति। तद् गृहमेव पूतिषु त्रिषु न कल्पते। तत्रान्यदपि किञ्चित् कल्पते। तृतीये गते कल्पे दिवसे अपरस्मिन्नद्दनीति गाथार्थः। ओगाहिमए अजं, न आगओ कल्ले तस्स दाहामि। दोण्णि दिवसाणि कम्म, तइआइसु पूइअं होइ॥४६७।। उद्भाहिमके हते, सति अद्यनाऽऽयातः स ऋषिः। कल्ये तस्य दास्यामि / इति दिवसे सदाऽभिसंधत्ते / अा द्वौ दिवसौ
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________________ जिणकप्प 1484 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प कर्म, तद्भावाविच्छेदातृतीयादिषु दिवसेषु पूति, तद्भवतीति गाथार्थः। तिहिँ कप्पेहिं न कप्पइ, कप्पइं तं छट्ठसत्तमदिणम्मि। अकरणदिअहो पढमो, सेसा जं एक दोण्णि दिणा / / 468 / / तका त्रिषु कल्पेषु दियसेषु न कल्पते। कल्पते तद् गृहं, षष्ठसप्तमे दिवसे ग्रहणदिवसाता एतदेवाह अकरणदिवसः प्रथमोऽटगमतः। शेषौ यदेको, द्वौ वा दिवसावाधाकर्मगताविति गथार्थः। अह सत्तमम्मि दिअहे, पढमं वाहिं पुणो वि हिडतं / दठुण सा य सड्डी, तं मुणिवसभं भणिज्जाहि / / 466 / / अथ सप्तमे दिवसे, अटनगतादारभ्य। प्रथमां वीथीं, पुनरपि हिंडन्तमटन्तं दृष्टवा। सा श्राद्धी अगारी, मुनिवृषभं प्रस्तुतं भणे ब्यादिति गाथार्थः किं णागयत्थ तइआ, असव्वओ मे कओ तुह निमित्तं। इति पुट्ठो सो भयवं, विइआएसे इमं भणइ / / 470 / / किं नागतात्र यूयं तदा। असद्वव्ययो मया कृतस्त्वन्निमित्त। तदग्रहणादसदव्ययत्वमिति पृष्टः स भगवान् जिनकल्पिकः। द्वितीयादेशे पूर्वादेशापेक्षया, इदं भणति वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः। अणिआओ वसहीओ, इचाइ जमेव वण्णिअंपुट्विं / आणाए कम्माई, परिहरमाणो विसुद्धमणो / / 471 / / अनियता वसतय इत्यादि। यदेव वर्णितं, पूर्वगाथासूत्रमिति। आज्ञया / कर्मादि परिहरन विशुद्धमनाः सन्, भवति। इति गाथार्थः। चोएड पढमदिअहे, जइ कोइ करिज तस्स कम्भाई। तत्थ ठिअंणाउणं, अजंपिउं चेव तत्थ कहं / / 472 / / चोदयति शिष्यः। प्रथमदिवस अटनगत एव यदिकश्चित्कुर्यात, किञ्चत् कर्माद्यकल्प्यं, तत्रा स्थितं ज्ञात्वा, क्षेत्रोऽसंजल्प्यैव किंचित्तत्रा कथमिति गाथार्थः। चोअग! एवं पि इहं, जइ ओ करिजाहिं कोइ कम्माइ।। णाहि सो तं ण विअणाइ, सुआइमयजोगओ भयवं // 473|| चोदकएवमप्यत्रा यदि कुर्यात् कश्चित्कर्मादि प्रच्छन्नमेवानह्यसो तत्र विजानाति? विजानात्येव श्रुतातिशययोगतः कारणात्तद्भगवानिति गाथार्थः। एसो उण से कप्पो, जसत्तमगम्मि चेव दिवसम्मि। एगत्थ अडइ एवं, आरंभविवजणणिमित्तं / / 474 // एष पुनः (से) तस्य कल्पः। यत्सप्तम एव दिवस एकत्र बीथ्यामटति। एवमुक्तवदारम्भविवर्जननिमित्तमिति गाथार्थः। इअ अणिअयवित्तिं तं, दटुं सड्ढाणं वि तदारंभे। अणियमओ ण पवित्ती, होइ तहा वारणाओ अ॥४७५।। एवमनियतवृत्तिं तं वीथिविहारेण दृष्टवा, श्राद्धनामपि प्राणिनां तदारम्भेऽनियमात् कारणात् न प्रवृत्तिर्भवति। तथा वारणाचानियतत्वादिभावेनेति गाथार्थः। गच्छवासिनामेवमकुर्वतामदोषमाह इअरे आणाओ वि अ, गुरूमाइनिमित्तओ पइदिणं पि। दासं अपस्समाणा, अडंति मज्झत्थ्ज्ञभावेण // 466|| इतरेऽपि गच्छवासिन आज्ञात एव निमित्तत्वाद्, गुर्वादि निमित्ततश्च हेताः। प्रतिदिवसमपि दोषमपश्यन्तः, सन्तोऽनैष णारूपमटन्ति मध्यस्थभावेन समतयेति गाथार्थः। प्रासङ्किकमेतत्। प्रस्तुतमेवाहएवं तु ते अडता, वसहीऽएक्काए कइ वसिज्जाहिं। वीहीए अ अडता, एगाए कइ अडिओहि // 477 // एवं तु ते अटन्तो जिनकल्पिकाः। वसतावेकस्यां कति वसयुः? तथा वीथ्यां वा अटन्तः सन्त एकस्यां कत्यटयुरिति गाथार्थः। एगाए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्त जणा। अवरोप्परसंभासं, वज्जिंता कह विजाऐणं // 470|| एकस्यां वसतौ वसन्तो, बाह्यायामुत्कृष्टतो वसन्ति सप्त जनाः। कथमित्याह-परस्परं संभाषणं वर्जयन्तः सन्तः कथमपि योगेनेति गाथार्थः। वीहीए एक्काए, एक्को खलु पइदिणं अडइ एमो। अण्णे भणंति भयणं, सा य ण जुत्तिक्खमा णेआ।। 476 / / वीथ्यांत्वेकस्यामेक एव प्रतिदिनमटत्येष जिनकल्पिकः। अन्ये भणन्ति भजनां, सा च न युक्तिक्षमा शेयाऽत्रा वस्तुनीति गाथार्थः। कुत इत्याहएएसिं सत्त वीही, एत्तो चिअपायसोजओ भणिआ। कह नाम अणोमाणं, हविज्ज गुणकारगं णिअमा // 480 / / एतेषां सप्त वीथ्यः। अत एव कारणान्मा भूदेकस्यामुभयाटन मिति प्रायसो यतो भणिताः कचित्प्रदेशान्तरे कथं नाम, अनवमानं भवेत्। अन्योऽसवंर्तभावेन गुणकारक नियमात्प्रवचन स्येति गाथार्थः। वीथीज्ञानोपायमाह - अइसयेण अजमेइ, वीहिविभागं अतो विजाणंति। ठाणाएहिं धीरा, समयपसिद्धेहिं लिंगेहि // 181|| अतिशयेन च यदेते श्रुततः वीथीविभागमतो विजानन्त्येवैते। स्थानादिभिधींरा वसतिगतैः, समयप्रसिद्धः,लिङ्गैः श्रुतादेवेति गाथार्थः। उपसंहरन्नाहएस सामायारी, एएसिं समासओ समक्खाया। एत्तो खित्तादीअं, ठिइमेएसिं उ वक्खामि / / 482 / / एषा सामाचारी, एतेषां जिनकल्पिकानां समासतः समाख्याता! अतः क्षेत्राद्या स्थिति तावद्व्यवस्थामेतेषामेव वक्ष्यामीति गाथार्थः। खित्ते कालचरित्ते, तित्त्थे परिआय-आगमे वेए। कप्पे लिंगे लेसा-ऊणे गणणाऽभिगहो सिं च // 483|| क्षेत्रो एकस्मिन् स्थितिरमीषाम्। एवं काले, चारित्र, तीर्थे पर्याये, आगमे, वेदे, कल्पे, लिङ्गे,लेश्यायां, ध्याने, तथा गणना-ऽभिग्रहाश्चैतेषां वक्तव्या। इति गाथासमासार्थः। पव्वावण मुण्डावण, मणसावण्णे वि से अणुग्धाया। कारण णिप्पडिकम्मे, भत्तं पंयो अतइआए|४५४||
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________________ जिणकप्प 1485 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प प्रवाजनमुण्डनेत्यत्र स्थितिर्वाच्या, मनसाऽऽपन्नेऽपि दोषे (से) तस्य, अनुद घाताश्चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम् / तथा कारणनिष्प्रतिकर्मस्थितिर्वाच्या, तथा भक्तं, पन्थाश्च तृतीयायां पौसष्यमस्येति गाथासमासार्थः। व्यासार्थ तु गाथाद्वयस्याऽपि ग्रन्थकार एव प्रतिपादयति। तत्राऽऽद्यक्षेत्र द्वारमधिकृत्याऽहखित्ते दुहेहे मग्गण, जम्मणओ चेव संतिभावे अ। जम्मणओ जहि जाओ, संतीभावे अजहि कप्पो।। 455 / / क्षेत्रे द्विविधा मार्गणा जिनकल्पिकस्थिती-जन्मतश्चैव, सद्भावतश्च / तत्र जन्मतो-यात्रजातः क्षेत्रे, एवं जन्मऽश्रित्य / सद्भावतश्च यत्र कल्पः क्षेत्रे, एवं सद्भावमाश्रित्य, मार्गणेति गाथार्थः। जम्मणसंतीभावे-सु होज सव्वासु कम्मभूमीसु। साहरणे पुण भइओ, कम्मे व अकम्मभूमे वा / / 486 // / जन्मसद्भावयोरयं भवूत् सूर्वासु कर्मभूमिषु भरताद्यासु / संहरणे पुनर्भाज्योऽयं, कर्मभूमिको वा सद्भावमाश्रित्य , अकर्मभूमिको वाऽसद्भावमाश्रित्येति गाथार्थः।। __ काल-द्वारमधिकृत्याऽऽहओसप्पिणिए दोसुं, जम्मणओ तिसु असंतिभावेणं। उस्सप्पिणिविवरीओ,जम्मणओ संतिभावेणं / / 487 / / अवसर्पिण्यां काले, द्वयोः सुषमदुष्षम-दुष्षमसुषमयोर्जन्मतो जन्माऽऽश्रित्यास्य स्थितिः। तिसृषु सुषमदुष्षम-दुष्षमसुषम-दुष्षमासु सद्भावेनेति स्वरूपतयाऽस्य स्थितिः / उत्सपिण्यां विपरीताऽस्य कल्पः-जन्मतः, सद्भावतश्च / एतदुक्तं भवति-दुष्षम-दुष्षम सुषमसुषमदुष्षमासु तिसृषु जन्मतः, दुष्षमसुषम-सुषमदुष्षमयोः शुद्धयोः सद्भावतएवेति गाथार्थः। णोस्सप्पिणि उस्सप्पिणि, होइ उ पलिभागओ चउत्थम्मि। काले पलिभागेसु अ, साहरणे होइ सव्वेसिं / / 488 / / नावसर्पिण्युत्सर्पिणीत्युभयशून्ये स्थिते काले भवति त्वयं जन्मतः, सद्भावतश्च, प्रतिभागे चतुर्थ एव / काले दुष्षमसुषमरूपे-विदेहेषु प्रतिभागेषु च के वलेषु, संहरणे सति, सद्भावमाश्रित्य भवति सर्वेषूत्तरकुर्वादिगतेष्विति गाथार्थः / ___ चारित्र-द्वारमधिकृत्याऽऽहपढमे वा वीए वा, पडिवज्जइ संजमम्मि जिणकप्पं / पुव्वपडिवन्नओ पुण, अण्णअरे संजमे हुजा / / 486 / / प्रथमे वा सामायिक एव, द्वितीये वा छेदोपस्थाप्ये, प्रतिपद्यते, संयमे चारित्रे सति जिनकल्पं, नान्यस्मिन्। पूर्वप्रतिपन्नः पुनरसावन्यतरस्मिन् संयमस्थाने सूक्ष्मसंपरायादौ भवेदुपसमश्रेणिमधिकृत्येति गाथार्थः। मज्झिमतित्थअराणं, पुढमे पुरिमंतिमाण वीअम्मि। पच्छा विसुद्धयोगा, अण्णअरं पावइ तयं तु // 460 / / मध्यमतीर्थकराणां तीर्थ, प्रथमे भवेत्, द्वितीयस्य तेषामभावात् / पुरिमवरमयोस्तु तीर्थकरयोः तीर्थे द्वितीये भवेत्, छेदोपस्थाप्य एव। | पश्चाद्विशुद्धयोगात् कारणादन्यतरं प्राप्नोति तं संयमं सक्ष्मसंपरायादि तूपशमापेक्षयेति गाथार्थः। तीर्थ-द्वारमधिकृत्याऽहतित्थे त्ति नियमओ चिय, होइ स तित्थम्मि न पुण तदभावे / विगएऽणुप्पण्णेवा, जाईसरणाइएहिं तु // 461 // तीर्थ इति नियमत एव भवति स जिनकल्पिकः तीर्थे सडे सति, न पुनस्तदभावे विगतेऽनुत्पन्ने वा तीर्थे, जातिस्मरणादिभिरेव कारणैरिति गाथार्थः। अहिगयरं गुणठाणं, होइ अतित्थम्मि एस किं ण भवे / एसा एअस्स ठिई, पण्णत्ता वीअरागेहिं / / 462 / / अधिकतरं तद्गुणस्थानं श्रेण्यादि भवत्यतीर्थ, मरुदेव्यादीनां तथाश्रवणादिति, एष किं न भवति जिनकल्पिकः ? इत्याशङ्कयाऽहएषा एतस्य स्थितिर्जिनकल्पिकस्य प्रज्ञप्ता, वीतरागैः, न पुनरत्र काचिद्युक्तिरिति गाथार्थः। पर्याय-द्वारमधिकृत्याऽऽहपरिआओ अदुभेओ, गिहि-जइ-भेएहि होइ णायव्यो। एकेको उ दुभेओ, जहण्ण उक्कोसओ चेव / / 463 // पर्यायश्च द्विभेदोऽत्र गृहियतिभेदाभ्यां भवति ज्ञातव्यः / एकैकश्च द्विभेदोऽसौ जघन्य उत्कृष्टश्चैवेति गाथार्थः। एअस्स एसणाओ, गिहिपरिआओ जहण्ण गुणतीसा। जअपरिआए वीसा, दोसु विउकोस देसूणं / / 464 / / एतस्यैष ज्ञेयो गृहिपर्यायो जन्मत आरभ्य जघन्य एकोणत्रिंशद्धर्षाणि / यतिपर्यायो विंशतिवर्षाणि जघन्यः, एवंद्वयोरपि गृहियतिभेदेयोरुत्कृष्टपर्यायो देशोना पूर्वाकोटीति गाथार्थः। आगम-द्वारमधिकृत्याऽऽहअप्पुव्वं णाहिजइ, आगममेसो अइच्च तं जम्म। जमुचिअपगिट्ठजोगा-ऽऽराहणओ चेव कयकिच्चो / / 465 / / अपूर्व नाधीत आगममेषः / कुतः? इत्याह-अतीत्य तज्जन्म वर्तमानं, यद् यस्मादुचितप्रकृष्टवोगाराधनादेव कारणात्, कृतकृत्यो वर्तते। इति गाथार्थः। पुव्वाहीयं तु तयं, पायं अणुसरह निच्चमेवेस। एगग्गमणो सम्म, विस्सोअसिगाइखयहे।। 466 // पूर्वाधीतं तु तच्छुतं प्रावोऽनुस्मरति नित्यमेवैष जिनकल्पिक एकाग्रमनाः सम्यग् यथोक्तं, विश्रोतसिकायाः क्षयहेतुं श्रुतं स्मरतीति गाथार्थः। वेद-द्वारमधिकृत्याऽऽहवेअप्पवित्तिकाले, इत्थीवज्जो उ होइ एगयरो। पुव्वपडिवन्नओ पुण, होज्ज सवेओ अवेओ वा / / 467 // वेदप्रवृत्तिकाले तस्य स्त्रीवर्ज एव भवत्येकतरः पुंवेदो नपुंसकवेदो वा शुद्धः / पूर्वप्रतिपन्नः पुनरध्यवसायभेदोद्भवात्सवेदोऽवेदो वैष भवेत् इति गाथार्थः। उवसमसेढीए खलु, वेए उवसामिअम्मि उ अवेओ। न उ खविए तज्जम्मे, केवलपडिसेहभावाओ / / 498 //
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________________ जिणकप्प 1486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प उपशमश्रेण्यामेव वेद उपशमिते सति अवेदो भवति, न तु क्षपिते। कुतः ? इत्याह-- तज्जन्मन्यस्य केवलप्रतिषेधभावादिति गाथार्थः। कल्प-द्वारमधिकृत्याऽहठिअमट्टिए अ कप्पे, आचेलकाइएसु ठाणेसु / सव्वेसु ठिआ पढमो, चउ-ठिय छसु अ ट्ठिया विइओ।। 466|| स्थिते, अस्थिते च कल्प एष भवति, न कश्चिद्विरोधः / अनयोः स्वरूपमाह-आचेलक्यादिषु स्थानेषु वक्ष्यमाणलक्षणेषु सर्वेषु दशस्वपि स्थिताः, इति प्रथमः स्थितकल्पः / चतुर्षु स्थिता इति-शय्यातरराजपिण्डकृतिकर्मज्येष्ठपदेषु स्थिताः, मध्यम-तीर्थकरसाधवोऽपि षट्सु | स्थिता आचेलक्यादिष्वनयिमवन्तः, इति द्वितीयः स्थितकल्पः, इति गाथार्थः। स्थानान्याहआचेलकुद्देसिय-सिज्जायररायपिंडकम्मे वा। वयजिट्ठपडिक्कमणे, मासं पजोसणाकप्पे // 500 / / आचेलक्यौद्देशिकशय्यातरराजपिण्डकृतिकर्माणि पञ्च स्थानानि, तथा व्रतज्येष्ठप्रतिक्रमणादीनि, त्रीणि, मासपर्युषणाकल्पौ द्वे स्थाने; इति गाथार्थः। लिङ्ग-द्वारमधिकृत्याऽऽहंलिंगम्मि होइ भयणा, पडिवज्जइभ उभयलिंगसंपन्नो। उवरित्त भावलिंगं, पुव्वपवणस्स णिअमेणं / / 501 // लिङ्गे इति भवति भजना, वक्ष्यमाणस्य प्रतिपद्यते कल्पम्, उभयलिङ्गसंपन्नो, द्रव्यभावलिङ्गयुक्त इत्यर्थः / उपरि तु उपरिष्ठात्, भावलिङ्ग चारित्रपरिणामरूपं पूर्वप्रतिपन्नस्य कल्पं नियमेन भवतीति गाथार्थः। इयरं तु जिण्णभावाइ-एहि सअअंन होइ वि कयाइ। एय तेण विणाऽवि तहा, जायइ से भावपरिहाणी।। 502 / / इतरत् तु द्रव्यलिङ्ग, जीर्णभावादिभिर्जीर्णहृतादिभिः कारणैः सततं न भवत्यपि, कदाचित्संभवत्यपि कदाचिन्न संभवत्येतत् / न च तेन विनाऽपि, तथा तेन प्रकारेण, जायते (से) तस्य भावपरिहाणिरप्रमादाभ्यासादिति गाथार्थः। लेश्या-द्वारमधिकृत्याऽऽहलेसासु विसुद्धासुं, पडिवजइ तीसुन पुण सेसासु। पुव्वपडिवन्नओ पुण, होज्जा सव्वासु वि कहंचि / / 503 / / लेश्यासु विशुद्धासु तैजस्यादिषु प्रतिपद्यते तिसृषु कल्पम्, न पुनः शेषास्वाद्यासु / पूर्वप्रतिपन्नः पुनः कल्पस्थो भवेत् सर्वास्वपि शुद्धासु, कथञ्चित् कर्मवैचित्र्यादिति गाथार्थः। एऽचंतसंकिलिट्ठा-सु थोवकालं च हंदि इअरासु। चिंत्ता कम्माण गई, तहा वि विरियं फलं देइ / / 504 / / नात्यन्तसंक्लिष्टासु वर्तते भगवान्, स्तोककालं च हन्दीतरासु अशुद्धासु, चित्रा कर्मणां गति; येन तास्वपि वर्तते. तथापि वीर्य फलं ददाति, येन तद्भावेऽपि भूयश्चारित्रशुद्धिरिति गाथार्थः / ध्यान-द्वारमधिकृत्याऽऽह झाणम्मि वि धम्मेणं, पडिवज्जइ सो पवड्डमाणेणं / इअरेसु वि झाणेसुं, पुव्वपवण्णे ण पडिसिद्धो / 505 / / ध्यानेऽपि प्रस्तुते, धर्मेण ध्यानेन, प्रतिपद्यतेऽसौ कल्पं, प्रवर्द्धमानेन सता। इतरेष्वपि ध्यानेश्वार्तादिषु, पूर्वप्रतिपन्नोऽयं न प्रतिषिद्धो भवतीत्यपीति गाथार्थः। एवं च कुसलजोगे, उद्दामे तिव्वकम्मपरिणामा।। रोघऽट्टेसु वि भावो, इमस्स पायं निरणुबंधो / / 506 / / एवं कुशलयो गे जिनकल्पप्रतिपत्त्योदामे सति, तीव्र कर्म - परिणामामौदयिकाद् रौद्रार्तयोरपि भावोऽ ज्ञेयः, सच प्रायोनिरनुबन्धः, स्वल्पत्वादिति गाथार्थः / गणना-द्वारमधिकृत्याऽऽह-- गणण त्ति सयपुहत्तं, एएसिं एगदेव उक्कोसा। होइ पडिवज्जमाणे, पडुच्च इअरा उ एगाई // 507 // गणनेति शतपृथक्त्वमेतेषां जिनकल्पिकानामेकदैवोत्कृष्टा भवति प्रतिपद्यमानकान् प्रतीत्य, इतरा तु जघन्या गणनैकाद्येति गाथार्थः / पुव्वपडिवण्णगाण उ, एसा उक्कोसिआ उचिअ खित्ते। होइ सहस्सपुहत्तं, इयरा एवं विहा चेव / / 508 / / पूर्वपतिपन्नानां त्वमीषामेषा गणना उत्कृष्टोचिता क्षेत्रे यत्त्वेषां भावो भवति यदुत सहस्रपृथक्त्वमिति, इतराऽपि जघन्यैवंविधैव सहस्रपृथक त्वमेव लघुतरमिति गाथार्थः। अभिग्रह-द्वारमधिकृत्याऽऽहदव्वाईआऽभिग्गह, विचित्तरूवाण होंति इत्तरिआ। एअस्स आवकहिओ, कप्पो चिभऽभिग्गहो जेण / / 506 / / द्रव्याद्या अभिग्रहाः सामान्या विचित्ररूपा न भवन्तीत्वराः / कृतः ? इत्याह अस्य यावत्कथिकः कल्प एव प्रकान्तोऽभग्रहो येनेति गाथार्थः / एयम्मि गोअराई, णिअया णिअमेण णिरववाया य। तप्पालणं चिअ परं, एअस्स विसुद्धिठाणं तु / / 510 / / एतस्मिन् गोचरादयः सर्व एव नियता नियमेन, निरपवादाश्च वर्तन्ते / यत एवमतस्तत्पालनमेव परं प्रधानमेतस्य विशुद्धिस्थानम्, किं शेषाऽभिग्रहैरिति गाथार्थः / व्याख्याता प्रथमा द्वारगाथा। अधुना द्वितीया व्याख्यायते, तत्र प्रव्राजनाद्वारमधिकृत्याऽऽहपव्वावेइ ण एसो, अण्णं कप्पट्ठिउत्ति काऊणं / आणाउ तह पयट्टो, चरमाणसणि व्व णिरविक्खो / / 511 / / प्रव्राजयति नैषोऽन्यं प्राणिनं कल्पस्थित इति कृत्वा, जीतमेतत्, आज्ञातस्तथा प्रवृत्तोऽयं महात्मा चरमानशनिवन्निरपेक्षो यावत्कारणेनेति गाथार्थः। उवएस पुण विअरइ, धुवं पवित्तं विआणिउं किंचि / तं पि जहासण्णेणं, गुणओ ण दिसादविक्खाए / 512 / / उपदेशं पुनर्वितरति ददाति ध्रुवं प्रव्रजनशीलं विज्ञाय किञ्चि-त्सत्त्वम्। तमपि यथासन्नेन वितरति गुणान्, न दिगाद्यपेक्षया कारणेनेति गाथार्थः / मुण्डन-द्वारमधिकृत्याऽऽहमुंडावणा वि एवं, विण्णेआ एत्थ चोअगो आह / of-
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________________ जिणकप्प 1487 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प पव्वजऽणंतरम्मी,णिअमा एस त्ति कीस पुढो? || 513|| मुण्डनाऽप्येवं विज्ञेया प्रव्राजनावदव / चोदक आह-किमाह ? प्रव्रज्याऽनन्तरमेव नियमादेव मुण्डनेति कृत्वा किमिति पृथगपात्तेति | गाथार्थः। अत्र 'पुढो' द्वारम्गुरुराहेह ण णिअमो, पव्वइअस्स वि इमस्स पडिसेहो। अजोग्गस्साइसई, पलिभग्गादी विहेइजओ / / 514 / / गुरुराह-इह न नियमो यदुत प्रव्रज्याऽनन्तरमेवेयम्, कुतः ? | प्रव्रजितस्याप्यस्याः प्रतिषेधो मुण्डनाया अयोग्यस्य, प्रकृत्येहातिशयैः पुनः प्रतिभग्नादिर्विधत्ते, यतो मुण्डना न स्वतः पृथगिति गाथार्थः / मनसाऽऽपन्नस्यापीत्यादि-द्वारमधिकृत्याऽऽहआवण्णस्स मणेण वि, अइआरं निअमओ अ सुहुमं पि। पच्छितं चउ गुरुगा, सव्वजहण्णं तुणेअव्वं / / 515 / / आपन्नस्य प्राप्तस्य मनसाऽप्यतिचारं नियमत एव सूक्ष्ममपि प्रायश्चित्तमस्य भगवतश्चतुर्गुरवः सर्वजघन्यं मन्तव्यमिति गाथार्थः। जम्हा उत्तरकप्पो, एसोऽभत्तट्ठमाइसरिसो उ। एगग्गयापहाणो, तन्भंगे गुरुअरो दोसो।। 516 // यस्मादुत्तरकल्प एष जिनकल्पोऽभक्तार्थादिसदृशो वर्तत एकाग्रताप्राधानोऽप्रमादी, यतस्तङ्गङ्गे गुरुतरो दोषो, विषयगुरुत्वादिति / गाथार्थः। कारण-द्वारमधिकृत्याऽऽहकारणमालवणमो, तं पुण नाणाइअं सुपरिसुद्धं / एअस्स तं न विजइ, उचिअंतप्पसाहणा पायं / / 517 / / कारणमालम्बनमुच्यते, तत्पुनानादि सुपरिशुद्धं सर्वत्र ज्ञेयम्। एतस्य तन्न विद्यते जिनकल्पिकस्य, उचितान्तःप्रसाधनात् प्रायः जन्मोत्तमफलसिद्धेरिति गाथार्थः। सव्वत्थ निरवइक्खो, आढत्तं चिअ दढं समाणितो। वट्टइ एस महप्पा, किलिट्ठकम्मक्खयणिमित्तं / / 518 // सर्वत्र निरपेक्षः सन् प्रारब्धमेव दृढ समापयन् वर्तते, एष म्हात्मा जिनकल्पिकः क्लिष्टकर्मक्षयनिमित्तमिति गाथार्थः / निष्प्रतिकर्म-द्वारमधिकृत्याऽऽहनिप्पडिकम्मसरीरो, अच्छिमलाई विणावणेइ स य / पाणंतिए वि अ तहा, वसणम्मि ण वट्टई वीए।। 516 / / निष्प्रतिकर्मशरीर एकान्तेन अक्षिमलाद्यपि नापनयति / स च प्राणान्तिकेऽपिच तथा अत्यन्तरौद्रे व्यसने न वर्तते द्वितीय इति गाथार्थः / अप्पबहुत्तालोअण-विसयाईओ उहोइ एसो त्ति। अहवा सुभभावाओ, बहुअंपेअंचिअ इमस्स / / 520 // अल्पबहुत्वालोचनविषयातीतस्तु भवत्येष जिनकल्पिक इति। अथवा / शुभभावात्कारणात्, बहुकमप्येतदेवास्य तत्त्वत इति गाथार्थः। चरम-द्वारमधिकृत्याऽऽह तइआएँ पोरिसीए, भिक्खाकालो विहारकालो अ। सेसासु उ उस्सग्गो, पायं अप्पा य णिद्द चि / / 521 // शेषासु तु कायोत्सर्गः प्रायोऽल्पा च निद्रा पौरुषीष्विति गाथार्थः / जंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि णवर णावओ। तत्थेव अहाकप्पं, कुणइ अजोगं महाभागो।। 522 // जवाबले क्षीणे सत्यविहरम्नपि नवरं नापद्यते दोषमिति / तत्रैव यथाकल्पं क्षेत्रे करोति योग्यं महाभागः स्वकल्पस्यः, इति गाथार्थः / एसेव गमो णियमा, सुद्धे परिहारिए अहालंदे। नाणत्तं उ जिणेहिं, पडिवजय गच्छ गच्छे वा / / 523 // एष एव गमोऽनन्तरोदितो भावनादिर्नियमाच्छुद्धे परिहारिके यथालन्दे च, नानात्वं तु जिनेभ्यः शुद्धपरिहारिकाणामिदं प्रतिपद्यते गच्छस्तत्प्रथमतया मवकसमुदायः, गच्छे वा एकनिर्गमादपर इति गाथार्थः। तवभावणणाणत्तं, करिति आयंविलेण परिकम्म। इत्तरिअंथेरकप्पे,जिणकप्पे आवकहिआ उ / / 524! तपोभावनानात्वं चैषामिदं कुर्वन्त्याचिमाम्लेन परिकर्म सर्वमेव / एते च इत्वराः, यावत्कथिकाश्च भवन्ति। ये कल्पसमाप्तौ गच्छमागच्छन्ति ते इत्वराः / ये तु जिनकल्पं प्रतिपद्यन्ते ते यावत्कथिका इति। एतदाह-- इत्वराः स्थविरकल्पा इति भूयः स्थविरकल्पे भवन्ति / जिनकल्पे यावत्कथिकास्तु भवन्तीति गाथार्थः / एतत्संभवमाहपुण्णे जिणकप्पं वा, अइंति तं चेव वा पुणो कप्पं / गच्छं वा इंति पुणो, तिण्णि वि ठाणा सिमविरुद्धा / / 525 / / पूर्णे शुद्धपरिहारे, जिनकल्पं वाऽतिगच्छन्ति, तमेव वा पुनः कल्पं शुद्धपरिहारं गच्छं वा गच्छन्तित / पुनरनेन प्रकारेण त्रीण्यपि स्थानान्यमीषां शुद्धपरिहारिकाणामविरुद्धानीति गाथार्थः। इत्तिरआणुवसग्गा, आयंका वेयणाय ण भवंति। आवकहिआण भइआ, तहेव छग्गामभागा उ॥ 526 // इत्वराणां शुद्धपरिहारिकाणामुपसर्गा आतङ्का वेदनाश्च न भवन्ति, तत्कल्पप्रभावाजीतमेतत् / यावत्कथिकानां भाज्या उपसर्गादयः, जिनकल्पस्थितानां संभवात् / तथैव षट्ग्रामभाजगास्त्वमीषां यथा जिनकल्पिकानामिति गाथार्थः / एतेषामेव स्थितिमभिधातुमाहखित्ते कालें चरित्ते, तित्थे परियाएँ आगमे वेए। कप्पे लिंगे लेसा-झाणे गणणा अभिगहा य / / 527 // पव्वावण-मुंडावण-मणसावण्णे वि से अणुग्घाया। कारण-णिप्पडिकम्मा, भत्तं पंथो अतइआए।। 528|| अस्य गाथाद्वयस्यापि समुदायार्थः पूर्व (गाथा४८३-४८४) वत् अवयवार्थ त्वाहखित्ते भरहेरवए, होंती साहरणवजिआ णिअमा। एत्तो चिअ विण्णे, जमित्य काले वि णाणत्तं / / 526 //
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________________ जिणकप्प 1488 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प क्षेत्रे भरतैरवतयोर्भवन्ति शुद्धपरिहारिकाः संहरणवर्जिता नियमादियमेषां स्थितिः। अत एव भरतैरखतभावाद्विज्ञेयम्यदत्र कालेऽपि नानात्वं, प्रतिभागाद्यभावादिति गाथार्थः / चारित्रस्थितिमभिधातुमाहतुल्ला जहण्णठाणा, संजठाणाण पढमविइआणं। तत्तो असंखलोगा-णं तू परिहारिअट्ठाणा।। 530 // तुल्यानि जघन्यस्थानानि स्वसंख्यया संयमस्थानयोः प्रथमद्वितीययोः सामायिकच्छेदोपस्थाप्याऽभिधानयोः / ततो जघन्येभ्यः संयमस्थानेभ्यः, असंख्यानां लोकानां त्वाक्षेत्र प्रदेशस्थान वृद्ध्या परिहारिकस्थानानि भवन्ति, संयममधिकृत्येति गाथार्थः / ताणवि असंखलोगा, अविरुद्धा चेव पढमीवआणं। उवरि पि तओऽसंखो, संजमठाणा उदोण्हं पि।। 531 / / तान्यपि परिहारिकसंयमस्थानानि असंख्येया लोका इति प्रदेशस्थानवृद्धौ तावन्तीत्यर्थः / तानि चाविरूद्धान्येव प्रथमद्वितीययोरिति, शुद्धिविशेषात् सामायिकच्छेदोपस्थाप्यंसंयमस्थानानीति भावः / उपर्यपि ततः परिहारिकसंयमस्थानेभ्यः, असंख्येयानि शुद्धिविशेषतः संयमस्थानानि, द्वयोरपि समायिकच्छेदोपस्थाप्ययोरिति गाथार्थः / सट्ठाणे पडिवत्ती, अण्णेसु विहोज पुव्वपडिवन्नो। तेसु वि वर्सेतो सो--ऽत / अणयं पप्प वुच्चइ उ / / 532 // स्वस्थान इति निवोगतः स्वस्थानेषु प्रतिपत्तिः कल्पस्य। अन्येष्वपि संयमस्थानेष्वधिकतरेषु भवेत् पूर्वप्रतिपन्नो व्यवसायविशेषात् तेष्वपि वर्तमानः संयमस्थानान्तरेऽपि स परिहारविशुद्धिक इत्यतीतनयं प्राप्योच्यते एव / निश्चयतस्तु न, संयमल्यानान्तराध्यासनादिति गाथार्थः। ठिअकप्पम्मी णिअमा, एमेव च भवइ दुविधालिंगे वि। लेसा-झाणा दोण्णि वि, हवंति जिणकप्पतुल्लाओ॥५३३।। स्थितकल्पे च नियमादेते भवन्ति, नास्थितकल्पे; एवमेव च भवन्ति द्विविधलिङ्गेऽपि नियमादेव; लेश्याध्याने द्वे अपि भवतः। अमीषा जिनकल्पतुल्या एव प्रतिपद्यमानादिभेदेनेति गाथार्थः / गणओ तिण्णवे कणा, जहण्ण पडिवत्ति सयसमुक्कोसा। उक्कोसजहण्णेणं, सयसो चिय पुव्वपडिवण्णा / / 534 / / गणतो मणमाश्रित्य त्रय एव गणाः,एतेषांजघन्या प्रतिपत्तिरियमादावेव शतश उत्कृष्टा प्रतिपत्तिरादावेव / तथा-उत्कृष्टजघन्येन-उत्कृष्टतो, जघन्यतश्च शतश एव पूर्वपतिपन्नाः।नवरंजघन्यपदादुत्कृष्टपदमधिकमिति गाथार्थः। सत्तावीस जहण्णा, सहस्स उक्कोसओ आपडिवत्ती। सयसो सहस्ससो वा, पडिवण्ण जहण्ण उक्कोसा।। 535 / / सप्तविंशतिर्जधन्याः पुरुषाः सहस्राण्युत्कृष्टतश्च प्रतिपत्तिरेतावतामेकदा शतशः सहस्रशश्च यथासंख्य प्रतिपन्ना इति पूर्वप्रतिपन्ना जघन्या उत्कृष्टाश्चैतावन्त इति गाथार्थः। पडिवज्जमाण भइणा, इक्को वी हुन्ज ऊणपक्खेवे / पुव्वपडिवण्णया विउ, भइया एगो पुहत्तं वा / / 536 / / प्रतिपद्यमानका भाज्या विकल्पनीयाः / कथमित्याह-एकोऽपि भवेदूनप्रक्षेपे प्रतिपद्यमानकाः पूर्वप्रतिपन्नका अपितु भाज्याः, प्रक्षेपपक्ष एव कथमित्याह-एकः पृथक्त्वं वा यदा भूयांसः कल्पान्तरं प्रतिपद्यन्ते भूयास एव चैवमिति गाथार्थः। एअंखलु णणत्तं, एत्थं परिहारिआण जिणकप्पा। अहलंदिआण एत्तो, णाणत्तमिणं पक्क्खामि / / 537 / / एतत् खलु नानात्वमत्र यन्निदर्शितं पारिहारिकाणां जिनकल्पात् सकाशाच्छेषं तुल्यमेव यथालन्दिकानाम्, अत ऊर्ट्स नानात्वमिदं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रवक्ष्यामि जिनकल्प इति गाथार्थः। पं०व०४द्वार / (शेषा वक्तव्यता 'अहालंद' शब्दे प्रथमभागे 867 पृष्ठे द्रष्टव्या) कयमित्थपसंगेणं, एसो अब्भुजओ इह विहारो। संलेहणासमो खलु, सुविसुद्धो होइ गायव्यो / / 553 / / कृतमत्र प्रसङ्गेन विस्तरेण, एषोऽभ्युद्यतो विहारः, इह प्रवचने संलेखनासमः खलु पश्चादासेवनात्सुविशुद्धो भवति ज्ञातव्यो यथोदितः। इति गाथार्थः। पाएण चरमकाले, जमेस भणिओ सयाणमणवज्जो। भयणाएँ अण्णया पुण, गुरुकजाईहिँ पडिबद्धा / / 554|| प्रायेण चरमकाले यदेवैष भणितः, सूत्रे सतामनवद्यः, भजनयाऽन्यदा पुनः स्याद्वा, न वा, गुरुकार्यादिभिः प्रतिबन्धादिति गाथार्थः / केई भणंति एसो, गुरुसंजमजोगओ पहाणो त्ति। थेरविहाराओ विहु, अचंतं अप्पमायाओ / / 555 / / केचन भणन्त्येषोऽभ्युद्यतविहारः, गुरुसंयमयोगतः कारणात्प्रधान इति, स्थविरविहारादपि सकाशादत्यन्तमप्रमादाद्धेतोरिति गाथार्थः। अन्ने परत्यविरहा, नेवं एसो अइह पहाणो त्ति। एअस्स वि तब्भावे, पडिवत्तिणिसेहओ चेव।। 556 / / अन्ये परार्थविरहात् कारणान्नैवमिति भणन्तित। एष चपरार्थ इह प्रधानः परलोक इति / एतस्याऽप्यभ्युद्यतविहारस्य तद्भावे परार्थभावे प्रतिपत्तिनिषेधतश्चैव, नैव भणन्ति / इति गाथार्थः / एतदेवाऽऽहअब्भुज्जयमेगयरं, पडिवजिउकाम सो वि पव्वावे / गणिगुणसलिद्धिओ खलु, एमेव अलद्धिजुत्तो वि / / 557|| अभ्युदतमेकतैरं विहारं मरणं वा प्रतिपत्तुकामः सन्नसावपि प्रव्राजयत्युपस्थितम्, अन्यथा तत्प्रव्रज्याभावे गणिगुणस्वलब्धिकः खलु तत्पालनासमर्थो न सामान्येन तच्छून्यः, स्नेहात्प्रव्रजति सति का वार्ता? इत्याह-एवमेवान्यथा तत्प्रव्रज्याभावेऽलब्धियुक्तोऽप्यभ्युद्यतप्रतिपत्तिमात्रेण गुरुनिश्रया प्रव्रजतीति गाथार्थः। एव पहाणो एसो, एगंतेणेव आगमा सिद्धो। जुत्तीए वि अनेओ, सपरूवगारो महं जम्हा।। 558 / / एवं प्रधान एषोऽभ्युद्यतविहारात् एकान्तेनैवाऽऽगमात् सिद्ध इति युक्त्याऽपिच ज्ञेयः प्रधानः, स्वपरोपकारो महान् यस्मादिति गाथार्थः। ण य एत्तो उवगारो, अण्णो णिव्वाण-साहणं परमं /
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________________ जिणकप्प 1486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प जं चरणं साहिजइ, कस्सइ सुहभावजोएणं / / 559 / / नचात उपकारोऽन्यः प्रधानतरः, निर्वाणसाधनं परमं यच्चरणं साध्यते कस्यचित् प्राणिनः शुभभावयोगेन हेतुना इति न लब्ध्याद्यपेक्षया। इति गाथार्थः। अचंति जुणहहेऊ, एअं अण्णेसि णिअमओ चेव परिणमइ अप्पणो वि हु, कीरंतं हंदि एमेव / / 560 / / आत्यन्तिकसुखहे तुरेतचरणमन्येषां भव्यप्राणिनां नियमे नैव परिणमति, आत्मनोऽपि क्रियमाणमप्येषां हन्येवमेवा ऽऽत्यन्तिकसुखत्वंनेति गाथार्थः। गुरू संजगजोगो वि हु, विण्णेओ सपरसंजमो जत्थ। सम्मं पवड्डमाणो, थेरविहारे असो होइ।५६१|| गुरुः संयमयोगोऽपि विज्ञेयः। क इह?,स्वपरसंयम, यत्र संयमे, सम्यक् प्रवर्द्धमानः सन् सन्तस्या स्थविरविहारे चाऽसौ भवति स्वपरसंयमः, इतिगाथार्थः। अचंतमप्पमाओ, विभावओ एस होइ णायव्यो। मं सुहभावेण मया, सम्म अण्णेसि तक्करणं // 562 / / अत्यन्ताप्रमादोऽपि, भावतः परमार्थेन, एष भवति ज्ञातव्य एवंरूपःयच्छुभभावेन सदासर्वकालं, सम्यगन्येषां तत्करणं शुभभावकरणमिति गाथार्थः। जड़ एवं कीस मुणी, थेरविहारं विहाय गीया वि। पडिवजंति इमं न तु, कालोचि अमणसणसमाणं / / 563 / / यद्येवं, किमिति मुनयः स्थविरविहारं विहाय गीतार्था अपि सन्तः प्रतिपद्यन्त एनं जिनकल्पम्, न तु कालोचितमनशनसमानं, तदाऽन्याभागादिति गाथार्थः। तकाले उचिअस्सा, आणाआराहणा पहाणेस। इहरा उ आयहाणी, निप्फलसत्तिक्खया णेआ / / 564|| तत्काल एवोचितस्य पुंसः, आज्ञाऽऽराधनाद्धंतोः प्रधान एव जिनकल्पः। इतरथा त्वात्महानिः स्वकाले तदप्रतिपत्तौ निष्फलशक्तिक्षयात् कारणाद् ज्ञेयेति गाथार्थः। अहवाऽऽणाभंगाओ, एसो अहिगगुणसाहणसहस्स। हीणकरणेण आणा, सत्तीऍ सया वि जइअव्वं // 564|| मथवाऽऽज्ञाभङ्गादात्महानिः, एष चाऽऽज्ञाभङ्गः अधिक गणुसाधन- | समर्थस्य सतः हीनकरणेन हेतुनाऽऽज्ञा, एवं पडुत शक्तया सदाऽपि यतितव्यं, न तत्क्षयः कार्य इति गाथार्थः। एत्तो अइमं एवं, जं दसपुव्वीए सुचई सुत्ते। एअस्स पडिस्सेहो, तयण्णहा अहिगगुणभावा।।५६६|| इतश्चैतदेवं स्वरपरसंयमः श्रेयान्, यदपि दशपुर्विणां साधूनां भूयते सूत्रे आगमे, एतस्य कल्पस्य प्रतिषेधः, तस्यान्यथा पोपकारद्धारेणाधिकगुणभावात् कारणदिति गाथर्थः। एवं तत्तं नाउं, विसेसओ एव सत्तिरहिएहिं। सपरोयआरविसए, जत्तो कज्जो जहासत्ति।।५६७|| एवं तत्वं ज्ञात्वा विशेषत एव शक्तिरहितैः शक्तिशून्यैः स्यरोपकारे पत्नः कार्यः यथाशक्ति, अप्रमत्तैः, महदेतन्निर्जरा ऽङ्गमितिपर्यायः। सव्वं थेरविहार, मोत्तुं अन्नत्थ होइ सुद्धो उ। एत्तो चिअपडिसिद्धे, अज्जाओऽसमत्तकप्पो य // 568 / / सर्व स्थविरविहारं मुक्तवा, स्वपरोपकारोऽन्यत्रा भवति शुद्ध एव, नाशुद्धः। अत एवं प्रतिषिद्धसूत्रोऽजातोऽसमाप्तकल्पश्चेति गाथार्थः। एतत्स्मरणमाहअजाओ गोआणं, असमत्तो पणगमत्तगा दिट्ठा। उउविसअ दो विभणिओ, जहक्कम वीअरागेहिं // 566 / / अजातो गीतार्थानां कल्पोऽसमाप्तौः पञ्चकात्सप्तकाद् वाऽवः ऋतुविषयो द्वयोरपि भणितो यथाक्रमं वीतरागैरिति गाथार्थः। पडिसिद्धवज्जगाणं, थेरविहारो अहोड़ सुद्धो त्ति। इहरा आणाभंगो, संसारपवडणा णियमा॥५७०॥ प्रतिषिद्धवर्जकानां साधूनां स्थविरविहारश्च भवति, शुद्ध इति। इतरथा प्रतिषिद्धावर्जने आज्ञाभङ्ग संसारप्रवर्द्धना नियमादिति गाथार्थः। कयमित्थपसंगेणं, सविसयणिअया पहाणया एवं / दहव्वा बुद्धिमया, गओ अ अब्भुजयविहारो।।५७१।। कृतमत्रा प्रसङ्गेन विस्तरेण, स्वविषयनियतोक्तन्यासात् प्रधानता एवं रूष्टव्या बुद्धिमता द्वयोरपि। गतश्चाभ्युद्यतविहार उक्तः। इति गाथार्थः। पं०व०४ द्वारा पं०भा०। पं० चू०। (26) (जिनकल्पिक-स्थतिरकल्पिक-भेदभिन्नानां परस्पर प्रतिविशेषः अहालंद' शब्दे प्रथमभागे 868 पृष्ठ द्रष्टव्यः) (27) (28) (गच्छो जिनकल्पश्च द्वावप्येतौ महर्द्धिकाविति 'गच्छ' शब्दे तृतीयभागे 803 पृष्ठे द्धष्टव्यौ) (26) जिनकल्पिको द्विविधः-अच्छिद्रपाणि-मिछरूपाणिच। तत्राछिद्रपाणेः शक्तयनुरुपाभिग्रहविशेषाद् द्वियिधमुपकरणम्। तद्यथारजोहरण, मुखवस्त्रिका चा कस्यचित्त्वक्त्राणार्थ क्षौमपटपरिग्रहस्त्रिविधम्। अपरस्योद कबिन्दुपरिता-पादिरक्षणार्थमौर्णिकपटपरिग्रहात् चतुर्दा। तथा असहिष्णुतरस्य द्वितीयक्षौमपटपरिग्रहात् पञ्चधेति।। छिद्रपाणेस्तु जिनकल्पिकस्य सप्तविधपाठानिर्योगसमन्वितस्य रजोहरणमुखवावस्त्रिका-ऽऽदिग्रहणक्रमेण यथायोग नवविधो दशविध एकादशविधो द्वादशविधश्चोपधिर्भवति। पाानिर्योगश्च (प्रवचनसारोद्धारे)-"पत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणंचपायकेसरिया। पडसाइँ रयत्ताण, च गोच्छमो पायणिजोगो॥४६८' आचा०२ श्रु०१ अ०३ उ०। (30) (31) (जिनकल्पिकानामुपकरणम् 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1060 पृष्ठेद्रष्टव्यम्) (32) को वै न मन्यते तीर्थङ्ग रैराभिहितो जिनकल्प इति? केवलं यादृशानां पुरूषाणां येन विधिना तैरभिहितो जिन कल्पस्तदेतदाकर्ण्य। कि पुनस्तत? इत्याह - उत्तमधिइसंघयणा, पुव्वविदोऽतिसइणो सयाकालं। जिणकप्पिया वि कप्प, कयपरिकम्मा पवज्जंति / / 2561 / / तं जइ जिणवयणाओ, पवजसि पवज्जतो सछिन्नो त्ति। अत्थि त्ति कह पमाणं, कइ वुच्छिन्नो त्ति न पमाणं // 2562 / / उत्तमधृतिसंहननाः पूर्ववे दिनो, जघन्यतोऽपि किञ्चिन्नयून
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________________ जिणकप्प 1460- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणकप्प नवपूर्वप टका इत्यर्थः। सर्वदैव निरूपमशक्तयाद्यतिशयसंपन्ना परिहर्तव्ये, यास्तूपरितन्यः पञ्चैषणास्तासाम भिग्रह एता एव जिनकल्पिका अपि "तवेण सत्तेण सुत्तेण, गत्तेण बलेण या तुलणा गृहीतव्याः इत्येवंरूपः, तत्राप्येक-दैकतरस्यां योगो व्यापारः परिभोग पंचहा वुत्ता, जिणकप्प पडिवज्जओ' ||1 / / इत्यादि पूर्वोक्तविधिना इत्यर्थः। एवं भावितगतयो यदा भवन्ति, तदा जिनकल्पिकचारित्रकृतपरिकर्माण एव जिनकल्पं प्रतिपद्यन्ते, नान्यथा, इति न मुपयन्ति प्रतिपद्यन्ते। रथ्यापुरूषकल्पानां भवादृशां जिनकल्पस्तीर्थ करैरनुज्ञात इति। घितिवलिया तवसूरा, णिति य गच्छाउ ते पुरिससीहा। तत्तस्माद् यदि जिनवचनादिर्हदुपदेशाज्जिन कल्पं प्रतिपद्यते त्वं, बलवीरियसंघयणा, उवसग्गसहा अभीरू य ||405|| ततस्तर्हि ‘स जिनकल्पो व्यवच्छिन्नः' इतीदमपि प्रतिपद्यस्वा धृतिर्वज्रकुडयवदच्छेद्यं चित्तप्रणिधानं, तया, बलिका बलवन्तः, अर्थतन्न प्रतिपद्यसे, तर्हि जिनकल्पोऽ स्तीति कथं तीर्थङ्करव चनं तव तथा तपश्चतुर्थादिकं षण्मासिकान्तं तत्रा शुराः समर्थाः, एवविधाः प्रमाणम्? कथं च व्यवच्छिचोऽ सो इति न प्रमाणम्? नन्वाग्रह- पुरुषसिंहाः, ते गच्छान्निर्गच्छन्ति। बलं शारीरं, वीर्ये जीवप्रभवं, पिशाचिकाग्रस्तचेष्टितमिदां, स्वेच्छामात्रप्रवृत्तत्वादिति // 2561 / / तद्धेतुः संहननम् अस्थिनिचयात्मक येषां ते तथा। बलवीर्यग्रहणं च 2562 // चतुर्भड ज्ञापनार्थम्। सा चेयम्-धृतिमान्नामैको, न संहननवान्। अथ जिनकल्पास्तित्वभागमे प्रतीत, सद्व्यवच्छेदस्तु केन वचनेन संहननवान्नामैको न धृतिमान्। संहननवान् धृतिमाँश्च! न संहननवान् तीर्थङ्करैरूक्तः? इति चेदित्याह न घृतिमाना तत्र तृतीय भङ्गनाधिकारः। उपसर्गा दिव्यादयः, तेषां मण-परमोहि-पुलाए, आहारग-खवग-उवसमे कप्पे। सहाः सम्यगध्यासि तारः, तथा अभीरवः परीषहेभ्यो न विभ्यति। संजमतिय-केवलि सि-ज्ऊणा य जंबुम्भिवुच्छिन्ना / / 2563 / / गता जिनकल्प स्थितिः। बृ०६ उ०। जिनकल्पिकः कथं मोक्षं न मनः पर्यायज्ञान, परमावधिः पुलाकलब्धिः, आहारकशरीरं, याति?। कर्मणो बाहुल्यादन्यद्वा किमपि कारणम, तस्य क्षपकचे णि, उपशमश्रेणिः, जिनकल्पः, परिहारविशुद्धिक - क्षपकश्रेण्युपशमश्रेण्यो मध्ये काऽपि भवति, न वा?, इति प्रश्ने, सूक्ष्मसंपराय-यथाख्यातलक्षण संयमत्रिकं, केवली, मोक्षगमन उत्तरम्-जिनकल्पि कस्तस्मिन् भवे मोक्षं न याति, तथाकल्पत्वात्। लक्षणा सिद्धिश्चेति सर्वेऽप्येते पदार्थाः जम्बूस्वामिनी व्यवच्छिन्नाः किंचोपशमश्रेणिं तु कश्चित्प्रतिपद्यते, न तु क्षपकश्रेणिम्, पञ्चवस्तुके जम्बूस्वामिनं यावत्प्रवृत्ताः, न तूत्तस्त्र इति / / 2563 / / विशे०। तथाऽभिधानादिति। 163 प्र० सेन० 3 उल्ला०ा आ०म०। जम्बू स्वामिनि व्यवच्छिन्नोऽसौ, संहननाद्यभावात् सांप्रत जिणकप्पपडिमा स्त्री० (जिनकल्पप्रतिमा) प्रतिमाभेदे, "सो य न शक्यत एवं कर्तुम् / विशे। जिणकप्पडिअं करेइ" आ०म०द्विका जिणकप्पट्टिइ स्त्री० (जिनकल्पस्थिति) जिनाः गच्छनिर्गत जिणकप्पिय पुं० (जिनकल्पिक) जिनानां कल्प आचारो जिनकल्पः, स विद्यते येषां ते। "अत इन ठनौ'।५।२।११५॥ इति (पाणिनीयसाधुविशेषाः, तेषां साधुविशेषाणां कल्पस्थितिर्जिन-कल्पस्थितिः। वचनात्) ठन्। प्रव०६० द्वार। जिना गच्छनिर्गत साधुविशेषाः, तेषां स्था० 3 ठा० 4 उका कल्पस्थिति भेदे, बृ० 3 उ०। सा चैवम् कल्पः समाचारः, तेन चरन्तीति जिनकल्पिकाः। प्रव०६३ द्वार। जिनकल्पं हि प्रतिपद्यते जघन्येनापि नवमपूर्वस्य तृतीयवस्तुनि सति जिनानामिव कल्पो जिनकल्प उगविहारविशेषः तेन चरन्तीति उत्कृष्टतस्तुदशसु भिन्नेषु प्रथमे संहनने दिव्याद्युपसर्गरोगवेदनाश्चासौ जिनकल्पिकाः। ध०२ अधि०। अभ्युद्यतविहारिणि, पं०व०४ द्वार। सहते, एकाक्येव भवति, दशगुणोपेतस्थाण्डिल एवोच्चारादि, (एतस्याशेषवक्तव्यताऽनु पदमेव 'जिणकप्प' शब्देऽस्मिन्नेव भागे जीर्ण वस्त्राणि च त्यजति। सर्वोपधि विशुद्धा अस्य भिक्षाचार्य 1463 पृष्ठ निरूपिता) तृतीयपौरूष्यां पिण्डैषणोत्तरा, सा पञ्चानामेकतरैव, विहारो जिणकित्ति पुं० (जिनकीर्ति) तपागच्छान्तर्गतसोमसुन्दरगणी न्द्रस्य मासकल्पेन, तस्यामेव वीथ्यां षष्ठदिने भिक्षाऽटनमिति, एवं प्रकारा स्वनामख्याते शिष्ये, ग०३ अधि०। अयं च वैक्रमीये 1464 वर्षे चेयम्- "सुयसंघयण' इत्यादिकाद् (बृहत्कल्प) गाथासमूहात् विद्यमान आसीत्। अनेन चम्पक श्रेष्ठिकथानकं, धन्नशालिभद्रचरित्र, कल्पोक्तादवगन्तव्येति। स्था०३ ठा०४ उ० नमस्कारस्तवटीका, दानकल्पद्रुमः, श्रीपालगोपालकथा चेति ग्रन्था अथ जिनकल्पस्थितिमाह - विरचिताः। जै० इ०। णिजुत्तिमासकप्पे-सु वणित्तो जो गमो उ जिणकप्पे / जिणकिरिपा स्त्री० (जिनक्रिया)जिनप्रणीतायां क्रियायाम्, पं० वा सुयसंघयणादीओ, सो चेव गमो णिरवसेसो // 406 / / चोदक आह-जिनक्रियाया असाध्या नाम न सन्ति?, नियुक्तिः पञ्चकल्पः, तस्या च मासकल्पः, प्रकृते च यो गमो सत्यमित्याहजिनकल्पे जिनकल्पविषयः श्रुतसंहननादिको वर्णितः, स एव गमो जिणकिरियाएँ असज्झा, ण इत्थ लोगम्मि केइ विजंति। निरविशेषोऽवगन्तव्यः। जे तप्पओगऽजोगा, तेऽसज्झा एस परमत्थो 146|| स्थानाशून्यार्थ पुनरिदमुच्यते - जिनानां संबन्धिनी क्रिया तत्प्रणेतृत्वेन जिनक्रिया, तस्या असाध्या गच्छम्मि य णिम्मीता, धीरा जाहे मुणियपरमत्था / अचिकित्स्या, नाम लोक प्राणिलोके, केचन प्राणिनो विद्यन्ते। किं अग्गहजोगअभिग्गहे, उति जिणकप्पियचरित्तं / / 404|| तु-ये तत्प्रयोगायोग्या जिनक्रियाप्रयोगानुचितास्ते असाध्याः यदा गच्छे, प्रवज्या शिष्यपदानुक्रमेण निर्मितां निष्पन्ना, तदा धीरा कर्मव्याधिमाश्रित्य, एष परमार्थः-इदमा हृदयमिति गाथार्थः। पं० औत्पत्तिक्यादिवुद्धिमन्तः, परीषहोपसगैरक्षोभ्या वा, मुणित- व०१द्वार। परमार्थाः- अभ्युद्यतविहारेण विहर्तुमवसरः सांप्रतम-स्माकामित्ये- | जिणकुसलसुरिपुं० (जिनकुशलसुरि) खरतरगच्छीये स्वनामख्याते वमवगातार्थाः, तथा-पिण्डैषणयोरसंसृष्ट संसुष्टाख्ययोरग्रहः, ते आचार्य , "भुवनपदानुक्रमभानुजतिो जिन-कुशलसूरि - कप
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________________ जिणकुसलसूरि 1461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणजक्ख गुरः "अष्ट० 32 अष्ट। अनेन वैक्रमीये 1337 वर्षे जन्म सग्ध्वा 1347 | "तह जिणचंदागमाओव'' जिनचन्द्रागमादर्हद्वचनात्। श्रा०ा भाव०। वर्षे जिनचन्द्रसूरिणमन्तिके प्रव्रज्य 1377 वर्षे सूरिपदं प्राप्य जिणचंदगणिपुं० (जिनचन्द्रगणिन्) उकेशगच्छीये कक्कसूरिशिष्ये, एतमेव चैत्यवन्दनकुलकवृत्तिनामा ग्रन्थो विनिर्मितः तरूणप्रभा चार्याय च देवगुप्तसुरिकुलमण्डनसूरिनाम्यां वदन्ति / वैक्र मीये 1073 सूरिपदं दत्तम्, तथा 1367 वर्षे स्वग्यम् गमत्। जै० इ०) वर्षे ऽयमासीत्। अनेनैव नवपदप्रकरणं, तदुपरि टीका च विरचिता। जिणकेसरिण] पुं० (जिनकेशरिन्) जिनसिंहे, "एको परिभमउ जए, जै० उ०। विअड जिणकेसरी सलीलाए। कंदप्पडुट्ठदाढो, मयणो विड्डारिओ | जिणचंदसुरि पु० (जिनचन्द्रसूरि) खरतरगच्छीये जिनेश्वराचार्यशिष्ये जेण // 3 // '' सूत्र 1 श्रु०६ अ०। स्वनामख्याते आचार्य, पञ्चा० 16 विव० स्था०। "तच्छिष्या जिणक्खाय न० (जिनाख्यात) जिनेन कथिते, जी० 1 प्रतिका / जिनचन्द्राख्याः , सुरयो गुणभूरयः।" अष्ट 32 अष्ट 0 / अनेन "दुवालसंगं जिणक्खाय'' उत्त० 13 अ०। दर्श०। संवेगरङ्गशाला नाम ग्रन्थो विरचितः।" जिनदत्तसुरिसंतानीये जिनमाजिणगुण पुं०(जिनगुण) वीतरागत्वादिके तीर्थकरगुणे, "जिणगुणविसयं णिक्ससुरिशिष्ये स्वनामख्याते आचार्य च, पं० व० 4 द्वार। सद्धम्मवुड्विजणगं, अणुवहासं। जिनगुण विषयं वीतरागत्वादितीर्थकर- "श्रीमजिनचन्द्राहः, सूरिनवार्कदीधितिप्रतापः"। अष्ट०३२ अष्ट०। अयं गुणगोचरम्। पञ्चा०६ विव०। च वैक्रमीये 116 वर्षे जातः 1203 वर्षे दीक्षितः 1211 वर्षे आचार्यपदम्, जिनगुणसमुह पुं० (जिनगुण समुद्र) गुणरत्नाधारभूते जिनरूपे समुद्रे, 1223 वर्षे स्वर्गतिं च लब्धवान्। तृतीयोऽष्वतन्नामा आम्रदेवसुरिगुरूः पञ्चा०। "पूया जिणगुणसमुद्देसु." जिनाश्च ते गुणानां गुणरत्नानामा- नेमिचन्द्रसूरिशिष्यश्चाभवत्। चतुर्थश्च खरतरगच्छीयः जिनप्रबोधधारत्वेन प्राचुर्येण च समुद्रा इव समुद्राइचेति जिनगुणसमुद्रास्तेषु, पञ्चा० सूरिशिष्यः, तस्य वैक्रमीये 1326 वर्षे जन्म, 1332 वर्षे दीक्षा, 1341 4 विवन वर्षे सूरिपदप्राप्तिः। चतुर्ष राजसु जैनधर्ममरोपयत्। अस्मै जिणगोयमसीइआहरण न०(जिनगौतमसिंहाहरण) जिन गौतमसिंह- कलिकालके वलीति। विरूदममिलत् 1376 वर्षे स्वरयमगमत्। दृष्टान्ते, जीवा पञ्चमोऽप्येतन्नामा खरतरगच्छे 1462 वर्षे वर्तमान आसीता यच्छिष्यो निच्छयओ पुण अप्पे, वि जस्स वत्थुम्मि जायए भावो। जिनसा गरनामाऽऽसीत्। जै० इ०॥ तत्तो सो निजरओ, जिणगोयमसीहआहरणं / / जिणचिण्ण त्रि०(जिनचीर्ण) जिनाऽऽचरिते, "अक्खोभो होइ निश्चयतो निश्चयनयात्, पुनरल्पेऽपि हीनेऽपि न केवलं बलिष्टे, जिणचिण्णो 'जिनाः श्रुतावधिमनः पर्यायकेवलज्ञानवन्तो, जिनकल्पिइत्यपिशब्दार्थः। वस्तुनि आचार्यादौ, यस्य भव्यस्य, वस्तुनि उक्तरूपे, काश्च, तैश्चीर्ण आचरितो जिनाचीर्णः। पञ्चा०४ विव०। जायते प्रादुर्भवति, भावः प्रशस्तान्तः करणं, ततः स इति भावानिर्जरकः जिणजक्ख पुं० (जिनयक्ष) तीर्थकृतां भक्तिदक्षे गोमुखादिके यक्षे, प्रव०। कर्महासकारको जिनगौतमसिंह आहरणं दृष्टान्त इति गाथार्थः। जक्खा गोमुह महज-क्ख तिमुह ईसर सुतुंवुरू कुसुमो / भावार्थस्तु कथानकादवसे यः। तच्चेदम् - किल भगवता वीरेण मायंगो विजयाजिय, बंभो मणुओ सुरकुमारो // 375 / / गौतमस्वामी ग्रामं गच्छन एकदा भणितः। गौतम! त्वया हालिको मार्गे छम्मुह पयाल किंनर, गरूडो गंधव्व तह य जक्खिंदो। गच्छताः प्रव्राजनीयः। तथेति प्रतिपद्य प्रणम्य च भवगन्तं गतो गौतमो कूवर वरूणो भिउडी, गोमहो वामण मयंगो // 376 / / ग्रामे, दृष्टश्च गच्छता क्षेत्रानिकटवर्ती हालिकः। ततो गौतमेन भणितम् - यक्षा भक्तिदक्षास्तीर्थकृतामिमे। यथा-प्रथमजिनस्य (ऋषभस्य) किं भोः करोषि?,निजकर्माऽऽवेदितम्। पुनरूवाच सः-सांप्रत यच भणसि गोमुखो यज्ञः सुवर्णवर्णो गजवाहनश्चतुर्भुजो वरदाक्षमालिकायुक्ततदहं भगवन! करोमि। गौतमेनोचे-धर्म कुरूष्वति। तेन च दक्षिणपाणिद्धयो मातुलिङ्ग पाशकान्वित-वामपाणिद्धयश्च / 1 / प्रोत्फुल्लवदनकमलेन न्यगादि-एवमिति। ततः प्रताजितः सः, ततः अजितनाथस्य महायक्षाभिधो यक्षः चतुर्मुखः श्यामवर्णः स्वकार्य विहाय भगवतः संमुखमागच्छतस्तस्य शिक्षा दत्ता-एवं करीन्द्रवाहनोऽष्टपाणि वरदमुद्राराक्षसूत्रापाशकान्वित-दक्षिणपाणि चङ्क्रमितव्यम्, एवंविधचास्मदीयो भगवान् धीरो भवता प्रतिपत्तव्य चतुष्टयो बीजपूरकाभयाडुशशक्तियुक्त-वामपाणिचतुष्टकश्च / / 2 / / श्री इत्यादि। सर्व तेन प्रतिपन्नम्। यावदद्यापि भगवान् नासीद् दृष्टो, दृष्टे च संभवजिनस्य त्रिमुखो नाम यक्षः त्रिवदनः त्रिनेत्रः श्यामवर्णः तस्मिन् रजोहरणं मुक्तवा यद्ययं ते गुरूस्ततो न किञ्चित्तव धर्मेण मयूरवाहनः षड् भुजो नकुल-गदाऽभययुक्तदक्षिणकरकमलत्रायो कार्यमिति भणित्वा च पलायितः। किल तस्य वासुदेवभवकृतपूर्वरोरान मातुलिङ्गच्छागाक्षसूत्र-वामपाणिपद्यायश्च / / 3 / / श्रीअभिनन्दनस्य पितृव्यसुत जीवसिंहपातनरूपान् भगवन्तं पश्यतः कर्मबन्धो, गौतमं च ईश्वरो यक्षः श्यामकान्तिर्गजवाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गाक्षसूत्रयुक्तपश्यतः तदहासः, गौतमश्च भगवदपेक्षया हीनश्छद्यस्थातीर्थ दक्षिण-करक मलद्वयो नकु लागु शान्वितवाम पाणिद्वयश्च।४। दूरत्वादिहेतोः, भगवाँ श्चोत्तमः, तीर्थङ्करत्वादिहेतुभिरेव इति सिद्धम्। श्रीसुमतेस्तुम्वुरूर्यक्षः श्वेतवर्णो गरूडवाहनश्चतुर्भुजो वरदशक्तियुक्तजीवा० 30 अधि० दक्षिणपाणिद्वयो गदानागपाशयुक्तवाम पाणिद्वयश्च / / श्री पद्मप्रभस्य जिणचंद पुं० (जिनचन्द्र) जिनरूपे कारूणिकनिशाकरे, "जिणचंदेहि कुसुमोयक्षो नीलवर्णः कुरङ्गवाहनश्चतुर्भुजः फलाभययुक्तदक्षिणपाणि द्वयो तुट्टदिहाओ' जिनचन्द्रैः कारूणिकनिशाकरैः। प्रश्न०१ सम्ब० द्वार। | नकुलाक्षसूत्रायुक्त वामपाणिद्वयश्च // 6 / / सुपार्श्वस्य मातङ्गे यक्षो नील
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________________ जिणजक्ख 1462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणदास वर्णो गजवाहनश्चतुर्भुजो विल्वपाशयुक्तदक्षिणापाणिगयो नकुलाङ्कश- | दक्षिणभुजो वामकरधृतबीजपूरकश्चेति // 24 // प्रय० 26 द्वार। युक्तवामपाणिद्वयश्च // 7 // श्रीचन्द्रप्रभस्य विजयो यक्षो हरितवर्णः जिणजत्तास्वी०(जिनयात्रा) अर्हदुत्सर्वे रथयात्रायाम, पञ्चा०७ विव०। त्रिलोचनो हंसवाहनो द्विभुजः कृतदक्षिणहस्तचक्रो वामहस्तधृतमुद्रश्च | धग (साच 'अणुजाण' शब्दे प्रथमभागे 367 पृष्ठे वर्णिता) // 8 // श्री सुविधिज्जिनस्याजितो यक्षः श्वेतवर्णः कूर्मवाहनश्चतुर्भुजो जिणणाम(ण) न० (जिननामन्) नामकर्मभेदे, कर्म०३ कर्म०। मातुलिङ्गाक्षसूत्रयुक्त दक्षिण पाणिद्वयो नकुलकुन्तकलितवामपाणि-- जिणदत्त पुं० (जिनदत्त) स्वनामख्याते खरतरगच्छीये जिनवल्लभद्वयश्च / / 6 / / श्री शीतलस्य ब्रह्मा यक्षश्चतुर्मुखस्त्रिनेत्राः सितवर्णः सूरिशिष्ये आचार्ये, "तच्छिष्याभयदेवार्याः, गच्छे खरतरेश्वराः" इति। पद्मासनोऽष्टभुजो मातुलिङ्गुरपाशकाभययुक्तदक्षिणपाणि चतुष्टयोन- तत्पदे जिनवल्लसुरिजिनदत्तसूरयोऽभूव निति च। अष्ट० 32 अष्ट। कुलगदाऽङ्ख-शाक्षसूत्रायुक्तवामपाणिचतुष्टयश्च / / 10 / / श्री श्रेयांशस्य पं०व०। अयं च महाप्रभावक आसीत्, अम्बादेव्या युगप्रधानपदमस्मै मनुजो यक्षः (मतान्तरेण-ईश्वरः) धवलवर्णः त्रिनेत्रो वृषभ- दत्तम्। वैक्रमीये 1132 वर्षेऽयं च जातः, सोमचन्द्र इति गृहिपर्यायेऽस्य वाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गदायुक्तदक्षिणा पाणिद्वयो नकुलकाक्षसूत्रायुक्त- नामाऽऽसीत्, वैक्र मीधे 1141 वर्षेऽयं दीक्षितः, तत्समयेऽस्य वामपाणिद्वयश्च / / 11 // श्रीवासु पूज्यस्य सुरकुमारो यक्षः श्वेतवर्णो प्रबोधचन्द्रगणीति नामा ऽऽसीत्। 1166 वर्षेऽयं चित्रकूट (चित्तोक इति हंसवाहनः चतुर्भुजो बीजपूरक बाणान्वितदक्षिणकरद्वयो नकुलकधनु- प्रसिद्धे) देवभद्राचार्यदत्तं सूरिपदयवाप, संदेहदोलावलीप्रभृतीननेकान् र्युक्तवामपाणि द्वयश्च / 12 / श्रीविमलस्य षण्मुखो यक्षः श्वेतवर्णः ग्रन्थानरचयत्। वैक्रमीये, 1211 वर्षे अजयमेरू (अजमेर) नगरेऽयं शिविवाहनो द्वादशभुजः फलचक्रबाणखड्गपाशाक्षसूत्रायुक्तदक्षिणपाणिष स्वरगमत्। द्वितीयोऽप्येतन्नामा वायडगच्छीयराशिल सूरिशिष्यजीवट्कः नकुलचक्रधनुः फलकाङ्कुशाभययुक्तवामपाणिषट्कश्च / / 13 / / श्री देवसुरेः शिष्यो वैक्रमीये 1265 वर्षे विद्यमान आसीत्, येन विवेकविलास अनन्तस्य पातासो यक्षरित्रमुखो रक्तवर्णो मकरवाहनः षड् भुजः शकुनशास्वादय अनेके ग्रन्था निर्मिताः, परकायप्रवेशविद्यामयमजानत्, पद्यखङ्गपाशयुक्तदक्षिणपाणिनायो नकुल फलकाक्षसूत्रायुक्तवाम- 1277 वर्षे च निर्गत वस्तपालसङ्गेऽप्ययमासीत्, अस्य शिष्योऽमरचन्द्रपाणित्रयश्च।।१४।। श्रीधर्मस्य किंनरो यक्षस्त्रिभुखो रक्तवर्णः कूर्मवाहनः सूरिमहा कविरासीत्। जै०६०। "सयलगुणरयणरोहणगिरीहिँ जिणदत्त षड्भुजो बीजपुरकगदाऽभययुक्त दक्षिणपाणित्रयो नकुलपद्माक्षमाला सूरीहिँ।" सकलगुणरत्नरोहणगिरिभिर्निखिलगुण माणिक्यरोहण युक्तवाम-पाणित्रयश्च // 15 / / श्रीशान्तिनाथस्य गरूडो यक्षो वराहवाहनः शैलेर्जिनदत्तसूरिभिरेत नामकैः सप्तगृहवासिभि रिति यावत्। जीवा० क्रोडवदनः श्यामरूचिश्चतुर्भुजो बीजपुरकपद्या न्वितदक्षिण-करद्वयो 38 अधि०। आव०ा वसन्तपुरस्थे स्वनामख्याते श्रावके, आ० क०। नकुलाक्षसूत्र युक्तवामपाणिद्वयश्च / / 16 / / श्रीकुन्थोर्गन्धर्वयक्षः "बसंतपुरे नगरे जियसत्तू राया, जिणदत्तो सेट्टी'' आव०५ अ० आo श्यामवर्णो हंसवाहनश्चतुर्भुजो वरदपाश कान्वितदक्षिणपाणिन्दयो चू०। (तक्तथा चक्षुरिन्द्रियोदाहरणे'चक्खिंदिय' शब्दे तृतीयभागे 1105 मातुलिङ्गाङ्कुशाधिष्ठितवामकरद्वय श्च॥१७|| श्री अरजिनस्य यक्षेन्द्रो पृष्ठे 'काउस्सग्ग' शब्दे 427 पृष्ठे च प्ररूपिता) संकुलग्रामवास्तव्ये यक्षः षण्मुखस्विनेत्रः श्यामवर्ण शड्खशिखिवाहनो द्वादशभुजो स्वनामख्याते श्रावके, पिं०1 (तत्कथा 'आधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे बीजपूरकवाणखड्गमुद्रपाशकाभययुक्त दक्षिणकरषट्को नकुलधनुः 233 पृष्ठे निरूपिते) श्रावस्तीवास्तव्ये श्रावके, तं०। पाटलिपुत्रनगरस्थे फलकशूला ड् कुशाक्षससूत्रायुक्त वामपाणिषट् कश्च / / 16 / / स्वनामख्याते श्रावके, आ०म०द्वि०। (तत्कथा 'लोभ' शब्दे वक्ष्यते) श्रीमल्लिजिनस्य फूवरां यक्षश्चतुर्मुख इन्द्रायुधषों गजवाहनोऽष्टभुजो वैशाली नगरीवास्तव्ये जीर्ण श्रेष्ठयपरनामधेये स्वनामख्याते श्रावके, वदरपरशुशूलाभययुक्त दक्षिणपाणिचतुष्टयो बीजपूरक शक्ति - ध००। स्वनामख्याते श्राद्धे, यस्य पत्नी ईश्वरी श्राविका / कल्प०८ मुद्राक्षसूायुतवामपाणि चतुष्टयश्च (अन्य कूवरस्थाने कुवेरमाहुः) क्षण। स्वनामख्याते श्रावके, यस्य पत्नी फल्गुश्रीः, "जिणदत्त-मगुसिरी |16|| श्रीमुनिसुव्रतस्य वरूणो यक्ष चतुर्मुखस्त्रिनेत्राः सितवर्णों नाम सावगमिहणं।“ महा०५ अगा। वृषभवाहनो जटासुकुटभूषितोऽष्ट भुजो बीज पूरकगदाबाणशक्तियुक्त | जिणदत्तपुत्त पुं० (जिनदत्तपुत्रा) खम्पानगरीवास्तव्ये सार्थवा हदारके, दक्षिणकरकमल चतुष्को नकुलपद्यधनुः परशुयुतवाम पाणिचतुष्टयश्च / ज्ञा०१ श्रु०३ अ० (एतत् कथा 'अंड' शब्दे प्रथमभागे 51 पृष्ठे द्रष्टव्या) / 20 / श्री नमिजिनस्य भ्रकुटिर्यक्षश्चतुर्मुखानिनेत्राः सुवर्णवर्णो वृषभ जिणदव्वन० (जिनद्रव्य) जिनसंबन्धिनिद्रव्ये, दर्श० 1 तत्वा ('चेइयदव्य' वाहनोऽष्टभुजो बीजपूरक-शक्तिमुद्रराभययुक्त दक्षिणकरचतुष्टयो शब्दे तृतीयभागे 1263 पृष्ठे दृश्या। उदाहरणम् 'देवदव्य' शब्दे वक्ष्यते) नकुलपरशुवज्राक्ष सूत्रायुक्तवामकर चतुष्टयश्च / / 21 / / श्री नेमिजिनस्य जिणदास पुं० (जिनदास) मथुरावास्तव्ये श्रावकविशेषे, यस्य भार्वा गोमेधो यक्षः त्रिमुखः श्यामकान्तिः पुरूषवाहनः षड्भुजो मानुलिङ्क साधुदासी। "सिद्धी जिणदासो तत्थ साहुदासी पिया तस्स।" परशुचक्रान्वितदक्षिणकरत्रयो नकुलशूलशक्तियुक्तवाम-पाणित्रयश्च (2) ध००। (अस्य ‘सुत्तकाल' शब्दे कथा वक्ष्यते) राजगृहनगरस्थे / / 22 / / श्रीपार्श्वजिनस्य वामनो यक्षो (मतान्तरेण पार्श्वनामा) गजमुख ऋषभ-दत्ताऽऽत्मजे श्रेष्ठिनि, "सिद्धी य उसभदत्तां, तस्स सुओ उरगफणामाण्डितशिराः श्यामवर्णः कूर्मवाहनश्चतुर्भुजो बीजपूर | भुवणविस्सुओ पढमो। वीओ उण जिनदासो, आवासो जूयवसणस्स" कोरगयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो नकुलभुजगयुक्तवामपाणि युगश्च / / 23 / / श्री / / 2 / / ध० र० (अस्य कथा 'बालकीला' शब्दे वक्ष्यते) वीरजिनस्य मतङ्गो यक्षः श्यामवर्णो गजवाहनो द्विभुजो नकुलयुत पाटलिपुत्रवास्तव्ये श्रावके, आ० चू०६ अ० मथुरावास्तव्ये श्रावके, SI
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________________ जिणदास 1463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणपडिमा यस्य भार्या जिनदासी। ''जिनदासो, वणिक् तत्रा, श्रावक : परमाऽऽहंतः। जिनदासी प्रिया तस्य, प्रियंकरणदर्शना / / 1 / / " आ०क०। ती०। आ०म०। (तत्कथा 'कबल' शब्दे तृतीयभागे 176 पृष्ठे द्रष्टव्या) राजपुरस्थे श्रावके च। पुं० "रायपुरे नयरे एगो कुलपुत्तगजातीओ, तस्स जिणदासो मित्तो" आव०६ अ०। (अस्य कथा ‘पचक्खाण' शब्दे वक्ष्यते) जिणदासगणिमहत्तर पुं० (जिनदासगणिमहत्तर) निशीथचूणि कारके आचार्य, "गुरूदिएणं व गणित्तं, महत्तरत्तं च तस्स तुट्ठहिं। तेण कएसा चुण्णी, विसेसनामा णिसीहस्स | 1||" नि०चू० 20 उ०। एतेन महात्मना अनुयोगद्वारबृहत्कल्पाऽऽवश्य कादिष्यपि चूर्यो रचिताः। जै० इ०॥ जिणदिट्ठ त्रि० (जिनदृष्ट) तीर्थकराभिमते, अनु०॥ जिणदेव पुं० (जिनदेव) भरूकच्छस्थे आचार्य , "भरूकच्छे जिणदेवो' || आचार्ये जिनदेवोऽभू-दीव भृगुपत्तने।" आ० का (तत्कथा 'पणिहि' शब्दे वक्ष्यते)। द्वारवतीवास्तव्ये अर्हन्मित्राश्रेष्ठिनः पुत्रो, "द्वारवत्या महापुर्या मर्हन्मित्रो वणिग्वरः। अनुद्धरी प्रिया तस्य, जिनदेवस्तु तत्सुतः // 1 // " आ०क०। ('अत्तदोसोवसंहार' शब्दे प्रथमभागे 503 पृष्ठे कथाऽस्य निरूपिता) कौशाम्बीनगरवास्तव्ये क्षेमदेवाऽऽत्मजे स्वनामख्याते श्रावके, ध० 20 / (तत्कथा 'बंभसेण' शब्दे वक्ष्यते) साकेतनगरवास्तव्ये श्रावके, "साएए सत्तुंजयो राया, जिणदेवो सावओ।" आ० च०४ धा (तत्कथा 'पञ्चक्खाण' शब्दे वक्ष्यते) चम्पानगरीवास्तव्ये श्रावके, "नयरी य चंपनामा, जिणदेवो सत्थवाह अहिछत्ता।" आ०चू०४ अ० (तत्कथा 'संगपरिणा' शब्दे वक्ष्यते) जिणदेसिय त्रि० (जिनदेशित) जिनेन कथिते, दर्श० 4 तत्व जिना इह हितप्रवृत्तगोत्रविशुद्धोपायाभिमुखपायाविमुखादवः परिगृहन्ते, तथा मूलटीकाकृता व्याख्यानात्, जिनेभ्यो हितप्रवृत्ताऽऽदिरूपेभ्यः शुश्रूषाऽऽदिभिर्युक्तभावेभ्यो देशितं कथितं गणधरैरपि जिनदेशितम्। तथा जम्बूस्वामिप्रभृतय एवं विधा एवेति निरूपणीयमेतत्। अथ प्रकृतिसुन्दरमिति कस्माद जिनेभ्योऽपि नोपदिश्यते?। उच्यते-तेषां स्वतोऽसुन्दरत्वेन अनर्थोपनिपातसंभवात्। दृष्ट च पात्रसुन्दरतया स्वतः सुन्दरमपि रविकराऽऽधुलूकादीनामनाय। आह - च "पउंजियव्वं धीरेण, हियं जं जस्स सव्वहा। आहारो विहुमच्छस्स, न पसत्थो गले सुची"||१|| जी०१ प्रतिला 'धम्मो य जिणदेसिओ' जिनदेशितः केवलिना भाषितः। तं०। उत्त० जिणधम्म पुं० (जिनधर्म) भरतवर्षस्थपद्मिनीखण्डनगर वास्तव्ये स्वनामख्याते श्रावके, ती० 10 कल्प०। जिनसंबन्धिनि धर्म, "अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाण।" अनुत्तरं धर्म जिनाना मृषभादितीर्थकृता संबन्धिनम्। सूत्रा० 1 श्रु०६अ।धानं० प्रा० / "वत्युपयासणसूरो, अइसयरयण्णाणसायरो जयइ। सटबंजयजीवबंधुरबंधू दुविहो वि जिणधम्मो // 1 // " स्था०५ ठा० 2 उ०। जिणपडिमा स्त्री० (जिनप्रतिमा) जिनबिम्बे, "जिणपडिमादस भेष पडिबुद्ध।" (1 गाथा) दश० 2 चू०। जिनप्रतिमा सद्भावस्थापनरूपति। रा०। दशा जी०। प्रति०। नयो०। षो०। द्वा०। पञ्चा०। ('चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1205 पृष्ठे सर्वा षक्तव्यतोक्ता) भारते वर्षे चतुरशीतिर्जिनप्रतिमाः, ताश्चेमा :'पर्युपास्य परमेष्ठिपञ्चकं, कीर्तयामि, कृतपापनिग्रहम्। तन्त्रवेदिविदितं चतुर्युता शीतितीर्थजिननामससङ्गहम्।।१॥" तथाहि - श्रीशत्रुञ्जये भवनदीपः श्रीवीरस्वामिप्रतिष्ठितः श्रीआदिनाथः। श्रीमूलनायकः पाण्डवस्थापितो नन्दिवर्धनो युगादिनाथः। श्री शान्तिप्रतिष्ठितः पुण्डरीकः श्रीकलशः, द्वितीयस्तु श्रीवीर स्वामिप्रतिष्ठितः पूर्णकलशः। सुधाकुण्डे श्रीजीवितस्वामी श्री शान्तिनाथः मरूदेवास्वामिनीप्रथमसिद्धः। श्रीउज्जयन्ते पुण्य कलशमदनमूर्तिः श्रीनेमिनाथः। काञ्चनबलानके अमृतनिधिः श्रीआरिष्टनेमिः। पापामते अतीतचतुर्विंशतिमध्यात् अष्टौ पुण्यनिधयः श्रीमन्नेमीश्वरादयः। काशहृदे त्रिभुवनमङ्गलकलशः श्रीआदिनाथ / सोपारके जीवन्तस्वामी श्रीऋषभदेवप्रतिमा। नगरमहास्थाने श्रीभरतेश्वरकारितः श्रीयुगादिदेवः। दक्षिणापथे श्रीगोमउदेवः श्री बाहुबलिः। उत्तरापथे कलिङ्ग देशे गोमठः श्री ऋषभः। खड्गारगढे श्रीउग्रसे नपूजितो मेदिनीमुकुटः श्री आदिनारा महानगरामुद्दण्डविहारे श्री आदिनाथः। तक्षशिलायां बाहुबलिविनिर्मितं माणिक्यदेवः श्रीऋषभो मन्दोदरीदेवताऽवसरः। भङ्ग यमुनयोर्वेणीसङ्गे श्री आदिकमण्डलुम। श्रीअयोध्यायां श्रीअजितस्वामी। चन्देर्याम अजितः। तारणे विश्वकोटिशिलायां श्री अजितः। अङ्गदिकायां श्री अजितस्वामिशान्तिदेवताद्वयं श्रीब्रह्मेन्द्रदेवताऽवसरः। श्रावस्त्यां श्री संभवदेवो जागलीविद्याऽधिपतिः। सेगमतीग्राम श्री अभिनन्दनमेवः, नर्मदा तत्पादेभ्यो निर्गता। कौञ्चद्वीपे सिंहलद्वीपे हंसद्वीपे श्रीसुमतिनाथदेवपादुकाः। आम्बुरिग्रामे श्रीमतिदेवः। माहेन्द्रपर्वते कौशाम्ब्यां च श्री पद्मप्रभः। मथुरायां महालक्ष्मीनिर्मितः श्रीसुपार्श्वस्तूपः। श्री दशपुरनगरे श्रीसुपाचे सीतादेवीदेवताऽवसरः। प्रभासे शशिभूषणः श्रीचन्द्रप्रभश्चन्द्र कान्तमणिमयः श्रीज्वालामालिनीदेवताऽवसरः। श्री गौतमस्वामि प्रतिष्ठितो बलभ्यागतः श्रीनन्दिवर्धनकारितः श्रीचन्द्रप्रभः। नासिक्यपुरे श्रीजीवितस्वामी त्रिभुवनतिलकः श्रीचन्द्रप्रभः। चन्द्रावत्यां मन्दिरमुकुटः श्रीचन्द्रप्रभः। वाराणस्यां विश्वेश्वरमध्ये श्रीचन्द्रप्रभः। कोयाद्वारे श्रीसुविधिनाथः। प्रयागतीर्थे श्रीशीतलनाथः। विन्ध्याद्रौ, मल यगिरौ च श्रीश्रेयास। चम्पायां विश्वतिलकः श्रीवासुपूज्यः। काम्पिल्ये गङ्गामूले, सिंहपुरे च श्रीविमलनाथः। मथुरायां यमुनापुरे समुद्रदेवः। समुद्रे द्वारवत्यां शाकपाणिमध्ये श्री अनन्तः। अयोध्यासमीपे रत्नावाहपुरे नागमहितः श्रीधर्मनाथ। किष्किन्धायां लङ्कायां त्रिकूटगिरौ श्रीशान्तिनाथः। गङ्गायमुनयोर्वेणीसङ्गमेश्रीकुन्थ्वरनाथौ। श्रीपर्वते मल्लिनाथः। भृगुपत्तनेऽनयरत्नचूडः श्रीमुनिसुव्रतः। प्रतिष्ठानपुरे अयोध्यायां विन्ध्याचले माणिक्यदण्ड के मुनिसुव्रतः। अयोध्यायां मोक्षतीर्थ नमिः। शौर्यपुरे शङ्ख जिनालये पाटलिनगरे मथुरायां द्वारकायां सिंहपुरे स्तम्भतीर्थे पातालगङ्गा ऽभिधः श्रीनेमिनाथः। अजागृहे नवनिधिः श्रीपार्श्वनाथः। स्तम्भन के भवभयहरः। फलवद्धि कायां विश्वकल्पलताऽभिधः। करहेटके उपसर्गहरः। अहिच्छत्रायां त्रिभुवनभानुः। कलिकुण्डे, नागदे च श्रीपार्श्वनाथ। कुक्कटुटेश्वरे विश्वगजः। माहेन्द्रपर्वते छायापार्श्वनाथः।ौकारपर्वते सहस्रफणी
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________________ जिणपडिमा 1464 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणपालिय पार्श्वनाथः। वाराणस्यां दण्डखाते भव्यपुष्कराऽभ्यवर्तकः। प्रसङ्गतोऽभिहिता अर्हद्ववचन-त्वात्प्रवचनस्या आह च - "सुयमिह महाकालान्तरे पातालचक्रवर्ती। मथुरायां कल्पद्रुमः। चम्पायमशोकः। जिण्णप्पवयणं, तस्सुप्पत्ती पसंगतोऽभिहिया 'इति / / 1350 / / मलयगिरौ श्रीपार्श्वः। श्रीपर्वतं घण्टाकर्णो महावीरः। विन्ध्याद्रौ आ०म०प्र०। श्रीगुप्तः। हिमाचले ठायापार्श्वः मन्त्राधिराजः श्रीस्फुलिङ्ग। श्रीपुरं जिणपसत्य त्रि० (जिनप्रशस्त) जिनभाषिते, "बहुसु ठाणेसु अन्तरिक्षः श्रीपार्श्वनाथः। डाकिनीभीमेश्वरे श्रीपार्श्वनाथः। जिणपसत्थेसु जिनप्रशस्तेषु जिनभाषितेषु। प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। भायलस्वामिगढे देवाधिदेवः। श्रीरामशयने प्रद्योतकरिश्रीवर्द्धमानः। जिनाना दोषशुद्धोपायभिमुखापाश्रविमुखहित प्रवृत्तादिभेदानां मोटेरे चायडे नाणके पल्ल्यां मेत्तुण्डके मुण्डस्थलं श्रीमालपत्तने प्रशस्तं निरूपमं पथ्यान्नवत् उचितसेवनया हितं जिनप्रशस्तम्। उपकेशपुरे कुण्डआमे सत्पुरे डङ्कायां गड़ाहदे सरःस्थाने वीतभये जिनहिते चा जी०१ प्रतिका चम्पायाम् अपापायां पुजपर्वते नन्दिवर्द्धनकोटिभूमौ वीरः। वैभाराद्धौ | जिणपाडिहेरय न०(जिनप्रातिहार्य) अतिशयपरमपूज्यत्व ख्यापकाराजगृहे कैलाशे श्रीरोहिणाद्रौ श्रीमहावीरः। अष्टापदे चतुविंशति- | लङ्कारविशेषे, दर्शन स्तीर्थकराः। सम्मेतशैलं विंशतिर्जिनाः। हेमसरावरे द्वासप्ततिजि तानि चनालयाः कोटिसिद्ध-शिलासिद्धिक्षेत्रम्। कंकेल्लि कुसुमबुट्ठी, दिव्वज्झुणि-चामराऽऽमणाई च / "इति जैनप्रसिद्धानां, तीर्थाना वामपद्धतेः। भाबलय-भेरि-छत्तं, जयंति जिणपाडिहेराइं 1el सन्देहोऽयं स्फुटीयक्र, श्रीजिनप्रभसूरिणा" // 1 // ती० 45 कल्प। जयन्ति शेषाऽऽप्तमहिमानमधः कुर्वते, कानि? कड्केल्लि प्रभृतीनि जिणपण्णत्त त्रि० (जिनप्रज्ञप्त) तीर्थकरप्रणीते, "जिणपण्णत्त जिनप्रातिहार्यणीति संबन्धः। तत्रा कङ्केल्लिर्दिनकर करप्रसरावारलिंगं / " पं० ब० 1 द्वारा जी०। जिनैहिंताऽऽप्तयनिवर्तकयोगिनिः कोऽशोकवृक्षः। एतन्मानं च- "बत्तीसं धणुहाई, चेइयरूक्खो उ प्रज्ञप्तं तदन्यसत्वानुग्रहाय सूत्रात् आचाराऽऽद्यङ्गोपाङ्गादिभदेन, रचित वद्धमाणस्सा सेसाणं तु जिणाणं, ससरीरा थारस गुणाओ"|१||१।। जिनप्रज्ञाप्तम्। उक्तं च - "अत्थं भासइ अरिहा, सुत्तं गंथिति गणहरा कुसुमवृष्टिः-सुरकरविमुक्ताधः स्थितवृन्तजानुदध्नपञ्चवर्णणिउणं। सासणस्स हियट्ठाए, तभी सुत्तं पवत्तइ / / 1 / / " ति। जी०१ सुगन्धिपुष्पवर्षम् 21 दिव्यध्वनिः- सुरनरतिर्यग्जन्तुजातस्वस्वप्रतिका भाषापरिणामरणीयः संख्याऽतीतपरिषत्प्राणियुगपदनेकसंशयपजिणपरियाय पुं० (जिनपर्याय) के वलिपर्याये, भ०२० श० हारचतुरः क्षीरेक्षुद्रा क्षाद्य धिकतरमाधुर्यवानायोजनगामी देशनानि 8 उ०। (तत्स्वरूपं 'केवलि' शब्दे तृतीयभागे 652 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) नादः 3 / चामरे त्रिभुवनैश्वर्यसंसूत्राके शरचन्द्रमरीचिनिचयगौरे जिणपवयण न०(जिनप्रवचन) जैनाऽऽगमे, (आ०म०) प्रकीर्णके / आसनममेयमहिमाऽऽविर्भावकं, समुच्छलत्पञ्चवर्णसांप्रतमपि च केयं जिनप्रवचनोत्पत्तिः? कियदभिधानं चेदं मणिकिरण कदम्बक कर्बुरितदिगन्तरं सिंहासनम् 5 / भावलयं-- जिनप्रवचनं? को वाऽस्याभिधानाविभागः? इत्येतत् प्रासङ्गिकशेष निर्जितमार्तण्डकएडलं मौलिपृष्ठप्रतिष्ठितं प्रभाजालम् 6 / भेरीशेषद्वारसंग्रहं चाभिधित्सुराह - पुरतोव्योम्नि शब्दायमानः प्रतिरवभरितभुवनोदरो दुन्दुभिः 7 / जिणपवयणउप्पत्ती, पवयणएगट्ठिया विभागो या छत्रम्-एकदेशं समुदायोपचाराजगतायैकप्रभुत्वाविर्भावनच - तुरं दारविही य नयविही, वक्खाणविही अणूओगा // 1350 / / पार्वणचन्द्रमण्डलनिभाऽऽतपत्रात्रायम् / इह कङ्केल्लिरित्यत्रा इह जिनप्रवचनोत्पत्तिः प्रवचनैकार्थिकानि, एकार्थिकविभाग- प्राकृतवशद्विभक्तिलोपः। भावलयभेरीछामित्या समाहार-द्वन्द्वः। श्वेतित्रितयमपि प्रसङ्ग शेष, द्वाराण्युद्देशनिर्देशादीनि, तेषां विधिः शेष सुगमम् समस्ता समस्तनिर्देशश्च बन्धानुलोम्यात्, एवमन्यत्रापि प्ररूपणं द्वारविधिः। अयमुपोद्धातोऽभिधीयते। नयविधिस्तूपक्रमादीनां यथासंभवमूह्यम्। अतिशयान्तर्गतत्वेऽपि चामीषां पृथगुपादानम्, सूत्रानुयोग द्वाराणां चतुर्थमनुयोगद्वारम्। तथा व्याख्यावस्य प्रातिहार्येऽपि व्यपदेशान्तरेणाऽऽगमे रूढत्वा-दिति गाथार्थः ||8|| विधियाख्यानविधिः- शिष्याऽऽवार्यपरीक्षाऽभिधानम्। अनुयोगः दर्श०१ तत्व। सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः, सूत्रानुगमश्चेति समुदायार्थः। आह च - जिणपालिय पुं० (जिनपालित) चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते चतुर्थमनुयोगद्वारं नयविधिमभिधाय पुनस्तृतीयानु योगद्वाराख्या- माकन्दिसार्थवाहपुत्रो, ज्ञा०ा तत्कथा - नुगमाभिधानं किमर्थम्?। उच्यते-नयानुगमयोः सहचरभावप्रदर्श- नवमस्स णं भंते! णायज्झयणस्स समणे णं मगवया नार्थम्। तथाहि-नयानुगमौ प्रतिसूत्रां युगपदनुधावतः, नयमतशून्य- महावीरेणं० जाव संपत्तेणं के अटे पणत्ते? एवं खलु जम्बू! तेणं स्यानुगमस्याभावात्। यदि युगपन्न यानुगमौ गच्छतः, तहह्येतदुपन्या- कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। तीसे णं चंपाए सोऽपि युगपदेवास्तु, किमर्थमनुयोगद्वारचतुष्ट-योपन्यासे नयानामन्ते णयरीए कूणिए णामं राया होत्था। तत्थ णं चंपाए णयरीए वहिया उपन्यासः? उच्यते-युग-पद्वक्तुमशक्यत्वात्। आह च मूझटीकाकृत- उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए एत्थ णं पुण्णभद्दे णामं चेइए होत्था। अनुयोग-द्वारचतुष्टद्योपन्यासे तु नयानामन्तेऽभिधानं युगपद्धतुम- तत्थ णं मायंदी णामं मत्थवाहे परिवसति अड्डे / तस्स णं भहा शक्पत्वादिति। अपरस्त्वाह - चतुरनुयोगद्वाराऽऽत्मकं शास्त्र, णामं भारिया। तीसे णं भद्दाए भारियाए अत्तया दुवे सत्यवाहदाततश्चतुरनुयोगद्वारातिरिक्तस्य व्याख्यानाव विधे रूपन्यासो रया होत्था / तं जहा-जिणपालिए य, जिणरक्खिए या तए णं निरर्थकः। तदयुक्तम्। अनुगमाङ्गतया निरर्थकत्वायोगात्। अनुगमाङ्गता तेसिं मागंदियदारगाणं अण्णया कदाई एगओ सहिंयाणं इमेया च व्याख्याऽत्वादिति तत्र जिनप्रवचनोत्पत्तिर्निमर्युक्तिसमुत्थान | रूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था / एवं खलु अम्हे ल
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________________ जिणपालिय 1465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणपालिय बणसमुद्द पोयवहणेणं एक्कारस वाराओ ओगाढा, सव्वत्थ विय णं लद्धा कयकजा अणहस्स मग्गा पुणरवि निययघरं हव्व मागया, तं सेयं खल अम्हं दे देवाणुप्पिया! दुवालसमं पि लवणसमुद्द पोयवहणेण उग्गहित्तए त्ति बहु अण्णमण्णस्स एयमढे | पडिसुणति। पडि सुणे तित्ता जेणव अम्मापियरो तेणे व उवागच्छंति। उवागच्छंतित्ता एवं बयामी-एवं खलु अम्हे अन्मय ओ! एक्कारस वारा तं चेव० जाव निययघरं हव्वमागया, तं इच्छामो णं अम्मयाओ! तुमहिं अब्भणुण्णाया समाणा दवाउसं लवणसमुहं पोयवहणेणं ओगाहित्तए। तते णं ते मागंदियदारए अम्मापिअरो एवं बयासी-इमेभो जाया! अजगपज्जग० जाव परिआएत्तए, त अणुहोइ ताव जाया! विउलं माणुस्सए इड्डीसक्कारसमुदए, किं भासपच्चवाएणं णिरालंक्खे णं लवणसमुद्दोत्तारेणं, एवं खलु पुत्ता! दु०००लसम्मी जत्ता सोवसग्गा यावि भवति, तम्हा णं तुन्भे दुवे पुत्ता दुवालसम्मि लवणसमुदं० जाय उग्माहेह मा हु तुम सरीरस्स वायत्ती भविस्सा तते णं मागंदियढारमा अम्मापिअरो दोच्चं पितचं पि एवं दयामी-एवं खलु अम्हे अम्मताओ! एक्कारन चारा लवण समुहं० जाव ओगाहित्तए। तते ण ते मागंदियदारए अम्मापिअरो जाहे वो संचाएति बहुहिं आघवणाहि य पण्णवणाहिय आघवित्तए वा, पण्णवित्तए वा, ताहे अकामयाए चेव एयमढे अणुजाणित्ता, तते णं ते मागंदियदारया अम्मापिउहिं अब्भणुण्णाता समाणा गणिमं च धरियं च मेजं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहण्णगस्स० जाव लवणसमुदं च बहूहिं जोयण मयाई ओगाढा। तते णं तेसिं मागंदियदारगाणं अणेगतिं जोयणसयाति ओगाढाणं समणाणं उप्पतियसयाई अणेगाई प्राउन्भूयाईतं जहा-अकाले गज्जियं, अकाले विजुयं, जाव थणियसद्द कालियवाए० जाव तत्थ सगुत्थिए। तते णं सा णावा तणं कालियवातेणं आहुणिज्जमाणी आहुणिजमाणी, संचालिज्जमाणी संचालिज्जमाणी, संखेभिजमाणी संखो भिज्जमाणी, सलिलतिक्खवेगेहिं अणिायट्टिजमाणी अणियट्टिजमाणी, काट्टिमकरतलाहए विव तें दुसए तत्थेव उवयमाणी। उवयमाणी उप्पयमाणी विव धरणि तलाओ सिद्धविजाहरकण्णगा उप्पयमाणी विवगगणतलाओ भट्ठविजाहरकण्णगा विप्पलायमाणी विव महाजणरसिरसद्दवित्था ठाणभट्ठा आसिकिसोरी णिगुंजमाणी विव गुरूजणदिट्ठावरोहसजणकुलकन्नगा घुम्ममाणी विव वीची पहाररयसयतालिया गलियलंरणा विव गगणतलातो रोयमाणी विव सलिलगंठि- | विप्पइरयाणघोरंसुपाएहिं णवबहू उवरयभत्तया बिलवमाणी विवपरचक्कारायामिरोहिया परममहाभया भिड्या महापुरबरीज्झायमाणी विव कवडच्छोमणपओगजुत्ता जोगपरिव्वाइया णी संसमाणी विव महाकंतारविणिग्गयपरिसंता पारेणयवया अम्मया सोयमाणी विव तवचरणक्खीणपरिभोगा वक्ष्णकालदेववरबहुसंचुण्णिपयकट्ठकुवरा भग्गमे ढिमोडिय सहस्समाला सलाइयवंकपरिमामा फलहंतरडतडिंतफुटुंत संधिक्षिमलंतलोहकीलिया सव्वंगवियंभिया परिसडियरज्जुविसरंत सव्वगत्ता आममल्लगभूया अकयपुण्ण जणमणोरहो विव चिंतिजमाणी गुरूई हाहाकयक ण्णधारणाविय बाणियगजणकम्मकारविलवीणा णाणाविहरयणपण्णसंपुण्णा बहुहिं पुरिरासएहिं रोयमाणेहिँ कंदमाणेहिं सोयमाणेहिँ तिप्पमाणेहिँ विलवमाणेहिं एग महं अंतो जलगयं गिरिसिहरमासाय इत्ता संभग्गकूवतोरणा मोडियज्झयदंडा बलयसयखंडिया करकरस्स तत्थेव विद्दवं उवगता। तते णं ताए णावाएभिज्ज माणीए एते बहवे पुरिसा विपुलपणियभंडमायाए अंतोजलम्मि निजामिया वि होत्था। तए णं ते मागंदियढारया ढेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउण सिप्पोवगया बहुसं पोयवहणसंपराएसु कयकरणालद्धा विजया अमूहा अमढहत्था एगं महं फलगखंडं आसाएति। जेसिं च णं पदेसंसि से पोयवहणे विवण्णे, तेसिं च णं पदेसंसि एगे महं रयणदीवे णामंदीवे होत्था। अणेगाइं जोअणाइं आयामविक्खं मेणं अणेगाइं जोयणाई परिक्खेवेणं नाणादुमसंडमंडिओ देसे सस्सिरीए पासादीए दरिसणिजे अमिरूवे पडिरूवे, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे पासायवडिंसए यावि होत्था, अन्भुग्गयमूसिए० जाव सस्सिरीए रूवे पारादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। तत्थणं पासायवडिंसए रयणदीवदेवया णामं देवया परिवसति, पावा चंडा रूद्दा खुद्दा साहसिया। वस्स णं पासायवडिंसयस्स चत्तारि चउदिसिंबणसंडा पण्णत्ता-किण्हा किण्हाभासा। तते णं ते मागंदियदारया तेणं फलयखंभेणं उवज्झमाणा उवजमाणा रयणदीवे तेणं संछूढा यावि होत्था। तते णं ते मागंदियदारया थाई लहंति, लइइत्ता मुहुत्तंतरं आसासंति, फलगखंडं विसज्जे ति, विसजेतित्तारयणदीवं उत्तरेंति, उत्तरेनित्ता फलाणं मग्गणगवेसणं करेंति, फलाणि आहारेंति, आहारैतित्ता णालिएराणं मग्गणगवेसणं करेंति, करेंतित्ता नालिएरातिं फोडंति, नालिएरस्स तिल्लेणं अण्णमण्णस्स गत्ताई अब्भंगें ति, पोक्खरिणिं ओगाहेंति, ओगाहेंतित्ता जलमजणं करेंति, करेंतित्ता० जाव पचुत्तरंति, पुढविसिलापट्टयंसि णिसीयंति, णिसीयंतित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया चंपाणयरं अम्मापिउणं आपु
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________________ जिणपालिय 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणपालिय च्छणं च लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमुत्थणं च पोयवहणविवत्तिं च फलहखंडस्स आसायणं च रयणदीवुत्तारं च अणुचिंतेमाणा अणुचिंतेमाणा ओहयमणसंकप्पा० जाव ज्झियायंति। तते णं सा रयणदीवदेवया तं मागंदियदारगं ओहिणा आमोएइ, आभोएइत्ता असिफलगवग्गहत्था सण्णद्धबद्धा सत्तद्वत्तालप्पमाणं उड्ड वेहासं उप्पयइ, उप्पयइत्ता ताए उक्किट्ठाए० जाव देवगतीए बीईवयमाणी वीईवयमाणी जेणेव / मागंदियदारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता आसुरूत्ता ते | मागंदियदारए खरफरूस-निद्रवयणेहिं एवं वयासी-हं भो मागंदियदारया! जति णं तुन्भे मए सद्धिं विउलाइं लोगभोगतिं भुंजमाणा विहरइ, तो भे अत्थि जीविअं, अह णं तुब्भे मए सद्धिं विउलातिं नो विहरइ, तो भे इमेणं नीलुप्पलगक्लगुलिय० जाव खरधारेणं असिणा रत्तमंडमंसुयाइंमाउयाइंउवसोभियाई ताल-फलाणीव सीसाति रगते पाडेमि। तते णं ते मागंदियदारया रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म भीया संजायभया करयल० जाव एवं वयासी जणं देवाणुप्पिया! वइस्सति तस्स आणाउववायवयणनिद्दे से चिद्धिस्सामो! तए णं सा रयणदीवदेवया ते मादियदारए गेण्हति, गेण्हतित्ता जेणेव पासायवडिंसएतेणेव उवागच्छति, उवागच्छति असुभपोग्गला बहारं करेति, सुभपोग्गलपक्खेवं करेति, ततो पच्छा तेहिं सद्धिं विउलातिं भोगभोगांति भुंजमाणी विहरति, कल्लाकल्लिं च अमयफलाई उवणे ति। तए णं सा रयणदीवदेवया सक्कवयण संदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिबइणा लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टियव्वेइ, जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा / कयत्तुरं वा असुइं पूइयं दुरभिगंधिमचोक्खं तं सव्वं आहुणीय तिसत्तखुत्तो एगंते पाडेयव्वं ति कट्ट निउत्ता। तते णं सा रयण दीवदेवया ते मागं दियदारए एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सक्कवयणेणं सुट्ठिय तं चेव जाव णिउत्ता तं० जाव अहं देवाणुप्पिया! लवणसमुद्दे जाव पाडे मि, ताव तुब्मे इहेव पासायवडिंसए सुहं सुहेणं अभिरममाणा चिट्ठइ। जइ णं तुब्भे एयंसि अंतरंसि उव्विग्गा वा उस्सया वा उप्पया वा भवेज्जाह, ताणं तुब्भे पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह। तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा। तं जहा-पाउसे य, वासारत्ते या तत्थ | कंदलसिलिंधदंतो णि उरंबपुप्फपीवरकरो कुडयजुणणी व सुरभिदाणो पाउसउऊ गयवरो साहीणो?। तत्थ य सुरगोपमणि विचित्ते दमुरकुलरसियउज्झरखो वरहिणविंदपरिणद्ध- | सिहरो वासारत्त उऊ पव्वओ साहीणो 21 तत्थ णं तुब्भे ) देवाणुप्पिया! बहुसु वावीसु य० जाव सरपंतियासु य बहुसु आलियधरएसु य० जाव कुसुमघरएसु य सुहं सुहेणं अभिरममाणा अभिरममाणा विहरेज्जाह / जइ णं तुब्भे तत्थ उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेजाइ, ता णं तुब्भे उत्तरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह। तत्थ णं दो उऊ साहीणा। तं जहा-सरदो य, हे मंतो या तत्थ उसणसत्तवण्णक उहो नीलुप्पलपउमन लिनसिंगो सारसचक्क दायरसियघोसो सरतो गोवई सया साहीणो?। तत्थ य सियकुंदधवलजोणहो कुसुमिसलोद्धवण संडमंडलतत्तो तुसारदगधारपीवरकरो हेमंनउऊ ससी सया साहीणो / तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! वावीसु य विहरेजाहा जइणं तुब्भे तत्थ वि उव्विग्गा वा० जाव उस्सुया वा भवेज्जाह, ताणं तुब्भे अवरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह! तत्थ णं दो उऊ साहीणा। तं जहा-वसंते य, गिम्हे या तत्थ य सहकारचारूहारो किंसुयक णियारासोमउडो ऊसियतिलगवउलालावतो वसंतउऊ नरवति साहीणो?। तत्थ य पाडलसिरीससलिलो मल्लिया वासंतिय धवलवे लो सीयलसुरभिअणिलमयर-चरियगिम्हउऊ सागरो साहीणो / तत्थ णं बहुसु० जाव विहरेज्जाह। जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया! तत्थ वि उव्विग्गा उस्सुया भवेज्जाह, तओ तुम्हे जेणेव पासायवडिंसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, ममं पडिवाले माणा चिट्ठज्जाह, मा णं तुब्भ देवाणुप्पिया! दक्खिणिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह। तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे महाघोरविसे महाविसे अइकाए महाकाए मसिमहिसमूसाकालए नयणाविसरोसपुण्णे अंजणपुंजणियरप्प गासे रत्तच्छे जमलजुयल चंचलचलंतजीहे धरणियलवेणिभूए उक्कडफुडकुमिल-जडुलकक्खडवियडफुहाडोवकरणदक्खे लोहागारधम्ममाणधमधमंतघोसे अणागलियचंडतिच्चरोसे समुहतुरियच-बलं धमंते दिट्ठीविसे सप्पे परिवसति। मा णं तुब्भे सरीरगस्स वावत्ती भविस्सति। ते मागंदियदारए दोचं पितचं पि एवं वयति। वयइत्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणति, ताए उक्किट्ठाए० जाव लवणसमुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टे पयत्ता यावि होत्था। तएणं ते मागंदियदारया तओ मुहुत्तत्तरस्सपासायवडिंसए सई वा रतिं वा धिइं वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवया अम्हे एवं वयासी एवं खलु अहं सक्कवयणसंदेसणं सुट्ठिएण लवणा हिवइण० जाव वावभी भविस्सति, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गमित्तए अण्णमण्णस्स पडिसुणेति, जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छदा उवागच्छतित्ता तत्थ णं वा
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________________ जिणपालिय 1467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणपालिय वीसु य० जाव आलिघरएसु य० जाव विहरति। तते णंते मागं दियदारगा तत्थ विसई वा० जाव अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेवउवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता तत्थ णं वावीसु य० जाव आलिघरएसु य० जाव निहरंतिश् तते णं ते मांगदियदारया तत्थ णं विसई वा० जाव जेणेव पच्चच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता० जाव विहरंति। तते णं ते मागंदियदारगा तत्थ विसतिं वा० जाव अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु अम्हे देवाणु प्पिया! रयणदीवदेवया सक्कवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा० जाव मा णं तुज्झे सरीरस्स वावत्ती भविस्सति, तं भवियव्यं। एत्थकारणेणं तंसेयं खलु अम्हं दक्खिणिल्लं बणसंडं गमित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसुणे ति, जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेव पहारेत्थगमणाए तओ णं गंधे णिज्जाए से जहाणा मए अहिमडेति वा० जाव अणिट्टतराए। तते णं ते मागंदियदारया तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहिं सएहिं उत्तरिज्जेहिं आसातिएहिं पीहें ति। पीहेंतित्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे ते णे व उवागया। तत्थ णं महं एग आघतणं पासंति अठियरासिसयसं कुलं भीमदरिसणिज्जं, एगं च णं तत्थ सूलाइयं पुरिसं कलुणाति कट्ठातिं विस्सरातिं कुव्वमाणं पासंति! पासंतित्ता भीया० जाव संजातभया जेणेव से सूलाइए पुरूसे तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छंतित्ता तं मूलाइतं पुरिसं एवं बयासी-एसणं देवाणुप्पिया! कस्साघयणे, तुमं च णं किं कओ वा इह हव्वमागते? केण वाइमेयारूवे आवई पातिए? तते णं से सूलाइते पुरिसे मागं दियदारए एवं बयासी-एस णं देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवयाआघयणे, अहं णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवातो दीवातो भारहाओ वासाओ काकंदिअए लवणसमुई उवागओ। तते णं अहं पोयवहणविवत्तीए निच्छूढभंडसारे एगं फलगखंड आसाएमि। तते णं अहं उवुज्झमाणा उयुज्झमाणा रयणदीवं तेणं संबूढो। तते णं सा रयणदीवदेवया ममं ओहिणा पासति। पासतित्ता ममं गेण्हति, मए सद्धिं विउलातिं भोगभोगाई भुंजमाणी विहरति। तते णं सा रयणदीवदेवया अण्णया कयाई अहालहुगंसि अवराहसि परिकुविया समाणी ममं एयारूवं आवई पावेति। तते णजति णं देवाणुप्पिया! तुज्झं पि इमेसिं सरीरगाणं कामण्णे आवती य भविस्सति! तते णं ते मागंदियदारगा तस्स सूलाइयगस्स पुरिसस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म वलियतरं भीया० जाव संजातभया मूलाइतं पुरिसं एवं वगासी-कहं णं देवाणुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थि नित्थ रेजामो? तते णं से सूलाइए पुरिसे ते मागं दिअदारए एवं बयासी-एसणं देवाणुप्पिया! पुरच्छि मिल्ले वणसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए णाम आसरूवधारी जक्खे परिवसति / तते णं से सेलए जक्खे चाउद्दसट्टमुद्दिट्ठपुण्णमा सिणीसु आगयसमए पत्तसमए महया महया सद्देणं एवं वयासीकंतारयामि? कं पालयामि? तं गच्छ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं जेणेव सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फचणियं करेह, जक्खपायवडिया पंजलिउडा विणएणं पज्जुवासमाणा चिट्ठइ / जाहे णं से सेलए जक्खे आगयसमए पत्तसमए एवं वओज्जा-कं तारयामि? कं पालयामि? ताहे तुज्झे वदह-अम्हे तारयाहि, अम्हे पालयाहि, सेलए जक्खे परं रयणदीवदेचयाओ हत्थाओ साहत्थि णित्थारेज्जा, अण्णहा भे ण याणामि इमेसिं सरीरगाणं का मण्णे आवई भवस्सिइ? तए णं ते मागंदियदारया तस्स सुलाइअस्स पुरिसस्स अंतिए एयमढें सोचा णिसम्म सिग्घं चंडं चवलं तुरियं चेइयं जेणे व पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जेणेव पोखरिणी तेणेव उवागच्छद। उवागच्छइत्ता पोक्खरिणिं ओगाहेइ! ओगाहेइत्ता जलमज्जणं करेइ। करेइत्ता जाइं तत्थ उप्पलाइं० जाव गिण्हंति। गिण्हंतित्ता जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छद। उवागच्छइत्ता आलोइए पणामं करिति, महरिहं पुप्फच्चणियं करिंति, जाणुपायवडिया सुस्सुसमाणा णमंसमाणा० जाव पज्जुवासंति। तए णं सेलए जक्खे आगयसमए पत्तसमए एवं बयासी-कं तारयामि? कं पालयामि? तए णं ते मागंदियदारया उठाए उठेइ, करयल०जाव कट्ट एवं वयासी-अम्हे तारयाहि, अम्हे पालयाहि। तए णं से सेलए जक्खे तं मागंदियदारयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुम्मे मए सद्धिं लवणसमुद्ध मझं मज्झेणं वीईवयमाणाणं सा रणदीवदेवया पावा चंडा रूद्दा खुद्दा साहसिया बहुहिं खरएहिं य मउएहि य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गं करोहिंति। तंजइणं तुब्भे देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवयाए एयमटुं आढाइ वा, परियाणह वा, अवक्खएह वा, तो भे अहं पिट्ठाओ विहुणामि, अहणं तुन्भे रयणदीवदेवयाए एयमढें णो आढाह, णो पारजाणह, णो अवयक्खइ, तो भे रयण दीवदेवयाहत्थातो साहत्थिं णित्थारेमि। तते णं ते मागंदियदारगा सेलगं जक्खं एवं वयासी-जं णं देवाणुप्पिया! वइस्संति तस्स णं उवायवयणणिहेसे चिहिस्सामो / तते णं सेलगे जक्खे उत्तरपुरच्छिम दिसि भागं अवक्कमइ / अवक्कमइत्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समो
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________________ जिणपालिय 1468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणपालिय हणइ। समोइणइत्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निस्सरइ, दो चं तुब्भेहिं देवाणुप्पिया! मए सद्धिं हसियाणि य रसियाणि य पि तचं पि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणहा समोहणइत्ता एगं महं। ललियाणि य कीलियाणिय हिंडियाणि य मोहियाणि यताहे णं आसरूवं विउव्वइ। विउव्वइत्ता ते मागंदियदारए एवं बयासी- तुब्भे सव्वाति अगणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएण य सद्धिं इंभो मागंदिया! आरूइणं देवाणुप्पिया! मम पिट्टिसि। तते णं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं वीतीवयहा ततेणं सारयणदीव दीवया ते मागंदियदारया हठतुट्ठा सेलगस्स जक्खस्स पणामं करे।। जिणरक्खियस्स मणं ओहिणा आभोएति, आभोइत्ता एवं करेइत्ता सेलगस्स पिढेि दुरूढा / तए णं से सेलए जक्खे ते बयासी-निचं पि य णं अहं जिनपालियस्स अणिट्ठा, णिचं मम मागंदियदारए दुरूडे जाणित्ता सत्तट्ठतालप्पमाणमेत्ता उर्ल्ड वेहासं जिणपालिए अणिटे, णिचं पि यणं मम जिणरक्खिए इटे, णिचं उप्पयति। उप्पयइत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए दिव्वयाए दिव्वगइए पि य णं अहं जिणरक्खियस्स इट्ठा, णिचं पि य णं ममं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे जिणरक्खिए इटे। जइणं ममं जिणपालिए रोयमाणी कंदमाणी वासे जेणेव चंपा णयरी, तेणेव पहारेत्थगमणाए। तते णं सा | सोयमाणी विलवमाणी० जाव णाक्यक्खति, किं णं तुम पि रयणदीवदेवया लवणसमुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टतिा जंतत्थ जिणरक्खिया ममं रोयमणिं० जाव णावयक्खसि। तते णं सा तणं वा पत्तं वा० जाव एगंते पाडेति, जेणेव पासायवडिंसए तेणेव रयणदीवदेवया ओहिणा जिणरक्खियस्स मणं णाऊण वहणि उवागच्छइ। उवागच्छइत्ता ते मागंदियदारया पासाअवडिंसए मित्तं उवरिं मागंदियदारगाणं दोण्हं पि 1 / दोसकलिया सललियं अपासमाणी अपासमाणी जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे० जाव णाणाविहधुण्णवासमीसियं दिव्वं घाणमणणिव्वुइकर सवओ च सव्वतो समंता मग्गणगवेसणं करेति। करेइत्ता तए णं तेसिं सुरभिकुसुमवुट्टि पमुंचमाणी पमुंचमाण / / णाणामणिकण मागंदियदारगाणं कत्थइ सुई वा / 2 अलभमाणी अलभमाणी गरयणघंटियखिंखिणनेउरमेहलभूसणखेणं दिसाओ विदिसाओ जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे, एवं चेव पञ्चच्छिमिल्ले वि० जाव पुरयंती वयेणमिणं वयति सा सकलुसा 3 होला वसुला गोला अपासमाणी ओहिं पउंजति। पउंजइत्ता ते मागंदियदारए सेलएणं नाहदइयपियरणकंतसामिनिग्घिणणिवक्कस्थिण्ण णिकिवासद्धिं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं वीती वयमाणे पासति। पासइत्ता कयण्णुयसिहिलभावनिल्ललुक्ख-अकु लणजिणरक्खि आसुरत्ता० जाव समण्णागया असिखेडगं गेण्हति / गेण्हतित्ता यमुग्धहियय रक्खग ४॥ण हु जुजसि एक्कियं अणाहं अबंधवं सत्तट्टतालप्पमाणमेत्ता० जाव उप्पयति। उप्पयइत्ता ताए / तुज्झ चलणउववायकारियं उज्झिउमधणं गुणसंकरऽहं तुब्भे उकिट्ठाए० जाव जेणेव मागंदियदारया तेणेव उवागच्छइ। विहुणा ण समत्था जीवितुं खणं पि।५। इमस्स उ अणेगझसम उवागच्छतित्ता एवं वयासी-भो मागंदियदारगा! अप्पत्थिय- | गरविविहसावयसयाउल-घरस्स रयणागरस्स मज्झे अप्पाणं पत्थिया किं णं तुम्भे जाणइ ममं विप्पजहाय सेलएणं जक्खेणं | वहेमि तुज्झ पुरओ, एहि, नियत्ताहि, जइ सिकुविओ खमाहि सद्धिं लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीतीवयमाणा तं एवमवि गए, | एकावराह मे।६। तुज्झय विगयघणविमलससिमंडलागारसस्सि जति णं तुब्भे मर्म अवयक्खह तो भे अस्थि जीवयं, अह णं नो / रीयं सारयणवकमल-कुमुदकुवलयविमलदलनिकरससि अवयक्खइ तो भे इमेणं नीलुप्पलगवल० जाव सीसाइं पाडे मि। भनयण वयणं पिवासागयाए सद्धा से पेच्छिउ जे अवलोयइत्ता तते णं ते मागंदियदारया रयणदीवदीवयाए अंतिए एयमढे सोचा इओ ममं नाह! जा ते पेच्छामि वयणकमलं 171 एवं सप्पणयसर णिसम्म अभीया अतत्था अणुव्विग्गा अक्खुभिआ असंभंता लमहुरातिं पुणो पुणो कलुणाईवयणाइंजपमाणी सापावा मग्गओ रयणदीवदेवयाए एयमद्वं नो आढं ति, नो परियाणं ति, समन्नेइ पावहियया।८। तते णं से जिणरक्खिए चल माणे तेण य णावयक्खंति, अणाढायमाणा अपरिअवयक्खमाणा सेलएणं भूसणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं तेहिय सप्पणयस रलमहुरभणिजक्खेणं सद्धिं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं वीतीवयंति। तते णं एहिं संजायविउलमणराए रयणदीवस्स देवयाए, तीसे सुंदरथणसा रयणदीवदेवया ते मागंदियदारया जाहे नो संचाएति बहुहिं जहणवयणकरचरणयणलावण्णरूवजोव्वणला वण्णसिरिं च दिव्वं पडिलोमेहि य उवसग्गेहि य चालित्तए वा खोभित्तए य विपरिण | सरभसउवगूहियाइं विव्वोयविलसियाणी य विहसियसकममेत्तएवा, ताहे महुरेहिय सिंगारेहिय कलुणेहि य उवसग्गेहि य / क्खादिद्विणिस्ससियमलियउवललियविग्ग मणपणयखिजिपाउवसग्गे उपयत्तया वि होत्था। हं भो मागंदियदारगा! जइ णं | सादीयाणियसरमाणे रागमोहियमती अवसे कम्मवसगते अवयक्खति
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________________ जिणपालिय 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणपालिय मग्गतो सविलियं। तए णं जिणरक्खिया समुप्पण्णकलुणभावं मचुगलत्थलणांल्लियमई अवयक्खंतं तहेव जक्खे से लए ओहिणा जाणिऊण सणियं सणियं उव्विहति। नियगपिट्ठाहिं विगयसड्ढे। तते णं सा रयणदीवदेवया निसंसा सकुलणं जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिठाहिं उवयंतं 'दामे! मओ सि' त्ति जपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गिव्हिय वाहाहिं आरेसंतं उद्धं उव्विहति, अंवरतले उवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पलगवलअयसीपगासेणं असिवरेणं, खंडाखंभि करेति तत्थ वि विलवमाणं। तस्स स सरसवहियस्स घेत्तूणं अंगमंगाति सरूहिराइं उक्खित्तबलिं चउदिसि करेति सा पंजलिपहट्ठा। एवामेव समण्णउसो! जो अम्हं णिग्गंथाण वा अम्हं णिग्गंथीण वा अंतिए पव्वइए समाणे पुणरविमाणुस्सए कामभोगे आसायइ, पत्थयति, पीहेति, अमिलसति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावयाणं सावियाणं० जाव संसारं अणुपरियट्टिस्सति। जहा वा से जिणरक्खिए"छलिओ अवयक्खंतो, निरायवक्खो गतो अविग्घेणं! तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेणं भवियध्वं / / 1 / / भोगं अवयक्खंता, पडंति संसारसागरे घोरे। भोगेहिँ निरवयक्खा , तरंति संसारकंतारं ||2||" तते णं सा रयणदीवदेवया जेणे व जिणपालिए तेणे व उवागच्छइ। उवगच्छइत्ता बहुहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरेहि य मउएहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य जाहिं नो संचाएति चालियत्तए वा खोभित्तए या विप्परित्तए वा, ताहे संता तंता परितंता निविण्णा समाणी जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तते णं से सेलए जक्खे जिणपालिएणं सद्धिं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं वीइवयइ, जेणेव चंपा णयरी तेणेव उवागच्छति। उवागच्छतित्ता चपाएणयरीए अग्गुञ्जाणंसि जिणपालियं पिट्ठातो उत्तरेति। उत्तारेतित्ता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया! चंपाणयरी दीसइ त्ति कट्ट जिणपालियं आपुच्छति, आपुच्छतित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तते णं जिण पालिए चंपं अणुपविसंति, जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापिअरो, तेणेव उवागच्छद। उवागच्छइत्ता अम्मापिउणं रोयमाणे० जाव विलवमाणे जिणरक्खियवावित्तिं णिवेदेति। तते णं जिणपालिए अम्मा पियरो मित्तणाति० जाव परिजणेणं सद्धिं रोयमाणातिं बहुइं लोइयाई मयकिच्चाई करेति। करेइत्ता कालेणं विगयसोया जाता। तते णं जिणपालियं अण्णया कयाइं सुहासणवरग यं अम्मापिअरो एवं वयासी–कह णं पुत्ता! जिणरक्खिएकालगए?। तते णं से जिणपालिए अम्मापिउणं लवणसमुहोत्तारं च कालियबायसमुत्थणं च पोयवहणविवत्तिं च फलहखंड आसातणं च रयणदीवोत्तारणं च रयणदीवदेव यागिण्हणं च भोगपरिभूयं च सूलाइयपुरिसदरिसणं च से लगजक्खआरू हणं च रयणदीवदेवयाउवसग्गं च जिणरक्खियस्म विवत्तिं स लवण समुद्दउत्तरणं च चंपाऽऽगमणं च सेलगजक्खआपुच्छणं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकहति। तते णं से जिणपालिए० जाव विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाण्णा विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सभणे भगवं महावीरे जाव जेणेव चंपा णयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव समोसढे, परिसा णिग्गया, कूणियो वि राया णिग्गओ, जिणपालिए धम्मं सोचा पव्वइए इक्कारसंगविउ मासिएणं भत्तेणं० जाव सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववण्णे, दो सागरो वमाई ठिई पण्णत्ता। ताओ णं जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिंति। एवामेव समणाउसो! जाव माणुस्सए कामभोगे नो पुणरवि आसाएति, ते णं० जाव वीति वइस्सति, जहा से जिणपालिए, एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं० जाव संपत्तेणं णवमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति वेमि।। "जह रयणदीवदेवी, तह इत्थं अविरई महापावा। जइ लाभत्थी वणिया, तह सुहकामा इहं जीवा / / 1 / / जह तेहिं भीएहिं, दिट्ठो आधायमंडले पुरिसो। संसारदुक्खभीया, पावंति तहेव धम्मकहिं / / 2 / / जह तेण तेसि कहिया, देवी दुक्खाण कारणं घोरं। तत्तो चिय णित्थारो, सेलगजक्खाउणण्णत्तो।।३।। इय धम्मकहा भव्वा-ण साहणऽदिट्ठअविरइसहाओ। सयलदुहहेउभूया, विसयाविरइ ति जीवाणं ||4|| सत्ताण दुहत्ताणं, धम्म सरणं जिणिंदपण्णत्तं / आणंदरूवणिव्वा-णसाहणं तह य देसेइ / / 5!! जह तेसिं तरियव्वो, रूद्दसमुद्दो तहेव संसारो। जह तेसिँ सगिहगमणं, निव्वाणगमो तहा इत्थ / / 6 / / जह सेलगस्स पिटुं, तेसिं भव्वाणं तह इहं चरणं / जह देवीवामोहो, तओ चुओ पाविओ निहणं / / 7 / / तह अविरइए णडिओ, चरणचुओ दुक्खमावयाइण्णो। णिवडइ अपारसंसा-रसायरे दारूणसरूवे ||8|| जह देवीऍ अखोहो, पत्तो सट्ठाणजीवियसुहाई।। तह चरणठिओ साहू, अक्खोहो जाइ णिव्वाणं" 6|| ज्ञा०१ श्रु०६अ।
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________________ जिणपिया 1500 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणभत्तिदंसणाणुराग जिणपिया पुं० (जिनपिता) नाभेयाऽऽदीना पितरि, प्रव०॥ तन्नामानि जिनप्रभास्यः / / 20 / / " ती०४८ कल्पा गौडदेशावतंसस्य, श्रीजिनचैवम् प्रभसूरयः। कल्पं पाटलिपुत्रस्य, रचयांचकुरागमात् // 1 // " ती०३५ "नाभी जियसत्तुरिया, जियारी तह संवरो। कल्प। तस्य समयो जिनप्रभसूरिकृते शशुञ्जयकल्पे-'"श्री विक्रमान्दे मेहे धरे पइट्टे अ, महसेण अखत्तिए॥३२४॥ वाणष्ट - विइवदेवमिते सिते। सप्तम्यां तपसः काव्य-दिवसेऽयं सुग्गीवे दहरडे विण्हू, वसुपुज्जे य खत्तिए। समर्थितः " / / 1 / / ती० 1 कल्पा 'श्रीजिनप्रभसूरीणां, साहाय्यो कयखम्म सिंहसेण य, भाणू य विससेणओ॥३२५।। भिन्नसौरभा। श्रुतावुत्तंसतु सतां, वृत्तिः स्यादादमञ्जरी' || स्या० सूरे सुदंसणे कुंभे, सुमित्ते विजए समुद्दविजए वा 32 श्लोक। राया य अस्ससेणे, सिद्धत्थे वि य खत्तिए॥३२६।।" प्रव० 11 द्वार। "नन्दानेकपशक्तिशीतगुमिते 1363 श्रीविक्रमोर्वीपते जिणपुत्त पुं० (जिनपुत्र) जिनशिष्ये, क्षणिकाः सर्वसंस्कारा वर्षे भाद्रपदस्य मास्यवरजे सौम्ये दशम्यां तिथौ। विज्ञानमात्रमेवेदं भो जिनपुत्राः! इति। सम्म०१ काण्ड। श्री हम्मीरमहम्मदे प्रतिपतिक्ष्मामगडलाखण्डले, जिणपूयट्ठि (ण) पुं० (जिनपूजार्थिन) जिनस्येव पूजामर्थयते यः स ग्रन्थोऽयं परिपूर्णतामभजत श्रीयोगिनीपत्तने // 3 // " जिनपूजार्थी। गोशालकादौ, जिनपूजार्थिता च त्रिशत्तमं मोहनीय "तीर्थानां तीर्थभक्ताना, कीर्तनेन पवित्रितः। स्थानमिति। स०३० सम०। कल्पः प्रदीपनामाऽयं, ग्रन्थो विजयतां चिरम् / / 1 / / " जिणपूयास्त्री० (जिनपूजा) अर्हदर्चने, पचा० 4 विव०ा "कुसुमऽक्खय ती०४८ कल्पा (जिनप्रभसूरिणो महम्मदसाहिशकाधिराजेन समागमो धूवेहि, दीवय-वासेहि सुंदरफलेहि। पया धय-सलिसेहि, अठविहा तस्स 'वीरकप्प' शब्दे वक्ष्यते) कायव्वा / / 24 / / " दर्श०१ तत्व। प्रति०। पं०व०। ध। द्वाo! जीवा०! जिणप्परूविय त्रि० (जिनप्ररूपित ) जिनेन भगवता वर्द्धमान स्वामिना (अस्य व्याख्या 'चेइय' शब्देऽनौव भागे 1284 पृष्ठे गता। तथाऽवत्या यथा श्रोतृणामधिगमो भवति तथा सम्यक् प्रणयनक्रियाप्रवर्तनेन सर्वा वक्तव्यता 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1277 पृष्ठे निर्दिष्टा) प्ररूपितं जिनप्ररूपितम्। जिनेन सम्यक् प्रणीते, जी०१ प्रतिका जिणप्पलावि (ण) पुं० (जिनपलापिन्) जिनमात्मानं प्रकर्षण जिणपूयाविग्घकर पुं० (जिनपूजाविघ्नकर) जिनपूजानिषेधके सावद्यदोषोपेतत्वाद् गृहिणामप्येषा अविधेयेत्यादि कुर्दशनादिभिः समयान्त लपतीत्येवंशीलो जिनप्रलापी। आत्मानं जिनं मन्यमाने गोशाल कादौ, भगवत्या गोशालकमतमधिकृत्य- "अजिणे जिणप्पलावी'' भ०१५ स्तत्वदूरीकृते, कर्म० 1 कर्म०। श०१ उ०। 'एवं सो अजिणो जिणप्पलावी विरहइ" आ०म०द्धि जिणप्पणीय त्रि० (जिनप्रणीत) जिनोक्ते, "जिणमयं जिणप्पणीय" जिणप्पवयण न० (जिनप्रवचन) जिनाऽऽगमे, जीता जिनेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना प्रणीतं समस्तार्थ संग्रहात्मकमातृ "जिनप्रवचनं नौमि, गवतेजस्विमण्डलम्। कापदायप्रणयनाद् जिनप्रणीतम्। भगवान् हिवर्द्धमानस्वामी केवल यतो ज्योतीषि धावन्ति, हर्तुमन्तर्गतं तमः / / 2 / / ज्ञानावाप्तावादी बीजबुद्धिपरम गुणकलितान् गौतमादीन् गणधारिणः निष्प्रत्यूह प्रणिदधे, भवानीतनयानहम्। प्रत्येतद् मातृकापदत्रय मुक्तवान्। “उप्पन्नेइवा, विगमेइवा, धुवेइ वा" सर्वानपि गणाध्यक्षा-नक्षामोदरसङ्गतान् // 3 // " जीत०। इति। एतश्च पदत्रयमुपजीव्य गौतमादयो द्वादशाङ्ग विरचितवन्तः, ततो जिणवल्लह पुं० (जिनवल्लभ) अभयदेवसूरिशिष्ये स्वनामख्याते भवत्येतद् जिनमतं जिनप्रणीतमितिा जी०१ प्रति०ा दर्शा आचार्य , अष्ट० 32 अष्ट०। अयं वैक्रमीये 1160 वर्षे आसीत्, अयं जिणप्पबोध पुं० (जिनप्रबोध) खरतरगच्छीये जिनेश्वरसूरिशिष्ये, षट्कल्याणकवादी पिण्डविशुद्धिप्रकरणगणधरसार्धशतक-आगमिकवैक्रमीय 1285 वर्षे जातः, 1366 वर्षे दीक्षितः, 1331 वर्षे सूरिपदे वस्तुविचारसारकर्मादिविचार सारवर्द्धमानस्तवाऽऽद्यनेकग्रन्थकृदासीत्। स्थापितः, 1341 वर्षे स्वरगमत्। कातन्त्रव्याकरणोपर्यनन टीका कृता , चित्रकूटेऽस्य बहूनि चिपकाव्यानि शिलायां लिखितानि सन्ति। जै० इ०॥ प्रबोधमूर्तिरित्यपरमस्य नामाऽऽसीत्। जै० इ०। जिणबिंबन० (जिनबिम्य) जिनप्रतिमायाम्, षो०६ विव०। (जिनबिम्बजिणप्पभसूरि पु० (जिनप्रभसूरि) लघुखरतरगच्छस्थे जिन कारणविधिवक्तव्यता'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1266 पृष्ठे गता) सिंहसूरिशिष्ये स्वनामख्याते आचार्ये, ती०४८ कल्पा अनेना ऽऽचार्येण जिणबिंबपइट्ठावणा स्त्री० (जिनबिम्बप्रतिष्ठाना) अर्हत्प्रति मास्थापने, वैक्रमी ये 1365 वर्षेऽयोध्यायासमुषित्वा भयहरस्तोत्राऽजिनशान्ति- पञ्चा०७ विव०। (जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधिः 'चेझ्य' शब्दे तृतीयभागे स्तोत्रयोरूपरि टीका रचिता। सूरिमन्त्र प्रदेशविवरणं, तीर्थकल्पः, | 1270 पृष्ठे द्रष्टव्यः) पञ्चपरमेष्ठिस्तवः, सिद्धान्तागमस्तवः, द्वयाश्रयमहाकाव्यं चेत्यादयो जिणभत्त पुं० (जिनभक्त) मथुरानगरवास्तव्ये स्वनामख्याते वहयो ग्रन्था निर्मिताः। नित्यमयमभिनवकाव्यं कृत्वैव आहारमकरोद, श्रावके,आ०म० द्विा (तत्कथा णमोक्कार' शब्दे वक्ष्यते) न्याय कन्दलीपञ्जिकानाम्नीटीकाकृत रत्नशेखरसुरिगुरूश्च स जिणभत्ति स्त्री० (जिनभक्ति) जिनसेवायाम्, "भत्तीइ जिनवराणं"। भासीदिति तत्तद्वन्थानामुपक्रमोपसंहाराभ्यामवगम्यते। जै० इ०। तथाहि आव०२ अ०॥ - "इत्थं पृथक्तवविषयार्कमिते शकाब्दे, वैशाखमासि सितपक्षगषष्ठति- जिणभत्तिदंसणाणुराग पुं० (जिनभक्तिदर्शनानुराग) जिनं प्रति थ्याम्। यात्रोत्सवोपनतसङ्घयुतो यतीन्द्रः, स्तोत्रां ब्बधाद् गजपुरस्य / भक्तया कृत्वा यो दर्शनानुरागो दर्शनेच्छा स तथा / जिनं राण
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________________ जिणभत्तिदंसणाणुराग 1501 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणमुद्दा प्रति भक्तया कृतायां दर्शनच्छायाम्, "जिणभत्तिदंसणाणुरागेणं हरिसि- - वैक्रमीये 1462 वर्षे कुमारपालप्रबन्धो नाम ग्रन्थो विरचितः। जै० इ०। याओ।'' औ० जिणमय न० (जिनमत) रागाऽऽदिशान जयति स्म जिनः / स च यद्यपि जिणभत्तिराग पुं०(जिनभक्तिराग) जिनविषयके भक्तिपूर्वकंड नुरागे, ठास्थवीतरागोऽपि भवति, तथापि तस्य तीर्थ प्रवर्तकल्यायोगात "अप्पे गइया जिणभत्तिरागेणं' जिने भगवति वर्द्धमानस्वामिनि उत्पन्नकेवलज्ञानास्तीर्थकृदादिर्गृह्यते। सोऽपि च वर्द्धमानस्वामी, तस्य भक्तिरागो भक्तिपूर्वकोऽनुरागस्तेनेति। रा०। वर्तमानतीर्थाधिपतित्वात् / तस्य जिनस्य वर्द्धमानस्वामिनो मतम्. जिणभत्तिसूरि (ण) पुं० (जिनभक्तिसूरिन्) खरतगच्छीये जिनसौख्य- अर्थतस्तेनैव प्रणीतत्वात्। आचाराऽऽदिदृष्टिवादपर्यन्ते द्वादशाङ्ग सूरिशिष्ये जिनलाभसूरिगुरौ, सोऽयं वैक्रमीये 1770 वर्षे जातः, 1776 गणिपिटके, जी०१ प्रति०। आ० चू०। ज्यो०। "तित्थयरसमोसूरी, वर्षे दीक्षितः 1760 वर्षे सूरिपदं प्राप्तवान्,१८०४ वर्षे स्वरगमत्। सम्म जो जिणमयं पयासेइ।' जिनमतं जगत्प्रभुदर्शनम् / ग०१ जै० इ०। अधि०।"जिणम- वमणविक्खंतो, वट्टइ अट्ठम्मि झाणम्मि।" जिणभद्दगणिक्खमासमण पुं० (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण) भद्धबाहु- जिनास्तीर्थकराः, तेषां मतमागमरूपं प्रवचनम्। आव०४ अ०1"भावेण स्वामिविरचिरसामायिकनियुक्तिभाष्याऽऽदिकारके आचार्य, श्रयमा- जिणमवम्मिउ, आरंभपरिग्महवाओ।" रागाऽऽदिजेतृत्वाजिनः, तन्मत चार्यो वैक्रमीयाद् 585 वर्षाद् 645 वर्ष यावद् विद्यमानं आसीत्। एव, वीतरागशासन एवेत्यर्थः / पं०व०१द्वार। अर्हसिद्धान्ते, "हदि संक्षिप्तजीवकल्पः, क्षेत्रसमास्रो, ध्यानशतकं, वृहत्संग्रहणी, विशेषाऽऽ- पसिद्धजिणमयम्मि।" पञ्चा०४ विव०। तीर्थकराभिप्राये चा "सोऊण वश्यकभाष्यं चेत्याद्दयो ग्रन्था अनेनैव महानुभावेन रचिता इति जिणवरमयं''जिनवराणां तीर्थकराणां मतमभिप्रायम्। सूत्र० तद्ग्रन्थेभ्यः प्रतीयते। जै० इ०। 1 श्रु०१ अ० 1 उ०। तथा च विशेषाऽऽवश्यकवृत्तौ - जिणमयट्ठिय त्रि० (जिनपतस्थित) सर्वज्ञाऽऽगमस्थिते, "विसेसओ "आवश्यकप्रतिनिबद्धगभीरभाष्य जिणमयठिआण।" जीवा०८ अधि०। पीयूषजन्मजलधिर्गुणरत्नराशिः। जिणमयनिउण त्रि० (जिनमतनिपुण) आगमप्रवीणे, दश०६ अ०३ उ०। ख्यातः क्षमाश्रमणतागुणतः क्षितौ यः, जिणमहिम (ण) पुं० (जिनमहिमन) जिनमहत्त्वे, "कंबल सबला च सोऽवं गणिविजयते जिनभद्रनामा'' ||3|| विशे०। जिणमहिमा" आ० क०। तनु श्रीमद्भद्धबाहुप्रणीता सामायिकनियुक्तिरिह भाष्येव्याख्यास्यते, जिणमाणिकसूरि पुं० (जिनमाणिक्यसूरि) प्राकृतगाथाबद्ध कूर्मापुत्रतत्कथमिदमावश्यकानुयोगोऽभिधीयते? नैत- देवम्, अभिप्रायापरि- ___ चरित्राकारके आचार्य , जै० इ०। ज्ञानात्। तथाहि-सामायिकस्य षड्विधाऽऽवश्यकैकदेशत्वादावश्य- | | जिणमाया रखी० (जिनमातृ) मरुदेव्यादिकायां जिनजनन्याम्, स०। करूपता तावन्न विरुध्यते। विशे०। नं०। तथा चाऽऽवश्यके ध्यानशतक तन्नामानि त्वित्थम् - मधिकृत्य-"पंचुत्तरेण गाहा-सएण झाणसयगं समुट्ठिा जिणभद्दखमास "मरुदेवि विजय सेणा, सिद्धत्था मंगला सुसीमा वा समणे-हिं कम्मसोहीकरंजइणा ||1||" श्राव०४ अ०।"जिनभद्धगणिं पुहवी लक्खण रामा, नंदा त्रिहु जया सामा।।३२२।। स्तौमि, क्षमाश्रमणमुत्तमम् / यः श्रुताजीतमुद्दधे, सौरिः सिन्धोः सुजसा सुव्वय अइरा, सिरि देवी यप्पभावई चेव। सुधामिव|४|| जीत। पउमावई य वप्पा, सिव वामा तिसलवाई व // 323 // " जिणभद्दसूरि (ण) पुं० (जिनभद्रसूरिन) स्वनामख्याते आचार्य, तत्रौको प्रव०११ द्वारा जिनेश्वरसूरिशिष्यः खरगच्छीयः, येन सुरसुन्दरीकथा नाम ग्रन्थो | जिणमुणिचेइयसंघाइपडिणीयपुं० (जिनमुनिचैत्यसङ्गाऽऽदिप्रत्यनीक्) रचितः / द्वितीयः शालिभद्रशिष्य एतन्नामा, स वैक्रमीये 1204 वर्षे तीर्थकरसाधुचतुर्वर्णसङ्घसिद्धगुरुश्रुताऽऽदिकानाम वर्णवादाऽऽशातविद्यमान आसीत्।तेनगजसुकुमारकथा नाम ग्रन्थो विरचितः। तृतीयः नाद्यनिष्टनिर्वर्तक, कर्म०१ कर्म०। खरतरगच्छे जिनदत्त सूरिशिष्यः / जै० इ०। जिणमुद्दा स्त्री० (जिनमुद्रा) जिनानामर्हतां कृतकायोत्सर्गाणां सत्का, जिणभवण पुं० (जिनभवन) जिनाऽऽयतने, पं० व० 4 द्वार / दर्श० / जिना वा विघजेवी मुद्राऽङ्गन्यासविज्ञेपो जिनमुद्रा मुद्राभेदे, पञ्चा०। ख्या०। द्वा० / षो०। (जिनभवनकारणविधिः 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे अथ जिनमुद्रामाह१२७८ पृष्ट उक्तः) चत्तारि अंगुलाई, पुरओ ऊणाइ जत्थ पच्छिमओ। जिणभासिय त्रि० (जिनभाषितः) जिनोक्ते, 'सुणेह जिणभासियं / " पायाणं उस्सग्गो, एसा पुण होइ जिणमुद्दा / / 20 / / जिनभाषितं जिनोक्तम्। उत्त० 27 अ०। "विहिणा जिणभासिएणेव।" चत्वारीति संख्या, अडलानिप्रतीतानि।तानिचस्वकीयान्वेव, पुरतोऽग्रतः, जिनभाषितेनैव सर्वज्ञोक्तैनेव, न स्वमतिचर्चितेन / पञ्चा०१ विव०। तथा ऊनानि किञ्चिदूनानि भडलान्येव, यत्र यस्यां मुद्राया, पश्चिमतः जिणमई स्त्री० (जिनमती) हेमपुरनगरस्थस्य सुरइत्तश्रेष्ठिनः स्वनाम- पश्चिमभागः, पादयोश्चरणयोरुत्सर्गः परस्परपरित्यागः, संसर्गाभावोऽ ख्यातायां दुहितरि, दर्श०१ तत्त्व। (तत्कथा 'दीवपूया' शब्दे वक्ष्यते) न्तरमित्यर्थः। एषाऽसौ, पुनः शब्दो योगमुद्राऽपेक्षया जिनमुद्राया पैलक्षणयजिणमंडण पुं० (जिनमण्डन) तपागच्छीये सोमसुन्दरसूरि शिष्ये, येन | प्रतिपादनाथः। भवति संपद्यते, जिनानामर्हतां कृतकायोत्सर्गाणां सत्का,
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________________ जिणमुद्दा 1502 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणवयण जिना वा विघ्नजेत्री मुद्राऽङ्गन्यासविशेषो जिनमुद्रेति गाथार्थः / / / 20 / / पञ्चा० 3 विव० / ल० / सङ्घा। प्रव०। जिणरक्खिय पुं० (जिनरक्षित) चम्पानगरीवास्तव्यस्य माकन्दिसार्थ- | वाहस्यपुत्रो स्वनामख्याते सार्थवाहे, ज्ञा०। 'भोगे अवयक्खंता, पडंति संसारसागरे घोरे।" चारित्रां प्रतिपद्यापि भोगानभिकाङ्क्षन्तः पतन्ति संसारसागरेघोरे, जिनरक्षितवत्। ज्ञा०१ श्रु०६ अ०(तत्कथाऽनुपदमेव 'जिणपालिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1464 पृष्ठे उक्ता) जिणरयणसूरि(ण) पुं० (जिनरत्नसूरिन) खरतरगच्छीये जिनराज सूरिशिष्ये जिनचन्द्रसूरिगुरौ, तेन वैक्रमीये 1666 वर्षे सूरिपदं प्राप्तः, तथा 1711 वर्षे आगरानगरे स्वर्गतिर्लेभे। संसारित्वेऽस्य 'रूपचन्द्र' इत्यभिधानमासीत्। एतन्माताऽप्येतेन सह प्रव्रजिता। जै० इ० / जिणरायसूरि(ण) पुं० (जिनराजसूरिन) खरतरगच्छीये जिनसिंह सूरिशिष्ये, वैक्रमीये 1647 वर्षेऽयं जातः, 1656 वर्षे दीक्षितः 1674 वर्षे सूरिपदं प्राप्तः, 1666 वर्षे पट्टने स्वरगमत / श्रीशत्रुञ्जये ऋषभदेवाऽऽदितीर्थङ्कराणामेकोत्तर-पञ्चशतप्रतिमानामनेनैव प्रतिष्ठा कारिता, नैषधीयकाव्येऽनेन जिनराजनाम्रीटीका रचिता। जै० इ०। जिणरूव न० (जिनरूप ) परमाऽऽत्मरूपे, "जिनरूपं ध्यातव्यं, योग विधावन्यथा दोषः। 'जिनरूपं परमाऽऽत्मरूपमिति। षो०१४ विव०। जिणलाभसूरि(ण) पुं० (जिनलाभसूरिन्) खरतरगच्छीये जिनभक्ति सूरिशिष्ये, अयं वैक्रमीये 1784 वर्षे 'वीकानेर' नगरे जातः 1766 वर्षे दीक्षितः 1804 वर्षे माण्डवीबन्दरे सूरिर्जातः, 1834 वर्षे स्वरगमत्। आत्मप्रबोधनामा ग्रन्थोऽनेन रचितः / जै० इ० / जिणवई स्त्री० (जिनवाक्) जिनवचने, "जे कोविजा जिणवई पि। ये जिनवाचमपि कोपयेयुरन्यथा कुर्युः / बृ०१ उ०। जिणवंसपुं० (जिनवंश) जिनान्वये, "वंसाणं जिणवंसो"। वंशानामन्व याना मध्ये यथा जिनवंशः प्रधानम्। संथा। जिणवयण न० (जिनवचन) जिनान्तीर्थकराः, तेषां वचनमागमो जिनवचनम् / दश० 1 अ० 1 जिनानां सर्वज्ञानां वचनं जिनवचनम् / द्वादशाङ्गे, व्य० 1 उ० / जिनवचनमर्हद्वचनम्। पञ्चा० 12 विव० / जिनवचनाचारादि / स०। "कूरा वि सहावेणं, विसयविसवसागुगा वि होऊण। भावियजिणवयणमणा, तेल्लां कसुहावहा होति / / 1 / / श्रूयन्ते हि एवंविधाभिचलातीसुतादय इति / तथाऽनामिति (जिनाज्ञा भावये दिति सर्वत्रा संबन्धः) यथावस्थितार्थ प्रकाशकत्वेन सकलपरप्रणेतृशास्त्रोक्तार्थादविद्यमानमूल्यामिति भावः / उक्तं च - "सव्ये वि य सिद्धता, स दव्वरयणामया सतेल्लोका / जिणवयणस्स भगवओ, नतुल्लमियतं अणग्धेयं / / 1 / / " तथा स्तुतिकारेणाप्युक्तम्"कल्पद्रुमः कल्पितमात्रदायो, चिन्तामणिश्चिन्तितमेव, धत्ते / जिनेन्द्रधर्मातिशयं विचिन्त्य, द्वयेऽपिलोकं लघुतामुपैति॥१॥' अथवा ऋणधामिति। तत्रा ऋणं पूर्वभवपरम्परोपात्ताष्टप्रकारं कर्म, तद्हन्ति या सा ऋणघ्रा, ताम् / यत उक्तम् - "जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं / तं वाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेण / / 1 / / तथाअमितमित्यपरमिताम्। यत उक्तम्-'सव्वनईणं जा वामुया वि सव्योदहीण जंतोय।तत्तोऽणंतगुणोलसु, अत्थो एगस्स सुत्तस्रा ||1|| अमृतां | वा परमान्नोन्मृष्टां, पथ्वां वा। तथा चोक्तम्-"जिणवयणमोयगस्स य, रत्तिं य दियाय खजामाणस्स। तित्तिं वुहो न गच्छइ, हेउसहस्सोवगूढरस / / 1 / / '' "नरनरगतिरियसुरगणसंसारियसव्वदुक्खरोगाणं। जिणवयणमेगमोसहमपवग्गसुहक्खवं फलय" |1|| अमृतां वा सजीवाम्, उपपत्तिक्षमत्वेन सार्थकामिति भावः। न तुयथा- "तेषां कटतटभ्रष्टगजानां मदबिन्दुभिः / प्रावर्ता नदी घोरा, हस्त्थश्वरथवाहिनी 1१।।''इत्यादिवाक्यनियुक्तिवन् मृतामिति / तथा-अजितामशेषपरप्रवादिप्रवचनाऽऽज्ञाभिरपराजितामिति भावः। तदुक्तम् - "जीवाइवत्थुचिंतण-कोसल्लगुणेणऽनन्न-सरिसेण / सेसवयणेहिं अजियं, जिणिंदयवयण महातिसयं / / 1 / / तथा-महामिति / महान परमितोऽर्थो यस्याः सातथाविधा, ताम् / तत्रा पूर्वपराविधित्वा दनुयोगद्वारात्मकत्वान्नयगर्भत्वाच महार्था, ता, महत्स्थां वा / तत्र महामतयः सम्यग दृष्टय एवेहोच्यन्ते। ततश्च, महत्सु स्थिता महत्स्था, तां च, प्रधानसत्त्वस्थितामिति भावः / महस्थां वा, अतिशयपूज्यामित्यर्थः। यत उक्तम् - "सयलसुरासुरमा णुसजोइसवंतरसुपूइयं नाणं। जेणेह गहणराणं, बुहंति वुत्ते सुरिंदा वि||१|| महानुभावः सामर्थ्यादिलक्षणो यस्याः सा तथाविधा, तां प्राधान्यं चास्याइचतुर्दशपूर्वविदः सर्वलब्धिमन्तो जायन्ते, ततश्च सकलस्यास्य त्रिभुवनस्य प्रभवन्ति। यत उक्तम्- "पहूणं भंते! चउद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, पड़ाओ पडसहस्सं वि उ करित्तए ? गोयमा ! हंता पहू '' इत्यादि। परलोके पुनरनुत्तरविमानादिषूपपातः। उक्तं च - "उववाओ लंतगम्मी, चउदसपुस्विस्स होइ उ जहन्नो। उक्कोसो सव्वडे, सिद्धिगमो या अकम्मस्स / / 1 / / " तथा महाविषयामिति / महद् विषयताऽस्याः सकलद्रव्याऽऽदिविषयावभासकत्यात् / उक्तं च -"दव्याओ सुयनाणी सव्वदव्वाई जाणइ, नो पासइ'' इत्यादि कृतं प्रसङ्गे नेति गाथार्थः। दर्श० 4 तत्व। आव०। (विस्तरतो गाथाव्याख्या आणा' शब्दे द्वितीयभागे 115 पृष्ठे द्रष्टव्या) जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करंति भावेण। अमला असंकिलिट्ठा, ते हंति परित्तसंसारी॥२६४॥ इति छिन्नसंसारिणः स्युरित्यर्थः / ते इति के ? ये जीवा जिनवचने अर्हद्वाक्ये अनुरक्ताः सन्तो भावेन जिनवचनं कुर्वन्ति, इत्यनेन मनोवाक्कायैः जिनधर्ममाराधयन्ति। पुनः कीदृशास्ते ? अमलामिथ्यामलरहिताः। पुनः कीदृशाः? असंक्लिष्टाः मोहमत्सराऽऽदिक्लेशरहिताः। एतदृशा जीवाः संसारपारं कृत्वा मोक्षं व्रजन्तीत्यर्थः / उत्त०३६ अ०। जिनवचनस्यप्रामाण्यमुक्तं च स्तुतिकारेण-"सुनिश्चितं नः परतन्त्रायुक्तिषु, स्फुरन्तियाः काश्चन सूक्तिसंपदः। तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिताः, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः // 1 // " नं0। जिनवचनप्रशंसा यथा - "जयति जगदेकमङ्गलमपहतनिःशेषदुरितघनतिमिरम्। रविबिम्बमिव यथास्थित - वस्तुविकाशं जिनेशवचः / / 1 / / " नं0 / जिनवचनस्य हितकारित्वं यथा - 'एगतेणं हियं वयणं, गोयम! दिस्संति केवलिणो। बलवोडीय कारेंति, हत्थे घेत्तूण जंतुणो!! तित्थयरभासिए वयणे, जे तह त्ति अणुवालिया। सिंदा देवगणा तस्स, पाएहि य णमंति हरिसिया // महा०
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________________ जिणवयण 1503 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणवयण 6 अ०। जिनवचनादन्यत्र न शरणम् / उक्तश्च - "जन्जरामरणभवेरभिदुते व्याधिवेदनाग्रस्ते / जिनवरवचनादन्यत्रानास्ति शरणं क्वचिल्लोके // 1 // " आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। जिनवचनस्य सम्यक्त्वं यथाभदं मिच्छादसण - समूहमइयस्स अमयसारस। जिणवयणस्स भगवओ, संविग्गसुहाहिगम्मस्स॥१६७।। भद्रं कल्याणं, जिनवचनस्यास्त्विति संबन्धः / मिथ्यादर्शनसमूहमयस्या ननु यन्मिथ्यादर्शनसमूहमयं, तत् कथं सम्यग्रुपतामालादयति? न हि विषकणिकासमूहमयस्यामृतरूपताऽऽपत्तिः प्रसिद्धा न। परस्परनिरपेक्षसंग्रहाऽऽदिनयरूपाऽऽपन्नसांख्यादिमिथ्यादर्शनाना परस्परं सव्यपेक्षतासमासादितानेकान्तरूपाणां विषकणिकासमूह विशेषमयस्यामृतसंदोहस्यैव सम्यक्त्वाऽऽपत्तेः। दृश्यन्ते हि विषाऽऽदयोऽपि भावाः परस्परसंयोगविशेषमवाप्ताः समासादितपरिणत्यन्तरा अगदरूपतामात्मसात् कुर्वाणाः। मध्याज्यप्रभृतयस्तु विशिष्टसंयोगावाप्तद्रव्यान्तरस्वभावा मृतिप्राप्तिनिमित्त विषयरूपतामासादयन्तः। न चाध्यक्षप्रसिद्धार्थस्य पर्यनुयोगविषयता, अन्यथाऽग्न्यादेरपि दाह्यदहनशक्त्यादिपर्यनुयोगाऽऽपत्तेः / अत एव निरपेक्षा नेगमाऽऽदयो दुर्णयाः सापेक्षास्तुसुनया उच्यन्ते। अभिहितार्थसंवादि चेदं वादिवृषभस्तुतिकृत् सिद्धसेनाऽऽ-चार्यवचनम् - "नयास्तव स्यात्पदलाच्छना इमे, रसोपविष्टा इव लोहधातवः। भवत्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता--हितैषिणः" / / 1 / / इति। अथवा सांख्यादेरेकान्तवादिदर्शनसमूहमयस्य चूर्णनस्वभावस्य, मिथ्यादृष्टिपुरुषसमूहविघटनसमर्थस्य वा, यद्वामिथ्यादर्शनसमूह नैगमाऽऽदयः, एकैकनैगमाऽऽदेनयस्य शतविधत्वात्। 'एक्कक्को विसयविहो' इत्याद्यागमप्रामाण्यादवयवायस्य तन्मिथ्यादर्शनसमूहमयम्, जिनवचनस्य नैगमाऽऽदयः सापेक्षाः सप्तावयवाः, तेषामप्येकैकः शतधा व्यवस्थित इत्यभिप्रायः। समूहरूपसप्तनयावयवोदाहरणापेक्षया च सप्तभङ्गीप्रदर्शनमागमज्ञा विदधति / सामान्यविशेषाऽऽत्म कत्वाद्वस्तुतत्त्वस्य, सामान्यस्यैकत्वात्, तद्विवक्षायां यदेव घटादिद्रव्यं स्यादेकमिति प्रथमभङ्गीविषयः, तदेव देशकालप्रयोजन भेदान्नानात्वं प्रतिपद्यमानं तद्विवक्षया स्यादनेकमिति द्वितीयभङ्गविषयः, तदेवोभयाऽऽत्मकमेकदैशब्देन यदाऽभिधातुं न शक्यते तदास्यादवक्तव्यमिति तृतीयभङ्गविषयः। तदेवावकाशदतृत्वेनासाधारणेनैकमाकाशं, तदेवावगाह्यावगाहकावगाहन क्रियाभेदादनेकं भवति, तद्रूपैर्विना तस्यावस्तुत्वाऽऽपत्तेः / प्रदेश भेदापेक्षयाऽपि च तदनेकम्। अन्यथा हिमवद्विन्ध्ययोरप्येकदेशताप्राप्तेः। तस्य च तथाविवक्षायां स्यादेकं चानेक चेति चतुर्भङ्ग विषयता / यदेकमाकाशं भवतः प्रसिद्ध तदेकस्मिन्नवयवे विवक्षिते एकमवयवस्यावयवान्तराद्भिन्नभिन्नानां वाचकस्य शब्दस्याभावादवक्तव्यं चेति।तथा-विवक्षायां स्यादेकमवक्तव्य चेति पञ्चमभङ्ग विषयः / तत् यदेवै कमाकाशं प्रसिद्धं भवतः तदवगाह्यावगाहनक्रियाभेदादनेकम् / एकानेकत्वप्रतिपादकशब्दाभावादवक्तव्यं चातः स्यादने कमवक्तव्यं चेति षष्टभङ्ग विषयः / यदेवैकमाकाशात्मकतयाऽऽकाशं भवतः प्रसिद्ध, तदेव तथैकमवगाह्यावगाहनक्रि यापेक्षयाऽनेकं, युगपत्प्रतिपादनापेक्षयाऽवक्तव्यं चेति स्यादेकमनेवक्तव्यं चेति सप्तमभङ्गविषयः। एवं स्यात्सर्वगतः स्यादसर्वगतो | घटादिरित्यादि काऽपि सप्तभङ्गी वक्तव्या, यतो य एव पार्थिवाः परमाणवो वटस्स एव विससाऽऽदिपरिणति वशाज्जलानिलानलावन्यादिरूपतामात्मसात्कुर्वाणाः स्यात् सर्वगतो घट इत्यादि सप्तभङ्ग विधवा यथोक्तन्वायात् कथं नासादयन्ति ? न च घटपरमाणूनां पुद्गल-- रूपतापरित्यागे पूर्वपर्यायापरित्यागे च घटपर्यावाऽऽपत्तिः, क्षणिकाक्षणिकै कान्तयोरर्थक्रिवानुपपत्तेर सत्त्वापत्तेः, परिणामिन एव सुवर्णात्मना ऽवस्थितस्य केयूराऽऽत्मकविनाशमनुभवतः कटकाद्यात्मनोत्पद्यमानस्य वस्तुनः सत्त्वात्, अन्यथा वचित्कस्यचित्कदाचिदनुपलब्धेः। न चाध्वक्षादन्यद्गरिष्ट प्रमाणान्तरमस्ति, यतस्त द्विपरीतभावाभ्युपगमः क्रियते / अन्तर्बहिश्च हर्षविषादाऽऽचनेका ऽऽकार विताऽऽत्मक चैतन्यस्य स्थासकोशकुशूला ऽऽद्यने काऽऽकार स्वीकृतैकमृत्पिण्डादेः स्वसंवेदनाऽक्षजाध्यक्षतः प्रतिपत्तेः / सर्वथोपलभ्यमध्यक्षरूपं पूर्वापरकोट्योरसदिति वदतः सर्वप्रमाण-विरोधात् कुण्डलाङ्गगदा ऽऽदिषु पर्यायषु तादृग्भूतसुवर्णद्रव्योपलब्धेः कार्योत्पत्ती कारण स्य सर्वथा निवृत्यनुपलब्धेन च सादृश्य विप्रलम्भात्त दध्यवसावकल्पनेति वक्तुं तदेकान्तभेदसाधकप्रमाणस्यापास्तत्वात् / न च कथञ्चित्स्वभावभेदेऽपि तादात्म्यक्षतिः, ग्राह्यग्राहकाऽऽकारसं-- विद्वद्विविक्तपरमाणुषु स्थूलैकघटाऽऽ दिप्रतिभासबद्धा ग्राह्य ग्राहकाऽ5कारविविक्तसंवित्प्रकल्पने ऽध्यक्षधियोऽपि विवक्षिताऽऽकारविवेकाविवेकानुपलब्धेः / अध्यक्षेतरस्वभावभ्यां विरोधस्वरूपासिद्धावन्यत्रापि कः प्रद्वेषः ? तथाहि-शक्यमन्य-त्रापि एवमभिधातुम्-एकमेव पार्थिवद्रव्यं लोचनाऽऽदिसामग्रीविशेषात् चूर्णादिप्रतिपत्तिभेदेऽपि भिन्नमिव प्रतिभाति, प्रत्यासन्नेतर रूपताव्यवस्थितैकविषयत्वात्। न हि स्पष्टा-स्पष्टनिर्भासभेदेऽपि तदेकत्वक्षतिः, तद्वदिहापि रूपाऽऽदिप्रतिभासा भेदेप्येक त्वं किं न स्यात? प्रतीतेरविशेषात्। एवं च स्याद्वा दिनोऽग्ने रप्यनुष्ण त्वप्रशक्तिरित्यसङ्गतमभिधानम् / यतस्तत्रापि स्यादुष्णोऽग्निरिति स्पर्शविशेषेणोष्णस्य भास्वराऽऽकारेण पुनरनुष्णस्यतस्यैकस्य नानास्वभावशक्तेरबाधितप्रमाणविषयस्यैवं नो दोषाऽऽसङ्गासंभवात्, तस्मादेकस्यैव सामग्रीभेदवशात्तथाप्रतिभासाविरोधः। कारणस्य च कार्याऽऽत्मनोत्पत्तौ न किञ्चिदपेक्षणीयमस्ति, यत्तथोत्पित्सुस्वभावता न भवेत् / अत एव मृदादिभावो घटस्वभावेन नश्वरः, कपालस्वरूपेण चोत्पत्तौ तिष्टतीति स्वभावत एव नश्वरः, उत्पित्सुः स्थास्नुश्चान्यतमापाये पदार्थस्यैवासंभवात्, त्रितयभावं प्रत्यनपेक्षत्वाच / न हद्युत्पन्नः पदार्थः किञ्चित् स्थितिं प्रत्यपेक्षते, स्थित्यात्मकत्वादुत्पादस्य, न चावस्थित उत्पत्तौ किञ्चिदपेक्षते, उत्पत्तिस्वभावत्वात् स्थितेः। न च विनष्ट उत्पत्ति प्रति हेत्वन्तरापेक्षो, विनाशस्योत्पत्त्यात्मकत्वात्, ततः पूर्वापरस्वभावपरित्यागावाप्तिलक्षणं परिणाममासादयन् भावो व्यवतिष्ठते ! इति प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरमेतदेव / शब्दविद्युतप्रदीपादेरपि निरन्च्यविनाश कल्पनाऽसङ्ग तैव, तेषामादौ स्थितिदर्शनादन्तेऽपि तत् स्वभावान तिक्रमात् / न हि भावः स्वस्वभावं त्यजति, प्रागपि तत्स्व भाव परित्यागप्रशक्तेः, अन्ते च क्षयदर्शनात्प्रागपि नश्वरस्वभावादादायुत्पत्ति समये स्थितिदर्शनादन्ते स्थितिः किं नाभ्युपेयते? न च विद्युत्प्रदीपादेस्तैजसरूपपरित्यागात्तामसरूपस्वीकरणे किञ्चिदविरुद्धं भवेत्। न च स्वभावभे दस्तदेकत्वविघातकृत् ग्राह्यग्राहकाऽऽकारसंवेदनवद् ये द्यवेदकाऽऽकारविवेक परोक्षापपरोक्ष परोक्षसं वित्ति -
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________________ जिणवयण 1504 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणवयण यद्वा, यथा च ध्वंसहेतोस्तदतकरणविरोधादकिञ्चित्करत्वं, तथा स्थित्युत्पादहेत्वोर्विशरारुधर्मणः स्थास्नुताकरणे विनश्वर स्वभावः किं न विनश्येत् ? अथासौ स्थास्नुस्तथापि हि स्थितिहेतोरानर्थक्यं, स्वत एव तस्य स्थितेः / तथोत्पत्तिहेतुरपि यदि भावं करोति, तदा न स्यात्किञ्चित्करत्मेवभावस्य,स्वयमेव भावाभावरूपत्वात् / अथाभावं भावरूपतां नयति, तर्हि नाशहेतुरपि भावमभावीकरोतीति कथमञ्चित्करः स्यात् ? न ह्यभावस्य भावीकरणे भावस्य वाऽभावीकरणे कश्चिद्विशेषः संभवी। अत एव च तेषामन्य तमस्य सहेतुकत्वमहेतुकत्वं चाभ्युपगच्छन् सर्वेषां तदभ्युपगन्तुमर्हति, अविशेषात्। न च भिन्नयोगक्षेमत्वात् कार्यकारणयोरेकत्वमनुपपन्नं, स्वभावभेदेऽप्येकत्वप्रतिपत्तेः। सर्वसं वित्क्षणानामे कदोत्पत्ति-विनाशवतामभिन्नयोगक्षेमत्वात कार्यकारणयोरेकत्वमनुपपन्नम्, स्वभावभेदेऽप्टोकत्वेऽपि च परस्परतः पृथभावसिद्धेः / अथात्राभिन्नयोगक्षेमेऽपि प्रतिभास भेदाढ़ेहः, तर्हि यत्रा प्रतिभासाभेदस्तत्रा भिन्नयोगक्षेमत्वेऽप्यभेदः, प्रतिभासभेदाभेदयोवस्तुभेदाभेदव्य वस्थापकत्वात् / समुदायस्य च देशकालभेदाभावात् सकृदेव संवित्त्यात्मनोत्पत्तेरेकत्वं प्रसज्येत। यदिचस्वभावभेदो वस्तु भेदलक्षणं, तदा सन्तानान्तरयोरिव विषयरूपायाः संवित्तेरेकत्वेऽपि प्रत्यक्षेतरयोऽसौ विद्यत इति नानात्वं भवेत् / यदि पुनः स्वभावभेदाविशेषेऽपि विवक्षितज्ञान क्षणाऽऽ कारयोरेव तादात्म्य, न पुनः सन्तानान्तरसवित्तीनामिति प्रत्यासत्तेः कुतश्चिद्वचवस्थाप्यते, तर्हि परस्यापि विवक्षितैकार्थो- पादानोपादेयभूतयोरेवावस्थयोस्तादात्म्य कथञ्चिद् वदतो न कश्चिद्दोषः प्रशक्तिमान् / निराकृतश्चानेकश एकान्तवादः, तत्प्रसाधकहेतुनां सर्वेषामनेकान्तव्याप्ततया विरुद्धताप्रदर्शनात्। तत्प्रदर्शनं चैकान्तवादिनिग्रहस्थान मनेकान्तवादिविजयस्येवेतर-पराजयाधिकरणप्राप्तिलक्षणत्वाद् "विरुद्धहेतुमुलाव्य, वादिन जयतीतरः / " इत्यस्य वचसो न्यायानुगतत्वात् / यदि पुनरसाधनाङ्गवचनं वादिनः पराजया धिकरणभ्युपगम्येत, तदा वादाभ्युपगमं विधाय तूर्णीभावमा ठोणासाधनाङ्गस्यावचना द्वादिनो विजयः किं न स्यात् ? प्रतिवादिनोऽपि स्वपक्षसिद्धिमकुर्वतः कथं न विजयस्तत एव भवेत् ? अय साधनाङ्गावचनमपि निग्रहस्थानं, तर्हि वादिप्रति वादिनोर्योगपद्येन निग्रहादिकरणता भवेत्. तूष्णीभावाविशेषात् / तूष्णींभावोपलम्भेन इतरो विजयवानिति चेत् ? नन्वेवमितरजयस्यान्यतरपराजयाधिकरणतैव प्राप्ता, न च स्वपक्षसिद्धिमकुर्वतः न विजयप्राप्तिः, तदप्राप्तौ च कथं तदेतरस्य पराजयः। यदपीष्टस्यार्थस्य सिद्धसाधनं तस्याङ्ग स्वभावकार्यानुपलम्भलक्षणं हेतुत्रयं पक्षधर्मत्वादि वा औरूप्यंतस्यावचनं निग्रहस्थानं वादिन इत्युक्तम् / तदप्यचारु / प्रतिवादिनोऽपि पक्षधर्मत्वाऽन्यतमस्या नुक्तावसमर्थनेवा विजया प्राप्तेः, तदप्राप्तौ च वादिनो निग्रहस्थानानुपपत्तेरितरजवनान्तरी यकत्वादित रपराजयस्य; एवं हेत्वाभासादेरसाधनाङ्ग स्य वचनं वादिनो निग्रहस्थानमिति प्रतिक्षिप्तमुक्तन्यायाद्रष्टव्यम्। अथ ततः साध्यसिद्धेर भावात्तस्य निग्रहस्थानं प्रतिक्षिप्तम् / उक्तन्यासे च तद् भूविक्षेपादेरसाधनाङ्गकरणस्य ततएव तत्प्राप्तेः, ततो वादिन मसाधनाङ्गमभिदधान कुर्वाणं वा स्वपक्ष सिद्धिं विदधदेव प्रतिवादी तत्पक्षप्रतिक्षेपेण निगृहातीत्येवदेव न्यायोपेतमुत्पश्यामः / एवं प्रतिवादिनोदोपमनुद्भावयतो न निग्रह स्थानं, तावता स्वपक्ष सिद्धिमकुर्वाणस्य वादिनो विजयप्राप्त्यव / योगात्, तत्साधनस्य सदोषत्वसंभवात् / तस्य सदोषत्वेऽपि तदुद्भवनासमर्थत्वा त्प्रतिवादिनो निग्रहस्थानं स्यादिति चेत् / न। दोषवत्साधनाभिधाना द्वादिनोऽपि पराजयाद्यविधकरणत्वाद् द्वयोरपि युगपत्पराजप्राप्तेः / अत एव प्रतिवादिनो दोषस्यानुदा वनमपि न निग्रहस्वानम् / यच्च वादिपक्षसिद्धेरप्रतिबन्धकं पक्षाऽऽदिवचनाधिक्योद्भावनं प्रतिवादि पक्षसिद्धावसाधकतम, तत्सर्व न वादिनः पराजयाधिकरणम् / अन्यथा तत्पादप्रसारि काद्युद्भावमनपि तस्य पराजयाधिकरणं स्यात् / अथ पक्षाऽऽदि वचनस्यासाधनाङ्गत्वात्तदुद्भावने वादिनस्तदपरिज्ञाननिबन्ध नपाजयाधिकरणता, तर्हि यत्सत्तसर्व क्षणिकमिति व्याप्तिवचनादेव शब्दस्यापि क्षणिकत्वसिद्धौ 'संश्च शब्दः' इत्यभिधानं, तत एव तस्य पराजयाधिकरणं भवेत्। न च शब्दे शब्दविप्रतिपत्तिः, येन तन्निरासाय सत्त्वाभिधानं तत्रापुनरुक्तं भवेत् / तद्विप्रतिपत्तौ वा तत्साधकहेतोरसिद्धत्वादिदोषत्रयानतिवृत्तेर्भवतैषाम्युपगमात्तत्साध्यत्वानुपपत्तिः / यदि च संक्षिप्तवचनात् साध्वसिद्धौ तद्विस्तराभिधानं निग्रहस्यान, तर्हि सत्त्वात् क्षणक्षबसिद्धौ कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाद्यभिधानं कथं न निग्रहस्थानं स्यात् ? कथं वा कृतकप्रयत्नानन्तरीयकादिषु स्वार्थिकस्य तस्योपादानं तन्न स्यात् ? यत् सत् तत्सर्व क्षणिकमित्यादि साधनवाक्यमभिधाय पक्षादिवचनवत्तत्समर्थनमपि निग्रहस्थानं प्रसक्तम्। असमर्थितमपि स्वत एवंतत्त्वेनोक्तमेव स्वसाध्याबिनाभूतस्य हेतोः प्रदर्शनम्, आसाध्य सिद्धेः सद्भावात्। स्वभावकार्यानुपलम्भप्रकल्पनया तद्वचनं निग्रहस्थानं परस्य प्रसक्तम् / अनुपलब्धावुपलब्धिलक्षण प्राप्तस्येति विशेषणोपादानं निग्रहस्थानम् / अदृश्यानामपि व्याधिभूतगृहादीनां कुताश्चिद्यावृत्तिसिद्धिः / यदि पुनरुपलभ्बानुपलब्धेरेवाभावसिद्धिः, तदा नेदं निरात्मक जीवच्छरीरं, प्राणादिमत्त्वादित्यत्र घटादेरात्मनोऽक्षणिकस्याद्दश्यानुपलम्भादेवातत्सिद्धेः, यत्सत्तत्सर्व क्षणिकमिति सामस्त्येन व्याप्त्यसिद्धितः क्षणक्षयानुमानं नानवद्यं स्यात् / किंचदेशकालस्वभावविप्रकृष्ट भावानुपलब्धेर भावसिद्धौ सर्वत्र सदा सर्वोत्तमोऽग्निमन्तरेणानु पपत्तिमा नितिव्याप्तेरसिद्धेर्न ततस्तत्सिद्धिः स्यात् / न चाध्यक्षानुपलम्भौ तत्कार्यकारणभाव प्रबाधकावभ्युपगम्यमानौ सन्निहितविषयबलोत्पत्तेर विचारकत्वाच यतो व्यापारान् विधातु क्षमी, तत्पृष्ठभाविविकल्पस्य तन्निवर्त्तनसामर्थ्याम्भुपगमे सविकल्पकस्यानिष्ट प्रामाण्यं प्रसज्येत् / अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाद विसंवादित्वाच तस्याऽविकल्पकस्य तु हिंसा विरतिदानचेतसा स्वर्गाऽऽदिफल निवर्त्तनसामर्थ्य स्वभावसंवेदनस्यैव सर्वात्मना वस्तुसंवेदने ऽपि निर्णयवशादेव प्रामाण्योपपत्तेः। अन्यथाऽनु मानस्याप्रामाण्य प्रसक्तेस्तद्गृहीतग्राहितयेत्युक्तं प्रागदृश्यानामनुपलम्भा देवासिद्धावर्थक्रियया सत्ताऽभावाना व्याप्त्येत्येतदपि परस्य निग्रहस्थानमेष, ततः स्वपक्षसिद्धिरितरस्य पराजयाधिकरणं, स च परोपन्यस्तहेतोर्विरुद्धताप्रदर्शनन स्वतन्त्रानिर्दोषहेतुसमर्थनन वा परोपन्यस्तहेत्वसिद्धताऽऽदिदोषप्रतिपादनपुरः सरा कर्तव्या / अन्यथा परपराजयनिबन्धनस्य विजयायोगात् / यदा च विजिगीषुणा स्वपक्षस्थापनेन परपक्षनिरा करणेन च सभाप्रत्यायनं विधेयम्, अन्यथा जयपराजया नुपपत्तेस्तदाऽ सिद्धानै कान्ति-कत्वसाधनदोषोदा वनेऽपि वादिप्रति वादिनोर्जय पराजयौ, प्रकृतार्थपरिसमाप्तेः। अथ स्वपक्ष सिद्धेरभावाद्धेत्वा भासादसाधनाङ्गवचनं वादिनो निग्रह -
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________________ जिणवयण 1505 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणवर स्यनमानाः इतरत्रापि तत्प्रसङ्गात् / अथ वादिनः साधनत्वेना- | जिणवयणमणुगइसुभासिय त्रि० (जिनवचनानुगतिसुभाषित) जिनभिमतस्यासाधनत्वप्रदर्शनेन प्रतिवादिकृतेन पराजयः, प्रतिवादिनस्तु वचनमनुगत्याऽऽनुकूल्येन सुष्ठ भाषितं ये न स तथा। तस्मिन्. स०। समुद्भूतदोषोद्भावनाजयः। ना यदि स्वपक्षसिद्धि-मकुर्वता प्रतिवादिना ! जिणवयणमणुगयमहियभासिय त्रि० (जिनवचनानुगतमहित स्वपरोत्कर्षापकर्षप्रत्यायनमात्रेण वादी निगृह्यते इत्यभ्युपंगमः, (जिनवचनानुगताधिक) भाषित) जिनवचनमाचारादि, अनुगतं संबद्ध, तहसद्भूतदोषोद्भावनेनापि निरुत्तरीकरणात् आत्मोत्कर्षसंभवात्प्रति- नार्दवितर्दमित्यर्थः / महितं पूजितमधिकं वा भाषितं येनाध्यापनाऽऽदिना वादिनो विजयप्राप्तिः, वादिनो निर्दोषसाधनाभिधायिनोऽपि पराजय- स तथा। तस्मिन्, स०। प्रसक्तिः। अथ समर्थस्यापि साधनस्यासमर्थनेन स्वपक्षसिद्धेरभावाद् जिणवयणविहिपुं० (जिनवचनविधि) प्रवचनोक्ते प्रकारे, "जिणवयणवादिनः पराजयो न्यायप्राप्त एव / नाउमयत्र पराजय प्रसक्तेः। न ह्यभूत- विहीई दो वि सद्धाला / ' जिनवचनविधिना प्रवचनोक्तेन प्रकारेण / दोषोपनयनिगमनाद्युद्भावनमाोण प्रतिवादिना प्रकृतं वस्तुत्य प्रसाधयन श्रा०। स्वपक्षसाधनसामर्थ्यविकलेन वादी निगृह्यते इति न्यायोपपन्नम्। अथ जिणवथणरुइ त्रि० (जिनवचनरुचि) जिनाऽऽगमरुचिके,ध०२०। अयं प्रतिवाद्यप्यसाधनाड्गस्य साधनाङ्गत्वेनोपादानात् स्वपक्षसिद्धिमकुर्थन् च गुणवतः पञ्चमो भेदः। मिथ्याभिनिवेशी निगृह्यते इति चेत्। न। उभयोर्निग्रहप्राप्तेरित्युक्तत्वात्। संप्रति जिनवचनरुचिरूपं पच्चमं भेदं व्याख्यानयन्नाहतस्मात् - "असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः / विग्रहस्थानम सवणकरणेसु इच्छा, होइ रुई सहहाणसंजुत्ता। न्यद्धि,न युक्तमिति नेष्यते // 1 // " इत्यादि वादन्यायलक्षणमेकान्त एईइ विणा कत्तो, सुद्धी सम्पत्तरयणस्स? ||46|| वादिनां सर्वमसङ्गतम् / उक्तन्यायात् सर्वस्य चैकान्तसाधनाङ्गत्वात्, श्रवणमाकर्णनं, करणमनुष्ठानं, तयोरिच्छा तीव्राभिलाषो, भवति, तस्यासत्वेन साधयितुमशक्यत्वात्, अनेकान्तस्य च निर्दोषत्वेन तत्र रुचिः, अद्धानसंयुक्ता प्रतीतिसंगता, जयन्तीश्राविकाया इवेति। अस्या दोषोद्भावनरूपत्वात्, दोषानुद्भावनस्य वा निर्दोषे पराजयानधिकरण एव प्राधान्यख्यापनायाऽऽह-एतया द्विस्परूपयारुच्या, विनाऽभावेन, त्वात्, तदुरावनस्यैव तत्र निग्रहार्हत्वादित्यलं पिष्टपेषणेनेति व्यवस्थित कुतः शुद्धिः? न कुतो-ऽपीत्याकूत्तम् / सम्यक्त्वरत्नस्य शुश्रूषा मिथ्या दर्शनसमूहमयत्वं, मयिकत्वं वा / न विद्यते मृतं मरणं धर्मरागरूपत्वात्तस्य, तयोश्च सम्यक्त्वसहभाविलिङ्गतया प्रसिद्धत्वात्। यस्मिन्नसावमृतो मोक्षः, त सारयति प्रापयतीति वा, तस्याबन्ध उक्तंच- "सुस्सुसधम्मराओ, गुरुदेवाणजहासमाहीए। वेयावचे नियमो, मोक्षकारणत्वाद् मोक्षप्रतिपादकत्वाच "अमयसायस्स' चेति सम्मद्दिहिस्स लिंगाई'।१। पाठेऽमृतवत्स्वाद्यते इत्यमृतस्वादम्, अमृततुल्यमिति यावत् / तथा इति पञ्चमगुणभावना। अन्ये तु पञ्चगुणानित्थमभिदधति - रागाऽऽद्यशेषशशुजेतृपुरुषविशेषैरुच्यत इति जिनवचनम्, तस्य, अनेन "सुत्तरुई अत्थरुई, करणरुई चेवऽणाभिनिवेसराई। विशिष्टपुरुषप्रणीततत्त्वनिबन्धनं प्रमाण निगमयति / क्षीराऽऽश्रवाऽ गुणवंते पंचमिया, अणिट्ठिउच्छाहिया होइ॥१॥' ऽद्यनेकलब्ध्याद्यैश्वर्याऽऽ दिमतो भगवत इति, अनेनापि विशेषणेन अत्रापि सूठारुचिः पठनाऽऽदिस्वाध्यायप्रवृत्तिः, अर्थरुचिइतस्यै हिकसंपद्विशेषजनकत्वमाह / संविग्गै : संसारभयो द्वेगाविर्भूतमोक्षाभिलाषैरप कृष्यमाणरागद्वेषा हङ्कारकामुष्यैरिदमेव जिनवचनं चाभ्युत्थानाऽऽदिविनयं गुणिनां प्रयुक्ते। करणानभिनिवेशौ तुल्यावेव / तत्त्वमिति। एवं सुखेनाभिगम्यते यत्तत्संविग्नसुखाभिगम्य, तेनापि विशिष्ट अनिष्टितोत्साहता पुनरिच्छावृद्धिरेवेति न विरोध आशङ्कानीय इति / बुद्ध्यतिशयसंवित्समन्वितयति-वृषभनिषेव्यत्वमस्य प्रतिपादयति / ध० 20 / (जिनवचनरुचिविषये जयन्ती श्राविकाकथा ‘जयंती' एवंविधगुणाध्यासितस्य जिनवचनस्य सामायिकाऽऽदिविन्दुसारपर्यन्त शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1416 पृष्ठे गता) श्रुताम्भोधेः कल्याणमस्त्विति प्रकरणसमाप्तावन्त्यमङ्गलसंपादनार्थ जिणवयणसुइ खी० (जिनवचनश्रुति) जिनाऽऽगमश्रवणे, ''सुलहा विशिष्टां स्तुतिमाहेति / सम्म०३ काण्ड। सुरलोयसिरी, रयणायरमेहला मही सुलहा / निव्वुइसुहजणियरुई, * जिनवदन न० जिनमुखे औ०। जिणवयणसुई जए दुलहा ||1| ति। स्था०६ ठा०। जिणवयणकप्परुक्ख पुं० (जिनवचनकल्पवृक्ष) जिनाऽऽगमरूपे जिणवयणाकण्णण नं० (जिनवचनाऽऽकर्णन) तीर्थकरभाषि तश्रवणे, कल्पवृक्षे, "जिणवयणकप्परूक्खो, अणेगसुत्तत्थसालवित्थिणो / "तत्ताहिगमो हि तहा, जिणवयणाऽऽयण्णणस्स गुणा।" जिनवचनातवनियमकुसुमगुच्छो, सुग्गइफलबंधणो जयइ॥११॥आचा० 1 श्रु० ऽऽकर्णनस्य तीर्थकरभाषितश्रवणस्य एते गुणाः। श्रा०। १अ०१उ०1 जिणवर पुं० (जिनवर) जिनाः ठास्थवीतरागाः तेषां वराः। पञ्चा० 4 जिणवयणधम्माणुरागरत्तमण त्रि० (जिनवचन (वदन) धर्मानुरागरक्त- विव० प्रश्न० / रागाऽऽदिजयाजिनाः, अवधिमनः- पर्यवोपशान्तमनस्) जिनवचने जिनवदने वा धर्मानुरागेण रक्तं मनो यस्य स तथा / मोहक्षीणमोहाः, तेषां मध्ये वराः सामान्यकेवलिनो जिनवराः। संथा। तस्मिन्, औ त्रि०। जिनानां वरा उत्तमाः, भूतभवद्भावि-भावस्वभावावभासिकेवलजिणवयणपदुट्ठ त्रि० (जिनवचनप्रद्विष्ट) जिनाऽऽगमप्रद्विष्टे , ज्ञानकलितत्वात्। प्रज्ञा०१पदाश्रुताऽऽदिजिनप्रधाने केवलिनि, आव० "जिणवयणपदुडे" जिनास्तीर्थकराः, तेषां वचनमागमलक्षणं तस्मिन् 2 अ० / "चउवीस पिजिणवरा, तित्थयरा मे पीसदंतु / " जिनवराः प्रद्विष्टा अप्रीता इति / दश० 1 अ०॥ श्रुताऽऽदि-जिनेभ्यः प्रकृष्टाः / ध०२ अधि०। उत्त०। जिना रागद्वेषाजिणवयणबाहिरमइ त्रि० (जिनवचनाबाह्यमति) सर्वज्ञशासन- ऽऽदिजयनशीलाः सामान्यकेवलिनः, तेषु तेभ्यो वा वरः प्रधानोऽतिबहिर्मुखशेमुषीके, बृ०१ उ०।। शयापेक्षया श्रेष्ठो जिनवरः / त० / तीर्थकरे, आव०२ अ० / "तित्थयरे
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________________ जिणवर 1506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणसासण जिणवरे'' रागद्वेषमोहजितो जिनाः, एवंभूताश्च सामान्यकेव-लिनोऽपि दीरणसत्पदत्थं, निःशेषकर्मारिबलं निहत्य। यः सिद्धिसाम्राज्यमलंचभवन्तीति तद्व्यवच्छेदार्थमाह -- वराः प्रधानाः चतुस्विंशदतिशय- कार, श्रिये स वः श्रीजिनवीरनाथः" ||1 // कर्म० 2 कर्म० / समन्वितत्वेन / सूत्रा०१ श्रु०१ अ०१ उ०।'"सोऊण जिणवरमय, जिणसंकास पुं० (जिनसङ्काश) सर्वज्ञसदृशे, कल्प०६ क्षण सकलसंशय"जिनवराणां तीर्थकराणां मतमभिप्रायम्। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ० / च्छेदकत्वे, स्था० 3 ठा०२ उ०। "अजिणाणं जिणसंकासाणं''। द०प०। "जगमत्थयट्टियाणं, विअसिअवरनाणदंसणधराणं। नाणुञ्जोय- अजिनानामसर्वज्ञत्वा जिनसंकाशानामविसंवादिवचनत्वाद्यथापृष्टगराणं, लोगम्मि नमो जिणवराण // 1 // " ८०प०४ प०। निर्वचनत्वाच्च / स्था० 4 ठा० 4 उ०। जिणवरिंदपुं० (जिनवरेन्द्र)जिनाश्छद्मस्थवीतरागाः, तेषां वराः प्रधानाः जिणसंथव पुं० (जिनसंस्तव) "लोगस्सुजोयगरे" इत्यादिरूपायां केवलिनः, तेषामिन्द्रास्तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तित्वाद् नानाविधाति- जिनस्तुतौ, दश०५ अ०१ उ०। शयसमेतत्वाच तीर्थकराः। अतस्तेषां, जिनवरेन्द्राणामित्यर्थः। "पूजाए | जिणसकहास्त्री० जिनसक्थिन० जिवास्थिनि, भ०।। जिणवरिंदाणं। “पञ्चा००४ विव०1"वंदामि जिणवरिंद"। प्रज्ञा०१ चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचाए पद / (जिनवरेन्द्र-मिति) जयन्ति रागाऽऽदिशनाभिभवन्ति ये ते रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइए खंभे वइरामएसु गोलजिनाः, ते च चतुर्विधाः / तद्यथा-श्रुतजिनाः, अवधिजिनाः, मनः वट्टसमुग्गएसु बहुओ जिणसकहाओ सण्णिविखत्ताओ पर्यायजिनाः, केवलिजिनाः / तत्रा केवलिजिनत्वप्रतिपत्तये वरग्रहण, चिट्ठति। जिनानां वरा उत्तमाः- भूतभवद्भाविभावस्वभावावभा सिकेवलज्ञानक- (जिणसकहाओ त्ति) जिनसक्थीनि जिनास्थीनि / भ० 10 श०५ लितत्वाद् जिनवराः, ते चातीर्थकरा अपि सन्तः सामान्यकेवलिनो उ० / सूत्रो स्वीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् / सू० प्र०१८ पाहु०। भवन्ति, ततस्तीर्थ करत्वप्रतिपत्यर्थ मिन्द्रग्रहणम्, जिनवराणामिन्द्रो (सभास्थितजिनसक्थ्यनुरोधादिन्द्राः सभायां मैथुनं कर्तुं न जिनवरेन्द्रः, प्रकृष्टपुण्यस्कन्ध रूपतीर्थकरनामकर्मोदयात्तीर्थकर शक्नुवन्तीति 'अग्गमहिषी शब्दे प्रथमभागे 172 पृष्ठे उक्तम्) इत्यर्थः / प्रज्ञा० 1 पद। जिणसासण न० (जिनशासन) रागद्वेषमोहलक्षणान शत्रून् जितवन्त इति जिणवसह पुं० (जिनवृषभ) जिनश्रेष्ठ, "अस्संजलं जिणवसहं / ' जिनाः, तेषां शासनं जिनशासनम् / सम्म० 1 काण्ड / जिनप्रवचने, असंज्वलं जिनवृषभम्। स०। दश० 1 अ० / वीतरागवनने, "सुचाणं जिणसासणं।" (25 गाथा) जिणवाणी स्त्री० (जिनवाणी) अर्हद्वचने, "विलसतु मनसि सदा मे, दश० अ०।जिनाऽऽज्ञायां च, "णिक्खंता जिणसासणे।" जिनशासने जिनवाणी परमकल्पलतिकेव। कल्पितसकलनरामर-शिवसुखफलदा जिनाऽऽज्ञायाम्। उत्त० 18 अ०। सूत्र०। न दुर्ललिता' / / 1 / / चं० प्र० 1 पाहु०। "देवा देवी नरा नारी, "समस्तवस्तुविस्तारे, व्यासर्पत्तैलवजले। शाबराइचापि शाबरीम्। तिर्यश्चोऽपि हि तैरश्ची, मेनिरे भगवगिरम्' जीयाच्छ्रीशासनं जैन, धीदीपोद्दीप्तिवर्द्धनम् / / 2 / / // 1 // दशा० 10 // यत्प्रभावादवाप्यन्ते, पदार्थाः कल्पनां विना। जिणविजपुं० (जिणवैद्य) जिनभिषग्वरे, आव०। सा देवी सविदे नःस्ता दस्त कल्पलतोपमा।।३।।" उत्त०१ अ०। जह सव्वसरीरगयं, मंतेण विसं णिरुभए डंके। जं च मे पुच्छसी काले, सम्मं सुद्धेण चेयसा। तत्तो पुणोऽवणिज्जइ, पहाणतरमंतजोगेण / / 173|| ताई पाउकरे बुद्धे, तं नाणं जिणसासणे // 32 // यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, सर्वशरीरगतं सर्वदेह-व्यापकं, मन्त्रोण यच (मे इति) मां पुच्छसि, प्रश्नयसि, काले प्रस्तावे, सम्यक् शुद्धन विशिष्टवर्णानुपूर्वीलक्षणेन, विषं मारणाऽऽ-त्मकद्रव्यं, निरुध्यते अविपरीतबोधवता, चेतसा चित्तेन'लक्षणे तृतीया' ''ता''इति सूत्रात्वात् निश्चयेन ध्रियते, क्व? डड्थेतक्षितदेशे, ततो डङ्घात् पुनरपनीयते। केन ? तत् (पाउकरित्ति) प्रादुष्करोमि प्रकटीकरोमि, प्रतिपादयामीति यावत् / इति अत माह - प्रधानतर-मन्त्रयोगेन, श्रेष्ठतरमन्त्रयोगेनत्यर्थः / बुद्धोऽवगतसकलवस्तु तत्त्वः। कुतः पुनर्बुद्धोऽसि ? अत आह-तदिति "मंतजोगेहिं" इति च पाठान्तरम्। तत्रा मन्त्रयोगाभ्यामित्यर्थः / अत्र यत्किञ्चिदिह जगति प्रचरति ज्ञानं यथाविधवस्त्वबोधरूपं, त पुनर्योग-शब्देनागदं परिगृह्यते / इति गाथार्थः / / 173 / / जिनशासने, अस्तीतिगम्यते। ततोऽहं तत्र स्थित इतितत्प्रसादायुद्धोएष दृष्टान्तः अयमर्थोपनय : ऽस्मीत्यभिप्रायः / इह च यतस्त्वं सम्यक् शुद्धेन चेतसा पृच्छस्यतः तह तिहुअणतणुविसयं, मणो विसं मंतजोगबलजुत्तो। प्रतिक्रान्तप्रश्नादिरप्यहं यत्पृच्छसि तत् प्रादुष्करोमीत्यतः पृच्छ परमाणुम्मि णिरुंभइ, अवणेइ तओ वि जिणविज्जो // 174|| यथेच्छमित्यैदम्पयर्थः / अथ वा - अत एव लक्ष्यते यथा "अप्पणो "तह'' इत्यादि। तथा त्रिभुवनतनुविषयं, त्रिभुवनशरीराऽऽलम्बन- परेसिंच'' इत्यादिना तस्यायुर्विज्ञतामवगम्य संजयमुनिनाऽसौ पृष्टःमित्यर्थः / मन एव भवमरणनिबन्धनत्वाद् विषं मनोविषं, मन्त्रायोग- कियन्ममायुरिति ? ततोऽसौ प्राह - यच त्वं मां कालविषयं पृच्छसि बलयुक्तो जिनवचनध्यानसामार्थ्यसंपन्नः, परमाणौ निरुणद्धि, तत्प्रागुक्तवान बुद्धः सर्वज्ञोऽत एव तज्ज्ञानं जिनशासने, व्यवच्छेदफलतथाऽचिन्त्यप्रयत्नाच अपनयति, ततोऽपि तस्मादपि परमाणोः कः? त्वाद् जिनशासन एव, न त्वन्यस्मिन् सुगताऽऽदिशासने, अतो जिनवैद्यो जिनभिषग्वर इति गाथार्थः / / 174 / / आव० 4 अ०। जिनशासन एव यत्नो विधयः, येन यथाऽहं जानामि तथा त्वमपि जानीष, जिणवीरणाह पुं० (जिणवीरनाथ) महावीरस्वामिजिने, 'बन्धोदयो- | शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः / / 32 / / उत्त०१८ अ०।
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________________ जिणसासण 1507- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिणालय जह जिणासासणनिरया, धम्म पालें ति साहवो सुद्ध। 1763 वर्षे सूरिजतिः, 1780 वर्षे स्वर्गतः / जै० इ०। न कुतित्थिएस एवंदीसइ परिपालणोवाओ।।६३|| जिणहरिसगणि (ण) पुं० (जिनहर्षगणिन) तपागच्छीये जिनचन्द्रयथा येन प्रकारेण, जिनशासननिरता निश्चयेन रताः, / सूरिशिष्ये, येन 1502 वर्षे वीरमग्राममुषित्वा विचारामृतसंग्रहो, धर्म प्राग्निरूपितशब्दार्थ, पालयन्ति रक्षन्ति, साधवः प्रव्रजिताः / रत्नशेखरनरपतिकथा चेति द्वौ ग्रन्थौ रचितौ। जै० इ०। षड्जीवनिकायपरिज्ञानेन कृतकारिताऽऽदिपरिवर्जनेन च शुद्धमकलङ्क | जिणहंससूरि (ण) पुं० (जिनहंससूरिन्) बृहत् खरतगच्छीये नैवं तन्त्रान्तरीयाः, तस्मान्न कुतीर्थिकष्वेवं, यथा साधुषु दृश्यते / जिनसमुद्रसूरिशिष्ये आचाराङ्गोपरि दीपिकाकारक आचार्य, जै० इ० / परिपालनोपायः, षङ्जीवनिकायपरिज्ञानाऽऽद्यभावात्। उपायग्रहणं च जिणाइभत्त पुं० (जिनाऽऽदिभक्त) तीर्थनाथानां सिद्धाऽऽचार्यों - साभिप्रायकम् / शास्त्रोक्तः खलूपायोऽत्रा चिन्त्यते, न पुरुषानुष्ठान, पाध्यायसाधुचैत्यानामन्येषां च गुणगरिष्ठानां बहुमानकरे, कर्म० १कर्म० / कापुरुषा हि वितथकारिणोऽपि भवन्त्येवेति गाथार्थः // 63 दश०नि० जिणाएस पुं० (जिनाऽऽदेश) अर्हद्वचने, "पव्वजाभावओ जिणाएसो।" 10 // पं०व०१द्वार। जिणसासणपरंमुह त्रि० (जिनशासनपराङ्मुख) जैनमार्गविद्वेविणि, | जिणाणा स्त्री० (जिनाऽऽज्ञा) वीतरागोक्तवचनपद्धतौ, "सानुबन्धा सूत्र० "इत्थी व संगया बाला, जिणसासण परम्मुहा।" रागद्वेषजितो ____जिनाऽऽज्ञा च, तत्तपः शुद्धमिष्यते। " अष्ट० 1 अष्ट०। जिनाः, तेषां शासनमाज्ञा कषायमोहो पशमहेतुभूता, तत्पराङ्मुखाः जिणाणु चिण्ण त्रि० (जिनानुचीर्ण) जिनैर्हिताऽऽप्त्यनिवर्त संसाराभिष्वङ्गिणो जैनमार्ग विद्वेषिणः। सूत्रा०१ अ०३ अ०४ उ०। कयोगसिद्धैर्गणधारिभिरनुचीर्ण जिनानुचीर्णम् / गणधरैः सम्यकजिणसिंहसूरि (ण) पुं० (जिनसिंहसूरिन्) खरतरगच्छस्थे जिनचन्द्र- तदर्थावगमाऽऽसङ्ग शक्तिग निवर्तकसमभावप्राप्त्या धर्म - सूरिशिष्ये स्वनामख्याते आचार्ये, ती० 1 कल्प० / पञ्चा० / अयं मेघनानामकसमाधिरूपेण परिणमिते, जी० / "जिणाणुचिण्णं वैक्रमीये 1615 वर्षे जातः, 1623 वर्षे दीक्षितः, 1670 वर्षे सूरिपदं जिणपण्णत्तं। जिना इह हिताऽऽप्त्यनिवर्तक-योगासिद्धा गणधारिणः प्राप्तः, 1674 वर्षे स्वर्गतः / द्वितीयोऽप्येतन्नामा पूनमियागच्छे परिगृह्यन्ते विचित्रार्थत्वात् सूत्राणाम् / जी०१ प्रति०। मुनिरत्नसूरिशिष्यः, येनाममस्वामिचरित्रनामा ग्रन्था रचितः। जै० इ०। | जिणाणुमय 0i (जिनानुमत) जिनानामतीतानागतवर्तमाना जिणसीसपुं० (जिनशिष्य) गणधराऽऽदिके, स०। नामृषभपद्मनाभसीमन्धरस्वामिप्रभृतीनामनुमतं जिनानुमतम् / जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणं थिरजसाणं जिनानामानुकूल्येन सम्मते, "जिणमयं जिणाणुमयं'' वस्तुतत्त्वमपपरिसहसेणरिउबलपमद्दणाणं द (त) वदित्तचारित्तणाण- वर्गमार्ग प्रति मनागपि विसंवादाभावादिति जिनानुमतम्। जी०१ प्रति० / संमत्तसारविविहप्पगारप्पसत्थगुणसंजुयाणं अणगार-महरिसीणं जिणाणुलोम त्रि० (जिनानुलोम) जिनानामवध्यादिजिनानाअणगारसुगाण वण्णओ। मनुलोममनुगुणं जिनानुलोमम्। जिनानामनुगुणे, "जिणमयं जिणाणुमयं जिनशिष्याणां चैव गणधरादीनाम्, किंभूतानाम् ? अत आह जिणाणुलोम'' एतद्वशादवध्यादिजिनत्वप्राप्तेः / तथाहि यथोक्तमिदं श्रमणगणमवरगन्धहस्तिनां, श्रमणोत्तमानामित्यर्थः / तथा स्थिरयशसा, जिनमतमासेवमानाः साधवोऽवधिमनः- पर्यायकेवललाभमातथा-परीषहसैन्यमेव परीषहवृन्दमेव, रिपुबल परचक्रं, तत्प्रमर्दनाना, सादयन्त्येवेति। जी०१ प्रति०। तथा दववद्यावाग्निरिव दीप्तान्युज्ज्वलानि, पाठान्तरेण -'तपोदीप्तानि' जिणाययण न० (जिनाऽऽयतन) जिनभवने, पं०व०४ द्वार। पचा०। यानि चारित्र ज्ञानसम्यक्त्वानि, तैः साराः सफलाः विविधप्रकार- / जिणालय न० (जिनाऽऽलय) जिनभवने, सेन० / जिनाऽऽलये यद् विस्ताराः, अनेकविधप्रपञ्चाः, प्रशस्ताश्च ये क्षमाऽऽदयो गुणास्तैः / धौतिढौकनं करोति तत्कस्मिन् सूत्रो, प्रकरणे वाऽस्ति? तथा कुमतिन संयुताना, क्वचिद् गुणध्वजानामिति पाठः / तथा अनगाराश्च ते इत्थं कथयन्ति-धौतिढौकनं देवनिर्माल्यं जायते, तस्य पुष्पादिलात्वा महर्षयश्चेत्यनगारमहर्षयः, तेषामनगारगुणानां वर्णकः, श्लाघा, कथं चटापयन्ति? इति प्रश्ने, उत्तरम्-धौतिढौकनमिति परम्परया आख्यायत इति योगः। स०। ज्ञायते, तथा तन्निर्माल्यं न कथ्यते / यतो "भोगविणटुं दव्वं, जिणसुंदर पुं० (जिनसुन्दर) सोमसुन्दरसूरिशिष्ये स्वनामख्याते निम्मल्लंविति गीअत्था।' इति श्राद्धवृत्तावुक्तत्वादिति। 125 प्र०। तपागच्छीय आचार्य , ग० 4 अधि०। येन दीपाऽऽ वलीकल्पो नाम सेन०२ उल्ला०। ज्ञानद्रव्यममारिद्रव्यं च जिनगृहकार्ये आयाति, नवा? ग्रन्थो विरचितः। वैक्रमीये 1466 वर्षेऽयं विद्यमान आसीत्। जै० इ०। इति प्रश्ने, उत्तरम् - ज्ञानद्रव्यं जिनाऽऽलयकार्ये आयातीत्य-क्षराण्युजिणसे हरसूरि (ण) पुं० (जिनशेखरसूरिन्) खरतरगच्छीये पदेशचिन्तामणौ सन्ति, अमारिद्रव्यं तु महत्कारणं विना न समायातीति जिनवल्लभसूरिशिष्ये, अनेन 1204 वर्षे रुद्रपालीयगच्छ: स्थापितः, ज्ञायते। 463 प्र०। सेन०३ उल्ला०। जिनाऽऽलय-कार्यकर्तुरात्मीय सम्यक्त्वसप्ततिकाशीलतरङ्गिणी प्रश्नोत्तरत्न मालावृत्तिश्चेति ग्रन्था कार्य दीयते, न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम्- जिनाऽऽलयस्थापकेन विरचिताः। जै० इ०। स्वकीयकार्य न कार्यत इति / 462 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / जिणसोक्खसूरि (ण) पुं० (जिनसौख्यसूरिन) खरतरगच्छीये जिनाऽऽलये रात्रौ गीतागानाऽऽदि क्रियते, तत्करणे देवद्रव्यमुत्पद्यते, जिनचन्द्रसूरिगुरौ, वैक्रमीये 1736 वर्षे ऽयं जातः 1751 वर्षे दीक्षितः नान्यथा, तदा तत्कर्त्तव्य, न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरमशास्त्रानुसारेण
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________________ जिणालय 1508 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिण्ण मूलविधिना गीतगानाऽऽदि न शुद्धयति, परं देवद्रव्यो त्पत्तिकारणेन "यो जैनाभिमतं प्रमाणमनघं व्युत्पादयामासिवान्, / रात्रावपि गीतगानाऽऽदिभावनाकरणे लाभो ज्ञायते इति / 77 प्र०। प्रख्यानैर्विविधैर्निरस्य निखिलं यौद्धाऽऽदिसंबन्धि तत्। सेन० 4 उल्ला०। नानावृत्तिकथाः कथापथमतिक्रान्तं च चक्रे तपः, जिण्णावधिणाण न० (जिनावधिज्ञान) ज्ञानभेदे, श्रीजिनाना - निःसंबन्धविहारयप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा / / 7 / / मवधिज्ञानं, सदृशं, किं वा विशेषः? इति प्रश्ने, उत्तरम् - यो जिनो यतः तस्याऽऽचार्यजिनेश्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्द्धिनः, समेति तस्य तत्स्थानसंबन्धि प्रवर्द्धमानं चावधिज्ञानं भवतीति, न सर्वेषां तद्वन्धोरपिबुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे(वि। जिनानामवधिज्ञान सादृश्यमिति। 128 प्र०। सेन०१ उल्ला०। छन्दोबन्धनिबद्धबन्धुरवचः शब्दादि सल्लक्ष्मणः, जिणाहिय त्रि० (जिनाऽऽहित) जिनैराहितः, जिनानांवा संबन्धी आहितो श्रीसंविनविहारिणः, श्रुतनिधेश्चारित्रचूडामणेः " ||8|| ज्ञा०२ श्रु० जिनाहितः। जिनप्रतिपादिते, जिनानुष्ठति च / सूत्रा० "चरे भिक्खू 5 वर्ग 1 अ०। जिणाहियं / " जिनैराहितः प्रतिपादितोऽनुष्ठितो यो मार्गो जिनानां वा तथा च पञ्चाशकवृत्तौ वर्द्धमानवर्णनमुपक्रम्यसंबन्धी योऽभिहितो मार्गस्तं चरेदनुतिष्ठेत्ा सूत्रा०१ श्रु०६ अ०। "शिष्योऽभवत्तस्य जिनेश्वराऽऽरख्यः, जिणिऊण अव्य० (जित्या) जयं कृत्वेत्यर्थे , प्रा० 4 पाद / अङ्ग। सूरिः कृतानिन्द्यविचित्राशास्त्रः। "एप्प्येप्पिण्वेव्येविणवः" |84440 / इति प्राकृतसूत्रोणापभ्रंश सदा निरालम्बविहारवर्ती, क्त्वाप्रत्त्यस्य एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु इत्यादेशा। प्रा०४ पाद।''गंग चन्द्रोपमश्चन्द्रकुलाम्बरस्य' ॥२पञ्चा० 16 विव०। गमिप्पिणु जो मुअइ, जो सिवतित्थ गमेप्पिा कीलदि तिदसाऽऽवासगउ, अष्टके वीरजिनमारभ्य वर्द्धमानमुनिपर्यन्तमुपवर्ण्य - सो जमलोउ जिणेप्पि // 1 // " प्रा०४ पाद। "संवेगरङ्गशाला-ग्रन्थार्थकथनसूत्राधरतुल्यः। जिणित्ता अव्य० (जित्वा) जयं कृत्वेत्यर्थे ,प्रा० 4 पाद। सूरिर्जिनेश्वराऽऽख्यः, सिद्धिविधेः साधने धीरः" // 3 // अष्ट० 32 जिणिंद पुं० (जिनेन्द्र) जिननायके तीर्थकरे, "एत्थ इमं वणिणअं अष्ट०। अन्योऽप्येतनामा राजगच्छीयो वज्रशाखायां कोटि कगणमध्यजिणिंदेहि।" जिनेन्द्रः जिननायकैः / पञ्चा०५ विव० / औ०। पं० गोऽभयदेवसूरिशिष्योऽजितसेनगुरुः, तेन जैननैषधीयकाव्य रचितं, स व०रा०। च वैक्रमीये 1050 वर्षे विद्यमान आसीत् / अपरश्च वैक्रमीये, 1262 जिणिंदपण्णत्त त्रि० (जिनेन्द्रप्रज्ञप्त) तीर्थकरप्रणीते, पं० ब०१ द्वार। वर्षे आसीत्, स च सूरिप्रभसूरिशिष्यः / चतुर्थश्च खरतरगच्छे जिणिंदवयण नं० (जिनेन्द्रवचन) जिनेश्वराऽऽगमे, पञ्चा०। जिनप्रयोधसूरिशिष्यः चन्द्रप्रभचरित्रग्रन्थरचयिता आसीत्। तस्य जन्म चित्तं चित्तपयजुअं, जिणिंदवयणं असेससत्तहि। 1245 वर्षे दीक्षा 1255 वर्षे, सूरित्वं 1258 वर्षे, स्वर्गतिः 1331 वर्षे परिसुद्धमेत्थ किं तं, जंजीवाणं हिअंणऽत्थि? ||39 // समभवत्। जै० इ०। चित्राम् - अद्भुतमनेकातिशयाभिधानत्वादङ्गानङ्गादिभेदत्याद्वा जिणुजाण न० (जिनोद्यान) अवन्तीजनपदस्थोज्जयिनीनगरोत्तरचित्रामनेकविधं, तथा चिापदयुतम् - नानाविधार्थप्रति-पादकाभि- | पार्श्ववर्तिनि स्वनामख्याते उद्याने, ग० 5 अधि० / नि० चू० / धानयुक्तम् , जिनेन्द्रवचन-जिनेश्वराऽऽगमः, अशेषसत्त्वहितं समस्त- जिणुत्तम पुं० (जिनोत्तम्) तीर्थकरे, ''मग्गं विराहित्तु जिणुत्तमाणं।" प्राण्युपकारकं भव्यानुसारेण मार्गप्रति पत्त्युपायप्रतिपादनपरत्वात् | जिनोत्तमानं तीर्थकराणाम् / उत्त० 20 अ०। परिशुद्ध कषच्छेदतापविशुद्ध सुवर्णमिव निर्दोषम् / एवं च अयास्मिन् | जिणेप्पि अव्य० (जित्वा) जयं कृत्वेत्यर्थे , प्रा०४ पाद। जिनवचने, किंतद् ? यजीवानां हितं नास्ति ? सर्वमपि जीवानां जिणेस पुं० (जिनेश) अर्हति, “जिनेशगीर्विस्तरमाप तर्कः।" हितमस्तीत्यत इदं तपः परिदृश्यमानाऽऽगमेऽनुपलभ्यमानमप्यु- जिनेशगीरर्हद्वाणी। द्रव्या०६ अध्या०। लब्धमिनावगन्तव्यं तथाविधजनहितत्वादिति गाथार्थः / / 31 / / पञ्चा० जिणेसरपुं० (जिनेश्वर) जिनेन्द्र, तीर्थकरे, पञ्चा० 16 विव०। 16 विव०। जिणेसरसुरि(ण) पुं० (जिनेश्वरसूरिन्) "जिणिस्सरसूरि' शब्दार्थे, जिणिस्सर पुं० (जिनेश्वर) जिनेन्द्रे तीर्थकरे, पञ्चा० 16 विव०।। जै० इ०। जिणिस्मरसूरि (ण) पुं० (जिनेश्वरसूरिन्) श्रीवर्द्धमानसूरि-शिष्य | जिणोवइट्ट त्रि० (जिनोपदिष्ट) तीर्थकराभिमते, "जिणोवइटेण अभयदेवसू रिगुरौ स्वनामख्याते आचार्य , स्था० 10 ठा० / भावेणं / " ग०२ अधि०। एतस्मादेवाऽऽचार्यात् खरतरगच्छः प्रवृत्तः, अयमाचार्यो वैक्रमीये 1000 / जिणोवएस पुं० (जिनोपदेश) द्वादशाङ्गे प्रवचने, "ण वि तचाओ वर्षे विद्यमान आसीत् / एतेन जावालपुरमुषित्वा हारिभद्राष्टकटीका, जिणोवएसम्मि।" सम्म० 3 काण्ड। पञ्चलिङ्गीप्रकरणं, वीरचरित्रां, लीलावतीकथा, रत्नकोशश्चेत्यादिका जिण्ण त्रि० (जीर्ण) "उज्जीर्णे" 8/1 / 10 / इतिप्राकृतसूत्रोण जीर्णशब्दे अनेके ग्रन्था रचिताः। जै० इ०। तथा चस्यानाङ्गवृत्तौ श्रीमचन्द्रकुलीन- | इतउत्त्वे-'जुण्णो' उत्त्वाभावपक्षे-'जिण्णो'। प्रा०१पाद।हानियुक्ते, भ० प्रवचनप्रणीताप्रतिवद्धाविहारहारिचरितश्रीवर्द्धमानाभिधानमुनिपति- 101 उ०।"जुण्णे जराजज्जरियदेहे"जीर्णो हानिगतदेहः / भ०१६ पादोपसेविनः प्रमाणाऽऽदिव्युत्पादनप्रवणप्रकरण प्रबन्धप्रणयिनः- श०४ उ०। उत्त० / अनु० / निःसारे, "जहा जुण्णाह कट्ठाइ, हव्ववाहो प्रबुद्धप्रतिबन्धकप्रवक्तप्रवीणाप्रतिहतप्रवचनार्थप्रधानावाक्प्रसरस्य पमत्थति।" यथा जीर्णानि निःसाराणि काष्ठानि हव्यवाहो हुतभुक्प्रमानाति सुविहितमुनिजिनमुखस्य श्रीजिनेश्वराऽऽचार्यस्य। स्था० 10 ठा०। शीघ्र भस्मसात् करोति / आचा० 1 श्रु० 4 अ० 3 उ० / "अप्पेगइ
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________________ जिण्ण 1506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिब्भामयसोक्ख या दावदवरुक्खा जुण्णा।"जीर्णा इव जीर्णाः। ज्ञा०१ श्रु०१० अ०। संस्कारभेदे, वाच०। घ०। प्राकृते वचिदुत्त्वं न भवति। "जिण्णे भोयणमत्तेओ।" प्रा०१ पाद। "नवीनजिनगेहस्य, विधाने यत्फलं भवेत् / आ० चू०। जरायुक्ते, जीरके, पुं० शैलजे, न०। स्थूलजीरके, स्त्री०। तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोद्धारेण जायते // 1 // वाचा परिणतवयसि, बृ०१उ०॥ जीर्णे समुद्धते याव-त्तावत्पुण्यं न नूतने। जिण्णकुमरी स्त्री० (जीर्णकुमारी) वृद्धायामपरिणीतायां स्वियास्, उपमर्दो महाँस्तत्रा, स्वचैत्यख्यातिधीरपि।।२।। "जिण्णा जुण्णकुमारी।" जीर्णा जीर्णशरीरा, जरणाद वृद्धेत्यर्थः / सैव तथाजीर्णत्वापरिणीतत्वाभ्यां जीर्णकुमारी। ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। नि०। राया अमच सिट्ठी, कोडंबीए वि देसणं काउं। जिण्णगुल पुं० (जीर्णगुड) निस्सारगुडे, जीर्णगुडस्य पिण्डीभवनलक्षणों जिण्णे पुवाऽऽययणे, जिणकप्पी वा वि कारवइ // 3 // बन्ध इति। भ० 8 श०६ उ०। अनु०। जिणभवणाई जे उ-द्धरंति भत्तीइसडिअपडिआई। जिण्णघय न० (जीर्णघृत) निस्सारघृते, अनु०। ते उद्धरंति अप्पं, भीमाओ भवसमुद्दाओ॥४॥" जिण्णतंदुल पुं० (जीर्णताण्डुल) निस्सारतण्डुलस्य पिण्डीभवनलक्षणो जीणैचैत्योद्धारकारणपूर्वकमेव च नव्यचैत्यकारणमुचितम्, तत एव बन्धः / भ० 8 श०६ उ०। अनु०। संप्रतिनपतिना एकोननवतिसहस्रा जीर्णोद्धाराः कारिताः, नवचैत्यानि जिण्णतया स्त्री० (जीर्णत्वक्) सर्पकञ्चुके, ''मुंजगमे जुण्णतयं जहा तुषत्रिशत्सहस्राण्येवा एवं कुमारपालवस्तुपाला ऽऽद्यैरपि नव्यचैत्येभ्यो जहे, विमुचती से दुहसेज माहणे।" यथा सर्पः कञ्चुकं त्यक्त्वा निर्मलो जीर्णोद्धारा एव वहदो व्यधाप्यन्तेति। ध०२ अधिक। भवत्येवं मुनिरपि दुःखशय्यातो नरकाऽऽदिभवाद्विमुच्यत इति। आचा० / जिण्णोब्भवा स्त्री० (देशी) दुर्वायाम्, दे० ना०३ वर्ग। 2 श्रु० 4 चू०। जित्तिअ त्रि० (यावत्) यत्परिमाणे, "यतदेतदोऽतोरित्ति- अ जिण्णदुग्ग न० (जीर्णदुर्ग) गूर्जरधराऽधिपस्य तेजः पालमन्त्रिाणा एतल्लुक्च"||१५६ एभ्यः परस्यडावाऽऽदेरतोः परिमाणाकारितपुरादूरे गिरिनारतलस्थे उग्रसेनगढापरनामके दुर्गे , ती०। र्थस्य 'इत्तिअ' इत्यादेशो भवति, एतदो लुक् च / यावत्, “जित्ति। "अणहिल्लवाडयपट्टणे य पोरवालकुलमंडणा आसरायकुमरदेवतणया | प्रा०२ पाद। गुजरधराऽहिवइसिरीवीरधवलरजधुरंधरा वत्युपालतेजपालनामविजा जिध अव्य० (यथा) सादृश्ये, येन प्रकारेणेत्यर्थे च। "कथंयथा तथा दो भायरा मंतिवरा हुत्था / तत्थ तेजपालमंतिणा गिरिनारतले थादेरेमेमेहेधा डितः" ||84401 / / इति प्राकृतसूत्रोण था इत्यस्य निअनामंकिअंतेजपालपुरं ठावियं, जस्सउ पुव्वदिसाए उग्गसेणगढ़ नाम 'इध' 'इह' इत्यादेशौ भवतः। प्रा०४ पाद। दुग्गं जुगाइनामहप्पमुहजिणमंदिररहिल्लं विजइ, तस्स य तिणि नाम जिब्मगार पुं० (जिलाकार) जिह्वाकारके शिल्पिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद! पसिद्धाई। तं जहा-ठग्गसेणगढ़ तिवा, खंगार गढं ति वा, जुण्ण दुग्गं ति जिब्भास्त्री० (जिह्वा) लेढि अनया लिह-व-नि०-जः।"हो भो वा" वा। गढस्स बाहिं दाहिणदिसाए चउरि आवेइलहुअवरियाण्सु वाडयाई 118 / 2 / 57 / / इति प्राकृतसूत्रोण वा भः। प्रा० 2 पाद / ठाणाइं चिट्टति, उत्तरदिसाए विसालथंभसालासोहिओ दसदुआरमंडवो, "ईर्जिह्वासिंहत्रिंशद्विशतौ त्या" ||162 / / इति प्राकृतसूत्रोण गिरिदुवारे य पंचमो हरीदामोअरो सुवण्णरेहानईपारे वट्टइ।" ती०४ ईकारविकल्पः / प्रा०१ पाद / रसज्ञानेन्द्रिये, रसनायां च / वाच०। कल्प। प्रश्न०।०ा औ०। प्रज्ञा० / “सत्तंगुलिया जीहा।'' जिला मुखाभ्यन्तरजिण्णसुरा स्वी० (जीर्णसुरा) निःसारसुरायाम, जीर्णसुरायाः स्त्यानी- वर्तिमांसखण्डरूपा दैयेणाऽऽत्माकुलतः सप्ताङ्गुला। तं० / "जिब्भ भवनलक्षणो बन्धः / भ०८ श०६ उ०। अनु०॥ विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं / " मद्यमांसरसाभिलिप्सोम॒षाभाषिणो जिह्वां जिण्णसेट्ठिरण) पुं० (जीर्णश्रेष्ठिन) श्रेष्ठिपदाच्च्युते श्रेष्टिनि, य०२०। वितस्तिमात्रामाक्षिप्य तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति। सूत्रा०१श्रु० "पुर समस्ति वैशाली, शालीनजनशालिनी। 5 अ० 1 उ०। उत्त० / उपा०। तत्राऽऽसीत्परमश्राद्धो, जिनदत्ताभिधः सुधीः / / 1 / / जिब्भादुट्टपुं० (जिहादुष्ट) जिह्वया दुष्टे, आव० 4 अ०। उत्त०। सदा जिनपदाम्भोज-सेवनैकसितच्छदः। जिब्भादोस पुं० (जिह्वादोष) जिह्वाविकारे, आव० 4 अ०। च्युतः श्रेष्ठिपदाञ्जीर्ण श्रेष्ठित्वेन स विश्रुतः" / / 2 / / जिब्भामय पुं० (जिह्वामय) जिहे न्द्रियहानौ, स्था०६ ठा० / घ०र०। "वाणारसीए रुद्दसेणो जुण्णसेट्टी। आव० 4 भ०। कल्प०।। जिडभामयदुक्ख न० (जिह्वामयदुःख) जिह्वे न्द्रियहानिरूपे दुःखे, जिण्णजिण्णा त्रि० (जीर्णाजीर्ण) अर्द्धजीणे,तचायुः -क्षयनिमित्तम्। "जिब्भामएण दुक्खेण संजोएता भवइ / ' जिह्वामयं जिढे न्द्रियमहा "जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो।" आ० म० प्र०। आ० क०। निरूपं यद् दुःखं, तेन संयोजयिता भवति। स्था. 4 ठा० 4 उ०। जिण्णासा स्त्री० (जिज्ञासा) बुभुत्सायाम, पञ्चा० 4 विव०। जिब्भामयसोक्ख न० (जिह्वामयसौख्य) जिह्वाया विकारो जिह्वामयं, जिण्णुजाण न० (जीर्णोद्यान) राजगृहनगरस्योत्तर पश्चिमदिशि स्थिते सौख्यं रसोपलम्भाऽऽन्नदरूपंजिह्वामयसौख्यम्। रसोपलम्भाऽऽनन्दरूपे स्वनामख्याते उद्याने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। जिह्वे न्द्रियसुखे, “जिब्भामयाओ सोक्खाओ ववरोवित्ता भवइ।" स्था० जिण्णुद्धार पु० (जीर्णोद्धार) जीर्णस्य भग्नमन्दिरादेरुद्धारो यत्रा।। 4 ठा० 4 उ०।
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________________ जिभिंदिय 1510 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिय पप० जिभिंदिय न० (जिह्वेन्द्रिय) रसनेन्द्रिये, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / रसेसु मणुण्णभद्दएसु, न तेसु समणेणं सञ्जियट्वं० जिहेन्द्रियं च दुःखाय भवति। जाव नसतिंच मतिंचतत्थ कुज्जा, पुणरवि जिभिंदिएण सातियरसानि यथा दुःखाय भवति तथोदाहरणम् - अमणुण्णपावकाई, किं ते? अरसविरससीयलुक्खणिजप्पपाणभोयणाई "भूप्रतिष्ठपुरे राजा, सोदासो मांसलोलुपः। दोसण्णवावण्णकुहियपूइयअमणुण्णाविणट्ठपणुयबहु दुब्भिगंधियाई अमारिर्घोषिताऽन्येधु, मसिं पर्युषितं पुनः।।१।। तित्तकड्डयकसायअंबिलर सलिंदनीरसाई अण्णेसु य एवमाइएसु रसेसु मारी जगृहेऽन्यत्तु, न सूनास्वप्यभूत्तदा / अमणुण्णपावएसुन तेसु समणेण रुसियव्वं. जाव चरेज धम्मं / / प्रश्न०५ राज्ञो भीतेन सूदेन, शिशुापाद्य संस्कृतः॥२।। सम्ब० द्वार।। (टीकाऽस्य रसगिद्ध' शब्दे) भुजानः पृष्टवान् राजा, मांसं स्वादिष्ठमद्य किम् ? जिब्भिया स्त्री० (जिह्निका) जिला- कन्- टाप् / कृत्रिम-जिह्वायाम, तेनाऽऽख्यातेऽभयं दत्त्वा, हत्वैकैकं पचेः सदा।३।। स०। शीतोदाया महानद्याः प्रपातमधिकृत्य- 'वइरामयाए जिव्हियाए'।। तच ज्ञातं जनैः सर्वः, ततो राक्षस इत्यसौ। वज़मय्या जिहि कया प्रणालस्थ-मकरमुखजिहि कया। स० / पाययित्वा महामद्य-मटव्यां छर्दितो नृपः||४|| "रोहियंसा णामं महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिव्हिया तत्राप्येकाकिनं व्यापा-द्यानाति स च मानुषम्। पण्णत्ता / " जं० 4 वक्षः। सार्थस्तत्राध्वनाऽगच्छत्, ज्ञातः सुप्तेन तेन न।।५।। जिम धा० (भुज) भक्षणे, आत्म०ापालने, पर० सक० रुधादि० अनिट् / आवश्यकं प्रकुर्वाणाः, दृष्टाश्च मुनयः स्थिताः। "भुजो मुंजजिमजेमकम्माण्हसमाणचमढचड्डाः "||4|110 / शोत्याक्रमितुं तान्न, ततश्चिन्तां प्रपन्नवान् // 6 // इति प्राकृतसूत्रोण भुजेर्जिमाऽऽदेशः। "जिमइ-जेमइ'' प्रा० 4 पाद। आचार्यः कथितो धर्मः, प्रबुद्धः प्राव्रजत् ततः। भुङ्क्ते, अन्नम् अभौक्षीत, भूमिं भुनक्ति पालयति। वाच० / 'जिमइ - आचार्या ज्ञानिनोऽभूवन्, अभ्युद्दधे स तैस्ततः / 7 / / जिम्मइ'। प्रा०४ पाद।। भाषिणः कति तादृक्षाः, तद्रसज्ञाऽतिदुःखदा। जिम धा० भक्षणे, जेमति, अजेमीत्। वाच०। जेतव्याऽसौ प्रयत्नेन, दुर्जया मोहनीयवत्॥८॥"आ० क०। जिमिय नि० (जिमित) कृतभोजने, विपा० 3 अ० ! "जिमिए आ० म०। आ० चू०। भुत्तुत्तरागए। जिमितो भुक्तवान्। भ०३ श० 1 उ०। ज्ञा०। जिभिंदियनिग्गह पुं० (जिह्वेन्द्रियनिग्रह)६ ता जिह्वेन्द्रिय-स्यनिग्रहे, | जिम्म त्रि० (जिह्य) हा-मन-द्वित्वादि०नि०।"पक्ष्मश्मष्मजिह्वेन्द्रियस्य स्वविषयाभिमुखमनुधावतो नियमने, उत्त०। स्मह्याम्"||७४।। इत्यादिसूत्रोण म्हः क्वचिन्न भवति। प्रा०२ जिभिदियनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? जिभिंदि- | पाद। कुटिले, मन्दे, तरगवृक्षे च / वाच०। यनिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसु रसेसु रागबोसनिग्गहं जणयइ, "अजिम्मकंतणयणा" अजिह्ये अमन्दे भद्रभावतया निर्विकारचपले तप्पचइयं कम्मं न बंधेइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ॥६५।। कान्ते नयने यासां तास्तथा। जं०२ वक्ष० / स०। कौटिल्ये, न०। हे भदन्तः! जिह्वेन्द्रियनिग्रहेण जीवः किं जनयति ? गुरुराहहे शिष्य ! तदात्मके मायाकषायान्तर्गते मोहनीयकर्मभेदे च / स०७४ सम०। जिह्वेन्द्रियनिग्रहेण जीवो मनोज्ञामनोज्ञेषु स्पेषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति, | जिम्मजढ त्रि० (जिझसड) मायारहिते, "जिम्मजडाई ति विस्संभे।" तत्प्रत्ययिकं रागद्वेषनिमित्तकं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं रागद्वेषोपार्जितं जिह्मजडानि जिह्येन मायया रहितानि / व्य०३ उ०। कर्म निर्जरयति क्षपयति।।६५।। उत्त० 26 अ०। जिम्मय पुं० (जिह्मक) मेघभेदे, स्था० 5 ठा० / "जिम्हेणं महामेहे जिटिभ दियपडि संलीणया स्त्री० (जिढे न्द्रियप्रतिसं लीनता) बहुवासेहिं एगं वासं भावेइवा, ण त्ताभावेइ।'' जिह्मस्तुबहुभिर्वर्षणैरेकमेव मनोज्ञामनोज्ञेष्वाहारेषु रागद्वेषपरिहाराऽऽत्मक आजीविकानां तपोभेदे, वर्षमब्दं यावद् भुवं भावयति, नैव वा भावयति, रुक्षत्वात्तज्जलस्येति / स्था० 4 ठा०२ उ०। स्था० 4 ठा० 4 उ०। जिभिंदियबल न० (जिह्वेन्द्रियबल) बलभेदे, स्था० 10 ठा० / जिम्भ त्रि० (जिह्य) 'जिम्म' शब्दार्थे , प्रा०२ पाद। जिमिंदियमुंडपुं० (जितेन्द्रियमुण्ड) मुण्डभेदे, स्या० १०ठा०। जिम्भजढ त्रि० (जिहाजड) "जिम्मजद'' शब्दार्थे, व्य०३ उ०। जिब्भिंदियसंवरपुं० (जिह्वेन्द्रियसंवर) रसनेन्द्रियसंवरणे स्था०। जिम्भय पुं० (जिह्मक) जिम्भय' शब्दार्थे, स्था०५ ठा०। तचैवम् जिम्ह त्रि० (जिह्म) जिम्म' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद। चउत्थं जिडिमंदिएण सातियरसाणि उ मणुण्णभद्दकाई, किं | जिम्हजढ त्रि० (जिह्मजड) 'जिम्मजढ' शब्दार्थे, व्य०३ उ०। ते? ओग्गाहिमविविहपाणभोयणगुलकयखंडकयतेल्ल- | जिम्हय पुं० (जिह्मक) 'जिम्मय' शब्दार्थे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। घयकयभक्खेसु बहुविहेसु लवणरससंजुत्तेसुमहुमंस-बहुप्पका जिय न० (जित) जि-भावे-तः। जये, कर्मणि क्तः / अभिभूते, रमजयनिट्ठाणगदालियं बसे हंबदुद्धदहि-सरयम- सूत्रा०१ श्रु०१ अ०४ उ०। पराजिते, ग०२ अधि० / जयलब्धे, वरवारुणीसीहुकापिसायणसायऽट्ठारसबहुप्पगारेसु भोयणेसुय वशीकृ ते , आयत्तीकृते च / त्रि० / वाच०। 60 / सूत्रा०। मणुण्णवण्णगंधरसफासबहुदध्वसंभिएसु अण्णेसु य एववइएसु | उत्त०। परावर्तनकाले, प्रश्नोत्तरकाले, शीघ्रमागच्छति, अनु०।
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________________ जिय 1511 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीमय सूत्राऽऽदौ परावर्तनं कुर्वतः परेण वा क्वचित्पृष्टस्य सतः यत् शीघ्रमाभणति | जियलोह त्रि० (जितलोभ) विफलीकृतलोभे, औ०। तज्जितम् / अनु० / विशे० / ग० / "जियं नामजत्थ पुच्छिओ तत्थ जियवं त्रि० (जितवत्) प्राप्तजये, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। झगिति भणइ।' पं० चू०। जियसत्तु पुं० (जितशत्रु) पराजितशत्रौ, "जितसत्तू पवररायजियंतय न० (जीवत्) हरितवनस्पतिकायभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। सीहा।" प्रश्न०४ संव० द्वार। अजितजिनस्य पितरि, प्रव०१२ द्वार। जियंती स्त्री० (जीवन्ती) वल्लीभेदे, प्रज्ञा०१ पद। आव० / स०। "विजया जियसत्तुपुत्तस्सा "ति०। वाणिज्यग्रामवास्तव्ये जियकरण पुं० (जितकरण) करणदक्षे, "जियकरणविणीऍ एगत्थे।" नृपे, "तत्थ णं वाणियग्गामे जियसत्तू राया / " उपा० 1 अ० / जितकरणो विनीत इति द्वावप्येकार्थों तात्पर्यविश्रान्त्या; शब्दार्थस्तु चम्पानगरीवास्तव्ये नृपे, "चंपा नाम नयरी होत्था, पुण्णभद्दे चेइए. परस्परं भिन्नो; जितकरणो नाम - करणदक्ष उच्यते, विनीत इति जियसत्तू राया।" उपा०१ अ०। छत्रानगरी वास्तव्ये नृपे, आ० म० विनयकरणशीलः / व्य०३ उ०। प्र० / वसन्तपुरस्थे नृपे, “वसंतपुरे नयरे जियसत्तू राया। आ० म० जियकसाय त्रि० (जितकषाय) निगृहीतक्रोधाऽऽदिभावे, पञ्चा० 17 द्वि० / वीतशोकानगरी वास्तव्ये नृपे, आ० चू०। "वीयसोगा नगरी, विव०।"तिलोगपुज्जे जिणे जियकसाए।" जितकषायान् निराकृता जियसत्तू नाम राया।" आ० चू०२ अ० / आ० म०। उज्जयिनीनगरीक्रोधाऽऽदिभावान्। पञ्चा० १०विव०। वास्तव्ये नृपे, उत्त०२ अ०। सर्वतोभद्रनगरस्थे नृपे, "सव्वओभद्दे णयरे जियकोह त्रि० (जितक्रोध) अभिभूतकोपे, द्वा० 12 द्वा० / विफलीकृतो जियसत्तूणामं राया होत्था।" विपा०१ श्रु०५ अ०।मथुरानगरीवास्तव्ये दितक्रोधे, औ०। "जितेन्द्रिया जितक्रोधाः दुर्गाण्यतितरन्तिते।" द्वा० स्वनामख्याते नृपे, आ० म० द्वि० / मिथिलानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते नृपे, जं० 1 वक्ष० 1 मिथिलायां नगर्या जितशत्रुनाम 12 द्वा०। जियक्ख त्रि० (जिताक्ष) जितेन्द्रिये, "विणयकुसलो जियक्खगम्भीरो।" राजा / सु० प्र०१ पाहु० / मल्लिजिनेन सह प्रव्रजिते पाञ्चालदेशस्थे काम्पिल्यनगरनायके राजनि, स्था० / "जिय सत्तू पञ्चालराया।" दर्श०५ तत्त्व / पञ्चा०। जियणिद्द त्रि० (जितनिद्र) जिता निद्रा आलस्यं येन य जित-निद्रः। जितशत्रु म पाञ्चालजनपदराजः काम्पिल्यनगरनायकः / स्था०६ ठा० / ज्ञा० / भविष्यति स्वनामख्याते दत्तस्य राज्ञः सुते च / ती०। त्यक्ताऽऽलस्ये, जं०३ वक्ष०। औ०। अल्पनिद्रे, ग०१ अधिः / स हि 'दत्तो य राया यावत्तरिवासाओ पइदिणं जिणचेइमंमिअं महिं काही, रात्रौ सूत्रामर्थवा परिभावयन्न निद्रया वाध्यते। प्रव०६४ द्वार। अप्रमत्ते, लोगं च सुहिअं काही ति, दत्तस्स पुत्तो जियसत्तू, तस्स वि स मेघघोसो आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। कक्की, अणंतरं महानिसीह न वट्टिस्सइ।'ती०२० कल्प०। जियणिबिंदिय त्रि० (जितनिद्रेन्द्रिय) जितानि वशीकृतानि निद्रा जियसेणपुं० (जितसेन) श्रावस्तीवास्तव्ये स्वनामख्याते आचार्ये, आव० इन्द्रियाणि यैस्ते जितनिद्रेन्द्रियाः / वशीकृतनिद्रेन्द्रिये, बृ०१ उ०। 4 अ० / सुमतिजिनसमकालिके स्वनामख्याते चक्रवर्तिनि, ति०। जियपरिसा त्रि० (जितपरिषत्) महत्यामपि परिषदि क्षोभमनु पयाते, कौशाम्बीवास्तव्ये स्वनामख्याते नृपे, आ० क०। "कौशाम्बीत्यस्ति प्रव०६४ द्वार ! ग०। आचाक/स०। पूस्तत्रा, जितसेनो महीपतिः।" आ० क० / भरतवर्षस्थे अतीतायाजियपरीसम त्रि० (जितपरिश्रम) परिश्रमरहिते, कल्प०१क्षण। मुत्सर्पिण्यां स्वनामख्याते कुलकरे, स०। जियपरीसह त्रि० (जियपरीषह) जिताः पराजिताः परिषहाः शीतोष्णरूपा जियसेलेस पुं० (जितशैलेश) मेरोरपि निष्प्रकम्पतरे, आव०१ अ०। येन स जितपरिषहः / ग०३ अधि०। औ०। शीताऽऽतपाऽऽद्यातुरत्वेऽ जियारि पुं० (जितारि) संभवजिनस्य पितरि, आव० 1 अ० / प्रव० / प्यखिन्ने, जं०३ वक्ष। स०। "सेनाए जियारितणयस्स।" ति०। उज्जयिनीनगर वास्तव्ये जियप्पा पुं० (जिताऽऽत्मन्) आत्मनो जेतरि, सूत्रा०। स्वनामख्याते नृपे, "उज्जयिन्यस्ति पू: सर्वपुरामुज्जयिनी श्रिया। तस्या तथा चोक्तम् वश्यान्तरङ्गारिर्जितारिः पृथिवीपतिः / / 1 / / " आ० क०। "कोहं माणं य मार्य च, लोभं पंचिंदियाणि या जिह अव्य० (यथा) सादृश्ये, येनप्रकारेणेत्यर्थे च / "कथंयथातथा दुजयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्ये जिए जियं / / 1 / / थादेरेमेमेहेधा डितः"||४|४०१।। प्रा०४ पाद। जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जये जिणे। जी स्त्री० (जीर्) जराया, दुर्गतौ च / शब्दो जरायां दुर्गतावपि / जी एक जिणेज अप्पाणं, एसे से परमो जओ' ||2|| रेफान्तस्तदर्थः / स्त्री० / एका०। सूत्रा०१ श्रु०२ अ०। जीमूय पुं० (जीमूत) ज्या-तिप् जीः। तया जरया मूतो बद्धः। 'मु' बन्धने जियभय त्रि० (जितभय) अभये, ल०।। तः। जयति नभः, जीयते वायुना वा जि-त-मुट् दीर्घश्च वा / मेघे, जियमाण त्रि० (जितमान) विफलीकृतमाने, औ०। वाच० / प्रा०। रा०। जं०। स्था०। जी० / मेघविशेषे च / "जीमूएणं जियरागदोस त्रि० (जितरागद्वेष) रागद्वेषरहिते, "जिणेहिं जियराग- | महामेहे एगेणं वासेणं दसवासाई भावेइ।" स्था० 4 ठा०४ उ० / मुस्तके, दोसेहिं।" जितरागद्वेषर्विगतासत्यवादकारणैः। पञ्चा०६ विव०। पर्वते, धृतकरे, देवतावृक्षे, इन्द्रे, कोशातकीलतायाम्, वाच०।
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________________ जीय 1512 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीयकप्पिय जीय न० (जीत) आचरिते, "जीयमिणं आणाओ।"पञ्चा०१५ विव०। स्था०। जीत० / आ० म०। आचारे, कल्प०७ क्षण | "अप्पेगइया जीयमेयं ति। जीतमेतत् कल्प एव इति कृत्वा / रा० / "कुच्छिंसी गब्भत्ताएऽवकंते तं जीयमेयं तीअपचुप्पण्णमणागयाणं " / जीतमेतत् आचार एष इत्यर्थः / कल्प०२क्षण।सर्वोनुचीर्णे, विशे० अथ जीतमिति कोऽर्थ इत्यत आह - "बहुजणमाइण्णं पुण, जीयं उचियं ति एगहूँ।" बहु भिर्जनैर्गीतार्थराचीर्ण बहुजनाऽऽचीर्णमिति वा, उचितामिति वा एकार्थम् / किमुक्तं भवति ? बहुजनाऽऽचीर्णं नाम जीतमिति / व्य०१ उ० / प्रभूतानेकगीतार्थवृत्तायां मर्यादायाम, उपचारात्तत्प्रतिपादके ग्रन्थे च / जीतं नाम-प्रभूतानेकगीतार्थ कृता मर्यादा, तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्युपचाराज्जीतम्। व्य० 1 उ०। मर्यादाकारणे सूत्रोच। जीतमिति सूत्रामुच्यते, जीतं स्थितिः, कल्पो मर्यादा, व्यवस्थेति हि पर्यायाः। मर्यादाकारणं च सूत्रमुच्यते। नं०। *जीव पुं० प्राणधारणे, प्राणिनिच। जी०। "जीय प्स विसोहणं परमं।" 'जीव' प्राणधारणे, जीवति, जिजीव, जीविष्यतीत्युपयोगलक्षणत्वेन त्रिकालमपि जीवनाजीवस्तस्य विशेषेण शोधनम् / जी० 1 प्रति०। *जीवितन० "यावत्तावजीविताऽऽवर्तमानावटप्रावारकदेवकुलैवमेवेवः1" ||8/1 / 271 / / इति प्राकृतसूत्रेण सस्वरस्य वकारस्यान्तवर्तमानस्य लुग० वा / प्रा०१पाद। जीविते, "जीयकामत्थधम्महेउं।" जीवश्च जीवितं जीतं वा। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। जीवितमिव जीवितम्। श्रुते, मर्यादायां च / विशे० / एएहि कारणे हिं, जीयं ति कयं गणहरेहिं / / 1113|| (जीयं ति) जीवितं श्रुतं द्वादशाङ्गम्। अयमत्राभिप्रायः यथा जीवस्य जीवितमात्र नकदाचिद्व्यवच्छिद्यते, तथा अव्यवच्छित्तिनयाभिप्रायतः श्रुतमपि न कदाचिद्व्यवच्छिद्यते, ततो जीवितमिव जीवितं श्रुतमुच्यते, तद्रणधरैः सुखग्रहणाऽऽदिकारणेभ्यः कृतम्। अथवा-न सुखाऽऽदिकारणेभ्य एव किं तर्हि? (जीयं ति) जीवितं मर्यादा, ततश्च गणधराणां जीवितं धर्मो मदिवेयं यदुत तन्नामकर्मोदयतस्तत्स्वाभाव्यात् कर्तव्यमेव तैः श्रुतविरचनम्। अथवा- (जीय ति) जीवितमाचरितम्। कल्प-एवायं सर्वगणधराणां यत्तैः संदर्भणीयमेव श्रुतम्। विशे०। होइ सुहं जीयं पि य, कायव्वमिदं जओऽवस्सं // 1116|| सव्वेहिँ गणहरेहिं, जीयं ति सुयं जओ न वोच्छिन्नं / गणहरमज्जाया वा, जीयं सव्वाणुचिन्नं वा।।१११७॥ (जीयं पि य त्ति) जीवितं श्रुतम् अथवा-जीवितं मर्यादा, यदि वाजीत सर्वानुचीर्णम्। कोऽर्थः? इति / आह-''कायवं" इत्यादि / कर्तव्यमिदं, यतोऽवश्यं सर्वैर्गणधरैरित्युत्तरगाथायां संबन्धः / ततो जीवितं द्वादशाङ्ग श्रुतं, मर्यादा, सर्वगणधराऽऽ चीर्ण वेदमिति कृत्वा कृतं ग्रथितं गणधरैरिति, तदेव 'जीय' इति शब्दार्थायं भवतीति ताँस्त्रीनप्यर्थान तस्य दर्शयति- "जीयं ति सुयं" इत्यादि। विशे०। आ०म०। जीयकप्पपुं० (जीतकल्प) जीतेनावश्यंभावेन कल्प आचारो जीतकल्पः।। कल्प०५ क्षण। पूर्वपुरुषाचरितलणे आचारे, पञ्चा०६ विव०। तदात्मके कल्पभेद, पं० भा० / स चानुज्ञाकल्पस्य गौणं नामान्तरं, तथा च पञ्चकल्पभाष्येऽनुज्ञाकल्पस्य विंशतिनामधेयान्यधिकृत्य- | "तित्थकरहिं कयमिणं, गणधारीणं तु तेहि सीसाणु / तत्तो परंपरेणं, आइण्णं तेण जीयं तु // 1 // " पं०भा० / जीतकल्प आचरितकल्पो जिनप्रतिबोधनलक्षणः / स्था० 10 ठा० / जीतमाचरितं, तस्य कल्पो वर्णना प्ररूपणा जीतकल्पः / आचारवर्णने, तत्प्रतिपादके जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणरचिते छेदश्रुतविशेषे च। जीत०। इय एस जीयकप्पो, समासओ सुविहियाणुकंपाए। कहिओ देयमयं पुण, पत्ते सुपरिच्छियगुणम्मि।।१७३। इत्यमुना प्रकारेणाऽऽद्यगाथापञ्चकेन शास्त्रप्रस्तावनामभिधाय चतर्राभिर्गाथाभिराद्यस्य, चतसृभिद्विततीयस्य, तिसृभिस्तृतीयस्य, द्वाभ्यां चतुर्थस्य, पञ्चभिः पञ्चमस्य, "उद्देसऽज्झयणेसुं, खंधंगेसु कमसो पमायस्स।" इति गाथातः प्रारभ्य 'झोसिजइ सुबहु पि हु।' इति गाथापर्यन्तीकृत्याष्टपञ्चाशद्भिर्गाथाभिमा॑नाऽऽचाराऽऽदिपञ्चकातिचारगोचरस्य षष्ठस्य तिसृभिः सप्तमस्य चतसृभिरष्टमस्य सप्तभिनवमस्य नवभिर्दशमस्य प्रायश्चित्तस्य व्याख्यानेन एष सर्वसमुदायाऽऽत्मको जीतकल्पः, जीतमाचरितं, तस्य कल्पो वर्णना प्ररूपणा, समासतः संक्षेपतः सुविहितानुकम्पया, शोभनं विहितमनुष्ठानं येषां ते सुविहितास्तेषामनुकम्पया कथितः प्ररूपितः, देयः पुनरयं पात्रे सुपरीक्षितगुणे जात्यकाञ्चनवत्तापच्छेदनिकषसहे संविज्ञे गीतार्थे, न पुनरन्यस्मिन्येनजीतकल्पदायकग्राहकौ द्वावपि कर्मनिर्जरिया शुद्धयतः सिद्धयतश्चेति / जीतः / तथा च जीतकल्पवृत्तौ, तिलकाऽऽचार्यः"इति नुतिकृत्यकृतः श्रुत रहस्यकल्पस्य जीतकल्पस्य / विवरणलवं करिष्ये, स्वस्मृतिबीजप्रबोधाय // 6 // " इह निशीथकल्पव्यवहाराऽऽदीनि भूयासि छेदश्रुतानि, तेषु चातिविस्तरेण प्रायश्चितान्यभिधीयन्ते, प्रतिदिनं च कल्पं तदवगाहसामर्थ्य प्रतिग्रन्थं नानाऽतिचारा-नाश्रित्य पुरुषाद्यौचित्ये न काऽपि क्वाप्युपपत्तिरुच्यते / ततः किं कुत्रा दानं दीयते ? कथमात्मनः परस्य वाशुद्धिर्भवति? इति व्यामुह्यन्त्यन्तेवासिनोऽतस्तेषां सुखेन प्रायश्चित्तविधिप्रतिपत्तये पूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः समस्तच्छेदग्रन्थानामुपनिषत्कल्पं तदपेक्षयाऽत्यल्पं जीतकल्पं कृतवान् / परं द्विधा विनेयाः-योग्याः, अयोग्याश्च। तत्रा योग्याः ये रङ्गत्संवेगतरङ्गिणीतरङ्गप्रक्षालितान्तरमलाः परिमलितबुद्धयः समस्तसिद्धान्तमहार्णवपारीणाः परिणतवयसः सार्वपथीनप्रतिभाप्राग्भारसारचेतसः सततमुत्सर्गापवादगोचराऽऽचारचतुराश्चिरप्रव्रजिताः। ये त्वेत द्विपरीतास्तिन्तिणिकाऽऽदयश्चते अयोग्याः। यदुक्तम् -"तितिणए चलचित्ते, गाणंगणिए य दुबलचरित्ते / आयरियपारिभासी, वामावट्टे य पिसुणे य॥१॥ इति। तिन्तिणिका मुहुर्मन्दमन्दस्वरभाषणशीलाः गाणङ्गणिका ये षण्मासादन्तर्गयाणाद् गणं संक्रामन्ति, एतेषामयं नदातव्यः / यतः-"आमे घडे निहत्तं, जहा जलं तं घड विणासेइ। इय सिद्धतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ॥१॥' अतो योग्यानामेव दातव्यः। जीत। जीयकप्पिय पुं० (जीतकल्पिक) जीतेनावश्यंभावेन कल्प आचारो जीतकल्पः, सोऽस्ति यस्य स जीतकल्पिकः।कल्प०५ क्षण।जीतकल्प आचरितकल्पो जिनप्रतिबोधनलक्षणो विद्यते यस्य स जीतकल्पिकः / जीतकल्पवति, स्था० 1 ठा०।
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________________ जीयघर 1513 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीयववहार जीयधर त्रि० (जीतधर) सूत्राधरे, आर्यगोत्रोत्पन्ने शाण्डिल्यशिष्ये स्वनामख्याते आचार्य च / जी०। 'संडिल्लं अज्जजीयधरं / ' आरात्सर्वहेयधर्मेभ्योऽगि यातमार्यम्। जीतमिति सूत्रमुच्यते। जीतं, स्थितिः, कल्पो, मर्यादा, व्यवस्था इति हि पर्यायाः। मर्यादाकारणं च सूत्रमुच्यते / तथा 'धृ' धारणे। ध्रियते, धारयतीति धरः। "लिहाऽऽदिभ्यः" / / 51 / 50 / / इत्यच् प्रत्ययः / आर्यजीतस्य धर आर्यजीतधरः, तुम।अन्येतुव्याचक्षतेशाण्डिल्यस्यापि शिष्य आर्यगोत्रो जीतधरनामा सूरिरासीत्, तं वन्दे इति। नं. / जीयलक्खण न० (जीवलक्षण) जीवस्याऽऽत्मनो, लक्षणं-लक्ष्यते ज्ञायते यदन्यव्यवच्छेदेनेति तल्लक्षणम्,असाधारणं स्वरूपं, जीवलक्षणम् / जीवस्यासाधारणे स्वरूपे, कर्म० / तच्च ज्ञानाऽऽदिक उपयोगः, अत एवोक्तमन्यत्र- 'उपयोगलक्षणो जीवः" इति। कर्म० 4 कर्म०। जीयवं त्रि० (जीवितवत्) प्राणिनी, "वप्प ! ताय ! जीयवं' जीवितवन् !, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। जीयववहार पुं० (जीतट्यवहार) द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवाऽनुवृत्त्या संहननवृत्त्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदानं, यो वा यत्रा गच्छे सूत्रातिरिक्त कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहार-प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्तितं तज्जीतम् / स्था० 5 ठा०२ उ०। भ० / जीतं श्रुतोक्तादपि हीनमधिकं वा परम्परयाऽऽचीर्ण , तेन व्यवहारो जीतव्यवहारः / ध०२ अधि० / व्यवहारभेदे, "जीए य पंचमए।" जीत गीतार्थसंविग्नप्रवर्तितशुद्धव्यवहारः। पञ्चा०१६ विव०। तथाचकयपवयणप्पणामो, वुच्छं पच्छित्तदाणसंखेवं / जीयव्ववहारगयं, जीयस्स विसोहणं परमं / / 1 / / प्रकर्षेण परसमयाद् यथावस्थितभूरिभेदप्रभेदेरुच्यन्ते जीवाजीवाऽऽदयः पदार्था अनेनास्मिन्निति वा प्रवचनम् --सामायिकाऽऽदिविन्दुसारपर्यन्तं मुख्यतः श्रुतज्ञानम् उपचारात् तत्रोपयुक्तश्चतुर्विधः सङ्घोऽपिः, कृतः प्रवचनस्य प्रणामो येन स कृतप्रवचनप्रणामोऽहं, वक्ष्ये प्रायश्चित्तदानसंक्षेपम्, पाप छिनत्तीति पापच्छित्। अथवा प्रायश्चित्तम् - जीवं, मनो, वाऽतीचारमलमलिनितं शोधयतीति प्रायश्चित्तम्। आर्षत्वात् प्राकृतेन 'पच्छित्तं'। उक्तं च– 'पाव छिदइ जम्हा, पायच्छित्तं ति भन्नए तम्हा। पाएण वा वि चित्तं, सोहेई तेण पच्छित्त' / / 1 / / तस्य दानं, तस्य संक्षेपः सङ्गहस्तं, जीतव्यवहारकृतम्, जीतव्यवहारः"वत्तऽणुवत्तपवत्तो," इत्यग्रे तनगाथयैव वक्ष्यमाणलक्षणः, तेन कृतमुपदिष्ट, जीतव्यवहारगतं वा जीतव्यवहारात् प्रविष्टम् जीवस्य, "जीव प्राणधारणे" जीवति, जिजीव, जीविष्यतीत्युपयोगलक्षणत्वेन त्रिकालमपि जीवनाजीवः, तस्य, विशेषेण शोधनम् ! विशेषश्चायम्द्विजाऽऽदयोऽपि स्थूलबुद्धयः क्वापि प्राणिवधादी सामान्येन प्रायश्चित्तं ददति, न पुनः संघटनपरितापनोपद्रवाऽऽदिभेदैः सर्वेषामेकेन्द्रियाऽऽदिास पर्यन्तानां विषयभेदेन प्रायश्चित्तं दातुं जानन्ति। न ह्ययमुपदेश स्तदीयशास्त्रेष्वस्ति / इह पुनः प्रवचने सर्वमस्ति / अत एव यथोपलसक्षारारिष्टकोदकाऽऽदिभिर्वस्त्रमलस्य शोधनं, तथाऽापि कर्ममलमलिनस्य जीवस्य जीतव्यवहारोपदिष्ट विशोधनम्: परम-- प्रकृष्टम, अनन्यसदृशम्, नान्यत्रीवविशिष्टः प्रायश्चित्तविधिरस्तीत्यर्थः / इह शिष्यः प्राह -विशेषणं हि व्यवच्छेदकं भवति, यथा नीलोत्पलनित्यत्रा नीलविशेषणं, उत्पलशब्दस्य रक्तोत्पलाऽऽदिभिरपि सामाना- | धिकरण्ये संभवति तद्ध्यवच्छेदाय, तत् किमत्राप्यन्येऽपि व्यवहाराः सन्ति, येन जीतव्यवहारगतमिति विशेष्ये? गुरुराह -- सन्त्यन्येऽप्यागमश्रुताऽऽज्ञाधारणा व्यवहाराख्याश्चत्वारो व्यवहाराः, तद्व्यवच्छेदायेह जीतपदम्। जीत०। येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपः प्रकारेण शुद्धि कृतवन्तः, तेष्वपराधेषु सांप्रतं द्रव्यक्षेत्राकालभावान् विचिन्त्य संहननाऽऽदीनां च हानिमासाद्य तदुचितेन केनचित्तपःप्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति, तत् समयपरिभाषया जीतमुच्यते / अथवा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तं न्यूनं वा कारणतः प्रायश्चित्तं प्रवर्तितं तद् जीतं, तस्य व्यवहारो जीतव्यवहारः।। सचायम्"वत्तऽणुवत्तपवत्तो, बहुसो आसेविओ महजणेणं। एसो हुजीयकप्पो, पंचमओ होइ नायव्यो॥१॥" वृत्तं पात्राबन्धग्रन्थिदानाऽऽदिक एकदा एकेन वा जातः, ततोऽनुवृत्तं पुरुषान्तरं यावत्, ततः प्रवृत्तं पुरुषप्रवाहेन अतर एव बहुश आसेवितो महाजनेन / बहुश्रुतनिर्वहने भाष्यकृताऽप्युक्तम्"वत्तो नाम एक्कसि, अणुवत्तो जो पुणो वितियवारं। तइयव्वारे पॅवत्तो, सुपरिग्गहिओ महजणेणं / / 1 / / बहुसो बहुस्सुएहिं, जो वत्तो न य निवारिओ होइ। वत्तऽणुवत्तपमाणं, जीएण कयं हवइ एयं // 682 / / " एष जीतकल्पः पञ्चमो व्यवहारो भवति ज्ञातव्यः। जीत०। प्रव० / व्य०। व्यवहारकल्पे जीतव्यवहारं दर्शयतिददुरमादिसु कल्ला--णयं तु विगलिदिएसुऽभत्तट्ठो। परियावणे एतेसिं, चउत्थमायंबिला हुंति / / 10 / / द१रोमण्डूकः, तदादिषु तत्प्रभृतिषु, मकारोऽलाक्षणिकः, प्राकृतत्वात्। तिर्यकपञ्चेन्द्रियेषु, जीविताव्यपरोपितेष्वितिशेषः / कल्याणकं त्विति। तुशब्दो विशेषणार्थः / स चैतद्विशिन-ष्टिपञ्चकल्याणप्रायश्चित्तं (विगलिंदिएसुऽभत्तट्ठो इति) विकलान्यसंपूर्णानि इन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाः-एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः, तत्र- 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः" इत्येकेन्द्रिया अनन्तवनस्पतिकायिका द्रष्टव्याः / तेषु अभक्तार्थ एव--उपवासः प्रायश्चितम्। (परियावणे एतेसिं इत्यादि) एतेषां दर्दुरादीनां परितापनायां यथासंख्यं चतुर्थाऽऽचामाम्ले प्रायश्चित्ते भवतः / इयमत्रा भावना-यदि दर्दुराऽऽदीन तिर्यक् पञ्चेन्द्रियान् गाद परितापयति, ततोऽभक्तार्थः प्रायश्चित्तम्। अथ विकलेन्द्रियान् अनन्तवनस्पतिकायप्रभृतीन गादं परिता पयति, तत आचामाम्लम् / उपलक्षणमेतत् तेनैतदपि जीत व्यवहारानुगतमवसेयम् यदि दर्दुरप्रभृतीन तिर्यक्पञ्चेन्द्रियान् मनाक् संघट्टयति, तत एकाशनकम्, अथाऽऽगाढं परितापयति, तत आचामाम्लम्; तथा अनन्तवनस्पतिकायिक चतुरिन्द्रियाणां संघट्टने पूर्वार्द्धम्, एतेषामेवानागाढपरितापने एकाशनं, तथा पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां संघट्टने निर्विकृतिकम्, अनागाढपरितापने पुरिमार्द्धम्, आगाढपरितापने एकाशनं, जीविताद् व्यपरोपणे आचामाम्लम्॥ इत इदमपि जीतमेवेति दर्शयतिअपरिण्णा कालाऽसु, अ पडिकंतस्स निव्विगइयं तु / निव्वीतिय पुरिमड्डो, अंवलि खवणा य आवासे / / 11 / /
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________________ जीयववहार 1514 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीयववहार अपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञाया अग्रहणं, गृहीताया वा भंड / सूत्रो विभक्तिलोपः, आर्षत्वात्। तथा कालाऽऽदिषु प्रतिक्रामतो व्यावर्तमानस्य प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकम्। किमुक्तं भवति ? यदि नमस्कारपौरुष्यादि दिवसप्रत्याख्यानं न गृह्णाति, गृहीत्वा वा विराधयति, तथा स्वाध्यायं प्रस्थाप्य यदि कालस्य न प्रतिक्रामति, न कालप्रतिक्रमणनिमित्तं कायोत्सर्ग करोति / आदिशब्दात् तु येषु स्थानेषु ईयर्यापथिकया प्रतिक्रमितव्यं, तेषु चेत्तथा न प्रतिक्रामति, तहि प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकमिति। तथा (निव्वीतिय इत्यादि) 'आवासे' आवश्यके एकाऽऽदिका -योत्सर्गाकरणे, सर्वाऽऽवश्यकाकरणे च यथासंख्यं निर्विकृतिकपूर्वार्धाऽऽचामाम्लक्षणानि / इयमा भावना-आवश्यके यद्ये कं कायोत्सर्ग न करोति ततः प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकं कायोत्सर्गद्वयाकरणे पूर्वार्द्धम्, त्रयाणामपि कायोत्सर्गकरणानामकरणे आचाम्लम सर्वस्यापि चाऽऽवश्यकस्याकरणेऽभक्तार्थमिति / / 11 / / जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराएँ अविरुद्धं / जोगा य बहुविगप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ|१२|| यत्प्रायश्चित्तं यस्याऽऽचार्यस्य गच्छे आचार्यपरम्पराऽऽगतत्वेनाविरुद्धं,न पूर्वपुरुषमर्यादाऽतिक्रमण विरोधभाक्। यथाऽन्येषामाचार्याणां नमस्कारपौरुष्यादिप्रत्याख्यानस्याकरणे, कृतस्य वा भङ्गे प्रायश्चित्तमाचाम्लम्, तथाऽऽवश्यकगतैककायोत्सर्गाकरणे पूर्वार्द्ध, कायोत्सर्गद्वयाकरणे एकाशनकमित्यादि / तथा ये योगा उपधानानि बहुविकल्पा गच्छभेदेन बहुभेदाः, आचार्यपरम्पराऽऽगतत्वेन चाविरुद्धाः, यथा नागिलकुलवंशवर्तिनां साधूनामाचारादारभ्य यावदनुत्तरोपपातिकदशाः, तावन्नास्ति आचाम्ल, केवलं निर्विकृति-केन ते पठन्ति, आचार्यनुज्ञाताश्च विधिना कायोत्सर्ग कृत्वा विकृतीः, परिभुञ्जतेः तथा कल्पव्यवहारयोः, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूर्य प्रज्ञप्त्योश्च केचिदागाढ़ योगं प्रतिपन्नाः, अपरे त्वनागाढमिति। (एसो खलु जीयकप्पो उ इति) एष सर्वोऽपि खलु गच्छभेदेन प्रायश्चित्तभेदो, योगभेदश्चाऽऽचार्यपरम्पराऽऽगतो जीतव्यव-हारो वेदितव्यः / व्य०१ उ०१द्वार अथ कोऽसौ जीतव्यवहारं प्रयुजीतेत्यत आह - जो आगमे य सुत्ते, य सुण्णत्ते आण-धारणाए य। सो ववहारं जीए–ण कुणइ वत्ताणुवत्तेण / / 673 / / य आगमेन, सूत्रेण च, गाथायां सप्तमी प्राकृतत्वात् तृतीयाऽर्थे / तथा आज्ञया, धारणया च शून्यो रहितः, स जीतेन वृत्तानुवृत्तेन / अस्य व्याख्यानं प्राग्वत्। व्यवहारं करोति। वृत्तानुवृत्तत्वमेव भावयतिअमुतो अमुतत्थ कतो, जह अमुतस्स अमुतेण ववहारो। अमुतस्स विय तध कतो, अमुतो अमुतेण ववहारो॥६७४|| तंचेवऽणुमजंतो, ववहारविहिं पउंजति जहुत्त। जीएण एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं // 675|| अमुको व्यवहारोऽमुके कारणे समुत्पन्नेऽमुकस्य पुरुषस्यामुकेनाऽऽचार्येण यथा कृतः; एतेन वृत्तत्वं भावितं, तथैवामुकस्य यादृशे एव कारणेऽमुके नाऽऽचार्येणामुको व्यवहारः, कृतः, एतेनानुवृत्वमुपदर्शितं; तमेव वृत्ता नुवृत्तं जीतमनुपजन् आश्रयन् यथोक्त व्यवहारविधिं यत्प्रयुङ्क्ते एष जीतेन व्यवहारो धीरपुरुषैर्भणितः। धीरपुरिसपण्णत्तो, पंचमतो आगमो वि हु पसत्थो। पियधम्मऽवज्ञभीरू-पुरिसज्जायाणुचिण्णो य॥६७६|| एष पञ्चमको जीतव्यवहारो धीरपुरुषप्रज्ञप्तः तीर्थकरगणधरैः प्ररूपित आगमः पञ्चविधः, व्यवहारसूत्राऽऽत्मकतया श्रुतज्ञानविदश्चतुर्दशपूर्विणः, तैः कालं प्रतीत्य प्रशस्तः प्रशंसितः, तथा प्रियधर्मभिरवद्यभीरुभिः पुरुषजातैः अनुचीर्णः, तस्मात्सत्यतया प्रत्येतव्यः, अर्थतः सूत्रतश्च यथाक्रमं तीर्थकरगणधरैरभिहितत्वात्। तथाहि - ''पंचविहे ववहारे पण्णते।'' इत्यस्य सूत्रस्यार्थस्तीर्थकरैर्भाषितो, गणधरैश्चश्रद्धाय सूत्रीकृतः, अत एवोत्तमैः पुरुषजातैराचीर्णः ततः कथमत्रा न प्रत्ययः? इति। अधुना जीतव्यवहारनिदर्शनमाह -- जो जध कालाऽऽदीणं, अपडिकंतस्स णिव्विगइयं तु। मुहणंतफिडिय पाणग-संवरणे एवमादीसु // 677|| स जीतव्यवहारो, यथेत्युदाहरणमात्रोपदर्शने, कालादिभ्यः, आदिशब्दात् स्वाध्यायऽऽदिपरिग्रहः / अप्रतिक्रान्तस्य / गाथायां षष्ठी पञ्चम्यर्थे / मुखानन्तिके मुखपोत्तिकायां, स्फिटितायां, मुखपोत्तिकामन्तरेण इत्यर्थः। तथा पानकस्यासंवरणे पानाऽऽहारप्रत्याख्यानकरणे निर्वेिकृतिकं प्रायश्चित्तम्। एगिदिऽणंतवज्जे, घट्टणतावेऽणगाढऽऽगाढे य। णिब्दीतिगमादीयं,जा आयामंत उद्दवणे॥६७५|| एकेन्द्रियस्यानन्तकायिकवर्जस्य, पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येक-वनस्पतीनामित्यर्थः। घट्टने अनागाढे, तापने आगाढे च, निर्विकृतिकाऽऽदिकं, यावदाचाम्लमपद्रावणे जीविताद् व्यपरोपणे / इयमा भावना--- पृथिवीकायिकाप्कायिकतेजस्कायिकवायुवन स्पतीनां घट्टने निर्विकृतिकम्, अनगाढापरितापने पुरिमार्द्धम्, आगाढपरितापने एकाशनम् - अपद्रावणे आचामाम्लमिति। विगलिंदियघट्टणता-वडणगाढऽऽगाढे तहेव उदवणे। पुरिमडातिकमेणं, नेयव्वं जाव खवणं तु // 676 / / पंचिदियघट्टणता-वऽणगाढाऽऽगाढे तहेव उद्दवणे। एक्कासण आयाम,खवणं तह पंचकल्लाणं / / 680 / / विकलेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियप्रभृतीनां घट्टने, तापने अनागाढे आगाढे च तथा अपद्रावणे, क्रमेण पूर्वार्धाऽऽदिक्रमेण ज्ञातव्यं यावत् क्षपणम् / किमुक्त भवति ? घट्टने पूर्वार्द्धम्, अनागाढपरितापने आचामाम्लम्, आगाढपरितापने निर्विकृतिकम्, अपद्रावणे क्षपणमिति॥६७६ / / तथा पञ्चेन्द्रियाणां घट्टने एकाशनमकम्, अनागाढपरितापने आचामाम्लम्, आगाढपरितापने क्षपणमभक्तार्थम्, अपद्रावणे पञ्चकल्याणनिर्विकृतिकपूर्वार्द्वकाशनकाचामाम्लक्षपणरूपम्। एमाईओ एसो, नातव्वो होइ जीयववहारो। आयरियपरंपरए --ण आगतो जो व जस्स भवे // 681 / / एवमादिक एष जीतव्यवहारो भवति ज्ञातव्यः, यो वा यस्य आचार्यपरम्परकेणाऽऽगतः स तस्य जीतव्यवहारो ज्ञातव्यः। बहुसो बहुस्सुतेहिं, जो वत्तो न य निवारितो होति। वत्तऽणुवत्तपमाणं,जीएण कयं हवति एयं / / 652 / / यो व्यवहारो बहुश्रुतै बहुं शोऽनेक वारं वृत्तः प्रवर्तितो, न चान्यै बहुश्रुतैर्भवति विद्यते निवारितः, एतेन वृत्तानुवृत्तं जी -
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________________ जीयववहार 1515 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीयववहार तेन प्रमाणं कृतं भवति। एष जीतव्यवहारः प्रमाणीकर्तव्यः, इति भावः। तिचारेऽमुकस्य तपसः प्राप्तिरिति। सा च निशीयकल्पव्यवहाराऽऽदिषु एतदेव च सविस्तरं भावयति विस्तरेणाभिहिता / तपसश्च पञ्चकादेः षण्मासान्तस्य महीयान् जंजीतं सावजं,न तेण जीतेण होइ ववहारो। दानविरचनाप्रपञ्चःप्रोच्यते। अत्राऽऽपत्तिदीनं च संक्षेपेणैव निरूप्यतेजंजीतमसावलं, तेण तु जीतेण ववहारो।।६८३|| तचाा दानं भिन्न-मासादारभ्य षण्मासान्तं यावद्भवति। भिन्नेत्यादि। यद् जीतं सावध,नतेनजीतेन भवति व्यवहारः, यद्जी-तमसावा, भिन्नमासादिकाँश्च षड्मासान्तान् वक्ष्ये / अयं भावः-जीतेन तेन तुजीतेन व्यवहारः। जीतव्यवहारेण, भिन्नमासाऽऽदिशब्दैः किं किं तपोऽभिधीयते ? अथ व्यवहारः। अथ किं सावद्यमसावद्यं वा जीतमित्यत आह- / इत्यभिधास्यामोत्यर्थः // 60|| छारहडिहडुमाला-पेट्टेण य रिंगणं तु सावज्ज। भिन्नाऽऽदींस्तावदाह - दसविहपायच्छितं, होइ असावज्जजीयं तु॥६८४|| भिन्नो अविसिद्ध चिय, मासो चउरो य छच लहुगुरुगा। यत्तु प्रवचने, लोके चापराधविशुद्धये समाचरितम्-क्षारावमुण्डनं, णिव्वियगाई अट्ठम-भत्तंतंदाणमेएसिं॥६१॥ हडौ-गुप्तिगृहे प्रवेशनं, हड्डुमालाऽऽरोपणं, पेट्टेन-उदरेण रिङ्गणं, इह समयपरिभाषया दिनपञ्चविंशतिरूपो भिन्न इति भिन्नमासोऽतुशब्दात् खरारूढं कृत्वा ग्रामे सर्वतः पर्याटनमित्येवमादि, तत् सावा भिधीयते / स चाविशिष्ट एव लघुपञ्चकगुरुपञ्चकाऽऽदिभेदाविवक्षया जीतम्। यत्तु दशविधमालोचनाऽऽदिकं प्रायश्चित्तं तदसावधं जीतम्। एवात्रा गृह्यते / (मासो चउरो य छच लहुगुरुगा) अत्र चकारौ मासे अत्र चोदकः -- कदाचित्सावद्यमपिजीतं दद्यात्। समुचायको। ततो मासांश्चत्वारो मासाः षड्मासाः। लघुगुरुका इति च तथा चाह सर्वेषु योज्यम्।यथा लघुमासो, गुरुमासो,लघुचतुर्मासं, गुरुचतुर्मासं, उस्सण्णे बहुदोसे, निद्धंधसे पवयणे य निरवेक्खे। लघुषण्मासं, गुरुषण्मासं चेति। एतेषां भिन्नमासलघुमासगुरुमाएयारिसम्मि पुरिसे, दिजइ सावज्जजीयं पि॥६८५।। सलधुचतुर्मासगुरुचतुमसिलघुषण्मासगुरुषण्मासाऽऽख्याना उत्सन्नेन प्रायेण बहुदोषे, "निद्धधसे' सर्वथा निर्दये, तथा प्रवचने सप्तानामापत्तौ सत्यां निर्विकृताऽऽद्यष्टमभक्तान्तनिर्विकृतिकपुरिभाढ़ेंप्रवचनविषये निरपेक्षे, एतादृशे पुरुषेऽनवस्थाप्रसङ्गनिवारणाय काशनाऽऽचामाम्लचतुर्थषष्ठाटमाऽऽख्यं दानं यथासंख्यं ज्ञेय सावद्यमपिजीतं दीयते। मित्यर्थः।६१) संविग्गे पियधम्मे, अपमत्ते वा अवजभीरुम्मि। एतानि च लघुपञ्चकाऽऽदिभेदाऽऽत्मकभिन्नमासऽऽदीनि गुरुषण्माकम्हि इ पमायखलिए, देयमसावज्जजीयं तु // 686 / / सान्तानि पूर्वम्, "अद्धेण ठिन्नसेसं' इतिगाथाव्याख्यायां सप्रपञ्चमासंविग्ने, प्रियधर्मिणि, अप्रमत्ते वा, अवधभीरौ कस्मिँश्चित्प्रमादवशतः | ख्यातानीत्यन्यता प्रपञ्चितानि / सामान्येन तपस उपसंहारमाहस्खलिते देयमसाक्यं जीतम्। इय सव्वाऽऽवत्तीओ, तवसो नाउं जहकम्मं समए। जं जीतमसोहिकरं,ण तेण जीतेण होइ ववहारो। जीएण दिज निव्वी-यगाइदाणं जहाऽमिहियं / / 62 / / जं जीतं सोहिकरं, तेण उ जीतेण ववहारो॥६८७|| इत्यमुनाप्रकारेण, सर्वा आपत्तीः, तपसः संबन्धिनीः, यथाक्रमतीयद् जीवमशोधिकर, न तेन जीतेन भवति व्यवहारः कर्तव्यः, चारानुसारेण, समये सिद्धान्ते, ज्ञात्वा, जीतेन, निर्विकृतिकाऽऽदि दानं, यत्पुनर्जीतं शोधिकरं, तेन जीतेन व्यवहारो विधेयः। यथा येन प्रकारेणाभिहितं, तथा दद्यादित्यर्थः / 621 शोधकराऽशोधिकरजीतप्रतिपादनार्थमाह - विशेषाभिधानाय प्रस्तावनामाह - जंजीतमसोहिकर, पासत्थमपत्तसंजयाऽऽइण्णं / एयं पुण सव्वं चिय, पायं सामन्नओ विनिद्दिट्ठ। जइ वि महजणाऽऽचिन्नं,न तेण जीतेण ववहारो॥६५८|| दाणं विभागओ पुण, दव्वाइविसेसियं नेयं // 63 / / जं जीतं सोहिकरं, संविग्गपरायणेण दंतेण। एतत्पुनरालोचनाऽर्हाऽऽदिप्रायश्चित्तदानं, सर्वमेव, प्रायो बाहुल्येन, एगेण वि आइन्नं, तेण उ जीतेण ववहारो॥६८६।। सामान्यतो द्रव्याऽऽद्यविभागतोः, विनिर्दिष्टम्, विभागतः पुनः यद् जीतं पार्श्वस्थप्रमत्तसंयताऽऽचीर्णमत एवाशोधिकर, तद् यद्यपि द्रव्याऽऽदीनिद्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवनाऽऽदीनि, तदपेक्षं विशेषितं महाजनाऽऽचीर्ण, तथापि न तेन जीतेन व्यवहारः कर्त्तव्यः, तस्या- हीनमधिकं वा, यथोक्तमेव वा, जीतं दान दातव्यमिति ज्ञेयम् // 63|| शोधिकरत्वात्। यत्पुनर्जीतं संवेगपरायणेन दान्तेन एकेनाप्याचीर्ण, तत् शेषमेव सुव्यक्तमाहशोधिकरं कर्तव्यम् / व्य० 10 उ०। दव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिस पडिसेवणाओ य। संप्रति सूत्रकारः स्वयमेव सूत्रेणैव प्रस्तावयन्नाह नाउ मियं चिय दिज्जा, तम्मत्तं हीणमहियं वा // 64|| जंजन भणियमहियं,तस्सावत्तीऍ दाणसंखेवं। अत्र बन्धाऽऽनुलोम्येन प्राकृतत्वात्पुरुषशब्दो लुप्तविभक्तिको निर्दिष्टः / मिन्नाइया य वुच्छं, छम्मासंताय जीएणं // 60 // ततश्च द्रव्यं क्षेत्रां कालं भावं पुरुष प्रतिसेवनाश्च ज्ञात्वा, मितमेव इह जीतय्यवहारेऽपराधमुद्दिश्य यद्यत् प्रायश्चित्तं न भणितं, द्रव्यक्षेत्राऽऽदिप्रमाणे नैव, कोऽर्थः? द्रव्याऽऽदिषुहीनेषु हीनम्, तस्याप्यापत्तिविशेषेण दानस क्षेपं वक्ष्ये। आपत्तिश्चामुका- | अधिकेप्वधिकम, अहीनोत्कृष्टेषु तन्मात्रंजीतोक्तसममेव, दद्यात्।६४।
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________________ जीयववहार 1516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीयववहार तत्रा द्रव्याऽऽद्यभिधित्सयाऽऽहआहाराऽऽई दव्वं, वलियं सुलहं च नाउमहियं पि। दिजाहि दुब्बलं दु-ल्लहं च नाऊण हीणं पि।१६५|| आहाराऽऽदिक द्रव्यं यत्रा देशे वलिकं, सुलभं च, यथा-अनूपदेशे शालिकूरोवलिक, स्वभावेनैव सुलभश्च; तं ज्ञात्वाऽधिकमपि जीतोक्ताद् बहुतरमपि दद्यात् / यत्र पुनर्वल्लचणककञ्जिकाऽऽदिको रूक्षाऽऽहारो। दुर्बलो, दुर्लभश्च; तं ज्ञात्वा हीनंजीतोक्तादल्पमपि दद्यादित्यर्थः॥६५।। अथ क्षेत्रकालाभिधानार्थमाह - लुक्खं सीयल साहा-रणं च खित्तमहियं पि सीयम्मि। लुक्खम्मि य हीणतरं, एवं काले वितिविहम्मि॥६६|| रूक्ष क्षेत्रां-स्नेहरहितं, वातुलं वा; शीतलं पुनः स्निग्धम, अनूप वा; साधारणं-मध्यस्थम्, अस्निग्धरुक्षम् / इह शीते स्निग्धक्षेत्रो जीतोक्तादधिकमपि दद्यात्; रूक्षे च हीनतरं जीतोक्तादल्पतरम् / अत्र चकारोऽनुक्तसमुच्चये / तेन साधारणक्षेत्र साधारणं जीतोक्तमात्रामेव, अहीनाधिकं दद्यादिति ज्ञेयम् / कालेऽपि त्रिविधेवर्षाशिशिरग्रीष्मरूपे, एववमुनैवोक्तप्रकारेण, जीतोक्ताधिकसमहीनानि तपांसि यथासंख्य दद्यामिति सामान्यातिदेशः // 66|| विशेषतः कालं प्रपञ्चयन्नाहगिम्हसिसिरवासासुं, दिजऽट्ठमदसमवारसंताई। नाउं विहिणा णवविह-सुयववहारोवएसेणं // 67 / / अत्र कालस्त्रिधा-ग्रीष्मशिशिरवर्षालक्षणः। स च सामान्यतो द्विधास्निग्धो, रूक्षश्च / स च द्विरूपोऽयुत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात् त्रिधा / तत्रोत्कृष्टस्निग्धोऽतिशीतः, मध्यमस्निग्धो नातिशीतः,जधन्यस्निग्धः स्तोकशीतः / उत्कृष्टरूक्षोऽत्युष्णः, मध्यमरूक्षो नात्युष्णः जघन्यरूक्षः कवोष्णः / एवंरूपे ग्रीष्मशिशिरवर्षाऽऽख्ये कालत्रये नवविधश्रुतव्यवहारोपदेशेन नवविधोनवविधतपोदानलक्षणः, सचासौ श्रुतव्यवहारोपदेशश्च, तेन नवविधश्रुतव्यवहारोपदेशेन, विधिना वैपरीत्याभावेन, ज्ञात्वाऽष्टमदशमद्वादशान्तानि तपांसि दद्यात्। अयं भावार्थः-ग्रीष्मशिशिरवर्षासु यथाक्रमं चतुर्थषष्ठाष्टमानि जघन्यानि, षष्टाष्टमदशमानि मध्यमानि, अष्टमदशमद्वादशान्युत्कृष्टानि। उक्तंच"गिम्हासु चउत्थं दिज्जा, छडगं च हिमाऽऽगमे। वासासु अट्ठमं दिज्जा, तवो एस जहण्णगो।।१।। गिम्हासु छट्टगं दिजा, अट्टमं च हिमाऽऽगमे। वासासु दसमं दिज्जा, एस मज्झिमगो तवो।।२।। गिम्हासु अट्ठमं दिल्ला, दसमं च हिमाऽऽगमे। वासासुदुवालसम, एस उक्कोसओ तवो // 3 // " एष नवविधतपोदानलक्षणः श्रुतव्यवहारोपदेशः। अथवा - नवविधश्रुतव्यवहारोपदेशो द्विधा-ओघतो, विभागतश्च। तौघतौ गुरुः 1, गुरुतरो 2, गुरुतमश्च 3 / लघुः 1. लघुतरो 2, लघुतमश्च ३।लघुको 1, लघुकतरो २,लघुकतमश्चेति 3 / एवं नवविध H / उक्त च"गुरुओ गुरुअतराओ, अहागुरू चेव होइ ववहारो। लहुओ लहुअतराओ, हालडू चेव ववहारो / / 1 / / लहुसो लहुसतराओ, अहलहुसो चेव होइ ववहारो।" अहागुरु अहालहु - अहालहुसशब्दैगुरु तमलघुतम लघुकतमा उच्यन्ते / एष चनवविधोऽधि आपत्तिदानतपोभ्यां, कालेन च योजनीय। तोदमापत्तितप :गुरुमासो 1, गुरुलघुचतुर्मासो 2, गुरुलधुषण्मासश्च 3 / लधुमासो 1, भिन्नमासो 2, विंशतिकं च 3 / पञ्चदशकं 1, दशकं 2, पञ्चकं चेति 3 / उक्तंच- "गुरुगोय होइमासो, गुरुयतरो चेव होइचउमासो। अहगुरुओ छम्मासो, गुरुपक्खे होइ पडिवत्ती // 1 // अत्रा सामान्येनाभिधानात् चतुर्मासकशब्देन गुरुचतुर्मास लघुचतुर्मासाऽऽख्योभयमपि ग्राह्यम्, षण्मासशब्देन च गुरुषण्मासलघुषण्मासाऽऽख्यद्वयमपि ग्राह्यम्। "तीसा य पण्णवीसा, वीसा वि य होइलहुयपक्खम्मि // ' अत्रा 'तीसा' चैतत् स्थूलतयैवोक्तम्, अन्यथा लघुमासे सार्धसप्तविंशतिरेव दिनानि भवन्ति / "पनरस दस पंचेव य, लहुसयपक्खम्मि पडिवत्ती' ||1|| प्रतिपत्तिरापत्तिरित्यर्थः। अथेदानीमेषु गुरुकादिषु दानतपःअष्टमम् 1, दशमम् 2, द्वादशं च 3 / षष्ठम् 1, चतुर्थम् 2, आचाम्लं च 3 / एकाशनम् 1, पुरिमार्द्धम् 2, निर्विकृतिकं च 3 इति वर्षाशिशिरग्रीष्मेषु दीयते। उक्तंच"गुरुगं च अट्टमं खलु, गुरुयतरायं च होइ दसमं तु। अहगुरुयं वारसम, गुरुपक्खे होइ दाणं तु / / 1 / / छट्टं चउत्थयंबिल, लहुपक्खे होइ तवदाणं / एगासण पुरिमड्ढे, निव्वीय लहुस सुद्धो वा // 2 // " (सुद्धो व त्ति) यस्तुनिर्विकृतिकमात्रामपितपः कर्तुमशक्तः स मिथ्यादुष्कृतेनैव शुद्ध्यतीत्यर्थः। एवमोघेनोक्तो नवविधः श्रुतव्यवहारोपदेशः। साम्प्रतं विभागतः कथ्यते"ओहेण एस भणिओ, इत्तो वुच्छं विभागेणं। तिगनवसत्तावीसा-एक्कासीईहिँ भेएहिं / / 1 / / " अौष नवविधव्यवहार स्त्रिभिर्नवभिः सप्तविंशतिभिरेकाशीतिमिश्च भेदैर्भवति। तत्र संक्षेपतस्तावदयं त्रिभेदःउत्कृष्टो, मध्यमो, जघन्यश्च / तत्रा गुरु-गुरुतर-गुरुतमाऽऽख्यो गुरुपक्ष उत्कृष्टः। लघु-लघुतरलघुतमाऽऽख्यो लघुपक्षो माध्यमः। लघुक-लघुकतर-लघुकतमाऽऽख्यो लघुकपक्षो जघन्य इति। यदाह'नवविह बवहारेसो, संखेवेणं तिहा मुणेयव्यो। उक्नोसो मज्झिमगो, जहण्णगो चेवं तिविहेसो।।१।। उधोसो गुरुपक्खो, लहुपक्खो मज्झिमो मुणेयव्यो। लहुसपक्खो जहन्नो, तिविगप्पो एस नायव्वो' ||2|| नवभेदस्त्वेवम् - गुरुपक्ष एकोऽप्युत्कृष्टमध्यमजघन्य भेदात् त्रिधा। एवं लघुपक्षोऽपि त्रिधा। लघुकपक्षोऽवि चैवं निधेति / तत्रा गुरुपक्षे विध्यमिदम् - गुरुपक्षः षाण्मासिक-पाञ्चमासिकाऽऽख्य उत्कृष्टः, चातुर्मासिक-ौमासिकाऽऽख्यो मध्यमः, द्वैमासिकगुरुमासिकाऽऽख्यो जघन्यः / लघुपक्षे लघुमास उत्कृष्टः, भिन्नमासो मध्यमः, विंशतिकं जघन्यम् / लघुकपक्षे पञ्चदशकमुत्कृष्टम, दशकं मध्यमम्, पञ्चम जघन्यमित्येष नवविधाऽऽपचितः स्वरूपश्रुतव्यवहारो दर्शितः।
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________________ जीयववहार १५१७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीयववहार भणितं च"गुरुपक्खे उक्कोसो, मज्झ जहन्नो त एव लघुए वि। एमेव य लहुसे वी, इय एसो नवविहो होइ1१11 गुरुपक्खे छम्मासो, पणमासो चेव होइ उक्कोसो। मज्झो चउ-तेमासो, दुमास-गुरुमासग जहन्नो / / 2 / / लहुभिन्नमासवीसा, लहुपक्खुक्कोसमज्झिमजहन्ना। एनरसगं दस पणगं.लहुसुक्कोसाइतिविहेसो।।३।। आवत्तितवो एसो, नवभेओ वणिओ समासेण। अहुणा उ सत्तवीसो, दाणतयो तस्सिमो होइ" |4|| तस्याऽऽपत्तितपस इदं सप्तविंशतिभेदं दानतपो भवति / तत्रा गुरुपक्ष एकोऽपि नवधा / तद्यथा-उत्कृष्टोत्कृष्टः 1, उत्कृष्टमध्यमः 2, उत्कृष्टजघन्यः 3, मध्यमोत्कृष्टः४,मध्यममध्यमः५, मध्यमजघन्यः 6, जघन्योत्कृष्टः 7, जघन्यमध्यमः 8, जघन्यजघन्यश्चेति 6 / एवं लघुपक्षोऽपि नवधाहा एवं लघुकपक्षोऽपि चैवमेव नवधाह। सर्वमीलने सप्तविंशतिभेदा भवन्ति। भणितंच"गुरु लघु-लघुसगपक्खो, इविक्को नवविहो मुणेयव्यो। उक्कोसुक्कोसो वा 1, उक्कोसगमज्झिम 2 जहन्नो ३य।।१।। मज्झुकोसो मज्झिम-मज्झो 2 तह होइ मज्झिमजहन्नो 3 / इय णेय जहन्नो वी, गुरुपक्खे हुंति नवभेआ / / 2 / / पुव्वुत्ता नव भेया, नेया सब्वे तहेव लहुपक्खे। नव चेव लहुसपक्खे, सत्तावीसं भवतेए' // 3 // तत्रोदमेव सप्तविंशतिविधं दानतपणे व्यक्तीकुर्वत्रिह गुरुपक्षे षण्मासिकपञ्चमारिसकाऽऽख्योत्कृष्टाऽऽपत्तौ सत्याम् - उत्कृष्टोत्कृष्ट द्वादशं तपः, उत्कृष्टमध्यमदशमम,उत्कृष्टजघन्यमष्टमम्। चतुर्मासिकत्रिमासिकाऽऽख्यमध्यमाऽऽपत्तौमध्यमोत्कृष्ट दशमम, मध्यममध्यममष्टमम्, मध्यमजघन्यं षष्ठम्। द्विमासिकगुरुमासाऽऽख्यजघन्याऽऽपत्तौ -- जघन्योत्कृष्टमष्टमम्, जघन्यमध्यमं षष्ठम्, जघन्यजघन्यं चतुर्थम्। लघुपक्षे लघुमासाऽऽख्योत्कृष्टाऽऽपत्तौ-उत्कृष्टोत्कृष्टं दशमम्, उत्कृष्टमध्यममष्टमम्, उत्कृष्टजघन्य षष्ठम्। भिन्नमासाऽऽख्य-मध्यमाऽऽपत्ती, मध्यमोत्कृष्टमष्टमम्, मध्यममध्यमं षष्ठम्, मध्यमजघन्यं चतुर्थम् / विशाऽऽख्यजघन्याऽऽपत्तौ-जघन्योत्कृष्ट षष्ठम्, जघन्यमध्यमं चतुर्थम्, जघन्यजघन्य-माचामाम्लम्। लघुकपक्षे पञ्चदशाख्योत्कृष्टाऽऽपत्तौउत्कृष्टोत्कृष्टमष्टमम्, उत्कृष्टमध्यमंषष्ठम्, उत्कृष्टजघन्यं चतुर्थम्। दशका ऽऽख्यमध्यमाऽऽपत्तौ मध्यमोत्कृष्टं षष्ठम्, मध्यममध्यमं चतुर्थम्, मध्यमजघन्यमाचामाम्लम्। पञ्चकाऽऽख्यजघन्याऽऽपत्तौजघन्योत्कृष्ट चतुर्थम, जघन्यमध्यममाचामाम्लम्, जघन्यजघन्यमेकाशनमिति। एवं वर्षासु सप्तविंशतिविधं दानतपः। यदाह"वारसग दसम अट्टम, छप्पणमासेसु तिविहदाणेणं। चउ-तेमासे दस अ-ट्टछट्ट उक्कोसगाइतिहा।।१।। एमेवुकोसाई. दुमासगुरुमासिए तिहा दाणं। अट्ठम छट्टचउत्थं, नवविहमेयं तु गुरुपक्खे।।स। दसमं अट्ठम छट्ट. लहुमासुक्कोसगाइ तिह दाणं। अट्टम छट्ट चउत्थं, उक्कोसाइंय तिहा भिन्ने।।३।। छट्टचउत्थायाम, उक्कोसाइंयदाणवीसाए। लहुपक्खम्मि नवविहो, एसो वीओ भवे नवगो॥४।। अट्टम छट्ठचउत्थं, एसुक्कोसाइ दाण पन्नरसे। छट्टचउत्थायाम, दससू तिविहे य दाण भवे / / 5 / / खमणाऽऽयामेगासण, तिविहुक्कोसाइदाण पणगम्मि। लहुसे वी तइएसुं, सत्तावीसे य वासासु // 6 // एवं यथा वर्षासूत्कृष्टाऽऽद्यापत्तिनवकेसतिदानतपसोद्वादशमादौ कृत्वा एकाशनान्ताः सप्तविंशतिभेदाचारणिकया कृताः; तथा शिशिरेऽपि; केवलं दशममादौ कृत्वा पुरिमार्द्धान्ताः / ग्रीष्मे पुनरष्टममादौ कृत्वा निर्विकृत्यन्ताः सप्तविंशतिभेदाः कार्याः, यन्त्रस्थापनातश्च ज्ञेयाः / वर्षाशिशिरग्रीष्माणां सप्तविंशतित्रयमीलने चैकाशीतिदीनतपसो भेदा भवन्ति / अर्द्धस्य समविभागरूपस्य एकदेशस्य एकादिपदाऽऽत्मकस्यापक्रमणं निवर्त्तनं, शेषस्य तुबुद्ध्यादिपदसङ्घाताऽऽत्म कस्यैकदेशस्यानुवर्त्तनं यस्यां रचनाया सा समयपरिभाषयाऽ पक्रान्तिरूच्यते। यथा वर्षासुगुरुतमे उत्कृष्टतो द्वादशमं, मध्यमतोदशमं, जघन्यतोऽष्टमम् / एषां मध्यादेक देशो द्वादशलक्षणोऽपक्रामति, द्वादशमाष्टमे गुरुतरं गच्छतोऽग्रेतनं च षष्ठ मील्यते, ततश्च गुरुतरे उत्कृष्टतो दशमं, मध्यमतोऽष्टम, जघन्यतः षष्टम् / एषां मध्यादेकदेशो दशमलक्षणो निवर्तते, अष्टमषष्ठ गुरुकं गच्छतोऽग्रेतनं चतुर्थं मील्यते, ततश्च गुरुके उत्कृष्टतोऽष्टमं, मध्यमतः षष्ठं, जघन्यतचतुर्थमिति / यथा चेयमेकाशीतिकदानतपोयन्त्रके वर्षाऽऽद्यनवकेऽर्धापक्रान्ति-दशिता, तथैव सर्वेष्वपि नवकेषु विलोकनीया। यदाह"सिसिरे दसमाईणं, चारणभेएण सत्तवीसेण। वायइ पुरिमट्टम्मी, अद्भुक्कती तह चेव / / 1 / / अट्ठममाई गिम्हे, चारणभेएण सत्तवीसेण। तह चेव अधुकंती, वायइ निव्वीयए नवरं ||2|| एतैर्दानैरापत्तयः स्वका नियमात्सर्वा बोद्धव्याः एकविधाऽऽपत्तिषु च द्वादशाऽऽद्य तपः कर्तुमसहिष्णाही सस्तावत्कार्यों यावन्नवानामपि पडक्तीनां स्थितमेकपर्यन्तकोष्ठकगतं चतुर्था ऽऽदि निर्विकृतिकान्तं तपः, ततस्तस्य दीयते। तत्करणे ऽप्यशक्तस्य पुनस्तथैव ह्रासयेत्। स्वस्थानतपो दातुं वर्षासु वर्षाकालोक्तं, शिशिरोक्तं शिशिरे, ग्रीष्मोक्तं ग्रीष्मे / तदपि कर्तुमक्षस्य परस्थानं वर्षास्वपि शिशिरोक्तं, ग्रीष्मोक्तं वा हासयद्भिर्दीयते। एवं स्थाने स्थाने वर्षाशिशिरग्रीष्मरूपे ह्वासयद्भिस्तावन्नेयं यावन्निर्विकृतिकमात्रमेव देयतया स्थितम्। कैश्चित्त्वेवं व्याख्यातम् -- आधाकर्मिकाऽऽद्युक्तौ या षड्जीवनिकायविराधना, तजनितं प्रायश्चित्तं स्वस्थानम्, आधाकर्माऽऽद्यासेवाभणितं च चतुर्थादिकं परस्थानं, तद्दाने कथमेव हासविधिज्ञेय इति? उक्तंच''एएहिं दाणेहिं, आवत्तीओ सया सया नियमा। सव्वा बोद्धव्वाओ, असहस्सिक्किकहासणया / / 1 / / जावइयं इक्षिक, तंपी हासिज्ज असहुणोताव। दाउंसट्टाणतवं,परठाणं दिज्ज एमेव || एवं ठाणे ठाणे, हिट्ठा उत्तं कमेण हासित्ता। नेयव्वं जावइयं, नियमा निव्वीइयं इकं // 3 // एष नवविधो व्यवहारः। एकाशीतिकस्य नवविधव्यवहार-यन्त्रकस्य स्थापना (1518 पृष्ठेऽग्रे) अत्र च उत्कृष्टाऽऽदीनिजघन्यान्तानि तपासि स्थाप्यन्ते, एवं सूखेन ह्रासः कर्तुं शक्यते, सूत्रोतुजघन्याऽऽदीन्युत्कृष्टान्तान्युक्तानि, तद्विचित्रात्वात् सूत्रारचनाया इति। उक्तं कालविषय सप्रपञ्च प्रायश्चित्तम्॥६७। (भावाऽऽदिविषयं प्रायश्चित्तं तु तवोरिह' शब्द वक्ष्यते)
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________________ जीयववहार 1518 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीयववहार लघु 10 EE एकाशीतिकस्य नवविधव्यवहारयन्त्रकस्य स्थापना चेयम् - वर्षासु 27 उत्कृष्टापत्तौ मध्यमापात्तौ जघन्यापत्तौ |6 / 5 गुरुतमम् उ० उ०१२ 43 गुरुतरम् म० उ०१० 21 गुरु ज० उ० 8 गुरुतमम् उ० म० 10 गुरुतरम् म० म० 8 गुरु ज० म० 6 गुरुतमम् उ० ज० 8 गुरुतरम् म० ज० 6 गुरु ज० ज० 4 27 // लघु उ० उ० 10 / / |25 लघुतरम्म 0 उ० 8 20 लघुतमम्। ज० उ० 6 उ० म० 8 लघुतरम् म० म०६ लघुतमम् ज० म०४ लघु उ० ज० 6 लघुतरम् म० ज०४ लघुतमम् ज० ज०आ० 15 लघुकम् उ. उ. 8 लघुक्तरम् म० उ० 6 5 लघुकतमम् ज० उ० 4 लघुकम् उ० म० 6 लघुकतरम् म० म० 4 लघुकतमम् ज० म० आ० लघुकम् उ० ज० 4 / लघुकतरम् म०ज० आचाम्लम् लघुकतमम् ज०ज०एकाशनकम् शिशिरे 27 उत्कृष्टापत्तौ मध्यमापत्तौ जघन्यापत्तौ 6 / 5 गुरुतमम् उ० उ०१० | 4 / 3 गुरुतरम्म 0 उ० 8 21 गुरु ज.० उ० 6 गगुरुतमम् उ० म० 8 गुरुतरम् म० म० 6 / ज० म० 4 गुरुतमम् उ० ज० 6 / गुरुतरम् म० ज० 4 / गुरु ज० ज०आ० 27 // लघु उ० उ० 8 / 25 लघुतरम् म० उ० 6 20 लघुतमम् ज० उ० 4 लघु उ० म० 6 लघुतरम् म० म०४ लघुतमम् ज० म०आ० उ० ज० 4 लघुतरम् म० ज०आ० लघुतमम् ज० ज० ए० | 15 लघुकम् उ० उ० 6 10 लघुकतरम् म० उ० 4 / लघुकतम्म् ज० उ० आ० लघुकम् उ० म० 4 लघुकतरम् म०म० आ० लघुकतमम् ज० म० ए० लघुकम् उ० ज०आ० लघुकतरम् म० ज० ए० लघुकतमम् जज पूरिमार्द्धम् ग्रीष्मे 27 उत्कृष्टापत्ती मध्यमापत्तौ जघन्यापत्तौ 6 / 5 गुरुतमम् उ० उ० 8 4 / 3 गुरुतरम् म० उ० 6 21 गुरु ज० उ० 4 गुरुतमम् उ० म० 6 गुरुतरम म० म० 4 गुरु ज 0 म०आ० गुरुतमम् उ० ज० 4 गुरुतरम् म० ज०आ० गुरु ज० ज० ए० 27 // लघु उ० उ०६ | 24 लघुतरम् म० उ० 4 20 लघुतमम् ज० उ०आ० लघु उ० म०४ लघुतरम् म० म० आ० लघुतमम् ज०म० ए० लघु उ० ज०आ० लघुतरम् म० ज० ए० लघुतमम् ज० ज० पु० 15 लघुकम् उ० उ० 4 | 10 लघुकतरम् म० उ०आ० लघुकतम्म् ज० उ० ए० लघुकम् उ० म० आ० लघुकतरम् म० म० ए० लघुकतमम् ज०म० पु० लघुकम् उ० ज० ए० लघुकतरम् मज० पुरिमाद्धम् लघुकतमम् ज०जनिर्विकृतिकम् लघु
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________________ जीयविजय 1516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव जीयविजयपुं० (जीतविजय) यशोविजयगणिगुरोर्नयविजयगणेः सतीर्थ्य लाभविजयगणिशिष्ये आचार्य, प्रति० / प्रतिमाशतके कल्याणविजयवर्णनमधिकृत्य - "तच्छिष्याः प्रतिगुण धामहेमसूरेः, श्रीलाभोत्तरविजया बुधा बभूवुः / श्रीजीतोत्तरविजयाऽभिधानजीतज्ञश्रीमन्नयविजयौ तदीयशिष्यौ // 15 // द्वात्रिंशिकायां लाभविजयवर्णनमधिकृत्य-"यदीया दृगलीलाऽभ्युदयजननी मादृशि जने, जडस्थानेऽप्यर्कद्युतिरिव जवात् पङ्कजवने / स्तुमस्तच्छिष्याणां बलमविकलं जीतविजयाभिधानां विज्ञानां कनकनिकषस्निग्धवपुषाम् // 4 // " द्वा० 32 द्वा० / नयो०। अष्ट। जीया स्त्री० (ज्या) ज्या–अड्। "ज्यायामीत्" / / 8 / 2 / 115 / / इति प्राकृतसूत्रोण व्यञ्जनात्पूर्वमीद् भवति / प्रा०२ पाद / धनुषो गुणे, मौाम्, मातरि, भूमौ च / वाच०। जीर (ज.) जरायाम् , दिवादिपर० अक० सेट्घटादिः।"हृकृ-तजामीरः"॥४॥२५०॥ इति प्राकृतसूत्रोणैषामन्त्यस्य ईरइत्यादेशः। प्रा०४ पाद। जीर्यति, अजरत्, अजारीत, जीर्णः, जरा, जरयति। वाच०।। जीव पुं० (जीव) जीवनं जीवः / जीव-भावे-घञ् / प्राणधारणे, आ० म० / विशे०। पा०।''इहसंति गया दविया, णावखंति जीवितुं।" जीवितुं प्राणान् धारयितम्। आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ०। "जीवो त्ति जीवणं पा–णधारण जीवियं ति पजायां // " (3508 गाथा) विशे०। जीवितवान्, जीवति, जीविष्यतीति जीवः / आचा० 1 श्रु० 8 अ०२ उ० / दर्श01 आव० / उपयोगलक्षणे जीवद्रव्ये, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। "नय एगो सव्वगओ, निक्किरिओलक्खणाइमेआओ।" (1657 गाथा) उपयोगलक्षणो हि जीवः / स चोपयोगो रागद्वेषकषायविषयाध्य वसायाऽऽदिभिर्भिद्यमान उपाधिभेदादनन्त्यं प्रतिपद्यत इत्यनन्ता जीवाः, लक्षणभेदाद्, घटाऽऽदिवदिति। विशे०। जीवनिक्षेपश्चतुर्धा तथा च नियुक्ति:निक्खेवो जीवम्मी, चउविह दुविहो उ होइ दव्वम्मि। आगम-णोआगमतो, नोआगमतोय सो तिविहो॥१॥ जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्तं च जीवदव्वं तु। भावम्मि दसविहो खलु, परिणामो जीवदव्वस्स // 2 // तद्व्यतिरिक्तं च जीवद्रव्यम् ; द्रव्यजीव उच्यते इति प्रक्रमः। तुर्विशेषद्योतकः / स चायं विशेषः-न यथा कदाचित् तत्पर्याय-वियुतं द्रव्यं, तथाऽपि च यदा वियुक्ततया विवक्ष्यते, तदा तदव्य-प्राधान्यतो द्रव्यजीवः / भावे तु दशविधः, खलुरवधारणे, दशविध एव परिणामः कर्मक्षयोपशमोदयापेक्षपरिणतिरूपो, जीवद्रव्यस्य संबन्धी, जीवदनन्यत्वेन जीवतया विवक्षितो जीव इति प्रक्रमः / तत्र च क्षायोपशमिकाः षट्पञ्चेन्द्रियाणि, षष्ठं मनः, औदयिकाः क्रोधाऽऽदयश्चत्वारो मीलिता दश भवन्ति। उत्त०३६ अ० / दश०। (विस्तरेण निक्षेप 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 167 पृष्ठे उक्तः) इन्द्रियपञ्चकमनोवाकायबलायोच्छवा- सनिःश्वासायुर्लक्षणम् दश प्राणान् यथायोगं धारयतीति जीवः / कर्म० 1 कर्म / नं०। आ० म०। भ० / प्राणधारणधर्मके आत्मनि, स्था० 1 ठा० 1 उ० / आचा० / दर्श० / देहाभिमानिनि आत्मनि, मनुष्यावधिकीटपर्यन्ते चेतने, वाच०। क इत्थंभूत इति चेत् ? उच्यते यो मिथ्यात्वाऽऽदिकलुषितरूपतया साताऽऽदिवेदनीयाऽऽदिकर्मणांमभिनिवर्तकः, तत्फलस्य च विशिष्टसाताऽऽदे रुपभोक्ता, नरकाऽऽदिभवेषु च यथाकर्मविपाकोदयं संसर्ता, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रोपसंपन्नरत्नत्रयाभ्यासप्रकर्षवशाच निःशेष-कर्माशापगमतः परिनिर्वाता, सजीवः सत्त्वेः प्राणी आत्मेत्यादिपर्यायाः / उक्तं च - "यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च / संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणः॥१॥ इति / कर्म०१ कर्म०। नं०। जीवलक्षणम् - उवओगलक्खणमणा-इनिहणमत्थंतरं सरीराओ। जीवमरूवं कारिं, भोई च सयस्स कम्मस्स // 56|| उपयुज्यते अनेनेत्युपयोगः साऽऽकारानाकारदिः / उक्तश्च स द्विधा अष्टचतुर्भेदः, स एव लक्षणं यस्य स उवओगलक्षणस्तं, जीवमिति वक्ष्यते। तथा अनाद्यनिधनम् -अनाद्यपर्यववसितं, भवापवर्गप्रवाहापेक्षया नित्यमित्यर्थः। आव० 4 अ०। दर्श०। जीवो अणाइनिहणो,णाणाऽऽवरणाइकम्मसंजुत्तो।(8) जीवतीति जीवः, असौ अनादिनिधनः-अनाद्यपर्यवसित इत्यर्थः। स च ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मणा समेकीभावेनान्योन्यव्याप्त्या, युक्तः संवद्धो ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्म संयुक्तः श्रा० / "ज्ञानाऽऽत्मकः सर्वशुभा-शुभकर्ता स कर्मणा / नाना संसारिमुक्ताऽऽख्यो, जीवः प्रोक्तो जिनाऽऽगमे '11|| दर्श०४ तत्त्व / निसर्गचेतनायुक्तो, जीवोऽरूपी ह्यवेदकः।। 20] निसर्गा सहजा या चेतना, तया युक्तः निसर्गचेतनायुक्तः , सर्वेभ्योऽचेतनेभ्यो भिन्नो, जीवः व्यवहारनयेन रूपवेदसहितोऽपि निश्चयनयेन रूपरहितोरूपान्यन्ताभावयुक्तः, वेदरहितो वेदात्यन्ताभाववान् सत्तामात्रम्, निर्गुणो, निर्विकारो जीवः। उक्तंच-"अरसमरूवमगंध, अवनं चेयणागुणमसदं। जाण अलिंगग्गहणं,जीवमणिहिट्ठसंठाणं // 1 // " द्रव्या० 10 अध्या०।"... जीवमजीवे, रूवमरूवी य सप्पएसे य।" सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणो जीवः, तद्भिन्नोऽजीवः। एतौद्वौ भेदौ प्रत्येक रूप्यरूपि भेदौ / तथा चाह-रूप्यरूपिण इति / तत्रानादिकर्म - सन्तानपरिगता रूपिणः, अरूपिणस्तु कर्मरहिताः सिद्धा इति। आ० म० / आ० चू० / (जीवस्यास्तित्वनित्यत्वाऽऽदि 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 172 पृष्ठे प्रतिपादितम्) जीवस्य कथञ्चिद् नित्यत्वं कथञ्चिदनित्यत्वम्सासए जीवे जमाली! जंण कदाइ णासि० जाव णिचे। असासए जीवे जमाली ! जंणं णेरइए भवित्ता तिरिक्ख जोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भवित्ता देवे भवइ / भ०६ श०३३ उ०। जीवानां कथञ्चित्सादृश्यं, कथञ्चिद् न"सव्वे पाणा अणेलिया।" [4 गाथा] सर्वेऽपि प्राणिनो विचित्राकर्मसद्भावाद् नानागतिजातिशरीरा डोपाङ्गाऽऽदिसमन्वितत्वादनीदृशा विसदृशाः। सूत्र०२ श्रु०५ अ०। (हस्तिकुन्श्योः समानजीवत्वं जीवस्य संकोचविकाश शालित्वं च 'पएसिण्' शब्दे वक्ष्यते) जीवचैतन्ययोर्भेदाभेदौजीवे णं भंते ! जीवे जीवे ? गोयमा ! जीवे ताव नियमा
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________________ जीव 1520 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव जीवे, जीवे वि नियमा जीवे / जीवे णं भंते ! नेरइए नेरइए जीवे ? गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय नेरइए, सिय अनेरइए। जीवे णं भंते ! असुरकुमारे असुरकुमारे जीवे ? गोयमा ! असुरकुमारे ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय असुरकु मारे, सिय णो असुरकुमारे / एवं दण्डओ भाणियव्वो० जाव वेमाणियाणं / जीवइ भंते ! जीवे जीवे जीवइ ? गोयमा ! जीवइ ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवइ, सिय नो जीवइ। जीवइ भंते ! नेरइए नरेइए जीवइ ? गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवइ, जीवइ पुण सिय नेरइए, सिय अनेरइए, एवं दंडओ नेयव्वो० जाव वेमाणियाणं / इह एकेन जीवशब्देन जीवो गृह्यते, द्वितीयेन च चैतन्य मित्यतः प्रश्नः / उत्तरं पुनर्जीवचैतन्ययोः परस्परेणाविनाभूत-त्वाद् जीवः चैतन्यमेव, चैतन्यमपि जीव एवेत्येवमर्थम- वगन्तव्यम् / नारकाऽऽदिषु पदेषु पुनर्जीवत्वमव्यभिचारि, जीवेषु च नारकादित्वं व्यभिचारीत्यत आह "जीवे णं भंते ! नेरइए' इत्यादि। जीवाधिकारादेवाह - (जीवई भंते! जीवे जीवेजीवइ त्ति) जीवति प्राणान् धारयति यः स जीवः, उत यो जीवः स जीवतीति प्रश्नः / उत्तरं तु यो जीवति स तावन्नियमाजीवः, अजीवस्य आयुः कर्माभावेनं जीवनाभावात् / जीवस्तु स्याजीवति, स्यान्न जीवति, सिद्धस्यजीवनाभावदिति। नारकादिस्तु नियमाजीवति, संसारिणः सर्वस्य प्राणधारणधर्म कत्वात् जीवतीति पुनः स्यान्नारकादिः स्यादनारकादिरिति / भ० 6 श० 10 उ० / "प्राणान् क्षेत्राज्ञरूपेण, धारयन् जीव उच्यते।" इत्युक्ते प्राणानि, वाच०। आतु०॥ध०। सूत्रा० / द्वी० / भ० / न० / जीवो जन्तुरसुमान् प्राणी सत्त्वो भूत इत्यादयो जीवपर्यायाः / विशे०1०। प्रश्न०। कर्म०! उत्ताअनु०। आव०। 60 / तथा च-- जम्हा आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। जम्हा भूए भवइ भविस्सइ तम्हा भए त्ति वत्तव्वं सिया। जम्हाजीवे जीवइ जीवत्तं आउयं च कम्म उवजीवइ, तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। जम्हा सत्ते सुहासुहेहिं कम्मे हिं, तम्हा सत्ते वि वत्तव्वं सिया। तत्र प्राण इति, एतत्तं प्रति वक्तव्यं स्यात्, यदोच्छ्वासाऽऽ-दिमन्वमात्रमाश्रित्य तस्य निर्देशः क्रियते, एवं भवनाऽऽदिधर्मविवक्षया भूताऽऽदिशब्दपञ्चकवाच्यता तस्य कालभेदेन व्याख्येया, यदा तृच्छ्वासाऽऽदिधर्मेर्युगपदसौ विवक्ष्यते, तदा प्राणो भूतो जीवः सत्त्वो विज्ञो वेदयिता इति, एत्तत्तं प्रति वाच्यं स्यात् / अथवानिगमनवाक्यमेवेदमतो न युगपत्पक्षव्याख्या कार्येति। "जम्हा जीवे' इत्यादि। यस्माजीव आत्माऽसौ, जीवति प्राणान् धारयति, तथा जीवत्वमुपयोगलक्षणम् आयुष्कं च कर्म उपजीवति अनुभवति, तस्माजीव इति वक्तव्यं स्यादिति। (जम्हा सत्ते सुहासुहेहि कम्मेहिं ति) सक्त आसक्तः शक्तो वा समर्थः सुन्दरासुन्दरासुचेष्टासु / अथवा-सक्तः संबद्धः शुभाशुभैः कर्मभिरिति। भ०२श०१ उ०। सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिंजीवाणं सव्येसिं सत्ताणं। सर्वेषां प्राणिनां, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां, तथा सर्वेषां भूतानां प्रत्येकसाधारणसूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपाणामिति / तथा सर्वेषां जीवानां गर्भव्युत्क्रान्तिकसंमूर्छनजौपपातिकपञ्चेन्द्रिणाम्। तथा-सर्वेषां सत्त्वानां पृथिव्या-येकेन्द्रियाणामिति। इह च प्राणाऽऽदिशब्दानां यद्यपि परमार्थतो भेदस्तथाऽपि उक्तन्यायेन भेदो द्रष्टव्यः / उक्तं च - "प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ताः। भूतास्तुतरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः / / 1 / / '' इति। यदि वा शब्दव्युत्पत्तिद्वारेण समभिरूढनयमतेन भेदो द्रष्टव्यः / तथाहि-सततं प्राणधारणात्प्राणाः, कालत्रायभवनाद् भूताः, त्रिकालजीवानाद् जीवाः, सदाऽस्तित्वाद् सत्त्वा इति। आचा०१ श्रु०१ अ०६उ०। सर्वेषां प्राणिना (दशविधाः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषाम) सामान्यतः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम् / तथा सर्वेषां भूतानां मुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन व्यवस्थिताना, तथा सर्वेषां जीवानां जिजीविषूणां च, तथा सर्वेषां सत्त्वानां तिर्यड्नरामराणां संभारे क्लिश्यमानतया करुणाऽऽस्पदानाम् / एकार्थिकानि चैतानि प्राणाऽऽदीनि वचनानि। आचा०१श्रु०६अ०५ उ०। स्था०। आव०। पा०। ज्ञा०। सूत्रा०। सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीया सव्वे सत्ता। सर्वे प्राणाः सर्वएव पृथिव्यतेजीवायुवनस्पतयः द्वित्रिचतुः-पञ्चेन्द्रियाश्चोन्द्रयबलोच्छवासनिःश्वासाऽऽयुष्कलक्षणप्राणधारणात् प्राणाः / तथा-सर्वाणि भवन्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति चतुर्दशभूतग्रामान्तपातीति / एवं सर्व एव जीवन्ति जीविष्यन्ति अजीविषुरिति जीवाः नारकतिर्यन्नरामरलक्षणाश्चतु गतिकाः / तथा-सर्व एवं स्वकृतसातासातोदयसुखदुःखभाजः सत्त्वाः एकार्थाश्चैतेशब्दाः। आचा०१श्रु०४ अ०२उ०। तथा चैवंभूतनयमाधिकृत्यएवं जीवं जीवो, संभारी पाणधारणाणुभयो। सिद्धो पुणरज्जीवो,जीवणपरिणामरहिओ ति॥२२५६|| जीवति ''पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छवासनिःश्वासमथान्यदायुः / प्राणा दशैते भगवद्भिरिष्टास्तेषां वियोगीकरणं च हिंसा / / 1 / / '' इत्यादिवचनप्रसिद्धान् दशविधप्राणान् धरतीति शब्दार्थवशाजीवन्नेव दशविधप्राणधारणं कुर्वन्नस्य नयस्य मतेन जीव उच्यते। स च सामर्थ्याद्दशविधप्राणधारणमनुभवतीति दशविधप्राणानुभवोनारकादिः संसार्येव भवति। सिद्धस्त्वेतन्नयमतेनजीवोऽसुमान् प्राणीत्यादिशब्दैन व्यपदिश्यते। जीवनाऽऽ दिपरिणामरहित इतिकृत्वा शब्दार्थाभाग्दात, किंतर्हि सत्तयोगात्सत्त्वः, अततितांस्तान् ज्ञानदर्शनसुखाऽऽदिपर्यायान गच्छती त्यात्मेत्यादिभिरेव शब्दैनिर्दिश्यत इति।।।२२५६|| विशे०। आ०म०॥ तथा च नयोपदेशेसिद्धो न तन्मते जीवः, प्रोक्तः सत्त्वाऽऽदिसंज्ञयपि। महाभाष्ये च तत्त्वार्थ-भाष्ये धात्वर्थबाधतः।।४।। (सिद्ध इति ) तन्मते एवंभूतनयमते सत्त्वाऽऽदिसंज्ञयपरि सत्ता योगात् सत्त्वः, अतति, स्वान् २पर्यायानात्मत्यादिसंज्ञाधार्यपि,
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________________ जीव 1521 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव सिद्धो महाभाष्ये विशेषाऽऽवश्यके, तत्त्वार्थभाष्ये च धात्वर्थवा-धतो 'जीव' प्राणधारणे इति धात्वर्थानन्वयाद् जीवो न प्रोक्तः / तथा च विशेषाऽऽवश्यकवचनम् - "एवं जीव जीवो, संसारी पाणधारणाणुभवो। सिद्धो पुणरजीवो, जीवणपरिणामरहिओ त्ति // 2256 / / " // 40 // एतदेवतत्त्वार्थभाष्यवचनमनूद्य व्यवस्थापयतिजीवोऽजीवश्च नो जीवो, नो अजीव इतीहिते। जीवः पञ्चस्वपि गति-ष्विष्टो भावैर्हि पञ्चभिः।।४१।। (जीव इत्यादि) जीवोऽजीवो नो जीवो नो अजीवश्चेति चतुर्भिः पदैः कोऽर्थः प्रतिपाद्यः? इतीहिते प्रश्नयोग्यविचारविषयीकृते. सिद्धान्तिना गतिमार्गणयां पञ्चस्वपि गतिषु नारकतिर्यड्नरामरसिद्धगतिलक्षणासु, हि निश्चितं, पञ्चभिविरौदयिकलयिकक्षायोपशमिकौपशमिकपारिणामिकलक्षणैः, जीव इष्टः व्युत्पत्तिनिमित्तजीवनलक्षणोदयिकभावोपलक्षिताऽऽत्मत्वरूपपारिणामिकभावविशिष्टस्य जीवस्य भावपञ्चकाऽऽत्मनो जीवपदार्थत्वात् / न चाऽऽत्मत्वप्रवृत्तिनिमित्तोपादाननैवानतिप्रसङ्गे किं व्युत्पत्तिनिमित्तोपलक्षणग्रहणेनेति वाच्यम्, संभवति तदुपलक्षकभावे तत्यागस्यान्याय्यत्वात्। अन्यथा मण्डपाश्वकर्णाऽऽदिपदतुल्यताप्रसङ्गादिति दिक् / / 41|| नजि सर्वनिषेधार्थ , पर्युदासे च संश्रिते। पुद्रलप्रभृति द्रव्यमजीव इति संज्ञितम्॥४२॥ नोति सर्वनिषेधार्थे जीवत्वावच्छिन्नान्योन्याभाववदर्थे नजिविवक्षितं, पर्युदासे सादृश्ये च तत्र संश्रिते तात्पर्यविषयीकृते , पुद्रलप्रभृति पुद्गलाऽऽदिकं द्रव्यम् अजीव इतिपदेन संज्ञितम् पर्युदासानाश्रयणे तु जीवस्य गुणपर्याययोरपि भेदतया श्रवणेनाजावपदप्रयोगप्रसङ्ग इति भावः // 42 / / नो जीव इति नोशब्दे-ऽजीवः सर्वनिषेधके / देशप्रदेशौ जीवस्य, तस्मिन देशनिषेधके / / 43|| (नो इति) नो जीव इति शब्दवाच्ये नोशब्दे सर्वनिषेधके विवक्षितेऽजीव एव; देशनिषेधके तु नोशब्दे आश्रीयमाणे देशनिषेधस्य देशाभ्यनुज्ञानान्तरीयकत्वाज्जीवस्य देशप्रदेशावेव नोजीवशब्दव्यपदेश्यावभ्युपगन्तव्यौ // 43 // जीवो वाऽजीवदेशोवा, प्रदेशो वाऽप्यजीवगः। अनयैव दिशा ज्ञेयो, नोअजीवपदादपि॥४४|| (जीवो वेति) अनयैवोक्तयैष दिशा, नोअजीवपदादपि, नो-शब्दस्य सर्वनिषेधकत्वे जीवो जीवपदार्थो वा बोध्यः, तस्य देशनिषेधकत्ये वाऽजीवदेशो वाऽजीवगः अजीवाऽऽश्रितः प्रदेशो वा 'अमानोनाः प्रतिषेधे 'इत्यनुशासन तौल्येऽपि संसर्गा भावोऽन्योन्याभावश्च नोऽर्थः, नोशब्दस्य त्वभाव एक देशो वा; तत्रा चान्वयिताऽवच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वतदेकदेशत्वाऽऽदिव्युत्पत्तिबललभ्य मिति / सिद्धान्तपरिभाषित निगर्वः // 44 / / उक्त मतं कियतां नयानाम्? इत्याहनैगमो देशसंग्राही, व्यवहारर्जुसूत्राको। शब्दः समभिरूढये-त्येवमेते प्रचक्षते / / 45 / / (नैगम इति) नैगमो नैगमनयः देशसंग्राही अवान्तसंग्राही, सर्वसंग्रहस्य सन्मात्रार्थत्वात्तत्यागः। व्यवहारर्जुसूत्रको व्यवहारनय ऋजुसूत्रनयश्च शब्दः, समभिरूढश्चेत्यते नया एवं प्रचक्षते॥४५|| भावमौदयिकं गृह-नेवंभूतो भवस्थितम्। जीवं प्रवक्तत्यजावं तु, सिद्धं वा पुद्गलाऽऽदिकम्॥४६|| (भावमिति) एवंभूतनयस्यु औदयिकं भावं व्युत्पत्तिनिमित्तमेव प्रवृत्तिनिमित्ततया गृह न भवस्थितं संसारिणं जीवं प्रवक्तिजीवशब्देन व्यपदिशति, अजीवम् अजीवपदार्थ तु सिद्धं वा, पुद्गलाऽऽदि द्रव्यं वेच्छत्यसौ॥४६॥ नो अजीवश्च नो जीवो,न जीवाजीवयोः पृथक् / देशप्रदेशौ नास्येष्टा-विति विस्तृतकरे॥४७|| (नो इति) नो जीवो ने अजीवश्चैतन्नवे जीवाजीवयोर्वक्तव्ययोः सतोः पृथग्न पार्थक्यं गापद्यते, यतोऽस्य नयस्य देशप्रदेशां नेष्टाविति, नोशब्दः सर्वनिषेधार्थ एव घटते इत्येतदाकरेऽनुयोगद्वाराऽऽदौ विस्तृतम्॥४७॥ इत्थं स्वसमयसिद्धामेवंभूतनयार्थप्रक्रियामु पपाद्य, तया दिगम्बरोक्तप्रक्रियां दूषयतिसिद्धो निश्चयतो जीवः, इत्युक्तं यदिगम्बरैः। निराकृतं तदेतेन, यन्नयेऽन्त्येऽन्यथा प्रथा // 48|| (सिद्ध इति) एतेन पूर्वोक्तन सिद्धो निश्चयतो जीव इति यदिगम्बरैरुक्तम् - ''तिकाले च दुपाणा, इंदियबलमाउ आणपाणो य। ववहारा सो जीवो, णिच्छयदो दुचेदणा जस्स / / 1 / / " इत्यादिन, तन्निराकृतम् / यद् यस्मादन्त्ये एवंभूतनये अन्यथा प्रथा असिद्धो जीवः' इत्येव प्रसिद्धिः, शुद्धनिश्चयश्च स एवेति कथं निश्चयतः सिद्धो जीव इति वक्तुं शक्यमिति॥४८|| नन्वेवंभूतः पर्यायार्थिकष्वेव शुद्धनिश्चयः, तेनास्मादुक्ता नुपपत्तावपि द्रव्यार्थिकप्रभेदेन सर्वसंग्रहनयेन शुद्धनिश्चयेन तदुपपादयिष्याम इत्याकाङ्क्षायामाह - आत्मत्वमेव जीवत्व-मित्ययं सर्वसंग्रहः। जीवत्वप्रतिभूः सिद्ध-साधारण्यं निरस्य न ||46|| (आत्मत्वमिति) आत्मत्वमेव जीवत्वंजीवपदप्रवृत्तिनिमित्तं,पारिणामिकभावस्य कालत्रयानुगतत्वेनसत्यत्वात्, औदयिकभावस्य चौपाधिकत्वेन कालत्रयानुगतत्वेन च तुच्छत्वादिलयं सर्वसंग्रहनयस्तुसिद्धसाधारण्यं भवस्थतौल्यं निरस्य, जीवत्वसाधने न प्रतिभूः, सर्वत्रा तुल्यजीवत्वादेवैको व्यवहारतो जीवोऽन्यश्च निश्चयत इति विभागकरणम-समीक्षिताभिधानमेवापद्येत। सर्वसंग्रह एव हि कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्रव्यार्थिकः, तेन च संसारिचैतन्यमपि निरुपरागं शुद्धमिति परिणष्यत एव / तदुक्तं द्रव्यसंग्रहे - "मग्गणगुणठाणेहि अ. चउदस य हवंति तह असुद्धणया। विष्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा उसुद्धणया"||१|| इति। नच संसारिचैतन्यस्य संग्रहनयेन शक्तया शुद्धचैतन्यं, निश्चयेऽपि व्यक्तया शुद्धचैतन्यस्य सिद्ध एव निश्चयान्न साधारणमिति शङ्कनीयम्, संग्रहस्य शक्तिग्राहकत्वेन व्यक्तिग्राहकतया व्यवहार एव विश्रान्ते, निश्चयतो द्विचेतनाशाली सिद्ध एव जीव इत्यस्य व्याघातात् / / 46 / /
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________________ जीव 1522- अभिधानराजेन्द्रः - भाग जीव नन्वेव निश्चयतः सिद्धस्याऽजीवत्वे भवद्भिरिष्यमाणे भवतामेव ग्रन्थे संसारिसिद्धसाधारणजीवपदाथीभि धानं कथम् ? इत्याशङ्कायामाह -- यजीवत्वं क्वचिद् द्रव्य-भावप्राणयन्वयात् स्मृतम्। विचित्रानेगमाऽऽकूतात्, तद् ज्ञेयं न तु निश्चयात् // 50 // (यदिति) यद् जीवत्वं क्वचिद् ग्रन्थे द्रव्यप्राणानां, भावप्राणानां चान्वयादेव करणात्स्मृतं, संसारिसिद्ध-साधारण्यमिति विशेषः। तद् विचित्रो विविधावस्थो यो नैगमस्तत्याऽऽकूतादभिप्रायाद् ज्ञेयम, न तु निश्चयात् एवं भूतनयात्। तथा चैवं भूतनयेनैव सिद्धमजीवं वयं प्रतिजानीमहे, न तु नयान्तराभिमतेन जीवत्वेऽपि विप्रतिपद्यामहे, इति शुद्धाशुद्धेन नैगमनयेन साधारणजीवत्वाभ्युपगमेऽपि न क्षतिः / इयांस्तु विशेषः प्रसिद्धनैगम औदयिकभावोपलक्षितमात्मत्वाऽऽख्यं पारिणामिकभावमेव जीवपदप्रवृत्तिनिमित्तमभ्युपैति। तद्विशेषश्च कश्चिदुपचारोपजीवी द्रव्यभावप्राणान्यतरवत्त्वेनानुगतमौदयिक क्षायिकभावद्वयमितिनेद सिद्धान्तार्णवे नयविकल्पकल्लोलवैचिऽयं तत्संप्लअव्यसनिनां विक्षोभाऽऽवहम् // 50 // ननु 'जीव' प्राणधारणे इत्यत्रा भावप्राणधारणमेव धात्वर्थं , विवक्षितत्वात, निश्चयतः सिद्धस्य जीवत्वं समर्थयिष्याम- इत्याकाडक्षायामाह - धात्वर्थे भावनिक्षेपात्, परोक्तं न च युक्तिमत्। प्रसिद्धार्थोपरोधेन, यनयान्तरमार्गणा॥५१॥ (धात्वर्थ इति) धात्वर्थे जीवत्यर्थे, भावनिक्षेपाद् भावसङ्केतग्रहात्, परोक्तं निश्चयतः सिद्ध एव जीव इति दिगम्बरोक्तं, न च नैव, युक्तिमत् यद् यस्मात् प्रसिद्धोऽनादिधातुपाठाऽऽदिप्रतीयमानो योऽर्थः, तदनुरोधेन, नयान्तरस्य मार्गणा विचारणा भवति। तथा च यादृशधात्वर्थमुपलक्षणीकृतेतरनयार्थप्रतिसन्धानं तादृशधात्वर्थप्रकारकजिज्ञासयैवभूताभिधानस्य सांप्रदायिकत्वान्न तत्रा भावनिक्षेपाऽऽश्रयणं युक्तमित्यर्थः / अन्यथा तत्रापि निक्षेपान्तराश्रयणेऽनवस्थानात् प्रकृतमात्रा-पर्यवसानादन्ततो ज्ञानाऽद्वैते शून्यतायां वा पर्यवसानात्। किञ्च एतादृगुपरितनैवंभूतस्य प्राक्तनैवंभूताभिधानपूर्वमेवाभिधानं युक्तम्, अन्यथाऽऽप्राप्तकालत्वप्रसङ्गात् / तस्माद् व्यवहाराऽऽद्यभिमतव्युत्पत्त्यनुरोधेनौदयिकभावग्राहकत्वमेवास्य सूरिभिरुक्तं युक्तमिति स्मर्तव्यम्।नचेन्द्रियरूपप्राणानां क्षायोपशमिक त्वात् कथमेवंभूतस्यौदयिभावमात्राग्राह कत्वमित्याशङ्कनीयम्, प्राधान्येनायुष्कमोदयलक्षणस्यैव जीवनार्थस्य ग्रहणात्। उपहतेन्द्रियेऽप्यायु-रुदयेनैव जीवननिश्चयादिति दिक् // 51 // शङ्काशेषमुपन्यस्य परिहरतिशैलेशयन्त्यक्षणे धर्मो, यथा सिद्धस्तथाऽसुमान्। वाच्यं नेत्यपि यत्तत्रा, फले चिन्तेह धातुगा / / 52|| (शैलेश्यन्त्यक्षण इति) शैलेश्या अयोगिगुणस्थानस्यान्त्यक्षणे चरमक्षणे, यथा निश्चयतो धर्मः, तदक्तिनकालभावी तुव्यवहारत एव / तदुक्तं धर्मसंग्रहण्यां हरिभद्राऽऽचार्य :- 'सो उभयक्खयहेऊ, | सेलेसीचरमसमयभावी जो / सेसो पुणच्छियओ, तस्सेह पसाहगो भणिओ ॥१॥"त्ति / तथाऽसुमान् जीवोऽपि निश्चयतः सिद्ध एव भविष्यतीत्याप न वाच्यम्, यतस्तत्रा "सो उभयचक्खण' इत्यादिगाथायां धारयति सिद्धिगतावात्मानमिति धर्मः' इति फले फलरूपे धात्वर्थे चिन्ता।सा च-कुर्वद्रूपत्वेन कारणत्वं वदत एवंभूतन-- यस्य मते शैलेश्यन्त्यक्षण एव धर्मपदार्थसिद्धिसाक्षिणी, तदनन्तरं सिद्धिसाधारणरूपसाफल्यव्यवधानात् / इह तु धातुगा धात्वर्थायवच्छिन्नस्वरूपविषयिणी चिन्ता। सा च तेन सहाऽव्यवधानं गवेषयेत, स्वरूपं तु प्रसिद्ध्यनुरोधेन संसारिण्येव पर्यवमाययेत्, न तु सिद्ध इति महान् विशेषः / स्यादेतत् धर्म पदेऽपि धात्वर्थो धारणसामान्यमेव, तच्च यतो विशेषतात्पर्यवशात् सिद्धसाधारणरूपविशेषे पर्यवस्यति, तथा जीवपदार्थोऽपि विशेषे पर्यवस्यतीति सिद्ध एव दत्तपदो भविष्यतीति / मैवम्। 'जीव' प्राणधारणे इत्यत्रा प्राणपेदे समभिव्याहृते साधारणस्य भूरिप्रयोगवशादयिकप्राणधारण एव पर्यव सानात्। अत एव गोपदस्य नानाऽर्थत्वेपिततो भूरिप्रयोगवशात्सास्नाऽऽदिमत एवोपस्थितेः, अश्वाऽऽदेस्तुपदान्तर समभिव्याहाराऽऽदिनेति तान्त्रिकाः। तदेवमेवंभूतनयाभिप्रायेण सिद्धो न जीव इति व्यवस्थापितम् / यदि पुनः प्रस्थकन्यायाद् विशुद्धतरनैगमभेदमाश्रित्य प्रागुक्त स्वग्रन्थगाथा व्याख्यायते परैः, तदा न किञ्चिदस्माकं दुष्यतीति किमल्पीयसि दृढतरक्षोदेन / / "ऐन्द्री ततिः प्रणयिपुण्यमिवाडरागैर्यत्पादपद्मकिरणैः कलयत्युदीतम्। स्नात्राम्भसा दलितयादव दुष्टकष्ट, शङ्कखेश्वरप्रभुमिमं शरणीकरोमि" ॥५२सा नयो० / स च द्विविधः संसारी, सिद्धश्च / जी० 3 प्रति० / विशे० / सूत्र० / संसारिणो दशविधप्राणधारणाजीवाः, सिद्धाश्चज्ञानाऽऽदिभावप्राणधारणात् / स्या० / प्राणाश्च द्विधा द्रव्यप्राणाः, भावप्राणाश्च / तत्रा द्रव्यप्राणा इन्द्रियाऽऽदयो, भावप्राणा ज्ञानाऽऽदीनि। द्रव्यप्राणैरपि प्राणिनः संसारसमापन्ना नारकाऽऽदयः, केवलभावप्राणैः प्राणिनो व्यपगतसमस्तकर्म सन्नाः सिद्धाः। प्रज्ञा०१ पद। जी०। जीवानां द्वैविध्यम् - दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-सिद्धाचेव, असिद्धाचेव / दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-सइंदिया चेव, अणिंदिया चेव / (स्था० 2 ठा० 4 उ०) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-सकाइया चेव, अकाइया चेव! दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तंजहा-सजोगाचेव, अजोगाचेवादुविहासव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-सवेदगा चेव, अवेदगा चेव / (जी०१ प्रति०) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-सकसाया चेव, अकसाया चेव / (स्था०२ ठा०४ उ०) दुविहा सय्वजीवा पण्णत्ता। तं जहासलेसा य अलेसा य / (जी०) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-णाणी चेव, अण्णाणी चेव / (जी०) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा सागारोवउत्ता चेव, अणागारोवउत्ता चेव / (जी०) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-आहारगा चेव, अणाहारगा चेव / जी०१ प्रति०। "दुविहा'' इत्यादि कण्ट्यम्। (स्था०) "सइंदिया'' इत्यादि। सेन्द्रि
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________________ जीव 1523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव याः संसारिणः, अनिन्द्रियाः सिद्धाः / (जी० 1 प्रति०) सेन्द्रियाः / संसारिणः, अनिन्द्रिया अपर्याप्तककेवलिसिद्धाः। (स्था०) "सकाइया चेव'' इत्यादि। सकायाः पृथिव्यादिषडविधकायविशिष्टाः संसारिणः, अकायाः तद्विलक्षणाः सिद्धाः / (स्था०) ''सजोगा चेव'' इत्यादि। सयोगाः संसारिणः अयोगा अयोगिनः सिद्धाश्च / (स्था०) "सवेदगा चेव'' इत्यादि। सवेदाः संसारिणः अवेदा अनिवृत्तबादरसंपरायविशेषाऽऽदयः षट् सिद्धाश्च। (स्था०)"सकसाया चेव'' इत्यादि। सकषायाः सूक्ष्मसंपरायान्ताः, अकषाया उपशान्तमोहाऽऽदयः चत्वारः सिद्धाश्च / (स्था०) "सलेसा य" इत्यादि। सलेश्याः सयोग्यन्ताः संसारिणः, अलेश्या अयोगिनः सिद्धाश्च। (स्था०) "णाणी चेव' इत्यादि। ज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयः, अज्ञानिनो मिध्यादृष्टयः। (स्था०) "सागारोवउत्ता चेव" इत्यादि। सहाऽऽ-कारेण विशेषांशग्रहणशक्तिलक्षणेन वर्तते य उपयोगः स साकारो, ज्ञानोपयोग इत्यर्थः / तेनोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः / अनाकारस्तु तद्विलक्षणो, दर्शनोपयोग इत्यर्थः / अभिधीयते च -"ज सामन्नग्गहण, भावाणं नेय कटु आगारं। अविसेस ऊण अत्थे, दंसणमिति वुच्चए समए'' ||1|| त्ति / तेनोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ता इति / (स्था०) (''आहारगा चेव'' इत्यादि सूत्रास्य व्याख्या 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 510 पृष्ठे गता) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-भासगा य, अभा सगा य / (जी०) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा चरिमा चेव, अचरिमा चेव / (जी०) दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहाससरीरी य, असरीरी य। (जी०१ प्रति०) "भासमाय'' इत्यादि। भाषकाः भाषापर्याप्तिपर्याप्तकाः, तन्निषेधादभाषकाः-अयोगिसिद्धाः, एकेन्द्रियाश्च / (स्था०) ("चरिमा चेव' इत्यादिसूास्य विस्तरः 'चरम' शब्दे तृतीयभागे 1138 पृष्ठे उक्तः) "ससरीरी य" इत्यादि / सशरीरिणः संसारिणः, अशरीरिणस्तु शरीरमेषामस्तीति शरीरिणः, तन्निषेधादशरीरिणः सिद्धाः / स्था०२ ठा०४ उ०। संग्रहणीगाथा चेयम् - "सिद्धसइंदियकाए, जोगे वेए कसायलेसाय। णाणुवओगाहारे, भासगचरिये य ससरीरी" ||1|| स्था०२ अ०४ उ०। संप्रति संसारसमापन्नजीवाभिगममभिधित्सुस्तत्प्रश्न सूत्रमाहसंसारसमावण्णएसु णं जीवेसु इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिजंति।तं जहा-एगे एवमाहंसु-दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। एगे एवमाहंसु-चउविहासंसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता / एगे एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। ते एएणं अभिलिबेणं० जावदसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। संसारसमापन्नेषु णमिति वाक्यालङ्कारे। जीयेषु, इमा वक्ष्यमाणलक्षणा नव प्रतिपत्तयो, द्विप्रत्यवतारमादौ कृत्वा दशप्रत्यवतारं यावद् येनव प्रत्यवतारास्तद्रूपाणि प्रतिपादनानि, संवित्तय इति यावत् / एवं वक्ष्यमाणया रीत्या आख्यायन्ते पूर्वसुरिभिः / इह प्रतिपत्याख्यानेन प्रणालिकयाऽर्थाख्यानं द्रष्टव्यं, प्रतिपत्तिभावेऽपि शब्दादर्थे प्रवृत्तिकरणात् / तेन यदुच्यतेशब्दाद्वैतवादिभिः, शब्दमात्र विश्वमिति / तदपास्तं द्रष्टव्यम्। तदपासने चेयमुपपत्तिः-एकान्तकस्वरूपेवस्तुन्यभिधानद्वया संभवात्, भिन्नप्रवृत्तिनिमित्ताभावात्, ततश्च शब्दमात्र मित्येव स्यात्, न विश्वमिति प्रणालिकयाऽर्थाभिधानमेवोपदर्शयति। तद्यथाएके आचार्या एवमाख्यातवन्तःद्विविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्ताः / एके एवमाख्यातवन्तः-त्रिविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्ताः। एवं यावद्दशविधा इति। इह एके इतिन पृथग मतावलम्बिनोदर्शनान्तरीया इव केचिदन्ये आचार्याः, किंतुय एव पूर्व द्विप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमाना एवमुक्तवन्तः / यथा-द्विविधाः संसारसमापन्ना जीवा इति, एवं त्रिप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमानाः। द्विप्रत्यवतारविवक्षामपेक्ष्य त्रिप्रत्यवतारविवक्षाया अन्यत्वात्, विवक्षा विवक्षावतां च कथञ्चिदभेदादन्ये इति वेदितव्याः / अत एव प्रतिपत्तय इति परमार्थतोऽनुयोगद्वाराणीति प्रतिपत्तव्यम्। इह य एव द्विविधास्त एव त्रिविधास्त एव चतुर्विधा इति, तेषामनेकस्वभावतायां तत्तद्धर्मभेदेन तथातथाऽभिधानता युज्यते, नान्यथाः, एकान्तकस्वभावतायां तेषां वैचित्र्यायोगतस्तथातथाऽभिधान प्रवृत्तेरसंभवात्। एवं सति अष्टविकल्पम् दैवं, तिर्यग्योनिं च पञ्चधा भवति, मानुष्यं चैकविधं समासतो भौतिकः सर्ग इति वाड्मात्रामेव अधिष्टातृजीवानामेकरूपत्वाभ्युपगमनेन तथारूपवैचित्र्यासंभवादिति। एवमन्येऽपि प्रवादास्तथा वस्तुवैचित्र्यप्रतिपादनपरा निरस्ता द्रष्टव्याः, सर्वथैक स्वभावत्वाभ्युपगतौ वैचित्र्यायोगात्। संप्रत्येता एव प्रतिपत्तीः क्रमेण व्याचिख्यासुः प्रथमत आद्यां प्रतिपत्ति विभावयिषुरिदमाह - तत्थ जे ते एवमाहंसु दुविहा संसारसमावण्गा जीवा पण्णत्ता / तं जहा-तसा चेव, थावरा चेव / / (तत्थ जे ते इत्यादि) ता तासु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये ये तद्विप्रत्यवतारविवक्षायां वर्तमानां एवमाख्यातवन्तःद्विविधाः संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञप्ता इति / ते णमिति वाक्यालङ्कार। एवं वक्ष्यमाणरीत्या द्विविधत्वभावनाऽर्थमाख्यातवन्तः। तद्यथे -त्युपन्यस्तद्वैविध्योपदर्शनार्थमाहासाश्चैव, तत्रा सन्ति उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाऽऽद्यासेवनाऽर्थ स्थानान्तरमिति ासाः / अनया च व्युत्पत्त्या त्रसास्वसनामकर्मोदयवर्तिन एवपरिगृह्यन्ते, नशेषाः। अथच-शैषेरपीह प्रयोजनं, तेषामप्यग्रे वक्ष्यमाणत्वात् / तत एवं व्युत्पत्तिः-त्रसन्ति अभिसिन्धुपूर्वकमनभि सन्धिपूर्वकं वा ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु चलन्तीति साः। तैजसा वायवो द्वीन्द्रियादयश्च / उष्णाऽऽद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारा समर्थाः सन्तस्तिष्ठन्तीति एवंशीलाः स्थावराः पृथिव्यादयः। च शब्दौ स्वगतानेकभेदसमुचयार्थी / एवकारववधारणार्थो / एते एव संसारसमापनका जीवाः, एतद्व्यतिरेकेण संसारिणामभावात्। जी० 1 प्रति०। स्था०।। जीवानां नौविध्यम् - तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-तसा य, थावरा य,
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________________ जीव 1524 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 जीव णो तसा णो थावरा / (जी०३ प्रति०) तिविहा सव्वजीवा जाव पंचेदिया। (स्था०५ ठा०३ उ०) पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-परित्ता, अपरित्ता, नो परित्ता नो अपरित्ता। पण्णत्ता। तं जहा-नेरझ्या, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा, (जी० 3 प्रति) तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता / तं सिद्धा / पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-कोहकसाई, जहा-इत्थी, पुरिमा, णपुंसगा। तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं माणकसाई, मायाकसाई, लोभकसाई, अकसाई / जी०३ जहा-सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी। तिविहा प्रति०॥ सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-पञ्जत्तगा, अपज्जत्तगा, नो पज्जत्तगा 'पंचविहेत्यादि।" संसारसमापन्ना भववर्तिनः, सर्वजीवाः संसारिनो अपजत्तगा। (स्था० 3 ठा०२ उ०1) तिविहा सव्वजीवा | सिद्धाः, अकषायिण उपशान्तमोहाऽऽदयः। स्था० 5 ठा०३ उ०। पण्णत्ता / तं जहा-सुहुमा, वायरा, नो सुहुमा नो वायरा (जी० संसारिणो य मुत्ता, संसारी छव्विहा समासेण। 3 प्रति०) तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता।तं जहा-सण्णी असण्णी, पुढवीकाइयमादी, तसकायंता पुढो भेया // 64 / / णो सण्णी णो असण्णी। (जी०) तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। संसारिणो, मुक्ताश्चेति। तत्रा संसारिणः जहा भवसिद्धिआ, अभवसिद्धिआ, नो भवसिद्धिआ नो षड्विधाः षट्प्रकाराः, समासेन जातिसंक्षेपेणेति भावः / षड्विधत्वअभवसिद्धिआ। जी०३ प्रति०। मेवाऽऽह-पृथिवीकायिकाऽऽदयस्त्रसकायान्ताः / यथोक्तम् -''पुढवीउक्तानुक्तसंग्रहार्थे गाथाऽर्द्धम् - काइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकायिया, वणस्सइकाइया, "सम्मद्दिट्ठि-परित्ता-पज्जत्तग-सुहुम-सन्नि-भविका य / " | तसकाइया / ' पृथग्भेदा इति स्वातन्त्र्येण पृथग्भिन्नस्वरूपाः, न तु स्था०३ ठा०२ उ01 परमपुरुषविकारा इति // 64 / / आ० / "परित्ता" इत्यादि / परीत्ताः प्रत्येकशरीराः, अपरीत्ताः साधारण जीवानां षड् विधत्वम् - शरीराः / परीत्तशब्दस्य छन्दोऽर्थे व्यत्यय इति। (स्था० 3 ठा०२ उ०) छविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता / तं जहा "पजत्ता' इत्यादि। (नो पज्जयत्त त्ति) नो पर्याप्कताः, नो अपर्याप्तकाः पुढवीकाइया० जाव तसकाइया। छव्यिहा सव्वजीवा पण्णत्ता। सिद्धाः। (स्था० 3 ठा०२ उ०) "सण्णी'' इत्यादि। संज्ञिनः समनस्काः, तं जहा-आमिणिवोहियणाणी० जाव केवलणाणी, अन्नाणी। असंज्ञिनोऽमनस्काः , उभयप्रतिषेधवर्तिनः सिद्धाः / (जी०३ प्रति०) अहवा-छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-एगिंदिया० जाव "भवसिद्धिया'' इत्यादि। सर्वत्रा तृतीयपदे सिद्धा वाच्याः / स्था०३ पंचिंदिया, अणिंदिया। अहवा छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं ठा०२ उ०। जहा-ओरालियसरीरी, वेउव्वियसरीरी, आहारगसरीरी, तेयग जीवानां चातुर्विध्यम् - सरीरी, कम्मगसरीरी, असरीरी। चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। तं जहाणेरइया, संसारसमापन्नकजीवसूत्रो, पृथिवीकायिकाऽऽदयो जीवतयोक्ताः, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा / चउट्विहा सव्वजीवा पूर्वसूठो तु निकायन्येनेति विशेषाद् न पुनरुक्ततेति / ज्ञानिसूत्रोपण्णत्ता / तं जहा-मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी, अजोगी। अज्ञानिनस्विविधाः-मिथ्यात्वापहतज्ञानाः / इन्द्रियसूत्रेअनिन्द्रियाः अहवा-चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तं जहा-इत्थिवेयगा, अपर्याप्ताः, केवलिनः, सिद्धाश्चेति। शरीरसूत्रेयद्यप्यन्तरगतौ कार्माण पुरिसवेयगा, णपुंसगवेयगा, अवेयगा / अहवा-चउविहा शरीरसंभवः, तद्व्यतिरिक्तस्य तैजसशरारिणोऽसम्भवः, तथाऽप्येकसव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी, तराविवक्षया भेदो व्याख्यातव्यः तथा अशरीरी सिद्ध इति / स्था०६ ओहिदसणी, के बलदंसणी / अहवा-चउविवहा सव्वजीवा ठा। पण्णत्ता। तं जहा-संजया 1, असंजया 2, संजयासंजया 3, जीवानां सप्तविधत्वम् - णो संजयासंजया // 4 // सत्तविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता / तं जहा नेरइया, व्यक्तानि चैतानि, नवरं मनोयोगिनः समनस्काः , योगत्रय-सद्भावेऽपि तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ, मणुस्सा, मणुस्सीओ, तस्य प्राधान्यात् / एवं वारयोगिनो द्वीन्द्रियाऽऽदयः कावयोगिन देवा, देवीओ / सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहाएके न्द्रियाः, अयोगिनो निरुद्धयोगाः सिद्धाश्चेति / अवेदकाः पुढवीकाइया, आउक्काइया, ते उक्काइया, वाउकाइया, सिद्धादयश्चक्षुषः समान्यार्थग्रहणमवग्रहेहारूपं दर्शनं चक्षुर्दर्शनं वणस्सइकाइया, तसकाइया, अकाइया / (जी०) सत्तविहा तद्वन्तश्चतुरिन्द्रियादयः, अचक्षुःस्पर्शनादितद्दर्शनवन्त एकोन्द्रियादय सव्वजीवा पण्णत्ता। तंजहा कण्हलेसा, नीललेसा, काउलेसा, इति / संयताः सर्वविरताः, असंयता अविरताः, संयतासंयता तेउलेसा, पम्हलेसा, सुक्कलेसा, अलेसा। जी०। देशविरतास्त्रयः, तत् प्रतिषेधवन्तः सिद्धा इति / स्था० 4 ठा०४ 30 / सूत्रद्वयं कण्ठ्यं, नवरं सर्वे च ते जीवाश्चेति सर्वजीवाः संसारिमुक्ता जीवानां पञ्चविधत्वम् - इत्यर्थः / तथा (अकाइय त्ति) सिद्धाः, षड्विधकायाव्यपदेश्यपंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता / तं जहा एगिंदिया० / त्वादिति / अलेश्याः-सिद्धा अयोगिनो वेति। (जी०)
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________________ जीव 1525 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव अट्ठविहा संसारसमावण्णगाजीवा पण्णत्ता। तं जहा-पढमसमय नेरइया, अपढमसमयनेरइया, पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया, पढमसमयमणुस्सा, अपडमसमयमणुस्सा, पडमसमयदेवा, अपढमसमयदेवा / जी०८ प्रति०।स्था०। ताप्रथमसमयनारकाः नारकायुःप्रथमसमयसंवेदिनो अप्रथमसमयनारका नारकायुष्यादिसमयवर्तिनः, एवं तिर्गग्यो निकादयोऽपि भावनीयाः / जी० 8 प्रति अट्ठविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-नेरइया, तिरिक्ख जोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ, मणुस्सा, मणुस्सीओ य, देवा, देवीओ य, सिद्धा / अहवा-अट्ठविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-आभिणिवोहियणाणी० जाव केवलणाणी, मइअण्णाणी, सुयअणाणी, विभंगनाणी। स्था०८ ठा०]] नवविधत्वमाह - नवविहा सव्वजीवा पण्णत्वा / तं जहा-पुढवीकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, वेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया। जी०६ प्रति०। जीवाणं नवहिं ठाणेहिं संसारं वत्तिंसुवा, वत्तंति वा, वत्तिस्संति वा। तं जहा-पुढवीकाइयत्ताए० जाव पंचिंदियकाइयत्ताए। संसरणं निर्वर्तितवन्त अनुभूतवन्तः, एवमन्यदपि। स्था०६ ठा०। नवविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। तंजहा-एगिंदिया वेइंदिया, तेइंदिया, चतुरिदिया, रतिया, पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिया, मणूसा, देवा, सिद्धा। जी०६ प्रति०। नवविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ! तं जहा-पढमसमयरतिया, अपढमसमयणेरतिया, पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया, पढमसमयमणूसा, अपढमसमयमणूसा, पढमसमयदेवा, अपढमसमयदेवा, सिद्धा / जी० प्रति०। दशविधत्वम् - दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता / तं जहा पढमस मयएगिंदिया, अपढमसमयएगिदिया, पढमसमय-वेइंदिया, अपढमसमयवेइंदिय० जाव पढमसमयपंचिंदिया, अपढमसमय पंचिंदिया। जी० 10 प्रति०॥ तका सुगम, नवरं प्रथमः समयोयेषामेकेन्द्रियत्वस्य ते प्रथमसमयास्ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति विग्रहः / विपरीतास्त्वितर एवं द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रिया वाच्याः / स्था० 10 ठा०। दसविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-पुढवीकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणप्फतिकाइया, वेइंदिया, तेइंदिया, चतुरिंदिया, पंचिंदिया, अणिंदिया / जी० 10 प्रति अनिन्द्रियाः सिद्धा अपर्याप्तका उपयोगतः केवलिनश्चेति। स्था०१० ठा०। दसविहा सव्वजीवा पण्णत्ता / तं जहा-पढमसमयणेरइया, अपढम-समयनेरइया, पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढम समयतिरिक्खजोणिया, पढमसमयमणूसा, अपढसमयमणूसा, पढमसमयदेवा, अपढमसमयदेवा, पढमसमयसिद्धा, अपढमसमयसिद्धा। जी०१० प्रति०/ स्था०॥ जीवानां चतुर्दशविधत्वम् - कइविहा णं भंते ! संसारसमावणगा जीवा पण्णत्ता ? गोयमा! चउद्दसविहा संसारसमावण्णगाजीवा पण्णत्तातिं जहासुहुमअपज्जत्तगा 1, सुहमपज्जत्तगा 2, बादरअपज्जत्तगा 3, बादरपज्जत्तगा 4, वेइंदिया अपज्जत्तगा 5, वेइंदिया पज्जत्तगा 6, एवं तेइंदिया 7-8, एवं चउरिदिया 6-10, असणिणपंचिं दिया अपज्जत्तगा ११,असणिणपंचिदिया पज्जत्तगा 12, सणिपंचिंदिया अपज्जत्तगा 13, सपिणपंचिंदिया पञ्जत्तगा 14 / भ०२५ श० १उ01 तत्राहचउदसविहा वि जीवा, विबंधगा तेसिमंतिओ भेओ। चोद्दसहा सव्वे विहु, किमाइसंताइपयनेया।।१।। चतुर्दशविधा अपि चतुर्दशप्रकारा अपि जीवाः प्रागुक्तस्वरूपा अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियाऽऽदयो, विबन्धका ज्ञेयाः, विशेषेण बन्धका विबन्धकाः अष्टप्रकारस्य कर्मण इति शेषः / तेषां चतुर्दशविधानां जीवानाम्, अन्तिमो भेदः- पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाख्यः चतुर्दशधा चतुर्दशप्रकारो मिथ्यादृष्टयादिभेदादवसेयः, सर्वेऽपि चैतेऽनन्तरोक्ता अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियाऽऽदयो मिथ्यादृष्ट्यादयश्च किमादिकः, पर्दः सत्पदाऽऽदिकैश्च प्ररूप्यमाणा यथावज्ज्ञातव्याः / / 1 / / तत्रा 'योद्देशं निर्देशः' इति न्यायात् प्रशमतः किमादिपदैः प्ररूपण चिकीर्षुराहाकिं जीवा उवसममा - इएहिँ भावेहिँ संजुयं दव्यं। कस्स सरुवस्स पहू, केणं ति न केणइ कयाओ / / 2 / / किं जीवाः? किं नाम जीवा इत्यभिधीयते?, एतं परेण प्रश्ने कृते राति सूरि सूरिरुत्तरमाह-उपशमाऽऽदिभिरुपशमौदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकैर्भावैः संयुतं संभिअं द्रव्यम्। आह औदयिकाऽऽदीन् भावान परित्यज्य किमितीहौपशमिकस्य भावस्य साक्षादुपादानम् ? उच्यते -इह जीवस्य स्वरूपं पृष्टन सता तदेव वक्तव्यं यदसाधारण स्वरूपम, एवं हि पदार्थान्तर रवरूपेभ्यो वैविक्तयेन तत्प्रति पादित भवति, नान्यथा, औदयिकपारिणामिकौ च भावावजीवानामपि भवतः, अतस्तौ साक्षान्नोपात्तौ, क्षायिकोऽपि च भाव औपशमिक - भावपूर्वकः, नखल्वीपशमिकभावमनासाद्य कश्चिदपि क्षायिकं भावमासादयति, क्षायोपशमिकोऽपि व भावो नौपशमि-काद्भावादत्यन्त -
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________________ जीव 1526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव भेदी, तत इह साक्षादौपशमिकस्य भावस्योपादानमिति। ततः 'कस्य प्रभवः स्वामिनो जीवाः?" इति प्रश्ने कृते सति उत्तरम् - स्वरूपस्य आत्मीयस्य रूपस्य, निश्चयनयमतमेतत् / तथाहि--कर्मबिनिर्मुक्तस्वरूपा आत्मानो न केषामपि प्रभवः, किं तु स्वरूपस्यैव, तथास्वाभाव्यात्। यस्तु स्वस्वामिभावः संसारे, स कर्मोपाधिजनितत्वादीपाधिकः, न पारमार्थिक इति। तथा केन कृता जीवा? इति प्रश्ने कृते सति समाधिः-न केनचित्कृताः किन्तु नभस्वदकृत्रिीमा एव, यथा चाकृत्रिमता जीवानां, तथा धर्मसंग्रहणीटीकायां सप्रपञ्चमभिहितमिति नेह भूयोऽभिधीयते, ग्रन्थगौरवभयात्॥२॥ कत्थ सरीरे लोए, व हुंति केवचिर सव्वकालं तु। कइ भावजुआ जीवा, विगतिगचउपंचमीसेहिं / / 3 / / कुत्रा जीवा अवतिष्ठन्ते? इति प्रश्ने कृते सति उत्तरमाचार्य आह शरीरे, लोके वा, तन्न सामान्यचिन्तायां लोके, नाऽलोके, अलोके स्वभावत एव धर्माधर्मास्तिकायजीवपुद्रलानामसंभवात्। विशेषचिन्तायां शरीरे, नान्यत्रा, शरीरपरमाणुभिरेव सह आत्मप्रदेशानां क्षीरनीरवदूयोन्यानुगमभावात् / उक्तञ्च - 'अन्नोन्नमणुगयाइं, इमं च तं च त्ति विभयणमजुत्तं / जह खीरपाणियाई' ति। तथा (केवचिर त्ति) कियचिरं कियत्कालं जीवा भवन्ति ? इति प्रश्ने कृते सति उत्तरम् - सर्वकालमेव, तुरेवकारार्थः / इह "कण तिन केणइ कया उ(२)" इत्यनेन ग्रन्थेन पूर्व जीवानामनादित्वमावेदितम्, इदानीं त्वनिधनत्वम्, ततश्चानादिनिधना जीवा इति द्रष्टव्यम्। तथा च सति मुक्त्स्य वस्थामधिगता अपि जीवा न विनश्यन्ति, किन्तु ज्ञानाऽऽदिके स्वरूपेऽवतिष्ठन्त इति श्रद्धेयम् / तेन यत्कश्चिदुच्यते"दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो. नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्, स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् / / 1 / / जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्, स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम्॥२॥ तथाअर्हन्मरणचित्तस्य, प्रतिसन्धिर्न विद्यते॥ प्रदीपस्येव निर्वाणं, विमोक्षस्तस्य चेप्सितः॥३। इति तदपास्तमवसेयम्। सतः सर्वथा विनाशायोगात्, तथादर्शनादिति कृतं प्रसङ्गेन, मा भूद् ग्रन्थगौरवमिति कृत्वा / तथा कतिभिरुपशमाऽऽदिभिर्भावैर्युताः संयुक्ता जीवाः? इति प्रश्ने कृते सति, उत्तरमाह - द्विकत्रिकचतुःपञ्चमित्रैः / पं० सं०। (जीवस्थानेषु भावस्थितिः 'गुणद्वाण' शब्दे तृतीयभागे 623 पृष्ठे कर्मग्रन्थने गतार्था) तत्रा ये जीवा यावत्सु शरीरेषु संभवन्ति, तान्तावत्सु प्रतिपादयन्नाह -- सुरनेरइया तिसु तिसु, वाउपणिंदीतिरिक्ख चउ चउसु / मणुया पंचसु सेसा, तिसु तणुसु अविग्गहा सिद्धा // 4 // सुरा नैरयिकाश्च प्रत्येकं तिसृषु तनुषु शरीरेषु वर्तन्ते / तद्यथा तैजसे, कार्मणे, वैक्रिये च। तथा वायवो वातकायाः, तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः प्रत्येकं चतसृषु तनुषु संभवन्ति / तत्रा त्रीणि शरीराणि पूर्वोक्तान्येव, चतुर्थं त्यौदारिकमवगन्तव्यम्, वैक्रियं च वायुकायिकानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां वैक्रियलब्धिमतामवसेयम्, सर्वेषामविशेषेण तथा मनुजा मनुष्याः पञ्चस्वपि तनुषु संभवन्ति। तद्यथा, औदारिके वैक्रिये आहारके तैजसे कार्मणे च / तत्र वैक्रियं वैक्रियलब्धिभताम्, आहारकं चतुर्दश पूर्ववेदिनाम्, औदारिकतैजसकार्मणानि सुप्रतीतानि शेषास्त्वेक द्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यचः प्रत्येकं तिसृषु तिसृषु औदारिकतैजसकार्मणरूपासु तनुषु वेदितव्याः, सिद्धा व्यपगतसकलकर्ममलकलङ्का पुनरविग्रहा विग्रहरहिताः, अशरीरा इत्यर्थः / / 4 / / तदेव किमादिपदैः प्ररूपणाकृता / संप्रति सत्पदाऽऽदिपदैः प्ररूपणा कर्त्तव्या सत्पदाऽऽदीनि च पदान्यमूनि-"संतपयरूवणया, दव्वपमाणं च खित्तफुसणा य / कालो य अंतरं भागभाव अप्पाबहुं चेव / / " तत्र प्रथमतः सत्पदरूपणां विदधातिपुढवाई चउ चउहा, साहारणवणं पि संततं सययं। पत्तेयपज्जऽपज्जा, दुविहा सेसा उ उववन्ना / / 5 / / इह ये पृथिव्यादयश्चत्वारः पृथिव्यप्ते जो वायुरूपाः, प्रत्येक सूक्ष्मबादरपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदाचतुर्द्धा चतुःप्रकाराः, सर्वभेदसंख्यया षोडशसंख्या, ततो भूयः सर्वेऽपि प्रत्येक द्विधा द्विप्रकाराः। तद्यथाप्रागुत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च, प्रागुत्पन्नोत्पद्य मानता च प्रज्ञापकापेक्षया वेदितव्या / ते सर्वेऽपि सततमनवरतम् (संततं ति) यथायोगं सर्वत्रा वचनलिङ्गपरिणामेन संबद्ध्यन्ते, सन्तो विद्यमानाः सर्वकालं सन्तः प्राप्यन्ते इत्यर्थः। तथा साधारणवनमपि साधारणवनस्पतयोऽपि पर्याप्त -सूक्ष्मबादरभेदभिन्नाः प्रत्येकं द्विधा, प्रागुत्पन्ना उत्पद्यमानाच, सततं सन्तो विद्यमानाः सर्वेऽपि सर्वदैव सन्तइत्यर्थम्। तथा-(पत्तेय इत्यादि) प्रत्येकबादरवनस्पतयः पर्याप्ताऽपर्याप्ताश्च / प्रत्येक द्विधा-प्रागुत्पन्नाः, उत्पद्यमानाश्च। सततं सन्तः सर्वकालंसतःप्राप्यन्ते इति यावत्।शेषास्तु द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः प्रत्येकं पर्याप्ताऽपर्याप्ताश्च, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः पुनः पर्याप्ताः प्रागुत्पन्नाः सततं सन्तः, उत्पद्यमानकास्तु भाज्याः, तुशब्दस्यानेकार्थत्वात् संज्ञिनो लब्ध्यपर्याप्तकाः प्रागुत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च भाज्याः / कथमेतदवसीयते? इति चेत् / उच्यते-इह संज्ञिना लब्ध्यपर्याप्तकानावस्थामन्तर्मुहुर्त्तमात्रा, तेषामायुषोऽन्तर्मुहूर्तमात्रत्वात्। अन्तरं चैतेषामुत्पत्तिमधिकृत्योत्कर्षतोद्वादशमुहूर्ताः ततस्ते प्रागुत्पन्ना अपि सत्तायां भाज्याः। ननु द्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः अपि लब्ध्यपर्याप्तका अन्तर्मुहुर्तायुषः, अन्तरमपि च तेषामन्तर्मुहूर्तमात्रमन्य-त्रो ष्यते, ततः कथं तेऽपि प्रागुत्पन्ना भाज्या न भवन्ति? नैष दोषः। तेषामवस्थानस्य बृहत्तरोन्तर्मुहुर्त प्रमाणत्वात्तदायुषस्तावन्मात्रात्वात् / कथंमिदमवसितमिति चेत् ? उच्यते-ग्रन्थान्तरे नित्यराश्यधिकारे नित्यराशिभिः सह तेषां यौगपोनाभिधानात् / / 5 / / तदेवं चतुर्दशविधान सत्पदप्ररूपणया प्ररूप्य सांप्रतमेतेषा मेवान्तिमो भेदश्चतुर्दशप्रकारः सत्पदप्ररूपणया प्ररूपयितव्यः; स च चतुर्दशधा गुणस्थानकभेदाद्भवति, ततो गुणस्थानकान्येव सत्पदप्ररूपणया प्ररूपयतिमिच्छा अविरयदेसा, पमत्तअपमत्तया सजोगीय।
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________________ जीव 1527 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव सव्वद्धं इयरगुणा, नाणाजीवेसु वि न होति / / 6 / / मिथ्यादृष्ट्यविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसयोगि के वलिलक्षणानि गुणस्थानकानि सद्धिं सर्वकालं विद्यन्ते, इतराणि शेषाणि (गुण त्ति) गुणस्थानकानि सास्वादनसम्यग्मिथ्यादृष्ट्यपूर्वकरयानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहक्षीणमोहायोगिकेवलिलक्षणान्यष्टसंख्याकानि नानाजीवेष्वपि, आस्तामेकस्मिन् जीवे इत्यपिशब्दार्थः / न सर्वकालं भवन्ति, न सर्वकालं विद्यमानानि प्राप्यन्ते इत्यर्थः, किन्तु कदाचिदेव / यदाऽपि च सास्वादनाऽऽदयः प्राप्यन्ते, तदाऽपि कदाचिदेककाः, कदाचिद् बहवः, बहुत्वं च प्रतिनियतं प्रत्येकमग्रे वक्ष्यति॥६॥ एतेषां च सासादनाऽऽदीनामष्टसंख्याकानां यावन्तो भेदा एकद्विकाऽऽ-दिसंयोगतः सर्वसंख्यया भवन्ति, तावन्तः प्रतिपिदयिषुः सामान्यतः करणगाथामाह - इगदुगजोगाईणं, ठवियमहो एगऽणेग इइ जुयलं / इति जोगा उ दुदुगुणा, गुणियविमिस्सा भवे भंगा / / 7 / / एकद्विकयोगाऽऽदीनाम् एककद्विकत्रिकसंयोगाऽऽदीनां प्रत्येकमधस्तादेकानेकरूपं युगलं द्विकमवस्थाप्यते, तत एकक- योगादारभ्य (दुदुगुण त्ति) द्विगुणा द्वाभ्यां सहिता द्विद्विगुणाः / तथाहि-पाश्चात्या भगा द्विगुणाः क्रियन्ते, ततो द्विकसहिता विधेयाः। ततः पुनरपि गुणितविमिश्रा ये भङ्गाः प्राचीना द्वाभ्यां गुणितास्तैः केवलैः सहिताः क्रियन्ते, तद ईप्सितपदे इष्टसंख्याका भङ्गा भवन्ति / इयमत्रा भावनायावन्तः पदार्था विकल्पेन भवन्तो भेदसंख्यया ज्ञातुमिष्टास्तावन्तोऽसत्कल्पनया बिन्दवः स्थाप्यन्ते / इह च प्रकृता अष्टौ सास्वादनाऽऽदयः ततोऽष्टौ बिन्दवः स्थाप्यन्ते, तेषां चाधस्तात् प्रत्येक द्विकः स्थाप्यः / स्थापना चेयम् -22222222222 1.शायनागार 00000000000 तत्रीकपदे द्वौ भङ्गौ / तद्यथा-एको बहवो वेति पदद्धये भङ्गा अष्टौ / तद्यथा- पाश्चात्यो द्वौभङ्गौ द्वाभ्यां गुणितौ जाताश्चत्वारः, ते द्वितीयबिन्दुस्थाने स्थाप्यन्तेः, ततोऽधस्तनो द्विकः प्रक्षिप्यते, जाताः षट्, ततो 'गुणियविमिस्सा' इति वचनात्यौपाश्चात्यौ द्वौ भङ्गो द्वाभ्यां गुणितौ तौ षट्षु मध्ये प्रक्षिप्येते, ततो जाता अष्टौ, एतावन्तः पदद्वये भङ्गाः / ननु पदद्वये भङ्गा रचत्वार एव प्राप्यन्ते। तथाहि-किल एकः सास्वादन एको मिश्र इत्येको भङ्ग, एकः सास्वादनो बहवो मिश्रा इति द्वितीयः, बहवः सास्वादना एको मिश्र इति तृतीयः, बहवः सास्वादना बहवो मिश्रा इति चतुर्थः / अतः परमेकोऽपि भङ्गो न संभवति, तत्कथमुच्यतेपदद्वये भङ्गा अष्टौ भवन्तीति ? तदयुक्तम् / अभिप्रायपरिज्ञानात् / इह हि यदि सास्वादनाभिश्री सदैवावस्थितौ भवेताम्, भजना तु तयोरेकानेकत्वमात्राकृतैव के वला भवेत्, तदोक्तप्रकारेण द्वयोः पदयोर्भङ्गाश्चत्वार एव भवन्ति / यावता सास्वादनमिश्री स्वरूपेणापि विकल्पनीयौ / तथाहि-कदाचित् सास्वादनो भवति, कदाचिन्मिश्रः, कदाचिदुभौ। यत्र सास्वादनः केवलो जायमानः कदाचिदेकः कदाचिदनेक इतिद्वौ भङ्गौ। एवं मिश्रेऽपिद्वाविति चत्वारः। उभौ चयुगपज्जायमानौ भवदुक्तप्रकारेण चतुर्भङ्गिकतया जायते, ततः पदद्वये भगा अष्टौ भवन्ति / एवमुत्तरत्रापि भङ्गार्थभावना भावनीया / सम्प्रतिपदायभङ्गादर्श्यन्ते तत्रा पाश्चात्याः पदद्वये भङ्गा अष्टौ (द्वाभ्या) गुण्यन्ते, जाताः षोडशातेतृतीयबिन्दुस्थाने स्थाप्यन्ते ततोऽधस्तनो द्विकः प्रक्षिप्यते, जाता अष्टादश / ततो भूयः पाश्चात्या अष्टौ प्रक्षिप्यन्ते, जाताः षड्विंशतिः। एतावन्तः पदत्रये भङ्गाः। ततः सैव षड्विशतिद्वीभ्यां गुण्यते, जाता द्विपञ्चाशत्। सा चतुर्थबिन्दुस्थाने स्थाप्यते, ततोऽधस्तनो द्विकः प्रक्षिप्यते, ततो जाताश्चतुः पञ्चाशत्। ततः पुनरपि पाश्चात्य पविशतिः प्राक्षप्यते, जाताअशीतिः। एतावन्तः पदचतुष्टये भङ्गाः / ततः सा अशीतिभ्यां गुण्यते, जातं षष्टयेधिक शतम्,तत्पञ्चमाबिन्दुस्थाने स्थाप्यते, ततोऽधस्तनो द्विकः प्रक्षिप्यते, जातं द्विषष्टयधिकं शतम्, ततः पुनरपि प्राक्तनी अशीतिः प्रक्षिप्यते, ततो जाते द्वे शते द्विचत्वारिंशे / एतावन्तः पदपञ्चके भगा। ततस्ते द्वे शते द्विचत्वारिंशे द्वाभ्यां गुण्ये तेः, जातानि चत्वारि शतानि चतुरशीत्यधिकानि। तानि षष्ठबिन्दुस्थाने स्थाप्यन्ते, ततोऽधस्तनो द्विकः प्रक्षिप्यते, जातानि चत्वारि शतानि षड्शीत्यधिकानि / ततो भूयः प्राक्तने द्वे शते द्विचत्वारिंशदधिके प्रक्षिप्येते, जातानि सप्तशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि। एतावन्तः षटषुपदेषु भङ्गाः। ततः सप्तशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि। तानि सप्तमबिन्दुस्थाने स्थाप्यन्ते, ततोऽधस्तनो द्विकः प्रक्षिप्यते, जातानि चतुर्दशशतानि अष्टपञ्चाशदधिकानि। ततः पुनरपि प्राक्तनानि सप्तशतानि अष्टाविंशत्यधिकानि प्रक्षिप्यन्ते, ततो भवन्त्येकविंशतिशतानि षडशीत्यधिकानि। एतावन्तः सप्त-पदभगा। अमूनि चैकविंशतिशतानि षडशीत्यधिकानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातानि त्रित्वारिंशच्छतानि द्विसप्तत्यधिकानि। तान्यष्टमबिन्दुस्थाने स्थाप्यन्ते, ततोऽधस्तनो द्विकः प्रक्षिप्यते, ततो जातानि त्रिचत्वारिंशच्छतानि चतुःसप्तत्यधिकानि / सतो भूयोऽपि प्राक्तनान्येकविंशतिशतानि षड्शीत्यधिकानि प्रक्षिप्यन्ते, ज्ञातानिषष्ट्यधिकानि पञ्चषष्टिशतानि। एतावन्तोऽष्टपदभङ्गाः॥७॥ संप्रत्येषामेव भङ्ग कानां प्रकारान्तरेण प्ररूपणामाहअहवा एकपईया, दो भंगा इगिबहुत्तसन्ना जे। ते चिय पयवुड्डीए, तिगुणा दुगसंजुया भंगा॥८॥ अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने, एकपदिको एकपदभवौ द्वौ भङ्गौ भवतः, कौ तौ ? इत्याह-यौ एकबहुत्वसंज्ञौकदाचिदनेक इत्येवंरूपौ, ततस्तावेव द्वौ भड़ावादी कृत्वा पदवृद्धौ द्विकाऽऽदिपदवृद्धौ प्राक्तनाः प्राक्तनास्त्रिगुणाः क्रियन्ते, ततो द्विकेन संयुक्ता विधेयाः, ततस्तत्तत्पदभङ्गा भवन्ति / इयमत्रा भावनातावेवैकपदिको भङ्गौ पदद्वये त्रिगुणीक्रियेते, ततो जाताः षट्। ते द्विकेन संजुज्यन्ते, ततो जायन्तेऽष्टौ / एतावन्तः पदद्वये भगा। ततस्तेऽष्टौ त्रिगुणाः क्रियते, जाता चतुर्विशतिः / सा द्विकेन संयुक्ता जाता पविशतिः। एतावन्तः पदाये भङ्गा।ततः साऽपिषड्विशतिस्त्रिगुणीक्रियते, जाता अष्टसप्ततिः / ततो द्विकप्रक्षेपः ततो भवत्यशीति। एतावन्तः पदचतुष्टये भङ्गाः / एवं तावद् वाच्यं, यावत्सप्तपदभङ्गाः षडशीत्यधिकान्येकविंशतिशतानि / तानि भूयस्त्रिगुणीक्रियन्ते, ततो द्विकः प्रक्षिप्यते, जातानिषष्ट्यंधिकानिपञ्चषष्टिशतानि। एतावन्तोऽष्टसु सास्वादनाऽऽदिपदेषु भङ्गाः / / 7 / / तदेवं कृता सत्पदप्ररूपणा।
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________________ जीव 1528 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव सम्प्रति द्रव्यप्रमाणमाहसाहारणाण भेया, चउरो अणंताऽसंखया सेसा। मिच्छाऽणता चउरो, पलियासंखं ससेससंखेजा।।। साधारणानां साधारणवनस्पतिकायिकानां चत्वारो भेदाः, पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादररूपाः,प्रत्येकमनन्ता अनन्तसंख्याः अनन्तलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्तेषाम्। तथा शेषाः पृथिव्यम्बुतेजोवायवः प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मवादरभेदाचतु भेदाः तथा पर्याप्तापर्याप्तभेदभिन्नाः प्रत्येकबादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्तापर्याप्त द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिनोऽसंख्याता असंख्यातसंख्याः / अथापर्याप्तासंज्ञिनः कथमसंख्याता गीयन्ते? न हि ते सदैव प्राप्यन्ते किंतु कदाचिदेव, ततः कथमसंख्याता घटन्ते। नैष दोषः / यतो यद्यपिते सदैव न भवन्ति, तथापि यदा भवन्ति तदा जघन्येनैको द्वौ वा उत्कर्षतोऽसंख्येयाः / उक्तं च-"एगो व दो व तिन्निव, संखमसंखा व एगसमएणं।" इति। तथा मिथ्यादृष्टयोऽनन्ताःअनन्तलोका ऽऽकाशप्रमाणाः, तथा चत्वारः सास्वादनसम्यमिथ्यादृष्ट्यविरतसम्यदृष्टिदेशविरतरूपाः प्रत्येक पल्योपमासंख्येयभागवर्तिप्रदेशरशिप्रमाणा इत्यर्थः / इह सास्वादनाः सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यश्चाधुवत्वाकदाचिल्लोके प्राप्यन्ते, कदाचिन्नः, यदा प्राप्यन्ते तदा जघन्येनैको द्रौवा, उत्कर्षतः क्षेत्रापल्योपमासंख्येय भागतुल्याः, अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरताः पुनः सदैव प्राप्यन्ते, ध्रुवत्वात्तेषां, केवलं कदाचिस्तोकाः कदाचिद् बहवः तत्रा जघन्यपदेऽपि ते द्वयेऽपि प्रत्येक क्षेत्रापल्योपमासंख्येय भागवर्तिप्रदेशराशितुल्याः , उत्कर्षतोऽप्येतावन्त एव, नवरम-- संख्यातस्य तस्यासंख्यातभेदभिन्नत्वाजघन्यादुत्कृष्टम- संख्यातमसंख्यातगुणं द्रष्टव्यम्। देशविरतेश्चाविरतसम्यग्दृष्ट्यो जघन्यपदे उत्कृष्टपदे च प्रभूतततरा अवसेयाः, शेषाः प्रमत्ताऽऽदिगुण स्थानवर्तिनो जीवा: प्रत्येकं संख्येयाः प्रतिनियतसंख्याकाः, सा च प्रतिनियता संख्या स्वयमेव वक्ष्यते॥८|| तदेवमभिहितं सामान्यतो द्रव्यप्रमाणम्, साम्प्रतमेतदेव विशेषतोऽभिधित्सुराहपत्तेयपजवणका-इया उपयरं हरंति लोगस्स। अंगुलअसंखभागे-ण भाइयं भूदगतणू य || पर्याप्तप्रत्येकबादरवनस्पतिकायिका भूकायिका उदककायि-काश्च पर्याप्तबादराः प्रत्येकं लोकस्य धनीकृतस्व सप्तररज्जु प्रमाणस्य उपरितनाधस्तनप्रदेशरहितै कैकप्रदेशप्रस्तराऽऽत्मकं मण्डकाऽऽकार प्रतरमङ्गलमात्रक्षेत्रासंख्येयभागै जितं खण्डितं सकलमपि हरन्ति / इयमत्र भावना-सर्वेऽपि प्रत्येकबादरपर्याप्तवनस्पतिकायिका जन्तवः प्रतरमेककालपहर्तुमुद्यता विवक्षिताः सन्तो यदि युगपदेकैकमङ्गुलासंख्येभागमात्र खण्डमपसारयन्ति, तत एकेनैव समयेन ते सकलमपि प्रतरमपहरन्ति / तत इदमायातम्घनीकृतलोकस्यैकस्मिन् प्रतरे यावन्त्यकुलासंख्येयभागमात्राणि खण्डानि भवन्ति तावत्प्रमाणाः पर्याप्त प्रत्येक बादरवनस्पतयः / एवं पर्याप्तबादभूकायि को - दककायिकानामपि प्रत्येकं भावना कार्या / यद्यपि चामीषां त्रयाणामपीत्थं समानप्रमाणत्वमभिहितं, तथाऽप्यनुलासंख्येय भागस्यासंख्यातभेदभिन्नत्वात्परस्परमिदमल्पबहुल्वमवसे यम्, स्तोकाः प्रत्येक बादरपर्याप्तवनस्पतयः, तेभ्यः पर्याप्तबाद-भूयकायिको असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि बादर पर्याप्ताप्कायिका असंख्येयगुणाः।।६।। आवलिवग्गो ऊणा-वलिए गुणिओ हु बायरा तेऊ॥ वाऊ य लोगसंखं, सेसतिगसंखिया लोगा।।१०।। आवलिका असंख्येयसमयाऽऽत्मिकाऽप्यसत्कल्पनया दशसमयाssत्मिका कल्प्यते, ततस्तस्या दशसमयाऽऽत्मिकाया आवलिकावर्गः, स चि किल कल्पनया शतसमयप्रमाणः, तत आवलिकावर्ग ऊनावलिकया कतिपयसमयन्यूनया आवलिकया कतिपयसमयन्यूनैरावलिकासमयैरष्टभिरित्यर्थः गण्यते। गुणने च कृते सति यावन्तो वर्गा भवन्ति, तेषु च वर्गेषु यावन्तः समया-स्तावत्प्रमाणा बादरपर्याप्ततेजस्कायिकाः। तथा (वाऊय लोगसंखं ति) वायवो बादरपर्याप्तवायवो लोकसंख्येयभागतुल्याः, घनीकृतस्य लोकस्यासंख्येयेषु प्रतरेषु संख्यातत् मभागवर्तिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणा इत्यर्थः / अमीषां पृथिव्यम्बुतेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां बादरपर्याप्तानां परस्परमल्पबहुत्वमिदम्-सर्वस्तोकाः पर्याप्तबादरतेजस्कायिकाः, तेभ्यः पर्याप्त प्रत्येकबादरवनस्पतिकायिका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्याप्तबादरभूकायिका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्याप्तवादराप्कायिका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्याप्तबादरवायुकायिका असंख्ये यगुणाः / (से सतिगमसंखियो लोगा इति) शेषत्रिक पृथिव्यम्बुतेजोवायु कायिकानामपर्याप्तबादरपर्याप्ता पर्याप्तसूक्ष्मलक्षणमसंख्येया लोकाः, असंख्येयेषु लोकेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः / किमुक्त भवति ? असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणाः पृथिव्यम्बुतेजोवायूनां प्रत्येकमपर्याप्ता बादराः, पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च सूक्ष्मा भवन्तीति। इदं सामान्येनोक्तं, विशेषचिन्तायां पुनः पृथिव्यम्बुतेजोवायूनां स्वस्थाने प्रत्येकं त्रयाणामपिराशीनामिदमल्पबहुत्वम्-सर्वस्तोका अपर्याप्तबादराः तेभ्योऽपर्याप्तसूक्ष्मा असंख्येयगुणाः तेभ्योऽपि पर्याप्तसूक्ष्माः संख्येयगुणाः, शेषत्रिकग्रहणं चोपलक्षणं, तेनापर्याप्तबादरप्रत्येक वनस्पतयोऽसंख्येयलोकाकाशप्रमाणा अवगन्तव्याः / साधारणवनस्पतीनां च प्रागेण पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादररूपाश्चत्वारोऽपि भेदाः सामान्यतोऽनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा उक्ताः / यदि पुनस्तेषामपि विशेषचिन्ता क्रियते, तदेदमल्पबहुत्वमवसे यम बादरपर्याप्तसाधारणाः सर्वस्तोकाः, तेभ्यो बादरापर्याप्तसाधरणा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि सूक्ष्मपर्याप्तसाधारणाः संख्येयगुणाः / / 10 / / पज्जपत्ताजत्ता-वितिचउअस्सण्णिणो / अवहरंति ।अंगुलसंखासंख-प्पएसभइयं पुढो पयरं / / 11 / / द्वित्रिचतुरसंज्ञिनो द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः पृथकप्रत्येक पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च यथासंख्यमड्गुल-संख्येयासंख्येयभागप्रदेशैर्भाजितं खण्डितं प्रतरमपहरन्ति / इयमत्रा भावना-सर्वेऽपि पर्याप्ता द्वीन्द्रिया यदि युगपदेकैकमङ्गुलमात्रक्षेत्रासंख्येयभागमात्रां खण्ड प्रतरस्यापहरन्ति, तत एकेनैव समयेन ते सकलमपि प्रतरमपहरन्ति। इदमुक्तं भवति घनीकृतस्य लोकस्य सप्तरज्जुप्रमाणस्यैकस्मिन् प्रतरे यावन्त्यगु संख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावन्तः पर्याप्ता द्वीन्द्रियाः / एवं पर्याप्तास्त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रिया अपि प्रत्येकमवगन्तव्याः / यावन्ति पुनरे कस्मिन् प्रतरेऽङ्गुलमात्रक्षेत्रासंख्ये यभागप्रमाणानि खण्डानि, तावन्ताऽपर्याप्ता द्वीन्द्रिय - त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः प्रत्येक मवसेयाः। यद्यपि च सर्वे
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________________ जीव 1526 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव पर्याप्ताः सर्वेऽपि चापर्याप्ता द्वीन्द्रियाऽऽदयः सामान्यतः समान प्रमाणा उक्ताः, तथाऽपि विशेषचिन्तायाभिदमल्पबहुत्यमवयम-सर्वस्तोकाः पर्याप्ताश्चतुरिन्द्रियाः, पर्याप्ता असंज्ञिपञ्चेन्द्रिया विशेषाधिकाः, पर्याप्ता द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, पर्याप्तास्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, अपर्याप्ता असंज्ञिपञ्चेन्द्रिया असंख्यातगुणाः, तेभ्योऽपर्याप्ताश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्यपर्याप्तास्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्यपर्याप्ता द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः। तदेवमसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः सर्वेऽपि जीवाः संख्यया प्ररूपिताः॥११| सम्प्रति संज्ञिप्ररूपणार्थमाहसन्नी चउसु गईसुं, पढमाएँ असंखसेढिनेरइया। सेढिअसंखेजंसो, सेसासु जहुत्तरं तहय॥१२॥ संज्ञिनश्चतसृष्वपि गतिषु वर्तन्ते, ततो गतीरधिकृत्य तत्प्ररूपणा कर्तव्या। तत्र प्रथमतो नरकगतिमधिकृत्याऽऽहप्रथमायां नरकपृथिव्यां रत्नप्रभाऽभिधानायां घनीकृतस्य लोकस्य सप्तरज्जुप्रमाणस्य असंख्येया एकप्रादेशिक्यः, श्रेणयः एतावत्प्रमाणा नारकाः, असंख्यातासु एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणा नारका इत्यर्थः / गाथाऽन्ते चशब्दस्यानुक्तार्थसंसूचना भवनपतयोऽप्येतावत्प्रमाणा वेदितव्याः / शेषासु द्वितीयाऽऽदिषु नरकपृथिवीषु प्रत्येकम् (सेढिअसंखेजस त्ति) घनीकृतस्य लोकस्यैकस्या अप्येकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसंख्येयतमो भागो नारकाः, असंख्येयतमे भागे यावन्तः प्रदेशास्तावत्प्रमाणा नारका इत्यर्थः / (जहुत्तरं तह य त्ति) तथा चेति समुचये / यथोत्तरं च यथा यथा उत्तरा पृथ्वी तथा तथा पूर्वपृथ्वीगतनारकापेक्षया असंख्याततमा असंख्याततमभागमात्रा द्रष्टव्याः। तद्यथा--द्वितीयपृथ्वीगतनारकापेक्षया तृतीयपृथिव्यां नारका असंख्याततमभागमात्राः तृतीयपृथ्वीगतनारकापेक्षया चतुर्थपृथिव्या नारका असंख्यातभागमात्राः / एवं सप्तस्वपि पृथ्वीषु द्रष्टव्यम् / कथमेतदवसेयमिति चेत ? उच्यते युक्तिवशात्। तथाहि सर्वस्तोकाः सप्तमपृथिव्यां नारकाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिष्विभाग भाविनः, तेभ्योऽपि तस्यामेव सप्तमपृथिव्यां दक्षिणदिग्भागभाविनोऽसंख्येयगुणाः। कथमिति चेत? उच्यते-इह द्विधा जन्तवःशुक्लपाक्षिकाः, कृष्णपाक्षिकाश्चातेषां चेदं लक्षणम् इह येषां किञ्चिदूनपुद्रलपरावर्तार्द्धमात्राः संसारस्ते शुक्लपाक्षिकाः, अधिकतरसंसारभाजिनस्तु कृष्णपाक्षिकाः / उक्तं च "जेसिमवड्डो पोग्गल परियट्टो सेसओय संसारो।तेसुक्कपक्खिया खलु. अहिए पुण कण्हपक्खीओ // 1 // " अत एव स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः, बहवः कृष्णपाक्षिकाश्च / कृष्णपाक्षिकास्तु प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, न शेषासु दिक्षु, तथास्वाभाव्यात् / तच्च तथास्वाभाव्यं पूर्वाचायैरेवं युक्तिभिरुपबृह्यते तथा कृष्णपाक्षिका दीर्घतरसंसारभाजिन उच्यन्ते, दीर्घतरसंसारभाजिनश्च बहुपापोदया भवन्ति। बहुपादोयाश्च क्रूरकर्माणः / क्रूरकर्माणश्च प्रायस्तथास्वोभाव्यात् तद्भवसिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, न शेषासु / यतं उक्तम्- ''पायमिह कूरकम्मा, भवसिद्धिया वि दाहिणिल्लेसु / नेरइयतिरियमणुसा, सुराइठाणे सु गच्छंति / / 1 / / " ततो दक्षिणस्यां दिशि बहूनां कृष्णपाक्षिकाणासुत्पादसंभवात् संभवन्ति पूर्वोत्तरपश्चिमेभ्यो दाक्षिणत्या असंख्येय गुणा इति / तेभ्योऽपि षष्ठपृथिव्यां तमः प्रभाऽभिधानायां पूर्वोत्तर पश्चिमदिग्भाविनोऽसंख्येयगुणाः / कथमिति चेत्? उच्यते इह सर्वोत्कृष्टपापकर्मकारिणः संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याः सप्तम नरकंपृथिव्यामुत्पद्यन्ते, किञ्चिद्धीनहीनतरपापकर्मकारिणश्च षष्ट्यादिषु पृथिवीषु, सर्वोत्कृष्टपापकर्मकारिणश्च सर्वस्तोकाः, बहवश्च यथोत्तरं किञ्चिद्धीनहीनतराऽऽदिपापकर्मकारिणः, ततो युक्तमसंख्येयगुणत्वम् / सप्तमपृथिवीदाक्षिणात्यनारकापेक्षया षष्ठपृथिव्यां पूर्वोत्तरपश्चिमनारकाणाम्, एवमुत्तरोत्तरपृथिवी रप्यधिकृत्य भावितव्यम्। तेभ्योऽपि तस्यामेव षष्ठपृथिव्यां दक्षिणदिग्वर्तिनो नारका असंख्येयगुणाः / युक्तिस्रापि प्रागुक्ताऽनुसतव्या / तेभ्योरपि पञ्चमपृथिव्यां धूमप्रभाऽभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिरभाविनोऽसंख्येयगुणाः तेभ्योऽपि तस्यामेव पञ्चमपृथिव्यां दक्षिणदिग्वर्तिनोऽसंख्येयगुणाः तेभ्योऽपि चतुर्थपृथिव्यां पङ्कप्रभाऽभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भागभाविनोऽसंख्येयगुणाः तेभ्योऽपि तस्यामेव चतुर्थपृथिव्यां दक्षिणस्यां दिशि असंख्येय गुणाः, तेभ्योऽपितृतीयपृथिव्यां वालुकाऽभिधानायां पूर्वोत्तर पश्चिमदिग्भाविनोऽसंख्येयगुणाः तेभ्योऽपि तस्यामेव तृतीयपृथिव्यां दाक्षिणात्या असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि द्वितीयपृथिव्यां शर्कराप्रभाऽभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनोऽसंख्ये यगुणाः, तेभ्योऽपि तस्यामेव द्वितीयपृथिव्यां दाक्षिणात्या असंख्येयगुणाः तेभ्योऽपि रत्नप्रभापृथिव्यां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनोऽसंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां दक्षिणस्यां दिशि नारका असंख्येयगुणाः / पं० सं०। (अत्रत्यः संवादी प्रज्ञापनाग्रन्थः 'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे 652 पृष्ठे गतः) ये च येभ्योऽसंख्येयगुणास्तेषां ते असंख्येयतमे भागे वर्तन्ते, ततो रत्नप्रभापृथिव्यां पूर्वोत्तरपश्चिमनारकेभ्योऽपि शर्कराप्रभानारका असंख्येयतमे भागे वर्तन्ते, किं पुनः सकलनारकेभ्यः? एवमधोऽधःपृथिवीष्वपि भावनीयम् / ततो युक्तमुक्तम् - (जहुत्तरं तह य त्ति) // 12 // सम्प्रति व्यन्तराणां प्रमाणमाहसंखेज्जजोयणाणं, सूइपएसेहिँ भाइओ पयरो। वंतरसुरेहिं हीरइ, एवं एक्कक्कमेएणं // 13 // संख्येयानां योजनानां या सूचिरेकप्रादेशिकी श्रेणिः / किमुक्तं भवति? संख्येययोजनप्रमाणा या एकप्रादेशिकी पङ्किः तत्प्रदेशैर्भक्तः प्रतरो व्यन्तरसुररपहियते / अयमत्रा तात्पर्यार्थः यावन्ति संख्येययोजनप्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्राण्याकाशाखण्डान्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तावत्प्रमाणा व्यन्तरसुराः / अथ वेयं कल्पनासंख्येययोजनप्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिमात्रां खण्डमेकैकं युगपद् यदि सर्वेऽपि व्यन्तरसुरा अपहरन्ति, तर्हि सकलमपि प्रतरमेकस्मिन्नेव समये ते अपहरन्ति, अत्रापि च एवार्थः / एवमेकैकस्मिन् भेदे व्यन्तरनिकाये द्रष्टव्यम्। किमुक्तं भवति ? यथा सकलव्यन्तरसुराणां परिमाणमुक्तमेवमेकैक स्मिन् व्यन्तरंनिकाये परिमाणमयसेयम् / न चैवं सर्वसमुदायपरिमाणव्याघातप्रसङ्ग,श्रेणिप्रमाणहेतुयोजनसंख्येयत्वस्य वैचित्र्यात्।।१३।। छप्पन्नदोसयंगुल-सूइपएसेहिं भाइओ पयरो। जोइसिएहिं हीरइ, सहाणे त्थी य संखगुणा // 14 // षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयसंख्याऽगुलप्रमाणसूचिप्रदेशैर्भाजितः
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________________ जीव 1530- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव खण्डितः प्रतर उक्तस्परूपो ज्योतिष्कदेवैरपहियते। इयमत्रा भावना- एकप्रार्दशिक्यः श्रेणयः। किमुक्तं भवति ? रत्न प्रभानारकाऽऽदिपरिषट्पञ्चाशदधिकशतद्वयसंख्याऽङ्गुलप्रमाणैक-प्रादेशिकश्रेणिमात्राणि माणेषु प्रत्येकयावत्यः श्रेणयस्तावतः प्रदेशान् श्रेणिव्यतिरिक्तान गृहीत्वा यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणाज्योतिष्कदेवाः / अथवेयं एकप्रादेशिक्यः सूचयः क्रियन्ते, तासां च सूचीनामङ्गुलप्रमितमङ्गुलकल्पनाषट्पञ्चाशदधिकशतद्वयसंख्याङ्गुल प्रमाणैकप्रादेशिकश्रेणिमात्र भागमितमिदं वक्ष्यमाणं मान प्रमाणम् / / 16 / / खण्डमेकैकं यदि युगपत्सर्वेऽपि ज्योतिष्कदेवा अपहरन्ति, तर्हि ते तदेव दर्शयतिसकलमपि प्रतरमेकस्मिन्नेव समये अपहरन्ति, तथा स्वस्थाने चतुर्वपि छप्पन्नदोसयंगुल भूओ भूओ विगिज्झ मूलतिगं। देवनिकायेषु स्वस्वनिकायगतदेवापेक्षया देव्यः संख्येयगुणा द्रष्टय्याः, गुणिया जहुत्तरत्था, रासीओं कमेण सूईओ ||17|| प्रज्ञापनायां महादण्डके तथा पाठात्। षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्याङ्गुलमात्रस्याडगुलक्षेत्रागतप्रदेशअस्संखसेढिखपए- सतुल्लया पढमदुइयकप्पेसु / राशेर्भूयो भूयो वारं वारं विगृह्य / किमुक्तं भवति? वर्गमूलाऽऽनयनकरणेन सेढि असंखंससमा, उवरिं तु जहुत्तरं तह य||१५|| एकं वारं विगृह्य वर्गमूलमानीय भूयो विगृह्यते, ततो द्वितीयं धनीकृतस्य लोकस्य या ऊधि आयता एकप्रादेशिक्यः वर्गमूल मागच्छति, ततो भूयोऽपि विगृह्यते, तत स्तृतीयं श्रेणयोऽसंख्यातास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्ततुल्यास्तावत्प्रमाणाः वर्गमूलमागच्छति / एवं भूयो भूयो विगृह्य मूलत्रिकं वर्गमूलत्रयमानीय प्रथमे कल्पे सौधर्माऽऽख्ये, द्वितीयेच कल्पे ईशानाऽऽख्ये प्रत्येक देवा यथोत्तरस्था राशयो गुण्यन्ते / ततो गुणिताः सन्तस्ते क्रमेण यथाक्रम भवन्ति / केवलं सौधर्मकल्पगतदेवापेक्षया ईशानकल्पगता देवाः सूचयो भवन्ति / एतावत्प्रदेशशराशिप्रमाणा यथाक्रम रत्नप्रभानारकासंख्येयभागमात्रा द्रष्टव्याः, प्रज्ञापनायामीशानदेवापेक्षया सौधर्मकल्प ऽऽदिषु श्रेणिपरिमाणहेतवः सूचयो भवन्तीत्यर्थः / इयमा भावनादेवानां संख्येय गुणतयाऽभिधानात्। (सेढिअसंखंससमा उवरिं तु त्ति) अङ्गुलमात्रो क्षेत्रो एकप्रादेशिक श्रेणिरूपे असंख्याता अपि प्रदेशाः किलातुर्वाक्यभेदे, उपरिपुनः सौधर्मे शानकल्पयोरूपरिष्टात्पुनः सनत्कुमार सत्कल्पनया षट् पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणाः कल्प्यन्ते, तेषां प्रथम वर्गमूलंषोडश, द्वितीयं चत्वारि, तृतीयंचवें। एतेच राशय उपर्यधोभावेन माहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारलक्षणेषु कल्पेषु प्रत्यकं देवा क्रमेण व्यवस्थाप्यन्ते / तत्रा प्रथमवर्गमूलेन षोडशलक्षणेन उपरितनः घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिक्या एकस्याः श्रेणेरसंख्येयांशसमाः षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणो राशिर्गुण्यते। गुणिते च सति तस्मिन् असंख्येयतमे भागे यावन्तो नभः प्रदेशास्ताव प्रमाणाः (जुहुत्तर तह य जातानि षण्णवत्यधिकानि चत्वारि सहस्राणि / एतावत्यः किल श्रेणयो त्ति) तथाचेति समुच्चये, यथा उत्तरे उत्तरे देवाः- उत्तरोत्तकल्पगता रत्न प्रभानारकाणां परिमाणय द्रष्टव्याः, एतावत्प्रमाणश्रेणिगताऽऽदेवास्तथा तथा पूर्वपूर्वकल्पगतदेवापेक्षया असंख्येयभागमात्रा द्रष्टव्यः / काशप्रदेशराशिप्रमाणः प्रथमपृथिवीनारका भवन्तीत्यर्थः। तथा द्वितीयेन इदमुक्तं भवतियावन्तः सनत्कुमारकल्पगता देवास्तदपेक्षया माहेन्द्रकल्पे वर्गमूलेन चतुष्कलक्षणेनोपरितनः षोडशकलक्षणो राशिगुण्यते। गुणिते असंख्येयभागमात्राः माहेन्द्रकल्पगतदेवापेक्षया सनत्कुमारकल्पगता च सति जाता चतुःषष्टिः / एतावत्यः श्रेणयो भवनपतीनां परिमाणावदेवा असंख्ये यगुणा इत्यर्थः / एवं माहेन्द्र कल्पगतदेवापेक्षया धारणाय द्रष्टव्याः / तथा तृतीयेन वर्ग मूलेन द्विकलक्षणेनोपरितनब्रह्मलोककल्पगतदेवा असंख्येयभाग-मात्राः। एवं लान्तकमहाशुक्रसह श्चतुष्फलक्षणो राशिर्गुण्यते / ततो जाता अष्टौ / एतावत्यः श्रेणयः नारकल्पेष्वपि भावनीयम्।"तह य' इत्यत्रा चशब्दस्यानुक्तार्थसमु सौधर्मदेवानां परिमाणाय ज्ञातव्याः // 17 // चायकत्वादानतप्राणताऽऽरणाच्युतकल्पेषु अधस्तनमध्यमोपरितन रत्नप्रभानारकाऽऽदीनामेव विषये प्रकारान्तरेण ग्रैवेयवेषु अनुत्तरविमानेषु च प्रत्येक क्षेत्रापल्योपमस्यासंख्येयतमे भागे भूयः श्रेणिपरिमाणमाहयावन्तो नभः प्रदेशास्तावत्प्रमाणा देवा अवगन्तव्यः। पूर्वपूर्वदेवापेक्षया अह वंगुलप्पएसा, समूलगुणिया उ नेरइयसूई। चोत्तरोत्तरदेवाः संख्येयगुणहीनाः तथा प्रज्ञापनायां महादण्डके पढमदुइयापयाई, समूलगुणियाइँ इयराणं ||18|| पठितत्वात्। (महादण्डकपाठस्तु-'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथम भागे 652 अथवेति प्रकारान्तरसूचने, प्रकारान्तरं चेदम्पूर्वमडगुलमात्रक्षेत्रापृष्ठेद्रश्व्यः ) प्रदेशराशिरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रदेशप्रमाण-कल्पितः, इह पूर्वं रत्नप्रभानारकाणा भवनपतिदेवानां सौधर्मकल्पगतदेवानां च इह तु न तथा कल्प्यते, किं तु यथाऽवस्थितएव विवक्ष्यते इति। अडले परिमाणमसंख्येयश्रेणिगताऽऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणं सामान्येनोक्तं, तत्र एकप्रादेशिकश्रेणिरूपे अङ्गुलमात्रेये प्रदेशास्तेस्वकीयनवर्गमूलेन गुणिताः न ज्ञायते के बहवः, के स्तोका इति? तत परस्परं विशेषमाह सन्तो यावन्तः सं भवन्ति, एतावत्प्रमाणा नैरयिकसूचिः नैरयिकपरि सेढी एकेक्कपए-सरइयसूईणमंगुलप्पमियं / माणहेतूनां श्रेणीनां विस्तरः। किमुक्तं भवति ? एतावत्प्रमाणाः प्रथमपृथिघम्माएँ भवणसोह-म्मयाण माणं इमं होई॥१६॥ वीनारकाणां परिमाणावधारणाय श्रेणयोऽवगन्तव्याः। तथा अङ्गुलमात्राधर्मायां धर्माभिधानायां प्रथमपृथिव्यां नारकाः, तेषामिति शेषः, तथा क्षेत्राप्रदेशराशेर्यत् प्रथमं पदं वर्गमूलं तत् स्वकीयेन मूलेन वर्गमूलेनाकुलभवनपतीनां सौधर्मजानां च सौधर्मकल्पगतानां च देवाना मात्रक्षेत्रप्रदेशराश्यपेक्षया द्वितीयेनवर्गमूलेन गुण्यते। गुणिते च सतियावान् परिमाणावधारणाय या असंख्येयाः श्रेणयः पूर्वमुक्तास्ताः प्रति / प्रदेशराशि र्भवति, एतावत्प्रमाणा भवनपतीनां परिमाणाव-धारणाय प्रत्येकमेकैकं प्रदेशं श्रेणिव्यतिरिक्तं गृहीत्वा या रचिताः सूचय | श्रेणयो द्रष्टव्याः। तथा अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेरेव यद् द्वितीय पदं वर्ग
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________________ जीव 1531 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव मूलं, तत् स्वमूलेन स्वकीयेन वर्गमूलेन अङ्गुलमात्राक्षेत्राप्रदेश - राश्यपेक्षया तृतीयेन च वर्गमूलेन गुण्यते / गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणाः सौधर्मदेवानां परिमाणावधारणाय श्रेणयो ज्ञेयाः, एतावत्प्रमाणश्रेणिगताऽऽकाशप्रदेशराशितुल्याः सौधर्मदेवा भवन्तीति भावना। एवं पूर्वत्रापि भावना द्रष्टव्या॥१८॥ संप्रत्युत्तरवैक्रियसंज्ञितिर्यकपञ्चेन्द्रिय परिमाणावधारणार्थमाह - अंगुलमूलासंखिय-भागप्पमिया उ होंति सेढीओ। उत्तरपिउव्वियाणं, तिरियाण स सन्निपजाणं / / 16 / / अङ्गुलास्याङ्गुलप्रमाणस्य क्षेत्रास्य प्रदेशराशेर्यन्मूलं वर्गमूलं प्रथम, तस्य योऽसंख्येयो भागस्तेन प्रमितास्तत्प्रमाणास्तिरश्चां संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामुत्तरवैक्रियाणां परिमाणावधारणाय श्रेणयोऽवगन्तव्याः / इयमत्रा भावना-एकप्रादेशिके अङ्गुलमात्र क्षेत्रो यः प्रदेशराशिः, तस्य यत् प्रथम वर्गमूलं, तस्यासंख्येयभागे यावन्तो नभः प्रदेशाः, तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणा उत्तरवैक्रियशरीरलब्धिसम्पन्नाः पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो वेदितव्याः। उक्तं च - "पंचेदियतिरिक्खजोणियाण केवइया वेउव्वियसरीरा पन्नता ? गोयमा ! असंखेना, कालओ असंखेज्जाहिं, उस्सप्पिणीओस-प्पिणीहि अवहीरति, खेत्तओ पयरस्स असंखेजइभागे असंखेजाओ सेढीओ, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढममूलवग्गस्स असंखेजइ भागो" इति / उत्तरवैक्रियशरीरलब्धिसंपन्नाः पर्याप्तसंज्ञितिर्यक् पञ्चेन्द्रिया असंख्येयेषु द्धीप समुद्रेषु गजमत्स्यहंसाऽऽदयो द्रष्टव्याः॥१६॥ सम्प्रति मनुष्यपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह - उक्कोसपए मणुया, सेढी रूवाहिया अवहरंति। तइयमूलाहएहिं, अंगुलमूलप्पएसेहिं / / 20 / / इदद्वये मनुष्याः-गर्भव्युक्तान्ताः, संमूर्च्छिमाश्च। तत्र गर्भव्युत्क्रान्ताः, पर्याप्ताः, अपर्याप्ताश्च भवन्ति। समूर्छिमास्तु अन्तर्मुहुर्तायुषोऽपर्याप्ता एव म्रियन्ते / एतच प्रागेव प्रथमाधिका रेऽभिहितम्। ततस्ते पर्याप्ता न भवन्ति / ता ये गर्भव्युक्तान्ताः पर्याप्ता मनुष्यास्ते सदैव लभ्यन्ते, धुवत्वात्तेषाम् / ते च संख्येयाः, संख्या च तेषां जघन्यतोऽपि पञ्चमवर्गगुणितषष्ठवर्गप्रमाणा द्रष्टव्या / अथ वर्गः किमुच्यते ? किंस्वरूपश्च पञ्चमो वर्ग:? किंभूतः षष्ठः? कीदृग्वा पञ्चमवर्गगुणितः स षष्ठो वर्गो भवतीति? उच्यते-इह विवक्षतो राशिस्तेनैव राशिनागुणितो वर्ग इत्यभिधीयते। तौकस्य वर्ग एक एव भवति, ततो वृद्धिरहितत्वादेष वर्ग एव न गण्यते, द्वयोश्च वर्ग श्वत्वारो भवन्ति, इत्येष प्रथमो वर्गः 4 / चतुर्णा वर्गः षोडशति द्वितीयो वर्गः 16 / षोडशाना वर्गा द्वे शते षट् पञ्चाशदधिके, इति तृतीयो वर्गः 256 / द्वयोः शतयोः षट्पञ्चाशदधिकयोर्वर्गः पञ्चषष्टिसहस्राणि पञ्च शतानि षडत्रिशदधिकानि, एप चतुर्थो वर्गः 65536 // अस्य च राशेर्वर्ग, सार्द्धगाथया प्रोच्यते"चत्तारि य कोडिसया, अउणतीसं च होति कोडीओ। अउणावन्नं लक्खा , सत्तट्टी चेव य सहस्सा / / 1 / / दो य सया छन्नउया, पंचमवग्गो इमो विनिदिहो।" अङ्कतोऽपि स्थापना- 4264667266 / अस्यापि राशेर्वर्गो गाथात्रयेण प्रतिपाद्यते। तद्यथा"लक्खं कोडाकोडिण, चउरासीई भवे सहस्साई। चत्तारि य सत्तट्टा, हों ति सया कोडिकोडीणं / / 1 / / चोयाला लक्खाई, कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा। तिन्नि य सया य सयरा, कोडीणं होंति नायव्वा / / 2 / / पंचाणउई लक्खा, एगावन्नं भवे सहस्साई। छस्सोलसुतरसया, एसो छट्टो य हवइ वग्गो॥३॥" अङ्कतः स्थापना- 18446744073706551616 / एष षष्ठो वर्गः पूर्वोक्तेन पञ्चमवर्गेण गुण्यते। गुणिते च सति यावान् राशिर्भवति तावत्प्रमाणा जघन्यतोऽपि पर्याप्तगर्भजमनुष्याः / स च राशिरेतावान् भवति 76228162514264337563543650336 / अयं च राशिरेकोनशिदङ्कस्थानेन कोटाकोट्यादिप्रकारेणा-भिधातुं कथमपि शक्यते, ततः पर्यन्तवर्तिनोऽङ्कस्थानादारभ्या ङ्कस्थानसंग्रहमात्र पूर्वपुरुषप्रणीतेन गाथाद्वयेनाभिधीयते"छ्य तिन्नि तिन्नि सुन्नं, पंचेव य नव य तिन्नि चत्तारि। पंचेव तिन्नि नवपंच सत्त तिन्नेव तिन्नेव // 1 // चउछचदु चउ एको, पण दो छक्केक्कगो य अद्वैव। दो दो नव सत्तेव य, अंकट्टाणा इगुणतीसं / / 2 / / '' एष च राशिः पूर्वसूरिभिस्त्रियमलपदादूर्ध्वं चतुर्यमलप दस्याधस्तादित्युपवर्ण्यते; तत्राद्वौ द्वौ वर्गीयमलपदम्। तथा चोक्तमनुयोगद्वारचूर्णी'दो विन्नि वग्गा जमलपयं ति भन्नइ'' इति / ततः षड् वर्गाः समुदितास्त्रियमलपदम्, त्रियमलपदसमा हारस्तस्मादूर्ध्वमेव राशिः, षष्ठवर्गस्य पञ्चमवर्गेण गुणितत्वात् / अष्टवर्गसमुदायश्चतुर्यमलपदम्, चतुर्णा यमलक पदानां समाहार इत्यर्थः / तस्याधस्तात् सप्तमवर्गस्याप्यपरिपूर्णत्वात् एष च राशिः षण्णवतिच्छेदन कदायी। तथाहि-प्रथमो वर्गो द्वे छेदनके ददाति / तद्यथा--प्रथमं छेदनकं द्वौ, द्वितीयमेकं, द्वितीयो वर्गश्चत्वारि छेदनकानि। तत्र प्रथमभष्टौ, द्वितीयं चत्वारि, तृतीयं द्वे, चतुर्थ-मेकम्।एवं तृतीयवर्गोऽष्टौ छेदन कानि। चतुर्थः षोडश / पञ्चमो द्वात्रिंशतम् / षष्टश्चतुष्पष्टिम्, स एव पञ्चमबर्गेण गुणितः षण्ण-वतिम्। कथमेतदवसेयमिति चेत् ?उच्यते-इह यो यो वर्गो येन येन वर्गेण गुण्यते, तत्र तत्र द्वयो द्वयोरपि छेदनकानि प्राप्यन्ते। तथा प्रथमवर्गेण द्वितीये वर्गे गुणिते षट्। तथाहि-द्वितीयो वर्गः षोडशलक्षणः प्रथम वर्गेण चतुष्करूपेण गुण्यते / गुणिते च सति जाता चतुःषष्टिः / तस्याः प्रथमछेदनकं द्वात्रिशत्, द्वितीय षोडश, तृतीयमष्टौ, चतुर्थं चत्वारिं, पञ्चमं द्वे, षष्ठमेकमिति। एवमन्यत्रापि भावनीयम् / तत्र पञ्चमवर्गे द्वात्रिशच्छेदनकानि, षष्ठे चतुष्षष्टिः ततः पञ्चमवर्गेण षष्ठ वर्ग गुणिते षण्णवतिच्छेदनकानि प्राप्यन्ते / एवमेकारशिर्विनेयजनमतिप्रकर्षाऽऽधानाय त्रिप्रकार आगमे परमगुरुभिरुपदर्शितः / तथा चानुयोगद्वारसूत्राम् "जहण्णपदे मणुस्सा, संखेज्जासंखेजाउ कोडीओ। तिजमलपयस्स उवरि, तउ जमलपयस्स हेट्ठा य / / 1 / / अहव ण छट्टो वग्गो, पंचमवग्गं पडुप्पन्नो। अहव ण छण्णउई, छेयणगदाई य रासीइ" ||2|| ये तु गर्भव्युत्कान्ताः संमूर्छि माश्चापर्याप्ताः, ते उभयेऽपि
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________________ जीव 1532 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव कदाचित् प्राप्यन्ते, कदाचिन्न / यतो गर्भव्युत्क्रान्तानामपर्याप्तानां जघन्यतः समयमात्राम, उत्कर्षतो द्वादश मुहूर्ता अन्तरं, संमूर्छिमानांत्वपर्याप्तानां जघन्यतः समयमात्रम्, उत्कर्षत - श्चतुर्विशतिरन्तर्मुहुर्ताः, अपर्याप्ताश्चान्तर्मुहूत्र्तायुषः, अतोऽन्त - मुहूर्तानन्तरं सर्वेऽपि निर्लेपमपगच्छन्ति / तस्मादमी द्वयेऽप्यपर्याप्ताः कदाचिद्भवन्ति, कदाचिन्न / यदा पुनरमी द्वयेऽपि अपर्याप्ता गर्भव्युत्क्रान्ताश्च पर्याप्ताः समुदिताः सर्वोत्कर्षेण भवन्ति, तदा तेषा मिदं परिमाणम - "उक्कोसपए'' इत्यादि / उत्कृष्ट पदे सर्वोत्कृटसंमूर्छिमगर्भव्युत्क्रान्तसमुदायग्रहणरूपे मनुजा मनुष्या रूपाधिका एकेन रूपेण परमार्थतोऽसताऽपि कल्पिते नाधिकाः सन्त एकप्रादेशिकश्रेणिरूपे अड्डलमाो क्षेत्रा यः प्रदेशराशिरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्तत्प्रथम वर्गमूलं षोडशलक्षणं तृतीयेन वर्गमूलेन द्विकलक्षणेन गुण्यते / ततो जाता द्वात्रिशत् / ततस्तैरङ्गुलप्रथमवर्गमूलप्रदेश स्तृतीयवर्गमूलप्रदेशैराहतैर्गुणितैरसत्कल्पनया द्वात्रिशत्संख्यैः प्रतरस्यैकां श्रेणिं सकलामप्यपहरन्ति। इयमत्रा भावना एक प्रादेशिके श्रेणिरूपे अङ्गुलमात्रो क्षेत्र यः प्रदेशराशिस्तस्य-त्प्रथमवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलगुणितं सत् यावद्भवति, तावन्मानं खण्डं प्रत्येक यदि सर्वेऽपि पर्याप्तापर्याप्त संमूर्छिमगर्भजमनुव्या गृहन्ति, ततः सकलामपि श्रेणिमेकस्मिन्नेव समयेते अपहरन्ति, परमेकं मनुष्यरूपं न प्राप्यते; सर्वोत्कर्षेऽपि तेषामेताक्तामेव केवलवेदतोपलब्धत्वात्। तथा चोक्त मनुयोगद्वारचूर्णी- "उक्कोसपए जे मणुस्सा हवंति, ते इक्कम्मि मणुयरूवे परिकट्टे समाणे तेहिं मणुरसेहि सेढी अवहीरइ, तीसेय सेढीए कालखेत्तेहिं अवहारो मणिज्जइ। कालओ ताव असंखेजाहिं ओसप्पिणीहिं उस्सप्पि-णीहिं / खेत्तओ अंगुल पढमवग्गमूलं तइयवगमूलपडुप्पन्न। किं भणिय होइ ? तीस सेढीए अंगुलायएखेते जो य पएसरासी, तस्स जंघढम वग्गमूलं पएसरासिमाणं, तंतइयवग्गमूलपएसरारिणा पडुप्पाइजइ. पडुप्पाइए समाणे जो पएसरासी भवइ, एवइएहिं खंडेहिं अवही-रमाणी अवहीरमाणी जाव निद्धाइ ताव माणुस्सा वि अवहीरमाणा निद्धति। आह-कहमेगसेढीएदहमेत्तेहिंखहेहिं अवहीरमाणी अवहीरमाणी असंखेजा उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरइ? आयरिओ असंखेजा उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरइ? आयरिओ आह-खेत्तस्स सुहुमत्तणओ। सुत्ते विमं भणियं "सुहुमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खेत्तं / अंगुलसेढीमेत्ते, उसप्पिणिओ अंखेज्जा / / 1 // " इति। ततश्चेदमायातमकालतोऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमय समानाः, क्षेत्रातः पुनरे कस्यामक प्रादेशिक्यां श्रेणावगुलमात्र क्षेत्रप्रदेशराशेः प्रथमवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलगुणितं सत् यावत्प्रदेशपरिमाणं भवति, तावन्मात्राणि खण्डानि यावन्ति भवन्त्येकखण्डहीनानि, तावन्तः सर्वोत्कृष्टपदे मनुष्याः तदेवम पर्याप्तसूक्ष्मैके न्द्रियाऽऽदिभेदेन चतुर्दशविधानामपि जीवानां परिमाणमुक्तम् // 20 // संप्रति गुणस्थानकभेदेन चतुर्दशविधानां परिमाणमाह - सासायणाइचउरो, होति असंखा अणंतया मिच्छा। कोडिसहस्सपुहुत्तं, पमत्त इयरे उ थोवयरा / / 21 / / सास्वादनाऽऽयः सास्वादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयविर तदेश- | विरतरूपाश्चत्वारः प्रत्येकमसंख्याताः, सास्वादनाऽऽदीनां चतुर्णामपि | प्रत्येकमुत्कर्षपदे क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवर्तिप्रदे शराशिप्रमाणत्वात् / तथा अनन्ता अनन्तसंख्या मिथ्यादृष्टयः, तेषामनन्तलोकाऽऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्। तथा प्रमत्ताऽ-प्रमत्तासंयता जघन्यतोऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वपरिमाणाः प्राप्यन्ते, उत्कर्षतोऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वमानाः / इह पृथक्तवं द्विप्रभृत्या नवकोटिसहसाणीति / तथा इतरे अप्रमत्तसंयताः स्तोकतराः प्रमत्तसंयतेभ्यः स्वल्पतराः।।२१।। एगाई चउपण्णा-समग उवसामगा य उवसंता। अद्धं पडुच सेढी-ऍ हों ति सव्वे वि संखेज्जा / / 22 / / इहोपशमका उपशान्ताश्च कदाचिद्भवन्ति, कदाचित्र, उपशमश्रेणेरन्तरस्य भावात्। ततश्च यदा उपशमका अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपराया उपशान्ता उपशान्तमोहा भवन्ति, तदा जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, उत्कर्षतश्चतुः पञ्चाशत्। इदं प्रमाणे प्रवेशनकमधिकृत्योक्त्म्, एतावन्त एकस्मिन् समयेऽपूर्वकरणाऽऽदिषु गुणस्थानकेषु प्रत्येक मुपशम श्रेणिमधिकृत्य प्रविशन्तः प्राप्यन्ते इत्यर्थः / श्रेणेरूपशमश्रेणे रूद्धांकालं प्रतीत्य पुनर्भवति सर्वेऽपि संख्येयाः / इदमुक्तं भवति-सकलेऽप्यन्तर्मुहूर्तलक्षणे उपशमश्रेणिकालेऽन्येऽन्ये प्रविशन्तः सर्वेऽपि संख्येयाः प्राप्यन्ते। आह-नन्वन्तर्मुहूर्तप्रमाणेऽप्युपशमश्रेणिकाले असंख्येयाः समयाः प्राप्यन्ते, ता यदि प्रतिसमयमे कैकः प्रविशति, तथाऽपि सकलं श्रेणिकाल मधिकृत्यासंख्येयाः प्राप्नुवन्ति, किं पुनर्दित्रादेरारभ्योत्कर्षतश्चतुष्पञ्चाशतः प्रवेशने? अत्रोच्यते-- स्यादियं कल्पना यदि सकलेष्वपि श्रेणिसमयेषु प्रवेशो भवेत, यावता स एव न भवति, किंतु केषु चिदेव समयेषु / अथैतदपि कथमवसीयते इति चेत ? उच्यते इहोपशमश्रेणिं प्रतिपद्यन्ते पर्याप्तगर्भजमनुष्या एव, न शेषजीवाः तेऽपि चारित्रिणः न ये केचन, चारित्रिणश्चोत्कर्षतोऽपि कोटिसहसपृथक्त्वमानाः, तेऽपि च न सर्वेऽपि श्रेणिं प्रतिपद्यन्ते, किं तु कतिपया एव, ततो ज्ञायते-न सर्वेष्वपि उपशमश्रेणि समयेषु प्रवेशो भवति, किं तु केषुचिदेव, तत्रापि कदाचित् कुत्रचित् समये पञ्चदशापि कर्मभूमीरधिकृत्योत्कर्षतश्चतुः- पञ्चाशत् प्रविशन्तः प्राप्यन्ते, नाधिकाः, ततः सकलेऽपि श्रेणिकाले संख्येया एव भवन्ति / तेऽपि च शतानि द्रष्टव्याः न सहस्राणि तथा पूर्वसूरिभिरावेदितत्वात्॥२२॥ खवण खीणाजोगी, एगाई जाव होंति अट्ठसयं। अद्धाएँ सयपुहत्तं, कोडिपुहत्तं सजोगीओ // 23 // इहापि क्षपकाः क्षीणमोहा अयोगिनश्च कदाचिद्भवति, कदाचिन्न, क्षपक श्रेणे रयो गिकालस्य चान्तरसंभवात् / ततो यदा क्षपका अपूर्वकरणानिवृत्तबादरसंपरायसूक्ष्मसंपरायाः, क्षीणाः क्षीणमोहा अयोगिनोऽयोगिकेवलिनश्च भवन्ति, तदा जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कर्षतोऽष्टशतम् अष्टाधिकशतप्रमाणाः / इदमपि प्रमाणं प्रवेशनमधिकृत्योक्तमवसेयम् / एतावन्त एकस्मिन्समये क्षपकत्वे, क्षीणमोहत्वे अयोगित्वे चोत्कर्षतः प्रविशन्तीत्यर्थः / (अद्धाए सयपुहत्तं त्ति) अद्धा क्षपक श्रेणिकालोऽयोगिकालश्च / तस्यामद्धायां सकलायामपि प्रत्येकमन्येऽन्ये प्रविशन्तः सर्वसंख्यया शतसंख्याः प्राप्यन्ते। इयमत्र भावना-सकलेऽपि क्षपक श्रेणिकालेऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणे पञ्चदशस्यपि कर्मभूमिष्वन्येऽन्ये प्रविशन्तो यदि सर्वेऽपि संख्यायन्ते, तथाऽप्युत्कर्षतोऽपि शतपृथकत्वसंख्या एव लभ्यन्ते, नाधिकाः। एवमयोगिके वलिनोऽपि भावनीयाः / (कोडिपुहुत्तं सजोगीओ)
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________________ जीव 1533 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव ति) सयोगिनः सयोगिके वलिनः पुनः कोटिपृथक्त्वं कोटिपृथक्त्वसंख्याः / इह सयोगिकेवलिनः सदैव भवन्ति, ध्रुवत्वात्तेषाम्, ते चजघन्यपदेऽपि कोटिपृथक्त्वमानाः, उत्कर्षतोऽपि कोटिपृथक्त्वमाना एव / केवलमुत्कर्षपदे कोटिपृथक्त्वं बृहत्तरमवसेयम् // 23 // तदेवमुक्त द्रव्यप्रमाणम्। साम्प्रतं क्षेत्राप्रमाणमाह - अप्पज्जत्ता दोन्नि वि, सुहमा एगिदिया जए सव्वे। सेसा य असंखेज्जा, बायरपवणा असंखेसु // 24|| द्वयेऽप्यपर्याप्ताः लब्ध्यपर्याप्ताः, करणापर्याप्तकाश्च / अपिशब्दस्यानुक्तार्थसमुच्चायकत्वात् पर्याप्ताश्च! सूक्ष्मा एकेन्द्रियाः पृथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतयः प्रत्येकं सर्वेऽपि सर्वस्मिन्नापि जगति भवन्ति, "सुहमा उ सव्वलोए'' इति वचनप्रमाण्यात्। आह - सूक्ष्माः सर्वेऽपि पृथिव्यादवः पर्याप्ता ऽऽदिभेदभिन्नाः प्रत्येक सर्वलोकव्यापिन इत्यञ्जसैवाभीष्टार्थसिद्धिः ततः किमर्थमिह मुख्यया वृत्त्या अपर्याप्तग्रहणं कृतम पिशब्दात्तु पर्याप्तग्रहणमिति ? उच्यते-पर्याप्तापेक्षया स्तोकानामप्यपर्याप्तानां स्वरूपतोऽतिबाहुल्यख्यापनार्थम् / तथाहि-यद्यपि अपर्याप्तेभ्यः संख्येयगुणहीनाः पर्याप्तस्तथाऽपि ते सर्वस्मिन्नपि जगति वर्तन्ते, इत्युचमाने निःसंशयमतिबाहुल्यं तेषां ख्यापितं भवति। अथ कथं पर्याप्ता अपर्याप्तापेक्षया संख्येयगुणहीना ? उच्यते-प्रज्ञापनायामपर्याप्तापेक्षया पर्याप्तानां संख्येय गुणतयाऽभिधानात्। तथा च तद्ग्रन्थः- "सव्वत्योवा सुहुमा अपज्जत्ता पज्जत्ता संरोजगुण त्ति।" अन्यत्राप्युक्तम् - "जीवाणमपज्जत्ता, बहुतरगा वायराण विन्नेया। सुहमाण अपज्जत्ता, ओहेण उ केवली विति / / 1 // " शेषास्तु शेषाः पुनः पर्याप्तापर्याप्तभेदभिन्ना बादरैकेन्द्रियाः पृथिव्यम्बुतेजोवनस्पतयश्च प्रत्येकं लोकस्यासंख्येयतमे भागेऽवतिष्ठन्ते। (बायरपवणा असंखेसुति) बादरपवना बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च प्रत्येकं लोकस्यासंख्येयेषु भागेषु वर्तन्ते। लोकस्य हि यत्किमपि सुषिरं, तत्र सर्वत्रापि वायवः प्रसर्पन्ति यत्पुनरतिनिविडनिचितावयवतया शुषिरहीनकनकगिरिमध्यभागादि, तत्र न, तच सकलमपि लोकस्यासंख्येयभागामात्र, तत एकमसंख्येयभागं मुक्त्वा शेषेषु सर्वेष्वप्यसंख्येयेषु भागेषु वायवो वर्तन्ते इति // 24 // सासायणाइ सव्वें, लोयस्स असंखयम्मि भागम्मि। मिच्छा उ सव्वलोए, होइ सजोगि वि समुग्घाए।॥२५॥ सास्वादनाऽऽदयः सास्वादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्यादयो मिथ्यादृष्टिसंयोगिकेवलिवर्जाः प्रत्येकं सर्वेऽपि लोकस्यासंख्येयतने भागेऽवतिष्ठन्ते, सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यादयो हि संज्ञिपञ्चेन्द्रियेष्वेव प्राप्यन्ते। सास्वादनास्तु केचित्स्वल्पाः करणापर्याप्तबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेष्वपि, ते च संज्ञिपञ्चेन्द्रियाऽऽदयः स्वल्पत्वाल्लोकस्यासंख्येयभागे वर्तन्ते इति। सास्वादनाऽऽदयो लोकासंख्येयभागवर्तिन उक्ताः / तथा मिथ्यादृष्टयः सर्वलोकं सर्वस्मिन्नपि लोके भवन्ति / सूक्ष्मै केन्द्रियाहि सकललोकव्यापिनः ते च मिथ्यादृष्टय इति। तथा सयोग्यपि सयोगिकेवल्यपि, आस्ता मिथ्यादृष्टय इत्यपिशब्दार्थः। समुद्घाते समुद्घातगतः सन् सर्वलोके भवति सकललोकव्यापी भवति / तथाहि-समुद्घात कुर्वन् प्रथमे दण्ड समये, द्वितीये च कपाटसमये लोकस्यासंख्येयतमे भागे वर्तते, तृतीये मन्थनसमये पुनरसंख्येयभागेषु, चतुर्थे सर्वलोके / तथा चोक्तम्-चतुर्थे लोकपूरणमष्टमे संहार इति / 'होइ सजोगि वि समुग्धाए'' इत्युक्तम्॥२५।। ततः समुद्धातप्रस्तावादशेषान् समुद्धातान्प्ररूपयति वेयणकसायमारण- वेउव्वियतेउहारकेवलिया। सग पण चउ तिन्नि कमा, मणुसूरनेरइयतिरियाणं / / 26 / / समुद्धातशब्दः पाश्चात्योऽग्रेसनगाथागतो वा प्रत्येकम-भिसंबध्यते। तद्यथा-वेदनासमुद्धातः, कषायसमुद्धातः मारणसमुद्धातः वैक्रियसमुद्धातः तैजससमुद्धातः आहारकसमुद्धातः, केवलिसमुद्धातश्च / तत्रा वेदनया समुद्धातो वेदनासमुद्धातः, सचासातवेदनीयकर्माऽऽश्रयः / कषायेण कषायोदयेन समुद्धातः कषायसमुद्धातः स च कषायचारित्रा मोहनीय-कर्माऽऽश्रयः। तथा मरणे मरणकाले भवो मारणः, मारणश्चासौ समुद्धातच मारणसमुद्धातः सोऽन्तर्मुहुर्तावशेषायुः कर्मविषयः / तथा वैक्रिये प्रारभ्यमाणे समुद्धातो वैक्रियसमुद्धातः, स च वैक्रियशरीरनामकर्मविषयः, तथा तेजसि विषये भवस्तैजसः, स चासौ समुद्धातश्य तैजससमुद्धातः स च तेजोलेश्याविनिर्गमकालभावी तैजसशरीरनामकर्माऽऽश्रयः / आहारके प्रारभ्यमाणे समुद्धात आहारकसमुद्धातः, स चाऽऽहारकशरीरनामकर्मविषयः। केवलिन्यन्तर्मुहुर्तभाविपरमपदे भवः समुद्धातः केवलिसमुद्धातः। अथ समुदघात इति कः शब्दार्थः? उच्यते - समित्येकीभावः, उत्प्राबल्ये एकीभावेन प्राबल्ये न घातः समुद्घातः / केन सह एकीभावगमनम् ? इति चेत् / उच्यतेअछिदनाऽऽदिभिः / तथाहि बदा आत्मा वेदनाऽऽदिसमुद् घातगतो भवति, तदा वेदनाऽऽद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवति, नान्यज्ञान परिणतः / प्राबल्येन घातः कथम् ? इति चेत। उच्यते-इह वेदनाऽऽदि समुद्घातपरिणतो बहून वेदनीयाऽऽदिकर्मप्रदेशान्कालान्तरानुभवनयोग्यान उदीरणाकरणेनाकृष्योदयावलियकायां प्रक्षिप्यानुभूय च निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः सह संश्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः / तत्रा वेदनासमुद्घातगत आत्मा वेदनीयपुद्गलपशातं करोति / तथाहिवेदनाकरालितो जीवः स्वप्रदेशाननन्तानन्तकर्मस्कन्ध वेष्टितान् शरीरादहिरपि विक्षिपति / तैश्च प्रदेशैर्वदनजठराऽऽदिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाऽऽद्यन्तरालानि चापूर्याऽऽयामतो विस्तरतश्च शरीरमात्रां क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहूर्तं यावदवतिष्ठते। तस्मिंश्यान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातवेदनयीकर्मपुद्रलपरिशातं करोति / कषायसमुद् घातसमुद्धतः कषायाख्यचारित्रामोहनीय कर्मपुद्गलपरिशातं करोति / तथाहि कषायोदयसमाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य तैः प्रदेशैर्वदनोदराऽऽदिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाऽऽद्यन्तरालानि चापूर्याऽऽयामविस्तराभ्यां देहमानं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्त्तते, तथाभूतश्च प्रभूतकषायकर्मपुद्गलपरिशातं करोति / एवं मारणसमुद्धातगत आयुः-पुद्गलशांत, वैक्रियसमुद्धातगतः पुनर्जीवः स्वप्रदेशान् शरीराद् बहिर्निष्कास्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमानमायामतः संख्येययोजनप्रमाणं दण्ड निसृजति निसृज्य च यथास्थलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुदलान् प्राग्वत् शातयति / तथा चोक्तम्- "वे उब्वियसमुग्घाएणं समोहन्नइ / समोहणित्ता। संखेज़ाइंजोयणाई दंड निसिरइ। निसिरित्ता अहावायरे पुणले पारेसाडेइ इति। तैजसाऽऽहारकसमुद्धातौ वैक्रियसमुद्घातवदवगन्तव्यौ / केवलं तैजसमुद्घातगतस्तैज सशरीरनामकर्मपुद्गलपरि
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________________ जीव 1534 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव शातम्, आहारकसमुद्घातगतस्त्याहारकशरीरनामपुगपरिशातं करोति, आहारकसमुद्घातश्चाऽऽहारकशरीरप्रारम्भकाले वेदितव्यः / केवलिसमुद्घातसमुद्धस्तु केवली सदसवेद्यशुभाशुभनामोच्चनीचैर्गोत्रकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, केवलिसमुद्धातवर्जाः शेषाः षडपि समुद्घाताः प्रत्येकमान्तमौहर्तिकाः, केवलिसमुद्घातः पुनरष्टसामयिकः / उक्तं च प्रज्ञापनायाम्- "वेयणासमुग्धाएणं भंते ! कइ समयए पन्नत्ते ? गोयमा असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते / एवं० जाव आहारसमुग्धाए। केवलिसमुग्घाएणं भंते ! कइ समइए पन्नत्ते? गोयमा ! अट्ठसमइए पण्णत्ते।" इति / एतानेव समुद्घातान् गतिषु चिन्तयति"सग'' इत्यादि / मनुष्यगतौ सप्तापि समुद्धाता भवन्ति, मनुष्येषु सर्वभावसंभवात् / सुरगतावाद्याः पञ्च समुद्धाताः, आहारकसमुद्घातकेवलिसमुद्धातयोस्तत्रा संभवात् / पुनरेषु चतुर्दशपूर्वाधिगमक्षायिक-ज्ञानदर्शनचारित्रालब्ध्यसंभवात् / निरयगतावाद्याश्चत्वारः समुद्धाताः, तत्रा तैजससमुद्घातस्याप्यसंभवात्, तदसंभवश्च नैरयिकाणा तेजोलेश्यालब्धेरभावात् / तिर्यग्गतौ वैक्रियलब्धिमत्संज्ञिपञ्चेन्द्रियपवनवर्जानां शेषजीवानामाद्यास्त्रयः समुद्-घाताः,तेषां वैक्रियलब्धेरप्यसंभवात् // 25 // वैक्रियलब्धिमत्संज्ञिपञ्चेन्द्रियपवनयोर्विशेषमाहपंचिंदियतिरियाणं, देवाण च होंति पंच सण्णीणं / चेउव्वियवाऊणं, पढमा चउरो समुग्घाया॥२६॥ पञ्चेन्द्रियतिरश्चा संज्ञिनां देवानामिव प्रथमाः पञ्च समुद्धाता भवन्ति / पञ्चेन्द्रियतिर्यक्ष्वपि संज्ञिषु केषुचिद्वैक्रिय तेजोलेश्यालब्धिसंभवात्। वैक्रियलब्धिमतां पुनर्वायूनां वायुकायानां प्रथमा वेदनाकषायमारणवैक्रियरूपाश्चत्वारः समुद्घाताः॥२६|| गतं क्षेत्राद्वारम्। अधुना स्पर्शनाद्वारमाह - चउदसविहा वि जीवा, समुघाएणं फुसंति सव्वजगं। रिउसेढीऐं व केई, एवं मिच्छा सजोगीया / / 27 / / चतुर्दशविधा अपि अपर्याप्तपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियाऽऽदिभेदा-चतुर्दशप्रकारा अपि, जीवाः सर्व जगत् स्पृशन्ति। कथम् ? इत्याह समुद्घातेन मरणसमुद्घातेन / इयमत्रा भावना- इह सूक्ष्मैकेन्द्रियाः पर्याप्ता अपर्याप्तश्च प्रत्येकं सकललोकवर्तिनः, ततस्ते स्वण्यानतोऽपि सकललोकस्पर्शिन उपपद्यन्ते, किं पुनरिणान्तिकसमुद्घातयोगतः? बादरापर्याप्तकेन्द्रियाऽऽदयः स्वस्थानमधिकृत्य प्रत्येक लोकासंख्येयभागवर्त्तिन एव समुद्घातमधिकृत्य पुनः सकललोकस्पर्शिनोऽपि भवन्ति / तथाहि-समुद्धात इह मरणसमुद्धात उच्यते, मरणसमुद्घातसमुद्धस्तु जीवः स्वशरीरविष्कम्भबाहुल्यं जघन्यतो दैय॒णामुला - संख्येयभागमात्रम, उत्कर्षेण संख्येयानि योजनानि स्वप्रदेश दण्ड निसृजति। निसृज्य च यत्रा स्थानेऽग्रेतनभवे समुत्पत्स्यते, तत्रा स्थाने तं स्वप्रदेशदण्ड प्रक्षिपति। तचोत्पत्तिस्थानं ऋजु गत्या एकेन समयेन स्वप्रदेशदण्डः प्राप्नोति / विग्रहगत्या तूत्कर्षतश्चतुर्थे समये, वतो मरणसमुद्घातमधिकृत्य नानाजीवापेक्षया बादरपप्तिकेन्द्रियाऽऽदयो द्वादशभेदाः प्रत्येकंसर्वेऽपि सर्वजगतस्पृशन्तः प्राप्यन्ते इति। (रिउसेढीऍ व केई इति) केचित्पुनर्जीवाः सूक्ष्मैकेन्द्रियलक्षणा ऋजुश्रेण्या ऋजुगत्या। | वाशब्दः पक्षान्तर सूचने। न केवलं समुद्घातेन ऋजुश्रेण्या वा इत्यर्थः / सर्व जगत् स्पृशन्ति / तथाहि- अधोलोकान्तादृवों कान्ते उत्पद्यमानाश्चतुर्दशापि रज्जूः स्पृशन्ति। एवं सर्वास्वपि दिक्षु भावनीयम् / ततो नानाजीवपेक्षया ऋजुश्रेण्याऽपि सूक्ष्मैकेन्द्रियाः सकललोकस्पर्शिनः / संप्रति गुणस्थानके स्पर्शनां चिन्तयति- (एवं मिच्छा सजोगीय त्ति) एवं सर्वजगत् स्पर्शितया मिथ्यादृष्टयः सयोगिनश्चावगन्तव्याः तत्र मिथ्यादृशः सूक्ष्मैकेन्द्रियाऽऽदयः, सूक्ष्मैकेन्द्रियाश्च सकललोकस्पर्शिनः, सयोगिकेवलिनः पुनः केवलिसमुद्घातगताश्चतुर्थसमये सर्वलोकस्पर्शिनः प्रागेवोपदर्शिताः।।२७।। शेषगुणस्थानकेषु स्पर्शनामाहमीसा अजया अड अड, वारस सासायणा छ देसजई। सग सेसा उ फुसंती, रज्जू खीणा असंखंसं // 26 / / मिश्राः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः अयता अविरतसम्यग्दृष्टयः, प्रत्येकमष्टावष्टौ रजूः स्पृशन्ति, द्वादश पुनः सास्वादनाः, देशयतयो देशविरताः षट् / शेषा उक्तव्यतिरिक्ताः क्षीणमोहवर्जाः प्रमत्ताऽऽद्याः प्रत्येकं सप्त सप्त रज्जूः स्पृशन्ति / क्षीणाः क्षीणमोहाः पुनरसंख्येयांशं रोरसंख्येय भागम् // 28 // एनामेव गाथा स्वयमेव भावयतिसहसारंतियदेवा, नारयणेहेण जंति तइयभुवं / निजंति अचुयं जा, अचुयदेवण इयरसुरा // 26|| इह सहस्रारान्तकाः सहस्रारपर्यवसाना देवा नारक स्नेहेन पूर्व साङ्गतिकनारकस्नेहेन, तस्य वेदनोपशमनार्थम्, उपलक्षण मेतत्, पूर्ववैरिकस्य नारकस्य वेदनोदीरणार्थ वा, तृतीयां भुवं नरकपृथिवीं, गच्छन्ति / आनताऽऽदयो देवाः पुनरल्पस्नेहाऽऽ दिभावाः स्नेहाऽऽदिप्रयोजनेनापि नरकं न गच्छन्तीति सहस्रारा न्तग्रहणम / तथाऽच्युतदेवेन जन्मान्तरस्नेहतस्तद्भवोह तो वा, इतरे सुराः शेषसुरा अच्युतदेवलोकं यावन्नीयन्ते / ततः सम्यग्मिथ्यादृष्टीनामविरतसम्यग्दृष्टीनां च प्रत्येकमष्टाष्टरज्जुस्पर्शना घटते / इयमत्रा भावना- इह यदा सम्यग्मिथ्यादृष्टिर्भवनपत्यादिको देवः पूर्वसाङ्गतिकेनाच्युतदेवलोकवासिना देवेनाच्युत देवलोकेस्नेहान्नीयते, तदा तस्य षड्जुस्पर्शना भवति, "छ अचुए" इति वचनात्। तथा कश्चिदमरः सहस्रार कल्पवासी सम्यग्मिथ्यादृष्टिः पूर्वसाङ्गतिकस्य वेदनोपशमनाय, पूर्ववैरिकस्य वेदनोदीरणाय वा वालुकाप्रभाऽभिधानामपि नरकपृथिवीमुपगच्छति, तदा भवनपतिनिवासस्याधस्तादन्यदपि रज्जुद्वय मधिकं प्राप्यते, इति पूर्वोक्ताः षड् रजवो रजुद्वयेन सहिता अष्टौ भवन्ति। एवं नानाजीवापेक्षया सम्यग्मिथ्यादृष्टयो अष्टरज्जुस्पर्शकाः प्राप्यन्ते / अथवा कोऽपि सहस्रारकल्पनिवासी देवः सम्यग्मिथ्यादृष्टिः पूर्वोक्तकारणवशात् तृतीयां नरकभुवं गच्छन् सप्त रज्जुः स्पशृति, स एव सहस्रारदेवो यदा अच्युतदेवेन स्नेहादच्युते देवलोके नीयते, तदा अन्यामप्येकामधिका रज्जु स्पृशतीत्यष्टरज्जुस्पर्शना / एवमविरतसम्यग्दृष्टीनामप्यष्ट- रज्जुस्पर्शना भावनीया। नन्वविरतसम्य गदृष्टयस्तद्भवे वर्तमानाः कालमपि कुर्वन्ति, तत स्तेषामन्यथाऽपि कथं न भावना / क्रियते ? उच्यते अन्यथा तेषामष्टरज्जुस्पर्शनाया असंभवात् / तथाहि तिर्यड्मनुष्यो वा
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________________ जीव 1535 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव ससम्यक्त्वो द्वितीयाऽऽदिषु नरकपृथिवीषु गच्छत्ति, नाऽपि तत आगच्छति, ततोऽनुत्तरसुरभवं गच्छतः ततो वा च्युत्त्या मनुष्यभवमागच्छतः सर्वोत्कृष्टा सप्तरञ्जुस्पर्शना अवाच्यते, नाधिका क्याप्यन्यत्रा, ततोऽविरतसम्यगदृष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टि वदविशेष णाष्टरनुस्पर्शकाः प्रतिपत्तव्याः, न प्रकारान्तरेण / अपरे पुनराहःअविरतसम्यगदृष्टीनामुत्कर्षतोनवरचुस्पर्शना कथमिति चेत् ? उच्यते-- इह तन्मतेन क्षायिकसम्यग्दृष्टयः तृतीयस्यामपि नरकपृथिव्यां गच्छन्ति, ततोऽनुत्तरसुरभवं गच्छतां ततो वाच्युत्त्वा मनुष्यभवमागच्छता सप्तरज्जुस्पर्शना / तृतीयस्यां पृथिव्यामुत्पद्यमानानां, ततो वा उद्भवत्य मनुष्यभवमागच्छतां द्विरजुस्पर्शनेति सामान्यतोऽविरतसम्य-ग्दृष्टीनां नवरजुस्पर्शना। व्याख्याप्रज्ञप्त्याद्यभिप्रायेण पुनरमीषां द्वादशरज्जुस्पर्शनाऽपि प्राप्यते / तथाहि अनुत्तरसुरभवं गच्छता, ततो वा च्यत्त्वा मनुष्यभवमागच्छता सप्तरज्जुस्पर्शना / तथा नरतिरश्चामन्यतरोऽविरतसम्यग्दृष्टिः पूर्वबद्धायु क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेन गृहीतेन व्याख्याप्रज्ञप्त्याद्यभिप्रायतः षष्ठनरकपृथिव्यामपि नारकत्वेनोत्पद्यते। ततो वा उद्धृत्य क्षायोपशमिकसम्यक्त्ववानत्रा मनुष्येषु मध्ये समुत्पद्यते / ततोऽविरत सम्यग्दृष्टिः, षष्टनरकपृथिवीं गच्छन्पञ्चरज्जूः स्पृशति। ततः सामान्यतोऽविरतसम्यग्दृष्टीनां सर्वसंख्यया द्वादशरज्जुस्पर्शना / सप्तमपृथिव्यां पुनः सम्यक्त्वसहितस्य गमनमागमनं वा प्रज्ञप्त्यामपि निषिद्ध, ततः षष्ठनरकपृथिवीग्रहणम् // 26 // सम्प्रति सास्वादनानां द्वादशरज्जुस्पर्शनां भावयतिछट्ठाए नेरइओ, सासणभावेण एइ तिरिमाणुए। लोगंतिनिक्खुडेसुं, जं तससासायणगुणत्था / / 30 / / षष्टनरकपृथिव्यां वर्तमानः कश्चिन्नारकः स्वभावन्ते औपश मिकसम्यक्त्वमवाप्य सास्वादनभावं गतः सन कालं करोति, कालं च कृत्या तिर्यक्षु मनुष्येषु वा मध्ये समुत्पद्यते, ततस्तस्य पञ्चरज्जुस्पर्शना भवति / इह सप्तमपृथिवीनारकः सास्वादनभावं परित्यज्य व तिर्यक्षुत्पद्यते, इति षष्ठ पृथिवीग्रहणम् / तथा तिर्यग्लोकादपि केचित्तिर्यञ्चो मनुष्या वा सास्वादनगुणस्थाः सास्वादनसम्यग्दृष्टि - गुणस्थानवर्तिनः सन्त उपरिलोकान्तनिष्कुटेषु त्रासनाडीपर्यन्तवर्तिलोकान्तप्रदेशेषुत्पद्यन्ते, ततस्तेषां सप्तरज्जुस्पर्शना / ततः सामान्यतः सास्वादनगुणस्थानस्थानां सर्वसंख्यया द्वादशरज्जुस्पर्शना समुत्पद्यते। नह्येकं जीवमधिकृत्येयं स्पर्शना चिन्त्यते, किं त्वेकं गुणस्थानं, ततो न कश्चिदोषः / इह प्रायः सास्वादनभावमापन्नानामधोगतिर्नो पजायते, ततो द्वादशरज्जुस्पर्शना प्रतिपादित / यदि पुनरधोगतिः सास्वादनानां भवेत् ततोऽधोलोकनिष्कुटादिष्वपि तेषामुत्पाद- संभवाचतुर्दशरजुस्पर्शनाऽभिधीयते // 30 // संप्रत्यपूर्वकरणाऽऽदीनां स्पर्शनामभिधित्सुराह - उवसामग उवसंता, सव्वत्थे अप्पमत्तविरया य। गच्छंति रिउगईए, पुंदेसजया उ वारसमे // 31 / / उपशमका उपशमश्रेण्याऽऽरूढा अपूर्वकरणानिवृत्तबादरसूक्ष्मसंपरायाः, उपशान्ता उपशान्तमोहाः, तथा अप्रमत्तविरता अप्रमत्तसंयताः, चशब्दात्प्रमत्तभावाभिमुखाः, सर्वार्थे सर्वार्थ सिद्धे महाविमाने, | ऋजुगत्या, गच्छन्ति उत्पद्यन्ते / ततस्ते सप्तरज्जुस्पर्शिनः, इह क्षपकश्रेण्याऽऽरूढा अपूर्वकरणाऽऽदयो न म्रियन्ते, न च मारणसमुद्घातमारभन्ते, ततस्तेषामसंख्येयभागमात्रौव स्पर्शना घटते, नाधिका / अत एव क्षीणमोहस्या संख्येयभागमात्रास्पर्शना प्रागम्यधायि, ततोऽ - पूर्वकरणाऽऽदीनामुपशमश्रेणिमधिकृत्य सप्तरज्जुस्पर्शना प्रत्यपादि। पर आहननु मनुष्यभवायुषः क्षये, परभवायुष उदये परलोकगमनं, तदानीं चाऽविरतता, नोपशमकत्वादि, तत्क्थमपूर्वकरणाऽऽदीनां सप्तरज्जुस्पर्शनेति ? नैष दोषः / इह द्विविधा गतिः कन्दुकगतिः इलिकागतिश्च / तत्रा कन्दुकस्येव गतिः कन्दुकगतिः। किमुक्तं भवति ? यथा कन्दुकः स्वप्रदेशसंपिण्डित ऊर्द्धव गच्छति, तथा जीवोऽपि कश्चित्परभवायुष उदये परलोकं गच्छन् स्वप्रदेशानेकत्रा संपण्ड्यि गच्छति। तथा इलिकाया इव गतिरिलिकागतिः यथा इलिका पुच्छदेशमपरित्यजन्ती मुखेनातनं स्थानं शरीरप्रसारणेन संस्पृश्य ततः पुच्छ संहरति, एवं जीवोऽपि कश्चित्स्वभवान्तकाले स्वप्रदेशैरुत्पत्तिस्थानं संस्पृश्य परभवायुःप्रथमसमये शरीरंपरित्यजति। तत इलिकागतिमधिकृत्यापूर्वकरणाऽऽदीनां सप्तरज्जुस्पर्शना नि विहन्यते। तथा ऋजुगत्यैव (पुंदेसजया इति) अा पुंग्रहणेन मनुष्यग्रहणम् ततोऽयमर्थः- मनुष्यरूपा देशयता देशविरता द्वादशेऽच्युताभिधाने देवलोके गच्छन्ति उत्पद्यन्ते, ततस्तेषां षड् रजुस्पर्शना, तिर्यग्लोकमध्यादच्युतदेवलोकस्य षड्रज्जु मानत्वात् / तदेवमुक्त स्पर्शनाद्वारम्॥३१॥ पं० सं०२ द्वार। (एषां भवस्थितिकालः 'भवद्विइकाल' शब्दे वक्ष्यते। गुणस्थानाविभागेन कालमानं 'गुणट्ठाण' शब्दे तृतीयभागे 615 पृष्ठे गतम्) पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ तण क्खवीया य तसा य पाणा। जे अंडजा जे य जराउपाणा, संसेयजा जे रसजाभिहाणा / / 1 / / पृथिवीकायिकाः सत्त्वाः, चकारः स्वगतभेदसंसूचनार्थः। सचायं भेदःपृथिवीकायिकाः सूक्ष्मा बादराश्च, तेच प्रत्येकं पर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदेन द्विधा, एवमप्कायिका अपि।तथाऽग्निकायिका वायुकायिकाश्च द्रष्टव्याः / वनस्पतिकायिकान् भेदेन दर्शयतितृणानि कुशाऽऽदीनि, वृक्षाश्चाश्वस्थाऽऽदयो, बीजानि शाल्यादीनि / एवं वल्लीगुल्माऽऽदयोऽपि वनस्पतिभेदा द्रष्टव्याः / त्रस्यन्तीति ासाः, द्वीन्द्रियाऽऽदयः प्राणाः प्राणिनः / ये चाण्डाजाता अण्डजाःशकुनिसरीसृपाऽऽदयः, ये च जरायुजा जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते, ते च गोमहिष्यजाऽविकमनुष्याऽऽदयः। तथा संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजाःयूकामत्कुण कृम्यादयः / ये च रसजाभिधानाः दधिसौवीराकाऽऽदिषु रुतपक्ष्मसन्निभा इति / / 1 / / सूत्रा०१ श्रु०७ अ०। द्वात्रिशद्भेदा जीवा यथा - एगविह दुविह तिविहा-चउहापंचविहछव्विहा जीवा। चेयण तस इयरेहिं, वेयगइकरणकाएहिं / / 2 / / एक विधद्विविधगिविधवतुर्कीपञ्चविधषड्विधा इति / एका विधा विधानं येषां ते एक विधाः, एवं सर्वत्रा / एक विधाश्च द्विविधाश्च त्रिविधाश्चचतुर्द्धा च पञ्चविधाश्च षविधाः एकविध--
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________________ जीव 1536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव द्विविधत्रिविधचतुर्धापञ्चविधषड्विधाः। दीर्घता पुनः प्राकृत-प्रभवा। जीवाः प्राणिनः सर्वेऽपि संसारिकसत्त्वाः "यथोद्देशं तथा निर्देशः" इति न्यायात्पुनर्निर्देशमाह-चेतना कासेतरैः, वेदाश्च, गतयश्च, करणानि च, कायाश्च वेदगतिकरणकायास्तैः वेदगतिकरणकायैः करणभूतैरते एकविधाऽऽदयो जीवास्तदादयो भवन्तीति गम्यते / तत्रीकविधाश्चेतनामाश्रित्य यतः सर्वेऽपि संसारिणो, मुक्ताश्चन व्यभिचरन्ति, एकेन्द्रियवनस्पत्यादीनां तथैवोपलब्धेः। तथा हि"कालफलदाणआहा-रगहणदोहलयरोगपडियारे / नाऊण जाण सव्वे, नारि व्व सचेयणा तरुणो।।९।।' फलस्य दानं फलदानं, काले फलदानं कालफलदानम्। आहारस्य ग्रहणमाहारग्रहणम्, कालफलदानं च आहारग्रहणं च दोहदकश्च रोगश्च प्रतीकारश्च कालफलदानाहारग्रहणदोहद करोगप्रतीकारास्तान् कि ? ज्ञात्वा अवबुझ्य, जानीहि सर्वेऽपि नारीवत्सचेतनास्तरवो वृक्षाः। यथाहि नारी कालफलदानाऽऽ हारग्रहणप्रवणा दोहदाऽऽदिधर्मयुक्ता सती सचेतना, एवं वृक्षा अपि तद्धर्मयुक्तत्वेन सचेतना इतिगाथार्थः / / 1 / / द्वीन्द्रियाऽऽदीनां पुनः स्पष्टै व सा, गत्यादिविशिष्ट चेष्टावत्त्वा तेषाम्। द्विविधाः पुनस्वसस्थावरभेदाभ्याम्।ते त्रसा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाः, स्थावराः पृथिव्युदकतेजोवायुवनस्पतिभेदात्पञ्चधा / शैविध्यं स्त्रीपुंनपुंस-कत्वादागतम् / चतुर्द्धा चातुर्विध्यं नारकतिर्यड्नरामरापेक्षया / पञ्चविधाः पुनरिन्द्रियाश्रिताः / षड़ियाधा पृथिव्यप्तेजीवायुवनस्पतित्रसकाय भेदादिति गाथार्थः। एकस्मादारभ्य यावता द्विधास्तावत्प्रति पादितम् / / 2 / / इदानीं तेषामेव नवविधत्वमाह - पुढवी आऊ तेऊ, वाउ वणस्सइ तहेव वेइंदी। तेइंदिय-चउरिदिय-पंचिदियभेयओ नवहा॥३|| सुगमा चेयम्। पुनश्चतुर्दशविधत्वमाहएगिंदिय सुहमियरा, सन्नियर पणिंदिया य सवितिचऊ। पज्जत्तापज्जत्तग-भेएणं चउद्दस ग्गामा।|४|| एकेन्द्रियाः पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतयः, तेच सूक्ष्मेतराः। तत्रा सूक्ष्माः सूक्ष्मनामकर्मोद्भवाः सर्वलोकव्यापिनः सर्वथा निरतिशयिनामदृश्याः बादराः पुनर्व्यवहारानुगाः प्रायशस्त्वनाद्य न्तवर्तिनः। तथा संज्ञीतराः पञ्चेन्द्रियाः। तत्रा संज्ञिनो मनोविज्ञानयुक्तया देवनारकगर्भजतिर्यनराः। इतराः पुनरसंज्ञिनोमनोलब्धिविकलाः समूछेजाः पञ्चेन्द्रियाः, इत्येते चत्वारोऽपि सह द्वित्रिचतुर्भिर्वर्त्तन्त इति सद्वित्रिचत्वारः, ततः सप्तापि पर्याप्त कापर्याप्तकभेदाचतुर्दश भेदा जायन्त इति गाथार्थः / / 4 / / पुनात्रिशद्विधत्वमाह - पुढविदगअगणिमारुय-वणसयणंता पणिंदिया चउहा। वणपत्तेया विगला, दुविहा सव्वे वि वत्तीसं / / 5 / / पृथिव्युदकानिमारुतवनस्पत्यनन्ताः / समासः पुनरत्रा सुकर | एव / पञ्चेन्द्रियाश्च चतुर्द्धा चतुर्भेदाः षट्चतुष्कमीलनाश्चतुविशतिर्भवन्ति / तत्रा पृथिवीकायः सूक्ष्मबादरभेदतो द्विधा | पुनरेकैकपर्याप्तकभेदतश्चतुर्द्धा भवति। एवमुदकाऽऽदिष्वप्यायोज्यम् / पञ्चेन्द्रियाः पुनः संजयसंज्ञिभेदतो द्विधा / पुनरकैकाः पर्याप्तकभेदतो भिद्यमानाश्चतुर्दा भवति। वनस्पतिप्रत्येकाः पदावयवे पदसमुदायोपचारात, पूर्वापरनिपाताश्च प्रत्येकवनस्पतयः, विकला विकलेन्द्रियाः तत्र विकलान्यपरिपूर्णानि इन्द्रियाणि येषां ते विकलेन्द्रियाःद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः, किं विधाः? द्विविधाः पर्याप्तका पर्याप्तकभेदाः, तथा चतुर्द्विकमीलनादष्टौ भवन्ति, पुनश्चतुर्विंश तिमीलनाच सर्वेऽपि द्वात्रिशद्विधा भवन्ति, इति गम्यत इति गाथार्थः / / 5 / / दर्श०४ तत्व०। त्रिषष्टयाधिकपञ्चशतभेदा जीवानाम्अम्मापिउणो सरिसा, सव्वे विखमंतु मे जीवा / (10) (अम्मापिउणो सरिस त्ति) मातापितसमानाः यथा माता पित्रारुपरि निष्कृत्रिमस्नेहो भवति, तद्वद् मम सर्वेऽपि जीवाः पृथिव्यप्तेजीवायुसाधारणवनस्पतयः सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्ता भेदेन चतुर्विधाः, सर्वमीलने विशतिधाः, प्रत्येकवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः, पर्याप्तापर्याप्तभेदेनाष्टधाः, तिर्यक्रपञ्चेन्द्रिया जलचरस्थलचरखेचर परिसर्पभुजपरिसः पञ्चापि संज्ञय संज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताऽऽदीनां विंशतिसंख्याः, नारकाः पृथिवीभेदेन सप्त, पर्याप्तपर्याप्तभेदेन चतुर्दशधाः। तथा कर्माकर्मभूमिजान्तरद्वीपमनुजाः पञ्चदशत्रिशत्षट्पञ्चाशत्संख्याः, पर्याप्तापर्याप्तभेदतो द्विरुत्तरशतद्वयमानाः / असांज्ञमनुजा एतद्द्वीपान्तादिभवा अपर्याप्ताएकोत्तरशतमानाः। भवनपतयो दशधाः पर्याप्तापर्याप्तरूपतो विंशतिमानाः / व्यन्तराः षोडशधाः पर्याप्तापर्याप्तत्वेन द्वात्रिशद् भेदाः / जुम्भका अपि दश पर्याप्ताऽऽदिना विंशतिधाः / ज्योतिष्काः पञ्च गतिस्थितिभेदतो दशपर्याप्तापर्याप्तवादिना विंशतिधाः। वैमानिका द्वादश, नव पञ्चाऽपि पर्याप्तापर्याप्तयोगतः पञ्चाशन्मानाः। किल्विपिकास्त्रिविधाः पर्याप्ताऽऽदिना षोढाः / लोकान्तिका नव पूर्ववदष्टादशधाः / तदेव सर्वजीवास्त्रिषष्टय धिकपञ्चशतमानाः, क्षमन्तु क्षमा कुर्वन्तु मे मम एते समस्ता अपि जीवा इत्यर्थः / संथा०। नारकाऽऽदिजीवानाश्रित्य स्थित्यादिठितिउस्सासाऽऽहारे, किं वाऽऽहारेइ सव्वओवा वि! कई भागं सव्वाणि च, कीस व भुजो परिणमंति? ||1|| ('आहार' शब्दे द्वितीयभागे 501 पृष्ठे आहारवक्तव्यता) णेरइयाणं भंते ! पुव्वाहारिया पोग्गला परिणया ? 1 आहारिया आहारिजमाणा पोग्गला परिणया?२ अणाहारिया आहा रिजेस्समाणा पोग्गला परिणया ? 3 अणाहारिया अणाहारिजस्समाणा पोग्गला परिणया ?4 गोयमा ! जेरइयाणं पुव्वाहारिया पोग्गला परिणया 1, आहारिया आहारिजस्समाणा पोग्गला परिणया, परिणमंति य 2, अणाहारिया आहारिजस्समाणा पोग्गला णो परिणया, परिणमिस्संति 3, अणाहारिया अणाहरिजस्समाणा पोग्गला णो परिणया, णो परिणमिस्संति 4 णेरइयाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला चिया, पुच्छा ? जहा परिणया, तेहा चिया वि, एवं चिया, उवचिया, उदीरिया, बेइया, णिज्जिणा / /
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________________ जीव 1537- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव गाहा"परिणत चिया उवचिया, उदीरिता वेइया य णिजिण्णा। एकिक्कम्मिपदम्मी, चउव्विहा पोग्गला होंति" ||1|| (पुव्वाहारियत्ति) ये पूर्वमाहृताः पूर्वकाले एकीकृताः सङ्-गृहीता इति / यावत् / अभ्यवहृता वा; (पोग्गल त्ति) स्कन्धाः / (परिणय त्ति) ते परिणताः, पूर्वकाले शरीरेण सह संपृक्ताः, परिणतिं गता इत्यर्थः / इति प्रथमः प्रश्नः 1 / इह च सर्वत्रा प्रश्नत्वं काकुपाठादवगम्यते / तथा(आहारिय त्ति) पूर्वकाले आहृताः संगृहीताः अभ्यवहृता वा; (आहारिजमाण त्ति) ये च वर्तमानकाले आहियमाणाः संगृह्यमाणाः, अभ्यवहियमाणा वा पुद्गलाः (परिणय त्ति) ते परिणताः / इति द्वितीयः 2 / तथा - (अणाहारिय त्ति) येऽतीतकालेऽनाहृताः / (आहारिजस्समाण त्ति) ये चानागते काले आहरिष्यमाणाः पुद्गलास्ते परिणताः। इति तृतीयः३। तथा-"अणाहारिआ अणाहारिजस्समाण'' इत्यादि। अतीतानागताऽऽहरणक्रियानिषेधाचतुर्थः 4 / इह च यद्यपि चत्वार एव प्रश्ना उक्ताः, तथाऽप्येते त्रिषष्टिः सभवन्ति। यतः पूर्वाहता आह्रियमाणा आहरिष्यमाणाः, अनाहृता अनाह्यिमाणा अनाहरिष्यमाणाश्चेति षट् पदानीह सूचितानि। तेषु च एकैकपदाऽऽश्रयणेनषद्विकयोगे पञ्चदश, त्रिकयोगे विंशतिः, चतुष्कयोगे पञ्चदश, पञ्चकयोगे षट्, षड्योगे एक इति / अत्रोत्तरमाह --- 'गोयम'' इत्यादि व्यक्तम् / नवर ये पूवमाहृतास्ते पूर्वकाल एव परिणताः, ग्रहणानन्तरमेव परिणाम-भावात् १।येपुनराहृता आह्रियमाणाश्च ते परिणताः आहृतानां परिणामभावादेव परिणमन्ति च, आह्रियमाणानां परिणाम-भावस्य वर्तमानत्वादिति 2 / वृत्तिकृता तु द्वितीयः प्रश्नोत्तरविकल्प एवंविधो दृष्टः, यदुत-आहृता आहरिष्यमाणाः पुद्गलाः परिणताः परिणंस्यन्ते च, यतोऽयं तेनैव व्याख्यातः यदुत ये पुनराहता आहरिष्यन्ते, पुनस्तेषां केचित्परिणताः अपरिणताश्च ते सम्पृक्ताः शरीरेण सह / ये तु न तावत् संपृच्यन्ते, कालान्तरे तु संपृक्ष्यन्ते, ते परिणंस्यन्त इति / ये पुनरनाहृता आहरिष्यन्ते, पुनस्तेनो परिणताः, अनाहतानां संपर्काभावेन परिणामाभावात् / यस्मात्त्वाहरिष्यन्ते, ततः पारणंस्यन्ते, आहतस्यावश्यं परिणामभावादिति 3 / चतुर्थस्त्वतीत भविष्यदाहरणक्रियाया अभावेन परिणामाभावादवसेय इति / एतदनुसारेणैव प्राग्दर्शितविकल्पानामुत्तरसूत्राणि वाच्यानीति। अथ शरीरसंपर्कलक्षण–परिणामात् पुद्गलानां चयाऽऽयो भवन्तीति तद्दर्शनार्थं प्रश्नयन्नाहू- "नेरइयाणं'' इत्यादि। चयाऽऽदिसूत्राणि परिणामसूत्रासमानीतिकृत्वा अतिदेशतोऽधीतानीति। तथाहि - "जहा परिणया तहा चिया वि' इत्यादि। इह च पुस्तकेषु वाचनाभेदो दृश्यते, तान संमोहः कार्यः, सर्वत्राभिधेयस्य तुल्यत्वात् / केवलं परिणतसूत्रानुसारेण प्रश्नसूत्राणि व्याकरणानि च मतिमताऽध्येनीति / तत्रा चिताः शरीरे चयं गताः / उपचिताः पुन बहुशः | प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिता एवेति / उदीरितास्तु स्वभावतोऽनुदितान् पुदलान् उदयप्राप्ते कर्मदलिके करणविशेषण प्रक्षिप्ययान् वेदयते / उदीरणालक्षणं चेदम् - "ज करणेणाकड्डिय, उदए दिजइ उदीरणा | एसा / ' तथा वेदिताः स्वेन रसविपाकेन प्रतिसमयमनुदयमाना | अपरिसमाप्ताः शेषानुभावा इति / तथा निर्जीर्णाः कात्स्येनानुसमयमशेषत द्विपाकहानियुक्ता इति। "गाह ति" परिणताऽऽदिसूत्राण संग्रह णाय गाथा भवति / सा चेयम्- ''परिणय'' इत्यादि / व्याख्यातार्था / नवरम् एकैकस्मिन् पदे परिणतचितोपचिता-ऽऽदी चतुर्विधाः-आहुताः 1, आहृता आहियमाणाश्च 2, अनाहता आहरिष्यमाणश्च 3. अनाहुता अनाहरिष्यमाणाश्च 4 / इत्येवं चतूरूपाः पुद्गला भवन्ति, प्रश्ननिर्वचनविषयाः स्युरिति। पुद्गला भिद्यन्तेणेरइयाण भंते! कतिविहा पोग्गला भिज्नति ? गोयमा ! कम्मदव्वग्गणमहिकिच्च दुविहा पोग्गला भिजंति। तं जहा-अण चेव, बायरा चेव 1 / णेरइयाणं भंते ! कतिविहा पोग्गला चिजंति ? गोयम ! आहारदव्वमग्गणमहिकिच दुविहा पोग्गला चिजति ? तं जहा-अणू चेव, बायरा चेव 21 एवं उवचिज्जति 3 / णेरइयाणं भंते ! कतिविहा पोग्गला उदीरंति ? गोयमा ! कम्मदव्ववग्गणमहिकिच दुविहा पोग्गला उदीरंति / तं जहाअणू चेव, बायरा चेव / सेसा विएवं चेव भाणियव्वा / वेदंति 5, णिज्जरंति 6, उयर्टिसु 7, उयमुति 8, उयट्टिस्संति 6, संकमिंसु 10, सकामंति 11, संकामिस्संति 12, निहात्तसु 13, निहत्तति 14, निहत्तिस्संति 15, निकाइंसु १६,निकायंति 17, निकाइस्संति 18 / सव्वसु वि कम्मदब्दमग्गणमहिकिच गाहा"भेदिय चिता उवचिता, उदीरिता वेदिया य णिज्जिण्णा। उव्वट्टणसंकामण-णिहत्तणिकायणे तिविहकाले" ||1|| "नेव्याण भते! कइविहा पोग्गला भिजंति' इत्यादि व्यक्तम्, नवरम् (भिजंति त्ति) तीव्रमन्दमध्यमतयाऽनुभागभेदेन भेदवन्ता भवन्ति, उद्वर्त्तनकरणापवर्तनकरणाऽभ्यां मन्दरसास्तीवरसाः, तीव्ररसास्तु मन्दरसा भवन्तीत्यर्थः। उत्तरम् - (कम्मदव्ववग्गणमहिकिच ति) समानजातीयद्रव्याणां राशिर्द्रव्यवर्गणा, सा चौदारिकाऽदिद्रव्याणामप्यस्तीत्यत आह -- कर्मरूपा द्रव्यवर्गणा, कर्मद्रव्याणां वा वर्गणा कर्मद्रव्यवर्गणा, तामधिकृत्य तामाश्रित्य, कर्मद्रव्यवर्गणासत्का इत्यर्थः / कर्मद्रव्याणामेव च मन्देतरानुभावचिन्ताऽस्ति, न द्रव्यान्तराणा - मितिकृत्वा कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्येत्युक्तम्। (अणूचेव बायरा चेव त्ति) चैवशब्दः समुच्चयार्थः / ततश्च अणवश बादराश्च, सूक्ष्माश्च स्थूलाश्चेत्यर्थः / सूक्ष्मत्वं स्थूलत्वं चैषां कर्मद्रव्या पेक्षयैवावगन्तव्यं, नान्यापेक्षया, यत औदारिकाऽऽदिद्रव्याणां मध्ये कर्मद्रव्याण्येव सूक्ष्माणीति / एवं चयोपचयोदोरणावेदनानिर्जराः शब्दार्थभेदेन वाच्याः कि तुचयसूत्रे उपचयसूत्रोच'आहारदव्ववग्गणमहिकिच्च' इति यदुक्तं, तत्रायमभिप्रायः शरीरमाश्रित्य चयोपचयौ प्राग्व्याख्यातो, तो चाऽऽहारणाद्रव्येभ्य एव भवतो नान्यतोऽत आहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्येत्युक्तामिति / उदीरणाऽऽदयस्तु कर्मद्रव्याणमेव भवन्त्यतन्तत्सूत्रषूक्तं कर्मद्रव्यवर्गणमधिकृत्येति / (उयट्टिसु त्ति) अपवर्तितवन्तः, इहापवर्तनं कर्मणां स्यित्यादरव्यवसायविशेषण हीनताकरणम्, अपवर्त
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________________ जीव 1538 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव नस्य चोपलक्षणत्वादुद्वर्त्तनमपीह दृश्यम्, तच स्थित्यादेर्वृद्धिकरणस्वरूपम् / (संकमिंसु त्ति) संक्रमितवन्तः, तत्र संक्रमण मूलप्रकृत्यभिन्नानामुत्तरप्रकृतीनामध्यवसायविशेषेण परस्परं संचारणम्। तथा चाह"मूलप्रकृत्यभिन्नाः, संक्रमयति गुण उत्तराः प्रकृतीः। न त्वात्माऽऽमूर्तत्वा-दध्यवसायप्रयोगेण / / 1 / / " अपरस्त्वाह"मोत्तूण आउयं खलु, दंसणमोहं चरित्तमोहं च। सेसाणं पगईणं, उत्तरविहिसंकमो भणिओ // 1 // " एतदेव निर्दिश्यते-यथा कस्यचित्सद्वेद्यमनुभवतोऽशुभ - कर्मपरिणतिरेवंविधा जाता, येन तदेव सद्यमसनेद्यतया संक्रामतीति। एवमन्यत्रापि योज्यम् / (निहत्तिंसु त्ति) निधत्तान् कृतवन्तः, इह च विश्लिष्टानां परस्परतः पुद्गलानां निचयं कृत्वा धारणं रूढिशब्दत्वेन निधत्तमुच्यते / उद्वर्त्तनापवर्त्तव्यतिरिक्त-करणानामविषयत्वेन कर्मणोऽवस्थानमिति। (निकाइंसु त्ति) निकाचितवन्तो, नितरांबद्धवन्त इत्यर्थः / निकाचनं च तेषामेव पुद्गलानां परस्परविश्लिष्टानामेकीकरणमन्योन्यावगाहिता अग्नि प्रतप्तप्रतिहन्यमानसूचीकलापस्येव सकलकरणा-नामविषयतया कर्मणो व्यवस्थापनमिति यावत् / "भिजंति' इत्यादिपदानां संग्रहणी यथा - "भेदिय" इत्यादिगाथा गतार्था / नवरम् अपवर्तनसंक्रमनिधत्तनिकाचनपदेषु शिविधः कालो निर्देष्टव्यः, अतीतवर्तमानानागतकालनिर्देशेन तानि वाच्या नीत्यर्थः / इह चापवर्तनाऽऽदीनामिव भेदाऽऽदीनामपि त्रिकालता युक्ता, न्यायस्य समानत्वात्। केवलमविवक्षणान्न तन्निर्देशः सूत्रो कृते इति।। णेरइयाणं भंते ! जे पोग्गला तेयाकम्मत्ताए गिण्हंति, ते किं तीतकालसमए गिण्हंति, पडुप्पण्णकालसमए गिण्हंति, अणागयकालसमए गिण्हंति? गोयमाणोऽतीतकालसमए गिण्हंति, पडुप्पण्णकालसमए गिण्हंति, णो अणागयकालसमए गिण्हति १णेरइयाणं भंते ! जे पोग्गला तेयाकम्मत्ताए गहिए उदीरंति, ते किं तीतकालसमयगहिए पोग्गले उदीरंति, पडुप्पण्णकालसमयघिप्पमाणे पोग्गले उदीरंति, गहणसमयपुरक्खडे पोग्गले उदीरंति ? गोयमा ! तीतकाल-समयगहिए पोग्गले उदीरंति, णो पडुप्पण्णकालसमय-धिप्पमाणे पोग्गले उदीरंति, णो गहणसमयपुरक्खड़े पोग्गले उदीरंति 2 / एवं वेदंति 3, णिजरंति / "नेरइयाणं" इत्यादि व्यक्तम् / नवरं (ते याकम्मत्ताए त्ति) तैजसकामणशरीरतया, तद्रूपतयेत्यर्थः / (अतीतकालसमए त्ति) कालरूपः समयो, न तु समाचाररूपः / कालोऽपि समयरूपो, न तु वर्णाऽऽदिस्वरूप इति परस्परेण विशेषणात्कालसमयः, अतीतः कालसमयः अतीतकालस्य चोत्सर्पिण्यादेः समयः परमनिकृष्टों ऽशोऽतीतकालसमयः तत्रा०। (पडुप्पण त्ति) प्रत्युत्पन्नो वर्तमानो, नोऽतीतकाले त्यादौ अतीतानागतकालविषयग्रहणप्रतिषेधः, विषयातीतत्वात् / विषयातीतत्वं च तयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादिति प्रत्युत्पन्नत्वेऽप्यभिमुखान् गृह्णाति, नान्यान्। (गहणसमयपुरक्खडे त्ति) ग्रहणसमयः पुरस्कृत्तो वर्तमानसमयस्य पुरोवर्ती येषां ते ग्रहणसमयपुरस्कृता / प्राकृतत्वादेवं निर्देशः / अन्यथा पुरस्कृतग्रहणसमया इति स्यात, ग्रहीष्यमाणा इत्यर्थः। उदीरणा च पूर्वकालगृहीतानामेव भवति, ग्रहणपूर्वक त्वादुदीरणायाः / अत उक्तम् - अतीतकालसमयगृहीतानुदीरयन्तीति गृह्यमाणानां ग्रहीष्यमाणानां चागृहीतत्वादुदीरणाभावाः / तत उक्तम् - "नो पडुप्पण'' इत्यादि। वेदनानिर्जरासूत्रयोरप्येषैवोपपत्तिरिति। णेरइयाणं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्मं बंधंति, अचलियं कम्मं बंधंति ? गोयमा ! णो चलियं कम्मं बंधंति, अचिलयं कम्मं बंधति? णेरइयाणं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्म उदीरंति, अचलियं कम्मं उदीरंति? गोयमा ! णो चलियं कम्म उदीरंति, अचलियं कम्मं उदीरंति / एवं वेदंति 3 / उयदृति 4 / संकामंति५ / निहत्तंति 6 / णिकायंति७। सवेसु अचलियं णो चलियं / णेरइयाणं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्म णिज्जरेंति, अचलियं कम्मं णिज्जरेंति ? गोयमा ! चलियं कम्म णिज्जरेंति, णो अचलियं कम्मं णिजरेंति // 8|| गाहाबंधोदयवेदोय-दृसंकमणणिहत्तणिकाएसं। अचलिय कम्मं तु भवे, चलिअंजीवाउ णिज्जरए / / 1 / / "नेरइयाण' इत्यादि व्यक्ता च / नवरम् (जीवाओ किं चलियं ति) जीवप्रदेशेभ्यश्चलितं, तेष्वनवस्थानशील, तदितरत्त्वचलितं, तदेव बध्नाति / यदाह - "कृत्स्नैर्देशेः स्वकदे-शस्थं रागाऽऽदिपरिणतो योग्यम्। बध्नाति योगहेतोः, कर्म स्नेहाक्त इव च मलम् / / 1 / / " एवमुदीरणावेदनापवर्तनासंक्रमणनिधत्तनिकाचनानि भाव्यानि। निर्जरा तुपुद्गलानां निरनुभावीकृतानामात्मप्रदेशेभ्यः शातनम्, सा च नियमाच लितस्य कर्मणो, नाचलितस्येति / इह सङ्ग हणी गाथा - "बंधोदय' इत्यादि भावितार्था, केवलमुदयशब्देनोदीरणा गृहीतेति। उक्ता नारकवक्तव्यता। भ४१श०१ उ०। अथ असुरकुमारवक्तव्यतामाहअसुरकुमाराणं भंते! पुवाहारिया पोग्गला परिणया ? असुरकुमारामिलावेणं जहा णेरइयाणं० जाव चलियं कम्म णिजरेंति / भ०१श०१ उ० एवं यावत्स्तनितकुमाराणा, पृथिवीकायिकानां यावद्द्वनस्पतिकायिकाना यथा नैरयिकाणां यावदचलितं कर्म निर्जरयन्ति / (द्वीन्द्रियाणां स्थित्याहारौ 'ठिई' शब्दे, तथा 'आहार' शब्दे द्वितीय भागे 505 पृष्ठे द्रष्टव्यौ) एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइज्ज माणाण य कयरे, कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसे साहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला अणासाइजमाणा, अफासाइजमाणा अणंतगुणा। वेइंदियाणं भंते ! पोग्गला आहारत्ताए गिण्हंति, तेणं ते सिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो भुञ्जो परिणमंति ? गोय - ना
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________________ जीव 1536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव मा! जिभिदियफार्मिसिंयवेमायाए भुज्जो भुजो परिणमंति। बेइंदियाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला परिणया? तहेव० जाव चलियं कम्मं णिज्जरेंति॥ (अणासाइजमाणाणं ति) रसनेन्द्रियतः। (अफासाइल-माणाणं ति) स्पर्शनेन्द्रियतः। 'कयरे' इत्यादि यत्पदंतदेवं दृश्यम्- (कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया व त्ति) व्यक्तं च। "सव्वत्थोवा पोग्गला अणासा-एजमाणा' इत्यादि। ये अनास्वाद्यमानाः केवलं रसनेन्द्रियविषयास्ते स्तोकाः, अस्पृशयमानानामनन्तभागवर्त्तिन इत्यर्थः / ये त्वस्पृश्यमानाः केवलं स्पर्शनविषया-स्तेऽनन्तगुणाः रसनेन्द्रियविषयेभ्यः सकाशादिति। तेइंदियचउरिंदियाणं णाणत्तं ठिईए० जाव अणेगाईचणं भागसहस्साई अणाघाइजमाणई, अणासाइजमाणाई, अफासाइजमाणाई विद्धंसमावजं ति / एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं अणाघाइज्ज माणाणं, अणासाइज्जमाणाणं, अफासाइजमाणाण य पुच्छा / गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइज्जमाणा, अणासाइजमाणा अणंतगुणा, अफासाइजमाणा अणंतगुणा / तेइंदियाणं घाणेदियजिन्भिंदियफासिंदियवेमायत्ताए भुजो भुजो परिणमति / चउरिदियाणं चक्खिं दियधाणिं दियजिभिंदियफासिंदियत्ताए भुजो भुजो परिणमंति। (तेइंदियचउरिदियाणं नाणत्तं ठिईए त्ति) तच्चेदम्- "जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं तेइंदियाणं एगूणं पन्नासं राइंदियाई, चउरिदियाणं छम्मासा।" तथा आहारेऽपि नानात्वम्। तत्रा च "तेइंदियाणं भंते ! जं पोग्गलो आहारत्ताए गेण्हंति' इत्यत आरभ्य तावत् सूत्रनं वाच्यं यावत् "अणेगाई च णं भागसहस्साई अणाघाइज्जमाणाई'' इत्यादि / इह च द्वीन्द्रियसूत्रापेक्षयाऽनाघ्रायमाणानीति, अतिरिक्तमतो नानात्वम् / एवमल्पबहुत्वसूत्रे परिणामसूत्रोच / चतुरिन्द्रियसूत्रषु तु परिणामसूत्रो "चक्खि-दियत्ताए घाणिंदियत्ताए'' इत्यधिकमिति नानात्वमिति। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ठिई भणिऊण ऊसासो वेमायाए आहारो अणाभो गणिव्वत्तिए अणुसमइ अविरहिओ आभोगनिव्वत्तिओ जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स, सेसं जहा चउरिंदियाणं० जाव चलियं कम्मं णिजरेंति / एवं मणुस्साण वि। णवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स, सोइंदिय० 5 वेमायाए भुञ्जो भुजो परिणमंति। सेसं तहेव० जाव चलियं कम्मं णिञ्जरेंति / / पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्रो - (ठिई भणिऊण त्ति) "जहन्नेण अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई'' इत्येतद्रूपां स्थिति भणित्वा (ऊसासो त्ति) उच्छावासो विमाठाया वाच्य इति / तथा तियंक्पञ्चेन्द्रियाणामाहारार्थ प्रति यदुक्तम् - "उक्कोसणं छट्ठभत्तस्स त्ति," तद्देवकुरूत्तरकुरुतिर्यक्षु लभ्यते / मनुष्य सूत्रो यदुक्तमष्टमभक्तस्येति, तदेवकुर्वादि- | मिथुनकनरानाश्रित्य समवसेयमिति। वाणमंतराण ट्ठिईए णाणतं, अवसेसं जहा णागकुमाराणं, एवं जोइसियाण वि, णवरं उस्सासो जहण्णेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स, उक्कोसेण विमुहत्तपुहुत्तस्स, आहारो जहण्णेणं दिवसपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं वि दिवसपुहुत्तस्स, सेसं तं चेव / / "वाणमंतराणं' इत्यादि। वाणमन्तराणां स्थितौ नानात्वं (अवसेसं ति) स्थितेरवशेषमायुष्कवर्जमित्यर्थः। प्रागुक्तमाहा–राऽऽदि वस्तु, यथा नागकुमाराऽऽदीनां तथा दृश्यम् / व्यन्तराणां, नागकुमाराणां च प्रायः समानधर्मत्वात् / तत्रा व्यन्तराणां स्थितिर्जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, उत्कर्षेण तुपल्योपमभिति। "जोइसियाण वि'' इत्यादि।ज्योतिष्काणामपि स्थितेरवशेषं तथैव, यथा नागकुमाराणाम्। तत्रा ज्योतिष्काणां स्थितिर्जघन्येन पल्योपमाष्टभागः, उत्कर्षेण पल्योपमं वर्षलक्षाधिकमिति / नवरं (उस्सास त्ति) केवलमुच्छवास्तेषां न नागकुमार समानः, किं तु वक्ष्यमाणः / तथा चाह - "जहन्नेणं मुहत्तपुहुत्तस्स" इत्यादि। पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरानवभ्यः, तत्रा यजघन्यं मुहुर्तपृथक्त्वं तद् द्वित्रामुहुर्ताः, यचो त्कृष्ट तदष्टौ नव वेति / आहारोऽपि विशेषित एव / तथा चाह - "आहारो'' इत्यादि / भ०१श०१ उ०। पृथ्विीकायिकाऽऽवासेषु नैरयिकाऽऽदीनां स्थितिस्थानाऽऽदि प्रतिपादनाय संग्रहगाथामाहपुढवी ठिइओगाहण-सरीरसंघयणमेव संठाणे। लेस्सादिट्ठीणाणे, जोगुवओगे य दस ठाणा ||4|| "पुढवी 'इत्यादि।तत्र पुढवीति लुप्तविभक्तिकत्वान्निर्देशस्य पृथिवीषु, उपलक्षणत्वाचास्य पृथिव्यादिषु जीवाऽऽवासेष्विति द्रष्टव्यामिति। (ठिइ त्ति) "सूचनान्सूत्राम'' इतिन्यायात स्थितिस्थानानि वाच्यानीतिशेषः (एवं ओगाहण ति) अवगा हनास्थानानि / शरीराऽऽदिपदानि तु व्यक्तान्येव, एकारान्तं च पदं प्रथमैकवचनान्तं दृश्यम् / इत्येवमेतानि स्थितिस्थानाऽऽदीनि दश वस्तूनि इहोद्देशके विचारयितव्यानीति गाथासमासार्थः / विस्तरार्थ तु सूत्रकारः स्वयमेव वक्ष्यतीति। तत्रा रत्नप्रभापृथिव्यां स्थितिस्थानानि तावत्प्ररूपयन्नाह - इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेषु एगमेगंसि निरयावामंसि नेरइयाणं केवइया ठिइट्ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! असंखेज्जा ठिइट्ठाणा पण्णत्ता / तं जहाजहणिया ठिई समयाहिया, जहणिया ठिई दुसमयाहिया० जाव असंखिजसमयाहिया, जहण्णिया ठिई तप्पाउग्गुकोसिया ठिई। 'इमीसे णं' इत्यादि व्यक्तम् / नवरम् -(एगमेगंसि निरयावासंसि त्ति) प्रतिनरकाऽऽवासमित्यर्थः / (ठिइहाण ति) आयुषो विभागाः (असंखेज त्ति) सद्धयाऽतीतानि, कथम् ? प्रथमपृथिव्यपेक्षयाजघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टा तु सागरोपमम्, एतस्यां चैकैकसमयवृद्ध्याऽसङ्ख्येयानि स्थिति स्थानानि भवन्ति। असङ्ख्येयत्वात्सागरोपमसमयानामित्येवं न
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________________ जीव 1540- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव - रकाऽऽवोसापेक्षयाऽऽप्यसङ्खयेयान्येव तानि, केवलं तेषु जघन्योत्कृष्ट - विभागो ग्रन्थान्तरादवसे यः / यथा-प्रथमप्रस्तटनरकेषु जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टा तु नवतिरिति / एतदेव दर्शयन्नाह -- "जहन्निया ठिई" इत्यादि। जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राधिका, इत्येक स्थितिस्थानम्, तच प्रतिनरकं भिन्नरूपम्, सैव समयाधिकेति द्वितीयम्, इदमपि विचित्राम्, एवं यावद सङ्खये यसमयाधिका सा / सर्वान्तिमस्थितिस्थानदर्शनायाऽऽह (तप्पाउग्गुकोसिय ति) उत्कृष्टाऽसावनेकविधेति विशेष्यते, तस्य विवक्षितनरकाऽऽवासस्य प्रायोग्यो चिता उत्क र्षिका तत्- प्रायोग्योत्कर्षिका इत्यपरं स्थितिस्थानम्, इदमपि विचित्रं, विचित्रत्वा दुत्कर्षस्थितेरिति। एवं स्थितिस्थानानि प्ररूप्य तेष्वेव क्रोधाऽऽधुपयुक्तत्वं नारकाणां विभागेन दर्शयन्निदमाह - इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जहाण्णयाए ठिईए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्तामाणोवउत्ता मायोवउत्ता लोभोवउत्ता? गोयमा ! सव्वे विताव होज कोहोवउत्ता? अहवा-कोहोवउत्ता माणोवउत्ते य 2, अहवा-कोहोवउत्ता य माणोवउत्ता य 3, अहवा-कोहोवउत्ता यमायोवउत्तेय,अहवा-कोहोवउत्ताय मायोवउत्ता य 5, अहवा-कोहोवउत्ता य लोभोवउत्ते य 6, अहवा-कोहोवउत्ताय लोभोवउत्ताय 7 / अहवा-कोहोवउत्ता यमाणोवउत्ते य,मायोवउत्तय 1, कोहोवउत्ता यमाणोवउत्ते य मायोवउत्ता 2, कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ते य 3, कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ता / एवं कोहेणं माणेणं लोभेणं चत्तारि भंगा 12 / अहवा-कोहोवउत्ता माणोवउत्ते मायोवउत्ते लोभोवउत्ते 1, अहवा-कोहोवउत्ता मागोवउत्ते मायोवउत्ते लोभोवउत्ता 2, अहवा-कोहोवउत्ता माणोवउत्ते मायोवउत्ता लोभोवउत्ते 3, अहवा-कोहोवउत्ता माणोवउत्ते मायोवउत्ता लोभोवउत्ता 4, अहवा-कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ते लोभोवउत्ते 5, अहवा-कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ते लोभोवउत्ता 6, अहवा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायावउत्ता लोभोवउत्ते 7, अहवा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ता लोभोवउत्ता 8 / एवं सत्तावीसं भंगो नेयव्वा / / "इमीसे ण'' इत्यादि / (जहणियाए ठिईए वट्टमाण त्ति) या यत्र नरकाऽऽवासे जघन्या, तस्यां वर्तमानाः "किं कोहो-वउत्ते' इत्यादिप्रश्ने "सव्वेवि'' इत्याधुत्तरम्। तत्र च प्रतिनरकं जघन्यस्थितिकाना सदैव भावात्तेषु च क्रोधोपयुक्तानां बहुत्वात्सप्तविंशतिर्भङ्ग काः / एकाऽऽदिसंख्यात समयाधिकजघन्यस्थितिकानांतुकादाचित्कत्वात्तेषु च क्रोधाऽऽधुपयुक्ताना नामेकत्वानेकत्वसंभवादशीतिर्भङ्ग काः / / एकेन्द्रियेषु तु सर्वकषायोपयुक्तानां प्रत्येकं बहूनां भावादभङ्ग कम्। आह च -- ''संभवइ जहिं विरहो, असीति भंगा तहिं करेजाहि / जहियं न होइ विरहो, अभंगयं सत्तवीसा वा / / 1 / / अयं च तत्सत्ताऽपेक्षे विरहो द्रष्टव्यो, न तूत्पादापेक्षः, यतो रत्नप्रभायां चतुर्विशतिर्मुहुर्ता उत्पादविरहकाल उक्तः, ततश्च यत्र सप्तविंशतिर्भङ्गका उच्यन्ते, तत्रापि विरहभावादशीतिः प्राप्नोति, सप्तविंशतेश्चाभाव एवात। तत्रा (सव्वे विताव होज कोहोवउत्त त्ति) प्रतिनरकं स्वकीयस्वकीयस्थित्यपेक्षया जघन्यस्थितिकानां नारकाणां सदैव बहूनां सद्भावान्नारकभवस्य च क्रोधोदय प्रचुरत्यात सर्व एव क्रोधोपयुक्ता भवेयुरित्येको भङ्गाः / "अहवा'' इत्यादिना द्वित्रिचतुःसंयोगभङ्गा दाशताः, तत्रा द्विकसंयोगे बहुवचनान्तं क्रोधममुञ्चता षड् भङ्गाः कार्याः / तथाहि-क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपयुक्तश्च 1, तथा क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपयुक्ताश्च 2 / एवं माययैकत्वबहुत्वाभ्यां द्धौ, लोभेन च द्वौ। एवमेते द्विकयोगे षट्, त्रिकयोगे तु द्वादश भवन्ति / तथाहि क्रोधे नित्यं बहुवचनम्, मानमाययोरेकवचनमित्येकः, मानकत्वे मायाबहुत्वे च द्वितीयः / मानेच बहुवचनं, मायायामे कत्वमिति तृतीयः / मानबहुत्वे मायाबहुत्ये च चतुर्थः, पुनः क्रोधमानलोभरित्थमेव चत्वारः, पुनः क्रोधमायालोभैरित्थमेव चत्वारः एवमेते द्वादश / चतुष्कसंयोगे त्वष्टौ / तथाहि-क्रोधे बहुवचनेन मानमायालोभेषु चैकवचनेनैकः / इत्थमेव लोभे बहुवचनेन द्वितीयः / एवमेतावेकवचनान्तमायया जातौ, एवं बहुवचनान्तमाययाऽन्यौ द्वौ, एवमेते चत्वार एकवचनान्तमानेन जाताः। एवमेव बहुवचनान्तमानेन चत्वार इत्येवमष्टौ। एवमेतं जघन्यस्थितिषु नारकेषु सप्तविंशतिर्भवन्ति। जघन्यस्थितौ हि बहवो नारका भवन्त्वत क्रोधे बहुवचनमेव / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए दवीए तीसाए निरयावाससय सहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि समयाहियाए जहण्णाट्ठइए वट्टमाणा नेरइया कि कोहो, त्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ता लोभो वउत्ता? गोयमा ! कं हावउत्तय माणोवउत्ते य मायोवउत्ते य लोभोवउत्ते य, कोहोवउत्ता य माणोवउत्ता य मायोवउत्ता य लोभोवउत्ता य, अहवा कोहोवउत्ते य माणोवउत्त य, अहवा-- काहोवउत्त य माणोवउत्ता य, एवं असीइभंगा नेयव्वा / एवं० जाव संखेजसमयाहिया ठिइ, असंखेजसमयाहियट्टिईए तप्पाउग्गुकोसियाए ठिईए सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा। 'समयाहियाए जहन्नहिईए वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता" इत्यादि प्रश्नः / इहोत्तरम्-"कोहोवउत्तेय इत्यादयोऽशीतिर्भङ्गाः / इह समयाधिकायां यावत् संख्येयसमयाधिकायां जधन्यास्थिती नारका न भवन्त्यपि भवन्ति चेदेको वा; अनेके वेति / ततः क्रोधाऽऽदिष्वेकत्वेन चत्वारो विकल्पाः, बहुत्वेन चान्ये चत्वार एव 4, द्विकसंयोगे चतुर्विंशतिः / तथाहि क्रोधमानयोरेकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारः 4, एवं क्रोधमाययोः 4, एवं क्रोधलो भयोः 4, एवं मानमाययोः 4, एवं मानलोभयोः 4, एवं मायालोभयोरिति 4 / द्विकयोगे चतुर्विशतिः, त्रिकयोगे द्वात्रिंशत् / तथाहि-क्रोधमानमायानामकत्वेनैकः, एष्वेव मायाबहुत्वेन द्वितीयः, एवमेतौ मानैकत्वेन, द्वावेवान्यौ तद्बहुत्वेन एवमेते चत्वारः, क्रोधैत्वेन चत्वार एव, अन्ये क्रोधबहुत्वेनेत्येवमष्टी,
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________________ जीव 1541 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव क्रान्तानामिति भावनीयम्। शरीरद्वारेइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव० एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं कइ सरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! तिण्णि सरीरया क्रोधमानमायात्रिके जाताः / तथैवान्येऽष्टौ क्रोधमानलो भेषु, तथैवान्येऽष्टौ क्रोधमायालोभेषु, तथैवान्येऽष्टौ मानमायालोभेष्वितिद्वाविंशत्, चतुष्कयोगे षोडश। तथाहि-क्रोधाऽऽदिष्वेकत्वेनेको, लोभस्य बहुत्वेन द्वितीयः, एवमेतौ मायैकत्वेन, तथान्यौ मायाबहुत्वेन। एवमेते चत्वारो मानैकत्वेन, तथाऽन्ये चत्वार एव मानबहुत्वेन / एवमेते अष्टौ क्रोधकत्वेन, एवमन्येऽष्टौ क्रोधबहुत्वेनेति षोडश / एवमेते सर्व एवाशीतिरिति। एते च जघन्यास्थतावकाऽऽदिसङ्ख्यातान्तसमयाधिकायां भवन्ति, असङ्ख्यः तसमयाधिकायास्तु जघन्यस्थितेरारभ्योत्कृष्टा स्थितिं यावत्सप्तविंशतिर्भङ्गास्त एव, तत्र नारकाणां बहुत्वादिति। अथावगाहनाद्वारे - इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससय सहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरझ्याणं केवइया ओगाहण ट्ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा ओगाहणट्ठाणा पण्णत्ता। तं जहा-जहणिया ओगाहणा अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, जहणिया ओगाहण्णा एगपदेसाहिया, जहणिया, जहणिया ओगाहणा दुपदेसाहिया, जहणिया ओगाहणा० जाव असंखेञ्जपदेसाहिया, जहणिय्या ओगाहणा तप्पाउग्गुक्कोसिया ओगाहणा॥ तत्र (ओगाहणट्ठाण त्ति) अवगाहन्ते आसते यस्यां साऽवगाहतः तनुः, तदाधारभूतं वा क्षेत्रां, तस्याः स्थानानि / प्रदेशवृद्ध्या विभागा अवगाहनास्थानानि, तत्र (जहणिय त्ति) जघन्याऽमुलासंख्येयभागमात्रा सर्वनरकेषु, (तप्पाउग्गुकोसियत्ति) तस्य विवक्षित-नरकस्य प्रायोग्या या उत्कर्षिका सा तत्प्रायोग्योत्कर्षिका। यथा-त्रायोदशप्रस्तटे धनुः सप्तकं रत्नित्रयमङ्गुलषट्कं चेति। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरथावासंसि जहणियाए ओगाहणाए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता असीइं भंगा भाणियव्वा० जाव संखेजपदेसाहिया जहणिया ओगाहणा, असंखेज्जपएसाहियाए जहणियाए ओगाहणाए वट्टमाणाणं तप्पाउग्गुक्कोसियाए ओगाहणाए वट्टमाणाणं नेरइयाणं दोसु वि सत्तवीसं भंगा।। "जहणियाए'' इत्यादि। जघन्यायां तस्यामेव चैकाऽऽदिसङ्ख्यातन्तप्रदेशाधिकायामवगाहनायां वर्तमानानां नारकाणामल्पत्वात्क्रोधssधुपयुक्त एकोऽपि लभ्यते, अतोऽशीतेर्भड़ाः / "असंखेज्जपएस' इत्यादि / असङ्ख्यातप्रदेशा धिकायांतत्प्रायोग्योत्कृष्टायां च नारकाणां बहुत्वात्तेषु च बहूनां क्रोधोपयुक्तत्वेन क्रोधे बहुवचनस्य भावान्मानादिषु त्वेकत्वबहुत्वसम्भवात्सप्तविंशतिर्भङ्गा भवन्तीति / ननु ये जघन्यस्थितयो जघन्यावगाहनाश्च भवन्ति, तेषां जघन्य स्थितिकत्वेन सप्तविंशतिर्भङ्गकाः प्राप्नुवन्ति, जघन्यावगाहकत्वेन चाशीतिरिति विरोधः? अत्रोच्यतेजघन्यस्थितिकानामपि जघन्यावगाहनाकालेऽशोतिरेव, उत्पत्तिकालनावित्वेन जघन्यावगाहनानामल्पत्वादति, या च जघन्यस्थितिकानां सप्तविंशतिः सा जघन्यावगाहनत्वमति- | जाव वेउब्वियसरीरे वट्टमाणा नेरइयण किं कोहोवउत्ता, सत्तावीसं भंगा। एएणं गमेणं तिणि सरीरया भाणियव्या। (सत्तावीसं भंग त्ति) अनेन यद्यपि वैक्रियशरीरे सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्ताः तथापि या स्थित्याश्रयाऽवगाहनाश्रया च भड़क प्ररूपणा, सा तथैव दृश्या, निरवकाशत्वात्तस्याः, शरीराश्रया- याश्च सावकाशत्वात्। एवमन्यत्रापि विमर्शनीयमिति। (एएणं गमेण तिणि सरीरया भाणियव्व त्ति) वैक्रियशरीरसूत्रापाठेन त्रीणि शारीरकाणि वैक्रिय तैजसकार्मणानि भणितव्यानि, त्रिष्वपि भङ्ग कसप्तविंशतिर्वाच्येत्यर्थः / ननु विग्रहगतौ केवले ये तैजसकार्मणशरीरे स्यातां तयोरल्पत्वेनाशीतिरपि भङ्ग काना सम्भवतीति कथमुच्यते तयोः सप्तविंशतिरेवेति? अत्रोच्यतेसत्यमेतत्, केवलं वैक्रियशरीरानुगतयोस्तयोरिहाऽऽश्रयणं केवलयोश्चानाश्रयणमिति सप्तविंशतिरेवेति। यच्च द्वयोरेवातिदेश्यत्वे त्रीणीत्युक्तं , तत्रयाणामपिगमस्यात्यन्तसाम्योपदर्शनार्थमिति / / संहननद्वारेइमीसे णं मंते ! रयणप्पभाए जाव नेरइयाणं सरीरया किं संघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, नेवट्ठी नेवच्छिरा नवे प्रहारूणि, जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया असुहा अमणुण्णा अमणामा, एएसिं सरीरसंघायत्ताए परिणमंति / इमीसे णं भंते ! जाव छण्हं संघयणाणं असंघयणे वट्टमाणाणं नेरइया किं कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा। (छह संघयणाणं असंघयणित्ति) षण्णां संहननानां वज्रऋषभनाराचाऽऽदीनां मध्यादेकतरेणापि संहननेनासहननानीति / कस्मादेवमित्यत आह - "नेवठ्ठी'' इत्यादि / नैवास्थ्यादीनि तेषां सन्ति, अस्थिसञ्चयरूपं च संहननमुच्यत इति / (अणि त्ति) इष्यन्ते स्मेतीष्टाः तनिषेधादनिष्टाः, अनिष्टमपि किञ्चित्कमनीयं भवतीत्यत, उच्यते- अकान्ताः, अकान्तमपि किञ्चित्कारणवशात्प्रीतये भवतीत्यत आह-अप्रियाः अप्रीतिहेतवः अप्रियत्व तेषां कुतः? यतः (असुभ त्ति) अशुभस्वभावाः, ते च सामान्या अपि भवन्तीत्यतो विशेष्यन्ते-(अमणुण्ण ति) न मनसाऽन्तः सवेदनेन शुभतया ज्ञायन्त इत्यमनोज्ञाः। अमनोज्ञता चैकदाऽपि स्यादत आह-(अमणाम त्ति) न मनसा अम्यन्ते गम्यन्ते पुनः पुनः स्मरणतो ये तेऽमनोमाः / एकार्थिकाश्चैते शब्दा अनिष्टताप्रकर्षप्रतिपादनार्था इति। (संघायत्ताए त्ति) साततया, शरीररूपसञ्चतयेत्यर्थः। संस्थानद्वारेइमीसे णं भंते! जाव सरीरया किं संठिया पण्णता?
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________________ जीव 1542- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव 3 गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-भवधारणिञ्जा य, उत्तरवेउव्विया य / तत्थ णं जे ते भवधारणिजाते हुंडसंठिया पण्णत्ता, तत्थ जे ते उत्तरवेउदिवया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता / इमीसे पं० जाव हुंडसंठाणे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा। (किंसंठियत्ति) किं संस्थितं संस्थानं येषां तानि किं संस्थितानि? (भवधारणिज्ज त्ति) भवधारणं निजजन्मातिवाहनं प्रयोजनं येषां तानि भवधारणीयान्याजन्मधारणीया-नीत्यर्थः / (उत्तरवेउव्विय त्ति)। पूर्ववैक्रि यापेक्षया उत्तराणि उत्तरकालभावीनि वैक्रियाणि उत्तरवैक्रियाणि / (हुंडसंठिय त्ति) सर्वत्राशुभसंस्थितानि। लेश्याद्वारे - इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कइलेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए० जाव काउलेस्साए वट्टमाणा सत्तावीसं भंगा। दृष्टिद्वारेइमीसे णं भंते ! जाव किं सम्मदिट्टी, मिच्छदिट्टी, सम्मा मिच्छदिट्ठी ? गोयमा ! तिण्णि वि; इमीसेणं० जाव सम्मइंसणे वट्टमाणा नेरइया सत्तावीसं भंगा / एवं मिच्छदंसणे वि; सम्मामिच्छदसणे असीइभंगा। (सम्मामिच्छदसणे असीइभंग त्ति) मिश्रदृष्टीनामल्पत्वात् तद्धावस्यापि च कालतोऽल्पत्वादेकोऽपि लभ्यत इत्यशीतिर्भङ्गा। ज्ञानद्वारेइमीसे णं 0 जाव किं नाणी, अण्णाणी? गोयमा ! नाणीवि, अण्णाणी वि, तिण्णि नाणाइं नियमा, तिणि अण्णाणाई भयणाए। इमीसे णं भंते ! जाव आमिणिबोहियणाणे वट्टमाणे? गोयमा ! सत्तावीसं भंगा, एवं तिण्णिणाणाई तिणि अण्णाणाई भाणियव्वाइं। (तिण्णि णाणाई नियम त्ति) ये ससम्यक्त्वा नरकेषूत्पद्यन्ते तेषां प्रथमसमयादारभ्य भवप्रत्ययस्यावधिज्ञानस्य भावालिाज्ञानिन एव ते, ये तु मिथ्यादृष्टयस्ते सज्ञिभ्योऽसज्ञिभ्यश्चोत्पद्यन्ते, तत्रा ये सझिभ्यस्ते भवप्रत्ययादेव विभङ्गस्य भावादज्ञानिनः, ये त्वसज्ञिभ्यस्तेषामाद्यादन्तर्मुहूत्पिरतो विभङ्गस्योत्पत्तिरिति तेषां पूर्वमज्ञानद्वयं, पश्चाद्विभङ्गोत्पत्तावज्ञानत्रयमित्यत उच्यते- (तिणि अण्णाणाइं भयणाए त्ति) भजनया विकल्पनया कदाचिद् द्वे, कदाचित्रीणीत्यर्थः। अत्रार्थ गाथे स्याताम् - "सण्णी णेरइएसु, उरलपरिचायणंतरे समए। विभंग ओहिं वा, अविग्गहे विगहे लहइ / / 1 / / अस्सणी नरएसुं, पजत्तो जेण लहइ विभंग। नाणा तिन्नेव तओ, अण्णाणा दोन्नि तिन्नेव / / 2 / / " एवम् 'तिण्णि णाणाई' इत्यादि / आभिनियोधिक ज्ञानवत / सप्तविंशतिभङ्ग कोपेतानि आद्यानि त्रीणि ज्ञानानि, अज्ञानानि वेति। इह च त्रीणि ज्ञानानीति यदुक्तं, तदाभिनिबोधिकस्य पुनर्गणनेन / अन्यथा द्वे एव ते वाच्ये स्यातामिति। "तिण्णि अन्नाणाई' इत्यत्रा यदि मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने विभङ्गात् पूर्वकालभाविनी विपक्ष्येते, तदा अशीतिभङ्गा लभ्यन्ते, अल्पत्वात्तेषाम् / किं तु जघन्यावगाहणास्ते ततो जघन्यावगाहनाश्रयेणैवाशीति भड़कास्तेषामवसेया इति। योगद्वारे -- इमीसे णं० जाव किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी? गोयमा! तिण्णि वि! इमीसे णं० जाव मणजोए वट्टमाणा सत्तावीसं भंगा, एवं कायजोए। (एवं कायजोए त्ति) इह यद्यपि केवलकार्मणाकाययोगे अशीतिर्भङ्गा संभवन्ति, तथापि तस्याविवक्षणात् सामान्यकाय योगाऽऽश्रयणाच सप्तविंशतिरुक्तेति। उपयोगद्वारेइमीसे णं 0 जाव नेरइया किं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि।इमीसे पंजाव सागारोवउत्ते वट्टमाणा सत्तावीसं भंगा, एवं अणागारोवउत्ते विसत्तवीसं भंगा,एवं सत्त विपुढवीओ नेयव्वाओ,णाणत्तं लेसासु। (सागारोवउत्त त्ति) आकारो विशेषांशग्रहणशक्तिः, तेन सह इति साकारः तद्विकलोऽनाकारः। सामान्यग्राहीत्यर्थः। (णाणत्तं लेसासु त्ति) रत्नप्रभापृथिवीप्रकरणवच्छेषपृथिवीप्रकरणान्य ध्येयानि / केवलं लेश्यासु विशेषः तासां भिन्नत्वात्। अत एव तद्दर्शनाय गाथा -- गाहाकाओय दोसु तइया-ऍ मीसिया नीलिया चउत्थीए। पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा / / 1 / / (काओय इत्यादि) तत्र (तइयाए मीसिय ति) बालुकप्र-भाप्रकरणे उपरितननरकेषु कापोती, अधस्तनेषु नीली भवतीति ते यथासम्भव प्रश्नसूत्रो उत्तरसूने चाध्येतव्ये इत्यर्थः / यच सूत्राभिलापेषु नरकाऽऽवप्ससङ्ख्यानानात्वं, तत् "तीसा य पन्नवीसा'' इत्यादिना पूर्वप्रदर्शितेन समवसेयमिति / एवं च सूत्राभिलापः कार्य:"सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए पणवीसाए नरयावाससयसहस्सेसु एगभेगंसि नरयावाससि कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता। सक्करप्पभाए णं भंते ! जाव काउलेसाए वट्टमाणा नेरझ्या किंकोहोवउत्ता? इत्यादि जावसत्तावीसभंगा'। एवं सर्वपृथिवीषु गाथाऽनुसारेण वाच्यम्। चउसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकु मारावासंसि असुरकुमाराणं के वइया ठिइट्ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठिइट्ठाणा पणत्ता / तं जहाजहणिया ठिई जहा नेरइया तहा, नवरं पडिलोमा भंगा भाणियव्वा, सव्वे विताव होन्जालोभोवउत्ताय माणोवउत्तेय, एएणं गमेणं नेयव्वं० जाव थणियकुमारा, नवरं नापत्तं जाणियव्यं /
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________________ जीव 1543 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव असुरकुमारप्रकरणं पडिलोमाभंग त्ति) नारकप्रकरणे हिक्रोध मानाऽऽदिना क्रमेण भङ्ग कनिर्देशः कृतोऽसुरकुमाराऽऽदि-प्रकरणेषु लोभमायाऽऽदिनाऽसौ कार्य इत्यर्थः। अत एवाह - (सव्वे वि ताव होजा लोहोवउत्त त्ति) देवा हि प्रायोलोभवन्तो भवन्ति, तेन सर्वेऽप्यसुरकुमारा लोभोपयुक्ताः स्युः। द्विकसंयोगे तुलोभोपयुक्तत्वे बहुवचनमेव, मायोपयोगे त्वेकत्वबहुत्वाभ्यां द्वौ भनको, एवं सप्तविंशतिर्भङ्गकाः कार्याः / (णवरं णाणतं जाणियव्वं ति) नारकाणामसुरकुमाराऽऽदीनां च परस्परं नानात्वं ज्ञात्वा प्रश्नसूत्रााण्युत्तरसूत्राणि चाध्ये यानीति हृदयम् / तच्च नारकाणामसुराऽऽदीनां च संहननसंस्थानलेश्यासूत्रेषु भवति। तचैवम् - ''चउसट्ठीए ण भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्से सु एगमेगसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं सरीरगा किं संघयणी ? गोयमा ! असघयणी, जे पोग्गला इट्ठा कंता, ते तेसिं संधायत्ताए परिणमंति, एवं संठाणे वि, णवरं भवधारणिज्जा समचउरंससंठिया, उत्तरवेउव्विया अणयरसंठिया, एवं लेसासु वि, णवरं कइ लेसाओ पण्णत्ताओ? मोथमा ! चत्तारि। तं जहा-कण्हा नीला काऊ तेऊलेसा। चउसट्ठीएणं जाव कण्हलेसाए वट्टमाणा कि कोहोवउत्ता? 04 गोयमा ! सव्वे विताव होज लोहोवउत्ता'' इत्यादि। एवं 'नीलकाऊतेऊ वि।नागकुमाराऽऽदिप्रकरणेषु तु - "चुलसीए नागकुमारावासयससहस्सेसु" इत्येय "चउसट्ठी असुराणं, नागकुमाराण होइ चुलसीई। "इत्यादेर्वचनात्प्रश्नसूत्रेषु भवनसङ्ख्यानानात्वमवगम्य सूत्राभिलापः कार्य इति। असंखेजेसुणं भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढ विकाइयाणं के वइया ठिइट्ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठिइट्ठाणा पण्णत्ता। तं जहाजहणिया ठिई० जाव तप्पाउग्गुकोसिया ठिई। असंखेजेसुच भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि जहण्णट्ठिईए वट्टमाणा पुढविकाइया कि कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ता लोभोवउत्ता? गोयमा ! कोहोवउत्ता वि, माणोवउत्ता वि, मायोवउत्ता वि , लोहोवउत्ता वि / एवं पुढ विकाइयाण सव्वे सु वि ठाणे सु अभंगयं, नवरं तेउलेस्साए असीइभंगा, एवं आउकाइया वि, तेउकाइयवाउकाइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं, वणप्फइकाइया जहा पुढविकाइया। (एवं पुढविकाइयाणं सव्वेसु ठाणेसु अभंगय त्ति) पृथिवीकायिका एकैकस्मिन् कषाये उपयुक्ता बहवो लभ्यन्त इत्यभङ्गक दशस्वपि स्थानेषु / (नवरं तेउलेस्साए असीइभंग त्ति) पृथिवीकायिकेषु लेश्याद्वारे तेजोलेश्या वाच्या। सा च यदा देवलोकाचयुतो देव एकोऽनेको वा पृथिवीकायिकेषूत्पद्यते तदा भवति, ततश्च तदेकत्याऽऽदिभवनादशीतिभङ्ग का भवन्तीति / इह पृथिवीकायिकप्रकरणे स्थितिस्थानद्वारं साक्षाल्लिखितमे वास्ति, शेषाणि तु नारकवद्वाच्यानि। तत्रा च 'णवरं नाणत्तं जाणियव्वं" इत्येतस्यानुवृत्तेर्नानात्वमिह प्रश्नत उत्तरतश्चाव सेयम् / तच शरीराऽऽदिषु सप्तसु द्वारेष्विदम्- 'असंखेजेसु णं भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु० जाव पुढ विकाइयाणं कइ सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिन्नि। तं जहा ओरालिए, तेयए, कम्मए।" एतेषुच ''कोहोवउत्ता वि, माणोवउत्ता वि'' इत्यादि वाच्यम् / तथा --- "असंखेजेसुणं० जाव पुढविकाइयाणं सरीरगा किं संघयणी'' इत्यादि तथैव। “णवर पोग्गला मणुण्णा अमणुण्णा सरीरसंघायत्ताए परिणमंति।" एवं संस्थानद्वारेऽपि किं तूत्तरे- "हुंडसंठियाए'' तावदेव वाच्यम्, न तु "दुविहा सरीरगा पण्णत्ता / तं जहाभयधारणिज्जा य, उत्तरवेउव्विया य" इत्यादि, पृथिवीकायिकानां तदभावादिति / लेश्याद्वारे पुनरेवं वाच्यम् - "पुढवीकाइयाणं भंते ! कइ लेसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि / तं जहा कण्हलेस्सा० जाव तेउलेस्सा।" एतासु च तिसृष्वभङ्गकमेव, तेजोलेश्यायां त्वशीतभङ्गकाः, एतच्च प्रागेवोक्तमिति। दृष्टिद्वारे इदं वाच्यम् - "असंखेजेसु० जाव पुढविकाइया किं सम्महिट्ठी, मिच्छट्ठिी, सम्मामिच्छद्दिट्ठी ? गोयमा ! मिच्छादिट्ठी' शेषं तथैव / ज्ञानद्वारेऽपि तथैव।''णवरं पुढविकाइयाणं भंते! किं नाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! नो नाणी, अन्नाणी नियमा दुअन्नाणी। "योगद्वारेऽपि तथैव / नवरम् -''पुढविकाइयाण भंते ! किं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी? गोयमा! नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी' (एवं आउकाइया वि त्ति) पृथिवीकायिकवदप्कायिका अपि वाच्याः, ते हि दशस्वपि स्थानकेष्वभङ्गकाः तेजोलेश्यायां चाऽशीतिभङ्ग कवन्तो, यतस्तेष्वपि देव उत्पद्यत इति / "तेउकाइय' इत्यादौ (सव्वेसु वि ठाणेसु त्ति) स्थितिस्थाना ऽऽदिषु दशस्वप्यभङ्गक, क्रोधाऽऽधुपयुक्तानामेकदैव तेषु बहुना भावात्। इह देवा नोत्पद्यन्त इति तेजोलेश्या तेषु नास्ति। ततस्त -त्सम्भवान्नाशीतिरपीत्यभङ्ग कमेवेति / एतेषु च सूत्राणि पृथिवीकायिकसमानि, केवलं वायुकायसूत्रेषु शरीरद्वारे एवमध्येयम् - "असंखेजेसुणं भंते! जाव वाउकाइयाण कइ सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारितं जहा-ओरालिए, वेउदिए, तेयए, कम्मए त्ति'!"वणप्फइकाइया' इत्यादि। वनस्पतयः पृथिवीकायिकसमाना वक्तव्याः, दशस्वपि स्थानकेषु भङ्गकाभावात्तेजोलेश्यानां च तथैवाशीतिभङ्ग कसद्भावादिति। ननु पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं कर्म ग्रन्थेष्वभ्युपगम्यते, तत एव ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाल्पाश्चैत इत्येवमशीतिर्भङ्गाः सम्यग्दर्शनाभिनिबोधिकश्रुतज्ञानेषु भवन्तु ? नैवम् ? पृथिव्यादिषु सास्वादनभावस्यात्यन्तविरलत्वेनाविवक्षितत्वात् / तत एवोच्यते "उभयाभावो पुढवाइएसु विगलेसु होज्ज उववण्णो।" इति। उभयं प्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नरूपमिति। वे इंदियते इंदियचउरिंदियाणं जेहिं ठाणे हिं ने रइयाणं असीइभंगा, तेहिं ठाणेहिं असीई चेव, नवरं अब्महिया सम्मत्ते आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे, एएहिं असीइभंगा। जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा, तेसु ठाणेसु सव्वेसु अभंगयं / 'वेइंदिय" इत्यादावेवमक्षरघटना- "जेहिं ठाणेहि नेरइयाणं असीइभंगा, तेहिं ठाणेहिं वेइंदियतेइंदियचउरिदियाणं असीई चेव त्ति' / तत्र एकाऽऽदिसंख्यातान्तसमयाधिकायां जघन्यस्थितौ, तथा जघन्यायामवगाहनायां च, तत्रौव च संख्येयान्तप्रदेशवृद्धायां 3, मिश्रदृष्टौ 4 च, नारकाणामशीतिर्भङ्गकाउक्ताः, विकलेन्द्रियाणामप्येतेषुस्थानेषुमिश्रदृष्टिवर्जेष्वशीति
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________________ जीव 1544 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव रेव, अल्पत्वात्तेषामे कै कस्यापि क्रोधाऽऽधुपयुक्तस्य संभवात्, मिश्रदृष्टिस्तु विकलेन्द्रियेष्वेकेन्द्रियेषु च न भवतीति न विकलेन्द्रियाणां तत्रत्राशीतिमङ्ग कसंभव इति। वृद्धस्त्विह सूत्रे कुतोऽपि वाचनाविशेषाद् यत्राशीतिस्तत्राप्यभङ्ग कामति व्याख्यातम् / इहैव विशेषाभिधानायाऽऽह - "नवरं" इत्यादि / अयमर्थः- दृष्टिद्वारे, ज्ञानद्वारे च नारकाणा सप्तविंशतिरुक्ता। विकलेन्द्रियाणां तु (अब्भहिय त्ति) अभ्यधिकान्यशीतिर्भङ्गकानां भवति / केत्याह - सम्यक्त्वेऽल्पीयसा हि विकलेन्द्रियाणां सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं भवति, अल्पत्वाच तेषामेकत्वस्यापि संभवेनाशीतिभङ्गकानां भवति, एवमाभिनिबोधिश्रुते चेति। तथा 'जेहिं" इत्यादि। येषु स्थानेषु नैरयिकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गाः, तेषु स्थानेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां भङ्गकाभावः, तानि च प्रागुक्ताशीतिभनकस्थानावशिष्टानि मन्तव्यानि, भङ्गकाभावच्च क्रोधाऽऽधुपयुक्तानामेकदैवबहूनां भावादिति। विकलेन्द्रियसूत्राणि च पृथिवीकायिकसूत्राणीवाध्येयानि। नवरमिह लेश्याद्वारे तेजोलेश्या नाध्येतव्या। दृष्टिद्वारे च''वे इंदियाणं भंते ! किं सम्मट्टिी, मिच्छविट्ठी, सम्मामिच्छविट्ठी ? गोयमा ! सम्मट्टिी वि, मिच्छद्दिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छट्टिी। सम्मदसेण वट्टमाणा वेईदिया किं कोहोवउत्ता?" इत्यादि प्रश्ने उत्तरम् - अशीति भङ्गाः / तथा ज्ञानद्वारे- "वेइंदियाणां भंते ! किं नाणी। अन्नाणी? गोयमा! नाणी वि, अन्नाणी वि। जइ नाणी दुन्नाणीमइनाणी, सुथनाणी य। शेषं तथैव अशीतिश्च भङ्गा इति। योगद्वारे-"वेइंदियाणं भंते ! किं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! नो मणजोगी, वइजोगी, कायजोगीयशेषं तथैवा एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्राण्यपि। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा भाणियव्वा, नवरं जहिं सत्तावीसं भंगा तहिं अभंगयं कायव्वं / जत्थ असीई तत्थ असीई मणुस्सा वि। जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं मणुस्सा वि असीइभंगा भाणियव्वा। जेसु सत्तावीसा तेसु अभंगयं। नवरं मणुस्साणं अब्भहियं जहणियट्ठिईए आहारए य असीइभंगा, वाणमंतरजोइस-वेमाणिया जहा भवणवासी। नवर नाणत्तं भाणियव्वं / जंजस्स० जाव अणुत्तरा। 'पंचिंदिय" इत्यादि। (जहिं सत्तावीसं भंग त्ति) यत्रा नारकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गास्तत्र पञ्चेन्द्रियतिरश्चामभङ्ग कम, तच जघन्यस्थित्यादिक पूर्व दर्शितमेव, भङ्ग काभावच क्रोधाऽऽधुपयुक्तानां बहूनामेकदैव तेषु भावादिति / सूत्राणि चह नारक सूत्रावदध्येयानि / नवरं शरीरद्वारेऽयं विशेष:--''असंखेजेसु णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियावासेसु पचिंदियतिरिक्ख-जोणियाण केवइया सरीरा पण्णत्ता ? भोयमा ! चत्तारि / तं जहा- ओरालिए, वेउटिवए, तेयए, कम्मए / सर्वत्रा चाभङ्ग कमिति / तथा संहननद्वारे - "पंचिंदियतिरक्ख–जोणियाणं के वइया संघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छ संघयणा / तं जहावइरोसहनाराय० जाव छेवह त्ति"। एवं संस्थान द्वारेऽपि-"छट्ठाणा पण्णत्ता। तं जहा-समचउरंसे०"६। एवं लेश्याद्वारे- "कइ लेसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! छल्लेमा पण्णत्त / तं जहा- कण्हलेस्सा० "6 / (मणुस्सा वि त्ति) यथा नैरयिका दशसु द्वीरेष्वभिहितास्तथा मनुष्या अपि भणितव्या इति प्रक्रमः / एतदेवाह - "जेहिं'' इत्यादि / तत्र नारकाणां जघन्यास्थितादि-संख्यातान्तसमयाधिकायाम् 1, तथा जघन्यावगाहनायाम् 2, तस्यामेव संख्यातान्तप्रदेशाधिकायाम् 3, मिश्रे च 4 अशीतिर्भङ्गका उक्ताः। मनुष्याणामप्येतेष्वशीतिरेव। तत्कारणं च तदल्पत्वमेवेति। नारकाणां, मनुष्याणां च सर्वथा साम्यपरिहारायाऽऽह"जेसु सत्तवीस" इत्यादि / सप्तविंशतिर्भङ्गकस्थानानि च नारकाणां जघन्यस्थित्यसंख्यात-समयाधिकजघन्यस्थितिप्रभृतीनि, तेषु च जघन्यस्थितौ विशेषस्य वक्ष्यमाणत्वेनतद्वर्जेषु मनुष्याणामभङ्गकं. यतो नारकाणां बाहुल्येन क्रोधोदय एव भवति / तेन तेषां सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्तस्थानेषु युज्यन्ते। मनुष्याणां तु प्रत्येकं क्रोधाऽऽधुपयोगवतां बहूनां भावान्न कषायोदय विशेषोऽस्ति / तेन तेषां तेषु स्थानेषु भङ्गकाभाव इति / इहैव विशेषाभिधानायाऽऽह - "नवरम्" इत्यादि। येषु स्थानेषु नारकाणामशीतिस्तेषु मनुष्याणामप्यशीतिः, तथा "जेसु सत्तावीसा तेसु अभंगयं'' इत्युक्तम्, केवलं मनुष्याणामिदमभ्यधिकम्, यदुत जघन्यकस्थितौ तेषामाशीतिर्न तु नारकाणाम्। तत्र सप्तविंशतिरुक्तेत्यभङ्ग कम् / तथा आहारक शरीरे अशीतिः, आहारकशरीरवतां मनुष्याणामल्पवात्। नारकाणांतु तन्नास्त्येवेत्येतदभ्यधिकं मनुष्याणामिति। इह च नारकसूत्राणां मनुष्यसूत्राणां च प्रायः शरीराऽऽदिषु चतुर्यु ज्ञानद्वार एव च विशेषः / तथाहि- "असंखेजेसुण भंते! मणुस्सावासेसु मणुस्साणं कइ सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच / तं जहा-ओरालिए, वेउव्विए, आहारए, तेयए, कम्मए।असंखेजेसुणं० जाव ओरालियसरीरे वट्टमाणा मणूसा किं कोहोव उत्ता वि०४ / ' एवं सर्वशरीरेषु, नवरमाहारके ऽशीतिर्भङ्गकानां वाच्या, एवं संहननद्वारेऽपि, नवरं ''मणुस्साणं भंते ! कइ संघयणा पण्णता? गोयमा ! छसंघयणा पण्णत्ता / तं जहा-वइरोसहनाराए० जाव छेवढे।' संस्थानद्वारे "छ संठाणा पण्णत्ता / तं जहा-समचउरसे०जाव हुंड"। लेश्याद्वारे- 'छ लेसाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-कण्हलेसा० जाव सुकलेसा'। ज्ञानद्वारे'मणुस्साणं भंते ! कइ नाणाणि ? गोयमा ! पंच। तं जहा-आभिणिबोहियनाणं 5 / " एषु च केवलवर्जेष्वभङ्गकम्, केवले तु कषायोदय एव नास्तीति। "वाणमंतर'' इत्यादि / व्यन्तराऽऽदयो दशस्वपि स्थानेषु यथा भवनवासिनस्तथा वाच्याः। यत्रासुराऽऽदीनामशीतिभङ्गकाः, यत्र चसप्तविंशतिः, तत्रच व्यन्तराऽऽदीनामपिते तथैव वाच्याः। भङ्गकास्तु लोभमादौ विधायाध्येतव्याः, ता भवनवासिभिः सह व्यन्तराणां साम्यमेव / ज्योतिष्काऽऽदीनां तु न तथोत ! तैस्तेषां सर्वथा साम्यपरिहारसूचनायाऽऽहणवरं नाणत्तं भाणियव्वं जं जस्सत्ति / यल्लेश्याऽऽदिगत यस्य ज्योतिष्काऽऽदे नात्वमित रापेक्षया भेदस्तज्ज्ञातव्यमिहेति, परस्परतो विशेष ज्ञात्वा एतेषां सूत्राण्यध्येयानीति भावः / तत्र लेश्याद्वारेज्योतिष्काणामेकैव तेजोलेश्या वाच्या / ज्ञानद्वारेत्रीणि ज्ञानानि, अज्ञाना न्यपि त्रीण्येव, असंज्ञिना तत्रोपपाताभावेन / वभङ्गस्यापर्याप्तका वस्थायामपि भावात् / तथा वैमानिकाना लेश्याद्वारेतेजोलेश्या ऽऽदयस्तिस्त्रो लेश्या वाच्याः / ज्ञानद्वारे च त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि चेति। वैमानिकसूत्राणि चैवमध्येयानि - "संखेजेसु णं भंते ! वेमाणियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि केवइया ठिइट्ठाणा पन्नता?" इत्येवमादीनि। भ०१ श०५ उ०।
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________________ जीव 1545 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीव जीवानां सर्वलोकव्याप्तत्वम् - एयंसि णं भंते ! महालयंसि लोगंसि अत्थि केइ परमाणु - पोग्गलमत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि? गोयमा : णो इणटे समटे से केणटेणं भंते ! एवं वुडइ एयंसिणं महालयंसि लोगंसि णत्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्ते वि पदेसे, जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा, ण मए वा वि? गोयमा! से जहाणामए केइ पुरिसे अयासयस्स एगं महं अयावयं करेजा, से णं तत्थ जहण्णेणं एग वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं अयासहस्सं पक्खिवेज्जा, ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणीयाओ जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा, अस्थि णं गोयमा! तस्स अयावयस्स केइ परमाणुपोग्गलमत्त वि पएसे, जेणं तासिं अयाणं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूएण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मेहिं वा रोमेहिं वा सिंगेहिं वा खुरेहिं वा णहेहिं वा अणिवंतपुव्वे भवइ ? णो इणढे समढे, होजाइणं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केइ परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे, जेणं तासिं अयाणं उच्चारेण वा जाव णहेण वा अणिकंतपुव्वे, णो चेव णं एयंसि महालयंसि लोगस्स सासयं भावं, संसारस्स अणादिभावं, जीवस्सस णिचभावं, कम्मबहुत्तं जम्मणमरणबाहुल्लं च पडुच्च णत्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा, ण मए वा वि, से तेणतुणं तं चेव० जाव ण भए वा वि॥ (परमाणुपोग्गलमत्ते वित्ति) अत्राापिः संभावनायाम् / (अयासयस्स त्ति) षष्ट्याश्चतुर्थ्यर्थत्वादजाशताय (अयावयं ति) अजाव्रजन्, अजावाटकमित्यर्थः / (उक्कोसेणं अयासहस्सं पक्खिवेज ति) यदिहाजाशतप्रायोग्ये वाटके उत्कर्षेणाजास-सहस्रप्रक्षेपणमभिहित तत्तासामतिसङ्कीर्णतयाऽवस्थाननख्यापनार्थमिति / (पउरगोयराओ पउरपाणीयाओ त्ति) प्रचुरचरणभूमयः प्रचुरपानीयाश्च / अनेन च तासां प्रचुरमूत्र-पुरीष संभवो बुभुक्षापिपासविरहेण स्वस्थतया चिरजीवित्वं चोक्तम्। (नहेहिं वत्ति) नखाः खुराग्रभागास्तैः "णो चेवणं एयंसि महा लयसि लोगंसि' इत्यस्य "अत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेते वि पएसे' इत्यादिना पूर्वोक्ताभिलापेन संबन्धः, महत्त्वाल्लोकस्य। कथमिदमिति चेत? अत आह- "लोगस्स'' इत्यादि। क्षयिणो ह्येव न संभवतीत्यत उक्तम्-लोकस्य शश्वितभावं, प्रतीत्यतियोगः / शाश्वतत्वेऽपि लोकस्य संसारस्य सादित्वे नैवं स्यादित्यनादित्वं तस्योक्तं, नानाजीवापेक्षया संसारस्याना-दित्वेऽपि विवक्षितजीवस्यानित्यत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादतो जीवस्य नित्यत्वमुक्तं, नित्यत्वेऽपि जीवस्य कर्माल्पत्वे तथाविधसंसरणाभावान्नोक्तं वेस्तु स्यादतः कर्मबाहुल्यमुक्तम्, कर्मबाहुल्येऽपि जन्मादेरल्पत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादिति जन्मादिबाहुल्यमुक्तमिति। एतदेव प्रपञ्चयन्नाह __ कई णं भंते ! पुढवीओ पहण्त्ताओ? गोयमा! जहा पढमसए पंचभुद्देसए तहेव आवासा ठावेयव्वा० जाव अणुत्तरविमाणे त्ति० जाव अपराजिए सव्वट्ठसिद्धे / अयं णं मंते ! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीएतीसाएणिरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि णिरयावासंसि पुढवीकाइयत्ताए० जाव वणस्सइकाइयत्ताए णरगत्ताए णेरइयत्ताए उववण्णपुव्ये ? हंता गोयमा! असइं अदुवा अणंतखुत्तो। "कइ णं' इत्यादि। (नरगत्ताए त्ति) नरकाऽऽवासपृथिवी कायिकतयेत्यर्थः। (असई ति) असकदनेकशः (अदुव त्ति) अथवा (अणतखुत्तो त्ति) अनन्तकृत्वोऽनन्तवारान्। सव्वजीवा वि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरया०तं चेव० जाव अणंतखुत्तो। अयं णं भंते ! जीवे सक्करप्पभाए पुढवीए, पणवीसाए एवं जहा रयणप्पमाए तहेव दो आलावगा भाणियध्वा, एवं जाव० धूमप्पभाए / अयं णं मंते ! जीवे तमाए पुढवीएपंचूणे णिरयावाससयसहस्से एगमेगंसि, सेसं तं चेव / अयं णं भंते ! जीवे अहे सत्तमाए पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महइमहालएसुमहाणिरएसु एगमेगंसि णिरयावासंसि, से सं जहा रयणप्पभाए / अयं णं भंते ! जीवे चउसट्ठी असुरकुमारावाससहस्सेसु एगमेसंसि असुरकुमारावासंसि पुढवीकाइयत्ताए० जाव वणस्सइकायत्ताए देवत्ताए देवित्ताए आसणसयणभंडमत्तोवगर णत्ताए उववण्णपुव्वे ? हंता गोयमा ! जाव क्खुत्तो / सव्वजीवा वि णं भंते ! एवं चेव, एवं. जाव थणियकुमारेसु णाणत्तं आवासेसु आवासा पुव्वभणिया / अयं णं भंते ! जीवे असंखेजसु पुढवि-काइयावाससयसहस्सेसु एगमे गंसि पुढवीकाइयावासंसि पुढवी काइयत्ता० जाव वणस्सइकाइयत्ताए उववण्णपुव्वे ? हंतागोयमा ! जाव खुत्तो। एवं सव्वजीवा वि। एवं० जाव वणस्सइकाइएसु। (असंखेजेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु ति) इहासंख्यातेषु पृथिवीकायिकाऽऽवासेष्वेतावतैव सिद्धेर्यच्छतसहस्रगहणं तत्तेषामतिबहुत्वत्वख्यापनार्थम् / नवरम् - अयं णं भंते! जवि असंखेजेसु वेइंदियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेइंदियावासंसि पुढवीकाइयत्ताए० जाव वणस्सइकाइयत्ताए वेइंदियत्ताए उववण्णपुटवे ? हंता गोयमा / जाव अणंतखुत्तो। सव्वजीवा विणं एवं चेव, एवं जाव मणुस्सेसु, णवरं ते इंदिएसु० जाव वणस्सइकाइयत्ताए तेइंदियत्ताए चउरिदिएसु चउरिंदियत्ताए एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु पंचिदियतिरिक्खजोणियत्ताए मणुस्सेसुमणुस्सत्ताए, सेसं जहा वइदियाणं वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणाण य जहा असुर कुमाराणं /
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________________ जीव 1546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवकाय "तेइदिएसु'' इत्यादि / त्रीन्द्रियाऽऽदिसूत्रोषु द्वीन्द्रियाऽऽदि --सूत्रात् उ० / यथा मनुष्ययोनौ द्वीन्द्रियाऽऽदिजीवोत्पत्तिस्तथैव तिर्यग्योनौ, श्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेत्यादिनैव विशेष इत्यर्थः / कश्चिद्विशेषो वा ? अति प्रश्ने, उत्तरतिर्यगाश्रितः कोऽपि विशेषः शास्त्र अयं णं भंते ! जीवे सणंकुमारकप्पे वारसेसु विमाणावास दृष्टो नास्तीति। 145 प्र० / सेन०२ चल्ला०। अनुत्तराविमानेषु जीवः सयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि पुढवीकाइया, ससं कति भवान् करोतीति प्रश्ने, उत्तरविजयाऽऽदिषु उक्तर्षतो वारद्वयं, जहा असुरकुमाराणां० जाव अणंतखुत्तो। णो चेव णं देवित्ताए, सर्वार्थसिद्धिविमाने एकवारमिति / जीवाभिगमवृत्तौ विजयाऽऽदिषु एवं सव्वजीवा वि, एवं जाव आणयपाणएसु, एवं आरणचुएसु वि। द्विचरमाः, इति तत्त्वार्थसूत्रचतुर्थाध्यायेसर्वार्थ सिद्धिविमानादागतोऽ(णो चेव णं देवित्ताए ति) ईशानान्तेष्वेव देवस्थानेषु देव्य उत्पद्यन्ते, नन्तरभवे सिद्ध्यत्येव, विजयाऽऽदिचतुषु गतो मनुष्येषु चाऽऽयाति / सनत्कुमाराऽऽदिषु पुनर्नेति कृत्या 'नो चेव णं देवित्ताए'' इत्युक्तम्। तत्रापि जघन्येन एकं द्वौ वा भवौ, उत्कर्षतश्चतुर्विशतिभवानु, तत्र अयं ण भंते ! जीवे तिसु वि अट्ठारसुत्तरेसु गेविजगविमाणा नरभवेऽष्टी, देवभवेऽष्टौ, भूयो नरभवेऽष्टौ, ततः सिद्ध्यतेच, विजयाऽऽदिषु वाससएसु एवं चेव / अयं णं भंते ! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु द्विरुत्पन्नस्य नियमात्सिद्धिरनन्तरभव एवेति प्रघोषः, प्रज्ञापनायां एगमेगंसि अणुत्तरविमाणंसि पुढवि० तहेव जाव अणंतखुत्तो। संख्यातभवानिति। 67 प्र० सेन०३ उल्ला० आउत्तिनामा वनस्पति णो चेवणं देवत्ताए देवित्ताए, एवं सव्वजीवा वि।। विशेषः किं संख्यातजीवोऽसंख्यातजीवः अनन्तजीवो वा ? कुत्र (णो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए व त्ति) अनुत्तरविमानेष्वनन्त कृत्वो देवा प्रोक्तमस्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-आउत्तिसत्कमूलऽऽदौ असंख्याता जीवाः, नोत्पद्यन्ते, देव्यश्च सर्वथैवेति "णो चेवणं इत्याद्युक्तमिति। पत्राऽऽदौ तु एकैको जीव इति प्रज्ञापनाऽऽदौ प्रोक्तम् स्तीति / 267 अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं माइत्ताए पित्तित्ताए भाइत्ताए प्र० / सेन० 3 उल्ला० / जीवेनानादिकासभवं लभ्यं देयं च भवति, भगिणित्ताए भज्जात्ताए पुत्तत्ताए धुयत्ताए सुण्हत्ताए उववण्ण पुव्वे? तदनपणे छुट्यते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - एकान्तो नास्तिः, यदि तपः स्वाध्यायाऽऽदिना कर्म निर्जरयति, तदा तदनपणे छुट्यते / हंता गोयमा! जाव अणंतखुत्तो। अयं णं भंते ! जीव सव्वजीवाणं अरित्ताए वे रियत्ताए घायगत्ताए वहगत्ताए पडिणीयत्ताए कर्मनिर्जरणमन्तरा तदनपणे नछुट्य। इति।६७ प्र०। सेन०४ उल्ला० / पचामित्तत्ताए उववण्णपुव्वे ? हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो व्यवहारराशिं प्राप्तो जीवः पुनः सूक्ष्मनिगोदमध्ये याति, न वेति प्रश्ने, सव्वजीवा विणं भंते ! एवं चेव / अयं णं भंते ! जीवे सव्वज उत्तरम् गृहमनुष्यान पृष्टा ददातीत्यक्षराणि सन्तीति।११६ प्र० / सेन० 4 उल्ला० / विकसितपुष्पतन्नालमध्ये जीवाः संख्याताः असंख्याता वाणं रायत्ताए जुवरायत्ताए० जाव सत्यवाहत्ताए उववण्ण पुव्वे? वेति प्रश्ने, उत्तरम् केषु चित्पुष्पेषु संख्याताः केषु चिदसंख्याताः, हंता गोयमा! असतिं जाव अणंतखुत्तो। सव्वजीवाणं एवं चेव। केषुचिदनन्ताश्च प्रज्ञापनाऽऽदिषु कथिताः सन्ति / जातिपुष्पमध्ये तु (अरिताए त्ति) सामान्यतः शत्रुभावेन (वेरियत्ताए त्ति) वैरिकः संख्याता एव कथिताः सन्ति। 138 / प्र० सेन०४ उल्ला०। शत्रुभावानुबन्धयुक्तस्तत्तथा (घायगत्ताए त्ति) मारकतया (वहत्ताए ति) जीवआरंभिया स्त्री० (जीवारम्भिका) यज्जीवानारभमाण स्योपमृद्यतः व्यधकतया, ताडकतयेत्यर्थः / (पडिणीयत्ताए त्ति) प्रत्यनीकतया कर्मबन्धनं सा जीवारम्भिका। क्रियाभेदे, "आरंभिया किरिया दुविहा कार्योपघातकतया (पचामित्तत्ताए त्ति) अमित्रसहायतया। पण्णत्ता।तं जहा जीवारंभिया चेव, अजीयारंभिया चेव''। स्था०२ ठा० अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं दासत्ताए पेसत्ताए भुयगत्ताए १उ०। भाइल्लागत्ताए भोगपुरिसत्ताए सीसत्ताए वेसत्ताए उववण्णपुव्वे? जीवंजीव पुं० (जीवजीव) जीवबले, "सं गुणं जीवंजीवेणं गच्छइ, हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो, एवं सव्वजीवा वि० जाव जीवंजीवेणं चिट्ठइ / " अनुस्वारस्यागमिकत्वाज्जीवजीवेन जीवबलेन अणंतखुत्तो॥ गच्छति, न शरीरबलेन। भ०२ श०१ उ०। ज्ञा० / अन्त० / जीवान् (दासत्ताए त्ति) गृहदासीपुत्रातया (पेसत्ताए त्ति) प्रेष्यतया आदेश्वतया / जीवयति दर्शनेन तृप्तिकरत्वात् / चकोरपक्षिणि, वाच०। (भुयगत्ताए त्ति) भृतकतया दुष्कालादौ पोषिततया (भाइल्लगत्ताए त्ति) जीवंजीवग पुं० (जीवजीवक) जीवान् जीवयति खच् / च कोरे, कृष्यादिभागस्य भागग्राहकत्वेन (भोगपुरिसत्ताए त्ति) अन्यैरुपार्जि चर्मपक्षिभेदे, वाच०। प्रज्ञा० / जी०। औ०। प्रश्न०। तार्थानां भोगकारिनरतया (सीसत्ताए त्ति) शिक्षणीयतया (येसत्ताए त्ति) | जीवंत त्रि० (जीवत्) प्राणान्धारयति, "मच्छा व जीवंत व जोतिपत्ता' / द्वेष्यतयेति। भ०१२श०७ उ०। स्था०। (जीवः सदा समितभेजतेतत्रा (13 गाथा) सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। किं बन्धक इति 'इरियावहिया' शब्दे द्वितीयभागे 626 पृष्ठे दर्शितम्) | जीवकप्प पुं० (जीवकल्प) द्रव्यकल्पभेदे, "तिविहो य जीवकप्पो, (जीवानां कर्मप्रतिष्ठितत्वं, कर्मसंगृहीतत्वं, जीवपुद्गलयोरन्योन्यबद्धत्व दुपयचउप्पयअपयभेएहिं।" पं०भा०।पं० चू०। च 'लोगट्टिइ' शब्दे वक्ष्यते) करणे घञ्। जीवनोपाये, 'जीव' णिच अच्। | जीवकाय पुं० (जीवकाय) जीवनं जीवो ज्ञानाऽऽधुपयोगस्त त्प्रधानः वृक्षभेदे, वाच० / बृहस्पतौ, तद्देवताके पुष्पनक्षत्रे च। स्था० 2 ठा०१ | कायो जीवकायाः। भ०७ श०१ उ० / जीवराशी, सूत्रा० /
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________________ जीवकाय 1547- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवट्ठाण जीवकायस्वरूपनिरूपणार्थमाहपुढवीजीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाऽगणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुक्खा सवीयगा // 7 // (पुढवीजीवा इत्यादि) पृथिव्येव पृथिव्याश्रिता वा जीवाः, ते च प्रत्येकशरीरत्वात्पृथक् प्रत्येकं सत्त्वा जन्तवोऽवगन्तव्याः। तथा आपश्च जीवाः / एवमग्निकायाश्च, तथाऽपरे वायुजीवाः / तदेवं चतुर्महाभूत- | समाश्रिताः सत्त्वाः प्रत्येक शारीरिणोऽवगन्तव्याः। एत एव पृथिव्यप्तेजोवायुसमाश्रिताः सत्त्वाः प्रत्येकशरीरिणो, वक्ष्यमाणवनस्पतेन्तु साधारणासाधारणशरीरत्वेनापृथक्त्व-मप्यस्तीत्यस्यार्थस्य दर्शनाय पुनः पृथक्सत्त्वग्रहणमिति / वनस्पतिकावस्तु यः सूक्ष्मः सः सर्वोऽपि निगोदरूपः / साधारणबादरस्तु साधारणोऽसाधारणश्चेति / तत्र प्रत्येकशारीरिणोऽसाधारणस्य कतिचि-द्वेदान्निर्दिदिक्षुराह - तत्रा तृणीनि दर्भवीरणाऽऽदीनि, वृक्षाश्चूता शोकाऽऽदयः, सह बीजैः शालिगोधूमाऽऽदिभिर्वर्तन्त इति सबीजकाः / एते सर्वेऽपि वनस्पतिकायाः सत्त्वा अवगन्तव्याः / अनेन च बौद्धाऽऽदिमतनिरासः कृतोऽवगन्तव्य इति / एतेषां च पृथिव्यादीनां जीवानां जीवत्वेन प्रसिद्धिस्वरूपनिरूपणमाचारे प्रथमाध्ययने शास्त्रपरिज्ञाऽऽख्ये न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते। षष्ठजीवनिकायप्रतिपादनायाऽऽह - अहावरा तसा पाणा, एवं छक्कायआहिया। एतावए जीवकाए, णवरे कोइ विजई।। (अहावरेत्यादि) तत्रा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय एके न्द्रियाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तकभेदेन प्रत्येकं चतुर्विधाः। अथानन्तरमपरेऽन्ये असन्तीति त्रसाः, द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियाः कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्याऽऽदयः। तत्रा द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः प्रत्येक पर्याप्तकापर्याप्तकनेदात्षड्विधाः / पञ्चेन्द्रियास्तु संज्ञयसंज्ञिपर्याप्तकपर्याप्तभेदाचतुर्विधाः। तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या चतुर्दशभूतग्रामाऽऽत्मकतया व्याख्यातास्तीर्थकरगणधराऽऽदिभिरेतातनेव तद्भेदाऽऽत्मक एव, संक्षेपतो जीवनिकायो जीवराशिर्भवत्यण्डजोदिजसंस्वेदजाऽऽदेरौवान्तर्भावान्नापरो जीवराशिर्विद्यते कश्चिदिति। सूत्रा०१ श्रु०११ अ०। जीवकिरिया स्त्री० (जीवक्रिया) जीवस्य क्रिया व्यापारी जीवक्रिया / सामान्यक्रियायाम्, स्था० / "जीवकिरिया दुविहा पण्णता / तं जहा–सम्मत्तकिरिया चेव, मिच्छत्तकिरिया चेव।" स्था० २टा०२ उ०॥ जीवगराय पु० (जीवकराज) नेमिजिनसमकालिके स्वनामख्याते राजनि, ति०। जीवग्गाह अव्य० (जीवग्राह) जीवतो ग्रहणे, "जीवग्गाहं गिण्हंति।" जीवतीति जीवस्तं जीवं जीवन्तं गृह्णाति। ज्ञा०१ श्रु०२ अ०॥ जीवधणपुं०(जीवधन) जीवाश्च तेघनाश्च शुषिराऽऽपूरणाद् जीवघनाः / आ० म० द्वि० / अन्तररहितत्वेन जीवप्रदेशमयेषु, सिद्धलक्षणमधिकृत्य - ''अरूविणे जीवघणा' जीवाश्च ते धना अन्तररहितत्वेन जीवप्रदेशमयाः / उत्त० 36 अ०। जीव एवघनो मूर्त्तिः सैन्धवशिलाशकल इव यस्य। हिरण्यगर्भे , वाच०। जीवघाय पुं० (जीवघात) प्राणातिपाते, आव०६ अ०। जीवजढ त्रि० (जीवजह) जीववर्जिते, नि० चू० 1 उ० / जीवट्ठाण न० (जीवस्थान) 6 त० / मर्मणि, वाच०। जीवन्ति यथायोग प्राणान् धारयन्तीति जीवाः प्राणिनः शरीरभृत इति पर्यायाः / तेषा जीवानां स्थानानि सूक्ष्मापर्याप्तैकेन्द्रियत्वाऽऽदयोऽवान्तरविशेषास्तिछन्ति जीवा एषु इति कृत्वा जीवस्थानानि। जीवानां सूक्ष्मापर्याप्तकेन्द्रियत्वाऽऽदिकेऽवान्तरवि शेषे, कर्म०। अथ जीवस्थानप्रतिपादकां गाथामाह - नमिय जिणं जियमगण - गुणठाणुवओगजोगलेसाओ। बंधऽप्पबहुभावे, संखिजाई किमवि युच्छं / / 1 / / जिनं नत्वा जीवस्थानाऽऽदि वक्ष्य इति संबन्धः / (कर्म०) जीवमार्गणागुणस्थानाऽऽदि वक्ष्ये, इह स्थानशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् जीवस्थानानि मार्गणास्थानानि गुणस्थानानि उपयोगश्च योगश्च लेश्याश्चेति द्वन्द्वे द्वितीयाशस् / (कर्म०) यद्वा-बन्ध इति पदैकदेशेऽपि 'भामा' सत्यभामेतिन्यायेन पदप्रयोगदर्शनाद्बन्धहेतवो मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगरूपा वक्ष्यमाणा गृह्यन्ते (अप्पबहु त्ति) भावप्रधानत्वान्निदेशस्य अल्पबहुत्वं, गत्यादिरूपमार्गणास्थानाऽऽदीनां परस्परं स्तोकभूयस्त्वम्। (भाव त्ति) जीवाजीवानां तेन तेन रूपेण भवनानि परिणमनानि, भावा औपशमिकाऽऽदयः, ततो बन्धचाल्पबहु त्वं च भावाश्चेति द्वन्द्वे द्वितीयीबहुवचनं शस् / सूत्रो च - "अप्पबहू'इत्यत्रा दीर्घत्वं "दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ'' ||8/1 / 4 / इति प्राकृतसूत्रोण / (संखिआइत्ति) संख्यायते चतुःपल्यादिप्ररूपणवा परिमीयत इति संख्येयम्। आदिशब्दादसंख्येयाऽनन्तकपरिग्रहः। तत एवं जीवस्थानाऽऽदिकमनन्तकपर्यवसानं द्वारकलापम्। अत्र वक्ष्ये इत्यनेनाभिधेयमाह। कथ वक्ष्य इत्याह (किमवित्ति) किमपि किञ्चित् स्वल्पं न विस्तरवत्। दुष्पमानुभावेनापचीयमान-मेधाऽयुर्बलाऽऽदिगुणानामैदयुगीनजनानां विस्तराभिधाने सत्युपकारासंभवात्तदुपकारार्थं चैप शास्त्रऽऽरम्भप्रयासः। एतेन संक्षिप्तरुचिसत्त्वानाश्रित्य प्रयोजनमाचष्ट। संबन्धस्त्वर्थाऽऽपत्तिगम्यः स चोपायोपेयलक्षणः साध्यसाधनलक्षणो, गुरुपर्वक्रमलक्षणो वा स्वयमभ्यूहाः / इह च मार्गणास्थानगुणस्थानाऽऽदयः सर्वे पदार्था न जीवपदार्थमन्तरेण विचारयितुं शक्यन्त इति प्रथमं जीवस्थानग्रहण 1 / जीवाश्चप्रपञ्चतोनिरूप्यमाणागत्यादिमार्गणास्थानैरेव निरूपयितुं शक्यन्त इतितदनन्तरंमार्गणास्थानग्रहणम् / तेषुचमार्गणास्थानेषुवर्तमाना जीवा नकदाचिदपि मिथ्यादृष्ट्याद्यन्यतमगुणस्थानकविकला भवन्तीतिज्ञापनाय मार्गणास्थानकानन्तर गुणस्थानग्रहणम् 3 / अमूनि च गुणस्थानकानि परिणामशुझ्यशुद्धिप्रकर्षापकर्षरूपाण्युपयो गवतामेवोपपद्यन्ते, नान्येषामाकाशाऽऽदीना, तेषां ज्ञानाऽऽदिरूपपरिणामरहितत्वा दिति प्रतिपत्त्यर्थ गुणस्थानकग्रहणानन्तरमुपयोगग्रहणम् 4 / उपयोगवन्तश्च मनोवाकायचेष्टासु वर्तमाना नियमतः कर्मसंबन्धभाजो भवन्ति / तथा चाऽऽगमः- "जावणं एस जीवे एयइ वेयइ चलइफंदइ घट्टइ खुब्भइ तंत भावे परिणमइ, ताव णं अट्टविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एकविहबंधए वा नो ण अबंधए' इति ज्ञापनार्थमुपयोगग्रहणानन्तर योग
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________________ जीवट्ठाण 1548 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवट्ठाण ग्रहणम् 5 / योगवशाचोपात्तस्यापि कर्मणो यावन्न कृष्णाऽऽद्यन्यत- पर्याप्तिामपुद्गलोपवयजः पुद्गलग्रहणपरिणमनहतुः शक्तिविशेषः। साच मलेश्यापरिणामो जायते, तावन्न तस्य स्थितिपाकावशेषो भवति, विषयभेदात्षोढाआहारपर्याप्तिः, शरीरपर्याप्तः, इन्द्रियपर्याप्तिः उच्छ्वा"स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण'' इति वचनप्रामाण्यात्। सपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिः, मनः पर्याप्तिश्चेति। तव यया बाह्यमाहार-मादाय ततो योगवशादुपात्तस्य कर्मणो लेश्याविशेषतः / स्थितिपाकविशेषो खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः, यया रसीभूतमाहारं भवतीति प्रतिपत्तये योगानन्तरं लेश्याग्रहणम् 6 / लेश्यावन्तश्च रसासृग्मांसभेदोऽस्थिममजशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा यथायोगैर्बन्धहेतुभिः कर्मबन्धोदयोदीरणासत्ताः प्रकुर्वन्तीति ज्ञापनाय शरीरपर्याप्तिः, यया धातुरूपतया परिणमित माहारमिन्द्रियरूपतया लेश्यानन्तरं बन्धग्रहणम्७।बन्धोदयोऽऽदियुक्ताश्च जीवा मार्गणास्था- परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः, यया पुनरूच्छ्वासप्रायोग्यवर्गणानाऽऽद्याश्रित्य नियमतः परस्परमल्पे वा भवेयुर्बहवो वेति निवेदनार्थ दलिकमादायोच्छ्वासरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा बन्धानन्तरमल्पबहुत्वग्रहणम् / ते च जीवा मार्गणास्थानाऽऽ दिष्वल्पे उच्छवासपर्याप्तिः, यया तु भाषाप्रायोग्यवर्गणाद्रव्यं गृहीत्वा भाषात्वेन वा बहवो वा भवन्तोऽवश्यं षण्णा मौपशमिकाऽऽदिना भाषानां परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः यया पुनर्मनोयोग्यकेषुचिद्भावेषु वर्तन्त इति प्रकटनार्थमल्पबहुत्वानन्तरं भावग्रहणम् / / वर्गणादलिकं गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा मनः औपशमिकाऽऽदिभाववतांच जीवानामल्पयत्वं नियमतः संख्येयकेना- पर्याप्तिः। एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणांद्वीन्द्रियाऽऽदीनां संज्ञिनां च चतुः संख्येय के नानन्तके न वा निरूपणीयमिति भावग्रहणानन्तरं पञ्चषट्संख्या भवन्ति। यदभाणि - संख्येयकाऽऽदिग्रहणमिति 10 / यद्यपि चेह सामान्येनोक्तं जीवस्थाना:- "आहारसरीरिंदिय-पजत्ती आणपाणभासमणे। ऽदि वक्ष्ये तथा ध्येवं विशेषतो द्रष्टव्यम् / जीवस्थानकेषु गुणस्थान- चत्तारि पंच छप्पि य, एगिदियविगलसन्नीण" ||1|| कयोगोपयोग लेश्या-कर्मबन्धोदयोदीरणासत्ता वक्ष्ये / कर्म०। पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः "अभ्राऽऽदिभ्यः "7 / 2146 / इति मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानाऽऽदीनि - मत्वर्थीयेऽप्प्रत्ययः, स्वार्थिककप्रत्ययोपादनात्पर्याप्तकाः / ये पुनः "चउदसजियठाणेसु चउदस गुणठाणगाणि जोगाय। स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्तकाः। ते च द्विधालब्ध्या, उवओगलेसबंधुद-ओदीरणासंतअट्टपए' / कर्म० / करणैश्च / तत्रायेऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते, न पुनः स्वयोग्यपर्याप्ताः तत्रा यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात् प्रथमं तावजीवस्थानानि निरूपयन्नाह | सर्वा अपि समर्थ यन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः। ये पुनः करणानि शरीरेन्द्रिया ऽऽदीनि न तावन्निवर्तयन्ति, अथवा अवश्यं पुरस्तान्निवर्तयिष्यन्ति ते इह सुहुमवायरेगिं-दि-वि-ति चउ असन्निसन्निपंचिंदी। करणापर्याप्तकाः। इह चैवमागमः-"लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहाअपजत्तापज्जत्ता, कमेण चउदस जियट्ठाणा // 2 // रशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेध नियन्ते, नागि, यस्मादागभिभवाइहास्मिन जगति अनेन क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि प्राग्निरूपित- युर्बध्वा मिपन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाऽऽहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिशब्दाथीनि भवन्ति / केन क्रमेणेति चेदित्याह-सूक्ष्मबादरैकेन्द्रिय- पर्याप्तानामेव बध्यत इति / तदेवं निरूपितानि जीवस्थानानि / कम० द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः, एते च सर्वेऽपि प्रत्येकं पर्याप्तका 4 कर्म० / पं० सं०। (जीवस्थानेषु 14 गुणस्थानानि 'गुणट्ठाण' शब्दे अपर्याप्तकाश्चोता / तौकं स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः तृतीयभागे 67 पृष्ठे उक्तानि ) साम्प्रतं योगा यक्तुभवसरप्राप्तास्ते च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः / ते च प्रत्येक द्वेधासूक्ष्माः बादराश्च / पञ्चदशा तद्यथा-सत्यवाग्योगः, असत्यवाग्योगः, सत्यमृषावाग्योगः, सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्माः सकललोकव्यापिनो, बादरनामकर्मोदया- असत्यामृषावागयोगः। द्वादराः, ते च लोकप्रतिनियतदेशवर्तिनः / द्वित्रिचतुरसज्ञिसंज्ञिप तत्स्वरूपं चेदम्ञ्चेन्द्रिया इति / इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं योगाद्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाः "सव्वा हिया सतमिह, संतो मुणयो गुणा पयत्था वा। चतुरिन्द्रिया असंज्ञिसंज्ञिभेद भिन्नाश्च पञ्चेन्द्रियाः। तत्रा द्वे स्पर्शनरस- तव्विवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा / / 1 / / नलक्षणे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः कृमिपूतरकचन्दनशष्वकपर्दज- अणहिगया जा तीसु वि, सटुच्चिय केवलोअसचमुसा''। एवं लौकाप्रभृतयः / त्रीणि स्पर्शनरसरनघ्राणरूपाणिन्द्रियाणि येषां ते मनोयोगोऽपि चतुर्वा द्रष्टव्यः / काययोगः सप्तधाऔदारिकम्, औदारिकत्रीन्द्रियाः, कुन्थुमत्कुणयू कागर्दभेन्द्रगोपकमत्कोटकाऽऽदयः / चत्वारि | मिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमित्रम्, आहारकम् आहारकमिश्र, कार्मण च / स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्लक्षणानिन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः, | तत्रौदारिक काययोगस्तिर्यड्मनुष्ययोः, तयोरेवापर्याप्तरौदारिकभ्रमरमक्षिकामश कवृश्चिकाऽऽदयः पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः मिश्रकाययोगः, वैक्रिय-काययोगो देवनारकयोः तिर्यड् मनुष्ययोर्वा, श्रोत्रालक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः मत्स्यमकरेभ- | वैक्रियलब्धिमतोः वैक्रियमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तयोदें वनारकयोस्तियङ् कलभसारसहंसनरसुरनारकाऽऽदयः। ते च द्विधासंज्ञिनोऽसंज्ञिन श्च। मनुष्योर्वा, वैक्रियस्यारम्भकाले परित्यागकाले च आहारकं चतुर्दशपूर्वविदः तत्रा संज्ञान संज्ञा, भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्या लोचनम् / आहारकमिश्रकाययोगः, आहारकस्य प्रारम्भसमये परित्यागकाले च "उपसर्गादातः " / 5 / 3 / 110 / इत्यङ्प्रत्ययः। सा विद्यते येषां तेसंज्ञिनः, / कार्मणकाययोगोऽष्टप्रकारकर्मविकार रूपशरीरचेष्टास्वरूपोऽन्तरालगताविशिष्टस्मरणा-ऽऽदिरूपमनोविज्ञानभाज इति यावत् / तद्विपरीता | वुत्पत्तिप्रथमसमये केवलिसमुद्घातावस्थायां च। असंज्ञिनो विशिष्टस्मरणाऽऽदिरूपमनो विज्ञानविकलाइत्यर्थः / एते च तानेतान योगान् जीवस्थानकेषु व्यचिख्यासुराह - सूक्ष्मैकेन्द्रियाऽऽदयः प्रत्येक द्विधापर्याप्तकाः, अपर्याप्तकाश्च / / अपजत्तछकि कम्मुर-लमीसजोगा अपजसन्नीसु।
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________________ जीवट्ठाण 1546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवट्ठाण ते सविउव्वमीस एसुं, तणुपज्जेसू उरलमन्ने // 4 // अपर्याप्तानां सूक्ष्मबादरद्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणा षट्कमपर्याप्तषट्कं तस्मिन् अपर्याप्तषट्के, संज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तवर्जितेषु षट्सु अपर्याप्तेषु योगीभवतः। द्विवचनस्य बहुवचनं प्राकृतत्वात्। यथा- "हत्था पाया" इत्यादौ / कौ योगी ? इति। आह-कार्मणौदारिकामश्री; तत्रा कार्मणकाययोगोऽपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च, शेषकालं त्वौदारिक मिश्रकाययोगः / (अपजसन्नीसु। ते अविउव्वमीस त्ति) अपर्याप्त संज्ञिषु संज्ञयपर्याप्तजीवेषु तौ पूर्वोक्ता कार्मणौदारिक मिश्रकाययोगी भवनः। किं केवलौ? नेत्याहसह वैक्रियमिश्रेण वर्तते इति सवैक्रियमिश्री। तथा चापर्याप्तसंज्ञिनि त्रयो योगा भवन्ति कार्मणकाययोगः, औदारिकमिश्रकाययोगः, वैक्रियमिश्रकाययोगश्च / तत्र कार्मणकाययोगोऽपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च, शेषकालं तु तिर्यड्मनुष्योरौदारिकमिश्रकाययोगः / संज्ञिनोऽपर्याप्तस्य देवनारकेषु पुनरुत्पद्यमानस्य वैक्रियमिश्र-काययोगो द्रष्टव्यः, न शेषस्य असंभवात् / मिश्रता चात्रा कार्मणेन सह द्रष्टव्याः। अौव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह-एषु पूर्वनिर्दिष्टषु शेषपर्याप्त्यपेक्षया पर्याप्तषु, तनुपर्याप्तषु, शरीरपर्याप्तेष्वित्यर्थः / औदारिकमौदारिककाययोगम्, अन्ये केचिदाचार्याः शीलाकाऽऽदयः, प्रतिपादयन्तीति शेषः / शरीरपर्याप्त्या हि परिसमाप्तिवत्या किल तेषां शरीरं परिपूर्ण निष्पन्नमिति कृत्वा / तथा च तद् ग्रन्थ:- औदारिककाययोगस्तिर्यड्मनुष्ययोः शरीरपर्याप्त रूज़, तदारतस्तु मिश्र इति। नन्वनया युक्त्या संज्ञिनोऽपर्याप्तस्य देवनारकेषूत्पद्यमानस्य तनुपर्याप्तया पर्याप्तस्य वैक्रियमपि शरीरमुपयद्यत एव, किमिह तन्त्रोक्तमिति ? उच्यतेउपलक्षणत्वात् एतदपि द्रष्टव्यमित्यदोषः / यद्वा-इहापर्याप्ता लब्ध्यपर्याप्तका एवान्तर्मुहुर्तायुषो द्रष्टव्याः / ते च तिर्यङ्ग मनुष्या एव घटन्ते, तेषामेवान्तर्मुहुरनाऽऽयुष्कत्वात् / लब्ध्यपर्याप्तका अपि च जघन्यतोऽपीन्द्रियपर्याप्तौ परित्मप्तायामेव म्रियन्ते, नागित्युक्तमागमाभिप्रायेण / ततस्तेषां लब्ध्यपर्याप्तकानां शरीरपर्याप्तया पर्याप्तानामौदारिक मेव शरीरमुपपद्यते, न वैक्रियमित्यदोषः / किं चान्यमतकथनेनायमभिप्रायः सूच्यते-यद्यपि तेषा शरीरपर्याप्तिः समजनिष्ट, तथापि इन्द्रियोच्छवासाऽऽदीनामधाप्यनिष्पन्नत्वेन शरीरस्यासंपूर्णत्वात् / अत एव कार्मणस्याप्यद्यापि व्याप्रियमाणत्वाचौदा रिकमिश्रमेव तेषां युक्त्या घटमानमिति // 4|| सव्वे सन्निपजत्ते, उरलं सुहुमे सभास तं चउसु / बायरि सविउव्विदुर्ग, पजसन्निसु वार उवओगा॥५॥ सर्वे पञ्चदशापि योगा भवन्ति / तथाहि-चतुर्दा मनोयोगः, चतुर्दा वाग्योगः, सप्तधा काययोगः क्व? इति।आह-संज्ञिप-यप्ति संज्ञीचासो पर्याप्तः संज्ञिपर्याप्तस्तस्मिन् संज्ञिपर्याप्त / नन्वौदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रकार्मणकाय योगाः कथं संज्ञिपर्याप्तस्य घटन्ते, तेषामपर्याप्तावस्थाभावित्वात् ? उच्यते- वैक्रियमिश्रं संयताऽऽदेः वैक्रियं प्रारभमाणस्य प्राप्यते, औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ तु केवलिनः समुद्घातावस्थायाम्। यदाह भगवानुमास्वातिवाचकवर:"औदारिकप्रयोक्ता, प्रथमाष्टमसमयोरसाविष्टः। मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठयद्वितीयेषु / / 1 / / कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च / / " इति। पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिये औदारिककाययोगो भवति, पर्याप्तशब्दश्व "सव्वे सन्निपज्जते इति पदाद् डमरुकमणिन्यायेन सर्वत्र याज्यः / (चउसु त्ति) चतुषु द्वीन्द्रियसीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु तदेवौदारिकं भवति / किं केवल ? नेत्याह-सभाषं स भाषया असत्यामृषास्वरूपया, "विगलेसु असञ्चमांसत्ति 'वचनात् वर्तते इति सभाषम्। कोऽर्थः? -विकलत्रिकासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तषु औदारिककाययोगः सत्यामृषाभाषालक्षणौ द्वौ योगी इत्यर्थः / तदित्यनुवर्तते, तदौदारिक सह वैक्रियद्विकेन वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणेन वर्तते इति सवैक्रियद्विक बादरैकेन्द्रियपर्याप्त भवति / अयमर्थःबादरैकेन्द्रिये पर्याप्त औदारिककाययोग वैक्रियकाययोगवैक्रियमिश्रकाययोगलक्षणाास्त्रयो योगा भवन्ति / तत्रौदारिककाययोगः पृथिव्यम्बुतेजोवनपस्तीनां, वैक्रियद्विकं तु वायुकायस्येति प्ररूपिता जीवस्थानेषु योगाः / कर्म०४ कर्म०। एतेषु पुनर्जीवस्थानेषु योगानभिधित्सुराहविगलासन्नीपज्ज -- त्तएसु लब्भंति कायवइजोगा। सव्वे वि सन्निपञ्ज-त्तएसुसेसेसु काओगो॥६॥ इह पदैकदेशे पदसमुदायोपचारा विकला इत्युक्ते विकलेन्द्रियग्रहणम् / एवमन्यत्रापि यथायोग परिभावनीयम / तत्रा विकलेन्द्रियेषुद्वित्रिचतुरिन्द्रियरूपेषु, असंज्ञिकेषु च पञ्चेन्द्रियेषु, पर्याप्तकेषु कायवाग्योगो लभ्येते। तत्र काययोगो औदारिकशरीरलक्षणो द्रष्टव्यः, वाग्योगश्चासत्यामृषारूपः, "विगलेसु असच्चमोसे च।" इति वचनात् / सर्वेऽपि च संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तषु सप्रभेदाः कायवाङ्मनोयोगाः पञ्चदशापि योगास्तेषु भवन्तीत्यर्थः / तत्रा कर्मणौदारिकमिश्री केवलिसमुद्घातावस्थायाम्। उक्तं च - "मिश्रौदारिकयोगी, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु / कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थक पञ्चमे तृतीयेच' / / 1 / / इति। आहारकाहारकमिश्रावाहारकर्तुर्वोक्रियमिश्री च तत्कर्तुः शेषास्त्वौदारिकाऽऽदयः सुप्रतीताः तथा शेषेषु पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियेषु, अपर्याप्तेषु च द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिषु काययोग एवैको भवति॥६॥ तमेव स्पष्टयन्नाहलद्धीए करणेहि य, ओरालिय मीसगो अपञ्जते। पञ्जत्ते ओरालो, वेउव्विय मीसगो वा वि।।७।। लब्ध्या, करणैश्चापयप्ति औदारिकमिश्रः काययोगो भवति / इदं च तिर्यइमनुष्यानधिकृत्योक्तमक्सेयम्। तेषामेव हि लब्ध्या, करणैश्चेति विशेषणद्वयसंभवः,न देवनारकाणा, ते हि करणापर्याप्ता एव संभवन्ति, नलब्ध्यपर्याप्तिकाः, ततस्तेषामपर्याप्तावस्थायां वैक्रियमिश्रः काययोगो वेदितव्यः / सप्तानामपि चापर्याप्तानामपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च कार्मणकाय योगः। तथा पर्याप्त औदारिको, वैक्रियो, वैक्रियमिश्रश्च / तत्रौदा रिकस्तिर्यड्मनुष्याणां, वैक्रियो देवनारकाणां वैक्रियवैक्रियमिश्री पर्याप्तबादरवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां वैक्रियलब्धिमताम् / अपिशब्दादाहारकाहारकमिऔ चतुर्दशपूर्व विदः, इह केचन शरीरपर्याप्तरवीक् नरतिरश्चामौदारिकमिश्र, देवनारकाणां वैक्रियमिश्र, शरीरपर्याप्तरूवं पुनः शेषपर्याप्तिभिरपर्याप्तानामप्यौदारिकं वैक्रियं चेच्छन्ति, तन्मतेनेयमन्यकर्तृकी गाथा - कम्मुरलदुगमपज्जे, वेउव्विदुगं च सन्निलद्धिल्ले।
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________________ जीवट्ठाण 1550 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवट्ठाण प सुं उरलो चिय, वाए वेउव्वियदुग च ||8|| अपर्याप्त सूक्ष्माऽऽदौ कार्मणमौदारिकद्विकं च औदारिको दारिकमिअंलक्षणं, भावना पातनिकाऽनुसारेण वेदितव्या / संज्ञिनि पुनः "लद्धिल्ले" इति वैक्रियलब्धिमति देवादावपर्याप्त वैक्रियांद्विकम् वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणं, चशब्दात् कार्मणं च द्रष्टव्यम् / तथा पर्याप्तषु सूक्ष्माऽऽदेशब्दादौदारिक एव काययोगः, उपलक्षणमेतत्-तेन देवनारकेषु वैक्रिय एव / तथा वाते वायुकायिके पर्याप्त वैक्रियद्विकम् वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणं, चशब्दस्यानुक्तसमुच्चायकत्वादौदारिकं च वैक्रियद्विकमपि च वातकायस्य कस्य चिदेव द्रष्टव्यम्, न तु सर्वस्य / यत उक्त प्रज्ञापनाचूर्णी -'तिण्हं ताव रासीणं वेउव्वियलद्धी चेव नस्थि, वायरपजुत्ताणं पि संखेजइभागस्स ति" / अत्र (तिण्हं रासीण ति) त्रायाणां पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मापर्याप्ताबादररूपाणां राशीनाम्। पं० सं०१ द्वार। कर्म० / साम्वतमुपयोगः प्ररूपणावसरप्रप्ताः, ते च द्वादशा तद्यथामतिज्ञानश्रुतज्ञानाऽवधिज्ञानमनः पर्यवज्ञानकेवलज्ञानलक्षणानि पञ्च ज्ञानानि / मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूलदर्शनरूपाणि त्रीण्यज्ञानानि / चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दशनाऽवविदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि चत्वारि दर्शनानीत्येतानुपयोगान् जीवस्थानकेषु दिदर्शयिषुराह - (पजसन्निसु वार उवओग त्ति) पज्जशब्देन पर्याप्त उच्यते / ततः पर्याप्तश्च ते संज्ञितश्च पर्यप्तसंज्ञिनः, तेषु पर्याप्तसंजिषु द्वादश द्वादशसंख्या उपयोगा भवन्ति। तंच क्रमेणैव नतुयुगवत्, उपयोगानां तथा जीवस्यवभावतो योगाविद्यासंभवात्। उक्त च- "समए दाणुवओगा।' श्रीभद्रबाहुस्वभियादा अप्याहु :'नाणम्मि दसणम्मि य, एतो एगयरम्मि उवउत्ता। सव्वस्स केवलिस्स वि, जुगवं दो नत्थि उवओगा' / / इति / / 5 / / पजचउरिंदियसन्निसु, दुदंस दुअनाण दससुचक्खु विणा। सन्निअपजे मणना-णचक्खुकेवलदुगविहूणा ||6|| चतुरिन्द्रियाश्च असांज्ञनश्च चतुरिन्द्रियासंज्ञिनः, पर्याप्ताश्च ते चतुरिन्द्रियासंज्ञिनश्च,तेषु पर्याप्त चतुरिन्द्रियपासंज्ञिषु, चत्वार उपयोगा भवन्ति। के ते? इत्याह-दुदंस दुअनाण त्ति दर्शो दर्शन, द्वयोर्दर्शयोः समाहारो द्विदर्शम्वक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनलक्षणम्, द्वयोरज्ञानयोः समाहारो व्यज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपम् / अयमर्थः- पर्यातचतुरिन्द्रियेषु पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु च मत्यज्ञानश्रुताज्ञानवक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दशनलक्षणाश्चत्वार उपयोगा भवन्ति / दशसु जीवस्थानकेषु पर्याप्तापार्याप्तसूक्ष्मवादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियाऽपर्याप्तपर्याप्तचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणेषु पूर्वोक्ताश्चत्वार उपयोगाश्चक्षुर्दर्शन विना भवन्ति / पूर्वाक्तदशजीवस्यानकेषु चक्षुर्दर्शनवर्जाअचक्षुर्दर्शनमत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणास्त्रय उपयोगा भवन्ति / न नु स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमसंभवाद्भवतु मतिरे के न्द्रियाणायत्तु श्रुतं तत्कथं संजाघटाति / भापालब्धिश्रोवेन्द्रियलब्धि मतो हि तुदपपद्यते, नान्यस्य। तदुक्तम् - ''भावसुर्य भासासो-यलद्धिणो जुज्जए न इयरस्स। भासाभिसुहस्स सुयं, से ऊण व जं हविजा हि / / 1 / / इति? उच्यते-इह तावदेकेन्द्रियाणामाहाराऽऽदिसंज्ञा विद्यन्ते, तथा सूत्रोऽभि | यानात्, संज्ञा चाभिलाप उच्यते / यदवादि परोपक रभूरिभिः श्रीहरिभद्रसूरिभिर्मूलाऽऽवश्यकटीकायाम्--आहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयप्रभवः खल्वात्मपरिणामविशेष इति / अभिलाषश्चममैवरूपं वस्तु पुष्टिकारि, तादीद्रमवाप्यते ततः समीचीन भवतीत्येवं शब्दार्थोल्लखानुबद्धः स्वपुष्टिनिमित्तभूतप्रतिनियतवस्तुप्राप्तयध्यवसायरूपः / स च श्रुतमेव शब्दार्थाऽऽलोचनानुसारित्वात्, श्रुतस्यैवेतल्ल क्षणत्वात्। यदवादिषुर्दलितप्रवादिकुवादिश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपादाः''इंदियमणोनिमित्त, विन्नाणं जं सुयानुसारेणं / निययत्थुत्तिसमन्थ, त भावसुयं मइंसेसं // 1 // (सुयाणुसारेणं ति) शब्दार्थाऽऽलाचनानुसारेण केवलमेकेन्द्रियाणामव्यक्त एव कश्चनाप्यनिर्वचनीयः शब्दार्थील्लुखो द्रष्टव्यः / अन्यथाऽऽहाराऽऽदिसंज्ञाऽनुपपत्तेः / यदप्युक्तम् भाषालब्धिश्रोटोन्द्रियलब्धिविकलत्वादेकेन्द्रियाणां श्रुतमनुपपन्नमिति। तदप्यसमीक्षिताभिधानम् / तथाहि-बकुलाऽऽदेः स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तद्रव्येन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि किमपि सूक्ष्म भावेन्द्रियपञ्चकविज्ञानमभ्युपगम्यते / "पंचिंदिय व्व बउलो, नरु व्व सव्वविसओवलंभाओ।" इत्यादिवचन प्रामाणयात् / तथा भाषाश्रोत्रोन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्म श्रुतमपि भविष्यति, अन्यथाऽऽहाराऽऽदिसंज्ञ ऽनुपपत्तेः; यदाहुः प्रशस्यभाष्यसस्यकाश्यपीकल्पा, श्रीजिन भद्रगणिक्षमाश्रमणाः-''जह सुहम भाविदिय-नाणं दबिंदियाण विरहे वि / दव्वसुया भावम्मि व, भावसुयं पत्थिवाईण ||1|' इति / संज्ञी चासौ अपर्याप्तः संज्ञयपर्याप्तन्तस्मिन् संज्यपर्याप्त मनःपर्यवज्ञानचक्षुर्दर्शनकेवलज्ञान के वलदर्शनलक्षणविक विहीनाः शेषा मतिज्ञान श्रुतज्ञाननावधिज्ञानमत्यज्ञानश्रुता ज्ञानविभङ्गानाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनारूपा अष्ट वुपयोगा भवन्ति / कर्म० 4 कर्म० / जीवस्थानेषू योगानीभदधति - मइसुयअन्नाणाऽव-खुदेसणेक्कारसेसु ठाणेसु। पज्जत्तचउपणिंदसु, संचक्खुसन्नीसु वारस वि||८|| ऐकादशसु पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियाऽपर्याप्तवतुरिन्द्रियासांज्ञसांज्ञषुमत्यज्ञानश्रुताज्ञानचक्षुर्दर्शनाख्या-स्त्रय उपयोगा भवन्ति / अपर्याप्तकाश्चेह लब्ध्यपर्याप्तका वेदितव्याः / अन्यथा करणापर्याप्तकेषु चतुरिन्द्रियाऽऽदिष्विन्द्रियपर्याप्तौ सत्या चक्षुर्दर्शनमपि प्राप्यते, मूलटीकायामाचायेणाभ्य, ज्ञानात् / संज्ञिनि च करणापर्याप्त मतिश्रुतावविज्ञानविभङ्ग ज्ञानावावधिदर्शनान्यपि तथा / (पज्ज त्त वउपणिंदिसु त्ति) पर्याप्तेषु चतुरिन्द्रियेषु असंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु च सचक्षुपः सचक्षु दर्शनाः पूवोक्तास्त्रय उपयोगा भवन्ति।संज्ञिषु चपर्याप्तषुद्वादशापि / पं० सं०१ द्वार। साम्प्रतं जीवस्थानेष्वेव लेश्याः प्रतिपिपादयिषुराहसन्निदुगि छलेस अपज-तबायरे पढम चउति सेसेसु / संज्ञिनो द्विकमपर्याप्तपर्याप्तलक्षणं संज्ञिद्विकं, तस्मिन् संज्ञिन्यपर्याप्त, संज्ञिनि पर्याप्ते चेत्यर्थः / षट् लेश्याः कृष्णनीलका पोततेजःपद्मशुक्लक्षणा भवन्ति / अपर्याप्तबादरे प्रथमाश्चतस्रः कृष्णनालकापोततेजोरूपा भवन्ति / तेजोलेश्या कथमस्मिन्नवाप्यत इति चेत ? उच्यते यदा "पुढवीआउवणस्सइगब्भे पजत्तसंखजीवेसु! सग्गचुयाणं वासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा'' ||1|| इति वचनात् कश्चनापि देवः स्वर्गलोकाध्युतः सन् बादरैकेन्द्रियतया भूदकतरुषु मध्ये समुप्तद्यते, तदा तस्य घण्टालालान्यायेन सा प्राप्यत इत्यदोषः / (ति से -)
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________________ जीवट्ठाण 1551 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवट्ठाण सेसुत्ति प्रथमा इत्यनुवर्तने-प्रथमास्तिस्रः कृष्णनीलकापोत-लक्षणाः, शेषेषु प्रागुक्तापर्याप्तपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तबाद-रैकेन्द्रिययवर्जितेषु अपर्याप्तपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वान्द्रियत्रीन्द्रिय वतुरिन्द्रियाऽसांज्ञपञ्चेन्द्रियपर्याप्तबादरैकेन्द्रियलक्षणष्वकाद शसु जीवस्थानेषु भवन्ति ताः नान्याः, तेषां सदवाशुभपरिणामत्वात्, शुभपरिणामरूपाश्च तेजालेश्याऽऽदयः। तदेवं जीवस्थानकेषु लेश्या अभिधाय साम्प्रतमेतेष्वेववन्धोदयोदीरणासचाऽऽख्य स्थानचतुष्टमभिधित्सूरासत्तऽट्ठबंधुदीरणे संतुदया अट्ट तेरससु / / 7 / / "सत्तऽहबंधु' इत्यादि। सप्त वा अष्टौ वा सप्ताष्टाः "सुज्वाथें संख्या संख्येये संख्यया बहुव्रीहिः" / 3 / 1 / 16 / इति (सि० हे०) सूत्रेण बहुव्रीहिसमासः। यथा-द्वित्रा इत्यादौ बन्धश्चोदीरणा च बन्धोदीरणे, सप्ताष्टानां बन्धोदीरणे सप्ताष्टबन्धोदीरणे, त्रयोदशसु जीवस्थानेषु संज्ञिपर्याप्तर्जितेषु शेषेषु भवतः। एतदुक्तं भवति-अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियाऽपर्याप्तबादरेकेन्द्रियपर्याप्तबादरैकेन्द्रियाऽपर्याप्तद्वीन्द्रियपर्याप्तद्वीन्द्रियाऽपर्याप्तत्रीन्द्रियपर्याप्तत्रीन्द्रियाऽपर्याप्तवतुरिन्द्रिय पर्याप्तचतुरिन्द्रियाऽपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तसज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपेषु त्रयोदशसु जीवस्थानेषु सप्तानामष्टानां वा बन्धः, सप्तानामष्टानां वा उदीरणा / तथाहयदाऽनुभूयमानभवायुपस्त्रिभागनवभागाऽऽदिरूपे शेषे सति परभवायबध्यते, तदाऽष्टानामपि कर्मणां बन्धः, शेषकालं त्वायुषो बन्धाभावात्सप्तानामेव बन्धः / तथा यदाऽनुभूयमानभवायुरुदयाऽऽवलिकाशेष भवति, तदा सप्तानामुदीरणा / अनुभूयमानभवायुषोऽनुदीरणात् आवलिकाशेषस्योदीरणाऽनहत्वात्। उदीरणा हि उदयाऽऽवालेकाबाहतिनीभ्यः स्थितिभ्यः सकाशात्कषायसहितेनासहितेन वा योगकरणेन दलिकमाकृष्योदयसमयप्रासदलिकेन सहानुभवनम् / तथा चोक्तं कर्मप्रवृतिचूर्णा- 'उदयावलियाबाहिरिल्लठेशहिता कसायसहियामहिएणं जोगकरणेणं दलियमाकड्डिय उदयपत्तदलिएणसमं अणुभवणमुदीरणा। ततः कथमावलिकागतस्योदीणा भवति? न च परभवाऽऽयुरस्तदोदीरणासंभवः, तस्योदयाभावात्, अनुदितस्य च उदीरणाऽनह - त्वात्। शेषकालं त्वष्टानामुदीरणा। सचोदयश्च प्राकृतत्वात् 'सन्तोदयाः, अष्टानामेव कर्मणा त्रयोदशषु जीवस्थानकेषु पूर्वेषु भवतः / तथाहिएतेषु ायो दशसु जीवस्थानके शु सर्वकालमष्टानामपि सत्ता, यतोऽटानाऽपि कर्मणा सत्ता उपशान्तमोहगुणस्थानकं यावदनुवर्ततं / एते च जीदा उत्कर्षता यथासंभवमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकवर्तिन एवति / एवमुदयोऽप्येतेषु जीवस्थानेष्यहिष्टानामेव कर्मणां द्रष्टव्यः / तथाहि-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं यावदष्टानामपि कर्मणामुदयोsवाप्यते // 7 // एतेषु जीवस्थानकेषूत्कर्षतोऽपि यथासंभवमविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानकसंभव इतिसत्तऽहछेगबंधा, संतुदया मत्त अट्ठ चत्तारि। सत्तऽ8 छ पंच दुर्ग, उदीरणा सन्निपज्जत्ते ||8|| संज्ञी चासौ पर्याप्तश्च सांज्ञपर्याप्तः, तस्मिन् संज्ञिपर्याप्ति, चत्वारो बन्धा भवन्ति : तद्यथा-सप्तानां प्रकृतीनां बन्ध एकः अष्टानां प्रकृतीना बन्धो द्वितीय, षण्णां प्रकृतीनांबन्धस्तृतीयः एकस्याः प्रकृतेबन्धश्चतुर्थों बन्धः / ताऽऽयुर्वजानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनांबन्धो जघन्येनान्तर्मुहूर्त यावदुत्कर्षेण च त्रयस्त्रिंशत्स गैरोपमाणि षणमासोनान्यन्तर्मुहूर्तोनपूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानि / / तथा आयुबन्धकाले तासामष्टानांबन्धो जघन्योत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तप्रमाणः / आयुषि बध्यमानेऽष्टानां प्रकृतीनां बन्धः प्राप्यते। आयुषश्च बन्धोऽन्तर्मुहुर्तमेव कालं भवति, नततोऽप्यधिकम्। तथैता एवाष्टावायुर्मोहनीयवर्जाः षट्। एतासांचजघन्येनैक समयंबन्धः / तथाहि-ज्ञानाऽऽवरण दर्शनाऽऽवरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायरूपाणां षण्णां प्रकृतीनां बन्धः सूक्ष्मसंपरायगुणस्थाने, ता चोपशमश्रेण्या कश्चिदेकं समय स्थित्वा, द्वितीयसमये भवक्षयेण दिवं गतः सन्नविरतो भवति / अविरतत्वे चावश्यं सप्तप्रकृतीनां बन्ध इति षण्णां बन्धो जघन्येनैकं समयं यावदुत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त, सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानस्यान्तर्मुहूर्तकत्वात्। तथा सप्तानां प्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदे सत्येकस्याः सातो नायरूपायाः प्रकृतेर्बन्धः। स च जघन्येनैक समयम्। एकसमयता चोपशम श्रेण्यामुपशान्तमोहगुणस्थाने प्राग्वद्भावनीयाः उत्कर्षण पुनर्देशोना पूर्वकोटिं यावत्। स चोत्कर्षतः कस्य वेदितव्य इति चेत? उच्यते यो गर्भवासे मासासप्तकमुषित्वाऽनन्तरं शीघ्रमेव योनिनिष्क्रमण जन्मना जातो वर्षाष्टकाचोर्द्ध संयम प्रतिपन्नः प्रतिपत्त्यनन्तरं च क्षपकोणमारुह्योत्पादितकेवलज्ञानदर्शनः, तस्य सयोगि-केवलिनो वेदितव्यः / अयं चात्र तात्पर्याथः-मिथ्यादृष्टयाद्य-प्रमत्तान्तेषु सप्तानामष्टानां वा बन्धः, आयुर्बन्धाभावात् अपूर्वकरणनिवृत्तिबादरयोश्च सप्तानां बन्धः, सूक्ष्मसंपराये षण्णां बन्धः, उपशान्तमोहाऽऽदिष्वेकस्याः प्रकृतबन्धः / तथा सच्चोदयश्च प्राकृतत्वात् सन्तोदयाः, ततः संशिपयाप्ते सत्तामाश्रित्य त्रीणि स्थानानि / तद्यथा-सप्त, अष्ट, चत्वारि / एवमुदयमप्याश्रित्य त्रीणि स्थानानि / तदयथा-सप्त, अष्ट, चत्वारि / तत्र सर्वप्रकृतिसमुदयोऽष्टौ, एतासां चाष्टानां सत्ताऽभव्यानधिकृत्यानाद्यपर्यवसाना, भव्यानधिकृत्यानादि सपर्यवसाना / तथा-मोहे क्षीणे सप्तानां सत्ता / सा च जघन्योत्कर्षणान्तर्मुहूर्तप्रमाणा / सा हि क्षीणमोहगुणस्थाने। तस्य च कालमानमन्तर्मुहूर्त्तमितिघातिकर्मचतुष्टयक्षयेण चतसृणां सत्ता / सा च जघन्येनान्तर्मुहूर्तप्रमाणा, उत्कर्षण पुनर्देशोनपूर्वकोटिमाना / तथा-सर्वप्रकृति समुदयोऽष्टौ, तासां चादयोऽभव्यानाश्रित्यानाद्यपर्यवसाना, मव्यानाश्रित्यानादिसपर्यवसानः / उपशान्तमोह-गुणस्थानकात्प्रतिपतितानाश्रित्य पुनः सादिसपर्यवसानः / स च जघन्येनान्तर्मुहूर्तप्रमाणः, उपशमश्रेणीतः पतितस्य पुनरप्यन्तर्मुहूर्तेन कस्याप्युपशमश्रेणिप्रतिपत्तेः / उत्कर्षेण तु देशोनापार्द्धपुद्गलपरावर्त / तथा-ता एवाष्टो मोहनीयवर्जाः सप्त, तासामुदयोजघन्येनैकं समयम्। तथाहि-मोहवर्जसप्तानां प्रकृतीनामुदय उपशान्तमोहे, क्षीणमोहे वा प्राप्यते। तत्र कश्चिदुपशान्तगुणस्थानके एक समयं स्थित्वा द्वितीय समये च भवक्षयेण दिवं गच्छन्नविरतो भवति / अविरतत्वे चावश्यमष्टानां प्रकृतीनामुदयः ततः सप्तानामुदयो जघन्येनैक समय यावदव प्यते, उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्तम, उपशान्तमोह क्षीणमोहगुणस्थानयोरान्त मौहुर्ति कत्वात् / तथा-घातिकर्मवर्जाश्चतस्त्र: कर्मप्रकृतयः तासां च जघन्यत उदय आन्तर्मोहुर्तिकः उत्कर्षण देशोनपूर्वकोटिप्रमाण इति / पिण्हार्थश्चायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानकमारभ्ययावदुपशान्तमोहगुणस्थानकं तावदष्टानामपि सत्तः क्षीणमोहगुणस्थाने सप्तानां सत्ता, सयोग्ययोगगुणस्थानकयोश्चतसृ
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________________ जीवट्ठाण 1552 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवणिव्वति णां सत्ता / तथा-मिथ्यादृष्टः प्रभृति सूक्ष्मसंपरायं यावदष्टानामुदयः, उपशान्तमोहगुणस्थाने क्षीणमोहगुणस्थाने च सप्तानां प्रकृतीनामुदयः। सयोग्ययोगिगुणस्थानयोश्चतसृणामुदयइति / / तथा-संज्ञिपर्याप्त उदीरणास्थानानि पञ्च / तद्यथा-सप्त, अष्ट, षट्, पञ्च, द्वे इति। तत्रा यदा अनुभूयमाणभवायुराव लिकाऽवशेष भवति, तदा तथास्वभावत्वेन तस्यानुदीर्यमाणत्वात्सप्ता-नामुदीरणा। यदात्वनुभूयमानभवायुरावलिकाऽवशेषं न भवति, तदाऽष्टानां प्रकृतीनामुदीरणा / तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकात्प्रभृति यावत्प्रमत्तसंयतगुणस्थानकं तावत्ससप्तानामष्टानां चादीरणा / सम्यड्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके तु सदैयाष्टानामेवोदीरणा, आयुष आवलिकाऽवशेषमिश्रगुणस्थानस्यैवाभावात् / तथाअप्रमत्तगुणस्थानकात्प्रभृति यावत्सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकस्याऽऽवलिकाऽयशेषो न भवति, तावद्वेदनीयाऽऽयुर्वर्जानां षण्णां प्रकृतीनामुदीरणा, तदानीमतिविशुद्धत्वेन वेदनीयाऽऽदयुरुदीरणायोग्याध्यवसायस्थानाभावात्। आवलिकाऽवशेषे तु मोहनीयस्वाप्याबलिकाप्रविष्टत्वेनोदीरणाया असंभवाद् ज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणनामगोत्रान्तरायाणामेवोदीरणा / एतेषामेव चोपशान्तमोहगुणस्थानकेऽप्युद्रीरणा। क्षीणमोहगुणस्थानकेऽप्येतेषामेव यावदावलिकामात्रामवशेषो न भवति। आवलिकाऽवशेषेतु ज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणान्तरायाणामप्यावलिकायप्रविष्टत्वान्नोदीरणेति द्वयोरेव नामगोत्रयोरुदीरणा, एवं सयोगिकेवलिगुणस्थानकेऽपि / अयोगिकेवलिगुणस्थानके तु वर्तमानो जीवः सर्वथाऽनुदीरक एवा ननु तदानीमप्येष सयोगिकेवलिगुणस्थानक इव भवोपग्राहि-कर्मचतुष्टयोदयवान् वर्तते, ततः कथं तदाऽपि तयोर्नामगोत्रयोरुदीरको न भवति? नैष दोषः / उदये सत्यपि योगसव्यपेक्षत्वादुदीरणायाः, तदानीं च तस्य योगासंभवादिति। कर्म०४ कर्म०। इदानीं गुणस्थानकेषु जीवस्थानानि चिन्तयन्नाह - सव्वजियठाण मिच्छे, सग-सासणि पंण अपञ्ज सिन्नदुर्ग। सम्मे सन्नी दुविहो, सेसेसुं सन्निपज्जत्तो // 45 / / सर्वाणि जीवस्थानानि चतुर्दशापि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकेषु भवन्ति, मिथ्यात्वस्य सर्वेषु जीवस्थानकेषु संभवात् / तथा- (सग ति) सप्त जीवस्थानानि सास्वादने भवन्ति / तद्यथा- पञ्चापर्याप्ताः बादरैकेन्द्रियोऽपर्याप्तः 1, द्वीन्द्रियोऽपर्याप्तः 2, त्रीन्द्रियोऽपर्याप्तः 3, चतुरिन्द्रियोऽपर्याप्तः 4, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियोऽपर्याप्तः 5 / संज्ञिद्विकम्संज्ञयपर्याप्तः 1, संज्ञिपर्याप्तः 2 / अपर्याप्तकाश्चेह करणापर्याप्तका द्रष्टव्याः, न तुलध्यपयाप्तकाः, तेषु मध्ये सास्वादनसम्यक्त्वसहितस्यात्पादाभावात्। (सम्मे सन्नी दुविहो त्ति) अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके संज्ञी द्विविधोऽपर्याप्तपर्याप्त-रूपो द्रष्टव्यः / इहापर्याप्तकः करणापेक्षया ज्ञेयः, न तु लब्ध्यपेक्षया, लब्ध्यपर्याप्तमध्येऽ विरतसम्यग्दृष्टरभावात्। शेषेषु मिश्रदेशविरत्यादिगुणस्थानकेषु संज्ञी पर्याप्त इत्येकमेवं जीवस्थानकं, नशेषाणि; तेषां मिश्रभावदेशविरतिप्रतिपत्त्यभावात्। न च पूर्वप्रतिपन्नमिश्रभावोऽन्येषु जीवस्थानकेषु संक्रामॅल्लभ्यते, "न सम्ममिच्छो कुणइ कालं'' इति वचनात् / तदेवं गुणस्थानकेषु व्याख्यातानि जीव स्थानकानि। कर्म० 4 कर्म० / जीवस्थानकेषु भावा :जीवस्थानेष्वपि भावाः स्तयमेव चिन्तनीयाः। तत्राऽऽद्येषु द्वादशसु जीवस्थानेष्वौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकरूप भावायम्, तच / मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानकोक्तमिय भावनीयम् / एतदेव च भावाय संज्ञिन्यपि लब्ध्यपर्याप्त / करणमात्रापर्याप्त तु तस्मिन् क्षीणसप्तकाना क्षायिकसम्यक्त्वस्यकेषाञ्चिद् देवानामौपशमिकत्वस्यापि संभवादौदयिक क्षायिक क्षायोपशमिकपारिणामिक रूपमौपशमिकोदयिकक्षायोपशमिक पारिणामिकरूपं वा भावचतुष्टयमवसेयम्। पर्याप्त तुसंज्ञिनि प्रागुक्तेन गुणस्थानकक्रमेण सर्वे भावा भावनीयाः। पं० स०२ द्वार / (जीवस्थानेषु बन्धोदयसत्तास्थानानि 'बंध' शब्दे वक्ष्यन्ते) (बन्धोदयसत्तास्थानान्यधिकृत्य स्वामिता 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 287 पृष्ठे निरूपिता) जीवण न० (जीवन) जीव-ल्युट्। प्राणधारणे, ''जीवणमवि पाणधारणे भणिय / " जीवनमपि प्राणधारणे भणितम्, 'जीव- प्राणधारणे' इति वचनात् / आ० म० द्वि० / विशे० / "जीविज्ज य आदिमोक्खं" जीव्यात्प्राणधारणं कुर्यात् / सूत्रा० 1 श्रु०७ अ० / आ० चू० / जीव्यतेऽनेन / वृत्तौ, जले, मज्जने, हैयगवीने च। वाच० / जीवयतीति जीवनः / जीवनकारके, त्रि० स०३० सम०।पुत्रे, जीवनौषधे, वायौ, क्षुद्रफलके, वृक्षे, पुं०।वाच०। जीवणहेउ पुं० (जीवनहेतु)६ त०] "विद्या शिल्पं भृतिः सेवा, गोरक्षा विपणिः कृषिः। वृत्तिभैक्ष्यं कुशीद च, दश जीवनहेतवः।।१।।'' इत्युक्तेषु विद्याऽऽदिषु जीवनोपायेषु दशसु, वाच० / जीवणास पुं० (जीवनाश) जीवितनाशे, मृत्यो, "आसीविसो वा वि परं सुरुट्टो, किं जीवनासाउ परं नु कुज्जा"। किं जीवितनाशान्मृत्योः परं कुर्यात्, न किञ्चिदपीत्यर्थः / दश० अ०१ उ०। जीवणिकाय पुं० (जीवनिकाय) जीवानां निकायो राशिर्जीवनिकायः / जीवराशी, स्था०६ ठा०। जीवनिकायाश्च पृथिव्यादयः षट् / प्रश्न०५ सम्ब० द्वारा आव० छ जीवनिकाया पन्नत्ता / तं जहा-पुढ विकाइया० जाव तसकाइया। जीवानां निकाया राशयो जीवनिकायाः / इह च जीवनिकायानाभधाय यत्पृथिवीकायिकाऽऽदिशब्दैनिकायवन्त उक्तास्ततेषामभेदोपदर्शनार्थम् / न ह्ये कान्तेन समुदायात् समुदायिनो व्यतिरिच्यन्ते, व्यतिरेकेणाप्रतीयमानत्वादिति। स्था० 6 ठा० / जीवणिज त्रि० (जीवनीय) उपजीव्ये, "देवसिणाए खलु अयं पुरिसे देवजीवणिजे।" सूत्र० 1 श्रु०७ अ०। जीवणिवत्ति स्त्री० (जीवनिर्वृत्ति) निर्वर्त्तनं निवृत्तिः निष्पत्तिः जीवस्यैकेन्द्रियाऽऽदितया निवृत्तिर्जीवनिर्वृत्तिः / जीवस्यैकेन्द्रियाऽऽदितया निष्पादने, भ०। जीवनिर्वृत्तिभेदा:कइविहाणं भंते ! जीवणिवत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा जीवणिवत्ती पण्णत्ता। तं जहा-एगिदियजीवणिव्वत्ती० जाव पंचिदियजीवणिव्वत्ती। एगिंदियजीवणिव्वती णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा-पुढवीकाइयएगिदियजीवणिव्वत्ती० जाव वणस्सइकाइय-एगिदियजीवणिवत्ती। पुढवीकाइयएगिदियजीवणिव्वत्तीं णं भंते ! कइविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुहुमपुढवी
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________________ जीवणिव्वति 1553 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवदिट्ठियां काइयएगिंदियजीवणिवत्ती य, बादरपुढवीकाइयएगिंदिय - जीवत्थिकाएणं जीवे अणंताणं आभिणिबोहियणाणपजवाणं जीवणिव्वत्ती य / एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहावडुगबंधे अणंताणं सुअणाणपजवाणं जहा वितियसए अस्थि-काउद्देसएक तेयगसरीरस्स० जाव सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय-कप्पातीतवे- जाव उवओगं गच्छंति, उवओगलक्खणेणं जीवे / / माणियदेव / पंचिदियजीवणिव्वत्तीणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? जीवानां किं प्रवर्तत इति प्रश्नः / उत्तरंतु प्रतीतार्थमेवेति। भ०१३ श० गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहापज्जत्तगसव्वट्ठसिद्ध- 4 उ०। अणुत्तरोववाइय० जाव देवपंचिंदिय जीवणिवत्तीय अपज्जत्तग जीवास्तिकायस्याभिवचनान्याह - सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव देवपंचिंदियजीवणिव्वत्तीय। जीवत्थिकायस्स णं भंते ! केवइआ अभिवयणा पण्णत्ता ? (जहा वडगबंधे तेयगसरीरस्स ति) यथा-महल्लबन्धा - गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता / तं जहा-जीवे ति वा, धिकारेऽष्टमशतनवमोहेशकाभिहिते तेजः शरीरस्य बन्ध उक्तः, एवमिह जीवत्थिकाए ति वा, पाणे तिवा, भूए तिवा, सत्ते तिवा, विण्णू निर्वृत्तिर्वाच्या, सा च तत्रा एव दृश्यति। भ० 16 श० 8 उ०। तिवा, चेया ति वा, जेया ति वा, आया ति वा, रंगणे ति वा, जीवणिज्जाणमग्ग पुं० (जीवनिर्याणमार्ग) जीवस्य निर्याणं मरणकाले हिंडए ति वा, पोग्गले ति वा, माणवे ति वा, कत्ता ति वा, शारीरिणः शरीरान्निर्गमः, तस्य मार्गों जीवनिर्माणमार्गः / विकत्ताति वा, जए ति वा, जंतू तिवा, जोणिए ति वा, सयंभूति जीवनिर्गममार्गे, स्था। वा, ससरीरी तिवा, नायए ति वा, अंतरप्पा तिवा, जे यावण्णे पंचविहे जीवस्स णिज्जाणमग्गे पण्णत्ते / तं जहा-पाएहिं, उरूहिं, तहप्पगारा, सव्वे ते जीवअभिवयणा पण्णत्ता। उरेणं, सिरेणं, सवंगेहिं / पाएहिं णिज्जाणमाणे, निरयंगामी (चेय त्ति) चेता-पुद्गलानां चयकारी, चेतयिता वा। (जये त्ति) जेता भवइ। उरू हिं णिज्जाणमाणे तिरियगामी भवइ / उरेणं कर्मरिपूणाम् / (आय त्ति) आत्मा नानागतिसततगा मित्वात् / (रंगणे णिज्जाणमाणे मणुयगामी भवइ / सिरेणं णिज्जाणमाणे देवगामी ति) रगणं रागस्तद्योगाद्रङ्गणः / (हिंडए त्ति) हिण्डकत्येन हिण्डकः / भवइ। सव्वंगेहिं णिज्जाणमाणे सिद्धिगतिपज्जवसाणे पण्णत्ते। (पोग्गले त्ति) पूरणादलनाच्च शरीराऽऽदीनां पुद्गलः / (माणव त्ति) मा निर्याण मरणकाले शरीरिणः शरीरान्निर्गमः, तस्य मार्गो निर्माणमार्गः निषेधे, नवः प्रत्यग्रो मानवः, अनादित्वात्पुराण इत्यर्थः / (कत्त त्ति) पादाऽऽदिकः, तत्र (पाएहिं) पादाभ्यां मार्गभूताभ्यां कारणताऽ5- कर्ता कारकः कर्मणाम्। (विकत्त त्ति) विविधतया कर्ता, विकर्तयिता या पन्नाभ्वा, जीवः शरीरान्निर्यातीति शेषः / एवमूसभ्यामित्यादावपि / अथ छेदकः कर्मणामेव / (जए त्ति) अतिशयगमनाद् जगत् / (जंतु ति) क्रमेणास्य निर्याणमार्गस्य फलमाह-पादाभ्यां शरीरान्निर्यान जीवो जननाजन्तुः / (जोणि त्ति) योनिरन्येषामुत्पादकत्वात् / (सयंभु त्ति) निरयगामीति / प्रकृ तत्वादनुस्वार इति / निरयगामी भवति। स्वयं भवनात् स्वयंभूः / (ससरीरित्ति) सह शरीरेणेति सशरीरी। (नायए एवमन्यत्रापि / सर्वाणि च तान्यङ्गानिच सर्वाङ्गानि, तैर्निर्यान् सिद्धिगतिः त्ति) नायकः कर्मणां नेता / (अंतरप्प त्ति) अन्तर्मध्यरूप आत्मा न पर्यवसानं संसरणपर्यन्तो यस्य स सिद्धिगतिपर्यवसानः प्रज्ञप्त इति। शरीररूप इत्यन्तरात्मेति। भ०२० श०२ उ०। स्था०५ ठा०३ उ०। जीवदय पुं० (जीवदय) जीवनं जीवः भावप्राणधोरणममरणजीवणिस्सिय त्रि० (जीवनिश्रित) जीवाऽऽश्रिते, स्था०७ठा०। धर्मत्वमित्यर्थः तदयत इति जीवदयः। जीवेषु वा दया यस्य सजीवदयः / जीवनिःसृत त्रि०जीवेभ्यो निःसृतो निर्गतो जीवनिःसृतः। जीवदयोपेते, स०१ सम०। औ० / कल्प०। जीवनिर्गत, स्था०७ ठा०। (जीवनिः सृताः स्वराः 'सर' शब्दे वक्ष्यन्ते) | जीवदया स्त्री० (जीवदया) जीवाश्चेतनाऽऽदिलिङ्गव्यङ्गाया एकेन्द्रियाजीवत्थिकाय पुं० (जीवास्तिकाय) जीवन्ति, जीविष्यन्ति, जीवितवन्त ऽऽदयः, तेषां दया रक्षणं जीवदया जीवरक्षणे, दर्श०१ तत्त्व। इति जीवाः, तेच तेऽस्तिकायाश्चेति समासः। प्रत्येकासंख्येयप्रदेशाऽऽ जीवदयास्वरूपमाह - त्मकसकललोकभाविनानाजीवद्रव्यसमूहाऽऽत्मकेऽस्तिकायभेदे, अंधाणं विगलाणं अयंगमाणं अणाहाणं बहुवाहिवेयणापरिअनु० / आव० स०। घटाऽऽदिज्ञानगुणस्य प्रतिमाणी स्वसंवेदनसिद्ध- गयसरीराणं सव्वलोयपरिभूयाणं दारिद्ददुक्खदोहग्गकलंकियाणं त्वाजीवस्यास्तित्वमवगन्तव्यम् / न च गुणिनमन्तरेण गुणसत्ता युक्ता, जम्मदारिदाणं समणाणं विहलियाणं च संबंधिबंधवाणं जं जस्स अतिप्रसङ्गात् / न व देह एवास्य गुणी युज्यते। यतो ज्ञानममूर्त चिद्रूपं इढ भत्तं वा पाणं वा० जाव णं धणधन्नसुवन्नहिरणं वा कुणसु सदैवेन्द्रियगोचरातीतत्वाऽऽदिधर्मोपेतमतस्तस्यानुरूप एव कश्चिद्गुणी यसयलसोक्खदायगं संपुण्णं जीवदयं ति / महा०२ चू०। समन्वेषणीयः / स च जीव एव, न तु देहो, विपरीतत्वात् / यदि जीवदव्वप्पकप्प पुं० (जीवद्रव्यप्रकल्प) "जीवस्स दंव्वस्स जहा पुनरननुरूपोऽपि गुणानां गुणी कल्प्यन्ते, तॉनवस्थारूपाऽऽदि- देवदत्तस्स अग्गकेसहत्थाणं कप्पण' जीवद्रव्यप्रकल्पः / द्रव्यप्रकल्पभेदे, गुणानामप्याकाशाऽऽदेर्गुणित्वकल्पना प्रसङ्गादिति / अनु० / नि० चू०१ उ०। जीवास्तिकायेन जीवानां प्रवृत्तिमाह - जीवदिट्ठिया स्त्री० (जीवद्दष्टिका) या अश्वाऽऽदिदर्शनार्थ गच्छति, जीवत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? गोयमा ! तस्याम्, स्था०२ ठा०१उ०।
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________________ जीवदेवसूरि 1554 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवपएसिय जीवदेवसूरिपुं० (जीवदेवसूरि) "रासिल्लसूरिशिष्ये, जै० इ०। वायटग्रामे महीधरमहीपालनामानौ द्वौ ब्राह्मणकुमारावास्ताम् / तयोमहीधरो जिनदत्तसुरिणा दीक्षितो रासिल्लसूरिरभवत् / महीपालो देशान्तरे / दिगम्बरप्रव्रज्यां गृहीत्वा सुवर्णकीर्तिनामाऽभवत्। तत्रा स आधाकर्मिकाऽदिदोषभुक्तिमवेक्ष्य रासिल्ल सुरिसमीपे श्वेताम्बरदीक्षामग्रहीत्, ततो जीवदेवसूरिनामा ऽभवत् / एतेनैव वायटग्रामे जैनानां ब्राह्मणैः सह विरोधस्त्याजितः / जै० इ०।। जीवधम्म पुं० (जीवधर्म) जीवानां जन्मजरामरणव्याधिरोग शोकसुख दुःखजीवनाऽऽदिके धर्मे , सूत्र०२ श्रु०१ अ०। जीवपइट्ठिय त्रि० (जीवप्रतिष्ठित) जीवेषु स्थिते, "अजीवा जीवपइट्टिआ" अजीवाः शरीराऽऽदिपुद्गलरूपाजीवप्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात्। भ०१ श०६ उ०। स्था०। जीवपएस पुं० (जीवप्रदेश)जीवानामवयवे, भ०। छिन्नजीवखण्डानां जीवप्रदेशः स्पर्शो यथाअह भंते! कुम्मे कुम्मावलिया गोहा गोहावलिया गोणा गोहावलिया मणुस्से मणुस्सावलिआ महिसे महिसावलिया, एएसि णं भंते ! दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिण्णाणं जे अंतरा ते विणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा? हंता फुडा। पुरिसेणं भंते ! अंतरा हत्थेण वा पाएण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कट्टेण वा कलिंबेंण वा आमुसमाणे वा सं मुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा अण्णयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएण आच्छिंदमाणे वा विच्छिंदमाणे वा अगणिकाएणं समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाहं वा वावाहं वा उप्पायइ, छविच्छेदं वा करेइ ? णो इणढे समठे। नो खलु तत्थ सत्थं कम।। "अह'' इत्यादि। (कुम्मे त्ति) कूर्मः कच्छपः / (कुम्मावलि य त्ति) कूर्मावलिका कच्छपपङ्किः, (गोह त्ति) गोधा सरीसृपविशेषः। (जे अंतर ति) यान्यन्तरालानि (ते वित्ति) तान्यन्तरालान्यपि (कलिंबेण व त्ति) क्षुद्रकाष्ठरूपेण (आमुसमाणे व त्ति) आमृशन्, ईषत्स्पृशन्नित्यर्थः (संमुसमाणे व त्ति) सामत्येन स्पृशन्नित्यर्थः / (आलिहमाणे व त्ति) आलिखन् ईषत्सकृद्धा कर्षन्, (विलिहमाणे व त्ति) विलिखन् / नितरामनेकशी वा कर्षन. (आच्छिंदमाणे व ति) ईषत्सकृद्वा छिन्दन् (विच्छिंदमाणे व त्ति) नितरामसकृद्वा छिन्दन् (समोडहमाणे ति) समुपदहन्, आवहं वत्ति) ईषद्वाधा (वावाहं वत्ति) व्यावाधां प्रकृष्टपीडाम्। भ० 8 श०३ उ०। एक एव चरमप्रदेशो जीव इत्यभ्युपगमाजीवः प्रदेशो येषां ते जीवप्रदेशाः। चरमप्रदेशजीवप्ररूपिणि द्वितीयनिहवे, विशे०। "जीवपएसा य तीसगुत्ताओ'। जीवप्रदेशाः पुनस्तिष्यगुप्ता दुत्पन्नाः। विशे०। प्रदेशजीवपुं० प्रदेश इत्यन्त्यप्रदेशः जीवो येषां ते प्रदेशजीवाः। प्राकृतत्वाच व्यत्ययः / अन्त्यप्रदेश एव जीव इत्यभ्युपगतेऽन्त्यप्रदेशजीववादिनि। द्वितीयानिहवे, उत्त० 3 अ०। जीवपएसियपुं० (जीवप्रादेशिक) जीवप्रदेशा एव जीव प्रदिशिकाः। अथवा | जीवप्रदेशो जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां ते तथा / चरमप्रदेशजीवप्ररूपिणः (स्था०७ ठा०) एकेनाऽपि प्रदेशेन न्यूनो जीवो न भवत्यतो येनकेन प्रदेशेन पूर्णः स जीवो भवति / स एवैकः प्रदेशो जीवो भवतीत्येवंविधवादिनि तिष्यगुप्ता ऽऽचार्यमताविसंवादिनि द्वितीयनिहवे, औ०। अथ द्वितीयनित वक्तव्यतामाह नियुक्तिकार :सोलस वासाइँ तया, जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्स। जीवपएसियदिट्ठी, तो उसमपुरे समुप्पन्ना।।२३३३।। रायगिहे गुणसिलए, वसु चउदसपुव्वि तीसगुत्ते य। आमलकप्पा नयरी, मित्तसिरी कूरपिउडाई॥२३३४॥ श्रीमन्महावीरजिनेन तदा षोडश वर्षाणि केवलज्ञानस्योत्पादितस्याभूवन्। ततश्च राजगृहापरनाम्नि ऋषभपुरे नगरे जीवप्रदेशिकदृष्टिः समुत्पन्नेति / कथमुत्पन्ना ? इत्याह- राजगृहे नगरे गुणशिलके चैत्ये चतुर्दशपूर्विणी वसुनामान आचार्याः समागताः तेषां च तिष्यगुप्तो नाम शिष्यः / स च तत्र पूर्वगतमालापकं वक्ष्यमाणस्वरूपमधीयानो वक्ष्यमाणयुक्तिभि विप्रतिपन्नोऽसंबुद्धः परिहृतो गुरुभिर्विहरन् आमलकल्पाया नगर्या गतः, तत्रा च मित्राश्रीनाम्ना श्रावके ण "कू रपिउडा-'" ऽऽदिना कूरसिक्थाऽऽदिदानेन प्रतिबोधित इत्यर्थः / / 2333 / 2334 / / अथास्य नियुक्तिगाथाद्वयस्य भाष्यमाह - आयप्पवायपुव्वं, अहिज्जमाणस्स तीसगुत्तस्स। नयमयमयाणमाण-स्स दिट्ठिमोहो समुप्पण्णो // 2335 / / आत्मप्रवादनामकं पूर्वमधीयानस्य तिष्यगुप्तस्य अयं सूत्रालापकः समायातः / तद्यथा-"एगे भंते ! जीवपएसे जीवे त्ति वत्तव्वं सिया ? नो इणटेसमट्ठ। एवं दो तिण्णि जाव दस संखेजा। असंखेजा भंते! जीवपएसा जीव त्ति वत्तव्वं सिया ? नो इणट्टे समठे। एगपएसूणे विणं जीवे नो जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। से केणं अट्ठणं ? जम्हाणं कसिणे पडिपुन्नेलोगागासपए सतुल्ले जीवे जीवे त्ति वत्तव्यं सिया, सेतेणं अटेणं' इति / अमुचाऽऽलापकमधीयानस्य कस्यापि नयस्येदमपि मतम्, न तु सर्वनयानामित्येवमजानतस्तिष्यगुप्तस्य मिथ्यात्वोदयादृष्टः दर्शनस्य मोहो विपर्यासः संजात इति।।।२३३५॥ कथमित्याह - एगादओ पएसा, नो जीवो नो पएसहीणो वि। जं तो स जेण पुन्नो, स एव जीवो पएसो त्ति / / 2336 / / यद्यस्मादेकाऽऽदयः प्रदेशास्तावजीवो न भवति, “एगे भंते ! जीवपएसे।" इत्याद्यालापके निषिद्धत्वात्। एवं यावदेकेनापि प्रदेशेन हीनो जीवो न भवति, अत्रौवा ऽऽलापके निवारितत्वात् / ततस्तस्माद् येन केनापि चरमप्रदेशेन स जीवः परिपूर्णः क्रियते, स एव प्रदेशो जीवो, न शेषप्रदेशाः / एतत्सूत्राऽऽलापकप्रामाण्यादित्येवं विप्रतिपन्नोऽसाविति // 2336 // ततः किमित्याह - गुरुणाऽभिहिओ जइते, पढमपएसो न सम्मओ जीवो।
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________________ जीवपएसिय 1555 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवपएसिय तो तप्परिमाणो चिय, जीवो कहमंतिमपएसो? 2337 / एकोऽन्त्यप्रदेशो जीवस्तद्भावभावित्वाञ्जीवत्वस्येत्यादि बुवाण स्तिष्यगुप्तो गुरुणा वसुसूरिणा अभिहित :- हन्त ! यदि ते तव प्रथमो जीवप्रदेशो जीवोन संमतः, ततस्तयन्तिमोजीवप्रदेशः कथं केन प्रकारेण जीवः? न घटत एव सोऽपि जीव इत्यर्थः / कुतः ? तत्परिणाम इति कृत्वा / इदमुक्तं भवति-भवदभिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽपि न जीवः, अन्यप्रदेशैस्तुल्य परिणामत्वात्, प्रथमाऽऽद्यन्यप्रदेशवदिति॥२३३७|| अथवा व्यत्ययेन प्रयोग इति दर्शयतिअहव स जीवो कह ना-इमो त्ति को वा विसेसहेऊ ते? अह पूरणो त्ति बुद्धी, एकेको पूरणो तस्स / / 2338|| अथवा-सोऽन्तिमप्रदेशः कथं जीवस्त्वयाऽभ्युपगम्यते? कथं चननैवाऽऽदिमः प्रथमस्तदूपतया इष्यते ? नन्वाद्योऽपि प्रदेशो जीव एवेष्यतां, शेषप्रदेशतुल्यपरिणामत्वात्, अन्त्यप्रदेशवदिति। को वाऽत्र विशेषहेतुस्तव, येन प्रदेशत्वे तुल्येऽष्वन्तिमो जीवो न प्रथमः? इति / अथ विवक्षितासंख्येयप्रदेशराशेरन्त्यः प्रदेशः पूरण इति विशेषसद्भावतः स जीवो न प्रथम इति तव बुद्धिः / तदयुक्तम् / यतो यथाऽन्त्यः प्रदेशः पूरणस्तथा एकैकः प्रथमाऽऽदि प्रदेशः, तस्य विवक्षितजीवप्रदेशाराशेः पूरण एव, एकमपि प्रदेशमन्तरेण तस्यापरिपूर्ते रिति / / 2338 // एवं च सर्वप्रदेशानां पूरणत्वे इदमनिष्टमापतति। किम् ? इत्याह - एवं जीवबहुत्तं, पइजीवं सव्वहा व तदभावो। इच्छा विवजओ वा, विसमत्तं सव्वसिद्धी वा / / 2336 / / एवं सर्वजीवप्रदेशानां विवक्षितप्रदेशमानपूरणत्वेऽन्त्यप्रदेशवत्प्रत्येक जीवत्वात्प्रतिजीवं जीवबहुत्वमसंख्येयजीवाऽऽत्मकं प्राप्नोति। अथवाप्रथमाऽऽदिप्रदेशवदन्त्यप्रदेशस्याप्यजीवत्वे सर्वया तदभावो जीवाभावः प्रसजति। अथ पूरणत्वे समानेऽप्य न्त्यप्रदेश एव जीवः शेषास्तु प्रदेशा अजीवा इत्याग्रहो न मुच्यते, तर्हि राजाऽऽदेरिवेच्छा भवतः, यत्प्रतिभासतेतदेव हि जल्प्यत इति। तथा च सति विपर्ययोऽपि कस्मान्न भवति-आद्यो जीवोऽन्त्यस्तु प्रदेशो जीव इति ? विषमत्वं वा कुतो न भवति - केचनाऽपि प्रदेशा जीवाः, केचित्त्वजीवा इति ? अनियमेन सर्वविकल्पसिद्धिर्वा करमान्न भवति, स्वेच्छया सर्वपक्षाणामपि वक्तुं शक्यत्वादिति ?||2336 // किञ्चजं सव्वहा न वीसुं, सव्वेसु वितं न रेणुतेल्लंव। सेसेसु असब्भूओ,जीवो कहमंतिमपएसे // 2340 // यद् विष्वगेकैकस्मिन्नवयवे सर्वथा नास्ति तत्सर्वेष्वपि अवयवेषु समुदितेषुन भवति, यथा रेणुकणेषु प्रत्येकमसत्तत्स–मुदाये तैल, नास्ति च प्रथमाऽऽदिके एकैकस्मिन् प्रदेशे जीवत्वं, ततः शेषेषु प्रथमाऽऽदिप्रदेशेष्वसजीवत्वं परिणामाऽऽदिना तुल्ये कथमकस्मादेकस्मिन्नेवान्त्यप्रदेशे समायातमिति ? / 2340 / पुनः परमतमाशक्य परिहरन्नाह - अह देसओऽवसेसे सु तो वि किह सव्वहंतिमे जुत्ते। अह तम्मि व जो हेऊ, स एव सेसेसे वि समाणो // 2341 / / अथान्त्यादवशेषेषु प्रथमाऽऽदिप्रदेशेषु, देशतो जीवः समस्त्येव, अन्त्यप्रदेशे तु सर्वाऽऽत्मनाऽसौ समस्तीति विशेषः / ततो "जं सव्यहा न वीसुं' इत्येतदसिद्धमिति भावः / अत्रोत्तरमाह - तथापि कथमन्त्यप्रदेशे सर्वाऽऽत्मना जीवो युक्तः? ननुतत्रापि देशत एवाऽसौ युज्यते, तस्यापि प्रदेशत्वात् प्रथमाऽऽदिप्रदेशवत् / अथान्त्यप्रदेश संपूर्णो जीव इष्यते, तर्हि ता तद्भावे यो हेतुः सशेषेष्वपि प्रथमाऽऽदिप्रदेशेषु समान एव, तुल्यधर्मकत्वात् / अतस्तेष्वपि प्रतिप्रदेशसंपूर्णजीवत्वमन्त्यप्रदेश वक्तिं नेष्यते? इति // 2341|| अथ प्रथमाऽऽदिप्रदेशेषु जीवत्वं नेष्यते, तन्त्यिप्रदेशेऽपितन्नेष्टव्यम्। कुतः? इत्याह - नेह पएसत्तणओ, अंतो जीवो जहाइमपएसो। आह सुयम्मि निसिद्धा, सेसा न उणोंतिमपएसो॥२३४२।। इहान्त्यप्रदेशोऽपि नजीवः, प्रदेशत्वात्, यथा प्रथमाऽऽदिप्रदेश इति। आह - नन्वागभबाधितेयं प्रतिज्ञा, यतः पूर्वोक्ताऽऽलापकरूपे श्रुते शेषाः प्रथमाऽऽदिप्रदेशा जीवत्वेन निषिद्धाः, न पुनरन्त्यप्रदेशः तस्य तत्र जीवत्वानुज्ञानात्। अतः कथं प्रथमाऽऽदिप्रदेशवदन्त्यस्य जीवत्वनिषेधं मन्यामहे? इति / / 2342 / / अत्रोत्तरमाह - नणु एगो त्ति निसिद्धो, सो वि सुए जइ सुयं पमाणंते। सुत्ते सव्वपएसा, भणिया जीवो न चरिमो त्ति।२३४३।। ननु सोऽपि - अन्त्यप्रदेशः श्रुते जीवत्वेन निषिद्धः / कुतः ? इत्याहएक इति कृत्वा / तथाहि-तौवेत्थमुक्तम्-"एगे भंते ! जीवपएसे जीवे त्ति वत्तव्यं सिया? णो इणढे सम?" इति। ततो यदि श्रुतं तप प्रमाणं, ततोऽन्त्यप्रदेशस्यापि जीवत्वं नेष्टव्यम्, एकत्वात्, प्रथमाऽऽद्यन्यतरप्रदेशवत् / किञ्च-यदि श्रुतं हन्त ! प्रमाणीकरोषि, तदा सर्वेऽपि जीवप्रदेशाः परिपूर्णा जीवत्वेन श्रुते भणिताः, नत्येक एव चरमप्रदेशः / तथा च तौवाभिद्वितम् - "जम्हा णं कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपएसतुल्ले जीव त्ति वत्तव्वं सिया"। अतः श्रुतप्रामाण्यमच्छिता भवता नैक एवान्त्यप्रदेशो जीवत्वेनैष्टव्य इति॥२३४३॥ अमुमेवार्थं दृष्टान्तेन साधयन्नाहतंतू पडोवयारी, न समत्तपडो य समुदिया ते उ। सव्वे समत्तपडओ, सव्वपएसा तहा जीवो // 2344|| एक स्तन्तुर्भवति समस्तपटोपकारी, तमप्यन्तरेण समस्तपटस्याभावात्। परंस एकस्तन्तुः समस्तपटोन भवति, किन्तु ते तन्तकः सर्वेऽपि समुदिताः समस्तपटव्यपदेशं लभन्त इति प्रतीतमेव / तथा जीवप्रदेशोऽप्येको जीवो न भवति किन्तु सर्वेऽपि जीवप्रदेशाः समुदिता जीव इति // 2344 // ननु प्राग यदुक्तम् - "नयमयमयाणमाणस्स दिट्ठिमोहो समुप्पन्नो ति" तत्कस्य नयस्यैवं मतम्? इत्येतदूव्यक्तीकरणपूर्वकमुपदेशमाह - एवंभूयनयमयं, देस-पएसान वत्थुणो भिण्णा। तेणावत्थु त्ति मया, कसिणं चिय वत्थुमिट्टं से // 2345 / /
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________________ जीवपएसिय 1556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवपण्णवणा जइ तं पमाणमेवं, कसिणो जीवो अहोवयाराओ। देसे विसव्वबुद्धी, पवज सेसे वि तो जीवं / / 2346 / / एवंभूतनयस्येदं मतं यदुत--देशप्रदेशी न वस्तुनो भिन्नी, तेन तो अवस्तुरूपौ मतौ / अतो देशप्रदेशकल्पनारहितं कृत्स्ननं परिपूर्णमेव वस्तु से' तस्यैवभूतनयस्येष्टम् / ततो यदि तदेव- भूतनयमत प्रमाण जानासि त्वम्, एवं तर्हि कृत्स्नः परिपूर्णो जीवो, न त्वन्त्यप्रदेशमात्रमपि प्रतिपद्यस्व / अथ ग्रामो दग्धः पटो दाधः इत्यादिन्यायादेकदेशेऽपि समस्तवस्तूपचारादन्त्यप्रदेशलक्षणे देशेऽपि समस्तजीवबुद्धिस्तत्र प्रवर्त्तते, तर्हि शेषेऽपि प्रथमाऽऽदिप्रदेशे उपचारतो जीव प्रतिपद्यस्व, न्यायस्य समानत्वादिति // 2345 / 2346 / / अथवा-अभ्युपगम्येदमुक्तं, न चैकप्रदेशमात्र सर्वजी वोपचारो युज्यत इति दर्शयन्नाह - जुत्तो व तदुवयारो, देसूणे न उपएसमेत्तम्मि। जह तंतूणम्मि पडे, पडोक्यारो न तंतुम्मि / / 2347 / / अथवा-उपचारादप्येक एवान्त्यप्रदेशो जीवो न भवति, कि तु देशोने एव जीवे जीवोपचारो युज्यते, यथा तन्तुभिः कतिपयैरूने पटे पटोपचारो दृश्यते, न त्वेकस्मिंस्तन्तुमानो इति।।२३४७।। एवं गुरुणाऽभिहिते ततः किम् ?इत्याह -- इय पण्णविओ जाहे, न पवज्जइ सो कओ तओ बज्झो। तउ आमलकप्पाए, मित्तसिरिणा सुहोवायं / / 2348 / / भक्खण-पाण--व्वंजणवत्थंतावयवलाभिओ भणइ। सावय ! विधम्मिया म्हे, कीस त्ति तओ भणइ सढो।।२३४६।। नणु तुज्झं सिद्धंतो, पजंतावयवमेत्तओऽवयवी। जइ सच्चमिणं तो का, विहम्मणा मिच्छमिहरा भे // 2350 / / गतार्था एव, नवरम्, इतिपूर्वोक्तप्रकारेण गुरुभिः प्रज्ञापित-स्तिष्यगुप्तो यावन्न किञ्चित्प्रतिपद्यते, तत उद्घाट्य बाह्यः कृतो विहरन्नामलकल्पां नगरी गत्वा आमशालवने स्थितः। तत्र मित्रश्रीश्रावकेण निहबोऽयमिति ज्ञात्वा तत्प्रतिबोधनार्थ गत्वा निमन्त्रितः- "यन्मदीयगृहे प्रकरणमद्य तत्र भवद्भिः स्वयमागन्तव्यम्। ततो गतास्ते तद्गृहे। तेन च तत्र तिष्यगुप्तमुपवेष्य महान्तं संभममुपदर्शयता तत्पुरतो भक्ष्यभोज्यानपानव्यञ्जनवस्त्राऽऽदिवस्तुनिचया विस्तारिताः। ततस्तेषां मध्यात्सर्वत्रान्त्यावयवान गृहीत्वा प्रतिलाभितोऽसौ, कूरसित्थाऽऽदिना प्रतिलाभित इत्यर्थः / ततो भणत्यभिधत्ते - 'हे श्रावकविधर्मिताः किमिति त्वया वयमित्थम् ? ततः श्राद्धो भणति- (नणु तुज्झामित्यादि) (मिच्छमिहरा भे त्ति) अन्यथा यदि नेद सत्यम्, तदा सर्वमपि मिथ्या / भवता भाषितमिति।२३५०। अपिचअंतोऽवयवो न कुणइ, समत्तकजं ति जइ न सोऽभिमओ। संववहाराईए, तो तम्मि कओऽवयविगाहो?||२३५१।। यदि नामाऽन्त्यावयवः समस्तस्याप्यवयविनो यत्साध्यं कार्य तन्न करोतीत्यतोऽसौ नाभिमतो भवताम् कूरपक्वान्नवस्त्राऽऽदीनामिव कतिपयसिक्यसुकुमारिकाऽऽदसूक्ष्मखण्डतन्त्वादिरूपोऽन्त्यावयवा यदि न परितोषकरो, भवतामित्यर्थः, तर्हि संव्यवहारातीते तस्मिन्नन्त्यावयवे कुतः किल समस्तावयविग्रहो भवतामिति ? // 2351 / / प्रमाणयन्नाह - अंतिमतंतू न पडो, तक्कजाकरणओ जहा कुंभो। अह तयभावे वि पडो, सो किं न घडो खपुष्पं व? ||2352 / / अन्त्यतन्तुमात्रं न पटः, तस्य पटस्य कार्य शीतत्राणाऽऽदिकं तत्कार्य, तस्याकरण तत्कार्याकरणं, तस्मादिति / यथा कुम्भो घटः / अथ तदभावेऽपि पटकार्याभावेऽपि तन्तुः पट इष्यते, तर्हि किमित्यसौ पटो घटः खपुष्प वा न भवति, पटकार्याकर्तृत्व-स्याविशेषादिति ? // 2352 / / तथाहिउवलं भव्ववहारा - भावाओ नत्थि ते खपुप्फंव। अंताक्यवेऽवयवी, दिटुंताभावओ वा वि।।२३५३।। तवाभिमतोऽवयवी अन्त्यावयवे नास्ति, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धः, व्यवहाराभावाच, खपुष्पवदिति / अथवा -- 'अन्त्यावयवमात्रामवयवी, अवयविसंपूर्णहेतुत्वात्, 'इत्या तावद्दृष्टान्ताभावाद्न साध्यसिद्धरिति / / 2353 / / यदि नाम नोपलभ्यते, नापि व्यवह्रियते, दृष्टान्ता-भावाच नानुमियते, ततः किम्? इत्याह -- पचक्खओऽणुमाणा-दागमओ वाय सिद्धि अत्थाणं / सव्वप्पमाणविसया-ईयं मिच्छत्तमेवं भे / / 2354 // प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणैरर्थानां सिद्धिः, तानि च त्वत्पक्षसाधकत्वेन न प्रवर्तन्ते / अतः सर्वप्रमाणविषयातीतं 'भे' भवतामभिहित मिथ्यात्वमेवेति // 2354 // तदेवं मित्राश्रीश्रावकेणोक्ते स किं कृतवान्? इत्याह - इय चोइयसंबुद्धो, खामिय पडिलाभिओ पुणो विहिणा। गंत गुरुपायमूलं,ससीसपरिसो पडिकंतो।।२३५५! इति प्रेरितः संबुद्धोऽसौ विहितक्षमितक्षामितेन मित्राश्री-श्रावकेण संपूर्णान्नप्रदानाऽऽदिविधिना पुनरपि प्रतिलाभितो गुरुपादमूलं गत्वा शिष्यपरिषत्समेतो विधिना प्रतिक्रान्तः सम्यग्मार्ग प्रपन्नो गुर्वन्तिके विजहारेति गाथार्थः // 2355 / / जीवप्रदेशा आकाशप्रदेशस्तुल्यो वाऽधिको वा हीनो वेति? प्रश्ने, उत्तरम-जीवप्रदेशाऽऽकाशप्रदेशयोनिर्विभागभागरूपत्वेन तुल्यत्वमेवेति मन्तव्यम / 102 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / तथाऽष्टौ गोस्तनाकारा जीवप्रदेशाः सन्ति, तेषां कर्मवर्गणा लगति, न वेति? प्रश्ने, उत्तरम्जीवाना मध्याष्टप्रदेशानां कर्मवर्गणा न लगतीति ज्ञानदीपकायां प्रोक्तमस्ति / यथा- "स्पृश्यन्ते कर्मणा तेऽपि, प्रदेशा आत्मनो यदि। तदा जीवो जगत्यरिमन्न-जीवत्वमवाप्नुयात् / / 15 प्र० सिन०४ उल्ला०। जीवपण्णवणा स्त्री० (जीवप्रज्ञापना) प्रज्ञाप्यन्ते जीवाऽऽदयो भावा अनया शब्दसंहत्येति प्रज्ञापना / प्रज्ञा०१ पद / जीवानां प्रज्ञापना जीवप्रज्ञापना। प्रज्ञापनोपाङ्गस्य जीवप्रज्ञापिकायां शब्दसंहतो, प्रज्ञा० 1 पद!
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________________ जीवपण्णवणा 1557- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवाभाव साम्प्रतं जीवप्रज्ञापनामभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूर्य चाह - सर्वत्रा / गतिश्चेह गतिनामकर्मोदया न्नारकाऽऽदिव्यपदेशहेतुः से किं तं जीवपण्णवणा? जीवपण्णवणा दुविहा पण्णत्ता। तं तत्परिणामश्च भवक्षयादिति / स च नरकागत्यादिश्चतुर्विधोः, जहा-संसारसमावण्णजीवपण्णवणा य, असंसारसमाव- गतिपरिणामे च सत्येवेन्द्रिय परिणामो भवति।तमाह-(इंदियपरिणामे ण्णजीवपण्णवणाय। से किं तं असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा? त्ति) स च श्रोत्राऽऽ दिभेदात्पञ्चधेति। इन्द्रियपरिणतौ चेष्टाऽनिष्टविषयअसंसारसमावण्णजीव-पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा- संबन्धाद्राग द्वेषपरिणतिरिति तदनन्तरं कषायपरिणाम उक्तः। स च क्रोधा अणंतरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा, परंपरसिद्ध- ऽऽदिभेदाचतुर्विधः / कषायपरिणामे च सति लेश्यापपरिणतिः, न तु असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा। लेश्यापरिणतौ कषायपरिणतिः, येन क्षीणकषायस्यापि शुक्ललेश्या'से किं तं'' इत्यादि। अथ का सा जीवप्रज्ञापना ? सूरि-राहजीव- परिणतिर्देशोनपूर्वकोटिं यावद्भवति। यत उक्तम्- "मुहुतद्धं त जहण्णा, प्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता / तद्यथा-संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च, उक्कोसा होइ पुव्वकोडीओ / नवहि वरिसेहि ऊणा, णायव्वा असंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च। तत्र संसरणं संसारो नारकतिर्यड्न- सुक्कलेस्साए // 1 // त्ति / अतो लेश्या परिणाम उक्तः। स च कृष्णाऽsरामरभवानुभवलक्षणः, तं सम्यगेकीभासेनाऽऽपन्नाः, संसारवर्तिन दिभेदात्षोढेति / अयं च योगपरिणामे सति भवति, यस्मान्निरूद्धयोगस्य इत्यर्थः। ते च ते जीवाश्च, तेषां प्रज्ञापना संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना। लेश्यापरिणामो ऽपैति, यतः समुच्छिन्नक्रिय ध्यानमलेश्यस्य भवतीति नसंसारोऽसंसारो मोक्षस्तं समापन्ना असंसारसमापन्नाः मुक्ता इत्यर्थः। लेश्या परिणामानन्तरं योगपरिणाम उक्तः। स च मनोवाक्काय भेदान्त्रिा तेच तेजीवाश्च, तेषां प्रज्ञापना असंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना। चशब्दौ धेति / संसारिणां च योगपरिणतावुपयोगपरिणातिर्भवतीति प्राग्वद् भावनीयौ / तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमतोऽसंसार समापन्नजीव- तदनन्तरमुपयोगपरिणाम उक्तः। स च साकारानाकारभेदाद्विधा / सति प्रज्ञापनामभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह - "से किं तं'' इत्यादि। चोपयोगपरिणामे ज्ञानपरिणामः, अतस्तदनन्तर मसायुक्तः / स अथ का सा असंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना? सूरिराह - असंसारस- चाऽऽभिनिबोधिकाऽऽदिभेदात्पञ्चधा / तथा मिथ्यादृष्टानमप्यमापन्नजीवप्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता / तद्यथा-अनन्तरसिद्धासंसारस- ज्ञानपरिणामो मत्यज्ञानश्रुताज्ञान विभङ्ग ज्ञानलक्षणस्त्रिविधोऽपि मापन्नजीवप्रज्ञापना च, परम्पर सिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च। विशेषग्रहण-साधाद् ज्ञान परिणामग्रहणेन गृहीतो द्रष्टव्य इति तत्रा न विद्यतेऽन्तरं व्यवधानम्, अर्थात्समयेन येषां तेऽनन्तराः, तेच ते ज्ञानाज्ञानपरिणामं च सति सम्यक्तवाऽऽदिपरिणतिरिति, ततो सिद्धाश्चा नन्तरसिद्धाः सिद्धत्वप्रथमसमये वर्तमाना इत्यर्थः / ते च दर्शनपरिणाम उक्तः / स च त्रिधा, सम्यक्तवमिथ्यात्वमिश्रभेदात् / तेऽसंसारसमापन्नजीवाश्च अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्न जीवाः, तेषां सम्यक्तव सति चारित्रामिति, ततस्तत्परिणाम उक्तः / स च प्रज्ञापना अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीव प्रज्ञापना / चशब्दः सामायिकाऽदिभेदा त्पञ्चधेतिस्त्रयादिवेदपरिणामे चारित्रपरिणामो, न स्वगतानेकभेदसूचकः / तथा-विवक्षिते प्रथमे समये वः सिद्धस्तस्य यो तु परिणामे वेदपरिणतिर्यस्मादवेदकस्यापि यथाख्यातचारित्रपरिणति द्वितीयसमयसिद्धः स परः, तस्यापि यस्तृतीयसमयसिद्धः स परः / दृष्टिति चारिकापरिणामानन्तरं वेदपरिणाम उक्तः, स च एवमन्येऽपि वाच्याः / परे च परे चेति वीप्सायां "पृषोदराऽऽदयः" स्त्रायादिभेदालिाधेति। स्था० 10 ठा०। // 3 / 2 / 155|| इति (सि० हे०) सूत्रेण परम्पराशब्दनिष्पत्तिः। परम्पराश्च जीवपच्चक्खाणकिरिया स्त्री० (जीवप्रत्याख्यानक्रिया) जीव-विषये ते सिद्धाश्च परम्परा सिद्धाः, विवक्षितसिद्धस्य प्रथमसमयात्प्राग् प्रत्याख्यानाभावेन बन्धाऽऽदिव्यापारे, स्था० 2 ठा० 1 उ०। द्वितीयाऽऽदिसमयेष्वतीताद्धां यावद्वर्त्तमाना इति भावः / ते च ते | जीवपाओसिया स्त्री० (जीवप्राद्वेषिकी) जीवस्याऽऽत्मपरतदु असंसारसमापन्नाश्च परम्परसिद्धासंसारसमापन्नाः, तेच ते जीवाश्च, भयरूपस्योपरि प्रद्वेषाऽऽद्या क्रियाप्रद्वेषकारणमेव वा जीवप्रादेषिकी। तेषां प्रज्ञापना परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीव प्रज्ञापना / अत्रापि प्राद्धेषिक्याः क्रियाया भेदे, भ०३ श०३ उ०। स्था०। चशब्दः स्वगतानेकभेदसंसूचकः / प्रज्ञा०१पद। जीवपाडुचिया स्त्री० (जीवनातीतिका) जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा जीवपरिणाम पुं० (जीवपरिणाम) परिणमनं परिणामः, ततद्धा तथा। क्रियाभेदे, स्था०२ ठा० 1 उ०। वगमनमित्यर्थः / यदाह - "परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा जीवभाव पुं० (जीवभाव) जीवत्वे, भ०। व्यवस्थानम् / न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्धिदा मिष्टाः / / 1 / / " अथ तद्देशभूतो जीव उत्थानाऽऽदिगुण इति दर्शयन्नाह - द्रव्यार्थनयस्येति सत्पर्ययेण नाशः प्रादुर्भावोऽ सताव पर्ययतो द्रव्याणां जीवेणं भंते ! सउट्ठाणे सकम्मे सवले सवीरिए सपुरिसक्कार परिणामः प्रोक्तः। खलु पर्ययनयस्येति जीवस्य परिणाम इति विग्रहः / परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेइत्ति वत्तव्वं सिया? हंता जीवस्य तत्तद्भावगमने स्था०। गोयमा! जीवेणं सउट्ठाणे० जाव उवदंसेइत्ति वत्तव्वं सिया। से दसविहे जीवपरिणामे पण्णत्ते / तं जहा- गइपरिणामे, इंदिय केणढणं० जाव वत्तव्वं सिया? गोयमा ! जीवेणं अणंतामाभिणि परिणामे, कसायपरिणामे, लेस्सापरिणामे, जोगपरिणामे, वोहियनाणपज्जवाणं, एवं सुयनाणपज्जवाणं ओहिनाणपज्जवाणं उवओगपरिणामे, नाणपरिणामे,दंसणपरिणामे, चरित्तपरिणामे, मणपज्जवनाणपज्जवाणं केवलनाणपज्जवाणं मइअन्नाणपज्जवाणं वेदपरिणामे। सुयअन्नाणपज्जवाणं विभंगनाणपञ्जवाणं चक्खुदंसणपज्जवाणं स च प्रायोगिकः तत्रा गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः / एवं | अचक्खुदंसणपज्जवाणं ओहिदसणपञ्जवाणं केवलदसण-पजवा
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________________ जीवभाव 1558 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवविभागा णं उवओगं गच्छइ उवओग्गलक्खणेणं जीवे, से एणडेणं एवं | जीवविभत्ति स्त्री० (जीवविभक्ति) द्रव्यविभक्तिभेदे, सूत्रा०१ श्रु० 5 अ० वुचइ- गोयमा ! जीवे सउट्ठाणे० जाव वत्तव्वं सिया। 1 उ०। जीवविभक्तिः सांसारिकेतरभेदाद्, द्वेधा। तत्राप्यसांसारिक"जीवेणं" इत्यादि / इह च 'सउट्ठाणे' इत्यादीनि विशेषणानि जीवविभक्तिर्द्रव्यकालभेदाद् द्वेधा / तत्रा द्धव्य तस्तीर्थातीर्थसिद्धामुक्तजीवय्युदासार्थानि। (आयभावेणं ति) आत्मभावने उत्थान ऽऽदिभेदात्पञ्चदशधा / कालतस्तु तत्प्रथम समयसिद्धाऽऽदिभेदादनेशयनगमनभोजनाऽऽदिरूपेणाऽऽत्मपरिणामविशेषेण (जीवभावं ति) कधा / सांसारिक जीवविभक्तिरिन्द्रिय जातिभवभेदात्रिधा / जीवत्वं चैतन्यमपदर्शयति प्रकाशयति इति वक्तव्यं स्यात, तत्रेन्द्रियविभक्तिरेकेन्द्रियविकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियभेदात्पञ्चधा। जीवानां विशिष्टस्योत्थानाऽऽदेर्विशिष्टचेतनापूर्वकत्वादिति / "अणंताण विभागेनावस्थापने, उत्त०। 'इत्तो जीवविभत्तिं तु, वोच्छामि माभिणिबोहिया" इत्यादि। पर्यवाः प्रज्ञाकृता अविभागाः पलिच्छेदाः, अणुपुव्वसो // 48|| उत्त०३६ अ०। ते चानन्ता आभिनिबोधिकज्ञानस्यातोऽनन्ता नामाभिनिबोधिक- | जीववियारपु० (जीवविचार) जीवविचारणायाम, सेन०। "अहाऽऽमलगज्ञानपर्यवाणांसंबन्धिनमनन्ताभिनिबोधिक ज्ञानपर्यवाऽऽत्मकमित्यर्थः। | पमाणे, पुढवीकाए हवंति जे जीवा। ते पारेवयमित्ता, जंबूदीवे न माइंति उपयोगं चेतनाविशेष गच्छतीतियोगः / उत्थानाऽऽदावात्मभावे वर्तमान // 1 // एगम्मि दगबिंदुम्मि, जे जीवा जिणयरेहिं पण्णत्ता / ते जइ इति हृदयस्यम् / अथ यद्युत्थानाऽऽद्यात्मभावे वर्तमानो जीव सरिससवमित्ता, जंबूदीवे न माइंति।।२।।" एतगाथाद्वयं प्रतिक्रमणसूत्राआभिनियोधिकज्ञानाऽऽ धुपयोगं गच्छति, तत्किमेतावतै व वृत्तिप्रवचनसारोद्धार सूत्रावृत्यादौ यथा दृश्यते, तथा तेजस्कायप्रभृत्येजीवभावमुपदर्शयतीति वक्तव्यं ख्यात्? इत्याशक्याऽऽह-"उवओग" केन्द्रियाणां जीवमानप्रतिपादिका गाथाः प्रायो ग्रन्थे न दृश्यन्ते, इत्यादि / अत उपयोग लक्षणं जीवभावमुत्थानाऽऽद्यात्मभायेनोप तत्कथम् ? किञ्चवरट्टिकातण्डुलप्रमाणमाको तेजस्काये ये जीवास्ते दर्शयतीति वक्तव्यं स्यादेवेति। भ०२ श०१० उ०। यदि मस्तकलिक्षाप्रमाणदेहधारिणो भवेयुः तदा ते जम्बूद्वीपे न मान्ति। जीवमजीव पुं० (जीवाजीव) जीवद्रव्याजीवद्रव्ययोः आ०म०२ अ०। निम्बपत्रस्पृष्टमात्रो वायौ ये जीवाः सन्ति, ते यदि खसखसप्रमाण्देहजीवमिस्सिया स्त्री० (जीवमिश्रिता) प्रभूतानां जीवानां स्तोकानां च धारिणो भवेयुः तदा जम्बूदीपेन मान्ति। अयमर्थः प्रमाणम्, अप्रमाणं मृतानां च शशशफनखाऽऽदीनामेका राशौ दृष्टं यदा कश्चिदेवं पदति- वा ? किञ्च - एतदर्थप्रतिपादिके यादृश्यौ छुटितपत्रो गाथेऽपि स्तः / अहो ! महान् जीवराशिरयामिति, तदा सा जीवमिश्रिता / तद्यथा- "बरट्टितंदुलमित्ता, तेऊजीव जिणे हि पण्णत्ता / सत्यामृषाभाषाभेदे, सत्यामृषात्वं चास्या जीवत्सु सत्यत्वात्, मृतेषु मत्थपलिक्खपमाणा, जंबूदीवे न भाइंति / / 1 / / जे लिंबपत्तफरिसा, मृषात्वात्। प्रज्ञा०११ पद। वाऊजीवा जिणेहिँ पण्णत्ता / ते जइ खसखसमित्ता, जयूदीवे न माइंति जीवयामई (देशी) व्याधमृगपाम्, दे० ना०३ वर्ग। / 2 / / " किञ्च - पृथिवीकायाऽऽदिजीवप्रमाणप्रतिपादिकायां गाथायां जीवरक्खा स्त्री० (जीवरक्षा) गोप्रभृतिजीवमोचनाय द्रव्यलिङ्गिनां द्रव्य पारापता ऽऽदयः प्रोक्ताः, ते च तप्तत् तीर्थकृत्काले भिन्नभिन्नप्रमाणदेह ग्रहीतुं कल्पते, नवा? इति प्रश्ने उत्तरम्-यदि ज्ञानाऽऽदि संबन्धि द्रव्यं धारिणां भवन्ति, तेन पारापताऽऽदयः किंकालीना ग्राह्यः ? इति प्रश्ने न भवति, तदा गृह्यते, निषेधो ज्ञातो नास्तीति। 470 प्र०। सेन०३ उत्तरम - तेजस्कायिकाप्रभृतिशरीरमानप्रतिपादकं गाथाद्वयं यद्यपि उल्ला०। महागन्थे न दृश्यते, तथापि सूत्रोण सह सम्मतमेव, तदर्थस्य जीवरासि पुं० (जीवराशि) राशिभेदे, जीवराशिर्द्विविधः सूत्रानुयायित्वाता तथा जीवमानप्रतिपाद कपारापताऽऽदि-प्रमाणमवसंसारसमापन्नोऽसंसारसमापन्नश्च / स०। स्थितकालत्वेन महाविदेहगतंज्ञायत इति मुग्धबोधनार्थश्चायमुपदेशइति जीवरूय न० (जीवरूत) मयूरमार्जारशुकसारिकाऽऽ दिलपिते, जीत०। न काऽप्यनुपपत्तिः // 266 प्र० / सेन०३ उल्ला० / एतन्नामके जीवलिंगन० (जीवलिङ्ग) चलनस्पन्दभाड्कुरोद्भवस्वेदम्ला नाऽऽदिके, प्रकरणग्रन्थेच। "विनाय लिंग तसथावराणं।" सूत्र०२ श्रु०६अ। जीवविरियन० (जीववीर्य) आत्मसामर्थ्य, "उल्लसियं जीवविरियं कहं जीवलोयपुं० (जीवलोक) जीवद्रव्ये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। वि।" पं०व०३द्वार। जीवविजयपुं० (जीवविचय) जीवद्रव्ये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। जीवविभागास्त्री० (जीवविपाका) जीवएव विपाकः स्वशक्तिदर्शनलक्षणो जीवविजय पु० (जीवविजय) असंख्येयप्रदेशाऽऽत्मकसाका विद्यते यासां ता जीवविपाकाः / कर्म० 5 कर्म० / जीवे जीवगते रानाकारोपयोगलक्षणानादिस्वकृतकर्मफलोपयोगित्वाऽऽदिजी ज्ञानाऽऽदिलक्षणे स्वरूपविपाकस्तदुपघाताऽऽ दिसंपादनाभिमुखतायस्वरूपानुचिन्तने, सम्म०३ काण्ड। लक्षणो यासां ता जीवविपाकाः। कर्मप्रकृतिभेदे, पं० सं०३ द्वार। जीववित्तिविसिट्ठ त्रि० (जीववृत्तिविशिष्ट) क्षेत्राज्ञवृत्तित्ववि शिष्टे, जीवविपाकित्वमधिकृत्य परप्रश्नमपनुदयन्नाह - "जीववृत्तिविशिष्टाङ्गाभावाभावग्रहोऽप्यसन् / उत्कर्ष श्चापकर्षश्चा- संपप्प जीयकाले, उदयं काओ न जंति पगईओ। व्यवस्थो यदपेक्षया / / 25 / / जीववृत्ति विशिष्टः क्षेत्रज्ञवृत्तित्वविशिष्टः / एवमिणमोहहेउं, आसज्ज विसेसयं नत्थि।।४७|| द्वा०१५ द्वा०। ननु कास्ताः कर्मप्रकृ तयो, या जीवं कालं वाऽऽश्रित्य जीवविप्पजद त्रि० (जीवविप्रजह) प्रासुके, भ०६ श० 1 उ० / नोदयमधिगच्छन्ति ? सर्वा अपि जीवकालावधि कृत्योदयमधिगच्छ"देवदिण्णस्स दारगरस सरीरं णिप्पाणं णिचिट्ठ जीवविप्पजढं कूबए न्तीति भावः / जीवकालवन्ते रेणोदया संभवात् / ततः सर्वा अपि पक्खवेति।" (जीवविष्पजलं ति) आत्मना विप्रमुक्तः। ज्ञा०१ श्रु० जीवविपाका एवेति प्रष्टुरभिप्रायः। अत्राऽऽचार्य आह- ''एवमिणं' २अ०। इत्यादि / ओघतः सामान्येन हेतु हेतुत्वमात्रामाश्रित्य, एवमे
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________________ जीवविवागा 1556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवाजीव तद् यथा त्वयोक्तं तथैव, विशेषितं त्वसाधारणं तु, हेतुमाश्रित्य एतन्न भवति, जीवः कालो वा सर्वासामपि विकृतीनामुदयं प्रति साधारणः, ततस्तदपेक्षया चेत् प्रकृतीनां चिन्ता क्रियते, तर्हि सयी अपि जीवविपाका एव, कालविपाका एव वा,भास्तत्र संदेहः, परं कासां चित्प्रकृतीना क्षेत्राऽऽदिकमप्यसाधारणमुदयं प्रति हेतुरस्ति, ततस्तदपेक्षया क्षेत्राविपाकात्वाऽऽदिव्यप्रदेश इत्यदोषः // 47 // पं० सं०३ द्वार। कर्म०। जीववु ड्डिय न० (जीववृद्धिक) अनुज्ञायाम्, एतचानुज्ञाया गौणं नाम / नं०। जीवसंखेवपुं० (जीवसंक्षेप) संक्षिप्यन्ते संगृह्यन्ते जीवा एभिरिति संक्षेपा अपर्याप्त केन्द्रियत्वाऽऽदयोऽवान्तरजातिभेदाः / जीवानां संक्षेपा जीवसंक्षेपाः / अपर्याप्तकेन्द्रियत्वाऽऽदिके, जीवस्थाने, कर्म०६ कर्म० / जीवसंगहिय त्रि० (जीवसंगृहीत) जीवैः संगृहीतः स्वीकृतो जीवसंगृहीतः। जीवैः स्वीकृते, स्था० / "अजीवा जीवसंगहिया।" अजीवाः पुद्गलाऽऽकाशाऽऽदयो जीवैः संगृहीताः स्वीकृताः। अजीवान्तिानामजीवानां सर्वव्यवहारा भावात्। स्था०२ ठा० 1 उ०। भ०। जीवसंजम पुं० (जीवसंयम) जीवेषु संयमो जीवसं यमः / जीवेषु हिंसाऽऽदिपरिहारे, आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। जीवसाहत्थिया स्त्री० (जीवस्वाहस्तिका) यत्स्वहस्तेन गृहीतेन जीवं मारयति सा जीवस्वाहस्तिका। क्रियाभेदे, स्था०२ ठा० 1 उ०।। जीवा स्त्री० (जीवा) जीवनं जीवा। प्राणधारणे, आ० चू० 1 अ०। जीवनं जीवा इति स्त्रीलिङ्गाभिधायक एवायं शब्दः साध्यते, न तु जीव इति पुंल्लिङ्ग भिधायकः शब्दः। विशे०। जीव-अच, जीवयतेरच्या टाप्। प्रत्यञ्चायाम्, सू० प्र०१३ पाहु० / धनुषो गुणे, वाच० / "तेणेहिं सजीवेहिं धणुएहिं" सजीवैः कोट्यारोपितप्रत्यञ्चैः / ज्ञा०१ श्रु०८ अ० जीवव जीवा, जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रास्य हैमवतैरण्यवताभ्यां द्वितीयषष्ठ वर्षाभ्यामवच्छिन्नस्याऽऽरोपितज्याधनुः पृष्टाकारयोः परिधिखण्डयोः, धनुःपृष्ठसंज्ञकयोः पर्यन्तभूतसरलप्रदेशपड़तौ, स०। हेमवताऽऽदिजीवानां प्रमाणमाह - हेमवयएरनवयाओणं जीवाओ सत्तवीसं जोयणसहस्साइंछच चउसत्तरे जोयणसए सोलसए एगूणवीसइभाए जोयणस्स किं चि विसेसूणाओ आयामेणं पण्णत्ता। हेमवताऽऽदिजीवयोरूक्तप्रमाणसंवादगाथा - "सत्तत्तीस सहस्सा, छच्च सया जोयणाण चउसयरा / हेमवयवासजीवा, किं चूणा सोलस कला य" // 1 // ति। कला एकोनविंशतिर्भागो योजनस्येति। स०३७ सम०। हैमवतैरण्यवताऽऽदिजीवानां परिधिखण्डप्रमाणमाह - हेमवएरण्णावइयाणं जीवाणं धणुपिढे अट्ठतीसं जोयणासहस्साई सत्तय चत्ताले जोयणसए दस एगूणवीसइभागे जोयणस्स किंचि विसेसूणा परिक्खेवेणं पण्णत्ता। जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य हैमवतैरण्यवताभ्यां द्वितीयषष्ठ वर्षाभ्यावमवच्छिन्नस्याऽऽरोपितज्याधनुः पृष्ठाऽऽकारे परिधि स्वएके धनुः पृष्ठे | उच्येते, तत्पर्यन्त भूते सरलप्रदेशपङ्क्ती तु जीवे इव जीवे इति। एतत्सूत्रसंवादिगाथा च - "चत्ताला सत्तसया, अरूतीस सहस्स दस कला यधणू।" इति। स०३८ समका"जंबूदीवस्सपाईणपडीणउदीणदाहिणत्ताए जीवाए" जीवया प्रत्यञ्चया दवरिकयेत्यर्थः / सू० प्र०१२ पाहुन जीवाइभाववाय पुं० (जीवाऽऽदिभाववाद) जीवाऽऽदिपदार्थ वादे, "जीवइभाववाओ, बंधाइपसाहगो इह ताव' / पं०व०४ द्वार। जीवाजीवपु० (जीवाजीव) जीवद्रव्याजीवद्रव्ययोः, स्था०। समयाइ वा आवलियाइ वा जीवाइ वा अजीवाइ वा य वुच्चइ / आणापाणूइवाथोवाइवाजीवाइवा अजीवाइवा पवुचइ। खगाइ वा लवाइवा जीवाइवा अजीवाइवा पवुच्चइ। एवं मुहुत्ताइ वा अहोरत्ताइ वा पक्खाइ वा मासाइ वा उऊइवा अयणाइवा संवच्छराइ वा जुगाइ वा वासमयाइ वा वाससहस्साई वा वास सयसहस्साई वा वासकोडीय वा पुव्वंगाइ वा पुव्वाइ वा तुडियंगाइवा तुडियाइ वा अडडंगाइवा अडडाइ वा अववंगाइ वा अववाइवा हूहूअंगाइ वा हूहूयाइ वा उप्पलंगाइ वा उप्पलाइ वापउमंगाइ वा पउसाइवाणलिणंगाइ वा णलिणाइवा अत्थणि उरंगाइवा अत्थणिउराइ वा अउअंगाइवा अउआइवाणउअंगाइ वाणउआइ वा पउअंगाइ वा पउआइ वा चूलिअंगाइ वा चूलियाइ वा सीसप्पहेलियंगाइवा सीसप्पहेलियाइ वा पलिओवमाइ वा सागरोवमाइ वा उस्सप्पिणीइ वा ओसप्पिणीइ वा जीवाइ वा अजीवाइ वा पवुबइ / गामाइ वा णगराइ वा निगमाइ वा रायहाणीइ वा खेडाइ वा कव्वडाइ वा मडंवाइ वा दोणमुहाइ वा पट्टणाइ वा आगराइ वा आसमाइवा संवाहाइवा संनिवेसाइ वा घोसाइ वा आरामाइ वा उजाणाइ वा वणाइ वा वणखंडाइवा वावीइ वा पुक्खरणीइ वा सराइ वा सरपंतियाइ वा अगडाइ वा तडागाइ वा दहाड वा णदीइ वा पुढवीइ वा उदहीइ वा वात खंधाइ वा ओगासंतराइ वा वलयाइ वा विगाहाइ वा दीवाइ वा समुद्दाइ वा वेलाइवा वेइयाइवा दाराइवा तोरणाइवाणेरइयाइ वा णेरइयावासाइ वा. जाव वेमाणियावासइ वा कप्पाइ वा कप्प विमाणवासाइ वा वासाइ वा वासहरपव्वयाइवा कूडाइ वा कूमा गाराइ वा विजयाइ वा रायहाणीइ वा जीवाइ वा अजीवाइ वा पवुच्चइ / छायाइ वा आतवाइ वा दोसिणाइ वा अंधकाराइ वा ओमाणाई वा पमाणाइ वा उम्माणाइ वा अतियाणगिहाइ वा उजाणगिहाइ वा अवलिंवाइ वा मणिप्पवायाइ वा जीवाइ वा आजीवाइ वा पवुच्चइ। स्या०। पूर्वव जीवविशेषाणामुचत्वलक्षणो धर्मोऽभिहितः इह तु धर्मा धिकारादेव समयाऽऽदिस्थितिलक्षणो धर्मो जीवाजीवसंबन्धी जीवाजीवतयैव धर्मधर्मिणोरभेदेनोच्यत इति / तता सर्वेषां काल प्रमाणानामाद्यः परमसूक्ष्मोऽभेद्यो निरवयव उत्पलपत्राशत
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________________ जीवाजीव 1560- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवाजीव व्यतिभदाऽऽद्युदाहरणोपलक्षितः समयः, तस्य चातीताऽऽदिवि वक्षयाबहुत्वाबहुवचनमित्याह - ''समयाइ वा'' इत्यादि। इति शब्द उपदर्शने / वाशब्दो विकल्पे। तथाऽसंख्यातसमयसमुदाया ऽऽत्मिका आवलिका क्षुल्लकभवग्रहणकालस्य षट्पञ्चाशदुत्तर द्विशततमभागभूता इति, तत्रा समया इति वा आवलिका इति वा यत् कालवस्तु तदविभागेन जीवा इति च जीवपर्यायत्वात् पर्यायपर्यायिणोश्च कथञ्चिदभेदात्। तथा अजीवानां पुद्गलाऽऽदीनांपर्यायत्वादजीया इति / वकारौ समुच्चायार्थी, दीर्घता च प्राकृतत्वात्। प्रोच्यते अभिधीयत इति न जीवाऽऽदि व्यतिरेकिणः समयाऽऽदयः / तथाहि जीवाजीवानां सादिसपर्यव सानाऽऽदिभेदा या स्थितिस्तद्भेदाः समयाऽऽदयः / सा च तभुमः, धर्मश्च धर्मिणो नात्यन्तभेदवान, अत्यन्तभेदेहि विप्रकृष्टधर्ममात्रोपलब्धौ प्रतिनियत धर्मधर्मिविषय एव संशयो न स्यात्, तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदविशेषात्। दृश्यते च यदा कश्चिद्धरतितरूतरूणशास्त्राविसरविवरान्तरतः किमपि शुल्कं पश्यति, तदा 'किमियं पताका, किं वा वलाका ?' इत्येवं प्रतिनियतधर्मिविषयसंशय इति। अभेदे हि सर्वथा संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत एव तस्यापि गृहीतत्वादिति / इह त्वभेवनयाऽऽश्रयणाजीवा इतिवेत्याधुक्तम्। इह च समयाऽऽ वलिकालक्षणार्थद्वयस्याजीवाऽऽदिद्वयाऽऽत्मकतया भणनाद् द्विस्थानकावतारो दृश्यः एवमुत्तरसूत्राण्यपि नेयानि, विशेषं तु वक्ष्याम इति / (आणपाणु इत्यादि)। आनप्राणावित्युच्छवास निःश्वासकालः संख्याताऽऽवलिकाप्रमाणः। आहच"हट्ठस्स अणवगल्ल-स्स निरूवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे उरसासनिस्सासे, एस पाणु त्ति वुचई ||1|| तथा स्तोकाः सप्तोच्छवासनिःश्वासप्रमाणाः, क्षणाः संख्यात प्रमाणलक्षणाः, सप्तस्तोकप्रमाणा लवाः। एवमिति यथा प्राक्तने सूत्रााये जीवा इति यद्धा अजीवा इति च प्रोच्यन्ते इत्यधीतम्, एवं सर्वेषुत्तरसूत्रोत्वित्यर्थः / मुहूर्ताः सप्तसप्ततिल वप्राणाः। उक्तञ्च"सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए॥१॥ तिन्नि सहस्सा सत्त य, सयाइ ते उत्तरं च उस्सासा। एस मुहुत्तो भणिओ, सव्वेहिँ अणंतनाणीहिं' ||2|| अहोरात्रास्त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणाः पक्षाः पञ्चदशाहोरात्र प्रमाणाः, मासा द्विपक्षाः, ऋतवो द्विमासमाना वसन्ताऽऽद्याः, अयनानि ऋतुत्रयमानानि, सम्वत्सरा अयनद्धयमानाः, युगानि पञ्चसम्वत्सराणि, वर्षशताऽऽदीनि प्रतीतानि, पूर्वाङ्गानि चतुर शीतिवर्षलक्षप्रमाणानि, पूर्वाणि पूर्वाङ्गान्येव चतुरशीतिवर्ष लक्षगुणितानि। इदञ्चैषां मानम् - "पुव्वस्स उ परिमाणं, सयरिं खलु होति कोडिलक्खाओ। उप्पन्नं च सहस्सा, बोधव्वा वासकोडीणं ||1|| 60560000000000 पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षगुणितानि त्रुटिताङ्गानि भवन्ति। एवं पूर्वस्य पूर्वस्य चतुरशीतिलक्षगुणने नोत्तरमुत्तरं संख्यानं भवति, यावच्छीर्षप्रहेलिकेति / तस्यां चतुर्नवत्यधिकमइस्थानशतं भवति। अत्रा करणयागाथा "इच्छियठाणेण गुणं, पण सुन्नं चउसीइगुणियं च। काऊण तइयवारे, पुव्वंगाईण मुण संखं / / 1 / / शीर्षप्रहेलिकान्तः सांव्यवहारिकाः संख्यातः कालः, तेन च प्रथमपृथिवीनारकाणां भवनपतिव्यन्तराणां भरतैरवतेषु सुषमदुःषमायाः पश्चिमे भागे नरतिरश्वा चाऽऽयुर्मीयत इति / किं च शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽप्यस्ति संख्यातः कालः / स चानतिशायिनां न व्यवहारविषय इति कृत्वौपम्ये प्रक्षिप्तः, अतएव शीर्षप्रहेलिकायाः, परतः पल्योपमाऽऽधुपन्यासः / तत्र पल्येनोपमा येषु तानि पल्योपमानि असंख्यातवर्षकोटि कोटीप्रमाणानि वक्ष्यमाणलक्षणानि,सागरेणोपमा येषु तानि सागरोधमाणि पल्योपमकोटीकोटीदशकमानानीति, दशसागरो पमकोटिकोट्य उत्सर्पिणी, एवमेवावसर्पिणीति, कालविशेष वद् ग्रामाऽऽदिवस्तुविशेषा अपि जीवाजीवा एवेति। द्विपदैः सप्त चत्वारिंशता सूौराह-(गामेत्यादि) इह च प्रत्येकं जीवा एवेत्याद्यालापोऽध्येतव्यः, ग्रामाऽऽदीनां च जीवाजीवता प्रतीतैवा तत्र कराऽऽदिगम्या ग्रामाः, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि, निगमा वणिङ्ग निवासाः, राजधान्यो यासु राजानो ऽभिषिच्यन्ते, खेटानि धूलीप्राकारेपेतानि, कर्वटानि कुनगराणि, मडम्बानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात्परतोऽवस्थित ग्रामाणि, द्रोणमुखानि येषां जलस्थलपथायुभावपि स्तः, पत्तनानि येषु जलस्थलपथयोरन्यतरेण पर्याहाराप्रवेशः, आकरालोहाऽऽद्युत्पत्तिभूमयः, आश्रमास्तीर्थस्थानानि, संबाहाः समभूमौ कृषि कृत्वा येषु दुर्गभूमिभूतेषु धान्यानि कृषीबलाः संवहन्ति रक्षार्थमिति, सन्निवेशाः सार्थकटकाऽऽदेः, घोषाः गोष्ठानि आरामा विविधवृक्षलतोपशोभिताः कदल्यादि प्रच्छन्नगृहेषु स्त्रीसहितानां पुंसां रमणस्थानभूता इति / उद्यानानि पत्रापुष्पफलच्छायोपशोभितानि बहुजनस्य विविध वेषसेनतमानस्य भोजनार्थं यानं गमनं येष्विति / वनानीत्येक जातीयवृक्षाणि, बनखण्डा अनेकजातीयोत्तमवृक्षाः / वापी चतुरस्रा, पुष्करिणी वृत्ता पुष्करवती चेति / सरांसि जलाऽऽशय विशेषाः, सरःपक्तय सरसा पद्धतयः / (अगड त्ति) अवटाः / तडागाऽऽदीनि प्रतीतानि पृथिवी रत्नप्रभाऽऽदिका, उदधिस्तदधो घनोदधिः / वात्तस्कन्धा घनवाततनुवाताः, इतरे वा, अवकाशान्ताराणि वातस्कन्धानामधस्तदाकाशानि, जीवता चैषां सूक्ष्मपृथिवीकायिकाऽऽदि-जीवव्याप्तत्वात्। बलयानि पृथिवीनांवेष्टनानिघनोदधिधनवाततनुवातलक्षणा नीति। विग्रहाःलोकनाडीचक्राणि, जीवता चैषां पूर्ववत्। द्वीपाः समुद्धाश्च प्रतीताः / वेला समुद्रजलवृद्धिः, वेदिकाः प्रतीताः, द्वाराणि विजयाऽऽदीनि, तोरणानि तेष्वेवेति / नैरयिकाः ल्किष्ट सत्वविशेषाः, तेषां च जीवता कर्मपुगलाऽऽद्यपेक्षया। तदुत्पत्ति भूमयो नैरयिकाऽऽवासाः, तेषां च जीवता पृथिवीकायिकाऽऽद्य पेक्षया इति। एवं चतुर्विशतिदण्डकोऽभिधेयः। अत एवाऽऽह-यावदित्यादि। कल्या देवलोकाः, तद्देशाः कल्पविमानाऽऽवासाः, वर्षाणि भरताऽऽदिक्षेत्राणि, वर्षधरपर्वता हिमवदादयः, कूटानि हैमवतकूटानि, कूटाऽऽ गाराणां तेष्वेव देवभवनानि, विजयाश्चक्रवर्त्तिविजेतव्यानिकच्छाऽऽदीनि क्षेत्रखण्डानि, राजधान्यः क्षमाऽऽदिकाः / जीवेत्यादिहोक्तं सर्वका सम्बन्धनीयमिति / येऽपि पुगलधर्मास्तेऽपि तथैवेत्याह - ठाये त्यादि सूत्रापञ्चकं गतार्थम्, नवरं छायावृक्षा ऽऽदीनाम्, आतपआदित्यस्य / (दोसिणाइ व त्ति) ज्योत्सना, अन्धकाराणि, तमांसि, अवमानानि क्षेत्राऽऽदीनि, उन्मानानि सुलाकर्षाऽऽदीनि, अतियानगृहाणि नगराऽऽदिप्रवेशे यानि गृहाणि प्रतीतानि। (अवलिंवाइवा सणिप्पद्यायाइ वत्ति) रूढिती ऽवसेया इति / कि -
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________________ जीवाजीव 1561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवाजीवाहिगम मेतत्सर्वमित्याह- जीवा इति च जीवव्याप्तत्वात्, तदाश्रितत्वादा। तो रूविमरूवीण य, विभासियव्वा जहासुत्तं // 37 / / अजीवा इति च पुद्गलाऽऽद्यजीवरूपत्वात्, तदाश्रितत्वाद्वेति। प्रोच्यते- जीवानामजीवानां च योऽर्थो जीवविभक्तिर्जीवानां विभागेनावजिनैः प्ररूप्यत इति। इह च - "जीवाइ वा इत्यादि सूत्रपञ्चकेऽपि स्थापनमेव जीवविभक्तिः, उत्तरत्राप्येवमेव संबन्धिभेदाद् व्याख्येयः। प्रत्येकमध्येतव्यमिति। स्था० 2 ठा०४ उ०। (तहिं ति) वचनव्यत्ययात्तयोर्जीवाजीवविभक्त्योर्मध्ये द्विविधा अथ समयाऽऽदिवस्तु जीवाजीवरूपमेव कस्माद-भिधीयते? सिद्धानाम्, असिद्धानां च। (अज्जीवाणं तु त्ति) तुरपिशब्दार्थः, उच्यते - तद्विलक्षणराश्यन्तराभावात्। अत एवाऽऽह - ततोऽजीवानामपि भवति (दुविहा उत्ति) तुरवधारणे, ततो द्विविधैव दो रासी पण्णत्ता। तं जहा-जीवरासी चेव, अजीवरासी चेव। रूपिणामरूपिणां च विभाषितव्या विशेषेण व्यक्तं वक्तव्या। उत्त०नि० स्था०२ ठा०४ उ०] पाई०३६ अ०। जीवाजीव विभक्तिप्रतिपादके उत्तराध्ययनस्य (जीवाजीवयोरस्तित्वप्रतिपादनं 'अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे 516 षट्त्रिंशेऽध्ययने, न० स० पृष्ठे कृतम्। जीवाजीवविभक्त्याख्यं षट्त्रिांशमध्ययनं व्याख्यायतेजीवाजीवपरिज्ञाने फलम् - जीवाजीवविभत्तिं, सुह मे एगमणा इओ। जो जीवे वि न जाणेइ, अजीवे वि न जाणइ। जं जाणिऊण भिक्खू, सम्म जयइ संजमे / / 1 / / जीवाजीवे अजाणतो, कहं सो नाहीइ संजमं? // 12 // भो शिष्याः! एकाग्रमनसः सन्तः स्थिरचित्ताः सन्तो यूयं तां यो जीवानपि पृथिवीकायिकाऽऽदिभेदभिन्नान्न जानाति, अजीवानपि जीवजीवविभक्तिं जीवाजीवाऽऽदीनां लक्षणं, मेममकथयतः सतः श्रृणुत। संयमोपघातिनो मद्यहिरण्याऽऽदीन्न जानाति वा, जीवाजीवाऽऽदीन जीवाश्च अजीवाश्च जीवाऽजीवाः, तेषां विभक्तिर्लक्षणज्ञानेन पृथक जानन् कथमसौ ज्ञास्यति संयमं तद्विषयम् ? तद्विषयाज्ञानादिति पृथक करणंजीवाजीवविभक्तिः, ताम् उपयोगवान्जीव एकेन्द्रियाऽऽदिः। भावः।।१२॥ उपयोगरहितोऽजीवः काष्ठाऽऽदिः। इत्यादिजैनमतोक्तलक्षणेन जो जीवे वि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणइ। लक्ष्यज्ञानम्, तामिति काम? या जीवाजीवविभक्तिं ज्ञात्वा भिक्षुः संयमे जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संजमं / / 13] संयममार्गे सम्यक् यतते यां कुरुते॥१॥ ततश्च जो जीवानपि जानात्यजीवानपि जानाति, जीवाजीवान् जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति प्रतिपादितः पञ्चम अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए।।२।। उपदेशार्थाधिकारः / / 13 // जया जीवमजीवे य, दो वि एए वियाणइ। जीवाश्चेतनालक्षणाऽऽत्मकाः, च पुनरजीवा अचेतनाऽऽत्मकाः। चकार तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ॥१४॥ एवकारश्च पादपूरणे। एष लोको व्याख्यातस्तीर्थकरैरुक्तः। अजीवदेश यदा यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति-विविध आकाशम्, अलोको व्याख्यातः / अजीवस्य धर्मास्तिकायाऽऽदिकस्य जानाति, तदा तस्मिन् काले गतिं नरकगत्यादिरूपा, बहुविधां देशोऽशोऽजीवदेशो धर्मास्तिकायाऽऽदिवृत्तिरहितस्य आकाशस्यैव देशः स्वपरगतभेदेनानेकप्रकारां, सर्वजीवानां जानाति, यथावस्थितजीवा स अलोको व्याख्यातः। जीवाजीवानामाधेयभूतानां लोकाऽऽकाशजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात्।।१४।। माधारभूतमतो लोकालोकलक्षणमुक्तम् // 2 // उत्तरोत्तरां फलवृद्धिमाह - जीवाजीवविभक्तिर्यथा स्यात्तथाऽऽह - जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ। दव्वओ खित्तओ चेव, कालओ भावओ तहा। तया पुन्नं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ / / 15 / / परूवणा तेसि भवे, जीवाणमजीवाण य।।३।। यदा तस्मिन् काले गति बहुविधां सर्वजीवानां जानाति, तदा पुण्यं च द्रव्यतो द्रव्यमाश्रित्य इदं द्रव्यम् इयद्भेद, क्षेत्रतः इदं द्रव्यम् एतावति पापंच बहुविधगतिनिबन्धनं, तथा–बन्धंजीवकर्मयोगदुःखलक्षणं, मोक्षं क्षेत्रो स्थितं, कालत इदं द्रव्यमियत्कालस्थितिमद्वर्तते, भावतोऽस्य च तद्वियोगसुखलक्षणं जानाति। दश. 4 अ०जीवतां स्तोकानां च भूयसां द्रव्यस्य इयन्तः पर्यायाः। एवं तेषां जीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां च मृतानां च शङ्खशफनखाऽऽदीनामेकव राशौ कृतानाम्। प्रज्ञा० 11 पदा द्रव्यक्षेत्राकालभावेन चतुर्द्धा प्ररूपणा भवेत्॥३|| उत्त० 36 अ०॥ प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्रा राशीकृतेषु शङ्खाऽऽदिषु, प्रज्ञा० | जीवाजीवसमाउत्त त्रि० (जीवाजीवसमायुक्त) जीवैरुपयोगल ११पदा एतावन्तोऽत्रा जीवन्तएतावन्तोऽत्र मृता इति नियमेनावधारयतो क्षणैस्तथाऽजीवैर्धर्माधर्माऽऽकाशपुद्गलाऽऽदिकैः समन्वितो जीवाजीवविसंवादे जीवाजीवमिश्रिताः। सत्यामृषाभाषाभेदे, प्रज्ञा०११ पदा समायुक्तः। जीवाजीवसमन्विते, तथा चलोकमधिकृत्य-- ''जीवाजीवजीवाजीवविभत्ति स्त्री० (जीवाजीवविभक्ति) जीवानामजीवानां च समाउत्ते, सुहदुक्खसमण्णिए"। सूत्रा०१२०१ अ०३ उ०। विभक्तिर्विभागेनावस्थापना जीवाजीवविभक्तिः। जीवानाम जीवानां च | जीवाजीवाहिगम पुं० (जीवाजीवाभिगम) जीवानामे के न्द्रियाऽऽ विभागेनावस्थापनायाम्, उत्ता दीनामजीवानां धर्मास्तिकायाऽऽदीनामभिगमः परिच्छेदो जीवाजीयातथा च नियुक्तिकारः भिगमः। जीवाजीपरिच्छेदे, जी जीवाणमजीवाण य,जीवविभत्ती तहिं दुविहा॥३६|| से किं तं जीवाजीवाहिगमे? जीवाजीवाहिगमे दुविहे पण्णत्ते। सिद्धाणमसिद्धाण य, अज्जीवाणं तु होइ दुविहा उ। तं जहा--जीवाहिगमे य, अजीवाहिगमे य।
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________________ जीवाजीवाहिगम 1562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवाणुसासण अथ किं तज्जीवाजीवाभिगम इति? अथवा-प्राकृतशैल्याऽ- जीवाजीवस्वरुपम् अभिगम्यतेऽस्मिन्निति जीवाजीवाभिगमः। भिधेयवल्लिङ्गवचनानि भवन्तीति न्यायात् किं तदिति कोऽसा दशवैकालिकस्य षड्जीवनिकायाध्ययने, दश० 4 अ०। दशवैकालिवित्यस्मिन्नर्थे द्रष्टव्यम् / ततोऽयमर्थः-कोऽसौ जीवाजीवाभि गमः? कस्य षड्जीवनिकायाध्ययनपर्यायशब्दप्रतिपादनायाऽऽह नियुक्तिइति / एवं सामान्येन केनचित्प्रश्ने कृते सतिभगवान् गुरुः शिष्यवचनानु- कार:- "जीवाजीवाभिगमो' जीवा-जीवाभिगमः, सम्यग् रोधेनाऽऽदराऽऽधानार्थ किञ्चित्प्रत्युच्चार्या ऽऽहजीवाजीवाभिगमोऽन जीवाजीवाभिगमहेतुत्वात्। दश०नि०४ अ०। न्तरोदितशब्दार्थो द्विविधौ द्वि प्रकारः प्रज्ञप्तस्तीर्थकरगणधरैः। अनेन | जीवाणंदपुं०(जीवानन्द) स्वनामख्याते सुविधिवैद्यस्य सुते, "जम्बूद्वीपे चागृहीतशिष्याभिधानेन निर्वचनसूहोणतदाह, न सर्वमेव सत्र विदेहेषु, पुरे क्षितिप्रतिष्ठिते / वैद्यस्य सुविधेः सूनुजीवानन्दाभिधोऽगणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं, किन्तु किञ्चिदन्यथाऽपि, केवल सूत्र भवत् // 1 // " आ० क०। बाहुल्येन गणधरैः लब्धं, स्तोकं शषैः। यत उक्तम्- 'अत्थं भासइ, जीवाणुसासण न० (जीवानुशासन) जीवस्याऽऽत्मनो जाति निर्देशाद्वा अरहा'' इत्यादि / तद्यथेति वक्ष्यमाणभेदकथनो पन्यासार्थः, स जीवस्य भव्यप्राणिगणस्यानुशासनं शिक्षा / जीवस्य शिक्षायाम्. जीवाजीवाभिगमो यथा द्विविधो भवति तथोप न्यस्यत इति भावः। तत्प्रतिपादके श्रीदेवसूरिविरचिते स्वनामख्याते प्रकरणग्रन्थे च / जीवाभिगमश्च, अजीवाभिगमश्च चशब्दौ वस्तुतत्वमङ्गीकृत्य द्वयोरपि जीवा०। तस्येयमादिमा गाथा - तुल्यकक्षतोद्भावनार्थो / आह-जीवाजीवाभिगमप्रश्नसूत्रो संचलित उपन्यरतः, तं तथैवाचार्या संचलितनिर्वचनाभिधानमयुक्तम्, असंचलिते णिम्महियरायरोसं, वीरं नमिऊण भुवणतियबंधुं / संचलितविधाना योगात् / नैष दोषः। प्रश्नसूत्रोऽप्यसंचलितस्यैवोप मज्झत्थभावणाए, जीवस्सऽणुसासणं वोच्छं / / 1 / / न्यासात्, भिन्नजातीययोरेकत्वायोगात्। जी० 1 प्रति०) जीवानाम वीरं नत्वा जीवानुशासनं वक्ष्य इति संटङ्कः / अवयवार्थरत्व यम्केन्द्रियाऽऽदीनामजीवानां धर्मास्तिकायाऽऽदीनामभिगमः परिच्छेदो निर्मथितरागरोषं निराकृतप्रीतिद्वेष, वीरं वर्तमानतीर्थाधिपति, नत्वा प्रणम्य, किं विशिष्टम्? भुवनत्रिकबन्धुं जगत्त्रयबान्धवं माध्यस्थ्ययस्मिन् तद् जीवाजीवाभिगमम् / जीवाजीवपरिच्छेदप्रतिपादके भावनया रागद्वेषाभावेन जीवस्याऽऽत्मनो जातिनिर्देशाद् वा जीवस्य जीवाजीवाभिगमाख्येऽध्ययनविशेषे, जी०। भव्यप्राणिगणस्य। एवमग्रेऽपि ज्ञातव्यम् / अनुशासनं शिक्षाम् / अत्र च तस्येदमादिम सूत्रम् - इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं जिणाणुलोमं जिणप्पणीतं "स्वराणां स्वरे प्रकृतिलोपसंधयः" इति प्राकृतलक्षणेन सकाराकार लोपेऽनु शब्दाकारस्य सस्वरत्वे च रूपमिदम् / एवमत्रापि यथासंभव जिणरूवियं जिणक्खायं जिणाणुचिन्नं जिणपन्नतं जिणदेसियं ज्ञेयमिति वक्ष्येऽभिधास्ये। शब्दव्युत्पत्त्यादिवर्चस्तु सर्वत्र सुकर एवेति जिणप्पसत्थं अणु चिंतिय तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं न प्रतन्यते। जीवा०१ अधि०। रोएमाणा थेरा भगवंते जीवाजीवाभिगमं णामऽज्झयणं पण्ण अन्ते चवइंसु। इय सिरिसिद्धतमहो- यहीण सिरिनेमिचंदसूरीणं / जिनप्रशस्तं जिनानां गोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखहित उवएसाओ मज्झ-स्थयाय सिरिदेवसुरीहिं / / 1 / / प्रवृत्ताऽऽदिभेदानां प्रशस्तं निरुपमपथ्यान्नवत् उचितसेबनया हितम्, सिरिवीरचंदसूरी- ण सीसमत्तेहिँ विरइयं एयं / एवंभूतं जिनमतमनुचिन्त्य औत्पत्तिक्यादिभेदभिन्नया पर्यालोच्य तद् सिद्धंतजुत्तिजुत्तं,जीवस्सऽणुसासणं विमलं / / 2 / / जिनमतं श्रद्दधाना यद्यपि नाम काल वैगुण्यतो मेधाऽऽदिगुणहीनाः तह सयलागमपरम - स्थकणयकसवट्टलद्धउवमेहिं / प्राणिनस्तथाऽप्यतः स्वल्पमप्यधिगतं भवच्छेदा येत्याईचित्ततया सयलगुणरयणरोहण-गिरीहिँ जिणदत्तसूरीहिं / / 3 / / मन्यमानास्तथा तद् जिनमतमेव प्रीयमाणा असङ्गशक्तिप्रीत्या पश्यन्तः, सोहियमेयं अन्ने-सि सूरिपवराण सम्मयं किं च / तथा लजिनमतमेव रोचयन्तः सात्मीनाभावेनानुभवन्तः, क एते? जं एत्थ अणागमियं, तं गीयत्था वि सोहिंतु / / 4 / / इत्याह-स्थविरा भगवन्तः, तत्रधर्मपरिणत्यनिवृत्या संयमक्रियामतयः इतिः प्रकरणसमाप्तौ, श्रीसिद्धान्तमहोदधीनां शोभनाऽऽगम -- स्थविराः परिणतसाधुभावाः, आचार्या इति गर्भः। भगवन्तः बृहत्समुद्राणां श्रीने मिचन्द्रसूरीणामे तन्नामां श्रीमदुत्तराध्ययन श्रुतैश्वर्याऽऽदियोगात् / भगवन्तो वा कषायादीनिति भगवन्तः। लधुवृत्तिवीरचरितरत्नचूडाऽऽदिशास्त्रकर्तृणां बृहद्गच्छशिरोम णीनां पृषोदरादित्वान्नकारलोपः। जीवाजीवाभिगमनं नाम, नामन् निष्कलङ्कसिद्धान्तव्याख्यानशिक्षातो मध्यस्थतया रागाऽऽद्यभावत्वतः, शब्दस्यात्राव्ययत्वात्ततः परस्य तृतीयैकवचनस्य लोपः। जीवा - श्रीदेवसुरिभिः श्रीवीरचन्द्रसूरीणां निजदेशना वशलब्धनिर्मलकीर्तीनां नामेकेन्द्रियाऽऽदीनामजीवानां धर्मास्तिकायाऽऽदीनामभि -गमः शिष्यमत्तै विनेयगणे पद्गुणैर्विरचितं दृब्धमेतदिदं सिद्धान्तयुक्त परिच्छेदो यस्मिन् तद् जीवाजीवाभिगमः। इदं चान्वर्थप्रधानं नाम। यथा राद्धान्तयुक्तिसहितं,जीवस्याऽऽत्मनो भव्यस्य व अनुशासन बोधकं, ज्वलतीति ज्वलन इत्यादि / किं तदित्याह-अधीयत इत्यध्ययनम्. विमलं निर्मलम् / तथेति / किं च - सकलाऽऽगमपरमार्थकनककविशिष्टार्थध्वनिसंदर्भरूपं, प्रज्ञापितवन्तः प्ररूपितवन्तः। एतेन पपट्टलब्धोपमेः निःशेष सिद्धान्ततत्वचामीकरतत्परीक्षादक्षोपलगुरुपर्वक्रमलक्षणः संबन्धः साक्षादुपदर्शितः, एतदुपदर्शनादभिधेयाऽऽदि- प्राप्तोपमानः सकलगुणरत्नरोहणगि रिभिर्निखिलगुणमाणिक्यरोहणकमपि सिद्धम् / यथोक्तमनन्तरमिति कृतं प्रसङ्गेन / जी० 1 प्रति०। शैलैजिनदत्तसुरिभिरेतन्नाडकै : सप्तगृहनिवासिभिरिति यावत् /
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________________ जीवाणुसासण 1563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवाभिगम शोधितं निर्दोषीकृतमेतद् जीवानुशासनम् / अन्येषां महेन्द्रसुरिप्रमुखाणां सूरिप्रवराणामाचार्यवर्याणां सम्मतमभिप्रेत, किं त्तअपरं यदा प्रकरणे अनागमिकमुत्सूत्र, तद्गीतार्थाः सिद्धान्तविदः, शोधयन्तु निर्मलीकुर्वन्तु / इति गाथाचतुष्टयार्थः। प्रकारान्तरेण निजनाम कथयन् प्रकरणसंख्यामाह - देसवसुसूररीसा-हिंसाईवन्नकहियनामाहिं। पयरणमिणमो रइयं, तेवीसा-तिन्नि-सयगाहं / / देशवसुसूररीसाहिंसालक्षणा येशब्दाः, तेषुये आदिवर्णाः प्रथमाक्षराणि, तैः कथितं प्रतिपादितं, नामाभिधेयं येषां ते तथा, तैः, प्राकृतभाषया 'देवसूरीहिं' इत्यर्थः। प्रकरणं ग्रन्थसंदर्भः, इद्र प्रत्यक्षम्, ओइति निपातः पूरणार्थे / रचितमिति। आहअणहिल्लवाडनयरे, जयसीहनरेसरम्मि विजंते। दोहटिवसहिठिएहिं, वासट्ठीसूरनवमीए। अणहिल्लपट्टनगरे श्रीगूर्जराराजधान्यां जयसिंहनरेश्वरे श्रीकर्णकर्णिदेवराजसूनौ विद्यमाने सति दोहटिनामश्रावकवसतिस्थितैषिष्ट संवत्सरे एकादशशत उपरिष्टादिति शेषः 1162 / सूरेणाऽऽदित्यवारेण नवमी तिथिलक्षणा यस्यां रचितमिति पूर्वगाथोक्तक्रियासंबन्धादिति गाथार्थः। "एतस्य वृत्तिकरणे, पुण्यं यदुपार्जितं मया तेन। सुखितोऽस्तु भव्यलोकः, कुग्राहवियोगतो नित्यम् / / 1 / / मासेनैकेनेयं, सरस्वतीतोषतः कृता वृत्तिः। अणहिलपाटकनगरे, विजयिनि जयसिंहदेहनृपे॥२॥ दोहट्टिवसतिवासैः, श्रेष्ठिश्रीजासकस्य दानरुचेः। तदुपष्टम्भादपरं, च श्राविकाया वसुन्धर्याः / / 3 / / वीराऽऽदिपुत्रामातु - नित्यं जिनसाधुपूजनरतायाः। श्रीदेवसूरिभिरसौ, भव्यजने जातविमलदयैः // 4 // श्रीमद्भिर्नेमिचन्द्राख्य- सूरिभिः शोधिताऽऽदृतैः। वृत्तिरेषाऽतिगम्भीर - सिद्धसिद्धान्तपारगैः" // 5 // साम्प्रतमस्य प्रकरणस्याऽऽशीर्वादमाहजाव जिणसासणमिणं, एयं जीवाणुसासणं ताव। नंदउ लोए सिद्धं- तजुत्तिसारं कुमयहरणं / / प्रतीतार्था। येनाभिप्रायेणेदं प्रकरण का कृतं तमाविष्कुर्वन्नाह - पंडित्तणाभिमाणे-ण विरइयं नेय किं तु इय बोहो। धम्मरयपुव्वसूरी- ण चेट्ठिए जंति जइ जीवा ||1|| इयमपि तथैव। अधुना यावन्तोऽत्रा मुख्यतः प्रकरणेऽर्थाधिकाराः यन्नामदृष्टास्तान् संग्रहगाथापञ्चकेन स्मृत्यर्थमाहबिंबपइट्ठा 1 पासत्थनमण 2 पडिकमण 3 वंदणं 4 नंदी 5 / दाणनिसेहो 6 महमाल७पडिम 8 अविहीर अणुट्ठाणं / / 1 / / सिद्धबलि 10 पढऐं पासा उ११ चेइविहि 12 सूरिसंधनिंदं च 13-14 / पासत्थखेत्त 15 नाणहनिदं 16 गुरुगच्छवागं च 17-18 // 2 // बंभाइपूय 19 उस्सग्ग पढण 20 बलहीण 21 अविहिगमणं च 22 मलनिंद 23 सड्डिवक्खाण 24 सूडनमणं च 25 ओलग्गं 26 // 3 // संजइकहणं 27 जिणकुसुमपूय 28 सुद्धग्गहं च 26 तवनिंदा 30 / मिच्छइचेइ 31 मिच्छ 32 अपमाणवेस 33 अस्संजया 34 पाणे 35 // 4|| चारित्तसत्त 36 आयरण 37 गुणथुई 38 एएँ होंति अडतीसा। अहिगारा उइम्म० मी, जीवस्सऽणुसासणे विमले // 5 // एतदर्थश्च पूर्वोक्ताधिकारवशतो ज्ञेयः। जीवा०३६ अधि। जीवाभिगम पुं० (जीवाभिगम) जीवानां ज्ञेयानामवध्यादिनैवा-भिगमो जीवाभिगमः / गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षतः सत्त्वाभिगमे, स्था०३ ठा० २उ०॥ से किं तं जीवाभिगमे ? जीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहासंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य, असंसारसमावण्णगजीवाभिगमे य॥ संसरणं संसारो नारकतिर्यड्नरामरभवग्रहणलक्षणस्तं सम्यक एकीभावेनाऽऽपन्नाः प्राप्ताः संसारसमापन्नाः संसारवर्तिनः, ते च ते जीवाश्च, तेषामभिगमः संसारसमापन्न जीवाभिगमः / तथा-न संसारोऽसंसारः संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्ष इत्यर्थः / तं समापन्ना असंसारसमापन्नाः, तेच ते जीवाश्च, तेषामभिगमोऽसंसारसमापन्नजीवाभिगमः / चशब्दावुभयेषामपि जीवानां जीवत्वं प्रति तुल्यकक्षलासूचकौ। तेन ये विध्यातप्रदीपकल्पं निर्वाणमभ्युपगतवन्तः, ये च नयानामात्मगुणानामत्यन्तोच्छेदेन, ते निरस्ता द्रष्टव्याः, तथाभूतमोक्षाभ्यु-पगमे तदर्थ प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यनुपपत्तेः / न खलु सचेतनः स्ववधाय कण्ठे कुठारं व्यापारयति, दुःखितोऽपि हिं जीवन् कदाचिद्भद्रमा प्नुयात्, मृतेन तु निर्मूलमपहास्तिताः संपद इति / इह केवलान् अजीवान्जीवांश्चानुच्चार्य अभिगमशब्दसंवलितः प्रश्नोऽभिग मव्यतिरेकेण प्रतिपत्तेरसंभवः, ततस्तेषामभिगम्यतेधर्मख्यापनार्थः, तेन सदेवेदमित्यादिसदद्वैताऽऽद्यपोह उक्तो वेदितव्यः / सदद्वैताऽऽद्यभ्युपगमेऽभिगमः गम्यतारूपधर्मानुयोगतः प्रतिपत्तेरेवासंभवात्। जी०१ प्रति०।"तिहिं दिसाहि जीवाण जीवभिगमे पण्णत्ते / तं जहा-उड्ढाए, अहो, तिरियाए। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, एवं अणुस्साण वि' / / स्था० 3 ठा० / 'छहिं दिसाहिं जीवाणं जीवाभिगमे पण्णत्ते / पाईणाए० जा अहाए, एवं पंचिदियतिरिक्खजोणियाण, वि माणुस्साण वि"। स्था० 6 ठा० / जीवानामुपलक्षणत्वादजीवानां चाभिगमो ज्ञानं यत्र स जीयाभिगमः। स्थानाङ्गस्योपाङ्ग भूतेऽङ्ग बाह्ये उत्कालिकश्रुतविशेषे च / पा०ानं०।
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________________ जीवि(ण) 1564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीविय जीवि (ण) पुं०(जीविन्) प्राणधारके, "जे एते एव जीविणो।' य एते यतय एवं जीवन्ति परगृहाण्यटन्तोऽन्तप्रान्तभोजिनो दत्ताऽऽदाना लुञ्चितशिरसः सर्वभोगवञ्चिता दुःखितं जीवन्तीति। सूत्र० श्रु०३ अ० १उ०। जीविउकाम त्रि० (जीवितुकाम) दीर्घकालमायुष्काभिलाषिणि, 'अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा।' यत एव प्रियजीविनोऽत एव दीर्घकालं जीवितुकामा:-दीर्घकालमायुष्काभिलाषिणः। (आचा०) "जीविउकामे लालप्पमाणे''। जीवितुकाम आयुष्कानुभवनमभिलषमाणः। आचा०१ श्रु०२ अ० 3 उ०। जीविओसविय त्रि० (जीवितोत्सविक ) जीवितस्योत्सव इव जीवितोत्सवः, स एव जीवितोत्सविकः / राधा ज्ञा०ा जीवितविषये वा उत्सवो महः, य इव यः स जीवितोत्सविकः। भ०1"जीविओसविए। भ०६ श०३३ उ०। रा०। ज्ञा०। रा०। जीविओसासिय त्रि० (जीवितोछवासिक) जीवितमुच्छवासयति वर्द्धयतीति जीवितोच्छवासः, स एव जीवितोच्छवासिकः। जीवितवर्द्धक, भ०६ श०३३ उ०। ज्ञा०। जीवियन० (जीवित) प्राणधारणे, रा०। प्रश्न०। विशे०। ज्ञा०। आव०। आनु० / नि०। "जीवियं णाभिकंखेज्जा / " जीवितं प्राणधारणलक्षणं नाभिकाङ्केत / आचा०१ श्रु० 8 अ०८ उ०/"ते वीरा बंधणोमुक्का, नावकंखंति जीवियं।" जीवितमसंयमजीवितं प्राणधारणं वा। सूत्रा०१ श्रु०६ अ०। "जीवितं दुविहसंजमजीवियं, असंजमजीवियं च / नि० चू०१उ०। फुसियमिव कुसग्गे पणुण्णं सण्णिवइयं वातेरियं एवं बालस्स जीवियं। कुशाग्रोदकबिन्दुमिव बालस्य जीवितमिति संबन्धः / तत्किं - भूतमित्याह - "पणुन्नं' इत्यादि / प्रणुन्नमनवरताऽपराऽपरोदकपरमाणूपचयात् प्रणुन्नं प्रेरितं, वातेने रितं संनिपतितंभाविनि भूतवदुपचारानिपतदेव, निपतितं, दार्शन्तिकं दर्शयत्येवमिति-यथाकुशाग्रमित्येवमिति / यथा-कुशाग्रे विन्दु क्षणसंभावितस्थितिकः, एवं बालस्यापि जीवितम्, अवगततत्त्वो हि स्वयमेवावगच्छति। आचा०१ श्रु०५ अ०१उ०। जीवितं दशधा। तथा चाऽऽह - नामं ठवणा दविए, ओहे भव तब्भवे य भोगे य। संजम जस कित्ती जी-वियं च तं भन्नए दसहा।। तद् जीवितं दशधा भण्यते। तद्यथा- नामजीवितं स्थापनाजीवितं, द्रव्यजीवितम्, ओघजीवितं, भवजीवितं, तद्भयजीवितं, भोगजीवितं, | संयमजीवितं, यशोजीवितं, कीर्त्ति-जीवितं च / एष गाथासमासार्थः / व्यासार्थ तु भाष्यकारः स्वयमेव वक्ष्यति। तत्रा नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य शेषभेदव्याख्यानार्थमाहदव्वे सचित्तादी, आउयसद्दव्वयाभवे ओहे। नेरइयाईण भवे, तब्भव तत्थेव उववत्ती॥ द्रव्ये द्रव्यविषयं जीवितं, द्रव्यजीवितमित्यर्थः / सचित्ताऽऽदिसचित्तमचित्तं, मिश्रं च / इह कारणे कार्योपचाराद् येन द्रव्येण सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन पुत्राहिरण्योभयरूपेण यस्य यथा जीवित मायत्तं तस्य तथा तत्रा द्रव्यजीवितमुच्यते / उक्तं द्रव्यजीवितम्। (आउयसह-व्वयाभवे ओहे) ओघजीवितं सामान्यजीवितमायुः सद्रव्यता आयुः प्रदेशकर्म, तस्य द्रव्यैः सह मानता आयुःसद्रव्यता, आयुःकर्मद्रव्यसहचारिता, जीवस्येत्यर्थः / इदं च सामान्यजीवितं सकलसंसारिणामविशेषेण सर्वदा भावि, तत इदमङ्गीकृत्य यदि पर सिद्धा एव मृताः, न पुनरन्ये केचन। उक्तमोघजीवितम् / नैरयिकाऽऽदीनां नैरयिकतिर्यड्नरामराणां भवे स्वस्वभवे स्थितिर्भवजीवितम् / उक्तं भवजीवितम्। (तब्भव तत्थेव उववत्ती) तस्मिन् भवे भूयो भूयो जीवितं तद्भवजीवितम्। किं तदित्याह -- तत्रौवोत्पत्तिः तत्र तस्मिन्नधिकृते तिर्यग्भवे, मनुष्यभवे वा स्वकायस्थित्यनुसारेण भूयो भूय उत्पत्तिः / इदं चौदारिकशरीरिणामेवावसातव्यम्, अन्यत्रा निरन्तरं भूयोभूयस्तावोत्पत्यभावात् / उक्तं तद्भजीवितम्। भोगम्मि चक्किमाई,संजमजीयं तु संजयजणस्स। जसकित्ती य भयवतो, संजम नरजीव अहिगारो।। भोगे भोगजीवितं चक्रवादीनाम, आदिशब्दाद् बलदेववासुदेवाऽऽदिपरिग्रहः / उक्तं भोगजीवितम् / संयमजीवितं संयतजनस्य साधुलोक स्य / उक्तं संयमजीवितम् / यशः कीर्ति भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः / ततो यशोजीवितं कीत्तिजीवित च भगवतः प्रतिपत्तव्यम् / यशः कीयोश्चायं विशेष :- "दानपुण्यफला कीर्तिः पराक्रमकृतं यशः / " अन्ये त्विदमेकमेवाभिदधति, के वलं संयमप्रतिपक्षभावतो दशमसंयमजीवितमविरतगतं प्रतिगहन्ति / आ० म० 1 अ०२ खण्ड। विशे० / आ० चू० / जीवन्त्यनेनाऽऽयुष्कर्मणेति जीवितम्। प्राणधारणाऽऽत्मके आयुषि, आचा० 1 श्रु० 1 अ० 1 उ० / "जीवियं दुप्पडिवूहणं" जीवितमायुष्कं तत् क्षीणं सत् दुष्प्रतिवृहणीयं दुरभावार्थो, नैव वृद्धि नीयते इति यावत्। आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ० / अथवा जीवितमायुष्कमसंयमजीवितं वेति। आचा० 1 श्रु० 2 अ० 2 उ०। "णो जीवियं णो मरणाहिकंखी।" जीवितमसंयमजीवितं, दीर्घायुष्कं वा। सूत्रा०१ श्रु०१३ अ०। "ण य संखयमाहु जीवियं, तह वि य बालजणो पगब्भइ / " न च चैव जीवितमायुष्कं कालपर्यायण शुटितं सत् पुनः (संखयमिति) संस्कर्तुं तन्तुवत्संधातुं शक्यते, इत्येवमाहुस्तद्विदः, तथाऽप्येवमपि व्यवस्थिते, बालोऽज्ञोजनः प्रगल्भते पापं कुर्वन् धृष्टो भवति, असदनुष्ठानरतोऽपि न लज्जत इति। सूत्रा०१ श्रु०२ अ० 2 उ० / न च नैव शुटितं जीवितमायुः संस्कर्तुं संधातुं शक्यते, एवमाहुः सर्वज्ञाः / तथाहि - "दंडकलियं करित्ता, वचंति हु राइओ य दिवसा य / आऊस चेल्लंता, गया य पुण नाणानियतं ति ||1 // " तथाऽप्येवमपि व्यवस्थिते जीवानामायुषि बालजनोऽन्यो लोको निर्विवेकतया असदनुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वन् प्रगल्भते धृष्टतां याति, असदनुष्ठानेनापि न लज्जत इत्यर्थः। सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। कुसग्गे जह ओसविंदुए, थोवं चिट्ठइ लंवमाणए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए ||2|| हे गौतम ! समयमात्रामपि मा प्रमादीः / तद्धेतमाह- यथा कुशस्यागे अवश्यायबिन्दुर्लम्बमानः सन् स्तोकं स्तोककालं तिष्ठति वाताऽऽदिना प्रेर्यमाणाः सन् पतति, तथा मनुष्याणां जीवितम् आयुरस्थिरं ज्ञेयम्। एवमायुषोऽनित्यत्वं ज्ञात्वा धर्मे प्रमादोन विधेय इत्यर्थः / / 2 / / इह इत्तरियम्मि आऊए, जीवियए बहुपचवायए। विहुणाहि रयं पुरा कडं, समयं गोयम ! मा पमायए ||3||
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________________ जीविय 1565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जीवियासंसप्पओग इत्युक्तदृष्टान्तेन, इत्वरे स्वल्पकालपरिमाणे, मनुष्याऽऽयुषिभो गौतम ! पुरा कृतं रजः प्राचीनकृतं पातकं दुष्कर्म, विशेषेण धुनीहि जीवात् पृथक कुरु। हे गौतम ! पुनर्जीवितिके अर्थात् सोपक्रमे आयुषि, बहवः प्रत्यवाया उपघातहेतवोऽध्यवसायाऽऽदयो वर्तन्ते यस्मिन् तद् बहुप्रत्यवायकं, तस्मिन् बहुप्रत्यवायके, समयमपि मा प्रमादं कुर्याः / अत्राऽऽयुःशब्देन निरुपक्रम आयुर्भण्यते, जीवितशब्देन सोपक्रम भण्यते / एतिप्राप्रोति उपक्रमहेतुभिरनपवर्त्यतया यथास्थित्या एव अनुभवन्निति आयुः। तरिमन्नायुषि निरुपक्रमे आयुषि स्वल्पपरिमाणेऽपि दुष्कृतं दूरीकुरु।। यद्यपि पूर्वकोटिप्रमाणयुर्भवति, तथापि देवापेक्षया स्वल्पमेव ज्ञेयम्, अतृप्तत्वात्। यदुक्तम् - "धनेषु जीवितव्येषु, रतिकामेषु भारत ! अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे, याता यास्यन्ति यान्ति च / / 1 / / " अत्रा सोपक्रमनिरुक्रमायुर्ज्ञानं केवलिन एव भवेत्। उत्त०१० अ०। ता किमत्थं आउसो ! नो एवं चिंतेयव्वं भवइ / अंतराय - बहुले खलु अयं जीविए, इमे बहवे वाइयपित्तियसिंभियसंनिवाइया विविहा रोगाऽऽयंका फुसंति जीवियं / / तावदादौ किमर्थं नैवं चिन्तयितव्यम्, हे आयुष्मन् ! त्वं श्रृणु, यतो भवति अन्तरायबहुलं विधप्रचुरमिदं, खलु निश्चये, जीवितमायुर्जीवानाम् / तथा इमे प्रत्यक्षा बहवो वातिका वातरोगोद्भवाः, पैत्तिकाः / पित्तरोगजाः (सिंभिए त्ति) श्लेष्मभवाः, सान्निपातिकाः सन्निपातजन्याः, विविधा अनेकप्रकारा रोगा व्याधयः,ते च ते आतङ्काश्च कृच्छ्रजीवितकारिण इति रोगाऽऽतङ्का जीवितं स्पृशन्तीति / तं० / शरीरे, उत्त० 10 अ०। भगवान् श्रीमहावीरदेवो गौतमस्वामिनमुद्दिश्यान्यानपि भव्यजीवानुपदिशतिदुमपत्तएँ पंडुए जहा, निवडइराइगणाण अच्चए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए / / 1 / / हे गौतम! एवमतेन दृष्टान्तेन, मनुजानां मनुष्याणां, जीवितं जानीहि, त्वं समय समयमात्रमपि, मा प्रमादीः प्रमादं मा कुर्याः / अत्रा समयमात्रग्रहणमत्यन्तप्रमादनिवारणार्थ, अनेन केन दृष्टान्तेन? तद् दृष्टान्तमाह - यथा रात्रिगणानामत्यये गमने, रात्रीणांगणा रात्रिगणाः कालपरिणामाः रात्रिदिवससमूहाः, तेषामत्ययेऽतिक्रमे पाण्डुरं द्रुमपत्रक पक्कं वृन्तात शिथिलप्रायं पर्णं निपतति, तथैव दिनानामत्यये आयुर्लक्षणे वृन्ते शिथिले जाते सति जीवितं शरीरं पतति / जीवो जातो यस्मिन् तज्जीवितं, शरीरमित्यर्थः / जीवितस्य कालस्य विनाशाभावाद् जीवितशब्देन शरीरमुच्यते / उत्त० 10 अ० / जीवितमिव जीवितम्। द्वादशाङ्गे श्रुते, मर्यादायां च। विशे०। आ० म०। जीवियंतकरणपुं० (जीवितान्तकरण) प्राणवधे, प्राणवधस्य चैतद् गौणं नाम / प्रश्न०१आश्र० द्वार। जीवियहि (ण) पुं० (जीवितार्थिन्) जीवितुकामे, "जो वा विसं खायइ जीवियट्ठी।"दश०६ अ०१ उ०। आचा०। सूत्रा० / 'आयं न कुजा इह जीवियडी।' इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतकालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी आयं कर्माऽऽश्रवलक्षणं न कुर्यात्। सूत्रा०१ श्रु०१० अ०। | जीवियणाम (ण) न० (जीवितनामन) जीविकाहेतौ नामनि, | अनु० / "से कि तं जीवियणामे ? जीवियणामे अवकरए उकुरुडिए उंभिअए कजवए सुप्पए। सेत्तं जीवियणामे।''"से किं तंजीवियणामे" इत्यादि / इह यस्या जातमात्रमपत्यं म्रियते सा लोकस्थितिवैचित्र्याजातमात्रमपि किश्चिदपत्यं जीवननिमित्तमवकराऽऽदिष्वस्यति तस्य चावकरक उत्कु रुटक इत्यादि यन्नाम क्रियते तज्जीविकाहेतोः स्थापनानामाऽऽख्यायते। (सुप्पए ति) सूर्यं कृत्वात्यज्यते, तस्य सूर्पक एव नाम स्थाप्यते, शेष प्रतीतम्। अनु० / जीवियभावणा स्त्री० (जीवितभावना) जीवसमाधानकारिण्यां भावनायाम्, सूत्र०। यथा भूतेषु मैत्री संपूर्णभावमनुभवति तथा दर्शयितुमाह -- भूएहिं न विरुज्झेजा, एस धम्मे बुसीमओ। साहू जगं परिन्नाय, अस्सिं जीवितभावणा / / 4 / / ''भूएहिं" इत्यादि / भूतैः स्थावरजङ्ग मैः सह विरोधं न कुर्यात. तदुपघातकारिणमारम्भं तद्विरोधकारणं दूरतः परिवर्जयेदित्यर्थः / स एषोऽनन्तरोक्तो भूताविरोधकारी, धर्मः स्वभावः, पुण्याऽऽख्यो वा, (बुसीमओ त्ति) तीर्थकृतोऽयं सत्संयमवतो वेति / तथा सत्संयमवान् साधुस्तीर्थकृज्जग च्चराचरभूतग्रामाऽऽख्यं केवलाऽऽलोकेन सर्वज्ञप्रतीताऽगमपरिज्ञानेन वा परिज्ञाय सम्यगवबुध्यास्मिन् जगति मौनीन्द्रे वा धर्मे भावनाः पञ्चविंशतिरूपा द्वादशप्रकारा वा या अभिमतास्ता जीवितभावना जीवससाधानकारिणीः सत्संयमाङ्ग तया मोक्ष - कारिणीवियदिति। सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। जीवियमरणनिरवकंख त्रि०(जीवितमरणनिरवकाक्ष)जीवितमरणयोर्विषये निरवकासो जीवितमरणानिरवकाङ्क्ष / जीवितमरणयोर्विषये वाच्छारहिते, कल्प०६ क्षण / जीवियरसभ पुं० (जीविकरसभ) साधारणशरीरबादरवनस्पति कायिकभेदे, प्रज्ञा०१ पद। जीवियरेहा स्त्री० (जीवितरेखा) मणिबन्धादुत्थाय तर्जन्यङ्गुष्ठ कान्तर्गतायां रेखायाम्, कल्प०। 'मणिबन्धात्पितुर्लेखा, करभाद्विभवायुषोः / लेखे द्वे यान्ति तिस्रोऽपि, तर्जन्यपृष्ठकान्तरम् / / 11 / / येषा रेखा इमास्तिस्रः, संपूर्णा दोषवर्जिताः। तेषां गोत्रधनायूंषि, संपूर्णान्यन्यथा न तु॥१२।। उल्लध्यन्ते च यावन्त्यो–ऽङ्गुल्यो जीवितरेखया। पञ्चविंशतयो ज्ञेया-स्तावन्त्यः शरदां बुधैः" ||13|| कल्प० १क्षण। जीविया स्त्री० (जीविका) 'जीव' आकन-इत्वम्। जीवनोपाये, आजीवने च।वाच० / वृत्तौ, स्था० 4 ठा०२ उ०। आजन्मनिर्वाह, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। कल्प०। "सा जीविया पट्टविया चिरेण। " सूत्रा०२ श्रु०६ अ०। जीवियारिह त्रि० (जीविकाऽह) जीविकोचिते, भ०११श०११ उ०। आजन्मनिर्वाहयोग्ये, "विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ। " ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / कल्प० / औ०। जीवियासंसप्पओग पुं० (जीविताऽऽशंमाप्रयोग) जीवितं प्रत्याशंसा चिरं मे जीवितं भवन्विति जीविताऽऽशंसाप्रयोगः / आशंसा
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________________ जीवियासंसप्पओग 1566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुउंछ आय०1 प्रयोगभेदे, स्था० 10 ठा० / जीवितं प्राणधारणं, तदाशंसायास्तभि- / 10 / लाषस्य प्रयोगः, यदि बहुकालमहं जीवेयमिति। संलेखनायास्तृतीयेs- जीहादुट्ठपुं० (जिह्वादुष्ट) जिब्भादुट्ट' शब्दार्थे, आव० 4 अ०। तिचारे, उपा० 1 अ० / तथा कश्चित्कृतानशनः प्रभूतपौरजनवात- | जीहादोस पुं० (जिहादोष) जिब्भादोस' शब्दार्थे, आव० 4 अ०। विहितमहामहः सततावलोकनात्प्रचुरवन्दारुवृन्दवन्दनसंमर्ददर्शनात् जीहादोसणिवुत्त त्रि० (जिह्वादोषनिवृत्त) रसगृद्धिरहिते, बृ० 1 उ०। अस्तोकविवेकिलोकसत्कृतश्लोकसमाकर्णनात्पुरतः संभूय भूयो भूयः जीहामयदुक्ख न० (जिह्वामयदुःख) जिब्भामयदुक्ख' शब्दार्थे, स्था० सद्धार्मिकजनविधीयमानोपवृंहणश्रवणात् अनघसमस्तसङ्घजनमध्य- | 5 ठा० 2 उ०। समारब्धपुस्तकवाचनवस्त्रमाल्याऽऽदिसत्कारनिरीक्षणाश्चैवं मन्यते- जीहामयसोक्ख न० (जिह्वामयसौख्य) "जिब्भामयसोक्ख' शब्दार्थे, प्रतिपन्नानशनस्यापि मम जीवितमेव सुचिरं श्रेयः, यत एवंविधा स्था०५ ठा०२ उ०। मदुद्देशेन विभूतिर्वर्तत इति जीविताऽऽशंसाप्रयोगः / ध० 2 अधि०। जीहिंदियन० (जिह्वेन्द्रिय) जिभिंदिय' शब्दार्थे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। आ० चू० / आ०। जीहिंदियनिग्गह पुं० (जिह्वेन्द्रियनिग्रह) "जिभिंदियनिग्गह' शब्दार्थे, जीवियासंसा स्त्री० (जीविताऽऽशंसा) प्राणधारणाभिलाषायाम, उपा० उत्त०२६ अ०। 1 अ०। जीवितं प्राणधारणं, तत्रा पूजाविशेषदर्शनात्, प्रभूतपरिवाराऽ- जीहिंदियसंबर पुं० (जिह्वेन्द्रियसंबर) जिभिंदियसंबर' शब्दार्थे, प्रश्न० ऽदिविलोकनात् सर्वलोकश्लाघाश्रवणाच्च एवं मन्यतेजीवितमेव श्रेयः, / 5 संव० द्वार। प्रत्याख्यातचतुर्विधाऽऽहारस्यापि यत एवंविधा मदुद्देशेनेयं विभूतिवर्तते / जु पुं० (जु) वेगे, नभसि, स्वके, गतौ स्त्री०। एका०। इत्याशंसेति तृतीयः / जीविताऽऽशंसासंलेखनायास्तृतीयेऽतिचारे, ध० युत्रि. यौति पृथग्भवतीतियुः, विचिछान्दसत्वाद्गुणाभावः / पृथग्भूते, 3 अधि०। जै० गा० / अपृथग्भूते च। 'यु मिश्रणेऽमिश्रणे चेति वचनात्। जै० गा० / जीवियासा स्त्री० (जीविताऽऽशा) जीवितप्राप्तिसंभावनायाम्, भ० 12 जुअल (देशी) - तरुणे, दे० ना०३ वर्ग। श०५ उ० / जीवितस्य प्राणधारणस्याऽऽशा वाञ्छा जीविताऽऽशा। | जुअलिअ ( देशी) द्विगुणिते, दे० ना०३ वर्ग। प्राणधारणवाच्छायाम, रा० / नि० / ज्ञा० / लोभकषायभेदे, स० 52 // जुइ ती (द्युति)-स्त्री० द्युत इन् वाडीप। "द्यय्यां जः" / / 2 / 24 // जीवियासामरणभयविप्पमुक्क त्रिी० (जीविताऽऽशामरणभयविप्रमुक्त) इति प्राकृतसूत्रोण जः। प्रा०२ पाद / स्फुरणे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। जीवितस्य प्राणधारणस्याऽऽशा वाञ्छा मरणाश्च यद्भयं, ताभ्यां शरीराऽऽभरणाऽऽदिदीप्तौ, स० 30 सम० / औ० / सूत्रा० / विप्रमुक्तो जीविताऽऽशामरणभयविप्रमुक्तः / जीविताऽऽशामरण द्युतिवक्तव्यताप्रतिबद्ध निरयाऽऽवलिकोपाङ्गस्य वृष्णिदभयोपेक्षके, नि०१ वर्ग 1 अ० / ज्ञा० / रा०। / शानामकपञ्चमवर्गस्य षष्ठेऽध्ययने, नि०१ वर्ग०। (तद्वक्तव्यता जीवुप्पत्ति स्त्री० (जीवोत्पत्ति)त्रसस्थावरान्यतप्राणिप्रादुर्भाव, सेन०। निशठवत्, सा च 'निसढ' शब्दे वक्ष्यते) आन्तरे तेजसि, ज्ञा०१ श्रु०८ अथवृद्धपं कनकविजयगणिकृतप्रश्नाः, तदुत्तराणि च-अचित्ताशनाऽ- अ०। तपोदीप्तौ, तेजोलेश्यायाम्, उत्त०१ अ०। माहात्म्ये च, द्युतिः ऽदिचतुष्कमध्ये रात्रौ असजीवानां स्थावरजीवानां चोत्पत्तिर्भवति, न प्रेमा माहात्म्यमित्यर्थः / स्था० 6 ठा० / कान्तौ, शोभायाम, प्रकाशे वा? इति प्रध्ने, उत्तरम्-रात्रावचित्ताशनाऽऽदिचतुष्कमध्ये च / वाच० / 'जुक्तिन / इटार्थसम्प्रयोगे च, 'जु' अभिगमने इति "तजोणिआण जीवाणं, तहा सपाइमाण य / निसि भत्ते यहो दिट्ठो, वचनात् / जी०३ प्रति०। प्रज्ञा० / सव्वंदसीहि सव्वहा'' ||1 // इतिश्राद्धदिनकृत्यसूत्रवचनात्, तथा- * युति स्त्री० / पुं० / क्तिन् / मिश्रीकरणे, प्रव०६ द्वार / युक्ती, "अक्खइ तिहु अणणाहो, दोसो संसत्ति होइ राईए / भत्ते तग्गंधरसा, इष्टपरिवाराऽऽदिसंयोगे, स्था०। (जुइ त्ति) द्युतिर्दीप्तिः शरीराऽऽभरणारसेसु रसिअ, जिआ हुति'' ||1 / / इति बूटकगाथाऽनुसारेण च ऽऽदिसंभवा, युतिर्वा युक्तिरिष्टपरिवाराऽऽदिसंयोगलक्षणेति / स्था० 3 स्थावरजीवोत्पत्तिः संभाव्यते, नता त्रासजीवानाम, राशियोगादिति। ठा०३ उ०। वस्तुघटनायां च, (सव्वज्जुईए) सर्वद्युत्या ऽऽभरणाऽऽ४८ प्र०। सेन 2 उल्ला०। दिसंबन्धिन्या सर्वयुक्त्या वा उचितेषु वस्तुघटना लक्षणयेति / ज्ञा०१ जीवोद्धरण न० (जीयोद्धरण) मन्त्रशास्त्रभेदे, स्था० 6 ठा०। श्रु०१ अ० / स्था० / धुत्या यथाशक्ति विस्फारितेन शरीराऽऽभरणजीह ध० (लस्ज) व्रीडायाम्, भ्वादि० –आत्म० -अक० -सेट् / तेजसेंति। आ० म०१ अ०१ खण्ड। "लस्जेर्जीहः"||४|१०३॥ इति प्राकृतसूत्रेण लस्जेजींहाऽऽदेशः। | जुइमंत्रिी० (धुतिमत) द्युतिर्दीप्तिरतिशायिनी विद्यते यस्य सः / उत्त०५ जीहइ, लज्जइ। प्रा०४ पाद / लज्जते, अलजिष्ट / निष्ठायामनिट, तस्य अ०। दीप्तिमति, सूत्रा०१ श्रु०६ अ०। तेजस्विनि, उत्त०१८ अ०। नः। लग्नः / वाच०। आचा०। जीहगार पुं० (जिहाकार) 'जिब्भगार' शब्दार्थे , प्रज्ञा० 1 पद। जुई स्त्री० (द्युति) द्युत इन् डीप् / 'जुइ शब्दार्थे, प्रा०२पाद। जीहा स्त्री० (जिह्वा) 'जिब्भा' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद / रसनेन्द्रिये, बृ० / जुउंछ स्त्री० (जुगुप्स) 'गुप्' निन्दायां स्वार्थे सन्। "जुगु -
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________________ जुउंछ 1567 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुग प्सेझुण-दुगुच्छ-दुगंछाः" ||84 / 4 / / इति प्राकृतसूत्रोण जुगुप्सेरेते त्रय आदेशाः / फुणइ, दुगुच्छइ, दुगंछइ / पक्षेजुगु -च्छइ / गलोपेदुउच्छइ, दुउँछ।। पक्षे-जुउच्छइ, जुउंछइ। प्रा० 4 पाद। वाच०।। जुउंघिय त्रि० (जुगुप्सित) निन्दिते, नि० चू० 4 उ०। जुंगिय पुं० (जुङ्गिक) जातिकर्मशरीराऽऽदिभिदूर्षते, ग० / जातिकर्मशरीराऽऽदिभिर्दूषितो जुङ्गितः / तत्रा मातङ्ग कौलिकवरुट-- | सूचिकछिम्पकाऽऽदयोऽस्पृश्या जातिजुङ्गिता स्पृश्या अपि. स्त्रीमयूर- कुक्कुटाऽऽदिपोषकाः वंशवरत्राऽऽरोहणा नापितसौकरिकवागुरिकत्वाऽऽदिनिन्दितकर्मकारिणः कर्मजुङ्गिताः, करचरणकर्णाऽऽदिवर्जिताः पङ्गु कुब्जवामनककाणप्रभृतयः शरीरजुङ्गिता। ग०१ अधि०।। ध० 1 व्य० / नि० चू०। (जुङ्गितस्य दीक्षाऽनर्हत्वं 'आयरिय' शब्दे द्वितीयभागे 322 पृष्ठे उक्तम्) वितियपदे दिक्खेज्जाजाहे य माहणेहिं, परिभुत्ता कम्मसिप्पपडिविरता। अट्ठाणए विदेसे, दिक्खा से उत्तिमढे य॥४१॥ जाहे जु गितो महायणमाहणे हिं परिभुत्तो ताहे दिक्खिजति, कम्मसिप्पविरता माहणादिभुत्ता तया दिक्खिजति, सरीरजुंगितो अ दिक्खित्तो उत्तिमट्टे वा। नि० चू०११ उ०१ पं० भा०। पं० चू०।। जुङ्गित पु०। जातिकर्मशरीराऽऽदिभिर्दूषिते, ग०१ अधि०। खण्डीकृते, व्य०३ उ०। पिं०। जुंगियंग त्रि० (जुङ्गिताङ्ग) व्यङ्गिते, स्था०५ ठा० 3 उ०। कर्त्तितहस्त पादाऽऽद्यवयवे, पिं०। जुंज धा०(युज) बन्धने, युतौ च / चुरा० उभ० / पक्षेभ्वादि० -- पर०सक० - सेट् / "युजो जंजजुज्जजुप्पाः " ||8|4|106 / / इति प्राकृतसूत्रेण युजेरेते त्रय आदेशाः। जुजइ, जुजइ, जुप्पइ। योजयति, योजयते। प्रा० 4 पाद / योगे, समाधौ, दिवा० - अक० - अनिट् / युज्यते, अयुक्त। वाच०। 'झुंजइ य जहत्थाम।' 'युजिर् योगे, योजयति च। नि० चू०१ उ०। झुंजण न० (योजन) 'युज्' भावादौ ल्युट् / संयोगे, णिव ल्युट / संयोगकरणे, वाच० / व्यापारणे, "इंदियाण य जुंजणे' श्रोत्रनेत्रारसनानासात्वगादीनामिन्द्रियाणां शब्दरूपरसगन्ध-रूपर्शाऽऽदिविषयेषु व्यापारणे, उत्त०२४ अ०। “सव्विंदियजोगजुंज णया।" स्था०७ ठा०। जुजणा स्त्री० (योजना) व्यापारणे, आ० म०१ अ०२ खण्ड। जुंजणाकरण न० (योजनाकरण) मनःप्रभृतीनां व्यापारणकरणे, नोश्रुतकरणभेदे च। नोश्रुतकरणभेदमधिकृत्य-"तह य झुंजणाकरणं / ' योजनाकरणं च मनःप्रभृतीनां व्यापारणम्। (आ०म०) साम्प्रतं योजनाकरणं व्याचिख्यासुराहजुंजणकरणं तिविहं, मणवयकाए मणसि सच्चाई। सट्टाणे तब्भेदो, चउ चउहा सत्तहा चेव / / योजनाकरणं त्रिविधम् / तद्यथा-मनोवाक्काये मनोवाकायविषयंमनोविषयं, वागविषयं, कायविषयं चेत्यर्थः / तत्रा मनसि सत्याऽऽदिकं यद् योजनाकरणम् / तद्यथा-सत्यमनोयोजनाकरणम्, असत्य मनोयोजनाकरणम्, सत्यामृषामनोयोजनाकरणम्, असत्यामृषामनोयोजनाकरणमिति / स्वस्थाने प्रत्येकं मनोवाकायलक्षणे, तेषां योजनाकरणानां, भेदो विभागो वक्तव्यः। तद्यथा-चतुर्दा, चतुर्धा, सप्तधा चैवेति / अयमत्रा भावार्थ :- चतुर्भेदं सत्यमनोयोजनाकरणाऽऽदि दर्शितम्, एवं वाग्योजनाकरणमपि सत्यवाग्योजनाकरणमिति / आ० म०१अ०२ खण्ड। आ० चू०। झुंजुरुडो (देशी) अपरिग्रहे, दे० ना०३ वर्ग। जुगंछ जुगुप्स - 'जुउंछ शब्दार्थे, प्रा० 4 पाद। जुग धा० (जुग) त्यागे, भ्वादि०-पर०-सक०-सेट्, इदित्। युङ्गिति, अयुङ्गीत्। वाच०। * युग-धा०। वर्जने, भ्यादि०-पर०-सक० -- सेट्, इदित्। वाच०। * युगि - अच, पृषो० - नलोपः / युग्मे, द्वित्वसंख्याऽन्विते, वृद्धिनामौषधे, हस्तचतुष्क परिमाणे च / न० / वाच० / चतुर्हस्त -प्रमाणे यूपे, प्रव० 104 द्वार / प्रश्न० / स्था० / भ०॥ तं०जी०। शकटाङ्ग विशेषे,०३ वक्ष०।"दुईते भंजए जुगं।" युगंजुसरम्। उत्त० 2 अ०। "उसु चोइया तत्तजुगेसु जुत्ता।" सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०।"सुजायजुगजुत्तछजुगप-सत्थसुविरइयनिम्मियं / " उपा० 2 अ० / ज्ञा० / शकटाङ्ग-विशेषाऽऽत्मके करचरणस्थे पुरुष लक्षणाविशेषे, जं०३ वक्ष। चतुर्विशत्यङ्गुलमानैश्चतुर्भिहस्तैर्नि ष्पन्नेऽवमानप्रमाण-साधनेऽवमानविशेषे, अनु०॥ यदवमीयते खाताऽऽदि तदव-मानम्। केनावमीयते ? इत्याह- "हत्थेण वा दंडेण वा धणुझेण वा जुगेण वा नालिआण वा अक्खेण वा मूसलेण वा / " चतुर्भिर्हस्तैनिष्पन्ना अवमानाविशेषा दण्डधर्नुयुगनालिकाक्षमुशलरूपाः षट् संज्ञाः लभन्ते / अत एवाऽऽह - "दंड धणू जुगनालिया य अक्खं मुसलं च चउहत्थं / "अनु० / जं० / ज्यो० / स० / लोकप्रसिद्धे कृतयुगाऽऽदिके सत्योताद्वा परकलिरूपे कालविशेषे, स्था० / पञ्चवर्षाऽऽत्मके सुषमदुष्षमाऽऽदिके कालमानविशेषे च / स्था० 3 ठा० 4 उ० / ''पंचसंवच्छ रिए जुगे" जं० 2 वक्ष० / कर्म०। विशे० / स्था० / अनु० / आ०म०ातं०। भ० / कल्प०। ज्ञा०। (तानि पञ्च संवत्सराणि 'पव्य' शब्दे वक्ष्यामः) तथाचंदो चंदो अभिव-विओय चंदमभिवडिओ चेव पंचसहियं जुगमिणं, दिटुं तेल्लोक्कदंसीहिं॥ चान्द्रश्चान्द्रस्तदनन्तरमभिवर्द्धितभूतो भूयश्चान्द्रः / अत्र मकारोऽलाक्षणिकः / ततोऽभिवर्द्धितः / एतैः पञ्चभिर्वर्ष H सहितम् / किमुक्त भवति ? एतत् पञ्चवर्षात्मकं युगम् / इत्थ म्भूतं युगमिदं दृष्ट वैलोक्यदर्शिभिः सर्वस्तीर्थकृद्भिः, ततोऽ वश्यमिदं तथेति श्रद्धेयम्। एतदेव व्याख्यानयतिपढमविइयाउ चंदा, तइअं अभिवडियं वियाणाहि। चंदे चेव चउत्थं, पंचममभिवड्वियं जाण / / युगे पञ्चसंवत्सराऽऽत्मके ऽनन्तरमुद्दिष्टे प्रथमद्वितीयौ संवत्सरौ चान्द्रो ज्ञातव्यौ, तृतीयसंवत्सरमभिवर्धितं जानीहि / चतुर्थ -
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________________ जुग 1565- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुग संवत्सरं भूयश्चान्द्रमेव जानीहि, पञ्चममभिवर्द्धितम् / अत्र ये चान्द्राः संवत्सराः, ते द्वादशमासिकाः, यौ तु द्वावभिवर्द्धिता ऽऽख्यौ संवत्सरौ, तौ त्रयोदशमासिकौ चान्द्रमासप्रमाणेन। अत्र द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य य आदिसमयस्तदनन्तरं पञ्चाद्भावी समयः प्रथमचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानं च। तदानीं च चन्द्रमसो योग उत्तराषाढाभिः, उत्तराषाढानां च तदानीं शेषीभूताः षड्विंशतिर्मुहूर्ताः, षड्विंशतिश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य सत्काश्चतुः पञ्चाशद् भागाः / उक्तं च - "जे णं वेचचंदसंवच्छरस्स आई से णं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरं पच्छाकडे समए तं समयं च णं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं छव्वीसमुहुत्ता, छव्वीसंचवावट्ठिभागा मुहत्तस्स, वावट्ठिभागंच सत्तविहा छेत्ता चउपण्णासं चुणिया सेसा' इति / तदानीं च सूर्यस्य योगः पुनर्वसुनक्षत्रोण, पुनर्वसुनक्षत्रास्यच तदा शेषीभूताः षोडश मुहुर्ताः, अष्टौ द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य सत्का विंशतिर्भागाः / उक्तं च - "तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएइ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स सोलस मुहुत्ता, अठय वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तविहा छित्ता वीसं चुणिया भागा सेसा'' इति / तृतीयस्याभिवर्द्धिताऽऽख्यस्य संवत्सरस्य य आदिसमयस्तदनन्तरं पश्चाद्भावी समयो द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसाना, तदानीं च चन्द्रमसो योगः पूर्वाषाढाभिः,तासां च पूर्वाषाढानां शेषीभूताः सप्त मुहूर्तास्त्रिपञ्चाशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य सत्का एकोनचत्वारिंशद्भागाः / उक्तं च - "जे णं तच्चस्स अभिवड्डियसंक्च्छरस्स आई से णं दोयस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरं पच्छा कडे समए तं समयं च णं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुव्वाहि आसाढहि, पुव्वाणं आसाढाणं सत्त मुहत्ता, तिपण्णासं च वावट्टिभागा सुहत्तस्स, वावढि च सत्तट्ठिहा छित्ता उणयलीसं चुण्णिया भागा सेसा" इति / तदानीं च सूर्यस्य योगः पुनर्वसुनक्षत्रेण, तस्य च पुनर्वसुनक्षत्रास्य तदा शेषीभूता द्विचत्वारिंशन्मुहूर्ताः, पञ्चत्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहुर्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य सत्काः सप्त भागाः / उक्तं च - "तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेण जोएइ ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स बायालीसं सुहुत्ता, पणतीसं च वावहिभागा मुहुत्तस्स, बावविभागं च सत्तट्टिहा छित्ता सत्त चुणिया भागा सेसा" इति। चतुर्थस्य संवत्सरस्य य आदिसमयस्तदनन्तरं पश्चाद्भावी समयस्तदनन्तरमभिवर्द्धिताऽऽख्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानं तदानी यश्चन्द्रमसो योग उत्तराषाढाभिः, तासामुत्तराषाढानां शेषीभूतानां तदानीं त्रयोदश मुहस्त्रियोदश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य सत्काः सप्तविंशतिर्भागाः। उक्तं च - "जे णं चउत्थस्स संवच्छरस्स आईसेणं तबस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्सपज्जवसाणे अणंतरं पच्छे कडे समएतं समयं च णं चंदे केण नक्खत्तेण जोएइ ? तो उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं तेरस मुहुत्ता, तेरस य वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता सत्तावीसं चुणिया भागा सेसा" इति। तदानीं च सूर्यस्य योगः पुनर्वसुन क्षत्रोण, पुनर्वसुनक्षत्रास्य च तदा द्वौ मुहुर्ती षट्पञ्चाशद् द्वाषष्टिंभागा मुहुर्तस्य, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य सत्काः षष्टिभागाः शेषाः। उक्तं च- "तं समयंचणं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स दो मुहुत्तभागा छप्पन्नं वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावर्द्धि च सत्तट्ठिहा छित्ता सट्टी चुणिया भागा सेसा'' इति / पञ्चमस्य त्वभिवर्द्धितस्य संवत्सरस्य य आदिसमयस्तदनन्तरं पश्चाद्भावी समयश्चतुर्थस्य चान्द्रस्य संवत्सरस्य पर्यवसानं, तदा च चन्द्रमसो योग उत्तराषाढानक्षत्रोण, तस्य चोत्तराषाढानक्षत्रास्य तदानीं शेषीभूता एकोनचत्वारिंशन्मुहूत्तश्चित्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा प्रविभक्तस्य सप्तचत्वारिंशद् भागाः / उक्तं च - "जे णं पंचमस्स अभिवड्डि यसंवच्छरस्स आई से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरं पच्छाकडे समए तं समयं च णं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं गुणतालीसं मुहुत्ता, चत्तालीसं च वावट्ठिभागा मुहत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता छीयालीसं (?) चुण्णिया भागा सेसा" इति। तदानीं च योगः सूर्यस्य पुनर्वसुन क्षत्रोण, तस्य च पुनर्वसुनक्षत्रस्य तदा शेषी भूता एकोनत्रिश न्मुहुर्ताः एकविंशतिषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य सत्काःसप्तचत्वारिंशद्भागाः। उक्तं च - "तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स अउणातीसं मुहुत्ता एगवीसं च वावट्ठि भागा, वावविभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता छीयालीसं (?) चुणिया भागा सेसा' इति / यश्च द्वितीयस्य युगस्याऽऽदिभूतस्य चन्द्रसंवत्सरस्य प्रथमसमयस्तदनन्तरं पश्चादावी समयः पञ्चमस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य पर्यवसानं तदानीं चन्द्रमसो योग उत्तराषाढानक्षत्रोण, सोऽपि चरमसमयवर्ती सूर्यस्याऽपि च पुष्यनक्षत्रोण पुण्यस्याऽपि च तदानीं वर्षीभूता एकविंशतिमुहूत्तस्त्रियश्चत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तष्टिधा छिन्नस्य त्रयस्त्रिंशद् भागाः। उक्तं च - "ता जेणं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स आईसेणं पढमरस अभिवडियसंवच्छरस्स पजवसाणे अणंतरं पच्छाकडे समए तं समयं च णं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोइए? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए। तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुस्सेणं, एकवीसं मुहत्ता तेयालीसं च, वावविभागं च सत्तढिहा छित्ता तेत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा' इति / सर्वत्रा च सुर्यनक्षत्रयोगचिन्तायां मुहूर्ताः सूर्यमुहूर्ता वेदितव्याः, न तु व्यावहारिकाः। संप्रति युगेऽपि तौल्यरूपतया मेयरूपतया च परिमाणमतिदेशेन प्रतिपादयन्नाह -- चंदमभिबड्डियाणं, वासाणं पुव्ववन्नियाणं च। तिविहं पितं पमाणं,जुगम्मि सव्वं निरवसेसं // चन्द्राभिधानानां त्रयाणां संवत्सराणां, द्वयोश्चाभिवर्द्धिसंवत्सरयोरित्यर्थः / कथंभूतानामित्याह-पूर्ववर्णितानां पूर्व प्राक अहोरात्राऽऽदिप्रमाणेन तौल्यरुपतया वाऽभिहितानां, समुदायरूपे युगे विविधमप्यहोरात्राऽऽदिरूपतया तत्प्रमाणं सर्व निरवशेषमवगन्तव्यम् / तत्राहोरात्राप्रमाणं युगेऽष्टादशशतानि शिदधिकानि। 1830 / तथाहि - युगे चान्द्रसंवत्सरास्त्रयः, द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरौ, चान्द्रसंवत्सरे चैकस्मिन्नहोरात्राणा त्रीणि शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि / द्वादश च द्वाषष्टिभाग
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________________ जुग 1566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 अहोरात्रस्य 354 / 12/62 // तदेतत् त्रिभिर्गुण्यते, जातान्यहोराघाणां दश शतानि द्वाषष्टचधिकानि षट्त्रिंशच द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य 1062 / 36/62 / अभिवर्द्धितसंवत्सरे चैकस्मिन्नहोरात्राणां त्रीणि शतानि त्र्यशीत्यधिकानि, चतुश्चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य 383 / 44/62 / एतद्वाभ्यां गुण्यते, जातानि सप्त शतानि षट्पट्याधिकानि, अहोरात्रस्य प्रकृताश्च षट्त्रिंशद् द्वाषष्टिभागा अष्टाशीतौ प्रक्षिप्यन्ते, जातं चतुर्विशत्यधिक शतम् 124 / तस्य द्वाषष्ट्या भागे हृते लब्धौ द्वावहोरात्रौ, तो पूर्वेष्वहोरात्रोषु मध्ये प्रक्षिप्येते, ततः सर्वसंकलनया जाता अहोरात्रा अष्टादशशतानि त्रिशदधिकानि 1830 / एतावन्तो युगेऽहोरात्राः / यदातुमुहूर्तपरिमाणं चिन्त्यते, तदा एकैकस्मिन्नहोरात्रो त्रिशन्मुहुर्ता इत्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणां त्रिशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्त्राणि नवशतानि 54600 / एतावन्तो युगे मुहूर्ताः। तथा चोक्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ - 'पंचसंवच्छरिएणं भंते ! जुगे केवइआ मुहुत्ता पन्नत्ता ? गोयमा! पंचसंवच्छरिएणं जुगे दस अयणा, तासं उऊ, सट्टी मासा, एगे वीसुत्तरे पक्खसए, अद्वारस तीसा अहोरत्तसया, चउपण्णं मुहुत्तसहस्सा नव सया पन्नत्ता'' इति / (जं 7 वक्ष०) अत्रषष्टिर्मासा विंशत्युत्तरंचपक्षशतं सूर्यसंवत्सरापेक्षया द्रष्टव्यम्, ततो न कश्चिद् वक्ष्यमाणपौर्णमास्यादिसंख्यानेन / एकस्मिन्मुहूर्तोपरि चत्वार आढकाः, ततो यन्मुहूर्तपरिमाणं चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि नवशतानि तत् चतुर्भिर्गुण्यते ततो यथोक्तमाढकपमिाणं भवति। तथाएकैकरिमन्नहोरात्र मेयरूपतया परिमाणं त्रयो भाराः, अहोरात्राणां च युगे अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि, ततस्तानि त्रिभिर्गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि नवत्यधिकानि 5460 / एतावन्तो भागा युगे। ज्यो०२ पाहु०। युगेऽयनाऽऽदिप्रमाण पृच्छनाहपंचसंवच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइआ अयणा, केवइआ उऊ, एवं मासा, पक्खा, अहोरत्ता, केवइआ मुहुत्तापण्णत्ता? गोयमा ! पंचसंवच्छरिए णं जुगे दसं अयणा, तीसं उऊ, सट्ठीमासा, एगे वीसुत्तरे पक्खसए, अट्ठारसतीसा अहोरत्तसया, चउपण्णं मुहुत्तसहस्सा णव सया पण्णता। "पंचसंवच्छरिए णं भंते ! जुगे" इत्यादि। पञ्च संवत्सराः सौरा मानमस्येति पञ्चसांवत्सरिकं युगम्, अनेन नोत्तरसूत्रोण "दस अयणा'' इत्यादिकेन विरोधः, चान्द्रसंवत्सरोपयोगिनां चन्द्रायणानां तु चतुस्त्रिंशदधिकशतस्य संभवात्।जं०७ वक्षः। संप्रति युगे सर्वसंख्यया तिथिपरिमाणमहो रात्रपरिमाणं च प्रतिपादयतिअट्ठारस सट्ठिसया, तिहीण नियमा जुगम्मिनायव्वा। तत्थेव अहोरत्ता, तीसा अट्ठारससया उ॥ इह तिथयः राशिसंभवाः, अहोरात्रास्तुसूर्यसंभवाः, तत्र युगे तिथीना नियमाद्भवन्त्यष्टादशशतानिषष्ट्यधिकानि ज्ञातव्यानि। कयमिति चेत् ? उच्यते - इह सूर्यककमर्द्धमण्डलमेकेनाहोरात्रेण परिमितिं मापयति, तस्य चाहोरात्रास्य षष्टिभागोवर्द्धत, युगे चाहोरात्राणाणामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि। तत एकषष्टिभागा अपि प्रवर्द्धमाना एतावन्तो लभ्यन्ते। तत एतेषां तिथिकरणार्थमेकषष्ट्या भागे हृते लब्धास्त्रिंशत्तिथयः, ता अहोराास्योपर्यधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते / तत आगतं यथोक्ततिथिपरिमाणमिति। तथा तौवैकस्मिन् युगे अहोरात्रा अष्टादशशतानि त्रिशानि - त्रिंशदधिकानि भवन्ति / तथाहि- एकस्मिन् युगेऽन्यूनातिरिक्तानि पञ्च सूर्यवर्षाणि भवन्ति, एकैकमिश्च सूर्यवर्षे त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि अहोरात्राणां, तानि पञ्चभिर्गुण्यन्ते, ततो यथोक्तमहोरात्रापरिमाणं भवति।। तत्थ पडिमिज्जमाणे, पंचहि माणेहि पुव्वगणिएहिं। मासेहिं विभज्जित्ता, जइ मासा होति ते वोच्छं / / तत्रानन्तरोक्तस्वरूपे युगेपञ्चभिमनिनिसंवत्सरैः, आदित्यसंवत्सराऽऽदिभिरित्यर्थः / पूर्वगणितैः प्राक्प्रतिसंख्यात स्वरूपैः, प्रतिमीयमाने परिगण्यमाने, मासैः सूर्याऽऽदिमासैः, विभज्यमाना मासा यावन्तो भवन्ति तान् वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिआइयेण उ सट्ठी, मासा उउणा उ होंति एगट्ठी। चंदेण य वावट्ठी, सत्तट्टी होंति नक्खत्ती।। आदित्येन आदित्यमासेन विभज्यमाना मासा युगे भवन्ति षष्टिः षष्टिसंख्याः / तथाहि-सूर्यमासे सार्धास्त्रिंशदहोरात्राः, युगे चाहोरात्राणामष्टादशशतानि त्रिशदधिकानि, तत एतेषां सार्द्धत्रिंशदहोरात्रैर्भागे ह्रियमाणे षष्टिर्मासा लभ्यन्ते। तथा ऋतुना ऋतुसंवत्सरस्य सत्कैसिर्विभज्यमाने युगे एकषष्टिर्मासा भवन्ति / ऋतुमासो हि त्रिशदहोरात्राप्रमाणः, ततोऽष्टादशशताना त्रिशदधिकानां त्रिंशता भागे हृते एकषष्टिरेव लभ्यत इति। तथा चान्द्रेण चान्द्रसंवत्सरसत्केन मासेन च विभज्यमाना मासा युगे सर्वसंख्यया द्वाषष्टिर्भवन्ति / तथाहि - चान्द्रमासपरिमाणमेकोनविंशदिनानि द्वात्रिंशच द्वाषष्टिभागा दिनस्य, ततएकोनत्रिंशदिनानिद्वाषष्टिभागकरणार्थं द्वाषष्टया गुण्यन्ते,जातानि सप्तदशशतान्यष्टनवत्यधिकानि 1768 / ततो द्वात्रिंशदुपरितना द्वाषष्टिभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि 1830 / येऽपि च युगाहोरात्रा अष्टादशशतानि त्रिशदधिकानि, तेऽपि द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जात एको लक्षस्त्रयोदशसहस्त्राणि चत्वारि शतानि षष्ट्यधिकानि। 113460 // एतेषामष्टादशतैस्त्रिंशदधिकैश्चान्द्रमाससत्कद्वाषष्टिभागरूपैर्भागो हियते, लब्धाश्चन्द्रमासा द्वाषष्टिः / तथा नक्षत्रोण नक्षत्रमासे, परिगण्यमाने सर्वसंख्यया युगे नक्षत्रामासा सप्तषष्टिर्भवन्ति। तथाहि-नक्षत्रामासः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, सप्तषष्टिभागकरणार्थ सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जातान्यष्टादशशतानि नवोत्तराणि १८०६।तत उपरितनाएकविंशतिः सप्तषष्टिभागास्ता प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टादशशतानि त्रिशदधिकानि 1830 / युगस्यापि च संबन्धिनस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणा अहोरात्राः सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जात एको लक्षः विंशतिसहस्राणि षट्शतानि दशोत्तराणि 120610 / एतेषामष्टादशशतैस्त्रिंशदधिकैश्चन्द्रमास सत्कैदोषषष्टिभाग-रूपैर्भागो हियते, लब्धाः सप्तषष्टिमासाः। मासा सयपण्णासं, सत्तय राइंदियाइँ अभिवड्डे। एक्कारस य मुहुत्ता, विसट्ठिभागा य तेवीसं॥
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________________ जुग 1570 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुग अभिवर्द्धितसंवत्सरसत्के मासे परिगण्यमाने सर्वसंख्यया युगे अभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशद्भवन्ति, सप्त रात्रिंदिवानि, एकादश मूहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागास्त्रयोविंशतिः। तथाहिअभिवर्द्धितोमास एकत्रिंशदहोरात्रः, एकविंशत्युत्तरंशतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामहोरात्रस्य, तत एकत्रिशदहोरात्राश्चतुर्विशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते; जातान्यष्टात्रिशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि 3844 / तत उपरितनभेकविंशत्युत्तरं शतं भागानां तत्र प्रक्षिप्यते, जातान्येकोनचत्वारिंशच्छतानि पञ्चषध्यधिकानि 3665 / यानि च युगे अहोरात्राणामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि 1830, तानि चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जाते द्वे लक्षे षड्विंशतिसहस्राणि नव शतानि विंशत्यधिकानि 226630 / तत एतेषामेकोनचत्वारिंशच्छतैः पञ्चषष्ट्यधिकै रभिवर्द्धितमाससत्क चतुर्विशत्युत्तरशतभागरूपैर्भागो हियते, लब्धाः सप्तपञ्चाशन्मासाः, शेषास्तिष्ठन्ति नवशतानि पञ्चदशो तराणि 615 / तेषामहोरात्राऽऽनयनाय चतुर्विशत्यधिके न शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त रात्रिदिवानि, शेषास्तिष्ठन्ति चतुर्विशतिर्भागाः सप्तचत्वारिंशत् / तत्र चतुर्भि गरेकस्य च भागस्य सत्कैश्चतुर्भिस्त्रिंशद्भागैस्त्रिंशन्मुहूर्त्ता भवन्ति / तथाहि - एकस्मिन्नहोराको त्रिशन्मुहूर्ताः, अहोरात्र च चतुर्विशत्युत्तरं शतं भागानां कल्पितमासे, तस्य चतुर्विशत्युत्तरशतस्य शिता भागेहृते लब्धाश्चत्वारो भागाः, एकस्य च भागस्य सत्काश्चत्वारस्त्रिंशदभागाः, ता पञ्चत्वारिंशद्गागैरेकस्य च भागस्य सत्कैश्चतुर्दशभिस्त्रिंशद्भागैरेकादश मुहूर्त्ता लब्धाः, शेषस्तिष्ठति एको भागः, एकस्य च भागस्य सत्काः षोडश त्रिशद्भागाः। किमुक्तं भवति? षट्चत्वारिंशत्रिशद्भागा एकस्य च भागस्य सत्काः शेषास्तिष्टन्ति,ते च किल मुहूर्ते चतुर्विशत्युत्तरशतभागाः / ततः षट्चत्वारिंशतः चतुर्विशत्युत्तरशतस्य च द्विकेनापवर्त्तना क्रियते, लब्धा मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागास्त्रयोविंशतिः / एवं संख्याकैश्च मासैर्यदा अष्टादशशतानां त्रिशदधिकानीमहोरात्राणां भागो ह्रियते, तदा यथोक्तमासगतदिवसपरिमाणमागच्छति / तद्यथा-युगे किल सूर्यभासापेक्षया षष्टिर्मासाः, ततोऽष्टादशशतानां त्रिशदधिकानां षष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धास्विंशदिवसाः, अर्द्धदिवसश्च / एतावन्तो दिवसाः सूर्यमासे। तथा एकषष्टिः कर्ममासा युगे, ततोऽष्टादशशतानां त्रिशदधिकानामे कषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धास्त्रिंशदहोरात्राः। एतावत् कर्ममासे अहोराअपरिमाणम्। ते च मासा युगे द्वाषष्टिः, ततस्विंशदधिकानामष्टादशशतानां द्वाषष्ट्या भागहरणं, लब्धा एकोनत्रिशदहोरात्रा द्वात्रिशच द्वाषष्टिभागा अहोरात्रास्य, एताव- चन्द्रमासपरिमाणम् / तथा नक्षत्रामासा युगे सप्तषष्टिः। ततः सप्तषध्या अष्टादशशतानां त्रिशदधिकानां भागो ह्रियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राश्चैकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागाः। इदं नक्षत्रमासपरिमाणम् / तथा-अभिवर्द्धितमासा युगे सप्तपञ्चाशत्, ततोऽष्टादशशतानां त्रिशदधिकानां सप्तपञ्चाशता भागो हियते, लब्धा द्वात्रिंशदहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्तिषट् सप्त। तत्र पञ्चाशन्मासानामुपरि सप्त अहोरात्रा एकादश मुहूर्ताः, एकस्य च मूहूर्त्तस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागावर्तन्ते। तत्रा सप्तभ्य षट्पातिताः, शेष एक अहोरात्रस्तिष्ठति, स चतुर्विशत्युत्तरशतभागः क्रियते, लब्धा एकादश मूहूर्ताः. एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशत्युत्तरशतं मध्ये प्रक्षिप्यते, जातमेकसप्तत्यधिक शतम् / तस्य सप्तपञ्चाशता भागे हृते लब्धास्त्रयश्चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामिति। एतावत्परिमाणमभिवर्द्धितमासस्य। संप्रति सूर्याssदिभासेषु मुहूर्ताऽऽदिपरिमाणं चिन्त्यतेता सूर्यमासे त्रिशदहोरात्राः, एकं चाहोरात्रस्यार्द्धम्, अहोरात्रो च त्रिशन्मुहूर्ताः, ततस्त्रिंशत् त्रिशता गुण्यन्ते, जातानि नवशतानि, अहोरात्रार्द्ध च पञ्चदश मुहूर्ताः, ततः सर्वसंख्यया सूर्यमासे नवशतानि पञ्चदशोत्तराणि मुहूर्तानां भवन्ति 615 / एकैकस्मिंश्च मुहूर्ते द्वे द्वे घटिके, इति नवशतानिपञ्चदशोत्तराणि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि 1830 / एतावत्सूर्यमासे घटिकानां परिमाणम्। मेयरूपतया तु चिन्तायामेकैको मुहूर्त श्चतुराढकप्रमाण इति मुहूर्तानां नवशतानि पञ्चदशोत्तराणि चतुर्भिगुण्यन्ते, जातानि षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि 3660 / एतावता सर्वसंख्यया सूर्यमासे आढकाः / तौल्यत्वचिन्तायामेकैकस्मिन्नहोरात्रो त्रयो भाराः, ततस्त्रिंशत् गिभिर्गुण्यन्ते, जाता भवतिः 60, अहोरात्रार्द्ध च सार्हो भार इति सर्वसंकलनया सूर्यभासे सार्धा एकनवतिाराः। तथा कर्ममासे त्रिंशदहोरात्राः, ततो मुहूर्ताऽऽनयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नवशतानि, एतावन्तः कर्ममासे मुहूर्ताः, एत एव मुहूर्ता घटिकानयनाय द्वाभ्यां गुण्यन्ते, प्रतिमुहूर्त घटिकाद्वयस्य भावात्, जातान्यष्टादशशतानि 1800 / एतावत्कर्ममासे घटिकानां परिमाणम् / तथा मुहुर्ते चत्वार आढका इति / तदेवं मुहुर्तपरिमाण नवशताऽऽत्मकमाढकाऽऽनयनाय चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि षटशिच्छतानि 3600 / एतावन्तो मेयत्वचिन्तायामाढकाः। कर्ममासे तौल्यत्वचिन्तायां प्रत्यहोरात्र यो भारा इति त्रिशदहोरात्रास्विभिगुण्यन्ते, जाता नवतिः 60 / इयत्संख्याकाः कर्ममासे तौल्यत्वकर्मभाराः / तथा-चन्द्रमास एकोनत्रिशदहोरात्राः, द्वात्रिशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य, तत एकोनत्रिशदद्वाषष्टिभागाः तेऽपि मुहूर्तगतभागकरणार्थ त्रिशता गुण्यन्ते, जातानि नवशतानि षष्ट्यधिकानि 660 / एतेषां द्वाषष्ध्या भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति अष्टाशीतिसहस्राणि पञ्चशतोत्तराणि, त्रिशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य 98500 / 32/62 / एतदेव मुहूर्तपरिमाण घटिकाऽऽनयनाय द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि सप्तदशशतानि सप्तत्यधिकानि, षष्टिश्च द्वाषष्टिभागा घटिकायाः 1770 / 60/32 | एतचन्द्रमासे घटिकापरिमाणम् / तथा प्राग्गतमेव मुहूर्तपरिमाणं सकलमप्याढकाऽऽनयनाय चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पञ्चविंशच्छतानि एकचत्वारिंशदधिकानि, अष्टापञ्चाशच द्वाषष्टिभागा आढकस्य 3541 / ५८/६२ततएतावन्मेयत्वचिन्तायां चन्द्रमासे आढकपरिमाणम्।तथा तौल्यत्वचिन्तायामहोरात्रापरिमाणं प्राक्तनमेकोनत्रिशद्रूपं भाराऽऽनयनाय निभिर्गुण्यते, जाताः साप्ताशीतिः 87 / येऽपि च द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, तेऽपि त्रिभिर्गुण्यन्ते, जाता षण्णावतिः 66 / तस्या द्वाषष्टया भागो हियते, लब्ध एको भारः, शेषास्तिष्ठन्ति चतुस्विंशत् 34 / ततः सर्वसंख्यया चन्द्रमसा तौल्यत्वचिन्तायमष्टाशीतिर्भाराः, चतुस्त्रिंशच द्वाषष्टिभागा भारस्य 88 | 34/62 / नक्षत्रामासः सप्तविंशतिहोरात्रा एकविंशतिः सप्तषष्टिभागा उपरितनाः, ततः सप्तविंशतिस्त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टौ शतानि दशधिकानि सभ्ट्युत्तराणि द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य८१०।६७/६२रायेऽपि चैकविंशतिः सप्तषष्टिभागा
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________________ जुग 1571 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 उपरितनाः, तेऽपि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि षट्शतानि त्रिंशद - 1 धिकानि / एतेषां सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धा नव मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति सप्तविंशतिः / मुहूर्ताश्च मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि संख्यया मुहूर्तानामष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि सप्तविंशतिश्च 816/27/ एकस्य च तस्य सप्तषष्टिभागाः / एतावन्नक्षत्रामासे मुहूर्तपरिमाणम् / ततो घटिकापरिमाणाऽऽनयनार्थमेतदेव द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि षोडश शतान्यष्टात्रिशदधि- कानि, चतुष्पञ्चाशच सप्तषष्टिभागा घटिकायाः 1638154/67 / एतावद्धटिकापरिमाणम्। नक्षत्रमासे तौल्यत्वचिन्तायामकस्मिन्नहोरात्रो यो भागा इति सप्तविंशतिहोरात्रास्त्रिभिर्गुण्यन्ते, जातान्येकाशीतिः, एतस्य रिमाणं नक्षत्रामासे एकाशीलिभारास्त्रिषष्टिश्च सप्तषष्टिर्भागा भारस्य तथा एकविंशतिरपि त्रिभिर्गुण्यते, जाता त्रिषष्टिः, ततो जातं तौल्यत्वपरिमाणं नक्षत्रमासे एकाशीति रास्त्रिषष्टिश्च सप्तषष्टिांगा भारस्य / तथाएकैकस्मिनमुहूर्ते चत्वार आढका इति मुहूर्तपरिमाणमनन्तरोक्तं सर्वमपि चतुर्भिर्गुण्यते, तत आगतानि नक्षत्रामासे मेयपरिमाणचिन्तायामाढकानं द्वात्रिंशच्छतानि सप्तसप्तत्यधिकान्येकचत्वारिंशच सप्तषष्टिभागा आढकस्य 3277 / 41/67 / अभिवर्द्धितमासे एकत्रिंशदहोरात्राः, एकविंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामहोरात्रस्य, तत्रा मुहूत्ताऽऽनयनार्थमेकत्रिशदहोरात्रास्त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नवशतानि त्रिंशदधिकानि 630 // तदपि चैकविंशत्युत्तरं शतं भागानां, तदपि त्रिशता गुण्यते, जातानि षट्त्रिंशच्छतानि त्रिंशदधिकानि 3630 / एतेषां च चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन भागो हियते, लब्धा एकनशिन्मुहूर्ताः, शेषमुद्रति चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां चतुस्त्रिंशचचतुर्विशत्युत्तरशतभागा मुहूर्त्ता मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातमभिवद्धिते मासे सर्वसंकलनया मुहूर्तपरिमाणं नवशतान्येकोनषध्यधिकानि चतुरित्रंशच चतुर्विशत्युत्तरशतभागाः 656 / 34/124 ! मुहूर्ते च घटिकाद्वयमित्येतदेव मुहूर्तपरिमाणं घटिकाऽऽनयनाय द्वाभ्यां गुण्यते, जातान्येकोनविंशतिशतान्यष्टादशाधिकानि घटिकानामष्टषष्टिश्चतुर्विंशत्युत्तरं शतं भागानाम् 1918 / 68/124 एकैकस्यां च घटिकायां द्वौ द्वावाढकाविति घटिकापरिमाणमिदम् / मेयरूपतया चिन्तायामाढकाऽऽनयनाय द्वाभ्यां गुण्यते, जातान्याढकानामष्टात्रिशच्छतानि सप्तत्रिशदधिकानि, द्वादश च चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामाढकस्य 3837 / 12/124 / तथाहि-एकैकस्मिन्नहोरा भास्वयमित्ये कत्रिंशदहोरात्रास्त्रिभिर्गुण्यन्ते, जाता स्त्रिनवतिर्भाराः। यदपि चैकविंशत्युत्तरं शतमपि गिभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्याधिकानि 363 / तेषां च चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन भागो हियते, लब्धौ द्वौ भारा, तौ च पूर्वराशौ प्रक्षिप्येते, शेष पञ्चदशोत्तरं शतम्, तत आगतं तत्तौल्यत्वचिन्तायामभिवर्द्धितमासे परिमाणं पञ्चनवतिर्भाराः शतभेके पञ्चदशोत्तरं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानाम् / / 5 / 115/524 / यदा तु मासस्य शित्तमो भागो दिवस इति दिवसलक्षणमनु सूर्यमासाऽऽदिदिवसपरिमाणं चिन्त्यते, तदा यदेव तस्य मासस्य दिवसापेक्षया परिमाणं, तदेव तस्य दिवसस्य मुहूर्तापेक्षया, परिमाणमयसेयम्। यथा सूर्यदिवसस्य त्रिशन्मुहूर्तपरिमाणं, कर्मदिवसस्य त्रिशन्मुहूर्ता एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा मुहूर्तस्य, अभिवर्द्धितदिव सस्यैकत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकविंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानां मुहूर्तस्यातथा-सूर्यदिवसस्य एकषष्टिघटिका परिमाणम्, कर्मदिवसस्य षष्टिघंटिकाः, चन्द्रदिवसस्य एकोनषष्टिघटिका द्वौ च द्वात्रिशद्भागी घटिकायाः, नक्षत्रदिवसस्य चतुष्पञ्चाशद्धटिका द्विचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागा घटिकायाः, अभिवर्द्धितादिवसस्य षष्टिर्घटिका अष्टादशोत्तरं शतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानां घटिकायाः। 118/124 / एकैकस्यां च घटिकायां द्वौ द्वावाढकाविति दिवसस्य मेयत्वचिन्तायां सूर्यदिवसस्य द्वाविंशतं चत्वारश्च द्वाषष्टिभागा आढकस्य 224/61 नक्षत्रदिवसस्य दशोत्तरं शतमाढकानां, पञ्चनवतिराढकाः, सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा आढकस्य 110 // 65 // 27/67 / अभिवर्द्धितदिवसस्य सप्तविंशत्युत्तरमाढकशतं द्वादशोत्तरं शतं च चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामाढकस्य 127 / 112/124 / एकै कस्यां नवनालिकायाः पलशतमिति तौल्यत्वचिन्तायामिदं दिवसस्य परिमाणम्। सूर्यदिवसस्यैकषष्टिपलशतानि परिमाणम् 6100 / कर्मदिवसस्य चतुःपञ्चाशत्पलशतानि 5400 / चन्द्रदिवसस्यैकोनषष्टिपलशतानि, द्वौ च द्वाषष्टिभागी पलशतस्य 560012/62 / नक्षत्रदिवसस्य चतुष्पञ्चाशत्पलशतानि वाचत्वारिंशच सप्तषष्टिभागा: पलशतस्य 5400 / 42/62 / अभिवर्द्धितदिवसस्य त्रिषष्टिः पलशतान्यष्टादशोत्तरं च चतुर्विशत्युत्तरं पलशतस्य 6300 / 18/124 / तदेवमुक्तं सप्रपञ्चं पञ्चानामपि संवत्सराणां स्वरूपं, युगप्रमाणं च / ज्यो०२ पाहु०। सू० प्र०। पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिजमाणस्स सत्तसट्टि नक्खत्तमासा पण्णत्ता। "पंच संवच्छर" इत्यादि। नक्षत्रमासोयेन कालेनचन्द्रो नक्षत्रामण्डलं भुक्ते, स च सप्तविंशतिरहोरात्राणि, एकविंशतिश्चाहोरात्रास्य सप्तषष्टिभागाः 27 / 21/67 / युगप्रमाणं चाष्टादशशतानि त्रिशदधिकानीति प्राग्दर्शितम् 1830 / तदेवं नक्षत्रागासस्योक्तप्रमाणराशिना दिनसप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापितेन त्रिशदुत्तराष्टाशशतप्रमाणेन युगदिनप्रमाणराशिः सप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापितः, एकं लक्षं, द्वाविंशतिः सहस्राणि, षट् शतानि, दश चेत्येवंरूपो 122610 / विभज्यमानः सप्तषष्टिनक्षत्रामासप्रमाणो भवतीति / स०६७ सम०। पंचसंवच्छरियस्सणं जुगस्स रिउमासेणं मिज्जमाणस्स इगसर्व्हि उउमासा पण्णत्ता। "पंच" इत्यादि / पञ्चभिः संवत्सरैर्निर्वृत्तमिति पञ्चसांवत्सरिक, तस्य, णमित्यलङ्कारे, युगस्य कालमानविशेषस्य ऋतुमासेन चन्द्राऽऽदिमासेन मीयमानस्य एकषष्टिः-ऋतुमासाः प्रज्ञप्ताः / इह चायं भावार्थ:- युगं हि पञ्च संवत्सरा निष्पादयन्ति / तद्यथा - चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवर्द्धितश्चन्द्रोऽभिवर्द्धितश्चेति / तत्र एकोनत्रिशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच द्विषष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवं प्रमणिन 26 / 32/ 62 / कृष्णप्रतिपदामारभ्य पौर्णमासीनिष्ठितेन चन्द्रमासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरः। तस्य च प्रमाणमिदमत्रीणि शतान्यहा चतुष्पञ्चाशदुत्तराणि, द्वादश च द्विपष्टिभागा दिवसस्य 354 1 22/ 62 / तथा एकत्रिशदहामेकविशत्युत्तरं च शतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानां दिवसस्येत्येवंप्रमाणोऽभिवर्द्धितमास इति 31/121/124 / एतेन च मासेन द्वादशमासप्रमाणेऽभिवर्द्धितसंवत्सरो भवति। स च प्रमाणे
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________________ जुग 1572 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुग न त्रीणि शतान्यहां, त्र्यशीत्यधिकानि, चतुश्चत्वारिंशच द्विषष्टिभागा दिवसस्य 383 / 44/62 / तदेवं ठायाणां चन्द्रसंवत्सराणां द्वयोश्चाभिवर्द्धितसंवत्सरयोरेकीकरणे जातानि दिनानां त्रिशदुत्तराण्यशादशशतान्यहोरात्राणाम् 1830 / ऋतुमासश्च त्रिंशताऽहोरात्रौर्भवतीति रिशता भागहारेलब्धा एकषष्टिः-ऋतुमासा इति। स०६१ सम०। एकमासेन चन्द्रा दक्षिणोत्तरचारिणः, सूर्याः पुनः संवत्सरेण दक्षिणोत्तरचारिणो भवन्ति / अत्र चन्द्रस्य नक्षत्रमासो ग्राह्यः, स च सप्तविंशतिदिनान्येकविंशतिः सप्तषष्टिभागश्चेति प्रमाणः 27 / 21/67 / / तदर्द्धन 13 // 10/67 / चन्द्रस्य दक्षिणाऽऽयनम्, अर्द्धन चोत्तरायणम् / यतश्चन्द्रचन्द्राऽभिवर्द्धित चन्द्राभिवर्द्धितनामानः संवत्सराः 5 / ते च त्रिशदधिकाष्टादशशतदिनसंख्ये युगे पञ्च भवन्ति / तत्रौकोनशिदिनमानाः सद्वात्रिंशद्वाषष्टिभागाश्चन्द्रमासा द्वाषष्टिः, सार्द्धशिद्दिनमानाः सूर्यमासाःषष्टिः, सप्तविंशतिदिनमानैकविंशतिः सप्तषष्टिभागा नक्षत्रामासाः सप्तषष्टियुगे, तेन युगे चन्द्रस्य दक्षिणायनानि सप्तषष्टिः, उत्तरायणान्यपि सप्तषष्टिः, सर्वाणि युगे चन्द्रायणानि 134, सूर्यस्य पश्चाचन्द्रेण भोगो येषां तानि पश्चाद्भोगानि, चन्द्रोऽतिक्रम्य यानि भुङ्क्ते, पृष्ठं दत्वेत्यर्थः, इत्यादि दृश्यम् / / 76 // चन्द्रसूर्ययोर्मण्डलाऽऽदिस्वरूपं प्रकाश्याथ नक्षत्रातारक-स्वरूपमाह अद्वैव मंडलाइं,णक्खत्ताणं जिणेहि भणिआई। दो मंडला. दीवे, मंडलछक्कं ल लवणम्मि ||8|| अष्टावेव मण्डलानि नक्षत्राणं जिनेन्द्रैर्भणितानि, तत्रा द्वे मण्डले जम्बूद्वीपे, मण्डलषट्कं च लवणोदे, यचन्द्रमसः सर्वाभ्यन्तरमण्डलं तन्नक्षत्राणामपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलं, यचन्द्रमस सर्वबाह्यं मण्डलं तन्नक्षत्राणामपि सर्वबाह्य मण्डलम् / यदुक्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्याम् - "जंबूदीवेणं भते! केवइअंओगाहित्ता नक्खत्तमंडला पन्नता ? गोयमा ! जंबूदीवेदीवे असीसयं ओगाहेत्ता, एत्थणंदो नक्खत्तमंडला, लवणसमुद्दे वि तिन्नि, तीसे जोअणसए ओगाहेत्ता, एत्थणंछ नक्खत्तमंडला पन्नत्ता। सव्वभतराओ णं णक्खत्तमंडलाओ केवइए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचदंसुत्तरजोअणसए अबाहाए णक्खत्तमंडले पण्णते" इति // 80|| अथ केषु केषु चन्द्रमण्डलेषु नक्षत्राणि सन्ति ? इत्याह - अभिई 1 सवण 2 धणिट्ठा 3, सयभिस 4 पुव्वुत्तरा य 5 भद्दवया 6| रेवइ 7 असिणी 8 भरणी, पुव्वुत्तर 10 फग्गुणीओ 11 अ॥८१|| अभिजिच्छ वणधनिष्ठाशतभिषापूर्वाभाद्रपदोत्तराभाद्रपदा युगे दशायनानि / तत्रा पञ्च दक्षिणायनानि, पञ्चै वोत्तरायणानि, त्र्यशीत्यधिकशतदिनानामेकैकमयनम् 183 / तद्दशगुणं युगं 1830 दिनप्रमाणम् / तथा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डले दिनमेकं , चरति, सर्वबाह्येऽपि दिनमेकं, शेषेषु मण्डलेषु प्रदेशनिर्गमाभ्यां दिनद्वयम्, अतः प्रथमचरमदिनन्यूनत्वे सूर्यसंवत्सरे 366 दिनानि / स च पञ्चगुणितोऽष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि / मं०। संप्रति कति मण्डलानि चन्द्राः, सूर्या वा युगमध्ये चरन्तीत्येत निरुपयतिसत्तरससए पुण्णे, अद्वे चेव मंडलं चरइ। चंदो जुगेण णियमा, सूरो अट्ठारस उतीसं / / चन्द्रो युगेन चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितचन्द्राभिवर्द्धितसंवत्सरपञ्चकाऽऽत्मकेन नियमान्मण्डलं चरति भ्रम्या पूरयति सप्तदशशतान्यष्टषष्ट्यधिकानि 1768 / सूर्यः पुनर्युगेन मण्डलानि चरति अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि 1830 / संप्रति चन्द्रः स्वकीयेनायनेन कियन्ति मण्डलानि चरतीति ? एतन्निरूपयतितेरस य मंडलाइं, तेरस सत्तट्ठि चेव भागा य। अयणेण चरइ सोमो, नक्खत्तेणऽद्धमासेणं / / इह नक्षत्रार्द्धमासप्रमाणं चन्द्रस्यायनं, ततो नक्षत्रेण नक्षत्रा - सत्केनार्द्धमासेन यचन्द्रस्यायनं, तेन स्वकीयेनायनेन चन्द्रस्त्रयोदश मण्डलानि, एकस्य च मण्डलस्य सप्तषष्टिभागीकृतस्य त्रयोदश भागान् चरति / कथमेतस्योपपत्तिरिति चेत् ? उच्यते-चतुर्विंशदधिकेनायनशतेन सप्तदशशतान्यष्टषष्टिसहितानि मण्डलानां लभ्यन्ते, तत एकेनायनेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-१३४ / 1768 /11 अत्रान्त्येन राशिनैककलक्षणेन मध्यराशिर्गुण्यते, सचतावानेव जातः। तत आद्येन राशिना चतुस्त्रिंशदधिकेन शतरूपेण भागो ह्रियते, लब्धास्त्रयोदश, शेषास्तिष्ठन्ति षड्वंशतिः / तत्र च्छेद्यच्छेद - कराश्योर्द्धिकेनापवर्तना, लब्धास्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः। अधुना यावन्ति मण्डलान्येकेन पर्वणा चन्द्रश्चरति, तावन्निर्दिदिक्षुराहचोद्दस य मंडलाइं, विमट्ठिभागा य सोलस हवेजा। मासद्धेण उडुवई, एत्तियमित्तं चरइ खेत्तं // मासार्द्धनैकेन पर्वणा उडुपतिश्चन्द्रमाः, एतावन्मात्रमेताव-त्प्रमाणं क्षेत्रां चरति / यदुतचतुर्दश मण्डलानि, एकस्य च मण्डलस्य षोडश द्वाषष्टि भागाः / तथाहि-यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तदशतान्यष्टषष्ट्य/धिकानिमण्डलानां लभ्यन्ते, ततएकेन पर्वणा कि लभ्यते ? राशित्रयस्थापना 124 / 176811 / अत्रान्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, तेच तावानेव जाताः, तत्राऽऽद्येन राशिना भागहरणं, लब्धाश्चतुर्दश, शेषास्तिष्ठन्तिद्वात्रिशत्। तत्र छेद्यच्छेदकराश्योर्दिकनापवर्त्तना, लब्धाः षोडश द्वाषष्टिभागाः। संप्रति पर्वगतमण्डलेभ्योऽयनगतमण्डलापगमे यच्छेषमवतिष्ठते तन्निरूपयतिएगं च मंडलं मंडलस्स सत्तट्ठिभाग चत्तारि। नव चेव चुण्णियाओ, इगतीसकएण छेएण ii एकं मण्डलमेकस्य च मण्डलकस्य सप्तषष्टिभागाश्चत्वारः, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्यै कत्रिशत्कृतेन च्छे देन नव चूर्णिका भागाः, एतावत्पर्वगतक्षेत्रापगमे शेषः। एतस्यैवमुपपत्ति :- यदि चतुर्विशत्यधिके न पर्वशतेन सप्तदशतान्यष्ट षष्ट्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते, तत एके न पर्वणा किं लभामहे ? अत्रा राशित्रयस्थापना १२४११७६८१।अत्रान्त्येन राशिना मध्यरा
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________________ जुग 1573 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुगप्पहाण शिर्गुण्यते, स च तावानेव जातः, तत आद्येन चतुर्विशत्यधिकेन शतरूपेण राशिना भागहरणं, छेद्यच्छेदकराश्योश्चतुर्भिरपवर्तना, लब्धानि चतुदर्श मण्डलान्यष्टौ च एकत्रिशद् भागाः / एतस्मादयनक्षेत्रां शोध्यते, तत्रा चतुर्दशस्य त्रयोदश मण्डलानि शुद्धानि, एकमवशिष्टम् / संप्रत्यष्टाभ्य एकत्रिंशद्भागेभ्यस्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः शोध्याः; तत्रा सप्तषष्टिरष्टभिर्गुणिताः,जातानि पञ्चशतानि षट्त्रिंशदधिकानि५३६ / एकत्रिशता योदश गुणिताः, जातानि चत्वारि शतानि व्युत्तराणि 403 / एतानि पञ्चभ्यः षट्त्रिंशदधिकेभ्यः शोध्यन्ते, स्थितं शेष त्रयस्त्रिंशदधिकंशतम् 133 / तत एतत्सप्तषष्टिभागाऽऽनयनाथ सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातानि नवाशीतिशतान्येकादशाधिकानि 8611 / छेदराशिौल एकत्रिशत्, स च सप्तषष्ट्या गुण्यते, जाते द्वे सहस्रे सप्तसप्तत्यधिके 2077 / ताभ्यां भागो ह्रियते, लब्धाश्चत्वारः सप्तषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति षट्शतानि व्युत्तराणि 603 / ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः सप्तषष्ट्याऽपर्वतना, जाता उपरि नवाधस्तादेकत्रिंशत्, लब्धा एकस्य सप्तषष्टिभागस्य नवैकत्रिंशच्छेदकृता भागा इति।ज्यो०१६ पाहु०।०। चं० प्र०। (युगे किमादिकाः संवत्सरा इत्यनुपदमेव 'जुगाइ' शब्दे 1575 पृष्ट वक्ष्यन्ते) युगेऽमावास्याः पूर्णिमाश्च यथापंवसंवच्छरिएणं जुगे वावट्टि पुन्निमाओ, वावढि अमावासाओ पण्णत्ताओ। "पंच'' इत्यादि / तत्र जुगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति, तेषु षट्त्रिंशत्पौर्णमास्यो भवन्ति, द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरौ भवतः, तत्र चा भिवर्द्धितसंवत्सरः त्रयोदशभिश्चन्द्रसैर्भवतीति तयोः षड्वंशतिः पौर्णमास्य इत्येवं द्विषष्टिस्ता भवन्तीति, एवममावास्या अपीति / स० 62 सम०। जुगंतकडभूमि स्त्री० युगान्तकृद् (कर) भूमि) युगानि कालमा नविशेषाः, तानि च क्रमवर्तीनि, तत्साधाद्ये क्रमवर्त्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्याऽऽदिरूपाः पुरूषास्तेऽपि युगानि, तैः प्रमितान्तकरभूमिथुगान्तकरभूमिः / ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। कल्प०। पुरुषलक्षणयुगापेक्षयाऽन्तकराणां भवक्षयकारिणां भूमिः कालो युगान्तकरभूमिः / स्था०८ ठा० / अन्तकर (कृद्) भूमिभेदे, (सा च कस्यान्तकृतः कियतीति तत्तच्छब्दे निरूपिता) पुरुषौ युगामिव पुरुषयुगं, तदपेक्षयाऽन्तकराणां भवान्तकराणां, निर्वाणगामिनामित्यर्थः। भूमिः कालो युगान्तकरभूमिः / इदमुक्तं भवति-भगवतो वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे तस्मादेवावधेः तृतीयं पुरुष जम्बूस्वामिनं यावन्निर्वाणमभूत्, तत उत्तरं तद्व्यवच्छेद इति। स्था०३ ठा०४ उ०॥ जुगंतकरभूमि स्त्री० युगान्तकृद् (कर) भूमि। "जुगंतकडभूमि'' शब्दार्थे ज्ञा०१श्रु०८ अ०। जुगंतरपलोयणा स्त्री०(युगान्तरप्रलोकना) युगं यूपः, तत्प्रमाणमन्तरं व्यवधानं प्रलोकयति या सा तथा / (भ०) युगं यूपः, तत्प्रमाणो भूभागोऽपि युगः, तस्यान्तरे मध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा / युगप्रमाणभूभागव्यवधानेन प्रलोकयन्त्याम् भ०। "जुगमंतरपलोयणाए दिट्टीए'' (जुगंतरपलोयणाएत्ति) युगं यूपः, तत्प्रमाणमन्तरं स्वदेहदेशस्य दृष्टिपातदेशस्य च व्यवधानं, प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना, तया,दृष्ट्येति / भ०२ श० 1 उ०। जुगंधर पुं० (युगन्धर) युगं रथस्य युगकाष्ठं धरति धृ-खच् / रथस्य युगकाष्ठसञ्जने कूवराख्ये काष्ठभेदे, जं० 1 वक्ष० / पर्वतभेदे, वाच० / अम्बरतिलकपर्वतस्थे स्वनामख्याते आचार्य , आ० म०। "जुगंधरा नाम आयरिया विविहनियमधर चउद्दसपुस्विचउण्णाणोवगया / " आ०म० 1 अ० 1 खण्ड / अम्बरतिलकपर्वतमधिकृत्य"युगन्धरमुनिस्तत्र, तदा केवलमासदत्।" आ० क०।अपरविदेहस्थे महाबाहुवासुदेवस्य समकालिके तीर्थकरे, आ० चू०१ अ० आव०। जुगच्छिड न० (युगच्छिद्र) युगरन्ध्रे, आ० क०। "पुव्वंते होइ जुग, अवरते तस्स होइ समिलाओ। जुगछिड्डुम्मि पवेसो, इअ संसइओ मणुअलंभो॥१॥' पूर्वान्ते समुद्रस्य युगम्, अपरान्ते तु सम्या, ततो यथा युगस्य छिद्रे तस्याः प्रदेशः संशयित इत्येवं मनुष्यजन्मलाभः। तथा"जह समिला पन्भट्ठा, सागरसलिले अणोरपारम्मि। पथिसिज्ज जुगच्छिडु, कह विभमंती भमंतम्मि॥१॥" नवरम् -'अणोरपारम्मि देश्यत्वादपारे इत्यर्थः। "सा चंडवायवीई-पणुल्लिआ अ विलभिज जुगछिडु। न य माणुसाउ भट्ठो, जीवो पुण माणुसं लहइ / / 1 / / " आ० क०। उत्त०। जुगणद्ध पुं० (युगनद्ध) युगमिन नद्धो युगनद्धः / यथा युगं वृषभस्कन्धयोरारोपितं वर्तते तद्वद् योगोऽपि यः प्रतिभाति स युगनद्ध इत्युच्यते। एतदाकारं योगभेदे, सू० प्र०१२ पाहु०। जुगप्पहाण पुं० (युगप्रधान) युगश्रेष्ठे, नि० चू०१उ०। "तत्थ अज्जवइरा सुच्चंति जुगप्पहाणा।" आ० म०१ अ०२ खण्ड। जो दुप्पसहो सूरी, होहिंति जुगप्पहाण आयरिया। अञ्जसुहम्मप्पभिई, चउरहिया दुन्नि य सहस्सा / / 451 / / इहावसर्पिण्यां दुःषमावसानसमये द्विहस्तोच्छितश्चतुर्विश - तिवर्षायुष्कः पुष्कलतपःक्षपितकर्मतया समासन्नः सिद्धिसौधं शुद्धान्तरात्मा दशवैकालिकमासूत्रधरोऽपि चतुर्दशपूर्वधर इव शक्रपूज्यो दुष्प्रसहनामा सर्वान्तिमः सूरिभविष्यति, ततः तं दुष्प्रसहं यावत्, तमभिव्याप्यैवेत्यर्थः। आर्यसुधर्मप्रभृतयः, आरात् सर्वहयधर्मेभ्योऽर्वाक् जात आर्यः, स चासौ सुधर्मः, तत्प्रभृतयः, प्रभृतिग्रहणाच जम्बूस्वामिप्रभवशय्यंभवाऽऽद्या गणधरपम्परा गृह्यते, युगप्रधानास्तत्तकालप्रवरपारमेश्वरप्रवचनोपनिषद्वदित्वेन विशिष्टतरमूलगुणोत्तरगुणसंपन्नत्वेन च तत्कालापेक्षया भरतक्षेत्रमध्ये प्रधानाआचार्याः सूरयश्चतुरधिकसहस्रदयप्रमाणा भविष्यन्ति। अन्ये तु चतूरहितसहस्रद्वयप्रमाणा इत्याहुः / तत्त्वं तु सर्वविदो विदन्ति। यच महानिशथिग्रन्थे जग्रन्थ ग्रन्थकार :"इत्थं चायरिआणं, पणपन्ना, हंति कोडिलक्खाओ। कोडिसहस्से कोडी, सए य तह एत्त चेवत्ति "||1|| तत्सामान्यमुनिप्रत्यपेक्षया द्रष्टव्यम् / तथा च तीवोक्तम् - 'एएसिं मज्झाओ, एगे निवडइ गुणगणाइन्ने। सव्वुत्तमभंगेणं, तित्थयररसाणुसरिसगुरू // 1 // ' प्रव०२६४ द्वार। चतुरधिकद्विसहसमिता युगप्रधानाः सिद्धान्ते प्रोक्ताः, ते साम्प्रतं क सन्ति ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-साम्प्रतं युगप्रधानाः सन्तीति
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________________ जुगप्पहाण 1574 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुगाइ ज्ञातं नास्ति, दृश्यन्तेऽपि चन, तेन तृतीयोदयात्प्रारभ्य ते भविष्यन्तीति जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नमायुस्त्रयं, किं वोत्कृष्टमेव ? इति प्रश्ने, ज्ञायते। 51 प्र०। सेन०१उल्ला०। उत्तरम्युगलिनामुत्कृष्टमायुर्यथास्थानं त्रिपल्योपमादि प्रतीतं, जघन्यं जुगमच्छ पुं० (जुगमत्स्य) मत्स्यभेदे, विपा० 1 श्रु० 8 अ० / जी०। तु क्षुल्लक भवरूपं ज्ञेयम्, अतस्विपल्योपमप्रमितमप्यायुरपवत्यं प्रज्ञा०) क्षुल्लकभवरूपं कश्चिजन्तुः करोतीत्यर्थकाक्षराण्याचाराङ्ग वृत्त्यादी जुगमत्त त्रि० (युगमात्रा) युगं यूपं चतुर्हस्तं, तत्प्रमाणं युगमात्रम् / सन्ति, परं तदवपर्यतम पर्याप्तावस्था- यामेव भवति, तदुद्वर्तनं तु न चतुर्हस्तप्रमाणे, प्रव० 103 द्वार। "पुरओं जुगमत्ताए, पेहमाणो महि भवति, तेषां निरुपक्रमायुष्कत्वात्। मध्यमं तु युगलिनीगर्भेऽपि नवलक्षचरे।" (3 गाथा) पुरताऽग्रतो युगमात्रया शरीरप्रमाणया शकटोद्धर्व- मितिगर्भजा उत्पद्यन्ते, निष्पद्यन्तेचद्वयमेव। शेषास्तु स्वस्वमायुरपवर्त्य संस्थितया दृष्ट्येति। दश. 5 अ०१ उ०। गर्भस्था एव मियन्ते, तथा क्षुल्लकभवादधिकसमयाऽऽदिभवने संभवजुगमाय त्रि० (युगमात्र) 'जुगमत्त' शब्दार्थे , प्रव० 103 द्वार। 'पुरओ तीति। 168 प्र० / सेन०२ उल्ला० / जुगमायं पेहमाणे। "युगमात्रं चतुर्हस्तप्रमाणं शकटोद्धर्वसंस्थितं भूभाग | युगलित्रा--त्रि० / युगलं सजातीयविजातीययोर्द्वन्द्वं, तत्संजातमस्त्यस्य पश्यन्। आचा०२ श्रु०३ अ०१उ०। युगलितः। सजातीयविजातीयद्वन्द्वोपेते, जी०३ प्रति०। जं०। जी०। जुगल न० (युगल) युगं द्वित्वं विद्यतेऽस्त्यस्य लच् / युग्मे , __ "निचं जुगलिया'" युगलतया स्थिताः / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। द्विल्वसंख्याऽन्विते च / त्रि० / वाच० / युगलं द्वयमिति / अनु० / तं०। / जुगलियखेत्तकप्परुक्ख पुं० (युगलिकक्षेत्रकल्पवृक्ष) युगलिकक्षेत्रो उत्त० / शा० / रा०। भ०। सका औ०। सजातीयविजातीययोर्द्वन्द्रे, रा०। कल्पवृक्षा वनस्पतिरूपाः, पृथ्वीकायरूपा वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - ले जी०। जं०।"आमेलगजमलजुगलवट्टियअब्भुण्णयपीणरइयसंठियप- वनस्पतिरूपा इति / 466 प्र०। सेन०३ उल्ला०। ओहरा।" युगलौ युगलरूपौ, द्वावित्यर्थः / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। जुगवं त्रि० (युगवत्) युगं सुषमदुष्षमाऽऽदिः कालः, सोऽदुष्टो निरुपद्रवो जुगलधम्मपुं० (युगलधर्म) स्त्रीपुरुषद्वन्द्वधर्मे, आ० म०१ अ० 1 खण्ड। विशिष्ट बलहेतुर्यस्यास्त्यसौ युगवान् / कालोपद्रवरहिते, अनु० / त० ! ज्यो०। कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्य विघ्नहेतुः, स चास्य नास्तीति। अनु० / भ० / जुगलधम्मिय पुं० (युगलधर्मिक) स्त्रीपुरुषद्वन्द्वधर्मवति, तं०। रा०। आ० म०। जुगलयमणुय पुं० (युगलकमनुज) युगलर्मिणि मनुष्ये, ज्यो०१ पाहु०।। युगपत् अव्य० / युगमिव पद्यते, पद-छिप / एकस्मिन् काल इत्यर्थे, जुगलि(ण)नि० (युगलिन) सजातीयविजातीयद्वन्द्वोपेते, उत्तरकुरौ नं०। "चत्तारि कम्म से जुगवं खवेइ' / यौगपद्येन निर्जरयति। औ०। भगवान् युगलिकोऽहं युगलिनीति (श्रेयांसवचः) कल्प०७ क्षण। यस्मिन् आ०म० / उत्त०। विशे०। (युगपत्क्रियाद्वयवक्तव्यता 'दोकिरिय' शब्दे काले कालान्तरे वा यावन्तो युगलिनस्तस्मिन् तावन्त एव, न्यूनाः, वक्ष्यते) अधिका वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - यस्मिन् काले यावन्तो जुगवाहु पुं० (युगबाहु) युगो यूपस्तदाकारावृत्तत्वाद्दीर्घत्वाच्च बाहवो यस्य युगलिनस्तस्मिन्काले तु तावन्त एव भवन्तीति / कालान्तरे च सः / युगवद्दीर्घबाहौ, स्था०६ ठा० / सुविधिजिने, सुविधिजिनस्य भरतैरावतयोयुगलिना न्यूनाधिक त्वं, देवकु र्वादिषु तु जातु चैतत्पूर्वभवनामधेयम्। स०। पूर्वविदेहस्थे सीमन्धरतीर्थकरसमकालिके तत्संहरणसं भवे कुतश्चित्तदानयनमपि भवतीति न तत्रा वासुदेवे, आ० चू० 4 अ० आव०1 मालवदेशस्थस्य सुदर्शनपुरनृपतेन्यूनाऽऽधिक्यमिति / 13 प्र०। सेन० 3 उल्ला०। मणिरथस्य स्वनामख्यातेभ्रातरि, उत्त०६ अ०। मिथिलास्थे नमिराजजुगलिय त्रि० (युगलिक) स्त्रीपुरुषद्वन्द्वोपेते, कल्प० 7 क्षण / पं० पितरि, "इत्थं जुगवामयणरेहाणं पुत्तो नमी नाम महारया'' ति० / विष्णवर्षिकृतप्रश्ने-श्रीआदिनाथस्य वारके तालफलेन युगलिकदारको जुगसंवच्छरपुं० (युगसंवत्सर) युगपञ्चवर्षाऽऽत्मक तत्पूरकः संवत्सरो मृतो, युगलिनां चाकालमरणं न भवतीति कथं घटते ? इत प्रश्ने, उत्तरम् युगसंवत्सरः। स० प्र०१० पाहु०। चं० प्र०। पञ्चसंवत्सराऽऽत्मक युग, - पूर्वको टियधिकायुषो युगलिनो न्यूनायुषि न मियन्ते, ततः तदेकदेशभूतो वक्ष्यमाणलक्षणश्चन्द्राऽऽदिर्युगपूरकत्वाद्युगसंवत्सरः / श्रीआदिनाथस्य वारकेतालफलेन मृतस्य युगलिनः पूर्वकोट्यधिकमायु- जं०७ वक्षः। स्था० / संवत्सरविशेषे, (तद्वक्तव्यता जुग' शब्देऽौव र्नाभूदिति संगच्छत इति। 3 प्र० / ही०३ प्रका० / युगलिकशरीराणि भागे 1567 पृष्ठे द्रष्टव्या) सुराः समुद्र क्षिपन्ति, अथवा स्वयं विनश्वरीभवन्ति? इति प्रश्ने, उत्तरम् / जुगसंनिभ त्रि० (युगसन्निभ) वृत्ततया आयततया च यूपतुल्ये, - "पुरा हि मृतमिथुनशरीराणि महाखगाः / नीडकाष्ठमियोत्पाट्य, 'जुगसण्णिभपीणरइयपीवपउढसंठियसुसिलिट्टविसिट्टघणथिर सद्यश्चिक्षिपुरम्बुधौ" / / 1 / / इति त्रिषष्टीयऋषभदेवचरित्रवचनात् समुद्रे सुबद्धसंधीपुरवरफलिहवट्टियभूया।' जी०३ प्रति० / तं० / प्रश्न / युगलिकशरीराणि क्षिप्यन्ते, अन्ययुगलिक क्षेत्रोऽप्येवं संभाव्यते, | जुगाइ पुं० (युगाऽऽदि) युगाऽऽरम्भे युगाऽऽरम्भकाले प्रथमतः प्रवृत्ते आरण्यकपशूनां निसर्गतो मृतानां यथा किमप्यवयवाऽऽदिकं नोपलभ्यते, मासतिथिमुहूर्तादौ च / जंग। तथा तेषामपीत्येषाऽपि संभावना संजायत इति। 30 प्र० / सेन० 3 संप्रति युगसंवत्सरमासदिनानामादि प्ररूपयतिउल्ला० / सर्वेषु युगलिकक्षेत्रोषु युगलिनां गर्भजगर्भव्युत्क्रान्तभेदभिन्नानां | आदी जुगस्स संव-च्छरो उ मासस्स अद्धमासो उ।
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________________ जुगाइ 1575 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुग्गायरिया दिवसा भरहेरवए, राईया सह विदहेसु॥ युगस्य चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितचन्द्राभिवर्द्धितरूपसंवत्सरपञ्चकाऽऽत्मकस्याऽऽदिः संवत्सरः, स च चान्द्रः, तमसावन्ययुगस्य प्रवर्त्तनात् / चान्द्रस्य संवत्सरस्याऽऽदिर्मासः / स च श्रावणत आषाढपौर्णमासीचरमसमयः पाश्चात्ययुगस्य पर्यवसानं, ततोऽभिनवयुगस्याऽऽदिर्मासः प्रवर्तमानः श्रावण एव भवति, तस्यापि च मासस्य श्रावणस्याऽऽदिरर्द्धमासः पक्षः, पक्षद्वयमीलनेन मासस्य संभवात् / सोऽपि च पक्षो बहुलो वेदितव्यः, पौर्णमास्यनन्तरं बहुलपक्षस्यैव भावात्। तस्यापि च बहुलस्यार्द्धमासस्यापि भरतक्षेत्रे युगस्यादिः प्रवर्त्तते, ततो दिवस एव मासाऽऽदिरूप उत्पद्यते, यदाच भरतक्षेत्रे दिवसस्तदैरवतेऽपि दिवसः, तदा च पूर्वविदेहेष्वपरविदेहेषु च रात्रिः, अत ऐरवतेऽपि अर्द्धमासस्याऽऽदिर्दिवसो, महाविदेहेषु रात्रिरिति। संप्रति भरतैरवतेऽधिकृत्याऽऽदिप्ररूणार्थमाहदिवसाइ अहोरत्ता, बहुलाईयाणि होति पव्वाणि / अभिई नक्खत्ताई, रुद्दो आई मुहुत्ताणं / / भरते, ऐरवते च दिवसाऽऽदयो दिवसमूला अहोरात्राः, युग स्याऽऽदौ दिवसस्यैवेह प्रवर्त्तमानत्वात् / पर्वाणि पक्षरूपाणि बहुलाऽऽदीनि कृष्णानि भवन्ति, कृष्णपक्षस्यैव युगाऽऽदौ भावात्। तथा नक्षत्राणामादिरभिजित, तत एवाऽऽरभ्य नक्षत्राणां क्रमेण युगे प्रवर्तमानत्वात्। तथाहि-उत्तराषाढानक्षत्रचरमसमये पाश्चात्ययुगस्य पर्यवसानम् / ततोऽभिनव युगस्याऽऽदिनक्षत्रामभिजिदेव भवति / तथा मुहूर्तानामादिमुहूर्तो रुद्रः / इह दिवसाऽऽदिरहोरात्र इत्युक्तं , दिवसाऽऽदिके चाहोरात्रो क्रमेणामी पञ्चाशन्मुहूर्ताः / तद्यथा-प्रथमो मुहूर्तो रुद्रः, द्वितीय श्रेयान्, तृतीयो मित्रः,चतुर्थो वायुः, पञ्चमः सुपीतः, षष्ठोऽभिचन्द्र, सप्तमो माहेन्द्रः, अष्टमो बलवान्, नवमः पद्मः, दशमो बहुसत्यः, एकादश ईशानः, द्वादशस्तत्स्थः, त्रयोदशो भाविताऽऽत्मा, चतुर्दशो वैश्रवणः, पञ्चदशो वारुणः, षोडश आनन्दः, सप्तदशो विजयः, अष्टादशोविष्वक्सेनः, एकोनविंशतितमः प्राजापत्यः, विंशतितम् उपशमः, एकविंशतितमो गन्धर्वः, द्वाविंशतितमोऽग्निवेशः,त्रयोविंशतितमः शतवृषभः, चतुर्विंशतितम आतपवान्, पञ्चविंशतितमोऽममः, षड्विंशतितमोऽरुणवान्, सप्तविंशतितमो भौमः, अष्टाविंशतितमो वृषभः, एकोनत्रिंशत्तमः सर्वार्थः, त्रिंशत्तमो राक्षसः। उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ"रुद्दो सेए मित्ते, वाऊ पीए तहेव अभिचंदे। माहिंद वलवपम्हे, बहुसचे चेव ईसाणे॥१॥ तत्थेव भावियप्पा, वेसमणो वारुणेय आणंदे। विजए य वीससेणे, पायावच्चे तह य उवसमए / / 2 / / गंधव्य अग्गिवेसो, सयरिसह आयवंच अममं च / रुणवं भोमे रिसहे, सव्वढे रक्खसाईया // 3 // " ततो युगे मुहूर्तानामादिको रुद्र एव भवति। ज्यो० 2 पाहु०। तथा च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तावेवोक्तम् "किमाइआ णं भंते ! संवच्छरा, किमाइआ आयणा, किमाइआ उऊ, किमाइआ मासा, किमाइआ पक्खा, किमाइआ अहोरत्ता, किमाइआ मुहुत्ता, किमाइआ करणा, किमाइआ णक्खत्ता पण्णत्ता? गोयमा ! चंदाइआ संवच्छरा, दक्खिणाइआ अयणा, पाउसाइआ उऊ, सावणाइआ मासा, बहुलाइआ पक्खा, दिवसाइआ अहोरत्ता, रोद्दाइआ मुहुत्ता, बालवाइया करणा, अभिजिआइया णक्खत्ता समणाउसो!" [जं०७ वक्ष०] तदेवं 'राईया सह विदेहेसु' इत्यनेन (पूर्वोक्तगाथा) अवयवेन महाविदेहेष्वनया गाथया भरतैरवतयोर्युगस्याऽऽदिः प्ररूपितः। संप्रति भरतैरवतविदेहेषु साधारणं युगस्याऽऽदि प्ररूपयतिसावणबहुलपडिवए, बालवकरणे अभीइनक्खत्ते। सव्वत्थ पढमसमए, जुगस्स आई वियाणाहि।। सर्वाभरते, ऐरवते, महाविदेहेषु च श्रावणमासे बहुलपक्षेकृष्णपक्षे प्रतिपदि तिथौ बालक्करणे अभिजिन्नक्षत्रो प्रथमसमये युगस्याऽऽदिं विजानीहि। ज्यो०२ पाहु०। सर्वत्रीति भरतैरावतविदेहेषु भाव्यम्।अवसर्पिण्या षण्णामारकाणामप्यादिः रागिरेव, विदेहेषु यद्यप्यारकाणामभावः, तथापि पञ्चसंवत्सराऽऽत्मकस्य युगस्य सद्भावः / मं०।। जुग्ग न० (युग्य) युज-यत्-कुत्वम्। "युग्यं च पत्रो" / / 3 / 6 / 126 / / इति (पाणिनि) सूत्रेण निपातनम् / अश्वाऽऽदिके वाहने, स्था० 4 ठा०३ उ०। प्रश्न० / युग्यमिव युग्यम्। संयमभार वोढरि साधौ, स्था०। युग्यभेदा यथाचत्तारि जुग्गा पण्णत्ता / तं जहा-जुत्ते, णाममेगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अजुत्ते णाममेगे अजुत्ते॥ युग्यं वाहनमश्वाऽऽदि / अथवा-गोल्लविषयेजम्पानं द्विहस्तप्रमाण चतुरस्रं सवेदिकमुपशोभितं युग्यकमुच्यते, तत् युक्तमारोहणसामग्रया पर्याणाऽऽदिकया पुनर्युक्तं वेगाऽऽदिभिरित्येवं यानवव्याख्येयम्।स्था० 4 ठा० 3 उ० / युगमर्हति युगं वा वहति यत् / युगवाहकेऽश्वाऽऽदौ, त्रि०ा वाच० / गन्त्र्यादिके, आचा० 1 श्रु० 1 अ० 5 उ०। गोल्लदेशप्रसिद्ध जम्पानविशेष, प्रश्न० 5 आश्र० द्वार / युग्यानि गोल्लविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येवेति। ज्ञा०१श्रु०१ अ०। अनु०।०।जी01 भ०।औ०। प्रश्न० / पुरुषोत्क्षिप्ते आकाशयाने, सूत्रा० / 2 श्रु० 2 अ० / युग्यं पुरुषोक्षिप्तमाकाशयान, जम्पानमित्यर्थः / ज०२ वक्ष० / जुग्गगय त्रि० (युग्यगत) वाहनोपरि स्थिते, औ०।। जुग्गय त्रि० (युग्यक) 'जुग्ग' शब्दार्थे, स्था० 4 ठा०३ उ०। जुग्गायरिया स्त्री० (युग्याचा) युग्यस्याऽऽचर्या वहनं गमनं युग्याचा / युग्यस्य गमने, स्था० 4 ठा० 3 उ०। युग्याचर्याभेदा:चत्तारि जुग्गायरिया पपणत्ता। तं जहा-पंथजाई णाम
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________________ जुग्गायरिया 1576 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुज्झारिय उ०। मेगे, णो उप्पहजाई / उप्पहजाई णाममेगे, णो पंथजाई। एगे शक्तोत्यभिभवितुं शत्रुमत आवरणम्, आवरणं च कवचाऽऽदि, पंथजाई वि, उप्पहजाई वि। एगे णो पंथजाई,णो उप्पहजाई।। सत्यप्यावरणे प्रहरणं विना किं करोतीति, प्रहरणं प्रहरणं च खङ्गाऽऽदि, (जुग्गायरिय त्ति) युग्यस्य चर्या वहनं, गमनमित्यर्थः / क्वचित्तु- यानाऽऽवरणप्रहरणानि, यदि युद्धे कुशलत्वं नास्ति, तदा किं "जुग्गारिय त्ति'' पाठः, तत्रापि युग्याचर्येति, पथयाय्येकं युग्यं भवति, यानाऽऽदिनेति युद्धे संग्रामे कुशलत्वम्, कुशलत्वं च प्रावीण्यरूपं, नोत्पथयायीत्यादि चतुर्भङ्गी। इह च युग्यस्य चर्याद्वारेणैव निर्देश सत्यप्यस्मिन्नीतिं न शत्रुजयनमतो नीतिः, नीतिश्चापक्रमाऽऽदिलक्षणा, चतुर्विधत्वेनोक्तत्वात्तचर्याया एवोद्देशोक्तंचातुर्विध्यमवसयेमिति भावः / सत्यामपि चास्यां दक्षत्वा धीनो जयः, ततो दक्षत्वम्, दक्षत्वमायुग्यपक्षे तु युग्यमिव युग्यं, संयमयागेभारवोढा साधुरेव, स च शुकारित्वं, सत्यप्यस्मिन्निर्व्यवसायस्य कुतो जय इति व्यवसायः, पथियाय्यप्रमत्त उत्पथयायी लिङ्गावशेषः, उभययायी प्रमत्तश्चतुर्थः व्यवसायो व्यापारः, तत्रापि यदि न शरीरमहीनाङ्ग, ततो न जय इति सिद्धक्रमेण सदसदुभयानुभयानुष्ठानरूपत्वात्। अथवा-पथ्युत्पथयोः शरीरम्, अर्थात्परिपूर्णाङ्गम्। तत्राप्यारोग्यमेव जयायेति (आरोगवं ति) स्थपरसमयरुपत्वाद्यायित्वस्य च गत्यर्थत्वेन बोधपर्यायत्वात्स्यपर आरोग्यता, चः समुचये, एवोऽवधारणे / ततः समुदितानामेवैषां समयबोधापेक्षयेयं चतुर्भङ्गी नेयेति। स्था० 4 ठा० 3 उ०। युद्धाङ्गत्वमिति सूत्रार्थः / उत्त० पाई०३ अ०। जुग्गारिया स्त्री० (युग्याचर्या) जुग्गायरिया' शब्दार्थे , स्था० 4 ठा०३ जुज्झंझाण न० (युद्धध्यान) युद्धं वैरिणां परप्राणव्यपरोपणाध्यवसायः, तस्य ध्यानं युद्धध्यानम् / ध्यानभेदे, भ्रातृणां विनाशे, चेटकेन सह जुज्जइत्ता अव्य० (युक्त्वा) योगं कृत्वेत्यर्थे, प्रा०२ पाद। कोणिकनृपस्येव, अङ्गारवत्यादिग्रहणे चण्डप्रद्योतस्येव वा। आतु०। जुज्झधा० (युध) युद्धे, दिवा० - आत्म० --अक०- अनिट् / युध्यते, जुज्झंतत्रि०(युध्यत्) युद्धं कुर्वति, नि० चू०१ उ०। 'महया रिखुबलेण अयुद्ध / वाच० / "संपलग्गो उजुज्झिउं'। आ०म०१ अ०१ खण्ड। / / जुज्झंतो दिट्ठो।" आ०म०१ अ०१खण्ड। युद्धे, न० / युध - क्तः / शस्त्रादिक्षेपणव्यापारे योधने, वाच० / *युध्यमान त्रि० / शस्त्राणि व्यापारयति, "जुज्झंतं दढधम्माणं' / मुष्ट्याऽऽदिना परस्परताडने, तं० / “जुज्झाई बाहुजुज्झाइयाई सूत्रा०१ श्रु०३ अ०१ उ०1 वट्ठाइयाणं च''युद्धानि नाम-- बाहुयुद्धाऽऽदीनि, यदि वा वर्तकाऽऽदीनां जुज्झकित्तिपुरिस पुं० (युद्धकीर्तिपुरुष) युद्धजनिता या कीर्तिः, च / आ० म० 1 अ० खण्ड / युद्ध कुक्कुटाऽऽदीनामिव मुण्डामुण्डि, तत्प्रधानः पुरुषो युद्धकीर्तिपुरुषः। युद्धजनितकीर्तिमति पुरुषे, स०। शृङ्गिणामिव शृङ्गाङ्गि युयुत्सया योधयोर्यल्गमन् / जं०२ वक्ष० / जुज्झकु सल पुं० (युद्धकुशल) युद्धप्रवीणे, उत्त० 3 अ० / युद्धक्रियाज्ञानवति, आ० क०। आयुधयुद्धे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। वैरिणां परप्राणव्यपरोपणाध्यवसाये, आतु०। संग्रामे, "अप्पाणनेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ।" जुज्झणीइस्त्री० (युद्धनीति) व्यूहरचनाऽऽदिके, स्था० 6 ठा० / संग्रामनिर्गमप्रवेशे च। आ० क०। उत्त०। उत्त० 8 अ०। नि०। प्रश्न० / द्रव्यतः संग्रामयुद्धं, भावतः जुज्झदक्ख पुं० (युद्धदक्ष) युद्धे आशुकारिणि, उत्त० 3 अ०। परीषहाऽऽदियुद्धं, तद् द्विविधम् आर्यानार्यभेदात्। तत्रानार्य संग्रामयुद्ध, जुज्झववसाय पुं० (युद्धव्यवसाय) युद्धव्यापारे, उत्त०३ अ०। परीषहाऽऽदिरिपुयुद्धं त्वार्यम्। आचा० 1 अ०५ अ०३ उ०।तदात्मके जुज्झवीरिय पुं० (युद्धवीर्य्य) पुष्पदन्तजिनसमकालिके नृपे, द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गते कलाभेदे, ज्ञा०१ श्रु०१०। आ०। जं०। "जुज्झवीरियथुयस्स।" ति०। युद्धदर्शननिषेधो यथा जुज्झसज्ज पुं० (युद्धसज्ज) युद्धनिमितं सज्जः प्रगुणीभूतो युद्धसज्जः। जे भिक्खू आसजुज्झाणि वा. जाव सूकरजुज्झाणि वा रा०। युद्धप्रगुणे, भ०७ श०६ उ० / युद्धसज्जो रणप्रह इति। औ०। चक्खूदंसणवडियाए अभिसंधारेइ, अभिसंधारंतं वा जुज्झसड्ड नि० (युद्धश्रद्ध) युद्ध संग्रामस्तत्रा संजाता श्रद्धा यस्य साइजइ॥२६ सः। युद्धश्रद्धावति, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। "हजजुज्झ'' गाहा ! हयोऽश्वस्तेषां परस्परतो युद्ध, एवमन्येषामपि, | जुज्झसूर पुं० (युद्धशूर) युद्धे शूरः सुभटः / रणदीक्षाबद्धकक्षे, गजाऽऽदयः प्रसिद्धाः, शरीरेण विमध्यभः करटः, रक्तपादपवट्टकः शिखी, संथा० / शूरविशेषे, "जुज्झसूरे वासुदेवे' युद्धशूरो वासुदेवः / धूम्रवर्णी लावकः, आडिमादिप्रसिद्धा, अड्डियपच्छड्डियादिकरणेहिं जुद्धं, कृष्णवत्तस्य षष्ठ्यधिकेषु त्रिषु संग्रामशतेषु लब्धजयत्वात् / स्था० 4 सव्वसंधिविक्खोभणं णिजुद्धं, पुटवं जुद्धेण जुद्धिउं पच्छा संधी ठा०३ उ०। विक्खोभिजति जत्थतं जुद्ध / नि० चू०१२ उ०। जुज्झाइजुज्झन० (युद्धातियुद्ध) यत्रा प्रतिद्वन्द्विहतानां पुरुषाणां पातः जुज्झंग न० (युद्धाङ्ग) संग्रामाङ्गे, उत्त०। स्थादित्येवम्भूते खङ्गाऽऽदिप्रक्षेपपूर्व के महायुद्धे, तदात्मके साम्प्रतं युद्धाङ्गमाह द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गत कलाभेदे च / जं०२ वक्षः। स०। औ० / ज्ञा० जाणाऽऽवरणपहरणे, जुज्झे कुसलत्तणं च णीतीए। जुज्झारिय न० (युद्धार्य) युद्धभेदे, युद्ध द्विविधम्, आर्याऽनार्यभेदात्। दक्खत्तं ववसातो, सरीरमारोगयं चेव // 14|| उत्त०नि०। अनार्य संग्रामयुद्धम्, परिषहाऽऽदिरिपुयुद्धं त्वार्य्यम्। आचा०१ श्रु०५ (जाणावरणपहरणे ति) यानं च हस्त्यादि, तत्रा सत्यपि न / अ०३ उ०।
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________________ जुज्झारिह 1577 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुत्तसुवण्ण जुज्झारिह त्रि०(युद्धाह) युद्धोचिते, "इमेणं चेव जुज्झाहि किंते जुज्झेण वज्झओ। जुद्धारिहं तु खलु दुल्लहं जहेत्थ कुसलेहिं / / 1 / / " आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। जुज्झित्ता त्रि०(युद्ध्या) युद्धं कृत्वेत्यर्थे, स्था०३ ठा०२ उ०। जुण्ण त्रि०(जूर्ण जीर्ण) तृणभेदे, वाच०। 'जिपण' शब्दार्थे च / प्रा०१ पाद। जुण्णकुमारी स्त्री० (जीर्णकुमारी) 'जिण्णकुमारी' शब्दार्थे, ज्ञा०२ श्रु० 1 वर्ग 1 अ०। जुण्णगुल पुं० (जीर्णणुड) "जिण्णगुल' शब्दार्थे, भ०८ श०६ उ०। जुण्णघय न० (जीर्णघृत) 'जिण्णघय' शब्दार्थे, अनु०॥ जुण्णतंदुल पुं० (जीर्णतण्डुल) 'जिण्णतंदुल' शब्दार्थे, भ० 8 श० ६उ०। जुण्णतया स्त्री० (जीर्णत्वक् ) 'जिण्णतया' शब्दार्थे, आचा०२ श्रु० 4 चु०। जुण्णदुग्ग न० (जीर्णदुर्ग) जिण्णदुग्ग' शब्दार्थे, ती० 4 कल्प० / जुण्णसुरा स्त्री० (जीर्णसुरा) 'जिण्णसुरा' शब्दार्थे, भ०८ श०६ उ०। जुण्णसेट्ठि(ण) पुं० (जीर्णश्रेष्ठिन्) 'जिण्णसेट्टि(ण) शब्दार्थे, ध०२०। जुण्णाजुण्ण त्रि० (जीर्णाजीर्ण) 'जिण्णाजिण्ण' शब्दार्थे, आ० म०१ अ०१खण्ड। जुण्णुजाण न० (जीर्णोद्यान) 'जिण्णुजाण' शब्दार्थे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। जुण्णुद्धार पुं० (जीर्णोद्धार) "जिण्णुद्धार' शब्दार्थे, ध०२ अधि०। जुण्हा स्त्री० (जोत्स्ना) 'जोइसिणा' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद। जुति स्त्री० (द्युति) द्युतौ, 'सव्वजुईए' सर्वद्युत्याऽऽभरणादि संबन्धित्या। ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। जुत्त नि० (युक्त) युज - क्तः / युते, "जुत्तानि बलीवदाऽऽदियुतानि / औ०। 'गुत्ते जुत्ते तदा जए।" युक्तो ज्ञानाऽऽदिभिः। सूत्रा०१ श्रु०२ अ० 3 उ०। संयुते, पञ्चा० 12 विव०। मिलिते, अष्ट० 1 अष्ट० / उपेते, षा० 11 विव० / श्लिष्टे, आ० चू०।युक्तं श्लिष्टमित्यनर्थान्तरम् / आ० चू०१ अ०। समन्विते, आचा० 1 श्रु०५ अ०१ उ०। परस्परसंबद्धे, सूत्रा० 1 श्रु०१ अ०१ उ०। विशे० / ज्ञा० / रा०! उचिते, अनु०। स्था० / जं० / रा० / जी० / योग्ये, नि० चू० 10 उ० / युक्त योग्य घटमानमिति। नि० चू०१ उ०।"जुत्तो' 'युज्यते, घटत इत्यर्थः / नि० चू०१ उ०। उपपन्ने, चं० प्र०२०पाहु०। सूत्र० 1 सू०प्र०। संगते, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ० / स्था० / विपा०। जं०। उपा० / पञ्चा० / युक्तियुक्ते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। समते, दर्श०४ तत्त्व। उद्युक्ते, प्रव०६४ द्वार। अभ्यस्तयोगे योगिनि, पुं० / एलानीबृक्षभेदे च, न्यायाऽऽगत द्रव्याऽऽदौ, न० / वाच०। जुत्तगइ स्त्री० (युक्तगति) मृदुगतौ, "जुत्तगती णाम मिदुगती।'' न शीघ्र गच्छतीत्यर्थः / नि० चू०१६ उ०। जुत्तजोगपुं० (युक्तयोग) संयुतकायाऽऽदिचेष्टे, "सव्वेहिं जुत्तजोगस्स।" पञ्चा० 12 विव०। जुत्तपरिणय त्रि० (युक्तपरिणत) सत्सामग्या युक्ततया परिणते यानाऽऽदौ, | स्था०४ ठा०३ उ०। जुत्तपालिय त्रि०(युक्तपालिक) युक्तापरस्परं संबद्धा न तु वृहदन्तराला पालिः सेतुर्यस्य य युक्तपालिकः / परस्परसंबद्धसेतुके, रा०। जी०। जुत्तफु सिय न० (युक्तस्पृष्ट) उचितबिन्दुनिपाते, "जुत्तफुसिय निहयरेणुयं / " स०३४ सम०। जुत्तरूव त्रि० (युक्तरूप) संगतस्वभावे, प्रशस्तस्वभावे, उचितवेषे, सुविहितनेपथ्ये च / स्था०४ ठा०३ उ०। जुत्तसोह त्रि० (युक्तशोभ) युक्तं शोभते युक्तस्य वा शोभा यस्य तद्युक्तशोभम् / गवाऽऽदिसत्सामग्रीयुक्ततया शोभमाने यानाऽऽदौ, स्था० 4 ठा०३ उ०।युक्ता उचिता शोभा यस्य सः। युक्तशोभोपेते, स्था० 4 ठा० 3 उ०। जुत्ति स्त्री० (युक्ति) योजनं युक्तिः, युज-क्तिन्। विशे०। योगे, "दिव्वाए जुत्तीए' युक्त्या विवक्षितार्थयोगेन। औ०। भक्तो, स्था०८ ठा० / द्रव्याऽऽदिसंयोगे, स०५ अङ्ग / आचा०। ज्ञा०।युक्त्याऽन्यान्यभक्तिभिस्तथाविधद्रव्ययोजनेनेति। स्था० 8 ठा०।लोकन्याये, षो०६ विव० / विशे०। हेतौ, स०५ अङ्गा उपपत्तौ, अष्ट०१६ अष्ट० / श्रा० / पञ्चा०। "एसा खलु तंतजुत्ति त्ति।" तन्त्रयुक्तिः शास्त्रीयोपपत्तिः / पञ्चा०१८ विव०। अवितथभणितो, "तत्थिमा जुत्ति वत्तव्या।"जीवा०८ अधि०। युक्तयः सर्वप्रमाणनयगर्भा इति / षो०५ विव० / अनुमाने, यो० वि०। अनुमानसाधने लिङ्गज्ञानाऽऽदौ, वाच० / “सव्वाहि अणुजुत्तीहिं / ' सर्वैरेव हेतुदृष्टान्तैः प्रमाणीभूतैः / सूत्र० 1 श्रु० 11 अ० / युक्तयः साधनानि, असिद्धविरुद्धानैकान्तिकपरिहारेण पक्षधर्मत्वसपक्षत्वविपक्षत्वव्यावृत्तिरूपतया युक्तिसङ्गतायुक्तयः। सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उका योजनं युक्तिः / अर्थघटनायाम्, स०५ अङ्ग। सूत्रा०। "तत्थ जुत्ती वि पयडा।" जी० 1 प्रति० / 'सव्वजुईए' सर्वयुक्त्या उचितेषु वस्तुघटनालक्षणयेति / ज्ञा० 1 श्रु०७ अ० / विधौ, बृ० 1 उ० / युक्तिरावधारणमित्युक्ते नाटकाङ्गविशेषे च / वाच०। *जूर्ति - स्त्री० / ज्वर-क्तिन, संप्रसारणम्। ज्वरे, वाच०। जुत्तिक्खम त्रि०(युक्तिक्षम) उपपत्तिसहे, पञ्चा०१२ विव०।आ०म० / 'नागमजुत्तिक्खम होइ' / (365 गाथा) विशे०। जुत्तिगई स्त्री० (युक्तिगवी) यथार्थवस्तुस्वरूपविभजनोपपत्तियुक्तिः।सैव गौयुक्तिगवी।युक्तिरूपायां गवि, "मनोवत्सोयुक्तिगवीं, मध्यस्थस्यानु धावति / (2 श्लो०) अष्ट०१६ अष्ट। जुत्तिण्ण नि० (युक्तिज्ञ) युक्तिज्ञानवति, "गंधारे गीयजुत्तिण्णा।'' स्था० ७ठा०। जुत्तिवाहिय नि० (युक्तिबाधित) उपपत्तिनिराकृते, "जम्हाण जुत्तिवाहिविसओ वि सदागमो होइ।' (44 गाथा) पञ्चा०१८ विव०। जुत्तिसुवण्ण पुं० (युक्तिसुवर्ण) कृत्रिमसुवर्णे, दश०१० अ०। युक्तिसुवर्णस्य का वार्ता ? इत्याहजुत्तीसुवण्णगं पुण, सुवण्णवण्णं तु यदि वि कीरेज्जा। _ण हु होति तं सुवण्णं, सेसेहिँ गुणेहिँ संतेहिं // 36 // युक्त्या द्रव्यसंयोगेन, यदसुवर्ण सत्सुवर्णाकारं स्यात् तद् युक्तिसुवर्ण, तत्पुनः सुवर्णवर्ण पीतच्छायमेव, यद्यपत्यिभ्युपगमोक्रि
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________________ जुत्तिसुवण्ण 1578 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुम्म येत विधीयेत, कथञ्चित्तथापि 'न हु' नैव भवति स्यात, तद्युक्ति - सुवर्णम्, सुवर्ण हेम, शेषेर्वर्णव्यतिरिक्तैर्गुणैर्विषघाताऽऽदिभिर-सद्भिरिति गाथार्थः // 36 // पञ्चा० 14 विव० / जुद्धकित्तिपुरिस पुं० (युद्धकीर्तिपुरुष) “जुज्झकित्तिपुरिस' शब्दार्थे . स०। जुद्धकुसल पुं० (युद्धकुशल) “जुज्झकुसल' शब्दार्थे , आ० क०। जुद्धणीइ स्त्री० (युद्धनीति) 'जुज्झणीइ' शब्दार्थे, आ० क०। जुद्धदक्ख पुं० (युद्धदक्ष) जुज्झदक्ख' शब्दार्थे, उत्त० 3 अ०। जुद्धववसायपुं०(युद्धव्यवसाय) जुज्झववसाय' शब्दार्थे, उत्त०३ अ०। जुद्धविरिय पुं० (युद्धवीर्य) जुज्झविरिय' शब्दार्थे, ति०। जुद्धसज्ज पुं० (युद्धसज्ज) जुज्झसज्ज' शब्दार्थे, रा०। जुद्धसङ्घ त्रि० (युद्धश्रद्ध) जुज्झसङ्घ शब्दार्थे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। जुप्पइत्ता अव्य० (युक्त्वा) युज-क्त्वा / योगं कृत्वेत्यर्थे , प्रा० 4 पाद। जुम्म न० (युग्म) युज् - मक् / पृषोदराऽऽदित्याजस्य गः। ''ग्मावा' 181163 / इतिप्राकृतसूत्रोण ग्मस्य म्मो वा / प्रा० 2 पाद / द्वित्वसंख्याऽन्विते पदार्थद्वयसंघाते, पिं० / ओघ० / युगले, ''युग्मानिकृतभूतानि, षण्मुन्योर्वसुरन्ध्रयोः / रुद्रेण द्वादशी युक्ता, चतुर्दश्यथ पूर्णिमा। प्रतिपदाऽऽप्यमावस्या, तिथ्योर्युग्मं महाफलम्॥" इत्युक्ते तिथियोगविशेषे, वाच० / गणपरिभाषया समराश्यात्मके राशिविशेषे च। स्था०४ ठा०३ उ०। युग्मभेदा:कइणं भंते ! जुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता / तं जहा-कडजुम्मे, तेओए, दावरजुम्मे, कलिओए।। से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ० जाव कलिओए? गोयमा ! जे णं रासीचउक्क एणं अवहारेणं अवहीरेमाणे अवहीरेमाणे चउपञ्जवसिए, सेतं कडजुम्मे १जेणंरासीचउक्कएणं अवहारेणं / अवहीरेमाणे अवहीरेमाणे तिपज्जवसिए, से तं तेओए 2 / जे णं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरेमाणे अवहीरेमाणे दुपञ्जवसिए, से तं दावरजुम्मे 3 / जे णं रासीचउक्क एणं अवहारेणं अवहीरेमाणे अवहीरेमाणे एगपज्जवसिए, से तं कलिओए 4 से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ० जाव कलिओए / / 'कइणं इत्यादि। (चत्तारि जुम्म ति) इह गणितपरिभाषया समो राशिर्युग्ममुच्यते, विषमस्तु ओज इति / ता च यद्यपीह द्वौ राशी युग्मशब्दवाच्यौ द्वौ च ओजः शब्द वाच्यौ भवतः, तथापीह युग्मशब्देन राशयो विवक्षिताः, अतश्चत्वारि युग्मानि, राशय इत्यर्थः / तत्रा | (कडजुम्मे त्ति) कृतं सिद्ध पूर्ण , ततः परस्य राशिसंज्ञान्तरस्याभावेन, नयोजः प्रभृतिवदपूर्ण ययुग्मं समराशिविशेषः तत्कृतयुग्मम्। (तेओए ति) त्रिभिरादित एव, कृतयुग्मादोषपरिवर्तिभिरोजो विषमराशिविशेषस्त्रयोजः। (दावरजुम्मे ति) द्वाभ्यामादित एव. कृतयुग्माद्वोपरिवर्त्तिभ्यां यदपर युग्म कृतयुग्मादन्यत्तन्निपातन विधेर्द्वापरयुग्मम्। (कलिओए त्ति) कलिना एके न आदित एव, कृतयुग्माद्वोपरिवर्तिना ओजो / विषमराशिविशेषः कल्योज इति / "जे णं रासी'' इत्यादि / यो राशिश्चतुष्कके नापहारेणापह्रियमाणश्चतुष्पर्यवसितो भवति स कृतयुग्मभिधीयते / यत्रापि राशौ चतुरूपत्वेन चतुष्कापहारो नास्ति, सोऽपि चतुष्पर्यवसितत्वसद्भावात्कृतयुग्ममेव, एवमुत्तरपदेष्वपि। भ०१८ श० 4 उ० / आचा० / स्था० / यस्तु त्रिपर्यवसितः स त्र्योजो, द्विपर्यवसितो द्वापरयुग्मे, एकपर्यवसितः, कल्योज इति / इह गणितपरिभाषायां समराशियुग्म इत्युच्यते, विषमस्तुओजइति। इयं च समयस्थितिः, लोके तु कृतयुगाऽऽदीनि एवमुच्यन्ते - "द्वात्रिशच्च सहस्राणि, कलौ लक्षचतुष्टयम् / वर्षाणां द्वापराऽऽदौ स्या-देतद् द्वित्रिचतुर्गुणम्' / / 1 / / इति स्था० 4 ठा०३ उ०। उक्तराशीन्नारकाऽऽदिषु निरूपयन्नाह - णेरइयाणं चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता। तं जहा-कडजुम्मे, तेओए, दावरजुम्मे, कलिओए / एवमसुरकु माराणं० जाव थणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं आउतेउवाउवणस्सइवेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वाणमंतरजोइसियाणं वेमाणियाणं सव्वेसिं जहा नेरइयाणं। "नेरइयाणं' इत्यादि सुगमम्। नवरम्, नारकाऽऽदयश्चतुर्धाऽपि स्युः, जन्ममरणाभ्यां हीनाधिकत्व संभवादिति / स्था० 4 ठा०३ उ०। अनन्तरं कृतयुग्माऽऽदिराशयः प्ररूपिताः। अथ तैरेव नारकाऽऽदीन प्ररूपयन्नाहनेरइयाणं भंते ! किं कडजुम्मा, तेओआ, दावरजुम्मा, कलिओआ ? गोयमा ! जहण्णपदे कडजुम्मा, उक्कोसपदे तेओआ, अजहण्णमणुक्कोसपदे सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ० जाव थणियकुमारा।। "नेरझ्याणं' इत्यादि। (जहण्णपदे कडजुम्म त्ति) अत्यन्तस्तोकत्वेन कृतयुग्माः कृतयुग्मसंज्ञिताः, (उक्कोसपए ति) सर्वोत्कृष्टतायां योजः संज्ञिताः, मध्यमपदे चतुर्विधा अप्येतच्चैवमाज्ञाप्रामाण्यादवगन्तव्यम्। वणस्सइकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णपदे उक्कोसपदे अपदा, अजहण्णमणुक्कोसपदे सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ / वेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णपदे कडजुम्मा, उक्कोसपदे दावरजुम्मा, अजहण्णमणुकोसपदे सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ। एवं० जाव चउरिंदिया। सेसा एगिदिया,जहा वेइंदिया,पंचिदियतिरिक्खजोणिया०जाव वेमाणिया जहा णेरइया, सिद्धा जहा वणस्सइकाइया। "वणस्सइकाइयाणं इत्यादि / वनस्पतिकायिका जघन्यपदे, उत्कृष्ट पदे चापदाः, जघन्यपदस्योत्कृष्टपदस्य च तेषामभावात्। तथाहि-जघन्यपदमुत्कृष्टपदं च तदुच्यते यन्नियतरूपं, तच्च यथा नारकाऽऽदीनां कालान्तरेणापि लभ्यते, न तथा वनस्पतीनां तेषां परम्परया सिद्धिगमने न तद्राशेरनन्तत्वापरित्यागे ऽप्य - नियतरूपत्वादिति / (सिद्धा जहा वणस्सइकाइय त्ति) जघन्यपदे, उत्कृष्ट पदे चापदाः, अजघन्यो त्कृष्टपदे च स्यात्कृतयुग्मा -
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________________ जुम्म 1576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुम्म ऽऽदय इत्यर्थः / ता जघन्योत्कृष्टपदापेक्षया अपदत्वं वर्द्धमानतया तेषामनियतपरिमाणत्वाद्भावनीयमिति // इत्थीओ णं भंते ! किं कडजुम्माओ पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णपदे कडजुम्माओ, उक्कोसपदे क ड जुम्माओ, अजहण्णमणुको सपदे सि क ड जुम्माओ० जाव सिय कलिओ आओ / एवं असुरकु माराइत्थीओ वि० जाव थणियकुमारइत्थीओ वि, एवं तिरिक्खजोणियइत्थीओ वि, एवं मणुस्सइत्थीओ वि, एवं वाणमंतरजोइसियवेमाणियदेवइत्थीओ वि।। म०१५ श०४ उ०। णेरइयाणं भंते ! कइ जुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा! चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता / तं जहा-कडजुम्मे० जाव कलिओए। से केणटेणं मंते ! एवं वुच्चइ-णेरइयाणं चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता / तं जहाकड जुम्मे, अट्ठो तहेव / एवं० जाव वाउकाइयाणं / वणस्सठकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! वणस्सइकाइया सिय कड जुम्मा, सिय ते ओआ, सिय दावरजुम्मा, सिय कलिओआ। से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइवणस्सइकाइया० जाव कलिओआ? गोयमा ! उववायं पड़च से तेणढेणं तं चेव। वेइंदियाणं जहा गेरइयाणं / एवं० जाव वेमाणियाणं / सिद्धाणं जहा वणस्सइकाइयाणं // ''नेरइयाणं भते ! कति जुम्मा' इत्यादौ (अट्ठो तहेव त्ति) स चार्थः / "जे णं णेरइयाणं चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरेमाणा अवहीरेमाणा चउपज्जवसिया ते ण नेरइया कडजुम्मे' इत्यादिरिति / वनस्पतिकायिकसूत्र--(उववायं पडुचत्ति) यद्यपि वनस्पतिकायिका अनन्तत्वेन स्वभावात्कृतयुग्मा एवं प्राप्नुवन्ति, तथापि गत्यन्तरेभ्य एकाऽऽदिजीवानां तत्रोत्पादमङ्गीकृत्य तेषां चतूरूपत्वमयोगपद्येन भवतीत्युच्यते उद्वर्तनामप्यङ्गीकृत्य, स्यादेतत्, केवलं सेह न विवक्षितति / / अथ कृतयुग्माऽऽदिभिरेव राशिभिर्द्रव्याणां प्ररूपणायेदमाह -- धम्मत्थिकाए णं भंते ! दवट्ठयाए किं कडजुम्मे० जाव | कलिओए ? गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, कलिओए। एवं अधम्मत्थिकाए वि / एवं आगासस्थिकाए वि। जीवत्थिकाए णं पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णे कलिओए / पोग्गलत्थिकाए णं पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मे० जाव सिय कलिओए, अद्धासमए जहा जीवत्थिकाए / धम्मत्थिकाएणं भंते ! पदेसट्ठयाए किं कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओए। एवं० जाव अद्धासमए / / "धम्मत्थिकारणं भते!" इत्यादी (कलिओए ति) एकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य चतुष्कापहाराभावेनैकस्यैवावस्थानात्कल्योज एवासाविति। | "जीवत्थि'' इत्यादि / जीवद्रव्याणामवस्थितानन्तत्वात्कृतयुग्मतैव। “पोग्गलन्थिकाए'' इत्यादि / पुद्गलास्तिकायस्यानन्तभेदत्वेऽपि संघातभेदभाजनत्वाचातुर्विध्यमध्येयम्, अद्धासमयानां त्यतीतानागतानामवस्थितानन्तत्वेन कृतयुग्मत्वम्। अतएवाह-(अद्धासमए जहा जीवत्थिकाए त्ति) उक्ता द्रव्यार्थता / अथ प्रदेशार्थता तेषामेवोच्यते"धम्मत्थि' इत्यादि। सर्वाण्यपि द्रव्याणि कृतयुग्मानि प्रदेशार्थतयाऽवस्थितासंख्यातप्रदेशत्वादवस्थिताऽनन्तप्रदेशत्वाचेति। अथ द्रव्याण्येव क्षेत्रापेक्षया कृतयुग्माऽऽदिभिः प्ररूपयन्नाह -- धम्मत्थिकाए णं भंते ! किं ओगाढे, अणोगाढे ? गोयमा ! ओगाढे, णो अणोगाढे / जइ ओगाढे, किं संखेजपएसोगादे, असंखेजपएसोगाढे, अणंतपएसोगाढे ? गोयमा ! णो संखेज्जपएसोगाढे, असंखेञ्जपएसोगाढे, णो अणंतपएसोगाढे / जइ असंखेज्जपएसोगाढे, किं कडजुम्मपएसोगाढे पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्मपएसोगाढे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओयपएसोगाढे / एवं अहम्मत्थिकाए वि, एवं आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए, अद्धासमए एवं चेव। 'धम्मत्थिकाए'' इत्यादि / (असंखेजपएसोगाढे ति) असंख्यातेषु लोकाऽऽकाशप्रदेशेष्वगाढोऽसौ, लोकाऽऽकाशप्रमाणत्वात्तस्येति / (कडजुम्मपएसोगाढे त्ति) लोकस्यावस्थितासंख्ये यप्रदेशत्वेन कृतयुग्मप्रदेशता, लोकाऽऽकाशप्रमाणत्वेन च धर्मास्तिकायस्यापि कृतयुग्मतैव / एवं सर्वास्तिकायानां लोकावगाहित्यात्तेषाम् / नवरम्, आकाशास्तिकायस्यावस्थितानन्तप्रदेशत्वादात्मावगाहित्वाच कृतयुग्मप्रदेशावगाढताऽद्धासमयस्य चावस्थितासंख्येयप्रदेशाऽऽत्मक मनुष्यक्षेत्रावगाहित्वादिति / अथ कृतयुग्माऽऽदिभिरेव जीवाऽऽदीनि षड्विशतिपदान्येकत्वपृथक्त्वाभ्यां निरूपयन्नाहजीवे णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, कलिओए। एवं णेरयइ वि, एवं० जाव सिद्धे / / "जीवेणं'' इत्यादि। द्रव्यार्थतया एको जीव एकमेव द्रव्यं, तस्मात्कल्योजो, न शेषाः। जीवाणं भंते ! दवट्ठयाए किं कडजुम्मा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, कलिओआ। णेरइयाणं भंते !दव्वट्ठयाए पुच्छा? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ। विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, कलिओआ, एवं० जाव सिद्धा।
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________________ जुम्म 1580- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुम्म "जीवाणं'' इत्यादि।जीवा अवस्थितानन्तत्वादोघाऽऽदेशेन सामान्यतः | कृतयुग्माः, (विहाणादेसेणं ति) भेदप्रकारेण एकैकश इत्यर्थः / कल्योजा एकत्वात्तत्स्वरूपस्य। "नेरइयाण इत्यादौ (ओघादेसेणं ति) सर्व एव परिगण्यमानाः (सिय कडजुम्मे त्ति) कदाचिच्चतुष्कापहारेण चतुरग्रा भवन्ति / "एवं सिय तेओआ'' इत्याद्यप्यवगन्तव्यमिति / उक्ता द्रव्यार्थतया जीवाऽऽदयः। अथ तथैव प्रदेशार्थतयोच्यन्तेजीवेणं भंते ! पदेसट्टयाए किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! जीवपदेसे पडुच्च कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मो णो कलिओप / सरीरदेसे पडुब सिय कडजुम्मे० जाव सिय कलिओप, एवं० जाव वेमाणिए। सिद्धेणं भंते ! पदेसट्ठयाए किं कडजुम्मे पुच्छा ! गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओए। "जीवेणं" इत्यादि। (जीवपएसे पडुच कड़जुम्मे त्ति) असंख्यातत्वादवस्थितत्वाच जीवप्रदेशानां चतुरग्र एव जीवप्रदेशतः। 'सरीरपएसे पडुच्च'' इत्यादि औदारिकाऽऽदिशरीरप्रदेशानामनन्तत्वेऽपि संयोगवियोगधर्मत्वादयुगपच्चतुर्विधता स्यात्। जीवाणं भंते ! पदेसट्ठयाए किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा! जीवपदेसे पडुच ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, णोतेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। सरीरपदेसं पडुच ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ / विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि०जाव कलिओआ वि। एवं णेरझ्या वि, एवं० जाव वेमाणिया। सिद्धाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेण वि कडजुम्मा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। "जीवाणं'' इत्यादि। (ओघादेसेण वि विहाणादेसेण विकडजुम्म त्ति) समस्तजीवानां प्रदेशा अनन्तत्वादवस्थितत्वाच एकैकस्य प्रदेशा असंख्यातत्वादवस्थितत्वाच्च चतुरग्रा एव, शरीरप्रदेशापेक्षया त्वोघाऽऽदेशेन सर्वजीवशरीरप्रदेशानामयुग पञ्चातुर्विध्यम्, अनन्तत्वेऽपि तेषां संख्यातभेदभावेनानवस्थितत्वात्। 'विहाणादेसेणं कड जुम्मा वि'' इत्यादि / विधानाऽऽदेशे नै कै क जीवशरीरस्य प्रदेशगणनायां युगपचातुर्विध्यं भवति, यतः कस्यापि जीवशरीरस्य कृतयुग्मप्रदेशता, कस्यापि त्र्योजः प्रदेशतेल्येवमादीनि। अथ क्षेत्रतो जीवाऽऽदि तथैवाऽऽह - जीवे णं भंते ! किं कडजम्मपदेसोगाढे पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे जाव सिय कलिओयपदेसोगाढे, एवं० जाव सिद्धे। "जीये णं' इत्यादि / औदारिकाऽऽदिशरीराणां विचित्रावगाहनत्वाचतुरग्राऽऽदित्वमस्तीत्यत एवाऽऽह-"सिय कडजुम्मे " इत्यादि। जीवाणं भंते ! किं कडजम्मपदेसोगाढे पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, णो तेओआ,णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि० जाव कलिओअपदेसोगाढा वि / रइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मपदेसोगाढा वि० जाव सिय कलिओअपदेसोगाढा वि। विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि० जाव कलिओअपदेसोगाढा वि। विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि० जाव सिय कलिओअपदेसोगाढा वि, एवं एगिदियवजा० जाव वेमाणिया सिद्धा। एगिदिया य जहा जीवा। "जीवाण भंते!'' इत्यादि। समस्तजीवैरवगाढानां प्रदेशा नामसंख्यातत्वादवस्थितत्वाचतुरगतैवेत्योघाऽऽदेशेन कृतयुग्मप्रदेशावगाढाः; विधानाऽऽदेशतस्तु विचित्रात्वाद् यदवगाहनाया युगपञ्चतुर्विधाः, ते नारकाः पुनरोघतो विचित्रपरिणामत्वेन विचित्राशरीरप्रमाणत्वेन विचित्रावगाहनाप्रदेशपरिमाणत्वादयोगपोन चतुर्विधा अपि, विधानतस्तु विचित्रावगाहनत्वादेकदाऽपि चतुर्विधास्ते भवन्ति। (एवं एगिंदियसिद्धिवजा सव्वे वित्ति) असुराऽऽदयोनारकवद्वक्तव्या इत्यर्थः / तत्रौघतस्ते कृतयुग्माऽऽदयः-अयोगपद्येन, विधानतस्तु युगंपदेवैतः, (सिद्धा एगिंदिया य जहाजीव त्ति) सिद्धाएकेन्द्रियाश्च यथा जीवास्तथा वाच्याः, ते चौघतः कृतयुग्मा एव, विधानतस्तु युगपञ्चतुर्विधा अपि / युक्तिस्तूभयत्रापि प्राग्वत्। अथ स्थितिमाश्रित्य जीवाऽऽदितथैव प्ररूप्यतेजीवेणं भंते ! किं कडजुम्मसमयद्वितीए पुच्छा? | गोयमा! कड जुम्मसमयहितीए, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओयसमयद्वितीए / णेरइए णं पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयहितीए० जाव सिय कलिओयसमयद्वितीए / एवं० जाव वेमाणिए सिद्धे जहा जीवे / "जीवेण" इत्यादि / तत्रातीतानागतवर्तमानकालेषु जीवोऽस्तीति, सर्वाद्धाया अनन्तसमयाऽऽत्मकत्वादवस्थितत्वाच्चा सौकृतयुग्मसमयस्थितिक एव / नारकाऽऽदिस्तु विचित्रसमयस्थितिकत्वात्कदाचियतुरग्रः, कदाचिदन्यलिातयवर्तीति। जीवाणं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! ओघादेसेण वि, विहाणादेसेण वि कडजुम्मसमयद्वितीया, णो तेओणा, णो दावरजुम्मसमयद्वितीया, णो कलिओआ। णेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमयद्वितीया वि० जाव सिय कलिओअसमयद्वितीया वि। विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयद्वितीया वि जाव० कलिओअसमयद्वितीया वि, एवं० जाव वेमाणिया सिद्धा जहा जीवा।। "जीवाणं'' इत्यादि। बहुत्वे जीवा ओघतो, विधानतश्च चतुरग्रसमयस्थितिका एव, अनाद्यनन्तत्वेनागन्तसमयस्थितिकत्वात्तेषाम् / नारकाऽऽदयः पुनर्विचित्रसमयस्थितिकाः, तेषां च सर्वेषां स्थितिसमयमीलने चतुष्कापहारे चौघाऽऽदेशेन स्यात्कृतयुग्मसमयस्थितिका इत्यादि, विधानतस्तुयुगपञ्चतु विधां अपि। अथ भावतो जीवाऽऽदितथैव प्ररूप्यतेजीवे णं भंते ! कालवण्णपज्जवेहिं किं कडजुम्मे पुच्छा?
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________________ जुम्म 1581- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुम्म गोयमा ! जीवपदेसे पडुच्च णो कडजुम्मे. जाव णो कलिओए।। सरीरपदेसे सिय कडजुम्मे० जाव सिय कलिओए। एवं० जाव वेमाणिए। सिद्धो चेव ण पुच्छिज्जइ।। "जीवेणं'' इत्यादि (जीवपएसे पडुचनो कडजुम्म त्ति) अमूर्तत्वाजीवप्रदेशानां न कालाऽऽदिवर्णपर्यवानाश्रित्य कृतयुग्माऽऽदिव्यपदेशोऽस्ति; शरीरवपक्षया तु क्रमेण चतुर्विधोऽपि स्यात् / अत एवाऽऽह"सरीर'' इत्यादि / (सिद्धो न चेव पुच्छिाइ त्ति) अमूर्तत्वेन तस्य वर्णाऽऽद्यभावात्। जीवा णं भंते ! किं कालवण्णपञ्जवेहिं पुच्छा ? गोयमा ! जीवपदेसे पडुच्च ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि, णो कडजुम्मा० जावणो कलिओआ।सरीरपदेसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ / विहाणादेसेणं कडजुम्मा०वि जाव कलिओआ वि। एवं० जाव वेमाणिया, एवं णीलवण्णपज्जवेहिं विदंडओ भाणियव्वो एगत्तपुहत्तेणं, एवं० जाव लुक्खफासपज्जवेहिं / जीवे णं भंते ! आमिणिबोहियणाण पज्जवेहिं किं कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मे० जाव सिय कलिओए, एवं एगिदियवजं० जाव वेमाणिए। जीवा णं भंते ! आभिणिबो हियणाणपञ्जवेहिं पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजम्मा. जाव सिय कलिओआ। विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलिओआ वि। एवं एगिदियवजं० जाव वेमाणिया / एवं सुयणाणपञ्जवेहिं वि, ओहिणाणपज्जवेहिं वि एवं चेव, णवरं विगलिंदियाणं णत्थि ओहिणाणं, मणपज्जवणाणं वि एवं चेव, णवरं जीवाणं मणुस्साण य सेसाणं णत्थि / (आभिणिबोहियनाणपज्जवे हि ति) आभिनिबोधिक ज्ञानस्या ऽऽवरणक्षयोपशमभेदेन विशेषास्तस्यैव च ये निर्विभागपरिच्छे दास्ते आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवास्तैः, तेषां चानन्तत्वेऽपि क्षयोपशमस्य विचित्रात्वेनानावस्थितपरिणामत्वादयोगपद्येन जीवश्चतुग्राऽऽदिः स्यात् (एवं एगिदियवजं ति) एकेन्द्रियाणां सम्यक्त्वाभावान्नस्त्याभिनिबोधिकमिति न तदपेक्षया तेषां कृतयुग्माऽऽदिव्यपदेश इतिः "जीवाणं' इत्यादि। बहुत्वे समस्तामाभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणां मीलने चतुष्कापहारे वा युगपचतुरग्राऽऽदित्वमोघतः स्याद, विचित्रत्वेन क्षयोपशमस्य तत्पर्यायणामनव-स्थितत्वात्। विधानतस्त्वेकदैव चत्वारोऽपि तद्भेदाः स्युरिति। जीवे णं भंते ! के वलणाणपञ्जवे हिं किं कडजुम्मे पुच्छा? गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओए। एवं मणुस्से वि, एवं सिद्धे वि। जीवाणं णं भंते ! केवलणाण पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणादेसेण / विकडजुम्मा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। एवं मणुस्सा वि / जीवे णं भंते ! मइअण्णपज्जवेहिं किं कडजुम्मे ? जहा आभिणिबोहिणाणपज्जवेहिं तहेव दो दंडगा, / एवं सुयणाणपज्जवे हिं वि, एवं विभंगणाणपज्जवे हिं वि, चक्खुदंसणअचक्खुदसणओहि दंसणपज्जवेहिं। केवलज्ञानपर्यवपक्षे च सर्वत्रा चतुरग्रत्यमेव वाच्यं, तस्यानन्तपर्यायत्वादवस्थितत्वाच्च, एतस्य च पर्याया अविभागपलिच्छेद रूपा एवावसेयाः, नतु तद्विशेषाः, एकविध त्वात्तस्येति। (दो दंडग त्ति) एकत्वबहुत्वकृतौ द्वौ दण्डकाविति। भ० 25 श०४ उ०। पुदलानेव कृतयुग्माऽऽदिभिनिरूपयन्नाह - परमाणुपोग्गला णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं कडजुम्मे, तेओए य, दावरजुम्मे कलिओए? गोयमा ! णो कडजुम्मे,णे तेओए, णो दावरजुम्मे, कलिओए। एवं० जाव अणंतपएसिए खंधे। ''परमाणु" इत्यादि। परमाणुपुद्गला ओघाऽऽदेशतः कृत युग्माऽऽदयो भजनया भवन्ति, अनन्तत्वेऽपि तेषां सङ्घातभेदतोऽनवस्थितस्वरुपत्वाद्, विधानतस्तु एकैकशः कल्पोजा एवेति। परमाणुपोग्गला णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं कडजुम्मा पुच्छा? गोयमा ! ओघादेसेण सिय कडजुम्मा,जाव सिय कलिओआ, विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेओया, णो दावरजुम्मा, कलिओआ, एवं. जाव अणंतपदेसिया खंधा। परमाणुपोग्गला णं भंते ! पदेसट्ठयाए किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, कलिओए ? दुपदेसिए पच्छा ? गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेओए, दावरजुम्मे, णो कलिओए। तिपदेसिए पुच्छा? मोयमा ! णो कडजुम्मे, णो दावरजुम्मे, तेओए, णो कलिओए। चउप्पदेसिए पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्मे,णो ते ओए, णो दावरजुम्मे, णो कलिओए। पंचपदेसिए जहा परमाणुपोग्गले / छप्पएसिए जहा दुपदेसिए। सत्तपदेसिए जहा तिपदेसिए। अट्ठपदेसिए जहा चउप्पदेसिए। णवपएसिए जहा परमाणुपोग्गले / दसपएसिए जहा दुपएसिए। संखेजपएसिए णं भंते ! पोग्गले / पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मे. जाव सिय कलिओए। एवं असंखेज पएसिए वि। एवं अणंतपएसिए वि। परमाणुपोग्गले णं भंते ! पएसट्ठयाए किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ। विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। (पंचपएसएि जहा परमाणुपोग्गल ति) एकाग्रत्वात्कल्योज इत्यर्थः / (छप्पएसिए जहा दुपएसिएत्ति) ह्यग्रत्वाद्वापरयुगम इत्यर्थः / एवमन्यदपि। “संखेजपएसिएणं इत्यादि। संख्यातप्रदेशिकस्य विचित्रसंस्थत्वाद्भजनया चातुर्विध्यमिति। दुपएसिया णं पुच्छा? गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, णो तेओआ, सियदावरजुम्मा,णो कलिओआ। विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा णो तेओआ, दावरजुम्मा, णो कलिओआ। ''दुपएसिया ण' इत्यादि / द्विप्रदेशिका यदा समसंख्या भवन्ति तदा प्रदेशतः कृतयुग्माः, यदा तु विषमसंख्यास्तदा द्वापरयुग्माः / “विहाणादे से णं' इत्यादि / ये द्विप्रदेशिकास्ते
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________________ जुम्म 1582 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जुम्म प्रदेशार्थतयैकैकशश्चिन्त्यमाना द्विप्रदेशत्वादेव द्वापरयुग्मा भवन्ति। तिपएसियाणं पुच्छा? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ। विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा, तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ।। "तिपएसिया णं'' इत्यादि। समस्तत्रिप्रदेशिकमीलने तत्प्रदेशानां च चतुष्कापहारे चतुरग्राऽऽदित्वं भजनया स्यात्, अनवस्थितसंख्यात्वातेषाम् / यथा चतुर्णां तेषां मीलनेद्वादश प्रदेशाः, ते च चतुरग्राः पञ्चानां त्र्योजाः, षण्णा द्वापरयुग्माः, सप्ताना कल्योजा इति। विधानाऽऽदेशेन च त्र्यणुकत्वात् स्कन्धानामिति। चउप्पएसिया णं पुच्छा ? गोयमा ! ओघादे सेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। पंचपएसिया जहा परमाणुपोग्गला / छप्पदेसिया जहा दुपदेसिया। सत्तपएसिया जहा तिपदेसिया। अट्ठपदे सिया जहा चउप्पदेसिया / णवपएसिया जहा परमाणुपोग्गला / दसपएसिया जहा दुपदेसिया / संखेजपएसिया णं पुच्छा ? गोयमा ! ओधादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ। विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि० जाव कलिओआ वि / एवं असंखेजपएसिया वि, अणंतपएसिया वि।। "चउप्पएसिया ण'' इत्यादि / चतुष्प्रदेशिकानामोघतो विधानतश्च प्रदेशाश्चतुरग्रा एव। (पंचपएसिया जहा परमाणुपोग्गल त्ति) सामान्यतः स्यात्कृतयुग्माऽऽदयः प्रत्येकं चैकाग्राएवेत्यर्थः / (छप्पएसिया जहा दुपएसिय त्ति) ओघतः स्यात्कृतयुग्मद्वापरयुग्माः, विधानतस्तुद्वापरयुग्मा इत्यर्थः / एवमुत्तरत्रापि। अथ क्षेत्रातः पुद्गलाँश्चिन्तयन्नाह -- परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं कडजुम्मपएसोगाढे पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मपएसोगाढे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे, कलिओअपदेसोगाढे / दुपएसिए णं पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मपएसोगाढे, णो तेओए, सिय दावरजुम्मपएसोगाढे, सिय कलिओअपएसोगाढे / तिपएसिए णं पुच्छा ? गोयमा ! णो क ड जुम्मपएसोगाढे, सियते ओअपएसोगाढे, सिय दावरजुम्मपएसोगाढे, सिय कलिओअपएसोगाढे। चउप्पएसिए णं पुच्छा ? गोयमा ! सियकडजुम्मपएसोगाढे० जाव सिय कलिओअपएसोगाढे, एवं० जाव अणंतपएसिए। परमाणुः कल्योजप्रदेशावगाढ एव, एकत्वात् / द्विप्रदेशिकस्तु द्वापरजुग्मप्रदेशावगाढो वा, कल्योजप्रदेशावगाढो वा स्यात, परिणामाविशेषात्। एक्मन्यदपि सूत्रां नेयम्। परमाणुपोग्गला णं भंते ! किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! | ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, | णोकलिओआ। विहाणादेसेणं णो कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, कलिओअपएसोगाढा। ''परमाणुपोग्गला गं'' इत्यादि / तत्रौघतः परमाणवः कृत युग्मप्रदेशावगाढा एव भवन्ति, सकललोकव्यापकत्वात्तेषाम् / सकललोकप्रदेशाना चासंख्यातत्वादवस्थितत्वाच चतुरग्रतेति / विधानतस्तुकल्योजप्रदेशावगाढाः, सर्वेषामेकैकप्रदेशावगाढ त्वादिति। दुपदेसिया णं पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ / विहाणादसेणं णो कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओअपएसोगाढा, दावरजुम्मपएसोगाढा वि, कलिओअपएसोगाढा वि। तिपएसिया णं पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मएसोगाढा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। विहाणादेसेणं णो कडजुम्मपएसोगाढा, तेओअपएसोगाढा वि, दावरजुम्मपएसोगाढा वि, कलिओअपएसोगाढा वि। च उप्पएसियाणं पुच्छा? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिओआ। विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि० जावकलिओअपएसोगाढा वि। एवंजाय अणंतपएसिया। द्विप्रदेशावगाढास्तु सामान्यतश्चतुरग्रा एव, उक्तयुक्तितः। विधानतस्तु द्विप्रदेशिका ये द्विप्रदेशावगाढास्ते द्वापरयुग्माः, येत्येकप्रदेशावगाढास्ते कल्योजाः / एवमन्यदप्यूह्यम्। परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं कडजुम्मसमयट्ठिईए पुच्छा? गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयट्टिईए० जाव कलिओअसमयहिईए। एवं० जाव अणंतपएसिए / परमाणुपोग्गलाणं किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमयद्विईया० जाव सिय कलिओअसमयट्टिईया। विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयट्टिईया वि० जाव कलिओअसमयट्ठिईया वि। एवं० जाव अणंतपएसिया। परमाणुपोग्गला णं मंते ! कालवण्णपज्जवेहिं किं कडजुम्मे तेओए ? जहाठिईए वत्तव्वया / एवं वण्णेसु वि सव्वेसु, गंधेसु वि एवं चेव, रसेसु वि० जाव महुररसो त्ति / अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे कक्खडफासपञ्जवेहिं कि कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मे० जाव सिय कलिओए। अणंतपएसियाणं भंते ! खंधा कक्खडफासपज्जवेहिं किं कडजुम्मा पुच्छा? गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलिओआ। विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि० जाव कलिओआ वि। एवं मउयगुरुयलहुया विभाणियव्या, सीओसिणणिझूलुक्खा जहा वण्णा। (अणंतपएसिए णं भंते ! खंघे त्ति) इह कर्कशाऽऽदिस्पर्शा धिकारे यदनन्तप्रदेशिक स्यैव स्कन्धस्य ग्रहणं, तत्तस्यैव बादरस्य
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________________ जुम्म 1583 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जूयग कर्कशाऽऽदिस्पर्शचतुष्टयं भवति, नतु परमाण्वादेरित्यभिप्रायेणेति। अत देवताऽर्यनाऽऽदीनि निरवशेषाणि कृत्वा आस्थानिकामध्यगतः सन् एवाऽऽह - (सोओसिणणिझुलुक्खा जहा वण्ण त्ति) एतत्पर्यवाधिकारे कार्याणि प्रेक्षते चिन्तयति स युवराजः। व्य०१उ०। युवा राजा यत्रा। परमाण्वादयोऽपि वाच्या इति भावः / भ०२५ श० 4 उ०। ब०वी०। युवराजनि, आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०। जुम्मपएसिय त्रि० (युग्मप्रादेशिक) समसंख्यप्रदेशनिष्पन्ने, तदात्मके | जुवाण पुं० (युवाण-युवन्) "पुंस्यन् आणो राजवच" ||8356|| प्रतरवृत्तभेदे च / भ० 25 श०४ उ०।। इति प्राकृतसूत्रोण पुल्लिङ्गे वर्तमानस्यान्तस्य स्थाने 'आण' इत्यादेशो जुम्ह त्रि० (युष्मद) युष-मदिक् / संबोध्यचेतने भवच्छब्दार्थे , तस्य वा भवति / प्रा० 3 पाद। युवा यौवनस्थस्तु प्राप्तवया एष इत्येवमणति चोक्तार्थे त्रिषु लिङ्गेषु सर्वनामता / वाच० / "युष्मद्यर्थपरे तः" व्यपदिशति लोको यमसौ निरुक्तिवशाद् युवाणः / बाल्याऽऽदिकालेऽपि 1811 / 246 / / इति प्राकृतसूत्रोण युष्मच्छब्देऽर्थपरे यस्य तः। दारकोऽभिधीयतेऽतो विशिष्टवयोऽवस्थापरिग्रहार्थमेतद्विशेषणम् / 'तुम्हारिसो, तुम्हकेरो' प्रा० 1 पाद / (युष्मच्छब्दरूपसिद्धिस्तु यौवनस्य इत्येवं लोकेन व्यपदिश्यमाने प्राप्तविशिष्टवयोऽवस्थे, अनु०। एतत्कोशप्रथमभागस्य प्रथमपरिशिष्ट 28 पृष्ट प्रदर्शिता, रुपाणि तु | जुव्वणत्थी स्त्री० (यौवनस्त्री) तरुण्याम, "पिच्छसि मुह सतिलयं, तृतीयपरिशिष्टे 17 पृष्ठे विवेचितानीति तत एवावगन्तव्यानि) सविसे सं सरायएण अहरेणं / सकडक्खं सवियारं, तरलच्छिं जुयल न० (युगल)'जुगल' शब्दार्थे, अनु०। जुव्वणत्थीए / / 12 / / " तं०। जुयलधम्म न० (युगलधर्म) 'जुगलधम्म' शब्दार्थ, आ० म० 1 अ०१ | जुसिय त्रि० (जुष्ट) जुष् - क्तः / उच्छिष्ट, सेविते च / वाच० / प्रीते, खण्ड। ''पाएण देइ लोगो, उपगारिसु परिचिएच जुसिए वा।" स्था० 4 ठा० जुयलधम्मिय पुं० (युगलधर्मिक) 'जुगलधम्मिय' शब्दार्थे, तं०। 4 उ०। जुयलयमणुय पुं० (युगलकमनुज) 'जुगलयमणुय' शब्दार्थे, ज्यो०१ | जुहिट्ठिल पुं० (युधिष्ठिर) युधियुद्धे स्थिरः। "गवियुधिभ्यां स्थिरः" पाह। // 8 / 3 / 65 / / इति (पाणि०) सूत्रोण षत्वम् / वाच०। हस्तिनापुरस्थे जुरुभिल्लन० / देशी-गहने, द० ना० 3 वर्ग। पाण्डुराजस्य ज्येष्ठपुत्रो, ज्ञा०१ श्रु०१६अ०। "जुहिडिलपामोक्खाणं जुद (ण) त्रि० (युवन्) यु-क्रनिन् / श्रेष्ठे, निसर्गबलवति, वाच०।। पंचण्हं पंडवाणं।' अन्त०१ श्रु०५ वर्ग०१०। यौवनस्थे, जी०३ प्रति०। रा०। युवा यौवनगामीति / द्वा० 22 द्वा०। | जुहुट्ठिल पुं० (युधिष्ठिर)"युधिष्ठिरे वा"१६६|| इति प्राकृतसूत्रोण युवा वयःप्राप्त इति / उपा०६ अ० / भ० / "आषोडशाद्भवेद् बालः युधिष्ठिरशब्दे आदेरित उत्वं वा / प्रा०१ पाद। 'जुहिट्ठिल' शब्दार्थे, तरुणस्तत उच्यते।" इत्युक्तवयस्के तरुणे, वाच० / द्वा० / आचा० / प्रा०१ पाद। ज्ञा०। ज्ञा०ा आव०। जू पुं० (जू) जवे, व्योम्नि, पिशाचे, गणके, जने, सवले, प्रादुर्भाव, भवे जुवइ स्त्री० |युवति (ती)। युवन् तिः / युवत्-डीप् वा / यौवन वन्यां च / सरस्वत्याम्, स्त्री०।"जूः पुंल्लिड़ जवेव्योम्नि पिशाचगणके जने। स्त्रियाम्, वाच० तरुण्याम् ज्ञा०१ श्रु०१अ० आव०। औ०। प्रा०। जूः खियां तु सरस्वत्यां, जातिः स्यात्सवले पुमान्।।१।।" इति। एका०। रा०। "जुवई समणं वूया। "युवतिरभिनवयौवना स्त्री। सूत्रा०१ श्रु०४ "जूर्जुवौ जुव इत्यपि, प्रादुर्भाव भवे इति। एका०। अ०१उ०। जूअअ पुं० (देशी) चातके, दे० ना० 3 वर्ग। युवइजण पुं०१युवति (ती) जन] तरुणीजने, प्रा० 1 पाद। जुय पुं० (यूप) न० / यु-पक्-पृषो, दीर्घः युगे, "जूयसहस्स" यूपा जुवंगवपुं० (युवगव) युवाऽयं गौः युवगवः। यूनिगवि, "जुवंगवे त्ति वा।" युगास्तेषां सहस्रम् / कल्प०५ क्षण / प्रश्न० / स्तम्भविशेषे, जं०२ आचा०२ श्रु० 4 अ०२ उ०। वक्षः / यज्ञस्तम्भे, ज० 3 वक्ष० / उत्त०। यज्ञीयपशुबन्ध काष्ठभेदे, जुवरज न० (यौवराज्य) प्राचीननृपतिनायो यौवराज्याभिषिक्त आसीत्ते- यागसमाप्तिचिह्नार्थे स्तम्भेच, वाच० / जयस्तम्भे, गावाचा तदात्मके नाधिष्ठित राज्यं परमनेन यावन्नाद्यापि द्वितीयो युवराजोऽभिषिक्तस्ताव- सामुद्रिकशास्त्रोक्ते पुरुषस्य करचरणस्थे प्रशस्तलक्षणभेदे, जं०२ द्यौवराज्यमुच्यते / इत्युक्तलक्षणे राज्ये, बृ०१ उ० / नि० चू०। यत्र वक्ष०। प्रव० 272 द्वार। * धूत - न०। दिव-क्तः / क्रीडाविशेषे, नाद्यापि राजाभिषेको भवति। इत्युक्त लक्षणे यौवराज्ये, आचा०२ श्रु० औ० / प्रव० स्था०ा उत्त०। "अणुक्कम सो जूयं खेल्लउ।" आ० म० 3 अ० 1 उ० / बृ०। 1 अ० 12 खण्ड / उत्त०। ('मणुस्सत' शब्देऽस्य दृष्टान्तः) जुवराय पुं० (युवराज) युवा चाऽसौ राजा च युवराजः। पितरि जीवति पाशकक्रीडायाम, अप्राणिकरणकक्रीडाया, कैतवे च। वाच०। तदात्मके सति राजयोग्यः कुमारो युवराज उच्यते। इत्युक्तलक्षणे कुमारपदधारके, द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गत कलाभेदे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० ज०। स०। उत्त० 16 अ० / राज्ञो द्वितीयस्थानवर्तिनि, व्य० 1 उ० / जूयखलय न० (द्युतखलक) द्यूतस्थण्डिले, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०॥ राजयोग्यकियत्कार्यकरे राजपुत्रे, वाच०। युवराज उत्थिताऽऽसन इति। जूयग पुं० (यूपक) सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा च ययुगपद् भवतस्तद् "जूयगो जी०३ प्रति०। आव०। भा० म० / व्य० / औ० / आचा०। 60 / त्ति' भणितम् / सन्ध्याप्रभाचन्द्रप्रभयोर्मिश्रत्वे, तदात्मके आन्तरिक्षेsयुवराजस्वरूपमाह स्वाध्यायभेदे च। "दसविहे अंतलिक्खए असज्झाइए पण्णत्ते। तं जहाआवस्सगाईं काउं, सो सुच्चाईं तु णिरवसेसाई। उक्कावाए, दिसिदाहे,गजिए, विजुए, निम्घाए, जूयए, जक्खालित्तए, धूमिए, अत्थाणीमज्झगओ, पेच्छइ कजाइँ जुवराया॥३१०।। महिए, रज्जुग्घाए।" स्था० 10 ठा० / शुक्लपक्षप्रतिपदाऽऽदिदिनत्रयं यो नाम प्रातरुत्थाय शौचपूर्वाणि आवश्यकानि शरीरचिन्ता - | यावद्यैः सन्ध्याच्छेदा आब्रियन्तेतेयूपका इति। भ०७श०३ उ०॥आव०।
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________________ जुयग 1554 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 पश्चिमस्यां दिशि स्थिते स्वनामख्याते महापाताले, स्था० 4 ठा०२ | उ०। (यूपकस्य विशेषवक्तव्यता तु असज्झाइय' शब्दे प्रथमभागे 826 | पृष्ठे निरूपिता) संझाछे आवरणो, उ जूयगो सुक्कदिण तिन्नि / / 17 / / (जूयगो त्ति) "संझप्पहा, चंदप्पहा य, जेणं जुगवं भवंति तेण जूयगो, सा संझप्पहा चंदप्पमा चरिया फिट्ट ति, न नजइ, सुक्वपक्खाडिवगादिसु | दिणेसु संझाझायो देव य अणजमाणे कालवेलंन मुणति, अओ ते तिन्नि दिणा पाओसियकालं न गेण्हंति, तेसुतिसु दिणेसु पाओसियसुत्तपोरिसिं न करेंति" इति गाथार्थः। आव० 4 अ०। जलमध्यवर्तितटे, खटे, बृ० १3०(तत्रानवस्तव्यं न वाऽऽतापनाऽऽदिका क्रिया कर्तव्येति 'दगतीर' शब्दे वक्ष्यते) जूयगर त्रि० (द्यूतकर) द्यूत करोति कृ-अच् / पाशकाऽऽदिक्रीडाकारके, वाचा प्रश्न०। जयगार त्रि० (द्यूतकार) द्यूतं करोति / कृ-वुल / पाशकाऽऽ दिक्रीडाकारके, वाच० / प्रश्न। जूयचिइस्त्री० (यूपचिति) यज्ञेषु यूपचयने, औ०। * द्यूतचितिस्त्री०। द्यूतानि क्रीडाविशेषास्तेषां चितिः। द्यूतचयने, औ० / जूयप्पमाय पुं० (द्यूतप्रमाद) द्यूतं प्रतीतं, तदपि प्रमाद एव द्यूत-प्रमादः। प्रमादभेदे, (स्था०) "द्यूताऽऽसक्तस्य सचित्तं, धनं कामाः सुचेष्टितम्। नइयन्त्येव परं शीर्ष , नामापि च विनश्यति // 1 / / स्था० 6 ठा०। जूयप्पसंगि(ण) त्रि० (द्यूतप्रसङ्गिन) द्यूताऽऽसक्ते, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। आ० म०। जूया स्त्री० (यूका) संस्वेदजे त्रीन्द्रियजीवविशेषे, आचा० 1 श्रु० 1 अ०६ उ०। प्रज्ञा०। "लिक्खं वा जूयं वा / आचा०२ श्रु०२ चू०। अष्टलिक्षाऽऽत्मके प्रमाणभेदे, स्था०६ ठा०। अनु०। "अट्टलिक्खाओ सा एगा जूया।" भ०६श०७ उ०। ज०। उत्त०। प्रव०। ज्यो०।–०। जूयासेज्जायरय पुं० (यूकाशय्यातरक) यूकानां स्थानदातरि, भ० 15 श०१3०। जूर धा० (जूर) वयोहानौ, अक० / वधे, सक० - दिवा० - आत्म०सेट् / जूर्यते, अजूरिष्ट, जूर्णः / वाच० / पश्चात्तापे, 'अयहारिव्वजूरह।" यथा वाऽयसो लोहस्याऽऽहर्ता अपान्तराले रूप्यादिलाभे सत्यपि दूरमानीतमिति कृत्वा नोज्झितवान्, पश्चात्स्वावस्थानाऽवाप्तावल्पलाभे सति जूरितवान्, पश्चात्तापं कृतवान्, एवं भवन्तोऽपि जूरयिष्यन्तीति। सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। * कुध् धा० / कोपे, दिवा० - पर० - अक० / सोपसर्गसक० अनिट् / "क्रुधर्जूरः" ||4|135 / / इति प्राकृतसूत्रेण क्रुधेर्जूर इत्यादेशो वा भवति / 'जूरइ' 'कुज्झइ / प्रा० 4 पाद / क्रुध्यति, भृत्यमभिक्रुध्यति। अक्रुधत्। वाच०। * खिद ध० / दैन्ये, दिवा० - रुधा० च आत्म० - अक० - अनिट् / "खिदेमॅरविसूरौ" ||1413|| इति प्राकृतसूत्रोण खिदेरेतावादेशौ / वा भवतः / 'जूरइ' 'विसूरइ' खिज्जइ' / प्रा० 4 पाद। खिद्यते, खिन्ते। वाच०। परिघाते, तुदा०-पर०-अक०-अनिट्-मुचादिः। खिन्दति, खिन्दतः, अखैत्सीत्, खिन्नः। वाच०। जूरण न० (जूरण) वयोहानौ, सूत्र०२ श्रु० 4 अ० / गर्हणे, सूत्रा० १श्रु०१६ अ०। पश्चात्तापे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। जूरव धा० (वञ्च) प्रतारणे, "वञ्चेर्वेहववेलवजूरवोमच्छाः " ||RVIE6|| इति प्राकृतसूत्रोण वञ्चेरेते आदेशा वा भवन्ति। 'जूरवइ, वंचई' / प्रा०४ पाद। जूरावण न० (जूरण) शोकातिरेकाच्छरीरजीर्णताप्रापणायाम्, भ० 3 श० २उ०। जूरुमिल्लय पुं० (देशी) गोपाले, दे० ना० 3 वर्ग। जवग पुं० (यूपक) जूयग' शब्दार्थे , स्था० 10 ठा०। जूवचिइस्त्री० (यूपचिति) जूयचिइ' शब्दार्थे, औ०। जूस पुं० (जूष) न० / जूष् - धञ् , अच् वा / मुद्राऽऽदीनांक्वाये, वाचा मुद्गतण्डुलजीरककटुभाण्डाऽऽदिरसाऽऽत्मके व्यञ्जनभेदे, स्था० 3 ठा० 1 उ०। सू० प्र०। चं० प्र० / भ० / प्रश्न०। जूसणा स्त्री० (जूषणा) सेवायाम, औ०। * जोषणा स्त्री०। सेवानायाम, स्था० 4 ठा० 3 उ०। सूत्रा०। जूसिय त्रि०(जुष्ट) सेविते, स्था०४ ठा०३ उ०। * जोषित त्रि०। सेविते, सूत्रा०२ श्रु०७ अ०।। जूहन० (यूथ) यु-थक्, पृषो०-दीर्घः। सजातीयसमुदाये, वाचायूथं समूह इति। स्था० 10 ठा० / उत्त०। जूहमल्लवाइ (ण) पुं० (यूथमल्लवादिन्) वादिविशेष, कल्प०६ क्षण। जूहवइ पुं० (यूथपति) यूथस्वामिनि, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / "भावी यूथपतिःस्वयम्।" आ० क०। 'सो वानरजूहवई।" आ० क०। जूहाहिव पुं० (यूथाधिप) यूथस्वामिनि, आ० म०१ अ० खण्ड। जूहाहिवइ पुं० (यूथाधिपति) यूथस्य चतुर्विधसंघस्याधिपतिः / यूथस्वामिनि, उत्त० 11 अ०। जूहिय त्रि० (यूथिक) "यूथभवे, 'पुव्वजूहियट्ठाणाणि वा हयजूहिय ट्ठाणाणि वा गयजूहियट्ठाणाणि वा'' | आचा०२ श्रु०२ चू०। जूहिया स्त्री० (यूथिका) यु-थक्, पृषो० दीर्घः, स्वार्थे कन्, अत इत्वम्टाप्। अम्लानके पाठायाम, यूथ्यांचा वाच० / पुष्पप्रधाने गुल्माऽऽत्मके वनस्पतिविशेषे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। प्रज्ञा० / रा०। ज०। "जूहियाकुसुमेइ वा।" आ० म०१अ०१खण्ड। जूहियापुडन० (यूथिकापुट) यूथिकायाः पुटं पत्राऽऽदिमयं तद्-भाजनं यूथिकापुटम् / यूथिकापुष्पस्य पत्राऽऽदिमये भाजने, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। आ०म०। जूहियामंडवगपुं०(यूथिकामण्डपक) यूथिका वनस्पतिविशेषः, तन्मयो मण्डपकः यूथिकामण्डपकः। यूथिकामये मण्डपे, जी० 3 प्रति०। जं० / जे अव्य० (जे) पादपूरणे, बृ०१ उ० / व्य० / तं० / “जे'' इति निपातः पादपूरणार्थः / तथा चाह वररुचिः स्वप्राकृतलक्षणे - "इजेराः पादपूरणे" ||2 / 217 // एते पादपूरणे प्रयोक्तव्या इतिवृत्तिः। आ० म०१ अ०१खण्ड प्रश्नः / पञ्चा० / ज्ञा० / वाक्यालकारे, जे इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थ इति। विशे० / 'जे त्ति खलु णिद्देसे 'जे इति / नि० चू०१ उ०। य इत्यस्य स्थानेऽपि 'जे' इति। कल्प०१क्षण।
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________________ जेऊण 1585 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जेट्ठा जेऊण अव्य० (जित्वा) जयं कृत्वेत्यर्थे , प्रा० 4 पाद। जेट त्रि० (ज्येष्ठ) वृद्ध-इष्ठनि ज्यादेशः / भ० 1 श०१ उ०। जं०। सू० प्र०। उत्त० / चं० प्र०। अनु०। यो यस्याऽऽदौ स तस्य ज्येष्ठः / यथा-द्विकस्यैको ज्येष्ठः, त्रिकस्यत्वेककोऽनुज्येष्ठः, चतुष्काऽऽदीनां तु स एव ज्येष्ठनुज्येष्ठः / एवं त्रिकस्य द्विको ज्येष्ठः, स एव चतुष्कस्यानुज्येष्ठः, पञ्चकाऽऽदीनां तु स एव ज्येष्ठाऽनुज्येष्ठ इति / अनु० / विशे० 1 आ० म० / अतिवृद्धे. "कणि? मज्झिमजेट्ठा धितिसंघयणेण उवसिट्ठा।"ज्येष्ठमतिशयवृद्धम्, उत्कृष्टमित्यर्थः। उत्त० पाई०५ अ०। श्रेष्ठ, "गिहत्थधम्मा परमं ति न वा। 'गृहस्थधर्मात्परमं प्रधानं ज्येष्ठमित्येवं ज्ञात्वा। विशे० / रत्नाधिके, पञ्चा० 16 विव०। कल्प। यत्रा च गच्छे ज्येष्ठकनिष्ठौ न ज्ञायेते, न तद्गच्छम् / तथा चजत्थ य जेट्ठ-कणिट्ठो, जाणिज्जइ जेट्ठवयणबहुमाणो। दिवसेण वि जो जेट्ठो, नय हीलिजइस गोयमा ! गच्छो॥४६|| यत्र च गणे ज्येष्ठः कनिष्ठश्च ज्ञायते, तत्र ज्येष्ठः पर्यायेण वृद्धः कनिष्ठः पर्यायेण लघुः / तथा यत्रा ज्येष्ठस्य वचनमादेशोज्येष्ठवचनं, तस्य बहुमानः संमानो ज्ञायते। 'जेट्ठविणयबहुमाणे त्ति' पाठे तुज्येष्ठस्य विनयबहुमानौ ज्ञायेते, तथा यत्र च दिवसेनाऽपि यो ज्येष्ठः स न हील्यते, चकाराद्यत्रा पर्यायेण लघुरपि गुणवृद्धो न हील्यते, सिंहगिरिशिष्यैर्वजशिशुरिव / हे गौतम ! स गच्छो ज्ञेय इति / ग० 2 अधि० / अग्रजे, पुं०।वाच०। "उचिएअंपि सहो-अरम्निज निअइ अप्पसममेव। जेटं व कणिट्ट पि हु, बहु मन्नइ सव्वकज्जेसु।।८।।" (निअइ त्ति) पश्यति (जेट्ट व त्ति) ज्येष्ठो भ्राता पितृतुल्यः, तमिव तथा / ध०२ अधि०। * ज्येष्ठ त्रि०। वृद्ध-इष्ठानि ज्याऽऽदेशः। ततः स्वार्थिक अण् अतिवृद्ध, श्रेष्ठे च / अग्रजे, पुं०।वाच०। जेट्ठकप्प ज्येष्ठकल्प - कल्पभेदे, ज्येष्ठो रत्नाधिकः, स एव कल्पो वृद्धलघुत्वव्यवहारो यत्रास ज्येष्ठ कल्पः। कल्पभेदे, कल्प०१क्षण। पुव्वतरं सामइयं, जस्स कयं जो वतेसुवट्टविओ। एस कितिकम्मजेट्ठो, ण जातिसुतओ दुपक्खे उ॥ यस्य सामायिकं पूर्वतरं प्रथमतरं कृतमारोपितम्, यो वा व्रतेषु प्रथममुपस्थापितः, स एप कृतिकर्मज्येष्ठो भण्यते, न पुनर्द्विपक्षेऽपि संयतपक्षे संयतीपक्षे च जातितो बुहत्तरं जन्म पर्यायमङ्गीकृत्य, श्रुततः प्रभूतं श्रुतमाश्रित्य ज्येष्ठ इहाधिक्रियते, इह च मध्यमसाधूनां यस्य सामायिक पूर्वतरं स्थापितं स ज्येष्ठः, पूर्वपश्चिमानां तु यस्य प्रथममुपस्थापना कृत्तास ज्येष्ठ इति।बृ०६उ०व्या पं०भा०। पं० चू०। ज्येष्ठस्वरुपं गाथाठायेणाऽऽह -- उवठावणाएँ जेट्ठो, विण्णेओ पुरिमपच्छिमजिणाणं। पव्वज्जाए उतहा, मज्झिमगाणं णिरतियारो // 26 // उपस्थापनया महाव्रताऽऽरोपणेन, ज्येष्ठो रत्नाधिको विज्ञेयः, पूर्वपश्चिमजिनानामित्यत्रा साधूनामिति शेषः / प्रव्रज्यया तु प्रव्राजनेन पुनस्तयेति ज्येष्ठो ज्ञेय इत्येतत्सम्बन्धनार्थः / मध्यमकानां द्वाविंशतिजिनसाधूनां, निरतिचारोऽतिचाररहितः / सातिचारस्तु नोपस्थापनया प्रव्रज्यया वा ज्येष्ठः, प्राक्तन्योस्तयोरप्रमाणत्वात, पुनरुपस्थापनायाः सामायिकाऽऽरोपणस्यैव च प्रमाणत्वादिति // 26 / / उपस्थापनया ज्येष्ठ इत्युक्तम्, अथ तद्विधिमुपदर्शयन्नाहपढिएँ य कहिएँ अहिगए, परिहर उवट्ठावणाएँ कप्पो त्ति। छक्कं तीहि विसुद्धं, सम्म णवएण भेएण ||30|| पठितेऽधीते सूत्रतः शस्त्रपरिज्ञाऽध्ययने। च शब्दो भिन्नक्रमः। कथिते व्याख्यातेऽर्थतः / अधिगतेच ज्ञाते, एतस्मिन्नेव सति। (1) एकारस्यतु हस्वपाठः प्राकृतत्वात्। परिहरन्वर्जयन् सन् परिहार्यम् उपस्थापनाया महाव्रताऽऽरोपणस्य कल्पो योग इत्येवंभूतः प्राणी। किं परिहरन्नित्याहषट्कं जीवनिकायषट्कम्, अव्रतषट्कं वा, त्रिभिर्मनोवाकायैः, विशुद्ध निर्दोष यथा भवति तथा, सम्यग्भावतः, नवकेन नवपरिमाणेन, भेदेन विकल्पेन, नवभिर्भेदैरित्यर्थः / मनसा कृतकारितानुमतिभिः, एवं वाचा कायेन चेति॥३०॥ अथ द्वयोर्युगपदुपस्थाप्यमानयोः को ज्येष्ठः ? इत्यत्राऽऽहपितिपुत्तमाइयाणं,समग पत्ताण जेट्ट पितिपमिई। थोवंतरं विलंबो, पन्नवणाए उवट्ठवणा ||31|| पितापुत्राऽऽदीनां जनकसुतप्रभृतीनाम्, आदिशब्दाद्राजामा -- त्यमातादुहितरायमात्याऽऽदिग्रहः / समकं युगपत्, प्राप्तानां विवक्षिताध्ययनाधिगमनोपस्थापनायोग्यतामवाप्तानां योगपद्ये -- नैवोपस्थाप्यमानानां, ज्येष्ठा रत्नाधिकाः पितृप्रभृतयः पित्रादयः स्युः, आदिशब्दाद्राजामात्यराजयादिग्रहः। अथ पुत्राऽऽदिः प्राप्तो न पित्रादिः तदा को विधिः? इत्याह-स्तोकेऽल्पेऽन्तरे विशेष दिनद्वयाऽऽदितः पित्रादिरपि प्राप्स्यतीत्येवंरुपे, विलम्बः प्रतीक्षणं कार्यः / पित्रादौ प्राप्ते सति युगपदेव पित्रा पुत्राऽऽदिरुपस्थापनीयो माभूत्पुत्राऽऽद्यपेक्षया लघुताकरणेन पित्राऽऽदेरसमाध्यु-निष्क्रमणाऽऽदिरिति। अथ बहन्तरं, तदा को विधिः ? इत्याह-प्रज्ञापनया पित्रादेः सम्बोधनया-"तव पुत्रो यदि विवक्षितां महाव्रतश्रियं प्राप्नोत्यन्येषां च ज्येष्ठतरो भवति तवैवाभ्युदयः, ततो न त्वयाऽस्य विघ्नो विधेयः" इत्यादि लक्षणया, उपस्थापना व्रताऽऽरोपणा कार्या / अथ प्रज्ञप्यमानोऽपि यदि न प्रतिपद्यते, तदा प्रतीक्षणीयं यावदसौ प्राप्तः द्वये राजाऽऽदयो युगपद्यदा तूपस्थाप्यन्ते तदा यथाऽऽसन्नं ज्येष्ठतेति। तदेवं प्रकारद्वयेनापि ज्येष्ठत्वे सर्वेऽप्यवस्थिता इति गाथात्रयार्थः॥३१।। पञ्चा० 17 विव०। जेट्ठज्ज पुं० (ज्येष्ठार्य) प्रथमे आयें, नि० चू०१ उ०। जेट्ठभूइ पुं० (ज्येष्ठभूति) जिट्टभूइ' शब्दार्थे ति०। जेट्टमहाजण पुं० (ज्येष्ठमहाजन) ज्येष्ठार्यसाधुसमुदाये, बृ० 1 उ०। जेट्ठयर त्रि०(ज्येष्ठतर) जिट्टयर' शब्दार्थे, प्रा०२पाद। जेट्ठा स्त्री० (ज्येष्ठा) ज्येष्ठभगिन्याम, वयोज्येष्ठायाम, ज्येष्ठस्य पन्त्याम्, गङ्गायाम्, अलक्ष्याम्, अश्वन्यवधिकेऽष्टादशे इन्द्रदेवताके नक्षत्रो, वाच०। चं० प्र० / ज्यो० / स्था० / अनु० / आव० / "जेट्ठाणक्खत्ते तितारे पण्णत्ते' / स०१ सम० / स्था० / भगवतो महावीरस्य स्वनामख्यातायां दुहितारि, तस्याश्च ज्येष्ठेति वा सुदर्शनेति वाऽनवद्याङ्गीति वा नामेति। विशे०। वैशालीनगरनृपतेश्चेटकस्य (1) ''एदोतौ पदान्ते प्राकृते ह्रस्वौ वा' इति हैने छन्दोऽनुशासने।
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________________ जेट्ठा 1586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जो स्वनामख्यातायां दुहितरि, सा च "जेट्ठा कुंडग्गामे यद्धमाणसामिणो प्राकृतसूत्रोणपभ्रंशे वत्वाप्रत्ययस्य एप्पि एप्पिणुएवि एविणु इत्यादेशः। नंदिवद्धणस्स दिण्ण त्ति'। आ० चू० 4 अ०। प्रा०४ पाद। जयं कृत्वेत्यर्थे , वाच०। जेट्ठाणुजेट्ठ नि० (ज्येष्ठानुज्येष्ठ) चतुष्काद्यपेक्षया प्रथमे, आ० म०१ | जेप्पिणु अव्य० (जेतुम्) "तुम एवमणाणहमणहिं च ||4441 / / अ० 1 खण्ड / अनु० / विशे०। (अस्य यथा तत्त्वं तथा 'जेठ' शब्दे इति प्राकृतसूत्रोणापभ्रंशे तुमः प्रत्ययस्य एवं, अण, अणहं अणहिं एते 1585 पृष्ठे व्याख्यातम्) चत्वार आदेशा वा पक्षेएप्पि एप्पिणु एविएविणुएते चत्वार आदेशाः। प्रा० जेट्ठामूल पुं० (ज्येष्ठामूल) ज्येष्ठा, मूलं वा पौर्णमास्यां यत्र स्यात्स ४पाद। ज्येष्ठामूलो मासः / ज्येष्ठमासे, "गिम्हकालसमयम्मि जेट्टा मूलम्मि | * जित्वा -- अव्य० / जयं कृत्वेत्यर्थे , प्रा० 4 पाद। मासम्मि।" औ०। ओध०। जेम धा० (भुज) भक्षणे, "भुजो भुञ्जजिमजेमकम्माण्हसमाण जेट्ठामूली स्त्री० (ज्येष्ठामूली) ज्येष्टपूर्णमास्याम्, सू० प्र० 10 पाहु० / चमढचड्डाः" ||8|4|110 // इति प्राकृतसूत्रोण भुजेर्जेमाऽऽदेशः। जं०चं० प्र०। 'जेमइ' / प्रा० 4 पाद। "पुष्वण्हे साली चुप्पइ, अवरण्हे जेम्मइ।" जेहोवग्गह पुं० (ज्येष्ठावग्रह) पर्युषणायाम, नि० चू० 10 उ०। आ०म०१ अ०१खण्ड। जेणपुं० (जैन) जिनो देवताऽस्य अण। जैनधर्मावलम्बिनि अर्हदुपासके. जेमण त्रि० (जेमन) वटकपूरणाऽऽदिके, "जेमणविहिपरिमाणं करे।" वाच०। जेमणानि वटकपूरणाऽऽदीनि। उपा०१अ०। उदाहाऽऽ दिजेमनवारगृहे * या अव्य० / यस्मिन्नित्यर्थे, "जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव यथा यतीनां विहर्तुं न कल्पते, तथैकपौषधि कसत्कजेमनवारगृहे, उवागच्छइ, उयागच्छइता।" या कामदेवः श्रमणोपास कस्तत्रोपा- अन्यथा वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - विवाहजेमनवारवत्पौषधिकगच्छति स्म। उपा०२ अ०। सत्कजेमवारगृहेऽपि मुनीनां विहर्तुन कल्पत इति।२०४।। प्र० / सेन० जेणधम्म पुं० (जैनधर्म) आहेतधर्मे, "आमगोरससंपृक्तद्विदलं च 2 उल्ला०। विवर्जयेत् / द्वाविंशतिरभक्ष्याणि, जैनधर्माधिवासितः।।१।।" जैनधर्मे-- | जेमणय (देशी) न० / दक्षिणाङ्गे, दे० ना० 3 वर्ग। णाऽऽर्हतधर्मेणाधिवासितो भाविताऽऽत्मा / ध०१ अधि०। जेमावण न० (जेमापन) भोजनकारणे, भ०११ श०११ उ०। जेणवत्(ण) न० (जैनवर्मन्) जिनोदितमागें, 'श्रद्धया जैनवर्मना।' | जेमिणिपुं०(जैमिनि) अन्यतीर्थिक मुनिभेदे, विशे०। सूत्रा०। जैमिनिद्वा०१३ द्वा०। श्चिरतरकालभावी पटुप्रज्ञः सम्यग्वेदार्थस्य परिहाताऽऽसीत्। नं०। जेणसासण न० (जैनशासन) जिनोदिते शास्त्रे, "समस्तवस्तुविस्तारे, जेय त्रि० (जेय) जेतव्ये, "कहं णु जिचमेलिक्खं, जिन्यमाणा न संविदे। विसर्पत्तैलवज्जले। जीयाच्छ्रीशासनं जैन, धीदीपोहीप्तिवर्द्धनम् / / 1 / / (22 गाथा)" (जिचं ति) आर्षत्वाद् जीयते हार्यते अतिरौद्रेरिन्द्रियाउत्त०१ अ०। ऽऽदिभिरात्मा तदिति जेयं, तोह प्रक्रमान्मानुष्यगतिलक्षणम् / उत्त० जेणसिद्धंतपुं० (जैनसिद्धान्त) जैनाऽऽगमे, "निरस्तकुमतिध्यान्तस- ७अ०। त्पदार्थप्रकाशकम् / नित्योदयं नमस्कुर्मो ,जैनसिद्धान्तभास्करम् ||1|| जेया त्रि० (जेतृ) जयकर्तरि, "जेया ति वा जेता कर्मरिपूणाम। भ० क०प्र०। 20 श०२ उ०।"जेएण परिवित्थए।" (सूत्रा०) "सूर मण्णइ अप्पाणं, जेणिंदवागरण न० (जैनेन्द्रव्याकरण) व्याकरणभेदे, कल्प० जाव जेयं न पस्सइ। सूत्रा०१ श्रु०३ अ०१ उ०1। १क्षण। जेवडु त्रि० (यावत्) "वा यत्तदोतोर्डे वडः" ||841407 / / इति जेणेसर त्रि० (जैनेश्वर) जिनेश्वराणामयम् / जिनेश्वरसंबन्धिनि, प्राकृतसूत्रोणापभ्रंशे यत्तदित्येतयोरत्वन्तयोर्यावत्तावतोर्वकारा - प्रति०। ऽऽदेरवयवस्य डिदेवड इत्यादेशः / प्रा० 4 पाद। यत्परिमाणे, वाच०। जेत्तिअत्रि० (यावत्) "इदंकिमश्च डेत्तिअ-डेत्तिल्ल-डेदहाः" जेवि अव्य० (जित्वा) 'जेप्पि' शब्दार्थे , प्रा०४ पाद। ||बा२।१५७।। इति प्राकृतसूत्रेणेदंकिम्भ्यां यत्तदेतद्भ्यश्च परस्यातोड- जेविणु अव्य० (जित्वा) 'जेप्पि' शब्दार्थे, प्रा०४ पाद। वितोर्वा डित् एतिअएत्तिल्ल एग्रह इत्यादेशा भवन्ति, एतुल्लक् च। प्रा० जेसलमेरु पुं० (जयशल्यमेरु) स्वनामख्याते नगरभेदे, ही०३ प्रका०। २पाद। यत्परिमाणे, वाच०। जेहिल पुं०(जेहिल) वसिष्ठगोत्रोत्पन्ने आर्यनागस्य शिष्ये स्वनामख्याते जेत्तिल्ल त्रि० (यावत्) यत्परिमाणे, प्रा०३ पाद। स्थविरे,"जेहिलंच वासिट्ठ।" कल्प०८ क्षण।"थेरस्सणं अज्जनागस्स जेत्तुल्ल त्रि० (यावत्) "अतोत्तुल्लः " ||841435 / / इति | गोयमसगुत्तस्स अजजेहिले थेरे अंतेवासी वासिट्ठसगुत्ते।“ कल्प०८ क्षण। प्राकृतसूत्रोणापभ्रंशे यच्छब्दात्परस्यातोडैतुल्ल इत्यादेशः। यत्परिमाणे, जेह त्रि० (याइक्) "यादृक्तादृक्कीदृगीदृशांदाहेडेंहः" ||6|402|| प्रा० 4 पाद। इति प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशे यादृश इत्यादेरादेरवयवस्य डित् एह इत्यादेशः। जेत्थु अव्य० (यत्र) "यातायोस्त्रस्य डिदेत्थ्यत्तु" // 8/4/404|| प्रा० 4 पाद / यत्सदृशे, वाच०। इति प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशे यत्राशब्दावयवस्य त्रस्य डित् एत्युइत्यादेशः। | जो स्त्री० (द्यो) धुत-डोः। "द्यय्यां जः"||२२४|| इति प्राकृतप्रा०४ पाद। यस्मिन्नित्यर्थे , वाच०।। सूत्रोण द्यस्य जः। प्रा०२ पाद। स्वर्गे ,आकाशे च। याच०। जेद्दह नि० (यावत्) यत्परिमाणे, प्रा०२ पाद। *ज्यो धा०। नियमे, उपनये व्रतोपदेशे च / भ्वादि०-आत्म०-सक० जेप्पि अव्य० (जित्वा)"एप्प्येप्पिण्वेव्येविणवः ||4|440|| इति / -अनिट् / ज्यवते, अज्यास्त। वाच०॥
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________________ १५८७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइबलपलज्जण * ज्योक् अव्य० / ज्यो - डो-किः / संप्रत्यर्थे, कालभूयस्त्वे, गीतार्थमधिकृत्य - शीभ्रतायाम्, प्रश्ने च / वाच०। कत्ता इव सो कत्ता, एवं जोगी वि नायव्वो। जोअण न० (देशी) लोचने, दे० ना०३ वर्ग। कर्ता इव तीर्थकर इवाकोपनीयत्वात् कर्ता द्रष्टव्यः / एवं योग्यपि जोइंगण पुं० (देशी) इन्द्रगोपे, दे० ना०३ वर्ग। ज्ञातव्यः / किमुक्तं भवति ? - यथा तीर्थकरः प्रशस्तमनोवाकाययोगं जोइपुं० (ज्योतिस्) द्योतत द्युत्यतेऽनेन वा द्युत्-इसन्। आदेर्दस्य जः। प्रयुञ्जानो योगी भण्यते, एवं गीतार्थोऽप्युत्सर्गापवादबल-वेत्ताऽपवादसूर्य, अग्नौ, आच०।"रुप्पमलं वजोइणा।" ज्योतिषाऽग्निना। आचा० क्रियां कुर्वाणोऽपि प्रशस्तमनोवाक्काययोगं प्रयुञ्जानो योगीव ज्ञातव्यः / 2 श्रु०१६ अ० / दश०। स्था० / भ०। सूत्र०। "सप्पी जहा पडियं / बृ०१उ० / अध्यात्मशास्त्रानुष्टायिनि अन्यतीर्थिक परिव्राजकभेदे, औ०। जोइमज्झे।' सूत्रा०१ श्रु० 13 अास्था०। "किं माहणा जोइसमा- *युज घिनुण / संयोगवति, त्रि०ा वाच०। रभंता / " उत्त० 16 अ०।" के ते जोई, के य ते जोइट्टाणा।" किं | जोइअपुं० (देशी) खद्योते, दे० ना०३ वर्ग। ज्योतिः कोऽग्निः / उत्त० 16 अ० / विपा० / ज्वलदग्नौ, ज्योतिष | जोइअंग पुं० (ज्योतिरङ्ग ) ज्योतिरग्निः तत्रा च सुषमसुषमायामग्नेरभावाद् एवाऽऽद्याधारो ज्वलदग्निः। आह चचूर्णिकृत्-"जोइ त्ति मल्लगाइष्टिओ ज्योतिरवयवस्तु सौम्यप्रकाशमिति भावः। तत्कारणत्याज्जयोतिरङ्ग। अगणी जलतो ति।" नं० / प्रकाशस्वभावे प्रदीपाऽऽदिके, षो० 15 सुषमसुषमाभवे ज्योतिषिके कल्पवृक्षभेदे, स्था० 10 ठा०। ति०। विव०। "जहा हि अंधे सह जोइणा वि।" ज्योतिषा प्रदीपाऽऽदिनाऽपि ज्योतिषिकाः सूर्यमण्डलमिव स्वतेजसा सर्वमप्यवभासयन्तः सह वर्तमानो न पश्यति। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। 'सव्वराइएण जोइणा | सन्तीति / तं०। झियायमाणाणं / " सूत्रा०२ श्रु०२ अ०। "दुविहो य होइ जोई, | जोइउवगूढ त्रि० (ज्योतिरुपगूढ) ज्योतिषाऽग्निनोपगूढः समालिङ्गितः। असव्वराई य सव्वराई या नि० चू०१६ उ०। ज्योतिरग्निकयोद्दीप्तं, | अग्रिनोपगूढे जतुकुम्भे, "जोइउवगूढे।'' सूत्रा० 1 श्रु० 4 अ०१ उ०। तद् द्विविधम्, असार्वरात्रिकम्-कियतामपि रात्रिं यत् प्रज्वलित। जोइक्खपुं० (देशी) दीपे, 'जोइक्ख' शब्दश्च देश्यो दीपे वर्तते। प्रव० 4 तद्विपरीतं सार्वरात्रिकम्। उभयोरपि तिष्ठतां (गीतार्थानां) चतुर्लघुकाः। द्वार। दे० ना० / 'जोइक्खो नाम दीपः। "जोइक्खं तह च्छाइल्लयं च वृ०२ उ० / स्वर्गे , विशे० / आ० म०। ज्योतिरनिः, तत्कार्यकारिणी / दीवं मुजाहि।" व्य०७उ०। कल्पवृक्षभेदे, स०१० सम० / मेथिकावृक्षे, वाच०।ज्योतिरिव ज्योतिः। | जोइजसा स्त्री० (ज्योतिर्यशस) कौशाम्बीनगरस्थायां स्वनाम-ख्यातायां सम्यग्ज्ञाने, आदित्याऽऽदिप्रकाशे, स्था० 4 ठा० 3 उ० / सूत्रः। वत्सपालिकायाम्, आव० 4 अ०। नेत्राकनीनिकामध्यस्थे दर्शनसाधने पदार्थे, नक्षत्रो, स्वयं प्रकाशे, | जोइट्ठाण न० (ज्योतिःस्थान) अग्निस्थाने, नं०। 'के ते जोई के य ते सर्वावभासके चैतन्ये, वाच० 1 ग्रहनक्षत्रतारकाऽऽ दिके, चं० प्र०। | जोइट्ठाणा।" उत्त० / ज्योतिःस्थानं यत्र ज्योतिर्निधीयते / उत्त० ज्योतींषि ग्रहनक्षत्रतारका इति / चं० प्र०१ पाहु० / आव० / प्रश्न०।। 12 अ०। ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रतारकाणां ज्योतिषां ज्योतिष्कलक्षणे विभानविशेषे, जोइणाण न० (योगिज्ञान) सकलातीतानागतापहायंसाक्षात्कारिणी, स०।तत्प्रतिपादके ज्योतिषामयने शास्त्रभेदे, नि०३ वर्ग 3 अ०। तद्रूपे सम्म० 2 काण्ड / समाधिविशेषवन्नरावबोधे, पञ्चा० 16 विव० / द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गतै कलाभेदे च / न० / कल्प०७ क्षण / ज्योतिरेव योगिज्ञानस्य सकलातीतानागतापहायंसाक्षात्कारिणोऽतीतानागत - ज्योतिः / उपार्जितज्ञाने, प्रसिद्धि प्राप्ते, स्था० 4 ठा०३ उ०।। तत्तत्पदार्थाभावेऽपि भवाभ्युपगमात् / सम्म० 2 काण्ड। सत्कर्मकारितयोज्ज्वलस्वभावे च। त्रि०। स्था० 4 ठा० 3 उ०। / जोइणाहपुं०(योगिनाथ) तीर्थकरे, द्वा० 15 द्वा०। * योगिन् पुं० / योगोऽस्य विद्यते इति योगी।नं०। योगबल सम्पन्ने, षो० जोइणीपट्टण न० (योगिनीपत्तन) पुरभेदे, अष्टापदकल्पमधिकृत्य - 15 विव० / योगिनो योगभाज इति / द्वा०२६ द्वा०। योगाभ्यासपरे, | "ग्रन्थोऽयं परिपूर्णतामभजत श्रीयोगिनीपत्तने।" ती०४७ कल्प। यो० वि०। दिव्यदृष्टौ, यो० वि०। मनोवाक्कायरोधके, अष्ट०२ अष्ट०। / जोइबल त्रि० (ज्योतिर्बल) ज्योतिनि बलं यस्य, आदित्याss योगो धर्मः शुक्लध्यानलक्षणः स येषां विद्यते इति योगिनः / साधौ, दिप्रकाशो वा ज्योतिः, तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा। सदाचारवति आव०४ अ०। "सम्यक्त्वज्ञानचारित्रायोगः सद्योग उच्यते। एतद्योगा- ज्ञानवति, दिनचारिणि च / स्था० 4 ठा० 3 उ०। द्धियोगी स्यात् परमब्रह्मसाधकः // 1 // एतदाकारे साधकभेदे, पं० सू० जोइबलपज्जलण त्रि० (ज्योतिर्बलप्रज्वलन) ज्योतिर्बलेन ज्ञानबलेन 4 सूत्रा० टी० / रत्नत्रयरुपमोक्षोपायिनि, अष्ट०२ अष्ट०। प्रकाशबलेन वा प्रज्वलित दर्पितो भवत्यवष्टम्भं करोति यः स तथा। तगोपाये च नवधा, योगिभेदप्रदर्शनात्। (31) ज्ञानवति, प्रकाशचारिणि च / स्था०४ ठा०३ उ०। तत्रा मुक्तिरागे उपाये च, नवधा नवभिः प्रकारयोगिभेदस्य जोइबलपरजण त्रि० (ज्योतिर्बलप्ररजन) ज्योतिः सम्यग् ज्ञानम्, प्रदर्शनादुपवर्णनात्। तथाहि-मृदूपायो मृदुसंवेगो, मध्योपायो मृदुसंवेगः, आदित्याऽऽदिप्रकाशो वा ज्योतिः, तदेव तत्रा वा बलं यस्य स तथा। अध्युपायो मृदुसंवेगा, मृदूपायो मध्यसंवेगो, मध्योपाया मध्यसंवेगः, सदाचारवति, दिनचारिणि च। स्था० 4 ठा०३ उ०। अध्युपायो मध्यसंवेगः, मृदूपायोऽधिसंवेगः, मध्योपायोऽधिसंवेगः, | जोइबलपलज्जण त्रि० (ज्योतिर्बलप्रलज्जन) ज्योतिर्बलेन ज्ञानबलेन अध्युपायोऽधिसंवेगश्चेति नवधा योगिन इति योगाचार्याः / द्वा० 12 प्रकाशबलेन वा संचरन् प्रलज्जते इति ज्योतिर्बलप्रलज्जनः / मिथ्याद्वा० / तीर्थकरे, गीतार्थे च। वृ०। ज्ञानिनि, अन्धकारचारिणि च / स्था० 4 ठा०३ उ०।
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________________ जोइबुड्डि 1588 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसचक्क जोइबुड्डि स्त्री० (योगिबुद्धि) समाधिविशेषवन्नरावबोधे, "निउणाए | (जोतिसंते त्ति) ज्योतिश्चक्रपर्यन्तः प्रज्ञप्त इति। स०११ सम०। जोगिबुड्डीए।" योगिबुद्ध्या समाधिविशेषवन्नराचबोधेन योगिन एव | जोइमकरंडय न० (ज्योतिष्करण्डक) सूर्यप्रज्ञप्तित उद्धृते ज्योतिषां अध्यात्मिकार्थविवेचन चतुरचेतसो भवन्तीति। पञ्चा०१७ विव०। प्रतिपादके प्रकरणग्रन्थभेदे, ज्यो०। जोइभंड न० (ज्योतिर्भाण्ड) अग्निभाजने, 'जोइभंडोवरागोविव मुहराग- तथा च ज्योतिष्करण्डकं विवृण्वन्नाह मलयगिरि :विरागाओ।" तं०। "सम्यग् गुरुपदाम्भोज-पर्युपास्तिप्रसादतः। जोइभूय त्रि० (ज्योतिर्भूत) ज्योतिर्मये जाते, "तत्तं समजोइभूयं" समा ज्योतिष्करण्डक व्यक्तं, विवृणोमि यथागमम् " ||1|| तुल्याज्योतिषा बहिना भूता जाता या सा तथा। विपा०१ श्रु०४ अ०। ज्यो०१ पाहु०। स्था०। "तंजोइभूयं च सया वसेजा।"ज्योतिर्भूतं यदर्थप्रकाशकतया ज्योतिष्करण्डकेऽर्थाधिकाराश्च - चन्द्राऽऽदित्यप्रदीपकल्पम् / सूत्रा० 1 श्रु०१२ अ०। कालपमाणं माणं निप्फत्ती, अहिगमासगस्स चिय। जोइमंत पुं० (ज्योतिष्मत्) ज्योतिरस्त्यस्य मतुप / सूर्ये, प्लक्षद्वीपस्थे वोच्छामि ओमरत्तं, पव्वतिहीणं समत्तिं च / / पर्वतभेदे च / लताभेदे, रात्रौ, योगशास्त्रोक्ते चित्तवृत्तिभेदे च। स्त्री०॥ णक्खत्तयपरिमाणं, परिमाणं वा वि चंदसूराणं। डीप्। वाच०।तैलविधानं तिलाऽतसीसर्षपेङ्गु दीज्योतिष्मतीकरञ्जा- नक्खत्तचंदसूण गई नक्खत्तजोगं च // ऽऽदिभिरिति / आचा० 1 श्रु०१ अ०५ उ० / ज्योतिर्युक्त, त्रि० / मंडलविभागमयणं, आउट्टी मंडले मुहुत्तगई / / वाच०। उउ विसुव वईवाए, तावं वड्डी च दिवसाणं / जोइमय त्रि० (ज्योतिर्मय) ज्ञानमये, आ० म०१ अ० 2 खण्ड। अवमासपुण्णमासी, पणट्ठपव्वं च पोरिसिं वा वि। प्रकाशमये, "ज्योतिर्मयीव दीपस्य, क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी।" अष्ट० ववहारनयमएणं, तं पुण सुण मे अणण्णमणे / / 13 अष्ट। इह सूर्यप्रज्ञप्तिसत्का अधिकारा एकविंशतिरूपप्राभृतनिबद्धाः, तत्रा जोइय त्रि० (यौगिक) शब्दभेदे, प्रश्न० / यौगिकं यदेतेषामेव प्रथमेऽधिकारे कालस्य समयाऽऽदेघटिकापर्यन्तस्य प्रमाणं वक्ष्ये, नामाऽऽख्यातोपसर्गतद्धितसमाससन्धिपदानामेव व्यादिसंयोगवद् द्वितीये मान प्रमाणं संवत्सराणाम्, तृतीये अधिकमासस्य निष्पत्तिम्, यथोपकरोति सेनयाऽभियात्यभिषेणयतीति / प्रश्न०२ सम्ब० द्वार। तदनन्तरं चाल्पवक्तव्यत्वाद् गाथोक्तं क्रममुल्लङ्घ्य चतुर्थे पर्वतिथि * योजित त्रि०। उपनीते, पञ्चा० 15 क्वि०1 संबन्धिते, औ० / व्य० / समाप्तिं वक्ष्ये, पञ्चमे अवमराठाम्, गाथायां चान्यथा निर्देश: जोइर न० (देशी)स्खलिते, दे० ना० 3 वर्ग। छन्दोवशात् / ततः षष्ठे नक्षत्राणां संस्थानाऽऽदिपरिमाणं वक्ष्यामि, सप्तमे जोइस त्रि० (ज्योतिष) ज्योतिराधिकृत्य कृतो ग्रन्थः नि०-न० वृद्धिः। चन्द्रसूर्यपरिमाणं, अष्टमे चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां गतिम्, नवमे नक्षत्रयोगम्, ज्योतिषमप्यत्र। वाच०। ज्योतिः शास्त्राऽऽत्मके वेदाङ्गभेदे, आव०३ दशमे जम्बूद्वीपे चन्द्रसूर्याणां मण्डलविभागम्, एकादेश अयनम्, द्वादशे अ०भा० म०।उत्त.। ज्योतिश्चक्रे, कल्प०१क्षण। “जे गहा जोइसम्मि आवृत्तिम्, त्रयोदशे चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां मण्डले मण्डले मुहुर्तगतिचार चरंति।" प्रज्ञा०३ पद / ज्योतिष्कलक्षणे विमानविशेषे, स०। परिमाणम, चतुर्दशे ऋतुपरिमाणम्, पञ्चदशे विषुवाणि, षोडशे नक्षत्रो, दे० ना०३ वर्ग। व्यतीपातान्, सप्तदशे तापक्षेत्राम, अष्टादशे दिवसानां वृद्ध्यवृद्धी, * ज्यौतिष पुं०। ज्योतिश्चक्रे भवा ज्यौतिषाः / ज्योतिश्चक्र-स्थिते एकोनविंशतितमे अमावास्यापौर्णमासीवक्तव्यताम, विंशतितमे प्रनष्टं सूर्याऽऽदिके देवभेदे, पुं० पञ्चा०२ विव०। ज्ञा०। पर्व, एकविंशतितमे पौरुषीम् / एताँ श्च एकविंशतिसंख्या - जोइसंगविउत्रि० (ज्योतिषाङ्ग विद्) ज्योतिषं ज्योतिष्कं ज्योतिःशास्त्र- / नप्यर्थधिकारान् वक्ष्ये व्यवहारनयमतेन, निश्चयनयमतेन हि मड़ानि च विदन्ति ये ते ज्योतिषाङ्ग विदः / ज्योतिः- शाखस्य, कलाकलांशप्रतिकलांशगणनया परमार्थतः परमश्रुतविदो बुध्यन्ते, न शिक्षाऽऽद्यङ्गानां च वेत्तरि, उत्त० 2 अ०। शेषाः / न च तथा कथ्यमानानां श्रोतृणाम् अजसाऽवगमपथमृच्छति। जोइसंचाल पुं० (ज्योतिःसंचाल) ज्योतिषः तारकरूपस्य संचालः। / ततो व्यवहारनयमतेन योजनगव्यूतं कतिपय कलाकलांशप्रविभागरूपेण "तारकाणं तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चरेज्जा / " इत्यादिना सूटोण | वक्ष्ये, तच तथा मे कथयतो भवानव हितमनस्को भूत्वा शृणु, तदेवं प्रतिपादिते संचालने, स०३ अङ्ग। निर्दिष्टा अथाधिकाराः / ज्यो०१ पाहु०। जोइसंतपुं० (ज्योतिषान्त) ज्योतिश्चक्रस्य पर्यन्ते, स०। जोइसगणराय पुं० (ज्योतिर्गणराज) ज्योतींषि ग्रहनक्षत्रतारकाणि तेषां तत्प्रमाणं यथा गणः समूहस्तस्य राजाऽधिपतिज्योतिर्गणराजः / चन्द्र, सूर्ये च / चं० लोगताओ णं इक्कारसएहिं एक्कारेहिं जोयणसएहिं अवाहाए | प्र०१पाहु०। जोइसंते पन्नत्ते। जोइसचक्क न० (ज्योतिश्चक्र) चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्राऽऽत्मके ज्योतिषां चक्रे, 'लोकान्ताद्, णमित्यलकारे एकादश शतानि (एक्कारे त्ति) ज्यो०१ पाहु० / “एक्कार एक्कवीसा, सयएक्कारा हिया य एक्कारा / मेरु एकादशयाजनाधिकानि अबाधया बाधारहितया, कृत्वेति शेषः / अलोगावाहे, जोइसचक्कं चरइ ठाइ" ||1|| स० 11 सम०!
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________________ जोइसचक्क 1586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय तत्स्वरूपं यथा पाह०। लोगाणुभावजणियं, जोइसचक्कं भणंति अरिहंता। जोइसिणा स्त्री० (ज्योत्स्ना) ज्योतिरस्त्यस्या नः, उपधालोपश्च / सव्वे कालविसेसा, जस्सगइविसेसनिप्फन्ना।। "सूक्ष्म-श्व-ष्ण-स्न-ह-त-क्ष्णां ण्ह:"||८|७|| यस्य ज्योतिश्चक्रस्य चन्द्रसूर्यनक्षत्राऽऽदिरूपस्य संबन्धिना, इति प्राकृतसूत्रेण स्नस्य ग्रहो वा / प्रा०२ पाद / कौमुद्यां , चन्द्रकिरणे गतिविशेषेण निष्पन्नाः, सर्वे कालविशेषाश्चन्द्रमास सूर्यमासनक्षत्रामा- च / वाच०। 'जोइसिणाइ' स्था० 2 ठा०४ उ०। साऽऽदिकाः, तद् ज्योतिश्चक्रं लोकानुभावजनितमनादिकालसन्त- | जोइसिणापक्ख पुं० (ज्योत्स्नापक्ष) ज्योत्स्नाप्रधानः पक्षो तिपतिततया शाश्वतं वेदितव्यम्, नेश्वराऽऽदिकृतमिति भणन्ति | ज्योत्स्नापक्षः / शुक्लपक्षे, चं० प्र०१५ पाहु०। सू०प्र०। प्रतिपादयन्ति, भगवन्तोऽर्हन्तः। तीर्थकृतां च वचनमवश्यं प्रमाणयितव्यं, | जोइसिणाभा स्त्री० (ज्योत्स्नाभा) चन्द्रस्य स्वनामख्यातायाम - क्षीणसकलदोषतया तद्वचनस्य वितथार्थत्वाभावात्। उक्तंच-"रागाद् / ग्रमहिष्याम्, भ०१० श०५ उ०। ज्यो०। स्था०। सू० प्र०। चं० प्र०। वा द्वेषाद् वा, मोहाद् वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। यस्य तु नैते दोषा- जोइसिय पुं० (ज्योतिषिक) सूर्याऽऽदिके ज्योतिश्चक्रस्थिते देवभेदे, स्तस्यानृतकरणं किं स्यात् ?" ||1|| अपिच-युक्त्त्याऽपि विचार्यमाणो प्रज्ञा०२ पद / पञ्चा० / उत्तरकुरुषु भवे स्वनामख्याते द्रुमगणे, तत्रा नेश्वराऽऽदिर्घटां प्राञ्चति, ततस्तदभावादपि ज्योतिश्चक्रं प्रदेशे बहवो ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः। जी०३ प्रति०। लोकानुभावजनितमवसेयम् / यथा च युक्तया विचार्यमाणो विषय सूचीनेश्वराऽऽदिर्घटते, तथा तत्त्वार्थटीकाऽऽदौ विजृम्भितमिति तत / (1) 'जोइसिय शब्दस्यानुवादान्तरव्युत्पीत्तवाच्यार्थान्तरप्रदर्शनम्। एवावधार्यम्। ज्यो०१ पाहु०। (ज्योतिश्चक्र मेरुतः कियत्या अबाधया / (2) ज्यौतिष्काणां पञ्चविधत्वप्ररूपणम्। चरतीति अबाहा' शब्दे प्रथमभागे 682 पृष्ठे दृश्यम्) (3) मनुष्यक्षेत्रावर्तिनां मानुषोत्तरपर्वतात् स्वयंभूरमणसमुद्रावधिकानां द्वीपवन्दिरसङ्ग कृतप्रश्नेषुजम्बूद्वीपगतमेरोः परितो यथैकविंशत्यधि- च ज्यौतिष्काणां चलत्वस्थिरत्वविचारः। कै कादशशतयोजनान्यवाधां कृत्वा ज्योतिश्चक्र भ्राम्यति, प्रसङ्गतो मनुष्यक्षेत्रां निरूप्य स्फुट ज्यौतिष्काणां चलत्वस्थिरतथाऽन्यद्गीपगतमेरुभ्योऽपि कियतीमवाधां कृत्वा भ्रमन्ति? इति प्रश्ने, त्वनिदर्शनम्। उत्तरम् -- अत्रा जम्बूद्वीपगतमेरोः परितो यथैकविंशत्यधिकैकादश- (5) सर्वलोके प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्राऽऽदीनां परिमाणप्रतिपादनार्थशतयोजनान्यवाधां कृत्वा ज्योतिश्चक्रं भ्राम्यति, तथैवान्यद्वीपगतमेरु मन्यतीथिकानां द्वादशप्रतिपत्तीरुद्भाव्य भगवत्सिद्धान्तनिरूपणम्। भ्योऽपीति संभाव्यतो, शास्त्राक्षराणि तु व्यक्ततया दृष्टानि न स्मर्यन्ते जम्बूद्वीपगतचन्द्राऽऽदिसंख्यासग्राहिके गाथे। इति। 13 प्र०। ही० 4 प्रका०। (7) मनुष्यक्षेत्रगतचन्द्रसूर्याऽऽदीनां संख्यापरिमाणकथनम्। जोइसपह पुं० (ज्योतिष्पथ) ग्रहचन्द्रसूरनक्षत्ररूपाणां ज्योतिषां चन्द्रसूर्यनक्षत्राताराग्रहाणां पिटकवक्तव्यतायां पिटकप्रमाणज्योतिष्कलक्षणविमानविशेषाणां, ज्योतिषो वा दीपाऽऽद्यग्रेः पन्था निरुक्तिः। ज्योतिष्पथः / ज्योतिष्कदेवानां मार्गे , अनेर्मार्गे च०। स०। (6) मनुष्यक्षेत्रगतचन्द्रसूर्यपङ्क्तयो यावन्त्यो यथा च स्थितास्तन्निर्व* ज्योतिष्प्रभ त्रि०ा ग्रहचन्द्रसूरनक्षत्ररूपाणां ज्योतिषां ज्योतिष्क चनम्। लक्षणविमानाविशेषाणां, ज्योतिषो वा दीपाऽऽद्यग्रेः प्रभा प्रकाशो (10) "नक्षत्राणां पक्तिप्ररूपणा। यस्मिन् / ज्योतिष्कदेवसदृशप्रभे, अनिसदृशप्रभे च०। स०। (11) "ग्रहाणा पङ्क्तिनिर्देशः। जोइसमुहमंडगपुं०(ज्योतिषमुखमण्डक) सूर्ये, कल्प०१क्षण। (12) चन्द्राऽऽदयो यत्रा यथा भ्रमन्ति तन्निरूपणम्। जोइसराय पुं० (ज्योतिष्काराज) ज्योतीषिं ग्रहनक्षत्रतारकाणि तेषा | (13) चन्द्राऽऽदित्यग्रहमण्डलानामन्यमण्डलसंचारित्वेनानवस्थि-तत्वं, राजाऽधिपतिज्योतिष्कराजः / चन्द्र, सूर्ये च। चं० प्र०। "जोइसरायरस नक्षत्रतारामण्डलानां तु मेरुमभितः संचारित्वादवस्थितत्वम्। पन्नति।" (4 गाथा) ज्योतिष्कराजस्य चन्द्रमसः। चं० प्र०१ पाहु०। (14) चन्द्रसूर्ययोर्मण्डलस्थानादूर्ध्वमधश्च संक्रमणवक्तव्यता। स्था०। सू०प्र०। (15) चन्द्रसूर्य नक्षत्रमहाग्रहाणां चारविशेषेण मनुष्याणां सुखदुःखखजोइसामयण न० (ज्योतिषामयन) ज्योतिःशास्त्राऽऽत्मके वे दाङ्गभेदे, विधि प्रतिपाद्य, दीक्षाऽऽदिशुभकार्याणि शुभतिथ्याद्यवलोक्यैव औ0 1 आ० चू० ! कल्प० / अनु०। विधेयानीति जिनाऽऽज्ञानिर्वचनम् / जोइसालय पुं० (ज्योतिरालय) ज्योतिरालयो गृहं येषां ते (16) चन्द्रसूर्याणां तापक्षेत्रं यथा वर्धते हीयते वा तदुपपादनम्। ज्योतिरालयाः / ज्योतिष्कदेवेषु, ''पंचहा जोइसालया।" उत्त० (17) तेषामेव तापक्षेत्रसंस्थानस्य वर्णनम्। 36 अ०। (18) मनुष्यक्षेत्रामध्ये चन्द्रसूर्यग्रहनक्षाताराणां चारोपगत्वं विविच्य जोइसिंदपुं० (ज्योतिष्केन्द्र) सूर्य, चन्द्रेच।स्था०६ठा०।''चंदिमसूरिया तेषामेव मनुष्यक्षेत्रा बहिर्गत्यभावोद्घाटनम्। य एत्थदुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवसंति।" चं० प्र०१पाहु०। / (16) प्रतिद्वीप चन्द्राऽऽदिसङ्ख्याविवेचनम्। जोइसिण पुं० (ज्यो (ज्यौ) त्स्न्) ज्योत्स्नाऽन्विते शुक्ले पक्षे, ज्यो०४ - (20) प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च ग्रहनक्षत्रतारापरिमाणपरिज्ञानोपायः।
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________________ जोइसिय १५९०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय (21) मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिः चन्द्रसूर्याणां तेजांस्यवस्थितान्येव, | (48) एकैकं परिपूर्णमण्डलं चन्द्राऽऽदयः प्रत्येकं यावद्भिरहोरात्रैश्चरन्ति तथाऽभिजिता चन्द्राः पुष्येण च सर्वदेव युक्ताः सूर्या भवन्तीति / तदुपवर्णनम्। प्रतिपादनम्। | (46) युगे चन्द्राऽऽदयः प्रत्येकं यावन्ति मण्डलानि चरन्ति तत्परामर्शः। (22) मनुष्यक्षेत्रबहिर्गतचन्द्रसूर्याणां पङ्क्त्यवस्थानोपपत्तिः। (50) ज्यौतिष्कदेवानां गतिविशेषविषये द्वे संग्रहगाथे। (23) मनुष्यक्षेत्रास्यान्तर्बहिश्च चन्द्राऽऽदीनां देवानामूोपपन्नत्वक- (51) चन्द्रसूर्यनक्षत्रताराणामल्पर्द्धिकत्वमाहर्द्धिकत्वप्रति पादनम्। ल्पोपन्नत्वविमानोपपन्नत्वाऽऽदिविचारः। *ज्योतिषिज पुं० "हलदन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम् // 6 / 3 / 6 / / इति (24) चन्द्रसूर्ययोश्च्यवनोपपातवक्तव्यतायां परतीर्थिक प्रतिपत्तिनिरा- (पाणि०) सूत्रोण सप्तम्या अलुक् / वाच० / ज्योतिश्चक्रे जातो करणपूर्वकं भगवन्मतप्रदर्शनम्। ज्योतिषिजः। ज्योतिश्चक्रजाते देवभेदे, पञ्चा०२ विव०। (25) पुष्करोदाऽऽदिषु द्वीपसमुद्रेषु चन्द्राऽऽदिसंख्याव्याहारः / * ज्योतिष्क पुं०। ज्योतिरिव, इवार्थ कन्। चित्रकवृक्षे, मेथिकाबीजे, (26) चन्द्रसूर्ययोः परिवारकथनम्। गणिकारीवृक्षे च। स्वार्थे कन्।वाचला द्योतन्ते इतिज्योतींषि विमाननि, (27) चन्द्राऽऽदीनां यादृशोऽनुभावस्तत्प्रतिपाद्य तद्विषयेऽन्यतीर्थ- तन्निवासिनो ज्योतिष्काः / उत्त० 2 अ० / ग्रहनक्षत्राऽऽदिषु, ब०व०। कानां प्रतिपत्तीरुद्रस्य भगवत्सिद्धान्तवर्णनम्। वाच० / ज्योतिष्षु नक्षत्रेषु भवा ज्योतिष्काः, शब्दव्युत्पत्तिरेवेयं, (28) चन्द्रसूर्ययोः संस्थितिविषये परतीर्थिकानां षोडशप्रतिपत्तिप्रदर्श- प्रवृत्तिनिमित्ताऽऽश्रवणात्तु चन्द्राऽऽदयो ज्योतिष्का इति। स्था०२ ठा० नानन्तरं भगवन्मतोपन्यासः। 3 उ०। सूत्र० / ज्ञा० / चं० प्र० / ज्योतिष्मतीलतायाम्, स्त्री०। मेरोः (29) चन्द्राऽऽदित्यचारवचनम्। शृङ्गान्तरे, वाच०। गणितप्रतिपादके ज्योतिःशास्ये च / न०। सूत्र०१ (30) चन्द्रसूर्याऽऽदीनां भूमेरूर्ध्वमुचत्वप्रमाणप्रतिपादने परेषां श्रु०१ अ०४ उ०1 पञ्चविंशतिप्रतिपत्तीरुद्भाव्य भगवदभिप्रायप्रकटनम्। *ज्योतिषिक पुं०।ज्योतिष शास्त्रं वेत्त्यधीते या ठक् / दैवज्ञे, वाच०। (31) चन्द्रसूर्याणां क्षेत्रापेक्षयाऽधस्तनाः, समश्रेणिव्यवस्थिता वा ज्योतिश्चक्रे भवो ज्योतिषिकः, स एव ज्योतिषिकः / ज्योतिश्चक्रभवे तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा द्युतिविभवाऽऽदिक मपेक्ष्य देवभेदे, पञ्चा०१ विव०। चन्द्रसूर्याभ्यां केचिदणवः केचित्तुल्या इति प्रपञ्चः। * ज्यौतिष्क पुं० / ज्योतिष्कदेवानां निवासभूते देवलोकभेदे, (32) नक्षत्रामण्डलिकामपेक्ष्य सर्वाभ्यन्तरचारित्वमभिजिन्न क्षत्रास्य भ०५ श०१० उ० / ज्योतींषि विमानविशेषाः, तेषु भवा ज्यौतिष्काः। मूलाऽऽदीनां सर्वबाह्यचारित्वं स्वातिनक्षत्रास्य सर्वोपरिचारित्वं ज्योतिश्चक्रभवे देवभेदे, स्था०५ ठा०१ उ०। भरणीनक्षत्रास्य सर्वाधश्चारित्वमिति प्रतिपादनविस्तारः / (2) ते च पञ्च - "पंचविहा जोइसिया पण्णत्ता / तं जहा-चंदा सूरा (33) चन्द्रः सूर्यो वा कियत् क्षेत्र प्रकाशयतीति विचारे द्वादश प्रतिपत्ती- गहा णक्खत्ता ताराओ।" स्था०५ठा०१उ०। रितरेषां व्युदस्य भगवत्सिद्धान्तोक्तिः। (3) चंदा 1 सूराय 2 गहा 3, नक्खत्ता तारया य 5 पंचइमे / (34) चन्द्राऽऽदीनां जम्बूद्वीपे चारक्षेत्रविष्कम्भमानम्। एगे चल जोइसिया, घंटायारा थिरा अवरे॥१४७।। (35) ज्यौतिष्काणामल्पबहुत्यम्। चन्द्राः, सूर्याः, ग्रहाः, नक्षत्राणि, तारकाश्चेत्येवं पञ्च ज्योतिष्कभेदा (36) चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्राताराणां मध्ये यो यस्मात् शीघ्रगतिस्त भवन्तिाता चैके मनुष्यक्षेत्रवर्त्तिनोज्योतिष्काश्चला मेरोः प्रादक्षिण्येन निरूपणम्। सर्वकालं भ्रमणशीलाः, अपरे पुनर्ये मानुषोत्तरपर्वतात् परेण (37) ज्यौतिष्काणामेकमुहुर्ते यावती गतिस्तन्निरुक्तिः। स्वयंभरमणसमुद्रं यावद्वर्तन्तेते सर्वेऽपिस्थिराः सदाऽवस्थानस्वभावाः, (38) चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागविषयविशेषनिर्धारणम्। अत एव घण्टाकारा अचलधर्मकत्वेन घण्टावत् स्वस्थानस्था एव (36) ग्रहमधिकृत्य योगचिन्ता। तिष्ठन्तीत्यर्थः। प्रव० 164 द्वार। चं० प्र०। उत्त०। दश०। (40) सूर्येण सह नक्षत्रस्य योगचिन्तनम्। (4) प्रथमतो मनुष्यक्षेत्र प्ररूपयति(४१) सूर्येण सह ग्रहस्य योगविचारः। जंबूदीवो लवणो-दही य दीवो य धायईसंडे / (42) चन्द्राऽऽदयो नक्षत्रोण (समासेन) यावन्ति मण्डलानि चरन्ति कालोदहिपुक्खरवर -दीवड्ढो माणुसं खेत्तं / / तदुपपत्तिः / प्रत्यक्षत उपलभ्यमानः प्रथमो जम्बूद्वीपः, ततः सर्वतस्तत्परिक्षेपी (43) चान्द्रमासे यावन्तिमण्डलानिचन्द्राऽऽदयश्चरन्तितस्योत्कीर्तनम्। लवणोदधिः, ततोऽपि परतः सामस्त्येन लवणोदधिपरिक्षेपी (44) ऋतुमासमधिकृत्य चन्द्राऽऽदीनां मण्डलचारवर्णनम्। धातकीखण्डो द्वीपः, तस्यापि सर्वतः परिक्षेपी कालोदधिसमुद्रः, (45) सूर्यमासमधिकृत्य चन्द्राऽऽदीनां मण्डलचारविवेकः। ततोऽपि परतः सर्वतस्तत्परिक्षेपि पुष्करयरद्वीपस्यार्द्धम् / एते (46) अभिवर्धितमासमधिकृत्य चन्द्राऽऽदीनां मण्डलचारोपपादनम्। जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्करवरद्वीपार्द्धरूपा द्वीपाः, द्वौ च (47) एकेनाहोरात्रोण चन्द्राऽऽदयः प्रत्येकं यावन्ति मण्डलानि चरन्ति लवणोदधिकालोदधिरूपी समुद्रौ, मानुषं क्षेत्रांमनुष्याणा मुत्पत्तेमरतत्समर्थनम्। णस्य च भावात् / अस्भिश्च मानुषे क्षेत्र समा विभागाः कालविभागाः
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________________ जोइसिय 1561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय सुषमसुषमाऽऽदयो भवन्ति, ततो मनुष्यक्षेत्रात्परतः सर्वमपि देवारण्य देवानां क्रीडास्थानं, ता जन्मतो मनुष्याः, नापि तत्रा कोऽपि कालविभागा इत्यर्थः। एतदेव स्पष्टयन्नाहएतं माणसखित्तं, एत्थ विचारीणि जोइसगणाणि / परतो दीवसमुद्दे, अवट्ठियं जोइसं जाण। एतत् अनन्तरोदिवस्वरूपं मानुष क्षेत्रम्, अस्मिश्च मनुष्यक्षेत्र, / विचारिणो विचरणशीलाज्योतिष्कगणाश्चन्द्रसूर्य ग्रहनक्षत्रातारागणाः। सूत्रो च नपुंसकता प्राकृतत्वात् / परतो मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः, शेषेषु द्वीपसमुद्रेष्ववस्थितमवस्थानशीलं ज्योतिश्चक्रं जानीहि / ज्यो०६ पाहु०। (5) संप्रति प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्राऽऽदीनां परिमाणप्रतिपादनाय कति चन्द्रसूर्याः सर्वलोके आख्याताः? इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रामाहता कति णं चंदिमसूरिया सव्वलोयं ओभासेंति, उज्जोएंति, तवेंति, पभासेंति आहिता ति वदेजा। (ता कति णमित्यादि)'ता' इति पूर्ववत्। कति क्रिप्रमाणाः, 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, चन्द्रसूर्याः सर्वलोके अवभासन्ते अवभासमानाः, उद्द्योतयन्तः प्रकाशयन्त आख्याता इति वदेत्। एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः प्रतिपत्तयस्तावतीरूपदर्शयतितत्थ खलु इमाओ दुवालसपडिवत्तीओ पण्णताओ / तत्थेगे एवमाहंसु-ताएगे चंदे एगे सूरे सव्वलोयं ओभासेति, उञ्जोएति, तवेति, पभासेति, एगे एवमाहंसु 1 / एगे पुण एवमाहंसु-ता तिण्णि चंदा तिण्णि सूरा सव्वलोयं ओभासेंति, उज्जोएंति, तति, पभासेंति, एगे एवमाहंसु 2 / एगे पुण एवमाहंसु-सा आउटिं चंदा आउटिं सूरा सव्वलो ओभासें ति, उज्जोएंति, तवेंति, पभासेंति, एगे एव माहंसु 3 / एगे पुण एवमाहंसु-एवं एतेणं अमिलावणं णे तव्वंसत्त चंदा सत्त सूरा 4 / दस चंदा दस सूरा 5 / वारस चंदा वारस सूरा 6 / वातालीसं चंदा वातालीसं सूरा 7 / वावत्तरी चंदा वावत्तरीसूरा 8 / वातालीसं चंदसयं वातालीसं सूरासयं 9 / वावत्तरं चंदसयं वावत्तरं सूरसयं 101 वायालीसं चंदसहस्सं, वायालीसं सूरसहस्सं 11 / वावत्तरी चंदसहस्सं, वावत्तरी सूरसहस्सं सव्वलोयं | ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासंति, एगे एवमाहंसु 12 / / | (तत्थेत्यादि) तत्रा सर्वलोकयिषयचन्द्रसूर्यास्तित्वविषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरुपा द्वादश प्रातपत्तयः परतीर्थिकैरभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः। तत्र तेषां द्वादशानां परतीर्थिकानांमध्ये एके परतीर्थिका एवमाहु:-(ता इति) तेषां परतीर्थिकानां प्रथम स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः / एकश्चन्द्र एकः सूर्यः सर्वलोकमवभासयति, अवभासयन् उद्योतयन्तापयन् प्रभासयन् आस्यात इति वदेत्। अत्रैवोपसंहारमाह - (एगे एवमासु) 1 / एके पुनरेवमाहु :- त्रयश्चन्द्रास्त्रयः, सूर्याः | सर्वलोकमवभासयन्त आख्यात इति वेदत्। उपसंहारवाक्यम् -(एगे एव माहंसु)२। एके पुनरेवमाहु:-अर्द्धचतुर्थाश्चन्द्रा अर्द्धचतुर्थाः सूर्याः सर्वलोकमवभासयन्त आख्याता इति वदेत्। अत्राप्युपसंहार :-(एगे एवमाहंसु) 3 / (एवमित्यादि) एवमुक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन तृतीयप्राभृतोक्तप्रकारेण द्वादशप्रतिपत्तिविषयं सकलमपि सूत्र नेतव्यम् / तचैवम् -- "(सत्त चंदा सत्त सूरा इति) एगे पुण एवमाहंसुता सत्त चंदा सत्त सूरा सव्वलोयं ओभासेंति, उज्जोएंति, तवेंति, पभासंति, आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु 4 / एगे पुण एवमाहंसुता दस चंदा दससूरा सव्वलोयं ओभासेंति, उज्जोएंति, तवेंति, पभासेंति, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु 5 / एगे पुण एवमाहंसुता वारस चंदा वारस सूरा सव्वलोयं ओभासेंति, उज्जोएंति, तवेंति, पभाति, आहिय त्ति वएखा, एगे एवमाहंसु 6 / एगे पुण एवमाहंसुता वायालीसं चंदा वायालीसं सुरा सव्वलोय ओभाति, उज्जोएंति, तवेंति, पभासेंति, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहसु७। एगे पुण एवमाहंसुता वावत्तरि चंदा वावत्तरि सूरा सव्वलोयं ओभासेंति, उज्जोएंति,तवेंति, पभासेंति, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु 8 / एगे पुण एवमाहंसु ता वायालीसं चंदसयं वायालीसं सूरसयं सव्वलोए ओभासेइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासेइ, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु 6 / एगे पुण एवमासुता वावत्तरं चंदसयं वावत्तरं सूरसयं सव्वलोयं ओभासेइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासेइ, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु 10 / एगे पुण एवमाहंसु–ता वायालीसं चंदसहस्सं वायालीसं सूरसहस्स सव्वलोयं ओभासेइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासेइ, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु 11 / एगे पुण एवमासुता वावत्तरं चंदसहस्सं वावत्तरं सूरसहस्सं सव्वलोयं ओभासेइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासेइ, आहिय त्ति वएजा, एगे एवमासु 12 / " एताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः, तथा भगवान् स्वमतमताभ्यः पृथग्भूतमाह - वयं पुण एवं वदामो-ता दयं पुण एवं वदामो-ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे जाव परिक्खेवेणं ताव जंबुद्दीवे दीवे केवतिया चंदा पभासेंसुवा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा ? केवतिया सूरातविंसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा? केवतिया नक्खत्ता जोइंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा ? केवतिया गहा चारं चरिंसु या, चरंति वा, चरिस्संति वा ? केवतिया तारागणकोडिकोडीओ सो सुवा, सोमंति वा, सोभिस्संति वा ? ता जंबूद्दीवे णं दीवे दो चंदा पभार्से सु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा, दो सूरिया तवइंसुवा, तवंति वा, तविस्संति वा, छप्पण्णं णक्खत्ता जोयंजोएंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा, वावत्तरिगहसतं चारं चरिंसुवा, चरंति वा, चरिस्संति वा, एगं सयसहस्सं तेत्तीसं च सहस्सं णवसया पण्णत्ता तारागणकोडाकोडीणं सो)सुवा, सोभितिवा, सोभिस्संति वा। (वयं पुण इत्यादि) वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानाः, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः / तमे व प्रकारमाह - (ता अयं णमित्यादि) इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीय, व्याख्यानीय
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________________ जोइसिय 1562- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय च (ता जंबुद्दीवे ण दीवे दो चंदा इत्यादि) जंबूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रतिभासितवन्तौ प्रतिभास्थेते, प्रतिभासिष्येते, द्रव्यास्तिकनयमतेन सकलकालमेवंविधाया एव जगत्स्थितेः सद्भावात् / तथा द्वौ सूयौं तापितवन्तौ, तापयतस्तापयिष्यतः / तथा एकैक स्य शशिनोऽष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिवारो, जम्बूद्वीपे च द्वौ शशिनौ, ततः षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि, जम्बूद्वीपे चन्द्रसूर्याभ्यां सहयोग युक्तवन्तः, युक्तवन्ति, योक्ष्यन्ति वा / तथा एकैकस्य शशिनोऽष्टाशीतिम्रहाः परिवारतः, ततः शशिद्वयसत्कग्रहमीलने सर्वसंख्यया षट्सप्तत्यधिक ग्रहशतं भवति, ततो जम्बूद्वीपे चारं चरितवान, चरति, चरिष्यति च / तथा एकैकस्य शशिनस्तारापरिवारः कोटाकोटीनां षट्षष्टिः सहस्राणि, नवशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि, जम्बूद्वीपे च द्वौ राशिनौ, तदेतत् ताराप्रमाणं द्वाभ्यां गुण्यते, तत एक शतसहस्रं त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि नवशतानि पञ्चाशदधिकानितारागणकोटीनां भवन्ति / एतावत्प्रमाणास्तारा जम्बूद्वीपे शोभितक्त्यः, शोभन्ते, शोभिष्यन्ते / सु० प्र० 16 पाहु०। जी० / जं०। भ०। (6) संप्रति विनेयजनानुग्रहाय यथोक्तजम्बूद्वीपगत चन्द्राऽऽदिसंख्यासंग्राहिके द्वे गाथे आहदो चंदा दो सूरा, णक्खत्ता खलु हवंति छप्पण्णा। वावत्तरं गहसतं, जंबुद्दीवे वियारीणं / / 1 / / एगं च सयसहस्सं, तित्तीसं खलु भवे सहस्साई। णव य सता पण्णासा, तारागणको डिकोडीणं / / 2 / / एते चढे अपि सुगमे, नवर (जंबुद्दीवे बियारी णं) णमिति वाक्यालङ्कारे, ततो 'वियारीति विभक्तिपरिणामेन चन्द्रादिभिः सह सामानाधिकरण्येन योजनीयमिति॥सु०प्र०१६ पाहु०। (लवणसमुद्रगतचन्द्राऽऽदिसंख्यापरिमाणम् 'लवणसमुद्द' शब्दे वक्ष्यते) (धातकीखण्डद्वीपचन्द्राऽऽदिसंख्या 'धायईखंडदीव' शब्दे प्रतिपादयिष्यते) (कालोदसमुद्रचन्द्रा5ऽदिसंख्या 'कालोद' शब्दे तृतीयभागे 504 पृष्ठे गता) (पुष्करवरद्वीपचन्द्राऽऽदिसंख्या, आभ्यन्तरपुष्करार्द्धगतचन्द्राऽऽदिवक्तव्यता च 'पुक्खरवरदीव' शब्दे वक्ष्यते) इह सर्वातारापरिमाण चिन्तायां कोटी कोट्य :-- कोटीकोट्य एव द्रष्टव्याः, तथा पूर्वसूरिव्याख्यानात्। अपर उच्छ्याङ्गुलप्रमाणमनुश्रित्य कोटीकोटीरेव समर्थयन्ते। उक्तं च - "कोडाकोडीसत्तं, तरंतु मन्नंति केइ थोवतया। अन्ने उस्सेहंगुलमाणं काऊण ताराणं / / 1 / / " इति। जी०३ प्रति०। (7) संप्रति मनुष्यक्षेत्रगतसमस्तचन्द्राऽऽदिसंख्या परिमाणमाहमणुस्सखेत्ते णं भंते ! कइ चंदा पभासेंसु वा, पभासिंति वा, पभासिस्संति वा, कइ सूरा तवइंसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा? गोयमा!"बत्तीसं चंदसयं, बत्तीसं चेव सूरियाण संयं। सयलं मगुस्सलोयं,चरंति एए पगासेंता॥१।। एक्कार सय सहस्सा, छप्पिय सोला महग्गहाणं तु / छच्च सया छण्णउया, णक्खत्ता तिण्णि स सहस्सा ||2|| अट्ठासीइ सतसहस्सा, वायालीसं सहस्स मणुयलोगम्मि। सत्त य सया अणूणा, तारागणकोडिकोडीणं" ||3|| सोभंसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा!। "मणुस्सखेत्ते णं' इत्यादि पाठसिद्धम् / उक्तं चैवंरूपं परिमाणमन्यत्रापि / (बत्तीस मित्यादि गाथाठायम्) तत्र द्वात्रिशं चन्द्रशतम्, एवं द्वौ चन्द्रौ जम्बूद्वीपे, चत्वारो लवणोदे, द्वादश धातकीखण्डे, द्वाचत्वारिशत्कालोदे, द्वासप्ततिरभ्यन्तरपुष्कराद्धे, सर्वसंख्यया द्वात्रिंशं शतम्। एवं सूर्याणामपि द्वाणिसंशतं परिभावनीयम् / नक्षत्राऽऽदिपरिमाणम् अष्टाविंशत्यादिसंख्यानि नक्षत्राऽऽदीन द्वात्रिंशेन शतेन गुणयित्वा परिभावनीयम्। जी०३ प्रति०। मतभेदेनाहअट्ठासीतिं चत्ता-इसतसहस्साई मणुयलोयम्मि। सत्त य सता अणूणा, तारागणकोडिकोडीणं / / 3 / / (अट्ठासीइंचत्ताइ त्ति) अष्टाशीतिः सहस्राणि चत्वारिंशत् शताधिकानि, शेष गतार्थम्। सु०प्र०१६ पाहु०। चं० प्र०। भ०। द०प०। संप्रति सकलमनुष्यलोकगततारागणस्योपसंहारमाह - एसो तारापिंडो, सव्वसमासेण मणुयलोयम्मि। बहियं पुण-ता तारा, जिणेहिँ भणिआ असंखेज्जा / / 1 / / एवतिय तारगणं, जं भणियं माणुसम्मि लोगम्मि। चारं कलंबुयापु-फसंठितं जोतिसं चरति / / 2 / / एषोऽनन्तरोक्तगाथोक्तस्तारापिण्डः सर्वसंख्यया मनुष्यलोके, आख्यात इति गम्यते / वहिः पुनर्मनुष्यलोकाद् यास्तारास्ताजिनैः सर्वहस्तीर्थकृगिर्भणिता असंख्याताः, द्वीपसमुद्राणाम संख्यातत्वात्। प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च यथायोगं संख्येयनामसंख्येयानां च ताराणं सद्भावात् // 1 / / "एवइयं" इत्यादि / एतावत्संख्याकं तारापरिमाणं यदनन्तरं भणितं मानुषे लोके, तज्जयोतिष्कं ज्योतिष्कदेवविमानरूपं कदम्बपुष्पसंस्थितं कदम्बपुष्पवत् अधःसंकुचितं उपरि विस्तीर्णमुत्तानी -कृताईकपित्थसंस्थानसंस्थितमित्यर्थः / चार चरति चार प्रतिपद्यते, तथा जगत्रवाभाव्यात् / ताराग्रहणं चोपलक्षणं, तेन सूर्यादयोऽपि यथोक्तसंख्याका मनुष्यलोके तथा जगत्स्वभावात् चार प्रतिपद्यन्ते इति द्रष्टव्यम् ॥शा संप्रत्येतद्गतमेवोपसंहारमाहरविससिगहणक्खत्ता, एवतिया आहितामणुयलोए। जेसिंणामागोत्तं, न पागता पण्णवेहिति / / 3 / / रविशशिग्रहनक्षत्राणि, उपलक्षणमेतत्, तारकाणि च एवाव -- न्त्येतावत्संख्यानि आख्यातानि सर्वज्ञैर्मनुष्यलोके, येषां किमित्याह - येषां सूर्याऽऽदीना यथोक्तसंख्याकानां सकलमनुष्यलोकभाविताना. प्रत्येक नामगोत्राणि, इहान्वर्थ युक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया नामगोत्रमित्युच्यते। ततोऽयमर्थः-नामगोत्राणि अन्वर्थयुक्तानि, यदि वा नामानि च गोत्राणि नामगोत्राणि, प्राकृता अनतिशायिनः, पुरुषाः न कदाचनापि प्रज्ञापयिष्यन्ति, केवलं यदा तदा वा सर्वज्ञा एव, तत इदमपि सूर्याऽऽदिसंस्थानं प्राकृतपुरुषाप्रमेयं सर्वज्ञोपदिष्टमिति सम्यक् श्रद्धेमिति // 3 // (8) छावद्धिं पिडगाई, चंदादिचाण मणुयलोयम्मि।
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________________ जोइसिय 1563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय दो चंदा दो सूरा, य हुंति एक्के क्कए पिडए / / 3 / / इह द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यावकं पिटकमुच्यते। इत्थंभूतानि चन्द्राऽऽदित्याना पिटकानि सर्वसंख्यया मनुष्यलोके भवन्ति षटषष्टिसंख्याकानि / अथ किंप्रमाणं पिटकम् ? इति पिटक -प्रमाणमाह-एकैकस्मिन् पिटके द्वी चन्द्रौ, द्वौ सूर्यां च भवतः / किमुक्तं भवति ? - द्वौ चन्द्रौ द्वी सूर्यावित्येतावत्प्रमाणमेकैकं चन्द्राऽऽदित्यानां पिटकमिति / एवंप्रमाणं च पिटकं जम्बूद्वीपे एकम, जम्बूद्वीपेद्वयोरेव चन्द्रमसोयोरेव सूर्ययोर्भावात्। द्वे पिटके लवणसमुद्रे, तत्रा चतुर्णा चन्द्रमासां चतुर्णा च सूर्याणां भावात्। एवं षट् पिटकानिधातकीखण्डे, एकविंशतिः, कालोदे, पशिदभ्यन्तरपुष्कराद्धे, इति भवन्ति सर्वमीलने चन्द्राऽऽदित्यानां षट्षष्टिः पिटकानि // 3 // छावर्द्वि पिडगाइं,णक्खत्ताणं तु मणुयलोयम्मि। छप्पण्णं णक्खत्ता, हुंती एक्कक्कए पिडए / / 4 / / (छावट्ठीत्यादि) सर्वस्मिन्नपि मनुष्यलोके सर्वसंख्यया नक्षत्राणां पिटकानि भवन्ति षट्षष्टिः / नक्षत्रपिटक्यमाणं च शशिद्वयसंबन्धिनक्षत्रास ख्यापरिमाणम् / तथा धाह-एकैकस्मिन् पिटके नक्षत्राणि भवन्ति षट्पञ्चाशत्रसंख्याकानि / किमुक्तं भवति? - षट्पञ्चाशन्नक्षत्रसंख्याकमेकैकं नक्षत्रपिटकं भवति। अत्रापि षट्पष्टिसंख्याभावना, एवमेकं नक्षत्रपिटकं जम्बूद्वीपे, द्वे लवणसमुद्रे, षड़ धातकी खण्डे, एकविंशतिः कालोदे, षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्करार्द्ध इति // 4 // छावढेि पिडगाई, महग्गहाणं तु मणुयलोयम्मि। छावत्तरं गहसतं, होई एक्के क्कए पिडए।।५।। महाग्रहाणामपि सर्वस्मिन्नमनुष्यलोके सर्वसंख्यया पिटकानि भवन्ति षट्षष्टिः / ग्रहपिटक्प्रभाणं च शशिद्वयसंबन्धिग्रहसंख्यापरिमाणम्। तथा चाऽऽहएकैकरिमन् पिटके ग्रहपिटके भवति षट्सप्ततिशत षट्सप्तत्यधिक ग्रहशतं, सप्तत्यधिकग्रहशतपरिमाणमेकैकं ग्रहपिटकमिति। ततः पट्पष्टि -संख्य भावना च प्राग्वत्कर्तव्या // 5 // ! (6) प्रथ चन्द्रसूर्याणा कियत्यः पतयः कथं च स्थिताः ? इत्याह चत्तारिय पंतीओ, चंदाइचाण मणुअलोयम्मि। छावढेि छावढेि, च होइ एक्किक्किया पंती॥६॥ (चत्तारि य इत्यादि) इह मनुष्यलोके चन्द्राऽऽदिस्यानां पड़ - क्तयश्चतस्रो भवन्ति। तद्यथा-द्वे पक्ती चन्द्राणां, द्वे सूर्याणाम्, एकैका च पक्तिर्भवति षट्षष्टिः 2 / सूर्याऽऽदिसंख्या तद्भावना चैवम् - एकः किल सूर्या जम्बूद्वीपे मेरोदक्षिणभागे चार चरन वर्तते, एक उत्तरभागे, एकश्चन्द्रमा मेरोः पूर्वभागे, एकोऽपरभागे / तत्र यो मेरोदक्षिणभागे सूर्यश्चारं चरन् वर्तते तत्सम श्रेणिव्वस्थिती द्वौ दक्षिणभागे सूर्यो, लवणसमुद्रे, षट् धातकीखण्डे, एकविंशतिः कालोदे, षटत्रिशत् अभ्यन्तपुष्कराः अस्यां सूर्यपङ्क्तौ षट् षष्टिः सूर्याः / योऽपि च मरोरुत्तरभागे व्यवस्थितः सूर्यश्चारं चरन् वर्तते तस्यापि समश्रेण्या व्यवस्थिती द्वावुत्तरभागे सूर्यालवणसमुद्रे, धातकीखण्डेषट्, एकविंशतिः कालोदे, षट् शिदभ्यन्तरपुष्कराढ़ें इति / अस्यामपि पडतो सर्वसंख्यया षट् षष्टिः सूर्याः / तथा यो मेरोः किल पूर्वभागे चारं चरन् वर्तते चन्द्रमा स्तत्सम श्रेणिव्यवस्थितौ द्वौ पूर्वभागे एव चन्द्रमसौ लवणसमुद्रे, षट् धातकीखण्डे, एकविंशतिः कालोदे, षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्करार्द्ध इति। अस्यां चन्द्रपङ्क्ती सर्वसंख्यया षट्पष्टिश्चन्द्रमसः / एवं यो मेरोरपरभागे चन्द्रमास्तन्मूलायामपि पङ्क्तौ षट्षष्टिश्चन्द्रमसो वेदितव्याः // 6 // (10) अथ नक्षत्राणां पङ्क्तिस्वरूपमाहछप्पन्नं पंतीओ, गक्खत्ताणं मणुयलोयम्मि। छावढि छावर्द्वि, हवई इक्किक्किया पंती॥७।। नक्षत्राणां मनुष्यलोके सर्वसंख्यया पक्तयो भवन्ति षट् पञ्चाशत्। एकैका च पङ्क्तिर्भवति षट्षष्टिषट्षष्टिनक्षत्राप्रमाणा इत्यर्थः / तथाहिअस्मिन किल जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य शशिनः परिवारभूतानि अभिजिदादीन्यष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि चारं चरन्ति, उत्तरताऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूतानि अष्टाविंशतिसंख्याकान्यभिजिदादीन्येव नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि, तत्रा दक्षिणतोऽर्द्धभागे यदभिजिन्नक्षत्रां तत्समश्रेणिव्यवस्थिते द्वे आभजिन्नक्षत्र लवणसमुद्रे, षट्धातकीखण्डे, एकविंशतिः कालोदे, षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्यरार्द्ध इति सर्वसंख्यया षट्षष्टिरभिजिन्नक्षत्राणि पडक्तया व्यवस्थितानि, श्रवणाऽऽदीन्यपि दक्षिणतोऽर्द्धभागे पड़तया व्यवस्थितानि षट्षष्टिसंख्याकानि भावनीयानि / उत्तरतोऽप्यर्द्धभागे यदभिजिन्नक्षत्रां तत्समश्रेणिव्यवस्थिते उत्तरभागे एव द्वे अभिजिन्नक्षत्रो लवणसमुद्दे, षट् धातकीखण्डे, एकविंशतिः कालोदे, षट्त्रिंशत् पुष्कराः, एवं श्रवणाऽऽदिपक्तयोऽपि प्रत्येकं षट् षष्टिसंख्याकाः वेदितव्याः, इति भवन्ति सर्वसंख्यया षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणां पतयः, एकैका च पङ्क्तिः षट्षष्टिसंख्येति!|७|| (11) अथ ग्रहाणां पङ्क्तिस्वरूपमाहछावत्तरं गहाणं, पंतिसयं हवति मणुयलोयम्मि। छावढिं छावडिं, च हवइ इक्किक्किया पंती||८|| ग्रहाणामङ्गारकप्रभृतीनां सर्वसंख्यया मनुष्यलोके षट्सप्तत्यधिकं शत भवति, एकका च पक्तिर्भवति षट्षष्टिषट्षष्टिग्रहसंख्या / अत्रापीय भावन-इह जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्ध भागे एकस्य शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृतयोऽष्टशीतिर्ग्रहाः, उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृतय एवाष्टाशीतिः / तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे योऽङ्गारकनामा ग्रहस्तत्समश्रणिव्यवस्थितोदक्षिणभागे एव द्वावङ्गारको लवणसमुद्रे, षड् धातकीखण्डे, एकविंशतिः कालोदे, षट्तिशद् अभ्यन्तरपुष्करा?, इति षट्षष्टिः। एवं शेषा अपि सप्ताशीतिम्रहाः पतया व्यवस्थिताः प्रत्येकं षट्षष्टिर्वेदितव्याः / एवमुत्तरतोऽप्यर्द्धभागे अङ्गारकप्रभृतीननामष्टाशीतिग्रहाणां पतयः प्रत्येकं षट्षष्टिसंख्याका भावनीयाः, इति भवति सर्वसंख्यया ग्रहाणां षट् सप्तत्यधिक पक्तिशतम्, एकैका च पङ्क्तिः षट्षष्टिसंख्याकेति॥८|| (12) अर्थतेषां चन्द्राऽऽदीनां भ्रमणस्वरूपमाह - ते मेरुमणु चरंती, पयाहिणाऽऽवत्तमंडला सव्वे / अणवट्ठियजोगेहिं, चंदा सूरा गहगणा य / / 6 / / "ते मेरुमणुचरंति' इत्यादि। ते मनुष्यलोकवर्तिनः सर्वे चन्द्राः, सर्वे सूर्याः सर्वे च ग्रहगणाः, अनवस्थितैर्यथायोगमान्यैरन्यैर्न - क्षत्रोण सह योगै रुपलक्षिताः (पयाहिणाऽऽवत्तमंडला इति)
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________________ जोइसिय 1564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परि समन्ताच्चन्द्राऽऽदीनां दक्षिण एव मेरुर्भवति यस्मिन्नावर्ते मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः, प्रदक्षिण आवर्तमण्डलो येषां ते तथा, मेरुमनु लक्षीकृत्य चरन्ति / एतेनैतदुक्तं भवति-सूर्याऽऽदयः समस्ता अपि मनुष्य लोकवर्तिनः प्रदक्षिणाऽऽवतमण्डलगत्या परिभ्रमन्तीति // 6 // (13) इह चन्द्राऽऽदित्यग्रहाणां मण्डलानि अनवस्थितानि, यथायोगमन्यस्मिन्नन्यस्मिन् मण्डले तेषां संचारित्वात्, नक्षा ताराणां तु मण्डलान्यवस्थितान्येव। तथा चाऽऽहणक्खत्ततारगाणं, अवट्ठिता मंडला मुणेयव्वा / ते वि य पदाहिणाऽऽव--तमेव मेरुं अणु चरेंति / / 10 / / "णक्खत्त' इत्यादि। नक्षत्राणां तारकाणां च मण्डलान्यव स्थितानि ज्ञातव्यानि। किमुक्तं भवति? - आकालं प्रतिनियतमेकैकं नक्षत्राणां तारकाणां च प्रत्येक मण्डलमिति / न चेत्थमनवस्थितमण्डलत्वोक्तावेवमाशजनीयम् - यथैतेषां गतिरेव न भवतीति / यत आह-"ते विय' इत्यादि / तान्यपि - नक्षत्राणि, तारकाणि च / सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वात्। प्रदक्षिणाऽऽवर्तमव, इत्थं क्रियाविशेषणं, मेरुमनु लक्षीकृ त्य चरन्ति। एतच मेरुं लक्षीकृत्य प्रदक्षिणाऽऽवर्त्त, तेषां चरणं प्रत्यक्षत एवोपलक्ष्यत इति समवादि / / 10 / / (14) अय चन्द्रसूर्ययोर्मण्डलस्थानादूर्द्धमधश्च संक्रमणपरिनिषेधमाहरयणिकरदिणकराणं, उड्टुं च अहेव संकमो नऽत्थि। मंडलसंकमणं पुण, सब्भंतरबाहिरं तिरिए / / 11 / / "रयणिकर'' इत्यादि। रजनीकरदिनकराणां चन्द्राऽऽदित्यानामूर्द्धमर्द्धश्च संक्रमो न भवति, तथा जगत्स्वाभाव्यात् / तिर्यक पुनर्मण्डलेषुसंक्रमणे भवति। किंविशिष्टम् ? इत्याह-साभ्यन्तरबाह्यम्, अभ्यन्तरं च बाह्यमभ्यन्तरबाह्य, सहाभ्यन्तरं बाह्येन वर्तते इति साभ्यन्तरबाह्यम्। एतदुक्तं भवति - सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतस्तावन्मण्डलेषु संक्रमणं यावत्सर्वबाह्यं मण्डलं, सर्वबाह्याच मण्डलादर्वाक् तावन्मण्डलेषु संक्रमण यावत्सर्वाऽऽभ्यन्तरमिति॥१॥ (15) रयणिकरदिणकराणं, णक्खत्ताणं महागहाणं च / चारविसेसेण भवे, सुहदुक्खविधी मणुस्साणं / / 12 / / 'रयणिकर' इत्यादि / रजनीकरदिनकराणां चन्द्राऽऽदित्यानां, नक्षत्राणां च, महाग्रहाणां च चारविशेषेण तेन तेन चारेण सुखदुःखविधयो मनुष्याणां भवन्ति / तथाहि-द्विविधानि सन्ति सदा मनुष्याणां कर्माणि / तद्यथा-शुभवेद्यानि, अशुभवेद्यानि च / कर्मणां सामान्यतो विपाकहेतवः पञ्च। तद्यथा-द्रव्य, क्षेत्र, कालो, भवो, भावश्च। उक्तं च- "उदयवखयखउवसमोवसमाजं च कम्मणो भणिया। दव्वं खेत्तं काल, भयं य भावं च संपप्प' / / 1 / / शुभकर्मणां प्रायः शुभवेद्यानां कर्मणां शुभद्रव्यक्षेत्राऽऽदिसामग्री विपाकहेतुः, अशुभवेद्यानामशुभद्रव्यक्षेत्राऽऽदिसामग्री, ततो यदा येषां जन्मनक्षत्राऽऽदिविरोधी चन्द्रसूर्याऽऽदीनां चारो भवति, तदा तेषां प्रायो यान्यशुभवेद्यानि कर्माणि तानि ता तथाविधविपाक - सामग्रीमवाप्य विपाकमायान्ति, विपाकमागतानि शरीररोगोत्पादनेन, धनहानिकरणतो वा, प्रियविप्रयोगजनेन वा, कलहसंपादनतो वा दुःखमुत्पादयन्ति / यदा च एषां जन्मनक्षत्राऽऽद्यनुकूलश्चन्द्राऽऽदीनां चारस्तदा तेषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि तानि तां तथाविधा विपाकसामग्रीमधिगम्य विपार्क प्रतिपद्यन्ते, प्रतिपन्नाविधाकानि च तानि शरीरनीरोगता-संपादनतो, धनवृद्धिकरणेन वा, वैरोपशमनतः, प्रियसंप्रयोग-संपादनतो वा प्रारब्धाभीष्टप्रयोजननिष्पत्तिकरणतः सुखमनुजनयन्ति। अत एव महीयांसः परमविवेकिनोऽल्पमपि प्रयोजन शुभतिथिनक्षत्रमुहुर्ताऽऽदावारभन्ते, न तुयथाकथञ्चन्। अत एव जिनानामप्याज्ञा प्रव्राजनाऽऽदिकमधिकृत्येत्थमवतिष्ठतेयथा शुभक्षेत्रो शुभाऽऽदिदिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्ताऽऽदी प्रव्राजनव्रताऽऽरोपणाऽऽदि कर्तव्यं, नान्यथा। तथा चोक्तं पञ्चवस्तुके"एसा जिणाणमाणा, खित्ताईयां य कम्मुणो भणिया। उदयाइकारणं जं, तम्हा सव्वत्थ जइयव्यं" ||1|| अस्या अक्षरगमनिका-एषा जिनानामाज्ञायथा शुभक्षेत्रो शुभदिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथिनक्षत्रामुहूर्ताऽऽदौ प्रव्राजनव्रताऽऽरोपणाऽऽदि कर्तव्यं, नान्यथा। अपि च-क्षेत्राऽऽदयोऽपि कर्मणामुदयाऽऽदिकारणं भगवद्भिरुक्ताः, ततोऽशुभद्रव्यक्षेत्राऽऽदिसामग्री प्राप्य कदाचिदशुभवेद्यानि कर्माणि विपाकं गत्योदयमासादयेयुः, तदुदये च गृहीतव्रतभङ्गाऽऽदिदोषप्रसङ्गः / शुभद्रव्यक्षेत्राऽऽदिसामग्यां तु प्रायो नाशुभकर्मविपाकसंभव इति निर्विघ्नं सामायिकपरिपालनाऽऽदि। तस्मादवश्यं छद्मस्थेन सर्वत्र शुभक्षेत्राऽऽदौ यतितव्यम्। ये तु भगवन्तोऽतिशयिनस्तेऽतिशयबलादेव निर्विघ्नं सविघ्नं वा सम्यगधिगच्छन्ति, ततोनशुभतिथिमुहूर्ताऽऽदिकमपेक्षन्ते इति न तन्मार्गानुसरणं छद्मस्थानां न्याय्यम् / तेन वे परममुनिपर्युपासितप्रवचनविडम्बका अपरिमितजिनशासनोपनिषद्भूतशास्त्रगुरुपरम्परापोतनिरवद्यविशदकालोचितसमाचारीप्रतिपन्थिनः स्वमतिकल्पितसामाचारीका अभिदधति-यथा न प्रद्राजनाऽऽदिषु शुभतिथिनक्षत्राऽऽदिनिरीक्षण कर्त्तव्यं, न खलु भगवान् जगत्स्वामी प्रव्राजनायोपस्थितेषु शुभतिथ्यादिनिरीक्षणं कृतवानिति / ते अपास्ता द्रष्टध्याः / / 12|| (16) अथ चन्द्रसूर्याणां केन प्रकारेण प्रकाशक्षेत्रं वर्द्धते, कथं च हीयते ? तदाहतेसिं पविसंताणं, तावक्खेत्तं तु वड्डते णिययं / तेण य कम्मेण पुणो, परिहायति निक्खमंताणं / / 13 / / 'तेसिं' इत्यादि / तेषां सूर्याचन्द्रमसां सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तर प्रविशता तापक्षेत्र प्रतिदिवसं क्रमेण नियमादायामतो वर्द्धते, येन च क्रमेण परिवर्द्धते तेनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद् वहिनिष्क्रामतां परिहीयते। तथाहि सर्वबाह्ये मण्डले चारं चरता सूर्याचन्द्रमसा प्रत्येक जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशधा प्रविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागो तापक्षेत्रां, ततः सूर्यस्थाभ्यन्तरं प्रविशतः प्रतिमण्डल षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतप्रविभतस्य द्वौ द्वौ भागो तापक्षेत्रस्य वर्द्धते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येक पौर्णमासीसंभवे क्रमेण प्रतिमण्डलं षड्विंशतिर्भागाः, सप्तविंशतितमस्य च एक सप्तभाग इति वर्द्धते / एवं च क्रमेण प्रतिमण्डलमभिवृद्धौ यदा सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतः, तदा प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य ठायः परिपूर्णा दश भागास्तापक्षेवं, ततः पुनरपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलाद् बहिर्निष्क्रमणे सूर्यस्य प्रतिमण्डल षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतप्रविभक्तस्य जम्बूद्वीपचक्रबालस्य द्रौद्वौभागैः परिहीयते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येक पौर्णमासीसंभवक्रमेण प्रतिण्मण्डलं षड्विंशतिर्भागाः, सप्तविंशतितमस्य च भागस्य एकः सप्तभाग इति।
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________________ जोइसिय 1565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय (17) तेसिं कलंबुयापु-प्फसंठिता हुंति तावखेत्तमुहा। अंतो असंकुडा वा-हिवित्थडाचंदसूराणं / / 14 // (तेसिमित्यादि) तेषां चन्द्रसूर्याणां तापक्षेत्रामुखाः कलम्बुकापुष्पसंस्थिता नालिकापुष्पाऽऽकारा भवन्ति / एतदेव व्याचष्टेअन्तमेरुदिशि संकुचिताः, बहिर्लवणदिशि विस्तृताः / एतच्च प्रागेव चतुर्थे प्राभृते भावितमिति न भूयो भाव्यते। सू०प्र० 16 पाहु०। जी०! मं०।द०प० / ('तावक्खेत्त' शब्दे चैतद्रष्टव्यम्) (18) अंतो मणुस्सखेत्ते, हवंति चारोवगा तु उववण्णा। पंचविहा जोतिसिया, चंदा सूरा गहगणा य॥२०॥ अन्तर्मध्ये मनुष्यक्षेत्रे मनुष्यक्षेत्रस्य,पञ्चविधा ज्योतिष्काः। तद्यथाचन्द्राः, सूर्याः, ग्रहगणाः, चशब्दान्नक्षत्राणि, तारकाञ्च, भवन्ति चारोपगाश्चारयुक्ताः // 20 // तेण परं जे सेसा, चंदाइचगहतारणक्खत्ता। णत्थि गती ण वि चारो, अवहिता ते मुणेयव्वा // 21 // तेनेति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे तृतीया। ततो मनुष्यक्षेत्रात्परं यानि शेषाणि चन्द्राऽऽदित्यग्रहतारानक्षत्राणि चन्द्राऽऽदित्य-ग्रहतारानक्षत्रविमानानि। सूत्रो पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृत्वात्। तेषां नास्ति गतिर्न तस्मात् स्थानाचलनं, नापि चारो मण्डलगत्या परिभ्रमणं, किं त्ववस्थितान्येव तानि ज्ञातव्यानि // 21 // (19) एवं जंबुद्दीवे, दुगुणा लवणे-चउग्गुणा हुंति। लावणगाय तिगुणिता, ससिसूरा धायईसंडे / / 22 / / (एवं जंबुद्दीवे इत्यादि) एवं सति एकैकश्चन्द्रसूर्यो जम्बूद्वीपे द्विगुणो भवति / किमुक्तं भवति? द्वौ चन्द्रमसौ द्वौ सूर्यौ च जम्बूद्वीपे, लवणसमुद्रे तावेकेको सूर्याचन्द्रमसौ चतुर्गुणौ भवतः, चत्वारश्चन्द्राः, चत्वारश्च सूर्या लवणसमुद्रे भवन्तीति भावः। लावणिकाः लवणसमुद्रभवाः शशिसूरारित्रगुणिता धातकीखण्डे भवन्तिः, द्वादश चन्द्राः, द्वादश सूर्या धातकीखण्डे भवन्तीत्यर्थः // 22 // दो चंदा इह दीवे, चत्तारि य सायरे लवणतोए। धातइसंडे दीवे, वारस चंदा य सूरा य // 23 // धातइसंडप्पभिती-उद्दिट्ठा तिगुणिता भवे चंदा। आदिल्लचंदसहिता, अणंतराऽणंतरक्खेते // 24|| "दो चंदा' इत्यादि सुगमम्। "धायइसंड'' इत्यादि। धातकीखण्डः प्रभृतिरादिर्येषां तेधातकीखण्डप्रभृतयः, तेषुधातकीखण्डप्रभृतिषुद्रीपेषु / समुद्रेषु च ये उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वादशाऽऽदयः। उपलक्षणमेतत्-सूर्या वा, ते त्रिगुणितास्त्रिगुणीकृताः सन्तः (आइल्लचंदसहित त्ति) उद्दिष्टचन्द्रयुक्ताः तद् द्वीपात् समुद्रद्वा प्राक् जम्बूद्वीपमादिं कृत्वा ये प्राक्तनाश्चन्द्राः ते आदिमचन्द्राः, तैरादिमचन्द्रेः, उपलक्षणमेतत्-आदिमसूर्येश्च सहिता यावन्तो भवन्ति / एतावत्प्रमाणा अनन्तरं कालोदाऽऽदौ भवन्ति। तत्र धातकीखण्डे द्वीपे उद्दिष्टाः चन्द्रा द्वादश, ते त्रिगुणाः क्रियन्ते जाताः षत्रिंशत्। आदिमवन्द्राः षट् / तद्यथा-द्वौ चन्द्रौ जम्बूद्वीपे, चत्वारो लवणसमुद्रे / एतैरादिमचन्द्रैः सहिता द्वाचत्वारिंशद्भवन्ति / एतावन्तः कालोदे समुद्रे चन्द्राः। एष एव करणविधिः सूर्याणामपि। तेन सूर्या अपि तौतावन्तो वेदितव्याः / तथा कालोदे समुद्रे द्विचत्वारिंशचन्द्रमस उद्दिष्टाः ते त्रिगुणाः क्रियन्ते, जाते षडविंशं शतम् / आदिमचन्द्रा अष्टादश / तद्यथा-द्वौ जम्बूद्वीपे, चत्वारो लवणसमुद्रे, द्वादश धातकीखण्डे / एतैरादिमचन्द्रैः सहित षट्त्रिंशत्, जातं चतुश्चत्वारिंश शतम्। एतावन्तः पुष्करखरद्वीपे चन्द्राः, एतावन्त एव सूर्याः / एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेष्वेतत्करणवशाचन्द्रसंख्या प्रतिपत्तव्या। (20) संप्रति प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च ग्रहनक्षत्रतारापरिमाण परिज्ञानोपायमाह -- रिक्खग्गहतारग्गं, दीवसमुद्दे जत्थिच्छसि णाउं। तस्स ससिहिं तु गुणितं, रिक्खग्गहतारगग्गं तु / / 25 / / अा अग्रशब्दः परिमाणवाची, या द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्र परिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं वा ज्ञातुमिच्छसि तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा संबन्धिभिः शशिभिः, एकस्य शशिनः परिवारभूतं नक्षत्रपरिमाण ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च गुणितं सत् यावद्भवति, तावत्प्रमाणं तत्रा द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्रापरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणमिति / यथा लवणसमुद्रे किल नक्षत्राणां परिमाणं ज्ञातुमिष्ट, लवणसमुद्रे च शशिनश्चत्वारः, तत एकस्य शशिनः परिवारभूतानि यान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते, जातं द्वादशोत्तरं शतं, तावन्ति लवणसमुद्रे नक्षत्राणि / तथा अष्टाशीतिर्ग हा एकस्य शशिनः परिवारभूताः,ते चतुर्भिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि 352 / एतावन्तो लवणसमुद्रे ग्रहाः / तथा एकस्य शशिनः परिवारभूतानि तारागणकोटीकोटानां षट्षष्टिः सहस्राणि नवशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि, तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते, जातानि कोटाकोटीनां द्वे लक्षे सप्तषष्टिसहस्राणि नव शतानि 2676....... एतावत्यो लवणसमुद्रे तारागणकोटाकोटयः एवंरूपा च नक्षत्राऽऽदीनां संख्या प्रागेवोक्ता एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु नक्षत्राऽऽदिसंख्यापरिमाणं परिभावनीयम्। तत्तद्वीपसमुद्रवर्त्तिग्रहाऽऽदिसंख्या यन्त्रकादवधा-- / सूर्य / नक्षत्र तारा चन्द्र 2 __ नाम जम्बूद्वीप लवणसमुद्र धातकीखण्ड कालोदसमुद्र पुष्करवरद्वीप सर्वसंख्या ग्रह 176 352 1056 3666 112 12 | 133650000000000000000 267600000000000000000 803700000000000000000 2812650000000000000000 6644400000000000000000 336 1176 4032 42 144 144 12672 204 204 17952 5712 675661800000000000000000
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________________ जोइसिय 1566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय (21) बहिता तु माणुसनग-स्स चंदसूराणऽवट्ठिता तेआ। चंदा अभिया जुत्ता, सूरा पुण हुंति पुस्सेहिं / / 26 / / "बहिता'' इत्यादि / मानुषनगस्य मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिश्चन्द्रसूर्याणां तेजांसि अवस्थितानि भवन्ति / किमुक्तं भवति ? सूर्याः सदैवानत्युष्णं तेजसा, न तु जातुचिदपि मनुष्यलोके ग्रीष्मकाल इवात्युष्णतेजसः / चन्द्रमासोऽपि सर्वदैवानतिशीतलेश्याकाः, न तु कदाचनाप्यन्तर्मनुष्यक्षेत्रास्य शिशिरकाल इवातिशीततेजसः / तथा मनुष्यक्षेत्राद् बहिः सर्वेऽपि चन्द्राः सर्वदेवाभिजिता नक्षत्रेणयुक्ताः, सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्येण युक्ता इति॥२६|| सू० प्र० 16 पाहु०। (चन्द्रसूर्याणां चन्द्रचन्द्राणां तथा सूर्यसूर्याणां च परस्परमन्तरपरिमाणप्रतिपादनम् 'अंतर' शब्दे प्रथमभागे 66 पृष्ठे गतम्) (22) संप्रति बहिश्चन्द्रसूर्याणां पङ्क्त्यवस्थानमाहसूरंतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता। चित्तंतरलेसागा, सुहलेसा मंदलेसाय // 26 // (सूरतरिय त्ति) नृलोकाद् बहिः पक्या स्थिताः सूर्यान्त - रिता'चन्द्राश्चन्द्रान्तरिता दिनकराः दीप्ताः दीप्यन्ते स्म, दीप्ता भास्वरा इत्यर्थः / कथंभूतास्ते चन्द्रसूर्याः ? इत्याह-चित्रान्तरलेश्याकाः चित्रामन्तरं लेश्या सप्रकाशरूपा येषां ते तथा, ता चित्रामन्तरं चन्द्राणां सूर्यान्तरितत्वात्, सूर्याणां चन्द्रान्तरितत्वात्, चित्रालेश्या चन्द्रमसा शीतरश्मित्वात्, सूर्याणामुष्णरश्मित्वात् / लेश्याविशेषप्रदर्शनार्थमाह - (सुहलेसा मंदलेसा य त्ति) सुखं लेश्याश्चन्द्रमसो, न शीतकाले मनुष्यलोक इवात्यन्तकशीतरश्मय इत्यर्थः / मन्दलेश्याः सूर्याः न तु मनुष्यलोके निदाघसमये इव एकान्तत उष्णरश्मय इत्यर्थः / आह च तत्त्वार्थटीकाकारो हरिभद्रसूरि :- नात्यन्तशीताश्चन्द्रमसो, नात्यन्तोष्णाः सूर्याः, किं तु साधारण्यं द्वयोरपीति // 26 // (23) इहेदमुक्तं यत्र द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्राऽऽदिपरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तत्रा एकशशिपरिवारभूतनक्षत्राऽऽदिपरिमाणं तावद्भिः शशिभिर्गुणयितव्यमिति / तत एकशशिपरिवारभूतानां ग्रहाऽऽदीना संख्यामाहअट्ठासीतिं च गहा, अट्ठावीसंच हुंति नक्खत्ता। एगससीपरिवारो, इत्तो ताराण वोच्छामि।।३०|| छावट्ठि सहस्साई, णव चेव सताइँ पंचसयराई। एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं / / 31 / / ता अंतोमणुस्सक्खेत्ते जे चंदिमसूरियगहगण-णक्खत्ततारा रुवा, ते णं देवा किं उड्डोववण्णगा, कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारद्वितिया, गतिरतिया, गतिसमावण्णगा? ता ते णं देवा णो उड्डोववण्णगा, णो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, णो चारद्वितीया, गइरइया, गतिसमावण्णगा उड्डीमुहकलंबुआ पुप्फसंठाणसंठिते हिं जोअणसहस्सीएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सिआहिं बाहिराहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महताऽहतणट्टगीयवाइयतंतीतलतातुडियषण मुइंगपडुप्पवाइयरवेणं महता उक्किट्ठसीहणादबोलक- लकलरवेणं अच्छं पव्वतरायं पदाहिणावत्तं मंडलचारं मेरुं अणु परियटृति। "अट्टासीतिं च गहा" इत्यादि गाथाद्वयं निगदसिद्धम् / "ता अंतो मणुस्सखेत्ते' इत्यादि। अन्तर्मनुष्यक्षेत्रास्य ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपा देवास्ते किमूोपपन्नाः सौधर्माऽऽदिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य ऊर्द्धमुपपन्नाः ? कल्पेषु सौधर्माऽऽदिषु उपपन्नाः कल्पोपन्नाः ? विमानेषु सामान्येषूपपन्ना विमापीपपन्नाः ? चारो मण्डलगत्या परिभ्रमणं, तमुपपन्ना आश्रिताश्चारोपन्नाः ? चारस्य यथोक्तरूपस्य स्थितिरभावो येषां ते चारस्थितिकाः ? अपगतचारा इत्यर्थः / गतौ रतिरासक्तिः प्रीतिर्येषां ते गतिरतिकाः? एतेन गतौ रतिमात्रमुक्तम्। संप्रति साक्षागति प्रश्नयतिगतिसमापन्ना गतियुक्ताः? एवं प्रश्ने कृते भगवानाह- "ताते णं देवा" इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। ते चन्द्राऽऽदयो देवा नोद्धोपपन्नाः, नाऽपि कल्पोपपन्नाः, किं तु विमानोपपन्नाः, चारोपपन्नाश्चारसहिताः, नो चारस्थितिकाः, तथा स्वभावतोऽपि गतिरतिकाः, साक्षागतियुक्ताच, ऊर्द्धमुखीकृतकलम्युकापुष्पसंस्थानसंस्थितयों - जनसाहरित्रकैरनेकयोजनसहस्रप्रमाणे स्तापक्षणैः साहसिकाभिरनेकसहस्रसंख्याभिर्बाह्याभिः पर्षद्भि। अत्रा बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, वैकुकाभिर्विकुर्वितनानारूपधारिणीभिः, महता वेणेतियोगः / अहतानि अक्षतानि, अनघानीत्यर्थः / यानि नाट्यानि गीतानि वादित्राणि च, याश्य तन्त्र्यो वीणाः, ये च तलताला हस्ततालाः, यानि च शुटितानि शेषाणि तूर्याणि, ये च घना घनाकारा ध्वनिसाधात पटुप्रवादिता निपुणपुरुषप्रवादित मृदङ्गाः, तेषां रखेण, तथा स्वभावतो गतिरतिकर्बाह्य --पर्षदन्तर्गतैवैगन गच्छत्सु विमानेषु उत्कृष्टत उत्कर्षवशेन यो मुच्यते सिंहनादो, यश्च क्रियते वोलो नाम मुख हस्तं दत्वा महता शब्देन फूत्करणं, यश्च कलकलो व्याकुलशब्दसमूहस्तद्रवेण, मेरामिति योगः। किंविशिष्टम् ? इत्याह-अच्छमतीव स्वच्छमतिनिर्मलजाम्बूतदरत्नबहुलत्वात्, पर्वतराजं पर्वतेन्द्र, प्रदक्षिणावर्त मण्डलचारं यथा भवति तथा मेरामनु लक्षीकृत्य 'परियट्टति' पर्यटन्ति / सू० प्र० 16 पाहु०1 चं० प्र०। जी०। (बाह्यज्योतिष्कदेवेन्द्रस्थानम् 'इंदट्ठाण' शब्दे द्वितीयभागे 535 पृष्ठ गतम्) ता वहिया णं भणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगह० जाव तारारूवा तेणं देवा किं उड्डोववण्णगा, कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारहितिया, गतिरतिया, गतिसमावण्णगा ? ता ते णं देवा णो उड्डोववण्ण्णगा, णो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, णो चारोववण्णगा, चारट्ठितिया, णो गइरइया, णो गतिसमावण्णगा पक्किट्ठसंठाण संठितेहिं जोयणसतसाहस्सीएहिं तावक्खेत्तेहिं सतसाहस्सियाहिं बाहिराहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महताऽहतनट्टगीयवाइय. जावरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, सुहलेस्सा मंदलेस्सा (मंदतवलेसा) चित्तंतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेस्साहिं कूडाइव ठाणट्ठिताते पदेसे सव्वतो समंता ओभासंति, उज्जोवें ति, तति, पभासेंति, ता तेसिंणं देवाणं जाहे इंदा चयंति
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________________ जोइसिय 1597 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय से कहमिदाणिं पकरेंति, ताजाव चत्तारि पंच सामाणिया देवा तं ठाणं तहेव० जाव छम्मासे / ''ता बहिया ण' इत्यादि प्रश्नसूत्रामिद प्राग्वव्याख्येयम्। भगवानाह - "ता ते णं'' इत्यादि / 'ता' इति पूर्ववत् / ते मनुष्यक्षेत्राद् बहिर्वर्तिनश्चन्द्राऽऽदयो देवा नोझैपपन्नाः, नापि कल्पोपन्नाः, किं तु विमानोपपन्नाः। तथा नो चारोपपन्नाश्चारयुक्ताः, किंतु चारस्थितिकाः। अत एव नो गतिरतयो, नापि गति समापन्नकाः, पकेष्टकासंस्थानसंस्थितिभिर्योजनशतसाहसिकैरातपक्षेत्रौर्यथा पकेष्टका आयामतो दीर्घा भवति, विस्तारतस्तु स्तोका, चतुरस्रा च, तथा तेषामपि मनुष्यक्षेत्रावहिर्व्यवस्थितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राण्यायामतोऽनेकयोजनशत सहस्रप्रमाणानि, विस्तरत एकयोजनशतसहस्राणि, चतुरस्राणि चेति / तैरित्थंभूतैरातपक्षेत्रौः शतसाहस्रिकाभिरनेकसहससंख्याभिर्वाह्याभिः पर्षद्भिः, अत्रापि बहुवचनं व्यक्तयपेक्षया / महतेत्यादि पूर्ववत् / दिवि भवान् दिव्यान्, भोगभोगान् भोगार्हान् शब्दाऽऽदीन् भोगान्, भुञ्जाना विरहन्ति / कथंभूताः ? इत्याह शुभलेश्याः। एतच विशेषणं चन्द्रमसः प्रति, तेन नातिशीततेजसः, किं तु सुखोत्पादपरमलेश्याका इत्यर्थः / मन्दा लेश्या रश्मिसंघातो येषां ते तथा / कथंभूताश्चन्द्राऽऽ दित्याः ? इत्याह-चित्रान्तरलेश्याःचित्रामन्तरं लेश्या च येषां ते तथा / भावार्थश्चास्य पदस्य प्रागेवोपदर्शितः / तत इत्थंभूताश्चन्द्राऽऽदित्याः परस्परमवगाढाभि लेश्याभिः / तथाहि-चन्द्रमसा सूर्याणां च प्रत्येक लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणं, विस्तारश्चन्द्रसूर्याणां च सूचीपङ्क्तया व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशयोजनसहस्राणि। ततश्चन्द्रप्रभासंमिश्राः सूर्यप्रभाः, सूर्यप्रभासंमिश्राश्चन्द्रप्रभाः, इत्थं परस्परमवगाढाभिर्लेश्याभिः, कूटानि च पर्वतोपरि व्यवस्थितशिखराणीव स्थानस्थिता सदैव एकत्र स्थाने स्थिताः, तान् प्रदेशान् स्वस्वप्रत्यासन्नान् अवभासयन्ति, उद्योतयन्ति, तापयन्ति, प्रकाशयन्ति।" ता तेसिंण जाहे इंदे चयति' इत्यादि प्राग्वद् व्याख्येयम् / सू० प्र० 16 पाहु० / जी०। चं० प्र०। (24) संप्रति चन्द्रसूर्यायोंश्च्यवनोपपातौ वक्तव्याविति ततस्त द्विषयं प्रश्नसूत्रमाहता कइंते चवणोववाते आहिए ति वदेज्जा? तत्थ खलुइमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ। तत्थ एगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जंति, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-ता अणुमुहुत्तमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उववअंति, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु जहेव हेट्ठा तहेव० जाव ता एगे पुण एवमाहंसुता अणु ओसप्पिणीउस्सप्पिणीमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जंति, एगे एवमाहंसु / वयं पुण एवं वदामो-ता चंदिमसूरिया णं देवा महिड्डिया महाजुईया महाबला महाजसा महासोक्खा महाणुभावा वरवत्थमल्लधरा वरगंधधरा वराभरणधारी अव्वोच्छि-त्तिणयट्ठआए अण्णे चयंति, अण्णे उववजंति, आहिय त्ति वएज्जा। "ता कहं ते' इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। कथं केन प्रकारेण भगवन् ! | त्वया चन्द्राऽऽदीनां च्यवनोपपातौ व्याख्याताविति वदेत ? सूत्रो च द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात्। उक्तं च-"बहुवयणेण दुवयणं" इति। एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः प्रतिपत्तयः सन्ति तावतीरुपदर्शयति - "तत्थ'' इत्यादि / तत्रा च्यवनोपपातविषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः परतीर्थकाभ्युपगमरुपाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-"तत्थेगे' इत्यादि। तेषां पञ्चविंशतिपरतीर्थिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः- 'ता' इति / तेषां प्रथम स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थम्, अनुसमयमेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्च्यवन्ते च्यवमानाः, अन्ये अपूर्व उत्पद्यन्ते उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् / अत्रोपसंहारमाह - 'ता' एके एवमाहुः / एके पुनरेवमाह :-- अनु मुहूर्तमेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्च्यवन्ते च्यवमानाः, अन्येऽपूर्वा उत्पद्यन्ते उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत्। उपसंहारमाह - "एगे एवमाहसु जहा हिट्टा तहेव० जाव'' इत्यादि। एवमुक्तेन प्रकारेण यथा अधस्तात् षष्ठे प्राभृते ओजः संस्थिती चिन्त्यमानायां पञ्चविंशतिप्रतिपत्तय उक्तास्तथैवात्रापि वक्तव्याः / ता अणुओसप्पिणिउस्सप्पिणीमेव'' इत्यादि चरमसूत्राम् / ताश्चैव भणितव्याः - "एगे पुण एवमाहसु--ता अणुराइदियमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयंति, अन्ने उववजंति, आहिया इति वएजा, एगे एवमाहसु 3 / एगे पुण एवमासु-साणुपक्खमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयंति, अन्ने उववजंति, आहिया इति वएज्जा, एगे एवमाहंसु ४ाएगेपुणएवमाहंसु-ता अणुसमयमेव चदिमसूरिया अन्ने चयंति, अन्ने उववजंति, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहसु 5 / एगे पुण एवमाहंसु--ता अणुउउमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयंति, अन्ने उववजति, आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु६।एवंता अणुअयणमेव 7 / ता अणुसंवच्छरमेव च / ता अणुजुगमेव / ता अणुवाससयमेव 10 / ता अणुवाससहस्समेव 11 / ता अणुवाससयसहस्समेव 12 / ता अणुपुव्वमेव 13 / ता अणुपुव्वसयमेव 14 / ता अणुपुव्वसहस्समेव 15 / ता अणुपुव्वसयसहस्समेव 16 / ता अणुपलिओवममेव 17 / ता अणुपलिओवमसयमेव 18 | ता अणुपलिओवमसहस्समेव 16 / ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव 20 / ता अणुसागरोवममेव 21 / ता अणुसागरोवमसयमेव 22 ता अणुसागरोवमसहस्समेव 23 / ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव 24 / ' पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्षादेव सूत्रकृता दर्शितम्। तदेवमुक्ताः परतीर्थिकप्रत्तिपत्तयः। एताश्च सर्वा अपि मिथ्यारूपाः। तत एताभ्यः पृथग्भूतं स्वमतं भगवानुपदर्शयति - "वयं पुण'' इत्यादि / वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञाना एवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः / तमेव प्रकारमाह - "ता चंदिम'' इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् / चन्द्रसूर्याः, णमितिवाक्यालङ्कारे / देवा महर्द्धिकाः, महती ऋद्धिर्विमानपरिवाराऽऽदिका येषां ते तथा / तथा महती द्युतिः शरीराऽऽभरणाऽऽश्रिता येषां ते महाद्युतयः, तथा महद् बलं शारीरप्रमाणं येषां ते महाबलाः, तथा महद् विस्तीर्ण सर्वस्मिन्नपि जगति, विस्तृतत्वाद् यशः, श्लाघा येषां ते महायशसः। तथा महान् भवनपतिव्यन्तरेभ्योऽतिप्रभूत, तदपेक्षया तेषां प्रशान्तत्वात, सौख्यं येषां ते महासौख्याः तथा महान् अनुभावो वैक्रियकरणाऽऽदि विषयोऽचिन्त्यः शक्तिविशेषो येषां ते महानुभावाः / वरवस्त्रमाल्यधरा वरगन्धधरा वराऽऽभरणधरा अव्यवच्छिन्ननयार्थतया द्रव्यास्ति कनयमतेन कालं वक्ष्यमाणप्रमाणं स्वस्वा
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________________ जोइसिय 1568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय युर्व्यवच्छेदे, अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्च्यवन्ते श्च्यवमानाः, अन्ये तथा जगत्स्वाभाव्यात् षण्मासादारतो नियमत उत्पद्यन्ते उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः। सू० प्र०१७ पाहु०। (25) ता पुक्खरवरोदेणं समुद्दे केवतिया चंदा पभासेंसुवा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा पुच्छा तहेव? ता पुक्खर रोदे णं समुद्दे णं सखेज्जा चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा० जाव संखेज्जाओ तारागणकोडिकोडीओ ओभिंसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा / एतेणं अभिलावेणं वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुद्दे 4, खीरवरे दीवे खीरोदे समुद्दे 5, घतवरे दीवे घतोदे समुद्दे ६,खोतवरे दीवे खोतोदे समुद्दे 7, णंदिस्सरवरे दीवे णंदिस्सरवरे समुद्दे 8, अरुणे दीये अरुणोदे समुद्दे E, अरुणवरे दीवे अरुणवरे समुद्दे 10, अरुणवरोवभासे दीवे अरुणवरोवभासे समुद्दे 11, कुंडले दीवे कुंडलोदे समुद्दे 12, कुंडलवरे दीवे कुंडलवरोदे समुद्दे 13, कुंडलवरोवभासे दीवे कुंडलवरोवभासे समुद्दे 14, सव्वेसिं विक्खंभपरिक्खेवजोति साइं पुक्खरोदसागरमरिसाई। 'सव्वेसिं" इत्यादि / सर्वेषामुक्तस्वरूपाणां द्वीपसमुद्राणामन्यत् कुण्डलवरावभाससमुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भपरिक्षेपज्योतिषाणि पुष्करोदसागरसदृशानि च वक्तव्यानि, सङ्ख्येययो जनप्रमाणे विष्कम्भः, सख्येययोजनप्रमाणः परिक्षेपः, सङ्ख्येयाश्चन्द्राऽऽदयो वक्तव्या इत्यर्थः / सू० प्र०१६ पाहु०। च० प्र०। ता रुयगे णंदीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा पुच्छा? तारुयगेणं असंखेजाईचंदापभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा० जाव असंखेज्जाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभिंसु वा, सो भंति वा, सोभिस्संति वा, एवं रुयगे समुद्दे, रुयगवरे दीवे, रुयगवरोदे समुद्दे, रुयगवरोवभासे दीवे, रुयगवरोवभासे समुद्दे, एवं तिपडोवयारां तव्या० जाव सूरे दीवे, सूरोदे समुद्दे, सूरवरे दीवे, सूरवरे समुद्दे, सूरवरोवभासे दीवे, सूरवरोवभासे समुद्दे, सव्वे सिं विक्खं भपरिक्खे वज्जोतिसाई रुयगवरदीवसरि साई॥ "सव्वेसिं" इत्यादि / सर्वेषां रुचकसमुद्राऽऽदीनां सूर्यवरावभाससमुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भपरिक्षेपज्योतिषाणि रुचकद्वीपसदृशानि वक्तव्यानि, असंख्येयोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽसंख्येययोजनप्रमाणः परिक्षेपोऽसंख्येयाः प्रत्येकं चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारका वक्तव्या इति भावः / सू०प्र०१६ पाहु०। चं० प्र०॥ ता देवे णं दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा पुच्छा तहेव? ता देवेणं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासेंसुवा, पभासंतिवा, पभासिस्संति वा. जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ सोमं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोमिस्संति वा / एवं देवोद समुद्दे, णागे दीवे, गागोदे समुद्दे, जक्खे दीवे, उक्खोदे समुद्दे, भूते दीये, भूतोदे समुद्दे, | सयंभूरमणे दीवे, सयंभूरमणे समुद्दे सव्व देवदीवसरिसा। सृ० प्र०१६ पा०। चं०प्र०। जी०। (26) चन्द्रसूर्ययोः परिवारो यथाएगमेगस्स णं भंते ! चंदिमसूरियस्स के वतिओ णक्खत्त परिवारो पण्णत्तो ? केवतिओ महग्गहपरिवारो पण्णत्तो ? के वतिओ तारागणकोडाकोडीओ परिवारो पण्णत्तो ? गोयमा ! एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स"अट्ठास इंच गद्दा, अट्ठावीसंच होइणक्खत्ता। एगमसीपरिवारो, एत्तो तारागणं वोच्छं / / 1 / / छावट्ठिसहस्साई,णव चेव सयाइँ पंचसयराइं। एगमसीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं" ||2|| "एगमेगस्सणं भंते ! चंदिमसूरियरस'' इत्यादि। एकैकस्थ भदन्त ! चन्द्रसूर्यस्य, अनेन च पदेन यथा नक्षत्राऽऽदीनां चन्द्रः स्वामी, तथा सूर्योऽपि, तस्याऽपीन्द्रत्वादिति ख्यापयन्ति / कियन्ति नक्षत्राणि परिवाराः प्रज्ञप्तः ? कियन्तो महाग्रहा अङ्गारकाऽऽदयः परिवारः प्रज्ञप्तः ? कियत्यस्तारागणकोटीकोठ्यः परिवारः प्रज्ञप्तः ? इह भूयान् पुस्तकेषु वाचनाभेदो, गलितानि च सूत्राणि बहुषु पुस्तकेषु, ततो यथाऽवस्थितवाचनाभेदप्रतिपत्यर्थ गलितसूत्रोद्धरणार्थ चैचं सुगमान्यपि विवियन्ते। भगवानाह- गौतम ! एकैकस्य चन्द्रसूर्यस्य अष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः, अष्टाशीतिर्महाग्रहाः परिवारः प्रज्ञप्तः। "छावट्टिसहस्साई" इति गाथा। षट्षष्टिः सहस्राणि नव चैव शतानि पञ्चसप्तानि एकशशिपरिवारः तारागणकोटीकोटीनाम्, कोटीकोटीति कोटय एवं संज्ञा, ततस्तारागणकोटीनामिति द्रष्टव्यम्। जी०३ प्रति०१ उ०। एते च यद्यपि चन्द्रस्यैव परिवारोऽन्या श्रूयन्ते, तथापि सूर्यस्यापीन्द्वत्वादेत एव परिवारतयाऽवसेया इति / स०५८ सम० 1 मं०। सू० प्र०। (27) कीदृशश्चन्द्राऽऽदीनामनुभाव इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते अणुभावे आहिते ति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ। तत्थ एगे एवमाहंसुताचंदिमसूरिया णं णो जीवा, अजीवा, णोघणा, झुसिरा, बादरवोंदिधरा, कलेवरा नत्थि णं तेसिं उट्ठाणे ति वा कमे ति वा बले ति वा विरिए ति वा पुरिसक्कारपरक्कमे तिवा, ते णो विजं लवंति, णो असणिं लवंति, णो थणितं लवंति, अहे यणं बादरे वाउक्काए समुच्छति, अहे य णं बादरे वाउक्काए समुच्छिता विज्छु पि लवंति, असणिं पिलवंति, थणितं पिलबंति, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसुता चंदिमसूरियाणं जीवा, णो अजीवा,घणा, णो सूसिरा बादर बुंदिधरा, नो कलेवरा अस्थि णं तेसिं उट्ठाणे ति वा कमेति वा बले ति वा विरिए ति वा पुरिसक्कारपरक्कमे ति वा, ते पि विज्जु पिलवंति, असणिं पि लवंति, थणियं पि लवंति, एगे एवमाहंसु / वयं पुण एवं वदामो-ता चंदिमसूरिया णं देवा महिड्डिया० जाव महाणुभावा वरवत्थधरा वरमल्लधरा वराभरणधारी अव्योच्छित्तिणयट्ठताए अन्ने चयंति, अणे उववजंति।
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________________ जोइसिय 1566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय "ता कहं ते' इत्यादि / 'ता' इति पूर्ववत् / कथं केन प्रकारेण चन्द्राऽऽदीनामनुभावः स्वरूपविशेष आख्यात इति वदेत् ? एवमुक्ते भगवानाह - एतद्विषये द्वे प्रतिपत्ति / ते उपदर्शयात - "तत्थ खलु'' इत्यादि / तत्र चन्द्राऽऽदीनामनुभावविषये खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती परतीर्थिकाभ्युपगमरूपे प्रज्ञप्ते। तद्यथा-"तत्थेगे'' इत्यादि। तत्रा तेषां द्वयानां परतीर्थिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः- (ता इति) तेषां परतीर्थिकानां प्रथमं स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थ | चन्द्रसूर्याः, णमितिवाक्यालङ्कारः, नो जीवा जीवरूपाः, किं त्वजीवाः। तथा नो घनानि निविडप्रदेशोपचमाः, किं तु शुषिराः / तथा बादरवोन्दिरधराः प्रधानसुजीवसुव्यक्तावयवशरीरोपेताः, किं तु कलेवराः कलेवरमात्रास्तथा नास्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे, तेषां चन्द्राऽऽदीनाम्, उत्थानमूर्तीभवनम्, इतिरुपदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, समुचये वा। कर्म उतक्षेपणावक्षेपणादि, बलं शारीरप्रमाण, वीर्यमान्तरोत्साहः, (पुरिसक्कारपरक्कमे इति) पुरुषकारः पौरुषाभिमानः, पराक्रमः स एवासाधिताभिमतप्रयोजनः / पुरुषकारश्च पराक्रमश्च पुरुषकारपराक्रममिति। वाशब्दः सर्वत्रापि पूर्ववत्। तथा ते चन्द्राऽऽदित्याः (नो विजुयं लवंति ति) न विद्युतं प्रवर्त्तयन्ति, नाप्यवशनि विद्युद्विशेषरूपं, नापि गर्जितं मेघध्वनि, किं तु ''अहे णं' इत्यादि / चन्द्राऽऽ दित्याऽऽदीनामधो, णमिति पूर्ववत् / बादरो वायुकायिकः संमूर्च्छति, अधश्च बादरो वायुकायिकाः संमूच्छर्य, (विजु पिलवइत्ति) विद्युतमपि प्रवर्तयन्ति, अशनिमपि प्रवर्तयन्ति, गर्जितमपि प्रवर्तयन्ति, विद्युदादिरूपेण परिणमन्ति इति भावः / अत्रोपसंहारमाह - (एगे एवमाहसु)१। एके पुनरेवमाहुः-'ता' इति प्राग्वत्। चन्द्रसूर्याः, णमिति वाक्यालङ्कारे, जीवा जीवरूपाः, न पुनरजीवाः, यथाऽऽहुः परतीर्थिकाः, तथा घनाः, न शुषिराः, तथा बादरवोन्दिधराः, न कलेवरमात्राः, तथा अस्ति तेषाम्, "उट्ठाणे इति वा' इत्यादि पूर्ववत् व्याख्येयम् / (ते वि विजु पि लवंति) विद्युतमपि प्रवर्त्तयन्ति, अशनिमपि प्रवर्त्तयन्ति, गर्जितमपि प्रवर्तयन्ति। किमुक्तं भवति ? विद्युदादिक सर्वचन्द्राऽऽदित्याः प्रवर्तन्त इति। अत्रोपसंहारमाह-(एगे एवमाहंसु)२॥ एवं परतीर्थिकप्रतिपत्तिद्वयमुपदी संप्रति भगवान् स्वमतं कथयति - "वयं पुण'' इत्यादि। वयं पुनरेवं वदामः / कथं वदथ? इत्याह - 'ता' इति पूर्ववत्, चन्द्रसूर्याः, णमिति वाक्यालाङ्कारे, देवा देवस्वरूपाः, न सामान्यतो जीवमात्राः / कथंभूतास्ते देवाः ? इत्याह-महर्द्धिकाः महती ऋद्धिर्विमानपरिवाराऽऽदिका येषां ते तया (०जाव महाणुभावा इति) यावत्करणात् - ''महज्जुइया महाबला महाजसा महेसक्खा'' इति द्रष्टव्यम् / तत्र महती द्युतिः शरीरा ऽऽभरणविषया येषां ते महाद्युतयः। तथा महद् बलं शारीरप्रमाणं येषां ते महाबलाः, तथा महद् यशः ख्यातिर्येषां ते महायशसः, तथा महेश इति महान् इश ईश्वर इत्याख्या येषां ते महेशाख्याः / क्वचित्, "महासोक्खा' इति पाठः / तत्र महत्सौख्यं येषां ते महासौख्याः / तथा महाननुभावो विशिष्टवैक्रियकरणाऽऽदिविषया अचिन्त्या शक्तिर्येषां ते महानुभावाः, वरवस्वधराः वरमाल्यधरा वराभरणधारिणः, अव्यवच्छित्तिनयार्थतया द्रव्यास्तिकनयमतेन, अन्ये पूर्वोत्पन्ना स्वायुःक्षयं व्यवन्ते, अन्ये तूत्पद्यन्ते। सू० प्र०२०पाहु०। (ज्योतिष्काणां कामभोगौ कामभोग' शब्दे तृतीयभागे 442 पृष्ठे द्रष्टव्यौ) (28) संप्रति चन्द्रसूर्ययोः संस्थानमभिधिस्तुः क्रबं श्वेततायाः संस्थितिराख्यातेति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रामाहता कहं ते सेअआए संठिती आहिता ति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमा दुविहा संठिती पण्णत्ता। तं जहा-चंदिमसुरियसंठिती,य तावक्खेत्तठितीय।ता कहं ते चंदिमसूरियासंठिती आहिता ति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमातो सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ। तत्थेगे च एवमाहंसु-ता समचउरं ससंठिता चंदिमसूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 1 / एगे पुण एवमाहंसु-ता विसमचउरं ससंठिता चंदिमसूरियसंठिती पन्नत्ता / एवं समचउक्कोणसंठिता 3 विसमचउक्कोणसंठिया 4 समचकवालसंठिता 5 विसमचकवालसंठिता 6 चक्कद्दूचक्कवालसंठिता, एगे एवमाहंसु 7 / एगे पुण एवमाहंसु-ताछत्तागारसंठिता चंदिमसूरियसंठिती पण्णत्ता 8, गेहसंठिता 6, गेहावणसंठिता 10, पासादसंठिता 11 गोपुरसंठिया 12 पेच्छाघरसंठिता 13 वलभीसंठिता 14 हम्मियतलसंठिता 15 बालग्गपोत्तियासंठिता चंदिमसूरियसंठिती पण्णत्ता 16 / तत्थ जे ते एवमाहंसु -ता समचउरंससंठिता चंदिमसूरियंठिती पण्णत्ता, एतेणं णएणं णेतव्या, णो चेवणं इतरेहिं। "ता कहं ते सेअआए संठिई आहिया ति वदेजा?" 'ता' इति पूर्ववत् / कथं भगवन् ! त्वया श्वेततायाः संस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् ? एवं भगवता गौतमेनोक्ते वर्द्धमानस्वामी भगवानाह- "तत्थ" इत्यादि। तत्र श्वेतताया विषये खल्वियं वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा संस्थितिः प्रज्ञप्ता। तामेव तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति। तद्यथेत्यत्रा तच्छन्दोऽव्ययम्। ततोऽयमर्थः- सा श्वेतता यथा येन प्रकारेण द्विविधा भवति तथोपदय॑ते - चन्द्रसूर्यसंस्थितिस्तापक्षेत्रसंस्थितिश्च / इह श्वेतता चन्द्रसूर्यविमानानामपि विद्यते, तत्कृततापक्षेत्रस्य च, ततः श्वेततायोगादुभयमपि श्वेतताशब्देनोच्यते / तेनोक्तप्रकारेण श्वेतता द्विविधा भवति / तत्र चन्द्रसूर्यसंस्थितिविषये प्रश्नयति- "ता कहं ते " इत्यादि। 'ता' इति प्राग्वत्। कथं ते त्वया भगवन् ! चन्द्रसूर्यसंस्थितिराख्याता इति वदेत् ? इह चन्द्रसूर्यविमानाना संस्थानरूपा संस्थितिः प्रागेवाभिहिता, तत इह चन्द्रसूर्याणा संस्थितिश्चतुर्णामपि अवस्थानरूपा द्रष्टव्या / एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः परतीथिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति - "तत्थ" इत्यादि। तत्रा चन्द्रसूर्यसंस्थितौ विचार्यमाणायां खल्विमाः षोडश प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-एके वादिन एवमाहु :समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता। समचतुरस्र संस्थितं संस्थान यस्याश्चन्द्रसूर्यसंस्थितेः सा तथा। अौवोपसंहार वाक्यमाह - ''एगे एवमाहसु 1" / एवं सर्वत्रापि प्रत्येकमुपसंहारवाक्यं द्रष्टव्यम्। एकेपुनरेवमाहुः-विषमचतुरस्त्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यस्थितिराख्याता / अत्रापि विषमचतुरस्र संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः 2 / (एवं समचउक्कोणसंठिय त्ति) एवमुक्तेन प्रकारेणापरेषामभिप्रायेण समचतुष्कोणसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वक्तव्या। सा चैवम् 'एग पुण एवमाहसुसमचउकोणसंठिया चेदिमसुरियसठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु।"
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________________ जोइसिय 1600 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जोइसिय अत्रा (समचउकोणसंठिय त्ति) समाश्चत्वारः कोणा यत्रा तत् समचतुष्कोणं, समचतुष्कोण संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः 3 / (विसमचउक्कोणसं ठिय त्ति) विषमाश्चत्वारः कोणा यत्र तद्विषमचतुष्कोणं, तत्संस्थितं संस्थानं यस्याः चन्द्रसूर्यसंस्थितेः सा | तथा, अन्येषमभिप्रायेण वक्तव्या। सा चैवम् - "एगे पुण एवमाहंसुविसमचउक्कोणसंठिया चंदमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु" 4 / (समचक्कवालसठिय त्ति) समचक्रवालं समचक्रवालरूपं संस्थितं संस्थान यस्याः सा तथा / अपरेषामभिप्रायेण चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वक्तव्या। सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसुसमचक्षवालसंठिया चंदिसूरियसंठिईपण्णत्ता, एणे एवमाहंसु" 5 / (विसमचक्कवालसंठिय त्ति) विषमचक्रवालं विषमचक्रवालरूपं संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा। अन्येषां मतेन चन्द्रसूर्य संस्थितिर्वक्तव्या।सा चैवम् - "एगे पुण एवमाहंसुविसमचक्कवालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु' 6 / (चक्कनचक्कवालसंठिय त्ति) चक्रस्य रथाङ्गस्य यदर्द्धचक्रवालं चक्रवालस्यार्द्ध तद्रूपं संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या। सा चैवम् - "एगे पुण एवमासु चक्कद्धचक्कवालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु"७। “एगे पुण'' इत्यादि। एके पुनराहु :-छत्राऽऽकारसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता। अत्रैवोपसंहार :- ''एगे एवमाहंसु" 8 / (गेहसंठियत्ति) गेहस्येव वास्तुविद्योपनि बद्धस्येव संस्थितं संस्थान यस्याः सा तथा। अपरेषां मतेन चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वक्तव्या। सा चैवम्"एगे पुण एवमाहंसु गेहसंठिया चंदमसूरिसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु" 6 / (गेहावणसंठिय ति) गृहयुक्त आपणो गृहाऽऽपणो वास्तुविद्या प्रसिद्धः, तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा। अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या। सा चैवम् - "एणेपुण एवमाहंसुगेहावणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु" 10 / (पासायसंठिय त्ति) प्रासादस्येव संस्थितं संस्थान यस्याः सा तथा, अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या। सा चैवम् "एगे पुण एवमाहंसु पासायसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु“११ / (गोपुरसंठिय त्ति) गोपुरस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, अन्येषां मतेनाभिधातव्या / सा चैवम् - “एगे पुण एवमाहंसु - गोपुरसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एणे एवमाहसु' 12 / (पेच्छाघरसंठिय त्ति) प्रेक्षागृहस्येव वास्तुविद्याप्रसिद्धस्य संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, अपरेषां मतेनाभिधातव्या। तद्यथा- "एगे पुण एवमाहंसु पिच्छाघरसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु' 13 (बलभीसंठिय ति) वलभ्या इव ग्रहाणामाच्छादनस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा / अन्येषां मतेनाभिधातव्या / साचैवम् - "एगे पुण एवमाहंसु-- वेलभीसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु" 14 / (हम्मियतलसंठियत्ति) हयं धनवतां गृहं, तस्य तलमुपरितनो भागस्तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या। सा चैवम् - “एगे पुण एवमासुहम्मियतलसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु 15 (बालग्गपोत्तियासंठियत्ति) बालाग्रपोतिकाशब्दो देशीशब्दत्वादाकाशे तडागमध्ये व्यवस्थितक्रीडास्थानलघुप्रासादमाह, तस्या इव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, अपरेषां मतेन | अभिधानीया / तद्यथा - "एगे पुण एवमाहंसु बालग्गपोत्तियासंठिया चदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 16 / तदेवमुक्ताः परतीथिकानां प्रतिपत्तयः, एतासां च मध्ये या प्रतिपत्तिः समीचीना तामुपदर्शयति- "तत्थ" इत्यादि। तत्रा तेषां षोडशानां परतीथिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहु :- समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता इति, एतेन नयेन नेतव्यम् -एतेनाभिप्रायेणास्मिन्मतेऽपि चन्द्रसूर्यसंस्थितिरव-धायेंति भावः। तथाहि-इह सर्वेऽपि कालविशेषाः सुषमाऽऽदयो युगमूला युगस्य वा चाऽऽदौ श्रावणे मासि बहुलपक्षप्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि वर्त्तते, तद् द्वितीयस्त्वपरोत्तरस्याम्, चन्द्रमा अपि तत्समये एको दक्षिणापरस्यां दिशि वर्त्तते, द्वितीय उत्तरपूर्वस्याम्, अत एते युगस्याऽऽदी चन्द्रसूर्याः समचतुरससंस्थिता वर्तन्ते, यत्वत्रा मण्डलकृतं वैषम्य, यथा-सूर्यो सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तेते, चन्द्रमसौसर्वबाह्ये इति तदल्पमिति कृत्वान विवक्ष्यते। तदेवं यतः सकलकालविशेषाणां सुषमसुषमाऽऽदिरूपाणामादिभूतस्य युगस्याऽऽदौ समचतुरस्रसंस्थिताः सूर्याचन्द्रमसौ भवन्ति, ततस्तेषां संस्थितिः समचतुरस्त्रसंस्थानोपवर्णिता, अन्यथा वा संप्रदाय समचतुर ससंस्थितिः परिभावनीयेति। (नो चेवणं इयरेहिं ति) नो चैवनैव, इतरैः शेषेर्नयैश्चन्द्रसूर्यसंस्थितितिव्या, तेषां मिथ्या रूपत्वात्। तदेवमुक्ता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः / सू० प्र०४ पाहु० / चं० प्र० / जं०। जी० / (चन्द्रधिमानाऽऽदीनां संस्थानाऽऽदि 'जोइसियविमाण' शब्देऽग्रे वक्ष्यते) (26) संप्रति चन्द्राऽऽदित्यचारा वक्तव्या इति, ततस्तद्विषय प्रश्नसूत्रमाहता कहं ते चारा अहिता ति वदेजा ? तत्थ खलु इमा दुविहा चारा पण्णत्ता / तं जहा-आदिचचारा य, चंद चारा य। "ता कह ते'' इत्यादि / 'ता' इति पूर्ववत्, कथं केन प्रकारेण किंप्रमाणया संख्यया ? इत्यर्थः / चारा आख्याता इति वदेत् ? भगवानाह - "तत्थ'' इत्यादि। ता चारविचारविषये खल्विमे वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा द्विप्रकाराश्चाराः प्रज्ञप्ताः / द्वैविध्यमेवाह - तद्यथाआदित्यचाराश्चन्द्रचाराश्च / चशब्दौ परस्परसमुच्चये। तत्र प्रथमतश्चन्द्रचारपरिज्ञानार्थं तद्विषयं प्रश्नसूत्रामाहता कहं ते चंदचारा आहिते ति वदेञ्जा? तापंचसंवच्छरिए णं जुगे अभिइणक्खत्ते सत्तसहिचारे चंदेण सद्धिा जोयं जोएंति। "ता कह ते' इत्यादि। 'ता' इति प्राग्वत्, कथं केन प्रकारेण, कया संख्यया ? इत्यर्थः / त्वया भगवन् / चन्द्रचारा आख्याता इति वदेत् ? भगवानाह - "ता पंच'' इत्यादि। पञ्चसांवत्सरिके चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितचन्द्राभिवद्धितरूप पञ्चसंवत्सरप्रमाणे, णमिति वाक्यालङ्कारे, युगेऽभिजिन्नक्षत्र सप्तषष्टिचारान् यावत् चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति योगमुपपद्यते / किमुक्तं भवति ? चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रोण सह संयुक्तो युगमध्ये सप्तषष्टिसंख्यान् चारान् चरतीति। कथमेतदवसीयते इति चेत् ? उच्यते - इह योगमधिकृत्य सकलनक्षत्रामण्डली परिसभाप्तिरेकेन नक्षत्रामासेन भवति, नक्षत्रामासाश्च युगमध्ये सप्तषष्टिः एतच्चाने भाव--
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________________ जोइसिय 1601 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय mom-mm यिष्यते। ततः प्रतिनक्षत्रपर्यायमेकैकं चारमभिजिता नक्षत्रेण सह चन्द्रस्य दसजो-यणसहस्साइं सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं अद्धएकारस चंदे, एगे योगसंभवादुपपद्यते चन्द्रोऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तो युगमध्ये एवमाहंसु 10 / एगे पुण एवमाहंसु-एकारसजोयणसहस्साई सूरे सप्तषष्टिसंख्यान् चारान चरतीति। एवं प्रतिनक्षत्रं भाव-नीयम्। उड्ढे उच्चत्तेणं अद्धवारस चंदे, एगे एवमाहंसु 11 / एतेणं संप्रत्यादित्यचारविषयं प्रश्नसूत्रमाह - अभिलावेणं णेतव्वं वारस सूरे अद्धतेरस चंदे 12 / तेरस सूरे अद्धचोद्दस चंदे 13 / चोद्दस सूरे अद्धपण्णरस चंदे 14 / पण्णरस ता कहं ते आइचचारा आहिते ति वदेजा? तापंचसंवच्छरिए सूरे अद्धसोलस चंदे 15 / सोलस सूरे अद्धसत्तरस चंदे 16 / णं जुगे अभिईणक्खत्ते पंच चारे सूरेण सद्धिं नोयं जोएति, एवं० सत्त-रस सूरे अद्धअट्ठारस चंदे 17 / अट्ठारस सूरे अद्धएगुणवीसं जाव उत्तरासाढाणक्खत्ते पंच चारे सूरेण जोयं जोएति।। चंदे 18 / एगुणवीसं सूरे अद्धवीसं चंदे 16 / वीसं सूरे " ता कहं ते " इत्यादि।' ता ' इति प्राग्वत् / कथं किंप्रमाणया अद्धएगवीसं चंदे 20 / एगवीसं सूरे अद्धवावीसं चंदे 21 / वावीसं संख्यया भगवन् ! त्वया आदित्यचारा आख्याता इति वदेत् ? भ- सूरे अद्ध-तेवीसं चंदे 22 / तेवीसं सूरे अद्धचउवीसं चंदे 23 / गवानाह- " त्ता पंचसंवच्छरिए णं " इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत्। चउवीसं सूरे अद्धपणवीसं चंदे, एगे एवमाहंसु 24 / एगे पुण पक्षसांवत्सरिके चन्द्राऽऽदिपञ्चसंवत्सरप्रमाणे, युगे युगमध्ये, एवमाहंसु-पणवीसं जोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं अभिजिन्नक्षत्र पञ्च चारान् यावत् सूर्वेण सह योग युनक्ति / अत्राप्ययं अद्धछव्वीसं चंदे, एगे एवमाहंसु 25 / वयं पुण एवं वदामो-ता भावार्थ:-अभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तः सूर्यो युगमध्ये पञ्चसंख्यान् इमीसे रयणप्प-भाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ चारान् चरति। कथमेतदवगम्यते इति चेत् ? उच्यते-इह योगमधिकृत्य सत्तणउए जोय-णसए उड्डे उप्पतित्ता हेडिल्ले तारविमाणे चार सूर्यस्य सकलनक्षत्रमण्डलीपरिसमाप्तिरेकेन सूर्यसंवत्सरेण। सूर्यसंव- चरति, अट्ठजो-यणसए उड्ड उप्पतित्ता सूरविमाणे चारं चरति, त्सराश्च युगे भवन्ति पञ्च / ततः प्रतिनक्षत्रपर्यायमेकैकचारमभिजिता अट्ठअसीईए जोयणसए उर्दु उप्पतित्ता चंदविमाणे चारं चरति, नक्षत्रेण सह योगस्य संभवाघटते अभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तः सूर्यो णवजोय-णसताई उद्धं उप्पतित्ता उवरि तारविमाणे चारं चरति, युगे पञ्च चारान् चरतीति। एवं शेषनक्षत्रेष्वपि भावना भावनीया। सू० प्र० / हेट्ठि-ल्लाओ तारविमाणाओ दस जोयणाई उद्धं उप्पतित्ता सूर१८ पाहु०। विमाणे चारं चरति, नवउत्तिजोयणाई उड्ढे उप्पतित्ता चंद(३०) संप्रति चन्द्रसूर्याऽऽदीनां भूमेरुद्धमुचत्वप्रमाण विमाणे चारं चरति, दसुत्तरं जोयणसतं उद्धं उप्पतित्ता उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति, ता सुरविमाणातो असीतिजोयणाई उड्ढे वक्तव्यमिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह उप्पतित्ता चंदविमाणे चारं चरति, जोयणसतं उद्धं उप्पतित्ता ता कहं ते उच्चत्ते आहिते ति वदेजा ? तत्थ खलु इमाओ उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति, ता चंदविमाणाओ णं वीसं पणवीसं पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ। तत्थेगे एवमाहंसु-ता एगं जोयणाई उड्डे उप्पतित्ता उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति। एवाजोयणसहस्सं सूरे उड्ढ उच्चत्तेणं दिवढं चंदे, एगे एवमाहंसु 1 / मेव सपुव्यावरेणं दसुत्तरजोयणसतं वाहल्ले तिरियमसंखेजे एगे पुण एवमाहंसु-ता दो जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं जोतिसविसए जोतिसं चारं चरति आहिते ति वदेजा। अड्डाइजाई चंदे, एगे एवमाहंसु 21 एगे पूण एवमाहंसु-ता तिन्नि " ता कहं ते " इत्यादि।" ता " इति पूर्ववत् / कथं केन प्रका-रेण जोयणसहस्साई सरे उ8 उच्चत्तेणं अद्भुट्ठाईचंदे, एगे एवमाहंसु भगवन् ! त्वया भूमेरुर्ध्वं चन्द्राऽऽदीनामुच्चत्वमाख्यातमिति वदेत् ? एवं 3. एगे पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि जोयणसहस्साइं सूरे उठें प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-" उग्रत्तेणं अद्धपंचमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु 4 / एगे पुण एवमाहंसु ता तत्थ " इत्यादि / तत्र उच्चत्वविषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः ता पंचजोयणसहस्साई सूरे उड्डे उच्चत्तेणं अद्धछट्ठाई चंदे, एगे पञ्चविंशतिप्रतिपत्तयः परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः।ताएव" तत्थेगे एवमाहंसु 5 / एगे पुण एवमाहंसु-ता छजोयणसहस्साई सूरे | " इत्यादिना दर्शयति / तत्रैतेषां पञ्चविंशतिपरतीथिकानां मध्ये एके उद्धं उच्चत्तेणं अद्धसत्तमाए चंदे, एगे एवमाहंसु 6 / एगे पुण एवं परतीर्थिका एवमाहुः-'ता' इति पूर्ववत्। एकयोजनसहसं भूमेरूद्ध माहंसु-ता सत्तजोयणसहस्साइं सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं अट्ठमाई / चन्द्रः / किमुक्तं भवति ? भूमेरूर्द्ध योजनसहने गतेऽत्रान्तरे सूर्यो चंदे, एगे एवमाहंसु 7 / एगे पुण एवमाहंसु-ता अट्ठजोयणसह- व्यवस्थितः, सार्द्ध च योजनसहरगते चन्द्रः। सूत्रे च योजनसंख्यापदस्य स्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं अद्धनवमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु / / सूर्याऽऽदिपदस्य च तुल्याधिकरणत्वनिर्देशोऽभेदोपचारात् / यथा एगे पुण एवमाहंसु-ता नवजोयणसहस्साइं सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं पाटलिपुत्रादाजगृहं नवयोजनानीत्यादौ। एवमुत्तरेष्वपि सूत्रेषुभावनीयम्। अट्ठ-दसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-ता अत्रोप-सहारमाह-"एगे एवमाहंसु १"।एके पुनरेवमाहः- 'ता' इति
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________________ जोइसिय 1602 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोइसिय पूर्ववत् / द्वे योजनसहरो भूमेरू व सूर्यो व्यवस्थितः, अतृतीयानि योजनसहस्राणि चन्द्रः / अत्रोपसंहार- " एगे एवमाहंसु 2" / एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि / " एएणं " इत्यादि / एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन शेषप्रतिपत्तिगतमपि सूत्रजातं नेतव्यम् / तच्चै-वम"तिण्णि'' इत्यादि।" एगे पुण एवमाहंसुतिणि जोअणसहस्साइंसूरे उड़े उच्चत्तेणं अछुट्टाइं चंदे, एगे एवमहसु 3"!" ता चत्तारि " इत्यादि / " एगे पुण एवमाहसु-ता चत्तारि जोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं अद्धपंचमाइं चंदे, एगे एवभाहंसु 4" / " ता पंच'' इत्यादि।" एगे पुण एवमाहंसु-तापंच जोयणसहस्साई सूरे उ«उचत्तेणं अद्धछट्ठाईचंदे, एगे एवमाहंसु 5 / एवं छ सूरे अद्धसत्तमाई चंदे। एगे पुण एवमाहंसु-ता छजोयणसहस्साइंसूरे उड्डे उच्चत्तेणं अद्धसत्तमाईचंदे, एगे एवमाहंसु 6 / सत्त सूरे अट्ठमाई चंदे इति। एगे पुण एवमाहंसु-तासत्तजोयणसहस्साई सूरे उड़े उच्चत्तेणं अट्ठमाइ चंदे, एगे एवमाहंसु७। अट्टसूरे अद्धनवमाई चंदे इति / एगे पुण एवमाहंसुता अट्ठजोयणसहस्साइं सूरे उड्ढे उच्चत्तेण अद्धनवमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु / नव सूरे अद्धदसमाई चंदे इति। एगे पुण एवमाहंसु-ता नवजोयणसहस्साई सूरे उड्ढे, उचत्तेणं अद्धदसमाई चंदे, एगेएवमाहंसुहादससूरे अद्धएकारसाइचंदेइति। एगे पुण एवमाहंसुता दसजोयणसहस्साई सूरे उठेंउचत्तेणं अद्धएकारसाई चंदे, एगे एवमाहंसु 10 / एकारस सूरे अद्धवारसचंदे इति / एगे पुण एवमाहंसु-ता इक्कारसजोयणसहस्साई सूरे उद्धं उच्चत्तेणं अद्धवारस चंदे, एगे एवमाहंसु 11 / वारस सूरे अद्धतेरसमाइं चंदे इति, एगे पुण एवमासु-ता वारसजोयणसहस्साइं सूरे उडू उच्चत्तेणं अद्धतेरसमाई चंदे, एणे एवमाहंसु 12 / तेरस सूरे अद्धचउ-दसमाई चंदे इति / एगे पुण एवमाहंसु-ता तेरेसजोयणसहस्साई सूरे उड्ढउच्चत्तेणं अद्धचोइसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु 13 / चोइस सूरे अद्धपंचदसमाइं चंदे इति। एगे पुणएवमाहंसु-ता चोद्दसजोयणसहस्साई सूरे उड्ड उचत्तेणं अद्धपंचदसमाइं चंदे, एगे एवमा-हंसु 14 / पन्नरस सूरे अद्धसोलसमाई चंदे इति / एगे पुण एवमाहंसु-ता पण्णरसजोयणसहस्साइं सूरे उड्ड उच्चत्तेणं अद्धसोलसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु 15 / सोलस सूरे अद्धसत्तरसमाईचंदे इति। एगे पुण एवमाहंसुता सोलसजोयणसहस्साई सूरे उड्ड उच्चत्तेणं अद्ध-सत्तरसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु 16 / सत्तरसमाइं सूरे अट्ठारसमाई चंदे इति / एगे पुण एवमाहंसु-ता सत्तरसजोयणसहरसाइंसूरे उड्डे उच्चत्तेणं अट्ठारसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु 17 / अट्ठारस सूरे अद्ध-एगुणवीसमाइं चंदे इति। एगे पुण एवमाहंसु-ता अट्ठारसजोयण-सहस्साइं सूरे उड्डे उच्चत्तेणं अद्धएगुणवीसमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु 18 / एगुणवीसं सूरे अद्धवीसमाई चंदे इति / एगे पुण एवमाहंसु-ता एगुणवीसं जोयणसहस्साई सूरे उड्डे उच्चत्तेणं अद्धवीसमाइं चंद, एगे एवमाहंसु 16 / वीसं सूरे अद्धएगवीसमाई चंदे इति। एगे पुण एवमाहंसु-ता वीसंजोयणसहस्साई सूरे उड्डूंउच्चत्तेणं अद्धएग-वीसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु 20 / एगवीसं सूरे अद्धवावीसाई चंदे इति / एगे पुण एवमाहंसु-ता इकवीस जोयणसहस्साई सूरे उड़े अद्धवावीसमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु 21 / वावीस सूरे अद्धतेवीसमाई चंदे इति। एगे पुण एवमाहसु-ता वावीसं जोयणसहस्साइं सूरे उड्डु उन्मत्तेणं अद्धतेवीसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु 22 / तेवीसं सूरे अद्ध-घउवीसमाई चंदे इति। एगे पुण एवमाहसु-ता तेवीसंजोयणसह-स्साई सूरे उड्ढउच्चत्तेणं अद्धचउवीसमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु 23 1 चउवीसं सूरे अद्धपंचवीसमाई चंदे इति। एगे पुण एवमाहंसु-ता चउवीसंजोयणसहस्साईसूरे उर्द्धउच्चत्तेणं अद्धपंचवीसमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु 24 / पंचविंशतितमप्रतिपत्तिसूत्रंतु साक्षाद्दर्शयति-" एगे पुण एवमाहंसु-ता पणवीसं" इत्यादि। एतानि च सूत्राणि सुगमत्वात्स्वयं भावनीयानि। तदेवमुक्ताः परप्रतिपत्तयः / संप्रति स्वमतं भगवानुपदर्शयतिवयं पुनरुत्पन्नकेवलविदस्तु एवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः। तमेव प्रकारमाह-" ता इभीसे " इत्यादि।' ता 'इति पूर्ववत् / अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीया भूमिभागादूर्द्धव सप्तयोजनशतानि नवत्यधिकानि उत्प्लुत्य गत्वा, अत्रान्तरेऽधस्तनं ताराविमान चारं चरतिमण्डलगत्या परिभ्रमण प्रतिपद्यते, तथा अस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागादूर्द्धवमष्टौ योजनशतान्युत्प्लुत्यात्रान्तरे सूर्यविमानं चारं चरति। तथा अस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागादू मष्टौ योजनशतान्यशीत्यधिकानि उत्प्लुत्यात्रान्तरे चन्द्रविमानं चार चरति, तथा अस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागादूर्द्ध परिपूर्णानि नवयोजनशतान्युत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं ताराविमानं चारं चरति, अधस्तनात्ताराविमानादू दशयोजनान्युत्प्लुत्यात्रान्तरं सूर्यविमान चारं चरति / तत एवाधस्तनात् ताराविमानान्नवतियोजनान्यूर्द्धवमुत्प्लुत्यात्रान्तरे चन्द्रविमानं चारं चरति / तत एव सर्वाधस्तनाताराविमानाद्दशोत्तरं योजनशतमूवमुत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं ताराविमानं चार चरति।" ता सूरविमाणाओ " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। सूर्यविमा दूर्द्धमशीतियोजनशता-न्युत्प्लुत्यात्रान्तरे चन्द्रविमानं चार चरति, तस्मादेव सूर्यविमाना-दूर्ध्व योजनशतमुत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योतिश्चक्रं चारं चरति।" ता चंदविमाणाओ" इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। चन्द्रविमानादूर्ध्व विंशतियोजनशतानि उत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वो-परितनं ताराविमानं ज्योतिश्चक्रं चार चरति (एवामेवेत्यादि) एव-मेव उक्तेनैव प्रकारेण (सपुत्वावरेणं ति) सह पूर्वापरेण वर्त्तत इति सपूर्व, सपूर्व च तत् अपरं च सपूर्वापर, तेन पूर्वापरमीलनेनेत्यर्थः / दशोत्तरयोजनशतबाहल्येन / तथाहिसर्वाधस्तनात्तारारूपाद् ज्योतिश्चक्रादूर्द्ध दशभियोजनैः सूर्यविमानं, ततोऽप्यशीत्या योजनैश्चन्द्रविमानं, ततो विंशत्या सर्वोपरितनं तारारूप ज्योतिश्चक्रचारविषयस्य दशोत्तरं योजनशतं बाहल्य, तस्मिन् दशोत्तरे योजनशतबाहल्ये / पुनः कथंभूते ? इत्याह-तिर्यगसंख्येये योजनकोटाकोटीप्रमाणे ज्योतिर्विषये मनुष्यक्षेत्रविषयं ज्योतिश्चक्रं चार चरति, चारं चरन्मनुष्यक्षेत्राद् बहिः पुनरवस्थितमाख्यात इति वदेत्। सू० प्र० 18 पाहु० / चं० प्र०। जं०। जी०। धरणियलाउ समाओ, सत्त उनउएहिँजोयणसएहिं। हिट्ठिल्लो होइ तलो, सूरो पुण अट्ठहिँसएहिं / / 54 // अट्ठसए आसीए, चंदो तह चेव होइ उवरितले। एग दसुत्तरसयं, बाहल्लं जोइसस्स भवे / / 15 / / द०प०।
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________________ जोइसिय 1603 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय (31) देवसामर्थ्य प्रत्यासत्त्यैव ज्योतिष्कानधिकृत्याऽऽह - ता अत्थि णं चंदिमसूरियाणं देवाणं हिटुं पितारारूवा अणुं पि तुल्ला वि, समं पि तारारूवा अणुं पि तुल्ला वि, उप्पिं पि / तारारूवा अणुं पितुल्ला वि? ता अस्थि / ता कहं ते चंदिमसूरियाणं देवाणं हिट्ठ पि तारारूवा अणुं पि तुल्ला वि, समं पि तारारूवा अणुं पितुल्ला वि, उप्पिं पितारारूवा अणुं पितुल्ला वि? ता जहा जहा णं तेसि णं देवाणं तवणियबंभचेराई उस्सिताई भवंति, तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं भवति, तं अणुते वा तुल्लते वा, ता एवं खलु चंदिमसूरियाणं देवाणं हिटुं पि तारारूवा अणुं पितुल्ला वि।। " ता अत्थिणं'' इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत्। अस्त्येतद् भगवन् ! यदुत चन्द्रसूर्याणां देवानां (हिट्ठ पित्ति) क्षेत्रापेक्षया अधस्तना अपि तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा द्युतिविभवलेश्याऽऽदिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि लघवोऽपि, भवन्तीत्यर्थः / केचित्तुल्या अपि भवन्ति। तथा सममपि चन्द्रविमानैः सूर्यविमानैश्च क्षेत्रापेक्षया समश्रेण्याऽपि ये व्यवस्थितास्तारारूपास्ताराविनानाधिष्ठातारो देवाः, तेऽपि चन्द्रसूर्याणा देवानां द्युतिविभवाऽऽदिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि भवन्ति, केचित्तुल्या अपि, इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-(ता अस्थि त्ति) यदेतत् त्वया पृष्टं तत्सर्वं तथैवास्ति। एवमुक्ते पुनः प्रश्नयति- " ता कहं ते " इत्यादि सुगमम् / भगवानाह- "ता जह जहा " इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत् / यथा यथा / णमिति वाक्यालङ्कारे / तेषां देवानां तारारूपविमानाधिष्ठातृणां प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि उच्छ्रितानि उत्कटानि भवन्ति, तथा तथा तेषां देवानां तस्मिन् तारारूपविमानाधिष्टातृभावे एवं भवति, यथा-अणुत्वं वा, तुल्यत्वं वा ? किमुक्तं भवति?-यैः प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि मन्दानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृदेवभवमनुप्राप्ताश्चन्द्रसूर्येभ्यो देवेभ्यो द्युतिविभवाऽऽदिकमपेक्ष्य हीना भवन्ति, यैस्तु भवान्तरे तपोनियमब्रह्मचर्याणि अत्युत्कटान्यासेवितानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृरूपं देवत्वमनुप्राप्ता द्युतिविभवाऽऽदिकम - पेक्ष्य चन्द्रसूर्यदेवैः सह समाना भवन्ति / न चैतदनुपपन्नम् / दृश्यन्ते हि मनुष्यलो के ऽपि के चिजन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्रारभारा राजत्वमप्राप्ता अपि राज्ञा सह तुल्यातिविभवा इति। " ता एवं खलु" इत्यादि निगमनवाक्यं सुगमम् / सू० प्र०१८ पाहु० / चं० प्र० / जी०। ज०। (मन्दराद्यपेक्षया ज्योतिष्काणां चारः 'अबा हा' शब्दे प्रथमभागे 682 पृष्ठे प्ररूपितः) (32) ता जंबुद्दीवे णं दीवे कतरे णक्खत्ते सव्वभंतरिल्लं चारं चरति, कतरे णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरति, कयरे णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरति, कयरे णक्खत्ते सव्वहेविल्लं चारं चरति? अभिई णक्खत्ते सव्वभंतरिल्लं चारं चरति, मूले णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरति, सातीणक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरति, भरणीणक्खत्ते सव्वहेट्ठिल्लं चारं चरति। " ता जंबुद्दीवे णं दीवे कयरे नक्खत्ते " इत्यादि सुगमम् / नवर-म् , अभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलिकामपेक्ष्य, एवं मूला-ऽऽदीनि सर्वबाह्याऽऽदीनि वेदितव्यानि / सू० प्र० 18 पाहु० / उक्तं च-" सव्वभंतरभिइई, मूलो पुण सव्वबाहिरो भमइ। सव्वोवरिं च साई, भरणी पुण सव्वहिट्टिमया "|| 6E || द०प०। चं० प्र०। जी०। (33) चन्द्रः सूर्यो वा कियत्क्षेत्रं प्रकाशयतीति ततस्तद्विषय प्रश्नसूत्रमाहता केवतियं खेत्तं चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोति, तवेंति, पगासेंति, आहिता ति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ वारस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ। तत्थेगे एवमाहंसु-ता एगं दीवं एगं समुई चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोर्वेति, तवेंति, पगासेंति, एगे एवमाहंसु 1 / एगे पुण एवमाहंसु-ता तिण्णि दीवे तिण्णि समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पगासेंति, एगे एवमाहंसु 2 / एगे पुण एवमाहंसु-ता अद्धटे दीवे अद्भुढे संमुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोवेंति, तति, पगासेंति, एगे एवमाहंसु 3 / एगे पुण एवमाहंसु-ता सत्त दीवे सत्त समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पगासेंति एके, एगे एवमाहंसु 4 / एगे पुण एवमाहंसु-दस दीवे दस समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोवेंति, तति, पगासेंति एके, एगे एवमाहंसु 5 / एगे पुण एवमाहंसु-ता वारस दीवे वारस समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पगार्सेति एके, एगे एवमाहंसु 6 / एगे पुण एवमाहंसु-ता वायालीसं दीवे वायालीसं समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोर्वेति, तवेंति, पगासेंति एके, एगे एवमाहंसु 7 / एगे पुण एवमाहंसु-वावत्तरिं दीवे वावत्तरिं समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पगासेंति एके, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-ता वातालीसं दीवसतं वातालीसं समुद्दसतं चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोति, तति, पगासेंति एके, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-ता वावत्तरं दीवसतं वायत्तरिं चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पगासेंति एके, एगे एवमाहंसु 10 / एगे पुण एवमाहंसु-ता वायालीसं दीवसहस्सं वायालीसं समुदसहस्सं चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोर्वेति, तति, पगासेंति एके , एगे एवमाहंसु 11 / एगे पुण एवमाहंसु-ता वावत्तरि दीवसहस्सं वावत्तरि समुद्दसहस्सं चंदिमसूरिया ओभासंति, उनोवेंति, तवेंति, पगासेंति एके, एगे एवमाहंसु 12 / " ता के वइयं " इत्यादि / ' ता ' इति पूर्ववत् / कियत्क्षेत्रं, चन्द्रसूर्यबहुवचनं जम्बूद्वीपे चन्द्रद्वयस्य सूर्यद्वयस्य च भावात् / अवभासयन्ति, तत्रावभासो ज्ञानस्यापि प्रतिभासो व्यवह्रियते, अतस्तव्यवच्छेदार्थमाह-उद्द्योतयन्ति, स चोदद्योतो यद्यपि लो
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________________ जोइसिय 1604 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय के भेदेन प्रसिद्धो, यथा-सूर्यगत आतप इति, चन्द्रगतः प्रकाश इति, तथाप्यातपशब्दश्चन्द्रप्रभायामपि वर्तते / यदुक्तम्-" चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रातपः स्मृतः।" इति। प्रकाशशब्दः सूर्यप्रभायामपि, एतच प्रायो बहुनां सुप्रतीतं, तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थमुभवसाधारणं भूयोऽप्येकार्थिकद्यमाह-तापयन्ति प्रकाशयन्ति आख्याता इति / इहाऽऽर्षत्वात्तिवाद्यन्तपदेनापि सह नामपदस्य समन्वयो भवति। तत एवमर्थयोजना द्रष्टव्याकियत्क्षेत्रं चन्द्रसूर्या अवभासयन्त उद्द्योतय- / न्तस्तापयन्तः प्रकाशयन्त आख्याता भगवतेति भगवान् वदेत् ? एवं गौतमेनोक्ते भगवानेतद्विषयं परतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एवोन्यस्यति-"तत्थ "इत्यादि। तत्र चन्द्रसूर्याणां क्षेत्रावभासनविषये इमाः खलु द्वादश प्रतिपत्तयः परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-" तत्थ " इत्यादि / तत्र तस्या द्वादशानां परतीथिकानां मध्ये एक प्रथमास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः-एक द्वीपमेकं समुद्र चन्द्रसूर्यो अवभासयन्तौ, उद्द्योतयन्तौ, तापयन्ती, प्रकाशयन्तौ। सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात्। उक्तंच-"बहुवयणे दुवयणं' इत्यादि। द्विवचनं चात्र तात्त्विकमवसेयम् , परतीर्थिकैरेकस्य चन्द्रमस एकस्य च सूर्यस्याभ्युपगमात् / संप्रति अस्यैव प्रथममतस्योपसंहारमाह- (एगे एवमाहसु) एवं सर्वाण्युपसंहारवाक्यानि भावनीयानि। 1 / एके द्वितीयाः पुनरेवमाहुः-त्रीन द्वीपान् त्रीन् समुद्रान् चन्द्रसूर्यो, अवभासयत उद्योतयतस्तापयतः प्रकाशयत इति। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् शतद्यथाएके पुनस्तृतीया एवमाहुः-(अद्धढे इति) अर्द्ध चतुर्थ येषां ते अद्धचतुर्थाः, त्रयः परिपूर्णाश्चतुर्थस्य चार्द्धमित्यर्थः। अर्द्धचतुर्थान् द्वीपान्, अर्द्धचतुर्थान् समुद्रात् चन्द्रसूर्याववभासयत इत्यादि प्राग्वत्। 3 / एके चतु-र्थाः पुनरेवमाहुःसप्त द्वीपान् सप्त समुद्रान् चन्द्रसूर्यायवभासयतः / 4 / एके पुनः पञ्चमाएवमाचक्षते-दश द्वीपान् दश समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः / 5 / एके पुनः षष्ठा एवमभिदधतिद्वादश द्वीपान् द्वादश समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः। 6 / एके पुनः सप्तमा एवं भाषन्तेद्विचत्वारिंशतं द्वीपान् द्विचत्वारिंशतं समुद्रान् चन्द्रसूर्या-ववभासयतः।७। एके पुनरष्टमा एवमाहुः-द्वासप्तति द्वीपान् द्वासप्ततिं समुद्रान्चन्द्रसूर्याववभासयतः। 8 / एके पुनर्नवमा एवमाहुः-द्विचत्वारिंशदधिकं द्वीपशतं द्विचत्वारिंशदधिक समुद्रशतं चन्द्रसूर्याववभासयतः / 6 / एके पुनदर्शमा एवं जल्पन्तिद्वासप्ततिं द्वासप्तन्यधिकं द्वीपशतं द्वासप्तत्यधिकं समुद्रशतं चन्द्रसूर्याववभासयतः।१०। एकेएकादशाः पुनरेवमाहुः-द्वाचत्वारिंशद्वाचत्वारिंशत्यधिक द्वीपसहसं द्वाचत्वारिंशत्यधिकं समुद्रसहसं चन्द्रसूर्याववभासयतः।११। एके द्वादशाः पुनरेवमाहुःद्वासप्ततिद्वासप्तत्यधिक द्वीपसहस्र द्वासप्तत्यधिकं समुद्रसहस्त्रं चन्द्रसूर्याववभासयतः / 12 / एताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः, तथा च भगवानेता व्युदस्य स्वमतं भिन्नमेव कथयतिवयं पुण एवं वदामो-ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्यदीवसमुदाणं० जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते / से णं एगाए जगतीए सव्वतो समंता संपरिक्खेवे साणं जागतीतहेव जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए० जाव एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोहससलिलासतसहस्सा छप्पन्नं च सलिलासहस्सा भवंतीति मक्खाता, जंबुहीवे णं दीवे पंच चक्कभागं संठिता आहिता ति वदेजा। ता कहं जंबुद्दीवे दीवे पंचचक्कभागसंठिते आहिता ति वदेज्जा ? ताजता णं एते दुवे सूरिया सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तदा णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स तिण्णि पंचचक्कभागे ओभासंति, उज्जोति,तवेंति, पभासेंति तं एगे वि एगं दिवळ पंचचक्कभार्ग ओभासेंति एके, एगे विएगंदीवन पंचचक्कभागं ओभासेत्ति एकं / तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, ता जता णं एते दुवे सूरिया सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तदा णं जंबुद्दीवस्स दीवस्सदोण्णि पंचचक्कभागं ओभासंति, उज्जोर्वेति, तवेंति, पगासेंति / तं एगे वि एणं पंचचक्कभागं ओभासति, उज्जोवेइ, तयेइ, पगासेइ, एगे वि एकं पंचचकभागं ओभासेइ एकं, तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारस मुहुत्ता राई भवति, जह-प्रणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति। 'वयं पुण' इत्यादि / वयं पुनरुत्पन्नकेवलचक्षुषः केवलचक्षुषा यथाऽवस्थितं जगदुपलभ्य, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः / तमेव प्रकारमाह- "ता अयं णं " इत्यादि। अत्र (जहा जंबुद्दीवपन्नतीए त्ति) यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ- " अयं णं जंबुद्दीवे दीवे '' इत्यारभ्य यावत्" एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोद्दससलिलासयसहस्साइंछप्पन्नंच सलिलासहस्सा भवंतीति मक्खायं " इत्युक्तम् / तथा एतावद्ग्रन्थसहस्रचतुष्टयप्रमाणमत्रापि वक्तव्यं, परं ग्रन्थगौरवभयान्न लिख्यते, केवलं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपुस्तकमेव निरीक्षणीयमिति / अयमेवरूपो जम्बूद्वीपः पञ्चसंख्योपेतैश्चक्रभागैश्चक्रबालभागैः संस्थित आख्यातो मया इति वदेत्स्वशिष्याणां पुरतः / एवमुक्ते भगवान् गौतमः स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधार्थं भूयः पृच्छति-" ता कहं " इत्यादि / ' ता ' इति पूर्ववत् / कथं भगवन् ! त्वया जम्बूद्वीपो द्वीपः पञ्चचक्रभागसंस्थित आख्यात इति वदेत् ? भगवानाह-" ता जया णं " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, एतौ प्रवचनवेदिनां प्रसिद्धौ द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः, तदा तौ समुदितौ द्वावपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य त्रीन पञ्चचक्रवालभागान् अवभासयतः, उद्योतवतः, तापयतः, प्रकाशयतः / कथं प्रकाशयतः ? इति परप्रश्नावकाशमाशङ्कय एतदेव विभागत आह-" एगे वि" इत्यादि / एकोऽपि सूर्यो जम्बुद्वीपस्य द्वीपस्य एकं पञ्चमं चक्रबालभार्गव्य मिति द्वितीयमद्धेयस्य स व्यर्द्धः पूरणार्थो वृत्तावन्तर्भूतो, यथातृतीयो भागस्विभाग इत्यत्र, तम्। अयं च भावार्थ:- एकपञ्चमं चक्र बालभागं द्वितीयस्य पञ्चशमस्य चक्रबालभागस्यार्द्धन सहितं प्रकाशयति / तथा एकोऽपि अपरोऽपि, द्वितीयोऽपीत्यर्थः / एकं पञ्चमं चक्रयालभाग द्वयर्द्ध प्रकाशयतीति, उभयप्रकाशितभागमीलने परिपूर्ण भागत्रयं प्रकाश्यं भवति। इयमत्र भावना जम्बूद्वीपगतं प्रकाश्यं चक्रबालं षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागं कल्य्यते 3660 / तस्य पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतप्रमाणः 732, सार्द्धः सन्
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________________ जोइसिय 1605 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय अष्टानवत्यधिकसहस्रभागमानः 1068 / ततः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्यः षट्त्रिंशच्छतसंख्याना भागानामष्टानवत्यधिक सहस्रं प्रकाशयति, द्वितीयोऽप्यष्टानवत्यधिकं सहस्रम् , उभयमीलने एकविंशतिशतानि षण्णवत्यधिकानि 2166 प्रकाश्यमानानिलभ्यन्ते, तदा च द्वौ पञ्चचक्रवालभागौ रात्रिः / तद्यथा-एकतोऽपि पचमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागसंख्या रात्रिः, परतोऽपि एकः पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागसंख्यौ रात्रिः, उभयमीलने चतुर्दशशतानि चतुःषष्ट्यधिकानि भवन्ति / 1464 / षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागाना रात्रिः, सर्वभागभीलने षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि भवन्ति। संप्रति तत्र दिवसरात्रिप्रमाणमाह- " तया णं " इत्यादि / तदाऽऽभ्यन्तरमण्डलचारकाले उत्तमकाष्ठां प्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्त उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति / जद्यन्या द्वादश मुहूर्ता रात्रिः / ततो द्वितीये अहोरात्रे द्वितीयमण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्यैकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्धषष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागद्वयहीनं प्रकाशयति / अपरोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्धषष्ट्यधिकषट्विंशच्छतभागद्वयहीनं प्रकाशयति / तृतीये अहोरात्रे तृतीये मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभाग साढ़ें षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागचतुष्टयन्यूनं प्रकाशयति / अपरोऽप्येकं पञ्चमं चक्रवालभाग सार्द्धषष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागचतुष्टयन्यून प्रकाशयति / एवं प्रत्यहोरात्रमेकैकः सूर्यः षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतभागसत्कभागद्वयमोचनेन प्रकाशयत् तावदवसेयो यावत्सर्वबाह्य मण्डलं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतस्त्र्यशीत्यधिकशततम, ततः प्रतिमण्डलं भागद्वयमोचनेन यदा सर्वबाह्ये मण्डले चरति, तदा त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यधिकानि भागानां त्रुटयन्ति, त्र्यशीत्यधिकस्य शतस्य द्वाभ्यां गुणने एतावत्याः संख्याया भावात्। त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यधिकानि पञ्चमचक्रवालभागस्य द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागप्रमाणस्यार्द्ध परिपूर्ण तत्र मण्डले त्रुट्यतीति एक एव परिपूर्णः पञ्चमचक्रवालभागस्तत्र प्रकाश्यः / तथा चाह-" ता जया ण " इत्यादि। तत्र यदा, णमिति पूर्ववत्। एतौ प्रवचनप्रसिद्धौ द्वावपि सूर्यो सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः, तदा तौ समुदितौ जम्बुद्वीपस्य द्वौ चक्रवालपञ्चमभागौः अवभासयत उद्द्योतयत-स्तापयतःप्रकाशयतः। तद्यथा-एकोऽपि सूर्य | एकं पञ्चमं चक्रवालभागं प्रकाशयति / एकोऽपि अपरोऽपि, द्वितीयोऽपीत्यर्थः / एकं पञ्चमं चक्रवालभाग प्रकाशयति।" तया णं " इत्यादि। तदा सर्वबाह्यमण्डलचारकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादश- / मुहूर्त्ता रात्रिः, जघन्यतो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः / इह यथा निष्क्रामतोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपविषयप्रकाशविधिः क्रमेण हीयमान उक्तः, तथा सर्वबाह्याद् मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशतोःक्रमेण वर्द्धमानो वेदितव्यः / तद्यथा-द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीये अहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादक्तिनेऽनन्तरे द्वितीये मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्य एकं जम्बूद्वीपस्य पञ्चमं चक्रवालभाग षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतसंख्यभागसत्कभागद्वयाधिकं प्रकाशयति। अपरोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभागंषष्ट्यधिकषटत्रिंशच्छतसंख्यभागसत्क-भागद्वयाधिकं प्रकाशयति / द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान् मण्डलादक्तिने तृतीये मण्डले वर्तमान एकं पञ्चमं चक्रचालभागषष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतसंख्यभागसत्कभागचतुष्टयाधिकं प्रकाशयति / अपरोऽपि सूर्यः परत एक पशम चक्रवालभागं यथोक्तभागचतुष्टयाधिकं प्रकाशयति / एवं प्रतिमण्डल- | मेकैकः सूर्यः षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागद्वयवर्द्धनेन प्रकाशयत् तावदवमेयो यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम्। तस्मिश्च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वितीयस्य पञ्चमचक्रवालभागस्यार्द्ध परिपूर्ण भवति / तत एकोऽपि सूर्यस्तत्र मण्डले एकं पञ्चमे चक्रवालभागं सार्द्ध जम्बूद्वीपस्य प्रकाशयत्यपरोऽप्येकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग सार्द्धम् / तथा जम्बूद्वीपस्य दश भोगान् परिकल्प्यान्यत्राप्युक्तम्"छचेव चउदसभागे, जम्बूदीवस्स दो वि दिवसयरा। ताविति दित्तलेसा, अभिंतरमंडले संता॥ 1 // चत्तारिय दसभागे, जम्बूदीपस्स दो वि दिवसयरा। ताविति संतलेसा, बाहिरए मंडले संता॥२॥ छत्तीसे भागसए, सड्ढे काऊण जंबुदीवस्स। तिरियं तत्तो दो भा-गे वड्डइ व हायइ वा।। 3 / / " सू० प्र० 3 पाहु०। चं० प्र०1 (चन्द्रसूर्ययोर्दक्षिणोत्तरचाराः 'अ-यण' शब्दे प्रथमभागे 750 पृष्ठे द्रष्टव्याः) (34) अथ जम्बूद्वीपे चन्द्राऽऽदीनां चारक्षेत्रविष्कम्भ मानमाह- : दीवे असिइसयं जो-अणाण तीसहिअ तिन्नि सय लवणे। खित्तं पणसय दसऽहि अ, भागा अडयाल इगसट्ठी॥ 8 // द्वीपे जम्बूद्वीपे चन्द्रयोः सूर्ययोश्च क्षेत्रंचारक्षेत्रं विष्कम्भतोऽशीत्यधिक शतंयोजनानां 108, लवणे च त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि योजनानाम 330 / उभयोर्मीलने दशाधिकानि पञ्चशतानि योजनानामष्टचत्वारिशचैकषष्टिभागा योजनस्य 510 / 48/61 / नक्षत्राणामपि चारक्षेत्रमेतदेव, सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डलयोः परस्परं दशाधिकपञ्चशतयोजनप्रमाणान्तरालस्योक्तत्वात् / ग्रहाणां तारकाणां च चारक्षेत्रविष्कम्भमान व्यक्त्या शास्त्रेषु नोपलभ्यत इति। मं०। (35) (ज्योतिष्काणामल्पबहुत्वं' अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे 641 पृष्ठे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपाठतो गतार्थम् , न तत इह ग्रन्थान्तरपाठो वितन्यतेऽतस्तत एवावधार्यम्) / (36) संप्रति चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रताराणां कः शीघ्रगतिर्भगव नाख्यात इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहता कहं ते सिग्घगती वत्यु आहिते ति वदेज्जा ? ता एतेसि णं चंदिमसूरियग्गहगणनक्खत्ततारारूवाणं चंदेहिंतो सुरा सिग्घगती, सूरेहिंतो गहा सिग्घगती, गहेहिंतो णक्खत्ता सिग्घगती, णक्खत्तेहिंतो तारा सिग्घगती, सव्वऽप्पगती चंदा, सव्वसिग्धगती तारा। 'ता कह ते ' इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् / कथं भगवन् ! त्वया चन्द्रसूर्याऽऽदिकं वस्तु शीघ्रगत्यात्मकं शीघ्रगति आख्यात इति वदेत् ? भगवानाह-" ता एएसिणं " इत्यादि। एतेषां चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारकाणां पञ्चानां मध्ये चन्द्रेभ्यः सूर्याः शीघ्रगतयः, सूर्येभ्योऽपि ग्रहाः शीघ्रगतयः, ग्रहेभ्योऽपि नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि, नक्षत्रेभ्योऽपि ताराः शीघ्रगतयः / अत एवैतेषां पञ्चानां सर्वाल्यगतयश्चन्द्राः, सर्वशीघ्रगतयस्ताराः। (37) एतस्यैवार्थस्य सविशेषपरिज्ञानाय प्रश्नं करोतिता एगमे गेणं मुहुत्तेणं चंदे के वतियाई भागसताइंग
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________________ जोइसिय 1606 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय च्छति? ताजं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स सत्तरस अट्ठठे भागा सते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाण उतीए सतेहिं छेत्ता / ता एगमेगेणं मुहुतेणं सूरिए केवतियाइं भागसताइं गच्छति / ता जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारस तीसे भागसते गच्छति, मंडलसतसहस्सेणं अट्ठाणउतिसतेहिं छेत्ता / ता एगमेगेणं मुहुत्तेणं णक्खत्ते केवतियाई भागसातइं गच्छति ? ता जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तस्स तस्स मंडलस्स परिक्खेवस्स अट्ठारसपणतीसे भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणवतिसतेहिं छेत्ता। " ता एगमेगेणं " इत्यादि।' ता' इति पूर्ववत्। एकैकेन मुहूर्तेन चन्द्रः कियन्ति मण्डलस्य भागशतानि गच्छति ? भगवानाह-" ताजं जं" इत्यादि यद्यमण्डलमुपसंक्रम्य चन्द्रश्चारं चरति, तस्य तस्य मण्डलस्य संबन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेः सप्तदशशतान्यष्टषष्ठ्याधकानि भागाना गच्छति, मण्डलं मण्डलपरिक्षपमेके न शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शौपिछत्त्वा विभज्य / इयमत्र भावना-इह प्रथमतश्चान्द्रमसो मण्डलकालो निरूपणीयः, तदनन्तरं तदनुसारेण मुहूर्तगतपरिमाणं भावनीयम् / तत्र प्रथममण्डलकालनिरूपणार्थमिद त्रैराशिकं यदि सप्तदशभिः शतैरष्टषष्ट्यधिकैः सकलयुगवर्तिभिरर्द्धमण्डलैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानिलभ्यन्ते, ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेकेन (मण्डलेनेतीति भाव) कति रात्रिन्दिवानिलभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना१७६८ | 1830 / 2 / अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं, जातानिषटत्रिंशच्छतानिषष्ट्यधिकानि। 3660 / एतेषामाद्येन राशिना भागहरणं, लब्धे द्वे रात्रिन्दिवे, शेषं तिष्ठति चतुर्विशत्यधिक शतम्। 124 / तत्रैकैकस्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ता इति, तस्य त्रिंशता गुणने जातानि सप्तत्रिंशच्छतानि विंशत्यधिकानि। 3720 / तेषां सप्तदशभिः शतैरष्टषष्ट्यधिकैर्भागे हृते लब्धौ द्वौ मुहूर्ता, ततः शेषश्छेद्यच्छेदकराश्योरष्टकेनापवर्तना, जातश्छेद्यो राशिस्त्रयोविंशतिः, छेदकराशि· शते एकविंशत्यधिके, आगता मुहूर्तस्यैकविंशत्यधिकशतद्वयभागास्त्रयोविंशतिः। एतावता कालेन द्वेऽर्द्धमण्डले परिपूर्ण चरति। किमुक्तं भवति ? एतावता कालेन परिपूर्णमक मण्डलं चन्द्रश्वरति। तदेवं मण्डलकालपरिज्ञानं कृतम् / साम्प्रतमेतदनुसारेण मुहूर्तगतिपरिमाणं चिन्त्यते-तत्र ये द्वे रात्रिन्दिवेते मुहूर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टिमुहूर्ताः। ६०।तत उपरितनौ द्वौ मुहूर्ती प्रक्षिप्तौ, जाता द्वाषष्टिः / 62 / एषा सवर्णनार्थ द्वाभ्या / शताभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुणयते, गुणयित्वा चोपरितना त्रयो विंशतिः क्षिप्यते, जातानि त्रयोदशसहस्राणि सप्तशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि। 13725 / एतदेकमण्डलकालगतमुहूर्तसत्कैकविंशत्यधिकशतद्वयभागानां परिमाणं, ततस्त्रैराशिककर्मावसरः-यदि त्रयोदशभिः सहसैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागानां मण्डलभागा एकं शतसहस्रमष्टानवतिशतानि लभ्यन्ते, तत एकेन मुहूर्तेन किलभामहे ? राशित्रयस्थापना-१३७२५ / 106800 / 1 / इहाऽऽद्यो राशिमुहूर्तगतैकविंशत्यधिकशतद्वयभागरूपस्ततः सवर्णनार्थमन्त्यो राशिरेकलक्षणो द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुण्यते, जाते द्वेशते एकविंशत्यधिके।२२१। ताभ्यां मध्यराशिगुण्यते, जाते द्वे कोटी द्विचत्वारिंशल्लक्षाः पञ्चषष्टिः सहस्राण्यष्टौ शता-नि। 24265800 / तेषां त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभि शतैः पञ्चविंशत्यधिकै र्भागो ह्रियते, लब्धानि सप्तदशशतान्यष्टषष्ट्यधिकानि / 1768 / एतावतो भागान् यत्र तत्र एकमण्डले चन्द्रो मुहूर्तेन गच्छति।" ता एगमेगेणं इत्यादि' ता' इति पूर्ववत्। एकैकेन मुहूर्तेन सूर्यः कियन्ति भागशतानि गच्छति? भगवानाह-" ताजं जं' इत्यादि। यद्यन्मण्डलमुपसंक्रम्य सूर्यश्चारं चरति तस्य तस्य मण्डलसंबन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेरष्टादशभागशतानि त्रिंशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहसेणाष्टानवत्या च शतैश्छित्त्वा / कथमेतदवसीयत इति चेत् ? उच्यतेवैराशिकबलात् तथाहि-यदि षष्ट्या मुहूर्तरिक शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लभ्यन्ते, तत एकैकेन मुहूर्तेन कति भागान् लभामहे ? राशित्रयस्थापना-६०।१०६८००।१।अत्रान्त्येन राशिना एकलक्षणेन मध्य-स्य राशेर्गुणनं, जातः सतावानेव।" एकेन गुणितं तदेव भवति " इति वचनात् / ततस्तस्याऽऽद्येन राशिना षष्टिलक्षणेन भागो ह्रियते, लब्धान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि। 1830 / एतावतो भागान् मण्डलस्य सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति।" ता एगमेगेणं " इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत् / एकैकेन मुहूर्तेन क्रियतो भागान्मण्डलस्य नक्षत्रं गच्छति / भगवानाह- " ताज जं" इत्यादि / यद्यदात्मीयमाकालप्रतिनियतमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तस्या तस्याऽऽत्मीयस्य मण्डलसंबन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेरष्टादशभागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैपिछत्त्वा / इहापि प्रथमतो मण्डलकालो निरूपणाव ततस्तदनुसारेणैव मुहूर्तगतपरिमाणभावना / तत्र मण्डलकालप्रमाणचिन्तायामिदं त्रैराशिकम् , यद्यष्टादशभिः शतैः पत्रिंशदधिकैः सकलयुगभविभिरर्द्धमण्डलैरष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते, ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेकैकेन परिपूर्णेन (मण्डले-नेति भावः) किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना- १८३५॥१८३०।२।अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातानिषट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि।३६६०१तत आद्येन राशिना भागहरणम्। १८३५शलब्धमेकं रात्रिन्दिवम्। १।शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादशशतानि पक्षविंशत्यधिकानि / 1825 / ततो मुहूर्ताऽऽनयनार्थमेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि। 54750 / तेषाभष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकै भाग हृते लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूत्तोः / 26 / ततः शेषच्छेद्यच्छेदकराश्योः पञ्चकेनापवर्त्तनाः,जात उपरितनो राशिः, त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि। 307 / छेदकराशिः त्रीणि शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि। 367 / तत आगतमेकं रात्रिन्दिवम् , एकस्य च रात्रिन्दिवस्यैकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तषष्ट्यधिकत्रिंशद्भागानां त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि / 26 / 307 / इदानीमेतदनुसारेण मुहूर्तगतिपरिमाणं चिन्त्यतेतत्र रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ताः।३०। तेषूपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि एकोनषष्टिमुहूर्ताना, ततः सा सवर्णनाथ त्रिभिः शतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गण्यते, गुणयित्वा चोपरितनानि त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते, जातान्य -
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________________ जोइसिय 1607 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय कविंशतिसहस्त्राणि नवशतानिषष्ट्यधिकानि। २१९६०।ततस्त्रै-राशिक यदि मुहूर्तगतसप्तषष्ट्यधिकत्रिंशद्भागानामेकविंशत्या सहस्त्रैर्नवभिः शतैः षष्ट्यधिकैरक शतसहस्रमष्टानवतिशतानि मण्डलभागानां लभ्यन्ते, तत एकेन मुहूर्तेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-२१६६०।१०६८००। 1 / अत्राद्यो राशिर्मुहूर्तगतसप्तषष्ट्यधिकत्रिंशद्भागरूपः, ततोऽन्त्योऽपि राशिस्विभिः शतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुण्यते, जातानि त्रीण्येव शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि 367 / तैर्मध्ये राशिगुण्यते, जाताश्चतस्रः कोटयो द्वे लक्षे षण्णवति-सहस्राणि षट्शतानि / 40266600 / तेषामाद्येन राशिनैक-विंशतिः सहस्रणि नवशतानि षष्ट्यधिकानीत्येवंरूपेण भागो हियते, लब्धान्यष्टादशशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि। 1835 / एतावतो भागान्नक्षत्रं प्रतिमुहूर्त गच्छति, तदेवंयतश्चन्द्रो यत्रतत्र वा मण्डले एकैकेन मुहूर्तेन मण्डलपरिक्षेपस्य सप्तदशशतान्यष्टषष्ट्यधिकानि भागानां गच्छति, सूर्योऽष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि नक्षत्रम् , अष्टादशशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि। ततश्चन्द्रेभ्यः शीघ्रगतयः सूर्याः, सूर्येभ्यः शीघ्रगतीनि नक्षत्राणि, ग्रहास्तु वक्रानुवक्राऽऽदिगतिभावतोऽनियतगतिप्रस्थानाः, ततो न तेषामुक्तप्रकारेण यति-प्रमाणप्ररूपणा कृता। उक्तंच" चंदेहिं सिग्धयरा, सूरा सुरेहिँ होति नक्खत्ता। अणियवगइपत्थाणा, हवंति सेसा गहा सव्वे / / 1 / / अट्ठार स पणतीसे, भागसए गच्छइ मुहत्तेणं। नक्खत्तं चंदो पुण, सत्तरस सए छ अट्टऽट्ट।। 2 / / अट्टारसभागसए, तीसे गच्छइ रवी मुहूत्तेण। नक्खत्तसीमछेदो, सो चेव इह पि नायव्यो।।३।।" इदं गाथात्रयमपि सुगमम् / नवरं नक्षत्रसीमाच्छेदः स एवात्रापि ज्ञातव्य इति। किमुक्तं भवति? अत्रापि मण्डलमेकेन शतसहस्रेणा-ष्टानवत्या च शतैः प्रविभक्तव्यमिति। (38) संप्रत्युक्तस्वरूपमेव चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागविषयविशेषं निर्धारयतिता जया णं चंदं गतिसमावण्णे भवति से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति? वायट्ठिभागे विसेसेति। ता जताणं चंदंगतिसमावण्णणक्खत्ते गतिसमावण्णे भवइ से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति ? सत्तहिँ भागे विसेसेति / ता जता णं सूरं गतिसमावण्णणक्खत्ते गतिसमावण्णे भवति से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति? ता पंचभागे विसेसेति। ता जता णं चंदगतिसमावण्णं अभिईणक्खत्तं णं गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भामाते समासादिन्ना णवमुहूत्ते सत्तावीसे च सत्तट्ठिभागे मुहूत्तस्स चंदेण सद्धिं जोएति, जोअंजोएत्ता जोअं अणुपरियट्टति, जो विजेति, विजहति, विप्पजहति, विगतजोईयावि भवति। ताजताणं चंदगतिसमावण्णं समावण्णे णक्खत्ते गतिसमा-वण्णे पुरच्छिमा तिभागा देसमासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादेत्ता तीसं मुहूत्ते चंदेणं सद्धिं जोअंजोएति, जोअंजोएत्ता जो अणुपरिअट्टति, जो जोएत्ता विजेति, विजहति, विप्पजहति, विगतजोई यावि भवति / एवं एएणं अभिलावेणं / णेतव्वं पणरस मुहूत्ता राई, तिसतीमुहुत्ताई भाणियव्वाइं० जाव उत्तरासाढा। " ता जया णं " इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत् / यदा णमिति वा क्यालङ्कारे / चन्द्रगतिसमापन्नमपेक्ष्य सूर्यो गतिसमापन्नो विवक्षितो भवति / किमुक्तं भवति? प्रतिमुहूर्तचन्द्रगतिमपेक्ष्य सूर्यगतिश्चिन्त्यते, तदा सूर्यो गतिमात्रया एकमुहूर्तगतगतिपरिमाणेन कियन्तो भागान्मुहूर्तान् विशेषयति? एकेन मुहूर्तेन चन्द्रोक्तभितेभ्यो भागेभ्यः कियतोऽधिकतरान् भागान् सूर्य आक्रामतीति भावः / भगवानाह-द्वाषष्टिभागान् विशेषयति / तथाहि-चन्द्र एकेन मुहूर्तेन सप्तदशभागशतान्यष्टषष्ट्यधिकानि गच्छति / 1768 / सूर्योऽष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि / 1830 / ततो भवति द्वाषष्टिभागकृतः परस्परविशेषः।" ता जयाणं " इत्यादि।' ता ' इति प्राग्वत् / यदा चन्द्रगतिसमापन्नमपेक्ष्य नक्षत्रं गतिसमापन्न विवक्षितं भवति, तदा नक्षत्रं गतिमात्रया एकमुहूर्तगतगतिपरिमाणेन कियन्तं विशेषयति ? चन्द्राक्रमितेभ्यो भागेभ्यः कियतो भागानधिकानाक्रामतीति भावः / भगवानाह-सप्तषष्टिभागान्नक्षत्रं ह्येकेन मुहूर्तेन अष्टादशभागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति / चन्द्रस्तु सप्तदशभागशतान्यष्टषष्ट्यधिकानि: तत उपपद्यते सप्तषष्टिभागकृतो विशेषः / " ता जया णं " इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वद् भावनीयम् / भगवानाह-" ता पच " इत्यादि / पञ्च भागान् विशेषयति, सूर्याऽsक्रान्तभागेभ्यो नक्षत्राऽऽक्रान्तभागानां पञ्चभिरधिकत्वात्। तथाहि-सूर्य एकेन मुहूर्तेनाष्टादशभागशतानि त्रिंशदधिकानिगच्छति। नक्षत्रमष्टादशभागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि / ततो भवति परस्परं पञ्चभागकृतो विशेषः।" ता जया णं" इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत् / यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, चन्द्रगतिसमापन्नमपेक्ष्याभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति, तदा पौरस्त्याभागात्प्रथमतोऽभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रमसं समासादयति / एतच्च प्रागेव भावितम्। समासाद्य च नव मुहूर्तान्, दशमस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सार्द्ध योगयुनक्ति, करोति, एतदपि प्रागेव भावितम्। एवंप्रमाणं च कालं योगं युक्त्वा पर्यन्तसमये योगमनु परिवर्तयति। श्रवणनक्षत्रस्य योगं समर्पयतीति भावः / योगं च परावर्त्य तेन सह योग विजहाति। किंबहुना? विगतयोगी चापि भवति।" ता जया णं " इत्यादि। 'ता' इति प्राग्वत्। यदा चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य श्रवणनक्षत्रं समापन्नं भवति, तदा तच्छ्रवणनक्षत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद्भागात्पूर्वेण भागेन चन्द्रमसं समासादयति, समासाद्य चन्द्रेण सार्द्ध त्रिंशन्मुहूर्तान् यावद्योगं युनक्ति, एवंप्रमाणं च कालं यावद्योग युक्त्वा पर्यन्तसमये योगमनु परिवर्तयति। धनिष्ठानक्षत्रस्य योग समर्पयितुमारभते इत्यर्थः। योगमनुपरिवर्त्य च तेन सह योग विप्रजहाति। किंबहुना ? विगतयोगी चाऽपि भवति।" एवं " इत्यादि। एवमुक्तेन प्रकारेणैतेनानन्तरोपदर्शितेनाभिलापेन यानि पञ्चदश मुहूर्तानि शतभिषक्प्रभृतीनि नक्षत्राणि, यानि त्रिंशन्मुहूर्तानि धनिष्ठाप्रभृतीनि, यानि च पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तान्युत्तरभद्रपदाऽऽदीनि, सर्वाण्यपि क्रमेण तावद्भणितव्यानि यावदुत्तराषाढा / तत्राभिलापः सुगमत्वात्स्वयं भावनीयः, गन्थगौरवभयान्न लिख्यत इति। (36) संप्रति ग्रहमधिकृत्य योगचिन्तां करोतिता जया णं चंदगतिसमावण्णं गहगतिसमावण्णे पुरच्छि
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________________ जोइसिय 1605 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय माते भागाते समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादेत्ता चंदेणं सद्धिं अद्धा जोगं जुजति, अद्धा जोगं जुजतित्ता अद्धा जोगं अणुपरियट्टति, अद्धा जोगं अणुपरियट्टतित्ता विजेति, विजहति, विप्पजहति, विगतजोईयावि भवति। "ता जया णं" इत्यादि / ' ता' इति पूर्ववत् / यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, चन्द्र गतिसमापन्नमपेक्ष्य ग्रहो गतिसमापन्नो भवति, तदा स ग्रहः पौरस्त्याभागात्पूर्वेण भागेन प्रथमतश्चन्द्रमसं समा-सादयति, समासाद्य च यथासंभवं योग युनक्ति, यथासंभवं योग युक्त्वा पर्यन्तसमये यथासंभवं योगमनुपरिवर्त्तयति, यथासंभवमन्यस्य ग्रहस्य योगं समर्पयितुमारभते इति / भावयोगमनुवत्थं च तेन सह योग विजहाति, विप्रजहाति। किं बहुना ? विगतयोगी चापि भवति / (40) अधुना सूर्येण सह नक्षत्रस्य योगचिन्तां करोतिता जया णं सूरं गतिसमावण्णं अभिई णक्खत्ते गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादेत्ता चत्तारि अहोरते छच्च मुहुत्ते सूरेणं सद्धिं जोयं जोएति, जोयं अणुपरियट्टति, अणुपरियट्टित्ता विजेति, विजहति, विप्पज-हति, विगतजोई यावि भवति। एवं अहोरताछ एकवीसं मुहुत्ताय, तेरस अहोरत्ता वारस मुहुत्ता य, वीसं अहोरत्ता तिण्णि मुहुत्ता य,ताव सव्वे भाणितव्वा जाव उत्तरासाढाणक्खत्ता। " ता जया णं'' इत्यादि।'ता' इति प्राग्वत्। यदा सूर्य गतिसमापनमपेक्ष्याभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति, तदाऽभिजिन्नक्षत्र प्रथमतः पौरस्त्याद्भागात्सूर्य समासादयति, समासाद्य चतुरः परिपूर्णानहोरात्रान्, पञ्चमस्य चाहोरात्रस्य षड्मुहूर्तान् यावत्सूर्येण सह योगं युनक्ति। एवंप्रमाणं च कालं यावद्योगं युक्त्वा पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्तयति। श्रवणनक्षत्रस्य योगं समर्पयितुमारभत इति भावः / अनुपरिवर्त्य च तेन सहयोगं विजहाति, विप्रजहाति, कि बहुना? विगतयोगी चापि भवति / ' एवं ' इत्यादि। एवमुक्तेन प्रकारेण पञ्चदशमुहूर्तानां शतभिषक्प्रभृतीनां षडहोरात्राः, सप्तमस्याहोरात्रस्यैकविंशतिमुहू स्त्रिंशन्मुहूर्तानां श्रवणाऽऽदीनां त्रयोदश अहोरात्राश्चतुर्दशस्याहोरात्रस्य द्वादश मुहूर्ताः, पाचत्वारिंशन्मुहूर्तानामुत्तरअद्धपदाऽऽदीनां विंशतिरहोरात्राः, एकविंशतितमस्य चाहोरात्रस्य त्रयो मुहूर्ताः, क्रमेण सर्वे तावद्भणितव्या यावदुत्तराषाढानक्षत्रम्। तत्रोत्तराषाढानक्षत्रगतमभिलापं साक्षाद्दर्शयतिताजता णं सूरं गतिसमावण्णं उत्तरासाढाणक्खत्ते गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादेत्ता वीसं अहोरत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएति, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टति, जोयं अणुपरियट्टित्ता विजेति, विजहित, विप्पजहति, विगतजोईयावि भवति। ' ता जया इत्यादि सुगमम् / एतदनुसारेण शेषा अप्यालापाः स्वयं वक्तव्याः, सुगमत्वात्तु नात्र दर्श्यन्ते।। (41) संप्रति सूर्येण सह ग्रहस्य योगचिन्तां करोतिता जता णं सूरं गतिसमावण्णं गहगतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादेत्ता सूरेण सद्धिं अद्धा जोयं जुजति, अद्धा जोयं जंजित्ता अद्धा जोयं अणुपरियट्टति, अद्धा जोयं अणुपरियट्टित्ता विजेति०जाव विगतजोईयावि भवति। "ता जया णं " इत्यादि सुगमम्। (42) अधुना चन्द्राऽऽदयो नक्षत्रेण मासेन कति मण्डलानि चरन्तीत्येतन्निरूपयितुकात आह.. ताणक्खत्तेणं मासेणं चंदे कति मंडलाइं चरति ? ता तेरस मंडलाइं चरति, तेरस य सत्तट्ठिभागे मंडलस्स। ता णक्खत्तेणं मासेणं सूरे कति मंडलाइं चरति ? ता तेरस मंडलाइं चरति, चोत्तालीसं च सत्तट्ठिभागे मंडलस्स। ताणक्खत्ते कति मंडलाई चरति ? ता तेरस मंडलाइं चरति, अद्धसीतालीसं च सत्तट्टिभागे मंडलस्स। " ताणक्खत्तेणं " इत्यादि।'ता' इति पूर्ववत्। नक्षत्रेण मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-" तातेरस " इत्यादि / त्रयोदश मण्डलानि, चतुदशस्य मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागान्। कथमेतदवसीयते? इति चेत्। उच्यतेत्रैराशिकबलात्। तथाहि-यदि सप्तषष्ट्या नक्षत्रमासैरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते, तत एकेन नक्षत्रमासेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-६७।८८४।१।अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातः स तावानेव, तस्य सप्तषष्ट्या भागहरणं, लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः।१३।१"ता णवखत्ते ण " इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- " ता तेरस " इत्यादि। त्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य च मण्डलस्य चतुश्वत्वारिंशत सप्त- षष्टिभागात्। तथाहि-यदि सप्तषष्ट्या नक्षत्रैर्मासैनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि मण्डलानां सूर्यस्य लभ्यन्ते, तत एकेन नक्षत्रेण मासेन कति मण्डलानि लभामहे ? राशित्रयस्थापना-६७।६१५। 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं,तत आद्येन राशिना भागहारः,लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य च मण्डलस्य चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः / 13 // " / ता णखत्ते " इत्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह-" तातेरस " इत्यादि।त्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य च मण्डलस्य अर्द्धसप्तचत्वारिंशतं सार्धषट्चत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागान् चरति। तथाहि-यदि सप्तषष्ट्या नक्षत्रैमास रष्टादशशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्द्धमण्ड-लानि नक्षत्रस्य लभ्यन्ते, ततएकेन नक्षत्रेण मासेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-६७।१८३५ / 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, तत आद्येन राशिना भागहारः, लब्धानि सप्तविंशतिरर्द्धमण्डलानि, अष्टाविंशतितमस्य चार्द्धमण्डलस्य षड्विशतिः सप्तषष्टिभागाः 27 / 26 / ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेक मण्डल-मित्यस्य राशेर करणेन लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य मण्डलस्य सार्द्धषट् चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः।१३।। (43) संप्रति चन्द्रमासमधिकृत्य चन्द्राऽऽदीनां मण्डलनि रूपणां करोतिता चंदे ण मासेणं चंदे कति मंडलाइं चरति ? चोद्दस
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________________ जोइसिय 1606 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय चउभागाइं मंडलाइं चरति, एगं च चउवीससयभागं मंडलस्स। ता चंदेणं मासेणं सूरे कति मंडलाई चरति ? ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाइं चरति, एगं च चउवीससयभागं मंडलस्स / ता चंदेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाइं चरति ? ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाइं चरति, छच्च चउवीससतभागे मंडलस्स॥ "ता चदेणं " इत्यादि।' ता इति पूर्ववत् / चन्द्रेण मासेन प्रागुकरवरूपेण, चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह-" ता चउद्दस " इत्यादि। चतुर्दशस्य चतुर्भागमण्डलानि चतुर्भागसहितानि मण्डलानि चरति, एक चचतुर्विशतितम भण्डलस्य। किमुक्तं भवति?-परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्भागं चतुविंशत्यधिकशतसत्केकत्रिंशद्भागप्रमाणम, एक च चतुर्विंशत्यधिकशतरय भागं द्वात्रिंशतं, पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतभागान् चरति / तथाहि-यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते, ततो द्वाभ्यां पर्वाभ्यां किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-१२४ / 58412 / अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं, जातानि सप्तदशशतान्यष्टषष्ट्यधिकानि 1768 | तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरण, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशचतुर्विशत्यधिकशतभागाः। 14 / ' ता चंदेणं " इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम्।" ता पन्नरस " इत्यादि / पञ्चदश चतुर्भागन्यूनानि मण्डलानि चरति, एकं च चतुविंशत्यधिकशतभागं मण्डलस्य। किमुक्तं भवति? चतुर्दश परिपूर्णानि मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्नवतिचतुर्विशत्यधिकशतभागान् चरति / तथाहि-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि मण्डलानां लभ्यन्ते, ततो द्वाभ्यां किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-१२४१६१५२। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि। 1830 / एतेषामाद्येन राशिना चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्नवतिचतुर्विशत्यधिकशतभागाः। 14 वश इति।" ता चंदेणं'' इत्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह"ता पण्णरस" इत्यादि। पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागन्यूनानि चरति, षट्चतुर्विशत्यधिकशतभागान्मण्डलस्य। किमुक्तं भवति?-परिपूर्णानि चतुर्दशमण्डलानि चरति, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नवनवति चतुविशत्यधिकशतभागान् / तथाहि-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्द्धमण्डलानां लभ्यन्ते, ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-१२४ / 1835 / 2 / अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं, जातानि षट्त्रिंशच्छतानि सप्तत्वधिकानि। 3670 / एतेषामाद्येन राशिना चतुविंशत्यधिकशतरूपेण भागहरणं, लब्धा एकोनत्रिंशत् , शेषास्ति-प्ठन्ति चतुःसप्ततिः / इदं चार्द्धमण्डलगतं परिमाणम् / द्वाभ्यां चार्द्धमण्डलाभ्यामेकं परिपूर्ण मण्डल, ततोऽस्य राशेकिन भागहारः, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नवनवतिश्चतुर्विशत्यधिकशतभागाः। 14 / (44) साम्प्रतमृतृमासमधिकृत्य चन्द्राऽऽदीना मण्डल निरूपणां करोतिता उउणा मासेणं चंदे कति मंडलाइंचरति ? ता चोद्दसमंडलाइं चरति, तीसं च एगट्ठिभागे मंडलस्स / ता उउणा मासेणं सूरे कति मंडलाइं चरति ? ता पणरस मंडलाई चरति / ता उउणा मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाइं चरति ? ता पणरस मंडलाइं चरति, पंच य बावीससतभागे मंडलस्स। "ता उउमासेणं चंदे" इत्यादि। ऋतुमासेन कर्ममासेन चन्द्रा कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह- " ता चोइस " इत्यादि / चतुर्दश मण्डलानि चरति / पञ्चदशस्य च मण्डलस्य त्रिंशतमेकषष्टिभागाद् / तथाहि-यदि एकषष्ट्या कर्ममासैरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते, तत एकेन कर्ममासेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-६१ / 884 | 1 | अत्रान्त्येन राशिना एकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं, जातः सतावानेव। तस्य एकषष्ट्या भागहरणं, लब्धानि परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य त्रिंशदेकषष्टिभागाः। 1469 / " ता उउणा मासेणं " इत्यादि सूर्यविषय प्रश्नसूत्र सुगमम् / भगवानाह- " ता पणरस " इत्यादि / पञ्चदश परिपूर्णानि मण्डलानि चरति। तथाहि-यद्येकषष्ट्या कर्ममासैनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि सूर्यमण्डलानां लभ्यन्ते, तत एकेन कर्ममासेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-६१ / 615 / 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातः सतावानेव, तस्यैकषष्ट्या भागहरणं, लब्धानि परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि / 15 / " ता उउणा मासेणं " इत्यादि नक्षत्रविषय प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह-" ता पणरस" इत्यादि। पञ्चदशमण्डलानि चरति, षोडशस्यच मण्डलस्य च पञ्चद्वाविंशतिशतभागान् / तथा-हि-यदि द्वाविंशेन कर्ममासशतेनाष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मण्डलानि नक्षत्रस्य लभ्यन्ते, तत एकेन कर्मभासेन किंलभामहे ? राशित्रयस्थापना-१२२११८३५॥ 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातः स तावानेव, तस्याऽऽद्ये न राशिना द्वाविंशत्यधिकशतरूपेण भागहरणं, लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि, षोड-- शस्य च पञ्चद्वाविंशशतभागाः। 15 / वझे। (45) संप्रति सूर्यमासमधिकृत्य चन्द्राऽऽदीनां मण्डलानि निरूपयतिता आइच्चेणं मासेणं चंदे काते मंडलाई चरति? ता चोद्दसमंडलाइं चरति, एक्कारसय पन्नरसभागे मंडलस्स / ता आइचेणं मासेणं सूरे कति मंडलाइं चरति? ता पणरस चउभागाई मंडलाइं चरति / ता आइच्चेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति ? ता पणरस चउभागाइं मंडलाइं चरति, पंचतीसं च वीससतभागे मंडलस्स।।। "ता आइचेणं'' इत्यादि।' ता' इति पूर्ववत् / आदित्येन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह-चतुर्दश मण्डलानि चरति, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य एकादश पञ्चदश भागान्। तथाहियदि षष्ट्या सूर्यमासैरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां चन्द्रस्यलभ्यन्ते, तत एकेन सूर्यमासेन किंलभामहे ? राशित्रयस्थापना६०। 884 / 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातः स
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________________ जोइसिय 1610- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय तावानेव, तस्य षष्ट्या भागहरणं, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, . एकेनाभिवर्द्धितमासेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना 8628 / शेषास्तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशत् / 44 / ततश्च्छेद्यच्छेदकराश्योश्व- १३७६०४।१।अत्रान्त्येन राशिनेकलक्षणेन मध्यराशेस्ताडना, जातः तुष्केनापवर्तना, जात उपरितनो राशिरेकादशरूपोऽधस्तनः पञ्च- सतावानेव, तस्याऽऽशेन 8628 राशि-ना भागहरणं, लब्धानि पञ्चदश दशरूपः, लब्धाः पञ्चदशमण्डलस्यैकादशभागाः / 14 / 1 / " ता मण्डलानि। 15 / शेषमुद्वरति एकोनचत्वारिंशच्छतानि चतुरशीत्यधिआइयेणं 'इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह-पञ्च- कानि। 3684 / ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरष्टाचत्वारिंशताऽपवर्त्तना, जात दशचतुर्भागाधिकानि मण्डलानि चरति / तथाहि-यदि षष्ट्या सूर्य- उपरितनो राशिस्त्र्यशीतिरधस्तनः षडशीत्यधिकं शतम्।। आगतं मासैर्नवशतानि पञ्चदशोत्तराणि मण्डलानां सूर्यस्य लभ्यन्ते, तत एकेन षोडशमण्डलस्य त्र्यशीतिषडशीत्यधिकशतभागाः।" ता अभिवडिमासेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-६०। 615 / 11 अत्रान्त्येन तेणं " इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह-"ता सोलस राशिना एकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं, जातः स तावानेव, तस्य षष्ट्या " इत्यादि / षोडश मण्डलानि त्रिभिगिन्यूनानि चरति / मण्डलं भागहरणं, लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि, षोडशस्य चषष्टिभागविभक्तस्य द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंशदधिकाभ्यां शताभ्यां छित्त्वा / तथाहि-यदि षट् पञ्चदशभागात्मकाश्चतुर्भागाः / 15 / / " ता आइयेण्णं " इत्यादि पञ्चाशदधिकशतसंख्ययुगभाविभिरष्टाविंशदधिकरभिवर्द्धितमासननक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह-" ता पणरस " इत्यादि। वाशीतिशतैः सूर्यमण्डलानामेकं लक्ष, द्विचत्वारिंशत्सहस्राणि, सप्त पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागाधिकानिपञ्चत्रिंशतं विंशत्यधिकशतभागान शतानि चत्वारिंशदधिकानि लभ्यन्ते, तत एकेनाभिवर्द्धितमासेन किं मण्डलस्य चरति। किमुक्तं भवति ? षोडशस्य च मण्डलस्य पञ्चविंशतं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-८१२८ / 142-740 / 1 / अत्रान्त्येन विशत्यधिकशतभागान् चरति / तथाहि-यदि विशेन, सूर्यमास- राशिनकलक्षणेन मध्यराशिगुण्यते, जातः स तावानेव, तस्याऽऽद्येन शतेनाष्टादश शतानि पश्चत्रिंशदधिकानि मण्डलानां नक्षत्रस्य लभ्यन्ते. 8928 राशिना भागो ह्रियते, लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि / 15 / तत एकेन सूर्यमासेन किं लभ्यते? राशित्रयस्थापना-१२०। 1835 / शेषमुदरन्ति अष्टाशीतिशतानि विशत्य-धिकानि / 1820 / 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुणितः, जातस्तावानेव, तस्य ततश्च्छेद्यच्छेदकराश्योः षडत्रिंशताऽपवर्तना, जात उपरितनो राशिट्टै विंशत्य-धिकेन शतेन भागहरणं, लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि, | शते पञ्चचत्वारिंशदधिक। 245 अध-स्तनो द्विशतेऽश्चत्वारिंशदधिके पञ्चत्रिंशच विंशत्यधिकाः शतभागाः षोडशस्य। 15 / 3 / / 258 / आगतं षोडशमण्डल त्रिभिर्भागन्यूँन द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंश(४६) अधुनाऽभिवर्द्धितमासमधिकृत्य चन्द्राऽऽदीना मण्ड- द्धिकाभ्यां शताभ्यां प्रविभक्तम्। 248 / " ता अभिवडितेणं'' इत्यादि लानि निरूपयन्नाह नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह-" ता सोलस" इत्यादि। ता अभिववितेणं मासेणं चंदे कति मंडलाइंचरति? ता पण्ण षोडश मण्डलानि सप्तचत्वारिंशता भागैरधिकानि चतुर्दशभिः शतैरष्टारस मंडलाइं चरति, तेसीति-छचुलसीतिसतभागे मंडलस्स। शीत्यधिकर्मण्डल छित्त्वा। तथाहि-यदिषट्पञ्चाशदधिकशतसंख्ययुगता अभिवड्डितेणं मासेणं सूरे कति मंडलाइं चरति? ता सोलस भाविभिरभिवर्द्धितमासनवाशीतिशतैरष्टाविंशत्यधिकै नक्षत्रमण्डमंडलाइं चरति तेहिं भागेहिं ऊणागाई,दोहिं अडयालेहिं सएहिं लानामेकलक्षं त्रिचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकं त्रिंशदधिकंलभ्य-ते, तत मंडलं छित्ता। ता अभिवडितेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई एकेनाभिवर्द्धितमासेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-८६२८ / चरति ? ता सोलस मंडलाइं चरति, सीतालीसाएहिं भागेहिं १४३१३०।१।अत्रान्त्येन राशिना एकलक्षणेन मध्य-राशेर्गुणनं, जातः अहियाहिं चोद्दसहिं अट्ठासीएहिं सएहिं मंडलं छेत्ता।। स तावानेव, तस्याऽऽद्येन 8628 राशिना भागो ह्रियते, लब्धानि षोडश मण्डलानि, शेषमुद्रति द्वे शते द्व्यशीत्यधिके / 202 / ततश्च्छेद्य"ता अभिवड्डितेणं " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् / अभिवर्द्धितेन च्छेदकराश्योः षट्केनापवर्तना, जाता उपरि सप्तचत्वारिंशत् , अधस्तु मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति? भगवानाह-" ता षण्णरस" चतुर्दश शतान्यष्टाशीत्यधिकानि आगताः सप्तचत्वारिंशद् इत्यादि। पञ्चदश मण्डलानि चरति, षोडशस्य च मण्डलस्य त्र्यशीति अष्टाशीत्य-धिकचतुर्दशशतभागाः। षड़शीत्यधिकशतभागान् / तथाहि-अत्रैवं त्रैराशिकम्-इह युगेऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत् , सप्तचाहोरात्राः, एकादश (47) संप्रत्येकैकेनाहोरात्रेण चन्द्राऽऽदयः प्रत्येकं कति मण्डमुहूर्तास्त्रयोविंशतिश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य / एषां च राशिः सांऽश इति लानि चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाहतत्त्रैराशिककर्मविषयः / ततः परिपूर्णमासप्रतिपत्त्यर्थमय राशिः ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं चंदे कति मंडलाइं चरति ? ता एगं षट्पञ्चाशदधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि परिपूर्णानि नवाशीतिश- अद्धमंडलं चरति, एकतीसाए भागेहिं ऊणं णवहिं पण्णरसे हिं तान्यष्टाविंशत्यधिकान्यभिवर्द्धितमासानाम् / किमुक्तं भवति ? सतेहिं अद्धमंडलं छेता / ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं सूरिए कति षट्पञ्चाशदधिकशतसंख्येषु युगेष्वेतावन्तः परिपूर्णाः अभिवर्द्धितमासा मंडलाइं चरति? ता एग अद्धमंडलं चरति। ता एगमेगेणं अहोलभ्यन्ते / एतच्च द्वादशप्राभृते सूत्रकृतैव साक्षादभिहितम् / रत्तेणं णक्खत्ते कति मंडलाइंचरति? ता एगं अद्धमंडलं चरति, ततस्वैराशिककर्मावतारः / यद्यष्टाविंशत्यधिकैरभिवर्द्धितमासैनवा- दोहिं भागेहिं अधियं सत्तहिं दुतीसेहिं सएहिं अद्धमंडलं छेत्ता। शीतिशतैः षट्पञ्चाशदधिकशतसंख्यया युगभाविभिश्वान्द्रमण्डला- " ता एगमेगेणं " इत्यादि।'ता' इति पूर्ववत् / एकैके नाहोरानामेकलक्षं सप्तत्रिंशत्सहस्राणि नवशतानि चतुरूत्तराणि लभ्यन्ते, तत | त्रेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ? भगवानाह- " ता एगं"
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________________ जोइसिय 1611 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसिय इत्यादि / एकमर्द्धमण्डलं चरति, एकत्रिंशता भागैन्यून नवभिः पञ्चदशोत्तरैः शतैरर्द्धमण्डलं छित्त्वा / तथाहि-रात्रिन्दिवानामष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तदश शतान्यष्टषष्ट्यधिकान्यर्द्धमण्डलानां चन्द्रस्य लभ्यन्ते, तत एकेन रात्रिन्दिवेन किलभ्यते ? राशित्रयस्थापना-१८३० / १७६८।१।अत्राप्यन्त्येनराशिनैककलक्षणेन मध्यराशिगुण्यते, जातः स तावानेव, तस्याऽऽद्येन 1830 राशिना भागहरण, स चोपरितनस्य राशेः स्तोककत्वाद्भागं न लभते / ततश्छेद्यच्छेदकराश्योर्द्विकेनापवर्तना, जात उपरितनो राशिरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि, अधस्तनो नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि / तत आगतमेकत्रिंशता भागैन्यूँनमेकमर्द्धमण्डलं नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः प्रविभक्तमिति।" ता एगमेगेणं " इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह-" ता एगमेगेणं " इत्यादि। एकमद्धमण्डलं चरति। एतच सुप्रतीतमेव।" ता एगमेगेणं' इत्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- " ता एगमेगेणं " इत्यादि / एकमर्द्धमण्डलं द्वाभ्या भागाभ्यामधिकं चरति, द्वा-त्रिंशदधिकैः सप्तभिः शतैरर्द्धमण्डलं छित्त्वा / तथाहि-यद्यहोरात्राणामष्ठादशभिः शतैस्त्रिशदधिकैरष्टादशशतानि पात्रिंशदधिकानि नक्षत्राणामर्द्धमण्डलानि लभ्यन्ते, तत एकेनाहोरात्रेण कि लभ्यते ? राशित्रयस्थापना-१८३० / 1835 / 1 / अत्रान्त्येन राशिनैककरूपेण मध्यराशेर्गुणना, जातः स तावानेव, तस्याऽऽद्येन 1830 राशिना भागहरणं, लब्धमेकमर्द्धमण्डलं, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च / ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरर्द्धतृतीयरपवर्तना, जातावुपरि द्वौ अधस्तात्सप्त शतानि द्वात्रिंशदधिकानि, लब्धौ द्वौ द्वा-त्रिंशदधिकसप्तशतभागौ। (48) अधुना एकैकं परिपूर्ण मण्डलं चन्द्राऽऽदयः प्रत्येक कतिभिरहोरात्रैश्चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाहता एगमेगं मंडलं चंदे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरति ? ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरति, एक्कतीसाए भागेहिं अहिंगेहिं चउहिं चोतालेहिं सतेहिं राइदिएहिं छेत्ता / ता एगमेगं मंडलं सूरे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरति ? ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरति / ता एगमेगं मंडलं णक्खत्ते कतिहिं अहोरत्तेहिं चरति ? ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरति, दोहिं भागेहिं ऊणेहिं तिहिं सत्तहिहिं सतेहिं राइंदियं छेत्ता। " ता एग '' इत्यादि / ' ता इति पूर्ववत् / एकैकं मण्डल चन्द्रः कतिभिरहोरात्रैश्चरति ? भगवानाह- " ता दोहिं " इत्यादि / द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति, एकत्रिंशता भागैरधिकाभ्यां चतुर्भिश्चत्वारिशदधिकैः शतै रात्रिन्दिवं छित्त्वा / तथाहि-यदि चन्द्रस्य मण्डलानामष्टभिः शतैश्चतुरशीत्यधिकैरहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि लभ्यन्ते, तत एकेन मण्डलेन कति रात्रिन्दिवानि लभामहे ? राशित्रयस्थापना-८८४ / 1830 / 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातः स तावानेव, तस्याऽऽद्येन राशिना चतुरशीत्यधिकाटशतप्रमाणेन भागहरणं, लब्धौदावहोरात्रौ, शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः। 62 / ततश्छेद्यच्छेदकराश्योकिनापवतना, जात उपरितनो राशिरेकत्रिंशदूपोऽधस्तनश्चत्वारि शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि। 37 / तत आगतमेकत्रिंशद् द्विचत्वारिंशदधिकचतुःशतभागाः।" ता एगमेगंइत्यादि। ' ता ' इति पूर्ववत् / एकैकं मण्डलं सूर्यः कतिभिरहोरात्रैश्चरति ? भगवानाह-"ता दोहिं" इत्यादि। द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति। तथाहियदि सूर्यस्य मण्डलानां नवभिः शतैः पश्चदशोत्तरैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणां लभ्यन्ते, तत एकेन मण्डलेन कत्यहोरात्रान् लभामहे ? राशित्रयस्थापना-६१५ | 1830 / 1 / अत्रान्त्येन राशिना मध्य-राशेर्गुणनं, जातः स तावानेव, तस्याऽऽद्येन६१५ राशिना भागहरण, लब्धौ द्वावहोरात्राविति।" ता एगमेगं" इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। एकैकमात्मीयं मण्डलं नक्षत्रं कतिभिरहोरात्रैश्चरति ? भगवानाह।' ता दोहिं " इत्यादि / द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति, द्वाभ्यां भागाभ्यां हीनाभ्यां त्रिभिः सप्तषष्टः सप्तषष्ट्यधिकैः शतै रात्रिन्दिवं छित्त्वा / तथाहियदि नक्षत्रस्य मण्डलानामष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकैः षत्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि रात्रिन्दिवाना लभामहे, तदैकेन मण्डलेन किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-१८३५ / ३६६०।१।अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेस्ताडना, जातः स तावानेव, तस्याऽऽद्येन 1835 राशिना भागहरणं, लब्धमेकं रात्रिन्दिवं, शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पक्षाविंशत्यधिकानि / 1825 / ततश्छे द्यच्छेदकराश्यो: पञ्चकेनापवर्त्तना। जात उपरितनो राशिस्त्रीणि शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि 365 / छेदकराशिस्त्रीणि शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि, 367 तत आगतं द्वाभ्यां सप्तषष्ट्यधिकशतभागाभ्यां हीनं द्वितीयं रात्रिन्दिवमिति। (46) संप्रति चन्द्राऽऽदयः प्रत्येकं कति मण्डलानि युगे चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाहता जुगेणं चंदे कति मंडलाइं चरति ? ता अट्ठचुलसीते मंडलसते चरति / ता जुगेहिं सूरे कति मंडलाई चरति ? ता णव पण्णरसे मंडलसते चरति / ता जुगेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति? ता अट्ठारस पणतीसे दुभागमंडलसते चरति / / "ता जुगेणं'' इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। युगेन कति मण्ड-लानि चरति ? भगवानाह-"ता अट्ठ" इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् / अष्टो मण्डलशतानि चतुरशीत्यधिकानि चरति / तथाहि-चन्द्र एके न शतसहस्रेणाष्टानवत्या शते प्रविभक्तस्य मण्डलस्याष्टषष्ट्यधिकसप्तदशशतसंख्यान् भागान् एकेन मुहूर्तेन गच्छति / युगे च मुहूर्ताः सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि, नव शतानि, ततः सप्तदश शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि चतुःपञ्चाशता सहस्रैर्नवभिश्च शतैर्गुण्यन्ते, जाता नव कोटयः, सप्ततिर्लक्षारित्रषष्टिः सहस्राणि, द्वे शते 67063200 / ततोऽस्य राशेरेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः 106800 मण्डलाऽऽनयनाय भागो हियते, लब्धानि अष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानामिति / " ता जुगेण " इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- " ता नव पणरस " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् / नव मण्डलशतानि पञ्चदशाधिकानि चरति / तथाहि-यदि द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामेकं सूर्यमण्डलं लभ्यते, ततः सकलयुगमाविभिरष्टादशभिरहोरात्रशतै स्त्रिशदधिकैः कति मण्डलानि लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-२।१।१८३० / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि 1830 / तेषामाद्येन राशिना द्विकरूपेण भागहरणं,
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________________ जोइसिय 1612 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोइसियमंडल लब्धानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 615 / " ता जुगेण" इत्यादि | जोइसियमंडल-न०(ज्योतिष्कमण्डल) चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रताराणां नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह-"ता अट्टार-स" इत्यादि। मण्डले, जं०७ वक्ष० / (ज्योतिष्कमण्डलनिष्पत्तिस्वरूप ' मंडलं ' अष्टादशद्विभागमण्डलशतानि अर्द्धमण्डलशतानि पञ्चविंशानिपञ्चत्रिंश- शब्दे वक्ष्यते) (अथ सूर्यमण्डलानां मिथश्चन्द्रमण्डलानां चान्तराणि' दधिकानि चरति / तथाहि-नक्षत्रमेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः अंतर' शब्दे प्रथमभागे 66 पृष्ठे द्रष्टव्यानि) प्रविभक्तस्य मण्डलसत्कान् पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादशशतसंख्यान् भागान् अथ कति मण्डलानि द्वीपे, कति च निषधलवणे चन्द्रसूर्यएकेन मुहूर्तेन गच्छति, युगे च मुहूर्ताः सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि, योर्भवन्तीतयाहनव शतानि। ततस्तैः चतुष्पञ्चाशता सहरौर्नवभिः शतैरष्टादश शतानि संततमंतरमेयं, रवीण पणसट्ठि मंडला दीवे। पञ्चत्रिंशदधिकानि गुण्यन्ते, जाता दश कोटयः, सप्तलक्षाः, एकचत्वा तत्थ विसट्ठि निसड्डे, तिन्नि अवाहाऐं तस्सेव // 11 // रिंशत् सहस्राणि, पञ्चशतानि 100741500 / अर्द्धमण्डलानि चेह ज्ञातुमि-ष्टानि, तत एकस्य शतसहस्रस्याष्टानवतेश्च यानि सन्तत निरन्तरम् , एतत्पूर्वोक्त सूर्याचन्द्रयोश्च मध्ये प्रविशतोर्बहिचतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि, तैर्भागो हियते, लब्धानि अष्टादश निर्गच्छतोश्च मण्डलानां परस्परमन्तरं ज्ञेयं, तत्र रख्योः पञ्चषष्टिमशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्द्धमण्डलानामिति / सू० प्र० 15 पाहु०। ण्डलानि द्वीपे, तत्रापि द्वाषष्टि निषधपर्वते, त्रीणि च तस्य बाहायाम्। इदं चं० प्र०। ज्यो०।द०प०1 तु श्रीमुनिचन्द्रसूरिभिरुक्तं समवायाङ्गवृत्तौ / त्रिषष्टिस्थाने जम्बूद्वीपस्य (50)" चंदेहि उ सिग्घयरा, सुरा सूरेहिँ तह गहा सिग्या। पर्यन्तिमेऽशीत्युत्तरे योजनशते पञ्चषष्टिर्भवन्ति / तत्र निषधपर्वत नक्खत्ता उ गहेहि य, नक्खत्तेहिं तु ताराओ।।६४ // नीलवन्तपर्वते च त्रिषष्टिः सूर्योदयाः, सूर्यमण्डलानि इत्यर्थः। तदन्येतु सव्वऽप्पगई चंदा, तारा पुण हुंति सव्वसिग्धगई। द्वेजगत्यां, शेषाणितु लवणे इत्युक्तमस्ति। संग्रहणीवृत्त्यादावपि त्रिषष्टिः एसो गईविसेसो, जोइसियाणं तु देवाणं / / 65 / / "द०प०। 2 मण्डलानि निषधनीलवतोः, द्वे द्वे हरिवर्षकोट्यादौ // 11 // (51) अथ चन्द्रसूर्यनक्षत्रताराणामल्पर्द्धिकत्वं महर्द्धिकत्वं च चंदाणं निसढे वि अ, मंडल पण गुरूवएसि दीसंति। विवक्षुराह सेसाइँ मंडलाई, दोण्ह वि जलधिस्स मज्झम्मि / / 12 / / एतेसि णं भंते ! चंदिभसूरिअगहणक्खत्ततारारूवाणं कयरे तथा चन्द्रयोर्निषधनीलवत्पर्वते एव पञ्च मण्डलानि गुरूपदेशे दृश्यन्ते। सव्वमहिड्डिआ, कयरे सव्वप्पिड्डिआ ? गोयमा ! तारारूवेहिंतो शेषाणि द्वयोरपि जलधौ खेर्दश, पञ्च शशिनश्च भवन्ति। तत्राप्ययं विशेषःणक्खत्ता महिडिआ, णक्खत्तेहिंतो गहा महिड्डिआ, गहेहिंतो 1 / 2 / 3 / 4 / 5 / 11 / 12 / 13 / 14 / 15 / एतानि चन्द्रस्य सूरिआ महिड्डिआ, सूरेहिंतो चंदा महिड्डिआ, सव्वप्पिड्डिआ सूर्यस्याऽपि साधारणानि / 6 / 7 / 8 / 6 | 10 रूपाणि पुनश्चन्द्रस्यैव तारारूवा, सव्वमहिड्डिआ चंदा। भवन्ति, न जातुचिदपि तेषु सूर्यः समायाति / चन्द्रस्य मण्डलान्तराणि "एतेसिणं " इत्यादि। एतेषां भदन्त! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां चतुर्दश सन्ति।तत्रचतुर्षु सर्वाभ्यन्तरेषु सर्वबाह्यमण्डलान्तरेषु च सूर्यस्य मध्ये कतरे सर्वमहर्द्धिकाः, कतरे च, चकारोऽत्र गम्यः। सर्वाल्पर्द्धिकाः ? प्रत्येकं द्वादश मण्डलानि स्युः, मध्यवर्तिषु षट्सु चन्द्रमण्डलान्तरेषु भगवानाह- गौतम! तारारूपेभ्यो नक्षत्राणि महर्द्धिकानि, नक्षत्रेभ्यो ग्रहा सूर्यमण्डलानि त्रयोदश भवन्ति / / 12 / / मं०। महर्द्धिकाः, ग्रहेभ्यः सूर्या महर्द्धिकाः, सूर्येभ्यश्चन्द्रा महर्द्धिकाः। अत एव चन्द्रमण्डलाऽऽदिविष्कम्भो यथासर्वाल्पर्द्धिकास्तारारूपाः, सर्वमहर्द्धिकाश्चन्द्राः / इयमत्र भावना- एगट्ठिभागें छेत्तू-ण जोयणं तस्स होंति जे भागा। गतिविचारणायां येभ्यः शीघ्रा उक्तास्ते तेभ्य ऋद्धिविचारणायामुत्क्रमतो ते चंदा छप्पन्नं, अडयालीसं भवे सूरा॥ महर्द्धिका ज्ञेया इति / जं०७ वक्ष० / जी० / सू० प्र० / चं० प्र०। एकषष्ट्या योजनप्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नं छित्त्वा तस्य भवन्ति ये भागा (चन्द्रसूर्ययोरुदयास्तमयने, तत्र बढ्यो विप्रतिपत्तयस्तन्निराकरणं च' एकषष्टिसंख्याः, ते च चन्द्राश्चन्द्रमण्डलानि षट्पञ्चाशद् भवन्ति / सूरमंडल' शब्दे वक्ष्यते) गणितप्रतिपादके ज्योतिःशाखे, न० / सूत्र० सूर्यमण्डलानि भवन्त्यष्टाचत्वारिंशद्भागाः / किमुक्तं भवति ?१श्रु०३अ०३उ०। योजनस्यैकषष्टिभागाः षट्पञ्चाशश्चन्द्रमण्डलस्य विष्कम्भपरिमाणं जोइसियदेवित्थी-स्त्री०(ज्योतिष्कदेवस्त्री) चन्द्राऽऽदिज्योति सूर्यमण्डलस्याष्टाचत्वारित् / एतदेव गव्यूत-परिमाणेन चिन्त्यते-तत्र ष्कदेवानामग्रमहिष्याम् , जी०। चतुर्गव्यूतं योजनमिति षट्पञ्चाशचतुर्भिर्गुण्यते, जाते द्वे शते से किं तं जोइसियदेवित्थियाओ? जोइसियदेवित्थियाओ चतुर्विशत्यधिके / 224 / तयोरेकषष्ट्या भागे हते लब्धास्त्रयः क्रोशाः, पंचविहाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-चंदविमाणजोइसियदेवि- एकस्य च क्रोशस्य एकचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः / विष्कम्भाड़ त्थियाओ, सूरविमाणजोइसियदेवित्थियाओ, गहविमाण- चोत्सेधं, ततोऽष्टाविंशतिरेकषष्टिभागा योजनस्योत्सेधपरिमाण जोइसियदेवित्थियाओ, णक्खत्तविमाणजोइसियदेवित्थि- चन्द्रमण्डलस्य सार्द्धगट्यूतमे क चत्वारिंशद्विसप्तत्यधिक भागा याओ,णक्खत्तविमाणजोइसियदेवित्थियाओ, ताराविमाण- गव्यूतस्य, तथा सूर्यमण्डलस्याष्टाचत्वारिंशद्दशभागा योजनस्य जोइसियदेवित्थियाओ। सेत्तं जोइसियदेवित्थियाओ। जी० चतुर्भिर्गुण्यते, जातं द्विनवत्यधिकं शतम्। 162 / तस्यैकषष्ट्या भागो 1 प्रति०। हियते, लब्धास्त्रयः क्रोशाः, क्रोशस्य च नवैकषष्टिभागा विष्कम्भार्द्धमुत्से
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________________ जोइसियमंडल 1613 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग य इत्युत्सेधपरिमाणं चतुर्विशत्येकषष्टिभागा योजनस्य। यदि वा व्यर्द्ध गव्यूतं, नव च द्वाविंशत्यधिकशतभागान् गव्यूतस्य / तथा चन्द्रस्य चन्द्रमण्डलस्य परिधेः परिमाणं द्वे योजने, त्रयः क्रोशाः, एकस्य क्रोशस्य सप्तत्रिंशदेकषष्टिभागा विशेषाधिकाः / सूर्यमण्डलस्य द्वे योजने, एकः क्रोशः, अष्टापञ्चाशश सप्तषष्टिभागाः क्रोशस्य विशेषाधिकाः / नक्षत्राऽऽदिमण्डलानां तु विष्कम्भाऽऽदिपरिमाणं संग्रहणीटीकायां तत्त्वार्थटीकायां चाभिहितमस्माभिरिति ततोऽवधार्यम्। ज्यो०७ पाहु० / (चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहताराणां मुहूर्तगति-प्रमाणं' जोइसिय' शब्दे 1605 पृष्ठे गतम्) जोइसियराय-पुं०(ज्योतिष्कराज) चन्द्रे, सूर्ये च।" चंदसूरिया य एत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवसति।" प्रज्ञा०२ पद०। स्था० सू० प्र०। जोइसियविमाण-न०(ज्योतिष्कविमान) चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रताराणां विमाने, " एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेजा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा हवंति। " प्रज्ञा०२ पद / (सर्वा विमानवक्तव्यता' विमाण' शब्दे वक्ष्यते) जोइस्सर-पुं०(योगीश्वर) योगो धर्मः शुक्लध्यानलक्षणः, स येषां विद्यते इति योगिनः साधवः, तैरीश्वरः सदुपदेशेन तेषां प्रवृत्तेस्तत्संबन्धाऽऽदिति, तेषां वा ईश्वरो योगीश्वरः / प्रभुरित्यनर्थान्तरम् / योगिनां प्रभौ, आव०४ अ०। यदुक्तम्" चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा, शुद्रोऽथ वा तापसः, किंवा तत्त्वनिवेशपेशलमतिर्योगीश्वरः कोपि वा ? इत्यस्वल्पविकल्पजल्पमुखरैः संभाष्यमाणो जनैनों रुष्टो नहि चैव हृष्टहृदयो योगीश्वरो गच्छति॥१॥" उत्त० 3 अ० / याज्ञवल्क्यमुनौ, योगिनां श्रेष्ठ च / दुर्गायाम् स्त्री०। डीप / वाच०। *योगेश्वर-पुं०।युज्यन्त इति योगा मनोवाक्कायव्यापार-लक्षणाः, तरीश्वरः प्रधानो योगेश्वरः / योगप्रधाने, आव० 4 अ० श्रीकृष्णे, दुर्गाया, वन्ध्याकर्कोटक्या च, स्त्री० डीए। वाच०। *योगिस्मर्य-त्रि०। योगिनां चिन्तनीये, आव० 4 अ०। जोईरम्हिचारण-पुं०(ज्योतीरश्मिचारण) चारणभेदे, चन्द्रार्कग्रहनक्षत्राऽऽद्यन्यतमज्योतीरश्मिसंबन्धेन भवीब चरणचडक्रमणप्रवणा ज्योतीरश्मिचारणाः / प्रव०६७ द्वार। जोईरस-न०(ज्योतिरस) रत्नभेदे, रा०। ज्ञा० / आ० म० / स्था०। ज्योतीरस नाम रत्नम्। जी०३ प्रति०। जोईरसमय-त्रि०(ज्योतीरसमय) ज्योतीरसाऽऽख्यरत्नाऽऽत्मके,' जोईरसमया उत्तरंगा।"" जोईरसमया वेसा। "ज्योतीरस नाम रत्न तन्मया वंशाः / रा०। जोक्कारकरण-न०(जोत्कारकरण) पित्रादीनां जोत्कारकरणाऽऽ-त्मके जिनभवनस्थितानामाशातनाभेदे, ध०२ अधि०। जोग- पुं०(योग) योजनं योगः / युज-घञ् / बन्धे, योगो बन्ध इत्यन र्थान्तरमिति। पं० सू० 4 सूत्र / संबन्धे, बृ०६ उ०1 आतु०। स्था। द्वा० / प्रश्न० / विशे०। संभवे, द्वा०१० द्वा०। अप्राप्तज्ञाना-ऽऽदिप्रापणे, कल्प०१क्षण। (1)" जोगक्खेम वट्टमाणा पडिवहति / " अलब्धस्येप्सितस्य वस्तुनो लाभो योगो, लब्धत्य परिपालनं क्षेम इति / ज्ञा० 1 श्रु०५ अ० / योगो बीजाऽऽधानोझेदपोषणकरणम् , क्षेमं तत्तदुपद्रवाऽऽपादनम् / रा० / संयोगे, मेलने, वर्माऽऽदिधारणे, युक्ती, शब्दाऽऽदीनां प्रयोगे, समुदायशब्दस्यावयवार्थसंबन्धे, 'योगवलं समाख्या ' इति मीमांसकाः।" योगः कर्मसु कौशलम्" इत्युक्ते यथास्थितवस्तुनोऽन्यथारूपप्रतिपादने, वाच०। विधिकत्रनुकूलपरिवारसंपत्तौ, प्रति०। द्रव्यतो बाह्ये मनोवाक्कायव्यापारे, तं०। आ० म०। आ० चू० / नं०। अनु०। नि० चू०। पं०व०। भ० / स्था० / प्रश्न० / आव०। उत्त०। सूत्र० / विशे। योगो, व्यापारः, कर्म, क्रियेत्यनर्थान्तरमिति। विशे०। आतु० / व्य० / जीत०।" जोगा मणमाईआ।" योगा मनोव्यापाराऽऽदयः / प्रति०। आचा०। स्था०। सूत्र०।" मणवयसकाइए जोगे वट्टमाणाणं " स्था०६ ठा०। (2) स च द्विधा / द्रव्ययोगो, भावयोगश्चदव्वे मणवइकाए-जोगा दव्वा दुहा उ भावम्मि। जोगो सम्मत्ताई,पसत्थ इयरो य विवरीओ।। द्रव्य इति द्वारपरामर्शः / (मणवइकाए-जोगा दव्वा इति)मनोवाक्काययोग्यानि द्रव्याणि द्रव्ययोगः / इयमत्र भावनाजीवेनागृहीतानि गृहीतानि वा स्वव्यापाराप्रवृत्तानि द्रव्ययोगः / (दुहा उ भावम्मि त्ति) द्विधैव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् द्विप्रकार एव, भावे भावविषयो योगः। तद्यथा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च। तत्र प्रशस्तः सम्यक्त्वाऽऽदिः। आदिशब्दाद् ज्ञानाऽऽवरणपरिग्रहः / प्रशस्तता चास्य प्रशस्यते युज्यते अनेनाऽऽत्माऽपवर्गेणेत्यन्वर्थबलात् / इतरो मिथ्यात्वाऽऽदियोगो विपरीतोऽप्रशस्तः, युज्यतेऽनेनाऽऽत्मा अष्टविधेन कर्मणेति व्युत्पत्तिभावात्। आ०म०१ अ०२खण्ड।"दव्वजोगोतिण्हं चउण्हं वा जोगाण जोगो। अहवा-मणवइ-कायपाओगाणि दव्याणि। भावजोगो-"जोगो विरियं थामो, उच्छा-ह परक्कमो तहा चेट्टा। सत्ती सामत्थं तिय,जोगस्स हवंति पजाया" // 1 / / सो य सम्मत्तादिअणुगतो पसत्थो, मिच्छत्तअण्णाणअविरतिगओ अपसत्थो " आ० चू० 2 अ०। (3) मनोवाक्कायाऽऽत्मको योग एकस्मिन्समये शुभोऽशुभो वा भवेन्न तूभयरूप इति प्रेरकः प्राहनणु मणवइकाओगा, सुभाऽसुभा वि समयम्मि दीसंति। दव्वम्मि मीसभावो, भवेज न उ भावकरणम्मि || 1636 / / ननु मनोवाकाययोगाः शुभा अशुभाश्च, मिश्रा इत्यर्थः / एकस्मिन् समये दृश्यन्ते / तत्कथम् ? उच्यते- " सुभोऽसुभो वा स एगसमयम्मित्ति (1635 गाथा) "तथाहि-किञ्चिदविधिनादानाऽऽदिवितरणं चिन्तयतः शुभाशुभो मनोयोगः / तथा-किमप्यविधिनैव दानाऽऽदिधर्ममुपदिशतः शुभाशुभो वाग्योगः / तथा-किमप्यविधिनैव जिनपूजावन्दनाऽऽदिकायचेष्टा कुर्वतः शुभाशुभः काययोग इति। तदेतदयुक्तम्। कुत इत्याह" दव्वम्मि " इत्यादि / इदमुक्तं भवति-इह द्विविधो योगः द्रव्यतो, भावतश्वा तत्र मनोवामययोगप्रवर्तकानि द्रव्याणि, मनोवाकायपरिस्पन्दाऽऽत्मको योगश्च द्रव्ययोगः / यस्त्वेतदुभयरूपयोगहेतुरध्यवसायः
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________________ जोग 1614 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग आह च स भावयोगः / तत्र शुभाशुभरूपाणां यथोक्तचिन्तादेशनाकायचे-टानां (6) योगप्ररूपणायाऽऽहप्रवर्तके द्विविधेऽपि द्रव्ययोगे व्यवहारनयदर्शनविवक्षामात्रेण भवेदपि तिविहे जोगे पण्णत्ते / तं जहा-मणोजोगे, वयजोगे, कायशुभाशुभत्वलक्षणो मिश्रभावः, न तु मनोवाक्काययोगनिबन्धनाध्य जोगे। वसायरूपे भावकरणे भावाऽऽत्मके योगे। अयमभिप्रायः-द्रव्ययोगो "तिविहे जोगे " इत्यादि। इह च वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसव्यवहारनयदर्शनेन शुभाशुभरूपोऽपीष्यते / निश्चयनयेन तु सोऽपि मुत्थलब्धिविशेषप्रत्ययमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वकमात्मनो वीर्ययोगः। शुभोऽशुभो वा केवलः समस्ति, यथोक्तचिन्तादेशनाऽऽदिप्रवर्तकद्र आह च-" जोगो विरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चिट्ठा / सत्ती व्ययोगाणामपि शुभाशुभरूपमिश्राणां तन्मेतनाभावात् / मनोवाक्काय सामत्थं ति य, जोगस्स हवंति पजाया " // 1 // इति / स च द्विधाद्रव्ययोगनिबन्धनाध्यवसायरूपे तु भावकरणे भावयोगे शुभाशुभरूपो सकरणोऽकरणश्च। तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयोर्जेयदृश्ययोरर्थयोः मिश्रभावो नास्ति, निश्चयनयदर्शनस्यैवाऽऽगमेऽत्र विवक्षितत्वात्। न हि केवलज्ञानं, दर्शनं चोपयुञ्जानस्य योऽसावपरिस्पन्दः प्रतिघो शुभान्यशुभानि वाऽध्यवसायस्थानानि मुक्त्वा शुभाशुभाध्यवसाय वीर्यविशेषः सोऽकरणः / स च नेहाधिक्रियते, सकरणस्यैव स्थानरूपस्तृतीयो राशिरागमे क्वचिदपीष्यते, येनाध्यवसायरूपे त्रिस्थानकावतारित्वात् / अत स्तस्यैव व्युत्पत्तिः, तमेव चाऽऽश्रित्य भावयोगे शुभाशुभत्वं स्यादिति भावः। तस्माद्भावयोग एकस्मिन्समये सूत्रव्याख्या युज्यते। जीवः कर्मभिर्येन" कम्म जोगनिमित्तं वज्झइ" शुभोऽशुभो वा भवति, न तु मिश्रः / विशे०। प्रति०। इति वचनाद् युक्ते वा प्रयुक्ते यं पर्यायं स योगो, वीर्यान्तरायत्त(४) योगाश्व दोषाय गुणाय च भवन्ति, तदेतत्प्रतिपादयति क्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति। मणो य वाय काओ य, तिविहो जोगसंगहो। ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स य गुणावहा / / " मणसा वयसा काए-ण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो। मनोयोगो, वाग्योगः, काययोगश्चेति त्रिविधो योगसंग्रहो भवति, जीवरस अप्पणिज्जो, स जोगसन्नो जिणक्खाओ॥१॥ संक्षेपतस्विधा योगो भवतीत्यर्थः / ते मनोवाकाययोगा अयुक्तस्या तेओजोगेण जहा, रत्तत्ताई घडस्स परिणामो। नुपयुक्तस्य दोषाय कर्मबन्धाय भवन्ति, युक्तस्य तु त एव गुणाऽऽवहाः जीवकरणप्पभोगे, विरियमवि अप्पपरिणामो // 2 // इति। कर्मनिर्जराकारिणः संपद्यन्ते / बृ०३ उ० / तदात्मके आश्रवद्वारभेदे, स्था० 3 ठा० 1 उ०। औदारिकाऽऽदिशरीरस्याऽऽत्मनो वीर्यस०५ सम०। योजनं योगो, जीवस्य वीर्यपरिस्पन्द इति यावत्। यदि परिणतिविशेषः काययोगः, औदारिकवै क्रियाऽऽहारकशरीरव्यावायुज्यते धावनचलनाऽऽदिक्रियासु व्यापार्यत इति योगः। कर्मणि घञ् / पाराऽऽहृतवागद्रव्यसमूहसाचिय्याजीवव्यापारो वागयोगः / नं०। पं० सं० / यद्वायुज्यते संबध्यते धावनचलनाऽऽदिक्रियासुजीवोऽनेनेति "पुनाम्नि स्था०। सूत्र० / मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य "- / / 5 / 3 / 130 / / इति करणे घप्रत्ययः। कर्म०३ कर्म०। स०। पं० यष्टिकाद्रव्यवदुपष्टम्भकरो मनोयोग इति / स चतुर्विधःसत्यमनोयोगः, सं० / आव० / अनु० / भावतः कायाऽऽदिकरणयुक्तस्याऽऽत्मनो मृषामनोयोगः। सत्यमृषामनोयोगः, असत्यमृषामनोयोगश्चेति / मनसो वीर्यपरिणतिविशेषे, स्था० 1 ठा० / अष्ट०। वायोगः करणकारणानुमतिरूपो व्यापारो मनोयोगः। एवं धाग्योगोऽपि। (5) सच मनोवाक्कायलक्षणसहकारिकारणभेदात्रिविधः एवं काययोगोऽपि। नवरं, स सप्तविधः, औदारिकौदारिकमिश्रवैक्रिय" परिणामालवणगह-णसाहणं तेण लद्धनामतिगं // " क० प्रण वैक्रियमिश्राऽऽहारकाऽऽहारक मिश्रकार्मणकाययोगभेदादिति / अस्याक्षरगमनिका-परिणमनं परिणामः / अन्तर्भूतणिजर्थात् तत्रौदारिकाऽऽदयः शुद्धाः सुबोधाः / औदारिकमिश्रस्तु औदारिक (व्यञ्जनात्-) || 5 | 3 / 132 / / इति घञ् प्रत्ययः / परिणामा एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते। यथा-गुडमिश्रंदधिन गुडतया नापि दधितया ऽऽपादानमित्यर्थः / आलम्ब्यत इत्यालम्बनम् , ' अनट् / 5 / 3 / व्यपदिश्यते, तत्ताभ्यामपरिपूर्णत्वादेत् , एवमौदारिकमिश्र कार्मणेन 124 / इतिभावेऽनट्प्रत्ययः। गृहीतिग्रहणं, तेषांसाधनं, साध्यतेऽनेनेति नौदारिकतया, नापि कार्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यमपरिपूर्णत्वादिति तस्य साधनं, योगसंज्ञिवीर्य " करणाऽऽधारे '15 / 3 / 126 / मिश्रव्यपदेशः / एवं वैक्रियाऽऽहारकमिश्रावपीति शतकटीकालेशः। इत्यनट् प्रत्ययः। तथाहि-तेन वीर्यविशेषण योगसंज्ञिते नौ प्रज्ञापनाव्याख्यानांशस्त्वेवम्-औदारिकाऽऽद्याः शुद्धास्तत्पर्याप्तकस्य, दारिकाऽऽदिशरीरप्रायोग्यान पुद्गलान् प्रथमतो गृह्णाति, गृहीत्वा च मिश्रास्त्वपर्याप्तकस्येति / तत्रोत्पत्तावौदारिककायः कार्मणेन, औप्राणाऽपानाऽऽदिरूपतया परिणमयति, परिणमय्य च तन्निसर्ग दारिकशरीरिणश्च वैक्रियाऽऽहारककरणकाले वैक्रियाऽऽहारकाभ्यां मिश्री हेतुसामर्थ्य विशेषसिद्धये तानेव पुद्गलानवलम्यते / यथा मन्दशक्तिः भवतीति, एवमौदारिकमिश्रः / तथा वैक्रियमिश्री देवाऽऽद्युत्पत्तौ कार्मणेन कश्चिन्नगरे परिभ्रमणाय यष्टिमवलम्बते, ततस्तदवष्टम्भतो जातसाम कृतवैक्रियस्य वौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकेण / आहारकमिश्रस्तु य॑विशेषः सन् तान् प्राणापानाऽऽदिपुद्गलान विसृजतीति / साधिताऽऽहारककायप्रयोजनः पुनरौदारिकप्रवेशे औदारिकेणेति परिणामाऽऽलम्बनग्रहणसाधनं वीर्य, तेन च वीर्येण योगसंज्ञिकेन कार्मणस्तु विग्रहे केवलिसमुद्घातेनेति सर्व एवायं योगः पञ्चदशधेति। मनोवाक्कायावष्टम्भतो जायमानेन (लद्धनामतिगं ति) लब्ध नामत्रिकं सङ्ग्रहोऽस्य-" सचं मोसं मीसं, असचमोसंमणो वए चेवा काओ उराल मनोयोगः, वाग्योगः, काययोग इति। तत्र मनसा करणभूतेन योगो विक्किय, आहारग मीस कम्म जोगो त्ति "॥१स्था०३ ठा० 1 उ०। मनोयोगः, वाचा योगो वाग्योगः, कायेन योगः काययोगः। कर्म० (7) कायव्यापारविशेषावेव मनोवाग्योगाविष्येते यद्यस्मात्ततोऽय५कर्म०। ___ मदोषः, न हि कायिको योगः कस्याशिदप्यवस्थायां शरीरि
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________________ जोग 1615 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग णां जन्तूनां न वर्त्तते, अशरीरिणां सिद्धानामेव तन्निवृत्तरित्यतो वाइनिसर्गाऽऽदिकालेऽपि सोऽस्त्येवेति भावः। तर्हि समुच्छिद्यतां मनोवागयोगकथा। नेत्याहकिं पुण तणुसंरंभे-ण जेण मुंचइ स वाइओ जोगो। मण्णइ य स माणसिओ, तणुजोगो चेव य विभत्तो / / 356 / / " किं पुण त्ति " तथाऽपीत्यस्यार्थे / ततश्चेदमुक्तं भवति-यद्यपि काययोगः सर्वत्रानुगतोऽस्ति, तथाऽपि येन मनोवागद्रव्याणामुपादानं करोति, स कायिको योगः। येन तु संरम्भेण तान्येव मुञ्चति, स वाचिकः / येन तु मनोद्रव्याणि चिन्तायां व्यापारयति, समानसिकः / इत्येवं तनुयोग एवैक उपाधिभेदात्रिधा विभक्त इति। एतावन्मात्रभेदेन त्रयोऽप्यमी योगा व्यवहियन्ते। परमार्थतस्त्वेक एव सर्वत्र कायिको योग इति / 356 / तथा च प्रमाणयन्तितणुजोगो चिअ मणवइ-जोगा कारण दव्वगहणाओ। आणापाण व्व न चे, तओ विजोगंतरं होज्जा / / 360 // तनुयोग एव मनोवागयोगौ, तदन्तर्गतावेवैतावित्यर्थः / इयं प्रति-ज्ञा, कायेनैव तद्रव्यग्रहणादिति हेतुः, प्राणापानवदिति दृष्टान्तः / यथाकायेन द्रव्यग्रहणात् प्राणापानव्यापारः कायिकयोगान्न भिद्यते, एवं मनोवाग्योगावपीति भावः / न चेदेव-न चेत् त्वया प्राणापानव्यापारस्तनुयोगतयाऽभ्युपगम्यते, तर्हि तकोऽपि सोऽपि प्राणापानव्यापारो योगान्तरं स्यात् , ततो योगचतुष्टयप्रसङ्गः, अनिष्टं चैतत् , तस्मात्कायिकयोग एवायमिति / / 360 / / अत्रपरःप्राहतुल्ले तणुजोगत्ते, कीस व जोगंतरं तओ न कओ? मणवइजोगा व कया, भण्णइ ववहारसिद्धत्थं / / 161 // ननुत्वदुक्तयुक्त्यैव सर्वेषां तुल्ये तनुयोगत्वे मनोवागयोगवत्कि-मिति तकोऽसौ प्राणापानव्यापारः कायिकयोगायोगान्तरं न कृतः, किमिति चतुर्थो योगो न कृत इत्यर्थः ? अथ नैवं क्रियते, तर्हि तुल्येऽपि तनुयोगत्वे मनोवाग्योगो काययोगात्किमिति पृथक् कृतौ ? तस्मात्तनुयोगत्वस्य सर्वत्र तुल्यत्वादेक एव काययोगः क्रियताम्। उपाधिभेदेन तु चत्वारो वा योगाः, क्रियन्ताम् / अन्यथा पक्षपातमात्रमेव स्याद् , न तु युक्तिरिति भावः / अत्रोत्तरमाह- ' भण्णइ ' इत्यादि। भण्यतेऽत्रोत्तरं, किं तत् ? इत्याह-व्यवहार-स्य लोकलोकोत्तररूढस्य सिद्ध्यर्थ प्रसिद्धिनिमित्तं, मनोवागयो-गावेव पृथत्कृतौ, न प्राणापानयोग इति / / 361 / / व्यवहारोऽपि किमितीत्थं प्रवृत्त इत्याहकायकिरियाऽऽहरितं, नाऽऽणापाणयफलं जह वईए। दीसइ मणुसो य फुडं, तणुजोगऽभतरो तो सो / / 362 / / कायक्रिया कायव्यापारः, तदतिरिक्तं तदभ्यधिकं प्राणापानफलं न किमपि दृश्यते। यथा वाचो मनसश्च स्फुट तद् दृश्यते। इदमुक्तं भवतियथा वाचः स्वाध्यायविधानपरप्रत्यायनाऽऽदिकं, मनसश्च धर्मध्यानाऽऽदिकं, विशिष्ट स्फुटं कायक्रियाऽतिरिक्तं फलमुपलभ्यते, नैवं प्राणापानयोः, इति तनुयोगाऽभ्यन्तरवत्येवासी प्राणापानव्यापारी व्यवह्रियते, न पृथकान च वक्तव्यंजीवत्यसावितिप्रतीतिजननाऽऽदिक प्राणापानफलमप्युपलभ्यत एवेति ; एवंभूतस्य प्रयोजनमात्रस्य सर्वत्र विद्यमानत्वाद्धावनवल्गनाऽऽदिव्यापारस्यापि पृथक् योगत्वप्रसङ्गात्, तस्माद्विशिष्ट व्यवहाराङ्गभूतपरप्रत्यायनाऽऽदिफलत्वाद्वाड् मनोयोगावेव पृथक् कृतौ, न प्राणापानयोग इति / तदेवं तनुयोगो वाइनिसर्गविषये व्याप्रियमाणो वाग्योगः, मनने तु घ्याप्रियमाणो मनोयोगः ; वाग्विषयो योगो वागयोगः, मनोविषयो योगो मनोयोग इति कृत्वा / इत्येवं तनुयोगविशेषावेव वाङ्मनोयोगौ इत्येतद्दर्शितम्।।३६२ / / अथवा स्वतन्त्रावेवैतौ इति दर्शयन्नाहअहवा तणुजोगादिअ-वइदव्वसमूहजीववावारो। सो वइजोगो भण्णइ, वाया निसिरिजए तेणं // 363 / / तह तणुवावारादिअ-मणदव्वसमूहजीववावारो। सो मणजोगो भण्णइ, मन्नइ नेयं जओ तेणं / / 364 / / अथवा-तनुयोगेन कायव्यापारेणाऽऽदृतो गृहीतो योऽसौ वाग्द्रव्यसमूहः, तेन सहकारिकारणभूतेन तन्निसर्गार्थ योऽसौ जीवस्य व्यापारः, स वाग्योगो भण्यते ; वाचा सहकारिकारणभूतया जीवस्य योगो वाग्योग इति कृत्वा / किं पुनस्तेन क्रियते? इत्याह-सैव वाक् तेन जीवव्यापारेण निसृज्यते परप्रत्यायनार्थमुच्यत इति / तथा तनुव्यापारेणाऽऽदृतो योऽसौ मनोद्रव्यसमूहः, तेन सहकारिकारणभूतेन वस्तुचिन्तनाय योऽसौ जीवस्य व्यापारः, स मनोयोगो भण्यते, मनसा सहकारिकारणभूतेन जीवस्य योगो मनोयोग इति व्युत्पत्तेः / कुतः पुनरयं मनोयोगः ? इत्याह-यतस्तेन ज्ञेयं जिनमूर्त्यादिकं मन्यते चिन्त्यतेऽतस्तस्य मनोयोगत्वमिति / तदेवमत्र पक्षे वागद्रव्यनिसर्गाऽऽदिकाले तनोापारः सन्नपि न विवक्षितः, किं तु वाड्मनोद्रव्यसचिवस्य जीवस्यैवेति स्वतन्त्रावेव वाड्मनोयोगौ, न तु तनुयोगविशेषभूताविति भावः / आनापानद्रव्यसाचिव्यात् . तन्मोचनेजन्तोस्तद्योगोऽपि स्वतन्त्रः पृथक् प्राप्नोतीति चेत् / न।" भण्णइ ववहारसिद्धत्थं। (361 गाथा) " इत्यादिना प्रतिविहितत्वादिति // विशे०॥ (8) सामान्येन योग प्ररूप्य विशेषतो नारकाऽऽदिषु चतुर्विशती पदेषु तमतिदिशन्नाहएवं णेरइयाणं विगलिंदियवजाणं० जाव वेमाणियाणं। ' एवं ' इत्यादि कण्ठ्य, नवरमतिप्रसङ्गपरिहारायेदमुक्तम् / (विगलिंदियवजाणं ति) तत्र विकलेन्द्रिया अपञ्चेन्द्रियास्तेषां ह्येके न्द्रियाणां काययोग एव, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु काययोगवाभ्योगाविति / स्था० 3 ठा० 1 उ० 1 जी०। (योगानाश्रित्य दण्डकः 'पओग ' शब्दे वक्ष्यते) उत्पलजीवानधिकृत्यते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! णो मणजोगी, णो वयजोगी, कायजोगी वा, कायजोगिणी वा // भ०११ श०१ उ०जी०। मनुष्याणां योगो यथाते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, अजोगी ? गोयमा ! मणजोगी वि, वइजोगी वि, कायजोगी वि, अजोगी वि॥
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________________ जोग 1616 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग योगद्वारे मनोयोगिनो, वाग्योगिनः, काययोगिनोऽयोगिनश्च / तत्रायोगिनः शैलेश्यवस्था प्रतिपन्नाः। जी०१ प्रति०। (पुलाकाऽऽदीनां योगो ' णिग्गंथ ' शब्दे। संयताऽऽदीनां योगः ' संजय ' शब्दे वक्ष्यते) (6) नैरयिकाऽऽदिदण्डकेषु समविषमयोगावधिकृत्य योगाधिकारादेवेदमाह दो भंते ! णेरइया पढमसमयउववण्णगा किं समजोगी, विसमजोगी ? गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय समजोगी, सिय विसमजोगी? गोयमा ! आहारयाओ वा से अणाहारए, अणाहारयाओ वा से आहारए, सियहीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए, जइ हीणे असंखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा, अइ अब्भहिए असंखेज्जइभागमब्भहिए वा, संखेज्जइभागमभहिए वा, संखेजगुणमब्भहिए वा, असंखेज्जगुणमब्भहिए वा, से तेणढेणं० जाव सिय समजोगी, सि विसमजोगी, एवं० जाव वेमाणिया। " दो भंते ! " इत्यादि / प्रथमः समय उपपन्नयोर्ययोस्तौ प्रथमसमयोपपन्नौ, उत्पत्तिश्चेह नरकक्षेत्रप्राप्तिः, सा च द्वयोरपि विग्रहेण, ऋजुगत्या वा, एकस्य वा विग्रहेण, अन्यस्य च ऋजुगत्येति / (समजोगि त्ति) समो योगो विद्यते ययोस्तौ समयोगिनी, एवं विषमयोगिनौ / "आहारयाओ वा" इत्यादि। आहारकाद्वा, आहारकं नारकमाश्रित्य (से ति) स नारकोऽनाहारकः / अनाहरकाद्वा, अनाहारक नारकमाश्रित्याहारकः / किमित्याह ?-(सिय हीण त्ति) यो नारको विग्रहाभावेनागत्याऽऽहारक एवोत्पन्नोऽसौ निरन्तराऽऽहारकत्वादुपचित एव, तदपेक्षया च यो विग्रहगत्याऽनाहारको भूत्वोत्पन्नोऽसौ हीनः पूर्वमनाहारकत्वेनानुपचितत्वाद्वीनयोगत्वेन च विषमयोगी स्यादिति भावः / (सिय तुल्ले त्ति) यौ समानसमयया विग्रहगत्याऽनाहारको भूत्वोत्पन्नौ, ऋजुगत्या वा गत्योत्पन्नौ, तयोरेक इतरापेक्षया तुल्यः, समयोगी भवतीति भावः / (अन्भहिए त्ति) यो विग्रहाभावेनाहारक एवाऽऽगतोऽसौ विग्रहगत्यनाहारकापेक्षयोपचिततरत्वेनाभ्यधिको विषमयोगीतिभावः / इह च-"आहारयाओ वा से अणाहारए'' इत्यनेन हीनतायाः," अणाहारयाओ वा आहारए" इत्यनेन चाभ्यधिकताया निबन्धनमुक्तम् / तुल्यतानिबन्धनं तु समानधर्मतालक्षणं प्रसिद्धत्वानोक्तमिति। भ०२५ श०१ उ०। (सयोगिमनोयोगिवागयोगिकाययोग्ययोगिकानामल्पबहुत्वं, संसारसमापन्नजीवानां योगाल्पबहुत्वं च ' अप्पाबहुय ' शब्दे प्रथमभागे 656 पृष्ठ द्रष्टव्यम् / एकेन्द्रियाऽऽदीनां योगसंभवो, अनन्तानुबन्ध्युदयरहिते मिथ्यादृष्टौ यावन्तो योगास्तेऽपर्याप्ताना योगवृद्धश्च स्थितिबन्ध प्रस्तावे' बंध ' शब्दे दृश्याः) श्रुतोपदिष्ट संयमहेतौ सम्यङ्मनोवाक्कायव्यापारे च। योगाः श्रुतोपदिष्टाः संयमहेतव व्य०१ उ०। योगाः सम्यङ्मनोवाक्कायव्यापारा इति। अने० 3 अधिक। योगो विशिष्टमनोवाकायव्यापार इति च। सूत्र०१ श्रु०८ अ० ध्यानविशेषे, पो०२ विव० / आत्माभ्यन्तरपरिणामे, द्वा०१६ द्वा०। (10) कतिविधो योग इत्याह सालम्बनो निराल-म्बनश्च योगः पुरो द्विधा ज्ञेयः। जिनरूपध्यानं ख-ल्वाद्यस्तत्तत्त्वगस्त्यपरः // 1 // सह आलम्बनेन चक्षुरादिज्ञानविषयेण प्रतिमाऽऽदिना वर्तते इति सालम्बनः, निरालम्बनश्चाऽऽलम्बनाद्विषयभावापत्तिरूपानिष्क्रान्तो निरालम्बनः, यो हि छद्मस्थेन ध्यायते, नच स्वरूपेण दृश्यते, तद्विषयो निरालम्बन इति यावत् / योगोध्यानविशेषः, परः प्रधानो, द्विधा शेयो द्विविधो वेदितव्यः। जिनरूपस्य समवसरणस्थितस्य, ध्यानं चिन्तनं, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, आद्यः प्रथमः, सालम्बनो योगः / तस्यैव जिनस्य तत्त्वं केवलजीवप्रदेशसनातरूपं केवलज्ञानाऽऽदिस्वभावं, तस्मिन् गच्छतीति तत्तत्त्वगः / तुरेवका-रार्थः, अपरोऽनलम्बनः, मुक्तपरमात्मस्वरूपध्यानमित्यर्थः // 1 // ___ कथं पुनर्जिनरूपं ध्यातव्यमित्याहअष्टपृथग्जनचित्त-त्यागाद्योगिकुलचित्तयोगेन। जिनरूप ध्यातव्यं, योगविधावन्यथा दोषः।।२।। अष्ट च तानि पृथगजनचित्ताति च, तेषां त्यागात्परिहारात्, योगिकुलस्य चित्तं मनः, तद्योगेन तत्संबन्धि, जिनरूपं परमाऽऽत्मरूपं, ध्यातव्यं ध्येयं, योगविधौ योगविधाने, अन्यथा दोषोऽपराधः / / 2 / / तान्येव चाष्टौ चित्तान्याहखेदोद्वेगक्षेपो-त्थानभ्रान्त्यन्यमुदुगाऽऽसङ्गैः। युक्तानि हि चित्तानि, प्रबन्धतो वर्जयेद् मतिमान् / / 3 / / खेदः श्रान्तता, क्रियास्वप्रवृत्तिहेतुः, पथि परिश्रान्तवत् / खेदाभावेऽप्युद्वेगः, स्थानस्थितस्यैव उद्विग्नता, कुर्वाणोऽप्युद्विग्नः कुरोति नसुखं लभते। क्षेपः क्षिप्तचित्तता, अन्तराऽन्तराऽन्यत्र न्यस्तचित्तवत्। उत्थानं चित्तस्याप्रशान्तवाहिता, मनःप्रभृतीनामुद्रेकाद् मदावष्टब्धपुरुषवत्। भ्रान्तिरतस्मिस्तद्ग्रहरूपा, शुक्तिकायां रजताध्यारोपवत्। अन्यमुद् अन्यहर्षः / रुग् रोगः, पीडाभङ्गो वा / आसङ्गोऽभिष्वङ्गः / खेदोरेगश्च, क्षेपश्चोत्थानं च, भ्रान्तिश्चान्यमुच्च, रुक् चाऽऽसङ्गश्च, तैर्युक्तानि हि संबद्धानि हि, चित्तानि प्रस्तुतान्यष्ट, प्रबन्धतः प्रबन्धेन, वर्जयेत्परिहरेत् , मतिमान् बुद्धिमान् / / 3 / / खेदाऽऽदींश्चित्तदोषान् फलद्वारेणोपदर्शयन्नाहखेदे दायाभावा-न्न प्रणिधानमिह सुन्दरं भवति / एतचेह प्रवरं, कृषिकर्मणि सलिलवद् ज्ञेयम्॥ 4 // खेदे चित्तदोषे सति, दाढ्याभावाद् दृढत्वाभावाद् , न प्रणिधानमैकाग्रयम् , इह प्रस्तुते योगे, सुन्दरं भवति / एतच्च प्रणिधानम् , इह योगे, प्रवरं प्रधानं, कृषिकर्माणि धान्यनिष्पत्तिफले, सलिलवजलवज्ज्ञेयम् // 4 // उद्वेगे विद्वेषा-द्विष्टिसमं करणमस्य पापेन। योगिकुलजन्मबाधक-मलमेतत्तद्विदामिष्टम् / / 5 / / उद्वेगे चित्तदोषे, विद्वेषाद्योगविषयतो, विष्टिसमं राजविष्टिकल्पं, करणमस्य योगस्य, पापेन हेतुभूतेन, एतच्चैवं विधं करणम्,
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________________ जोग 1617 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग योगिनां कुले यज्जन्म, तस्य बाधकम् / अनेन योगिकुलजन्मापि | जन्मान्तरे न लभ्यते इति कृत्वा योगिकुलजन्मबाधकम् , अलमत्यर्थम्, एतत्तद्विदामिष्टं योगविदामभिमतम्॥ 5 // क्षेपेऽपि चाप्रबन्धा-दिष्टफलसमृद्धये न जात्वेतत्। नासकृदुत्पाटनतः, शालिरपि फलाऽऽवहः पुंसः॥६॥ क्षेपेऽपि च चित्तदोषे, अप्रबन्धात्प्रबन्धत्वाभावात् , चित्तस्य इष्टफलसमृद्धये विवक्षितफलसमृद्ध्यर्थ योगनिष्पत्तये, न, जातु कदाचित् , एतत्करणं, चित्तं वा भवति। किमित्यन्यत्रान्यत्र चित्तप्रक्षेपे फलसमृद्धिर्न भवतीति ? आहनासकृदनेकशः, उत्पाटनत उत्खननात् , शालिरपि धान्यविशेषः, फलाऽऽवहः फलसंयुक्तः, पुंसः पुरुषस्य यतो भवति॥६॥ उत्थाने निर्वेदात् , करणमकरणोदयं सदैवास्य / अत्यागत्यागोचित-मेतत्तु स्वसमयेऽपि मतम् / / 7 / / उत्थाने चित्तदोषे सत्यप्रशान्तवाहितायां, निर्वेदाद्धेतोः, करणं निष्पादनम् , अकरणोदयं भाविकालमाश्रित्याकरणस्यैवोदयो यस्मिन्निति तत्तथा, सदैवास्य योगस्य, न विद्यते त्यागो यस्य कथञ्चिदुषादेयत्वात्तदत्याग, त्यागायोचित योग्यम् , अप्रशान्तवाहितादोषात्। अत्यागं च तत्त्यागोचितं च अत्यागत्यागोचितम् , एतत्तु एतत्पुनः, करणमभिसंबध्यते। स्वसमयेऽपि स्वसिद्धान्तेऽपि, मतमिष्टम् // 7 // भ्रान्तौ विभ्रमयोगद् , न हि संस्कारः कृतेतराऽऽदिगतः। तदभावे तत्करणं, प्रक्रान्तविरोध्यनिष्टफलम् // 8 // भ्रान्तौ चित्तदोषे सति, विभ्रमयोगान्मनोविभ्रमसंबन्धात्, न हि संस्कारो नैव वासनाविशेषः, कृतेतराऽऽदिगतः-इदं मया कृतमितरदकृतम्।। आदिशब्दादिदं मयोचरितमिदमनुच्चरितम् / एतद्गत एतद्विषयः। न हि मनोविभ्रमे कृतेतराऽऽदिसंस्कारोभवति / तदभावे संस्काराभावे, तत्करणंतस्य प्रस्तुतस्य योगस्य करण, प्रक्रान्तविरोधि प्रस्तुतयोगविरोधि, अनिष्टफलमिष्टफलरहितम्॥८॥ अन्यमुदि तत्र रागात् , तदनादरताऽर्थतो महापाया। सर्वानर्थनिमित्तं, मुद्विषयाङ्गारवृष्ट्याभा।। 6 / / अनुष्ठीयमानादन्यत्र मुत्प्रमोदः, तस्यां सत्यां चित्तदोषरूपायां, तत्रान्यस्मिन् वा, रागादभिलाषाऽतिरेकात् , तदनादरता अनुष्ठीयमानानादरभावो, अर्थतः सामर्थ्यात् . महापाया महानपायो यस्याः सकाशात्सा तथा, सर्वानर्थनिमित्तं सर्वेषामनर्थानां हेतुः, तदनादरताऽभिसंबध्यते / मुद्विषयाङ्गारवृष्ट्याभामुदो हर्षस्य विषयो यस्तस्मिन्नङ्गारवृष्ट्याभाऽङ्गारवृष्टिप्रतिच्छायाऽङ्गारवृष्टिसदृशी, प्रमोदविषयार्थोपघातकारिणीत्यर्थः / इयं चान्यमुत्सुन्दरेष्वपि शास्त्रोक्तेषु चैत्यवन्दनास्वाध्यायकरणाऽऽदिषु श्रुतानुरागाचैत्यवन्दनाऽऽद्यनाद्रियमाणस्य तत्करणवेलायामपि तदुपयोगाभावेनेतरत्राऽऽसक्तचित्तवृत्तेः सदोषा, न हि शास्त्रोक्तयोरनुष्ठानयोरयं विशेषः समस्तियदुतकमादरविषयो, अन्यदनादरविषय इति।। 6 / / रुजि निजजात्युच्छेदात् , करणमपि हि नेष्टसिद्धये नियमात्। अस्येत्यननुष्ठानं, तेनैतद् बन्ध्यफलमेव / / 10 // रुजि रोगे चित्तदोषे सति, निजजात्युच्छेदादिति। कोऽर्थः ? करणमपि हि नेष्टसिद्धये नाभिमतफलनिष्पत्तये, नियमान्नियमेत, अस्य प्रस्तुतस्यार्थस्य, इत्यननुष्ठानम्-इतिहेतोरननुष्ठानमकरणं, तेन कारणेन, एतत्करणं, बन्ध्यफलमेवेष्टफलाभावात् / इयं हि राम्भङ्गरूपा पीडारूपा वाऽनुष्ठानजातेरुच्छे दकरणद्वारेण सर्वानुष्ठानानां बन्ध्यफलत्वाऽऽपादनाय प्रभवति, तेन सदोषा विवेकिना परिहर्तव्यति दर्शिता / / 10 // आसङ्गेऽप्यविधाना-दसङ्गसक्त्युचितमित्यफलमेतत् / भवतीष्टफलदमुच्चै-स्तदप्यसङ्गं यतः परमम्॥१॥ आसङ्गेऽपि चित्तदोषे सति विधीयमानानुष्ठाने इदमेव सुन्दरमित्येवं रूपे, अविधानाच्छास्त्रोक्तविधेरभावात् , सक्तिरनवरतप्रवृत्तिर्न विद्यते सङ्गो यस्यां सेयमसङ्गाऽभिष्वङ्गागाववती, असङ्गा चासौ सक्तिश्च, तस्या उचितं योग्यमिति कृत्वा, अफलमेतदिष्टफलरहितमेतदनुष्ठानम्, भवति जायते, इष्टफलदमिष्टफलसंपादकम् , उचैरत्यर्थं, तदपि शास्त्रोक्तमनुष्ठानम् , असङ्गमभिष्वङ्गरहितम्, यतो यस्मात् , परमं प्रधानम् / असङ्गयुक्तं ह्यनुष्ठानं तन्मात्रगुणस्थानकस्थितिकार्येव, न मोहोन्मूलनद्वारेण केवलज्ञानोत्पत्तये प्रभवति, तस्मात्तदर्थिना आसङ्गस्य दोषरूपता विज्ञेयेति // 11 // एवमष्टपृथग्जनचित्तदोषान् प्रतिपाद्य, तत्त्यागद्वारेण योगिचित्तमुपदर्शयन्नाहएतद्दोषविमुक्तं, शान्तोदात्ताऽऽदिभावसंयुक्तम्। सततं परार्थनियतं, सङ्क्लेशविवर्जितं चैव / / 12 / / एतद्दोषविमुक्तमष्ट चित्तदोषकवयुक्तम् , शान्तोदात्ताऽऽदिभावसंयुक्तम्शान्त उपशमवान्। यथोक्तम्-"न यत्र दुःखं नसुखं न रागो, न द्वेषमोहौ न चकाचिदिच्छा। रसः स शान्तो विहितो मुनीनां, सर्वेषु भावेषु समः प्रदिष्टः / / 1 / / " उदात्त उदारः / यत उक्तम्-" अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसाम् / उदारचरितानां तु , वसुधैव कुटुम्बकम् / / 1 / / ' आदिशब्दाद्गम्भीरधीराऽऽदिभावपरिग्रहः / तैः संयुक्तं समन्वितम्, सततमनवरतम् , परार्थनियतं परोपकारनियतवृत्ति, सक्लेशविवर्जितं चैवसङ्क्लेशो विशुद्धिप्रतिपक्षः कालुष्यं, तेन विरहितं चैव / / 12 // सुस्वप्नदर्शनपरं, समुल्लसद्गुणगणौघमत्यन्तम् / कल्पतरुबीजकल्पं, शुभोदयं योगिनां चित्तम् / / 13 / / सुस्वप्नदर्शनपरं-शोभनाः स्वप्नाःसुस्वप्नाःश्वेतसुरभिपुष्पवस्वाऽऽतपत्रचामराऽऽदयः, तद्दर्शनप्रवृत्तम् , समुल्लसन् गुणगणोधो गुणनिकरप्रवाहो यस्मिस्तत्समुल्लसद्गुणगणौघम् , अत्यन्तमतिशयेन, कल्पतरुबीजकल्पं, कल्पतरोबीजं स्वजनकं कारणं तेन तुल्यम्, शुभोदयं योगिनां चित्तं, शुभ उदयोऽस्येति शुभोदयम् / / 13 / / कस्य पुनरेवंविधं विशेषेण योगिनश्चित्तं भवतीत्याहएवंविधमिह चित्तं, भवति प्रायः प्रवृत्तिचक्रस्य। ध्यानमपि शस्तमस्य, त्वधिकृतमित्याहुराचार्याः / / 14 / / एवंविधमेवस्वरूपम् इह प्रक्रमे, चित्तं मनः, भवति सम्भवति, प्रायो बाहुल्येन, प्रवृत्तचक्रस्य प्रवृत्तरात्रिन्दिवानुष्ठानसमूहस्य योगिनः, ध्यानमपि पूर्वोक्तस्वरूपम् , शस्तं प्रशस्तम् , अस्य त्वस्यैव, अधिकृतं प्रस्तुतम् इत्याहुराचार्याः सुरयो बुवते।। 14 //
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________________ जोग 1618- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोग ___ कथं पुनस्तद्ध्यानं देशाऽऽद्यपेक्षया भवतीत्याहशुद्धे विविक्तदेशे, सम्यक्संयमितकाययोगस्य / कायोत्सर्गेण दृढं, यदा पर्यबन्धेन / / 15 / / शुद्ध शुचौ, विविक्तदेशे जनाऽऽकीर्णाऽऽदिरहिते, सम्यगवैपरीत्येन, संयमितकाययोगस्य नियमितसर्वकायचेष्टस्य, कायोत्सर्गेण उद्धव स्थानरूपेण, दृढमत्यर्थम् , यद्वापर्यङ्कबन्धेनाऽऽसनविशेषरूपेण / / 15 / / साध्वागमानुसारात्, चेतो विन्यस्य भगवति विशुद्धम्। स्पर्शाऽऽवेधात्तत्सि-द्धयोगिसंस्मरणयोगेन॥ 16 // साधु यथा भवत्येवमागमानुसारात् सिद्धान्तानुसारेण, चेतश्चित्तम् , विन्यस्य निक्षिप्य, भगवति जिने, विशुद्ध विशुद्धिमत् , स्पर्शस्तत्त्वज्ञानम् , तरयाऽऽवेधात् संस्कारात्, तस्मिन्ध्याने, सिद्धाः प्रतिष्ठिता लब्धाऽ5त्मलाभाये योगिनस्तेषां संस्मरणयोगः स्मरणव्यापारः, तेन। यो हियत्र कर्मणि सिद्धस्तदनुस्मरणं तत्रेष्टफलसिद्धये भवति / / 16 // षो०१४ विव०। -- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति पातञ्जलोक्ते सर्वविषयेभ्योऽन्तःकरणवृत्तेनिरोधे, वाच० / योगो मनोवाक्कायनिरोध इति / संथा०। योगश्चेन्द्रियरोधनमिति। उत्त०१२ अ०1" मोक्षण योजनादेव, योगो यत्र निरुच्यते / लक्षणं तेन तन्मुख्यहेतुव्यापारताऽस्य तु // 1 // " इत्युक्तलक्षणे मोक्षमुख्यहेतौ व्यापारे, द्वा०।। (11) योगस्य मोक्षहेतुत्वमेव मावयन्नाहमोक्षहेतुर्यतौ योगो, भिद्यते न ततः क्वचित् / साङ्ख्याभेदात् , तथाभावे, तूक्तिभेदो न कारणम् // 3 // मोक्षहेतुर्निवृत्तिनिमित्तं, यतो यस्मात् कारणात् , योगः, सर्वैर्योगशास्त्रकारैः संगीयते / भिद्यते भेदमनुभवति, न नैव, ततो मोक्षहेतुत्वाद्धेतो, क्वचिद्योगशास्त्रे / एतदपि कुतः? इत्याह-साद्ध्याभेदात्साध्यस्य योगाभ्यासनिष्पाद्यस्य मोक्षस्याभेदादेकरूपत्वात्। सकलकर्मक्लेशक्षयलक्षणो हि मोक्षः, नतत्र कश्चिद्भेद इति / एवंसति यत्सिद्धं तदाह-तथाभावे तु मोक्षाभेदभावे पुनः सति, उक्तिभेदो योगशास्त्रे स्वात्माऽऽदीनां योगाङ्गानां यो भणितः सः,नकारणं हेतुर्योगभेदस्यान हि नाममात्रभेदेन भावा भिद्यन्ते, एकस्यापि शक्राऽऽदेरनेकेन नाम्ना व्यवह्रियमाणत्वात् // 3 // अथाव विशेषमाहमोक्षहेतुत्वमेवास्य, किं तु यत्नेन धीधनैः। सद्गोचराऽऽदिसंशुद्धं, मृग्यं स्वहितकातिभिः / / 4 / / मोक्षहेतुत्वमेव मोक्षनिमित्तभाव एव, नापरं किञ्चित् , अस्य योगस्य, / किंतु केवलं, यत्नेनाऽऽदरेण, धीधनैर्बुद्धिमद्भिः , मृग्यमित्युत्तरेण योगः / कीदृशम् ? इति / आहसताऽनुपचरितेन, गोचराऽऽदिनाऽऽनन्तरमेव दर्शयिष्यमाणेन संशुद्धमनवा, मृग्यम्। कीदृशैरात्माऽऽदौ मोक्षहेतुर्योगो युज्यते इत्येवंरूपेण निपुणोहापोहयोगेन गवेषणीयम् ? स्वहितकालिभिरात्मकल्याणचिन्तकैशयोगवशनायां हि सर्वपुरुषार्थवाना नियमात्संपद्यते। यदवाचि-"एसोय उत्तमोजं, पुरिसत्थो एत्थवंचिओ नियमा। वंचिजइ सव्वेसु, कल्लाणेसुन संदेहो।' 1 // " / / 4 / / अथ कस्मादस्य गोचराऽऽदिशुद्धिम॒ग्यते? इत्याशङ्कयाऽऽह गोचरश्च स्वरूपं च, फलं च यदि युज्यते। अस्य योगस्ततोऽयं यद् मुख्यशब्दार्थयोगतः।। 5 / / गोचरो विषयः परिणामिजीवलक्षणः, स्वरूपं सर्वार्थेषूचितप्रवृत्तिलक्षणम् , फल मोक्षाऽऽत्मकम् , चकारा उक्तसमुखये / यदि इत्यभ्युपगमे / युज्यते घटते, अस्य योगस्य, योगः / ततो गोचराऽऽदियोगाद् , अथं प्रस्तुतो, यद्यस्मात्स्यात्। एतदपि कुतः? इत्याहमुख्यस्यामुपचरितस्य शब्दार्थस्थ मोक्षेण योजनाद्योग इत्येवलक्षणस्य योगतो घटनात् / / 5 / / यो० वि०। (12) योगस्य लक्षणं निरूपयन्नाहमोक्षेण योजनादेव, योगो ह्यत्र निरुच्यते। लक्षणं तेन तन्मुख्य-हेतुव्यापारताऽस्य तु / / 1 / / योगो हि योगशब्दो हि, अत्र लोके, प्रवचने वा; मोक्षेण योजनादेव, निरुच्यते व्युत्पाद्यते, तेनास्ययोगस्य तु, तन्मुख्यहेतुव्यापारता, लक्षणं, निरुक्तार्थस्याप्यनतिप्रसक्तस्य लक्षणत्वानपायात् / / 1 / / मुख्यत्वं चान्तरङ्गत्वात् , फलाऽऽक्षेपाच्च दर्शितम् / चरमे पुद्गलाऽऽवर्ते , यत एतस्य संभवः।।२।। न सन्मार्गाभिमुख्यं स्या-दावर्तेषु परेषु तु / मिथ्यात्वच्छन्नबुद्धीनां, दिङ्मूढानामिवाङ्गिनाम् / / 3 / / मुख्यत्वं चान्तरङ्गत्वान्मोक्षं प्रत्युपादानत्वात् , फलाऽऽक्षेपात्फलजननं प्रत्यविलम्बत्याच ; दर्शितं प्रवचने, यतो यस्माद् , चरमे पुद्गलाऽऽवर्ते, एतस्य योगस्य संभवः / इत्थं ह्यभव्यदुरभव्य-क्रियाव्यवच्छेदः कृतो भवति, एकस्य मोक्षानुपादानत्वादन्यस्य च फलविलम्बादिति ध्येयम् 1 // 2 // नेति स्पष्टः / / 3 / / तदा भवाभिनन्दी स्यात् , संज्ञाविष्कभणं विना। धर्मकृत् कश्चिदेवाङ्गी, लोकपक्तिकृताऽऽदरः // 4 // तदाऽचरमेष्वावर्तेषुः अङ्गी प्राणी, संज्ञाविष्कम्भणम् आहाराऽऽदिसंज्ञोदयवञ्चनलक्षणं विना, कश्चिदेव धर्मकृल्लौकिकलोकोत्तरप्रव्रज्याऽऽदिधर्मकारी, लोकपङ्क्तौ लोकसदृशभावसंपादन-रूपायां, कृताऽऽदरः कृतयत्नः स्यात् // 4 // क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः। अज्ञो भवाभिनन्दी स्याद् , निष्फलाऽऽरम्भसङ्गतः / / 5 / / क्षुद्रः कृपणः, लोभरतिर्याच्याशीलः, दीनः सदैवादृष्टकल्याणः, मत्सरी परकल्याणदुःस्थितः, भयवान्नित्यभीतः, शठो मायावी, अज्ञो मूर्खः, भवाभिनन्दी- " असारोऽप्येष संसारः, सारवानिव लक्ष्यते / दधिदुग्धाम्बुताम्बूलपण्यपण्याङ्गनाऽऽदिभिः"। 1 / इत्यादि चनैः संसाराभिनन्दनशीलः, स्याद्भवेद् , निष्फलाऽऽरम्भसङ्गतः सर्वहातत्त्वाभिनिवेशाद् बन्ध्यक्रियासंपन्नः // 5 // लोकाऽऽराधनहेतोर्या, मलिनेनान्तराऽऽत्मना। क्रियते सतक्रिया सा च, लोकपङ्क्तिरुदाहृता / / 6 // लोकाऽऽराधनहेतोलॊकचित्ताऽऽवर्जननिमित्तं, या मलिनेन कीतिस्पृहाऽऽदिमालिन्यवताऽन्तरात्मना चित्तरूपेण, क्रियते सत्क्रिया शिष्टसमाचाररूपा, सा च योगनिरूपणायां लोकपङ्क्तिरुदाहृता लोकशास्त्रज्ञैः॥६॥
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________________ जोग 1616 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग महत्यल्पत्वबोधेन, विपरीतफलाऽऽवहा! भवाभिनन्दिनो लोक-पङ्क्त्या धर्मक्रिया मता // 7 // महती अधरीकृतकल्पद्धचिन्तामणिकामधेनौ धर्म, अल्पत्वबोधेनातितुच्छकीयादिमात्रहेतुत्वज्ञानेन, विपरीतफलाऽऽवहा दुरन्तसंसारानुबन्धिनो, भवाभिनन्दिनो जीवस्य, लोकपड्क्त्या धर्मक्रिया मता, नात्र केवलमफलत्वमेव, किंतु विपरीतफलत्वमिति भावः // 7 // धर्मार्थ सा शुभायापि, धर्मस्तु न तदर्थिनः। क्लेशोऽपीष्टो धनार्थं हि, क्लेशार्थं जातु नो धनम् // 8 // धर्मार्थ सम्यग्दर्शनाऽऽदिमोक्षबीजाऽऽधाननिमित्तम् ,सा लोकपडिक्तः, दानसंमानोचितसंभाषणाऽऽदिनिश्वित्रैरुपायैः शुभाय कुशलानुबन्धायापि। धर्मस्तु तदर्थनो लोकपडक्तयर्थिनो न शुभाय, हि यतो, धनार्थ क्लेशोऽपीष्टोधनार्थिनां राजसेवाऽऽदौ प्रवृत्तिदर्शनात् / क्लेशार्थं जातु कदाचिद्, धनं नेष्टम् , न हि धनाद्मे क्लेशो भवतु इति कोपीच्छति प्रेक्षावान्। तदिदमुक्तं योगविन्दौ"धर्मार्थ लोकपक्तिः स्यात् , कल्याणाङ्ग महामतेः। तदर्थ तु पुनर्धर्मः, पापायाल्पधियामलम्।।६०॥" तथा"जनप्रियत्वं शुद्ध, सद्धर्मसिद्धिफलदमलम्। धर्मप्रशंसनाऽऽदे-बीजाऽऽधानाऽऽदिभावेन / / 1 / / '' || 8 || इति / अनाभोगवतः साऽपि, धर्माहानिकृतो वरम्। शुभा तत्त्वेन नैकाऽपि, प्रणिधानाऽऽद्यभावतः / / 6 / / अनाभोगयतः संमूर्छनजप्रायस्य स्वभावत एव वैनयिकप्रकृतेः, साऽपि लोकपड्क्त्या धर्मक्रियाऽपि, धर्माहानिकृतो धर्मे महत्वस्यैव यथास्थितस्याज्ञानाद्भवोत्कटेच्छाया अभावेन महत्यल्पत्वाप्रतिपत्तेधर्महान्यकारिणो, वरमन्यापेक्षया मनाक् सुन्दरा, तत्त्वेन तत्त्वतः, पुनर्नकाऽपि प्रणिधानाऽऽद्यभावतो नैकाऽपि वरं, प्रणिधानाऽऽदीनां क्रियाशुद्धिहेतुत्वात्॥६॥ तानेवाऽऽहप्रणिधानं प्रवृत्तिश्च, तथा विघ्नजयस्त्रिधा। सिद्धिश्च विनियोगश्च, एते कर्मशुभाऽऽशयाः॥१०॥ कर्मणि क्रियायां, शुभाऽऽशयाः स्वपुष्टिशुद्ध्यनुबन्धहेतवः-शुभपरिणामाः ; पुष्टिरुपचयः, शुद्धिश्च ज्ञानाऽऽदिगुणविघातिघातिकमहासोत्थनिर्मलता, इत्यवधेयम् // 10 // प्रणिधानं क्रियानिष्ठ-मधोवृत्तिकृपाऽनुगम् / परोपकारासारं च, चित्तं पापविवर्जितम्॥११॥ प्रणिधानं क्रियानिष्टमधिकृतधर्मस्थानादविचलितस्वभावम् , अधोवृत्तिषु स्वप्रतिपन्नधर्मस्थानादधस्ताद्वर्तमानेषु, प्राणिषु कृपाऽनुगं | करुणाऽन्वितं, न तु हीनगुणत्वेन तेषु द्वेषसमन्वितं, परोपकारसारं च | परार्यनिष्पत्तिप्रधानं च, चित्तं पापविवर्जितं सावद्यपरिहारेण / निरवद्यवस्तुविषयम्॥११॥ प्रवृत्तिः प्रकृतस्थाने, यत्नातिशयसंभवा। अन्याभिलाषरहिता, चेतःपरिणतिः स्थिरा।। 12 // प्रवृत्तिः प्रकृतस्थानेऽधिकृतधर्मविषये, यत्नातिशयसंभवा पूर्व प्रयत्नाधिकोत्तरप्रयत्नजनिता, अन्याभिलाषेणाधिकृतेतरकार्याभिलाषेण रहिता, चेतसोऽन्तरात्मनः, परिणतिः स्थिरा एकाग्रा, स्वविषय एवं यत्नातिशयाजाता तत्रैव च तज्जननीत्यर्थः / 12 / बाह्यान्ताधिमित्यात्व-जयव्यङ्ग्याऽऽशयाऽऽत्मकः। कण्टकज्वरमोहानां, जयैर्विघ्नजयः समः / / 13 / / बाह्यव्याधयः शीतोष्णाऽऽदयः, अन्तधियश्च ज्वराऽऽदयः, मिथ्यात्वं भगवद्वचनाश्रद्धानं, तेषां जयस्तत्कृतवैक्लव्यनिराकरणं तद्व्यङ्ग्याssशयाऽऽत्मकः कण्टकज्वरमोहाना जयैः समो विघ्नजयः / इत्थं च हीनमध्यमोत्कृष्टत्वेनास्य त्रिविधत्वं प्रागुक्तं व्यक्तीकृतम् / तथाहिकस्यचित् पुंसः कण्टकाऽऽकीर्णमार्गावतीर्णस्य कण्टकविघ्नो विशिष्टगमनविघः तहेतुः, तद्रहिते तु पथि प्रवृत्तस्य निराकुलंगमनं संजायते, एवं कण्ट कविघ्नजयसमः प्रथमो विघ्नजयः / तथा-तस्यैव ज्वरवेदनाऽभिभूतशरीरस्य विहृलपादन्यासस्य निराकुलं गमनं चिकीर्षोरपि तत्कर्तुमशक्नुवतः कण्टकविघ्नादप्यधिको ज्वरविघ्नः, तजयस्तु निराकुलप्रवृत्तिहेतुः / एवं ज्वरविघ्नसमो द्वितीयो विघ्नजयः। तस्यव चाध्वनि जिगमिषोर्दिड्मोहकल्पो मोहविघ्नः, तेनाभिभूतस्य प्रेर्यमाणस्याप्यध्वनीनैर्न गमनोत्साहः कथञ्चित्प्रादुर्भवति, तज्जयस्तु स्वरसतो मार्गगमनप्रवृत्तिहेतुः / एवमिह मोहविघ्नजयसमस्तृतीयो विघ्नजयः। इति फलैकोन्नेयाः खल्वेते॥१३॥ सिद्धिस्ताविकधर्माऽऽप्तिः, साक्षादनुभवाऽऽत्मिका। कृपोपकारविनया-न्विता हीनाऽऽदिषु क्रमात्॥ 14 / / सिद्धिः तात्त्विकस्याभ्यासशुद्धस्य, न त्वाभ्यासिकमात्रस्य, धर्मस्य अहिंसाऽऽदेः, आप्तिरुपलब्धिः, साक्षादनुपचारेण, अनुभवाऽऽत्मिका आत्मन आत्मना आत्मनि संवित्तिरूपा ज्ञानदर्शनचारित्रैकमूर्तिका,हीनाऽऽदिषु क्रमात् कृपोपकारविनयान्विता, हीने कृपाऽन्विता, मध्यमे उपकारान्विता, अधिके च विनययुता / / 14 / / अन्यस्य योजनं धर्म, विनियोगस्तदुत्तरम् / कार्यमन्वयसंपत्त्या, तदबन्ध्यफलं गतम्॥१५ / / अन्यस्य स्वत्यतिरिक्तस्य, योजनं धर्मेऽहिंसाऽऽदौ विनियोगः, तदुत्तरं सिद्ध्युत्तरं कार्यम् / तदन्वयसंपत्त्याऽविच्छेदसिद्ध्या, अबन्ध्यफलमव्यभिचारिफलं मतम्। स्वपरोपकारबुद्धिलक्षणस्यानेकजन्मान्तरसन्ततोद्बोधेन प्रकृष्टधर्मस्थानावाप्तिहेतुत्वात् / / 15 / / एतैराशययोगैस्तु, विना धर्माय न क्रिया। प्रत्युत प्रत्यपायाय, लोभक्रोधक्रिया यथा // 16 // एतैः प्रणिधानाऽऽदिभिः, आशययोगैस्तु विना धर्माय न क्रिया बाह्यकायव्यापाररूपा, प्रत्युतान्तर्मालिन्यसद्भावात् प्रत्यपायायेष्यमाणप्रतिपक्षविघ्नाय, यथा लोभक्रोधक्रिया कूटतुलाऽऽदिसङ्ग्रामाऽऽदिलक्षणा / तदुक्तम्-" तत्त्वेन तु पुनर्नकाऽप्यत्र धर्म-क्रिया मता। तत्प्रवृत्त्यादिवैगुण्या-ल्लोभक्रोधक्रिया यथा / / " ||62 // (यो० वि०) // 16 // तस्मादचरमाऽऽवर्ते-ध्वयोगो योगवर्त्मनः।। योग्यत्वेऽपि तृणाऽऽदीनां, घृतत्वाऽऽदेस्तदा यथा // 17 / / तस्मात्पणिधानाऽऽद्यभावात् , अचरमाऽऽवर्तेषु योगवर्मनो योगमार्गस्य, अयोगोऽसंभवः / योग्यत्वेऽपि योगस्वरुपयोग्यत्वेऽपि, तृणाऽऽदीना, तदातृणाsऽदिकाले, यथावृतत्वाऽऽदेरयोगःतृणाऽऽदिपरिणामकालेतृणाऽऽदेताऽऽदिपरि
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________________ जोग 1620 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग णामस्वरूपयोग्यत्वेऽपिघृताऽऽदिपरिणामसहकारियोग्यताऽभावाद्यथा न घृताऽऽदिपरिणामः, तथा प्रकृतेऽपि भावनीयम्। अत एव सहकारियोग्यताऽभाववति तत्र काले कार्यानुपधानम्। तद् योग्यताऽभाववत्त्वेनैव साधयितुमभिप्रेत्याऽऽह (योगविन्दौ) हरिभद्रसूरिः" तस्मादचरमाऽऽवर्ते-वध्यात्मं नैव युज्यते। कायस्थितितरोर्यद्व-तज्जन्मस्वामरं सुखम् // 63 / / तैजसानां च जीवानां, भव्यानामपि नो तदा। यथा चारित्रमित्येवं, नान्यदा योगसंभवः / / 64 // " इति। 17 / नवनीताऽऽदिकल्पस्त-घरमाऽऽवर्त इष्यते। अत्रैव विमलो भायो, गोपेन्द्रोऽपि यदभ्यधात्॥१८॥ नवनीताऽऽदिकल्पो घृतपरिणामनिबन्धननवनीतदधिदुग्धाऽऽदितुल्यः, तत्तस्मात् , चरमाऽऽवत इष्यते योगपरिणामनिबन्धनम् / अत्रैय चरमाऽऽवत एव, विमलो भावो भवाभिष्वङ्गाभाषाभ-वति / यद्गोपेन्द्रोऽपि अभ्यधाद् भङ्ग्यन्तरेण // 18 // अनिवृत्ताधिकारायां, प्रकृतौ सर्वथैव हि। नपुंसस्तत्त्वमार्गेऽस्मिन् , जिज्ञासाऽपि प्रवर्तते / / 16 / / अनिवृत्तः प्रतिलोमशक्त्याऽन्तरलीनोऽधिकारः पुरुषाभिभवनरूपो यस्यास्तस्या प्रकृतौ, सर्वथैव हि सर्वैरेव प्रकारैः, अपुनर्बन्धस्थानस्याप्यप्राप्तावित्यर्थः / न नैव, पुंसस्तत्त्वमार्गेऽस्मिन् वक्तुमुपक्रान्ते, जिज्ञासाऽपि ज्ञातुमिच्छाऽपि, किं पुनस्तदभ्यासः ? इत्यपिशब्दार्थः / प्रवर्तते संजायते॥ 16 // साधिकारप्रकृतिम-त्यावर्ते हि नियोगतः। पथ्येच्छेव न जिज्ञासा, क्षेत्ररोगोदये भवेत् / / 20 / / साधिकारा पुरुषाभिभवप्रवृत्ता या प्रकृतिः, तद्वत्यावर्ते हि, नियोगतो निश्चयतः, जिज्ञासा तत्त्वमार्गपरिज्ञानेच्छा, न भवेत् / क्षेत्ररोगोदये इव पथ्येच्छा। क्षेत्ररोगो नामरोगान्तराऽऽधारभूतः कुष्ठाऽऽदिरोगः, ततो यथा एथ्यापथ्यधीविपर्यासः, तथा प्रकृतेऽपि // 20 // पुरुषाभिभवः कश्चित, तस्यामपि हि हीयते। युक्तं तेनैतदधिक-मुपरिष्टाद् भणिष्यते / / 21 // तस्यामपि हि जिज्ञासायामपि हि सत्या, कश्चित्पुरुषाभिभवः, प्रकृतेहीयते निवर्तते, न होकान्तेनाक्षीणपापस्य विमलो भावः संभवति, तैनेतद्गोपेन्द्रोक्तं युक्तम् / अधिकमपरिणाम्यात्मपक्षे तदभिभवतन्निवृत्त्याद्यनुपपत्तिलक्षणम् , उपरिष्टादग्रिमद्वात्रिंशिकायां, भणिष्यते॥ 21 // भावस्य मोक्षहेतुत्वं, तेन मोक्षे व्यवस्थितम् / तस्यैव चरमाऽऽवर्ते, क्रियाया अपि योगतः / / 22 / / तेन भावस्यान्त परिणामस्य, मोक्षे मुख्यहेतुत्वं व्यवस्थितं, तेन स एव योग इत्युक्तं भवति / तस्यैव योगतश्चरमाऽऽवर्ते क्रियाया अपि मोक्षे मुख्यहेतुत्यम् , अतस्तस्या अपि योगत्वमिति भावः / / 22 / / रसानुवेधातम्रस्य, हेमत्वं जायते यथा। क्रियाया अपि सम्यक्त्वं, तथा भावानुबेधनः / / 23 // ताम्रस्य रसानुवेधात्सिद्धरससंपर्काद् , यथा हेमत्वं जायते, तथा / क्रियाया अपि भावानुवेधतः सम्यक्त्वं मोक्षसंपादनशक्तिरूपम्।।२३।। भावसात्म्ये त एवास्याः, भङ्गेऽपि व्यक्तमन्वयः। सुवर्णघटतुल्यां तां, बुवते सौगता अपि / / 24 / / अत एवास्याः क्रियाया भावसात्म्ये स्वजननशक्त्या भावव्याप्तिलक्षणे सति, भङ्गेऽपि तथाविधकषायोदयान्नाशेऽपि, व्यक्तं प्रकटम् , अन्वयो भावानुवृत्तिलक्षणः, तदुव्यक्त्यभावेऽपि तच्छक्त्यनपगमात् / अत एव तां भावशुद्धां क्रियां, सौगता अपि सुवर्णघटतुल्या ब्रुवते / यथा हि सुवर्णघटो भिद्यमानोऽपि न सुवर्णानुबन्धं मुञ्चति, एवं शुभक्रिया तथाविधकषायोदयाद्भग्नाऽपि शुभफलैवेति / तदिदमुक्तम्- " भाववृद्धिरतोऽवश्यं, सानुबन्धं शुभोदयम् / गीयतेऽन्यैरपि ह्येतत् , सुवर्णघटसन्निभम् / / 351 // " (यो० वि०) इति। 24 / शिरोदकसमो भावः, क्रिया च खननोपमा। भावपूर्वादनुष्ठानाद् , भाववृद्धिरतो धुवा / / 25 / / शिरोदकसमस्तयाविधकूपे सहजप्रवृत्तशिराजलतुल्यो भावः, क्रिया च खननोपमा शिराऽऽश्रयकृपाऽऽदिखननसदृशी, अतो भावपूर्वादनुष्ठानाद्भाववृद्धिधुवा, जलवृद्धौ कूपखननस्येव भाववृद्धौ क्रियाया हेतुत्वाद्भावस्य दलत्वेऽपि बहूदलमेलनरूपाया वृद्धेस्तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्॥ 25 // मण्डूकचूर्णसदृशः, क्लेशध्वंसः क्रियाकृतः। तद्भस्मसदृशस्तु स्याद् , भावपूर्वक्रियाकृतः // 26 // क्रियाकृतः केवलक्रियाजनितः, क्लेशध्वंसो रागाऽऽदिपरिक्षयः, मण्डूकचूर्णसदृशः, पुनरुत्पत्तिशक्त्यन्वितत्वात्। भावपूर्वक्रियाकृतस्तु तद्भस्मसदृशो मण्डूकभम्मसदृशः स्यात् , पुनरुत्पत्तिशक्त्यभायात्। एवं चक्लेशध्वंसविशेषजनकः शक्तिविशेष एव क्रियायां भाववृद्ध्यनुकूल इति फलितम् // 26 // तथा चविचित्रभावद्वारा तत् , क्रिया हेतुः शिवं प्रति। अस्या व्यञ्जकताऽप्येषा, परा ज्ञाननयोचिता।। 27 / / विचित्रो भावोऽध्यात्माऽऽदिरूपः,तद्वारा क्रिया, शिवं प्रति हेतुः, दण्ड इव चक्रभ्रमिद्वारा घटे / करणता च तस्याः शक्तिविशेषेण, न तु भावपूर्वकत्वेनैव, भावस्यान्यथासिद्धिप्रसङ्गात् / अस्याः क्रियायाः, व्यञ्जकताऽप्येषा हेतुता विशेषरूपा परा / अत एव भावस्य झापकत्वरूपाऽभिव्यञ्जकता ज्ञाननयोचिता ज्ञाननयप्राधान्योपयुक्ता, नतु व्यवहारतो वास्तवी, अन्यथा सत्कार्यवादप्रसङ्गादिति भावः / / 27 / / व्यापारश्चिद्विवर्तत्वाद् , वीर्योल्लासाच स स्मृतः। विविच्यमाना भिद्यन्ते, परिणामा हि वस्तुनः॥ 28 // स योगः, चिद्विवर्त्तत्वाद् ज्ञानपरिणामाद् , वीर्योल्लासादात्मशक्तिस्फोरणाच, व्यापारः स्मृतः, क्रमवतःप्रवृत्तिविषयस्य व्यापारत्वात्। एतेन द्रव्याऽऽदेर्व्यवच्छेदः / हियतो, विविच्यमाना भेदनयेन गृह्यमाणा, वस्तुनः परिणामा भिद्यन्ते / तथा च-न व्यापाराऽऽश्रयस्यापि व्यापारत्वमिति भावः // 28 // एतदेवाऽऽहजीवस्थानानि सर्वाणि, गुणस्थानानि मार्गणाः। परिणामा विवर्तन्ते, जीवस्तु न कदाचन // 26 //
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________________ जोग 1621 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग सर्वाणि चतुर्दशापि जीवस्थानानि गुणस्थानानि तावन्त्येव, मार्गणा गतीन्द्रियाऽऽद्याः परिणामा विवर्तन्तेदशाविशेष भजन्ते, जीवस्तु कदाचन न विवर्तते, तस्य शुद्धज्ञायकभावस्यैकस्वभावत्वात् / / 26 / / उपाधिः कर्मणैव स्या-दाचाराऽऽदौ श्रुतं ह्यदः। विभावानित्यभावेऽपि, ततो नित्यः स्वभाववान् // 30 // आचाराऽऽदौ ह्यदः श्रुतम्-यदुत उपाधिः कर्मणैव स्यात् , " कम्मुणा उवाही जायति त्ति " वचनात् / ततो विभावानां मिथ्यात्वगुणस्थानादारभ्यायो गिगुणस्थानं यावत् प्रवर्तमानानामोपाधिकभावानाम् , अनित्यभावेऽपि स्वभाववानात्मा नित्यः, तस्योपाध्यजनितत्वात् , उपाधिनिमित्तका अप्यात्मनो भावः स्तद्रूपा एव युज्यन्ते इति चेत् / सत्यम् / शुद्धनयदृष्ट्याऽऽत्मपुद्गलयोः स्वस्वशुद्धभावजननचरितार्थत्वे संयोगजभावस्य भित्तौ खटिकाश्वेतिम्न इव विविच्यमानस्यैकत्राप्यनन्तभावेन मिथ्यात्वात् / / 30 / / द्रव्याऽऽदेः स्यादभेदेऽपि, शुद्धभेदनयाऽऽदिना। इत्थं व्युत्पादनं युक्तं, नयसारा हि देशना // 31 // द्रव्याऽऽदेः परिणामेभ्यः स्यात् कथञ्चिदभेदेऽपि शुद्धः केवलो यो भेदनयस्तदादिना, इत्थमुक्तरीत्या, व्युत्पादन युक्तम् / नवसारानयप्रधाना हि देशा शास्त्र प्रवर्तते, अन्यथाऽनुयोगपरिणत आत्माऽपि योग इतीष्यत एव, चरणाऽऽत्मनोऽपि भगवत्यां प्रतिपादनादिति भावः / / 31 // योगलक्षणमित्येवं,जानानो जिनशासने। परोक्तानि परीक्षेत, परमाऽऽनन्दबद्धधीः / / 32 // योगलक्षणमिति स्पष्टम्॥ 32 // द्वा० 10 द्वा०। (13) स्वकीयं योगलक्षणमन्यदीययोगलक्षणे विचारिते सति स्थिरीभवतीति तदर्थमयमारम्भःचित्तवृत्तिनिरोधं तु, योगमाह पतञ्जलिः। द्रष्टुः स्वरूपावस्थानं, यत्र स्यादविकारिणि / / 1 / / पतञ्जलिस्तुचित्तवृत्तिनिरोधं योगमाहा तथा च सूत्रम्- "योगश्चित्त - वृत्तिनिरोधः। " (1-2) इति / तत्र चित्तपदार्थ व्याचष्टेद्रष्टुः पुरुषस्य, स्वरूपे चिन्मात्ररूपतायाम् , अवस्थानं यत्र यस्मित् स्याद् , अविकारिणि व्युत्पन्नविवेकख्यातेश्चित्संक्रमाभावात् कर्तुत्वाभिमाननिवृत्ती प्रोन्मुक्तपरिणामेन। तथा च सूत्रम्-" तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानमिति।' (1-3) // 1 // आपन्ने विषयाऽऽकारं, यत्र चेन्द्रियवृत्तितः। पुमान् भाति तथा चन्द्र-श्वलन्नीरे चलन यथा // 2 // यत्र चेन्द्रियवृत्तित इन्द्रियवृत्तिद्वारा, विषयाऽऽकारमापन्ने विषयाऽऽकारपरिणते सति, पुमान् पुरुषम्तथा भाति तथा चलन्नीरे चलन् चन्द्रः, स्वगतधर्माध्यारोपाधिष्टानत्वेन प्रतीयत इत्यर्थः / तथा च सूत्रम्- " वृत्तिसारूप्यमितरवत्रेति।" (1-4) ||2|| तचित्तं वृत्तयस्तस्य, पञ्चतय्यः प्रकीर्तिताः। मानं भ्रमो विकल्पश्च, निद्रा च स्मृतिरेव च / / 3 / / तचित्तं तस्य वृत्तिसमुदायलक्षणस्यावयविनोऽवयवभूताः पञ्चतथ्यो वृत्तयः प्रकीर्तिताः / तदुक्तम्-" वृत्तयः पञ्चतव्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।" (सांख्य०२-३३) (' अक्लिष्टाः ' योग०१-५) क्लिष्टाः क्लेशाऽऽ- | क्रान्ताः, तद्विपरीता अपि तावत्य एव / ता एकोद्विशतिमानं प्रमाणम् , भमो, विकल्पो, निद्रा च, स्मृतिरेव च / तदाह-" प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्राः स्मृतयः।" (1-6) // 3 // आसां क्रमेण लक्षणमाहमानं ज्ञानं यथार्थ स्या-दत्तस्मिस्त मतिर्भमः। पुंसश्चैतन्यमित्यादौ, विकल्पोऽवस्तुशाब्दधीः।। 4 / / निद्रा च वासनाऽभाव-प्रत्ययाऽऽलम्बना स्मता। सुखाऽऽदिविषया वृत्ति-र्जागरे स्मृतिदर्शनात् / / 5 / / तथाऽनुभूतविषया-संप्रमोषः स्मृतिः स्मृता। आसां निरोधः शक्त्याऽन्तः-स्थितिर्हेतौ बहिर्हतिः॥ 6 // मानं यथार्थतद्वति तदवगाहि ज्ञानं स्यात्। तदाह-"अविसंवादिज्ञानं प्रमाणमिति।'' भमोऽतस्मिस्तदभाववति तन्मतिः। यदाह-"विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् / " (1-8) संशयोऽपि स्थाणुर्वा पुरुषो वेत्यतद्रूपप्रतिष्ठत्त्वादत्रैवान्तर्भवति। पुंसश्चैतन्यमित्यादौ अवस्तुविषया शब्दधीविकल्पः। अत्र हि देवदत्तस्य कम्बल इतिवत् शब्दजनिते ज्ञाने षष्ठ्यर्थो भेदोऽध्यवसीयते, तमिहाविद्यमानमपि समारोप्य प्रवर्ततेऽध्यवसायः / वस्तुतस्तु चैतन्यमेव पुरुष इति। तदाह- 'शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो (असदर्थव्यवहारविषयो) विकल्पः / (1-6) इति / भ्रमविशेष एवायमस्त्विति चेत्।न। तथाविधशब्दजन्यजनकभावेनास्य विलक्षणत्वात् , विषयाभावज्ञानेऽपि प्रवृत्तेश्च। यद्भोजः" वस्तुनस्तथात्वमनपेक्षमाणो योऽध्यवसायः स विकल्प इत्युच्यते " इति // 4 // अभाव-प्रत्ययाऽऽलम्बना भावप्रत्ययाऽऽलम्बनविरहिता वासना च निद्रा स्मृता, सन्ततमुद्रिक्तत्वात्तमसः। समस्तविषयपरित्यागेन या प्रव-र्तत इत्यर्थः / तदाह-" अभावप्रत्ययाऽऽलम्बना वृत्तिर्निद्रा।" (1-10) इयं च जागरे जाग्रदवस्थायां स्मृतिदर्शनात् सुखमहमस्वाप्समिति स्मृत्यालोचनात्सुखाऽऽदिविषया वृत्तिः, स्वापकाले सुखाननुभवे तदा तत्स्मृत्यनुपपत्तेः / / 5 / / तथाऽनुभूतविषयस्य प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्राऽनुभूतार्थस्यासंप्रमोषः संस्कारद्वारेण बुद्धावुपारोहः स्मृतिः स्मृता। तदाह-" अनुभूतविषयासंग्रमोषः स्मृतिरिति।" (1-11) आसामुक्तानां पञ्चानामपि वृत्तीनाम् , हेतौ स्वकारणे, शक्त्या शक्तिरूपतया, अन्तर्बाह्याभिनिवेशनिवृत्त्याऽन्तर्मुखतया स्थितिरवस्थानं, बहिर्हतिः प्रकाशप्रवृत्तिनियमरूपविधातः / एतदुभयं निरोध उच्यते॥ 6 // स चाभ्यासाच वैराग्या-त्तत्राभ्यासः स्थितौ श्रमः। दृढभूमिः स च चिरं, नैरन्तर्याऽऽदराऽऽश्रितः // 7 // स चोक्तलक्षणो निरोधश्च अभ्यासाद्वैराग्याच भवति / तदुक्तम्-" अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध इति / " (1-12) तत्राभ्यासः स्थिती वृत्तिरहितस्य चित्तस्य स्वरूपनिष्ठे परिणामे श्रमोयत्नः पुनःपुनस्तथात्वेन चेतसि निवेशनरूपः / तदाह-" तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास इति। "(113) स च चिरं चिरकालं नैरन्तर्येणाऽऽदरेण चाऽऽश्रितो दृढभूमिः स्थिरो भवति। तदाह- "सतु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारसेवितो दृढभूमिरिति।" (1-14) // 7 // या वशीकारसंज्ञा स्याद् , दृष्टाऽऽनुश्रविकार्थयोः। वितृष्णस्यापरं तत स्या-द्वैराग्यमनधीनता / / || दृष्ट इहैवोपलभ्यमानः शब्दाऽऽदिः, आनुश्रविकश्वार्थोदेवलोकाऽऽ
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________________ जोग 1622 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोग दिः / अनुश्रूयते गुरुमुखादित्यनुश्रवो वेदः, ततः प्रतीयमान आनुश्रविक इति व्युत्पत्तेः / तयोः परिणामविरसत्वदर्शनाद् , वितृष्णस्य विगतगर्धस्य, या वशीकारसंज्ञा' ममैवैते वश्या नाहमेतेषांवश्यः इत्येवं विमर्शाऽऽत्मिका / तदपरं वक्ष्यमाणपरवैराग्यात्पाश्चात्यं वैराग्यं स्यात् अनधीनता फलतः पराधीनताऽभावरूपम्। तदाह-" दृष्टाऽऽनुश्रविकनिषयावितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यमिति।" (1-15) / / 8 / / तत्परं जातपुंख्याते-गुणवैतृष्ण्यसंज्ञकम् / बहिर्वमुख्यमुत्पाद्य, वैराग्यमुपयुज्यते / / 6 / / जातपुंख्यातेरुत्पन्नगुणपुरुषविवेकख्यातेः, गुणवैतृष्ण्यसंज्ञक गुणेष्वपि तृष्णाऽभावलक्षणम् , यथार्थाभिधानं, परं प्रकृष्ट, तद्वैराग्यम्। तदाह-" तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यमिति। "(1-16) प्रथमं हि विषयविषयं, द्वितीयं च गुणविषयमिति भेदः / बहिर्बाह्यविषये वैमुख्य दोषदर्शनजत्वात्प्रवृत्त्यभावलक्षणमुत्पाद्य वैराग्यमुपयुज्यते उपकाराऽऽधायकं भवति / / 6 / / निरोधे पुनरभ्यासो, जनयन् स्थिरतां दृढाम्। परमाऽऽनन्दनिष्यन्द-शान्तस्रोतःप्रदर्शनात्।।१०] निरोधे चित्तवृत्तिनिरोधे, अभ्यासः पुनर्दृढामतिशयितां स्थिरतामवस्थितिलक्षणां जनयन् , परमाऽऽनन्दनिष्यन्दस्यातिशयितसुखार्णवनिर्झरभूतस्य शान्तस्रोतसः शान्तरसप्रवाहस्य प्रदर्शनात् , उपयुज्यते इत्यन्वयः / तत्रैव सुखमग्नस्य मनसोऽन्यत्र गमनायोगात्। इत्थं च ' चित्तवृत्तिनिरोधः इति योगलक्षणं सोपपत्तिकं व्याख्यातम्॥ 10 // ननु चित्तस्य वृत्तीनां, सदा ज्ञाननिबन्धनात्। चिच्छायासंक्रमाद्धेतो-रात्मनोऽपरिणामिता॥ 13 // ननु चित्तस्य वृत्तीना प्रमाणाऽऽदिरूपाणाम् , सदासर्वकालमेव, ज्ञाननिबन्धनात्परिच्छे दहेतोः / चिच्छायासंक्रमाद्धेतोर्लिङ्गादामनोऽपरिणामिताऽनुमीयते / इदमुक्तं भवतिपुरुषस्य चिद्रूपस्य सदैवाधिष्ठातृत्वेन सिद्धस्य यदन्तरङ्ग निर्मलं ज्ञेयं सत्त्वं, तस्यापि सदैव व्यवस्थितत्वात्तद्ये नार्थ नोपरक्तं भवति तथाविधस्य दृश्यस्य चिच्छायासंक्रान्तिसद्भावात् सदा ज्ञातृत्वं सिद्धं भवति / परिणामित्वे त्वात्मनश्चिच्छायासंक्रमस्यासादिकत्वात् सदा ज्ञातृत्वं न स्यादिति। तदिदमुक्तम्-" सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयः तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वादिति " / (4-18) | // 13 // ननु चित्तमेव सत्वोत्कर्षाद्यदि प्रकाशकं तदा तस्य स्वप्रकाशरूपत्वादर्थस्येवाऽऽत्मनोऽपि प्रकाशकत्वेन व्यवहारोपपत्तो किं ग्रहीवन्तरणे ? इत्यत आहस्वाऽऽभासं खलु नो चित्तं, दृश्यत्वेन घटाऽऽदिवत्। तदन्यदृश्यतायां वा-नवस्थास्मृतिसङ्करौ।। 14 / / चित्तं खलु, नो नैव, स्वाऽऽभासं स्वप्रकाश्यं, किं तु द्रष्टवेद्य, दृश्यत्वेन दृग्विषयत्वेन, घटाऽऽदिवत् / यद्यदृश्यं तत्तद् द्रष्ट वेद्यमिति व्याप्तेः। तदिदमुक्तम्-" न तत् स्वाभासं दृश्यत्वात्।"(४-१६) अन्तर्बहिर्मुखव्यापारद्वयविरोधात् , तन्निष्पाद्यफलद्वयस्यासंवेदनाच बहिर्मुखतयैवार्थनिष्ठत्वेन चित्तस्य संवेदनार्थनिष्ठ-मेव तत्फलं, न स्वनिष्ठमिति राजमार्तण्डः / तथापि चित्तान्तरदृश्यं चित्तमस्त्वित्यत आहतदन्यदृश्यतायां च चित्तान्तरदृश्यतायां च, चित्तस्याभ्युपगम्यमानायामनवस्थास्मृतिसङ्करौ स्याताम्। तथा-हि-यदि बुद्धिर्बुद्ध्यन्तरेण वेद्येत तदा साऽपि बुद्धिः स्वयं बुद्ध्या बुद्धयन्तरं प्रकाशयितुमसमर्थति, तस्या ग्राहकं बुद्ध्यन्तर कल्पनीयम् , तस्याप्यन्यदित्यनवस्थानात्पुरुषायुषः सहस्रेणाप्यर्थप्रतीतिर्न स्यात् / न हि प्रतीतावप्रतीतायामर्थः प्रतीतो भवति। तथा स्मृतिसङ्करोऽपि स्यात्। एकस्मिन् रूपे, रसेवा समुत्पन्नायां बुद्धौ तद्ग्राहिकाणामनन्तानां बुद्धीनामुत्पत्तेस्तञ्जनितसंस्कारैर्युगपद् बहीषु स्मृतिपूत्पन्नासु कस्मिन्नर्थ स्मृतिरियमुत्पन्ने ति ज्ञातुमशक्यत्वात् / तदाह-" एकसमये चोभयानवधारणम्।"(४-२०)" चित्तान्तरादृश्ये बुद्धिबुद्धरतिप्रसङ्गःस्मृतिसङ्करश्चेति" (4-21) / / 14 // नन्वेवं कथं विषयव्यवहार इत्यत्राऽऽहअङ्गाङ्गिभावचाराभ्यां, चितिरप्रतिसंक्रमा। द्रष्टदृश्योपरक्तं तत् , चित्तं सर्वार्थगोचरम् / / 15 / / चितिः पुरुषरूपा चिच्छक्तिः, अङ्गाङ्गिभावचाराभ्या परिणामपरिणामिभावगमनाभ्याम् , अप्रतिसंक्रमाऽन्येनासंकीर्णा / यथा हि गुणाः स्वबुद्धिगमनलक्षणे परिणामेऽङ्गिनमुपसंक्रामन्ति तद्रूपतामिवाऽऽपद्यन्ते, यथा चाऽऽलोकपरमाणवः प्रसरन्तो विषयं व्याप्नुवन्ति, नैवं चितिशक्तिः, तस्याः सर्वदैकरूपतया स्वप्रतिष्ठितत्वेन व्यवस्थितत्वादित्यर्थः / तत्तस्माचित् सन्निधाने बुद्धेस्तदाकारताऽऽपत्तौ चेतनायामिवोपजायमानायां, बुद्धिवृत्तिप्रतिसंक्रान्तायाश्च चिच्छक्तेर्बुद्धिविशिष्टतया संपत्तौ स्वसंबुध्युपपत्तेरित्यर्थः / द्रष्टदृश्याभ्यामुपरक्तं द्रष्टरूपतामिवाऽऽपन्नं, गृहीतविषयाऽऽकारपरिणामं च चित्तं, सर्वार्थगोचरं सर्वविषयग्रहणसमर्थ भवति। तदुक्तम्-"चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाऽऽकाराऽऽपत्तौ स्व (14) अथतदूषयन्नाहन चैतधुज्यते किञ्चि-दात्मन्यपरिणामिनि / कूटस्थे स्यादसंसारो-ऽमोक्षो वा तत्र हि ध्रुवम् / / 11 / / न चैतत् पूर्वोक्तं किञ्चिदपरिणामिनि आत्मनि युज्यते, तत्राऽऽत्मनि हि कूटस्थे एकान्तिकस्वभावे सति असंसारः संसाराभाव एव स्यात् . पुष्करपत्रवन्निर्लेपस्य तस्याविचलितस्वभावत्वात्। प्रकृतितद्विकारोपहितस्वभावे च तस्मिन् संसारदशायामभ्युपगम्यमाने, ध्रुवं निश्चितममोक्षो मोक्षाभावो वा स्यात् , मुक्तिदशायां पूर्वस्वभावस्य त्यागे कौटस्यहानिप्रसङ्गात्॥११॥ प्रकृतरेपि चैकत्वे, मुक्तिः सर्वस्य नैव वा। जडायाश्च पुमर्थस्य, कर्तव्यत्वययुक्तिमत् // 12 // प्रकृतेरपि चैकत्वेऽभ्युपगम्यमाने सर्वस्य मुक्तिः स्यात् , नैव वा कस्यचित्स्यात् / एकं प्रति विलीनोपधानायास्तस्याः सर्वान् प्रति तथात्वात् , एक प्रत्यतादृश्याश्च सर्वान् प्रत्यतथात्वात् / अन्यथा स्वभावभेदे प्रकृतिभेदप्रसङ्गात् / किं च-आत्मनोऽव्याप्रियमाणस्व भोगसंपादनार्थमेव प्रकृतिः प्रवर्त्तः इति भवतामभ्युवगमः / तदु-क्तम्" द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।" (2-20)" तदर्थ एव दृश्यस्याऽऽत्मेति।" (2-21) जडायाश्च तर याः पुमर्थस्य कर्त्तव्यत्वमयुक्तिमत् / पुरुषार्थो मया कर्त्तव्य इत्येवं विधाध्यवसायो हि पुरुषार्थकर्तव्यता, तत्स्वभावे च प्रकृतेर्जडत्वव्याघात इति // 12 // अत्रस्वसिद्धान्ताऽऽशयं प्रकटयन पूर्वपक्षी शङ्कते
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________________ जोग 1623- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग द्धिसंवेदनम्।"(४-२२)" द्रष्टदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम्। (4-23) यथा हि निर्मलं स्फटिकदर्पणाऽऽद्येव प्रतिबिम्बग्रहणसमर्थम् , एवं रजस्तमोभ्यामनभिभूतं सत्त्वं शुद्धत्वाचिच्छायाग्रहणसमर्थं, न पुनरशुद्धत्वाद्रजस्तमसी / ततो न्यग्भूतरजस्तमोरूपमङ्गितया सत्त्वं निश्चलप्रदीपशिखाऽऽकारं सदैवैकरूपतया परिणममानं चिच्छायाग्रहणसामर्थ्यादामोक्षप्राप्तेरवतिष्ठते, यथाऽयस्कान्तसन्निधाने लोहस्य चलनमाविर्भवति, एवं चिद्रूपपुरुषसन्निधाने सत्त्वस्याभिव्यङ्ग्यमभिव्यज्यते चैतन्यमिति॥ 15 // इत्थं च द्विविधा चिच्छक्तिरित्याहनित्योदिता त्वभिव्यङ्ग्या, चिच्छक्तिििवधा हि नः। आद्या पुमान् द्वितीया तु, सत्त्वे तत्सन्निधानतः॥१६॥ नित्योदिता, तु पुनः, अभिव्यङ्ग्या, द्विविधा हि नः-अस्माकं चिच्छक्तिः-आद्या नित्योदिता पुमान् पुरुष एव, द्वितीयाऽभिव्यङ्ग्या तु, तत्सन्निधानतः पुंसः सामीप्यात् , सत्त्वे सत्त्वनिष्ठा / यद्भोज:-" अत एवारिमनदर्शने द्वे चिच्छक्तीनित्योदिता, अभिव्यङ्ग्या च / नित्योदिता चिच्छक्तिः पुरुषः तत्सन्निधानाभिव्यक्तयाऽभिष्वङ्गं चैतन्यं सत्त्वमभिव्यझ्या चिच्छक्तिरिति / / 16 / / इत्थं च भोगोपपत्तिमप्याहसत्त्वे पुंस्थितचिच्छाया-समाऽन्या तदुपस्थितिः। प्रतिबिम्बाऽऽत्मको भोगः, पुंसि भेदाऽऽग्रहादयम् // 17 / / सत्त्वे बुद्धेः सात्त्विकपरिणामे, पुंस्थिता या चिच्छाया, तत्समा याऽन्या, सा स्वकीयचिच्छाया, तस्या उपस्थितिरभिव्यक्तिः, प्रतिबिम्बाऽऽत्मको भोगः / अन्यत्रापि हि प्रतिबिम्बे प्रतिबिम्ब्यमानच्छायासदृशच्छायान्तरोद्भव एव प्रतिबिम्बशब्देनोच्यते। पुंसि पुनरथंभोगोभेदाऽऽग्रहादत्यन्तसान्निध्येन विवेकाग्रहणाद् व्यपदिश्यते। यत्तु व्यापकस्यातिनिर्मलस्य चाऽऽत्मनः कथं सत्त्वे प्रतिबिम्बनमिति? तन्न। व्यापकस्याप्याकाशस्य दर्पणाऽऽदावप्रकृष्टनर्मल्यवति च जलाऽऽदावादित्याऽऽदीनां प्रतिबिम्बदर्शनात् स्वस्थितचिच्छायासदृशचिच्छायाऽभिव्यक्तिरूपस्य प्रतिबिम्बस्य प्रतिबिम्बान्तरवैलक्षण्याचेति भोजः / / 17 / / इत्थं प्रत्यात्मनियतं, बुद्धितत्त्वं हि शक्तिमत्। निर्वाहे लोकयात्रायाः, ततः क्वातिप्रसञ्जनम् ? ||18|| इत्थमुक्तप्रकारेण, प्रत्यात्मनियतम् आत्मानमात्मानं प्रति नियतफलसंपादकम् / बुद्धितत्त्वं हि लोकयात्राया लोकव्यवहारस्य निर्वाह व्यवस्थापने, शक्तिमत्समर्थम् , ततः क्वातिप्रसञ्जनं, योगादेकस्य मुक्तावन्यस्यापि मुक्त्यापत्तिरूप, प्रकृतेः सर्वत्रैकत्वेऽपि बुद्धिव्यापारभेदेन भेदोपपत्तेः। तथा च सूत्रम्-" कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्ट तदन्यसाधारणत्वादिति।" (2-22) / / 18|| यत्रोक्तम्-" जडायाश्च पुमर्थस्य " इत्यादि, तत्राऽऽहकर्तव्यत्वं पुमर्थस्या-नुलोम्यप्रातिलोम्यतः। प्रकृतौ परिणामानां, शक्ती स्वाभाविके उभे // 16 // पुमर्थस्य कर्तव्यत्वं प्रकृतौ परिणामानां महदादीनाम, आनुलोम्यप्रतिलोम्यतः, उभे शक्ती स्वाभाविके स्वभावसिद्धे, पुमर्थ सतीति शेषः / न त्वन्यद् , महदादिमहाभूतपर्यन्तः खल्वस्या बहिर्मुखतयाऽनुलोमः परिणामः, पुनः स्वकारणानुप्रवेशद्वारेणारिमतान्तः प्रतिलोमः परिणामः / इत्थं च पुरुषस्य भोगपरिसमाप्तेः सहजशक्ति द्वयक्षयात् कृतार्था प्रकृतिः, न पुनः परिणाममारभते / एवंविधायां च पुरुषार्थकर्तव्यतायां प्रकृतेर्जडत्वेन कर्तव्याध्यवसायाभावेऽपि न काचिदनुपपत्तिरिति / / 16 / / ननु यदि प्रतिलोमशक्तिरपि सहजैव प्रधानस्यास्ति, तत् किमर्थ योगिभिर्मोक्षार्थ यत्रः क्रियते? मोक्षस्य चानर्थ नीयत्वे तदुपदेशकशास्त्रस्याप्यानर्थक्यमित्यत आहन चैवं मोक्षशास्त्रस्य, वैयर्थ्य प्रकृतेर्यतः। ततो दुःखनिवृत्यर्थं, कर्तृत्वस्मयवर्जनम् // 20 / / न चैवं मुक्तौ प्रकृतेरेव सामर्थ्य, मोक्षशास्त्रस्य वैयर्थ्यमानर्थक्य, यतो यस्मात् , ततो मोक्षशास्त्राद् , दुःखनिवृत्त्यर्थ दुःखनाशाय, प्रकृतेः प्रधानस्य, कर्तृत्वस्मयस्य कर्तृत्वाभिमानस्य, वर्जनं निवृत्तिर्भवति / अनादिरेव हि प्रकृतिपुरुषयोभॊक्तृभाग्यभावलक्षण: संबन्धः, तस्मिन् सति, व्यक्तमचेतनायाः प्रकृतेः कर्तृत्वाभिमानाद् दुःखानुभावे सति ' कथमियं दुःखनिवृत्तिरात्यन्तिकी मम स्यात् ' इति भवत्येवाध्यवसायः, अतो दुःखनिवृत्त्युपायोपदेशकशास्त्रोपदेशापेक्षाऽप्यस्य युक्तिमतीति / / 20 // ध्यक्त कैवल्यपादेऽदः, सर्व साध्विति चेन्न तत्। एवं हि प्रकृतेर्मोक्षो, न पुंसस्तददो वृथा / / 21 / / कैवल्यपादे योगानुशासनचतुर्थपादे, अद एतत् , व्यक्तं प्रकटं, सर्वमखिलं, साधु निर्दोषमिति / समाधत्ते-इति चेन्न तत् , यत्प्राक प्रपञ्चितं, हि यतः, एवमुक्तरीत्या, प्रकृतेर्मोक्षः स्यात् , तस्या एव कर्तृत्वाभिमाननिवृत्त्या दुःखनिवृत्त्युपपत्तेः, न पुंसः, तस्याबद्धत्वेन मुक्त्ययोगाद् , मुचेर्बन्धनविश्लेषार्थत्वात् / तत्तस्माददो वक्ष्यमाणं भवद्ग्रन्थोक्तं, वृथा कण्ठशोषमात्रफलम्।। 21 / / पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राऽऽश्रमे रतः। जटी मुण्डी शिखी वाऽपि, मुच्यते नात्र संशयः / / 22 / / अत्र हि पञ्चविंशतितत्वज्ञानात् पुरुषस्यैव मुक्तिरुक्ता, सा च न संभवतीति / न च भोगव्यपदेशवन्मुक्तिव्यवदेशोऽप्युपचारादेव पुंसि संभवतीति वाच्यम् : एवं हि तत्र चैतन्यस्याप्युपचारेण सुवचत्वाऽऽपत्तेः। बाधकाभावान्न तत्र तस्योपचार इति चेत् तत्र कृत्याऽऽदि-सामानाधिकरण्यस्याप्यनुभूयमानस्य किं बाधकम् ? येन तेषां भिन्नाऽऽश्रयत्वं कल्प्यते / आत्मनः परिणामित्वाऽऽपत्तिर्वाधिकेति चेद, न। तत्परिणामित्वेऽप्यन्वयानपायात् , अन्यथा चित्तस्यापि तदनापत्तेः, प्रतिक्षणं चित्तस्य नश्वरत्वोपलब्धेः।" अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदो धर्माणाम्।" (4-12)" ते व्यक्तसूक्ष्मगुणाऽऽत्मानः।" (413)" परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्त्वमिति।" (4-14) सू. पर्यालोचनाधर्मभेदेऽपि तेषामङ्गाङ्गिभावपरिणामैकत्याद् न चित्तानन य इति चेत् , तदेतदात्मन्येव पर्यालोच्यमानं शोभते, कूटस्थत्वश्रुतेः राऽऽदिभेदपरत्वेनाप्युपपत्तेरिति सम्यग् विभावनोयम् / / 22 // किञ्चबुद्ध्या सर्वोपपत्तौ च, मानमात्मनि मुग्यते। संहत्यकारिता मानं, पारार्थ्यनियता च न / / 23 // बुद्ध्या महत्तत्त्वेन, सर्वोपपत्तौ सकललो क यात्रानिर्वाहे च सति, आत्मनि मानं प्रमाणं मृग्यते / कृत्याऽऽद्याश्रयव्यतिरिक्त आत्मनि प्रमाणमन्वेषणीयमित्यर्थः / न च परार्यनियता परा
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________________ जोग 1624 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग र्थकत्वव्याप्या, संहत्वकारिता संभूयमिलितार्थक्रियाकारिता, मानमतिरिक्ताऽऽत्मनि प्रमाणं, यत्संहत्यार्थक्रियाकारि तत्परार्थं दृष्टम्, यथा शय्याशयनाऽऽसनाऽऽद्यर्थाः / सत्त्वरजस्तमांसि च चित्तलक्षणपरिणामभाञ्जि संहत्यकारीणि, अतः परार्थानि, यच परः स पुरुष इति / तदुक्तम्-" तदसंख्येयवासनाभिश्चित्तमपि परार्थ, संहत्यकारित्वादिति / " (4-24) / / 23 // कुतः ? इत्याहसत्त्वाऽऽदीनामपि स्वाङ्गि-न्युपकारोपपत्तितः। बुद्धिर्नामैव पुंसस्तत् , स्याच तत्त्वान्तरव्ययः।। 24 / / सत्त्वाऽऽदीनां धर्माणां, स्वाङ्गिन्यपि स्वाऽऽश्रयेऽपि, उपकारोपपत्तितः फलाऽऽधानसंभवादुक्तनियमे मानाभावात् सत्त्वाऽऽदौ सं-हत्यकारित्वस्य विलक्षणत्वात्। अन्यथा-असंहतरूपपरासिद्धेधर्माणां साश्रयत्वव्याप्तेश्च बुद्ध्यैव सफलत्वाद् नैवमात्मा कश्चिदतिरिक्तः सिद्धयेदिति भावः। तत्तस्माद् बुद्धिः पुंसः पुरुषस्यैव नाम स्यात् / च पुनः, तत्त्वान्तव्ययोऽहङ्काराऽऽदितत्त्वोच्छेदः स्यात् // 24 // तथाहिव्यापारभेदादेकस्य, चायोः पञ्चविधत्ववत्। अहङ्काराऽऽदिसंज्ञानो-पपत्तिसुकरत्वतः।। 25 / / एकस्य वायोः, व्यापारभेदादूर्द्धगमनाऽऽदिव्यापारभेदात, पञ्चविधत्ववत्-पञ्च वायवः प्राणापानाऽऽदिभेदादिति व्यपदेशषत् / अहङ्काराऽऽदिसंज्ञानानामुपपत्तेः सुकरत्वतः सौकर्यात् / तथाहिबुद्धिरेवाहङ्कारथ्यापार जनयन्ती अहङ्कार इत्युच्यताम् , सैव च प्रसुवस्वभावा साधिकारा प्रकृतिरिति व्यपदिश्यताम् , किमन्तर्गडु तत्त्वान्तरपरिकल्पनयेति / / 25 / / पुंसश्च व्यञ्जकत्वेऽपि, कूटस्थत्वमयुक्तिमत्। अधिष्ठानत्वमेतच्चेत् , तदेत्यादिनिरर्थकम् // 26 // पुंसः पुरुषस्य च, व्यञ्जकत्वेऽभ्युपगम्यमाने, कूटस्थत्वमयुक्ति- | मदसङ्गतम् / अभिव्यञ्जकत्वं ह्यभिव्यक्तिजनकत्वम् / तथा च-" अकारणमकार्य च पुरुषः" इति वचनं व्याहन्येतेति भावः / अधिष्ठानत्वमभिव्यक्तिदेशाऽऽश्रयत्वम्, एतद्व्यञ्जकत्वं, पुरुषस्तुसदैकरूप इति चेत् , तर्हि तदेत्यादि" तदा द्रष्टुः स्वरूपावस्थानम्।" (-3) इति सूत्रं निरर्थकम् , तदेत्यस्य व्यवच्छेद्याभावात्। काल्पनिकत्वे चैतद्विषयस्य घटाऽऽदिव्यवहारविषयस्यापित-थात्वाऽऽपत्तौ शून्यवादिमतप्रवेश इति भावः // 26 // निमित्तत्वेऽपि कौटरथ्य-मथास्यापरिणामतः। स्याइँदो धर्मभेदेन, तथापि भवमोक्षयोः / / 27 / / अथास्याऽऽत्मनो, निमित्तत्वेऽपि, सत्त्वनिष्ठामभिव्यङ्गयां चिच्छक्तिं प्रति, अपरिणामतः परिणामाभावात् / कौटस्थ्यमकारणमित्यस्यानुपादानकारणमित्यर्थात् उपादानकारणस्यैव परिणामित्वात् परिणामस्य चावस्थान्तरगमनलक्षणत्वादिति भावः / तथाऽपि भवमोक्षयोः संसारापवर्गयोः, धर्मभेदेन भोगनिमित्तानिमित्तत्वधर्मभेदेन, स्यात्कथञ्चित्, भेद आवश्यकः / मोक्षेऽपिपूर्वस्वभावसत्त्वे कारणान्तराभावान्न भोग इति को भेद इति चेत् ? सौम्य ! कथं तर्हि न भवमोक्षोभयस्वभावे विरोधः ? उभयैकस्वभावन्वाद् नायमिति चेद् भयन्तरेणायमेव स्याङ्गाद इति किं वृथा खिद्यसे ? // 27 // प्रसङ्गतादवस्थ्यं च, बुद्धर्भदेऽपि तत्त्वतः। प्रकृत्यन्ते लये मुक्ते-न चेदव्याप्यवृत्तिता / / 28 // बुद्धे देऽपि प्रत्यात्मनियतत्वेऽप्यभ्युपगम्यमाने, तत्त्वतः परमा-र्थतः, प्रकृत्यन्ते प्रकृतिविश्रान्ते, लये दुःखध्वंसे सति, प्रसङ्गतादवस्थ्यम् , एकस्य मुक्तावन्यस्यापि तदापत्तिरित्यस्यापरिहार एव, प्रकृतेरेव मुक्तेरभ्युपगम्यमानत्वात् , तस्याश्च मुक्तत्वामुक्तत्वोभयविरोधात्। एकत्र वृक्षे संयोगतदभावयोरिव प्रकृतौ विभिन्नबुद्ध्यवच्छेदेन न मुक्तत्वामुक्तत्वयोर्विरोध इत्यत आह-चेयदि, मुक्तेरव्याप्यवृत्तिता, न अभ्युपगम्यत इति शेषः / तदभ्युपगमे च मुक्तेऽप्यमुक्तत्वव्यवहाराऽऽपत्तिरेव दूषणम्। किं चैव मुक्तस्याप्यात्मनो भवस्थशरीरावच्छेदेन भोगाऽऽपत्तिरिति तत्प्रकृतिनिवृत्तिरवश्यमभ्युपेयेति द्रष्टव्यम् // 28 // प्रधानभेदे चैतत् स्यात् , कर्मबुद्धिगुणः पुमान् / स्याद् ध्रुवश्चाधुवश्चेति, जयताद् जैनदर्शनम् // 26 // उक्तदोषभिया प्रधानभेदे चाभ्युपगम्यमाने, आत्मभोगापवर्गनिर्वाहकमेतत् कर्म स्यात् . पुमान् पुरुषः बुद्धिगुणः स्यात् / बुद्धिलब्धिज्ञानानामनर्थान्तरत्वात्। स्यात्कथञ्चिद्, ध्रुवश्च द्रव्यतोऽध्रु-वश्च पर्यायतइत्येवं जैनदर्शनं जयताद् , दोषलवस्याप्यस्पर्शात्। ननु चपुंसो विषयग्रहणसमर्थत्वेनैव चिद्रूपत्यं व्यवतिष्ठत इति विकल्पाऽsत्मकबुद्धिगुणत्वं न युक्तम् , अन्तर्बहिर्मुखव्यापारद्वयविरोधादिति चेत्। न। अनुभूयमानक्रमिकैकोपयोगस्वभावत्वेन तदविरोधादिति / / 26 // तथा च कायरोधाऽऽदा-वव्याप्तं प्रोक्तलक्षणम्। एकाग्रताऽवधौ रोधे, वाच्ये च प्राचि चेतसि / / 30 // तथा च जैनदर्शनजयसिद्धौ च, प्रोक्तलक्षणं पतञ्जल्युक्तयोगलक्षणम्, कायरोधाऽऽदावव्याप्तम् , आदिना वानिरोधाऽऽदिग्रहः / एकाग्रताऽवधावेकाग्रतानिरोधमात्रसाधारणे च रोधे वाच्ये, प्राचि एकाग्रतायाः पृष्ठभाविनि, चेतस्यध्यात्माऽऽदिशुद्धे, व्याप्तम्॥३०॥ योगाऽऽरम्भोऽथ विक्षिप्ते, व्युत्थानं क्षिप्तमूढयोः। एकाग्रे च निरुद्ध च, समाधिरिति चेन्न तत् / / 31 / / अथ विक्षिप्ते चित्ते योगाऽऽरम्भः क्षिप्तमूढयोश्चित्तयोर्युत्थानम् , एकाग्रे च निरुद्ध च चित्ते समाधिरिति एकाग्रतापृष्ठभाविनश्चित्तस्यालक्ष्यत्वादेव न तत्राव्याप्तिः / क्षिप्तं हि रजस उद्रे कादस्थिरं बहिर्मुखतया सुखदुःखाऽऽदिविषयेषुकल्पितेषु सन्निहितेषु वा रजसा प्रेरितम् , तच सदैव दैत्यदानवाऽऽदीनाम् , मूढ तमस उद्रेकात्कृत्याकृत्यावभागासंगतं क्रोधाऽऽदिभिर्विरुद्धकृत्येष्वेव नियमितम् , तब सदैव रक्षःपिशाचाऽऽदीनाम् , विक्षिप्तं तु सत्त्वोद्रेकात्परिहृतदुःखसाधनेष्वेव शब्दाऽऽदिषु प्रवृत्तम , तथ सदैव देवानाम् / एतास्तिरश्चित्तावस्था न समाधावुपयोगिन्यः / एकाग्रतानिरुद्धरूपे द्वे एव सत्त्वोत्कर्षायथोत्तरमवस्थितत्वाच समाधावुपयोगं भजेते इति चेद् , न तत् / / 31 / / योगाऽऽरम्भेऽपि योगस्य, निश्चयेनोपपादनात्। मदुक्तं लक्षणं तस्मात् , परमाऽऽनन्दकृत् सताम् // 32 // योगाऽऽरम्भेऽपि योगप्रारम्भकालेऽपि, निश्चयेन निश्चयनयेन, यो
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________________ जोग 1625 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोग गस्योपपादनात् व्यवस्थापनात् , क्रियमाणं कृतमिति तदभ्युपगमाद् आद्यसमये तदनुत्पत्लावग्रिमसमयेष्वपि तदनुत्पत्त्यापत्तेः / वस्तुतो योगविशेषप्रारम्भकालेऽपि कर्मक्षतरूपफलान्यथाऽनुपपत्त्या व्यवहारेणापि योगसामान्यसद्भावोऽवश्याभ्युपेय इति प्रागुक्तातिव्याप्तिर्वज्रलेपायितैव। तस्मान्मदुक्तं लक्षणं मोक्षमुख्यहेतुव्यापारः, इत्येवरूप, सतां व्युत्पन्नानाम् , अदुष्टत्वप्रतिपत्तिद्वारा परमाऽऽनन्दकृत् / / 32 // द्वा०११ द्वा०। (15) योगभेदाः-अत्र मिथ्यात्वाऽऽदिहेतुगतं मनोवाक्काययोग-त्रयम् तय कर्मवृद्धिहेतुत्वाद्न ग्राह्यम् , किंतु मोक्षसाधनहेतुभूतं शुद्धाध्यात्मभावनाभावितचेतनावीर्यपरिणामसाधनकारकप्रवर्तनरूपं ग्राह्य द्रव्यभावभेदं बाह्याऽऽचारविशोधिपूर्वकाभ्यन्तराऽऽचारशुद्धिरूपम्मोक्षेण योजनाद् योगः, सर्वोऽप्याचार इष्यते। विशिष्य स्थानवार्था-ऽऽलम्बनैकाग्रयगोचरः॥१॥ सकलकर्मक्षयो मोक्षः, तेन योजनादयोग उच्यते / स च सर्वोऽप्याचारी जिनशासनोक्तः चरणसप्ततिकरणसप्ततिरूपो मोक्षोपायत्वाद् योग इष्येते / तत्र विशेषेण स्थानम् १,वर्णः 2, अर्थः 3, आलम्बनम् 4, एकाग्रता 5, इति पञ्चप्रकारयोगो मोक्षोपायहेतुर्गतः, इत्यनेनानादिपरभावाऽऽसक्तभवभ्रमणग्रहात् पुद्गलभोगभग्नानां न भवत्ययमभिप्रायः-- यतोऽस्माकं मोक्षः साध्योऽस्ति। संच गुरुवचनस्मरणतत्त्वजिज्ञासाऽऽदियोगेन स्वरूपं निर्मलं निःसङ्गं परमाऽऽनन्दमयं स्मृत्यं तत्कथाश्रवणप्रीत्यादिकं करोति, स परम्परया सिद्धियोगी भवति। न हि मरुदवोवत सर्वेषामल्पप्रयासा सिद्धिः, तस्या हि अनल्पाऽऽशातनादोषकारकत्वेन निष्प्रयासा सिद्धिः / अन्यजीवानां चिराऽऽशातनाबद्धगाढकर्मणां तु स्थानाऽऽदिक्रमेणैव भवति॥१॥ अथ योगपञ्चके बाह्यान्तरङ्गसाधकत्वमुपदिशतिकर्मयोगद्वयं तत्र, ज्ञानयोगत्रयं विदुः। विरतेष्वेष नियमाद् , बीजमात्रं परेष्वपि / / 2 // तत्र मोक्षसाधने, कर्मयोगद्वयं, क्रियाऽऽचरणायोगरूपम् , त्रयम् अर्थप्रमुखं, ज्ञानयोग विदुः प्राहुर्बुधाः / तत्र विंशतिकाऽनुसारेण लक्षणाऽऽदिकं निरूप्यतेतत्र स्थानरूपं कायोत्सर्गाऽऽदिजेनाऽ5गमोक्तक्रियाकरणे करचरणाऽऽसनमुद्रारूपम्। उक्तं च विंशतिका-याम्" ठाणवणत्थालवणरहिओ तंतम्मि पंचहा एसो। दुगमित्थकम्मजोगो, तहा तियं नाणजोगो उ"||१॥ एष पञ्चप्रकारो योगः, विरतेषु देशविरतसर्वविरतेषु, नियमाद्भवति। योगपञ्चकं हि चापल्यवारणम् , तेन योगवता भवितव्यम् / परेषु मार्गानुसारिप्रमुखेषु बीजमात्रं भवति किञ्चिन्मात्रं भवति / उक्तं च विंशतिकायाम्-"देसे सव्वे य तहा, नियमेण सो | चरित्तिणो होइ / इयरस्स वीयमित्तं, इति चेअ केइ इच्छति।। 1 / / " (16) अत्र योगोत्पत्तिहेतवः प्रोच्यन्तेकृपानिर्वेदसंवेग-प्रशमोत्पत्तिकारिणः। भेदाः प्रत्येकमत्रेच्छा-प्रवृत्ति स्थिरसिद्धयः॥३।। कृपा अनुकम्पादुःखितेषु दुःखमोचनलक्षण आर्द्रतापरिणामः। निर्वेदः भवोद्वेगःचतुर्गतिषु चारकवद्भासनम् / संवेगः मोक्षाभिलाषः, प्रशमः कषायाभावः / एते परिणामाःयो योगो मोक्षोपायः, तस्योत्पत्तिकारिणः करणशीलाः, एतादृक्परिणामपरिणतस्य संसारोद्विग्नस्य शुद्धाऽऽत्मस्वादेच्छकस्य योगसाधना भवन्ति। अत्र योगपञ्चके, प्रत्येक एकैकस्य चत्वारो भेदाः / ते च इमे-इच्छा 1, प्रवृत्तिः 2, स्थिरता 3, सिद्धिः 4 इत्येवं भेदा ज्ञेयाः। उक्तं च विंशतिकायाम्- " इक्विको यचउद्धा, इत्थं पुण तत्तओ मुणेयव्वो। इच्छापवित्तिथिरसिद्धिभेयओ समयनीईए' / / 1 // इत्यादि।। 3 / / इच्छा तदत्कथाप्रीतिः, प्रवृत्तिः पालनं परम्। स्थैर्य बाधकभीहानिः, सिद्धिरन्यार्थसाधनम् / / 4 / / इच्छा साधकभावाभिलाषः, तद् योगपञ्चकं येषु विद्यन्ते तद्वन्तः श्रमणाः, तेषां कथासु गुणकथनाऽऽदिषु, प्रीतिःइष्टता / उक्तं च हरिभद्रपूज्यैः-" तज्जुत्तकहापीई, समयादविपरीणामणी इच्छा।" इति। तस्य सम्यग्दर्शनाऽऽदिगुणवृद्धिहेतुभूतं क्रियाश्रुताभ्यासपालनं परंपरा उत्कृष्टा सा प्रवृत्तिः / उक्तं च- " सव्वत्थुवसम---२, तप्पालणगा पवित्तीओ।" इति / इत्येवं योगद्वयं बाह्यरूपत्वात् क्रियामुख्यत्वात् साध्यावलम्बिना कारणरूपम् / शेषाणां तु शुभबन्धनिबन्धनं स्थैर्यबाधका अशुद्धाध्यवसाया अतीचाराः, तेषा भीर्भयं, तस्य हानिरभावः, निरतिचारगुणपालनारूपं यत्र तत् स्थैर्यम् / क्षयोपशमोऽपि अतिगुणसाधनापरिणमनेन सहजभावत्वात् निर्दोषगुणसाधनो भवति। उक्तंच-" तह चेव एयबाधगचिंतारहियं थिरत्तणं नेयं।"शुद्धानामर्थानां परमात्मरूपाणां साधनं स्वरूपालम्बनं शुद्धतत्त्वसाधनं सिद्धिः / उक्त च- " सव्वं परमत्थसाहगरूवं पुण होइ सिद्धि त्ति / " एवं सप्रभेदं ज्ञेयम // 4 // यावद् ध्यानैकत्वं न भवति तावद् न्यासमुद्रावर्णशुद्धिपूर्वकमावश्यकचैत्यवन्दनप्रत्युपेक्षणाऽऽदिकमुपयोगयोगचापल्यवारणार्थमवश्यं करणीयं, महद् हितकरं सर्वजीवानां, तेन स्थानवर्णक्रमेण तत्त्वप्राप्तिरितिअर्थाऽऽलम्बनयोश्चैत्य-वन्दनाऽऽदौ विभावनम्। श्रेयसे योगिनः स्थान-वर्णयोर्यत्र एव च / / 5 / / अर्थो वाक्यस्य भावार्थः, आलम्बनं वाच्ये पदार्थे अर्हत्स्वरूपे उपयोगस्यैकत्वम् , अर्थश्च आलम्बनं च अर्थालम्बने, तयोश्चैत्यवन्दनाऽऽदौ अर्हद्वन्दनाधिकारे, विभावनं स्मरणं करणीय, श्रेयसे कल्याणार्थ, च पुनः, स्थानं वन्दनकं कायोत्सर्गशरीरावस्थानम् . आसनमुद्राऽऽदिके, वर्णा अक्षराणि, तयोर्यत्र एव शुद्धिः श्रेयसे कल्याणाय भवति / उक्तं चाऽऽवश्यके. "जं वाइद्धं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अमक्खरं, पयहीणं, विणयहीणं, घोसहीणं, जोगहीणं, सुलु दिन्नं, दुठ्ठ पडिच्छियं, अकाले कओ सज्झाओ, कालेनकओ सज्झाओ, असज्झाए सज्झाइयं, सज्झाए न सज्झाइयं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।" इत्यनेन द्रव्यक्षेत्रकालविशुद्धौ भावसाधनसिद्धिः, तेन द्रव्यक्रिया हिता॥ 5 // आलम्बन मिह ज्ञेयं, द्विविधं रूप्यरूपि च / अरूपि गुणसायुज्यं, योगानालम्बनं परम् // 6 // इह जैनमार्गे, आलम्बनं द्विविधं ज्ञेयम्। एकं रूपि, अपरम् -अरपि। तत्र रुप्यालम्बनं जिनमुद्राऽऽदिकपिण्डस्थपदस्थरूपस्थपर्यन्तं यावत् अर्हदवस्थाऽऽलम्बनं, तावत् कारणावलम्बन शरीरातिशयो येन रूप्यवलम्बनं, तत्र अनादिपरभावशरीरधनस्वजनावलम्बो परत्र परिणतचेतनः विषयाऽऽस्वादाऽऽद्यर्थ तीर्थङ्कराऽऽद्यवलम्बनमपि भवहेतुः / तथैव यः स्वरूपाऽऽनन्दपिपासितः स्वरूपसाधनार्थ प्रथमं कारणरूपं जिनेश्वरं वीतरागाऽऽदिगुणस
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________________ जोग 1626 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग मूहैरवलम्बते यावद् मुद्राऽऽद्यालम्बनी, तावत् रूप्यावलम्बनी, स एव अर्हतसिद्धस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽद्यनन्तपर्यायविशुद्ध शुद्धाध्यात्मधर्ममवलम्बते इति / अरूप्यालम्बनी तत्र भाव्यतेअनादितो जीवो मूर्तपुदगलस्कन्धावलम्बनपरिणतः कथं प्रथमत एवामूर्ताऽऽनन्दरूपं स्वरूपमवलम्बते? यत अतिशयोपेतवीतरागमुद्राऽऽदकं परं मूर्त चालम्ब्य विषयकषायवद्धिकर स्त्रीधनाऽऽद्यवलम्बनं त्यज्यति इत्येका परावृत्तिः / पुनः स एव अतिशयाऽऽदिरूप मूर्त नालम्बनीयम् , अहं तु अमूर्तः, मूर्तभावरसिकत्वं नोपयुज्यते। यद्यपि अर्हतः संबद्धं तथापि औदयिकं नालम्बनम् , अनन्तगुणाऽऽलम्बनमुत्तममिति गुणावलम्बनी मूर्तान् भावान् नरसिकत्वेन गृह्णाति, सापेक्षपरत्वेन पश्यतीति द्वितीया परावृत्तिः / एवममूर्ताऽऽत्मगुणरसिको भवति, तेन परमेष्ठिस्वरूपं कारणेनावधार्य स्वीयासंख्येयप्रदेशव्याप्यव्यापकभावावच्छिन्नद्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकानन्तस्वभावममलामूर्ताऽऽनन्दभयं ध्येयत्वेनावलम्बते इति तृतीया परावृत्तिरिति / साधनपद्धतिः सर्वेषां तत्स्वरूपसाधनम् , अरूपिगुणाः सिद्धगुणा, तेषां भावनं सायुज्यं तदात्मता, तया योग आत्मोपयोगयोजनं यद्यपि ईषदवलम्बन श्रताऽऽदीनां, तथापि अनालम्बनमेव पर उत्कृष्टो योगः। उक्तं च पाठकः" तत्राप्रतिष्ठितं खलु, यतः प्रवृत्तश्चलत्यतस्तत्र / सर्वोत्तमो हि मनुजः, तेनानालम्बनो गीतः // १॥"निरालम्बनयोगेन धारावाहिप्रशान्तवाहिता नाम चिन्तितस्य स्वरसतएव मनः सहजधारायां वर्तते, न प्रयासो भवति। उक्तं च विंशतिकायाम्-" आलंबणं पिएयं रूविमरुवीय इत्थ परमो त्ति / तगुणपरणइमित्तो, सुहमो आलंबणो नाम " // 1 // एकाग्रयोगस्यैवापरनाम अनालम्बनयोग इति / एवं स्थानाऽऽद्याः पञ्च इच्छाऽऽदिगुणिता विंशतिर्भवन्ति। ते च प्रत्येकमनुष्ठानचतुष्कयोजिता अशीतिप्रकारा भवन्ति // 6 // तत्स्वरूपनिरूपणायोपदिशतिप्रीतिभक्तिवचोऽसङ्गः, स्थानाऽऽद्यपि चतुर्विधम्। तस्मादयोगियोगाऽऽप्ते-र्मोक्षयोगः क्रमाद् भवेत् / / 7 / / एते स्थानाऽऽदयः, प्रीतिर्भक्तिर्वचनमसङ्ग इति भेदचतुष्टयरशीतिभेदाः भवन्ति / तस्माद् योगात्क्रमेण अयोगिनामा योगः, तस्याऽऽप्ति: प्राप्तिर्भवति, अयोगी योगशैलेशीकरणं सकलयोगचापल्यरहितो योगस्तं प्राप्नोति, तेनपुनः क्रमाद् मोक्षः।" सर्वकर्माभावलक्षण आत्मनस्तादात्म्यावस्थानं मोक्षः।" एवं योगः संयोगः, क्रमात् अनुक्रमेण भवति। (अथ प्रीत्याधनुष्ठानस्वरूपंतुषोडशकपाठेन' अणुट्टाण'शब्दे प्रथमभागे 377 पृष्ठेगतार्थम् ) एवं क्रमेण योगसाधनारतः सर्वयोगरोधं कृत्वा अयोगी भवति / / 7 / / स्थानाऽऽधयोगिनस्तीर्थो-च्छेदाऽऽद्यालम्बनादपि। सूत्रदाने महादोषः, इत्याचार्याः प्रचक्षते // 8 // इति स्थानाऽऽदिप्रवृत्तियोगरहितस्य सूत्रदानं महादोष इति आचार्या | हरिभद्राऽऽदयः, प्रचक्षते कथयन्ति, कस्मात् ? तीर्थोच्छेदाऽऽद्यालम्बनात् , निरास्तिकस्य सूत्रदाने कदाचित् कुप्ररूणाकरणेन तीर्थोच्छेदो भवति। उक्तं च विंशतिकायाम्"तित्थरसुच्छेया इति, णालंबणजंस एय एमेव। सुत्तकिरियाइनासो, एसो असमंजसविहाणो // 1 / / सो एस बंकओ चिअ, नअससमयमादियाणमविसेसा। एयं पि भावियव्यं, इह तित्थुच्छेदभीरूहि // 2 // मुत्तूण लोगसन्न, नाऊण य साहुसमयसमभावं। सम्म परियट्टित्वं, वुहेण मइनिउणबुद्धीए"।॥३॥ एवं प्रथम स्थानाऽऽदिविशुद्धिं कृत्वा इच्छाऽऽदिपरिणतः क्रमेण स्वस्वरूपाऽऽलम्बनाऽऽदि गृहीत्वा प्रीत्याद्यनुष्ठानेन असङ्गानुष्ठानयोगतः सर्वज्ञो भूत्वा अयोगीभूय सिद्धो भवति, अतः क्रमसाधना श्रेयस्करी। इति व्याख्यातं योगाष्टकम् // अष्ट० 27 अष्ट०। अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः। योगः पञ्चविधः प्रोक्तो,योगमार्गविशारदैः॥१॥ द्वा०१८ द्वा० / अष्ट०। (सर्वे भेदाः ' भावणा शब्दे विवेचनासहिता वक्ष्यन्ते) (17) वृत्तिरोधोऽपि योगश्चेद् , भिद्यते पञ्चधाऽप्ययम्। मनोवाकायवृत्तीना, रोधे व्यापारभेदतः // 27 // मोक्षहेतुलक्षणो योगः पञ्चधा भिन्न इति प्रदर्शितं, वृत्तिरोधोऽपि चेद्योग उच्यते, अयमपि पञ्चधा भिद्यते, मनोवाकाय वृत्तीनां रोधे व्यापारभेदतोऽनुभवसिद्धानां भेदाना दुरपह्नवत्वात् : अन्यथा द्रव्यमात्रपरिशेषप्रसङ्गादिति भावः // 27 // प्रवृत्तिस्थिरताभ्यां हि, मनोगुप्तिद्वये किला भेदाश्चत्वार इष्यन्ते, तत्रान्त्यायां तथाऽन्तिमः॥ 28 // प्रवृत्तिः प्रथमाभ्यासः, स्थिरता उत्कर्षकाष्ठाप्राप्तिः, ताभ्यां मनोगुप्तिद्वये किल आद्याश्चत्वारो भेदा:-अध्यात्मभावनाध्यानसम-- तालक्षणा इष्यन्ते, व्यापारभेदादेकत्र क्रमेणोभयोः समावेशाद् यथोत्तरं विशुद्धत्वात्। तथाऽन्त्यायांचरमायां,तत्र मनोगुप्तौ, अन्तिमो वृत्तिसंक्षय इष्यते / इत्यं हि पञ्चापि प्रकारा निरपाया एवं / / 28 // विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम्। आत्माऽऽरामं मनश्चेति, मनोगुप्तिस्त्रिधोदिता // 26 // विमुक्तं परित्यक्तं, कल्पनाजालं संकल्पविकल्पचक्रं, येन तत् ; तथा समत्थे सुप्रतिष्ठितं सम्यग व्यवस्थितम् , आत्माऽऽरामं स्वभावप्रतिबर्द्ध, मनः, तदहस्तद्वेदिभिः, मनोगुप्तिस्त्रिधा त्रिभिः प्रकारैः, उदिता कथिता // 26 // अन्यासामवतारोऽपि, यथायोग विभाव्यताम्। यतः समितिगुप्तीनां, प्रपञ्चो योग उत्तमः।॥३०॥ अन्यासां वाकायगुप्तीर्यासमित्यादीनाम् , अवतारोऽप्यन्तर्भावो-ऽपि, यथायोगं यथास्थानं, विभाव्यतां विचार्यतां, यतो यस्मात् / समितिगुप्तीनां प्रपञ्चो यथापर्याय विस्तारो, योग उच्यते उत्तम उत्कृष्टः, न तु समितिगुप्तिविभिन्न स्वभावो योगपदार्थोऽतिरिक्तः कोऽपि विद्यत इति // 30 // उपायत्वेऽत्र पूर्वेषा-मन्त्य एवावशिष्यते। तत्पञ्चमगुणस्थाना-दुपायोऽर्वागिति स्थितिः॥३१॥ अत्राध्यात्माऽऽदिभेदेषु योगेषु पूर्वेषामध्यात्माऽऽदीनाम्, उपायत्वे योगोपायत्वमात्रे वक्तव्ये, अन्त्य एव वृत्तिक्षय एव योगोऽवशिष्यते। तत्तस्मात्, पञ्चमगुणस्थानादर्वाक् पूर्वसेवारूप उपायः, तत आरभ्यतु सानुबन्धयोगप्रवृत्तिरेवेति स्थितिः सत्तन्त्रमर्यादा // 31 //
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________________ जोग 1627 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-१ जोग भगवद्वचनस्थित्या, योगः पञ्चविधोऽप्ययम्। सर्वोत्तमं फलं दत्ते, परमाऽऽनन्दमजसा / / 32 / / निगदसिद्धोऽयम् // 32 // द्वा० 18 द्वा०। (18) अध्यात्माऽऽदीन्योगभेदानुपदर्य तदवान्तरनानाभेदप्रदर्शनेन तद्विवेकमेवाऽऽहइच्छां शास्त्रं च सामर्थ्य-माश्रित्य त्रिविधोऽप्ययम्। गीयते योगशास्त्रह-निजि यो विधीयते॥१॥ इच्छां, शास्त्र, सामर्थ्य चाऽऽश्रित्य त्रिविधोऽप्ययं योगो योगशास्वर्गीयते, इच्छायोगः, शास्त्रयोगः, सामर्थ्ययोगश्चेति यो नियाज निष्कपट विधीयते / सव्याजस्तु योगाऽऽभासो गणनायामेव नावतरतीति॥१॥ इच्छायोगमाहचिकीर्षास्तु श्रुतार्थस्य, ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः। कालाऽऽदिविकलो योगः, इच्छायोग उदाहृतः॥२॥ चिकीर्षोंः-तथाविधक्षयोपशमाभावेऽपि नियाजमेव कर्तुमिच्छोः, श्रुतार्थस्य श्रुताऽऽगमस्य, अर्यतेऽनेन तत्त्वमिति, तत्त्वार्थशब्दस्याऽगमवचनत्वात् / ज्ञानिनोऽपि अवगतानुष्ठेयतत्त्वार्थस्यापि, प्रमादिनो विकथाऽऽदिप्रमादवतः, कालाऽऽदिना विकलोऽसंपूर्णो, योगश्चैत्यवन्दनाऽऽदिव्यापारः, इच्छायोग उदाहृतः प्रतिपादितः॥२॥ प्रधानस्येच्छायोगत्वे तदङ्गस्यापि तथात्यमिति दर्शयन्नाहसाङ्गमप्येककं कर्म, प्रतिपन्ने प्रमादिनः। नत्वेच्छायोगत इति, श्रवणादत्र मजति / / 3 / / साङ्गमपि अङ्गसाकल्येनाविकलमपि, एककं स्वल्प किश्चित्कर्म, प्रतिपन्ने बहुकालव्यापिनि प्रधाने कर्मण्यादृते. प्रमादिनः प्रमादवतः, न त्वेच्छायोगत इति श्रवणात्, अत्र इच्छायोगे, मजति मग्नं भवति। अन्यथा हि इच्छायोगाधिकारी भगवान् हरिभद्रसूरियोगदृष्टिसमुचयप्रकरणप्रारम्भे मृषावादपरिहारेण सर्वत्रौचित्याऽऽरम्भप्रदर्शनार्थ न त्वेच्छायोगतोऽयोगमित्यादि नावक्ष्यत् ; वाड्नमस्कारमात्रस्याल्पस्य विधिशुद्धस्यापि संभवात्। प्रतिपन्नस्वपर्यायान्तर्भूतत्वेन च प्रकृतनमस्कारस्यापि इच्छायोगप्रभवत्वमदुष्टमिति विभावनीयम् // 3 // यथाशक्त्यप्रमत्तस्य, तीव्रश्रद्धाऽवबोधतः। शास्त्रयोगस्त्वखण्डार्था-ऽऽराधनादुपदिश्यते // 4 // यथाशक्ति स्वशक्त्यनतिक्रमेण, अप्रमत्तस्य विकथाऽऽदिप्रमादरहितस्य, तीव्रौ तथाविधमोहापगमात्पटुतरौ, यौ श्रद्धाऽवबोधौ जिनप्रवचनाऽऽस्तिक्यतत्त्वपरिच्छेदी, तत अखण्डार्थाऽऽराधनात् कालाऽऽद्यविकलवचनानुष्ठानात् तु शास्त्रयोग उपदिश्यते॥ 4 // शास्त्रेण दर्शितोपायः, फलपर्यवसायिना। तदतिक्रान्तविषयः, सामर्थ्याऽऽख्योऽतिशक्तितः।।५।। फलपर्यवसायिना मोक्षपर्यन्तोपदेशेन शास्त्रेणदर्शितः सामान्यतो ज्ञापित उपायो यस्य, सामान्यतः फलपर्यवसानत्वाच्छास्त्रस्य द्वारमात्रबोधनेन विशेषहेतुदिकप्रदर्शकत्वात् अतिशक्तितः शक्तिप्राबल्यात्, तदतिक्रान्तविषयः शास्त्रातिक्रान्तगोचरः सामर्थ्याऽऽख्यो योग उच्यते।।५।। शास्त्रातिक्रान्तविषयत्वमस्य समर्थयन्नाहशास्त्रादेव नबुध्यन्ते, सर्वथा सिद्धिहेतवः। अन्यथा श्रवणादेव, सर्वज्ञत्वं प्रसज्ज्य ते॥ 6 // सिद्धिहेतवः सर्वे, सर्वथा सर्वैः प्रकारैः, शास्त्रादेवन बुध्यन्ते, अन्यथा शास्त्रादेव सर्वसिद्धिहेतूनां बोधे, सर्वज्ञत्वं प्रसज्ज्यते श्रवणादेव, सर्वसिद्धिहेतुज्ञाने सार्वज्ञसिद्ध्युपधायकोत्कृष्टहेतुज्ञानस्याप्यावश्यकत्वात्तदुपलम्भाऽऽख्यस्वरूपाऽऽचरणरूपचारित्रस्यापि विलम्बाभावात् सर्वसिद्ध्युपायज्ञानस्य सार्वज्ञव्याप्यत्वाच। तदिदमुक्तम्" सिद्ध्याख्यपदसंप्राप्ते-हेतुभेदान तत्वतः। शास्त्रादेवावगम्यन्ते, सर्वथैवेह योगिभिः॥१॥ सर्वथा तत्परिच्छेदात् , साक्षात्कारित्वयोगतः। तत्सर्वज्ञत्वसंसिद्धेः, तदा सिद्धिपदाऽऽप्तितः // 2 // " // 6 // प्रातिभज्ञानगम्यस्तत्, सामर्थ्याऽऽख्योऽयमिष्यते। अरुणोदयकल्पं हि, प्राच्यं तत्केवलार्कतः॥ 7 // तत्तस्मात् , प्रातिभज्ञानगम्योऽयं सामर्थ्याऽऽख्यो योग उच्यते, सार्वज्ञहेतुः खल्वयं मार्गानुसारिप्रकृष्टोहस्यैव विषयो, न तु वाचाम् , क्षपक श्रेणिगतस्य धर्मव्यापारस्य स्वानुभवमात्रवेद्यत्वादिति भावः / ननु प्रातिभमपि श्रुतज्ञानमेव, अन्यथा षष्टज्ञानप्रसङ्गात् , तथा च कथं शास्त्रातिक्रान्तविषयत्वमस्येत्यत आह-तत् प्रातिभं हि, केवलार्कतः केवलज्ञानभानुमालिनः, प्राच्यं पूर्वकालीनम् , अणोदयकल्पम् / / 7 / / एतदेव भावयतिरात्रेर्दिनादपि पृथग् , यथा नो वाऽरुणोदयः। श्रुताच केवलज्ञानात् , तथेदमपि भाव्यताम् / / 8 / / यथाऽरुणोदयो रात्रेर्दिनादपि पृथग् नो वा, अपृथगित्यर्थः। न पुनरत्रैकरूप्यं विवेचयितुं शक्यते, पूर्वापरत्वाविशेषेणोभयभागसंभवात्। श्रुतात् केवलज्ञानाच, तथेदमपि प्रातिभं ज्ञानं भाव्यता, तत्काल एव तथाविधक्षयोपशमभाविनस्तस्य श्रुतत्वेन तत्त्वतोऽसंव्यवहार्यतया श्रुतादशेषद्रव्यपर्यायाविषयत्वेन, क्षायोपशमिकत्वेन च केवलज्ञानाद्विभिन्नत्वात् केवलश्रुतपूर्वापरकोटिव्यवस्थितत्वेन, तद्धेतुकार्यतया च ताभ्यामभिन्नत्वात् // 8 // ऋतम्भराऽऽदिभिः शब्दैः, वाच्यमेतत्परैरपि। इष्यते गमकत्वं चा-मुष्य व्यासोऽपि यज्जगौ // 6 // एतत् प्रकृतं प्रातिभज्ञानं, परैरपि पातञ्जलाऽऽदिभिः, ऋतम्भराऽऽदिभिः शब्दै र्वाच्यमिष्यते, आदिना तारकाऽऽदिशब्दग्रहः / गमकत्वं सामर्थ्ययोगज्ञापकत्वं च, अमुष्य प्रातिभस्य परैरिष्यते, यद्यस्माद्यासोऽपि जगौ // 6 // आगमेनानुमानेन, ध्यानाभ्यासरसेन च। त्रिधा प्रकल्पयन प्रज्ञां, लभते योगमुत्तमम् / / 10 / / आगमेन शास्त्रेण, अनुमानेन लिङ्गाल्लिङ्गिज्ञानरूपेण, ध्यानाभ्यासस्य रसःश्रुतानुमानप्रज्ञाविलक्षण ऋतम्भराऽऽख्यो विशेषविषयः, तेन च; त्रिधा प्रज्ञा प्रकल्पयन् , उत्तमं सर्वोत्कृष्ट, योगं लभते।१०।। द्विधाऽयं धर्मसंन्यास-योगसंन्याससंज्ञितः।
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________________ जोग 1628- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोग क्षायोपशमिका धर्माः, योगाः कायाऽऽदिकर्म तु / / 11 // / द्विधा द्विप्रकारोऽयं सामर्थ्ययोगः धर्मसंन्यास-योगसंन्याससंज्ञे जाते यस्य स तथा। संज्ञा चेह तथा संज्ञायत इति कृत्वा, तत्स्वरूपमेव गृह्यते। क्षायोपशमिका:-क्षयोपशमनिर्वृत्ताः ज्ञान्त्यादयो धर्माः, योगास्तुकायाऽऽदिकर्म कायोत्सर्गकरणाऽऽदयः कायाऽऽदिव्यापाराः // 11 // द्वितीयापूर्वकरणे, प्रथमस्तात्त्विको भवेत्। आयोज्यकरणादूज़, द्वितीय इति तद्विदः // 12 // द्वितीयापूर्वकरण इति। ग्रन्थिभेदनिबन्धनप्रथमापूर्वकरणव्यवच्छेदार्थ द्वितीयग्रहणं, प्रथमेऽधिकृतसामर्थ्ययोगासिद्धेः / अपूर्वकरणस्य तु तत्रासंजातपूर्वग्रन्थिभेदाऽऽदिफलेनाभिधानाद् यथाप्राधान्यमयमुपन्यासः। चारुश्च पश्चानुपूर्येति समयविदः / ततो द्वितीयेऽस्मिँस्तथाविधकर्मस्थितेस्तथाविधसंख्येयसागरोपमातिक्रमभाविनि प्रथमो धर्मसंन्याससंज्ञितः सामर्थ्ययोगः तात्त्विकः पारमार्थिको भवेत् , क्षपक श्रेणियोगिनः क्षायोपशमिकक्षान्त्यादिधर्मनिवृत्तेः। अतात्त्विकस्तु प्रव्रज्याकालेऽपि भवति, प्रवृत्तिलक्षणधर्मसंन्यासायाः प्रव्रज्याया ज्ञानयोगप्रतिपत्तिरूपत्वात् / अत एवास्या भवविरक्त एवाधिकार्युक्तः। यथोक्तम्-" अथ प्रव्रज्याहः, आर्यदेशोत्पन्नः, विशिष्टजातिकुलान्वितः, क्षीणप्रायकर्ममलबुद्धिः, दुर्लभं मानुष्यं, जन्म मरणनिमित्तं, संपदश्वलाः, विषया दुःखहेतवः, संयोगो वियोगान्तः, प्रतिक्षणं मरणं, दारुणो विपाकः, इत्यवगतसंसारनैर्गुण्यः, तत एव तद्विरक्तः, प्रतनुकषायोऽल्पहास्याऽऽदिः, कृतज्ञो, विनीतः, प्रागपि राजामात्यपौरजनबहुमतोऽद्रोहकारी, कल्याणाङ्गः, श्राद्धः, सुमपसंपन्नश्चेति / न ह्यनीदृशो ज्ञानयोगमाराधयति, न चेदृशो नाराधयतीति भावनीयम् / सर्वज्ञवचनमागमः, तत्रायमनिरूतार्थ इति, आयोज्यकरणं केवलाऽऽभोगेनाचिन्त्यवीर्यतया भवोपग्राहिकर्माणि तथा व्यवस्थाप्य तत्क्षपणव्यापारणं शैलेश्यवस्थाफलं, तत ऊर्ध्वं द्वितीयो योगसंन्याससंज्ञित इति, तद्विदोऽभिदधति, शैलेश्यावस्थायां कायाऽऽदियोगानां संन्यासेनायोगाऽऽख्यस्य सर्वसंन्यासलक्षणस्य सर्वोत्तमस्य योगस्य प्राप्तेरिति // 12 // तात्त्विकोऽतात्त्विकश्चेति, सामान्येन द्विधाऽप्ययम्। तात्त्विको वास्तवोऽन्यस्तु, तदाभासः प्रकीर्तितः।। 13 // सामान्येन विशेषभेदानुपग्रहेण, तात्त्विकोऽतात्त्विक श्चेति द्विधाऽप्यय योग इष्यते। तात्त्विको वास्तवः, केनापि नयेन मोक्षयोजनफल इत्यर्थः / अन्योऽतात्त्विकस्तु तदाभास उक्तलक्षणविरहितोऽपि, योगोचितवेषाऽऽदिना योगवदाभासमानः प्रकीर्तितः॥ 13 // अपुनर्बन्धकस्यायं, व्यवहारेण तात्त्विकः। अध्यात्मभावनारूपो, निश्चयेनोत्तरस्य तु / / 14 / / अपुनर्बन्धकस्योपलक्षणत्वात् सम्यगदृष्टेश्व, अयं योगो, व्यवहारेण कारणस्यापि कार्योपचाररूपेण, तात्त्विकोऽध्यात्मरूपो भावनारूपश्च, निश्चयेन निश्चयनयेनोपचारपरिहाररूपेणोत्तरस्य तु चारित्रिण एव / / 14 / / सकृदावर्तनाऽऽदीना-मतात्त्विक उदाहृतः। प्रत्यपायफलप्रायः, तथावेपाऽऽदिमात्रतः।।१५।। सकृदेकवारम् , आवर्तन्ते उत्कृष्टस्थितिं बध्नन्तीति सकृदावर्तनाः | आदिशब्दाद् द्विरावर्तनाऽऽदिग्रहः / तेषामतात्त्विको व्यवहारतो, निश्चयतश्वातत्त्वरूपोऽशुद्धपरिणामत्वादुदाहृतोऽध्यात्मभावनारूपो योगः / प्रत्यपायोऽनर्थः फलं, प्रायो बाहुल्येन, यस्य स तथा / तथा तत्प्रकारभावमाराध्याऽऽत्मभावनायुक्तयोगियोग्यं यद्वेषाऽऽदिमात्रं नेपथ्यचेष्टाभाषालक्षणं श्रद्धानशून्यं वस्तु तस्मात् , तत्र हि वेपाऽऽदिमात्रमेव स्याद् , न पुनस्तेषां काचिच्छ्रद्धालुतेति / / 15 / / शुद्ध्यपेक्षो यथायोगं, चारित्रवत एव च। हन्त ! ध्यानाऽऽदिको योग-स्तात्त्विकः प्रविजृम्भते / / 16 / यथायोगं यथास्थानं, शुद्ध्यपेक्ष उत्तरोत्तरां शुद्धिमपेक्ष्य प्रवर्तमानचारित्रवत एव च, हन्त ! तात्त्विकः पारमार्थिकैकस्वरूपो, ध्यानाऽऽदिको योगः, प्रविजृम्भते प्रोल्लसति // 16 // अपायभावाभावाभ्यां, सानुबन्धोऽपरश्च सः। निरुपक्रमकर्मवा-पायो योगस्य बाधकम् // 17 // अपायस्य भावाभावाभ्यां सद्भावासद्भावाभ्यां, सानुबन्धः, अपरो निरनुबन्धश्च, स योगः अपायरहितः सानुबन्धः, तत्सहितश्च निरनुबन्ध इति।योगस्य बाधकं निरुपक्रम विशिष्टानुष्टानचेष्टयाऽप्यनुच्छेद्यमनाश्यं, स्वविपाकसामर्थ्य वा, कर्मव चारित्रमोहनीयाऽऽख्यमपायः // 17 // बहुजन्मान्तरकरः, सापायस्यैव साऽऽश्रवः। अनाश्रवस्त्वेकजन्मा, तत्त्वाङ्गव्यवहारतः॥१८॥ बहुजन्मान्तरकरो देवमनुष्याऽऽद्यनेकजन्मविशेषहेतुः, निरुपक्रमकर्मणोऽवश्यवेदनीयत्वात् , सापायस्यैवापायवत एव, साऽऽश्रवो योगः, एकमेव वर्तमानं जन्म यत्र स त्वनाश्रवः / ननु कथमेतत् ? अयोगिकेवलिगुणस्थानादक सर्वसंवराभावेनानाश्रवत्वासंभवादित्यत आह-तत्त्वाइनिश्चयप्रापको यो व्यवहारः, ततस्तेन साम्परायिककर्मबन्धनलक्षणस्यवाऽऽश्रवस्याभ्युपगमात्तदभावे इत्यराऽऽश्रवभावेऽपि नानाश्रवयोगक्षतिरिति भावः। तदुक्तम्" आश्रवो बन्धहेतुत्वाद्, बन्ध एवेह यन्मतः। स साम्परायिको मुख्यः, तदेवोऽर्थोऽस्य सङ्गतः / / 375 // एवं चरमदेहस्य, संपरायवियोगतः। इत्वराऽऽत्रभावेऽपि, स तथाऽनाश्रवो मतः / / 376 / / निश्चयेनात्र शब्दार्थः, सर्वत्र व्यवहारतः। निश्चयव्यवहारौ वद्, द्वावप्यभिमतार्थदौ / / 377 // " (यो० वि०) निश्चयेनेत्युपलक्षणे तृतीया, ततो निश्चयेनोपलक्षितात् तत्प्रापकव्यवहारत इत्यन्वयः॥१८॥ इत्थं साऽऽश्रवानाश्रवत्याभ्यां योगद्वैविध्यमुक्वा, शास्त्रसापेक्षस्वाधिकारिकत्वतद्विपर्ययाभ्यां तवैविध्याभिधानाभिप्रायवानाहशास्त्रेणाधीयते चायं, नासिद्धेर्गोत्रयोगिनाम्। सिद्धेर्निष्पन्नयोगस्य, नोद्देशः पश्यकस्य यत् / / 16 / / अयं च योगो गोत्रयोगिनां गोत्रमात्रेण योगिनाम् असिद्धेमलिनान्तराऽऽत्मतया योगसाध्यफलाभावात् शारत्रेण योगतन्त्रेण नाधीयते, तथा सिद्धेः सामर्थ्य यो गत एवं कार्यनिष्पत्ते :, निष्पन्नयोगस्यासङ्गानुष्ठानप्रवाहप्रदर्शनेन सिद्धयोगस्यायं शास्त्रेण नाधीयते, यद् यस्मात् , पश्यकस्य स्वत एव थिदितयेद्यस्य, उ
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________________ जोग 1626 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग दिश्यत इत्युद्देशः, सदसत्कर्तव्याकर्तव्याऽऽदेशो नास्ति। यतोऽभिहितमाचारे-" उद्देसो पासगस्स नऽस्थि त्ति " / / 16 / / कुलप्रवृत्तचक्राणां, शास्त्रात् तत्तदुपक्रिया। योगाऽऽचार्यविनिर्दिष्टं, तल्लक्षणमिदं पुनः // 20 // कुलयोगिनां, प्रवृत्तचक्रयोगिना च, शास्त्राद् योगतन्त्रात् ,सा विचित्रत्वेन प्रसिद्धा, उपक्रिया योगसिद्धिरूपा भवति / तदुक्तं योगदृष्टिसमुचये-"कुलप्रवृत्तचक्रा ये, त एवास्याधिकारिणः / योगिनो न तु सर्वेऽपि, तथा सिद्ध्यादिभावतः " // 1 // तेषां कुलप्रवृत्तचक्रयोगिनां, लक्षणं पुनरिदं वक्ष्यमाणं,योगाऽऽचार्योगप्रतिपादकैः सूरिभिर्विनिर्दिष्टम् // 20 // द्वार० 16 द्वा०। [कुलयोगिलक्षणं' कुलजोगि (ण) शब्दे तृतीयेभागे 568 पृष्ठे द्रष्टव्यम् / प्रवृत्तचक्रयोगिलक्षणं च ' पवत्तचक्क' शब्दे वक्ष्यामः] आद्यावश्चकयोगाऽऽप्त्या, तदन्यद्वयलाभिनः। एतेऽधिकारिणो योग-प्रयोगस्येति तद्विदः॥२४॥ आद्यावञ्चकयोगस्य योगावञ्चकयोगस्य, आप्त्या प्राप्त्या हेतुभूतया, तदन्यद्वयलाभिनः क्रियावञ्चकफलावञ्चकयोगलाभवन्तः, तदबन्ध्यभव्यतया तत्त्वतस्तेषां तल्लाभवत्त्वात्। एतेऽधिकारिणो, योगप्रयोगस्याधिकृतयोगव्यापारस्य, इत्येयं, तद्विदो योगविदोऽभिदधति।। 24 / / द्वार०१६ द्वा०। सद्भिः कल्याणसंपन्न-दर्शनादपि पावनैः। तथा दर्शनतो योग, आद्यावञ्चक उच्यते // 26 / / सभिरुत्तमैः, कल्याणसंपन्नैर्विशिष्टपुण्यवद्भिः, दर्शनादप्यबलोकनादपि, पावनैः पवित्रैः, तथा तेन प्रकारेण, गुणवत्तयेत्यर्थः / दर्शनतो | योगःसंबन्धः, आद्यावञ्चकः सद्योगावञ्चकः, उच्यते दृश्यते॥२६॥ / तेषामेव प्रणामाऽऽदि-क्रियानियम इत्यलम्। क्रियाऽवश्चकयोगः स्याद् , महापापक्षयोदयः // 30 // तेषामेव सतामेव, प्रणामाऽऽदिक्रियानियमः, इत्यलं, क्रियाऽवश्वकयोगः स्यात् , महापापक्षयस्य नीचैर्गोत्रकर्मक्षयस्य, उदय उत्पत्तिर्यस्मात् स तथा॥ 30 // फलावञ्चकयोगस्तु, सद्भय एव नियोगतः। सानुबन्धफलावाऽऽप्ति-धर्मसिद्धौ सतां मता॥३१॥ फलावञ्चकयोगस्तु, सद्भ्य एवानन्तरोदितेभ्यः, नियोगतोऽवश्यंभावेन सानुबन्धस्योत्तरोत्तरवृद्धिमतः, फलस्यावाऽऽप्तिः, तथा सदुपदेशाऽऽदिना धर्मसिद्धौ विषये सता मता // 31 // इत्थं योगविवेकस्य, विज्ञानाद्धीनकल्मषः। यतमाना यथाशक्ति, परमाऽऽनन्दमश्नुते // 32 // इत्थमिति स्पष्टम्॥३२॥ द्वा०१६ द्वा०। अनन्तरोक्तो योगविवेकः स्वाभिमतयोगभेदे परोक्तयोगानामवतारे सति व्यवतिष्ठते, इत्यतोऽयं निरूप्यतेसंप्रज्ञातोऽपरश्रेति, द्विधाऽन्यैरयमिष्यते। सम्यक् प्रज्ञायते येन, संप्रज्ञातः स उच्यते // 1 // संप्रज्ञातः, अपरोऽसंप्रज्ञातश्चेति, अन्यैः पातञ्जलैः, अयं योगो / द्विधेष्यते, सम्यक्संशयविपर्ययानध्यवसायरहितत्वेन, प्रज्ञायते प्रकर्षण ज्ञायते, भाव्यस्य स्वरूपं येन स संप्रज्ञात उच्यते॥१॥ वितर्केण विचारेणा-5ऽनन्देनास्मितयाऽन्वितः। भाव्यस्य भावनाभेदात् , संप्रज्ञातश्चतुर्विधः॥२॥ वितर्केण विचारेण, आनन्देनास्मितयाऽन्वितः क्रमेण युक्तः, भाव्यस्य, भावनायाः विषयान्तरपरिहारेण चेतसि पुनः पुनर्निवेशनलक्षणायाः, भेदात् , संप्रज्ञातश्चतुर्विधो भवति। तदुक्तम्-"वितर्कविचाराऽऽनन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञात इति।" (1-17) / // 2 // पूर्वापरानुसन्धानात् , शब्दोल्लेखाच भावना। महाभूतेन्द्रियार्थेषु, सविकल्पोऽन्यथाऽपरः।।३।। पूर्वापरयोरर्थयोः, अनुसन्धानात् , शब्दोल्लेखाच्छब्दार्थोपरागाञ्चः, यदा भावना प्रवर्त्तते महाभूतेन्द्रियलक्षणेष्वर्थेषु स्थूलविषयेषु, तदा सविकल्पःसवितर्क : समाधिः / अन्यथाऽस्मिन्नेवाऽऽलम्बने, पूर्वापरानुसन्धानशब्दार्थोल्लेखशून्यत्वेन भावनायामपरो निर्विकल्पःनिर्वितर्कः॥३॥ तन्मात्रान्तःकरणयोः, सूक्ष्मयोर्भावना पुनः। दिक्कालधविच्छेदात् , सविचारोऽन्यथाऽपरः।।४। तन्मात्रान्तःकरणयोः सूक्ष्मयोर्भाव्ययोः, दिक्कालधर्मावच्छेदाददेशकालधविच्छेदेन, भावना पुनः सविचारः समाधिः / अन्यथा तस्मिन्नेवाऽऽलम्बने, देशकालधर्मावच्छेदं विना धर्मिमात्रावभासित्वेन भावनायाम् , अपरो निर्विचारः समाधिः // 4 // यदा रजस्तमोलेशा-नुबिद्धं भाव्यते मनः। तदा भाव्यसुखोद्रेकात् , चिच्छक्तेर्गुणभावतः / / 5 / / यदा रजस्तमसोर्लेशेनानुबिद्ध मनोऽन्तःकरणतत्त्वं भाव्यते, तदा भाव्यस्य भावनाविषयस्य, सुखस्य सुखप्रकाशमयस्य सत्वस्य, उद्रेकादाधिक्यात् , चिच्छक्तेर्गुणभावतोऽनुद्रेकात्॥५॥ साऽऽनन्दोऽत्रैव भण्यन्ते, विदेहा बद्धवृत्तयः। देहाहकारविगमात् , प्रधानपुमदर्शिनः।।६।। साऽऽनन्दः समाधिर्भवत्युक्तहेतुतः, अत्रैव समाधौ, बद्धवृत्तयो विदेहा भण्यन्ते, देहाहङ्कारविगमाद्बहिर्विषयाऽऽवेशनिवृत्तेः, प्रधानपुमदर्शिनः प्रधानपुरुषतत्त्वाऽऽविर्भावकाः // 6 // सत्त्वं रजस्तमोलेशा-नाक्रान्तं यत्र भाव्यते। स सास्मितोऽत्र चिच्छक्ति-सत्त्वयोमुख्यगौणता।।७।। यत्र रजस्तमोलेशेनानाक्रान्तं सत्त्वं भाव्यते, स सास्मितः समा-धिः। अत्र चिच्छक्तिसत्त्वयोमुख्यगौणता, भाव्यस्य शुद्धसत्त्वस्य, न्यगभावाचिच्छक्तेश्वोद्रेकात् सत्तामात्रावशेषत्वाचात्र सास्मितत्वोपयन्तिः / न चाहङ्कारास्मितयोरभेदः शङ्कनीयः, यतो यत्रान्तःकरणमहमित्युल्लेखेन विषयं वेदयते सोऽहङ्कारः, यत्रान्तर्मुखतया प्रतिलोमपरिणामेन प्रकृतिलीने चेतसि सत्तामात्रमेव भाति, साsस्मितेति // 7 // अत्रैव कृततोषा ये, परमाऽऽत्मानवेक्षिणः। चित्ते गते ते प्रकृति-लया हि प्रकृतौ लयम्॥८॥ अत्रैव सारिमतसमाधावेव, ये कृततोषाः परमाऽऽल्मानवेक्षिणः परमपुरुषादर्शिनः, ते हि चित्ते प्रकृतौ लयं गते सति प्रकृतिलया उच्यन्ते // 8 // ग्रहीतृग्रहणग्राह्य-समापत्तित्रयं किल।
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________________ जोग 1630- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग अत्र सास्मितसाऽनन्द-निर्विचारान्तविश्रमम् / / 6 / / सास्मितसमाधिपर्यन्ते परं पुरुषं ज्ञात्वा भावनायां विवेकख्याती ग्रहीतृसमापत्तिः, साऽऽनन्दसमाधिपर्यन्ते ग्रहणसमापत्तिः, निर्विचारसमाधिपर्यन्ते च ग्राह्यसमापत्तिर्विश्रान्तेत्येतदर्थः / / 6 / / मणेरिवामिजातस्य, क्षीणवृत्तेरसंशयम्। तात्स्थ्यात्तदञ्जनत्वाच्च, समापत्तिः प्रकीर्तिता।।१०।। मणेरिव स्फटिकाऽऽदिरत्नस्येव, अभिजातस्य जात्यस्य, क्षीणवृत्तेः क्षीणमलस्य, असंशयं निश्चितं, तात्स्थ्यात्तत्रैकाग्रत्वात् , तदञ्जनत्वाच तन्मयत्वात् , न्यग्भूते चित्ते विषयस्य भाव्यमानस्यैकत्वोत्कर्षात् समापत्तिः प्रकीर्तिता / तदुक्तम्-" क्षीणवृत्तेरभिजात-स्येवमणेहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः।" (1-41) यथा हि निर्मलस्फटिकमणेस्तद्रूपाऽऽश्रयवशात्तद्रूपताऽऽपत्तिः, एवं निर्मलचित्तसत्त्वस्य तत्तद्भावनीयवस्तूपरागात्तद्रूताऽऽपत्तिः / यद्यपि ग्रहीतृग्रहणग्राह्येत्युक्तं, तथाऽपि भूमिकाक्रमवशेन व्यत्ययो बोध्यः / वतःप्रथम ग्राह्यनिष्ठः समाधिः, ततो ग्रहणनिष्ठः, ततोऽस्मितोपरागेण ग्रहीतृनिष्ठाः, केवलस्य पुरुषस्य ग्रहीतुर्भाव्यत्वासंभवादिति बोध्यम्॥ 10 // संकीर्णा सा च शब्दार्थ-ज्ञानैरपि विकल्पतः। सवितर्का परैर्भेदै-र्भवतीत्थं चतुर्विधा / / 11 // सा च समापत्तिः, शब्दार्थज्ञानैर्विकल्पतोऽपि संकीर्णा सवितर्का / यदाह-" तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का / " (1-42) अत्र श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यः, स्फोटरूपो वा शब्दः, अर्थो जात्यादिः, ज्ञानं सत्त्वप्रधाना बुद्धिवृत्तिः, विकल्पःशब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्योऽर्थः, एतैः संकीर्णाः-यत्रैते शब्दाऽऽदयः परस्पराध्यासेन प्रतिभासन्तेगौरितिशब्दो, गोरित्यर्थो, गौरिति ज्ञानमित्याकारण, इत्थं परैर्भेदैश्चतुर्विधेयं भवति / तथाहि- " महास्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का / "(1-43) यदा-ह-'उक्तलक्षणविपरीता निर्वितर्केति'। यथा च स्थलभूताऽऽदिविषया सवितर्का, तथा सूक्ष्मतन्मात्रेन्द्रियाऽऽदिकमर्थ शब्दार्थविकल्पसहितत्वेन, देशकालधर्मावच्छेदेन च गृण्हन्ती सविचाराभण्यते, धर्मिमात्रतया च तं गृह्णन्ती निर्विचारेति। एत उक्तम्-" एतयैव सविचारा, निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता।" (1-44)" सूक्ष्मविषयत्वंचालिङ्गपर्यवसानम्।" (1-45) नक्वचिद्विद्यते, न वा किञ्चिल्लिङ्गति गमयतीत्यलिङ्ग प्रधान, तत्पर्यन्तमित्यर्थः / गुणानां हि परिणामे चत्वारि पर्वाणिविशिष्टलिङ्गम् , अविशिष्टलिङ्गं, लिङ्गमात्रम् , अलिङ्ग चेति / विशिष्टलिङ्ग भूतानि, अविशिष्टिलिङ्गं तन्मात्रेन्द्रियाणि, लिङ्गमात्रं बुद्धिः, अलिङ्गं च प्रधानमिति / एताश्च समापत्तयः संप्रज्ञातरूपा एव। यदाह-"ताएव सबीजः समाधिरिति।" (1-46) सह बीजे नाऽऽलम्बनेन वर्त्तत इति सबीजः, संप्रज्ञात इत्यर्थः // 11 // इतरासां समापत्तीनां निर्विचारफलत्वान्निर्विचारायाः फलमाहअध्यात्म निर्विचारत्व-वैशारद्ये प्रसीदति। ऋतम्भरा ततः प्रज्ञा, श्रुतानुमितितोऽधिका // 12 // निर्विचारत्वस्य चरमसमापत्तिलक्षणस्य, वैशारद्ये प्रकृष्टाभ्यासयसेन नैर्मल्ये, अध्यात्म शुद्धसत्त्वं, प्रसीदति क्लेशवासनारहितस्थितिप्रवाहयोग्यं भवति। यदुक्तम्-" निर्विचारत्ववैशारोऽध्यात्मप्रसादः।" (1-47) ततोऽध्यात्मप्रसादात् , ऋतम्भरा प्रज्ञा भवति। ऋतं सत्यमेव विभर्ति, न कदाचिदपि विपर्ययेणाऽऽच्छाद्यते यासा ऋतम्भरा। तदुक्तम्" ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा।'' (1-48) सा च श्रुतानुमितित आगमानुमानाभ्यां सामान्यविषयाभ्यां विशेष-विषयत्वेनाधिका / यदाह- " श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषयावि-शेषार्थत्वादिति। "(1-46) // 12 // तज्जन्मा तत्त्वसंस्कारः, संस्कारान्तरबाधकः। असंप्रज्ञातनामा स्यात् , समाधिस्तन्निरोधतः / / 13 / / तत ऋतम्भरप्रज्ञायाः, जन्मोत्पत्तिर्यस्य स तथा, तत्त्वसंस्कारः परमार्थविषयः संस्कारः, संस्कारान्तरस्य स्वेतरस्य-व्युत्थानजस्य, समाधिजस्य वा संस्कारस्य बाधकस्तन्निष्टकार्यकरणशक्तिभङ्गकृदिति यावत्। तदुक्तम्-"तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी।" (1-50) तस्य निरोधतः सर्वासां चित्तवृत्तीना स्वकारणे प्रविलयात् , संस्कारमात्रोदितवृत्तिलक्षणोऽसंप्रज्ञातनामा समाधिः स्यात्। तदुक्तम्-"तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधी निर्बीजः समाधिरिति।" (1-51) // 13 // विरामप्रत्ययाभ्यासाद् , नेति नेति निरन्तरात्। ततः संस्कारशेषाच, कैवल्यमुपतिष्ठते // 14 // विरामो वितर्काऽऽदिचिन्तात्यागः, स एव प्रत्ययो विरामप्रत्ययः, तस्याभ्यासः पौनःपुन्येन चेतसि निवेशनं, ततः नेति नेति निरन्तरादन्तररहितात , संस्कारशेषादुत्पन्नः, ततोऽसंप्रज्ञातसमाधेः / यत उक्तम्-'" विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषादन्य इति।" (1-18) कैवल्यमात्मनः स्वप्रतिष्ठत्वलक्षणम् , उपतिष्ठत आविर्भवति।।१४।। (16) तदेवमुक्तौ पराभिमती सभेदी सोत्पत्तिक्रमौ च संप्रज्ञातासंप्रज्ञाताऽऽरख्यौ योगभेदी ; अथानयोर्यथासंभवमवतारमाहसंप्रज्ञातोऽवतरति, ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वतः। तात्त्विकी च समापत्ति-र्नाऽऽत्मनो भाव्य तां विना / / 15 / / अत्र संप्रज्ञातासंप्रज्ञातयोर्योगभेदयोर्मध्ये, संप्रज्ञातस्तत्त्वतो ध्यानभेदेऽवतरति, स्थिराध्यवसानरूपत्वात्: अध्यात्माऽऽदिकमारभ्य ध्यानपर्यन्तं यथाप्रकर्ष संप्रज्ञातो विश्राम्यतीत्यर्थः / यदाह योगबिन्दुकृत्" समाधिरेष एवान्यैः, संप्रज्ञातोऽभिधीयते / सम्यक् प्रकर्षरूपेण, वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा " || 418 // इति / एष एवाध्यात्माऽऽदियोगः तात्त्विकी निरुपचरिता च समापत्तिरात्मनो भाव्यतां भावनाविषयता विना न घटते, शुद्धस्याभाव्यत्वे विशिष्टस्यापि तत्त्वायोगाद् विशेषणसंबन्धं विना वैशिष्ट्य स्यापि दुर्वचत्वाचेति / तथा च ग्रहीतृसमापत्तिड्मिात्रमे वेति भावः।। 15 / / परमाऽऽत्मसमापत्ति-जीवाऽऽत्मनि हि युज्यते। अभेदेन तथा ध्याना-दन्तरङ्गस्वशक्तितः॥ 16 // जीवाऽऽत्मनि हि परमाऽऽत्मसमापत्तिः, तथापरिणामलक्षणा युज्यते, अभेदेन तथा परमात्मत्वेन ध्यानाद्जीवाऽऽत्मनोरन्तरङ्गाया उपादानभूतायाः स्वशक्तितस्तयापरिणमनादात्मशक्तेः शक्तय सत एव व्यक्तया परिणमनस्य तथा सामग्रीतः संभवादिति भावः / / 16 / /
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________________ जोग 1631 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोग (20) जीवाऽऽत्मनि परमाऽऽत्मनः सत्त्वोपपत्त्यर्थमात्मत्रयं सन्निहितमुपदर्शयतिबाह्याऽऽत्मा चाऽऽन्तराऽऽत्मा च, परमाऽऽत्मेति च त्रयः। कायाधिष्ठायकध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाङ्मये / / 17 / / कायः स्वाऽऽत्मधिया प्रतीयमानः,- 'अहं स्थूलोऽहं कृशः,' इत्याधुल्लेखेनाधिष्ठायकः कायचेष्टाजनकप्रयत्नवान् , ध्येयश्च ध्यानभाव्यः, एते त्रयोबाह्याऽऽत्मा च अन्तराऽऽत्मा च, परमाऽऽत्मा चेतियोगवाङ्मये योगशास्त्रे प्रसिद्धाः। एतेषां च स्वेतरभेदप्रतियोगित्वध्यातृत्वध्येयत्वैानोपयोगस्तात्त्विकातात्त्विकैकत्वपरिणामतश्च सन्निधानमतातत्विकपरिणामनिवृत्तौ तात्त्विकपरिणामोपलम्भः नापत्तिरिति ध्येयम्।।१७।। अन्ये मिथ्यात्वसम्यक्त्व-केवलज्ञानभागिनः। मिश्रे च क्षीणमोहे च, विश्रान्तास्ते त्वयोगिनि / / 18 / / अन्ये पुनराहु:गि यात्वसम्यक्त्वके वलज्ञानभागिनो बाह्याऽऽ-- स्मान्तराऽऽत्मपरमाऽऽत्मानः / ते तुमिश्रे च क्षीणमोहे चायोगिनि च गुणस्थाने क्रमेण विश्रान्ताः तत्र च बाह्याऽऽत्मतादशायामन्तराऽऽत्मपरमाऽऽत्मनोः शक्तिः, तदेकद्रव्यत्वात् , अन्तराऽऽत्मदशायां च परमाऽऽत्मनः शक्तिः, बाह्याऽऽत्मनस्तु पूर्वनयेन योगः / परमाऽऽत्मतादशायां च बाह्याऽऽत्मान्तराऽऽत्मनो योरपि भूतपूर्वनयेनैव योग इति वदन्ति / तत्त्वमत्रत्यमध्यात्ममतपरीक्षायां व्यवस्थापितमस्माभिः॥१८॥ विषयस्य समापत्ति-रुत्पत्तिर्भावसंज्ञिनः। आत्मनस्तु समापत्ति-र्भावो द्रव्यस्य तात्त्विकः / / 16 // विषयस्याऽऽत्मातिरिक्तस्य भाव्यस्य, समापत्तिर्भावसंज्ञिनो भावाभिधानस्योत्पत्तिरुच्यते / वदन्ति हि नयदक्षाः- ' अग्न्युपयुक्तो माणतकोऽप्यग्निरेवेति / शब्दार्थप्रत्ययाना तुल्याभिधानत्वात् न वर्थज्ञानयोः कश्चनैकवृत्त्यारूढतया एकत्वपरिणामः संभवति, चेतनत्वाचेतनत्वयोविरोधादिति भावः / आत्मनस्तु समापत्तिर्द्रव्यस्य परमाऽऽत्मदलस्य, तात्त्विकः सहजशुद्धो भावः परिणामः॥ 16 / / अत एव च योऽर्हन्तं, स्वद्रव्यगुणपर्ययैः। वेदाऽऽत्मानं स एव स्वं, वेदेत्युक्तं महर्षिभिः // 20 // यत एव दलतया परमाऽऽत्मैव जीवाऽऽत्मा, अत एव च, योऽर्हन्तं तीर्थकर, स्वद्रव्यगुणपर्ययैर्निजशुद्धाऽऽत्मकेवलज्ञानस्वभावपरिणमनलक्षणैः, वेद जानाति, स एव स्वमात्मानं वेद तत्त्वतो जाना-ति, तथाज्ञानस्य तथाध्यानद्वारा तथासमापत्तिजनकत्वादिति महर्षिभिरुक्तम् / यतः पठ्यते-"जो जाणइ अरहते, दव्वत्तगुणस-पज्जयत्तेहिं / सो जाणइ अप्पाणं मोहो खलु जाइ तस्स लयं / / 1 / / " न चैतद्गाथाकर्तुर्दिगम्बरत्वेन महर्षित्वाभिधानंन निरखद्यमितिमूढधिया शङ्कनीयम्, सत्यार्थकथनगुणेन व्यासाऽऽदीनामपि हरिभद्राऽऽचायैस्तथाऽभिधानादिति द्रष्टव्यम्॥ 20 // (21) असंप्रज्ञातनामातु, संमतो वृत्तिसंक्षयः। सर्वतोऽस्मादकरण-नियमः पापगोचरः / / 21 / / असंप्रज्ञातनामा तु समाधिर्वृत्तिसंक्षयः संमतः, सयोग्ययोगिके - वलित्वकाले मनोविकल्पपरिस्पन्दरूपवृत्तिक्षयेण तदुपगमात् / त- / दुक्तम्-" असंप्रज्ञात एषोऽपि, समाधिर्गीयते परैः / निरुद्धाशेष-वृत्त्यादि, तत्रस्वरूपानुवेधतः।। 420 // " (यो० बिं०) इति। धर्ममेघ इत्यप्यस्यैव नाम। याक्तत्वभावनेन फलमलिप्सोः सर्वथा विवेकख्यातौ धर्ममशुक्लकृष्णं मेहति सिञ्चतीति व्युत्पत्तोः / तदुक्तम्-" प्रसंख्याने कुशीदस्य सर्वथा विवेकख्यातौ धर्ममेघः समाधिरिति।"(४-२६) एवमन्येषामपि तत्ततन्त्रसिद्धानां शब्दानामर्थोऽत्र यथायोग भावनीयः / तदाह- " धर्ममेघोऽमृताऽऽत्मा च, भवशक्रशिवोदयः / सत्त्वाऽऽनन्दपरश्चेति, ऽयोज्योऽत्रैवार्थयोगतः " / / 421 / / (यो० वि०) अस्माद् वृत्तिसंक्षयात् फलीभूतात , सर्वतः सर्वैः प्रकारैः, पापगोचरः पापविषयः, अकरणनियमः, अनुमीयत इति शेषः / नरकगगनाऽऽदिवृत्तिनिवृत्तेमहारम्भपरिग्रहाऽऽदिहेत्वकरणनियमेनैवोपपत्तेः / / 21 / / ग्रन्थिभेदे यथाऽयं स्याद् , बन्धहेतुं परं मति / नरकाऽऽदिगतिष्वेवं, ज्ञेयस्तद्धेतुगोचरः / / 22 / / यथाऽयमकरणनियमो, बन्धहेतुं मिथ्यात्वं परमुत्कृष्ट सप्ततिकोटिकोट्यादिस्थितिनिमित्तं, प्रत्याश्चित्य ग्रन्थिभेदे निरूप्यते / एवं नरकाऽऽदिगतिषु निवर्तनीयासु, तद्धेतुगोचरो नरकाऽऽदिहेतुविषयोऽक रणनियमो ज्ञेयः / / 22 // दुःखात्यन्तविमुक्त्यादि, नान्यथा स्यात् श्रुतोदितम्। हेतुः सिद्धश्च भावोऽस्मि-निति वृत्तिक्षयौचिती // 23 / / अन्यथा दुःखात्यन्तविमुक्त्यादि, श्रुतोदित सिद्धान्तप्रतिपादितं, न स्यात्। तदाह-" अन्यथाऽऽत्यन्तिको मृत्युभूयस्तत्राऽऽगतिस्तथा।न युज्यते हि सन्नायादित्यादि समयोदितम्। " // 416 / / (यो० बिं०) न च तत्त्वज्ञानेनैव दुःखात्यन्तविमुक्त्युपपत्तौ किमकरणनियमेनेति वाच्यम् ? तस्याऽऽत्यन्तिकमिथ्याज्ञाननाशद्वारा हेतुत्वोपगमे त त्वकरणनियमस्यावश्याऽऽश्रयणीयत्वादिति भावः / अस्मिँस्तत्तत्पापस्थानाकरणनियमे च, सिद्धः परापराधनिवृत्तिहेतुतत्त्वज्ञानानुगततया प्रतिष्ठितो भावोऽन्तःकरणपरिणामो हेतुः / तदुक्तम्-'" हेतुमस्य परं भावं, सत्त्वाद्यागो निवर्तनम्। प्रधानं करुणारूपं, बुवते सूक्ष्मदर्शिनः" / / 417 // (यो० वि०) इति एवमकरणनियमोपपत्ती, वृत्तिक्षयौचिती वृत्ति-क्षयस्य न्याय्यता, हेत्वकरणनियमेन फलानुत्पत्तिपर्यायोपपत्तेस्तत्प्राग्भावापगमस्यापि योग्यताविगमाऽऽख्यस्य हेत्वकरणनियमेनैव फलवत्त्वात्तद्विरहितस्य तस्य फलनियतत्वात्। तदुक्तम्- " मण्डूकभस्मन्यायेन, वृत्तिबीजं महामुनिः / योग्यताऽपगमाइग्ध्वा, ततः कल्याणमश्नुते // 422 / / (यो० बिं०) इति // 23 // (22) ननु यद्येक एव योगस्तदा कथं भेदः ? भेदे च प्रकृते किं तदन्तर्भावप्रयासेन? इत्यत आहयोगे जिनोक्तेऽप्येकस्मिन् , दृष्टिभेदः प्रवर्तते। क्षयोपशमवैचित्र्यात् , समेयाऽऽद्योयदृष्टिवत्॥२४॥ जिनोक्ते सर्वज्ञपोते, तत्त्वत एकस्मिन्नापि योगे, क्षयोपशमवैचित्र्याद् दृष्टिभेदो दर्शनविशेषः प्रवर्तते, समेघाऽऽदौ मेघसहितरात्र्यादौ, ओघदृष्टिवत्सामान्यदर्शनमिव। यथा हि एकस्मिन्नपि दृश्ये समेधायां रात्री दृष्टिः किञ्चिन्मात्रग्राहिणी, अमेघायां तुमनागधिकतरग्राहिणी। एवं समेघाऽमेघयोर्दिवसयोरप्यस्ति विशेषः।तथा सग्रहाग्रहयोश्चित्तविभ्रमतदभावाभ्यामर्भकानर्भकयोरपि मुग्धत्वविवेकाभ्याम् उपहतानुपहतलोचनयोश्च
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________________ जोग 1632- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोग दोषगुणाभ्यां ग्राहकयोरपि, तथा प्रकृतेऽपि योगदृष्टिभेद इति भावनीयम्। एतन्निबन्धनोऽयं दर्शनभेद इति योगाऽऽचार्याः / न खल्वयं स्थिराऽऽदिदृष्टिमतां भिन्नग्रन्थीनां योगिनां यथाविषयं नयभेदावबोधात्प्रवृत्तिरप्यमीषां परार्थं शुद्धबोधभावेन विनिवृत्ताऽऽग्रहतया मैत्र्यादिपारतन्त्र्येण गम्भीरोदाराऽऽशयत्वाद्यारिचरकसञ्जीविन्यचरकचारणनीत्येत्याहुः / / 24 / / द्वा०२० द्वा०। योगस्य कारणानि विवक्षुर्योगस्य प्रथमोपायभूतां पूर्वसेवामाहपूर्वसेवा तु योगस्य, गुरुदेवाऽऽदिपूजनम् / सदाचारस्तपो मुक्त्य-द्वेषश्चेति प्रकीर्तिताः // 1 // द्वा०१ . द्वा०॥ (यमाऽऽदीनां योगाङ्गत्वं योगबीजानि यमाऽऽदियोगाङ्गयुक्तानां मित्राद्या दृष्टयश्च' जोगदिट्टि' शब्दे वक्ष्यन्ते) (23) योगामार्गाधिकारिणस्तुयोजनाद् योग इत्युक्तो, मोक्षेण मुनिसत्तमैः। स निवृत्ताधिकारायां, प्रकृतौ लेशतो धुवः।। 14 / / योजनाद् घटनाद् , मोक्षेण, इत्यस्माद्धेतो, मुनिसत्तमैः ऋषिपुङ्गवैः | योग उक्तः, स निवृत्ताधिकारायां व्यावृत्तपुरुषाभिभवायां, प्रकृती सत्या, लेशतः किञ्चिद्वृत्या, ध्रुवो निश्चितः॥१४॥ गोपेन्द्रवचनादस्मा-देवलक्षणशालिनः। परैरस्येष्यते योगः, प्रतिश्रोतोऽनुगत्वतः / / 15 / / अस्माद् गोपेन्द्रवचनात् , एवंलक्षणशालिनः शान्तोदात्तत्वाऽऽदिगुणयुक्तस्यापुनर्बन्धकस्य, परैस्तीर्थान्तरायैः, योग इष्यते-उच्यते, प्रतिश्रोतोऽनुगच्छति यः स प्रतिश्रोतोऽनुगः, तद्भावस्तत्त्वं, तत इन्द्रियकषायानुकूला हि वृत्तिनुश्रोतः, तत्प्रतिकूला तु प्रतिश्रोत इति। इत्थं हि प्रत्यहंशुभपरिणामवृद्धिः,साच योगफलमित्यस्य योगौचित्यम्। तदाह- " वेलावलनवन्नद्यास्तदापूरोपसंहृतेः / प्रतिश्रोतोऽनुगत्वेन, प्रत्यहं वृद्धिसंयुतः" / / 202 / / (यो०बि०) इति / / 15 / / तत्क्रियायोगहेतुत्वाद्, योग इत्युचितं वचः। मोक्षेऽतिदृढचित्तस्य, मिन्नग्रन्थेस्तु भावतः / / 16 / / तद्वचः, क्रियायोगस्य सदाचारलक्षणस्य, हेतुत्वाद्योग इत्येवमुचितम्, अस्य द्रव्ययोगवत्त्वाद् , मोक्षे निर्वाणेऽतिदृढ, चित्तस्यैकधारालग्नहृदयस्य, भिन्नग्रन्थैर्विदारितातितीव्ररागद्वेषपरिणामस्य तु, भावतो योगः संभवति / सम्यग्दृष्टर्हि मोक्षाऽऽकालाक्षणिकचित्तस्य, या या चेष्टा, सा सा मोक्षप्राप्तिपर्यवसानफलिकेति तस्यैव भावतोऽयम् , अपुनर्बन्धकस्य तुन सार्वदिकस्तथा परिणाम इति द्रव्यत एवेति। तदुक्तम्-" भिन्नग्रन्थेस्तु यत् प्रायो, मोक्षे चित्तं भवे तनु / तस्य तत्सर्व एवेह, योगो योगो हि भावतः / 203 / (यो० बिं०) इति॥१६॥ अन्यसक्तस्त्रियो भार्तृ-योगोऽप्यश्रेयसे यथा। तथाऽमुष्य कुटुम्बाऽऽदि-व्यापारोऽपि न बन्धकृत् // 17 // / अन्यस्मिन् स्वभर्तृव्यतिरिक्त पुंसि, सक्ताया अनुपरतरिरंसायाः, स्त्रियो योषितः, भर्तृयोगोऽपि पतिशुश्रूषणाऽऽदिव्यापारोपि, यथाऽश्रेयसे पापकर्मबन्धाय, तथाऽमुप्य भिन्नग्रन्थेः, कुटुम्बाऽऽदिव्यापारोऽपि, न बन्धकृत् , पुण्ययोगेऽपि पापपरिणामेन पापस्येव बन्धक्दशुभकुटुम्बचिन्तनाऽऽदियोगेऽपि शुद्धपरिणामेन सदनुबन्धस्यैवोपपत्तेः। तदुक्तम्"नार्या यथाऽन्यसक्ताया-स्तत्र भावे सदा स्थितेः। तद्योगः पापबन्धश्च, तथा मोक्षेऽस्य दृश्यताम्॥५०४ / / न चेह ग्रन्थिभेदेन, पश्यतो भावमुत्तमम्। इतरणाऽऽकुलस्यापि, तत्र चित्तं न जायते // 205 / / (यो० बिं०)॥१७॥ निजाऽऽशयविशुद्धौ हि, बाह्यो हेतुरकारणम्। शुश्रूषाऽऽदिक्रियाऽप्यस्य, शुद्धश्रद्धाऽनुसारिणी।।१८।। निजाऽऽशयविशुद्धौ हि सायां, बाह्यो हेतुः कुटुम्बचिन्तनाऽऽदिव्यापारोऽकारणं, कर्मबन्धं प्रति भवहेतूनामेव परिणामविशेषेण मोक्षहेतुत्वेन परिणमनात्-"जे जत्तिया य हेऊ, भवस्स ते तत्तिआ य मुक्खस्स।" इति वचनप्रामाण्यात्। ननु किमेकेन शुभपरिणामेन ? क्रियाया अपि मोक्षकारणत्वात् , तदभावे तस्याकिञ्चित्करत्वात् : इत्यत आह-शुश्रूषाऽदिक्रियाऽप्यस्य सम्यग्दृशः, शुद्धश्रद्धाऽनुसारिणी जिनवचनप्रामाण्यप्रतिपत्त्यनुगामिनी, परिशुद्धोहापोहयोगस्य हि प्रकृतेरप्रवृत्तिविरोधिप्रकृतियोगाभ्यां सम्यगनुष्ठानाबन्ध्यकारणत्वात्तेनैव तदाक्षिप्यत इति भावः। तदुक्तम्"चारु चैतद्द्यतो ह्यस्य,तथोहः संप्रवर्तते। एतद्वियोगविषयः, श्रद्धाऽनुष्ठानभाक् स यत्॥ 206 // प्रकृतेरा यतश्चैव, नाप्रवृत्त्यादिधर्मताम्। तथा विहाय घटते, ऊहोऽस्य विमलं मनः / / 207 / / सति चास्मिन् स्फुरद्रत्न-कल्पे सत्त्वोल्यणत्वतः। भावस्तैमित्यतः शुद्ध-मनुष्ठानं सदैव हि // 20 ॥(यो० बिं०) ननु सम्यग्दृष्टिपर्यन्तमन्यत्र द्रव्ययोग एवोच्यते इति कथमत्र भावतोऽयमुक्त इति चेत् ? चारित्रप्रतिपन्थिनामनन्तानुबन्धिनामपगमे तद्गुणप्रादुर्भावनियम इति निश्चयाऽऽश्रयणादल्पन्नेदविवक्षा-परेण व्यवहारेण त्वत्रायं नेष्यत एव / ' एतच्च योगहेतुत्वाद . योग इत्युचितं वचः / मुख्यायां पूर्वसेवायामवतारोऽस्य केवलम् " / 206 / / (यो० बिं०) इत्यनेनापुनर्बन्धकातिशयाभिधानं तुसम्यगदृशो नैगमनयशुद्धिप्रकर्षकाष्ठापेक्षमिति न कश्चिद्विरोध इति विभावनीयं सुधीभिः।। 18 / / एतन्निश्चयवृत्त्यैव, यद्योगः शास्त्रसंज्ञितः। त्रिधा शुद्धादनुष्ठानात् , सम्यक्प्रत्ययवृत्तितः / / 16 / / एतद् यदुक्तम्-भिन्नग्रन्थेरेव भावतो योग इति, निश्चयवृत्त्यैव परमार्थवृत्त्यैव, न तु कल्पनया, यद् यस्माद् , शास्त्रेणैव संज्ञी, तद्विना त्वसंज्ञिवत् क्वाप्यर्थे प्रवर्त्तमानो यः, तस्य, त्रिधा वक्ष्यमाणैस्त्रिभिः प्रकारैः, शुद्धान्निरवद्यात् , अनुष्ठानादाचारात , सम्यक्प्रत्ययेनाऽऽत्मगुरुलिङ्गशुद्ध्या स्वकृतिसाध्यताऽऽद्यभ्रान्तविश्वासेन, वृत्तिः प्रवृत्तिः, ततो भवतीति / / 16 / / शास्त्रमासन्नभव्यस्य, मानमामुष्मिके विधौ। सेव्यं यद्विचिकित्सायाः, समाधेः प्रतिकूलता।। 20 // आसन्नभयस्यादूरवर्तिमोक्षलाभस्य प्राणिनः, आमुष्मिके विधौ पारलौकिके कर्मणि, शास्त्रं मानं, धर्माधर्मयोरतीन्द्रियत्वेन तदुपायत्वबोधने प्रमाणान्तरासामर्थ्यात् / अतः सेव्यं सर्वत्र
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________________ जोग 1633 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग प्रवृत्तौ पुरस्करणीयं, न तु क्वचिदप्यंशेऽनादरणीयम् / यद् यस्माद् , विचिकित्सायाः-युक्त्या समुपपन्नेऽपि मतिव्यामोहोत्पन्नचितविप्लुतिरूपायाः, समाधेः चित्तस्वास्थ्यरूपस्य, ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽत्मकस्य वा, प्रतिकूलता विरोधिताऽस्ति। अर्थो हि त्रिविधःसुखाधिगमो, दुरधिगमोऽनधिगमश्चेति श्रोतारं प्रति भिद्यते। आद्यो यथाचक्षुष्मतश्चित्रकर्मनिपुणस्य रूपसिद्धिः, द्वितीयः सैवानिपुणस्य, तृतीयस्त्वबन्धस्येति / तत्र प्रथमचरमयोनास्त्येव विचिकित्सा, निश्चयादसिद्धेश्च / द्वितीये तु देशकालस्वभावविप्रकृष्ट धर्माधर्माऽऽदौ भवन्ती सा महानर्थकारिणी / यदागमः- " वितिगिं; समावन्नेण अप्पाणेणं णो लहति समाहिं / " अतश्चित्तशुद्ध्यर्थं शास्त्रमेवाऽऽदरणीयमिति भावः / यत उक्तम्- " मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोधनम् / अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्र विदुर्बुधाः " / / 228 // (यो०बि०) // 20 / / द्वा०१४ द्वा०। (24) आत्माऽऽदिप्रत्ययं विना न सिद्धिरित्युपक्रम्यसद्योगाऽऽरम्भकस्त्वेनं, शास्त्रसिद्धमपेक्षते। सदा भेदः परेभ्यो हि, तस्य जात्यमयूरवत् // 26 // सद्योगाऽऽरम्भकस्तु सानुबन्धयोगाऽऽरम्भक एव, एनमात्माऽऽदिप्रत्ययं, शास्त्रसिद्धमतीन्द्रियार्थसार्थसमर्थनसमर्थाऽऽगमप्रतिष्ठितम्, अपेक्षतेऽवलम्बते / परेभ्यो हि असद्योगाऽऽरम्भकेभ्यो हि, तस्य सद्योगाऽऽरम्भकस्य, सदा भेदो वैलक्षण्यं, जात्यमयूरवत् सर्वोपाधिविशुद्धमयूरवत्। यथाहि-जात्यमयूरोऽजात्यमयूरात् सदैव भिन्नः, तथा सद्योगाऽऽरम्भकोऽप्यन्यस्मादिति भावना। तदुक्तम्-" न च सद्योगभव्यस्य, वृत्तिरेवंविधाऽपि हि। न जात्यजात्यधर्मान् यजात्यः सन् भजते शिखी " / 241: (यो० बिं०) // 26 / / यथा शक्तिस्तदण्डाऽऽदौ, विचित्रा तद्वदस्य हि। गर्भयोगेऽपि मातृणां, श्रूयतेऽत्युचिता क्रिया / / 30 // यथा तदण्डाऽऽदौ जात्यमयूराण्डयक्षुचरणाऽऽद्यवयवेषु, शक्तिः विचित्राऽजात्यमयूरावयवशक्तिविलक्षणा, तद्बदस्य हि सद्योगाऽऽरम्भकल्पाऽऽदित एवाऽऽरभ्येतरेभ्यो विलक्षणा शक्तिरित्यर्थः / यत उक्तम्-" यश्चात्र शिखिदृष्टान्तः, शास्त्रे प्रोक्तो महात्मभिः / स तदण्डरसाऽऽदीना, सच्छक्त्यादिप्रसाधनः " / / 245 / / इति (यो०बि०) | अत एव सद्योगाऽऽरम्भकस्येति गम्यम् / मातृणां जननीनां, गर्भयोगोऽपि किं पुनरुत्तरकालः ? इत्यपिशब्दार्थः / श्रूयते निशम्यते, शास्त्रेषु अत्युचिता लोकानामतिश्लाघनीया, किया प्रशस्तमाहात्म्यलाभलक्षणा। यत एवं पठ्यते-"जणणी सव्वत्थ वि णिच्छएसुसुमइति / तेण सुमइ जिणो। " (43 गाथा) तथा- ' गब्भगए जं जणणी, जायसुधम्म त्ति तेण धम्मजिणो।"(४७ गाथा) तथा-"जाया जणणी जं सुव्वय ति मुणिसुव्वओ तम्हा।" (50 गाथा) (आव० 2 अ०) इत्यादि / इदं गर्भावस्थायामुक्तम्। उत्तरकालेऽप्यत्युचितैव तेषां क्रिया। यत उक्तम्-" औचित्याऽऽरम्भिणोऽक्षुद्राः, प्रेक्षावन्तः शुभाऽऽशयाः / अबन्ध्यचेष्टाः कालज्ञाः, योगधर्माधिकारिणः / / 244 / / (यो० बिं०) इति। तदेवं सिद्धः सद्योगाऽऽरम्भक इतरेभ्यो विलक्षणः, स चाऽऽत्माऽऽदिप्रत्ययमपेक्षत एवेति / / 30 // द्वा०१४ द्वा०। (25) योगस्य फलं कर्मक्षयः, तथा च कर्माण्यधिकृत्य क्लेशाः पापानि कर्माणि, बहुभेदानि नो मते। योगादेव क्षयस्तेषां,न भोगादनवस्थितेः॥३१॥ ततो निरुपम स्थान-मनन्तमुपतिष्ठते। भवप्रपञ्चरहितं, परमाऽऽनन्दमेदुरम्।। 32 // नोऽस्माकं, मते, पापान्यशुभविपाकानि, बहुभेदानि विचित्राणि, कर्माणि ज्ञानाऽऽवरणीयानि, क्लेशा उच्यन्ते / अतः कर्मक्षय एव क्लेशहानिरिति भावः / ननु- " नामुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि / अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् // 1 // " इति वचनाद्भोगादेव कर्मणां क्षये तस्याप्यपुरुषार्थत्वमनिवारितमेवेत्यत आह-योगादेव ज्ञानक्रियासमुच्चयलक्षणात् क्षयः, तेषां नानाभवाजितानां प्रचितानां, न भोगादनवस्थितेर्भोगजनितकर्मान्तरस्यापि भोगनाश्यत्वादनवस्थानात् / ननु निरभिष्वङ्गभोगस्य न कर्मान्तरजनकत्वं, प्रचितानामपि च तेषां क्षयो योगजादृष्टाधीनकायव्यूहबलादुत्पत्स्यत इति चेत् / न / प्रायश्चित्ताऽऽदिनाऽपि कर्मनाशोपपत्तेः कर्मणां भोगेतरनाश्यत्वस्यापि व्यवस्थितौ योगेनापि तन्नाशसंभवे कायव्यूहाऽऽदिकल्पने प्रमाणाभावात् / कर्मणां ज्ञानयोगनाश्यतायाः- " ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि, भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन !" इति भवदागमेनापि सिद्धत्वात् / नराऽऽदिशरीरसत्त्वे शूकराऽऽदिशरीरानुपपत्तेः कायव्यूहानुपपत्तेर्मनोऽन्तरप्रवेशाऽऽदिकल्पने गौरवाचा ये त्वाहुः पातञ्जला:-अग्नेः स्फुलिङ्गानामिव कायय्यूह-दशायामेकस्मादेव चित्तात्प्रयोजकान्नानाचित्तानां परिणामोऽस्मितामात्रादिति / तदुक्तम्" निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात् / " (4-4)" प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषामिति। "(4-5) तेषामप्यनन्तकालप्रचितानां कर्मणां नानाशरीरोपभोगनाश्यत्व कल्पनं मोह एव। तवदृष्टानां युगपवृत्तिलाभस्याप्यनुपपत्तेरिति निरुपक्रमकर्मणामेव भोगैकनाश्यत्वमाश्रयणीयमिति सर्वमवदातम् / / 31 // तत इति व्यक्तम्॥३२॥ द्वा० 25 द्वा० / (26) योगस्य प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यौपयिकं माहात्म्यमुपदर्शयन्नाहशास्त्रस्योपनिपद्योगो, योगो मोक्षस्य वर्तिनी। अपायशमनो योगो, योगः कल्याणकारणम् / / 1 / / संसारवृद्धिधनिना, पुत्रदाराऽऽदिना यथा। शास्त्रेणापि तथा योग, विना हन्त ! विपश्चिताम् / / 2 / / इहापिलब्धयश्चित्राः, परत्र च महोदयः। पराऽऽत्माऽऽयत्तता चैव, योगकल्पतरोः फलम् / / 3 / / योगसिद्धः श्रुतेष्वस्य, बहुधा दर्शितं फलम् / दय॑ते लेशतश्चैतद् , यदन्यैरपि दर्शितम्॥४॥ इयं चतुश्लोकी सुगमा। द्वा०२६ द्वा०। प्रायश्चित्तं पुनर्योगः, प्राग्जन्मकृतपाप्मनाम्। अब्धीनां निश्चयादन्तः-कोटाकोटिस्थितेः किल / / 23 / / प्राग्जन्मकृतपाप्मनां पुनः प्रायश्चित्तं योगः, तन्नाशकत्वात्तस्य / तथा किले ति सत्ये, अब्धीनां सागरोपमाणाम् , अन्तःकोटाकोटिस्थितेर्निश्चयादपूर्वकरणाऽऽरम्भेऽपि तावत्स्थितिककर्मसद्भावाऽऽवश्यकत्वस्य महाभाष्याऽऽदिप्रसिद्धत्वात् , तस्य च धर्मसंन्यासैकनाश्यत्वादिति।। 23 / /
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________________ जोग 1634 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग निकाचितानामपि यः, कर्मणां तपसा क्षयः / सोऽभिप्रेत्योत्तमं योग-मपूर्वकरणोदयम् // 24 / / निकाचितानामपि उपशमनाऽऽदिकरणान्तसंयोज्यत्वेन व्यवस्थापितनामपि, कर्मणां यस्तपक क्षयो, भणित इति शेषः / "तवसा उ निकाइआणं पि, " इति वचनात् / सोऽपूर्वकरणोदयम् , उत्तमं योगं धर्मसंन्यासलक्षणमभिप्रेत्य, न तु यत्किश्चित्वप इति द्रष्टव्यम् / तत्त्वमत्रत्यमध्यात्मपरीक्षाऽऽदौ विपश्चितम्।। 24 / / अपि क्रूराणि कर्माणि, क्षणाद् योगः क्षिणोति हि। ज्वलनो ज्वालयत्येव, कुटिलानपि पादपान् / / 25 // दृढप्रहारिशरणं, चिलातीपुत्ररक्षकः। अपि पापकृतां योगः, पक्षपातान्न शङ्कते / / 26 / / अहर्निशमपि ध्यातं, योग इत्यक्षरद्वयम्। अप्रवेशाय पापानां, धूवं वज्रार्गलायते / / 27 // आजीविकाऽऽदिनाऽर्थेन, योगस्य च विडम्बना। पवनाभिमुखस्थस्य, ज्वलनज्वालनोपमा // 28 // योगस्पृहाऽपि संसार-तापव्ययतपात्ययः। महोदयसरस्तीर-समीरलहरीलवः ||29|| योगानुग्राहको योऽन्यैः, परमेश्वर इष्यते। अचिन्त्यपुण्यप्राग्भार-योगानुग्राह्य एव सः॥ 30 // भरतो भरतक्षोणी, भुञ्जानोऽपि महामतिः ! तत्कालं योगमाहात्म्याद् , बुभुजे केवलश्रियम् // 31 // पूर्वमप्राप्तधर्माऽपि परमाऽऽनन्दनन्दिता। योगप्रभावतः प्राप, मरुदेवा परं पदम् // 32 / / अष्टश्लोकी सुगमा / द्वा०२६ द्वा०॥ योगमाहात्म्यमेवाऽऽहयोगः कल्पतरुः श्रेष्ठो,योगश्चिन्तामणिः परः। योगः प्रधानं धर्माणां, योगः सिद्धेः स्वयं ग्रहः / / 37 / / योग उक्तो निरुक्तः, कल्पतरुः कल्पद्रुमः, श्रेष्ठोऽन्यकल्पद्रुभेभ्योऽतिशायी। तथा योगश्चिन्तामणिश्चिन्तारत्नं, परः प्रकृष्टः, योगः प्रधान वस्तु, धर्माणां शेषधर्मस्थानानाम्। तथा योगः सिद्धेर्निवृत्तिलक्षणायाः, स्वयंग्रहहेतुत्वात्स्वयंग्रहः / यदत्र पुनः पुनर्योगशब्दोपादानं तदस्यात्यन्तमादरणीयताख्यापनार्थमिति / / 37 / / तथा च जन्मबीजाग्नि-र्जरसोऽपि जरा परः। दुःखानां राजयक्ष्माऽयं, मृत्योर्मृत्युरुदाहृतः / / 38|| तथा चेति समुचये, जन्मबीजाग्निः पुनःपुनर्जन्मकारणकर्म शक्तिदाहकारी, तथा जरसोऽपि जराया अपि, जरा, वयोहानिकारणत्वात् , परा प्रकृष्टा / तथा दुःखानां शारीरमानसाऽऽबाधारूपाणां, राजयक्ष्मा राजमान्द्यमिव, अयं योगः,तथा मृत्योरन्तकस्य मृत्युरुदाहृतः शास्त्रकारैर्निरूपितः // 35 // किञ्चकुण्ठीभवन्ति तीक्ष्णानि, मन्मथास्त्राणि सर्वथा। योगवर्माऽऽवृते चित्ते, तपश्छिद्रकराण्यपि।। 36 // कुण्ठीभवन्ति मन्दानि जायन्ते, तीक्ष्णानि निशितानि, मन्मथा-स्त्राणि कामशस्त्राणिशब्दाऽऽदिविषयरूपाणि, सर्वथा सर्वप्रकारैः / क्व? इत्याहयोगवर्माऽऽवृते योगसंन्नाहवति, चित्ते मनसि / कीदृशानि? इत्याहतपश्छिद्रकराण्यपि मासक्षपणाऽऽदितपोभंशकारीण्यपि, तथाविधयोगविकलानां तपस्विनामिति / / 36 / / अक्षरद्वयमप्येतत् , श्रूयमाणं विधानतः। गीतं पापक्षयायोचैोगसिद्धैर्महात्मभिः // 40 // अक्षरद्वयमपि, किं पुनः पञ्चनमस्काराऽऽदीन्यनेकान्यक्षराणीत्यपिशब्दार्थः ? एतद् योग इति शब्दलक्षण, भूयमाणमाकर्ण्यमानं, तथाविधार्थानवबोधेऽपि विधानतो विधानेन, श्रद्धासंवेगाऽऽदिशुद्धभावोल्लासकरकुमलयोजनाऽऽदिलक्षणेन, गीतमुक्तं, पापक्षयाथ मिथ्यात्वमोहाऽऽद्यकुशलकर्मनिर्मूलनाय उच्चैरत्यर्थम् / कैर्गीतम् ? इत्याह-योगसिद्धोगः सिद्धो निष्पन्नो येषां ते तथा, तैर्जिनगणधराऽऽदिभिः, महात्मभिः प्रशस्तस्वभावैरिति॥ 40 // तथामलिनस्य यथा हेम्नो, वह्नः शुद्धिर्नियोगतः। योगाग्नेश्चेतसस्तद्र-दविद्यामलिनाऽऽत्मनः।। 41 / / मलिनस्य ताम्राऽऽदिमलबहुलस्य, यथेति दृष्टान्तार्थः / हेम्नः सुवर्णस्य, वहृवैश्वानरात , शुद्धिर्निर्मलता, नियोगतो नियमेन, शुद्धकारणानां स्वकार्याव्यभिचारात् / योगाग्नेर्योगवढेः, चेतसो मनसः, शुद्धितः, तद्वद्धेमवत् / कीदृशो मनसः ? इत्याह-अविद्यामलिनाऽऽत्मनः सद्भूतवस्तुविषयभ्रान्तिवशाशुद्धभूितस्वरूपस्ये-ति।। 41 / / तथाअमुत्र संशयाऽऽपन्न-चेतसोऽपि ह्यतो ध्रुवम्। सत्स्वप्नप्रत्ययाऽऽदिभ्यः, संशयो विनिवर्तते।। 42 / / अमुत्र परलोकविषये, संशयाऽऽपन्नचेतसो भवान्तरं समस्ति, न वेति भ्रान्तमनसः, किं पुनरन्यस्येत्यपि हीतिशब्दार्थः / अतो योगा-द् . धुवमसंशय, सत्स्वप्नप्रत्ययाऽऽदिभ्यः, सत्स्वप्नानिद्रायमाणावस्थायां स्वर्गाऽऽदिभवान्तरदर्शनलक्षणाऽऽख्यः प्रत्ययः प्रतीतिर्भवान्तरस्य, आदिशब्दान्निजोहापोहतथाविधाऽऽगमाभ्यासजन्यप्रत्ययग्रहः, तेभ्यः सकाशात् , संशयः संदेहो, विनिवर्त्तते उपरमिति / / 42 // शुद्धसमाचारा हि साधवः सत्स्वप्नलाभेन निजोहापोहयोगेन, सदागमाभ्यासेन च, प्राक् संशयितमनसोऽपि व्यावर्तितविपर्यासहेतुमिथ्यात्वाऽऽदिमोहोदया अभ्रकगृहान्तज्वलितप्रदीपप्रभोदाहरणेन भवान्तरं निर्णयन्त्येवेति। न च वक्तव्यं स्वप्नोऽपि कथं लभ्यते इति? यत:श्रद्धालेशान्नियोगेन, बाह्ययोगवतोऽपि हि। शुक्लस्वप्ना भवन्तीष्ट-देवतादर्शनाऽऽदयः।। 43 / / श्रद्धालेशाद् बहुमानाङ्गाद् , नियोगेन नियमेन, बाह्ययोगवतोऽपि तथाविधोपयोगशून्यतया भावयोगानुरूपक्रियामात्रयुक्तस्य, किं पुनरबाह्ययोगयत इत्यपि हीतिशब्दार्थः / किम् ? इत्याह-शुक्लस्वप्ना अमलीमसाः स्वप्नाः, भवन्ति जायन्ते, इष्टदेवतादर्शनाऽऽदयःदिवसाऽऽरब्धाऽऽराधनजिनगुरुधार्मिकदर्शनाऽऽदिल-क्षणा // 43 //
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________________ जोग 1635 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग तथादेवान गुरून द्विजान् साधून , सत्कर्मस्या हि योगिनः। प्रायः स्वप्ने प्रपश्यन्ति, हृष्टान् सन्नोदनापरान् / / 44 // देवान्-आराध्यतमान जिनाऽऽदीन् , गुरून् धर्माऽऽचार्याऽऽदीन् , मातापित्रादीन् वा, द्विजान् लब्धदीक्षानामकद्वितीयद्वितीयजन्मनो मुनीन् , साधून शेषशिष्टलौकान् , सत्कर्मस्थाः स्वसिद्धान्ताविरुद्धक्रियास्थिताः, हिः प्राग्वद् , योगिनो योगाभ्यासपराः प्राणिनः, किम् ? इत्याह-प्रायो बाहुल्येन, स्वप्ने प्रतीतरूपे एव, प्रपश्यन्ति प्रेक्षन्ते, हृष्टान हर्षवतः, तथा सन्नोदनापरान् शुद्धार्थविषयप्रेरणपरायणान् / / 44 / / नचासौ भ्रान्तेति भावयन्नाहनोदनाऽपि च सा यतो,यथार्थवोपजायते। तथाकालाऽऽदिभेदेन, हन्त ! नोपप्लवस्ततः॥ 45 / / नोदनाऽपि च न केवलं देवतादर्शनाऽऽदि, सा देवाऽऽदिकृता, यतो यस्मात्कारणात् , यथार्थव सूचितप्रयोजनफलैवोपजायते / कथम् ? इत्याह-तथाकालाऽऽदिभेदेन तत्प्रकारकालक्षेत्रमावविशेषेण, हन्त ! इति प्राग्वत् / न नैव, उपप्लवः वाताऽऽदिधातुविकारजनितश्चित्तसंक्षोभो वर्तते प्रेरणा, ततो यथार्थत्वाद हेतोः, न हि यथार्थफलभाजः प्रतिभासा अविसंवादिरूपत्वाल्लोके उपप्लवरूपता लभन्ते, किंतु सत्यरूपतामेवेति // 45 // तथास्वप्नमन्त्रप्रयोगाच, सत्यः स्वप्नोऽभिजायते। विद्वज्जनेऽविगानेन, सुप्रसिद्धमिदं तथा / / 46 / / स्वप्नमन्त्रप्रयोगाचस्वप्नलाभफलो मन्त्रविषयः, तत्प्रयोगात् . चकाराच्छुद्धयोगाच्च, सत्यः स्वप्नो यथार्थः स्वप्नः, अभिजायते आविर्भवति, एतदेव द्रढीकुर्वन्नाह-विद्वज्जने मतिमल्लोके, अविगानेनाविप्रतिपत्त्या, सुप्रसिद्धभतीव ख्यातिमागतम् , इदं स्वप्नमन्त्रप्रयोगात्सत्यः स्वप्नो जायत इत्येतत्,तथा तेन प्रकारेण // 46 // नैवंभूतहेतुकोऽयं व्यवहार इति दर्शयतिन ह्येतद्भूतमात्रत्व-निमित्तं संगतं वचः। अयोगिनः समध्यक्षं, यन्नैवंविधगोचरम् / / 47 // न हि नैव, एतदुक्तरूपं देवतादर्शनाऽऽदि, भूतमात्रत्वनिमित्तं भूतमात्रत्वं केवलभूतभाव एव, निमित्तं हेतुर्यस्य तत्तथा, इत्येवं परेण प्रवर्तमानं, सङ्गतं घटमानकं, वचो वचनम् , एतत्स्वप्नदर्शनाऽऽदि, यत्कश्चिद् भूतमात्रमित्युच्यते, तदसङ्गतं वच इत्यर्थः / कुतः? इत्याहअयोगिनोऽर्वागदर्शिनः प्रमातुः, समध्यक्ष प्रत्यक्षं चाक्षुद्राऽऽदि, यत् यस्माद् , नैव, एवंविधगोचरम्-एवंविधाः स्वप्नदर्शनाऽऽदिरतीन्द्रियोऽर्थो भूतमात्रनिमित्तो, न तु देवताऽनुग्रहमन्त्रप्रयोगाऽऽदिनिमित्तक इत्यादिकोऽर्थो गोचरो विषयो यस्य ततथा। इदमुक्तं भवतिछद्मस्थस्य पृथिव्यादिरूपभूतमात्रपरिहारेणातीन्द्रिये देवताऽऽदावर्थे विधिप्रतिषेधयोः प्रत्यक्षमक्षममेव, तस्य तदविषयत्वादिति / / 47 // एतदेव भावयतिप्रलापमात्रं च वचो, यदप्रत्यक्षपूर्वकम्। यथेहाप्सरसः स्वर्गे, मोक्षे चाऽऽनन्द उत्तमः।। 48|| प्रलापमात्रमनर्थकमेव, चः समुचये ; वचो वचनम्। कीदृशम् ? इत्याहयदप्रत्यक्षपूर्वक प्रत्यक्षेणानुपलभ्य यद्भाषितम्। दृष्टान्तमाह-यथा इह | मर्त्यलोके, कश्चिद् वक्ति असर्वज्ञवादी मीमांसकाऽऽदिः, अप्सरसो मेनकारम्भाऽऽद्याः स्वर्गे सन्ति, मोक्षे च मुक्तौ पुनरानन्द आह्लादः, उत्तमः सर्वातिशायी ; साक्षादृष्ट हि वाच्य अप्सरःप्रमुखे ब्रुवाणो मीमांसकाऽऽदिः प्रलापमात्रकार्येव स्यात् , एवं नास्तिकोऽप्यतीन्द्रियं देवताऽऽदिकं निह्ववान इति / अथैवमनवकाशीकृतः कदाचित्परलोकसंशयवादी, मीमांसको वा ब्रूयात् ? / / 48 / / यथायोगिनो यत्समध्यक्षं, ततश्चेदुक्तनिश्चयः। आत्माऽऽदेरपि युक्तोऽयं, तत एवेति चिन्त्यताम् / / 46 // योगिनो दिव्यदृशः प्रमातुः, यत्समध्यक्षं प्रत्यक्षज्ञानं, ततस्तत्समध्यक्षाद, चेद् यदि, उक्तनिश्चयः-अप्सरसः स्वर्गे, मोक्षे चाऽऽनन्द इति प्रामुक्तार्थनिर्णयो जायते, एवं तर्हि आत्माऽऽदेरप्यतीन्द्रियार्थस्य। किं पुनः प्रस्तुतस्य ? इत्यपिशब्दार्थः / युक्तो घटमानोऽयं निश्चयः, तत एव योगिसमध्यक्षादेव, इत्येतच्चिन्त्यतां विमृश्यता-मिति // 4 // एतदेव भावयतिअयोगिनो हि प्रत्यक्ष-गोचरातीतमप्यलम्। विजानात्येतदेवं च, बाधाऽत्रापि न विद्यते / / 50 / / अयोगिनोऽर्वाग्दृशः प्रमातुः, हिर्यस्मात् प्रत्यक्षगोचरातीतमपि ऐन्द्रियकाध्यक्षविषयभावातिक्रान्तमपि आत्माऽऽदि वस्तु, किं पुनरितररूपम् ? इत्यपिशब्दार्थः / अलमत्यर्थम् , हस्ततलन्यस्तनिस्तलस्थूलमुक्ताफलावलोकनोदाहरणेन, विजानाति प्रेक्षते / एतद्योगिसमध्यक्ष, दिव्यदर्शनत्वात्तस्य। यदि नामैवं ततः किं सिद्धम् ? इत्याह-एवं च अस्मिश्च प्रकारे सति, बाधा अघटनालक्षणा, अत्रापि आत्माऽऽदिनिश्चये, न केवलमप्सरःप्रभृतावर्थे, इत्यपिशब्दार्थः। न विद्यते नास्ति / / 50 // (27) इत्यमागमगम्यत्वमभिधायाधुनाऽनुमानविषयत्वमाहआत्माऽऽद्यतीन्द्रियं वस्तु,योगिप्रत्यक्षमावतः। परोक्षमपि चान्येषां, न हि युक्त्या न युज्यते / / 51 / / आत्माऽऽदि आत्मकर्मसर्वज्ञाऽऽदि, अतीन्द्रियमिन्द्रियविषयभावातीतं वस्तु, न हिन, युज्यते इत्युत्तरेण योगः। कीदृशम् ? इत्याहयोगिप्रत्यक्षभावतः सर्वज्ञज्ञानविषयभावने, परोक्षमपि च इन्द्रियज्ञानागोचरमपि, किं पुनरपरोक्षम् ? इत्यपिचशब्दार्थः / अन्येषामस्मादृशाम् अर्वागदृशां, न हि नैव, युक्त्या शुद्धहेतुप्रयोगरूपया, न युज्यते, किं तु युज्यत एव। तत्रयुक्तिः" अचेतनानि भूतानि, नतद्वर्मो न तत्फलम्। चेतनाऽस्ति च यस्येह, स एवाऽऽत्मेति बुध्यताम् // 1 // यदीयं भूतधर्मः स्यात् , प्रत्येक तेषु सर्वदा। उपलभ्येत सत्त्वाऽऽदि, कठिनत्याऽऽदयो यथा // 2 // काठिन्यादिस्वभावानि, भूतान्यध्यक्षसिद्धितः। चेतना तु न तद्रूपा, सा कथं तत्फलं भवेत्॥३॥" इत्यादि। "तुल्यप्रतापोद्यमसाहसानां, केचिल्लभन्ते निजकार्यसिद्धिम्। परेन तामत्र निगद्यतां मे कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतुः॥१॥ विचित्रदेहाऽऽकृतिवर्णगन्ध
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________________ जोग 1636 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग प्रभावजातिप्रभवस्वभावाः। केन क्रियन्ते भुवनेशिवगौश्चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्राः? ||2|| विवर्य मासान्नवगर्भमध्ये, बहुप्रकारैः कललाऽऽदिभावैः। उद्बत्ये निष्काशयते सवित्र्याः, को गर्भतः कर्म विहाय पूर्वम् ?" // 3 // इत्यादि। "वीतरागोऽस्ति, सर्वज्ञः प्रमाणाबाधितत्वतः। सर्वदा विदितः सद्भिः , सुखाऽऽदिकमिव ध्रुवम्॥१॥ क्षीयते सर्वथा रागः, क्वापि कारणहानितः। ज्वलनो हीयते किं न, काष्ठाऽऽदीनां वियोगतः।२।। प्रकर्षस्य प्रतिष्ठान, ज्ञानं क्वापि प्रपठ्यते। परिमाणमिवाऽऽकाशे, तारतम्योपलब्धितः " // 3 // इत्यादि। अत्रैवाभ्युचयमाहकिं चान्यद् योगतः स्थैर्य ,धैर्य श्रद्धा च जायते। मैत्री जनप्रियत्वं च, प्रातिभं तत्त्वभासनम्॥ 52 / / किं च इत्यभ्युचये, अन्यत्प्रागुक्ताद्विलक्षणं योगफलमस्ति / तदेव दर्शयतियोगतो योगात् , स्थैर्य स्थिरभावः प्रतिपन्ननिर्वाहणो, धैर्य व्यसनाशनिसन्निपातेऽपि अविचलितप्रकृतिभावः, श्रद्धा च रुचिस्तत्वमार्गानुगा, जायते आविर्भवति, मैत्री सर्वसत्त्वेषु मित्रभावः, जनप्रियत्वं च शिष्टलोकवल्लभभावः, प्रातिभं सहजप्रतिभाप्रभवं, तत्त्वभासनं जीवादितत्त्वावलोकनं भवतीति / / 52 // तथा आ विद्वदङ्गनासिद्ध-मिदानीमपि दृश्यते। एतत्प्रायस्तदन्यत्तु, सुवबागमभाषितम् / / 55 / / आ विद्वदङ्गनासिद्धम्-आ-विद्वद्भ्यः आ-अङ्गनाभ्यश्च यो लोकः, तस्येत्यर्थः / सिद्धं प्रतीतम् , इदानीमपि दुःषमायां, किं पुनः सुषमदुःषमाऽऽदावित्यपिशब्दार्थः / दृश्यते अवलोक्यते, एतत् प्रागुक्तं योगफलं. प्रायो बाहुल्येन, तदन्यत्तूक्तादन्यत् पुनर्योगफलं, सुबहु अतिभूरि, आमर्षांषध्यादिकं हि प्राप्तिरूपम् , आगमभाषितम्आवश्यकनियुक्त्यादिनिरूपितम् / यदुक्तंतत्र" आमोसहि विप्पोसहि-खेलोसहि जल्लमोसही चेव। संभिन्नसोय उजुमइ, सव्वोसहि चेव बोधव्यो॥६८।। चारण आसीविस के-वली य मणणाणिणो य पुव्वधरा। अरहंत चकवट्टी, बलदेवा वासुदेवा य" / / 66 // इति। " अलौल्यमारोग्यमनिष्टुरत्वं, गन्धः शुभो मुत्रपुरीषमल्पम्। कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यताच, योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि लिङ्गम् // 11 // मैत्र्यादियुक्तं विषयेषु चेतः, प्रभाववद्धैर्यसमन्वितं च। द्वन्द्वैरधृष्यत्वमभीष्टलाभो, जनप्रियत्वं च तथा परं स्यात्॥२॥ दोषव्यपायः परमाचतप्तिरौचित्ययोगः समता च गुर्वी। वैराऽऽदिनाशोऽथ कृतंभरा धीः, निष्पन्नयोगस्य तु चिह्नमेतत्" // 3 // __अथोक्तादेव योगफलात्तत्त्वान्तरप्रसिद्धयर्थमाहन चैतद्भूतसङ्घात-मात्रादेवोपपद्यते। तदन्यद्भेदकाभावे, तद्वैचित्र्याप्रसिद्धितः॥५६॥ न च चैव, एतद्योगमहात्म्यं भावयोगिषूपलभ्यमानं, भूतसङ्घातमात्रादेव पृथिव्यादिमहाभूतसङ्घातात् केवलादात्माऽऽदिरूपतत्त्वान्तरशून्यात् , उपपद्यते घटते / कुतः ? इत्याह-तदन्यभेदकाभावेतस्माद् भूतसङ्घाताद् यदन्यत्तत्त्वान्तरमात्मकाऽऽदिलक्षणं, भेदकं विशेषकारि, तस्याभावे तद्वैचित्र्याप्रसिद्धितः, तेषां भूतसालानां कायाऽऽकारपरिणतानामपि, वैचित्र्यस्य नानात्वस्य, योगमाहात्म्ययुक्तत्वेतरलक्षणस्य, अप्रसिद्धेरघटनात्। अतो बलात् अनुमिमीमहे भूतसङ्घातारिक्तं विचित्रशक्तिसङ्गतं तत्त्वान्तरं समस्ति, यद-शादयं योगमाहात्म्यभावाभावलक्षणो भेदः संपद्यते॥५६॥ यो० बिं०। __ अथ निगमयन्नाहएवं च तत्त्वसंसिद्धे-योगे एव निबन्धनम्। अतो यनिश्चितैवेयं, नान्यतस्त्वीदृशी क्वचित्॥६४ // एवं चोक्तन्यायेनैव, तत्त्वसंसिद्धेः-आत्मादृष्टाऽऽदिप्रतीतेः, योग एव नापरं किशिद् , निबन्धनं हेतुर्वर्तते / एतदपि कुतः ? इत्याह-अतः योगात् , यत् यस्मात् , निश्चितैव अविपर्यासवत्येव, इयं तत्त्वसिद्धिः स्याद् , न नैव, अन्यतोऽन्यस्माद्वादप्रतिवादाऽऽदेः, तुः पुनरर्थे, ईदृशी निश्चितरूपा तत्त्वसंसिद्धिः, क्वचित् क्षेत्राऽऽदौ / 64 / (28) अतोऽत्रैव महान् यत्न-स्तत्तत्तत्त्वप्रसिद्धये। प्रेक्षावता सदा कार्यो, वादग्रन्थास्त्वकारणम् / / 65 / / विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वं च, तथा दन्द्रसहिष्णुता। तदभावश्च लाभश्च, बाह्यानां कालसङ्गतः।। 53 / / विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वं च निर्मुक्तानुचितार्थाभिनिवेशित्वं च, तथा द्वन्द्वसहिष्णुता निरुपक्रमक्लिष्टकर्मोदयाऽऽपादितानामिष्ठवियोगानिष्टसंप्रयोगाऽऽदीनां व्यसनानां सम्यक् सहनभावः / तदभाव श्व द्वन्द्वविनाशश्च प्रायः परिशुद्धयोगोपहतशक्तिकत्वाद् द्वन्द्वसंपादकोपायानाम् , लाभश्च प्राप्तिश्च बाह्यानां निर्वाहाऽऽदीनां समाधिहेतूनां, कालसङ्गतो यो यत्र काले योग्य इति / / 53 // तथाधृतिः क्षमा सदाचारो, योगवृद्धिः शुभोदया। आदेयता गुरुत्वं च, शमसौख्यमनुत्तरम् / / 54 / / धृतिर्येन केनचि व्यसनभोजनाऽऽदिना निर्वाहमात्रनिमित्तेन सन्तोषः / क्षमा सत्येतरदोषश्रवणेन कार्यतत्त्वमविचार्यान्तर्बहिश्च कोपोदयाद् विक्रियामापाद्यमानस्याऽऽत्मनो निरोधनम् / सदाचारः सर्वोपकारप्रियवचनाकृत्रिमोचितस्नेहाऽऽदिका सज्जनचेष्टा / योगवृद्धिः सम्यग्दर्शनाऽऽदिमुक्तिबीजोत्कर्षरूपा / शुभोदया प्रशस्तफलोद्गमहेतुः / धृत्यादेः प्रत्येकविशेषणमेतत्। आदेयतापरैरादरणीयवचनचेष्टनरूपता। गुरुत्वं च सर्वत्र गौरवलाभलक्षणम्। तथा शमसौख्यमतिमन्दीभूतकषायविषदोषतया प्रशमशर्म / अनुत्तरं विषयसेवाजनिताऽऽनन्दात्निशायि। यतः पठ्यते-" निर्जितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम्। विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् // 1 // इति / अत्र च "लोकत्रये चकारास्तथाशब्दश्च समुच्चयार्थः / / 54 / /
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________________ जोग 1637 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोग अतः-अस्मात्कारणात् , अत्रैव योगे, महान् अन्योपाथातिशायी, यत्नः आदरः, तस्य तस्य तत्त्वस्य स्वर्गनरकाऽऽदेः, प्रसिद्धये प्रतीत्यर्थ, प्रेक्षावता बुद्धिमताः, सदा सर्वकालं, कार्यो विधेयः / उपायान्तरप्रतिषेधमाहवादग्रन्थाः परपक्षनिराकरणेन स्वपक्षप्रतिष्ठापनानि तर्कप्रकरणानि, तुः प्राग्वद् , अकारणं तत्त्वप्रतीतेरहेतवः / / 65 / / एतदेव समर्थयमान आहउक्तं च योगमार्ग -स्तपोनिधूतकल्मपैः। भावियोगिहितायोचै-मोहदीपसमं वचः॥६६॥ उक्त च निरूपितं पुनः, योगमार्गः-अध्यात्मविद्भिः पतञ्जलि- | प्रभृतिभिः, तपोनिधूतकल्मपैः प्रशमप्रधानेन तपसा क्षीणमार्गानुसारिबोधबाधकमोहमलैः, भावियोगिहिताय-भावष्यद्विवादबहुलकलिकालयोगिहितार्थम् , उचैरत्यर्थ, मोहदीपसममतिमोहा- 1 न्धकारप्रदीपस्थानीयम् , वचो वचनम्।। 66 // ___ एतदेव दर्शयतिवादाँश्व प्रतिवादाँश्च, वदन्तो निश्चिताँस्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद्गतौ / / 67 // वादाँश्च पूर्वपक्षरूपान् , प्रतिवादाँश्च परोपन्यस्तपक्षप्रतिवचनरूपान् , चौ समुच्चये, वदन्तो बुवाणाः, निश्चितानसिद्धानैकान्तिकाऽऽदिहेतुदोषपरिहारेण, तथा तेन प्रकारेण तत्तच्छास्वप्रसिद्धेन, सर्वेऽपि दर्शनिनो मुमुक्षवोऽपि, किम् ? इत्याह-तत्त्वान्तम् आत्माऽऽदितत्त्वप्रसिद्धिरूपं, नैव गच्छन्ति न प्रतिपद्यन्ते। तिलपीलकवद् निरुद्धाक्षसंचारतिलयन्त्र- | वाहननियुक्तैकगोमहिषाऽऽदिवत् गतौ वहनरूपायां सत्यामिति ; यथा असौ तिलपीलको गवादिर्निरुद्धाक्षतया नित्यं भ्राम्यत्रपिनतत्परिमाणमवबुध्यते, एवमेतेऽपि वादिनः स्वपक्षाभिनिवेशान्धा विचित्र वदन्तोऽपि नोच्यमानतत्त्वं प्रतिपद्यन्त इति॥ 67 // यो०बि०। चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां वृषभानुजाताऽऽदिके योगे च। सू० प्र०।। (26) तेच दशतत्थ खलु इमे दसविधे जोए पण्णत्ते / तं जहा-वसभाणुजाते 1, वेणुयाणं जाते २,मंचे 3, मंचाइमंचे ४,छत्ते 5, छत्तातिछत्ते 6, जुअणढे 7, घणे 8, पीणिते 6, मंडकपुत्ते णामं दसमेत्ता 10 // " तत्थ खलु'' इत्यादि। तत्र युगे, खल्वयं वक्ष्यमाणो, दशविधो योगः प्रज्ञप्तः / तद्यथा-वृषभानुजातः / अत्र अनुजातशब्दः सदृश-वचनः, वृषभस्यानुजातः सदृशो वृषभानुजातः, वृषभाऽऽकारेण चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि यस्मिन् योगे एव तिष्ठन्ति स वृषभानुजात इति भावना। एवं सर्वत्रापि भावयितव्यम्। वेणुवंशः, तदनुजातस्तत्सदृशो वेणुकानुजातः / मञ्चो मञ्चसदृशः। मञ्चान् व्यवहारप्रसिद्धान् द्वित्रादिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो मञ्चातिमञ्चः, तत्सदृशो योगोऽपि मञ्चातिमशः।छत्रं प्रसिद्धम्, तदाकारो योगोऽपि च्छत्रम्। छत्रात् सामान्यरूपात उपर्यन्यान्यच्छत्रभावतोऽतिशायि च्छत्रछत्रातिच्छत्रम् , तदाकारोयोगोऽपि छत्रातिच्छत्रम्, युगमिव नरो युगनद्धः, यथा युगं वृषभस्कन्धयोरारोपितं वर्तते तद्वद् योगोऽपि यः प्रतिभाति, स युगनत इत्युच्यते / घनः संमर्दरूपः, यत्र चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहस्य नक्षत्रस्य वा मध्ये गच्छति, प्रीणित उपचयं नीतः / यः प्रथमतश्चन्द्रमसः सूर्यस्य वा एकतरस्य ग्रहेण नक्षत्रेण वा एकतरेण जातः, तदनन्तरं द्वितीयेन सूर्याऽऽदिना सहोपचयं गतः स प्रीणित इति भावः / मण्डूकप्लुतो नाम दशमः / तत्र मण्डूकप्लुत्या यो जातो योगः समण्डुकप्लुतः, स च ग्रहेण सह वेदितव्यः, अन्यस्य मण्डूकप्लुतिगमनासंभवात् / उक्तं च-चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि प्रतिनियतगतानि, ग्रहास्त्वनियतगतय इति / यदित्थं यथावबोधं दशानामपि योगाना रस्वरूपमात्रभावना कृता यथासंप्रदायमन्यथा वाच्या, तत्र युगे छत्रातिच्छत्रवर्जाः शेषा नवापि योगाः प्रायो बहुशो बहुषु च देशेषु भवन्ति / छत्रातिच्छत्रयोगस्तु कदाचित्करिमश्चिदेव देशे। सू० प्र०१२ पाहु०। (30) योगाङ्गत्वाद्योगाः / यमाऽऽदिकेषु योगाङ्गेषु (ते जे' जो-गंग' शब्देऽनुपदमेव 1338 पृष्ठे वक्ष्यन्ते) उत्साहे, षो०३ विव० / आकाशगमनाऽऽदिफले पादलेपाऽऽदिके द्रव्यसंघाते, योग आकाशगमनाऽऽदिफलो द्रव्यसंघातः। पिं०1योगा वशीकरणाऽऽदिप्रयो-जनाद् द्रव्यसंयोगा इति। प्रश्न०२ संव० द्वार।" जोगो पुण होइ पायलेवाई।" नि० चू०१३ उ०।" वसिकरणपायलेवाऽऽदिया तुजोगा मुणेयव्वा।'' पं० भा० / पं० चू० / पादंप्रलेपाऽऽदयः सौ-भाग्यदौर्भाग्यकरा योगाः। ध०३ अधि० / योगसौभाग्याऽऽदिकृद्रव्यनिचय इति / ग० 1 अधि०। (अन्ययूथिकानां, गृहस्थानां वा योगकरणे प्रायश्चित्ताऽऽदिसूत्राणि ' अण्णउत्थिय ' शब्दे प्रथमभागे 472 पृष्ठे द्रष्टव्यानि / तेषां सूत्राणां व्याख्यारूपा गाथाः 'पासिणा-पसिण' शब्दे दृश्याः) तदात्मके पञ्चदशे उत्पादनादोषे च / पि० / (तद्वक्तव्यता ' जोगपिंड 'शब्दे दृश्या) श्रुतोपधाने,"जोगा य बहुविकप्पा।" योगा उपधानानि, बहुविकल्पाः गच्छभेदेन बहु-भेदाः / व्य०१ उ०1" आगाढमणागाढे, दुविधे जोगे समासतो होइ'। जोगो दुविधोआगाढो य, अणागाढो य। जम्मि जोगे जतणा सो आगाढो / यथा भगवतीत्यादि / इतरो अणागाढो, यथोत्तराध्य-यनाऽऽदि / नि० चू० 4 उ० / आगाढमुत्तराध्ययनभगवत्यादिकम् , अनागाढं दशवैकालिकाऽऽदिकमिति / जीतः / स्था० / वाक्ये, वाक्यस्यैकार्यिकानधिकृत्य-" वइजोगजोगे य।'' दश०७०।ज्योतिषोक्तेषु रविचन्द्रयोगाधीनेषु विष्कुम्भाऽऽदिषु तिथिवारनक्षत्राऽऽदीनामन्यतरान्यतमानाममृतयोगोऽर्होदययोग इत्यादिके योगविशेषे, वाच०।षाण्मासिकयोगाऽऽदौ दत्तिप्रत्याख्यानं कार्यते, तत् किं" सपाणभोअणं पंचदत्तियं आयंबिलं पचक्खाइ।" इत्याचाम्लाऽऽदिस्थाने पठ्यते ? अथवा- " सपाणभोअणं पंचदत्तिअं एगासणं पच्चक्खाइ।" इत्येकाशनकाऽऽदिस्थाने पठ्यते ? इति प्रश्ने उत्तरम्" सपाणभोयणं पंचदत्तिअं आयांबलं पञ्चक्खाइ' इत्येवंरूपं प्रत्याख्यानं गुरुपरम्परया पठ्यमानमुपलभ्यते, नत्वन्यथेति। 76 प्र० / सेन० 1 उल्ला० / योगमध्ये रात्रावनाहारग्रहणं भवति, न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरमात्रौ योगिनां संघट्टकाभावात् किमपि ग्रहीतुं न कल्पते, संघट्टकंतु सांय मुक्तमिति प्रातः प्रवचनप्रवेदनानन्तरमेव तद्ग्रहण कल्पत इति / 103 प्र० / सेन० 2 उल्ला० / आवश्यकोत्तराध्ययनाऽऽदियोगेषु पत्तनीयमुद्गगोधूममोदकान केचन गृह्णन्ति, केचन न ? इति प्रश्ने, उत्तरम्न गृह्णन्तीति वृद्धपरम्पराऽस्तीति। 135 प्र० / सेन०२ उल्ला० / आवश्यकयोगसंबद्धदशवैकालिकयोगप्रवेशः शुद्ध्यति ? न वा? इति प्रश्ने, उत्तरम् - शुद्ध्यतीति। 23 प्र० / सेन०३ उल्ला० / येन साधुना ये योगान व्यूढाः, तेन तद्योगानां प्रवेशोत्तारणं कार्यते, न
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________________ जोग 1638 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगट्ठाण m (1) (2) वा? इति प्रश्ने, उत्तरम् -मुख्यवृत्त्या येन ये योगा व्यूढाः, तेन तेषामेव (17) वृत्तिनिरोधस्यापि योगत्वं तस्यापि पञ्चविधत्वाऽऽद्यनेकविषयप्रवेशोत्तारणाऽऽदिकं विधीयते, तदभावे तु नन्द्यनुयोगद्वारयोगाऽऽदिना विवेचनम्। सर्वेष्वव्यूढयोगेषु प्रवेशः, तेभ्यो निर्गमनं च कार्यते, तयोः क्रियाया (18) योगस्येच्छाशास्त्रसामर्थ्याऽऽद्यवान्तरभेदप्रदर्शनेन तद्विवेकः / असंबद्धत्वादिति परम्पराऽप्यस्ति, परं सर्वथैव तत्क्रियाकारिता न (19) संप्रज्ञातासप्रज्ञातयोर्यथासंभवमवतारः। शुद्ध्यतीति। 36 प्र० / सेन०३ उल्ला० / चक्षुर्विकलस्य साधोः पार्चे कालिकोत्कालिकयोगस्य क्रिया कृता शुद्ध्यति, न वा ? इति प्रश्ने, (20) जीवाऽऽत्मनि परमाऽऽत्मनः सत्त्वोपपत्त्यर्थमात्मत्रयस्वनिरूउत्तरम्-कालिकोत्कालिकयोगक्रिया चक्षुर्विकलस्य साधोः पायें प्रायो पणानन्तरं विषयाऽऽत्मनोः समापत्त्यादिनिरुक्तिः। न शुद्धयतीति ज्ञातमस्ति। 65 प्र। सेन०३ उल्ला०। (21) असंप्रज्ञातनाम्नः समाधेर्निर्वचनम्। विषयसूची (22) एकस्मिन्नपि योगेऽन्येषां समावेशाऽऽदिविचारः / अलब्धेप्सितवस्तुलाभबीजाऽऽधानोभेदपोषणकरणसंयोग- (23) योगमार्गाधिकारिणः / मेलनवर्माऽऽदिधारणयुक्तिशब्दाऽऽदिप्रयोगसमुदायशब्द (24) आत्माऽऽदिप्रत्ययं विना न योगसिद्धिः। निष्ठावयवार्थसंबन्ध यथास्थितवस्त्वन्यथारूपप्रतिपादन - विधिकर्वनुकूलपरिवारसंपत्तिमनोवाक्कायव्यापाराऽऽदयो (25) योगादेव कर्मक्षयो भवतीति प्रतिपादनम्। योगशब्दार्थाः। (26) योगस्य माहात्म्यम्। द्रव्यभावभेदेन योगस्य द्वैविध्यप्ररूपणे प्रशस्ताप्रशस्तत्वं निरूप्य (27) योगस्याऽऽगमगम्यत्वप्रदर्शनानन्तरमनुमानगम्यत्वप्रदर्शनम्। द्रव्ययोगभावयोगयोर्निर्वचनम्। (28) योगे एव महान् यत्नो विधेय इत्युपदेशः। योगस्य मनोवाक्कायाऽऽत्मकस्य एकस्मिन् काले युगपत् (26) युगे योगस्य दशविधत्वप्रदर्शनम्। शुभाशुभत्वनिरसनम्। (30) प्रकीर्णकविषयाः। (4) मनोवाक्कायतया योगस्य द्वैविध्यमुपपाद्य, योगानामयुक्तस्य जोगंग-न०(योगाङ्ग) यमाऽऽदिके," योगाङ्गं च यमो भवेत्। " द्वा०२२ कर्मबन्धकारकत्वं युक्तस्य कर्मनिर्जराकारित्वं च भवतीति द्वा० / अहिंसाऽऽदियमानधिकृत्य-"योगसौकर्यतोऽमीषां, योगाङ्गत्वप्रतिपादनम्। मुदाहृतम्। " यथोक्तम्-" यमनियमाऽऽसनप्राणायामप्रत्याहारधारपरिणामालम्बनग्रहणसाधनत्वेन मनोवाक्कायलक्षण-सहका णाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि योगस्येति / " द्वा० 22 द्वा० / षो०। रिकारणभेदाद द्योगस्य त्रैविध्यम्। पुरुषसप्ततिकलाऽन्तर्गत कलाभेदे, कल्प०७ क्षण। आत्मनो वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुत्थलब्धिविशेषप्रत्य जोगंत-पुं०(योगान्त) शैलेश्यवस्थायाम् , द्वा० 25 द्वा०। यमभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वकत्वं योगस्य प्रतिपादनम् / मनोवाग्योगयोः कायव्यापारविशेषत्वेन विचारः। जोगंतरग-न०(योगान्तरक) अन्यो योगो व्यापारो योगान्तरम् , तदेव योगान्तरकम् / अन्यस्मिन् योगे, पञ्चा०५ विव० / (8) सामान्ययोगप्ररूपणानन्तरं विशेषतो नारकाऽऽदिषु योगविचारः / जोगंधरायण-पुं०(यौगन्धरायण) उदायननृपतेः स्वनामख्यातेऽनात्ये, (8) नैरयिकाऽऽदिदण्डकेषु समविषमयोगावधिकृत्य प्ररूपणा। "न हरामिनृपन्यार्थे, नाहं यौगन्धरायणः।" आव० 4 अ०। आ० चू०। (10) ध्यानतत्त्वरूपसालम्बनिरालम्बनत्वेन योगस्य द्वैविध्यं प्राप्य, जोगक्खेम-न०(योगक्षेम) योगश्च क्षेमं च समाहारद्वन्द्वः / अलभ्यध्याननिरूपणखेदाऽऽद्यष्टविधचित्तपरिहारप्ररूपणतत्फला लाभचिन्तासहिते लब्धपरिरक्षणे, "योगक्षेमं वहाम्बहम् " वाच०।" फलत्वप्रदर्शनशान्तोदात्ताऽऽदियुक्तचित्तव्यावर्णनाऽऽदिविस्तरः। जोगवखेमं वट्टमाणा पडिवहति।" ज्ञा० 1 श्रु० 5 अ० / रा०। (11) योगस्य मोक्षहेतुत्वेन प्रदर्शनम्। जोगक्खेमपय-न०(योगक्षेमपद) योगक्षेमाय पद्यते गम्यते येनार्थस्तत (12) योगस्य लक्षणं निरूप्य, दुरभव्याभव्यलक्षणनिरूपणाऽऽद्यनेक पदं योगक्षेमपदम्। योगक्षेमार्थके पदे," अणुत्तरं जोगक्खेमपय लंभिए विषयोपपत्तिः। समाणे।" सूत्र०२ श्रु०७ अ०। (13) स्वकीयं लक्षणं परकीयलक्षणे विचारिते सति स्थिरीभवतीति पतञ्जलिप्रणतियोगशास्त्रानुसारियोगस्य लक्षणाऽऽदिनि | जोगचलणा-स्त्री०(योगचलना) चलनाभेदे, भ० 17 श० 3 उ० / (अस्यारित्रविधत्वं ' चलणा' शब्दे तृतीयभागे 1165 पृष्ठ द्रष्टव्यम्) रूपणम्। (14) विस्तरतो हि पुनस्तस्य परकीयप्ररूपितयोगस्य खण्डनम्। जोगचित्त-त्रि०(योगचित्त) योगबीजोपादानप्रणिधानचित्ते, द्वा० 21 द्वा०। (15) स्थानवर्णालम्बनैकाग्रयरूपेण योगस्य पञ्चविधत्वं प्ररूप्य, जोगजुत्त-त्रि०(योगयुक्त) दशविधचक्रवालसामाचार्याऽऽद्यावरणप्रगुणे, विरतेषु तस्य नियतभावित्वं, परेषु तु बीजमात्रमेवेति विवेचनम्। कर्म०१ कर्म०। (16) योगोत्पत्तिहेतून निरूप्य स्थानाऽऽदीनां प्रीतिभत्तिवचोऽसङ्गै जोगजुत्तया-स्त्री०(योगयुक्तता) अनगारगुणभेदे, " जोगम्मि जुत्तता। रशीतिभेदस्याऽऽविविनं, स्थानाऽऽद्ययोगिनः सूत्रदाने दोषो "आव०४ अ० प्रश्न०। द्घाटनं च। जोगट्ठाण - न०(योगस्थान) यो गो वीर्य , तस्य स्थानं योग (7) मनावाच
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________________ जोगट्ठाण 1636 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोगदिहि स्थानम् / वीर्याऽऽदिविभागांशसंघाते, कर्म०५ कर्म०1 (तद्वक्तव्यता' अप्पाबहुय शब्दे प्रथमभागे 656 पृष्ठे गता) जोगणिओग-पुं०(योगनियोग) द्व० स०। कार्मणवशीकरणाऽऽदि-प्रकारे, / योगनियोगैः कार्मणवशीकरणाऽऽदिप्रकारैरिति / तं० / जोगणिग्गह-पुं०(योगनिग्रह) कायोत्सर्गे," उस्सग्गो ति वा जोगणिग्गहो त्ति वा।" आ० चू० 5 अ०। जोगणिरोह-पुं०(योगनिरोध) योगाश्चौदारिकाऽऽदिशरीरसंयोगसमुत्था आत्मपरिणामविशेषव्यापारा एव, तेषां निरोधनं निरोधः प्रलयकरणम्, योगनिरोधः / मनोवाक्कायव्यापारप्रलयक रणे, स एव च जिनानां ध्यानम्।" जोगणिरोहो जिणाणं तु।" आव०४ अ०। आ०म०। जोगणिव्वत्ति-स्त्री०(योगनिर्वृति) योगनिष्यत्तौ, भ०१श०१ उला" | कइविहाणं भंते ! जोगणिव्वत्ती पण्णत्ता / गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता। तं जहामणजोगणिव्वत्ती, वइजोगणिव्वत्ती, कायजोग-निव्वत्ती, एवं० जाव वेमाणिया जस्स जइविहो जोगो।" भ०१६ श०८ उ०। जोगत्तिय-न०(योगत्रिक) कृतकारितानुमतिरूपे व्यापारत्रिके, दश० १०अ०। जोगदिट्ठि-स्त्री०(योगदृष्टि) योगजप्रातिभज्ञाने, द्वा० 16 द्वा०।। मित्राऽऽदिकायां योगदृष्टौ च। ध० 1 अधि०। सच्छ्रद्धासंगतो बोधो, दृष्टिः सा चाष्टधोदिता। मित्रा तारा बला दीप्रा, स्थिरा कान्ता प्रभा परा।। 25 / / सच्छूद्धया शास्त्रबाह्याभिप्रायविकलसदहलक्षणाया, संगतो, बोधो, दृष्टिः, तस्या उत्तरोत्तरगुणाऽऽधानद्वारा सत्प्रवृत्तिपदाऽऽवहत्वात् / तदुक्तम्- " सच्छ्रद्धा संगतो बोधो, दृष्टिरित्वभिधीयते। असत्प्रवृत्तिव्याघातसत्प्रवृत्तिपदाऽऽवहः " / / 1 / / इति / सा चाष्टथोदिताभित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा चेति // 25 / / तृणगोमयकाष्ठाग्नि-कणदीप्रप्रभोपमा। रत्नाताराऽर्कचन्द्राऽऽभा, क्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा॥२६॥ मित्रा दृष्टिस्तृणाग्निकणोपमा, न तत्त्वतोऽभीष्टकार्यक्षमा, सम्य-क प्रयोगकालं यावदनवस्थानात् / अल्पवीर्यतया ततः पटुस्मृतिबीजसंस्काराऽऽधानानुपपत्तेः, विकलप्रयोगभावाद्भावतो वन्दनाऽऽदिकार्यायोगादिति / तारा दृष्टिगोमयाग्निकणसदृशी। इयमप्युक्तकल्पैव, तत्त्वतो विशिष्ट स्थितिवीर्यविकलत्वात् , अतोऽपि प्रयोगकाले स्मृतिपाटवासिद्धेः, तदभावे प्रयोगवैकल्यात् , ततस्तथा तत्कार्याभावादिति / बला दृष्टिः काष्ठाग्निकणतुल्या / ईषद्विशिष्टोक्तबोधद्वयात् / तद्भावेनात्र मनाक् स्थितिवीर्ये, अतः पटुप्राया स्मृतिः, इह प्रयोगसमये, तद्भावे चार्थप्रयोगमात्रप्रीत्या यत्नलेशभावादिति / दीपा दृष्टिीपप्रभासदृशी। विशिष्टतरोक्त-बोधत्रयात् / अतोऽत्रोदने स्थितिवीर्ये, तत्पट्क्यपि प्रयोगसमये स्मृतिः / एवं भावतोऽप्यत्र द्रव्यप्रयोगो वन्दनाऽऽदौ, तथा भक्तितो यत्नभेदप्रवृतेरिति प्रथमगुणस्थानकप्रकर्ष एतावानिति समयविदः। स्थिरा च भिन्नग्रन्थेरेव, सा च रत्नाभा, तदवबोधो हि रत्ननास्समानः, तद्भावोऽप्रतिपाती प्रवर्द्धमानो निरपायो नापरपरितापकृत् परितोषहेतुः प्रायेण प्रणिधानाऽऽदियोनिरिति। कान्ता ताराऽऽभा, तदवबोधस्ताराभारसमानः। अतः स्थित एव प्रकृल्या निरतिचारमत्रानुष्ठानं शुद्धोपयोगानुसारि विशिष्टाप्रमादसचिव विनियोगप्रधानं गम्भीरोदाराऽऽशयमिति / प्रभा अाभा / तदवबोधस्तरणिभास्समानः, सद्ध्यानहेतुरेव सर्वदा, नेह प्रायो विकल्पावसरः / प्रशमसारं सुखमिह, अकिञ्चित्कराण्यत्रान्यशास्त्राणि, समाधिनिष्ठमनुष्ठानं, तत्सन्निधौ वैराऽऽदिनाशः, परानुग्रहकर्तृता, औचित्ययोगो विनयेषु, तथाऽबन्ध्या सक्रियेति। परा तु दृष्टिश्चन्द्राऽऽभा। तदवबोधश्चन्द्रचन्द्रिकाभास्समानः, सद्ध्यानरूप एव सर्वदा, विकल्परहितं मनः, तदा भावेनोत्तमं सुखम् , आरूढाऽऽरोहणभावतोऽनुष्ठानं प्रतिक्रमणाऽऽदि, परोपकारित्वं, यथा भव्यमबन्ध्या क्रियेति, तथा क्रमेण मित्राऽऽद्यनुक्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा दृष्टिरिक्षुरसकक्कबगुडकल्पाः खल्याद्याश्चतस्रः खण्डशर्करामत्स्यण्डवर्षोलकसमाश्चाग्रिमा इत्याचार्याः / इक्ष्वादिकल्पानामेव रुच्यादिगोचराणां संवेगमाधुर्यभेदोपपत्तेः, नलाऽऽदिकल्पानामभव्यानां संवेगमाधुर्यशून्यत्वादिति / / 26 // यमाऽऽदियोगयुक्तानां, खेदाऽऽदिपरिहारतः। अद्वेषाऽऽदिगुणस्थानां, क्रमेणैषा सतां मता // 27 // यमाऽऽदयो योगाङ्गवाद् योगाः / यथोक्तम्- " यमनियमाऽऽसनप्रणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानियोगस्येति। " (226) तैर्युक्तानां खेदाऽऽदीना ध्यानाभिधानस्थले प्रोक्तानां योगप्रत्यनीकाऽऽशयलक्षणानां परिहारतोऽद्वेषाऽऽदयो येऽष्टौ गुणाः / तदुक्तम्-" अद्वेषो जिज्ञासा, शुश्रूषा श्रवणबोधमीमांसाः / परिशुद्धा प्रतिपत्तिः, प्रवृत्तिरष्टाङ्गिकी तत्त्व / / 1 / / " इति। तत्स्थानां तत्प्रतिबद्धवृत्तीनां क्रमेणैषा दृष्टिः सतां भगवत्पतञ्जलिभदन्तभास्कराऽऽदीनां योगिनां मतेष्टा / / 27 // आद्याश्चतस्रः सापाय-पाता मिथ्यादृशामिह। तत्वतो निरपायाश्च, भिन्नग्रन्थेस्तथोत्तराः / / 28 / / आद्याश्चतस्रो मित्राऽऽद्या दृष्टयः, इह जगति, मिथ्यादृशां भवन्ति / सापायपाता दुर्गतिहेतुकर्मव तेन तन्निमित्तभावादपायसहिताः। कर्मवैचित्र्याद् भंशयोगेन, सपाताश्च, न तु सपाता एव, ताभ्यः तदुतरभावादिति। तथोत्तराश्चतस्रः स्थिराऽऽद्या दृष्टयो भिन्नग्रन्थेस्तत्त्वतः परमार्थतश्च निरपायाः, श्रेणिकाऽऽदीनामेतदभावोपात्तकर्मसामर्थ्य हि तस्यापावस्यापिसदृष्ट्यविधातेन तत्त्वतोऽनपायत्वाद् वजतन्दुलवत्पाकेन तदाशयस्य कायदुःखभावेऽपि विक्रियाऽनुपपत्तेः, योगाऽऽचार्या एवात्र प्रमाणम्। तदुक्तम्-"प्रतिपातयुताश्चाद्याश्चतस्त्रोनोत्तरास्तथा। सापाया अपि चैतास्तत् , प्रतिपातेन नेतरा // 1 // " इति // 28 // प्रयाणभङ्गाभावेन, निशि स्वापसमः पुनः। विघातो दिव्यभवत-श्वरणस्योपजायते / / 26 // प्रयाणस्य कान्यकुब्जाऽऽदावनवरतगमनलक्षणस्य, भङ्गाभावेन निशि रात्रौ, स्वापरसमः पुनर्विघातः प्रतिबन्धः, पुनर्दिव्यभवतः स्वर्गजन्मनः सकाशात् , चरणस्य चारित्रस्योपजायते।। 26 / / तादृश्यौदयिके भावे, विलीने योगिनां पुनः। जाग्रनिरन्तरगति-प्राया योगप्रवृत्तयः / / 30 // तादृशि स्वर्गगतिनिबन्धने सरागचारित्रदशायति, औदयिके भावे प्रशस्तरागाऽऽदिरूपे, विलीने पुनयाँ गिनां जाग्रतो या निरन्तरा गतयः, तत्प्राया योगिनां प्रवृत्तयो भवन्ति, अक्षेपेणैव
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________________ जोगदिट्टि 1640 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगपिंड मोक्षपुरप्राप्त्युपपत्तेः तथाविधकर्मरूपश्रमाभावेन, तदपनयनार्थ स्वाप- चिलिमिली धारए गुरू।" पट्टो योगपट्ट इति। ध०३ अधि०। समस्वभावेनाविलम्बादिति भावः // 30 // जोगपडिक्कमण-न०(योगप्रतिक्रमण) मनोवचनकायव्यापाराणामिथ्यात्वे मन्दतां प्राप्ते, मित्राऽऽद्या अपि दृष्टयः। मशोभनानां व्यावर्तनरूपे प्रतिक्रमणभेदे, स्था०५ ठा०३ उ०। मार्गाभिमुखभावेन, कुर्वते मोक्षयोजनम् // 31 // जोगपर-त्रि०(योगपर) उत्साहपरे, षो०४ विव०॥ मिथ्यात्वे मिथ्यात्वमोहनीये कर्मणि, मन्दतां प्राप्तेऽपुनर्बन्धक- | जोगपरिणाम-पु०(योगपरिणाम) योग एव परिणामो योगपरिणामः। त्वाऽऽदिभावेन मित्राऽऽद्या अपि दृष्टयश्चतस्रः, किं पुनः स्थिराऽऽद्या | जीवपरिणामभेदे, स च मनोवाकायभेदानिधेति। स्था०८ ठा०। इत्यर्थः ? मार्गाभिमुखभावेन मार्गसांमुख्येन द्रव्ययोगतया मोक्षयोजन जोगपिंड-पुं०(योगपिण्ड) योगो वशीकरणाऽऽदिफलो द्रव्यसंयोगः / कुर्वते, चरमाऽऽवर्तभावित्वेन समुचितयोग्यतासिद्धेः / / 31 / / पञ्चा०१३ विव०ायोगादञ्जनाऽऽदेरवाप्तः पिण्डो योगपिण्डः / आचा० प्रकृत्या भद्रकः शान्तो, विनीतो मृदुरुत्तमः। 2 श्रु०१ अ०६ उ०। योगः पादप्रलेपनाऽऽदितत्प्रयोगेण लब्धः पिण्डो सूत्रे मिथ्यादृगप्युक्तः, परमाऽऽनन्दभागतः / / 32 / / योगपिण्डः / जीत० / यदा मुग्धलोकान् सौभाग्याऽऽविलेपनराजवशीअत उक्तहेतोः, सूत्रे जिनप्रवचने, प्रकृत्या निसर्गेण, भद्रको निरु करणाऽऽदितिलकेन जलस्थलमार्गोल्लङ्घनसुभगदुर्भगविधिमुपदिपमकल्याणमूर्तिः, शान्तः क्रोधविकाररहितः, विनीतोऽनुद्धतप्रकृतिः, श्याऽऽहारं गृह्णाति, तदा योगपिण्डदोषः। इत्युक्तलक्षणे पञ्चदशे उत्पादमृदुर्निर्दम्भः, उत्तमः सन्तोषसुखप्रधानः, मिथ्यादृगपि, परमाऽऽनन्द नादोषे, उत्त०२६ अ०। पिं०। ग०॥ध०। स्था०। भाक् निरतिशययोगसुखभाजनयुक्तः, शिवराजर्षिवदिति // 32 // द्वा० उत्पादनादोषाधिकारे योगद्वारमधिकृत्य- " पायलेवणे 20 द्वा०। (शिवराजर्षिचरित्रं 'सिव 'शब्दे वक्ष्यते) (मित्रा-तारा जोगे " इति व्याख्यानयन्नाहबला-दीप्रा-स्थिरा-कान्ता-प्रभा-पराणां योगदृष्टीना व्याख्यान सोभगदोभग्गकरा, जोगा आहारिया य इयरे य। स्वस्वशब्दे द्रष्टव्यम्) अप्पत्थधूववासा, पायपलेवाइणो इयरे / / जोगदुप्पणिहाण-न०(योगदुष्प्रणिधान) सावधप्रवर्तनालक्षणे योगाः सौभाग्यदौर्भाग्यकरा जनप्रियत्वाप्रियत्वकराः / ते च द्विधाकायवाङ्मनसां प्रणिधाने, ध०१ अधिक। आहार्याः, इतरे च / तत्राऽऽहार्या ये पानीयाऽऽदिना सहाभ्यवलियते / योगदुष्प्रणिधानानि, स्मृतेरनवतारणम् / तद्विपरीता इतरे। तत्राद्याः-आप्यर्थाः, धूपावासाश्च / ये पानीयाऽऽदिना अनादरश्चेति जिनैः, प्रोक्ताः सामायिके व्रते / / 50 // सह घर्षयित्वा, पीयन्ते ते आप्यर्थाः। धूपावासाः प्रतीताः / अथ चूर्णस्य योगदुष्प्रणिधानात् ते प्रक्रमात्पञ्चातिचाराः सामायिकव्रते जिनैः प्रोक्ता वासानां च परस्परं कः प्रतिविशेषः, द्वयोरपि क्षोदरूपत्वाविशेषात् ? इत्यन्वयः / तत्र योगाः कायवाड्मनांसि, तेषां दुर्दुष्टानि प्रणिधानानि उच्यते-सामान्यद्रव्यनिष्पन्नः शुष्क आद्रो वा क्षोदः चूर्ण, प्रणिधयो दुष्प्रणिधानानि, सावद्ये प्रवर्तनालक्षणानीत्यर्थः / तत्रापि सुगन्धद्रव्यनिष्पन्नाश्च शुष्कपेषं पिष्टाः वासाः, इतरे वाऽऽहार्या योगाः शरीरावयवानां पाणिपादाऽऽदीनामनिभृतताऽवस्थापन कायदुष्प्रणि- पादप्रलेपनाऽऽदयः। पिं०।। धानम् / वर्णसंस्काराभावोऽनवगमश्चापल्यं च वागदष्प्रणिधानम् / जे मिक्खू जोगपिंडं मुंजइ, भुजंतं वा साइजइ / / 71 // क्रोधलोभद्रोहाभिमानाऽऽदयः कार्यव्यासङ्गः संभ्रमश्च मनोदुष्प्रणि जो भिक्खु जोगपिंडं, भुंजेज सयं तु अहव सातिन्जे / धानम्। ध०२ अधि०। (एतेषां सामायिकव्रतस्यातिचारत्वं सामाइय' सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 204 / / शब्दे वक्ष्यते) पादलेवाऽऽदिजोगेहिं आउट्टेउं जो पिंड उप्पादेति, तस्स आणादी जोगपञ्चक्खाण-न०(योगप्रत्याख्यान) मनोवाक्कायानां व्यापारो योगः, दोसा / नि० चू०१३ उ०।" असिवादिकारणेसुवा जोगपिंडं उप्पाएज्जा तस्य प्रत्याख्यानं परिहारो योगप्रत्याख्यानम्।उत्त०२६ अ०। प्राणाति ण दोसो त्ति।" नि० चू०१३ उ०। पाताऽऽदिषु कृतकारितानुमतिलक्षणानां मनःप्रभृतिव्यापाराणां निरोधप्रतिज्ञाने, भ०१५ श०१ उ०। अत्र दृष्टान्तं गाथात्रयेण भावयतियोगप्रत्याख्यानफलं प्रश्नपूर्वकमाह नइकन्ह-विन्न-दीवे, पंचसया तावसाण निवसंति। जोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? जोगपञ्चक्खा पव्वदिवसेसु कुलवइ, पालेवुत्तार सकालो / / णेणं अजोगित्तं जणयइ। अजोगीणं जीवे नवं कम्मं न बन्धइ, जणे सावगाण खिंसण, समिय खमाइ ठाण लेवेणं / पुव्वबद्धं निजरेइ॥ 37 // सावयपयत्तकरणं, अविणय लोए चलणधोए। हे भगवन् ! योगप्रत्याख्यानेन जीवः किं जनयति ? योगप्रत्याख्यानेन पडिलामिप वयंता, निव्वुड नइकूल मिलण समियाओ। अयोगित्वं जनयतिशैलेशीभावं भजति। अयोगी हि जीवः चतुर्दशगुण- विम्हियपंचसया ता-वसाण पव्वज साहाय॥ स्थाने प्रवर्तमानो जीवो नवं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं कर्म निर्जरयति, ' पृथ्व्यां प्रतिष्ठ नगरं, सुप्रतिष्ठः क्षितीश्वरः। क्षपयतीति भावः। उत्त० 26 अ०। कृष्णा वेणा च वाहिन्यौ, तिष्ठतस्तत्पुरान्तिके ||1|| जोगपट्ट-न०(योगपट्ट) योगाभ्यासार्थ पट्टम् / योगिधार्ये पट्टसूत्रभेदे, ब्रह्मद्वीपस्तयोरन्त-स्तत्राऽऽसन् केऽपि तापसाः। वाच० / गुरूणां धार्ये विशिष्ट उत्तरपट्टे च / पुं० / " चम्मछयणपट्टे य, भुवीव पादलेपेन, ते जलोपरिचारिणः // 2 //
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________________ जोगपिंड 1641 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगवं ऊचुः पृष्टास्तषःशक्ति-रस्माकमियमीदृशी। तेष्वादृतस्ततो लोकः, क्षुभिताः श्रावका अपि॥३॥ आसतामपरे धर्माः, जिनधर्मोऽपि हील्यते। तदाऽऽर्यसमिताऽऽचार्याः, तत्रेयुर्वज्रमातुलाः / / 4 / / श्राद्धः सुधीगुरोराख्यद् , भौतोदन्तं गुरुस्ततः। भ्रमितानां प्रबोधाय, शिक्षा तस्य ददौ रहः / / 5 / / सोऽथ गत्वा प्रभाते तान् , भौतान् सर्वानमन्त्रयत्। हृष्टास्तेऽसचरित्रेण, क्षुभिताः श्रावका अपि।। 6 / / अथाऽऽनीय गृहे सर्वान् , पादशौचे कृतोद्यमः। स तैर्निषिध्यमानोऽपि, भक्त्यैवाक्षालयत् क्रमान्॥७॥ धौताश्च पादुकास्तेषां,यथेष्ट भोजितास्ततः। अथानुव्रजनं श्राद्धाः, श्रद्धालव इव व्यधुः / / 8 / / नद्यां प्राग्वत्प्रविष्टास्ते, बडन्तस्तारकैधुताः। तदेत्युच्चैर्जना ऊचु-मुष्टाः स्मश्छद्मतापसैः॥६॥ तत्राऽऽचार्यास्तदाऽऽयाताः, योग क्षिप्त्वा नदीं जगुः / एहि पुत्रि ! यथा यामो, वयं परतट तव || 10 // मिलितो द्वावपि तटौ, सर्वेषामपि पश्यताम्। गुरवः परतो जग्मु-र्लोकः सर्वोऽपि विस्मितः।।११।। तापसाः प्रतिबुद्धास्ते, तेषां पार्वं प्रवव्रजुः। ते ब्रह्मद्वीपवासित्वात् , तदाहाः साधवोऽभवन् " // 12 // आ० क०। जोगबुड्डि-स्त्री०(योगवृद्धि) सम्यग्दर्शनाऽऽदिमुक्तिबीजोत्कर्षे, यो० बिं०। / जोगब्भास-पुं०(योगाभ्यास) योगो ध्यानं, तस्याभ्यासः परिचयो योगाभ्यासः / ध्यानपरिचये, षो०। योगाभ्यासमाहस्थानोर्थाऽऽलम्बन-तदन्ययोगपरिभावनं सम्यक् / परतत्त्वयोजनमलं,योगाभ्यास इति तत्त्वविदः॥ 4 / / स्थीयतेऽनेनेति स्थानमासनविशेषरूपम्-कायोत्सर्गपर्यङ्कबन्धपद्माऽऽसनाऽऽदिसकलशास्त्रसिद्धम्। ऊर्णः शब्दः, स च वर्णाऽऽत्मकः / अर्थः शब्दस्याभिधेयम् / आलम्बनं बाह्यो विषयः प्रतिमाऽऽदिः / तस्मादालम्बनादन्यः,तद्विरहितस्वरूपोऽनालम्बन इति यावत। स्थानं चोर्णश्वार्थश्चाऽऽलम्बनं च तदन्यश्चैत एव योगाः, तेषां परिभावन सर्वतोऽभ्यसनं, सम्यक् समीचीनं, परंतत्वं योज-यतीति परतत्त्वयोजनं, मोक्षण योजनात् , अलमत्यर्थम् , योगस्य योगाङ्गरूपस्य ध्यानस्य वाऽभ्यासः परिचयो योगाभ्यासः, 'इति' इत्थं, तत्त्वविदोऽभिवदन्ति। कथं पुनः स्थानाऽऽदीना योगरूपत्वं, येन तत्परिभावनं योगाभ्यासो भवेत् ? उच्यते-योगाङ्गत्वेन, योगाङ्गस्य च शास्त्रेषु योगरूपताप्रसिद्धर्हे तुफलभावेनोपचारात् / योगाङ्गत्वं तु स्थानाऽऽदीनां प्रतिपादितमेव योगशास्त्रेषु। यथोक्तम्-" यमनियमाऽऽसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि।" (2-26 पातञ्जलयोग०) / / 4 / / षो०२ विव०। जोगभंग-पु०(योगभङ्ग) श्रुतोपधानभड़े, स च द्विविधःसर्वभङ्गो, / देशभङ्गश्च / व्य०४ उ०। द्वा० / नि०। (योगभड़े प्रायश्चित्तम् ' च- | रियापविट्ट '' शब्दे तृतीयभागे 1162 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) जोगभावियमइ-त्रि०(योगभावितमति) धर्मव्यापारविशेषवासितबुद्धौ, " | पायं तह जोगभावियमईणं / " योगभावितमतीनां धर्मव्यापारविशेष- | वासितधियामिति। पञ्चा० 4 विव०। जोगमग्ग-पुं०(योगमार्ग) योगवर्त्मनि, " आमूलमिदं परम, सर्वस्य हि योगमार्गस्य / " षो०१५ विव० / अध्यात्मशास्त्रपथे च / पञ्चा०१६ विव० जोगमुद्दा-स्त्री०(योगमुद्रा) हस्तविन्यासविशेषाऽऽत्मक मुद्राभेदे, संघा० 1 प्रस्ता०॥ योगमुद्रायाः स्वरूपमाहअण्णोण्णंतरिअंगुलि-कोसाकारेहिँदोहिँ हत्थेहिं / पिट्टोवरि कोप्परसं-ठिएहिँ तइ जोगमुद्दत्ति / / 16 / / अन्योन्येन परस्परेण, अन्तरिता व्यवहिताः, अङ्गुलयः करशाखा ययोस्तौ, तथा तौ, कोशाऽऽकारौ च कमलकोरकाऽऽकृती, उभयजोटनेनान्योऽन्यान्तरिताडलिकोशाऽऽकारी, ताभ्याम् / द्वाभ्यां, हस्ताभ्यां कराभ्यां, करणभूताभ्याम् / पुनः किंभूताभ्यां ? पेट्टस्य उदरस्य, उपरि ऊवभागे, कूर्पराभ्यां कुहणिकाभ्यां, संस्थिती व्यवस्थितौ यौ तौ तथा ताभ्यां-पेट्टोपरिकूर्परसंस्थिताभ्याम् / तथा तेन प्रकारेणाऽऽचरणगम्येन, अथवा-पञ्चाङ्गप्रणिपातापेक्षया समुचयार्थस्तथाशब्दः / योगो हस्तयोर्योजनविशेषः, समाधिर्वा, तत्प्रधाना मुद्राऽङ्गन्यासविशेषो विघ्नविशेषव्ययोहनसमर्थो योगमुद्रा, भवतीति गम्यते। इतिशब्दो योगमुद्रालक्षणसमाप्तिसंसूचकः, उपप्रदर्शनार्थो वा'इत्येवंलक्षणा योगमुद्रेत्यर्थः / इतिगाथार्थः / / 16 || पञ्चा०३ विव०। दर्श०। योगमुद्रया किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह थयपाठो होइ जोगमुद्दाए। (17) स्तवपाठः शक्रस्तवाऽऽदिपठनम् , भवति, कर्तव्य इति शेषः। कया ? इत्याह-योगमुद्रया प्रदर्शितलक्षणया। ननु चतुर्विंशतिस्तवाऽऽदेरेव पाठो योगमुद्रया विधेयो, न तु शक्रस्तवस्य, तर्हि किमर्थं समाकुचितवामजानुभूमिविन्यस्तदक्षिणजानुर्ललाटपट्टघटितकरकुइमलः पठतीति जीवाभिगमाऽऽदिष्वभिधीयत इति? सत्यम्। केवलं नानन्तरोक्तविशेषणयुक्त एव तं पठतीति नियमोऽस्ति, पर्यशाऽऽसनस्थः शिरोऽधिनिवेशितकरकोरकस्तं पठतीत्यस्यापि ज्ञाताधर्मकथासु दर्शनात् / तथा हरिभद्राऽऽचार्येणापि चैत्यवन्दनवृत्तौ-" क्षितिनिहितजानुकरतलो भुवनगुरौ विनिवेशितनयनमानसः प्रणिपातदण्डकं पठति " इत्यस्य विध्यन्तरस्याभिधानात् / ततोऽस्य पाठे विविधविधिदर्शनात्सर्वेषां च तेषां प्रमाणग्रन्थोक्तत्वेन, विनयविशेषभूतत्वेन च निषेद्भुमशक्यत्वाद् योगमुद्रयाऽपि शक्रस्तवपाठो न विरुध्यते, विचित्रत्वान्मुनिमतानाम्।न चैतानि परस्परमतिविरुद्धानि, सर्वरपि विनयस्य दर्शितत्वादिति। पञ्चा० 3 विव०। प्रव० / दर्श० / सङ्घा०। जोगरहिय-त्रि०(योगरहित) सम्यगकृतयोगो द्वहने, तदात्मके सूत्र दोषभेदे च / न० / ध०३ अधि०। जोगलोयण-त्रि०(योगलोचन) योग एव लोचनमक्षि यस्य / योगबलेन यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानवति, यो० बिं०।। जोगवं-त्रि०(योगवत्) योजन योगो व्यापारः तद्वान् , अतिशायने मतुप। व्यापारवति, योगः समाधिः, सोऽस्यास्तीति योगवान्। प्रशंसायां मतुप् / समाधिमति, उत्त 11 / संयमाऽऽदियोगवति च। सूत्र०१ श्रु०२ अ० १उ०।
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________________ जोगवहण 1642 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगविहि जोगवहण-न०(योगवहन) योगोद्वहने, सेन०। प्राग योगोबहनं कृत्वा साधवो द्वादशाङ्गी पठेयुः, किं वाऽन्यथा वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम-प्राग योगमुद्राह्य द्वादशाङ्गीं पठेयुः / कदाचित्केनचिदयोगोद्वहन विनाऽपि द्वादशाङ्गी पठिता शास्त्रे दृश्यते, तदपि कर्तव्यम्, आगमव्यवहारिकृतत्वात् / यत आगमव्यवहारी यथा लाभं जानाति, तथा करोतीति / ११६प्र० / सेन० 4 उल्ला० / जोगवाहि(ण् )-पुं०(योगवाहिन् ) योगेन वहति, वहणिनिः / पारदे क्षारभेदे च / वाच०। श्रुतोपधानकारिणि, स्था० 10 ठा०11०। ही० (एतद्वक्तव्यता' जोगविहि' शब्दे 1645 पृष्ठे वक्ष्यते) योगेन समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही। समाधिस्थायितरि, स्था०१० ठा०। जोगविंदु-पुं०(योगबिन्दु) योगस्य मोक्षहेतोरनुष्ठानस्य बिन्दुरवयवो योगबिन्दुः / योगावयवे, योगावयवानां प्रतिपादके आचार्यहरिभद्रसूरिविरचिते स्वनामख्याते प्रकरणग्रन्थभेदे च / यो० वि०। तस्य चेदमादिसूत्रम्नत्वाऽऽद्यन्तविनिर्मुक्तं, शिवं योगीन्द्रवन्दितम्। योगबिन्दुं प्रवक्ष्यामि, तत्त्वसिद्ध्यै महोदयम् / / 1 / / नत्वाऽभिवन्द्य, आदिः प्रथमभावः, अन्तःपर्यवसानं, ताभ्या विनिमुक्तं विरहितं, किम् ? इत्याह-शिवं सकलोपप्लवकलाविकल देवताविशेषम्। कीदृशम् ? इत्याह-योगीन्द्रवन्दितं गणधराऽऽदिमहामुनिनभस्कृतम् / किम ? इत्याह-योगबिन्दुम्-योगस्य मोक्षहेतोरनुष्ठानस्थ, बिन्दुरवयवो योगबिन्दुः, तत्प्रतिपादकतया प्रकरणभपि योगबिन्दुरुच्यते , ततो योगबिन्दुनामकं प्रकरण, प्रवक्ष्याभि अभिधास्ये। किमर्थम् ? इत्याहतत्त्वसिद्ध्यै आत्माऽऽदितत्त्वप्रतीतिनिमित्तम् / पुनरपि कीदृश योगबिन्दुम् ? इत्याह-महोदयं महान् प्रशस्य उदयो निःश्रेयसाभ्युदयसंसिद्धिरूपो यस्मात् स तथा तम्॥१॥ पुनरपि कीदृशं योगबिन्दुम ? इत्याहसर्वेषां योगशास्त्राणा-मविरोधेन तत्त्वतः। सन्नीत्या स्थापकं चैव, मध्यस्थाँस्तद्विदः प्रति॥२॥ सर्वेषा कपिलसुगताऽऽदिप्रणीतयोगशास्त्राणामध्यात्मग्रन्थाना-ग , अविरोधेन अविघटनेनोपलक्षितं, तत्वत ऐदम्पर्यपथलोचनेन, न पुनः शाब्दन्यायेनापि तस्य प्रतिदर्शनम् , अन्यथाऽन्यथाप्रवृत्तत्वात। पठ्यते च-" प्रशान्तवाहितासंज्ञ, विषभागपरिक्षयम् / शिववर्त्म ध्रुवादति, योगिभिर्गीयते ह्यदः // 1 // इति / तथा सन्नीत्या अन्वयव्यतिरेकशुद्धयुक्तिरूपया, स्थापकमविसंवादाऽऽपादनेन प्रतिष्ठाकारि सर्वयोगशास्त्राणामेव / चैव इति समुचये / ननु योगशाखकाराणां निजनिजमतात्यन्ताभिनिवेशेन विप्रतिपन्नत्वात्कथं सर्वयोगशास्त्राणां संस्थापकमिदं प्रकरणं स्यात् ? इत्याशङ्कयाऽऽहमध्यस्थान् स्वदर्शनरागपरदर्शनद्वेषयोर्मध्यभागवर्तिनः, तद्विदो योगशास्त्रविदः, श्रोतृन प्रति इति स्वदर्शनं प्रतीत्य, अमध्यमेषु श्रोतृषु वस्तुस्थापनाइयोगात् / तथा चोक्तम्-" आग्रही वत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा / पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् "19 // इति।। आान्तविनिर्मुक्तमिति च विशेषणं शिवसन्तानापेक्षम् / न पुनरेकः कश्विदनादिशुद्धः शिवः समस्ति, तस्य शास्त्रान्तरे महता प्रबन्धेन प्रतिषिद्धत्वात् / अत्र च नत्वा शिवमित्यनेन विघ्नापोहहेतुः शास्त्रमूलं मङ्गलमुक्तम् / योगबिन्दुमित्यनेन प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यर्थमभिधेयम् / तत्त्वसिद्भ्य इत्यनेनानन्तरप्रयोजनम् / महोदयमित्यनेन तु परम्पराप्रयोजनमभिहितम् / अभिधानाभिधेयलक्षणश्च सबन्धः स्वयमेव दाच्य इति सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन इत्युक्तम्॥ 2 // यो० 'बिं०। अथास्य योगशास्त्राविरचनस्य प्रयोजनमुद्वारस्थानं स्वनाम च सूचयन् शारत्रकार इदमाहस्वल्पमत्यनुकम्पायै, योगशास्त्रमहार्णवात् / आचार्यहरिभद्रेण, योगबिन्दुः समुद्धृतः / / 525 / / स्वल्पमत्यनुकम्पाये तुच्छमतिजनानुग्रहाय, योगशास्त्राण्येव तत्तत्तन्त्रान्तरप्रसिद्धानि महार्णवो महासमुद्रः, तस्मात् / आचार्यहरिभद्रेणेति शास्त्रकृतो नाम / किम् ? इत्याह-योगबिन्दुः समुद्धृतः पृथककृत इति / / 525 / / अथशास्त्रकृदेवप्रणिधानमाहसमुद्धृत्यार्जितं पुण्यं, यदेनं शुभयोगतः। भवाऽऽन्ध्यविरहात् तेन, जनः स्ताद्योगलोचनः / / 526 / / समुद्धृत्य-उद्धारस्थानाविसंवादेन पृथकृत्य, अर्जितमुपात्तं, पुण्यं शुभकर्म, यद्विशिष्टस्वरूपम् , एनं योगबिन्दुम् , शुभयोगतः परोपकाररूपशुभव्यापारात् . भवाऽऽन्ध्यविरहातागद्वेषमोहलक्षणसंसारान्धभावस्य परिहारेण, तेन शुभकर्मणा, जनो भवलोकः, स्त्ताद्भवतीकीदृशः? इति आह-योगलोचनःयथाऽवस्थितवस्तुपरि-ज्ञानाबन्ध्यकारणत्वाद् योग एव लोचनमक्षि यस्य स तथा। विरह इति च भगवतः श्रीहरिभद्रसूरः स्वप्रकरणाङ्कप्रद्योतक इति। यो० बिं०। जोगविसुद्ध-पुं०(योगविशुद्ध) निरवद्यव्यापारे," उभओ जगविसुद्धा।" पञ्चा०१८ विव०। जोगविहि-पुं०(योगविधि) योगविधाने, षो०१३ विव०। उपधानवहन विना श्राद्धस्य, योगो द्वहनं च विना साधोः स्वस्वाचितश्रुताध्ययनवाचनाऽऽदिकमधर्म इति स्थितम्। योगाक्षराणि चैतानि-"तिहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अणाइअअणवदग्गं दीहम चाउरंतसंसारकतारं वीतीवएजा। तं जहा-अणिदाणयाए. दिद्रिसंपन्नयाए. जागवाहिनाए। " इति स्थानाङ्गतृतीयस्थाने। तथा-" दसहि ठाणेहिं जीवा आयमेसि भगत्ताए कम्मं पकरिति / तं जहा-अणिदाणयाए, दिट्टिसंपन्नयाए, जोगवाहिताए, खतिखमणयाए, जिइंदियत्ताए, अमाइल्लयाए. अपासत्थवाए.सुसामन्नत्ताए, पवयणवच्छल्लयाए.पवयणउठभावणयाए।" इति स्थानाइदशमस्थाने / तथा- ''णीयावित्ती अचवले, अमाई अकऊहले / विणीअविणए दंते, जोगवं उवहाणवं।। " (27 गाथा)तथा"पयणकोहमाणे अ, मायालोभपयण्णुए। पसंतचित्ते दनप्पा, जोगवं उवहाणवं / " (26 गाथा) इति चतुस्त्रिशोत्तराध्ययने / तथा"अणिस्सिओवहाण ति" समवायाङ्गे द्वात्रिंशद्योगसंग्रहाधिकारे।तथा'नाणं पंचविह पण्णता तंजहा-आभिणिबोहिअनाणं० जाय केवलणाणं। तत्थ चत्तारि नाणाई टप्पाईठवणिज्जाइंणो उद्दिसंति, णो समुद्दिसंति, णो अणुण्णविजंति; सुअनाणस्स उद्देसो 1, समुद्देसो 2, अणुण्णा 3, अणुओगो 4, पवत्तइ।" इत्या-अनुयोगद्वारे उद्देशाऽऽदिकरणच योगस्यैतिकर्तव्यता।
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________________ जोगविहि 1643 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगविहि एवं कालग्रहणाऽऽदिविधिरप्युत्तराध्ययनाऽऽदिगतो द्रष्टव्यः। उप-धानं च यद्यस्मिन्नङ्गाऽऽदौ भणितं, तत्तद्विधिश्च योगविधिप्रतिपादकग्रन्थतो इति। कालक्रमश्च आचाराङ्गाऽऽदेस्त्रिवर्षाऽऽदिपर्यायः सूत्रोक्तः, तदुल्लइनेन ददतस्तु आज्ञाभङ्गाऽऽदयो दोषा एव। सच कालो यथा" तिवरिसपरिआगस्स उ, आयारपकप्पणाममज्झयणं / चउवरिसस्स उ सम्म, सूत्रगड नाम अंगं ति॥१॥ दसकप्प व्यवहारा, संवच्छरपणगदिविखअस्सेव। ठाण समवाओ त्ति अ, अंगाइं अट्ठवासस्स / / 2 / / दसवासस्स विवाहा, एकारसवासयस्स य इमाओ। खुड्डिअविमाणमाई, अज्झयणा पंच णायव्वा / / 3 / / बारसवासस्स तहा, अरुणुक्वायाइपंच अज्झयणा। तेरसवासस्स तहा, उट्ठाणसुआइआ चउरो॥ 4 / / चउदसवासस्स तहा, आसीविसभावणं जिणा बिति। पण्णरसवासगस्सय, दिट्ठीविसभावणं तह य॥ 5 // सोलसवासाईसुय, एकुत्तरवट्टिएसुजहसंखं। चारणभावणमहसुवि-णभावणा तेअगनिसग्गा / / 6 // एगूणवासगस्स उ, दिट्ठीवाओ दुवालसममंग। तेसु पुण वीसवरिसो, अणुवाई सव्वसुत्तस्स" // 7 // इति। आवश्यकाऽऽदेस्तु योगोद्वहनोत्तरकाल एव काल इत्यवसेयम्। ध०३ अधिक। अहुणा सेससाहूणं जोगविही विपाहिज्जइ। तत्थ पढमं कालग्गहणविही भण्णइ-"दिण 1 वसहि 2 कालवेला 3, दिसि / सोही 5 कालविहि 6 समक्खाया। सज्झायप्पट्ठवणं 7, वुच्छामि जहागमं सुगम" // 1 // दारं / तत्थ चित्तस्स आसोयस्स य सुक्कपंचमीए, आसाढस्स कत्तियस्स य सुक्कचउद्दसीए य मज्झण्हाओ आरडम पडिवयंतेसु दिणेसु लाडेसु पुण सावणपुण्णिमाए महाअसज्झायं ति काउं कालग्गहणं-अज्झयणउद्देसाइयं ण कीरइ, भगवईवज्जं जोगा य ण णिक्खिप्पंति / चित्तसुद्धएगारसीओ आरब्भ पुन्निमंतेसु दिवसेसु अचित्तरजओहडावणत्थं पडिक्कमणाणंतरं चउजोअगरं चिंतयमाणो काउस्सग्गो कीरइ। अह न सुमरियं तो संवच्छरं जाव धूलीए पड़तीए असज्झाओ। सूरग्गहणे मुक्के तं चेव अहोरत्तमसज्झाइयं, अमुक्के तं चेव, अन्नं च / एवं चंदग्गहणे मुक्के सा चेव राई ; अमुक्के सा राई० अन्नं च अहोरत्तं / / यतः" सग्गह निव्वुड एवं, सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता। आइन्नं दिणमुक्के, सो चिय दिवसो य राई य"॥१॥ गंधवनगरदिसिदाहउक्काविजू हिं इकिका पोरिसी अस ज्झाओ / गज्जिए दो पोरिसी। रविजुयअद्दानक्खत्ताओ जाव साइयंता दस नक्खत्ता, ताव विजुगजिएहिं न असज्झाओ। धडहडे भूमिकंपेय अट्ठप्पहरा / मंसरुधिरपभिइवुट्ठिमए सत्तघरअंतरगए य अहोरत्तं / महियाए रओवुट्ठीए महाकलहे आसन्ने पुरिसाणं इत्थीणं वा जुज्झधूलिमाइमहे गाढपलीवणे जचिरं दंडिए कालगए ठवियंते जाव असमंजसं, ताव असज्झाओ। निरंतरं वुव्वुयवुट्ठीए तिन्हं, सामन्नधाराए पंचण्हं, फुसियमित्ताए सत्तण्हं दिणाणं परेण आउक्कायभावियं ति भिन्नमासं असज्झाओ। वसही पुण गीयत्थेण उभयकालं दव्वाइएहिं सोहियव्यातत्थ तेरिच्छं सोणियमंसचम्मअविरूवं अणुद्धियं सत्तट्ठहत्थऽभंतरे पडणकालाओ पोरिसितिगमसज्झाओ। सोणियं पुण भूमिपडियं उट्ठिउंन कप्पइ / मंसे पुण वहि धोए अंतो पक्के कप्पइ / अंडए भिन्ने गवाइपसूयाए तहा जराए पडिए तहेव पोरि-सितिगमसज्झाओ / विरालाइणा महाकायमूसगाइगहिए अंतो सट्ठिहत्थस्स अहोरत्तमसज्झाओ। दगवाहेण वूढे अग्गिणा दड्डे परियावन्ने विवन्ने गिलिओग्गिलिए उभयनिग्गमसगडबाहिए हंतरिए य न असज्झाओ, माणुस्सए वि नवरं हत्थसए तिसु अहोरत्तं / अहिए पुण वारस वरिसाणि / दंते नट्टे पयत्तेण गविटे अदितु तस्सोहडावणटुं अट्ठस्सासो उस्सग्गो कीरइ / इत्थीए मासाविए महाउपत्ताए तिन्नि दिणाणि असज्झाओ; परओतहा पावासुयाए वसवेहिं पन्नवियाए अणत्थंताए तहेव काउ-सम्गो। पसूयाए कवडए जाव सत्तदिणे, कव्वडियाए पुण अट्ठ-दिणं, भगंदलाइएसु बाहिं धोइयभूइखयगाढवंधिए न अस-ज्झाइयं / तह विगलंतेहिं तिन्नि बंधा कायव्वा / अणाहमडए बाहिं नीणियमित्ते विसुज्झइ। "रुद्दाइगिहसुसाणे, असिवोमाऽऽयाएँ बार वरिसाणि। असझाइयं च रुहिरे, मच्छियपाओ जहिं खुप्पे // 1 // असझाइएँ आलोए, कालाईए अणुचरण कुज्जा। घाणामुत्तपुरीसे, चिलिमिलि अन्नत्थ गम्मइ वा / / 2 / / " एवं सुद्धे दिवसे पच्छिमपोरिसीए सोहित्तु गुरुपुरओ वसहीए पवेइयाए आवस्सए कए फिडियाए कालवेलाए जहाकाले उस्सग्गेसु तिसु चउसु वा कएसु कालो सज्झायस्स घेप्पइ, नहि वाघाइओ कालो चित्तव्यो / अडरत्ते पुण फिडणे अड्डरत्तिओ, तइयपहरंतसमयए वेरत्तिओ, तओ वेरत्तियसज्झायपट्ठवणं / तस्सज्झायकरणकालं विलंविय, जहा खलियाइणा अट्ठवेलाइए कालग्गहणवेला, पडिक्कमणवेला य पहुच्चइ, तहा पाभाइओघेत्तव्यो। तहा तिसु तिण्णि तारगाओ ति पाभाइए अदिहे वि वासासु अ तारगा चउरो छन्नम्मि चिट्ठो वि कालग्गहणवेलाए आयरियस्स सवाइकहणविक्खेवाइणा वायणायरियअभावे य कालग्गाहिणो अन्नयराए हिंसाए निरावाहट्ठाणे ठवणायरि
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________________ जोगविहि 1644 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगविहि यं ठवित्तु पढमकालकाउस्सगं एयदिसाभिमुहो चेव करिति। तं जहा-"पाउसिअ अहोरत्ते, उत्तरदिसि पुव्व पेहए कालं।। वेरत्तियम्मि भवणा, पुव्वदिसा पव्विसे काले" ||1|| कालग्गाही पुण पुरिसगुणजुत्तो कालं गिण्हइ। " पियधम्मो दढधम्मो, संविग्गो चेवऽवञ्जभीरू य। खेयत्ते य अभीरू, कालं पडिलेहए साहू " // 1 // सामन्नेण ताव कालग्गहणविही भण्णइ"कणगाहणं ति कालं, ति पंच सत्तेव सिसिरवासेसु। उक्का उ सरेहा जा, रेहारहिओ भवे कणगो " // 2 // कणगो सन्नरेहो, पगासविरहिओ य। उक्का महंतरेहा, पगासकारिणीय। अहवा-रेहाविरहिओ विप्फुलिंगो पगासकरो उक्का चेव / काले गिहमाणे कालग्गाहिणो दंडधरस्स वा वचंतस्स णियत्तस्स काललियावणिया, काउस्सग्गो वा वंदणाणंतरं संदिसावणपवेयणसमए वा पावासुयाई रुयंतेहिं अनायासेण रुयंति अजंपिरडिंभगेण जंपिऊण अप्पेणावि वीसरसद्दरुयं-तेण छीयाछित्तयविहसियनिदरपहरणरोसाविद्धस्स छडिं सिद्धिमारिहचाइ अणिट्ठविसरण चउचउविहम्मं ति सव्वत्थ जोइड्डिखलियाइएहि च उण्हविओ पाभाइओ पुण उवहओ इक्किक्कमंडले तिन्नि वारे चित्तुं कप्पइ / अभावे पुण तहिं चेव नववेला धिप्पइ / इमिणा विहिणा जइ संदिनावणपुव्वं भज्जइ, तो मूलाओ धिप्पइ। अह संदिसावणाणंतरं वचंतस्स कालमंडलस्स पडिलेहणाणंतरं पुव्वं वा भज्जइ, तो एमेव नियत्तियकालगिण्हवो ठवणायरियसमीवे खमासमणपुव्वं संदिसावणविहिणा कालमंडलं आगच्छइ / अह कालमंडले पडिलेहणाणंतरं कालकाउस्सग्गेण काउस्सग्गाणंतरं कालमंडले ठियस्स तो तत्थेव ठिओ ठवणायरियसंमुई ठाऊण पंचंगखमासमणपुव्वं संदिसाविय पुणो मूलाओ काउस्सग्गं करेइ / अह कालकाउस्सग्गाणंतरं गच्छतस्स पवेयणसमए भज्जइ, तो मूलाओ घिप्पइ। विसंसेण कालग्गहणविही भण्णइ-तत्थ पाउसिए पढमं कालभूमि पमज्जिय दक्खिणदिसाए ठवणायरियं ठवित्तु कालग्गाही दंडियाहत्थवामपासट्ठियदंडघरसमीवे खमासमणपुवं मणइ-इच्छाकारेण संदिस्सह वाघाइअकालपडियरंउ, इत्थं मत्थएण वंदामि। आवसी इत्थं आसज्ज 3, निसीही 1 आसज्ज 3, निसीही 1 आसज्ज 3, निसीही नमो खमासमणाणं भणिय कालसगासे दो वि चिट्ठति। तओ दंडधरो दिसाऽऽलोयं करिय हत्थट्ठियदंडियासंमुहं मत्थएण वंदामि / आवसी इत्थं इचाइ नमो खमासमणाणं भणिय ठवणायरियसमीचे खमासमणं दाउं एवं भणइ-इच्छाकारेण संदिसह वाघाइयं च कालं वावट्टइ, इत्थं मत्थएण वंदामि / आवसी इत्थं आसज्जइ 3, इत्यादि नमो खमासमणाणमित्थं भणिय कालग्गाहिसमीवे दक्खिणा-भिमुहो चिट्ठइ / इत्थ गंडकमरुएहिं दिटुंतो नायव्यो / जइ दंड-धरेण महंतसरेण घुटूं, तो जेण्ण न सुयं, तस्स कालो न दिजइ, अहव एहिं न सुयं, तो दंडधरस्स न दिजइ / तओ कालग्गाही दंडियासंमुहं मत्थएण वंदामि, आवसी इत्थं आसज्जइ 3, इचाइ नमो खमासमणाणमित्यन्तम्। तओठवणायरियसमीवे खमासमणपुव्वं इरियं पडिक्कमइ, नमोकारं चिंतेइ. पारित्ता नमुक्कारं भणइ खमासमणाणं पुर्दिव पुति पेहिय वारसावत्तं वंदणं दाउंइच्छाकारेण संदिसह वाघाइअकाललिआवणियं इत्थं मत्थएण वंदामि। आवसी इत्थं आसज्ज 3, नमो खमासमणाणमिच्चाइणा कालमंडले जाइ दंडधरो, तस्संमुहं दंडियं धरेइ, तओ कालम्गाही तयग्गे ओहडिउं मत्थएण वंदामि, इरियावहियं पडिक्कमिउं इत्थं इच्छामि पडिक्कमिउंइरियावहियाए भणिउ काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतइ। पारित्ता नमुक्कारं भणिय संडासए पडिलेहिय दो वि उवविसंति / तओ कालग्गाही दाहिणचलणोवरि संबद्धं कालमंडले रयहरणं ठविय मुहपुत्तिं उवरि कायं च पेहिय वासहत्थेण कालमंडलं संघट्टिय दाहिणहत्थगहियरयहरणेण पाए पमञ्जिय मुहपुत्तिं संगोविय दाहिणजंघमूले रयहरणं वामहत्थेण निवेसिय रयहरणदसियाहिं दाहिणहत्थं तिण्णिवारे हिट्ठोवरि संघट्टिय कालमंडलमंडियकयसंपुडहत्थदुगंगुट्ठएहिं नासाए दाहिणकन्ने वा तिन्नि वारे उवओगं करिय हिट्ठोवरि दोहिं हत्थेहिं एगंतरियं तिन्नि वारे आवत्तेण भूमिं परामुसिय दाहिणहत्थगहियरयहरणेण कालमंडलट्ठियवामकरंगुट्ठअंगुलीणं अंतरे तिन्नि वारे पमज्जिय वामजाणुणा कालमंडलं संघट्टिय दंडधरहत्थाओ दंडियं गहिय पेहिय कडीए निवेसेइ। एवं तिन्नि वारे पुत्तिपेहणपुव्वं मंडलं पडिले हिय दंडियं नमोक्कारपुष्वं दंडधरकरे समप्पेइ / तओ दोहिं हत्थेहिं कालमंडलं संघट्टिय हत्थेसु पाएसु समग्गलाइंतो निसीही नमो खमासमणाणं ति भणतो कालमंडले पविसइ, चोलपट्ट पडिलेहेइ, सागारियस्स भावे उद्घो होऊण रयहरणेणं तं पमज्जिय भणइवाघाइकाललियावणियं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थूससिएणं० जाव वो सिरामि / कालग्गाहे उद्घट्ठिए दंडधरो वि उद्घो होऊण भणइ-इच्छकारि साहवो ! उवउत्ता होइ / वाधाइयकालं वावट्टइ, दंडियं तस्स रज्जे धरइ, अभिक्खणं कालग्गाहिस्स पाए पमन्जइ य, इयरे काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिय सणियं वाहाओ समाहट्ट रयहरणसणाहं मुहपुत्तियं मुहे दाउं सत्ताविसुस्सासं चउवीसं थयं चिंतेइ / तओ दुमपुप्फियं
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________________ जोगविहि 1645 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोगविहि सामन्नपुस्वियं अज्झयणे, तइयज्झयणस्स सिलोगं च / एवमुत्तराए चिंतिए पुव्वाए दाहिणाए पच्छिमाए चिंतेइ, पुणो उत्त- / राए बाहाओ अवलंविय नमुक्कारं चिंतेइ, पारित्ता नमुक्कारं कड्डित्ता मत्थएण वंदामि आवसी इच्छं इचाइविहिणा ठवणायरियसमीवे पवेसिय खमासमणपुव्वं इरियं पडिक्कमइ ; काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिय भणित्ता य खमासमणपुव्वे पुत्तिं पेहिय वंदणं दाउंइच्छाकारेण संदिसह वाघाइअकालं पवेसिउं, इच्छं खमासमण इच्छकारि साहवो वाघाइयकालो सुज्झइ / भगवन् ! सुद्धो वाघाइओ कालो सुद्धो। तओ मंगलाइसज्झायं करंति। दंडधरो खमासमणपुव्वं भणइसाहवो ! दिलु सुयं किंचि पुच्छिए, सुद्धो कालो। एवं अद्धरत्तियपाभाइया वि धिप्पंति। केवलं तयभावे पाभाइए इच्छाकारेण संदिसह पाभाइओ काललिओ० जाव सुद्ध त्ति भन्नइ / एवं सुद्धे काले पाभाइए य ठवणायरियसमीवे गुरूहिं समं खमासमणपुव्वं पुत्तिं पेहिय वंदणे दिन्ने | साहवो भणंति-इच्छाकारेण संदिसह सज्झायं संदिसाविउं / गुरू भणइसंदिसावेह / साहवो इच्छं ति भणिय खमासमणं दाऊण भणंति-इच्छाकारेण संदिसह सज्झायं पट्टविउं / गुरू भणइ-पट्टवेह / साहवो इच्छं ति भणंति / तओ गुरूहि एवं चेव पहाविए सव्वे भणंति-सज्झायस्स पट्ठावणियं करेमि काउस्सग्गमिच्चाइ० जाव वोसिरामि / तओ नमुक्कारं चिंतिय सणियं सणियं बाहाओ साहुटु सत्तावीसुस्सासं चउवीसत्थयं दुमपुफियं सामण्णपुस्वियं तइयज्झयणसिलोगं च चिंतिय बाहाओ अवलंबिय नमुक्कारं चिंतिय पारित्ता नमुक्कारं भणिय वंदणं दाउं गुरुं भणइ-इच्छाकारेण संदिसह सज्झायं पवेइउं इच्छं पुणो खमासमणपुव्वं भणइ-इच्छकारि साहवो सज्झाओ सुज्झइ। भगवन् ! सुद्धो सज्झाओ सुद्धो / एवं साहूहिं वि गुरु-पुरओ पवेइए सव्वे समगं सज्झायं करिति / तओ वंदणगं स-ज्झायं करिति / तओ वंदणगं दाउं गुरूहि वइसणगे संदिसा-विए खमासमणपुव्वं वइसणगे ठामित्ति भणिए इयरे वि तहेव करिति / पाभाइयसज्झायं पुण तओ०जाव सुद्ध त्ति भन्नइ / अत्रापि क्षुतस्खलिताऽऽदिभिः कालव्याघातः / एवं सुद्धे स-ज्झाए पोरिसिं०जाव सज्झाइत्ता ठवणायरियसमीवे खमा-समणपुव्वं इच्छाकारेण संदिसह सज्झायं पडिक्कमिउं इच्दं सज्झायपडिक्कमावणियं करेमिकाउस्सग्गमिच्चाइ नमुक्कारचिंतणं, भणण्णं च। एवं कालपडिक्कमणं पिपाभाइए पुण पच्छिमपोरि-सीए पुणो वि सज्झायं पट्टविय करिय पडिक्कमिय कालो पडिक्कमेयव्वो। असुद्धे पुण पाभाइए अन्नो वि कालो सुपडिजग्गिओ पाभाइयठाणे ठाएयव्वो॥ दारं // 6 // "जोगिगुणा 1 जोगुक्खिव 2, सुय अंगुद्देसऽणुन नंदी य 3 / जोगाणुट्टाणविही 4, कप्पु 5 स्संघट्ट 6 निक्खेवो। 1 / तत्थगुरुभत्तो अपमत्तो, खंतोय निरुयगत्तो। धीरचित्तो दढसत्तो, विणयजुतो भवविरत्तो।।२।। जियलोहो जियनिद्दो, हियपियमियर्जपिरो मिउ असत्थो। अप्पाहारो अप्पो-वहीय दक्खो सुदक्खिन्नो // 3 // पंचसमिओ तिगुत्तो, उज्जुत्तो संजमे तवे चरणे। परिसहसह होइ मुणी, विसेसओ जोगवाहि त्ति।।४।। कयसोहिलोयकम्मे, तिवासपरियाइएण कालेण। आयारपकप्पाई, उद्दिसिउं कप्पई जुग्गो" | // 5 // तत्थ जोगा दुविहागणिजोगा, बाहिरजोगा य / गणिजोगा विवाहपन्नत्ती, बाहिरजोगा उक्कालिया। उक्कालिया आवस्सगाई। ते पुण संघट्टयं, कालिए सुसंघट्टयं / ते दुविहा-आगाढा, अणागाढा य / आगाढा-उत्तरज्झयणासत्तिक्कयाविवाहपन्नत्तीपन्हवागरणमहानिसीहाणि / आगाढा नाम-सव्वसम्मत्तीए उत्तरिजइत्ति काउं आगाढेसु उत्तरज्झयणवजेसु आउवाणयं च हवइ / सेसा सध्वे अणागाढा / असम्मत्तीए वि कारणे दिणतिगाणंतरं उत्तरेजइ त्ति गोसे पडिक्कमणाणंतरं चूलियाए पवेइयाए पडिलेहणाणंतरं वसहीए पवेइआए साहू उवओगं करिय गंधे आणिय गओ पुरओ पुत्तिं पेहिय खमासमणपुव्वं भणइइच्छकारि तुम्हे अम्हे जोगुक्खेवावणियं देवे वंदावेह / तओ सक्कत्थयं भणिय खमासमणपुव्वं जोगुक्खेवावणियं सत्तावीसुस्सासं काउस्सगं रज्जं करिय चउवीसत्थयं भणइ / कालिएसु पुण गुरूहिं जोगवाहिए सज्झायपट्टविए जोगुक्खेवे कए सुयक्खंधस्स अंगस्स उद्देसे अणुन्ना य नंदी भवइ। तत्थ खमासमणपुव्वं अमुगसुयक्खंधं अंगउद्देसावणियं वा नंदिकवावणियं वा सनिक्खेवं करेह। एवं देवे वंदावेह। तओ वटुंतियाहिं थुईहिं देवे वंदिय बारसावत्तं वंदणं देइ / तओ दो वि नंदिकड्डावणियं सत्तावीसुस्सासं काउस्सग करिति, चउवीसत्थयं भणंति। तओ गुरू नमुक्कारपुव्वं नंदि कड्डइ / सा चेयंनाणं पंचविहं पण्णतं / तंजहा-आमिणिबोहियनाणं,सुयणाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं / तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइं ठवणिज्जाई नो उद्धिसिजंति, नो समुद्दिसिजंति, नो अणुनविखंति, सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो य पवत्तइ / जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो य पवत्तइ, किं अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो य पवत्तइ ? अंगपविट्ठस्स जइ उद्देसो समुद्देसो अणुनाणुओगो पवत्तइ, अंगबाहिरस्स वि
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________________ जोगविहि 1646 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगविहि उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ / जइ अंगबाहिरस्स | उद्देसो समुद्देसो अणुण्णाणुओगो पवत्तइ, किं आवस्सगस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ, आवस्सगवइरित्तस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ?|| 4 || जइ आवस्सगवइरित्तस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ, कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ / उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ, दसवेयालियस्स रायपसेणियस्स जीवाभिगमस्स पण्णवणाए महापण्णवणाए णंदीए अणुओगदाराणं देविंदत्थयस्स तंदुलवेयालियस्स चंदाविजयस्स पोरिसिमंडलस्स मंडलिपवेसस्स गणिविजाए विजाचरणविणिच्छियस्स झाणविभत्तीए मरणविभत्तीए आयविसोहीए संलेहणासुयस्स वीयरागसुयस्स विहारकप्पस्स चरणविहीए आउरपच्चक्खाणस्स सव्वेसिं पि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ / जइ कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुणाणुओगो पवत्तइ। जइ आवस्सगवइरित्तस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ, कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ, उक्कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णाणुओगो पवत्तइ / / 5 / / जइ उक्कालिस्स उद्देसो समुद्देसो अणुपणाणुओगो पवत्तइ, दसवेयालियस्स रायपसेणियस्स जीवाभिगमस्स पन्नवणाए महापन्नवणाए नंदीए अणुओगदाराणं देविंदत्थयस्स तंदुलवेयालियस्स चंदाविजयस्स पोरिसमंडलस्स मंडलिपवेसस्स गणिविजाए विजाचरणविणिच्छियस्स झाणविभत्तीए मरणविभत्तीए आयविसोहीए संलेहणासुयस्स वीयरागसुयस्स विहारकप्पस्स चरणविहीए आउरपञ्चक्खाणस्स सव्वेसिं पि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुण्णाणुओगो पवत्तइ / / 6 / / जइ कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ, किं उत्तरज्झयणाणं कप्पस्स ववहारस्स इसिभासियाणं निसीहस्स महानिसीहस्स सूरपन्नतीए जंबूदीवपन्नत्तीए चंदपन्नत्तीए दीवसागरपन्नत्तीए खुड्डियाविमाणपविभत्तीए महल्लियाविमाणपविभत्तीए अंगचूलियाए वंगचूलियाए विवाहचूलियाए अरुणोववाए देविंदत्थयस्स (वरुणोववायरस) तंदुलवेयालियस्स चंदाविजयस्स पोरिसिमंडलस्स मंडलिपवे- | सस्स गणिविजाए विजाचरणविणिच्छियस्स झाणविभत्तीए मरणविभत्तीए आयविसोहियस्स गरुलोववायस्स धरणोववायस्स वेसमणोववायस्स वेलंधरोववायस्स (देविंदोववायस्स) उहाणसुयस्स समुट्ठाणसुयस्स नागपरियावलियाणं निरयावलियाणं कप्पियाणं कप्पवडिंसयाणं पुप्फियाणं पुप्फियाव लियाणं वन्हियाणं वन्हिदसाणं आसीविसभावणाणं दिट्ठीविसभावणाणं चारणभावणाणं महासुमिणभावणाणं तेयग्गनिसग्गाणं सव्वेसिं वि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवतइ / / 7 / / जइ अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पवत्तइ, किं आयारस्स सूयगडस्स ठाणस्स समवायस्स विवाहपन्नत्तीए नायाधम्मकहाणं उवासगदसाणं अंतगडदसाणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पण्हवागरणाणं विवागसुयस्स दिद्विवायस्स सव्वेसिं पि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुण्णाणुओगो पवत्तइ।। 6 / / इमं पुण पट्ठवणं पडुच इमस्स साहुस्स साहुणीए वा अमुयसुयक्खंधस्स अंगस्स च उद्देसो नंदी अणुन्ना णंदी वा पवत्तइ, तओ उवविसिय मंताणं सेजं वासदाणं ; तओ जोगवाही खमासमणं दाउं भणइ-इच्छकारि तुम्हे अमुगसुयक्खधं अंगं वा उद्दिसह / गुरू भणइ-उद्दिसामि / बीयखभासमणेणं संदिसह-किं भणामि? तइए अमुगसुयक्खंधं अंग वा उद्दिटुं / इच्छामि अणुसटिं। गुरू भणइ-उद्दिढं उद्दिठं / खमासमाणाणं हत्थेणं सुत्तेणं अत्थेणं तदुभएणं जोगं करिजाहि। चउत्थे तुम्हाणं पवेइयं साहूणं पवेइयम्मि। पंचमे नमुक्कारेणं पयक्खिणाई, एवं तिन्नि वारा / छढे तुम्हाणं पवेइयं साहूणं साहूणीणं पवेइयं संदिसह-काउस्सग्गं करेमि। सत्तमए अमुगसुयक्खंधअंगउद्दिसावणियं करेमि काउस्सग्गं इत्यादि सत्तावीसुस्सासचिंतणं चउवीसत्थयभणनं / एवमणुनाए वि ; नवरं सम्म धारिज्जा, अन्नेसिं च पविजाहि। समुद्देसे पुण थिरपरिचियं करिजाहि। सुयक्खंधे उद्दिढे तस्स अज्झयणाई उद्दिसिय अज्झयणंतं उदिस्सिज्जइ। तं तिविहं-एगसरं, समुद्देस, विसमुद्देसं च / एगसरं नाम-उद्देसगरहियं / समुद्देसं दुविहं-दुउद्देस, चउछक्कउद्देसगं / विसमुद्देसं-तिगपणगउद्देसं / तत्थ एगसरं अज्झयणं उद्दिसिय समुद्दिसिय तिविहेण संदिसाविय खमासमणपुव्वं गिण्हामि त्ति भणिय खमासमणदुगेण कालमंडलं संदिसावेमि, पडिले हिस्सामि, खमासमणदुगेण वइसणए ठामि, तओ वंदणं दाउं अज्झयणमणुन्नविय खमासमणदुगेण कालमंडलं संदिसावेमि, पडिले हियस्सामि, खमासमणदुगेण सज्झायं पडिक्कमिस्सामि, तिविहेण वि वइसणं संदिस्सावेमि, पडिलेहिस्सामि,(खमासमणदुगेण सज्झायं पडिक्कमिस्सामि, तिविहेण वि वइसणं संदिस्सावे मि, पडिले हिस्सामि, खमास-मणदुगेणं सज्झायं पडिक्क मिस्सामि,) तिविहेण वि वइसणं संदिसाविय खमासमणदुगेण वइसणए ठामि तओ वंदणं दाउं अज्झयणमणुन्नाविय खमासमणदुगेण कालमंडल० खमा-समण सज्झायं पडिक मामि, खमा
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________________ जोगविहि 1647 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगविहि समणदुगेण कालं पडिक्कमामि, तओ वइसणावंदणं / एवं एगसरे तिन्नि काउस्सग्गए एगं दिणं दुउद्देसज्झयणा वंदणं दाउं अज्झयणमुद्दिसिय पढमुद्देसए बीयउद्देसो उद्दिसिज्जइ, तं पढमुद्देसे समुद्विसिय बीयउद्देसो उद्दिसिजइ / तं पढमुद्देसो समुदेसिज्जइ, तओ बीओ, तओ अज्झयणे, तओ वायणाइयं, तओ वंदणं दाउं पढमुद्देसो अणुन्नविज्जइ, तओ वीओ, तओ अज्झयणं, तओ कालमंडलाइयं / एवं तवउवसग्गा दिणमेगं ; एवं सए वि जत्थ एगो कालो नवगं आइल्ला अंतिल्ला उद्देसा इति वत्तव्वं / वग्गे वि एवं / नवरं अज्झयणं ति वत्तव्वं, चउराइयमुद्देसे वंदणं दाउं अज्झयणुद्देसपुव्वं पढम पढमे वीओ वीए उद्देसो उदिसिजइ। तओ दो वि उद्देससमुद्देसयवायणाइयं काउं वंदणयपुव्वं दो वि अणुन्नविजंति / एवं उस्सग्गा सत्तदिणमेगं / एवं सेसा दो दो उद्देसा छहिं उस्सग्गेहिं एकिक्कदिणेण वचंति, अंतिल्ला पुण दो उद्देसा उद्दिसिय समुद्दिसिय तओ अज्झयणं समुद्दिसिय वायणाइयं काउं उद्देसदुगमज्झयणं च अणुण्णविजइ / एवं अट्ठ उस्सग्गा दिणमेगं / एवं विसमुद्देसेसु वि। नवरं उद्देसमुद्दिसिय अज्झयणं समुद्दिसिञ्जइ, तओ उद्देसमणुन्नविजइ, एवं उस्सग्गा पंच, दिणमेगं, तहा सुयखंधो / तत्थ दो दिणा-एगेण समुद्देसो, एगेण अणुन्ना / जत्थेगे दो सुयखंधे तत्थेगदिणेण सुयखंधस्स समुद्देसो, एगेण अणुन्ना। जत्थेगे दो सुयखंधा तत्थेगदिणेण सुयखंधस्स समुढेसो, अंगसुयखंधो, उद्देससमुद्देसो, एगेण अणुन्ना / जत्थेगदिणेण सुयखंधस्स समुद्देसो, अणुन्ना य, अंगसुयखंधो उद्देसो अणुण्णा वि ण य पडिनिरुद्धं करियउं पारणगं वा निदिसंति आयामाइपारणगं, निदिवइयं, तओ खमासमणपुव्वं पञ्चक्खाणं करेइ, तओ वइसणावंदणगं / इत्थं वइसणाणंतरं पवेइयव्वं, तो पढ़मं वइसणयं संदिसावणयं न किज्जइ, पच्चक्खाणाणंतरं वइसणयं वंदणेण वेसरइ, तओ खए संघट्टय मुहपत्ती खए संघट्टय संदिसाविय खए संघट्टलेओ० जाव सरीरखए संघट्टालियावणियं काउस्सग्गे नमुक्कारचिंतणं, भणणं च / एवं आउत्तवाणयं पि, नवरं तइए खमासमणााणंतरं तंबा तउआ सीसा काँसा सोना रूपा हाडचामरुधिर बालसूकी मांसाऽऽदि ; इत्येवमादि ओहडावणिय करेमि काउस्सग्गमित्यादि कायोत्सर्गं पूर्ववत् / भगवईए पचूढाए आउत्तवाणए पुत्तीओ न पेहिज्जंति, इक्किक्के काले दो दो सज्झाया, दो दो कालमंडलाणि, एवं सव्वं पि पढमपोरिसिमज्झे न पहविज्जा, तो कालं पइ इकिवं सज्झायं पट्ठवित्ता अणुट्ठाणं कीरइ,दो सज्झाया कालमंडलाणि य पच्छिमपोरि- | साणंतरं वि करिजा, अह न पहविजा, नो कयं पि अणुट्ठाणं मूलाओ उच्छिज्जा, वाघाइयकाले सुद्धे अज्झयणे दिवसाइयं राईए वि करिज्जा, तहा पच्छिमपोरिसीए कालियजोगेसु वइसणावंदणं संघट्टा आउत्तवाणयं पि उट्ठावणिकाउस्सग्गं च कीरइ, संघट्टेण पुण आरंभदिणा पारइ छम्मासाणंतरं आरओ चेव पूरिज्जति। " आवस्सगे य एगो, सुयखंधो छच्च हुंति अज्झयणा। दुन्नि दिणा सुयखंधे, सव्वे वि य हुंति अट्ट दिणा / / 1 / / दसयालियम्मि एगो, सुयखंधो वारसेव अज्झयणा। पंचम नवमे दो चउ, उद्धेसा दिवस पन्नरसा / / 2 / / छत्तीसं अज्झयणा, एगेगदिणेण तुरियमस्संखा। दो दिण दो सुयखंधे, गुणचत्ता उत्तरज्झयणे / / 3 / / अहवेगसरा चउदस, एगेगदिणेण दुन्नि तइय दिणा। सत्तावीसं वासी................मो इंपभिइकप्पे"॥४॥ असंखं पुण जइ पढमपोरिसीए उदिसइ, तो आयं विलेण अणुन्नविज्जइ, जइबीयदिणे पोरिसिमज्झे, तो निव्वीएण ; अह ततो बीयदिणे वि आयंबिलं / एवं ऊणचत्ता अट्ठावीस दिणा छअट्ठज्झयणुद्देसा॥ "सत्तय छ 6 चउ 4 चउरो, छ६पंच 5 अढेव सत्त चउरो य। इक्कारस ११ति 3 ति 3 दो 2 दो २,दो दो सत्तेक्क एक्को य"॥१॥ सुयखंधयदिणसमं आयरे सव्वदिणापण्णत्ता। सत्थपरि-ण्णाए उद्धेसा 7 दिण 4 लोगविजए उद्देसा 6 दिण 3 सीओ-सणिजे उद्देसा 4 दिण 2 सम्मत्ते उद्देसा 4 दिण 2 सम्मत्ते उद्धेसा 4 दिण 2 आवईए उद्देसा 6 दिण 2 धुवज्झयणे उद्देसा 5 दिण 3 विमोहे उद्देसा 8 दिण 4 वहाणसुए उद्देसा 4 दिण 2 महपरिण्णयज्झयणं बुच्छिन्नं, दिणमेगं सुयखंधं णंदीए ग, एवं दिन 24 / पिंडेसणाए उद्देसा 11 दिण 6 सिजाए उद्धेसा 3 दिण 2 भासज्जायाए उद्देसा 2 दिण 1 पाएसणीए उद्देसा२दिण 1 उवग्गहपडिमाए उद्देसा 2 दिण 1 सत्तसत्तिक्कया आउत्तवाणएणं दिण 7 भावणज्झयणे दिण 1 विमुत्तिज्झयणे दिण 1 वीओ सुयक्खधो। दिण 1 अग्गे दिण 2 एवं आचारांगे दिण 50 / एयम्मि बूढे य कडजोगी हवइ, दिणसमं सव्वेसिं जोगवाहीणं कप्पइ भत्तपाणं पडिगाहित्तए। "पढमझयणउद्देसा, चउ तिय चउ दो दुगार इक्कसरा 16 / वीए सत्तिकसरा 23, सूयगढे सव्यदिण तीसं // 1 // तीसज्झयणेसु छव्वीस दिणा दो सुयक्खंधेसु इक दिणं, अग्गे दो दिणा, एवं तीसं दिणा।
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________________ जोगविहि 1648 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगविहि " इक्कसरं 1 चउ 3 चउतिय, उद्देसा तउ पणेगसरा 10 // ठाणा अठारस दिणा, उसगइगदुनंदि तिन्नि दिणा" ||1| इयाणिं भगवई। सा य छमासेहिं छहिं दिणेहिं ओउत्तवाणए एवं वचइ। इत्थ नत्थि सुयक्खंधो / सयाणि पुण इकतालीसं, सत्तरं काला। इत्थ विवाहपन्नत्तिअंगं नंदीए उद्दिसिय पढमसयं उद्दिसिज्जइ / तत्थ य उद्देसा दस इक्किक्कदिरेण दो दो जंति, एवं दिणा 5 / वीयसए वि दस उद्देसगा, नवरं पढमो खंदगुद्देसओ आयंविलदुगेण सपाणभोयणाहिं पंचहिं दत्तीहिं दोहिं दिणेहिं वचइ, सेसा नवुद्देसा पंचहिं दिणेहिं, एवं दिणा सत्त। तइयसए देसुद्देसो पढपउद्देसओ एगदिणेण वचइ, वीओ चमरुद्देसओ खंदओ अदोहिं दिणेहिं वचइ। एवं पन्नरसेहिं कालेहिं चमरेहिं अणुन्नाए ओगाहिमविगइविसज्जणत्थं अदुस्सासो काउस्सग्गो कीरइ, छट्ठ जोगो वि लग्गइ। पंच निव्विइया, छटुं आयंबिलं। तहा मोइयवधारियतीसणाइ कप्पइ / सेसा अट्ठद्देसा चउहिं दिणेहिं वच्चंति। चउत्थसए दस उद्देसा। तत्थ पढमा अट्ठ आइल्लअंतिल्ल त्ति काउस्सग्गेहिं एगदिणेण जंति। सेसा दो उद्देसगा अस्सग्गेहिं एगेहिं दिणेण जंति / सव्वदिणं वीसं / नवमदसमसएसु चउतीस उद्देसा, नव नव वग्गा, इकिक दिणं / इकारसमे सए उद्देसा 12 दिन बारसमे तेरसमे चउदसमे य उद्धेसा 10 दिन 2 / इक्किक्कदिणे पन्नरसमे गासालए आयामदुर्ग, सपाणभोयणाओ तिन्नि दत्तीओ, दो दिणे, एवं एगेण चत्ताए कालेहिं गोसाले अणुन्नाए अट्ठमंजोगो लग्गइ, सत्त निव्विइया, अट्ठमं आइल्लं पुण अट्ठमचउदसीसु आयामं। सेसाणिछव्वीसं सयाणि नव नव उस्सगेहिं इक्विक्कदिणेण जंति। तत्थ सोलसमे सए उद्देसा 14 / सत्तरसमे उद्देसा 17 / अट्ठारसमे उद्देसा 10 // एगुणवीसइमे उद्देसा 10 / वीसइमे उद्देसा 10 / इक्कवीसइमे उद्धेसा 50 / वावीसइमे उद्देसा 60 / तेवीसइमे उद्देसा 50 / करिसुगसुए 27 उद्देसा 11 / कम्मसमजिणाणसए 28 उद्देसा 11 / उव्वट्टणासए 32 उद्देसा 28 / एगिदियजुम्मसयाणि बारस 32 / तेसु चउवीसगसयं दुहा काउं 62 / सेढीसयाणि बारस 35 उद्देसा 124 / एगिंदियमहाकम्मसयाणि बारस 35 उद्देसा 132 / बेइंदियमहाजुम्मसयाणि बारस 37 उद्देसा 132 / चरिंदियमहाजुम्मसयाणि बारस 36 उद्देसा 132 / सन्निपंचिंदियमहाजुम्मसयाणि बारस 40 उद्देसा 132 / रासीजुम्मसए 41 उद्देसा 166 / एवं काला 75 अंगसमुद्देसे अणुन्नाए य इक्किकं दिणं / एवं सव्दे सत्तहत्तरि काला अणुनाए नंदीए नामं ठविजइ। "नायसुए गुणवीसं, एगारसऽझयण पढमसुयखंधे। वीए पुण दस वग्गा, पण नंदी दिवस तित्तीसं // 1 // दुसु दुसु वग्गेसु कमा, अज्झयणा हुंति दस य चउपन्ना। बत्तीसा चउ अहूं, धम्मकहा बीयसुयखंधे / / 2 // सत्तमए पुण अंगे, दस अज्झयणाणि एगसरयाणि / चउदस दिण नंदितियं, एगो य तहा सुयक्खंधो / / 3 / / बारस दिण अट्ठमए, अंगे वग्गद्दएसु अज्झयणा। दस अट्ठ तेर दस दस, सोलस तेरस दस कमेण // 4 // नवमंगे सत्त दिणा, वग्गतिए तेसु अज्झयणसंखा। दसगं तेरस दसगं, नंदितियं एगसुयखंधो // 5 // दसमंगे एगसरा, दस अज्झयणाणि चउदस दिणा य। बूढाइ भगवईए, कप्पइ इह छट्ठजोगि व्व / / 6 / / पढमम्मी सुयखंधे, एगसरा दस हवंति अज्झयणा। वीए विदसेगसरा, चउवीस दिणा विवागसुए " // 7 // इयाणिं उबंगा-आयारे उवाइयं 1, सूयगडे रायपसेणइयं 2, ठाण्णे जीवामिगमो 3, समवाए पन्नवणा 4, एए उक्कालिया। भगवईए सूरपन्नत्ती 5, नायाणं जंबुद्दीवपन्नत्ती 6, उवासगदसाणं चंदपन्नत्ती 7 / एए कालिया। सव्वे वि उद्देससमुद्देसअणुनत्थं आयंबिलतिगेण वचंति / अन्नेसिं पुण पन्नवणजुत्ते जोगमज्झे आयंबिलतिगपूरणत्थं वि वचंति। अंतगडदसाइपंचन्हमंगाणं निरयावलियसुयक्खंधो उवंगं / तम्मि पंच वग्गा-कप्पियाओ, कप्पवडिं सियाओ, पुफियाओ, पुप्फचूलियाओ। एएसुचउसु दस दस अज्झयणा। वन्हिदसासु वारस। एवं दिणा 5, सूयक्खंधे दिणा 2, सव्वे दिणा 7 / अहुणा छे अग्गंथा-निसीहज्झयणा एगसरा दिन 18, सुयखंधे दिन 2, एवं वीसं दिणा। " पढमेगसरं नव सोल सोल वारस, चउक्क छग वीसा। सत्तऽझयणेसु निवियं, पइन्नगं तत्थ नंदीए" // 1 // अणुओगदाराणं तिन्नि निव्विइइया। देविंदत्थया तंदुलवेयालियं चंदाविजया आउरपचक्खाणं गणिविज्जा / एवमाइसु इक्विक निव्वीइयं / / एवं आवश्यके दिन 8, दशवैकालिके दिन 15, (मंडलिके७) उत्तराध्ययने 36, आचारांगे 50, सूत्रे 30, ठाणांगे 18, समवायांगे 3, भगवती 186, ज्ञाताधर्मकथा 33, उपासकदशांग 14, अंतगडदशा 12, अणुत्तरोववाई 7, पण्हवागरण 14, विपाक 24, उवाई 3, रायपसेणी 3, जीवाभिगम 3, पण्णवणा 3, सूर्यप्रज्ञप्ति ३,जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति 3, चन्द्रप्रज्ञप्ति 3, निरयावली 7, निशीथ 10, कल्पभाष्य 20, महानिशीथ 45, पंचकल्प 1, जीतकल्प 1, नंदी 3, अनुयोगद्वार 2, ग०१। सर्वसंख्या इगुवीस मास, दिन 6, संपयं आउत्तवाणए कप्पाकप्पविही। तत्थसगच्छसंघाडयच्छिन्नाणंजोगवाहिसन्नी असज्झायं
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________________ जोगविहि 1646 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोगसंगह अंग०। च न उवहणइ / उल्लासन्नासणुपसाणमज्झाराईणं आमिसा- उम्मायं गुरुरोगा-ऽधम्मभरियं तु सव्वसंसारं। सीणं पक्खीणं अंतिणभक्खिणोत्तनयरस्स गयहयखगणं च्छिक्का जोगविहीऍऽपमत्तो, वायंतो कुज्ज जहमणियं // 2 // " समाणी उल्लं हड़े चम्मं च उवहणइ / घणावंतीए वंतीए वंते एसा जोगविही जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पवेइया अदिस्समाणे न उवहम्मइ / संन्नियमणुयतिरियपंचिंदियसंघट्टे सुअक्खाया सुपण्णत्ता भुजो भुजो णिग्गंथाणं निग्गंथीणं जाउवहम्मइ / कप्पइ निव्विइगइयतिल्लहिं कारणोपायगायगायाइ णियव्वा पासियव्वा फासियव्वा पालियव्वा तीरइयव्वा किट्टअब्भंगित्तणं सीवणतुन्नणलेवणाइयं न कप्पइ काउं / आ इयव्वा, एसा णो अतिक्कमिअव्वा / एसाए बिहीए वहिया सुत्तछट्ठजोगाओ सव्वविगईहिं वावडहत्थाए छट्ठजोगलग्गे पुण पडिणीया अत्थपडिणीया तदुभयपडिणीया जिणाणाए विराओगाहिमवजाहिं भत्तपाणं उवहम्मइ / पगरणसंसट्टमाइसरा हगा णिहगाचेव अणंतसंसारिया, तेसिंपासे जोगविहीए विणा वाइठियं च न उवहणइ / तद्दिणनवणीयमिस्सकज्जलनयणं कडकिरियाकलावे एगंतसो मिच्छादिट्ठिया चेव, पुण जंबू ! जियाए तद्दिणतिल्लमिस्सकुंकुमपिंजरियाए अब्भंगिएण य एयारिसाए जोगविहीए बाहिया ते साहू कल्लाणं मंगलं देवयं उवहम्मइ। कडाइ थिरं बिगइसंसट्ठ उत्तिविडंवियमकप्पभायणं चेइअमिव पब्रुवासणिज्जा मोक्खफलदायगा णेयव्वा, पुण जे दुयंतरियं च न उवहणइ। एवं तिरिच्छठविएसु परोप्परं संबद्धेसु जंबू ! अणुण्णाअणुओगकिरियाबहिया साहुवेसे विहरंता वि दायगेसु वि एसो उवहयाणुवहयविही भत्तपाणणिमित्तं काउ किरियाए फडाडोवं दसइत्ता वि ते असाहू, दिट्ठीए विण दट्ठव्या; स्सग्गे कए दट्ठव्यो। तहा कक्कवइक्खुरसगुललवाणीखंडसक्क सेवं भंते भंते त्ति।" तमेव सच्चं णिस्संकं, जंजिणेहिं पवेइअं॥" रक्खीरदुद्धसाढियाककरियगुलहाणी वीसदणबाटनंदिहलनालियरतिलयरतिल्लीइ तहा वासीमोइमक्खियमंडलामोइ (आगाढानागाढयोगविधौ स्वाध्यायभूमेर्द्विविधत्वम् ' चरियापविठ्ठ' यसत्तुयकुल्लुरिघोलसिहरणितिलवट्टिकरंवाइ छट्ठजोगा आउरं शब्दे तृतीयभागे 1156 पृष्ठे द्रष्टव्यम् ) अत्र महोपाध्यायश्रीविमलकप्पंति / छटे जोगे पुण लग्गे न तत्तद्दिणमोइवग्धारियतीमणा पिंगणिकृतप्रश्नो यथा-पाण्मासिकयोगोद्वाहकानां षड्दिवसाधिकैर्वा इयं कप्पइ / अववाएण असुहस्स तिन्हें घाणोतक्खियं विइं षण्मासैर्वा, षड्दिवसहीनैर्वा, षड्मास्यालोचनादीयते / यदि वाऽधिजणं न कप्पइ / गिहिभायणसइसमायणेणावि अप्पणा कप्पइ कैस्तदानीमस्वाध्यायसंबन्धिद्वादशदिनक्षेप-वचातुर्मासिकास्वाध्यायचंदपरिगाहित्तए। तहा जं जत्थ जोगे कप्पइ, तं चेव आवस्स दिनचतुष्टयमपि कथं न क्षिप्यते ? तथा च दशदिनाधिकाः षण्मासा गाइसु कप्पइ। भत्तपाणपडिलेहणकाले वीहिणुच्छंगे रयहरणं भवन्तीति कथमालोचनाविधिरिति प्रसाद्यम् ? इति प्रश्ने, उत्तरमच विअणुत्तरं परागयवीहीए पत्तबंधा पन्नतरि कप्पइ पणवीसं पाण्मासिकयोगवाहिना षड् दिवसाधिकै : षण्मासैरस्वाध्यायउवही पेहिय उवसंतो भत्तपाणअगडिए पुत्तिरयहरणे वेइयाब दिनगणनानिरपेक्षमेव आलोचना दातव्येति वृद्धसंप्रदाय इति। 18 प्र० / हिरा पच्छितो य पुणो वि काउस्सग्गे संघट्ट वहइ / रओहरण ही०१ प्रका० / व्य०। (योग-वाहकस्य कारणे विकृतिः कल्पत इति' पुत्तिवज्जो जा सरीरसंबंधी हवइ, सो पुणो वि पडिलेहियव्यो। विगह 'शब्दे वक्ष्यते) वेइयाबाहिरगयं दुद्धभोयणोवरिगयं च भत्तं पाणं च मज्झपविट्ठ जोगविरिय-न०(योगवीर्य) भाववीर्यभेदे, सच त्रिधा, मनोवाक्कायभेदात्। अंगुलिचउक्कोग्गहियं तिपणाइयं मज्झपविट्ठ अंगुट्ठहियं पत्ताइयं च उस्संघट्टिजइ / भत्तं पाणं वा उगुडिउभूमीए रयहरणं सूत्र०१ श्रु०८ अ०। पुत्तिं वा भूमीए पडिए ठिओ निस्संनिसने ठियस्स च अप्पेइ जोगवीय-न०(योगबीज) मोक्षयोजकानुष्ठानकारणे, द्वा०२१द्वा०। (तानि उगुडिउभूमीए ठियं संघट्टेइ / विगहाउ असंखडं वा करेमाणो च' जोगदिट्टि ' शब्दे अस्मिन्नेव भागे 1646 पृष्ठे गतानि) तुयट्टो वा संघट्टे वा पेयलाइई पायचारिमणुयतिरियच्छिन्ने य | जोगसंगह-पुं०(योगसंग्रह) युज्यन्ते इति योगा मनोवाक्षायव्यापाराः, ते उस्सेवढें 2 भुंजइ, अकालसन्नं उर्ल्ड वा करेइ, कालमंडलाणि / चेह प्रशस्ता एव विवक्षिताः, तेषां शिष्याऽऽचार्यगतानामालोचनाथंडिलाणि यन पडिलेहइ, दिणबुड्डी जोगनिक्खेवो वि उक्खे- निरपलापाऽऽदिना प्रकारेण संग्रहणानि संग्रहाः, प्रशस्तयोगसंग्रहाः, वसरिसो, नवरं पुत्तिं पेहिय वंदणं दाउं पचक्खाणं काउं विग- | प्रशस्तयोगसंग्रहनिमित्तत्वादालोचनाऽऽदयोऽपि योगसंग्रहाः / इविसज्जावणियं अदुस्सासं काउस्सग्गं करिंति, पारिए नमुक्कारं प्रशस्तयोगसंग्रहनिमित्तेषु आलोचनाऽऽदिषु, स०। भणंति। ___ ते च त्रिंशद् भवन्ति। तदुपदर्शकं श्लोकपञ्चकमाह" इय वुत्तो जोगविही, संखेवेणं सुयाणुसारेणं / आलोयण निरवलावे, आवईसुदढधम्मया। जंच न इत्थ उ भणियं, गीयायरणाउ तं नेयं / / 1 // अणिस्सिओवहाणे य, सिक्खा णिप्पडिकम्मया।। 73 / /
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________________ जोगसंगह जोगसत्थ 1650 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 (आलोयण त्ति) प्रशस्तमोक्षसाधनयोगसंग्रहाय शिष्येणाऽऽचार्याय कार्यः 26 / (लवालवे त्ति) कालोपलक्षणं क्षणे क्षणे सामाचार्यनुष्ठानं सम्यगालोचना दातव्या 1 / (निरवलावेत्ति) आचार्योऽपि प्रशस्तमोक्ष- कार्यम् 27 / (झाणसंवरजोगे यत्ति) ध्यानसंवरयोगश्च कार्यः,ध्यानमेव साधको योगसंग्रहायैव प्रदत्तायामालोचनायां निरपलापः स्याद् , संवरयोगः 28 / (उदए मारणतिए त्ति) वेदनोदये मारणान्तिकेऽपि न नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः / एकारान्तश्च प्राकृते प्रथमान्तो भवतीत्य- क्षोभः कार्यः 26 / इति चतुर्थगाथासमासार्थः / / 76 / / सकृदावेदितम्।यथा-" कतरे आगच्छइ दित्तरूवे" इत्यादि। (आवईसु संगाणं य परिण्णा य, पच्छित्तकरणे विय। दधम्मय त्ति) तथा योगसंग्रहायेव सर्वेण साधना आपत्सु द्रव्याऽऽदिभे आराहणा य मरणंते, वत्तीसं जोगसंगहा / / 77 / / दासुदृढधर्मता कार्या, आपत्सुसतीषु. सुतरां दृढधर्मेण भवितव्यमित्यर्थः (संगाणं च परिण्णा यत्ति) सङ्गानांच परिज्ञा, प्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदेन 3 / (अणिस्सिओवहाण ति) योगसंग्रहायैवानिश्रितोपधानेन भवित परिज्ञा कार्या 30 / (पच्छित्तकरणे वि य त्ति) प्रायश्चित्तंकरणं कार्यम् व्यम् / अथवा-अनिश्रितोपधाने च यत्नः कार्यः, उपदधातीत्युपधान तपः। तदनिश्वितम् , निश्रितं च। तच तदुपधानं चेति समासः 4 / (सिक्ख 31 / (आराहणा य मरणंते त्ति) आराधना च मरणान्ते कार्या, मरणान्तकाल इत्यर्थः 32 / एते द्वात्रिंशद्योगसंग्रहाः / इति त्ति)प्रशस्तयोगसंग्रहायैव शिक्षा आसेवितव्या। सा च द्विप्रकारा भवति पञ्चमगाथासमासार्थः / / ७७॥आव०४ अ०। स०। ध०।" ते य इमे ग्रहणशिक्षा, आसेवनशिक्षा च 5 / (निप्पडिकम्मय त्ति) प्रशस्त बत्तीसं जोगसंगहाधम्म सोलसविध, एवं सुक्कं पि। एते वत्तीसं जोगसंगह योगसंग्रहायैव निष्प्रतिकर्मशरीरेणासेवनीया, न पुनर्नागदत्तवदन्यथा ति।" आ० चू० 4 अ०। (आलोचनाऽऽदीनां योगसंग्रहाणामुदाहरणावर्तितव्यमिति प्रथमगाथासमासार्थः // 6 // (नागदत्तदृष्टान्तः ' ऽऽदि तत्तच्छब्दे दृश्यम् ) योगविधिप्रान्ते लिखितमस्ति यत्प्राभातिणिप्पडिकम्मया शब्दे वक्ष्यते) ककालो वैरात्रिककालस्थाने स्थाप्यत इत्यत्राकसंध्यादिकारणायैतअण्णायया अलोभे य, तितिक्खा अज्जवे सुई। स्थापनमन्यथा वेति प्रश्ने? उत्तरम्-प्राभातिककालो वैरात्रिककालसम्मदिट्ठी समाही य, आयारे विणओ वए।। 74 / / स्थाने स्थाप्यतामाकसन्ध्यादिकारणे सति, तथा वैरात्रिकप्राभातिक(अण्णायय त्ति) तपसि अज्ञानता कार्या, यथाऽन्यो न जानाति तथा | कालभेदाकसन्ध्यादिसद्भावे समुद्देशानुज्ञयोमध्ये कारणतो यद्यन्तरं तपः कार्यम्। प्रशस्तयोगसंग्रहायेत्येतत्सर्वत्र योज्यम्।७। (अलोभेय जायते, तदा अग्रे दिनमेकं वृद्ध्या दीयते, आगाढयोगे तुआकसन्धिपूरणात्ति) अलोभश्व कार्यः / अथवा-अलोभेन यत्रः कार्यः / 8 / (तितिक्ख भवनाद् यावत् आचाम्लमेव कार्य, गुर्वाज्ञया शुद्ध्यति, योगविध्यादौ त्ति) तितिक्षा कार्या, परीषहाऽऽदिजय इत्यर्थः / / (अज्जवे त्ति) ऋजोर्भाव तथैव प्रतिपादनादिति। 38 प्र० / सेन०१ उल्ला०। आर्जवं, तब कर्तव्यम् 10 / (सुइ त्ति) शुचिना भवितव्यं, संयमवतेत्यर्थः जोगसच-न०(योगसत्य) मनोवाक्काययोगेषु सत्यं योगसत्यम्। उत्त०२६ 11 / (सम्मदिद्धि त्ति) सम्यगविपरीता दृष्टिः कार्या, सम्यग्दर्शन अ०। योगा मनोवाकायाः, तेषां सत्यमवितथत्वं योगसत्यम्। भ०१७ शुद्धिरित्यर्थः 12 / (समाही य त्ति) समाधिश्च कार्यः, समाधान श० 3 उ०। मनःप्रभृतीनामवितथत्वरूपे सत्यभेदे, प्रश्न०५ संव० द्वार। समाधिश्चेतसः स्वास्थ्यम् 13 / (आ-यारे विणओ त्ति) द्वारद्वयम्। योगतः संबन्धतः सत्यं योगसत्यम् / तथा दण्डयोगाद् दण्डः, छत्रयोआचारोपगमः स्यात् , न मायां कुर्यादित्यर्थः 14 / तथा विनयोपगमः गाच्छत्र एव उच्यते, इत्येवंरूपे सत्यभेदे च / स्था० 10 ठा०। स्यात् , न मानं कुर्यादित्यर्थः 15 / इति द्वितीयगाथासमासार्थः / / 74 / / योगसत्यस्य फल प्रश्नपूर्वकमाहधिई मईय संवेगे, पणिही सुविहि संबरे। जोगसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? जोगसच्चेणं जोगे विअत्तदोसोवसंहारे, सव्वकामविरत्तया।। 75 / / सोहेइ / / 52 // (धिई मई यत्ति) धृतिर्मतिश्च कार्या, धृतिप्रधाना मतिरित्यर्थः 16 / हे भदन्त ! योगसत्येन मनोवाक्काययोगानां सत्यं योगसत्यं, तेन (संवेगे ति) संवेगः संसाराद्भय, मोक्षाभिलाषो वा कार्यः 17 / (पणिहि योगसत्येन मनोवाकायसाफल्येन जीवः किं जनयति ? तदा गुरुराह-हे त्ति) प्रणिधिस्त्याज्यो, माया न कार्येत्यर्थः 18 / (सुविहि त्ति) सुविधिः शिष्य ! योगसत्येन योगान् विशोधयति मनोवाक्काययोगान् कार्यः 16 / (संवरो त्ति) संवरः कार्यः, न तु न कार्य इति व्यतिरेको विशदीकरोतीति कर्मबन्धाभावान्निर्दोषान् करोतीति भावः / / 52 / / उत्त० दाहरणमत्र भावि 20 / (अत्तदोसोवसंहारे त्ति) आत्मदोषोपसंहारः कार्यः 26 अ० / योगः संबन्धः, तस्मात्सत्या योगसत्या / छत्रयोगाद् 21 / (सव्वकामविरत्तय त्ति) सर्वकामविरक्तता भावनीया 22 / इति विवक्षितशब्दप्रयोगकाले छत्राभावेऽपि छत्रयोगस्य संभवात् छत्री। एवं तृतीयगाथासमासार्थः // 7 // दण्डयोगाद्दण्डीत्येवंरूपे पर्याप्तभाषाभेदे, स्त्रीटाप्। प्रज्ञा० 11 पद। पञ्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमाए लवालवे। जोगसण्णास-पुं०(योगसंन्यास) सामर्थ्ययोगमधिकृत्य- "द्विधाऽयं झाणसंवरजोगे य, उदए मारणंतिए।७६।। धर्मसंन्यासयोगसंन्याससंज्ञितः।" द्वा० 16 द्वा० (तद्वक्तव्यता' जोग' (पचक्खाणे ति) मूलगुणोत्तरगुणविषयं प्रत्याख्यानं कार्यमिति | शब्दे अस्मिन्नेव भागे 1627 पृष्ठे गता) द्वारद्वयम् 23-24 1 (विउस्सगे त्ति) विविध उत्सर्गो व्युत्सर्गः, सच कार्य | जोगसत्थ-न०(जोगशास्त्र) पातञ्जलाऽऽदिष्वध्यातमचिन्ताशास्त्रेषु, इति द्रव्यभावभेदभिन्नः 25 // (अप्पमाएति)नप्रमादोऽप्रमादः, अप्रमादः / | द्वा०२३ द्वा०ीयो० बिं०।" पइट्ठिया जोगसत्येसु।" योगशास्त्रेष्वध्या
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________________ जोगसत्थ 1651 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जो (ण) त्मग्रन्थेषु पातञ्जलाऽऽदिष्विति / पश्चा० 1 विव० / हेमचन्द्राऽऽ- | जोगारूढ-पुं०(योगाऽऽरूढ) योगमारूढः / आ-रुह्-क्तः।" यदा तु चार्यविरचिते योगशास्त्रनामके प्रकरणग्रन्थे च। नेन्द्रियार्थेषु, न कर्मस्वनुषज्जते / सर्वसंकल्पसंन्यासी, योगाऽऽजोगसह-पुं०(योगशब्द) योगप्रतिपादके शब्दे, अत्र पण्डितश्री रूढस्तदोच्यते॥१॥" इत्युक्ते योगिभेदे, " योगाऽऽरूढस्य तस्यैव, जगमालगणिकृतप्रश्नो यथा-" आवस्सियाए जस्स जोगो सिज्जा-तर० समः कारणमुच्यते / " इति / वाच० / योगे सम्यग्दर्शनचारित्रे ' इत्यत्र योगशब्देन किमुच्यते ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - ' यस्य योगो' आत्मीयसाधनरत्नत्रयीलक्षणे आरूढो योगाऽऽरूढः / सम्यग्दर्शभिक्षार्थ गच्छन्निदं वक्ति, यस्य योगोयेन वस्तुना सह संबन्धो भविष्यति, नचारित्रेषूद्युक्ते, "योगाऽऽरूढः शमादेव, शुध्यत्यन्तर्गतक्रियः।"अष्ट तद् ग्रहीष्यामीत्यर्थः / इति ओघनियुक्ति- वृत्तौ / 10 प्र० / ही०१ 6 अष्ट०। प्रका०। जोगि(ण)-पुं०(योगिन् ) 'जोइ(ण) 'शब्दार्थे, षो०१५ विव०। जोगसिद्ध-पुं०(योगसिद्ध) योगेषु योगे वा सिद्धो योगसिद्धः / योगा- | जोगिणाण-न०(योगिज्ञान)' जोइणाण' शब्दार्थे, सम्म०२ काण्ड। तिशयवति सिद्धभेदे, आ० म०। जोगिणाह-पुं०(योगिनाथ) 'जोइणाह' शब्दार्थे, द्वा०१५ द्वा०। साम्प्रतं योगसिद्ध प्रतिपादयन्नाह जोगिणीपट्टण-न०(योगिनीपट्टन) 'जोइणीपट्टण 'शब्दार्थे, ती० 47 सव्वे वि दव्वजोगा, परमच्छरयफलाऽहवेगो वि। कल्प। जस्सेस होज सिद्धो, स जोगसिद्धो जहा समितो।। जोगिय-त्रि०(यौगिक)' जोइय शब्दार्थे, प्रन०२ संव० द्वार। सर्वेऽपि कात्स्न्ये न द्रव्ययोगाः परमाऽऽश्चर्यफलाः परमाद्भुत-कार्याः / जोगिवुड्डि-स्त्री०(योगिवृद्धि)' जोइबुड्डि 'शब्दार्थे, तं०। अथवा-एकोऽपि योगः परमाऽऽश्चर्यफलो यस्य भवेत् सिद्धः स योगेषु जोग्ग-त्रि०(योग्य) योगमर्हति / युज-यत् , ण्यत् वा / वोगार्हे, वाचन योगे वा सिद्धो योगसिद्धोऽतिशयवान् / यथा समित आचार्य इति अर्हे," अरिहो त्ति वा, जोग्गो त्ति वा एगहूं।" आ० चू०१ अ०। योग्यगाथाक्षरार्थः / आ० म०१ अ०२ खण्ड। (कथानकं' जोगपिंड 'शब्दे महमित्यनान्तरम्। विशे० आ० म०। उचिते, दश०१ अ०। प्रभौ." अस्मिन्नेव भागे 1640 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) पभु त्ति वा जोग्गो त्ति वा एगटुं ! " नि० चू०२० उ० घटमानके," जोगसिद्धि-स्त्री०(योगसिद्धि) योगनिष्पत्तौ, यो० बि०। अजोग्गरूवं इह संजयाण।" अयोग्यरूपमघटमान-कम्। सूत्र०२ श्रु० जोगसुद्धि-स्त्री०(योगशुद्धि) योगाः कायवाङ्मनोव्यापारलक्षणाः, तेषां 6 अ० / निपुणे, शक्ते, पुष्यनक्षत्रे च / पुं० / ऋ-द्धिनामौषधे, न० / शुद्धिः। सोपयोगान्तरगमननिरवद्यभाषणशुभचिन्तनाऽऽदिरूपायां शुद्धौ, वाच० / चाटौ, दे० ना० 3 वर्ग० / ध०२ अधि०। जोग्गा-स्त्री०(योग्या) योगमर्हति, युज-यत्-कुत्वम् / ण्यत् वा। जोगसुद्धितव-न०(योगशुद्धितपस् ) मनोवाक्कायव्यापाराऽनवद्य गुणनिकायाम् , भ०११ श०११ उ०। औ० / अभ्यासे, जं०३ वक्षः। तासंपादके तपोविशेषे, पञ्चा० 16 विव०। यत्र निर्विकृतायामोपवासा " खुरली तु श्रमो योग्याऽभ्यासः " इति वचनात् / कल्प०३० क्षण। एकैकयोगमश्रित्य विधीयन्तेऽसौ योगशुद्धिः, इह च परिपाटीत्रयेण नव शास्त्राभ्यासे, सूर्यस्त्रियां च। वाच० / गर्भधारणसमर्थायां योनौ, तं०। तपोदिनानि स्युरिति / पञ्चा० 16 विव०।। कोसायारिं जोणिं, संपत्ता सुक्कमीसिया जइया। जोगसुद्धिसचिव-त्रि०(योगशुद्धिसचिव) मनोवाकायविशुद्धिसहिते, षो० तइया जीवुव्वाए, जोग्गा भणिया जिणिंदेहिं / / 11 // १३विव०॥ ते रुधिरबिन्दवः कोशाऽऽकारां योनि संप्राप्ताः सन्तः शुक्रमिश्रिता जोगहाणि-खी०(योगहानि) योगानां संयमव्यापाररूपाणां हानिः। ऋतुदिनत्रयान्ते पुरुषसंयोगेन असंयोगेन वा पुरुषवीर्येण मिलिताः (तइय संयमव्यापारहानौ, " संवच्छरेणाविन तेसि आसी, जोगाण हाणी दुविहे त्ति) तदाजीवोत्पादे गर्भसंभूतिलक्षणे. योग्या भणिताः कथिताः, जिनेन्द्रैः वलम्मि। " व्य०१उ०। सर्वज्ञैः॥११॥ तक। जोगहीण-न०(योगहीन) असम्यक्तपउपचारे श्रुतदोषभेदे, आव०४ उ०। जोग्गोवयरिया-स्वी०(योग्योपचर्या ) योग्यानां देवगुरुसाधर्मिकजोगाइसय-पुं०(योगातिशय) आत्माभ्यन्तरपरिणामोत्कर्षे, द्वा०१६द्वा०। स्वजनदीनानाथाऽऽदीनामुचितोपचर्या योग्योपचर्या / धूपपुष्पजोगायरिय-पुं०(योगाचार्य्य) पतञ्जल्यादिके, " योगाऽऽचार्य - वस्त्रविलेपनाऽऽसनदानाऽऽदिगौरवाऽऽत्मिकायां देवगुरुसाधर्यथोदितम् / " योगाऽऽचायैः पतञ्जल्यादिभिरिति / द्वा०२१ द्वा० / र्मिकस्वजनदीनानाथाऽऽदीनामुचितोपर्यायाम , ध०२ अधिo योगप्रतिपादके सूरौ च।" योगाऽऽचार्यैर्विनिर्दिष्ट, तल्लक्षणमिदं पुनः। / जोड-सम्बन्धे(यौट) भ्यादि०-पर०-सक०-सेट्र। यौटति, अयौ-टीत्। "योगाऽऽचार्यः योगप्रतिपादकैः सूरिभिरिति / द्वा० 16 द्वा०। चडि न ह्रस्वः। वाच०। नक्षत्रे, दे० ना०३ वर्ग। जोगायार-पुं०(योगाऽऽचार) योगेनाऽऽचरति / आचर्-घञ्। बाह्यार्थ- जोडिअ-पुं०(देशी) व्याधे, दे० ना०३ वर्ग। प्रतिक्षेपेण विज्ञानमात्रवादिनि बौद्धभेदे, बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण विज्ञान- | जो(ण)-पुं०(योन् ) योनि सचित्ताऽऽदिकां चतुरशीतिलक्षसंख्यामात्रसमभिरूढो योगाऽऽचार इति / सम्म 1 काण्ड। वाचा वच्छिन्नां करोतीति ण्यन्तात् क्विपि णिलुक् / संसारे, जै० गा० !
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________________ जोण 1652 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोणि जोण-पुं०(योन) अनार्थप्राये देशभेदे, ज्ञा०।। जोणयपल्हवियइसिणियथोरुणियलसियलउसियदावडिसिंहलिआरबिपुलिंदिपक्कणिवल्हिमुरुडिसवरिपारसीहिं।। योनिकाभिः, पलविकाभिः, इसिनिकाभिः, थोरुनिकाभिः, लसिकाभिः, लकुसिकाभिः, द्राविडीभिः, सिंहलीभिः, आरबीभिः, पुलिन्दीभिः, पक्वणीभिः, बहिकाभिः, मुरुण्डीभिः, शबरीभिः, पारसीभिः, नानादेशीभिरनार्यप्रायदेशोत्पन्नाभिरित्यर्थः / ज्ञा० 1 श्रु० १अ०। जोणि-पुं०स्त्री०(योनि) उत्पत्तिस्थाने, उत्त० 3 अ० / सूत्र० / मण्यादीनामुत्पत्तिस्थाने आकरे, वाच० / कारणे, पञ्चा० 4 विव० / उत्पत्तिहेतौ, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / उपाये, स्था० 3 ठा०३ उ०। (अर्थयोनयः ' अत्थजोणि 'शब्दे प्रथमभागे 506 पृष्ठे भाविताः) युः मिश्रणे इति वचनाद् युवन्ति तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकाऽऽदिशरीरयोग्यस्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्ति जीवा यस्या सा योनिः / भ० 10 श०२ उ० / औणाऽऽदिको निप्रत्य- यः / जीवानामुत्पत्तिस्थानविशेषे, स्था०७ ठा० / प्रव० / आचा०। प्रज्ञा०॥ नं०। स०। प्रश्न०। असुमतामुत्यत्तिस्थानं योनिर्भणनी-येति। सूत्र०१ श्रु०१२ अायोषिदवाच्यदेशे, अनु०। सा चस्म-रकूपिका। तल्लक्षणम्इत्थीऍ नाभिहिट्ठा, सिरादुगं पुप्पनालियागारं / तस्स य हिट्ठा जोणी, अहोमुहा संठिया कोसा / / 6 / / स्त्रिया नार्याः, नाभेरधोऽधोभागे, पुष्पनालिकाऽऽकार सुमनोवृन्तसदृशं, शिराद्विकं धमनियुग्मं वर्तते, च पुनः, तस्य शिराद्विकस्याओ योनिः स्मरकूपिका संस्थिताऽस्ति / किंभूता ? अधोमुखाः / पुनः किंभूता ?-(कोस त्ति) कोशा खड्गपिधानकाऽऽकारेत्यर्थः / / 6 // तं०। योनिसंख्या यथाचोरासीइजोणिप्पमुहसयसहस्सा पण्णत्ता ! चतुरशीतियाँनयो जीवोत्पत्तिस्थानानि० त एव प्रमुखानि द्वाराणि योनिप्रमुखानि, तेषां शतसहस्राणि लक्षाणि योनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि / स० 84 सम०। पुढविदग अगणि मारुअ, इक्किक्के सत्तजोणिलक्खाओ। वण पत्तेअ अणंते, दस चउदस जोणिलक्खाओ ||652 // विगलिंदिएसु दो दो, चउरो चउरो अनारयसुरेसु / तिरिएसु हुंति चउरो, चउदसलक्खाउ मणुएसुं॥९८३॥ 'य' मिश्रणे, इत्यस्य धातोः, युवन्ति भवान्तरसंक्रमणकाले तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्तो जीवा औदारिकाऽऽदिशरीरप्रायोग्यपुद्गलस्कन्धैर्मिश्रीभवन्त्यस्यामित्यौणादिके 'नि 'प्रत्यये योनिः ; जीवानामुत्पत्तिस्थानमित्यर्थः। तत्र पृथिव्युदकाग्निमरूता संबन्धिन्येकैकस्मिन् समूहे सप्त सप्त योनिलक्षा भवन्ति। तद्यथा-सप्त पृथिवीनिकाये, सप्तोदकनिकाये, सप्ताग्निनिकाये, सप्त वायु-निकाये। वनस्पतिनिकायो द्विविधः / तद्यथा-प्रत्येकोऽनन्तकायश्च / तत्र प्रत्येकवनस्पतिनिकाये दश योनिलक्षाः, अनन्तवनस्पतिनिकाये चतुर्दश / विकलेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियाऽऽदिषुद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रयरूपेषु प्रत्येकं द्वेद्वेयोनिलक्षाः। | तद्यथा-वे योनिलक्षेद्वीन्द्रियेषु, द्वे योनिलक्षे त्रीन्द्रियेषु, द्वे चतुरिन्द्रयेषु। तथा चतस्रो योनिलक्षा नारकाणां, चतस्रो देवाना, तथा तिर्यक्षु पञ्चेन्द्रियेषु चतस्रो योनिलक्षाः / तथा चतुर्दश योनिलक्षा मनुष्येषु / सर्वसंख्यायाश्च मीलने चतुरशीतियोनिलक्षा भवन्ति इति।नच वक्तव्यम्, अनन्तानां जीवानामुत्पत्तिस्थानान्यप्यनन्तानि प्राप्नुवन्ति, यतो जीवानां सामान्याऽऽधारभूतो लोकोऽप्यसंख्येयप्रदेशात्मक एव, विशेषाऽधाररूपाण्यपि नरकनिष्कुटेष्वेव च, येन प्रत्येक साधारणजन्तुशरीराण्यसंख्येयान्येव, ततो जीवानामानन्त्येऽपि कथमुत्पत्तिस्थानानन्त्यम् / भवतु तहसंख्येयानीति चेत् ? नैवम् / यतो बहून्यपि तानि केवलिदृष्टन केनचिद्वर्णाऽऽदिना धर्मेण सदृशान्येकैव योनिरिष्यते, ततोऽनन्तानामपि जन्तूनां केवलिविवक्षितवर्णाऽऽदिसादृश्यतः परस्परान्तर्भावचिन्तया चतुरशीतिलक्षसंख्या एव योनयो भवन्ति, न हीनाधिकाः // 682 / 683 // एतदेवाऽऽहसमवण्णाइसमेआ, बहवो विहु जोणिलक्खभेआओ। सामन्ना घेप्पंति हु, एक्कगजोणीऍ गहणेणं / / 684 // समैः सदृशैः, वर्णाऽऽदिभिर्वर्णगन्धरसस्पर्शः, समेता युक्ताः, समानवर्णगन्धरसस्पर्शा इत्यर्थः / बहवोऽपि प्रभूता अपि, योनिभेदलक्षाः, हुनिश्चितम् , इह एका योनिर्जातिग्रहणेन गृह्यते / कुतः ? सामान्याद् . व्यक्तिभेदतः प्राभूत्येऽपि समानवर्णगन्धरसस्पर्शसद्भावेन सादृश्यादिति / ननु योनिकुलयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते-योनिः जीवानामुत्पत्तिस्थानं, यथा-वृश्चिकाऽऽदेर्गोमयाऽऽदि / कुलानि तु-योनिप्रभवाणि / तथाहि-एकस्यामेव योनावनेकानि कुलानि भवन्ति, यथा छगणयोनौ कृमिकुलं, कीटकुलं ; वृश्चिककुलमित्यादि। यदि वा तस्यैव वृश्चिकाऽऽदेोमयाऽऽद्येकयोनित्वेनोत्पन्नस्यापि कपिलरक्ताऽऽदिवर्णभेदादनेकविधानि कुलानीति। प्रव०१५१ द्वार। सम०। आचा०। योनिभेदाःतिविहा तिविहा जोणी, अंडा पोया जराउया चेव। वेइंदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिया चेव / / 154 // "तिविहा'' इत्यादि / अत्र हि शीतोष्णमिश्रभेदात्तया सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्तथा संवृतविवृततदुभयभेदात्तथा स्त्रीपुंनपुसकभेदाच्च इत्यादीनि बहूनि योनीनां त्रिकाणि संभवन्ति / तेषां सर्वेषां संग्रहार्थ त्रिविधा त्रिविधेति वीप्सानिर्देशः / तत्र नारकाणामाद्यासु तिसृषु भूमिषु शीतैव योनिः, चतुर्णामुपरितननरकेषु शीता, अधस्तननरकेषूष्णा, पञ्चमीषष्ठीसप्तमीषूष्णव, नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यमनुष्याणामशेषदेवानां च शीतोष्णा योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुःपश्शेन्द्रियसंमूर्छनजतिर्यङ्गनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः-शीता, उष्णा, शीतोष्णा चेति / तथा नारकदेवानामचित्ता, नेतरे, द्वीन्द्रियाऽऽदिसंमूर्छनजपञ्चेन्द्रियतिर्यअनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः सचित्ताचित्तमिश्रयोनिर्नेतरे। तथा देवनारकाणां संवृतायोनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूर्छनजपञ्चेन्द्रियतिर्यअनुष्याणां विवृता योनिर्नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यजनुष्याणां संवृतविवृता योनिर्नेतरे, तथा नारकानपुंसकजपञ्चेन्द्रियतियजनुष्याणां विवृतायोनिर्नेतरे, गर्भयोनय एव। तिर्यश्चस्त्रिविधाःस्त्रीपुंनपुंसक्योनयोऽपि मनुष्या अप्येवं त्रैविध्यभाजः। देवाः स्त्रीपुंयोनय एव / तथा परं मनुष्ययोनेस्वैविध्यम् / तद्यथा-कूर्मोन्नता, तस्यां चाहनचक्रवादिसत्पुरुषाणामुत्पत्तिः / तथा संखाऽऽवर्ता, सा
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________________ जोणि 1653- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ जोणि च स्त्रीरत्नस्यैव, तस्यां च प्राणिनां संभवो नास्ति, न निष्पत्तिः / तथा वंशीपत्रा, सा च प्राकृतजनस्येति। तथा परं त्रैविध्यं नियुक्तिकृदर्शयति। तद्यथा-अण्डजा, पोतजा, जरायुजा चेति। तत्राण्डजाः पक्ष्यादयः, पोतजा वल्गुलीगजकलभाऽऽदयः, जरायुजा गोमहिषीमनुष्याऽऽदयः, तथा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदाच भिद्यन्ते। आचा० 1 श्रु०१ अ० 6 उ०। सत्त्वानां योनयः प्रतिपाद्यन्तेकतिविहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता।तं जहा-सीता जोणी, उसिणाजोणी,सीतोसिणा जोगी! " कतिविहा णं भंते ! जोणी" इत्यादि / कतिविधा कतिप्रकारा, णमिति पूर्ववत् , भदन्त! योनिः प्रज्ञप्ता ? अथ योनिरिति कः शब्दार्थः ? उच्यते- " यु' मिश्रणे, युवन्ति तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकाऽऽदिशरीरप्रायोग्यपुद्गलस्कन्धसमुदयेन मिश्रीभवन्त्यस्यामिति योनिरुत्पत्तिस्थानम् / औणादिको निप्रत्ययः / भगवानाहगौतम ! त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता। तद्यथा-शीता, उष्णा, शीतोष्णा / तत्र शीतस्पर्शपरिणामा शीता, उष्णस्पर्शपरिणामा उष्णा, शीतोष्णरूपोभयस्पर्शपरिणामा शीतोष्णा। योनिविशेषप्रतिपादनायाऽऽहनेरइयाणं भंते ! किं सीता जोणी, उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी? गोयमा ! सीता वि जोणी, उसिणा वि जोणी, नो सीतोसिणा जोगी। असुरकुमाराणं भंते ! किं सीता जोणी, उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोगी? गोयमा! नो सीता जोणी, नो उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी, एवं० जाव थणियकुमाराणं / पुढवीकाइयाणं भंते ! किं सीता जोणी, उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी? गोयमा ! सीता वि जोणी, उसिणा वि जोणी, सीतोसिणा वि जोणी! एवं आउवाउवणस्सइबेइंदियतेइंदियचउरिदियाण वि पत्तेयं भाणियव्वं / तेउकाइयाणं नो सीता, उसिणा, नो सीतोसिणा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! किं सीताजोणी, उसिणाजोणी, सीतोसिणा जोणी? गोयमा ! सीता वि जोणी, उसिणा वि जोणी, सीतोसिणा वि जोणी। संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाण वि एवं चेव / गब्भवक्कंतियमणुस्साणं भंते ! किं सीताजोणी, उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी ? गोयमा ! नो सीता जोणी, नो उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी। मणुस्साणं भंते ! किं सीता जोणी, उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी? गोयमा! सीता कि, उसिणा वि, सीतोसिणा वि जोणी। संमुच्छिमणुस्साणं भंते ! किं सीता जोणी, उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी? गोयमा ! तिविहा वि जोणी। वाणमंतरदेवाणं किं सीता जोणी, उसिणा | जोणी, सीतोसिणा जोणी? गोयमा ! नो सीता, नो उसिणा, सीतोसिणा जोणी। जोइसियाणं वेमाणियाण वि एवं चेव।।। तत्र नैरयिकाणां द्विविधा योनिः-शीता, उष्णाच। नतृतीया शीतोष्णा। कस्यां पृथिव्यां का योनिरिति चेत् ? उच्यते-रत्नप्रभायां शर्करप्रभायां वालुकाप्रभायां च यानि नैरयिकाणामुपपातक्षेत्राणि तानि सर्वाण्यपि शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि उपपातक्षेत्रव्यतिरेकेण चान्यत् सर्वमपि तिसृष्वपि पृथिवीपूष्णस्पर्शपरिणामपरि-णतं, तेन तत्रत्या नैरयिकाः शीतयोनिका उष्णां वेदना वेदयन्ते / पङ्कप्रभायां बहून्युपपातक्षेत्राणि शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि, स्तोकान्युष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि, येषु च प्ररत्तटेषु नरकाऽऽवासेषु शीतस्पर्शपरिणामान्युपपातक्षेत्राणि, तेषु तद्व्यतिरेकेण चान्यत्सर्वमुष्णस्पर्शपरिणाम, तेषु प्रस्तटेषु नरकाऽऽवासेषु चोप-पातक्षेत्राण्युष्णस्पर्शपरिणामानि, तेषु तद्व्यतिरेकेण चान्यत्सर्वंशीतस्पर्शपरिणाम, तेन तवत्या बहवो नैरयिकाः शीतयोनिका उष्णा वेदनां वेदयन्ते, स्तोका उष्णयोनिकाः शीतवेदनामिति / धूमप्रभायां बहून्युपपातक्षेत्राणि उष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि, स्तोकानि शीतस्पर्शपरिणामानि, येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकाऽऽवासेषु चोष्णस्पर्शपरिणामपरिणतान्युपपातक्षेत्राणि, तेषु तद्व्यतिरेकेणान्यत्सर्व शीतपरिणाम, येषु च शीतस्पर्शपरिणामान्युपपातक्षेत्राणि, तेष्वन्यत्सर्वमुष्णस्पर्शपरिणाम, तेन च तत्रत्या बहव उष्णयोनिकाः शीतवेदनां वेदयन्ते, स्तोकाः शीतयोनिका उष्णवेदनामिति / तमःप्रभायां तमस्तमःप्रभायां चोपपातक्षेत्राणि सर्वाण्यप्युष्णस्प-शपरिणामपरिणतानि, तद्व्यतिरेकेण चान्यत्सर्व तत्र शीतस्पर्शपरिणामं, तेनतत्रत्या नारका उष्णयोनिकाः शीतवेदनां वेदयितार इति / भवनवासिना गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाना चोपपातक्षेत्राणि शीतोष्णरूपोभयस्पर्शपरिणामपरिणतानि, तेन तेषां योनिरुभयस्वभावान शीता, नाप्युष्णा। एकेन्द्रियाणामग्निकायिकवर्जाणां द्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूछिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूछिममनुष्याणां चोपपातस्थानानिशीतस्पन्युिष्णस्प न्युभयस्पर्शान्यपि भवन्तीति, तेषां त्रिविधा योनिः-तेजस्कायिका उष्णयोनिकाः, तथा प्रत्यक्षत उपलब्धेः / प्रज्ञा०८ पद। (एतेषामल्पबहुत्वम् ' अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे 658 पृष्ठे गतम् ) शीताऽऽदियोनिप्रकरणार्थसंग्रहस्तुप्रायेणैवम्-" सीओसिणजोणीया, सव्वे देवा यगभवक्रती / उसिणा य तेउकाए, दुह निरए तिविह सेसेसु / / 1 / / " (गन्भवति त्ति) गर्भोत्पत्तिकाः / भ०१० श०२ उ०। स्था०। भूयोऽपि प्रकारान्तरेण योनीनां त्रैविध्यं प्रतिपिपादयिपुराहकतिविहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता। तं जहा-सचित्ता, अचित्ता, मीसिया।। "कइविहाण भंते ! जोणी पण्णत्ता?" इत्यादि। सचित्ता जीवप्रदेशसंबद्धा, अचित्ता सर्वथा जीवविप्रमुक्ता, मिश्रा जीवविप्रमुक्ताविप्रमुक्तास्वरूपा। नेरइयाणं भंते! किंसचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, मीसिया जोणी? गोयमा!नोसचित्ताजोणी, अचित्ता, नोमीसियाजोगी।असुरकुमाराणं भंते ! कि सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, मीसिया जोणी? गोयमा!
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________________ जोणि 1654 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोणि नो सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, नो मीसिया / एवं० जाव / थणियकुमाराणं / पुढवीकाइयाणं भंते ! किं सचित्ता जोणी, | अचित्ता जोणी, मीसिया जोणी? गोयमा ! सचित्ता वि जोणी, अचित्ता वि जोणी, मीसिया वि जोणी। एवं० जाव चउरिंदियाणं / सम्मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, सम्मुच्छिममणुस्साण य एवं चेव ; गब्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं गब्भवकं तियमणुस्साण य नो सचित्ता, नो अचित्ता, मीसिया जोणी। वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुरकुमा-राण।। तत्र नैरयिकाणां युदपपातक्षेत्र तत्र न केनचिज्जीवन परिगृहीतमिति तेषामचित्ता योनिः। यद्यपि सूक्ष्मैकेन्द्रियाः सकललोकव्यापिनः, तथाऽपि न तत्प्रदेशैरुपपालस्थानपुद्गला अन्योन्यानुगमसंबद्धा इति अचित्तैव तेषां योनिः / एवमसुरकुमाराऽऽदीनां भवनपतीनां व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां वा अचित्ता योनिर्भावनीया / पृथिवीकायिकाऽऽदीनां संमुच्छिममनुष्यपर्यन्तानामुपपातक्षेत्रं जीवैः, परिगृहीतमपरिगृहीतमुभयस्वभावं च संभवतीति त्रिविधा योनिः, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्थपञ्चेन्द्रियाणां गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्याणां च यत्रोत्पत्तिस्तत्र सचित्ताचित्ता अपि शुक्रशोणिताऽऽदिपुद्गलाः सन्तीति मिश्रा तेषां योनिः / प्रज्ञा०६ पद। (अल्पबहुत्वम्' अप्पा-बहुय' शब्दे प्रथमभागे 658 पृष्ठेद्रष्टव्यम् ) सचित्ताऽऽदियोनिप्रकरणार्थसंग्रहस्तु प्रायेणैवम् - " अचित्ता खलु जोणी, नेरइयाणं तहेव देवाणं। मीसा य गल्भवासे, तिविहा पुण होइ सेसेसु " // 1 // सत्यप्येकेन्द्रियसूक्ष्मजीवनिकायसंभवे नारकदेवानां यदुपपातक्षेत्रं तत्र केनचिजीवेन परिगृहीतमित्यचित्ता तेषां योनिः / गर्भवासयोनिस्तु मिश्रा, शुक्रशोणितपुद्गलानामचित्तानां गर्भाशयस्य च सचेतनस्य भावादिति। शेषाणां पृथिव्यादीनां संमूर्छजानां च मनुष्याऽऽदीनामुपपातक्षेत्रे जीवेन परिगृहीतेऽपरिगृहीते उभयरूपे चोत्पत्तिरिति त्रिविधाऽपि योनिरिति / भ०१० श०२ उ०। स्था०। प्रव०। भूयोऽपि प्रकारान्तरेण योनीः प्रतिपादयितुकाम आहकतिविहाणं भंते ! जोणी पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता। तं जहा-संबुडा जोणी, वियडा जोणी, संबुडवियडा जोणी। नेरइयाणं भंते ! किं संबुडा जोणी, वियडा जोणी, संबुडवियडा जोणी? गोयमा! संबुडाजोणी, नो वियडा जोणी, नो संबुडवियडा जोणी। एवं० जाव वणस्सइकाइयाणं / वेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! नो संबुडजोणी, विगडजोणी, नो | संबुडवियडजोणी। एवं० जाव चउरिंदियाणं / समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य एवं चेव / ग- | भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियगब्भवतियमणुस्साण य नो संबुडा जोणी, नो वियडा जोणी, संबुडवियडा जोणी / बाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं // तत्र नारकाणां संवृता योनिः, नरकनिष्कुटानां नारकोत्पत्तिस्थानानां संवृतगवाक्षकल्पत्वात् / तत्र च जाताः सन्तो नैरयिकाः प्रवर्द्धमान- मूर्तयस्तेभ्यः पतन्ति शीतेभ्य उष्णेषु, उष्णेभ्यः शीतेष्विति। भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामपि संवृता योनि, तेषां देवशयनीयदेवदूष्यान्तरित उत्पादात्, "देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलासंखेजइभागमेत्ताए सरीरोगाहणाए उववज्जइ" इति वचनात् / एकेन्द्रिया अपि संवृतयोनिकाः, तेषामपि योनेः स्पष्टमनुपलक्ष्यमाणत्वात्। द्वीन्द्रियाऽऽदीनां चतुरिन्द्रियपर्यन्तानां सम्मूञ्छिमतिर्थक्पञ्चेन्द्रियसम्मुच्छिममनुष्याणां च विवृता योनिः, तेषामुत्पत्तिस्थानस्य जलाऽऽशयाऽऽदेः स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात् / गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यपञ्चेन्द्रियगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां च संवृतविवृता योनिः, गर्भस्य संवृतविवृतरूपत्वात्। गर्भो ह्यन्तःस्वरूपतो नोपलभ्यते, बहिस्तूदरवृद्ध्यादिनोपलक्ष्यते इति / प्रज्ञा० 6 पद। (अल्पबहुत्वम् ' अप्पाबहुय शब्दे प्रथमभागे 658 पृष्ठ गतम्) संवृताऽऽदियोनिप्रकरणार्थसंग्रहस्तु प्राय एवम्" एगिदियनेरइया, संवुडजोणी तहेव देवाय। विगलिदिएसु वियडा, संवुडवियडा य गब्भम्मि / / 1 / / " एकेन्द्रियाणां संवृतायोनिः, तथास्वभावत्वात्। नारकाणामपि संवृतैव / यतो नरकनिष्कुटाः संवृतगवाक्षकल्पाः, तेषु च जातास्ते वर्द्धमानमूर्तयः, तेभ्यः पतन्तिशीतेभ्यो निष्कुटेभ्य उष्णेषु नरकेषु, उष्णेभ्यस्तु शीतेष्विति। देवानामपि संवृतैव। यतो देवशयनीये देवदूष्यान्तरितोऽ गुलासख्यानभागमात्रावगाहनो देव उत्पद्यत इति। भ०१०श०२ उ०। स्था०। सूत्र० / नं०। सम्प्रति मनुष्ययोनिविशेषप्रतिपादनार्थमाहकतिविहाणं भंते ! जोणी पण्णता? गोयमा! तिविहा जोणी पण्णत्ता। तं जहा-कुम्मुन्नया, संखावत्ता, वंसीपत्ता। कुम्मुन्नया णं जोणी उत्तमपुरिसमाउयाणं कुम्मुन्नयाए णं जोणीए उत्तमपुरिसा गभं वक्कमंति / तं जहा-अरहंतचक्कवट्टीणं बलदेवा वासुदेवा / संखावत्ता णं जोणी इत्थीरयणस्स, संखावत्ताए णं जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, उवत्तयंति, नो चेव णं निप्पजंति / वंसीपत्ता णं जोणी पिहुणस्स, वंसीपत्तियाए णं जोणीए पिहुजणे गब्भं वकमंति।। "कइविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ? " इत्यादि। कूर्मपृष्टमिवो-न्नता कूर्मोन्नता / शसस्येवाऽऽवर्ता यस्याः सा शङ्खावा / संयुक्तवशीयत्रद्वयाऽऽकारत्वात् वंशीपत्रा। शेष सुगम, नवरं शङ्खावर्तायां योनी बहवो जीवा जीवसंबद्धाः पुद्गलाश्चावक्रमन्ते, आगच्छन्ति, व्युत्क्रामन्ति गर्भतयोत्पद्यन्ते, तथा चीयन्ते सामान्यतश्वयमागच्छन्ति, उपचीयन्ते विशेषत उपचयमायान्ति, परं न निष्पद्यन्ते, अतिप्रबलकामाग्निपरितापतो ध्वंसगमनादिति वृद्धप्रवाहः / प्रज्ञा०६ पद। एतद्वक्तव्यतासंग्रहस्त्वेवम्" संखाऽऽवत्ता जोणी, इत्थीरयणस्स होइ विण्णेया। तीए पुण उप्पण्णो, नियमाउ विणस्सई गब्भो / / 1 / / कुम्मुण्णयजोणीए, तित्थयरा चछि-वासुदेवाय।
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________________ जोणि 1655 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोणिपाहुड रामा विय जायंते, सेसाए सेसगजणाओ॥ 2 // " इति। मुखीभवति। विध्वस्यते, क्षीयते। एवं च तद बीजमवीजं भवति उत्तमपि भ०१० श०२ उ०। स्था०1 प्रव०। नाकुरमुत्पादयति। किमुक्तं भवति ?-ततः परं योनिव्यवच्छेदः प्रज्ञप्तो तथा शुभाशुभभेदेन योनीनामनेकत्वं गाथाभिः प्रदश्यते मया, अन्यैश्च केवलिभिरिति शेष स्पष्टम्। स्था०३ ठा०१ उ०। "सीयाऽऽदी जोणीओ, चउरासी-तीयसय-सहस्साई। अह भंते ! कलावमसूरतिलमुग्गमासनिप्फावकुलत्थआलिअसुभाओ य सुभाई, तत्थ सुभाओ इमा जाण // 1 // संदगसंतीणं पलिमंथमाईणं एएसिणं धण्णाणं? जहा सालीणं अस्संखा उ मणुस्सा, राईसरसंखमादिआईणं। तहा एयाणि वि, णवरं पंचसंवच्छराई, सेसं तं चेव। तित्थगरनामगोत्तं, सव्वसुहं होइ नायव्वं / / 2 / / अह भंते ! अयसिकुसुंभगकोद्दवकंगुवरगरालगकोदूसगसणतत्थ विय जाइसंप-न्नतादि सेसा उ हुंति असुभाओ। सरिसवमूलाबीयमाईणं एएसि णं धन्नाणं ? एयाणि वि तहेव, दोसं वि किव्विसादी, सेसाओ हुति असुभाओ।। 3 / / णवरं सत्त संवच्छराई, सेसं तं चेव / भ०६श०७ उ०। पंचिंदियतिरिएK, हयगयरयणे हवंति उ सुभाओ। अहेत्यादि सूत्रसिद्धम् / नवरम् , अथेति परप्रश्नार्थः / भदन्तेति सेसाओ असुभाओ, सुभवन्नेगिंदियादीया।। 4 / / गुमन्त्रणम् / (अयसीति) अतसी कुसुम्भो रट्टा रालकः कङ्गविशेषः देविंद चक्रवट्टि-तणाइँ मोत्तुं च तित्थगरभावं। सणस्त्वक प्रधानो धान्यविशेषः, सर्षपाः सिद्धार्थकाः, मूलकः अणगारभाविता विय, सेसा उ अणंतसो पत्ता " // 5 // शाकविशेषः तस्य बीजानि ककारलोपसब्धिभ्याम् " मूलावीय त्ति" आचा०१श्रु०१ अ०१ उ०॥ प्रतिपादितमिति / शेषाणां पर्याया लोकरूदितो ज्ञेया इति / यावद्अथ स्त्रीणां कियट्यो वर्षेभ्यः पुनरूज़ योनिविध्वंसो ग्रहणात्-" मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं ओलिताणं लंछियाणं मुद्दियाणं / भवतीत्याह .' इति द्रष्टव्यम् / व्याख्याऽस्य प्रागिवेति / पुनर्यावतकरणात्-" पणपन्ना य परेणं, जोणी पडिलायए महिलियाणं / पविद्धंसइ विद्धसइ से वीए अवीए भवइतेण परं।'' इति दृश्यम्। स्था० पण्णत्तरीइ परओ, पाएण पुमं भवेऽवीओ।।१२।। 7 ठा० / कोष्ठाऽऽदिषु निक्षिप्तानाम् , उपलक्षणमेतत्-पिहितानामव लिप्ताना लाञ्छितानां मुद्रितानां चोत्कृष्टानां स्थितौ सप्तवर्षाणि भवन्ति, महिलाना स्त्रीणां प्रायः प्रवाहेण (पणपन्ना य त्ति) पञ्चपञ्चाशद्वर्षेभ्यः जधन्येन पुनः सर्वेषामपि पूर्वोक्तानां धान्यानामन्तर्मुहूर्त स्थितिर्भवेत् , (परेणं ति) ऊर्ध्वं योनिः प्रम्लायति, गर्भधारणाऽसमर्था भवतीत्यर्थः / अन्तर्मुहूर्तात् परतः स्वायुःक्षयादेवाचित्तं जायते / सा च परमार्थतोऽतं०। (एतदगता बहुवक्तव्यता' गडम' शब्दे तृतीयभागे 831 पृष्ठे द्रष्टव्या) तिशयज्ञानेनैव सम्यक् परिज्ञायते, न छाद्यस्थिक ज्ञानेनेति न सम्प्रति जीवविशेषयोनिवक्तव्यतादिरर्थ उच्यते। तत्र व्यवहारपथमवतरति / अत एव च पिपासापीडितानामपि साधूना चेदं सूत्रम स्वभावतः स्वायु:-क्षयेणाचित्तीभूतमपि तडागोदकपानाय वर्द्धमानअह भंते ! सालीणं बीहीणं गोधूमाणं जवाणं जवजवाणं एए- स्वामी भगवान् नानुज्ञातवान् / इत्यंभूतस्याचित्तीभवनस्य छद्मस्थानां सिणं धण्णाणं कोट्ठाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउ- दुर्लक्षत्वेन मा भूत्सर्वत्रापि तडागोदके सचित्तेऽपि पाश्चात्यसाधूनां त्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं पिहियाणं मुधियाणं लंछियाणं केव- प्रवृत्तिप्रसङ्ग इति कृत्वा / प्रव० 154 द्वार / तं०। ल० प्र०। सूत्र० / इयं कालं जोणी संचिट्ठइ? गोयमा ! जहण्णं अंतो मुहुत्तं, उ- (कियहूरगमनेन धान्यानामचित्तत्वमिति ' अचित्त ' शब्दे प्रथमभागे कोसं तिण्णि संवच्छराइं, तेण परं जोणी पडिलायइ, तेण परं 185 पृष्ठे द्रष्टव्यम् ) अन्येषामुत्पादकत्वाद् जीवे जीवस्याभिवचनान्यजोणी विद्धंसइ, तेण परं वीए अवीए भवइ, तेण परं जोणीवो- धिकृत्य-"जोणीए त्ति वा योनिरन्येषामुत्पादकत्वात्। भ० 2020 च्छेदे पण्णत्ते, समणाउसो ! भ०६ श०७ उ०। 2 उ०। भगनामके देवे, तद्देवताके पूर्वाफल्गुनीनक्षत्रे च / स्था०२ टा०३ " भंते त्ति ' पदं साधनीयमिति, अतो भंते त्ति महावीरमामन्त्र उ० / वाच० / योनिविचारेयत्र मनुष्योत्पत्तिस्तत्रैव द्वीन्द्रियाऽऽदीनायन्नुक्तवान गौतमाऽऽदिः / शालीना, कलमाऽऽदिकानामिति वि-शेषः / मुत्पत्तिर्दृश्यते, तथा च योनिसङ्करः स्यात् ? इति प्रश्ने, उत्तरमशेषाणां ब्रीहीणामिति सामान्यम् / यवयवा यव विशेषा एव / मनुष्यतीन्द्रियाऽऽदीनां योन्येकत्वेऽपि स्वस्वजातावेव योन्येकत्वएतेषामभिहितत्वेन प्रत्यक्षाणां कोष्ठे कुशूले आगुप्तानि प्रक्षेपणेन व्यवहारो, न तु भिन्नजातौ। अत एव छगणाऽऽदिषु अप्युत्पन्नानां भूयसा संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि, तेषाम् / एवं सर्वत्र, नवरं पल्यं वंशकट कुलानां द्वीन्द्रियाऽऽदीना स्वजात्यपेक्षया योन्येकत्व, भिन्नजातीयाकाऽऽदिकृतो धान्याऽऽधारविशेषः, मञ्चः स्थूणानामुपरिस्थापित नामपि तत्रोत्पन्नानां स्वजात्यपेक्षयैकयोनिकत्वं, तेन न योनिसङ्करः वंशकटकाऽऽदिमयो जनप्रतीतः, मालको गृहस्योपरितनभागः / संभाव्यत इति / 102 / प्र० / सेन०२ उल्ला० / अभिहितं च-" अक्खुड्डो होइ मंचो, मालो य घरोवरि होइ" इति।। जोणिघात-पुं०(योनिघात) योनिविर्ध्वसे, नि० चू० 4 उ० / (अस्य (ओलित्ताणं ति) द्वारदेशे पिघानेन सह गोमयाऽऽदिना अवलिप्तानाम्। विस्तरः ' गब्भ 'शब्दे 861 पृष्ठे द्रष्टव्यः) (लित्ताणं ति) सर्वतः (पिहियाणं ति) स्थगितानाम् (मुद्दियाण ति) जोणिजम्मणणिक्खमण-न०(योनिजन्मनिष्क्रमण) योग्या जन्मार्थामृत्तिकाऽऽदिमुद्रावताम् (लंछियाणं ति) रेखाऽऽदिभिः कृतलाञ्छना- निष्क्रमणे, कल्प०२ क्षण। नाम् / (केवइयं ति) कियन्त कालं योनिर्यस्यामड्कुर उत्पद्यते, ततः | जोणिपाहुड-न०(योनिप्राभूत) जीवयोनिभेदस्वरूपप्रतिपादके पर योनिः प्रम्लायति, वर्णाऽऽदिना हीयते, प्रतिध्वस्यते विध्वंसाभि- | पूर्वगताऽधिकारविशेषे, बृ० 1 उ०।
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________________ जोणिप्पमुह 1656 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोय जोणिप्पमुह-त्रि०(योनिप्रमुख) योनिद्वारके, विपा० 1 श्रु० 1 अ०॥" संप्रति पक्षिणां प्रकारान्तरेण भेदप्रतिपादनार्थमाहचउरासीइजोणिप्पमुहसयसहस्सा।" स०८४ सम० / योनिप्रमुखानि पक्खीणं भंते ! कइविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे योनिप्रवाहाणि एकस्यामेव योनावनेकजातिकुलसंभवादिति / जी०३ | जोणिसंगहे पण्णत्ते / तं जहा-अंडया, पोयया, समुच्छिमा।। प्रति० / प्रव०। " पक्खीणं भंते ! " इत्यादि / पक्षिणां भदन्त ! कतिविधः कतिजोणिभूय-त्रि०(योनिभूत) योन्यवस्थे बीजाऽऽदौ, " जोणिब्भुए बीए. ! प्रकारो योनिसंग्रहो, योन्युपलक्षितं संग्रहणमित्यर्थः ? भगवानाहजीवोऽवकमइ सो व अपणो वा।" आचा०नि०१ श्रु०१ अ०५ उ०। गौतम ! त्रिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः। तद्यथा-अण्डजाः-मयूरा-ऽऽदयः, अत्र भूतशब्दोऽवस्थावचनः, योन्यवस्थे बीजे योनि-परिणामम- पोतजाः-वल्गुल्यादयः, समूच्छिमाः-खञ्जरीटाऽऽदयः। जी०३ प्रति०। जहतीत्यर्थः। आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। बीजे योनिभूते योन्यवस्था भुयगाणं भंते ! कइविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते ? गोयमा! तिविहे प्राप्ते योनिपरिणाममजहतीति भावः / बीजस्य हि द्विविधाऽवस्था। जोणिसंगहे पण्णत्ते। तं जहा-अंडया, पोयया, संमुच्छिमा, एवं तद्यथा-योन्यवस्था, अयोन्यवस्था च / तत्र यदा बीज योन्यवस्था न जहा खहयराणं॥ जहाति, अथ चोज्झितं जन्तुना, तदा तद् योनिभूतमित्यभिधीयते। "भुयगाणं भंते !" इत्यादि। भुजगाना भदन्त ! कतिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञा० 1 पद। नि० चू०। प्रज्ञप्तः ? इत्यादि पक्षिवत् सर्वं निरवशेष वक्तव्यम्। जी०३ प्रति०। जोणिमुहणिप्फडिय-त्रि०(योनिमुखनिस्फटित) स्मरमन्दिरतुण्ड चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयनिर्गत, तं०। मा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-जराउया संमुच्छिमया / जराजोणिय-त्रि०(योनिक) योनदेशोद्भवे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। उया तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा। तत्थ *योनिज-त्रिकायोनिस्थानाद् जायते। जनङः। देहभेदे, जरायुजेऽण्ड णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा! जे च देहे, वाच०। " चउप्पयाणं " इत्यादि। चतुष्पदानां भदन्त ! कतिविधो योनिजोणिलक्खचुलसी-स्त्री०(यो निलक्षचतुरशीति) चतुरशीति- संग्रहः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-गौतम ! द्विविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः / योनिलक्षसमूहे, प्रव० 151 द्वार० (तद्वक्तव्यता' जोणि शब्दे 1652 तद्यथा-पोतजाः, संमूर्छिमाश्च / इह ये अण्डजव्यतिरिक्तगर्भव्युपृष्ठे गता) त्क्रान्तास्ते सर्वे जरायुजाः, अजरायुजा वा पोतजा इति विवक्षितजोणिविहाण-न०(योनिविधान) योनिभेदे, विपा०१ श्रु०१ अ०। मतोऽत्र द्विविधो यथोक्तरूपो योनिसंग्रह उक्तः / अन्यथा गवादीनां जोणिसंगह-पुं०(योनिसंग्रह) योनिरुत्पत्तिहेतुर्जीवस्य तया संग्रहोऽनेके जरायुजत्वात् तृतीयोऽपि जरायुजलक्षणो योनिसंग्रहो वक्तव्यः षामेकशब्दाभिलाप्यत्वं योनिसंग्रहः / म०७ श० 5 उ० / योनिभिरु स्यादिति। तत्र ये पोतजाः ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-स्त्रियः, पुरुषाः, त्पत्तिस्थानविशेषैर्जीवानां संग्रहो योनिसंग्रहः / योनिप्रतिपादनद्वारा नपुंसकाश्च। तत्र येते संमूछिमास्ते सर्व नपुंसकाः। जी०३ प्रति०। ऽनेकेषां जीवानामेकशब्देन प्रतिपादने, स्था०। जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! पुच्छा ? गोय-मा! योनिसंग्रहतो जीवानाह तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-अडया, पोयया, समुच्छिमा, एवं जहा भुयगपरिसप्पाणं / / सत्तविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते / तं जहा-अडजा, पोतजा, जराउया, रसया, संसेयया, संमुच्छिमा, उब्भिया / / " जलचराणं " इत्यादि / जलचराणां भदन्त ! कतिविधो योनि संग्रहः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-गौतम ! त्रिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः / " सत्तविहे " इत्यादि / योनिभिरुत्पत्तिस्थानविशेषैर्जीवाना संग्रहो तद्यथा-अण्डजाः, पोतजाः, संमूच्छिमाश्च। जी०३ प्रति०। योनिसंग्रहः / स च सप्तधा, योनिभेदात्सप्तधा जीवा इत्यर्थः / अण्डजाः जोणिसमुच्छेय-पुं०(योनिसमुच्छेद) योनिविध्वंसे," एस जोणी जगाणं पक्षिमत्स्यसाऽऽदयः। पोत वस्त्र, तज्जाताः पोतादिव वा वोहित्थाजाताः अजरायुवेष्टिता इत्यर्थः। पोतजा हस्तिवल्गुलीप्रभृतयो जरायो गर्भवेष्टने दिट्ठा न कप्पइ जोणिसमुच्छेओ।" प्रश्न० 5 सम्ब० द्वार। जातास्तद्वेष्टिता इत्यर्थः / जरायुजा मनुष्याः, गवादयश्च। रसे तीमनक जोण्ह-पु०(ज्योत्स्न) ज्योत्स्नाऽन्विते शुक्लपक्षे, ज्यो०४ पाहु०। ञ्जिकाऽऽदौ जाता रसजाः। संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजाः-यूकाऽऽदयः। जोण्हा-स्त्री०(ज्योत्स्ना) ' जोइसिणा ' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। संमूछनेन निर्वृत्ताः संमूछिमाः कृम्यादयः, उद्भिदो भूमिभेदाज्जाता जोत्त-न०(योक्त्र) युज्यतेऽनेन। युज-ष्ट्रन्। ईषादण्डाऽऽदौ, युगबन्धनार्थ उद्भिजाः खञ्जनकाऽऽदयः / स्था०७ ठा०। दामनि, वाच०।" सुकिरणतवणिज्जजोत्तकलियं “जं०३ वक्ष०।" अट्ठविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते / तं जहा-अंडया, पोयया, जाव जोत्तलयकसप्पहारपादपण्हिजाणुं।" योक्त्रं यूपे वृषभसंयमनमिति। उब्भिया उववाइया / / प्रश्न०५ संब० द्वार / ज्ञा०। " अट्ठविहे " इत्यादि सुगम, नवरमौपपातिका देवनारकाः / स्था० *योत्र-न०। यु-ष्ट्रन्।योत्रे, वाच०। सूत्र० / 8 ठा०॥ जोय-न०(योक्त्र)' जोत्त' शब्दार्थ, जं०३ वक्ष।
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________________ जोयण 1657 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 जोसिय जोयण-न०(योजन) युज-भावाऽऽदौ ल्युट् / संयोगे, णिच् ल्युट् / | जोवारी-स्त्री०(देशी) धान्ये, दे० ना० 3 वर्ग। संयोगकरणे, वाच / संबन्धने, प्रश्न 1 आश्र० द्वार / उत्त० / चतु- जोव्वण-न०(यौवन) यूनो भावः-अण्।" औत् औत्" / / 8 / 11156 !! गव्यूताऽऽत्मके अध्वमानविशेषे, जं०२ वक्ष० स्था०।" चउ-गाउए इति प्राकृतसूत्रेणाऽऽदेरौत ओकारः / प्रा०१ पाद।" तैलाऽऽदौ / / जोयणे पण्णत्ते। " स०१ सम० भ०।आ० म०। प्रज्ञा०।" चउहत्थं 8 / 2 / 68 / इति प्राकृतसूत्रेणानादौ वर्तमानस्यान्त्यस्यानन्त्यस्य च पणधणुहं, दुन्नि सहस्साइ गाउअंतेसिं / चत्तारि गाउआ पुण, जोअणमेगं व्यञ्जनस्य द्वित्वम् / प्रा०२ पाद / तारुण्ये, प्रश्न०४ सम्ब० द्वार / मुणेयव्वं " / / 1 / / प्रव० 256 द्वार।" अट्टेव धणुसहस्सा, जोयणमाणं ज्ञा० / पं०व०। नि० चू०।" निरुवहयसर-सजोव्वणकक्कसतरुणवयपमाणेणं / "ज्यो०२ पाहु०। भावमवगयाओ।" निरुपहतं रोगाऽऽदिना अवाधितं सरसंच शृङ्गाररसंप्रति मागधयोजनमाह सोपेतं निरुपहतो वा स्वो रसो यत्र तत्तथाविधं यौवनं, तथा मागहस्स णं जोयणस्स अट्ठधणुसहस्साइं नीहारे पण्णत्ते। कई शोऽश्लयाङ्गतया यस्तरुणवयोभावस्तारुण्य, तं चोपगता यास्तास्तथा / इह च यौवनतरुणभावयोर्यद्यप्येकार्थता, तथापि " मागह " इत्यादि / मगधेषु भवं मागधं मगधदेशव्यवहृतं, तस्य सरसत्वाश्लथाङ्गत्वलक्षणयोर्मनःशरीराश्रितयोः प्रधानतया विवक्षितयोजनस्याध्वमानविशेषस्याष्टधनुःसहस्राणि नीहारो निर्गमः, प्र योधर्मयोराधारतया भेदेन विवक्षणाद् न पौनरुवत्यमिति / औ०।" माणमिति यावत् / (निहत्ते त्ति) क्वचित्पाठः / तत्र निधत्तं निकाचितं जोव्वणेण य संपण्णे / " उत्त०२१ अ०। यौवनं परमस्तरुणिमेति। निश्चितं, प्रमाणमिति गम्यते। इदंच प्रमाणं परमाण्वादिन क्रमेणावसेयम्। प्रज्ञा० 35 पद०।" आषोडशाद् भवेद् बालस्ततस्तरुण उच्यते। वृद्धः तथाहि स्यात्सप्ततेरुद्धम् , "इत्युक्तलक्षणेऽवस्थाभेदे," अह जोव्वणं समणु" परमाणू तसरेणू , रहरेणू अग्गयं च बालस्स। पत्तो।" यौवनं वयोविशेषलक्षणमिति / आ० म०१ अ० 2 खण्ड। लिक्खा जूया य जवो, अट्ठगुणविवड्डिया कमसो।। 1 / / " वाच०। सूत्र०।" यौवनमुदनकाले, विदधाति विरूपकेऽपि लावण्यम्। तत्र परमाणुरनन्तानां निश्चयपरमाणूनां समुदयरूप ऊर्द्धवरेण्वादिभेदा दर्शयति पाकसमये, निम्बफलस्यापि माधुर्यम् // 1 / / इति। दश०३ अनुयोगद्वाराभिहिता अननैव संगृहीता दृश्याः, तथा पौरस्त्यादिवायु अ०।" वयो अचेइजोव्वणं च। "क्योग्रहणेनैव यौवन्यगतत्वात्तदुपादान प्रेरितस्त्रस्यति गच्छतीति त्रसरेणुः, रथगमनोत्खातो रथरेणुरिति / एवं प्राधान्यख्यापनार्थ, धर्मार्थकामानां तन्निबन्धनत्वात्सर्वययसां यौवनं चाष्टौ यवमध्यान्यङ्गुलं, चतुर्विशतिरकुलानिह-स्तः, चत्वारो हस्ता धनुः, साधीयस्तदपि त्वरितंधातीति। उक्तंच-" नइवेगसमं चंचलं, च जीवियं द्वेसहस्रेधनुषां गव्यूत, चत्वारि गव्यू-तानियोजनमिति। मागधग्रहणात् जोव्वणं च कुसुमसम ! सोक्खं च जं अणिचं, तिण्णि वितुरमाणभोजाई क्वचिदन्यदपि योजनं स्यादिति प्रतिपादितम् / तत्र यस्मिन् देशे // 1 // " आचा० 1 श्रु०२ अ० 1 उ०। षोडशभिर्धनुःशतैर्गव्यूतं स्यात्तत्र षड्भिः सहस्रैश्चतुर्भिः शतैर्धनुषां योजनं जोवणकरण-न०(यौवनकरण) कालकृतवयोऽवस्थाविशेषाऽऽत्मके भवतीति। स्था० 8 ठा० / आव०1" भरहो वि भगवओ पूर्य काऊण रसायनाऽऽद्यापादितवयोऽवस्थाविशेषाऽऽत्मके च करणभेदे, सूत्र०१ चक्करयणस्स अट्टाहिया-महिमं करियाइ, इओ निवत्ताए अट्टाहियाए तं श्रु०१ अ०१ उ०। चक्करयणं पुव्यमुहं पहावियं, भरहो सव्वबलेण तमणुगच्छिआइ, उड्डे / जोव्वणकिड्डुग-त्रि०(यौवनक्रीडक) तारुण्यावस्थायां क्रीडाकर्तरि, तथा जोयणं गतूण ठियं, ततो सा जोयणसंखा जाया '' / आव० 1 अ०। / चोक्तम्- "पियपुत्तभाइकिडगा, णत्तू किडगा य सयणकिडगा य / एते जोगीदारि योजननीमारिन योजनातिकामिनि / / | जोव्वणकिडगा, पच्छन्नपई महिलियाणं / / 1 / / " सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०१ उ०। जोयणनीहारिणा सरेणं।" योजनातिक्रामिणा शब्देन / उपा०२ अ०।। जोव्वणग-न०(यौवनक) यौवनमेव यौवनकम्।दशा० 10 अ० / यौवने, "जोयणनीहारी सरो।" तीर्थकृतामेकविंशतितम अतिशयः / स०३४ | "जोव्वणगमणुप्पत्ते। " आ० म० 1 अ० 1 खण्ड। सम०। जोव्वणगुण-पुं०(यौवनगुण) युवतीनां प्रियभाषित्वाऽऽदिके गुणे, ज्ञा० जोयणपरिमंडल-त्रि०(योजनपरिमण्डल) योजनं योजनप्रमाण | 1 श्रु०१ अ०। परिमण्डल, गुणप्रधानोऽयं निर्देशः, पारिमाण्डल्यं यस्य स योजन- जोव्वणमद-पु०(यौवनमद) तारुण्यगर्वे, " विहवावलेवनडिए-हिं जाइँ परिमण्डलः। योजनप्रमाणपरिमाण्डल्योपेते,"जोयणपरिमंडलं सुस्सर कीरति जोव्वणमएण / वयपरिणामे सरिया-इँ ताइँ हिअए खडुकति / / घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे।" रा०। 1 // " सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ० / जोयणा-स्त्री०(योजना) युज-णिच-युच्। संयोगकरणे, नि० चू०२ उ०। / जोव्वणिया-स्त्री०(यौवनिका) यौवने, रा०। " उत्तम प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत्। नीचमल्प-प्रदानेन, सदृशं च / जोसंत-त्रि०(जुषत् ) सेवमाने, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। पराक्रमैः " / / 1 / / दश०३ अ०। जोसण-न०(जोषण) सेवने, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। आव०) जोयणिज-त्रि०(योजनीय) संबन्धनीये, नि० चू०१ उ०। जोसणा-स्त्री०(जोषणा) प्रीती, सेवायां च / ' जुषी 'प्रीतिसेवनयोरिति जोयत्तिय-न०(जोगत्रिक)' जोगत्तिय ' शब्दार्थे, दश० 10 अ०। वचनात्। औ०। स०। जोव-न०(देशी) बिन्दौ, स्तोके च। दे० ना०३ वर्ग। जोसिय-त्रि०(जुष्ट) सेविते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०।
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________________ जोसियंग 1658 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ ज्झर जोसियंग-न०(योषदङ्ग) स्त्रीणासङ्गे, तथा चोक्तम्- " कार्येऽ- प्रगुणीभूतो यः स योधसज्जः। योधानां युद्धार्थं प्रगुणीभूते, जी०३ प्रति० / पीषन्मतिमा-निरीक्षते योषिदङ्गमस्थिरया। अस्निग्धया दृशाऽव-ज्ञया जोहट्ठाण-न०(योधस्थान) आलीढाऽऽदिके युद्धकालभवे योधाह्यकुपितोऽपि कुपित इव // 1 // " सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। नामङ्गविन्यासविशेष, स्था० 1 ठा० / तानि च- " लोयप्पवाए पंच जोसियाण-अव्य०(जोषित्वा) प्रीतयित्वेत्यर्थे, व्य०७ उ०। ठाणाणि / तं जहा-आलीढं, पचालीढ, वइसाह, मंडलं, समपादं / " जोह-पुं०(योध) युध्यति शत्रून प्रतिसंहरतीति योधः / युद्धं कृत्वा शत्रूणां आ० म०१ अ०२ खण्ड। " एयाणि पंच ठाणाणि लोयप्पवाएण जेतरि, उत्त०१४ अ० / शूरपुरुष, "जोहाण य उप्पत्ती। " योधानां सयणकरणछट्टाणि ति।" आ० म०१अ०२ खण्ड। आ० चू०। उत्त०। शूरपुरुषाणाम् / स्था० 10 ठा० / सुभटे," यथा योधैः कृतं युद्धम्।" तथा च योधाऽऽदिस्थानप्रतिपादनार्थमाहअष्ट०१५ अष्ट०। तेच भटेभ्यो विशिष्टतराः सहस्रयोधाऽऽदयः। औ०। आलीपच्चलीढे, वेसाहे मंडले य समपाए। भ० / रा०। ज्ञा०। सूत्र०।" सावरणो विहुच्छलिज्जइ जोहो।" बृ०१ योधानां स्थानं पञ्चविधम् / तद्यथा-आलीढं, प्रत्यालीढं, वैशाखं, उ० / सहस्रयोधित्वाभावेऽपि योधित्वमिदानीम्। मण्डल, समपाद च। एतैहिं पञ्चभिरपि स्थानयोधा यथायोग युध्यन्ते, तथा च तत एतानि योधस्थानानीति। व्य०१ उ०।" अण्णे भणंति-जं एतेसिं साहस्सीमल्ला खलु , महपाणा पुव्व आसि जोहा उ। चेव ठाणाण जहासंभवं चलिय ठितो पासतो पिट्टतो वा जुज्झति, तं छर्ट्स तत्तुल्ल नत्थि एण्हिं, किं ते जोहान होती तो?। चलियणामट्ठाणं ति।" नि० चू०२० उ०। (आलीढाऽऽदीनां स्वरूपं तत्तच्छब्दे) पूर्व योधा महाप्राणाः सहस्रमल्ला आसीरन् , इदानीं तेषां तुल्या न सन्ति, किन्त्वनन्तभागहीनाः, ततः किं ते योधा न भवन्ति ? भवन्त्येव, जोहिया-स्त्री०(योधिका) भुजपरिसर्पिणीभेदे,जी०२ प्रति०। कालौचित्येन तेषामपि युद्धकार्यकरणादिति भावः / व्य०३उ०। युध्यत ज्झड-धा०(शद् ) शातने, भ्वा०-पर०-सक०-अनिट्।" शदो ज्झडइतियोधः सुभटः, बोध इव योधः / कर्मवैरिपराभवकारके बहुश्रुताऽऽदौ, पक्खोडौ" / / 8 / 4 / 130 // इति प्राकृतसूत्रेण शीय-तेझंडादेशः / "अप्पडिहयबले जोहे, एवं हवइ बहुराए।" उत्त०११ अ०। भावे 'ज्झडइ 'प्रा०४ पाद। शीयते, अशदत्। वाचा घम् / युद्धे, वाच०। ज्झर-धा०(क्षर् ) सञ्चलने, भ्वादि०-पर०-अक०-सेट्। 'क्षरः खिर*योद्धृ-पुं०। युध-तृच् / युद्ध कर्तरि, वाच०। ज्झर-पज्झर-पचड-णिच्चल-णिटुआः " / 8 / 4 / 173 / / इति जोहजुज्झसज्ज-त्रि०(योधयुद्धसज्ज) योधानां युद्ध तन्निमित्त सज्जः / प्राकृतसूत्रेण क्षरतेझरादेशः / प्रा०४ पाद०। क्षरति, अक्षारीत्। वाच०। / इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुश्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' जकाराऽऽ-दिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्। - - - - - - - - -
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________________ 1656 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ झडिज्जंत कामगाDOODDCOप झकार . . . . . . झ-पुं०(झ)' झग' संहतो, ग्रहे, पिधाने वा डः / सुरगुरौइन्द्रे, ध्वनौ, वाच० स्वप्ने, शून्ये, ऊर्ध्वक्षेपणे, विनष्टे, विवरे, भृङ्गे, एका०को०। शब्दान्तरे, सरसीरुहसंभवे झञ्झानिले, प्रतापे, भ्रमरे, हंसके, मदे, उपाये, घर्घरध्वाने, एका०।'झ त्ति झाणस्स होइ निद्देसे। ध्यानस्य निर्देशे, आ० म०१ अ०२ खण्ड। नष्टद्रव्ये, त्रि०ा वाच०। झअ-पुं०(ध्वज)" ध्वजे वा।।८।२।२७। ध्वजशब्दे संयुक्तस्य झो वा भवति / ' झओ ' धओ / प्रा० 2 पाद / चतुष्कोणाऽऽकारे वंशदण्डोपरिस्थिते वस्त्रखण्डे, वाच01 झंकारिअ-न०(देशी)अवचयने, दे० ना०३ वर्ग। झंख-धा०(उप+आ+लभ) निन्दापूर्वकदुष्टवचने, परस्परदूषणेचा वाच०। " धातवोऽर्थान्तरेऽपि"||४|२५८। उक्तादर्थादर्थान्तरेऽपि धातवो वर्तन्ते इति उपालम्भेझङ्कादेशः। झंखइ ' उपालम्भते, भाषते वा। प्रा०४ पाद।" उपालम्भेखपचारबेल-वाः " / 8 / 4 | 156 / इत्यनेन वा उपालम्भेस्खादेशः / ' झंखइ' 'उवालम्भइ / प्रा० 4 पाद / तुष्ट, दे० ना० 3 वर्ग। *वि+लप-धा० / परिदेवनोक्तौ, वाच०।" धातवोऽर्थान्तरेऽपि / 8 / 4 / 258 / / इति विलपेझैखादेशः।" विलपे खवडवडी || 8 | 4 // 148 / / इत्यनेन वा झंखादेशः। प्रा०४ पादा *निर्+श्वस-धा० / मुखनासाभ्यन्तर्गते वायौ, वाच०।" निःश्वसेझखः " / 8 / 4 / 201 / निःश्वसे_ख इत्यादेशो भवति। झंखइ।' 'नीससइ। ' प्रा०४ पाद। झंखर-पुं०(देशी) शुष्कतरौ, दे० ना०३ वर्ग। झंखरिअ-न०(देशी) अवचयने, दे० ना०३ वर्ग। झंझ-पुं०(झञ्झ) कलहविशेषे, औ०। झंझकर-पुं०(झञ्झकर) येन येन गणस्य भेदो भवति तत्कारिणि, येन गणस्य मनोदुःखमुत्पद्यते तद्भाषिणि च / प्रश्न०३ संब० द्वार / आ० चू०। झंझकारीय-पुं०(झञ्झकारीय) झञ्झकरे, "जेण गणस्स भेदो भवति, सव्वो वा गणो झंझविओ अत्थति, तारिसं भासइ, करेइ वा। " आव० 4 अ०॥ झंझपत्त-पुं०(झज्झप्राप्त) द्वित। कलह क्रोधं मायां वा प्राप्ते, सूत्र०१ श्रु० 13 अ०। झंझा-स्त्री०(झञ्झा) झमिति कृत्वा झट्यते यत्र डः / ध्वनिभेदे, तथाध्वनियुक्ते प्रचण्डानिले च। वाच०। कलहे, बृ०३ उ० / तृष्णायाम, सूत्र०२ श्रु०२ अ०२ उ० / क्रोधे, मायायाम् , सूत्र०१ श्रु०१३ उ०। लोभेच्छायाम् , आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। विप्रकीर्णवचने, स्था०८ | टा० / व्याकुलतायां च / इष्टविषयावाप्तौ रागझञ्झा। अनिष्टावाप्तौ च द्वेषझञ्झा। आचा०१ श्रु० 3 अ०३ उ०। झंझाउर-त्रि०(झझाऽऽतुर) तृष्णाऽऽतुरे, सूत्र०२ श्रु०२ अ० / झंझावाय-पुं०(झज्झावात) अशुभे निष्टुरे सवृष्टिके च वायौ, प्रज्ञा०१ पाद। भ०। झंझिय-त्रि०(झझित) बुभुक्षिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। झंट-धा०(भ्रम) चलने, दिवा०-पर०-सक०-सेट् / वाच०।" भ्रमेष्टिरिटिल्ल-दुण्ढुल्ल-ढण्ढल्ल-चक्कम्म-भम्मड-भमड-भमाडतलअण्ट-झण्ट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-ढुम-दुस-परीप-राः"॥ 8 / 4 / 161 / / इति झंटादेशः।' झंटइ ' प्रा० 4 पाद। स्त्रियां डीए / लघू कशेषु, दे० ना०३ वर्ग। झंटलिअ-स्त्री०(देशी) चक्रमणे, दे० ना०३ वर्ग। झंडअ-पुं०(देशी) पीलुवृक्षे, दे० ना० 3 वर्ग। झंडल-स्त्री०(देशी) असत्याम् , क्रीडाणां च। दे० ना०३ वर्ग। झंतर-न०(ध्यन्तर) धियो बुद्धेरन्तरं विशेषो ध्यन्तरम्। विशिष्ट-बुद्धौ, अने० 4 अधि०। झंतरजोग-पु०(ध्यन्तरयोग) ध्यन्तरेणोपलक्षिते सम्यड्मनोवाकाय व्यापाररूपे असम्यड्मनोवाक्कायनिषेधरूपे योगे, अने० 4 अधिक। झंप-धा०(भ्रम) चलने, भ्वा०-पर०-सक०-सेट् / वाच / " भ्रमेष्टिरिटिल्ल०-"||८|४|१६१ // इत्यादिना झंपादेशः। झंपइ 'प्रा० ४पाद। झंपणी-स्त्री०(देशी) पक्ष्मणि , दे० ना० 3 वर्ग। झंपिअ-न०(देशी) त्रुटिते, घट्टिते च। दे० ना०३ वर्ग। झंसइ-क्रिया(देशी) संतप्यते, विलपति, उपालभते, निःश्वसिति च। दे० ना०३ वर्ग। झक्किअ-न०(देशी) वचनीये, दे० ना०३ वर्ग। झज्झर-पुं०(झझर) झर्झ-अरन्। वाच०।" नादियुज्योरन्ये-षाम् / 8 / 5 / 327 / चूलिकापैशाचिकेऽप्यन्येषामाचार्याणां मतेन तृतीयतुर्ययोरादौ वर्तमानयोः युजि धातौ चाद्यद्वितीयौ न भवतः / झज्झरो, झच्छरो। प्रा०४ पाद। झांझ' इति ख्याते वाद्यभेदे, पटहे, कलियुगे, नदभेदे, वाच०। झज्झरिय-त्रि०[ झर्झरित(जर्जरित)] सतन्त्रीककरटिकाऽऽदिवाद्यशब्दवाते, स्था०१०टा०। झज्झरी-स्त्री०(देशी) स्पर्शपरिहायार्थे, चण्डालाऽदीनां हस्तयष्टौ, दे० ना०३ वर्ग। झडप्पर-न०(झटिति) वेगे, ढुं० 4 पाद। दिअहा जन्ति झडप्पडहिँ, पडहिँ मणोरह पच्छि।' प्रा० 4 पाद 388 सूत्र / झडिजंत-त्रि०(झीर्यमाण) हीयमाने, "वासासु सीतवातेहिं झडिजंतो।" आव०१अ०।
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________________ झडिल 1660- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झवण झडिल-त्रि०(जटिल)" जटिले जो झो वा' // 811 / 164 / / जटिले त्ति) मृदुको, मन्दमन्द इति यावत्। एवंविधो यो (मारुअ ति) मारुतो जस्य झो वा भवति।' झडिलो'- 'जडिलो ' निविडे, प्रा० १पाद। वायुः, तस्य (लय त्ति) लय आश्लेषो, मिलनमिति यावत्। तेन (आहय झडी-स्त्री०(दशी) निरन्तरवृष्टी, दे० ना० 3 वर्ग। त्ति) आहत आन्दोलितो यः / तत किंविशिष्टम् ?-(अइप्पमाणं ति) झत्थ-न०(देशी) गते, नष्टे च। दे० ना०३ वर्ग। अतिप्रमाणम् , महान्तम् इत्यर्थः / पुनः किंविशिष्टम् ?-(जणपिचणि जरूवं ति) जनानां प्रेक्षणीयं द्रष्टुं योग्यं रूवं स्वरूपं यस्य स तथा तम्। झमाल-न०(देशी) इन्द्रजाले, दे० ना० 3 वर्ग। कल्प० 3 क्षण / आ० म०। खट्वाऽङ्गे, मेढ़े चा।नावाचा स्त्रियां झय-पुं०(ध्वज) ध्वज-अच् / शौण्डिके, सर्पे च / वाच० / चक्रसिंहा टाप। औ०। ज्ञा०नि०। स्था० विपा०1 ऽऽदिलाञ्छनोपेते, भ०६ श० 33 उ० / चतुष्कोणाऽऽकारे वंशद झर-धा०(स्मर) स्मरणे, भ्वा०-पर०-सकल-अनिट् / " स्मरेझर-झूरण्डोपरिस्थिते वस्त्रखण्डे, वाच०। औ० / चतुर्दशानामष्टमे स्वप्नभेदे, भर-भल-लढ-विम्हर-स्मर-पयर-पम्हुहाः " / 8 / 4 / 74 / इति कल्प०। झरादेशः। झरइ। प्रा० 4 पाद। तओ पुणो जचकणगलट्ठिपइट्टि समूहनीलरत्तपीअसुक्किल्लसुकुमालुल्लसियमोरपिच्छकयमुद्धयं झयं अहियसस्सिरीयं झरअ-पुं०(देशी) सुवर्णकारे, दे० ना०३ वर्ग। फालिअसंखंककुंददगरयरययकलसपंडुरेणं मत्थयत्थेण सी झरंक-पुं०(देशी) तृणमयपुरुषे, दे० ना० 3 वर्ग। हेण रायमाणेण रायमाणं भित्तुं गगणतलमंडलं चेव ववसिएणं झरग-पु०(ध्यातृ) ध्यायतीतिध्याता।ध्यानकर्त्तरि," भणगं करगं झरगं, पिच्छइ सिवमउयमारुयलयाहयकंपमाणं अइप्पमाणं जण- पभावगं गाणदंसणगुणाणं।" तं०। पिच्छणिज्जरूवं॥ झरण-स्त्री०(झरण) क्षरणे, व्य०१3०। " तओ पुणो जच" इत्यादितः " जणपिच्छणिजस्वं " इतिप- झरणा-स्त्री०(झरणा) क्षरणे, आ०म०१ अ०२ खण्ड। र्यन्तम् / ततः सा त्रिशला पुनरष्टमे स्वप्ने (झयं ति) ध्वज पश्यति। किं झरुअ-पुं०(देशी) मशके, दे० ना०३ वर्ग। विशिष्टं ध्वजम् ?-"जचकणग " इत्यादि। जात्यम् उत्तमजातीये यत् झरेयव्व-त्रि०(स्मर्त्तव्य) परिचेतव्ये, बृ०५ उ०। (कणगं ति) कनकं सुवर्णं तस्य (लहि त्ति) यष्टिः, तत्र (पइट्ठिअंति) झलक्किअ-त्रि०(दग्ध) भरमीभूते, " तक्ष्यादीनां छोल्लाऽऽद यः " / 8 प्रतिष्ठितं, सूवर्णमयदण्डशिखरे स्थितमित्यर्थः। पुनः किं विशिष्टम् ? / 4 / 365 / इति दहस्य झलक्कादेशः, क्तप्रत्यये " स्व-राणां०-"१८ (समूह त्ति) समूहीभूतानि, बहूनि इत्यर्थः / (नीलरत्तपीअसुकिल्ल त्ति) ।४।२३८।क-किः, " कगच०-"।८।१।१७७। तलुक्। स्वार्थ कः नीलरक्तपीतशुक्लवर्णमनोहराणीत्यर्थः / (सुकुमाल त्ति) सुकुमालानि / स्-१-१।" कग०1८1१।१७७। कलुक्।" स्यमोरस्योत्"। (उल्लसिय ति) उल्लसन्ति, वातेन लहलहायमानानि इत्यर्थः / 8 / 4 / 331 / ' अउ 'झल-किअउ / ढुं०४ पाद।" सासानलएवंविधानि यानि (मोरपिच्छ त्ति) मयूरपिच्छानि, तैः कृता मूर्द्धजा इव झलक्किअउ, वाहसलिलससित्तउ।" प्रा० 4 पाद 365 सूत्र। केशा इव यस्य स तथा तम्। अयमर्थः-यथा मनुष्यशिरसि वेणिर्भवति, तथा तस्य ध्वज-स्य वर्णस्थाने मयूरपिच्छसमूहः स्थापितोऽस्तीति। *झलक्कित-त्रि० / भस्मीभूते, प्रा०४ पाद। पुनः किं विशिष्ट म् ?-(अहियसस्सिरीय ति) अधिकसश्रीकम् , झलझलिआ-स्त्री०(देशी) क्षोलिकायाम् , दे० ना०३ वर्ग। अतिशोभितम् इत्यर्थः / पुनः किं विशिष्टम् ?-एवं विधेन सिंहेनराजमानस् झला-स्त्री०(देशी) मृगतृष्णायाम् , दे० ना० 3 वर्ग। इति विशेषणयोजना। अथ कीदृशेन सिंहेन ?-" फालिय" इत्यादि। झलुसियअ-न०(देशी) दग्धार्थे, दे० ना० 3 वर्ग। स्फटिक रत्नविशेषः, शङ्खः प्रसिद्धः, अकोऽपि रत्नविशेषः, (कुंद त्ति) झलुंकिअ-न०(देशी) दग्धार्थे, दे० ना०३ वर्ग: कुन्दस्य धवलपुष्फविशेषस्य माल्यम् , (दगरय त्ति) दकरजासि जलकणाः, (रययकलस त्ति) रजतकलशो कप्यघटः, (पंडुरेण त्ति) झल्लरी-स्त्री०(झल्लरी) झर्झति झर्झ-अरन्-पृ० / वाच०। उभ-यतो विस्तीर्णे चविनद्धमुखे मध्ये सङ्क्षिप्ते ढक्काकारे वाद्यभेदे, आ० म०१ उक्तसर्ववस्तुवत् उज्ज्वलवर्णेन, (मत्थयत्थेण त्ति) मस्तकस्थितेन, चित्रतया ध्वजशिरसि आलेखितेनेत्यर्थः / पुनः कीदृशेन सिंहेन ? अ०१ खण्ड। प्रज्ञा० जी० / अल्पोच्छ्ये महामुखे, (म०६ श०३३ (रायमाणेण ति) राजमानेन, सुन्दरत्वात् शोभमानेनेत्यर्थः। (रायमाणं उ०) चतुरङ्गुलनालिके करटिसदृशे बलयाकारे आतोद्यविशेषे च। आचा० ति) राजमानम् इति योजितम् / पुनः कीदृशेन सिंहेन ?-(भित्तु) भेत्तुं 1 श्रु०१ अ०५ उ०1 आ० म०। कल्प० / रा०1 औ०। ज्ञा०। विशे०। द्विधा कर्तु, किम् ?-(गगणतलमंडलं ति) आकाशतलमण्डलम्। (चेव " संखो णदह गंधारं, मज्झिमं पुणझल्लरी।" स्था०७ ठा0 1 अनु० / ति) उत्प्रेक्षायाम् (ववसि-एण ति) सोद्यमे नेव / अयमर्थ: झल्लरीसंठिय-त्रि०(झल्लरीसस्थित) झल्लरीसंस्थानवति, अध्वजस्तावद्वायुतरङ्गेण कम्पते। कम्पमाने च ध्वजे सिहोऽपि गगनं प्रति ल्पोच्छ्रायत्यान्महाविस्तारत्वाच / तिर्यग्लोकक्षेत्रलोको झल्लउच्छलति / तथा च उत्प्रेक्षते-अयं सिंहः किं गगनतलं भेत्तुम् उद्यम रीसंस्थितः। भ०११ श० 10 उ० / स्था०। करोतीति ? (पिच्छइ ति) प्रेक्षते इति प्राग्वत् / अथ पुनः किं विशिष्ट | झवण-न०(ध्यापन) उपशमश्रेण्या कर्मानुदयलक्षणे विध्यापने, आचा० ध्वजम् ?-" सिव' इत्यादि। शिवः सौम्यः सुखकारी, अतएव (मउअ | १श्रु०६ अ०१ उ०।
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________________ झवणा 1661 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण झवणा-स्त्री०(क्षपणा) क्षपणाऽपचयो निर्जरा पापकर्मणामस्मा-दिति क्षपणा / विशे० (661 गाथा)।" पावाण खवण त्ति " पापकर्मक्षपणहेतुत्वात्क्षपणा। भावाध्ययने सामायिकाऽऽदिश्रुतविशेषे, अनु०। स्था०। (अस्या निक्षेपस्तु' खवणा ' शब्दे तृतीयभागे 733 पृष्ठे गतः) झस-पुं०(झष) झष्यते कर्मणि घः। मत्स्ये, जी०३ प्रति०। वाच०।तं० / जं० प्रश्न०। विशे० / ज्ञा०। मीनराशौ च। भावे घः। तापे, अच्। खिले वने च / न० / नागवल्ल्याम् , स्त्री० / वाच०।" झस-विहगसुजायपीणकुच्छी।" जी०३ प्रति०। जं०। टङ्कच्छिन्ने, अयशसि, तटे, तटस्थे, दीर्घगम्भीरे च। दे० ना०३ वर्ग। झसिअ-न०(देशी) पर्यस्ते, आकृष्ट च / दे० ना०३ वर्ग। झसुर-न०(देशी) ताम्बूले, अर्थे च। दे० ना०३ वर्ग। झाअइ-स्त्री०(ध्याति)" स्वरादनतो वा "|8| 4 / 240 / अकारान्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातोरन्तेऽकाराऽऽगमो वा भवति। ' झा-इ'।' झाअइ / प्रा०४ पाद। ध्याने, स्था०६ ठा०। आव०॥ झाइ-स्त्री०(ध्याति) झाअइ शब्दार्थे, प्रा०४ पाद। झाइय-त्रि०(ध्यात) अनुप्रेक्षिते, स्था०३ ठा० 4 उ०। झाइयव्व-त्रि०(ध्यातव्य) ध्येये, आव०४ अ०। झाउल-न०(देशी) कासिफले, दे० ना० 3 वर्ग। झाड-पुं०(झाट) झट्-णिच् अच् / निकुञ्ज कान्तारे, व्रणाऽऽदौनां च | मार्जने, वाच०। लतागहने, दे० ना०३ वर्ग। झाडन-न०(झाटन) झोषे, स्था०५ ठा०२ उ०। प्रस्फोटने, स्था०५ / ठा०२ उ०। झाण-न०(ध्यान) ध्यै 'चिन्तायाम्। आ० चू०४ अ0/ ध्यायते चिन्त्यते वस्त्वनेन, ध्यातिर्वा ध्यानम्। प्रव०६ द्वार।" साध्व-सध्सह्यां झः // 8 / 2 / 26 // इति ध्यस्य झः। प्रा०२ पाद / चिन्तायाम् , आ० चू०४ अ०। परिणामस्थिरतायाम, अष्ट०६ आए / एकाऽऽलम्बनसस्थस्य सदृशप्रत्ययस्य च प्रत्ययान्त-नियुक्तप्रवाहे, षो० 12 विव० / आन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालमेकाग्रचित्त-ताऽध्यवसाने, प्रव०६ द्वार / एकावलम्बनेन मनःस्थैर्ये, विशे०। सूत्र० / योगनिरोधे, स०१ सम०। प्रश्न०। पञ्चा०। स्था०। ग०। सूत्र०। विषयसूची(१) ध्यानस्वरूपम्। (2) ध्यानस्य चातुर्विध्यम्। (3) ध्यानाध्यानयोविवेचनम्। ध्यानस्यैव भेदनिरूपणम्। (5) प्रशस्ताप्रशस्तानि ध्यानानि / (6) शुभाशुभध्यानस्य विशेषतो वर्णनम्। (7) धर्मध्यानस्य वर्णनम्। (8) तत्र प्रसङ्गत्तो ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्यभावनानां स्वरूपप्रदर्शनम्। (8) देशद्वारे परिणतापरिणतयोगानां स्थाननिदर्शनम्। (10) कालाऽऽसनाऽऽलम्बनक्रमद्वाराणि / (11) ध्यातव्यद्वारे ध्यातव्यभेदप्रतिपादनम्। (12) ध्यातुः स्वरूपस्य निरूपणम्। (13) तत्रानुप्रेक्षालेश्यालिङ्गद्वाराणि / (14) फलद्वारे आलम्बनाऽऽदिविस्तरः। (15) ध्यातव्यद्वारस्य विशेषतो विवरणम्। (16) संसारप्रतिपक्षतया मोक्षहेतुानमिति निरूपणम्। (17) ध्यानाष्टकेन ध्यानस्य फलाऽऽदिनिरूपणम् / (1) ध्यानस्वरूपम्उपयोगे विजातीय-प्रत्ययाव्यवधानभाक् / शुभैकप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माऽऽभोगसमन्वितम्॥११॥ (उपयोग इति) उपयोगे स्थिरप्रदीपसदृशे धारालग्ने ज्ञाने, विजातीयप्रत्ययेन तद्विच्छेदकारिणा विषयान्तरसंचारेणालक्ष्यकालेनापि, अव्यवधानभागनन्तरितः, शुभैकप्रत्ययः प्रशस्तैकार्थबोधो, ध्यानमुच्यते, सूक्ष्माऽऽभोगेनोत्पाताऽऽदिविषय-सूक्ष्माऽऽलोचनेन, समन्वितं सहितम्। द्वा०१८ द्वा० / ध्यानं च विमले बोधे, सदैव हि महात्मनाम्। सदा प्रसृमरोऽनभे, प्रकाशो गमने विधोः // 20 // (ध्यानं चेति) विमले बोधे च सति, महात्मनां सदैव हि ध्यानं भवति, तस्य तन्नियतत्वात् / दृष्टान्तमाह-अनभ्रेऽभ्ररहिते गगने, विधोरादितस्य प्रकाशः सदा प्रसृमरोभवति, तथाऽवस्थास्वाभाव्यादिति। द्वा०२४ द्वा०। (2) तच्चतुर्विधम्चत्तारि झाणा पण्णत्ता / तं जहा-अट्टे झाणे, रोद्धे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे। सुगमं चैतद्-नवरं-ध्यातयो ध्यानानि, अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं कालं चितस्थिरतालक्षणानि / उक्तं च- " अंतो मुहुत्तमित्तं, चित्ताऽवत्थाणमेगवत्थुम्मि। छउमत्थाणं झाणं, जोगनिरोहो जिणाणं ति // 1 // तत्र ऋतंदुःखं, तस्य निमित्तं, तत्र वा भवम् , ऋते वा पीडितेभवमार्तध्यानं, दुष्टोऽध्यवसायो हिंसाऽऽद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रं, श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्य, शोधयत्यष्टप्रकार कर्ममलं, शुचं वा क्लमयतीति शुक्लम् / स्था० 4 ठा० 1 उ० / विशे० / ध० / भ० / ग०। औ० / आ० चू० / तत्र ध्यातिर्ध्यानमिति भावसाधनः, तत्पुनः कालतोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रं, भेदतस्तु चतुःप्रकारमार्ताऽऽदिभेदेन, ध्येयप्रकारास्त्वमनोज्ञविषयसम्प्रयोगाऽऽदयः / तत्र शोकाऽऽक्रन्दनविलपनाऽऽदिलक्षणमात, तेन उत्सन्नवधाऽऽदिलक्षणं रौद्रं, तेन जिनप्रणीतभावश्रद्धानाऽऽदिलक्षणं धर्म्य, तेन अवधासंमोहाऽऽदिलक्षण शुक्लम् / तेन फलं पुनरेषां तिर्यड्नरकदेवगत्या विमोक्षाऽऽख्यमिति क्रमेण अयं ध्यानसमासार्थः / व्यासार्थस्तुध्यानशतकादवसेयः / तच्चेदं ध्यानशतकम् -अस्य च महार्थत्वाद्वस्तुतः शास्त्रान्तरत्वात् प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमाहवीरं सुक्कज्झाण-ऽग्गिदडकम्मिंधणं पठमिऊणं / जोईसरं सरण्णं, झाणज्ायणं पवक्खामि / / 1 / / वीरं शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धनं, प्रणम्य, ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीति योगः। तत्र' ईर 'गतिप्रेरणयोरित्यस्य विपूर्वस्याजन्तस्य विशेषेण ईरयति कर्म गमयति, याति वेह शिवमिति वीरः, तं वीरं, किं विशिष्ट म् ? इत्यत आह-शुचं क्लामवतीति शु
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________________ झाण 1662 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण क्ल, शोकं ग्लपयतीत्यर्थः / ध्यै -ध्यायते चिन्त्यतेऽनेन तत्त्व-मिति ध्यानम् , एकाग्रचित्तनिरोध इत्यर्थः / शुक्लं च तद् ध्यानं च, तदेव कर्मेन्धनदहनादग्निः शुक्लध्यानाग्निः, तथा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगैः क्रियत इति कर्मज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदि, तदेवातितीवदुःखानलनिबन्धतत्वादिन्धनं कर्मेन्धनं, ततश्च शुक्लध्यानाग्निना दग्धं स्वस्वभावापनयनेन भस्मीकृतं कर्मेन्धनं येन स तथाविधः, तं प्रणम्य, प्रकर्षण मनोवाकाययोगैर्नत्वेत्यर्थः / किम् ? समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानाध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीति योगः / तत्राधीयत इत्यध्ययनं, कर्मणि ल्युट्, पठ्यत इत्यर्थः / ध्यानप्रतिपादकमध्ययनं ध्यानाध्ययनम्। तद्याथात्म्यमङ्गीकृत्य प्रकर्षण वक्ष्येऽभिधास्ये, किंविशिष्ट वीरं प्रणम्य ? इत्यत आह-योगेश्वरं, योगीश्वरं वा / तत्र युज्यन्त इति योगा मनोवाक्कायव्यापारलक्षणाः, तैरीश्वरः प्रधानः, तम्। तथाहि-अनुत्तरा एव भगवतो मनोवानायव्यापारा इति। यथोक्तम्" दव्वमणोजोएणं, मणनाणीण अणुत्तराणं च। संसयवोच्छित्ति के-वलेण नाऊण सति कुणइ॥१॥ रिभियपयवखरसरला मिच्छितरतिरिच्छसगिरपरिणामा। मणणेव्वाणी वाणी, जोयणनीहारिणी चेव // 2 // एक्का य अणेगेसिं, संसयवोच्छेयणम्मि अपडिहया। नय निविज्जइ सोआ, तिप्पइ सव्वाछएणं पि॥३॥ सव्वसुरेहिंतो वि हु, अहिगो कंलो य कायजोगो से। तह वि य पसंतरूवे, कुणइ सया पाणिसंघाए"। 4 / / इत्यादि। युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानाऽऽदिनाऽऽत्मेति योगो धर्मशुक्लध्यानलक्षणः। स येषां विद्यते इति योगिनः साधवः, तैरीश्वरः, तदुपदेशेनतेषा प्रवृत्तेः, तत्संबन्धादिति / तेषां वा ईश्वरो योगीश्वरः प्रभुः स्वामीत्यनर्थान्तरम् / तं योगीश्वरम् / अथवा योगिस्मार्ययोगिनां चिन्त्य, ध्येयमित्यर्थः / पुनरपिस एव विशेष्यते-शरण्य-तत्रशरणे साधुः शरण्यः, तं रागाऽऽदिपरिभूताऽऽश्रितसत्त्ववत्सल, रक्षकमित्यर्थः, ध्यानाध्ययन प्रवक्ष्यामीत्येतद्व्याख्यातमेव। अत्राऽऽह-यः शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धनः स योगीश्वर एव, यश्व योगीश्वरः स शरण्य एवेति गतार्थे विशेषणे / न। अभिप्रायापरिज्ञानात्। इह शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धनः सामान्यकेवल्यपि भवति, न त्वसौ योगेश्वरः, वाकायातिशयाभावात् / स एव च तत्त्वतः शरण्य इति ज्ञापनार्थमेवादुष्टमेतदपि / तथा चोभयपदव्यभिचारे एकपदव्यभिचारे अज्ञातज्ञापनार्थं च शास्त्रे विशेषणाभिधानमनुज्ञातमेव पूर्वमुनिभिरित्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः // 1 // (3) साम्प्रतं ध्यानाध्यानलक्षणं प्रतिपादयन्नाहजं थिरमज्झवसाए, तं झाणं जं चलं तयं चित्तं / तं हुज्न भावणा वा, अणुपेहा या अहव चिंता।।२।। यदित्युद्देशः, स्थिरं निश्चलम् , अध्यवसान, मन एकाग्रताऽऽलम्बनमित्यर्थः। तदिति निर्देशे, ध्यानप्राङ्निरूपितशब्दार्थम्। ततश्चैतदुक्तं भवतियत्स्थिरमध्यवसानं तद्ध्यानमभिधीयते, यच्चलमिति यत्पुनरनवस्थितं तचित्तम् / तचौधतस्त्रिधा भवतीति दर्शयति। तद्भवेद्भावना वेतितचित्तं भवेत् / का? भावनाभाव्यत इति भावना, ध्यानाभ्यास क्रियेत्यर्थः / वा विभाषायां, अनुप्रेक्षा वेति-अनुपश्चाद्भाये, प्रेक्षणं प्रेक्षा, सा च स्मृतिः, ध्यानादृष्टस्य चित्तचेष्टेत्यर्थः / वा पूर्ववत्। अथवा (चिते त्ति) अथवाशब्दः प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः / चिन्तेतिवा खलूक्तप्रकारद्वयरहिता मनश्चेष्टा, सा चिन्तेति गाथार्थः / / 2 / / इत्थं ध्यानाऽध्यानलक्षणमोघतोऽभिधायाधुनाऽध्यानमेव का लस्वामिभ्यां निरूपयन्नाहअंतोमुत्तमित्तं, चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि। छउमत्थाणं झाणं, जोगनिरोहो जिणाणं तु // 3 // इह मुहूर्तः सप्तसप्ततिलवप्रमाणः कालविशेषो भण्यते / (आव०) अन्तर्मध्यकरणे, ततश्च अन्तर्मुहूर्त्तमात्र, कालमिति गम्यते / मात्रशब्दस्तदधिककालव्यवच्छेदार्थः। ततश्च भिन्नमुहूर्तमेव कालम् , किम् ? चित्तावस्थानमितिचित्तस्य मनसः, अवस्थानं चित्तावस्थानम् , अवस्थितिरवस्थानं, निष्प्रकम्पतया वृत्तिरित्यर्थः। क्व? एकवस्तुनिएकमद्वितीय, वसन्त्यस्मिन् गुणपर्याया इति वस्तुचेतनाऽऽदि : एकं च तद्वस्तु च एकवस्तु, तस्मिन् / छद्मस्थानां ध्यानमितितत्र च्छादयतीति छद्म-पिधानं, तच ज्ञानाऽऽदीनां गुणानामाचारकत्वाद्ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिलक्षणं घातिकर्म, छद्मनि स्थिताः छदास्थाः, अकेवलिन इत्यर्थः / तेषां छद्मस्थानां, ध्यानं प्राग्वत्। ततश्चायं समुदायार्थः-अन्तर्मुहूर्त्तकालं यचित्तावस्थानम् एकस्मिन् वस्तुनि तत् छद्मस्थानां ध्यानमिति / योगनिरोधो जिनानां त्विति। तत्र योगास्तत्त्वत औदारिकाऽऽदिशरीरसंयोगसमुत्था आत्मपरिणामविशेषव्यापारा एव / यथोक्तम्-" औदारिकाऽऽदिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौ-दारिकवैक्रियाऽऽहारकशरीरव्यापाराऽऽहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो वाग्योगः ; तथौदारिकवैक्रियाऽऽहारकशरीरव्यापाराऽऽहतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोग इति / अमीषा निरोधो योगनिरोधः, निरोधनं निरोधः, प्रलयकरणमित्यर्थः / केषां ? जिनानां केवलिना, तुशब्द एवकारार्थः / स चावधारणे, योगनिरोध एव, नतु चित्तावस्थानं, चित्तस्यैवाभावात्। अथवा योगनिरोधो जिनानामेय ध्यानं, नान्येषाम् , अशक्यत्वादित्यलं विस्तरेण / यथा चायं योगनिरोधो जिनानां ध्यानं यावन्तंच कालं तद्भवत्येतदुपरिष्टाद्वक्ष्याम इति गाथार्थः // 3 // साम्प्रतं छद्मस्थानामन्तर्मुहूर्तात्परतो यद्भवति, तदुपदर्शयन्नाहअंतोमुहुत्तपरओ, चिंता झाणंतरं व हुजाहि। सुचिरं वि हुज्ज बहुव-त्थुसंकमे झाणसंताणो॥४|| अन्तर्मुहूर्तात्परत इति-भिन्नमुहूर्तादूर्द्ध, चिन्ता प्रामुक्तस्वरूपा, तथा ध्यानान्तरं वा भवेत्। तत्रेहनध्यानादन्यद्ध्यानं ध्यानान्तरं परिगृह्यते, किं तर्हि ? भावनाऽनुप्रेक्षाऽऽत्मकं चेत इति / इदं च ध्यानान्तरं तदुत्तरकालभाविनि ध्याने सति भवति, तत्राप्ययमेव न्याय इति कृत्वा ध्यानसन्तानप्राप्तिर्यतः, अतस्तमेव कालमानं वस्तुसंक्रमद्वारेण निरूपयन्नाह-सुचिरमपि प्रभूतमपि, कालमिति गम्यते / भवेत् . बहुवस्तुसंक्रमे सति, ध्यानसन्तानो ध्यानप्रवाह इति / तत्र बहूनि च तानि वस्तूनि बहुवस्तूनि, आत्मगतपरगतानि गृह्यन्ते। तत्राऽऽत्मगतानि मनःप्रभृतीनि, परगतानि द्रव्याऽऽदीनीति,तेषु संक्रमः संचरणमिति गाथार्थः।। 4 ||
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________________ झाण 1663 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण (4) अथ ध्यानस्यैव भेदानाहकायाऽऽदितिहिकिकं, तिव्वं मउयं च मज्झं च / जह सीहस्स गतीओ, मंदा य पुता दुया चेव / / पुनर्दृढाध्यवसायाऽऽत्मकं चित्तं त्रिधाकायिक, वाचिक, मानसिकं च। कायिकं नामयत्कायव्यापारेणोपयुक्तो भङ्गकचारणिकां करोति, कूर्मवद्वा संलीनाङ्गोपाङ्गस्तिष्ठति। वाचिकं तुमयेदृशी निरवद्या भाषा भाषितव्या, नेदृशी सावद्येति विमर्शपुरस्सरं यद्भाषते / यद्वाविकथाऽऽदिव्युदासेन श्रुतपरावर्तनाऽऽदिकमुपयुक्तः करोति तद्वाचिकम्। मानसं तु-एकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता / पुनरेकैकं त्रिविधं-तीव्र, मृदुकं च, मध्यं च / तत्र तीव्रमुत्कटम् , मृदुकं च मन्दम् , मध्यं च-नातितीव्र नातिमृदुकमित्यर्थः / यथा सिंहस्य गतयस्तिस्रो भवन्ति। तद्यथा-मन्दा च, प्लुता, द्रुता च। तत्र मन्दाविलम्बिता, प्लुतानातिमन्दा नाति त्वरिता, दुताअतिशीघ्रवेगा। बृ० 1 उ० / दर्श०।। इत्थं तावत् सप्रसङ्ग ध्यानस्य सामान्येन लक्षणमुक्तम् ; अधुना विशेषलक्षणाभिधित्सया ध्यानोद्देशं विशिष्टफलहेतु भावंच सङ्केपतः प्रदर्शयन्नाह (5) प्रशस्ताप्रशस्तानि ध्यानानिअझै 1 रुदं 2 धम्मं 3, सुक्कं 4 झाणाइँ तत्थ अंताई। निव्वाणसाहणाई, भवकारणमट्टरुदाई / / 5 / / आर्त्त, रौद्रं, धर्म, शुक्लम् / तत्र ऋतं दुःखं, तन्निमित्तो दृढोऽध्यवसायः, ऋते भवमार्त्त, क्लिष्टमित्यर्थः / हिंसाऽऽद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम् / चरणश्रुतधर्मानुतं धर्मम् / शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं, शुचं वा क्लामयतीति शुक्लम्। अमूनिध्यानानि वर्तन्ते। अधुना फलहेतुत्वमपदर्शयति-तत्र ध्यानचतुष्टये, अन्ते चरमे-सूत्रक्रमप्रामाण्याद्धर्मशुक्ले इत्यर्थः / किम् ? निर्वाणसाधने / इह नितिनिर्वाण, सामान्येन सुखमभिधीयते। तस्य साधने, कारणे इत्यर्थः / ततश्च-'' अट्टेण तिरिक्खगति, रोद्दज्झाणेण गम्मती नरयं / धम्मेण देवलोय, सिद्धिगतिं सुक्कझाणेणं॥१॥" इति युदक्तं, तदपि न विरुध्यते। देवगतिसिद्धिगत्योः सामान्येन सुखसिद्धेरिति। अथापि निर्वाणं मोक्षः, तथाऽपि पारम्पर्येण धर्मध्यानस्यापि तत्साधनत्वादविरोध इति / तथा भवकारणमातरौद्रे इति। तत्र भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः-संसार एव, तथा-ऽप्यत्र व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तेस्तिर्यनारकभवग्रह इति गाथार्थः / / 5 / / आव०४ अ०। सम्म०। (6) अथ शुभाशुभध्यानज्ञापनार्थमिदमाहवण्णरसगंधफासा, इट्ठाणिट्ठा विभासिया सुत्ते। अहिकिच्च दव्वलेसा, ताहि उसाहिज्जई भावो।। सूत्रे प्रज्ञापनाऽऽदौ, कृष्णाऽऽदीनां लेश्यानां यद्वर्णगन्धरसस्पर्शाः, इष्टा अनिष्टाश्च, विभाषिता विविधमनेकैरुपमानैर्वर्णिताः / (लेश्यावर्णनं ' लेस्सा ' शब्दे वक्ष्यते) तदेतत् सर्वमपि द्रव्यलेश्या अधिकृत्य प्रतिपत्तव्यम् / ताभिश्च द्रव्यलेश्याभिः शुभाशुभाध्यवसायरूपः साध्यते भावः। बृ० 1 उ०। आव०। दर्श०। (आर्तध्यानवक्तव्यता 'अदृज्झाण' शब्दे प्रथमभागे 235 पृष्ठे निरूपिता रौद्रध्यानवक्तव्यता तु 'रोद्दज्झाण' शब्दे वक्ष्यते) धर्मशुक्लध्यानयोस्तु परमार्थतो ध्यानत्वादिहैव व्याख्या। (7) साम्प्रतं धर्मध्यानावसरः, तत्र तदभिधित्सवै वाऽऽदाविदं द्वारगाथाद्वयमाहझाणस्स भावणाओ, देसं कालं तहाऽऽसणविसेसं / आलंबण कम्मं झा-इअव्वयं जे अ झायारो // 28!! तत्तोऽणुप्पेहाओ, लेस्सा लिंगं फलं च नाऊण। धम्मं झाइज मुणी, तक्कयजोगो तओ सुकं / / 26 / / ध्यानस्य प्राड्निरूपितशब्दार्थस्य, किम् ? भावनाः-ज्ञानाऽऽद्याः, ज्ञात्वेति योगः / किं च-देश तदुचितं, कालं, तथाऽऽसनविशेष तदुचितमिति, आलम्बनं वाचनाऽऽदि, क्रमं मनोनिरोधाऽऽदि, तथा ध्यातव्यं ध्येयमाज्ञाऽऽदि, तथा ये च ध्यातारः-अप्रमादाऽऽदियुक्ताः, ततोऽनुप्रेक्षा:-ध्यानोपरमकालभाविन्योऽनित्यत्वाऽऽद्यालोचनारूपाः, तथा लेश्याः-श्रद्धा एव, तथा लिङ्ग-श्रद्धानाऽऽदि, तथा फलंसुरलोकाऽऽदि / चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनपरः / एतद् ज्ञात्वा, किम् ? धर्ममितिधर्मध्यानं, ध्यायेन्मुनिरिति / तत्कृतयोगः-धर्मध्यानकृताभ्यासः,ततः पश्चात्, शुक्लध्यानमितिगाथाद्वयसमासार्थः। व्यासार्थ तु प्रतिद्वारं ग्रन्थकारः स्वयमेव वक्ष्यति। 28 / 26 / तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाऽऽहपुव्वकयट्मासो भा-वणाहिँ झाणस्स जुग्गयमुवेइ / ताओ अनाणदंसण-चरित्तवेरग्गनिअयाओ।। 30 // "वेरग्गजणिआओ" इति पाठान्तरम्। पूर्व ध्यानात्प्रथम, कृतो निर्वर्तितः, अभ्यास आसेवनालक्षणो येन स तथाविधः, काभिः पूर्वकृताभ्यासः ?-भावनाभिः करणभूताभिः, भावनासु वा भावनाविषये पश्चाद् , ध्यानस्याधिकृतस्य, योग्यताम्अनुरूपताम् , उपैति यातीत्यर्थः / ताश्च भावना ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्यनियता वर्तन्ते, नियता इति परिच्छिन्नाः। पाठान्तरे वा जनिता इति गाथार्थः // 30 // साम्प्रतं ज्ञानभावनास्वरूपं गुणदर्शनायेदमाहणाणे निचन्भासो, कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च / नाणगुणमुणिअसारो, तो झाइ सुनिचलमईओ // 31 // ज्ञाने श्रुतज्ञाने, नित्यं सदा, अभ्यास आसेवनालक्षणः, करोति निर्वर्त्तयति, किम् ? मनसोऽन्तःकरणस्य, चेतस इत्यर्थः / धारणमशुभव्यापारनिरोधेनावस्थानमिति भावना। तथा विशुद्धिं च, तत्र विशोधनं विशुद्धिः, सूत्रार्थयोरिति गम्यते / ताम, चशब्दाद् भवनिर्वेद च। एवं ज्ञानगुणज्ञातसार इति-ज्ञानेन गुणाना जीवा-जीवाऽऽश्रिताना, 'गुणपर्यायं च द्रव्यम्' इति वचनात् , पर्यायाणां च तदविनाभाविना (मुणितो) ज्ञातः सारः परमार्थो येन स तथोच्यते, ज्ञानगुणेन वा ज्ञानमाहात्म्येनेति भावः / ज्ञातः सारो येन, विश्वस्येति गम्यते / स तथाविधः। ततश्च पश्चाद्, ध्यायति चिन्तयति; किंविशिष्टः सन् ? निश्चला निष्प्रकम्पा, सम्यग्ज्ञानतोऽन्यथाप्रवृत्तिकम्परहितेति भावः / मतिर्बुद्धिर्यस्य स तथाविध इति गाथार्थः // 31 / / उक्ता ज्ञानभावना। साम्प्रतं दर्शनभावनास्वरूपं गुणदर्शनार्थमिदमाहसंकाइदोसरहिओ, पसमत्थिज्जाइगुणगणोवेओ। होइ असंमूढमणो, सणसुद्धीइ झाणम्मि।। 32 // (संकादिदोसरहित त्ति) शङ्कनं शङ्का, आदिशब्दात्कासाऽऽदि
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________________ झाण 1664 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण परिग्रहः / उक्तञ्च- " शङ्काकासाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसापरपाखण्डसंस्तवाः सम्यग्दृष्टरतीचाराः " इति। (एतेषां च स्वरूप | प्रत्याख्यानाध्ययने न्यक्षेण वक्ष्यामः) तत्र शङ्काऽऽदय एव सम्यक्त्वाऽऽख्यप्रथमगुणातिचारत्वाद्दोषाः शङ्काऽऽदिदोषाः, तैः रहितः त्यक्तः ; उक्तदोषरहितत्वादेव। किम् ? प्रथमस्थैर्याऽऽदिगुणगणोपेतः। तत्र प्रकर्षेण श्रमः प्रश्रमः खेदः।सचस्थपरसमयतत्त्वाधिगमरूपः, स्थैर्य तु जिनशासने निष्प्रकम्पता। आदिशब्दात् प्रभावनाऽऽदिपरिग्रहः / उक्त-"सपरसमएँ कोसल्लं, थिरिया जिण-सासणे पभावणया। आययणसेवभत्ती, दंसणदीवा गुणा पंच"॥ 1 // प्रश्रमस्थैर्याऽऽदय एव गुणाः, तेषां गण: समूहः, तेनोपेतो युक्तो यः स तथाविधः / अथवाप्रशमाऽऽदिना स्थैर्याऽऽदिना च गुणग-णेनोपेतः। तत्र प्रशमाऽऽदिगुणगणः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणः; स्थैर्याऽऽदिस्तु दर्शित एव / य इत्थम्भूतः, असौ भवत्यसंमूढमनाः, तत्त्वान्तरेऽभ्रान्तचित्त इत्यर्थः / दर्शनशुद्ध्योक्तलक्षणया हेतुभूतया, क्व? ध्याने इतिगाथार्थः / / 32 / / उक्ता दर्शनभावना। ___ साम्प्रतं चारित्रभावनास्वरूपं गुणदर्शनायेदमाहनवकम्माणायाणं, पोराणविणज्जरं सुभादाणं / चारित्तभावणाए, झायमयत्तेण य समेइ।। 33 // नवकर्मणामनादानमितिनवान्युपचीयमानानि प्रत्यप्राणि भ-ण्यन्ते, क्रियन्ते इति कर्माणिज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदीनि, तेषामनादानमग्रहणम् , चारित्रभावनया समेति गच्छतीति योगः। तथा पुराणविनिर्जरांचिरन्तनक्षपणमित्यर्थः / तथा शुभाऽऽदानमितिशुभं पुण्यं सम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्रात्मकं, त-स्याऽऽदानं ग्रहणम्। किम् ?-चारित्रभावनया हेतुभूतया ध्यानं, चशब्दान्नवकर्मानादानाऽऽदि वा ; अयत्नेनाक्लेशेन, समेति गच्छति, प्राप्नोतीत्यर्थः। तत्र चारित्रभावनयेति कोऽर्थः ? 'चर गतिभक्षणयोरित्यस्य''अर्तिलुधूसूखनिसहचर इत्रः // 3 / 2 / 184 / / इति (पाणि०) इत्रप्रत्ययान्तस्य चारित्रमिति भवति। चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रंक्षयोपशमरूपं, तस्य भावश्चारित्रम् / एतदुक्तं भवति-इहा-न्यजन्मोपात्ताष्टविधकर्मसंचयापचयाय चरणभावः चारित्रमिति, सर्वसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपा क्रियेत्यर्थः / तस्य भावनाऽभ्यासश्चारित्रभावनेति गाथार्थः / उक्ता चारित्रभावना // 33 // साम्प्रतं वैराग्यभावनास्वरूपं गुणदर्शनार्थमाहसुविइअजगस्सहाओ, निस्संगो निब्मओ निरासो अ। वेरग्गभाविअमणो, झाणम्मि सुनिचलो होइ / / 34 / / ___सुष्टुवतीव विदितो ज्ञातः जगतश्चराचरस्या यथोक्तम्" जगन्ति जङ्गमान्याहु-र्जगद् ज्ञेयं चराचरम्॥" स्वोभावः स्वभावः। " जन्म मरणाय नियत, बन्धुर्दुःखाय धनमनिवृतये। तन्नास्ति यन्न विपदे, तथापि लोको निरालोकः " // 1 // इत्यादिलक्षणो येन स तथाविधः / कदाचिदेवभूतोऽपि कर्मपरिणतिवशात् ससड्गो भवत्यत आह-निःसङ्गो विषयस्नेहसङ्गरहितः / एवम्भूतोऽपि कदाचित् समयो भवत्यत आह-निर्भयः-इहलोकाऽऽदिसप्तभयविप्रमुक्तः / कदाचिदेवम्भूतोऽपि विशिष्टपरिणत्यभावात् परलोकमधिकृत्य साऽऽशंसो भवत्यत आह-निराशश्च-इहपरलोकाऽऽ शंसाविप्रमुक्तः, चशब्दात्तथाविधक्रोधाऽऽदिरहितश्च / य एवंविधो वैराग्यभावितमना भवति स खल्वज्ञानाऽऽधुपद्रवरहितत्वाद् ध्याने सुनिश्चलो भवतीति गाथार्थः // 34 // उक्ता वैराग्यभावना, मूलद्वारगाथाद्वये ध्यानस्य भावना इति व्याख्यातम्। (6) अधुना देशद्वारव्याचिख्यासयाऽऽहनिचं चिअ जुवइपसू-नपुंसगकुसील परिण्वन्जिअंजइणो! ठाणं विअणं भणि, विसेसओझाणकालम्मि॥३५।। नित्यमेव सर्वकालमेव, न केवलं ध्यानकाल इति / किम् ? युवतिपशुनपुंसककुशीलपरिवर्जितं, यतेः स्थानं विजनं भणितमि-ति। तत्र युवतिशब्देन मनुष्यस्त्री, दैवी च परिगृह्यते। पशुशब्देनतुतिर्यक्रस्त्रीति। नपुंसकं प्रतीतं, कुत्सितं निन्दितं शीलं वृत्तं येषां ते कुशीलाः, ते च तथाविधा द्यूतकाराऽऽदयः। उक्तञ्च"जुइयरसोलमेंठा, वट्टा उद्भामगाइणो जे य। एते हुति कुसीला, वजेयव्या पयत्तेणं " // 1 // युवतिश्च पशुश्चेत्यादिद्वन्द्वः / युवत्यादिभिः, परिसमन्ताद्, वर्जित रहितमिति विग्रहः / यतेस्तपस्विनः साधोः, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति साध्याश्च / किं ? स्थानमवकाशलक्षणम् / तदेव विशेष्यतेयुवत्यादिव्यतिरिक्तशेषजनापेक्षया विगतं जनं विजनं, भणितमुक्तं, तीर्थकरैर्गणधरैश्वेदमेवभूतं नित्यमेव, अन्यत्र प्रवचनोक्तदोषसंभवाद् , विशेषतो ध्यानकाल इति। अपरिणतयोगाऽऽदिनाऽन्यत्र ध्यानस्याऽsराधयितुमशक्यत्वादिति गाथार्थः / / 35 // इत्थं तावदपरिणतयोगाऽऽदीनां स्थानमुक्तम् , अधुना परिणतयोगाऽऽदीनधिकृत्य विशेषमाहथिरकयजोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं / गामम्मि जणाइन्ने, सुन्नेऽरने व न विसेसो // 36 // तत्र स्थिराः संहननधृतिभ्यां बलवन्त उच्यन्ते, कृता निर्वतिताः, अभ्यस्ता इति यावत् / के ?-युज्यन्त इति योगाः-ज्ञानाऽऽदिभावनाऽऽदिव्यापाराः, सत्त्वसूत्रतपाप्रभृतयो वायैस्ते कृतयोगाः, स्थिराव ते कृतयोगाश्चेति विग्रहः / तेषाम् / अत्र च स्थिरकृतयोगयोश्चतुर्भङ्गी भवति / तद्यथा-" थिरेणानेगे णो कयजोगे " इत्यादि। स्थिरा वा पौनःपुन्यकरणेन परिचिताः कृता योगा यैस्ते तथा-विधाः, तेषाम् / पुनःशब्दो विशेषणार्थः / किं विशिनष्टि?-तृतीयभगवता, न शेषाणां, स्वभ्यस्तयोगानां वा / मुनीनामिति-मन्यन्ते जीवाऽऽदीन् पदार्थानिति मुनयोविपश्चितः साधवः, तेषाम् , तथा ध्याने अधिकृते एव धर्मध्याने, सुष्टयतिशयेन निश्चलं निष्प्रकम्पं मनो येषां ते तथाविधाः, तेषाम्। एवंविधानां स्थानं प्रतिग्रामेजनाऽऽकीर्णे, शून्येऽरण्ये वा, न विशेष इति / तत्र ग्रसति बुद्ध्यादीन गुणान् इति ग्रामः, गम्यो वा कराऽऽदीनामिति ग्रामः, सन्निवेसविशेषः / इह चैकग्रहणेन तज्जातीयग्रहणान्नगरखेटकर्वटाऽऽदिपरिग्रह इति। जनाऽऽकीर्णे जनाऽऽकुले ग्रामे एवोद्यानाऽऽदौ, तथा शून्यं तस्मिन्नेव, अरण्ये वा कान्तारे येति, वा विकल्पेन विशेषान्न भेदः, सर्वत्र तुल्यभावत्वात् परिणतत्वात्तेषामिति गाथार्थः / / 36 // तो जत्थ समाहाणं, होइ मणोवयणकायजोगाणं / भूओवरोहरहिओ, सो देसो झायमाणस्स // 37 // यत एतदुक्तमतस्तस्मात् कारणाद् , यत्र ग्रामाऽऽदौ स्थाने, स
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________________ झाण 1665 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण माधान स्वास्थ्यं, भवति जायते / केषाम् ? इत्यत आह-मनोवाकाययोगानां प्राइनिरूपितस्वरूपाणामिति / आह-मनोयोगसमाधानमस्तु, वाक्काययोगसमाधानं त्वत्र क्वोपयुज्यते, न हि तन्मयं ध्यानं भवति? अत्रोच्यते तत्समाधानम्-तावन्मनोयोगोपकारकं ध्यानमपि च तदात्मकं भवत्येव। यथोक्तम्" एवंविधा गिरा मे, वत्तव्वा एरिसी न वत्तव्वा। इय वेयालिय वम-स्स भासओ वाइयं झाणं // 1 // " तथा" सुसमाहियकरपाय-स्स अकज्जे कारणम्मि जयणाए। किरियाकरणं जत, काइयझाणं भवे जइणो 111 / ' न चात्र समाधानमात्रकारिन्यमेव गृह्यते, किंतु भूतोपरोधरहितः, तत्र भूतानि पृथिव्यादीनि, उपरोधस्तत्संघट्टनाऽऽदिलक्षणः, तेन रहितः परित्यक्तो यः / एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात् अनृतादत्ताऽऽदानमैथुनपरिग्रहाऽऽद्युपरोधरहितश्च, स देशो, ध्यायतः-चिन्तयतः, उचित इति शेषः / अयं गाथार्थः / / 37 / / गतं देशद्वारम्। (10) अधुना कालाऽऽसनाऽऽलम्बनक्रमद्वारेषु क्रमप्राप्त कालद्वारमभिधित्सुराहकालो वि सो चिअ जहिं, जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ। न उ दिवसनिसावेला-इनिअमणं झाइणो भणि॥ 38 // कलनं कालः, कलासमूहो वा, स चार्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यगतिक्रियोपलक्षितो दिवसाऽऽदिरवसेयः / अपिशब्दो देशानिय-मेन तुल्यत्वसंभावनार्थः / तथा चाह-कालोऽपि स एव, ध्यानोचित इति गम्यते / यत्र काले, योगसमाधानं मनोयोगाऽऽदिस्वास्थ्यम् , उत्तम प्रधानं, लभते प्राप्नोति, न तु पुनर्नव, तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वादेवकारार्थत्वाद्वा। किम् ? दिवसनिशावेलाऽऽदिनियमनं ध्यायिनो भणितमिति / दिवसनिशे प्रतीते / वेला सामान्यत एव तदेकदेशो मुहूर्ताऽऽदिः / आदिशब्दात्पूर्वाहापरालाऽऽदिसूचा / एतन्नियमनं दिवैवेत्यादिलक्षणं, ध्यानिनः सत्त्वस्य, भणितमुक्तं, तीर्थकरगणधरैनैवेति गाथार्थः / गतं कालद्वारम्॥३८॥ आसनविशेषद्वारं व्याचिख्यासयाऽऽहजचिअ देहावत्था, जिआ ण झाणोवरोहिणी होइ। झाइज्जा तयवत्थो, ठिओ निसन्नोऽनिसन्नो वा / / 36 || इह चैव काचित् , देहावस्था शरीरावस्था निषण्णताऽऽदिरूपा, किम् ? जितेत्यभ्यस्ता, उचिता वा, तथाऽनुष्ठीयमाना, न, ध्यानोपरोधिनी भवति-नाधिकृतधर्मध्यानपीडाकरी भवतीत्यर्थः / ध्यायेत, तदवस्थ इति-सैवावस्था यस्य स तदवस्थः, तमेव विशेषतः प्राऽऽहस्थितः कायोत्सर्गेण, ईषन्नताऽऽदिना निषण्ण उपविष्टो, वीरासनाऽ5दिनाऽनिषण्णः शयितो दण्डाऽऽयताऽऽदिना, वा विभाषायामिति गाथार्थः / / 36 / / आह-किं पुनरयं देशकालाऽसनानामनियम इति? अत्रोच्यतेसव्वासु वट्टमाणा, मुणओ जं देसकालचिट्ठासु। वरकेवलाइभावं, पत्ता बहुसो समियपावा।। 40 / / सर्वास्वित्यशेषासु, देशकालचेष्टास्विति योगः। चेष्टा देहावस्था, किम् ? वर्तमाना अवस्थिताः, के ? मुनयः प्राड्निरूपितशब्दार्थाः, यद्यस्मात्कारणात् : किम् ? घरः प्रधानश्वासौ केवलाऽऽदिभावश्च, तं, प्राप्ता | इति / आदिशब्दान्मनःपर्यायज्ञानाऽऽदिपरिग्रहः / किं सकृदेव प्राप्ताः? ना केवलवर्ज बहुशोऽनेकशः, किंविशिष्टाः? शान्तपापाः, तत्र पातयति नरकाऽऽदिष्विति पापम् , शान्तमुपशमं नीतं पापं यैस्ते तथाविधा इति गाथार्थः / / 40 // तो देसकालचिट्ठा-नियमो झाणस्स नत्थि समयम्मि। जोगाण समाहाणं, जह होइ तह पयइयव्वं / / 41 / / यस्मादिति पूर्वगाथायामुक्तं, तेन सहास्याभिसंबन्धः, तस्माद् , देशकालचेष्टानियमो, ध्यानस्य, नास्ति न विद्यते। क्व? समये आगमे, किं तु योगानां मनःप्रभृतीनां, समाधानं पूर्वोक्तं, यथा भवति तथा यतितव्यं यत्नः कार्य इत्यत्र नियम एवेति गाथा-र्थः / / 41 // गतमासनद्वारम्। ___ अधुना आलम्बनद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाऽऽहआलंबणाऽऽइवायण-पुच्छणपरिअट्टणाणुचिंताओ। सामाइआइ एया-इसद्धमाऽऽवस्सयाइं च / / 42 // इह धर्मध्यानाऽऽरोहणार्थमालम्च्यन्त इत्यालम्बनानि, वाचनापृच्छना परावर्त्तनाऽनुचिन्ता इति / तत्र वाचनं वाचना, विनेयाय निर्जरायै सूत्राऽऽदिदानमित्यर्थः / शङ्किते सूत्राऽऽदौ संशयापनोदाय गुरुपृच्छनं प्रश्न इति / परिवर्तन तु पूर्वाधीतस्यैव सूत्राऽऽदेरविस्मरणनिर्जरानिमित्तमभ्यासकरणमिति। अनुचिन्तनमनुचिन्ता, मनसैवाविस्मरणनिमित्तं सूत्रानुस्मरणमित्यर्थः / वाचना च, प्रश्नश्चेत्यादि द्वन्द्वः / एतानि च श्रुतधर्मानुगतानि वर्तन्ते / तथा सामायिकाऽऽदीनि सद्धर्माऽऽवश्यकानि चेति। अमूनि तु चरणधर्मानुगतानि वर्तन्ते। सामायिकमादौ येषां तानि सामायिकाऽऽदीनि / सामायिकं प्रतीतम् , आदिशब्दान्मुखवरित्रकाप्रत्युप्रेक्षणाऽऽदिलक्षणसकलचक्रवालसामाचारीपरिग्रहः / यावत्पुनरपि सामायिकमिति। एतान्येव विधिवदासेव्यमानानि, सन्ति शोभनानि, सन्ति च तानि चारित्रधर्माऽऽवश्यकानि चेति विग्रहः / आवश्यकानि नियमतः करणीयानि।चः समुचये। इति गाथार्थः / / 42 // साम्प्रतममीषामेवाऽऽलम्बनत्वे निबन्धनमाहविसमम्मि समारोहइ,दढदव्वाऽऽलंबणो जहा पुरिसो। सुत्ताऽऽइकयाऽऽलंबो, तह झाणवरं समारुहइ॥ 43 / / विषमे निम्ने दुःसंचारे, समारोहति सम्यगपरिक्लेशेनोज़ याति। कः ? दृढं बलवत् , द्रव्यं रज्ज्वाद्यालम्बनं यस्य स तथाविधः / यथा पुरुषः पुमान्कश्चित्सूत्राऽऽदिकृताऽऽलम्बनः, वाचनाऽऽदिकृताऽऽलम्बन इत्यर्थः / तथा तेनैव प्रकारेण, ध्यानवरं धर्मध्यानमित्यर्थः। समारोहतीति गाथार्थः / गतमालम्बनद्वारम्। अधुना क्रमद्वारावसरः / तत्र लाघवार्थ क्रमं धर्मस्य शुक्लस्य च प्रतिपादयन्नाहझाणपडिवत्तिकम्मो, होइ मणोजोगनिग्गहाईओ। भवकाले केवलिणो, सेसस्स जहा समाहीए। 44 // ध्यानं प्राइनिरूपितशब्दार्थ, तस्य प्रतिपत्तिक्रम इति समासः। प्रतिपत्तिक्रमः प्रतिपत्तिपरिपाट्यभिधीयते। स च भवति मनोयोगनिग्रहाऽऽदिः / तत्र प्रथम मनोयोगनिग्रहः, ततो वाग्योगनिग्रहः, ततः काययोगनिग्रह इति / किमयं सामान्येन सर्वस्यैवेत्थंभूतः क्रमः? न, किं तु भवकाले केवलिनः / अत्र भवकालशब्देन मोक्षगमनप्रत्यासन्नः अन्तर्मुहूर्तप्रमाण एय शैलेश्यवस्थान्तर्गतः परिगृह्यते। केवलमस्यास्तीति केवली, तस्य शुक्लध्यान एवायं क्रमः प्रतिपत्तिक्रमः / शेषस्थान्यस्य धर्मध्यानप्रतिपत्तुः, योगका
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________________ झाण 1666 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण लावाश्रित्य, किम् ? यथा समाधिनेतियथैव स्वास्थ्ये भवति, तथैव प्रतिपत्तिरिति गाथार्थः // 44 / गतं क्रमद्वारम्। (11) इदानीं ध्यातव्यमुच्यतेआणा विजऍ अवाए, विवागें संठाणओ अनायव्या। एए चत्तारि पया, झायव्वा धम्मझाणस्स / / 45 // तचतुर्भेदमाज्ञाऽऽदि / उक्तं च-आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविपयाय धर्ममित्यादि। (तत्राद्यभेदम् ' आणा ' शब्दे द्वितीयभागे 115 पृष्ठे गतम्) अधुना द्वितीय उच्यतेरागद्दोसकसाया-ऽऽसवाइकिरियासु वट्टमाणाणं / इहपरलोगावाए, झाइज्जा वजपरिवजी॥५१॥ रागद्वेषकषायाऽऽश्रवाऽऽदिक्रियासु वर्तमानानां इहपरलोकापायान् ध्यायेत् / यथा-रागाऽऽदिक्रियैहिकाऽऽमुष्मिकविरोधिनी। उक्तंच" रागः सम्पद्यमानोऽपि, दुःखदो दुष्टगोचरः। महाव्याध्यभिभूतस्य, अपथ्यान्नाभिलाषवत्" / / 1 / / तथा " द्वेषः सम्पद्यमानोऽपि, तापयत्येव देहिनम्। कोटरस्यो ज्वलन्नाशु, दावानल इव द्रुमम् " // 2 // तथा " दृष्ट्यादिभेदभिन्नस्य, रागस्याऽऽमुष्मिक फलम्। दीर्घः संसार एवोक्तः, सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः " // 3 // इत्यादि। तथा" दोसानलसंतत्तो, इह लोगे चेव दुक्खिओ जीवो। परलोगम्मि य पावो, पावइ निरयानलं तत्तो " // 4 // इत्यादि। तथाकषायाः क्रोधाऽऽदयः, तदपायाः पुनः" कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणो " // 5 // "कोहो य माणोय भणिग्गही य. माया य लोभो य पवड्डमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइँ पुणब्भवस्स" // 6 // तथा आश्रवाः कर्मबन्धहेतवो मिथ्यात्वाऽऽदयः, तदपायाः पुन:" मिच्छत्तमोहियमई, जीवो इहलोग एव दुक्खाई। निरओवमाइ पावो, पावति पसमाऽऽइगुणहीणो " // 7 // तथा"अज्ञानं खलु कष्ट, क्रोधाऽऽदिभ्योऽपि सर्वदोषेभ्यः। अर्थ हितमहितं वा, न वेत्ति येनाऽऽवृतो लोकः // 8 // तथा"जीवा पावंति इह, पाणवधादविरतीऐं पावाए। नियसुयघायणमादी, दोसे जणगरहिए पावे // 6 // परलोगम्मिविएवं, आसवकिरियाहि अजिए कम्मे। जीवाण चिरमवाया, णिरयादिगतिं भमंताण " // 10 // इत्यादि। आदिशब्दः स्वगतानेकभेदख्यापकः; प्रकृतिस्थित्वनुभावप्र देशबन्धभेदग्राहक इत्यन्ये। क्रियास्तु कायिक्याऽऽदिभेदाः पञ्चः एताः पुनरुत्तरत्र न्यक्षेण वक्ष्यामः। विपाकः पुनः" किरियासु वट्टमाणा, काइगमाईसु दुक्खिया जीवा। इह चेव य परलोगे, संसारपवड्डगा भणिया॥१॥" ततश्चैवं रागाऽऽदिक्रियासु वर्तमानानामपावान् ध्यायेत् / किंवि-शिष्टः सन्निति ? आह-वय॑परिवर्जी-तत्र वर्जनीयं वय॑मकृत्यं परिगृह्यते, तत्परिवर्जी, अप्रमत्त इति गाथार्थः // 51 // उक्तः खलु द्वितीयो ध्यातव्यभेदः। अधुना तृतीय उच्यतेपयइट्ठिइप्पएसा-णुभावभिन्नं सुहासुहविभत्तं। जोगाणुभावजणिअं, कम्मविभागं विचिंतिजा / / 52 / / तत्र प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावभिन्नं शुभाशुभविभक्तमित्यत्र प्रकृतिशब्देनाष्टौ कर्मप्रकृतयोऽभिधीयन्ते, ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिभेदा इति / प्रकृतिरंशो भेद इति पर्यायाः। स्थितिः-तासामेवावस्थानं जघन्याऽऽदिभेदभिन्नम् / प्रदेशशब्देन जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसंबन्धोऽभिधीयते, अनुभावशब्देन तु विपाकः / एते च प्रकृत्यादयः शुभाशुभभेदभिन्ना भवन्ति / ततश्चैतदुक्तं भवतिप्रकृत्यादिभेदभिन्नं शुभाशुभविभक्तंयोगानुभावजनितं मनोयोगाऽऽदिगुणप्रभवं, कर्मविपाकं विचिन्तयेदिति गाथाक्षरार्थः।। भावार्थः पुनर्वृद्धविवरणादवसेवः। तचेदम्- " इह पथतिभिन्नं शुभाशुभविभक्त कम्मविपागं विचिंतेज्जा / तत्थ पयतीओ त्ति कम्मणो भेदा, अंसा नाणावरणिज्जाइणो अट्ठा, तेहिं भिन्नं पि हतं च, सुभं पुन्नंसाताऽऽदियं, असुभ पावं,तेहिं विभिन्नं विभिन्नविपागं,जहा कम्मपगमीए तहा विसेसेण चिंतेजा विचिंतेजा। किञ्च ठितिभिन्नं च सुभासुभविभिन्न कम्मविपाकं विचिंतेज्जा / ठिति त्ति तासिं चेव अट्ठण्हं पगडीण जहन्नमज्झिमुक्कोसकालावत्था, जहा कम्मपगडीए। किं च पएसभिन्न शुभाशुभं० जाव कृत्वा पूर्वविधानं पदयोस्तावेव पूर्ववद्वर्यो वर्गधनौ कुर्यात् / तां तृतीयराशेः, ततः प्राग्वत् कृत्वा पूर्वविधानमिति 256 / अमीषां धने कृते राशिरयमागच्छति / अथवा चतुर्भिरष्टौ वारा गुणिते अस्य राशेः पूर्वपदस्य घनाऽऽदि कृत्या, तस्य वर्गाऽऽदि / ततः द्वितीयपदस्य इदमेव विपरीतं क्रियते।तत एतावेव वयेते। ततस्तृतीयपदस्य वर्गघनौ क्रियते / एवमनेन क्रमे-णायं राशिः 16777216 चिंतेजा। पदेसो त्तिजीवपदेसाणं कम्मपदेसेहिं सुहुमेहिं एकखेत्तावगाहिं पुट्ठोगाढअणंतअणुबादरउडेहिं भेदोहिं बद्धाणं वित्थरओय कम्मपगडीए भणियाणं कम्मविपाकं चिंतेज्जा / किं च-अणुभावभिन्नं सुभासुभविभत्त कम्मविवागं विचिं-तेजा। तत्थ अणुभावो त्ति, तासिं चेवऽट्ठह पगडीणं पुट्ठबद्धनिका-इयाणं उदयाओ अणुभावणं, तं च कम्मविपाकं जोगाणुभावजणियं विचिंतेजा। तत्थ जोगा मणक्यकाया, अणुभावो जीवगुण एव। स च मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायाः, तिहिं अणुभावेण यजणिय-मुप्पाइयं जीवस्स कम्मंजं, तस्स विपाकं उदयं विचिंतेजा" इति। उक्तस्तृतीयो ध्यातव्यभेदः। साम्प्रतं चतुर्थ उच्यतेजिणदेसिआई लक्खण-संठाणासणविहाणमाणाई। उप्पायट्ठिइभंगा, पज्जाया जे अदव्वाणं / / 53 / / जिनाः प्रानिरूपितशब्दार्थास्तीर्थकराः : तैर्देशितानि कथितानि जिनदेशितानि / कानि ? अत आह-लक्षणसंस्थानाऽऽसनवि /
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________________ झाण 1667 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण धानमानानि। किम ?-'विचिन्तयेत्' इति पर्यन्ते वक्ष्यति षष्ट्या (?) (58) गाथायामिति / तत्र लक्षणाऽऽदीनि विचिन्तयेदत्रापि गाथान्ते द्रव्याणामित्युक्तं, तत्प्रतिपदमायोजनीयमिति / तत्र लक्षणं धर्मास्तिकायाऽऽदिद्रव्याणां गत्यादि : तथा संस्थानं मुख्यवृत्त्या पुद्गलरचनाऽऽकारलक्षणं परिमण्डलाऽऽद्यजीवानाम्।यथोक्तम्-" परिमंडले पवड्डे. तंसे चउरंस आयतेचेव। "जीवशरीराणांचसमचुतरनाऽऽदि। यथोक्तम्" समचउरंसे णिग्गोहमंडले साति वामणे खुम्जे। हुंडे वि य संठाणे, जीवाणं छ मुणेयव्वा // 1 // " धर्माधर्मयोरपि लोकक्षेत्रापेक्षया भावनीयमिति। उक्तंच-"हेट्ठा मज्झे उवरिं, छव्वीझल्लरिमुइंगसंठाणो। लोगो अद्धागारो, अद्धा खित्तागिईणेआ॥१॥" तथाऽऽसनान्याधारलक्षणानि धर्मास्तिकायाऽऽदीनां लोकाऽऽकाशाऽऽदीनि स्वरूपाणि वा। तथा विधानानि धर्मास्तिकायाऽऽदीनामेव भेदानीत्यर्थः / यथा" धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पदेसे " इत्यादि। तथा मानानिप्रमाणानि धर्मास्तिकायाऽऽदीनामेवाऽऽत्मीयानि / तथा उत्पादस्थितिभङ्गाऽऽदिपर्याया ये च द्रव्याणां धर्मास्तिकायाऽऽदीनां, तान्विचिन्तयेदिति। तत्रोत्पादाऽऽदिपर्यायसिद्धिः" उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति वचनात्। युक्तिः पुनरत्र" घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदभाध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम्॥१॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्वं त्रयाऽऽत्मकम्॥२॥" ततश्च धर्मास्तिकायो विवक्षितसमयसंबन्धरूपापेक्षयोत्पद्यते, तदनन्तरातीतसमयसंबन्धरूपापेक्षया तु विनश्यति, धर्मास्तिकायद्रव्याऽऽत्मना तु नित्य इति / उक्तं च-" सर्वव्यक्तिषु नियतं, क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः / सत्योचित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात्॥१॥" आदिशब्दादगुरुलध्वादिपर्यायपरिग्रहः / चशब्दः समुच्चयार्थ इति गाथाऽर्थः / / 53 // किञ्चपंचत्थिकायमइअं, लोगमणाइनिहणं जिणक्खायं / नामाइभेअविहिअं, तिविहमहोलोगभेआई / / 54 / / पञ्चास्तिकायमयं लोकमनाद्यनिधनं जिनाऽऽख्यातमिति, क्रिया पूर्ववत् / तत्रास्तयः प्रदेशाः, तेषां काया अस्तिकायाः, पञ्च च ते अस्तिकायाश्चेति विग्रहः / एते च धर्मास्तिकायाऽऽदयो गत्याधुपग्रहकरा ज्ञेया इति। उक्तंच"जीवानां पुद्गलानां च, गत्युपग्रहकारणम्। धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चक्षुष्मतो यथा // 1 // जीवानां पुद्गलानां च, स्थित्युपग्रहकारणम्। अधर्मः पुरुषस्येव, तिष्ठासोरवनिः समा॥२॥ जीवानां पुद्गलानां च, धर्माधर्मास्तिकाययोः / बादराणां घटी यद-दाकाशमवकाशदम॥३॥ ज्ञानाऽऽत्मा सर्वभावज्ञो, भोक्ता कर्ता च कर्मणाम्। नानासंसारिमुक्ताऽऽख्यो, जीवः प्रोक्तो जिनाऽऽगमे / / 4 / / स्पर्शरसगन्धवर्ण-शब्दमूर्तिस्वभावकाः। सङ्घातभेदनिष्पन्नाः, पुद्गला जिनदेशिताः // 5 // तन्मयं तदात्मकम् लोक्यत इतिलोकस्तम् , कालतः किंभूतमिति ? अत आह-अनाद्यनिधनम्-अनाद्यपर्यवसितमित्यर्थः / अनेनेश्वराऽऽ- | दिकृतव्यवच्छेदमाह / असावपि दर्शनभेदासिण एवेत्यत आहजिनाऽऽख्यातं तीर्थकरप्रणीतम्। आह-जिनदेशितानीत्यस्माजिनप्रणीतधर्माधिकारोऽनुवर्तत एव, ततश्च जिनाऽऽख्यातमित्यतिरिच्यते।न। अस्याऽऽदरख्यापनार्थत्वात्, आदरख्यापनाऽऽदौ च पुनरुक्तदोषानुपपत्तेः। तथोक्तम्" अनुवादाऽऽदरवीप्सा-भृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु। ईषत्संभ्रमविस्मय-गणनस्मरणे न पुनरुक्तम् // 1 // तथा-नामाऽऽदिभेदविहितं भेदतो नामाऽऽदिभेदावस्थापितमित्यर्थः / उक्तञ्च" नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले भवे च भावे य। पञ्जवलोगे य तहा, अट्टविहो लोगनिक्खेवो // 1 // " भावार्थश्चतुर्विंशतिस्तवविवरणादवसेयः। साम्प्रतं क्षेत्रलोकमधिकृत्याऽऽह-त्रिविधं त्रिप्रकारम् , अधोलोकभेदाऽऽदीनि प्राकृतशैल्याऽधोलोकाऽऽदिभेदम् , आदिशब्दात्तिर्यगूर्वलोकपरिग्रहः / इति गाथार्थः॥ 54 // किंच-तस्मिन्नेव क्षेत्रलोके इदं चेदं च विचिन्तवेदिति प्रतिपादयन्नाहखिइवलयदीवसागर-निरयविमाणभवणाइसंठाणं। वोमाइपइट्ठाणं, निचं लोगट्ठिइविहाणं // 55 // क्षितिवलयद्वीपसागरनिरयविमानभवनाऽऽदिसंस्थानं, तत्र क्षितयः खलु घर्माऽऽद्या ईषत्प्राग्भारावसाना अष्टौ भूमयः परिगृह्यन्ते। वलयानि धनोदधिधनवाततनु वाताऽऽत्मकानि धर्माऽऽदि-सप्तपृथिवीपरिक्षेपीण्येकविंशतिः / द्वीपा जम्बूद्वीपाऽऽदयः स्वयम्भूरमणद्वीपान्ता असङ्ख्येयाः / सागरा लवणसागराऽऽदयः स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्ता असङ्ख्येया एव / निरयाः सीमन्तकाऽऽद्या अप्रतिष्ठानावसानाः संख्येयाः। यतउक्तम्"तीसा य पन्नवीसा, पनरसय दसेव सयसहस्साई। तिन्नेगं पंचूर्ण, पंच य नरगा जहा कमसो"||१|| विमानानि ज्योतिष्काऽऽदिसंबन्धीन्यनुत्तरविमानान्तान्यसक्येयानि, ज्योतिष्कविमानानामसङ्ख्येयत्वात्। भवनानि भवनवास्यालयलक्षणानि असुराऽऽदिदशनिकायसंबन्धीनि सङ्ख्येयानि। उक्तंच" सत्तेव य कोडीओ, हवंति वावत्तरि सयसहस्सा। एसो भवणसमासो, भवणवतीणं वियाणेजा।। 1 / / " आदिशब्दादसङ्ख्येयव्यन्तरनगरपरिग्रहः। उक्तंच" हेट्ठोवरि जोयणसय-रहिए रयणाएँ जोयणसहस्से। पढमे वंतरियाणं, भोमा णगरा असंखेजा।। 1 // " ततश्च क्षितयश्च वलयानि चेत्यादिद्वन्द्वः / एतेषां संस्थानमाकारविशेषलक्षणं, विचिन्तयेदिति / तथा व्योमाऽऽदिप्रतिष्ठानमित्यत्र प्रतिष्ठितिः प्रतिष्ठानं, भावे ल्युट् / व्योम आकाशम् / आदिशब्दाद्वाताऽऽदिपरिग्रहः / व्योमाऽऽदौ प्रतिष्ठानमस्येति व्योमाऽऽदिप्रतिष्ठानं, लोकस्थितिविधानमिति योगः। विधिर्विधानं, प्रकार इत्यर्थः। लोकस्य स्थितिः लोकस्थितिः, स्थितिर्व्यवस्था मर्यादत्यनर्थान्तरम्। तद्विधानम्। किम्भूतम् ? नित्यं शाश्वतम्। क्रिया पूर्ववदिति गाथार्थः / / 55 / /
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________________ झाण 1668 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण किंचउवओगलक्खणमणा-इनिहणमत्थंतरं सरीराओ। जीवमरूवं कारिं, भोइंच सयस्स कम्मस्स / / 56 / / उपयुज्यतेऽनेनेत्युपयोगः, साकारानाकाराऽऽदिः / उक्तं च- "स / द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः / स एव लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणस्तम ; जीवमिति वक्ष्यति / तथा-अनाद्यनिधनम् अनाद्यपर्यवसितं, भवापवर्गप्रवाहापेक्षया नित्यमित्यर्थः / तथाऽर्थान्तरं पृथग्भूतं, कुतः? शरीरात् , जातावेकवचनम्-शरीरेभ्य औदारिकाऽऽदिभ्य इति / किमिति ? अत आह-जीवति, जिविष्यति, जिवितवान् वा जीव इति, तम्। किंभूतमिति ? अत आह-अरूपणिममूर्तमित्यर्थः / तथा करि निर्वर्तकं, कर्मण इतिगम्यते। तथा भोक्तारमुपभोक्तारम्, कस्य?-स्वकस्य आत्मीयस्य, कर्मणो ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदेरिति गाथाऽर्थः / / 56 / / तस्स य सकम्मजणिअं, जम्माइजलं कसायपायालं / वसणसयसावयमणं, मोहाऽऽवत्तं महाभीमं / / 57 // तस्य च जीवस्य च, स्वकर्मजनितम्-आत्मीयकर्मनिवर्तितम्। कम् ?संसारसागरमिति वक्ष्यति। किम्भूतम् ? जन्माऽऽदिजलं, जन्म प्रतीतम्; आदिशब्दाजरामरणपरिग्रहः / एतान्येवातिबहुत्वाङलमिव जलं यस्मिन्स तथाविधस्तम्। तथा कषायपातालंकषायाः पूर्वोक्ताः,तएवागाधभवजननसामान्येन पातालमिव पातालं यस्मिन् स तथाविधस्तम् / तथा व्यसनशतश्वापदवन्तम्-व्यसनानि दुःखानि, धूताऽऽदीनि वा, तथा तान्येव पीडाहेतुत्वात् श्वापदानि, तान्यस्य विद्यन्त इति तद्वान् , तं, (मणं ति) देशीशब्दो मत्वर्थीयः / उक्तं च-" मतुवत्थम्मि मुणेजह, | आलं इल्लं मणं च मणुयं च " इति। तथा मोहाऽऽवर्तम्-मोहो मोहनीय कर्म, तदेव तत्र विशिष्टभ्रमिजनकत्वात् आवर्तो यस्मिन् स तथाविधस्तम् / तथा महाभीमम्-अतिभयानकमिति गाथार्थः / / 57 // किंचअन्नाणमारुएरिअ-संजोगविओगवीइसंताणं। संसारसागरमणो-रपारमसुहं विचिंतिजा / / 58 // अज्ञानं ज्ञानाऽऽवरणकर्मोदयजनित आत्मपरिणामः, स एव तत्प्रेरकत्वान्मारुतो वायुः, तेनेरितः प्रेरितः, कः ?-संयोगवियोगवीचिसन्तानो यस्मिन् स तथाविधस्तम् / तत्र संयोगः केनचित्सह संबन्धः, वियोगस्तेनैव विप्रयोगः / एतावेव सततप्रवृत्तत्वाद्वीचय ऊर्मयस्तत्प्रवाहः सन्तान इति भावना / संसरणं संसारः सागर इव संसारसागरस्तम्। किम्भूतम् ?-" अणोरपारं" अनाद्यपर्यवसितम्, अशुभमशोभनं, विचिन्तयेत् , तस्य गुणरहितस्य जीवस्येति गाथाऽर्थः / / 58 / / तस्स य संतरणसहं, सम्मइंसणसुबंधणं अणहं। नाणमयकन्नधारं, चारित्तमयं महापो।। 56 // तस्य च संसारसागरस्य, सन्तरणसह सन्तरणसमर्थ, पोतमिति वक्ष्यति। किंविशिष्टम् ? सम्यग्दर्शनमेव शोभनं बन्धनं यस्य स तथाविधः, तम् , अनघम्-अपापम्। ज्ञानं प्रतीतं, तन्मयस्तदात्मकः, कर्णधरो निर्यामकविशेषो यस्य यस्मिन् वा स तथाविधस्तम् , चारित्रं प्रतीतम् , तदात्मकम् / महापोतमिति महाबोहित्थम; क्रिया पूर्ववदिति / गाथाऽर्थः / / 56 / / संवरकयनिच्छिद्यु,तवपवणाऽऽविद्धजवणतरवेगं। वेग्गमग्गपडिअं, विसुत्तिआवीइनिक्खोहं॥६०॥ इहाऽऽश्रवनिरोधः संवरः, तेन कृतं निश्छिद्रम्, स्थगितरन्ध्रमित्यर्थः। अनशनाऽऽदिलक्षणं तपः, तदेवेष्टपुरं प्रति प्रेरकत्वात् पवन इव तपःपवनः, तेनाऽऽविद्धस्य प्रेरितस्य, जवनतरः शीघ्रतरः, वेगो रयो यस्य स तथाविधस्तम्। तथा विरागस्य भावो वैराग्यं, तदेवेष्टपुरप्रापकत्वाद् मार्ग इव वैराग्यमार्गः, तस्मिन् पतितो गतस्तम्; तथा विश्रोतसिका अपध्यानानि, एता एवेष्टपुरप्राप्तिविघ्नहेतुत्वाद्वीचय इव विश्रोतसिकावीचयः, ताभिर्निक्षोभ्यः निष्प्रकम्पस्तमिति गाथाऽर्थः // 60 // एवम्भूतं पोतम्। किम् ?आरोढुं मुणिवणिआ, महग्घसीलंगरयणपडिपुन्नं / जह तं निव्वाणपुरं, सिग्घमविग्घेण पावंति // 61 // आरोदुमित्यारुह्य, के ? मुनिवणिजः-मन्यन्ते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनयः, त एवातिनिपुणमायव्ययपूर्वकप्रवृत्तेर्वणिज इव मुणिवणिजः / पोत एव विशेष्यतेमहा_णि महार्हाणि, शीलाङ्गानि पृथिवीकायसमारम्भपरित्यागाऽऽदीनि वक्ष्यमाणलक्षणानि, तान्येवैकान्तिकाऽऽत्यन्तिकसुखहेतुत्वाद्रत्नानि, तैः प्रतिपूर्णो भृतस्तम्।यथा येन प्रकारेण, तत्प्रक्रान्तं, निर्वाणपुरं सिद्धिपत्तनं परिनिर्वाणपुरं वेति पाठान्तरम् / शीघ्रम् आशु, स्वल्पे न कालेनेत्यर्थः / अविघ्नेनान्तरायमन्तरेण, प्राप्नुवन्त्यासादयन्ति, तथा विचिन्तयेदिति वर्त्तते। इत्ययं गाथाऽर्थः // 61 // तत्थ य तिरयणविणिओ-गमइअमेगंति निरावाह। साहाविअंनिरुवमं,जह सुक्खं अक्खयमुविंति।। 62 / / तत्र च परिनिर्वाणपुरे, त्रिरत्नविनियोगाऽऽत्मकमितित्रीणि रत्नानि ज्ञानाऽऽदीनि, विनियोगश्चैषां क्रियाकरणं, ततः प्रसूतेस्तदात्मकमुच्यते। तथैकान्तिक मिति-एकान्तभावि; निराबाधमित्याबाधारहितं, स्वाभाविकं न कृत्रिमम् , निरुपममुपमाऽतीतमिति / उक्तं च-"ण वि अस्थि माणुसाणं, तं सोक्खं / " इत्यादि। यथा येन प्रकारेण, सौख्यं प्रतीतम्, अक्षयमपर्यवसानम् , उपयान्ति सामीप्येन प्राप्नुवन्ति, क्रिया प्राग्वदिति गाथाऽर्थः / / 62 // किं बहुणा सव्वं चिअ, जीवाइपयत्थवित्थरोवेअं। सव्वनयसमूहमयं, झाइजा समयसब्भावं / / 63 / / किंबहुना भाषितेन ? सर्वमेव निरवशेषमेव, जीवाऽऽदिपदार्थविस्तरोपेतंजीवाजीवाऽऽ श्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाऽऽख्यपदार्थप्रपञ्चसमन्वितं, समयसद्भावमिति योगः / किंविशिष्टम् ? सर्वनयसमूहाऽऽत्मकं द्रव्यास्तिकायाऽऽदिनयसङ्घातमयमित्यर्थः / ध्यायेद्विचिन्तयेदिति भावना। समयसद्भावं सिद्धान्तार्थमिति हृदयम्। अयं गाथाऽर्थः / गतं ध्यातव्यद्वारम्॥ 63 // (12) साम्प्रतं येऽस्यध्यातारस्तान्प्रतिपादयन्नाहसव्वप्पमायरहिआ, मुणओ खीणोवसंतमोहाय। झायारो नाणधणा, धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा॥ 64 // प्रमादा मद्याऽऽदयः / यथोक्तम्- " मज्जं विसयकसाया, निद्दा विकहा य पंचमी भणिया / " सर्वप्रमादैः रहिताः सर्वप्रमादरहिताः, अप्रमादवन्त इत्यर्थः / मुनयः साधवः क्षीणोपशान्तमो
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________________ झाण 1666 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ झाण लेश्याद्वारम्। इदानी लिङ्गद्वारं विवृण्वन्नाहआगमउवएसाऽऽणा-निसग्गओ जंजिणप्पणीयाणं। भावाणं सद्दहणं, धम्मज्झाणस्स तं लिंगं / / 65 / / इहाऽऽगमोपदेशाऽऽज्ञानिसर्गतो यज्जिनप्रणीतानां तीर्थङ्करप्ररूपितानां, भावानां द्रव्याऽऽदिपदार्थानां, श्रद्धानम्-अवितथा एत इत्यादिलक्षणं, धर्मध्यानस्य, तल्लिङ्गमिति। तच्च श्रद्धानेन लिङ्ग यते धर्मध्यानीति। इह चाऽऽगमः सूत्रमेव, तदनुसारेण कथनमुपदेशः, आज्ञा त्वर्थः, निसर्गः स्वभाव इति गाथाऽर्थः // 68 // किंन हाथेति-क्षीणमोहाः क्षपकनिर्ग्रन्थाः, उपशान्तमोहा उपशामकनिर्ग्रन्थाः / चशब्दादन्ये चाप्रमादिनः,ध्यातारश्चिन्तकाः, धर्मध्यानस्येति संबन्धः। ध्यातार एव विशेष्यन्तेज्ञानधना ज्ञानविद्याः, विपश्चित इत्यर्थः / निर्दिष्टाः प्रतिपादिताः,तीर्थकरगणधरैरितिगाथाऽर्थः / / 64 // उक्ता धर्मध्यानस्य ध्यातारः। साम्प्रतं शुक्लध्यानस्याप्याद्यभेदद्वयस्थाविशेषेणैतएव यतो ध्यातार इत्यतो नान्ये पुनरभिधेया भविष्यन्तीति लाघवार्थं चरमभेदद्वयस्य च प्रसङ्गत एतानेवाभिधित्सुराहएए वि य पुव्वाणं, पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा। दुन्ह सजोगाजोगा, सुक्काण पराण केवलिणो। 65 / / एत एव येऽनन्तरमेव धर्मध्यानध्यातार उक्ताः, पूर्वयोरित्याद्ययोर्द्वयोः शुक्लध्यानभेदयोः पृथक्त्ववितर्क सविचारम् , एकत्ववितर्कमविचारमित्यनयोः, ध्यातार इति गम्यते। अयं पुनर्विशेषःपूर्वधराश्चतुर्दशपूर्वविदस्तदुपयुक्ताः, इदं च पूर्वधरविशेषणमप्रमादवतामेव वेदितव्यम् ; न निर्गन्थानां, माषतुषमरुदेव्यादीनामपूर्वधराणामपि तदुपपत्तेः / सुप्रशस्तसंहनना इत्याद्यसंहननयुक्ताः, इदं पुनरोघतएव विशेषणमिति / तथा द्वयोः शुक्लयोः, परयोरुत्तरकालभाविनोः प्रधानयोर्वा सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिव्युपरतक्रियाप्रतिपातिलक्षणयोर्यथासङ्ख्यं सयोग्ययोगिकेवलिनोः, ध्यातार इति योगः / एवं च गम्यते-" सुक्कज्झाणाइदुगवोलीणस्स ततियमपत्तस्स एयाए झाणंतरियाए वट्टमाणस्स केवलनाण समुप्पज्जइ, केवलियसुक्कलेसो अज्झाणी य० जावसुहुमकिरियमनियट्टि त्ति "गाथार्थः / / 65 / / उक्तमानुषङ्गिकम्। (13) इदानीमवसरप्राप्तमनुप्रेक्षाद्वारं व्याचिख्या सुरिदमाहझाणोवरमे वि मुणी, निच्चमणिचाइचिंतणोवरमो। होइ सुभाविअचित्तो, धम्मज्झाणेण जो पुट्विं // 66 // इह ध्यानधर्मध्यानमभिगृह्यते ; तदुपरमेऽपि तद्विगमेऽपि, मुनिः साधुः, नित्यं सर्वकालम् , अनित्याऽऽदिचिन्तनोपरमो भवति। आदिशब्दादनित्याशरणैकत्वसंसारपरिग्रहः / एताश्चतस्रोऽनुप्रेक्षा भावयितव्याः, इष्टजनसंप्रयोगद्धिविषयसुखसंपद इत्यादिना ग्रन्थेन / फलं चासां सचित्ताऽऽदिष्वनभिष्वङ्गभवनिर्वेदादिति भावनीयम्। अथ किविशिष्टोऽ-- नित्याऽऽदिचिन्तनो परमो भवति ? अत आह-सुभावितचित्तः सुभावितान्तःकरणः, केन ? धर्मध्यानेन प्रानिरूपितस्वरूपेण, यः कश्चित् , पूर्वमादाविति गाथाऽर्थः / / 66 / / गतमनुप्रेक्षाद्वारम्। अधुना लेश्याद्वारप्रतिपिपादयिषयाऽऽहहुंति कम्मविसुद्धाउ, लेसाओ पीअपम्हसुक्काओ। धम्मज्झाणोवगय-स्स तिव्वमंदाइभेआओ।।६७।। इह भवन्ति संजायन्ते, क्रमविशुद्धाः परिपाटिविशुद्धाः, काः? लेश्याः / ताश्च पीतपद्मशुक्लाः। एतदुक्तं भवतिपीतलेश्यायाः पद्मलेश्या विशुद्धा, तस्या अपि शुक्ललेश्यति क्रमः / कस्यैता भवन्ति ? अत आहधर्मध्यानोपगतस्य, धर्मध्यानयुक्तस्येत्यर्थः। किंविशिष्टाश्चैता भवन्ति ? अत आह-तीव्रमन्दाऽऽदिभेदा इति। तत्र तीव्रभेदाः पीताऽऽदिस्वरूपेष्वन्त्याः, मन्दभेदास्त्वाद्याः / आदिशब्दान्मध्यमपक्षपरिग्रहः अथवौघत एव परिणामविशेषात् तीव्रमन्दाऽऽदिभेदा इति गाथाऽर्थः / / 67 / / उक्त जिणसाहुगुणकित्तण-पसंसणादाणविणयसंपन्नो। सुअसीलसंजमरओ, धम्मजझाणी मुणेयव्यो / / 66 / / जिनसाधुगुणोत्कीर्तनप्रशंसादानविनयसंपन्न / इह जिनसाधवः प्रतीताः, तद्गुणाश्च निरतिचारसम्यग्दर्शनाऽऽदयः, तेषामुत्कीर्तनं सामान्येन संशब्दनमुच्यते / प्रशंसा त्वहो ग्लाध्यतया भक्तिपूर्विका स्तुतिः, विनयोऽभ्युत्थानाऽऽदिः, दानमशनाऽऽदिप्रदानम् : एतत्संपन्न एतत्समन्वितः / तथा श्रुतशीलसंयमरतः-तत्र श्रुते सामाथिकाऽऽदिबिन्दुसारान्तं, शीलं व्रताऽऽदिसमाधानलक्षणं, संयमस्तु प्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्तिलक्षणः / यथोक्तम्-पञ्चाऽऽश्रवादित्यादि। एतेषु भावतो रतः / किम्? धर्मध्यानो विज्ञातव्य इतिगाथाऽर्थः / / 66 / / गतं लिङ्गद्वारम्। (14) अधुना फलद्वारावसरः / तच लाघवार्थ शुक्लध्यानफलाधिकारे वक्ष्यतीति / उक्तं धर्मध्यानम्। इदानीं शुक्लध्यानावसर इत्यस्य चान्वर्थः प्राग्निरूपित एव। इहापि च भावनाऽऽदीनि फलान्तानि तान्येव द्वादश द्वाराणि भवन्ति / तत्र भावनादेशकालाऽऽसनविशेषेषु धर्मध्यानादस्याविशेष एवेत्यतस्तान्यनादृत्याऽऽलम्बनाऽऽदीन्यभिधित्सुराहअह खंतिमहवऽज्जव-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ। आलंवणेहि जेहिं, सुक्कज्झाणं समारुहइ / / 70 // अथेत्यासनविशेषाऽऽनन्तर्ये, क्षान्तिमार्दवाऽऽर्जवमुक्तयः-क्रोधमानमायालोभपरित्यागरूपाः। परित्यागश्चाक्रोधेन वर्तनम् , उदयनिरोधः, उदीर्णस्य च विफलीकरणमिति। एवं मानाऽऽदिष्वपि भावनीयम् / एता एव क्षान्तिमार्दवाऽऽर्जवमुक्तयो विशेष्यन्तेजिनमतप्रधाना इति-जिनमते तीर्थकरदर्शन, कर्मक्षयहेतुतामधिकृत्य प्रधानाः जिनमतप्रधानाः / प्राधान्यं चाऽऽसामकषायं चारित्रम् , चारित्राच निश्चयतो मुक्तिरितिकृत्वा / ततश्चैना आलम्बनानि प्रानिरूपितशब्दार्थानि, यैरालम्बनैः करणभूतैः शुक्लध्यानं समारोहति / तथा च क्षान्त्याद्यालम्बन एव शुक्लध्यानमासादयति, नान्यइतिगाथाऽर्थः / व्याख्यातं शुक्लध्यानमधिकृत्याऽऽलम्बनद्वारम्। (शुक्लध्यानभेदाश्च ' सुक्कज्झाण ' शब्दे विलोकनीयाः) साम्प्रतं क्रमद्वारावसरः-क्रमश्चाऽऽद्ययोर्द्वयो धमध्यानएवोक्तः / इह पुनरयं विशेषःतिहुयणविसयं कमसो, संखिविअ मणं अणुम्मि छउमत्थो। झायइ सुनिप्पकंपो, झाणं अमणो जिणो होइ / / 71 / / त्रिभुवनमधस्तिर्य गर्व लोक भेदं, तद्विषयो गोचर आलम्बनं
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________________ झाण 1670- अभिधामराजेन्द्रः भाग - 4 झाण यस्य, मनस इति योगः। तत् त्रिभुवनविषयं, क्रमशः क्रमेण, परि-पाट्या प्रतिवस्तुत्यागलक्षणया, संक्षिप्य संकोच्य, किम् ? मनः-अन्तःकरणम् / क्व? अणौ परमाणौ, विधायेति शेषः। क्व? छद्मस्थः प्रानिरूपितशब्दार्थः / ध्यायति चिन्तयति, सुनिष्प्रकम्पोऽतीव निश्चल इत्यर्थः / ध्यान शुक्लं, ततोऽपि प्रयत्नविशेषान्मनः अपनीय, अमना अविद्यमानान्तःकरणो, जिनो भवत्यर्हन् भवति, चरमयोद्धयोतिति वाक्यशेषः / तत्राप्यास्यान्तर्मुहूर्तेन शैलेशीमप्राप्तस्तस्यां च द्वितीयस्येति गाथाऽर्थः / / 71 // आह-कथं पुन छद्मस्थः त्रिभुवनविषयं मनः संक्षिप्याणौ धारयति, केवली वा ततोऽप्यपनयति ? (अत्र दृष्टान्तः ' जिणविज ' शब्दे तृतीयभागे 1506 पृष्ठे गतः) अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमभिधातुकाम आहओसारिएंघणभरो,जह परिहाइ कम्मसो हुआसो वा। थोविंधणावसेसो, निव्वाइ तओऽवणीओ अ / / 75 / / अपसारितेन्धनभरः-अपनीतदाह्यसंघातः, यथा परिहीयते हानि प्रपद्यते, क्रमशः क्रर्मण, हुताशो वह्निः, या विकल्पार्थे, स्तोकेन्धनावशेषः हुताशनमात्रं भवति, तथा निर्वाति विध्यापयति, ततः स्तोकेन्धनादपनीतश्चेति गाथाऽर्थः / / 75 / / अस्यैव दृष्टान्तस्योपनयमाहतह विसएंधणहीणो, मणोहुआसो कमेण तणुअम्मि। विसएंधणं निरुज्झइ, निव्वाइ तओऽवणीओ अ॥७६ // तथा विषयेन्धनहीनो गोचरेन्धनहीन इत्यर्थः / मन एव दुःखदाहकारणत्वाद् हुताशो मनोहुताशः, क्रमेण परिपाट्या, तनुके कृशे, क्व ?विषयेन्धने, अणावित्यर्थः / किम् ? निरुध्यतेनिश्चयेन ध्रियते, तथा निर्वाति, ततस्तस्मादणौ अपनीतश्चेति गाथाऽर्थः / / 76 // पुनरप्यस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तोपनयावाहतोयमिव नालिआए, ततायसभायणोदरत्थं वा। परिहाइ कमेण जहा, तह जोमिमणोजलं जाण / / 77 // तोयमिव उदक मिव, नालिकायाः घटिकायाः, तथा-तप्तं च तदासयभाजनं लोहभाजनं, तदुदरस्थं ; वा विकल्पार्थः / परिहीयते क्रमेण यथा। एष दृष्टान्तः। अथमुपनयः-तथा तेनैव प्रकारेण, योगिमन एवाऽविकलत्वाज्जलं योगिमनोजलं, जानीहि अवबुध्यस्वा तथाअप्रमादानलतप्तजीवभाजनस्थं मनो जलं परिहीयत इति भावना / अलमतिविस्तरेण इति गाथाऽर्थः / / 77 // अपनयति ततोऽपि जिनवैद्य इति वचनादेव तावत्केवली मनोयोग निरुणद्धीत्युक्तम्। अधुना शेषयोगनिरोधविधिमभिधातुकाम आहएवं चिअ वयजोगं, निरुभइ कमेण कायजोगं पि। तो सेलेसु व्व थिरो, सेलेसी केवली होइ / / 78 // एवमेव एभिरेव विषाऽऽदिदृष्टान्तैः, किम् ? वाग्योग, निरुणद्धि। तथा / क्रमेण काययोगमपि, निरुणद्वीति वर्तते। ततः शैलेश इव मेरुरिव, स्थिरः सन् शैलेशी केवली भवतीति गाथाऽर्थः। (आव०) (इह च भावार्थः' सेलेसी' शब्दे वक्ष्यते) (15) इदानींध्यातव्यद्वारं विवृण्वन्नाहउप्पाणटिइभंगा-इपज्जवाणं जमेगदव्वम्मि। नाणानयाणुसरणं, पुव्वगयसुआणुसारेणं / / 76 / / उत्पादस्थितिभङ्गाऽऽदिपर्यायाणाम् , उत्पादाऽऽदयः प्रतीताः / आदिशब्दान्मू मूर्तग्रहः / अमीषां पर्यायाणां, यदेकस्मिन् द्रव्ये अणवात्माऽऽदौ, किम् ? नानानयैर्द्रव्यास्तिकायाऽऽदिभिः, अनुस्मरणं चिन्तनम् / कथम् ? पूर्वगतश्रुतानुसारेण पूर्वविदः / मरुदेव्यादीनां त्वन्यथा / तत्किमित्याहसविआरमत्थवंजण-जोगंतरओ तयं पढमसुकं / होइ पुहुत्तविअक्कं, सविआरमरागभावस्स / / 10 / / सविचारम्-सह विचारेण वर्तत इति सविचारम् , "विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रमः " इति आह च / अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः-अर्थो द्रव्यं, व्यञ्जनं शब्दः, योगो मनःप्रभृति, एतदन्तरत एतद्देदेन, सविचारम् , अर्थाद्व्यञ्जनं संक्रामतीति विभाषा / तम् , कम्?-एतत् प्रथमं शुक्लमाद्यं शुक्लं भवति। किनाम्ना? इत्यत आह-पृथक्त्ववितर्क सविचारं-पृथक्त्वेन भेदेन विस्तीर्णभावेन अन्ते वितर्क: श्रुतं यस्मिस्तत्तथा / कस्येदं भवति? इत्यत्राऽऽह-अरागभावस्य रागपरिणामरहितस्येति गाथाऽर्थः / / 87 // जं पुण सुनिप्पकंप, निवायसरणप्पईवमिव चित्तं / उप्पायट्टिइभंगा-इयाणमेगम्मि पञ्जाए।।१।। यत्पुनः सुनिष्प्रकम्पं विक्षेपरहितं, निर्वातशरणप्रदीप इव निर्गतवातगृहैकदेशस्थदीप इव, चित्तमन्तःकरणं, क्य? उत्पादस्थितिभङ्गाऽऽदीनामेकस्मिन् पर्याये / / 81 // तत्किम् ? अत आहअवियारमत्थवंजण-जोगंतरओ तयं विइयसुक्कं / पुटवगयसुआलंवण-मेगत्तविअकमवियारं / / 52 // अविचारमसंक्रमम् , कुतः ? अर्थव्यञ्जनयोगान्तरत इति पूर्ववत्। तत्, किमेवंविधम् ? द्वितीयं शुक्लं भवति / किमभिधानमिति? अत आह-एकत्ववितर्कमविचार-एकत्वेनाभेदेन वितर्क: व्यञ्जनरूपः, अर्थरूपो वा यस्य तत्तथा / इदमपि च पूर्वगतश्रुताऽऽलम्बनम् , पूर्वगतश्रुतानुसारेणैव भवति। अविचाराऽऽदि पूर्ववदिति गाथाऽर्थः / / 82 // निव्वाणगमणकाले, केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स। सुहुमकिरियाऽनिअर्टि, तइअंतणुकायकिरियस्स / / 8311 निर्वाणगमनकाले मोक्षगमनप्रत्यासन्नसमये, केवलिनः सर्वज्ञस्य, मनोवाग्योगद्वये निरुद्धे सति, अर्द्धनिरुद्धकाययोगस्य, किम् ? सूक्ष्मक्रियानिवर्तिसूक्ष्मा क्रिया यस्मिन् तत्सूक्ष्मक्रिय, सूक्ष्मक्रियं च तदनिवर्ति चेति नामनिवर्तितुं शीलमस्येति निवर्ति, प्रवर्धमानतरपरिणामात् , न निवर्ति अनिवर्ति, तृतीयं, ध्यानमिति गम्यते / तनुकायक्रियस्येतितन्वी उच्छ्वासनिःश्वासाऽऽदिलक्षणा, कायक्रिया यस्य स तथाविधस्तस्येति गाथाऽर्थः / / 83 // तस्सेव य सेलेसिं, गयस्स सेलेसु व निप्पकंपस्स। वुच्छिन्नकिरिअमप्पडि-वाइं झाणं परमसुक्कं / / 84 // तस्यैव च केवलिनः शैलेशी गतस्य, शैलेशी प्राग्वर्णिता,तां प्राप्तस्य, किंविशिष्टस्य ? निरुद्धयोगत्वाच्छैलेश इव निष्प्रकम्पस्य, मेरुरिव स्थिरस्येत्यर्थः / किम् ? व्यवच्छिन्नक्रिय, योगाभावात्; अप्रतिपाति अनुपरतिस्वभावमिति / एतदेव चास्य नाम, ध्यानं परमशुक्लं, प्रकटार्थमेव तदिति गाथाऽर्थः / / 84 //
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________________ झाण 1671 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण इत्थं चतुर्विधं ध्यानमभिधायाधुनैतत्प्रतिबद्धमेव वक्त व्यताशेषमभिधित्सुराहपढमं जोगे जोगे-सु वा मयं विइअमेगजोगम्मि। तहअंच कायभोगे, सुक्कमजोगिम्मि अचउत्थं / / 54 // प्रथमं पृथक्त्ववितर्क सविचारं, योगे मनआदौ, योगेषु वा सर्वेषु, मतभिष्टम् , तच्चाऽऽगमिकश्रुतपाठिनः। द्वितीयम्-एकत्ववितर्कविचारं, तदेकयोग एव, अन्यतरस्मिन् सङ्क्रमाभावात् तृतीयं च-सूक्ष्मक्रियानिवर्ति, काययोगे, न योगान्तरे, शुक्लम् अयोगिनि च शैलेशीकेवलिनि, चतुर्थम् - व्युपरतक्रियाऽप्रतिपाति, इति गाथाऽर्थः / / 85 // आह-शुक्लध्यानोपरिमभेदद्वये मनो नास्ति, अमनस्कत्वात् / केवलिनः, ध्यानं च मनोविशेषः, 'ध्यै चिन्तायामिति पाठात् , तदेतत्कथम् ? इति। उच्यतेजह छउमत्थस्स मणो, झाणं भण्णइ सुनिचलं संतं / तह केवलिणो काओ, सुनिचलो भण्णए झाणं / / 86 // यथा छद्मस्थस्य मनः, किम् ?-ध्यानं भण्यते। सुनिश्चलं सत्, तथा तेनैव प्रकारेण, योगत्वाव्यभिचारात्, केवलिनः, कायः सुनिश्चलो भण्यते ध्यानम्। इति गाथाऽर्थः / / 86 // आह-चतुर्थे निरुद्धत्वादसावपिन भवति, तथाविधभावे ऽपि च सर्वभावप्रसङ्गः, तत्र का वार्ता ? इत्युच्यतेपुथ्वप्पओगओ वि अ, कम्मविणिज्जरणहेउओ चावि। सद्वत्थबहुत्ताओ, तह जिणचंदागमाओ अ / / 87 / / चित्ताभावे विसई, सुहुमोवरयकिरियाउ भण्णंति। जीवोवओगसब्मा-वओ भवत्थस्स झाणाई॥१८॥ काययोगनिरोधिनो योगिनोऽयोगिनो वा, चित्ताभावेऽपि सति सूक्ष्मोपरतक्रिये भण्येते / सूक्ष्मग्रहणात्सूक्ष्मक्रियानिवर्तिनो ग्रहणं, उपरतग्रहणादुपरतक्रियाऽप्रतिपातिन इति / / पूर्वप्रयोगादिति हेतुः, कुलालचक्रभ्रमणवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूह्यः / यथा तचक्रं भ्रमणनिमित्तदण्डाऽऽदिक्रियाऽभावेऽपि भ्रमति, तथाऽस्यापि मनःप्रभृतियोगोपरमेऽपि जीवोपयोगसद्भावतो भावमनसो भावात् भवस्थस्य ध्याने इति। अपिशब्दश्चोदनानिर्णयप्रथमहेतुसंभावनाऽर्थः / चशब्दस्तु प्रस्तुतहेत्वनुकर्षणार्थः / एवं शेषहेतवोऽप्यनया गाथया योजनीयाः / / विशेषस्तूच्यतेकर्मविनिर्जरणहेतुतश्चापिकर्मविनिर्जरणहेतुत्वात् , क्षपक श्रेणिवत्। भवति च क्षपकश्रेण्यामिवास्य भवोपग्राहिकर्मनिरिति भावः। चशब्दः प्रस्तुतहेत्वनुकर्षणार्थः / अपिशब्दस्तुद्वितीयहेतुसम्भावनार्थ इति॥तथा शब्दार्थबहुत्वात् ,यथैकस्यैव हरिशब्दस्य शक्रशाखामृगाऽऽदयोऽनेकेऽर्थाः, एवं ध्यानशब्दस्यापि, न विरोधः।' ध्यै ' चिन्तायाम् , ' ध्यै ' काययोगनिरोधे, ' ध्यै ' अयोगित्वे, इत्यादि। तथा जिनचन्द्राऽऽगमाच्चैतदेवमिति / उक्तं च- " आगमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् / अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये // 1 // " इत्यादि माथाद्वयार्थः / / 87 // 88 / उक्तं ध्यातव्यद्वारम्। ध्यातारस्तु धर्मध्यानाधिकारे उक्ताः। अधुनाऽनुप्रेक्षाद्वारमुच्यतेसुक्कज्झाणसुभाविअ-चित्तो चिंतेइ झाणविगमे वि। विअयमणुप्पेहाओ, चत्तारि चरित्तसंपन्नो // 6 // शुक्लध्यानशुभावितचित्तश्चिन्तयति ध्यानोपरमेऽपि नियतमनुप्रेक्षाश्वतसश्चारित्रसंपन्नः, तस्य परिणामरहितस्य तदभावादिति गाथाऽर्थः || 6 || ताश्चैताःआसवदारावाए, तह संसारासुहाणुभावं च / भवसंताणमणंतं, वत्थूणं विपरिणामं च / / 10 // आश्रवद्वाराणि मिथ्यात्वाऽऽदीनि, तदपायान् दुःखलक्षणान्; तथासंसाराशुभानुभावंच" असुभानुभावबंधी संसारो " इत्यादि। भवसन्तानमनन्तं भाविनारकाऽऽद्यपेक्षया। वस्तूनां विपरिणामञ्च सचेतनाचेतनानाम् ;" सव्वट्ठाणाणि असासयाणि "इत्यादि। एताश्चतस्रोऽप्यपायाशुभानन्तविपरिणामानुप्रेक्षा आद्यद्वयभेदसंगता एव द्रष्टव्याः। इति गाथाऽर्थः // 60 // उक्तमनुप्रेक्षाद्वारम्। इदानी लेश्याद्वाराभिधित्सयाऽऽहसुक्काए लेसाए, दो तइ परमसुक्कलेसाए। थिरयाजिअसेलेसं, लेसाईअं परमसुक्कं / / 11 // सामान्येन शुक्लायां लेश्यायां, द्वे आधे उक्तलक्षणे, तृतीयमुक्तलक्षणमेव, परमशुक्ललेश्यायां स्थिरताजितशैलेशं मेरोरपि निप्रकम्पतरमित्यर्थः / लेश्याऽतीतं परमशुक्ल चतुर्थमिति गाथाऽर्थः / / 61 / उक्तं लेश्याद्वारम्। इदानी लिङ्गद्वारं विवर्णयिषुस्तेषां नामप्रमाण स्वरूपगुणभावनार्थमाहअवहासंमोहविवे-गवुसग्गा तस्स हुंति लिंगाई। लिंगिज्जइ जेहिँ मुणी, सुक्कज्झाणोवगयचित्तो // 12 // चालिज्जइ वीहेइ व, धीरो न परीसहोवसग्गेहिं। सुहुमेसु न संमुच्छइ, भावेसुन देवमायासु // 63 || देहविवित्तं पिच्छइ, अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे। देवोवहिवुस्सग्गं, निस्संगो सव्वहा कुणइ / / 64 // अवधासमोहविवेकव्युत्सर्गाः, तस्य शुक्लध्यानस्य, भवन्ति लिङ्गानि, लिङ्गयते गम्यते यैर्मुनिः शुक्लध्यानोपगतचित्त इति गाथाऽक्षरार्थः / / 62 / अधुना भावार्थमाह-चाल्यते ध्यानान्न परीसहोपसर्गविभेति वा धीरो बुद्धिमान्स्थिरो वा, न तेभ्य इत्यवधलिङ्गम्। सूक्ष्मेष्वत्यन्तगहनेषुनसंमुह्यतिन संमोहमुपगच्छति, भावेषुपदार्थेषु, न देवमायास्वनेकरूपास्वित्यसंमोहलिङ्गम् , इति गाथाऽर्थः / / 63 / / देहविविक्तं पश्यति आत्मानं, तथा च सर्वसंयोगानिति विवेकलिङ्गम्। देहोपधिव्युत्सर्ग निःसङ्गः सर्वथा करोतीति व्युत्सर्गलिङ्गमिति गाथाऽर्थः // 64 || गतं लिङ्गद्वारम्। साम्प्रतं फलद्वारमुच्यते। इह चलाघवार्थ प्रथमोपन्यस्तं धर्मफलमभिधाय शुक्लध्यानफलमाह, धर्मफलानामेव शुद्धतराणामाद्यशुक्लद्वयफ लत्वादत आहहुति सुभाऽऽसवसंवर-विणिज्जराऽमरसुहाइँ विउलाई। झाणवरस्स फलाइं, सुहाणुबंधीणि धम्मस्स / / 65 //
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________________ झाण 1672 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाण भवन्ति शुभाऽऽश्रवसंवरनिर्जरामरसुखानिशुभाऽऽश्रवः-पुण्याऽऽश्रवः, सम्बरः-अशुभकर्माऽऽगमनिरोधः विनिर्जराकर्मक्षयः, अमरसुखानिदेवसुखानि / एतानि च दीर्घस्थितिविशुद्ध्युपपाताभ्या विपुलानि विस्तीर्णानि, ध्यानवरस्य ध्यानप्रधानस्य, फलानि शुभानुबन्धीनि सुकुलप्रत्ययानि पुनर्बोधिलाभभोगप्रव्रज्याकेवलशैलेश्यपवर्गानुबन्धीनि, धर्मध्यानस्येति गाथाऽर्थः / / 65 / उक्तानि धर्मध्यानफलानि। अधुना शुक्लमधिकृत्याऽऽहते अविसेसेण सुहा-ऽऽसवादओऽणुत्तरामरसुहं च। दुन्हं सुक्काण फलं, परिनिव्वाणं परिल्लाणं / / 66 / / ते च विशेषेण शुभाऽऽश्रवाऽऽदयोऽनन्तरोदिताः, अनुत्तरामरसुखं च, द्वयोः शुक्लयोः,फलमाद्ययोः / परिनिर्वाणं मोक्षगमनं (परिल्लाणं ति) चरमयोर्द्वयोरिति गाथाऽर्थः / / 66 // अथवा सामान्येनैव संसारप्रतिपक्षभूते एते इति दर्शयतिआसवदारा संसा-रहेउओ जन धम्मसुक्केसु। संसारकारणाई,न तो धुवं धम्मसुक्काइं / / 67 // आश्रवद्वाराणि संसारहेतवो वर्तन्ते, तानि च यद् यस्मान्न धर्मशुक्लयोर्भवन्ति। संसारकारणानिनतस्माद्धृवं नियमेन धर्मशुक्लानि / इति गाथार्थः / / 67 // (16) संसारप्रतिपक्षतया च मोक्षहेतु निमित्यावेदयन्नाहसंवरविणिज्जराओ, मुक्खस्स पहो तवो तासिं। झाणं च पहाणंगं, तवस्स तो मुक्खहेऊ तं / / 18 / / संवरविनिर्जरे मोक्षस्य पन्थाः-अपवर्गस्य मार्गः, तपः-पन्थाः मार्गः, तयोः संवरनिर्जरयोः। ध्यानं च प्रधानाङ्गं तपस आन्तरकारणत्वात्। ततो मोक्षहेतुस्तद् ध्यानमिति गाथाऽर्थः / / 68|| अमुमेवार्थं सुखप्रतिपत्तये दृष्टान्तैः प्रतिपादयन्नाहअंबरलोहमहीणं, कमसो जह मलकलंकपंकाणं / सोज्झावणयणसोसे, साहति जलानलाइचा // 66 // अम्बरलोहमहीनां वस्वलोहक्षितीनां, क्रमशः क्रमेण, यथा मलक लकपकानां यथासंख्यंशोध्यापनयनशोषान् यथासंख्यमेव, साधयन्ति निर्वर्तयन्ति, जलानलाऽदित्याः। इति गाथाऽर्थः / / 66 || तह सुज्झाइसमत्था, जीवंवरलोहमेइणिगयाणं। झाणजलानलसूरा, कम्ममलकलंकपंकाणं / / 100 / / तथा शोध्यादिसमर्था जीवाम्बरलोहमेदिनीगतानां ध्यानमेव जलानलसूर्याः, कमैव मलकलकपङ्का, तेषामिति गाथाऽर्थः / / 100 // किञ्चतावो सोसो भेओ, जोगाणं झाणओ जहा निअयं / तह तावसोसभेआ, कम्मस्स वि झाइणो निअमा।। 101 / / तापः, शोषो, भेदः, योगाना, ध्यानतो ध्यानाद, यथा नियतमवश्यम् / तत्र तापो दुःखं,तत एव शोषो दौर्बल्यम्, ततएव भेदो विदारण ; योगानां वागादीनां तथा तेनैव प्रकारेण, तापशोषभेदाः, कर्मणोऽपि भवन्ति / कस्य ?-ध्यमिनः,नयदृच्छया, नियमादनियमेनेति गाथाऽर्थः / / 101 / / किंचजह रोगाऽऽसयसमणं, विसोसणविरेअणोसहविहीहिं। तह कम्माऽऽमयसमणं, झाणाणसणाइजोगेर्हि / / 102 / / यथा रोगाऽऽशयशमनं रोगनिदानचिकित्सा, विशोषणविरेचनौषधविधिभिः-अभोजनविरेकौषधप्रकारैः / तथा कर्माऽऽमयशमनं कर्मरोगचिकित्सा, ध्यानानशनाऽऽदिभिर्योगैः, आदिशब्दाद् ध्यानवृद्धिकारकशेषतपोभेदग्रहणमिति गाथाऽर्थः / / 102 // किञ्चजह चिरसंअियमिंघण, जलणो पवणसहिओ दुअंडहइ। तह कम्मिंधणममिअं, खणेण झाणानलो डहइ / / 103 / / यथा चिरसंचितं प्रभूतकालसंचितम् , इन्धनं काष्ठाऽऽदि, ज्वलनोऽग्निः, पवनसहितो वायुसमन्वितः, द्रुतं शीघ्र, दुहति भस्मीकरोति। तथा दुःखतापहेतुत्वात्कर्मवेन्धनम्, अमितमनेकभवोपात्तम्, अनन्तं, क्षणेन समयेन, ध्यानमनल इव ध्यानानलः, असौ, दहति भस्मीकरोतीति गाथाऽर्थः / / 103 // जह वा घणसंघाया, खणेण पवणाहया विलयमिंति। झाणपवणाबहूआ, तह कम्मघणा विलिजंति।।१०४।। यथा वा धनसङ्घाताः-मेघोत्कराः, क्षणेन, पवनाहता वायुप्रेरिताः, विलयं विनाशं, यान्ति गच्छन्ति / ध्यानपवनावधूता ध्यान-वायुविक्षिप्ताः, तथा कर्मव जीवस्वभावा घनाः कर्मघनाः। उक्तंच" स्थितः शीतांशुवञ्जीवः, प्रकृत्या भावशुद्धया। चन्द्रिकावच विज्ञानं, तदावरणमभ्रवत् // 1 // इत्यादि। विलीयन्ते विनाशमुपयान्ति, इति गाथाऽर्थः / / 104 // किश्चेदमन्यदिहलोकप्रतीतमेव ध्यानफलमिति दर्शयतिन कसायसमुत्थेहि अ, वाहिज्जइ माणसेहिँदुक्खेहि। ईसाविसायसोगा-इएहिँ झाणोपगयचित्तो॥१०५ / / न कषायसमुत्थैश्च न क्रोधाऽऽद्युद्भवैश्च, बाध्यते पीड्यते, मानसैः दुःखैः, मानसग्रहणात्ताप इत्याद्यपि यदुक्तम् , तन्न बाध्यते; इर्ष्याविषादशोकाऽऽदिभिः, तत्र प्रतिपक्षाभ्युदयोपलम्भजनितो मत्सरविशेष ईया, विपादो वैक्लव्यम् , शोको दैन्यम् , आदिशब्दाद् हर्षाऽऽदिपरिग्रहः / ध्यानोपगतचित इति प्रकटार्थम् / अयं गाथाऽर्थः / / 105 / / सीआयवायएहि अ, सारीरेहि सुबहुप्पगारेहिं। झाणसुनिचलचित्तो, न बहिज्जइ निजरापेही।। 106 // इह कारणे कार्योपचाराच्छीताऽऽतपाऽऽदिभिश्च, आदिशब्दात् क्षुदादिपरिग्रहः / शारीरैः, सुबहुप्रकारैरनेकभेदैः, ध्यानसुनिश्चलचित्तः ध्यानभावितमतिः, न स बाध्यते, ध्यानसुखादिति गम्यते। अथवा न शक्यते चालयितुं, तत एव निर्जराऽपेक्षी कर्मक्षयापेक्षकः / इति गाथाऽर्थः / / 106 / / उक्तं फलद्वारम्। अधुनोपसंहरन्नाहइयसव्वगुणाऽऽहाणं, दिट्ठादिट्ठसुहसाहणं झाणं। सुपसत्थं सद्धेअं, नेअंझेअंच निच्चं पि / / 107 / / पंचुत्तरेण गाहा-सएण झाणसयगं समुद्दिटं। जिणभद्दखमासमणे-हिँकम्मसोहीकरं जइणा / / 108 / /
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________________ झाण 1673 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झाणसंवरजोग ' इय ' एवमुक्तेन प्रकारेण, सर्वगुणाऽऽधानमशेषगुणस्थानं, दृष्टादृष्टसुखसाधनं ध्यानमुक्तन्यायात्सुष्टु प्रशस्तं तीर्थकराऽऽदिभिरासेवितत्वाद् , यतश्चैवमतः श्रद्धेयं, नान्यथैतदिति भावनया, शेयं ज्ञातव्यं, स्वरूपतः ध्येयमिति, चिन्तनीयं क्रियया / एवं च सति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्यासेवितानि भवन्ति, नित्यमपि सर्वकालमपि। आह-एवं तर्हि शेषक्रियालोपः प्राप्नोति।न। तदासेवनस्यापि तत्त्वतो ध्यानत्वात्। नास्ति काचिदसौ क्रिया, या आगमानुसारेण क्रियमाणा साधूनां ध्यानं नभवतीति गाथार्थः।। 107 // 108 || समाप्तध्यानशतकम्। आव०४ अ० / पो० संधा०। (' केवलिसमुग्घाय ' शब्दे तृतीयभागे 667 पृष्ठे शैलेश्यवस्थायां ध्यानमुक्तम्) (17) ध्यानस्वरूपं निरूपयन्नाहध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतम्। मुनेरनन्यचित्तस्य, तस्य दुःखं न विद्यते // 1 // ध्याताऽन्तराऽऽत्मा ध्येयस्तु, परमाऽऽत्मा प्रकीर्तितः। ध्यानं चैकाग्र्यसंवित्तिः, समापत्तिस्तदेकता॥२॥ मणौ बिम्बप्रतिच्छाया, समापत्तिः पराऽऽत्मनः। क्षीणबृत्तौ भवेद् ध्याना-दन्तराऽऽत्मनि निर्मले / / 3 / / आपत्तिश्च ततः पुण्य-तीर्थकृत्कर्मबन्धतः। तद्भावाभिमुखत्वेन, संपत्तिश्च क्रमाद्भवेत्।। 4 / / इत्थं ध्यानफलाद्युक्तं, विंशतिस्थानकाऽऽद्यपि। कष्टमानं त्वभव्याना-मपि नो दुर्लभं भवेद् // 5 // जितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिराऽऽत्मनः। सुखाऽऽसनस्य नासाग्र-न्यस्तनेत्रस्य योगिनः॥६॥ रुद्धबाह्यमनोवृत्ते-रिणाधारया रयात्। प्रसन्नस्याप्रमत्तस्य, चिदानन्दसुधालिहः॥७॥ साम्राज्यमप्रतिद्वन्द्र-मन्तरे च वितन्वतः। ध्यानिनो नोपमा लोके, सदेवमनुजेऽपि हि // 8 // अष्ट० 30 अष्ट०।" वीए झाणं झियायइ।" दिनस्य द्वितीये प्रहरे ध्यानं ध्यायतीति प्रतिदिनक्रिया / उत्त०२६ अ० / करणप्रत्ययेन निर्विषये मनसि, उत्त० 12 अ०। झाणंतर-न०(ध्यानान्तर) अदृढाध्यवसायध्यानस्य चान्तरि-कायाम् , वृ०१3०। झाणंतरिया-स्त्री०(ध्यानान्तरिका) ध्यानयोः शुक्लध्यानद्वितीयतृतीयभेदलक्षणयोरन्तरं मध्यं ध्यानान्तरम् , तदेव ध्यानान्तरिका। स्था० 6 ठा० / अन्तरस्य विच्छेदस्य करणमन्तरिका, ध्यानस्यान्तरिका ध्यानान्तरिका / भ०५ श०४ उ०। ध्यानस्य मध्यभागे, कल्प०६ क्षण। आरब्धध्यानस्य समाप्तावपूर्वस्यानारम्भणे, भ०५ श० 4 उ० / द्रव्याऽऽदीनामन्यतमध्यानवतो यदा चित्तमुत्पद्यतेसम्प्रति शेषाणां ध्यातव्यानां कतरध्यायामीत्येवंविधे विमर्श, बृ०॥ केयं पुनानान्तरिकेति ? उच्यतेअन्नतरझाणऽतीतो, विइअंझाणं तु सो असंपत्तो। झाणंतरम्मि वट्टइ, विपहे व विकुंचियमईओ।। अन्यतरस्माद् द्रव्याऽऽद्यन्यतरवस्तुविषयाद् , ध्यानादतीतो यः कश्चिदद्यापि द्वितीयध्यानं न संप्राप्नोति, स द्वितीयं ध्यानमसंप्राप्तः सन् ध्यानान्तरे वर्तने, सा ध्यानान्तरिका भवतीति शेषः / इयमत्र भावनाद्रव्याऽऽदीनामन्यतमध्यानवतो यदा चित्तमुत्पद्यतेसम्प्रति शेषाणां ध्यातव्यानां कतरध्यायामीति, एवंविधो विमर्शो ध्यानान्तरिकेत्युच्यते। अत्र यथा-(विपहे व विकुंचियमईओ त्ति) द्विपथं मार्गद्वयस्थानं, ततः क श्चिदेकेन पथा गच्छन् पुरस्ताद् द्विपथे मार्गद्वये दृष्ट सति विकुचितमतिकोऽनयो मर्गियोः कतरेण व्रजामीति विमर्शाऽऽकुलबुद्धिः सन्नपान्तराले वर्तते / एवमेषोऽपि ध्यानान्तरे इति। बृ०१ उ०। झाणकोट्ठोवगय-पुं०(ध्यानकोष्ठोपगत) ध्यान-धर्मध्यानं, शुक्ल-ध्यानं च। तदेव कोष्ठः कुशूलो ध्यानकोष्ठः, तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः / यथा हि कोष्ठके धान्यं प्रक्षिप्तं विप्रसृतं भवति, एवं ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्तःकरणवृत्तौ, रा०। चं० प्र०।भ०। जं०। सू०प्र०। विपा०। औ० / धर्मध्यानकोष्ठमनुप्रविश्येन्द्रिय-मनांस्यधिकृत्य संवृताऽऽत्मनि, ज्ञा० १श्रु०१ अ०। नि०। औ०। झाणजुत्त-त्रि०(ध्यानयुक्त) ध्यानं चित्तनिरोधः, तेन युक्तो यः स तथा। चित्तनिरोधवति, प्रश्न०३ सम्ब० द्वार। झाणजोग-पुं०(ध्यानयोग) 7 त०। चित्तनिरोधलक्षणे धर्मध्याना-ऽऽदौ विशिष्टमनोवाक्कायव्यापारे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। झाणज्झयण-न०(ध्यानाध्ययन) ध्यानप्रतिपादके आवश्यका-ध्ययने, आय०४ अ०। झाणज्झयणरइ-स्त्री०(ध्यानाध्ययनरति) 7 त०। ध्यानं चाध्ययनं च ध्यानाध्ययने, अध्यनपूर्वकत्वेऽपिध्यानस्याल्पाक्षरत्वादभ्यर्हितत्वाच्च पूर्वनिपातः। एकालम्बनसंस्थस्य सदृशप्रत्ययस्य च प्रत्ययान्तरप्रवाहस्वाध्याययोरसिक्ती षो०१२ विव० झाणप्पयास-पुं०(ध्यानप्रकाश) ध्यानप्रतिपादके ग्रन्थविशेषे, उक्तञ्च ध्यानप्रकाशे-"जोयवियप्पो चिरकालीओ।" अष्ट०६ अष्ट। झाणवर-न०(ध्यानवर) ध्यानश्रेष्ठे, सूत्र०१श्रु०६अ०। प्रधानध्याने, आव० 4 अ०। प्रश्न० धर्मध्याने, आव० 4 अ०। झाणविभत्ति-स्त्री०(ध्यानविभक्ति) ध्यानान्यार्त्तध्यानऽऽदीनि, तेषां विभजनं विभक्तिर्यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा / उत्कालिकश्रुतविशेषे, नं०। पा० झाणसंवरजोग-पुं०(ध्यानसंवरयोग) ध्यानमेव संवरयोगो ध्यानसंवरयोगः1 स०३२ सम०। ध्यानसंवरयोगतामाह"नगरं च सिंधुवकण, मुंडिवगो अजपुस्सभूई / आणयण पुसमित्ते, सुहमे झाणे विवाओ अ॥१॥" " आसीन्मुण्डिवको राजा, नगरे सिन्धुवर्द्धने। पुष्पभूत्यभिधास्तस्मि-न्नाचार्याः सुबहुश्रुताः॥१॥ बोधितस्तैः स राजेन्दुः, परमः श्रावकोऽभवत्। पुष्पमित्रश्च शिष्योऽस्ति, तेषामतिबहुश्रुतः // 2 // अवसन्नतयाऽन्यत्र, तिष्ठति स्म परं सुखी।
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________________ झाणसंवरजोग 1674 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झुणि अन्यदा दद्ध्युराचार्याः, सूक्ष्मध्याने प्रवेशनम्॥३॥ पडिही।" (48 गाथा) चीरीलतागहनच्छो जीर्णकूपे एष यत्पतिष्यति, महाप्राणसमं तच्च, तत्र स्याचेतनाऽपि न।। इत्यर्थः / दे० ना० 3 वर्ग। अगीतार्थाश्च तत्पाचे, पुष्पमित्रोऽथ शब्दितः।। 4 / / झावण-(ध्मापन) भस्मसात्करणे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। आगतः कथितं तस्य, प्रपन्नं तेन तेऽप्यश्च / झावणा-स्वी०(ध्मापना) अग्निसंस्कारे, आ०म०१ अ०१ख-ण्ड। स स्थित्वैकत्रापवरके, ध्यानमारेभिरे रहः // 5 // च भगवतो निर्वाणप्राप्तस्यान्येषां च साधूनामिक्ष्वाकूणामितरेषां च प्रथम दत्ते ढोकं न कस्यापि, स तेषां किं तु वक्त्यदः। त्रिदशैः कृतः, पश्चाल्लोकेऽपि संजातः। आ० म०१ अ०१खण्ड। अवस्था एव वन्दध्वं, व्याकुलाः सन्ति सूरयः॥६॥ दिनैः कतिपयैरन्ये-ऽमन्त्रयत् साधवो मिथः। झिंगिर-पुं०(झिङ्गिर) त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रतिक कुर्वन्तः सन्ति किं पूज्याः ? एकस्तत्र न्यभालयत्॥ 7 // झिंगिरड-पुं०(झिगिरड) त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। तावद् गुरुनं चलति, न स्पन्दते न वक्ति च। झिंझिय-त्रि०(झिझित) बुभुक्षाऽऽर्ते, बृ०६ उ०। आख्यत्तदर्थं सर्वेषां, रुष्टाः सर्वेऽपि साधवः॥ 8 // झिंझिरी-स्त्री०(झिझिरी) वल्लीभेदे, झझिरीवल्लीए सालगो ति।" आर्याऽऽख्यासि त्वमाचार्यान् , किं न कालगतानपि? आचा०२ श्रु०१ अ०१३०। वल्लीपलाशके, बृ० 1 उ०। सोऽवकालगता नैते, ध्यानं ध्यायन्ति किं त्वमी // 6 // झिम्म-न०(जैझ्य) येन परवञ्चनाभि प्रायेण जैह्रयं क्रियासु मान्द्यव्याघातमेषां मा कार्यु-रूचुस्ते धूर्तता तव। मालम्बते तस्मिन्भावे, भ०१२श०५ उ०। त्वं साधयितुकामोऽसि, वेतालं पूर्णलक्षणैः // 10 // आचार्यरिति ते सर्वे, तेन सार्द्ध व्यधुः कलिम्। झियायंत-त्रि०(ध्यायत्)चिन्तयति, विपा०१ श्रु०२ अ०॥ आनिन्ये तैस्ततो राजा-ऽऽचार्याः कालगता इति / / 11 / / झियायमाण-त्रि(ध्मायमान) जाज्वल्यमाने, दशा 10 अ / ज्वलति, दत्तेऽसौ लिङ्गिकः किं तु, न निर्याणं कथञ्चन। भ०८ श०६ उ०। सूत्र०। दह्यमाने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। राजा स्वयमथाऽऽलोक्य, मेने कालगतान् गुरून् // 12 // *ध्यायमान-त्रि०। चिन्त्यमाने, दशा०५ अ०। भ०। पुष्पमित्रमवज्ञाय, शिविका सज्जिता ततः। झिरिंड-न०(देशी) जीर्णकूपे, दे० ना० 3 वर्ग। अग्न्याद्यपाये महति, स्पुश्योऽङ्गुष्ठो मम त्वया / / 13 / / झिल्लिया-स्त्री०(झिल्लिका) त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। पुष्पस्तमिति संकेतात्, पस्पर्श प्रत्यबुद्ध सः। झिल्लिरिआ-स्त्री०। देशी-चीहीतृणे, मशके च। दे० ना०३ वर्ग। ऊचे किमार्य ! व्याघातः, सोऽवक् वः शिष्यकैः कृतः / / 14 / / उक्तास्ते न कृतं रम्यं, भङ्गो ध्यानस्य नः कृतः। झिल्ली-स्त्री०(झिल्ली) चिल्लति-चिल-अच्-पृषो०-गौरा०-डीए / प्रवेश्यमीदृशे ध्याने, येन स्याद्योगसंग्रहः / / 15 ॥"आ० क०। कीटभेदे, संज्ञायां कन्। आतपरुचौ, वयां च / वाच०। क-न्दभेदे, आव० आचू०। अष्टाविंशे योगसंग्रहे, प्रश्न० 5 संव० द्वार। प्रज्ञा०१ पद। झाणसयग-न०(ध्यानशतक)ध्यानप्रतिपादके गाथाशतके,"पंचुत्तरेण | झीण-त्रि०(क्षीण) क्षि-क्तः / दुर्बले, क्षामे च / वाच०। अष्ट०। क० प्र०। गाहा-सएण झाणसयगं समुद्दिळ " / (108 गाथा) आय० 4 अ०1०। | अङ्गे, कीटे च। दे० ना०३ वर्ग। झाणोवओगचित्त-त्रि०(ध्यानोपयोगचित्त) ध्यानोपयोगे विशिष्ट- झीर-स्त्री०(देशी) लज्जायाम् , दे० ना०३ वर्ग। ध्यानान्यासे चित्तं यस्य सः। विशिष्टध्यानाभ्यासचित्ते, संथा०। झुंख-पुं०(देशी) तुणपाऽऽख्ये वाद्यविशेषे, दे० ना०३ वर्ग। झाम-त्रि०(ध्यात) दग्धे, आचा०२ श्रु०१ अ० 130 / आ० चू०। झुझिय-त्रि०(झुज्झित) बुभुक्षिते, झुरितके च। भ०१६ श०४ उ०। *ध्याम-त्रि० / अनुज्ज्वले, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। झुंझुमुसयय-न०(देशी) मनोदुःखे, दे० ना० 3 वर्ग। झामण-न०(ध्मापन) प्रदीपनके, व्य०२ उ०। सूत्र०। झुंटण-(देशी) प्रवाहे, दे० ना० 3 वर्ग। झामथंडिल-न०(ध्मातस्थण्डिल) दग्धभूमौ, आचा०२ श्रु०१अ०१उ०। | झंवणग-न०(झुम्वनक) प्रालम्बे कर्णाऽऽभरणविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। झामिय-त्रि०(ध्यामित) अग्निना दग्धे, व्य०७ उ० / बृ०।" वावघरं सव्वं झुट्ठ-न०(देशी) अलीके, दे० ना०३ वर्ग। झामिय। “आ०म०१ अ०१खण्ड / दे० ना०। झुण-धा०(जुगुप्स) निन्दायाम, " जुगुप्सेझुणदुगुच्छदुगुच्छाः " / / 8 / झाय-त्रि०(ध्यात) भस्मीकृते, नं०। 4! 4 // इति जुगुप्सतेझुणाऽऽदेशः / झुणइ प्रा० 4 पाद। झायव्य-त्रि०(ध्यातव्य) ध्येये, आव०४ अ०। दर्श०। झुणि-पुं०(ध्वनि) ध्वन्-इन्।" ध्वनिविश्वचोरुः" / / 811152 // इति झाया-त्रि०(ध्यातृ) चिन्तके, आव० 4 अ०। दर्श०। आदेरस्य उत्वम्। प्रा०१ पाद। अव्यक्ते मृदङ्गाऽऽदिशब्दे, अलङ्कारोक्ते झारुअ-स्वी०(देशी) चीर्याम् ," झारुअझाडच्छण्णे, झिरिंडए एस जं उत्तमकाव्ये च / वाच।" झुणि कन्नडप्पइट्ठ।"प्रा०४ पाद।
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________________ झुत्ति 1675 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 झोसेहि 100 झुत्ति-स्त्री०(देशी) छेदे, दे० ना० 3 वर्ग। झुसिरगोलसंठिय-त्रि०(शुषिगोलसंस्थित) अन्तःशुषिरगोलकाझुल्लरी-(देशी) गुल्मे, दे० ना०३ वर्ग। ऽऽकारे, भ० ११श०१० उ०। झुसण-न०(जोषण) सेवायाम् , स्था०२ ठा० 1 उ०। कल्प० / ज्ञा० / झूर-धा०(स्मर) भ्वा०-षर०-सक०-अनिट्।" स्मरेझर-झूर-भरभल लढ-विम्हर-सुमर-पयर-पम्हहाः " / / 8 / 4 / 74 / / इति झुसणा-स्त्री०(जोषणा) सेवायाम् स्था०५ ठा०१ उ०। रुवरेझराऽऽदेशः / ' झूरइ / ' सरइ / प्रा० 4 पाद / स्मरति, झुसिय-न०(जुषित) सेविते, बृ०२ उ०। अस्मार्षीत्।" झूरइ त्ति" हृदयेन खिद्यते। आचा०१ श्रु०२ अ०५ झुसिर-न०(शुषिर) शुषेः शोषस्य दानाच्छुषिरम्। आकाशे, भ०२०श० / उ० / कुटिले, दे० ना०३ वर्ग। 2 उ०। रन्ध्रे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। पोल्ले, नि० चू०१२ उ०। सच्छिद्रे, | झूसण-न०(जोषण) प्रीती, सेवायां च। औ०। स्त्रियांटाप्। स्था०२ ठा० ग०२ अधि०।अन्तःसाररहिते, दश०१० अ० असारकाये, प्रश्न०२ 2 उ० / आ० चू० / स० आश्र0 द्वार। शङ्खाऽऽदौ, रा०। काहसाऽऽदौ, रा०। आ० म०। जी०। झूसरिअ-त्रि०(देशी) अत्यर्थे, स्वच्छे च। दे० ना० 3 वर्ग। आ० चू० / वंशाऽऽदौ वाद्ये, भ० 5 श० 4 उ० / जं०। चतुर्विधे आतोद्यशब्दे, आचा०२ श्रु०२चू०१२अ०।" झुसिरा जमलचुल्ली सिय-त्रि०(जुष्ट) सेविते, स्था०२ ठा०२ उ०। औ०। ज्ञा०। संठाणसंठिया।" उपा०२ अ०। *झूषित-त्रि०ा क्षपिते, स्था०२ठा०२ उ०। कल्प०। अथ कतिविधं शुषिरमिति प्रश्नावकाशमाशक्याऽऽह- झेंडुअ-पुं०(देशी) कन्दुके, दे० ना०३ वर्ग। शुषिरं पञ्चविधम् / तद् यथा-पुस्तकपञ्चकं, तृणपञ्चकं, दूष्यवस्त्रं, झेय-न०(ध्येय) चिन्तनीये, आव०४ अ०। तत्पञ्चकं द्विविधम्-अप्रत्युपेक्षकदूष्यपञ्चकं, दुष्प्रत्युप्रेक्षकदूष्यपञ्चकं झोंडलिअ-स्त्री० / देशी-क्रीडायाम् , दे० ना० 3 वर्ग। च / चर्मपञ्चकं चेति। झोट्ट-न०(देशी) अर्द्धमहिष्याम् , दे० ना० 3 वर्ग। अथ तृणपञ्चकाऽऽदिषु दोषानाह झोडप्प-न०(देशी)पणके, दे० ना० 3 वर्ग। तणपणगम्मि वि दोसा, विराहणा होति संजमाऽऽताए। झोडिअ-पुं०(देशी) व्याधे, दे० ना०३ वर्ग सेसेसु वि पणगेसुं, विराहणा संजमे होति / / झोल्लिआ-स्त्री० (झोल्लिका) पुरुषद्वयोरिक्षते" झोली " इति ख्याते तृणपञ्चकेऽपि दोषा आज्ञाभङ्गाऽऽदयो भवन्ति / विराधना च संयमाऽऽत्मविषया। शेषेष्वपि दूष्यपञ्चकाऽऽदिषु संयमविषया विराधना | पदार्थे, सूत्र०२ श्रु० 4 अ०। भवति। झोस-पुं०(झोष) यथेह तीर्थे षड्मासान्तमेव तपः, ततः षण्णां मासानामुपरि यान् मासानापन्नोऽपराधी, तेषां क्षपणमनारोपणम्। प्रस्थे इदमेव भावयति चतुःसेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव झाटने, स्था०५ ठा०२ उ०। नि० चू०। अहिविच्छुगविसकंटग-मादीहिँखयं व होज आयाए। झोसण-न०(झोषण) मार्गणे," आभोगणं ति वा मग्गणं ति वा झोसणं ति कुंथादि संजमम्मि य, जति उव्वत्तादितति लहुगा॥ वा एगट्ठ। " व्य०२ उ०। तृणाऽऽदिषु शुषिरत्वादहिवृश्चिको वा, विषकण्टको वा भवेत् / एतैः, झोसमाण-त्रि०(झोषयत् ) क्षपयति, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। आदिशब्दान्मर्कटिकाऽऽदिभिश्च, तत्र शयान आसीनो वा उपद्र्येत। क्षतं वा दर्भाऽऽदिषु सुप्तस्य भवेत्। एषा आत्मविराधना / कुन्थुपनकाऽऽदि झोसिय-त्रि०(जुष्ट) सेविते, आचा०१श्रु०५ अ०३ उ०। प्राणिव्यपरोपणं तु संयमविराधना / तृणेषु च प्रसुप्तो (यति) यावतो *झोषित-त्रि० / क्षपिते, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। वारानुद्वर्तनं परिवर्तनमाकुञ्चनं प्रसारण वा करोति (तति) तावन्तश्चतु- झोसेमाण-त्रि०(जुषत् ) आचरति, आचा० 1 श्रु० 8 अ० 1 उ०। लघुकाः। बृ० 3 उ०। झोसेहि-क्रिया(देशी) गवेषयत इत्यर्थे, बृ०३ उ०। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुश्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते __'अभिधानराजेन्द्रे' झकाराऽऽ-दिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् /
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________________ 1676 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 टिंपुरी v In टकार ट-(ट)'ट' इत्ययं वर्णो मूर्धस्थानीयः स्पर्शसंज्ञः / वाच०। ट-पुं० / टल-डः / वामने, पादे, निःश्वने, वाच० / धने, सनौ, करटे, धूमे, पाते, आवर्ते, भानुरश्मौ, ताडने, त्रासे, स्थिरे, अश्वे च / एका०। करङ्गे, टङ्कारे च। न० ! वाच०। टंक-पुं०(टङ्क) टकि-घञ् , अच् वा / कोपे, कोषे, खड्गे,पाषाणभेद नेऽस्त्रे, वाच० / खड्गाऽऽदीनाभग्रभागे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / मुद्राचित्रविशेषे, पञ्चा० 4 विव०। आव०। प्रज्ञा० / छिन्नतटे कूटे, नं०। भ०। एकदिशि छिन्ने पर्वते, ज्ञा०१ श्रु०१अ० शत्रुञ्जयपर्वते, ती०१ कल्प० / लोभपक्षिभेदे च / जी०१ प्रति० / चतुर्माषकरूपे परिमाणे, नीलकपित्थे, खनित्रे, दर्प च / पुं० / वाच० / खड्गे, च्छिन्ने, खाते, जवायाम् ,खनित्रे, भितौ, नटे च। दे० ना०४ वर्ग। टंकण-पुं०(टङ्कन) टकि-युच्।' सोहागा' इतिख्याते क्षारभेदे, वाच०। उत्तरापथेम्लेच्छदेशवास्तव्ये स्वनामख्यातेम्लेच्छविशेषे, विशे० आ० म०। आ० चू०। सूत्र०। टंका-स्त्री०(टङ्का) स्वनामख्याते, तीर्थं , यत्र वीरः पूज्यते / ती० 43 कल्प०। टंकिअ-न०(देशी) प्रसृते, दे० ना०४ वर्ग। टंवरअ-त्रि०(देशी) भारिके, दे० ना० 4 वर्ग। टक्कर-पुं०(टक्कर) अड्डल्यादिना शिरआदौ टगिति करणे, व्य० 1 उ०। टगर-पुं०(तगर) ग-अच्। तस्य क्रोडस्य गरः। वाच०।" तगर-त्रसर तूबरे टः " / / 8 / 1 / 205 / / इति तस्यटः। प्रा०१ पाद। स्वनामख्याते वृक्षे, वाच०। टमरुक-पुं०(डमरुक) "चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययौराद्यद्विती-यौ' // 8 / 4 / 325 / / इति डस्य टः। प्रा०४ पाद। वाद्यभेदे, कापालिकयोगवाद्ये चमत्कारे च। वाच०। टसर-पुं०(वसर) त्रस-अरन्। तन्तुवायोपकरणभेदे, वाच०।" तगर त्रसर-तूवरे टः " // 8 / 1 / 205 // इति तस्यटः। प्रा०१पाद।। टा-स्त्री०(टा) घटिकायाम् , भुवि, भृत्यायां, व्यावृत्तौ, निगरेऽपि च / एका०। टाल-न०(टाल) अवतास्थिनि फले, दश०७ अ०। आचा०। र्टिपुरी-स्त्री०(टिम्पुरी) तीर्थभेदे, ती०। ___तत्कल्पं यथा" श्रीपार्वं चेल्लणाभिख्यं,ध्यात्वा श्रीवीरमप्यथ। कल्पं श्रीटिम्पुरीतीर्थ-स्याभिधास्ये यथाश्रुतम्॥१॥ पारेतजनपदान्त-श्वर्मण्वत्यास्तटे महानद्याः। नानाघनवनगहना, जयत्यसौ टिम्पुरीति पुरी" // 2 // अत्रैव भारते वर्षे विमलयशा नाम भूपतिरभूत् / तस्य सुमङ्गलादेव्या सह विषयसुखमनुभवतः क्रमाजातमपत्ययुगलम्। तत्र पुत्रः पुष्पचूलः, पुत्री पुष्पचूला / अनर्थसार्थमुत्पादयितुः पुष्पचूलस्य कृत लोके-" वङ्कचूल " इति नाम / महाजनोपालब्धेन राज्ञा रुषितेन निःसारितो नगराद्रकचूलः / गच्छंश्च पतितो भीषणायामटव्यां सह निजपरिजनेन स्वस्राचस्नेहवशया। तत्रचक्षुत्पिपासाऽऽर्दितो भिल्लैः, नीतः स्वपल्ली, स्थापितश्च पूर्वपल्लीपतिपदे। पर्यपालयद्राज्यम्, अलुण्टयद्ग्रामनगरसार्थाऽऽदीन् / अन्यदा सुस्थिताचार्या अर्बुदाचलादष्टापदयात्रायै प्रस्थितास्तामेव सिंहगुहां नाम पल्ली सगच्छाः प्रापुः / जातश्च वर्षाकालः / अजनि च पृथ्वी जीवाऽऽकुला / साधुभिः सहाऽऽलोच्य मार्गयित्वा वङ्कचूलाद् वसतिं स्थितास्तत्रैव सूरयः / तेन च प्रथममेव व्यवस्था कृता। मम सीमाऽन्तर्धर्मकथा न कथनीया ; यतो युष्मत्कथायामहिंसाऽऽदिको धर्मः, न चैवं मल्लोको निर्वहति / एवमस्तु 'इति प्रतिपद्य तस्थुरुपाश्रये गुरवः। तेन चाऽऽहूय सर्वे प्रधानपुरुषा भणिताः। अहं राजपुत्रः, मत्समीपे ब्राह्मणाऽऽदय आगमिष्यन्ति, ततो भवद्भिजीववधो, मांसमद्याऽऽदिप्रसङ्गश्च पल्ल्या मध्ये न कर्तव्यः। एवं कृते तु यतीनां न भक्तपानमजुगुप्सितं कल्पत इति। तैस्तथैव कृतं यावचतुरो मासान्। प्राप्तो विहारसमयः। अनुज्ञापितो वङ्कचूलः सूरिभिः- " समणाणं सउणाणं " इत्यादिवाक्यैः / ततस्तैः सह चलितो वङ्कचूलः स्वसीमां प्राप / तेन विज्ञप्त-वयं परकीयसीमायां न प्रविशाम इति / भणितः सूरिभिः-वयं सीमान्तरमुपेताः, तत्किमप्युपदिशामस्तुभ्यम्। तेनोक्तम्यन्मयि निर्वहति तदुपदेशेनानुगृह्यतामयं जनः / ततः सूरिभिश्चत्वारो नियमा दत्ताः / तद्यथा-अज्ञातफलानि न भोक्तव्यानि, सप्ताष्टानि पदान्यपसृत्य घातो देयः, पट्टदेवी नाभिगन्तव्या, काकमांस च न भक्षणीयमिति / प्रतिपन्नास्तेन ते / गुरुन् प्रणम्य स स्वगृहानागमत् / अन्यदा गतः सार्थस्योपरिधाट्या, शकुनकरणान्नागतः सार्थः / त्रुटितन तस्य पथ्यदनम् / पीडिताः क्षुधा राजन्याः, दृष्टश्च तैः किंपाकतरुः फलितः, गृहीतानि फलानि, न जानाति तन्नामधेयमिति तेन न भुक्तानि / इतरैः सर्वैर्बुभुजिरे, मृताश्च तैः किंफलैः। ततश्चिन्तितं तेनअहो ! नियमानां फलं, तत एकाक्येवाऽऽगतः पल्ली, रजन्यां प्रविष्टः स्वगृहं, दृष्टा पुष्पचूला दीपाऽऽलोकेन पुरुषवेषा निजपल्या सह प्रसुप्ता। जातस्तस्य कोपस्तयोरुपरि / द्वावप्येतौ खङ्गप्रहारेण छिनमीति यावदचिन्तयत्तावत् स्मृतो नियमः। ततः सप्ताष्टपदान्यपक्रम्य घातं ददत्, खाट्कृतमुपरिखड्गेन, व्याहृतं स्वस्रा,जीवतुवकचूल इति। तद्वचः श्रुत्वा लज्जितोऽसावपृच्छत्-किमेतदिति ? साऽपि नटवृत्तान्तमचीकथत् / कालक्रमेण तस्य तद्राज्यशासतस्तत्रैवपल्ल्यां तस्यैवाऽऽचार्यस्य शिष्यौ धर्मऋषिधर्मदत्तनामनो कदाचिद्वर्षारामवास्थिपाताम् / तत्र तयोरेकः साधुस्त्रिमासक्षपणं विदधे, द्वितीयश्चतुर्मासक्षपणम् / वकचूलस्तु तद्दत्तनियमानामायतिशुभफलतामवलोक्यव्यजिज्ञपत्। भदन्तौ ! मदनुक
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________________ टिंपुरी 1677- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ टिंपुरी म्पया कमपि पेशलं धर्मोपदेश दत्तः। ततस्ताभ्यां चैत्यविधापनदेशना क्लेशनाशिनी विदधे / तेनापि शराविकापर्वतसमीपवर्तिन्या तस्यामेव पल्लयां चर्मण्वतीसरित्तीरे कारितमुपैस्तरं चारु चैत्यम् / स्थापित श्रीमन्महावीरबिम्बम्। तीर्थतया च रूढं तत्। प्रयान्ति स्म चतुर्दिग्भ्यः सङ्घाः। कालान्तरे कश्चिन्नैगमः सभार्यः सर्वथा तद्यात्रायै प्रस्थितः, प्राप्तः क्रमेण रन्तिनदीम्।नावमारूढौ च दम्पती चैत्यशिखरं व्यलोकयताम्। ततः सरभसं सौवर्णिककचोलके कुड् कुमचन्दनकर्पूरं प्रक्षिप्य जलं क्षेप्तुमारब्धवती नैगमगृहिणी। प्रमादान्निपतितं तदन्तर्जलतलम् / तां ततो भणितं वणिजा-"अहो! इदं कच्चोलकं नैककोटिमूल्यरत्नसचित राज्ञा ग्रहणकेऽर्पितमासीत् , ततो राज्ञः कथं छुटितव्यम् ? इति चिरं विषद्य वङ्कचूलस्य पल्लीपतेर्विज्ञापितं तत्। यथा-अस्य राजकीयवस्तुनो विचितिः कार्यताम् / तेनापि धीवर आदिष्टस्तच्छोधयितुम् / प्राविशदन्त दम् / विचिन्वता चान्तर्जलतलं दृष्ट तेन हिरण्मयरथस्थं जीवन्तस्वामिश्रीपार्श्वनाथबिम्बं तावत् , पश्यति स्य स बिम्बस्य हृदये तत् कचोलकम् / धीवरेणोक्तम्-धन्याविमौ दम्पती, यद्भगवतो वक्षसि घुसृणचन्द्रचन्दनविलेपनाह कबोलकं स्थितम्। ततो गृहीत्वा तदर्पित नैगमस्या तेनापि दत्तं तस्सै बहु द्रव्यम्। उक्तंच बिम्बस्य रूपं नाविकेन / ततो वकचूलेन श्रद्धालुना तमेव प्रवेश्य निष्कासितं तद् बिम्बम् / कनकरथस्तु तत्रैव मुक्तः। निवेदित हि केनापि स्वप्ने प्राब्भावता नृपतेःयत्र क्षिप्ता सती पुष्पमाला गत्वा तिष्ठति तत्र बिम्ब शोद्ध्यमिति / तदनुसारेण बिम्बमानीय समर्पितं राज्ञे वकचूलाय / तेनापि स्थापित श्रीवीरबिम्बस्य बहिर्मण्डपे यावत् कालं नव्यं चैत्यतस्मै कारयामीत्यभिसंधिमता। कारिते चैत्यान्तरेयावत्तत्र स्थापनार्थमुत्थापयितुमारभन्ते राजकीयाः पुरुषास्तावद्विम्बं नोत्तिष्ठति स्म / देवताधिष्ठानात्तत्रैव स्थितम् / अद्यापि तत्रैवाऽऽस्ते। धीवरेण पुनर्विज्ञप्तः पल्लीपतिः-यत्तत्र देव ! मया नद्यां प्रविष्टन बिम्बान्तरमपि दृष्ट, तदपि बहिरानयनेनौचितीमञ्चति, पूजाऽऽरूढं हि भवति / ततः पल्लीश्वरेण पृष्टा स्वपरिपत्भो ! जानीते कोऽप्यनयोर्बिम्बयोः संविधानक? केन स्थलतो नद्यन्तजलतले न्यस्ते ? इत्याकण्यकेन पुराविदा स्थविरेण विज्ञप्तम्-देव ! एकोऽस्मिन्नगरे पूर्व नृपतिरासीत्। स च परचक्रेण समुपेयुषा सार्द्ध योद्धं सकलचमूसमूहसन्नहनेन गतः / तस्याग्रमहिषी च निजं सर्वस्वभेतच बिम्बद्वयं कनकरथस्थ विधाय जलदुर्गमिति कृत्वा चर्मण्वत्यां कोटिम्बके प्रक्षिप्य स्थिता। चिरं युद्धवतस्तस्य कोऽपि खलः किल वार्तामानैषीत्यदयं नृपतिस्तेन परचक्राधिपतिनृपतिना व्यापादित इति / तत् श्रुत्वा देवी तत्कोटिम्बकमाक्रम्यान्तर्जलतलं प्राक्षिपत् / एकं च तयोरानीतं पूज्यमानं चास्ति / द्वितीयमपि चेद् निःसरति तदोपक्रम्यतामिति / तदाकर्ण्य वकचूलः परमार्हत्चूलामणिस्तमेव धीवरं तदानयनाय नद्यां प्रावीविशत्। स च तबिम्ब कटीदघ्नवपूर्जलतलेऽवतिष्ठमानं बहिःस्थशेषाङ्गं चावलोक्य निष्कासनोपायाननेकानकार्षीत्। न च तन्निर्गतमिति दैवतप्रभावमाकलय्य समागत्य च विशामीशाय न्यवेदयत् तत्स्वरूपम्। अद्यापि तत्किल तथैवाऽऽस्ते / श्रूयतेऽद्यापिकेनापि धीवरस्थविरेण नौकायाः स्तम्भे जाते तत्कारणं विचिन्वता तस्य हिरण्मयरथस्य कीलिका लब्धा / तां कनकमयीं दृष्ट्वा लुब्धेन तेन व्यचिन्तियदिम रथं | क्रमात्सर्वं गृहीत्वा ऋद्धिमान् भविष्यामीति / ततश्च रात्रौ निद्रां न लेमे।। उक्तश्चकेनाप्यदृष्टपुरुषेणयदिमां तत्रैव विमुच्य स्थेयाः, नो चेत्सद्य एष त्वां हनिष्यामीति / तेन भयाऽऽतेन तत्रैव मुक्ता युगकीलिका इत्यादि। किं न संभाव्यते दैवताधिष्ठितेषु पदार्थेषु ? श्रूयते च संप्रति काले कश्चिन्म्लेच्छ: पाषाणपाणिः श्रीपार्श्वनाथप्रतिमां भक्तुमुपस्थितः स्तम्भितबाहुतिः , महति पूजाविधौ कृते सज्जतामापन्न इति / श्रीवीरबिम्बं महत् , तदपेक्षया लघीयस्तरं श्रीपार्श्वनाथबिम्बमिति महावीरस्यार्भकरूपोऽयं देव इति भेदाचेल्लण इत्याख्यां प्राचीकशत। श्रीमचेल्लणदेवस्य महीयस्तममाहात्म्यनिथेः पुरः ताभ्यां महर्षिभ्यां सुवर्णमुकुटमन्त्राऽऽस्तावः समाधितः प्रकाशितश्च भव्येभ्यः / सा च सिंहगुहापल्ली कालक्रमात् ' टिम्पुरी ' इत्याख्यया प्रसिद्धा नगरी संजाता। अद्यापि स भगवान् श्रीमहावीरः सचेल्लणपार्श्वनाथः सकलसझेन तस्यामेव पुर्यां पात्रोत्सवैराराध्यते इति। अन्यदा वकचूल उज्जयिन्या खात्रपातनाय चौर्यवृत्त्या कस्यापि श्रेष्ठिनः सद्मनि गतः, कोलाहलं श्रुत्वा ततः चलितः / ततो देवदत्ताया गणिकाया गाणिक्यमाणिक्यभूताया गृहं प्राविशत् / दृष्टा सा कुष्ठिना सह प्रसुप्ता। ततो निःसृत्य गतः पुरः श्रेष्ठिनो वेश्मा तत्रैकविंशोपको लेख्यके तुद्यतीति परुषवागभिर्निर्भय॑ निःसारितो गेहात् पुत्रः श्रेष्ठिना / विरराम च यामिनी। यावद्राजकुलं यामीत्यचिन्तयत् तावदुजगाम धामनिधिः / पल्लीशश्व निःसृत्य नगराद्गोधां गृहीत्वा तरुतले दिनं नीत्वा पुना रात्रावागाद्राजकुलम् / भाण्डागाराद् बहिर्गोधापुच्छे विलग्य प्राविशत्कोशम्। दृष्टो राजाग्रमहिष्या। रुष्टया पृष्टश्चकस्त्वमिति? तेनोचेचौर इति / तयोक्तम्-मा भैषीः, मया सह सङ्गमं कुरु / सोऽवादीत-का त्वम् ? साऽप्यूचे-अग्रमहिष्यह-मिति। चौरोऽवादीद्-यथेवंतर्हि ममाम्या भवसि,अतो यामि ? इति चौरेण निश्चिते, तया स्वाङ्ग नखैर्विदायं पूतकृतिपूर्वमाहूता रक्षकाः / गृहीतस्तैः / राज्ञा चानुनयार्थमागतेन तद् दृष्टम्। राज्ञोक्ता-स्ते-पौरुष्यामेनं गाढं कुर्वीध्वमिति तै उक्षितः / प्रातः पृष्टः क्षितिभृता। तेनाप्युक्तम्-देव ! चौर्यायाहं प्रविष्टः पश्चादेव भाण्डागारे देव्या दृष्टोऽस्मि / यावदन्यन्न कथयति तावत्तुष्टो विदितवेद्यो नरेन्द्रः, स्वीकृतः पुत्रतया। स्थापितश्च सामन्तपदे। देवी विडम्ब्यमाना रक्षिता वडचूलेन / अहो ! नियमानां शुभफलमित्यनवरतमयमध्यासीत् / प्रेषितश्चान्यदा राज्ञा कामरूपभूपसाधनार्थम् / घातै-जर्जरितो विजित्य तमगात् स्वस्थानम् / व्याहृताश्च राज्ञा वैद्याः, यावद् गूढोऽपि घातव्रणो विकशति / तैरुक्तम्-देव ! काकमांसेन शोभनो भवत्ययम् / तस्य च जिनदासश्रावकेण सार्द्ध प्रागेव मैत्र्यमासीत्। ततस्तदानयनाय प्रेषितः पुरुषः पुरुषाधिपतिना, येन तद्वाक्यात्काकमांस भक्षयतीति / तदाहूतश्च जिनदासोऽवन्तीमागच्छन्नुभे देव्यौरुदत्यावद्राक्षीत्।तेन पृष्ट-किरुदियः ? ताभ्यामु-क्तम्-अस्माकं भर्ता सौधर्माच्च्युतः, अतोराजपुत्र वङ्कचूलं प्रार्थयावहे, त्वयि गते स मांस भक्षयिता, तेन गन्ता दुर्गतिम् , तेन रु-दिव। तेनोक्तम्-तथा करिष्ये, यथा तन्न भक्षयिता। गतश्च तत्र राजोपरोधादकचूलमवोचत्-गृहाण बलिभुपिशितम् , यद् भुक्तः सन् प्रायश्चित्तं चरेः। वकचूलोऽवोचत्-जानासित्वं यदाचर्याप्ये-कान्तं प्रायश्चित्तं ग्राह्य, ततः प्रागेव तदनाचरणं श्रेय इति;"प्रक्षालनाद्धिपङ्कस्य, दूरादस्पर्शनंवरम्।" इति वाक्यात् / निषिद्धो नृपतिः / विशेषप्रतिपन्नव्रतनिवहश्वाच्युतकल्पमगमत्। बलमानने जिनशसेन ते देव्यौतथैवरुदत्यौ दृष्टा प्रो
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________________ र्टिपुरी 1678 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 टोलागइ क्तम्-किमिति रुदिथः ? न तावत्स मांसं ग्राहितः / ताभ्यामभिदधेस / अभिक्खणं अभिक्खणं नो उव्वदृइ जाव नो टिट्टियावेइ।" ज्ञा०१ श्रु० ह्यधिकाराधनवशादच्यतं प्राप्तः। 4 अ० / स्वकीयकर्णसमीपे धृत्वा टिट्टियावेति-शब्दायमानं करोति / " चेल्लणापार्श्वनाथस्य, कल्पमेतं यथाश्रुतम्। ज्ञा० 1 श्रु०४ अ०। बृ०। किञ्चिद्विरचयांचाः, श्रीजिनप्रभसुरयः " // 1 // टिप्पी-स्त्री०। देशी-तिलके, दे० ना० 4 वर्ग। इति श्रीचेल्लणापार्श्वनाथस्य कल्पः / टिरिटिल्ल-धा०(भ्रम) चलने, भ्वा०-पर०-अक०-सेट् / वाच०।" टिम्पुरीस्तवस्त्वयम् भ्रमेष्टि-रिटिल्ल-दण्दुल्ल-ढण्ढल्ल-चम्म-भम्मड-भमड-भमाड" उत्तुङ्गैर्विविधैर्नगैरुपलसच्छायैरभिभ्राजिता, तलअंट-झंट-झंप-भुम-गुम-फुम-फुस-ढुम-दुस-परी-पराः " / / 8 / श्रीवीरप्रभुपार्श्वसुव्रतयुगाऽऽदीशाऽऽदिबिम्बैर्युता। 4 / 161 / / इति टिरिटिल्लाऽऽदेशः।' टिरिटिल्ल इ','भमइ / प्रा० पल्ली भूत्तलविश्रुता नियमिनः श्रीवङ्कचूलस्य या, ४पाद। सा भूत्या चिरमद्भुतां कलयतु प्रौढि पुरी टिम्पुरी॥१॥ टिविडिक्क-धा०(मण्ड) भूषायाम् , चुरा०-उभ०-पक्षे-भ्वा०-पर०व्योमचुम्बिशिखरं मनोहरं, रन्तिदेवतटिनीतटस्थितम्। सक०-सेट-इदित्। वाच०।" मण्डेश्चिञ्च-चिञ्चअ-चिञ्च-ल्ल-रीडअत्र चैत्यमवलोक्य यात्रिकाः, शैत्यमाशु ददति स्वचक्षुषोः // 2 // टिवि-डिक्काः " |8| 4 | 115 / इति टिविडिक्का-ऽऽदेशः / ' मूलनायक इहान्त्यजिनेन्द्र-श्चारुलेपघटितोद्भटमूर्तिः। टिविडिक्कइ / प्रा० 4 पाद। दक्षिणे जयति चेल्लणपाचो, भात्युदक्तदपरः फणिकेतुः॥ 3 // एकत टुंट-पुं०(देशी) छिन्नकरे, दे ना 4 वर्ग। आदिजिनोऽत्र जिनोऽन्यो-ऽन्यत्र पुनर्मुनिसुव्रतनाथः / एवमनेकजिनेश्वरमूर्ति-स्फूर्तिमदत्र चकास्ति जिनौकः // 4 // टुवर-पुं०(तुवर) तरति दिनस्तिरोगानसौ।त-व्वरच्। नि०-गुणा-भावः / अनाम्बिकाद्वारसमीपवर्तिनौ, वाच०।' तगर-त्रसर-तूवरे टः // 8 / 1 / 205 / / इति तस्य टः। प्रा० श्रीक्षेत्रपालौ भुजषट्कभास्वरौ। 1 पाद / धान्यभेदे, कषायरसे च, तद्वति; त्रि० / आढक्याम, सर्वज्ञपादाम्बुजसेवनालनौ, सौराष्ट्र मृत्तिकायां च / स्त्री० / षित्वाद् डीए / स्वार्थे कन् / सङ्घस्य विघ्नौधमपोहतः क्षणात्।।५।। तुवरिकाऽप्यत्रैव / वाच०। यात्रोत्सवानिह सिते सहसो दशम्या टेंटा-स्त्री०(देशी) द्यूतस्थाने, दे० ना० 4 वर्ग। मालोक्य लोकसमवायविधीयमानान्। टेकर-न०(देशी)स्थले, दे० ना० 4 वर्ग। संभावयन्ति भविकाः कलिकालगेहे, टोकण-न०(देशी) मद्यपरिणामभाण्मे, दे० ना० 4 वर्ग। प्राघूर्णकं कृतयुगं ध्रुवमभ्युपेतम्॥६॥ टोक्कल-पुं०(टोकल) एकधान्यनिष्पन्ने व्यञ्जनभेदे, एकधान्यनिअमरमहितमेतत्तीर्थमाराध्य भक्त्या, पन्नान्यपि पूलिकास्थूलरोटकमण्डकषर्षरकधूघरीटोकलथूलीफलितसकलकामाः, सर्वभीतीर्जयन्ति। वाटकणिकाऽऽदीनि पृथक् पृथक् नामाऽऽस्वादवत्त्वेन पृथक् पृथक् बहलपरिमलाऽऽढ्यं चन्दनं प्राप्य यद्वा, द्रव्याणि / ध०२ अधि०। क इह सहतु तापव्यापमालिङ्गिताङ्गम् ? / / 7 // टोप्परिया-स्त्री०(टोप्परिका) " दवरी" इति ख्याते जत्राऽऽदिशशधरहषीकाक्षिक्षोणीमिते १२६१शकवत्सरे, निक्षेपणार्थे वस्तुनि, आचा०२ श्रु०१ अ०७ उ०। ग० / जघन्योग्रहमणिमहे सङ्घान्वीता उपेत्य पुरीमिमाम्। पकरणेषु टोप्पटिकाऽपि गृह्यते। मुदितमनसस्तीर्थस्यास्य प्रभावमहोदधिरिति विरचयांचक्रुः स्तोत्रं जिनप्रभसुरयः // 8 // टोलंब-(देशी) ममूके, दे० ना० 4 वर्ग। टिम्पुरीस्तोत्रम्। ती० 43 कल्प। टोल-पुं०(देशी) शलभे, दे ना 4 वर्ग। टिंवरु-पु०(देशी) स्थविरे, दे० ना० 4 वर्ग। टोलगइ-पुं०(टोलगति) पञ्चमे वन्दनदोषे, " टोलो व्व उ किडुतो, ओसक्कभिसक्कण दुहओ।" बृ०३ उ० 1 प्रव०1 पञ्चमं दोषमाहटिक्क-न०(देशी) तिलके, दे० ना० 4 वर्ग। अवष्वष्कणं पश्चाद्गमनम् , अभिष्वष्कणमभिमुखगमनं, तेऽवष्वटिग्घर-पुं०(देशी) स्थविरे, दे० ना० 4 वर्ग। कणाभिष्वष्कणे टोलवत्ति द्रवदुत्प्लवमानः करोति यत्र तट्टोलटिट्टिभ-पुं०(टिट्टिभ) 'टिट्टि ' इत्यव्यक्तं भाषते / (टिट्टिर) पक्षिभेदे, गतिवन्दनकमित्यर्थः / प्रव०२ द्वार। आव०।०। उष्ट्राऽऽदिसम-प्रचारे स्वार्थे कन् , अत्रैवार्थे, वाच०। स्त्रियां डीए। आ० म०१ अ०१ खण्ड। य। भ०७ श०६ उ०।जंग। टिट्टियावण-न०(टिट्टियापन) शब्दायमानकरणे," मयूरी अंडयं | *टोलागइ-त्रि०(टोलाकृति) प्रशस्ताऽऽकारे, भ०७ श०६उ०। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुश्रीमद्भट्टारक-जैनचेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' टकाराऽऽ-दिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्।
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________________ 1676 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-१ ठवणा ठकार பாபாபா ठ-(ठ)'ठ' इत्ययं वर्णो मूर्द्धस्थानीयः स्पर्शसंज्ञकः। वाच०। *ठ-पुं० / महेशमहामन्त्रे, मन्त्रिणि, भूपे, वाडवे, आसने, शयने, आकाशे, जलाऽऽशये, घटे, चक्रे, मुद्रायाम् , कुण्डले, भगवत्कचे, बृहद्ध्वाने, साहसे, स्तम्भे, चन्द्रमण्डले च। नकाशवे, शून्ये, मनोज्ञे, कठिने च। त्रि० / एका०। ठइअ-पुं०(देशी) उत्क्षिप्ते, अवकाशे, दे० ना० 4 वर्ग। ठकार-पुं०(ठकार) शङ्करे, विषये, दरे, भासे, शङ्खनिनादे, क्षये, रौद्ररसे, ध्वनौ च। एका०॥ ठक्का-स्त्री०(ढक्का)" चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्य्ययोराद्यद्वितीयौ"। 8 / 4 / 325 / / इति ढस्य ठः / प्रा० 4 पाद / स्वनामख्याते वाद्यभेदे, वाच०॥ ठक्कुर-पुं०(ठकुर) ग्रामाऽऽदिप्रभौ, विशे०। आ० म०। ठहारत्त-न०(ठट्ठारत्व) शुल्वनागवङ्गकांस्यपित्तलाऽऽदीनां करण घटनाऽऽदिना जीविकायाम् ,ध०२ अधि०। ठड्ड-त्रि०(स्तब्ध)" स्तब्धे ठ-दौ " / / 8 / 2 / 36 / / इति स्तब्धे संयुक्तयोर्यथाक्रमं ठढौ भवतः। जडे, प्रा०२पाद। ठप्प-न०(स्थाप्य) असंव्यवहार्ये, अनु०। भ० *ठरिअ-न० / देशी-गौरविते, ऊर्ध्वस्थिते, दे० ना०४ वर्ग। ठल्ल-पुं० (देशी) निर्धने, दे० ना०४ वर्ग। ठवणपुरिस-पुं०(स्थापनापुरुष) पुरुषप्रतिमाऽऽदौ, स्था०३ ठा० 130 / / ठवणप्पमाण-न०(स्थापनाप्रमाण) आकारविशेषवद्वस्तुप्रतिपादके नामनि, अनु०। से किं तं ठवप्पमाणे? ठवप्पमाणे सत्तविहे पण्णत्ते। तं जहा" णक्खत्तादेवय-कुले, पासंड-गणे जजीवियाहेऊ। आभिप्पाइयनामे, ठवणानामंतु सत्तविहं" // 1 // अथ किं तत् स्थापनाप्रमाणम् ? स्थापनाप्रमाणं सप्तविधिमित्यादि। 'णक्खत्तगाहा।" इयमत्र हृदयम्-नक्षत्रदेवताकुल-पाखण्डगणाऽऽदीनि वस्तून्याश्रित्य यस्य किञ्चिन्नामस्थापनं क्रियते, सेह स्थापना गृह्यते / त पुनर्यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण, यच्च तत्करणीत्यादिना पूर्व परिभाषितस्वरूपा सैव प्रमाणं तेन हेतुभूतेन नाम सप्तविधं भवति। अनु० / ठवणसटव-न०(स्थापनासर्व) स्थापनया सर्वमेतदिति कल्पनया अक्षाऽऽदिद्रव्यं सर्व, स्थापनैव वा अक्षाऽऽदिद्रव्यरूपा सर्व स्थापनासर्वम् / स्था० 10 ठा०। ठवणा-स्त्री०(स्थापना) स्थाप्यतेऽमुकोऽयमित्यभिप्रायेण क्रियते | निर्वयंत इति स्थापना.। काष्ठकर्माऽऽदिगताऽऽवश्यकवत् साध्वादिरूपे, अनु० / स्था० / लेप्याऽऽदिकर्मणि, स्था० 2 ठा० 4 उ० / सर्वस्य वस्तुनो निजे निजे आकारे, विशे०। आकारविशेषे, आ म०१ अ०१ खण्डालेप्याऽऽदिकर्मअर्हदादिविकल्पेन स्थाप्यते। स्था० 10 ठा०। सद्भावासद्भावरूपप्रतिकृती, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०॥ पत्राऽऽदिलिखिते आकारे, नयो० आ०म० स्था०ातचित्रं स्थापनेतितस्य घटस्य चित्र पत्राऽऽदिलिखित आकारः स्थापना। तल्लक्षणं चेदं स्मरन्ति" यत्तु तदर्थवियुक्तं, तदभिप्रायेण यच तत्करणिः / लेप्याऽऽदिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च " / / 1 / / एतदर्थोऽयम्-यद्वस्तु, तदर्थवियुक्तं भावेन्द्रार्थरहितं, तदभिप्रायेण तबुद्ध्या, करणिराकृतिः, यद्येन्द्राऽऽद्याकृतिलेप्याऽऽदिकर्म क्रियते, चशब्दादाकृतिशून्यं चाक्षनिक्षेपाऽऽदि, तत् स्थापनेति ; तचाल्पकालमित्वरमित्यर्थः / चशब्दाद् यावद्रव्यभावि च मृद्रव्यमिति, घटकारणीभूता मृदेव द्रव्यघट इत्यर्थः / नयो०। ननुसादृश्यसंबन्धस्य स्थापना निक्षेपनिवासकत्वेऽसद्भावस्थापनोच्छेदप्रसङ्गोऽभिप्रायसंबन्धस्यापि तन्नियामकत्वंचनाम्न्यपि तस्य सुवचनत्वादति प्रसङ्गस्तदवस्थएवेत्याशङ्कायामाहअतिप्रसङ्गो नैवं चा-ऽभिप्रायाऽऽकारयोगतः। यच्छुतोक्तमनुलध्य, स्थापना नाम चान्यतः॥६६॥ (अतिप्रसङ्ग इति) एवमुक्तासङ्करप्रकारेण च, अतिप्रसङ्गो न भवति, यत् श्रुतोक्तं सिद्धान्तवचनमनुलध्य, अक्षाऽऽदावेवाभिप्रायसंबन्धं, प्रतिमादवेव चाऽऽकारसंबन्धं पुरस्कृत्य, स्थापनाऽऽद्रियते, अन्यतोऽन्यस्थले च, नाम निक्षेप इतिक्वातिप्रसङ्गः? तथाच-सूत्रबोधितबलवदनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनताकतद्गतगुणस्मृतिजनकसंस्कारोबोधकाभिप्रायाऽऽकारान्यतरसंबन्धक्त्वं तत्स्थापनात्वमिति फलितं भवति / / 66|| / उक्तविशेषप्रयोजनमेवोपदर्शयितुमाहअत एव न धीरह-त्प्रतिमायामिवार्हतः। भावसाधोः स्थापनायाः, द्रव्यलिङ्गिनि कीर्तिता / / 100 / / "अतएव " इत्यादि। अत एवोक्तविशेषणनिवेशध्रौव्यादेव, अर्हत्प्रतिमायामहत इव, द्रव्यलिङ्गिनि प्रकटप्रतिषेविणि पार्श्वस्थाऽऽदौ, स्थापनायाः, भावसाधोः, धीः, सिद्धान्ते, न कीर्त्तिता / / 100 / / कुतः ? इत्याहसाहि स्थाप्यस्मृतिद्वारा, भावाऽऽदरविधायिनी। न चोत्कटतरे दोषे, स्थाप्यस्थापकभावना / / 101 / / सा हि स्थापनाधीर्हि, स्थाप्यस्मृतिद्वारा एकसंबन्धिज्ञाने अपरसंबन्धिस्मृतिः " इति नियमविधया स्थाप्यस्मृतिव्यापारण, भावाऽऽदरस्यस्थाप्यगतगुणप्रणिधानोद्रेकस्य, तजनितानिजराऽतिशयस्य वा, विधायिनी। न च स्थापनाविषये उत्कटतरे दोषे, प्रतिसन्धीयमाने इति शेषः / स्थाप्यस्थापक भावना, फल
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________________ ठवणा 1680 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणा वतीति शेषः / तथा च द्रव्यलिङ्गिदर्शनादपि न भावसाधुगुणाः / ननु स्मृतिरेव तन्नियामकप्रायिकसादृश्यस्य रजोहरणगोच्छकपतद्ग्रहाऽऽदिरूपस्य तस्याबाधितत्वात् , किं तूत्कटदोषवत्त्वेन प्रतिसंधीयमानस्य सा दृश्या। वन्दनकनियुक्तौ " तित्थयरगुणा पडिमा-सु णऽत्थि णिस्संसयं विआणतो। तित्थयरु त्ति णमंतो, सो पावइ णिज्जरं विउलं / / 58 / / लिंग जिणपण्णत्तं, एव णमंतस्स णिज्जरा विउला।। जइ वि गुणविप्पहीणं, वंदइ अज्झप्पसोहीए।। 56 / / " (अनयोरर्थः ‘किइकम्म शब्दे तृतीयभागे 516 पृष्ठे द्रष्टव्यः) इति गाथाभ्यां सादृश्यसंबन्धमात्रेणार्हत्प्रतिमाया अर्हतो द्रव्यलिङ्गिनो भावसाधोस्तटस्थेन स्मृतेरुत्थापकतयाऽध्यात्मशुद्धिप्रभवनिर्जराऽङ्गत्वेन वन्दनीयत्वं यदाक्षिप्तं पूर्वपक्षकृता / तन्न / आचार्यरकत्रोत्कटदोषवत्त्वेनोपस्थितसमानसंवित्संवेद्यतालभ्यगुणवत्- सादृश्यधीस्तद्गतदोषानुमतिरूपतया गुणवदपकर्षव्यञ्जकत्वेन तन्निदानरूपत्वेन बलवदनिष्टानुबन्धावहा, अन्यत्र चोक्तकारणाभावान्न तथात्वमिति वैषम्यमुद्भावयित्वा समाधानं कृतम्। " संता तित्थयरगुणा, तित्थयरे तेसिमं तु अज्झप्पं / णय सावज्जा किरिया, इयरेसु धुवा समणुमन्ना // 60 // इति। अस्या अर्थः-सन्तो विद्यमानाः शोभना वा तीर्थकरत्वेन प्रतीयमानस्य गुणाः, तीर्थकरेऽर्हति, इयं च प्रतिमा, तेषां नमस्कुर्वताम् इदमध्यात्मसमापत्यादिफलकानुभूयमानतीर्थकरगुणस्मृताऽऽलम्बनम् / यद्वातेषां गुणानाम् , इदमध्यात्म्यम्-अध्यारोपविषयः, तटस्थेन स्मृतौ योगजीवातुसमापत्यसिद्धेः / न च तासु प्रतिमासु सावद्या सपापा, क्रिया, इतरेषु पार्श्वस्थाऽऽदिषु, ध्रुवा, सेति योज्यते। ततः समनुज्ञा सावधक्रियायुक्तपार्श्वस्थाऽऽदि प्रणमनाद् , ध्रुवेतियोगः। एवं च सति प्रतिमायामुभयक्रियाभावप्रसञ्जित उभयफलाभावस्तदालम्बनकस्थाप्यगुणसंकल्परूपमनःशुद्धेर्बलवत्तयैव निराक्रियमाणः पाश्वस्थाऽऽदिवन्दनेऽपि मनःशुद्धेर्बलवत्तयैव दोषाभावं गुणोदयं च साधयितुं कथं न प्रगल्भते ? इत्याशङ्काशेष उभयविकल एव आकारमात्रतुल्ये कतिपयगुणान्विते चोत्कृष्टगुणाध्यारोपशुभसंकल्परूपतामास्कन्दनिर्जराहेतुः। अन्यत्र त्वसावशुभसंकल्परूपत्वेन निरवद्यकर्माभाववद्विशेष्यकत्वस्य गौरवेणातन्त्रवात् सावद्यकर्मवद्विशेष्यकतयैव विपर्यासलक्षणसमन्वयेन वाऽनन्तक्लेशाऽऽवह इत्यभिप्रायेणाऽऽचार्यस्तत्रैव निराकृतः / तथाहि"जह सावज किरिया, णत्थि य पडिमासु एवमियराऽवि। तयभावे णस्थि फले, अह होइ अहेउअंहोइ॥ 61 // कामं उभयाभावो, तह विफलं अस्थि मणविसुद्धीए। तीइ पुण मणविसुद्धी-इ कारणं हुंति पडिमाओ।। 62 // जइ वि अ पडिमा उ जहा, मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंग। उभयमवि अस्थि लिंगे, ण य पडिमासूभयं अस्थि / / 63 / / णियमा जिणेसु उ गुणा, पडिमाओ दिस्स ज मणे कुणइ। अगुणे उ वियाणतो, कं नमउ मणे गुणं काउं? / / 64 / / जह वेलंबगलिंग, जाणतस्स णमओ धुवं दोसो। णिबंधसमिअणाऊ-ण वंदमाणे धुवो दोसो। 65 / इति। 101 / (आसां गाथानामर्थः ' किइकम्म 'शब्दे तृतीयभागे 516 पृष्ट गतः) नन्वेवं स्थापनास्थले सावधकर्माभाववद्विशेष्यगुणसंकल्पत्वे भावस्य निर्जराहे तुत्वमित्यागतम् / तचायुक्तम् / लाघवेन निरवद्यकर्मवद्विशेष्यकत्वेनैव ततुत्वौचित्याल्लक्षणगौरवापेक्षया कारणभावगौरवस्स महादोषत्वात् / किञ्च-स्थापनास्थलीयभावे जात्युपाध्यन्यतरकृतातिरिक्तविशेषाभावे यथोक्तरूपेणैव हेतुत्वे मायाच्छादितदोषे आलयविहाराऽऽदिना शुद्धताप्रतिसंधानदशायां वन्द्यमाने साधौ कथं निर्जरोत्पत्तिः संगच्छते ? न च तत्र निरवद्यकर्मयुक्ततयाऽगृहीतासंसर्गकगुणसंकल्पेन पृथगेव निर्जराहेतुत्वाददोषः / तथा सति तुल्यन्यायतया सावद्यकर्मयुक्तत्वेनागृहीतासंसर्गकगुणसंकल्पत्वेन बन्धहेतुताया एव युक्तत्वात् , प्रतिमावन्दनादुभयाभावाऽऽपत्तेः। नच सत्त्वशुद्धिविधया कारणतायामयमेव प्रकारः, अवश्चकयोगविधया कारणतायां तु वास्तवविषयताया एव निवेशान्न दोष इति वाच्यम्। सत्त्वशुद्धिविधयैव प्रतिमावन्दनान्निर्जरोत्पत्तेः, " तह वि फलं अस्थि मणविसुद्धीए। " इत्यनेन प्रतिपादनात् / किं चगुणदोषोभयवैकल्यमात्रेण प्रतिमायामर्हदध्यवसायस्य निर्जराऽङ्गत्वे प्रतिष्ठिताप्रतिष्टितयोरविशेषाऽऽपत्तेः / न च " सयकारियाइ एसा, नायइ ठवणाइ बहुफला केइ। गुरुकारियाइ अन्ने, विसिट्टविहिकारियाए य / / 1 / / थंडिल्ले वि य एसा, मणवयणाए पसत्थगा चेव। आयासगोमयाई-हि एत्थमुल्लेवणाइ हियं / / 2 // उवयारंगा इह सो-वओगसाहारणाण फला। किं च विसेसेण तओ, सव्वे विय ते विभइअव्वा // 3 // इति पूजाविधिविंशिकावचनपर्यालोचनायामिष्टपदेति वाच्यम् / तत्र प्रतिष्ठितत्वव्याप्यधर्मपुरस्कारेणेव मानसप्रतिष्ठापुरस्कारेण प्रवृत्तानां पूजाविधिकल्पानां विधिप्रतिष्ठितपूजाजन्यताऽवच्छेदकजातिव्याप्यजात्यवच्छेदेन, मानसाभिप्रायशोधिताविधिप्रतिष्ठितपूजाजन्यतावच्छेदकजात्यवच्छेदेन च फलभेदाद्धेतुभेदो युक्त इत्यभिप्रायेण प्रवृत्तावपि प्रतिष्ठासामान्यस्याकिश्चित्करत्वे तात्पर्याभावात् , अन्यथा प्रतिष्ठाविधिवैयर्थ्यप्रसङ्गात्। ततः प्रतिष्ठाऽऽदिविधिजनितः प्रतिमागतोऽतिशयविशेषः कश्चिस्थापनानिक्षेपो निहन्यतामित्याशङ्कायाम्-" संता तित्थयरगुणा " / (आव० 60 गाथा) इत्यादिगाथामेव व्याख्यानान्तरसूचितं पक्षान्तरं परिष्कुर्वन्नाहयदा प्रतिष्ठाविधिना, स्वाऽऽत्मन्येव पराऽऽत्मनः। स्थापनास्यात्समापत्ति-बिम्बे सा चोपचारतः।। 102 / / यता पक्षान्तरे, प्रतिष्ठाविधिना प्रतिष्ठाकारयितुः स्वाऽऽत्मन्येव, पराऽऽत्मनः परमगुणवतः त्रिभुवनभर्तुः ध्यानतारतम्ये च तात्स्थ्यतदञ्जनत्वस्वरूपा समापत्तिरेव स्थापना स्यात्, निश्चयतः सर्व-क्रियाणां तत्फलानां च उद्देश्यसंबन्धित्वेन व्यवह्रियमाणानामपि स्वात्मसंबन्धित्वस्यैव भाष्याऽऽदौ व्यवस्थापनात् / पराऽऽत्मन इत्युपलक्षणम् / स्वभावस्याऽऽहत्यादिप्रतिष्ठया कारयितरि स्वभाव एव स्थाप्यते। परम्परया तुतन्मूलप्रमाणानुपलब्ध्या विषयवचनाऽऽद्यप्रवर्तकत्वसंबन्धस्मारितः। तत्र च खलु प्रतिष्ठा निजभावस्य एव, देवतोद्देशात् स्वात्मन्येव, परं यत् स्थापनमिह वचननीत्या ऊचे-" बीजमिदं परमं यत् , परमाया एव
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________________ ठवणा 1681- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणा समरसाऽऽपत्तेः / स्थाप्येन तदपि मुख्या, हन्तैषैवेति विज्ञेया॥१॥" इति / नन्वेवं निश्चयतः स्थापनाया आत्मगतायाः प्राप्तौ प्रतिमायां तद्व्यवहारः कथम् ? अत आह-बिम्बे च, सा स्थापना उपचारतः, स्वाऽऽत्मनि स्थापितस्य भावस्याऽऽलम्बनतयः समापत्तिविषयीक्रियमाणस्य परमाऽऽत्मनः साकारयोगमुद्राऽनुकारितया वा लक्षणया एव इत्यर्थः / / 102 // नन्चेवं यजमानगतादृष्टमेव प्रतिष्ठाफलं भवद्भिरुपपादितम् ,ता-वता वन्दकपूजकाऽऽदीनां का सिद्धिः ? सा हि तदा स्यात् , यदि प्रतिष्ठाऽऽहितश्चाण्डालाऽऽदिस्पर्शनाश्यः पूजाफलप्रयोजकः कश्चिदतिशयोऽभ्युपगतः स्यात्, प्रतिष्ठितप्रतिमावन्दनपूजननत्यादिना फलविशेषहेतुत्वस्य इत्थमेव वक्तुं शक्यत्वात् / न च यजमानगतादृष्ट तदाहितं, तथा चाण्डालाऽऽदिस्पर्शेन व्यधिकरणेन तन्नाशयोगाद् यजमानस्य तददृष्टक्षये पूज्यत्वानापत्तेः / एतेन संबन्धविशेषण यजमानगतादृष्टस्य प्रतिमागतत्वसमर्थनमपि प्रत्याख्यातम्। यत्तु-प्रतिष्ठाविधेर्देवतासंविधानस्य स्वाभेदस्वीयत्वाऽऽदिज्ञानतदाहितसंस्काररूपस्य उत्पादात् फलोत्पत्तिः, चाण्डालाऽऽदिस्पर्श च तदभावात् फलभाव इति कस्यचिद् मतम्। तत्तु मुक्तिप्रतिष्ठितदेवताया अभिमानाभावात् , प्रतिष्ठया तदुपकरणस्य अशक्यक्रियत्वात् चाऽऽचार्यरव दूषितम् / तदुक्तम्-" मुक्त्यादौ तत्त्वेन, प्रतिष्ठिताया न देवतायास्तु। स्थाप्ये न च मुख्ये तत् , तदधिष्ठानाऽऽद्यभावेन"।१। इत्यादेन च तस्या उपकारः कश्चिदत्र मुख्य इति तदतत्त्वकल्पनैषा बालक्रीडासमा भवतीति। यदपि-" प्रतिष्ठितं पूजयेत् " इति विधिः प्रतिष्ठाकालीनयावदस्पृश्यस्पर्शाभावविशिष्टः प्रतिष्ठाध्वंसः, तद्विशिष्टप्रतिमापूजनं वा फलप्रदं, तप्रत्ययादतीतत्वलाभात्" इति गङ्गेशोपाध्यायैरुक्तम्। तदपितुच्छम्। प्रतिष्ठारूपायां पूजायामेवाऽऽगतेः, तत्र ध्वंसस्यैव फलजनकव्यापारस्याऽऽश्रयणे चादृष्टमात्रस्यैव दत्तजलाञ्जलित्वप्रसङ्गात् / कथं चैव प्रतिष्ठितेऽप्यप्रतिष्ठितत्वज्ञाने न पूजाफलम् ? प्रतिष्ठाध्वंसवत्त्वेन प्रमीयमाणत्यस्य पूजाफलजनकताऽवच्छेदककोटौ निवेशेन प्रतिष्ठावत्वेन प्रमीयमाणत्वस्यैव निवेशौचित्यम्, इति नकिश्चिदेतत्। तस्माद्वन्दनपूजनाऽऽदिफलप्रयोजकत्वं कथं प्रतिष्ठायाः? इति जिज्ञासायामाहप्रतिष्ठितप्रत्यभिज्ञा-समापन्नपराऽऽत्मनः। आहार्याऽऽरोपतःसाच, द्रष्टणामपि धर्मभूः / / 103 / / (प्रतिष्ठितेति) सा स्थापना, प्रतिष्ठितप्रत्यभिज्ञया, समापन्नो यः पराऽऽत्मा भगवान् , तस्य, आहार्याऽऽरोपतः, द्रष्टणाम, उपलक्ष-णाद् वन्दकानां पूजकानां च,धर्मभूः धर्मकारणं भवति। अयं भावः-प्रतिमायां भगवदभेदाऽऽरोपं विना न तावद्वन्दनपूजनाऽऽदिफलं हेतुसहस्रेणापि संपद्यते, स च काष्ठपापाणत्वाऽऽदिना भेदप्रत्यक्ष सति स्वरसतो नोदयतीत्याहार्य एव संपादनीयः। आहार्यत्वं चेच्छाजन्यत्वम्। इच्छा च इष्टसाधनताज्ञानसाध्या, इति इष्टसाधनताज्ञानसंपादनाय प्रतिष्टिता प्रतिमां भगवदभेदेन अध्यारोपयेदिति विधिः कल्पनीयः / तथा चाऽऽहार्यभगवदध्यारोपविषयप्रतिमापूजनत्वाऽऽदिना फलविशेषहेतुत्वे आहार्यत्वप्रयोजकेच्छाजनकज्ञानविशेष्यताऽवच्छेदककुक्षिप्रविष्टत्वेन प्रतिष्ठाया अपि परम्परया प्रयोजकत्वमित्युक्तं भवति।" प्रतिष्ठितं पूजयेत् / " इत्यत्रापिक्तप्रत्ययस्य खण्डशः शक्त्या लक्षणाऽऽदिना वा प्रतिष्ठाप्रयुक्ताऽऽहार्याऽऽरोपविषयपूजनत्वाऽऽदिनैव फलहेतुता / क्तप्रत्ययस्य चौत्सर्गिकण कृत्प्रत्ययार्थेनाष्प्रत्ययत्वेनैवार्थवत्तेति चिन्तामणिकारादप्यतिसूक्ष्ममतिनिपुणं च वयमीक्षामहे / / 103 // उक्तमेव वक्ष्यमाणफलान्वयेनाऽऽहतत्कारणेच्छाजनक-ज्ञानगोचरबोधकाः। विधयोऽप्युपयुज्यन्ते, तेनेदं दुर्मतं हतम् // 104 / / (तत्कारणेति) तस्याऽऽहार्याऽऽरोपस्य, कारणं या इच्छा, तज्ज-नकं यत् " प्रतिष्ठितां प्रतिमां भगवदभेदेनाध्यारोपयेत् " इति विधिजनितं ज्ञानं, तद्गोचरीभूतायाः प्रतिष्ठाया बोधकाः, इष्टसाधनत्वबोधनाऽऽदिद्वारा तदुत्पत्तिहेतव इति यावत् / विधयो विधिवाक्यानि, अप्युपयुज्यन्ते फलवन्तो भवन्ति, तैः प्रतिष्ठोत्पादने प्रतिष्ठितप्रतिमायामारोपविधिना भगवदभेदाध्यारोपोपपत्तौ पूजाफलप्रयोजकरूपसिद्धेः। तेनेदं वक्ष्यमाणं, दुर्मतमाध्यात्मिकाऽऽभासाना, हतं निराकृतम्। 104 / किं तत् ? इत्याहप्रतिष्ठाऽऽद्यनपेक्षायां, शाश्वतप्रतिमाऽर्चने। अशाश्वता पूजायां, को विधिः किं निषेधनम् ? / / 105 // शाश्वतप्रतिमाऽर्चने प्रतिष्ठाया आदाविह प्रथमतोऽनपेक्षायां तत्रैव तस्याः फले व्यभिचारात्। अशाश्वतार्चानां कृत्रिमप्रतिमानां पूजायां, "प्रतिष्ठितां प्रतिमां पूजयेत्" इति विधिः कः ?"अप्रतिष्ठितं न पूजयेत्' इति निषेधनंच किम् ? प्रतिष्ठातदभावयोरिष्टानिष्टसाधनतया व्यभिचारादभावेन तत्र विधिनिषेधार्थान्वयस्यायोग्यत्वात् / इति भावः / / 105 // कथमेतन्निरस्तम् ? इत्याहपूजाऽऽदिविधयो ज्ञान-विध्यङ्गित्वं यदाश्रिताः। शाश्वताशाश्वतार्चासु, विभेदेन व्यवस्थिताः।। 106 / / (पूजाऽऽदीति) पूजाऽऽदिविधयः- "प्रतिष्ठितां प्रतिमा पूजयेत्' इत्यादिवाक्यलक्षणाः, ज्ञानविधेः "प्रतिष्ठितां प्रतिमां भगवदभिन्नत्वेनाध्यारोपयेत् " इत्यङ्गवाक्याऽऽत्मकस्य, अङ्गित्वं प्रधानत्वम् , आश्रिताः, शाश्वताशाश्वतार्चासु , विभेदेन भिन्नरूपेण, व्यवस्थिताः। तथा च-प्रतिष्ठाया न पूजासहकारित्वम्, किं तु स्वकर्तव्यताबोधकविध्यङ्गताऽऽपन्नविधिविषयनिर्वाहकत्वेन प्रयोजकत्वम्। तचाशाश्वतप्रतिमास्थले। अन्यत्र त्वनादिप्रतिष्ठितत्वप्रत्यभिज्ञाया एव तथात्वं, तादृशशिष्टाऽऽचारेण तथैव विधिबोधनादिति विकल्पेनानयोः पूजाफलप्रयोजकव्याहतेन कोऽपिदोष इति। अतएव निश्रितानिश्रिताऽऽदिभेदेन स्वल्पबहुभक्तिविधानाऽऽदेनिविशेषाऽऽपेक्षकत्वेन व्यवस्थितविकल्पोपपादकत्वं संगच्छते। अत एव चाविधिप्रतिष्ठितेऽप्यविच्छेदाऽऽदिकारणाऽऽलम्बनोपबृंहितवैज्ञानिकविधिना विधिप्रतिष्ठिततुल्यतामामनन्ति संप्रदायवृद्धाः / भावशोधितशुद्धनिमित्तनैमित्तिकैकान्तशुद्ध्यभावेऽपीदानीन्तनयतिधर्मपौषधाऽऽदिक्रियावत्तत्र भावशोधनमात्रेण मध्यमशुद्ध्यप्रच्यवात्तस्या अपि चशुभानुबन्धसारत्वादित्यादिकमुपपादितं प्रतिमाशतकाऽऽदौ। तस्मात्स्थापनातटस्थेन भगवद्गुणस्मारकतया तदाहार्याऽऽरोपप्रयोजकतया वा संग्रहनयेनाप्यवश्यं स्वीकर्तव्या, इति व्यवस्थापितम्।। 106 //
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________________ ठवणा 1652- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ ठवणा एतेन तदभ्युपगतव्यवहारोऽपि निरस्त इत्याहएतेन व्यवहारोऽपि, स्थापनाऽनाग्रहो हतः। तत्रार्द्धजरतीयं किं, नाम्नाऽपि व्यवहर्तरि ? / / 107 / / (एतेनेति) एतेनानुपदोक्तयुक्तिकदम्बकेन संग्रहस्थापनाव्यवस्थापनेन, व्यवहारोऽपि, स्थापनाया अनाग्रहोऽस्वीकारो, हतो निरस्ता, केषाञ्चिदाचार्याणाम् , यतस्तत्र व्यवहारे, नाम्नाऽपि नामनिक्षेपेणापि, व्यवहर्तरि व्यवहारमभ्युपगच्छति, किमिदमर्द्धजरतीयम् ? यदुत स्थापनया व्यवहार इति, न हीन्द्रप्रतिमायां नेन्द्रव्यवहारो भवति, तत्राभवन्नपि भ्रान्त एव / न वा नामाऽऽदिप्रतिपक्षव्यवहारसाङ्कर्यम्: इत्येकमाद्रियमाणस्यापरं च परित्यजतः केवलमाहोपुरुषिकामात्रमेवेति / / नयो०। अथ सामान्येनैव स्थापनायाः स्वरूपमाहजं पुण तदत्थसुण्णं, तयभिष्पाएण तारिसाऽऽगारं। कीरइ व निरागारं, इत्तरमियरं व साठवणा // 26 // सा स्थापनाऽभिधीयते, यत् , किम् ? इत्याह-यत्क्रियतेइन्द्राऽऽदिस्थापनारूपतया विधीयते वस्तु, पुनःशब्दो नामलक्षणात् स्थापनालक्षणस्य वैसदृश्यद्योतकः। केन? इत्याह-तदभिप्रायेणतस्य सद्भूतेन्द्रस्याभिप्रायोऽध्यवसायस्तेन / कथंभूतं तद्वस्तु ? इत्याहतदर्थशून्य-स चासावर्थश्च तदर्थःसद्भतेन्द्रलक्षणः, तेन शून्य तदर्थशून्यम् / पुनरपि कथम्भूतम् ? तादृशाऽऽकारंसद्भूतेन्द्रसमानाऽऽकारं, वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वान्निराकारं वा, सद्भूतेन्द्राऽऽकारशून्यमित्यर्थः / चित्रलेप्यकाष्ठापाषाणाऽऽदिषु तादृशाऽऽकारं भवति, अक्षाऽऽदिषु तु निराकारमित्यर्थः / पुनः किंभूतम् ? इत्वरम् - अल्पकालीनम् / इतरदायावत्कथिकम् / तत्रेत्वरं चित्राक्षाऽऽदिगतम्। यावत्कथिकं तुनन्दीश्वरचैत्यप्रतिमाऽऽदि / तदपि हि ' तिष्ठतीति स्थापना ' इति स्थापनात्वने समय निर्दिष्टमेव / तदिदमिह तात्पर्यम्यद्वस्तु सद्भूतेन्द्रार्थशून्यं सत्तबुद्ध्या तादृशाऽऽकारं, निराकारं वा स्तोककालं, यावत्कथिकं वा स्थाप्यते सा स्थापनेति / प्रकते योजना तु इत्थं क्रियते-चित्रकर्माऽऽदिगतः परममुनिः, स्थापनं स्थापना, तया मङ्गलम् , स्थाप्यते इति वा स्थापना, तया मङ्गलं ; स्थापनामङ्गलमिति व्यपदिश्यते / इति गाथाऽर्थः / / 26 // अथ भाष्यकारः स्वयमेव नामस्थापनामङ्गलयोरुदाहरणमुप दर्शयन्नाहजह मंगलमिह नामं,जीवाजीवोमयाण देसीओ। रूढं जलणाईणं, ठवणाए सोत्थियाईणं / / 27 / / यथाशब्द उदाहरणोपन्यासार्थः / क्व यथा ? इत्याह-जीवाजीवोभयानां ज्वलनाऽऽदीनां, देशीतो देशीभाषया, मङ्गलमिति नाम रूढम्। तत्र जीवस्याग्नेर्मगलमिति नाम रूढम् , सिन्धुविषये अजीवस्य दवरकवलनकस्य मङ्गलमिति नाम रूढम् , लाटदेशे जीवाजीवोभयस्य तु मङ्गलमिति नाम रूढं वन्दनमानायाः, दवरिकाऽऽदीनामिहाचेतनत्वात् , पत्राऽऽदीनां तु सचेतनत्वाद् जीवाजीवोभयत्वं भावनीयम् / स्वस्तिकाऽऽदीनां तुया स्थापनालोके, तस्या रूढं स्थापनामङ्गलत्वमिति शेषः / इतिगाथाऽर्थः / / 27 // विशे०। " ठविओ य आरियत्ते, जम्हा तू तेण ठवण त्ति।" पं०भा०। पण्डितनगर्षिकृतप्रश्नः-गणधराः प्रतिक्रमणं कुर्वाणाः स्थापना कुर्वन्ति, न वा ? कुर्वाणा अपि तीर्थङ्करस्य, अन्यस्य वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-तीर्थङ्करस्य देवगुरुरूपत्वेन तत्समीपे प्रतिक्रमणाऽऽदि कुर्वता स्थापनाप्रयोजनं न स्यात् , जिनपरोक्षे तत्कुर्वतां तु स्थापनाकरणमात्मनामिवेति संभाव्यते / / प्र० / ही० 3 प्रका० / दीपवन्दिरसङ्घकृतप्रश्नः-अक्षमालाऽऽदिका स्थापना या नमस्कारेण विधीयते, तदुपरि उद्द्योते दृष्टिरक्षणं सुकरम् , अन्धकारे कथं च भवति ? तद्धीना च स्थापना शुद्ध्यति, न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र अक्षमालापुस्तकाऽऽदिकस्थापना नमस्कारेण स्थाप्यते, स्थापनाऽनन्तरं च क्रियाकरणं यावदुद्द्योते यथाशक्ति दृष्ट्युपयोगौ रक्ष्येते अन्धकारे, दृष्ट्युपयोगयोरन्तरे जाते तु पुनः स्थापनां कृत्वा अग्रतः क्रिया क्रियते। यतः स्थापना द्विधाइत्वरा, यावत्कधिका च / तत्र इत्वराऽक्षमालाऽऽदिका, या नमस्कारेण स्वयं स्थापिता दृष्टियुपयोगयोः सतोरेव तिष्ठति / यावत्कथिका चाक्षप्रतिमाऽऽदिका या गुरुसकाशात्स्थाप्यते, सा पुनः पुनः स्थापिता न विलोक्यते इति। 6 प्र०। ही०४ प्रका० / कायोत्सर्गे वन्दनकदानावसरे च स्थापनाऽऽचार्यचालनं य शुध्यति, न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र कायोत्सर्गकरणावसरे, वन्दनकदानावसरे च स्थापनाऽऽवार्यचालनं न शुद्ध्यतीत्येकान्तो ज्ञातो नास्तीति। 14 प्र०। ही० 4 प्रका०ा पण्डितगुणविजयगणिकृतप्रश्नः-स्थापनाः कियति प्रदेशे ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च दूरे स्थापिताः क्रियाशुद्धिहेतवो भवन्ति ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्रोद्ध मस्तकात् पादयोरधस्तात् तिर्यक् च द्रष्टुमशक्ये स्थाने स्थापिताः स्थापनाः क्रियाशुद्धिनिमित्तं न भवन्तीति वृद्धवादः / यत्तु-उपरितनभूम्यादौ स्थापितासु तासु अधस्तनभूम्यादौ क्वापि क्रियायाः क्रियमाणत्वं, तत्कारणिकमिति ज्ञेयम्। 4 प्र०ाही०२ प्रका०। स्थापने, नं०।' णिक्खेवो स्थापनाऽभ्यासक इत्यनान्तरम् / आ० चू०१ अ० / न्यासे, पञ्चा०२ विव० / निधानं निधिर्निक्षेपो न्यासो विरचना प्रस्तारः स्थापनेति पर्यायाः। अनु०। (जिनबिम्बस्थापना' चेइ-य' शब्दे तृतीयभागे 1270 पृष्ठे निरूपिता, सा च तत एवावधाय्या) पञ्चमे उद्गमदोषे, स्था०३ ठा०४ उ०। स्थाप्यते साधुनिमित्त कियन्तं कालं यावन्निधीयते इति स्थापना / यद्वास्थापनं साधुभ्यो देयमिदमिति बुद्ध्या देववस्तुनः। कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना, तद्योगाद्देयमपि स्थापना / स्वस्थाने चुल्लीस्थाल्यादौ, परस्थाने सुस्थितकछचकाऽऽदौ चिरकालमित्वरकालं च साधुदाननिमित्तं धार्यमाणमशनाऽऽदिकं स्थापनेति व्युत्पत्तेः / प्र-व०६७ द्वार। पिं०। पं०व०। पञ्चा०ा आचा० ध०। उत्त०1 ग०। दर्श०। अथ स्थापनाद्वारमाहसट्ठाणे परट्ठाणे, दुविहं च ठियं तु होइ नायव्वं / खीराऽऽदिपरंपरए, हत्थगयघरंतरं जाव॥ स्थापितं साधुनिमित्तं, घृतभक्ताऽऽदि। तच द्विधा। तद्यथा-स्वस्थाने, परस्थाने च / तत्र स्वस्थानं-चुल्ल्यवचुल्लाऽऽदि / परस्थाने - छचकाऽऽदि। एकैकं द्विधा-अनन्तरं, परम्परं च। तत्र यस्य साधुनिमित्त स्थापितस्य सतो विकारान्तरं न भविष्यति, यथा घृताऽऽदि, तदनन्तरस्थापितम् / क्षीराऽऽदिकं तु, परम्परके परम्परास्थापितम्। तथाहि-क्षीरं स्थापितं सद्दधि भवति, दधि भूत्वा नवनीतं, नवनीत भूत्वा धृतं, ततो यदेव साधुनिमित्तं क्षीरं धृत्वा घृतीकृत्य ददाति, तदा तत् क्षीरं परम्परास्थापितं भवति / एवमन्यदपीक्षुरसाऽऽदिकं द्र
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________________ ठवणा १६८३-अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ ठवणा . ष्टव्यम्। तथा पङ्क्तिस्थिते गृहत्रये उपयोगावकाशसंभवे सति, हस्तगतासु / तिसृषु भिक्षास्वेकः, साधुरेका भिक्षां सम्यगपयोगेन परिभावयन् गृह्णाति। द्वितीयस्तुद्वयोर्गृहयोर्हस्तगतेद्वे भिक्षेपरि-भावयति। ततो गृहत्रयात्परतो यावद् गृहान्तरं न भवति, तावन्न तस्य स्थापनादोषः / गृहान्तरे तु साधुनिमित्तं हस्तगता भिक्षा स्थापना, तत्रोपयोगासंभवात्। तत्र एनामेव गाथां भाष्यकृद् व्याचिख्यासुः प्रथमतः स्वस्थान-माह-- चुल्ली अवचुल्लो वा, ठाणट्ठाणं तु भायणं पिढरे। सट्ठाणट्ठाणम्मि य, भायणठाणे य चतुभंगा / / द्विविध स्थानम्। तद्यथा-स्थानस्वस्थानं, भाजनस्वस्थानं च। तत्र स्थानरूपं स्वस्थानम्-चुल्ली, अवचुल्लो वा / चुल्ल्या अव पश्चात् अवचुल्लः / राजदन्ताऽऽदित्वादवशब्दस्य पूर्वनिपातोऽदन्तता च। तत्र चुल्ली प्रतीता। अवचुल्लो अवह्नकः। एतयोश्च स्थितं सद्भक्तं पच्यते। तत एतौ स्थानरूपं स्वस्थानम्। भाजनरूपं तु स्वस्थानपिठरं स्थाली, तत्र स्थानस्वस्थाने, भाजनस्वस्थानेचचत्वारो भङ्गाः। तद्यथा-चुल्ल्या स्थापित, पिठरे च / चुल्ल्यां स्थापितं, न पिठरे; छचकाऽऽदौ स्थापितत्वात्।नचुल्ल्यां, किंतु पिठरे। तच चुल्ल्यवचुल्लाभ्यामन्यत्र प्रदेशान्तरे स्थापितं द्रष्टव्यम् / न चुल्लयां, न पिठरे, चुल्ल्यवचुल्लाभ्यामन्यत्र छचकाऽऽदौ स्थापितमित्यर्थः। संप्रति परस्थानमाहछच्चगवारगमाई, होइ परट्ठाणमो अणेगविहं / सट्ठाणे पिढ रे छ-चगे य एमेव दूरे य / / छच्चकवारकाऽऽदिकम् , अनेकविधं, परस्थानं परभाजनं भवति द्रष्टव्यम् / तत्र छच्चकं पटलिकाऽऽदिरूपम् / वारकोलघुघटः / आदिशब्दात्पाकभाजनवर्जचुल्ल्यवचुल्लवर्जशेषसकलभाजनपरिग्रहः / अत्रापि स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुभङ्गी। तद्यथास्वस्थाने स्वस्थाने, स्वस्थाने परस्थाने, परस्थाने स्वस्थाने, परस्थाने परस्थाने। एनाभेव चतुर्भङ्गी दर्शयति-" सट्ठाणे " इत्यादि। अत्र(सट्ठाणे पिढरे छचगे य इति) अनेन भङ्गद्वय सूचितम्, स्वस्थानस्य पिठरछचकाभ्यां प्रत्येकमभिसंबन्धात्। तद् यथास्वस्थाने चुल्ल्यादौ, पिठरे वा, तथा स्वस्थाने चुल्लयादौ, छचके च / परस्थाने (एमेव दूरं य त्ति) इह दूर चुल्ल्यवचुल्लाभ्यामन्यत् प्रदेशान्तरं, तत्रापि तदपेक्षयाऽपि, एवमेव भगद्वयं द्रष्टव्यम् / तद्यथा-भाजनरूपे स्वस्थाने पिठरे परस्थानेऽन्यत्र प्रदेशान्तरे, तथा परस्थानेऽन्यत्र प्रदेशान्तरेपरस्थाने छचकाऽऽदाविति / सर्वसंख्यया चत्वारो भङ्गाः। तदेवदेवं मूलगाथायाः-" सट्टाणे" इत्यादि पूर्वार्द्ध व्याख्यातम्। अथ" खीरादिपरंपरए" इति व्याचिख्यासुराहएकेकं तं दुविहं, अणंतरपरंपरे य नायव्वं / अविकारि कयं दव्वं, तं चेव अणंतरं होई॥ तत् साधुनिमित्तं स्थानम् , एकैकं स्वस्थानपरस्थानगत द्विविध ज्ञातव्यम् / तद्यथा-अनन्तरे अन्तराभावे, विकाररूपव्यवधानाभावे इत्यर्थः / परम्परके, विकारपरम्परायामित्यर्थः / तत्र यत् कर्ता स्वयोगेनाविकारिभूयोऽसंभवविकारिघृतगुडाऽऽदि, तत्कृतं, न हि तस्य | / भूयोऽपि विकारः संभवति, तत् साधुनिमित्तं स्थापितमनन्तरस्थापितम्। उपलक्षणमेतत्-तेन क्षीराऽऽदिकमपि यस्मिन् दिने साधुनिमित्त स्थापितं, यदि तस्मिन्नेव दिने ददाति, तर्हि तदपि दध्यादिरूपं विकारान्तरमनापद्यमानमनन्तरस्थापितं द्रष्टव्यम्। तदेव तु क्षीरं साधुनिमित्तं धृतं सद्दध्यादिरूपतया परिकर्म्यमाणं परम्परास्थापितं भवति। एवमिक्षुरसाऽऽदिकमपि तस्मिन्नेव दिने स्थापितं दीयमानमनन्तरस्थापितम्। कक्कवाऽऽदिरूपतया तुपरिकर्म्यमाणं परम्परास्थापितमिति। सम्प्रति विकारीतराणि द्रव्याणि प्रतिपादयतिउच्छूखीराईयं, विगारि अविगारि घयगुडाईयं / परियावज्जणदोसा, ओयणदहिमाइयं वा वि॥ इक्षुक्षीराऽऽदिकं विकारि, तस्य कक्कवाऽऽदिदध्यादिविकारसहितत्वात् / तथा ओदनदध्यादिकमपि करम्बाऽऽदि रूपं विकारि। कुतः ? इत्याह-पर्यायाऽऽपादनादोषात् / करम्बाऽऽदिक हि क्रियमाणं नियमात्पर्यापद्यते, कोथमायातीत्यर्थः / ततस्तदपि वि-कारिद्रष्टव्यम्। तदेवं विकारीतराणि द्रव्याण्यभिहितानि। सम्प्रति क्षीराऽऽदिक परम्परास्थापितं भावयतिउन्भट्ठ परिन्नावं, अन्नं लद्धं पओयणे घेत्थी। रिणभीया व अगारी, दहि त्ति दाहं सुएठवणा।। नवणीय मंथु तकं, ति जाव अत्तट्ठिया य गिण्हंति। देसूणा जाव घयं, कुमुणं पि य जत्तियं कालं / / .' उन्भटुं" केनापि साधुना कस्याश्चिदगारिण्याः सकाशे क्षीरमभ्यर्थितम् / ततस्तया प्रतिज्ञातम्-क्षणान्तरे दास्यामि / साधुना चान्यत्रान्यत् क्षीरं लब्धम्। ततः पूर्वमभ्यर्थितया अगारिण्या दुग्धसंप्राप्ती सत्यां साधु प्रति प्रत्यवादि-गृहाण भगवन् ! इदं दुग्धमिति / साधुना चोक्तम्-लब्धमन्यत्र मया दुग्धं, ततो यदि भूयोऽपि प्रयोजनं भविष्यति, ततो (घेत्थी) ग्रहीष्यामि / एवमुक्ते सा अगारिणी ऋणभीतेव स्वयं नो वुभुजे। किं च। एवं चिन्तयामास-इवः कल्ये, दधि कृत्वा दास्यामीति। तत एवं चिन्तयित्वा स्थापयति / ततो द्वितीयदिने दधि जातं, तदपि साधुनान गृहीतं, तद् नवनीतं तक्रं च जातं, नवनीतमपिघृतं कृतम्। इह क्षीराऽऽदिकं सकलमपि स्थापनादोषदुष्टत्वात् साधूनांन कल्पते।यद्वाक्षीराऽऽदिकं यावद् नवनीतं, मस्तु, तक्रं वा, तावदेतानि सर्वाण्यप्यात्मार्थीकृतानि मा गृहीयात् साधुः / कुटुम्बे भविष्यतीत्येवमात्मसत्ताकीकृतानि तु साधवो गृहन्ति / घृतं त्वात्मार्थीकृतमपि तेजस्कायाऽऽरम्भादाधाकमेंति न कल्पते / घृतं च स्थापितं सत् तावत् घटते यावद्देशोना पूर्वकोटी। तथाहि-पूर्वकोट्यायुषा केनापि साधुना वर्षाष्टकप्रमाणेन कस्याश्चित पूर्वकोट्यायुषोऽगारिण्यः पावें घृतं ययाचे / तयोक्तम्-क्षणान्तरे दास्यामि / साधुना चान्यत्र घृतं लब्धम्। ततः सा ऋण-भीतेव तावदघृतं धृतवती यावत् साधोरायुः। ततो मृते साधौ तदन्यत्रोपयुक्तमिति नास्ति स्थापना / (इह वर्षाष्टकस्याधः पूर्व-कोटेरुपरि च चारित्रं न भवति / चारित्रिणं चाधिकृत्य स्थापनादोषः, ततो देशोना पूर्वकोटीत्युक्तम् ) एवं गुडाऽऽदेरप्यविनाशिनो द्रव्यस्य यथायोग स्थापनाकालपरिमाणं द्रष्टव्यम्।
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________________ ठवणा 1684 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणा (कुमुणं पियत्ति) कुमुणितमपिकरम्बाऽऽविरूपतया कृतमयि, यावन्तं कालमविनाशनात् कालं, तस्य स्थापना द्रष्टव्या। परतस्तु क्वथितत्वाद् दुष्यते एवेति भावः / तदेवं क्षीराऽऽदिक परम्परास्थापितमुक्तम्। साम्प्रतभिक्षुरसाऽऽदिकमपि परम्परास्थापितमाहरसकक्कवपिंडगुला-मच्छंडियखंडसकराणं च / होइ परंपरठवणा, अन्नत्थ व जुज्जए तत्थ / / इह केनापि साधुना किमपि प्रयोजनमुद्दिश्य कोऽपीक्षुरसं याचितः / स प्रतिज्ञातवान् क्षणान्तरे दास्यामि / साधुना चान्योक्षुरसो लब्धः। पूर्वमभ्यर्थितश्च ऋणभीत इव तमिक्षुरसं कक्कवं करोति, यावत् शर्करेति। एतेषां चेक्षुरसकक्कवाऽऽदीनामुत्तरोत्तरपिण्डगुडाऽऽदिपर्यायाऽऽपादनपुरस्सरं ध्रियमाणानां स्थापना परम्परस्थापना। एवमन्यत्रापि द्रव्यान्तरे यत्रैव परम्परया स्थापना घटते, तत्र परम्परास्थापना द्रष्टव्या। यावच स्थापितस्य नाधाकर्मसंभवः, तावदात्मार्थीकृतं कल्पते। कृतपाकाऽऽरम्भंतुन कल्पते। सम्प्रति " हत्थगयघरंतरं जाव " इति व्याचिख्यासुराहभिक्खग्गाही एग-त्थ कुणइ विइउ दोसु उवओगं / तेण परं उक्खित्ता, पाहुडिया होइ ठविया उ॥ भिक्षाग्राही एकत्रोपयोगं करोति, द्वितीयस्तु द्वयोहयोः, तत्र त्रिषु गृहेषूपयोगसम्भवे स्थापनादोषो न भवति / गृहत्रयात्परं साध्वर्थमुत्पादिता भिक्षा प्राभृतिका स्थापना भवति / उक्तं स्थापनाद्वार-म्। पिं०। स्थाप्यते इति स्थापना / वक्ष्यमाणेनाऽऽरोपणाप्रकारेण शुद्धीभूतेभ्यः सञ्चयमासेभ्यो शेषा मासास्तेषां प्रतिनियतदिवसग्रहणतो व्यवस्थापने, व्य० 10 उ० / नि० चू०। (प्रस्थापनाभेदाः ' पच्छित्त' शब्दे वक्ष्यन्ते) अनुज्ञायाम् , एतच्च पञ्चमं गौणमनुज्ञानाम् / नं० / पर्युषणायाम् , वर्षाकल्पादन्या मर्यादा स्थाप्यते अनयेति व्युत्पत्तेः। नि० चू० 10 उ०। (विशेषः ' पजुसणा' शब्दे वक्ष्यते) ठवणाकप्प-पु०(स्थापनाकल्प) अकल्पस्थापनाकल्प-शैक्षस्थापनाकल्पोभयरूपे साध्वाचारे, बृ०। ठवणाकप्पो दुविहो, अकप्पठवणाय सेहठवणा य। पढमो अकप्पिएणं, आहाराऽऽदीन गिण्हावे // स्थापनाकल्पो द्विविधः-अकल्पस्थापनाकल्पः, शैक्षस्थापनाकल्पश्च / तत्राकल्पिकेनानधीतपिण्डैपणाऽऽदिसूत्रार्थेन, आहाराऽऽदिकं न ग्राहयेत्-नाऽऽनाययेत् / तेन नीतं न कल्पत इत्यर्थः / एष प्रथमःअकल्पस्थापनाकल्प उच्यते। अट्ठारसे य पुरिसे, वीसं इत्थीउ एस णपुंसाय। दिक्खेति जो ण एते, सेहट्ठवणाए सो कप्पो॥ अष्टादश भेदाः पुरुषे पुरुषविषयाः, विंशतिः स्त्रियो, दश नपुंस-काः।। एतानष्टचत्वारिंशतमतलान् शैक्षान् यो न दीक्षते, स एष कल्पकल्पवतोरभेदात् शैक्षस्थापनाकल्प उच्यते / बृ० 6 उ०। नि० चू०। पं० भा०। ठवणाकम्म-न०(स्थापनाकर्म) स्थापनं प्रतिष्ठायनं स्थापना, तस्याः कर्म करणं स्थापनाकर्म / येन ज्ञातेन परमतं दूषयित्वा वमतस्थापना क्रियते तत्स्थापनाकर्मेति भावः / तच्च द्वितीयाने द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनं पुण्डरीकाऽऽख्यम्। तत्र युक्तम्-अस्ति काचित् पुष्करिणी कर्दमप्रचुरजला।तन्मध्यदेशे महापुण्ड-रीकम्। तदुद्धरणार्थ चतसृभ्यो दिग्भ्यश्चत्वारः पुरुषाः सकदर्ममार्गे प्रवेष्टुमारब्धाः / ते चाकृततदुद्धरणा एव पड्क्ते निमग्नाः। अन्यस्तु तटस्थोऽसंस्पृष्टकर्दम एदामोधवचनतया तदृद्धृतवानिति ज्ञातम् / उपनयश्चायम्-अत्र कर्दमस्थानीया विषयाः, पुण्डरीकं राजाऽऽदिर्भव्यपुरुषः, चत्वार पुरुषाः परतीर्थिका, पश्चमः पुरुषः, साधुः, अमोघवचनं धर्मदेशना, पुष्करिणी संसारः, तदुद्धारो निर्वाणमिति। अनेनच ज्ञातेन विषयाभिष्वङ्गवतामन्यतीर्थिकानां भव्यस्य संसारानुत्तारकत्वं, साधोश्च तद्विपर्ययं वदता आचार्येण परमतदूषणेन स्वमतं स्थापितमतो भवतीति, इदं ज्ञातं स्थापनाकर्मेति। अथवा-आपन्नं दूषणमपोह्य स्वाभिमतस्थापना कार्येत्येवंविधार्थप्रतिपत्तिर्यतो जायते तत् स्थापनाकर्म। यथा किलमालाकारेण केनापि राजमार्ग पुरीषोत्सर्गलक्षणापराधापोहाय तत्स्थाने पुष्पपुञ्जकरणेन किमिदमिति पृच्छतो लोकस्य हिङ्गुशिवो देवोऽयमिति वदता व्यन्तराऽऽयतनस्थापना कृतेति / एतस्मात् किलाऽऽख्यानकादुक्तार्थः प्रतीयते। इदं स्थापनाकर्मेति // स्था०४ ठा०३ उ०।। अधुना स्थापनाद्वारमभिधित्सुराहठवणाकम्मं एकं, दिलुतो तत्थ पर्पोडरीअं तु / अहवा विसन्नढक्कण-हिंगुसिवकयं उदाहरणं / / 66 / / स्थाप्यते इति स्थापना, तया, तस्याः, तस्यां वा कर्मसम्यगभीष्टार्थप्ररूपणलक्षणा क्रिया स्थापनाकर्म / एकमिति तज्जात्यपेक्षया, दृष्टान्तो निदर्शनम् / तत्र स्थापनाकर्मणि, पौण्डरीकं, तु तुशब्दात्तर्थाभूतमन्यच्च / तथा च-पौण्डरीकाध्ययने पौण्डरीकं प्ररूप्य प्रक्रिययैवान्यगतनिरासेन स्वमतमवस्थापितमिति / अथ-वेत्यादि पश्चार्द्ध सुगमम् / लौकिकं चेदमिति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु कथानकादवसेयः / तचेदम्-" जहा एगम्मि णगरे एगो मालायरो सण्णाइओ करंडे पुप्फे घेत्तूण वीहीए एइ / सो अईव अचााहिओ, ताहे तेण सिग्धं वोसिरिऊण, सा पुप्फपिडिगा तस्सेव उवरि पल्हत्थिया। ताहे लोओ पुच्छइ-किमेयं ति जेणित्थ पुप्फाणि छड्डेसि ? ताहे सो भणइ-अहं अलोविओ, एत्थ हिंगुसिवो नाम / एतं तं वाणमंतरं हिंगसिवं नाम उप्पन्नं / लोएण परिंगहियं / पूया से जाया। खाइं गयं, अज्ज वितं पाडलिपुत्ते हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं / एवं जइ किं वि उड्डाहं पावयणीयं कयं होजा केण वि पमाएण, ताहे तहा पच्छाएयव्वं, जहा पञ्चुण्णं पवयणुब्भावणा हवइ / संजाए उड्डाहे जह गिरिसिद्धेहिं कुसलबुद्धीहिं लोयस्स धम्मसद्धा पवयणवण्णेण सुट्टकया"। एवं तावचरणकरणानुयोगं लोक चाधिकृत्य स्थापना-कर्म प्रतिपादितम्। अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्योपदर्शयन्नाहसव्वभिचारं हेळं, सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं। उववूहइ सप्पसरं, सामत्थं चप्पणो नाउं।। 67 // सह व्यभिचारेण वर्तत इति सव्यभिचारः, तं हेतु-साध्यधर्मान्वयाऽऽदिलक्षणं, सहसा तत्क्षणमेव,"वो "अभिधाय, तमेव हेतुमन्यैहेतुभिरेव, उपबृंहते समर्थयति, सप्रसरमनेकधा स्फारयन् सामर्थ्य प्रज्ञाबलम् / चशब्दो भिन्नक्रमः / आत्मनश्च स्वस्य च ज्ञात्वा विज्ञाय, चशब्दात्परस्य चेति गाथार्थः / / 67 //
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________________ ठवणाकम्म 1685 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणाकुल भावार्थस्त्वयम्-द्रव्यास्तिकाऽऽद्यनेकनयसंकुलप्रवचनज्ञेन सा-धुना तत्स्थापनाया नयान्तरमतापेक्षया सव्यभिचारं हे तुमभिधाय प्रतिपक्षनयमतानुसारतः तथा समर्थनीयः यथा सम्यगनेकान्तवादप्रतिपत्तिर्भवतीति / आह-उदाहरणभेदस्थापनाऽधिकारचिन्तायां सव्यभिचारहेत्वभिधानं किमर्थमिति? उच्यते-तदाश्रयेण भूयसामुदाहरणानां प्रवृत्तेः, तदन्वितं चोदाहरणमपि प्राय इति ज्ञापनार्थम् ; अलं प्रसङ्गेन। अभिहितं स्थापनाकर्मद्वारम् / दश नि० उ०। ठवणाकुल-न०(स्थापनाकुल) प्रतिक्रुष्टकुले, ध०३ अधि० / स्थापनाकुलानि निर्विशति / अथवा-यानि लोके गर्हितानि कुलानि स्थापितान्युच्यन्ते, तेषामपरिभोग्यतया जिनैः स्थापितत्वात् , तेभ्य आहाराऽऽदिकमुत्पादयति। व्य०१ उ०। _इदाणिं ठवणेतिठवणाकुलेसु ठविए-सु वारए अलसें णिद्धम्मे / अस्या व्याख्या-ठवणापच्छद्ध / ठवणाकुला अतिशयकुला भ-आणति, / येष्वाचार्याऽऽदीनां भक्तमानीयते, तेसु ठविएसु अलसे ण्णिधम्मे पविसंते, णिवारते, इत्यर्थः / नि० चू०१ उ०।" सज्जातरसामगाइकुलाइ ठवणकुलाइ भण्णंति। " नि० चू० 4 उ०। जे भिक्खू ठवणाकुलाई अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पुवामेव पिंडवायवडियाए अणुपविसइ, अणुपविसंतं वा साइजइ / / 24 // (जे भिक्खु ठवणाकुलाई इति) ठप्पाकुला ठवणाकुला, अभोज्जा इत्यर्थः / साधुठवणाएवा ठविजंति ति ठवणाकुला, सेजातरा इत्यर्थः / पुव्वदिट्ठ पुच्छा, अदितु गवेसणा। अधवाणामेण वा गोत्तेण वा दिसाएवा पुच्छा, थूभियाइविधेहिं गवेसणा, पूर्व प्रथमम् , आदावेव / जो पुण पुच्छणगवेसणं करेति, तस्य पूर्वन भवतीत्यर्थः। गाहाठवणाकुला तु दुविधा, लोइय लोउत्तरा समासेण / इत्तरिय आवकहिया, दुविधा पुण लोइया होंति // 56 / / समासो संखेवो, लोइया दुविहा-इत्तरिया, आवकहिया य। इमे इत्तरिया / गाहासूयगमतगकुलाई, इत्तरिया जे य हॉति णिच्छूढा / जे जत्थ जुंगिता खलु, ते होती आवकधिया तु / / 60 // कालावधीए जे ठप्पा कया ते णिच्छूढा, (जे त्ति) कुला, जत्थ विसए, जुंगिता दुगुंछिता, अभोज्जा इत्यर्थः / कम्मेण वा, सिप्पेण वा, जातीए वा / कम्मेण्हाणिया, सोहका, मोरपोसगा। सिप्पेहेटण्हविता, तेरिमा, पयकरा, पिल्लेवा, जातीएयाणा, डोवा, मारेत्तिया य / खलुसद्दोऽवधारणे। ते चेव अण्णत्थ अजुंगिता, जहा सिंधुए णिल्लेवगा। इमे लोगुत्तरा / गाहादुविधा लोउत्तरिया, वसधीसंबद्ध एतरा चेव। सत्तधरंतर जाव तु, मुत्तूणं वसधिसंबद्धा।। 61 / / वसहीए संबद्धा य, असंबद्धा य / वसहीए मोत्तुं सत्तघरा वसहिसंबद्धा, तेसु भत्तं वा पाणं वा घेत्तव्वं / इमा असंबद्धा / गाहादाणे अभिगमसडी, संमत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अवियत्ते, एवं इतरे विणायव्वा / / 62 // अहाभद्दो दाणरुई दाणसढो सम्मद्दिट्ठी गिहीताणुव्वओ अभिगमसड्डो (सम्मत्तेत्ति)अविरयसम्मट्ठिी। एतेसु एसणादोसा। खलुसद्दोपादपूरणे। (मिच्छत्त त्ति) अभिगहियमिच्छे साहुपडिणीए। ईसालुत्तणेणं मा मम घरं एहि समणं ति भणाइ। अण्णस्स ईसा खलु अत्तणेण चेवसाहू घरं पविसंता अवियत्ता वायाए भणाति न किंचि वि। एतेसु विसगरपंतावणादिदोसा। (इयरे ति) असंबद्धा॥ गाहाएतेसामण्णतरे, ठवणकुलं जो तु पविसतो भिक्खू / पुच्वं अपुच्छितेणं, सो पावति आणमादीणि // 63 // कंठा। चोदग आह-लोउत्तरे ठियाणं लोइयठवणपरिहारेण किंच अम्हं? आचार्य आहलोउत्तरम्मि ठविता-ण लोगणिव्वाहिरत्तमिच्छति। लोगजढे परिचत्ता, तित्थविवड्डी य वण्णो य॥ 64 // पुव्वद्धं कंठं। लोगदुगुंछिया जे, ते परिहरतेण तित्थस्स विवड्डी कता भवति. (वण्णो त्ति) जसो पभावितो भवति तो भण्णति। __लोइयठवणकुलेसु गेण्हतस्स इमे दोसा / गाहाअयसो पवयणहाणी, विप्परिणामो तहेव य दुगुंछा। लोइयठवणकुलेसुं, गहणे आहारमादीणं / / 65 / / अयसो त्ति अवण्णो, पवयणहाणीन कश्चित्प्रव्रजति, संमत्तचरित्ता सेहा विप्परिणमंति, कावालिया इव लोए दुगुंछिता भवति, अस्पृश्या इत्यर्थः / पच्छद्धं कंट। लोउत्तरिएसुदाणाइसद्धकुलेसु पविसंतस्स इमे दोसा / गाहाआयरियबालवुड्डा, खवगगिलाणा महोदराऽऽएसा। सव्वे विपरिश्चत्ता, जो ठवणकुलाइँ णिव्विसति // 66 // महोदरोऽयं बहाशी, आएसः प्राघूर्णककः, णिआधिक्केणा, विशति निविशति, प्रविशतीत्यर्थः। __ इमं पच्छित्तं / गाहाआयरिए य गिलाणे, गुरुगा लहुगा य खमर्गे पाहुणए। गुरुगो य बालवुड्ढे, सेहे य महोदरे लहुओ / / 67 // जो एते ठवणाकुले ण णिविसति, तस्सिमे गुणा / गाहागच्छो महाणुभागो, सवालवुड्डोऽणुकंपिओ तेण। जिनकल्पिकाऽऽदिरत्नानामाकरत्वात् समुद्रवद् महानुभागः, बालवृद्धगिलाणादीनां च साधारणत्वान्महानुभागः, जो तेसु ण णिव्विसति तेण सो गच्छो अणुकंपितो। गाहाउग्गमदोसा य जढा, जो ठवणकुलाई परिहरई॥६८।।
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________________ ठवणाकुल 1686 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ ठवणाकुल उद्गमदोषाश्च परित्यक्ता भवन्ति। गच्छवासीणं इमा सामायारी। गच्छम्मि गाहागच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडवद्धे। कप्पो विधी, एस वासावासे, उड्डबद्धे वा। गामनगरनिगमेसुं, अतिसेसी ठावते सड्डी / / 66 // गामणगरातिसु विहरंताणं अतिसयदव्वा उक्कोसा, ते जेसु कुलेसु लब्भति, तेठावियय्या, णसव्वसंघाडगा तेसुपविसंति (सट्टि त्ति) संजमे सड्डा जस्स सो सडी, आयरिओ। मज्जाद गाहामज्जादठावणेणं, पवत्तगा सव्वखेत् आयरिया। जो तु अम्मज्जातिल्लो, आवञ्जति मासियं लहुयं / / 70 // मज्जाया मेरा, ताणं ठवणा, पवत्तगा य सव्वखेत्तेसु आयरिया भवंति। जो पुण आयरिओ मजायं ण वेत्ति, ण पवत्तेति वा, सो अमज्जाइल्लो असमायारिणिप्फणं मासलहुं पावति। नि० चू०४ उ०। अथ स्थापनामभिधित्सुः प्रस्तावनामाहभत्तट्ठिया च खमगा, अमंगलं चोयण जिणाहरणं / जइ खमगा वंदंता, दासंतियरे विहिं वोच्छं / / 744 // ते हि साधवः क्षेत्रं प्रविशन्तो भक्तार्थिनो वा भवेयुः, क्षपका वा / यदि क्षपकाः, ततो नोदकस्य नोदना प्रेरणा-यथा प्रथममेव तावदमङ्गलमिदं यदुपवासं प्रत्याख्याय प्रविश्यते। सूरिराह-(जिणा-हरणं) जिनानामुदाहरणं मन्तव्यम् / ते हि भगवन्तो निष्क्रमणसमये प्रायश्चतुर्थादि तपः कृत्वा निष्क्रामन्ति, न च तत्तेषाममङ्गलम् / एवं तत्रापि भावनीयम् / ततश्च यदि ते क्षपकाः, तदा चैत्यानि वन्दमाना एव दर्शयन्ति स्थापनाकुलानि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान्। अथ भक्तार्थिनस्ते, ततः (इयरे त्ति) इतरेषु भक्तार्थिषु यो विधिस्तं वक्ष्ये। तमेवाऽऽहसव्वे दढ़ उग्गा-हिएण ओदरि भयं समुप्पजे / तम्हेक्क दोहिँतिहि वा, उग्गाहिय चेइए वंदे // 745 // चैत्यवन्दनार्थं गन्तुकामा यदि सर्वेऽपि पात्रकमुद्ग्राहयेयुः, ततः सर्वान् साधृनुद्गाहितेन पात्रकेण दृष्ट्वा महो! औदारिका एते इति श्रावकश्चिन्तयति। भयं च तस्य समुत्पद्यते। यथा-कथमेतावतां मयैकेन दास्यत इति ? तस्मादेकेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा साधुभिरुद्- ग्राहितपात्रकैः, शेषैः पुनरनुद्ग्राहितपात्रकैः सहिताः सूरयश्चैत्यानि वन्दन्ते। अथ योकोऽपि साधुः पात्रकं नोद्ग्राहयति, ततः को दोषः ? इत्याहसद्धाभंगोऽणुग्गा-हियम्मि ठवणाझ्या भवे दोसा। घरचेइऐं आयरिए, कइपयगमणं च गहणं च // 746 / / अथानुद्ग्राहिते पात्रके प्रयान्ति, ततश्चैत्यानि वन्दमानान् दृष्ट्वा कोऽपि धर्मश्रद्धावान् भक्तपानेन निमन्त्रयेत् , तदा यदि भाजनं नास्तीति कृत्वा न गृह्यते, ततः श्रद्धाभङ्गस्तस्योपजायते / अथ बुक्तेपात्रं गृहीत्वा यावद्वयमागच्छामः, तावदेवमेव तिष्ठतु, ततः स्थापनाऽऽदयो दोषा भवेयुः / तस्मादुद्ग्राहणीयं पात्रकम् / जिन-गृहेषु च वृन्देन सर्वेऽपि चैत्यानि वन्दित्वा गृहचैत्यवन्दनार्थमाचार्येण कतिपयैः साधुभिः उद्ग्राहितपात्रकैः समंगमनं कर्त्तव्यं, तत्रयदि श्रावकः प्राशकेन भक्तपानेन निमन्त्रयेत् , ततो ग्रहणमपि तस्य कर्त्तव्यम्। बृ० 1 उ०। कानि पुनः कुलानि चैत्यवन्दनं विदधानास्ते (सूरयः) दर्शयन्ति ? उच्यतेदाणे अमिममसड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अवियत्ते, कुलाइंदासिंति गीतत्था।। 71 / / रातो दिवसतो वा वाहिट्ठिया वसहीए वा भिक्खं हिंडता ठवणकुले दासेंति। दरिसितेसु गुरुणो इमा सामायारीदाणे अभिगमसड्ढे, संमत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अवियत्ते, कुलाइ ठाएंति गीयत्था / / 72 / / नि० चू० 4 उ०। एतानि कुलानि स्थापयन्ति गीतार्थाः, अमीषु प्रवेष्टव्यममीषु तु नेति व्यवस्थापयन्तीत्यर्थः। अथ न स्थापयन्ति तदा किम् ? इत्याहदाणे अभिगमसड्ढे, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अवियत्ते, कुलाई अटविंति चउ गुरुगा / / 746 / / एतानि कुलान्यस्थापयतश्चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम्। यतएवमतःकयउस्सग्गाऽऽमंतण, अपुच्छणे अकहिएगयरदोसा। ठवणकुलाण य ठवणं, पविसइ गीयत्थसंघाडो / / 750 // उत्सर्गे-चैत्यवन्दनं विधाय गतानामैर्यापथिकीकायोत्सर्गे कृते, यद्वा(ओसय त्ति) आवश्यके कृते सर्वेऽपि साधवो गीतार्थरामन्त्रणीयाःआगच्छत क्षमाश्रमणाः!, आचार्या स्थापना प्रवर्तयिष्यन्ति। इत्थमुक्ते सर्वेऽप्यागम्य (" वा ल्यपि " // 6 / 4 / 38 / / अनुनानासिकलोपः। आगत्य, आगम्य) गुरुपदकमलमभिवन्द्य रचिताञ्जलयस्तिष्ठन्तिातत आचार्यः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रष्टव्याः-कथयत कानि कुलानि प्रवेष्टयानि, कानि वा नेति ? ततस्तैरपि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकै विधिवत्कथनीयम् / यद्याचार्याः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान्न पृच्छन्ति, तेच पृष्टाः सन्तोन कथयन्ति, ततस्तेषु प्रविशतां ये संयमाऽऽत्मविराधनाऽऽदयो दोषास्तानेकतरेसूरयः, क्षेत्रप्रत्युपेक्षया वा, प्राप्नुवन्ति / ततः कथिते सति यानि गृहीतमिथ्यात्वमामकावियत्तानि तानि सर्वथैव स्थाप्यानि, यथा नैतेषु केनापि प्रवेष्टव्यम् , यानि तु दानश्राद्धाऽऽदीनि स्थापनाकुलानि तेषामपि स्थापनं कर्तव्यम्। कथम् ? इत्याह-प्रविशति एक एव गीतार्थसङ्घाटको गुर्वादिवैयावृत्यकरः, तेषु। इदमेव भावयतिगच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उद्धबद्धे। नामनगरनिगमेसुं, अइसेसी ठावए सड्डी।। 751 / / वर्षावासे, तथैव ऋतुबद्धे, ग्रामनगरनिगमेषु स्थितानां गच्छे एष कल्पः। कः? इत्याह-अतिशेषाण्यतिशायीनि स्निग्धमधुरद्रव्याणि प्राप्यन्ते येषु तान्यतिशेषाणि (सड्ढि त्ति) दानश्रद्धाव
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________________ ठवणाकुल 1687 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणाकुल न्ति, एवंविधानि कुलानि स्थापयेत् / एकं गीतार्थसङ्घाटकं मुक्त्वा, शेषसङ्घाटकान्न तत्र प्रवेशं कारयेत्। आह नियुक्तिकारःकिं कारणं चमढणा, दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे। गच्छम्मि नियय कलं, आयरियगिलाणपाहुणए / / 752 // किं कारणं को हेतुः? येन स्थापनाकुलेष्वेक एव सङ्घाटकः प्रविशति? सूरिराह-(चमढण त्ति) अन्यैरन्यैश्च सङ्घाटकैः प्रविशभिस्तानि कुलान्युद्वेगं प्राप्यन्ते / ततश्च द्रव्याणां स्निग्धमधुराणां क्षयो भवति / तदुदगमोऽपि च न शुद्धयति / गच्छे च नियतं निश्चितं प्रायोग्यद्रव्यैः कार्य भवति / किमर्थम् ? इत्याह-आचार्यग्लानप्राघूर्ण-कानां हेतोरिति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथ भाष्यकार एनामेव विवृणोतिपुटिव पि वीरसुणिया, भणिया भणिया पहावए तुरियं / सा चमढणाएँ सिग्गा, नेच्छइ दलु पि गंतुंजे / / 753 / / "जह काइवीरसुणिया केणइ पारद्धिएण तित्तिराईणं गहणे छि-कारिया समाणी तित्तिराईणि गिण्हइ, पच्छा सा तेहिं सावएण विणा वि छिक्कारेइ, सा वीरसुणिया इतोतओ पहावेइ, जावन किंचि पेच्छइ, ताहे सा वेयारिया समाणी जइ सो सावयं दटुं पच्छा छिक्कारेइ, तहा वि पयं पि न इच्छा गंतु। “अथ गाथाक्षरयोजनायः शुनिकद्वितीयः शस्त्राद्यपेक्षारहितो मृगयां करोति स वीरः उच्यते। तस्य शुनिकाः, यथा पूर्वमदृष्टऽपि श्वापदे भणिता छीत्कृता सती (तुरिय) त्वरितमितस्ततःप्रधावति, ततः सा'चमढणया 'निरर्थकमुद्रेजनया, 'सिग्गा श्रान्ता सती, सन्तमपि श्वापदं दृष्ट्वा, पदमपि गन्तुं, 'जे' इति पादपूरणे, नेच्छति। एष दृष्टान्तः। अथोपनयस्त्वेवम्एवं सडकुलाई, चमढिज्जताइँ अन्नमन्नेहिं। नेच्छंति किंचि दाउं, संतं पि तहिं गिलाणस्स / / 754 // / एवममनैव प्रकारेण, श्राद्धकुलानि (चमढिज्जंताई ति) उद्वेज्यमानानि, अन्यान्यैः-क्षुल्लकस्थविरक्षपकाऽऽदिभिः / यद्वा-(अन्नमन्नेहिं ति) अन्योन्यैः परिफल्गुप्रायैः कारणैः। यथा एकः प्राहग्लानस्य शीर्ष दुप्यति, शर्करां प्रयच्छ। अपरः प्राहममोदरं दुष्यति, दध्नः करम्वेन प्रयोजनम्। तदपरः प्राह-प्राधूर्णक आयातोऽस्ति घृताऽऽदिकं देहि / अन्यः प्राहअहमाचार्यस्य हेतोरायातोऽस्मि, दुग्धं सशर्करं प्रतिलाभायेत्यादि / ततस्तानिब्रवीरन्-यूयं सर्व एव ग्लानाः, अतो वयं कियतां प्रयच्छामः ? को वा जानाति-यूयमाचार्याऽऽदीनां हेतोगृहीथ, आहोस्विदात्मार्थम्। इत्येवमुद्वेज्यमानानि नेच्छन्ति, सदपि विद्यमानमपि, घृताऽऽदिकं, किञ्चित् स्तोकमात्रमपि, ग्लानस्या, उपलक्षणत्वात्-आचार्यप्राघूर्णकाऽऽदेरप्यायदानम्। ततश्च यत्तेग्लानाऽऽदयः परिताप्यन्ते, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / गत चमढणाद्वारम्। अथ द्रव्यक्षयोद्गमाशुद्धिकारणमाहअन्नो चमढणदोसो, दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे। खीणे दुल्लभदव्वे, नत्थि गिलाणस्स पाउग्गं // 755 / / अन्योऽपरश्वमढणायां दोषः / कः ? इत्याह-द्रव्यस्थावगाहिमघृताऽऽदेः, कारणमन्तरेणापि दिने दिने गृह्यमाणस्य, क्षयो भवति। ततश्च यद्यभिनवमवगाहिमाऽऽद्रव्यं साधूनामर्थाय करोति, क्रीणाति वा, तत उद्गमोऽपि च न शुद्ध्यति, सदोषत्वात् तदुत्पादितमपिन कल्पत इति भावः / ततः क्षीणे व्यवच्छिन्ने दुर्लभद्रव्ये, प्रयोजने उत्पन्नेऽपि नास्ति ग्लानस्य प्रायोग्य, ततः परितापमहादुःखाऽऽदिका ग्लानाऽऽरोपणाद्रव्याभद्रकप्रान्तकृताश्च दोषा भवन्ति। तानेवाहदव्वक्खएण पंतो, इत्थि घाएइ कीस ते दिन्नं? भहो हट्ठपहट्ठो, करिज्ज अन्नं पि साहूणं / / 756 / / इह कस्यापि प्रान्तस्य भार्या श्राद्धिका, ततस्तथा अन्यान्यसा-धूनां याचमानानां प्रायोग्यं द्रव्यं सर्वमपि प्रदत्तम् / ततस्तस्याः पतिर्भोजनार्थमुपविष्टः सन् ब्रूतेकूर मे परिवेषय।सा प्राह-साधूनांप्रदत्तः / स प्रतिब्रूयात्-पूपुलिका तर्हि परिवेषय / सा प्राह-ता अपि प्रदत्ताः। एवं सूपदुग्धदधिप्रभृतीन्यपि साधूनां वितीर्णानि / इत्थं द्रव्यक्षयेण प्रान्तः कुपितः सन् स्वस्त्रियं घातयेत्-कुट्टयेत्। कस्मात्किमर्थ, त्वया तेभ्यः सर्वमपि दत्तमिति कृत्वा ? अत्र पाठान्तरम्-" दव्वक्खएण लुद्ध त्ति " लुब्धो लोभाभिभूतः,शेषं प्राग्वत्। यस्तु भद्रको गृहपतिः, स श्राद्धिकया सर्वस्मिन्नपि दत्ते, तथैव च कथिते, हृष्टप्रहृष्टो भवति ; हृष्टो-नाम मनसि परितोषवान् / प्रहृष्टस्तु प्रहसि-तवदनः समुद्भूतरोमहर्ष इति / ततश्च 'कुर्यादन्यदपि, अवगाहिमाऽऽदिकं साधूनामर्थाय कारयेदित्यर्थः / एतद्दोषपरिहरणार्थमकं गीतार्थसङ्घाटकं मुक्त्वा, शेषाः स्थापनाकुलानि न निर्विशेयुः / प्राघूर्ण के चाऽऽयाते सति प्राघूयं विधेयं, तच स्वभावानुमतैरेव भक्तपानैः। तथा चात्र दृष्टान्तमाहजड्डे महिसे चारिं, आसो गोणे य जे य जावसिया। एएसिं पडिवक्खे, चत्तारि उसंजया हॉति // 757 / / जडो हस्ती, महिषाश्वौ प्रतीतौ, गोणो बलीवईः / एतेषां ये यावसिका यवसस्तत्प्रायोग्यमुद्गमाषादिरूप आहारः, तेन तद्वहनेन चरन्तीति यावसिकाः, ते अनुकूलां चारी मानयन्ति। एतेषां जड्डाऽऽदीनां प्रतिपक्षी प्रतिरूपः, पक्षसदृशपक्ष इत्यर्थः / तत्र चत्वारः प्राघूर्णकसंयता भवन्ति / तद्यथा-जडुसमानो, महिषसमानः, अश्वसमानः, गोसमानश्चेति। अथामीषामेव व्याख्यानमाहजड्डो जं वा तं वा, सुकुमालं महिसओ महुरमासो। गोणो सुगंधिदव्वं, इच्छइ एमेव साहू वि।। 758 / / जड्डो हस्ती, स यद्वा तद्वा-सकर्कशकटुकाऽऽदिकमप्याहारयति। यस्तु महिषः, स सुकुमारं वशकरीलाऽऽदिकमभिलषति / अश्वो मधुरं मुद्गमाषाऽऽदिकमभिकासति / गौर्बलीवर्दःस, स सुगन्धिद्रव्यमजुर्नकग्रन्थिपर्णाऽऽदिकमिच्छति / एवमेव साधवश्चत्वारश्चतुर्विधं भक्तमिच्छन्ति। " तत्थ पढमोजडुसमाणो पाहुणगसाहू भणइममजंदोसिं पंचाउण्हगंवा कंजियं वा लब्भइ, तं चेव आणेहिः नवरं उदरपूरं। एवं भणिए किं दोसी
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________________ ठवणाकुल 1688 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणाकुल ण चेव आणेयव्यं, न विसेसेण सोहणं तस्स आणेयव्व। विइओ पाहुणयसाहू भणइ-परं मे नेहरहिया विधूवलिया सुकुमाला होइ। तइओ भणइमहुरं नवरि मे होउ। चउत्थो भणइअन्नं वा पाणं वा निप्पडिगंधं मे आणेह। एवं ताणं भयंताणं जजोगं तं सुड्ढयकुलेहितो विसेसियं आणिज्जइ।तंठविएसु चेव सड्डयकुलेसुलभइ, ता ठविएसुं पाहुन्नेय कीरमाणे महतो निजरालाभो, साहुक्कारो य पावि-जइ। अतो कायव्वं तं जहाविहिं साहूहिं ति।" आह-यद्येवं तर्हि श्राद्धकुलेषु मा सोऽपि प्रवेशमकार्षीत् , यदा प्राघूर्णकाऽऽदिकार्यं समुत्पन्नं भविष्यति, तदा प्रवेशं करिष्यामः, ततश्च बहुतरमुत्कृष्टं च लप्स्यामहे। सूरिराहएवं च पुणो ठविए, अप्पविसंते इमे भवे दोसा। वीसरण संजयाणं, विसुक्कगोणीइ आरामे / / 756 // एवं च तावद्यमढणायां दोषा अभिहिताः। पुनःशब्दो विशेषणा-र्थः / यदि पुनः स्थापनाकुलानि सर्वथैवस्थाप्यन्ते, ततो (ठविए त्ति) सर्वथैव स्थापितेषु अप्रविशतां साधूनामेते दोषा भवेषुः / तद्यथा-विस्मरण सेवतानां भवति, भिक्षा दातव्येतिनियमाभावात् / अत्र च विशुष्कया गवा, आरामेण च दृष्टास्तः- " जहा एगस्स चोदधिज्जाइयस्स गोणीधेणू। सा य पओसपचूसेसु कुलवं कुलवं दुद्धस्स य पयच्छे / तस्सय दसहिं दिवसेहिं संखडी भविस्सइ।ताहे सो चिंतेइ-एसा यावी ताव बहुयं खीरं देइ, तया य दुल्लहं खीरं भविस्सइ, समयतया अवस्सं कज्जं, तो इयाणि न दुहामि / तया चेव एकसराए दुहिस्सामि, वरं मे दस कुलवा होतया। पत्ते च संखडिदिवसे महतं कुंडय गहाय गोणीदुहणट्टयाए दुक्को जाय विसुक्ला, चुलुओ वि नत्थि दुद्धस्स। एवं संजया वि अणल्लियंतो तेसिं सवाणं पम्हुट्ठा न चेव जाणंतिकिं संजया अस्थि, न वा ? ते वि संजया जम्मि दिवसे कजं ति मिगया जावन संति ताणि दव्वाणि; तम्हा दोण्ह वा तिण्ह वा दिवसाणं अवस्संगंतव्यं।। अहवाआरामदिट्ठतो-जहा एगोआरामिओसो चिंतेइमम आरामे पुष्पाणं आढयं दिणे दिणे उढेइ, इंदमहदिवसे अ बहुजणो पुप्फाणं कायओ भविस्सइ, तो मा दिणे दिणे पुप्फाइं उच्चेमि, तदिवसं वरं बहूणि पुप्फाणि होंताणि त्ति / पत्ते य इंदमहदिवसे सो पत्थिया उ घेत्तुं गओ, ताव सो आरामो उप्फुल्लो, एगमवि पुप्फ नत्थि / एवं ते यदिवसं कज्जमुप्पन्नं तदिवसंपविट्ठा ठवणाकुलेसु। ताहेसड्ढा भणंतितुन्भे इहं चिय अत्थंतान मुणह वेलअम्हं, एएचत्ता वेला अप्पविसंतेसुयन कोइदंडणं पडिवजइ। न वा अणुप्वए गिलाणपाउग्गं वि नत्थि।" यतश्चैवमतः प्रवेष्टव्यं स्थापनाकुलेषु गीतार्थसंघाटकेन। सकीदृग्दोषैर्विरहितः? इत्यत आहअलसं घसिरं सुविरं, खमगं कोहमाणमायलोहिल्लं। कोहलपडिबद्धं, वेयावचं न कारिजा / / 760 // अलसं निरुद्यम, ग्रसितारं बहुभक्षिणं, सुप्तारं स्वप्नशीलम् / " शीलाऽऽद्यर्थस्येरः।। 8 / 2 / 145 // इति प्राकृतलक्षणबलादुभयत्रापि तृन्प्रत्ययस्येरादेशः / क्षपकं प्रतीत (कोहमाणमायालोहिल्लं ति) को धवन्तं, मानवन्तं, मायावन्तं, लोभवन्तम् / सर्वत्रापि मतुपप्रत्ययः। / यथा गोमानिति। (कोऊहल्ल त्ति) मत्वर्थीयप्रत्ययलोपात्कौतूहलिनं, प्रतिबद्धं सूत्रार्थग्रहणसक्तम् / एतान् वैयावृत्यमाचार्यो न कारयेदिति समासार्थः। अथैनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तमाहतिसु लहुओ तिसु लहुआ, गुरुओ य लहुस लहुगो य। पेसगकरितगाणं, आणाइ विराहणा चेव // 761 / / अलसाऽऽदीन्य आचार्यः स्ववैयावृत्त्यर्थ प्रेषयति, व्यापारयतीत्यर्थः / यश्चैभिर्दोषैर्दुष्टः स्वयं वैयावृत्त्यं करोति; तयोः प्रेषककुर्वतोः प्रायश्चित्तम्। तद् यथात्रिषु अलसबह्वाशिनिद्रासुषु लघुको मासः, त्रिषु क्षपक कोपनाभिमानिषु चत्वारो लघवः, मायावति गुरुको मासः / लोभवति चत्वरो गुरुकाः / कौतूहलवति चत्वारो लघुकाः, सूत्रार्थप्रतिबद्धे लघुमासः / आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः ; विराधना चाऽऽत्मसंयमविषया। तत्रालसस्वप्नशीलयोजनादोषानाहता अत्थइना फिडिओ, सइकालो अलससाविरे दोसा। गुरुमाई तेण विणा, विराहणुस्सकठवणादी॥ 762 / / अलसः स्वप्नशीलश्च तावदुपविष्टः शयानो वा आस्ते, यावत् सन् विद्यमानकालः सत्कालः, भिक्षायाः स्फिटितोऽतिक्रान्तः, तदा च पर्यटन्नसौ यद्वा तद्वा भक्तपानं लभते, न प्रायोग्यं, तेन प्रायोग्येण विना या गुर्वादीनामाचार्यबालवृद्धग्लानाऽऽदीनां विराधना तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / यद्वा-अतिक्रान्तायां वेलायामायान्तं वैयावृत्यकरं मत्वा प्रायोग्यस्थानुष्वष्कणं श्राद्धकानि कुर्युः, उत्सुरे तद्विदध्युरिति भावः। यद्वा-तदुपस्कृतं प्रायोग्यं भक्तं स्थापयेयुः, ततः स्थापनादोषः / आदिशब्दात्साधूनामसंविभक्तं भक्तं कथं मुखे प्रक्षिप्यते ? इति बुद्ध्या तेषामभुज्यमानानामन्तरायाऽऽदयो दोषाः / / अप्पत्ते वि अलंभो, हाणी ओसक्कणा य अइभद्दे। अणहिंडतो अचिरं, न लहइ जं किंचि आणेइ / / 763 // अथ यदेतत् कर्मास्माकं मध्ये समापतितं तन्निहितं भवत्विति कृत्वा अप्रासे काले भिक्षामटति, तदा अलाभोन किमपि प्राप्यते / ततश्चाऽऽचार्याऽऽदीनां हानिरसंस्तरं भवति / यस्तु अतिभद्रकोऽतीव धर्मश्रद्धावान् , गूहयति सोऽवष्वष्कणं, विवक्षितकालादर्वाक् भक्तनिष्पादनं कुर्यात् / यद्वा-असावलसत्वान्निद्रासुत्वादा चिरमहिण्डमानः सन् किमपि लभते ; यत्किञ्चिद्वा पर्युषितं वल्लचणकाऽऽदिकं वा आनयति, तेन भुक्तेनापथ्यतया गुर्वादीनां ग्लानत्वं भवति, ततः परितापमहादुःखाऽऽदिका ग्लानाऽऽरोपणा। अय' घसिर त्ति पदं भावयतिगिण्हामि अप्पणो ता, पज्जतं तो गुरूण चित्थामि / घेत्तुं च तेसि घेत्थं, सीयलओसक्क ओमाई।। 764 / / यो महोदरः से वैयावृत्त्ये नियुक्तो भिक्षामटन चिन्तयति-गृह्णामि तावदात्मनो योग्यं पर्याप्त, ततो गुरूणां हेतोहीष्यामि। यद्वा-तेषां गुरूणां योग्यं गृहीत्वा, तत आत्मनो अर्थाय ग्रहीष्ये, इत्थं विचिन्त्य यदि प्रथम गुरूणां योग्यं गृहीत्वा पश्चादात्मार्थं गृह्णान्ति, ततो यावता कालेनाऽऽत्मना पूर्यते, तत्पर्याप्तं भवति, तावता स्थापनाकुलेसु वेलाऽतिक्रमो भवेत् /
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________________ ठवणाकुल 1686 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणाकुल इदमकमा अथ वेलाऽतिक्रमभयाद्देशकएव तेषु प्रविशति, तत आत्मनोऽवशं भवेत्, उदरपूरणं न भवेदिति भावः। ततश्चैवमाहारतया तस्यैव अनागाढपरितापनाऽऽदयो दोषाः। अथ क्षपकक्रोधवतो दोषानाहपरिताविज्जइ खमओ, अह गिण्हइ अप्पणो इयर-हाणी। अविदिन्ने कोहिल्लो, रूसइ किं वा तुमं देसि ? // 765 / / यदि क्षपको गुरूणां हेतोः प्रायोग्यं गृह्णाति, नाऽऽत्मनः, ततः स एव परिताप्यते / अथाऽऽत्मनो गृह्णाति, तत इतरेषामाचार्याणा, हानिः परितापना / यस्तु क्रोधवान् , सोऽवितीर्णे-अदत्ते सति रुष्यति / रुष्टश्चागारिणं भणति-यदि भवान् न ददाति, तर्हि मा दात्। किं भवदीयं गृहं दृष्ट्वाऽस्माभिः प्रव्रज्या प्रतिपन्नेति? किं वा त्वं ददासि, येनैवमहं ददामीति गर्वितो भवसि ? इत्यादिभिर्दुर्वचनैः सार्द्ध विपरिणमयति। मानिमायिनोर्दोषानाहऊणाणुहमदिने, यद्धो न य गच्छए पुणो जं वा / माई भद्दगभोई, पंतेण व अप्पणो छाए॥ 766 // यः स्तब्धः मानी, स ऊने तुच्छे दत्ते. (अणुट्ट त्ति) अभ्युत्थाने वा अकृते (अदिन्न त्ति) सर्वथैव वा अदत्ते सति, पुनर्भूयः, तदीयं गृहं न गच्छति। भणति च-श्रावकाणामितरेषां च को विशेषः ? यदि द्वितयेऽपि साधूनामभ्युत्थानाऽऽदिविनयप्रक्रियामन्तरेण भिक्षां प्रवच्छन्ति ? ततो नाहममुष्य गृहं भूयः प्रविशामीति / ततो (जं व त्ति) तद्गृहिप्रवेशं विना प्रायोग्यस्यालाभे यत्किञ्चिदाचार्याऽऽदीनां परितापनाऽऽदिकं भवति, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / यस्तु मायी भद्रकभोजी, प्रायोग्यमुपाश्रयादहिभुक्त्वा प्रान्तमानयतीति भावः / यताप्रान्तेन वल्लघणकाऽऽदिना, आत्मनो योग्यं स्निग्धमधुर-द्रव्यं छादयति, छादयित्वा च गुरूणां दर्शयति। लुब्धस्य दोषामाहओभासइ खीराई, दिजंते वा न वारई लुद्धो। जेऽणेगविसुणदोसा, एगस्स वि ते उलुद्धस्स।। 767 // यो लुब्धः सन् स्थापनाकुलेषु क्षीराऽऽदीन्यवभाषते / यद्वाश्रद्धातिरेकतस्तैर्दीयमानानि स्निग्धमधुराणिनवारयति, ततश्च येऽनेकेषु स्थापनाकुलं ; प्रविशत्सु चमढणाऽऽदयो दोषा वर्णिताः, ते सर्वेऽप्येकस्यापि लुब्धस्य प्रवेशतो द्रष्टव्याः।। कुतूहलिनः सूत्रार्थप्रतिबद्धस्य च दोषामाहनडमाई पिच्छंतो, ता अत्थइ जाव फिडई वेला। सुत्तत्थे पडिबद्धो, ओसक्कऽभिसक्कमाईया।।७६८ / / या कुतूहली, स नटाऽऽदीन्प्रेक्षमाणस्तावदास्ते, यावद्वेला स्फिटति। यस्तु सूत्रे अर्थे वा प्रतिबद्ध आसक्तः, स गुरूणां धर्मकथाऽऽदिव्यग्रतया यदैवान्तरं लभते, तदैवाप्राप्तकालेऽपि भिक्षार्थमवतरति / वेलाऽतिक्रम वा कृत्वाऽकालवेलाऽऽदाववतरति, ततोऽवष्वष्कणाभिष्वष्कणाऽऽदणे दोषाः। यतश्चैवमतः किं कर्तव्यमिति? आहएसद्दोसविमुक्कं, कडजोगिं नायसीलमायारं। गुरुभत्तिमं विणीयं, वेयावचं तु कारेज्जा / / 766 // एभिरनन्तरोक्तः, दोषैर्विमुक्तं वर्जितम् / किं विशिष्टम् ? इत्याह-कृत योगिनं गीतार्थम् / ज्ञातशीलाऽऽचारम्-ज्ञाते सम्यगवगतं, शीलं प्रियधर्मताऽऽदिरूपम् , आचारश्चक्रवालसामाचारीरूपो यस्य स तथा, तम् / तथा गुरव आचार्याः, तेषु भक्तिमन्तमान्तरप्रतिबन्धोपेतम् / विनीतमभ्युत्थानाऽऽदिबाह्यविनयवन्तम्। एवंविधं शिष्यं वैयावृत्त्यमाचार्यः कारयेत् (" हक्रोरन्यतरस्याम् " // 1 / 4 / 53 / / (पाणि०) हक्रोरणौ यः कर्ता सणौ कर्म वा स्यात।" हक्रोर्नवा // 2 // 2 // 8 // (हैम०) हक्रोरणिकर्ता णौ कर्म वा स्यात्।) आह-किमर्थं वैयावृत्त्यकरस्येयन्तो गुणा मृग्यन्ते ? उच्यतेसाहतिय पियधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहविसेसे। एवं तु विहिग्गहणे, दध्वं वर्ल्डति गीयत्था / / 770 / / प्रियधर्माणः, उपलक्षणत्वादपरैरप्यनन्तरोक्तगुणैर्युक्ता वैयावृत्त्यकराः (साहति त्ति) कथयन्ति, एषणादोषान्-मक्षितनिक्षिप्ताऽऽदीनि / यथाइत्थं म्रक्षितदोषो भवति, इत्थं तु निक्षिप्त इत्यादि। एतैश्च दोषैर्दुष्ट साधूनां न दीयते। अभिग्रहविशेषांश्च जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकसंबन्धिनः, कथयन्ति। एवम्-उक्तेन विधिना, स्थापनाकुलेषु ग्रहणे, श्रद्धांवर्द्धयन्तो गीतार्थाः, द्रव्यमपि घृताऽऽ-दिकं वर्द्धयन्ति। इदमेव भावतिएसणदोसे व कए, अकए वा जइगुणविकत्थंता। कहयंति असढभावा, एसणदोसे गुणे चेव / / 771 / / एषणादोषे मक्षिताऽऽदौ, कृते वा अकृते वा, यतिगुणान् क्षान्तिमार्दवाऽऽदीन् , विकत्थमानाः-विविधं श्लाध्यमानाः, अशठभायाः कैतववर्जिताः, न भक्षणोपायनिमित्तमिति भावः / एषणादोषान् कथयन्ति। तथा गुणाः-साधूनां प्राशुकैषणीयभक्तपानप्रभवाः पापकर्मनिर्जराऽऽादयः, तांश्च, गीतार्थाः कथयन्ति। यथा-"समणोवासगस्सणं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो निजरा कज्जइ, नत्थिय सो पावकम्मे कज्जइ ति"। अथेत्थं न कथयेयुः, ततः के दोषा इति? आहबालाई परिचत्ता, अकहिंतेऽणेसणाइगहणं वा। न य कहपबंधदोसा, अह य गुणा साहिया होति।। 772 / / तेषु श्राद्धकुलेषु जिनकल्पिका भिक्षार्थमायाताः, तेषां परमान्नाऽऽदिकं लेपकृतमुपनीतं, तैश्च भगवद्भिः प्रतिषिद्धम् / ततस्तानि श्राद्धकानि चिन्तयेयुः- 'एत एव प्रधानाः साधवः, इतरे तु स्निग्धमधुरद्रव्यग्राहिणः सर्वेऽपि नामधारकमात्राः साध्वाभासा एवं इति / ततः श्रद्धाभङ्गभाजितानि भूयः प्रायोग्यद्रव्यं नोपढौकयेयुः / एवमभिग्रहविशेषानकथयद्भिर्गीतार्थीलाऽऽदयः परित्यक्ता भवन्ति / अनेषणातो दोषान् , शुद्धभक्तपानदानस्य च गुणान्न कथयेयुः, ततस्तानि श्राद्धकान्यनेषणां कुर्युः। तत्र च यदि प्रतिषिध्यति, तदाऽपि बालाऽऽदयः परित्यक्तातेषां प्रायोग्याभावे संस्तरणाभावात् / अथ न प्रतिषिध्यते, ततोऽनेषणाऽऽदिग्रहणं भावयेत् / आदिशब्द एष
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________________ ठवणाकुल 1660 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणाकुल णादोषाणामेव स्वगतानेकभेदसूचकः / आह-गोचरप्रविष्टानां साधूनां कथाप्रबन्धः कर्तुं न कल्पते / अमी च साधव इत्थमेषणादोषाऽऽदीनां कथाप्रबन्धतः कथं न दोषभाजो भवन्तीति ? उच्यते-न च नैवात्र, कथाप्रबन्धदोषा भवन्ति। यदिह भक्तपानलोलुपतया कथां प्रबध्नीयुः, ततो भवेयुर्दोषाः, तच नास्ति, एषणाशुद्धिहेतोरेव तेषामित्थं कथनात्। अथ च प्रत्युतेत्थं कथयद्भिस्तैर्गीतार्थैर्गुणाः-बालवृद्धाऽऽधुपष्ट - म्भगुरुप्रभृतयः, साधिता भवन्ति। कथं पुनस्ते कथयन्ति? इत्याहठाणं गमणागमणं, वावारं पिंडसोहिमुल्लोगं / जाणताण वि तुभं, बहुवक्खेवाण कहयामो / / 773 / / स्थानं नाम-आत्मप्रवचनसंयमोपघातवर्जितो भूभागः। यत्र स्थितस्य गवाश्वमहिषाऽऽदेराहननाऽऽदिन भवति, स आत्मोपघातवर्जितः / यत्र तु निर्द्धमनाऽऽद्यशुचिस्थानव्यतिरिक्ते प्रदेशे स्थितस्य लोकः प्रवचनस्यावर्ण नबूयात् , स प्रवचनोपघातवर्जितः। यत्र पुनः पृथिव्यादिकायानां विराधना न भवति, स संयमोपघातवर्जितः / गमनं, गच्छता षट्कायानामुपमर्दनं कुर्वता नगन्तव्यम्। एवमागमनमपि, भिक्षां गृहीत्वा साधुसंमुखमागच्छता दायके नोपयुक्ते नाऽऽगन्तव्यम् / व्यापारः कर्तनकण्डनपेषणाऽऽदिकः। तं च सम्यग् ज्ञापयन्तिईदृशे व्यापारे भिक्षा ग्रहीतुं कल्पते, ईदृशे तु नेति। पिण्डशुद्धेरुल्लोकं लेशोद्देशं कथयन्तिइत्थमाधाकर्माऽदयो दोषा उपजायन्ते ; इत्थमेभिर्दोषैरदुष्टः पिण्डः साधूनां दीयमानः शुद्धो बहुफलश्च भवतीत्येवंपिण्डनियुक्तिलेशतो ज्ञापयन्तीति भावः / तथा यद्यपियूयमिदं साधुधर्मरूपमग्रेऽपि जानीथ, तथाऽपि युष्माकं बहुव्याक्षेपाणामविस्मरणार्थ कथयाम इति। अपि चकेसिंचि अभिग्गहिया, अणमिग्गहिएसणाय के सिंचि। मा हु अवन्नं काहिह, सव्वे वि हु ते जिणाणाए।। 774 / / केषाञ्चित्साधूनाम् , अभिगृहीता एषणा। यथा-जिनकल्पिका-नाम्। केषाञ्चित्तु अनभिगृहीता। यथा-गच्छवासिनाम् , सप्तस्वपि एषणासु तेषां भक्तपानस्य ग्रहणात्। एवं चापरां भक्तपानग्रहणसामाचारी दृष्ट्वा यूयं मा / अवज्ञा करिष्यथ। कुतः? इत्याह-सर्वेऽपिते भगवन्तो जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्च, जिनाऽऽज्ञायां वर्तन्ते, स्वस्वकल्पस्थितिपरिपालनात् / अतो न केऽप्यवज्ञातुमर्हन्तीति भावः। किंचसंविग्गमावियाणं, लुद्धगदिटुंतभावियाणं च / मुत्तूण खेत्तकाले, भावं च कहिंति सुद्धछ / 775 / / येषां श्राद्धानां पुरत एषणादोषाः कथ्यन्ते, ते द्विधासंविग्नभाविताः, लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्च / संविग्नरुद्यतविहारिभिर्भाविताः संविग्नभाविताः। ये तु पार्श्वस्थाऽऽदिभिर्लुब्धकदृष्टान्तेन भावितास्ते लुब्धकदृष्टान्तभाविताः / कथमिति चेत् ? उच्यते-पार्श्वस्थाः श्राद्धानित्थं प्रज्ञापयन्ति / यथा-कस्यापि हरिणस्य पृष्ठतो लुब्धको धावति, तस्य हरिणस्य पलायनं श्रेयः लुब्धकस्यापि तत्पृष्ठतो-ऽनुधावनं श्रेयः। एवं साधोरप्यनेषणीयग्रहणतः पलायितुमेव युज्यते; श्रावकस्यापि तेन तेनोपायेन साधोरेषणीयमनेषणीयं वा दातुमेव युज्यते इति / इत्थं द्विविधानामपि श्राद्धानां पुरतः शुद्धं द्वाचत्वारिंशदोषरहितं, यदुञ्छमिवोञ्छस्तोकस्तोकग्रहणात् , तच्छुद्धोज्छम् , उत्सर्गपदमित्यर्थः / तत्कथयन्ति। किं सर्वदैव ? नेत्याह-मुक्त्वा क्षेत्रकालौ, भावं चेति। क्षेत्रं कर्कशक्षेत्रमध्वान वा, कालं दुर्भिक्षाऽऽदिकं, भावं ग्लानत्वाऽऽदिकं प्रतीत्य, ते श्राद्धाः किञ्चि-दपवादमपि ग्राह्यन्ते। अपि च-इदमपि ते श्राद्धा ज्ञापनीयाःसंथरणम्मि असुद्ध, दोण्ह दि गिण्हंतदितयाणऽहियं / आउरदिटुंतेणं, तं चेव हियं असंथरणे / / 776 / / संस्तरण नाम-प्राशुकमेषणीयं वा अशनाऽऽदि पर्याप्त प्राप्यते, न च किमपिग्लानत्वं विद्यते; तत्राशुद्धम्-अप्राशुकमनेषणीयं च, गृह्णतो ददतच, द्वयोरपि, अहितमपथ्यम् गृह्णतः संयमवाधाविधायित्वात्। ददतस्तु भवान्तरे स्वल्पायुर्निबन्धकर्मोपार्जनात् / तदेवाशुद्धम् , असंस्तरणे अनिवहि, दीयमानं च हितं पथ्यं भवति / आह-कथं यदेवाकल्प्यं , तदेव च कल्प्यं भवितुमर्हतीति ? उच्यते-आतुरो रोगी, तस्य दृष्टान्तेनेदं मन्तव्यम् / यथा हि-रोगिणः कामप्यवस्थामाश्रित्य अन्नौषधाऽऽदिकमपथ्यं भवति, काञ्चित्पुनः समाश्रित्य तदेव पथ्यम् ; एवमिहापि भावनीयम् / तदेव भावितम्- " साहति य पियधम्मा, एषणदोसे अभिग्गहविसेसे।" (770 गाथा) इति। अथ यदुक्तम्-(एवं तु विहिगहणे त्ति) तत्र विधिग्रहणं भावयतिसंचइयमसंचइयं, नाऊण असंचयं तु गिण्हति।। संचइयं पुण कले, निव्वंधे चेव संतरितं / / 777 / / प्रायोग्यद्रव्यं द्विधा-सञ्चयिकमसञ्चयिकं च / सञ्चयिकंघृतगुडमोदकाऽऽदि / असञ्चयिकं तुदुग्धदधिशालिसूपाऽऽदि / तत्र यदसञ्चायिक, तत् स्थापनाकुलेषु प्रभूतं ज्ञात्वा गृह्णन्ति / सञ्चायिक पुनग्लानप्राघूर्णकाऽऽदौ महति कार्ये उत्पन्ने गृह्णन्ति / अथ श्राद्धानां महानिर्बन्धो भवति, ततोऽग्लाना अपि गृह्णन्ति, परं सान्तरितम् ; न दिने दिने इति भावः / एष सञ्चयिकग्रहणस्यापवाद उक्तः / अथापवादस्यापवादमाहअहवण सड्ढाविभवे, कालं भावं च बालबुड्डाई। नाउ निरंतरगहणं, अछिन्नभावे य ठायति / / 778 // "अहवण ति" अखण्डमव्ययं प्रकारान्तरद्योतनार्थम् / श्रावकाणां श्रद्धां दानरुचिं तीव्रां परिज्ञाय, विभवं च विपुलतरं तदीयगृहेऽवगम्य, कालं दुर्भिक्षाऽऽदिकं, भावंचग्लानत्वाऽऽदिकं, ज्ञात्वा, बालवृद्धाऽऽदयो वा आप्यायिता भवन्तीति ज्ञात्वा, निरन्तर-ग्रहणमपि कुर्वन्तिः सञ्चयिकमपि दिने दिने गृह्णन्तीति भावः। यावच दायकस्य दानभावोन व्यवच्छिद्यते, तावदच्छिन्ने भावे तिष्ठन्ति : दीयमानं प्रतिषेधयन्तीत्यर्थः / यथा तेषां भूयोऽपि श्रद्धा जायते। अथ स्थापनाकुले भक्तपानग्रहणे सामाचारीमभिधित्सुराहदव्वपमाणं गणणा,खारिय फोडिय तहेव अद्धाय। संविग्ग एगठाणे, अणेगसाहूसु पन्नरस // 776 / /
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________________ ठवणाकुल १६९१-अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठवणाकुल द्रव्यं शाल्यादि, तस्य प्रमाणं ज्ञातव्यम्-कियदत्र गृहे रसवत्यां शालिमुदगाऽऽदि दिने दिने प्रविशति ? गणना नामकियन्ति घृतपलान्यत्र प्रविशन्ति / यद्वा-कियन्ति मानुषाण्यत्र जेम(य) न्ति / क्षारो लवणं, तेन संस्कृतानि क्षारितानिकरीराऽऽदीनि व्यञ्जना-नि, तानि कियन्त्यत्र पच्यन्त इति? (फोडिय त्ति) स्फोटितानि मरिचजीरकाऽऽदिकटुभाण्डधूपितानि शालनकानि / एतेषामपि तथैव प्रमाण ज्ञातव्यम् / अद्धा कालः, स ज्ञातव्यः-किमत्र प्रहरे वेला, उत सार्द्धप्रहरे, आहोस्वित्प्रहरद्वये इति / एतद् द्रव्यप्रमाणा-ऽऽदि विज्ञाय संविग्नो मोक्षाभिलाषी / (एगठाणे त्ति) एकः संघाटकः, तत्र प्रविशति / यदि पुनरने के साधवः स्थापनाकुलेषु प्रविशन्ति, ततः पञ्चदशाऽ5धाकर्माऽऽदयोऽनिसृष्टान्ता उद्गमदोषा भवन्ति, अध्यवपूरकस्य मिश्रजातएवान्तर्भावात्। एष संग्रहगाथासमासा-र्थः / अस्या एव भाष्यकृद्द्व्याख्यानमाहअसणाइदव्वमाणे, दसपरिमिएँ एगभत्तमुव्वरति। सो एगदिणं कप्पड़ा, निचं तुऽज्झोयरो इहरा (" सो एगदिणं कप्पतिऽणेकतिएँ ओदरो इहरा।" इति प्राचीनपुस्तकस्थ-पाठः) / / 780 // अशनमोदनमुद्गाऽऽदि, आदिग्रहणात्पानकखादिमस्वादिमपरिग्रहः / एतेषां द्रव्याणां परिमितानामपरिमितानां च मानं प्रमाण ज्ञातव्यम् / यत्र परिमितमशनाऽऽदि द्रव्यं प्रविशति, तत्र दशानां मानुषाणां हेतोरुपकस्क्रियमाणे, एकस्यापरस्य योग्यं भक्तं भक्ता-र्थमुद्वरति। स च भक्तार्थ एकस्य साधोः परिपूर्णाऽऽहारमात्ररूप एकं दिनं ग्रहीतुं कल्पते। इतरथा यदि द्वितीयाऽऽदिदिवसेषु गृण्हन्ति, तदा(निच्चं तु त्ति) स साधुभिः प्रतिदिवसं गृह्यमाणो भक्तार्थों नित्यजेमनमेव तैः श्राद्धगण्यते. ततश्च तदर्थमध्यवपूरकः प्रक्षिप्येत। एवं तावत्परिमितमाश्रित्योक्तम्। अयापरिमितमधिकृत्याऽऽहअपरिमियारद्धेण वि, दसण्हमुव्वरइ एगभत्तट्ठो। वंजणसमितिमपिढे, वेसणमाईसु य तहेव / / 781 // यत्र पुनरपरिमितं राध्यते, तत्र दशानां मानुषाणामगिपि नवाष्टाऽऽदिसङ्ख्याकानामपि हेतोः,राद्धे, एकस्य योग्यो भक्तार्थ उदरति।सच दिने दिने कल्पत इति / आह च चूर्णिकृत्-" अपरिमिए पुण भत्ते, दसण्हहारेण विएगस्स भत्तट्टो दिणे दिणे कप्पइचेव।" तथाव्यञ्जनानि तीमनवटिकाभर्जिकाऽऽदीनि। (समितिम त्ति) समिता कणिका, तया निष्पन्नाः, समितिमा:-मण्डकाः, पूपुलिका वा, पिष्ट मुण्डेरकाऽऽदि। सक्तृप्रभृति वा / (वेसणं) मरिचजीरकहिड्डु प्रभृतिकं कटुभाण्डम् / आदिग्रहणाल्लवणशुण्ठ्यादिपरिग्रहः। एतेषामपि परिमाणं तथैव द्रष्टव्यं, यथा अशनाऽऽदीनाम् / एतावता द्रव्यप्रमाणं गणना क्षारितस्फोटितानीति गाथादलं भावितम्। अथ" अद्धा यत्ति " पदं व्याचष्टेसतिकालद्धं नाउं, कुले कुले ताहि तत्थ पविसंति / ओसक्कणाइ दोसा, अलं. बालाइहाणी य॥७२॥ सत्कालाद्धाभिक्षायाः संबन्धी यः, तत्र देशकालरूपोऽद्धा, तं ज्ञात्वा, कुले कुले, तस्मिन् देशे, तत्र काले, प्रविशन्ति / अथ देशकाले अतिक्रान्तेऽप्राप्ते वा प्रविशन्ति, ततोऽवष्वष्कणाऽऽदयो दोषाः / अथावष्वष्कणाऽऽदिकं तानि श्राद्धकान्यशुद्धदानदोषश्रवणव्युत्पनमतीनि न कुर्युः, ततः प्रायोग्यद्रव्यस्यालाभे बालाऽऽदीनां हानिर्भवेदिति। एगो व होज गच्छो, दोन्नि व तिन्नि ठवणा असंविग्ग। सोही गिलाणमाई, असईइ दवाइ एमेव / / 783 / / विवक्षितक्षेत्र एको वा गच्छो भवेत् , द्वौ वा, त्रयो वा / तत्रैकं गच्छमाश्रित्य विधिरुक्तः / अथ द्यादीन् गच्छानधिकृत्य विधिरभिधीयते(ठवणा असंविगे त्ति) येषु असंविग्नाः प्रविशन्ति, तेषां श्राद्ध-कुलानां स्थापना कर्तव्या। न तेषु प्रवेष्टव्यम्। अथ प्रविशन्ति,ततः पञ्चदशोद्गमदोषानापद्यन्ते। (सोहि त्ति) तद्दोषनिष्पन्नाशोधिः प्रायश्चित्तम्।यदा" सोहि त्ति पदं गिलाणमाई" इत्युत्तरपदेन सहयोज्यते। अतोऽयमर्थःग्लानप्राघूर्णकाऽऽदीनामर्थाय, असंविग्नभावितेष्वपि कुलेषु शोधिरेषणाशुद्धिः / तया शुद्धं भक्तं गृह्यते, न कश्चिद्दोषः।"(असई दवाइएमेव त्ति) " अन्यत्रासति अविद्यमाने, द्रवाऽऽदिकमप्येवमेवअसंविग्नभावितकुलेषु ग्रहीतव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुराहसंविग्गमणुन्नाते, अतिंति अहवा कुले विरंचिंति। अण्णातुंच्छं च सहू , एमेव य संजईवग्गे / / 754 // इह यैस्तत् क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं, तेषु पूर्वस्थितेषु ये अन्ये साधवः समायान्ति, ते साम्भोगिकाः, असाम्भोगिकाश्च / तत्र चासाम्भोगि-केषु संविग्नेषु विधिरुच्यते-संविग्नैर्वास्तव्यसाधुभिः, अनुज्ञाते पूर्वस्थापनाकुलेषु, 'प्रविशत, वयमज्ञातोञ्छ गवेषयिष्यामः, इत्ये - वमनुज्ञायां प्रदत्तायामागन्तुकाः संविग्नाः स्थापनाकुलेषु (अतिंति त्ति) प्रविशन्ति / वास्तव्यास्तु स्थापनाकुलवर्जेषु गुरुबालवृद्धाऽऽदीनामात्मनश्च हेतोभक्तपानमुत्पादयन्ति / अथवा वास्तव्या असहिष्णवः, ततो यावन्तो गच्छाः, तावद्भिर्भागः स्थापनाकुलानि विरचयन्ति-आर्याः ! एतावत्सु कुलेषु भवद्भिः प्रवेष्टव्यम् , एतावत्सु पुनरस्माभिरिति / अथवा यद्यागन्तुकाः (सहू इति) सहिष्णवः समर्थशरीराः, ततोऽज्ञातोञ्छं गवेषयन्तः पर्यटन्ति / एवमेव च संयतीवर्गेऽपि द्रष्टव्यम् / ता अपि व्यादिगच्छसद्भावे एवंविधमेवंविधं कुर्वन्तीत्यर्थः। एवं तु अण्णसंभो-इआण संभोइआण ते चेव। जाणित्ता निव्वंधं, वत्थव्वेणं स तु पमाणं // 785 // एवं तुः पुनरर्थे, एवं पुनर्विधिरन्यसाम्भोगिकानामुक्तः ये तु साम्भोगिकाःपरस्परमेकसामाचारीकाः, तेषामागन्तुकानामर्थाय त एव वास्तव्याः स्थापनाकुलेभ्यो भक्तपानमानीय प्रयच्छन्ति / अथ श्राद्धाः प्राघूर्णकभद्रका अतीव निर्बन्धं कुर्युः / यथा-प्राघूर्णक संघाटकोऽप्यस्मद्गृहे प्रस्थापनीयः / ततो निर्बन्धं ज्ञात्वा, वास्तव्यसंघाटकेनाऽऽगन्तुक संघाटक गृहीत्वा तत्र गन्तव्यम् / यदि च-तत्र प्रचुरप्रायोग्यं प्राप्यते, तत आगन्तुकसंघाटकेन गवेषणा न कर्त्तव्या / यथा-किमित्येतावत्प्रचुरं दीयते ? किं तु, (स तु) स एव वास्तव्यसंघाटकः, तत्र प्रमाण यावन्मात्रं गृहीतव्यम् , यदा कल्पनीयं, तदेतत्सर्वमपि स एव जानातीति भावः / एष एकस्यां वसतौ स्थितानां विधिरुक्तः / बृ०१ उ०। ओघ०।
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________________ ठवणाकुल 1662 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ ठवणाणय अथ पृथग्वसतिव्यवस्थितानामाह सन्नी स गृहस्वामी श्रावकः, स्वयं भुङ्क्ते, ततो वा गृह्यते, अन्यदीयाद्वा असइ वसहीऍ वीसु, रायणिए वसहिभोयणा गम्मा (गतुं , इति कुतोऽपि गृहाद्यत्प्रहेणकाऽऽदिकमायातं तद् गृह्यते। प्राचीनपुस्तक पाठः)। अथ' दवाइ एमेव त्ति पदं व्याख्यानयन्तिअसहू अपरिणया वा, ताहे वीसुं सहू वियरे / / 786 / / असतीए व दवस्स व, परिसित्तियकं जिगुलदवाईणि। विस्तीर्णाया वसतेरसत्यभावे, विष्वक् पृथग् , अन्यस्यां वसती अत्तट्ठिया गिण्हइ, सव्वालम्भे विमिस्साई // 786 / / स्थितानाम् , आगन्तुको वास्तव्यो वा यो रत्नाधिक आचार्यः, तस्य यदि ग्लानस्य गच्छस्य वा योग्यं द्रवं पानकं संविग्नभावितेष्वपि कुलेषु वसतावागम्यावमरत्नाधिकेन भोजनं कर्तव्यम् / अथैकस्मिन् गच्छे, (परिसित्तिय त्ति) येनोष्णोदकेन दधिभाजनानि लेप्यन्ते, तत् द्वयोर्वा गच्छयोरसहिष्णवो ग्लाना भवेयुः ; अपरिणता वा शैक्षाः- परिषिक्तपानकं काञ्जिकमारनालम् , गुलद्रवं नामयस्यां केवल्लिकायां परस्परमिलिताः सन्तोऽसंखड कुर्युः तदा (वीसुति) अपरिणतान् पृथक गुड उत्काल्यते, तस्यां यत्तप्तमतप्तवापानीयं तद्गुडोपलिप्तं द्रवं गुडद्रवम् / पृथग भोजयन्ति / (सहू वियरे त्ति) अकारप्रश्लेषादसहिष्णूनां आदिग्रहणाचिञ्चापानकाऽऽदिपरिग्रहः / एतानि पानकानि यदि तैः प्रथमालिकां वितरन्ति प्रयच्छन्ति, ततोऽपरिणतान् वसतौ स्थापयित्वा श्राद्धकैरात्माऽऽर्थितानि प्रथममेवाऽऽत्मार्थकृतानि, ग्लानाद्यर्थं गृह्णाति / कृतमालिकान् सहिष्णून् गृहीत्वा, सर्वेऽपि रत्नाधिकवसतौ गत्वा (सव्वालम्भे त्ति) यदि सर्वथैव ग्लानस्य वा गच्छस्य वा योग्यमेषणीयं न मण्डल्या भुञ्जते। लभ्यते, तदा (विमिस्साइ त्ति) विमिश्राणि असंविग्नानां श्रावकाणां अथ वोत्तरार्द्धमन्यथा व्याख्यायते-(असहू इति) यद्यवमरत्नाधिक चार्थायाचित्तीकृतानि, तान्यपि द्वितीयपदे गृह्यन्ते। आचार्यः स्वयमसहिष्णुर्न शक्नोति रत्नाधिकाऽऽचार्यसन्निधौ गन्तुं, न अथ' असईई दवाइ' इत्यत्र योऽयमादिशब्दः, तस्य वा तावन्तीं वेलां प्रतिपालयितुं शक्तः, अपरिणता वा अगीतार्थास्तस्य सफलतामुपदर्शयन्नाहशिष्याः, तेषां नास्ति कोऽपि सामाचार्या उपदेष्टा, आलोचनाया या पाणट्ठाणपविट्ठो, विसुद्धमाहारछंदिओ गिण्हे। प्रतीच्छकः / ततो विष्वग्वसतौ द्वावग्याचार्यों समुद्दिशतः (सहू विअरे त्ति) अथवा-यदि रत्नाधिकः सहिष्णुः, तत इतरस्यावमरत्नाधिक अद्धाणाइअसंथरें, जइउं एमेव जदसुद्धं / / 760 // स्योपाश्रयं गत्वा समुद्दिशति / एवं तावद्वयोर्गच्छयोर्विधिरुक्तः। पानकार्थ वा प्रविष्टो यदि विशुद्धेनैपणीयेनाऽऽहारेण ग्रह पतिना छन्द्यते अथ त्रयो गच्छा भवेयुः, ततः को विधिरिति ? आह निमन्त्र्यते, ततश्छन्दितः सन् तमपि गृह्णाति / तथा-(अ-द्धाणाइ त्ति) अध्वनिर्गतानां साधूनां हेतोः, आदिशब्दादवमौदर्याशिवाऽऽदिषु वा तिहं एक्केण सम, भत्त8 अप्पणो अवढं तु। असंस्तरणे, असं विग्नभावितकुलेषु, एवमेव ग्लानोक्तविधिना पच्छा इयरेण समं, आगमणे विरेगों सो चेव // 787 // शुद्धान्वेषणे, यतित्वा यत्नं कृत्वा ततो यदशुद्धमनेषणीयं तदप्यागयद्येक आचार्यो वास्तव्यो भवति, द्वौ चाऽऽगन्तुको, तत इत्थं मोक्तनीत्या गृह्णन्ति। उक्तं स्थविरकल्पिकानधिकृत्य विहारद्वारम्। बृ० त्रयाणामाचार्याणां सम्भवे द्वयोरागन्तुकयोर्मध्याद् यो रत्नाधिकः तस्य १उ०। संबन्धी यो वैयावृत्त्यकरः, तेनैकेन समं वास्तव्याऽऽचार्यवैयावृत्त्यकरः ठवणाणं तय-न०(स्थापनानन्तक) स्थापनानन्तकं यदक्षादावनपर्यटन प्राघूर्णकाऽऽचार्यस्य हेतोभक्तार्थ परिपूर्णाऽऽहारमात्ररूपम् , न्तकमिति स्थाप्यते। तस्मिन्ननन्तकभेदे, स्था० 10 ठा०। आत्मनश्चाऽऽत्मीयाऽऽचार्यार्थमषार्धमर्धमात्र, श्राद्धकुलेभ्यो गृह्णाति / ठवणाणय-पुं०(स्थापनानय) स्थापनाप्राधान्यमिच्छति नये, स्थापपश्चादितरेणाऽऽगन्तुकावमरत्नाधिकाऽऽचार्यसंबन्धिना वैयावृत्त्यकृता नानय आह-स्थापनेत्याकारः / ततश्च -''प्रमाणमिदमेवार्थ -- समं पर्यटन तथैव तद्योग्यं भक्तार्थमात्मनश्वार्थमात्रं गृह्णाति / (आगमणे स्याऽऽकारमयतां प्रति / नामाऽऽदि न विनाऽऽकार, यतः के नापि विरेगों सो चेव त्ति) यदि त्रिचतुः-प्रभृतीनामाचार्याणामागमनं भवति, वेद्यते / / 1 / / तथाहि-नाम्नोऽर्थान्तरेऽपि वर्तयितुं शक्यत्वाद् न ततः स एव विरेको विभजनम्। किमुक्तं भवति?-तदीयैरपि वैयावृत्त्यकरैः तदुल्ले खेऽप्याकारावभासमन्तरेण नियतनीलाऽऽद्यर्थग्रहणमिसमं यथाक्रमं पर्यटता वास्तव्यसाधुना आत्मीयाऽऽचार्यार्थं तथा त्याकारग्रहण एव ग्रहात् सर्वस्य सिद्धमाकारमयत्वम्, ततो ज्ञानव्यादिभिर्भागैर्भक्तार्थ विभज्य भक्तं ग्रहीतव्यं, यथा सर्वान्तिमवैया ज्ञेयाभिधानाभिधेयाऽऽदिसकलमाकाराऽऽरोपितमेव संव्यववृत्त्यकरेण समं पर्यटन्नात्मगुरूणां भक्तार्थ परिपूरयतीति। हारावतारि, तद्विकलस्य खपुष्पस्येवासत्त्वात् / उत्त०१ अ०। अथ'" गिलाणमाई असति त्ति ' पदं विवृणोति आगारो चिय मइस-द्दवत्थुकिरियाफलाभिहाणाई। अतरंतस्स उ जोगा-सईइइयरेहिँ भाविओवसिउं। आगारमयं सव्वं, जमणागारं तयं नत्थि।। 64 / / अन्नमहाणसुवक्खड, जंवा सन्नी सयं भुंजे / / 788 // आकार एव आकारमात्राारूपाण्येव, कानि ? इत्याह-मतिश्च अतरन्तो ग्लानः, तस्य, उपलक्षणत्वाद्-आचार्यन्यापि, यद्योग्य शब्दश्वेत्यादिद्वन्द्वः / तत्र मतिस्तावज्ज्ञेयाऽऽकारग्रहणपरिणतत्वाप्रायोग्य, तस्यासत्यलाभे, इतरे नाम असं विग्नाः, तै विनेषु दाकारवती। तदनाकारवत्त्वे तु-" नीलस्येदं संवेदनं नपीताऽऽदेः, श्राद्धकुलेषु, प्रविश्य, यस्मिन्महानसे तेऽसंविग्ना अध्यवपूरकाऽऽ- इति नैयत्यं न स्यात् , नियामकाभावात् / नीलाऽऽद्याकारो हि दिदोषदुष्टां भिक्षां गृह्णते, तद्वर्जयित्वा, यदन्यस्मिन्महानसे केवलं नियामकः, यदा च स नेष्यते, तदा ' नीलग्राहिणी मतिर्न गृहार्थमेयोपम्कृतं, ततो ग्लानाऽऽद्यर्थं गृह्यते। यद्वा भक्तं पृथगुपस्कृतं, | पीताऽऽदिग्राहिणी" इति कथं व्यवस्थाप्येत ? विशेषाभा
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________________ ठवणाणय 1663 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण - - वात् , तस्मादाकारवत्येव मतिरभ्युपगन्तव्या / शब्दोऽपि पौद्गलि- सहस्रमिदमिति। तथाविधं मुद्राविन्यासमुपलभ्य मृत्तिकाऽऽदिषु माषोऽयं कत्वादाकारवानेव / घटाऽऽदिकं तु वस्त्वाकारवत्त्वेन प्रत्यक्षसिद्धमेव / कार्षापणोऽयमिति। प्रज्ञा० 11 पद। ध०। क्रियाऽप्युत्क्षेपणावक्षेपणाऽऽदिका क्रियावतोऽनन्यत्वादाकारवत्येव / ठवणिंद-पुं०(स्थापनेन्द्र) इन्द्राऽऽकारलक्षिते, स्था० 3 ठा० 1 उ० / फलमपि कुम्भकाराऽऽदिक्रियासाध्यं घटाऽऽदिकं मृत्पिण्डाऽऽदिव (व्याख्या चास्य ' इंद' शब्दे द्वितीयभागे 533 पृष्ठे गता) स्तुपर्यायरूपत्वादाकारवदेव / अभिधानमपि शब्दः / स च पौद्गलिक ठविआ-स्त्री० / देशी-प्रतिमायाम् , दे० ना० 4 वर्ग। त्वादाकारवानित्युक्तमेव। तस्माद्यदस्ति तत्सर्वमाकारमयमेवायत्त्वनाकार ठवित्ता-अव्य०(स्थापयित्वा) प्ररूप्येत्यर्थे, व्य० 1 उ०। तन्नास्त्येव, वन्ध्यापुत्राऽऽदिरूपत्वात्तस्येति गाथाऽर्थः // 64 // ठविय-त्रि०(स्थापित) संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापिते अथ प्रयोगद्वारेणानाकारं वस्तु निराचिकीर्षुराह स्थापनादोषदुष्टे, व्य०३ उ०।"ठवियं संकमट्ठाए, तं च होज न पराणुमयं वत्थु, आगाराभावओ खपुप्फ व। चलाचलम्।"(६५ गाथा) दश०५ अ०१ उ०। स्थापितं द्विविधम्उवलंभव्ववहारा-भावाओ नाणऽऽगारं च / / 65 / / चिरस्थापितम् , अचिरस्थापितं च। तत्र चिरस्थापिते मासलघु। बृ०१ परस्याऽऽकारवद्वस्तुनिषेधकस्य, अनुमतमभिप्रेतं, सामर्थ्याद | उ०। ऊर्श्वे, निकटे, हिकायां च / दे० ना०४ वर्ग। यदनाकारवद् वस्तु, तन्नास्ति, आकाराभावात् , खपुष्पवत् / अप- ठवियगभोइ(ण )-त्रि०(स्थापनकभोजिन् ) स्थापनादोषदुष्टप्रारमपि हेतुद्वयमाह- " उवलंभ " इत्यादि / (नाणगारमिति) ना- भृतकभोजिनि, व्य० 1 उ०। स्त्यनाकारं वस्तु, सर्वथैवानुपलभ्यमानत्वात् , तेनाणीयसोऽपि ठविया-स्त्री०(स्थापिता) आरोपणाभेदे, (स्था०) यत्प्रायश्चित्तव्यवहारस्याभावाच इति पर्यन्तवर्ती, चकारोऽत्र योजनीयः, ख- मापन्नस्तस्य स्थापितं कृतं, न बाहयितुमारब्धमित्यर्थः / आचापुष्पवदिति दृष्टान्तो हेतुद्वयेऽपि स एवेति गाथाऽर्थः / / 65 / / विशे। र्याऽऽदिवैयावृत्त्यकरणार्थम् , तद्धि वहन्न शक्नोति वैयावृत्त्यं कर्तुम् , ठवणापुरिस-पुं०(स्थापनापुरुष) पुरुषप्रतिमाऽऽदौ, स्था० 3 ठा० 1 उ०। वैयावृत्त्यसमाप्तौ तु तत्करिष्यतीति स्थापितोच्यत इति। स्था०५ ठा० काष्ठाऽऽदिनिर्मिते जिनप्रतिमाऽऽदिके, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। 2 उ०।" मासाऽऽदी निक्खित्तं, जं सेसं दिजए तत्तु / " नि० चू०१ ठवणायरिय-पुं०(स्थापनाऽऽचार्य) अक्षवराटकाऽऽदिषु स्थापिते उ० / यदि पुनर्यन्मासाऽऽदिकमापन्नं तद् वैयावृत्त्यमाचार्याऽऽदीनां आचार्ये, (ध०) श्रावकस्य स्थापनाऽऽचार्यविचारः-ननु" गुरुविरहम्मि करोतीति स्थापितं क्रियते, तस्मिश्च स्थापिते यदन्यत् शेषमुद्धातमनुद्उ ठवणा, गुरूवएसोवदंसणत्थं च / जिणविरहम्मि व जिणविं घातं वाऽऽपद्यते, तत्सर्वमपि प्रमादनिवारणार्थमनुद्घातं दीयते सा' बसेवणामंतणं सहलं / / १॥"इत्यादिविशेषाऽऽवश्यकवचनप्रामाण्याद् हाडहडा आरोपणा। व्य०१ उ०। यतिसामायिक प्रस्तावे भदन्तशब्दं व्याख्यानयता भाष्यकृता ठा-धा०(स्था) गतिनिवृत्तौ," स्थष्ठायक्कचिट्ठनिरप्पाः / / 8 / 4 / 16 // साधुमाश्रित्य स्थापनाऽऽचार्यस्थापनमुक्तं, न श्रावकमाश्रित्येति इति तिष्ठतेष्ठाऽऽदेशः। ठाई ठाअइ' ठाणं / प्रा० 4 पाद। जाहे एया कुतस्तेषां स्थापनाऽधिकार इति चेत् ? न / भदन्तशब्द भणतां तेषां जिव्वइ ताहे णवं ठाहेति!"नि० चू० 1 उ०। स्थापनाऽऽचार्यस्थापनं युक्तमेव / अन्यथा भदन्तशब्दपठनं व्यर्थमेव / ठाउं-अव्य०(स्थातुम् ) ' ष्ठा ' गतिनिवृत्तौ इत्यस्य तुमुन्प्रत्ययान्तस्य स्यात् / अथ च स्थापनाऽऽचार्यस्थापनमन्तरेणापि वन्दनाऽऽद्यनुष्ठानं भवति। अवस्थायेत्यर्थे, आव०५ अ०) "इच्छामि ठाउंकाउस्सगं / " विधीयते, तदा वन्दनकनियुक्तौ-" आयप्पमाणामित्तो, चउद्दिसिं होइ आव०५ उ०॥ उग्गहो गुरुणो।" इत्यक्षरैगुरोरवग्रह-प्रमाणमुक्तम् , तत्कथं घटते? न ठाऊण-अव्य०(स्थित्वा) अवस्थायेत्यर्थे, पञ्चा०१८ विव०। हि गुर्वभावे गुरुगतावग्रहप्रमाणं घटमानं स्यात् , ग्रामाभावे तत्सीम ठाग-न०(स्ताघ) अवकाशे, बृ०३ उ०। व्यवस्थावत् / ध०२ अधि०। (त्रयोदशभिः प्रतिलेखनाभिः स्थापना ठाण-न०(स्थान) ' स्था' भावाऽऽदौ ल्युट्।" स्थष्ठाथक्कचिट्टनिरप्पाः ऽऽचार्यस्य प्रतिलेखना' पडिलेहणा ' शब्दे वक्ष्यते) / / 8 / 4 / 16 / / इति स्थाधातोष्ठाऽऽदेशः। प्रा०४ पाद। अवस्थितिविशेषे, ठवणावीर-पुं०(स्थापनावीर) वीरवर्द्धमानस्वामिस्थापनावत् सुभटस्य आव० 5 अ० / एकत्रैव (दश० 4 अ०) उपवेशने, दशा० 3 अ० / स्थापनायाम् , सू० प्र०२० पाहु०। निषद्यायाम् , स्था० 10 ठा० / निषदनस्थाने, त्वग्वर्तनस्थाने, भ० 14 ठवणासच-न०(स्थापनासत्य) स्थाप्यत इति स्थापना, यल्ले - श०८ उ०पादन्यासविशेषे, भ०७ श०६ उ०।अवस्थाने, प्रव० 112 प्याऽऽदिकहिदादिविकल्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं स्थापनासत्यम्। द्वार। आसने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० / गमनादुपरम्य निवेशं कृत्वा क्वचित् यथा-अजिनोऽपि जिनोऽनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति। स्था० 10 ठा० / प्रदेशेषु अवस्थाने, बृ०१ उ०1 स्थितौ, सूत्र 1 श्रु०५ अ०१ उ०। जिनप्रतिमाऽऽदिषु जिनाऽऽदिव्यपदेशे, प्रश्न०२ संब० द्वार०। स्थापना बृ० / कुड्याऽऽदिषु स्थाने, नि० चू० 1 उ० / माने, दे० ना० 4 वर्ग। सत्या यथाविधमकाऽऽदिविन्यासं मुद्राविन्यास चोपलभ्य प्रयुज्यते, जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढ वीए ठाणं वा सेज वा यथा-एककं पुरतो बिन्दुद्वयसहितमुपलभ्यशतमिदमिति, बिन्दुत्रयसहितं निसीहियं वा चे एइ, चेयतं वा साइजइ / / 1 / / जे भिक्खू
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________________ गाहा ठाण 1664 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण ससरक्खाए पुढवीए ठाणं वा सेजं वाणिसीहियं वा चेएइ,चेयंतं करणं, आवण्णसंताणं, पच्छितं, आणादियो य दोसा, आए संजमे य वा साइजइ।। 2 // जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए ठाणं वा सेज़ दोसा जहासंभवं भाणियव्वं। वा णिसीहियं वा चेएइ, चेयंतं वा साइजइ॥ 3 // जे भिक्खू पुढवादिएगिदियाण संघट्टणादिकरणे चेयणोवमा इमा। चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुए कोलावासंसि वा दारुए जाव पइट्ठिए सअंडे सपाणे सवीए सउस्से सउत्तिगपणगदगमट्टियमकडयसंताणयंसि ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेएइ, थेरुवमा अक्कंते, मत्ते सुत्ते व जारिसं दुक्खं / चेयंतं वा साइज्जइ // 4 // एमेव य अव्वत्ता, वियणा एगिदियाणं तु॥८॥ ससणिद्धससरक्खसिलालेलुकोलावासा सअंडे सपाणे सवीए सउस्सं जहा थेरस्स जराए जिण्णस्स वरिससतायुस्स तरुणेण बलवता उत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कमगसंकडणं, एते सुत्तपदा। जमलपाणिणा सव्वायामेण अकंतस्स जारिसा वेयणा, तारिसा इमं वक्खाणं / गाहा पुढविकाईयाण अधिकतरा ठाणादिट्ठियक्तेहिं वेयणा भवति। वेयणाय पुढवीमादी ठाणा, जत्तियमित्ता उ आहिया सुत्ते। जीवस्स भणति, णोऽजीवस्स, ते य जीवलिंगा एगिदिएसु अब्दत्ता जहा मत्ते सुत्ते वा अव्वत्तं सुहदुक्खलिंग, एवं एगिदिएसु वि अव्वत्ता वेयणा तेस हाणादीणी, चेतेंताऽऽणादिणो दोसो॥२॥ दट्ठव्वा, लिंगंच। ठाणं काउस्सग्गं, आदिसद्दातो णिसीयणतुयट्टणा, चेयणं करणं, किंच-एगिदियाण उवयोगपसाहगा इमे दिद्वंता। गाहाअणंतरहिया णाम सचित्ता, तम्मि सट्ठाणे पच्छित्तं चउलहु / भोयणे वा खित्तिए वा, जहा णेहो तणुट्टितो। अहवा / गाहाअंतररहिताऽणंतर, ईसिं उल्ला उ होति ससणिद्धा। पावल्ले नेहकज्जेसु, कारें] जे अपचलो / / 6 / / अंतरणविभिन्ना फा-सुगाय पुढवी तु ससरक्खा / / 3 / / जहा रुक्खे त्ति भोयणे सुहुमो णेहगुणो अत्थि जा, ता तेणाहारि-एण सरीरोवचयो भवति, ण य अव्वत्तणओ लक्खिजंति। तहा पुढवीए अत्थि अंतरं ववधाणं, तेण रहिता, निरंतरमित्यर्थः / अहवा-पुढवी अणं नेहो सुहुमो, सो वि सुहुमत्तणेणं ण दिस्सति, जओ पुढवीए तणुट्टितो तभावेण रहिता असंखातजीविका, पजत्तं पडुच संख्या वि। अधवा अल्पः, ततो तेण प्राबल्यं नेहकजे हत्थादि-सरीरमंखणं कर्तुमशक्यम्। जीए पुढवीए अंतो जीवेहिं रहिया ण अंतरहिया अणंतरहिता, सर्वा सचेतना, न मिश्रा इत्यर्थः। ईसिं उल्ला ससणिद्धा, सेयं पुढवी अचित्ता, अस्स दिस॒तस्स उवसंघारो। गाहासचित्तेण आरण्णएण विभिण्णा ससरक्खा। कोहातिया परीणामा, तहा एगिंदिआण तु / गाहा पावल्ले तेसु कज्जेसु, कारें] जे अपचलं / / 10 // चित्तं जीवो भणितो, तेणं सह संगया तु होति सचित्ता। एगिदियाणं कोहादिया परिणामा, सागारिया य उवयोगा, तहा पासाणसिला रुंदा, लेलू पुण मट्टिया लेद // 4 // सातादियाओ वेयणातो, एते सव्वे भावा सुहुमत्तणओ अणतिसयस्स सचेयणा रुंदा महासिला, सचित्तो वा खेलू लेटुओ। अणुवलक्खा। जहा सण्णी पजत्ता कोहुदया उक्कोसंति, तियलिं भिगुडिं वा करेंति, तेसु ते अप्पीतिकज्जेसु तहा प्राबल्येन एगिदिया अपचला, गाहा असमर्था इत्यर्थः। जम्हा पुढवीकाया एवंविधवेदणमणुभयंति, तम्हा तेसु कोला उ घुणा तेसिं, आवासो तप्पतिट्ठियं दारूं। ठाणादियण कायव्वं। अंडा तु मुइंगादी, पाणग्गहणं तसा चउरो॥ 5 // अववादतोवा करेज / गाहावितियं तु अप्परूढं, तदेव रूढं तु होति हरिताऽऽदी। वोसट्ठकायअसिवो, गेलण्णऽद्धाणसंभमेगतरे। कीडगनगरुत्तिंगो, सअंकुर णिरंकुरो पणगो।। 6 // वसहीवाधाएणय, असती जयणा य जा जत्थ // 11 // कोला घुणा, तेसिं आवासदारुए वा, जीवपतिहिए सपाणे दारुए, पुढवीए वोसट्ठकायो पाओवगतो, सो परप्पओगा अणुकंपपडिणीयत्तणेण वा वा। एवं सवीए दारुए, पुढवीएवा, अणंकुरियं वीयं, तं चेव अंकुरुभिण्णं / अणंतरहियाठाणेसुठवेजेजा, असिवगहिया वसहिमलभंता रुक्खादिहरित, कीडयणगरगोउत्तिंगो, परुगद्धभो वा ; पणगो पंचवण्णोसंकुरी हेउसु ठायंति, वेजट्टा, ओसहिट्ठा वा गिलाणो जया णिज्जति, तदा अणंकुरो वा उसावेहो, अंडगा मुइंगाऽऽदिगा, दगमट्टियाचिक्खल्लो, वसहिअभावे अथंडिले ठाएज्ज, अद्धाण पडिवण्णा या ठायंति, सचित्तो, मीसो वा। अगणिमादिसंभवे वा वसहिणिग्गता ठायंति, वसहिवाधाए वा ठायंति, गाहा सव्वहा वा वसहिअभावे ठायति,अणंतरहितादिथंडि-लाण जा जत्थ मक्कडसंताणो पुण, लूतापुडतो उ अफुडितो जाव। जयणा संभवति पडिलेहणपमजणादिणा वा, सा सव्वा वि कायव्वा / / संकमणे तस्सेव उ, पिपीलिकादीणिअंतेसिं // 7 // सुत्तंकोलियपुडगं अफुड़ियं संताणगं, तस्सेव पुडयस्सगमणकाले संकमणं जे भिक्खू थुणंसि वा गिहलेयंसि वा ओसुकालंसि वा कामभण्णति / अहवा-संठाणगं संकमणं पिपीलियमकोडगादीणं भण्णति।। जलंसि वा ठाणं वा सिजं वा णिसीहियं वा चेएइ, चेयंत वा ठाणं उद्घद्वाणं, सेज्जा आसणं, सिसीहिका सज्झायकरणं। एएसिं चेयणं | साइज्जइ॥५॥
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________________ ठाण 1665 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण गाहाथूणाऽऽदी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते।। तेसिं ठाणादीणी, चेतेताऽऽणादिणो दोसा।। 12 / / थूणा वेली, गिहेलुको उंवरो, उसुकालं उक्खलं, कामजलं एहाणपीढं / गाहाथूणा उ होति वियली, गिहेलुओ उंवरो उ नायव्यो। उखुखलं उसुकालं, सिणाणपीढं तु कामजलं // 1 // मतार्था / णवर-सिणाण मज्जणा दो वि एगट्ठा। वितियपदं / गाहावोसिट्ठकाएँ असिवे, गेलण्णऽद्धाणसंभमेगतरे। वसहीवाघाएण य, असती जयणाय जा भणिया॥१४॥ पूर्ववत्। जे भिक्खू कुलियंसि वा सिलसि वालेलुयंसि वा अंतरिक्खजायंसि वा ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेएइ, चेयंतं वा साइजइ॥६॥ कुलियं कुटुं, तं जतो णिचमवतरति, इयरा सह करभएण भित्ती, नईण वा तडी भित्ती, सिला लेख पुवुत्ता पढमसुत्तेणियमा सचित्ता इह भणिज्जा। शेषं पूर्ववत्। गाहाकुलियादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते। तेसु हाणादीणी, चेतेंता आणमादीणि / / 15 / / पूर्ववत्। वोसिट्ठकाएँ असिवे, गेलण्णऽद्धाणसंभमेगतरे। वसहीवाघाएण य, असती जयणा य जा भणिया॥१६॥ पूर्ववत्। सुत्तंजे भिक्खू खंधंसि वा फलिहंसि वा अकुटुंसि वा गिहमालंसि वा दुब्वंथे दुनिक्खित्ते चलचले ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ चेयंतं वा साइजइ।॥७॥ (जे भिक्खू खंधंसि वा इत्यादि) खंधं पागारो, पेढं वा, फलिहो अग्गला, अकुड्डो मंचो / सो य मंडवो / गिहोवरि मालो दुभूमिगादीणि / जहा गवक्खोवसोभितो पासादो सव्वोवरि दाता जंहम्मितलं भूमितलं परं वा हम्मतलं। एस सुत्तत्थो। इमा णिज्जुत्ती। खंधादिगाहाखंधो खलु पायारो, पेढं फलिहा तु अग्गला होति / अहवा खंधो उ घरो, मंचो अनुड्डों गिहमालो / / 17 / / अहवा खंधो घरो, गृहे इष्टकदारुसंघातो, स्कन्ध इत्यर्थः / दुबंधे ति। / बंधो दुविधोरज्जुबंधो, कट्ठादिसु वेहबंधो वा / तेणं सुबद्धं दुबद्ध, दुणिक्खित्तं तिणिहितं, स्थापितमित्यर्थः। तेणु सुणिक्खित्तं, केसि नि दुण्णिरिक्खित्तं तिआलावगो, तं अपडिलेहियं दुप्पडिलेहियं वा, तं निप्पकपं अनिप्पकंप, अनिष्प्रकम्पित्वादेव चलाचलंचलनाचलनस्वभावं, तादृशे स्थानाऽऽदि | न कर्त्तव्यम्रज्जुव्वेहो बंधो, णिहयाणिहतं तु होति निक्खवणं / अनिरिक्ख अपडिलेहा, चलाचलमणिप्पकंपं तु / / 15 / / पवडंतो कायवहे, आउवधाओ य भाणभेदादी। तस्सेव पुणो करणे, अहिगरणं अण्णकरणे वा / / 16 / / गतार्था / णवरं (णिहताणिहय त्ति) णिक्खयमणिक्खयं वा / तारिसे सदोसे ठाणाई करेंतस्स इमे दोसाततो पडतो छह कायाणं विराहणं करेज, अप्पणो वा से हत्थपादादिविराहणा हवेजा। भाणादि वा उवकरणजातं विराधेजा। तस्सय थूणादियस्स पाडियस्स रज्जुबद्धस्स वात्रोडितस्स वा वि संघातियस्स पुणो करणे अण्णस्स वा अहिणवस्स करणे, अधिकरणं भवति / पडिसिद्धकरणे आणादिया दोसा, चउलहुं च से पच्छित्तं / वोसिट्ठकाएँ असिवे, गेलण्णऽद्धाण संभमेगतरे। वसहीवाघाएण य, असती जयणाय जा जत्थ / / 20 / / पूर्ववत्। नि० चू० 13 उ०ा स्वरूपप्राप्तौ, सम्म० 3 काण्ड। ऊर्ध्वस्थाने, व्य०४ उ० / कायोत्सर्गे,बृ०१ उ०। नि० चू० / ओघ०। पं० भा० / आचा०। स्था० / आव०। सूत्र० / पञ्च स्थानानि मुक्त्वा निर्ग्रन्थैर्निर्ग्रन्थीभिश्चैकत्र कायो त्सर्गो न कार्यःपंचहिं ठाणेहिं निग्गंधा य निग्गंथीओ य एगयओ ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेएमाणा गाइक्कमंति। तं जहा-अत्थेग-इया निग्गंथा य निग्गंथीओ य एगं महं आगामियं च्छिन्नावार्य दीहमद्धमडविमणुपविट्ठा, तत्थेगयाओ ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेएमाणा णाइक्कमंति? अत्थेगइया णिग्गंथा य णिग्गथीओ य गामंसि वा नगरंसि वा० जाव रायहाणिं वा वासं उवगया एगइया जत्थ उवस्सयं लभंति, एगइया णो लभंति, तत्थेगयाओ ठाणं वा० जाव णाइक्कमति 2 / अत्थेगइया य णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य णागकुमारावासंसि वा सुवन्नकुमारावासंसि वा वासं उवगया, तत्थेगयाओ ठाणं वा० जाव णाइक्कमति 31 आमोसगा दीसंति इच्छंति णिग्गंथीओ चीवरपडियाए पडिगाहेत्तए, तत्थेगयाओ ठाणं वा० जाव णाइक्कमंति 4 / जुवाणा दीसंति ते इच्छंति णिग्गंथीओ मेहुणवडियाए पडिगाहेत्तए, तत्थेगयाओ ठाणं वा०जावणाइक्कमंति५ / इच्चेहिं पंचहिं ठाणेहिं० जाव णाइक्कमंति। ''पंचहिं ' इत्यादि सुगमम् / नवरम् (एगयाओ त्ति) एकत्र (ठाणं ति) कायोत्सर्गः, उपवेशनं वा / (सेज त्ति) शयनम् / (निसीहिय त्ति) स्वाध्यायस्थानं, चेतयन्तः कुर्वन्तो नातिक्रामन्तिन लयन्ति, आज्ञामिति गम्यते। (अस्थि त्ति)। सन्ति भवन्ति, (एगइय ति) एके के चन, एकामद्वितीयां, महतीं विपुलामग्रामिकामकामिकां वा अनभिलषणीयां छिन्नाम, आपाताः सार्थगोकुलाऽऽदीनां यस्यां सा तथा, ताम् / दीर्घा ऽध्वा मार्गो यस्यां सा तथा, तांदीर्घा - ध्वाम् / मकाररस्वागमिकः / दीर्घोऽद्धा वा कालो निस्तरणे यस्यां सा दीर्घाद्धा, तामटवीं कान्तारम् , अनुप्रविष्टा दुर्भिक्षाऽऽदिकारणवशात् तत्राटव्याम् (एगयओ त्ति) एकतः, एकत्रेत्यर्थः / स्थानाऽऽदि कुर्वन्त आग
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________________ ठाण 1666 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण मोक्तसामाचारी नातिक्रामन्ति 1 / तथा राजधानीयत्र राजाऽभिषिच्यते, वासमुपगताः, निवासं प्राप्ता इत्यर्थः / (एगइया य त्ति) एकका एकतरा, निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थिका वा, चः पुनरर्थः / अत्र ग्रामाऽऽदौ उपाश्रयं गृहपतिगृहाऽऽदिक मिति / 2 / तथा (अत्थेत्ति) अथ गृहपतिगृहाऽऽदिकमुपाश्रयमलब्ध्वा / (एगइया) एके के चन नागकुमाराऽऽवासाऽऽदौ वासमुपगताः। अथवा (अत्थेत्ति) इह संबध्यते, अस्ति सन्ति भवन्ति, निवासमुपगताः, तस्य च नागकुमाराऽऽवासाऽऽहेरतिशून्यत्वात् / अथवा-बहुजनाऽऽश्रयत्वादनायकत्वाच निर्ग्रन्थिकारक्षार्थमकत एव स्थानाऽऽदि कुर्वाणा नातिक्रामन्तीति 3 / तथा आमुष्णन्तीत्यामोषकाश्चौराः, दृश्यन्ते च इच्छन्ति निर्गन्थिकाः (चीवरवडियाए त्ति) चीवरप्रतिज्ञया वस्त्राणि गृहीष्याम इत्यभिप्रायेण, प्रतिग्रहीतुं यत्रेति गम्यते / तत्र निर्ग्रन्थास्तद्रक्षणार्थमेकतः स्थानादिकमिति 4 / तथा मैथुनप्रतिज्ञयामैथुनार्थमिति 5 / इदमपवादसूत्रम् / उत्सर्गश्चापवादसहितो भाष्यगाथाभिरवसेयः। ताश्चेमाः" भयणपयाण चउण्हं, अण्णतरजुए उ संजए संते। जे भिक्खू विहरेजा, अह वा वि करिज सज्झायं" // 1 // (एकः साधुरेका स्त्रीत्यादिभड़कानामित्यर्थः)। " असणादिं वा हारी, उच्चारादि च आवरिज्जाहिं। निदुरमसाधुजुत्तं, अणंतरकहं च जो कहए॥२॥" (स्त्रीभिः सहेति) " सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविह। पावइ जम्हा तेणं, एए उपए वि वजेजा।। 3 / / " " वीयपयमणपज्झे गेलन्नुवसग्गरोहगट्ठाणे। संभमभयवासासु य, खंतियमाईण णिक्खमणे / / 4 / / " ति। (अपवादोऽनात्मवश इत्यर्थः) स्था०५ ठा०२ उ०। परमाण्वादीनां स्थितिपरिणामे, विशे० / स्थीयते अनेनेति स्थानम् / कायोत्सर्गपर्यडूबन्धपद्माऽऽसनाऽऽदिसकलशास्वसिद्धे आसनविशेषे, षो०१२ विव० प्रकारे, स्था० 10 ठा० भेदे, आ० चू० 4 अ०स०। स्था०1 पदे, स्था० 10 ठा०। उत्कर्षापकर्षरूपे (उत्त०३४ अ०) गुणविशेषे, स्था०५ ठा०३ उ०।आकारे, ओघका पर्याये, आव०४ अाकारणे, स्था०२ठा०४ उ००। उपादानकारणे, सूत्र०१श्रु०१अ०२ उ०। आचा०। निमित्ते, स०२६ सम०। तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानम्। सामान्ये, भ० 1 श०१ उ० / आचा०। व्य० / वस्तुनि, स्था०६ ठा० / ज्योतिःस्थाने, यन्त्रस्थाने च। नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अ० आश्रये, सूत्र० 1 श्रु०११ अ० स्था०। आव० / आवासे, उत्त०५ अ०। स्थानस्य पञ्चदशधा निक्षेपमाहनाम ठवणा दविए, खेत्तऽद्धा उड्ड उवरई वसही। संजम पग्गह जोधे, अचल गणण संधणा भावे / / 83 / / तत्र द्रव्यस्थानं-ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त, द्रव्याणां सचित्ताचित्तमिश्राणां स्थानमाश्रयः / क्षेत्रस्थानं भरताऽऽदि, ऊवधिस्तिर्यग्लोकाऽऽदि चेति: यत्र क्षेत्रे स्थानं व्याख्यायते / अद्धाकालस्ततस्थानंद्विधा, कायस्थितिभवस्थितिभेदात् / तत्र कायस्थितिः पृथिव्यप्तेजोवायूनामसंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः / वन-स्पतेस्तु ता एवानन्ताः, विकलेन्द्रियाणामसंख्येया वर्षसहस्राः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुजानां सप्ताष्टौ वा, भवस्थितिस्तु वायूदकवनस्पतिपृथिवीनां त्रिसप्तदशद्वाविंशतिवर्षसहस्राऽऽत्मिका, तेजसस्त्रीण्यहोरात्राणि, द्वीन्द्रियाणां शताऽऽदीनां द्वादश वर्षाणि, त्रीन्द्रियाणां पिपीलिकानामेकोनपञ्चाशदहोरात्राणि, चतुरिन्द्रियाणां भ्रमराऽऽदीनां षण्मासाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां त्रीणि पल्योपमानि, देवानां नारकाऽऽदीनां च कायस्थितेर्भावाद्भवस्थितिः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति। इयमुत्कृष्टा / जघन्या तु सर्वेषामन्तमुहूर्ताऽऽत्मिका, नवरं देवनारकयोर्दशवर्षसहस्राणीति / अथवा अद्धास्थानसमयावलिकामुहूर्ताहोरात्रपक्षमासर्वयनसंवत्सरयुगपल्योपमसागरोपमोत्सर्पिण्यवसर्पिणीपुद्गलपरावर्तातीतानागतसद्धिारूपमिति / ऊर्ध्वस्थानं तु-कायोत्सर्गाऽऽदिकम् , अस्योपलक्षणात्वान्निषद्याऽऽद्यपि गृह्यते, उपरतिर्विरतिः, तत्स्थानंदेशे सर्वत्र च श्रावकसाधुविषयम्। वसतिस्थानयो यत्र ग्रामगृहाऽऽदौ वसति। संयमस्थान-संयभः सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराये यथाख्यातरूपः, तस्य पञ्चविधस्याप्यसङ्ख्येयानि संयमस्थानानि। किं तदसंख्यम् ? इति चेत्, अतीन्द्रियत्वादर्थस्यन साक्षान्निर्देष्टु शक्यते। आगमानुसारोपमया तूच्यते-इहैकसमयत्वेन सूक्ष्माग्निजीवा असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणा उत्पद्यन्ते, तेभ्योऽग्निकायत्वेन परिणता असंख्येयगुणाः, ततोऽप्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणाः, ततोऽप्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि संयमस्थानान्यप्येतावन्त्येवेति सामान्यतः। विशेषतस्तूच्यतेसामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धीनां प्रत्येकमसंख्येयलोकाऽऽकाशतुल्यानि संयमस्थानानि सूक्ष्मसंपरायस्यान्तौहूर्तिकत्वादन्तमुहूर्तसमयतुल्यान्यसंख्येयानि संयमस्थानानि, यथाख्यातस्य त्वेकमेवाजघन्योत्कृष्ट संयमस्थानम् / अथवा-संयमश्रेण्यन्तर्गतानि संयमस्थानानि ग्राह्याणि; सा चानेन क्रमेण भवति / तद्यथाअनन्त चारित्रपर्यायनिष्पादितमेकं संयमस्थानमसंख्येयसंयमस्थाननिर्वत्तितं कण्डकं, तैश्चासंख्येयैर्जनितं षट्स्थानकं, तदसंख्येयाऽऽत्मिका श्रेणीति। प्रग्रहस्थानं तु-प्रकर्षण गृह्यन्ते वाचोऽस्येति प्रग्रहः, ग्राह्यवाक्यो नायक इत्यर्थः। स च लौकिको, लोकोत्तरश्च। तस्य स्थानं प्रग्रहस्थानम्। लौकिकं तावत्पञ्चविधम्। तद्यथा-राजा, युवराजो, महत्तरः, अमात्यः, कुमारश्चेति / लोकोत्तरमपि पञ्चविधम् / तद्यथाआचार्योपाध्यायप्रवृत्तिस्थविरगणावच्छेदिभेदात् / योधस्थानं पञ्चधा। तद्यथा-लीढप्रत्यालीढवैशाखमण्डलसमपादभेदात्। अचलस्थानं तुचतुर्दा, सादिसपर्यवसानभेदात् / तद्यया-सादिसपर्यवसानं परमाण्वादेर्द्रव्यस्यैकप्रदेशाऽऽदाक्वस्थानं जघन्यत एकं समयम् , उत्कृष्टतश्चासंख्येयकालमिति। साद्यपर्यवसानानां सिद्धानां भविष्यदद्वारूपम् ; अनादिसपर्यवसानमतीताद्धारूपस्य शैलेश्यवस्थाऽन्त्यसमये कार्मणतैजसशरीरभव्यत्वानां चेति। अनाद्यपर्यवसानं धमाधाऽऽकाशानामिति / गणनास्थानम्- एकद्व्यादिकं शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तम् / सन्धानस्थानं द्विधाद्रव्यतो, भावतश्च।पुनरप्येकैकंद्विधा, छिन्नाच्छिनभेदात्। तत्र द्रव्यच्छिन्नसन्धानं कशुकाऽऽदेः / अच्छि नसन्धानं तु पक्ष्मोत्पद्यमानतन्त्वादेरिति।भावस्थानमपिप्रशस्ताप्रशस्तभेदादद्वेधा। तत्र प्रशस्ताच्छिन्नभावसन्धानमुपशमक्षपक श्रेण्यामारोहतो जन्तो
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________________ ठाण 1667 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण रपूर्वसंयमस्थानान्यच्छिन्नान्येव भवन्ति; श्रेणिव्यतिरेकेण वा प्रवर्द्धमानकण्डकस्येति / छिन्नप्रशस्तभावसन्धानं पुनरौपशमिकाऽऽदिभावादौदयिकाऽऽदिभावान्तरगतस्य पुनरपि शुद्धपरिणामवतस्तत्रैव गमनम् / अप्रशस्ताच्छिन्नभावसन्धानमुपशमश्रेण्या प्रतिपततोऽविशुद्ध्यमानपरिणामस्यानन्तानुबन्धिमिथत्वोदयं यावत् . उपशमश्रेणिमन्तरेणापि कषायवशाबन्धाध्यवसायस्थानान्युत्तरोत्तराण्यवगाहमानस्य वा इति। अप्रशस्तच्छिन्नसन्धानं पुनरौदयिकभावादौपशमिकाऽऽदिभावान्तरसंक्रान्तौ सत्यां पुनस्तत्रैय गमनमिति / इह द्वारद्वयं योगपद्येन व्याख्यातम्। तत्रसन्धानस्थान द्रव्यविषयम् , इतरत्तु भावविषयमिति। उक्त स्थानम्। अथवा भावस्थानं कषायाणां यत् स्थानमिह परिगृह्यते, तेषामेव जेतृद्रव्यत्वेनाधिकृतत्वात्तेषा किं स्थानं,यदाश्रित्य चते भवन्ति? शब्दाऽऽदिविषयानाश्रित्य च ते भवन्तीति तद्दर्शयतिपंचसु कामगुणेसुं, सद्दफरिसरसरूवगंधेसु / जस्स कसाया वटुं-ति मूलठाणं तु संसारे / / 84 // तत्रेच्छाऽनङ्गरूपः कामः, तस्य गुणाः, यानाश्रित्य चासौ चेतसो विकारमादर्शयति / तेच शब्दस्पर्शरसरूपगन्धाः, तेषु पञ्चस्वपि व्यस्तेषु समस्तेषु वा विषयभूतेषु, यस्य जन्तोर्विषयसुखपिपासोन्मुखस्यापरमार्थदर्शिनः संसाराभिष्वङ्गिणो रागद्वेषतिमिरोपप्लुतमनोज्ञेतरविषयोपलब्धौ सत्यां कषाया वर्तन्ते प्रादुर्भवन्ति, तन्मूलश्च संसारपादपः प्रादुर्भवतीत्यतः शब्दाऽऽदिविषयोदभूतकषायाः, संसारे संसारविषयं, मूलस्थानमेवेति। एतदुक्तं भवति-रागाऽऽधुपहतचेताः परमार्थमजानानोऽतत्स्वभावेऽपि तत्स्वभावाऽऽरोपणेनान्धादप्यन्धतमः कामी मोदते / तत आह" दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत्पश्यति। कुन्देन्दीवरपूर्णचन्द्रकलशश्रीमल्लतापल्लवानारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते॥१॥" द्वेषं वा कर्कशशब्दाऽऽदौ व्रजतीति। ततश्चमनोज्ञेतरशब्दाऽऽदिविषयाः कषायाणां मूलस्थानं, तेच संसारस्येति गाथातात्पर्यार्थः / आचा०नि० 1 श्रु०२ अ०१ उ० / उत्त० / नि० चू०। सूत्र०। कहि णं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु / तं जहा-रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, वालुयप्पभाए, पंकप्पमाए, धूमप्पभाए, तमप्पभाए, तमतमप्पभाए, अहे सत्तमाए ईसिप्पभाराए, अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु निरएसु निरयावलियासु निरयपत्थडेसु, उडलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए टंकेसु कूडेसु सेलेसु सिहरिसु पन्भारेसु विजयेसु वक्खारेसु वासेसु वासहरपव्वएसु वा वेलासु वेइयासु दारेसु तोरणेसु दीवेसु समुद्देसु / एत्थं णं बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेनभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। 'कहि णं भंते !' इत्यादि / (कहि त्ति) कस्मिन् , 'ण' शब्दो वाक्यालङ्कारे / भदन्तेति परमगुर्वामन्त्रणम / बादरपृथिवीकायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि स्वस्थानाऽऽदीनि प्रज्ञप्तानि प्ररूपितानि ? एवं गौतमस्वामिना प्रश्ने कृते भगवान् वर्द्धमानस्वाम्याह-गौतम!" सहाणेणं "इत्यादि। ननु गौतमोऽपि भगवानुपचितकुशलमूलो गणधरः तीर्थकरभाषितमातृकापदश्रवणमात्रावाप्तप्रवृष्टश्रुतज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमश्चतुदशपूर्ववित् सर्वाक्षरसन्निपाती विवक्षितार्थप्रतिज्ञानसमन्वित एव, ततः किमर्थपृच्छति? नहि चतुर्दशपूर्वविदः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसमन्वितस्य कश्चित् प्रज्ञापनीयमविदितमस्ति। यत उक्तम्-"संखाईए विभवे, साहइ जं वा पुरो उपेच्छेज्जा। नयणं अणाइसंसी, वियाणई एस छउमत्थो"। 1 // सत्यमेतत्। केवलं जानन्नेव गौतमस्वामी भगवान् अन्यत्र विनयेभ्यः प्रतिपाद्य तत्सम्प्रत्ययनिमित्तं विवक्षितार्थ पृच्छति। यदि वा-प्रायः सर्वत्र गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपंसूत्रम् , अतो भगवानार्यश्यामोऽपीत्थमेव सूत्रं रचयति। अथवा सम्भवति तस्यापि गणभृतो गौतमस्वामिनोऽनाभोगः, छद्मस्थत्वात्। उक्तं च- "न हि नामानाभोगः, छास्थस्येह कस्यचिन्नास्ति। ज्ञानाऽऽवरणीयं हि, ज्ञानाऽऽवरणप्रकृतिकर्म॥१॥' ततो जातसंशयः सन् पृच्छतीति न कश्चिद्दोषः। ' गोयमा! ' इति लोक प्रथितमहाविशिष्टगोत्रभिधायकोपमाऽऽमन्त्रणध्वनिः / हे गौतम ! गौतमगोत्रेति भावार्थः / (सट्टाणेणं इति) स्वस्थानं यत्राऽऽसते बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः आसनाश्च वर्णाऽऽदिविभागेनाऽऽदेष्टु शक्यन्ते तत्स्वस्थानमिति भावः / स्वस्थानग्रहणमुपपातसमुद्धातस्थाननिवृत्त्यर्थम् , तेन स्वस्थानेन, स्वस्थानमङ्गीकृत्येति भावः / अष्टासु पृथिवीषु, सर्वत्र बादरपृथिवीकायिकानां पर्याप्तानां स्थानानीति योगः। ता एवाष्टौ पृथिवीमिग्राहमाह- " तंजहा" इत्यादि। तद्यथा-रत्नप्रभायां यावदष्टम्यामीषत्-प्रारभारायाम् , तथाऽधोलोकेपातालेषु पातालकलशेषु बलयामुखप्रभृतिषु, भवनेषु भवनपतिनिकायाऽऽवासरूपेषु भवनभूमिकारूपेषु। इह भवनग्रहणेन भवनानामेव केवलानां ग्रहणम्; भवनप्रस्तटग्रहणेन तु भवनानामपान्तरालस्यापि; तथा नरकेषु प्रकीर्णकरूपेषु नरकाऽऽवासेषु, नरकाऽऽवलिकासु आवलिकाव्यवस्थितेषु नरकाऽऽवासेषु , नरकप्रस्तटेषु नरक भूमिरूपेषु, अत्रापि नरकनरकाऽऽवलिकाग्रहणेन केवला एव नरकाऽऽवासाः परिगृह्यन्ते, नरकप्रस्तटग्रहणेन तु नरकापान्तरालमपि। ऊर्द्धलोवेकल्पेषु सौधर्मिकाऽऽदिकल्पेषु, अनेन द्वादश देवलोकपरिग्रहः। विमानेष ग्रैवेयकसम्बन्धिषु प्रकीर्णकरूपेषु, विमानाऽऽवलिकासु आवलिकाप्रविष्टे सु ग्रैवेयकाऽऽदिविमानेषु, विमानप्रस्तटेषु विमानभूमिकारूपेषु: अत्रापि प्रस्तटग्रहणं विमानान्तरालभाविनामपि यथासंभवभाविना बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकानां स्थानपरिग्रहार्थ ; तथापि तिर्यग्लोकेटड्डेषु छिन्नटड्डेषु, कूटेषु सिद्धाऽऽयतनकूटप्रभृतिषु, शैलेषु शिखरहीनपर्वतेषु, शिखरिषु शिखरयुक्तेषु पवर्तेषु, प्राग्भारेषु ईषत्कुब्जेषु, विजयेषु कच्छाऽऽदिषु, वक्षस्कारेषु विद्युत्प्रभाऽऽदिषु पर्वतेषु, वर्षेषु भरताऽऽदिषु, वर्षधरेसु हिमवदादिपर्वतेषु, वेलासु समुद्राऽऽदिपानीयरमणभूमिषु, वेदिकासु जम्बूद्वीपजगत्याहिसंबन्धिनीषु, द्वारेषु विजयाऽऽदिषु, तोर
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________________ ठाण 1668 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण णेषु द्वाराऽऽदिसंबन्धिषु, किंबहुना ? सामस्त्येन सर्वेषु द्वीपेषु समुद्रेषु / "एत्थ णं'' इत्यादि / अत्र एतेषु स्थानेषु बादरपृथिवीकायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि, मया, अन्यैरपि तीर्थकृ द्भिः / "उववाएणं' इत्यादि / उपपातो बादरपृथिवीकायिकाना पर्याप्तानां यदनन्तरमुक्तं तत्प्राप्त्याभिमुख्यमिति भावः, तेनोपपातमङ्गीकृत्येति भावः / लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्यासङ्ख्येयभागे। अत्रैके व्याचक्षते-ऋजुसूत्रनयो विचित्रः, ततो यदा परिस्थूरऋजुसूत्रनयदर्शनन बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताश्चिन्त्यन्ते, तदा ये स्वस्थानप्राप्ता आहाराऽऽदिपर्याप्तिपरिसमाप्त्या विशिष्टविपाकतो बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकाऽऽयुर्वेदयन्ते, त एव द्रष्टव्याः, नापान्तरालगतावपि. तदानीं विपाकाऽऽयुर्वेदनासंभवात् / स्वस्थानं च तेषां रत्नप्रभाऽऽदिक समुदितमपि लोकस्यासढयेयभागे वर्तते / तत उपपाते नापि लोकस्यासङ्ख्येयभागगता वेदि-तव्याः / अन्ये त्वभिदधतिपर्याप्ता हि नाम-बादरपृथिवीकायिकः सर्वस्तोकाः, ततस्तेऽपान्तरालगतावपि परिगृह्यमाणा लोकस्यासङ्ख्येयभाग एवेति न कश्चिद्दोषः। तथा चसमुद्घातेनापि लोकस्यासङ्ख्येयभाग एव वक्ष्यन्ते / अन्यथा समुद्घातावस्थायामपि स्वस्थानातिरेकेण क्षेत्रान्तरवर्तित्वसंभवादस ख्येयभागवर्तिता नोपपद्यत इति / तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्ति, विशिष्टश्रुतविदो वा। तथा-(समुग्घाएणं लोगस्स असंखेजइ भागे इति) समुद्घातेन समुद्घातमधिकृत्य, लोकस्यासङ्ख्येयभागे / इयमत्र भावना-यदा बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकाः सोपक्रममायुषा, निरुपक्रममायुषा वा त्रिभागाऽऽद्यवशेषायुषः परभविकमायुर्बद्धा मारणान्तिक समुद्घातेन समवहन्यन्ते, तदा ते विक्षिप्ताऽऽत्मप्रदेशदण्डा अपि लोकस्यासङ्ख्येयतम एव भागे वर्तन्ते, स्तोकत्वात् / बादरपृथिवीकायिकपर्याप्तायुश्चाद्याप्यक्षीणमिति पर्याप्तबादरपृथिवीकायिका अपि लभ्यन्ते / इह पूर्वं पृथिव्यादिषु स्वस्थानमात्रमुक्तम् / इदानीं स्वस्थानेनापि कियतिलोकस्य भागे वर्तन्ते इति निरूपयति-(सहाणेणं लोगस्स असंखेजइ भागे इति) स्वस्थानं रत्नप्रभाऽऽदि / तत्र समुदितमपि लोकस्यासंख्येयभागवति / तथाहि-रत्नप्रभा अशीतियोजनसहस्राधिकलक्षप्रमाणपिण्डभावा, एवं शेषा अपि पृथिव्यः स्वस्वधनभावेन वक्तव्याः / पातालकलशा अपि योजनलक्षावगाहाः, नरकाऽऽवासास्त्रिसहस्रयोजनोच्छ्रयाः, विमानान्यपि द्वात्रिंशद्योजनशतबहुलानि; ततः सर्वेषामपि परिमितभावात् समुदितानामप्यसंख्येयभागवर्तितैवेति॥ कहिणं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणापण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरपुढविकाइयाणं पञ्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, तत्थेव बादरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पपणत्ता / उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे॥ बादरापर्याप्तपृथिवीकायिकसूत्रे-(उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएण सव्वलोए इति) इहापर्याप्ता बादरपृथिवीकायिका अपान्तरालगतावपि स्वस्थानेऽपि चापर्याप्तवादरपृथिवीकायिकाऽऽयुर्विशिष्टविपाकतो वेदयन्ते, तथा देवनैरयिकवर्जेभ्यः शषसर्वकायेभ्यश्चोपपद्यन्ते, उद्वृत्ता अपि च देवनैरयिकवर्जेषु शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु गच्छन्ति। ततोऽपान्तरालगतावपि वर्तमाना अमी गृह्यन्ते इति / प्रभूताश्च स्वभावतोऽपीत्युपपातेन समद्घातेन च सर्वलोके वर्तन्ते / अन्ये तु अभिदधतिस्वभावतएवामी बहव इति, उपपातेन समुद्घातेन च सर्वलोकव्यापिनः, तत्रोपपातः केषाश्चिद्वक्रगत्या, तत्र ऋजुगतिः सुप्रतीता / वक्रस्थापना चैवम्-अत्र यदेव प्रथमं वकमेके सहरन्ति, तदेवापरेतद्वक्रदेशमापूरयन्ति, एवं द्वितीयवक्रदेशसंहरणेऽपि, तत्रोत्पत्तावपि प्रवाहतो निरन्तरमापूरणं भावनीयम् / (सहाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे इति) यथा पर्याप्तानां भावितं, तथा अपर्याप्तानामपि भावनीयम् , तन्निश्चयैस्तेषामुत्पादभावात! कहि णं भंते ! सुहुमपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपजत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! सुहमपुढविकाइया जे पज्जत्तगा, जे य अपजत्तगा,ते सव्वे एगविहा अविसेसा अनाणत्ता सव्वलोएपरियावन्नगा पण्णत्ता समणाउसो ! प्रज्ञा०२ पद०। कहि णं भंते ! अणंतरोववण्णगबायरपुढविकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसुतं जहा-रयणप्पभा जहा सहाणपदे०जाव दीवसमुद्देसु / एत्थ णं अणंतरोववण्णगाणं बादरपुढविकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता / उववातेणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेजइभागे। (भ०) सट्ठाणेणं सव्वेसिंजहा ठाणपदे, तेसिं पज्जत्तगाणं बायराणं उववायसमुग्घायसवाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जत्तगाणं बादराणं, सुहमाणं सव्वेसिं जहा पुढवीकाइयाणं भणिया, तहेव भाणियव्वा० जाव वणस्सइकाइय त्ति / भ०३४ श० 1 उ० / कहि णं भंते ! बादरआउकाइयाणं पञ्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्ठाणेणं सत्तमु घणोदधिसु सत्तसु घणोदधिबलएसु, अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु, उडलोए कप्पेसु कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु सरेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसुदीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु विलपंतियासु उज्झरेसु णिज्झरेसु चिल्ललेसु. पल्ललेसु वेप्पिणेसुदीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु जलभूमिआसु / एत्थ णं बादरआउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे० / कहिणं भंते ! वायरआउकाइयाणं अपनत्तगाण ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा! जत्थेव बादरआउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा, तत्थेव बादरआउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे / कहिणं भंते ! सुहुमआउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सुहुमआउकाइया जे य पज्जतगा, जे य अपज्जत्तगा, ते सव्वे एगविहा अविसेसा
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________________ ठाण 1696 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण ए अगडेसु तलाएसु नदीसु वा अनाणत्ता सव्वलोएपरियावन्नगा पण्णत्ता समणाउसो ! कहिणं भंते ! बादरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्ठाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु निव्वाघाए पन्नरससु कम्मभूमीसु वाघायं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु / एत्थ णं बादरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। कहिणं भंते ! बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! जत्थेव बादरतेउकाइयाणं पञ्जत्तगाणं ठाणा, तत्थेव बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स दोसु उड्ढकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। कहि णं भंते ! | सुहुमतेउकाइयाणं पञ्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं य ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! सुहुमतेउकाइयाणं जे पज्जत्तगा अपनत्तगाय, ते सव्वे / एगविहा अविसेसा अनाणत्ता सव्वलोए परियावन्नगा पण्णत्ता समणाउसो ! कहिणं भंते ! बादरवाउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सहाणेणं सत्तसु घणवाएसु, सत्तसु घणवायबलएसु, सत्तसु तणुवाएसु सत्तसु तणुवायबलएसु,अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु भवणच्छिद्देसु भवणनिक्खुडे सु निरएसु निरयावलियासु निरयपत्थडे सु निरयच्छिद्देसु निरयनिक्खुडेसु, उङ्कलोए कप्पेस विमाणेसु | विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु विमाणच्छिद्देसु विमाणनिक्खुडेसु, तिरियलोएसु पाईणदाहिणउदीणेसु सवेसु चेव लोगागासच्छिद्देसु लोगनिक्खुडेसु य / एत्थ णं बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु,समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु,सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेन्जेसु भागेसु / कहिणं भंते ! बादरवाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं,तत्थेव बादरवाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भोगेसु / कहि णं भंते ! सुहुमवाउकाइयाणं पज्जत्ता-पञ्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सुहुमवाउकाइयाणं जे पज्जत्ता अपज्जत्ता य, ते सव्वे एगविहा अविसेसा अनाणत्ता सव्वलोयपरियावन्नगा पण्णत्ता समणाउसो ! कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णता ? गोयमा ! सहाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु धणोदहिबलएसु, अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु, उडलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थमेसु, तिरियलोए अगडेसु तलागेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसुदीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु / एत्थ णं बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे / कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा, तत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / कहि णं भंते ! सुहुमवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सुहुमवणस्सइकाइया जे पज्जत्तगा जे अपज्जत्तगाय, ते सव्वे एगविहा अविसेसा अनाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो ! कहि ण भंते ! बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्डुलोए तदेकदेसभागे, अहोलोए तदेकदेसभागे, तिरियलोए अगडेस तलाएस नदीस वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु। एत्थ णं बेइंदियाणं पञ्जत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे / कहिणं भंते ! तेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उङ्कलोए तदेकदेसभाए, अहोलोएतदेकदेसभाए, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु / एत्थ णं तेइदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता / उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / कहिणं भंते ! चउरिंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? गोयमा ! उड्डलोए तदेगदेसभाए, अहोलोए तदेगदे सभागे, तिरियलोए अगडे सु तलाएस वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु णिज्झरेसु उज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु बप्पि
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________________ ठाण 1700 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण णेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलहाणेसु / एत्थ णं चउरिंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे,समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। कहि णं भंते ! पंचिंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उडलोए तदेकदेसभागे, अहोलोए तदेकदेसभागे, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु स-- रेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलपंतियासु उज्झरेसु णि- | ज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेस चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु / एत्थ णं पंचिंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। कहिणं भंते ! नेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! नेरइया परिवसंति ? गोयमा ! सट्ठाणेणं सत्तसु पुढवीसु / तं जहा-रयणप्पभाए सक्करप्पभाए बालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए तमप्पभाए तमतमप्पभाए / एत्थ णं नेरइयाणं चउरासिं निरयावाससयसहस्साई भवंतीति मक्खायं / ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निबंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा मेदवसापूयरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुडिभगंधा काऊयगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरएसु वेयणाओ। एत्थ णं नेरइयाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / एत्थ णं बहवे नेरइया परिवति / काला कालाभासा गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकण्हा वण्णेणं पण्णत्ता / ते णं तत्थ णिचं भीया णिचं तत्था णिचं तसिया णिचं उध्विग्गा णिचं परममसुभसंबद्धनरगभयं पचणुब्भवमाणा विहरति / कहिणं भंते ! रयणप्पभापुढविनेर-- इयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइया परिवसंति ? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्समोगाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे अट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से / एत्थ णं रयणप्पभापुढविनेरइयाणं तीसं निरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं / ते णं नरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा मेदव सापूइयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा काऊयगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभाणरगा असुभा नरगेसु वेदणाओ। एत्थ णं रयणप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे / तत्थ णं बहवे रयणप्पभापुढविनेरइया परिवति / काला, कालाभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वन्नेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं णिचं भीया णिचं तत्था णिचं तसिया णिचं उदिवग्गा णिचं परममसुभसंबद्धं नरगभयं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति। कहिणं भंते ! सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं पजत्तापज्जताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते ! सक्करप्पभापुढविणेरइया परिवसंति ? गोयमा ! सक्करप्पभापुढवीए वत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए, उवरि एगंजोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठा चेगंजोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे तीसुत्तरजोयणसय-सहस्से / एत्थ णं सकरप्पभापुढविणे रइयाणं पणवीसं णिरयावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं नरगा अतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया णिचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसपहा मेयवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुभिगंधा काऊयगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा, असुभा नरगेसु वेयणाओ। एत्थ णं सक्करप्पभापुढविणेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेइजभागे / तत्थ णं बहवे सकरप्पभापुढविणेरइया परिवसंति। काला, कालाभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं निचं भीता निच्चं तत्था निचं तसिया निच्चं उव्विग्गा निचं परममसुभसंबद्धं नरगभयं पचणुब्भवमाणा विहरंति / कहि णं भंते ! बालुयप्पभापुढविणेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! बालुयप्पभापुढीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे छध्वीसुत्तरजोयणसयसहस्से। एत्थ णं बालुयप्पभापुढविणेरइयाणं पण्णरस निरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं / ते णं नरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसं ठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसपहा मेयवसापू
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________________ ठाण 1701 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण यपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा काऊयगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा, असुभा णरएसु वेयणा / एत्थ णं बालुयप्पभापुढवीणेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे बालुयप्पमापुढवीणेरइया परिवसंति। काला, कालाभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं निच्च भीया निच्चं तत्था निचं तसिया निच्चं उद्विग्गा निच्चं परममसुभसंबद्धं णरगभयं पचणुब्भवमाणा विहरंति। कहि णं भंते ! पंकप्पभापुढविणेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! पंकप्पभापुढवीए बीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा चेगंजोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे अट्ठारसुत्तरे जोयणसयसहस्से / एत्थ णं पंकप्पभापुढविनेरझ्याणं दस निरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं / ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा मेयवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललिताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुभिसंधा काऊयगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा, असुभा नरगेसु वेयणाओ। एत्थ णं पंकप्पभापुढविणेरइयाणं पञ्जत्तापनताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, संठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे / तत्थ णं बहवे पंकप्पभापुढविणेरड्या परिवसंति। काला, कालोभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं निच्च भीया निचं तत्था निचं तसिया निचं उद्विग्गा निचं परममसुभसंबद्धं नरगभयं पचणुब्भवमाणा विहरंति। कहिणं भंते! धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा! धूमप्पभापुढवीए अट्ठारसुत्तरजोयणसयसहस्साबाहल्लाए, उवरि एगं जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता, मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसयसहस्से / एत्थ णं धूमप्पभापुढविणेरइयाणं तिण्णि निरयावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं नरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निच्चंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा मेयवसापूयपडलरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्मिगंधा काऊयगणिवण्णाभा क क्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ। एत्थं णं धूमप्पभापुढविणेरझ्याणं पज्जत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे धूमप्पभापुढविणेरइया परिवसंति। काला, कालाभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो! ते णं निचं भीया निच्चं तत्था निच्चं तसिया निचं उद्विग्गा निचं परममसुभसंबद्धं नरगभयं पचणुब्भवमाणा विहरंति। कहिणं भंते ! तमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तमापुढवीए सोलसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे चोद्दसुत्तरे जोयणसहस्से। एत्थ णं तमप्पभापुढविणेरइयाणं एगे पंचूणे नरगावाससयसहस्से हवंतीति मक्खायं / ते णं नरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निचंधयारतमसा ववगयगहचं दसूरनक्खत्तजोइसपहा मेदवसापूयपडलरुहिरामंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुविगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ / एत्थ णं तमापुढविणेरइयाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता / उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे तमप्पभापुढविणेरइया परिवति / काला, कालाभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं निचं भीया निच्चं तत्था निश्चं तसिया निचं उव्विग्गा निचं परममसुभसंबद्धं नरगभयं पञ्चगुब्भवमाणा विहरंति / कहि णं भंते ! तमतमापुढविणेरइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / गोयमा ! तमतमापुढवीए अदत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्ला उवरि अद्धतेवण्णजोयणसहस्साइं उग्गाहित्ता, हेट्ठा वि अद्धतेवण्णजोयण-सहस्सं वजित्ता, मज्झे तिण्णि जोयणसहस्से सु / एत्थ णं तमतमापुढविणेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं पंचदिसिं पंच अणुत्तरा महइमहालगा महानिरया पण्णत्ता / तं जहा-काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे / ते णं नरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, निचंधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा मेयपूयवसारुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुले वणतला असुई वीसा परमदुढिभगंधा
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________________ ठाण 1702 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेअ- | भवणवासीणं देवाणं पजत्ताऽपज्जत्ताणं सत्त भवणकोडीओ णाओ। एत्थ णं तमतमापुढविनेरइयाणं ठाणा पण्णत्ता / उव- बावत्तरिं च भवणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं वाएणं लोयस्स असंखेजइभाए, समुग्घाएणं लोयस्स असंखे- भवणा बाहिं वट्टा, अंतो समचउरंसा, अहे पुक्खरकन्नियासंजइभाए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभाए / तत्थ णं बहवे ठाणसंठिया उक्किण्णंतरविउलगंभीरखातफलिहा पागारऽट्टातमतमापुढविनेरइया परिवसंति। काला, कालाभासा, गंभीर- लयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्घिमुसलभुसंडिलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणया, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता परिवारिया अउज्झा सया जया सया अजेया सदा गुत्ता अडसमणाउसो ! ते णं निचं भीया निचं तत्था निचं उव्विग्गा निचं यालकोट्ठरइया अडयालकवयणमालाखेमा सिवा किंकरामरपरममसुभसंबद्धं नरगभयं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति। डंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदन" आसीयं बत्तीसं, अट्ठावीसं च होइ वीसं च। दद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयअट्ठारस सोलसगं, अट्टत्तरमेव हेट्ठिमया / / 1 / / तोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियम ल्लदामकलावा पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयाग्कलिया अट्टत्तर बत्तीसं, छव्वीसं चेव सयसहस्संतु। कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामा सुअट्ठारस सोलसगं, चोइसमहियं तु छट्ठीए / / 2 // गंधवरगंधगंधिया गंधवट्टीभूया अच्छरगणसंघसंकिन्ना दिव्वतुअद्धतिवन्न सहस्सा, उवरिमहो वज्जिऊण तो भणियं / डियसद्दसंपन्नदित्ता सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मज्झे उ तिसु सहस्सेसु होति नरगा तमतमाए॥३॥ मट्ठाणीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा ससितीसाय पन्नवीसा, पन्नरस दसेव सयसहस्साइं। रिया सउञ्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तिन्नि य पंचूणेगं, पंचेव अणुत्तरा नरगा।। 4 / / " एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं पजत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / कहि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्तापञ्जत्ताणं उववाएणं लोगस्स असंखेजइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असं खेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! उड्डलोए तदेकदेसभाए, अहोलोए भवणवासी देवा परिवसंति। तदेकदेसभाए, तिरियलोए अगडेसुतलाएसुनदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु मुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु तं जहासरसरपंतियासु विलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु "असुरा नागसुवन्ना, विजू अग्गी य दीव उदही य। पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु दिसि पवणथणियणामा, दसहा एए भवणवासी॥१॥" जलवाणेसु। एत्थणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्तापज्ज चूडामणिमउडरयणभूसणा फणिगरुलवइरपुण्णकलसंकित्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोगस्स असंखेजइभागे, समु उप्फेसा सीहमगरमयंकअस्सवरवद्धमाणनिजुत्तचित्तचिंधमता ग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखे सुरूवा महिड्डिया महजुतिया महायसा महाबला महाणुभावा जइभागे। महासोक्खा हारविराइयवत्था कडगतुडियथंभियभुया अंगदकहि णं भंते ! मणुस्साणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कुंडलमट्ठगंडतलकण्णपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तगोयमा ! अंतोमणुस्सखित्ते पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु मालामउलिमउडा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपअड्डाइजेसुदीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसुतीसाए अकम्म- वरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं भूमीसु छप्पन्नाए अंतरंदीवेसु / एत्थ णं मणुस्साणं पज्जत्तापज्ज- वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघयणेणं दिव्वेताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समु- णं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुत्तीए दिव्वाए पभाए दिग्धाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेइज्जभागे। व्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेस्साए दस कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा दिसाओ उजोवेमाणा पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं पण्णत्ता? कहिणं भवणवासी देवा परिवसंति? गोयमा ! इमीसे भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणमयसहस्सबाह-ल्लाए साणं तायत्तीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं उवरि एग जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठाचेगं जोधण-सहस्सं अवगमहिसीणं साणं साणं परियाणं साणं साणं अणीयाणं साणं वञ्जित्ता, मज्झे अट्ठहत्तरि जोयणसयसहस्सं, एत्थं णं | साणं अणीयाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाह
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________________ ठाण 1703 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण स्सीणं अन्नेसिं च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच कारेमाणा पालेमाणा महया ध्यनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघण इंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजेमाणा विहरंति। कहि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?कहिणं भंते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से बाहल्लाए। एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोवडिभवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिया किन्नंतरविउलगंभीरक्खायफलिहा पागारऽट्टालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्घिमुसलभुसंडिपरिवारिया अउज्झा सदा सया बलया सदा गुत्ता अडयाला कोट्ठगरइया अडयालकयवनमाला खेमा सिवा किंकरामरडंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावा पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिण्णा दिव्वतुडियसद्दसंपन्नं-दिया सव्वरयणामया अच्छा सण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कं कडच्छाया सप्पभा ससिरिया सउञ्जोया पासा-इया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / एत्थणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लो यस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। तत्थ णं बहवे असुरकुमारा देवा परिवसंति / काला, लोहितक्खा, बिंबोट्ठा, धवलपुप्फदंता, असियकेसा, वामेयकुंडलधरा, अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता ईसीसिलिंधपुप्फपगासाइं असंकिलिट्ठाई सुहुमाई वत्थाई पवरपरिहिया, वयं च पढमं समइक्कंता, विइयं च असंपत्ता, भद्दे जोव्वणे वट्टमाणा तलभंगयतुडियपवरभूसणनिम्मलनिरयमणिरयणमंडियभुया दसमुद्दामंडियऽग्गहत्था चूडामणिविचित्तचिंधगता सुरूवा महिड्डिया महजुइया महायसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवस्था कडयतुडियथंभियभुया अंगयकुंड- | लमट्टगंडयलकण्णपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंवतानमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघयणाणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुईए दिव्वाए भासाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए पहाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेण एएणं दिव्वाए लेसाए दसदिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा। ते ण तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाह-स्सीणं साणं साणं तायत्तीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणीयाणं साणं साणं अणीयाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महतरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महया हयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतु-डियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजेमाणा विहरंति। चमरबलिणो इत्थ दुवे असुरकुमारिंदा असुरकुमार-रायाणो परिवति / काला, महानालसरिसा, नीलगुलियगवलऽयसीकुसुमप्पगासा, वियसियसयवत्तनिम्मलेसीसियरत्ततंबनयणा गरुलाययउज्जुत्तुंगनासा उवचियसिलप्पवालबिंबफलसन्निहाहरोहा पंडुरससिसगलविमलनिम्मलदहिघणसंखगोखीरकुं ददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी हुयवहणिदंतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा अंजणघणकासणरुयगरमणिञ्जनिद्धकेसा वामेयकुडलधरा अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता ईसीसिलिंधपुप्फप्पगासाइं असंकिलिट्ठाइंसुहुमाइंवत्थाई पवरपरिहिया, वयं च पढम समइकंता, विइयं च असंपत्ता, भद्दे जोव्वणे वट्टमाणा तलभंगयतुडियपवर-भूसणनिम्मलनिरयमणिरयणमंडियभुया दसमुहामंडियऽग्गहत्था चूडामणिविचित्तचिंधगता सुरूवा महिड्डिया महजुइया महायसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवस्था कडयतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडल-मट्टगंडतलकण्णपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउढा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वन्नेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघयणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुईए दिव्वाए भासाए दिव्वाए छायाए दिव्वाएपहाए दिव्वाए अन्चीए दिव्वेणं एएणं दिव्वाए लेसाए दसदिसाओ उजोवेमाणा पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायणीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं
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________________ ठाण 1704 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण अगमहिसीणं साणं साणं परिसाण साणं साणं अणीयाणं साणं साणं अणीयाहिवईणं साणं साण आयरक्खदेवसहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे महया हयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुजेमाणा विहरति / कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं पज्जत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला णं असुरकुमारा देवा परिवसंति? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगंजोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे अट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से / एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं देवीण य चोत्तीसंभवणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, सो चेव वण्णओ० जाव पडिरूवा / एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं पञ्जत्तापज्जताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारदेवा देवीओ परिवसंति / काला, लोहियक्खा तहेव० जाव भुजेमाणा विहरंति / एवं सव्वत्थ भाणियव्वं भवणवासीणं / चमरे इत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ। काले महानीलसरिसे० जाव पहासेमाणे, से णं तत्थ चउत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणीयाणं सत्तण्हं / अणीयाहिवईणं चउण्हं च चउसट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवच्चं जाव विहरंति। कहिणं मंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते ! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता, मज्झे अट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से। एत्थ णं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं देवीण य तीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं / तेणं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाव विहरंति / वली इत्थ वइरोयणिंदे वइरोयणराया परिवसइ, काले महानीलसरिसे. जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्ह परिसाणं सत्तण्हं अणीयाणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं चउण्हं सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं० जाव कुव्वमाणे विहरंति। कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते ! नागकुमारा देवा परिवसंति? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयण-सयसहस्सबाहल्लाए, उदरि एगंजोयणसहस्सं वजिऊण, मज्झे अट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से / एत्थ णं नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापञ्जत्ताणं चुलसीइभवणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा. जाव पडिरूवा / तत्थ णं नागकुमाराणं पञ्जत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे नागकुमारा देवा परिवसंति महिड्डिया महज्जुइया सेसं जहा ओहियाणं० जाव विहरंति / धरणभूया णंदा एत्थ दुवे नाग-कुमाररायाणो परिवसंति महिड्डिया, सेसं जहा ओहियाणं० जाव विहरंति। कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला णं नागकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए, उवरि एगंजोयणसहस्सं उग्गाहित्ता हेट्ठाचेगंजोयणसहस्सं वज्जित्ता, मज्झे अट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से / एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं चोयालीसं भवणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा० जाव पडिरूवा / एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, तिसु विलोगस्स असंखेज्जइभागे। एत्थणं बहवे दाहिणिल्लाणं नागकुमारा देवा परिवसंति महिड्डिया० जाव विहरंति धरणे एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसंति महिड्डीए० जाव पभासेमाणे, से णं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छहं सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं छण्हं अग्गमहिसीणं
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________________ ठाण 1705 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणीयाणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं चउवीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिंच बहूणं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाण य देवीण य आहे-वचं पोरेव.० जाव कुव्वमाणे विहरंति। कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला नागकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे अट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से। एत्थ णं उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं चत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा, सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाव विहरंति। भूयाणंदे इत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसइमहिड्डिए० जाव पभासेमाणे, सेणं तत्थ चत्तालीसाए भवणावाससयसहस्साणं आहेवच्चं जाव विहरइ। कहि णं भंते ! सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते ! सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए० जाव एत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं वावत्तरिभवणावाससयसहस्साहवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा० जाव पडिरूवा, तत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु विलोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिड्डिया, सेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति। वेणुदेवे वेणुदाली य इत्थ दुवे सुवण्णकुमारिंदा सुवण्णकुमाररायाणो परिवसंति, महिड्डिया० जाव विहरंति। कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते! दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति? गोयमा ! इमीसे० जाव मज्झे अट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से / एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं अठ्ठत्तीसं भवणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा बाहिं पट्टा० जाव पडिरूवा / तत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोग- 1 स्स असंखेजइभागे। एत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति। वेणुदेवे इत्थ सुवर्णिणदे सुवण्णकुमाररायाणो परिवसंति, सेसं जहा नागकुमाराणं। कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला सुवण्णकु- / मारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए जाव एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं वत्तव्वया भणिया, तहा सेसाण वि चोदसण्हं इंदाणं भाणियव्वा; नवरं भवणनाणत्तं इंदाण नाणत्तं वण्णेण नाणत्तं परिहाणनाणत्तं च इमाहिं गाहाहिं अणुगंतव्यं"चोवट्ठी असुराणं, चुलसीती चेव होइ नागाणं। बावत्तरि सुवण्णे, वाउकुमाराण छण्णउती॥१॥ दीवदिसाउदहीणं, विजुकुमारिंदथणियमग्गीणं। छण्हं पि जुवलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा // 2 // चोत्तीसा चोयाला, अडतीसं होइ सयसहस्साई। पण्णा चत्तालीसा, दाहिणओ होंति भवणाई // 3 // तीसा चत्तालीसा, चोत्तीसं चेव सयसहस्साइं। छायाला छत्तीसा, उत्तरओ होंति भवणाई।।४।। चउसट्ठी सट्ठी खलु, छच सहस्सा उ असुरवजाणं / सामाणियाउ एए, चउग्गुणा आयरक्खाओ।। 5 / / चमरे धरणे तह वे-णुदेवहरिकंत अग्गिसीहे य। पुण्णे जलकंते य, अमिए वेलंबे घोसे य॥ 6 // बलि भूयाणंदे वे-णुदालिहरिसहऽग्गिमाणवविसिट्टे। जलप्प, अमियवाहणे, पभंजणे वा महाघोसे / / 7 / / उत्तरिल्लाणं० जाव विहरंति। " काला असुरकुमारा, नागा उदही य पंडुरा दो वि। बरकणगणिहसगोरा, हाँति सुवण्णा दिसा थणिया॥१॥ उत्तत्तकणगवण्णा, विजू अग्नीय होति दीवाय। सामा पियंगुवण्णा, वाउकुमारा मुणेयव्वा // 2 // असुरेसु होंति रत्ता, सीलिंधप्पुप्फभायणा उदही। आसासयवसणधरा, होंति सुवण्णा दिसा थणिया॥३॥ नीलाणुरागवसणा, विजू अग्गी य होंति दीवा य / संझाऽगुरागवसणा, वाउकुमारा मुणेयव्वा॥ 4 // " कहि णं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते ! बाणमंतरा देवा परिवसंति? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडयस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं ओगाहित्ता, हिट्ठा वि एगं जोयणसय वजित्ता, मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु / एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेज्जाओ भोमेज्जानगरावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं भोमेज्जा णगरा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिया, उक्किन्नंतरविउलगंभीरखायफलिहा पागारऽट्टालयकवाडतोरणपडिदुवाग्वे
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________________ ठाण 1706 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण सभागा जंतसयग्घिमुसलभुसंडिपरिवारिया अउज्झा सया जया सया गुत्ता अडयालकुट्ठरइयअडयालकयवण्णमाला खेमा सिवा किं करामरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावा पंचवन्नसरससुरमिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकंदरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतर्गधद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवट्टीभूया अच्छरगणसंघविकिण्णा दिव्वतुडियसद्दसंपन्नंदिया पडागमालाउलाभिरामा सव्वरयाणमया अच्छा सण्हा लट्ठा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा ससिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा परिवसंति। तं जहापिसाया भूया जक्खा रक्खसा किन्नरा किंपुरिसा भुयगवतिणो य महाकाया गंधव्वगणा य निउणगंधव्वगीतरइणो अणवण्णियपणवण्णियइसिवाइयभूयवाइयकं दियमहाकं दियकोहंडपयंगदेवा चलचवलचित्तकीलणदवप्पिया गहिरहसियपिया गीयणिचरती वणमालाऽऽमेलमउलकुंडलसच्छंदविउव्वियाभरणचारुभूसणधरा सव्वोयसुरभिकुसुमसुरइयपलंबसोहंतकंतवियसितचित्तवन्नमालरइयवच्छा कामकामा कामरूवदेहधरा नाणाविहवन्नरागवरवत्थललितचित्तचिल्लगणियं सणा विविहदेसनेवत्थगहियवेसा समुइयकंदप्पकलहकेलिकोलाहलप्पिया-हासा बोलबहुला असिमोग्गरसत्तिकुंतहत्था अणेगमणिरयणविविहनिजुत्तविचित्तचिंधगया सुरूवा महिड्डिया महज्जुतिया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडगतुडियथंभियभुया अंगयकुंडलमट्ठगंडजुयलकण्णपीठधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउलिकल्लाणगपवरवत्थपरिहया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वन्नेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुईए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अचीए दिव्वेणं एएणं दिव्वाए लेसाए दसदिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा / ते णं तत्थ साणं साणं भोमेजाणगरावाससयसहस्सा असंखिजाणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं / साणं सपरिसाणं साणं साणं अणीयाणं साणं साणं अणी याहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महया हयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजेमाणा विहरंति। कहिणं भंते ! पिसायाणं देवाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते ! पिसाया देवा परिवसंति? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडयस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसयं ओगाहित्ता, हिट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जित्ता, मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेजानगरावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / तेणं मोमेज्जनगरा बाहिं वट्टा, जहा ओहिओ भवणवण्णओ, तहा भाणियव्वो० जाव पडिरूवा / एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे पिसाया परिवसंति महिड्डिया जहा ओहिया० जाव विहरंति / काला, महाकाला, इत्थ दुवे पिसाइंदा पिसायरायाणो परिवसंति महिड्डिया मह-ज्जुझ्या० जाव विहरंति। कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडयस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि एग जोयणसयं ओगाहित्ता, हिट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जित्ता, मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थणं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा भोमेज्जानगरावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा जहा ओहिओ भवणवण्णओ तहेव भाणियव्वो० जाव पडिरूवा, एत्थं णंदाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, तिसु विलोगस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवति, महिड्डिया जहा ओहिया० जाव विहरंति / काले जत्थ पिसाइंदे पिसायराया परिवसति महिड्डिएक जाव पभासेमाणे,से णं तत्थ तिरियमसंखेजाणं भोमेज्जा णगरावाससयसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणीयाणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिंच बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवचं० जाव विहरंति।
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________________ ठाण 1707 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण उत्तरिल्लाणं पुच्छा? गोयमा ! जहेव दाहिणिल्लाणं वत्तव्वया, तहेव, उत्तरिल्लाणं पि, नवरं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं महाकाले जत्थ पिसाइंदे पिसायराया परिवसति जाव विह- | रति / एवं जहा पिसायाणं जहा भूयाणं पि० जाव गंधव्वाणं, नवरं इंदेसु नाणत्तं भाणियव्वं, इमेणं पि विहिणा भूयाणं सुरूवपडिरूवा, जक्खाणं पुण्णभद्दमाणिभद्दा, रक्खसाणं भीममहाभीमा, किन्नराणं किन्नरकिपुरिसा, किं पुरिसाणं सप्पुरिसमहापुरिसा, महोरगाणं अइकायमहाकाया, गंधव्वाणं गीतरई गीतजसा० जाव गीयजसे विहरति। " काले य महाकाले, सुरूव पडिरूव पुण्णभद्दे य / अमरवइ माणभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे // 1 // किन्नर किंपुरिसे खलु, सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे। अइकाएँ महाकाए, गीयरती चेव गीयजसे "॥२॥विहरति। कहिणं भंते ! अणवन्नियाणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते ! अणवन्निया देवा परिवसंति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडयस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि हिट्ठा य एग जोयणसयं वज्जित्ता, मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं अणवन्नियाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा भवणा वाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं० जाव पडिरूवा, एत्थ णं अणवन्नियाणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोगस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोगस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं अणवन्निया देवा परिवति, महिड्डिया जहा पिसाया. जाव विहरंति, सन्निहियसामाणा, इत्थ दुवे अणवन्निदा अणवन्नियकुमाररायाणो परिवति महिड्डिया, जहा कालमहाकाला, एवं जहा कालमहाकालाणं दोण्हं पिदाहिणिल्लाणं उत्तरिल्लाण य भणिया, तहा संनिहियसामाणाणं पि भाणियव्वा! संगहणिगाहा"अणवन्निएँ पणवन्निएँ, इसिवाइऐं भूयवाइए चेव। कंदिऍ य महाकदिएँ, कोहंड' पयंगदेवा य॥१॥" इमे इंदा"संनिहिए सामाणिएँ, धाइ विधाए इसीय इसिवाले। ईसरे महेसरे विय, हवइ सुवत्थे विसाले य॥१॥ हासे हासरई वि य, सेए य भवे तहा महासेए। पयगे पयगपए विय, नेयव्वा आणुपुवीए॥२॥" कहि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते ! जोइसिया देवा परिवति? गोय- | मा ! इभीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिमागाओ सत्तणउए जोयणसए उड्ढे उप्पइत्ता, दसुत्तरं जोयणसयं, बाहल्ले, तिरियमसंखिजे जोइसविसए। एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा जोइसियविमाणा वाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं विमाणा अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिया सव्वफालियामया अइडगयमुसियपहसिया इव विविहमणिक णगरयणभत्तिचित्ता वाउद्भूतविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकलिया तुंगा गगनतलमहिलंघमाणसिहरा जालंतररयणपंजरुम्मीलिय व्व मणिकणगथूभियागा वियसियसयपत्तपोंडरीया तिलगरयणद्धचंदचित्ता नानामणिमयदामालंकिया अंतो बाहिं च सण्हा तवणिज्जरुइलवालुया पत्थडा सुहफासा ससिरीयरूवा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेनइभागे / तत्थ णं बहवे जोइसिया देवा परिवसंति। तं जहा-बहस्सई, चंदा, सूरा, सुक्का, सणिच्छरा, राहुघूमकेतुबुधा, अंगारगा, तत्ततवणिज्जकणगवन्ना जे गहा जोइसिम्मि चारं चरंति, केतू य गतिरइया अट्ठावीसइविहा य नक्खत्ता देवयगणा नाणासंठाणसंठियाओ य पंचवन्नाओ तारयाओ विय तेयलेस्साचारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयं णामंकपगडियचिंधमउडा महिड्डिया० जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणीयाणं साणं साणं अणीयाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्ने सिं च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं० जाव विहरंति / चंदिमसूरिया य, एत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवसंति महिड्डिया० जाव पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं जोइसियविमाणावाससयसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणीयाणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं० जाव विहरंति। कहिणं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? कहिणं भंते ! वेमाणिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढे चंदिमसूरियगहनक्खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उड़े दूरं उप्पइत्ता, एत्थ णं सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबं भलोगलंतगमहासुक्कसहस्सारआणयपाणय
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________________ ठाण 1708 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण आरणअधुयगेविज्जाणुत्तरेसु तत्थ इत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं सहस्साई बहूणि जोयणसयसहस्साई बहुगाओ जोयणकोचउरासीविमाणसयसहस्सा सत्ताणउईभवे सहस्साओ तेवीसं डीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डे दूरं उप्पइत्ता एत्थ विमाणा हवंतीति मक्खायं / तेणं विमाणा सव्वरयणामया अत्था णं सोहम्मे नामं कप्पे पन्नत्ते / पातीणपडीणायते उदीणदाहिणसण्हा लट्ठा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कं कड- वित्थिन्ने अद्धचंदसंठाणसंठिए अचिमालिभासरासिवन्नामे च्छाया सप्पहा ससिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा असंखेजाओ जोयणकोडीओ असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोअभिरूवा पडिरूवा, इत्थं णं वेमाणियाणं देवाणं पज्जत्तापज- डीओ आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु विलोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ परिक्खेवणं सव्वरयणामए अत्थे सण्हे लट्टे घटे मढे० जाव णं बहवे वेमाणिया देवा परिवसंति। तं जहा-सोहम्मीसाणस- पडिरूवे / तत्थ णं सोहम्मगदेवाणं बत्तीसं विमाणावाससयणंकुमारमाहिंदबंभलोगलंतगमहासुक्कसहस्सारआणयपाणय- सहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं विमाणा सव्वरयणामया आरणअच्चुयगेविज्जगाणुत्तरोववाइया देवा, ते णं मियमहिसव- अत्था० जाव पडिरूवा / तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए राहसीहछगलदडुरहयगयभुयगखग्गउस कविडिमपागडिय- पंच वडेंसया पण्णत्ता / तं जहा-असोगवडेंसए, सत्तवन्नवडेंचिंधमउडा पसढिलवरमउडतिरीडधारिणो वरकुंडलुज्जोइ- सए, चंपगवडेंसए, चूयव.सए, मज्झे तत्थ सोहम्मवडेंसए। ते याणणा मउडदित्तसिरया रत्ताभा पउमप्पहगोरा भासेया सुह- णं वडेंसया सव्वरयणामया अत्था० जाव पडिरूवा, एत्थ णं वण्णगंधफासा उत्तमवेउव्विणो पवरवत्थगंधमल्लाणुलेवणधरा सोहम्मगदेवाणं पञ्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, तिसु विलोगस्स महिड्डिया महज्जुइया महायसा महब्बला महाणुभागा महासो- असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे सोहम्मगदेवा परिवसंति क्खा हारविराइयवच्छा कडगतुडियथंभियभुया अंगदकुंडल- महिड्डिया० जाव पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं विमामट्ठ गंडतलकण्णपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालाम- णावाससयसहस्साणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं उलीकल्लाणपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणा सामाणियसाहस्सीणं एवं जहेव ओहियाणं तहेव एतेसिं पि भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वन्नेणं, दिव्वेणं गंधेणं, भाणियव्वं० जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं दिवेणं फासेणं, दिव्वेणं संघयणेणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए सोहम्मगकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाणं देवीण य आहेवश्चं इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए पोरेवचं० जाव विहरंति / सक्के इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ अचीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाएदसदिसाओ उज्जोये-माणा वजपाणी पुरंदरे सयकऊ सहस्सक्खे मघवं पाकसासणे दाहिपभासेमाणा, तेणं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसह-स्साणं णड्ढलोगाहिवई बत्तीसविमाणवाससयसहस्साहिवई एरावणसाणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीस-गाणं साणं वाहणे सुरिंदे अरयंवरवत्थघरे आलइयामालमउडे नवहेमचासाणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं सपरि-वाराणं साणं रुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे महिड्डिए० जाव पभासेसाणं परिसाणं साणं साणं अणीयाणं साणं साणं अणीयाहिवईणं माणे से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउरासाणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्ने सिं च बहूणं सीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं वेमाणियाणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावचं कारेमाणा पालेमाणा महया सत्तण्हं अणीयाणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं चउण्हं चउरासीणं हयनट्ट गीयवाइयतंतीतलतालतुडियधणमुइंगपडुप्प- आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पबासीणं वाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरंति। वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवचं कुव्यमाणे० कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्ण- जाव विहरति। त्ता ? कहिणं भंते ! सोहम्मगदेवा परिवसंति? गोयमा ! जंबु- कहिणंभंते ! ईसाणगदेवाणं पजत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए णं भंते ! ईसाणगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड चंद्रिमसूरिय- पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ गहगणनक्खत्तताराणं बहूणि जोयणसयाई बहूणि जोयण- | भूमिभागाओ उड्ढे चंदिमसूरियग्गहगणनक्खत्ततारारूवाणं बहूई
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________________ ठाण 1706 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साइं० जाव उप्पइत्ता, इत्थ णं ईसाणे नामं कप्पे पन्नत्ते, पाईणपहीणायए उदीणदाहिणवित्थिन्ने, एवं जहा सोहम्मे जाव पडिरूवे / तत्थ णं ईसाणदेवाणं अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं विमाणा सव्वरयणामया० जाव पडिरूवा / तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसगा पण्णत्ता / तं जहा-अंकवडेंसए, फलिहवडेंसए, रयणवडेंसए, जाव सुरूववडिंसए, मज्झे इत्थ ईसाणवडेंसए। ते णं वडेंसया सव्वरयणामया० जाव पडिरूवा। इत्थ णं ईसाणाणं देवाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे, सेसं जहा सोहम्मगदेवाणं० जाव विहरंति, ईसाणे इत्थ देविंदे देवराया परिवसति सूलपाणी बसभवाहणे उत्तरवलोगाहिवई अट्ठा-वीसदिमाणावाससयसहस्साहिवई अरयं वरवत्थधरे, सेसं जहा सक्कस्स० जाव पभासेमाणे, तत्थ अट्ठावीसाए विमाणावाससयसहस्साणं असीतीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाएतायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणीयाणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं चउण्हं असीतीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिंच बहूणं ईसाणकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवच्चं कुव्वमाणे० जाव विहरइ। कहिणं भंते ! सणंकुमारदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते ! सणंकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! सोहम्मस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूइं जोयणसयसहस्साइं बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उद्धं दूरं उप्पइत्ता, तत्थ णं सणंकुमारे नामं कप्पे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिन्ने,जहा सोहम्मे कप्पे जाव पडिरूवे। तत्थ णं सर्णकुमाराणं देवाणं वारस विमाणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं विमाणा सव्वरयणामया० जाव पडिरूवा, तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभागे पंचवडेंसगा पण्णत्ता / तं जहाअसोगवडेंसए, सत्तवण्णव.सए, चंपगवडेंसए, चूयवडेंसए, मज्झे जत्थ सणंकुमारवडेंसए, ते णं वडेंसया सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा। तत्थ णं सणंकुमार-देवाणं पजत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु विलोगस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे सणंकुमारा देवा परिवसंति महिड्डिया० जाव पभासेमाणा विहरंति, नवरं अग्गमहिसीओ णत्थि सणंकुमारे, इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंबरवत्थधरे, सेसं जहा सक्कस्स, सेणं तत्थ बारसह विमाणावाससयसहस्साणं बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं, सेसं जहा सक्कस्स अग्गमहिसीवजं, नवरं चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं० जाव विहरइ। कहिणं भंते ! माहिंदाणं देवाणं पजत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! माहिंदगा देवा परिवसंति ? गोयमा ! ईसाणस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं बहूइंजोयणाइं० जाव बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उर्दु दूरं उप्पइत्ता, तत्थ णं माहिंदे णामं कप्पे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए० जाव एवं जहेव सणंकुमारे, नवरं अट्ठ विमाणावाससयसहस्सा वडेंसया, जहा ईसाणे, नवरं मज्झे तत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंवरवत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे० जाव विहरइ, नवरं अट्ठण्हं विमाणावाससयसहस्साणं सत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं सत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं० जाव विहरइ। कहि णं भते ! बंभलोगदेवाणं पञ्जत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते ! बंभलोगा देवा परिवसंति ? गोयमा ! सणं-कुमारमाहिंदाणं कप्पाणं उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं बहूई जोयणाइं० जाव उप्पइत्ता, इत्थ णं बंभलोए नाम कप्पे पाईणपडीणायते, उदीणदाहिणवित्थिन्ने, पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए अचिमाली भासरासिप्पभे, अवसेसं जहा सणंकुमाराणं, नवरं चत्तारि विमाणावाससयसहस्सा वडेंसगा, जहा सोहम्मस्स वडेंसया, नवरं मज्झे इत्थ बंभलोयवडेंसए, इत्थणं बंभलोगाणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता / सेसं तहेव० जाव विहरति / बंभे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे० जाव विहरति, नवरं चउण्हं विमाणावाससयसहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं० जाव विहरइ। कहिणं भंते ! लंतगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्ण- ता? कहि णं भंते ! लंतगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! बंभलोगस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं बहूइंजोयणसयाइं० जाव बहुईओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डूंदूरं उप्पइत्ता, इत्थ णं लंतए नामं कप्पे पण्णत्ते। पाईणपडीणायते जहा बंभलोए, नवरं पन्नासा विमाणावाससयसहस्साहवंतीतिमक्खायं, वडेंसगा जहाईसाणवडें सगा, नवरं मज्झे इत्थ लंतगवडेंसए देवा तहेव० जाव विहरंति, लंतए इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, जहा सणंकुमारे, नवरं पन्नासाए विमाणावाससयसहस्साणं, पन्नासाए सामाणियसाह
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________________ ठाण 1710- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण स्सीणं चउण्हं पन्नासाणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिंच बहूणं० जाव विहरइ। कहि णं भंते ! महासुकाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते ! महासुक्का देवा परिवसंति ? गोयमा ! लंतस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं० जाव उप्पइत्ता, इत्थ णं महासुक्के नाम कप्पे पण्णत्ते, पाईणपडीणायते, उदीणदाहिणवित्थिन्ने, जहा बंभलोए, नवरं चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा हवंतीति मक्खायं, वडेंसगा जहा सोहम्मवडेंसगा, नवरं मज्झे तत्थ महासुकवडेंसए० जाव विहरइ / महासुक्के इत्थ देविंदे देवराया जहा सणंकुमारे, नवरं चत्तालीसाए विमाणावाससाहस्सीणं चत्तालीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं चत्तालीसाणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं० जाव विहरंति। कहिणं भंते ! सहस्सारदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते ! सहस्सारा देवा परिवसंति? गोयमा ! महासुक्कस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसिं० जाव उप्पइत्ता, इत्थणं सहस्सारे नामं कप्पे पण्णते, पाईणपडीणायते, जहा बंभलोए, नवरं छ विमाणावाससहस्सा हवंतीति मक्खायं, देवा तहेव वडेंसगा, जहा ईसाणस्स वडेंसगा, नवरं मज्झे जत्थ सहस्सारवडेंसए० जाव विहरंति / सहस्सारे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, जहा सणंकुमारे नवरं छण्हं विमाणावाससहस्साणं तीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य तीसाणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं० जाव आहेवच्चं पोरेवच्चं कारेमाणे विहरति। कहि णं भंते ! आणयपाणयदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते ! आयणपाणयदेवा परिवसंति? गोयमा! सहस्सारस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसिं० जाव उप्पइत्ता, इत्थ णं आणयपाणयणामेणं दुवे कप्पा पण्णत्ता, पाईणपडीणायते, उदीणदाहिणवित्थिन्ना, अद्धचंदसंठाणसंठिआ अचिमाली भासरासिप्पभा, सेसं जहा सणंकुमारे जाव पडिरूवा / तत्थ णं आणयपाणयदेवाणं चत्तारि विमाणावाससया हवंतीति मक्खायं० जाव पडिरूवा वडेंसगा, जहा सोहम्मे, नवरं मज्झे पाणयवडेंसए, ते णं वडेंसगा सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा, इत्थ णं आणयपाणयदेवाणं पजत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता ; तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे आणयपाणयदेवा परिवसंति, महिड्डिया० जाव पभासेमाणा / ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयाणं० जाव विहरंति / पाणए एत्थ देविंदे देवराया परिवसंति, जहा सणंकुमारे, नवरं चउण्हं विमाणावाससयाणं वीसाए सामाणियसा हस्सीणं असीतीए आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं० जाव विहरंति। कहि णं भंते ! आरणच्चुयाणं देवाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? कहिणं भंते ! आरणचुया देवा परिवसंति ? गोयमा! आणयपाणयाणं कप्पाणं उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं इत्थ णं आरणचुया नाम दुवे कप्पा पण्णत्ता, पाईणपडीणायता, उदीणदाहिणवित्थिन्ना, अद्धचंदसंठाणसंठिया अचिमाली भासरासिवन्नाभा असंखिज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं, असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लट्ठा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला णिप्पंका निकंकडच्छाया सप्पमा ससिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / इत्थ णं आरणचुयाणं देवाणं तिन्नि विमाणावाससया हवंतीति मक्खायं / ते णं विमाणा सव्वरणामया अच्छा सण्हा लट्ठा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा ससिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तेसिणं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसया पण्णत्ता / तं जहा-अंकवडेंसए, फलिहवडेंसए, रयणवडेंसएल जाव रूववडेंसए, मज्झे जत्थ अचुयवडेंसए, ते णं वडेंसया सव्वरयणामया० जाव पडिरूवा; इत्थ णं आरणचुयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता! तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे आरणचुया देवा. जाव विहरंति / अच्चुए तत्थ देविंदे देवराया परिवसइ / जहा पाणए. जाव विहरति, नवरं तिण्ह, विमाणावाससयाणं दसण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं आहेवचं० जाव कुव्वेमाणे विहरति / " बत्तीसऽट्ठावीसा, वारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा। पन्ना चत्तालीसा, छच सहस्सा सहस्सारे।।१।। आणयपाणयकप्पे, चत्तारि सयाऽरणचुए तिण्णि। सत्तविमाणसयाई, चउसु वि एएसु कप्पेसु॥२॥" सामाणियसंगहणीगाहा"चउरासीइ असीई, बावत्तरि सत्तरीय सट्ठीए। पन्ना चत्तालीसा, तीसा वीसा दस सहस्सा।।१।।" एव चेव आयरक्खा चउग्गुणा। कहि णं भंते ! हिट्ठिमेगविज्जगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! हे ट्ठिमगे विज्जगा देवा परिवति? गोयमा ! आरणचुयाणं कप्पाणं उप्पि० जाव उड्ढ दूरं उप्पइत्ता, इत्थ णं हे ट्ठिमगे विजाणं देवाणं तओ गेवेजविमाणपत्थडा पन्नत्ता, पाईणपडीणायया उदीणदा
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________________ ठाण 1711 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण हिणवित्थिन्ना पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिया अच्चिमाली भासरासिवन्नाभा, सेसं जहा बंभलोगे० जाव पडिरूवा। तत्थ णं हेट्ठिमगेविनगाणं देवाणं एक्कारसुत्तरे विमा गावाससए हवंतीति मक्खायं / ते णं विमाणा सव्वरयणामया जाव पडिरूवा, इत्थ णं हेट्ठिमगेविनगाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु विलोगस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे हेट्ठिमगेविज्जगा देवा परिवसंति, सव्वे सममहिड्डिया सव्वे समजुतीया सव्वे समजसा सव्वे समबला सव्वे समाणुभावा महासोक्खा अणिंदा अप्पेस्सा अपुरोहिया अहमिंदा नाम ते देवगणा पण्णत्ता, समणाउसो! कहि णं भंते ! मज्झिमगाणं गेविजगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! मज्झिमगेविजगदेवा परिवसंति? गोयमा ! हेट्ठिमगेविजमाणं उप्पि सपक्खि सपडिदिसिं० जाव उप्पइत्ता, इत्थ णं मज्झिमगेविज्जगदेवाणं तओ गेविज्जगविमाणपत्थडा पण्णत्ता, पाईणपडीणायता, जहा हेट्ठिमगेविजगाणं, नवरं सत्तुत्तरे विमाणावाससए हवंतीति मक्खाए। तेणं विमाणा० जाव पडिरूवा, इत्थ णं मज्झिमगेवेज्जाणं देवाणं० जाव तिसु वि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे मज्झिमगेवेजगा देवा परिवसंति जाव अहमिंदा नामं देवगणा पण्णत्ता, समणाउसो! कहि णं भंते ! उवरिमगेवेज्जगाणं देवाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! उवरिमगेविजगा देवा परिवसंति ? गोयमा ! मज्झिमगेवेज्जगदेवाणं उप्पि० जाव उप्पइत्ता, तत्थ णं उवरिमगेवेज्जगाणं देवाणं तओ गेविजगविमाणपत्थडापण्णत्ता, पाईणपडीणाओ, सेसं जहा हेद्विमगे विज्जगाणं, नवरं एगे विमाणावाससए हवंतीति मक्खायं,सेसं तहेव भाणियव्वं जाव अहमिंदा नामं ते देवगणा पण्णत्ता, समणाउसो ! " एक्कारसुत्तरं हे-ट्ठिमए सत्तुत्तरं च मज्झिमए। सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा॥१॥" कहिणं भंते ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उद्धं चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूइं जोयणसयसहस्साई बहुगाओ जोयणकोडीओ बहुगाओ जोयणकोडाकोडीओ उद्धं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलोगलंतगसुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणअच्चुयकप्पा तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेविजविमाणावाससए वीतीवइत्ता ते णं परं दूरंगता णीरया निम्मला वितिमिरा विसुद्धा पंचदिसिं पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाविमाणा पण्णत्ता / तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्ठसिद्धे / ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा घट्ठा मट्ठा जीरया निम्मला निप्पका नियंकडच्छाया सप्पभा ससिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, इत्थणं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति, सव्वे सममहिड्डिया सव्वे समबला सव्वे समाणुभावा महासोक्खा अजिंदा अप्पेस्सा अपुरोहिया अहमिंदा ते देवगणा पण्णत्ता, समणाउसो! कहि णं भंते ! सिद्धाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते ! सिद्धा परिवसंति ? गोयमा ! सव्वट्ठस्स महाविमाणस्स उवरिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालसजोयणे उट्ठे अवाहाए, इत्थ णं इसीपभारा नामं पुढवी पण्णत्ता। पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं, एगंजोयणकोडीओ बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं सहस्साइं दोन्नि य अउणापन्ने जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ता, इसीपब्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणिए खेत्ते अट्ठजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते, ततो अणंतरं च णं माताए 2 पएसपरिहाणी 2 परिहायमाणी 2 सव्वेसु चरिमंतेसु मच्छियपत्तातो तणुयरी अंगुलस्स संखेजइभागे बाहल्लेणं पण्णत्ता, इसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालसनामधेजा पण्णत्ता, इसीति वा इसीपब्भाराइ वा तणुयरीति वा तणुतणुयरीति वा सिद्धिति वा सिद्धालएति वा मुत्तीइ वा मुत्तालएइ वा लोयग्गेति वा लोयग्गथूभियाति या लोयपडिबुज्झणाइ वा सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहावइ वा इसीप-उभारा णं पुढवी सेता संखदलविमलसोत्थियमुणालदगरयतुसारगोखीरहारवन्ना उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सव्वअण्णसुवण्णमई अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठाणीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा ससिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, इसीपब्भाराए णं सीताए जोयणम्मि लोगंतो, तस्स णं जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे, एत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादिया अपज्जवसिया अणेगजातिजरामरणजोनिसंसारकलंकलीभावपुणब्भवगब्भवासवसही० एवं च समइकं ता सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति / तत्थ वि य ते
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________________ ठाण 1712 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण अवेदा अवेयणा निम्ममा असंगा य संसारविप्पमुक्का पदेसनिव्वत्तिसंठाणा। अत्र शिष्यः पृच्छन्नाहकहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्ठिया। कहिं बोंदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ? || 1 // " कहिं पडिहया सिद्धा' इत्यादि। कहिं ' इत्यत्र सप्तमी तृतीयार्थे, प्राकृतत्वात् / यथा " तिसु तिसु अलंकिया पुढवी " इत्यादि। ततोऽयमर्थः-केन प्रतिहताः केन वलिताः ? सिद्धाः मुक्ताः, तथा क्व कस्मिन् स्थाने, सिद्धाः, प्रतिष्ठिता अवस्थिताः तथा क्व कस्मिन् क्षेत्रे, बोन्दिस्तनुः शरीरमित्यनान्तर, तां त्यक्त्वा, क्व गत्वा सिद्ध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्ति ?" सिज्झइ" इत्यत्रानुस्वारलोपो द्रष्टव्यः, अथ चैकवचनोपन्यासोऽपि सूत्रशैल्या न विरोधभाक् / तथा चान्यत्राप्येवं प्रयोगः- " वत्थगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य / अच्छंदा जे न भुजति, न से चाइत्ति वुच्चइ // 1 // " इति। एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सूरिराहअलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया। इह बोंदि चइत्ता णं,तत्थ गंतूण सिज्झइ / / 2 / / '' अलोए पडिहया सिद्धा" इत्यादि / अत्रापि सप्तभी तृतीयार्थे / अलोकेन केवलाऽऽकाशास्तिकायरूपेण, प्रतिहताः स्खलिताः सिद्धा ; इह तत्र धर्मास्तिकायाऽऽद्यभावात्तदानन्तर्यावृत्तिरेव प्रतिस्खलन, न तु संबन्धे सति विघातः, अप्रतिघत्वात् , सप्रतिघानां हि संबन्धे सति विधातो, नान्येषामिति। तथा लोकस्य पञ्चास्तिकायाऽऽत्मकस्य, अग्रे मूर्द्धनि, प्रतिष्ठिता अपुरागत्या व्यवस्थिताः, इह मनुष्यलोके. बोन्दि तनु, त्यक्त्वा, तत्र लोकाग्रे, समयान्तरप्रदेशान्तरास्पर्शनेन गत्वा सिद्ध्यन्ति निष्ठितार्था भव-न्ति। संप्रति तत्र गतानां यत्संस्थानमानं तदभिधित्सुराहदीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हविज्ज संठाणं / तत्तो तिभागहीणा, सिद्धाणोगाहणा भणिया।। 3 / / " दीहं वा हस्सं वा " इत्यादि / दीर्घ वा पञ्चधनुःशतप्रमाण, ह्रस्वं वा हस्तद्वयप्रमाणं, वाशब्दामध्यमं वा विचित्रं,यचरमभवे पश्चिमभवे, भवेत् संस्थान, ततस्तस्मात्संस्थानात् , त्रिभागहीना वदनोदरादिरन्ध्रपूरणेन तृतीयेन भागेन हीना, सिद्धानामवगाहना, अवगाहन्ते अस्यामित्यवगाहना स्वावस्थैव, भणितातीर्थकरगणधरैरिति। अत्र गतस्य संस्थानप्रमाणापेक्षया त्रिभागहीन तत्र संस्थानमिति भावः। एतदेव स्पष्टतरमुपदर्शयतिजं संठाणं तु इह, भवं चयंतस्स चरमसमयम्मि। आसीय पदेसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स / / 4 / / "ज संठाणं तु इहं' इत्यादि। यत्संस्थानं यावत्प्रमाण संस्था-नम् , इह मनुष्यभवे आसीत् , तदेव, भवन्ति प्राणिनः कर्मवशवर्तिनोऽस्मिन्निति भवं शरीरं, त्यज्यतः परित्यजतः, काययोग परिजिहानस्येति भावः / चरमसमये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानबलेन वदनोदराऽऽदिरन्ध्रपूरणात्रिभागेन हीनं प्रदेशघनमासीत्(तं संठाणं तहिं तस्स ति) तदेव च प्रदेशघनं मूलप्रमाणापेक्षया त्रिभागहीनप्रमाण संस्थान, तत्र लोकाग्रे, तस्य सिद्धस्य, नान्यदिति। साम्प्रतमवगाहनामुत्कृष्टाऽऽदिभेदभिन्नामभिधित्सुराहतिन्नि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ नायव्वो। एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया।। 5 / / चत्तारि य रयणीओ, रयणि तिभागूणिया य बोधव्वा / एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिम ओगाहणा भणिया।।६।। एगा य होइ रयणी, अट्ठेव य अंगुलाइ सहियाई / एसा खलु सिद्धाणं, जहन्न ओगाहणा भणिया / / 7 / / त्रीणि शतानि, त्रयस्त्रिंशानि त्रयस्त्रिशदधिकानि, धनुविभागश्च भवति बोद्धव्यः / एषा खलु सिद्धानामुत्कृष्टावगाहना भणिता तीर्थकरगणधरैः, सा च पञ्चधनुःशततनुकानामवसेया। ननु मरुदेवा नाभिकुलकरपत्नी, नाभेश्व पञ्चविंशत्यधिकानि पञ्चधनुःशतानि शरीरप्रमाणं,यदेव च तस्य शरीरमानं तदेव मरुदेवा अपि, "संघयणं संठाणं, उत्तं चेव कुलगरेहि सम" इति वचनात्। मरुदेवा च भगवती सिद्धा, ततस्तस्या देहमानस्य त्रिभागे पातिते सिद्धावस्थायाः सार्धानि त्रीणि धनुःशतान्येवावगाहना प्राप्नोति, कथमुक्तप्रमाणा उत्कृष्टावगाहना घटते ? इति। नैष दोषः / मरुदेवायाः नाभेः किञ्चिदूनग्रमाणत्वात् , स्त्रियो हि उत्तमसंस्थाना उत्तमसं-स्थानेभ्यः पुरुषेभ्यः स्वस्वकालापेक्षया किश्चिदूनप्रमाणा भवन्ति। ततो मरुदेवाऽपि पञ्चधनुःशतप्रमाणेति न कश्चिद् दोषः। अपि चहस्तिस्कन्धाधिरूढा संकुचिताङ्गी सिद्धा। ततः शरीरसंकोचनभावानाधिकावगाहनासंभव इत्यविरोधः / आह च भाष्यकृत्-" कह मरुदेवामाण, नाभीतो जेण किंचिदूणा सा / तो किर पंच सय चिय, अहवा संकोचतो सिद्धा" / / 5 / / (3167 विशे०)" चत्तारिय रयणीओ " इत्यादि / चतस्रो रत्नयो, रत्निश्च त्रिभागोना च बोधव्या, एषा खलु सिद्धानामवगाहना भणिता मध्यमा। आह-जघन्यपदे सप्तहस्तोच्छितानामागमे सिद्धिरुक्ता, तत एषा जघन्या प्राप्नोति, कथं मध्यमा ? तदयुक्तम्। वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्। जघन्यपदे हि सप्तहस्तानां सिद्धिरुक्ता तीर्थकरापेक्षया, सामान्यकेवलिनांतुहीनप्रमाणानामपि भवति। इदमपि चावगाहनामानं चिन्त्यते सामान्यसिद्धापेक्षया, ततो न कश्चिद्दोषः / / 6 / / " एगा य होइ" इत्यादि / एका रत्निः परिपूर्णा अष्टौ चाङ्गुलान्यधिकानि, एषा भवति सिद्धानामवगाहना जघन्या। सा च कूर्मापुत्रा दीनां द्विहस्तानामवसेया। यदि वासप्तहस्तोच्छितानामपि यन्त्रपीलनाऽऽदिना संवर्तितशरीराणाम्। आह च भाष्यकृत्" जेट्टा उ पंचधणुसय, एवं मज्झाय सत्तहत्थस्स। देहत्तिभागहीणा, जहन्निया जा विहत्थस्स " // 3166 / / " सत्तूसिएसु सिद्धी, जहन्नतो कहमिहं विहत्थेसु? सा किर तित्थयरेसुं, सेसाणं सिज्झमाणाणं / / 3168 / / ते पुण होज्ज विहत्था, कुम्मापुत्तादओ जहन्नेण। अन्ने संवट्टियस-तहत्थसिद्धस्स हीण त्ति / / 3166 / / " (विशे०)॥७॥ साम्प्रतमुक्तानुवादेनैव लक्षणं सिद्धानामभिधित्सुराहओगाहणएिं सिद्धा, भवत्तिभागेण होइ परिहीणा।
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________________ ठाण 1713 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाण संठाणमणित्थंथं, जं जरामरणविमुक्काणं / / 8 / / "ओगाहणाएँ" इत्यादि सुगम, नवरम् (अणित्थंथमिति) इदप्रकारमापन्नमित्थम् / इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थः, न इत्थंस्थम्अनित्थंस्थं, वदनाऽऽदिशुषिरप्रतिपूरणेन पूर्वाऽऽकारान्यथात्वभावतोऽनियताऽऽकारमिति भावः / योऽपि च सिद्धाऽऽदिगुणेषु ''सिद्धे न दीहेनहस्से'' इत्यादिना दीर्घत्वाऽऽदीनां प्रतिषेधः सोऽपि पूर्वाऽऽकारापेक्षया संस्थानस्यानित्थंस्थत्वात्प्रतिपत्तव्यः, नपुनः सर्वथा संस्थानस्याभावतः। आह च भाष्यकृत"सुसिरपरिपूरणाओ, पुव्वागारउन्नहाववत्थातो। संढाणमणित्थथ, जे भणिय अणिययागारं / / 3172 / / एत्तो चिय पडिसेहो, सिद्धाइगुणेसु दीहयाऽऽईण। जमणित्थंथ पुव्वा-ऽऽगारावेक्खाएँ नाभावो / 3173 / / " (विशे०) // 8 // नन्वेते सिद्धाः परस्परं देशभेदेन व्यवस्थिताः, उत नेति ? नेति तद् ब्रूमः / कस्मादिति चेत् ? उच्यतेजत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अनंता भवक्खयविमुक्का। अन्नोन्नसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे वि लोयंते / / 6 || " जत्थ य" इत्यादि। यत्रैव देशे, चशब्दस्य एवकारार्थत्वात् , एकः सिद्धो निर्वृतः,तत्रानन्ता भवक्षयविमुक्ताः। अत्र भवक्षयग्रहणेन स्वेच्छया भवावतरणशक्तिमत्सिद्धव्यवच्छेदमाह / अन्योन्यसमवगाढाः, तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वाद्धर्मास्तिकायाऽऽदिवत्। तथा स्पृष्टा लग्नाः सर्वेऽपि लोकान्ते॥६॥ फुसइ अणंते सिद्धे, सव्वपएसेहिँ नियमसो सिद्धा। ते वि असंखेज्जगुणा, देसपदेसेहिँ जे पुट्ठा // 10 // " फुसइ' इत्यादि / स्पृशत्यनन्तान सिद्धान् सर्वप्रदेशैरात्मसंबन्धिभिर्नियमशः सिद्धः / तथा नेऽपि सिद्धाः सर्वप्रदेशस्पृष्टभ्योऽसंख्येयगुणा वर्तन्ते, ये देशप्रदेशः स्पृष्टाः / कथमितिचेत् ? उच्यतेइहकस्य सिद्धस्य यदवगाहनक्षेत्रं, तत्रैकस्मिन्नपि परिपूर्णेऽवगाढा अन्येऽप्यनन्ताः सिद्धाः प्राप्यन्ते / अपरे तु ये तस्य क्षेत्रस्य एकैकं प्रदेशमाक्रम्यावगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं द्वित्रिचतुष्पञ्चाऽऽप्रदेशवृझ्या येऽवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, तथा तस्य मूल क्षेत्रस्य एकैकं प्रदेशं परित्यज्य येऽवगादास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः / एवं च सति प्रदेशवृद्धिहानिभ्यां ये समवगाढाः, ते परिपूर्णैकक्षेत्रावगाढेभ्योऽसंख्येयगुणा भवन्ति, अवगाढप्रदेशानामसङ्ख्यातत्वात्। आह च भाष्यकृत्" एगक्खेत्तेऽणंता, पएसपरिखुड्डिहाणिओ तत्तो। हुति असंखेनगुणा-ऽसंखपएसो जमवगाहो" || 3180 / / (विशे०) / / 10 // सम्प्रति सिद्धानेव लक्षणतः प्रतिपादयतिअसरीरा जीवधणा, उवउत्तादंसणे य नाणे य / सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिद्धाणं / / 11 // " असरीरा" इत्यादि। अविद्यमानशरीरा अशरीराः : औदा-रिकाऽऽदिपशाविधशरीररहिता इत्यर्थः / जीवाश्च ते घनाश्च वदनोद राऽऽदिशुषिरपूरणाद् जीवघनाः, उपयुक्ता दर्शनेकेवलदर्शन, ज्ञाने चकेवलज्ञाने। यद्यपि सिद्धत्वप्रादुर्भावसमये केवलज्ञानमिति ज्ञानं प्रधान, तथाऽपि सामान्यसिद्धलक्षणमेतदिति ज्ञापनार्थमादौ सामान्याऽऽलम्बनं दर्शनमुक्तम् / तथा च सामान्यविषयं दर्शनं, विशेषविषयं ज्ञानमिति। ततः साकारानाकारं, सामान्यविशेषोपयोगरूपमित्यर्थः / सूत्रे मकारोऽलाक्षणिकः / लक्षणंतदन्यव्यावृत्तिस्वरूपम् , एतत् अनन्तरोक्तं, तुशब्दो वक्ष्यमाणनिरुपमसुखविशेषणार्थः, सिद्धानां निष्ठितार्थानामिति / / 11 / / सम्प्रति केवलज्ञानदर्शनयोरशेषविषयतामुपदर्शयतिकेवलणाणुवउत्ता, जाणंती सव्वभावगुणभावे। पासंति सव्वओ खलु, केवलदिट्ठीहिऽणंताहिं / / 12 // " केवलणाणुवउत्ता' इत्यादि / केवलज्ञानेनोपयुक्ताः, न त्वन्तःकरणेन, तदभावादिति केवलज्ञानोपयुक्ताः, जानन्त्यवगच्छ-न्ति, सर्वभावगुणभावान् सर्वपदार्थगुणपर्यायान् / प्रथमो भावशब्द: पदार्थवचनः, द्वितीयः पर्यायवचनः / गुणपर्याययोस्त्वयं विशेषः-सह वर्तिनी गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्याया इति। तथा पश्यन्ति सर्वतः खलु, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् सर्वत एव, केवलदृष्टिभिरनन्ताभिः, अनन्तैः केवलदर्शनरित्यर्थः / केवलदर्शनानां चानन्तता सिद्धानामनन्तत्वात् , इहाऽऽदौ ज्ञानग्रहणं प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिद्ध्यन्तीति ज्ञापनार्थम् // 12 // सम्प्रति निरुपमसुखभाजस्ते इति दर्शयतिन वि अत्थि माणुसाणं, तं सोक्खं नत्थि सव्वदेवाणं। जं सिद्धाणं सुक्खं, अव्वावाहं उवगयाणं / / 13 // "न वि अस्थि" इत्यादि। नैव अस्ति मनुष्याणां चक्रवादीनामपि, तत्सौख्य, नैव सर्वदेवानामनुत्तरपर्याप्तानामपि, यत् सिद्धानां सौख्यम्, अव्यावाधामुपगतानां, न विविधा आबाधा अव्याबाधा, ताम् , उप सामीप्येन गताना प्राप्तानाम् // 13 // यथा नास्ति तथा भङ्गया उपदर्शयतिसुरगणसुहं समत्तं, सव्वद्धापिंडियं अणंतगुणं / न वि पावइ मुत्तिसुहं-ऽणंताहिँवि वग्ग वग्गूहिं / / 14|| " सुरगणसुहं " इत्यादि / सुरगणसुखं देवसघातसुखं, समस्त सम्पूर्णम् , अतीतानागतवर्तमानकालोद्भवमित्यर्थः / पुनः सर्वाद्धापिण्डितं सर्वकालसमयगुणितम् , तथाऽनन्तगुणमिति, तदेवं प्रमाण किलासत्कल्पनया एकैकाऽऽकाशप्रदेशे स्थाप्यते, इत्येवं सकलाssकाशप्रदेशपूरणेन यद्यप्यनन्तं भवति, तदनन्तरमप्यनन्तैर्वर्गर्गितम् , तथाऽप्येयं प्रकर्षगतमपि मुक्तिसुखं सिद्धिसुखं, न प्राप्नोति॥१४ / / एतदेव स्पष्टतरं भङ्गयन्तरेणा प्रतिपादयतिसिद्धस्स सुहोरासी, सव्वद्धापिंडिए जइ हविज्जा। सोऽणंतवग्गभइओ, सव्यागासे ण माइज्जा / / 15 / / ' सिद्धस्स सुहोरासी" इत्यादि / सुखाना राशिः सुखराशिः सुखसजातः सिद्धस्य सुखराशिः सिद्धसुखराशिः, सर्वाद्धापिण्डितः सर्वया साद्यपर्यवसितया अद्धया, यत्सुख, सिद्धः प्रतिसमयमनुभवति, तदेकत्र पिण्डीकृतमिति भावः / सोऽनन्तवर्गभक्तोऽनन्तैर्वर्गमूले रपवर्तितः, अनन्तर्वगमूलै स्तावदपवर्तितो यावत्सर्वाद्धालक्षणेन गुणकारेण गुणने यदधिकं जातं, तस्य सर्वस्या
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________________ ठाण 1714 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-१ ठाण पवर्तनः सिद्धत्वाद्यः समयभाविसुखमात्रता प्राप्त इति भावः / सर्वाकाशे नमाति-एतावन्मात्रेऽपि सर्वाकाशेन माति, सर्वस्तु दूरापारतप्रसर एवेति ज्ञापनार्थ पिण्डयित्वा पुनरपवर्तनसुखराशेः / इय-मत्र भावना-इह किल विशिष्टाऽऽहादरूपं सुखं परिगृह्यते, ततश्च यत आरभ्य शिष्टानां सुखशब्दप्रवृत्तिः, तमालादमधिकृत्य एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावदसावागादो विशिष्यते, यावदनन्तगुणवृद्ध्या निरतिशयनिष्ठामुपगतः, सोऽयमत्यन्तोपमाऽतीतैकान्तौत्सुक्यविनिवृत्तिरूपस्तिमिततमकल्पश्चरमाऽऽहादः सदा सिद्धानां यस्माचारतः प्रथमाचोर्द्धवमपान्तरालवर्तिनी ये गुणास्तारतम्येनाऽऽह्लादविशेषरूपाः, ते सर्वाऽऽकाशप्रदेशेभ्योऽप्यतिभूयांसः / ततः किलोक्तम्-"सव्वाऽऽगासे न माएजा" इति / अन्यथा यत्सर्वाऽऽकाशे न माति, तत्कथमेकस्मिन् सिद्धे भावात् ? इति पूर्वसूरिसम्प्रदायः // 15 // साम्प्रतमस्य निरुपमता प्रतिपादयतिजह नाम कोइ मिच्छो, नगरगुणं बहु विजाणंतो। ण चणइ * परिकहेउं, उवमाए तहिँअसंतीए॥ 16 / / "जह नाम " इत्यादि / यथा नाम कश्चिम्लेच्छो नगरगुणान् गृहनिवासाऽऽदीन् , बहुविधान् अनेकप्रकारान् , विजानन् , अरण्याऽऽगतः सन् अन्यम्लेच्छेभ्यो न शक्नोति परिकथयितुम्। कस्माद्न शक्नोति ? इत्यत आह-उपमायां तत्रासत्याम।" निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्।" इतिन्यायाद् हेतौ सप्तमातत्र उपमाया अभावादिति द्रष्टव्यम्। एष गाथाऽक्षरा-र्थः / / भावार्थः कथानकादवसेयः / तचेदम्-" एगो महारण्णवासी मिच्छोऽरणे चिटुति / इतो य एगो राया आसेण अवहरितो तं अडवि पवेसितो। तेण दिट्ठो सकारेऊण जणवयं नीतो। रन्ना विसो नगरे पच्छा उवगारित्ति गाढम्पचरितो-जहा राया चिट्ठइ धवल-घराइभोगेण वि. वासाकालेणऽरणं सरिउमारझो, रन्ना विसजिओ, ततोऽरण्णगा पुच्छंति-केरिसंनयरं ति? सो वियाणतो वितत्थो-वमाऽभावान सक्केइ नयरगुणे परिकहेउ। एस दिहतो || 16 // अयमर्थोपनयःइय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवम नत्थि तस्स ओवम्म। किंचि विसेसेणित्तो, सारिक्खमिणं सुणह योच्छं / / 17 / / " इय सिद्धाणं " इत्यादि / इति एयं, सिद्धानां सौख्यमनुपम वर्त्तते। किमिति? तत आह-यतो नास्ति तस्यौपम्यं, तथापि बालजनप्रतिपत्तये किशिद्विशेषेण, " इत्तो " इति / आर्षत्वादस्येत्यर्थः / सादृश्यमिदं वक्ष्यमाणं, शृणुत / / 17 / / जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई। तण्हाछुहाविमुक्को, अत्थिज जहा अमियतित्तो / / 18|| " जहा सव्य " इत्यादि / यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः / भुज्यते इति भोजनं, सर्वकामगुणितं सकलसौन्दर्यसंस्कृतं, कोऽपि पुरुषो, भुक्त्वा, क्षुड्विमुक्तः सन् , यथा अमृततृप्तः, तथा तिष्ठति // 18 // इय सव्वकालतित्ता, अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता / / 16 / / " इय'' इत्यादि। इति एवं, निर्वाणं मोक्षमुपगताः सिद्धाः, सर्व-काल * शकेश्चय तर-तीर-पाराः // 8| 4 | 86 // शक्नोतेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति।" चयइ "त्यजतेरपि' चयइ। साद्यपर्यवसितंकाल, तृप्ताः सर्वथौत्सुक्यविनिवृत्तिभावतः परमसन्तोषमधिगताः, अतुलमनन्यसदृशम, उपमातीतत्वात:शाश्यत प्रतिपाताभावात् ; अव्याबाधं लेशतोऽपि व्याबाधाया असम्भवात् सुखं प्राप्ताः, अत एव सुखिनस्तिष्ठन्ति॥ 16 / / एतदेव सविशेषतरं भावयतिसिद्ध त्तिय बुद्ध त्ति य, पारगत त्तिय परंपरगत त्ति। उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य // 20 // "सिद्ध त्तिय" इत्यादि। सित बद्धमष्टप्रकार कर्म,ध्मातंभ-स्मीकृतं, यैस्ते सिद्धाः।" पृषोदराऽऽदयः " // 3 / 2 / 155 / / (हेम०) इति रूपनिष्पत्तिः, निर्दग्धानेकभवकर्मेन्धना इत्यर्थः / ते च सामान्यतः कर्माऽऽदिसिद्धा अपि भवन्ति / यत उक्तम्-"कम्मे सिप्पे य विजाए, मंते जोगे य आगमे। अस्थ-जत्ता-अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय // 361 / / (आव०नि०) (3028 विशे०) ततः कर्माऽऽदिसिद्धाध्यपोहायाऽऽह-(बुद्ध त्ति) अज्ञाननिद्राप्रसुप्ते जगति अपरोपदेशेन जीवाऽऽदिरूपं तत्त्वंबद्धवन्तो बुद्धाः, सर्वज्ञ-सर्वदर्शिस्वभावबोधरूपा इति भावः / एतेऽपि च संसारनिर्वाणोभय-परित्यागेन स्थितवन्तः कैश्विदिष्यन्ते,"संसारे न च निर्वाण, स्थितो भुवनभूतये / अचिन्त्यः सर्वलोकानां : चिन्तारत्नाधिको महान् " // 1 // इतिवचनात्। ततस्तन्निरासार्थमाहपारगताः-पारंपर्यन्तं संसारस्य,प्रयोजनवातस्य वा, गताः पारगताः। तथा भव्यत्वाऽऽक्षिप्तसकलप्रयोजनसमाप्त्या निरवशेषकर्तव्यशक्तिविप्रमुक्ता इति भावः / इत्थंभूता अपि कैश्चित् यदृच्छावादिभिरक्रमसिद्धत्वेनापि गीयन्ते / तथोक्तम्-" नैकादिसख्याक्रमतो, वित्तप्राप्तिनियोगतः / दरिद्रराज्याऽऽप्तिसमा, तद्वन्मुक्तिः क्वचिन्न कि-म् ? // 1 // " ततस्तन्मतव्यपोहायाऽऽहपरम्परागता इति / परम्परया ज्ञानदर्शनचारित्ररूपया, मिथ्यादृष्टिसासादनसभ्यगमिथ्यादृष्ट्यविरतिसम्यग्दृष्टियविरतिसम्यग्दृष्टिदेशविरतिप्रमत्तनिवृत्त्यनिवृत्तिबादरसम्परायसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवल्ययोगिकेवलिगुणस्थानभेदभिन्नया, गताः / एते च कैश्चित्तत्त्वतोऽनुन्मुक्तकर्मकवचा अभ्युपगम्यन्ते,तीर्थनिकारदर्शनादिहाऽऽगच्छन्तीति वचनतः पुनः संसारावतरणाभ्युपगमादतस्तन्मतापाकरणार्थमाह-उन्मुक्तकर्मकवचाः-उत्प्राबल्येनापुनर्भवरूपतया मुक्तं परित्यक्तं कर्म कवचमिव कर्मकवचं यैस्ते उन्मुक्तकर्मकचाः / अत एव अजराः शरीराभावतो जरसोऽभावात् , अमरा अशरीरत्वादेव प्राणत्यागासम्भवात् / उक्तं च"वयसो हाणीह जरा, पाणचाओ य मरणमादिट्ट / सह देहम्मि तदुभयं, तदभावे नेव करसेव॥१॥" असङ्गाःबाह्याभ्यन्तरसङ्गरहितत्वात्।।२०।। णित्थिन्नसव्वदुक्खा, जातिजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहोंती सासयं सिद्धा।।२१।। "नित्थिन्न " इत्यादि। निस्तीर्ण लडितं सर्व दुःखं यैस्ते निस्तीर्णसर्वदुःखाः / कुतः ? इत्याह-(जातिजरामरणबंधणविमुक्का) जातिर्जन्म, जरा वयोहानिलक्षणा, मरण प्राणत्यागरूपं, बन्धनानि तन्निबन्धरूपाणि कर्माणि, तैर्विशेषतो निःशेषांपगमनेन मुक्ता जातिजरामरणबन्धनविमुक्ताः / हेतावियं प्रथमा / यतो जरामरणबन्धनविमुतास्ततो निस्तीर्णसर्वदुःखाः, कारणाभावात्। ततोऽऽयाबाधं सौख्यंशाश्वत सिद्धा अनुभवन्ति / / 21 / / प्रज्ञा० 2 पद / जी० / एतदर्थप्रतिपादके प्रज्ञापनाया द्वितीये पदे, प्रज्ञा०१ पद ! जी० / तिष्ठति अनवस्थाननिबन्धनर्माभावेन सदाऽवस्थितोभवति यत्रतत्स्थानमाक्षीणकर्मणोजीवस्यस्व
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________________ ठाण 1715 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाणंतर m रूपे, लोकाग्रे वा / भ०१श० 1 उ०। औ० / सं० / तिष्ठन्ति सक- समन्विताः, तेच वैताढ्याऽऽदयः। तथा यत् कूटमुपरि कुरुजाग्रवत् कुब्ज लकर्मक्षयावाप्तानन्तज्ञानसुखरूपाध्यासिताः शुद्धात्मानोऽस्मिन्निति तत्प्राग्भारम् / यद्वा-यत् पर्वतस्य उपरि हस्तिकुम्भाऽऽकृति कुब्जं स्थानम् / सम्म० 2 काण्ड / व्यवहारतः सिद्धिक्षेत्रे, निश्चयतो विनिर्गतं, तत्प्राग्भारम् / कुण्डानि गङ्गाकुण्डाऽऽदीनि, गुहायथाऽवस्थितस्वरूपे, स्थानस्थानिनोरभेदापचारात् सिद्धिगति- स्तमिस्रागुहाऽऽदयः, आकरा रूप्यसुवर्णाऽऽद्युत्पत्तिस्थानानि, हृदाः नामधेये, जी० 3 प्रति० / प्रदेशे, पा० / उत्त० / तिष्ठन्ति मुमुक्षवो येषु पौण्डरीकाऽऽदयः, नद्योगङ्गासिन्ध्वादयः, आख्यायन्ते। तथा स्थानेन। तानि स्थानानि / महाव्रतेषु, पश्चा० 12 विव० / आ० म० / अथवा-स्थाने, णमिति वाक्यालङ्कारो एकाघेको त्तरिकया वृद्ध्या स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानम्। दुर्गतिगमनाऽऽदिके, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। दशस्थानं यावद् विवर्द्धितनां भावानां प्ररूपणा आख्यायते / किमुक्तं अवगाहनायाम् , आ० म०२ अ० / तिष्ठन्ति साधवोऽत्रेति स्थानम्। भवति ? -एकसंख्यायां द्विसंख्यायां यावद्दश-संख्यायां ये ये भावा वसतौ, बृ०२ उ० / तिष्ठन्त्यस्मिन् कर्माणि प्रायश्चित्ताऽऽचरणत इति यथाऽन्तर्भवन्ति, तथा ते ते प्ररूप्यन्ते इत्यर्थः / यथा ' एगे आया ' स्थानम् / पाराञ्चिते, जी०१ प्रति० / तिष्ठन्त्यस्मिन्प्रतिपाद्यतया इत्यादि, तथा "ज इत्थं च णं लोगे तं सव्यं दुप्पडियारं जीवा चेव जीवाऽऽदय इति स्थानम्। स्थानाङ्गाऽऽख्ये प्रव-चनपुरुषस्य तृतीयेऽङ्गे, अजीवा चेव " इत्यादि। " ठाणस्स णं परित्ता वायणा' इत्यादि सर्व स० 2 अङ्ग / समुदाये, कर्म०५ कर्म०। प्राग्वत्परिभावनीयम्। पदपरिमाणं च पूर्वस्मादङ्गादुत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन्नने ठाणंग-न (स्थानाङ्ग) तिष्ठन्ति प्रतिपाद्यतया जीवाऽऽदयः पदार्था द्विगुणमवसेयं, शेष पाठसिद्धं यावन्निगमनम्। नं० / निपुणबुद्ध्या अस्मिन्निति स्थानम् / नं० / स० / तिष्ठति आसने वसन्ति यथावदा- दिगुणगणमाणिक्यरोहणधरणीकल्पेन भाण्डागारनियुक्तेनेव गणधरेण भिधेयलयकत्वाऽऽदिविशेषिता आत्माऽऽदयः पदार्था यस्मिन् पूर्वकाले चतुर्वर्णश्रीश्रमणसङ्घभट्टारकस्य तत्सन्तानस्य चोपकाराय तत्स्थानम् / अथवा-स्थानशब्देनेहेकाऽऽदिकः सङ्ख्याभेदोऽभिधीयते, निरूपतिस्य विविधार्थरत्नसारस्य देवताऽधिष्ठितस्य विद्याक्रियाबलततश्चाऽऽत्माऽऽदिपदार्थगतानामेकाऽऽदिदशान्तानां स्थानानामभि वताऽपि पूर्वपुरुषेण केनापि कुतोऽपि कारणादनुन्मुद्रितस्यात एव च धायकत्वेन आचाराभिधायकत्वादाचारवदिति स्थानं, तच्च प्रवचनपु- केषाशिदनर्थभीरूणां मनोरथगोचरातिक्रान्तस्य महानिधानस्येव रुषस्य क्षायोपशमिकभावरूपस्याङ्गमिवाङ्गं वेति समुदायार्थः / स्था० स्थानाङ्गस्य तथाविधविद्याऽऽदिबलविकलैरपि केवल धार्श्वप्रधानैः 10 ठा०। प्रवचनपुरुषस्य तृतीयेऽङ्गे, स०१ अङ्ग। स्वपरोपकारार्थविनियोजनाभिलाषिभिरत एव चाविगणितस्वयोग्यतैसे किं तं ठाणे ? ठाणेणं जीवा ठाविजंति, अजीवा ठाविजंति, निपुणपूर्वपुरुषप्रयोगानुपसृत्य किञ्चित् स्वमत्योत्प्रेक्ष्य तथाविधजीवाजीवा ठाविजंति, ससमए ठाविञ्जइ, परसमए ठाविजइ, वर्तमानजनानापृच्छ्य च तदुपायान् द्यूताऽऽदिमहाव्यसनोपेतैरिवाससमयपरसमए ठाविज्जइ, लोए ठाविज्जइ, अलोए ठाविज्जइ, स्माभिरुन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यत इति शास्त्रप्रस्तावना / तस्य लोयालोए ठाविजइ। ठाणेणं टंका कूडा सेला सिहरिणो पन्भारा चानुयोगस्य फलाऽऽदिद्वारनिरूपणतः प्रवृत्तिः / यत उक्तम्- "तस्स कुंढाइं गुहाओ आगरा दहा नईओ आघविजंति / ठाणेणं एगा फलजोगमंगल-समुदायत्था तहेव दाराई। तब्भेयनिरुत्तिक्कमपयो यणाई इयाए एगुत्तरियाए बुड्ढीए दसठाणगविवड्ढयाणं भावाणं परूवणा च वचाई" // 1 // इति / तत्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तये फलमवश्यं वाच्यम्। आघविजइ। ठाणस्सणं परित्ता वायणा संखिजा अणुओगदारा अन्यथा हि निष्प्रयोजनत्वमस्याऽऽशङ्कमानाः श्रोतारः कण्टकशाखासंखिज्जा वेढा संखिज्जा सिलोगा संखिज्जाओ निजत्तीओ संखि मर्दन इव न प्रवर्तेरन्निति। तचानन्तरपरम्परभेदाद् द्विधा / तत्रानन्तरमजाओ संगहणीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्ठयाए विगमः, तत्पूर्वकानुष्ठानतश्चापवर्गप्राप्तिर्या सा परम्परप्रयोजनमिति / तइए अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा एगवीसं उद्देसणकाला तथा योगः सम्बन्धः / स च यदि उपायोपेयभावलक्षणो, यदुतानुयोग एगवीसं समुद्देसणकाला वावत्तरिपयसहस्सा पयगे णं संखिज्जा उपायः, अर्थावगमाऽऽदि चोपेयमिति, तदा सप्रयोजनाभिधानादेवाअक्खरा अणंतागमा अणंता पज्जवा परित्तातसा अणंता थावरा भिहित इत्यवसरलक्षणः सम्बन्धोऽस्य वाच्यः / कोऽस्य दाने सासयकडनिबंधनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्जंति, संबन्धोऽवसर इति, भावयोग्यो वा दाने अस्य क इति? तत्र भव्यस्य पन्नविजंति, परूविजंति, दंसिजंति, निंदसिजंति, उवदंसि मोक्षमार्गाभिलाषिणः स्थितगुरूपदेशस्य प्राणिनोऽष्टवर्षप्रमाणप्रव्रज्याअंति, से एवं आया एवं नाया एवं विण्णाया एवं चरणकरण-परू पर्यायस्यैव सूत्रतोऽपि स्थानाङ्गं देयमिति / अयमवसरो, योग्योऽपि वणा आघविजइ, से तं ठाणे। चायमेवेति। " से किंत " इत्यादि / अथ किं तत् स्थानम् ? तिष्ठन्ति प्रति यथोक्तम्पाद्यतया जीवाऽऽदयः पदार्था अस्मिन् इति स्थानम् / तथा चाऽऽह "तिवरिसपरियागस्स उ, आयारपकप्पणाममज्झयणं / सूरिः- " ठाणेण " इत्यादि / स्थानेन, स्थाने वा, णमिति वा- चउवरिसस्स य सम्म, सूयगड नाम अंग ति।।१।। क्यालङ्कारे, जीवाः स्थाप्यन्ते यथाऽवस्थितस्वरूपप्ररूपणया व्य- दसकप्पव्ववहारा, संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव। वस्थाप्यन्ते, शेष प्रायो निगदसिद्धं, नवरं (टंक त्ति) छिन्नतट टङ्कम् , ठाणं समवाओ वि य, अंगे ते अट्ठवासस्स॥२॥" इति। कूटानि पर्वतस्योपरि / यथा-वैताढयस्योपरि सिद्धाऽऽयतन- अन्यथा दानेऽस्याऽऽज्ञाभङ्गाऽऽदयो दोषा इति / स्था० 1 ठा०। कूटाऽऽदीनि नव कूटानि, शैला हिमवदादयः, शिखरिणः शिखरेण | ठाणंतर-न०(स्थानान्तर) स्वस्थानात्परस्थाने, ध०२ अधि०।
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________________ ठाणकप्प 1716 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठाणठिय ठाणकप्प-पुं०(स्थानकल्प) कल्पभेदे, ' अधुणा तु ठाणकप्पो, | उट्ठाणादिओ मुणेयव्यो / ठितकप्पसंजतस्स वि, आणुण्णओ अहितस्सेव // 1 // " पं० भा० ! पं० चू०। ठाणगुण-पुं०(स्थानगुण) स्थान स्थितिर्गुणः कार्य यस्य स स्थानगुणः। स्था० 5 ठा० 2 उ० / जीवपुद्गलानां स्थितिपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भहेतौ गुणतोऽधर्मास्तिकाये, भ० 1 श० 1 उ०। ठाणचंचल-पुं०(स्थानचञ्चल) चञ्चलशब्दोक्तार्थक चञ्चलभेदे, बृ० 1 उ०। ठाणठवणा-स्वी०(स्थानस्थापना) उचितस्थानन्यासे, पञ्चा०८ विव०। ठाणठाइ(ण)-पुं०(स्थानस्थायिन् ) उचितस्थानस्थातरि, बृ० 1 उ० / नि० चू०। ठाणठिइ-रत्री०(स्थानस्थिति) विहारान्तरं वसतिप्रवेशात्प्राङ्मध्ये स्थिती, ओघ०। (एतद्वक्तव्यता च' मासकप्पविहार 'शब्दे वक्ष्यते) ठाणठिय-त्रि०(स्थानस्थित) उत्तरोत्तरविशिष्टसंयमस्थानाध्या-सिनि, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१उ०। षष्ठे द्वारे स्थानस्थितो भवतीदमुक्तं, स च एभिः कारणैःअसिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए णइट्ठाणे। फिडिएँ गिलाणे कालगऐं, वासे ठाणढिओ होइ।। 177 / / अशिये देवताजनितोपद्रवे सति तस्मिन् यत्रभिप्रेतं गमनं कदाचिदपान्तराले भवति, ततश्चानेन कारणेन स्थानस्थितो भवति / (ओमोयरिए त्ति) दुर्भिक्षे विवक्षिते देशे जाते अपान्तराले वा, ततश्च स्थानस्थितो भवति / (रायदुट्टि ति) राजद्विष्ट कदाचित्तत्र भवत्यभिप्रेतदेशे, अपान्तराले वा, तेन च कारणेन स्थानस्थितो भवति / स्तेनाऽऽदिभयं विवक्षिते देशे, अपान्तराले वा, ततस्तेन कार-णेन स्थानस्थितो भवति। (नइ त्ति) कदाचिन्नदी विवक्षिते देशे अपान्तराले वा भवति, तेन प्रतिबन्धेन स्थानस्थितो भवति / (फिडिय त्ति) कदाचिदासावाचार्यस्तस्मात् क्षेत्रात् च्युतोऽपगतो भवति, ततश्च तावदास्ते यावद्वार्ता लभ्यते, अनेन कारणेन स्थान-स्थितो भवति। (गिलाणे ति) ग्लानः कदाचिदसावाचार्यो भवति, तेन प्रतिबन्धेन स्थानस्थितो भवति। (कालगए त्ति) कदाचिदसावाचार्यः कालगतो मृतो भवति तथाच यावत्तन्निश्चयो भवति तावत् स्थानस्थितो भवति। (वासे त्ति) वर्षाकालः संजातस्ततस्तत्प्रति-बन्धात् स्थानस्थितो भवति, तत्रैव ग्रामादावास्ते। इयं द्वार- गाथा / / 177 // इदानीं नियुक्तिकार एव तानि विहाराणि व्याख्यानयन्नाहतत्थेव अंतरावा, असिवाऽऽदी सोउ परिरयस्सऽसति। संचिट्ठे जाव सिवं, अहवा वी ते तओ फिडिया।। 178 / / (तत्थ त्ति) तत्र योऽसौ विवक्षितो देशः, तत्रैव (अंतरा) अन्तराले वा, अशिवाऽऽदयो जाता इति श्रुत्वा आकर्ण्य / आदिग्रहणात् अवमौदरिकराजद्विष्टभयानि परिगृह्यन्ते / (परिरयस्सऽसइ ति) 'भमाडयस्स ' असति अभावे तिष्ठति। एतदुक्तं भवति-यदि गन्तुं शक्नोति श्रमणः ततोऽपान्तरालं परिहृत्याभिलषितस्थानं गच्छति, अथन शक्यते गन्तुं ततः (संचिट्टे त्ति) संतिष्ठेत। कियन्तं कालं यावत् ?अत आह(जाव सियं) यावत् शिवं निरुपद्रवं यातमिति / (अहवा वी ते ततो फिडिया) अथवा ते आचार्याऽऽदयस्तस्मात् क्षेत्रादपगता भ्रष्टा इति, ततश्च वार्तापलम्भं यावत् तिष्ठति।।१७८ // इदानीं भाष्यकृत शेषद्वाराणि व्याख्यानयन्नाहपुन्ना च नई चउमा-सवाहिणी वियन कोइ उत्तारे। तत्थंतरालदेसे, उट्ठिउण वि लब्भइ पवित्ती।। 176 / / पूर्णा भृता, का? नदी, किंविशिष्टा? चतुर्मासवाहिनी, नच कश्चिदुत्तारयति, ततोऽपान्तराले एव तिष्ठति / तत्र, अन्तराले वा देशे, उत्थित उद्धमितः, न च प्रवृत्तिर्वार्ता लभ्यते, अतस्तिष्ठति तावत्।। 176 / / फिडिएसु जा पवत्ती, सयं गिलाणो परं व पडियरइ। कालगय त्ति पवित्ती, ससंकिए जाव निस्संकं / / 180 // (फिडिएसु) तस्मात् क्षेत्रादपगतेषु सत्सु (जा पवत्ती) यावद्वार्ता भवति, तावत्तिष्ठति। तथा-(सयं गिलाणो) स्वयमेवग्लानो जातः, ततस्तिष्ठति। (परं व पडियरइ) अन्य वा ग्लानं सन्तं प्रतिचरति (कालगय त्ति पवित्ती) अथवा-कालगतास्ते आचार्याः, इति एवम्भूता, प्रवृत्तिः श्रुताः, ततः (ससंकिते जाव निस्संकं) सशङ्कायां वार्तायामनिश्चितायां तावदास्ते, यावन्निःशवं संजातमिति / / 180 / / वासासु उब्मिन्ना, वीयाऽऽई तेण अंतरा चिहे। तेगिच्छि भोगि सार-क्खणहढे य ठाणमिच्छति / / 181 // वर्षासूभिन्ना बीजाऽऽदयः, आदिशब्दादनन्तकायः, तेन कारणेन अन्तराल एव तिष्ठति / मन्दश्च (तेगिच्छि त्ति) चिकित्सकं, तथा (भोइ त्ति) भोगिकं ग्रामस्वामिनं पृच्छति। किमर्थ पुनः वैद्यभोगिकयोः पृच्छनं करोतीत्यत आह-(सारक्खणहढे) वैद्यं पृच्छति मन्दतायां सत्यां (हढे त्ति) दृढीकरणार्थम् , भोगिकं पृच्छति संरक्षणार्थ परिभवाऽऽदेः, ततः स्थानं च वसनमिच्छन्ति केचित्॥१८१॥ तत आहसंविग्गसन्निभद्दग-अहप्पहाणेसु भोइयघरे वा। ठवणा आयरियस्सा, सामायारी पउंजणया।। 182 / / वैद्यभोगिकयोः कथयित्वा संविग्नेषु मोक्षाभिलाषिषु तिष्ठति, (सन्नि त्ति) संज्ञी श्रावकः, तद्गृहे तिष्ठति, भद्रकः साधूनां श्रद्धाकरः, तद्गृहे तिष्ठति, तद्गृहे निवासं करोति। (अहप्पहाणेसु त्ति) यथाप्रधानेष्वितियो यत्र ग्रामाऽऽदौ प्रधानः प्रथितस्तेषु यथा-प्रधानेष्विति / एतेषामभावे (भोइयघरेवत्ति) भोगिकगृहे या ग्रामस्वामिगृहे या तिष्ठति। तत्र च तिष्ठन् किं करोतीति? अत आह-(ठवणा आयरियरसा) दण्डकाऽऽदिमाचार्य कल्पयति निराबाधे प्रदेशे; अयमाचार्य इति तस्य चाग्रतः सकलां चक्रबालसामाचारी प्रयुड्क्ते, निवेद्य करोतीत्यर्थः // 182 // एतच कारणिकद्वारम्एवं ता कारणिओ, दूइज्ज जुत्तो अप्पमाएणं। निक्कारणिओ एत्तो, चइओ आहिंडओ चेव / / 183 / / एवं तावत्कारणिक :, (दू इजा त्ति) विहरति / कथं विहरति ? (जुत्तो अप्पमाएणं) अप्रमादेन युक्तः प्रयत्नपर
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________________ ठाणठिय 1717 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ ठि तत इत्यर्थः / निष्कारणिकोऽतऊर्द्धमुच्यते, न द्विविधः (चइओ) त्याजितः विषयो ' वसहि ' शब्दे वक्ष्यते) सारणवारणाऽऽदिभिस्त्याजितः; आहिण्डकः-अगीतार्थश्चकस्तूपाऽs - ठाणाइगा-स्त्री०(स्थानायतिका) ऊर्ध्वस्थायाम् , बृ० / नो कल्पते दिदर्शनप्रवृत्तः / / 183 // निर्गन्थ्याः स्थानायतयो भवितुं स्थानायतं नामोर्द्धस्थानरुपमायतं तत तावत् त्याजित उच्यते स्थानं, तद्यस्मामस्ति सा स्थानायतिका / बृ०५ उ०। जह सागरम्मि मीणा, संखोभं सागरस्स असहंता। *स्थानादिगा-स्त्री. ऊर्ध्वस्थायाम् , केचित्तु ' ठाणाइगा ' इति णिति तओ सुहकामी, निग्गयमेत्ता विणस्संति / / 154 / / / पठन्ति / तत्रायमर्थः-सर्वेषां निषदनाऽऽदीनां स्थानानामादिभूतयथा सागरे समुद्रे, मीना मत्स्याः , संक्षोभं सागरस्य असहमानाः, मूर्द्धस्थानमतः स्थानानामादौ गच्छतीति स्थानाऽऽदिगं तदुच्यते, निर्गच्छन्ति, ततः समुद्रात् , सुखकामिनः सुखाभिलाषिणः, नि तद्योगादार्यिकाऽपि स्थानाऽऽदिगेति ध्यपदिश्यते / बृ०५ उ०। (एतच्च' गतमात्राश्च विनश्यन्ति // 184 // आसन ' शब्दे द्वितीयभागे 470 पृष्ठे उक्तम् ) एवं गच्छसमुद्दे, सारणवीईहिँचाइया संता। ठाणाइय-पुं०(स्थानातिद) स्थानं कायोत्सर्गाऽऽदिकमतिशयेन ददाति प्रकरोति अतिगच्छति वेति। स्था०७ ठा० / भ०। कायोत्सर्गकारिणि, थिति तओ सुहकामी, मीणा व जहा विणस्संति।। 155 / / / धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् कायक्लेशभेदे च / स्था०७ ठा०। एवं गच्छसमुद्रे सारणवारणा एव वीचयः, ताभिस्त्याजिताः सन्तो *स्थानातिग-पुं० कायक्लेशभेदे, स्था० 7 ठा०। निर्गच्छन्ति, ततो गच्छात् , सुखाभिलाषिणो, मीना इव मीना यथा विनश्यन्ति / उक्त त्याजितद्वारम् / / 185 / ओघ०। (आहिण्डकस्तु' *स्थानायतिक-पुं० कायक्लेशभेदे, स्था०७ ठा०। आहिंडग' शब्दे द्वितीयभागे 527 पृष्ठ प्रतिपादितः) ठाणायय-न०(स्थानाऽऽयत) ऊर्ध्वस्थानरूपे आयतस्थाने, बृ०५ उ०। ठाणणिउत्त-त्रि०(स्थाननियुक्त) स्थाने पदे नियुक्तो व्यापारितः ठाणि(ण)-पुं०त्रि०(स्थानिन् ) स्थानानि विद्यन्ते येषां ते स्थानिनः / स्थाननियुक्तः / प्रवर्तक स्थविरगणावच्छेदकेषु, ग०१ अधि०। स्थानवत्सु, सूत्र०१ श्रु० 2 अ०। सामान्यसाधौ, ध०३ अधि०। ठाणुकुडुय-त्रि०(स्थानोत्कुटुक) स्थानमासनमुत्कुटुकमाधारे पुठाणतिग-न०(स्थानत्रिक) स्थानत्रये,ध०। पिण्डग्रहणं कुर्वता स्थानत्रयं तालगनरूपं यस्यासौ स्थानोत्कुटुकः / आसनाभिग्रहविशेषवति, भ० परिहरणीयम् / तद्यथा-आत्मोपघाति, संयमोपधाति, प्रवचनोपधाति २श०१ उ०। वेति। ध०३ अधि० ठाणुप्पइयमह-पुं०(स्थानोत्पातिकमह) स्वनामख्याते अपूर्व ठाणपडिमा-स्त्री०(स्थानप्रतिमा) स्थानं कायोत्सर्गाऽऽद्यर्थ आश्रयः, उत्सवविशेषे, बृ० 1 उ०। तत्र प्रतिमा स्थानप्रतिमा। स्थानविषयके तथाऽभिधेऽभिग्रहे, " चत्तारि ठावण-न०(स्थापन) आरोपणे, पो० 12 विव० / धारणे, पञ्चा० 13 ठाणप्पडिमा / " (स्था०) स्थान कायोत्सर्गाऽऽद्यर्थ आश्रयः, तत्र विव०। प्रतिमाः स्थानप्रतिमाः। तत्र कस्यचिद् भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति- ठावणा-स्त्री०(स्थापना) निक्षेपे, न्यासे, स्था० 10 ठा०। प्रतिष्ठायाम् , यद्यहमचित्तं स्थानमुपाश्रयिष्यामि, तत्र चाऽऽकुञ्चनप्रसारणाऽऽदिकां बृ० / प्रतिष्ठा स्थापना स्थानं व्यवस्था संस्थितिः स्थितिरवस्थानम् , क्रियां करिष्ये, तथा किञ्चिदचित्तं कुड्यादिकमवलम्बयिष्ये, तथा तत्रैवं / अवस्था चैकार्थिकानि पदानि। बृ० 5 उ० / स्तोकं पादविहरणं समाश्रयिष्यामीति प्रथमा प्रतिमा / द्वितीया तु ठावित्ता-त्रि०(स्थापयितृ) स्थापनशीले, स्था० 3 ठा०१ उ०। आकुञ्चनप्रसारणाऽऽदिक्रियामवलम्बनंच करिष्ये, नपादविहरणमिति / ठिअलेस्स-न०(स्थितलेश्य) लेश्यभेदे, स्था० 3 ठा०४ उ०। (अर्थस्तु तृतीया तु आकुञ्चनप्रसारणमेव, नालम्बनपादविहरणे इति / चतुर्थी 'बालमरण 'शब्दे वक्ष्यते) पुनर्यत्र त्रयमपि न विद्यते। स्था०४ ठा०३ उ०। ठिइ-स्त्री०(स्थिति) अवस्थाने, आव० 4 अ० / विशे० / श्रा० / बृ० / ठाणपरिणाम-पुं०(स्थानपरिणाम) परिणमनं परिणामः, तत्तद्भा स्थाने, स्था० 5 ठा०३ उ० / जीतं स्थितिः कल्पो व्यवस्था समयो वगमनमित्यर्थः / यदाह-परिणामो ह्यर्थान्तराऽऽगमनं, न च सर्वथा मर्यादति हि पर्यायाः / नं० / दर्शक।" दुविहा लिई पण्णत्ता / तं जहाव्यवस्थान, न च सर्वथा विनाशः। परिणामभेदे, स्था० 10 ठा०। कायडिई चेव, भावडिई चेव।" स्था० 2 ठा०३ उ०। आव० / आ० ठाणभट्ठ-त्रि०(स्थानभ्रष्ट) स्थानाच्चारित्राद् , गुरुकुलाऽऽवासाऽऽ चू० / (व्याख्या कप्पट्टिइ' शब्दे तृतीयभागे 233 पृष्ठ प्रदर्शिता) स्थितिः दिकात् , सिद्धान्तव्याख्यानरूपाद्वा सूत्रप्ररूपणेन भ्रष्ट, दुष्टाचारे च। तं०। प्रकल्पमवस्थान विकल्पनमित्येकार्थम् / स्था० 4 ठा०३ उ० / ठाणरय-त्रि०(स्थानरत) कायोत्सर्गकारिणि, आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ०। स्वभावव्यवस्थायाम् द्वा० 21 द्वा० / क्रमे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / आयुषि, ठाणविच्छुय-न०(स्थानवृश्चिक) सम्मूछिमनपुंसकजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 भ० 14 श० 5 उ० / प्रश्न० / तद्भवशक्ते आयुषि, कल्प० 6 क्षण। पद०। नैरयिकाणाम्ठाणसत्तिक्कय-पुं०(स्थानसप्तैकक) आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे / नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहसप्तककानां प्रथमे, आचा० 2 श्रु०२ चूं० / स्था० / (अत्रत्यः सर्वो / नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं।
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________________ ठि 1718 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? तत्र स्थीयतेऽवस्थीयते अनयाऽऽयुष्कर्मानुभूत्येति स्थितिः, स्थितिरायुष्कर्मानुभूतिर्जीवनमिति पर्यायाः / यद्यप्यत्र जीवेन मिथ्यात्वाऽऽदिभिरुपात्तानां कर्मपुद्गलानां ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिरूपतया परिणतानां यदवस्थानं सा स्थितिरिति प्रसिद्ध, तथापि नारकाऽऽदिव्यपदेशहेतुरायुष्कर्मानुभूतिः / तथाहि-यद्यपि नरकगतिपञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मोदयाऽऽश्रयो नारकत्वपर्यायः, तथाऽपि नारकाऽऽयुःप्रथमसमयसंवेदनकाल एव तन्निबन्धननारकक्षेत्रमप्राप्तोऽपि नारकस्य व्यपदेशं लभते। तथा च मौनीन्द्रं प्रवचनम्-" नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववज्जइ, अनेरइए नेरइएसु उववजइ ? गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववजइ, नो अनेरइए नेरइएसु उवव-जइ“इत्यादि।ततः सैवाऽऽयुष्कर्मानुभूतिरिह यथोक्तव्युत्पत्त्या स्थितिरभिधीयते इति। अत्र निर्वचनमाह- "गोयमा !" इत्यादि। एतच पर्याप्तापर्याप्तविभागाभावेन सामान्यत उक्तम्। यदातु पर्याप्तापर्याप्तविभागेन चिन्ता, तदेदं सूत्रम्अपञ्जत्तगनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / / "अपनत्तगनेरइयाणं भंते!" इत्यादि। इहापर्याप्ता द्विविधाः-लब्ध्या, करणैश्च / तत्र नैरयिका देवाः संख्येयवर्षायुषस्तिर्यग्मनुष्याः करणैरेवापर्याप्ताः, नलब्ध्या, लब्ध्यपर्याप्तकानां तेषु मध्ये उत्पादासम्भवात्। ततएते उपपातकाल एव करणैः कियन्तंकालमपर्याप्ता द्रष्टव्याः। शेषास्तु तिर्यग्मनुष्या लब्ध्या अपर्याप्ता उपपातकाले च। उक्तंच" नारगदेवा तिरिमणु-यगन्भजा जे असंखवासाऊ। एए अप्पञ्जत्ती, उववाए चेव बोधव्वा।। 1 // सेसा य तिरियमणुया, लद्धिं पप्पोववायकाले य। दुहओ वि य भइयव्या, पञ्जत्तियरे य जिणवयणं / / 2 / / " अपर्याप्तकाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहुर्तम् / अत उक्तम्-" गोयमा ! जहन्नेणं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं"! पज्जत्तगनेरइयाणं मंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई।। अपर्याप्ताद्धाऽपगमे च शेषकालः पर्याप्ताद्धा / तत उक्तं पर्याप्तसूत्रे"गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं अतोमुहत्तूणाई।"एतच पृथिव्यविभागेन चिन्तितम्।। सम्प्रति पृथिवीविभागेन चिन्तयतिरयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सागरोवमं / अपजत्तयरयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं | कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयरयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तूणं / प्रज्ञा० 4 पद / अनु० स०। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / सम०२३ सम०। सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं सागरोवमं, उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाई / अपज्जत्तयसक्करप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयसकरप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। बालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं तिण्णि सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं / अपज्जत्तयबालुयप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तयबालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं तिण्णि सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। पंकप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तसागरोवमाइं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई / अपज्जत्तयपंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयपंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं सत्त सागरोवमाइं अंतोमुहत्तूणाई, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। धूमप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! जहण्णेणं दस सागरोवमाई, उक्कोसेणं सनर सागरोवमाई। अपञ्जत्तयधूमप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयधूमप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालंठिईपण्णता? गोयमा जहन्नेणंदससागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं सतर सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई।। तमप्पभापुढ विनेरइयाणं भंते ! के वइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णे णं सतर सागरोवमाई, उक्कोसेणं वावीसं सागरोवमाइं। अपज्जत्तयतमप्पभापुढ
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________________ ठिय 1716 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि विनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जह-पणे ण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयतमप्प-भापुढविनेरइयाणं भंते ! के वइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं सतर सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। अहेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई / अपज्जत्तयअहेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं / कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पजत्तयअहेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसंसागरोवमाइं अंतोमुहत्तू- णाई।। देवानां स्थितिःदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। अपज्जत्तयदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तयदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तू- णाई। देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पणपन्न पलिओवमाइं! अपज्जत्तगदेवीणं मंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पजत्तयदेवीणं मंते ! केवइयं कालं तिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहत्तूणाई, उक्कोसेणं पणपन्न पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। भवणवासीणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं / अपज्जत्तयभवणवासीणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तयभवणवासीणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, उकोसेणं सातिरेगं सागरोवमं अंतोमुहत्तूणं। भवणवासिणीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई / अपज्जत्तियाणं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तियाणं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं अद्धपंचमाइं पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं साइरेयं सागरोवमं / अपञ्जत्तयअसुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / पज्जत्तयअसुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं अंतोमुहुत्तूणं / / असुरकुमारीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाइं। अपजत्तियाणं असुरकुमारीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तियाणं असुरकुमारीणं भंते / केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। नागकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोय-मा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं दोण्णि पलिओ-वमाई देसूणाई / अपञ्जत्तयाणं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं केव-इयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को-सेणं वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयाणं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससह-स्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं दोपिण पलिओवमाई देसूणाई अंतोमुहुत्तूणाई। नागकुमारीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणं पलिओ-वमं / अपज्जत्तियाणं नागकुमारीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पजत्तियाणं नागकुमारीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं देसूणं पलिओवमं अंतोमुत्तूणं / सुवण्णकुमाराणं भंते ! देवाणं के वइयं कालं ठिई प
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________________ ठि 1720 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि ण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं दो पलिओवमाइं देसूणाई। अपज्जत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहनेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / पञ्जत्तयाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उकोसेणं दो पलिओवमाइं देसूणाई अंतोमुहुत्तूणाई। सुवण्णकुमारीणं देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहणणेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणं पलिओवमं / अपज्जत्तियाणं पुच्छा ? गोयमा! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पजत्तियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई; उक्कोसेणं देसूणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं। एवं एएणं अभिलावेणं ओहियअपज्जत्तपज्जत्तसुत्तत्तयं देवाण य देवीण य णेयव्वं जाव थणियकुमाराणं जहा नागकुमा-राणं। पुढविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। प्रज्ञा० 4 पद। सण्हपुढवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं एगं वाससहस्सं / सुद्धपुढवीपुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस वाससहस्सा। बालुयापुढवीपुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउदस वाससहस्सा। मणोसिलापुढवीपुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सोलस वाससहस्साई। सक्करापुढवीपुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठरस वाससहस्साई / खरपुढवीपुच्छा? गोयमा ! जहन्नेणं / अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्सा। "सण्हपुढविकाइयाणं "इत्यादि। श्लक्ष्णपृथिवीकायिकानां भदन्त! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहुर्तम्, उत्कर्षत एक वर्षसहस्रम्। एवमन्येनाभिलाषेन शेषाणामपि पृथिवीनाम्। शुद्धपृथिव्याद्वादश वर्षसहस्राणि, बालुकापृथिव्याश्चतुर्दश वर्षसहस्राणि, मनःशिलापृथिव्याः षोडश वर्षसहस्राणि, शर्कगपृथिव्या अष्टादश वर्षसहस्राणि, खरपृथिव्या द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि / सर्वासामपि चामूषा पृथिवीना जघन्येन स्थितिरन्तर्मुहूर्त वक्तव्या। जी०३ प्रति०। अपज्जत्तयपुढविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयपुढविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई / सुहुमपुढविकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण विउकोसेण वि अंतोमुहुत्तं / अपज्जत्तयसुहु- | मपुढविकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयसुहुमपुढविकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / बादरपुढविकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं। प्रज्ञा०४ पद। बायरस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता / जी० 6 प्रति० / अपजत्तयबादरपुढविकाइयाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयबादरपुढविकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई। आउकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साइं अपञ्जत्तयआउकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयआउकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणिआई। आउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाणं जहा सुहुमपुढविकाइयाणं तहा भाणियव्वं 1 बादरआउकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई। अपज्जत्तयबादरआउकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तयाणं पुच्छा? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई। तेउकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाई। अपज्जत्तयाणं पुच्छा? गोयमा! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाइं अंतोमुहुत्तूणाई। सुहुमतेउकाइयाणं पुच्छा? गोयमा! जहन्नेण दि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / अपज्जत्तापज्जत्ताणं सुहमाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / बायरतेउकाइयाणं पुच्छा? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाइं। अपञ्जत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पजत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाई अंतोमुहुत्तूणाई। वाउकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साई /
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________________ ठि 1721 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि अपज्जत्तयवाउकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई / सुहुमवाउकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / अपज्जत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं ! पन्ज- | त्तयाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / बादरवाउकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साई। अपज्जत्तबादर- | वाउकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं 1 पजत्तबादरवाउकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई। वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं। अपजत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पनत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई। सुहुमवणस्सइ-काइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तपञ्जत्ताण य अंतोमुत्तं / बादर-वणस्सइकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णे णं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं / अपज्जत्तबादरवणस्सइकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमु-हुत्तं ! पज्जत्तबादरवणस्सइकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई। बेइंदियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जह-पणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई / अपज्जत्तबेइं-दियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तबेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णे णं अंतो मुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छ राई अंतोमुहुत्तूणाई। तेइंदियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जह-प्रणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं एगूणवण्णराइंदियाइं / अपज्जत्तय-तेइंदियाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्ततेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहाणे णं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं एगूणवण्णराइंदियाई अंतोमुहुत्तूणाई। चउरिंदियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! | जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छम्मासा। अपज्जत्तयचउरिंदि याणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तयचउरिंदियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छम्मासा अंतोमुहुत्तूणा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं / अपज्जत्तयपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। अपज्जत्तयसंमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयसम्मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तूणा / गब्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं। अपज्जत्तगब्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तगब्भवक्कं तिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइयं कालं ठिई पपणत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। अपजत्तजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोय-मा! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहपणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तूणा। सम्मुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। अपज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तसम्मुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडीअंतोमुहुत्तूणा। गभवक्कं तियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। अपज्जत्तयगब्भवकं तियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तगब्भवक्कं तियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुथ्वकोडी अंतोमुहुत्तूणा।
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________________ ठिइ 1722 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोय- पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी मा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई! अंतोमुहुत्तूणा / भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिअपञ्जत्तयचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? याणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुथ्वगोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / कोडी। अपज्जत्तयभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खपञ्जत्तयचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? जोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खअंतोमुहुत्तूणाई। सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्ख- जोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं जोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तूणा। सम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंचउरासीई वाससहस्साई। अपजत्तयसम्मु-च्छिमचउप्पयथ दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं हत्तं, उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई। अपज्जत्तयसम्मुअंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्ज-त्तगसम्मुच्छि- च्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा! च्छा ? गोयमा जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउरासीइं वाससहस्साई पज्जत्तगसम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोअंतोमुहुत्तूणाई / गम्भवक्कंतियचउप्पयथलयर-पंचिंदियतिरि णियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं क्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, बायालीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई। गन्भवतियभुयउक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई / अपञ्जत्तगगब्भ-वतियच परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोय-मा! उप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी / अपज्जत्तगब्भजहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज वक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुत्तगगब्भवकं तियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं च्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुपुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उनोसेणं तिण्णि पलि हुत्तं / पज्जत्तयगब्भवकं तियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरि क्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। सेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तूणा। उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। अपज्जत्त पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णे णं अंतो मुहुत्तं, उक्को सेणं यउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? पलिओवमस्स असंखेजइभागे / अपज्जत्तयखहयरपंचिंगोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्ज दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोत्तगउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? मुहुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयखहयरपंचिंगोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तूणा / दियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोसम्मुच्छिमसामण्णपुच्छा कायव्या ? गोयमा ! जहण्णेणं मुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागे अंतोमुहुत्तूणे / अंतोमुहुत्तं, उकोसेणं तेवण्णवाससहस्साई / अपञ्जत्तगसम्मु सम्मुच्छिमखहयरपंचिंदितिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? मा ! जहण्णेणं, अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावत्तरिवाससहस्साई। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / अपज्जत्तयसम्मुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्तगसम्मुछिमउरपरिसप्पथलयरपंचिं दियतिरिक्ख- पुच्छा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तं / पज्जत्तयसम्मुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं तेवण्णवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई। गन्भवतियउरपरिस- पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावत्तरिप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! ज- वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई / गब्भवक्कं तियखहयरपंचिंहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। अपज्जत्तगगम्भवकं - दियतिरिक्खजो णियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णे णं तियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखे जइभागे / गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज- अपज्ज-तयगब्भवकं तियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं त्तगगब्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं | पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतो
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________________ ठि 1723 - अमिधानराजेन्द्रः भाग-४ ठिइ मुहुत्तं / पजत्तयगन्भवतियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागो अंतोमुहुत्तूणो। मणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं। अपज्जत्तयमणुस्साणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण विअंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयमणुस्साणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णे णं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। प्रज्ञा०४ पद। (निर्ग्रन्थानां स्थितिः 'निग्गंथ' शब्दे वक्ष्यते) स्त्रीणाम्मणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! खेत्तं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं / धम्मचरणं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। कम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। धम्मचरणं पडुच जहपणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुष्वकोडी / भरहेरवयकम्मभूगममणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं / धम्मचरणं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी / पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सि-त्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! खेत्तं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। धम्मचरणं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। अकम्मत्तूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! जम्मणं पडच जहण्णेणं देणं पलिओवमं, पलिओवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओ-वमाई / संहरणं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी / हेमवए एरनवए जहण्णेणं देसूण पलिओवम, पलि-ओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं पलिओवमं / संहरणं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। हेमवए एरनवर पडुच जहण्णेणं देसूणं पलिओवमं, पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं पलिओवमं / संहरणं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। हरिवासरम्मगवासअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जम्म णं पडुच्च जहण्णेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं, पलिओवमस्स असंखेजतिभागे ऊणाई, उक्कोसेणं दो। पलिओवमाइं / संहरणं पडुन जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुष्वकोडी / देवकु रुउत्तरकु रु अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जम्म णं पडुच जहण्णेणं देसूणाई तिण्णि पलिओवमाइं, पलिओवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणगाई, उक्को-सेणं तिण्णि पलिओवमाई। संहरणं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुटवकोडी। अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जम्म णं पडुच्च जहण्णेणं देसूणं पलिओवमं, पलिओवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजतिभागं / संहरणं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुष्यकोडी।। मनुष्यस्त्रीषु क्षेत्रं प्रतीत्य, क्षेत्राऽऽश्रयणेनेति भावः / जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तम् , उत्कर्षतो देवकुर्वादिषु, भरताऽऽदिष्वपि च, एकान्तसुषमाऽऽदिकाले त्रीणि पल्योपमानि / धर्मचरणं धर्मसेवनं प्रतीत्य, जघन्येनान्तर्मुहूर्तमेव / तच तद्भवस्थिताया एव परिणामवशतः प्रतिपातापेक्षया द्रष्टव्यम् / चरणधर्मस्य मरणमन्तरेण सर्वस्तोकतयाऽप्येतावन्मात्रकालावस्थानभावात् / तथाहि-काचित् स्त्री तथाविधक्षयोपशमभावतः सर्वविरतिं प्रतिपद्य तावन्मात्रक्षयोपशमभावात् अन्तर्मुहूर्तानन्तरं भूयोऽपि अविरतसम्यगदृष्टिं, मिथ्यात्वं च प्रतिपद्यते इति / अथवा-धर्मचरणमिह देशचरणं प्रतिपत्तव्यं, न सर्वचरणम : देशचरणप्रतिपत्तिस्तु जघन्यतोऽप्यन्तौहूर्तिकी, तस्या भङ्गबहुलत्वात् / अथोभयाऽऽचरणसंभवे किमर्थमिह देशचरण परिगृह्यते ? उच्यते-देशचरणपूर्वकं प्रायः सर्वचरणमिति ख्यापनार्थम्। अत एवोक्तं वृद्धः-" सम्मत्तम्मि उलद्धे, पलियपु-हुत्तेण सावओ होइ। चरणुवसमो खयाणं, सागरसंखंतरा होंति॥१॥ अपरिवटिए" इत्यादि। उत्कर्षतो देशूना पूर्वकोटी, अष्टसांवत्सरिक्याश्चरणधर्मप्राप्तेः, तदुर्द्ध चरमान्तर्मुहूर्त यावदप्रतिपतितपरिणामभावात्। पूर्वपरिमाणं चेदम्-" पुवस्स उ परिमाणं, सयरिं खलु वासकोडिलक्खाओ / छप्पण्णं च सहस्सा, बोधव्वा वासकोडीण // 1 // " इति। सम्प्रतिकर्मभूमिकाऽऽदिविशेषस्त्रीणां वक्तव्यतामाह-(कम्मभूमगमणुस्सित्थीणं इत्यादि) अक्षरगमनिका सुगमा / भावार्थस्त्वयम-कर्मभूमिकमनुष्यस्त्रीणां क्षेत्रं कर्मभूमिसामान्यलक्षणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् . उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि / तानि च भरतैरावतेषु सुषमसुषमालक्षणे अरके वेदितव्यानि / धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी। भावना चात्र प्रागिव द्रष्टव्या। एवमुत्तरसूत्रद्वयेऽपि। अत्रैव विशेषचिन्तां चिकीर्षुराह- "भरहेरवयवासकम्मभूमग " इत्यादि सुगम, नवरं भरतैरवतेषु त्रीणि पल्योपमानि, सुषमाया पूर्वविदेहापरविदेहेषु क्षेत्रतः पूर्वकोटिः, तत ऊर्द्ध तत्र तथा क्षेत्रस्वाभाट्यादायुषोऽसम्भवात् / (अकम्मभूमगेत्यादि) जम्म प्रतीत्ये - ति। अकर्मभूमिषूत्पत्तिमाश्रित्य, जघन्यतो देशोनं पल्योपमं,
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________________ ठि 1724 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि तचाष्टभागन्यूनमपि देशोनं भवति / ततो विशेषस्थापनायाऽऽहपल्योपमस्यासंख्येयभागोनम् / एतच हैमवतैरण्यवतक्षेत्रापेक्षया द्रएव्यम्। तत्र जघन्यतः स्थितेरेतावत्प्रमाणायाः संभवात् , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, तानि च देवकुर्वपेक्षया। (संहरणं पडुचेत्यादि) संहरणं नामकर्मभूमिजायाः स्त्रियोऽकर्मभूमिषु नयनं, तत्प्रतीत्य तदाश्रित्य, जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी। इयमत्र भावना इह कर्मभूमिकाऽप्यकर्मभूमिषु संहृता अकर्मभूमिकेति व्यवयिते, तत्क्षेत्रसंबन्धभावात् / यथा लोके कश्चित् मगधाऽऽदिदेशात् सुराष्ट्रान् प्रस्थितो, गिरिनगरेषु निवासं कल्प-यितुकामः सुराष्ट्रपर्यन्तग्राम प्राप्तः सन् समुत्पद्यमानेषु तथाविधेषु प्रयोजनेषु सौराष्ट्र इति व्यवहियते, तद्वदधिकृताऽपि तत्र संहृता सती काचिदन्तर्मुहूर्त जीवति / ततोऽपि वा भूयोऽपि संह्रियते काचित्पूर्वकोट्यायुष्का यावज्जीवमपि तत्रावतिष्ठते, ततो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुक्तम् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति। आह-भरतैरवतान्यपि कर्मभूमौ वर्तन्ते , तत्र चैकान्तसुषमाऽऽदौ त्रीण्यपि पल्योपमानि स्थितिरस्या भवति, संहरणं च संभवति, तत्कथं देशोना पूर्वकोटी भण्यते इति ? अत्रोच्यतेकर्मकालवि-वक्षयाऽभिधानात्तस्य चेतावन्मात्रत्वादिति हैमवतैरण्यवतकर्म-भूमिकमनुष्यस्वीणां जन्मतो जघन्येन देशोनं पल्योपमं, पल्योप-मासंख्येयभागेन न्यनम् , उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमम्। संहरण-मधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम, उत्कर्षतोदेशोना पूर्वकोटी, भावना प्रागिव / एवं " हरिवासरम्मग" इत्याद्यपि सूत्रत्रयं भावनीयम्। नवरं हरिवर्षरम्यकयोर्जन्मतो तधन्येन द्वे पल्योपमे, पल्योपमासंख्येयभागन्यूने। उत्कर्षतः परिपूर्णे द्वेपल्योपमे / देवकु रूत्तरकुरुषु जन्मतो जघन्येन त्रीणि पल्योपमानि, पल्योपमासंख्यैय-भागहीनानि / उत्कर्षतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योधमानि / अन्तर-द्वीपेषु जघन्यतो जघन्येन देशोनपल्योपमासंख्येयः / कियता देशो-न इति चेत् ? अत आह-पल्योपमासंख्येयभागोनः। किमुक्तं भवति ?-उत्कृष्टात् पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणादायुषो जधन्यमायुःपल्योपमासंख्येयभागन्यूनम् , नवरमूनताहेतुः पल्योपमासंख्ये-यो भागोऽऽतीव स्तोको द्रष्टव्यः / संहरणमधिकृत्य सर्वत्रापि जघ-न्यत उत्कर्षतश्च तावदेव प्रमाणम्। जी०२ प्रति०। नपुंसकानाम्मणुस्सणपुंसगस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! खत्त पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। धम्मचरण पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसणं देसूणा पुव्वकोडी। कम्मभूमगभरहेरवयपुय्वविदेहअवरविदेहमणुस्सणपुंसगस्स वि तहेव। अकम्मभूमगमणुस्सणपुंसगस्सणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जम्म णं पडुच्च जहपणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / संहरणं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दंसणा पुव्वकोडी। एवं० जाव अंतरदीवगाणं॥ सामान्यतो मुनष्यनपुंसकस्यापि जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तम् , उत्कर्षतः पूर्वकोटी / कर्मभूमिक मनुष्यनपुंसकस्य क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतः पूर्वकोटी / धर्मचरणं बाह्यवेषपरिकरितप्रव्रज्याप्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तत ऊर्द्ध मरणाऽऽदिभावात्। उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, संवत्सराष्टकादुर्द्ध प्रतिपद्य जन्मपालनात्। भरतैरवतकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य च क्षेत्रं, धर्मचरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैवमेव वक्तव्यम् / अकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य जन्म प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तम्। अकर्मभूमौ हि संमूछिमा मनुष्या नपुंसका एव भवन्ति, न गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, युगलधर्मिकाणां नपुंसकत्वा-भावात्। समूच्छिमाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तायुषः, केवलं जघन्यादुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्त बृहत्तरमवसेयम्। संहरणं प्रतीत्यजघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, संहरणादूर्द्धमामरणान्तमवस्थानसंभवात् / देशोनता च पूर्वकोट्या गर्भनिर्गतस्य संभवात् / एवं विशेषचिन्तायां हैमवतैरण्यवताकर्मभूमिक मनुष्यनपुंसकस्य हरिवर्षरम्यक वर्षाकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य, अन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसकस्य च जन्म, संहरणं च प्रतीत्यैवमेव वक्तव्यम् / जी० 3 प्रति०। सम्मुच्छिममणुस्साणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / गब्भवतियमणुस्साणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। अपज्जत्तगगब्भवतियमणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तगगडभवक्कं तियमणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। प्रज्ञा०४ पद। उत्तरकुरुमनुष्याणां जघन्येन पल्योपमस्यासंख्येयभागेनोनानि त्रीणि पल्योपमानि, उत्कर्षात् परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि। जी०३ प्रति० / वाणमंतराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पलिओवमं। अपअत्तयवाणमंतरदेवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयवाणमंतरदेवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहत्तूणाई, उक्कोसेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं / प्रज्ञा०४ पद / प० द०। अकामकायक्लेशतपस्विना व्यन्तरेषूपपन्नानां दश वर्षसहस्राणि स्थितिः / औ० / बालमरणेन मृतानां व्यन्तरेषुपपन्नानां द्वादश वर्षसहस्राणि स्थितिः / औ० / विधवानामल्पारम्भप्रवृत्तानां व्यन्तरेधूपपन्नानां चतुर्दश वर्षसहस्राणि स्थितिः / औ० / अकामकायक्लेशतपस्विनीनां स्त्रीणां व्यन्तरेषूपपन्नानां चतुःषष्टिवर्षसहस्त्राणि स्थितिः / औ० / उदकद्वितीयाऽऽदीनां पाखण्डव्रतिनां निर्विकृति-कानां व्यन्तरेषूपपन्नानां चतुरशीतिवर्षसहस्रं स्थितिः। औ०। वाणमंतरीणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णे णं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं अद्धपलिओ पमं / अपज्जत्तियाणं भंते ! वाणमंतरीणं देवीणं पुच्छा ? गो
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________________ ठि 1725 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि यमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / पज्जत्तियाणं भंते ! वाणमंतरीणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं / जोइसियाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमऽट्ठभागो, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं / अपज्जत्तयजोइसियाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तयजोइसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमट्ठभागो अंतोमुहुत्तूणो, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं अंतोमुहुत्तूणं // जोइसिणी णं भंते ! देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमट्ठभागो, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासवाससहस्समब्भहियं / अपजत्तियाणं जोइसिणी णं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तियाणं जोइसिणी णं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमट्ठभागो अंतोमुहत्तूणो, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासवाससहस्सेहिं अब्भहिए अंतोमुहुत्तूणं / / प्रज्ञा० 4 पद / जी०। होतृकाऽऽदीनां वानप्रस्थानां ज्योतिष्केषूपपन्नानां वर्षशतसह-साधिक पल्योपमं स्थितिः। औ०। चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवर्म, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं / चंदविमाणे णं भंते ! अपजत्तयाणं देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / चंदविमाणे णं भंते ! पज्जत्तयाणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं अंतोमुहुत्तूर्ण। चंदविमाणे णं भंते ! देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं चउभागपलिओवम, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं / चंदविमाणे णं अपजत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / चंदविमाणे णं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहपणेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं अंतोमुहत्तूणं। सूरविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गो-यमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवम, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससहस्समभहियं / सूरविमाणे णं अपज्जत्तदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सूर विमाणे णं पजत्तदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससहस्समन्भहियं अंतोमुहुत्तूणं। सूरविमाणे णं भंते! देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं चउभागपलिओवम, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहिं वाससएहिं अब्भहियं / सूरविमाणे णं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सूरविमाणे णं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहिं वाससएहिं अब्भहियं अंतोमुहुत्तूणं / गहविमाणे णं भंते ! देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं / गहविमाणे णं अपज्जत्तदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / गहविमाणे णं पञ्जत्तदेवाणं पुच्छा? गोयमा! जहगणेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं पलिओवम अंतोमुहुत्तूणं। गहविमाणे णं भंते ! देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं / गहविमाणे णं अपञ्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहत्तं ! गहविमाणे णं पजत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं / णक्खत्तविमाणे णं भंते ! देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धवलिओवमं / णक्खत्तविमाणे णं अपज्जत्तयाणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / णक्खत्तविमाणे णं पज्जत्तयाणं देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं अद्धवपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं / णक्खत्तविमाणदेवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहणणेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं / णक्खत्तविमाणे णं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / णक्खत्तविमाणे णं पजत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं। ताराविमाणे णं भते ! देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहणणेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं चउभागपलिओवमं / ताराविमाणे णं अपज्जत्तदेवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / ताराविमाणे णं पज्ज
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________________ ठिइ 1726 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि त्तदेवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं चउभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं / ताराविमाणे णं भंते ! देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवम, उक्कोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलिओवमं / ताराविमाणे णं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / ताराविमाणे णं पञ्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं / वेमाणियाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। अपञ्चत्तवेमाणियाणं भंते ! देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तवेमाणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। प्रज्ञा०४ पद / सू० प्र०। जी०। जं० वेमाणिणीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहण्णेणं पलिओवम, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाइं। अपज्जत्तियाणं देवीणं वेमाणिणीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / पञ्जत्तयाणं वेमाणिणीणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं / सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। सूरियामस्स णं भंते ! देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। रा०। स्था० जी०। (शक्राऽऽदीनां देवानां पर्षत्सु स्थितिः' परिसा 'शब्दे वक्ष्यते) सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं। प्रज्ञा० 4 पद / स०।द० प० / सोहम्मे कप्पे अपज्जत्तदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं। सोहम्मे कप्पे पज्जत्तदेवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। सोहम्मे कप्पे देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाइं। सोहम्मे कप्पे अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सोहम्मे कप्पे पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं पन्नासं पलि-ओवभाई अंतोमुहुत्तूणाई। __ सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवम, उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाइं। सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं अपञ्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तणाई। सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवम, उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई / सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहणणेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं पण्णासं पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। ईसाणे कप्पे देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगं पलिओवम, उक्कोसेणं साइरेगाइंदो सागरोवमाइं। ईसाणे कप्पे अपनत्तयाणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / ईसाणे कप्पे पज्जत्तयाणं देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं सातिरेगाइं तो सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाइं / प्रज्ञा० 4 पद। ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो अग्गमहिसीणं नव पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्था०६ ठा०। ईसाणे कप्पे देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं पणपण्णपलिओवमाइं। ईसाणे कप्पे देवीणं अपञ्जत्तियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / ईसाणे कप्पे पजत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं पणपण्णपलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। ईसाणे कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं साइरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं नव पलिओवमाइं। ईसाणे कप्पे परिग्गहियाणं अपञ्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / ईसाणे कप्पे परिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं नव पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगं पलिओवर्म, उक्कोसेणं पणपण्णपलिओ
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________________ ठिइ 1727 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि वमाई। ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियाणं अपज्जत्तियाणं देवीणं पु.] च्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमु- | हुत्तं। ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियाणं पञ्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगं पलिओवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं पणपण्ण पलिओवमाई अंतोमुहत्तणाई।। ईसाणस्स णं देविंदस्स मज्झिमए परिसाए देवाणं छ पलिओवमा ठिई पण्णत्ता। स्था०६ ठा०। ('लोगपाल' शब्दे सर्वेन्द्राणां लोकपालानां स्थितिवक्तव्यता) कन्दर्पिकाऽऽदीनां श्रमणानामुत्कर्षेण सौधर्मकल्पे कन्दर्पिकेषु देवेधूपपन्नानां वर्षसहसमभ्यधिकं पल्योपमं स्थितिः। औ०। भ०।द०प। स्था। सणंकुमारे कप्पे देवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं दो साग- | रोवमाइं, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई। सणंकुमारे कप्पे अपज्जत्तगाणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सर्णकुमारे कप्पे पज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं दो सागरोवमाइं अतोणटुत्तुलाई, उक्कसिणं सत्त सागरोवमाइं अंतोमुहूत्तूणाई। माहिंदे कप्पे देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगाई दो सागरोवमाइं, उक्कोसेणं सत्त साहियाइं सागरोवमाई। माहिंदे कप्पे अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / माहिंदे कप्पे पजत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगाइं दो सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, उकोसेणं सत्त साहियाइं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं देसूणाई दो पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता? सोहम्मे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दो साग-1 रोवमाइंठिई पण्णत्ता? ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साइरेगाई दो सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सर्णकुमारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / माहिंदे कप्पे देवाणं जहण्णेणं साइरेगाई दो सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्था०२ ठा० 4 उ०। बंभलोए कप्पे देवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं सत्त सागरोवमाइं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं / बंभलोए अपज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / बंभलोए पज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं सत्त सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। मस्करिसाङ्ख्ययोगिकापिलाऽऽदीना चरकपरिव्राजकानामु-त्कर्षण ब्रह्मलोककल्पे देवेषूपपन्नानां दश सागरोपमा स्थितिः तद्यथा तेणं परिव्वायगा एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूइ वासाई परियाई पाउणिति, बहूइं वासाइं परियाई पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तेहिं तेसिं गई दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सेसं तं चेव // 12 // औ०। अम्मडस्य देवस्य ब्रह्मलोककल्पे देवेषूपपन्नस्य दश सागरोपमा स्थितिः / औ०। लंतए पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं दस सागरोवमाइं, उक्कोसेणं चउदस सागरोवमाइं। लंतए अपज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / लंतए पद्धत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं चउदस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। प्रज्ञा०४ पद। गामाऽऽकराऽऽदिषु प्रव्रजितानाभाचार्याऽऽदिप्रत्यनीकानामुत्कर्षण लान्तके कल्पे देवकिल्विषिकेषूपपन्नानां त्रयोदश सागरोपमा स्थितिः / औ०। तद्यथासे इमे गामाऽऽगरजाणसण्णिवेसेसु पव्वइया समाणा भवंति। तं जहा-आयरियपडिणीया, उवज्झायपडिणीया, कुलपडिणीया, गणपडिणीया, आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारमा अकित्तिकारगा बहूहिं असब्भावणुब्भावणाहिं मिच्छत्ताहिणिवेसेहिय अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिंति, बहुयस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिझंता कालमासे कालं किया उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिदिवसिएसु देवकिदिवसित्ताए उववत्तारो हवंति / तेहिं तेसिं गती तेरस सागरो-वमाइं ठिती अणाराहगा, सेसं तं चेव / / 15 / / औ०। महासुक्के देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउदस सागरोदमाई, उक्कोसेणं सतर सागरोवमाइं। महासुक्के अपज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / महासुक्के पजत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चोदस सागरोवमाइं अंतोमुहत्तणाई, उक्कोसेणं सतर सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। सहस्सारे देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं सतर सागरोवमाई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाइं। सहस्सारे अपज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सहस्सारे पञ्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं सतर सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। प्रज्ञा० 4 पद।
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________________ ठि 1728 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठि संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकापर्याप्तकानां शुभैः परिणामैः संज्ञि- | पूर्वजातिस्मरणे समुत्पन्ने स्वयमेव पञ्चाणुव्रतानि परिवर्जयित्वा बहूनि शीलव्रतगुणविरमणप्रत्याख्यानपोषधोपवासाऽऽदीनात्मना भावयमानानामुत्कर्षण सहसारे कल्पे देवेषूपपन्नानामष्टादश सागरोपमा / स्थितिः। औ०। आणए कप्पे देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाइं, उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं। आणए अपजत्ताणं देवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / आणए पज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। पाणए कप्पे देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एगूणवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं बीसं सागरोवमाइं। पाणए अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि / अंतोमुहुत्तं / पाणए पजत्ताणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं एगणवीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तणाई, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई / आरणे कप्पे देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं बीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एगवीसं सागरोवमाइं। आरणे अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / आरणे पञ्जत्ताणं देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं वीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं एकवीसं सागरोवभाई अंतोमुहुत्तूणाई। अचुए कप्पे देवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं एकवीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं। अचुए अपञ्जत्ताणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / अचुए पञ्जत्ताणं देवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एकवीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई / प्रज्ञा० 4 पद। आजीवकानामच्युते कल्पे देवेषुपपन्नानामात्मोत्कर्षिकादीनां ग्रामाऽऽकराऽऽदिसन्निवेशेषु प्रव्रजितानां श्रमणानामुत्कर्षणाच्युते कल्पे आभियोगिकेषु देवेषूपपन्ननां च द्वाविंशतिसागरोपमा स्थितिः। औ०। हेट्टिमहेडिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाइं। हेट्टिमहेद्विमगेविजगअपञ्जत्ताणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं ! हेट्टिमहेट्ठिममे विजगपजत्ताणं देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णे णं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तू- णाई। हिटिममज्झिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं तेवीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं चउबीसं सागरोवमाइं। हिट्ठिममज्झिमगेविजगअपज्जत्तगदेवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / हिट्ठिममज्झिमगेविजगपज्जत्तगदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं तेवीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई, उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। हिट्ठिमउवरिमगेविनगदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई। हेट्ठिमउवरिमगेविजगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहप्रणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / हिट्ठिमउवरिमगेविज्जगदेवाणं पञ्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं चउवीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। मज्झिमहेट्ठिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं पंचवीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं छव्वीसं सागरोवमाइं। मज्झिमहेट्ठिमगेविज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्त, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / मज्झिमहेट्ठिमगेविजगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहाणेणं पणवीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं छव्वीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। मज्झिममज्झिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं छव्वीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवभाई। - ज्झिममज्झिमगेविजगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / मज्झिममज्झिमगेविजगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं छव्वीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। मज्झिमउवरिमगेविजगदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई। मज्झिमउवरिमगेविज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / मज्झिमउवरिमगेविज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई। उवरिमहे हिमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाई। उवरिमहे हिमगे विज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / उवरिमहेट्ठिमगे विज्जगदेवाणं पञ्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जह
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________________ ठि 1726 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ ठिइ ण्णेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं एगूण- | तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। उवरिममज्झिमगेविजगदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एगणतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाइं। उवरिममज्झिमगेविजगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहपणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / उवरिममज्झिमगेविज्जगदेवाणं पञ्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एगणतीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। उवरिमउवरिमगेविअगदेवाणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं तीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाई / उवरिमउवरिमगेविजगदेवाणं अपजत्ताणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / उवरिमउवरिमगेविजयदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई / प्रज्ञा० 4 पद / औ०। विजयवेजयंतजयंतअपराजिएसुणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई / विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / सव्वट्ठसिद्धदेवाणं पज्जताणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञा० 4 पद / भ० / औ०। (देवस्थितिविषये यथा ऋषिभद्रपुत्रः" जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता / तेण परं समाहिया दुसमाहिया० जाव दससमाहिया संखेजसमाहिया, असंखेजसमाहिया, उक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमट्टिई पण्णत्ता / तेण परं वोच्छिण्णा देवा य, देवलोगा य / " इति प्रतिपेदे, भगवता वीरजिनेन च सत्यार्थत्वेन मतः, तथा ' इसिभहपुत्त ' शब्द तृतीयभागे 634 पृष्ठेऽस्माभिरदर्शि) भव्याऽऽदिदेवानां स्थितिःभवियदव्वदेवाणं मंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई।। णरदेवाणं मंते ! पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं सत्त वाससयाई, | उकोसेणं चउरासीतिपुव्वसयसहस्साई। धम्मदेवाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणाई पुवकोडी / देवाहिदेवाणं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं वावत्तरि वासाइं, उक्कोसेणं चउरासीइपुटवसयसहस्साई / भावदेवाणं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। " भवियदव्वदेवाणं " इत्यादि। (जहण्णेणं अंतोमुहत्तं ति) अन्तमुहूर्तायुषोः पञ्चेन्द्रियतिरश्चोः, देवेषूत्पादाद्भव्यद्रव्यदेवस्य जघन्याऽन्तमुहूर्तस्थितिः / (उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाइं ति) उत्तरकुर्वादिमनुजाऽऽदीनां देवेष्वेवोत्पादात् ते भव्यद्रव्यदेवाः, तेषां चोत्कर्षतो यथोक्ता स्थितिरिति / (सत्त वाससयाई ति) यथा ब्रह्मदत्तस्य (चउरासीतिपुष्वसयसहस्साइंति) यथा भरतस्य। धर्म-देवानाम् (जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं ति) योऽन्तर्मुहूर्तावशेषाऽऽयुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिदम् / (उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी ति) यो देशोनपूर्वकोट्यायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिति / ऊनता च पूर्व-कोट्या अष्टाभिर्वषः, अष्टवर्षस्यैव प्रव्रज्याऽर्हत्वात् / यच्च षड्वर्ष-स्त्रिवर्षो वा प्रव्रजितोऽतिमुक्तको वैरस्वामी वा, तत्कादाचित्कमिति न सूत्रावतारीति। देवाधिदेवानाम् (जहण्णेणं वावत्तरि वासाइं ति) श्रीमन्महावीरस्येव। (उकोसेण चउरासीइपुव्वसयसहस्साइंति) ऋषभस्वामिनो यथा / भावदेवानाम् (जहणणे णं दस वाससहस्साई ति) यथा व्यन्तराणाम् / (उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ति) यथा सर्वार्थसिद्धदेवानाम् / भ० 12 श०६ उ० / एएसिणं अट्ठविहाणं लोगंतियाणं देवाणं अजहण्णमणुकोसेणं अट्ट सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / / स्था०७ ठा० / (वेदनीयस्य कर्मणः स्थितिः 'कम्म 'शब्दे तृतीयभागे 278 पृष्ठे स्थितिकर्मप्रस्तावे उक्ता) पुन्नपुंसकानां स्थितिःपुरिसस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। तिरिक्खजोणियपुरिसाणं मणुस्सपुरिसाणं जं चेव इत्थीणं ठिती, सा चेव भाणियव्या। "पुरिसस्त णं भंते!" इत्यादि। पुरुषस्य स्वभवभावमजहतो भदन्त ! कियन्तं कालं यावत् स्थितिः प्रज्ञप्ता? भगवानाह-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तत ऊर्द्ध मरणभावात्। उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि। तान्यनुत्तरसुरापेक्षया द्रष्टव्यानि, अन्यस्य एतावत्याः स्थितेरसंभवात् / तिर्यग्योनिकानामौधिकातां जलचराणां स्थलचराणां खचराणां यथा स्त्रीणां स्थितिरुक्ता, तथा वक्तव्या / मनुष्यपुरुषस्याप्यौधिकस्य कर्मभूमकस्य सामान्यतो विशेषतो भरतैरावतकस्य पूर्वविदेहापरविदेहकस्याकर्मभूमकरय सामान्यतो विशेषतो हैमवतैरण्यवतिकस्य हरिवर्षरम्यकदेवकुरूत्तरकुरुकस्य अन्तरद्वीपकस्य यैवाऽऽत्मीये आल्मीये स्थाने स्त्रियाः,सैवपुरुषस्यापि वक्तव्या। तद्यथा-सामानिकतिर्यग्योनिकपुरुषाणां जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतः त्रीणि पल्योपमानि। जलचरपुरुषाणां
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________________ ठिइ 1730 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठिइठाण जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतः पूर्वकोटी। चतुष्पदस्थलचरपुरुषाणां उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति / / जी० 2 प्रतिः। जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि। उरःपरिसर्पस्थ सम्प्रति स्थितिप्रतिपादनार्थमाहलचरपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतः पूर्वकोटी / एवं नपुंसगस्सणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! भुजपरिसर्पस्थलचरपुरुषणामपि खचरपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई / / उत्कर्षतः पल्योपमस्यासंख्येयो भागः, सामान्यतो मनुष्यपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम् , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि। धर्मचरणमधिकृत्य " नपुंसगस्स णं भंते ! '' इत्यादि सुगम, नवरमन्तर्मुहूर्त तिर्यङ् मनुष्याक्षेपया द्रष्टव्यम् / त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सप्तमपृथिवीनाजघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् / एतच बाह्यलिङ्गप्रव्रज्याप्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य रकापेक्षया। जी 2 प्रति।" वासाणं च दहाणं, वासहराणं महाणईणं च। वेदितव्यम् / अन्यथा चरणपरिणामस्यैकसामायिकस्यापि सम्भवादेक समयमिति ब्रूयात् / अथवा देशचरणमधिकृत्येदं वक्तव्यम्। देशचरण - दीवाणं उदहीणं, पलिओवमगाउवठिईणं " // 1 // द्वी०। स्थितिप्रति पादके प्रज्ञापनायाश्चतुर्थपदे, प्रज्ञा० 4 पद / (उत्पलाऽऽदिजीवानां प्रतिपत्तेर्भगबहुलतया जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तसंभवात् / तत्र सर्वचरणसम्भवे ऽपि देशचरणमधिकृत्योक्तम् / तद्देशचरणपूर्वकं प्रायः स्थितिः 'वणप्फइ 'शब्दे द्रष्टव्या) (कषायाणां स्थितिः कसाय' शब्दे सर्वचरणमिति प्रतिपत्त्यर्थम् / तथा चोक्तम्-" सम्मत्तम्मि उ लद्धे, तृतीयभागे 367 पृष्ठे प्ररूपिता) पलियपुहुत्तेण सावओ होइ / चरणोक्समखयाणं, सागरसंखंतरा होति ठिइअव्वट्टणा-स्त्री० (स्थित्यपवर्त्तना) स्थितिकर्मविषयकापव॥ १॥"(पं० सू० टी०) अत्र यदाद्य व्याख्यातं, तत् स्त्रीवेदचिन्तायामपि तैनाकरणे, पं० सं०५ द्वार। क० प्र० / (' अववट्टणा' शब्दे प्रथमभागे द्रष्टव्यम् यच्च स्त्रीवेदचिन्तायां व्याख्यातं, तदत्रापीति। उत्कर्षतो देशोना / 766 पृष्ठेऽस्या व्याख्या) पूर्वकोटी, वर्षाष्टकादूर्ध्वमुत्कर्षतोऽपि पूर्वकोट्यायुष एव चरणप्रति- ठिइउदय-पुं०(स्थित्युदय) अवाधाकालरूपायाः स्थितेः क्षयेण पत्तिसंभवात् / कर्मभूमिकमनुष्यपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहर्राम , उदीरणाकरणरूपेण प्रयोगेण वा कर्मोदयरूपे उदयभेदे, पं० सं०५ द्वार। उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि / चरणप्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य जघन्यतो- क० प्र०। (स च ' उदय 'शब्दे द्वितीयभागे 775 पृष्ठे व्याख्यातः) ऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी / भरतैरावतकर्मभूमिक- | ठिइउदीरणा-स्त्री०(स्थित्युदीरणा) स्थितिकर्मेविषयकोदीरणा-करणे, मनुष्याणां पुरुषाणां क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतस्त्रीणि पं० सं० 5 द्वार / क० प्र०। पल्योपमानि / तानि च सुषमसुषमाऽरके वेदितव्यानि / धर्म विइउव्वट्टणा-स्त्री०(स्थित्युद्वर्तना) स्थितिकर्मविषयकोद्वर्तनाकरणे, चरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् . उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी। क० प्र० / पं० सं०। (सा च' उव्वट्टणा ' शब्दे द्वितीयभागे 1110 पृष्ठे पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमिकमनुष्यपुरुषाणां क्षेत्रं प्रतीत्य व्याख्याता) जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी! धर्मचरणं प्रती-त्य ठिइकप्प-त्रि०(स्थितिकल्य) प्रथमचरमजिनसाधूनां सतताऽ5जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी / सामान्यतो सेवनेनावस्थिते आचेलक्याऽऽदिदशविधे कल्पे, प्रव०७७ द्वार। ऽकर्मभूमिकमनुष्यपुगषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्येन पल्योपमा - सङ्ख्येयभागन्यूनमेकं पल्योपमम् , उत्कर्षस्त्रीणि पल्योपमानि / ठिइकम्म(ण)-न०(स्थितिकर्मन् ) कर्मभेदे, कर्म० 5 कर्म० / संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षेण देशोना पूर्वको-टी। | ठिइकरण-न०(स्थितिकरण) स्थापने, स० 10 अङ्ग। पूर्वविदेहकस्यापरविदेहकस्य वा अकर्मभूमौ संहृतस्य जघन्यत ठिइकल्लाण-न०(स्थितिकल्याण) स्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमउत्कर्षतश्च एतावदायुःप्रमाणसंभवात् / हैमवतैरण्यवताकर्मभूमिक- लक्षणा कल्याणं येषां ते। सर्वोत्कर्षस्थितिकेषु, स० 800 सम० / मनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्येन पल्योपमं पल्योपमास ठिइकारण-न०(स्थितिकारण) " वातेरिता णया इष, पकंपमा-णाण ख्येयभागन्यूनम् , उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमम् / संहरणमधि-कृत्य तरुणमादीणं। होति थिरा वर्ल्डतो, तरु व्व थिरकरणतेणं तु॥१॥"इति जघन्यतोऽन्तर्मुहूत्तम् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी / भावना प्रागिव / निरूपितायां सप्तदश्यां गौणाऽनुज्ञायाम ,पं० भा०। नं० / हरिवर्षरण्यकवर्षाकर्मभूमिकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्यतो द्वे ठिइक्खय-पुं०(स्थितिक्षय) आयुष्काऽऽदिकर्मणां स्थितिर्निर्ज-रणे, पल्योपमे पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूने, उत्कर्षतःपरिपूर्णे द्वे पल्योपमे। भ०७ श०६ उ० आयुषः स्थितिबन्धक्षये, स्था० 8 ठा०। वेदने, भ० संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कर्षती देशोना पूर्वकोटी। २श०१ उ० / विगमने, विपा०२ श्रु०१० अ० / स्थितिक्रियशरीरे देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमिकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्यतः अवस्थानं, तस्याः क्षयेऽपूरणीकरणे। कल्प०१क्षण। पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनानि त्रीणि पल्योपमानि / उत्कर्षतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि। संहरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, ठिइघाय-पुं०(स्थितिघात) बृहत्प्रमाणावा ज्ञानाऽऽवरणीयादिकर्मउत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी। अन्तरद्वीपकाकर्मभूमिकमनुष्यपुरुषाणां स्थितिरपवर्तनाकरणेन खण्डने, कर्म० 1 कर्म० / के० प्र० / पं० सं० / जन्म प्रतीत्य जघन्येन देशोनः पल्योपमासङ्ख्येयभागः, उत्कर्षतः (सच" उवसमसेडि" शब्दे द्वितीयभागे 1044 पृष्ठे उक्तः) परिपूर्णः पल्योपमासङ्ख्येयभागः, संहरणमधिकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् . | ठिइठाण-न०(स्थितिस्थान) आयुषो विभागे, भ० 1 श०५
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________________ ठिइठाण 1731 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठियकप्प / पं० सं०। (नैरयिकाऽऽदीनां स्थितिस्थानमाश्रित्य | ठिय-त्रि०(स्थिति) व्यवस्थिते, सूत्र०१श्रु०६ अ० अवस्थिते, स्था० दण्डको ''जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1542 पृष्ठे उक्तः) 2 ठा०४ उ०। उत्त०। पञ्चा० / उपा० / अप्रच्युते, अनु० / आ० म० / ठिइणामणिहत्ताउय-न०(स्थितिनामनिधत्तायुष ) स्थितियथा स्थातव्यं निषण्णे, उद्यते, अगतिपरिणामे, नि० चू०१ उ० / कटीस्तम्भेन तेन भावेनाऽऽयुर्दलिकस्य सैव नाम परिणामो, धर्म इत्यर्थः। स्थितिनाम ऊर्ध्वस्थाने, बृ०१ उ० / ऊर्ध्वस्थानस्थिते, भ०६ श०३३ उ० / गतिजात्यादिकर्मणां च प्रकृत्यादिभेदेन चतुर्विधानां यः स्थितिरूपो सूत्राऽऽदित आरभ्य पठनक्रि यं यावदन्यदेवाविस्मरणतश्चेतरिस भेदस्तत् स्थितिनाम, तेन सह निधत्तमायुः स्थितिनामनिधत्ताऽऽयुः / स्थितत्वात् स्थितम् / द्वितीये आगमतो द्रव्याऽऽव-श्यकभेदे, ज्ञा०१ आयुर्वन्धभेदे, स० / स्था० / भ० / प्रज्ञा०। श्रु०६ अ० / आ० चू०। विशे०। प्रथमे कल्पभेदे," अत्थे विणओघ कारिते ठियस्स जहा विज्जाओ फलं पयच्छ ति। " नि० चू० 1 उ०। ठिइपरिणाम-पुं०(स्थितिपरिणाम) आयुषो याऽन्तर्मुहूर्ताऽऽदित्रय ठियकल्प-पुं०(स्थितकल्प) अवस्थितसमाचारे,०६उ०। नि० चू०। स्त्रिंशत्सागरोपमान्ता स्थितिर्भवति स स्थितिपरिणामः / आयु:परिणामभेदे, स्था०६ ठा०॥ भ० / प्रव० / पञ्चा० / नि०। (प्रथमचरमयोस्तीर्थकरयोरा चेलक्याऽऽदयो दश कल्पा अवस्थिता एवेति" कप्प'शब्दे तृतीयभागे ठिइप्पगप्प-पुं०(स्थितिप्रकल्प) स्थितौ अवस्थाने वलिचञ्चाविषये 225 पृष्ठे दर्शिताः) प्रकल्पः सङ्कल्पः स्थितिप्रकल्पः / अवस्थानविषयके सङ्कल्पे, भ०३ अयमपरः स्थितकल्प:श०१ उ० / स्थितिप्रकल्पमवस्थान विकल्पनम्-तेष्वहं तिष्ठेयमिति, एते वा मम तिष्ठन्तु स्थिरीभवनिवत्येवरूपे, स्थित्या वा मर्यादया विशिष्टः ठितकप्पमो तु तत्तो, वोच्छामि गुरूवदेसेणं / प्रकल्पः / आचाराऽऽसेवायाम् , स्था० 3 ठा०३ उ०। यानीमानि गच्छाणुकंपताए, सुत्तत्थविसारए य आयरिए।। सुप्रसिद्धतया प्रत्यक्षाणि स्थविराणां स्थविर-कल्पिकानां स्थिती आगापढमसंजय-उवगाहिए य कप्पदुए। समाचारे प्रकल्पानि प्रकल्पनीयानि योग्यानि विशुद्धपिण्डशय्याऽऽदीनि गच्छो जदि हीरिज्जा, आयरियं वाऽतिवायते कोइ।। स्थितिप्रकल्पानि। पिण्डाऽऽदिकानां च कल्पानां मासकल्पाऽऽदिकानां एरिसए आगाढे, जस्स तु जो होति लद्धीओ। च स्थितीना द्वन्द्वे, स्था० 5 ठा० 1 उ०। सो न पमादेती पढ-मणियंठे पुलागलद्धीओ। ठिइबंध-पुं०(स्थितिबन्ध) अध्यवसायविशेषगृहीतस्य कर्मदलिक-स्य गच्छोवग्गहहेउं, करणपकप्पिद्वितोऽणुण्णा। स्थितिकालनियमने, कर्म० 5 कर्मः / पं० सं० / अष्टाना ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिकर्मप्रकृतीनां जघन्याऽऽदिभेदभिन्नावस्थानस्य दुयए ति साहुसाहुणि, तदट्ठहेतुं तु एव मूलगुणे // निवर्त्तने, स०१ सम० / स्था०। मूलोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टभेदे, आचा० भणिता सेवा एसा, सीसो पुच्छति तु अह इणमो। 1 शु. 2 अ० 1 उ० / कर्म० / क० प्र० / पं० सं० / (एके - जह कारणम्मि भणिता, मूलगुणेसुं तु एव पडिसेवा / / न्द्रियाऽऽदिजीवानाश्रित्याल्पबहुत्वम्" अप्पाबहुय' शब्दे प्रथ-मभागे तह होज कारणम्मी, पडिसेवा उत्तरगुणे वि? | 618 पृष्ठे वक्ष्यते) (अत्रत्यं सर्वं " बंध" शब्दे प्रदर्शयि-ष्यामि) गुरुयतरएसु एवं, मूलगुणेसुं तु जदि भवेऽणुण्णा / / ठिइबंधपरिणाम-पु०(स्थितिबन्धपरिणाम) येन पूर्वभवाऽऽयु: उत्तरगुणेसु तत्तो, लहुयतरेसुं भवेऽणुण्णा / परिणामेन परभवाऽऽयुषो नियता स्थितिं बध्नाति, स स्थितिब ठितलप्पो सो भणितो,.......................|| पं०भा०॥ न्धपरिणामः / यथा तिर्यगायुःपरिणामेन देवाऽऽयुष उत्कर्षतोऽप्य-ष्टादश '' इयाणिं ठियकप्पो / तत्थ गाहा-(गच्छाणु०) आयरिया वा सागरोपमाणीति / आयुःपरिणामभेदे, स्था०६ ठा०। उवज्झाया वा गच्छो वा हीरइज्जा, उवगरणं आसियावेजइ हेमंते, ताहे ठिइवडिय-त्रि०(स्थितिपतित) कुलक्रमादागते पुत्रजन्मानुष्ठाने, नि० मारिया चेव भवंति सीएण, एएहिं कारणेहिं आगाढे जइ अस्थि 1 श्रु० 1 वर्ग 1 अ०। कुलस्य लोकस्य वा मर्यादायां गतायां पुलागलद्धी, अण्णं वा सामत्थं, ताहे परिक्कमइ / ओवगहिओ नामपुत्रजन्ममहप्रक्रियायाम् , भ० 11 श० 11 उ० / रा० / विपा० / ज्ञा० / गच्छोपग्रहकरः। पकप्पट्टियस्स एवमणुण्णायं / गाहा-(दुयं ति) साहूर्ण ठिइसं कम-पुं०(स्थितिसंक्रम) मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च साहूणीण य पडिसेवणा, एवं मूलगुणेहिं भणिया पडिसेवणा / सीसो स्थितेरुत्कर्षणेऽपकर्षणे प्रकृत्यन्तरस्थिती नयने, (स्था०)" ठि- पुच्छइ-जहा मूलगुणेसुपडिसेवा भणिया, तहाउत्तर-गुणेसु, वि होज्जा ? इसकमो त्ति वुधइ, मूलुत्तरपगइओय जा हि ठिई। उव्वट्टिया य ओवट्टिया उच्यते-जइ ताव गुरुएसु अणुण्णाया, उत्तरगुणेसु लहुएसु पागेव व पगई नियावन्नं // 1 // स्था० 4 ठा०२ उ० / क० प्र०ा पं० सं०। (ल अणुण्णाया। द्वियकप्पो नाम एसु कारणेसु पत्तेसु अवस्सं कायव्वं / एस च' संकम शब्दे वक्ष्यते) ट्टियकप्पो।" पं० चू०। ठिइसंतकम्म-न०(स्थितिसत्कर्म) कर्मस्थितिसत्कसत्कर्मणि, क० कप्पद्वितमट्ठिए पुण, वोच्छामऽहुणा समासेणं / प्र०। पं० सं०। (' सक्कम्म 'शब्दे प्ररूपयिष्यते) संघयणवजिओ विहु, दुक्खक्खयकारओ पणगजाओ। ठिइसाहण-न०(स्थितिसाधन) दीक्षामर्यादाकथने, पञ्चा०१२ विव०। संघयणसमग्गस्स वि, अजातचतुरो अमोक्खाए। ठिइसिद्धि-स्त्री०(स्थितिसिद्धि) व्यवस्थानसाधने, हा० 25 अष्ट। पंच तु महव्वयाइं, पणगं तेसिं करे पयत्तं तु / /
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________________ ठियकप्प 1732 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 ठीण जाओ जो निप्फण्णो, अजातों णियमा अणिप्फण्णो। ठियधि-त्रि (स्थितार्चि) स्थिता शुद्धस्वभावाऽत्मना अर्चिलेश्या यस्य ठियमहिए विकप्पे, संघयणेणावि जो विहीणोतु // स भवति स्थितार्चिः / सुविशुद्धस्थिरलेश्ये, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। सो कुणति दोक्खमोक्खं, जो पुण न करे पयत्तं तु / ठियप्पा-पुं०(स्थिताऽऽत्मन् ) स्थितो व्यवस्थितोऽशेषकर्मविगपंचसु महय्वएसुं, संघयणेणं तु जदि वि संपण्णो // मादात्मस्वरूप आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा / ज्ञानक्रिययोः सो चउगतिसंसारे, भमतीण य पावती मोक्खं / पं०भा०। प्रधानफलयोगेन मुक्त्यर्हे, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। महासत्त्वे, दश०६ " इयाणिं ठियमट्ठिया समा चेव जंति / चोदग आह-अस्मिन् काले | अ० / ज्ञानाऽऽदिके मोक्षाध्वनि, आचा० 1 श्रु० 6 अ० 5 उ० / संहननवर्जितानांसाधूनां कीदृशी संयमशुद्धिः? तत्थ गाहा-(संघयण०) सम्यड्मार्गे, सूत्र० 1 श्रु०१० अ०। उच्यते-वत्स ! संहननवर्जितोऽपि अलं पर्याप्तिभूषणामन्त्रणेषु / यद्यपि ठीण-न०(स्त्यान)"ई: स्त्यानखल्वाटे " || 8 | 1174 // ऋषभादिसंहननम् , अज्जकाले सेवर्तसंहननिनः साधवः पञ्चमहाव्रत स्त्यानखल्वाटयोरादेरात ईर्भवति।" स्त्यानचतुर्थार्थ वा " // 8 युक्ताच, तथापि दुःखक्षयं कुर्वन्ति,संहननसंपत्तौतुजइ बलवीरियं गृहेइ, 2 / 33 / / एषु संयुक्तस्य ठो वा भवति। ठीणं' थीणं / प्रा०२पाद / जइन करेइपंचसु महव्वएसु पयत्तं, सो चउसु गइसु अण्णयरिंगई जाइ, 'स्त्यै भावे क्तः, तस्य नः। स्नेहे, घनत्वे, संहतो, आलस्ये, प्रतिशब्दे न य से मोक्खो अस्थि, एवं ट्ठियकप्पे अट्ठियकप्पे वि आयरतो विमुबइ संसाराओ, इयरो चउगइसु अण्णयरिं गई गच्छइ, पुव्ववणिया य एए च। कर्तरिक्तः। संहतिकारके, ध्वनिकारके च। त्रि०ा वाच०। ठियमट्ठियकप्पा।" पं० चू०। *तुंठ-पुं०। छिन्नावशिष्टवनस्पतीनां शुष्कावयवे, जं० 1 वक्ष०ा ल० प्र०। / इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु__ श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 - श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' ठकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् /
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________________ 1733 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 डब्म डकार डंडिखंडवसण-पुं०(दण्डिखण्डवसन) दण्डिखण्डरूपं वसनं वस्त्रं येषां ते! दण्डिखण्डरूपवस्त्रवति, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। डंभ-पुं०(दम्भ)" दशनदष्ट०-"|||१|२१७॥ इत्यादिना दस्य डः।' डंभो दम्भः। प्रा०१पाद। दन्भ-ध। कपटे, शाठ्ये च / वाच० / मायाप्रयोगे, प्रश्न० 1 संब० द्वार। ड-पुं०(ड) डकारो व्यञ्जनवर्णभेदः चतुर्थवर्गीयः मूर्द्धस्थानीयः स्पर्शसंज्ञः / डीङ्-डः / वाडवाग्नौ, शब्दे, चाषपक्षिणि, शिवे, वाच०। डंभण-न०(दम्भन) सूचीप्राये दम्भकारके अडलिषु प्रक्षेप्ये शस्त्र-विशेषे, भयङ्करनादे, चन्द्रे, चञ्चलयोषिति, जिह्वायाम् , कुण्डलिन्याम् , एका० / विपा०१ श्रु०६ अ०। शङ्करे, विषये, दरे, भासे, शङ्कनिनादे, क्षये, रौद्ररसे, ध्वनौ च / एका०1 1 डंभिअ-पुं०(देशी) द्यूतकारे, दे० ना० 4 वर्ग। वाचि, सत्तायाम् , प्रज्ञायाम् , स्त्री० / भवे, उगे, पटौ, डमरूके, डंवर-पुं०(देशी) धर्मे, दे० ना० 4 वर्ग। आन्दोलने, डामरे च / न० / एका०। डंस-धा०(दंश) दशने, भ्वा-पर-सक-अनिट् वाच०।"दंशद-होः" डओयर-न०(दकोदर) जलोदरनाम्नि रोगे, नि० चू० 1 उ०। ||8|1 // 218 / / इति धात्वादेर्दस्य डः।' डसइ / प्रा० 1 पाद / डंक-पुं०(डङ्क) वृश्चिकाऽऽदिकण्टके, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ० / नि० चू०। / सूत्र० / आ० म०। आव०। डक्क-त्रि०(दष्ट)" अनादौ शेषाऽऽदेशयोर्द्रित्वम् " // 8 / 2 / 86 / / डंख-धा०(संतप) संतापे, " संतपेड़खः " || 8 | 1114 / / संत- इति पदस्थानादौ वर्तमानस्य द्वित्वम् / ' डको 'प्रा०२ पाद।" प्यतेर्डख इत्यादेशो वा भवति। ' डंखइ ' पक्षे-' संतप्पइ प्रा० 4 पाद / शक्तमुक्तदष्टरुग्णमृदुत्वे को वा " // 812 // 2 // इति संयुक्तस्य वा डंड-पुं०न० (दण्ड)" दशनदष्टदग्धदोलादण्डदरदाहदम्भदर्भ- क्कः / डक्को,' दट्ठो / प्रा० 2 पाद। दशनाऽऽहते, नि० चू० 1 उ० / कदनदोहदे दो वा डः " // 8/1 / 217 / / इति दस्य वा डः / प्रा० प्रश्नः / आव० / दंष्ट्राविषाऽऽदिना दष्टस्य प्राणिनः पीडा-कारिणि 1 पाद। दण्ड-अच् / निग्रहे, विपा० 1 श्रु० 3 अ०। द्वात्रिंशे स्वनाम- विषपरिणामे, स्था० 6 ठा० / दन्तगृहीते, दे० ना० 4 वर्ग। ख्याते आतोद्यभेदे, रा०। 'लाठी 'इति ख्यातेलगुडे, व्यूहभेदे, प्रकाण्डे, डगण-न०(डगण) यानविशेषे, बृ०१ उ०। अश्वे, कोणे, मन्थनदण्डे, सैन्ये चापुं० / दम्यतेऽनेन मड-डः / मस्य च डगलग-पुं०न०(डगलक) अतीव पक्वेष्टकासु, ओघ / लघुपानत्वम् / षष्टिपलाऽऽत्मके काले, ' काठा' इतिप्रसिद्ध भूमिमानभेदे, षाणाऽऽदौ, ओघ / पक्वेष्टकाखण्डे, पिं० / पुरीषोत्सर्गानन्तरमपानसूर्यानुचरे, पुं० / दण्ड-भावे घञ् / अर्थापहाररूपे राज्ञां चतुर्थोपाये, प्रोच्छनकपाषाणाऽऽदिखण्डे, पिं० / बृ०। दण्ड-कर्तरि अच् / यमे, पुं० / वाच० / सूच्या सङ्घाटितेषु वस्त्रखण्डेषु, दे. ना० 4 वर्ग। डग्गल-पुं०(देशी) भवनोपरिभूमितले, दे० ना०४ वर्ग। डंडअ-पुं०(देशी) रथ्यायाम् , दे० ना० 4 वर्ग। डज्झमाण-पुं०(दह्यमान) दह-क्यच् / " दहो ज्झः " ||8|| डंडग-पुं०(दण्डक) साधूपकरणे दण्डे, आचा०२ श्रु०१ चू०७ अ०१ 255 / / दहोऽन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो ज्झो वा भवति, तत्सन्नियोगे उ० / नि० चू०। क्यस्य लुक् च / प्रा० 4 पाद / भस्मसात्क्रियमाणे, उत्त०१४ अ०। आव०। प्रति० / आ० म० / भ० / नि० चू० / सूत्र० / प्रश्न०। डंडगा-स्त्री०(दण्डका) दण्डकारण्ये जनस्थाननामके वने, वाच०। डज्झमाणधूव-पुं०(दह्यमानधूप) भस्मसातक्रियमाणे अनेकसुगआ० का न्धद्रव्यसंयोगसमुद्भूते दशाङ्गाऽऽदिधूपके, कल्प०२क्षण। डंडगि-पुं०(दण्डकि) उत्तरापथे कुम्भकारकृतनगरस्य राज्ञि, यत्पुरोहितेन पालकनाम्ना पूर्व वादपराजितश्चम्पाराजः स्कन्दकः प्रव्र-ज्य डड्ड-त्रि०(दष्ट)" दशनदष्ट०-" |||1|2 / 217 / / इत्यादिना भगिनीं पुरन्दरयशसं द्रष्टुभागतो मारितः सन् अग्निकुमारे-धूपपन्नः। नि० दस्य वा डः।' डड्डो ' ' दड्डो / दशनाऽऽहते, प्रा० 1 पाद। चू०१६ उ० / व्य०। *दग्ध-त्रि० भस्मीकृते, आव० 4 अ० / प्रश्न० 1 औ० / नि० चू० / डंडडणगार-पुं०(दण्डानगार) स्वनामख्यातेऽनगारे, यस्य यमुनातीरे बृ० / संथा० यमुनावक्रोद्यानेयमुनाराजेन हतस्य केवले उत्पन्ने महिमार्थ शक्र आगतः। डड्डाड-स्त्री०(देशी) दवमार्गे, दे० ना०४ वर्ग। यो० बिं० / आ० चू०। आव०। ती० / संथा। डप-धा०(डप) संहतो, चुरा०। पक्षे-भ्वा०-आत्म०-सक्० सेट् / डंडय-पुं०(दण्डक) 'डंडग' शब्दार्थे, आचा०२ श्रु०१ चू०७ अ०१ डपयति, डपयते, डपते। अडीडयत् , अडडियत, अडपिष्ट / वाच०।' उ० / नि० चू०। डप'' रिपुण' संघाते। डपन्ति मिलन्ति। संघा०१ अधि०१प्रस्ता०। डंडया-स्त्री०(दण्डका) डंडगा 'शब्दार्थे, वाच० / आ० क०। डप्फ-न०(देशी) सेल्लाऽऽख्ये आयुधे, दे० ना० 4 वर्ग। डंडि(ण)-पुं०(दण्डिन् ) दण्डधारके, औ०। डडभ-पुं०(दर्भ) ' दृभ ' ग्रन्थे घञ्। 'दशनदष्ट०-" ||8||
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________________ डभ 1734 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 डिंडिम 217 // इत्यादिना दस्य वा डः।' डब्भो 'दभो / प्रा०१ पाद।" | शेषस्य च दग्धरज्जुतुल्यत्वाऽऽपादने च। आचा०१श्रु०१०४ उ०। कुशाः काशावल्वजाश्च, तथाऽन्ये तीक्ष्णरोमशाः। मौजाश्च शादलाश्चैव, पाटलिपुत्रवास्तव्यस्य हुताशनब्राह्मणस्य स्व-नामख्याते पुत्रे, स च षड्दर्भाः परिकीर्तिताः // 1 // इत्युक्तेषु काशाऽऽ-दिषु षट्सु तृणेषु, | पितृभ्यां भ्रात्रा च सह प्रव्रजितः। आव०१ अ०। वाच०। डहर-पुं०(डहर) लधौ, सूत्र० 1 श्रु०१२ अ० / बृ० / ओघ० / ज्यो०। डभग-पुं०(डभक) म्लेच्छभेदे, प्रज्ञा०१ पद। दश०। पुत्रनपत्रादौ, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। बालके, सूत्र०२ श्रु०२ डमर-पुं०न०(डमर) स्वराष्ट्रक्षोभे, सूत्र० 2 श्रु०१ अ०। परराज अ० / आचा० / अप्राप्तवयसि, दश० 6 अ० 1 उ०। यावत्परिपूर्णानि कृतोपद्रवे, जं० 2 वक्षः / स्वचक्रपरचक्रकृते विप्लवे, प्रव० 4 द्वार / पञ्चदशवर्षाणि षोडशवर्षादक् तावड्डहरकं ब्रुवते समयविदः / व्य०३ कलहे, आचा०२ श्रु०२ चू० 4 अ० / ज्ञा० / विग्रहे, प्रपन० 2 आश्र० उ० / क्षुल्लके, सूत्र० 1 श्रु०१४ अ०। द्वार / विड्वरे, औ०। प्रश्नः / राजकुमाराऽऽदिकृतविड्वरे, रा०नि०। डहरयग्गाम-पुं०(डहरकग्राम) क्षुल्लकग्रामे, व्य०७ उ०। ज्ञा० / कुमाराऽऽद्युत्थाने, स्था० 6 ठा० / अशोभने, आव० 1 अ०। / डहरिया-स्त्री०(डहरिका) जन्मतोऽष्टादशवर्षावधिकायां योषिति, डमरगर-त्रि०(डमरकर) परस्परेण कलहविधायके, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० / जन्मपर्यायण यावदष्टादशिका अष्टादशवर्षप्रमाणा तावद्भवति डहरिका। विड्वरकारिणि, भ०६ श० 33 उ० / औ० / वाकायमनोभिर्विचित्र- व्य०४ उ०। ताडनकरणशीले, आ० म०२ अ०। डाकुलीभीमेसर-पुं०(डाकुलीभीमेश्वर) स्वनामख्याते तीर्थे, यत्र डमरय-पुं०न०(डमरक) अशोभने, आव० 1 अ०। श्रीपार्श्वनाथः पूज्यते / ती० 43 कल्प। ('जिणपडिमा 'शब्दोऽत्र डमरुग-न०(डमरुक) चूलिकापैशाचिके ऽन्येषामाचार्याणां मतेन | __1464 पृष्ठे विलोक्यः) तृतीयस्य स्थाने प्रथमे प्राप्ते " नादियुज्योरन्येषाम् " || 8 | | | डाग-पुं०(डाक) शाके, पिं० / प्रश्न० / सू० प्र० / स० / पत्रशाके, दशा०१ 327 / / इति निषेधान्न टः।' डमरुगो प्रा०४ पाद। वाद्यभेदे, वाच०। अ०। नि० चू० / डालप्रधाने शाके, आचा० 2 श्रु० 2 चू०१२ उ० / डमरुयमणिन्नाय-पुं०(डमरुकमणिन्याय) एकस्यैव पदस्य पूर्व-स्मिन् वास्तुकाऽऽदिभर्जिकायाम् , भ०७ श० 10 उ० / चं० प्र० / परस्मिँश्च पदे वाक्ये वा संबन्धद्योतके न्याये, विशे० / उत्ता वृन्ताकचिर्भिटिकाचणकाऽऽदयः संस्कृताः पत्रशाकान्ता डाकशब्देन डर-धा०(स) उद्वेगे," सेर्डरवोज्जवजाः " ||8||198 / / भण्यन्ते। प्रव०२ द्वार। आव०। सेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति। डरइ'' वोज्जइ 'वज्जइ'' तसइ' डागवच-न०(डाकवर्चस् ) यत्र पतितो डाकः सटनेन वर्षोभवति तादृशे प्रा०४ पाद। स्थले, आचा० 2 श्रु० 2 चू० 10 अ०। *दर-अव्य० / दृ-अप।" दशनदष्ट०-" || 811 / 217 // डागिणी-स्त्री०(डाकिनी) पूतनायाम् , सूत्र०१ श्रु० 3 अ०४ उ०। इत्यादिना दस्य वा डः। डरो 'दरो'।प्रा०१ पाद। ईषदर्थे, भये, गर्ने / डाय-पुं०(डाक) डाग ' शब्दार्थे, पिं० / प्रश्न० / सू० प्र० / स०। च। पुं० / न० / कन्दरे, पुं० / स्त्री० / स्त्रीत्वे डीए / वाच०। डायाल-न०(डायाल) हर्म्यतले, आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१ उ० / डल-पुं०(देशी) लोष्ट, दे० ना० 4 वर्ग। डाल-न०(डाल) शाखायाम् , पञ्चा० 16 विव० / स्था० / शाखैक-देशे, डल्ल-न०(देशी) पिटिकायाम् , दे० ना० 4 वर्ग। आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ० 10 उ०। डल्लग-न०(डल्लक) वंशाऽऽदिरचिते ' डाला 'इतिख्याते पात्रवि- | डाला-स्त्री०(डाला) शाखायाम्," लिङ्गमतन्त्रम् "||8111445 / / शेषे, आ० म०१ अ०१खण्ड। वाच०। अपभ्रंशे लिङ्गमतन्त्रं व्यभिचारि प्रायो भवतीत्यनेन डव्व-पुं०(देशी) वामकरे, दे० ना० 4 वर्ग। " सिरि चडिआ खंति फलइँ, पुणु मालइँ मोडति। डसण-न०(दशन) भावे-ल्युट् / "दशनदष्ट०-"||८|११२१७|| तो वि महदुम सउणाहं, अवराहिउ न करति // 1 // इत्यादिना दस्य डः। डसणं''दसणं / दशनाऽऽहते, प्रा०१ पाद। इत्यत्र डालइँ इति स्त्रीलिङ्गस्य नपुंसकत्वम् / प्रा०४ पाद। करणे ल्युट् / दंष्ट्रायाम् . वाच०। डाली-स्त्री०(डाली) शाखायाम् , नि० चू० 1 उ० / दे० ना० / डह-धा०(दह) दाहे, स्वादि०-पर-सक०-अनिट्। वाच०। 'दशदहोः' डाव-पुं०(देशी) वामकरे, दे० ना० 4 वर्ग। // 8 // 1 // 218 / / इति दहधातोर्दस्य डः / प्रा० 1 पाद / ' | डाह-पुं०(डाह)"दशनदष्ट०-"||११|२१७॥ इत्यादिना दस्य दहेरहिऊलाऽऽलुंखौ '८१४।२०६।"दहेरेतावादेशौ वा भवतः। वाडः। 'डाहो' दाहः / भस्मीकरणे, प्रा० 1 पाद। आचा०। अनु०। 'अहिऊलइ. 'आलुखइ, 'डहइ / प्रा० 4 पाद। डिंगर -पुं०(डिङ्गर) पादमूलिके, नि० चू० 15 उ०। डहण-पुं०(दहन) दह-ल्युट्। भस्मीकरणे. बृ० 1 उ०। आचा० / अग्नौ, डिं डिम-पुं०(डिण्डिम)'डिडिड ' इति शब्दं मिनोति प्रकाशचित्रकवृक्षे, भल्लातके, दुष्टचेतसि च / वाच० / भावे ल्युट्। दाहे, न० ! यति / पटहाऽऽदिवादित्रविशेषे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ० / रा०। वाच० / केवलिसमुद्घातध्यानाग्निना वेदनीयस्य भस्मसात्करणे, आ० चू० / प्रथमप्रस्तावनासूचके पणवविशेषे, जं० 2 वक्ष० /
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________________ डिडिम 1735 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 डोहल प्रज्ञा जी० / गर्भे, बृ० 3 उ० / कांस्यभाजने, न० / आचा०२ श्रु० 1 चू०१ | डुडुअ-पुं०(देशी) जीर्णघण्टे, दे० ना० 4 वर्ग। अ०११ उ०। डुब-पुं०(डोम्ब) एकावशतितमेम्लेच्छभेदे, प्रव०६ द्वार।पं० चू०व्य० / डिंडील्लिअ-न०(देशी) खलिखचितवस्त्रे, स्खलितहस्ते च। दे० ना० / ती०। श्वपचे, दे० ना०४ वर्ग। 4 वर्ग। डुमवण-न०(द्रुमवन) वृक्षसमूहे, प्रति०। डिंडी-स्त्री०(देशी) सूच्या सङ्घटितेषु वस्त्रखण्डेषु, दे० ना० 4 वर्ग। डुहिल-पु०(द्रुहिल) द्रोहस्वभावे, विशे०। डिंडीबंध-पुं०(डिण्डीबन्ध) गर्भसम्भवे, नि० चू०११ उ०। डेवण-पुं०(डेपन) आत्मनः प्रतिक्षेपे, व्य० 3 उ० / आ० म० / गर्तडिंडीर-पुं०(डिण्डीर)' डिण्डि' इति शब्दोऽस्त्यस्यरः। पूर्वपद-दीर्घः। / वरण्डाऽऽदीनां रयेणोल्लङ्घने, जीत० / व्य० / महा० / ग०। ओघा समुद्रफेने, वाच० / फेने, आ० म०१ अ०१ खण्ड। डेवेमाण-पुं०(डेपयत् ) अतिक्रामति, भ०१श०७ उ०। डिंफिअ-न०(देशी) जलपतिते, दे० ना० 4 वर्ग। डोंगर-पुं०(डुङ्गर) डुंगर 'शब्दार्थे, भ० १श०२ उ०। डिंब-०(डिम्ब) डिबि-घञ्। शिशौ, अण्डे, प्लीहनि, विप्लवे, शस्त्रे, डोंगिली-स्त्री०(देशी) ताम्बूलभाजनविशेषे, दे० ना० 4 वर्ग। कलले, एरण्डे, भयहेतुके, ध्वनौ, भये, डमरे,फुप्फुसे, वाच० / वधे, | डोंग-पुं०(डोम्ब) एकविंशतितमेम्लेच्छभेदे, प्रव०६ द्वार। स्था० 6 ठा० / भ० / औ० / आचा० / नि० / रा० / ज्ञा० / डोंबिलग-पुं०(डोम्बिलक) म्लेच्छजातीये, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / स्वदेशोत्थविप्लवे, न० / जं० 2 वक्ष० जी० / पराऽऽतीत-शृगालिके, पुं०। सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ डोअ-पुं०(देशी) दारुहस्ते, दे० ना० 4 वर्ग। डिंभ-पुं०(डिम्भ) डिभि-अच्। लघुतरवयसि बालके, बृ०२ उ०।आ० डोल-पुं०(डोल) तिकाऽऽख्ये प्राणिनि, बृ० 1 उ०। जी०। उत्त०। म०नि०। आ० क०। ज्ञा०। मधूकफलाऽऽदौ, पं०व०२ द्वार / प्रव०। *संस्-धा०1 अधःपतने, " संसेह्नसडिंभौ''॥ 8 / 4 / 167 // इति डोला-स्त्री०(दोला) दुल-अच्-टाप।"दशनदष्ट०-" ||8|| संसेडिभाऽऽदेशः। डिंभइ'' संसइ / प्रा० 4 पाद। 217 / / इत्यादिना दस्य डः।' डोला' दोला। प्रा०१ पाद।' डोली' डिअली-स्त्री०(देशी) स्थूणायाम् , दे० ना० 4 वर्ग। इतिख्याते यानभेदे, उद्यानाऽऽदौ क्रीडाऽर्थदोलनयन्त्रेच। स्वार्थे कन्। डिडुर-न०(देशी) भेके, दे० ना०४ वर्ग। पूर्वोक्तार्थे, वाच०। डिल्ली-पुं०(डिल्ली) ग्राहभेदे, जी० 1 प्रति० / प्रज्ञा० / डोलायमाण-त्रिपुं०(दोलायमान) दोलांदोलनमयते। अय्-शा-नच् / डीण-त्रि०(क्षीण) त्ति-क्तः।" क्षः खः क्वचित्तु छडौ" // 8 // 2 // वाच० / शिविकायाम् , दे० ना० 4 वर्ग। चलचित्तवृत्तौ, नि० चू०१० ३॥क्षस्य खो भवति, क्वचित्तु छडावपि। खीणं / ' छीणं / ' डीणं'। / उ० / दोलनं कुर्वति. दोलायन्त्ररूढे च / वाच०। प्रा०२ पाद। दुर्बले, क्षामे च। वाच० / अवतीर्णे, दे० ना०४ वर्ग। डोल्लणग-पुं०(दोल्लनक) उदकसंजाते संस्वेदजे जीवे, सूत्र०२ श्रु० डीणोवय-न०। देशी-उपरि, दे० ना० 4 वर्ग। 3 अ०। डोलिअ-पुं०(देशी) कृष्णसारे, दे० ना० 4 वर्ग। डीर-(देशी) कन्दले, दे० ना० 4 वर्ग। डोव-पुं०(देशी) दाम् , नं०। डुंग-न०(डुङ्ग) शिलावृन्दे, जं०२ वक्षः। डोहल-पुं०न०(दोहद)"दशनदष्ट०-"॥८।१२१७॥ इत्यादिना डुंगर-पुं०(डुङ्गर) शिलोचयमात्ररूपे पर्वत, भ० 1 श०२ उ० / नि० दस्यडः।' डोहलो, दोहदो प्रा १पाद। मनोरथे, ज्ञा०१श्रु०१अ०। चू०। आ० चू०।" जिम डुंगर तिम कुट्टरइं"। प्रा०४ पाद। शैले, दे० आव०नि० चू०। गर्भिणीतदपत्ययोर्हवयमत्र गर्भे दोहमाकर्ष ददातीति ना० 4 वर्ग। दा-कः / गर्भिण्यभिलाषे, लालसायां च / चिह्ने, गर्भलक्षणे च / न०। डुंघ-पुं०(देशी) नारिकेरमये उदञ्चनविशेषे, दे० ना०४ वर्ग। वाच०। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' डकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् /
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________________ 1736 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ ढेल्ल 7 मा ढकार म्बालपव्वालाः "||८||२१॥इति छदेय॑न्तस्य ढकाऽऽदेशः। ' ढक्कइ,"छाअइ'" पइ पई वजइ ढक्क " / प्रा०४ पाद। ढक्कय-न०(देशी) तिलके, दे० ना० 4 वर्ग! ढक्करि-न०(अद्भुत)"शीघ्राऽऽदीनां बहिल्लाऽऽदयः" ||8|| 422 // इत्यनेन अद्भुतस्य ढक्करिः। आकस्मिके उल्कापाताऽऽदौ, " ढ-पुं०(ढ) ढकारोव्यञ्जनवर्णभेदो मूर्द्धस्थानीयः स्पर्शसंज्ञः। ढका-याम् हियडा पइँएँहु बोल्लिअउ, महु अग्गइ सयवार / / फुट्टिसु पिएँ पयसंति , निर्गुणे, लास्ये, एका०। शुनि, तल्लाङ्कले, ध्वनौ च / वाच०। गोमुखे, हउं, भंडय ढक्करि सार॥१॥" प्रा० 4 पाद। न। एका०। ढक्का-स्त्री०(ढक्का) ढक इति कायति 1 कै-कः / भम्भायाम् , जी०३ ढंक-पुं०(ढङ्क) काकपक्षिविशेषे, जं० 2 वक्ष० / सूत्र० / उत्त० / प्रज्ञा० / प्रति० / स्था० / भर्याम् , आ० म०१ अ० 1 खण्ड / यशःपटहे, आ० म०। आ० चू०। स्था०।भ०। श्रावस्त्यां तिन्दुकोद्याने पञ्चशतानि स्वनामख्याते वाद्यभेदे च / वाच०। साधनां सहस्रं साध्वीनां ढडेन कुम्भकारश्रावकेण जमालि मुत्तवा दक्किय-त्रि०(ढकित) स्थगितद्वारे, व्य०६ उ० / समारचिते, व्य०४ प्रतिबोधितानीति। आ० का आ० म०। विशे० / वायसे, दे० ना० 4 वर्ग। उ० / अनु०। ढंकण-पुं०(ढङ्कन) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। जी०। ढकेयव्व-त्रि०(ढकितव्य) पिधानीये, दश० 2 अ०। ढंकणग-पुं०(ढङ्कनक) पिधाने, अनु० / आचा० / ढड्ड-पुं०(देशी) भेर्याम् , दे० ना० 4 वर्ग। ढंकणय-पुं०(ढङ्कनक)' ढंकणग' शब्दार्थे, अनु०॥ ढड्डर-न०(ढड्डर) एकत्रिंशे वन्दनकदोष," उच्चसरेणं वंदइ, ढङ्कर एवं तु ढंकणी-स्त्री०(देशी) पिधानिकायम् , दे० ना० 4 वर्ग। होइ बोधव्वं / " उचस्वरेण महता शब्देन वन्दनकमुच्चारयन् यद्वन्दते ढंकवत्थुल-पुं०(ढङ्कवास्तुल) शाकविशेषे, ध०२ अधि०। प्रव०। तदेतद् ढडरमिति बोद्धव्यम् / 03 उ०। पं०व०। आ० चू० / प्रव० / ढंकुण-पुं०(देशी) मत्कुणे, दे० ना० 4 वर्ग। आ० क० / ध०। ढंखरी-स्त्री०(देशी) वीणाभेदे, दे० ना०४ वर्ग। टिंकण-पुं०(ढिङ्कन) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त०३६ अ०। ढंढण-पुं०(ढण्ढन) नेमितीर्थकरशिष्ये, भरतेश्वरवृत्तौ। ढिंकुण-पुं०(ढिकुन) क्षुद्रजीवविशेषे, जं०२ वक्ष०। *ढंढण-' अलाभपरीसह ' शब्दे प्रथमभागे 772 पृष्ठे कथा गता। ढिंग-पुं०(ढिङ्ग) जीवविशेषे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। उत्त०२ अ०। ढिक-धा०(गर्ज) ऊर्जाहतुकशब्दे, भ्वादि०-पर०-सक०-सेट्। वाच।' ढंढणी-स्त्री०(देशी) कपिकच्छूरूपेऽर्थे, दे० ना० 4 वर्ग। वृषेडिकः ||8| YTEE || वृषकर्तृकस्य गर्जेर्डिकाऽऽ-देशः।' ढंढरीअ-पुं०(देशी) ग्रामतरौ, कर्दमे, दे० ना०४ वर्ग। ढिक्का, वृषो गर्जतीत्यर्थः / प्रा०४ पाद! ढंढल्ल-धा०(भ्रम) चलने, पर०-अक०-सेट् / धाच०।" भ्रमेष्टि ढुंदुण-न०(ढुण्ढुण) तीर्थभेदे, ती० 4 कल्प। रिटिल्ल०-"||८||१६१॥ इत्यादिना ढण्ढल्लाऽऽदेशः।' ढुंदल्ल-धा०(गवेष) अन्वेषणे, अदा०-चुरा०-आत्म०-सेट् / "गढंढल्लइ' भमइ' प्रा०४ पाद। भ्रमति, अभ्रमीत्। फणा०।भेमतुःस, वेषेर्दुदुल्ल०-"||८|४|१८६॥ इत्यादिना"ढुंढुल्ल “आदेशः। यभ्रमतुः / चडि न ह्रस्वः / ज्वला० / भ्रमः, भ्रामः। वाच०। 'दुदल्लइ, गवेसइ / ' प्रा०४ पाद।। ढंढसिअ-पुं०(देशी) ग्रामयक्षे, ग्रामतरौ, कर्दमे, दे० ना० 4 वर्ग। *भ्रम-धा०। चलने, पर-सक०-सेट्। वाच।" भ्रमेष्टिरिटिल्ल०ढंढोल-धा०(गवेष) अन्वेषणे, अदा०-चुरा०-आत्म०-सेट् / " ग- | "||8|4|161 // इत्यादिना ढुंढुल्लाऽऽदेशः / 'ढुंढुल्लइ / ' भमइ / प्रा०४ पाद। वेषेर्दूदल्लढंढोलगमेसघत्ताः" ||8|4|196 / / ' ढंढोलइ।' | गवेसइ'। प्रा०४ पाद / गवेषयते, अजगवेषत् / वाच०। दें किय-न०(गर्जित) वृषशब्दे, आव० 4 अ० / ढंस-धा.[वि(वृत्)]" विवृत्तेसः "||4|118 // विवृतेस -की-स्त्री०(देशी) बलाकायाम् , दे० ना० 4 वर्ग। इत्यादेशो वा भवति।' ढंसइ'' विवट्टइ / प्रा०४ पाद। विवर्त्तते। वाच०। / टेणियालग-पुं०(ढेणिकालक) पक्षिविशेषे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। ढंसय-न०(देशी)अयशसि, दे० ना० 4 वर्ग। ढेणी-स्त्री०(ढेणी) पक्षिविशेषे, अणु० 3 वर्ग 1 अ०। ढक्क-धा०(छदि) छद्-णिच् / आवरणे,"छदेणैर्गुमनूमसंनुमढक्को- | ढेल्ल-पुं०(देशी) निर्धने, दे० ना०४ वर्ग। -:********* इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' ___ ढकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्।
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________________ 1737 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णकार ण-पुं०(ण)'ण' इति टवर्गस्य पञ्चमो वर्णो मूर्धन्यः। संस्कृते णेत्येकाक्षरभिन्ना णकाराऽऽदयः शब्दा न सन्ति / ये चोपदेशे ' ण-म 'प्रह्वत्वे, शब्दे च, इत्यादयो धातवः पठ्यन्ते, तेषामपि" णोः नः " // 6 // 1 // 65 / / (पाणि०) इति नत्वेन नमतीत्यादीनि नकाराऽऽदीन्येव रूपाणि भवन्ति। प्राकृते तु नकाराऽऽदयोऽपि नद्यादयः शब्दाः " नो णः " // 8 / 1 / 228 // इति णत्वे कृते णकाराऽऽदितां वजन्तीति, अस्माभिनिवेशिष्यमाणा णाऽऽदयः शब्दा नादयोऽपि शुद्धा एवेत्यभ्यूह्यम्।' णख ' गतौ डः। पृषो०- णत्वम्। विन्दुदेवे, भूषणे, गुणबर्जिते, जलस्थाने, निर्णये, ज्ञाने च। वाच०। निर्गुणे, जये, योग्ये, दुष्टे, क्रोडे, तस्करे, पशुपुच्छे च / एका०। "णो निर्गुणे जये योग्ये, दुष्ट क्रोडे च तस्करे। पशुपुच्छे श्रियां णा स्त्री, बृहन्माने च णः पुमान्॥५८॥ संप्रत्यये तथा स्वार्थे, णः कोणे चैकचक्षुषि। क्षीरे रणे धने ध्याने, णीः पुमान् णीर्णियौ णियः / / 56 / / समे स्वरे चये तारे, चरणे णिश्चोभयात्मकः।" इति विश्वदेवशम्भुमुनिः। एका०। अन्यच"त्रिलिङ्गयां निर्गुणे गूढे, सौम्ये सव्यापसव्ययोः। णशब्दः कङ्कटे रागे, भेरावग्नौ ध्वजे पुमान्॥३६॥ णा तु स्त्री रजनीशय्या-धेनुनासाकृपास्वपि। ण सरोजजले ज्ञाने, गमने चरणे रणे // 40 // शब्दस्त्रिषु लिङ्गेषु, भवेद्णस्तुषवस्तुनि " // इतिमाधवः / एका०। *न-अव्य०।' नह' बन्धने कः / प्रतिषेधे, नि० चू०१ उ० नम्शब्दवन्नशब्दोऽप्यस्ति; अत एव न एकं नैकं, नायं न, किन्तु न इति; अन्यथा न लोपः स्यादिति। आ० म०१ अ०२ खण्ड। नि० चू० / तत्र क्रियायोगे अभावे, तद्भिन्नयोगे तुभेदे," नकारो संजोगमाइसुपडिसेहे। " नकारः पुनः संयोगाऽऽदिषु संयोगसमवायसामान्यविशेषचतुष्टये प्रतिषेधं करोति। अत्रोदाहरणम्अथ संयोगाऽऽदिविषयं नकारप्रतिषेधं भावयतिसंजोगे समवाए, सामन्ने खलु तहा विसेसे अ। कालतिए पडिसेहो, जत्थुवओगो नकारस्स / / 622 / / संयोगे, समवाये, सामान्ये, विशेषे चेति चतुर्दा प्रतिषेधो नकारस्य भवति। स च प्रत्येकमतीतानागतवर्तमानलक्षणकालत्रिकविषयत्वादेकै कः त्रिविध इति सर्वसंख्यया द्वादशविधो नकारप्रतिषेधः / यत्र च क्वापि नकारस्योपयोगो भवति तत्रामीषां द्वादशानां भेदानामन्यतमः प्रतिषेधः प्रतिपत्तव्य इति। अथ संयोगाऽऽदिषु यथाक्रमं प्रतिषेधमुदाहरति नत्थियरे जिणदत्तो, पुव्वपसिद्धाण तेसि दोण्हं पि। संजोगो पडिसिज्झइ, न सव्वसो तेसिँअत्थित्तं / / 523 // समवाए खरसिंग, सामन्ने नत्थि एरिसो चंदो। नत्थि घडयप्पमाणा, विसेसओ होति मुत्ताओ // 24 // 'नास्ति गृहे जिनदत्तः ' इत्यत्र प्रयोगे पूर्वप्रसिद्धयोस्तयोर्गृहजिनदत्तयोर्द्वयोरपि संयोगः संबन्धमात्र प्रतिषिध्यते, न पुनः सर्वथैव, तयोरस्तित्वमिति संयोगप्रतिषेधः / समवायप्रतिषेधे तु खरशृङ्गमुदाहरणं, खरोऽप्यस्ति, शृङ्गमप्यस्ति, परं खरशिरसि शृङ्गं नास्तीति समवायः,' एकत्र संश्लेषः उभयोरपि ' प्रतिषिध्यते इति समवायप्रतिषेधः / सामान्यप्रतिषेधो यथा-नास्यस्मिन् स्थानेऽन्य ईदृशश्चन्द्रमा इति। विशेषमाश्रित्य पुनरय प्रतिषेधः-नसन्ति घटप्रमाणा मुक्ताः, मुक्ताफलानीत्यर्थः। सन्ति मुक्ताफलानि, परं नघटप्रमाणानीति घटप्रमाणत्वलक्षणस्य विशेषस्य प्रतिषिध्यमानत्वाद्विशेषप्रतिषेधो भावितः / भावितः संयोगाऽऽदिचतुष्टयप्रतिषेधः। सम्प्रति कालत्रयविषयं तमेव भावयतिनेवासी न भविस्सइ, णेव घडो अस्थि इति तिहा कालो। पडिसेहेइ नकारो, सशं तु अकारनोकारा / / 225 / / नैवाऽऽसीन्न भविष्यति, नैवास्ति घट इति यथाक्रममतीतानागतवर्तमानभेदाद त्रिधा कालविषयं वस्तु नकारः प्रतिषेधयति / अकारनोकारौ तु सद्यो वर्तमानकालमेव प्रायः प्रतिषेधयतः / यथाअकरोषित्वं, नो कल्पते तालप्रलम्ब प्रतिगृहीतुमित्यादि / नाकार-स्य द्विविधकालप्रतिषेधकत्वं पूर्वमुक्तमेवेतिन पुनरुच्यते। बृ० 1 उ० / नि० चू०। सूत्र० / उपमायां बन्धे, प्रस्तुते च / वाच० / नराऽऽदिषु, एका०। " नो नरे च सनाथेऽपि, नो नाथेऽपि प्रदर्श्यते। नृशब्दोऽपि नरे नाथे, ना नरौ नर इत्यपि।। 76 // ननौ इति निपातौ द्वौ, नू दर्पऽपि तथोदितः। पृच्छाया नु वितर्केऽपि, निर्निशब्दौ तथाऽऽव्ययम्।। 77 // नीवन्तो लक्ष्मीवाच्यः स्या-नीर्नेतरि नियौ नियः। नु स्तुतौ दीर्घहस्वे स्त्री, नेनौश्च तरणौ स्त्रियाम् // 7 // नूशब्दः पातके पुंसि, वायौ क्लीबे नुवारिणि। नं ब्रह्माणि तथाऽनन्ते, सानन्देनं च नन्दने॥७६ / / इति विश्वदेवशम्भुमुनिः / एका०। " नकारस्तु स्त्रियां नामौ,नं नाट्यज्ञानयोर्भवेत्। नशब्दस्त्रिषु लिङ्गेषु, पठ्यते भिन्नसूक्ष्मयोः।। 53 / / प्रस्तुते वा परिश्लिष्ट, शुद्धे निर्णेतरि स्मृतः। नुः स्त्रियां नु स्तुतौ नावि, नौस्तथैव निरूप्यते॥ 54 // नुन्नशब्दस्विलिङ्गः स्या-न्मिष्टयुक्तार्थवाचकः। अव्ययं प्रतिषेधेऽल्पे, नकारः स्थिरनिश्चये // 55 // नानाप्रकारे नेदं स्यात् , भावे नन्वबधारणे / / " इति माधवः / एका०। *न-अव्य० / सर्वनिषेधे, पयुदासे, नं / स्था। कुत्सार्थे, यथा कुत्सितो ब्राह्मणोऽब्राह्मणः / ध०१ अधि० / कुत्सितं शील
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________________ 1738 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णईसंतार मशीलमिति / अनु० / दुःशब्दार्थे,यथा अशीलाः, दुःशीला इत्यर्थः / स्था०३ ठा० 3 उ० / अल्पार्थे, यथाऽयं पुमानज्ञः, स्वल्पज्ञान इत्यर्थः / आचा०१ श्रु०६अ०६ उ०॥ णइ-अव्य०(णइ) अवधारणे,"णइ चेअ चिअब अवधारणे "||8| 2 / 184 / / इत्यवधारणे जइ इति प्रयोगः। 'गइ' प्रा०२ पाद। *नति-स्त्री० / नमने, नम्रीभवने, वाच०। णग्गाम-पुं०(नदीग्राम)" समासे वा"||२७॥ इति समासे द्वित्वं वा, द्वित्वे ह्रस्वः। नदीतटस्थे ग्रामे, प्रा०२ पाद। णइसोत्त-न०(नदीस्रोतस्)" दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ " // 1 // // इति दीर्धकारस्य वा हस्वः। नद्याः प्रवाहे, प्रा०१ पाद। णइसंतार-पुं०(नदीसन्तार) 'णईसंतार' शब्दार्थे, जीत०। णई-स्त्री०(नदी) सरिति, सूत्र० 2 श्रु० 1 अ० 5 उ० / उत्त० / ज्ञान सलिलायाम् , भ०६ श०२ उ०। प्रश्न / गङ्गा नदी षष्टारके रथपथप्रमाणा भविष्यति, न वा, चेद्भविष्यति, तदाऽन्याश्चतुर्दशसहसमिता नद्यः क्व यास्यन्तीति प्रश्ने ? उत्तरम्-गड़ा यथोक्त-प्रमाणा भविष्यति, अन्यास्तु चतुर्दशसहसमिता नद्यः पृथिव्या भूयस्तरतापवत्त्वेन शोषं यास्यन्तीति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ताविति। 67 प्र० सेन०१ उल्ला०। तथा जम्बूद्वीपमध्ये चतुर्दशलक्षषट् पञ्चाशत्सहस्राश्चेन्ततस्तदा महाविदेहमध्यविजयविभेदविधात्र्यः षट् नद्योऽन्याः प्रतिवैताढ्यमध्यगोन्मग्ना निमग्नाभिधाना नद्यश्च संख्यामध्ये कथं नागताः ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-पूर्वाचार्याणां विवक्षैव प्रमाणं, जम्बूद्वीपसंग्रहणीकारेण तु साधिकसप्तदशलक्षमिता नद्यो जम्बूद्वीपमध्ये संकलिताः सन्तीति।६८ प्र०। सेन० प्र०१ उल्ला०1 (सलिला महानद्योऽन्तरनद्यश्च" जंबूद्वीव " शब्दे चतुर्थभागे 1375 पृष्ठे उक्ताः) (गङ्गासिन्ध्वोर्वक्तव्यता स्वस्वस्थाने) णईकच्छ -पुं०(नदीकच्छ) नदीगहने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। जईगाम-(नदीग्राम) ' णइग्गाम शब्दार्थे, प्रा० 2 पाद। णईजल-न०(नदीजल) सामान्यनदीजले, गङ्गानदीजलं यथा लवणाब्धौ विश्राम्यति तथा मानुषोत्तरपर्वतसंमुखविनिर्गतनदीजलमपि कुत्र विश्राम्यतीति प्रश्ने ? उत्तरम्-मानुषोत्तराभिमुखनिर्गतनदीजलं पुष्करवरसमुद्रे विश्राम्यतीति स्थानाऽऽदावस्तीति। 264 प्र० / सेन० प्र०३ उल्ला। णईपमुह-त्रि०(नदीप्रमुख) नदीहृदाऽऽदिके, प्रव०८२ द्वार। णईमासय-न०(देशी) जलोद्भवे, दे० ना० 4 वर्ग। णईसंतार-पुं०(नदीसन्तार) नद्युत्तरणे, नदीसन्तारश्चतुर्धाजला- | दघ्नोदकः, संघट्टस्तदूर्ध्व नाभिद्वयसोदकः, लेपस्तदूर्ध्वजलो, लेपोपरि बाहुभ्यामुडुपैर्वा चतुर्थः / चतुर्वत्र प्रायः कायोत्सर्गः / जीत०। जलोत्तरणप्रकाराःजंघातारिम कत्थइ, कत्थइ बाहाहि अप्प ण तरेजा। कुंभे दतिए तुंबे, णावा उड्डुवे य पण्णी य॥ 161 // समासतो जलसंतरणदुविह-थाह, अथाह च।जंथाहं तं तिविहं संघट्टो, लेवो, लेवोवरियं च। एयं तिविहं विजंघासंतारिमग्गहणेण गहिय। (कत्थइ त्ति) क्वचिन्नद्यादिषु ईदृशं भवतीत्यर्थः। वितियं (कत्थइ त्ति) क्वचिन्नद्यादिषु अत्थाहं भवतीत्यर्थः / एत्थ य बाहाहिं अप्पणा णो तरेज्जा, हस्ताऽऽदिप्रक्षेपे बहूदकोपघातत्वात् / जलभाविएहिं इमेहिं संतरणं कायव्वं-कुंभेण, तदभावा दत्तिएण, तदभावा तुंबेण, तदभावा उडपेण, तदभावा पण्णीए, तदभावा णावाए। बंधऽणुलोमा मज्झे णावागहणं कतं / एत्तो एगतरेणं, तरियव्यं कारणम्मि जातम्मि। एतेसिँ विवचासे, चातुम्मासा भवे लहुया / / 162 // गाहा कंठा। णवरं (विवच्चासे त्ति) सति कुंभस्स दत्तिएण तरति तो चउलहुयं / एवं एक्केक्कस्स विवचासे चउलहुयं दट्टत्वं / सव्वते कुंभाती इमाए जयणाएघेत्तव्वा। णावं पुण अहिकिस भण्णतिणवाऽणवे विभासा तु, भाविताऽभाविते त्तिय। दगडण्णभाविए चेव, उल्लाऽणोल्ल य मग्गणा / / 163|| साणावा अहाकडेण य जाति, संजयट्टा वा अहाकडाए गंतव्वं / असति अहाकडाए संजयट्ठाए विजा जाति,ताए विगंतव्वं। सादुविहा-(णवाऽणवे विभास त्ति) णवा, पुराणा वा / णवाए गंतव्वं, न पुराणाए, सप्रत्यपायत्वात् / णवा दुविहा-(भावियाऽभाविय त्ति) उदगभाविता, अभावितायाजा उदगे छूढपुव्वा, सा उदगभावि-या। इतरा अभाविया / भावियाए गंतवं, ण इतराए / मा उदगशस्त्रं भविष्यतीति कृत्वा / तदुदयभाविया दुविहा-(उल्लाऽणोल्ल त्ति) मग्गणा उल्ला तिता, अणोल्ला सुल्ला। उल्लाए गंतव्वं, ण इयरीए, दगाकर्षणभयात्। (मग्गणे त्ति) एषा एव मार्गणा, याऽभिहिता, एरिसणावाए पुण गच्छति। नि० चू० 130 / (चत्वारो नौसंतरणप्रकाराः 'णावा 'शब्दे वक्ष्यन्ते) महार्णवसूत्रम्नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच महण्णवाओ महानदीओ उद्दिट्ठाओगणियाओ वंजियाओ अंतोमासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा / तं जहा-गंगा, जउणा, सरऊ, कोसिया, मही। नो कल्पन्ते न युज्यन्ते / सूत्रे एकवचननिर्देशः प्राकृतत्वात् / निर्ग्रन्थानाम् , इमाः प्रत्यासन्नाः पञ्च महार्णवा बहूदकतया महासमुद्रगामिन्यो महानद्यो गुरुनिम्नगा उद्दिष्टाः सामान्येनाभिहिताः,यथा महानद्य इति / गणिता यथा पञ्चेति / व्यजिता व्यक्तीकृता यथा गङ्गेत्यादि / अन्तर्मध्ये मासस्य द्विःकृत्त्वो वा त्रिःकृत्वो वा उत्तरीतुं बाहुजनाऽऽदिना, संतरीतुं नावादिना / तद्यथा-गङ्गा 1 यमुना 2 सरयू 3 कौशिकी 4 मही५ / एष सूत्रार्थः। ___ अथ भाष्यकारः कानिचिद्विषमपदानि विवृणोतिइमाओं त्ति सुत्तउत्ता, उद्दिट्ठ नदीउ गणिय पंचेव। गंगादि वंजिताओ, बहुउदगा महण्णवाओ तु / / 714 / / (इमा इति) प्रत्यक्षवाचिना सर्वनाम्ना सूत्रोक्ता उच्यन्ते / उद्दिष्टा नद्य इति / गणिताः पोति / व्यञ्जिता गङ्गाऽऽदिपदै
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________________ गईसंतार 1736 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णईसंतार व्यक्तीकृताः, यास्तु बहूदकास्ता महार्णवा उच्यन्ते / कृता विषम- नयति, ततो नावारूढः साधुः कथिकाः कथयितु लग्नः, यावन्तश्च तत्र पदव्याख्या भाष्यकृता। वल्लक क्षेपास्तावन्ति चतुर्लघूनि, पश्वाच साधूनां मार्गणाअथ नियुक्तिविस्तरः संयमविराधना 1, आत्मविराधना 2, उभयविराधना वा / यदि वा पंचण्हं गहणेणं, सेसा वि तु सूइया महासलिला। उदकमवतरतः, नावारूढस्य, नाव उत्तरतश्चेति / एतेषां त्रया णामेकतरस्मिन बहवः प्रत्यपाया भवन्ति / उक्त सतरणम्। तत्थ पुरा विहरिंसु, ण य ताओ कयाइ सुक्खंति / / 715 / / उत्तरणे जडासंघट्ठाऽऽदिदोषाः। अथोत्तरणमाहपञ्चानां गङ्गाऽऽदीनां ग्रहणेन शेषा अपि या महासलिला बहूदका अविच्छेदवाहिन्यस्ताः सूचिता मन्तव्याः / स्याद् बुद्धिः किमर्थ उत्तरणम्मि परुविते, उत्तरमाणस्स चउलहू होति। गङ्गाऽऽदीनां ग्रहणम् ? इत्याह-(तत्थ इत्यादि) येषु गङ्गाऽऽदयः पञ्च आणाऽऽदिणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽताए / 726 // महानद्यो वहन्ति, तेषु पुरा साधवो विहृतवन्तः, न च ताः कदाचिदपि उत्तरणं नाम यन्नाव विना वक्ष्यमाणैः संघट्टाऽऽदिभिः प्रकारैरुत्तीर्यते, शुष्यन्ति, अतस्तासां ग्रहणम्। तस्मिन्नुत्तरणे प्ररूपिते सतीदमनिधीयते, यदि जडाऽऽदिनाऽप्युत्तरति, पंच परूवेऊणं, णावासंतारिमं तु जं जत्थ / तदा चतुर्लघु, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः, संयमाऽऽत्मविराधना च भवति। उत्तरणम्मि विलहुगा, तत्थ विआणाऽऽदिणो दोसा / / 716 / / तस्य चोत्तरणस्यैते भेदाःपचापि महानदीः प्ररूप्य, या यादृशी यद्विषये, तां तथा वर्णयित्वा जंघद्धा संघट्टो, संघट्टवरिं तु लेवा जाणाभी। प्रस्तुतमभिधातव्यम् / तचेदम्-नौ संतारिमं यत्रोदकं तत्र यः तेण परं लेवोवरि, तुंबाऽऽदी णाववजेसु / / 730 // षट्कायविराधनां प्राप्नोति, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं, यत्रापि जडा यरिमन कूले उत्तरतां पादतलादारभ्य जमाया अर्द्ध बुडति स संघट्टः, ऽऽदिनोत्तरणं भवति, तत्रापि चतुर्लघुकाः / अपिशब्दात्संतरणेऽपि तस्यैव संघट्टस्योपरियावन्नाभिरेव तावद्यत् प्रविशति स लेपः। ततः परं चतुर्लधु / तत्राप्युत्तरणे आज्ञाऽऽदयो दोषाः, किं पुनः संतरणे ? नाभेरारभ्योपरि सर्वमपिलेपोपरि भण्यते। तच द्विधास्ताघमस्तापंच। इत्यपिशब्दार्थः / बृ०४ उ०। स्था० / ग01 नि० चू०। यत्र नासिका न बुडति तत् स्ताचं, यत्र तु नासिका बुडति तदस्ताघम्। सन्तरणे दोषाः। तत्र संतरणे तावदोषानाह तत्र तुम्बोदुपाऽऽदिभिनौवर्जितैर्यत्तार्यते तदुत्तरणं मन्तव्यम्। अणुकंपा पडिणीया, व होज बहवो य पचवायाओ। तत्रोत्तरणे एते संयमाऽऽत्मविराधनादोषाःएतेसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए / / 717 / / संघट्टणा य सिंचण, उवगरणे पडण संजमे दोसा। अनुकम्पादोषाः, प्रत्यनीकदोषाः, बहवो वा प्रत्यपाया नावमारूढानां चिक्खिल्लखाणुकंटग, सावतभयवाहणे आया / / 731 / / भवन्ति। एतेषां च नानात्वं विभागं यथाऽऽनुपूा वक्ष्यामि। लोकेन साधोः संघट्टनं भवेत् , साधुर्वा जलं सट्टयेत्, सचट्टनग्रहणात् तदेवाऽऽह परितापनमपद्रावणं च सूचितम् / एतेषु कायनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / छुमणं जले थलातो, अण्णे वोत्तारिता छुभति साहू। प्रत्यनीकः साधुमुपधि वा सिञ्चति, स्वयं वा साधुरात्मानं सिञ्चेत् , ठवणं व पत्थिताए, दर्बु णावं च आणाती।। 715 / / साधोरुपकरणस्य जले पतनम्। एते संयमे दोषाः / तथा चिखिल्लेष्वसाधु तरणार्थिन ज्ञात्वा नौवाणिजो, नाविको वा अनुकम्पया नावं भिमजति, जलमध्ये वाचक्षुरविषयतया स्थाणुना कण्टकेन वायद्विध्यते, स्थलाजले प्रक्षिपेत्। ये वा पूर्वनावमारोपिताः, तानुदके, तटे वाऽवतार्य मकराऽऽदिश्वापदभयं वा भवति, नदीवाहेन वा वाहनम् / एषा साधून प्रक्षिपेत् , नावमारोपयेदित्यर्थः / संप्रस्थिता वा नावं साधव सर्वाऽप्यात्मविराधना। उत्तरिष्यन्तीति कृत्या स्थापयेत्। साधून वा दृष्ट्वा परकूलान्नावमानयेत्। ऐरावतीकुणालायां सूत्रम्अत्र चामी दोषाः अह पुण एवं जाणिजा-एरवई कुणालाए जत्थ चक्किया एगं भावियसाधुपदोसा, णियत्तणत्यंतगाय हरियाऽऽदी। पायं जले किच्चा एगं पायथले किच्चा, एव ण्हं कप्पइ अंतोमासजं तेणसावएहि व, पवहण अण्णाएँ किणणं वा / / 716 / / स्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा; नो ये वेडिकाया अवतारिताः, ते नाविकस्य वा, साधूनां वा प्रद्वेषं गच्छे चक्किया एव ण्हं नो कप्पइ अंतोमासस्सदुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो युः / यद्वाते निवर्तमानास्तत्रैव तिष्ठन्तो हरिताऽऽदीनां विरा वा उत्तरित्तएवा संतरित्तए वा! धनामन्यद्वाऽधिकरणं यत् कुर्वन्ति / यतास्तेनश्वापदेभ्य उपद्रवं अथ पुनरेव जानीयात्-ऐरावती नाम नदी कुणालायाः न गर्याः समीपे प्राप्नुवन्ति, अवहन्तीं वा नावं यत्प्रवाहयिष्यन्ति, अन्यस्या नावः क्रयणं जड्वार्द्धप्रमाणेनोद्वेधेन वहति, तस्यामन्यस्यां वा यत्रैव (च-किया) करिष्यन्ति ते, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। शक्नुयात् , उत्तरीतुमिति शेषः / कथमिति ? आह- एकं पादं जले परकूलान्नावानयने दृष्टान्तमाह कृत्वा, एकं पाद स्थले आकाशे कृत्वा / एव ण्ह-मिति वाक्यालङ्कारे। यत्रोत्तरीतुं शक्नुयात्,तत्र कल्पते अन्तर्मासस्य द्विःकृत्वो वा त्रिःकृत्वो वा मजणगतो मुरुंडो, णावं दटूण अप्पणा णेति! उत्तरीतुं लङ्ग यितुम् , संतरीतु भूयः प्रत्यागन्तु, यत्र पुनरेवमुत्तरीतुं न कहिगा जति अ कखेवा, तति लहुगा मग्गणा पच्छा / / 720 / / शवनुयात्, तत्र नो कल्पते अन्तर्मासस्य द्वि-कृत्वो वा त्रिःकृत्वोवा उत्तरीतुं मज्जनगतः स्नानं कुर्वन् . मुरुण्डो राजा साधून दृष्ट्वा नावमात्मना / लयितुं, संतरीतु भूयः प्रत्यागन्तुम, यत्र पुनरेवमुत्तरीतं न श
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________________ णईसंतार 1740 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णईसंतार पनुयात् , तत्र नो कल्पते अन्तर्मासस्य द्विःकृत्वो वा त्रिःकृत्यो वा उत्तरीतुं वा संतरीतुं वा / इति सूत्रार्थः। अथ भाष्यकृद्विषमपदानि व्याचष्टेएरवइ जण्हि चक्किय, जलथलकरणे इमं तु णाणत्तं / एगो जलम्मि एगो, थलम्मि इहइं थलागासं // 732 / / ऐरावती नाम यत्र, नदी तस्यां जलस्थलयोः पादकरणेनोत्तरीतुं शक्यम् / इदमेव चात्र नानात्व, यत्सर्वसूत्रोक्तासु महानदीसुमासान्ता: त्रीन्वारान न कल्पते। यद्यात्रैको जले, एकश्च पादः स्थले इत्युक्त, तदिह स्थलमाकाशमुच्यते। एरवइ कुणालाए, वित्थिन्ना अद्धजोयणं वहति। कप्पति तत्थ अपुण्णे, गंतुं जा एरिसी अण्णा / / 733 / / ऐरावती नदी कुणालानगर्या अदूरे अर्द्धयोजनविस्तीर्णा वहति / सा चोद्वेधेन च जङ्घार्द्धप्रमाणा, तत्र ऋतुबद्ध काले मासकल्पे अपूर्णे, त्रिःकत्यो भिक्षाग्रहणलेपाऽऽनयनाऽऽदौ कार्ये यतनया गन्तं कल्पते,या चेदृशी अन्याऽपि नदी, तस्यामपि त्रिःकृत्वो गन्तुं कल्पते / कृता विषमपदव्याख्या भाष्यकृता। सम्प्रति नियुक्तिविस्तरःसंकमथले य णो-थल पासाणजले य वालुगजले य। सुद्धदगें पंकमीसे, परित्तऽणते तसा चेव / / 734 / / नदीमुत्तरतस्तु ये पन्थानः / तद्यथा-संक्रमस्थलं, नो स्थलं च तत्र यदेकानिकाऽऽदिना संक्रमेण गम्यते तत संक्रमस्थलं. नद्या कपरण वरणेन वा यद् नदीजलं परिहृत्य गम्यते / नोस्थलं चतुर्विधम्पाषाणजलं, वालुकाजलं. शुद्धोदकं, पङ्कमिश्रजलम् / एतेषु चतुर्ध्वपि गच्छतां यथासंभवं परीत्तानन्तकायास्त्रसाश्व विराधनां प्राप्नुवन्ति / तथाउदए चिक्खिल्लपरि-त्तऽणंतकाइगतसे य मीसे य। अकंतमणकते, संजोए होति अप्पबहुं / / 735 / / उदके चिक्खिल्लाऽऽदिकः पृथिवीकायो, वनस्पतयश्व परीत्तकायिकाः, अनन्तकायिका वा, साश्च द्वीन्द्रियाऽऽदयो भवेयुः / एते च सर्वेऽपि यथासंभवं मिश्राः सचित्ता अचित्ता वा, आक्रान्ता अनाक्रान्ता वा, स्थिराः अस्थिरावा, सप्रत्यपाया निष्प्रत्यपाया वा भवेयुः / एतेषु बहवः संयोगा उपयुज्य वक्तव्याः / तेषु यत्राल्पबहुत्वं भवति, अल्पतरसंयमाऽऽत्मविराधनादोषाः, बहवश्च गुणा भवन्ती-त्यर्थः / तत्र कारणे समुत्पन्ने गन्तव्यम्। यत्रच संक्रमो भवति, तत्रामी भङ्गविकल्पा भवेयु:एगंगिचलत्थिरपारि-साडिसालंबवजिए सभए। पडिवक्खेसु तु गमणं, तजातितरे य संडेवा / / 736 / / संक्रमः एकाङ्गिको वा स्याद् , अनेकाङ्गिको वा / एकाङ्गिको य एकेन फलकाऽऽदिना कृतः / अनेकाङ्गिको योऽनेकफलकाऽऽदिनिर्मितः / अत्रैकानिकेन गन्तव्यम्, न अनेकानिकेन / एवं स्थिरेण, न च चलेन। अपरिशाटिना, नो परिशाटिना। सालम्बेन गन्तव्यं, न वर्जितेन : निरालम्बेनेत्यर्थः। सालम्बोऽपि द्विधाएकतःसालम्बः, द्विधा सालम्बश्च / पूर्व द्विधा सालम्बेन, तत एकतः सालम्बेनापि। तथा निर्भयेन गन्तव्यं, न | सभयेन / अत एवाऽऽह-(पडिव-क्खेसु य गमणं ति) अनेकाङ्गिकचलपरिशाटिनिरालम्बसभयाऽऽख्यानां पञ्चानां पदाना, ये एकाङ्गिकाऽऽदयः प्रतिपक्षाः, तेषु गमनं कर्तव्यम् / अत्र पञ्चभिः पदैात्रिंशद्भङ्गाः / एकाङ्गिकः, स्थिरोऽपरिशाटी, सालम्बो, निर्भय इत्यादि / एषु प्रथमो भङ्गः शुद्धः, शेषा अशुद्धाः / तेष्वपि बहुगुणतरेषु गमनं,यतना च कर्तव्या। सण्डेवका अपि संक्रमभेदा एव। उद्यानकाः, इतरेवा अनुद्यानकाः सण्डवका भवेयुः। अत आह-तत्रैव जातास्तज्जाताः, शिलाऽऽदयः / अन्यतः स्थानादानीय स्थापिता अतजाताः, इहालकाऽऽदयः / तेष्वपि चलाचलाऽऽक्रान्तानाक्रान्ताऽऽदयो भेदाः कर्तव्याः। उक्तः सक्रमः। अथ स्थलमाहनदिकोप्परवरणेण व, थलमुदयं णोथलं तु तं चउहा। उवलजलवालुगजलं, सुद्धमहीपंकमुदगं च / / 737 // नद्या आकुण्टितकूर्पराऽऽकारजलेन नदीकूर्परमुच्यते / जलोपरि कपाटानि मुक्त्वा पालिबन्धः क्रियते, स वरण उच्यते। एताभ्यां यदुदकं परिहत्य गम्यते, तत् स्थल द्रष्टव्यम् / अथ नोस्थलं, तचतुर्विधम् / उपलजलम्-अधः पाषाणाः, उपरि जलम् / वालुकाजलम्-अधो वालुकाः, उपरि पानीयं च / शुद्धोदकम्-अधः शुद्धा मही, उपरिजलम् / पड़ोदकम्-अधः कर्दम उपरिजलम्। पकोदकस्य चामूनि विधानानिलत्तमपहे य खलुए, तहऽद्धजंघाएँ जाणुउवरिं च / लेवो य लेवउवरिं, अकंतादी उ संजोगा / / 738 / / यावन्मात्रमलतेनेव पादो रज्यते, तावन्मात्रो यत्र पथि कर्दमः स लक्तकपथः / खलुकमात्रः पादधुण्टकप्रमाणः, अर्धजङ्घामात्रो जजार्द्ध यावद्भवति,जानूपरिजानुमात्र यावद्भवति, लेपो नाभिप्रमाणः, तत ऊर्द्ध सर्वोऽपि लेपोपरि। एते सर्वेऽपि कर्दमप्रकाराश्चतुर्विधे नोस्थले कर्दमे च, आक्रान्तानाक्रान्तसमयनिर्भयाऽऽदयः संयोगा यथासंभवं वक्तव्याः / सदोषः पन्थाः। अमुना दोषेण युक्तः पन्थाः परिहर्तव्यःजो वि पहो अक्कतो, हरियादितसेहिँचेव परिहीणो। तेण वितु ण गंतव्वं, जत्थ अवाया इमे होति / / 736 / / योऽपिचपन्था आक्रान्तो दरमलितो, हरिताऽऽदिभिरत्रसैश्च परि-हीणो भवति, ततोऽपि न गन्तव्यम् , यत्रामी अपाया भवन्ति। गिरिनदि पुण्णा बाला-हिकंटगा दूरपारमावत्ता। चिक्खिल्लकल्लुगाणि य, गारा सेवाल उवला य / / 740 / / यथ पथि गिरिनदी पूर्णा तीव्रवेगा वहति। मकराऽऽदयो व्याला अहयो वा यत्र जलमध्ये भवन्ति, कण्टका वाऽऽपूरेणाऽऽनीताः, दूरपारम् , आवर्तबहुलं वा जलं भवेत्। चिक्खिल्लो वा नदीषु तद्देशो-यत्र पादौ निमज्जति, कल्लुकाः, गाथायां नपुंसकत्वं प्राकृतत्वात् / पाषाणेषु द्वीन्द्रियजातिविशेषा भवन्ति, ते पादौ छेदयन्ति। गाराः पाषाणशङ्गिकाः, सेवालः प्रसिद्धः, उपलाः छिन्नपाषाणाः। एभिरपायैर्वर्जितेन पूर्व स्थलेन गन्तव्यम् , तदभावे संक्रमेण, तदभावे नोस्थलेनापि / तत्र चतुर्विधे नोस्थले पूर्वममुना गन्तव्यम्उवलजलेण तु पुव्वं, अक्कतें निरचएण गंतव्वं /
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________________ णईसंतार 1741 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णईसंतार तस्सऽसति अणकंते, निरचएणं तु गंतव्वं / / 741 // उपलजले कर्दमो न भवति, स्थिरसंहननं च तद् भवति, अतः पूर्व तेनाऽऽक्रान्ते निरत्ययेन क्षुण्णनिष्प्रत्यपायेन गन्तव्यम् / तख्याभावे अनाक्रान्ते निरत्ययेनापि गन्तव्यम्। एमेव सेसएसु वि, सिगतजलादीहिँहोंति संजोगा। पंकमहुसित्तलत्तग-खलद्धजंधा य जंघा य।। 742 / / उपलाद् बालुका अल्पसंहनना, तत उपलजलाभावे बालुकाजलेन / गन्तव्यम् / बालुकायाः शुद्धा पृथिवी स्वल्पतरसंहनना, ततो बालुकाजलानन्तरं शुद्धोदकेन गम्यते, तेष्वपि सिकताजला दि, शेषपदेषु एवमेव प्राग्वदाक्रान्तानाक्रान्ताऽऽदयः संयोगा भवन्ति / पङ्कजलं बहुप्रत्यपायमतः सर्वेषामुपलजलाऽऽदीनामभावे तेन गम्यते। स च यो मधुसिक्ताऽऽकृतिक्रमतलयोरेव केवलं लगति, यो वा अलक्तकमात्रस्तेन पूर्व गम्यते, पश्चात् खलुकमात्रेण, पश्चादर्द्धजङ्घामात्रेण, ततो जसामात्रेणापि, जानुप्रमाणेनेत्यर्थः / यस्तु जानुप्रमाणादुपरि पङ्कस्तेन न गन्तव्यम्। यत आहअद्धोरुगमित्तातो, जो खलु उवरिंतु कद्दमो होति। कंटादिजढो विय सो, अत्थाहजलं व सावायं / / 743 / / अोरुकमात्राद् जानुप्रमाणादुपरि यः कर्दमो भवति, स कण्टकाऽऽद्यपायवर्जितोऽप्यस्ताघजलमिव गन्तुमशक्यत्वात् सापायो मन्तव्यः / एष विधिः सर्वोऽपि सचित्तपृथिव्यामुक्तः। अथाचित्तपृथिव्यां तमेवाऽऽहजत्थ अचित्ता पुढवी, तहियं आउतरुजीवसंजोगो। जोणिपरितथीरेहि य, अक्कंतणिरचएहिं च / / 744 / / यत्र पृथिवी अचित्ता तत्राप्कायजीवानां तरुजीवानां च संयोगाः कर्तव्याः / तद्यथा-पृथिवी सर्वत्राप्यचित्ता किमप्कायेन गच्छतु, किं वा वनस्पतिना ? उच्यते-अप्काये नियमाद्वनस्पतिरस्ति, तस्मात्तेन / मागात् / वनस्पतिना गच्छन् तत्रापि परीत्तयोनिकेन स्थिरसंहननेन आक्रान्तेन निरत्ययेन निष्प्रत्यपायेन। अत्र षोडश भङ्गाः / तद्यथाप्रत्येकयोनिकः स्थिर आक्रान्तो निष्प्रत्यपायः / एष प्रथमो भङ्गः। सप्रत्यपायेन द्वितीयः / अनाक्रान्तेऽप्येवमेव द्वौ विकल्पौ। एंव स्थिरे चत्वारो विकल्पा लब्धाः / अस्थिरेऽप्येवं चत्वारः / एते प्रत्येकयोनिकेनाष्टौ भगा लब्धाः / अनन्तयोनिकेऽप्येवमेवाष्टौ लभ्यन्ते / एवं सर्वसंख्यया वनस्पतिकाये परीत्ताऽऽदिभिः पदैः षोडश भङ्गा भवन्ति। अथाप्कायस्य, सानां च संयोगानाहएमेव य संजोगा, उदगस्स चउविहेहि तु तसेहिं। अक्कंतथिरसरीरे, णिरचएहिं तु गंतव्वं / / 745 // चतुर्विधास्त्रसा द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्चेति / एतैश्चतुर्विधैरपि त्रसैराक्रान्ताऽऽदिभिः पदैरेवमेव उदकेन सह संयोगाः कार्याः / तद्यथा-आक्रान्ताः स्थिराः सप्रत्यपायाः। एवं त्रिभिः पदैरष्टौ भङ्गा भवन्ति / एते च द्वीन्द्रियाऽऽदिषु चतुर्वपि प्रत्येकमष्टावष्टौ लभ्यन्ते, जाता भड़कानां द्वात्रिंशत्। अथ सान्तरनिरन्तर विकल्पविवक्षा क्रियते, ततश्चतुःषष्टिसंयोगा उत्तिष्ठन्ते / अत्र चाऽऽक्रान्तस्थिरनिरत्ययैः सान्तरैस्त्रसैर्गन्तव्यम् . नाप्काये नावा तेऊवाउविहूणा, एवं सेसा विसव्वसंजोगा। उदगस्स उ कायव्वा, जेणऽहिगारो इहं उदए / / 746 // तेजोवायुकाययोर्गमनं न संभवतीति कृत्वा तेजोवायुविहीनाः / एवं शेषा अपि संयोगाः सर्वेऽपि कर्तव्याः। तत्राप्कायस्य वनस्पतिना त्रसैश्च सह भङ्गका उक्ताः / (बृ०) " अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा " इत्यादिसूत्रं व्याख्यातिएरवइ जत्थ चक्किय, तारिसए ण उवहम्मती खेत्तं / पडिसिद्ध उत्तरणं, अण्णासति खेत्तऽणुण्णातं॥७४७॥ या ऐरावती नदी कुणालाजनपदे योजनार्द्ध विस्तीर्ण जडार्द्धजानुमुदक वहति, तस्यां केचित्प्रदेशाः शुष्काः, न तत्रोदकमस्ति / तामुत्तीर्य यदि भिक्षाचर्या गम्यते, तदा ऋतुबद्धे तु ये उदकसंघट्टाः, ते च गताऽऽगतेन षड् भवन्ति। वर्षासुसप्त दकसंघट्टाः, तेच गता-5ऽगतेन चतुर्दश भवन्ति / एवमीदृशे संघट्टप्रमाणे क्षेत्र नोपहन्यते / इत एकेनाप्यधिके संघट्टे उपहन्यते / अन्यतोऽन्यत्रापि यत्राधिकतरसंघट्टाः, तत्रोत्तरण प्रतिषिद्धम् / पूणे मासकल्पे, वर्षावासे वा यद्यनुत्तीर्णानामपरं मासकल्पप्रायोग्यं क्षेत्रमस्ति, ततो नोत्तरणीयम्। अथानुत्तीर्णानामन्यत् क्षेत्रं नास्ति, ततः असति क्षेत्रे उत्तरणमनुज्ञातम्। इदमेव व्याचष्टेसत्त उवासासु भवे, दगघट्टा तिण्णि होंति उडबद्धे। जे तु ण हणंति खेत्तं, भिक्खायरियं च ण हणंति / / 758 / / सप्तोदकसंघट्टाः वर्षासु, त्रयः संघट्टा ऋतुबद्धे भवन्ति / ये एतावन्तं क्षेत्र नोपनिन्ति, न वा भिक्षाचर्यामुपघ्नन्ति। जह कारणम्मि पुन्ने, अंतो तह कारणम्मि असिवाऽऽदी। उवहिस्स गहणलिंपण-नावोदगतं वि जतणाए।। 746 / / यथा कारणे पूर्णे मासकल्पे, वर्षावासे वा अपरक्षेत्राभावे दृष्टमुत्तरण, तथा मासस्यान्तरेऽप्यशिवाऽऽदिभिः कारणैः, उपधेर्वा ग्रहणार्थ, लेपस्याऽनयनार्थ चोत्तरणीयम् , कारणे यत्र नावाऽप्युदकं तार्यते, तत्रापि यतनया संतरणीयम्। तत्र चाय विधिःनावथललेवहिट्ठा, लेवो वा उवरि एव लेवस्स। दोण्हादिवड्डमेगं, अद्धं णावाऐं परिहाती।। 750 // तत्र पूर्वार्द्धपश्चाद्धपदानां यथासंख्येन योजना। नावुत्तरणस्थानाद्यदि द्वेयोजने वक्रस्थलेन गम्यते, तेनगन्तव्यं, नचनौरारोढव्या। (लेवहिट्ठ त्ति) लेपस्याधस्ताद् दकसंघट्टेन यदि सार्द्धयोजनपरिरयेण गम्यते, ततस्तत्र गम्यता, न च नावमधिरोहेत्। एवं योजनपरिहारेण लेपेन गच्छतु, नचनावमधिराहेत्। अर्द्धयोजनपरि-हारेण स्थलेन एकयोजनपरिरयेण संघट्टेन अर्द्धयोजनपरिहारेण वा लेपेन गम्यताम् , न च लेपोपरिणा। लेपोत्तरणस्थानादेकयोजनपरिहारेण स्थलेनाद्धयोजनपरिहारेण वा संघट्टेन गन्तव्यं, न लेपेन / संघट्टोत्तरणस्थानादड़योजनपरिहारेण स्थलेन गम्यता, न च संघटेन / एतेषां परिहरमाणानामभावे नावा लेपोपरिणा लेपेन संघटन वा गम्यतेः, न कश्चिद्घोषः। अत्र' नावथल त्ति पदं व्याचष्टेदो जोयणाई गंतुं, जहियं गम्मति थलेण तेण वए।
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________________ णईसंतार 1742 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णईसंतार मा य दुरूहे नावं, तत्थावाया बहू वुत्ता / / 751 / / गृहिणामभावे सर्वोपकरणमवतरणतीरे मुक्त्वा नालिकामात्मवे योजने गत्वा यत्र स्थलेन गम्यते, तेन पया व्रजेत् , मा च नाव प्रमाणाचतुरङ्गुलातिरिक्तां यष्टिं गृहीत्वा, तया (आणक्खेउ) अमारोहेत्। यतस्तत्र बहवोऽपायाः पूर्वमेवोक्ताः। कारणे तु तत्रापि गम्यते। स्ताघतामनुमीय, तीरात् पुनरपि जले प्रतिचरणं करोति, प्रत्यागतत्र संघट्ट गच्छतां तावद्यतनामाह च्छतीत्यर्थः / आगत्य च तदुपकरणमेकाभोगं करोति, एकत्र निय त्रयतीत्यर्थः / ततस्तद् गृहीत्वा, तेन परीक्षितजलपथेनोत्तरति / एष थलसंकमणे जयणा, पलोगणा पुच्छिऊण उत्तरणं। लेपे, लेपोपरौ वा विधिरुक्तः / बृ०४ उ०। परिहरिऊणं गमणं, जति पंथो तेण जयणाए / / 752 / / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो परेहिं स्थलसंक्रमणे यतना कार्या; एकं पादं जले, एकं पादं स्थले सद्धिं परिजविय परिजविय गामाणुगामं दूइजेजा, तओ संजकुर्यादित्यर्थः / प्रलोकना नामलोकमुत्तरन्तं प्रलोकयति, यस्मिन् पार्च यामेव गामाणुगामं दूइज्जेजा (740) से भिक्खू वा भिक्खुणी जड्डाऽर्द्धमात्रमुदकं तत्र गच्छति। अथोत्तरतो न पश्यति, ततः प्रातिप वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से जंघासंतारिमे उदए सिया, थिकम् , अन्यं वा पृच्छति। ततो यत्र नीचतरमुदकं, तत्रोत्तरणं विधेयम्। से पुव्वामेव ससीसोवरियं कायं पादे य पमञ्जेजा, से पुवामेव (परिहरिऊण) इत्यादि / यदि तस्योदकस्य परिहारेण पन्था विद्यते, पमज्जित्ता० जाव एगं पादं जले किच्चा एगं पादं थले किया, तओ तदा त परित्यज्य यतनया तेन गन्तव्यम्। संजयामेव जंघासंतारिमे उदगे अहारियं रीएज्जा (741) से अथ स्थलपदे अमी दोषा भवेयु: भिक्खू वा भिक्खुणी वा जंघासंतारिमे उदगे अहारियं रीयमाणे समुदाणं पंथो वा, वसही वा थलपधेण जति णत्थि। णो हत्थेण वा हत्थं पादेण वा पादं काएण वा कायं आसाएजा, सावयतेण भयं वा, संघट्टेणं ततो गच्छे / / 753 / / से अणासादए अणासायमाणे तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएजा (742) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा समुदानं भिक्षा तत्र नास्ति, स्थलपथ एव वा नास्ति, वसतिर्वा | जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीयमाणे णो सायावडियाए णो स्थलपथेन यदि न समस्ति, श्वापदभयं, स्तनेभयं वा तत्र विद्यते, ततः परिदाहवडियाए महति महालयंसि उदगंसि कायं वितिसेज्जा, स्थलपथं मुक्त्वा संघटेन प्रथमतो गच्छेत् , तदभावे लेपेन। तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा, अह पुण तत्रेयं यतना एवं जाणेजापारए सिया उदगाओतीरंपाउणित्तए, तओ संजयामेव निब्भऍऽगारस्थाणं, तु मग्गतो चोलपट्टमुस्सारे / उदउल्लेण वा ससणिद्धेण वा काएण उदगतीरे चिठेजा (743) सभये अत्थाघे वा, उत्तिणेसुंधणं पढें / / 754 / / ' से ' इत्यादि स्पष्टम्। नवरमवेयं सामाचारीयदुदकार्द्र वस्त्रं तत् स्वत यदि स साधु हिसार्थसहायः, तत उदकसमीपं गन्तोर्ध्वकायं एव यावन्निष्प्रगलं भवति, तावदुदकतीर एव स्थेयम् / अथ चौराऽऽदिमुखवस्त्रिकया, अधःकायं रजोहरणेन प्रमाोपकरणमेकतः कृत्वा, भयाद् गमनं स्यात् , ततः प्रलम्बमानं कायेनास्पृशता नेयमिति। तथा' यदि निर्भय चौरभयं नास्ति, ततो गृहस्थानां मार्गतः सर्वतः से ' इत्यादि कण्ठ्यम्। नवरं (परिजविय इत्ति) परैः सार्द्ध भृशमुल्लापं पश्चादुदकमवतरति, यथा यथा चोण्डमुण्डतर जलमवगाहते, तथा कुर्वन्न गच्छेदिति / इदानीं जङ्घासतरण-विधिमाह-" से " इत्यादि। तथोपर्युपरि चोलपट्टकमुत्सारयेत् : येन नतीम्यते। अथ तत्र सभथम्, तस्य भिक्षोामान्तरं गच्छतो यदन्तराले जानुदघ्नाऽऽदिकमुदकं स्यात्, अस्ताघ वा जलं, ततो यदा कियन्तोऽपि गृहस्था अप्रतोऽवतीर्णाः, तदा तत ऊर्ध्वकायं मुखवस्त्रिकया, अधःकायं च रजोहरणेन प्रमृज्योदकं मध्ये साधुनाऽवतरणीयम् , चोलपट्टकं च घनं दृढं बध्नीयात्। प्रविशेत्प्रविष्टश्च पादमेकं जले कृत्वा, अपरं स्थले आकाशे कृत्वा एतेन विधिनोत्तीर्णस्य यदि चोलपट्टकोऽन्यद्वा किञ्चिदुपकरणजातं पादावुत्क्षिपन्न गच्छेत् न जलमालोडयता गन्तव्यमित्यर्थः / (अहारियं तीमितं तदाऽयं विधिः रीयेज्जत्ति) यथा ऋजु भवति तथा गच्छेद् , नार्दवितर्द विकारं वा कुर्वन् दगतीरे ता चिट्ठे, णिप्पगलो जाव चोलपट्टो तु। गच्छे-दिति।' से' इत्यादि।स भिक्षुर्यथार्थमेव गच्छन्महत्युदके महा श्रये वक्षस्थलाऽऽदिप्रमाणे जनासंतरणीये नदीहदाऽऽदौ पूर्वविधिनैव सभए पलंबमाणं, गच्छति काएण अफुसंतो / / 755 / / कायं प्रवेशयेत् / प्रविष्टश्च यद्युपकरणं निर्वाहयितुमसमर्थस्ततः सर्वम् , दकतीरे स्निग्धपृथिव्यामप्कायरक्षणार्थ तावत्तिष्ठेद् यावच्चोलपट्ट असारं वा परित्यजेत् / अथैव जानीयाच्छक्तोऽहं पारगमनाय, कोऽन्यद्वोपकरणं निष्प्रगलं भवति / अथ तत्र तिष्ठतः सभयं, ततः ततस्तथाभूत एव गच्छेत्। उत्तीर्णश्च कायोत्सर्गाऽऽदि पूर्ववत् कुर्यादिति। प्रगलन्तमेव तं चोलपट्टकं कायेनास्पृशन् बाहायां प्रलम्बमानं नयन् आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ० 2 उ०। गच्छति। अथापवादमाहयत्र सार्थविरहित एकाकी समुत्तरति, तत्रायं विधिः पंचहिं ठाणेहिं कप्पइ। तं जहा-भयंसि वा, दुभिक्खंसि वा असइ गिहि णालियाए, आणक्खेउं पुणोऽविपडियरणं / पव्वहेज वणं कोइ, दओघसि वा एज्जमाणंसि महता वा, अणाएगाभोगं च करे, उवगरणं लेव उवरिं च / / 756 / / रिएहिं।
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________________ णईसंतार 1743 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णईसंतार (पंचेत्यादि) भये राजप्रत्यनीकाऽऽदेः सकाशादुपध्याधपहारविषये सति 1, दुर्भिक्षे वा भिक्षाऽभावे सति २,(पटवहेजति) प्रव्यथते बाधते, अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद्वा प्रवाहयेत क्वचित् प्रत्यनीकस्तत्रैव गङ्गाऽऽदौ प्रक्षिपेदित्यर्थः 3 / (दओघंसि त्ति) उदकौघे वा गङ्गाऽऽदीनामुन्मार्गगामित्वेनावगच्छति सति, तेन प्लाव्यमाना-नामित्यर्थः / महता वा आटोपेनेति शेषः 4 / (अणारिएहिं ति) विभक्तिव्यत्ययादनार्यम्र्लेच्छाऽऽदिभिर्जीवितचारित्रापहारिभिः, अभिभूतानामिति शेषः / 5 / म्लेच्छेषु वा, आगच्छत्स्विति शेषः / एतानि पुष्टान्यालम्बनानीति तत्तरेणेऽपि न दोष इति। उक्तञ्च" सालंबणो पंडतो, विअप्पयं दुग्गमे विधारे।। इय सालंबणसेवी, धारेइ जई असढभावं॥१॥ आलंबणहीणो पुण, निवडइ खलिओ अहे दुरुत्तारे। इय निकारणसेवी, पडइ भवोहे अगाहम्मि" // 2 // इति / स्था० 5 ठा०२ उ०। अय नावं यैः कारणैरारोहेत् , तानि दर्शयतिविइयपयं तेणसावय-भिक्खे वा कारणे व आगाढे। कजुवहिमगरवुड्डण-नावोदग तं पिजतणाए।। 757 / / द्वितीयपदमत्रोच्यते / स्थलसंघट्टाऽऽदिपदेषु शरीरोपधिस्तेनाः, सिंहाऽऽदयो वा श्वापदा भवेयुः, भैक्ष्यं वा न लभ्यते, आगाढं वा कारणमहिदष्टविषविसूचिकाऽऽदिकं भवेत् , तत्र त्वरितमौषधान्यानेतव्यानि, कुलाऽऽदिकार्य वा आक्षेपेण करणीयमुपस्थितम् , उपधिरुत्पादकेनोदके प्रक्षिप्येत, तत एकाभोगकृतेषु भाजनेषु विलग्नस्तरतीति / (नावोदगतं पि जयणाए त्ति) यदि बलाभियोगेन नावुदकस्योत्सेचापन कार्यते, तदा तदपि यतनया कर्त्तव्यम्। कथं पुनरेकाभोगमुपकरणं करोतीत्याहपुरतो दुरुहणमेगं-ते पडिलेह पुव्व पच्छ समगं व। सीसे मग्गों मज्झे, वितियं उवगरण जयणाए।। 758 / / गृहिणां पुरत उपकरणं न प्रत्युपेक्षते, न वा एकाभोगं करोति, (दुरुहण त्ति) नावमारोदुकामेन एकान्तमपक्रम्योपकरणं प्रत्युपेक्ष-णीयं, ततोऽधःकायं रजोहरणेन, उपरिकायं मुखानन्तकेन प्रमृज्य भाजनान्येकत्र बध्नाति, तेषामुपरिष्टादुपधिं सुनियन्त्रितं करोति / (पुव्व पच्छ समगवत्ति) किं गृहिभ्यः पूर्वमारोढव्यम् , उत पश्चात् , उताहो समकम् ? अत्रोत्तरम्-यदि भद्रका भाविकाऽऽदयो, यदि च स्थिरा नौर्न दोलायते. ततः पूर्वसमारोढव्यम्। अथ प्रान्तास्ततः पूर्व नारुहावे, मा अमङ्गलमिति कृत्वा प्रद्नेषं गमन् / तेषां प्रान्तानां भावं ज्ञात्वा समक, पश्चाद्वा आरोहणीयम् / (सीसे त्ति) नावः शिरसि न स्थातव्यं, देवतास्थानं तदितिकृत्वा, मार्गतोऽपि न स्थातव्यं, निर्यामकपात्रं तिष्ठतीतिकृत्वा, मध्येऽपि यत्र कूपकस्थानं, तत्र न स्थातव्यं, तन्मुक्त्वा यदपरं मध्यस्थानं, तत्रस्थेयम् / अथ मध्ये नास्ति स्थानं, ततः शिरसि पृष्ठतो | वा यत्र ते स्थापयन्ति, तत्र निराबाधे स्थीयते, साकारं भक्तं प्रत्याख्याय नमस्कारपरस्तिष्ठति / उत्तरन्नपि न पूर्वमुत्तरति, न वा पश्चात् , किंतु मध्ये उत्तरति। सारोपधिश्च पूर्वमेवाल्पसागारिकैः क्रियते, यदन्तप्रान्त चीवर, तत्प्रावृणोति, यदि च तरपण्यं नाविको मार्गयति, तदा धर्मकथा, अनुशिष्टिश्च क्रियते / अथ न मुञ्चति, ततो द्वितीयपदे यदन्तप्रान्तमुपकरणं, तद् यतनया दातव्यम् / अथ तन्नेच्छति, निरुणद्धि वा, ततोऽनुकम्पया यद्यन्यो ददाति तदा न वारणीयः / बृ० 4 उ०। साम्प्रतं नौगमनविधिमधिकृत्याऽऽहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से णावासंतारिमं उदयं सिया, सेज्जं पुण णावं जाणेज्जा-अस्संजए भिक्खुपडियाए किणेज्ज वा, पाडिच्चेज वा, णावाए वा णावापरिणाम कट्ट थलाओ वा णावं जलंसि ओगाहेजा, जलाओ वा णावं थलंसि उक्कसेज्जा, पुण्णं वा णावं उस्सिचेञ्जा, सण्णं वा णावं उप्पीलावेजा, तहप्पगारंणावं उग्रगामिणिं वा अहेगामिणिं वा तिरियगामिणिं वा परं जोयणमेराए अद्धजोयणमेराए वा अप्पतरो वा भुजतरो वा णो दुरूहेज गमणाए / (723) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पुव्वामेव तिरिच्छसंपातिमं णावं जाणेज्जा, जाणित्ता से तमायाए एगंतमवक्कमेत्ता भंडगं पडिलेहेज्जा, पडिलेहित्ता एगओ भोयणर्भडगं करेजा, करित्ता ससीसोवरियं कायं पाए य पम जेजा, पम जित्ता सागारियभत्तं पञ्चक्खाएज्जा, पञ्चक्खाइत्ता एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा, तओ संजयामेव णावं दुरूहेजा / (724) / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णावं दुरूहमाणे णो णावाए पुरओ दुरूहेजा, णो णावाए अग्गओ दुरूहेज्जा, णो णावाए मज्झतो दुरूहेजा, णो बाहाओ पगिज्झिय 2 अंगुलीए उव-दंसिय 2 उण्णमिय 2 णिज्झाएजा। सेणं परोणावागतो णावागयं वएज्जाआउसंतो! समणा ! एयं तुम णावं उक्क-साहि वा, वोक्कसाहि वा, खिवाहि वा, रज्जुए वा गहाय आगसाहि, णो सेयं परिणं परिजाणिज्जा, तुसिणीओ उवे-हेज्जा / से णं परो णावागतो णावागयं वएज्जा-आउसंतो! सम-णा! णो संचाएसि तुमंणावं उक्कसित्तए दा, दोक्कसित्तए वा, खिवित्तए वा, रज्जुयाए वा गहाय आकसित्तए, आहर एतं णा-वाए रञ्जयं, सयं चेव णं वयं णावं उक्कसिस्सामो वा० जाव र-जुए वा गहाय आकसिस्सामो, णो सेयं परिणं परिजाणि-जा, तुसिणीतो उवेहेज्जा / से णं परो णावागओ णावागयं वएज्जा-आउसंतो ! समणा ! एयं ता तुम णावं अलित्तेण वा पीढेण वा वंसेण वा वलएण वा अवल्लएण वा बाहेहि,णो सेयं परिणं जाव उवेहेजा। से णं परोणावागओ णावागतं वदेजा-आउसंतो! समणा ! एतं तातुमणावाए उदयं हत्थेण वा पाएण वा मत्तेण वा पडिग्गहेण वा णावा उस्सिंचणेण वा उस्सिचाहि, णो सेयं परिणं परिजाणेजा। से णं परोणावागतो णावागतं वएजा-आउसंतो ! समणा ! एतं ता तुमं णावाए
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________________ णईसंतार 1744 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णईसंतार उत्तिंगं हत्थेण वा पाएण वा बाहुणा वा ऊरुणा वा उदरेण वा सीसेण वा काएण वा णावाउस्सिचणेण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुरुविंदेण वा पेहेहि, णो सेवं परिण्णं परिजाणेजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णावाए उत्तिंगणं उदयं आसवमाणं पेहाए उवरुवरि णावं कजलावेमाणं पेहाए णो परं उवसंकमित्तु एवं बूया-आउसंतो ! गाहावइ ! एयं ते णावाए उदयं उत्तिंगेण आसवति, उवरुवरि वा णावा कज्जलावेति, एतप्पगारं मणं वा वायं वा णो पुरओ कट्ट विहरेज्जा, अप्पुस्सुए अवहिलेस्से एगतिगएणं अप्पाणं विपोसेज समाहीए, तओ संजयामेव णावासंतारिमेउदए अहारियं रीएन्जा। एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गिय, जं सव्वढेहिं सहिते सदा जएग्जासि त्ति बेमि / (732) स भिक्षुर्गामान्तराले यदि नौसंतार्यमुदकं जानीयानावं चैवंभूता विजानीयात्। तद्यथा-असंयतो गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया नावं क्रीणीयात्, अन्यस्मादुच्छिन्नां वा गृह्णीयात्, परिवर्तनं वा कुर्यात्। एवं स्थलायाऽऽनयनाऽऽदिक्रियोपेतां नावं ज्ञात्वा नारुहेदिति / शेष सुगमम् / इदानीं कारणजाते नावारोहणविधिमाह- ' से ' इत्यादि सुगमम्। तथा 'से' इत्यादि स्पष्टं, नवरं नो नाव अग्रभागमारुहेद् , निर्यामकोपद्रवसंभवात्। नावारोहिणा वा पुरतो नाऽऽरोहेत , प्रवर्तनाधिकरणसंभवात्। तत्रस्थश्च नौव्यापारं नापरेण चोदितः कुर्यात् , नाप्यन्यं कारयेत् / (उत्तिंग ति) रन्धं (कछलावेमाणं ति) प्लाव्यमानाम् , (अप्पुस्सुएत्ति) अविमनस्कः शरीरोपकरणाऽऽदौ मूर्छामकुर्वन्तरिंमस्तूदकेनावगच्छन् (अहारियमिति) यत् तार्य भवति, तथा गच्छे शिष्टाध्यवसायो यायादित्यर्थः / एत तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति। आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०१ उ०। जे भिक्खू अणट्ठाए णावं दुरूहइ, दुरूहतं वा साइज्जइ / / णो अट्ठाए अणट्ठाए, दुरूहइ त्ति, विलगइ ति, आरुभति त्ति एगहें / आणाऽऽदिया दोसा चउलहुं / / गाहावारसमे उद्देसे, नावासंतारिमम्मि जे दोसा। ते चेव अणट्ठाए, अट्ठारसमे निरवसेसा।।२।। कंठ्या। अणडे दंसेति। गाहाअंतो मण केरिसिया, णावारूढेहिँ गम्मति कहं वा? अहवा णाणादिजढं, दुरूहणं होतऽणट्ठाए / / 3 / / केरिसि अब्भंतर त्ति चक्खुदंसणपडियाए आरुहति, गमणकुतूढलेण वा दुरूहति। अहवा नाणादिजढं दुरूहतस्स सेसं सव्वं अणट्ठा। अपवादेण आगाढे कारणे दुरूहेजा थलपहेण संघटा तियजलेण वा जइ इमे दोसा हवेजा। गाहावितियपद तेणसावय-विक्खेवा कारणे च आगाहे। कजुवहिमगरवुड्डण-नावोदग तं पि जयणाए।।४।। एस वारसमुद्देसे जहा, तहा भाणियव्वा / सुत्तदिट्ठकारणा विलग्गियव्वं, केरिसं पुण णावं विलग्गति, केरिसं वाण विलग्गति? अतो सुत्तं भयणति जे भिक्खू णावं किणइ, किणावेइ, किणावंतं दिज्जमाणं णावं दुरूहइ, दुरूहंतं वा किणावेइ, किणावंतं वा साइज्जइ।२। जे भिक्खू णावं पामिच्चेइ, पामिच्चावेइ, पामिच्चियमाहट्ट दिजमाणं दुरूहइ, दुरूहंतं वा साइज्जइ / / 3 / / जे भिक्खू णावं परियट्टेइ, परियट्टावेइ, परियट्टियमाहट्ट दिनमाणं दुरूहइ, दुरूहंतं वा साइजइ / / 4 / / जे भिक्खू णावं अच्छिदं अणिसिट्ठ अभिहडमाहट्ट दिजमाणं दुरूहइ, दुरूहत वा साइजइ।। 5 / / अप्पणा किणइ, अण्णेण वा किणावेति, अणुमोयति वा, तथा पामिचेति, पामिच्चावेति, पामिचंतं अणुमोदति / पामिचितं णाम उच्छिण्णं जो णावं परियडेति॥३॥ तहा डहरियणावाए महल्लंणावं परिचावेति साहू। एतेहिं सुत्तपदेहिं सव्वे उग्गमुप्पायणेसणादोसाय सूचिता, तेण णावणिज्जुति भण्णति / गाहाणावा उग्गमउप्पा-यणेसणा सुत्तसूइया दोसा। जावुत्तरणमकारण, अट्ठविहा ताव निजुत्ती।। 5 / / उग्गमदोसेसु जे चउलहुआ, ते जहासंभवं णावं पडुच्च वत्तव्या। गाहाउच्चत्त भत्तिए वा, दुविहा किण्णा उ होति णावाए। हीणाहियणावाए, मंडगुरू तेण पामिचे // 6 // साधूअढाए उचत्ताए णावं किणति, सर्वथा आत्मीकरोतीत्यर्थः / (भत्तिए त्ति) भाडएणं गेण्हति अप्पणा, से णावा हीणप्पमाणा, अहियप्पमाणा वा / अहवा-(भंडगुरु त्ति) जं तत्थ भंडमारोविज़ति, तं गुरु, साहू य णो खमिहिति ति, ता एवमादिकज्जेहिं णावं पामिचेति। अहवा-साणावा स्वयमेव गुरू, गुरुत्वाद्न शीघ्रगा मिनीत्यर्थः / गाहादोण्ह वि उवहिताणं, जत्ताए णअहियसिग्घट्ठा। णावा परियट्टिञ्जई, एवं साहुट्ठ आयरिया।। 7 // दो वाणिया जत्ताए णावाहिं उवट्टिता, तत्थ य एगस्स हीणा, अचस्स अहिया, तो परोप्परं णावा परिणाम करेंति, नावा नावं परावर्तयन्तीत्यर्थः / अहवामन्दगामिनी शीघ्रगामिन्या परावर्तयन्ति, एवं साध्वर्थमपि। गाहाएमेव सेसएसु वि, उप्पायणएसणाइदोसेसुं। जं जं जुजति सुत्ते, विभासियव्वं दुवत्ताए।।८।। कीयकमादिणावासुत्तेसु जं जं जुञ्जति, तं तं पिंडणिज्जुत्तीए भाणियव्यं / दुवत्ता वायालीसासोलस उग्गमदो सा, सोलस उपायणादोसा, दस एसणादोसा / एते मिलिया चाताला
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________________ गईसंतार 1745 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णईसंतार उग्गमउप्पायणेसणा तिणि दारगता। संजोगादियाण चउण्ह इमा विभासा / गाहासंजोए तणमादी, जलेण णावाएँ होति माणं तु / सुहवण्णो इंगालं, छड्डी खोहाऽऽदिसू धूमो / / 6 / / साधुअट्ठाए तणमादि किंचि कट्ठ संजोएति, आसण्णमज्झदूरगमणा जलप्पमाणसाधुप्पमाणाओ य हीणं जुत्तमधियं पमाणेण वा णावा होज्ज (सुहवण्णोति) रागेण इंगालसरिसंवरणं करेति,णावागमणे छड्डी हवइ, दुवा बाहया वा नावाभएण सरीरसंखोहो भवति, कंपो, मुच्छा, सिरत्ती य। एवमादिदोसा वरणधूमिंधणेण समं करेति। गाहाकारणे विलग्गियव्वं, अकारणे चउलहू मुणेयव्वं / किं पुण कारण होज्जा, असिवादिथलासति दुरूहेइ // 10 // णावागमणे कारणेण यदुरूहियव्यं, निकारणे चउलहुँ। असिवाइकारणे वा गच्छंतस्सतं नावातारिम चउव्विहं / गाहानावासंतारपहो, चउव्विहो वण्णितो उ जो पुव्वं / णिज्जुत्तीरें सुविहिए, सो चेव इहं पि णायव्यो // 11 // निजुत्तीपेढं इमस्सेव जहा पेढया आउक्कायाहिगारेण भाणिया, तहा भाणियव्या। गाहातिरिओयाणुजाणो, समुद्दगामी य चेव नावाए। चउलहुगा अंतगुरू, जोयणमद्धद्ध जाणु पदं / / 12 / / तत्र इव गाहावीयपऐं तेणसावऐं, भिक्खे वा कारणे व आगाढे। वत्थूवहिमगरवुडुण-नावोदगतं पि जयणाए।। 13 / / बारसमे पूर्ववत्। सुत्तजे भिक्खू थलाओ णावं जले उक्कसावेइ, उक्कसावंतं वा साइजइ॥६॥ स्थलस्थं जले कारेति। जे भिक्खू जलाओ णावं थले उकसावेइ, उकसावंतं वा साइजइ / / 7 / / जलस्थं स्थले कारेति। सुत्तंजे भिक्खू पुण्णणावं उस्सिचइ, उस्सिचंतं वा साइज्जइ॥८॥ जे भिक्खू सण्णं णावं उप्पिलावेइ, उप्पिलावंतंवा साइजइ॥६|| (सण्ण ति) कद्दमे खुत्ता (उप्पिलावेइ त्ति) ततो उक्खणति। गाहागाहेइ जलाउ थलं, जाव थलाओ जलयमोगाहे। सण्णं व उप्पिलावे, दोसा ते तउ वितियपदं / / 14 / / दोसा जे वारमे भणिता, ते भवंति, वितियपदं तत्थेव भणियं, तं चेव भाणियव्वं / जे भिक्खु पडिणाविय कट्ठणावाए दुरूहइ, दुरूहंतं वा साइज्जइ / / 10 // जे भिक्खू उडगामिणा वा णावं अहेगामिणा वा णावं दुरूहइ, दुरूहंतं वा साइजइ॥ 11 // जे भिक्खू जोयणवेलागामिणी वा अद्धजोयणवेलागामिणी वा णावं दुरूहइ, दुरूहंतं वा साइजइ।।१२।। जे भिक्खू णावं आकसइ, आकसावेइ, आकसावंतं वा साइज्जइ।। 13 जे भिक्खू णावं खेवावेइ, खेवावंतं वा साइज्जइ / / 14 // जे भिक्खू णावं रज्जुणा वा कड्ढावेइ, कड्ढावंतं वा साइजइ / / 15 / / जे भिक्खू णावं अलित्तएण वा पहिएण वा दंडएण वा वंसेण वा वल्लेण वा वाहेइ, वाहतं वा साइज्जइ / / 16 // जे भिक्खू णावाए उदगं हत्थेण वा पडिग्गहेण वा मत्तेण वा णावाउस्सिचएण वा उस्सिचइ, उम्सिचंतं वा साइजइ॥ 17 // जे भिक्खू उव्वद्धियं णावं उत्तिंगं वा उदगं आसिंचमाणिं वा उवरुवरि वा कज्जलावेमाणिं पेहाए हत्थेण वा पाएण वा असिपत्तेण वा कुसपत्तेण या मट्टियाए वा चेलेण या पडिपिहेइ, पडिपिहंतं वा साइज्जइ।। 18|| जलो नावं वेलाए हीरहि त्ति दीहरज्जुए तडसि रुक्खे वा कीलगे वा बद्ध वा मुत्तिता वाहेज्जा, वुज्झमाणिं वा बंधिज्जा, उत्तिंगेण वा भरित भरिजमाणिवा जो उवसिंचति सबलपाणियस्स, रित्तं वा थिमिता गच्छउ त्ति पाणियस्स भरेति, तस्स चउलहुँ। गाहाउव्वद्ध, वाहेती, बंधइ वुज्जइँ भरिऍ उस्सिचे। रित्ती वा पूरेती, ते दोसा तं वितियपदं / / 15 / / कंठा। जे णावं आगसति वा इत्यादि / जे णावाए उदगं हत्थेण वा० जाव उस्सिचति, णावाए उत्तिंग० जाव पिहित वा साइजइ। एतेसिं सुत्ताणं पदा सुत्तसिद्धा चेव, तहा वि कोइ पदे सुत्तफासित्ता फुसति / गाहानावाएँ खिवणवाहण-उस्सिचणपिहणसाहणं वा वि। जे भिक्खू कुज्जाही, सो पावति आणमादीणि // 16 // अण्णणावहितो जलट्टितो तडडिओ वा णावपराहुत्तं खिवति, णावऽण्णतरणयणप्पगारेणं नयणं वाहण भण्णति / उत्तिंगादिणावापविट्ठ मुदगं अण्णयरेण कट्ठाऽऽदिणा उस्सिचएण उस्सिचति / उत्तिंगाऽऽदिणा उदगहत्थाऽऽदिणा पिहति, एवमप्पणा करेति, अण्णस्स वा कहेति, आणादि, चउलहुं च। एतेसु य अण्णेसु य सुत्तपदेसुं इमं वितियपदं। गाहावितियपऍ तेवसावरें, भिक्खे वा कारणे व आगाढे। कजोवहिमगरवुडण-णावोदग तं पि जतणाए / 17 / / पूर्ववत्। गाहाआकडणमाकसणं, उक्कसणं पेल्लणं तु जउ उदगं / उङ्घमहतिरियकडण, रजुएँ कट्ठम्मि वा घेत्तुं / / 18 //
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________________ णईसंतार 1746 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णईसंतार अप्पणो तेण आकड्डणमाकसणं, उदगत्तेण प्रेरणं उक्कसणं। (उड्डे ति) णदीगए समुहे वा वेलापाणियस्स प्रतिकूल उड्ड(अहत्ति) तस्सेव उदगरस श्रोतोनुकूलम् अहो भण्णति / नो प्रतिकूलं, नो अनुकूल वि तिरिच्छ तिरियं भण्णति। एवं उखु अहं तिरियं वा रज्जुए कट्टम्मि वा घेत्तुं कईंति। गाहातणुयमलित्तं आसो, पत्ते सिरसो पिहो हवति रुंदो। वंसे णवा उ गम्मति, वलएण वलिज्जती णावा / / 16 // तणुयमदीहं, (अलित्तमिति) अलितं आसो दो विपत्तो, तस्स एतस्स सिरसो रुंदो पिहो भवति, वंसो वेणू , तस्स अवटुंभेण, पादेहिं परितावे णावा गच्छति, जेण वाम दक्खिणंवा वलिजति, सो वलतारण पि भण्णति। गाहामूले रुंद अवल्ला, अंते तणुगा वहंति णायव्वा / दव्वी तणुगी लहुगी, दोणी वाहिज्ज वीतीयं // 20 // पुटवद्ध कंट। लहुगी जा दोणी, सा तीए दव्वीए वाहिजति / णावाउम्सिचणगं च दुगं दव्वगादि वा भवति / उत्तिर्ग णामछिदं, तं हत्थमादीहिं पिहेति। गाहाइसिगाइ विप्पितंती, होति उ उसुमट्टिया य तम्मिस्सा। मोयगुलवंजणाती, अदुवा छल्ली कुविंदो उ।।२१।। अहवा सरसछल्ली ईसिगि त्ति, तस्सेव उवरि तस्स छल्ली, सो य मुंजो दब्भो वा; एते विप्पितति, कुट्टिया पुणो मट्टियाए सह कुट्टिजति। एस उसुमट्टिता, कुसुमट्ठिया वा मोदगुलवंजणाती, आदि-सद्दातो वडपिप्पलआसंतयमादिदाणचक्को मट्टियाए सह कुट्टिजति, सो कुविंदो भण्णति / अहवा चेलेण सह मट्टिया कुट्टिया चेलमट्टिया भण्णति / एवमाइएहिं तं उत्तिगं पिहेति जो, तस्स चउलहु, आणा- दिया य दोसा। सुत्तं - (जेणावाए उदगं आसवमाणं पेहाए इत्यादि) उत्तिंगेण णावाए उदगं आसवति, पहेति, प्रेक्ष्य उवरुवरि कजलमाणे विभरिजमाणं पक्खित्ता परस्स दाएति, आणादिया चउलहुं च। गाहाउत्तिंगो पुण छिड्ढे, तेणासिवें उवरिएण कजलणं / वितियपदेण दुरूढो, गावाए भंडभूतो वा / / 22 / / पव्वद्धं गतार्थम / आसिवादिणाणादिकारणेहिं दुरूढो णावं जहा भम तहा णिव्वावारभूतेण भवियव्वं / सव्वसुत्ते जाणि वा पडिसिद्धाणि, ताणि कारणारूढो सव्वाणि सयं करेज, कारवेज्न वा, जओ तत्थ साधुणो णिव्वाचारे दट्ठ कोइ पडिणीओ जले पक्खिवेज नि० चू०१८ उ० / नौगतस्य विध्यन्तरम्से णं परो णावागए णावागयं वएज्जा-आउसंतो ! समणा ! एयं ता तुमं छत्तगं वा० जाव चम्मच्छेयणगं वा गिण्हाहि, एयाणि तुमं विरूवरूवाणि सत्थजायाणि घारेहि, एयंता तुमं दारगं वा दारियं वा पजेहि, णो से तं परिणं परिजाणेजा, तुसिणीओ उवेहेजा। (733) (सेणमित्यादि) अपरो गृहस्थाऽऽदि व्यवस्थितः तत्स्थमेव साधुमेवं ब्रूयात्। तद्यथा-आयुष्मन् श्रमण ! एतन्मदीयं तावच्छत्रकाऽऽदि गृहाण, तथैलानि शस्त्रजातान्यायुधविशेषान् धारय, तथा दारकाऽऽद्युदक पायय, इत्येता परिज्ञा प्रार्थनां परस्य न शृणुयादिति। तदकरणे च परः प्रद्विष्टः सन्यदिनावः प्रक्षिपेत्, तत्र यत्कर्तव्यं तदाहसे णं परो णावागओ णावागयं वदेज्जा-आउसंतो ! एस णं समणे णावाए भंडभारिए भवति, से णं वाहाए गहाय णावाओ उदगंसि पक्खिवइ / एतप्पगारं णिग्धोसं सोचा णिसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीवराणि उव्वेढेज वा, णिव्वेढेज्ज वा, उप्पोसं वा करेज्जा (734) अह पुण एवं जाणेज्जा-अमि-कंतकूरकम्मा खलु वाला बाहाहिं गहाय णावाओ उदगंसि पक्खिवेज्जा / से पुव्वामेव वएज्जा-आउसंतो! गाहावती! मा मेत्तो बाहाए गहाय णावाओ उदगंसि पक्खिवइ। सयं चेव णं अहंणावातो उदगंसि ओगाहिस्सामि। से णेवं वयंतं परो सहसा बलसा बाहाहिं गहाय णावाए उदगंसि पक्खिवेज्जा / तं णो सुमणे सिया, णो दुम्मणे सिया, णो उच्चावयं मणं णियच्छेचा, गो तेसिं बालाणं घाताए बहाए समुढेजा, अप्युसुए० जाव समाहीए, ततो संजयामेव उदयंसि पवजेज्जा! (735) (से णमित्यादि) स परः, णामिति वाक्यालङ्कारे / नौगतस्तं सुसाधुमुद्दिश्य अपरमेवं बूयात् / तद्यथा-आयुष्मन् ! अयमत्र श्रमणो भाण्डवनिश्चेष्टत्वाद् गुरुः, भाण्डेन वा उपकरणेन गुरुः, तदेनं स्वबाहुनाह नाव उदके प्रक्षिपत यूयमित्येवप्रकारं शब्दं श्रुत्वा, तथाऽन्यतो वा कु तश्विन्निशम्य अवगम्य, स साधुर्गच्छतो निर्गतो वा, तेन च चीवरधारिणैतद्विधेयं-क्षिप्रमेव चीवराणि गुरुत्वान्निर्वाहयि-तुमशक्यानि चोद्वेष्टयेत्-पृथक्कुर्यात् , तद्विपरीतानि तु निर्वेष्टयेत् , सुबद्धानि कुर्यात्। तथा (उप्पोस वा करेज त्ति) शिरोवेष्टनं वा कुर्यात्। येन संवृतोपकरणो निर्व्याकुलत्वात् सुखेनैव जलं तरति, तांश्च धर्मदेशनया अनुकूलयेत्। अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि कण्ठ्यमिति। साम्प्रतमुदकं प्लवमानस्य विधिमाहसे भिक्खु वा भिक्खुणी वा उदगंसि पवमाणे णो हत्थेण हत्थं पाएण पायं काएण कार्य आसादेजा, से अणासादए अणासायमाणे तओ संजयामेव उदगंसि पवेजा। (736) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदगंसि पवमाणे णो उम्मञ्जणिमन्जियं करेजा, मा मेयं उदगं कण्णेसु वा अच्छीसु वा णक्कं सि वा मुहंसि वा परियावज्जेज्जा, तओ संजयामेव उदगंसि पवेज्जा / (737) से भिक्खू वा भिक्खुणीवा उदगंसि पवमाणे दोव्वलियं पाउणेज्जा, खिप्पामेव उवधिं विगिचेज वा, विसोहेज वा, गो चेव णं सातिजेजा। अह पुण एवं जाणेजा-पारए सिया उदगाओ
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________________ णईसंतार 1747 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णओवएस तीरं पाउणित्तए, तओ संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणिद्धेण वा काएण उदगतीरे चिढेजा (738) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा ससिणिद्धं वा कायं णो आमज्जेज वा, पमज्जेज वा, संलिहेज वा, णिल्लिहेज वा, उव्वलेज वा, उव्वट्टेज वा, आयावेजवा, पयावेज वा। अह पुण एवं जाणेज्जा-विगतोदए मे काए वोच्छिण्णसिणेहे तहप्पगारं कायं आमजेज वा० जाव पयावेज वा, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजेजा। (736) ' से ' इत्यादि। स भिक्षुरुदके प्लवमानो हस्ताऽऽदिक हस्ताऽऽ-दिना नाऽऽसादयेद् न संस्पृशेत् , अपकायाऽऽदिसंरक्षणार्थमिति भावः / ततस्तथा कुर्वन् संयत एवोदकं प्लवेदिति / तथा' से ' इत्यादि / स भिक्षुरुदकेप्लवमानो मन्जनोन्मजनेनो विदध्यादिति सुगममिति। किश्व' से ' इत्यादि। स भिक्षुरुदके प्लवमानो दौर्बल्यात् श्रमं प्राप्नुयात्ततः क्षिप्रमेवोपधिं त्यजेत् , तद्देश वा विशोधयेत्त्यजेदिति नैवोपधावाशक्तो भवेत् / अथ पुनरेवं जानीयात्-(पारए सिय त्ति) समर्थोऽहमस्मि सोपधिरेवोदकपारगमनाय, ततस्तस्मादुदकाददुत्तीर्णः स संयत एवोदकाऽऽद्रेण गलद्विन्दुना कायेन सस्निग्धेन वा उदकतीरे तिष्ठेत् तत्र चेर्यापथिकां च प्रतिक्रामेन्न चैतत् कुर्यात् / आचा०२ श्रु०१चू०३ अ० २उ० णउ-अव्य०(ननु) असूयायाम् , आव०५०। णउअ-न०[नि(न्य)युत] चतुरशीतिलक्षगुणिते नियुताङ्गे, स्था० 2 टा० 4 उ० / जी० / अनु० / भ०।। णउअंग-न०[ नि(न्य)युताङ्ग] चतुरशीतिलक्षगुणिते प्रयुते, अनु०॥ स्था० / जी०। णउल-पुं०(नकुल) वभौ, उपा० 2 अ०। सूत्र / नेवला ' इति ख्याते जीवे, प्रज्ञा० 1 पद / माद्रीजाते पाण्डुराजपुत्रे, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०। वाद्यभेदे, आ० चू०१ अ० / रा० / (नकुलोदाहरणम् "अणणुओग" शब्दे प्रथमभागे 287 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) णउलय-पुं०(नकुलक)'नौली ' इतिख्याते रूप्यकभरणवस्त्रे,बृ० 4 उ०। णउली-स्त्री०[ न(ना)कुली] सर्पविद्याप्रतिपक्षभूतायां विद्याया-म् , विशे० / जी० / कल्प० / आ० म०1 आ० क०। ती०। णओवएस-पुं०(नयोपदेश) जिनप्रवचने, सर्व वस्त्वनन्तधर्माऽऽत्मकतया संकीर्णस्वभावमिति तत्परिच्छेदकेन प्रमाणेनापि तथैव भवितव्यमित्यसंकीर्णप्रतिनियतधर्मप्रकारकव्यवहारसिद्धये समर्थानां नयाना व्युत्पादने, तदर्थगर्म ग्रन्थेच।नयो०। तद्विषयश्च यशोविजयकृतनयामृततरङ्गिणीनाम्न्या नयोपदेशटीकायां दर्शितो यथा" नयोपदेशटीकेयं, नयामृततरङ्गिणी। सेव्यताममृतप्राप्त्य, मिथ्यात्वविषतापहृत्॥१॥ सबलविषयसन्निविष्टधर्मव्यतिकरसङ्करशङ्कयाऽऽविलानाम्। जयति भगवतो नयोपदेशः, पटुरखिलाङ्गभृतां हितं विधातुम् // 2 // इह खलु न हि नः स्मयो न रोषो, न च परबुद्धिपराभवाभिलाषः। अपि तु पितुरिव प्रजाहितस्य, प्रथमगुरोर्वचनाऽऽदरो निमित्तम् / / 3 / / न च नयवचनेषु पक्षपातः, क्वचन समाकलितप्रमाण दृष्टः / / अभिमतविषये हि गोपनीयाअनभिमते यदमी विगोपनीयाः // 4 // व्रजति फलवति प्रमाणवाक्ये, नयवचनं बहुरूपभङ्गभावम् / तदिह विविधभङ्गजालयुक्तं, छलवदिदं न विशङ्कनीयमार्यैः // 5 // प्रथम इह लौकिकोऽर्थबोधस्तदनु नयात्मक एव मध्यमः स्यात्। तदुपरि परितः प्रसर्पिभङ्गव्यतिकरसंवलितः प्रमाणबोधः // 6 // श्रुतमय उदितः किलाऽऽद्यबोधोऽमतहतकृन्नयचिन्तया द्वितीयः। कुमतमदहरः परस्तृतीयः, सकलजगद्धितकाम्यया पवित्रः // 7 // त्रयमिदमधिकृत्य लोकलोकोत्तरपयभङ्गभयं ननाश यस्मात् / गुरुमत इव चोपपत्तिकार्थे, न हि परिपन्थि विरम्य बोधकत्वम् // 8 // अपि च नियतकृतस्वजन्यबोधाविषमधियो विरहोऽत्र शाब्दबोधे / सनियतमनुयायि तत्परत्वं, तदिह मतस्तदतज्ज्ञबोधभेदः / / 6 / / न च शुकवचनादतत्परादप्यधिगमदर्शनतः प्रतीपमेतत् / श्रुतमयमपहाय बोधियुग्मे, यदिह न तत्परताधियोऽनपेक्षाः // 10 // वक्तुस्तात्पर्यभज्ञात्वा-ऽप्येतदुन्नीय वास्तवम्। प्रामाण्यमप्रमाणेऽपि, वाक्ये सम्यग्दृशां मतम् / / 11 / / सम्यकश्रुतस्य मिथ्यात्वं, मिथ्यादृष्टिपरिग्रहात्। मिथ्या श्रुतस्य सम्यक्त्वं, सम्यग्दृष्टिग्रहादतः // 12 // लौकिकान्यपि वाक्यानि, प्रमाणानि श्रुतार्थतः / तात्पर्यार्थे प्रमाण त्, सप्तभङ्गाऽऽत्मकं वचः / / 13 // ना प्रमाणं प्रमाण वा, स्वतः किं त्वर्थतः श्रतम।। इति यत् कल्पभाष्योक्तं, तदित्थमुपपद्यते / / 14 / / तात्पर्य खल्वपेक्षानय इति च समं स्थापितं शास्त्रगर्भ, तत्कल्लोलैर्विचित्रैः समयजलनिधौ जायते चिद्विवर्त्तः / यत् त्वेकं निस्तरङ्ग परमसुखमयं ब्रह्म सर्वातिशायि, स्थायि ज्ञानस्वभावं तदिह दहतु बोऽनल्पसंकल्पजातम् / / 15 // निक्षेपा वा नया वा तदुभयजनिताः सप्तभङ्गाऽऽत्मका वा, शृङ्गाराः सार्ववाचः परगुणरचनाजातरोचिष्णुभावाः / यस्याग्रे भान्ति किञ्चिन्न निरुपधिचिदुबुद्धशुद्धस्वभावात् , तद्रूपं स्वीयमुच्चैः प्रकटय भगवन् ! बाढमात्मन् ! प्रसीद // 16|| इति महोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्री
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________________ णओवदेस 1748 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंद लाभविजयगणिशिष्यावतंसपण्डितजीतविजयगणिसतीर्थ्यतिलकपण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमलसेविना पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेणोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिना विरचिताऽमृततरङ्गिणी नाम्नी नयोपदेशटीका संपूर्णा / नयो०। णं-अव्य०(ण) नन्वर्थे," णं नन्वर्थे "|| 4 | 283 // शौरसैन्यां नन्वर्थे णमिति निपातः प्रयोक्तव्यः / ण अफलोदया, णं अय्यमि-स्सेहि पढमं य्येव आणतं, णं भव मे अग्गदो चलदि। आर्षे वाक्या-लङ्कारेऽपि दृश्यते-नमोऽत्थु ण / जया णं / तयाणं। प्रा० 4 पाद / ते णं काले णं ते णं समए ण / णमिति वाक्यालङ्कारे / सूत्र० 1 श्रु० 11 अ० / तिः / प्रश्नः / रा० / औ० / कल्प० / स०। ल० प्र० / विशे० / स्था० / प्रश्ने, अभ्युपगमसूचने, सम्म० 2 काण्ड। निपा-तानामनेकार्थत्वात् (प्रज्ञा० 15 पद) णमित्युपसंहारवाक्यम्। रा०!"णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा" || 8 / 3 / 107 / / इत्यनेन अमासहितस्यास्मदो णमादेशः : प्रा०३ पाद।' णं इत्यात्मनिर्देशे, नि० चू०२ उ० / णंगल-न०(लागल)"लाहल-लाङ्गल-लाले वाऽऽदेणः " // 8 // 15256 // इत्यनेन सूत्रेण आदिलस्य णत्वंवा। ईषायाम् , प्रा०१पाद। णंगलग्गाम-पुं०(लागलग्राम) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र वासुदेवगृहे वीरजिनः प्रतिमया स्थितः, तेन सह विहरन् गोशालो डिम्भभापनयाऽक्षिविक्रिया कुर्वन्तत्पित्रादिभिः कुट्टितो मुनिपिशाच इत्युपेक्षितः / कल्प० 6 क्षण / आ० म० / आ० चू० / णंगलिय-पुं०(लाङ्गलिक ) गलावलम्बितसवुर्णाऽऽदिमयलागल प्रतिकृतिधारिणि भट्टविशेषे, भ०६ श०३ उ० / 0 / कल्प० / औ०। णंगुल-न०(लाडूल)" लाहल-लाल-लाडूले वाऽऽदेणः " // 8! 1 / 256 / / इति सूत्रेण आदिलस्य णत्वं वा। पुच्छे, प्रा०१पाद / ज० / णंगोलिय-पुं०(लाङ्गोलिक) हिमवतः पश्चिमाया दिशि पर्यन्तादारभ्य पश्चिमोत्तरस्यां दिशित्रीणि योजनशतानिलवणसमुद्रमवगाह्योपरि दंष्ट्रायां चतुर्थेऽन्तरद्वीपे, कर्म०१ कर्म०।०जी० / स्था०। तद्वासिनि मनुष्य च। प्रज्ञा०१ पद। णंतग-न०(देशी) वस्त्र, वस्तवृक्षेषु परिहीयमाणेषु भगवता वस्त्रोत्पादनिमित्तं वस्त्रशिल्पमुत्पादितम्। आ०म०१ अ०१ खण्ड। यथा'मुहणंतगं 'मुखवस्त्रिका / आव०५ अ०। णंद-पुं०(नन्द) नन्दयति, नन्दतीति वा नन्दः / समृद्धे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०।" जय जय गंदा ! जय जय भद्दा !" नन्दति समृद्धो भवतीति नन्दः / तस्य सम्बोधन हे नन्दा ! दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् / कल्प० 5 क्षण। प्रश्न० / स्वनामख्याते राजगृहजे मणिकारश्रेष्ठिनि, स च मणिकार श्रेष्ठी राजगृहे वीरजिनान्तिके श्रावको भूत्वाऽपि मिथ्यात्वं गतः / श्रेणिकाऽऽज्ञया राजगृहस्य बहिरारोग्यशालाऽऽदिशोभितवनखण्डचतुष्कपरिवृत्तां नन्दापुष्करिणी निर्माप्य तदध्यवसायेन मृत्वा तत्रैव पुष्करिण्यां दर्दुरो जातः / ततो जातिस्मरणेन वीरसमवसरणमागच्छन् श्रेणिकाश्चकिशोरेणाऽऽक्रान्तो मृत्वा सौधर्मे कल्पे दर्दुरेऽवतंसके दर्दुरो नाम देवो जातः, ततश्युत्त्वा महाविदेहे सेत्स्यति / ज्ञा० 1 श्रु० 13 अ० / (इति ' दडुर ' शब्दे वक्ष्यते) अरिष्टनेभेः प्रथमशिष्ये श्रावके, | कल्प०७ क्षण। आ० चू०। ति०। आ० म० काशीस्थे नाविकभेदे, ती०। तद्वृत्तम्काश्या नन्दाभिधानो नाविकस्तरिपण्यजिघृक्षया मुमुक्षू धर्मरुचिं विराध्य तस्य हुङ्कारेण भस्मीभूय गृहकोकिलहंससिंहभवान् यथा-संख्यं सभामृगाङ्कतीराजनगिरिमवाप्य तस्यैवानगारस्य तेजोनिसर्गेण विपद्य चास्यामेव (काश्यां) पूर्वो बभुर्भूत्वा तत्रैव निधममधिगत्यास्यामेव राजा रामजनिष्ट जातिस्मरः सार्द्ध श्लोकमकरोत् , अन्येधुस्तत्रैवाऽऽगतं तमनगारं समस्यापूरणाद्विज्ञायाभयदानपुरस्सरमुपगत्य च क्षमयित्वा परमाऽऽर्हतोऽभूत् , सिद्धश्च धर्मरुचिः क्रमात्। सा चेयं समस्या विज्ञेया" गंगाए नाविको नंदो, सभाए घरकोइलो। हंसो मयंगतीराए, सीहो अंजणपव्वए॥१॥ बाणारसीए बभुओ, राया तत्थेव आगओ। एएसिं घायओ जाओ, सो इत्थेव समागओ॥२॥" ती० 37 कल्प। आ० क० / अ० म० / तं०। (' राग ' शब्दे उदाहरणम्) वीरमोक्षात्पञ्चाशत्तमे वर्षे जाते पाटलिपुत्रस्य महाराजे, ति०। नव नन्दा आसन्, तत्र प्रथमस्ययावदष्टमस्य वृत्तं कथाऽनुयोगादवसेयम्, अत्र नोपलभ्यते। नवमेन नन्देन चाणक्यो विप्रो यथा कर्थितो, यथा च-" कौशश्च भृत्यैश्च निबद्धमूलं, पुत्रैश्च भृत्यैश्च विवृद्धशाखम्। उत्पाट्य नन्दंपरिवर्तयामि, महाद्रुमं वायुरिवोगवेगः // 1 // इति प्रतिज्ञाऽनुसारेण नन्दमुन्मूलितवान्। आ० क० / नं० / आचा० / आ० चू०। आ० म०। आव० / (' एतच चंद-गुप्त ' शब्दे तृतीयभागे 1068 पृष्ठे दर्शितम्) (चन्द्रगुप्तस्य बिन्दुसारः, तस्य चाशोकश्रीः, तस्य कुणालः, तस्य संप्रतिमहाराज इत्येवं मौर्यवंश्यस्याशोकश्रियः श्रेणिकापरनामत्वाङ्गीकारे नन्द-वंशो वीरजिनाद् पूर्वमेव द्वितीये तृतीये वा शतके जायते इति युक्तं स्यात् , तद् न संभाव्यते, तस्मान्मौर्यादशोकश्रीनाम्नोऽशोकचन्द्रापरनामा वीरजिनसमकालीनः श्रेणिकोऽन्य इति वीरजिनमोक्षादागेव नन्दवंशो मौर्यवंशश्च पाटलिपुत्रराज्यमकार्षीत् इति प्रतिभाति) (नवानां नन्दानां कल्पकवंश्या मन्त्रिण आसन इति' कप्पअ 'शब्दे तृतीयभागे 232 पृष्ठे उक्तम् ) (नवमनन्दस्य मन्त्रितांशकटालसुतः स्थूलभद्रोऽनङ्गीकृत्य प्रवव्राजेति'थूलभद्द' शब्दे वक्ष्यते) ('नंदराय' शब्देऽनुपदमेव 1750 पृष्ठे ऽस्य संक्षिप्तवक्त-व्यता वक्ष्यामि) वीरजिनकाले ब्राह्मणग्रामे स्वनामख्याते प्रधानपुरुषे, कल्प० / ततः स्वामी ब्राह्मणग्राममगात्, तत्र नन्दोपनन्दभ्रातृद्वयसंबन्धिनौ द्वौ पाटको, स्वामी नन्दपाटकेप्रविष्टः, प्रतिलाभितश्च नन्देन। गोशालस्तूपनन्दगृहे पर्युषितान्नदानेन रुष्टः, यद्यस्ति मे धर्माचार्यस्य तपस्तेजस्तदाऽस्य गृह दह्यतामिति शशाप। तदनु तद्गृहमासन्नदेवता ददाह। कल्प०६क्षण। आ० चू० / आ० म० / श्रेयांसजिनस्य प्रथमभिक्षादायके, आ० म० 1 अ० 1 खण्ड / स० / पाटलिपुत्रे स्वनामख्याते लुब्धवणिजि, आ० म०१ अ०२ खण्ड। (उदाहरणं' लोभ ' शब्दे वक्ष्यते)। उत्सर्पिण्यां जनिष्यमाणे प्रथमावासुदेवे, स० / नि० / नासिक्यपुरे सुन्दरीभर्तरि, नं० / वृत्तलोहासने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / भ० 1 आ० म० / मुहूर्तयोगभेदे, द०प० / नन्दने, कल्प०७ क्षण / सप्तमदेवलोकस्थे विमानभेदे, सप्तमदेवलोके नन्दाऽऽद्यानि विमानानि / स० /
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________________ गंद 1746 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-१ गंदणवण "जे देवा णंद सुणद णदावत्तं णंदप्पभं णंदकंतं गंदवण्णं णदलेस्स णंदज्झयं णंदसिंग णंदसिद्धं णंदकूड णंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवताए उववन्ना। " स० 15 सम०। गंदग-पुं०(नन्दक) समृद्धिकारके नन्दकाभिधाने वासुदेवखड्गे, स०। / जंदण-पुं०(नन्दन) नन्दतीति नन्दनः।' टुनदि समृद्धौ, " नन्दिग्रहिपचाऽऽदिभ्यो ल्युणिन्यचः " // 3 / 1 / 134 / / इति (पा०) ल्युट्। नं० / पुत्रे, कल्प०७ क्षण। भरतवर्षे जाते सप्तमे बलदेवे, प्रव० 206 द्वार / ति० / ती०। आव० / स० / पञ्चविंशे भवे श्रीवीरजिने, पशविंशतिभवे इहैव भरतक्षेत्रे छत्रिकायां नगर्या जितशत्रुनृपतेर्भद्रादेन्याः कुक्षौ पञ्चविंशतिवर्षलक्षाऽऽयुनन्दनो नाम पुत्रः / कल्प० 2 क्षण। आ० म०। आ० चू० / स०। श्रेणिकपुत्रवध्वा नन्दना अपत्ये, स चवीरजिनान्तिके प्रव्रज्य द्वौ वर्षी प्रव्रज्या-पर्यायं पालयित्वा मृत्वाऽच्युते कल्पे देवो भूत्वा महाविदेहे सेत्स्य-ति / इति कल्पावतंसिकाया दशमेऽध्ययने सूचितम् / नि०१ श्रु० 2 वर्ग० 1 अ० / सर्वाङ्गसुन्दर्याः पूर्वभवसत्कभ्रातृजाययोः साकेत-नगरे उत्पन्नयोः पितरि, आ० म०१ | अ० 2 खण्ड / (सर्वाङ्गसुन्दर्या लोभे उदाहरणम्) पूर्वभवे मल्लीतीर्थकृजीवे, स०। मोकाया नगर्या बहिश्चैत्ये," तीसे णं मोयाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए णंदणनामं चेइए होत्था।" भ० ३श० 1 उ० / भृत्ये, दे० ना० 4 वर्ग। णंदणकर-त्रि०(नन्दनकर) बृद्धिकरे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। णंदणकूड-न०(नन्दनकूट) नन्दनवनकूटे, स० 500 सम० / ति०। (' कूड 'शब्दे तृतीयभागे 622 पृष्ठे वर्णक उक्तः) णंदणभद्द-पुं०(नन्दनभद्र) आर्य संभूतिविजयस्य माठरसगोत्रस्य प्रथमशिष्ये, कल्प० 8 क्षण। गंदणवण-न०(नन्दनवन) मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छ्रितप्रथममेखलाभाविनिपञ्चयोजनशतोच्छूिते स्वनामके द्वितीयवने, स०६७ सम० / ज्यो० / ज्ञा० / सूत्र० / जं०।" दो णंदणवणा। " मेरोश्चत्वारि वनानि" भूमीएँ भहसालं, मेहलजुयलम्भिदोन्नि रम्माई। शंदणसोमणसाई, पंडगपरिमंडियं सिहरं // 1 // " इति वचनाद् मेरोर्द्वित्वे नन्दनवनस्यापि द्वित्वम् / स्था०२ ठा०३ / उ० ओघ०। नन्दनवनवक्तव्यताकहि णं भंते ! मंदरे पव्वए णंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते ? गोयमा ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पंच जोयणसयाई उड्डे उप्पइत्ता, एत्थणं मंदरे पव्वएणंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते, पंच जोअणसयाइं चक्क वालविक्खं भेणं बट्टे | वलयाकारसंठिए, जेणं मंदरं पव्वयं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ / णव जोअणसहस्साई एव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए जोअणस्स बाहिगिरिविक्खंभो / एगतीसंजोअणसहस्साईचत्तारि अअउणासीए जोअणसए किंचि विसेसाहिए बाहिं गिरिपरिरए णं / अट्ठ जोअणसहस्साई एव य चउप्पण्णे जोअणसए छचेगारसभाए जोअणस्स अंतोगिरिविक्खंभो / अट्ठावीसं जोअणसहस्साइं तिण्णि य सोलसुत्तरे जोयणसए अट्ट य इकारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिपरिरये णं / से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते वण्णओ० जाव देवा आसंयति। मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते / एवं चउद्दिसिं चत्तारि सिद्धाययणा, विदिसासु पुक्खरिणीओ, तं चेव पमाणं सिद्धाययणाणं पुक्खरिणीणंच, पासायवडेंसगा तहेव सक्केसाणाणं, तेवं चेव पमाणे। " कहि णं " इत्यादि प्रश्नः प्रतीतः / उत्तरसूत्रे-गौतम ! भद्रशालवनस्य बहुसमरमणीयाद् भूमिभागात्पञ्चयोजनशतान्यूर्द्धमुत्प-त्य गत्वाऽग्रतो, वद्धिष्णुष्विति गम्यम्। मन्दरेपर्वत एकस्मिन् प्रदेशे नन्दनवन नाम वनं प्रज्ञप्तम् / पश्श योजनशतानि चक्र वालविष्कम्भेनचक्रवालविशेषस्य सामान्येऽनुप्रवेशात् समचक्रवाल,तस्य यो विष्कम्भः स्वपरिक्षेप्यस्य सर्वतः समप्रमाणतया विष्कम्भस्तेन, अनेन विषमचक्रवालाऽऽदिविष्कम्भनिरासः। अतएव वृत्तं, तच मोदकाऽऽदिवद् घनमपि स्यादत आह-वलयाऽऽकारं मध्ये शुषिरं यत् संस्थानं तेन संस्थितम् / इदमेव द्योतयतिमन्दरं पर्वत सर्वतः समन्तात् सपरिक्षिप्य वेष्टयित्वा तिष्ठति। अथ मेरोर्बहिर्विष्कम्भाऽऽदिमानमाह-(णव जोयण इत्यादि) मेखलाविभागे हि गिरीणांबाह्याभ्यन्तररूपं विष्कम्भद्वयं भवति, तत्र मेरौ बाह्यविष्कम्भोऽयम् - नव योजनसहस्राणि नवशतानि चतुःपक्षाशदधिकानि षट् चैकादश भागा योजनस्य / तथाहिमेरोरूर्द्धमेकस्मिन् योजने गते विष्कम्भसंबन्धी एकादशभागो योजनस्य गतो लभ्यते इति प्रागुक्तं, ततोऽत्र त्रिराशिकं यदि एकयोजनाऽऽरोहे मेरोरुपरि व्यासस्या-पचयः सर्वत्रैकादशभागो योजनस्यैको लभ्यते, ततः पञ्चशतयोज-नाऽऽरोहे कोऽपचयो लभ्यते ? लब्धानि 45 योजनानि / एतत् समभूतलगतव्यासाद् दशयोजनसहस्ररूपात् त्यज्यते, जातं यथोक्त मानम् / एतच नन्दनवनस्य बहिः पूर्वापरयोरुत्तरदक्षिणयोर्वा अन्तयोः संभवति, अतो नन्दनवनाद् बहिर्वर्तित्वेन बाह्यो गिरिवि-ष्कम्भः। तथा एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि एकोना-शीत्यधिकानि, किञ्चिद्विशेषाधिकानि। इत्यय बाह्यो गिरिपरिरयो, मेरुपरिधिरित्यर्थः / णमिति वाक्यालङ्कारे / अन्तर्गिरिविष्कम्भो नन्दनवनादर्वाक् यो गिरिविस्तारः सोऽष्टयोजनसहस्राणि नव च योजनशतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि षट् च एकादश भागा योजनस्येत्येतावत्प्रमाणः / अयं च बाह्यगिरिविष्कम्भे सहस्रोने यथोक्तः स्यात् / तथा अष्टाविंशतियोजनसहस्राणि, त्रीणि च योजनशतानि षोडशाधिकानि, अष्ट चैकादश भागा योजनस्यैतावत्प्रमाणोऽन्तगिरिपरिरय इति / णमिति प्राग्वत् / अथात्र पावरवेदिकाऽऽद्याह- " से णं एगाए पउम " इत्यादि व्यक्तम् / अथात्र सिद्धायतनाऽऽदिवक्तव्यतामारभते-(मंदरस्स णमित्यादि) मन्दरस्य पूर्वस्याम् , अत्र नन्दने पञ्चाशद् योजनातिक्रमे महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम् / (एवमिति) भद्रशालवनानुसारेण चतसृषु दिक्षु चत्वारि
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________________ णंदणवण 1750 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदराय सिद्धाऽऽयतनानि, विदिक्षु पुष्करिण्यः / तदेव प्रमाण सिद्धाऽऽवतनानां पुष्करिणीनां च यद्भद्रशाले उक्तम् / प्रासादावतं सकास्तयैव शकेशानयोर्वाच्याः, यथा भद्रशाले, दक्षिणदिक्संबद्धविदिग्वर्तिनः / प्रासादाः शक्रस्य, तथोत्तरदिसंबद्धविदिग्वर्तिनस्तु ईशानेन्द्र-स्य, तेनैव प्रमाणेन पञ्चयोजनशतोचत्वाऽऽदिनेति / / अत्र च पुष्क-रिणीनां नामानि सूत्रकारालिखितत्वाद् , लिपिप्रमादाद्वा आदर्शेषु न दृश्यन्ते इति / तत्रैशान्यादिप्रासादक्रमादिमानि नामानि द्रष्टव्यानि पूज्यप्रणीतक्षेत्रविचारतः-नन्दोत्तरा 1 नन्दा 2 सुनन्दा 3 नन्दिवर्द्धना 4 / तथा नन्दिषेणा 1 अमोघा 2 गोस्तूपा 3 सुदर्शना 41 तथा सुभद्रा 1 विशाला 2 कुमुदा 3 पुण्डरीकिणी 4 / तथा विजया 1 वैजयन्ती 2 अपराजिता 3 जयन्ती 4 इति / जं० 4 वक्ष० / स्था० / (अत्र नन्दनाऽऽदीनि नव कूटानि कूड' शब्दे तृतीयभागे 622 पृष्ठे उक्तानि) द्वारिकायां रैवताचलपर्वतस्य वने, अन्त०५ वर्ग 2 अ०।" तस्स णं रेवयगस्स पव्वयस्स अदूरसामंते, एत्थ णं णंदणवणे णामं उब्जाणे होत्था / " नि०१ श्रु० 5 वर्ग 1 अ० / आ० चू० / आ० म० / ज्ञा० / विजयपुरनगरसत्कोद्याने, विपा०२ श्रु० 4 अ०। णंदणीपिया-पुं०(नन्दनीपितृ) श्रावस्तीनगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते गृहपतौ, उपा०। तवृत्तम्एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णयरी, कोट्ठए चेइए, जियसत्तू राया। तत्थ णं सावत्थीए णंदणीपिया णामं गाहावई परिवसइ। अड्डे चत्तारि हिरण्णकोडीओ णिहाणपउत्ता, वुड्डिपवित्थरपत्ताओ चत्तारि, वया दस गोसाहस्सिएणं वएणं, अस्सिणी भारिया। सामी समोसढो, जहा आणंदो तहेव गिहिधम्म पडिवाइ। सामी बहिया विहरइ। तए णं से णंदणीपिया समणोवासए जाए विहरइ, तए णं तस्स गंदणीपियस्स बहूहिं सीलव्वयगुणव्वयं० जाव भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छरा वितिकता, तहेव जेट्टपुत्तं ठवेइ। घम्मपणित्तिं वीसं वासाई परिआयं पाउणित्ता अरुणगविमाणे उववाए महाविदेहे वासे सिज्झिहि त्ति / उपा०६ अ०। स्था०। आ० म०। णंदमाण-त्रि०(नन्दत् ) सौख्यं भुब्जाने, तं०। णंदराय-पुं०(नन्दराज) पाटलिपुत्रमहाराजे नन्दे, ती०। तद्यथापाटलीनाम्ना पाटलिपुत्रं पत्तनमासीत् / असमकुसुमबहुलतया च कुसुमपरमित्यपि नाम रूढम् / तन्मध्ये श्रीनेमिचैत्यं राज्ञाऽकारि / तत्र पुरे गजाश्वरथशालाप्रासादसौधप्राकारगोपुरपुण्यशालासत्राऽऽगाररम्ये चिरं राज्यं जैनधर्म चापालयदुदायिनरेन्द्रः। तस्मिन्नुपात्तपोषधेऽन्यदोदायिमारकेण स्वर्गाऽऽतिथ्यं प्रापिते तणिकासुतो नन्दः श्रीवीरमोक्षाच षष्टिवत्सर्यामतीतायां क्षितिपतिरजनि। तदन्वये सप्तनन्दा नृपा जाताः / नवमनन्दे राजनि परमार्हत्कल्पकान्वयी शकटाओ मन्त्र्यभूत् / तस्य पुत्रौ स्थूलभद्रश्रीयको, सप्त च पुत्र्यो यक्षायक्षदत्ताभूताभूतदत्तासेणावेणारेणाऽऽख्याः क्रमादेकादिसप्ताऽऽचारश्रुतपाठिन्योऽजनिषत। / तत्रैव पुरे कोशा वेश्या, तज्जामिरुपकोशा चाभूताम्। तत्रैव च चाणिक्यः सचिवोनन्दं समूलमुन्मूल्य मौर्यवंश्यं श्रीचन्द्रगुप्तन्यवीविशद्विशां पतित्वे / तवंशे तु बिन्दुसारोऽशोकश्री: कुणालसूनुस्विखण्ड भरताधिपः परमार्हतोऽनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितश्रमणविहारः संप्रतिमहाराजश्चाभवत् / मूलदेवः सकलकलाकलापज्ञो बलसार्थवाहो महाधनी, देवदत्ता च गाणिक्यं तत्रैव प्रागभवत्। उमास्वातिवाचकः कौभीषणिगोत्रः पञ्चशतसंस्कृतप्रकरणप्रसिद्धः तत्रैव तत्त्वार्थाधिगमसूत्रं सभाष्यं व्यरचयत् / चतुरशीतिर्वादशालाश्च तत्रैव विदुषां परितोषाय पर्यणसिषुः / तत्रैव चोत्तुङ्गतरङ्गोत्सङ्गितगगनाङ्गणा परिवहति महानदी गङ्गा, तस्यैव चोत्तरादिशि विपुलं वालुकास्थलं नातिदूरे / यत्राऽऽरुह्य कल्की, प्रातिपदाऽऽचार्यप्रमुखसङ्घश्च सलि-लप्लवान्निस्तरीता / तत्रैव च भविष्यति कल्किनृपतिः / धर्मदत्तजितशत्रुमेघधोषाऽऽदयश्च तश्याः / तत्रैव च विद्यन्तेऽर्निहितनन्दसत्ककनकनवतिद्रव्यकोटयः पञ्च स्तूषाः, येषु धनाशया श्रीलक्ष्मणावतीसुरत्राणस्तांस्तानुपाक्रमतोपक्रमान् / ते चतत्सैन्योपप्लवायैवाकल्पन्त। तत्रैव विहृतवन्तः श्रीभद्रबाहुमहागिरिसुहस्तिवजस्वाम्यादवो युगप्रवराऽऽगमाः, विहरिष्यन्ति च प्रातिपदाऽऽचार्याऽऽदयः। तत्रैव महाधनधनश्रेष्ठिनन्दना रुक्मिणी श्रीवजस्वामिनं प्रतीयन्ती, प्रतिबोध्य तेन भगवता निर्लोभचूडामणिना प्रव्राजिता। तत्रैव सुदर्शनश्रेष्ठी मर्हषिरभयाराज्ञया व्यन्तरीभूतया भूयस्तरमुपसर्गितोऽपि न क्षोभमभवत् / तत्रैव स्थूलभद्रमहामुनिः षट्रसाऽऽहारपरः कोशायाश्चित्रशालायामुत्सादितमदश्वकार वर्षारात्रं चतुर्मासीम्। सिंहगुहावासिभुनिरपि तत्स्पर्द्धिष्णुस्तत्रैव कोशया तदानीतरत्नकम्बलस्य बन्दनिकाप्रक्षेपेण प्रतिबोध्य पुनश्वारुतरां चरणश्रियमङ्गीकारितः / तत्रैव द्वादशाब्दे दुर्भिक्षे गच्छे देशान्तरं प्रोषिते सति सुस्थिताऽऽचार्यशिष्यौ क्षुल्लकावदृश्यीकरणाञ्जनाक्तचक्षुषौ चन्द्रगुप्तनृपतिना सह वुभुजाते कियन्त्यपि दिनानि। तदनु गुरुप्रत्युपालम्भाद्विष्णुगुप्त एव तयोर्निर्धारमकरोत् / तत्रैव श्रीव्रजस्वामी पौरस्त्रीजनमनःसंक्षोभरक्षणार्थ प्रथमदिने सामान्यमेव रूपं विकृत्य, द्वितीयेऽहि चाहो नास्य भगवतो गुणानुरूपं रूपमिति देशनारसहतहृदयजनमुखात् संखापान श्रुत्वाऽनेकलब्धिमान् महल्लनप्रतिरूपं रूपं विकुळ सौवर्णसहस्रपत्रे निषध देशनां विधाय राजादिजनताममोदयत। तस्यैव पुरस्य मध्ये सप्रभावातिशया मातृदेवता आसन् , तदनुभावात् तत्पुरं परैराग्रहवद्भिरपि न खलु ग्रहीतुमशकि। चाणिक्य-वचसोत्पादिते पुनर्जनातृमण्डले गृहीतवातको चन्द्रगुप्तचाणक्यौ। एवमाद्यनेकसंविधानकनिधाने तत्र नगरेऽष्टादशसु विद्यासुस्मृतिषु पुराणेषु च द्वासप्ततौ कलासु भरतवात्स्यायनचाणिक्यलक्षणं रत्नत्रयम्, मन्त्रतन्त्रयन्त्रविद्यासु रसवादधातुनिधिवादाञ्जनगुटिकापादप्रलेपरत्नपरीक्षावास्तुविद्यास्त्रीगजाश्ववृषभाऽऽदिलक्षणेन्द्रजालाऽऽदिग्रन्थेषु काव्येषु च नैपुण्यचणास्ते ते पुरुषाः प्रत्यूषकीर्तनीयनामधेयाः / आर्यरक्षितोऽपि हि चतुर्दशविद्यास्थानानि तत्रैवाधीत्य दशपुरमागमत्। आद्यास्तुतत्रैवंविधा वसन्तिस्म,एके योजनसहस्रगमने यानि गजपदानि भवेयुस्तानि प्रत्येकं स्वर्णसहस्रेण पूरयितुमीशते। अन्ये च तिलानामाढके प्ररूढे सुफलिते यावन्तस्तिलाः स्युः, तावन्ति हेमसहस्राणि विभ्रति गृहेऽपरेऽनवद्यनामकाः प्रवरगिरिनदीप्रवाहपूरस्यैकदिनोत्पन्न
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________________ गंदराय 1751 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदि गवाङ्गनवनीतेन संवरं विरचय्य पयोरयं स्खलयितुमलम् / अन्यतमे कल्प। चैकहेलाज्ञजात्यनवकिशोराणा समुद्धृतैः स्कन्धके शैः पाटलिपुत्रं कौशम्बीराजशतानीकमन्त्रिणः सुगुप्तस्य भायां शतानीकराजसमन्ताद्वेष्टयितुमचेष्टन् / इतरे च शालिरत्नद्वयं वेश्मनि विभरावभूवुः। महिष्या मृगावत्याः सख्याम् , तया च सूर्पकोणस्थकुल्माषाभिग्रहवन्तं तत्रैकः शालिभिन्नभिन्नशालिबीजप्रसूतिमान , अन्यश्च गर्दभिकाशा वीरभनवन्तं प्रतिलाभयन्त्या, तद् ग्रहणपराङ्मुखं दृष्ट्वा अभिग्रहलियों लूनलूनः पुनः पुनः फलति। ती०३५ कल्प। विशेषवानयमिति निश्चित्य मृगावतीद्वारा शतानीको राजोपालब्धः। तदनु गंदवई-स्त्री०(नन्दवती) श्रेणिकमहाराजभार्यायाम , सा च राजगृहे दधिवाहनभूभुक्पुत्र्या वसुमत्या धनश्रेष्ठिना पुत्रीत्येन क्रीतया चन्दनास्वनाम-ख्याता वीरान्तिके प्रव्रजिता विंशतिवर्षपर्याया सिद्धा। उपा० नाम्न्या पूरितोऽभिग्रहः / आ० क० / आ० म०। (इति ' वीर ' शब्दे 1 अ० / रतिकरपर्वते शक्रसामानिकानां दक्षिणदिक्स्थायां राज वक्ष्यते) वाराणस्यां नन्दश्रीमातरि भद्रासनश्रेष्ठिभार्यायाम् , आ० चू० धान्याम् द्वी०। 11 अ०। ती० / आव० तालफलाऽऽहतपुरुषभगिन्यां श्रीऋषभदेवेन णंदसंहिया-स्त्री०(नन्दसंहिता) नन्दनिर्मितग्रन्थपद्धतौ, आ० म०१ परिणीतायां बाहुबलीसुन्दरीतिमिथुनकमातरि, आ० म० 1 अ० 1 अ०१खण्डा खण्ड / पौरस्त्यरुचकपर्वत-स्य द्वितीयतपनीयकूटवास्तव्यायां णंदसिरी-स्त्री०(नन्दश्री) वाराणस्यां भद्रसेनजीर्णश्रेष्ठिनः सुतायाम् , दिक्कुमार्याम् , आ० म०१ अ०२ खण्ड। आ० क०। द्वी०। ती०। ती। स्था० / ज० / उत्तरपौर-स्त्ये रतिकरपर्वते ईशानागमहिष्याः "वाणारसीऍ कोट्टएँ, पासे गोचारिभद्दसेणे य। कृष्णराजराजधान्याम् , स्था० 4 ठा०२ उ०। ती०जी०। आ० चू० / णंदसिरी पउमद्दह-रायगिहे सेणिए वीरे" // 1 // स्वनाभप्रसिद्धायां पुष्करिण्याम् , तत्र शाश्वतपुष्करिण्यः सर्वा अपि अत्रैव पुर्या भद्रासनो जीर्ण श्रेष्ठी, तस्य भार्या नन्दा / तयोः पुत्री सामान्येन नन्दे-त्युच्यन्ते। विशेषेण तु-१नन्दा 2 नन्दोत्तरा 3 आनन्दा नन्दश्रीश्चरकरहिता / अत्रैव कोष्ठके चैत्ये अन्यदा पार्श्वस्वामी सम 4 नन्दिवर्धनेति चतस्रोऽजनकपर्वतवर्णके वर्णिताः / स्था० 4 ठा०३ वासरत् : नन्दश्रीः प्रावाजीद् गोचारिपर्याया शिष्यतयाऽर्पितः / सा च उ० / जी० / रा० / ज्ञा० / (राजगृहे नन्देन मणिकारश्रेष्ठिना कारिताया पूर्व मुगं विहृत्य पश्चादवसन्नीभूता हस्तपादाऽऽद्यक्षालयत् , नन्दायाः पुष्करिण्याः वर्णको' ददुर' शब्देवक्ष्यते) गवि, दे० ना० 4 वर्ग। साध्वीभिर्वार्यमाणा तु विभक्तायां वसतौ स्थिता, तदनालोच्य मृता णंदावत्त-पुं०(नन्द्यावर्त) प्रतिदिक्नवकोणके स्वस्तिके, जं०३ वक्ष०। क्षुल्लहिमवति पद्महदे श्रीदेवी जज्ञे देवगणिका, भगवतः श्रीवीरस्य रा०। प्रज्ञा० / चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रतिका राजगृहे समवसृतस्याने नाट्यविधिमुपदर्थ्य गता। अन्ये त्वाहुः- | पंदि-पंखीनन्दिन्दी' टनदि धातो: नमिनन्टनं नन्दिः / हर्षे करिणीरूपेण वातनिसर्गमकरोत् , श्रेणिकेण तस्याः स्वरूपे पृष्टे नन्दिहेतुत्वाद् ज्ञानपञ्चके, नन्दन्ति प्राणिनोऽनेनास्मिन् वेति नन्दिः / भगवानाख्यत् तस्याः पूर्वभवावसन्नतावृत्तम् / ती०३७ कल्प। आ० इप्रत्ययः / ज्ञाते, आ० म०१ अ० 1 खण्ड / अथ नन्दिरिति कः क०। आव०॥ शब्दार्थः ? उच्यते-'टुनदि ‘समृद्धौ इत्यस्य धातोः"इदितो नुम्" णंदा-स्त्री०(नन्दा) ज्योतिषसङ्केतिते तिथिभेदे तत्र प्रतिपत , षष्ठी, / / 7 / 1158|| इतिनुमि विहितेन-न्दनं नन्दिः,प्रमोदो हर्ष इत्यर्थः / एकादशी च नन्दा / चं० प्र०१० पाहु० / जं० / सू० प्र० / द० प०। नन्दिहेतुत्वात् ज्ञानपञ्चकाभिधावकमध्ययनमपि नन्दिः / नन्दन्ति श्रीशीतलजिनस्य मातरि, प्रव० 13 द्वार। ति० / आव० / स० / स्था० / प्राणिनोऽनेनास्मिन् वेति नन्दिः / इदमेव प्रस्तुतमध्ययनम् आविष्टलिङ्गवीरजिनसत्कस्य अचलभ्रातुर्नाम गणधरस्य मातरि, आ० म०१ अ० त्वाचाध्ययनेऽपि वर्त-मानस्य नन्दिशब्दस्य पुंस्त्वम् ''इ: 2 खण्ड। आ० चू० / श्रेणिकभार्यायामभयकुमारमातरि, नि० 1 श्रु०१ सर्वधातुभ्यः / इत्यौणादिक इः प्रत्ययः / अपरे तु नन्दीति पठन्ति, ते वर्ग 1 अ०1 अनु० / सा च वेन्नातटनगरे कस्यचित् क्षीणघनस्य श्रेष्ठिनो " ईकष्टादिभ्यः " इति सूत्रादीकप्रत्ययं समानीय स्त्रीत्वेऽपि वर्त्तयन्ति। दुहिताऽपि जनाऽऽदृता श्रेणिकेन तत्र गत्वा परिणीता, क्रमेणाभयकुमार ततश्च" इतोऽ- क्त्य र्थात् " // 24 // 32 // इति डीप्रत्ययः। स च नाम पुत्र जनितवती / तेण च वयःप्राप्तेन साकं राजगृहमागता श्रेणिकेन नन्दिश्चतुर्धा। तद्यथा-नामनन्दिः, स्थापनानन्दिः, द्रव्यनन्दिः भावनसंमानिता राजभोगानुपलिषेवे। नं०। (इति ' उप्पत्तिया ' शब्दे न्दिश्च / तत्र नामनन्दिषस्यकस्यचिजीवस्याऽजीवस्य वा नन्दिशब्दार्थद्वितीयभागे 827 पृष्ठे खुडुकोदाहरणावसरे प्रत्यपादि) रहितस्य नन्दिरिति नाम क्रियते, स नाम्ना नन्दि मनन्दिः / यद्वातदनन्तरम् नामनामवतोरभेदोपचाराद् नाम चासौ नन्दिश्च नामनन्दिः / नन्दिरिति एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गयरे. नामवान् नामनन्दिः / तथा-सद्भावमाश्रित्य लेप्यकर्माऽऽदिषु, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया। वण्णओ। तस्स णं सेणियस्स सद्भाव चाऽऽश्रित्याक्षवराटकाऽऽदिषु भावनन्दिर्मतः / साध्वादेर्या रण्णो णंदा नाम देवी होत्था। वण्णओ। सामी समोसहे, परिसा स्थापना स स्थापनानन्दिः / अथवा द्वादशविधतूर्य-रूपद्रव्यनन्दिणिग्गया, तते णं साणंदा देवी इमीसे कहाते लद्धड्डे समाणे स्थापना स्थापनानन्दिः / द्रव्यनन्दिर्द्विधा-आग-मतो, नोआगमतश्च / हट्टतुट्ठा कोडुंबियपुरिसे सहावेति, सद्दावेतित्ता जा णं जहा तत्राऽऽगमतो नन्दिपदार्थस्य ज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तः, अनुपयोगो पउमावती० जाव एकारस अंगाई अहिन्जित्तावीसं वासाइं परि- द्रव्यमिति वचनात्। नोआगमतस्तु त्रिधा। तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यनन्दिः, यायं० जाव सिद्धा / अन्त०७ वर्ग 1 अ०। ज्ञा० / आ० म०।। भव्यशरीरद्रव्यनन्दिः, ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तद्रव्यनन्दिश्च। तत्रय
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________________ णंदि 1752 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदि नन्दिपदार्थज्ञस्यापगतजीवितस्य शरीरं सिद्धशिलातलाऽऽदिगतं तद् भूतभावतया ज्ञशरीरद्रव्यनन्दिः / वस्तु बालको नेदानी नन्दिशब्दार्थमवबुध्यते, अथ चावश्यमायत्यां तेनैव शरीरसमुच्छुयेण भोत्स्यते, स भाविभावनिबन्धनत्वाद् भव्यशरीरद्रव्यनन्दिः / इह हि यद् भूतभावं, भाविभावं वा वस्तु, तद् यथाक्रमं विवक्षितभूतभाविभावापेक्षया द्रव्यमिति तत्त्ववेदिनां प्रसिद्धिमुपागमत्। उक्तं च- ''भूतस्य भाविनो भावाः, भावस्य हि कारणं तु यल्लोके / तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः, सचेतनाचेतनं कथितम् || 1 || ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्तु द्रव्यनन्दिः क्रियाविशिष्टो द्वादशविधतूर्यसमुदायः / उक्तं च-" दव्ये तूरसमुदओ।" तानि च द्वादशविधतूर्याण्यमूनि-" भंभा 1 मुकुंद 2 मद्दल, 3 कडंप 4 झल्लरि 5 हुडुक्क 6 कंसाला 7 / काहल 8 तलिमा 6 वंसो 10, संखो ११पणवो १२य बार-समो" ||1|| भावनन्दिर्दिधाआगमतो, नोआगमतश्च / तत्राऽऽ-गमतो नन्दिपदार्थस्य ज्ञाता, तत्र चोपयुक्तः," उपयोगो भाव-निक्षेपः " इतिवचनात् / नोआगमतः पञ्चप्रकारोज्ञानसमुदायः." भावम्मि व पंच नाणाइ" इति वचनात्। नं० / अथवा पञ्चप्रकार-ज्ञानस्वरूपमात्रप्रतिपादकोऽध्ययनविशेषो भावनन्दिः, नोशब्द-स्यैकदेशवाचित्वात् , अस्य चाध्ययनरन्य सर्वश्रुतैकदेशत्वात्। तथाहि-अयमध्ययनविशेषः सर्वश्रुताभ्यन्तरभूतो वर्तते, तत एक-देशः / अत एव चायं सर्वश्रुतस्कन्धाऽऽरम्भेषु सकलप्रत्यूहनिवृत्तये मङ्गलार्थमादौ तत्त्ववेदिभिरभिधीयते। नं०।पा०। विशे० / तदुक्तम्-" नंदी चउक्कदव्वे, संखबारसगतूरसंघातो। भावम्मि नाणपणगं, पचविखयरं च तं दुविहं / / 1 // "बृ०१ उ०।" गंदी य मंगलट्ठा, पंचग दुग तिग दुगे च चोद्दसए। अंगगयमणंगगए, का तत्थ परुवणा पगतं // 2 // " इति वक्तव्यार्थेन प्रतिज्ञायाऽऽह कल्पकारःनंदी मंगलहेऊ, न यावि सा मंगला हि वइरित्ता। कजामिलप्पनेया, अपुढो य पुढो य जह सिद्धा // 3 // नन्दिनिपञ्चकरूपो, मङ्गलहेतुर्मङ्गलनिमित्तं वक्तव्यः / आह-यदि मङ्गलनिमित्तं नन्दिर्वक्तव्यः, ततः स मङ्गलादेकान्तेन भिन्नः प्राप्तः, अन्यथा तदुत्पादननिमित्तं तस्योपादानमिति व्यवहारानुपपत्तेः। उपादानं हि तस्य सिद्धस्य सतो भवति, उत्पाधं चाद्याप्यसिद्धं, ततः कथमनयोरभेदः, किंतु भेद एव ? तत आह-न चापि सनन्दिर्मङ्गलाद् व्यतिरिक्तः, अपिशब्दादव्यतिरिक्तोऽपि स्यात् , व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्त इत्यर्थः / कथमेतत् श्रद्धेयमिति चेत् ? अत आह-(कजेत्यादि) यथा कार्याभिलाप्यज्ञेयानि कारणाभिलापज्ञानेभ्यः पृथक्त्वापृथक्त्वसिद्धानि, तथा नन्देर्मङ्गलमपि। तथा-हि-कार्य पटः, कारणं तन्तवः / तत्र तन्तव एव पुरुषव्यापारमपेक्ष्य तानवितानभावेन परिणममानाः पटकार्यरूपतया परिणमन्ते, तेषु च तेषु च तथा परिणतेषु सत्सु न कार्यकारणयोर्भेदः,किंत्वभेदः / एवमिहापिनन्दिनिपञ्चकाभिधानरूप उत्तरोत्तरशुभाध्यवसायविशेषसंभवसव्यपेक्षतरतमभावेन परिणममानो वाञ्छिताधिगतिलक्षणमङ्गलरूपतया परिणमते इति नन्दिमङ्गलयोरभेदः प्राचीनां त्ववस्थामपेक्ष्य भेदः / यथा-तन्तुभ्यः पटस्य, तथा अभिलापशब्देन कदाचिदभिलाप्यस्याभिलाप्यमानतोच्यते, अभिलपनमभिलाप इति व्युत्पत्तेः / कदाचित्तद्वाचकशब्दः, अभिलाप्यते वस्त्वभिलाप्य- मनेनेति व्युत्पादनात्। तत्र यदा अभिलाप्यमानतोच्यते, तदाऽभिलाप्याभिलापकयोरभेदो, धर्मधर्मिभावात्। यदा तु तद्वाचकशब्दः, तदा भेदः, शब्दार्थयोभिन्नदेशत्वाद्भिन्नस्वरूपत्वाच।ज्ञानशब्देनापिक्वचिद् ज्ञेयस्य ज्ञानमत्तोच्यते, ज्ञातिनिमिति भावे व्युत्पादनात् / कदाचिदात्मधर्मो, ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमिति करणे व्युत्पत्तेः / तत्र यदा ज्ञायमानता, तदा ज्ञानज्ञेययोरभेदो, धर्मधर्मिभावात्। यदा त्वात्मधर्मः, तदा भेदो, भिन्नस्वरूपत्वात् / एवमिहापि नन्दिशब्दो यदा भाववचनो नन्दनं नन्दिरिति, तदा नन्दनं समृद्धीभवनं वाञ्छितस्याधिगतिरिल्लनन्तरं, मङ्गलमपि चैवस्वरूपमिति परस्परमभेदः / यदा तु प्राचीनावस्थामपेक्ष्य करणसाधनो नन्दिशब्दो, नन्द्यतेऽनेनेति नन्दिरिति, तदा भेदः, कालभेदेन, भेदादिति। बृ०१ उ०। आ० चू० / नमस्कारत्रयरूपे मगले, ध०२ अधि० / विशे० / श्रावकश्राविकाणां नन्दीसूत्रश्रावणं" नाणं पंचविहं पण्णत्तं "इत्यादिरूपं, नमस्कारत्रयरूपं वा क्रियते ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र श्रावकश्राविकाणां नन्दीसूत्रं नमस्कारत्रयरूपं श्राव्यते इति। 31 प्र०। ही०४ प्रका० / साम्प्रतं पञ्चमःअइगरुअमोहविहुणिय-सुहबोहा केइ धम्ममगणिता। कारेंति नंदिमाई, सड्डीणं संजईहिंतो॥ 1 // अतिगुरुकमोहविधूनितशुभबोधा वृहत्तरमूढताकम्पितप्रधानम-तयः, केचनैके, धर्म क्षान्त्यादिकम् , अगणयन्तस्तिरस्कुर्वाणाः, कारयन्ति विधापयन्ति, नन्द्यादिकं, मकारोऽत्र प्राकृतप्रभवः। आदिशब्दानिषिरानुष्ठानाऽऽदिग्रहः / तत्र नन्दिरुपधानाऽऽदिषु समयप्रतीतो विधिः, श्राद्धीनां श्राविकाणां, (संजईहितो त्ति) संय-तिनीभ्यो व्रतिनीभ्यः सकाशात् / ' हिंतो त्ति ' पञ्चम्याः स्थाने निर्देशः," उहिंतो लोपास्तस्यातः पञ्चम्याः " / / इति प्राकृतेन / स च दर्शित एव / अयमभिप्रायः-स्वयं विहारं व्रजन्तोऽन्येषु त्वाचार्येषु बहुश्रुताऽऽदिषु विद्यमानेषु विज्ञार्यिकाभिः श्राविकाणां नन्द्यादि कारयन्ति / यदि पुनरेकोऽप्याचार्यस्तत्र भवति, ततः सामाचार्या अविरुद्धमपि भवेदिति गाथाऽर्थः॥१॥ एतस्यापि आगमसंवादपूर्वकप्रतिषेधपूर्व जीवोपदेशमाहआरेण अज्जरक्खिय-इचाईवयणओ न तं जुत्तं / रागद्दोसविमुक्को, रे जीव ! तर्हि पि मा मुज्झ / / 2 // (आरेणेति) अर्वाक्,'आरोवणं पच्छित्तदाणं चेति' दृश्य, सुबोधं च। अयमभिप्रायः-निगोदजीवविचारार्थाऽऽयातदेवेन्द्रवन्दिताऽऽर्यरक्षिताऽऽचार्यात् पूर्वं सामायिकाऽऽदिषु आर्यिकाणामनुज्ञा, अर्वाक् पुनर्नास्ति / सामायिकाऽऽदिक च नन्दिपूर्वकं क्रियते, अतस्तत्प्रतिषेधादेतदपि प्रतिषिद्धं बोद्धव्यम् / अतो नेति निषेधे, युक्तं संगतम्। रागद्वेषविमुक्तोऽभिष्वङ्गमत्सररहितो,जीव ! इत्यामन्त्रणे, तत्रापि नन्द्यादिकरणेऽपि, न केवलं पूर्वोक्तेषु, इत्यपिशब्दार्थः / मेति निषेधे, मुह्यस्व मोहं विधेहीति गाथाऽर्थः / समाप्तोऽयमार्यि - कानन्दिवक्तव्यताऽऽख्यः पञ्चमः साध्वीनां पाठः / जीवा० 5 अधि०। अन्यतीर्थीयः कश्विद्यदि तुर्य व तमु चारयति, तदा किं
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________________ गंदि 1753 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदिफल नन्दिं विनाऽप्युच्चारयति, उत नन्दिसहितमेव ? इति प्रश्ने, उत्तरम्- गंदितृर-न०(नन्दितूर्य) युगपद्वाद्यमाने द्वादशविधतूर्यसमुदाये,बृ०१ अान्यतीर्थीयः कश्चित्तुर्यव्रतमुच्चारयति, तदा नन्दि विनाऽपि उचार्यते, उ०। आव०। तदाश्रित्य निषेधः कोऽपि ज्ञातो नास्तीति। 36 प्र०। ही० 4 प्रका०। / पंदिपिणद्ध-त्रि०(नन्दिपिनद्ध) फुल्लिकायुक्ते, ज्यो०२ पाहु० / तपःसंयमयोगाना स्फीती, बृ० 1 उ०। णंदिपुर-न०(नन्दिपुर) शाण्डिल्यदेशराजधान्याम् , प्रव० 275 द्वार। नंदंति जेण तवसं-जमेसु नेव य दर त्ति खिज्जंति / प्रज्ञा० / नन्दिपुरनगरराजस्य मित्राभिधानस्य श्रीको नाम जायंति न दीणा वा, नंदी अ ततो समयसन्ना।। महानसिकोऽभूत् / स्था० १०टा० / येन द्रव्येणाभ्यवहृतेन तपःसंयमयोर्नन्दन्ति समाधिमनुभवन्ति, | णंदिफल-न०(नन्दिफल) नन्दिवृक्षाभिधानतरुफले, तदुदाहरणतन्नन्दिः / तथा येन द्रव्येणोपभुक्तेन नैव(दर त्ति) द्रुतं खिद्यन्ते, न प्रतिपादके तृतीये ज्ञाताऽध्ययने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आ० चू० / स०। कृशीभवन्तीत्यर्थः, तन्नन्दिः / अथवा येनोपयुक्तेन नदीना जाय-न्ते, आव०प्रश्नः। तदपि निरुक्तिवशान्नन्दिः / अत्र पाठान्तरम्-(जायंति नंदिया व त्ति) नन्दिफलोदाहरणं चेत्थम्नन्द्या ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽत्मिकया समृद्ध्या युक्ताः साधयो यतस्तेन एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी द्रव्येण जायन्ते, ततस्तस्य नन्दिरिति समयसंज्ञा आगम-परिभाषा / होत्था, पुण्णभद्दे चेइए, जितसत्तू राया। तत्थ णं चंपाए नगरीए वृ० 1 उ० / नि० चू०। नन्दनं नन्दिः / आनन्दे, स्था० 5 ठा० 2 उ० / धण्णे नामं सत्थवाहे होत्था / अड्डे जाव अपरिभूए। तीसे ण प्रमोदे, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। मनसस्तुष्टी, आचा०१श्रु०३ अ० चंपाए णयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी 6 उ० / समृद्धौ, ध० 2 अधि० / अनु० / " सिद्धे भो पयओ नमो होत्था रिद्धित्थियसमिद्धा, वण्णओ / तत्थ णं अहिच्छत्ताए जिणमए, नदी सया संजमे " / आ० चू०५ अ०। गौणमोहनीयकर्मणि, नयरीए कणगकेऊ नामं राया होत्था, महया वण्णओ / तेणं रस०५१ सम० / द्वादशतूर्याणां घोष, उत्त० 11 अ०। ज्ञा० / ध०ज०। तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स अन्नदा कयाइ पुव्वरत्तावरत्तप्रश्नः / पञ्चा०। औ० / वृक्ष-भेदे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। कालसमयंसि इमे एयारूवे अस्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए *नन्दिन-पुं० / महेश्वराऽऽख्यव्यन्तरस्य शिष्ये, आ० चू० 4 अ० / संकप्पे समुप्पज्जित्था-सेयं खलु मम विपुलं पणितं भंडमायाए आ० क० / आव०। अहिच्छत्तिं णगरिं वाणिज्जाए गमेत्तए एवं संपेहेइ, गणिमं च०४ गंदिअ-न०(देशी) सिंहरुते, दे० ना० 4 वर्ग! चउव्विहं भंड गेण्हति, गेण्हतित्ता सगडीसागडं सजेति, सगपंदिक्ख-पुं०(देशी) सिंहे, दे० ना० 4 वर्ग। डीसागडं भरेति, कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं व यासी-गच्छह णं तुज्झे देवाणुप्पिए ! चंपाए नगरीए सिंघाडग० गंदिगर-त्रि०(नन्दिकर) वृद्धिकरे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०! जाव पहेसु एवं खलु देवाणुप्पिए! धण्णे सत्थवाहे विउलं पणियं णंदिग्गाम-पुं०(नन्दिग्राम) मङ्गलावतीविजये स्वनामख्याते ग्रामे, आ० गहाय इच्छति अहिच्छत्तनगरिं वाणिज्जाए गमेत्तए / तं जे णं चू०१ अ० / आ० म० / मगधदेशान्तर्गत ग्रामे, यत्र जातो नन्दिषेणो देवाणुप्पिया ! चरए वा चीरिए वा चम्मखंडिए वा भिक्खुंडे वा गौतमपुत्रः पित्रोद॒तयोर्दीक्षां जगृहे / आ० क० / आ०व० / पंडरागे वा गोतमे वा गोव्वतिए वा गिहिधम्मे वा धम्मचिंतए वा वीरभगवत्पितृमित्रनन्दीवासस्थानग्रामे, आ० म०१ अ० 2 खण्ड। अविरुद्धविरुद्धवुड्डसावगरत्तपडनिग्गंथपमितियपासंडे वा आ० चू०। गिहत्थे वा धण्णेण सद्धिं अहिच्छत्तिं नगरिं गच्छति, तस्स णं णंदिघोस-पुं०(नन्दिघोष) द्वादशविधतूर्यनिनादे, नं० / रा० / ज्ञा०। धण्णे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलयइ, अवाहणस्स वाहणं दलयति, नन्दीसदृशघोषकारके, तं०। उत्त०। अकुंडियस्स कुंडियं दलयति, अपत्थयणस्स पत्थयणं दलणंदिचुण्णग-न०(नन्दिचूर्णक) द्रव्यसंयोगनिष्पादितौष्ठम्रक्षणचूर्णे, सूत्र० यति, अपक्खेवस्स पक्खेवगं दलयति, अंतरा विय से पडिय१ श्रु० 4 अ० 2 उ०। स्स वा भग्गलुग्गसाहजं दलयति, सुहं सुहेण य अहिच्छत्तिं णंदिज-न०(नन्दीय) स्थविरादार्यरोहणान्निर्गतस्य उद्देहगणस्य पञ्चमे संपावेइ त्ति कट्ट दोचं पि तचं पि घोसेइ, घोसेतित्ता मम एयमाण-त्तियं पचप्पिणइ / तए णं ते कोडुबियपुरिसा० जाव कुले, कल्प०८ क्षण। एवं वयासी-हंदि ! णिसुणंत भवंतो ! चंपाणगरी वत्थव्वा, गंदिजमाण-त्रि०(नन्द्यमान) जय जय नन्देतिसमृद्धिमुपनीयमाने, औ० / बहवे चरग० जाव पचप्पिणिंति / तए णं ते कोडु बिपुरिसाणं गंदिणी-स्त्री०(नन्दिनी) नन्दयति नन्दणिनिः / वसिष्ठधेनौ,सुतायाम् , अंतिए सोचा चंपाए बहवे चर० जाव गिहित्था जेणेव धण्णे उमाया, गङ्गायां, ननन्दरि, व्याडिमातरि, रेणुकौषधौ च / वाच० / सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति। तए णं धण्णे सत्थवाहे तेसिं पार्श्वनाथस्य प्रथमश्राविकायाम् , आ० चू० 1 अ० / गवि, दे० ना० 4 वर्ग। चरगाण य० जाव गिहत्थाण य अच्छत्तगस्स छत्तं दलयति. णंदित-त्रि०(नन्दित) दृष्टे, क्षुभिते च / प्रश्न०२ आश्र० द्वार। जाय पत्थयणं दलाति, दलातित्ता एवं वयासीगच्छह
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________________ णंदिफल 1754 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदिफल णं तुमे देवाणुप्पिया ! चंपाए नगरीए बहिया अणुजाणंसि मम / णंदिफलाणं दूरेणं परिहरमाणा, अण्णेसिं रुक्खाणं मूलाणि य० पडिलामेमाणा पडिलाभेमाणा चिट्ठह / तए णं ते चरगा य ध- जाव वीसमंति ; तेसि णं आवाए नो भद्दए भवति, ततो पच्छा पणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा० जाव चिट्ठति / तए णं ते परिणममाणा 2 सुहरूवत्ताए य भुजो 2 परिणमंति / एवामेव धण्णे सत्थवाहे सोहणंसि तिहिकरणणक्खत्तंसि विउलं असणं / समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा० जाव पंचसु पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेइत्ता मित्तं आमं- कामगुणेसुं नो सज्जति, नो रजति, से णं इहभवे व बहूर्ण तेति, भोयणा भोवावेति, भोयावेतित्ता आपुच्छति, सगडी- समणासं समणीणं णिग्गंथाणं णिग्गंथीणं अचणिज्जे परलोए नो सागडं जोयावेति, जोयावेतित्ता चपाए णगरीए निग्गच्छति, आगच्छति जाव वीतीवतिस्सति,जहा वा ते पुरिसा / तत्थ णं णातिविगिटेहिं अद्धाहिं वसमाणे 2 सुहेहिं वसहिपायरासीहिं अप्पेगतिया पुरिसा धण्णस्स एयमढें नो सद्दहति, धण्णस्स अंगजणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव देसग्गे, तेणेव उवागच्छइ, एयमटुं असद्दहमाणा जेणेव ते णंदिफला, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता सगडीसागडं मोयावेति,सत्थनिवेसं करेइ, को- तेसिंणंदिफलाणं मूलाणि य० जाव वीसमंति, तेसि णं आवाए डुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयइतुज्झे णं देवाणु- भद्दए भवति, तओ पच्छा परिणममाणा० जाव ववरोवेतिं / प्पिया ! मम सत्थनिवेसंसि महया महया सदं उग्घोसेमाणा एवं एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पवइए वयइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! इमीसे आगमियाए छिन्नावायाए पंचसु कामगुणेसु सञ्जति जाव अणुपरियट्टिस्सति, जहा व ते दीहमद्धाए अवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे णंदिफला णामं रुक्खा पुरिसा / तए णं से घण्णे सगडी-सागडं जोयावेति, जेणेव पण्णत्ता किण्हा० जाव पत्तिया पुप्फिया फलिया हरिया रिज्जमाणा अहिच्छत्ता नगरी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अहिच्छत्ताए सिरीए अईव 2 उवसोभेमाणा चिटुंति, मणुण्णा वण्णेणं. जाव नगरीए बहिया अग्गोजाणंसि सत्थनिवेसं करेति, सगडीसागडं मणुण्णा फासेणं, मणुण्णा छायो, ते जो णं देवाणुप्पिया ! तेसिं मोयावेति / तए णं से धण्णे सत्थवाहे महत्थे रायारिहं पाहुडं णंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदतयपत्तपुप्फफलवीयाणि गिण्हेति, बहूहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुडे अहिच्छत्तणगरस्स वा हरियाणि वा आहारेइ, छायाए वा वीसमति, तस्सणं आवाए मज्झं मज्झेणं अणुप्पविस्सति, जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव भद्दए भवति, ततो उपच्छा परिणममाणा अकाले चेव जीवियाओ उवागच्छति, उवागच्छतित्ता करयल० जाव वद्धावे ति, ववरोवेत्ति / तं मा णं देवाणुप्पिया ! केइ तेसिं नंदिफलाणं वद्धावेतित्ता तं महयं पाहुडं उवणेति / तए णं से कणगकेऊ मूलाणि वा० जाव छायाए मा वीसमउ, मा णं सेविय अकाले राया इहतुट्ठ० घण्णस्स सत्थवाहस्स तं महत्थं०३ जाव चेव जीवियाओ ववरोविजति, तुब्भे णं देवाणुप्पिए ! अण्णेसिं पडिच्छति, धण्णं सत्थवाहं सक्कारेंति, सक्कारेतित्तासंमाणेति, रुक्खाणं मूलाणि य० जाव हरियाणि य आहारेह, छायासु संमाणे तित्ता उस्सूकं वियरति, वियरतित्ता पडिविसजेति, वीसमह त्ति घोसेणं घोसह जाव पञ्चप्पिणंति / तए णं घण्णे पडिविस तित्ता भंडविणिमयं करेति, करेतित्ता पडिभंडं सत्थवाहे सगडी सागडं जोएत्ता जेणेवणंदिफला रुक्खा, तेणेव गिण्हति, सुहं सुहेणं जेणेव चंपा णगरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तेसिं णंदिफलाणं अदूरसामंते उवागच्छतित्ता मित्तणातिअभिसमण्णागए विउलाई माणुस्सगाई सत्थणिवेसं करेति, दोचं पि कोडुं बियपुरिसे सद्दावेति, भोग० जाव विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं, सद्दावेइत्ता एवं क्यइ-तुज्झेणं देवा-णुप्पिए! मम सत्थनिवेसंसि धण्णे धम्मं सोचा जिट्ठपुत्ते कुटुंबे ठवेत्ता पव्वइए सामाइयउग्घोसेमाणा 2 एवं वयह-एए णं देवाणुप्पिए ! ते णंदिफला माइयाई एकारसंगाई बहूणि वासाणि सामण्णमासि-याए किण्हा० जाव मणुण्णा छायाए, ते जो णं देवाणुप्पिए ! एएसिं। अण्णयरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववण्णे महाविदेहे वासे गंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदपुप्फतयपत्तफल० जाव सिज्झिहिति। अकाले चेव जीवियाओ ववरो-वेति। तं मा णं तुब्भे वीसमह, अधुना पञ्चदशं विवियते, अस्य चैवं पूर्वेण सह संबन्धः-पूर्वस्मिन्नपमा णं अकाले० जाव जीवियाओ वधरोविस्सह / अण्णेसिं माननाद्विषयत्यागः प्रतिपादितः, इह तु जिनोपदेशात्। तत्र च सात्यर्थरुक्खाणं मूलाणि य० जाव वीसमह त्ति कट्ट घोसेणं पचप्पिणंति।। प्राप्तिः, तदभावे त्वनर्थप्राप्तिरभिधीयते, इत्येवं संबद्धभिदं सर्व सुगम, तत्थ णं अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्थवाहस्स एयमहूँ | नवरं (चरए वेत्यादि) तत्र च रको धाटिभिक्षाचरः, चीरिको रथ्यापतितसदहति जाव रोयंति, एयमढे सद्दहमाणा रोएमाणा तेसिं / चीवरपरिधानः, चीवरोपकरण इत्यन्ये। चर्मखण्डिकश्चर्मपरिधानः, चर्मोप
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________________ णंदिफल 1755 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदिबद्धण करण इति चान्ये / भिक्षोण्डो भिक्षाभोजी, सुगतशासनस्थ इत्यन्ये। पाण्डुरागः शैवः / गौतमः-लघुतराक्षमालाचर्चितविचित्रपादपतनाऽऽदिशिक्षाकलापवत्प्रतिवृषभको पायतः कणभिक्षाग्राही। गोव्रतिकः-गोचर्याऽनुकारी / उक्तं च- " गावीहिँ" समं निग्गमपवेसठाणाऽऽसणाइ पकरिति / मुंजंति जहा गावी, तिरिक्खवास विभाविंता / / 1 / / " गृहधर्मा गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्वभिसंधाय तद्यथोक्तकारी। धर्मचिन्तको धर्मसंहितापरिज्ञानवान् / सभासद अविरुद्धो वैनयिकः। उक्तं च-" अविरुद्धो विणयकारी, देवाईणय पराएँ भत्तीए / जह वेसियायणसुओ, एवं अन्ने वि नायव्वा // 1 // " | विरुद्धोऽक्रियावादी, परलोकानभ्युपगमात् सर्ववादिभ्यो विरुद्ध एव / वृद्धस्तापसः, प्रथममुत्पन्नत्वात्प्रायो वृद्धकाले च दीक्षाप्रति-पत्तेः / श्रावको ब्राह्मणः। अन्ये तुबुद्धश्रावक इति व्याचक्षते। स च ब्राह्मण एव। रक्तपटः परिवाजकः / निर्गन्थः साधुः। प्रभृतिग्रहणात् कपिलाऽऽदिपरिग्रह इति / (पत्थयण ति) पथ्यदनं शम्बलं (पक्खेव त्ति) अर्द्धपथे त्रुटितसंबलस्य संबलपूरणं द्रव्यं प्रक्षेपकः। (पडियस्स त्ति) वाहनात्स्खलनात्पतने भग्नस्य, रुग्णस्य च जीर्णतां गतस्येत्यर्थः / " हंदि त्ति" आमन्त्रणे। (नाइविगिडेहिं अद्धाहिं ति) नातिविकृष्टषु नातिदीर्घष्यध्वसु प्रयाणक मार्गेषु वसन् शुभैरनुकूलैर्वसतिप्रातराशैरावासस्थानः, प्रातभोजनकालैश्चेत्यर्थः / ' देसग्गं ति ' देशान्तम् / इहोपनयस्तत्राभिहित एव। विशेषतः पुनरेवं तं प्रतिपादयन्ति"चंपा इव मणुयगती, धणो व्व भयवं जिणो दएकरसो। अहिछत्तानयरिसम, इह निव्वाणं मुणेयव्वं / / 1 // घोसणया इव तित्थं-कररस सिवमग्गदेसणमणग्घं। चरगाइणो व्व इत्थं, सिवसुहकामा जिया बहवे॥२॥ नंदिफलाइव्व इह, सिवपहपडिवनगाण विसयाओ। तब्भक्खणा उ मरणं, जह तह विसएहिँ संसारो॥ 3 // तव्वजण जह इ-ट्ठपुरगमो विसयवजयेण तहा। परमाणंदणिबंधण-सिवपुरगमणं मुणेयव्वं" // 4 ॥ज्ञा० 1 श्रु०१५ अ०! णंदिबद्धण-पुं०(नन्दिवर्धन) गौतमस्वामिप्रतिष्ठितस्य बलभ्यागतस्य चन्द्रप्रभस्य पूजके, ती० 43 कल्प / पाण्डवस्थापित मूलकुण्डग्रामे महावीरस्वामिनो ज्येष्ठभ्रातरि, चेटकराजसुतायाः-चेल्लणास्वसुः ज्येष्ठायाः पत्यौ, आ० चू० 4 अ० / कल्प० / आ० म० / आव० / आचा०। लोकोत्तररीत्या कार्तिकमासे, कल्प० 6 क्षण। नन्दिषेणमुनेगुरी, आ० चू० 4 अ० / आव० / मथुरायां श्रीदामराजपुत्रे, विपा०। तत्कथाएवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं महुरा णयरी, भंडीरे उजाणे, सुदरिसणे जक्खे, सिरिदामे राया, बंधुसिरी भारिया, पुत्ते णंदिबद्धणे णामं कुमारे अहीण जाव जुवराया। तस्स णं सिरिदामस्स सुबंधू णामं अमचे होत्था, सामदंडभेया तस्स णं सुबंधुस्स अमचस्स बहुमित्ती पुत्ते णामं दारए होत्था, अहीण / तस्स णं सिरीदामस्स रणो चित्ते णामं अलंकारिए होत्था। सिरिदामस्स रण्णो चित्ते बहुविहं अलंकारियकम्मं करेमाणे सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु य अंतेउरे य दिण्णवियारे यावि होत्था / तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा राया य णिग्गओ० जाव गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जेठेजाव रायमग्गं ओगाढे, तहेव हत्थी आसे पुरिसे / तेसिं च णं पुरिसाणं मज्झगयं एगं पुरिसं पासइ० जाव णरणारीसंपरिखुडं। तएणं तं पुरिसं रायपुरिसा चच्चरंसि तत्तंसि अओमयंसि समजोइयंसि सिंहासणंसि णिवेसावेइ। तयाणंतरं च णं पुरिसाणं मज्झगयं बहूहिं अयकलसेहिं तत्तेहिं समजोइभूएहिं अप्पेगइयाणं तंवभरिएहिं, अप्पेगइयाणं तउयभरिएहिं, अप्पेगइयाणं सीसगभरिएहिं, अप्पेगइयाणं कलकलभरिएहिं, अप्पेगइयाणं खारतेल्लभरिएहिं, महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ। तयाणंतरं च णं तत्तअउमयं समजोइभूयं अउमयसंडासगं गहाय हारं पिणद्धइ / तयाणंतरं च णं हारं अद्धहारं० जाव पट्ट मउढं चिंता तहेव० जाव वागरेइ / एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सीहपुरे णामं णयरे होत्था रिद्धत्थिः / तत्थ णं सीहपुरे सीहरहे णामं राया। तस्स णं सीहरहस्स रण्णो दुजोहणे णामं चारगपालए होत्था अहम्मिए० जाव दुप्पडियाणंदे तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स इमे एयारूये चारगभंडे होत्था / तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे अयकुंडीओ अप्पेगइयाओ तंबभारियाओ, अप्पेगइयाओ तउयभरियाओ, अप्पेगइयाओ सीसगभरियाओ, अप्पे० कलकलभरियाओ, अप्पे० खारतेल्लभरियाओ, अगिणीकायंसि अद्दहियाओ चिट्ठति / तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे उट्टियाओ आसमुत्तभरियाओ, अप्पेगइयाओ हत्थीमुत्तभरियाओ, अप्पे०उट्टमुत्तभरियाओ, अप्पेगोमु०, अप्पे० एलयमु०, अप्पे० महिसमु०, बहुपडिपुण्णाओ चिट्ठइ। तस्सणं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे हत्थंदुयाण य पायंदुयाण य हडीण य णियलाण य संकलाण य पुंजा य णिगरा य संणिखित्ता चिट्ठति / तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे देणुलयाण य चिंचाछियाण य कसाण य वायरासीण य पुंजा णिगरा चिट्ठति / तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे सिलाण य लउडाण य मोग्गराण य कणंगराण यपुंजा णिगरा चिट्ठइ। तस्सणं दुजोहणस्स चारगपालस्सवरत्ताण य वागरण य वालसुत्तरज्जूण य पुंजा णिगरा संचिट्ठइ। तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे असिपत्ताण य करपत्ताण य खुरप ताण य कलंवचीरपत्ताणय पुंजा गिरा संचिट्ठइ /
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________________ णंदिबद्धण 1756 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 दिबद्धण तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे लो।खीलाण य कमसक्कराण य चम्मपट्टाण य अलिपत्ताण य पुंजा णिगरा संचिद्वइ / तस्सणं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे सूचीण य भंडणाण य कोट्टिल्लाण य पुंजा णिगरा संचिट्ठइ / तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहवे सत्थाण य पिप्पलाण य कुहामाण यणहच्छेयणाण य दब्भाण य पुंजा णिगरा संचिट्ठइ / तस्स णं से दुजोहणस्स चारगपालस्स सीहरहस्स रण्णो बहवे चोरे य पारदारिए य गंठिभेदे य रायावकारी य अणाहारए य बालघाते य वीसंभघाते य जुइकरे य खंडपट्टेय पुरिसेहिं गिण्हावेइ, गिण्हावेइत्ता उत्ताणए पामेइ, लोहदंडेण मुहं विहामेइ, अप्पेगइए तत्तं तंबं पज्जेइ, अप्पे० तउयं पजेइ, अप्पे० सीसगं पजेइ, अप्पे० कलकलं पजेइ, अप्पे० खारतेल्लं पजेइ, अप्पे० तेणं चेव अभिसेगं करेइ, अप्पे० उत्ताणए पाडेइ, अप्पे० आसमुत्तं पज्जेइ, अप्पे० हत्थिमुत्तं पजेइ० जाव एलयमुत्तं पजेइ, अप्पे० हिट्ठा | मुहं पाडेइ, अप्पे० बलस्स वमावेइ, अप्पे० तेणं चेव उवीलं दलयइ, अप्पे० हत्थंडुयाहिं बंधावेइ, अप्पे० पायंडुयाहिं बंधावेइ, अप्पे० हडिबंधणं करेइ, अप्पे० णियलबंधणं करेइ, अप्पे० संकोडियं करेइ, अप्पे० संकलबंधणं करेइ, अप्पे० हत्थच्छि-एणए करेइ० जाव सत्थोवाडिए करेइ, अप्पे० वेणुलयाहि य० जाव वेयरासीहि य ण्हावेइ, अप्पे० उत्ताणए करेइ, करेइत्ता उरे सिलं दलावेइ, दलावेइत्ता लउलं दावेइ, पुरिसेहिं उकंपावेइ, अप्पे० लंतीहि य० जाव सुत्तरज्जुहि य हत्थेसु य पादेसु य बंधावेइ, अगमम्मि ओचूलं पाणगं पजेइ, अप्पे० असिपत्तेहि अब्भंगावेइ, अप्पे० णिलाडेसुय अवटुसु य कोप्परेसुय जाणुसुय खलुएसु य लोहकीलएसुय कमसक्करासु य दलावेई, अलए भंजावेइ, अप्पे० सूतीओ य दंडणाणि य हत्थंगुलियासु य पायंगुलियासु य कोट्टिल्लएहिं आउडावेइ, आउडावेइत्ता भूमिं कंडूयावेइ, अप्पे० सत्थिएहि य० जाव णइच्छे दणएहि य अंगं पच्छावे इ, दडभेहि य कु से हि य उल्लदभेहि य वेढावेइ, आयवंसि दलयइ, सुक्के समाणे चडचडस्स उप्पामेइ / तए णं से दुजोहणचारए एयकम्मे० सुबहुपावं समञ्जिणित्ता एगतीसं वाससयाई परमाउयं पाउणित्ता | कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसं बावीसं सागरोदमाई ठिईएसु णेरइएसु उववण्णे / से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव महुराए णयरीए सिरिदामस्स रण्णो बंधुसिरीए देवीए कुञ्छि पुत्तत्ताए उववण्णे / तएणं बंधुसिरी णवण्हं मासाणं हमासाण बहुपडिपुण्णाणं जाव दारगं पया-या। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णिव्वत्तबारसाहे इमं एयारूवं णामधेज्जं करेइ-होउ णं अम्हं दारगे णंदिसेणे णामेणं / तए णं से णंदिसेणे कुमारे पंचधाइपरिवुडे० जाव परिवड्डइ / तए णं से णंदिसेणे कुमारे उम्मुक्कबालभावे. जाव विहरइ० जाव जुवराया जाए यावि होत्था / तएणं से गंदिकुमारे रज्जे य० जाव अंतेउरे य मुच्छिए. 4 उच्छइ सिरिदामं रायं जीवियाओ ववरोवित्ता सयमेव रजसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरिउं / तए णं से णं दिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रपणो अंतरं अलभमाणे अण्णया कयाइ चित्तं अलंकारियं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासीतुमणं देवाणुप्पिया! सिरिदामं रायं सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु य अंतेउरे य दिण्णवियारे सिरिदामं रायं अभिक्खणं अभिक्खणं अलंकारियकम्मं करेमाणे विहरइ / तं णं तुम्हें देवाणुप्पिया ! सिरिदामं रायं अलंकारियकम्मं करेमाणे गीवाए खुरं णिवेसेहि, ता णं अहं तुभं अद्धरज्जियं करेस्सामि, तुमं अम्हेहिं सद्धिं उराले भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्सह / तए णं से चित्ते अलंकारिए णंदिसेणस्स कुमारस्स वयणं एयमé पडिसुणेइ, पडिसुणेइत्ता-तए णं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमे एयारूवे० जाव समुप्पञ्जित्था / जइ णं ममं सिरिदामे राया एयमद्वं आगमेइ, तएणं मम णं णज्जइ केणइ असुभेणं कुमरणेणं मारिस्सति त्ति कट्ट भीए० 4 जेणेव सिरिदामे राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सिरिदामं रायं रहसि एवं करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! णंदिसेणे कुमारे रजे य० जाव मुच्छिए० 4 इच्छइ तुब्भे जीवियाओ ववरोवित्ता सयमेव रजसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरिठं / तए णं से सिरिदामे राया चित्तस्स अलंकारियस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म आसुरुते० 4 जाव साहट्टणंदिसेणं कुमारं पुरिसे हिं गिण्हावेइ, एएणं विहाणेणं वज्झं आणवेइ। तं एवं खलु गोयमा ! णंदिसेणे पुत्ते० जाव विहरइ / णंदिसेणे कुमारे भयवं ! इओ चुओ कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति? गोयमा ! णंदिसेणे कुमारे सट्ठिवासाइं परमाउयं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेव ; ततो हत्थिणाउरे णयरे मच्छताए उववजिहिति। से णं तत्थ मच्छिएहिं वधिए समाणे तत्थेव से टिकुले बोहिं पाउणित्ता सोहम्मे कप्पे महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, बुज्झिहिति, मुञ्चिहिति, परिणिव्वाहिति। विपा० १श्रु०६ अ०!
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________________ णंदिबद्धणा 1757 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदिसेण शंदिबद्धणा-स्त्री०(नन्दिबर्द्धना) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे रुचकवर-स्य | णंदिराय-पुं०(नन्दिराज) वीरस्वामिज्येष्टभ्रातरि नन्दिवर्द्धन, कल्प० पर्वतस्थ रजतकूटवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम् स्था०८ ठा०। आ० म०। ५क्षण। आo चू० / जं० / आ० क० / जं० / आ० क० : शाश्वतपुष्करिणीभेदे, *नन्दिराग-पुं०। समृद्धौ सत्यां हर्षे, भ० 220 5 उ० / स्था० 4 ठा०२ उ० / ती० / जी०। णंदिरुक्ख-पुं०(नन्दिवृक्ष) धववृक्षे, अश्वत्थवृक्षे, तुन्ने, कुबेरके, णंदिभाण-न०(नन्दिभाजन) औपग्रहिकोपकरणभेदे, बृ०। मेषशृङ्गयां च / वाच० / प्रज्ञा० / औ० / ति० / स०। रा०। तदुपयोगश्च णंदिसूरि-पुं०(नन्दिसूरि) श्रीशत्रुञ्जयतीर्थोद्वारकारके स्वनामके सूरी, एकं भरेमि भाणं, अणुकंपा नंदिभाण दरिसेंति / ती०२ कल्प। निंति व तं वइगाऽऽइसु, गालिंति तह चम्मकरएणं / / णं दिसेण-पुं०(नन्दिषेण) मथुरायां श्रीदामराजसुते युवराजे नन्दिअथ प्रतिपन्नानां कोऽप्यनुकम्पया ब्रूयात-अहं युष्मभ्यं दिने दिने एक वर्धनापरनामके, स्था० 10 ठा० / विपा०। स्वनामख्याते पापित्यीये भाजनं बिभर्मि पूरयामि, ततस्तत्र नन्दिभाजनं बिभतिं पूरयति, ततस्तत्र आचार्ये, यो हि भद्रिकापुर्या वीरे भगवत्यागते प्रतिमया स्थितश्चौरनन्दीभाजनं दर्शयन्ति / अथवा-तद् नन्दिभाजनं भिक्षाचर्यया भ्रान्त्याऽऽरक्षकपुरुषेण भल्लाऽऽहतो जातावधिः स्वर्जगाम। कल्प०५ वजिकाऽऽदिषु नयन्ति / तथा प्रासुकं तद् द्रव्यं पानकं चर्मकरकेण क्षण। आ० म० / आ० चू०। नन्दिग्रामे गौतमपुत्रे नन्दिवर्धनसूरिशिष्ये, गालयन्ति / बृ० 1 उ० / ओघ० / नि० चू० / आ००। इदानीमेतदेव भाष्यकरो व्याख्यानयन्नाह " मगधे हि नन्दिग्रामे, गौतमः कणवृत्तिकः। तत्पत्नी धारणी तस्याः, गर्भे षाण्मासिके पिता // 1 // वेयावचगरो वा, नंदीभाणं धरे उवग्गहियं / मृतो माताऽपि जातेच, मातुलेन स वर्द्धितः। सो खलु तस्स विसेसो, पमाणजुत्तं तु सेसाणं / / 105 / / नन्दिषेणाभिधस्तस्य, गृहे कर्म चकार सः॥२॥ वैयावृत्त्यकरो वा नन्दीपात्रं धारयत्यौपग्राहिकम, आचार्येण समर्पित, प्रतारितः स लोकेन, मातुलेन स्थिरीकृतः। निज वा स खलु तस्यैव वैयावृत्त्यकरस्य विशेषः / एतदुक्तं भवति- मा श्रौषीर्लोकवाक्यानि, तिस्रः सन्ति सुता मम // 3 // यदतिरिक्तपात्रकधारणम् , अयं तस्यैव वैयावृत्त्यकरस्य विशेषः दास्यामि तव नैषुस्ताः , कुरूपमिति तं परम्। क्रियते। शेषाणां साधूनां प्रमाणयुक्तमेव पात्रकं भवति, उदरप्रमा- निर्विष्णः सोऽथ निर्गत्य, मुमूर्षवर्वीक्ष्य कुत्रचित्।। 4 / / णयुक्तमित्यर्थः / / 105 / / नन्दिवर्द्धनसूरीणा, सन्निधौ व्रतमग्रहीत्।। एतच प्रमाणातिरिक्तेन पात्रकेन प्रयोजनं भवति सषष्टक्षपकः ख्यातः, यशःकीर्तिरभून्मुनिः।। 5 / / देजाहि भाणपूरं, तु रिद्धिमं कोइ रोहमाईसु / वैयावृत्येऽभिग्रही च, बालग्लानाऽऽदिसाधुषु। शक्रोऽशंसत्तमेकोऽथा-श्रद्दधानः सुरोऽभ्यगात्।।६।। तत्थ वि तस्सुवओगो, सेसं कालं तु पडिकुट्ठो / / 106 // चक्रे श्रमणरूपे द्वे, बहिरेकोऽतिसारकी। दद्याद भाजनपूरं कश्चिदृद्धिमान-पात्रकभरणं कश्चिदीश्वरः कुर्यात् / स्थितोऽगादपरो मध्ये, साधूपान्ते ब्रवीदिदम् / / 7 / / कदा ? पत्तनरोधकाऽऽदौ। तत्र पात्रकभरणे तस्य नन्दीपात्रस्योपयोगः, ग्लानर्षिः पतितोऽस्तयेको, वैयावृत्त्यकरोऽस्ति चेत्। शेषकालमुपयोगः तस्य प्रतिकुष्टः प्रतिषिद्धः, कारणमन्तरेणेत्यर्थः / स उत्तिष्ठतु तच्छुत्वा, षष्ठपारणकेऽपि हि // 8 // ओघ०। पं०व०। सहसा नन्दिषेणर्षि-मुक्त्वा कवलमुत्थितः। णंदिमित्त-पुं०(नन्दिमित्र) भाविनि द्वितीये वासुदेवे, ती० 20 कल्प। ऊचेऽर्थः केन सोऽवादीद् , जलेनाऽऽगात् स तत्कृते॥६॥ मल्ल्या सह प्रव्रजिते राजपुत्रे, ज्ञा०१ श्रु० 8 अ०। अनैषणां सुरश्चक्रे-ऽनेषणीयं न सोऽग्रहीत्। जंदिमुइंग-पुं०(नन्दिमृदङ्ग) एकतः संकीर्णेऽन्यत्र विस्तृते मुरजविशेष, भ्रान्त्वा द्विस्त्रिः स शुद्धाम्भो, गृहीत्वागात्तदन्तिके॥१०॥ रा०। आ० चू०। आचुक्रोश स तंग्लानो, मुनिं निष्ठुरया गिरा। गंदिमुह-पुं०(नन्दिमुख) व्यङ्गुलप्रमाणशरीरके पक्षिविशेष, प्रश्न०१ त्वं वैयावृत्त्यकारीति, श्रुतो नाम्नैव वर्तसे।।११।। आश्र० द्वार। औ०। रा०। स तगिरं सुधासारां, मन्यमानः क्षमानिधिः। अशोकः क्षालयामास, तं विष्ठाऽऽक्षिप्तमप्यषिम् // 12 // णंदिय-त्रि०(नन्दित) समृद्धितरतामुपगते, औ० / स्वनामख्याते अथाऽऽहोत्तिष्ठ यामान्त-धरुजं त्वां करोमि यत्। स्थविर, कल्प० / ' मिउमद्दवसंपन्नं, उवउत्तं नाणदंसणचरित्ते / थेरं च ग्लानोऽवक् न क्षमः सोऽवक्, पृष्ठमारोह तर्हि मे।। 13 // णंदियं पि य, कासवगुत्तं पणिवयामि // 1 // कल्प०८ क्षण। पृष्ठमारोप्यतंगछं-स्तेन देवेन मायया। णंदियगपोसण-न०(नन्दितकपोषण) मनोज्ञाऽऽहाराऽऽदिभिर्व नन्दिषेणः पुरीषेण, लिप्तोऽतीव विगन्धिना / / 14 / / ध्यपशोः परिपालने, बृ०१०। आक्रुष्टश्व कथं वेग-भङ्गान्मे मृतमारणम्। णंदियावत्त-पुं०(नन्दयावर्त) प्रतिदिड्नवकोणके स्वस्तिके, प्रश्न०१ करोषि भोक्तुकामस्त्वं,व्रजन्नत्यन्तरहसा।। 15 // आश्र० द्वार / जं० / रा० / औ० / प्रव० / ब्रह्मलोके कल्पे तदिन्द्रस्य मुनिश्चम्पकलेपंतं मन्वानोऽमेध्यलेपनम्। पारियात्रिके विमाने, स्था० 10 ठा० / द्वीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। आक्रोशं चाऽऽशिष दध्यौ, कथं स्यादस्य निर्वृतिः? // 16 // जी० / स्तनितकुमारेन्द्रस्य घोषस्य महाघोषस्य च लोकपाल-भेदे, देवस्तुष्टोऽथ संहृत्य, मायां नत्वा च तं मुनिम्। स्था० 4 ठा० 1 उ० / भ० / सिद्धश्रेणिकापरिकर्मभेदे, स०१२ अङ्ग। शक्रप्रशंसां चाऽऽवेद्य, स्व विमानं जगाम सः / / 17 / /
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________________ णंदिसेण 1758 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदिस्सर वसतौ मुनिरप्यागा-द्गुरोरालोच्य भुक्तवान्। कायां पूर्वरुचकवरवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम् , द्वी० / स्था०। रतिकरपर्वएषणासमितिः पाल्या, तदेवं मुनिपुङ्गवै।।१५।। तानामुत्तरदिकथासु शक्रसामानिकराजधानीषु, द्वीot आ० क० / आव० / त० / नि० चू० / स्था० / श्रेणिकस्य पुत्रे, स च णंदिसेणिया-स्त्री०(नन्दिषेणिका) स्वनामख्यातायां श्रेणिकभार्यायाम, पूर्वभवे कस्यचिद् धिग्जातिकस्य दास आसीत् , तेन च यज्ञपाटे नियुक्तेन सा च वीरान्तिके प्रव्रजिता सिद्धा, इति अन्तकृशानां सप्तमे वर्गे स्वामिनो यज्ञशेष याचित्वा साधवे दत्त्वा तत्पुण्येन देवलोके गत्वा ततः चतुर्थेऽध्ययने सूचितम्। अन्त०६ वर्ग 16 अ०। श्च्युक्त्वा श्रेणिकस्य पुत्रो जज्ञे (आ० चू० 4 अ०। आव०) स च णंदिस्सर-पुं०(नन्दिस्वर) द्वादशतूर्यसंघातस्वरे, जी०३ प्रतिकातंगरा०। वीरजिनान्तिके प्रव्रज्यां जगृहे, तस्य साधोः श्रेणिकपुत्रस्य नन्दिषेणस्य *नन्दीश्वर-पुं०। महेश्वराऽऽख्यव्यन्तरस्य शिष्यभेदे, आ० चू०४ स्वशिष्यस्य व्रतमुज्झितुकामस्य स्थिरीकरणाय भगवद्वर्द्धमानस्वामिवन्दननिमित्तचलितमुक्ताऽऽभरणश्वेताम्बरपरिधानरूपरमीणयता अ आ० का नन्दी समृद्धिः,तस्या ईश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः। अनु०। विनिर्जितामरसुन्दरीक स्वान्तः-पुरदर्शनं कारितम्। (सा पारिणामिकी "जंबू लवणे धायइ-कालोयपुक्खराइ जुयलाइ। वारुणिखीरघयक्खू, नंदीसरअरुणदीवुदही॥१॥" इतिगणनयाऽष्टमे द्वीपे, स्था० 4 ठा०२ बुद्धिः) स हि (नन्दिषेणस्य) तादृशमन्तःपुर नन्दिषेणः परित्यक्तं दृष्ट्वा उ०। प्रव०। रा०। दृढतरं संयमे स्थिरो बभूव / नं० / आ० क० आ० चू०। ती० / आ० म० शीलावसन्ने चारणमुनौ, महा०। स चावसोदन मुमूर्षा चकार। तत्कल्पं यथा " आराध्य श्रीजिनाधीशान् , सुराधीशार्चितक्रमान्। तद्यथा कल्पं नन्दीश्वरद्वीप-स्याऽऽख्येऽहं विश्वपावनम् // 1 // "ता गोयम ! णंदिसेणेणं, गिरिपडणं जाव पत्थुयं / अस्ति नन्दीश्वरो नाम्ना-ऽष्टमो द्वीपो द्युसन्निभः। ताव आयासे इमा वाणी, पडिओ वि णो मरेज्जतं / / तत्परिक्षेपिणा नन्दी-श्वरेणाम्भोधिना युतः॥२॥ दिसामुहाइं जा जोए, ता पेच्छा चारणं मुणिं। एतद्वलयविष्कम्भे, लक्षाशीतिश्चतुर्युगा। अकाले नत्थि ते मच्चू , विरम विसयादितो गओ।। योजनानां त्रिषष्टिश्च, कोट्यः कोटिशतं तथा // 3 // असौ विविधविन्यासो-द्यानवान् देवभोगभूः। ताहे वि अणहियासेहिं, विसएहिं जाव पीडिओ! जिनेन्द्रपूजासंसक्त-सुरसंपातसुन्दरः॥ 4 // ताव चिंता समुप्पन्ना, जहा किं जीविएण मे ? || अस्य मध्यप्रदेशे तु, क्रमात्पूर्वाऽऽदिदिक्षु च। कुंदेदुनिम्मलयरागं, तित्थं पावमती अहं। अञ्जनवर्णाश्चत्वार-स्तिष्ठन्त्यञ्जनपर्वताः // 5 // उड्डाहिंतो य सिज्झिस्सं, कत्थ गंतुमणारिओ?!! दशयोजनसाहसा-तिरिक्तविस्तृतास्तले। अहवा सलंछणो चंदो, कुंदस्स उणका पहा। सहसयोजनाश्चोर्द्ध, क्षुद्रमेरूच्छ्याश्च ये॥६॥ तत्र प्रागदेवरमणो, नित्योद्योतश्च दक्षिणः। कलिकलुसकलंकेहिं, वज्जियं जिणसासणं / / स्वयंप्रभः प्रतीच्यस्तु, रमणीयोदकस्थिरः / / 7 / / ता एवं सयलदालिद्द-दुहकिलेसक्खयं-करं। शतयोजन्यायतानि, तदर्द्ध विस्तृतानि च। पवयणं खिंसावितो, कत्थ गंतूण सिज्झिइं? || द्विसप्ततियोजनोचा-न्यर्हचैत्यानि तेषु च / / 8 // दुगुड्डकं गिरी रोढुं, अत्ताणं चुन्निमो धुवं / पृथगद्वाराणि चत्वा'- नि षोडशयोजनम्। जाव विसयवसेणाहं, किंचि उड्डाहयं करे। प्रवेशो योजनान्यष्ट, विस्तारोऽप्यष्ट तेषु तु / / 6 / / तानि देवासुरभाग-सुपर्णानां दिवौकसाम्। एवं पुणो वि आरोढुं, ढंकुच्छिन्नं गिरीतडं / समाश्रयास्तेषामेव, नामभिर्विश्रुतानि च // 10 // संचरे किल निरागारं, गयणे पुणरवि भाणियं / / षोडशयोजनाऽऽयामा-स्तावन्मात्राश्च विस्तृतौ। अकाले नत्थि ते मचू, चरिमं तुज्झ इमं तणुं / अष्टयोजनकोत्सेधा-स्तन्मध्ये मणिपीठिकाः // 11 // ता बद्धपुढे भोगहलं, वेइत्ता संजमं कुरु॥ सर्वरत्नमया देव-च्छन्दकाः पीठिकोपरि। एवं तु जाव बेवारा, चारणसमणोहि सेहिओ। पीठिकाभ्योऽधिकाऽऽयामो-च्छ्रयभाजश्च तेषु तु॥१२॥ ऋषभो वर्द्धमानस्तु, तथा चन्द्राननोऽपि च। ताहे गंतूण सो लिंग,गुरुपायमूले निवेदिओ ''|| महा०६अ०। वारिषेणो वेति नाम्ना, पर्यङ्कासनसंस्थिताः / / 13 / / भरतक्षेत्रजाभिनन्दनतीर्थकृत्समकालीने ऐवतजे तीर्थकरे, ति०। रत्नमय्यो युताः स्वस्व-परिवारेण हारिणा। ती०। शत्रुञ्जयतीर्थ जिनशान्तिविषायके गणेशे, ती० 1 कल्प। शाश्वताहत्प्रतिमाः प्र-त्येकमष्टोत्तरं शतम्॥ 14 // द्वीपसमुद्रविशेषाधिपतौ, द्वी०। अजितशान्तिस्तवग्रन्थकारके आचार्ये, द्वे द्वे नागयक्षभूत-कुण्डभृत्प्रतिमे पृथक् / जै० इ०! प्रतिमानां पृष्टतस्तु, छत्रभृत्प्रतिमैकका / / 15 / / णंदिसेणा-स्त्री०(नन्दिषेणा) पूर्वस्मिन्नञ्जनकपर्वते पूर्वस्यां दिशि तेषु धूपघटीदाम-घण्टाष्टमङ्गलध्वजाः। नन्दापुष्करिष्याम् , जी०३ प्रति० / ती० / द्वी० / स्था० / अञ्ज- छत्रतोरणचङ्गेर्यः, पटलाभ्यासनानि च / / 16 / / नकपर्वतानामुत्तरस्यां नन्दापुष्करिष्याम् , द्वी० / नन्दिवर्धनापरनामि- | षोडश पूर्वकलशाः, दीप्त्यलङ्करणानि च।
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________________ णंदिस्सर 1756 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णंदीसरवर सुवर्णरुचिररजो-वालुकास्तत्र भूमयः / / 17 / / आयतनप्रमाणेन, रुचिरा मुखमण्डपाः। प्रेक्षार्थमण्डपा अक्ष-वाटिका मणिपीठिकाः / / 18 // रम्याश्च स्तूपप्रतिमा-चैत्यवृक्षाश्च सुन्दराः। इन्द्रध्वजाः पुष्करिण्यो, दिव्याः सन्ति यथाक्रमम्।।१६।। प्रतिमाः षोडश चतुरस्तूपेषु सर्वतः / शतं चतुर्विंशमेवं, ताः साष्टशततधुताः।।२०।। प्रत्येकमञ्जनाद्रीणां, ककुत्सु चतसृष्वपि। गते लक्षे योजनाना, निर्मत्स्यस्वच्छवारयः / / 21 / / सहस्रहयोजनोद्वेधाः, विष्कम्भे लक्षयोजनाः। पुष्करिण्यः सन्ति तासा, क्रमान्नामानि षोडश / / 22 / / नन्दिषेणा चामोघा च, गोस्तूपाऽथ सुदर्शना। तथा नन्दोत्तरा नन्दा, सुनन्दा नन्दिवर्द्धना / / 23 / / भद्रा विशाला कुमुदा, पुण्डरीकिणिका तथा। विजया वैजयन्ती च, जयन्ती चापराजिता // 24 // प्रत्येकमासां योजन-पञ्चशत्या परत्र च। योजनानां पञ्चशती, यावद्विस्तारभाजितु / / 25 / / लक्षयोजनदीर्घाणि, महोद्यानानि तानि तु। अशोकसप्तच्छदक-चम्पकचूतसंज्ञया।। 26 / / मध्ये पुष्करिणीनां च, स्फाटिकाः कल्पमूर्तयः / ललामवेद्युद्यानानि, चिह्ना दधिमुखाद्रयः / / 27 // चतुःषष्टिसहस्रोच्चाः, सहस्रं चावगाहिनः। सहस्राणि दशाधस्ता-दुपरिष्टाच विस्तृताः / / 28 / / अन्तरे पुष्करिणीना, द्वौ द्वौ रतिकराचलौ। ततो भवन्ति द्वात्रिंश-देते रतिकराचलाः / / 26 / / शैलेषु दधिमुखेषु, तथा रतिकराद्रिषु / शाश्वतान्यर्हचैत्यानि, सन्त्यञ्जनगिरिष्विष / / 30 / / चत्वारोद्वीपविदिक्षु, तथा रतिकराचलाः। दशयोजनसाहस्रा-ऽऽयामविष्कम्भशालिनः / / 31 / / योजनानां सहसंतु, यावदुछ्यशोभिताः। सर्वरत्नमया दिव्याः, झल्लाकारधारिणः / / 32 / / तत्र द्वयोः रतिकरा-चलयोर्दक्षिणस्थयोः। शकस्येशानस्य पुन-रुत्तरस्थितयोः पृथक्॥३३ / / अष्टानां महादेवीना, राजधान्योऽष्टदिक्षु ताः। लक्षोद्वेधा लक्षमानाः, जिनाऽऽयतनभूषिताः / / 34 / / सुजाता सौमनसा चा-र्चिाली च प्रभाकरा। पद्मा शिवाशुभाञ्जने, चूता चूतावतंसिका।। 35 / / गोस्तूपासुदर्शने अ-प्यमलाप्सरसौतथा। रोहिणी नवमी चाथ, रत्ना रत्नोचयाऽपि च / / 36 / / सर्वरत्ना रत्नसंच-या वसुर्वसुमित्रिका। वसुभागाऽपि च वसु-धरानन्दोत्तरे अपि / / 37 // नन्दोत्तरकुरुर्देव-कुरुः, कृष्णा ततोऽपि च / कृष्णराजीरमाराम-रक्षिताः प्राक्क्रमादमूः / / 38 / / सर्वर्द्धयस्तासु देवाः, कुर्वत सुपरिच्छदाः। चैत्ये ह्यष्टाहिकाः पुण्य-तिथिषु श्रीमदर्हताम्।। 36 / / प्राच्येऽजनगिरौ शक्रः, कुरुतेऽष्टाहिकोत्सवम्। प्रतिमानां शाश्वतीनां, चतुरि जिनालये। 40 // तस्य चाग्रे चतुर्दिक्स्थ-महावापीविचर्चिषु। स्फाटिकेषु दधिमुख-पर्वतेषु चतुर्ध्वपि।। 41 / / चैत्येष्वर्हत्प्रतिमाना, शाश्वतीना यथाविधि / चत्वारः सर्वदिग्पालाः, कुर्वतऽष्टाहिकोत्सवम्॥४२॥ ईशानेन्द्राश्चौत्तराहे-ऽञ्जनाद्रौ विदधाति तम्। तल्लोकपालास्तद्वापी-दधिमुखाद्रिषु कुर्वते / / 43 / / चमरेन्द्रो दाक्षिणात्ये-5जनाद्रावुत्सवं चरेत्। तद्वाप्यन्तर्दधिमुखे-ध्वस्य दिक्पतयः पुनः / / 44 / / पश्चिमे जिनशैले तु, बलीन्द्रः कुरुते महम। तद्दिक्पालास्तु तद्वाप्य-न्तर्भाग्दधिमुखाद्रिषु / / 45 / / वर्षद्वीपदिनाऽऽरब्धा-नुपवासान् कुहूतिथौ। कुर्वन्नन्दीश्वरोपास्त्य, श्रेयसीं श्रियमार्जयेत्॥ 46 // भक्त्या चैत्यानि वन्दारु-स्तत्स्तोत्रस्तुतिपाठभाक्। नन्दीश्वरमुपासीनो-ऽनुपर्वाहस्तदुत्तरम् / / 47 / / प्रायः पूर्वाऽऽचार्य-प्रथितैरेवायमाचितः श्लोकः / श्रीनन्दीश्वरकल्पो, लिखित इति श्रीजिनप्रभाऽऽचार्यः / / 48 // इति नन्दीश्वरकल्पः। ती०४६ कल्प। णंदी-स्त्री०(नन्दी) णदि' शब्दार्थे, आ० म० द्वि० / गवि, दे० ना० 4 वर्ग। णंदीचुण्णग-न०(नन्दीचूर्णक) णंदीचुण्णग' शब्दार्थे, सूत्र० 1 श्रु०४ अ०२ उ०। गंदीसरवर-पुं०(नन्दीश्वरवर) नन्दीश्वर एव वरश्च मनुष्यद्वीपा-पेक्षया बहुतरजिनभवनाऽऽदिसद्भावेन तस्य वरत्वादिति। अष्टमे, द्वीपे, स्थान 4 ठा० 2 उ० / जी० / द्वी०। तद्वक्तव्यता चैवम्खोदोदंणं समुदं नंदीसरवरेणामंदीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते तहेव० जाव परिक्खेतो पउमवरवणसंडे परिदारा दारंतरापदेसा जीवा तहेव 2; से केणटेणं भंते ! एवं वुचइणंदीसरवरो दीवो गंदीसरवरो दीवो ? गोयमा ! देसे देसे बहुओ खुड्डा खुड्डियाओ वावीओ० जाब विलपंतियाओ खेत्तोदगपडिहत्थातो उप्पातपव्वया सव्ववइरामया अच्छा० जाव पडिरूवा, अदुत्तरं च णं गोयमा! गंदीसरदीवचक्कवालविक्खंभबहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं चउद्दिसिं चत्तारि अंजणपव्वया पण्णत्ता। (खोदोदंणं समुद्दमित्यादि) क्षोदोदं, णमिति पूर्ववत्। समुद्र, नन्दीश्वरवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाऽऽकारसंस्थानसंस्थितः, सर्वतः समन्तात् , संपरिक्षिप्य तिष्ठति / चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेपाऽऽदिवक्तव्यता प्राग्वत् , यावद् जीवोपपातसूत्रम् / सम्प्रति नामनिमित्तमभिधित्सुराह-(से केणडेणमित्यादि) अथ केन कारणेन एवमुच्यते-नन्दीश्वरवरो द्वीप: नन्दीश्वरवरदीप इति? भगवानाह-गौतम नन्दीश्वरद्वीपे बहवः" खड्डा खुड्डियाओवावीओ' इत्यादि प्रागुक्तं सर्वतावद्वक्तव्यं,यावत्" वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति संयति० जाव विहरंति नवरमत्र वाप्यादयः क्षोदोदकप्रतिपूर्णा वक्तव्याः, पर्वतकाः, पर्वतकेष्वासनानि, गृहकाणि, गृहकेष्वासनानि, मण्डपकाः, मण्डपकेषु शिलापट्टकाः सर्वाऽऽत्मना वज्रमयाः, शेष तथैव / (अदुत्तरं च णं गोयमा ! इत्यादि) अथान्यद् गौतम! नन्दीश्वरे चत्वारो दिशः समाहृताश्चतुर्दिक, तस्मिन् चक्रवालविष्कम्भेण बहुमध्यदेशभागे एकैकस्यां दिशि एकैकभागेन चत्वारोऽजनकपर्वताः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-पूर्वस्या दिशि, एवं पश्चिमायां, दक्षिण
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________________ णंदीसरवर 1760 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 स्यामुत्तरस्याम् / जी०३ प्रति० / प्रव० / चं० प्र० / सु० / प्र० / स्था० / (अञ्जनकपर्वताः स्वस्थाने उक्ताः) " गंदीसरवरदीवस्राण दीवरस अंतो सत्त दीवा पण्णत्ता / तं जहा-जंबुद्दीवे, धायइखंडे, पुक्खरवरे, वारुणिवरे, सीरवरे, घयवरे, क्खोयवरे। गंदीसरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त समुद्दा पण्णत्ता / तं जहा-लवणे, कालोए, पुक्खरोदे, वरुणोदे, खीरोदे, घओदे, क्खोओए। स्था०७ ठा०। गंदीसरवरोद-पुं०(नन्दीश्वरवरोद) नन्दीश्वरद्वीपस्याभितः समुद्रे, जी०। णंदीसरवरे णं दीवे गंदीसरवरोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव सव्वं तहेव अट्ठो, जहा क्खोदोदगस्स० जाव सुमणसोमणसा य अत्थ दो देवा महिड्डिया० जाव परिवति, सेसं तहेव० जाव तारग्गं / / " णंदीसरवरे णं " इत्यादि / नन्दीश्वरवरं, णमिति पूर्ववत् / नन्दीश्वरवरोदो नाम समुद्रो वृत्तो बलयाऽऽकारसंस्थानसस्थितः सर्वतः समन्तात्सपरिक्षिप्य तिष्ठति / यथैव क्षोदोदकसमुद्रस्य वक्तव्यता, तथैवास्यापि अर्थसहिता वक्तव्यता, नवरमत्र सुमनसोमनसौ च द्वौ देवी वक्तव्यौ, तावतिशयेन स्फीताविति / जी० 3 प्रतिका णंदुत्तर-पु०(नन्दोत्तर) भवनपतीन्द्राणां स्थानीकाधिपतिषु, स्था० 5 ठा०१ उ०॥ णंदुत्तरा-स्त्री०(नन्दोत्तरा) उत्तरपौरस्त्ये रतिकरपर्वते ईशास्य देवेन्द्रस्य कृष्णाया अग्रमहिष्या राजधान्याम् , जी० 3 प्रति० / स्वनामख्याताया शाश्वतनन्दापुष्करिण्याम . स्था० 4 ठा०२ उ० / मन्दरस्य पर्वतस्य रिष्टकूटवास्तव्यायां दिकुमार्याम्, ज०५ वक्षाद्वी० / स्था० / ति। ती० / जी० / आ० म० / स्वनामख्यातायां श्रेणिकमहाराजभार्यायाम् , सा च वीरजिनान्तिके प्रव्रज्य सिद्धा, इत्यन्तकृदशानां सप्तमे वगे तृतीयेऽध्ययने सूचितम्। अन्त०७ वर्ग०१ अ। ती०। णकर-न०(नगर)" चूलिकापैशाचिके तृतीयचतुर्थयोराद्यद्वितीयौ' || 8 | 4 | 325 / / इति गस्य कः / प्रा० 4 पाद / प्रांशुप्राकाबद्ध सन्निवेशे, आचा०१ श्रु०८ अ०६उ०। णक-न०(नासिक्य) नासिकान्त झ्याम् विपा०१ श्रु०१ अ० / प्रश्नः / *नक्र-न। 'नाक ' इति ख्याते जलचरभेदे, प्रज्ञा० 1 पद० / प्रश्न० / मत्स्यभेदे, जी० 1 प्रति०। णक्ख-पुं०(नक्ख)" सेवाऽऽदौ वा"||१२।६६ || इति खद्वित्वम्। प्रा०२ पाद। कररहे, जी०३ प्रति०1 औ० / करजे, मदनाङ्कुशे च। पुं०। न० / हैम० / नखेषु, दे० ना० 4 वर्ग। णक्खण्णणिया-स्त्री०(नखार्च निका) नखहरणिकायाम् ." नक्खन्नणं नरखकटाई "नखार्चन नखहरणिका, सा नखच्छेदनार्थ, कण्टकाऽऽदिशल्योद्धरणार्थ वा गृह्यते / बृ०१ उ०। णक्खत्त-न०(नक्षत्र) ज्योतिष्कभेदे, द०प०। विषयसूची(१) योग इति वस्तुनो नक्षत्रजातस्य क्रमेण चन्द्रसूर्यः सह संपातविषये पञ्च प्रतिपत्तीरुद्भाव्य भगवन्मतनिरूपणम्। (2) यानि नक्षत्राणि प्रत्येक द्वे द्वे, तेषां प्रतिपादनम्। अष्टाविंशतेनक्षत्राणामष्टाविंशतिदेवतानां सामान्यतो नाम निदर्शनम्। (4) जम्बूद्वीपेऽभिजिवर्जितैः सप्तविंशतिनक्षत्रैर्व्यवहारो भवतीति प्रतिपादनम्। (5) येषु नक्षत्रेषुगमनप्रस्थानाऽऽदीनि कार्याणि कर्तव्यानि, येषु नेति, तदुद्घाटनम्। (6) पादोपगमनलोचकर्माऽऽदीनि येषु नक्षत्रेषु कर्तव्यानि वय॑न क्षत्राण्युदस्य तेषां निरूपणम्। (7) क्षिप्रमृदुसंज्ञकानि स्वाध्यायाऽऽदिनक्षत्राणि / (8) तपःकर्मोपकरणगणसंग्रहनक्षत्रप्ररूपण करणप्ररूपणं च। (6) ज्ञानवृद्धिकराणां नक्षत्राणां निदर्शनम् / (10) प्रतिनक्षत्रं मुहूर्तपरिमाणविचारे चन्द्रेण सार्द्ध नक्षत्रयोगप्रति पादनम्। (11) तथैव सूर्येणापि साकं तदभिधानम् / (12) नक्षत्राणामादानविसर्गपरिज्ञाननिमित्तनिरूपणम् / (13) चन्द्रसूर्ययोगे नक्षत्रशोधनपरामर्शः। (14) यावन्ति भागानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह युज्यन्ते, तेषां प्रतिपा दनम्। (15) यानि प्रमदयोगीनि नक्षत्राणि, तेषामभिधानम्। (16) यावन्ति नक्षत्राणि यावन्ति भागानि पूर्णिमाऽमाभ्या, तत्परामर्शः। (17) यद नक्षत्र यावत्तारं भवति, तन्निर्देशः / (18) यावन्ति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनाहोरात्रपरिसमापकतया यं मासं नयन्ति, तन्निरूपणम्। (16) येषां नक्षत्राणां या देवतास्तासामभिजिन्नक्षत्रत उत्तराषाढापर्यन्त विशिष्य विवेचनम्। (20) नक्षत्राणां गोत्राणि। (21) नक्षत्रेषु यानि भोजनानि, तन्निरूपणम्। (22) यन्नक्षत्रं यद्द्वारिक, तत्प्रदर्शनम्। (23) नक्षत्रविचयनिदर्शनम्। (24) सायं प्रातश्च नक्षत्रचन्द्रयोगविचारः। (25) पूर्णिमासु चन्द्रनक्षत्रयोगस्य सूर्यनक्षत्रयोगस्य च प्ररूपणम्। (26) यस्मिन देशे यन्नक्षत्रं यावता कालेन भूयश्चन्द्रेण सह सूर्येण वा साकं योगमुपागच्छति, तावतः कालस्य प्ररूपणम्। (27) नक्षत्राणां संस्थानानि। (28) नक्षत्राणामन्तर्बहिश्च चारप्रतिपादनम् / (1) तत्संख्याता जोए ति वत्थुस्स आवलियनिवाते आहिते ति वदेजा। ता कहं ते जोगे ति वत्थुस्स आवलियनिवाते आहिते ति वदेजा ? तत्थ खलु इमाओ पंच वडिवत्तीओ पण्णत्ताओ / तत्थे गे एवमाहं सुता सवे हि णं णक्खत्ता कत्तिवादीआ भरणीपज्जवसिआ आहिते ति वदेजा, एगे
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________________ णक्खत्त 1761 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त एवमाहंसु / 1 / एगे पुण एवमाहंसुता सव्वे वि णं णक्खत्ता महाऽऽदीआ अस्सेसापज्जवसिआ आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु / 2 / एगे पुण एवमाहंसुता सव्वे वि णं णखत्ता धणिट्ठाऽऽदिया सवणपज्जवसिया आहिता तिवदेज्जा, एगे एवमाहंसु / 31 एगे पुण एवमाहंसुता सव्वे विणं णक्खत्ता अस्सि-णीआदिआ रेवतिपज्जवसिआ आहिता ति वदेजा, एगे एवमा-हंसु / 4 / एगे पुण एवमाहंसुता सव्वे विणक्खत्ता भरणीआदिआ अस्सिणीपञ्जवसिता आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु। 5 / वयं पुण एवं वदामोता सव्वे वि णं णक्खत्ता अभिजिताऽऽदिआ उत्तरासादापज्जवसिआ आहिता तिवदेजा। तं जहा-अभिजिए, सवणो, धणिट्ठा, सतभिसता, पुव्वभद्दवता, उत्तराभद्दवता, रेवती, अस्सिणी, भरणी, कत्तिया, रोहिणी, मिगसिरं, अद्दा, पुणव्वसू , पुस्सो, असिलेसा, मघा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साती, विसाहा, अणुराहा, जेट्ठा, मूलो, पुव्वासाढा, उत्तरासादा। अत्र चायमर्थाधिकारः / यथा-योगमिति किं भगवन् ! त्वया समाख्यायत इति ? ततस्तद्विषयं निर्वचनसूत्रमाह-" ताजोगे ति वत्थुस्स " इत्यादि।'ता' इति।आस्तांतावदन्यत्कथनीयम् इदानीं तावदेतदेव कथ्यतेयोग इति वस्तुनो नक्षत्रजातस्य (आवलियनिवाते त्ति) आवलिकया क्रमेण, निपातश्चन्द्रसूर्यः, सह संपातः, आख्यातो मयेति वदेत् स्वशिष्येभ्यः / एवमुक्ते भगवान् गौतमः पृच्छति- " ता कहं ते " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् , कथं केन प्रकारेण, भगवन् ! त्वया योग इति योगस्य वस्तुनो नक्षत्रजातस्याऽऽवलिकानिपातः, स आख्यात इति वदेत् ? भगवानाह-" तत्थ खलु" इत्यादि। तत्र तस्मिन् नक्षत्रजातस्याऽऽवलिकानिपातविषये, खल्विमाः पञ्च प्रतिपत्तयः परतीर्थकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-तत्र तेषां पञ्चानां परतीथिकाना मध्ये, एके परतीर्थिका एवमाहुः-- 'ता' इति पूर्ववत् / सर्वाण्यपि नक्षत्राणि कृत्रिकाऽऽदीनि भरणीपर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि। क्लीबत्वे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्। तत्रैवोपसंहारमाह-"एगे एवमासु १"एवं शेषप्रतिपत्तिचतुष्टयगतान्यपि सूत्राणि परिभावनीयानि / तदेवं परप्रतिपत्तीरुपदर्थ्य संप्रति स्वमतमुपदर्शयति-" वयं पुण" इत्यादि।वयंपुनरेवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः / तमेव प्रकारमाह- " ता सव्वे विणं '' इत्यादि। "ता'' इति पूर्ववत्। सर्वाण्यपि नक्षत्राण्यभिजिदादीनि, उत्तराषाढापर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि / कस्मात् ? इति चेत् / उच्यते-इह सर्वेषामपि सुषमसुषमाऽऽदिरूपाणां कालविशेषाणामादिर्युगम्," एए उ सुसमसुसमादओ अद्धाविसेसो जुगाइणा सह पवत्तते, जुग तेण सह समप्पति, इति श्रीपादलिप्तसूरिवचनप्रामाण्याद् , युगस्य चाऽऽदिः प्रवर्तते श्रावणे मासि बहुलपक्षे प्रतिपदि तिथौ बालक्करणे अभिजिति नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमुपगच्छति। तथा चोक्त ज्योतिष्करण्डके" सावणबहुलपडिवए, बालवकरणे अभीइणक्खत्ते। सव्वत्थ पढमसमए, जुगस्स आइं विआणाहि॥१॥" अत्र (सव्वत्थेति) भरते ऐरवते महाविदेहे च, शेष सुगमम्। ततः सर्वेषामपि कालविशेषाणामादौ चन्द्रयोगमधिकृत्याभिजिनक्षत्रस्य प्रवर्तमानत्वादभिजिदादीनि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि / तान्येव तद् यथेत्यादिनोपदर्शयति- " अभिई सवणो " इत्यादि / सू० प्र० 10 पाहु०१ पाहु०। (2) एतानि नक्षत्राणि प्रत्येक द्वे वेदो कत्तियाओ,दो रोहिणीओ,दो मियसिराओ, दो अदाओ, एवं भाणियव्वं"कत्तिय रोहिणि मियसिर, अद्दा य पुणव्वसू य पुस्सो य / तत्तो वि अस्सलेसा, महा य दो फग्गुणीओ य / / 1 / / हत्थो चित्ता साई, य विसाहा होंति अणुराहा। जेट्ठा मूलो पुव्वा-आसाढा उत्तरा चेव // 2 // अभिई सवण धणिट्टा, सयभिसया दो य होंति भद्दवया। रेवइ अस्सिणि भरणी, णेयव्या आणपुव्वीए " ||3|| एवं गाहाणुसारेण णायव्वं० जाव दो भरणोओ। द्वे कृत्तिके नक्षत्रापेक्षया, न तु तारकाऽपेक्षया, इत्येवं सर्वत्रेति।" कत्तिए" इत्यादि गाथात्रयेण नक्षत्रसूत्रसंग्रहः / (3) कृत्तिकाऽऽदीनामष्टाविंशतेनक्षत्राणां क्रमेणाग्न्यादयो ऽष्टाविंशतिरेव देवता भवन्ति। ता आहदो अग्गी, दो पयावई, दो सोमा, दो रुद्दा, दो अइई, दो बहस्सई,दो सप्पा, दो पिई,दो भगा, दो अज्जमा, दो सविया, दो तट्ठा, दो वाऊ, दो इंदग्गी, दो मित्ता, दो इंदा, दो निरई, दो आऊ, दो विस्सा, दो बम्हा, दो विण्हू ,दो वस् ,दो वरुणा, दो अया, दो विविड्डी, दो पूसा, दो अस्सा, दो जमा। द्वावग्नी 1, एवं प्रजापती 2, सौमौ 3. रुद्रौ 4. अदिती 5, बृहस्पती 6. सर्प 7, पितरौ 8, भगौ 1, अर्यमणौ 10, सवितारौ 11, त्वष्टारौ 12, वायू 13, इन्द्राग्नी 14, मित्रौ 15, इन्द्रौ 16, निर्ऋती 17, आपः 18, विश्वौ 16, ब्रहाणौ 20, विष्णू 21, वसू 22. वरुणौ 23, अजौ 24, विवृद्धी (25) / ग्रन्थान्तरे अहिर्बुध्नावुक्तौ 25 / पूषणौ 26, अश्विनौ 27, यमाविति 28 / ग्रन्थान्तरे पुनरश्विनीत आरभ्यता एवमुक्ताः"अश्वियमदहनकमलज-शशिशूलभृददितिजीवफणिपितरः। योन्यर्यमदिनकृतत्व-ष्ट्रपवनशक्राग्निमित्राऽऽख्याः // 1 // ऐन्द्रो नैर्ऋतितोऽयं, विश्वौ ब्रह्मा हरिर्वसुर्वरुणः! अजपादोऽहिर्बुध्नः, पूषा चेतीश्वरा भानाम् " // 2 // स्था०२ ठा० 3 उ० / ज०। (4) जंबुद्दीने दीवे अभिईवजे हिं सत्तावीसाए णक्खत्तेहिं संववहारे वट्टति। जम्बूद्वीपे, न धातकीखण्डाऽऽदौ, अभिजिदर्जः सप्तविंशत्या नक्षत्रैर्व्यवहारः प्रवर्त्तते, अभिजिन्नक्षत्रस्योत्तराषाढचतुर्थपादानुप्रवेशनादिति। स०२७ सम०।
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________________ णक्खत्त 1762 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्त (5) केषु नक्षत्रेषु कानि कार्याणि गमनप्रस्थानाऽऽदीनि कर्तव्यानिपुस्सऽस्सिणि मिगसिर रे-वई य हत्थो तहेव चित्ताय। अणुराह जिट्ठ मूलो, नव णक्खत्ता गमणसिद्धा।।११।। मिगसिर महा य मूलो, विसाह तहचेव होइ अणुराहा। हत्थुत्तर रेवइ अ-स्सिणीय सवणे य णक्खत्ते / / 12 / / एएसु य अद्धाणं, पत्थाणं ठाणयं च कायव्वं / जइ य गहुत्थ न चिट्ठइ, संझामुक्कं च जइ होइ।।१३।। उप्पन्नभत्तपाणो, अद्धाणम्मि उ सया उजो होइ। फलपुप्फवग्गुवेओ, गओ वि खेमेण सो एइ / / 14 // सन्ध्यागताऽऽदीनिसंझागयं रविगयं, विड्डेरं सग्गहं विलंबिं च। राहुहयं गहभिन्नं, च वजए सत्त नक्खत्ते / / 15 / / अत्थमणे संझागय, रविगय जह पहिओ उ आइयो / विडेरमविद्यारिय, सग्गह कूरग्गहठियं तु / / 16 / / आइच्चपिट्ठओ जं, विलंबि राहूहयं जहिं गहणं / मज्झेण गहो जस्स उ, गच्छइतं होइ गहभिन्नं / / 17 // संझागयम्मि कलहो, होइ विवाओ विलंबि नक्खत्ते। विड्डेरे परविजओ, आइचगए अणिचाणि / / 18 / / जं सग्गहम्मि कीरइ, नक्खत्ते तत्थ निग्गहो होइ। राहुहयम्मि य मरणं, गहमिन्ने सोणिउग्गालो / / 16 / / संझागयं गहगयं, आइचगयं च दुब्बलं रिक्खं / संझाऽऽइयविमुक्वं, गहमुक्कं चेव बलियाई / / 20 // (6) पादोपगमनलोचकर्माऽऽदीनिपुस्सो हत्थो अभिई य, अस्सिणी भरणी तहा। एएसु य रिक्खेसु य, पाओवगमणं करे // 21 // सवणेण धणिट्ठाई, पुणव्वसू न वि करिज निक्खमणं। सयभिसयस्स न बंभे, विजाऽऽरंभे पवित्तिजा / / 22 // हत्थाइपंच रिक्खा, वत्थुस्स पसत्थगा विणिद्दिट्ठा। उत्तर तिन्नि धणिट्ठा, पुणव्वसू रोहिणी पुस्सो। 23 / द०प०। पुणवसुणा पुस्सेणं, सवणेण धणिट्ठया। एएहिँचउरिक्खेहि, लोयकम्माणि कारए / / 25 // द०प० / विशे० / व्य० / आ० म०। पं०व०। कत्तियाहि विसाहाहिं, मघाहिँ भरणीहि य / एएहिँ चउरिक्खे हिं, लोयकम्माणि वजए।। 26 / / तिहिँ उत्तराहिँ तह रो-हिणीहिँ कुजा उ सेहनिक्खमणं / सेहोवट्ठावणं कुजा, अणुन्ना गणिवायए।। 27 / / गणसंगहणं कुज्जा, गणहरं चेव ठावए। उग्गहं वसहिट्ठाणं, थावराणि पवत्तए।।२८।। (7) स्वाध्यायाऽऽदिनक्षत्राणि क्षिप्रमृदुसंज्ञकानि पुस्सो य हत्थो अभिई, अस्सिणीय तहेव य। चत्तारि खिप्पकारीणि, विजाऽऽरंभेसु सोहणा / / 26 / / विज्जाणं धारणं कुज्जा, बंभलोगे य साहए। सज्झायं च अणुन्नं च, उदिसो य समुचिसो।।३०।। अणुराहा रेवई चेव, चित्ता मिगसिरं तहा। मिऊ णेयाणि चत्तारि, मिउकम्म तेसु कारए॥३१॥ भिक्खाचरणऽमत्ताणं, कुजा गहणधारणं / संगहोवग्गहं चेव, बालबुड्डाण कारए / / 32 / / (8) अहा अस्सेस जिट्ठा य, मूलो चेव चउत्थओ। गुरुणो कारए पडिमं, तवोकम्मं च कारए॥३३ / / दिव्वमाणुस्सतेरिच्छ-उवसग्गेऽहियासए। गुरूसु चरणकरणं, उग्गहोवग्गहं करे / / 34 / / महा भरणि पुव्वाणि, तिन्निओ य वियाहिया। एएसु य तवं कुजा, सभितरयवाहिरं / / 35 / / तिन्नि सयाणि सट्ठाणि, तवोकम्मा य आहिया। उग्गनक्खत्तजोएसु, तेसुमन्नतरं करे / / 36 // कत्तिया य विसाहा य, उण्हा एयाणि दुन्निओ। लिंपणं सिंचणं कुजा, संचारग्गहधारणं // 37 // उवगरणभंडमाईणं, विवायं चीवराण य / उवगरणं विभागं च, आयरियाणं च कारए / / 38 / / धणिट्ठा सयभिसा साई,सवणो य पुणव्वसू / एएसु गुरुसुस्सूसं, चेइयाणं च पूयणं / / 36 / / सज्झायकरणं कुजा, विजाऽऽरम्भे य कारए। चेओवट्ठावणं कुजा, अणुन्नं गणिवायए।। 40 // गणसंगहणं कुजा, सेहनिक्खमणं तहा। संगहोवग्गहं कुजा, गणावच्छेइयं तहा।। 41 / / वव 1 वालवं च 2 तह को-लवं च तेतीलयं 4 गराइं च 5 / वणियं 6 विट्ठी 7 य तहा, सुद्धपडिवए निसाईया।।४२॥ सउणि चउप्पय नागं, किंतुग्धं च करणा धुवा हुंति। किन्हचउद्दसिरत्तिं, सउणी पडिवजए करणं / / 43 / / काऊण तिहिं वि ऊणं, जम्हेगो साहए न पुण काले। सत्तहि हरिज भाग, जं सेसं तं भवे करणं // 44|| द०प०। स० / स्था० / चं० प्र०। (E) ज्ञानवृद्धिकराणि नक्षत्राणिदस नक्खत्ता नाणवुड्डिकरा पण्णत्ता / तं जहा"मिगसिर अहा पुस्सो, तिन्नि अपुव्वाइ मूलमस्सेसा। हत्थो चित्ता य तहा, दस वुड्डिकरा य नाणस्स"॥१॥ स०१० सम०। द०प०।। (10) चन्द्रनक्षत्रयोगःता कहं ते मुहुत्तग्गे आहिते ति वदेजा? ता एते सि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ते, जे णं णव मुहुत्ते,
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________________ णक्खत्त 1763 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएति / अस्थि णक्खत्ता, जे णं पण्णरस मुहुत्ते णं चंदेण सद्धिं जोयं जोइंति / अत्थि णक्खत्ता, जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोइंति / अस्थि णक्खत्ता, जे णं पणतालीसं मुहुत्ते णं चंदेण सद्धिं जोगं जोइंति। ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ते, जे णं नव मुहुत्ते, सत्तावीसं च सत्तट्ठिभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएति ? कयरे णक्खत्ता, जे णं पणरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोइंति? कयरे णक्खत्ता, जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोइंति? कयरे णक्खत्ता, जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोइंति? ता एतेसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ते, जे णं णव मुहुत्ते, सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सुद्धिं जोयं जोएति; से णं एगे अभिई। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोइंति ; ते णं छ / तं जहा-सतभिसया, भरणी, अद्दा, अस्सेसा, साती, जेट्ठा। तत्थ जे णं तीसं मुहुत्तं चंदेण | सद्धिं जोगं जोइंति ; ते पण्णरस / तं जहा-सवणो, धणिट्ठा, पुव्याभद्दवता, रेवती, अस्सिणी, कत्तिया, मगसिरं, पुस्सो, महा, पुव्वाफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, अणुराहा, मूलो, पुव्वासा-ढा। तत्थ जे ते णक्खत्ता, ते णं पणतालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं | जोइंति, ते णं छ। तं जहा-उत्तराभद्दवता, रोहिणी, पुणव्वसू, उत्तराफग्गुणी, विसाहा, उत्तरासाढा। 'ता' इति पूर्ववत् / कथं भगवन् ! प्रतिनक्षत्रं मुहूर्ताओं मुहूर्तपरिमाणमाख्यातमिति वदेत् ? एवमुक्ते भगवानाह- "ता एएसि णं " इत्यादि / 'ताइति पूर्ववत्। एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये, अस्ति तन्नक्षत्रं, यन्नव मुहूर्तान् . एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशति-सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति उपैति। तथाऽस्ति निपातत्वादव्ययत्वाद्वा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि पञ्चदश मुहूर्तान यावचन्द्रेण सहयोगमुपयान्ति। तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि त्रिंशतं मुहूर्त्तान् यावचन्द्रेण सह योगमश्नुवते। तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि पञ्चचत्वारिंशत मुहूर्तान् यावचन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति / एवं सामान्येन भगवतोक्ते विशेषनि र्धारणार्थ भगवान् पृच्छति गौतमः- " ता एएसिणं" इत्यादि।' ता' इति पूर्ववत् / एतेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये, कतरद् तन्नक्षत्रं, यन्नव मुहूर्तान् . एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिसप्तषष्टिभागान्यावचन्द्रेण सह योग युनक्ति ? तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि, यानि पञ्चदश मुहूर्तान् यावचन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति ? तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि, यानि त्रिंशतं मुहूर्तान यावचन्द्रेण सह योगमश्नुवते ? तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि, यानि पञ्चचत्वारिंशतं मुहूर्तान्यावचन्द्रेण सार्द्धयोगमुपयान्ति ? एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह- " ता एएसिणं " इत्यादि।' ता. इति पूर्ववत् / एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यन्नक्षत्रं नव मुहूर्तान् , एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविशतिसप्तषष्टिभागान् यावचन्द्रेण सह योगं युनक्ति / तदेकमभिजिन्नक्षत्रमवसेयम् / कथमिति चेत् ? उच्यते-इह अभिजिन्नक्षत्र सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्यैकाविंशतिभागान चन्द्रेण सह योगमुपैति / ते चैकविंशतिरपि भागा मुहूर्तगतभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि षट्शतानि त्रिंशदधिकानि 630 / तथा चैतावान् कालमधिकृत्य सीमाविस्तारोऽभिजिन्नक्षत्रस्यान्यत्राप्युक्तः- " छच्चेव सया तीसा, भागाणं अभिइ सीमविक्खंभो। दिट्ठो सवडहरगोः, सव्वेहिंऽणतणाणीहिं॥१॥" तेषां सप्तषष्टया भागो हियते, लब्धा नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः। 6 / / उक्तं च-" अभिइस्स चंदजोगो, सत्तट्ठी खंडिओ अहोरत्तो। भागा य एगवीस, ते अहिया नव मुहुत्ता" // 1 // तथा" तत्थ '' इत्यादि / तत्र तेषामष्टा-विंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पञ्चदश मुहूर्तान यावच्चन्द्रेण सह योगमश्नुवेत, तानि षट् / तद्यथा-" सतभिसया " इत्यादि / तथाहि-एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कान्सान्त्रियस्त्रिंशद्भागान् यावचन्द्रेण सह योगो भवति, ततो मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागकरणार्थ त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यते, जातानि नवशतानि नवत्यधिकानि६६०। यदपि सार्द्ध, तदपि त्रिंशता गुणयित्वा द्विके न भज्यते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागाः, ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातं पूर्वराशिसहसं पञ्चोत्तरम् 1005 / तथा चैतेषां प्रत्येकं कालमधिकृत्य सीमाविस्तारो मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागानां पञ्चोत्तरं सहस्रमुक्तः- " सयभिसया भरणीए, अद्दा अरसेस साइ जिट्ठा य / पंचोत्तरं सहरसं, भागाणं सीमविक्खंभो।। १॥"अस्य पञ्चोत्तरसहस्रस्य सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः। उक्तं च-" सयभिसया भरणीओ, अद्दा अस्सेस साइ जिहा य। एए छ नक्खत्ता, पन्नरस मुहुत्तसंजोगा / / 1 // " तथा-तत्र तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणांमध्ये यानि नक्षत्राणि त्रिंशतं मुहूर्तान यावचन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति, तानि पञ्चदश / तद्यथा- " सवणो " इत्यादि / तथाहि-एतेषां कालमधिकृत्य प्रत्येकं सीमाविष्कम्भो मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागानां दशोत्तरे द्वे सहस्रे 2010 / ततस्तयोः सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाविशन्मुहूर्ताः। तथा-तत्र यानि नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सार्द्ध योगं युञ्जन्ति, तानि षट् / तद्यथा-उत्तरभाद्रपदा इत्यादि / तेषां हि प्रत्येकं कालमधिकृत्य सीमाविष्कम्भो मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागाना त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि 3015 / ततस्तेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशदेव मुहूर्ता लभ्यन्ते। उक्तंच" तिन्नेय उत्तराई. पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य। एए छन्नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंजोगा।।१।। अवसेसा नक्खत्ता, पनरसए हुति तीसइमुहुत्ता। चंदम्मि एस जोगो, नक्खत्ताणं समक्खाओ॥२॥" तदेवमुक्तो नक्षत्राणां चन्द्रेण सह योगः। (11) संप्रति सूर्येण सह तमभिधित्सुराहता एते सि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ते, जे चत्तारि अहो रत्ते छन मुहुत्ते णं सूरेण सद्धिं
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________________ णक्खत्त 1764 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त जोयं जोएति / अस्थि णक्खत्ता, जे णं छ अहोरत्ते एगवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोइंति / अस्थि णक्खत्ता; जे णं तेरस अहोरत्ते वारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोइंति / अस्थि णक्खत्ता, जेणं वीसं अहोरते तिण्णि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोइंति। ता एतेसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खत्ते, जं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते णं सूरेण सद्धिं जोयं जोएति ? कतरे णक्खत्ता, जेणं छ अहोरत्ते एगवीसंच मुहुत्ते सूरणे सद्धिं जोयं जोइंति? कतरे णक्खत्ता, जेणं तेरस अहोरत्ते वारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोइंति ? कतरे णक्खत्ता, जे णं वीसं अहोरत्ते तिपिण य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोइंति। ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे से णक्खत्ते, जे णं चत्तारि अहोरत्ते छचमुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएति, से णं एगे अभिई। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं छ अहोरत्ते एगवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोइंति, ते णं छ / तं जहा-सतभिसया, भरणी, अद्दा, अस्सेसा, साती,जेट्ठा। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तेरस अहोरते दुवालस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं पण्णरस। तं जहा-सवणो, धणिट्ठा, पुव्वभवता, रेवती, अस्सिणी, कत्तिया, मग्गसिरं, पुस्सो, महा, पुव्वाफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, अणुराधा, मूलो, पुवासाढा / तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं वीसं अहोरते तिण्णि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोइंति, ते णं छ। तं जहा-उत्तराभद्दवता,रोहिणी, पुणव्वसू, उत्तराफग्गुणी, विसाहा, उत्तरासाढा / " ता एतेसिणं " इत्यादि। ' ताइति पूर्ववत् / एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये अस्ति तन्नक्षत्रं, यच्चतुरो अहोरात्रान् षट् च मुहूर्तान यावत्सूर्येण सार्द्ध योगमुपैति। तथाऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि षडहोरात्रानेकाविंशतिं च मुहूर्तान् सूर्येण सार्द्ध योगं युञ्जन्ति / तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि त्रयोदश अहोरात्रान् , द्वादश च मुहूर्तान यावत्सूर्येण सह योगमुपयान्ति। तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि विंशतिमहोरात्रान् त्रीन् मुहूर्तान् यावत्सूर्येण समं योगं युञ्जन्ति / एवं भगवता सामान्येनाक्तौ विशेषावगमनिमित्तं भयोऽपि भगवान गौतमः पृच्छति-" ता एतेसि ण " इत्यादि सुगमम् / भगवान् निर्वचनमाह-"ता एतेसिणं " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। एतेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यन्नक्षत्रं चतुरो अहोरात्रान् षट् च मुहूर्तान् सूर्येण सार्द्ध योग युनक्ति, तदेकमभिजिन्नक्षत्रमसेयम्। तथाहि-सूर्ययोगविषयं पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शितमिदं करणम्"जं रिक्खं जावइए, वच्चइ चंदेण भाग सत्तट्टी। तं पणभागे राई-दियस्स सूरेण तावइए ||1|| अस्या अक्षरगमनिका-यत् ऋक्ष नक्षत्रं यावतो रात्रिन्दिवस्याहोरात्रस्य सम्बन्धिनः सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सह योगंव्रजति, तन्नक्षत्र रात्रिन्दिवस्य पञ्च भागान् तावतः सूर्येण समं व्रजति। तत्राभिजिदेकविंशतिसप्तषष्टिभागान चन्द्रेण समं वर्तते, तत एतावतः पञ्चभागानहोरात्रस्य सूर्येण सम वर्तमानमवसेयम् / एकविंशतिश्च पञ्चभिभाग हृते लब्धाश्चत्वारोऽहोरात्राः, एकः पञ्चमो भागोऽवतिष्ठते, स मुहूर्ताऽऽनयनाय त्रिंशता गुण्यते. जातास्त्रिंशत् , तस्याः पञ्चभिर्भागे हृते लब्धः षण्मुहूर्ता इति। उक्तंच" अभिई छ / मुहत्ते, चत्तारि य केवले अहोरत्ते। सूरेण समं वच्चइ, इत्तो सेसाण वुच्छामि।। 1 // " तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि षडहोरात्रानेकविंशतिं च मुहूर्तान् यावत् सूर्येण समं योगमुपयान्ति। तानि षट्। तद्यथा-" सयभिसया" इत्यादि / तथाहि-एतानि नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण समं सार्धान् त्रयस्त्रिंशत्संख्याकान् सप्तषष्टिभागानहोरात्रस्य व्रजन्ति, अपार्द्धक्षत्रत्वादेतेषाम् , तत एतावतः पञ्चभागानहोरात्रस्य सूर्येण समंव्रजन्तीति प्रत्येतव्यं, प्रागुक्तकरण-प्रामाण्यात्। त्रयस्त्रिंशतश्च पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः षडहोरात्राः, पश्चादवतिष्ठन्ते सास्त्रियः पञ्चभागाः, ते सवर्णनाया जाताः सप्त-तिः, मुहूर्ताऽऽनयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते द्वे शते दशोत्तरे 210 / एते च मुहूर्तार्द्धगते, ततः परिपूर्णमुहूर्ताऽऽनयनाय दशभि-र्भागो हियते, लब्धा एकविंशतिर्मुहूर्ताः / उक्तंच-" सयभिसया भरणीओ, अद्दा अस्सेस साइ जिट्ठा य / वचंति मुहुत्ते इगवीसंछ चेवऽहोरत्ते॥१॥" तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणा मध्ये तानि नक्षत्राणि त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश मुहूर्तान् यावत् सूर्येण समं योग युञ्जन्ति, व्रजन्तीति पाठान्तरे / तानि पञ्चदश। तद्यथा-" सवणो " इत्यादि / तथाहि-अमूनि परिपूर्णान् सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण समं व्रजन्ति, ततः सूर्येण सह एतानि पञ्चभागानप्यहोरात्रस्य सप्तषष्टिसंख्यान् गच्छन्ति। सप्तषष्टश्च पञ्चभिर्भाग हृते लब्धास्त्रयो-दश अहोरात्राः, शेषौ च द्वौ भागौ तिष्ठतः, तौ त्रिंशता गुण्येते, जाता षष्टिः, तस्याः पञ्चभिर्भाग हृते लब्धा द्वादश मुहूर्ताः / उक्तं च-" अवसेसा नक्खत्ता, पनरस वि सूरसहगया जति। वारस चेव मुहुत्ते, तेरस य समे अहोरत्ते " / / 1 / / तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि विंशतिमहोरात्रान् त्रीन मुहूर्तान् यावत्सूर्येण समं योगमश्नुवते. तानि षट् / तद्यथा-" उत्तरभद्दवया " इत्यादि। एतानि हि षडपि नक्षत्राणि प्रत्येक चन्द्रेण समं सप्तषष्टि-भागाना, शतमेकस्य च सप्तषष्टिभागस्या? यजन्ति / तत एतावतः पञ्च भागान् अहोरात्रस्य सूर्य ण समं व्रजन्तीत्येवमवगन्तव्यम् , शतस्य च पञ्चभिर्भाग हृते लब्धा विंशतिरहोरात्राः / यदपि चैकस्य पञ्चभागस्याड़मुद्वरति, तदपि त्रिंशता गुण्यते, जाता त्रिंशत् , तस्या दशभिर्भाग हृते लब्धास्त्रयो मुहूर्ताः / सू० प्र०१० पाहु०२ पाहु० / ज्यो। (12) नक्षत्राणामादानविसर्गपरिज्ञाननिमित्तनिरूपणम्एएसिं रिक्खाणं, आयाणविसग्गजाणणाकरणं। चंदम्मि य सूरम्मि य, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए / / एतेषामनन्तरोदितानां नक्षत्राणामष्टाविंशतिसंख्यानाम, आदानविसर्गज्ञानकरणमादानविसर्गपरिज्ञाननिमित्तम्। तत्र विवक्षिते दिने चन्द्रेण सूर्येण वा सह वर्ततेयन्नक्षत्रं, तस्य किल चन्द्रेण सूर्येण वा कृतः परिग्रह इत्यादानम्। पाश्चात्त्यादिनक्षत्राणि गतानि, तानि किल मुक्तानि, परित्यक्तानि, तेषां परित्यागो विसर्गः / तयोः परिज्ञानकेन नक्षत्रेण सह चन्द्रस्य सूर्यस्य वा
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________________ णक्खत्त 1765 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त योगो वर्त्तते ? कानि च प्रागतीतानि ? इति सम्यग् ज्ञानं, तन्निमित्तं करणं, चन्द्रे सूर्ये च प्रत्येक यथाऽनुपूर्व्या क्रमेण वक्ष्यामि। तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात् प्रथमतः चन्द्रविषयंकरणमाहपव्वं पन्नरसगुणं, तिहिसहियं ओमरत्तपरिहीणं / वासीइए विभत्ते, लद्धे अंसे वियाणाहि।। जं हवइ भागलद्धं, कायव्वं तं चउग्गुणं णियमा। अभिइस्स एकवीसा, भागे सोहेहि लद्धम्मि।। सेसाणं रासीणं, सत्तावीसा तु मंडला सोज्झा। अभिइस्स सोहणाऽसं-भवे तु इणमो विही होइ / / सेसाओ रासीओ, रूवं घेत्तूण सत्तसहि काऊणं / पक्खिव लद्धेसु पुणो, अभिजिइ सोहेउ पुव्वकमा / / पंच दस तेरसऽट्ठा-रसे य वावीस सत्तवीसाय। सोज्झा दिवड्डखेत्तं, तं भद्दवई असाढता।। एयाणि सोहइत्ता, जं सेसं तं हविज नक्खत्तं / सोज्झा तीसगुणाओ, सत्तट्ठिहते मुहुत्ताओ। यस्मिन् दिने चन्द्रेण सह युक्तं नक्षत्रं ज्ञातुमिष्यते, तस्माद् दिनात् प्राक यानि पर्वाणि युगमध्येऽतीतानि, तानि संख्यया परिभाव्य तत्संख्या ध्रियते / सूत्रे च पर्वसंख्याऽप्युपचारात् पर्वेत्यभिहिता / पर्व पञ्चदशतिथ्यात्मकम् , अतस्तत् पञ्चदशभिर्गुण्यते, गुणयित्वा च तेषां पर्वाणामुपरि विवक्षितायास्तिथेाः प्रागतीतास्तिथयः, ताभिः सहितं संयुक्तं पञ्चदशगुणनाऽनन्तरं पर्वोपरिवर्तिन्योऽतीता-स्तिथयो मध्ये प्रक्षिप्यन्त इति। ततो येऽवमरात्रा अतिक्रान्तेषु पर्वसुगताः, तैः परिहीणं क्रियते, ततोऽपनीयत इत्यर्थः। ततो व्यशीत्या भागो ह्रियते। तत्र भागे हृते यल्लब्ध, ये चांशा अवतिष्ठमानाः, तदेतत्सर्व विजानीहि, बुद्ध्या सम्यगवधारयेति भावः / लब्धं चोपरि स्थापय, अंशाँश्चाऽधस्तात् लब्धश्च राशिरिति व्यवहियते, अशाश्च शेषो राशिरिति // तत्र यद भवति वर्तते भागलब्धं, तद् नियमाचतुर्गुणं कर्तव्य, कृते च सति लब्धरूपात् राशेरभिजितो नक्षत्रस्य सम्बन्धिन एकविंशतिभागान शोधय / / शेषाणां तु राशीनामधस्तनस्थानवर्तिनां मध्यात्सप्तविंशतिसंख्यं नक्षत्रमण्डलं शोध्य, सप्तविंशतिः शोध्या इत्यर्थः / अथोपरितनो राशिः स्तोकतया एकविंशतिरूपं शोधनं न सहते, तत आह-" सेसाओ" इत्यादि। शेषात् अधस्तनरूपात राशेरकं रूप गृहीत्वा सप्तषष्टिभागीक्रियते, कृत्वा च पुनस्ते सप्तषष्टिभागा लब्धेषु लब्धराशिमध्ये प्रक्षिपेत् / प्रक्षिप्य च ततोऽभिजिदष्टादशनक्षत्रसंबन्धेनेकविंशतिभागान् , पूर्वक्रमात् पूर्वक्रमानुसारेण शोधय / शोधयित्वा च पञ्चदशत्रयोदशाष्टादशद्वाविंशतिसप्तविशतिरूपान् शोध्यान् द्वयर्द्धक्षेत्रान् व्यर्द्धक्षेत्रपर्यन्तसूचकान् , तानपि शोधय। एतदेव व्यक्तमाचष्टभाद्रपदाऽऽदीन् आषाढान्तान् , उत्तरभाद्रपदान् , उत्तराषाढापर्यन्तसूचकानित्यर्थः। तथाहि-पञ्चकं श्रवणादारभ्योत्तरभाद्रपदारूपद्व्यर्द्धक्षेत्रपर्यन्तसूचकः / दशको रोहिणीरूपव्य क्षेत्रसीमा सूचकः / त्रयोदशकः पुनर्वसुरूपद्व्यर्द्धक्षेत्रपर्यन्तख्यापकः / अष्टादशक उत्तरफाल्गुनीरूपद्व्यर्धक्षेत्रसीमापरिज्ञापकः / द्वाविंशतिर्वि- | शाखारपद्व्यर्द्धक्षेत्रसीमासूचिकेत्यर्थः / सप्तविंशतिरुत्तराषाढारूपद्वयर्धक्षेत्रसीमासूचकः / शोधितेषु चामूषु तदुपरितनेषु यदस्तितत् त्रिंशता गुणयित्वा, सप्तषष्ट्या भागे हृते ये लब्धास्ते मुहूर्ता ज्ञातव्याः / तत्राप्यवशेषांशा मुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागाअवसेया इतिकरणगाथाक्षरार्थः। संप्रति भावना क्रियतेयुगस्य प्रथमे संवत्सरे दशसु पर्वसु गतेषु पञ्चम्यां केन नक्षत्रेण सह योक्तव्यम् ? इति जिज्ञासायां पर्वसंख्या दशको ध्रियते, ते च दश पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चाशदधिकंशतम् 150 / पञ्चम्यां च नक्षत्रेण सह चन्द्रस्य योगो ज्ञातुमिष्ट इति दर्शानां पर्वणामुपरितनास्तिथयोऽतिक्रान्ताः, ताः प्रक्षिप्यन्ते, जाते चतुष्पञ्चाशदधिक शतम् 154 / दशसु पर्वसु द्वावप्यमरात्रौ, ततस्तौ तस्मात्पात्येते, जातं द्विपञ्चाशदधिकं शतम् 152 / तस्य व्यशीत्या भागो ह्रियते, लब्धमेकं रूप, तच उपरिन्यस्यते, न्यस्य च चतुर्भिर्गुण्यते, जाताश्चत्वारः 4 / शेषं चाधस्तादुद्वति सप्ततिः / तत्रोपरितनो राशिः स्तोकत्वादेकविंशतिरूप शोधनं न सहते, ततः सप्ततेरेक रूपं गृहीत्वा सप्तषष्टिखण्डीक्रियते तेच सप्तषष्टिभागा उपरितनराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्तेजात उपरितनो राशिरेकसप्ततिः 71 / अधस्ताच्चैकोनसप्ततिः। तत उपरितनराशेरभिजित एकविंशति शोध्यते, अधस्तनराशेश्च नक्षत्रमण्डलं सप्तविंशतिः, तत उपरि पञ्चाशत् जाताः 50 / अधस्ताद् द्विचत्वारिंशजाताः। ततः पुनरप्युपरितनराशेरेकविंशतिः शुद्धाः, अधस्ताच सप्तविंशतिः / तत उपरि एकोनत्रिंशत् 26 जाताः, अधस्तात् पञ्चदशन। ततो भूयोऽप्युपरितनराशेरभिजित एकविंशतिः शोध्यते 5 / अधस्ताच पञ्चदशसु त्रयोदशकमकस्थानं पुनर्वसुनक्षत्रपर्यन्तस्तयकम् , अतः पुनर्वसुपर्यन्ताति नक्षत्राणि शुद्धानि। शेषौ द्वौ तिष्ठतः / तस्य द्वे नक्षत्रे शुद्धे / तद्यथा-पुष्यः, आश्लेषा च / उपरि च तिष्ठन्त्यष्टौ / ते त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते द्वे शते चत्वारिंशदधिके 240 / तयोः सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धास्त्रयो मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः / एकस्य च मुहूर्तस्य सत्केष्वेकोनचत्वारिंशत्संख्येषु सप्तषष्ट्या भागेषु चन्द्रेण भुक्तेषु पञ्चम्यां सूर्य उदित इति // तथा युगे प्रथमदिवसे प्रतिपदि केन नक्षत्रेण सह युक्तश्चन्द्रः? इति चिन्तायां पाश्चात्ययुगपर्वसंख्या ध्रियते चतुर्विशशतं 124 / ततः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि षष्ट्यधिकान्यष्टादशशतानि 1860 / युगे च त्रिंशदवमरात्रा इति तेभ्यस्त्रिंशत्पात्यते, जातान्यष्टा-दशशतानि त्रिंशदधिकानि 1830 / तेषा व्यशीत्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिः। सा उपरिन्यस्ते, न्यस्य च चतुर्भिर्गुण्यते, जाता अष्टाशीतिः। शेषमधस्तादुद्वरति षड्विशतिः। तत्रोपरितनराशेरेकविंशतिरभिजितः शोध्यते, स्थिता पश्चात् सप्तषष्टिः 67 तथा च किलैक नक्षत्र लभ्यते / अधस्ताच षड्विशतिरिति सर्वसकलनया सप्तविंशतिरपि नक्षत्राण्युत्तराऽऽषाढापर्यन्तानि शुद्धानि / तत आगतमुदयसमय एवाभि-जिन्नक्षत्रं चन्द्रेण सह योगमुपयातीति तथा युगे द्वितीयेऽहोरात्रे द्वितीयायां केन नक्षत्रेण सहयुक्तश्चन्द्रः? इति चिन्तायां पाश्चात्या तिथिरतिक्रान्ता प्रतिपल्लक्षणा, तत्संख्या एकको ध्रियते, स ट्यशील्या भागं न सहते, ततः सप्तषष्टिभागीक्रियते, तस्मादेकविंशतिरभिजितः शोध्यते, स्थिता पश्चात् षट्चत्वारिंशत् 46 / सा मुहूर्तकरणार्थम् ३०त्रिंशता गुण्यते।जातानित्रयोदशशतान्यशीत्यधिकानि
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________________ णक्खत्त 1766 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्त 1380 / तेषां सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धा मुहूर्ता विंशतिः 20 / स्थिताः पश्चात् चत्वारिंशत् 40 / आगतं श्रवणनक्षत्रं विंशतिमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु चन्द्रेण भुक्तेषुयुगे द्वितीये अहोरात्रे द्वितीयायां सूर्य उदयते / एवं सर्वत्रापि भावनीयम्। ज्यो०६ पाहु०। (13) पव्वं पन्नरसगुणं, तिहिसहियं ओमरत्तपरिहीणं। तिहि छावट्ठसएहिं, भागे सेसम्मि सोहणगं / / युगमध्ये विवक्षिताद् दिनात् प्राक् यानि पर्वाणि अतीतानि, तत्संख्या स्थाप्यते, स्थापयित्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते, ततो विवक्षिताद् दिनात् प्राक् पर्वणामुपरि यास्तिथयोऽतिक्रान्तास्तत्सहिता क्रियते / ततस्तदनन्तरमधिकृताद् दिनादर्वाग् ये गता अवमरात्राः, तैः परिहीना क्रियते, ते ततः पात्यन्त इत्यर्थः। ततः शेषस्य त्रिभिः शतैः षषष्ट्यधिकैर्विभजेत भाग हरेत् , भागे च हृते यत् शेषं, तस्मिन् शेषे, शोधनक वक्ष्यमाणस्वरूपं कुर्यात्। तत्र यस्मिन शोधनके शुद्धे यन्नक्षत्रं शुद्धं भवति, तदेतन्निरू पयन्नाहचउवीसं च मुहुत्ता, अट्ठेव य केवला अहोरत्ता। एए पुस्से सेसा, एत्तो सेसाण वोच्छामि।। चतुर्विशतिर्मुहूर्ताः, अष्टौ च केवलाः परिपूर्णा अहोरात्राः। एते एतावन्तो / मुहूर्ताः, अहोरात्राश्च-पुष्ये पुष्यनक्षत्रे, शोध्याः। किमुक्तं भवति?-एतेषु शोधितेषु पुष्यनक्षत्रं शोधितं भवति / अत ऊर्द्धव शेषाणां नक्षत्राणां शोधनकानि वक्ष्ये। तानि च क्रमेण आहराइंदिया विसट्ठी, य मुहुत्ता वारसुत्तरा सुद्धा। सोलससयं विसाहा, वीसंदेवा य तेसीयं / / द्वाषष्टिषष्टिसंख्यानि, रात्रिन्दिवानि, द्वादश च मुहूर्ताः, एतावति शोधिते उत्तरफाल्गुनीनक्षत्र शुद्ध भवति। तथा षोडशशतं षोडशाधिक शतं, विशाखा विशाखापर्यन्तसूचकं, ततस्तस्मिन् शोधिते विशाखाऽन्तानि नक्षत्राणि शोधितानि भवन्तीति भावः। तथा त्र्यशीतंत्र्यशीत्यधिकं शतं, विष्वगदेवाविष्वग्देवाधिपतिरुत्तराषाढा इत्यर्थः / अत्राऽयं भावार्थ:-त्र्यशीत्यधिक शतमुत्तराषाढापर्यन्त-सूचकमिति। दो चउपण्णे छच्चे-ब मुहुत्ता उत्तरा उ पोट्ठवया। तिण्णेव एकवीसा, छच्च मुहुत्ता उ रोहिणिया।। द्वेशते चतुष्पञ्चाशे चतुष्पञ्चाशदधिके, षट् च मुहुर्ताः, उत्तराप्रोष्टपदाउत्तराभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदपर्यन्तसूचका इत्यर्थः / ततस्त्रीणि शतान्येकविंशत्यधिकानि, षट् च मुहूर्ताः, रोहिणी-रोहिणीसूचका इति योगः। तिन्नेगट्ठा वारस, य मुहुत्ता सोधणं पुणव्वसुणो। जं सोहणं न गच्छइ, नक्खत्तं तं तु सूरगयं / / त्रीणि शतान्येकषष्ट्यधिकानि द्वादश मुहूर्ताः, एतावत् शोधनकं पुनर्वसोः पुनर्वसुनक्षत्रस्य। एतानि च शोधकानि पुष्यं मुक्त्वा शेषाणि व्यर्द्धक्षेत्रपय॑न्तानामुक्तानि। तत एतेषामपान्तराले यानि नक्षत्राणि, तान्यात्मीयेन | प्रमाणेन शोध्यन्ते / तद्यथा-अर्द्धक्षेत्राणि षभिरहोरात्रैरेकविंशत्या च मुहूतः : समक्षेत्राणि त्रयोदशभिर्दिनैदशभिश्च मुहूर्तः, व्यर्द्धक्षेत्राणि विंशत्या दिनैस्त्रिभिश्च मुहूर्तरिति / यत्पुनरुद्धारित शोधनं न गच्छति, तन्नक्षत्रं सूर्यगतमवसेयम् / वाऽपि राशिः स्तोकतया षट्षष्ट्यधिकशतत्रयभागंन सहते, तत्रापि यथा-योगशोधनं कर्त्तव्यम्। उक्तं करणम्। संप्रत्येतद्विषया भावना क्रियतेयुगस्य प्रथमे संवत्सरे चान्द्रेदशसुपर्वस्वतिक्रान्तेषु पञ्चम्यां केन नक्षत्रेण सह योगो दिवसाधिपतेः ? इति चिन्तायां पर्वसंख्या दश ध्रियते, ततः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातं पशाशदधिकंशतम् 150 / दशानां च पर्वणामुपरि पञ्चम्याः प्राक् तिथयोऽतिक्रान्ताश्चतस्रः, ततस्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातं चतुःपञ्चाशदधिकं शतम् 154 / दशसु च पर्वसु द्वाववमरात्रौ / ततस्तो तस्मात् पात्येते, जातं द्विप-ञ्चाशदधिकं शतम 152 / अयं च राशिः षट्षष्ट्यधिकं शतत्रयभागं न सहते, ततो यथासंभवं शोधनक कर्तव्यम्। तत्र षोडशाधिकेन शतेन विशाखाऽन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषाणि षत्रिंशत् / ततोऽनुराधा त्रयोदशभिरहोरात्रै‘दशभिमुहूर्तः शुद्धा, शेषास्तिष्ठन्ति द्वाविंशतिर्दिवसाः, अष्टादश च मुहूर्ताः / पुनः षभिर्दिवसैरकविंशत्या च मुहूर्तज्येष्ठा शुद्धा, शेषाः पञ्चदश दिवसाः सप्तविंशतिर्मुहर्ता अवतिष्ठन्ते / तेभ्यस्त्रयोदशभिर्दियसैदिशभिश्व मुहूर्त्तर्मूलनक्षत्र शुद्ध, शेषौ द्वौ दिवसौ, पञ्चदश मुहूर्तास्तिष्ठन्ति / एतावान् कालः पर्वदशकातिक्रमे पञ्चम्यां पूर्वाषाढाप्रविष्टस्य सूर्यरयाभूत।। तथा युगस्य प्रथमसंवत्सरपर्यन्ते केन नक्षत्रेण सह समेतो भास्करः ? इति चिन्तायां प्रथमसंवत्सरे पर्वाणि चतुर्विशतिः, तानिपञ्चदश-भिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि 360 / संवत्सरे च पड़वमरात्रा इति षट् तेभ्यः पात्यन्ते, जातानित्रीणि शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि 354 / अत्रापि त्रिभिः शतैः षट्षष्ट्यधिकै- भागोनपूर्यते, ततो यथासंभवं शोधनं कर्तव्यम् / तत्र त्रिभिः शतैरेकविंशत्याऽधिकैः षट्भिश्च मुहूर्तर्राहिण्यन्तानि नक्षत्राणिशुद्धानि, शेषास्तिष्ठन्ति द्वात्रिंशदहोरात्राश्चतुर्विशतिश्च मुहूर्ताः। तेभ्योऽपि त्रयोदशभिर्दिवादशभिश्च मुहूतैर्मृगशिरो नक्षत्र, शेषा अवतिष्ठन्ते एकोनविंशतिरहोरात्राः, द्वादश च मुहूर्ताः / तेभ्योऽपि षभिर्दिवसैरेकविंशत्या च मुहूर्तरार्द्रा नक्षत्र शुद्ध, शेषास्तिष्ठन्ति द्वादश दिवसाः, एकविंशतिर्मुहूर्ताः। एतावान् कालस्तदानीं पुनर्वसुनक्षत्रप्रविष्टस्य सूर्यस्याभवत्। इह यन्नक्षत्रमहोरात्रं कालं यावचन्द्रेण सह योगमपारूढं वर्तते, तस्य सूर्येण सह यावन्तं कालं योगः, तस्य त्रिंशत्तमभागप्रमाण एकः सूर्यमुहूर्तः / एवं त्रयोदश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य किशिल्समधिकाः सा स्विपश्चाशद्भागाः / एवं प्रमाणा मुहूर्ता अर्धक्षेत्राणां पञ्चदश, समक्षेत्राणां त्रिंशत् , व्यर्द्धक्षेत्राणां पञ्चचत्वारिंशत्। तत्र द्वादशभिर्दिनैरेकविंशत्या च मुहूर्तये चतुष्पञ्चाशदधिकशतत्रयस्योपरिद्वादश द्वाषष्टिभागाश्चन्द्रसंवत्सरसत्काः, ते चाष्टाविंशतिसंख्याः किञ्चित्समधिकाः सूर्यमुहूर्ता भवन्ति; शेषास्तु किञ्चित्समधिकाः / एवंप्रमाणाः सूर्यमुहूर्ताः षोडश तिष्ठन्ति। तदुच्यते सूर्यप्रज्ञप्तौ- " जेणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स आई, सेणं पढमस्स चंदसंवच्छरस्सपज्जवसाणे, अणंतरपच्छाकडे समए। तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ, जोइत्ता उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं छच्चीस मुहुत्ता, छ
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________________ णक्खत्त 1767 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त व्वीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता चउपण्णं चुन्निया भागा सेसा / तं समयं च ण सूरे केणं णक्खत्तेण जोएइ, जोइत्ता पुणव्वसुस्स सोलस मुहुत्ता अट्ठय वावट्टिभागा मुहत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छित्ता वीसं चुणिया भागा सेसा" इति। संप्रति पञ्चाशदधिकेन शतेन भागे हृते लब्धाः षडहोरात्राः, शेष तिष्ठति पञ्चोत्तर शतं, ततो मुहूर्ताऽऽनयनाय छेदराशेरर्द्धक्षेत्राऽऽदीनां नक्षत्राणां कालपरिमाणज्ञानार्थ करणमाहनक्खत्तचंदजोगे, नियमा सत्तट्ठिए समुप्पन्ने। पण्णेव सएण भए, लहई सूरस्स सो जोगो / / नक्षत्राणां यावत् प्रमाणो योगः सप्तषष्टया नियमान्निश्चयेन, प्रत्युत्पद्यते इत्यर्थः / तस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे सप्तषष्ट्या प्रत्युत्पन्ने पश्चाशेन पञ्चाशदधिकेन शतेन भजेत् भागहारं कुर्यात् , भागे हृते यद् लब्धे, स / तावत्कालप्रमाणः सूर्यस्य योगः। इयमत्र भावना-कोऽपि पृच्छति-यस्मिन् क्षेत्रे पञ्चदश मुहूर्तान-वतिष्ठते चन्द्रः, तत्र सूर्यः कियन्तं कालमवस्थानं करोति ? तत्र पञ्चदश सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जातं पञ्चोत्तरं सहस्रम् 1005 / तस्य पञ्चाशदधिकशतरूपस्य विशता भागहरणं, लब्धाः पञ्च, तेन पञ्चोत्तरशतस्य भागे हृते लब्धा एकविंशतिर्मुहूर्ताः / एतावानद्धक्षेत्राणां प्रत्येकं सूर्येण समं योगः / तथा समक्षेत्राणां त्रिंशन्मुहूर्ताश्चन्द्रयोगपरिमाणं, ततविंशत्सप्तषष्ट्या गुण्यते, जाते द्वे सहस्र दशोत्तरे 2010 / तेषां पञ्चाशदधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धाः त्रयोदश अहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति षष्टिः, ततो मुहूर्ताऽऽनयनात छेदराशे-रिंशता भागहरण, स्थिताः पञ्च, तैः षष्टेर्भागो हियते, लब्धा द्वादश मुहूर्ताः, एतावान् समक्षेत्राणां प्रत्येकं सूर्येण सह योगः / तथा व्यर्द्ध- क्षेत्राणां पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताश्चन्द्रयोगः पञ्चचत्वारिंशत्सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातानि त्रीणि सहस्राणि पश्चदशोत्तराणि 3015 / तेषां पञ्चाशदधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धा विंशतिरहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चदश, ततो मुहूर्ताऽऽनयनाय छेदराशेस्त्रिशता भागहरणं, स्थिताः पञ्च, तथा दशानां भागे हृते लब्धाःस्त्रयः पञ्च मुहूर्ताः, एतावान् व्यर्द्धक्षेत्राणां प्रत्येकं सूर्येण समं योगः। साम्प्रतं यथा सूर्ययोगपरिमाणदर्शनतः चन्द्रयोगपरिमाणज्ञा नं भवति, तथा प्रतिपादयतिनक्खत्तसूरजोगो, मुहुत्तरासीकओ उपंचगुणो। सत्तट्ठीऍ विभत्तो, लद्धो चंदस्स सो जोगो॥ नक्षत्राणामर्द्धक्षेत्राऽऽदीनां यः सूर्येण सह योगः स मुहूर्तराशीक्रियते, कृत्वा च पञ्चभिर्गुण्यते, ततः सप्तषष्ट्या भागे हृते यल्लब्धं, स चन्द्रस्य योगः / अत्रापीयं भावनाकोऽपि शिष्यः पृच्छतियत्र सूर्यः षट् दिवसान् एकविंशतिच मुहूर्तान् अवतिष्ठते, तत्र चन्द्रः कियन्तं कालं तिष्ठतीति? तत्र मुहूर्तराशिकरणार्थ षट् दिवसाः त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरि एकविंशतिर्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे 201 / ते पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जाते पञ्चोत्तरं सहस्रम् 1005 / तस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, एतावानर्द्धक्षेत्राणां प्रत्येकं चन्द्रेण समं योगः। तथा समक्षेत्राणां सूर्ययोगस्त्रयोदशदिवसा द्वादश मुहूर्ताः, तत्र दिवससंख्या मुहूर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि नवत्यधिकानि 360 / उपरितनाश्च द्वादश मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि व्युत्तराणि ४०२शतानि पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जाते द्रे सहस्र दशोत्तरे 2010 / तेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धास्त्रिंशन्मुहूर्ताः 30 / एतावान् समक्षेत्राणां प्रत्येकं चन्द्रयोगः / तथा द्वयर्द्धक्षेत्राणां सूर्ययोगः विंशतिरहोरात्रास्त्रयो मुहूर्ताः, तत्राहोरात्रसंख्या मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यते, जातानिषट् शतानि, उपरितनाश्च त्रयो मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि षट् शतानि व्युत्तराणि 603 / तानि पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि सहस्राणि पशदशोत्तराणि 315 / तेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्चत्वारिंशन्मुहूर्ताः 45 // एतावान् व्यर्द्धक्षेत्राणां प्रत्येक चन्द्रेण सहयोगः / संप्रत्युपसंहारमाहनक्खत्ताणं जोगा, चंदाऽऽइचेसु करणसंजुत्ता। भणिया (मुणाहि एत्तो, पविभागं मंडलाणं तु)! नक्षत्राणां चन्द्राऽऽदित्येषु चन्द्रविषये, आदित्यविषये च करण-संयुक्ता योगा भणिताः प्रतिपादिताः / ज्यो०६ पाहुः / (14) कति भागानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह युज्यन्तेता कहं ते एवंभागा आहिता ति वदेञा? ता एतेसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता पुव्वंभागा समक्खेत्ता तीसतिमुहुत्ता पण्णत्ता / अस्थि णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता पच्छंभागा समक्खेत्ता तीसतिमुहुत्ता पण्णत्ता। अत्थि णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता णत्तंभागा अवड्डखेत्ता पण्णरस मुहुत्ता पण्णत्ता। अत्थि णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता उभयंभागा दिवढक्खेत्ता पणयालीस मुहुत्ता पण्णत्ता।ता एएसिणं अट्ठावी-साए णक्खत्ताणं कतरेणक्खत्ता,जेणं णक्खत्ता पुव्वंभागा समक्खेत्ता तीसतिमुहुत्ता पण्णत्ता ? कतरे णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता पच्छंभागासमक्खेत्ता तीसतिमुहुत्ता पण्णत्ता? कतरे णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता णत्तंभागा अवड्डक्खेत्ता पण्ण-रस मुहुत्ता पण्णता? कतरे णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता उभयं-भागा दिवडक्खेत्ता पणयालीसइमुहुत्ता पण्णत्ता ? ता एतेसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं,तत्थ णं जे ते णक्खत्ता,जेणं णक्खत्ता पुव्वंभागा समक्खेत्ता तीसतिमुहुत्ता पण्णत्ता / ते णं छ / तं जहा-पुटवभद्दवया 1, कत्तिता 2, महा 3, पुटवफुग्गुणी 4, मूलो 5, पुव्वासाढा 6 / तत्थ णं जे ते णक्खत्ता, जेणं णक्खत्ता पच्छंभागा समक्खेत्ता तीसतिमुहुत्ता पण्णत्ता। ते णं दसतं जहाअभिई 1, सवणो 2, धणिट्ठा 3, रेवती 4, अस्सिणी 5, मिगसिरं 6, पुस्सो 7, हत्थो 8, चित्ता 6, अणुराहा 10 एवं पच्छंभागा दस हवंति / तत्थ णं जे ते णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता णत्तंभागा अवड्डक्खेत्ता पण्णरस मुहुत्ता पण्णत्ता।
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________________ णक्खत्त 1768 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त तमा तेणं छ। तं जहा-सतमिसया 1, भरणी 2, अद्दा 3, अस्सेमा 4, साती 5, जेट्ठा 6 / तत्थ णं जे ते णक्खत्ता उभयंभागा दिवड्डक्खेत्ता पणयालीसतिमुहुत्ता पण्णत्ता / ते ण छ / तं जहाउत्तरभद्दवया 1, रोहिणी 2, पुणव्वसू 3, उत्तराफग्गुणी 4, विसाहा 5, उत्तरासाढा६। " ता कहं ते " इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत् , कथं केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया एवं भागानि वक्ष्यमाणप्रकारभागानि नक्षत्राणि आख्यातानि इति भगवान् वदेत् ? एवमुक्ते भगवानाह-" ता एएसिणं' इत्यादि।' ता' इति पूर्ववत्। एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्येऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि पूर्वभागानिदिवसस्य पूर्वभागश्चन्द्रयोगस्याऽऽदिमधिकृत्य विद्यते येषां तानि पूर्वभागानि, समक्षेत्राणिसमं पूर्ण क्षेत्रमहोरात्रप्रतीतं चन्द्रयोगमधिकृत्यास्तियेषां तानि समक्षेत्राणि ; अत एव त्रिंशन्मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि / तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि पश्चाद्भागानिदिवसस्य पश्चात्तनो भागः चन्द्रयोगमधिकृत्य विद्यते येषां तानि पश्चाद्भागानि, समक्षे-त्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि। तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि नक्तंभागानिनक्तं रात्रौ चन्द्रयोगस्याऽऽदिमधिकृत्य भागोऽवकाशो येषां तानि / तथा अपार्द्धक्षेत्राणीति-अपगतमर्द्ध यस्य तदपार्द्धम् , अर्द्धमात्रमित्यर्थः / अपार्द्धमर्द्धमात्र क्षेत्रमहोरात्रप्रतीतं येषां चन्द्रयोगस्याऽऽदिमधिकृत्य तान्यपार्द्धक्षेत्राणि / अत एव पञ्चदशमुहूनिपञ्चदश चन्द्रयोगमधिकृत्य मुहुर्ता विद्यन्ते येषां तानि। तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि नक्षत्राणि उभयभागानि उभयं दिवसं रात्रिः, तस्य उभयस्य-दिवसस्य, रात्रेश्चेत्यर्थः। चन्द्रयोगस्याऽऽ-दिमधिकृत्य भागो येषां तानि / तथा व्यर्द्धक्षेत्राणिद्वितीयमर्द्ध यस्य तत् द्वयर्द्ध, सार्द्धमित्यर्थः / द्वयर्द्ध सार्द्धमहोरात्रप्रभितं क्षेत्रं येषां तानि तथा। अत एव पञ्चचत्वारिंशन्-मुहूर्तानिप्रज्ञप्तानि / एवं सामान्येनोक्ते विशेषावबोधनार्थ भगवान् गौतमः पृच्छति-" ता एतेसि णं " इत्यादि सुगमम्। भगवान् प्रतिवचनमाह-"ता एतेसिणं " इत्यादि।'ता' इति पूर्ववत्। एतेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि, तानिषट्। तद्यथा-"पुटवभवया" इत्यादि। (एतच्चानन्तरे एव प्राभूतप्राभृते योगस्याऽऽदौ चिन्त्यमाने भावयिष्यते)। तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पश्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि। तानि दश / तद्यथा-" अभिई " इत्यादि / तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि नक्तंभागानि अपार्द्धक्षेत्राणि पञ्चदश मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि / तानि षट् / तद्यथा-" सयभिसया" इत्यादि। तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राण्युभयभागानि द्वयर्द्धक्षेत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि।। तानिषट्। तद्यथा-" उत्तरभद्दवया " इत्यादि। चं० प्र०१० पाहु०३ पाहु० / स्था० / मं०। सू० प्र०। (15) प्रमर्दयोगीनि नक्षत्राणिअट्ठ णक्खत्ता णं चंदेण सद्धिं पमई जोगं जोइंति / तं जहा- कत्तिया, रोहिणी, पुणव्वसू , महा, चित्ता, विसाहा, अणुराहा, जिट्ठा। (पम ति) प्रमर्दश्चन्द्रेण स्पृश्यमानता, तल्लक्षणं योग योजयन्ति, आत्मनश्चन्द्रेण सार्द्ध कदाचिद् , न तुतमेव सदैवेति। उक्तंच-"पुणवसु रोहिणि चित्ता, मह जेठ्ठऽणुराह कत्तिय विसाहा। चंदस्स उभयजोगी" इति / यानि च दक्षिणोत्तरयोगीनि, तानि प्रमर्दयोगीन्यपि कदाचिद्भवन्ति, यतो लोकश्रीटीकाकृतोक्तम्-एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि चन्द्रस्य दक्षिणेनोत्तरेण च युज्यन्ते, कथञ्चिचन्द्रेण भेदमप्युपयान्तीति। एतत्फलं चेदम्-" एतेषामुत्तरगाः, ग्रहाः सुभिक्षाय चन्द्रमा नितराम्।" इति। स्था० 10 ठा०। (16) कति नक्षत्राणि कति भागानि पूर्णिमाऽमाभ्याम्ता कहं ते जोगस्सादी आहिता ति वदेज्जा ? ता अभिई, सवणो खलु दुवे णक्खत्ता पच्छं भागा समक्खेत्ता सातिरेगउणतालीसमुहुत्ता तं पढमताए सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोइंति / ततो पच्छा अवरं सातिरेगं दिवसं / एवं खलु अभिई, सवणो दुवे णक्खत्ता एगं राति एगं च सातिरेग दिवसं चंदेण सद्धिं जोगं जोएंति, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टति, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं धणिहाणं समप्पेंति, समप्पैतित्ता धणिट्ठा खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसतिमुहुत्ते तप्पढमताए सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएति। ततो पच्छा अवरं दिवसं / एवं खलु धणिट्ठा णक्खत्ते एवं रातिं एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टति, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं सतभिसताणं समप्पेति। ता सतभिसताखलु णक्खत्ते णतंभागे अवड्डखेत्ते तप्पढमताए सागं चंदेण सद्धि जोगं जोएति, णो लमति अवरं दिवसं / एवं खलु सतभिसता णक्खत्ते एगं रातिं चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, जोगं जोइत्ता अणुपरिय-ट्टति, अणुपरियट्टित्ता पातो चंदंपुव्वाणं पोट्ठवयाणं समप्पेति, ता पुव्वा पोट्ठवता खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेत्ते तीसति-मुहुत्ते तप्पढमताए पातो चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, पच्छा अवरं राई। एवं खलु पुव्वा पोट्ठवता णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च रातिं चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, जोगं जोइत्ता अणुपरियट्टति, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं उत्तराणं पोट्ठवताणं समप्पेति। उत्तरपोट्टवता खलु णक्खत्ते पणयालीसतिमुहुत्ते तप्पढमताए पातो चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, अवरं च रातिं, ततो पच्छा अवरं दिवसं / एवं खलु उत्तरापोट्ठवता णक्खत्ते दो दिवसे, एगं च रातिं चंदेण सद्धिं जोगं जो एति, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टति, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं रेवतीणं समप्पेति। ता रेवती खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते जहा धणिट्ठा० जाव सायं चंदं अस्सिणीणं समप्पेति / भरणी खलु णक्खत्ते णतंभागे अवड्ड० जहा सत्तवीसंता० जाव पातो चंदं
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________________ णक्खत्त 1766 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त कत्तिताणं समप्पेति० जाव पातो चंदं रोहिणीणं समप्पेति, रोहिणी जहा उत्तरभद्दवया, मिगसिरं जहा धणिट्ठा / एवं जहा सतभिसता, तहा णत्तंभागा णेयव्वा / एवं जहा पुव्वाभद्दवता, तहा पुव्वंभागा छप्पि णेयव्वा / जहा धणिट्ठा तहा पच्छंभागा अट्ठणेयव्या. जाव एवं खलु उत्तरासाढा दो दिवसे एगं च रातिं चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टति, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अभिईसवणाणं समप्पेइ। "ता कह से " इत्यादि।' ता' इति पूर्ववत् , कथं ते त्वया भगवन् ! योगस्याऽदिराख्यात इति वदेत् ? इह निश्चयनयमतेन चन्द्रयोगस्याऽऽदिता सर्वेषामपि नक्षत्राणामप्रतिनियतकालप्रमाणा, ततः सा करणवशादवगन्तव्या। तच करणं ज्योतिष्करण्डके समस्तीति तदीका कुर्वता तत्रैव सप्रपञ्चंभावितमतस्ततोऽवधार्यम् / अत्र तु व्यवहारनवमधिकृत्य बाहुल्येन यस्य नक्षत्रस्य यदा चन्द्रयोगस्याऽऽदिर्भवति तमभिधित्सुराह-" ता अभिई " इत्यादि। ' ता ' इति पूर्ववत् / द्वे अभिजिच्छ्रवणाऽऽख्ये नक्षत्रे पश्चाद्भागे समक्षेत्रे / इहाभिजिन्नक्षत्र समक्षेत्र, नाप्यर्द्धक्षेत्र, नापि व्यर्द्धक्षेत्र, केवलं श्रवणेन सह संबद्धमुपात्तमित्यभेदोपचारात् तदपि समक्षेत्रमुपकल्प्य समक्षेत्रम् इत्युक्तम्। सातिरेकैकोनचत्वारिंशन्मुहूर्तप्रमाणे। तथाहि-सातिरेका नव मुहूर्ता अभिजितः, त्रिंशन्मुहूर्ताः श्रवणस्येत्युभयमीलने यथोक्तं मुहूर्तपरिमाण भवति / तत्प्रथमतया चन्द्रयोगस्य प्रथमतया, सायं विकालवेलायाम् , इह दिवसस्य कतितमाघरमाद्भागादारभ्य यावद्रात्रे: कतितमो भागो यावन्नापि परिस्फुटनक्षत्रमण्डलाऽऽलोक: तावान् कालविशेषः सायमिति द्रष्टव्यः तथा लोके व्यवहारदर्शनात्। तस्मिन् सायं समये, चन्द्रेण सार्द्ध योगं युक्तः / इहाभिजिन्नक्षत्रं यद्यपि युगस्याऽऽदौ प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, तथाऽपि श्रवणेन सह सम्बद्धमिह तद्विवक्षितम्। श्रवणनक्षत्रं च मध्याह्रादूर्द्धमपसरति, दिवसे चन्द्रेण सह योगमुपादत्ते / ततस्तत्साहचर्यात्तदपि सायं समये चन्द्रेण सार्द्ध युज्यमानं विवक्षितं ततः सामान्यतः सायं चन्द्रेण सार्द्ध योगयुञ्जन्तीत्युक्तम् (बहुत्वं प्राकृतानुवादवशात् ) अथवा युगस्याऽऽदिमतिरिच्यान्यदा बाहुल्यमधिकृत्येदमुक्तं, ततो न कश्चिद्दोषः / " ततो पच्छा " इत्यादि। पश्चात् तदूर्द्धवम्, अपरमन्यं सातिरेकदिवसं यावत्। एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति-" एवं खलु "इत्यादि। एवमुक्तेन प्रकारेण, खल्विति निश्चये, अभिजिच्छवणौ द्वे नक्षत्रे, सायं समयादारभ्य एकां रात्रिमेकं च सातिरेक दिवसं, चन्द्रेण सार्द्ध युक्तः / एतावन्तं च कालं युक्त्वा तदनन्तरं योगमनुपरिवर्तयति, आत्मनश्चयावयत इत्यर्थः / योग चानुपरिवर्त्य सायं दिवसस्य कतितमे पश्चाद्भागे चन्द्रं धनिष्ठायां समर्पयतः। तदेवमभिजित् श्रवणंधनिष्ठा सायं समये चन्द्रेण सह प्रथमतो योगं युञ्जन्ते / तेनामूनि त्रीण्यपि पश्चाद्भागान्यवसेयानि / ततः समर्पणादनन्तरं धनिष्ठा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भाग सायं समये तस्य प्रथमतश्चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया साय समये चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति / चन्द्रेण सह योगं युक्त्वा ततः सायं समयादूर्द्ध, ततः पश्चाद्रात्रीः, अपरं च दिवसं यावद् योगं युनक्ति / एतदेवोपसंहारव्याजेनाऽऽचष्टे -" एवं खलु इत्यादि सुगम, यावद् योगमनुपरिवर्त्य सायं समये चन्द्र शतभिषजः समर्पयति / प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमण्डलावलोके तत इदं नक्षत्रं नक्तंभाग द्रष्टव्यम् / तथा चाऽऽह-(ता इत्यादि)'ता' इति। ततः समर्पणादनन्तरं शतभिषग्नक्षत्रं खलु नक्तंभागमपार्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त तत्प्रथमतया चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति। तचतथा युक्तं सन्न लभते अपरं दिवसं, पञ्चदशमुहूर्तप्रमाणत्वात्, किन्तु रात्रित एव योगमधिकृत्य परि-समाप्तिमुपैति / तथा चाऽऽह-'' एवं खलु " इत्यादि सुगमम् / यावद् योगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं पूर्वयोः प्रोष्ठपदयोर्भद्रपदयोः समर्पयति / इह पूर्वप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य प्रातश्चन्द्रेण सह प्रथमतया योगः प्रवृत्त इतीदं पूर्वभागमुच्यते / तथा चाऽऽह-(ता पुग्वेत्यादि) ततः समर्पणादनन्तरं पूर्वप्रोष्ठपदा खलु नक्षत्रं पूर्वभागसमक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातश्चन्द्रेण सह योगं युनक्ति। तच तथा युक्तं सत्ततः समयादूर्द्ध तं सकलं दिवसम् , अपरां च रात्रिं यावद्वर्त-ते / एतदेवोपसंहारव्याजेनाऽऽह-" एवं खलु " इत्यादि सुगम, यावद् योगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रमुत्तरयोः प्रोष्ठपदयोः समर्पयति / इदं किलोत्तराभाद्रपदाऽऽख्य नक्षत्रमुक्तप्रकारेण प्रातश्चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति, केवलं प्रथमान् पञ्चदश मुहूर्तानधिकानपनीय समक्षेत्रत्वं कल्पयित्वा यदा योगश्चिन्त्यते, तदा नक्तमपि योगो-ऽस्तीत्युभयभागमवसेयम् / तथा चाऽऽह-ततः समर्पणादनन्तरं प्रोष्ठपदा नक्षत्रं खलुभयभागं व्यर्द्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया प्रातश्चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति / तच तथा युक्तं सत्सकलमपि दिवसमपरा च रात्रि ततः पश्चादपरं दिवसं यावद्वर्त-ते। एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति(एवं खलु) इत्यादि सुगमम् , यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायं समये चन्द्र रेवत्याः समर्पयति / ततो रेवतीनक्षत्रं सायं समये चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति; ततस्तत्पश्चाद्भागमवसेयम् / तथा चाऽऽह-" ता रेवती " इत्यादि।'ता' इति। ततः समर्पणादनन्तरं, शेष सुगमम्। इदं च चन्द्रेण युक्तं सत् सायं समयादूर्द्ध सकलां रात्रिमपरं च दिवस यावदवतिष्ठते, समक्षेत्रत्वात् / एतदेवोपसंहारत आह-" एवं खलु " इत्यादि सुगम-म्। यावद् योगमनुपरिवर्त्य सायं समये चन्द्रमश्विन्याः समर्पयति / तत इदमप्यश्विनी नक्षत्रं सायं समये चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् पश्चाद्भागमवसेयम् / तथा चाऽऽह-" ता" इत्यादि सुगम, नवरमिदमप्यश्विनी नक्षत्रं समक्षेत्रत्वात् सायं समयादारभ्य तां सकलां रात्रिमपरं च दिवसं यावच्चन्द्रेण सह युक्तमवतिष्ठते / एतदेवोपसंहारव्याजेनाऽऽह-" एवं खलु" इत्यादि सुगमम् / यावद् योगमनुपरिवर्त्य सायं प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमालावलोकसमये चन्द्र भरण्याः समर्पयति / इदं च भरणी नक्षत्रमुक्तयुक्त्या रात्रौ चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततो नक्तंभागमवसेयम्।तथात्वाऽऽह-" भरणी " इत्यादि पाठसिद्धम्। नवरमिदमपार्द्धक्षेत्रत्वाद्रात्रौतंयोग परिसमापयति, ततोन लभते चन्द्रेण सह युक्तमपरं दिवसम्। एतदेवोपसंहारव्याजेनाऽऽह-" एवं खलु " इत्यादिसुगमम्। यावद्योगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं कृत्तिकानां समर्पयति। इदं च कृत्तिकानक्षत्रमुक्तयुक्त्या प्रातः चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः पूर्वभागमवसेयम्। एतदेवोपसंहारख्याजेन व्यक्तीकरोति-"एवं खलु" इत्यादि सुगमं, यावद्योगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं रोहिण्याः समर्पयति। इदं च रोहिणीनक्षत्रं व्यर्द्धक्षेत्रम् , अतः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागं प्रतिपत्तव्यम् / (रोहिणी जहा उत्तरभद्दवया इति) रोहिणी यथा प्रागुत्तरभद्रपदा उक्ता, तथा
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________________ णक्खत्त 1770 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्त वक्तव्या। सा चैवम्-" तारोहिणी खलु णक्खते उभयंभागे दिवड्डक्खेत्ते पणयालीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोगं, जोएइ, अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं दिवसं। एवं खलु रोहिणी णक्खत्ते दो दिवसे एग च राइं चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, जोगे जोइत्ता जोग अणुपरियट्टइ, जोग अणुपरियट्टित्ता सायं चंद मिगसिरस्स समप्पेइ।" इति।" मिगसिर जहा धणिट्टत्ति। " मृगशिरा नक्षत्रं यथा प्राक्धनिष्ठोक्ता तथा वक्तव्यम् / तद्यथा-" ता मिगसिर खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेते तीसइमुहुत्ते तप्पढमताए सायं चंदेण सद्धि जोग जोएइ, जोग जोइत्ता ततो पच्छा अवरं दिवस। एवं खलु मिगसिरे णक्खत्ते एग राई एणंच दिवसं चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोग अणुपरियट्टित्ता सायं (अत्र सायमिति प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमण्डलाऽऽलोकसमये, अत एवैतन्नक्तंभागम्।) चंदं अदाए समप्पेइ' इति।'' एवं जहा सयभिसया, तहा णत्तंभागा णेयव्वा / एवं जहा पुव्वाभद्दवया तहा पुव्वंभागा छप्पि णेयव्वा / जहा धणिट्ठा तहा पच्छंभागा अट्ठणेयव्वा " इति / एवमुक्तेन प्रकारेण यथा शतभिषगुक्ता, तथा सर्वाण्यपि नक्तभागानि नेतव्यानि / यथा पूर्वाभद्रपदा, तथा पूर्वभागानि षडपि नेतव्यानि। यथा धनिष्ठा तथा पश्चाद्भागानि अष्ट नेतव्यानि। उपलक्षणमेतत्। तेन यथोत्तराभद्रपदा, तथा सर्वाण्यप्युभयभागानि द्रष्टव्यानि / तानि चैवम्-" ता अद्दा खलु णक्खत्ते णतंभागे अवड्डक्खेत्ते पण्णरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं धंदेण सद्धि जोगंजोएति, णो लहइ अवरं दिवस / एवं खलु अद्दा एग राई चंदेण सद्धि जोगं जोएइ,जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं पुणव्वपूर्ण समप्पेइ।" इदं पुनर्वसुनक्षत्रं व्यर्द्धक्षेत्रत्वात प्रागुक्तयुक्तरुभयभागमवसेयम् / ततश्चैवं तत्सूत्रम्-" ता पुणव्वसू णक्खत्ते उभयंभागे दिवड्डक्खेत्ते पणयालीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिजोगंजोएइ, अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं दिवस / एवं खलु पुणव्वसु णक्खत्ते दो दिवसे एग च राइं चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोग अणुपरियहित्ता सायं चंदं पुस्सस्स समप्पेइ " / इदं च पुष्यनक्षत्र सायं समये दिवसावसानरूपे चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति, ततः पश्चाद्भागमवरसेयम्। तत एवं तत्सूत्रम्-" ता पुस्से य खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिजोगं जोएइ, जोग जोइत्ता ततो पच्छा अवरं दिवसं / एवं खलु पुस्से णक्खत्ते एगराईएगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोग जोएइ. जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंद असिलेसाए समप्पेइ। " इद चाऽऽश्लेषा नक्षत्रं सायं समये परिस्फुटनक्षत्रमण्डलाऽऽलोकरूपे प्रायश्चन्द्रेण सह योगमुपैति; तत इदं नक्तंभागमवसेयम् , अपार्द्धक्षेत्रत्वाच तस्यामेव रात्रौ योग परिसमापयति। तत एवं तत्सूत्रम्"ता असिलेसा खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवड्डक्खेत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोग जोइत्ता नो लभइ अवरं दिवसं / एवं खलु असिलेसा णक्खत्ते एग राई चंदेण सद्धि जोग जोएइ, जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं मघाणं | समप्पेइ " इति / इद तु मघानक्षत्रमुक्तयुक्त्या प्रातश्चन्द्र ग्रह योगमश्नुते, ततः पूर्वभागमवसेयम्। एवं च तत्सूत्रम्- " ता मघा खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, ततो पच्छा अवरं राई। एवं खलु मघा णक्खत्ते एग दिवसं एगं चराइं चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोग अणुपरियड्इ, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं पुव्वाफ गुणीणं समपाइ / इदमपि पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुक्तनीत्या समधिगच्छति, ततः पूर्वभागप्रत्येतव्यम्। एवं च तत्सूत्रम्-"ता पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते पुष्वभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढयाए पातो चंदेण सद्धिजोगं जोएइ. ततो पच्छा अवरं राइ, एवं खलु पुव्वाफग्गुणीणक्खत्ते एगंच दिवसमेगं च राई चंदेण सद्धिजोगं जोएइ, जोगजोइत्ता जोग अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदमुत्तराणं फग्गुणीण समप्पेइ / " एतचोत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं व्यर्द्धक्षेत्रम् , अतः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागं वेदितव्य-म्। एवं च तत्सूत्रम्-" ता उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते उभयभागे दिव-दुखेत्ते पणयालीसइमुहत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ. अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं च दिवसं / एवं खलु उत्तराफग्गुणी णवखत्ते दो दिवसे एगं चराई चंदेण सद्धिं जोगंजोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियदृइ, जोग अणुपरियट्टित्ता सायं चंदहत्थस्स समप्पेइ"। एतच हस्तनक्षत्रं सायं दिवसावसानसमये चन्द्रेण सह योगमधिरोहति, तेन पश्चाद्भागमवसेयम् / तत्सूत्रं चैवम्-'"ता हत्थे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समवखेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, ततो पच्छा अवरं दिवसं / एवं खलु हत्थं नक्खत्ते एग राइमेगं च दिवसं चंदेण सहिंजोग जोएइ, जोगजोइत्ता जोग अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंद चित्ताणं समप्पेइ।" इदमपि चित्रा नक्षत्रं सायं समये प्रायो दिवसावसानसमये चन्द्रेण सह योगमुपैति, तत इदमपि पश्चाद्भागमवसेयम्। एवं च तत्सूत्रम्-" ता चित्ता खलु णक्खत्ते पच्छभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिजोग जोएइ, लतो पच्छा अवरं दिवसं / एवं खलु चित्ता णक्खत्ते एग राइमेगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता चंदं सायं साईए समप्पेइ " / स्वातिश्च सायं समये प्रायः परिस्फुट दृश्यमाने नक्षत्रमण्डलरूपचन्द्रेण सहयोगमुपैति। ततइयं नक्तंभागा प्रत्येया। तत्सूत्र चेत्थम्-" ता साई खलु णक्खत्ते णतंभागे अवड्डक्खेते पनरस-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिजोगंजोएइ, नो लभइ अवरं दिवस एवं खलु साई णक्खत्ते एग राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोग अणुपरियट्टइ,जोग अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं विसाहाणं समप्पेइ"। इदंच विशाखानक्षत्रं द्या क्षेत्र, ततः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागमवसेयम् / एवं च तत्सूत्रम्-" विसाहा खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवटवरखेत्ते पणयालीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं दिवस। एवं खलु विसाहाणक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, जोगं जोइता जोग अणुपरियट्टइ, जोग अणुपरियट्टित्ता सायं चंद अणुराहाए समप्पेइ। " इदं चानुराधानक्षत्रं सायं समय दिवसावसानरुपे चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः प्रागुक्तयुक्तिवशात् पश्चाद्भागमवसेयम्। इत्थं च तत्सूत्रम्-" ता अणुराहा खलुणवत्ते पच्छंभागेस
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________________ णक्खत्त 1771 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त मक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोगं जोएइ / ततो / पच्छा अवरं दिवसं / एवं खलु अणुराहाणखत्ते एगं च राइंएगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, जोग जोइत्ता जोगे अणुपरियट्टइ, जोगं | अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं जेट्ठाए समप्पेइ।" ज्येष्ठायाश्च सायं समय समर्पयति प्रायः परिस्फुटं दृश्यमाननक्षत्रमण्डले, तत इदं ज्येष्ठा नक्षत्र नक्तंभागमवसेयम् / तत्सूत्रं चैवम्-" ता जेट्ठा खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवड्ढक्खेत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं / एवं खलु जेहाणक्खत्ते एग राई चंदेण सद्धिं जोगे जोएइ, जोगं जोइत्ता जोग अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंद मूलस्स समप्पेइ। " मूलनक्षत्रं चोक्तप्रकारेण प्रायश्चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति प्रातः, तत इदं पूर्वभागमवसातव्यम्। तत्सूत्रं चेदम्-" ता मूलणक्खत्ते पुष्वंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, ततो पच्छा अवरं राई। एवं खलु मूलणक्खत्ते एणं च दिवस-मेगं चराईचंदेण सद्धिंजोगं जोएइ,जोगंजोइत्ता जोगं अणुपरियदृइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं पुव्वासाढाणं समप्पेइ।" इदमपि पूर्वाषाढानक्षत्रं प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुक्तयुक्त्या समुपतीति पूर्वभागमवसेयम् / एवं च तत्सूत्रम्-" ता पुव्वासाढा खलु णक्खत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोगंजोएइ,अवरं चराई। एवं खलु पुव्यासाढा णक्खत्ते एगच दिवसमेगं च राई चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंद उत्तरासाढाणं समप्पेइ। " उत्तराषाढा नक्षत्रं च द्व्यर्धक्षेत्रत्वादुभयभाग वेदितव्यम्। तत्सूत्रं चैवम्-" ता उत्तरासाढा खलु णक्खत्ते उभयभागे दिवड्डक्खेत्तं पणयालीसं मुहुत्ते तप्पढम-याए पातो चंदणसद्धिजोगंजोएइ, अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं दिवसं / " अत ऊर्द्ध चैतद्गतं सूत्रं साक्षादाह-" जाव एवं खलु उत्तरासाढा दो दिवसे " इत्यादि। यावत्करणात् पाश्चात्यनक्षत्र-गतानि सूत्राण्यनुक्तान्यपिद्रश्व्यानि। तानि चतथोपदर्शितानि। तदेव बाहुल्यमधिकृत्योक्तप्रकारेण यथोक्तेषुकालेषु नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगमुपयान्ति, ततः कानिचित्पूर्वभागानि, कानिचित्पश्चाभागानि, कानिचिन्नक्तंभागानि, कानिचिदुभयभागानि / चं० प्र० 10 पाहु० 4 पाहु० / सू० प्र० / न०। (अमापूर्णिमाभिर्नक्षत्रचन्द्रयोगः ' अमावसा ' शब्दे प्रथमभागे 743 पृष्ठे उक्तः) (कुलोपकुलकुलोपकुलसंज्ञकानि नक्षत्राणि' कुल' शब्दे तृतीयभागे 562 पृष्ट उक्तानि) (17) किं नक्षत्रं कतितारम्ता कहं ते तारग्गे आहिते ति वदेञा? ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते कतितारे पण्णते? तितारे पण्णत्ते / सवणे णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? तितारे पण्णत्ते / घणिट्ठाणक्खत्ते कतितारे पंण्णत्ते ? पंचतारे पण्णत्ते / सतभिसया णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते? सततारे पण्णत्ते / पुव्वापोट्टवता णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? दुतारे पण्णत्ते / एवं उत्तरा वि। रेवती णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? बत्तीसइतारे पण्णत्ते। अस्सिणी णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? तितारे पण्णत्ते / एवं सव्वे पुच्छिजंति। भरणी तितारे पण्णत्ते / कत्तिया छत्तारे पण्णत्ते / रोहिणी पंचतारे पण्णत्ते / मिगसिरे तितारे पण्णत्ते / अद्दा एगतारे पण्णत्ते। पुणव्वसू पंचतारे पण्णत्ते। पुस्से णक्खत्ते तितारे पण्णत्ते / अस्सेसा छत्तारे पण्णत्ते / महा सत्ततारे पण्णते।पुव्वाफग्गुणी दुतारे पण्णत्ते / एवं उत्तरा वि। हत्थे पंचतारे पण्णत्ते / चित्ता एगतारे पण्णत्ते / साती एगतारे पण्णत्ते / विसाहा पंचतारे पण्णत्ते / अणुराहा चउतारे पण्णत्ते। जेट्ठा तितारे पण्णत्ते / मूले एगारसतारे पण्णत्ते / पुव्वासाढा चउतारे पण्णत्ते / उत्तरासाढा णक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते। "ता कहं ते " इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत् / कथं केन प्रकारेण ते त्वया भगवन् ! नक्षत्राणां ताराग्रे ताराप्रमाणमाख्यातमिति वदेत् ? एवं सामान्यतः प्रश्नं कृत्वा संप्रति नक्षत्रं पृच्छति-"ता एएसिणं " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत्। एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणांमध्येऽभिजिन्नक्षत्र कतितार प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-अभिजिन्नक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम् / एवं शेषाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि।। ताराप्रमाणसंग्राहिके चेमे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्के गाथे"तिग तिग पंचग सय दुग, दुग वत्तीसं तिगतह तिगं च। छप्पंचग तिग एमग, पंचग तिग छकगं चेव॥१॥ सत्तग दुग दुग पंचग, इक्किक्कग पंच चउ तिग चेव। इक्कारसग चउक्कं, चउक्कग चेव तारगं" // 2 // सू० प्र० 10 पाहु०६ पाहु० / स्था० / " जेट्टापज्जवसाणाणं एगोणवीसाए णक्खत्ताणं अट्ठाणउओ तारा-ओ तारग्गेणं पण्णत्ताओ।" स०६६ सम०। (18) कति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापक तया कं मासं नवन्तीतिता कहं ते णेता आहिते ति वदेजा? ता वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? ता चत्तारि णक्खत्ता णेति / तं जहाउत्तरासाढा, अभिई,सवणो, धणिट्ठा। उत्तरासाढा चोद्दस अहोरत्ते णेति, अभिई सत्त अहोरत्ते णेति, सवणो अट्ठ अहोरत्ते णेति, धणिट्ठा एग अहोरत्तं णेति। तंसिचणं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टति। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पदाइं चत्तारि य अंगुलाणि पोरिसी भवति। ता वासाणं दोचं मासं कतिणक्खत्ताणेति? ता चत्तारिणक्खत्ताणेति। तं जहा-धणिट्ठा, सतभिसया, पुव्वापोट्ठवया, उत्तरापोट्ठयया / धणिट्ठा चोइस अहोरत्ते णेति, सयभिसया सत्त अहोरत्ते णेति, पुव्वाभद्दवया अट्ठ अहोरत्ते णेति, उत्तरापोट्ठवता एग अहोरत्तं णेति। तंसिच णं मासंसि अटुंऽगुले पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टति / तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पदाइं अटुंऽगुलाइं पोरिसी
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________________ णक्खत्त 1772 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्त भवति / ता वासाणं ततियं मासं कति णक्खत्ता णेति ? ता | उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता। उत्तराफग्गुणी चोइस अहोरत्ते तिण्णि णक्खत्ता णेति। तं जहा-उत्तरापोट्ठवता, रेवती, अ- | णेति / हत्थो पण्णरस अहोरत्ते णेति। चित्ता एग अहोरत्तं णेति। स्सिणी। उत्तरापोट्ठवता चोद्दस अहोरते णेति, रेवती पण्णरस तंसि च णं मासंसि दुबालसअंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अहोरत्ते णेति, अस्सिणी एग अहोरत्तं णेति। तंसि च णं मासंसि अणुपरियट्टति / तस्सणं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाणि तिण्णि दुबालसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टति / तस्स पदाई पोरिसी भवति। ता गिम्हाणं वितियं मासं कति णक्खत्ता णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाणि तिपदाइं पोरिसी भवति। ता णेति ? ता तिण्णि णक्खत्ता णे-ति / तं जहा-चित्ता, साई, वासाणं चउत्थमा कति णक्खत्ता गति? ता तिण्णि णक्खत्ता विसाहा। चित्ता चोद्दग अहोरत्ते णेति / साती पण्णरस अहोरते णेति / तं जहा-अस्सिणी, भरणी कत्तिया। अस्सिणी चउद्दस णेति। विसाहा एगं अहोरत्तं णेति। तसिचणं मासंसि अटुंऽगुलाए अहोरते णेति। भरणी पन्नरस अहोरत्ते णेति। कत्तिया एग अहोरत्तं पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टति। तस्सणं मासस्स चरिमे णेति / तसि च णं मासंसि सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए दिवसे दो पदाइं अटुंगुलाई पोरिसी भवति / गिम्हाणं ततियं अणुपरियट्टइ / तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिन्नि पयाई मासं कति णक्खत्ता में ति ? ता चत्तारि णक्खत्ता ऐति / तं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवति। ता हेमंताणं पढमं मासं कति जहा-विसाहा, अणुराधा, जेट्ठा, मूलो। विसाहा चोद्दस अहोरत्ते णक्खत्ता ऐति? ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति / तं जहा-कत्तिया, णेति। अणुराहा सत्त, जेट्ठा अट्ठ, मूले एग अहोरत्तं णेति। तसि रोहिणी, संठाणा / कत्तिया चोद्दस अहोरत्ते णेति / रोहिणी चणं मासंसि चउरंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टति। पण्णरस अहोरत्ते णेति / संठाणा एग अहोरत्तं णेति / तसि च णं तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पदाणि चत्तारिय अंगुलाणि मासंसिवीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टति / तस्स पोरिसी भवति। ता गिम्हाणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ऐति? णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पदाई अटुंऽगुलाई पोरिसी |. तिण्णि ण-क्खत्ताणेति तं जहा-मूलो, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा। भवति। ता हेमंताणं दोचे मासे कति णक्खत्ता ऐति ? चत्तारि | मूलो चोइस अहोरत्ते णेति। पुव्वासाढा पन्नरस अहोरत्ते णेति। णक्खत्ता ऐति / तं जहा-संठाणा, अद्दा, पुणव्वसू , पुस्सो। उत्तरासादा एगअहोरत्तंणेति। तंसि च णं मासंसि वट्टाएसमचउसंठाणा चोद्दस अहोरत्ते णेति, अद्दा सत्त अहोरत्ते णेति, पुणव्वसू / रंससंठाणसंठिताए णग्गोधपरिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए अट्ठ अहोरते णेति, पुस्सो एगं अहोरत्तं णेति। तंसि च णं मासंसि | छायाए सूरिए अणुपरियट्टति। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे चउवीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टति / तस्स णं | लेहट्ठाणि दो पदाई पोरिसी भवति / मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाणि चत्तारि पदाइं पोरिसी भवति। (ता कहतेणेता आहिते तेवदेजा) 'ता' इति पूर्ववत्। कथं केन प्रकारेण ता हेमंताणं ततियं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि भगवन् ! ते त्वया स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापको नक्षत्ररूपो नेता णक्खत्ता ऐति। तं जहा-पुस्से, अस्सेसा, महा। पुस्से चोद्दस आख्यात इति वदेत् ? एतदेव प्रतिमासं पिपृच्छिषुराह-(ला वासाणअहोरत्तं णेति, अस्सेसा पंचदस अहोरते णेति, महा एगं अहोरत्तं मित्यादि) ' ता ' इति पूर्ववत् / वर्षाणां वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य णेति। तंसि च णं मासंसि वीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए प्रथमं मासं श्रावणलक्षणं कति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिअणुपरियट्टति / तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पदाई समापकतया नयन्ति गमयन्ति ? भगवानाह-(ता चत्तारीत्यादि) ता' अटुंऽगुलाइं पोरिसी भवति / ता हेमंताणं चउत्थमा कति इति पूर्ववत्। चत्वारि नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया णक्खत्ता णेति? ता तिण्णि णक्खत्ता णें-ति / तं जहा-महा, क्रमेण नयन्ति / तद्यथा-उत्तराषाढा, अभिजित, श्रवणो, धनिष्ठा च / पुवाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी / महा चोद्दस अहोरते णेति / तत्रोत्तराषाढा प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपुष्वाफग्गुणी पन्नरस अहोरत्ते णेति। उत्तराफग्गुणी एग अहोरत्तं / परिसमापकतया नयति, तदनन्तरमभिजिन्नक्षत्र सप्ताहोरात्रान्नयति। ततः णेति / तंसि च णं मासंसि सोलस अंगुलाए पोरिसीए छायाए परं श्रवणनक्षत्रमष्टौ अहोरात्रान्नयति / एवं च सर्व संकलनया सूरिए अणुपरियट्टति / तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि श्रावणमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्रा गताः। ततः परं श्रावणमासस्य संबन्धिनं पदाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवति। ता गिम्हाणं पढमं मासं चरममेकमहोरात्रं धनिष्ठा नक्षत्रं स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमाकति णक्खत्ता ऐति ? ता तिण्णि ण-क्खत्ता ऐति / तं जहा- / पकतया नयति। एवं चत्वारि नक्षत्राणि श्रावणमासं नयन्ति। (तंसि चण
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________________ णक्खत्त 1773 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त मित्यादि) तस्मिश्च श्रावणे मासे चतुरड्गुलपौरुष्या चतुरङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनु प्रतिदिवसं परावर्त्तते। किमुक्तं भवति?श्रावणे मासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डलसंक्रान्त्या तथा कथश्चनापि परावर्तते, यथा तस्य श्रावणमासस्य पर्यन्ते चतुरड्गुलाधिका द्विपदापौरुषी भवति। तदेवाऽऽह-(तस्स णमित्यादि) तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे चत्वारि चागुलानि पौरुषी भवति। (ता वासाणमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्। वर्षाणां वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य द्वितीय भाद्रपदलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति? अस्य वाक्यस्य भावार्थः प्राग्वद्भावनीयः। भगवानाह-('ता' इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् / चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति / तद्यथा-धनिष्ठा, शतभिषक्, पूर्वाप्रोष्ठपदा, उत्तराप्रोष्ठपदाच। तत्र धनिष्ठा तस्मिन् भाद्रपदे मासे प्रथ-मान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयति। तदनन्तरं शतभिषा नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान् , ततः परमष्टावहोरात्रान् पूर्वाप्रोष्टापदा। तदनन्तरमेकमहोरात्रमुत्तराप्रोष्ठपदा। एवमेनं भाद्रपद मासं चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति। (तसि च णमित्यादि) तस्मिश्व ' णं ' इति वाक्यालङ्कारे / मासे भाद्रपदे अष्टाङ्गुलपौरुष्या अष्टाडुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्यो अनुप्रतिदिवस परावर्त्तते। अत्राप्यय भावार्थ:-भाद्रपदे मासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसंक्रान्त्या तया कथमपि परावर्तते, यथा तस्य भाद्रपदस्य मासस्यान्ते अष्टाङ्गुलिका पौरुषी भवति / एतदेवाऽऽह-(तस्स णमित्यादि) सुगमम्। एवं शेषमासगतान्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं (लेहट्ठाणि तिपदाइं ति) रेखा पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा, तत्स्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति। किमुक्तं भवति ?-परिपूर्णानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति / एषा चतुरङ्गुला प्रतिमासं वृद्धिस्तावदवसेया यावत्पौषमासः, तदनन्तरं प्रतिमासं चतुरडला हानिर्वक्तव्या / सा च तावद् यावदाषाढो मासः / तेनाऽऽषाढपर्यन्ते द्विपदा पौरुषी भवति / इदं च पौरुषीपरिमाणं व्यवहारत उक्त, निश्चयतः सार्द्धरिंशता अहोरात्रैश्चतुरङ्खला वृद्धिर्हानिर्वा वेदितव्या। तथा च निश्चयतः पौरुषीपरिमाणप्रतिपादनार्थमिमाः पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शिताः सव्याख्याः करणगाथाः"पव्वे पन्नरसगुणे, तिहिसहिए पोरिसीऍ आणयणे। छलसीइसयविभत्ते, जं लद्धं तं वियाणाहि" // 1 // व्याख्या-युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथौ पौरुषीपरिमाणं | ज्ञातुमिष्यते, ततः पूर्वयुगाऽऽदित आरभ्य यानि पर्वाण्यतिक्रान्तानि, तानि घ्रियन्ते, धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, गुणयित्वा च विवक्षितायास्तिथेः प्रागतिक्रान्तास्तिथयः, ताभिः सहितानि क्रियन्ते, कृत्वा च षडशीत्यधिकेन शतेन तेषां भागो हियते / इह एकस्मिन्नयने त्र्यशीत्यधिकमण्डलशतपरिमाणे चन्द्रनिष्पादिताना तिथीनां षडशीत्यधिकं शतं भवति, ततस्तेन भागहरणं, भागे च हृते यल्लब्ध तद्विजानीहि, सम्यगवधारयेत्यर्थः // 1 // "जइ होइ विसम लद्ध, दक्खिणमयणं हविज नायव्वं / अह हवइ सम लद्धं, नायव्वं उत्तर अयणं " // 2 // तत्र यदिलब्धं विषम भवति, यथा-एकरित्रकः, पञ्चकः, सप्तको, नवको वा; तदा तत्पर्यन्तवर्ति दक्षिणमपनं ज्ञातव्यम् / अथ भवति लब्धं समम्। तद्यथा-द्विकश्चतुष्कः, षट्कोऽष्टको, दशको वा। तदा तत्पर्यन्तवर्त्ति / उत्तरायणमवसेयम। तदेवमुक्तो दक्षिणायनोत्तरायणपरिज्ञानोपायः // 2 // सम्प्रति षडशीत्यधिकेन शतेन भागे हृते यच्छेषमवतिष्ठते, यदि वा भागासंभवेन यच्छेषं तिष्ठति, तद्गतविधिमाह"अयणगए तिहिरासी, चउगुणे पव्वपायभइयव्वं / जं लद्धमगुलाणि य, खयवुड्डी पोरिसीए उ''॥३॥ 'अयणगए' इत्यादि / यः पूर्व भागे हते, भागासंभवे वा शेषीभूतोऽयनगतस्तिथिराशिर्वर्तते, स चतुर्भिर्गुण्यते, गुणयित्वा च पर्वपादनयुगमध्ये यानि सर्वसंख्यया पर्वाणि चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यानि, तेषां पादेन चतुर्थनांशेन, एकत्रिंशता इत्यर्थः / तथा भागे हृते यल्लब्धं, तान्यकुलानि, चकारादगुलाशाश्च पौरुष्याः क्षयवृद्ध्योतिव्यानि / दक्षिणायने पदधुवराशेरुपरि वृद्धौ ज्ञातव्यानि; उत्तरायणे पदध्रुवराशेः क्षये ज्ञातव्यानीत्यर्थः / / अथैवंभूतस्य गुणकारस्य भागहारस्य वा कथमुपपत्तिः? उच्यते-यदिषडशीत्यधिकेन तिथिशतेन चतुर्विंशतिरङ्गुलानि क्षये वृद्धौ वा प्राप्यन्ते, तत एकस्यां तिथौ का वृद्धिः, क्षयो वा ? राशित्रयस्थापना-१८६।२४।१।तत्रान्त्येन राशिना एकलक्षणेन मध्यमो राशिश्चतुर्विशतिरूपोगुण्यते, जातः स तावानेव, एकेन गुणित तदेव भवति इति वचनात्। तत आद्येन राशिना षडशीत्यधिकशतरूपेण भागो हियते तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते, ततः छेद्यच्छेदकराश्योः षट्केनापवर्तना, जात उपरितनो राशिश्चतुष्करूपोऽधस्तनः एकत्रिंशत , लब्धमेकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशद्भागाः क्षये वृद्धौ चेति चतुष्को गुणकार उक्त एकत्रिंशद्भागहार इति॥३॥ इह यल्लब्ध तान्यमुलानि क्षये वृद्धौ वा ज्ञातव्यानीत्युक्तं तत्र कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणधुवराशेरुपरि वृद्धो, कस्मिन् वा अयने किं प्रमाणधुवराशेः क्षये ? इत्येतन्निरूपणार्थमाह-- " दक्खिणे वुड्डी दुपया-उ अंगुलाणं तु होइ नायव्वा / उत्तरअयणे हाणी, कायव्वा चउहिँ पायाहिं " / / 4 // " दक्खिणे वुड्डी " इत्यादि / दक्षिणायने द्विपदात् पदद्वयस्योपरि अद्भुलाना वृद्धिातव्या, उत्तरायणे चतुर्व्यः पादेभ्यः सकाशादड्डुलाना हानिः॥ 4 // तत्र युगमध्ये प्रथमे संवत्सरे दक्षिणायने यतो दिवसादारभ्य वृद्धिः, तन्निरूपयति" सावणबहुलपडिवए, दुपया पुण पोरिसी धुवा होइ। चत्तारि अंगुलाई, मासेणं वड्डए तत्तो॥ 5 // इकत्तीसइ भागा, तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि। दक्खिणअयणे वुड्डी, जाव उ चत्तारि उपयाई" // 6 // "सावण " इत्यादिगाथाद्वयम्। युगस्य प्रथमे संवत्सरे श्रावणे मासि बहुलपक्षे प्रतिपदिपौरुषी द्विपदा पदद्वयप्रमाणा ध्रुवा भवति, ततस्तस्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथिक्रमेण तावद्वर्धत यावन्मासेन सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन चन्द्रमासापेक्षयकत्रिंशत्तिथिमिरित्यर्थः / चत्वारि अङ्गुलानिवर्धन्ते। 5 / कथमेतदवसीयते, यथा मासेन सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणे नै कत्रिंशतिथ्यात्मकेनेति ? अत आह("इकत्तीस '' इत्यादि) यत एकस्या तिथौ चत्वार एकत्रिंशद्भागा वर्द्धन्ते, एतच प्रागेव भावितम्। परिपूर्णे तु दक्षिणायने वृद्धिः। परिपूर्णानि चत्वारि पदानि / ततो मासेन सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेनैकत्रिंशत्तिथ्यात्मकेनेत्युक्तम् / तदेवमुक्ता वृद्धिः / / 6 / /
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________________ णक्खत्त 1774 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त - संप्रति हानिमाह"उत्तरअयणे हाणी, चउहिं पायाहिंजाव दो पाया। एवं तु पोरिसीए, वुट्टिखया हुति नायव्वा " / / 7 // " उत्तर " इत्यादि। युगस्य प्रथमे संवत्सरे माघमासे बहुलपक्षे सप्तम्या / आरभ्य चतुर्व्यः पादेभ्यः सकाशात्प्रतितिथ्येकत्रिंशद्भागचतुष्टयहानिस्तावदवसेया, यावदुत्तरायणपर्यन्तेद्वी पादौ पौरुषीति। एष प्रथमसंवत्सरगतो विधिः / द्वितीये संवत्सरे श्रावणमासि बहुलपक्षे त्रयोदशीमादी कृत्वा वृद्धिः / माघमासे शुक्लपक्षे चतुर्थीमादिं कृत्वा क्षयः / तृतीये संवत्सरे श्रावणमासे शुक्लपक्षे दशमी वृद्धेरादिः। माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपत् | क्षयस्याऽऽदिः / चतुर्थे संवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तमी वृद्धेरादिः।। माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदशी क्षयस्याऽऽदिः पञ्चमे संवत्सरे श्रावणमासे शुक्लपक्षे दशमी वृद्धरादिः। माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपत क्षयस्याऽऽदिः / चतुर्थे संवत्सरे श्रावणे चतुर्थी वृद्धेरादिः / माघमासे शुक्लपक्षे दशमी क्षयस्याऽऽदिः / एतच करणगाथाऽनुपात्तमपि पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शितव्याख्यानादवसितम्। संप्रत्युपसंहारमाह-' एवं तु "इत्यादि। एवमुक्तेन प्रकारेण पौरुष्यां पौरुषीविषये वृद्धिक्षपौ यथाक्रमं दक्षिणायनेषूत्तरायणेषु वेदितव्यौ / तदेवमक्षरार्थमधिकृत्य व्याख्याता करणगाथा / / 7 / / संप्रत्यस्य करणस्य भावना क्रियतेकोऽपि पृच्छतियुग आदित आरभ्य पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति ? तत्र चतुरशीतिर्धियते, तस्याश्चाधस्तात्पञ्चम्यां तिथौ पृष्टमिति / पञ्च चतुरशीतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि द्वादश शतानि षष्ट्यधिकानि 1260 / एतेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते,जातानिद्वादश शतानि पशषष्ट्यधिकानि 1265 / तेषां षडशीन्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धाः षट्, आगतं षट् अयनान्यतिक्रान्तानि, सप्तममयनं वर्तते। लदगतं चशेषमेकोनप-चाशदधिकशतं तिष्ठति 146 / ततश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातनि पञ्चशतानि षण्णवत्यधिकानि 566 / तेषामेकत्रिंशता भागहरणे लब्धा एकोनविंशतिः / शेषास्तिष्ठन्ति सप्त / तत्र द्वादशाङ्गुलानि पाद इत्येकोनविंशतेदशभिः पदं लब्धम्। शेषाणि तिष्ठन्ति सप्त अङ्गुलानि, षष्ठ चायनमुत्तरायण, तद्गतं सप्तमं तु दक्षिणायनं वर्तते / ततः पदमेकं, सप्ताङ्गुलानि पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि पदानि सप्ताङलानि। ये च सप्त एकत्रिंशद्भागाः शेषीभूता वर्तन्ते, तान् यवान कुर्मः / तत्राष्टौ यवा अडले इतिते सप्त अष्टभिर्गुण्यन्ते, जाताः षट्पञ्चाशत 56 / तस्या एकत्रिंशता भागे हृते लब्ध एको यवः। शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः। आगतं पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां त्रीणि पदानि, सप्ताङ्गुलानि, एको यवः, एकस्य च यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः। इत्येतावती पौरुषीति तथाऽपरः कोऽपि पृच्छतिसप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति ? तत्र षण्णबतिर्धियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्च षण्णवतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि चतुर्दशशतानि चत्वारिंशदधिकानि 1440 / तेषां मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते / जातानि चतुर्दशशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि 1445 / तेषां षडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त अयनानि। शेष तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिक शतम् 143 / तचतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि द्विसप्तत्यधिकानि 572 / तेषामेकत्रिंशता भागो ह्रियते, लब्धान्यष्टादश अङ्गुलानि 18 / तेषां मध्ये द्वादशभिरनुलैः पदमिति लब्धमेकं षडडलानि, उपरि चाशा उदरन्ति चतुर्दश, ते यवाऽऽनयनार्थमष्टभिर्गुण्यन्ते, जातं द्वादशोत्तरं शतम् 112 // तस्यैकत्रिंशता भागे हृते लब्धास्त्रयो यवाः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्यैकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, सप्त चायनान्यतिक्रान्तानि / अष्टमं वर्तते, अष्टमं चायनमुत्तरायणम् , उत्तरायणे च पदचतुष्टयरूपात् ध्रवराशेहानिर्वक्तव्या, तत एक पद सप्ताङ्गलानि, त्रयो यवाः, एकस्य च यवस्यैकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इति पदचतुष्टयात् पात्यते, शेष तिष्ठतिद्वेपदे चत्वारि चाडलानि, चत्वारो यवाः, एकस्य च यवस्य द्वादश एकत्रिंशद्भागाः। एतावती युगे आदित आरभ्य सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तियौ पौरुषीति / एवं सर्वत्र भावनीयम्। संप्रति पौरुषीपरिमाणतोऽयनगतपरिमाणज्ञापनार्थमियं करण-गाथा"वुड्डी वा हाणी वा, जावइया पोरिसीऍ दिवाओ। तत्तो दिवसगएणं, जं लद्धं तं खु अयणगयं / / 8 / / " "वुड्डी वा " इत्यादि। पौरुष्यां यावतीवृद्धिानिर्वा दृष्टा, ततः सकाशाद् दिवसगतेन प्रवर्तमानेन वा त्रैराशिककर्मानुसारतो यल्लब्ध, तदयनगतमयनस्य तावत्प्रमाणं गतं वेदितव्यम्। एष करणगाथाऽक्षरार्थः / / 8|| भावना त्वियम्-तत्र दक्षिणायने पदद्वयस्योपरि चत्वारयकुलानि वृद्धी दृष्टानि / ततः कोऽपि पृच्छतिकियद् गतं दक्षिणायनस्य ? अत्र त्रैराशिककर्मावतारः; यदि चतुर्भिरडलस्यैकत्रिंशद्भागैरेका तिथिलभ्यते, ततश्चतुर्भिरङ्गुलैः कति तिथीर्लभामहे ? राशित्रयस्थापना-४। 1 / 4 / अत्रान्त्यो राशिरगुलरूप एकत्रिंशद्भागकरणार्थमकत्रिंशता गुण्यते, जातं चतुर्विशत्यधिक शतम् 124 / तेन मध्यो राशिगुण्यते, जातं तदेव चतुर्विशत्यधिकंशतम् 124. 'एकेन गुणितं तदेव भवति' इति वचनात् / तस्य चतुष्करूपेणाऽऽदिराशिना भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशत्तिथयः / आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ चतुरङ्गुला पौरुष्यां वृद्धिरिति / तथा उत्तरायणे पदचतुष्टयादडलाष्टकं हीन पौरुष्यामुपलभ्य कोऽपि पृच्छतिकियद् गतमुत्तरायणस्य ? अत्रापि त्रैराशिकम् / यदि चतुर्भिरङ्गुलस्यैकत्रिंशद्भागैरेका तिथिर्लभ्यते, ततोऽष्टभिरङ्कुलैहीनेः कति तिथयो लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-४।१ / 8 / अत्रान्त्यो राशिरेकत्रिंशद्भागकरणार्थभकत्रिंशता गुण्यते, जाते द्वे शतेऽष्टाचत्वारिंशदधिके 248 / ताभ्यां मध्यो राशिरेकरूपो गुण्यते, जाते ते एव द्वे शते अष्टाचत्वारिशदधिके 246 / तयोराद्येन राशिना चतुष्करूपेण भागहरणम् , लब्धा द्वाषष्टिः 62 / आगतमुत्तरायणे द्वाषष्टितमायां तिथावष्टावगुलानि पौरुष्या हीनानीति। " तसि च ण मासंसि वट्टाए" इत्यदि। तस्मिन्नाषाढे मासे प्रकाश्यस्य वस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया, समचतुरस्रसंस्थानसं स्थितस्य च समचतुरस्त्र संस्थानसं स्थितया, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानस्य न्यग्रोधपरिमण्डलया / उपलक्षणमेतत्-शेषसंस्थानसस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शेषसंस्थितया। आषाढ़े हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति / निश्चयतः पुनराषाढमासस्य चरममण्डले, तत्रापि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये / ततो यत्प्रकाश्य वस्तु यत्संस्थानं भवति, तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते। तत उ
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________________ णक्खत्त 1775 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त क्तं वृत्तस्य वृत्तया इत्यादि। एतदेवाऽऽह-स्वकायमनुरङ्गिण्या-स्व-स्य स्वकीयस्य छायानिबन्धनस्य वस्तुनः कायः शरीरं स्वकायः, तमनुरज्यते अनुकारं विदधातीत्येवंशीला स्वकायानुरङ्गिणी।" संपृचानुरुधाड्यमाड्यसपरिससंसृजपरिदेवि संज्वरपरिक्षिपपरिरटपरिवदपरिदहपरिमुहदुषद्विषटुह०-" // 3 / 2 / 142 // (पाणि०) इत्यादिना घिनुण प्रत्ययः / तया स्वकायमनुरङ्गिण्या छायया सूर्योऽनु प्रतिदिवस परावर्तते। एतदुक्तं भवति-आषाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसंक्रान्त्या तथा कथञ्चनापि सूर्यः परावर्तते, यथा सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागऽतिक्रान्ते, शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवतीति। शेषं सुगमम् / सू० प्र० 10 पाहु० 1 पाहु० / (नक्षत्राण्यधिकृत्य चन्द्रमार्गाः ' चंदमग ' शब्दे तृतीयभागे 1085 पृष्ठे उक्ताः) (16) नक्षत्राणां देवताःता कहं ते देवताणं अज्झयणा आहिता ति वदेजा ? ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किंदेवताएपण्णत्ते ? ता बंभदेवताए पण्णत्ते / सवणे णक्खत्ते किंदेवताए पण्णत्ते ? ता विण्हुदेवताएपण्णत्ते। धणिट्ठा णक्खत्ते किंदेवताएपण्णत्ते ? ता वसुदेवताए पण्णत्ते / सयभिसया णक्खत्ते किंदेवताए पण्णत्ते ? ता वरुणदेवताए पण्णत्ते / पुव्वापोट्ठवया णक्खत्ते किंदेवताए पण्णत्ते ? अजदेवताए पण्णत्ते / उत्तरा-पोट्ठवया णक्खत्ते किंदेवताए पण्णत्ते ? ता अहिवड्डिदेवताए पण्णत्ते / एवं सव्वे वि पुच्छिजंति / रेवती पुस्सदेवयाए, अस्सि-णी अस्सदेवयाए, भरणीजमदेवयाए, कत्तिया अग्गिदेवयाए, रोहिणी पयावइदेवयाए, संठाणा सोमदेवयाए, अद्दारुद्ददेवयाए, पुणव्वसू अदितिदेवयाए, पुस्सो वहस्सइदेवयाए, अस्सेसा सप्पदेवयाए, महा पितिदेवयाए, पुव्वाफग्गुणी भगदेवयाए, उत्तराफग्गुणी अज्जमदेवयाए, हत्थे सवितिदेवयाए, चित्ता तट्ठदेवयाए, साती वाउदेवयाए, विसाहा इंदग्गिदेवयाए, अणुराधा मित्तदेवयाए, जेट्ठा इंददेवयाए, मूले णिरितिदेवयाए, पुव्वासाढा आउदेवयाए, उत्तरासाढा विस्सदेवयाएपण्णत्ता।। " ता कह ते देवताणं " इत्यादि।' ता ' इति / पूर्ववत् / कभं केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया नक्षत्राधिपतीनां देवतानामध्ययनानि, अधीयन्ते ज्ञायन्ते यैस्तान्यध्ययनानि, नामानीत्यर्थः / आख्यातानीति वदेत ? एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-" ता एएसि णं " इत्यादि / ' ता इति पूर्ववत् / एतेषामन्तरोदितानामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्येऽभिजिन्नक्षत्र किंदेवताक किनामधेयदेवताकं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-' ता ' इति प्राग्वत् / ब्रह्मदेवताकं ब्रह्माभिधदेवताकं प्रज्ञप्तम्। श्रवणनक्षत्रं किदेवताक प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-'ता' इत्यादि। विष्णुदेवताकं विष्णुनामदेवताकं प्रज्ञप्तम् / एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि। देवताऽभिधानसंग्राहिकाश्चमास्तिरत्रः प्रवचनप्र सिद्धाः संग्रहणिगाथा:" बम्हा विण्हू य क्सू, वरुणो सह अजो अणंतरं होइ। अभिवड्डि पूस गंध-व्व चेव परतो जमो होइ।।१।। अग्गि पयावइ सोमे, रुद्दे अदिई बहस्सई चेव। नागे पिइ भग अज्जम, सविया तट्ठा य वाऊय।।२।। इंदगी मित्तो वि य, इंदे निरई य आउ विस्सो अ। नामाणि देवयाण, हवति रिक्खाण जहकमसो॥३॥" जं०७ वक्ष० / सू०प्र० 10 पाहु० 14 पाहु० / (20) नक्षत्राणां गोत्राणिता कहं ते गोत्ता आहिता ति वदेजा? ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? ता मोग्गलायणसगोत्ते पण्णत्ते / सवणे णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? संखायणसगोत्ते पण्णत्ते / धणिट्ठा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? अग्गतावसगोत्ते पण्णत्ते / सतभिसया णक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते ? कण्णियणसगोत्ते पण्णत्ते / पुवापोहवता णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? जाउकण्णीयसगोत्ते पण्णत्ते / उत्तरापोट्ठवता णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते? धणंजयसगोत्ते पण्णत्ते / रेवतीणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते? पुस्सायणसगोत्ते पण्णत्ते / अस्सिणीणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? अस्सायणसगोत्ते पण्णत्ते / भरणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? भग्गवेससगोत्ते पण्णत्ते ? कत्तिया णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? अग्गिवेससगोत्ते पण्णत्ते? रोहिणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? गोतमसगोत्ते पण्णत्ते / संठाणा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? भारद्दायसगोत्ते पण्णत्ते / अद्दा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? लोहिचायणसगोत्ते पण्णत्ते / पुणव्वसूणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? वासिट्ठसगोत्ते पण्णत्ते / पुस्से णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? ओमजायणसगोत्ते पण्णत्ते / अस्सेसा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? मंडव्वायणसगोत्ते पण्णत्ते / महा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? पिंगायणसगोत्ते पण्णत्ते ? पुटवा-फग्गुणी णक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते ? गोवल्लायणसगोत्ते पण्णत्ते / उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? कासवगोत्ते पण्णत्ते / हत्थे णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते? कोसियगोत्ते पण्णत्ते। चित्ता णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? दब्भायणसगोत्ते पण्णत्ते / साई णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? चामरत्थगोते पण्णत्ते / विसाहा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? सुंगायणसगोत्ते पण्णत्ते / अणुराधा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते? गोलव्वायणसगोत्ते पण्णत्ते। जेट्ठा णक्खत्ते किंगोत्तेपण्णते?
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________________ णक्खत्त 1776 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्त तिगिच्छायणसगोत्ते पण्णत्ते / मूले णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? | कच्चायणसगोत्ते पण्णत्ते / पुव्वासाढाणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? वडिभयायणसगोत्ते पण्णत्ते / उत्तरासाढा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ?वग्धावच्चसगोत्ते पण्णत्ते। इह नक्षत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसंभवः, यत इदं गोत्रस्य स्वरूप लोके प्रसिद्धिमुपागमत्-प्रकाशकाऽऽद्यपुरुषाभिधानस्तदपत्यसन्तानो / गर्गाभिधानो गोत्रमिति / न चैवस्वरूपं नक्षत्राणां गोत्रं संभवति, तेषामोपपातिकत्वात् / तत इत्थं गोत्रसंभवो द्रष्टव्यः-यस्मिन्नक्षत्रे शुभैरशुभैर्वा ग्रहै: समानं यस्य गोत्रस्य यथाक्रमं शुभमशुभं वा भवति, तत्तस्य गोत्रम् , ततः प्रश्नोपपत्तिः।' ता ' इति पूर्ववत् / कथं त्वया नक्षत्राणां गोत्राणि आख्यातानीति वदेत् ? भगवानाह-"ता एएसिणं'' इत्यादि।'ता' इति पूर्ववत्। एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्येऽभिजिन्नक्षत्रं ! मौद्गलायनसगोत्र मौद्गलायनेन सहगोत्रण वर्तते. यत्तत्तथा। श्रवणनक्षत्रं सङ्ग्यायनसगोत्रम् / एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि। क्रमेण गोत्रसंग्राहिकाश्चेमा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्काश्चतस्रः संग्रहणिगाथा:" मोग्गल्लायण संखा-यणे य तह अग्गताव कण्णिपणे। तत्तोय जाउकण्णे, धणंजए चेव बोधव्वे॥१॥ पुस्सायणें अस्साय-णे, य भग्गवेसे य अग्गिवेसे य। गोयम भारवाए, लोहिचे चेव वासिट्ठ॥ 2 // ओमजायणे मंड-ब्वायण पिंगायणे य गोवल्ले। कासव कोसिय दब्भा-यण चामरत्था य सुंगा य / / 3 / / गोलव्वायण तिगिछा-यणे य कच्चायणे हवइ मूले। तत्तो य वब्भियायणे, वग्घावचे य गोत्ताई।। 4 / / " (ज० वक्ष०) सू० प्र०१० पाहु०१६ पाहु० / चं० प्र०। (21) संप्रति भोजनानि वक्तव्यानि, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहता कहं ते भोयणा आहिता ति वदेजा? ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कत्तियाहिं दधिणा भोचा कज्जं साधेति ? रोहिणीहिं वसभमंसं भोजा कजं साहेति। संठाणाहिं मिगमंसं भोच्चा कजं साहेति ! अद्दाहिं णवणीतेण भोचा कजं साहेति।। पुणव्वसुणा घतेणं भोचा कजं साधेति / पुस्सेणं खीरेणं भोचा कजं साधेति। अस्सेसाहिं दीवगमंसं भोचा कजं साधेति। महा- | हिं कसोर भोचा कजं साधेति / पुव्वाफुग्गणीहिं मेढगमसं भोचा कजं साधेति। उत्तराहिं फग्गुणीहिं णरयीमंसं भोचा कजं साधेति। हत्थेणं वच्छाणीयपण्णेणं भोचा कजं साधेति / चित्ताहिं मुग्गसूवेणं भोचा कजं साधेति / सादिणा फलाई भोचा कझं साधेति / विसाहाहिं आसित्तिआ भोचा कजं साधेति। अणुराहाहिं मासाकूरं भोचा कजं साधेति / जेट्ठाहिं कोलट्ठिएणं भोचा कजं साधेति / मूलेण मूलगसागेणं भोच्चा कजं साधेति। पुच्वाहिं आसाढाहिं आमलगसारिएण भोचा कजं साधेति / उत्तराहिं आसाढाहिं विल्लेहिं भोचा कजं साधेति / अभिइणा पुप्फेहिं भोचा कजं साधेति / सवणेणं खीरेणं भोचा कलं साधेति / धणिवाहिं जूसेणं भोचा कज्जं साधेति / सयभिसयाए तुवरीओ भोचा कर्ज साधेति। पुव्वाहिं पोट्ठवयाहिं कारिल्लएहिं भोचा कजं साधेति। उत्तराहिं पोट्टवताहिं वराहमंसं भोचा कर्ज साधेति। रेवतीहिं जलयरमंसंभोचा कजं साधेति। अस्सिणीहिं तित्ति-रमंसं भोचा कझं साधेति। भरणीहिं तिलतंदुलकं भोजा कजं साधेति। ता कहं ते भोयणा इत्यादि।' ता इति पूर्ववत् / कथ केन प्रकारेण नक्षत्रविषयाणि भोजनानि आख्यातानीति वदेत् ? भगवानाह-" ता एएसिणं'' इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् / एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविशतेनक्षत्राणां मध्ये कृत्तिकाभिः पुमान कार्य साधयति दना संमिश्रमोदनं भुक्त्वा / किमुक्तं भवति ?कृत्तिकासु प्रारब्धं कार्य दध्नि भुक्ते प्रायो निर्विघ्न सिद्धिमासादयतीति भावः / एवं शेषेष्वपि सूत्रेषु भावना द्रष्टव्या। सू० प्र०१० पाहु०१७ पाहु / चं० प्र०। (22) किं नक्षत्रं किं द्वारिकम्ता कहं ते जोतिसस्स दारा आहिता ति वदेजा ? तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ / तत्थेगे एवमाहंसु-ता कत्तियादिया सत्तणक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमा-हंसु / 11 एगे पुण एवमाहंसु-ता अणुराहादिया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु।२। एगे पुण एवमाहंसु-ता धणिहादिया सत्तणक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। 3 / एगे पुण एवमाहंसु-अस्सिणीयादिया सत्त णक्खत्ता पुच्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / 4 / एगे पुण एवमाहंसुता भरणियादिया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता। 5 // तत्थ जे ते एवमाहंसुता कत्तियादिया सत्तणक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसुतं जहा-कत्तिया, रोहिणी, संठाणा, अद्या, पुणव्वसू, पुस्सो, अस्सेसा / महादिया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता। तं जहा-महा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साई, विसाहा / अणुराधादिया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता / तं जहा-अणुराधा, जेट्ठा, मूले, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा, अभिई,सवणो। धणि-ट्ठादिया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता। तंजहा-धणिट्ठा, सतभिसया, पुव्वापोट्ठवता, उत्तरापोट्ठवता, रेवती, अस्सिणी, भरणी। तत्थजे ते एवमाहंसुता महादिया सत्तणक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसुतं जहापुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साती, विसाहा। अणुराधादिया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता /
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________________ णक्खत्त 1777- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त तं जहा-अणुराधा, जेट्ठा, मूले, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा, जहा-अस्सिणी, भरणी, कत्तिया, रोहिणी, संठाणा, अद्दा, अभिई, सवणो / धणिट्ठाऽऽदिया सत्तणक्खत्ता पच्छिमदारि-या | पुणव्वसू / पुस्साऽऽदिया सत्तणक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता। पण्णत्ता / तं जहा-धणिट्ठा, सतभिसया, पुवापोहवता, पुस्से, अस्सेसा, महा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, उत्तरापोट्ठवता, रवेती, अस्सिणी, भरणी। कत्तियाऽऽदिया सत्त चित्ता। सातीआदिया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता / तं णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता / तं जहा-कत्तिया, रोहि-णी, जहा-साती, विसाहा, अणुराहा, जेट्ठा, मूले, पुव्वासाढा, संठाणा, अद्दा, पुणव्वसू , पुस्सो, अस्सेसा / तत्थ जे ते उत्तरासाढा॥ एवमाहंसु-ता धणिट्ठाऽऽदिया सत्त णक्खत्ता पुटवदारिया प " ता कहं ते जोइसदारा' इत्यादि। ' ता ' इति पूर्ववत् / कथं केन ण्णत्ता, ते एवमाहंसु-तं जहा-धणिट्ठा, सतभिसया, पुव्वा- प्रकारेण, केन क्रमेणेत्यर्थः ? ज्योतिषो नक्षत्रचक्रस्य, द्वाराणि भदवया, उत्तरामद्दवया, रेवती, अस्सिणी, भरणी। कत्तिया आख्यातानीति वदेत् ? एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः परतीथिकानां ऽऽदिया सत्तणक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता। तं जहा-क-त्तिया, प्रतिपत्तयः, तावतीरुपदर्शयति-(तत्थेत्यादि) तत्र द्वारविचारविषये रोहिणी, संठाणा, अद्दा, पुणव्वसू , अस्सेसा / महाऽऽ-दिया खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः। ता सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता / तं जहा-महा, एव क्रमेणाऽऽह-" तत्थेगे"इत्यादि।तत्र तेषां पञ्चानां परतीर्थिकसंघापुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साती, विसाहा / ताना मध्ये एके एवमाहुः-कृत्तिकाऽऽदीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि अणुराधाऽऽदिया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता। तं जहा प्रज्ञप्तानि। इह येषु नक्षत्रेषु पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्रायः शुभमुपजायते, अणुराधा, जेट्ठा, मूले, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा, अभिई, सवणो / तानि पूर्वद्वारकाणि / एवं दक्षिणद्वारकाऽऽदीन्यपि वक्ष्यमाणानि तत्थ जे ते एवमाहंसुता अस्सिणीआदिया सत्त ण-क्खत्ता भावनीयानि। अत्रैवोपसहारमाह-" एगे एवमाहसु"। एके पुनरेवमाहुःपुव्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसुतं जहा-अस्सिणी, भरणी, अनुराधाऽऽदीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि। अत्राप्युपसंहाकत्तिया, रोहिणी, संठाणा, अद्दा, पुणव्वसू / पुस्साऽऽदिया सत्त रमाह-" एगे एवमासु / एवं शेषाण्युपसंहारवाक्यानि योजनीयानि। णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता / तं जहा-पुस्सा, अस्सेसा, एके पुनरेवमाहुः-धनिष्ठाऽऽदीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि / एके महा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता। सातीआदिया पुनरेवमाहुः-अश्विन्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि। एके सत्तणक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता / तं जहा-साती, विसाहा, पुनरेवमाहुः-भरण्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि / संप्रत्येतेषामेव अणुराहा, जेट्ठा, मूलो, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा / अभिईआदिया पञ्चानामपि मतानां भावनिकामाह-" तत्थ जे ते एवमा-हंसु " इत्यादि सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता / तं जहा-अभिई, सवणो, सुगमम् / भगवान स्वमतमाह-" वयं पुण" इत्यादि पाठसिद्धम् / सू० धणिट्ठा, सतभिसया, पुव्वाभदवया, उत्तराभद्दवया, रेवती। तत्थ प्र०१० पाहु० 21 पाहु०। जे ते एवमाहंसुता भरणीआदिया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया (23) नक्षत्रविचयःपण्णत्ता, ते एवमाहंसुतंजहा-भरणी, कत्तिया, रोहिणी, संठाणा, ता कहं ते णक्खत्तविचए आहिते ति वदेजा ? ता अयं णं अदा, पुणव्वसू , पुस्सो / अस्सेसाऽऽदिया सत्त णक्खत्ता जंबुद्दीवे दीवे० जाव परिक्खेवेणं / ता जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा दाहिणदारिया पण्णत्ता / तं जहा-अस्सेसा, महा, पुवाफग्गुणी, पभासेंसुवा, पभासेंति वा, पभासिस्संति वा / दो सरिया तविसुं उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साई। विसाहाऽऽदिया सत्तणक्खत्ता वा, तवेंति वा, तविस्संति वा / छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोएंसु पच्छिमदारिया पण्णत्ता / तं जहा-विसाहा, अणुराहा, जेट्ठा, वा, जोयंति वा, जोइस्संति वा। तं जहा-दो अभिई, दो सवणा, मूलो, पुव्वासाढा, उत्तरसाढा, अभिई / सवणाऽऽदिया सत्त दो धणिट्ठा, दो सतभिसया, दो पुव्यापोट्ठवया, दो उत्तरापोट्ठणक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता / तं जहा-सवणो, धणिट्ठा, वया, दो रेवती, दो अस्सिणी, दो भरणी, दो कत्तिया, दो रोहिसतभिसया, पुव्वापोट्टवया, उत्तरापोट्ठवया, रेवती, अस्सिणी। णी, दो संठाणा, दो अद्दा, दो पुणव्वसू, दो पुस्सा, दो अस्सेएते एवमा-हंसु / वयं पुण एवं वदामोता अभिईआदिया सत्त | सा, दो महा, दो पुव्वाफग्गुणी, दो उत्तराफग्गुणी, दो हत्था, दो णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता / तं जहा-अभिई, सवणो, चित्ता, दो साई, दो विसाहा, दो अणुराधा, दो जेट्ठा, दो मूला, धणिट्ठा, सतभिसया, पुव्वापोट्ठवया, उत्तरापोट्टवया, रेवती। दो पुवासाढा, दो उत्तरासाढा / ता एएसि ण छप्पण्णाए अस्सिणी-आदिया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता / तं | णक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ता, जे णं णव मुहुत्ते, सत्तावीसं
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________________ णक्खत्त 1778 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति / अत्थि णक्खत्ता, जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति। अस्थि णक्खत्ता, जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति / अस्थि णक्खत्ता, जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति। ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खत्ते, जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति? कतरे णक्खत्ता, जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति? कतरे णक्खत्ता, जेणं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति? कतरे णक्खत्ता, जेणं पणतालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति? ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेणं मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति / ते णं दो अभिई। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति / ते णं बारस / तं जहा-दो सतभिसया, दो भरणी, दो अद्दा, दो अस्सेसा, दो साती, दो जेट्ठा। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेणं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयंजोएंति। ते णं तीसं / तं जहा-दो सवणा, दो धणिट्ठा, दो पुध्वाभद्दवया, दो रेवती, दो अस्सिणी, दो कत्तिया, दो संठाणा, दो पुस्सा, दो महा, दो पुत्वाफग्गुणी, दो हत्था, दो चित्ता, दो अणुराधा, दो मूला, दो पुवासाढा / तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जो-एंति। ते णं बारस / तं जहा-दो उत्तरापोट्ठवया, दो रोहिणी, दो पुणव्वसू, दो उत्तराफग्गुणी, दो विसाहा, दो उत्तरासाढा / / ता एतेसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ता, जे णं चत्तारि अहोरते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। अत्थि णक्खत्ता, जे ण छ अहोरत्ते एकवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। अस्थि णक्खत्ता, जे णं तेरस अहोरत्ते बारस मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति / अस्थि णक्खत्ता, जे णं बीसं अहोरत्ते तिन्नि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। ता एतेसिणं छप्पण्णाएणक्खताणं कयरे णक्खत्ता, जेणं तं चेव उचारे पव्वं ? ता एतेसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। ते णं दो अभिई। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं छ अहोरत्ते एकवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति। ते णं बारसा तं जहा-दो सतभिसया, दो भरणी, दो अद्दा, दो अस्सेसा, दो साती, दो जेट्ठा। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तेरस अहोरत्ते बारस मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति / ते णं तीसं / तं जहा-दो सवणा० जाव दो पुव्वासाढा। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेणं बीसं अहोरत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति / ते णं बारसा तं जहा-दो उत्तरापो 8वया० जाव दो उत्तरासाढा। " ता कहं ते " इत्यादि / ' ता ' इति पूर्ववत् / कथं केन प्रकारेण (णक्खत्तविचए त्ति) विपूर्वश्चिञ् स्वभावात् स्वरूपनिर्णये वर्तते / तथा चोक्तमन्यत्र-" आप्तवचनं प्रवचनं, ज्ञाता विचयस्तदर्थनिर्णयनम्।" तत्र विचयनं विचयः, नक्षत्राणां विचयो नक्षत्रविषयःनक्षत्राणां स्वरूपनिर्णयः, आख्यात इति वदेत् ? भगवानाह-"ता अयं णं " इत्यादि। इदं जम्बूद्वीपवाक्य पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं कृत्वा परिभावनीयम् / " ताजंबुद्दीवेणं " इत्यादि। तत्र जम्बूद्वीपे, णमिति वाक्यालङ्कारे। द्वीपे द्वौ चन्द्रो प्रभासितवन्तौ, प्रभासेते, प्रभासिष्येते। द्वौ सूर्या तापितवन्तौ, तापयतः, तापयिष्यतः / षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि चन्द्राऽऽदिभिः सह योगमयुञ्जन् , युञ्जन्ति, योक्ष्यन्ति / तत्र तान्येव षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि दर्शयति-(तंजहा) इत्यादि सुगमम्। इह भरतक्षेत्रे प्रतिदिवसमष्टाविंशतिरेव नक्षत्राणि चार चरन्ति। ततः पूर्वमस्य दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीये प्राभृतप्राभृतेऽष्टाविंशतेनक्षत्राणां चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिमाणं चिन्तितम् / संप्रति पुनः सकलमेव जम्बूद्वीपमधिकृत्य नक्षत्राणि चिन्त्यमानानि वर्तन्ते, तानि च सर्वसंख्यया षट्पञ्चाशत् / ततस्तेषां सर्वेषामपि चन्द्रसूर्याभ्यां सह योगमधिकृत्य मुहूर्तपरिमाणं चिचिन्तयिषुरिदमाह-" ता एएसि णं " इत्यादि / एतच प्रागुक्तद्वितीयप्राभृतप्राभृतवत्परिभावनीयम् / तदेवं कालमधिकृत्य चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिभाणं चिन्तितम्। संप्रति क्षेत्रमधिकृत्य तं चिचिन्तयिषुः प्रथमतः सीमावि ष्कम्भविषय प्रश्नसूत्रमाहता कहं ते सीमाविक्खंभो आहिते ति वदेजा? ता एतेसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ता, जेसिणं छसया तीसा सत्तट्ठिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो। अत्थिणक्खत्ता, जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तद्विभागतीसतिभागाणं सीमावि-क्खंभो। अस्थि णक्खत्ता,जेसिणंदो सहस्सा दसुत्तरा सत्त-ट्ठिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो। अत्थि णक्खत्ता, जेसि णं तिण्णि सहस्सा पण्णरसुत्तरा सत्तट्ठिभागतीसविभागाणं सीमाविक्खंभो। ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खत्ता, जेसि णं छसया तीसा० तं चेव उचारेयव्वं ? ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं छसया तीसा सत्तट्ठिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो। तेणं दो अमिई।तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तट्ठिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो। तेणं बारस। तं जहा-दो सतभिसया० जाव दो जेट्ठा। तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसिणं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तट्ठिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो। तेणं तीसं। तंजहा-दो सवणा० जाव दो पुव्वासाढा / तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं ति
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________________ णक्खत्त 1776 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्त णि सहस्सा पण्णरसुत्तरा सत्तट्ठिभागतीसतिभागाणं सीमा- / विक्खंभो / ते णं बारस / तं जहा-दो उत्तरापोट्ठवता० जाव दो उत्तरासाढा। " ता कह ते " इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् / कथं केन प्रकारेण, कियत्या विभागसंख्यया इत्यर्थः / भगवन् ! त्वया सीमाविष्कम्भ आख्यात इति वदेत् ? भगवानाह-" ता एतेसि णं " इत्यादि। इहाष्टाविंशत्या नक्षत्रैः स्वगत्या स्वकालपरिमाणेन क्रमशो यावत् क्षेत्र बुद्ध्या व्याप्यमानं संभाव्यते, तावदेकमर्द्धमण्डलमुपकल्प्यते, एतावत्प्रमाणमेव द्वितीयमर्द्धमण्डलम् , इत्येवंप्रमाणं बुद्धिपरिकल्पितमेकं परिपूर्णमण्डलम् / तस्य मण्डलस्य" मंडलंसयसहस्सेण अट्ठाणउतीए सरहिं छेत्ता इन्चेस णखत्तखेत्तपरिभागे णक्खत्तविच-ए पाहुडे आहिए त्ति बेमि " इति वक्ष्यमाणवचनात् अष्टानवतिशताधिकशतसहस्रविभागैर्विभज्यते / किमेवं संख्यानां भागानां कल्पते निबन्धमिति चेत् ? उच्यते-इह त्रिविधानि नक्षत्राणि / तद्यथासमक्षेत्राणि, अर्द्धक्षेत्राणि, व्यर्धक्षेत्राणि च / तत्र यावत्प्रमाण क्षेत्रमहोरात्रेण गम्यते नक्षत्रैः, तावत्क्षेत्रप्रमाणं चन्द्रेण सह योगमुपयान्ति गच्छन्ति, तानि समक्षेत्राणि / तानि पञ्चदश। तद्यथा-श्रवणो, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरः, पुष्यः, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूलम् , पूर्वाषाढा इति / तथा यानि अहोरात्रप्रमितस्य क्षेत्रस्यार्द्ध च चन्द्रेण सह यो-गमश्नुवते, तान्यर्द्धक्षेत्राणि, तानि च षट् / तद्यथा-शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वातिज्येष्ठे ति / तथा द्वितीयमर्द्ध यस्य तद व्यर्द्ध, सार्द्धमित्यर्थः / व्यर्द्धमर्दाधिक क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं चन्द्रेण योगयोग्यं येषां तानि द्वयर्द्धक्षेत्राणि / तान्यपि षट् / तद्यथा-उत्तराभाद्रपदा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, रोहिणी, पुनर्वसु, विशाखा चेति / तत्र सीमापरिमाणचिन्तायामहोरात्रः सप्तषष्टिभागीक्रियते, इति समक्षेत्राणां क्षेत्र प्रत्येकं सप्तषष्टिभागाः परिकल्प्यन्ते / अर्द्धक्षेत्राणां त्रयस्त्रिशदर्द्ध च व्यर्द्धक्षेत्राणां शतमेकमर्द्ध च अभिजिन्नक्षत्रस्यैकविंशतिसप्तषष्टिभागाः। समक्षेत्राणि च नक्षत्राणि पञ्चदशेति सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जात सहसं पञ्चोत्तरम् 1005 / अर्द्धक्षेत्राणिणमिति। ततः सार्धा त्रयस्त्रिंशत्षभिगुण्यते, जाते द्वे शते एकोत्तरे 201 / व्यर्द्धक्षेत्राण्यपि षट् / ततः शतमेकमर्द्ध चषभिस्ताड्यते, जातानिषट्शतानि व्युत्तराणि 603 / अभिजिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिः, सर्वसंख्यया जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि 1830 / एतावद्भागपरिमाणमेकमर्द्धमण्डलम् , एतावद्भागमेव द्वितीयमिति त्रिंशदधिकान्यष्टादशशतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातानि षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि 3660 / एकैकस्मिन्नहोरात्रे किल त्रिंशन्मुहूर्ता इति प्रत्येकमेतेषु षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतसंख्येषु भागेषु त्रिंशद्भागकल्पनायां त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं शतसहसमष्टानवतिशतानि। १०६८००।तत इत्थं मण्डलस्य भागान् परिकल्प्य भगवान् प्रतिवचनं ददाति-"ता ' इति / तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये, अस्तीति निपातत्वादार्षत्वाद्वा स्तः, ते नक्षत्रे, ययोः प्रत्येकं षट्शतानि त्रिंशानि त्रिंशदधिकानि, सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः सीमापरिमाणम् / तथाऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि, येषां प्रत्येक पश्चोत्तरं सहसं सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः / सन्ति तानि नक्षत्राणि, येषां प्रत्येक द्वे सहस्र दशोत्तरे सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः / सन्ति तानि नक्षत्राणि, येषां प्रत्येकं त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि, सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः / एवं भगवता सामान्येनीक्ते भगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्तं भूयः प्रश्नयति-" ता एतेसि णं " इत्यादि। तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये कतराणि तानि नक्षत्राणि, येषां षट्शतानि त्रिंशानि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः? (तं चेव उच्चारेयव्वं ति) तदेवानन्तरोक्तमुक्तप्रकारेणोचारयितव्यम् / तद्यथा-" कयरे खलु णक्खत्ता, जेसिं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तट्ठिभागतीसइभागाणं सीमाविक्खंभो? कयरेणक्खत्ता, जेसिंदो सहस्सा दसुत्तरा सत्तट्ठिभागतीसइभागाणं सीमाविक्खंभो" इति। चरमं तु सूत्र साक्षादाह-" कयरे णक्खत्ता " इत्यादि। एतानि त्रीणि सूत्राणि सुगमानि? भगवानाह-" ता एतेसिणं " इत्यादि। तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि, येषां षट्शतानि त्रिंशानि सप्तषष्टिभागत्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः / ते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे। कथमेतदवसीयते? इति चेत्। उच्यते-इह एकैकस्याभिजितो नक्षत्रस्य सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्का एकविंशतिर्भागाश्चन्द्रयोगयोग्याः, एकै कस्मिंश्च भागे त्रिंशद्भागपरिकल्पनादेकविंशतिस्त्रिशता गुण्यते, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि 630 / तथा तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि, येषां प्रत्येकं पशात्तरं सहस्र सप्तषष्टित्रिशद्भागानां सीमाविष्कम्भः / तानि द्वादश / तद्यथा-द्वे शतभिषजी (०जाव दो जेट्ठाओ ति) यावच्छब्दकरणादेवं द्रष्टव्यम्-' दो भरणीओ, दो अदाओ, दो अस्सेसाओ, दो साईओ, दो जेट्टाओ' इति। तथाहि-एतेषां द्वादशानामपि नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काः सार्धास्त्रयस्त्रिशद्भागाश्चन्द्रयोगयोग्याः, ततस्त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यते, जातानि नवशतानि नवात्यधिकानि 660 / अर्द्धस्यापि च त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां भागे हृते लब्धा पञ्चदश १५,सर्वसंख्यया जातं पश्चोत्तरं सहस्रम् 1005 तथा तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि, येषां द्वे सहस्रे दशोत्तरे सप्तषष्टिभागत्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः / तानि त्रिंशत् / तद्यथा-द्वौ श्रवणौ (जावदो पुव्वासाढा इति) यावच्छब्दादेवं पाठो द्रष्टव्यः-" दो धणिट्ठा, दो पुव्वाभद्दवया, दो रेवई, दो अस्सिणी, दो कत्तिया, दो मिगसिरा, दो पुस्सा, दो मघा, दो पुव्वाफग्गुणीओ, दो हत्था, दो चित्ता, दो अणुराहा, दो मूला, दो पुव्वासाढा " इति। तथाहिएतानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि / तत एतेषां सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काः परिपूर्णाः सप्तषष्टिभागाः प्रत्येक चन्द्रयोगयोग्यः / तेन सप्तषष्टिविंशता गुण्यते, जाते द्वे सहस्रे दशोत्तरे इति 2010 / तथा तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि, येषां प्रत्येकं त्रीणि सहस्राणि पश्चदशोत्तराणि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः / तानि द्वादश / तद्यथा-वे उत्तरे प्रोष्ठपदे (०जाव दो उत्तरासाढा इति) यावच्छब्दकरणादेवं द्रष्टव्यम्-" दो रोहिणी, दो पुणव्वसू, दो उत्तराफग्गुणी, दो विसाहा, दो उत्तरासाढा'' इति / एतानि हि नक्षत्राणि व्यर्द्धक्षेत्राणि / ततः सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काश्चन्द्रयोगयोग्या भागाः, शतमेकमर्द्ध च प्रत्येकमवगन्तव्याः / तत्र शतं त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रीणि
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________________ णक्खत्त 1780 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त सहस्राणि, अर्द्धमपि त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां विभज्यते, लब्धाः शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, ते एकषष्ट्या गुण्यन्ते, जातं त्र्यशीत्यधिक शतम् पञ्चदशेति / सू० प्र० 10 पाहु० 22 पाहु०। 183 / तस्य द्वाषष्ट्या भागे हृते लब्धौ द्वौ, तौ त्यक्तौ, शेषस्तिष्टत्ये(२४) सायं प्रातर्नक्षत्रचन्द्रयोगः कोनषष्टिः 56 / आगतमेकोनषष्टिषष्टिभागाः, तस्मिन् दिने ता एतेसिणं छप्पाण्णाए णक्खत्ताणं किं सतापादो चंदेणं सद्धिं अमावास्यासुपौर्णमासीषु च नक्षत्राऽऽनयनार्थ प्रागुक्तमेव करणम्। तत्र जोयं जोएंति ? किं सता सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोए-ति ? ध्रुवराशिः षट्पष्टिर्मुहुर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चद्वाषष्टिभागाः, एकस्य किं सता दुहओ पविद्वित्ता पविट्ठित्ता चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति ? चद्वाषष्टिभागस्यैकः सप्तषष्टिभागः६६।१३।। तत्र चतुश्चत्वारिशत्तमा ता एतेसिणं णक्खत्ताणंणो सयापाढो चंदेणसद्धिं जोयं जोएति, अमावास्या चिन्तयितुमारब्धा, ततश्चतुश्चत्वारिंशता सा गुण्यते, णो सया सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, णो सया दुहओ जातानि मुहूर्तानामेकोनत्रिंशच्छतानि चतुरुत्तराणि 2604 / एकस्य च पविद्वित्ता पविद्वित्ता चंदेण सद्धिं जोयं जोएति। णऽणत्थ दोहिं मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागानां द्वे शते विंशत्यधिके 220 / एकस्य च अभिईहिं / ता एतेसि णं दो अभिईआ पायं चिय पायं चिय द्वाषष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः / तत्र पुनर्वसुप्रचोत्तालीसं अमावासं जोएंति, णो चेवणं पुणिमासिणि / / / भृतिक मुत्तराषाढापर्यन्तं चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागाः 442 / 13 / '' ता एतेसि णं " इत्यादि।' ता ' इति / तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो इत्येवं प्रमाणं शोध्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विशतिशतानि नक्षत्राणांमध्ये किं नक्षत्रं यत्सदा प्रातरेव चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति ? किं द्वाषष्ट्यधिकानि 2462 / एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःसप्तत्यधिकं शतं नक्षत्रं यत्सदा सायं दिवसावसानसमये चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति ? किं द्वाषष्टिभागानाम् 174 / ततोऽभिजिदादिसकलनक्षत्रमण्डलतन्नक्षत्रं यत्सदा द्विधा प्रातः सायं चसमये, प्रविश्य प्रविश्य चन्द्रेण सार्द्ध शोधनकमष्टौ शतान्ये कोनविंशत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य योगं युनक्ति ? भगवानाह-" ता एतेसि णं " इत्यादि / तत्रैतेषां चतुर्विशतिषष्टिभागाः; एकस्य चद्वाषष्टिभागस्यषट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः षट्पशाशतो नक्षत्राणां मध्ये न किमपि तन्नक्षत्रमरित, यत् सदा प्रातरेव 816 / 24 / 66 / इत्येवप्रमाणं यावत्संभवं शोधनीयम्। तत्र त्रिगुणमपि चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति, नापि तन्नक्षत्रमस्ति यत्सदा सायं समये चन्द्रेण शुद्धिमासादयतीति त्रिगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थिताः पश्चात् यह मुहूर्ताः, सार्द्ध योग युनक्ति, नापि तदस्ति नक्षत्र, यत्सदा द्विधा प्रातः सायं समये एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागास्य च, प्रविश्य प्रविश्य चन्द्रेण सार्द्धयोग युनक्ति। कि सर्वथा? नेत्याह-" राप्तचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः 6 // 37 / 47 / आगतं चतुश्चत्वारिंशत्तणऽणत्थ" इत्यादि। नेति प्रतिषेधे, अन्यत्रद्वाभ्यामभिजिद्भ्यामवसेयः। माममावास्यामभिजिन्नक्षत्रं, षट्सु, मुहूर्तेषु सप्तमस्य च मुहूर्तस्य कस्मात् ? इत्याह-" ता एतेसिणं " इत्यादि।' ता' इति / तत्र तेषां सप्तत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये, एते अनन्तरोदिते द्वे अभिजिती, सप्तषष्टिभागेषु गतेषु परिसमापयति! अभिजिन्नक्षत्रे युगे युगे प्रातरेव प्रातरेव चतुश्चत्वारिंशत्तमाभमावास्यां (25) संप्रत्यमावास्यापौर्णमासीप्रक्रमादेव तत्प्ररूपणा चन्द्रेण सह योगमुपगम्य युक्तः परिसमापयतः, नो चैव पौर्णमासीम्। चिकीर्षुरिदमाहअथकथमेतदवसीयते-यथा युगे युगे चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यां सदैव तत्थ खलु इमाओ वावट्ठि पुण्णिमासिणीओ वावट्ठि अमावाप्रातः समये अभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रेण सार्द्ध योगमुपगम्य परिसमापयतीति ? साओ पण्णत्ताओ। ता एतेसि णं पंचण्ह संवच्छराणं पढम उच्यते-पूर्वाऽऽचार्योपदर्शितकरणवशात् / तथाहि-तिथ्यानयनार्थ पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएति? ताजंसिणं देसंसि तावत्करणमिदम् चदे चरिमं वावडिं पुण्णिमासिणिं जोएति, ता एतेणं पुण्णिमा"तिहिरासिमेव वाव-ट्ठीभइएसेसमेगसद्विगुणं। सिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता दुवत्तीसं भागे वावट्ठीऐं विभत्ते, सेसा अंसा तिहिसमत्ती " // 1 // उवातिणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे पढमं पुणिमासिणिं जोएति। अस्या अक्षरगमनिकाये युगमध्ये चन्द्रमासा अतिक्रास्ताः, ते ता एतेसिणं पंचण्ह संवच्छराणं दोचं पुणिमासिणिं चंदे कंसि तिथेरानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तस्य राशेर्भागो द्वाषष्ट्या देसंसि जोएति? ताजंसिणं देसंसि चंदे पढमं पुण्णिमासिणिं जोएति, ता एतेणं पुणिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं ह्रियते, हतेच भागेयदवतिष्ठते. तस्मिन्नेकषष्ट्या गुणयित्वा द्वाषष्ट्या विभक्ते सतेणं छेत्ता दुवत्तीसं भागे उवातिणावेत्ता, एत्थणं से चंदे दो, ये अंशा उदरन्ति, सा विवक्षिते दिने विवक्षिततिथिपरिसमाप्तिः / पुण्णिमासिणिं जोएति / ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तचं ततश्चतुश्चत्वारिंशत्तमायाममावास्थाया चिन्त्यमानायां त्रिचत्वारिंश पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएति? ताजंसिणं देसंसि चन्द्रमासाः, एकं च चन्द्रमासस्य पर्वावाप्यते। ततस्त्रिचत्वारिंशत् त्रिंशता चंदे दोचं पुण्णिमासिणिं जोएति, ता एतेणं पुण्णिमासिणिट्ठागुण्यन्ते, जातानिद्वादश शतानि नवत्यधिकानि १२६०।तत उपरितनाः णातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता दुवत्तीसं भागे उवातिणापर्वगताः पञ्चदश प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि पश्चोत्तराणि वेत्ता, एत्थ णं छच्चं चंदे पुण्णिमासिणिं जोएति / ता एतेसिणं 1305 / तेषां द्वाषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धा एकविंशतिः, सा त्यज्यते. . पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि
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________________ णक्खत्त 1781 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त जोएति? ता जंसि णं देसंसि चंदे तचं पुण्णिमासिणिं जोएति, ताते पुण्णिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता दोण्णि अट्ठासीते भागसते उणातिणावेत्ता एत्थ णं से चंदे दुवालसमं पुण्णिमासिणिं जोएति // एवं खलु एतेणुवाएणं ताते 2 पुणिमासिणिट्ठाणातो मंडलंचउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता दुवतीसं दुवत्तीसं भागे उवातिणावेत्तातंसि तंसि देसंसि तं तं पुण्णिमासिणिं चंदे जोएति। ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं वावद्धिं पुण्णिमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएति? ता जंबुद्दीवस्स | णं दीवस्स पाईणपडीणाऽऽयतउदीणदाहिणाऽऽयताए जीवाए मंडलं चउव्वासेणं सतेणं छेत्ता दाहिणिल्लंसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसंच भागे उवातिणावेत्ता अट्ठावीसतिभागं वीसहा छेत्ता अट्ठावीसतिभागे उवातिणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहि य कलाहिं पचच्छिमिल्लचउभागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं से चंदे चरिमं वावहिं पुण्णिमासिणिं जोएति। ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएति? ताजंसिणं देसंसि सूरे चरिमं वावडिं पुण्णिमासिणिं जोएति, ताते पुणिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिभागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे पढमं पुण्णिमासिणिं जोएइ / ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणां दोधं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएति ? ता जंसिणं देसंसि सूरे पढमं पुण्णिमासिणिं जोएइ, ताते पुण्णिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिभागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे दोचं पुण्णिमासिणिं जोएति। ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तचं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जो-एति? ताजंसिणं देसंसि सूरे दोचं पुण्णिमासिणिं जोएति, ताते पुण्णिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिभागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे तथं पुणिमासि- | णिं जोएति / ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसण्हं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएति ? ता जंसि णं देसंसि सूरे तचं पुण्णिमासिणिं जोएति, ताते पुण्णिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं संतेणं छेत्ता अट्ठवत्ताले भागसते उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे दुवालसमं पुण्णिमासिणिं जोएति / एवं खलु एतेणुवाएणं ताते 2 पुण्णिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिचउणउतिभागे उवातिणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं पुण्णिमासिणिं सूरे जोयं जोएति। ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं वावडिं पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएति? ताजंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पाईणपडीणाऽऽयतउदीणदाहिणाऽऽयताए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता पुरच्छिमिल्लंसि चउभागमंडलंसिसत्तावीसभागे उवातिणावेत्ता अट्ठावीसतिभागं वीसधा छेत्ता अट्ठारसभागे उवातिणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहिय कलाहिंदाहिणिल्लचउभागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं से सूरे चरिमं वावडिं पुण्णिमासिणिं जोएति। ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएति? ताजंसिणं देसंसि चंदे चरिमं वावडिं अमावासं जोएति, ताते अमावासट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता दुवत्तीसं भागे उवातिणावेत्ता एत्थणं से चंदे पढमं अमावासं जोएति / एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्स पुण्णिमासिणीओ भणिताओ, तेणेव अभिलावेणं अमावासाओ भणितव्वाओ। तं जहावितिया, ततिया,दुबालसमी। एवं खलु एतेणुवाएणं ताते 2 अमावासट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता दुतीसं दुतीसं भागे उवातिणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं चंदे जोएति / ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं वावहिँ अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएति ? ता जंसि णं देसंसि चंदे चरिमं वावडिं पुणिमासिणिं जोएति ताते पुण्णिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता सोलसभागे ओसक्कावइत्ता एत्थ णं से चंदे चरिमं वावढेि अमावासं जोएति।ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएति? ता जंसिणं देसंसि सूरे चरिमं वावर्हि अमावासं जोएति, ताते अमावासट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिभागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे पढम अमावासं जोएति / एवं जेणेव अभिलावेणं सूरस्स पुण्णिमासिणीओ, तेणेव अमावासाओ वि / तं जहावितिया, ततिया, दुवालसमी / एवं खलु एतेणवाएणं ताते अमावासट्ठाणातो मंडलं चउब्दीसेणं सएणं छेत्ता चउणउतिचउणउतिभागे उवातिणावेत्ता तंसितंसि देसंसि तं तं अमावासं सूरे जोएति / ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं वावढि अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएति ? ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं वावहिँ अमावासं जोएति, ताते पुण्णिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउव्वीसेणं सतेणं छेत्ता सत्तालीसं भागे ओसकावइत्ता एत्थ णं से सूरे चरिमं वावष्टुिं अमावासं जोएति। ता एते सि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुणिमासिणिं चंदे के णं णक्खत्तेणं जो एति ? ता धणिवाहिं, धणिट्ठाणं
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________________ णक्खत्त 1782 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त तिणि मुहुत्ता, एगूणवीसंच वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता पण्णट्ठिचुणियाभागासेसा। " तत्थ खलु " इत्यादि। तत्र युगे खलुइमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः द्वाषष्टिः पौर्णमास्यो, द्वाषष्टिरमावास्याः प्रज्ञप्ताः / एवमुक्ते भगवान् गौतमः पृच्छति-" ता" इत्यादि।' ता इति। तत्र युगे एतेषामनन्तरोदिताना चन्द्राऽऽदीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति परिसमापयति? भगवानाह-" ताजंसिण" इत्यादि। तत्र यस्मिन् देशे चन्द्रश्चरमा पाश्चात्य युगपर्यन्तवर्तिनी द्वाषष्टिमा पौर्णमासी युनक्ति परिसमापयति, तस्मात् पौर्णमासीस्थानाघरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य, तद्गतान्द्वात्रिंशद्भागानुपादाय गृहीत्वा, अत्र द्वात्रिंशद्भागरूपे देशे चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति परिसमापयति।भूयः प्रश्नं करोति" ता एतेसि णं " इत्यादि।' ता ' इति / तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पशानां संवत्सराणां मध्ये या द्वितीया पौर्णमासी, तां चन्द्रः कस्मिन् देशे परिसमापयति? भगवानाह-"ता जसिणं " इत्यादि। तत्रयस्मिन् देशे चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति परिसमापयति, तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् प्रथमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान्द्वात्रिंशद्भागानुपादायात्र प्रदेशे स चन्द्रो द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति / एवं तृतीयपौर्णमासीविषयमपि सूत्र व्याख्येयम्। एवं द्वादशपौर्णमासीविषयमपि। नवरं(दोण्णि अट्ठासीते भागसते त्ति) तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशो किल पौर्णमासी नवमी भवति, ततो नवभिभत्रिंशतो गुणने द्वे शतेऽष्टाशीत्यधिके भवतः 288 / संप्रत्यतिदेशमाह-"एवं खलु" इत्यादि। एवमुक्तेन प्रकारेण खलु निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति, तस्याः तस्याः पौर्णमास्यास्ततोऽनन्तरां पौर्णमासी तस्मात्तस्मात् पाश्चात्यपाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानाद मण्डलं चतुर्विशत्यधिके न शतेन छित्त्वा परतस्तद्गतान् द्वात्रिंशद्वात्रिंशतं भागानुपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे तां ता पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति। स चैवं परिसमापयंस्तावद्वेदितव्यो, यावद्भूयोऽपि चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमासी तस्मिन् देशे परिसमापयति, यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगे चरमां द्वाषष्टिं पौर्णमासी परिसमापितवान् / कथमेतदवसीयते ? इति चेत् / उच्यते-गणितक्रमवशात् / तथाहि-पाश्चात्ययुगे चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतप्रविभक्तस्य सत्कानां द्वात्रिंशतो भागानामतिक्रमे तस्यास्तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, द्वाषष्टिश्च सर्वसंख्यया युगे पौर्णमास्यः। ततो द्वात्रिंशद्वाषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकोनविंशतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि 1684 / तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः षोडश सकलमण्डलपरावर्ताः, समस्तस्यापि च राशेर्निर्लेपीभवनादागतंयस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसंबन्धिचरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिः, तस्मिन्नेव देशे विवक्षितस्यापि च युगस्य चरमद्वाषष्टित- 1 मपौर्णमासीपरिसमाप्तिः। संप्रति चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिदेशं पृच्छति-" ता एतेसि णं " इत्यादि।' ता' इति पूर्ववत्। तत्र युगे | एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये चरमां द्वाषष्टितमा पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्तिपरिसमापयति? भगवानाह-(ता जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स इत्यादि)' ता' इति पूर्ववत् / जम्बुद्वीपस्य, णमिति वाक्यालङ्कारे / द्वीपस्योपरि प्राचीनापाचीनाऽऽयतया, इह प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वा गृह्यते, अपाचीनग्रहणेन दक्षिणापरा / ततोऽयमर्थःपूर्वोत्तरदक्षिणापराऽऽयतया: एवमुदीच्यदक्षिणाऽऽवतया, पूर्वदक्षिणोत्तरापराऽऽतया जीवया प्रत्यञ्चया, दवरिकया इत्यर्थः / मण्डल चतुर्विशेन शतेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य, भूयश्चतुर्भिविभज्यते / ततो दक्षिणात्ये चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विशतिधा छित्त्वा, तद्गतानष्टाविंशतिभागानुपादाय शेषैस्विभि गश्चतुर्थस्य भागस्यद्वाभ्यां कलाभ्यां पाश्चात्यचतुर्भागमण्डलसंप्राप्तोऽस्मिन् प्रदेशे चन्द्रो द्वाषष्टितमा चरमां पौर्णमासी परिसमापयति / तदेवं चन्द्रस्य पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश उक्तः। संप्रति सूर्यस्य पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषय प्रश्नसूत्रमाह-(ता एतेसि णं इत्यादि)'ता' इति / तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चाना संवत्सराणा मध्ये प्रथमां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे स्थितःसन्युनक्तिपरिसमापयति? भगवानाह-(ताजंसि णं इत्यादि) तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यश्वरमा पाश्चात्ययुगवर्तिनी द्वाषष्टितमा पौर्णमासींयुनक्तिपरिसमापयति, तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात् स्थानात परतो मण्डल चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्वा विभज्य, तद्गतान् चतुर्नवतिभागान् उपादाय, अत्र प्रदेशे सूर्यः प्रथमा पौर्णमासी परिसमापयति / किमत्र कारणमिति चेत् ? उच्यते-इह परिपूर्णेषु त्रिंशदहोरात्रेषु परिसमाप्लेषु सत्सु स एव सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे वर्तमानः प्राप्यते, न कतिपयभागन्यूनेषु, पौर्णमासी च चन्द्रमासपर्यन्ते परिसमाप्तिमुपैति; चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः / ततस्विशत्तमेऽहोरात्रे द्वात्रिंशतिद्वाषष्टिभागेषु गतेषु सूर्यश्वरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात् स्थानात् चतुर्नवतौ चतुर्विशत्यधिकशतभागेष्वतिक्रान्तेषु प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयन्नवाप्यते / किमुक्तं भवति?-त्रिंशता भागैस्तमेव देशमप्राप्तः सन्नवाप्यते, त्रिंशतो द्वाषष्टिभागानामहोरात्रसत्कानामद्यापि स्थितत्वात् / भूयः प्रश्नयति(ता एतेसि णमित्यादि) ता' इति / तत्र युगे एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये द्वितीयां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे स्थितः सन् युनक्तिपरिसमापयति? भगवानाह-(ता जंसि णमित्यादि)'ता' इति / तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् प्रथमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान चतुर्नवतिभागान उपादाय अत्र देशे स्थितः सन् सूर्यो द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति। एवं तृतीयपौर्णमासीविषयमपि सूत्र वक्तव्यम्। एवंद्वादशपौर्णमासीविषयमपि / नवरं (अट्ठचत्ताले भागसते त्ति) तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी, ततश्चतुर्नवतिर्नवभिर्गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि षट् चत्वारिंशुदधिकानि 846 / संप्रति शेष
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________________ णक्खत्त 1783 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त पौर्णमासीविषयमतिदेशमाह-(एवं खलु इत्यादि) एवमुक्तेन प्रका-रेण, खलु निश्चितम् , एतेनानन्तरोदितेनोपायेन यां यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति, तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्तां तामनन्तरामनन्तरां पौर्णमासीं तस्मात् तस्मात् पाश्चात्यपाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात्स्थानाद मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छिचा परतस्तद्गतान् चतुर्नवतिचतुर्नवतिभागानुपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यस्ता ता पौर्णमासी परिसमापयति / स चैवं परिसमापयन् तावद् वेदितव्यो यावद् भूयोऽपि चरमां द्वाषष्टितमा पौर्णमासी तस्मिन् देशे परिसमापयति यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसंबन्धिनी चरमा द्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमापितवान्। एतचावसीयते गणितक्रमवशात्। तथाहिपाश्चात्ययुगचरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतप्रविभक्तस्य सत्कानां चतुर्थवतिभागानामतिक्रमे तस्याः तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, ततश्चचतुनवतिषष्ट्या गुण्यते, जातान्यष्टापञ्चाशच्छतानि अष्टाविंशत्यधिकानि 5828 / तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धाः सप्तचत्वारिंशत् सकलमण्डलपरावर्त्ताः। न च तैः प्रयोजनं, केवलं राशेर्निर्लेपीभवनादागतंयस्मिन् देशे स्थितः सन् पाश्चात्ययुगसंबन्धिचरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमापकः, तस्मिन्नेव देशे विवक्षितस्यापि युगस्य चरमां द्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयतीति। संप्रति चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पृच्छति-" ता एतेसि णं " इत्यादि रगमम् / भगवानाह-"ता जंबुद्दीवरसणं' इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत्। जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीनापाचीनाऽऽयतया, अत्रापि प्राचीनग्रहणेनोतरपूर्या दिग् गृह्यतो अपाचीनग्रहणेन दक्षिणाऽपराः ततोऽयमर्थःउत्तरपूर्वदक्षिणापराऽऽयतया, एवमुदीच्यदक्षिणाऽऽयतया, उत्तरापरदक्षिणपूर्वाऽऽयतया जीवया दवरिकया, मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य भूयश्चतुर्भिर्भक्त्वा (पुरच्छिमिल्लसि ति) पूर्वदिगवर्तिनि चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशत्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिधा छित्त्वा तद्गतानष्टादशभागानुपादाय शेषस्त्रिभिर्भागैश्चतुर्थस्य च भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्या, विंशतितमाभ्यामित्यर्थः / दाक्षिणात्यचतुर्भागमण्डलमसंप्राप्तः सन्नत्र प्रदेशे स सूर्यश्चरमां द्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति / तदेवं सूर्याचन्द्रमसोः पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश उक्तः। संप्रति तयोरेषामावास्यापरिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः चन्द्रविषयं प्रश्नसूत्रमाह-(ता एतेसि णमित्यादि) तत्र युगे एतेषामनन्तरोदिताना पक्षानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमाममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे स्थितः परिसमापयति? भगवानाह-(ता जंसि णमित्यादि) तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् चन्द्रश्चरमां द्वाषष्टिं ,द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, ततोऽमावास्यास्थानादमात्रास्थापरिसमाप्तिस्थानात, परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागान् उपादायात्र प्रदेशेस चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति / (एवमित्यादि) एवमुक्तेन प्रकारेण येनैवाभिलाषेन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणिताः, तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि | भणितव्याः / तद्यथा-द्वितीया, तृतीया, द्वादशी च / ताश्चैवम्-" ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणां दोचं अमावासं कंसि देससि जोएइ ? ता जंसिणं देसंसि चंदे पढमं अमावासं जोएइ, ताओण अमावासट्टाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता दुवत्तीसं भागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से चंदे तच अमावासं जोएइ / ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराण दुवालसम अमावासंचदे कंसि देसंसि जोएइ ? ताजंसिणं देसंसि चंदे तचं अमावासं जोएइ, ताओणं अमावासट्टाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता दोन्नि अट्ठासीए भागसए उवातिणावेत्ता एत्थ णं चंदे दुवालसमं अमावासं जोएइ / ' संप्रति शेषासु अमावास्यास्वतिदेशमाह-' एवं खलु " इत्यादि। एतत् प्राग्वव्याख्येयम्। संप्रति चरमद्वाषष्टितमामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धन देशं पृच्छति-" ता एतेसि णं " इत्यादि सुगमम् / भगवानाह-(ता जंसि णमित्यादि) तत्र यस्मिन् देशेस्थितः सन् चन्द्रो द्वाषष्टितमा चरमा पौर्णमासी युनक्ति परिसमापयति, तस्मात्पौर्णमासीस्थानात्-पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात्मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य पूर्व षोडशभागानवष्वष्क्य / चरमा हि द्वाषष्टितमा अमावास्या चरमद्वाषष्टितमपौर्णमास्याः पक्षण पश्चात्पक्षेण च विवक्षितप्रदेशात् षोडशभिश्चतुर्विंशत्यधिकशतभागैः परतः प्ररूप्यते, मासने द्वात्रिंशता भागैः परतो वर्तमानस्य लभ्यमानत्वात्। ततः षोडशभागान् पूर्वमवष्वक्येत्युक्तम्। अत्रास्मिन् प्रदेशे स्थितः सन चन्द्रश्वरमा द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति / संप्रति सूर्यस्यामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पिपृच्छिषुराह-(ता एतेसि णमित्यादि) एतत्प्राग्यद् व्याख्येयम्। (एवमित्यादि) एवमुक्तेन प्रकारेण येनैवाभिलापेन सूर्यस्य पौर्ण-मास्य उक्ताः, तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि वक्तव्याः। तद्यथाद्वितीया, तृतीया, द्वादशी च। ताश्चैवम्-" एतेसिणं पंचण्हं संवच्छाराणं दोच अमावासं सूरे कंसि देसंसिजोएइ ? ता जसिणं देसंसि सूरिए पढमं अमावास जोएइ, ताओ अमावासट्टाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेता चउणउइभागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरे दोघं अमावासं जोएइ / ता एतेसिणं पंचण्ह संवच्छराणं तचं अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? ता जंसिणं देसंसि दोचं अमावासं जोएइ,ताओणं अमावासट्ठाणाओ मंडलं घउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणउइभागे उवातिणावेत्ता तचं अमावास जोएइ। ता एएसिणं पंचण्ह संवच्छराणं दुवालसं अमावासं सूरे केसि देससि जोएइ ? ता जंसि णं देससि सूरे तचं अमावासं जोएइ, ताओ अमावासट्टा-णाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता अट्ठछत्ताले भागसए उवाति-णावेत्ता एत्थ णं से सूरे दुवालसमं अमावासं जोएइ।" संप्रति शेषास्वमावास्यासु अतिदेशमाह-(एवं खल्वित्यादि) एतत् प्राग्वद् व्याख्येयम् / संप्रति चरमद्वाषष्टितमामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देश पृच्छति-" ता एतेसि णं " इत्यादि सुगमम् / भगवानाह-(ता जंसि णमित्यादि) यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यश्वरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनाद् देशात् मंडल चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्याक् सप्तचत्वारिंशतं भागानवष्यष्क्य अत्र प्रदेशे स्थितः सन् सूर्यश्चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां - युनक्ति परिसमापयति / अथ का पौर्णमासी केन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रः सूर्यो वा परिसमापयति ? इति प्रष्टुक्राम आह-(ता एतेसि णमित्यादि)
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________________ णक्खत्त 1784 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्त 'ता' इति / तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासी चन्द्रः / उपलक्षणमेतत-सूर्यो वा; केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् युनक्तिपरिसमापयति ? भगवानाह-(ता धणिट्ठाहिं इत्यादि) ' ता ' इति / तत्र तेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति धनिष्ठाभिः, धनिष्ठानक्षत्रस्य पञ्चतारत्वात् तदपेक्षया बहुवचनम् अन्यथा त्वेक्वचनं द्रष्टव्यम्। तासां च धनिष्ठानां त्रयो मुहूर्ताः, एकस्य मुहूर्तस्य एकोनविंशतिषिष्टिभागाः, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा पञ्चषष्टिश्चूर्णिकाभागाः शेषाः / तथाहि-पौर्णमासीविषयस्य चन्द्रनक्षत्रयोगस्य परिज्ञानार्थ करणं प्रागेवोक्तं, तत्र षट्षष्टिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभागाः 66 / 3 / इत्येवंरूपो धुवराशिर्धियते ; धृत्वा च प्रथमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षयागो ज्ञातुमिष्ट इत्येकेन गुण्यते, ' एकेन गुणितं तदेव भवति ' इति तावानेव जातः तस्मादभिजितो नव मुहूर्ताः / एकस्य मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्यषिष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः। इत्येवंप्रमाणं शोधनक शोध्यते। तत्र षट्पष्टर्नव मुहूर्ताः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत् , तेभ्य एको मुहूर्तो गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीकृतः, ते च द्वाषष्टिरपि भागा द्वाषष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिषष्टिभागाः, तेभ्यश्चतुर्विशतिः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात् त्रिचत्वारिंशत् , तेभ्य एक रूपमादाय सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते / ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तषष्टिभागेकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागाः। तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः, स्थितौ द्वौ पश्चात्सप्तषष्टिभागौ, ततरिवंशता मुहूर्तः श्रवणः शुद्धः, स्थिताः पश्चान्मुहूर्ताः षड्विशतिः / तत इदमागतम्-धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशतिसंख्येषु द्वाषष्टिभागेष्वकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टिसंख्येषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमपौर्णमासी परिसमाप्तिमुपयाति। संप्रति सूर्यनक्षत्रयोग पृच्छन्नाहतं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता पुव्वाहिं फग्गुणीहिं अट्ठावीसं मुहुत्ता, अद्वतीसंच वावट्ठिभागा मुहुत्तरस, वावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता दुवत्तीसं चुण्णियाभागा सेसा। ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता उत्तराहिं पोट्ठवताहिं, उत्तराणं पोट्टवताणं सत्तावीसं मुहुत्ता, चोइस य वावट्ठिभागे मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चउसद्विचुण्णियाभागा सेसा। (तं समयं च णमित्यादि) तं समयमित्यत्र" कालाध्वनोव्याप्ती " // 2 / 2 / 42 // इत्यधिकरणत्वेऽपि द्वितीया। ततोऽयमर्थः- तस्मिन् समये, यस्मिन समये धनिष्ठा नक्षत्रं चन्द्रेण युक्तं यथोक्तविशेष परिसमापयति, तस्मिन क्षणे इत्यर्थः / सूर्यः केन नक्षत्रेण युक्तः सन्तां प्रथमा पौर्णमासी परिसमापयति / भगवानाह-" ता पुव्वाहि " इत्यादि।' ता ' इति / तदा पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्या, पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वितारत्वात्तपेक्षया द्विवचनम्। द्विवचने च प्राप्त प्राकृते बहुवचनम्। तयोश्च पूर्वाफाल्गुन्यो- स्तदानीमष्टाविंशतिर्मुहूर्ताः, अष्टात्रिंशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकं च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्या सत्काः द्वात्रिंशचूर्णिकाभागाः शेषाः / तथाहि-स एव षट्षष्टिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभाग इत्येवप्रमाणो ध्रुवराशिर्धियते 66 / 5 / 1 / धृत्वा च एकेन गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवति इति तावानेव जातः, ततस्तस्मात् पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः 16 / 43 / 33 / इत्येवंप्रमाणं शोध्यते / अथैतावत्प्रमाणस्य पुष्यशोधनकस्य कथमुत्पत्तिरिति ? उच्यते-इह पूर्वयुगपरिसमाप्तिवेलायां पुष्यस्य त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः परिसमाप्ताः, चत्वारिंशदवतिष्ठते / ततस्ते चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागा मुहूर्त्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानित्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि 1320 / तेषां सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धा एकोनिविंशतिर्मुहूर्ताः / शेषास्तिष्ठन्ति सप्तचत्वारिंशत् 47 / ते द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि एकोनत्रिंशच्छतानि चतुर्दशोत्तराणि 2614 / तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धास्त्रिचत्वारिंशद्वाषष्टिभागाः 13 छ। एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः / एतद् ध्रुवराशेः शोध्यते / तद्यथा-षट्षष्टिर्मुहूर्तेभ्य एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात्सप्तचत्वारिंशत् , तेभ्य एको मुहूर्तो गृह्यते, स्थिताः षट्चत्वारिंशत् गृहीतव्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागान् कृत्वा द्वाषष्टिभागराशी पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्वाषष्टिभागाः सप्तषष्टिः, तेभ्यस्त्रिचत्वारिंशत् शोध्यन्ते, स्थिताः पश्वाचतुर्विंशतिः, तेभ्य एक रूपमुपादीयते, जाता त्रयोविंशतिः, गृहीतस्य च रूपस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते. कृत्वा च सप्तषष्टिभागैकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागाः / तेभ्यस्वयस्त्रिंशत् शुद्धाः, स्थिताः पञ्चत्रिंशत्। ततः पञ्चदशभिर्मुहूत्रश्लेषा, त्रिंशता च मुहूर्तमघाः शुद्धाः, स्थितः पश्चादेको मुहूर्तः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति-दु० विष्टिभागाः। एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः 1 / 1 / / 25 तत आगतं पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्याष्टाविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्याष्टात्रिंशत् द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु सूर्यः प्रथमा पौर्णमासी परिसमापयति। एते च सूर्यमुहूर्ता एवंभूतैश्च सूर्यमुहूर्तस्त्रिशता त्रयोदश रात्रिन्दिवानि, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वादश व्यावहारिका मुहूर्ता भवन्ति। तत एतदनुसारेण गतेकदिवसभागगणना, शेषस्थितदिवसगणना च पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य स्वयं कर्तव्या। एवमुत्तरसूत्रेष्वपि सूर्यनक्षत्रयोगेपरिभावनीयम्।" ता एतेसिणं " इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह-(ता उत्तराहिं इत्यादि)'ता' इति पूर्ववत् / उत्तराभ्यां प्रोष्ठपदाभ्याम् , अत्रापि द्विवचनम् , उत्तराप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य द्वितारकत्वात् , बहुवचनं च सूत्रे प्राकृतत्वात् / उत्तरयोश्च प्रोष्ठपदयोः सप्तविंशतिर्मुहूर्ताः, चतुर्दश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काश्चतुःषष्टिश्चूर्णिकाभागाः शेषाः। तथाहिस एव ध्रुवराशिः 66 / 5 / 1 द्वितीयपौर्णमासीचिन्तायां द्वाभ्यां गुण्यते, मुहूर्ताना जातं द्वात्रिंशतं शतम् 132 / एकस्यच मुहूर्तस्य दश द्वाषष्टिभागाः 10 // एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यद्वौ सप्तषष्टिभागौ 2, ततः पूर्वरीत्या अभिजितो
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________________ णक्खत्त 1785 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्त नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः शोध्यन्ते, जातं द्वाविंश शतं मुहूर्तानाम, एकस्य च मुहूर्तस्य स सचप्तत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः 122 // 1 / / ततस्त्रिंशता मुहूतः, श्रवणः, त्रिशता धनिष्ठा, पञ्चदशभिः शतभिषक्, त्रिंशता पूर्वाभाद्रपदा शुद्धेति स्थिताः पश्चात्सप्तदश मुहूर्ताः 17 / शेषं तथैव। 47 ।३।तत आगतम्-उत्तराभाद्रपदानक्षत्रस्य सप्तविंशतौ मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःषष्टी सप्तषष्टिभागेषु गतेषु शेषेषु द्वितीया पौर्णमासी परिसमाप्तिमुपैति / सू० प्र०१० पाहु० 22 पाहु० / च० प्र०। संप्रतस्यामेव पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं चन्द्रनक्षत्र योग च पृच्छतितं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता उत्तराहिं फग्गुणीहिं, उत्तराणं फग्गुणीणं सत्त मुहुत्ते, तेत्तीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता एकतीसं चुण्णियाभागा सेसा / ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तचं पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति? ता अस्सिणीहिं, अस्सिणीणं एकवीसं मुहुत्ता, णव य वावट्ठिभागा मुहत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता तेवढेिंचुणियाभागा सेसा / तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता चित्ताहि, चित्ताणं एगो मुहत्तो, अट्ठावीसं च वावट्ठिभागं मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तीसं चुण्णियाभागा सेसा / ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुणिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं छउवीसं मुहुत्ता, छउवीसं च वावट्ठिभागा मुहत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता चउपण्णं चुण्णिआभागा सेसा / तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स सोलस मुहुत्ता, अट्ठ य वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागं च सत्तट्टिधा छेत्ता वीसं चुण्णियाभागा सेसा। ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं वावडिं पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए। तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता पुस्सेणं, पुस्सस्स एगूणवीसं मुहुत्ता, तेत्तालीसंच वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, | वावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीसं चुण्णियाभागा सेसा / / "तं समयं चणं " इत्यादि सुगमम्। भगवानाह-(ता उत्तराहिं इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् / उत्तराभ्यां फाल्गुनीभ्या, तयोश्च उत्तरयोः फाल्गुन्योस्तदानीं द्वितीयपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलाया सप्त मुहुर्ताः, त्रयस्त्रिशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्त-षष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का एकत्रिंशत् चूर्णिकाभागाः शेषाः / तथा-हि-स एव ध्रुवराशिर्धियते 66 // 5 // 1 / धृत्वा च द्वितीयस्याः पौर्णमास्याः संप्रति चिन्तेति द्वाभ्यां गुण्यते, जातंद्वात्रिंशं शतं मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य | दश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वो सप्तषष्टि भागौ। 132 / / तत एतस्मात् पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः 16 / 13 / है / इत्येवं परिमाणं पूर्वरीत्या शोध्यते, स्थितं पश्चाद् द्वादशोत्तरं शतं मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्याष्टा-विंशतिौषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः 112 / ततः पञ्चदशभिर्मुहूर्तरश्लेषा, त्रिंशता मघा, त्रिंशता पूर्वाफाल्गुनी शुद्धा, स्थिताः पश्वान्मुहूर्ताः सप्तत्रिंशत् . शेषं तथैव / तत आगतंसूर्येण युक्तमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रंसप्तमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहुर्तस्य त्रयस्त्रिंशत-द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशतसप्तषष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीया पौर्णमासी परिसमापयति / अधुना तृतीयपौर्णमासीविषयं चन्द्रनक्षत्रयोग पृच्छति-"ता एतेसिणं " इत्यादि सुगमम्। भगवानाह-(अस्सिणीहि इत्यादि) अश्विनीनक्षत्रं त्रितारमिति तदपेक्षया बहुवचनम्, तदानीं च तृतीयपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायामश्विनीनक्षत्रस्य एकविंशतिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य नव द्वाषष्टिभागाः, एकं च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिथा छित्त्वा तस्य सत्कारित्रषष्टिश्चूर्णिकाभागाः शेषाः / तथाहि-स एव ध्रुवराशिः 66 / 5 / 7 / तृतीया पौर्णमासी चिन्त्यमाना वर्तत इति त्रिभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिकं शत मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चदश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः 168 / 13 / / " तत उगुणट्ट पोट्टवया '' इत्यादिवचनात् एकोनषष्ट्यधिकेन शतेन चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तराभाद्रपदपर्यन्तानि षट् नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्तेऽष्टात्रिंशन् मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य द्विपञ्चाशत् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तषष्टिभागाः 38 / 12 / ततरिवंशता मुहूर्त : रेवती नक्षत्र शुद्धं, तिष्ठन्त्यष्टौ मुहूर्ताः, तत आगतं चन्द्रयुक्तमश्विनीनक्षत्रमेकविंशतौ मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषष्टी सष्टषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति। संप्रत्यस्यामेव तृतीयस्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-"तं समयं च ण " इत्यादि सुगमम्। भगवानाह-"ता चित्ताहिं" इत्यादि। चित्रायुक्तः सूर्यः परिसमापयति। तदानींच तृतीयपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायां चित्रायामेको मुहूर्तः, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टाविंशतिषष्टिभागाः, एक च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काविंशचूर्णिकाभागाः शेषाः। तथाहि-स एव धुवराशिः ६६।५।१।संप्रति तृतीयपौर्णमासीचिन्तंति त्रिभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिक शतं मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य पादश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः 168 / 13 / / तत एतस्मात्पुष्यशोधनकम् 16 / 43 / 33 / पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते, स्थितं पश्चादष्टसप्तत्यधिकं मुहूर्ताना शतम् , एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः 178 / 13 / / ततः पञ्चाशदधिकेन मुहूर्तशतेनाश्लेषाऽऽदीनि हस्तपर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्धयन्ति। शेषास्तिष्ठन्त्यष्टाविंशतिर्मुहूर्ताः / शेषं तथैव 28 / 33 / 37 / तत आगतमसूर्येण सह संप्रयुक्तं चित्रानक्षत्रमेकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहू
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________________ णक्खत्त 1756- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त तस्याष्टाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषसु तृतीयां पौर्णमासी परिसमापयति। संप्रति द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगं पृच्छति-"ता एतेसिणं " इत्यादिसुगमम्। भगवानाह-" ता उत्तराहिं' इत्यादि।'ता' इति पूर्ववत्। उत्तराभ्यामाषाढाभ्यां द्वादशी पौर्णमासी चन्द्रः परि-समापयति / तदानीं च तयोरुत्तरयो राषाढयोः षड्विंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षडविंशतिषष्टिभागाः, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काश्चत्तुष्पञ्चाशच्चूर्णिकाभागाः शेषाः / तथाहि-स एव धुवराशिः-६६ / 5 // 1 / द्वादशी किल पौर्णमासी चिन्त्यते इति द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्तशतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिषिष्टिभागाः। एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागा: 762 / 60 / 12 / तत एतस्मात् " मूले सत्तेव चोयाला '' इत्यादिवचनात् सप्तभिश्चतुश्चत्वारिंशदधिकै मुहूर्तानां शतैः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ततस्त्रिशता मुहूर्तः पूर्वा-षाढा, शेष तिष्ठन्त्यष्टादश मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः 18 / 35 / 13 / तत आगत-चन्द्रेण युक्तमुत्तराषाढानक्षत्रं द्वादशी पौर्णमासी षड्विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्त्तस्य षड्विंशतौ द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पञ्चाशत्सप्तषष्टिभागेषु शेषेषुपरिसमापयति। संप्रत्यस्यामेव द्वादश्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-" तं समयं च णं " इत्यादि सुगमम् / भगवानाह-'" ता पुणव्वसुणा'' इत्यादि। ता इति पूर्ववत् / पुनर्वसुना युक्तः सूर्य परिसमापयति / तदानीं च द्वादशीपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायां पुनर्वसुनक्षत्रस्य षोडश मुहूर्ताः, अष्टी च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का विंशतिश्चूर्णिकाभागाः शेषाः। तथाहि-स एव ध्रुवराशिः 66 / 5 / १द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७६२।६०।१२।तत एतस्मात्पुष्यशोधनकं 16 / 43 / 33 पूर्वोक्त प्रकारेण शोध्यते, स्थितानि पश्चात्सप्तशतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानाम, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वा-रिंशत् सप्तषष्टिभागाः। 773 / 16 / 46 / तत एतरमात्सप्तभिः शतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरश्लेषाऽऽदीन्याापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते अष्टाविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशद्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः 28 / 3 / / तत आगतं पुनर्वसुनक्षत्रं सूर्येण सह योगमुपागतं षोडशसु मुहूर्तेषु शेषेषु, एकस्य च मुहूर्तस्याष्टसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य विंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु द्वादशी पौर्णमासी परिसमापयति।" ता एतेसिणं ' इत्यादि सुगमम् / भगवानाह-" ता उत्तराहिं " इत्यादि / उत्तराभ्यामाषाढाभ्यां युक्तश्चन्द्रश्वरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयति / तदानी चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिवे- लायामुत्तरयोराषाढयोश्चरमसमयः। तथाहि-स एव धुवराशिः 6615 / ११चरमा द्वाषष्टितमा पौर्णमासी संप्रति चिन्त्य-माना वर्तते, इति द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छ-तानि द्विनवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः 4062 / 310 / 62 / तत एतस्मात-" अट्ठसयउ गुणवीसा, सोहणग उत्तराण साढाणं / चउवीस खलु भागा, छावट्ठी चुणियाओ य // 1 / / इत्येवंप्रमाणमे कं सकलनक्षत्रपर्यायशोधनकं पञ्चभिर्गुणयित्वा शोध्यते / तच पूर्वोक्तेन प्रकारेण शोध्यमानं परिपूर्ण शुद्धिमासादयतीति न किञ्चित्पश्चादवतिष्ठते। तत आगतम्-उत्तराषाढानक्षत्रं चन्द्रेण सह युक्तं चरमसमये चरमां द्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति / संप्रत्यस्यामेव द्वाषष्टितमायां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगपृच्छति-"तं समयंचण" इत्यादि सुगमम् / भगवानाह-" ता पुस्सेणं " इत्यादि। पुष्येण युक्तः सूर्यश्चरमांद्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति / तदानीं च द्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायामेकोनविंशतिर्मुहूर्तास्त्रिचत्वारिंशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रय-स्त्रिशचूर्णिकाभागाः शेषाः। तथाहि-स एव ध्रुवराशिः 66 / 5 / 1 / द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः 462 / 310 / 62 // इह पुष्यस्यदशमुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्विंशति सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु पाश्चात्ययुगं परिसमाप्तिमुपैति, तदनन्तरमन्यधुगं प्रवर्तते। पुष्यस्यापि च तावन्मात्रादतिक्रान्तात् परतो यावद् भूयोऽपि तावन्मात्रस्य पुष्यस्यातिक्रमः, एतावत्प्रमाण एकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायः / तस्य च प्रमाणमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः 816 / 24 / 66 / तत एतत् पञ्चभिर्गुणयित्वा प्रागुक्ताद् राशिनिलेपो जायते, तत आगतं-पुष्यस्य सूर्येण युक्तस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य अष्टादशषु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्विंशति सप्तषष्टिभागेषु अतिक्रान्तेषु एकोनविंशतौ च मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चरमा द्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमातिनगमदिति / तदेवं पौर्णमासीविषयचन्द्रनक्षत्रयोगः, सूर्यनक्षत्रयोगश्वोक्तः / सू० प्र०१० पाहु० 22 पाहु०। चं०प्र०। (अमावास्याविषयश्चन्द्रनक्षत्रयोगः, सूर्यनक्षत्रयोगश्च 'अमावसा' शब्दे प्रथमभागे 743 पृष्ठे निरूपितः) (26) संप्रति यन्नक्षत्रं यादृशनामकं तदेव वा तस्मिन्नेव देशे अन्यस्मिन् वा यावता कालेन भूयश्चन्द्रेण सह योग ____ मुपागच्छति तावन्तं कालं निर्दिदिक्षुराहताजेणं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि, से णं इमाणि अट्ठ एगणवीसाणि मुहुत्तसत्ताई, चउवी
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________________ णक्खत्त 1787 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त संच वावट्ठिभागे मुहुत्तस्स, वावट्ठिभागंच सत्तद्विधा छेत्ता वावट्ठिचुणियामागे उवातिणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं सरिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएति अण्णंसि देसंसि / ता जेणं अञ्ज णक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि, से णं इमाई सोलस अद्वतीसं मुहूत्तसताई अउणापण्णं च वावट्ठिभागे मुहूतस्स, वावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पण्णहिचुणियाभागे उवातिणावेत्ता पुणरवि से चंदे तेणं चेवणक्खत्तेणं जोयं जोएति अण्णंसि देसंसि / ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि, से णं इमाइं चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्साइं, णव य मुहूत्तसताइं उवातिणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं तारिसएणं चेद णक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि। ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि, से णं इमे एगं मुहुत्तसयसहस्सं अट्ठाणउतिं चेव मुहुत्तसताई उवातिणावेत्ता पुणरवि से चंदे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि तंसि देसंसि। "ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं " इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत् / येन नक्षत्रेण सह चन्द्रो अद्य विवक्षिते दिने योगं युनक्ति करोति यस्मिन् देशे, स चन्द्रः णमिति वाक्यालङ्कारे / इमानि वक्ष्यमाणसंख्याकानि / तान्येवाह-अष्टौ मुहूर्तशतान्येकोनविंशान्येकोनविंशत्यधिकानि. एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिद्वाषष्टिभागान् , एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा द्वाषष्टिचूर्णिकाभागानुपादाय गृहीत्वा, अतिक्रम्येत्यर्थः / पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन द्वितीयेन सदृशनाम्ना नक्षत्रेण योग युनक्ति अन्यस्मिन् देशे। इयभत्र भावना-इह चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां मध्ये नक्षत्राणि सर्वशीघ्राणि, तेभ्यो मन्दगतयः सूर्याः, तेभ्योऽपि मन्दगतयश्चन्द्रमसः / (एतचागे स्वयमेव प्रपञ्चयिष्यते) षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि प्रतिनियतापान्तरालदेशानि चक्रवालमण्डलतया व्यवस्थितानि सदैवैकरूपतया परिभ्रमन्ति / तत्र किल युगस्याऽऽदावभिजिता नक्षत्रेण सह योगमधिगच्छति चन्द्रमाः, स च योगमुपागतः सन् शनैः शनैः पश्चादवष्वष्कते ; तस्य नक्षत्रेभ्योऽतीव मन्दगतित्वात् / ततो नवाना मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिद्वाषष्टिभागानाम् , एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिसप्तषष्टि - भागानामतिक्रमे पुरतः श्रवणेन सह योगमायाति / ततस्ततश्चन्द्रोऽपि शनः पश्चादवष्कष्कमानस्त्रिंशता मुहूर्तेः श्रवणेन सह योगं समाप्य पुरतो धनिष्ठया सह योगमुपागच्छति। एवं स्वं स्वं कालमपेक्ष्य सर्वैरपि नक्षत्रैः सह योगस्तावद्वक्तव्यो यावदुत्तराषाढानक्षत्रयोगपर्यन्तः / एतावता च कालेनाष्टौ मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा अभवन् / तथाहि-षट् नक्षत्राणि, पञ्चचत्वारिंशन् मुहूर्तानीति षट् पञ्च चत्वारिंशता गुण्यन्ते, जाते वे शते सप्तत्यधिके 2701 षट् च नक्षत्राणि पञ्चदश मुहूर्तानीति भूयः षट् पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जाता नवतिः पञ्चदश त्रिंशन्मुहूर्तानीति पञ्चदश त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि पञ्चाशदधिकानि 450 / अभिजितो नव मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा इति भवति | सर्वेषामेकत्र मीलने यथोक्ता मुहूर्त्तसंख्या / एष एतावान् नक्षत्रमासः। ततस्तदनन्तरं यदभिजिन्नक्षत्रमतिक्रान्तं तदपरेण द्वितीयेनाभिजिता नक्षत्रेण सह नवमुहूर्ताऽऽदिकालं योगमुपागच्छति, ततः परमपरेण द्वितीयाष्टाविंशतिसंबन्धिना श्रवणेन सह योगमश्नुते, एवं पूर्ववत् तावद्वाच्यं यावदुत्तराषाढा, तदनन्तरं भूयः प्रथमेनैवाभिजिता नक्षत्रेण सह योग याति। ततः प्रागुक्तक्रमेण श्रवणाऽऽदिभिः, एवं सकलकालमपि ततो विवक्षिते दिने यस्मिन देशे येन नक्षत्रेण सह योगमगमच्चन्द्रमाः स यथोक्तमुहूर्त्तसंख्याऽतिक्रमे भूयस्तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशेयोगमादत्ते, नतेनैवापि तस्मिन्नेव देशे इति। तथा (ता जेणमित्यादि) अद्य विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह, योगं युनक्ति यस्मिन् यस्मिन् देशे चन्द्रमाः, स इमानि वक्ष्यमाणसंख्याकानि / तान्येवाह-षोडश मुहूर्तशतानि अष्टात्रिंशदधिकानि, एकोनपञ्चाशतं द्वाषष्टिभागान् मुहूर्त्तस्य, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कान् पञ्चषष्टिचूर्णिकाभागानुपादायातिक्रम्य पुनरपि स चन्द्रस्तेनैव नक्षत्रेण सहयोगयुनक्ति, परमन्यस्मिन् देशे, न तु तस्मिन्नेव / कुतः ? इति चेत् / उच्यते-इह भूयस्तस्मिन्नेव देशे तेनैव नक्षत्रेण सह योगः, युगद्वयकालातिक्रमे तथा केवलवेदसा ज्योतिश्चक्रगतरुपलब्धेः / जम्बूद्वीपे च षट्पञ्चाशदेव नक्षत्राणि, ततो विवक्षितनक्षत्रयोगे सति तत आरभ्य षट्पञ्चाशन्नक्षत्रातिक्रमेण तेन नक्षत्रेण सह योगमादत्ते, षट्पञ्चाशन्नक्षत्रातिक्रमश्च प्रागुक्ताष्टाविंशतिनक्षत्रमुहूर्तसंख्यया। तत उक्तम्-" सोलस अडतीस मुहुत-सया " इत्यादि। तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे यावता कालेन भूयोऽपि योग उपजायते, तावान कालविशेष उक्तः। संप्रति तस्मिन्नेव देशे तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह भूयोऽपि योगो यावता कालेन भवति, तावन्तं कालविशेषमाह-(ता जेणं अज्ज णक्खत्तेण इत्यादि) अद्य विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह योगं चन्द्रो युनक्ति यस्मिन् देशे, स चन्द्रमा इमानि वक्ष्यमाणसंख्याकानि। तान्येवाह-चतुःपञ्चाशन्मुहूर्तसहस्राणि / नव च मुहूर्तशतान्युपादायातिक्रम्य पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन तादृशेनैव नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति तस्मिन्नेव देशे। इयमत्र भावनाविवक्षिते युगे विव-क्षितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये येन नक्षत्रेण सह यस्मिन् देशे यदा चन्द्रमसो योगो जातो, भूयस्तस्मिन्नेव देशे तदेव तेनैव नक्षत्रेण सह योगो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे, न तु द्वितीये। कुतः? इति चेत् / उच्यते-इह युगाऽऽदित आरभ्य प्रथमे नक्षत्रमासे यान्येकान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि समतिक्रामन्ति द्वितीयेन नक्षत्रमासेन, तेभ्योऽपराणि द्वितीयानि ततो भूयस्तृतीयेन नक्षत्रमासेन, तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि चतुर्थेन भूयस्तान्येव द्वितीयानि / एवं सकलकालं युगे च नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः / सा च सप्तषष्टिसंख्या विषमेति विवक्षितयुगपरिसमाप्तौ सत्यामन्यस्य युगस्य प्रारम्भे यानि विवक्षितयुगस्याऽऽदौ भुक्तानि नक्षत्राणि, तेभ्योऽपराण्येव द्वितीयानि भोगमायान्ति, न तुतान्येव, युगद्वयेचचतुस्त्रिंशन्नक्षत्रमासशतं भवति।साचचतुस्त्रिंशन्नक्षत्रमासशतसंख्या समेति द्वितीययुगपरिसमाप्तौ षट्पञ्चाशदपि नक्षत्राणि समाप्तिमुपयान्ति, ततो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे तेनैवनक्षत्रेण तस्मिन्नेवदेशे
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________________ णक्खत्त 1788 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्त तदा चन्द्रमसो योगः, युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि, कुतः ? इति चेत् / उच्यते-इह चन्द्रो नक्षत्रमासेनैकेनाष्टाविंशतिनएकैकस्मिश्चाहोरात्रेमुहूर्तस्त्रिंशत; ततोऽष्टादशानां शतानां त्रिंशदधिकानां क्षत्राणि भुङ्क्ते / सूर्यस्तु त्रिभिरेवाहोरात्रशतैः षट्षष्ट्यधिकैः / त्रीणि त्रिंशता गुणने भवति यथोक्ता मुहूर्तसंख्या, यथोक्तमुहूर्तसंख्याऽतिक्रमे चाहोरात्रशतानि षट्षष्ट्यधिकानि एकः सूर्यसंवत्सरः / ततोऽन्यैस्त्रिव तादृशेनैव नक्षेण सह योगः चन्द्रमसस्तरिमन्नेव देशे, न तु तेन नक्षत्रेण, भिरहोरात्रशतैः षट्षष्ट्यधिकैरन्यानि द्वितीयान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि अन्यस्मिन्वा देशे इति। (ता जेणगित्यादि) इदं सूक्ष्मक्षरार्थमधिकृत्य परिभुड्क्ते / तदनन्तरं भूयस्तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि सुगमम् / भावना तु प्रागेव कृता, नवरं युगद्वयकाल षट्त्रिंशच्छतानि लावत्याऽहोरात्रसंख्यया क्रमेण युनक्ति / ततः षट्षष्ट्यधिकराविन्दिवषष्ट्यधिकानि अहोरात्राणाम् , एकैकस्मिश्चाहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता इति शतत्रयातिक्रमेण सूर्यस्य तस्मिन्नेव देशे तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह षट्त्रिंशच्छतानां षष्ट्यधिकानां त्रिंशता गुणने यथोक्ता मुहूर्तसंख्या योगः, नतु तेनैव। (ता जेणं इत्यादि) इदं सूत्रमक्षरार्थमधिकृत्य सुगमम्, भवति / तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सहान्यस्मिन् तस्मिन् वा देशे भावना च प्रागेव कृता / (ता जेणमित्यादि) ' ता इति पूर्ववत् / अद्य चन्द्रमसो योगे कालप्रमाणमुक्तम्। विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह सूर्यो यस्मिन् देशे योग युनक्ति, स इमानि अष्टादश रात्रिदिव-शतानि त्रिंशदधिकानि उपादायातिक्रम्य, पुनरपि संप्रति सूर्यविषये तदाह तस्मिन्नेव देशे-ऽन्येनैव तादृशेन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति, न तु तेनैव / ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि, से णं कस्मात् ? इति चेत् / उच्यते-इह रात्रिन्दिवानामष्टादशशतानि इमाइं तिण्णि छावट्ठाइं राइंदियसताई उवातिणावेत्ता पुणरवि त्रिंशदधिकानि युगे भवन्ति / तत्र सूर्यो विवक्षितदिनादारभ्य तरिमन्नेव से सूरिए अण्णेणं तारिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देशे तदैव दिने तेनैव नक्षत्रेण सहयोगमागच्छति। तृतीये संवत्सरे युगे च देसंसि।ताजेणं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि, सूर्यवर्षाणि पञ्चः, ततस्तृतीये पञ्चमे वा सूर्यसंवत्सरे सूर्यः तेनैवनक्षत्रेण से णं इमाई सत्तदुवत्तीसं राइंदियसताई उवातिणावेत्ता पुणरवि तस्मिन्नेव काले योगमादत्ते, न तु युगातिक्रमे षष्ठे वर्षे इति।" ता जेणं " से सूरे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि / ताजेणं इत्यादि सुगम, नवरं षट्त्रिंशद्रात्रिंदिवशतानि षष्ट्यधिकानि युगद्वये अज्ज णक्खत्तेणं सूर जोयं जोएति जंसि देसंसि, से णं इमाई भवन्ति, युगद्धये च दश सूर्यवर्षाणि / ततो युगद्वयातिक्रमे एकादशे वर्षे अट्ठारस तीसाइं राइंदियसताई उवातिणावेत्ता पुणरवि सूरे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण सह तस्मिन्नेव देशे योग उपपद्यत इति। इह जम्बूद्वीपे अण्णेणं तारिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएति तंसि देसंसि। द्वौ चन्द्रमसौ, द्वौ सूर्यो, एकैकस्य चन्द्रमसो भिन्नो ग्रहाऽऽदिकः परिवार ताजेणं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि, ते णं इति श्रुत्वा कश्चिदेयमपि मन्येत-यथा भिन्नकाल मण्डलेषु चन्द्राऽऽदीनां इमाई छत्तीसं सट्ठाइं राइंदियसयाइं उवातिणावेत्ता पुणरवि से गतिः, भिन्नकालं च तेषां नक्षत्राऽऽदिभिः सह योग इति। ततस्तदाशङ्कासूरे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि। ताजयाणं ऽपनोदार्थमाह-(ता जया णमित्यादि)'ता' इति पूर्ववत्। यदा यस्मिन् इमे चंदे गतिसमावण्णए भवति, तता णं इतरे वि चंदे काले, अयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो भरतक्षेत्रे प्रकाशयन् विवक्षितश्चन्द्रः, गतिसमावण्णए भवति, जता णं इतरे वि चंदे गतिसमावण्णए विवक्षिते मण्डले इति गम्यते / गतिसमापन्नो गतियुक्तो भवति, तदा भवति, तताणं इमे वि चंदे गतिसमावण्णए भवति / ता जया णं तस्मिन काले इतरोऽपि ऐरावतं क्षेत्रं प्रकाशयन् तस्मिन्नेव विवक्षिते इमे सूरिए गतिसमावण्णे भवति, तया णं इयरे वि सूरिए गति- मण्डले गतिसमापन्नो भवति। एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि। नवरम् समावण्णे भवति, जता णं इतरे सूरिए गतिसमावण्णे भवति, (एवं गहे वि, एवं णक्खत्ते वित्ति) एवमुक्तेन प्रकारेण ग्रहेऽपि द्वावालापको तया णं इमे वि सूरिए गतिसमावण्णे भवति। एवं गहे वि, गक्खत्ते वक्तव्यौ, नक्षत्रेऽपि च / तद्यथा-" ता जया णं इमे गहे गइसामावण्णे वि। ता जता णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं भवति, तता णं इतरे वि भवइ, तया णं इतरे वि गहे गइसमावण्णे भवइ, ता जया णं इतेरे गहे चंदे जुत्ते जोगेणं भवति, जया णं इतरे चंदे जुत्ते जोगेणं भवति, गइसमावण्णे भवइ, तया णं इमे वि गहे गइसमावण्णे भवइ / " एवं तता णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं भवति / एवं सूरे वि, गहे वि, ण नक्षत्रेऽपि वाच्यम्।' ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं " इत्यादि सुगम, क्खत्ते वि।सया विणं चंदा जुत्ता जोएहिं,सता विणं सूरा जुत्ता नवरं (दु-हतो वित्ति) उभयतोऽपि दक्षिणोत्तरयोः, पूर्वपच्छिमयोर्वा / जोगहिं, सया विणं गहा जुत्ता जोगेहिं, सया वि णं णक्खत्ता सू०प्र० 10 पाहु० 22 पाहु०। (संवत्सरान्तेषु नक्षत्रचन्द्रयोगः ' संवजुत्ता जोगेहिं / दुहतो वि णं चंदा जुत्ता जोगेहिं, दुहतो वि णं च्छर 'शब्दे वक्ष्यते) (संवत्सरेषु चन्द्रः केन नक्षत्रेणाऽऽवृत्तिं योजयसूरा जुत्ता जोगहिं, दुहतो वि णं गहा जुत्ता जोगेहिं, दुहतो वि तीति ' आउट्टि ' शब्दे द्वितीयभागे 33 पृष्ठे उक्तम् ) (अर्द्धमासे केन णं णक्खत्ता जुत्ता जोगेहिं। नक्षत्रेण चन्द्रश्वारं चरतीति -- चंदमंडल ' शब्दे तृतीयभागे 1081 पृष्ठे " ता जेणं " इत्यादि / ता इति पूर्ववत् / अद्य विवक्षिते दिने येन उक्तम्) नक्षत्रेण सह सूर्यो यस्मिन् देशे योगं युनक्ति, स इमानि त्रीणि (27) नक्षत्राणां संस्थानानिषट्षष्ट्यधिकानि रात्रिंदिवशतानि उपादाय अतिक्रम्य, पुनरपि स ता क हं ते णक्खत्तसंठिती आहिता ति वदेजा ? ता सूर्यस्तस्मिन्नेव देशेतादृशेनैवान्येन नक्षत्रेण सह योगयुनक्ति, नतु तेनैव।। एते सि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अमिई णक्खत्ते गो--
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________________ णक्खत्त 1786 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्तमंडल सीसाऽऽवलिसंठिए पण्णते ? सवणे णक्खत्ते काहारसंठिए / णक्खत्तणाम(ण)-न०(नक्षत्रनामन्) नक्षत्राणामभिधायके शब्दे अनु०। पण्णत्ते 2, धणिट्ठा णक्खत्ते सउणिपलीणगसंठिए पण्णत्ते 3, नक्षत्राण्याश्रित्य यन्नाम तद्दर्शयतिसतभिसया णक्खत्ते पुप्फोवयारसंठिए पण्णत्ते 4, पुव्वापोट्ठ से किं तं णक्खत्तणाम? णक्खत्तणामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं वया णक्खत्ते 5, उत्तरभद्रवया णक्खत्ते अ ववीसंठिए पण्णत्ते जहा-कत्तिआहिं जाए कत्तिए, कत्तियादिण्णे, कत्तियाधम्मे, 6, रेवती णक्खत्ते णावासंठिए पण्णत्ते 7, अस्सिणी णक्खत्ते कत्तियासम्मे, कत्तियादेवे, कत्तियादासे, कत्तियासेणे, कत्तियाअस्सखंधगसंठिए पण्णत्ते८, भरणीणक्खत्ते भगसंठिएपण्णत्ते रक्खिए। रोहिणीहिं जाए रोहिणीए, रोहिणीदिण्णे, रोहिणी६, कत्तिया णक्खत्ते छुरघरसंठिएपण्णत्ते १०,रोहिणी णक्खत्ते धम्मे, रोहिणीसम्मे, रोहिणीदेवे, रोहिणीदासे, रोहिणीसेणे, सगडसंठिए पण्णत्ते 11, मगसिरे णक्खत्ते मगसीसाऽऽवलिसंठिए पण्णत्ते 12, अद्दा णक्खत्ते रुहिरबिंदुसंठिते पण्णत्ते 13, रोहिणीरक्खिए। एवं सव्वणक्खत्तेसु णामा भणियव्या। पुणव्वसू णक्खत्ते तुलासंठिए पण्णत्ते १४,पुस्से णक्खत्ते बद्ध एत्थ संगहणिगाहाओ माणगसंठिए पण्णत्ते 15, असिलेसाणक्खत्ते पडागसंठिए पण्णत्ते "कत्तिअ रोहिणि मगसिर, अद्दा य पुणव्वसू अ पुस्से अ। 16, महा णक्खत्ते पागारसंठिए पण्णत्ते 17, पुव्वाफग्गुणी तत्तो अ अस्सिलेसा, महा उ दो फग्गुणीओ अ॥१॥ णक्खत्ते अद्धपलियसंठिएपण्णत्ते 15, उत्तरा वि एवं चेव 16, हत्थो चित्ता साती, होइ विसाहा तहा य अणुराहा। हत्थे हत्थसंठिए पण्णत्ते 20, चित्ता णक्खत्ते महफुल्लगसंठिए जेट्ठा मूला पुवा-साढा तह उत्तरा चेव // 2 // पण्णत्ते 21, साई णक्खत्ते खीलगसंठिए पण्णत्ते 22, विसाहा णक्खत्ते दामणिसं ठिए पण्णत्ते 23, अणुराहा णक्खत्ते अभिई सवण धणिट्ठा, सतभिसया दो अ होति भद्दवया / एगावलिसंठिए पण्णत्ते 24, जेट्ठाणक्खत्ते गजदंत-संठिए पण्णत्ते रेवइ अस्सिणि भरणी, एसा णक्खत्तपरिवाडी"||३|| 25, मूले णक्खत्ते विच्छुयलंगूलसंठिए पण्णत्ते 26, पुव्वासाढा सेत्तं णक्खत्तणार्म। णक्खत्ते गयविक्कमसंठिए पण्णत्ते 27, उत्तरासाढा णक्खत्ते कृत्तिकासु जातः कार्तिकः, कृत्तिकाभिर्दत्तः कृत्तिकादत्तः / एवं सीहणिस्साइसंठिए पण्णत्ते 28 / कृत्तिकाधर्मः, कृत्तिकाशर्मः, कृत्तिकादेवः, कृत्तिकादासः, कृत्तिनक्षत्राणां संस्थानं वक्तव्यमिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह- " ता कासेनः, कृत्तिकारक्षितः / एवमन्यान्यपि रोहिण्यादिसप्तविंशतिकह ते " इत्यादि।' ता ' इति पूर्ववत् / कथं केन प्रकारेण भगवन् ! नक्षत्राण्याश्रित्य नामस्थापना द्रष्टव्या। तत्र सर्वनक्षत्रसंग्रहार्थ" कत्तिया नक्षत्राणां संस्थितिः संस्थानमा ख्यातमिति वदेत् ? एवमुक्त भगवानाह- रोहिणी " इत्यादि गाथात्रयं सुगमम्। नवरमभिजिन्नक्षत्रेण सह पठ्यमानेषु " ता एतेसिणं " इत्यादि।' ता इति पूर्ववत् / एतेषामनन्तरोदि- नक्षत्रेषु कृत्तिकाऽऽदिरेव क्रम इत्यश्विन्यादिक्रममुत्सृज्येत्यमेव तानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽभिजिन्नक्षत्रं गोशीर्षाऽऽवलिसंस्थिति | पठितव्यानीति। अनु०॥ प्रज्ञप्तम् / गोः शीर्ष, तस्याऽऽवली तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिः, तत्सम णक्खत्तणेमी-देशी०(विष्णी) दे० ना० 4 वर्ग। संस्थान प्रज्ञप्तम्। श्रवणनक्षत्रं कासारसंस्थितं प्रज्ञप्तम्। एवं शेषाण्यपि णक्खत्तमंडल-न०(नक्षत्रमण्डल) नक्षत्राणां संबन्धिनि मण्डले, जं०। स्वस्वसंस्थानानि नक्षत्राणि भावनीयानि, नवरं दामनी पशुबन्धन, शेष नक्षत्रमण्डलस्य अष्टभिरिः प्ररूपणातत्राष्टौ द्वाराणि यथा-मण्डलप्रायः सुगमम्। संख्याप्ररूपणा 1, मण्डलचारक्षेत्रप्ररूपणा 2, अभ्यन्तराऽऽदिमण्डलसंस्थानसंग्राहिकाश्चेमा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्कास्तिस्रो गाथाः स्थायिनामष्टाविंशतेनक्षत्राणां परस्परमन्तरनिरूपणा 3, नक्षत्रविमा" गोसीसाऽऽवलि काहा-र सउणि पुप्फोवयार वावी य। नानामायामाऽऽदिनिरूपणम् 4, नक्षत्रमण्डलानां मेरुतोऽबाधानिरूपणम् नावा आसक्खंधग, भग छुरघरए य सगडुद्धी / / 1 / / 5, तेषामेवाऽऽयामाऽऽदिनिरूपणम् 6, मुहूर्तगतिप्रमाणनिरूपणम् 7, मिगसीसाऽऽवलि रुहिर-स्स विंदुतुल वद्धमाणग पडागा। नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमण्डलैः समवतारनिरूपणम् | पागारे पल्लंके, हत्थे महफुल्लए चेव // 2 // तत्राऽऽदौ मण्डलसंख्याप्ररूपणाप्रश्नमाह १खीलग दामणि एगा-वली य गयदंत विच्छुअअले य। गयविक्कमे व तत्तो, सीहनिसाई य संठाणा " // 3 // इति। कइ णं भंते ! णक्खत्तमंडला पण्णत्ता? गोयमा ! अट्ठ णज०७ वक्ष० / चं० प्र०१० पाहु०७ पाहु०। (नक्षत्राणां पड्-क्तयः' क्खत्तमंडला पण्णत्ता। जोइसिय शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1563 पृष्ठे उक्ताः) " कइणभंते!" इत्यादि।कति भदन्त! नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? (28) (नक्षत्राणामन्तर्बहिश्च चारः 'जोइसिय शब्देऽस्मिन्नेव भागे भगवानाह-गौतम ! अष्ट नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, अष्टाविंशतेरपि 1603 पृष्ठे प्रत्यपादि) नक्षत्राणां प्रतिनियतस्वस्वमण्डलेष्येतावत्स्वेव संवरणात्। णक्खत्तचंदजोग-पुं०(नक्षत्रचन्द्रयोग) सप्तविंशत्या नक्षत्रैः साकल्येन एतदेव क्षेत्रविभाग प्रश्नयतिचन्द्रस्य योगे, ज्यो०२ पाहु०। (नक्षत्रस्य चन्द्रेण योगो' णक्खत्त' शब्दे जंबुद्दीवे दीवे केवइयं ओगाहित्ता के वइया णक्खत्तमंडला 1780 पृष्ठे समुक्तः) पण्णता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे असीयं जोयण
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________________ णक्खत्तमंडल 1760 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णक्खत्तमंडल सयं ओगाहित्ता एत्थ णं दो णक्खत्तमंडला पण्णत्ता। लवणे णं समुद्दे केवइयं ओगाहेत्ता केवइया णक्खत्तमंडला पण्णत्ता ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिणि तीसे जोयणसए ओगाहित्ता एत्थर्ण छ णक्खत्तमंडला पण्णत्ता। एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुदीवे दीवे लवणसमुद्दे अट्ठ णक्खत्तमंडला भवंतीति मक्खायं। जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्क्षेत्रमवगाह्य कियन्ति नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीतमशीत्यधिक योजनशतमवगाह्यात्रान्तरे द्वे नक्षत्रमण्डले प्रज्ञाते। लवणसमुद्रे कियदवगाह कियन्ति नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-गौतम ! लवणसमुद्रे त्रीणि त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे षट् नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि। अत्रोपसंहारवाक्येनोक्तसंख्या मीलयति-एवमेव सपूर्वापरण जम्बूद्वीपे द्वीपेलवणसमुद्रे चाष्टौ नक्षत्रमण्डलानि भवन्ति, इत्याख्यातम् / मकारोऽत्राऽऽगमिकः। अथ मण्डलचारक्षेत्रप्ररूपणा २सव्वभंतराओ णं भंते ! णक्खत्तमंडलाओ केवइआए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते? गोयमा! पंचदसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते / / सर्वाभ्यन्तराद् भदन्त ! नक्षत्रमण्डलात् कियत्या अबाधया सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ! पञ्चदशोत्तराणि योजनशतान्यबाधया सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल प्रज्ञप्तम्। इदं च सूत्र नक्षत्रजात्यपेक्षया बोद्धव्यम् , अन्यथा सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थायिनामभिजिदादिद्वादशनक्षत्राणामवस्थितमण्डलकत्वेन सर्वबाह्यमण्डलस्यैवाभावात्। तेनायमर्थः संपन्नःसर्वाभ्यन्तरनक्षत्रमण्डलजालीयात सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डलजातीयमियत्या अबाधया प्रज्ञप्तमिति बोध्यम्।। अथाभ्यन्तराऽऽदिमण्डलस्थायिनामष्टाविंशतेनक्षत्राणां परस्परमन्तरनिरूपणा ३णक्खत्तमंडलस्स णं भंते ! णक्खत्तमंडलस्स य एस णं केवइयाए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दो जोयणाईणक्खत्तमंडलस्स णक्खत्तमंडलस्सय अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / / " णक्खत्त " इत्यादि / नक्षत्रमण्डलस्य नक्षत्रविमानस्य, नक्षप्रमण्डलस्य नक्षत्रविमानस्य च भदन्त ! क्रियत्या अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम! द्वेयोजने नक्षत्रविमानस्य नक्षत्रविमानस्य च अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् / अयमर्थः-अष्टास्वपि मण्डलेषु यत्र यत्र मण्डले यावन्ति नक्षत्राणां विमानानि, तेषामन्तरबोधकमिदं सूत्रम्। यथा अभिजिन्नक्षत्रविमानस्य श्रवणविमानस्य च परस्परमन्तरं द्वे द्वोजने, न तु नक्षत्रसत्कसर्वाभ्यन्तराऽऽदिमण्डलानामन्तरसूचकम, अन्यथा नक्षत्रमण्डलानां वक्ष्यमाणचन्द्रमण्डलसमवतारसूत्रेण सह विरोधात्। अथ नक्षत्रविमानानामायामाऽऽदिप्ररूपणा ४णक्खत्तमंडले णं भंते ! केवइयं आयामविक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं, केवइयं बाहल्लेणं पण्णते? गोयमा ! गाउयं आ याभविक्खंभेणं, तंतिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, अद्धगाउयं बाहल्लेणं पण्णत्ते। " णक्खत्त " इत्यादि / नक्षत्रमण्डलं भदन्त ! कियदायामविष्कभाभ्यां, कियत् परिक्षेपेण, कियद् बाहल्येनोस्त्वने प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ! गव्यूतमायामविष्कम्भाम्यां, तत्वैगुण्यात् विशेषात् परिक्षेपेण, अर्द्धगव्यूतं बाहल्येन प्रज्ञप्तमिति। संप्रत्येषामेव मेरुमधिकृत्याबाधाप्ररूपणा 5 - जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्वभंतरेणक्खत्तमंडले पण्णत्ते ? गोयमा? चोआलीसं जोयणसहस्साइं अट्ठ य बीसे जोयणसए अबाहाए सव्वभंतरे णक्खत्तमंडले पण्णत्ते। जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, अष्ट च विंशत्यधिकानि योजनशतान्य-बाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्। अथ बाह्यमण्डलाऽबाधां पृच्छतिजंबद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते ? गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साइं तिणि अ तीसे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णते। जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ! पश्चचत्वारिशद्योजनसहस्राणि, त्रीणि च त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यबाधया सर्ववाह्य नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्। अथ तेषामेवाऽऽयामाऽऽदिनिरूपणम् ६सव्वमंतरेणं भंते! णक्खत्तमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! णवणउतिजोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिण्णि अ जोयणसयसहस्साई पण्णरस सहस्साई एगूणणवतिं च जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। 'सव्वभंतरेणं इत्यादि प्राग्वत्। अथ सर्वबाह्यमण्डलं पृच्छतिसव्वबाहिरए णं भंते ! णक्खत्तमंडले केवइयं आयामविक्खंभेणं, केवइयं आयामपरिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! एगंजोयणसहस्सं छच्च सटे जोयणसए आयामविक्खंभेणं, तिण्णि अ जोयणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई तिण्णि अपण्णरमुत्तरे जोयणसए। " सव्वबाहिरए " इत्यादि प्राग्वत् / मध्यमेषु षट्सु मण्डलेषु तु चन्द्रमण्डलानुसारेणाऽऽयामविष्कम्भपरिक्षेपाः परिभाव्याः, अष्टावपि नक्षत्रमण्डलानि चन्द्रमण्डले समवतरन्तीति भणिष्यमाणत्वात्।
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________________ णक्खत्तमंडल 1761 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णक्खत्तमास अथ मुहूर्तगतिद्वारम्७जया णं परिक्खेवेणं भंते ! णक्खत्ते सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच जोयणसहस्साइं दोण्णि अ पण्णद्वे जोयणसए अट्ठारस भागसहस्से दोणि अ तेवढे भागसए गच्छइ मंडलं एक्कवीसाए भागसहस्सेहिं णवहि अ सट्टेहिं सएहिं छेत्ता। " जया णं " इत्यादि / यदा भदन्त ! परिक्षेपेण नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, तदैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ? नक्षत्रमित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनम् , अन्यथाऽभ्यन्तरमण्डलगतिचिन्तायां द्वादशानामपि नक्षत्राणां संग्रहाय बहुवचनस्यौचित्यात् / भगवानाह-गौतम ! पञ्च योजनसहस्राणि, द्वे च पञ्चषट्यधिकयोजनशते, अष्टादश च भागसहस्राणि, द्वे च त्रिषष्ट्यधिके भागशते गच्छति मण्डलमेकविंशत्या भागसहरौर्नवभिश्च षष्ट्यधिकैः शतैः छित्त्वा इति। अत्रोपपत्तिः-इह नक्षत्रमण्डलकाल एकोनषष्टिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य / सप्तषष्ट्यधिकत्रिंशद्भागानां त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणीति 56 / 360 इदानीमतदनुसारेण मुहूर्तगतिश्चिन्त्यते-तत्र रात्रिंदिवे त्रिंशन्मुहूर्ताः, तेषु उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकोनषष्टिर्मुहूर्तानाम्। ततः सवर्णनार्थ त्रिभिः शतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुणयित्वा उपरितनानि त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते, जातान्येकविंशतिसहस्राणि नव शतानि षष्ट्यधिकानि 21660 / अयं प्रतिमण्डलं परिधेः छेदकराशिः / तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिधिः 315086 / अयं च योजनाऽऽत्मको राशि गाऽऽत्मकेन राशिना भजनार्थः त्रिभिः सप्तषष्ट्यधिकैः शतैः 367 गुण्यते / जातम् 115637663 / अस्य राशेरेकविंशत्या सहरबैवभिः शतैः षट्यधिकैगि हृते लब्धानि 5265 / शेषम् 1826321660 भागाः / एतावती सर्वाभ्यन्तर-मण्डलेऽभिजिदादीनां द्वादशनक्षत्राणां मुहूर्तगतिः। अथ बाह्यनक्षत्रमण्डले मुहूर्तगति पृच्छतिजया णं भंते ! णक्खत्ते सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइय खेत्तं गच्छइ ? गोयमा! पंच जोयणसहस्साई तिणि अ एगूणवीसए जोयणसए सोलस य भागसहस्से तिणि अपण्णढे भागसए गच्छइ मंडलं एगवीसाए भागसहस्सेहिं णवहि असहेहिं सएहिं छेत्ता। " जया णं " इत्यादि / यदा भदन्त ! नक्षत्रं सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति, तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ? अत्राप्येकवचनं प्राग्वत्। भगवानाह-गौतम! पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि चैकोनविंशत्यधिकानि योजनशतानि षोडश च भागसहस्राणि त्रीणि च पञ्चषष्ट्यधिकानि भागशतानि गच्छति मण्डलमेकविंशत्या भागसहस्रनवभिश्च षष्ट्यधिकैः शतैः छित्त्वा इति / अत्रोपपत्तिः-अत्र मण्डले परिधिः 318315 / अयं त्रिभिः सप्तषष्ट्यधिकैः शतैः 367 गुण्यते, जातम् - 116821605 / अस्य राशेरेकविंशत्या सहजैवभिः शतैः षष्ट्यधिकैः भागे लब्धानि 5316 योजनानि / शेषम् 1636521660 भागाः। / एतावती सर्वबाह्यनक्षत्रमण्डले मृगशीर्षप्रभृतीनामष्टानां नक्षत्राणां मुहूर्तगतिः / उक्ता तावत् सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डलयर्तिनां नक्षत्राणां मुहूर्तगतिः। अथ नक्षत्रतारकाणामवस्थितमण्डलकत्वेन प्रतिनियतगतिकत्वेन चावशिष्टेषु षट्षु मण्डलेषु मुहूतंगतिपरिज्ञानं दुष्करमिति तत्कारणभूतं मण्डलपरिज्ञानं कर्तुं नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमण्डलेषु समवतार प्रश्नमाह - एते णं भंते ! अट्ठ णक्खत्तमंडला कतिहिं चंदमंडले हिं समोअरंति? गोयमा ! अट्ठहिं चंदमंडलेहिं समोअरंति / तं जहा-पढमे चंदमंडले, ततिए, छठे, सत्तमे, अट्ठमे, दसमे, इक्कारसमे, पण्णरसमे चंदमंडले। " एते णं " इत्यादि / एतानि भदन्त ! अष्टौ नक्षत्रमण्डलानि कतिषु चन्द्रमण्डलेषु समवतरन्ति अन्तर्भवन्ति ? चन्द्रनक्षत्राणां साधारणमण्डलानि कानीत्यर्थः ? भगवानाह-गौतम ! अष्टासु चन्द्रमण्डलेषु समवतरन्ति। तद्यथा-प्रथमे चन्द्रमण्डले प्रथमं नक्षत्रमण्डलं चारक्षेत्रम्, संचारिणामनवस्थितचारिणां च सर्वेषां ज्योतिष्काणां जम्बूद्वीपे अशीत्यधिकयोजनशतमवगावि मण्डलप्रवर्तनात्। तृतीये चन्द्रमण्डले द्वितीय नक्षत्रमण्डलम्। एते च द्वेजम्बूद्वीपे। षष्ठलवणे भाविनिचन्द्रमण्डले तृतीयम् / तत्रैव भाविनि सप्तमे चतुर्थम्। अष्टमे पञ्चमम्। दशमे षष्ठम्। एकादशे सप्तमम् / पञ्चदशे अष्टमम् / शेषाणि तु द्वितीयाऽऽदीनि सप्त चन्द्रमण्डलानि नक्षत्रैविरहितानि / तत्र प्रथमे चन्द्रमण्डले द्वादश नक्षत्राणि / तद्यथा-अभिजित् , श्रवणः, धनिष्ठा, शतभिषक, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तरा-भाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, स्वातिश्च / द्वितीये पुनर्वसु, मघा च / तृतीये कृत्तिका। चतुर्थे रोहिणी, चित्रा च। पञ्चमे विशाखा / षष्ठे अनुराधा / सप्तमे ज्येष्ठा। अष्टमे मृगशिरः, आर्द्रा, पुष्यः, अश्लेषा, मूलो, हस्तश्च / पूर्वाषाढोत्तराषाढयो· द्वे तारे अभ्यन्तरतो, द्वे द्वे बाह्यत इति। एवं स्वस्वमण्डलावतारसत्कचन्द्रमण्डलपरिध्यनुसारेण प्रागुक्तरीत्या द्वितीयाऽऽदीनामपि नक्षत्रमण्डलाना मुहूर्तगतिः परिभावनीया। उक्ता प्रति- मण्डलं चन्द्राऽऽदीनां योजनाऽऽत्मिका मुहूर्तगतिः। जं०७ वक्षः / णक्खत्तमास-पुं०[ न(ना)क्षत्रमास] चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तमाने निष्पन्न इत्युपचारतो मासोऽपि नक्षत्रं, नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः, स चासो मासश्च / चन्द्रश्वारं चरन यावता कालेनाभिजित आरभ्योत्तराषाढानक्षत्रपर्यन्त गच्छति तत्कालप्रमाणे मासभेदे, व्य०१ उ०। नि० चू० / स्था०। तन्मानम्-नक्षत्रमासः-सप्तविंशतिरहोरात्रः, एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य / नक्षत्रसंवत्सरे ह्यहोरात्रास्त्रीणि शतानि सप्तविंशत्यधिकानि, एकपञ्चाशच सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य। ततस्त्रयाणां शतानां सप्तविंशत्यधिकानां द्वादशभिर्भागो ह्रियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, शेषास्त्रयस्तिष्ठन्ति / तेऽपि सप्तषष्टिभागकरणार्थं सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे। 201 / येऽपि च उपरितना एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः, तेऽपि
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________________ णक्खत्तमास 1762 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णगर चतत्र प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वेशते द्विपञ्चाशदधिके 252 // तेषां द्वाद-शभिर्भागे त्सरः। ततः श्रावणाऽऽदिद्वादशविधो नक्षत्रसंवत्सरः। वा इति पक्षान्तरहृते लब्धा एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, आगतं यथोक्त नक्षत्रमास- सूचने। अथवा बृहस्पतिर्महाग्रहो द्वादशभिः संवत्सरैयोगमधिकृत्य यत् परिमाणम्। ज्यो०२ पाहु०। नि० चू० / बृ०।" एगमेगेणं णक्खत्तमासे सर्व नक्षत्रमण्डलमभिजिदादीन्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिसमापयति, सत्तावीसाहिं राइंदियाहिं राइंदियग्गेणं पण्णत्ता " / स० 27 सम०। तावान काल-विशेषो द्वादशवर्षप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः / जं०७ वक्षः। ('मास 'शब्देऽन्यद्वक्ष्यते) च० प्र०। उक्तस्वरूपे प्रमाणसंवत्सरभेदे, वक्ष्यमाणस्वरूपे प्रमाणसंवणक्खत्तमुह-न०(नक्षत्रमुख) चन्द्रे,"णक्खत्ताण मुहं बूहि, णक्खत्ताण त्सरभेदे, वक्ष्यमाणस्वरूपे लक्षणसंवत्सरभेदे च। मुहं चंदो। “उत्त० 25 अ०। तत्स्वरूपंचणक्खत्तविचय-पुं०(नक्षत्रविचय) विपूर्वश्चिड् स्वभावात् स्वरूपनिर्णये ताणक्खत्तेणं संवच्छरस्स पंचविहं लक्खणं पण्णत्ते / तं जहावर्तते। तथा चोक्तमन्यत्र-" आप्तवचन प्रवचनं, ज्ञात्वा विचयस्तदर्थ- " समगं णक्खत्ता जोगं, जोएंति समगं उऊ परिण-मंति। निर्णयनम् / " तत्र विचयनं विचयः, नक्षत्राणां विचयो नक्षत्रविषयः / णऽचुण्ह णातिसीते, बहुउदओ होति णक्खत्तो " // 1 // नक्षत्राणां स्वरूपनिर्णय, सू०प्र०१ पाहु०। (सच' णक्खत्त' शब्देऽत्रैव " ताणक्खत्त " इत्यादि। ' ता ' इति / तत्र नक्षत्रसंवत्सरस्य भागे 1777 पृष्ठे उक्तः) लक्षणमधिकृत्य पञ्चविधः प्रज्ञप्तः। किमुक्तं भवति?-नक्षत्रसंवत्सरस्य णक्खत्तसंवच्छर-पुं०[न(ना)क्षत्रसंवत्सर नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः। पञ्चविध लक्षणं प्रज्ञप्तमिति / तदेव गाथयाऽऽह-(समग णक्खत्ता जोग किमुक्तं भवति ?-चन्द्रश्वारं चरन् यावता कालेनाभिजित आर- जोएति त्ति) यस्मिन् संवत्सरे समकं समकमेवएककालमेव,ऋतुभिः भ्योत्तराषाढानक्षत्रपर्यन्तं गच्छति तत्प्रमाणो नाक्षत्रो मासः / यदि वा सहेति गम्यते। नक्षत्राणि उत्तराषाढाप्रभृतीनि योगं युञ्जन्ति सन्निहितां चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तनतानिष्पन्न इत्युपचारतोमासोऽपि नक्षत्रम्। पौर्णमासी परिसमापयन्ति / तथा समकमेवएककालमेव, तया तया स च द्वादशगुणो नक्षत्रसंवत्सरः। ज०७ वक्ष० / चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डल परिसमाप्यमानया पौर्णमास्या सह ऋतवो निदाघाऽऽद्याः परिणमन्ति भोगकालो नक्षत्रमासः, स च सप्तविंशतिर्दिनानि, एकविंशतिः परिसमाप्तिमुपयान्ति / इय-मत्र भावना-यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्रैर्मासससप्तषष्टिभागा दिवसस्येत्येवविधद्वादशमासमिते संवत्सरभेदे, स्था० 5 दृशनामकैस्तस्य तस्य ऋतोः पर्यन्तवर्ती मासः परिसमाप्यते, तेषु चता ठा०३ उ० / स चायं त्रीणि शतानि अह्रां सप्तविंशत्युत्तराणि एकपञ्चाशय ता पौर्णमासी परिसमापयन्सु तया तया पौर्णमास्या सह ऋतवोऽपि सप्तषष्टिभागा इति। स्था० 5 टा० 3 उ० / निदाघाऽऽदिकाः परिसमाप्तिमुपयान्तिा यथा-उत्तराषाढानक्षत्रे आषाढी पौर्णमासी परिसमापयति, तया आषाढ्या पौर्णमास्या सह निदा-घोऽपि संप्रति नक्षत्रसंवत्सरमाह ऋतुः परिसमाप्तिमुपैति,स नक्षत्रसंवत्सरः, नक्षत्रानुरोधेन तथापरिणणक्खत्तचंदजोगो, वारसगुणिओ उणक्खत्तो। ममानत्वात् / एतेन च लक्षणद्वयमभिहितं द्रष्टव्यम् / तथा न विद्यते नक्षत्रचन्द्रयोगः सप्तविंशत्या नक्षत्रैः साकल्येन य एकत्र चन्द्रेण योगः, अतिशयेन उष्णम् उष्णरूपः परितापो यस्मिन् स नात्युष्णः, तथा न एष द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रो नक्षत्रसंवत्सरो भवति / अत्र पुनरेकः विद्यते अतिशयेन शीत यत्र सनातिशीतः। बहु उदकं यस्मिन् स बहूदकः / समस्तनक्षत्रयोग्यपर्याय एव नक्षत्रमासः। स च सप्तविंशतिरहोरात्राः, एवंरूपैः पञ्चभिः समग्रैर्लक्षणैरूपेतो भवति नक्षत्रसंवत्सरः। चं० प्र०१० एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य, एष राशिर्यदा द्वादशभिर्गुण्यते पाहु० 20 पाहु० / स्था०। तदात्रीण्यहोरात्रशतानि सप्तविंशत्यधिकानि, एकपञ्चाशच सप्तषष्टिभागा / णक्खि(ण)-त्रि०(नखिन) नखाः करजा विद्यन्ते येषां ते नखिनः / अहोरात्रस्य। एतावत्प्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः / ज्यो०२ पाहु० / प्रशंसायामत्र मतुप, यथा रूपवती कन्येत्यादिषु।" द्वितीय-तुर्ययोरुनामनिरुक्तिमुक्त्वाऽथ तेषां भेदानाह परि पूर्वः " | 8 | 2160 / द्वितीयतुर्ययोxित्वप्रसङ्गे उपरि पूर्वी णक्खत्तसंवच्छरेणं भंते! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! दुवाल भवतः / (यथा-" वक्खाणं, वग्यो, मुच्छा, णिज्झरो," इत्यादि।) सविहे पण्णत्ते / तं जहा-सावणे, भद्दवए, आसोए० जाव अ इति खकारस्य ककारः, द्वित्वं च। सुनखेषु, बृ० 1 उ०। साढे / जंवा विहप्फई महग्गहे दुवालसेहिं संवच्छरेहिं सव्वण- णग-पुं०(नग) पर्वते, औ०। जी० / तं०। सूत्र० / ज्ञा० / प्रश्न०।" जहा क्खत्तमंडलं समाणेइ / सेत्तं णक्खत्तसंवच्छरे / / से णगाणं पवरे सुमहं मंदरो गिरी।" उत्त०११ अ०। वृक्षे च / वाच०। "णक्खत्त " इत्यादि। नक्षत्रसंवत्सरो भगवन् ! कतिविधः प्रज्ञ-सः? | णगय-न०(नाग्न्य) नग्नस्य भावो नान्यम् / सरजस्कत्वे, " भूइगहणं भगवानाह-गौतम ! द्वादशविधः प्रज्ञाप्तः / तद्यथा-श्रावणः, भाद्रपदः, जह नगयाणं / " संथा। आश्विनः / यावत्पदात् कार्तिकाऽऽदिसंग्रहः / द्वादशस्त्वाषाढः / अयं णगर-न०(नकर) नास्मिन् करोऽस्तीति नकरम् / नखाऽऽदित्वान्नभावः-इहैकः समस्तनक्षत्रयोगपर्यायो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः। जोऽकाराभावः / बृ० 1 उ० / उत्त० / आचा० / नि० चू० / कल्प० / ततो ये नक्षत्रसंवत्सरस्य पूरका द्वादश समस्तनक्षत्रयोग्यपर्यायाः स्था० / अष्टादशकररहिते, भ०१श०१ उ० / प्रज्ञा० / स्था० / उत्त। श्रावणभाद्रपदाऽऽदिनामानः, तेऽप्यवयवे समुदायोपचाराद नक्षत्रसंव- व्य० / ज्ञा० / ग० ! अकरदायिलोकाऽऽवासे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार।
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________________ णगर 1793 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णगरी *नगर-न० / चतुर्गोपुरोद्भासिनि पत्तने, औ० / जं०। " ग्रामो वृत्यावृतः स्याद् , नगरमुरुचतुर्गोपुरोद्भासिशोभम् , खेट नद्यद्रिवेष्ट, परिवृतमभितः खर्वट पर्वतेन। ग्रामैर्युक्तं मट(ड)म्बं, मिलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनि, द्रोणाऽऽख्यं सिन्धुवेलावलयितमव संबाधनं वाऽद्रिशृङ्ग || 1|| सूत्र०२ श्रु०२ अ०। "पुण्यक्रियाऽऽदिनिपुणे-श्चातुर्वर्ण्यजनैर्युतम्। अनेकजातिसंबद्धं, नैकशिल्पिसमाकुलम् // सर्वदेवतसंनद्धं, नगरं त्वभिधीयते।" वाच०। नगरवासिषु प्रकृतिषु, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / औ० / सैन्यनिवासिप्रकृतिषु, भ०७ श०६ उ०। जगरगुत्तिय-पुं०(नगरगुप्तिक) नगररक्षके, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ० कोट्टपाले, / प्रश्न०२ आश्र० द्वार। णगरट्ठाण-न०(नगरस्थान) उद्धसग्रामस्थाने, कल्प०४ क्षण। णगरणिद्धमण-न०(नगरनिर्धमन) नगरजलनिर्गमने, भ०३ श०७ उ० / नगरजलनिर्गमनक्षाले, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। णगरणिवेस-पुं०(नगरनिवेश) नगरवासकल्पनायाम् , स०७२ सम० / णगरधम्म-पुं०(नगरधर्म) नगराऽऽचारे, स्था० 10 ठा० / णगरमाण-न०(नगरमान) नगरस्य द्वादशयोजनाऽऽयामनवयो - जनव्यासाऽऽदिपरिज्ञाने, कलशाऽऽदिनिरीक्षणपूर्वक सूत्रन्यासयथास्थानवर्णाऽऽदिव्यवस्थापरिज्ञाने, जं० / पशचत्वारिंशोऽयं कलाभेदः। ज०२ वक्षः / ज्ञा० / स०। णगरमारी-स्त्री०(नगरमारी) नगरवासिलोकानां मारिकृते प्राणक्षये, जी० 3 प्रति० / णगररक्खिय-पुं०(नगररक्षिक) नगरं रक्षति यः स नगररक्षिकः / कोट्टपाले, नि० चू० 4 उ०। णगरवह-पुं०(नगरवध) सर्वेषां नगरवासिनामपराध्यनपराध्यविवेकेन प्रत्यनीकराजाऽऽज्ञया मारणे," से सुच्चई नगरवहे व सद्दे। " अथ तेषां नारकाणा भयानकशब्दो नगरवध इव श्रूयते / यथा नगर-संबन्धी महानाक्रन्दः स्यात्तादृशे, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०१ उ०। णगराय-पुं०(नगराज) मन्दरे,मेरौ च, स्था०६ ठा०। णगरावास-पुं०(नगराऽऽवास) नगराणामावासेषु, नगररूपेषु वा आवासंषु, स० णगरी-स्त्री०(नगरी) पुर्याम् , औ०। तवर्णकःते णं काले णं ते णं समए णं चंपा नामं नयरी होत्थारि। द्धस्थिमियसमिद्धा,पमुझ्यजणजाणवया, आइण्णजणमणु-स्सा, हलसयसहस्ससंकिट्ठविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमा, कुक्कुडसंडेयगामपउरा, उच्छुजवसालिकलिया, गोमहिसगवेलगप्पभूता, आयारवंतचेइयजुवइविविहसंणिविट्ठबहुला, (अरिहंतचेइयजणवयविसण्णिविट्ठबहुला इति पाठान्तरम्।) उ- | क्वोडियगायगंठिभेयभडतक्करखंडरक्खरहिया, खेमा, णिरुवदवा, सुभिक्खा, पासंडिगिहत्थवीसत्थसुहावासा, अणेगको डिकुडुं बियाऽऽइण्णणिव्वुयसुहा, णडणट्टगजल्लमल्लमुट्ठियवेलंवयकहगपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंबवीणियअणेगतालायराणुचरिया, आरामुजाणअगडतलागदीहियवप्पिणगुणोववेया, (णंदणवणसण्णिभप्पगासा' इति क्वचित् पाठः / ) उविद्धविउलगंभीरखायफलिहा, चक्कगयभुसुंढिओरोहसयग्घिजमलकवाडघणदुप्पवेसा, धणुकुडिलबंकपागारपरिक्खित्ता, कविसीसयवट्टरइयसंट्ठियविरायमाणा, अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणउण्णयसुविभत्तरायमग्गा, छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला, विवणिवणियछेत्तसिप्पियाऽऽइण्णणिव्वुयसुहा, सिंघाडगतिगचउक्कचचरपणियाऽऽवणविविहवत्थुपरिमंडिया, सुरम्मा, नरवइविइण्णमहिवइपहा, अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपकरसीयसंदमाणीयाऽऽइण्णजाणजुग्गा विमुउलणवणलिणिसोभियजला, पंडरवरभवणसण्णिमहिया, उत्ताणणयण पेच्छणिज्जा, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा पडिरूवा। तत्र योऽयं णशब्दः स वाक्यालङ्कारार्थः। ते' इत्यत्र च य एकारः, स प्राकृतशैलीप्रभवः। यथा-' करेमिभंते!" इत्यादिषु। ततोऽयं वाक्यार्थी जातः-तस्मिन् काले तस्मिन् समये, यस्मिन्नसौ नगरी वभूवेति / अधिकरणे चेयं सप्तमी। अथकालसमययोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यतेकाल इति सामान्यकालः वर्तमानावसर्पि-ण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः / समयस्तुतद्विशेषः, यत्र सा नगरी, स राजा, वर्द्धमानस्वामी च बभूव / अथवा-तृतीयैवयम्। ततश्च तेन कालेन अवसर्पिणीचतुर्थाऽऽरकलक्षणेन हेतुभूतेन, समयेन तद्विशेषभूतेन हेतुना चम्पा नाम नगरी(होत्थ त्ति) अभवदासीदित्यर्थः / ननु चेदानीमपि साऽस्ति, किं पुनरधिकृतग्रन्थकरणकाले, तत्कथमुक्तमासीदिति ? उच्यते-अवसर्पिणीत्वात्कालस्य वर्णकग्रन्थवर्णितविभूतियुक्ता सा इदानीं नास्तीति / (ऋद्धस्थिमियसमिद्धा) ऋद्धा भवनाऽऽदिभिवृद्धिमुपगता, स्तिमिता भयवर्जितत्वेन स्थिरा, समृद्धा धनधान्याऽऽदियुक्ता / ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः / (पमुइयजणजाणवया) प्रमुदिता हृष्टाः, प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावात्, जना नगरीवास्तव्यलोकाः, जानपदाश्च जनपदभवाः, तत्राऽऽयाताः सन्तो यस्याम , सा प्रमुदितजनजानपदा। पाठान्तरे-" पमुइयजणुजाणजणवया / तत्र प्रमुदितजनान्युद्यानानि जनपदाश्च यस्यां सा तथा / (आइण्णजणमणुरूसा) मनुष्यजनेनाऽऽकी संकीणा, मनुष्यजनाऽऽकीर्णेति वाच्ये राजदन्ताऽऽदिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्येत्युक्तम् / आकीर्णो वा गुणव्याप्तो मनुष्यजनो यस्यां सा तथा / (हलसयसहरससंकिट्टविकिट्ठलट्टपण्णत्तसेउसीमा) हलानां लागलाना शतैः, सहरनैश्च, शतसहस्रैर्वा लक्षः, संकृष्टा विलिखिता विकृष्ट दूरं यावत् , अविकृष्टा वा आसन्ना, लष्टा मनोज्ञा, कर्षकाभिमतफलसाधनसमर्थत्वात् / (पण्णत्त ति) योग्यीकृता बीजवपनस्य सेतुसीमा मार्गसीमा यस्याः सा तथा। अथवा संकृष्टाऽऽदिविशेषणविशिष्टानि सेतूनि कुल्या जलसेकक्षेत्राणि सीमासु यस्याः सातथा। अथवा-हलशतसहस्राणा सं
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________________ णगरी 1764 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णगरी कृष्टेन संकर्षणेन विकृष्टा दूरवर्तिन्यो लष्टाः प्रज्ञपिताः कथिताः सेतुसीमा यस्याः सा तथा ; अनेन तज्जनपदस्य लोकबाहुल्यं, क्षेत्रबाहुल्यं चोक्तम् / (कुकुडसडेयगामपउरा) कुकुटाः ताम्रचूडाः, षण्डेयाः पण्डपुत्रकाः षण्डा एव, तेषां ग्रामाः समूहास्ते प्रचुराः प्रभूताः यस्यां सा तथा ; अनेन लोकप्रमुदितत्वं व्यक्तीकृतम् : प्रमुदितो हि लोकः क्रीडाऽऽद्यर्थ कुकुटान् पोषयति, षण्डांश्च करोतीति / (उच्छुजवसालिकलिया) पाठान्तरेण-" उच्छुजवसालिमालिणीया / " एत द्व्याप्तेत्यर्थः / अनेन च जनप्रमोदकारणमुक्तं, न ह्येवंप्रकारवस्त्वभावे प्रमोदो जनस्य स्यादिति। (गोमहिसगवेलगप्पभूता) गवादयः प्रभूताः प्रचुरा यस्यामिति वाक्यम्, गवेलका उरभ्राः (आयारवंतचेइयजुवइविविहसण्णिविट्ठबहुला) आकारवन्ति सुन्दराऽऽकाराणि, आकारचित्राणि वा यानि चैत्यानि देवताऽऽयतनानि, युवतीनां च तरुणीनां, पण्यतरुणीनामिति हृदयम् / यानि विविधानि सन्निविष्टानि सन्निवेशनाति पाटकाः,तानि बहुलानियस्यांता तथा।" अरिहंतचेइयजणवइविसण्णिविट्ठबहुला" इति पाठान्तरम्। तत्रार्हचैत्यानां जनानां व्रतिनां च विविधानि यानि सन्निविष्टानि पाटकास्तैर्बहुलेति विग्रहः।" सुजागचित्तचेइयजूयचिइसण्णिविट्टबहुला" इति च पाठान्तरम्। तत्र च सुयागाः शोभनयज्ञाः, चित्रचैत्यानि प्रतीतानि, यूपचितयो यचेषु यूपचयनानि, द्यूतानि वा क्रीडाविशेषाश्चितयस्तेषां सन्निविष्टानि निवेशाः, तैर्ब-हुला या सा तथा। (उक्कोडियगायगठिभेयभडतक्करखंडरक्खरहिया) उत्कोटा उत्कोचा, लश्चेत्यर्थः / तवा ये व्यवहरन्ति ते औस्कोटिकाः, गात्रात्मनुष्यशरीरावयवविशेषात् कट्यादेः सकाशाद ग्रन्थि कार्षापणाऽऽदिपुट्टलिकां भिन्दन्त्याच्छिान्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदकाः / " उक्कोडियगाहगंठिभेय " इति च पाठान्तर व्यक्तम्। भटाश्वारभटाः बलात्कारप्रवृत्तयः, तस्करास्त एव चौर्यं कुर्वन्तीत्येवंशीलाः, खण्डरक्षा दण्डपाशिकाः, शुल्कपाला वा, एभीरहिता वा सा तथा; अनेन तत्रोपद्रवकारिणामभावमाह / (खेमा) अशिवाभावात् / (णिरुबद्दवा) निरुपद्रवा, अविद्यमानराजाऽऽदिकृतोपद्रवेत्यर्थः / (सुभिक्खा) सुष्टु मनोज्ञा प्रचुरा भिक्षा भिक्षुकाणां यस्यां सा सुभिक्षा, अत एव पाषण्डिनां गृहस्थानां च (वीसत्थसुहा-वासा) विश्वस्तानां निर्भयानामनुत्सुकानां वा सुखः सुखस्वरूपः शुभो वाऽऽवासो यस्यां सा तथा। (अणेगकोडिकुडुंबियाऽऽइण्णनिव्वुयसुहा) अनेकाः कोटयो द्रव्यसङ्ख्यानां स्वरूपपरिमाणे वा येषां ते अनेककोटयः, तैः कौटुम्बिकैः कुटुम्बिभिराकीर्णा सकुलाया सा तथा। सा चासो निर्वृता च सन्तुष्टजनयोगात्सन्तोषवतीति कर्मधारयः, अतएव सा चासौ सुखायशुमा वेति कर्मधारयः। (नडनट्टगजल्लमल्लमुट्टियवेलंबयकहगपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंबवीणियअणेगतालायराणुचरिया) नटाः नाटकानां नाटयितारः, नर्तका ये नृत्यन्ति, अङ्किल्ला इत्येके / जल्ला वरत्राखेलकाः, राज्ञस्तोत्रपाठका इत्यन्ये / मल्लाः प्रतीताः। मौष्टिका मल्ला एव, ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति / विडम्बकाः विदूषकाः, कथकाः प्रतीताः, प्लवका ये उत्प्लवन्ते, नद्यादिक वा तरन्ति। लासका ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारो वा, भाण्डा वा इत्यर्थः / आख्यायका ये शुभाशुभमाख्यान्ति।लवा महावंशाप्रखेलकाः, मवाश्चित्रफलकहस्ता भिक्षुकाः, ' तूणइल्ला ' तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणका | वीणावादकाः, अनेके च ये तालाचराःतालाऽऽदानेन प्रेक्षाकारिणः, तैरनुचरिता आसेविता या सा तथा। (आरामुजाणअगमतलागदीहियवप्पिणगुणोववेया) आरमन्ति येषु माधवीलतागृहाऽऽदिषु दम्पत्यादीनि क्रीडन्ति ते आरामाः, उद्यानानि पुष्पाऽऽदिसवृक्षसडकुलान्युत्सवाऽऽदौ बहुजनभोग्यानि (अगड त्ति) अवटाः कूपाः, तडागानि प्रतीतानि, दीर्घिका सारणी, (वप्पिण त्ति) केदारः / एतेषां ये गुणाः रम्यताऽऽदयः, तैरुपपेता युक्ता या सा तथा / उप अप इत इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपेतेति भवति / क्वचित्पठ्यते-" नंदणवणसण्णिभप्पगासा " नन्दनवन मेरोर्द्वितीयवनं, तत्प्रकाशसनिभः प्रकाशो यस्यां सा तथा। इह चैकस्य प्रकाशशब्दस्य लोप उष्ट्रमुख इत्यादाविवेति / (उविद्धविउलगंभीरखायफलिहा)' उविद्धं 'ऊर्द्ध विपुलं विस्तीर्ण गम्भीरमलब्धमध्यं खातमुपरि विस्तीर्णम् अधः सङ्कट, परिखा च अध उपरि च समा खातरूपा यस्यां सा तथा / (चक्कगयभुसुंढिओरोहसयग्घिजमलकवाडधणदुप्पवेसा) चक्राणि रथाङ्गानि, अरघट्टाङ्गानि वा, गदाः प्रहरणविशेषाः, भुसुण्डयोऽष्येवम्। अवरोधः प्रतोलिज्ञद्वारेष्ववान्तरप्रकारः संभाव्यते। शतघ्न्यो महायष्टयः, महाशिलावा, या उपरिष्टात्पातिताः सत्यः शतानि पुरुषाणां घ्नन्तीति, यमलानि समसंस्थितद्वयरूपाणि यानि कपाटानि घनानि च निश्छिद्राणि तैर्दु-प्रवेशा या सा तथा / (धणुकुडिलवंकपागारपरिक्खित्ता) धनुः कुटिलं कुटिलधनुः, ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता या सा तथा। (कविसीसयवट्टरइयसंठियविरायमाणा) कपिशीर्षकैर्वृत्तिर-चितैर्वर्तुलकृतैः संस्थितैर्विशिष्टसंस्थानवद्भिर्विराजमाना शोभमानाया सा तथा / (अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणउण्णय-सुविभत्तरायमग्गा) अट्टालकाः प्राकारोपरिवाश्रयविशेषाः, चरिका अष्टहस्तप्रमाणा नगरप्रकारान्तरालमार्गाः, द्वाराणि प्राकारद्वारिकाः, गोपुराणि पुरद्वाराणि, तोरणनि प्रतीतानि, उन्न-तानि गुणवन्ति उच्चानि च यस्यां सा तथा / सुविभक्ताः विविक्ता राजमार्गा यस्यां सा तथा / ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। (छयायरियरइयदढफलिहइंदकीला) छेकेन निपुणेनाऽऽचार्येण शिल्पिना रचितो दृढो बलवान् परिघोऽर्गला. इन्द्रकीलश्च गोपुरावयवविशेषो यस्यां सा तथा। (विवणिवणियच्छेत्तसिप्पियाऽऽइण्णणिव्युयसुहा) विपणीनां वणिक्पथानां हट्टमार्गाणा, वणिजांच वाणिजकानां च क्षेत्रं स्थानं या सा तथा। शिल्पिभिः कुम्भकाराऽऽदिभिराकीर्णा, अत एव जनप्रयोजनसंसिद्धिर्जनानां निर्वृतत्वेन सुखितत्वेन च निर्वृतसुखा च या सा तथा। वाचनान्तरेछेतशब्दस्य स्थाने छेयशब्दोऽधीयते। तत्र च छेकशिल्पिकाऽऽकीणे ति व्याख्येयम् / (सिंघाडगतिगचउक्कचचरपणियाऽऽवणविविहवत्थुपरिमंडिया) शृङ्गाटकं त्रिकोणं स्थान, त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति, चतुष्क रथ्याचतुष्कमेलकं, चत्वरं बहुरथ्याऽऽपातस्थानं, पणितानि भाण्डानि, तत्प्रधाना आपणा हट्टा विविधवस्तूनि अनेकविधद्रव्याणि, एभिः परिमण्डिता या सा तथा। पुस्तकान्तरेऽ. धीयते-'' सिंघाडगतिगचउक्कचचरचउम्मुह- महापहपहेसु पणियाऽऽपणविविहवेसपरिमंडिया। " तत्र चतुर्मुखं चतुरि देवकुलाऽऽदि, महापथो राजमार्गः, पन्थास्तदितरः, ततश्च शृङ्गाटकाऽऽदिषु पणिताऽऽपणैर्विविधवेशैश्च जनैर्विविधवेश्याभिर्वा परिमण्डिता या सा तथा / (सुरम्मा) अतिरमणीया,(नरवइपविइण्णमहिवइपहा)
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________________ णगरी 1765 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णग्गइ नरपतिना राज्ञा प्रविकीर्णो गमनाऽऽगमनाभ्या व्याप्तो महीपतिपथो राजमार्गो यस्यां सा तथा / अथवा-नरपतिना प्रविकीर्णा विक्षिप्ता निरस्ताऽन्येषा महीपतीना प्रभा यस्यां सा तथा / अथवा-नरपतिभिः प्रविकीर्णा महीपतेः प्रभा यस्यां सा तथा। (अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपकीय संदगाणियाणाजाणजुग्गा) अनेकैर्वरतुरगैमत्तकुञ्जरैः (रहपकरे त्ति) रथनिकरैः शिविकाभिः स्यन्दमानाभिराकीर्णा व्याप्ता यानैर्युग्यैश्च या सा तथा / अथवा-अनेके वरतुरगाऽऽदयो यस्यामाकीर्णानि च गुणवन्ति यानाऽऽदीनि यस्यां सा तथा। तत्र शिविकाः कूटाऽऽकारेण छादिताः ' जम्पान विशेषाः, स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणा जम्पानविशेषाः, यानानि शकटाऽऽदीनि, युग्यानि गोल्लविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिको पशोभितानि जम्पानान्येवेति। (विमुउलणवणलिणिसोभियजला) विमुकुलाभिर्विकसितकमलाभिर्नवाभिनलिनीभिः शोभितानि जलानि यस्यां सा तथा। (पंडुरवरभवणसण्णिमहिया) पाण्डुरैः सुधाधवलैः वरभवनैः प्रासादैः सम्यक निरन्तरं महितेव महिता पूजिता या सा तथा / (उत्ताणणयणपच्छणिज्जा) सौभाग्यातिशया-दुत्तानिकैरनिमिषितैर्नयनैलॊचनैः प्रेक्षणीया या सा तथा। (पासा-ईया) चित्तप्रसन्नकारिणी। (दरिसणिज्जा) यां पश्यचक्षुः श्रमं न गच्छति। (अभिरूवा) मनोज्ञरूपा। (पडिरूवा) द्रष्टारं द्रष्टार प्रति ' रमणीय ' रूपं यस्याः सा तथेति। औ० / च० प्र०। ज्ञा०रा०। णगाहिराय-पुं०(नगाधिराज) श्रीशत्रुञ्जयपर्वते, ती०१ कल्प। मगिंद-पुं०(नगेन्द्र) पर्वतप्रधाने मेरौ, सूत्र०१ श्रु०६ अ० / णगिण-त्रि०(नग्न) भावतो निर्ग्रन्थे, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। णम्ग-त्रि०(नग्न) नज-तः।" अधो मनयाम् "||2 / 78 / इति संयुक्तस्य नस्य लुक् / प्रा०२ पाद।" अनादौ शेषाऽऽदेशयोर्दित्वम् " / / 8 / 2 / 86 | इत्यनादौ वर्तमानस्य गस्य द्वित्वम्। प्रा०२ पाद। दिगम्बरे, नं०। आ० म०। जग्गइ-पुं०(नग्नजित्) गन्धारविषये पुरुषपुराधिपतौ स्वनामख्याते राज्ञि, आव० 4 अ०।" नमी राया विदेहेसु, गंधारेसु य णगई। " प्रव्रजित इति शेषः / उत्त०१८ अ०। अथास्य पूर्वभवचरितनिबद्धं वृत्तमुद्भाव्यतेअस्मिन् भरते पुण्ड्रवर्द्धनं नाम नगरमस्ति। तत्र सिंहस्थो राजा वर्तते गन्धारदेशाधिपतिः। तस्य राज्ञोऽन्यदा द्वावश्चौ प्राभृते समायातौ। तयोः परीक्षार्थमेकस्मिन् तुरङ्गे राजाऽधिरूढः, द्विताये तुरऽपरो नर आरूढः / तेन सममपरैश्वा श्ववारशतैः परिवृतो भूपतिर्याह्यामिकायां गतः / परीक्षा कुर्वता च राज्ञाऽश्वः प्रधानगत्या विमुक्तः। सोऽपि बलवता वेगेन निर्ययौ / यथा यथा राजा वल्गामाकर्षयति, तथा तथा स वायुवेगोऽभवत् / पुरोपवनान्यतिक्रम्य सोऽश्वो राजानं लात्वा महाटव्यां प्रविष्टः / श्रान्तेन भूपेन तदाऽस्य वल्गा विमुक्ता। अथ यदा वल्मामोचनेऽश्वः स्थिरीबभूव, तदा राजैन विपरीतमश्वं मन्यते स्म ततस्तस्मादुत्तीर्य राजा भूमिचरो बभू-व। तं च पानीयं पाययित्वा वृक्षे बबन्ध, स्वप्राणवृत्तिं च फलैर्विदधे / तत एकं नगमारुह्य क्वचित्प्रदेशे सुन्दरमेकं महावासं ददर्श / राजा कुतूहलात्तस्मिन्नावासे प्रविष्टः / तत्रैकाकिनी पवित्रगात्रां कन्यां भूपतिर्दृष्टवान्। सा राजानमागच्छन्तं दृष्ट्वा भूरिहर्षाऽऽसनंददौ / राज्ञा ऊचेका त्वम् ? कोऽयमद्रिनिवासः ? किमिदं रम्यं धाम ? सा प्राऽऽहभूपाल ! प्रथम मत्पाणिग्रहणं कुरु, साम्प्रतं सिंहविशिष्ट लग्नमस्ति, पश्चात्सर्वं वृत्तान्तमहं कथयिष्यामि। तयेत्युक्ते नरपतिस्तत्र कन्यया समं पूजितं जिनबिम्यं प्रणम्योद्वाहमाङ्गल्यमलञ्चकार / भूपतिना परिणीता सा कन्या विविधान् भोगोपचारान चकार, विचित्राश्च भक्तीर्दर्शयामास / अवसरे राजा तां प्रत्येवमाह-विमलः पुण्यैराग्योः संबन्धो जातोऽस्ति, पर त्वं स्ववृत्तान्तं पदकाऽसि त्वम् ? कथमत्रैकाकिनी वससि ? स्वभवमुक्ते सा स्वसंबन्धं मूलतो वक्तुमारेभेक्षितिप्रतिष्ठे नगरे जितशत्रुर्नूपोऽस्ति, सोऽन्यदा परदेशाऽऽयातचरानेवमाह-अहो ! मद्राज्ये किशिद् न्यूनमस्ति। ते प्राऽऽहु:-सर्वमस्ति तव राज्ये, परं विचित्रचित्रा सभा नास्ति / ततो नृपतिश्चित्रकरानाकार्य सभागृहभित्तिभागास्तेषां सर्वेषां समाश्चित्रयितुं दत्ताः / सर्वेऽपि चित्रकराः स्वस्वभित्तिभागान् गाढोद्यमेन चित्रयन्ते / तत्रैको वृद्धश्चित्रकरः सकलचित्रकलावेदी स्वभित्तिभागं चित्रयितुमारब्धवान्। सहायशून्यस्य तस्य निरन्तरं गृहतः कन-कमञ्जरी रूपवती तत्पुत्री भक्तं तत्राऽऽनयति। अन्यदा सा स्वगृहाद् भक्तमानयन्ती राजमार्गे गच्छन्त्यश्ववारमेकं ददर्श / स च बालस्त्रीवराकाऽऽदिजनसङ्कीर्णेऽपि राजमार्गे त्वरितमश्वमवाहयत्। लोकास्तु तद्भयादितस्ततो नष्टाः / साऽपि क्वचिन्नंष्ट्वा स्थिता, पश्चात् तत्राऽऽयाता / भक्तपात्रहस्तां तामागतां वीक्ष्य स वृद्धश्चित्रकरः पुरीषोत्सर्गार्थ बहिर्जगाम / एकत्राऽऽहारपात्रमाच्छादयित्वा सा क्वचिद्भित्तिदेशे वर्णकैर्मयूरापिच्छमालिलेखा अथतत्र राजा सं-प्राप्तः / भित्तिचित्राणि पश्यन कमार्यालेखिते केकिपिच्छे साक्षात्पिच्छमन्यमानः करं चिक्षेप। भित्त्यास्फालनतो नखभड्रेन विलक्षीभूतं तं नृपं सामान्यपुरुषमेव जानन्ती सा चित्रकरपुत्र्येवमाहचतुर्थः पादस्त्वं मया लब्धः / नृप प्राऽऽहपूर्व त्वया केन त्रयः पादा लब्धाः, साम्प्रतमहं कथं त्वया चतुर्थः पादो लब्धः? सा प्राऽऽह-श्रूयताम्- योऽद्य राजमार्गे त्वरितमश्वं वाहयन बालस्वीप्रमुखजनाना त्रासमुत्पादयन् दृष्टः, स मूर्खत्वे प्रथमः पादः / द्वितीयः पाद इतो राजा, यः कुटुम्बलोकसहितैश्चित्रकरैः समं भित्तिभागं जराऽऽतुरस्यैकस्यैव मम पितुर्ददौ / तृतीयः पादो मम पिता, यो नित्यं भक्ते समायाते बहिर्याति। चतुर्थस्तु त्वम् , योऽस्मिन् भित्तिदेशे मल्लिखिते मयूर-पिच्छे कर चिक्षेप। किमित्येवं त्वया न विमृष्टम्-यदत्र सुधाघृष्ट भित्तिदेशे निराधारा मयूरपिच्छस्थितिः कथम् ? एवं तस्या वचचातुरीरञ्जितो राजा तत्पाणिग्रहणवाञ्छकः सन् तस्याः पितुः समीपे स्वमन्त्रिणं प्रेषयित्वा तां प्रार्थितवान्। पित्राऽपि सा दत्ता, मुमुहुर्ते परिणीता, राज्ञः प्रकामं प्रेमपात्रा वभूव। सर्वान्तःपुरीषु च मुख्या जाता। विविधानि दूष्याणि, रत्नाऽऽभरणानि चाऽऽससाद / एकदा तया मदनाभिधान, स्वदासी रहस्येवंवभाषे-भद्रे! यदा मदनशान्तो भूपतिः स्वपिति, तदा त्वयाऽहमेवं प्रष्टव्यास्वामिनि ! कथां कथयेति / तयोक्तम्-अवश्यमहं तदानीं प्रश्नयिष्ये। अथ रात्रिसमये राजा दगृहे समायातः, तां भुक्त्वा रतश्रान्तो यावत् स्वपिति, तावता दास्या इयं पृष्टास्वामिनि ! कथां कथय / राज्ञी प्राऽऽहयावद्राजा निद्रां नाऽऽप्नोति तावन्मानं कुरु, पश्चात् त्वदगे यथेष्टं कथा कथयिष्यामि / राजाऽपि तां कथां श्रोतुकामः कपटनिद्रया सुष्वाप / पुनर्दास्या साम्प्रतं कथां कथयेति पृष्ट चित्रकरपुत्री कथा कथयितुमारेभे
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________________ णग्गई 1796 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णग्गइ मधुपुरे वरुणश्रेष्टयेककरप्रमाणं देवकुलमकारयत् , चतुःकरप्रमा-णो तथैवान्यरात्रों नृपे सुप्ते दासीपृष्टा राज्ञी प्राऽऽह-कश्चिद् नृपः स्वपत्न्यै देवस्तत्र स्थापितः, स तस्मै देवश्चिन्तितार्थदायको बभूव / अथ दासी दिव्यमलङ्कारवरं सुगुप्तभूमिगृहे रत्नाऽऽलोकात् सुवर्णकारैरजीघटत्। प्राऽऽह-एकहस्ते देवकुले चतुःकरप्रमाणो देवः कथं माति? इति तया तत्रैकः सुवर्णकारः सन्ध्यां पतितां ज्ञातवान्। राज्ञी प्राऽऽह-हे सखि ! पृष्ट सा राज्ञी प्राऽऽह-इम रहस्यं तव कल्यरात्रौ कथयिष्यामि, अद्यतु तेन रत्नाऽऽलोकसहिते सुगुप्तभूमिगृहे यामिनीमुखं कथं ज्ञातम् ? दासी निद्रा समायातीति प्रोच्य सा राज्ञी राज्ञः शय्यायाः पुरो भूमौ सुप्ता ! सा प्राऽऽह-नाहं वेद्मि, त्वमेव ब्रूहि। राज्ञी प्राऽऽह-साम्प्रत निद्रा समायातीदासी तां तथा दृष्ट्वा स्वगृहे गता / राजा मनस्येवं चिन्तयामास- त्युक्त्वा सुप्ता / द्वितीयदिनरात्रौ दासीपृष्टा सा प्राऽऽह-स सुवर्णकारो कल्परात्रावपीदं कथानकं मया श्रोतव्यमिति निश्चित्य सुप्तः रात्र्यन्ध आसीदिति ज्ञातं तेन। इति पञ्चमीकथा 5 / सुखनिद्रामवाप / द्वितीयदिनेऽपि राजा तस्या एवं गृहेरात्रौ समायातः, पुनरेकदा रात्रौ सुप्ते नृपे दासीपृष्टा सा प्राऽऽह-केनापि राज्ञा द्वौ रात्र्यड़ यावत् सुखं भेजे, पश्चाद्रतश्रान्तोऽपि पूर्वकथानक श्रवणाय मलिम्लुचौ निच्छिद्रपेट्यां क्षिप्तौ समुद्रमध्ये प्रवाहिती, क्वापि तटे सा कपटनिद्रया सुप्तः।दासी प्राऽऽह-स्वामिनि ! कल्यकथितकथानकरहस्य पेटी लग्ना केनचिद्नरेण गृहीता, उद्घाट्य तौ दृष्ट्वा पृष्टी- भोः ! युवयोरद्य वद। राज्ञी प्राऽऽह-एकहस्ते देवकुले चत्वारः करा यस्य स चतुःकरो देवो क्षिप्तयोः कतमो दिवसोऽयम् ? तयोर्मध्ये चैकः प्राऽऽह-अद्य चतुर्थो नारायणाऽऽदिस्तत्र स्थापित इति रहस्यम् / इति एका कथा 1 / दिवसः। राज्ञी प्राऽऽह-हे सखि! तेन चतुर्थो दिवसः कथं ज्ञातः? दासी अथ तृतीयदिनरात्रावपि राजा तथैव कपटनिद्रया सुप्तः। पुनः कथामद्य प्राऽऽह-अहंन वेधि,त्वमेव ब्रूहि। राज्ञीतुसाम्प्रतं निद्रा समायातीत्युक्त्वा कथयति दासी तामाह / सा प्राऽऽह-विन्ध्याचले पर्वते कोऽपि सुप्ता। द्वितीयदिने रात्रौ दासी-पृष्टा राज्ञी प्राऽऽह-स चतुर्थदिनवक्ता रक्ताशोकद्रुमः प्रौढोऽस्ति, तस्य घनानि पत्राणि सन्ति, परं छाया पुरुषस्तुर्यज्वरी वर्तते स्मेति तेन तथा प्ररूपितम्। इति षष्ठी कथा 6 / नास्ति। दासी प्राऽऽह-पत्राऽऽवृतस्य तस्य छाया कथं न जायते ? राज्ञी पुनरन्यदा दासीपृष्टा सा राज्ञी रात्रौ कथामाचख्यौ काचित् स्त्री प्राऽऽह-एतद्रहस्यं तव कल्यरात्रौ कथयिष्यामि, अद्याहं रतश्रान्ता सपत्नीभयेन निजाङ्गभूषणानि पेट्यां निक्षिप्य मुद्रांच दत्त्वाऽऽलोकभूमौ निद्रासुखमनुभविष्यामीत्युक्त्वा सुप्ता / सा दासी तु स्वगृहे गता। मुमोच। अन्यदा सा स्त्री सखीनिवासे गता, सपत्नीच विजनं विलोक्य अपररात्रावपि राजा भोगान् भुक्त्वा तथैव तत्र सुप्तः / दासी प्राऽऽह तां पेटीमुद्धाट्यानेकाऽऽभरणश्रेणिमध्यादेक हारं निष्कास्य स्वतनयायै स्वामिनि ! कल्यसत्ककथारहस्यं कथनीयम् / राज्ञी प्राऽऽह-तस्य ददौ / तनया च स्वपतिगृहे तं गुप्तं चकार / कियत्कालानन्तरं सा स्त्री वृक्षस्य सूर्याऽऽतप्तस्य मूवि छाया नास्ति, किन्त्वध एव छायाऽस्ति। तत्राऽऽयाता, तां पेटी दूरादवलोक्यैव ज्ञातवती-यदस्याः पेट्या इति द्वितीया कथा 2 / मध्यान्मम हारोऽनयाऽपहृत इति सपत्नी चौर्येण दूषयामास / सपत्नी शपथान् कुर्वती हारापहारं न मन्यते स्म / तदा सा स्त्री तां सपत्नी अथ पुनस्तथैव रात्रौ नृपे सुप्ते दासीपृष्टा राज्ञी प्राऽऽह-क्वचिन्निवेशे दुष्टदेवपादस्पर्शशपथायाऽऽकर्षितवती / तदानी भयभ्रान्ता सपत्नी तं कश्विदुष्टश्वरन् कदाऽपि बब्बूलतरुं ददर्श / तदभिमुखां ग्रीवां कुर्वन्नप्राप्त हारंतनयागृहादानीय तस्यै ददौ / दासी प्राऽऽह-हे स्वामिनि ! तया कथं शाखः प्रकामं खिन्नस्तस्यैव बब्बूलतरोरुपरिपुरीषोत्सर्ग कृतवान्।दासी ज्ञातो हारापहारः ? राज्ञी प्राऽऽह-कल्ये रात्रौ कथयिष्यामीत्यक्त्वा राज्ञी पपच्छ-हे स्वामिनि ! कथमेतद् घटते, स्व-ग्रीवया बब्बूलतरुन सुप्ता / द्वितीयदिन-रात्रौ पुनस्तया पृष्टा राज्ञी प्राऽऽह-सा पेटी प्राप्तः तदुपरि कथमसावुत्सर्ग चकार ? राज्ञी प्राऽऽह-अद्य निद्रा स्वच्छकाचमयी बभूवेति ज्ञातं तया। इति सप्तमी कथा 7 / समायाति, तेनैतत्कथारहस्यं कल्यरात्राववश्यं कथयिष्यामीत्युक्त्वा कस्यचिद्राज्ञः कन्या केनापि खेऽटेनापहृता। तस्य राज्ञश्वत्वारः पुरुषाः सुप्ता / कल्यदिनरात्रावपि तथैव नृपे सुप्ते दासीपृष्टा राज्ञी तत्कथातत्त्वं सन्ति-एको निमित्तवेदी, द्वितीयो रथकृत्, तृतीयः सहस्र-योधा, चतुर्थो प्राऽऽह-स उष्ट्रः कूपमध्यस्थं तं बब्बूलतरं ददर्शति घटत एवेदम्। इति वैद्यः। तत्र निमित्तवेदी दिशं विवेद। रथकृथिव्यं रथं चकार। खगामिनंत तृतीया कथा 3 / रथमारुह्य सहयोधा, वैद्यश्च विद्याधरपुरं गतौ / सहस्रयोधी तं खेऽटं पुनस्तथैव नृपे सुप्ते रात्रौ दासीपृष्टा सा राज्ञी कथामाचख्यौकस्मि हतवात् / हन्यमानेन तेन खेऽटेन कन्या-शिरश्छिन्नम् , तदैव तेन श्चिन्नगरे काचित्कन्या भृशं रूपसौभाग्यवत्यासीत् , तवरणार्थ वैद्येनौषधेन शिरः संयोजितम्। राजा तु पश्चादागतेभ्य एभ्यश्चतुर्यस्ता तन्मातापितृभ्यां त्रयो भरा आहूताः समायाताः / तदानीं फणिना दष्टा सुतां ददौ / कन्या प्राऽऽह-एषु मध्ये यो मया सह चिताप्रवेशं करिष्यति, सा कन्या मृता। तया समं मोहादेको वरस्तचितायां प्रविष्टो भस्मसाद् तमहं वरिष्यामि। इति प्रोच्य सा कन्या सुरङ्गाद्वारि रचितायां चितायां बभूव / द्वितीयस्तद्भरमपिण्डाऽऽदाता तद्भरमोपरि वासं चकार / प्रविष्टा / यस्तया सह तत्र प्रविष्टः, स ता कन्यामूढवान् / दासी प्राऽऽहतृतीयस्तु सुरमाराध्यामृतं प्राप्तः। तदमृतेन तचितायां सिक्तायां कन्यां, हे स्वामिनि! चतुर्पु मध्ये कोऽत्र प्रविष्टः? राज्ञी प्राऽऽह-अद्य रतिश्रान्ताया प्रथमं वरं च सद्योऽजीवयत्। कन्याऽप्युत्थिता तान् त्रीन् वरान् ददर्श / मे निद्रा समायातीत्युक्त्वा सुप्ता। द्वितीयवासररात्रौ पुनर्दासीपृष्टा राज्ञी राज्ञी दासी प्राऽऽह-हे सखि ! बूहि, तस्याः'कन्यायाः को वरो युक्तः? प्राऽऽह-निमित्तवेदी-' इयं न मरिष्यति' इति मत्वा चितां प्रविष्टदासी प्राऽऽह-अहं न वेद्मि त्वमेव ब्रूहि / राज्ञी प्राऽऽह-अद्य निद्रा स्ततस्तामूढवान्। इत्यष्टमी कथा / समायाति, कल्यरात्रौ कथयिष्यामीत्युक्त्वा सुप्ता / द्वितीयदिनरात्री पुनरपि रात्रौ दासीपृष्टा राज्ञी कथामाह-जयपुरनगरे सुन्दर - दासीपृष्टा साऽवदत्-यस्तस्याः संजीवकः स पिता, यः सहोद्भूतः स नामा राजाऽऽसीत् / स चान्यदा विपरीताश्वे नै क एवाटव्यां बन्धुः / यो भरमपिण्डाऽऽदाता, स तत्पतिरिति / इति चतुर्थी कथा 4 / | नीतः, ततो बल्गां शिथिलीकृत्याश्वात् स राजा समुत्तीर्णः।
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________________ णग्गइ 1767- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णग्गइ तमश्वं क्वचित्तरौ बद्धा स्वयमितस्ततो भ्रमन् स कस्मिंश्चित् सरसिजलं पपौ। तत्रैकां सुरूषां तापसपुत्रीं ददर्श तापसपुत्र्याहूतः स तापसाऽऽश्रम प्राप / तत्र तापसास्तस्य भृशं सत्कारं चक्रुः / सा कन्या तापसैर्दत्ता, राज्ञा च परिणीता / तां नवोढा कन्यां गृहीत्वा तमेवाश्वमधिरुह्य पश्चादलितोऽन्तरालमार्गे क्वचित् सरपाल्यां राजा सुप्तोऽपि जाग्रन्नेवाऽऽसीत्। राज्ञी तु निद्राणा। केशरिराक्षसेन तत्राऽऽगत्य नृपस्यैवं कथितम्-षण्मासान यावद् बुभुक्षितोऽहं त्वां भक्ष्यं प्राप्याद्य तृप्तो भविष्यामि, अन्यथा मद्वाञ्छितं देहि / राज्ञोक्तम्-बूहि स्ववाञ्छितम्। तेनोक्तम्-कश्चिदष्टादशवर्षीयो ब्राह्मणपुत्रः शिरसि पितृदत्तपदस्त्वया खड्गेन हतः सप्तदिनमध्ये चेदलिर्दीयते, तदाऽहं त्वां मुञ्चामि, नान्यथा इति / राज्ञा प्रतिपन्नम् / प्रभाते राजा चलितः कुशलेन स्वपुरं गतः / सैनिकाः सर्वेऽपि मिलिताः / राज्ञा स्वमन्त्रिणं प्रति राक्षसवृतान्तः कथितः / मन्त्री सुवर्णपुरुषं निर्माय पटहवादनपूर्व नगरे भ्रामयामास / तेनैवं चोद्घोषितम्-यो हि ब्राह्मणपुत्रोराक्षाय स्वजीवितदानेन नृपजीवित रक्षते, तस्य पित्रोरयं सुवर्णपुरुषो दीयते / इयमुद्घोषणा षड् दिनानि यावत् तत्र जाता। सप्तमदिने एकत्र प्राज्ञो ब्राह्मणपुत्रस्तां निर्घोषणां श्रुत्वैवं मातापितरावबोधयत्-प्राणा गत्वराः सन्ति, मातापित्रोश्चेद्रक्षणं मम प्राणैः कृत्वा भवेत् , तदा वरं, तेनाहं नृपजीवितरक्षाऽर्थं स्वजीवितं राक्षसाय दत्त्वा सुवर्णपुरुषं दापयामि। एवं भृशमाग्रहेण मातापित्रोरनुमतिं गृहीत्वा राज्ञः समीपे गतः / राज्ञा तुतत्पितुः पादौ शिरसि दापयित्वा स्वयमाकर्ण्य सखड्गस्तस्य पृष्ठतो भूत्वा राक्षसस्य समीपमानीतः। यावता राक्षसो दृष्टस्तावता नृपेणोक्तम्-भो ब्राह्मणपुत्र ! इष्ट स्मर / एवं नृपेणोक्तः स ब्राह्मणपुत्र इतस्ततो नेत्रे निक्षिपन् जहास। तदानीं राक्षसस्तुष्टः प्राऽऽहयदिष्ट तन्मार्गयेति। स प्राऽऽह-यदि त्वंतुष्टस्तदा हिंसां त्यज, जिनोदित दयाधर्म कुरु। राक्षसेनापितद्वचसा दयाधर्मः प्रतिपन्नः। राजादयोऽपितं दारकं प्रशंसितवन्तः। अथ दासी प्राऽऽह-हे राज्ञि! तस्य ब्राह्मणपुत्रस्य को हास्यहेतुः ? तयोक्तम्-साम्प्रतं मे निद्रा समायातीत्युक्त्वा सा सुप्ता। द्वितीयदिने दासीपृष्टा सा राज्ञी प्राऽऽह-हे हले ! अथं तस्य हास्यहेतुःनृणां हि माता, पिता, नृपः शरणं, ते त्रयोऽपि मत्पार्श्वस्थाः , अहं पुनः कमन्यं शरणं श्रयामि? इति विचिन्त्य तस्य हास्यमुत्पन्नम्। इति नवमी कथा / एवं सा चित्रकरसुता कथाभिर्मुहुर्मुहुर्भोहयन्ती राजानं वशीचकार। राजा सुतस्यामेवाऽऽसक्तोऽन्यासां राज्ञीनां नामापिनजग्राह। ततस्तस्याग्छिद्राणि पश्यन्त्यः सर्वा अपि सपन्यः परमद्वेष वहन्ति स्म। चित्रकरसुता तु निरन्तरं मध्याह्ने रहस्येकाकिनी कपाटयुगलं दत्त्वा गृहान्तः प्रविश्य पूर्ववरवाणि प्रावृत्यऽऽत्मानमेवं शिक्षयामास-आत्मन् ! तवायं पूर्ववषः, साम्प्रतं राजप्रसादादुत्तरामवस्थां प्राप्य गर्व मा कुर्याः। एवमात्मनः शिक्षा ददतीं दृष्ट्वा सपन्यो राजानमेवं विज्ञपयामासुः-स्वामिन् ! एषा क्षुद्रा तवाहर्निश कार्मण कुरुते, यद्यस्माकं वचनं न मन्यसे, तदा मध्याह्ने स्वयं तद्गृहं गत्वा तस्याः स्वरूपं विलोकय / भूपतिस्तासां वाक्यं निशम्य मध्याह्न तस्या गृहं गतः। सातु तथैव पूर्वनेपथ्यं परिधायाऽऽत्मनः शिक्षा ददती भूपतिना दृष्टा। सर्वाणि तद्वचास्यपि श्रुतानि। राजा तस्या निर्गर्वता ज्ञात्वा परमं प्रमोदमवाप। इमाच पट्टराज्ञी चकार। राज्ञो विशेषान्मनो विनोदमियं व्यधात्। अन्यदा तन्नगरोद्याने विमलाऽऽचार्याः समायाताः / राज्ञया सह नृपस्तद्वन्दनाय तत्र गतः, नगरलोकोऽपि तद्वन्दनार्थं गतः / तदा विमलाऽऽचार्यो देशनां चकार। चित्रकरसुता, नृपश्च द्वावपि प्रतिबुद्धी श्रावकधर्म गृहीतवन्तौ, परस्परमनाबाधया त्रिवर्गसाधनं कुरुतः / अन्येद्युस्तया दत्तपञ्चपरमेष्ठिश्रीनमस्कारस्तत्पिता मृतो व्यन्तरो जातः / कालान्तरेणाऽऽहंत धर्ममाराध्य चित्रकरसुता राज्ञी मृता देवीत्वं प्राप। ततश्चुत्वा वैताढ्ये तोरणाभिधे पुरे दृढशक्तिखेचरस्य पुत्री कनकमाला बभूव। प्राप्तयौवनांतामेकदा वीक्ष्य कन्दर्पतप्तो वासवनामा कश्चित् खेचरोऽपहृत्यात्र महाद्री मुक्त्वा स्वचित्ते प्रमोदं बभार / अत्र विद्याबलात् समग्रां सामग्री विधाय स वासवविद्याधरो यावद्गन्धर्वोद्वाहाय समुत्सुकोऽभवत् , तावत् कनकमालाऽग्रजः सुवर्णतेजास्तदनुपदिकस्तत्राऽऽयातस्तं वासवं विद्याधरमधिक्षिप्तवान् / तौ द्वावपि कोपाद् घोरं युद्धं कुर्वाणौ परस्परप्रहाराद् मृतौ / कनकमाला तु भृशं भ्रातृशोकं चकार। तदानीं कश्चिद्देवस्तत्राऽऽगत्य कनकमाला प्रत्येवमवदत्-पुत्रि ! भ्रातृशोकं मुञ्च, चित्तं स्वस्थंकुरु, ईदृक्ष एव संसारोऽस्ति, त्वं मम पूर्वभवे पुत्र्यभूः, तिष्ठ त्वमत्रैव गिरौ। अत्र स्थितायास्तव सर्वं भव्यं भविष्यति। एवं देववचनमाकर्ण्य कनक-माला चिन्तयामासकोऽसौ देवः ? कथमस्याहं पुत्री ? असौ मयि स्निह्यते, अहमप्यस्मिन् स्निह्यामि / यावदेवं कनकमाला चिन्तयतितावत्तजनको विद्याधरेन्द्रो दृढशक्तिनामा धावन तत्राऽऽयातः, स्वपुत्रं स्वर्णतेजसं, विरोधिन वासवविद्याधरं च मृतं दृष्ट्वा छिन्नमस्तकां चतां पुत्रीं दृष्ट्ववं विचारयामास-अयं सुतः, इयं सुता, अयं शत्रुस्खयोऽप्यमी ईदृगवस्था प्राप्ताः / स्वप्नोपमं जगत्सर्व दृश्यते / एवं ध्यायतस्तस्य दृढशक्तिविद्याधरस्य जातिस्मरणमुत्पन्नम्। ततोऽसौ शासनदेवीप्रदत्तवेषश्चारणश्रमणो यतिरभूत / अथ स व्यन्तरस्तया पुत्र्या सह तं श्रमणं ननाम / जीवन्तीं तां पुत्रीं वीक्ष्य स चारणश्रमणस्तं व्यन्तरं नमन्तमपृच्छत्-किमिदमिन्द्रजाल मया दृष्टम् ? व्यन्तरः प्राऽऽह-तव पुत्रः शत्रुश्च मिथो नियुध्य मृतौ / इयं च कन्या जीवन्त्यपि मया तव मृता दर्शिता। मुनिः प्राह-कथं त्वया मृता कृता? स व्यन्तरः स्मृत्वैवमाह-हे मुनिनायक ! एतद्- वार्ता शृणुक्षितिप्रतिष्ठनृपतेर्जितशत्रोरियं प्राग्भवेपत्ल्यभवत् , चित्राङ्गदनाम्नश्चित्रकृतो ममैषा पुत्र्यभवत्, एतया प्राग्भवे ऽन्त्यसमये मम नमस्कारा दत्ताः, तत्प्रभावादहं व्यन्तरो जातः / एषा अपि मृता देवी जाता, देवीत्वभनुभूय तव सुताऽत्र भवे जज्ञे। तेन विद्याधरेणापहत्यात्र चैत्ये मुक्ता, यात्रार्थमायातेन मया दृष्टा, एत-स्या बन्धौ चौरे च मृते यावदिमामहमाश्रयामि तावद्भवन्तोऽत्र प्राप्ताः / मया विमृष्टम्-इयमनेन जनकेन समं मा यात्विति मयैतस्या गोपनमाया विहिता। यत्तव निराशत्वं मया तदानीं कृतं, तत् क्षन्तव्यम्। मुनिरू चे -अहो ! व्यन्तर ! या त्वया तदा माया कृता, सा ममत्वमायापहारिणी जाता, तेन मम भवतोपकृतं, न किमप्य-पराधः। एवमुक्त्वा स मुनिर्धर्माऽऽशिष दत्त्वाऽन्यत्र विजहार। अथ प्राग्भववृत्तान्तं श्रुत्वा सा कन्या जातिस्मृतिभागभूत् , प्राग्जन्मजनकं व्यन्तरं प्राऽऽहतात ! तं पूर्वभवपतिं मेलय / व्यन्तरः प्राऽऽह-स ते प्राग्भवभर्ता जितशत्रुनृपतिर्देवीभूय च्युतः साम्प्रतं सिंहस्थो नाम राजा जातोऽस्ति। स गन्धारदेशे पुण्डूवर्द्धननगरादश्वापहृतोऽत्र समायास्यति / स हि त्वामत्रैव सकलसामग्या परिणेष्यति / यावत् स इहाभ्येति ता
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________________ णम्गइ 1768 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णट्ट mmmmmmmmव त्वमत्रैव तिष्ठत्युक्त्वा स व्यन्तरः पुराचले शाश्वतजिनबिम्बानि नन्तुं 5 वर्ग 1 अ०। गतवान्। णच्च-धा०(नृत् ) गात्रविक्षेपे," व्रजनृतमदां चः।। 8 / 4 / 225 / / इदं सर्व वृत्तान्तं कथयित्वा सा कन्या राजानं प्रत्याह-स्वामिनि ! त्वमत्र एषामन्त्यस्य द्विरुक्तः 'च' इति चः।' णचइ ' नृत्यति / प्रा०४ पाद। मद्भाग्याऽऽकर्षितः समायातः। सिंहरथसजाऽपीमा पूर्वभवकथां श्रुत्वा *नृत्य-न० / पादजजोरुकट्युदरबाङ्गुलिवदननयनभूमुखाऽऽपूर्वभवश्वशुर तं व्यन्तरमस्मरत् / तेन स्मृतः स व्यन्तरस्तत्राऽऽगत्य, दिविकारकरणे, नि० चू० 17 उ० / नाट्ये, स्था० 6 ठा० / दिव्यवादिवनिर्घोषं कृतवान् / मध्याह्ने जिनबिम्बान्यभ्यर्च्य नृपो भुक्ते णचंत-त्रि०(नृत्यत्) अङ्गविकारकारके, औ०। नि० चू०।''ण-ताणि स्म। ततस्तेन व्यन्तरेण पूरिताशेषवाञ्छितोऽसौ नृपतिस्तत्र मासमेक वा हसंताणि वा रमंताणि वा / " आचा० 2 श्रु० 2 चू० 4 अ०।" स्थितवान् / चिरकालेन स्वराज्यानिष्ट शङ्कया राजा तां दयिता नचंतकबंधपउरे। "नृत्यन्ति कबन्धानि शिरोरहितकलेवराणि प्रचुराणि प्रतीदमाह-प्रिये ! प्रबलो वैरिवजो ने राज्यमुपद्रोष्यति, ततोऽहं स्वपुरं यत्र स तथा / प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। यामि। दयिता जगाद-यदि राज्यं मोक्तुं न शक्यते, तदा व्योमगमनसाधिका प्रज्ञप्तिविद्यां मन्मुखाद् गृहाण, यतस्ते व्योमगतिर्यथासुखं णचग-पुं०(नर्तक) नटानां नायके, व्य०६ उ०। स्यात् / प्रियाप्रदत्ता तां विद्यामासाद्य सिंहस्थो राजा विद्याधराग्रणी | णच्चा-अव्य०(ज्ञात्वा)" त्वथ्वद्ध्वां चछजझाः क्वचित् " || 8 | बभूव / प्रागभवप्रेमपूर्णां तां प्रियामापृच्छय स राजा स्वपुरे व्योममार्गेण 2 / 15 / / प्रा०२ पाद / अवगम्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उ०) समागतः। तत्र पुरे कियद्दिनानि स्थित्वा सिंहरथनृपतिस्तं पर्वत पुनर्गतः। अवबुध्येत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु० 8 अ०। दर्श० / आचा० / उत्ता" सव्वं एवं स्वनगरात् तस्मिन्नगे नित्यं गताऽऽगतं कुर्वन् नृपतिः सिंहरथो णचा अहिट्टिए।" सूत्र०१ श्रु० 2 103 उ० / लोकान्नग्गतिरितिनामप्रसिद्धि प्राऽऽप। अन्यदा तत्र नगेतं भूयं स व्यन्तर णयाविय-न०(नर्तित) नृत्यवदिव कृते, स्था० 6 ठा०। एवमाह-अहं मत्स्वामिनिदेशाद् देशान्तरं गमिष्यामि, त्वं मत्पुत्री णच्चिर-पुं०(देशी) रमणशीले, दे० ना० 4 वर्ग। रवनगरे नीत्वेमं नग शून्यं मा कार्षीः / एवमुक्त्वा स व्यन्तरः णज-त्रि०(न्याय्य) न्यायोपपन्ने युक्ते, हा०२६ अष्टः / स्थानान्तरमगात् / नृपस्तन्नगे महनगर ट्यधात् , तस्य नग्गतिपुरमिति णजंत-त्रि०(ज्ञायमान)"ज्ञो णवणजौ " || 8 / 4 / 252 / / इति नाम कृतवान् / तत्रस्थो राजा तया राज्या सह भोगान् भुञ्जानः सुखेन जानातेः कर्मणि भावे वा 'णज्ज ' इत्यादेशः / अवगम्यमाने, प्रा०४ कालं निर्गमयति स्म / तत्र राज्य पालयतस्तस्य बहुतरः कालो ययौ। पाद। नि० अन्यदा नग्गतिर्नुपः पुरपरिसरे वसन्तोत्सवं द्रष्टु जगाम, मार्गे च मञ्जरीपुञ्जमञ्जुलमाम्रवृक्षमद्राक्षीत्। तत एका मञ्जरी नृपतिर्लीलया णज्जर-पुं०(देशी) मलिने, दे० ना० 4 वर्ग। स्वकरेण जग्राह / ततो" गतानुगतिकाः प्रायो, दृश्यन्ते बहवो नराः / णज्झर-पुं०(देशी) विमले. दे० ना० 4 वर्ग। स्वभूपमनुवर्तन्ते, यथा राजा तथा प्रजाः / / 1||" इति न्यायात् सर्वे णट्ट-न०(नाट्य) नटस्य भावः कर्म वा / करचरणाऽऽदिविशिष्टपरितस्य मञ्जरीपत्राऽऽदिकं जगृहुः / भूमिपालः क्रीडां कृत्वा ततः स्पन्दाविशेषे, आव०३ अ०1 नृत्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / प्रश्न०। जं०। पश्चादलितस्तमामवृक्ष काष्ठशेषमालोक्यैवं चिन्तितवान-अयमाम्रवृक्षो जी० / स्था० / करपादभूशिरोऽक्ष्योष्ठाऽऽदीना सविकारे चलने, ध०३ नेत्रप्रीतिकरो, यो मवा पूर्व गच्छता दृष्टः, सोऽयं काष्ठशेषो विगतशोभः अधि० / नृत्ये, भ० 14 श० 6 उ० / साभिनयनिरभिनयभेदभिन्ने साम्प्रतं दृश्यते यथा, तथा सर्वोऽपि जीवः कुटुम्बधनधान्यदेहाऽऽ- ताण्डवे, ज०५ वक्ष०। उत्त०।" चउविहे गद्दे पण्णत्ते। तं जहा-अंचिए, दिसौन्दर्यभ्रष्टो नैव शोभां प्राप्नोति / एतच्च सर्व विनश्वरं यावन्न क्षीयते रिभिए, आरभडे, भसोले।" एतच्च संप्रदायाभावान्न विवृतम्। स्था० 4 तावत्संयमे यत्नः कार्य इति चिन्तयन्नग्गतिः प्रतिबुद्धो जातः, ठा० 4 उ० / आ० चू० / एतेऽश्चिताऽऽदयश्चत्वारोऽपि भेदा नाट्यशास्त्रशासनदेवीप्रदत्तवेषः संयममाददे / उत्त०६ अ०। आव० / आ० चू०। प्रसिद्धाः। अथवा-" नट्ट होइ अगीयं, गीयजुयं नाडयं तु नायव्यं। " 0 क्षत्रियपरिव्राजक-भेदे, औ०। 10 / एतेनाट्यविधयो भरताऽऽदिशास्त्रज्ञेभ्योऽवसेयाः। जं०५ वक्ष०।" णग्गयमग्ग-पुं०(नगगतमार्ग) विषमपर्वतमार्गे, तं०। बत्तीसतिविहे गद्दे पण्णत्ते।" द्वात्रिंशद्विधं नाट्यमभिनयविषयवस्तुणग्गभाव-पुं०(नग्नभाव) अचेलत्वे, " समणाणं णिग्गंथाणं नग्गभावे भेदाद् , यथा राजप्रश्नकृताभिधानद्वितीयोपाङ्ग इति संभाव्यते / मुंडभावे।" स्था०६ ठा०। द्वात्रिंशत्पात्रप्रतिबद्धमिति केचित् / स०३३ सम०।। णग्गिया-स्त्री०(नग्निका) अवस्तायाम् , विशे०। तते णं से सूरियाभे देवे समणं भगवं महावीरं दोचं पि तचं पि एवं वयासीतुब्भे गं भंते ! सव्वं जाणह उवदंसित्तए त्ति णग्गोह-पुं०(न्यग्रोध) वटे, प्रज्ञा० 1 पद। नि० चू० / कट्ट समण्णं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं णग्गोहपरिमंडल-न०(न्यग्रोधपरिमण्डल)न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य करेइ, करे इत्ता वंदइ, णमंसइ, वे उव्वियसमुग्घाएणं स तथा। यथान्यग्रोध उपरि संपूर्णप्रमाणोऽधस्तुहीनः, तथा यत् संस्थान समोहणति, समोहणतित्ता संखिज्जाई जोयणाई उच्चं दंड नाभेरुपरि संपूर्णम् , अधस्तनु, तस्मिन् संस्थानभेदे, तं०। निस्सरइ, निस्सरइत्ता अहासुहुमे दोचं पि वे उदिवयणग्गोहवरपायव-पुं०(न्यग्रोधवरपादप) वटप्रधानवृक्षे, अन्त० 1 श्रु० / समुग्धाएणं० जाव बहुसमरमणिज्जं भूमिभाग विउव्वइ / से
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________________ णट्ट 1796 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णट्ट जहानामए आलिंग पुक्खरेति वा० जाव मणीणं फासो / तस्स / णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे पेच्छा-1 घरमंडवे विउव्वइ, अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ वण्णओ। अंतो बहुसमरमणिजं भूमिभागं विउव्वइ, उल्लोचं अक्खाडगं मणिपेढियं विउव्वइतीसे णं मणिपेढियाए उवरिंसीहासणं सपरिवारं जाव दामो चिटुंति / तए णं से सूरियाभे देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स आलोए पणामं करेति, पणामं करेतित्ता अणुजाणउ मे भगवं ति कट्ट सीहासणवरगयतित्थयराभिमुहे सन्निसन्ने / तए णं से सूरियाभे देवे तप्पढमयाए णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहणिउणोवचियमिसमिसंतविरतियमहाभरणकडगतुडियवरभूसणुज्जलं पीवरपलंब दाहिणभुयं | पसारेति / तओ णं सरिसयाणं सरिसतयाणं सरिसवयाणं सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाणं एगाभरणवसणगहियणिजोगाणं दुहतो संविल्लिवग्गणिवत्थाणं आविद्धतिलयामेलाणं पिणद्धगेविजकंचुयाणं उप्पीलियचित्तपट्टपरियरसफेणगावत्तरइयसंगयपलंबवत्थंतचित्तविल्ललगनिवसणाणं एगावलिकंठरइयसोभंतवच्छपडिहत्थभूसणाणं अट्ठसयं णट्टसज्जाणं देवकुमाराणं णिग्गच्छई। तयाणंतरं च णं णाणामणि० जाव पीवरपलंबं वामभुयं पसारेइ। तओ सरिसयाणं सरिसतयाणं सरिसवयाणं सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाणं एगाभरणवसणगहियनिज्जोयाणं दुहतो संविल्लियग्गनियत्थाणं आविद्धतिलयामेलाणं पिणद्धगेविजकंचुयाणं णाणामणिकणगरयणभूसणविराइयंगुवंगाणं० जाव अट्ठसयं नट्टसञ्जाणं देवकुमारियाणं णिग्गच्छइ / तते णं से सूरियाभे देवे अट्ठसयं संखाणं विउव्वइ,अट्ठसयं संखवाययाणं विउव्वइ, अट्ठसयं संगाणं वि-उव्वइ, अट्ठसयं संगवाययाणं विउव्वइ, अट्ठसयं संखियाणं विउव्वइ, अट्ठसयं संखियावाययाणं विउव्वइ, अट्ठसयं खर-मुहीणं विउव्वइ, अट्ठसयं खरमुहीवाययाणं विउदवइ, अट्ठसयं पेयाणं विउव्वइ, अट्ठसयं पेयावाययाणं विउव्वइ, अट्ठसयं पिरिपिरियाणं विउव्वइ, ०एवमादियाणं एगूणपण्णं आउज्जविहाणाइं विउव्वति, विउव्वित्ता ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य सद्दावेइ / तते गं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य सूरियाभेणं देवेणं सहाविया समाणा हट्ठतुट्ठ० जाव हियया जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेणेव सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं० जाव वद्धावेइ, वद्धावेइत्ता एवं वयासीसंदिसंतु मे देवाणुप्पिया ! जं अम्हे हिं कायव्दं / तए णं से सूरियाभे देवे बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य एवं वयासीगच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह, करेतित्ता वंदह, णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता गोयमाऽऽइयाणं समणाणं निग्गंथाणं तं दिव्वं देवढेिं दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं वत्तीसइविहं नट्ट-विहिं उवदंसेह, उवदंसित्ता खिप्पामेव एवमाणत्तियं पचप्पि-णह / तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठकरयल० जाव पडिसुण्णेति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता समणं भगवं महावीरं जाव णमंसित्ता जेणेव गोयमाऽऽइया समणा णिग्गंथा, तेणेव णिग्गच्छति / तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति, समामेव समोस-रणं करेत्ता समामेव पंती बंधंति, समामेव पंती बंधेत्ता नमसंति,नमंसित्ता समामेव उवणमंति, उवणमंतित्ता समामेव उण्णमंति, समामेव उण्णमंतित्ता, एवं सहितामेव उवणमंति, उवणमंतित्ता थिमियामेव उण्णमंति, उण्णमंतित्ता संगयामेव उण्णमंति, उ-पणमंतित्ता० जाव समामेव आउज्जविहाणाई गिण्हंति, समामेव य वाइंसु, पगाइंसु, पणचिंसु / किं ते उरेणं मंदं सिरेणं तारं कठेणं व तारं समयरेयगरइयं गुंजाचक्क कु हरोवगूढं रत्तं तिहाणकरणसुद्धं सकुहरगुंजतवंसतंतीतलताललयगहसुसंपउत्तं महुरसमसुललितं मणहरं मिउरिभितपयसंचारं सुरइसुनतिवरचारुरूवं दिव्वं नट्टसज्जंगेयं पगिया वि होत्था। किं ते उद्धमंताणं संखाणं संगाणं संखियाणं खरमुहीणं पेयाणं पिरिपिरियाणं, आहणंताणं पणवाणं पडहाणं, आफालिज्जंतीणं भंभाणं होरंभाणं, तालिज्जतीणं भेरीणं झल्लरीणं दंदभीणं, आलवंताणं मुरजाणं मुइंगाणं नंदिमुइंगाणं, उत्तालिजंताणं आलिंग कुत्तुंवीणं गोमुहीणं मद्दलाणं, मुच्छिज्जंताणं वीणाणं विपंचीणं वल्लकीणं, कुट्टिजंतीणं महतीणं कच्छभीणं तंतिवीणाणं, सारिजंतीणं बद्धीसाणं सुघोसाणं णंदिघोसाणं, फुरिजंतीणं भागरीणं परिवाइणीणं, फासंतीणं तूणाणं तुंववीणाणं, आमोडिज्जंतीणं णउलाणं, मुच्छिजंतीणं मुगुंदाणं हुडक्कीणं चिचिकीणं, वाइजंताणं करडाणं डिं डिमाणं किणियाणं कडं वाणं, उत्ताडिजंताणं दद्दराणं दद्दरियाणं कुडुं वरूणं कलसियाणं मद्दयाणं, आताडिजंताणं तलाणं तालाणं कंसतालाणं, घट्टिजंताणं गिरिसयाणं लत्तिरयाणं मगरियाणं सुं समारियाणं, फू मिजं ताणं वंसाणं वे गूणं चालीणं पिरिलीणं वद्धगाणं,तते णं से दिव्वे णट्टे दिव्वे गीए दिव्वे वा
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________________ णट्ट 1800 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णट्ट इए, एवं अब्भुए सिंगारे उराले मणुण्णे मणहरे गीए वाइए णट्टे, उप्पिजलभूए कहकहभूए दिव्वे देवरमणे पवत्ते यावि होत्था। तएणं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समणस्स भगवओ | महावीरस्स सोत्थियसिरिवत्थनंदियावत्तवद्धमाणभद्दासणकलसमच्छदप्पणमंगलभत्तिचित्तं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसें ति? तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति, समोसरणं करेत्ता तं चेव भाणियव्यं० जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते यावि होत्था। तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स आवडपच्चावडसेढिपसे ढिसोत्थियसिरिवत्थिपूसमाणगवद्धमाणगमच्छंडामकरंडाजारामारापुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवासंतीलयपउमलयभत्तिचित्तं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति / एवं एक्केकियाए नट्टविहीए समोसरणादिए सावत्तव्यया. जाव देवरमणे पवत्ते यावि होत्था। तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयाओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 3 / एगओचंकं दुहओचंकं एगओचक्कवालं दुहओचक्कवालंचकद्धचक्कवालं णाम दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति / / चंदावलिपविभत्तिं सूरावलिपविभत्तिं च वलयावलिपविभत्तिं च हंसावलिपविभत्तिं च एगावलिपविभत्तिं चतारावलिपविभत्तिं च मुत्तावलिपविभत्तिं च कणगावलिपविभत्तिं च रयणावलिपविभत्तिं च आवलियापविभत्ति-णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 5 | चंदुग्गमणपविभत्तिं च सूरुग्गमणपविभत्तिं च उग्गमणुग्गमणपविभत्तिं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदर्सेति ६ाचंदागमणपविभत्तिं च सूरागमणपविभत्तिं च आगमणागमणपविभत्तिं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 7 / चंदावरणपविभत्तिं च सूरावरणपविभत्तिं च आवरणावरणपविभत्तिं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेति | चंदत्थमणपविभत्तिं च सूरत्थमणपविभत्तिं च अत्थमणत्थमणपविभत्तिं च णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंतिः / चंदमंडलपविभत्तिं च सूरमंडलपविभत्तिं च नागमंडलपविभत्तिं च जक्खमंडलपविभत्तिं च भूयमंडलपविभत्तिं च रक्खसमहोरगगंधव्वमंडलपविभत्तिं च मंडलपविभत्तिं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 10 / उसमललियविकंतं सीहललियविकंतं हयविलंबियं गयविलंबियं हयविलसियं गयविलसियं मत्तहयविलसियं मत्तगयविलसियं मत्तहयविलंबियं मत्तगयविलंबियं दुयविलंबियं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 11 / सागरपविभत्तिं च नागरपविभत्तिं च सागरनागरपविभत्तिं च गामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 12 / णंदापविभत्तिं च चंपापविभत्तिं च णंदाचंपापविभत्तिंणामं दिव्वं गट्टविहिं उवदंसेंति 13 / मच्छंडापविभत्तिं च मगरंडापविभत्तिं च जारापविभत्तिं च मारापविभत्तिं च मच्छंडामगरंडाजारामारापविभत्तिं च णामं दिव्वं पट्टविहिं उवदंसेंति 14 / कत्ति ककारपविभत्तिं च ख त्ति खकारपविभत्तिं च ग त्ति गकारपविभत्तिं च घ त्ति घकारपविभत्तिं च ङत्ति ङकारपविभत्तिं च ककारखकारगकारघकारङकारपविभत्तिं च णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 15 1 एवं चकारवग्गो वि 16 टकारवग्गो वि 17 / तवग्गो वि 18 | पवग्गो वि 16 / असोयपल्लवपविभत्तिं च अंबपल्लवपविभत्तिं च जंबुपल्लवपविभत्तिं च कोसंबपल्लवपविभत्तिं च पल्लवपविभत्तिं च णामं दिव्यं णट्टविहिं उवदंसेंति 20 / पउमलयापविभत्तिं च नागलयापविभत्तिं च० जावसामलयापविभत्तिं च लयापवि-भत्ति च णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 21 / दुयणामं णट्टविहिं उवदंसेंति 22 / विलंबियं णामं णट्टविहिं उवदंसेंति 23 / दुयविलंबियं णाम णट्टविहिं उवदंसेंति 25 / अंचियं णाम णट्टविहिं उवदंसेंति 25 / रिभियं णामं णट्टविहिं उवदंसेंति 26 / अंचियरिभियं णाम० उवदंसेंति 27 / आरंभडं णाम णट्टविहिं उवदंसेंति 28 | भंसोलं णामं णट्टविहिं उवदंसेंति 26 | आरंभडभसोलं० उवदंसेंति 301 उप्पायणिवायपरिणिवायपसत्तं संकुचियं पसारियं रेवयारचियंभंतं संभंतं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 31 / तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति० जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते यावि होत्था। तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स पुष्वभवचरियणिबद्धं देवलोयचरियणि-बद्धं चवणचरियणिबद्धं च गब्भसंहरणचरियणिबद्धं च जम्मणचरियणिबद्धं च अभिसेयचरियणिबद्धं च बालभावचरियणिबद्ध च जोव्वणचरियणिबद्धं च कामभोगचरियणिबद्धं च णिक्खमणचरियणिबद्धं च तवचरणचरियणिबद्धं च णाणुप्पायचरियणिबद्धं च तित्थपवत्तणचरियणिबद्धं च परिणिव्वाणचरियणि-बद्धं च चरमचरियणिबद्धं च णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति 32 / तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य चउव्विहं वाउत्तं वायंति / तं जहा-ततं, विततं, घणं, झुसिरं / तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य चउव्विहं गेयं गायति / तं जहाउक्खित्तं, पायंतं, मंदाय, रोझ्यावसाणंचाततेणंते बहवे देवकुमारा यदेवकुमारीओय चउव्विहं णट्टविहिं उवदंसेंति। तं जहा-अंचियं १,रिभियं 2, आरंभडं 3, भसोलंच ४ाततेणंतेबहवे देवकुमारा
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________________ णट्ट 1801 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णट्ट य देवकुमारीओ य चउव्विहं अभिणयं अभिणयंति / तं जहादिट्ठतियं, पाडियंतियं, सामंतोवायणिवाइयं, अंतोडज्झावसाणियं / तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य गोयमाऽऽदियाणं समणाणं णिग्गंथाणं दिव्वं देवष्टि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसइविहं णाडयं उवदंसित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेइत्ता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णडंसित्ता जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं पत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेतित्ता एवमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति। "तए णं " इत्यादि। ततः सूर्याभो देवस्तीर्थकरस्य भगवत आलोके प्रणामं करोति / कृत्वा चानुजानातु भगवान् मामित्यनुज्ञापनां कृत्वा सिंहासनवरगततीर्थकराभिमुखः सन्निषण्णः। तएणं' इत्यादि। ततः सूर्यभो देवस्तत्प्रथमतया-तस्य नाट्यविधेः प्रथमताया, दक्षिणं भुज प्रसारयति। कथंभूतम् ? इत्याह-(णाणा-मणिकणगरयणविभलमहरिहणिउणोवचियमिसमिसंतविरतियमहाभरणकडगतुनियवरभूसणुजलमिति) नानाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु तानि नानामणिकनकरत्नानि, मणयो नानाविधाश्चन्द्रकान्ताऽऽदयः / कनकानि नानावर्णतया, रत्नानि नानाविधानि कर्केतनाऽऽदीनि, तथा विमलानि निर्मलानि, तथा महान्तमुपभोक्तारमर्हन्ति, यदि वा महदुत्सवं क्षणमर्हन्तीति महार्हाणि, तथा निपुणं निपुणबुद्धिगम्यं यथा भवति (एवमुवचिय त्ति) परिकर्मितानि / (मिसमिसंत इति) दीप्यमानानि, विरचितानि महाभरणानि यानि कटकानि कलाचिकाऽऽभरणानि, त्रुटितानि बाहुरक्षिकाः, अन्यानि च यानि वरभूषणानि, तैरुज्ज्वलं भास्वरम् / तथा पीवरं स्थूलं प्रलम्बं दीर्घ (तओ णं इत्यादि)। ततस्तस्माद् दक्षिणभुजात् अष्टशतमष्टाधिकं शतं देवकुमाराणां निर्गच्छति / कथभूतानाम् ? इत्याह-सदृशाना, समानाऽऽकाराणामित्यर्थः / तत्राऽऽकारेण कस्यचित् सदृशोऽपि वर्णतः सदृशो न भवति, ततः सदृग्वर्णत्वप्रतिपादनार्थमाह-(सरिसतयाणमिति) सदृशी सदृगुवर्णा त्वग् येषां ते तथा / सदृक्त्वगपि कश्चिद् वयसा विसदृशः संभाव्येत, तत आह-(सरिसवयाणं) सदृक् समानं वयो येषां ते / (सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाणमिति) सादृश्येन लावण्येन लवणिम्ना, अतिसुभगया शरीरकान्त्येति भावः। रूपेण आकृत्या यौवनेन यौवनिकया गुणैर्दक्षत्वप्रियंवदत्वाऽऽदिभिरुपपेताः सदृशलावण्यरूपयौवनगुणोपपेताः, तेषाम्। (एगाभरणवसणगहियनिजोगाणमिति)। एकः समान आभरणवसनलक्षणो गृहीतो निर्योग उपकरणमर्थान्नाट्योपकरण यैस्ते तथा, तेषाम् / (दुहतो संविडियग्गनिवत्थाणं ति) द्विधातो द्वयोः पार्श्वयोः संवेल्लितानि अग्राणि यस्य तत् द्विधातः संवेल्लिता, निवसनं सामर्थ्यादुत्तरं यैस्ते तथा, तेषाम्। तथा-(उप्पीलियचित्तपट्टपरियरसफेणगावत्तरइयसंगयपलंबवत्थंतचित्तविल्ललगनिवसणाणमिति) उत्पीडित अत्यन्तवद्धश्चित्रपट्टोविचित्रवर्णपट्टरूपः परिकरो यस्ते तथा, तथा यस्मिन्नावर्तेनैव फेनविनिर्गमो भवति स फेनकाऽऽवर्तः, तेन रचिताः संगता नाट्यविधावुपपण्णाः प्रलम्बा वस्त्रान्तायस्य निवसनस्य तत्तथा; तत् चित्रं वर्ण विल्ललगं देदीप्यमानं निवसनं परिधानं येषां ते तथा। ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः। तेषाम् , (एगावलिकंठरइयसोभंतवद्धछपडिहत्थभूसणाणमिति) एकावली या कण्ठे रचिता तथा शोभमानं वक्षो येषां ते तथा।' पडिहत्थ शब्दो देश्यः परिपूर्णवाचकः / पडिहत्थानि पूर्णानि भूषणानि येषां ते तथा / ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तेषां (नट्टसज्जाणं) नृत्ये सज्जाः प्रगुणीभूता नृत्यसज्जाः, तेषाम्। तदनन्तरंच यथोक्तविशेषणविशिष्ट वाम भुजं प्रसारयति, तस्मात् वामभुजादष्टशतं देवकुमारिकाणां विनिर्गच्छति / कथंभूतम् ? इत्याह-" सरिसयाणं सरिसतयाणं सरिसवयाणं सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाण एगाभरणवसणगहियनिजोगाणं दुहतो संविल्लियग्गनिवत्थाणं " इति पूर्ववत् / (आविद्धतिलयामेलाणमिति) आविद्धस्तिलक आमेलश्च शेखरको यकाभिस्ता आविद्धतिलकाऽऽमेलाः, तासां (पिणद्धगेविजकं चुयाणमिति) पिनद्धंग्रैवेयकं ग्रीवाऽऽभरणं कशुकश्च यकाभिस्तथा, तासा (णाणामणिकणगरयणभूसणविराइयंगुवंगाणमिति) नानाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु भूषणेषु तानि नानामणिकनकरत्नभूषणानि, तैर्विराजितान्यङ्गोपाङ्गानियासांतास्तथा, तासाम्। यावत्करणात्-" चंदाणणाणं चंदद्धसमनिडालाणं चंदाहियसोमदंसणाणं उक्काए उज्जोवेमाणीणं " इति सुगमम् / तथा- " सिंगारागारचारुदेसाणं हसियभणियचिट्ठियविलासललियसंलावनिउणजुत्तोवयारकुसलाणं गहियाउजाणं नट्टसज्जाणं " इति पूर्ववत् / 'तए णं से सुरियाभे देवे ' इत्यादि / ततः सूर्याभो देवोऽष्टशतं शङ्खानां विकुर्वति, अष्टशतं शङ्कवादकानाम् , अष्टशत शृङ्गाणामष्टशतं शृङ्गवादकानाम् 1, अष्टशतं शशिकानामष्टशतं शविकावादकानाम् , हस्वः शङ्खो जात्यन्तराऽऽत्मकः शनिका, तस्या हि स्वरो मनाक् तीक्ष्णो भवति, न तु शङ्खवदतिगम्भीरः 2, तथाऽष्टशतं खरमुखीणाम्-काहलानाम् , अष्टशतं खरमुखीवादकानाम् 3, अष्टशतं पेयानां, पेया नाम महती काहला, अष्टशतं पेयावादकानाम् 4, अष्टशतं पिरिपिरिकाणां कौलिकपुटावनद्धमुखवाद्यविशेषरूपाणाम् . (एवमादियाणमिति) अष्टशतं पिरिपिरिकावादकानाम् 5, अष्टशतं पणवाना, पणवो भाण्डं पटहो क, अष्टशतं पणववादकानाम् 6, अष्टशतं पट-हानामष्टशतं पटहवादकानाम् 7, अष्टशतं भम्भाना, भम्भा ढक्का, अष्टशतं भम्भावादकानाम् 8, अष्टशतं होरम्भाणां, होरम्भा महा-ढक्का, अष्टशतं होरम्भावादकानाम् 6, अष्टशतं भेरीणां ढक्काऽऽ-कृतिवाद्यविशेषरूपाणाम् , अष्टशतं भेरीवादकानाम् 10, अष्टशतं झल्लरीणां, झल्लरी नाम चर्मावनद्धा विस्तीर्णवलयाऽऽकारा, अष्टशतं झल्लरीवादकानाम् 11, अष्टशतं दुन्दुभीनाम् , अष्टशतं दुन्दुभिवादकानां, दुन्दुभिर्भेर्वाकारा संकटमुखी देवाऽऽतोद्यविशेषः 12, अष्टशतं मुरजाना, महाप्रमाणो मर्दलो मुरजः, अष्टशतं मुरजवादकानाम् 13, अष्टशतं मृदङ्गाना, लघुमर्दलो मृदङ्गः, अष्टशत मृदङ्गवादकानाम् 14, अष्टशतं नन्दीमृदङ्गानाम्, नन्दीमृदङ्गोनामएकतः संकीर्णोऽन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः, अष्टशत नन्दीमृदङ्गवादकानाम् 15, अष्टशतमालिङ्गानाम् , आलिङ्गो मुरजवाद्यविशेष एव / अष्टशतमालिङ्गवादकानाम् 16, अष्टशतं कुस्तुम्बीना, कुस्तुम्बीचमविनद्धपुटो वाद्यविशेषः / अष्टशतं कुस्तुम्बीवादकानाम् 17, अष्टशतंगोमुखीना, गोमुखी लोकतोऽवसेथा, अष्टशतंगोमुखी
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________________ णट्ट 1902 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णट्ट वादकानाम् 18, अष्टशतं मर्दलाना, मर्दल उभयतः समः, अष्टशत मर्दलवादकानाम् 16, अष्टशतं विपश्चीनां, विपश्ची त्रितन्त्री वीणा, अष्टशतं विपञ्चीवादकानाम् 20, अष्टशतं वल्लकीना, वल्लकी सामान्यतो वीणा / अष्टशतं वल्लकीवादकानाम् 21, अष्टशतं भ्रमरीणाम् , अष्टशत भ्रमरीवादकानाम् 22, अष्टशतं भ्रामरीणाम, अष्टशतं भ्रामरीवादकानाम् 23, अष्टशतं परिवादिनीना, परिवादिनी सप्ततन्त्री वीणा / अष्टशतं परिवादिनीवादकानाम् 24, अष्टशतं चर्चसानाम् अष्टशत चर्चसावादकानाम 25, अष्टशतसुघोषाणाम.अष्टशतं सुघोषावादकानाम 26, अष्टशतं नन्दीघोषाणाम् , अष्टशतं नन्दीघोषावादकानाम् 27. अष्टशतं महतीनाम , अष्टशतं महतीवादकानाम् 28, अष्टशतं कच्छभीनाम्, अष्टशतं कच्छभीवादकानाम् 26, अष्टशत चित्रवीणानाम् , अष्ट शतं चित्रवीणावादकानाम् 30. अष्टशतमामोदानाम् / अष्टशतमामोदवादकानाम् 31, अष्टशतंदण्डानाम् , अष्टशतंदण्डावादकानाम् 32, अष्टशतं नकुलानाम् , अष्टशतं नकुलवादकानाम् 33, अष्टशतं तूणानाम् , अष्टशतं तूणावादकानाम् 34, अष्टशतं तुम्बवीणाना, तुम्बयुक्ता वीणा थाऽद्यकल्पप्रसिद्धा। अष्टशतं तुम्बर्वाणावादकानाम् 35, अष्टशत मुकुन्दाना, मुकुन्दो मुरजो वाद्यविशेषो योऽतिलीनं वाद्यते, अष्टशतं मुकुन्दवादकानाम् 36, अष्टशतंहुडुक्कीनाम्, अष्टशतं हुडुक्कीवादकानाम् , हुडुक्की प्रतीता। 37, अष्टशतं चिच्चिकीनाम् अष्टशतं चिच्चिकीवादकानाम् 38, अष्टशत करटीनाम् , अष्टशतं करटीवादकानाम् , करटी प्रतीता 36, अष्टशतं डिण्डिमानाम् , अष्टशतं डिण्डिमवादकानाम् , प्रथमप्रस्तावनास्तवकः पणवविशेषो डिण्डिमः 40, अष्टशतं किणितानाम् , अष्टशतं किणितवादकानाम् 41, अष्टशतं कम्बानाम् , अष्टशतं कडम्बावादकानाम् , कडम्बा करटिका 42, अष्टशतं दर्दरकाणाम अष्टशतंदर्दरकवादकानाम् , दर्दरकः प्रतीतः 43, अष्टशतं ददरिकाणाम, अष्टशतं दर्दरिकावादकानाम् , लघुदर्दरी दर्दरिका 44, अष्टशत कुम्यरूणाम् , अष्टशतं कुडुम्बरुवादकानाम 45 अष्टशतंकलशिकानाम, अष्टशतं कलशिकावादकानाम् 46, अष्टशतं तलानाम् , अष्टशतं तलवादकानाम् 47, अष्टशततालानाम्, अष्टशततालवादकानाम् 48, अष्टशतं कांस्यतालानाम् , अष्टशतं कांस्यतालवादकानाम् 46, अष्टशतं गिरिशिकानाम् , अष्टशतं गिरिशिकावादकानाम् 50. अष्टशतं मकरिकाणाम् , अष्टशतं मकरिकावादकानाम् 51, अष्टशत शिशुमारिकाणाम् , अष्टशत शिशुमारिकावादकानाम् 52, अष्टशतं वंशानाम् , अष्टशतं वंशवादकानाम् 53, अष्टशतं चालीनाम् , अष्टशतं चालीवादकानाम् . चाली तूणविशेषः, स हि मुखे दत्त्वा वाद्यते 54 / अष्टशतं वेणूनाम् , अष्ट शतं वेणुवादकानाम् 55, अष्टशतं पिरिलीनाम् , अष्ट शतं पिरिलीवादकानाम् 56, अष्टशतं बद्धकानाम् , अष्टशतं बद्धकानाम् , अष्टशतं बद्धक-वादकानाम् , बद्धकस्तूर्यविशेषः 57, अव्याख्यातास्तु भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः। एवमादीनि बहून्यातोद्यानि, आतोद्यवादकाँश्च विकुर्वति। सर्वसंख्यया तुमूलभेदापेक्षयाऽऽतोद्यभेदापेक्षया आतोद्यभेदा एकोनपञ्चाशत् , शेषास्तु भेदा एतेष्वेवान्तर्भवन्ति। यथा वंशाऽऽतोद्यविधाने चालीवेणुपिरलीबद्धका इति / यथा चाऽऽह- " एवमाइयाई एगणपन्न आउजविहाणाई विउव्वइ ति "1 विकुळ च तावत् स्वयं / विकुर्वितान् बहून देवकुमारान् देवकुमारिकाश्च शब्दयति। ते च शब्दिताः सन्तो हृष्टतुष्टाऽऽनन्दितचिताः सूर्याऽऽभसमीपमागच्छन्ति, आगत्य च करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तकेऽजलिं कृत्वा जयेन विजयेनवर्टापयित्वाएवमवादिषुःसन्दिशन्तु देवाना प्रियाः ! यद-रमाभिः कर्त्तव्यम् / ततः स सूर्याभो देवस्तान् देवकुमारान् देवकुमारिकाश्च एवमवादीत-गच्छत यूयं देवानां प्रियाः ! श्रमणं भगवन्तं महावीर त्रिःकृत्वः, आदक्षिणप्रदक्षिणं कुरुत, कृत्वा वन्दध्वं, नमस्यत, वन्दित्वा नमस्यित्वा गौतमाऽऽदीनां श्रमणानां निर्ग्रन्थानां तां देवजनप्रसिद्धां दिव्या देवर्द्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं दिव्यं द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधिमुपदर्शयत, उपदी चैतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत।" तए णं " इत्यादि। ततस्ते बहवो देवकुमारा देवकुमारिकाश्च सूर्याभन देवेन एवमुक्ताः सन्तो हृष्टा यावत्प्रतिशृण्वन्ति, अभ्युपगच्छन्तीत्यर्थः। प्रतिश्रुत्य च यत्र श्रमणो भगवान महावीरस्तत्रोपागच्छन्ति, उपागत्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिःकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति, कृत्वा च वन्दन्ते, नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च यस्मिन् प्रदेशे गौतमाऽऽदयः श्रमणास्तत्र समकालमेव एककालमेव समवसरन्ति, मिलन्तीत्यर्थः / समवसृत्य च समक-मेव एककालमेव अवनमन्ति, अधो नीचा भवन्ति। अवनम्य च समकमेव उन्नमन्ति, ऊर्द्धमवतिष्ठन्त इति भावः। तदनन्तरं चैव क्रमेण सहित संगतम्, स्तिमितंचावनमनमुन्नमनं च वाच्यम्। अमीषा चसंहिताऽऽदीनां भेदः सम्यक्कौशलोपेतनाट्योपाध्यायादवगन्तव्यः। ततः स्तिमितं समक मुन्नम्य समकमेव प्रसरन्ति, प्रसृत्य च समकमेव यथायोगमातोद्यविधानानि गृह्ण-न्ति। गृहीत्वा चसमकमेव वादितवन्तः, समकमेव प्रगीतवन्तः, समकमेव प्रनर्तितवन्तः / ' किं ते इत्यादि। केचिद् देवकुमारा देवकुमारिकाश्च एवं प्रगीता अप्यभवन्निति योगः / कथम् ? इत्याह-(उरेण मंदमिति) सर्वत्र सप्तम्यर्थे तृतीया। उरसि मन्दं यथा भवति एवं प्रगीताः / (सिरेण तारं कंठेण व तारमिति) शब्देन यथावल्लक्षणोपेतम। किमुक्तं भवति?-उरसि प्रथमतो गीतमत्क्षिप्यते. उत्क्षेपकाले चगीतं मन्दं भवति।" आदिमिउमारभंता, " इति वचनात् / अन्यथा गीतगुणक्षतेः, ततः उक्तमुरसि मन्दमिति / ततो गायतां मूर्धानमभिघ्नन स्वर उचैस्तरो भवति / स्थानकं च द्वितीयं तृतीय वा समधिरोहति। ततः शिरसितारमित्युक्तं. शिरसश्च प्रतिनिवृत्तः सन् स्वरः कण्ठे घुलति, घुलंश्चातिमधुरो भवति। (समयरेवगरश्यमिति) (गुंजाचक्ककुहरोवगूढ) गुञ्जनं गुजा, तत्प्रधानानि यानि चक्राणि शब्दमार्गाप्रतिकूलानि कुहराणि तेषूपगढ़ गुञ्जाचक्र कुहरोपगूढम् / किमुक्त भवति ?-तेषां देवकुमाराणां देवकुमारिकाणां चतस्मिन् प्रेक्षागृहमण्डपेगायता गीतं तेषु प्रेक्षागृहमण्डपसत्केषु च कुहरेषु स्यानि रूपाणि प्रतिशब्दसहस्राण्युत्थापयद्वर्त्तते इति / (रत्तमिति) रक्तम् / इह यद् गेयरागरक्तेन गीतं गीयते तत्र रक्तमिति। तद् द्विधा प्रसिद्धं (तिट्ठाणकरणसुद्धमिति) त्रीणि स्थानानि उरःप्रभृतीनि तेषु करणेषु क्रियया शुद्ध त्रिस्थानकरणशुद्धम्। तत् यथा-उरः शुद्ध, कण्ठशुद्धं, शिरोविशुद्धं च / तत्र यदि उरसि स्वरः स्वभूमिकाऽनुसारेण विशालो भवति, तत उरोविशुद्धं, स एव यदि कण्ठे वर्तितो भवति अस्फुटितश्च, ततः कण्ठविशुद्धं, यदि पुनः शिरः प्राप्तः सन्सानुनासिको भवति, ततः शिरोविशुद्धम्।यदि वा तत् उर:कण्ठशिरोभिः श्लेष्मणाऽव्याकुलितैर्विशुद्धीयतेतत् उरःकण्ठशिरोविशुद्ध
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________________ पट्ट 1503 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णट्ट त्वात् त्रिस्थानकरणविशुद्धम् / तथा सकुहरो गुञ्जन् यो वंशो, ये च तन्त्रीतलताललयग्रहाः, तेषु सुष्टु अतिशयेन सम्प्रयुक्त सुकुहरगुञ्जद्वंशतन्त्रीतलताललयग्रहसुसम्प्रयुक्तम्। किमुक्तं भवति? सकुहरे वंशे गुञ्जति तन्त्र्यां च वाद्यमानायां यत् वंशतन्त्रीस्वरेणाविरुद्धं तत् सकुहरगुञ्जवंशतन्त्रीसुसम्प्रयुक्तं, तथा परस्परहतहस्ततलस्वरानुवर्ति यत् तत् तलसुसम्प्रयुक्तं, मुरजकंशिकाऽऽदीनामातोद्यानामाहतानां यो ध्वनिः यच नृत्यं पादोत्क्षेपः, तेन समंयत् तत् तालसुसम्प्रयुक्तम् , तथा शृङ्गमयो दारुमयो दन्तमयोऽङ्गुलिकौशिकस्तेनाऽऽहतायास्तन्त्र्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरद् गेयं लयसुसम्प्रयुक्तम्, तथा यः प्रथम वंशतन्त्र्यादिभिः स्वरो गृहीतस्तन्मार्गानुसारि ग्रहसुसम्प्रयुक्तम् , तथा (महरमिति) मधुरस्वरेण गीयमानं मधुरं कोकिलारुतवत् , तथा (सममिति) तलवंशस्वराऽऽदिसमनुगतं समं (सललियं ति) यत् स्वरघोलनाप्रकारेण ललतीव, सह ललितेन ललनेन वर्तते इति / श्रीनेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सललितमिति। अत एव मनोहरम् / पुनः कथंभूतम् ? इत्याह-(मिउरिभितपदसंचारं) तत्र मृदु मृदुना स्वरेण युक्तो निष्टुरेण, तथा यत्र स्वरोऽक्षरेषु घोलनास्वरविशेषेषु च संचरन् रगतीव प्रतिभासते, स पदसञ्चारो रिभित उच्यते। मृदुः रिभितः पदेषु गेयनिबद्धेषु संचारो यत्र गेये तत मृदुरिभितपदसंचारं, तथा (सूरइ इति) शोभना रतिर्यस्मिन् श्रोतृणां तत सुरति, तथा शोभना नतिरवनामोऽवसानो यस्मिन् तत् सुनति, तथा वरं प्रधानं चारु विशिष्टचनिमोपेतं रूपं स्वरूपं यस्य तद् वरचारुरूपं दिव्यं प्रधानं नृत्तसज्ज गेयं प्रगीता अप्यभवन्।" किं ते" इत्यादि। किश-ते देवकुमारा देवकुमारिकाश्च प्रगीतवन्तः, प्रनर्तितवन्तश्च (उद्धमंताणं संखाणमित्यादि) अत्र सर्वत्रापि षष्ठी सप्तम्यर्थे / ततोऽयमर्थः-यथायोगमुघ्मायमानाऽऽदिषु शङ्खाऽऽदिषु, इह शङ्गशृङ्गशलिकाखरमुहीपेयापिरिपिरिकाणां वादनमुद्ध्मातमिति प्रसिद्धम्। पणवपटहानामाहननम्, भम्भाहोरम्भाणामास्फालनम्, भेरीझल्लरीदुन्दुभीना ताडनम्, मुरजमृदङ्गनन्दीमृदङ्गानामालपनम्, आलिङ्गकुस्तुम्बगोमुखीमर्दलानामुत्ताडनम् . वीणाविपञ्चीवल्लकीनां मूर्छनम् . महतीकठपीतन्त्रिवीणानां कुट्टनम् , वध्वीसासुघोषानन्दिघोषाणां सारण, भ्रामरीपरिवादिनीनां स्पन्दनम्, तूणतुम्बवीणानां स्पर्शनम्, नकुलानामामोटनम् , मुकुन्दहुडुक्कचिच्चिकीनां मूर्छनम् , करटडिण्डिमकिणि-ककडम्बानां वादनम् , दर्दरदर्दरिकाकुडुम्बरुकलशिकामईकानामुत्ताडनम् , तलतालकांश्यतालानामाताडनं, गिरिशकालत्तिरकामकरिकाशिशुमारिकाणां घट्टनं, वंशवेणुचालीपिरिलीवध्वकानां फुङ्कनम्। अत उक्तम्-" उद्धमंताणं सङ्खाणं " इत्यादि (तए ण से दिव्वे पट्टे दिव्वे गीए इत्यादि) यत एवं प्रगीतवन्त इत्यादि,ततो णमिति पूर्ववत् / तद् दिव्यं गीतं, दिव्यं वादितं, दिव्यं नृत्यमभूदिति योगः। दिव्यं नाम प्रधानम् / एवम्-(अब्भुए गीए अब्भुए वाइए अब्भुए नहे) अद्भुतमाश्चर्यकारि, (सिंगारे गीए, सिंगारे वाइए, सिंगारे गट्टे) शृङ्गारं शृङ्गाररसोपेतत्वात्। अथवा शृङ्गारं नामालकृमुच्यते, तत्र यदन्यस्य विशेषकरणेनालङ्कृतमिव गीत वादनं नृत्यं वा तत्शृङ्गारमिति। (उराले गीए उराले वाइए उराले णट्टे) उदारं स्फारं परिपूर्णगुणोपेतत्वात् , न तु क्वचिदपि हीनं, (मणुण्णे गीए मणुण्णे वाइए मणुण्णे णट्टे) मनोज्ञ मनोऽनुकूलं द्रष्टणां श्रोतृणां च मनोनिवृत्तिकरमिति भावः / तत्तु मनोनिवृत्तिकरत्वं सामान्यतोऽपि स्यादतः प्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह-(मणहर इति) (मणहरे गीए मणहरे वाइए मणहरे णट्टे) मनो हरति आत्मवशं नयति, तद्विधमप्यतिचमत्कारकारितयेति मनोहरम् / एतदेवाऽऽह-(उप्पिंजलभूए) उत्पिञ्जलमाकुलम् , आकुलभूते। किमुक्त भवति ?-महर्द्धिकदेवानामप्यतिशायितया परमक्षोभोत्पादकत्वेन सकलदेवासुरमनुजसमूहचित्ताऽऽक्षेपकारीति / (कहकहभूते इति) कहकहेत्यनुकरणं, कहकहेतिभूतं प्राप्त कहकहभूतम्। किमुक्तं भवति?.. निरन्तरं तत्तद्विशेषदर्शनतः समुद्वलितप्रमोदभरपरवशसकलदिक्चक्रवालवर्तिप्रक्षकजनकृतप्रशंसावचनबोलकोलाहलव्याकुलीभूतमिति। अत एवं दिव्यं देवरमणमपि देवानामपि रमणं क्रीडनं प्रवृत्तमभूत् / रा०। आ०म० इह द्वात्रिंशद् नाट्यविधयः। तेच येन क्रमेण भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पूरतः सूर्याभदेवेन भाविताः राजप्रश्नीयोपाड़े च दर्शिताः, तेन क्रमेण विनेयजनानुग्रहार्थमुपदय॑न्तेतत्र स्वस्तिकश्रीवत्सनन्द्यावर्तवर्द्धमानकभद्रासनकलशमत्स्यदर्पणरूपाष्टमङ्गलाऽऽकाराभिनयाऽऽल्मकः प्रथमो नाट्यविधिः / द्वितीय आवर्त प्रत्यावर्त श्रेणिप्रतिश्रेणिस्वस्तिक श्रीवत्सपुष्पमाडवकवर्द्धमानकमत्स्याण्डकडकराण्डकजारमारपुष्पावलिपद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापद्यलताभक्तिचित्राभिनयाऽऽत्मकः / तृतीय ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जवनलतापद्मलताभक्तिचित्राऽऽत्मकः / चतुर्थ एकतश्चक्र द्विधातश्चक्र एकतश्चक्र बालद्विधातश्चक्रवालचक्रार्द्धचक्रबालाभिनयाऽऽत्मकः / पञ्चमः चन्द्राऽऽवलिप्रविभक्तिसूर्याऽऽवलिप्रविभक्तिबलयाऽऽवलिप्रविभक्तिहंसाऽऽवलिप्रविभक्तिएकाऽऽवलिप्रविभक्तिताराऽऽवलिप्रविभक्तिमुक्ताऽऽवलिप्रविभक्तिकनकाऽऽवलिप्रविभक्तिरत्नाऽऽवलिप्रविभक्तियुक्ताऽऽवलिप्रविभक्तिनामा। षष्ठश्चन्द्रोद्गमप्रविभक्तिसूर्योद्गमप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मक उद्गमोद्गमप्रविभक्तिनामा / सप्तमश्चन्द्राऽऽगमनप्रविभक्तिसूर्याऽऽगमनप्रविभक्तयभिनयाऽऽत्मक आगमनागमनप्रविभक्तिनामा / अष्टमश्चन्द्राऽऽवरणप्रविभक्तिसूर्याऽऽवरणप्रविभक्त्यभिनवाऽऽत्मक आवरणावरणप्रविभक्तिनामा / नवमश्चन्द्रास्तमनप्रविभक्तिसूर्यास्तमनप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मकोऽस्तमयास्तमयप्रविभक्तिनामा / दशमश्चन्द्रमण्डलप्रविभक्तिसूर्यमण्डलप्रविभक्तिनागमण्डलप्रविभक्तियक्षमण्डलप्रविभक्ति भूतमण्डल प्रविभक्तिराक्षसमहो रगगन्धर्व मण्डलप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मको मण्डलप्रविभक्तिनामा / एकादश ऋषभमण्डलप्रविभक्तिसिंहमण्डलप्रविभक्तिहयविलम्बितगजविलम्बितहयविलसितगजविलसितमत्तयविलसितमत्तगजविलसितमत्तहयविलम्बितमत्तगजविलम्बिताभिनयोद्रुतविलम्बितनामा / द्वादशः सागरप्रविभक्तिनागरप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मकः सागरनागरप्रविभक्तिनामा / त्रयोदशो नन्दाप्रविभक्तिचम्पाप्रविभक्तयभिनयाऽऽत्मको नन्दाचम्पाप्रविभक्त्यात्मकः / चतुर्दशो मत्स्याण्डकप्रविभक्तिमकराण्डकप्रविभक्तिजारप्रविभक्तिमारप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मको मत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारप्रविभक्तिनामा। पञ्चदशः क इति ककारप्रविभक्ति ख इति खकारप्रविभक्ति ग इति गकारप्रविभक्ति घ इति घकारप्रविभक्ति ङ इति डकारप्रविभक्तिरित्येवक्रमभाविककाराऽऽदिप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मकः ककारखकारगकारघकार
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________________ णट्ट 1504 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णडपिडय डकारप्रविभक्तिनामा / एवं षोडशश्चकारछकारजकारझकार अकार- णट्टपाल पुं०(नाट्यपाल) नाट्यस्वामिनि सूत्रधारे, " णट्टपालो णिउत्तो प्रविभक्तिनामा / सप्तदशः टकारटकारडकारढकारणकार प्रविभक्तिनामा। तेण गीतवाउत्तकधाऽऽदीहिं आवजिओ।" आ० चू०१ अ०। अष्टादशस्तकारथकारदकारधकारनकारप्रवि भक्तिनामा। एकोनविंश णट्टमालय पुं०(नृत्यमालक) खण्डकप्रपातगुहानांस्वामिषु देवेषु, यावत्यः तितमः पकारफकारबकारभकारमकार प्रविभक्तिनामा। विंशतितमोऽ खण्डकप्रपातगुहास्तावन्तो नृत्यमालकाः / स्था० 2 ठा०३ उ० / आ० शोकपल्लवप्रविभक्त्यामपल्लव प्रविभक्तिजम्बूपल्लवप्रविभक्ति म० / सुषमसुषमभाविनि कल्पद्रुमविशेषे, जं० 2 वक्ष०। कोशाम्बपल्लवप्रविभक्त्याभिनया ऽऽत्मकः पल्लवप्रविभक्तिनामा। णट्टवत्थु न०(नाट्यवस्तु) नृत्यप्रतिपादके पापश्रुते, प्रश्न० 5 सम्ब० एकविंशतितमः पद्मलताप्रवि भक्तिनागलताप्रविभक्तयशोकलता द्वार। आव०। प्रविभक्तिचम्पकलताप्रविभक्ति चूतलताप्रविभक्तिवनलताप्रविभक्तिवासन्तीलताप्रविभक्तयति मुक्तकलताप्रविभक्तिश्यामलताप्रविभक्त्य पट्टवाइच न०(नाट्यवादित्व) नर्तकीत्वे, बृ०५ उ०। भिनयाऽऽत्मको लता प्रविभक्तिनामा / द्वाविंशतितमो दुतनामा / णट्टविहि पुं०६त०(नाट्यविधि) नृत्यकरणप्रकारे, स्था०६ ठा० त्रयोविंशतितमो विल म्बितनामा। चतुर्विशतितमो द्रुतविलम्बितनामा। नायकचरिताभिनये, भ० 11 श०६ उ० / सामान्यतो नर्त्तनविधौ, पञ्चविंशतितम स्त्वशितनामा / षड् विंशतितमो रिभितनामा / जी० 3 प्रतिः / (तस्य द्वात्रिंशत्प्रकाराः ' णट्ट ' शब्दे 1803 पृष्ठे सप्तविंशतितमोऽ चितरिभितनामा ! अष्टाविंशतितम आरभटनामा / दर्शिताः) एकोनत्रिंशत्तमो भसोलनामा / त्रिंशत्तम आरभटभसोलनामा / णट्टाणीय पुं०ब०(नाट्यानीक) नाट्यकारकजनसमूह, भ० 14 श०६ उ०। एकत्रिंशत्तम उत्पात निपातपरिनिपातप्रसक्तसंकुचितप्रसारितरेव णट्ठ त्रि०(नष्ट) सर्वथाऽदृश्यीभूते, आ० म०१ अ०१खण्ड। व्य०। अपगते, कारचितभ्रान्तसंभ्रान्तनामा। द्वात्रिंशत्तमस्तु चरमनामनिबद्धनामा / स सूत्र 1 श्रु 3 अ३ उ। हारिते, बृ०३ उ०।" णट्टे ति वा वि गए ति वा च सूर्याऽऽभदे वेन भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतो भगवतश्वरमपूर्व अंतद्धाभूए ति वा एगट्ठा।" आ० चू०१०।" णड सप्पहसब्भावे " मनुष्यभवचर मदेवलोकभवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणचरमभरत नष्टोऽपगतः सत्पथः सद्भावः सन्मार्गः परमार्थो येभ्यस्ते। सूत्र० 1 श्रु० क्षेत्रावसर्पिणी तीर्थकरजन्माभिषेकचरमबालभावचरमयौवनचरमकाम 3 अ० 3 उ० / रात्रिन्दिवस्य सप्तदशे मुहूर्ते, स०३० सम० / भोगचरम निष्क्रमणचरमतपश्चरणचरमज्ञानोत्पादचरमतीर्थप्रवर्तनचरमनिर्वा णाभिनयाऽऽत्मको भावितः 32 / तत्रैतेषां द्वात्रिंशतो णट्टमइय त्रि०(नष्टमतिक) मत्या स्वविषयकानिश्चायके, ज्ञा० 1 श्रु० नाट्यविधीनां मध्ये काँश्वन नाट्यविधीन उपन्यस्यति अप्येकका देवा 16 अ०। द्रुतं दुत नामकं द्वाविंशतितमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति / एवमप्येकका णहरय त्रि०(नष्टरजस्) नष्ट सर्वथाऽदृश्यीभूतं रजो यत्र स तथा। जी०३ विल म्बितं नाट्यविधिम्, अप्येकका अधितं नाट्यविधिम् , अप्येकका प्रति० / अदृश्यमानरजस्के, आ० म०१ अ० 1 खण्ड। रिभितं नाट्यविधिम, अप्येकका अश्चितरिभित नाट्यविधिम् | गहवं त्रि(नष्टवत) अहोरात्रस्य षडर्विशे महर्ते, स०३० सम०। अप्येकका आरभट नाट्यविधिम् , अप्येकका भसोल नाट्यविधि म् , णट्ठसण्ण त्रि०(नष्टसंज्ञ) मनसा भ्रान्ते, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०। अप्येकका आरभटभसोलं नाट्यविधिमुमपदर्शयन्ति / अप्येक का देवा णट्ठसुइय पुं०(नष्ट श्रुतिक) निर्यामके, शास्त्रेण दिगादिविवेचनस्य उत्पातनिपातम्, उत्पातपूर्वो निपातोयस्मिन् स उत्पात निपातः, तम्। करणेऽशक्ते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। एवं निपातोत्पातं, सकुचितं प्रसारितं, रेवकारचित मिति गमनागमन भ्रान्तं संभ्रान्तं नाम नाट्यविधि सामान्यतो नर्त नविधि द्वात्रिंशा णड पुं०(नट)"टो डः" / / 8 / 1 / 165 / / इति टम्य डः। प्रा० १पाद / द्युत्तीर्णमुपदर्शयन्ति। अप्येकका देवाश्चतुर्विध वाद्यं वादयन्ति। तद्यथा नाटकाना नाटयितरि, ज्ञा०१श्रु०१ अ०। रा०। अनु०ा नटाये नाटकानि ततं मृदङ्गपटहाऽऽदि, विततं वीणाऽऽदिकं, घनं कंसिकाऽऽदि, शुषिरं नर्त्तयन्ति / व्य०३ उ० / नि० चू० / कल्प० / औ०।" णडा दुविहा काहलाऽऽदि। अप्येकका देवाश्चतुर्विध गेयं गायन्ति। तद्यथा प्रथमतः लंखका, वग्गुरिया य।"पं० चू० / नटति नट् अच् / नाटकाऽऽसमारभ्यमाणमुत्क्षिप्तम् , उत्क्षेपा वस्थातो विक्रान्तं मनाक भरेण दिदृश्यकाव्याभिनयकर्तरि नत्तभेदे, जाया जीविनि वर्णसङ्करभेदे, प्रवर्तमानपादान्तम्। (मंदाय मिति) मध्यभागे मूर्छनाऽऽदिगुणोपेततया अशोकवृक्षे, शोनाकवृक्षे, नले, किष्कुपर्व णि, गोदन्तहरिताले च। वाच०। मन्दं मन्दं घोलनाऽऽत्म कम् / रोचितावसानमितिरोचितं *गुवधा० / व्याकुलीभावे, दिवा पर सक सेट्।" गुप्येर्विरणमौ / / 8 यथोचितलक्षणोपेततया भावितं, सत्यापितमिति यावत् , अवसानं यस्य 18! 150 // इति गुप्यतेनडाऽऽदेशः / ' नडइ'' गुप्पति / प्रा० 4 पाद। तत् रोचितावसानम् / जी० 3 प्रति०। णडखाइता स्त्री०(नटखादिता) नटस्येव संवेगविकलधर्मकथा *नट् धा० / नृत्ते, भ्वादि० परस्मै० सेट्।" शकाऽऽदीनां द्वित्त्वम् " करणोपार्जितभोजनाऽऽदीनां खादितं भक्षणं यस्यां सा नटखादि ता। ||6|| 230 // इत्यन्त्यस्य द्वित्वम्।' णट्टइ 'नटति। प्रा० 4 पाद।। प्रव्रज्याभेदे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। णट्टग पुं०(नर्तक) स्वयं नृत्यकर्त्तरि, कल्प० 5 क्षण० / औ० / रा०। णड पिड य पुं०(नटपिटक) स्वनामख्याते भृगुकच्छावन्त्य - ज्ञा० / प्रश्न० / अनु०। न्तराल ग्रामे, यत्र कश्चिद् गुरुप्रेषितः साधु : वर्षापातेनावरुद्धः
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________________ णडपिडय 1805 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णत्थि तटय सामाचारीमुपयुक्त एवाऽऽचरन् लवालवे उदाहरणम्। आ० क०। आव०। णडपेहा स्त्री०(नटप्रेक्षा) नटा नाटकानां नाटयितारः, तेषां प्रेक्षा नटप्रेक्षा / नटप्रेक्षणके, जी० 3 प्रति० / वीरसाधूनामृजुजमत्वे, कल्प० 1 क्षण। बृ० / (नटप्रेक्षोदाहरणम् ' कप्प शब्दे तृतीयभागे 2265 पृष्ठे गतम्) गडाइणाय न०(नटाऽऽदिज्ञात) नर्तकप्रभुत्युदाहरणे, पञ्चा० 16 विव०। णडाल न०(ललाट)" ललाटे च"||८1१1२५७।। इति लस्य णः। " पक्वाऽऽङ्गारललाटे वा " || 8 | 1 / 47 / / इत्यादेरत इस्वाभावपक्षे / मस्तके, प्रा 1 पाद। णडिय त्रि०(नटित) विडम्बिते, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। णडी स्त्री०(नटी) नर्तक्याम् , बृ०३ उ० / नटभार्यायाम् , स्था० 6 ठा० / गडीरंगपुं०(नटीरङ्ग) नर्तकीरङ्गे नाट्यस्थाने, बृ०३ उ०। णडुरी (देशी) भेके, दे० ना० 4 वर्ग। णडुल त्रि०(नडुल) नडाः सन्त्यत्र ड्वलच्। नडयुक्ते देशे, वाच० / कारणे कार्योपचाराद् नड्वलः पादरोग इति। विशे०। आचा०। णडुली स्त्री०(देशी) कच्छपे, दे० ना० 4 वर्ग। णणु अव्य०(ननु) आशङ्कितावधारणे, नि० चू०१ उ। वितर्क, षो०१६ विव०। अक्षमायाम् , दश० 1 अ०। जी० / विशे०। प्रति० / असूयायाम, विशे०। णण्णसूरि पुं०(नन्नसूरि) चन्द्रगच्छोद्भवे श्रीवप्पभट्टिसूरिशिष्ये सर्वदेव सूरिगुरौ, स च विक्रमसंवत्सरे 600 मिते विद्यमान आसीत्। जै० इ०। णत्त न०(नक्त) रात्रौ, च० प्र०१० पाहु०३ पाहु० / पत्तंदिवन (नक्तन्दिव) अहोरात्रे, अष्ट०६ अष्ट० / गत्तंभागपुं०(नक्तम्भाग) नक्तं रात्रौ चन्द्रयोगस्याऽऽदिमधिकृत्य विद्यन्ते येषां तानि नक्षत्राणि तथा / चं० प्र०१० पाहु. 3 पाहु० / चन्द्रस्य समयोगिषु नक्षत्रेषु, " अदाऽसेसा साई, सयभिस अभिई य जेट्टसमजोगा।" स्था०६ ठा। णत्तिअ पुं०(नप्लक)" इदुतौ वृष्टदृष्टिपुथङ्मृदङ्गनृप्तके "1811 / 137 / इति ऋत इकारोकारौ। प्रा०१पाद। पुत्रस्य दुहितुर्वा पुत्रे, नि० चू० 2 उ० / आ० म० / बृ० / विशे० / गत्तिआ स्त्री०(नप्तका) पौत्र्यां, दौहित्र्यां च। विपा० 1 श्रु० 3 अ०। ग०। णत्तु पुं०(नप्क) ' णत्तिअ 'शब्दार्थ, नि० चू०२ उ० / आ० मा बृ०॥ विशे०। णत्तुआ स्त्री०(नप्तका)" णत्तिआ" शब्दार्थे, विपा० 1 श्रु० 3 अ० ग01 णत्तुआवइ पुं०(नतृकापति) पौत्रीणां दौहित्रीणां वा भर्तृषु, बृ० 1 उ०। णत्तुइणी स्त्री०(नप्तृकिनी) पौत्रदौहित्रभार्यायाम , विपा०१ श्रु०३ अ०। णत्थ त्रि०(न्यस्त) साध्वर्थमुपकल्पिते, सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 1 उ०। स्थापिते, अष्ट० 30 अष्ट०। पत्थिअपुं०(नास्तिक) नास्ति जीवः परलोको वेत्येवं मतिर्यस्य सः। / अक्रियावादिनि, स्था० 4 ठा०४ उ०। आचासूत्र०। (84 भेदाः ' अकिरियावाइ(ण) शब्दे प्रथमभागे 127 पृष्ठे उक्ताः) नास्तिकवादिगणमतमन सन्ति सप्त स्वपरसंस्थाः / स्था० 4 ठा० 4 उ०। सूत्र०। तद्यथानत्थि जीवो, न जाइ, इह परे वा लोए न य किंचि वि फुसइ पुण्णपावं, नत्थि फलं सुकयदुक्कयाणं, पंचमहब्भूतियं सरीरं भासंति हं वातजोगजुत्तं,पंच य खंधे भणंति केइ, मणं च मणजीविका वदंति, वाउजीवो त्ति एवमाहंसु, सरीरं सादियं इहभवे एगे भवे तस्स विप्पणासंसि सव्वनासो त्ति एवं जपंति मुसावाई। शून्यमिति, जगदिति गम्यते, कथम् ? आत्माऽऽद्यभावात् , एतदाहनास्ति जीवः, तत्प्रसाधकप्रमाणाभावात् / स हि न प्रत्यक्षग्राह्यः, अतीन्द्रियत्वेन तस्याभ्युपगमत्वात्। नाप्यनुमानग्राह्यः, प्रत्यक्षाप्रवृत्तावनुमानस्याप्यप्रवृत्तेः / आगमानां च परस्परतो विरुद्धत्वेनाप्रमाणत्वादिति / असत्त्वादेवासौ न याति न गच्छति / इहेति मनुष्यापेक्षया मनुष्यलोके, 'परे वा ' परस्मिन् तदपेक्षयैव देवाऽऽदि लोके, न च किञ्चिदपि स्पृशति बध्नाति पुण्यपापं शुभाशुभं कर्म, नास्ति फलं सुकृतदुष्कृतानां पुण्यपापकर्मणां, जीवासत्त्वेन तयोरप्यसत्त्वात्। तथा पञ्चमहाभौतिकं शरीरं भाषन्ते / 'हं' इति निपातो वाक्यालङ्कारे / वातयोगयुक्तं प्राणवायुना सर्वक्रि यासु प्रवर्तितमित्यर्थः / तत्र पञ्चमहाभौतिकमिति, महान्ति च तानि लोकव्यापकत्वाद् भूतानि च सद्भूतवस्तूनि महाभूतानि / तानि चामूनिपृथिवी कठिनरूपा, आपो द्रवलक्षणाः, तेज उष्णरूपम् , वायुश्चलनलक्षणः, आकाशं शुषिरलक्षणमिति / एतन्मयमेव शरीरं, नापरः शरीरवर्ती तन्निष्पादकोऽस्ति जीव इति विवक्षा / तथाहि-भूतान्येव सन्ति, प्रत्यक्षेण तेषामेव प्रतीयमानत्वात् / तदितरस्य तु सर्वथाऽप्रतीयमानत्वात् / यत्तु चैतन्य भूतेषूपलभ्यते, तद्भूतेष्वेव कायाऽऽकारपरिणतेष्वभिव्यज्यते, मद्याङ्गेषु समुदितेषु मदशक्तिवत् / तथा न भूतेभ्योऽतिरिक्तं चैतन्यं, कार्यत्वात् , मृदो घटवदिति। ततो भूतानामेव चैतन्याभिव्यक्तिर्जलस्य बुबुदाभिव्यक्तिवदिति। अलीकवादिता चैषामात्मनः सत्त्वात् , सत्त्वं च प्रमाणोपपत्तेः / प्रमाणं च सर्वजनप्रतीत जातिस्मरणाऽऽद्यन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणमनेकधा शास्त्रान्तरप्रसिद्धमिति / न च भूतधर्मश्चैतन्यं, तद्भावेऽपि तस्याभावाद् , विवक्षितभूताभावेऽपि प्रेताऽऽद्यवस्थायां चैतन्यसदभावाचेति / (पंच य खंधे भणंति केइ ति) पञ्च च स्कन्धान रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काराऽऽख्यान् भणन्ति केचिदिति बौ-द्धाः। तत्र रूपस्कन्धः पृथिवीधात्वादयो, रूपाऽऽदयश्च / वेदनास्कन्धः पुनः सुखदुःखासुखदुःखेति त्रिविधवेदनास्वभावः / विज्ञानस्कन्धस्तु रूपाऽऽदिविज्ञानलक्षणः / संज्ञास्कन्धश्च संज्ञानिमित्तोद्ग्रहणाऽऽत्मकः प्रत्ययः / संस्कारस्कन्धः पुनः पुण्यापुण्याऽऽदिधर्मसमुदाय इति / न चैतेभ्यो व्यक्तिरिक्तः कश्चिदात्माऽऽख्यः पदार्थोऽध्यक्षाऽऽदिभिरवसीयत इति। तथा-(मणं च मणजीविया वयंति त्ति) न केवलं पञ्चैव स्कन्धान्, मनश्च मनस्कारो रूपाऽऽदिज्ञानलक्षणानामुपादानकारणभूतः, यमाश्रित्य परलोकोऽभ्युपगम्यते बौद्धः, मन एव जीवो येषां ते म
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________________ णत्थि 1806 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णपुंसग नो जीवाः, त एव मनोजीविकाः / अलीकवादिता चैषां सर्वथाऽननुगामिनि मनोमात्ररूपे जीवे कल्पितेऽपि परलोकासिद्धेः / तदसिद्धिश्चअवस्थितस्यैकस्याऽऽत्मनोऽसत्त्वात् , मनोमात्राऽऽत्मनः क्षणान्तरस्यैवोत्पादादकृताभ्यागमाऽऽदिदोषप्रसङ्गात् / कथञ्चिदननुगामिनि तु मनसि जीवत्वाभ्युपगमः सम्यक् पक्ष एवेति / तथा (वाउजीवो त्ति एवमाहंसु त्ति) वात उच्छ्वासाऽऽदिलक्षणो जीव इत्याहुरेके / तद् भावाभावयोर्जीवनमरणव्यपदेशाद् नान्यः परलोकयाय्यात्माऽस्तीति। अलीकवादिता चैषां वायोर्जडत्वेन चैतन्यजीवरूपत्वायोगात्। तथा शरीरं साऽऽदि, उत्पन्नत्वात् , सनिधनं, क्षयदर्शनात्। (इह भवे एगे भवे ति) इह भवे एव प्रत्यक्षजन्मैव एको भव एकं जन्म, नान्यः परलोकोऽस्ति, प्रमाणाविषयत्वात् , तस्य शरीरस्य, विविधैः प्रकारैः प्रकृष्टो नाशः प्रणाशस्तस्मिन् सति सर्वनाश इति नाऽऽत्मा शभाशभरूपं वा कर्माविनष्टमवशिष्यते / एवमेव उक्त प्रकारं ' जपति ' जल्पन्ति मृषावादिनः / मृषावादिता चैषां जातिस्मरणाऽऽदिना जीवपरलोकसिद्धेः / प्रश्न०२ आश्रद्वार।दशा यथावस्थितं हि वस्त्वनेकान्ताऽऽत्मक, तन्नास्त्येकान्ताऽऽत्मकमेव चास्तीति प्रतिपत्तिमन्तः सर्वेऽपि नास्तिकाः / स्था०८ ठा०। ___ एकान्ताभिनिवेशे तु जात्या सर्वेषां तुल्यत्वमेवेत्याहस्वरूपतस्तु सर्वेऽपि, स्युर्मियोऽनिश्रिता नयाः। मिथ्यात्वमिति को भेदो, नास्तित्वास्तित्वनिर्मितः ? / / 125 // | स्वरूपतस्त्विति स्पष्टः / (मिथोऽनिश्रिता इति) स्याद्वादमुद्रया परस्पराऽऽकाङ्गारहिता इत्यर्थः / / 125 / / ननु नास्तिकास्तिकव्यवहारप्रयोजकतयैवैतेषां भेदो भविष्यतीत्यत आहधयंशे नास्तिको ह्येको, बार्हस्पत्यः प्रकीर्तितः। धर्माशे नास्तिका ज्ञेयाः, सर्वेऽपि परतीर्थिकाः / / 126 // (धर्माशे इति) धर्मिण आत्मनोंऽशे नास्तित्वभागे, एको बार्हस्पत्यश्चार्वाको नास्तिकः प्रकीर्तितः / धर्माणामात्मनः शरीरप्रमाणत्वनानात्वपरिणामित्वधुवत्वसर्वज्ञजातीयत्वाऽऽदीनामंशे नास्तित्वपक्षे सर्वेऽपि नैयायिकवैशेषिकवेदान्तिसाङ्ख्यपातञ्जलजैमिनीयाऽऽदयः परतीर्थिका नास्तिका ज्ञेयाः। यत्र यथावदस्तित्वं तत्र तथा तदनभ्युपगमस्य, स्वरसतो भगवदचनाश्रद्धानस्यैव वा नास्तिकपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वादिति भावः / चार्वाकाऽऽदिभिन्नदर्शनस्वीकर्तृत्वमेवास्तिकत्वमिति रुढिस्त्वनुकम्पामात्रम् / नयो०। आ०म०। (' उसभ' शब्दे द्वितीयभागे 1134 पृष्ठे ललिताङ्गदेववक्तव्यतायां नास्तिकवादिनं सुबुद्धि प्रति स्वयंबुद्धकृत उपदेशो द्रष्टव्यः) पत्थिभाव पुं०(नास्तिभाव) अविद्यमानभावे," णत्थिभावो त्ति वा अविजमाणभावो त्ति वा एगट्ठा।" आ० चू० 1 अ०। णत्थून अव्य०(नष्ट्वा) नश-क्त्वा।" धूनत्थूनौटवः " / / 814/ 313 // इति ष्ट्वा इत्यस्य स्थाने त्थूनाऽऽदेशः। अदृश्यीभूयेत्यर्थे, प्रा० १पाद। णदियाययण न०(नद्यायतन) नद्याः प्रधानस्थाने, यत्न तीर्थस्थानेषु लोकाः पुण्यार्थ स्थानाऽऽदि कुर्वन्ति / आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ०। णदी स्त्री०(नदी) गङ्गासिन्धुमहीकोशीप्रभृतिषु सरित्सु, स० 3 अङ्ग / प्रज्ञा० / गिरिनद्यादिषु, प्रज्ञा० 11 पद। णद्विय न०(नर्दित) घोषे, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। णद्ध त्रि०(नद्ध) नियन्त्रिते, त० / आरूढे, दे० ना० 4 वर्ग। णपुंसग पुं०न०(नपुंसक) न स्त्री न पुमान नपुंसकम् / ग० 1 अधि०। स्त्रीपुरुषोभयाभिलाषिणि पुरुषाऽऽकृतौ पुरुष, ध० 2 अधि०।" स्तनाऽऽदिश्मश्रुकेशाऽऽदि-भावाभावसमन्वितम्। नपुंसकं बुधाः प्राहुमोहानलसुदीपितम्॥१॥"तं०। तिविहा णपुंसगा पण्णत्ता / तं जहा-णेरइयणपुंसगा, तिरिक्खजोणियणपुंसगा, मणुस्सणपुंसगा! तिरियणपुंसगा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-जलचरा,थलचरा,खहचरा। मणुयणपुंसगा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-कम्मभूडिया, अकम्मभूडिया, अंतरदीवया / स्था०३ ठा० 1 उ०। " स्तनकेशवती स्त्री स्या-द्रोमशः पुरुषः स्मृतः। उभयोरन्तरं यच्च, तदभावे नपुंसकम्।।१।।" स्था०३ ठा०१उ०। नपुंसकः पण्डक इति पर्यायौ। बृ०४ उ०।आव०। (पण्डकलक्षणानि पंडग' शब्दे वक्ष्यन्ते) " अज्झवसायविसेस तं इह ते हुति णपुंसगे।" महा०१०। दश नपुंसकाःपंडए 1 वाइए 2 कीवे, 3 कुंभी 4 ईसालुए 5 त्ति अ। सउणी 6 तक्कम्मसेवा अ७, पक्खिआपक्खिए इअ८/८००। सोगंधिए अ आसत्ते 10, दस एएनपुंसगा। संकिलिहित्ति साहूणं, पव्वावेउं अकप्पिआ।। 501 / / प्रव० 106 द्वार। पण्डकाऽऽदयो दश नपुंसकाः संक्लिष्टचित्ता इतिकृत्वा साधूनां प्रव्राजयितुमकल्प्याः / संक्लिष्टत्वं चैषां सर्वेषामप्यविशेषतो नगरदाहसमानकामाध्यवसायसंपन्नत्वेन स्वीपुरुषसेवामाश्रित्य विज्ञेयम् , उभयसेविनो ह्येत / ध०३ अधि०। नपुंसकानामिमे षड् भेदाश्चान्येऽपि .,बद्धिए विप्पितत्तिए। मंतोसहिउवहतए, इसिसत्ते देवसत्ते य ! / 276!! नि० चू० 11 उ० / पं० भा०। पं० चू०। आव०। नपुंसका द्विविधाः-स्त्रीनेपथ्यकाः पुरुषनेपथ्यकाश्च तद्यथाएमेव होंति दुविहा, पुरिसनपुंसा वि सन्नि अस्सन्नी। मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव / / 432 // पुरुषसागारिकालाभे कदाचिन्नपुंसकसागारिकः प्रतिश्रयो लभ्यते, तत्राप्येवमेव भेदाः कर्तव्याः / तत्र नपुंसका द्विधास्त्रीनेपथ्यकाः, पुरुषनेपथ्यकाः।ये पुरुषनेपथ्यकाः ते द्विधाप्रतिसेविनः, अप्रतिसेविनश्च। ये तु स्वीनेपथ्यकास्ते नियमात्प्रतिसेविनः। तत्र पुरुषनपुंसका अपि, न केवलं पुरुषा इत्यपिशब्दार्थ संज्ञिनः, असंज्ञिनश्चेति द्विविधाः। उभयेऽपि चतुर्विधाः-मध्यस्थाः, आभरणप्रियाः, कान्दर्पिकाः, काथिकाश्च / एकेक्का ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य / एवं सन्नी वारस, असन्निणो होंति एकेके / / 433 / / ते मध्यस्थाऽऽदयस्विविधाः-स्थविराः, मध्यस्थाः, तरुणाश्च / एवं संज्ञिनो द्वादश। असंज्ञिनोऽपि द्वादश भवन्ति। वृ०१ उ०। नि० चू० /
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________________ णपुंसग 1807- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमि 'नपुंसको भवति इति महाभाष्यप्रयोगात् अस्य पुंस्त्वमपि। लिङ्गस्य नपुंसकवेदः / स्था० 6 ठा० / कर्म० / बृ० / पं० स० / जी०। स०। शब्दगतत्वेऽपि शब्दार्थे तद्व्यवहारस्तु अभेदाऽऽरोपात् / तद् यथा- णम न०(नभस् ) न भाति न दीप्यते इति नभः / भ० 20 श०२ उता" लिङ्गत्वं च प्राकृतगुणगतावस्थाऽऽत्मको धर्म एव, तद्वि-शेषश्च खघथधभाम् "||8111187 / / इत्यस्य प्रायिकत्वाद् न हः। प्रा० पुनपुंसकत्वाऽऽदिः / तथाहि-सर्वेषां त्रिगुणप्रकृतिकार्यतया शब्दानामपि १पाद।" स्नमदामशिरोनमः "||8|1 // 32 // इति नभःपर्युदासान्न तथात्वेन गुणगतविशेषाच्छब्देषु विशेष इति कल्प्यते। स च विशेषः शास्त्रे पुंस्त्वम्। प्रा०१ पाद / आकाशे, औ०। सूत्र०। इत्थमभ्यधायि। विकृतसत्त्वाऽऽदीनां तुल्यरूपेणावस्थानाद् नपुंसकत्वं, णभप्पईव पुं०(नभःप्रदीप) नभ आकाशं प्रदीपयति यत्तत्तथा / सूर्ये, सत्त्वस्याऽऽधिक्ये पुंस्त्वम् , रज-आधिक्ये स्त्रीत्वमिति। एवं च लिङ्गस्य कल्प०३ क्षण। शब्दधर्मत्वेऽपि शब्देन सहाभेदारोपादसति बाधकेऽर्थेऽपि साक्षात् णभसूर पुं०(नभःसूर) चन्द्रं सूर्यं वा गृह्णतो राहोः कृष्णपुद्गलभेदे, सू० तत्पारतन्त्र्येण वा सर्वत्र तस्य विशेषणत्वम् , शाब्दबोधे शब्दभान प्र०२० पाहु०। स्येष्टत्वाच, शब्दस्य नामार्थतावत् तद्गतलिङ्गस्यापि नामार्थतौचित्यात् "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके, यः शब्दानुगमादृते।" इति हर्युक्तः," णभसेण पुं०(नभःसेन) अष्टचत्वारिंशे ऋषभदेवपुत्रे, कल्प०७ क्षण। शब्देऽपि यदि भेदेन, विवक्षा स्यात्तदा तथा / नो चेत् श्रोत्राऽऽदिभिः णमंसण न० (नमस्यत्)नमसित्यव्ययस्य" नमोवरिवश्चित्रडः क्यच्॥२ सिद्धो-ऽप्यसावर्थेऽवभासते।।१।।" इति हर्युक्तश्च, शब्दानांतदर्थताऽव / 1 / 16 // इति क्यच्ा दर्श०१अ०। प्रणमने, ज्ञा०१ श्रु०१अ०भ० गतेः। तथा प्रातिपदिकार्थः / अभेदविवक्षायां तु श्रोत्राऽऽदिभिरेव सिद्धो / नि०। औ०। संथा०। स्था०। ज्ञातः सन् अर्थे प्रकारतया भासते इति तदर्थः / युक्तं चैतत्- 'पुल्लिङ्ग णमंसित्तए अव्य०(नमस्यितुम् ) प्रणामपूर्वकप्रशस्तध्वनिभिर्गुणोशब्दः ' इति व्यवहारात्" स्वमोर्नपुंसकात् " // 7 / 1 / 23 / / इति त्कीर्तनं कर्तुमित्यर्थे, उपा० 1 अ० / स्था० / रा०। प्रति० / आ० चू०। पाणिनिसूत्रे शब्दस्यैव नपुंसकत्वव्यपदेशात् / दारानित्यादौ पुंस्त्वा- णमंसित्ता अव्य (तमस्यित्वा) प्रणम्येत्यर्थे, स्था० 3 टा०१ उ०। न्वयवाधाच लिङ्गस्य शब्दधर्मत्वम, अन्यथैतेषु लिङ्गानन्वयाऽऽपत्तेर्व्य- णमण न०(नमन) शिरसा प्रमाणमात्रे, बृ० 1 उ० / नि० / पं० भा०। वहारसूत्रनिर्देशासङ्गत्यापत्तेश्चातथा अर्थभेदाच्छब्दभेदवद् लिङ्गभेदादपि नमस्कारे, उत्त०१ अ०। विनयकरणे, उत्त०५ अ०। प्रहीकरणे, सूत्र० शब्दभेद इति कल्प्यते, प्रागुक्तधर्मविशेषरूपभेदकसद्भावात् / उक्तं च 1 श्रु० 4 अ० 1 उ०। भाष्य- एकाथ शब्दान्यत्वाद् दृष्ट लिङ्गान्यत्वम् इति एव च णमणी स्त्री०(नमनी)" गिहिसाधूहि णमिति, तम्हा जं होति णमणि तटाऽऽदिशब्दानामनेकलिङ्गत्वव्यवहारः समानानुपूर्वीकत्वेनैव / | ति।"पं० भा० / तृतीयगौणानुज्ञायाम् , नं० / वस्तुतस्तेषां भिन्नानामेव लिङ्गत्वमिति दिक् / वाच० / जीवाभिगमाऽऽदिषु णमंत त्रि०(नमत् ) आचार्याऽऽदेः प्रणाम कुर्वति, आचा०१ श्रु०६ नपुंसकस्य धर्म-चरणमुक्तं, तत्सम्यक्त्वं देशसंयम, सर्वसंयम वा ? अ०४ उ०। पञ्चदश भेदाः सिद्धानां प्रोक्ताः, तत्र मूलनपुंसकत्वे, कृत्रिमत्वे वा णमि पुं०(नभि) स्वनामख्याते विदेहराजे, उत्तः / मोक्षः ? तत् साक्षरं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्-जातिनपुंसकस्य सम्यक्त्वं देशविरतिं च यावत्प्रतिपत्तिर्भवति, न तु परतस्तेन न अत्र नियुक्तिकृत्मोक्षाऽऽप्तिः, मोक्षावाप्तिरपि कृत्रिमनपुंसकानामिति / 166 प्र। सेन० णिक्खेवो उ नमिम्मी, चउव्विहो दुविहो उ होइ दव्वम्मि। प्र०३ उल्ला०। आगम-नोआगमओ, नोआगमओ य सो तिविहो // 5 // णपुंसगपण्णवणी स्त्री०(नपुंसकप्रज्ञापनी) स्तनाऽऽदिश्मश्रुकेशाऽऽ- जाणगसरीर भविए, तव्वइरित्ते य से भवे तिविहो। दिभावाभावाऽऽदिसमन्वितमित्यादिलक्षणायां नपुंसकलक्षणाभिधा- एगभविय बद्धाउय, अभिमुहओ नामगोत्ते य / / 66 // यिन्यां भाषायाम्, शब्दव्यवहारानुगतं नपुंसकलक्षणमाश्रित्यैतल्ल नमिआउनामगोयं, वेयंतो भावओ नमी होइ / / 6711 क्षणाऽघटनेऽपि उच्यमाना वाङ् न मृषेति भाषाशब्दे, प्रज्ञा०११ पद। निक्षेपो न्यासः, तुः पूरणे, नमौ नमिविषयश्चतुर्विधश्चतुर्भेदो नामाऽऽदिः / णपुंसगलिंगसिद्ध पुं०(नपुंसकलिङ्गसिद्ध) तीर्थकरप्रत्येकबुद्धवर्जित तत्र चनामस्थापने सुगमे। द्विविधो भवति द्रव्ये द्रव्यविषयः / तमेवाऽऽहनपुंसकलिङ्गशरीरनिवृत्तिरूपे व्यवस्थिते सति सिद्धे, नं० / पा०। आगमनोआगमतः / तत्राऽऽगमतो ज्ञातानुपयुक्तो, नोआगमतश्च / स णपुंसगवयण न०(नपुंसकवचन) पीठं देवकुलमित्यादिके नपुंसकलिने त्रिविधः-(जाणगसरीरभविए तव्वइरित्ते य ति) नमिशब्दस्य शब्द, आचा० 2 श्रु० 1 चू० 4 अ० 1 उ० / प्रज्ञा० / अनु० / प्रत्येकमभिसंबन्धाद्ज्ञशरीरनमिर्भव्यशरीरनमिः, तद्व्यतिरिक्तनमिश्च / अव्यक्तगुणसंदोहे नपुंसकलिङ्गं प्रयुज्यते / जी०१ प्रति०। स तद्व्यतिरिक्तनमिर्भवेत् त्रिविधः-एकभविको, बद्धाऽऽयुष्कोऽऽभिणपुंसगवेय पुं०(नपुंसकवेद) वेद्यत इति वेदः, नपुंसकस्य वेदो न- मुखनामगोत्रश्च / एतत्स्वरूपं च प्राग्वत् / तथा नम्थायुर्नामगोत्रं वेदयन् पुंसकवेदः / प्रज्ञा० 21 पद / स्त्रीपुंसयीरापर्यभिलाषे, तद्धेतुके भावतो नमिर्भवति। उत्त०६ अन वेदनीयकर्मणि, यदुदये नपुंसकस्य स्त्रीपुंसयोरुभयोरभिलाषः अथ तृतीयप्रत्येकबुद्धनमिचरित्रमुच्यतेपित्तश्मेष्मणोरुदये मज्जिताभिलाषवत् , स महानगरदाहाग्नि-समानो मालवमण्डलमण्डनं सुदर्शनपुरमस्ति; तत्र मणिरथो
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________________ णमि 1805 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमि m राजा, तस्य भ्राता युगबाहुर्वर्तते स्म / तस्य भार्या सुशीला सुरूपा मदनरेखा वर्तते स्म / सा बाल्यावस्थात आरभ्य सम्यक्त्वमूलद्वादशव्रतानि जग्राह / तस्याः पुत्रश्चन्द्रयशा वर्तते स्म / अन्यदा मणिरथेन मदनरेखा दृष्टा, तद्रूपमोहितो नृप एवं चिन्तयति स्मइयं मदनरेखा मम कथं वशवर्तिनी भवतु ? भवतु, प्रथमं तावत् साधारणैः कृत्यैस्तां विश्वासयामि, पश्चात्कामाभिलाषमपि तस्याः समये कारयिष्येऽहम् / दुष्कर कार्य बुद्ध्या किं न सिद्ध्यति ? एवं चिन्तयित्वा राजा तस्यै ताम्बूलकुसुमवस्त्रालङ्काराऽऽदिकं प्रेषयति स्म / साऽपि निर्विकारा ज्येष्ठप्रेषितत्वात् सर्व गृह्णाति स्म / एकदा मणिरथस्तामेकान्ते स्वयमित्युवाचभद्रे ! त्वं मां भरि विधाय यथेष्ट सुखं भुक्ष्व। सा जगौराजन् ! तव लघुबन्धुकलत्रे मय्येतादृशं वचनमयुक्तम्, त्वं निष्कलङ्को पञ्चमो लोकपालोऽसि, एवं वदंस्त्वं किं न लजसे ? शस्त्राग्निविषयोगैमृत्युसाधनं वरं, निजकुलाऽऽचाररहितं जीवितं न श्रेयः / पररत्रीलम्पटाःस्वजीवितं यशश्च नाशयन्ति। तयैवं प्रतिबोधितोऽपि नृपः कदाग्रहे न मुमोच / एवं च व्यचिन्तयत्-यदाऽस्याः प्रीतिपात्रं मद्बन्धुर्युगबाहुापाद्यते, तदेयं मम वशीभविष्यति। अन्यदा मदनरेखा स्वप्ने पूर्णेन्दुं ददर्श / तया युगबाहवे निवेदितः स्वप्नः / युगबाहुना कथितम्-तव सुल-क्षणः पुत्रो भविष्यति। तस्या गुरुदेववन्दनार्चनदोहदमुत्पन्नं युग-बाहुरपूरयत् / अन्यदा युगबाहुर्वसन्ते मदनरेखया सममुद्याने रन्तुं गतः, तत्रैव रात्रौ कदलीगृहे सप्तः। परिवारः समन्तात्तद्गृहं वेष्टयित्वा स्थितः / तदाऽवसरं ज्ञात्वा मणिरथनृपस्तत्रैकाकी समायातः / अथ युवराजाऽत्र कथं सुप्तः? 'इति याभिकान् प्रत्युवाच। युग-बाहुरपि कदलीगृहाद् बहिरागत्य मणिरथपादौ ननाम। नमतोऽस्य स्कन्धदेशे मणिरथः खड्ग चिक्षेप। उवाच चैवम्-धिग्मे प्रमादतः करात् खङ्ग पतितं, मणिरथेगिताऽऽकारेण तददुष्कर्म ज्ञात्वाऽपि स्वामिन्युपेक्षितः। इतोऽवसरे मणिरथः सद्यस्ततो गतः / पितृधात-वार्ता निशम्य चन्द्रयशाः पुत्रो घातचिकित्सकैः परिवृतस्तत्राऽऽयातः / चिकित्सकैरन्त्यावस्थागतं युगबाहुं निरीक्ष्य धर्म एवास्यौषधमिति प्रोक्तम् / मदनरेखा स्वभर्तुरन्त्यावस्थां विलोक्य विधिनाऽऽराधनां कारयामास-हे दयित ! मे विज्ञप्ति शृणु, धनाङ्गनाऽऽद्येषु मोहं त्यज, जैनधर्म स्वीकुरु, हितं भजस्व, धर्मप्रसादादेव प्रधान कुटुम्यदेहगेहाऽऽदिकं भवान्तरे प्राप्स्यसि, सर्वाण्यपि पापानि सिद्धसाक्षिकमालोचय, पुण्यान्यनुमोदय, सर्वजीवान क्षामय, अष्टादश पापस्थानानि व्युत्सृज, अनशनं च कुरु, शुभभावनां भावय, चतुःशरणान्याश्रय, परमेष्टि मन्त्रस्मरणं कुरु, मनसा सम्यक्त्वमाश्रय / इत्येवं मदनरेखावचनानि श्रद्दधानः पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रं स्मरन् युगबाहुः परलोकमसाधयत् / मदनरेखा मनस्येवं व्यचिन्तयत्-अथ स्वतन्त्रो ज्येष्ठो मम शील विध्वंसयिष्यति, ततो निःसरणावसरो मम साम्प्रतमेवास्तीति निश्चित्य मदनरेखा वेगतो निर्गता, सद्य एकाकिन्येव व्रजन्त्युत्पथमाश्रित्य क्वापि महाटव्यां प्राप्ता, विभावरी विरराम, जातं प्रभात, देवगुरूणां स्मरणं चकार, मध्याहे साप्राणयात्रां फलैरवाकरोत् / तस्यामेवाटव्यां रात्रौ सुप्तायास्तस्याः शीलप्रभावेण न किञ्चिद्भयं बभूव / सा सतीचार्द्धरात्रौ पुत्रं सुषुवे, पितृनामाङ्कितमुद्रिका तरयाङ्गुली क्षिप्त्वा | रत्नकम्बलेन वेष्टयित्वा शुचिभूमौ निक्षिप्य मदनरेखा शौचार्थ सरसि गता / तत्र स्नानं कुर्वती जलकरिणा शुण्मादण्डेन गृहीता नभसि उतक्षिप्ता / नभसोऽपि पतन्तीं च तां कश्चित्तरुणविद्याधरो वैताढ्यं निनाय / सा विद्याधरं प्राऽऽह-बन्धो ! अहमद्य निश्यटव्यां पुत्रमजीजनम्। स तु रत्नकम्बलवेष्टितो मया तत्रैव मुक्तोऽस्ति / अहं तु सरसि स्नानं कुर्वती जलकरिणोत्क्षिप्ता त्वया गृहीताऽत्राऽऽनीता / अथ त्वं ततो मत्पुत्रमिहाऽऽनय, मा वा तत्र नय / अन्यथा बालस्य तत्र मरणाऽऽपद्भविष्यति, त्वं प्रसीद, मां पुत्रेण मेलय, पुत्रभिक्षाप्रदानेन त्वं मे दयां कुरु। सोऽपि युवा विद्याधर एतस्यां सरागं चक्षुः क्षिपन्नेवमुवाच-गन्धारदेशे रत्नवाह नाम नगरमस्ति। तत्र विद्याधरेन्द्रो मणिचूडो वर्तते / तस्य प्रिया कमलावती मणिप्रभनामानं पुत्रं मामसूत / यौवनावस्था च गतस्य मे श्रेणिद्वयं राज्यं दत्त्वा मणिचूडः स्वयं प्रवज्यां जगाह / स चारणमुनिश्चतुर्ज्ञानीभूत्वा साम्प्रतमष्ट मे द्वीपे जिनबिम्बानि नन्तु समायातोऽस्ति / अहं तत्र वन्दितुं गच्छन्नभूवम् / अन्तराले त्वां दृष्ट्वा लात्वा चाहं पुनरत्राऽऽगऽऽगमः / अतः परं त्वं मे प्रिया भव, तवाऽऽदेशकरोऽहमस्मि, तव पुत्रसंबन्धो मया प्रज्ञप्तिविद्यया ज्ञातः, अश्वापहृतो मिथिलेश्वरः पद्मरथाऽऽख्यस्तत्राऽऽयातः, तं बालं सुरूप दृष्ट्वा गृहीत्वा च स्वपत्न्यै दत्तवान् , तत्रायं प्रकामं सुखभागेवास्ति। एवं तद्वचः श्रुत्वा मदनरेखाऽचिन्तयत्-असौ स्वतन्त्री युवा दृप्तः शीलभङ्गं मे करिष्यति, तावत्कालं मे विलम्बः श्रेयान् . यावदस्य पिता साधुर्न वन्द्यते, तदुपदेशात् सर्व भविष्यतीति ध्यात्वा मदनरेखाऽवदत्-हे भद्र ! त्वं मा प्रथम नन्दीश्वरे नय, यथाऽहं तजिनबिम्बानि बन्दे, पश्चात् कृतकृत्याऽहं तत्रेप्सितं करिष्यामि / एवं तयोक्ते सहर्षो मणिप्रभस्ता विमानान्तर्निधाय नन्दीश्वरद्वीपे गतः / तत्र शाश्वतजिनबिम्बानि नत्वा मदनरेखाऽऽत्मानं कृतार्थ मन्यमाना मणिप्रभेण समं चतुनिधरं चारणश्रमण प्रासादमण्डपोपविष्ट मणिचूडमुनि प्रणनाम / स मुनिस्तां सती मत्वा स्वसुतं च लम्पट ज्ञात्वा तथा देशनां विस्तारयामास, यथाऽसौ विद्याधरः स्वदारसन्तोषव्रतं जग्राह / मदनरेखां च स्वां भगिनीं मेने / हृष्टमानसा सती स्वपुत्रस्य कुशलोदन्तं पप्रच्छ। मुनिराह-महानुभावे! शोक मुक्त्वा सर्व सुतवृतान्तं शृणुजम्बूद्वीपे पुष्कलावतीविजयोऽस्ति, तत्र मणितोरणपुरी, तस्यां मितयशा राजा / स च चक्रवर्त्यभूत , तस्य पुष्पवती कान्ता, तयोः पुष्पसिंहरत्नसिंहाभिधानी पुत्रावभूतां, तौ सदयौ धर्मकर्मरतौ विनीतौ स्तः / अन्यदा तौ राज्ये स्थापयित्वा चक्रवर्ती तपस्यां जग्राह / तौ द्वावपि भ्रातरौ चतुरशीतिलक्षपूर्व यावद्राज्य प्रपालयतः स्म / एकदा च तौ दीक्षां गृहीतवन्तौ, षोडश पूर्वलक्षाणि यावद्दीक्षां पालयतः स्म, अन्ते समाधिना मृत्वाऽच्युतकल्पे सामानिकी देवौ जातौ / ततश्च्युक्त्वा धातकीखण्डभरते हरिषेणराज्ञः समुद्रदत्ताभार्यासुती सागरदेवदत्ताभिधानी धार्मिकौ जाती। अन्यदा तो द्वादशतीर्थङ्करस्य दृढसुव्रतस्य बहुव्यतिक्रान्ते तीर्थे सुगुरुसमीपे दीक्षामगृहीताम् / तृतीये दिवसे तो द्वावपि विद्युत्पातेन मृत्वा शुक्रदेवलोके महर्द्धिकौ देवावभूताम् / अन्ये धुस्तौ देवावत्रैव भरते श्रीने मिजिनेश्वरमिति पृष्ट वन्तौ भगवन् ! नावद्यापि कियान् संसारस्तिष्ठति ? स भगवान् प्राऽऽह-युवयोर्मध्ये एकोऽत्रैव भरते मिथलापुर्या विजयसेनभूपतेः पद्मरथाऽऽख्यः पुत्रो भावी, एकस्तु सुदर्शनपुरे युगबाहुपुत्रो मदनरेखाकुक्षिसंभूतो नमिनामा भविष्यति / तस्मिन् भवे द्वावपि युवां शिवपदं प्राप्स्यथ / एवं नेमिजिनवच
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________________ णमि 1506 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमि नं निशम्य निजमायुः पूर्ण विधायैको मिथिलापुर्या पद्मरथो नृपोऽभवत्। तेन पदारथेनाश्वापहृतेन तस्मिन् वने समायातेन हे महानुभावे ! स पुत्रो दृष्टो, गृहीतश्च, मिथिलायां नीत्वा स्वपल्यै च समर्पितः।तजन्ममहोत्सवो महान विहितः // ' अत्रान्तरे तत्र नन्दीश्वरप्रासादेऽन्तरिक्षादेक विमानमवततार। तन्मध्यादेको दिव्यविभूषाधरः सुरो निर्गत्य मदनरेखां त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य प्रथमं प्रणनाम् , पश्चाद् मुनिं प्रणम्याग्रे निविष्टः सुरः। मणिरथविद्याधरेन्द्रेण विनयविपर्यासकरणं पृष्टम् / स सुरः प्राऽऽह-अहं पूर्वभवे युगबाहुर्मणिरथनाम्ना बृहद्भात्रा निहतः, अनया ममाऽऽराधनानशनाऽऽदिकृत्यानि कारितानि, तत्प्रभावादहमीदृशो देवो ब्रह्मदेवलोके जातः। ततो धर्माऽऽचार्यत्वादहमिमां प्रथमं प्रणतः। एवं खेचरं प्रतिबोध्य स सुरो मदनरेखां जगौ-हे सति! त्वं समादिश, किं ते प्रियं कुर्वे ? सा प्राऽऽह-मम मुक्तिरेव प्रिया, नान्यत्किमपि, तथाऽपि सुताऽऽननं द्रष्टुमुत्सुकां मां त्वमितो मिथिला पुरी नय, तत्राहं निर्वृताऽऽत्मना परलोकहितं करिष्यामि / इत्युक्तवतीं तां देवो मिथिला पुरी निनाय / तत्र प्रथम मदनरेखा जिनचैत्यानि नत्वा श्रमणीनामुपाश्रये जगाम / वन्दित्वा पुरोनिविष्टां तां प्रवर्तिन्येवं प्रतिबोधयामासमूढचंतसो जना धर्माद्विना भवक्षयमिच्छन्तोऽपि मोहवशेन पुत्राऽऽदिषु स्नेहं कुर्वन्ति / संसारे हि मातृपितृबन्धुभगिनींदयितावधूप्रियतमपुत्राऽऽदीनामनन्तशः संबन्धो जातः / लक्ष्मीकुटुम्बदेहाऽऽदिकं सर्व विनश्वरम् , धर्म एवैकः शाश्वतः / इत्यादि साध्वीवाक्यैः प्रतिबुद्धा सा सती देवेन पुत्रदर्शनार्थ प्रार्थितवमाह-भववृद्धिकरण प्रेमपूरेण ममालम् , अतः परं तु साध्वीचरणा एव शरणमित्युक्त्वा साध्वीसमीपे सा प्रव्रज्यां जग्राह / देवस्तां वन्दित्वा स्वस्थाने जगाम। पद्मरथस्य गृहे यथा यथाऽहं बालो वर्द्धत, तथा तथा तस्यान्ये राजानोऽनमन् / ततः पद्मरथराजा तस्य बालस्य नमिरिति नाम कृतवान्। वृद्धि ब्रजतस्यस्य बालस्य कलाऽऽचार्यसेवनात् सर्वाः कलाः समायाताः, सकललोकलोचनहरं यौवनमप्यस्याऽऽयातम्। पित्रा चाष्टाधिकसहस्रराजकन्यानां पाणिग्रहणं कारितम् / पद्मरथोऽस्मै राज्यं दत्त्वा स्वयं तपस्यां गृहीत्वा केवलज्ञानं प्राप्य मोक्षं गतवान् / नमिराजा प्राज्यं राज्यं पालयामास, न्यायेन यशःपात्रमभृत् / / अथ पूर्व युगबाहुं हत्वा मणिरथो नृपोऽसिद्धमनोरथः स्वधाम प्राप्तस्तत्र तदानीमेव प्रचण्डसपेण दष्टस्तुर्थ नरकं जगाम / द्वयोभ्रत्रिोसैर्द्धदैहिकी क्रियां कृत्वा मन्त्रिभिर्युगबाहुपुत्रश्चन्द्रयशा राज्येऽभिषिक्तः / स न्यायेन राज्यं पालयति स्म / अन्यदा नमिराज्ञो धवलकान्तिर्गजो मदोन्मत्त आलानस्तम्भमुन्मूल्यापरान् हस्तिनोऽश्वान्मनुष्यानपि त्रासयन् चन्द्रयशोनृपनगरसीम्नि समायातः। चन्द्रयशा नृपस्तमागतं श्रुत्वा समन्तात्सुभटैर्वेष्टयित्वा स्वयं वशीकृत्य च जग्राह। नमिराजा-ऽष्टभिर्दिनैस्ता वार्ता श्रुत्वा चन्द्रयशोऽन्तिके दूतं प्रेषितवान्। दूतोऽपि तत्र गत्वा धवलकरिणं मार्गयामास / कुपितश्चन्द्रयाँ दूतं गले धृत्वा नगराद् बहिर्निष्कासयामास। दतोऽपि नमेः पुरोगत्वा स्वाऽपमानं जगौ। कुपितो नमिराजाऽतुलसैन्यैर्वेष्टितोऽच्छिनप्रयाणैः सुदर्शनपुरसमीपे समायातः / चन्द्रयशा भूपतिः स्वसैन्यवेष्टितो यावदभिमुखं युद्धार्थ चलितः, तावदपशकुनैर्वारितो मन्त्रिभिरेवमूचेस्वामिन् ! कोट्ट सजीकृत्य तव साम्प्रतं पुरान्तरेऽवस्थातुयुक्तम् , कालविलम्बेनैतत्कार्य कर्तव्यम्। ततश्चन्द्रयशाः कोट्टं शतघ्नीभिर्जलाऽऽद्युपस्करैश्च सज्जीकृतवान् , नमिस्तं कोट्ट स्वसैन्यैरवेष्टयत्। अधस्थैः सैनिकैः सहोर्द्धस्थानां सैनिकानां महान् संग्रामे प्रववृते स्म / नमिः कोट्टभङ्गे विविधानुपायान् विदधाति स्म / चन्द्रयशा नृपस्तु कोट्टरक्षणे विविधानुपायान् करोति स्म / अस्मिन्नवसरेतयोर्माता साध्वी मदनरेखा प्रवर्तिनीमनुज्ञाप्य तत्संग्रामवारणार्थ प्रथम नमिराजसैन्ये समायाता / नमिरपि तां साध्वीं ननाम / आसने चोपविश्य नमेः पुरः सा साध्वी एवं वाचं विस्तारयामासअनन्तदुःखैकभा-जनेऽस्मिन् संसारे नृभवं प्राप्य पापैस्त्वं किं मुह्यसे ? राजन् ! तवबन्धुना चन्द्रयशसा स्वयमागतो हस्ती चेद् गृहीतः, तर्हि तेन समं किं युद्ध करोषि ? क्रुद्धस्त्वं न किञ्चिद्वेत्सि / यदुक्तम्-" लोभी पश्येद् धनप्राप्ति, कामिनी कामुकस्तथा / भ्रमं पश्येदथोन्मत्तो, न किञ्चिच क्रुधाऽऽकुलः // 1 // " इदं साध्वीवचो निशम्य नमिश्चिन्तयामास- ' अयं चन्द्रयशा युगबाहुभवोऽस्ति, अहं तु पद्मरथपुत्रो-स्मि, इयं साध्वी सत्यवादिनी सती कथं मम चानेन समं भ्रातृत्वं वदति इति विमृश्य साध्वी प्रत्येवं भाषते स्म-हे पूज्ये ! असो क्व ? अहं क्व ? भिन्नकुलसंभवयोर्भदेतयोः कथं भ्रातृत्वं वदसि ? इति नमिनोक्ता साध्वी प्राऽऽह-वत्स ! यौवनेश्वर्यभव मदं मुक्त्वा यदि शृणोषि, तदा सकल स्वरूप कथ्यते। अथ श्रोतुमुत्सुकाय नमिनृपाय सर्व पूर्वस्वरूपं साध्वी जगाद। पुनरेवं बभाषेसुदर्शनपुरस्वामी युगबाहुस्तवास्य च पिता, अहं मदनरेखा तव मातेति। पद्मरथस्तु तव पालकः पितेति। अनेन भ्रात्रा समं मा विरोधं कुरु, बुद्ध्यस्य हितमिति साध्वीप्रोक्तं युगबाहुनामाड्कितकरमुद्रादर्शनतः सर्व नमिः सत्यं विवेद। तांसाध्वी प्रकाम चित्तोल्लासेन स्वमातरं मत्वा विशेषान्नमिः प्रणनाम / उवाच च-मातः ! यत् त्वया प्रोक्तं, तत् सर्व तथ्यमेव / नात्र काचिद्विचारणाऽस्ति, ममेयं करमुद्रा युगबाहुसुतत्वं ज्ञापयति। अयं चन्द्रयशा मेज्येष्ठभ्राता भवत्येव, परं लोकः कथं प्रत्याय्यते ? लधुभ्रातृवात्सल्यतो ज्येष्ठश्चेत् संमुखमायाति, तदाऽहमुचित विनय कुर्वन् शोभामुद्वहामि / एवं नमिनृपोक्तमाकर्ण्य सा साध्वी दुर्गद्वारवर्मना प्रविश्य राजसौधे जगाम। चन्द्रयशा भूपस्तुतामकस्मादागतामुपलक्ष्य स्वमातरं साध्वीं विशेषादभ्युत्थाय नतवा-न , उचिताऽऽसनोपविष्टांता साध्वीं वृत्तान्तं पृष्टवान्। साध्वी सकलं वृत्तान्तं नमिराजमिलनं यावत् कथयामास / चन्द्रयशा नृपस्तंनमि निजलघुभ्रातर मत्वा सभालोकान् प्रत्येवमुवाच-" सुलभाः सन्ति सर्वेषां, पुत्रपत्न्यादयः शुभाः / दुर्लभः सोदरो बन्धुर्लभ्यते सुकृतैर्यदि॥ 1 // " इत्युक्तवा चन्द्रयशा नृपोऽपि पुराद् बहिर्निर्गतः / नमिरपि तं ज्येष्टभ्रातरमभ्यागच्छन्तं दृष्ट्वा सिंहाऽऽसनादुत्थाय भूतलमिलच्छिरः प्रणनाम। चन्द्रयशा नृपोऽपि स्वकराभ्यां भूतलादुत्थाय भृशमालिलिङ्ग / तुल्याऽऽकारौ तुल्यवर्णा तावेकमातृपितृसंभूतत्वेन तदा परमप्रीतिपदं जातो, लोकैः सहोदरौ ज्ञातौ / चन्द्रयशा नृपस्तु तदानीमेव नमिबन्धवे सुर्दशनपुरराज्यं ददौ, स्वयं संग्रामाङ्गणमध्ये दीक्षां ललौ / क्रमेण राज्यद्वय पालयनमि, क्षितौ प्रचण्डाऽऽज्ञो जज्ञे / अन्यदा नमेर्वपुषि दाघज्वरो जातः पूर्वकर्मदोषेण तस्य पाण्मासिकी पीडा महती उत्पन्ना, तया निद्रामपि न लेभे, अन्तःपुरीनूपरशब्दा अपि कर्णशूलायाऽऽसन्।
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________________ णमि 1810 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमि नमिराज्ञो दाधज्वरशान्तये स्वयं चन्दनं घर्षयन्तीनामन्तःपुरीणा बलयशब्दाः रोमसु भल्लप्राया बभूवुः / तत्र ताभिर्वलयानि समस्यान्युत्तारितानि, केवलमेकैकं मङ्गलाय रक्षितम् / तदानी नूपुरकङ्कणशब्दाऽश्रवणेन नमिना कश्चिन्निकटस्थः सेवकः पुष्ट कथमधुना कङ्कणशब्दान श्रूयन्ते? तेनोक्तम्-स्वामिन् ! भवत्पीडाकरत्वेनान्तःपुरीभिः कङ्कणान्युत्तारितानि, केवलमेकैकं मङ्गलाय रक्षितमिति, तेन नैकै ककङ्कणशब्दाः श्रूयन्ते, परस्परघर्षाभावात् / एवं तद्वचः श्रुत्वा प्रतिबुद्धो नमिरेवं चिन्तयामास-यथा संयोगतः संयोगत एव भन्नि। यद्यस्मादोगादई मुक्तः स्या, तदा सर्वसङ्गं विमुच्य दीक्षा ग्रहीष्यामि / तस्येतिध्यायमानस्य रात्रौ सुखेन निद्रा समायाता। निद्राया स्वप्नमेवं ददर्शगजमारुह्याहं मन्दरगिरिमारूढः / प्रातः प्रतिबुद्धो नीरोगो जातः। स एवं व्यचिन्तयत् - अमुं पर्वतं क्वाप्यहमपश्यम् , एवमूहाऽपोह कुर्वतस्तस्य जातिस्मरणमुत्पन्नम् / एवं च पूर्वभवमपश्यत्-यदाऽऽहं पूर्वभवे शुक्रकल्पे सुरोऽभवम् तदाऽर्हजन्माभिषेककरणायाहमस्मिन् मेरावगमम् / अथ कङ्कणदृष्टान्तेनैकत्वं सुखकारीति चिन्तयन् प्रत्येकबुद्धत्वं प्राप्य प्रव्रजितो नमिः / तदा राज्यमन्तःपुरमेकपदे त्यजन्तं नमिं ब्राह्मणरूपधरः शक्रः समागत्य परीक्षितवान, प्रणुतवांश्च शक्रपरीक्षासमये नमिराजसत्कशक्रप्रश्ननभिराजयुत्तररूपमुत्तराध्ययनान्तर्गत नवममध्ययनं संजातम् / उत्त०६ अ० / इह हि करकण्डू द्विमुखनमिनग्गतिराजानश्चत्वारोऽपि प्रत्येकबुद्धाः संयमिनो विरहन्ति स्म। एकदा ते क्षोणीप्रतिष्ठनगरं प्राप्ताः, तत्र चतुर्मुखदेवकुले क्रमतः पूर्वाऽऽद्येषु चतुर्दिगद्वारेषु युगपत्प्रविष्टाः, तेषामादरकरणार्थ चतुर्मुखो यक्षः समन्तात् संमुखोऽभवत्। तदानीं करकण्डूः स्वदेहकण्डूरोगोपशमनाय कर्णधृता शलाका गोपयन् द्विमुखेन संयमिनोक्तः-पुरमन्तःपुरं राज्य देशं च विमुच्य पुनस्त्वं किं सञ्चयं कुरुषे? करकण्डूमुनिर्यावत् तं प्रति वक्ति, तावद् भगवन्नगिराजर्षिणा द्विमुखं प्रत्येवमुक्तम्-सर्वाणि राजकार्याणि मुक्त्वा पुनस्त्वया किमिति शिक्षारूपं कार्य वक्तुमारब्धम् ? यावद् द्विमुखो मुनि मिरा-जर्षि प्रति प्रत्युत्तरं दत्ते, तावन्नग्गतिराजर्षिरेवमुवाच-यदा राज्यं परित्यज्य भवान् मुक्तावुत्सहते, तदाऽन्यत्किमप्याख्यातुं नाहति। अथ करकण्डूमुनिस्तान्त्रीन प्रत्येवमुवाचसाधुषु साधुर्हितं वदन्न दूषणाय भवति, कण्डूपशमनाय कर्णधृतशलाकासञ्चयो-ऽयुक्त एव, परमसहता मयेयं धृताऽस्तीति / एवं चत्वारोऽपि परस्परं संबुद्धाः सत्यवादिनः सर्वथा संयमाऽऽराधकाः केवलज्ञानमासाद्य शिवं जग्मुः / उत्त० अ० / (करकण्ड्वादीनामुत्पत्तिकथा, प्रव्रज्याकारणं च करकण्ड्वादीनामवसरे तृ० भागे 357 पृष्ठे, चतुर्थभागे 1765 पृष्ठे प्रतिपादितम् , द्विमुखस्य' दुगुख' शब्दे वक्ष्यते) तथा च नभिचरित्र क्रमादुपन्यस्यतेमिहिलावइस्सणमिणो, छम्मासाऽऽतंकवेञ्जपडिसेहो। कत्तिएँ सुविणगदसण, अहिमंदर णं दिवासे य / / 1 / / दोण्णि विनमी विदेहा, रज्जाई पजहिऊण पव्वइया। एगो नमि तित्थयरो, एगो पत्तेयबुद्धो उ॥२॥ जो से नमितित्थयरो, सो साहस्सीयपरिवुडो भगवं / गंधमवहाय पटवएँ, पुत्तं रजे ठवेऊणं // 3 // वितिओ वि नमी राया, रज्जं चइऊण गुणगणसमग्गं / गंधमवहाय पव्वएँ, अहिगारो एत्थ विइएणं // 4 // पुप्फुत्तराओं चवणं, पव्वज्जा होइ एगसमएणं। पत्तेयबुद्धके वलिसिद्धिगया एगसमएणं // 5 // सेयं भुजायं सुविभत्तसिंग, जो पासिया वसहं गोट्ठमज्झे। रिद्धिं अरिद्धिं समुपेहिया णं, कलिंगराया वि समिक्ख धम्मं / / 6 / / वुद्धिं च हाणिं वसभस्स दट्ठे, पूरावरेगं च महाणईणं। अहो अणिचं अधुवं च णचा, पंचालराया वि समिक्ख धर्म / / 7 / / जा इंदकेउं सुअलंकियं तु, दट्टुं पडतं वि विलुप्पमाणं / रिद्धिं अरिद्धिं समुपहिया णं, पंचालराया वि समिक्ख धम्मं / / 8|| बहुयाण सद्दयं सोचा, एगस्स य असद्दयं। बलयाणं नमी राया, निक्खंतो मिहिलाहिवो॥६॥ जो चूयरुक्खं तु मणाभिरामं, समंजरीपल्लवपुप्फचित्तं। रिद्धिं अरिद्धिं समुपेहियाणं, गंधारराया वि समिक्ख धम्मं / / 10 / / जहा रज्जं च रट्टं च, पुरं अंतेउरं तहा। सव्वमेयं परिचज, संचयं किं करेसिमं? || 11 // जया ते पेइए रज्जे, कया किचकरा बहू। तेसिं किच्चं परिचज, अन्ज किच्चकरो भवं? || 12 / / जया सव्वं परिचज, मोक्खाय घडसी भवं।
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________________ णमि 1811 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमि परं गरिहसी कीस, अत्तनिस्सेसकारए ? || 13 // मोक्खमग्गं पवन्नेसु, साहूसुं बंभयारिसु / अहियत्थं निवारितो, न दोसं वत्तुमरिहसि // 14 // एतदर्थस्तु प्रायः संप्रदायादवसेय इति तावत् स एवोच्यते। अक्षरार्थस्तु स्पष्ट एव / नवरं मिथिला नाम नगरी, तस्याः पतिः स्वामी मिथिलापतिः, तस्य, अनेनान्येषामपि नमीना संभवात्तद्व्यवच्छेदार्थमाहनमेनमिनाम्नः, (छम्मासाऽऽयंकवेज्जपडिसेहोत्ति) वण्डासानातको दाहज्वराऽऽत्मको रोगः षण्मासाऽऽतङ्कः, तत्र वैद्यैभिंषभिः प्रतिषेधो निराकरणम्अचिकित्स्योऽयमित्यभिधानरूपः, षण्मासाऽऽतङ्कवैद्यप्रतिषेधः / (कत्तिए त्ति) कार्तिकमासे (सुविणगदंसणमिति) स्वप्न एव स्वप्नकः, तस्मिन् दर्शनं स्वप्नकदर्शनम् , अभूदिति शेषः / कयोः ? (अहिमंदर त्ति) अहिमन्दरयोनागराजाचलराजयोः, (नंदिघोसे यत्ति) द्वादशतूर्यसंघातो नन्दी, तस्या घोषः, स च स्वप्नमवलोकयतो जातः, तेन चासौ प्रतिबोधित इत्युपस्कारः // 1 // इह च मिथिलापति मिरित्युक्ती माभुत्तथाविधस्य तीर्थकरस्यापि नमः संभवाद् व्यामोह इति द्वौ नमी वैदेहावित्याद्युक्तम् // २॥तथा (पुप्फुत्तर त्ति) पुप्पोत्तरविमानात् च्यवनं भ्रंसनम् , एकसमयेनेति योज्यते। प्रव्रज्या च निष्क्रमणं भवत्येकसमयेनैव। तथा प्रत्येकामिति-एकैकं हेतुमाश्रित्य बुद्धा अवगततत्त्वाः प्रत्येकबुद्धाः, केवलिन उत्पन्नकेवलज्ञानाः, सिद्धिगता मुक्तिपदप्राप्ताः, त्रयाणामपि कर्मधारयः / एकसमयेनैव इति ; चतुर्णामपि समसमयसंभवात् // 5 // तथा (सेयं सुजायं ति) श्वेतं वर्णतः, सुजातं प्रथमत एवाहीनसमस्ताङ्गोपाङ्गतया, सुष्टु शोभने, विमक्ते विभागेनावस्थिते, शृड़े विषाणे यस्य स तथा तम्, ऋद्धिं बलोपचयाऽऽत्मिकाम् , अरिद्धिं तस्यैव बलापचयात्तर्णकाऽऽदिपरिभवरूपां, (समुपेहिया णं ति) सम्यगुत्प्रेक्ष्येति पर्यालोच्य; पाठान्तरतः समुत्प्रेक्ष्यमाणो वा, कलिगराजोऽपीत्यत्राविशब्द उत्तरापेक्षया समुचये // 6 // तथा (पूरावरेणं ति) पूरः पूर्णता, अवरेको रिक्तता, अनयोः समाहारः पूरावरेकम् // 7 // तथेन्द्रकेतुमिन्द्रध्वज, प्रविलुप्यमानम् इति, जनैः स्वस्ववस्त्रालङ्काराऽऽदिग्रहणत इतक्षेतश्च विक्षिप्यमाणम् // 8 // तथा (समंजरीपल्लवपुप्फचित्तं ति) सह मञ्जरीभिः प्रतीताभिः, पल्लवैश्च किशलयैर्यानि पुष्पाणि कुसुमानि, तैचित्रः कर्बुरः समजरीपल्लवपुष्पचित्रः, तम्: यता-सहमञ्जरीपल्लवपुष्पैर्वर्तते यः स तथा, चित्र आश्चर्योऽनयोर्विशेषणसमासः / (समिक्ख त्ति) आर्षत्वात्समीक्ष्यते पर्यालोचयत्यनेकार्थत्वादङ्गीकुरुते वा, वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत्। यद्वा-(समिक्ख त्ति) समैक्षिष्ट समीक्षितवान, धर्म यतिधर्मम् // 10 // यदा ते त्वया पैतृके पितुरागते राज्ये कृता विहिताः, कृत्यानि कुर्वन्त्यनुतिष्ठन्ति कृत्यकरा नियोगिनः, बहवः प्रभूताः, तदैव कृत्यकरत्वं स्वयंतथा तव कर्तुमुचितमासीदित्युपस्कारः / तेषामिति कृत्यकराणां कृत्यं परापराधपरिभावनाऽऽदिकर्त्तव्यं परित्यज्य व्रताङ्गीकारादपहाय, अद्य कृत्यकरो नियुक्तकोऽन्यदोषचिन्तो भवाँस्त्वं, किमिति जात इति शेषः ? // 12 // तथा (मोक्खाय धडसीति) प्राकृतत्याद् मोक्षाय मोक्षार्थ, घटते चेष्टते,तथा (अत्तनिस्सेसकारए त्ति) आत्मनो निःशेषमिति शेषाभावं, प्रक्रमात् कर्मणः, करोति विधत्ते इत्यात्मनिः शेषकारकः / यद्वा-(निस्सेस त्ति) निःश्रेयसो मोक्षः, तत्कारकः।। 13 // मोक्षमार्ग मुक्त्यध्वानं प्रतिपन्नेष्वङ्गीकृतवत्सुसाधुषु ब्रह्मचारिषु (अहियत्थं ति) अहितार्थं, निवारयनिषेधयन, न दोष परापवादलक्षणम् , अस्येति शेषः, वक्तुमभिधातुमर्हसि / यथा हि भवानहितान्निवारयन् कथमर्हतीत्याह, एवं नमिरपि अद्य कृत्यकरो भवान्निति कृत्यकरत्वलक्षणादहितान्निवारयति, तथा दुर्मुखोऽपि संचयं किं करोषीति सञ्चयत एवाहि-तान्निषेधतीति नायं परापवाद इति वक्तुमुचितम्।यद्वा-(अहियत्थं निवारतो त्ति) सुप्व्यत्ययादहितार्थान्निवारयन्त (न दोसमिति ) मतुब्लोपान्न दोषमिति न दोषयन्त वक्तुमर्हसि / / 14 // संप्रति सूत्राऽऽलापकनिष्पन्नस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवतीति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयम्। तचेदम् - चइऊण देवलोगा, उववन्नो मणुसम्मि लोगम्मि। उवसंतमोहणिज्जो, सरई पोराणयं जाइं॥१॥ च्युत्त्वा देवलोकात् प्रतीतात् , उत्पन्नो जातो, मानुषे मानुषसंबन्धिनि, लोके प्राणिगणे, उपशान्तमनुदयप्राप्त, मोहनीयं दर्शनमोहनीय यस्यासावुपशान्तमोहनीयः, स्मरति चिन्तयति, स्मेति शेषः / वर्तमाननिर्देशो वा प्राग्वत् / कामित्याह-(पोराणयं ति) पुराणामेव पौराणिकी, विनयाऽऽदित्वात् ठक्। चिरन्तनीमित्यर्थः / जातिमुत्पत्तिं, देवलोकाऽऽदाविति प्रक्रमः / तद्गतसकलचेष्टोपलक्षणं चेह जातिरिति सूत्रार्थः / / 1 // ___ ततः किमित्याहजाई सरित्तु भयवं, सहसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे। पुत्तं ठवेत्तु रज्जे, अमिणिक्खमई नमी राया // 2 // जातिमुक्तरूपां स्मृत्वा, भगशब्दो यद्यपि धैर्याऽऽदिष्वनेकार्येषु वर्तते। यदुक्तम्-"धैर्यसौभाग्यमाहत्म्ययशोऽर्कश्रुतिधीश्रियः।तपोऽर्थोपस्थपुण्येशप्रयत्नतनवो भगाः॥१॥" इति / तथाऽपीह प्राप्तस्तावद् बुद्धिवचन एव गृह्यते, ततो भगो बुद्धिर्यस्यास्तीति भगवान्, (सह त्ति) स्वयमात्मनैव संबुद्धः सम्यगवगततत्त्वः सहसंबुद्धः, नान्यप्रतिबोधित इत्यर्थः / अथवा-(सहसं ति) आर्षत्वात् सह जातिस्मृत्पनन्तरं झगित्येव, बुद्धः / क्व? इत्याह-अनुत्तरे प्रधाने, धर्मे चारित्रधर्मे, पुत्रं सुतं, स्थापयित्वा निवेश्य, क्व? राज्ये, अभिनिष्क्रामतिधर्माभिमुख्येन गृहस्थपर्यायान्निर्गच्छति, स्मेतीहापि शेषः। ततश्च प्रव्रजितवानित्यर्थः / प्राग्वत्ति व्यत्ययेन वा व्याख्येयम्। नमिर्नमिनामा, राजा पृथ्वीपतिरिति सूत्रार्थः॥२॥ स्यादेतत् , कुत्रावस्थितः कीदृशान् वा भोगान् भुक्त्वा संबुद्धः किं वाऽभिनिष्क्रामन् करोतीत्याहसो देवलोगसरिसे, अंतेउरवरगओ वरे भोए। मुंजित्तु नमी राया, बुद्धो भोगे परिचयइ // 3 // स इत्यनन्तरमुद्दिष्टः, (देवलोगसरिस त्ति) देवलोकभोगैः स-दृशा देवलोकसदृशाः, मयुरव्यंस्रकाऽऽदित्वान्मध्यमपदलोपी समासः / (अंतेउरवरगओत्ति) वरं प्रधानं, तच तदन्तःपुरं च वरान्तःपुरं, तत्र गतः स्थितो वरान्तःपुरगतः / प्राकृतत्वाच वरशब्दस्य परनिपातः। वरान्तःपुरं हि रागहेतुरिति तद्गतस्यास्य भोगपरित्यागाभिधानेन जीववीर्योल्लासातिरेक उक्तः। तत्रापि कदाचिद्वराः शब्दाऽऽदयो न स्युः, तत्संभवेऽपि वा सुबन्धुरिव कु तश्चिन्निमितान्न भुञ्जीताऽपीत्याहवरान प्रधानान् भोगान् मनोज्ञशब्दाऽऽदीन, भुक्त्वा आसेव्य, नमिनामा राजा,
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________________ णमि 1812 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमि बुद्धो विज्ञाततत्त्वो, भोगानुक्तरूपान् , परित्यजति, स्मेति शेषः / इह पुनर्भोगग्रहणमतिविस्मरणशीला अप्यनुग्राह्या एवेति ज्ञापनार्थ-मिति सूत्रार्थः // 3 // किं भोगानेव त्यक्त्वाऽभिनिष्क्रान्तवान् , उतान्यदपि ? इत्याहमिहिलं सपुरजणवयं, वलमवरोहं च परियणं सव्वं / चिचा अभिणिक्खंतो, एगंतमहिडिओ भयवं / / 4 / / मिथिलां मिथिलानाम्नी नगरी, सह पुरैरन्यनगरैर्जनपदेन च वर्तते या सा तथोक्ता,ता, न त्वेककामेव, बलं हस्त्यश्वाऽऽदिचतुरङ्गम, अवरोध चान्तःपुरं, परिजनं परिवर्ग, सर्व निरवशेषं, न तु तथाविधप्रतिबन्धानास्पदं किञ्चिदेव, त्यक्त्वाऽपहाय, अभिनिष्क्रान्तः प्रव्रजितः, (एगंत ति) एकोऽद्वितीयः कर्मणामन्तो यस्मिन्निति मयूरव्यसकाsऽदित्वात्समासः / तत एकान्तो मोक्षः, तमधिष्ठित इवाऽऽश्रितवानिवाधिष्ठितः, तदुपायसम्यग्दर्शनाऽऽद्यासेवनादधिष्ठित एव वा, इहैव जीवन्मुक्त्यवाप्तेः। यद्वा-एकान्तं द्रव्यतो विजनमुद्यानाऽऽदि। भावतश्च " एकोऽहं न मे कश्चिन्नहमन्यस्य कस्यचित् / तं तं पश्यामि यस्याहं, नासौ दृश्योऽस्ति यो मम / / 1 // " इति भावनात एक एवाहमित्यन्तो निश्चय एकान्तः, प्राग्वत्समासः / तमधिष्ठितो भगवानिति धैर्यवान् , श्रुतवान् वेति सूत्रार्थः / / 4 / / तत्रैवमभिनिष्क्रामति यदभूत्तदाह; यदि वा यदुक्तं ' सर्वं परित्यज्याभिनिष्क्रान्तः इति, तत्र कीदृक् तत्त्यज्यमानमासीत् ? इत्याहकोलाहलगसंभूयं, आसी मिहिलाएँ पव्वयंतम्मि। तइया रायरिसिम्मी, नमिम्मि अभिणिक्खमंतम्मि।। 5 / / / कोलाहलो विलपिताऽऽक्रन्दितकः, कोलाहल एव कोलाहलकः, संभूत इति जातो यस्मिन् तत् कोलाहलकसंभूतम् , आहिताऽऽदेराकृतिगणत्वाद् निष्ठान्तस्य परनिपातः / यदि वा भूतशब्द उपमार्थः, ततः कोलाहलकसंभूतमिति कोलाहलकरूपतामिवाऽऽपन्नम् - हा तात ! हा मातरित्यादिकलकलाऽऽकुलितम् , आसीद-भूत् , मिथिलाया, सर्व गृहविहाराऽऽरामाऽऽदीति प्रक्रमः। क्व सति ? प्रव्रज्यामाददाने, तदा तस्मिन् काले, राजा चासौ राज्यावस्थामाश्रित्य, ऋषिश्च तत्कालापेक्षया राजर्षिः, यदि वा-राज्यावस्थायामपि ऋषिरिव ऋषिः, क्रोधाऽऽदिषड्वर्गजयात्। तथा च राजनीतिः-"कामः क्रोधस्तथा लोभो, हर्षो मानो मदस्तथा। षड्वर्गमुत्सृजेदेतं, तस्मिस्त्यक्ते सुखी नृपः।।१।।" तस्मिन्नमो नमिनाम्न्यभिनिष्क्रामति गृहात्कषायाऽऽदिभ्यो वा निर्गच्छति / इति सूत्रार्थः / / 5 / / पुनरत्रान्तरे यदभूत्तदाह (शक्रसंवादः)अब्भुट्ठियं रायरिसिं, पव्वजाठाणमुत्तमं / सक्को माहणवेसेण, इमं वयणमव्ववी॥६॥ अभ्युत्थितमभ्युदितं, राजर्षि प्राग्वत् , प्रव्रज्यैव स्थानतिष्ठन्ति सम्यग्दर्शनाऽऽदयो गुणा अस्मिन्निति कृत्वा प्रव्रज्यास्थानं, प्रतीति शेषः / उत्तम प्रधानं, सुप्व्यत्ययेन सप्तम्यर्थे वा द्वितीया / ततः प्रव्रज्यास्थाने उत्तमेऽभ्युद्यतं तद्विषयोद्यमवन्तं, शक्र इन्द्रो, माहनबेषेण ब्राह्मणवेषेण, आगत्येति शेषः / तदा हि तस्मिन्महात्मनि प्रव्रज्यां ग्रहीतुमनसि तदाशयं परीक्षितुकामः स्वयमिन्द्र आजगाम , ततः स इदं वक्ष्यमाणम् , उच्यते इतिवचनं वाक्यम्, अब्रवीदुक्तवानिति सूत्रार्थः / / 6 / / यदुक्तवाँस्तदाह किं णु भो अन्ज मिहिलाए, कोलाहलगसंकुला / सुचंति दारुणा सद्दा, पासाएसु गिहेसुय।।७।। किमिति परिप्रश्रे, नु इति वितर्के, भो इत्यामन्त्रणे। अद्येत्यस्मिन् दिने, मिथिलायां नगर्या कोलाहलकेन बहलकलकलाऽऽत्मकेन संकुला व्याकुलाः कोलाहलसंकुलाः, श्रूयन्ते इत्याकण्यन्ते, शब्दा ध्वनय इति सबन्धः। तेच कदाचिद्वन्दिवृन्दोदीरिताअपि स्युः, तन्नियकरणायाऽऽहदारयन्ति जनमनासीति दारुणा विलपिताऽऽदयः, क्वपुनस्ते? प्रासादेषु सप्तभूमाऽऽदिषु, गृहेषु सामान्येन वेश्मसु, तथा ' प्रासादो देवतानरेन्द्राणाम् ' इति वचनात् प्रासादेषु देवतानरेन्द्रसंबन्धिष्वास्पदेषु, गृहेषु तदितरेषु, चशब्दात् त्रिकचतुष्कचत्वराऽऽदिषु चेति सूत्रार्थः / / 7 / / ततश्चएयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमध्ववी॥ 8 // एवमनन्तरोक्तम् , अर्थमिति, उपचारादर्थाभिधायिनं ध्वनि, निशम्याऽऽकर्ण्य, हिनोति गमयति विवक्षितमर्थमिति हेतुः, स च पञ्चावयववाक्यरूपः, कारणं चान्यथाऽनुपपत्तिमात्र ताभ्यां चोदितः प्रेरितो हेतुकारणचोदितः, कोलाहलकसंकुलाः दारुणाः शब्दाः श्रूयन्त इत्यनेन हि उभयमेतत् सूचितम् / तथाहि-अनुचितमिदं भवतोऽभिनिष्क्रमणमिति प्रतिज्ञा, आक्रन्दाऽऽदिदारुणशब्दहेतुत्वादिति हेतुः, प्राणव्यपरोपणाऽऽदिवदिति दृष्टान्तः, यद्यदा-क्रन्दाऽऽदिदारुणशब्दहेतुस्तत्तद् धर्मार्थिनोऽनुचितं, यथा प्राणव्यपरोपणाऽऽदि, तथा चेदं भवतोऽभिनिष्क्रमणमित्युपनयः, तस्मादाक्रन्दाऽऽदिदारुणशब्दहेतुत्वादनुचितं भवतोऽभिनिष्क्रमणमिति निगमनमिति पञ्चावयवं वाक्यमिह हेतुः, शेषावयवविवक्षाविरहितं त्वाक्रन्दाऽऽदिदारुणशब्दहेतुत्वं भवदभिनिष्क्रमणानुचितत्वं विनाऽनुपपन्नमित्येतावन्मानं कारणम् , अनयोस्तु पृथगुपादानं प्रतिपाद्यभेदतः साधनवाक्यवैचित्र्यसूचनार्थम् / तथा च श्रुतकेवली-"कत्थ वि पंचावयवं, दसहावा सव्वहा ण पडिसिद्धं / न य पुण सव्वं भण्णति, हंदी सवियारमक्खाय / / 1 // " तथा-" जिणवयणं सिद्ध चिअ, भण्णति कत्थ वि उदाहरणं / आसज्ज उ सोतारं, हेऊ वि कहिं वि वत्तव्यो॥१॥" (नि०) अथवाऽन्ययव्यतिरेकलक्षणो हेतुः, उपपत्तिमात्रं तु दृष्टाताऽऽदिरहितं कारणम् / यथा निरुपम-सुखः सिद्धो, ज्ञानाऽनावाधप्रकर्षात् , अन्यत्र हि निरुपमसुखासंभवान्नोदाहरणमिस्ति / दृष्टाश्च प्रकृष्टमत्यादिज्ञानानाबाधाः परमसुखिनो मुनय इति ज्ञानानावाधप्रकर्षो निरुपमसुखत्वे हेतुरुच्यते। तथा च पूज्याः- " हेऊ अणुगमवतिरे-गलक्खणो सज्झवत्थुपजाओ। आहरणं दिट्ठतो, कारणमववत्तिमेत्तं तु // 1077 // " (विशे०) इहापि आक्रन्दाऽऽदिदारुणशब्दहेतुत्वमेव हेतुः, तस्योक्तन्यायेनान्वयान्विततत्वात्सति चान्वये व्यतिरेकस्यापि संभवात् / इदमेव चान्वयव्यतिरेकविकलतया विवक्षितमुपपत्तिमात्रं कारणम् / एवं सर्वत्र कारणभावना कार्येत्यलं प्रसङ्गेन / प्रकृतमेव सूत्रमनुश्रियतेततः प्रेरणानन्तरं, नमिर्नमिनामा, राजर्षिर्देवेन्द्र शक्रमिदं वक्ष्यमाणमब्रवीदुक्तवानिति सूत्रार्थः / / 8 || किं तदुक्तवानित्याहमिहिलाए चेइए वच्छे, सीयच्छाए मणोरमे। पत्तपुप्फफलोवेए, बहूणं बहुगुणे सया।।६।।
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________________ णमि 1813 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमि मिथिलायां पुरि, चितिरिह प्रस्तावात्पत्रपुष्पाऽऽधुपचयः, तत्र साधु चित्यं, ततः प्रज्ञाऽऽदेराकृतिगणत्वात् स्वार्थिकऽणि चैत्यमुद्यानम्। तस्मिन् (वच्छे त्ति) सूत्रत्वाद्धिशब्दलोपेवृक्षः,शीता शीतला छाया यस्य तच्छीतलच्छायं, तरिमन, मनश्चित्तं रमते धृतिमवाप्नोति यस्मिन् तन्मनोरमम्-मनोरमाभिधानं, तस्मिन्, पत्रपुण्यफलानि प्रतीतानि, तैरुपेतं युक्त पत्रपुष्पफलोपेतं, तस्मिन् , बहूनां प्रक्रमात् खगाऽऽदीनां, बहवो गुणा यस्मात्तत्तथा, तस्मिन् / कोऽर्थः ? फलाऽऽदिभिः प्रचुरोपकारकारिणि, सदा सर्वकालमिति सूत्रार्थः / / 6 / / तत्र किम् ? इत्याहवारण हीरमाणम्मि, चेइयम्मि मणोरमे। दुहिया असरणा अत्ता, एए कंदंति भो ! खगा।। 10 // वातेन वायुना, ह्रियमाणे इतस्ततः क्षिप्यमाणे ; वातश्च तदा शक्रेणैव कृत इति संप्रदायः / चितिरिहेष्टकाऽऽदिचयः, तत्र साधुर्योग्यश्चित्यः प्राम्वत्, स एव चैत्यः, तस्मिन्। किमुक्तं भवति? अधोबद्धपीठिके उपरि चोद्धृतपताके मनोरमे मनोऽभिरतिहेतौ, वृक्षे इति शेषः / दुःखं संजातं येषां ते दुःखिताः, अशरणास्त्राणरहिताः, अतएवाऽऽर्ताः पीडिताः, एते प्रत्यक्षाः, क्रन्दन्त्याक्रन्दशब्दं कुर्वन्ति, भो इत्यामन्त्रणम् , खगाः पक्षिणः / इह च किमद्य मिथिलायां दारुणाः शब्दाः श्रूयन्ते ? ' इति यत् स्वजनजनाऽऽक्रन्दनमुक्तं, तत् खगकन्दनप्रायम् , आत्मा च वृक्षकल्पः, ततो हि नियतकालमेव सहावस्थितत्वेन, उत्तरकालं च स्वस्वगतिगामितया दुमाऽऽश्रितखगोपमा एवामी स्वजनाऽऽदयः / उक्तं हि" यद्वद् द्रुमे महति पक्षिगणा विचित्राः, कृत्वाऽऽश्रयं हि निशि यान्ति पुनः प्रभाते। तद्वजगत्यसकृदेव कुटुम्बजीवाः, सर्द समेत्य पुनरेव दिशो भजन्ते॥१॥" इति। ततश्चाऽऽकन्दाऽऽदिदारुणशब्दहेतुत्वेनाभिधीयमानमसिद्धम् / एते हि स्वजनाऽऽदयो वातेन प्रेर्यमाणा द्रुमविश्लिष्यत्खगा इव स्वस्वप्रयोजनहानिमेवाऽऽशङ्कमाना क्रन्दन्ति। आह च" आत्मार्थ सीदमानं स्वजनपरजनो रौति हा हा कुलाऽऽ”, भार्या चाऽऽत्मोषभोगं गृहविभवसुखं स्वं वयस्याश्च कार्यम्। क्रन्दन्त्यन्योऽन्यमन्यस्त्विह हि बहुजनो लोकयात्रानिमित्तं, यश्चान्यस्तत्र कञ्चिद् मृगयति हि गुणं रोदितीष्टः स तस्मै " ||1|| एवं चाऽऽक्रन्दाऽऽदिदारुणशब्दानामभिनिष्क्रमणहेतुकत्वमसिद्धम् , स्वप्रयोजनहेतुकत्वात्तेषाम् , तथा च भवदुक्तहेतुकारणे असिद्धे एवेत्युक्त भवतीति सूत्रार्थः // 10 // ततश्चएयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी।। 11 // एनमर्थ निशम्य हेतुकारणयोरनन्तरसूत्रसूचितयोः, चोदितःअसिद्धोऽयं भवदभिहितो हेतुः, कारणं चेत्यनुपपत्त्या प्रेरितो हेतुकारणचोदितः, ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदं वक्ष्यमाणमब्रवीदिति सूत्रार्थः // 11 // किं तत् ? इत्याहएस अग्गीय वाऊ य, एयं मज्झइ मंदिरं। भयवं ! अंतेउरते णं, कीस णं नावपेक्खह ? // 12 // एष इति प्रत्यक्षोपलभ्यमानोऽग्निश्च वैश्वानरो, वातश्च पवनः, तथैतदिति प्रत्यक्ष, दह्यते भस्मसात क्रियते, प्रक्रमाद्वातेरितेनाग्निनैव, मन्दिरं वेश्म, भवत्संबन्धीति शेषः / भगवन्निति पूर्ववत् / (अतेउरते णं ति) अन्तःपुराभिमुखं, (कीस त्ति) कस्मात् , णमिति वाक्यालङ्कारे / नावप्रेक्षसे नावलोकयसे? इह च यद्यदात्मनः स्वं तत्तद्रक्षणीयं, यथा ज्ञानाऽऽदि, स्वं चेदं भवतोऽन्तःपुरमित्यादिहेतुकारणभावना प्राग्वदिति सूत्रार्थः / / 12 / ततश्वएयम8 निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी॥ 13 // प्राग्वत्॥१३॥ किमब्रवीत् ? इत्याहसुहं वसामो जीवामो,जेसि मो नत्थि किंचण। मिहिलाएँ डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचण / / 14 / / सुखं यथा भवत्येवं वसामस्तिष्ठामो, जीवामः प्राणान्धारयामः, येषां (मो इति) अस्माकं, नास्तिन विद्यते, किश्चन वस्तुजातम्।यतः-" एकोऽहं न मे कश्चित् , स्वः परो वाऽपि विद्यते / यदेको जायते जन्तुर्मियतेऽप्येक एव हि॥१॥" इति न किञ्चिदन्तःपुराऽऽदि मत्सत्कं, यतश्चैवमतो-मिथिलायामस्यां पुरि दह्यमानायां न मे दह्यते किञ्चित् स्वल्पमिति / / मिथिलाग्रहणं तु-न केवलमन्तःपुराऽऽद्येव न मत्संबन्धि, किं त्वन्यदपिस्वजनाऽऽदि. स्वस्वकर्मफभुजो हि जन्तवस्तथा तथाऽस्मिन भ्राम्यन्तीति किमत्र कस्य स्वं परं वेति ख्यापनार्थम्। ततश्चानेन प्रागुक्तहेतोरसिद्धत्वमुक्त, तत्त्वतो ज्ञानाऽऽदिव्यतिरिक्तस्य सर्वस्यास्वकीयत्वादित्यादि प्राग्वदिति सूत्रार्थः / / 14 / / एतदेव भावयितुमाहचत्तपुत्तकलत्तस्स, निव्वावारस्स भिक्खुणो। पियं न विजए किंचि, अप्पियं पिन विज्जए॥ 15 // बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वओ विप्पमुक्कस्स, एगंतमणुपस्सओ // 16 // त्यक्ताः परिहताः-पुत्राश्च सुताः, कलत्राणि चदाराः, येनस तथा, तस्य, अत एव नियापारस्य परिहृतकृषिपाशुपाल्याऽऽदिक्रियस्य, भिक्षोरुक्तरूपस्य, प्रियमिष्ट, न विद्यते नास्ति, किञ्चिदल्पमिति, अप्रियमप्यनिष्टमपि, न विद्यतेनास्ति, प्रियाप्रियविभागास्तित्वे हि सति पुत्रकलत्रत्यागं न कुर्यात् , एतयोरेवातिप्रतिबन्धविषयत्वादिति भावः / एतेम यदुक्तंनास्ति किञ्चनेति तत्समर्थित, तत् स्वकीयत्वं हि पुत्राऽऽद्यत्यागतोऽभिष्वङ्गतः स्यात् , स च निषिद्ध इति / एवमपि कथं सुखेन वसनंजीवनंच? इत्याह-बहु विपुलं,खुरवधारणे, बढेय, मुनेस्तपस्विनो, भद्रं कल्याण सुखं च, अनगारस्य भिक्षोरिति च प्राग्वत् / सर्वतो बाह्यादभ्यन्तराच्च / यतास्वजनात्परजनाच, विप्रमुक्तस्येति पूर्ववत्। एकान्तमेवकोऽहमित्याद्युक्तरूपैकत्वभावनाऽऽत्मकम् , अनुपश्यतः पर्यालोचयत इति सूत्रद्वयार्थः / / 15 / / 16 // पुनरपिएयमहँ निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी / / 17 // प्राग्वत्॥ 17 // पागारं कारइत्ता णं, गोपुरऽट्टालगाणि य।
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________________ णमि 1814 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमि उसूलगसयग्घीओ, तओ गच्छसि खत्तिया! // 18 // प्रकर्षेण कुर्वन्ति तमिति प्राकारः, तं, धूलीष्टकाऽऽदिविरचित, कारयित्वा विधाप्य, गोपुराट्टालकानि च-तत्र गोभिः पूर्यन्ते इति गोपुराणि प्रतोलीद्वाराणि, गोपुरग्रहणमर्गलाकपाटोपलक्षणम् / अट्टालकानि प्राकारकोष्ठकोपरिवर्तीन्यायोधनस्थानानि, (उसू-लग त्ति) खातिका परबलपातार्थमुपरिछादितगर्ता, (सयग्घीओ त्ति) शतं घ्नन्ति शतघ्न्यः ताश्च यन्त्रविशेषरूपाः, तत एवं सकलं निराकुलीकृत्य (गच्छसि इति) तिव्यत्ययाद् गच्छ। क्षतात् त्रायत क्षत्रियः, तत् संबोधनं क्षत्रिय ! हे तूपलक्षणं चेदम् / स चायम्-यः क्षत्रियः स पुररक्षं प्रत्यवहितो, यथोदितोदयाऽऽदिः, क्षत्रियश्च भवान, शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः। 18 / ततःएयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी।। 16 / / प्राग्वत्॥ 16 // सद्धं च नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं / खंतिं निउण-पागारं, तिगुत्तं दुप्प,सगं // 20 // धणू परक्कम किच्चा, जीवं च इरियं मया। घिई च केयणं किच्चा, सच्चेणं पलिमथए / // 21 // तवनारायजुत्तेणं, भेत्तूणं कम्मकंचुयं / मुणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चइ / / 22 / / श्रद्धांतत्वरूचिरूपाम् , अशेषगुणगणधारणतया नगरी पुरी, कृत्वा हदि विधाय, अनेन च प्रशमसंयेगाऽऽदीनि गोपुराणि कृत्वेत्युपलक्ष्यते, अर्गलाकपाटं तर्हि किम् ? इत्याह-तपोऽनशनाऽऽदि बाह्यान्तरप्रधानः संवर आश्रवनिरोधलक्षणस्तपःसंवरः, तं, मिथ्यात्याऽऽदिदुष्टनिवारकत्वेनार्गला परिधः, तत्प्रधानं कपाटमप्यर्गलेत्युक्तम् ,ततोऽर्गलामर्गलाकपाटं, कृत्येति संबन्धः / प्राकारः कः? इत्याह-क्षान्तिः क्षमा, निपुणमिव निपुणं शत्रुरक्षणं प्रति, श्रद्धाविरोध्यनन्तानुबन्धिकपापरोधितया प्राकार, कृत्वेति संबन्धः 1 उपलक्षणं चैषां मानाऽऽदिनिरोधिनां मार्दवाऽऽदीनाम् / तिसृभिरट्टालकोच्छूलकशतघ्नीसंस्थानीयाभिमनोगुप्त्यादिगुप्तिभिर्गुप्तम् / मयूरव्यंसकाऽऽदित्वात्समासः। प्राकारस्य विशेषणम्। अत एव दुःखेन प्रधृष्यते परैरभिभूयत इति दुःप्रधर्षः, स एव दुःप्रधर्षकः, तम्। पठन्ति च-"खतिं निउणपागारं, तिगुत्तिं दुप्पधंसयं" इति स्पष्टम् / इत्थं यदुक्तं प्राकाराऽऽदीन कारयित्वेति तत्प्रतिवचनमुक्तम् / / संप्रति तु प्राकाराट्टालकेष्ववश्यं योद्धव्यम् , तच सत्सु प्रहरणाऽऽदिषु, प्रतिविधेये च वैरिणि संभवति। अत आह-धनुः कोदण्ड, पराक्रम जीववीर्योल्लासरूपमुत्साहं कृत्वा, जीयां च प्रत्यञ्चां च, ईर्यामीर्यासमितिम् , उपलक्षणत्वाच्छेषसमितीच, सदा सर्वकालं, तद्विरहितस्य जीववीर्यस्याप्यकिश्चित्करत्वात् / धृतिं च धर्माभिरतिरूपां, केतनं श्रृङ्गमयधनुर्मध्ये काष्ठमयमुष्टिकाऽऽत्मकम् तदुपरि स्नायुना निबध्यते, इदं तु केन बन्धनीयम् ? इत्याह-सत्येन मनःसत्याऽऽदिना(पलिमथए त्ति) बध्नीयात्॥ ततः किम् ? इत्याह-सपः षडूविधमान्तरं परिगृह्यते, तदेव कर्मप्रत्यभिभेदतया नाराचःअयोमयो वाणः, तयुक्तेन प्रक्रमाद्धनुषा, भित्त्वा विदार्य, कर्म ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदि, कञ्चक इव कर्म-कञ्चकः, तम् / इह कर्मकञ्चकग्रहणेनाऽऽत्मैट्तिो वैरीत्युक्तं भव-ति / वक्ष्यति च-" अप्पा मित्तममित्तं च, दुट्टिए सुप्पतिहिए।" कर्मणस्तु कक्षुकत्वं तद्गतमिथ्यात्वाऽऽदिप्रकृत्युदयवर्तिनः श्रद्धानगरमुपरुन्धत आत्मनो दुर्निवारत्वात् , मुनिः प्राग्वत्। कर्मभेदे जेयस्य जितत्वाद् विगतः संग्रामो यस्य यस्माद्वेति विगतसंग्राम उपरताऽऽयोधनः सन, भवन्त्यस्मिन् शारीरमानसानि दुःखानीति भवः संसारः, तस्मात्परिमुच्यते / एतेन च यदुक्तम्-प्राकारं कारयित्वेत्यादि, तत्सिद्धसाधनम् / इत्थं श्रद्धानगररक्षणाभिधानाद्भवतश्च तत्त्वतस्तदविज्ञतेति चोक्तं भवति / न च भवदभिमतप्राकाराऽऽदिकरणे सकलशारीरमानसक्लेशवियुक्तिलक्षणा मुक्तिरवा-प्यते, इतस्तु तदवाप्तिरपीति सूत्रत्रयार्थः // 20 // 2122 // एवं चतेनोक्तेएयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी।। 23 / / प्राग्वत्।। 23 // पासाए कारइत्ता णं, वद्धमाणगिहाणिय। वालग्गपोइयाओ य, तओ गच्छसि खत्तिया ! / / 24 / / प्रसीदन्ति नृणां नयनमनांसि येषु ते प्रासादाः, तानुक्तरूपान् , वर्द्धमानगृहाणि चानेकधा वास्तुविद्याऽभिहितानि 1 (बालग्गपोइय त्ति) देशीपदं यलभीवाचकम् , ततो वलभीश्च कारयित्वा ; अन्ये त्वाकाशतडागमध्यस्थितं क्षुल्लकप्रासादमेव" वाल्लगपोइयाओ त्ति' देशीपदाभिधेयमाहुः / ततस्ताश्च क्रीडास्थानभूताः कारयित्वा, ततोऽनन्तरं गच्छ क्षत्रिय ! एतेन च यः प्रेक्षावान् स सति सामर्थ्य प्रासादाऽऽदि कारयिता, यथा ब्रह्मदत्ताऽऽदिः, प्रेक्षावांश्च सति सामर्थ्य भवानित्यादिहेतुकारणयोः सूचनमकारीति सूत्रार्थः / / 24 / / एवं च शक्रेणोक्तेएयमझु निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी / / 25 / / प्राग्वत् // 25 / / संसयं खलु सो कुणइ, जो मग्गे कुणई घरं / जत्थेव गंतुमिच्छेजा, तत्थ कुवेज्ज सासयं / / 26 / / संशीतिः संशयः-इदमित्थं भविष्यति, न वा ? इत्युभयांशाऽऽवलम्बनप्रत्ययः, तं, खलुरेवकारार्थः। ततः संशयमेव, स कुरुते; यथामम कदाचिद् गमनं भविष्यतीति। यो मार्गे कुरुते गृहं / गमननिश्चये तु करणायोगात् ; अहं तु न संशयितेत्याशयः, सम्यग्दर्शनाऽऽदीनां मुक्तिं प्रत्यबन्ध्यहेतुत्वेन मया निश्चितत्वादवाप्तत्ववाच्य / यदि नाम न संशयितस्तयापि किमिहैव गृहं न कुरुषे? अत आह-यत्रैव विवक्षितप्रदेशे, गन्तुंयातुम् , इच्छेत्-अभिलेषत्। (तत्थेति) व्यवच्छेदफलत्वाद्वाक्यस्य तत्रैव-जिगमिषितप्रदेशे, कुर्वीत विदधीत, स्वस्याऽऽत्मनः, आश्रयो वेश्म स्वाश्रयः, तम्।यद्वाशाश्वतं नित्यं, प्रक्रमाद् गृहमेव। ततोऽयमर्थः-इदं तावदिहावस्थानं मार्गावस्थानप्रायमेव, यत्र तु जिगमिषितप्रदशे कुर्वीत विदधीतास्माभिस्तन्मुक्तिपदं, तदाश्रयविधाने च प्रवृत्ता एत वयम् , ततस्तत्करणप्रवृत्तत्वात् कथं प्रेक्षावत्त्वक्षतिः? तथा चयः प्रेक्षावानित्याद्यपि तत्त्वतः सिद्धसाधनतयैवावस्थितमिति सूत्रार्थः / / 26 / / ततः पुनरपिएयमट्ठ निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ।
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________________ णमि 1815 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमि तओ नमिं रायरिसिं, देविंदो इणमय्ववी / / 27 // प्राग्वत्।। 27 // आमोसे लोमहारे य, मंठिभेए य तकरे। नगरस्स खेमं काऊणं, तओ गच्छसि खत्तिआ ! ||28|| आ समन्ताद् मुष्णवन्ति स्तैन्यं कुर्वन्तीत्यामोषाः, तान् , लोमानि हरन्ति व्यपनयन्ति प्राणिनां ये ते लोमहाराः / किमुक्तं भवति ? निस्त्रिशतया, आत्मविघाताऽऽशङ्कया च प्राणान् निहत्यैव ततः सर्वस्वमपहरन्ति / तथा च वृद्धाः-" लोमहाराः प्राणहाराः " इति / तांश्च, ग्रन्थि द्रव्यसंबन्धिनी भिन्दन्ति घुघुरुकद्विकर्तिकाऽऽदिना विदारयन्तीति ग्रन्थिभेदाः, तान् , चशब्दो भिन्नक्रमः / तदेव कुर्वन्ति तस्कराः, सर्वकालं चौर्यकारिणः, तांश्च / यत आहुर्वैयाकरणाः-" तबृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च / " (वार्ति०) इह चोत्साद्येति गम्यते, प्रविश्य पिण्डीमित्युक्तौ भक्षयेतिवत् / यद्वासाम्येवेयं, बह्वर्थे चैकवचनम् , ततश्चाऽऽमोषाऽऽदिषूपतापकारिषु सत्सु, नगरस्य पुरस्य क्षेमं सुस्थं, कृत्वा विधाय, ततस्तदनन्तरं, गच्छ क्षत्रिय ! एतेनापि यः सधर्मा नृपतिः, स इहाधर्मकारिनिग्रहकृत, यथा भरताऽऽदिः, सधर्मनृपतिश्च भवानित्यादि-हेतुकारणसूचना कृतैवेति सूत्रार्थः // 28 // इत्थं शक्रोक्तोएयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी / / 26 / / असई तु मणुस्सेहि, मिच्छा दंडो पउंजइ। अकारिणोऽत्थ बझंति, मुच्चई कारओ जणो / / 30 // असकृदनेकधा, तुरेवकारार्थः, ततश्चासकृदेव, मनुष्यैर्मनुजैः, मिथ्या व्यलीकः / किमुक्तं भवति?-अनपराधिष्वप्यज्ञानाहङ्काराऽऽदिहेतुभिरपराधिष्विव, दण्डनं दण्डोदेशत्यागशरीरनिग्रहाऽऽदिः, प्रयुज्यते व्यापार्यते। कथमिदम् ? इत्याह-अकारिण आमोषणाऽऽद्यविधायिनः, अत्रेत्यस्मिन् प्रत्यक्षत उपलभ्यमानमनुष्यलोके, दध्यन्ते निगडाऽऽदिभिर्नियन्त्र्यन्ते; मुच्यते त्यज्यते, कारको विधायकः, प्रकृतत्वादामोषणाऽऽदीनाम्।जनोलोकः / तदनेन यदुक्तम्-प्रागामोषकाऽऽद्युत्सादनेन नगरस्य क्षेमं कृत्वा गच्छति, तत्र तेषां ज्ञातुमशक्यतया क्षेमकरणस्याप्यशक्यत्वमुक्तम् / यत्तु यः सधर्मेत्यादि सूचितम्, तत्रापरिज्ञानतोऽनपराधिनामपि दण्डमाददतां सधर्मनृपतित्वमपि तावचिन्त्यमित्यसिद्धता हेतोरिति सूत्रार्थः // 26 // 30 // एयम8 निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमि रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी।। 31 / / प्राग्वत् // 31 // नवरमियता स्वजनान्तःपुरपुरप्रासादनृपतिधर्मविषयः किमस्याभिष्वङ्गोऽस्ति, नेति वेति विमृष्य, संप्रति द्वेषाभावं विवेक्तुमिच्छुर्विजिगीषुतामूलत्वात् द्वेषस्य, तामेव परीक्षितुकामः शक्र इदमुक्तवान्जे केइ पस्थिवा तुभं (तुज्झमिति ),नाणमंति नराहिवा! वसे ते ठावइत्ता णं, तओ गच्छसि खत्तिया / / 32 / / ये केचिदिति सामस्त्योपदर्शकम् , पार्थिवा भूपालाः, (तुटभं ति) तुभ्यं, नानमन्ति न मर्यादया प्रीभवन्ति, तुभ्यमिति नमतीतियोगेऽपि चतुर्थी, " मात्रे पित्रे सवित्रे च, नमामि " इत्यादिवददुष्टव / वाचनान्तरे पठ्यते च-(तुझं ति) तत्र च तवेति शेषविवक्षया षष्ठी। ' नराहिवा ! " इत्यत्राऽऽकारो" हस्वदीर्घा मिथो वृत्तौ " || 8 | 1 / 4 / इति लक्षणात् (अयं तु प्रमादेनोल्लेखः, यतो हि'डो दीर्घा वा / / 8 / 3 / 38 / / इतिसूत्रं विवेचयता हेमचन्द्रसूरिणा प्राप्ताप्राप्तविभाषात्वमस्य सूत्रस्य समर्थितम् / तद् यथा-हे गुरू, हे गुरु, हे पहू , हे पहु, एषु प्राप्ते विकल्पः / हे गोयमा! हे गोयम! इह त्वप्राप्ते विकल्पः) ततश्च हेनराधिप ! नृपते ! वशे इत्यात्माऽऽयत्ते, तानित्यन्यात्पार्थिवान् , स्थापयित्वा निवेश्य, कृत्वेति यावत् / ततो गच्छ क्षास्त्रिय ! इहापि यो नृपतिः स नानमत्पार्थिवं नमयिता, यथा भरताऽऽदिरित्यादिहेतुकारणे अर्थत आक्षिप्ते, इति सूत्रार्थः // 32 // एवं तुसुरपतिनोक्तेएयमटुं निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी।। 33 // सूत्रं प्राग्वत्॥३३॥ जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे। एवं जिणेज अप्पाणं, एस से परमो जओ // 34 // अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण वज्झओ? अप्पणा चेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए / / 35 / / पंचिंदियाणि कोह, मायं माणं तहेव लोभं च / दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं / / 36 / / य इत्यनुद्दिष्टनिर्देशे, सहसं दशशताऽऽत्मकं, सहस्राणां प्रक्रमात सुभटानाम्, संग्रामे युद्धे, दुर्जये दुरापपरपरिभवे, जयेदभिभवेत्। संभावने लिड्। एकमद्वितीय, जयेद् यदि कथञ्चिज्जीववीर्योल्लासतोऽभिभवेत्, कम् ? आत्मानं स्वं, दुराचारप्रवृत्तमिति गम्यते / एषोऽनन्तरोक्तः, (से इति) तस्य जेतुः, सुभटदशशतसहस्रजयात्परमः प्रकृष्टो, जयः परेषामभिभवः, तदनेनाऽऽत्मन एवातिदुर्जयत्यमुक्तम्॥ 34 // तथा च (अप्याणमेव त्ति) तृतीयार्थे द्वितीया। ततश्चात्मनैव सह, युदयस्य संग्राम कुरु / यद्वायुधेरन्त वितण्यर्थत्वाद्युध्यस्वेति योधयस्व / कम् ? आत्मानम् इहाप्यात्मनैव सहेति शेषः / किम् ? न किञ्चिदित्यर्थः। ते तव, युद्धेन संग्रामेण, बाह्यत इति बाह्य पार्थिवाऽऽदिकमाश्रित्य, यदिवा बाह्य इतितृतीयार्थेतसिः, ततोबाह्येन युद्धेनेति संबध्यते। एवं च (अप्पणा चेव त्ति) आत्मनैवान्यव्यतिरिक्तन, आत्मानं स्वं, (जइत्त त्ति) जित्वा, सुखमैकान्तिकात्यन्तिकमुक्तिसुखाऽऽत्मकम् एधत इति- अनेकार्थत्वाद्धातूनां प्राप्नोति / (अहवा सुहमेहए ति) शुभं पुण्यमेधतेअन्तर्भावितण्यर्थत्वाद् वृद्धि नयति // 35 // कथमात्मन्येव जिते सुखावाप्तिः ? इत्याह-पञ्चेन्द्रियाणि श्रोत्राऽऽदीनि, क्रोधः कोपो, मानोऽहङ्कारो, माया निकृतिः, तथैव लोभश्च गा_लक्षणो, दुर्जयो दुरभिभवः, चः समुच्चये / एवेति पूरणे। अतति स-ततं गच्छति तानि तान्यध्यवसायस्थानान्तराणीति व्युत्पत्तेरात्मा मनः, सर्वत्र च सूत्रत्वानात्मना निर्देशः / सर्वमशेषमिन्द्रियादि, उपलक्षणत्वाद् मिथ्यात्याऽऽदि च, आत्मनिजीवे, जितेऽभिभूते, जितमित्यभिभूतमैवाननुमनसि जितेजितानि
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________________ णमि 1816 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमि पञ्चेन्द्रियाऽऽदीनीति, किं पृथक् तज्जयाभिधानेन ? सत्यम्-तथाऽपि प्रत्येकं दुर्जयत्वख्यापनाय पृथगुपन्यास इत्यदोषः / यद्वा- (दुज्जयं चेव अप्पाणं ति) चकारो हेत्वर्थः, एवोऽवधारणे, भिन्नक्रमश्च-आत्मशब्दानन्तरं द्रष्टव्यः / ततश्च यस्मादात्मैव जीव एवदुर्जयस्ततः सर्वमिन्द्रियाऽ5द्यात्मनि जिते जितम्। अनेन चेन्द्रियाऽऽदीनामेव दुःखहेतुत्वात्तज्जयतः सुखप्राप्तिः समर्थिता भवति। एवं च फलोपदर्शनद्वारेणैवंविधैव जिगीषुता श्रेयसीत्याचष्टे / ततश्च यो नृपतिरित्याद्यपि तत्त्वतो विजिगीषुत्वदर्शनात् सिद्धसाधनतया प्रत्युक्तमिति सूत्रत्रयार्थः // 36 / / __ भूयोऽपिएयमढें निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमि रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी।। 37 / / प्राग्वत्।। 37 // नवरमनन्तरपरीक्षातो द्वेषोऽप्यनेन परिहृत इति निश्वित्य, जिनप्रणीतधर्मं प्रति स्थैर्य परीक्षितुकामः शक्र इदमवोचत्जइत्ता विउले जपणे, भोएत्ता समणमाहणे। दचा भोचा य जिट्ठा य, तओ गच्छसि खत्तिया! / / 38 / / (जइत्त ति) याजयित्वा विपुलान् विस्तीर्णान् , यज्ञान यागान् , भोजयित्वा-अभ्यवहार्य, श्रमणाश्च निर्ग्रन्थाऽऽदयो, ब्राह्मणाश्च द्विजाः, श्रमणब्राह्मणाः, तान् , द्विजाऽऽदिभ्यो गोभूमिसुवर्णाऽऽदीन् दत्त्वा भुक्त्वा च मनोज्ञशब्दाऽऽदीन् इष्ट्वा च राजर्षित्वात् स्वयमेव यज्ञान ततो गच्छ क्षत्रिय ! अनेन यद्यत्प्राणिप्रीतिकरंतत्तद्धर्माय, यथा हिंसोपरमाऽऽदि, प्राणिप्रीतिकराणि चामूनि यागाऽऽदीनीत्यादिनीत्या हेतुकारणे सूचिते एवेति सूत्रार्थः / / 38 // __ शक्रवचनानन्तरम्एयमटुं निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी।।३९ / / सूत्रं प्राग्वत्॥३६॥ जो सहस्सं सहस्साणं,मासे मासे गवं दए। तस्सा वि संजमो सेओ, अदितस्स वि किंचण / / 40 // यसहस्रं सहस्राणां दशलक्षाऽऽत्मक, मासे मासे, गवां प्रतीताना, (दए त्ति) दद्यात् , तस्याप्येवंविधस्य दातुर्यदि कथश्चिारित्रमोहनीयक्षयोपशमेन संयम आश्रवाऽऽदिविरमणाऽऽत्मकः स्यात् , तदा स एव श्रेयानतिशयप्रशस्यः। कथंभूतस्यापि ? अददतोऽप्ययच्छतोऽपि, किञ्चन स्वल्पमपि वस्तु / यद्वा-(तस्सा वि त्ति) तस्मादप्युक्तरूपाद् ददतुरवधित्वेन विवक्षितात्संयच्छति प्राणिहिंसाऽऽदिभ्यः सम्यगुपरमतीति, सर्वधातूनां पचाऽऽदिषु दर्शनादचि संयमः संयमवान् , साधु रित्यर्थः / श्रेयान् प्रशस्यतरः / अथवा तस्यापि दातुः, प्रक्रमादगोदानधर्मात्, संयम उक्तरूपः, श्रेयान् / शेषं पूर्ववत् / गोदानं चेह यागाऽऽधुपलक्षणमतिप्रभूतजनाऽऽचरितमित्युपात्तम् / एवं च संयमस्य प्रशस्यतरत्वमभिदधता यागाऽऽदीनां सा-वद्यत्वमर्थादावेदितम् / तथा च यज्ञप्रणेतृभिरुक्तम्-" षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां / मध्यमेऽहनि। अश्वमेघस्य वचनाद् , न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः / / 1 // " इयत्यस्तु वधे च कथमसावधता नाम? तथा दानान्यप्शनाऽ5 दिविषयाणि, धर्मोपकरणगोचराणि च धर्माय वर्ण्यन्ते ? यत आह-" अशनाऽऽदीनि दानानि, धर्मोपकरणानि च / साधुभ्यः साधुयोग्यानि, देयानि विधिना बुधैः" // 1 // शेषाणि तु सुवर्णगोभूम्यादीनि प्राण्युपमदहेतुतया सावधान्येव, भोगानां तु सावद्यत्वं सुप्रसिद्धम्; तथा च प्राणिप्रीतिकरत्वादित्यसिद्धो हेतुः / प्रयोगश्वयत्सावा तत्प्राणिप्रीतिकरं न, यथा हिंसाऽऽदि, सावधानि च यागाऽऽदीनीति सूत्रार्थः // 40 // एयमटुं निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी।। 41 / / 'एयम8 ' सूत्रं प्राग्वत्॥ 41 / / नवरम् , इत्थं जिनधर्मस्थैर्यमवधार्य, प्रव्रज्यां प्रति दृढोऽयमुत नेति परीक्षणार्थ शक्र इदमब्रवीत्घोराऽऽसमं चइत्ता णं, अन्नं पत्थेसि आसमं। इहेव पोसहरओ, भवाहि मणुयाहिवा ! // 42 // धोरोऽत्यन्तदुरनुचरः, स चासावाश्रमश्च, आडिति स्वपरप्रयोजनाभिव्याप्त्या, श्रामन्ति खेदमनुभवन्त्यस्मिन्निति कृत्वा धोराऽऽश्रमो गार्ह स्र्थ्यम् , तस्यैवाल्पसत्त्वैः दुष्करत्वात् / यत आहुः- "गृहाऽऽश्रमसमोधर्मो, न भूतो न भविष्यति। पालयन्ति नराः शूराः, क्लीबाः पाखण्डमाश्रिताः / / 1 / / ' तं, त्यक्त्वाऽपहाय," जहिता णं ति" क्वचित्पाठः / तत्र च हित्वा, अन्यमेतद्व्यतिरिक्तं कृषिपाशुपाल्याऽsद्यशक्तकातरजनाभिनन्दितं, प्रार्थयसेऽभिलषसि, आश्रम प्रव्रज्यालक्षणं, भेदं क्लीबसत्वानुचरितं भवादृशामुचितमित्यभिप्रायः / तर्हि किमुचितम् ? इत्याह-इहैवास्मिन्नेव गृहाश्रमे, स्थित इति गम्यते। पोष धर्मपुष्टिंधत्त इति पोषधः, अष्टम्यादितिथिषुव्रतविशेषः, तत्र रत आशक्तः पोषधरतो, (भवाहि त्ति) भव, अणुव्रताऽऽद्युपलक्षणमेतत् , अस्यैवोपादानं पोषधदिनेष्ववश्यंभावतस्तपोऽनुष्ठानख्यापकम् / यत आह आश्वसेनः- " सर्वेष्वपि तपोयोगः, प्रशस्तं कालपर्वसु / अष्टभ्यां पञ्चदश्यां च, नियतः पोषधं चरेत्॥१॥" इति। मनुजाधिप ! नृपते ! अत्र च घोरपदेन हेतु-राक्षिप्तः। तथाहि-यद्यद्घोरं तद् तद्धर्मार्थिनाऽपि अनुष्ठेयं, यथाऽनशनाऽऽदि, तथा चायं गृहाऽऽश्रमः, शेषर्मतदनुसारतोऽभ्यूह्यमिति सूत्रार्थः / / 42 // ततश्चएयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी॥४३॥ प्राग्वत्।। 43 // मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेण उ भुंजए। न सो सुअक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं // 44 // " मासे मासे " इति वीप्सायां द्विवचनम् , तुरिहोत्तरत्र चैवकारार्थः, ततश्च मासे मासे एव, न त्वेकस्मिन्नेव मासे, अर्द्धमासाऽऽदो वेति, यः कश्चिद् बालोऽविवेकः, कुशाग्रेणैव तृणविशेषप्रान्तेन, भुङ्क्ते / एतदुक्तं भवतियावत् कुशाग्रेऽवतिष्ठते तावदेवाभ्यवहरन्, नातोऽधिकम; अथवा कुशाग्नेणेति जातावेकवचनम् / तृतीया तु ओदनेनासौ भुक्तइत्यादिवत् साधक-तमत्वेनाभ्यवहियमाणत्वेऽपि विवक्षितत्वात् / नेति निषेधे / स इति यः कुशागैर्भुङ्क्तेस एवंविधकष्टानुष्ठाय्यपि, सुष्टु शोभनः सर्वसावद्यविरतिरूपत्वात् , आडित्यभिव्याप्त्या, ख्यातस्तीर्थकराऽऽदिभिः कथितः स्वाख्यातः,तथाविधो
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________________ णमि 1817 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमि धर्मो यस्य सोऽयं स्वाख्यातधर्मा, तस्य, चारित्रिण इत्यर्थः / कलां भागमपि, अर्हति षोडशी षोडशपूरणीम्।। इदमुक्तं भवति-स समोऽपि न भवति, किं पुनस्तुल्यः, अधिको वा / ततो यदुक्तं-यद्यद् घोरं न तत्तद्धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयम् , अनशनाऽऽदिवदित्यत्र धोरत्वादि-त्यनैकान्तिको हेतुः / घोरस्यापि व्याख्यातधर्मस्यैव धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयत्वात् , अन्यस्य त्वात्मविघाताऽऽदिवदन्यथात्वात्। प्रयोगश्चात्रयत् स्वाख्यातधर्मरूपं न भवति घोरमपि न तद्धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयम, यथा-आत्मवधाऽऽदिः, तथा च गृहाऽऽश्रमः, तद्रूपत्वं चास्य सावद्यत्वाद् हिंसाऽऽदिवदित्यलं प्रसङ्गेन। शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः / / 44 // ततश्चएयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी / / 45 / / 'एयं ' सूत्रं प्राग्वत्।। 45 // नवरं यतिधर्मे दृढोऽयमिति निश्चित्य, दुरन्तोऽयमभिष्वङ्ग इति तद्भावं परीक्षितमपि पुनः परीक्षितुमिन्द्र उवाचहिरण्णं सुवण्णं मणिसुत्तं, कंसं दूसं च वाहणं / कोसं वड्डावइत्ता णं, तओ गच्छसि खत्तिया !|| 46 // हिरण्यं सुवर्ण, स्वर्ण शोभनवर्णं, विशिष्टवर्णकमित्यर्थः / यद्वाहिरण्य घटितस्वर्णम् , इतरत्तु सुवर्ण, मणयश्वेन्द्रनीलाऽऽदयः, मुक्ताश्च मौक्तिकानि, मणिमुक्तम्। तथा काश्य काश्यभाजनाऽऽदि, दूष्यवस्वाणि, चःस्वगतानेकभेदसंसूचकम्। वाहन रथाश्वाऽऽदि। वाचनान्तरे पठन्ति च-(सवाहणं ति) सह वाहनैर्वति इति सवाहनम् , हिरण्याऽऽदीति संबन्धः / कोशं भाण्डागारं धर्मलाभाऽऽद्यनेकवस्तुस्वरूप (बद्धावइत्ता णं ति) वृद्धि प्रापय्य, ततः समस्तवस्तुविषयेच्छापरिपूर्ती, गच्छ क्षत्रिय ! अयमाशयः-यः साऽऽकासो नासौ धर्मानुष्ठानयोग्यो भवति, यथा मम्मणवणिक, साऽऽकासश्च भवान्, आकासश्च भवान्, आकाङ्क्षणीयविहरण्याऽऽदिवस्त्वपरिपूर्तेः, तथाविधद्रमकवदिति / शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः // 46 // (तत्कथा' मम्मण शब्दे वक्ष्यते) कैलाशपर्वततुल्या एव, न त्वन्यलधुपर्वतप्रमाणाः, तेऽप्यसंख्याकाः संख्याविरहिताः, न तु द्वित्रा एव, नरस्य पुरुषस्य, उपलक्षणत्वात् स्त्रियः, पण्डकस्य वा / न तैः कैलाशसमैरसंख्यैरपि सुवर्णरूप्यपर्वतैः, किञ्चिदप्यल्पमपि, परितोषोत्पादन प्रति क्रियत इति शेषः / वाचनान्तरे पठ्यते च-(नतेण त्ति) अत्र च सूत्रत्वाद्वचनव्यत्ययः। कुतःपुनरिदम् ? इत्याह-इच्छा अभिलाषो, हुरिति यस्मात् , आकाशेन समा तुल्या आकाशसमा, अनन्तिका अन्तरहिता। तथा चैतदनुवादी वाचक:-"न तुष्टिरिह शताजन्तोर्न सहस्रान्न कोटितः / न राज्यान्नैव देवत्वान्नेन्द्रत्वादपि विद्यते॥१३॥" / / 48 // किं सुवर्णरूप्ये केवले एव नेच्छापरिपूर्तये ? इत्याशक्याऽऽह- पृथ्वी मही, शालयो लोहितशाल्यादयः, यवाः प्रतीताः, चः शेष-धान्यसमुच्चयार्थः / एवोऽवधारणे, स च भिन्नक्रमो नेत्यस्यान्तरं योज्यते। हिरण्यं सुवर्ण, ताम्राऽऽद्युपलक्षणमेतत् , पशुभिर्गवाश्वाऽऽदिभिः, सह सार्द्ध, प्रतिपूर्ण समस्तम्।वाचनान्तरे पठन्ति च-(सव्वंतंति) सर्वमशेष, न तु कियदेव, तत् पृथिव्यादि / नेति नैव, अलं समर्थ, प्रक्रमादिच्छापरिपूर्तये / एकस्याद्वितीयस्य, जन्तोरिति गम्यते / इत्येतत् श्लोकदयोक्तम् , (विज त्ति) सूत्रत्वाद्विदित्वा / यद्वा-इतीत्यस्माद्धेतोः, विद्वान पण्डितः, तपोद्वादशविधं, चरेदासेवेत। ततएव निस्पृहतयेच्छापरिपूर्तिसंभवादिति भावः / अनेन च संतोष एव निराकासतायां हेतुर्न तु हिरण्याऽऽदिवर्द्धनमित्युक्तम् / तथा च हिरण्याऽऽदि वर्द्धयित्वेत्यत्र यदनुमानमुक्त, तत्र साकाङ्गत्वलक्षणो हेतुरसिद्धः, न चाऽऽकालणीयवस्त्वपरिपूर्ते स्तस्य सिद्धत्वं, संतुष्टतया ममाऽऽकामणीयवस्तुन एवाभावादिति सूत्रार्थः / / 46 / / भूयोऽपिएयमटुं निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमि रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी / / 50 // 'एयमटुं ' सूत्रं प्राग्वत्॥५०॥ नवरम् , अविद्यमानविषयेषु विषयवाऽछानिवृत्तोऽयमिति निश्चित्य, सत्सु तेष्वभिषङ्गोऽस्तु, नवा ? इति, विवेचयितुमिन्द्र उवाचअच्छेरयमन्भुदए, भोए जहसि पत्थिवा! असंते कामे पत्थेसि, संकप्पेण विहण्णसि // 51 // (अच्छेरयं ति) आश्चर्यं वर्तते, यत् त्वमेवंविधोऽपि (अब्भु-दए त्ति) अद्भुतकानाश्चर्यरूपान, भोगान् कामान् , जहासि त्यजत्रि। वाचनान्तरेपठ्यतेच-(चयसि त्ति) पार्थिव ! पृथिवी-पते! पाठान्तरश्चक्षत्रिय ! अथवा-(अब्भूइए त्ति) अभ्युदये; ततश्च यदभ्युदयेऽपि भोगाँस्त्वं जहासि तदाश्चर्य वर्तते / तथा-तस्यागतश्च-असतोऽविद्यमानान्, कामान् , प्रार्थयसेऽभिलषसियत, तदप्याश्चर्यमिति संबन्धः। अथवा-कस्तवात्र दोषः? संकल्पेन उत्तरोत्तराप्राप्तभोगाभिलाषरूपेण विकल्पेन, विहन्यसे विविध वाध्यसे, एवंविधसंकल्पस्यापर्यवसितत्वादुक्तमः अमीषा स्थूलसूक्ष्माणामिन्द्रियार्थविधायिनां शक्राऽऽदयोऽपि नो तृप्तिविशेषाणामुपागताः। यदा-(अच्छेरगमब्भुदए त्ति) मकारोऽलाक्षणिकः। ततश्चाssश्चर्यामृत्योरकार्थत्वेऽप्युपादानममतिशयख्यापनार्थम्। अतिशयाद्भुतान् भोगान् जहासि पार्थिव! असतश्च कामान् प्रार्थयसि यत्, तत्संकल्पेनैवोक्तरूपेण, विहन्यसे वाध्यसे / कथं ह्यन्यथा विवेकिनस्तवैतत्संभवेत्, एतेन च यः सद्विवेको, नासौ प्राप्तान विषयानप्राप्ताऽ5 ततः एयमढे निवामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी।। 47 / / प्राग्वत् / / 47 / / सुवण्णरुप्पस्स उपव्वया भवे, सिया हु के लाससमा असंखया! नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिया // 48|| पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुहिं सह। पडिपुण्णं नालमेगस्स, इह विजा तवं चरे।। 46 || सुवर्ण रूप्यं च सुवर्णरूप्यमिति समाहारः / तस्य, तुः पूरणे / यद्वाआर्षस्वाद्विभक्तिलोपः, तुशब्दश्च समुचये, ततः सुवर्णस्य रूप्यस्य चपर्वता इव पर्वताः पर्वतप्रमाणा राशयः, (भवे ति) भवयु : स्युः, पर्वतप्रमाणत्वेऽपि च लघुपर्वतप्रमाणा एव स्युः, अत आह-(सिया हु त्ति) स्यात् कदाचित् हुरवधारण, भिन्नक्रमश्च, ततः कैलाशसमा एव
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________________ णमि 1818 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमि काङ्गया परिहरति; यथा ब्रह्मदत्तचक्रवादिः, सद्विवेकश्च भवानित्यादिहेतुकारणे सुचिते इति सूत्रार्थः / / 51 / / (तत्कथा 'बंभदत्त' शब्दे) तदनुएयमटुं निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी / / 52 / / प्राग्वत् / / 52 // सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे पत्थेजमाणा य, अकामा जंति दुग्गइं / / 53 / / (सल्लं ति) देहान्तश्चलतीति शल्यं शरीरन्तिःप्रविष्ट तोमराऽऽदि, शल्यमिवशल्यम्। के ते? काम्यमानत्वात् कामाः, मनोज्ञशब्दाऽऽदयः / यथाहि-शल्यमन्तश्चलद्विविधवाधाविधायि, तथैतेऽपि, तत्वत एषामपि सदा वाधाविधायित्वात्। तथा वेवेष्टि व्याप्नोतीति विषं तालपुटाऽऽदि, विषमिव विष कामाः, यथैव हि तदुपभुज्यमानं मधुरमित्यापातसुन्दरमिवाऽऽभाति, अथ परिणतावतिदारुणम् , एवमेते अपि कामाः, तथा कामाः-आश्वो दंष्ट्राः, तासु विषमस्येत्याशीविषः, तदुपमाः / यथा ह्ययमहरवलोक्यमानः स्फुरन्मणिफणाभूषित इति शोभन इव विभाव्यते, स्पर्शनाऽऽदिभिरनुभूयमानश्च विनाशायैव भवति, तथैतेऽपि कामाः ? किञ्च-कामान् प्रार्थयमाना अभिलषन्तः, अपि शब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात्प्रार्थय-माना अपि, अकामा इष्यमाणकामाभावाद, यान्ति गच्छन्ति, दुर्गतिं दुष्टां नरकाऽऽदिगतिम् / तदनेन न केवलं शल्याऽऽदिवदनुभूयमाना एवामी दोषकारिणिः, किं तु प्रार्थ्यमाना अपीत्युक्तं भव-ति / तथा यः सद्विवेको, नासौ प्राप्तमप्राप्ताऽऽकाडया जहातीत्यादौ सद्विवेकत्वमनैकान्तिको हेतुः। न ह्ययमेकान्तः, यथाप्राप्तमप्राप्तार्थेन ; प्राप्तस्याप्यपायहेतोस्तदुच्छेदकाप्राप्तार्थ विवेकिभिः परिह्रियमाणत्वात् ; अनभ्युपगतोपालम्भश्चायाम् , मुमुक्षूणां क्वचिदाकामाया एवासंभवात् / उक्तं हि-" मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः।" इति सूत्रार्थः / / 53 / / कथं पुनः कामान् प्रार्थयमाना दुर्गति यान्ति ? अत आहअहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई। माया गइपडीधाओ,लोभाओ दुहओ भयं / / 54 / / अधो नरकगतो, व्रजति गच्छति, क्रोधेन कोपेन, मानेनाहङ्कारेण, अधमा नीचा गतिः, भवतीति गम्यते। (माय त्ति) सूव्यत्ययात् मायया परवञ्चनाऽऽत्मिकया, गते:-प्रस्तावात् सद्गतेः, प्रतिघातो विनाशो गतिप्रतिघातो भवति / लोभाद्गार्ग्यलक्षणात् , (दुहओ ति) द्विधा द्विःप्रकारम्-ऐहिक, पारत्रिकंच। विभ्यत्यस्मादिति भयं दुःखं, तदाशङ्खने साध्वसं च। कामेषु प्रार्थ्यमानेष्ववश्यंभावी क्रोधसंभवः, स चेद्दगिति कथन, तत् प्रार्थनातो दुर्गतिगमनमित्यभिप्रायः / यद्वा-सर्वमपि यदिन्द्रेणोक्तं तत्कषायानुपातीति तद्विपाकानुवर्णनमिदमिति सूत्रार्थः / / 54 / / एवं बहुभिरप्युपायैस्तमिन्द्रः क्षोभयितुमशक्तः किमकरोत् ? इ-त्याहअवउज्झिऊण माहण-रूवं च विउव्विऊण इंदत्तं / वदइ अभित्थुणंतो, इमाहि महुराहि वग्गूहिं / / 55 / / अहो ! ते निजितो कोहो, अहो ! माणो पराजितो। अहो ! निरकिया माया, अहो ! लोभो वसीकओ // 56 // / अहो ! ते अज्जवं साहु, अहो ! ते साहु महवं / / अहो ! ते उत्तमा खंती, अहो ! ते मुत्ति उत्तमा / / 57 / / (अवउज्झिऊण ति) अपोह्य त्यक्त्वा, ब्राह्मणरूपं धिन्वर्णवेष, (विउव्विऊणं ति) विकृत्य, इन्द्रत्वमुत्तरवैक्रियरूपमिन्द्रभाव, वन्दतेऽनेकार्थत्वात् प्रणमति, अभिष्टुवन्नभिमुखेन स्तुति कुर्वन् , इमाभिरनन्तरवक्ष्यमाणाभिः, मधुराभिः श्रुतिसुखाभिः, (वग्गूहि ति) आर्षत्वाद् वाग्भिर्वाणीभिः / / 55 / / तद्यथा-अहो ! इति विस्मये, (ते त्ति) त्वया, नितरामतिशयेन जितोऽभिभूतो निर्जितः, क्रोधः कोपः, यतस्त्वमनानमत्पार्थिववशीकरणप्रेरणायामपिन क्षुभित इत्यभिप्रायः / तथा अहो ! त्वया मानोऽहमितिप्रत्ययहेतुः, पराजितोऽभिभूतः, यस्त्वं मन्दिरं दह्यत इत्याधुक्तेऽपि कथं मयि जीवतीदमिति नाहड्कृति कृतवानिति॥५६॥ तथा-(अहो निरक्किय ति) प्राकृतत्वान्निराकृताऽपास्ता माया, यस्त्वं पुनः रक्षाहेतुप्राकाराट्टालकोच्छूलकाऽऽदिषु निकृतिहेतुकेष्वामोषकोत्सादनाऽऽदिषु च न मनो निहितवान् / तथाअहो ते लोभो वशीकृत इति नियन्त्रितः, यस्त्वं हिरण्याऽऽदि वर्द्धयित्वा गच्छति सहेतुकमभिहितोऽपि इच्छाया आकाशसमत्वमेवोदाहृतवान् , अतएव अहो ! तेतवाऽऽर्जवं विनयवत्त्वं, साधुशोभनम् , अहो! ते साधु मार्दवं मृदुत्वम् , अहो ! ते उत्तमा प्रधाना क्षान्तिः कोपोपशमलक्षणा, अहो ! ते मुक्तिर्निर्लोभता, उत्तमा, व्यत्ययनिर्देशस्त्वनानुपूर्वपि प्ररूपणाङ्गमितिकृत्वेति सूत्रार्थः / / 57 / / इत्थं गुणोपवर्णनद्वारेणाभिष्टुत्व संप्रति फलोपदर्शनद्वारेण प्रस्तुवन्नाहइह सि उत्तमो भंते ! पच्छा होहिसि उत्तमो। लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, सिद्धिं गच्छसि नीरओ।। 58 // इहास्मिन् जन्मनि, असि भवसि, उत्तमः प्रधानः उत्तमगुणान्वितत्वात्। (भंते ति) पूज्याभिधानम् / पश्चात् प्रेत्य परलोके भविष्यस्युत्तमः / कथमित्याह-लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य, उत्तमम्परिवर्ति लोकोत्तमम् / उत्तमंदर्वलाकोऽऽद्यपेक्षया प्रधानम् / अथवा(लोगुत्तममुत्तम त्ति) मकारोऽलाक्षणिकः, ततो लोकस्य लोके वा, उत्तमोत्तममतिशयप्रधानं लोकोत्तमम् तिष्ठन्त्यस्मिन्नातःपरं गच्छन्तीति स्थानं, किं तत् ? इत्याह-सिद्धिं मुक्तिं, गच्छसि सूत्रत्वाद् गमिष्यसि, निर्गतो रजसः कर्मणः, इति सूत्रार्थः / / 58 // उपसंहारमाहएवं अमित्थुणंतो, रायरिसिं उत्तमाएं सडाए। पायाहिणं करेंतो, पुणो पुणो वंदई सक्को / / 56 / / एवममुनोक्तन्यायेन, अभिष्टुवन् राजर्षिमुक्तरूपं, प्रक्रमान्नमिम् , उत्तमया प्रधानया, श्रद्धया भक्त्या, (पायाहिणं ति) प्रदक्षिणां, कुर्वन् विदधत्, पुनः पुनः वन्दते प्रणमति, शक्रः पुरन्दरः, इति सूत्रार्थः / / 56 / / अनन्तरं च यत्कृतवाँस्तदाहतो वदिऊण पाए, चकंकुसलक्खणे मुणिवरस्स / आगासेणुप्पइओ, ललियचवकुंडलतिरीडी।। 60 // ततस्तदनन्तरं, पाठान्तरतश्च-(स इति) शक्रः, वन्दित्वा, पादौ चरणी, चक्रं चाकु शश्च प्रतीतायेव, तत्प्रधानानि लक्षणानि
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________________ णमि 1816 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार ययोस्तौ, तथा मुनिवरस्य, नमिनाम्न इति प्रक्रमः / तत आकाशेन रेन्द्रमहाऋषी। कोटिद्वय्या महर्षीणां, सहितौ सिद्धिमीयतुः।।१।।" ती० नभसा, उदितिऊर्द्ध-देवलोकाभिमुखं, पतितो गत उत्पतितः, ललिते 1 कल्प। अस्यामवसर्पिण्या भरतक्षेत्रजे एकविंशे तीर्थकरे, परीषहोपचतेसविलासतया, चपलेच चञ्चलतया ललितचपलं, तथाविधे कुण्डले सर्गाऽऽदिनामनाद्" नमस्तु वा " इति विकल्पेनोपान्त्यस्याकाराकरणाऽऽभरणे यस्यासौ ललितचपलकुण्डलः, स चासौ तिरीटी च भावपक्षे नमिः / धर्म०२ अधि० / प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाल्लक्षणामुकुटवान् , ललितचपलकुण्डलतिरीटीति सूत्रार्थः / / 60 // न्तरसंभवाच" तत्थ सव्वे विपरीसहोक्सग्गा णामिया कसाय त्ति सामन्नं, स एवंविधः स्वयमिन्द्रेणाभिष्ट्रयमानः किमुत्कर्ष विसेसो पुण-" पणया पचंतनिवा, दंसिअमित्ता जिणम्मि तेण णमी।" _ मनस्याप्तवान् , उत न? इत्याह (51) आव० 2 अ० / तथा गर्भस्थे भगवति परचक्रनृपैरपि प्रणतिः नमी नमेइ अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोइओ। कृतेति नमिः / ध०२ अधि०। अनु०। ('तित्थयर' शब्दे सर्व वक्ष्यते) " नवरं नमीणं अरहा दसवाससहरसाइंसव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे० जाव चइऊण गेहं वइदेही, सामण्णे पज्जुवट्ठिए।।६१।। पहीणे। “स्था० 10 ठा०। कल्प०।" नमिस्सणं अरहओ एगूणचत्तानमिर्नमयति भावतः ग्रहीभवन्तमात्मानं स्वं तत्त्वभावनया विशेषतः लीसं आहोहियसया होत्था।" स०३६ सम०।" नमिस्सणं अरहओ प्रगुणयति तत्तच्छिक्षतां नयति। तत्कालापेक्षया लट् / कथंभूतः सन् ? एगचत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ होत्था।" स० 40 सम०। प्रव० / साक्षात् प्रत्यक्षतामुपगम्य, शक्रेणेन्द्रेण, (चोइओ त्ति) प्रेरितः, आ० चू०। अन्तकृद्दशानांप्रथमाऽऽध्ययनोक्तवक्तव्यताकेऽन्तकृत्साधौ, त्यक्त्याऽपहाय, गेहं गृहं, (वइदेहि त्ति) सूत्रत्वाद् विदेहनामा जनपदः, (परमस्यान्तकृद्दशासु नामापि न श्रूयते।) स्था० 10 ठा०। सोऽस्यास्तीति वैदेही, विदेहजनपदाधिपः, न त्वन्य एव कश्चिदिति णमिऊण अव्य०(नत्वा) प्रणम्येत्यर्थे, दश० 1 अ०।" णमिभावः / यद्वा-विदेहेषु भवा वैदेही मिथिलापुरी, सुप्व्यत्ययात् तां च, ऊणऽरहंताणं, सिद्धाण कम्नचक्कमुक्काणं।" नि० चू०१ उ० / पञ्चा० / त्यक्त्वेति संबन्धनीयम्। श्रामण्ये श्रमणभावेपर्युपस्थिते, उद्यतोऽभूदिति पं० सं०। शेषः / यद्वा-नमिर्नमयति संयमं प्रति प्रवणीकरोत्यात्मानम् , कीदृशः? शक्रेण प्रेरितः, कथम् ? साक्षात् स्वयं, न त्वन्यपार्श्वप्रहितसंदेशका णमिपत्वज्जा स्वी०(नमिप्रव्रज्या) नमेः प्रव्रज्याऽत्राभिधीयते इति ऽऽदिना, श्रामण्ये पर्युपस्थितः, न तु तत्प्रेरणतोऽपि धर्म प्रति नमिप्रव्रज्या / मिथिलाराजस्य नमेः प्रव्रज्यायां शक्रसंवादरूपे नवमे विप्लुतोऽभूदिति भावः / इति सूत्रार्थः // 61 // उत्तराध्ययने, उत्त०६ अ०। स०। (" णमि" शब्दे चैतद्-वक्तव्यतोक्ता) किमेष एवैवंविधः, उतान्येऽपि? इत्याह णमिय त्रि०(नमित) नम्र, जी० 3 प्रति०।" कुसुमफलभारन मियसाला। "जी० 3 प्रति०। नीचैर्भावं प्रापिते, जं० 1 वक्षः। एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। *नत्वा अव्य। प्रणम्येत्यर्थे, कर्म० 4 कर्म०। विणियदृति भोगेसु, जहा से नमी रायरिसी। 62 / त्ति बेमि।। णमियणमिय त्रि०(नमितनमित) देवर्षिवन्दिते, पं० सू०१सूत्र। (एवमिति) यथैतेन नमिना निश्चलत्वं कृतं, तथाऽन्येऽपि कुर्व-न्ति, उपलक्षणत्वादकार्युः, करिष्यन्ति च / न त्वयमेव, निदर्शनत णमिसाहु पुं०(नमिसाधु) थारापद्रपुरीयगच्छीयश्रीशान्तिभद्रसूरि-शिष्ये, यैवास्योपात्तत्वात् / कीदृशाः पुनरन्येऽप्येवं कुर्वन्ति ? संबुद्धा अनेन रुद्रटरचितकाव्यालङ्कारग्रन्थोपरि टिप्पणं कृतम्। अयं च 1125 मिथ्यात्वापगमतोऽवगतजीवाजीवाऽऽदितत्त्याः / पण्डिताः सुनि वि० वर्षे विद्यमान आसीत्। जै० इ०। श्चितशास्त्रार्थाः, प्रविचक्षणा अभ्यासातिशयतः क्रियां प्रति प्रावी- | णमुदय पु०(नमुदय) आजीविकोपासकभेदे, भ०७ श०१० उ०। ण्यवन्तः, तथाविधाश्च सन्तः किं विदधति ? विनिवर्तन्ते विशेषेण णमोकार पुं०(नमस्कार) नमस्करणं नमस्कारः। नमस्-कृ-घञ्।" तदनासेवनादुपरमन्ति, केभ्यः? (भोगेसु त्ति) भोगेभ्यः, किंवत् ? यथा नमस्कारपरस्परे द्वितीयस्य" ||811 / 62 / / अनयोद्वितीयस नमिर्नमिनामा राजर्षिनिश्चलो भूत्वा तेभ्यो निवृत्त इति / / यद्वा- स्यात ओत्वम् इत्योत्वमतः। प्रा 1 पाद।" कस्कयो म्नि"। उपदेशपरमेतद्, यत एवं कुर्वन्ति संबुद्धाः पण्डिताः प्रविक्षणाः / एवमिति / 2 / 4 / / इति नाम्नीति निर्देशान्न खः / प्रा 2 पाद / अजाकथन ? इत्याह-भोगेभ्यो विनिवर्तन्ते विशेषेणात्यन्तनिश्चलता- लिबन्धशिरोनमनाऽऽदिलक्षणे प्रणाममात्रे, कायेन प्रणमने, ज्ञा०१ श्रु० लक्षणेन, निवर्तन्ते, यथा स नमिनामा राजर्षिः, ततो भवद्भिरप्येवं- 1 अ०।१०। अर्हदादिप्रणतो, विशे०। सङ्घा०। विधरित्यमेव विधेयमिति सूत्रार्थः // 62 // इति ब्रवीमीति पूर्ववनयाश्च (1) नमस्कारस्य व्याख्यानं चोत्पन्नाऽऽद्यनुयोगद्वारैप्राग्वदिति / उत्त०६ अ०। सूत्र०। आ० चू। आव / ऋषभजिनसह विज्ञेयम् , तानि चामूनिप्रव्रजितस्य कच्छस्य सुते विनमिभ्रातरि, यो हि कुसुमोचयेन भगवन्तं प्रसाद्य धरणेन्द्राऽऽदेशाद् विद्याधर-द्धिसंप्राप्तो वैताढ्ये नगे दक्षिणश्रेण्यां उप्पत्ती निक्खेवो, पयं पयत्थो परूवणा वत्थु। राज्यं चकार / (आ० म०१ अ० 1 खण्ड। कल्प० / आ० चू०) ततो अक्खेव पसिद्धि कमो, पओयण फलं नमोक्कारो। 2805 / विजयप्रवृत्तेन भरतचक्रिणा पराजितो रत्नानि दत्त्वा क्षमयां बभूव। आव० उत्पदनमुत्पत्तिः-प्रसूतिः, सा चास्य य नमस्कारस्य नयानुसारेण 1 अ० / आ० म०। (शत्रुञ्जयेऽस्य प्रतिमाः)" आत्तासिना विनमिना, चिन्त्या। तथा-निक्षेपणं निक्षेपो न्यासः, स चास्य कार्यः / पद्यते नमिना च निषेवितः। स्वर्गाऽऽरोहणचैत्येच, श्रीनाभयेः प्रभासते॥१॥ गम्यतेऽर्थोऽने नेति पदं नामिकाऽऽदि, तचेह चिन्तनीयम् / "ती०१कल्प: स्वनामके खेचर," अस्मिन्नमिविनम्याख्यौ, खेच- | पदस्यार्थः पदार्थः, स चास्य वक्तव्यः / प्रकृष्टा रूपणा प्ररूपणा,
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________________ णमोकार 1820 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोक्कार सा चास्य द्विविधाऽऽदिभेदतो विधेया / वसन्त्यस्मिन् गुणा इति वस्तु, तच नमस्कारार्ह वाच्यम् / आक्षेपणमाक्षेपः पूर्वपक्षो वाच्यः। प्रसिद्धिस्तत्परिहाररूपा वक्तव्या / क्रमोऽर्हदादिरभिधेयः / प्रयोजनमर्हदादिक्रमस्य कारणं वाच्यम् / अथवा-येन प्रयुक्तः प्रवर्त्तते तन्नमस्कारस्य प्रयोजनमपवर्गाऽऽख्यं वाच्यम्। तथा-फलं च नमस्करणाऽऽदिक्रियाऽनन्तरभावि स्वर्गाऽऽदिकं निरूपणीयम्। अन्ये तु व्यत्ययेन प्रयोजनफलयोरथ प्रतिपादयन्ति-(नमोक्कारोक्ति) नमस्कारः खल्वेभिरिश्चिन्तनीयः / इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः // 2805 // (2) अथ नियुक्तिकार ण्वोत्पत्तिद्वारं विस्तरेणाऽऽहउप्पण्णाऽणुप्पण्णो, इत्थ नया णेगमस्सऽणुप्पण्णो। सेसाणं उप्पण्णो, जइ कत्तो तिविहसामित्ता!। 2806 / / उत्पन्नश्वासावनुत्पन्नश्चेत्युत्पन्नानुत्पन्नो नमस्कारो मन्तव्यः / आह - कथमेक एवोत्पन्नोऽनुत्पन्नश्च भवति, विरोधाद् ? इत्याह-(इत्थ इत्यादि) अत्र नयाः प्रवर्तन्ते ? ते च नैगमाऽऽदयः सप्त। नैगमो द्विविधः-सर्वसंग्राही, देशसंग्राही च / तत्राऽऽदिनैगमस्य सामान्यमात्रावलम्बित्वात्, तस्य चोत्पादव्ययरहितत्वाद् नमस्कारस्यापि तदन्तर्गतत्वादनुत्पन्नः। (सेसाचं उप्पण्णो त्ति) शेषा विशेषग्राहिणः, तेषां शेषाणां विशेषग्राहित्वात् , तस्य चोत्पादव्ययवत्त्वाद् , उत्पादव्ययशून्यस्य वान्धयाऽऽदिवदवस्तुत्वात्, नम-स्कारस्य तु वस्तुत्वादुत्पन्न इति / (जइ कतो त्ति) यद्युत्पन्नः, कुतः ? इत्याह-(तिविहसामित्ता) त्रिविधं च तत्स्वामित्वं चेति समासः / तरमात्त्रिविधस्वामित्वात् त्रिविधस्वामिभावात्त्रिविधकारणादित्यर्थः / / 2506 // तदेव त्रिविधस्वामित्वं दर्शयतिसमुठाणवायणाल-द्धिओ य पढमे नयत्तिए तिविहं। उज्जुसुयपढमवज्जं, सेसनया लद्धिमिच्छंति॥२८०७।। (समुठाणेत्यादि) समुत्थानतः, वाचनातः, लब्धितश्च / ' नमस्कार उत्पद्यते ' इति वाक्यशेषः / तत्र सम्यक् सङ्गतं वोत्तिष्ठतेऽस्मादिति समुत्थानम् निमित्तमित्यर्थः / किं पुनस्तदिह ? इति / उच्यतेअन्यस्याश्रुतत्वात् , तदाधारतया प्रत्यासन्नत्वावेहोऽत्र परिगृह्यते; देहो हि नमस्कारकारणम् , तद्भावभावित्वाद् , बीजवदड्कुरस्य, इत्येवं देहलक्षणात् समुत्थानाद् नमस्कार उत्पद्यते।तथा-वचनं वाचना गुरुभ्यः श्रवणमधिगम इत्यर्थः, तस्याश्च वाचनायाः सकाशाद् नमस्कारो जायते। तथा-लब्धिस्तदावरणक्षयोपशमलक्षणा, तस्याश्चामुपजायते। इत्येतत्रिविधं कारणं, प्रथमे नैगमसंग्रहव्यवहारलक्षणे त्रिके, नैगमाऽऽदिनयत्रयमतेनावगन्तव्यमित्यर्थः। तथा-ऋजुसूत्रस्य प्रथमवर्जवाचनालब्धिद्वय नमस्कारस्य कारणम् , तच्छून्यस्य जन्तोदेहमात्रसद्भावेऽपि नमस्काराऽऽख्यकार्योत्पत्तिव्यभिचारात्। शेषनयास्तुशब्दाऽऽदयो लब्धिमेवैका नमस्कारकारणत्वेनेच्छन्ति, वाचनाया अपिलब्धिशून्येष्वभव्याऽऽदिषु नमस्काराजनकत्वात् , लब्धियुक्तेषु तु प्रत्येकबुद्धाऽऽदिषु तदभावेऽपि तत्सद्भावतो व्यभिचारित्वात्। इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः / / 2807 / / "उप्पणाऽणुप्पण्णो " (2806) इत्यत्र भाष्यम्सत्तामेत्तग्गाही, जेणाऽऽइम-नेगमो तओ तस्स। उप्पज्जइ नाभूयं, भूयं न य नासए वत्थु / / 2808 // येन यस्मात्कारणात् , आद्यनैगमः सत्तामात्रग्राही, ततस्तस्याऽऽद्यनैगमस्य मतेन सर्व वस्तु नाभूतं नाऽविद्यमानं, किं तु सर्वदैव सर्व सदेव। ततः किम् ? इत्याह-(उप्पाइन) इत्येवमिहापि नञ् संबध्यते, आवृत्तिव्याख्यानात्। इदमुक्तं भवति-यत्सर्वदैव सत्, तन्नोत्पद्यते। यथानमः, तस्याप्युत्पादाभ्युपगम उत्पन्नस्याप्युत्पादप्रसङ्गेनानवस्थाप्राप्तेः / तथा-यद् भूतं विद्यमानं सर्वदैव सद्वस्तु, तन्न नश्यति, सर्वथा सर्वदैव सतो विनाशायोगादिति // 2808 / / तो तस्स नमोकारो, वत्थुत्तणओ नहं व सो निचो। संतं पिन तं सव्वो, मुणइ सरूवं व वरणाओ।। 2806|| यत एवम् , ततस्तस्याऽऽद्यनैगमस्य, स नमस्कारो नित्य एव, वस्तुत्वात् , नभोवत् , नोत्पद्यते, नाऽपि विनश्यतीत्यर्थः / अत एवैतन्मतेनानुत्पन्नोऽसावभिधीयते। आह-ननु यदि नमस्कारः सर्वदैव संस्तदा मिथ्यादृष्ट्यवस्थायां किमित्यसौ न लक्ष्यते ? इत्याह-(संत पीत्यादि) सर्वावस्थासु सन्तमपि नमस्कारमति-शयज्ञानिनं विहाय न सर्वोऽपि ' मुणति -- जानातीति प्रतिज्ञा ! (वरणाओ त्ति) आवरणकर्मसद्भावादिति हेतुः, आत्मनः स्वरूपवदिति दृष्टान्तः / इदमुक्त भवति-मिथ्यादृष्ट्यवस्थायामपि द्रव्यरूपतया नमस्कारोऽस्ति। सर्वथाऽसतः खरविषाणस्येव पश्चादप्युत्पादायोगात्, केवलं ज्ञानाऽऽवरणेनाऽऽवृतत्वाद् छद्मस्थजन्तवस्तद्रूपतया सन्तमपि तं नमस्कारं न लक्षयन्ति, यथाऽऽत्मनः स्वरूपम् / न हि आत्मनः स्वरूपं नास्ति, केवलममूर्तत्वात् सर्वदा सदपि तत्केवलिनं विहाय न कोऽपि लक्षयति। एवं नमस्कारोऽपि। इत्यतः सर्वदैव सत्त्वादसावादिनैगमाभिप्रायेणानुत्पन्न उच्यत इति / / 2806 / / " सेसाणं उप्पण्णो " (2806) इत्येतद्गाथावयवं व्याचिख्यासुराह- . सेसमयं नत्थितओ-ऽणुप्पायविणासओ खपुप्फ व। जमिहऽत्थि तदुप्पाय-व्वयधुवधम्मं जहा कुंभो / / 2810 / / शेषाणां विशेषवादिनयानाम् , एतन्मतम्-तकोऽसौ पराभिमतो नमस्कारो नास्ति, इति प्रतिज्ञा। अनुत्पादविनाशाद्-उत्पादविनाशाभावादिति हेतुः / खपुष्पवदिति दृष्टान्तः / इह यदस्ति तत्सर्वमुत्पादव्ययधुवधर्मकम् , यथा कुम्भः, यस्य पुनरुत्पादाऽऽ-दयो न सन्ति, तत्सदपि न भवति; यथा खरविषाणम् , उत्पाद-विनाशशून्यश्च परैर्नमस्कारोऽभ्युपगम्यते ; ततो नास्त्यसावपि / / 2810 / / यदुक्तम्-आवरणात्सतोऽप्यस्याग्रहणम् , तत्राऽऽहआवरणादग्गणं, नाभावाउ त्ति तत्थ को हेऊ? भत्तीऐं नमोकारो, कहमत्थि य सा नयग्गहणं / / 2811 // नन्यावरणाद्ज्ञानाऽऽवरणोदयात् सन्नपि नमस्कारः सर्वेण न गृह्यते, न पुनरभावादित्यत्र को हेतुः-किं नियामकम् ? न किञ्चिदित्यर्थः / अभावादेवायं सर्वेण सर्वदा न गृह्यते, न पुनरावरणोदयादिति शेषनयाभिप्रायः। किञ्चतीर्थकराऽऽदिषु भक्तिनमस्कारोऽभिधीयते, सा चसर्वदाऽस्ति, नच मिथ्यादृष्ट्यवस्थायां गृह्यत इति परस्परव्याहतमिदम्। तस्मादुत्पन्नोऽसौ गृह्यते, अनुत्पन्नस्तु न गृह्यते, इत्येतदेव सुन्दरम् , किमावरणाऽऽदिकल्पनया ? इत्यभिप्रायः // 2811 //
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________________ णमोक्कार 1821 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमोकार अथाऽऽद्यनैगमनयमतमाशङ्कय परिहरन्नाहअह परसंतो त्ति तओ, संतो किं नाम कस्स नासंतं ? अहणाऽऽइव्ववएसो, नेवं न य परधणाफलया।। 2812 / / / अथैवं ब्रूषे-(परसंतो त्ति तओ संतो ति) परसन्ताने सर्वदेवास्ति नमस्कारः, नानाजीवेषु तस्य सर्वकालमध्यवच्छेदात् / योऽयमत्र नोपलभ्यते, तत्राप्यसौ (संतो त्ति) सन्नुच्यते। अत्रोत्तरमाह-(किं नाम कस्सनासंतं? ति) यदि हि अन्यसन्तानवर्त्यपि वस्त्यन्यस्य सदुच्यते, तर्हि किं नाम वस्तु धनाऽऽदिकं कस्य नासद् ? अपि तु सर्व सर्वस्यासत्प्राप्नोति / अस्य चोपलक्षणत्वात्- ' इत्थं सर्व सर्वस्य सत्प्राप्नोति ' इत्यपि द्रष्टव्यम् / ततश्चैवम्-ईश्वरधनेन दरिद्राणामधनानामपि धनवत्त्वादधनव्यपदेशः कस्यापि न स्यात् / न चेत्थं परधनस्याफलता भवेत् , अन्यधनस्यान्यत्रापि सत्वात् , तथा च तत्फलस्यापि सद्भावादिति॥२८१२॥ ततः किं भवेद् ? इत्याहसव्वधणं सामन्नं, पावइ भत्तीफलं व सेसं च / किरियाफलमेवं चा-ऽकयागमो कयविणासो य / / 2813 // एवं सति यदेकस्येश्वरस्य संबन्धि तत्सर्वेषां दरिद्राणामपि धनं सामान्य साधारणं प्राप्नोति / यद्वा-यदेकस्य नमस्कारवतोऽहंदादिभक्तिफलं, तमिथ्यादृशामपि नमस्कारशून्यानां सामान्य प्राप्नोति; तथा शेषं च यद्दान-ध्याना-हिंसा-ऽमृषावादाऽऽदिक्रियाफलं, तत्सर्वेषां सामान्य प्राप्नोति / एवं च सत्यकृतस्यापि पुण्य-पाप-सुखदुःखाऽऽदेरागमः, कृतस्यापि च पुण्यपापाऽऽदेर्विनाशः स्यादिति / / 2813 / / पुनरपि नैगममतमाशय परिजिहीर्षवः शेषनयाः प्राऽऽहु:अह भत्तिमंतसंताणओ स नियो त्ति कहमणुप्पण्णो ? नणु संताणित्तणओ, स होइ बीयंकुराइ व्व / / 2814 // अथानुत्पन्ननमस्कारवादिन् ! एवं ब्रूषेभक्तिमतां सम्यग्दृष्टीनां यः सन्तानः प्रवाहः, तस्मात्तमाश्रित्य, नित्यो नमस्कारः / सम्यग्दृष्टीना हि सन्तानो न कदाचिद् व्यवच्छिद्यते। अव्यवच्छिन्नत्वाच नित्योऽसौ, यच नित्यं तदाकाशवन्नोत्पद्यते / ततः किलानुत्पन्नो नमस्कार इति परस्याऽऽकूतम् / अत्रोत्तरमाह-(कहमणुपण्णो त्ति) नन्वेवमपि। कथमनुत्पन्नो नमस्कारः? न कथञ्चिदित्यर्थः / कुतः ? इत्याह-(नणु इत्यादि) ननुयद्यपि सम्यग्दृष्टीनां सन्तानो नित्यः,तथाऽपि सम्यग्दृष्टयः सन्तानिनो नित्वा एव, मनुष्याऽऽदिभावेन तेषामुत्पादविनाशादिति / सम्यग्दृष्ट्यव्यति-रेकाच नमस्कारोऽपि सन्तानी, सन्तानित्वाच (स होइ त्ति) स नमस्कारो भवत्युत्पद्यते, बीजाकुराऽऽदिसन्तानिवदिति। इह यः सन्तानी स उत्पद्यते, यथा बीजाकुराऽऽदिः, सम्यग्दृष्टि - | सन्तान्यव्यतिरेकात् , सन्तानी च नमस्कार इति उत्पद्यत एव / ततः कथमनुत्पन्नोऽसौ ? इति // 2814 // किञ्चहोजाहि नमोकारो, नाणं सहो व कायकिरिया वा। अहवा तस्संजोगो, न सव्वहा सो अणुप्पत्ती।। 2815 / / नमस्कारो हि ज्ञानं वा भवेतु," नमो अरिहंताणं " इत्यादि-शब्दो वा | शिरोनमनकरकुड् मलमीलनविवक्षितावयवसंकोचनाऽऽदिलक्षणा कायक्रिया वा, द्विकाऽऽदिको वा ज्ञानाऽऽदिसंयोगो भवेदिति चत्वारः पक्षाः। किञ्चातः ? इत्याह-(नसव्वहा सो अणुप्पत्ति त्ति) सर्वथा सर्वैरपि प्रकारै यमनुत्पत्ति त्तिर्नानुत्पन्नो घटत इत्यर्थः / ज्ञानाऽऽदीना चतुर्णामप्युत्पादाऽऽदिधर्मकत्वादिति / / 2815 // अथ नैगमः प्राऽऽहननु ज्ञानाऽऽदीनामुत्पादाऽऽदिधर्मकत्वमसिद्ध, नित्यत्वाद् , आकाशवत्। तत्र ज्ञानस्य तावन्नित्यत्वं साधयन्नाहनणु जीवाओऽणनं, नाणं णिचो य सो तओ तं पि। निघुग्घाडो य सुए, जमक्खराणंतभागो त्ति / / 2816 / / ननु जीवादनन्यदभिन्नं ज्ञानं, नित्यश्वासौ जीवः, ततस्तदव्यतिरेकात्तदपि, 'नित्यम् ' इति शेषः / ततो नोत्पादाऽऽदिधर्मकं ज्ञानम् , नित्यत्वात् नभोवदिति भावः। एवमुत्तरत्रापि भावार्थो वक्तव्यः। किञ्च।' सव्वजीवाणं पिय णं अक्खरस्स अणंतभागो निचुग्धाडियओ" इति वचनाद्न क्षरति न विनश्यतीत्यक्षरं केवल-ज्ञानम् , तस्यानन्तभागो नित्योद्घाटो नित्यावस्थितोऽनावृत एव सर्वदा तिष्ठतीति यद्यस्माच्छुतेऽभिहितम् , तस्माच नित्यं ज्ञानं, नित्यानावृतत्वाद् , नभोवदिति / / 2816 // अहवा अरूवगुणओ, नाणं निचं नहावगाहो व्व। लयणप्पयासपरिणामओय सव्वं जहा अणवो।। 2817 // अथवा-नित्यं ज्ञानम् , अरूपद्रव्यगुणत्वाद् , यथा नभोद्रव्यस्यावगाहगुणः / अथवा-सर्वमपि ज्ञानशब्दाऽऽदिकं नित्यं, लयनप्रकाशपरिणामत्वात् , तिरोभावाऽऽविर्भावधर्मकत्वादित्यर्थः, यथा परमाणव इति / / 2817 // अथ विशेषतोऽपिशब्दस्य नित्यत्वं साधयन्नाहदरिसणपरत्थयाओ, अइंदियत्थत्तओऽणवत्थाओ। संबंधनिच्चयाओ, सद्दावत्थाणमणुमे।। 2818 / / इह शब्दस्यावस्थानं सदाऽवस्थितत्वं नित्यत्वमनुमेयं साध्यम्। (दरिसणपरत्थयाओ त्ति) दर्शनं प्रकटमं शब्दस्योचारणं व्यापारणं प्रयोग इति यावत् , तस्य दर्शनस्य शब्दप्रयोगस्य परार्थत्वं परप्रत्यायकत्वं, तस्माद्दर्शनपरार्थत्वादिति हेतुः / इदमुक्तं भवति-न खलु वक्तृभिः शब्दोत्पादनमात्रार्थमेव शब्दप्रयोगः क्रियते, किंतु परार्थत्वात् परप्रत्यायननिमित्तत्वादिति; यच परार्थ व्यापार्यते तत् तद्व्यापारकालात् प्रागप्यस्ति, यथा-वृक्षाऽऽदिच्छेदनक्रियानिमित्तं व्यापार्यमाणः कुठारः छेदनक्रियाव्यापारकालात्प्रागप्वस्ति; ततः शब्दः सदाऽऽवस्थितत्वान्नित्यः सिद्धः। अत्रैव द्वितीय हेतुमाह-(अइंदियत्थत्तओ त्ति) अतीन्द्रिया मेरुस्वर्गाऽऽदयोऽर्था अभिधेयत्वेन यस्यासावतीन्द्रियार्थः, तद्भावोऽतीन्द्रियार्थत्वं, तस्मादतीन्द्रियार्थत्वान्नित्यः शब्दः, केवलज्ञानवत्। इदमुक्त भवति-ये इन्द्रियग्राह्या घटाऽऽदयोऽर्थाः, तेषु संकेतवशात्कृतक एव किल वाच्यवाचकत्वसंबन्धः, अतस्तस्माच्छब्दस्य नित्यत्वं न सिध्यति; ये त्वतीन्द्रिया मेरुस्वर्गाऽऽदयोऽर्थाः, तेषामतीन्द्रियत्वेनैव किलसंकेतः कर्तुन शक्यते, अतोऽनादिकालससिद्धोऽकृतक एव शब्दस्य तेषु वाच्यवाचकभावसंबन्धः / अतोऽतीन्द्रियार्थः सहानादिकालसंसिद्धादकृतकत्वेन नित्याद्
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________________ णमोकार 1822 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार लताऽऽदिगुणवद् एवं जीवगुणा अपि नमस्काराऽऽदय उत्पादाऽऽदिधर्मका एव, गुणत्वात् , पत्रधर्मवत् इत्यपि त्वदुक्तविपरीतं ब्रुवतां को दोषः ? न कश्चिदिति / / 2821 // वाच्यवाचकभावसंबन्धात्सिद्ध किलशब्दस्य नित्यत्वम् / न हि स्वयमनित्यस्यानादिकालसंसिद्धैर्नित्यैर्मेर्वादिभिरर्थः सह वाच्यवाचकभावसंबन्धः सिद्धयतीति भावः / तर्हि घटाऽऽदिवाचकशब्दानां नित्यत्वे सिद्धे तेषामपि तत्साध्यते; तद्यथा-नित्या घटाऽऽदिवाचकशब्दाः, शब्दत्वाद् , मेर्वादिशब्दवदिति। अत्रैव तृतीयहेतुमाह-(अणवत्थाओ त्ति) अयं च विपर्यये बाधक एव हेतुः / मूलहेतुस्त्वित्थं द्रष्टव्यःनित्याः सर्वेऽपि घटाऽऽदि-वाचकाः शब्दाः, अनादिकालात् तद्वाचकत्वेन तेषां सिद्धत्वाद् , इह यदनादिकालसिद्धं तन्नित्यं दृष्टम्, यथा चन्द्रार्क विमानाऽऽदयः, अनादिकालसिद्धाश्च घटाऽऽदिवाचकशब्दाः, तस्मान्नित्या इति / ननु साङ्केतिका एव घटाऽऽदिवाचकशब्दास्ततोऽसिद्धममीषामनादिकालसिद्धत्वमिति चेत् / तदयुक्तम् / सङ्केतस्य कर्तुमशक्यत्वात् / कुतः ? इत्याहअनवस्थातः, अनवस्थाप्रसङ्गोऽत्र बाधक प्रमाणमित्यर्थः / तथाहि-येन शब्देन सङ्केत क्रियते, तत्रापि सङ्केतकारकं शब्दान्तरमपेक्षणीयम् , तत्राप्यन्यत् , पुनस्तत्राप्यपरमिति, एवमनवस्थाप्रसङ्गतोऽशक्यं सङ्के तकरणम्। अथपर्यन्ते कश्चिदकृतसङ्केतोऽपिध्वनिरिष्यते, तर्हि प्राक्तना अपि सर्व ध्वनयोऽकृतसङ्केताः, शब्दत्वात्, पर्यन्तध्वनिवत्, इत्यसाडेतिकत्वात्सिद्धं घटाऽऽदिवाचकशब्दानामनादिकालसिद्धत्वमिति। चतुर्थं हेतुमाह-(संबंधनिच्चयाओत्ति) नित्यः शब्दः उक्तन्यायेन तस्य घटाऽऽदिभिः सह वाच्यवाचकभावसंबन्धस्य नित्यत्वात : तस्यानित्यत्वे वाच्यवाचकभावसंबन्धनित्यत्वानुपपत्तेरिति / इत्थं च ज्ञानाऽऽदीना नित्यत्वे सिद्धे सिद्धोऽनुत्पन्नस्तदात्मको नमस्कार इत्याद्यनगमाभिप्राय इति / / 2818 // अथ शेषनया एतैरेव जीवानन्यत्वाऽऽदिहेतुभिर्ज्ञानाऽऽदी नामनित्यत्वं साधयन्तिजेणं चिय जीवाओ-ऽणन्नं तेणेव नाणमुप्पाइ। उप्पजइ जं जीवो, बहुहा देवाऽऽइभावेण / / 2816 / / येनैव कारणेन जीवादनन्यदभिन्नं ज्ञानं, तेनैव तदुत्पद्यते, यद्यस्माद्, बहुधा जीवो देवाऽऽदिभावनोत्पद्यते, तदुत्पादे च ज्ञानस्याप्युत्पादादिति // 2816 // यदुक्तम्-" निघुग्घाडोय सुए"(२८१६) इति तत्राऽऽहअविसिक्खरमागो, सुत्तेऽमिहिओ न सम्मनाणं ति। कोऽवसरो तस्स इहं, सम्मंनाणाहिगारम्मि? / / 2820 // अक्षरस्य योऽनन्ततमो भागो नित्योद्धाटः श्रुतेऽभिहितः, सोऽविशिष्ट एव सम्यरमिथ्याविशेषरहित एवोक्तः, न तु सम्यग्ज्ञानरूपः / ततः सम्यग्ज्ञानविचारेऽत्र प्रस्तुते कस्तस्याधिकारः ? इदमुक्तं भवतियद्यविशिष्टज्ञानरूपोऽक्षरानन्तभागो नित्योद्घाटत्वेन नित्यः, तर्हि नमस्काररूपस्य सम्यग्ज्ञानस्य नित्यत्वे किमायातम् ? अतो यत्किञ्चिदेतदिति // 2820 // यदुक्तम्-" अहवा अरूवगुणओ नाणं निचं " (2817) इत्यादि तत्राऽऽहअवगाहणाऽऽदओ नणु, गुणत्तओ चेव पत्तधम्म व्व। उप्पायाऽऽइसहावा, तह जीवगुणा वि को दोसो ? // 2821 / / नत्यवगाहनाऽऽदय उत्पादाऽऽदिधर्मका एव, गुणत्वात्, पत्रनी- | अवगाढारं च विणा, कुओऽवगाहो त्ति तेण संजोगो ? उप्पाई सोऽवस्संगचुवगाराऽऽदओ चेवं / / 2822 / / अवगाढारं चावगाहकं जीव-परमाण्वादिक विना विचार्यमाणः कुतोऽन्योऽवगाह इति वक्तव्यम् ? तेनावगाहन नभसा सहावगाहकस्य जीवाऽऽदेः, तेन चावगाहकेन जीवाऽऽदिना सहावगाह्यस्य नभसः संयोगोऽवगाह इति चेत्। ननु यद्येवं, जितमस्माभिः, यतोऽवश्यमुत्पादी असौ, संयोगत्वात्, व्यङ्गुलाऽऽदिसंयोगवदिति / एवं गतेरुपकारो गत्युपकारः, स आदिर्येषां स्थित्युपकाराऽऽदीनां ते गत्युपकाराऽऽदयो धर्मास्तिकायाऽऽदिगुणाः, तेऽप्येवमेवोत्पादवन्तो द्रष्टव्याः, गुणत्वाद्, अवगाहगुणवदिति // 2822 / / अपि च, आकाशपरमाण्वादिदृष्टान्ततो भवता नित्यत्वं साध्यते, तचाऽऽकाशाऽऽदीनां नित्यत्वम स्माकमसिद्धम् कुतः? इत्याहनय पज्जवओ भिन्नं, दव्वमिहेगंतओ जओ तेण। तन्नासम्मि कहं वा, नहाऽऽदओ सव्वहा निच्चा ? // 2823 / / नच पर्यायाघटाऽऽदिसंयोगवर्णगन्धाऽऽदेः सकाशाद्, यतोयस्माद्, द्रव्यमेकान्ततो भिन्नम् , किन्त्वभिन्नमपि तत्तस्मादिष्यते, तेन तस्माकारणात् , तन्नाशे पर्यायविनाशे, कथं वा केन वा प्रकारेण, नभःपरमाण्वादयः सर्वथा नित्याः ? कथञ्चिद्यदि नित्या भवन्ति, तर्हि भवन्तु / यत्तु सर्वथा नित्यत्वं, तत्तेषां न घटते, पर्यायविनाशे तद्रूपतया तेषामपि विनाशादिति भावः / तत एकान्तनित्यत्वे साध्ये नैतेषां दृष्टान्तत्वं युक्तमिति / / 2823 / / यदुक्तम्-" दरिसणपरत्थयाओ " (2818) इत्यादि, तत्र दूषणातिदेशमाहनिचत्तसाहणाणिय, सहस्सासिद्धयाऽऽइदुट्ठाई। संभवओ वचाई, पक्खोदाहरणदोसा य॥२८२४ / / दर्शनपरार्थत्वाऽऽदीनि शब्दस्य नित्यत्वसाधनानि यानि उक्ता-नि, तानि न्यायमार्गानुसारिभिः स्वयमेवाभ्यूह्य यथासंभवमसिद्धताऽऽदिदोषदुष्टानि वाच्यानि। तथाहि-दर्शनपरार्थत्वादित्यसिद्धो हेतुः, स्वावबोधार्थमपि क्वचिच्छब्दप्रयोगदर्शनात्: तथाऽनैकान्तिकश्च, विपर्यय बाधकप्रमाणाभावात्। विरुद्धोवा, प्रयोगानन्तरमेव विशरारुत्वदर्शनात्; कृतकत्वाद्वा शब्देऽनित्यत्वस्यैव दर्शनात् / इत्यादिदूषणानि सर्वत्राभ्यूह्य वक्तव्यानि।तथा-पक्षोदाहरणदोषाश्च वाच्याः, वयं तु साक्षान्न बमः,ग्रन्थविस्तरभयात्। तत्र प्रत्यक्षाऽऽदिबाधितः पक्षः, साध्यसाधनविकलमुदाहरणम्। इत्यादिदोषाः स्वयमेव द्रष्टव्या इति // 2824 // तदेवं नैगमोक्तं दूषयित्वा स्वपक्षसिध्यर्थं शेषनयाः प्राऽऽहुःधणिरुप्पाई इंदिय-गज्झत्ताओ पयत्तजत्ताओ। पुग्गलसंभूईओ, पञ्चयभेए य भेयाओ / / 2825 / / उप्पाइ नाणमिटुं, निमित्तसब्भावओ जहा कुंभो। तह सद्दकायकिरिया, तस्संजोगो य जोऽभिमओ // 2826||
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________________ णमोकार 1823 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोक्कार उत्पद्यत इत्युत्पादीध्वनिरिति प्रतिज्ञा, इन्द्रियग्राह्यत्वात् ,घटवदिति। तथा-प्रयत्नाजायत इति प्रयत्नजः, तद्भावः प्रयत्नजत्वं, तस्मात्प्रयत्नजत्वात् / तथा-पुद्गलेभ्यः संभूतेः / तथा-ताल्वादिप्रत्ययभेदभेदित्वादुत्पादी शब्दः घटवदिति सर्वत्र द्रष्टव्यम् / यश्चोत्पादी स विनाशित्वादनित्य इति सिद्धमेवेति / / 2825 // तथा-उत्पादि ज्ञान नमस्कारज्ञानमिष्ट मिति प्रतिज्ञा, निमित्तसद्- भावादिति हेतुः, जिनाऽऽदिविषयाजायमानत्वादित्यर्थः / यथा कुम्भ इति दृष्टान्तः / न केवलं ज्ञानं, तथा शब्दशिरोनमनाऽऽदिका कायक्रिया, तेषां च ज्ञानाऽऽदीनां यो द्विकाऽऽदिसंयोगो नित्यत्वेनाभिमतः परस्य, एतत्सर्वमुत्पादि, निजनिजनिमित्ताज्जायमानत्वात् , यथा कुम्भः। ततो ज्ञानाऽऽद्यात्मको नमस्कार उत्पन्न इति सिद्धम् / तदेवं" सेसाणं उप्पण्णो" (2806) इति व्याख्या- तम्।। 2826 // " जइ कत्तो तिविहसामित्ता?" (2806) इत्येतद् व्याचिख्या- 1 सुराहउप्पत्तिमओऽवस्सं, निमित्तमस्स उणयत्तियं तिविहं। इच्छइ णिमित्तमेत्तो, जमण्णहा नत्थि संभूई / / 2827 // यदि नामोत्पन्नो नमस्कारस्ततः किम् ? अत्रोच्यते-उत्पत्तिमतश्च वस्तुनोऽवश्यं निमित्तम् , 'अस्ति ' इति क्रियाऽध्याहारः / तथा चसत्यस्य नमस्कारस्योत्पत्तिमत्त्वादविशुद्धनैगमसंग्रहव्यवहारलक्षणं प्रथमनयत्रिक समुत्थानवाचनालब्धिस्वरूपं त्रिविधं निमित्तमिच्छति। कुतः? इत्याह-(एत्तो इत्यादि) यद्यस्माद्यतस्विविधाद् निमित्तादन्यथाऽन्येन प्रकारेण नमस्कारस्य नास्ति संभूतिरुत्पत्तिरिति / / 2827 / / तत्र समुत्थानलक्षणं निमित्तं व्याचिख्यासुराहदेहसमुत्थाणं चिय, हेऊ भवपच्चयावहिस्सेव। पुव्वुप्पण्णस्स वि से, इहभवभावो समुत्थाणं / / 2828 / / सम्यक् सङ्गतं वा उत्तिष्ठति जायतेऽस्मादिति समुत्थानम्, देह एव समुत्थानं, तदेव तावद्धेतुर्निमित्तम् , ' से ' तस्य नमस्कारस्य। आहयदाऽयमन्यभव एव स्वाऽऽवरणक्षयादुत्पन्नः स्यात्तदा कथमय देहो हेतुः ? इत्याशङ्कयाऽऽह-(पुव्वुप्पन्नस्स विसे इहभवभावो समुत्थाणं ति) प्राग्भवे उत्पन्नस्यापि नमस्कारस्येहभवभाव इहभवशरीरं समुत्थानं कारणं भवति, एतद्भावभावित्वात्तस्य। दृष्टान्तमाह-(भवपच्चयावहिस्सेव त्ति) यथा हि भवप्रत्ययोऽवधिस्तीर्थकराऽऽदिसंबन्धी प्रागुत्पन्नोऽप्येतद्भवशरीरमन्तरेण न भवति / ततश्चेहभवशरीरं तस्य समुत्थानमेवं नमस्कारस्यापीति / एतदुक्तं भवति-यथा पूर्वोत्पन्ना अपि घटाऽऽदयो दीपेनाभिव्यज्यन्ते, तथा पूर्वोत्पन्नोऽपि नमस्कार इहभवदेहेनाभि-- व्यज्यते, इत्यसौ तस्य निमित्तं व्यपदिश्यत इति // 2828 / / अत्र परमतमाशक्य परिहरन्नाहअण्णे सयमुत्थाणं,सविरियमण्णोवगारविमुहं ति। तदजुत्तं तदवत्थे, चुयलद्धे लद्धिओ णग्नं / / 2826 / / अन्ये सूरयः स्वकमुत्थानं स्वमुत्थानं, स्ववीर्यमित्याचक्षते। कुतः? इत्याह-(अण्णोवगारविमुहं ति) अन्येनापान्तरालवर्तिना कारणान्तरेण | कृत उपकारोऽन्योपकारः, तद्विमुखं तन्निरपेक्षं, यतोऽनन्तरकारण मित्यर्थः, तस्मादन्योपकारविमुखत्वादनन्तर-कारणत्वात्स्ववीर्यनमस्कारस्य समुत्थानं कारणमिति / एतन्निरा-सार्थमाह-(तदजुत्तं ति) तवीर्यमयुक्तम् नमस्कारानन्तरकारणतया व्यभिचारित्वात्। कुतः? इत्याह-(तदवत्थे इत्यादि) यतस्तदवस्थेऽपि विद्यमाने वीर्ये कस्यापि लब्धोऽपि नमस्कारः स्वाऽऽवरणोदयात्पुनरपि च्यवते भ्रस्यति च्युतोऽपि कदाचित् तदावरणक्षयोपशमात्पुनरपि लभ्यते / तत एवं तदवस्थेऽपि वीर्ये च्युतलब्धे नमस्कारे सति विज्ञायतेलब्धितो नान्यद्वीर्य किमपि नमस्कारकारणमस्ति, व्यभिचारित्वात् / व्यभिचारित्वं च नमस्कारस्य तदन्वयव्यतिरेकाननुविधायित्वात् / लब्धिस्तु तस्याव्यभिचारि कारणम् , तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वादिति / / 2826 / / तदेवं समुत्थानं व्याख्याय वाचनालब्धिस्वरूपं __व्याचिख्यासुराहपरओ सवणमहिगमो, परोवएसो त्ति वायणाऽभिमया। लद्धीय तयाऽऽवरण-क्ख ओवसमओ सयं लाभो / / 2830 / / परतो गुरुभ्यो यच्छ्रवणम् , तथा-अधिगमः, परोपदेशश्च, सा वाचनाऽभिधीयते / लब्धिस्तु का ? इत्याह-परतो वाचनामन्तरेण नमस्कारस्य यः स्वयं लाभः / कुतः पुनर्या लब्धिः? इत्याह-तदावरणक्षयोपशमात्-नमस्काराऽऽवरणकर्मक्षयोपशमादित्यर्थः / आहननु तदावरणक्षयोपशम एव लब्धिरन्यत्र प्रसिद्धा, तत् कथमिह तत्कार्यभूतो नमस्कारलाभो लब्धित्वेनोच्यते, नमस्कारकारणस्यैवेह चिन्तयितुं प्रस्तुतत्वात् यथोक्ताया एव च लब्धेर्नमस्कारकारणत्वात् ? सत्यम् , किन्तु तत्कार्यभूतोऽपि नमस्कारलाभोऽत्र लब्धिरुक्ता, कारणे कार्योपचारादिति / एतदविशुद्धनगमसंग्रहव्यवहारनयमतेन त्रिविधं नमस्कारकारणं मन्तव्यमिति / / 2830 // ऋजुसूत्रमतेन तु द्विविधमेव कारणमिति दर्शयन्नाहउज्जुसुयणयमयमिणं, पुव्वुपण्णस्स किं समुत्थाणं ? अह संपइमुप्पज्जइ, न वायणालद्धिभिन्नं तं / / 2831 // ऋजुसूत्रनयस्येदं मतम्-यदि पूर्वभवोत्पन्नो नमस्कारः, तदेहभवदेहलक्षणं समुत्थानं तस्य किं करोति ? न किञ्चिदित्यभिप्रायः; उत्पन्नस्य कारणापेक्षायोगादिति / अथ साम्प्रतमिहभवे समुत्पद्यते नमस्कारः, तर्हि यस्तस्य कारणं तद्वाचनालब्धिभ्यां भिन्नं व्यति-रिक्तं न किञ्चित्पश्यामः ; अत इदमेवं द्विविधं तस्य कारणमिति॥२८३१।। इदमेव भावयन्नाहपरओ सयं व लाभो, जइ परओ वायणा सयं लद्धी। जंन परओ सयं वा, तओ किमण्णं समुत्थाणं? // 2832 / / नमस्कारस्य हि लाभो जायमानः परतोऽपि भवेत् , स्वयं वा ? इति द्वयी गतिः, तत्र यदि परत इतिपक्षः, तर्हि (वायण त्ति) गुरूपदेशलक्षणा वाचनैव तत्र कारणम् / अथ स्वयमिति पक्षः, तर्हि (लद्धि त्ति) तदावरणक्षयोपशमलक्षणा लब्धिरेव तत्र कारणं, नापरम् / यच परतः स्वयं वा नोत्पद्यते, तत्खरविषाणकल्पमवस्त्ववेत्यध्याहारः; वस्तुन उत्पत्तौ यथोक्तप्रकारद्वयस्यैव संभवात्, अनुत्पन्नस्य चावस्तुत्वादिति। ततस्तस्माद्वाचनालब्धिभ्यामन्यत्किं नाम समुत्थानं यत्स्वयं परतो वाऽनुत्पन्नस्यावस्तुनः कारणं भवेदिति ? // 2832 //
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________________ णमोक्कार 1824 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार अथ परभवे समुत्पन्नस्य नमस्कारस्येहभवे स्वतः परतो वाऽनुत्पन्नस्य तस्याभिव्यक्तिलक्षणाया उत्पत्तेः कारणं समुत्थानं भविष्यति / तदप्ययुक्तम् / कुतः ? इत्याहउप्पज्जइ नाईयं, तक्किरिओवरमओ कयघडो व्व। अहवा कयं पि कीरइ, कीरउ निचं कओ णिट्ठा / / 2833 / / इहातीतोत्पादक्रियं वस्त्वतीतमभिप्रेतम् / तदेवंभूतं पूर्वभवेऽतीतोत्पादक्रियमतीत नमस्कारलक्षणं वस्त्विह भवे पुनरपि नोत्पद्यत इति प्रतिज्ञा। (तक्किरिओवरमओत्ति) तस्य नमस्कारस्योत्पादलक्षणा क्रिया तत्क्रिया, तस्या उपरमो विरामः तत्क्रियोपरमः, तस्मादिति हेतुः / कृतघटवदिति दृष्टान्तः इहयस्योत्पत्तिक्रियोपरता तत्पुनरपि नोत्पद्यते, यथा पूर्वकृतो घटः; उपरतोत्पत्ति-क्रियश्च पूर्वभवोत्पन्नो नमस्कार इष्यते, तत इहभवे पुनरपि नोत्पद्यत इति / अथवा पूर्व कृतमपि पुनः क्रियते, तर्हि पुनः पुनर्नित्यमेव क्रियताम् , पूर्वकृतत्वाविशेषात् / तथा च सति कुतः करणक्रियाया निष्ठा ? इति। तदेवं य इहोत्पद्यते नासौ पूर्वोत्पन्न इति सामर्थ्यादुक्तम्।। 2833 // अथवा-भवतु पूर्वोत्पन्नः, तथाऽपि मत्पक्षसिद्धिरिति दर्शयन्नाहहोउ व पुव्वुप्पाओ, तह विन सो लद्धिवायणाभिन्नो। जेण पुरा वि सयं वा, परओ वा होज्ज से लाभो // 2834 / / भवतु वा नमस्कारस्य पूर्वजन्मन्युत्पादः, तथाऽपि न स तदुत्पादो लब्धिवाचनाभ्यां भिन्नः-न लब्धिवाचनालक्षणकारणद्वयव्यतिरेकेण समुत्थानलक्षणेन कारणेन नमस्कारो जन्यत इत्यर्थः / कुतः? इत्याहयेन यस्मात्पुरा परभवेऽपि प्रष्टव्योऽसि त्वं स्वयं वा परतो वा (से) तस्य नमस्कारस्य लाभ इति वक्तव्यम् ? यदि स्वयं, तर्हि लब्धिरेव तत्कारणम्। अथ परतः, तर्हि वाचना तद्धेतुरिति न किमप्येतत्कारणद्वयव्यतिरिक्तं समुत्थानलक्षणं कारणं पश्याम इति / / 2834 // अथ' सेसनया लद्धिमिच्छंति" (2807) इत्येतद् च्याचिख्यासुराहसद्दाऽऽइमयं न लहइ, जं गुरुकम्मा पवायणाए वि। पावइ य तयावरण-क्खओवसमओ जओऽवस्सं // 2835 / / शब्दसमभिरूद्वैवंभूतनयानामेतन्मतम्-यद्यस्मात्कारणाद् गुरुकर्मा प्राणी गुरुभ्यः प्रवाचनायां सत्यामपि नमस्कारं न लभते, लघुकर्मा तु वाचनामन्तरेणाऽपि तदावरणकर्मक्षयोपशमाद्यतोऽवश्यमेव नमस्कार प्राप्नोति / / 2835 / / तो हेऊ लद्धि चिय, न वायणा जइ मइक्खओवसमो। तक्कारणो त्ति तम्मि वि, नणु साउणेगंतिगी दिट्ठा // 2836 / / (तो हेऊ लद्धि चिय त्ति) ततस्तस्माद्वाचनाया नमस्कारजनने व्यभिचारित्वात्तदावरणक्षयोपशमलक्षणा लब्धिरेव तद्धेतुर्न वाचनेति। यदि तु ऋजुसूत्रः कथमप्येवं ब्रूयात्-ननु मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्षयोपशमस्तत्कारणो वाचनाजन्यः, तथा च सति तत्क्षयोपशमजन्यस्य नमस्कारस्य पारम्पर्येण वाचनाऽपि कारणं भवति। अत्रोच्यतेननुतस्मिन्नपि मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्षयोपशमेजन्ये सा वाचनाऽनैकान्तिकी / दृष्टा, गुरुकर्मणां वाचनातोऽपि यथोक्तक्षयोपशमादर्शनादिति // 2836 // अथ कस्यापि तायवाचनातः कर्मक्षयोपशमो भवत्रुपलभ्यते, तमाश्रित्य वाचना नमस्कारकारण भविष्यति / तदप्ययुक्तम्। कुतः? इत्याहजस्स वि स तन्निमित्तो, तस्स वितम्मत्तकारणं होजा। ननमोक्कारस्स तई, कम्मक्खओवसमलब्भस्स / / 2837 / / यस्यापि जीवस्य स मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्षयोपशमस्तनिमित्तो वाचनाहेतुको दृश्यते, तस्यापि तन्मात्रकारणं यथोक्तक्षयोपशमनिमित्तं (तह त्ति) सा वाचना भवेत् नतुनमस्कारस्य कारणं सा युज्यते / कथंभूतस्य? इत्याह-कर्मक्षयोपशमलभ्यस्य / इदमुक्त भवति-एवमपि मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिक्षयोपशमादेवानन्तरं नमस्कार उत्पद्यते, न तु वाचनातः, ततोऽसावेव तत्कारणं युज्यते, न तुवाचना, तस्या यथोक्तक्षयोपशमजनकत्वेनाऽन्यकारणत्वादिति / / 2837 / / पुनरपि परमतमाशक्य परिहरन्नाहअह कारणोवगारि, त्ति कारणं तेण कारणं सव्वं / पारण वज्झवत्थु, को नियमो सहमेत्तम्मि ? // 2838 / / अह पचासण्णतरं, कारणमेगंतियं तओ लद्धिं / पडिवजन चेदेवं, न वायणमित्तनियमो ते॥२८३६ / / अथ कारणस्य यथोक्तक्षयोपशमस्योपकारिणी वाचनेति, अतः कारणकारणत्वादसौ नमस्कारस्य कारणमिष्यते / अत्रोच्यते-(तेणेत्यादि) तेन तर्हि प्रायेण सर्वमपि क्षितिशय्याऽऽसनाऽऽहार-वस्त्रपात्राऽऽदिकं बाह्य वस्तु नमस्कारकारणस्य यथोक्तक्षयोपशमस्योपकारित्वात्परम्परया नमस्कारस्य कारणं प्राप्नोति / अतः को नाम वाचनालक्षणे शब्दमात्रे तत्कारणत्वनियमः ? इति / / 2838 / / अथ परम्परया सर्वस्य बाह्यवस्तुनो नमस्कारकारणोपकारित्वे सत्यपि यदेव प्रत्यासन्नतरं वाचनालक्षणं वस्तु, तदेवाऽऽसन्नोपकारित्वान्नमस्कारस्य कारणमिष्यते। ननु तथाऽपि नमस्कारजनने तदेवैकान्तिकमित्युक्तमेव / तत एकान्तिकमानन्तर्येणातिप्रत्यासन्नतरं लब्धिमेव तत्कारणं प्रतिपद्यस्वा न चेदेव प्रतिपद्यसे, तर्हि न वाचनामात्रस्य नमस्कारकारणत्वनियमः 'ते' तव सिध्यति; क्षित्यादेरपि पूर्वोक्तनीत्या तत्कारणत्वप्राप्तेः / तदेवं प्रथमनयत्रयस्य त्रिविधं कारणम् , ऋजुसूत्रस्य द्विविधं, शब्दनयास्तु लब्धिमेवैकां नमस्कारकारणमिच्छन्तीति स्थितम्। इति द्वात्रिंशद्गाथार्थः / / 2836 / / तदेवमभिहितमुत्पत्तिद्वारम्। (3) इदानीं निक्षेपद्वारमुच्यते-तत्र नमस्कारस्य निक्षेपश्वतुर्धा-नामनमस्कारः,स्थापनानमस्कारः, द्रव्यनमस्कारः, भावनमस्कारश्चेति। तत्रनामस्थापने क्षुण्णे, ज्ञभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यनमस्काराऽभि धित्सया पुनराहनिहणाऽऽइ दव्व भावो-वउत्तनं कुन्ज सम्मदिट्ठी उ। नेवाइयं पयं दव्वभावसंकोयण पयत्थो / / 2840 / / नमस्कारतद्वतोरभेदोपचारान्निवाऽऽदिद्रव्यनमस्कारः, आ
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________________ णमोकार 1825 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार दिशब्दायो द्रव्यार्थ विद्यामन्त्रदेवताऽऽदीनां नमस्कारःक्रियते, सोऽपि / द्रव्यनमस्कारः / निवाऽऽदिनमस्कारस्य च द्रव्यत्वमप्राधान्यात् , अप्राधान्यं च तेषा मिथ्यात्वाऽऽदिकलुषितत्वादिति / भावनमस्कारस्त्वागमतः स विज्ञेयो, यमुपयुक्तः सम्यग्दृष्टिरहंदादीनांकुर्यादिति द्वारम्।। (4) अथ पदद्वारमुच्यते-पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेतिपदम्। तच पञ्चधानामिकम् , नैपातिकम् , औपसर्गिकम् , आख्यातिकम् , मिश्र चेति। तत्र' अश्वः ' इति नामिकम्। ' खलु ' इति नैपातिकम् , ' परि' इत्यौपसर्गिकम्।' धावति' इत्याख्यातिकम्। 'संयत इति मिश्रम्। एवं नामिकाऽऽदिपञ्चप्रकारपदसंभवे सत्याह-(नेवाइयं पयं ति) निपतत्यर्हदादिपदानामादिपर्यन्तयोरिति निपातः, निपातादागतं, तेन वा निर्वृत्तं, स एव वा स्वार्थिकप्रत्ययविधानान्नैपातिकम् ' नमः ' इति पदम्। इति पदद्वारम। (5) अथ पदार्थद्वारमुच्यते-(दव्वभावसंकोयण पयत्थो त्ति) इह' नमोऽर्हद्भ्यः ' इत्यादिषु यत्' नमः' इति पदं, तस्य नम इति पदस्यार्थः पदार्थः, स च पूजालक्षणः / सा च का? इत्याह-(दव्व-भावसंकोयण त्ति) द्रव्यसंकोचनम् , भावसंकोचनं च / तत्र द्रव्य-संकोचनं करशिरःपादाऽऽदिसंकोचः, भावसंकोचनं तु विशुद्धस्य मनसोऽहंदादिगुणेषु निवेशः / अत्रच भङ्गचतुष्टयम्। तद्यथा-द्रव्यसंकोचो न द्रव्यसंकोच इत्यनुत्तरसुराऽऽदीनाम् ; द्रव्यसंकोचो भावसंकोचश्च, यथा शम्बस्य ; न द्रव्यसंकोचो न भावसंकोच इति शुन्यः / इह च भावसंकोचप्रधानो द्रध्यसकोचोऽपि तच्छुद्धिनिमित्तः / इति नियुक्तिगाथासक्षेपार्थः / / 2840 // अथ नमस्कारस्य भाष्यकरो नामाऽऽदिनिक्षेप विस्तरतो व्याचिख्यासुराहनामाऽऽइचउब्मेओ, निक्खेवो मंगलं च सो नेओ। नाम नमोऽभिहाणं, ठवणा नासोऽहवाऽऽगारो।। 2841 // नामस्थापनाऽऽदिचतुर्भेदो नमस्कारस्य निक्षेपः / स चाधस्तादुक्तमङ्गलस्येव विस्तरतो विज्ञेयः। संक्षेपतस्त्विहाप्युच्यते-(नामं ति) नामनमस्कारो नमः' इत्यभिधानम्। स्थापनानमस्कारस्तु-' नमः' इत्यक्षरद्वयस्य विन्यासः। अथवा-नमस्कारकरणप्रवृत्तस्य संकोचितकरचरणस्य काष्ठपुस्तकचित्राऽऽदिगतस्य साध्वादेराकारः स्थापनानमस्कार इति // 2841 // द्रव्यनमस्कारमाहआगमओऽणुवउत्तो, अज्झेया दव्वओ नमोकारो। नोआगमओ जाणय-भव्वसरीराइरित्तोऽयं // 2842 // द्रव्यनमस्कारो द्वेधा-आगमतः, नोआगमतश्च / तत्रानुपयुक्तो नमस्कारस्याध्येता-आगमतो द्रव्यनमस्कारः / नोआगमतोऽयं / द्रव्यनमस्कारोज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्तभेदात्त्रिविध इति। तत्र ज्ञशरीर-भव्यशरीर-वक्तव्यता क्षुण्णा / / 2842 / / तद्व्यतिरिक्त तु द्रव्यनमस्कारमाहमिच्छोवहया जं भावओ वि कुव्वंति निन्हवाऽऽईया। सो दव्वनमोकारो, सम्माणुवउत्तकरणं च / / 2843 / / मिथ्यात्वोपहता निह्नवाऽऽदयो भावतोऽपि यं नमस्कारं कुर्वन्ति, स | ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तोऽप्रधानत्वाद् द्रव्यनमस्कारः / तथा सम्यग्दृष्टिरप्यनुपयुक्तो यं नमस्कारं करोति स तद्व्यतिरिक्तो द्रव्यनमस्कार इति / / 2843 / / आह-ननुभावतोऽपि कुर्वतां निवाऽऽदीनां किमिति द्रव्यनमस्कारः ? अत्रोच्यते-अज्ञानित्वात् / अज्ञानित्वं च तेषां मिथ्यादृष्टित्वात् .' मिथ्यादृष्टेरज्ञानम् ' एतदपि कुतः? इत्याह सदसदविसेसणाओ, भवहेऊ जदिच्छिओवलंभाओ। नाणफलाभावाओ, मिच्छद्दिहिस्स अन्नाणं / / 2844 / / प्रागसकृद् व्याख्यातार्था // 2844 // प्रकारान्तरेणापि द्रव्यनमस्कारमाहजो वा दव्वत्थमसं-जयस्स व भयाइणाऽहवा सो वि। दव्वनमोकारो चिय, कीरइ दमएण रण्णो देव // 2845 // यो वा द्रव्यार्थ क्रियते स द्रव्यनमस्कारः। अथवा-द्रव्यलाभ विनाऽपि योऽसंयतस्य राजाऽऽदेर्भयाऽऽदिकारणतो द्रमकाऽऽदिना क्रियते, सोऽपि तद्व्यतिरिक्तो द्रव्यनमस्कार इति॥ 2845|| अथाऽऽगमतो नोआगमतश्च द्विविधं भावनमस्कारमाहआगमओ विनाया, तचित्तो भावओ नमोकारो। नोआगमओ सो चिय, सेसयकरणोवउत्तो त्ति / / 2846 / / तस्मिन् नमस्कारार्थे चित्तमुपयोगो यस्य नान्यत्रअसौ तचित्तो विज्ञाता आगमतो भावनमस्कारः, स एव मनस्करणेनोपयुक्तो नमस्कारकर्ता यदा शेषकाभ्यामपि वाक्कायकरणाभ्यामुपयुक्तो नमस्कारं करोतिवचनेन' नमोऽर्हद्भ्यः ' इति ब्रुवाणः, कायेन तु संकोचितकरचरणो यदा नमस्कारं करोतीत्यर्थः, तदाऽसौ नोआगमतो भावनमस्कार उच्यते, उपयोगलक्षणस्याऽऽगमस्य वाक्कायकरणक्रियामिश्रत्वात् , नोशब्दस्य चेह मिश्रवचनत्वादिति।। 2846 // अथामु नामाऽऽदिनिक्षेपमपि नयैर्विचार यन्नाहभावं चिय सद्दनया, सेसा इच्छंति सव्वनिक्खेवे। ठवणावग्जे संगह-ववहारा केइ इच्छंति / / 2847 // भावमेव भावनमस्कारमेव इच्छन्ति त्रयोऽपि शब्दनयाः, शुद्धत्वात्। शेषास्तु ऋजुसूत्रान्ताश्चत्वारो नयाः, सश्चितुरीऽपि निक्षेपानिच्छन्ति अविशुद्धत्वात्। केचित्तुव्याचक्षते-संग्रहव्यवहारौ स्थापनावजाँस्त्रीन्निक्ष्ज्ञेपानिच्छतः, सद्भावाऽसद्भावस्थापनायाः किल साङ्केतिकनामाभिधेयत्वेन नामनिक्षेप एवान्तर्भावा-दिति / / 2847 / / तथादव्वट्ठवणावजे, उजुसुओ तं न जुज्जए जम्हा। इच्छइ सुयम्मि भणियं, सो दव्वं किं तु न पुहत्तं / / 2848 / / द्रव्यस्थापनावों शेषौ द्वावेव नामभावनिक्षेपाविच्छति ऋतुसूत्रः / तदेतद् व्याख्यानं न युज्यते, यस्मादसौ ऋजुसूत्रो द्रव्यमिच्छत्येव, केवलं पृथक्त्वं नेच्छतिबहूनिद्रव्याऽऽवश्यकाऽऽदीनिनेछतीत्यर्थः / एतचोऽनुयोगद्वारलक्षणे,
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________________ णमोकार 1926 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमोकार भणितं प्रतिपादितम् / तद्यथा-" उजुसुयरस एगे अणुवउत्ते आगमओ एगे दव्वावस्सए पुहत्तं नेच्छइ" इति।।२८४८॥ स्थापनेच्छामप्यस्याऽऽहइच्छंतो य स दवं, तदणागारं तु भावहेउ त्ति / नेच्छेज कहं ठवणं, सागारं भावहेउ ति? / / 2846 / / इच्छंश्च ऋतुसूत्रस्तप्रसिद्धं सुवर्णाऽऽदिक द्रव्यं पिण्डावस्थायामनाकारं तथाविधकटककेयूराऽऽद्याकाररहितम् , विशिष्टेन्द्राऽऽद्याकाररहितं वा / कुत इच्छत् ? इत्याह-भावहेतुर्यतस्तद्-भविष्यत्कुण्डलाऽऽदिपायलक्षणभावहेतुत्वादित्यर्थः कथं नाम नेच्छे - त्स्थापनाम् ? कथंभूताम् ? साकारां विशिष्टेन्द्राऽऽद्याकारसहितामपीत्यर्थः / पुनरपि किंविशिष्टाम् ? इत्याह-भावहेतुभूतांसाकारत्वेन विशिष्टे न्द्राऽऽद्यभिप्रायकारणभूतामित्यर्थः / इदमुक्तं भवतियो ह्यनाकारमपि भावहेतुत्वाद् द्रव्यमिच्छति ऋजुसूत्रः, स साकारामपि विशिष्टेन्द्राऽऽदिभावहेतुत्वात् स्थापनां किमिति नेच्छेत् ? इच्छेदेव, नात्र संशय इति / / 2846 // उपपत्त्यन्तरेणापि द्रव्यस्थापनेच्छामस्य साध यन्नाह' नाम पि होज सन्ना, तव्वचं वा तदत्थपरिसुन्नं / हेउ त्ति तदिच्छंतो, दव्वट्ठवणा कहं नेच्छे? // 2850 / / ननु ऋजुसूत्रस्तावन्नाम निर्विवादमिच्छति / तच्च नाम इन्द्राऽऽदिसंज्ञामात्रं वा भवेत् , तद्वाच्यं वा तदर्थपरिशून्यमिन्द्रशब्दवाच्यं वा, इन्द्रार्थरहितं वा गोपालदारकाऽऽदि वस्तु भवेदिति द्वयी गतिः / इदं चोभयरूपमपि नामहेतुर्भावकारणमिति कृत्वा इच्छन्नसौ ऋ-जुसूत्रो द्रव्यस्थापने कथं नाम नेच्छेत् ? भावकारणत्वाविशेषादिति भावः / / 2850 // अह नामं भावम्मि वि, तेणेच्छइ तेण दव्वठवणा वि। भावस्साऽऽसन्नयरा, हेऊसद्दो उ वज्झयरो॥ 2851 / / अथेन्द्राऽऽदिकं नाम भावेऽपि भावेन्द्रेऽपि संनिहितमस्ति, तेन | तस्मादिच्छति तदृजुसूत्रः / तेन तर्हि जितमस्माभिः, अस्य न्याय-स्य द्रव्य स्थापनापक्षे सुलभतरत्वात् / तथाहि-द्रव्यस्थापने अपि भावस्येन्द्रपर्यायस्यासन्नतरौ हेतू, शब्दस्तु तन्नामलक्षणो बाह्यतर इति / एतदुक्तं भवति-इन्द्रमूर्तिलक्षणं द्रव्यं, विशिष्टतदाकाररूपातु स्थापना, एते द्वे अपीन्द्रपर्यायस्य तादात्म्यसंबन्धेनावस्थितत्वात् सन्निहिततरे, शब्दस्तु नामलक्षणो वाच्यवाचकभावसंबन्धमात्रेणैव स्थितत्वाबाह्यतर इति / अतो भावे सन्निहितत्वान्नामेच्छन् ऋजुसूत्रो द्रव्यस्थापने सन्निहिततरत्वात्सुतरामिच्छेदिति / तदेवमृजुसूत्रस्य चतुर्विधनिक्षेपेच्छासाधनेनानन्तरोक्तत्वातपरिहृतं तद्विषयं दुर्व्याख्यानम्॥२८५१ // अथ प्राग्यदुक्तम्-"ठवणावजे संगहववहारा " (2047) इत्यादि, तत्परिहरन्नाहसंगहिउ असंगहिओ, सव्वो वा नेगमो ठवणमिच्छे। इच्छइ जइ संगहिओ,तं नेच्छे संगहो कीस ? / / 2852 // इह संग्रहिकोऽसंग्रहिकः सर्वो वा नैगमस्तावन्निर्विवादं स्थापना मिच्छत्येव / तत्र संग्रहिकः संग्रहमतावलम्बी, सामान्यवादीत्यर्थः / असंग्रहिकस्तुव्यवहारनयमतानुसारी, विशेषवादीत्यर्थः, सर्वस्तु समुदितः। ततश्च यदि संग्रहिकः संग्रहमतावलम्बी नैगमस्तां स्थापनामिच्छति, तर्हि संग्रहस्तत्समानमतोऽपि तां किमिति नेच्छति ? इच्छेदेवेत्यर्थः / / 2852 // अहव मयमसंगहिओ, तो ववहारो वि किं न तद्धम्मा ? अह सव्वो तो तस्सम-धम्माणो दो वि ते जुत्ता / / 2853 / / (अहव मयमित्यादि)' अथवा 'इत्यव्ययोऽथाऽर्थे। अथ परस्य मतम्यद्यपि सामान्येन सर्वो नैगमः स्थापनामिच्छति, तथापि व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेरसंग्रहिकोऽसौ तामिच्छतीति प्रतिपत्तव्यम।' न संग्रहिकः' इत्यध्याहारः, न ततः संग्रहस्य स्थापनेच्छा निषिध्यत इति भावः / अत्रोत्तरमाह-' तो ' इत्यादि। तर्होकत्र संधित्सतोऽन्यत्र प्रच्यवते, एवं हि सति व्यवहारोऽपि स्थापनां किमिति' नेच्छति इति शेषः / कुतः? इत्याह-यतस्तद्धर्माऽसौअसंग्रहिकनैगमसमानधर्मा व्यवहारनयोऽपि वर्तते, विशेषवादित्वात् / ततश्चैषोऽपि स्थापनामिच्छदेवेति, निषिद्धा चास्यापि त्वया, " ठवणावजे संगहववहारा' इति वचनादिति / अथ सर्वोऽखण्डः परिपूर्णो नैगमः स्थापनामिच्छति, न तु संग्रहिकोऽसंग्रहिको वेति भेदवान, अतस्तदृष्टान्तात्संग्रहव्यवहारयोर्नस्थापनेच्छा साधयितुं युक्तेति भावः / अत्रोच्यते- ' तो ' इत्यादि / ततस्तर्हि तत्समधर्माणौ नैगमसमानधर्माणौ द्वावपि समुदितौ ताविति संग्रहव्यव-हारौ युक्तावेव / इदमत्र हृदयम्-तर्हि प्रत्येकं तयोरेकतरनिरपेक्षयोः स्थापनाऽभ्युपगमो मा भूदिति समुदितयोस्तयोः संपूर्ण गमरूपत्वात्तदभ्युगमः के न वार्यते, अविभागस्थाद् नैगमात्प्रत्येकं तदेकैकताग्रहणात् ? इति॥२८५३॥ इतश्च स्थापनाऽभ्युपगमः संग्रहव्यवहारयोर्युक्तः / कुतः? इत्याहजं च पवेसो नेगम-नयस्स दोसु बहुसो समक्खाओ। तो तम्मयं पि भिण्णं, मयमियरेसिं विभिन्नाणं / / 2854 // यच यस्मात् प्रवेशोऽन्तर्भावः, " जो सामन्नग्गाही सो नेगमो संगह गओ" इत्यादिना ग्रन्थेन प्रागत्रान्यत्र च नैगमनयस्य द्वयोः संग्रहव्यवहारयोर्बहुशोऽनेकधा समाख्यातः प्रतिपादितः। ततस्तन्मत-मपि स्थापनाऽभ्युपगमलक्षणं नैगमनयमतमपीतरयोः संग हव्यवहारयोविभिन्नयोर्भेदवतोभिन्न पृथग्मतं सम्मतमिति / इदमुक्तं भवतियथा विभिन्नयोः संग्रहव्यवहारयोर्नेगमोऽन्तर्भूतः, तथा स्थापनाऽभ्युपगमलक्षणं तन्मतमपि तयोरन्तर्भूतमेव, ततो भिन्नं भेदेन तो तदिच्छत एवस्थापनासामान्यं संग्रह इच्छति, स्थापनाविशेषाँस्तु व्यवहार इत्येतदेव युक्तं, तदनिच्छातु सर्वथाऽनयोन युक्तेति // 2854 / / अत्रैवोपचयमाहसामण्णाऽऽइविसिटुं, वज्झं पिजमुजुसुत्तपजंता। इच्छंति वत्थुधम्म, तो तेसिं सव्वनिक्खेवो / / 2855 / / यस्माच सामान्याऽऽदिविशिष्टं बाह्यमपि च विचित्रं बहुप्रकारमृजुसूत्रपर्यन्ता नया वस्तुधर्ममिच्छन्ति, ततस्तेषां सर्वेऽपि नामाऽऽदयो निक्षेपाः संमता एवेति। अतः " ठवणावजे संगहववहारा" (2847) इत्यादिना यत्केषाञ्चिन्मतं, तदसंगतमेयेति / / 2855 / /
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________________ णमोकार 1827 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार 'नेवाइयं पयं (2840) इत्येतद् व्याचिख्यासुराहनिवयइ पयाऽऽइपजं-तओ जओ तो नमो निवाउ त्ति / सो चिय निययत्थपरो, पयमिह नेवाइयं नाम / / 2856 / / पूयत्थमिणं सा पुण, सिरकरपायाऽऽइदव्यसंकोओ। भावस्स य संकोओ, मणसा सुद्धस्स विणिवेसो॥२८५७।। यतो यस्मान्निपतति पदाऽऽदिपर्यन्तयोस्ततो 'नमः' इति पदं निपातो भण्यते / स एव ' नमः ' इति निपातो निजकार्थपरः स्वार्थिकप्रत्ययोपादानो नैपातिकं पदमित्युच्यत इति // 2856 // इदं च नमः' इति पदं पूजार्थम् , शेषं सुगमम् // 2857 / / अत्रच भावसंकोचलक्षणं भावकरणमेव प्रधानमिति दर्शयन्नाहएत्थं तु भावकरणं, पहाणमेगंतियं ति तस्सेव / वज्झं सुद्धिनिमित्तं, भावावेयं तु तं विफलं / / 2858 / / जं जुजंतो वि तयं, न तप्फलं पालगाइ व्व। तविरहिया लहंति य, फलमिह जमणुत्तराऽऽईया।।२८५९।। तह वि विसुद्धी पाएण वज्झसहियस्स जा न सा इहरा। संजायइ तेणोभयमिटुं संवस्स वा नमओ / / 2560 / / सुगमाः, गतार्थाश्च। नवरं भाषापेतंभावरहितं तबाह्यकरणं विफलमेव / इति विंशतिगाथार्थः / / 2858 / 2856 / 2860 // (6) अथ प्ररूपणाद्वारमाहदुविहा परूवणा छ-प्पया य नवहा य छप्पया इणमो। किं कस्स केण व कहि, केवचिरं कइविहो व भवे ?|| 2861 / / द्विविधा द्विप्रकारा, प्रकृष्टा प्रधाना, प्रगता वा रूपणा वर्णना प्ररूपणेति। तदेव द्वैविध्यमाह-षट्पदा च षट्प्रकारा, नवधा च नवप्रकारा, चशब्दात्पञ्चपदा, चतुष्पदा च / तत्र षट्पदा' णमो ' इति पदं कि, कस्य, केन वा, क्वं वा, कियचिर, कतिविधो वा भवे-न्नमस्कारः ? इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 2861 / / तत्र किंद्वारव्याख्यानार्थमाहकिं जीवो तप्परिणओ, पुच्वपडिवन्नओ य जीवाणं / जीवस्स य जीवाण य, पडुच्च पडिवजमाणं तु / / 2862 / / / किं वस्तु नमस्कारः ? इत्याह-(जीवो ति) सामान्येन अविशु- | दनैगमाऽऽदिनयानां जीवः, तद्ज्ञानलब्धियुक्तो योग्यो वा नमस्कारः।। शब्दाऽऽदिशुद्धनयमतत्वधिकृत्याऽऽह-(तप्परिणओ त्ति) शब्दाऽऽदिविशुद्धनयमतेन तु जीवः, तत्परिणतो नमस्कारपरिणामपरिणत एवं नमस्कारो, नापरिणत इति / उक्तं किंद्वारम्।। अथ करयेतिद्वारमुच्यते-तत्र च यदा पूर्वप्रतिपन्नो नमस्कारः चिन्त्यते, तदा जीवानामसौ विज्ञेयः, बहुजीवस्वामिक इत्यर्थः / प्रतिपद्यमानं तु नमस्कारं प्रतीत्य यदा एको जीवस्तंप्रतिपद्यते, तदा जीवस्यासौ विज्ञेयः, एकजीवस्वामिक इत्यर्थः / यदा तु बहवो जीवास्तं प्रतिपद्यन्ते, तदा जीवानामेष ज्ञातव्यः, बहुजीवस्वामिक इत्यर्थः / इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 2862 // अथ किंद्वारविषयं भाष्यम् किं होज नमोकारो, जीवोऽजीवोऽहवा गुणो दव्वं / ' जीवो नो खंधो त्ति य, तह नोगामो नमोक्कारो॥ 2863 / / किं वस्तु नमस्कारो भवेत् ? जीवः, अजीवो वा। जीवाजीवत्येऽपि किं गुणो, द्रव्यं वा नमस्कारः ? इति प्रश्ने नैगमाऽऽद्यविशुद्धनयमतमङ्गीकृत्याऽऽह-जीवो नमस्कारः, नाऽजीवः / स च संग्रहनयापेक्षया मा भूदविशिष्टः पञ्चास्तिकायमयः स्कन्धः / यथाऽऽहुस्तन्मतावलम्बिनः"पुरुष एवेदं ग्नि सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् / उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति' इत्यादि / तथा संग्रहनयविशेषापेक्षयैव मा भूदविशिष्टग्राम इति,'अतो नो स्कन्धो नो ग्रामः।' इति नियुक्तिगाथायां वाक्यशेषः। पञ्चास्तिकायमयस्कन्धैकदेशत्वान्नोशब्दस्य च देशवचनत्वान्नोस्कन्धो जीवो नमस्कारः, तथा-चतुर्दशविधभूतग्रामैकदेशत्वाद् नोशब्दस्य च देशवचनत्वाद् नोग्रामरूपः प्रतिनियतः कोऽपि जीवो नमस्कार इति // 2863 // ननु कस्माजीवो नमस्कारः, नाऽजीवः ? इत्याहजं जीवो णाणमओ-ऽणन्नो नाणं च जं नमोकारो। तो सो जीवो दव्वं, गुणो ति सामाइएऽभिहियं // 2864 / / यद्यस्माद् ज्ञानमयो जीवः, ज्ञानं च यस्मात् श्रुतज्ञानरूपो नमस्कारः, अनन्यश्चाव्यतिरिक्तश्व ज्ञानाजीवः। ततः स नमस्कारो' जीवो त्ति जीव एव, नाजीवः, तस्य ज्ञानशून्यत्वादिति। भवतु जीवो नमस्कारः, केवलं द्रव्यमसौ, गुणो वा ? इति वक्तव्यमित्याह-'द्रव्यं गुणो वा नमस्कारः' इत्येतत्सामायिके' किं सामायिक इति द्वारे-"जीवो गुणपडिबन्नो, नयस्स दव्यट्टियस्स सामइयं / सो चेव पज्जवट्टियनयस्स जीवस्स एस गुणो।।१॥" (2643) इत्यादिना ग्रन्थेनाभिहितमेव, केवलं सामायिकस्थाने नमस्कारो वाच्य इति / / 2864 / / भवतु जीवो नमस्कारः, किन्तु नोस्कन्धो नोग्रामश्च कथमसौ ? इत्याहसव्वत्थिमओ खंधो, तदेकदेसो य जं नमोकारो।। देसपडिसेहवयणो, नोसद्दो तेण नोखंधो / / 2865 / / भूयग्गामो गामो, तदेकदेसो तउ त्ति नोगामो। देसो त्ति सो किमेको-ऽणेगो नेओ नयमयाओ।।२८६६ / / सर्व पञ्चास्तिकायाः, तन्मयस्तैर्निवृत्तः परिपूर्णः, स्कन्ध उच्यते।। तदेकदेशश्च यस्मान्नमस्कारवान् जीवः, नमस्कारतद्वतोश्चा-भेदोपचारानमस्कारोऽपि तदेकदेशः / देशप्रतिषेधवचनश्च नोशब्दः, तेन तस्मास्कन्धैकदेशो जीवः, अभेदोपचारान्नमस्कारश्च नोस्कन्ध इति। तथा"एगिदिय सुहुमियरा, सन्नियरपणिदिया सवितिचऊ। पज्जत्तापज्जत्ता, भेएणं चउदसग्गामा / / 1 / " इति वचनाचतुर्दशविधो भूतग्रामो ग्राम उच्यते। तदेकदेशश्च यस्मात्तकोऽसौ नमस्कारवान् देवमनुष्याऽऽदिजीवोऽभेदोपचारान्नमस्कारोऽपि तदेकदेश इत्यतोऽसौ नोग्रामोऽभिधीयते।' देसो ति पृच्छति विनेयः-भूतग्रामस्य देशः सन् स नमस्कारः, किमेकोऽनेको वा? इति वक्तव्यम्। गुरुराहज्ञेयो नयमतात-एकत्वमनेकत्वं च तस्य नयमताद्विज्ञेयमित्यर्थः। तदेतावता' किं जीवो (2862) इति व्याख्यातम् / / 2865 / 2866 // अथ' तप्परिणओ' (2862) इत्येतद्व्याचिख्यासुराहतप्परिणओ चिय जया, सहाईणं तया नमोक्कारो। सेसाणमणुवउत्तो, विलद्धिसहिओऽहवा जोग्गो // 2867 / /
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________________ णमोक्कार 1828 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोक्कार तत्परिणत एव नमस्कारपरिणामपरिणत एव, यदा जीवो भवति, तदाऽसौ शब्दाऽऽदिनयत्रयमतेन नमस्कारोऽभिधीयते / शेषाणां तु नैगमाऽऽदिनयानामनुपयुक्तोऽपि नमस्कारो जीयो नमस्कार उच्यते / किं सर्वः? नेत्याह-लब्धिसहितस्तदावरणकर्मक्षयोपशमयुक्तः, अथवायोग्यो भव्यशरीराऽऽदिको राज्यार्हकुमारराजवदिति / / 2867 / / अथ कथं पुनर्नयमतेन नमस्कारस्यैकत्वमनेकत्वं चनेयम् ? इत्याहसंगहनओ नमोक्कारजाइसामनओ सया एगें। इच्छइ ववहारो पुण, एगमिहेगं बहू बहवो / / 2568 / / उज्जुसुयाऽऽईणं पुण, जेण सयं संपयं व वत्थु ति। पत्तेयं पत्तेयं, तेण नमोक्कारमिच्छंति // 2866 / / द्वे अपि सुगमे, नवरं व्यवहारनयः पुनरेकं नमस्कारवन्तं जीवमेके नमस्कारमिच्छति, बहूँस्तद्वतो बहून्नमस्कारानिच्छति, लोकव्यवहारपरत्वात् , लोके चेत्थं दर्शनादिति / ऋजुसूत्राऽऽदयस्तु बहुत्वं नेच्छन्ति, वर्तमानसमयवर्तिनः स्वकीयस्यैवकस्य प्रत्येकं प्रत्येकमभ्युपगमादिति // व्याख्यातं किमितिग्ररूपणाद्वारम्॥ 2868 // 2866 / / अथ कस्येतिद्वारे'"पुव्वपडिवण्णओयजीवाणं ' (2862) इत्यादि य्याचिख्यासया प्राऽऽहपडिवजमाणओ पुण, एगोऽणेगे व संगहं मोत्तुं / इटो सेसनयाणं, पडिवन्ना णियमओऽणेगे / / 2870 / / प्रतिपद्यमानको नमस्कारस्यैकोऽनेके वा जीवा भवन्तीत्यय पक्षः संग्रहनयं मुक्त्वा शेषनयानामिष्टः संगतः पूर्वप्रतिपन्नास्तु नियमेनाने के तेषामिष्टाः, गतिचतुष्टयेऽपि पूर्वप्रतिपन्नस्य सम्यग्दृष्टीनामसंख्येयानां सदैवलाभात्। संग्रहनयस्तु-बहुत्वं सर्वत्र नेच्छतीति तद्वर्जनमिति। तदेव 'करय नमस्कारः ? ' इति पृष्टे एकानेकांजीवस्वाभिको नमस्कार इति निर्णीतम् // 2870 // अथ जीवस्वामिके सत्यपि' किं नमस्कार्यजीवस्वामिको नमस्कारः, नमस्कर्तृजीवस्वाभिको वा ? ' इति जिज्ञा सायां नयनिर्णयमाहकस्स त्ति नमोकारो, पुञ्जस्स य संपयाणभावाओ। नेगमववहारमयं, जह भिक्खा कस्स जइणो ति / / 2871 / / कस्य नमस्कार:- किंस्वामिकोऽसौ ? इति पृष्टे गुरुराह-नैगमव्यवहारनयमतमिदग-पूज्यस्य नमस्कार्यस्य नमस्कारः, न पुनस्तत्कर्तुः / कुतः? संप्रदानभावत्-तेन पूज्यस्यैव संप्रदीयमानत्वात्। लोकेऽपि वक्तारो भवन्तिकस्य भिक्षा? 'यतेः 'इति, न पुनस्तदातुः।। 2871 // हेत्वन्तरेणापि नमस्कार्यस्वामिकत्वं नमस्कारस्थती समर्थयतः / कथम् ? इत्याहपुनस्सव पजाओ, तप्पच्चयओ घडाऽऽयधम्म व्व। तद्धउभावओवा, घडविण्णाणामिहाणं व।। 2872 / / अथवा-पूज्यस्यैव पर्यायो नमस्कार इति प्रतिज्ञा / (तप्पचयओ ति) पूज्ये पूज्योऽयमिति प्रत्ययजनकत्वादिति हेतुः / (घडाऽऽयधम्म व्व त्ति) घटस्याऽऽत्मीयरूपाऽऽदिवदिति दृष्टान्तः, यथा-घटे / घटप्रत्ययजनकत्वात्तद्रूपाऽऽदयस्तत्पर्याया इत्यर्थः / अथवा -अस्यामेव प्रतिज्ञाया तद्धेतुभावादिति हेतुः-नमस्कारोत्पत्तिहेतुत्वादित्यर्थः / घटविज्ञानाभिधानवदिति दृष्टान्तः / इयमत्र भावनानमस्कार्येऽर्हदादी दृष्ट भव्यजन्तोः विशिष्टोल्लासो नमस्कारकरणाभिप्राय उत्पद्यते, ततस्तन्नमस्कारस्य नमस्कार्यो हेतुः, ततस्तद्धेतुभावान्नमस्कार्यस्यैव पूज्यस्यैव पर्यायो नमस्कार; यथा घटविषयविज्ञानाभिधाने घटहेतुकत्वाद् घटपर्यायाविति / / 2872 / / किञ्च-युक्तयन्तरेणापि पूज्यस्वामिक एव नमस्कारः; कथम् ? इत्याहअहवा स करेंतो चे-व तस्स भिचभावमावण्णो। का तस्स नमोक्कारे, चिंता दासक्खरोवम्मे / / 2873 / / अथवा-यहारमात् स नमस्कारकर्ता नमस्कारं कुर्वाण एव तस्य नमस्कार्यस्याऽर्हदादे त्यभावं दासत्वमापन्नः, ततस्तस्य नमस्कारकर्तुनमस्कारे का चिन्ता? किं ममत्वम? ननु नमस्कारस्तावद दूरे तिष्ठतु, तस्याऽऽत्माऽपि नात्मीयः, पूज्यस्य भृत्यभावेन समर्पणात्। किंविशिष्ट नमस्कारे चिन्ता न विधेया? इत्याह-(दासक्खरोवम्मे त्ति) दाससबन्धिना खरेणौपम्यमुपमानं यस्य तस्मिंस्तथाभूते / इदमुक्तं भवति-" दासेण से खरो कीओ, दासो वी से खरो वी से। " इति सिद्धान्तोक्तन्यायाद्दासकल्पोनमस्कार-कर्ता, खरकल्पस्तुनमस्कारः, द्वावप्येतौ नमस्कार्यस्याहदादेरेव, न पुनर्नमस्कारकर्तुः किञ्चिदिति किं तस्य चिन्तया ? तदेवं पूज्यस्यैव नमस्कार इति नैगमव्यवहारनयमतेन प्रतिष्ठितम् / / 2873 // पूज्यं च वस्तु द्विविधंजीवरूपं जिनाऽऽदि, अजीवरूपं च तत्प्रतिमाऽऽदि / अस्य च जीवाजीवपदद्वयस्यैकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गा भवति / तद्यथा-जीवस्य 1, अजीवस्य 2, जीवानाम् 3, अजीवानाम् 4, जीवस्याऽजीवस्य च 5, जीवस्याजीवानां च 6, जीवानामजीवस्य च 7, जीवानामजीवानां च 8 / इमामेवाष्टभङ्गी सोदाहरणां भाष्यकारः प्राऽऽहजीवस्स सो जिणस्सव, अञ्जीवस्स उजिणिंदपडिमाए। जीवाण जईणं पि व, अज्जीवाणां तु पडिमाणं / / 2874 / / जीवस्साऽजीवस्स य, जइणो बिंबस्स चेगओ समयं / जीवस्साऽजीवाण य, जइणो पडिमाण चेगत्थं / / 2875 / / जीवाणमजीवस्स य, जइणं बिंबस्स चेगओ समयं / जीवाणमजीवाण य, जईण पडिमाण चेगत्थं / / 2876 // तिस्रोऽपि गतार्थाः // 2874 / 2875 2876 // अत्र परमतमाशक्य परिहरनाहजीवो ति णमोकारो, नणु सव्वमयं कह पुणो भेओ? इह जीवस्सेव सओ, भण्णइ सामित्तचिंतेयं / / 2877 // ननु" किं जीवो तप्परिणओ" (2862) इत्यत्र पूर्व जीवो नमस्कार इति सर्वनयसंमत समानाधिकरणमुक्तम्। इह तु" जीवरस सो जिणस्स व" (2874) इत्यादिषष्ठीनिर्देशात्कथं भेदोऽभिधीयते ? अत्रोच्यते(इहेत्यादि) इहास्यामष्टभड्ग्या जीवस्यैव सतो नमस्कारस्यतथैव समाना
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________________ णमोक्कार 1526 - अभिधानराजेन्द्रः भाग- णमोकार - धिकरणभाजः सतो नमस्कारस्येत्यर्थः / किम् ? अत आह-स्वामित्वचिन्तेयं भण्यते- ' स जीवरूपो नमस्कार किं नमस्कार्यस्य संबन्धी, नमस्कर्तुर्वा ? ' इत्येतदिह चिन्त्यत इति भावः / एतच्च नैगमव्यवहारनयमतेन चिन्तितम्।। 2877 / / अथ संग्रहनयमतेन चिन्तयन्नाहसामण्णमेत्तगाही, सपरजिएयरविसेसनिरवेक्खो। संगहनओऽभिमण्णइ, तमिहेगस्साविसिट्ठस्स / / 2878|| सामान्यमात्रग्राही संग्रहनयोऽभिमन्यते तमिह नमस्कार, संब-न्धितया कस्य ? इत्याह-एकस्य / कथंभूतस्य ? अविशिष्टस्य जीवाजीवविशेषणरहितस्यैकस्यैवाविशिष्टस्य सत्तामात्ररूपस्य संबन्धितया नमस्कारमसौ मन्यते, न तु द्वयो; बहूनां चेत्यर्थः / अत्रोपपत्तिमाह-" सपरजिएयरविसेसनिरवेक्खो ति।" स्वश्व परश्व स्वपरी, स्वपरौ च तौ जीवौ च स्वपरजीवौ, तौ चेतरेऽजीवाश्च स्वपरजीवेतराः, तेषां विशेषा एकद्वित्र्यादयः, स्वपरजीवेतराश्च ते विशेषाश्च स्वपरजीवेतरविशेषाः, तन्निरपेक्षो यतोऽसौ, ततस्तन्निरपेक्षत्वात् सामान्यमात्रस्यैव संग्रहो नमस्कारं मन्यत इति॥२८७८|| एतदेव भावयतिजीवस्साऽजीवस्सव, सस्स परस्स व विसेसणेऽभिण्णो। न य भेयमिच्छइ सया, स नमोसामण्णमेत्तस्स / / 2876 / / (जीवस्सेत्यादि) जीवस्याऽजीवस्य वा स्वस्य परस्य वा नमस्कारस्येत्येवं विशेषणे कर्तव्येऽभिन्नोऽभेदवानसौ एतैर्भेदैनमस्कारं न विशेषयति, किं तु सामान्यमात्र गाहित्वात् सामान्यमात्रस्यैव / नमस्कारमसो मन्यत इत्यर्थः / भवत्वेवं, किंतनमः शब्दरूप नमस्कार स्वस्वरूपेणाऽऽधाराऽऽदिभेदाभिन्नमसौ मन्यते, अभिन्नं वा ? इत्याशक्याऽऽह-न च नमस्कारसामान्यमात्रस्याऽऽधाराऽऽदिभेदेऽपि सदा सर्वकालं स संग्रहनयो भेदमिच्छति, सर्वतः सामान्यमात्रग्राहित्वादिति / / 2876 / / अथवा जीवस्य नमस्कार इतषष्ट्या भेदनिर्देशं मलतः संग्रहो न मन्यत एव, किमनया तस्य स्वामित्वचिन्तया ? इति दर्शयन्नाहजीवो नमु त्ति तुल्ला-हिगरणयं वेइन उ स जीवस्स। इच्छइ वाऽसुद्धयरो ,तं जीवस्सेव नऽण्णस्स / / 2880 (जीवो इत्यादि) संग्रहः"जीवो नमस्कारः" इति तुल्याधिक-रणतां समानाधिकरणतामेव ब्रवीति, न पुनरसौ जीवस्य नमस्कार इति ध्यधिकरण मिच्छति, जीवनमस्काराऽऽद्यर्थानां सर्वेषामप्यभेदवादित्यादिति / किमयमेक एव प्रकारस्तस्य ? नेत्याह-(इच्छइ इत्यादि) इच्छति वाऽशुद्धतरः संग्रहनयस्तं नमस्कारं संबन्धितया, कस्य ? जीवस्यैव जीवसामान्यस्यैव, नपुनरन्यस्याऽऽद्यभङ्ग-रहितस्य शेषसप्तभङ्गीगतस्याजीवाऽऽदेरिति / / 2880 / / अथ ऋजुसूत्रमधिकृत्याऽऽहउजुसूयमयं नाणं, सद्दो किरिया च जं नमोकारो। होज न हि सव्वहा सो, जुत्तो तकत्तुरन्नस्स / / 2581 // ऋजुसूत्रनयस्येदं मतम्-यद्यस्माज्ज्ञानमुपयोगरूप, शब्दो वा " नमोऽहंदभ्यः " इत्यादिकः, क्रिया वा शिरोनमनाऽऽदिरूपा नमस्कारो भवेद् ? इति त्रयी गतिः। ततोन हि नैव, सर्वथा सर्वैरपि प्रकारः, तत्कार विनाऽन्यस्य युक्तः स नमस्कारः / तस्मान्नमस्कर्तृस्वामिक एवासौ युज्यते, नतु नमस्कार्यस्वामिक इतीह भावार्थः / / 2881 / / कुतः ? इत्याहनाणं जीवाणऽन्नं, तं कहमत्थंतरस्स पुजस्स? जीवस्स होउ कह वा, पडिमाए जीवरहियाए? ||2852 / / (नाणमित्यादि। यदि ज्ञानं नमस्कारस्तदा गुणत्वेन तन्नमस्कर्तुजीवादनन्यदव्यतिरिक्तं वर्तते, तत्कथमर्थान्तरस्य पूज्यस्य नमस्कार्यस्याईदादेः संबन्धि वक्तुं युज्यते ? यदि वा-अघटमानकमप्यभ्युपगम्य ब्रूमः-जीवस्य पूज्यस्यापि संबन्धि तद् भवतु, जीवरहितायास्त्वचेतनायाः प्रतिमायाः कथं वा केन प्रकारेण तद्भवेत् ? तस्या सर्वथा ज्ञानशून्यत्वेन कष्टतरं महासाहसमिदमित्यभिप्रायः / / 2882 // एवं सद्दो किरिया, य सह-किरियावओ जओ धम्मो। नय धम्मो दव्वंतर-संचारी तो न पुजस्स // 2853 / / एवं शब्दः क्रिया च यस्माच्छब्दक्रियावतो नमस्कर्तुर्धर्मः, धर्मश्वन द्रव्यान्तरसंचारी, ततो नपूज्यस्य नमस्कार्यस्यनमस्कार इति॥२८८३॥ कुतः पुनर्धर्मो द्रव्यान्तरसंचारी नस्याद ? इत्याहएवं च कयविणासा-ऽकयागमेगत्तर्सकराऽऽईया। अन्नस्स नमोक्कारे, दोसा बहवो पसजंति॥२८५४ / / एवं ह्यनेन पूजकेन कृते नमस्कारे, अन्यस्य पूज्यस्याभ्युपगम्यमाने बहवोः दोषाः प्रसजन्ति / के ? इत्याह-कृतनाशाकृताऽऽगमैकत्वसङ्कराऽऽदयः। तत्र येन कृतस्यस्यानभ्युपगमात्कृतनाशः,येन चन कृतः पूज्येन, तत्स्वामित्वाभ्युपगमेऽकृताऽऽगमः। तथा-द्वयोरप्यभिन्ननमस्कारधर्मकत्वादेकत्वं, सङ्करो वा / आदिशब्दात्सहोत्पत्तिविनाशाऽऽदय इति / / 2884 // नैगमाऽऽदिनयवादी पूर्वपक्षयन्नाहजइ सामिभावओ होज पूणिज्जस्स सो तों को दोसो ? अत्यंतरभूयस्स वि, जह गावो देवदत्तस्स // 2885 / / यदि पूजकादर्थान्तरभूतस्यापि पूजनीयस्य पूजके स्थितोऽपि स्वामिभावेन स नमस्कारो भवेत् , तर्हि को दोषः स्यात् ? धर्मस्य द्रव्यान्तरे संचरणाभ्युपगमान्न कश्चिदित्यर्थः / यथाऽन्यत्र स्थितानामपि गवा देवदत्तः स्वामीति // 2885 / / ऋजुसूत्र उत्तरमाहअस्सेदं ववएसो, हवेज दव्वम्मि न उगुणे जुत्तो। पडयस्स सुक्कभावो, भन्नइ न हि देवदत्तस्स // 2886 // अन्यत्र स्थितेऽपि गवादिके द्रव्ये, अन्यत्र स्थितस्यापि देवदत्ताऽऽदेरस्येदमिति स्वामित्वव्यपदेशो भवेधुज्यते, गुणे त्वयं न्यायो नयुक्तः; न हि पटस्य शुक्लभावः शुक्लगुणो देवदत्तस्य भण्यते, साङ्कर्यकत्वाऽऽदिदोषप्रसङ्गादिति / / 2856 // पुनरपि परः प्राऽऽहववएसाभावम्मि वि, नणु सामित्तमणिवारियं चेव। अन्नाधाराणं पिहु, सगुणाण व भोगभावाओ / / 2887 // ननु गुणेष्वप्ययं न्यायो दृश्यते एव; तथाहि-अन्याऽऽधाराणामपि देवदत्तसंबन्धिपटाऽऽदिगतानामपि, शुक्लाऽऽदिगुणानामिति शेषः / देवदत्तस्यैते शुक्लाऽऽदिगुणा इति व्यपदेशाभावेऽपि ननु तस्य तत्स्वामित्वमनिवारितमेव / कुतः ? इत्याह-भोग - भावादिति, निजपटाऽऽदिगतशुक्लाऽऽदिगुणानां देवदत्तेन भुज्यमानत्वादित्यर्थः / केषां यथा कस्य स्वामित्वम् ? इत्याह
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________________ णमोकार 1830 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-१ णमोकार यथा-स्वगुणानां रूपाऽऽदीनां देवदत्तस्य स्वामित्वम् / ततः पूजके स्थितस्यापि नमस्कारस्य यदि पूज्यः स्वामी भवेत् , तदा को दोषः? इति प्रकृतम् / / 2887 // ऋजुसूत्रः प्राऽऽह-तथाऽपि पूज्यस्य नमस्कार इति न मन्यामहे / कुतः? इत्याहएवं पिन सो पुज्जस्स तप्फलाभावओ परघणं व। जुत्तो फलभावाओ, सघणं पि व पूजयंतस्स / / 2888 / / एवमपि न स नमस्कारः पूज्यस्य युक्तः, तत्फलस्य स्वर्गाऽऽदेर- / भावात्परधनवदिति / युक्तः पुनरसौ पूजकस्य, स्वर्गाऽऽदेः फलस्य सद्भावात् , स्वधनवदिति।। 2888|| पुनरपि नैगमाऽऽदिनयमतमाशक्य ऋजुसूत्रः परिहरन्नाहनणु पुज्जस्सेव फलं, दीसइ पूया न पूजयंतस्स। नाणुजीवित्तणओ, तं तस्स फलं जहा नभसो / / 2886 / / ननुपूज्यस्यैव पूजालक्षणं फलं प्रत्यकृतो दृश्यते, नतुपूजकस्य, ततः तत्फलाभावादित्यसिद्धो हेतुः। एवं नैगमाऽऽदिवादिना प्रोक्ते ऋजुसूत्रः प्राऽऽह-न तत्तस्य पूज्यस्य पूजालक्षणं फलम् , अनुपजीवित्वात् , यथा नभसः। इह यो यस्यानुपजीवीनतत्तस्य फलं. यथा नभसो दह्यमानागुरुकर्पूराऽऽदिधूमपटलप्रसरत्सुमनोगन्धाऽऽदिफलं न भवति, किंतु तदुपजीवकस्य देवदत्ताऽऽदेरेव, अनुप-जीवी च पूजाया वीतरागः, अतो न तस्य तत्फलं किंतु पूजकस्यै-वेति॥२५८६ / / न य दिष्ठफलत्थोऽयं, जुत्तो पुजस्स वोवगाराय। किं तु परिणामसुद्धी, फलमिटुं सा य पूजयओ / / 2860 / / न च दृष्टमेव प्रत्यक्षं पूजाऽऽदिकं फलगर्थः प्रयोजनं यस्याऽसौ दृष्टफलार्थोऽयं नमस्कर्तुः नमस्कारो युक्तः, नापिच पूज्योपकारायासी, किं त्वनन्तरं परिणामविशुद्धिः फलमिष्टं नमस्कारस्य, परम्पराफलं तु स्वर्गापवर्गाऽऽदि। सा च परिणामशुद्धिः, तच स्वर्गप्राप्त्यादिकं फलं पूजयतः पूजकस्यैव भवति, नतुपूज्यस्येति।तस्मात्स नमस्कारस्तस्य नमस्कत्तुरव, न नमस्कार्यस्येति // 2860 // ऋजुसूत्रनयप्रतिज्ञाहेतुनाऽऽहकत्तुरहीणत्तणओ, तगुणओतप्फलोवभोगाओ! तस्स क्खओवसमओ, तज्जोगाओ य सो तस्स।।२८६१॥ कतुरवाधीनत्वात् , तदधीनत्वं च तेनैव क्रियमाणत्वादिति / तथा तद्गुणत्वाद् , ज्ञानशब्दक्रियारूपत्वेन नमस्कारस्य कर्तुर्गुणत्वादित्यर्थः / तथा-तस्य नमस्कारस्य यत् फलं स्वर्गाऽऽदिकं तदुपभोगादिति। तथा-तस्य नमस्कारस्य यः कारणभूतः कर्मक्षयोपशमः, तस्य कर्तर्येव सद्भावात्, कारणपरित्यागेनच कार्यस्यान्यत्रायोगादिति। तथा-तद्योगात्-तत्परिणामरूपत्वादिति / दृष्टान्तास्तु पञ्चस्वपि हेतुषु स्वधनवदित्यादयः स्वयमभ्यूह्या इति।। 2861 / / अथ शब्दाऽऽदिनयत्रयमतेन स्वामित्वचिन्तामाहजंनाणं चेव नमो, सद्दाऽऽईणं न सद्दकिरियाओ। तेण विसेसेण तथं, वज्झस्स न तेऽणुमण्णंति / / 2862 / / यद् यस्माद् नमो नमस्कारः शब्दाऽऽदिनयमतेनोपयोगरूपं ज्ञानमेव, नतु शब्दक्रिये, शुद्धत्वेन ज्ञानवादित्वात् तेषामिति भावः। तेन विशेषत एवतं नमस्कार ते शब्दाऽऽदयो बाह्यस्य जिनेन्द्राऽऽदेस्तत्प्रतिमाऽऽदेर्वा नाऽनुमन्यन्ते नेच्छन्ति, किंतु तदुपयोगवतोऽन्तरङ्गस्यैव पूजकजीवस्य ते तमिच्छन्ति। इति त्रिंशद्गाथार्थः / / 2862 // गतं कस्येति प्ररूपणाद्वारम्। अथ केनेति द्वारमाहनाणाऽऽवरणिज्जस्सय, दंसणमोहस्स जो खओवसमो। जीवमजीवे अट्ठसु , भंगेसु य होइ सव्वत्थ // 2863 // ज्ञानाऽऽवरणीयस्येत्यनेन मतिश्रुतज्ञानाऽऽवरणद्वयं गृह्यते; नमस्कारस्य मतिश्रुतज्ञानान्तर्गतत्वाद्, ज्ञानस्य च सम्यक्त्वसहचरितत्वादर्शनमोहनीयमप्याक्षिप्यते / ततो मतिश्रुतज्ञानाऽऽवरणद्वयस्य, दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणो यःक्षयोपशमः तेन हेतुभूतेन नमस्कारो लभ्यते ' इत्यध्याहारः / तस्य चाऽऽवरणस्य द्विविधानि स्पर्द्धकानि भवन्ति-सर्वोपघातीनि, देशोपघातीनि च। तत्र सर्वेषु सर्वघातिषु हतेषु देशोपघातिनां च प्रतिसमयमनन्तै गैर्विमुच्यमानः क्रमेण नमस्कारस्य प्रथमं नमस्कारलक्षणमक्षरं लभते / एव-मेकैकवर्णप्राप्त्या समस्तनमस्कार प्राप्नोतीति / गतं केनेतिद्वार-म्। अथ कस्मिन्नितिद्वारमभिधित्सुराह-(जीवमजीवे इत्यादि) मकारोऽलाक्षणिकः / नमस्कारस्य जीवगुणत्वाजीवः, ततो नमस्कारवान् जीवो यदा गजेन्द्राऽऽदौ जीवेऽधिकरणे वर्तते तदा जीवे नमस्कारोऽभिधीयते, यदा तु कटाऽऽद्यजीवे तदाऽजीवेऽसौ व्यप-दिश्यते। यदा तु जीवाजीवोभयाऽऽत्मके वस्तुनि तदा जीवाजीवयोः / इत्येकबहुवचनभ्यां प्रागुक्तेष्वष्टसु भङ्गेषु सर्वत्रायं भवति / / इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 2063 / / विस्तरार्थ त्वभिधित्सुर्भाष्यकारः प्राऽऽहकेणं ति णमोकारो, साहिज्जइ लब्भए व भणियम्मि। कम्मक्खओवसमओ, किं कम्मको खओवसमो? ||2864|| केन हेतुना नमस्कारः साध्यते, लभ्यते वा ? इति भणिते गुरु-राहकर्मक्षयोपशमतोऽसौ लभ्यते / विनेयः प्राऽऽह-किं तत्कर्म, कक्ष क्षयोपशमः? इति।। 2864 // तत्र कर्म तावदाहमइसुयनाणाऽऽवरणं, सणमोहं च तदुवधाईणि। तप्फड्डयाइँ दुविहाइँ सव्वदेसोवघाईणि / / 2865| सव्येसु सव्वधाई-सु हएसु देसोवघाइयाणं च। भागेहिँ मुचमाणो, समए समए अणंतेहिं / / 2866 / / पढम लहइ नकार, एक्केवं वन्नमेवमन्नं पि। कमसो विसुज्झमाणो, लहइ समत्तं नमोकारं / / 2867 / / तिसोऽपि गतार्थाः, नवरं मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिस्पर्द्धकानि तीव्रमन्दमध्यमाऽऽदिभेदभिन्नरसविशेषरूपाणि स्थानान्तरादवसेवानीति॥ 2865 / / 2866 // 2867 / / यदुक्तम्- 'कश्च क्षयोपशमः ?' इति, तत्राऽऽहखीणमुइन्नं सेसय-मुवसंतं भण्णई खआवेसमो। उदयविधाय उवसमो, जा समुइन्नस्स य विसुद्धी॥२८६५|| पूर्वार्द्धमेवोत्तरार्द्धन व्याचष्टे - अनुदितस्योदयविधात उपशमः,
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________________ णमोकार 1531 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार समुदीर्णस्यो दितस्य पुनर्या विशुद्धिः क्षपणं, स क्षय इति शेषः / क्षयेणोपलक्षित उपशमः क्षयोपशम इति समासः // 2868 / / अथ मतिश्रुताऽऽवरणद्वयस्य, दर्शनमोहनीयस्य च क्षयो पशम इह किमिति गृह्यते ? इत्याहसो सुयनाणं मइमणु-गयं च तं जं च सम्मदिट्ठिस्स / तो तल्लामे जुगवं, मइसुयसम्मत्तलाभो त्ति / / 2866 || स नमस्कारस्तावत्स्वयं श्रुतज्ञानं, तच्च श्रुतज्ञानम् ," मइपुव्वं जेण सुयं " इत्यादिवचनान्मत्यनुगतं मतिपूर्वमेव भवति / एते च मतिश्रुते यस्मात्सम्यग्दृष्टरेवं भवतः। ततस्तल्लाभे नमस्कारलाभे, युगपत्समकालं, मतिश्रुतसम्यक्त्वाना लाभो भक्तीति। अतो मतिश्रुतज्ञानाऽऽवरणीयद्यस्य, दर्शनमोहनीयस्य च क्षयोपशमोऽत्र गृह्यत इति / / 2866 // तदेवं व्याख्यातं केनेति द्वारम्। अथ कस्मिन्निति द्वारं व्याचिख्यासुराहकम्हि नमोक्कारोऽयं, बाहिरवत्थुम्मि कत्तुराहारो। नेगमववहारमयं, जीवादावट्ठभेयम्मि / / 2600 / / जं सो जीवाणन्नो, तेण तओ जत्थ सो वि तत्थेव। एगम्मि अणेगेसु य, जीवाजीवोभएसुं च / / 2601 / / कस्मिन वस्तुन्याधारभूते नमस्कारोऽयं भवतीति विनेयेन पृष्ट गुरुराहनैगमव्यवहारमतं तावदिदम्-अष्टभेदे पूर्वोक्तभङ्गाष्टकनिर्दिष्ट नमस्कर्तृजीवस्याऽऽधारभूते जीवाऽऽदौ बाह्यवस्तुनि नमस्कारो भवतीति / / 2600 // कस्मात्पुनर्नमस्तकर्तृजीवाऽऽधारे वस्तुन्ययं भवति ? इत्याह(जमित्यादि) यस्मादसौ नमस्कारो नमस्कर्तृजीवादनन्यः, तेन तस्मात्तकोऽसौ नमस्कर्तृजीवो यत्रैकस्मिन्-जीवे, अजीवे, उभयस्मिन् वा; अनेकेषुजीवेषु अजीवेषु, उभयेषु वा भवति, सोऽपि नमस्कारः, तत्रैव स्याद् , अन्यथा-अभेदायोगादिति / / 2601 / / एवमुक्ते पूर्वापरविरोधमुद्भावयन्नाहनणु नेगमाऽऽइवयणं, पुजस्स तओ कह न तत्थेव? तस्स य न य तम्मि तओ, धन्नं व नरस्स खेत्तम्मि // 2602 / / ननु नैगमाऽऽदिवचनं पूर्वमेवं व्याख्यातम्-पूज्यस्य संबन्धीतको-ऽसौ नमस्कारः, तत्कथमसौ तत्रैव पूज्ये न भवति? सत्यम्-(तस्स यत्ति) तस्यैव पूज्यस्य नैगमाऽऽदिमतेन नमस्कार इति मन्यामहे, न हि किचिद्विस्मृतमिदम् , केवलम् (न य तम्मि तओ त्ति) तस्मिन्नेव पूज्ये तकोऽसौ नमस्कार इति न नियमः / न हि यद्यस्य संबन्धि तस्य स एवाऽऽधारः, अन्यथाऽपि दर्शनात: यथा-धान्यं भवति देवदत्ताssदिनरस्य संबन्धि, नचतत्तत्रैव, किंतु क्षेत्रे आधारभूतेतदिति / / 2602 / / संग्रहमतेन नमस्कारस्याऽऽधारमाहसामन्नमेत्तगाही, सपरजिएयरविसेसनिरवेक्खो। संगहनओऽभिमन्नइ, आहारे तमविसिट्ठम्मि।। 2603 / / व्याख्या पूर्ववत् , नवरमविशिष्ट सामान्यमात्रे आधारे संग्रहस्तं नमस्कार मन्यत इति / / 2603 / / एतदेव भावयति जीवम्मि अजीवम्मि व, सम्मि परम्मि व विसेसणेऽभिन्नो। नय भेदमिच्छइ सया, नमोसामन्नमेत्तस्स / / 2604 / / आधारस्य जीवाऽऽदिविशेषणे कर्त्तव्ये सामान्यवादित्वाद्यस्मादभिन्नोऽभेदतत्परोऽसौ, तस्मादविशिष्ट आधारे नमस्कारं मन्यत इति / न चाऽऽधाराऽऽदिभेदेन नमस्कारसामान्यमात्रस्यापि सदा भेदमिच्छत्यसौ, किं त्वभेदमेवेच्छति, सामान्यवादित्वादेवेति // 2604 / / अथवा-अन्योऽन्यत्र वर्तत इति व्यधिकरणं संग्रहो मूलत एव नेच्छति, इच्छति वा कोऽप्यशुद्धतरो नमस्कार जीव एव, नाजीवे, इत्ये तद्दर्शयन्नाहजीवो नमो त्ति तुल्ला-हिगरणयं वेइ न उस जीवम्मि। इच्छइ वाऽसुद्धयरो, तं जीवे चेव नन्नम्मि / / 2905 || गतार्था / / 2605 // अथ ऋजुसूत्रनयमतेनाऽऽधारचिन्तामाह - उज्जुसुयमयं नाणं, सद्दो किरिया च जं नमोक्कारो। होज न हि सव्वहा सो, मओ तदत्थंतरभूओ / / 2606 / / प्रागुक्तार्था, नवरं न खलु सर्वथाऽसौ नमस्कारः, तस्मात्कर्तुरर्थान्तरभूतो मतः, किंतु कर्तर्येवाऽऽधारे नमस्कार इति भावः / / 2606 / / एतदेव समर्थयतिसुगुणम्मि नमोकारो, तग्गुणओ नीलया व पत्तम्मि। इहरा गुणसंकरओ, सव्वेगत्ताऽऽदओ दोसा / / 2607 // स्वस्याऽऽत्मनो गुणी स्वगुणी, तस्मिन् स्वगुणिनि कर्तरि नमस्कारः, नान्यत्रेति प्रतिज्ञा / तद्गुणत्वादिति हेतुः। पत्रे नीलतावदिति दृष्टान्तः। विपर्यये बाधकमाह-इतरथा-अन्यगुणस्य अन्यत्रगमने, गुणानां परस्परं साङ्कर्याद् , गुणिनां सर्वेषामपि साङ्कयैकत्वा-ऽऽदयो दोषा भवेयुरिति / / 2607 // अत्र कश्चित्प्रेरयतिभिन्नाऽऽधारं पीच्छइ, नणु रिउसुत्तो जहा वसइ खम्मि। दव्वं तत्थाहिगयं, गुणगुणिसंबंधचिंतेयं / / 2608 / / ननु भिन्नाऽऽधारमपि अन्यस्यान्यमप्याधारमृजुसूत्र इच्छत्येव, यथाअनुयोगद्वारेषु वसतिदृष्टान्तमृजुसूत्रमतेनाभिदधता प्रोक्तम्- 'क्व वसति भवान् ?' ' खे आकाशे वसामीति / तत्कथमिह भिन्नाऽऽधारता निषिध्यते ? इति। अत्रोत्तरमाह-(दव्वमित्यादि) इदमत्र हृदयम्-द्रव्यं देवदत्ताऽऽदिकं द्रव्यान्तरे आकाशे वर्तत इति मन्यत एव ऋजुसूत्रः इह तु गुण-गुणिसंबन्धचिन्ता प्रस्तुता। ततोऽन्यगुणोऽन्यत्र वर्तत इतीहासौ न मन्यत इति न कश्चिविरोध इति / / 2608 / / एतदेव व्यक्तीकरोतिसो संमन्नइ न गुणं, निययाहारं तया सयं इहरा। को दोसो जइ दव्वं, हव्वेज दव्वंतराऽऽहारं ? || 2606 / / गतार्था, नवर निजादाधारादाधारान्तरमाश्रयो यस्य स तथा, तमेवंभूतं गुणं न संमन्यतेऽसाविति // 2606 / /
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________________ णमोकार 1832 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार mammummen शब्दाऽऽदिनयमतमधिकृत्याऽऽहजं नाणं चेव नमो, सद्दाऽऽईणं न सद्दकिरिया वि। तेण विसेसेण तयं, वज्झम्मि न तेऽणुमन्नंति / / 2610|| इच्छइ अवि उजुसुओ, किरियं पि स तेण तस्स काए वि। इच्छंति न सहनया, नियमा तो तेसि जीवम्मि / / 2611 / / यद यस्माच्छब्दाऽऽदिमते नमो नमस्कारो ज्ञानमेव, न तु शब्दक्रिये अपि. तेन विशेषत एव तं नमस्कार तत्कर्तुर्जीवाद् बाह्ये वस्तुनि ते शब्दाऽऽदयो नानुमन्यन्त इति॥ 2610 // तर्हि ऋजुसूत्राच्छब्दाऽऽदीनां न कश्चिभेदः, सर्वरपि कर्तरि नमस्कारस्याभ्युपगमात्।तदयुक्तम्। यत इच्छत्यपि ऋजुसूत्रः (किरियं पि) क्रियारूपमपि, अपिशब्दाच्छब्दरूपमपि नमस्कार, तेन तस्य मते " नमोऽर्हद्भ्यः " इत्यादिशब्दमुच्चारयतः शिरोनमनाऽऽदिक्रियां च कुर्वतः कर्तुः कायेऽपि सनमस्कारो भवति / शब्दनयास्तु शब्दक्रियारूपं नमस्कारं नेच्छन्त्येव / किं तूपयोगरूपं ज्ञानमेव तमिच्छन्ति। अतस्तेषां मते नियमात तदुपयोगवति कर्तृजीव एव नमस्कारो, न काये इति विशेषः / इत्यष्टादशगाथार्थः / / 2611 / / व्याख्यातं कस्मिन्निति द्वारम्। अथ कियनिर काले नमस्कारो भवतीति द्वारम् , तत्राऽऽहउवओग पडुचंतो, मुहुत्त लद्धीऍ होइ उ जहन्ना / उकोसहिया छाव-ट्ठि सागरा अरिहाऽऽइ पंचविहो।।२६१२।। उपयोग प्रतीत्य जघन्यतः, उत्कृष्टतच नमस्कारस्यान्तर्मुहूर्त स्थितिर्भवति / लब्धेस्तु तदावरणक्षयोपशमरूपाया जघन्याऽन्तमुहूर्तमेव स्थितिः / उत्कृष्टतस्तु साधिकानि षट्षष्टिः सागरोपमाणि स्थितिर्भवति / इयं च-'' दो वारे विजयाइसु " (2762) इत्यादिना मतिज्ञानाऽऽदीनामिव भावनीयेति द्वारम्। अथ कतिविधा नमस्कार इति द्वारमाह-(अरिहाऽऽह इत्यादि) , अर्हत्सिद्धाऽऽदिपञ्चपदानामादौ नम इति पदस्य निपातात्पञ्चविधो नमस्कारः / इति नियुक्तिगाथाऽर्थः / / 2612 / / अत्र भाष्यम्सो कइविहो त्ति भणिए, पंचविहो भणइ नणु पुराऽभिहियं। / इक्कं नमोऽभिहाणं, केण विहाणेण पंचविहं ? / / 2613 / / स नमस्कारः कतिविधः? इति भणिते पृष्ट गुरुराहपञ्चविध इति। अत्र भणति प्रेरकः-ननु पुरा पूर्व" नेवाइयं पदं ' (2840) इत्यत्राभिहितं प्रतिपादितम् एकमेव नमः' इत्यभिधानम् / तत्केन विधानेन केन भेदेन पञ्चविधमुच्यते ? इति // 2613 // अत्रोत्तरमाहएगं नमोऽभिहाणं, तदरुहयाईयसन्निवायाओ। जायइ पंचविगप्पं, पंचविहत्थोवओगाओ / / 2614 / / सत्यम् , एकविधमेव नमोऽभिधानं, किं त्वर्हदादिपञ्चपदानामादौ / सन्निपातात्पञ्चविधेऽहंदादिके ऽर्थे उपयोगान्नमस्करणक्रिययोपयुज्यमानत्वात्पञ्चविकल्पं पञ्चभेदं जायत इति / / 2614 / अथवा" एक नमोऽभिधानम्" (2614) इत्यसिद्ध नैपातिकमिति, सान्वर्थाभिधानेनैव प्रागपि तस्यानेकविधत्वसूचनाऽऽदिति दर्शयन्नाह अहवऽन्नपयाइनिवा-यणा हि नेवाइयं च ताई च। पंचारुहयाऽऽईणि य, पयाणि तं निवयए जेसु / / 2615 // अथवा-अन्यपदानामादौ निपातानान्नैपातिक पदमिदं प्रागुक्तम्। तच येष्वन्यपदेष्वादौ निपतति तान्यहात्सिद्धाऽऽदीनि पञ्च पदानि, अतः पश्चानामन्यपदानामादौ निपतनान्नैपातिकमित्यन्वर्थत एव पञ्चविधमिदं सामर्थ्यात्प्रागप्युक्तम्। अत्र तु कतिविधो नमस्कार इति द्वारे स एवार्थो व्यक्तीकृत इति / / 2615 // अथवा पूर्व पदद्वार एव पञ्चविधो नमस्कार उक्तः, इह तु कतिविधी भवेत् ? इति द्वारे पञ्चविधानामर्हदादिपदानामर्थः कथ्यत इत्येतदर्शयन्नाहअहवा नेवाइयपय-पयत्थमेत्तामिहाणओ पुव्वं / इहमरिहदाइपंचवि-धपयपयत्थोवदेसणया।। 2616 / / अथवा नैपातिकं यत्पदं तस्य यत्पदार्थमात्रं पश्चानामर्हदादिपदानामादौ निपतनाद् नैपातिकमित्येवंस्वरूपं तस्य यदभिधानं कथन तस्मान्नैपातिकपदपदार्थमात्राभिधानात्पूर्वमेव पदद्वारे सामर्थ्यात् ' पशुविधो नमस्कार उक्तः' इति शेषः / इह तु कतिविधो नम-स्कारः? 'इति द्वारे तेषमिव पञ्चानामर्हदादिपदानां नमोऽर्हद्भ्यो, नमः सिद्धेभ्यो, नम आचार्येभ्यः' इत्यादिको यः पदार्थस्तस्यैवोपदेशना कथना कार्या, तस्या एव प्रागनुक्तत्वादिति // 2616|| अत्र परस्य प्रेर्यमाशक्य परिहरन्नाहनणु वत्थम्मि पयत्थो, नजओ तचकहणं तर्हि जुत्तं / तह वि पयत्थं तत्थे-व लाघवत्थं पवोच्छिहिइ / / 2917 / / नन्वग्रे वस्तुद्वारेऽहंदादिपदानामर्थो वक्ष्यते, तत्कथमुच्यते-' इहाहदादिपदानामर्थोपदेशनात् ' इति? तदेतत्परोक्तन, यतो यस्मादिह 'नमोऽर्हद्भ्यः ' इत्यादिके पदार्थे कथिते सति ततस्तत्र वस्तुद्वारेऽहंदादीनां "देवासुरमणुएसु, अरिहा पूर्यसुरुत्तमा जम्हा। अरिणो हंता रय हता, अरिहंता तेण वुच्चति // 1 // इत्यादिकं, (तचकहणं ति) तत्त्वकथनं स्वरूपनिवेदनं युक्तं भवति। क्रियतांतींव, कथ्यतामत्र पदार्थ इति चेत् / अत्राऽऽह-(तह वि इत्यादि) यद्यप्यत्र पदार्थ कथिते सति तत्र स्वरूपकथनं युज्यते, तथाऽपि नेह पदार्थः कथ्यते, किंतु ग्रन्थलाघवार्थ तत्रैव वस्तुद्वारे पदार्थ वक्ष्यतीति , अन्यथा यत्राहदादिपदानामर्थः, तत्र त्वर्हदादीनां स्वरूपकथनमिति ग्रन्थगौरवमेव स्यादिति गाथापञ्चकार्थः / तदेवमुक्ता षड्विधप्ररूपणा // 2617 // अथ नवविधा तामभिधित्सुराहसंतपयपरूवणया, दव्वपमाणं च खेत्त फुसणा य / कालो य अंतरं भा-गभावअप्पाबहुं चेव / / 2618 / / इति द्वारगाथा / एतैः सत्पदप्ररूपणताऽऽदिभिर्नयभिरिनमस्कारस्य नवविधेयं प्ररूपणा प्रोच्यते // 2618|| तत्र प्रथमद्वारमधिकृत्याऽऽहसंतपयं पडिवन्ने, पडिवजंते य मग्गणा गइसु / इंदिय काए जोए, वेए य कसाय-लेसासु / / 2616 / /
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________________ णमोकार 1933 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमोकार सम्मत्तनाणदंसण-संजयउवओगओय आहारे। भासगपरित्तपज्ज-तसुहुमसन्नी य भवचरिमे / / 2620 // सच तत्पदं च सत्पदं, विद्यमानार्थ पदमित्यर्थः, तचेह नमस्कारलक्षणम् / तस्य नमस्कारलक्षणस्य सतपदस्य पूर्वप्रतिपन्नान् , प्रतिपद्यमानकांश्वाऽऽश्रित्य (मग्गण त्ति) मार्गणा अन्वेषणा कर्त्तव्या / कासु ? चतसृष्वपि गतिषु / तद्यथा-नमस्कारः किमरित, न वा ? अस्तीति ब्रूमः / तत्र चतुष्प्रकारायामपि गतौ नमस्कारस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्याःकदाचिद्भवन्ति, कदाचिन्नेति / एवमिन्द्रियाऽऽदिष्वपि चरमान्तेषु द्वारेषु यथा पीठिकायां मतिज्ञानस्य सत्पदप्ररूपणता कृता, तथा नमस्कारस्यापि कर्तव्या, तयोरभिन्नस्वामित्वेनैकवक्तव्यत्वादिति। तदेवं गतं सत्पदप्ररूपणताद्वारम् / / 2616 / / 2620 / / अथद्रव्यप्रमाणद्वारमुच्यते-तत्र नमस्कारवज्जीवद्रव्यप्रमाणं वक्तव्यम्। एकस्मिन् समये कियन्तो नमस्कारं प्रतिपद्यन्ते, सर्वे वा कियन्त इति? क्षेत्रमिति क्षेत्रं वक्तव्यम्-कियतिक्षेत्रे नमस्कारः रांभवति ? स्पर्शना च वक्तव्या-कियद्भुवं नमस्कारवन्तः स्पृशन्ति। इदं च द्वारत्रयमधिकृत्याऽऽहपलियमसंखेजइमो, पडिवन्नो होज खेत्त लोगस्स। सत्तसु चोद्दसभागे -सु होज फुसणा वि एमेव / / 2621 / / (पलियेत्यादि) इह सूचनात्सूत्रख्यायमर्थ:-नगस्कारस्य प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य लोके कदाचिद्भवन्ति, कदाचिन्नेति / यदि भवन्ति जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टतस्तु सूक्ष्मक्षेत्रे पल्योपमासंख्येयभागप्रदेशराशितुल्या इति / पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागप्रदेशराशिपरिमाणा एव, उत्कृष्ट तस्तेभ्यो विशेषाधिका इति। (खेत्त त्ति) क्षेत्रद्वारमुच्यते-तत्र नमस्कारवान जीव ऊर्द्धमनुत्तरसुरेषु गच्छल्लोकेस्य सप्तसु चतुर्दशभागेषु भवति, अधस्तु षष्ठपृथिव्यां गच्छन् पशसु चतुर्दशभागेषु भवतीति द्रष्टव्य -म् / स्पर्शनाद्वारमप्येवं वक्तव्यम् / क्षेत्रस्पर्शनयोस्तु प्रामुक्तो विशेष इति / / 2621 // कालान्तरभावलक्षणं द्वारत्रयमधिकृत्याऽऽहएगं पडुच हेट्ठा, जहेव नाणाजियाण सव्वद्धा। अंतर पडुचमेगं, जहन्नमंतोमुहुत्तं तु / / 2622 / / उक्कोसणंतकालं, अवड्वपरियट्टगं च देसूणं / णाणाजीवे णत्थि उ, भावे य भवे खओवसमे / / 2623 / / एकं नमस्कारवन्तं जीवं प्रतीत्य (हेट्ठा जहेब त्ति) यथैवाऽधस्तादनन्तरमिहैव " उवओग पडुच्चंतो, मुहुत्तलद्धीएँ होइ उ जहन्ना / ' (2612) इत्यादिना काल उक्तः, तथेहापि वक्तव्यः / नानाजीवानां तु नमस्कारः सद्धिा सर्वकालं भवति, लोके तस्य सर्वदाऽविच्छेदादिति प्रतिपत्तिः। तस्य पुनर्लाभऽन्तरमप्येक जीवं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त भवति // 2622 / / उत्कृष्टतस्त्वपार्द्धपुद्गलपरावर्तलक्षणोऽनन्तकाल इति / नानाजीवास्तु प्रतीत्य नास्त्यन्तरं, तदविच्छित्तेरेवेति / भावे तु क्षायोपशमिके नमस्कारो भवेदिति प्राचुर्यमङ्गीकृत्यैतदुक्तम् , अन्यथा क्षायिकौपशमिकयोरप्येके वदन्ति, क्षायिके यथा-श्रेणिकाऽऽदीनाम् , आपशमिके श्रेण्यन्तर्गतानामिति / / 2623 // भागद्वारमाहजीवाणऽणंतभागो, पडिवन्नो सेसगा अणंतगुणा। वत्थु तरहंताई, पंच भवे तेसिमो हेऊ / / 2624 / / जीवानामनन्ततमो भागो नमस्कारस्य प्रतिपन्नः प्राप्यते / शेषकास्तु तमप्रतिपन्ना मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः / इदं च भागद्वारं गाथायां भावद्वारा पूर्वमुपन्यस्तमपि व्यत्पयेन निर्दिष्ट, विचित्रत्वात्सूत्रगतेः / अल्पबहुत्वद्वारमपि नेह विवृतम् / पीठिकायां मतिज्ञानस्येव च भावनीयमिति / साम्प्रतं चशब्दाऽऽक्षिप्तां पञ्चविधाऽऽदि-प्ररूपणामनभिधाय वस्तुद्वार तावदाह-(वत्थुमित्यादि) वस्तु द्रव्यं दलिक नमस्कारस्य योग्यमहमित्यनर्थान्तरम् , तचेह नमस्कारार्हाः पश्चाईदादयो मन्तव्याः। तेषां च वस्तुत्वेन नमस्कारार्हत्वेऽयं वक्ष्यमाणलक्षणो हेतुः / इति नियुक्तिगाथासप्तकार्थः / / 2624 / / इह" एगं पडुच हेट्ठा जहेव" (2622) इत्यादिना नम स्कारस्य कालद्वार निरूपितम्। अथवा-अन्यथा त चिन्तनीय, कथम् ? इत्याह भाष्यकार:अहवोसप्पुस्सुप्पिणि-कालो नियओ य तस्विसिट्ठोय। तत्थऽत्थि नमोकारो, न व त्ति णेयं जहा सुत्तं / / 2625 / / अथवा-अबोत्सर्पिण्यवसर्पिणीलक्षणः कालो गृह्यते। स च भरतैरवतेषु नियतः प्रतिनियतेन निजस्वरूपेण वर्तते, हैमवतहरिवर्ष-देवकुरूत्तरकुरुमहाविदेहरम्यकरण्यवर्तषु पुनस्तद्विशिष्टः। तस्मादुत्सर्पिण्यवसपिणीकालाद्विशिरो विशेषितस्तत्प्रतिभागरूप एव कालोऽस्ति / तत्र द्विविधेऽपि काल नमस्कारोऽस्ति, न वा ? इति चिन्तायां यथा श्रुतं श्रुतसामायिक पूर्वमुक्तं, तथाऽत्रापि ज्ञेयं, नमस्कारस्यापि श्रुतविशेषरूपत्वादिति / / 2625 / / इह च "संतपयपरूपणया (2618) इत्यादिनवद्वाराणां कि शिवशाख्यातं, किञ्चिन्नेत्यतो भाष्यकारोऽतिदेशमाहमइसुयनाणं नवहा, नंदीए जह परूवियं पुव्वं / तह चेव नमोकारो, सो वि सुयभंतरो जम्हा।। 2626 / / सुगमा / / 2626 / / विशे० / आ० म०। (आभिनिबोधिक श्रुतज्ञानशब्दावलोकनावसेया चेयम्) अथ चशब्दसूचितां पञ्चविधप्ररूपणामाहआरोवणा य भयणा, पुच्छा तह दायणाय निजवणा। एसा वा पंचविहा, परूवणा रोवणा तत्थ / / 2627 / / आरोपणा च भजना, पृच्छा तथा-दायना दर्शना दापना वा, निर्यापना वक्ष्यमाणरूपा, एषा वा प्ररूपणा पश्चविधा ज्ञेया इति / / 2627 // तत्राऽऽरोपणा का? इत्याहकिं जीयो होज नमो, नमो व जीवो तिजं परोप्परओ। अज्झारोवणमेसो, पजणुजोगो मया रुवणा / / 2628 / / कि जीव एव भवेन्नमस्कारः, नमस्कार एव वा जीव इति यत् परस्परावधारणादध्यारोपणं पर्यनुयोजनमेष पर्यनुयोग आरोपणा मता संमतेति / / 2628 //
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________________ णमोकार 1834 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार भजनव्याख्यानमाह नमस्कार एव मत इति भूयोऽवधार्यते। कुतः ? इत्याह-अनन्य इति जीवो नमोऽनमो वा, नमो उ नियमेण जीव इति भयणा। कृत्वा, अनन्यत्वादभिन्नत्वादित्य-र्थः / इदमुक्तं भवति-यथाऽग्न्युपयुक्तो जह चूओ होइ दुमो, दुमो उचूओ अचुओ वा / / 2626 / / माणवकस्तदुपयोगानन्यत्वादग्निरेव भवति, तथा नमस्कारपरिणतो जीवस्तदुपयोगानन्यत्वान्नमस्कार एवं निर्यापनायां भवति / इति जीवस्तावदनवधारित एव नमो नमस्कारो वा स्यात्सम्यग्दृष्टिः, दापनानिर्यापनयोर्विशेष इति / तदेवमभिहिता पञ्चविधाऽपि प्ररूपणा।। अनमोऽनमस्कारो वा स्यान्मिथ्यादृष्टिः / नमो नमस्कारस्त्ववधारितो 2633 // नियमेन जीव एव भवति, अजीवस्य नमस्कारासंभवात्। यथा चूतो द्रुम अथवा चतुर्विधा प्ररूपणा सा, कथम् ? इत्याहएव भवति, द्रुमस्तु चूतोऽचूतो वा खदिराऽऽदिः स्यादिति / एषा पयईएँ अगारेण य, नोगारोभयनिसेहओ वा वि। एकपदव्यभिचाराद्भजनेति / / 2626 / / इह चिंतिज्जइ भुञ्जो, को होज्ज तओ नमोक्कारो ? / / 2634 // पृच्छास्वरूपमाहतो जइ सव्वो जीवो, न नमोकारो उ तो मया पुच्छा। प्रकृत्या स्वभावेन, अकारेण च प्रतिषेधवाचकेन, नोकारेण, निषे धोभयेन च सहितोऽत्र भूयोऽपि नमस्कारश्चिन्त्यते। तत्र प्रकृतिपक्षे सो होज्ज किंविसिट्ठो, को वा जीवो नमोक्कारो? || 2630 // नमस्कारः, अकारसहितस्त्वनमस्कारः, नोकारयुक्तस्तु नोनमततो यदि सर्वोऽपि जीवो न नमस्कारः, किं तर्हि ? कश्चिदेव / ततः स्कारः, निषेधोभयसहितस्तु नोअनमस्कार इति / एवं च चिन्त्यमाने पृच्छा मता पृच्छामो भवतः-यो जीवो नमस्कारः, स किंविशिष्टोभवेदिति ततः कः किं वस्तु नमस्कारोभवेत? उपलक्षणं चेदं, को वाऽनमस्कारः, कथ्यता? को वा जीवो नमस्कारः? इत्यपि निवेद्यतामिति ? एषा कश्च नोनमस्कारः, को वा नोअनमस्कार इत्यपि द्रष्टव्यमिति // 2634 // पृच्छेति / / 2630 // एवं च जिज्ञासिते सतिभाष्यकारः प्राऽऽहदापनानिर्यापनयोाख्यानमाह पयइ त्ति नमोकारो, जीवो तप्परिणओ स चाभिहिओ। अह दायणा नमोका-रपरिणओ जो तओ नमोक्कारो। अनमोकारो परिणइ-रहिओ तल्लद्धिरहिओ वा / 2635 / / निजवणाए सो चिय, जो सो जीवो नमोकारो।। 2631 / / प्रकृतिस्तावन्नमस्कारः / स च कः ? इति यदि पृच्छ्यते, तदाऽसौ अथानन्तरोक्तप्रश्रस्य निर्वचनरूपा दापनोच्यते-किं पुनस्तन्निर्वचनम् ? जीवस्तत्परिणतो नमस्कारपरिणतो नमस्कार इति प्रागभिहितमेव / यो नमस्कारपरिणतो जीवस्तकोऽसौ नमस्कारः, यस्तु तदपरिणतः स अनमस्कारस्तु परिणतिरहितो नमस्कारपरिणतिवर्जितोऽनुपयुक्तः खल्वनमस्कार इति निर्यापनायां स एव नमस्कारपरिणत एव, योऽसौ सम्यग्दृष्टिः। तल्लब्धिविरहितो वा नमस्कारकारणकर्मक्षयोपशमशून्यो जीवः स एव नमस्कारः, नमस्कारोऽपि जीवपरिणाम एव नाजीवपरिणाम वा मिथ्यादृष्टिरिति / / 2635 / / इति / / 2631 // नोनमस्कारस्तर्हि कः? इत्याहअथ दापनानिर्यापनयोः को विशेषः ? इत्याह नोपुव्यो तप्परिणय-देसो देसपडिसेहपक्खम्मि। दायणनिज्जवणाणं, को भेओ दायणा तयत्थस्स? पुणरनमोक्कारो चिय, सो सव्वनिसेहपक्खम्मि।।२६३६।। वक्खाणं निजवणा, पच्चन्भासो निगमणं ति / / 2632 / / नोपूर्वस्तु नोशब्दोपपदो नमस्कारो, नोनमस्कार इत्यर्थः / (तप्पदापनानिर्यापनयोः को भेदः कः प्रतिविशेषः ? अत्रोच्यते-दापना रिणयदेसो ति) देशप्रतिषेधवचने नोशब्दे तत्परिणतस्य नमस्कातदर्थस्य" सो होज किंविसिट्टो, को वा जीवो नमोक्कारो।" (2630) रपरिणामयुक्तस्य सम्यग्दृष्टिजीवस्य देश एकदेशो भण्यते / सर्वइत्येवं पृच्छापृष्टस्य तस्य नमस्कारस्यार्थस्तदर्थो भ-ण्यते। यथा-" निषेधवचने तु नोशब्दे स नोनमस्कारः पुनरप्यनमस्कार एव गम्यत नमोक्कारपरिणओ जो तओ नमोकारो त्ति।" निर्यापना तु दापनाद इति // 2636 // र्शितस्यैवार्थस्य प्रत्याभ्यासः प्रत्युचारणं निगमनं, यथा-स ए नोअनमस्कारः कः? इत्याहनमस्कारपरिणत एव योऽसौ जीवः स एव नम-स्कारः, नमस्कारोऽपि नोअनमोकारो पुण, दुनिसेहपगइगमयभावाओ। जीवपरिणाम एव नाऽजीवपरिणाम इति / एवं च निगमनीयम् / होइ नमोकारो चिय, देसनिसेहम्मि तद्देसो।। 2637|| निगमनकृत एव च दापनानिर्यापनयोर्भेदः, न त्वात्यन्तिक इति नोअनमस्कारः पुन!शब्दस्य सर्वनिषेधपक्षे नमस्कार एव भवति, भावनीयम्॥ 2632 // द्वयोर्निषेधयोः प्रकृतिगमकभावात्" द्वौ नौ प्रकृत्यर्थं गमयतः" इति अथवा-अन्यथाऽनयोर्भेदो दर्श्यते। कथम् ? इत्याह न्यायादित्यर्थः / देशनिषेधवचने तु नोशब्दे तस्य पूर्वोक्तस्वरूपस्य तत्परिणय एव जहा, जीवो अवहिओ वा तहा भुजो। नमस्कारस्यैकदेशः प्रतीयत इति // 2637 / / तप्परिणओ स एव हि, निजवणाएमओऽणन्नो।। 2633 / / इह च" नमस्कारोऽनमस्कारः " इत्यादिभङ्गचतुष्टये यदुपचरितं, अथवा-यथा दापनायां जीवो (अवहिओ त्ति) जीवोऽवधृतो नियमितः / यच वास्तवं, तन्निरियन्नाहतद्यथा-तत्परिणतएव नमस्कारपरिणत एव जीवो नमस्कारो नान्य इति। उवयारदेसणाओ, देस पएस त्ति नोनमोक्कारो। (तहा भुञ्जओ त्ति) तथा तेनैव प्रकारेण निर्यापनायां भूयोऽपि नोअनमोकारो वा, पयइनिसेहाउ सब्भूया।। 2638 // प्रकारान्तरतोऽवधार्यते / कथम् ? इत्याह-(तप्प-रिणओ स एव हि (देस पएस त्ति) इह यथासंख्येन संबन्धः / तृतीयभङ्गे यो ति) यथा दापनायां नमस्कारपरिणत एव जीवो नमस्कार इत्यवघृतं, देशो नमस्कारै क देशो (नो नमोकारो ति) नोनमस्कार तथाऽत्र निर्यापनायां तत्परिणतो नमस्कारपरिणतो जीवः स एव मतो | उक्तः, यश्च चतुर्थ भने प्रदेशोऽनमस्कारैकदेशो (नो अन
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________________ णमोक्कार 1835 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमोक्कार मोक्कारो त्ति) नोअनमस्कारः उक्तः, स उपचारदेशनादिति संबन्धः / औपचारिकत्वं चेह नोनमस्काररूपस्य, नोअनमस्काररूप-च देशप्रतिषेधवचने नोशब्दे संपूर्णस्य वस्तुनोऽभावादिति / अथ सद्भूतभङ्गकप्रतिपादनार्थमाह-(पयईल्यादि) प्रकृतिः प्रथमो भङ्गः, | निषेधस्तु द्वितीयभङ्गः, एतौ द्वावपि सद्भुतौ निरुप चरिता, एतदभगवाच्यस्य नमस्कारानमस्काररूपस्य वस्तुनः संपूर्णस्य सद्भावादिति। तुशब्दादुपरिमावपि द्वौ भङ्गौ सर्वनिषेधवचने नोशब्दे | सति सद्भूताविति द्रष्टव्यम्, तद्वाच्यस्यापि नमस्काराऽनमस्काररूपस्य वस्तुनः संपूर्णस्य सद्भावादिति / / 2638 / / अर्थताँश्चतुरो भङ्गान्नयैर्निरूपयन्नाहसव्वो वि नमोक्कारो, अनमोकारो य वंजणनयस्स। होउं चउरूवो विहु, सेसाणं सव्वभेया वि।। 2939 / / इहशब्दनयास्त्रयोऽपि शुद्धत्वादखण्ड संपूर्ण देशप्रदेशरहितमेव वस्तु इच्छन्ति / शेषास्तु नैगमाऽऽदयोऽविशुद्धत्वाद्देशप्रदेशरूपमपि मन्यन्त इति / एवं च स्थिते व्यञ्जननयस्य त्रिविधस्यापि शब्दनयस्य भगकप्ररूणामात्रेण प्रकृत्यकारनोकारतदुभययोगाचतूरूपोऽपि नमस्कारो भूत्वा परिशिष्टः सर्वोऽपि नमस्कारोऽनमस्कार-श्वेति द्विरूप एवावशिष्यते; प्रथमद्वितीयभङ्गवाच्य एवावतिष्ठते।तृतीयचतुर्थभङ्गको तु तन्मतेनशून्यावेव, तद्वाच्यस्य देशस्य प्रदेशस्य चासत्त्वादिति। शेषाणां तु नैगमाऽऽदिनयाना सर्वे चत्वारोऽपि भङ्गरूपा भेदाः सद्भतार्था एव, तन्मतेन देशस्य प्रदेशस्य च सत्त्वादिति / तदेवमुक्ता चतुर्विधाऽपि प्ररूपणा, तद्भणने च गतं सप्रसङ्गं प्ररूपणाद्वारम्॥ 2636 // विशे० / आ० म० / आ० चू०।" णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो बंभीए लिवीए।" भ०१००१ उ० दशा०। (7) नमस्कारस्याऽऽर्षत्वम्ये तु वदन्ति-नमस्कारपाठ एव नाऽऽर्षः, युक्तिरिक्तत्वात्-सिद्धानामभ्यर्हित्वेन पूर्वमर्हन्नमस्कारस्याऽघटमानत्वात्, आचार्याऽऽदिना सर्वसाधवो न वन्दनीया इति तथास्थितपञ्चमपदानुपपत्तेश्चेति। पापिष्ठतरास्तेऽप्यनाकर्णनीयवाचोऽद्रष्टव्यमुखाः / स्वकपोलकल्पिताऽऽशङ्कया व्यवस्थितसूत्रत्यागायोगात् , ईदृशकदाशङ्कानिराशपूर्वमसंक्षिप्तविस्तृतस्य नमस्कारपाठस्य स्थितक्रमस्य नियुक्तिकृतैव व्यवस्थापितत्वाच। तदाह" न वि संखेवो न वित्थारो, संखेवो दुविह सिद्ध-साहूणं। वित्थरओऽणेगविहो, पंचविहो न जुजए तम्हा / / 3201 / / अरिहंताऽऽई नियमा, साहू साहू उ तेसु भइयव्वा। तम्हा पंचविहो खलु, हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो" ||3202 / / "पुव्वाणुपुविन कमो, नेवय पच्छाणुपुविए सभवे। सिद्धाऽऽईआ पढमा, बीयाए साहुणो आई " // 3210 // अरिहंतुवएसेणं, सिद्धा नजंति तेण अरहाऽऽई। न वि कोई परिसाए, पणमित्ता पणमए रन्नो (एतदर्थस्त्वग्रेऽस्मि-नेव शब्दे आक्षेपद्वारे स्पष्टीभविष्यति।)। 3213 // विशे०। इत्यादिना सामान्यतः सर्वसाधुनमस्करणेन च नास्थानविनयकरणाऽऽदिदुषणम् / अत एव-" सिद्धाण णमो किच्चा, संजयाणं च भावओ।" इत्याधुत्तराध्ययनोक्तं संगच्छत इति / पञ्चपदनमस्कारश्च सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यन्तरभूतो, नवपदश्च समूलत्वात् पृथक् श्रुतस्कन्ध इति प्रसिद्धमाम्नाये। अस्य हि नियुक्तिचूर्यादयः पृथगेव प्रभूता आसीरन् , कालेन तद्व्यवच्छेदे मूलसूत्रमध्ये तल्लेखनं कृतं पदानुसारिणा वज्रस्वामिनेति महानिशीथपञ्चमाध्ययने व्यवस्थितम्। प्रति० / तथा चतद्ग्रन्थःएयं तु जं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स वक्खाणं, तं महया पबंधेणं अणंतगमपज्जवेहिं सुत्तस्स य पियभूयाहिं णिजुत्तिभासचुन्नीहिं जहेव अणंतनाणदसणधरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं, तहेव समासओ वक्खाणिज्जं तं आसि, अहऽन्नया कालपरिहाणिदोसेणं ताओ णिज्जुत्तिभासचुन्नीओ बुच्छिन्नाओ। इओ य वचंतेणं कालेणं समएणं महिड्डिपत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुअहरे समुप्पन्ने / तेण य पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ। मूलसुत्तं पुण सुत्तत्ताए गणहरेहिं अत्थत्ताए अरिहंतेहिं भगवंतेहिं धम्मतित्थयरेहिं तिलोगमहिएहिं वीरजिणिंदेहिं पन्नवियं ति एस वुड्डसंपयाओ। महा०५ अ०1 (तद्विषयोपधानाध्ययनविधिश्च' उवहाण' शब्दे द्वितीभागे 1050 पृष्ठे उक्तः) जहुत्तविहाणेणं चेव पंचमंगलपभिइसुयनाणस्स वि उवहाणं करेजा, से णं गोयमा! नो हीलिज्जा सुत्तं, नो हीलिज्जा अत्थं, णो हीलिज्जा सुत्तत्थोभए, से णं नो आसाइजा तिकालभावी तित्थयरे, णो आसाइजा तिलोगसिहरवासी विहूयरयमले सिद्धे, णो आसाइजा आयरियउवज्झायसाहुणो, सुठ्ठयरं चेव भवेजा पियधम्मे दढधम्मे भत्तिजुत्ते, पसंतेणं भावेज्जा सुत्तत्थाणुरंजियमाणुससद्धासंवेगमावन्नो, से एस णं ण लभेजा पुणो पुणो भववारगे गम्भवासाइयं अणेगहा जंतणं ति। णवरं गोयमा ! जे णं बाले जाव अविनायपुन्नपावाणं विसेसो, ताव णं से पंचमंगलस्स णं गोयमा ! एगंतेणं अउम्गे, तस्स णं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स एगमवि आलावगं ण दायव्वं, जओ अणाइभवंतरसमञ्जियाऽसुहकम्मरासिदहणट्ठमिणं लभित्ता णं न बाले सम्ममाराहेजा / लहुत्तं च जणइत्ता तस्स केवलं धम्मकहाए गोयमा ! भत्ती समुप्पाइज्जा / तओ नाऊण पियधम्मं दढधम्म भत्तिजुत्तं, ताहे जावइयं पचक्खाणं निव्वाहेउं समत्थो भवइ, तावइयं कारवेज्जइ, राईभोयणं च दुविहतिविहवउविहेणं वा जहासत्तीए पचक्खाविञ्जइ, गोयमा ! णं पणयालाए नमोक्कारसहियाणं चउत्थं चउवीसाए पोरिसीहिं वारसहिं पुरिमहिं दसहिं अवड्डेहिं छहिं निटिवइएहिं चउहिं एगट्ठाणगे हिं
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________________ णमोकार 1836 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार दोहिं आयंविलेहिं एगेणं सुद्धत्थायं विलेणं अव्वावारत्ताए रोहज्झाणविगहाविरहियस्स सज्झाएगग्गचित्तस्स गोयमा ! एवमायंबिलं मासक्खमणं विसेसेजा, तओ य जावइयं तवोवहाणमवि समंतो करेजा, तावइयं अणुगणेऊणं जाहे जाणेज्जाजहा णं मत्तियमित्तेणं तवोवहाणेणं पंचमंगलस्स जोग्गीभूओ, ताहे आउत्तो पढेजा, ण अण्णह त्ति / से भयवं ! पभूयं कालाइक्कम एयं, जइ कहमवि अंतराले पंचत्तमुवगच्छे, तओ नमोकारविरहिए कह मुत्तिमढे साहेजा ? गोयमा ! जं समयं चेव सुत्तोवयारनिमित्तेणं असहभावत्ताए जहासत्तीए किंचितवमारभेज्जा, तं समयमेवमहीयसुत्तत्थोभयं दहव्वं / जओ णं सो तं पंचनमोक्कारं सुत्तत्थोभयं ण अविहीए गिण्हे, किं तु तहा गेण्हे, जहा भवंतरेसु वि ण विप्पणस्से, एयस्सेय अज्झवसायत्ताए आराहगो भवेजा। से भयवं ! जेण उण अण्णेसिमहीयमाणाणं सुयावरणखओवसमेण कण्णहारित्तणेणं पंचमंगलमहियं भवेजा, से विय किं तवोवहाणं करेजा ? गोयमा ! करेज्जा / से भयवं केणं अटेणं ? गोयमा ! सुलभबोहिलाभनिमित्तेणं / एवं चेइयाइअकुट्वमाणे नाणकुसीले जेए तहा गोयमा ! णं पव्वआदिवसप्पभिइए जहुत्तविणओवहाणेणं / / महा०३ अ०। " एसो पंचणमुकारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं " // 1 // (8) नमस्कारसूत्रसंपदः / अक्षराणि च पदसंपद्गतानीत्यतोऽक्षरपदसंपदिति द्वारत्रयं प्रस्तावाऽऽयातम् , तत्र चप्रथमं तावत्पञ्चपरमेष्टिनमस्कारमा श्रित्य तदाहवण्णऽट्ठसहि नवपएँ, नवकारे अट्ठ संपया तत्थ। सगसंपय पयतुल्ला, सतरऽक्खर अट्ठमी दुपया / / 226 // अथ कोऽत्र व्याख्यानेऽवसरः, चैत्यवन्दनाविधानस्याधिकृतत्वात् ? सत्यम्। यदा जिनबिम्बाभावे स्थापनाऽऽचार्यपुरतश्चैत्यवन्दना विधीयते, तदाऽनेन पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रेणाऽनाकारस्थापनयाऽक्षाऽऽदिषु जिनाऽऽदयः स्थाप्यन्ते। यदुक्तं बृहद्भाष्ये-" जिणबिंबाभावे पुण, ठवणा गुरुसक्खिया वि कीरंति। चिइवंदण चिय इमा, तत्थ वि परमेडिटवणा उ" || 1 // इति / यथा श्रेयोभूतं चैतत् स्तुतिस्तोत्राऽऽदिप्रधानं चैत्यवन्दनाविधानं स्वर्गापवर्गाबन्ध्यनिबन्धनसम्यग्दर्शनाऽऽदिहेतुत्वात्, तथा चाऽऽगमः" थयत्थुइमंगलेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? थयत्थुइमंगलेण नाणदसण-चरित्त, बोहिलामंच जणयइ। नाणदंसणचरित्तसंपन्नेणं जीव अंत-किरियं कप्पविमाणोववत्तियं आराहेई" इति। अतो निर्विघ्नेनैतद्विधानसिद्ध्यर्थं प्रथमं पञ्चमङ्गलमेव व्यावर्ण्यते / तथा चोक्तं महानिशीथचतुर्थाध्ययने-(तृतीयाध्ययने इति पाठो दृश्यते।)" तस्सय सयलसुक्खहेउभूयस्सन इहदेवयाणमुक्कारविरहिए केइ पार गच्छिना, इट्ठदेवयाणं च नमुक्कारो पंचमंगलमेव गोयमा! नो णमण्णं ति, ता नियमओ पंचमंगलस्सेब पढणं ताव विणओवहाणं कायव्वं / " इत्यलं विस्तरेण) , संप्रति भाष्यगाथा व्याख्यायते-वर्णा अक्षराणि अष्टषष्टिः, नमस्कारे पशपरमेष्ठिमहामन्त्ररूपे भवन्तीति शेषः / उक्तं च-"पंचपयाणं पणतीसवण्ण चूलाइवण्ण तित्तीसं। एवं इमो समप्पइ. फुडमक्खरमट्ठसठ्ठीए'' / / 1 / / तथा नवपदानि विवक्षितावधियुक्तानि " नमोअरिहंताणमित्यादीनि, न तुस्त्याद्यन्तानि / भणितंच-" सत्त 1 पण 2 सत्त 3 सत्त य, 4 नव 5 अट्टय 6 अट्ठ७ अट्ठ 8 नव पहुति। इय पयअक्खरसंखा, असर परेइ अडसट्टी॥१॥"तथाऽष्टौ संपदो विश्रामस्थानानि (तत्थ त्ति)तास्वष्टासु संपत्सुमध्ये क्रमेण सप्त संयदपदैः पूर्वोक्तस्वरूपैस्तुल्याः समानाः / अष्टमी पुनः संपत् सप्तदशाऽक्षरप्रमाणा, पर्यन्तपदवर्तिपदद्वयाऽऽत्मिका च / यथा-" मंगलाणं च सव्वेसि, पढम हवइ मंगलं / ' यदुक्तं चैत्यवन्दनाभाष्यप्रवचनसारोद्धाराऽऽदिषु-'' पंचपरमिट्ठिमंते, पएँ एए सत्त संपया कमसो / पजंते सत्तरऽक्खरपरिमाणा अट्ठमी भणिया / / 1 // " तथा एवं चतुर्थपदस्य पाठः-" नवऽक्खरऽहमी दुपयछट्ठी"। अष्टमी संपत्-" पढम हवइ मंगलं' इति नवाऽक्षरप्रमाणा ज्ञेया। षष्ठी पुनः-" एसो पंचनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो।" इति। द्विपदमाना। अभ्यधायि-"अंतिमचूलाइतियं, सोल १ऽट्ट 2 नवक्खरा तयं चेव 1 / जो पढइ भत्तिजुत्तो, सो पावइ सासयं ठाणं // 4 // " एवं च त्रयस्त्रिशदक्षरप्रमाणचूलिकासहितो नमस्कारो भणनीय इत्युक्तं भवति / तथा चोक्तं बृहन्नमस्कारफले-" सत्त पण सत्त सत्त य, नवऽक्खरपमाणपयडपंचपयं / तित्तीसऽक्खरचूलं, सुमिरह नवकारवरमंतं / / 1 / / " सिद्धान्तेऽपि स्फुटाक्षरैः-'' हवइ मंगलं " इति भणितम् / तथाहि महानिशीथचतुर्थाऽध्ययने सूत्रम्-" तहेव च तदत्थाणुगमिय इक्कारसपयपरिच्छिन ति आलावगतित्तीस-ऽवखरपरिमाणं / ' एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगल // 1 // इय चूल त्ति अहि-जंति त्ति।" तत्र प्रकृतं तदेवम्-"हवइ मंगलं " इत्यस्य साक्षादागमे भणितत्वात् , प्रभुश्रीवज्रस्वामिप्रभृतिसुबहुश्रुतसुविहितसंविग्नपूर्वाऽऽचार्यसंमतत्वाच" पढम हवइ मंगलं " इतिपाठेन अष्टषष्ट्यक्षरप्रमाण एव नमस्कारः पठनीयः। तथा च महानिशीथे-" एवं तुजं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेण अणंतगमपज्जवेहिं सुत्तस्स य पियभूयाहिं निज्जुत्तिभासचुन्नीहिं जहेव अणंतनाणदसणधरेहि तित्थयरेहिं वक्खाणिय, तहेव समासओ धक्खाणिज त आसि। अहऽनया कालपरिहाणिदोसेणं ताओ निश्रुत्तिभासचुन्नीओ वुच्छिन्नाओ, इओ य वञ्चंतेणं कालेणं समएणं महिड्डिपत्ते पयाणुसारी वइरसामी दुवालसंगसुयहरे समुप्पण्णे, तेणेसो पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ, मूलसुत्तं पुण सुत्तत्ताए गणहरेहिं अत्थत्ताए अरिहंतेहिं भगवंतेहिंधम्मतित्थगरेहिं तिलोयमहिएहि वीरजिणिदेहिं पन्नविअंति, एस वुट्टसंघयाओ एत्थ य / जत्थ य पयंपएणाणुलग्गं सुत्तालावगंन संपजइ, तत्थ तत्थ सुयहरेहिं ति जोगवए विकुलिहियदोसोन दायव्वु त्ति, किं तुजो सो एयरस अचिंतचिंतामणिकप्पभूयस्स महानिसीहसुयक्खंधस्स पुटवायरिसो आसि महुराए सुपासनाहवूहे पन्नरस-एहिं उपवासेहिं विहिएहिं सासणदेवीए मम अपिओ तितर्हि चेव खंडाखंडीए उद्दिहियाइएहिं हेऊहिं बहवे पन्नगा परिसमिया,
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________________ णमोकार 1537 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोक्कार तहा वि अचंतसुमहत्थाइसयं ति इमं महानिसीहसुयक्खंध कसिणपवयणस्स परमसारभूयं परं तत्तं महत्थं ति कलिऊण पवयणवच्छलत्तणेणं बहुभव्वसत्तोवयारयं च काउं तहा य आयहियद्वयाए आयरियहरिभद्देणं जंतत्थायरिसे दिट्ट.तं सव्यं समतीए सोहिऊणं लिहिअं ति अन्नेहिं पि सिद्धसेणदिवायरवुड्डवाइजक्खसेणदेवगुत्तजसवद्धणखमासमणसीसरविगुत्तनेमिचंदजिणदासगणिखवगसच्चसिरिपमुहे हि जुगप्पहाणसुयहरेहिं बहु मन्नियमिणं ति।" (महा० 3 अ०) अन्यत्र तु संप्रति वर्तमानाऽऽगमः, तत्र मयं न कुत्राऽप्येवं नवपदाऽष्टसंपदादिप्रमाणो नवकार उक्तो दृश्यते। यतो भगवत्यादावं पञ्चपदान्युक्तानि-" नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, णमो बंभीए लिवीए" इत्यादि। क्वचिद्-" नमो लोए सव्वसाहूणं " इति पाठ इति / तद्वृत्तिप्रत्याख्यानपारणाप्रस्तावे चूर्णावित्युक्तम्-" नमो अरिहताणं 5 " भणित्वा पारयति / नवकारनियुक्तिचूर्णा त्वेवमुक्तम्-"सो नमुक्कारो कमा पयाणि छ वा, दस वा। तत्थ छप्पयाणि नमो 1 अरिहंत 2 सिद्ध 3 आयरिय 4 उवज्झाय 5 साहूणं 6 ति। दश त्वेवम्-" अरिहंताण नमो 3 सिद्धाण 4' इत्यादि / यत्पुननमस्कारनियुक्तावशीतिपदमाना विंशतिगाथाः सन्ति / यथा-" अरिहंतनमुक्कारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ।" (357) इत्यादयस्ता नवकारमाहात्म्यप्रतिपादका न पुनर्नवकाररूपं भवितुमर्हन्ति, बहुपदत्वात् तासाम् , नवकारस्य तु नवपदाऽऽत्मकत्वात्। किश्चतास्वपि गाथासु वर्षशतात् तवयाच पूर्वपूर्वतरप्रतिषु " हवइ '' इति पाठो दृश्यते / श्रीमलयगिरिणाऽप्यावश्यकवृत्तिं कुर्वता वृत्तिमध्ये ता गाथा" हवइ' इति पाठत एव लिखिताः एतन्निश्चयार्थिना तवृत्तिनिरीक्षणीया; इति परमार्थ ज्ञात्वा कदाग्रहाभिनिर्वशाऽऽदिविलसितकल्पितमागमानुक्त' होइ " इति मुक्त्वा साक्षात्परमागतसूत्रान्तर्गतं श्रीवजस्वामिप्रभृतिदशपूर्वधराऽऽदिबहुश्रुतसंविग्नसुविहितव्याख्यातमादृतं" हवइ "त्ति पाठतोऽष्टषष्टिवर्णप्रमाणं परिपूर्ण नवकारसूत्रमध्येतव्यम्। तचैवम्'' नमो अरिहंताण 1, नमो सिद्धाणं 2, नमो आयरियाणं 3, नमो उवज्झायाणं 4, नमो लोए सव्वसाहूणं 5 / एसो पंचनमुक्कारो 6, सव्वपावप्पणासणो ७।मंगलाणं च सव्वेसिं८, पढम हवइ मंगलंह। 1 // अस्य च व्याख्यानं यदेव श्रीवज्रस्वाम्यादिभिः छेदग्रन्थाऽऽदिमध्ये लिखितं, तदेव भक्तिबहुमानातिशयतो विशेषतश्च भव्यसत्त्वोपकारकमिति दर्श्यते। तथाहि-" से भयवं! किमेयस्स अचिंतचिंतामणिकप्पभूयस्स णं पंचमंगलमहासुयक्रोधस्स सुत्तत्थं पण्णत्तं / तं जहा-जे णं एस पंचमंगलमहासुयक्खंधे सेणं सयलागमंतरोववत्ती तिलतेल्लकमलमयरंदसव्वलोयपंचत्थिकायमिव जहत्थकिरियाऽणुरावसंभूयगुणकित्तणे जहिच्छिए य फलप्पसाहगे चेव परमत्थुइवाए। सा य परमत्थुई केसि कायव्वा ? सव्वजगुत्तमाणं / सव्वजगुत्तमुत्तमे य जे केइ भूए, जे केइ भवंति, जे केइ भविस्संति, ते सव्वे चेव अरिहंतादओ चेव नो णमन्नेसिं। ते य पंचहाअरिहंते 1, सिद्धे 2, आयरिए 3. उवज्झाए 4, साहुणो 5 / तत्थ एएसिं चेव गब्भत्थसब्भावो इमो। सं जहा-सनरामरासुररस णं सव्वस्सेव जगस्स अट्ठमहापाडिहेराइपूयाइसओवलविखयं अणनसरिसमर्चितमप्पमेयकेवलाहिद्वियं पवस्त्तमत्तं / (महा०३ अ०)" अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूयसक्कार। सिद्धिगमणं च अरिहा, अरिहंता तेण वुञ्चति " || 1 // (आ० म० द्वि०) सङ्घा० 1 अधि० 3 प्रस्ता०। (6) वस्तुद्वारम्अथ यदुक्तम्-" वत्थुतरहंताऽऽई, पंच भवे तेसिमो हेऊ।" (2624) इति तदेतत्प्ररूपणायामसमर्थितायामन्तराले प्रागुपन्यस्तत्वात्सान्यासिकं कृतमासीत् / तत्रेदानी प्ररूपणायाः समर्थितत्वाद्यथाऽवसराऽऽयात वस्तुद्वारं विस्तरेण व्याचिख्यासुराहवत्थु अरहा पुजा, जोग्गा के जे नमोऽभिहाणस्स। संति गुणरासओ ते, पंचारुहयाऽऽइजाईया।। 2940 / / वस्तु दलिकम् , अर्हाः पूज्याः योग्या नमोऽभिधानस्य के ? इति पृष्ट गुरुराहये नमोऽभिधानस्य योग्यास्ते पा सन्तीति संबन्धः / किंविशिष्टास्ते ? गुणराशयो गुणसमूहाः / पुनः किं प्रकाराः ? इत्याहअहंदादिजातीया अर्हदादिप्रकाराः-अर्हत्सिद्धाऽऽचार्योपाध्यायसाधव इत्यर्थः / तदेवमत्र वस्त्वहंदादयो गुणराशयः सन्ति, इतिगुणगुणिनोरभेद उक्तः / / 2640 / / अथ तयोर्भेदोपचारादिदमाहभेओवयारओ वा, वसंति नाणाऽऽदओ गुणा जत्थ। तं वत्थुमसाहारण-गुणालओ पंचजाईयं / / 2641 / / सुबोधा। नवरं" घटे रूपाऽऽदयः " इत्यादिष्विव गुणगुणिनोर्भेदोपचारादिहेवमुच्यतेवसन्ति ज्ञानाऽऽदयो गुणा यत्र तत्पञ्चप्रकारं वस्त्वस्तीति॥ 2641 // ___ अथ तानेव विशेषेणाऽऽहते अरिहंता सिद्धा-ऽऽयरिओवज्झायसाहवो नेया। जे गुणमयभावाओ, गुणा व पुजा गुणत्थीणं / / 2642 / / ते पञ्चविधवस्तुरूपा अर्हत्सिद्धाऽऽदयो ज्ञेयाः, ये ज्ञानाऽऽदिगुणसमूहमयत्वान्मूर्तज्ञानाऽऽदिगुणा इव गुणार्थिना ज्ञानाऽऽदिगुणाभिलाषिणां भव्यजीवानां पूज्या इति / तदत्राहदादीनां पूज्यत्वे" गुणमयत्वात् " इति हेतुरुक्तः / / 2642 / / अथवा हेत्वन्तस्मप्याहमोक्खत्थिणो व जं मो-क्खहेयओ दसणाऽऽदितियगंव। तो तेऽभिवंदणिज्जा, जइ व मई हेयओ कह ते ? / / 2943 / / यस्माद्वा मोक्षार्थिनी भव्यसत्त्वस्य मोक्षहेतवोऽहंदादयः, ततस्तेऽभिवन्दनीयाः पूज्याः, मोक्षहेतुत्वात् , दर्शनाऽऽदित्रिकवदिति / यदि वा-इहैवभूता परस्य मतिः स्यात्कथं केन हेतुना ते मोक्षहेतवः ? तदा तमपि हेतु कथयामः / इति सप्तदश गाथार्थः / / 2643 / / यथा ते हेतवस्तथाऽऽहमग्गो अविप्पणासो, आयारे विणयया सहायत्तं / पंचविहनमोकारं,करेमि एएहि हेऊहिं / / 2944 // अर्हता नमस्काराऽहत्वे मार्गः सम्यग्दर्शनाऽऽदिलक्षणो हेतुः, यस्मादसौ तैः प्रदर्शितः, तस्माच मुक्तिः, ततश्च पारम्पर्येण मुक्तिहेतुत्वात्पूज्यास्त इति / (अविप्पणासो त्ति) सिद्धानां तु नमस्कारार्हत्वे अविप्रणाशः शाश्वतत्वं हे तुः / तथा- हितदविप्रणाशमवगम्य प्राणिनः संसारवैमुख्येन मोक्षाय घटन्त इति / (आयारे त्ति) आचार्याणां तु नमस्कारार्हत्वे आचार एव हेतुः। तथाहि-तानाचारवत आचारख्यापकांश्च
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________________ णमोकार 1838 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार प्राप्य प्राणिन आचारस्य विज्ञातारोऽनुष्ठातारश्च भवन्तीति। (विण-यय त्ति) उपाध्यायानां तु नमस्कारार्हत्वे विनयता विनयो हेतुः, यतस्तान् स्वयं विनीतान प्राप्य कर्मविनयनसमर्थस्य ज्ञानाऽऽदिविनयस्यानुष्ठातारो भवन्ति। (सहायत्तं ति) साधूना तु नमस्काराऽहत्व सहायत्वं हेतुः, यतस्ते सिद्धिवधूसङ्गमैकलालसानां जन्तूनां तदवाप्तिक्रियासाहाय्यमनुतिष्ठन्तीति। अत एवाऽऽहपञ्चविध नमस्कार करोम्येभिर्हेतुभिरिति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 2644 // विस्तरार्थं त्वभिधित्सुर्भाष्यकारः प्राऽऽहमग्गोवएसणाओ, अरिहंता हेयओ हि मोक्खस्स। तब्भावे भावाओ, तयभावेऽभावओ तस्स / / 2645 / / अर्हन्तो यस्माद् मोक्षहेतवस्तस्मात् पूज्या इति प्रक्रमः / सम्यग्दर्शनाऽऽदेस्तन्मार्गस्योपदेशनादिति हेतुः। श्रुतज्ञानवदिति दृष्टान्तः स्वयं द्रष्टव्यः / यदि नाम ते तन्मार्गमुपदिशन्ति तथाऽपि कथं मोक्षहेतवः ? इत्याह-(तत्भावे इत्यादि) तस्य सम्यग्दर्शनाऽऽदिमार्गस्य भावे भावात्, तदभावे चाभावात् तस्य मोक्षस्येति // 2645 / / यद्येवं, तर्हि सम्यग्दर्शनाऽऽदिमार्ग एव मोक्षहेतुः, तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् तस्य, ये तु तदुपदेशकत्वेन तस्य मार्गस्य हेतवोऽर्हन्तस्ते कथं मोक्षहेतवो न युक्ताः ? इत्येतत्प्रेर्यमाशक्य परिहरन्नाहमग्गो चिय सिवहेऊ, जुत्तो तद्धेयओ कहं जुत्ता? तदहीणत्तणओऽहव, कारण कजोवयाराओ / / 2646 / / प्रेरकोपन्यस्तपूर्वार्द्धमुक्तार्थमेव। उत्तरमाह-(तदहीणत्तणओ इत्यादि) सत्यम, मार्ग एव मोक्षहेतुः, केवलमर्हन्तोऽपि तद्धेतवएव, तस्यापि मार्गस्य तदुपदेशज्ञेयत्वेन तदधीनत्वादिति / अथवा- मोक्षहेतवोऽर्हन्तः, कारणेऽहल्लक्षणे मार्गलक्षणकार्यधर्मस्य मोक्षहेतुत्वस्योपचारादध्यारोपादिति // 2646 // आह-नन्वेतावता मार्गस्योपदेशकत्वेनोपकारिणोऽर्हन्तस्ततो मार्गजन्यस्य मोक्षस्य तेऽपि हेतवोऽभिधीयन्त एव इत्युक्तम् , एवं चातिप्रस डाकथम्? इत्याहमग्गोवयारिणो जइ, पुजा गिहिणो वि तो तदुवगारी। तस्साहणदाणाओ, सव्वं पुजं परंपरया।। 2647 // (तस्साहणदाणाओ क्ति) तस्य मार्गस्य साधनानि यानि वस्त्रपात्राऽऽहारशय्याऽऽसनाऽऽदीनि तद्दानामिति। शेष सुगमम्।। 2647 // | अनोत्तरमाहजं पचासन्नतरं, कारणमेगंतियं च नाणाई। मग्गो तदायारो, सुयं च मग्गो त्ति ते पुजा / / 2648 / / सत्यपि विश्वत्रयस्य परम्परया मार्गोपकारित्वे यत्प्रत्यासन्नतरमैकान्तिकं च मोक्षस्य कारणं ज्ञानाऽऽदित्रय मोक्षस्य मार्ग इति, तस्य दातारस्तावदर्हन्त एव, नतु गृहस्थाः, नापि वस्त्राऽऽहारशय्याऽऽसनाऽऽदीनि तत्साधनानि. तेषामर्हद्भ्यो लब्धस्य ज्ञानाऽऽदित्रयस्योपकारित्वमात्र एव वर्तनादिति / स्वयमपि च मोक्षस्य मार्गोऽर्हन्तः, दर्शनमात्रेणैव भव्यजन्तूनां तत्प्राप्तिहेतुत्वात, अतो ज्ञानाऽऽदिमार्गदातृत्वात् , स्वयमपि च मार्गत्वात्तेऽर्हन्त एव पूज्याः, न तु गृहस्थाऽऽदयः, इति नातिप्रसङ्गः॥ 2648 // एतदेवाऽऽहभत्ताई-वज्झयरो, हेऊ न य नियमओ सिवस्सेव। तद्दायारो गिहिणो, सयं न मग्गो त्ति नो पुज्जा / / 2646 || भक्तपानवस्वाऽऽदिभिर्बाह्यतरो दूरवर्ती परम्परया मोक्षस्य हेतुः / न च ज्ञानाऽऽदित्रयवदसावेव नियमतः शिवस्य मोक्षस्य हेतुः, तमन्तरेणाऽप्यन्तकृत्केवल्यादीनां सिद्धेः / अतस्तस्य बाह्यतरानैकान्तिकहेतोभक्तपानाऽऽदेतारः, तहातारो गृहिणो न पूज्याः, अर्हतामिव तेषामन्तरङ्गैकान्तिकमोक्षहेतुज्ञानाऽऽदित्रयदातृत्वाभावादिति / न च तेऽर्हन्त इव स्वयं मोक्षमार्गः, तद्दर्शनाऽऽदिना मुक्त्यनवाप्तेः, इत्यतोऽपि न ते पूज्या इति / / 2646 / / अथाविप्रणाशलक्षणं सिद्धनमस्कारार्हत्वे हेतुं व्याचिख्यासुराहमग्गेणाणेण सिवं, पत्ता सिद्धा जमविप्पणासेणं / तेण कयत्थत्तणओ, ते पुजा गुणमया जं च / / 2650 / / यद्यस्मात्सिद्धाः संप्राप्तनिर्वाणसुखा अनेन मार्गेण ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणेन शिवं मोक्ष प्राप्ताः / कथम् ? अविप्रणाशेनानुच्छिअसन्तानभावेन, तस्मात्कृतार्थत्वात्ते पूज्याः / अत्र प्रयोगःपूज्याः सिद्धाः, अविप्रणाशबुद्धिजनकत्वेन मार्गोपकारित्वात् , जिनेन्द्रवदिति / (गुणमया जं च त्ति) इतश्च ते पूज्या ज्ञानाऽऽदिगुणसमूहाऽऽत्मकत्वात् , जिनाऽऽचार्याऽऽदिवदिति // 2650 / / अत्र प्रेरकः प्राऽऽहगुणपूयामेत्ताओ, फलं ति तप्पूयणं पवजामो। जं पुण जिणु व मग्गो-दयारिणो ते तयं कत्तो ? // 2651 // गुणानां सम्यग्ज्ञानाऽऽदीनां पूजामात्रतोऽपि फलं विशिष्टं स्वर्गापवर्गाऽऽदिकमस्तीति तत्पूजनं तेषां गुणवतां सिद्धानां पूजनं प्रतिपद्यामहे / यत्पुनरुच्यते-'जिनवत्ते सिद्धा अपि मार्गोपकारिणः ' इति, तत्तेषां सिद्धानां कुतः ? न मन्यामहे एतदित्यर्थः, इह तेषामभावात् , असतश्वोपकारायोगदित्यभिप्रायः // 2651 // अत्रोत्तरमाहजइ तगुणपूयाओ, फलं पवन्नं नणूवगारो सो। तेहिंतो तदभावे, का पूया किं फलं वा से ? / / 2652 / / यदि तद्गुणपूजातो गुणवत्सिद्धगुणपूजनात्फलमस्तीति त्वया प्रतिपन्न, तर्हि नन्वसावेव तेभ्यः सिद्धेभ्य उपकारस्त्वयाऽपि प्रतिपन्नः, अन्यथा तदभावे सिद्धाभावे का तेषां पूजा, किंवा' से 'तस्य पूजकस्य फलम् ? एवं च सति निर्वतावविप्रणाशबुद्धिरपि सिद्धाभावे भवतीत्ययमुपकारस्तेभ्यः किं नेष्यते ? इति॥२६५सा अथवा " अविप्रणाशबुद्धिहेतुत्वान्मार्गोपकारिणः सिद्धाः " इत्ययमर्थोऽन्यथाऽपि साध्यते। कथम् ? इत्याहगंतुरणासाओवा, सम्मग्गोऽयं जहिच्छियपुरस्स। सिद्धो सिद्धेहिंतो, तदभावे पच्चओ कत्तो ? || 2653 //
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________________ गमोक्कार 1836 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार अथवा-अयं सम्यग्दर्शनचारित्रलक्षणो मार्गो यथेप्सितपुरस्य मोक्षनगरस्य सन्मार्ग इत्येवं सिद्धेभ्य एव सिद्धो निश्चितः, नान्यस्मात्। कुतः? इत्याह-(गंतुरणासाओ त्ति) मोक्षपुरं गन्तर्मुमुक्षोरपायाभावतोऽनाशादविप्रणाशात् / तदनाशे च सन्मार्गोऽयं सम्यग्दर्शनाऽऽदिको मोक्षपुरस्य मार्ग इत्येवं मुमुक्षूणां प्रत्ययोत्पादात् / तदभावे तु सिद्धविप्रणाशे कुतोऽयं प्रत्ययः स्यात् ? न कुतश्चिदित्यर्थः / इदमत्र हृदयम्यथा पाटलिपुत्राऽऽदिनगरमार्गः कश्चिद्द्यथेप्सितपुरं गन्तुः सार्थवाहस्य निरपायगमनेनाविप्रणाशात्सन्मार्गोऽयमिति निश्चीयते, एवं सम्यग्दर्शनाऽऽदिको मोक्षपुरमार्गोऽपि तदभीष्ट मोक्षपुरं गन्तुर्भव्यजन्तुसार्थस्य निरपायगमनेनाविप्रणाशात्सन्मार्गोऽयमिति निश्चीयते / अत एवंभूतनिश्यजनकत्वान्मार्गोपकारिणः सिद्धाः, ततः पूज्या इति / / 2653 / / / अपिचमग्गम्मि रुईतदवि-प्पणासओ तप्फलोवलंभाओ। जं नायइ तेहिंतो, नेयरहा तदुवगारो से / / 2654 / / यद्यस्मात्सम्यग्दर्शनाऽऽदिको मोक्षमार्गो यथावदयमित्येव रुचिः प्रीतिर्जायते उत्पद्यते भव्यजन्तूनां (तेहिंतो त्ति) तेभ्यः सिद्धेभ्य एव, नेतरथा नाऽन्यथा / कुतः ? इत्याह-तदविप्रणाशात्-तेषां सिद्धानां शाश्वतभावोपगमात्; तथा-तत्फलोपलम्भात्-तेषामेव सिद्धानां शाश्वतानुपमसुखलक्षणस्यफलस्योपलम्भात्। ततस्तदुपकारोऽसौ मार्गे रुच्याविर्भावलक्षणः सिद्धकृतोऽसाधुपकार इति / / 2654 / / अत्र परमतमाशक्य परिहरन्नाहनणु जिणवयणाउ चिय, तदत्थिया तप्फलोवलंभो य। सचं तहा वि तप्फल-सब्भावाओ रुई होइ।। 2655 / / ननु जिनवचनाजिनोपदेशादेव, तदर्थिता तत्र मार्गे रुचिलक्षणाऽर्थिता, तस्य मार्गस्य यत्फल सिद्धिसुखलक्षणं तदुपलम्भश्च सर्वमिदं जायते, तत्किमविप्रणाशहेतूपन्यासेन ? सत्यम्। तथाऽपि तस्य मार्गस्य यत्फलं सिद्धत्वप्राप्तिलक्षणं तस्य सद्भावादविप्रणाशाच्छाश्वतभावाद्विशेषिततरा मार्गे रुचिर्भवति इति / अतो वक्तव्य एव सिद्धानामविप्रणाशलक्षणो हेतुरिति॥ 2655 // पुनरपि परमतमाशड्क्य परिहरन्नाहअप्प चिय सिवमग्गो, निच्छयओ तह रुई समत्तं ति। मग्गोवयारिणो जह, जिणा तहाखीणसंसारा॥२९५६।। ननु" दुप्पत्थिओ अमित्तं, अप्पा सुप्पत्थिओ हवइ मित्तं। " इत्यादिवचनान्निश्चयतो निश्चयनयमतेनाऽऽत्मैव शिवमार्गो मोक्षमार्गः, तथारुचिश्च सम्यक्त्वमात्मैव नापर इति, अतः किमत्र बाह्येनाविप्रणाशहेतुनोपन्यस्तेन ? सत्यम्। तथाऽपि व्यवहारनयमतेन यथामार्गोपदेशनाजिनास्तीर्थकरा मार्गोपकारिण उच्यन्ते, तथा क्षीणसंसारा अपि सिद्धा अविप्रणाशेन मार्गोपकारिणोऽभिधीयन्त इति न दोषः / / 2656 // अथाऽऽचार्याणामुपाध्यायानां च नमस्कारार्ह हेतुत्वं व्याचिख्यासुराह - आयारदेसणाओ, पुज्जा परमोवगारिणो गुरवो। विणयाऽऽइगाहणावा, उवझाया सुत्तदा जं च / / 2657 / / पूज्याः परमोपकारिणो गुरवः, स्वयमाचारपरत्वात् , परेभ्यश्चाऽऽचारदेशनादिति / तथा-पूज्या उपाध्यायाः, स्वयं विनयवत्त्वात् , शिष्याणा च विनयग्राहणाद्विनयशिक्षणात् / यतश्च सूत्रपाठदास्ते, अतोऽपि पूज्या इति / / 2657 // अथ साधनां पूज्याहत्वकारणम्, तथा-पश्चानामप्य दादीना सामान्य तत्कारणमुपदर्शयन्नाहआयारविणयसाहण-साहजं साहओ जओ दिति। तो पुजा ते पंच वि, तग्गुणपूयाफलनिमित्तं / / 2658 // ततः साधवः पूज्याः; यतः किम् ? इत्याह-(आयार इत्यादि) आचारवत्वाद, विनयवत्त्वाद् , मोक्षसाधने साहाय्यदानात्पूज्यास्ते इति भावार्थः / तथा-सामान्येन पञ्चाप्यर्हदादयः पूज्याः, तद्- गुणानां ज्ञानाऽऽदीना या पूजा, तस्या यत्फलं स्वर्गापवर्गाऽऽदिकं. तन्निमित्त ते भवन्तीति कृत्वा, तद्गुणपूजाफलनिमित्तत्वादित्यर्थः / इति चतुर्दशगाथार्थः / / 2658 // एवं तावत्समासेनार्हदादीनां नमस्कारार्हत्व-द्वारेण मार्गदेशकत्वाऽऽदयो गुणाः उक्ताः / साम्प्रतं संसाराटवीमार्गदेशकत्वभवसमुद्रनिर्यामकत्वषविधजीवनिकावगोपनत्वप्ररूपणाऽऽदिना प्रपञ्चेनहितां गुणानुपदर्श यन्नाहअडवीरें देसयत्तं, तहेव निजामया समुद्दम्मि। छक्कायरक्खणट्ठा, महगोवा तेण वुचंति / / 2656 / / भवाटव्या देशकत्वं मार्गोपदेशकत्वं कृतमर्हद्भिः, तथैव निर्यामकाः संसारसमुद्रे भगवन्त एव, षट्कायरक्षणार्थ यतः प्रयत्नं चकुर्महागोपास्तेनोच्यन्ते // इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 2656 / / अथ "जह निव्वुहपुरमग " इत्यादिका विस्तरार्थप्रतिपादनपराः सप्तदश गाथाः सुगमाः / सति वैषम्ये मूलाऽऽवश्यकटीकाऽनुसारतो भावनीया इति न प्रतिपादिताः। तदेवमुक्तप्रकारेणार्हतां नमस्कारार्हत्वे हेतवो गुणाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं तु प्रकारान्तरेण तद्धे तुभूतानेव गुणान् प्रतिपादयन्नाहरागद्दोसकसाए, य इंदियाणि य पंच वि परीसहे। उवसग्गे नामयंता, नमोऽरिहा तेण वुच्चंति / / 2960 // रागद्वेषकषायान् इन्द्रियाणि च पञ्चाऽपि परीषहान् , उपसन्निमयन्तोऽर्हन्तो नमोऽर्हाः / इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः // 2660 // (एतद्व्याख्यानरूपं भाष्यं तु नेह प्रपश्चितं विस्तरभयात् , किन्तु रागद्वेषाऽऽदिशब्देषु यथास्थानेषुद्रष्टव्यम्) अथ' नामयता नमोऽरिहा" (2660) इत्येतद् व्याचि ख्यासुराहपहवीकरणं नामणमहवा नासणमओ जहाजोगं। नेयं रागाऽऽईणं, तन्नामाओ नमोअरिहा / / 3008 / / रागाऽऽदीनां प्रहीकरणं वश्यभावाऽऽपादनं नमनमुच्यते, मूलतो नाशनं वा / अतो रागाऽऽदीनामेवंविधं नमनं यथायोगं यथाघटमानकं ज्ञेयम्। तन्नामनाच नमो नमस्कारस्याए अर्हन्त इति / / 3008 || साम्प्रतं प्राकृतशैल्या अनेकधार्हच्छन्दनिरुक्त संभव इति
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________________ णमोकार 1840- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोक्कार दर्शयन्नाह-' इंदिय इत्यादि चतस्रो गाथाः, एता अपि तथैव। इदानीममोघताख्यापनार्थमपान्तरालिकं नमस्कारफलमुप दर्शयतिअरहंतनमोकारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए। 3006 || इह नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणनमस्कारश्चतुर्विधो गृहीतः, तत्राईच्छब्देन बुद्धिस्था अर्हदाकारवती स्थापना गृह्यते, तस्या नमस्कारः स्थापनानमस्कार इति व्युत्पत्त्या स्थापनानमस्कारः संगहीतः / (नमोकारो त्ति) इत्यनेन नामनमस्कारः / (कीरमाणे त्ति) अञ्जलिप्रग्रहाऽऽदिना क्रियमाण इत्यनेन द्रव्यनमस्कारः। (भावेण त्ति) अनेन तु भावनमस्कार इति / तत्रार्हन्नमस्कारः क्रियमाणो जीव मोचयति भवसहसात प्रस्तावादनन्तभवेभ्य इत्यर्थः। अनन्तभवमोचनाच मोक्ष प्रापयतीत्युक्तं भवति / यद्यपि च कांश्चितद्- भव एव मोक्ष न प्रापयति तथाऽपि भावेनोपयोगविशेषण क्रियमाणो भावनाविशेषत एवान्यस्मिन्नपि जन्मनि पुनरपि बोधिलाभाय भवति / बोधिलाभश्च निश्चितोऽचिरान्मोक्षहेतुरिति / एवं बाह्याभ्यन्तरेण नामाऽऽदिचतुर्विधविधानेन नमस्कारः क्रियमाणो जीवं भवाद् मोचयति, पुनर्वाधिबीज च जायते / / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 3006 // अत्र भाष्यम्अरहंताऽऽगारवई, ठवणा नाम मयं नमोकारो। भावेणं ति य भावो, दव्वं पुण कीरमाणो त्ति / / 3010 / / इय नामाऽऽइचउव्विह-बज्झऽभंतरविहाणकरणाओ। सो मोएइ भवाओ, होइ पुणो बोहिवीयं च // 3011 / / गतार्थे / / 301013011 // तथा चाऽऽहअरहंतनमोक्कारो, धन्नाण भवक्खयं करंताणं / हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियावारओ होइ।। 3012 / / धनं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणमहन्तीतिधन्याः साध्यादयः, तेषां भवक्षयं तद्भवजीवितक्षपणं कुर्वतां यावज्जीवं हृदयमनुन्मुश्चन् विस्रोतिकाया विमार्गगमनस्यापध्यानस्य चाऽऽवारकोऽर्हन्नमस्कारो भवति / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 3012 / / / भाष्यमधन्ना नाणाऽऽइधणा, परित्तसंसारिणो पयणुकम्मा। भवजीवियं पुणभवो, तस्सेह खयं करिताणं / / 3013 / / इह विस्सोओगमणं, चित्तस्स विसोत्तिया अवज्झाणं / अरहंतनमोकारो, हिययगओ तं निवारेइ / / 3014 / / गतार्थे / 3013 / 3014 / / अथार्हन्नमस्कारस्यैव महाऽर्थता दर्शयतिअरहंतनमोकारो, एवं खलु वण्णिओ महत्थो त्ति। जो मरणम्मि उवग्गे, अभिक्खण कीरई बहुसो।। 3015 / / अर्हन्नमस्कार एवं खलु वर्णितो महार्थ इति महान् अर्थो यस्य स महार्थोऽल्पाक्षरोऽपि द्वादशाङ्गार्थग्राहित्वान्महार्थः / कथं पुनरेतदेवम् ? इत्याह-यो नमस्कारो मरणे प्राणोपरमलक्षणे उपाग्रे समीपभूते / अभीक्ष्णमनवरतं क्रियते बहुशोऽनेकशः। ततश्च महत्यामापदि द्वादशाङ्गी मुक्त्वा तत्स्थानेऽनुस्मरणान्महार्थः // इति नियुक्तिगाथार्थः / / 3015 // कथं पुनदिशाङ्गार्थो नमस्कारः ? इत्याशङ्कय युक्तिमाह भाष्यकार:जलणाऽऽइभए सेसं, मोत्तुं पगरणयं महामोल्लं / जुधि वाऽतिभए घेप्पइ, अमोहमत्थं जह तहेह / / 3016 / / मोत्तुं पि वारसंगं, मरणाऽऽइभएसु कीरए जम्हा। अरहंतनमोकारो, तम्हा सो वारसंगत्थो / / 3017 / / सव्यं पि वारसंगं, परिणामविसुद्धिहेउमित्तागं। तक्कारणभावाओ, कह न तयत्थो नमोकारो? || 3018 / / न हु तम्मि देसकाले, सक्को वारसविहो सुयक्खंधो। सव्वो अणुचिंतेचं, धंतं पि समत्थचिंतेणं / / 3016 / / चतस्रोऽपि सुगमाः, नवरं (देसकाले त्ति) देशः प्रस्तावः, तद्रूपः कालो देशकालः, तस्मिन्मरणलक्षणे देशकाल इति / (धतं पि त्ति) धनितमत्यर्थमिति / / 3016 / 3017 / 3018 / 3016 / / एकस्मिन्नपि यत्र वीतरागोक्त पदे सति जीवः संवेगं गच्छति, येन च पदेन विरागत्वं भवति निर्वेदमुपैति, तत्तस्यैकमपि पदं समस्तमोहजालोच्छेदहेतुत्वात्संपूर्णद्वादशाङ्गरूपं ज्ञानमेव भवति, तत्कार्यकर्तृत्वात् , किं पुनरनेकपदाऽऽत्मको नमस्कार सम्पूर्ण द्वादशाङ्गज्ञान न भविष्यति ? इत्यनया भङ्ग्या नमस्कारस्य द्वादशाङ्गरूपता साधयन्नाहएगम्मि वि जम्मि पए, संवेगं कुणइ वीयरायमए। तं तस्स होइ नाणं, जेण विरागत्तणमुवेइ // 3020 / / एगम्मि वि जम्मि पए, संवेगं कुणइ वीयरागमए। सो तेण मोहजालं, छिंदइ अज्झप्पओगेणं / / 3021 / / ववहाराओ मरणे, तं पयमेकं मयं नमोक्कारो। अन्नं पि निच्छयाओ, तं चेव य वारसंगत्थो / / 3022 / / गतार्था एव, नवरं किं पुनःप्रस्तुते तदेकं पदम् ? इत्याह-"व-वहाराओ '' इत्यादि। यथा लोकव्यवहारे' साम्प्रतमल्पस्तन्दुलः, प्रचुरो गोधूमः, संपन्नो यवः, "इत्यादावनेकमप्येकमुच्यते,तथा मरणसमये क्रियमाणः " पंच नमोकारो "अनेक पदाऽऽत्मकोऽपि व्यवहारत एक पदमत्राभिमतः / निश्चयनयमतेन तदन्यदपि सुबन्तं तिङन्तं वा लघ्वपि यत्संवेगकरं निर्जराफलं पदं तदेतद्वादशाङ्गार्थ इति / / 3020 / 3021 / 3022 // यदुक्तं नियुक्तिकृता-' अभिक्खणं कीरई बहुसो ' / (3015) इति। तत्र किं कारणम् ? इत्याशङ्कयाऽऽहजं सोऽतिनिज्जरत्थो, विंडयत्थो वन्निओ महत्थो वि। कीरइ निरंतरमभि-क्खणं तु बहुसो बहू वारा / / 3023 / / यद् यस्मादसौ नमस्कारोऽतिनिर्जरार्थःयय, तथा द्वादशाङ्गगणिपिटकार्थो महार्थश्वोक्तप्रकारेण वर्णितः, तस्मादभीक्ष्णं निरन्तरं बहुशो बह्ववो वाराः क्रियते // इति गाथाऽष्टकार्थः।। 3023 // अथ नियुक्तिकृदुपसंहरन्नाहअरहंतनमोकारो, सव्वपावप्पणासणो।
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________________ णमोकार 1841 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोक्कार मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं / / 3024 / / अत्र" सव्वपावप्पणासणो '' इत्यस्य व्याख्यानमाहपंसेइ पिवइ व हियं, पाइ भवे वा जियं तओ पावं / तं सव्वमट्ठसाम-नजाइभेयं पणासेइ।। 3025 / / पांशयति मलिनयति जीवमिति पापम् , पिवति वा हितमिति पापम् , पाति वा भव एव रक्षति जीवं, न पुनस्तस्मानिःसर्तु ददातीति पापम् / तच सर्व, कर्मेहाभिप्रेतम् / कथंभूतम् ? इत्याह-(अट्ठसा मन्नजाइभेयं ति) अष्टौ सामान्येन ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदयो जातिभेदा यस्य तदष्टसामान्यजातिभेदं प्रणाशयत्युच्छेदयतीति सर्वपापप्रणाशन इति॥ 3025 / / " मंगलाणं च सव्वेसिं" (3024) ___ इत्यादेव्याख्यानमाहनामाऽऽइमंगलाणं, पढम ति पहाणमहव पंचण्हं। पढम पहाणतरयं, व मंगलं पुव्वभणियत्थं / / 3026 / / अर्हन्नमस्कारलक्षणं मङ्गलं नामस्थापनाऽऽदिमङ्गलानां मध्ये प्रथम प्रधानम, मोक्षलक्षणप्रधानपुरुषाऽर्थसाधकत्वात् / अथवा-प्रस्तुतानामेव पक्षानामर्वत्सिद्धाऽऽदिभावमङ्गलानामेतत्प्रथममाद्यम् . आदावेव निर्दिष्टत्वात् / अथवा-प्रधानतरं प्रथम, सिद्धाऽऽद्यपेक्षयाऽर्हता प्रधानतरपरोपकारार्थसाधकत्वादिति।' मंगालयइ भवाओ," (24) इत्यादिनां च मङ्गलं पूर्वभणितशब्दार्थमेव / इति गाथात्रयार्थः / / 3026 / / इत्यर्हन्नमस्कारः समाप्तः। विशे०। (सिद्धनमस्कारशब्दार्थः' सिद्ध ' शब्देऽभिधास्यते) संप्रति सिद्धनमस्कारवक्तव्यतामाहसिद्धाण नमोकारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए / सिद्धाण नमोकारो, धन्नाण भवक्खयं करेंताणं / हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियाऽऽवारओ होइ। सिद्धाण नमोकारो, एवं खलु वन्नितो महत्थो त्ति। जो मरणम्मि उवग्गे, अभिक्खणं कीरए बहुसो / सिद्धाण नमोकारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, बीयं हवइ मंगलं / / गाथाचतुष्टयमप्यर्हन्नमस्कार इव वेदितव्यम् / उक्तः सिद्धनमस्काराधिकारः। आ० म०१ अ०२ खण्ड। (सिद्धशब्दार्थः 'सिद्ध' शब्दे वक्ष्यते) साम्प्रतमाचार्यनमस्कारावसरःआयरियनमोकारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए / / आयरियनमोक्कारो, धन्नाण भवक्खयं करेंताणं / हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियाऽऽवारओ होइ।। आयरियनमोकारो, एवं खलु वण्णितो महत्थो त्ति। जो मरणम्मि उवग्गे, अभिक्खणं कीरए बहुसो।। आयरियनमोकारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, तइयं हवइ मंगलं / / गाथाचतुष्टयमप्यहन्नमस्कारवदवसेयम् , विशेषस्तुसुगम एव इतयुक्त आचार्यनमस्काराधिकारः / आ०म०१ अ० 2 खण्ड। (आचार्यशब्दार्थस्तु' आयरिय ' शब्दे द्वितीयभागे 302 पृष्ठे निरूपितः) साम्प्रतमुपाध्यायनमस्कारःउवझायनमोक्कारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए।। उवझायनमोकारो, धन्नाण भवक्खयं करेंताणं / हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियाऽऽवारओ होइ।। उवझायनमोक्कारो, एवं खलु वन्निओ महत्थो त्ति। जो मरणम्मि उवग्गे, अभिक्खणं कीरए बहुसो।। उवझायणमोकारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, चउच्छं हवइ मंगलं / / गाथाचतुष्टयमपि सामान्याहन्नमस्कारवदवसेयम् / विशेषस्तु सुगम एवेत्युक्त उपाध्यायनमस्काराधिकारः / आ० म० 1 अ० 2 खण्ड / (उपाध्यायशब्दार्थस्तु' उवज्झाय ' शब्दे द्वितीयभागे 852 पृष्ठे गतः) अथ साधुनमस्कारःसाहूण नमोकारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए। साहूण नमोकारो, धन्नाण भवक्खयं करेंताणं / हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियाऽऽवारओ होइ।। साहूण नमोकारो, एवं खलु वन्नितो महत्थो त्ति / जो मरणम्मि उवगए, अभिक्खणं कीरए बहुसो।। साहूण नमोकारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पंचमं हवइ मंगलं / / इदंगाथाचतुष्टयमप्यर्हन्नमस्कारवदवसेयम् , विशेषस्तु सुखो-न्नेयः। एसो पंचनमोकारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढम हवइ मंगलं !! पाठसिद्धा / तदेवं गतं वस्तुद्वारम्। आ० म०१ अ०२ खण्ड। (10) अथाऽऽक्षेपद्वारं वक्तव्यम्। तत्र परः प्राऽऽहन वि संखेवो न वित्थारो, संखेवो दुविह सिद्धसाहूणं / वित्थरओऽणेगविहो, पंचविहो न जुज्जए तम्हा / / 3201 / / इह किल सूत्रं संक्षेपविस्तरावतिक्रम्य न वर्तते / तत्र संक्षेपवद् यथा सामायिकसूत्रम् , विस्तरवद् यथा चतुर्दश पूर्वाणि / इदं पुनर्नमस्कारसूचनुभयातीतम् , यतोऽत्र न संक्षेपो, नाऽपि विस्तारः। तथा-(संखेवो दुविह त्ति) यद्ययं संक्षेपः स्यात्तततस्तस्मिन् सति द्विविध एव नमस्कारो भवेत्सिद्धसाधुभ्यामिति, परिनिर्वृताऽहंदादीनां सिद्धशब्देन ग्रहणात्, संसारिणां तु साधुशब्देनेति / संसारिणो ह्यर्हदाचार्याऽऽदयो न साधुत्वमतिवर्तन्ते / अथायं विस्तरतः / तदप्ययुक्तम् / यतो वि
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________________ णमोकार 1842 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमोकार स्तरतोऽनेकविधो नमस्कारः प्राप्नोति / तथाहि-ऋषभाऽजितसंभवाऽऽदिभ्यो नामग्राहं सर्वतीर्थकरेभ्यः , तथा-सिद्धेभ्योऽप्येकद्वित्रिचतुष्पञ्चाऽऽदिसमयसिद्धेभ्यो यावदनन्तसमयसिद्धेभ्यः, तथातीर्थलिङ्गप्रत्येकबुद्धाऽऽदिविशेषणविशिष्टेभ्य इत्यादि-भिर्भेदैर्विस्तरतोऽनन्तभेदो नमस्कारः प्राप्नोति। यतश्चैवं, तस्मादमुपक्षद्वयमङ्गीकृत्य पञ्चविधोऽयं नमस्कारो न युज्यत इति॥३२०१॥ तदेवमुक्तमाक्षेपद्वारम्। (11) अथ प्रसिद्धिद्वारम् / तत्र प्रसिद्धिराक्षेपस्य प्रतिविधानमभिधीयते। इह चेदं प्रतिविधानम्-'न संक्षेपो, नाऽपि विस्तरतः ' इत्येतदसिद्धम् , संक्षेपत्वादस्य। अथसंक्षेपकारणवशात्कृतार्थाकृतार्थपरिग्रहेण सिद्धसाधुमात्रक एवोक्त इति चेत्। तदयुक्तम्। कारणान्तरस्यापि सद्भावात्। तथा चाऽऽहअरिहंताऽऽई नियमा, साहू साहू उ तेसु भइयव्वा। तम्हा पंचविहो खलु, हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो / / 3202 / / इहाईदादयो नियमात्साधवः, तद्गुणानामपि तत्र भावात्। साधवस्तु तेष्वर्हदादिषु भक्तव्या विकल्पनीयाः, यतस्ते न सर्वेऽप्यर्हदादयः, किं तर्हि ? के चिदर्हन्तः, येषां तीर्थकरनामकर्मोदयोऽस्ति, केचित्तु सामान्यकेवलिनः, अन्ये त्वाचार्या विशिष्टसूत्रार्थदेशकाः, अपरे तूपाध्यायाः सूत्रपाठकाः, अन्ये त्वेतदविशिष्टाः सामान्यसाधव एव शिक्षकाऽऽदयो, न पुनरर्हदादयः। तदेवं साधूनामर्हदादिषु व्यभिचारात् तन्नमस्करणेऽपि नाऽहंदादिनमस्कारसाध्यस्य विशिष्टस्य फलसिद्धिः। ततश्च संक्षेपेण द्विविधनमस्करणमयुक्तमेव, अव्यापकत्वादिति / अत्र प्रयोगःसाधुमात्रनमस्कारो विशिष्टोऽर्हदादिगुणनमस्कृतिफलप्रापणसमर्थो न भवति तत्सामान्याभिधाननमस्कारकृत्त्वात् , मनुष्यमात्रनमस्कारवद् , जीवमात्रनमस्कारवद्वेति / तस्मात्संक्षेपतोऽपि पञ्चविध एव नमस्कारो, न तु द्विविधः, अव्यापकत्वात; विस्तरतस्तुनमस्कारो न विधीयते, अशक्य-त्वात्। तथा-" मग्गेअविप्पणासो" इत्यादिको यः पूर्व पञ्चविधो हेतुरुक्तः, तन्निमित्तमप्ययं पञ्चविधः सिद्धो भवति / इति नियुक्ति-गाथार्थः / / 3202 // अथ भाष्यकार आक्षेपविवरणमाहनिव्वुयसंसारिकया-कयत्थलक्खणविहाणओ जुत्तो। संखेवनमोकारो, दुविहोऽयं सिद्धसाहूणं / / 3203 / / उसभाऽऽईणमणंतर-सिद्धाऽऽईणं जिणाऽऽइयाणं च। वित्थरओ पंचविहो, न वि संखेवो न वित्थारो / / 3204 / / गतार्थे / / 320313204 // अथ प्रसिद्धिविवरणमाहजइ वि जग्गहणाओ, होइ कयं गहणमरुहयाऽऽईणं / तह विन तग्गुणपूया, जइगुणसामण्णपूयाओ।। 3205 / / परिणामसुद्धिहे, व पयत्तो सा य बज्झवत्थूओ। पायं गुणाहिआओ,जा सा न तदूणगुणलब्भा।। 3206 // जह मणुयाऽऽइग्गहुणे, होइ कयं गहणमरुहयाऽऽईणं / न य तव्विसेसबुद्धी, तह जइसामण्णगहणम्मि।।३२०७।। जइ एवं वित्थरओ, जुत्तो तदणंतगुणविहाणाओ। भण्णइ तदसज्झमओ, पंचविहो हेउभेयाओ / / 3208 / / मग्गोवएसणाई, सोऽभिहिओ तप्पमेयओ भेओ। जह लावगाऽऽइमेओ, दिट्ठो लवणाऽऽइकिरियाओ॥३२०६।। एता अपि गतार्था एव।। 3205 / 3206 // नवरं (तह जईत्यादि) तथा तेनैव प्रकारेण, यतेः साधोः सामान्यं, तद्ग्रहणे, सति नाहदादिविशेषवति बुद्धिरुत्पद्यत इति॥३२०७॥ (तदनंतगुणेत्यादि) तेषामर्हदादीनां ये अनन्ता गुणाः प्रत्येक क्षेत्रकालजातिगोत्रप्रमाणाऽऽकृतिवयःसंयमाऽऽदिविशेषरूपा उपा-धयस्तैः कृत्वा विधानाद् नमस्कारस्य करणादिति।। 3208 || (जह लावगाऽऽईत्यादि) यथा लावक-प्लावक-पाचक-पाठकयाचकाऽऽदीनां लवन-प्लवन-पचन-पठन-याचनाऽऽदिक्रियातो भेदो दृष्टः।। 3206 / / (12) अत्र क्रमद्वारविचारमाहपुव्वाणुपुव्वि न कमो, नेव य पच्छाणुपुविए स भवे / सिद्धाऽऽईया पढमा, विइयाए साहुणो आई / / 3210 / / इह क्रमस्तावद् द्विविधः-पूर्वानुपूर्वी वा, पश्चानुपूर्वी वेति / अनानुपूर्वी किल क्रम एव न भवति, असमञ्जसत्वात्। तत्रायमर्हदादिक्रमः पूर्वानुपूर्वी न भवति, सिद्धानामादावनभिधानादेकान्तकृत-कृत्यत्वेन / यथा-" सिद्धाण नमोकारं, काऊणमभिग्गहं तु सो गिण्हे।" इति वचनादर्हन्नमस्कार्यत्वेन च सिद्धानां प्रधानत्वात्, प्रधानस्य चाऽभ्यर्हितत्वेन पूर्वाभिधानादिति भावार्थः / तथा-नैव च पश्चानुपूर्येष क्रमो भवेत् . साधूनां प्रथममनभिधानात् इहाऽप्रधानत्वात्सर्वपाश्चात्या हि साधवः / ततश्च तानादौ प्रतिपाद्य यदि पर्यन्ते सिद्धाऽभिधानं स्यात् , तदा भवेत्पश्चानुपूर्वी / तस्मात्प्रथमायाः सिद्धाऽऽदित्वात् , द्वितीयायास्तु साध्वादित्वाद् नेयं पूर्वानुपूर्वी, नापि पश्चानुपूर्वी।। इति नियुक्तिगाथार्थः ||3210 // एतदेव भाष्यकारः प्राऽऽहजेण कयत्था सिद्धा, न जिणा सिद्धाऽऽइओ कमो जुत्तो। पच्छक्कमो व जइ सं-जयाऽऽसिद्धावसाणा तो // 3211 // जं च जिणाण वि पुजा, सिद्धा जंतेसि निक्खमणकाले। कयसिद्धनमोक्कारा, करेंति सामाइयं सव्वे / / 3212 / / गतार्थे / / 3211 / / 3212 // अत्रोत्तरमाहअरहंतुवएसेणं, सिद्धा नजंति तेण अरहाऽऽई। न वि कोई परिसाए, पणमित्ता पणमई रनो।। 3213 // इह तावदयं पूर्वानुपूर्वीक्रम एव। यदप्युक्तम्-" सिद्धादिरयं प्राप्नोति " / तदयुक्तम् / यतोऽहंदुपदेशेनैव सिद्धा अपि ज्ञायन्ते, प्रत्यक्षाऽऽदिगोचातीतत्वेनाऽऽगमगम्यत्वात् तेषाम् / तेन तस्मादर्हदादिरेव, पूर्वानुपूर्वीक्रम इति गम्यते। अत एव चाहतामभ्यर्हितत्वमवसेयम्। कृतकृत्यमप्यल्पकालव्यवहितत्वात्प्रायः समानमेवा तथा-नमस्कार्यत्वमप्यसाधकमेव, अर्हन्नमस्कारपूर्वकमेव सिद्धत्वप्राप्तेरहतामपि वस्तुतः सिद्धनमस्कार्यत्वादिति। आह-यद्येवं ताचार्याऽऽदिभिः क्रमः प्राप्तः, अर्हतामप्याचार्या पदेशेन परिज्ञानादिति / तदयुक्तम् / यस्मादह त् सि
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________________ णमोकार 1843 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार द्धयोरेवायं वस्तुतस्तुल्यबलयोर्विचारः श्रेयान , परमनायकपद- वर्तित्वात्तयोः / अचार्यास्त्वहतां परिषत्कल्पा एव वर्तन्ते / नाऽपि कश्चित्परिषदे (पणमित्ता) प्रणामं कृत्वा, ततः प्रणमति राज्ञे; इत्यतोऽप्रेर्यमवेदम् / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 3213 / / भाष्यकारः प्राऽऽहजइएवं आयरिओ-वएसओ जंजिणाऽऽइपडिवत्ती। तेणाऽऽयरियाऽऽइकमो, जुत्तो नो चेदणेगंतो / / 3214 // यद्यहंदुपदेशेन सिद्धा ज्ञायन्त इत्यर्हतामादौ नमस्कारः, तर्देवं सत्याचार्योपदेशत एव यस्माछिनाऽऽदीनामर्हदाऽऽदीनां प्रतिपत्तिभव्यलोकस्योपजायते, तस्मादाचार्यादिरेवक्रमो युक्तः,नचेदेवमिष्यते, तनिकान्तोऽय-यदुपदेशेनयोज्ञायते तस्य प्राधान्यमितरस्य च गुणभाव इति // 3214 / / पर एवाऽऽहजुत्तो व गणहराणं, जिणाऽऽइओ जंजिणोवएसेणं। जाणंति ते विसेसे, सेसा उ गुरूवएसेणं / / 3215 / / काक्का वदति-युक्तो वा गणधराणा गौतमाऽऽदीनामयं जिनाऽऽदिरहंदादिक्रमः, यस्मात्ते गौतमाऽऽदयो जिनस्याऽर्हत एवोपदेशेनावशेषान् सिद्धाऽऽचार्याऽऽदीन् जानन्ति, शेषास्तु गणधरशिष्यप्रशिष्याऽऽदयो निजनिजगुरूपदेशेन सिद्धाऽऽदीनहतश्च जानन्ति, ततः केषाशिदर्हदादिः, केषाश्चिदाचार्याऽऽदिः क्रमस्त्वदभिप्रायतोऽनियमेन भवत्विति // 3215 // तथा पर एवाऽऽहअहवा आयरिउ चिय, सो तेसिं मइ तओ पसत्तो भे। आयरियाऽऽइउ चिय, एवं सइ सव्वसाहूणं // 3216 // अथवा मतिः-स जिनो भगवानाचार्य एव तेषां गणधराणामाचारप्रवर्तकत्वमाश्रित्येति भावः। ततश्चैवं सति-'भे' भवतामाचार्याऽऽदिरेव सर्वसाधूनां गणधराऽऽदीनां क्रमः प्रसक्तः प्राप्त इति / / 3216 / / अत्र सूरिरुत्तरमाहपढमोवएसगहणं, तं चारुहओन सेसएहिंतो। गुरवो वि तदुवइट्ठ-स्स चेव अणुभासया नवरं / / 3217 / / अरहंतगुरूवज्झा-यभावओ तस्स गणहराणं पि। जुत्तो तयाइउ चिय, न गुरु त्ति तओ जिणे न भवे // 3218 // स जिणो जिणाऽऽइसयओ, सो चेव गुरू गुरूवएसाओ। करणाऽऽइविणयणाओ, सो चेव मओ उवज्झाओ॥३२१६॥ इह यद्यप्याचार्याऽऽदयोऽप्यर्हदादीनुपदिशन्ति, तथाऽपि यत्प्रथममुपदेशग्रहणं गणधराणां तदधिकृत्योच्यते। तच्चाऽर्हत एव सकाशाद्, ' न शेषेभ्य आचार्योपाध्यायाऽऽदिभ्यः / येऽपि गुरव आचार्याऽऽदयोऽहंदादीनुपदिशन्ति, तेऽपि तदुपदिष्टस्याहदुपदिष्टस्यैव, केवलमनुभाषकाः, न पुनः स्वातन्त्र्येण देशका इति // 3217 / / अथवा यद्यप्याचार्याऽऽधुपदेशेनाऽर्हन्तो ज्ञायन्त इत्यभ्युपगम्यते, तथाऽप्यर्हदादिरेव क्रमः / कुतः ? इत्याह-(अरहतेत्यादि) गणधराणाम् , अपिशब्दाच्छेषाऽऽचार्याऽऽदीनामपि, तदादिरहदादिरेव क्रमो युक्तः / कुतः ? इत्याह-तस्याऽहत एवार्हदगुरूपाध्यायभावतः / स एव हि महावीराऽऽदिर्भगवानष्टमहाप्रातिहार्याऽऽद्यतिशययोगादर्हन् , स एव तत्त्वोपदेशाऽऽदिभ्यो गुरुराचार्यः, स एव चेन्द्रियकषाययोगाऽऽदिविनयनादुपाध्यायः, ततश्चाऽऽचार्याऽऽदिक्रमेऽपि परेणाऽऽपाद्यमाने सामर्थ्यादर्हदादिरेव क्रमः संपद्यत इति भावः / / 3218 / / न चाऽयं गुरुराचार्य इत्यतो जिनोऽर्हन्न भवेत् , किं तु भवेदेव, जिनातिशययोगादिति। एतदेवाऽऽह-(स जिणो इत्यादि) गतार्था // 3216 // अथ यदुक्तम्-"जच जिणाण वि पुजा सिद्धा" (3212) इत्यादि, तत्राऽऽहजइ सिद्धनमोक्कार, छउमत्थो कुणइ न य तदाईओ। तं पइ तया न दोसो, न हि सो तकालमरुहंतो।। 3220 / / यदि निष्क्रमणकाले भगवाँश्च्छास्थो गुणाधिकानां सिद्धानां नमस्कार करोति, करोतु नाम तदा, न कश्चिद्दोषः / कं प्रति नदोषः ? इत्याह-तं छास्थतीर्थकरं प्रति / न ह्यसौ तत्कालमर्हन, केवलोत्पत्तावेव तभावादिति / यदि छद्मस्थतीर्थकरापेक्षया गुणाधिकाः सिद्धा भवद्भिरपीष्यन्ते, तर्हि कथं छद्मस्थतीर्थकराऽऽदिनमस्कारः ? इति चेत् / तदयुक्तम् / कुतः? इत्याह-न च तदादिश्छद्मस्थतीर्थकराssदिनमस्कार इष्यतेऽस्माभिः, किं तु समुत्पन्नकेवलज्ञानाऽहंदादिरेव / सच केवल्यर्हन् सिद्धाऽऽदिवस्तुस्तोमस्वरूपोपदेशदानतः सिद्धेभ्यो गुणाधिक इत्युक्तमेवेति / अतोऽर्हदादिरेव नमस्कार इति // 3220 / / अत्राऽऽक्षेपपरिहारौ प्राऽऽहएवमकयत्थकाले, सिद्धाऽऽई होउ भण्णइ तया वि। अन्ने संतरुहंता, तओ तयाई तओ निचं / / 3221 / / यदि छद्मस्थतीर्थकरापेक्षया गुणाधिकाः सिद्धाः, तद्येवं सत्यकृतार्थछद्मस्थतीर्थकरकाले सिद्धाऽऽदिनमस्कारो भवतु, न्यायोपपन्नत्यादिति / भण्यतेऽत्रोत्तरम्-हन्त ! यदाऽत्र भरताऽऽदौ छद्मस्थतीर्थकरस्तदाऽपि महाविदेहेष्वन्ये केवलिनोऽर्हन्तःसन्ति, ततस्तदादिरहंदादिरेव, तकोऽसौ नमस्कारो, नित्यं सर्वदा / / इति गाथाऽएकार्थः / / 3221 // तदेवमुक्तं क्रमद्वारम्। (13) अथ प्रयोजनफलयोर्दर्शनार्थमाहएत्थ य पओयणमिणं, कम्मक्खयमंगलाऽऽगमो चेव। इहलोयपारलोइय-दुविहफलं तत्थ दिटुंता / / 3222 / / अत्र च नमस्कारकरणे प्रयोजनमिदम्। यदुत-करणकाल एवाऽऽक्षेपेण ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्षयः, अनन्तकर्मपुद्गलापगममन्तरेण भावतो नमस्कारस्याऽप्यप्राप्ले रित्युक्तमेव / तथा-मङ्गलाऽऽगमश्चैव यः करणकालभावीति, तथा-कालान्तरभावि पुनरैहलौकिकपारलौकिकभेदभिन्नं द्विविधं फलम्। तत्र दृष्टान्ता वक्ष्यमाणलक्षणा इति / 3222 // तदेव द्विविधं फलं तावद्विवृण्वन्नाहइहलोएँ अत्थकामा, आरोग्गं अमिरई य निप्फत्ती। सिद्धी य सग्गसुकुल-प्पञ्चायाऽऽई य परलोए।। 3223 // इहलोके नमस्कारादर्थकाभौ भवतः, आरोग्यं नीरुजत्वमुपजायते। एते चाऽऽर्थादयः शुभविपाकिनोऽस्माद्भवन्ति / तथा चाऽऽहआभिमुख्येन रतिरभिरतिः, सा चेहलोकेऽप्यर्थादिभ्यो भवति, परलोकविषया तु तेभ्य एव, शुभानुबन्धित्वात, निष्पत्तिः ' पुण्यस्य' इति गम्यते। अथवा-' अभिरतेश्च निष्पत्तिः इत्येकवाक्यतैव / तथासिद्धिश्च, मुक्तिश्च, स्वर्गः, सुकुलप्रत्ययाऽऽदिश्च परलोके इत्यस्याऽऽमुष्मिकफलमिति // 3223 / /
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________________ णमोकार 1844 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार (14) अथाऽत्र द्विविधेऽपि फले पूर्वोपक्षिप्तान् दृष्टान्तानाहइहलोयम्मि तिदंडी, सा दिवं माउलुंगवणमेव / परलोए चंडपिंगल, हुंडिय जक्खो य दिटुंता1३२२४। विशे० / इहलोके नमस्कारार्थमुदाहरणं त्रिदण्डी"एगस्स सावगस्स पुत्तो धम्मन यलेइ। सो य सावगो कालगतो। सो वि बाहिराहओ (विवाहिओ) एवं चेव विहरइ। अन्नया तेसिं घरसमीवे परिवायगो आवासितो।सो तेण समं मेत्तिं करेइ। अन्नया भणइआणेह निरुवहयं अणाहं मडयं, जेण ते ईसरियं करेमि। तेण मग्गिओ, लद्धो उव्वद्धो मणुरसो। सो मसाणं नीतो। जंच तत्थ पाउग्गंतं चनीय। सोय दारगो पियरेण नमोक्कार सिक्खावितो, भणितो य-जाहे वीहेज्जासि, ताहे एवं पढिजासि, विज्जा एसा। सोय तस्स मयगस्स पुरतो ठविओ। तस्स य मयगस्स हत्थे असी दिन्नो / परिव्वायगो विज्ज परियट्टेइ / उद्वेतुमारद्धो वेयालो / सो दारगो भीतो हियए नमोकारं परियट्टेइ / सो वेयालोपडितो। पुणो विजवति / पुणो विउट्टिओ। सुटुतरगं परियट्टेइ। पुणो वि पडितो। तिदंडी भणइ-किं वि जाणसि ? भणइ-न किं पि जाणामि / पुणो वि जवइ / तइयवारं पुणो वि उद्वितो / पुणो नमोझारं परियडूइ। ताहे वाणमंतरेण रूसिऊण तं खग्गं गहाय सो तिदंडी दो खंडा कओ।सुवण्णकोडी (खाडी) जातो। अंगोवंगाणिय से जुत्तजुताई काउं सव्वरत्तिं छूट। इस्सरो नमोक्कारपभावेण जातो। जइन होंतो नमोकारो, तो वेयालेण मारिजंतो सो सुवण्णं होंतो"। कामनिष्फत्ती नमोक्कारतो कह ?" एगा साविगा आसी, तीसे भत्ता मिच्छादिट्ठी अण्णं भज्ज आणेउं मग्गइ, तीसे तणए न लब्भइ त्ति / स सवत्तगं ति चिंतेइ-कहं मारेमि ? अण्णया कण्हसप्पो घडए छुभित्ता आणीतो, संगोवितो य / जिमितो भणइ-आणेह पुप्फाणि अमुगे घडए ठवियाणि। सा पविट्ठा अंधकारं ति नमोक्कारं परियदृती चिंतेइ-जइ वि मे कोइ खाएजा, तो पि मे मरंतीए नमोकारो न नस्सिहिति / ता छूढो हत्थो / सप्पो देवयाए अवहितो पुप्फमाला कया। सा गहिया, दिन्नाय से। सो संभंतो चिंतेइ-अण्णाणि एयाणि / पुच्छइ य / तीए कहियंततो चेव घडातो आणीयाणि एयाणि। गतो तत्थ पेच्छइ घडगं, पुप्फगंधं च / न वि तत्थ कोइ सप्पो / ततो आउदो पाए पडितो सव्वं कहेइ, खामेइ य। पच्छा सा चेव घरसामिणी जाया। एवं कामावहो नमो-क्कारो"। आरोग्गाभिरईए उदाहरणं" एग नगरं नदीतीरे खरकम्मिएण सरीरचिंताएनिग्गएणं नदीए युज्झंत माउलुंगं दिटुं / रायाए उवणीयं / स्ना सूयस्स हत्थे दिन्नं / तेण जिम्मियंतस्स उवणीयं पमाणेणवण्णेण गंधेणय अइरित्तं। तस्समणुसस्स राया तुट्ठो। दिण्णा भोगा।राया भणइ-अणुनदीए मग्गह जाव लद्धं भवे / पत्थयणं गहाय पुरिसा गया। दिह्रो वण-संडो। जो फलाणि गेण्हइ सो मरइ / रण्णो कहियं / भणइ-अवस्सं आणेयव्वाणि, गोलग-(अक्ख) पडिया वचंतु। एवं गया आणेति। तत्थ जस्स गोलगो आगतो सो एगो वणे पविसइ। पविसित्ता फलाणि बहिं छुभइ, ततो अण्णे आणेति। जो छुहइ सो मरइ। एवं काले वचंते सावगस्स परिवाड़ी जाया। तत्थ गतो चिंतेइ मा विराहियसामण्णो को विहोज त्ति निसीहियं भणित्ता नमोक्कारं पढंतो दुक्कइ। वाणमंतरस्स चिंता जायाकत्थ मए एयं सुयपुव्वं? णायं, संबुद्धो, वंदइ, भणइ य-अहं तत्थेव साहरामि / गतो रण्णो कहियं / रण्णा संमाणितो। तस्स उस्सीसए दिणे दिणे ठवेइ। एवं तेण अभिरई, भोगाय लद्धा। जीवियातो य किं अन्नं आरोग्गं? राया वि परितुट्टो ति"। परलोगे वि नमोक्कारफलं" वसंतपुरे नयरे जियसत्तू राया। तस्स गणिया साविया / सा चंडपिंगलेण चोरेण समं वसति।अन्नया कयाइतेण स्नोधरं हयं (खायं), हारो आणीतो, भीएहिं संगोविजइ। अण्णया उजाणियाए गमणं। सव्वाओ विभूसियाओ गणियाओ वचंति। तीए सव्वातो अतिसयामित्ति सो हारो आविद्धो। जीसे देवीए सोहारो, तीए दा-सीए सोनातो। कहियं रणो। सा केण सम वसइ? कहिए चंड-पिंगलो गहितो सूले भिन्नो / तीए वि चिंतियं-मम दोसेण मारिओ त्ति सा से नमोकार देइ, भणइय निदाणं / करेहि जहा एयस्स रण्णो पुत्तो आयासि त्ति। कयं निदाणं। अग्गमहिसीए उदरे उववन्नो / दारगो जातो / सा साविया कीलावणधाती जाया / अन्नया चिंतेइ-कालो समो गडभस्समरणस्सय होजा। कयाइरमावती भणइमा रोव चंडपिंगल ! तिजाईसरिया। संबुद्धो राया सतो। सो राया जातो। सुचिरेण कालेणं दो वि पञ्चइयाणि " / एवं सुकुलप्पच्चायातीतं सग्गगमणं सिद्धिगमणमिति। अह वा द्वितीयं उदाहरणं"महुराए नयरीएजिणदत्तो सावगो।तत्थ हुंडिओचोरो नगरंपरिमुसइ / सो कयाइ गहिओ सूले भिन्नो / रन्ना भणियं-पडिचरह बितिया वि से नजिहिं ति। ततो रायमणूसा पडिचरंति। सो जिण-दत्तो सावगो तस्स नाइदूरे वीतीवयइ / सो चोरो भणइ-सावग ! तुममणुकंपगो सि त्ति साइतोऽहं, देह मम पाणियं, जा मरामि / सावगो भणइ-इमं नमोक्कार पढेजा, ते आणेमि पाणियं। जइ वि-स्सारेसि तो ते आणीयं पि न देमि। सो ताए लोलयाए पढइ / सा-वगो वि पाणियं गहाय आगतो! ता बेला पयाय (पचेलं पाहामि) त्तिणमोकारंधोसंतस्सेव निग्गतो जीवो। जक्खो उववन्नो / सावगो तेहिं मणुस्सेहिं गहितो, चोरभत्तदायगो ति रण्णो निवेइयं / राया भणइ-एयं पि सूले भिंदह / आघायणं दिजइ। जक्खो ओहिं पउं-जइ। पेच्छइ सावगं अप्पणोयसरीरं। ततोपव्वयं उप्पाडेऊण नयरस्स उवरिं ठवेइ। भणइ य-सावर्ग भट्टारयं नयाणह, खामेह, मा भे सव्ये चूरेहामि / ततो मुक्को खामितो विभूईए नयरं पवेसितो। नयरस्स पुय्येण जक्खस्स आययणं कयं / एवं नमोक्कारेण फलं लब्भइ।" उक्ता नमस्कारनियुक्तिः। आ० म० 1 अ०२ खण्ड। अथ भाष्यकारः प्रयोजनफलयोर्विवरणमाहसयओवओगकिरिया-गुणलाभो तप्पओयणमिहेव। कालंतरनिप्फत्तिं, फलमिहपरलोगमोक्खेसु // 3225 // कम्मक्खओऽणुसमयं, तल्लाभे चेव तदुवओगाओ। सव्वत्थेसु य मंगल-मविग्घहेऊ नमोकारो / / 3226 / / तस्य नमस्कारस्य प्रयोजनं तत्प्रयोजनमिहै वेहलोक एव / किमिति? अत्रोच्यते-तद्विषयसततोपयोगक्रियया यः कर्मक्षयक्षयोपशमाऽऽदिगुणस्य लाभः / फलं तु नमस्कारस्य (का /
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________________ णमोकार 1845 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार लंतरनिप्फत्तिं ति)। कालान्तरे निष्पत्तिर्यस्य तत्कालान्तरनिष्पत्ति, कालान्तरभावीत्यर्थः / तच (इह त्ति) इहलोके, अर्थकामाऽऽदिकम् / (परलोए त्ति) परलोके स्वर्गाऽऽदिकं, मोक्षे तु जरामरणाभावाऽऽदिकमिति / तदेवं सामान्यतः प्रयोजन फलं चोपदर्शितम् // 3225 / / अथ प्रयोजनं विशेषतो दर्शयति-(कम्मेत्यादि)(तल्लाभे चेव त्ति) तस्य नमस्कारस्य लाभकाल एव, तदुपयोगान्नमस्कारोपयोगादनुसमये कर्मक्षयो भवति / तथा-सर्वार्थेषु च सर्वकार्येषु प्रवृत्तानां मङ्गलमविघ्नहेतुर्नमस्कारः संपद्यत इति॥३२२६|| अत्र कश्चिदाह-" ननु नमस्कारोपयोगात्कर्मक्षयो भ वति" इत्येतत्कुतः? इत्याहसुयमागमो त्तिय तओ, सुओवओगप्पओयणो तं च। आयहियपरिण्णाभा-वसंवराऽऽइ-बहुविगप्पं च // 3227 // तकोऽसौ नमस्कारः श्रुतमागम इत्यर्थः / स च श्रुतोपयोगप्रयोजनः श्रुतोपयोगः प्रयोजनं फलमस्येति कृत्वा / तच्च श्रुतोपयोगप्रयोजनमात्महितभावसंवराऽऽदिभेदेन बहुविकल्पं बहुभेदम् / उक्तं च-" आयहियपरिण्णाभा-वसंवरो नवनवो य संवेगो। निकंपया तओ निजरा य परदेसियत्तं च॥१॥"इत्यादि। अतो नमस्कारस्य श्रुतरूपत्वाद्भवत्येव तदुपयोगात्कर्मक्षय इति॥ 3227 / / (15) अत्र प्रेरकः प्राऽऽहपूयाफलप्पया न हि, नहं व कोवप्पसायविरहाओ। जिणसिद्धा दिटुंतो, वइधम्मेणं निवाऽऽईया।। 3228|| नमस्कारलक्षणायाः पूजायाः फलं पूजाफलं तत्प्रदौ न हि नैव जिनसिद्धौ, कोपप्रसादरहितत्वात् , नभोवदिति। ये तु पूजाफलदाः ते कोपप्रसादरहिता न भवन्ति, यथा नृपाऽऽदय इत्येव वैधपेण दृष्टान्त इति // 3228 // एतदेव समर्थयन्नाहपूयाऽणुवगाराओ, अपरिगहाओ विमुत्तिभावाओ। दूराऽऽइभावओ वा, विफला सिद्धाऽऽइपूय त्ति।।३२२६॥ विफला सिद्धाऽऽदिपूजेति प्रतिज्ञा / हेतूनाह-पूजाया अनुपक्रि- | यमाणत्वात् , तदपरिग्राहित्वाद् , अमूर्तत्वात् , दूराऽऽदिभावात् , नभोवदिति // 3226 // __अत्र प्रतिविधानमाहजिणसिद्धा दिति फलं, पूयाए केण वा पवण्णमिणं? धम्माऽधम्मनिमित्तं, फलमिह जं सव्वजीवाणं / / 3230 // ते य जओ जीवगुणा, तओ न देया न वा समादेया। कयनासाऽकयसंभो-गसंकरेगत्तदोसाओ।। 3231 / / नन्वयमनुक्तोपालम्भः सर्वोऽपि पूर्वोक्तः, यस्माद्" जिनसिद्धाः पूजायाः फलं ददति " इति केनेदं प्रपन्नम् ? धर्माधर्मनिमित्तमेव हि यस्मात् स्वर्गनरकाऽऽदिकं फलमिह सर्वजीवानामिति // तौ च धर्माधर्मो यतो जीवगुणौ, ततो नकस्यापि देयौ दातव्यौ, नाऽपि कुतश्चित्समादेयौ ग्राह्यौ, ज्ञानाऽऽदिगुणवत् / कुतः ? इत्याह-(कयनासेत्यादि) यदि होते जिनसिद्धाः कुपिताः सन्तः कस्याऽपि धर्ममपहरेयुरधर्म च प्रयच्छेयुः, तदा कोपविषयभूतस्य प्राणिनः कृतस्य धर्मस्य नाशः, अकृतस्य चाऽधर्मस्याऽऽगमः स्यात्, प्रसन्ना वा यदि कस्याऽप्याकस्मिकं धर्म प्रयच्छेषुः, अधर्म चापहारेयुः, तदाऽकृतस्य धर्मस्याऽऽगमः, कृतस्य चाधर्मस्य नाशो भवेदिति / एवं यदा ते प्रसन्नाः कुपिता वा कस्याऽपि संबन्धिनौ धर्माधर्मावाच्छिद्यान्यस्यदधुः, अन्यस्य संबन्धिनौ चापरस्य, तदा प्राणिनां परस्परं धर्माधर्मयोः संकरः, एकत्वं वा स्यात् / एवं स्वर्गनरकाऽऽदिके धर्माधर्मफलेऽपि कृतनाशाऽऽदिभावना कार्येति / / 3230 / / 3231 / / अपि चनाणानाबाहसुहं, मोक्खो पूयाफलं जओऽभिमयं / तं नाऽऽयपज्जयाओ, देयं जीवाऽऽइभावो व्व / / 3232 / / ज्ञाने सत्यनाबाधस्य यत्सुखं तद्रूपो यो मोक्षः, स एव यस्मान्नमस्कारलक्षणायाः पूजायाः परमार्थतो मुख्यं फलमभिमतं, स्वर्गाऽऽदेरानुषङ्गिकफलत्वात् / तच यथोक्तं सुखं न कस्याऽपि हेयं दातुं शक्यम्, आत्मपर्यायत्वात् ,जीवचैतन्याऽऽदिभाववत्। ततश्च पूजाफलदाननिषेधे सिद्धसाधनमेवेति॥ 3232 // यदि पूजाफलं न देयं, तर्हि किं देयमिह भवेद् ? इत्याहभत्ताऽऽइ होज देयं,न तदत्थो पूयणप्पयत्तोऽयं / तं पि सकओदयं चिय, बज्झनिमित्तं परो नवरं / / 3233 / / शाल्योदनाऽऽदिरूपं भक्ताऽऽदिकं परस्मै देयं भवेत्, स्थूलपुद्गलस्कन्धमयत्वात् , घटाऽऽदिवत् / केवलं तदर्थो भक्ताऽऽद्यर्थोऽयं पूजनप्रयत्नो न भवति, किं तु मोक्षाऽर्थः / किञ्चतदपि भक्ताऽऽदिकं स्वकृतात्कर्मण उदय उत्पत्तिर्यस्य तत्स्वकृतोदयं, स्वकृतकर्मजनितमेवेत्यर्थः / यस्तु परः कश्चिद्दाता दृश्यते, स केवलं बाह्यनिमित्तमात्रमेव। निश्चयतस्तु बाह्यो न कोऽपि कस्यापि दाता, अपहर्ता चेति॥ 3233 // एतदेव समर्थयन्नाहकम्मं सुहाऽऽइहेऊ, वज्झयरं कारणं जया देहो। सद्दाऽऽइ वज्झतरयं, जइ दायरि कहा का णु ? / / 3234 // तम्हा सकारणं चिय, सुहाऽऽइ वझं निमित्तमेत्तायं / को कस्स देइ हरइ व, निच्छयओ का कहा सिद्धे ? // 3235 / / यदि हन्त! सुखदुःखानामन्तरङ्गं कर्मव हेतुः, देहस्तु यदा तेषां बाह्यतरं कारणं, शब्दरूपाऽऽदिकं तु शुभाशुभमपि बाह्यतरं कारणं, तदाऽतिबाह्यतरादपि परभूते दातरि काऽत्र किल कारणत्वकथा ? इति / / 3234 // तस्मात्स्वमात्मीयं कर्मव कारण यस्य तस्वकारणमेव सुखाऽऽदि,बाहांतुदेहशब्दरूपाऽऽदिकं निमित्तमात्रकमेव ततो निश्चयतः कः कस्मै ददाति, अपहरति वा ? न कश्चिदित्यर्थः / तथा च सति क्षीणरागद्वेषे सिद्धे का नमस्कारफलदातृत्वकथा ? इति // 3235 // अत्र परप्रेथ परिहारं चाऽऽहजइ सव्वं सकयं चिय,न दाणहरणासइफलमिहाऽऽवन्नं / णणु जत्तो चिय सकयं, तत्तो चिय तप्फलं जुत्तं / / 3236 / / दाणाऽऽइपराणुग्गह-परिणामविसेसओ सओ चेव। पुन्नं हरणाऽऽइपरो-वघायपरिणामओ पावं / / 3237 / / तं पुन्नं पावं वा, ठियमत्तणि बज्झपच्चयावेक्खं / कालंतरपागाओ, देइ फलं न परओ लब्भं / / 3238 / / यद्युक्तप्रकारेण यल्लोकः शुभमशुभं वा फलमनुभवति, तत्स
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________________ णमोकार 1946 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोक्कार व स्वकृतमेवेष्यते, न पुनः कोऽपि कस्याऽपि किमपि ददात्यपह-रति या; तर्हि दानापहरणाऽऽदीनामिह दातुरपहर्तुर्वा न किशित्फलमित्यापन्नं, स्वकृतस्यैव फलेन तस्य प्राप्तत्वादिति / सूरिराहननु यत एव तत्स्वकृतं, तत एव तत्फलं दातुरपहर्तुश्च युक्तम् / दाता हि दानसमये परानुग्रहपरिणामविशेषात्स्वत एव पुण्यं बध्नाति; अपहर्ता तु परोपघातपरिणामात् स्वत एव पापं बध्नाति / अतस्तयोस्तत्पुण्यपापलक्षणं फलं स्वकृतमेवेति कथं न युक्तम् ? युक्तमे-वेति॥३२३६॥ एतदेवाह-(दाणाऽऽईत्यादि) आदिशब्दाच्याऽऽदिपरिग्रहः / (सओ चेव ति) स्वत एव स्वकृतमेव दातुः पुण्यं, स्वत एव चापहर्तुः पापम् / शेष गतार्थमिति // 3237 // तच पुण्यं पापं वा स्वपरिणामजनितमात्मन्येव स्थितं, किं तु बाह्यनिमित्तमात्रापेक्षं कालान्तरे विपाकाच्छुभमशुभं वा फलं ददातीति" पर-कृतम्" इति व्यपदिश्यते, न पुनः परमार्थतस्ततत् पुण्यपापफलं परतो लभ्यमिति // 3238 // ननु परतस्तल्लाभे को दोषः ? इत्याहजइ वा परलहियव्वं, तत्तो चिय जेण तप्परिग्गहियं / तो तम्मि सिवं पत्ते, कुगइगए वा कुओ लब्भं? // 3236 / / स्पष्टा / / 3236 / / अपि च-यदि येन यहत्तं तस्मै तद्देयम् , यस्य चाऽऽपहृतमसावपि तस्याऽऽहरति, तीदं दूषण म्। किं तत् ? इत्याहलहइ अदितो न कओ, साहू जं देज पुव्वदायस्स? कत्तोऽवहारिणो तं,जं पडिहीरिज से धणिणो / / 3240 / / अहव मई जं तेण वि, दिन्नं अण्णस्स तं तओ लर्छ। पडिदेइ तहाऽऽहारी, हारीओ अन्नओ लड़े / / 3241 // वा अथवा, इह निर्ग्रन्थत्वेन साधुनमदददप्रयच्छन्मृत्वा भवान्तरं प्राप्तः पूर्वमदत्तत्वात्कुतः कस्मादाहाराऽऽदिणं तल्लभते, यत्पूर्वभवसंबन्धिन आहाराऽऽदिदातुस्तदानी दद्यात् ? इति। यो वा पूर्वभवे कस्याऽपि संबन्धिनमपहृत्य मृतो जन्मान्तरे निःस्वो जातः (से) तस्य परधनाऽपहारिणः कुतस्तद्धनं यत्पूर्वभवनिना प्रतिहियते ? इति / / 3240 // अथ मतिः परस्य भवेत्-तेनापि यदनेकभवेष्वन्यस्याऽऽहाराऽऽदिकं दत्तं तत्ततो लब्ध्या पूर्वभवदातुः प्रतिददाति।तथा-योऽपि पूर्वभवे परधनमपहृत्येहभवे निःस्वो जातस्तस्यापि संबन्धिन नानाभवेष्वन्येनान्येन वाऽपहृतमास्ते, ततश्चासौ ततः स्वधनापहारिणोऽन्यतः सकाशात्स्वापहृतं लब्ध्वा यस्य सत्कं तेन पूर्वमपहृतं तस्मै, 'प्रतिदद्यात्, इति शेषः / / 3241 / / तदेतत्सर्वमयुक्तम् , कुतः? इत्याहएवं होउऽणवत्था, दाणग्गहणाणमपरिभोगोय। जइ परओ लद्धव्वं, दिन्नं वा तस्स तं चेव / / 3242 // यदि दानाऽऽदिविषयस्वपरिणामवशात्पुण्यपापे नेष्येते, किंतु यद्यस्मै दत्तं तत्तस्मादेव परतो लभ्यमित्यभ्युपगम्यते। यस्माद्वा यदाहाराऽऽदिकं कदाऽपि लब्धं, तस्यैवाऽन्यदा दत्त, न पुनायके न ग्राहकस्य किमप्यधिकं कृतमिति चेष्यते; तदैवं सति दानग्रहणयोरनवस्था प्राप्नोति; यस्मै दानं तस्मात्पुनर्ग्रहणं, पुनरपि चान्यस्मै दानं, पुनरपि तस्माद् ग्रहणमित्यादि। ततश्च दानग्रहणपरम्पराव्यापृतस्य मोक्षाभाव प्रसङ्गः,दानफलस्य च स्वयमपरिभोगः प्राप्नोति, अन्योन्यदानग्रहणाभ्यामायव्ययविशुद्धत्वादिति / / 3242 / / तदेवं तीर्थकविशेषाणां सौस्नातिकाऽऽदीनां मतमपा कृत्योपसंहारपूर्वकं स्वाऽभिमतमुपदर्शयन्नाहतम्हा सपराणुग्गह-परिणामाओ सुपत्तविणिओगा। दाया पुण्णं पावइ, जं तत्तो से फलं होइ / / 3243 / / तस्मात्स्वपरानुग्रहपरिणामेन सुपात्रेषु वित्तविनियोगाद्दाता यत्पुण्यं प्राप्नोति, ततः (से) तस्य दातुः फलं स्वर्गाऽऽदिकं भवती ति॥ 3243 // तदेवमुक्तनीत्या दाता स्वत एवेदं स्वर्गाऽऽदिफलं लभते. न तुपरतः, गृहीताऽप्येवमेव द्रष्टव्य इति दर्शयन्नाहजह सो पत्ताणुग्गह-परिणामाओ फलं सओ लहइ। तह गेण्हतो वि फलं, तदणुग्गहओ सओ लहइ / / 3244 / / गतार्था // 3244 // एवं परधनापहार्यपिस्वत एव वधबन्धननरकाऽऽदिकं पाप फलं लभते, न परत इति दर्शयतिहारी वि हरणपरिणा-मदूसिओ बज्झपच्चयावेक्खं / पावो पावं पावइ, जं तत्तो से फलं होइ॥३२४५ / / इयमप्युक्तार्थप्राया // 3245 // अथ प्रकृतयोजनामाहजह सायत्तं दाणे, परिणामाओ फलं तहेहावि। निययपरिणामओ चिय, सिद्धं जिणसिद्धपूयाए / / 3246 / / प्रकटार्थप्राया / / 3246 // (16) अथ जिनाऽऽदिपूजाप्रतिष्ठार्थं प्रमाणयन्नाहकजा जिणाऽऽइपूया, परिणामविसुद्धिहेउसो निचं। दाणाऽऽदउ व्व मग्ग-प्पभावणाओ य कहणं व // 3247 // कायां नित्यं जिनाऽऽदिपूजेति प्रतिज्ञा, स्वपरिणामविशुद्धहेतुत्वादिति हेतुः, दानाऽऽदिवदिति दृष्टान्तः / अथवा-कार्या नित्यमेव जिनाऽऽदिपूजा, मोक्षमार्गप्रभावकत्वात् धर्मकथनवदिति॥३२४७ // "कोपप्रसादरहितत्वात् " इति परोक्तहेतोरनैकान्तिकता दर्शयन्नाहकोवप्पसायरहियं,पिदीसए फलदमन्नपाणाऽऽई। कोवप्पसायरहियं, ति निप्फलं तो अणेगंतो।। 3248 // पूर्वार्द्ध सुबोधम् / ततः " कोपप्रसादरहितं वस्तु निप्फलम् " इत्यनेकान्तः, अन्नपानाऽऽदिभिर्व्यभिचारादिति / / 3248 / / अपि च-विरुद्धोऽप्ययं हेतुरिति दर्शयन्नाहकोवाऽऽइविरहियं चिय, सव्वं जमणुग्गहोवघायाय। दीसइ तेण विरुद्धं, फलमिह कोवप्पसायाओ / / 3246 / / इहाऽऽकाशानपानपीयूषविषचिन्तामण्यन्धोपलकल्पद्रुमविषवृक्षगुड नागरहरीतकीमरीचाऽऽद्यौषधाऽऽदिकं सर्वमपि वस्तु कोपप्रसादविरहितमेव यस्मादनुग्रहोपधातयोः प्रवर्तमानं दृश्यते, तेन तस्मादिह कोपप्रसादतः सकाशात्फलमुच्यमानं विरुद्धमेव
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________________ णमोकार 1847 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार संलक्ष्यते। तथाहि-कोपाऽऽदिरहितादेवाऽऽकाशाऽऽदेव्रण उप-घातः, पट्टकबन्धाऽऽदेस्त्वनुग्रहः, हितमितान्नपानाऽऽदेरनुग्रहः, तस्माद्विपरीतात्पुनरुपघातः / एवं पीयूषविषाऽऽदेरपि सकाशात्कोपाऽऽदिविरहितादेवानुग्रहोपधातौ दृश्यते / ततो विरुद्धोऽयं हेतुः, विपक्ष एव वृत्तिदर्शनादिति // 3246 // अथ राजाऽऽदिना हरणप्रदानहेतवः कोपप्रसादा भवन्तीति प्रत्यक्षत एव दृष्टमिति परस्य मतिर्भवेत्; ननु तदपि सर्वस्वाऽऽहरणं, प्रदानं वा स्वपापपुण्यकृतमेव। यस्तु परः, स तत्र केवलं निमित्तमात्रमेवेति प्रागेव भणितमिति दर्शयन्नाहहरणप्पयाणहेऊ, हवेज कोवाऽऽदओ मई तं पि। नणु सकयं चिय भणियं, निमित्तमेत्तं परो नवरं / / 3250 // गतार्था // 3250 // अथवाऽपहरणप्रदानाऽऽदिकं स्वकृतं नेष्यते, तत्राऽऽहजइ वा न सकयहेउं,तं तो कोवप्पसाययं राया। सो सव्वसेवयाणं, समानफलदो कहं न भवे ? ||3251 // पाठसिद्धा / / 3251 // अपिचदीसइ य विसमफलदो, विफलो य समाणसेवयाणं पि। भण्णइ य सुकयपुण्णो, तो से रायप्पसाउत्ति।। 3252 // समानसेवकानामपि विषमफलदः केषाञ्चिद्विफलश्च दृश्यते राजा।ततो ज्ञायतेस्वकृतपुण्यपापकृतमेवेदं सर्वमपि वैचित्र्यम् , राजाऽऽदिस्तु तत्र निमित्तमात्रमेवेति। अपरं च लोकेऽपि भण्यते लोकेऽप्येवं वतारो भवन्ति"सुकृतपुण्यः स देवदत्ताऽऽदिः, (तो से त्ति) ततः ' से ' तस्यैव राजप्रसादो जातः" इति। तत एवमादिलोकोक्तेश्च स्वकृतपुण्यपापानुमानं प्रवर्तत इति / / 3252 / / अपिचकोवप्पसायहेलं, च जं फलं न हि तदत्थमारंभो। न परप्पसायणत्थं, किं तु निययप्पसायत्थं / / 3253 / / कोपप्रसादहेतुकं च यत्किमपि फलं तदर्थो नैवायमस्माकमहदादिनमस्कारपूजाऽऽरम्भः, नाऽपि परप्रसादनार्थ, किं तु निजकचित्तस्य यः प्रसादः प्रसत्तिरहदादिगुणबहुमानेन शुभरूपता, तदर्थोऽयमारम्भ इति ||3253 // परप्रसादनार्थ नाऽऽरम्भ इत्याहधम्माऽधम्मान परप्पसायकोवाणुवत्तिणो जम्हा। तो नपरो त्ति प्रसण्णो, धम्मो कुविउत्ति वाऽधम्मो // 3254 / / | धर्मार्था ह्ययमारम्भः। धर्माऽधर्मी च यस्मान्न परप्रसादकोपानुवर्तिनी, किं तर्हि ? जीवगतशुभाशुभपरिणामानुयायिनी; ततः परः प्रसन्नः / इत्येतावता न धर्मः, नापि परः कुपितः इत्येतावन्मात्रेणाऽधर्मः, किं तु निजशुभाशुभपरिणामवशाद्धर्माधर्मी 1 तत्र च शुभाशुभपरिणामस्याऽऽलम्बनमर्हदादयो नमस्क्रियमाणाः संपद्यन्ते / शुभपरिणामाच धर्मः / तस्माचार्थकामाऽऽदयः, स्वर्गापवर्गी च भवतः / इति संपद्यत एवार्हन्नमस्कारस्य यथोक्तं फलमितीह तात्पर्यमिति // 3254 / / यदि परप्रसादकोपाऽनुवर्तिनौ धर्माधमौ स्याता, ततः को दोषो भवेत् ? इत्याह तस्साहणसुन्नस्सं वि, जइ वा धम्मो परप्पसायाओ। तो जो जस्स पसन्नो, स तस्स देजा जगद्धम्मं / / 3255 / / कुपिओ हरेज सव्वं, दिज्जा धम्म व तह य पावं ति। अकयाऽऽगमकयनासा,मोक्खगयाणं पि चापडणं // 3256|| वाशब्दः प्रस्तावनायां, सा च कृतैव / तस्य धर्मस्य दयादानप्रशमब्रह्मचर्याऽहंदादिपूजाऽऽदीनि साधनानि, तैः शून्यस्यापि यदि धर्मः परप्रसादमात्रादेवेष्यते, ततस्तर्हि य ईश्वराऽऽदिर्यस्य देवदत्ताऽऽदेः प्रसन्नः स ईश्वराऽऽदिर्जगतोऽपि संबन्धिनं धर्ममपहृत्य तस्यैवैकस्य देवदत्ताऽऽदेः सर्वं दद्यात् / तथा-कुपितः स एव तस्य देवदत्ताऽऽदेः संबन्धिनं सर्वं धर्मपहरेत् , अधर्म वा सर्वमपि प्रयच्छेत्। तथा च सत्यकृताऽऽगमकृतनाशौ प्राप्नुतः, एकस्याकृतयोरपि धर्माऽधर्मयोरागमाद् , अन्येषां तु स्वयंकृतयोरपितयो शादिति। मोक्षगतानामपि च सिद्धानामेवं पतनं स्यात्तदीयपूर्वसुकृतस्यान्यत्र संचरणात्, अन्यदीयाधर्मस्य च तेषु प्रक्षेपादीति॥३२५५ / / 3256 / / किच-परकीयकोपप्रसादाभावेऽपि धर्माऽधर्मों तवापि प्रसिद्धौ / कथम् ? इत्याहजइ वीयरागदोसं, मुणिमकोसिज्ज कोइ दुट्ठऽप्पा। कोवप्पसायरहिओ, मुणि त्ति किं तस्य नाधम्मो ?||3257 / / सवओ तस्साऽधम्मो, जइ वंदंतस्स तो धुवं धम्मो। कोवप्पसायरहिए, तह जिणसिद्धे वि को दोसो ? ||3258|| वीतावपगतौ रागद्वेषौ यस्य तं वीतरागद्वेष मुनिं यदि दुष्टाऽऽत्मा कश्चिदाक्रोशेत् , तदा" वीतरागद्वेषत्वात्कोपप्रसादरहितः स मुनिः " इत्येतावन्मात्रेण किं तस्याऽऽक्रोष्टुर्नाऽधर्मः स्यात् ? ननु स्यादेवाऽसौ, सकलशास्त्रलोकप्रतीतत्वादिति // 3257 / / ततश्च (सवओ त्ति) मुनि शपमानस्य तस्याऽऽकोष्टुर्यद्यधर्भोऽभ्युपगतस्त्वया, ततस्तॉन्यस्य कस्यापि शुभपरिणामस्य तमेव मुनि वन्दमानस्य ध्रुवं निश्चितं धर्मोऽप्येष्टव्य एव, स्वपरिणाममात्रनिबन्धनत्वस्येहाऽपि समानत्वादिति / यदि नामैवं, ततः प्रकृते किम् ? इत्याह-तथा तेनैवोक्तप्रकारेण कोपप्रसादरहिते जिने सिद्धे च नमस्कर्तुर्निजशुभपरिणामवशाधयथोक्तफलप्राप्तौ को दोषः ? न कश्चिदिति // 3258 / / (16) दृष्टान्तान्तरेणाऽप्यर्हदादिभ्यः फलप्राप्ति समर्थयन्नाहहिंसामि मुसं भासे, हरामि परदारमाविसामि त्ति। चिंतेज कोइ न य चिंतियाण कोवाऽऽइसंभूई / / 3256 // तह वि य धम्माधम्मो-दयाऽऽइ संकप्पओ तहेहावि। वीयकसाए सवओ-ऽधम्मो धम्मो य संथुणओ / / 3260 // " हिनस्मि हरिणाऽऽदीन् , मृषा भाषेऽहं, तद्भाषणाच वञ्चयामि देवदत्ताऽऽदीन् , धनमपहरामि तेषामेव, परदारानाविशामि निषेवेऽहम्,' इत्यादि कश्चिचिन्तयेत् / न च तेषां चिन्तितानां हिंसाऽऽदिचिन्ताविषयभूतानां हरिणाऽऽदीनां तत्कालं कोपाऽऽदिसंभूतिः कोपाऽऽदिसंभवोऽस्ति / / 3256 / / तथाऽपि हिंसाऽऽदिचिन्तकस्याधर्मः, दयाऽऽदिसंकल्पतस्तु तद्वतो धर्मो भवति। इत्यावयोरविगानेन प्रसिद्धमेव, तथेहापि प्रस्तुते वीतकषायानप्यर्हत्सिद्धाऽऽदीन शपमानस्याऽधर्मः, संस्तुवतस्तुधर्म इति किं नेष्यते? इति / / 3260 //
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________________ णमोकार 1848 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकार अथोपसंहारपूवकं प्रस्तुतमुपदर्शन्नाहतम्हा धम्माऽधम्मा, जुत्ता निययप्पसायकोवाओ। धम्मत्थिणा पयत्तो, कञ्जो तो सप्पसायम्मि / / 3261 / / सोय निययप्पसाओऽवस्सं जिणसिद्धपूयणाउत्ति। जस्स फलमप्पमेयं, तेण तयत्थो पयत्तोऽयं / / 3262 // सुगमे, नवरं यस्य निजमनःप्रसादस्याप्रमेयमनन्तं फलं येना- | नन्तफलोऽसौ, तेन कारणेन तदर्थो निजमनःप्रसादार्थ एवार्हदादिनमस्कारप्रयत्न इति / / 3261 // 3262 / / / अस्यैवार्थस्य साधनार्थ प्रमाणयन्नाहनाणाऽऽइमयत्ते सइ, पुजा कोवप्पसायविरहाओ। निययप्पसायहेलं, नाणाऽऽइतियं व जिणसिद्धा॥३२६३।। निजमनःप्रसादहेतोः पूज्या जिनसिद्धा इति प्रतिज्ञा, ज्ञानाssदिमयत्वे सति कोपप्रसादविरहादिति हेतुः, ज्ञानाऽऽदित्रिकवदिति दृष्टान्तः / कोपाऽऽदिविरहिता लेष्ट्रकाष्ठाऽऽदयोऽपि विद्यन्ते, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थ ज्ञानाऽऽदिमयत्वे सतीति हेतोर्विशेषणमिति // 3263 // (18) परः प्राऽऽहपुजा जिणाऽऽइवजा, न हि मोक्खत्थं सरागदोस त्ति। अकयत्थभावओ विय, दवट्ठाए दरिद्द व्व // 3264 // जिनसिद्धान्वर्जयित्वा शेषा आचार्योपाध्यायसाधयो, न हि नैव, मोक्षार्थ पूज्या इति प्रतिज्ञा, सरागद्वेषत्वाद् , अत एवाऽकृतार्थभावाच, द्रव्यार्थ दरिद्रा इवेति / / 3264 / / अत्र प्रतिविधानमाहकलुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो। संते वि जो कसाए, न गिण्हई सो वि तत्तुल्लो / / 3265 / / / किं तत्र चित्रं किमाश्चयं, यद्विगतरागः कलुषफलेन कषायजनितेन चित्तकालुष्येण न युज्यते, विगतकषायोदयत्वात्तस्य। ननुसोऽपि तत्तुल्यो वीतरागसमान एव यः सतोऽपि कषायान्न गृह्णाति / ततश्चास्मात्परमगुरुवचनादाचार्याऽऽदयोऽपि वीतरागतुल्या एव, सतामपि कषायाणां निग्रहात्। ततः सरागद्वेषत्वादित्यसिद्धो हेतुरिति भावः। इयं च गाथा केषुचिदादर्शेषु न दृश्यते; पूर्वटीकाकारैरपि न व्याख्याता; अस्माभिस्तु बहुष्वादशेषु दर्शनात्सोपयोगत्वाच लि-खितेति॥३२६५ // 'अकृतार्थत्वात् ' इत्ययमपि हेतुरनैकान्तिकः, अकृतार्थत्वे सत्यपि कारणान्तरतोऽपि पूजासंभवादिति दर्शयन्नाहन परोवयारओ चिय, धम्मो न परोवयारहेउं च / पूयाऽऽरंभो नणु सपरिणामसुद्धत्थमक्खाओ।। 3266 / / ' अकृतार्थभावात् ' इति ब्रुवतस्तव किलायमभिप्रायः-' स्वयमकृतार्थाः सन्त आचार्याऽऽदयो न परोपकारक्षमाः, अतस्तदसामर्था दरिद्रा इव न ते नमस्करणीयाः इति / एतचायुक्तम् / यतो न परस्मादर्हदादेरुपकारत एव धर्मो नमस्तकर्तुः, नापि परस्मादर्हदादेरुपकारहेतोस्तस्य नमस्कारपूजाऽऽरम्भः / ननु स्वपरिणामशुद्ध्यर्थमाख्यातोऽसौ / ततः किश्चिदकृतार्थत्वे सत्यपि स्वशुभपरिणामनिबन्धनत्वात्पूज्या एवाऽऽचार्याऽऽदय इति / / 3266 / / अथ पञ्चानामपि पूज्यत्वसमर्थनार्थ प्रमाणमाहपूया परोवयारा-भावे वि सिवाय जिणवराऽऽईणं / परिणामसुद्धिहेळं, सुभकिरियाओ य बंभ व // 3267 / शिवाय मोक्षार्थ भवति पूजा, परोपकाराभावेऽपि पञ्चानामपि जिनवराऽऽदीनामिति साध्यम् , पूजकपरिणामशुद्धिहेतुत्वात् , तन्नमस्कारक्रियायाश्च ज्ञानाऽऽदिगुणविषयबहुमानत्वेन निरवद्यत्वेन च शुभत्वाद् , ब्रह्मचर्याऽऽदिवदिति // 3267 // अथ सुप्रसिद्धदृष्टान्तोपदर्शनेनापि जिनाऽऽदिपूजा परोप काराभावेऽपि शिवायेति समर्थयन्नाहपरहिययगया मेत्ती, करेइ भूयाण कमुवयारं सा। अवयारं दूरत्थो, कं वा हिंसाऽऽइसंकप्पो ? / / 3268 / / धम्माऽधम्मनिमित्तं, तहा वि तह चेह निरुवगारो वि। पूयासुहसंकप्पो, धम्मनिमित्तं जिणाऽऽईणं / / 3266 / / परहृदयगता साधुहृदयस्थिता सर्वभूतेषु या मैत्री सा तेषां पृथिव्यादिभूतानां कमुपकारं करोति ? न कश्चित् / तथा-कं वा देवदत्ताऽऽदिहृदयगतो दूरस्थहरिणाऽऽदिभूतग्रामविषयो दूरस्थहरिणाऽऽद्यपेक्षया दूरस्थो हिंसास्तेयाऽऽदिसंकल्पोऽपकारं कुर्यात् ? न कश्चित्; तथाऽपि मैत्री हिंसाऽऽदिसंकल्पश्च भूतानामुपकाराऽप-कारविरहेऽपि द्वावपि यथासंख्यं धर्माऽधर्मनिमित्तं भवत एव / तथा चैवं चोक्तप्रकारेण निरुपकारोऽपि जिनाऽऽदीनामुपकारमकुर्वन्नपि भूतानां साधुगतमैत्रीसंकल्पवर्जिनाऽऽदीनां पूजा शुभसंकल्पः पूजकस्य धर्मनिमित्तं भवतीति / / 3266 // (16) आह-ननु यथा दानं साध्वादीनामुपकारं करोति, नैवं जिनाऽऽदीनां नमस्कारपूजा, तत्कथमसौ धर्मनिमित्त भवति? इत्याशङ्कयाऽऽहदाणे वि पराऽणुग्गहलक्खणसंकप्पमेत्तओ चेव। फलमिह न उ पच्छा तक्कओवगाराऽवगाराओ॥ 3270 // इहरोवउत्तभत्ताजिन्नाऽऽह वहम्मि दक्खिणे यस्स। दितस्स वहावत्ती, तेणाऽऽदाणप्पसंगोऽयं / / 3271 // साध्वादिदानेऽपि पराऽनुग्रहलक्षणसंकल्पमात्रत एवेह दातुः फलनिष्पत्तिः, न पुनः पश्चात्तत्कृतादानकृतादुपकारादपकाराद्वेति।। 3270 // इतरथोपयुक्तेसाध्यादिना भुक्ते योऽजीर्णाऽऽदिदोषस्तेन दाक्षिणेयस्यदक्षिणा दानं तद्विषयभूतस्य साध्वादेर्वधे मरणे सति दातुर्वधाऽऽपत्तिहिंसाऽऽदिदोषसमापप्तिः / तेन च हिंसाऽऽदिदोषेणाऽऽदानप्रसङ्गोऽयं प्राप्नोति, अनिष्ट चैतत् दातुर्विशुद्धपरिणामत्वात्। न हि तेन साध्वादिजिघांसया दानं दत्तं, किं तु तद्गुणबहुमानाऽऽदिपरिणामेन / न चैवं विशुद्धपरिणामस्यापि पापसंबन्धो घटते, अन्यथा मातृस्पन्यपानादजीर्णा बालस्य मरणे मातुस्तद्वधकृतपापप्रसङ्गादिति। तदेवं प्राग् यदुक्तं " पूयाऽणुवगाराओऽपरिग्गहाओ " (3226) इत्यादि, तत्र पूजाऽनुपकारादित्ययं हेतुरपाकृतः / / 3271 // अथ" अपरिग्रहात्" इत्यमुनिराचिकीर्षुराहन परपरिग्गहउ चिय, धम्मो किं तु परिणामसुद्धीओ। पूया अपरिगहम्मि वि, साय धुवा तो तदारंभो / / 3272 / / न खलु पूजायाः परेण पूज्येन परिग्रहादेव स्वीकारादेव ध
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________________ णमोकार 1946 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमोकार मः, किं तु स्वपरिणामशुद्धितः / सा च परिणामशुद्धिः पूजायाः परेणापरिग्रहेऽपि ध्रुवा निश्चिता स्वसंवेदनसिद्धा समस्ति, ततस्तदारम्भो नमस्कारपूजाऽऽरम्भ इति / / 3272 / / किञ्च-दानस्यापरिग्रहत्वमभ्युमभ्युपगम्योक्तं, वस्तुतस्तुतन्नास्त्येवेतिदर्शयन्नाहइह चोयगमणुमोयग-मणिसेहगमेव संपयाणं त्ति। वडुमुणिपडिमाऽऽइ जओ, न दाणमपरिग्गहं तेण // 3273 / / इह यतो यस्मात्सत्कृत्य सम्यग्वा प्रदीयते यस्मै तत्संप्रदानमा तय त्रिविधम् / तद्यथा-' दीयतां मां, बहुफलं भवतां भविष्यति / इत्यादिवचनप्रपञ्चेन किञ्चित्प्रेरकं, यथा बटुब्राह्मणः / अपर त्वित्थमप्रेरकमपि दानस्य ग्रहणपरिभोगाभ्यामनुमोदकं भवति। यथा मुनिः साधुः ; अन्यत्तु पुष्पाऽऽद्यनिषेधादनिषेधकं, यथाऽर्हत्प्रतिमाऽऽदि, सर्वत्र संप्रदानाऽर्थस्य विद्यमानत्वात् / तेन तस्मान क्वचिदानमपरिग्रहमस्तीति॥ 3273 // अपि च-किमनया दानस्य परिग्रहापरिग्रहचिन्तया ? कार्यस्यान्यथैव स्थितत्वात् ; कथम् ? इत्याहदाणमपरिग्गम्मि वि, धम्मो निययपरिणामसुद्धीओ। अपरिग्गहे विजइ सा, को नाम परिग्गहग्गाहो ? // 3274 / / किं च परहिययनियया, मेत्ती भूएहि संपरिग्गहिया। हिंसासंकप्पो वा, जं धम्माधम्महेउ त्ति / / 3275 / / एवं जिणाऽऽइपूया, सद्धासंवेगसुद्धिहेऊओ। अपरिग्गहा विधम्मा-य होइ सीलव्वयाऽऽइंव / / 3276 / / तिस्रोऽपि व्यक्तार्थाः / / 3274 / / 3275 // 3276 / / ___ अथ" विमूर्तिभावात् " इत्यस्य हेतोर्निरासार्थमाहजं चिय मुत्तिविउत्ता, मुत्ता गुणरासओ विसेसेणं। तेणं चिय ते पुजा, नाणाऽऽइतियं व मोक्खत्थं / / 3277 // यस्मादेव मूर्तिवियुक्ता अमूर्ती मुक्ताः सिद्धाः, तेनैव ते शरीरसंबन्धजनितसकलक्लेशविमुक्तत्वाद् गुणराशयः सन्तो विशेषेण मोक्षार्थ पूज्याः, ज्ञानाऽऽदित्रिकवदिति / / 3277 // अपिचमुत्तिमओ विन मुत्ती, पूइज्जइ किं तु जे गुणा तस्स। ते मुत्तिविउत्त चिय, नणु सिद्धगुणा विसेसेणं // 327 / / मूर्तिमतोऽपि संबन्धिनी मूर्तिर्न पूज्यते, किंतु गुणाः, तेच मूर्तिवियुक्ता एवामूर्ता एव / ततश्च' न पूज्याः सिद्धाः, अमूर्त्तत्वात् , नभावेत् " इति त्वदुक्तप्रमाणे विरुद्धाव्यभिचारित्वाद् विरुद्धो हेतुः। तथाहोतदपि शक्यते वक्तुम-पूज्याः सिद्धाः, अमूर्तत्यात् , मूर्तसाधुसंबन्ध्यमूर्तज्ञानाऽऽदिगुणवदिति / अथ सिद्धगुणा अमूर्ता न भवन्तीति चेदित्याहननु सिद्धगुणाः विशेषेणै वामूर्ताः; मूर्तसाधुगुणा हि ज्ञानाऽऽदयो मूर्तीदव्यतिरिक्तत्वात् कथञ्चिन्मूर्ता अपि शक्यन्ते वक्तुम् सिद्धगुणास्तु नैवम् , ततो विशेषेण ते अमूर्ता एव; इति न तेषां पूजाविरोध इति / / 3278 / / अथ परमतमाक्षिप्य परिहरन्नाहअहव मई मुत्तिमओ, गुणपूया होइ मुत्तिपूयाओ। तग्गुणसंबंधाओ, सिद्धगुणाणं तु सा नस्थि / / 3276 / / पूया मुत्तिगुणाणं, संबंधे फलमितीह को हेऊ? अन्नो परिणामाओ, तस्स य को केण संबंधो? / / 3280 / / हिययत्थो (' नियत्थो ' इति पाठान्तरम्।) परिणामो, बज्झत्थालंवणनिमित्तमित्तागो। देह फलं सव्वो चिय, सिद्धगुणाऽऽलंवणो चेवं / / 3281 // सुगमाः।। 3276 / / नवरम् (पूयेत्यादि) परिहारवचन, पूजा च मूर्तिश्च गुणाच, तेषां पूजामूर्तिगुणानां त्रयाणामपि, संबन्ध एवाऽभिमतं फलमवाप्यत इतीह स्वगतविशुद्धपरिणामादन्यः को हेतुः ? न कोऽपीति / तस्य च स्वगतपरिणामस्य कः संबन्धः केनचिबाह्येन? न कश्चिदिति / / 3280 / / केवल निजहृदयस्यशुभपरिणामो यथा वाह्याहदाद्यालम्बननिमित्तमात्रकः सर्वोऽपि ददात्यभिमतफलभेवममूर्तसिद्धगुणाऽऽलम्बनोऽपीति // 3281 // अथ यदुक्तं-" दूराऽऽइभावओ वा, विफला सिद्धाइपूय त्ति" (3226) तत्र दूराभावादित्यस्य हेतोर्निराकरणार्थमाहजइ दूरस्थे विधिई, बंधुम्मि सरीरपुट्टिबलहेऊ। तणुदोव्वल्लाइफलो, कत्थइ सोगाऽऽइसंकप्पो।। 3282 // तह परिणामो सुद्धो, धम्मफलो हि दूरसंथे वि। अविसुद्धो पावफलो, दूरासन्नं ति को मेओ? // 3283 / / अहवाऽऽयसभावोऽयं, परिणामो तेण सव्वमेवेह। दूरमहाऽऽलंबणओ, तस्साऽऽसन्नं तओ सध्वं / / 3284 // यथा दूरस्थेऽपि बन्धौ बान्धवजने सुखिनि श्रुते तत्सुखवार्ता-संक ल्पजनिता धृतिः कस्याऽपि तद्बान्धवस्य दूरस्थस्यापि शरीरपुष्टिबलहेतुर्भवति; क्वचित्तु प्रस्तावे तस्मिन्नपि दुःखिनि श्रुते शोकाऽऽदिसंकल्पस्तनुदौर्बल्याऽऽदिफलः संपद्यते / / 3282 // तथा तेनैव प्रकारेण दूरसंस्थेऽपि सिद्धाऽऽद्यालम्बने तद्गुणबहुमानरूपत्वाच्छुद्धपरिणामः सद्धर्मफलोऽविशुद्धस्तुपापफलः संजायते। अतो दूरस्थमासन्नं वा सिद्धाऽऽद्यालम्बनमिति को भेदः? केयं निष्फला तभेदचिन्ता ? इत्यर्थः // 3283 // अथवा-आत्मस्वभावोऽय तद्गुणबहुमानलक्षणशुभपरिणामस्तेन तस्मादिह यदनात्मस्वभाव किमपि वस्तु तत्सर्वमप्यस्य विपरीतरूपत्वाद् दूरस्थमेव / अथाssलम्बनत आलम्बनभावमाश्रित्य चिन्त्यते, ततस्तर्हि सर्वमप्यर्हत्सिद्धाऽऽदिक वस्तु तस्य यथोक्ताऽऽत्मपरिणामस्याऽऽसन्नमेवेति; अतः का सिद्धेषु दूरस्थता ? इति / / 3284 / / अत्राऽऽक्षेपपरिहारावाहजइ सपरिणामउ चिय, धम्मोऽधम्मो व्व कित्थ बज्झेण। जंबज्झाऽऽलंबणओ, सो होइ तओ तदत्थं तं / / 3285 / / ननु यदि स्वगतपरिणामादेव धर्मोऽधर्मश्च भवति, तर्हि किमत्र बाह्येनाऽर्हत्सिद्धाऽऽद्याम्बनेनापेक्षितेन, स्वपरिणामत एव कार्यसिद्धेः तदपेक्षाया निष्फलत्वात् ? इति / सूरिराह-यस्मात्सोऽपि परिणामो बाह्याऽऽलम्बनत एव भवति, नाऽन्यथा, ततस्तदर्थ स्वपरिणामोत्पादनार्थं तद् बाह्याऽऽलम्बनमपेक्ष्यत इति॥३२८५।। एतदेव भावयतिपरिणामो बज्झाऽऽलंबणो सया चेव चित्तधम्मो त्ति। विण्णाणं पिव तम्हा, सुहबज्झाऽऽलंवणपयत्तो // 3286|| दतुम् -परमात / अथ सि , मशक्यन्ते वाजाविरोध विदिष्यतिरिक्तत्वात सेवामूताः, मूता न भवन्तीति यमूर्तज्ञान
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________________ णमोक्कार 1950 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णमोकार शुभोऽशुभो वा परिणामः सदैव बाह्याऽऽलम्बनत एव प्रवर्तते, चितधर्मत्वात, विज्ञानवदिति। यथा विज्ञानं बाह्य नीलपीताऽऽदिकं वस्तु विना न प्रवर्तते, एवं परिणामोऽपीति भावः / तस्मादिह मोक्षाधिकारे शुभबाह्याऽऽलम्बनप्रयत्नो मोक्षार्थिनामिति // 3286|| अत्र परः प्राऽऽहजत्तो तत्तो व सुभो, होइ किमालंबणप्पभेएण। जह नाऽणाऽऽलंबणओ, विवरीयाओ विसोन तहा।।३२८७|| ननु यतस्ततो वाऽऽलम्बनात् शुभपरिणामो भवतु, किमिह शुभाशुभभेदत आलम्बनप्रभेदेनकिमिति शुभाऽऽलम्बनादेव शुभः परिणाम इष्यते ? इति भावः / गुरुराह-(जह णाऽणाऽऽलंबणओ त्ति) यथाऽनालम्बन आलम्बनरहितः शुभपरिणामो न प्रवर्तते, तथा विपरीतादप्यशुभाऽऽलम्बनादसौ न भवति, अन्यथा नीलाऽऽदेरपि शुक्लाऽऽदिज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गादिति // 3287 // यदि विपरीताऽऽलम्बनान्न शुभः परिणामः, तर्हि कुतोऽसौ भवति? इत्याहकिं तु सुभाऽऽलंबणओ, पारण सुभो वि धम्मओ इयरो। / जं होइ तं पयत्तो, सुभासुभाऽऽदाणवोसग्गो।। 3288 / / सुगमा, नवरं शुभस्याऽऽलम्बनस्याऽऽदाने, अशुभस्य तुतस्य व्युत्सर्गे शुभपरिणामार्थिना प्रयत्नः कर्तव्य इति / / 3288 // प्रायोग्रहणस्य व्यवच्छेद्यमाहअन्नाणिणो मुणिम्मि वि, न सुभो दिट्ठो सुभो य निस्सीले। जइ परिणामाउ चिय, फलमिह किं पत्तचिंताए।। 3286 / / अज्ञानिनोऽभव्यस्य दुरभव्यस्य वा शुभाऽऽलम्यनरूपे मुनावपि न शुभपरिणामो दृष्टः, शुभश्चाऽसौ तस्य निःशीले नास्तिकाऽ5-दौ दृष्टः, ततोऽनन्तरगाथायां" सुभालंबणओ पाएण सुभो वि" (3288) इत्यत्र " प्रायेण " इत्युक्तमिति भावः / प्रेरकः प्राऽऽहयद्येवं, तॉन्यत् प्रेर्यमापन, परिणामादेव भवद्भिस्तावत्फलमिष्यते, ततः किं पात्रापात्रचिन्तया ? इति / अयमत्र भावार्थः-यदि निःशीलेऽपि पात्रे शुभपरिणामो दृष्टः, 'शुभपरिणामाच शुभं फलं भवति इति भवद्भिरपि प्रागसकृद् समर्थितं, ततः किं सुशीलनिःशीलपात्रचिन्तया, निःशीलेऽपि पात्रे शुभपरिणामदर्शनात् , तस्माच शुभफलभावात् ? // 3286 // अत्रोत्तरमाहसुहपरिणामनिमित्तं, होज सुहं जइ तओ सुहो होज्ज / उम्मत्तस्स न व उसो, सुहो विवज्जासभावाओ।। 3260 // ननुतस्य मिथ्यादृष्टः शुभपरिणामनिमित्तं शुभपरिणामहेतुकं शुभं फलं स्वर्गाऽऽदिकं भवेत् , को वैन मन्यते, यदि तस्याऽऽदित एव तकोऽसौ निःशीलपात्रविषयपरिणामः शुभो भवेत् ? न चोन्मत्तस्येव तस्याऽसौ शुभः / कुतः ? इत्याह-विपर्यासभावान्निःशीलेऽपि सुशीलाध्यवसायादिति कुतस्तस्य फलं शुभम् ? इति / यदप्यस्माभिरुक्तम्- " सुभो य निस्सीले" (3286) इति, तदपि तदपेक्षयैव / स हि मिथ्यादृष्टिस्तं शुभपरिणामं मन्यते, तत्त्ववेदिनस्तुतस्य शुभत्वं नेच्छन्त्येव, विपर्यासादिति॥ 3260 // पुनरपि परः प्राऽऽह नणु मुणिवेसच्छन्ने, निस्सीले वि मुणिबुद्धिए देंतो। पावइ मुणिदाणफलं, तह किं न कुलिंगदाया वि / / 3261 / / ननु मनेर्वेषो मुनिवेषस्तेन छन्नोऽविज्ञातो य उदायिनृपमारकाऽऽदिस्तस्मिन्निःशीलेऽपि मुनिबुद्ध्या दानं दददाता मुनिदानफलं स्वर्गाऽऽदिकं प्राप्नोति, इत्येतद्भवतामपि तायत्संमतम् , तथा तेनैव प्रकारेण कुत्सितलिङ्गी कुलिङ्गी सरजस्काऽऽदिस्तस्मै दाता कुलिङ्गदाता, सोऽपि किं न मुनिफलं प्राप्नोति, मुनिबुद्धेस्तस्यापि तत्र सद्भावात् ? इति / / 3261 / / गुरुराहजं थाणं मुणिलिंग, गुणाण सुन्नं पि तेण पडिम व्व। पुजं थाणमईए, वि कुलिंगं सव्वहा जुत्तं / / 3292 // यस्मान्मुनिलिङ्गं ज्ञानाऽऽदिगुणानां स्थानमाश्रयः, तेन तस्मात्कस्याऽपि मायाविनः संबन्धि तच्छून्यमपि गुणैरविज्ञातं पाषाणाऽऽदिनिर्मिताऽर्हत्प्रतिमावत्स्थानमत्याऽपि पूज्यम् / कुलिङ्गं तु सर्वथा पूजयितुंनयुक्तं, ज्ञानाऽऽदिगुणानां सर्वथैवाऽनाश्रयत्वादिति॥ 3262 / / पुनरपिपरः प्राऽऽहनणु केवलं कुलिंगे, वि होइ तं भावलिंगओ न तओ। मुणिलिंगमंगभावं, जाइजओ तेण तं पुखं / / 3263 // ननु केवलं केवलज्ञानं कुलिङ्गेऽपि वर्तमानानामन्यतीथिकानां भवतीत्यागमे श्रूयते, तत्किमिति स्थानबुझ्या तत्पूज्यं नेष्यते ? गुरुराहतत्केवलज्ञानं भावलिङ्गतो भवति, न पुनस्ततः कुलिंङ्गात् , तस्य केवलज्ञानानङ्गत्वात् / मुनिलिङ्ग पुनर्यस्मादङ्गभावं केव-लज्ञानस्य कारणतां याति, तेन तस्मात्तत्पूज्यमिति // 3263 // (20) तदेव कोपप्रसादविरहाऽऽदीन् पञ्चापिपरोपन्यस्तहे तून्निराकृत्योपसंहरन्नाहतेण सुहाऽऽलंबणओ, परिणामविसुद्धिमिच्छया निचं। कजा जिणाऽऽइपूया, भव्वाणं बोहणत्थं च / / 3264 // येनैवं, तेन तस्मात्परिणामविशुद्धिमिच्छता कार्या विधेया जिनाऽऽदीनां नित्यमेव पूजा / कुतः? इत्याह-शुभाऽऽलम्बनतः शुभाऽऽलम्बनरूपत्वात् / न केवलं स्वपरिणामविशुद्धिनिमित्तं, भव्यजनावबोधनार्थ च विधेया जिनाऽऽदिपूजा / तद्दर्शने ह्यनेके भव्याः प्रतिबुध्यन्ते, जिनधर्ममासादयन्ति, समासादिते च स्थिरीभव-न्ति। अत एव तत्करणकारणानुमोदनाऽऽदिप्रवृत्तसंवेगातिशयात्क्षपितकर्मणोऽन्तकृत्केवलिनो भूत्वाऽनन्तेन कालेनाऽनन्ताः सिद्धान्ते सिद्धाः श्रूयन्ते।। इति सप्ततिगाथार्थः।। 3264 // तदेवमवसितः पञ्चनमस्कारः। विशे० / ल०। ध०। (" णमोऽत्थु णं अरिहंताण भगवंताणं " इति शकस्तवः चेइयवंदण 'शब्दे तृतीयभागे 1317 पृष्ठे, " णमो जिणाणं जियभयाणं " इति च तस्मिन्नेव शब्दे 1318 पृष्ठे'' सिद्धाणं बुद्धाणं " इत्यपि तस्मिन्नेव शब्दे 1316 पृष्ठे सूत्रपाठकमेणोक्तः / व्याख्या चैषां प्रतिपदं तत्तत्स्थानेषु / " इक्को वि णमुक्कारो, जिणवरवसभस्स बद्धमाणस्स / संसार-सागराओ, तारेइ नरं व नारिंव।।१।।" इत्यपि "चेइयवंदण"शब्दे तृतीयभागे 1320 पृष्ठे उपपादितम्।" जो देवाण वि देवो " इत्यपि तत्रैव पृष्ट निरूपितम्)" सर्यान देवान्नमस्यन्ति, नैक देवं समाश्रिताः। जितेन्द्रिया जितक्रोधाः, दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१॥" द्वा०१२ द्वा०।
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________________ णमोक्कार 1851 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णमोकारसहियपच्चक्खाण (2) विषयसूची(१) नमस्कारस्य व्याख्यानार्थमुत्पत्ति-निक्षेप-पद-पदार्थ प्ररूपणा-वस्त्वाक्षेप-प्रसिद्धि-क्रम-प्रयोजन-फलरूपाणां द्वाराणां संग्रहः। नमस्कारोत्पत्तिद्वारविस्तरे ज्ञानशब्दयोर्नित्यत्वानित्यत्वविचारः। निक्षेपद्वारे नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदेन निक्षेपस्य चातुर्वि ध्यम्। (4) पदद्वारे नामिक-नैपातिकौपसर्गिकाऽऽख्यातिकमिश्रभेदेन पदस्य पञ्चविधत्वम्। द्रव्यसंकोचो न भावसंकोचः, भावसंकोचो न द्रव्यसंको-चः, द्रव्यसंकोचो भावसंकोचश्च, नद्रव्यसंकोचो न भावसंकोच इति भङ्गचतुष्टयप्रतिपादनपुरस्सरं पदार्थद्वारम्। (6) प्ररूपणाद्वारे " किं कस्य केन क्व कियचिरं कतिविधो वा नमस्कारेः," " इन्द्रियकाययोगवेदकषायलेश्याऽऽहाराऽऽदिचरमान्तः," इत्यादिषट्प्रकारनवप्रकाराभ्यां प्ररूपणाया द्वैविध्यम्। नमस्कारपाठस्य युक्तायुक्तत्वे विचार्यमाणे पचपदस्य सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यन्तरभूतत्वं, नवपदस्य पृथक् श्रुतस्क न्धाभ्यन्तरभूतत्वं, नवपदस्य पृथक् श्रुतस्कन्धत्वमित्यत्र श्रीमहानिशीथसूत्रसंवादः। (8) नमस्कारसूत्रसंपत्स्वष्टषष्टिवर्णनवपदविवेचनम्। (9) वस्तुद्वारे गुणगुणिनोर्भेदाभेदपक्षनिरूपणपुरस्सरमर्हत्सिद्धाऽs चार्योपाध्यायसाधूनां नमस्कारार्हत्वे मार्गदेशकत्वाऽऽदिगुणनिरूपणानन्तरं संसाराटवीमार्गदेशकत्वभवसमुद्रनिर्यामकत्वषविधजीवनिकायगोपनत्वं प्ररूप्याईदादीनां नमस्कार फलप्रदर्शनम्। (10) आक्षेपद्वारे सिद्धसाधुभ्यामेव द्वाभ्यां नमस्कारः कथं न ? परिनिर्वृतार्हदादीनां सिद्धशब्देन, आचार्याऽऽदीनां संसारिणां साधुशब्देन ग्रहणात् / तथा-ऋषभाजित संभवाऽऽदिभ्यो नामग्राहं तीर्थकरेभ्यः, सिद्धेभ्योऽपि एकद्वित्रिचतुष्पञ्चाऽऽदिसमयेभ्यो यावदनन्तसिद्धेभ्यस्तीर्थलिङ्गप्रत्येकबुद्धाऽऽदिविशेषणविशिष्टेभ्य इत्यनन्तभेदस्य नमस्कारस्य पञ्चविधत्वं न युज्यते इति पञ्चविधनमस्काराऽऽक्षेपः / (11) प्रसिद्धिद्वारे तदाक्षेपस्य प्रतिविधानम्। (12) क्रमद्वारेऽहंदादीनां नमस्कारे पौर्वापर्यक्रमव्युत्क्रमाऽऽक्षेपप्रति विधानविस्तरः। (13) प्रयोजनफलद्वारयोरैहलौकिकपारलौकिकफलप्रदर्शनम्। (14) द्विविधेऽपि फले दृष्टान्तपञ्चकप्रदर्शनम्। (15) अर्हतां पूजाफलदत्वं किमरित, न वेति विचारविस्तरः। (16) जिनाऽऽदिपूजाऽर्थ सोपपत्तिकप्रमाणोपन्यासः। (17) "हिनस्मि हरिणाऽऽदीन, मृषा भाषेऽहं, तद्भाषणाच वञ्चयामि देवदत्ताऽऽदीन् , धनमपहरामि तेषामेव, परदारान् निषेवेऽहम्' | इत्यादिचिन्तया न हि तेषां चिन्तितानां तत्कालं कोपाऽऽदिसंभूतिः, तथापि हिंसाऽऽदिचिन्तकस्याधर्मः, दयाऽऽदिसंकल्पतस्तु तद्वतो धर्मः,तथेहापितीर्थकरसिद्धाऽऽदीन्शपमान स्याधर्मः, संस्तुवतस्तुधर्म इत्यर्हदादिभ्यः फलप्राप्तिसमर्थनम्। (18) सरागद्वेषत्वात् कृतार्थाभावाचाऽऽचार्योपाध्यायसाधवो वन्दनीया न वेत्याक्षेपपरिहारौ। (16) साध्वादीनां दानमुपकारं यथा करोति नैवं जिनाऽऽदीनां नमस्कारपूजा, तत्कथमसौ धर्मनिमित्तेतिशङ्कानिरासाय युक्तिप्ररूपणम्। (20) परिणामविशुद्धिमिच्छता जिनाऽऽदीनां नित्यमेव पूजा विधेये त्युपसंहारः। णमोकारणिज्जुत्ति स्त्री०(नमस्कारनियुक्ति) नमस्कारप्रतिपादकाऽऽव श्यकनियुक्तिगाथाकदम्बे, आ० क० / णमोकारसहियपचक्खाण न०(नमस्कारसहितप्रत्याख्यान) अद्धाप्रत्याख्यानभेदे, (10) साम्प्रतं सूत्रार्थोउग्गए सूरे नमुक्कारसहियं पञ्चक्खाइ, चउव्विहं पि आहारअसणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं वोसिरह। उद्गते सूर्ये, सूर्योदगमादारभ्येत्यर्थः / नमस्कारेण परमेष्ठिरतयेन सहित युक्त नमस्कारसहितं, प्रत्याख्याति" सर्वे ध तवः करोत्यर्थेन व्याप्ताः "इति न्यायाद् नमस्कारसहितं प्रत्याख्यानं करोति, विधेयतयाऽभ्युपगच्छतीत्यर्थः / इदं गुरोरनुवादभङ्गया वचनम्। शिष्यस्तु प्रत्याख्यामि 'इत्याह। एवं युत्सृजतीत्यत्रापि वाच्यम्। कथं प्रत्याख्याति ? इत्याहचतुर्विधमप्याहारमिति न पुनरेकविधाऽऽदिकम् , आहारमभ्यवहार्य, व्युत्सृजतीत्युत्तरेण योगः / इदं चतुर्विधाऽऽहारस्यैव भवतीत्युक्तमेव, रात्रिभोजनतीरणप्रायत्वादस्य, तथा मुहूर्तमान नमस्कारोचारणावसानं च / ननु कालस्यानुक्तत्वात्सङ्केतप्रत्याख्यानमेवेदम् / मैवम् / सहितशब्देन मुहूर्तस्य विशेषणात् / अथ मुहूर्तशब्दो न श्रूयते तत्कथं तस्य विशे-ष्यत्वम् ? उच्यते-अद्धाप्रत्याख्यानमध्येऽस्य पाठबलात्, पौरुषीप्रत्याख्यानस्य च वक्ष्यमाणत्वादवश्यं तदर्वाग्मुहूर्त एवावशिष्य-ते। अथ मुहर्त्तद्वयाऽऽदिकमपि कुतो न लभ्यते ? उच्यते- अल्पाऽऽकारत्यादस्य, पौरुष्यां हि षडाकाराः, तदस्मिन् प्रत्याख्याने आकारद्वयवति स्वल्प एव कालोऽवशिष्यते, स च नमस्कारेण सहितः, पूर्णेऽपि काले नमस्कारपाठमन्तरेण प्रत्याख्यानस्याऽऽपूर्यमाणत्वात् , सत्यपि नमस्कारपाठे मूहूर्ताभ्यन्तरे प्रत्याख्यानभङ्गात्। तत्सिद्धमेतत्मुहूर्त्तमानकालं नमस्कारसहितप्रत्याख्यानमिति / अथ चतुर्विधाऽऽहारमेव व्यक्त्या प्रदर्शयति-अशनम् ? पानम् 2, खादिम् 3, स्वादिमं चेति / तत्राश्यते इति अशनम् , ' अश भोजने ' इत्यस्य ल्युमन्तस्य भवति / तथा-पीयत इति पानम् , 'पा 'धातोः / तथा-खाद्यत इति खादिमम् , ' खादृ भक्षणे ' इत्यस्य वक्तव्यादिमत्प्रत्ययान्तस्य / एवं स्वाद्यत इति स्यादिम् ' स्वद आस्वादने ' इत्यस्य च रूपम् / अथवाखाद्यं स्वाद्यं चेति। अशनाऽऽद्याहारविभागश्चैवं श्राद्धविधिवृत्ती-" अशनंशाल्यादि सक्त्वादि पेयाऽऽदि मोदकाऽऽदि क्षीराऽऽदि सूरणाऽऽदि मण्डाऽऽदि च।
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________________ णमोक्कारसहियपचक्खाण 1852 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय यदाह प्रत्याख्यानेन श्राद्धः पौरुषी यावस्थितस्तस्य पौरुष्या लाभो "असणं ओअणसत्तुग-मुग्गजगाराऽऽइ खजगविही / द्विघटिकसत्को वा ? इति प्रश्रे. उत्तरम-नमस्कारसहितप्रत्याख्यान खीराऽऽइ सूरणाऽऽई, मंडगपभिई अविण्णेयं / / 1 // " दिनमध्ये आयाति, नतु रात्रिमध्ये, तथा-तत्प्रत्याख्यानं विधाय पौरुषीं पानं-सौवीरयवाऽऽदिधावनं सुराऽऽदि सर्वश्चाप्कायः कर्कटजलाs यावदनुपयोगेन स्थीयते तदा न लाभाय, उपयोगपूर्वं तु लाभायेति। 2 ऽदिकं च। प्र० ही०३ उल्ला०। यदाह णमोरिह पुं०(नमोऽह) जिने, आ० म०। "पाणं सोवीरजवो-दगाऽऽइ चित्तं सुराऽऽइअंचेव। पार्लेति जहा गावो, गोवा अहिसावयाऽऽइदुग्गेहि। आउक्काओ सव्वो, कक्कडगजलाऽऽइअंच तहा / / 2 / / " पउरतणपाणियाणि य, वणाणि पार्वति तह चेव / / खाद्य-भृष्टधान्यगुडपर्पटिकाखमॅरनालिके रद्राक्षाकर्क ट्याम्प- जीवनिकाया गावो, जं ते पालेंति ते महागोवा। नसाऽऽदि। मरणाऽऽइभयाहि जिणा, निव्वाणवणं च पावेंति।। यदाह ते उवगारित्तणतो, नमोऽरिहा भवियजीवलोगस्स। " भत्तोसं दंताऽऽई, खजूरगनालिकेरदक्खाऽऽई। सव्वस्सेह जिणिंदा, लोगुत्तमभावतो तह य / / कक्कडिअंबगफणसाऽऽइ बहुविहं खाइमं नेअं / / 3 / / " यथा गोपाः गाः पालयन्ति रक्षन्ति अहि स्वापदाऽऽदिदुर्गेभ्यः, वनानि खाद्य-दन्तकाष्ठताम्बूलतुलसिकापिण्डार्जकमधुपिप्पल्यादि। च, प्रचुरतृणपानीयानि प्रापयन्ति, तथैव च जीवनिकाया एव गावः यदाह जीवनिकायगावः,तान्ते भगवन्तोऽर्हन्तो जिना महागोपाः, पालयन्ति "दंतवणं तंबोलं, चित्तं तुलसी कुहेडगाऽऽई। रक्षन्ति मरणाऽऽदिभयेभ्यो, निर्वाणवनं च प्रापयन्ति / एवं ते जिनेन्द्रा महुपिप्पलिसुंठाऽऽई, अणेगहा साइम होइ।। 4 / / " इह अस्मिन् जीवलोके उपकारित्वतो हेतोः सर्वस्य भव्यजीवलोकस्य (अणेगहेति)सुण्ठी-हरीतकी-पिप्पली-मरीच-जीरक-अजम-क- नमोऽर्हाः। जातिफल-जावन्त्री-क सेल्लक - कत्थक - खदिरवटिका- एवं तदुक्तेन प्रकारेण नमोऽर्हत्वहेतवो गुणाः प्रतिपादितः / साम्प्रतं ज्येष्ठीमधुतमालपत्र-एला-लवङ्ग-काठीविडङ्ग-विलवण-अज्जक- प्रकारान्तरेण नमोऽर्हत्वहेतुगुणाऽभिधित्सयाऽऽहअजमोद-कलिजण-पिप्पलीमल-चिणीकबाबा-कव्यू-रक-मुस्ता- रागबोसकसाए, इंदियाणि य पंच वि। कण्टाचेलिओ-कर्पूर-सौवर्चल-हरडा-बिभीतक-कुम्भट्ठो-बब्बूल परीसहे उवसग्गे, नामयंता नमोरिहा।। धव-खदिर-खीचडाऽऽदिकच्छलीपत्र-हिड्डला-ष्टक-हिमुत्रेवीसु रागद्वेषकषायानिन्द्रियाणि च पञ्चापि परीषहानुपसर्गान् नमयन्तो पञ्चकूल-जवासकमूल-वावची-तुलसी-कर्पूरी-कन्दाऽऽदिकम्। जीरकं नमोऽर्हाः। इति गाथासमासार्थः। आ० म०१ अ० 2 खण्ड। स्वभाष्यप्रवचनसारोद्धाराभिप्रायेण स्वा-द्यम् , कल्पवृत्त्यभिप्रायेण तु खाद्यम् , अजमकं खाद्यमिति केचि-त्। सर्वस्वाद्यम् एलाकर्पूराऽऽदिजलं णम्मया स्त्री०(नम्रता) औचित्येन नमनशीलतायाम् द्वा० 12 द्वा०। च द्विविधाऽऽहारप्रत्याख्याने कल्पते / वेसण-विरहाली-सोआ *नर्मदा स्त्री० / रेवापर्याय अमरकण्टकादुद्गत्य पश्चिमसमुद्रं प्रविष्टे कोठवडी-आमला-गण्ठी-आंबागोली-क उचिली-चूइपत्रप्रमुख नदीभेदे, " दिवा काकरवाभीता, रात्रौ तरति नर्मदाम्।" आव०२ अ०। खाद्यत्वाद् द्विधाऽऽहारे न कल्पते। त्रिविधाऽऽहारे तु जलमेव कल्पते। णय त्रि०(नत) प्रहीभूते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। ज्ञा० / आचा०। शास्त्रेषु मधुगुडशर्करा-खण्डाऽऽद्यपि खाद्यतया द्राक्षाशर्कराऽऽदिजलं *नय पुं० / नयत्यनेकांशाऽऽत्मकं वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतितक्राऽऽदि च पान-कतयोक्तमपि द्विविधाऽऽहाराऽऽदौ न कल्पते। उक्तं पथमारोपयतीति, नीयते वा अनेन तस्मिन् ततो वा नयनं नयः। उत्त 1 च-" दक्खा-पाणाऽऽईअं, पाणं तह साइमं गुडाऽऽईआपढिअंसुअम्मि अ० / पं० चू० / नीयते परिच्छिद्यतेऽनेनास्मादिति वा नयः / तह विहु, तित्तीजणगं ति नाऽऽयरिअं"||१|| अनाहारतया व्यवहिय- अनन्तधर्माऽऽत्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छित्तौ, अनु० स्था०। आ० माणान्यपि प्रसङ्गतो दर्श्यन्ते। यथा-पञ्चाङ्गनिम्ब-गुडूची-ककि-रि- म० / अनन्तधर्माऽऽत्मकस्य वस्तुनो नियतैकधर्माऽऽत्मकावलम्बनेन आतु-अतिविस-चीडि-सूकडि-रक्षा-हरिद्रा-रोहिणी-उप-लोट-वन- प्रतीतौ प्रापणे, उत्त०१ अ०।"नयंतीति नया वत्थुतत्तं अवबोहमोयरं त्रिफला-बाउलछल्लीत्यन्ये धमासो-नाहिआ-सन्धिरीङ्गणी-एलीओ- पावयंति त्ति " / अन्ये भणन्ति-नय-न्तीतिनयाः कारकाः, व्यञ्जकाः, हरडीदल-वउणि-बदरी-कंथेरिकरीर-मूल-पुंआड-मजीउ-वोलबीउ- प्रकाशका इत्यर्थः / आ० चू०१ उ०। नि० चू० / विशे०। कुंआरि-चित्रक-कुन्दरुप्रभृत्य-निष्ठाऽऽस्वादानि रोगाऽऽद्यापदि विषयसूचीचतुर्विधाहारेऽत्येतानि कल्प्यानीति कृतं प्रसङ्गेन। अत्र नियमभङ्ग (1) नयनिरुक्तिः / भयादाकारावाह-(अन्नत्थऽ-णाभोगेणं सहसागारेणं) अत्र पञ्चभ्यर्थ नयलक्षणनिरूपणपुरस्सरं नयतत्त्वप्ररूपणम्। तृतीया, अन्यत्रेति परिवर्जनार्थः, यथा-' अन्यत्र द्रोण-भीष्माभ्यां, सर्वे योद्धाः पराङ्मुखाः।' इति / ततोऽन्यत्रानाभोगात् सहसाकाराच, एतौ (3) नयस्वरूपोपपत्तिः। वर्जयित्वेत्यर्थः। तत्रानाभागोऽत्यन्तविस्मृतिः, सहसाकारोऽतिप्रवृत्त वस्तूनामनन्तधर्माऽऽत्मकत्वनिरूपणम्। योगानिवर्तनमिति / ध०२ अधि०। पं०व०। आव० / प्रव०। ल०। (5) नय इति यदुच्यते, यावद्भागश्चायं, तन्निरूपणम्। पण्डितआनन्दसागरगणिकृतप्रश्नो यथा (6) नयार्था आपेक्षिकाः। नमस्कारसहितप्रत्याख्यानं रात्रिप्रत्याख्यानमध्ये, पृथग् वा ? तेन | (7) अपेक्षाऽऽत्मकं वाक्यं नयः। (2)
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________________ णय 1853 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय भनि (8) सामान्यविशेषविचारः। () सप्तभङ्ग्यां नयविभागोपदर्शनम्। (10) एकत्रानेकाऽऽकारा प्रमाणधीः / (11) नयाना प्रमाणाप्रमाणत्वनिर्णयः / (12) संमत्यादौ यदभिनिविष्ट तरनवखण्डनं तत्साधनंनिमित्तं बौद्धाऽऽदिनयपरिग्रहा अपि शुद्धपर्यायाऽऽदिवस्तुप्राप्त्या फलतो न मिथ्यारूपा इत्यादिनिरूपणम्। (13) नयविभागे द्रव्यपर्यायार्थिकतया नयस्य संक्षेपतो द्वैविध्यम्। (14) संग्रहविशेषौ द्रव्यपर्यायौ सामान्यविशेषशब्दवाच्यावित्यत्र / विचारः। (15) द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययो गमाऽऽदिनयानामन्तर्भावः। (16) सप्तसु नैगमाऽऽदिषु मूलनयेषु विचारे नैगमाऽऽदीनां मतसंग्रहः / (17) सिद्धसेनदिवाकरमते षड्नयाः, नैगमस्य संग्रहव्यवहारयोरन्त भर्भावात्। (18) प्रस्थकवसतिप्रदेशदृष्टान्तेन नयप्रमाणपरामर्शः। (16) तत्र प्रस्थकदृष्टान्तः। (20) वसतिदृष्टान्तः। (21) प्रदेशदृष्टान्तः। (22) सर्वे नयाः स्वस्वस्थाने शुद्धाः। (23) 700 सप्त शतानि नयाः। (24) असंख्याता नया इति मतान्तरनिरूपणम्। (25) निक्षेपनययोजना। (26) द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययोमिथो विचारः / (27) तौ सव्यपेक्षौ प्रमाणम्। (28) यद् दर्शनं यस्मान्नयाद् जातं सामान्यतस्तन्निरूपणम्। (26) निश्चयव्यवहारयोः सर्वनयान्तर्भायः। (30) दिगम्बरमते नयाः। (31) व्यवहारनथात् साङ्ख्यं प्रवृत्तम्। (32) वेदान्तिसाङ्ख्यदर्शनयोः शुद्धाशुद्धत्वम्। (33) नैगमस्य संग्रहव्यवहारयोरन्तर्भावः। (34) ये शब्दनया ये चार्थनयास्तेषां निरूपणम्। (35) नयोत्पादितेष्वपरिमितेषु दर्शनेषु यस्य मिथ्यात्वं, यस्य च सम्यक्त्वं तन्निरूपणम्। (36) नयफलविमर्शः। (37) ज्ञानक्रियानयद्वारे संग्रहाऽऽदीनां समवतारो भवतीति तत्स्व रूपनिरूपणम्। (38) नयानां पार्थक्ये यैः समवतारः, यत्र वाऽनवतारस्तन्निरूपणम्। (36) आलोचनाऽऽद्यष्टनयानां निरूपणम्। (1) अथ नयनिरुक्तिमाहस नयइ तेण तहिं वा, तओऽहवा वत्थुणो व जं नयणं / बहुहा पजायाणं, संभवओ सो नओ नाम / / 614 // स एव वक्ता संभवद्भिः पर्यायैर्वस्तु नयति गमयतीति नयः / अथवानीयते परिच्छिद्यते अनेन, अस्मिन् , अस्माद् चेति नयः; अनन्त धर्माध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोध इत्यर्थः / यदिवा-बहुधा वस्तुनः पर्यायाणां संभवाद्विवक्षितपर्यायेणयन्नयनमधिगमनं परिच्छेदनमसौ नयो नाम / / 614 / विशे० / इह हि जिनप्रवचने सर्व वस्त्वनन्तधर्माऽsत्मकतया संकीर्णस्वभावमिति तत्परिच्छेदकेन प्रमाणेनाऽपि तथैव भवितव्यमित्यसंकीर्णप्रतिनियतधर्मप्रका-रकव्यवहारसिद्धये नयानामेव सामर्थ्यम् / नयो०। (2) नयतत्त्वं प्ररूपयन्तिनीयते येन श्रुताऽऽख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशीदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः॥१॥ अत्रैकवचनमतन्त्रम् , तेनांशावंशा वा, येन परामर्शविशेषेण श्रुतप्रमाणप्रतिपन्नवस्तुनो विषयी क्रियन्ते तदितरांशीदासीन्यापेक्षया स नयोऽभिधीयते। तदितरांशप्रतिक्षेपे तु तदाभासता भणिष्यते ('णयाभास' शब्दे)। प्रत्यपादयाम च स्तुतिद्वात्रिंशति"अहो ! चित्रं चित्रं तव चरितमेतन्मुनिपते!, स्वकीयानामेषां विविधविषयव्याप्तिवसिनाम्। विपक्षापेक्षाणां कथयसि नयनां सुनयतां, विपक्षक्षेप्तृणां पुनरिह विभो ! दुष्टनयताम्॥१॥" पञ्चाशति च" निःशेषांशजुषां प्रमाणविषयीभूयं समासेदुषां, वस्तूनां नियतांशकल्पनपराः सप्त श्रुताऽऽसङ्गिनः। औदासीन्यपरायणास्तदपरे चांशे भवेयुर्नयाश्वेदेकान्तकलङ्कपङ्ककलुषास्ते स्युस्तदा दुर्नयाः // 1 // " रत्ना०७ परि०। (3) नयलक्षणे नयस्वरूपोपपत्तिमाहसत्त्वाऽसत्त्वाऽऽद्युपेतार्थे -ष्वपेक्षावचनं नयः। न विवेचयितुं शक्यं, विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम् // 2 // (सत्त्वाऽसत्त्वेति) सत्त्वाऽसत्त्वाऽऽदयो ये धर्माः, आदिना नित्याऽनित्यत्वभेदाऽभेदाऽऽदिरिति परिग्रहः / तैरुपेतास्तदात्मका येऽर्थाः जीवपुद्गलाऽऽदयः, तेष्वपेक्षावचनं प्रतिनियतधर्मप्रकारकापेक्षाऽऽख्यशाब्दबोधजनकं वचनम् , नयवाक्यमित्यर्थः / इदं वचनरूपस्य नवस्य लक्षणं, ज्ञानरूपस्य तु नयस्य-अपेक्षाऽऽत्मक-शदबोधत्वमेवेति द्रष्टव्यम्। अपेक्षात्वं च क्षयोपशमजन्यताऽवच्छेदकोजातिविशेषो, विषयताविशेषो वेत्यन्यदेतत्॥ ननु घटोऽस्तीत्यादिवाक्यश्रवणाद् घटविषयकं शाब्दज्ञानं मम जातमित्येव लोकाः प्रतियन्ति; न तु तत्रापेक्षात्वमपीत्यपेक्षाऽऽत्मकनयज्ञानसत्त्वे किं प्रमाणम् ?; अत आह-हि निश्चितं, मिश्रितं विरुद्धत्येन प्रतीयमानैर्नानाधर्मः करम्बितं वस्तु, अपेक्षां विना वि. वेचयितु विवक्षितैकधर्मप्रकारकनिक्षेपविषयीकर्तु, न शक्यम् : तद्विरुद्धधर्मवत्ताज्ञानस्यानपेक्षाऽऽत्मकस्या(स्या)नुपपत्तेर्बाधप्रतिबद्ध्यताऽऽवच्छेदककोटौ लाघवेनाऽनपेक्षाऽऽत्मकत्वस्यैव निवेशात्, अव्याप्यवृत्तित्वज्ञानकालीनाऽऽहार्यदोषविशेषजन्याऽऽदीनामपेक्षाऽऽत्मकत्वेनैव तद्वारकविशेषणानुपादानात्। तथा च तद्धर्मप्रतिपक्षधर्मधत्तया ज्ञातेऽपि तद्धर्मवत्तया ज्ञायमानस्य(ऽऽहार्यदोषविशेषजन्या)ssदीनामपेक्षाऽऽत्मकतयाऽनुपपत्तिरेवाऽपेक्षात्वे मानम्, तस्या एव सर्वतो बलवत्प्रमाणत्वात् / तदाह श्रीहर्ष:- "अन्यथाऽनुपपत्तिश्वे दस्तु वस्तुप्रसाधिकादस्त्वपेक्षाप्रसाधिके ति पाठः स्यात् / पिनष्ट्यदृष्टवैमत्यं, यतः सर्वबलाधिका"॥१॥ इति। न चाऽपेक्षां विना लौकिकोऽपि व्यवहारः संगच्छते, अग्राऽऽद्यवच्छेदेन कपिसंयोगाभाववति
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________________ णय 1854 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय वृक्षेशाखाऽऽपेक्षयैव कपिसंयोगवत्त्वव्यवहारात् / न चाऽवच्छेदकावगा वाय(व्यवहारो)नत्वपेक्षाऽऽत्मक इति वाच्यत् , शाखाऽवच्छिन्नो वृक्षः कपिसंयोगवान , न तु संपूर्ण इति प्रत्ययस्य स्कन्धदेशापेक्षा विनाऽनुपपत्तेः / कथं चैवं सामान्यविशेषापेक्षां विना" घटपटयोः रूपं, घटपटयोर्न रूपम् " इत्यादयो विचित्रनयापेक्षाप्रत्ययाः समर्थनीयाः / संग्रहनयाऽऽश्रयणेनैव हि घटपटोभयरूपसामान्योद्भूत (त) त्वविवक्षया घटपटयो रूपमिति प्रत्ययस्योपपत्तेः, द्वयोर्भेदविवक्षायां प्रत्येकाऽन्वयस्य धर्मद्वयावच्छिन्नवाचकपदोपादानस्थल एव व्युत्पन्नत्वात् / व्यवहाराऽऽश्रयणात्तु प्रकृतप्रयोगोऽनुपपन्न एव, मिलितवृत्तित्वान्वय एव तस्य साकाङ्गत्वाद् घटपटयोन रूपमिति बोधस्यैव तस्मादुत्पत्तेः / यत्तु घटपटयोन रूपमिति वाक्यं तात्पर्यभेदेन योग्यायोग्यं-घटपटयोः रूपत्वाव-च्छिन्नाभावान्वयातात्पर्य ऽयो ग्यमेव, रूपत्वावच्छेदेन घटपटोभयवृत्तित्वाभावान्वयतात्पर्ये च योग्यमेव; घटपटयो रूपमित्यादौ च घटपटोभयवृत्तित्वस्यापि रूपत्वाऽऽदिसामानाधिकरण्येन अन्वयबोध एव साकाङ्गत्वाद् न तयोर्घटरूपमित्यपि स्यादिति कैश्चित्कल्प्यते। तद्सत् / प्रतिवस्तुन्याकाङ्क्षावैचित्र्यस्यापेक्षाबोधाऽऽत्मकफलवैचित्र्यार्थमेवाऽऽश्रयणात् , उभयरूपसामान्यस्य प्रत्येकरूपविशेषात्कथचिझेदानभ्युपगमे त्वदुक्तान्यव्युत्पत्तिग्रहाद् घटपटयोर्घटरूपमिति जायमानस्य बोधस्य प्रामाण्याऽऽपत्तेश्च; अस्माकं तु स्यादर्थानुप्रवेशस्यैवातिप्रसङ्गभञ्जकत्वान्न दोषः। किश्चैवम्-द्वयोर्गुरुत्वं नगन्ध इत्यादी का गतिः ? गुरुत्वसामानाधिकरण्येनेव गन्धत्वसामानाधिकरण्येनाऽपि पृथिवीजलोभयत्वा (ऽऽश्रयवृत्तित्वात विधिनिषेधविषयार्थानिरुक्तेः। अत्र सप्तम्याः स्वार्थान्वयिताऽवच्छेदकस्वरूपत्वादुभयाख्याऽतिरिक्तवाऽऽधेयताऽर्थः ? तत्र च प्रकृत्यर्थस्य तन्निष्ठनिरूपितत्वविशेषणान्वयात्पृथिवीजलोभयविशिष्टाऽऽधेयतात्वेन गुरुत्वं विधेयतया, गन्धश्च निषेध्यतया प्रतीयते, इत्युक्तौ चनामान्तरेण गुरुत्वसामान्यस्यैव विधेयत्वं, गन्धसामान्यस्यैव च निषेध्यत्वमायुष्मतामतिरिक्ताऽऽधारताया अनिरूपणात् / अन्यथा घटपटयोन घटरूपमित्यादी जातिघटयो सन्नित्यादाविव घटपटोभयनिरूपितत्वाभाववदाधेयतावद् घटरूपमित्यन्वयोपपादनेऽपि घटपटरूपे इत्यस्योपपादयितुमशक्यत्वाद् घटरूपत्वाऽऽदिस्वरूपाया आधेयताया उभयानिरूपितत्वात् / तत्र द्वित्वाऽऽदिस्वरूपैवाऽऽधेयतेति चेद् , द्वयोः प्रत्येक रूपावच्छेदेन द्वित्वाभावान्निषेधस्याऽपि प्रवृत्तिः स्यात् / अनुयोगिताऽवच्छेदकावच्छेदेनैव सप्तम्यर्थाऽऽधेयत्वान्वयव्युत्पत्ते ऽयं दोष इति चेत्, तथाऽपिघटरूपाऽऽकाशे इत्यादिकं कथम् ? एतद्वित्वाऽऽदिस्वरूपाया आधेयताया उभयानिरूपितत्वात् , तत्र तात्पर्यवशाद् द्वित्वान्वयेऽप्युभयस्यानाधेयत्वाभावात्; तस्मान्नयापेक्षाभेदेनाऽत्र विचित्र एव बोधः स्वीकार्यः / / 2 / / (4) नन्वनन्तधर्ममिश्रितं वस्तुकथं विवेचयितुमशक्यम् ? अनन्तानामपि धर्माणां धर्मि(H) भिन्नत्वेन धर्मिग्राहकप्रत्याक्षाऽऽदेरेव तद्विवेकरूपत्वात् , सति च तद्वि वेके किमपेक्षाऽऽश्रयणेन ? इत्याशङ्कयाऽऽहयद्यप्यनन्तधर्माऽऽत्मा, वस्तु प्रत्यक्षगोचरः। तथाऽपि स्पष्टबोधः स्यात् , सापेक्षो दीर्घताऽऽदिवत् // 3 // / यद्यपि वस्तु घटपटाऽऽदिकम् अनन्तधर्माऽऽत्मकं सत् प्रत्यक्षगोचरः प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणविषय एकस्मिन् घटाऽऽदौ गृह्यमाणे गृह्यमाणधर्मोपरागेण द्रव्यार्थातिदेशेनातीतानागतवर्तमानानांतवृत्तिधर्माणां यावतामेव ग्रहात् परेषां सामान्यलक्षणप्रत्यासत्तिस्थानेऽभिषिक्तस्य घटविषयकतिर्यक् सामान्योपयोगस्य घटताया व्यापकविषयताकप्रत्यक्षत्वं तादृशज्ञानत्व वा यथा कार्यताऽवच्छेदकत्वं तथा तद्विषयकोर्द्धतासामान्यस्य तादात्म्यसंबन्धिनाऽऽधेयत्वसंबन्धेन वा घटव्यापकविषयताकप्रत्यक्षत्वस्य तादृशज्ञानत्वस्य वा कार्यताऽवच्छेदकताया न्यायसिद्धत्वात् / अत एव-" जे एग जाणइ, से सव्वं जाणइ " इति पारमर्षवचनानुरोधोऽपि, एक-वस्तुग्रहे तद्गतस्वपरपर्यायकुक्षिप्रवेशेन सर्वेषां ग्रहादनुवृत्तिव्यावृत्तिसंबन्धपर्यालोचने तावत्प्रमाणस्यैव वस्तुनोऽनुभवात् / तदाह महावादी सम्मतौ-" एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया वयणपजवा वा वि। तीयाणागयभूआ, तावइयं तं हवइ दव्वं / / 31 // " (सम्म०१ काण्ड) इति। नन्वेवं सर्वस्य सार्वज्ञाऽऽपत्तिरिति चेत्। न / द्र-व्यार्थे इष्टत्वात् ; उक्तभगवद्वचनरुच्यनुवेधेन सम्यक्संपन्नत्वानतिप्रसङ्गाद् यद्यप्येवं, तथापि स्पष्टबोधः सत्त्वासत्त्वाऽऽदिप्रतिनियतधर्मप्रकारको बोधः, सदसदाद्याकारको वा बोधः सापेक्षः शाब्दस्थले नयापेक्षया जनितः, प्रत्यक्षस्थले चावध्यच्छेदकाऽऽदिज्ञानापेक्षः स्यात्। किंवत् ? दीर्घताऽऽदिवत्-आदीयतेऽनेनेत्यादि ज्ञानं, दीर्घताप्रत्यक्षवदित्यर्थः / यथा हि दण्डाऽऽदिज्ञानकाले तत्परिमाणग्रहेऽप्ययमस्मादीर्घ इति दीर्घत्वप्रकारकं ज्ञानं नियतावध्यपेक्षयैव, तथा सदसदाद्यात्मकवस्तुग्रहेऽपि सत्त्वाऽऽदिप्रकारकं ज्ञानंस्वद्रव्याऽऽद्यपेक्षयैवेत्यर्थः; अयमेव तदपेक्षया दीर्घ इतिवत् स्वद्रव्याऽऽद्यपेक्षया सन् परद्रव्याssद्यपेक्षयाऽसन्नित्येव व्यवहारात्। नन्वेवं व्यवहार एव सापेक्षो, नतु बोध इति चेत् / न / व्यवहर्तव्यज्ञाने सति सत्यां चेच्छायां व्यवहारेऽपि तदपेक्षणात् / अन्यथाऽभावज्ञानेऽपि प्रतियोग्यपेक्षा न स्यात् , तद्व्यवहार एव सप्रतियोगिकत्वस्थितेः / अथ दीर्घो दण्ड इति ज्ञानं चक्षुःसन्निकर्षमात्राज्जायत एवामुकापेक्षया दीर्घ इति दीर्घत्वत्वावान्तरजात्यवगाहिज्ञान एव चावधिज्ञानापेक्षेति चेत् / न / ह्रस्वत्वेन ज्ञाने दीर्घत्वेन ज्ञानस्यैवापेक्षा विनाऽनुपपत्तेः। तद्वदिहापि परद्रव्याऽऽदिनाऽसत्त्वेन स्वद्रव्याऽऽद्यपेक्षयैव सत्त्वज्ञानमिति प्रतिपत्तव्यम्। अवच्छेदकानवगाहिनस्तु अनवधारणरूपत्वादेवानुपयोगः, द्विहस्ताऽऽदिमात्रेऽनुवृत्तैकहस्तावच्छेदेन महत्त्वग्रहस्तु देशापेक्षयैवेति तस्य निरपेक्षत्वम्। अत एवाऽऽवरणापगमे स्कन्धापेक्षया परिणामे द्विहस्तत्वग्रहेऽपि तावदवच्छेदेन हस्तत्वग्रहस्य नाप्रामाण्यं, देशस्कन्धभेदेनोभयोपपत्तेः। एतेन भूयोऽवयवावच्छेदेन चक्षुःसंयोगाभावान्न निखात-वंशाऽऽदेर्द्विहस्ताऽऽदेः परिमाणग्रह इति प्राच्यनैयायिकानां प्रलापो निरस्तः / यावंति भागे नाऽऽवरणं तावतिभागे परिमाणवत इव परिमाणस्य ग्रहादेव स्कन्धपर्याप्तपरिमाणग्रहे तत्पर्याप्त्यवच्छेदकयावदवयवावच्छेदेनाऽऽवरणाभावलक्षणयोग्यताया एव हेतुत्वे दोषाभावात् / किशभूयोऽवयवाकछे देनेत्यस्य कोऽर्थः ? यावदवयवसन्निकर्षस्य तत्राप्य-संभवात्, अनेक तस्तदयोगस्य चातिप्रसञ्जकत्वाद् भूयोऽवयवावच्छिन्नत्वोपलक्षिताऽऽधारताविशेषस्य च देशस्कFधापेक्षावैचित्र्यमुखनिरीक्षकत्वादिति न किशिदेतत् / यत्तु विषयतासंबन्धेन परिमाणसाक्षात्कारित्वावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसंबन्धेन तत्तदावरकसंयोगत्वेन प्रतिबन्धकत्वाद ना
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________________ णय 1855 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय र्द्धनिखातवंशाऽऽदिपरिमाणग्रहः / यद्वा-अर्द्धनिखातवंशाऽऽदेर्महत्याऽऽदिकं गृह्यत एव, महानयं वंश इति प्रतीतेः / तदवान्तरवैजात्यं तु नानुभूयत इति तत्तद्वैजात्यग्रहं प्रत्यावरकसंयोगस्य विराधिता। न च निखाताऽनिखातसदृशवंशयोः सन्निकर्षकतायां तन्महत्त्वाऽऽदिवृत्तिवैलक्षण्यानुभवाद् वैजात्यप्रत्यक्षं (प्रत्यक्षं) प्रत्यावरकसंयोगानां प्रतिबन्धकत्वासंभव इति वाच्यम्; तादृशवैलक्षण्यप्रकारकं प्रत्यक्षं प्रत्येव तेषां विरोधित्वात् / विशेष्यत्वं प्रतिबध्यताऽवच्छेदकः संबन्धः, स्वाश्रयमेव तत्त्वं प्रतिबन्धतावच्छेदकम् , इत्यनतिप्रसङ्गात्। न चैवम्, निखातसनिकर्षात् तादृशवैलक्षण्यविशेष्यकसाक्षात्काराऽऽयत्तेर्दुर्वारत्वात्। किञ्च-एवमावृत्तैक-पार्श्वविच्छेदेन यस्य चक्षुःसंयोगानोक्तवैजात्यस्य ग्रहः, तस्यैवान्यदा पुरुषान्तरस्य वा तदानीं पाश्चन्तिरावच्छेदेन चक्षुःसंयोगेऽप्यग्रहः स्यात् , आवरकसंयोगस्य विरोधिनः सत्त्वात् / तत्तत्कालीनतत्तत्पुरुषीयमहत्त्वाऽऽदिप्रत्यक्षं प्रत्येवोक्तप्रतिबन्धकत्वे त्वनावरणकालीनस्य विलक्षणमहत्त्वाऽऽदिप्रत्यक्षस्याऽऽवरणदशायामुत्पत्तिप्रसङ्गः। न हि तत्रापि सन्निकर्ष विना अन्यविशिष्टकारणं क्लिप्तं येन तद्विलम्बात्तद्विलम्बः स्यात्। अपि च-एवमावृत्तादृष्टनष्टस्थले प्रतिबद्ध्याप्रसिद्धिः स्वप्राचीस्थपुरुषीयोक्तवैजात्यसाक्षात्कारणत्वावच्छिन्न एव स्वप्रतीच्यवच्छिन्नाऽऽवरकसंयोगत्वेन प्रतिबन्धकत्वेतु द्रव्यचाक्षुषेऽप्येवमित्यादिसंयोगप्रतिबन्धकत्वेन निर्वाह व्यवहितार्थादर्शनान्यथाऽनुपपत्त्या चक्षुःप्राप्यकारित्वसाधनप्रयासस्य वैफल्याऽऽपत्तिरिति न किञ्चिदेतत्। एतेन तादृशवैलक्षण्यसाक्षात्कारप्रयोजकतया चक्षुरादिसंयोगनिष्ठवैजात्यान्तरस्वीकारेणैव निर्वाह इति कल्पनाऽपि तेषामपास्ता, तद्वतोरिति न्यायेनाऽऽभिमुख्यविशेषेणाऽऽयरणाभावविशेषेण वा निर्वाह तादृशवैजात्यकल्पनायां महागौरवात् , अन्यापेक्षयैव स्वदेशापेक्षयाऽपि न्यूनाधिकभावरूपवैजात्यानुभवस्यापेक्षा विनाऽनुपपत्तेश्चेति दिक् / / 3 / / नयो० / द्रव्या०। (5) तत्र नय इति किमुच्यते ? कतिभेदश्चायम् ? इत्याहएगेण वत्थुणोऽणे-गधम्मुणो जमवधारणेणेव / नयणं धम्मेण तओ, होइनओ सत्तहा सो य / / 2180 / / अनेकधर्मणोऽनन्तधर्माऽऽत्मकस्य वस्तुनो यदेकेन नित्यत्वाऽऽदिना, अनित्यत्वाऽऽदिना वा धर्मेणावधारणेनैव सावधारणं नयनं प्ररूपणं तकोऽसौ नयो भवति। अनन्तधर्माऽऽत्मकंवस्त्वेकांशेनैव नयति प्ररूपयतीति नयः / कथं पुनरेकस्य वस्तुनो युग-पदनन्तधर्माऽऽत्मकत्वम् ? अत्रोच्यते-सर्वमेव वस्तु तावत्सपर्यायम् / ते च पर्याया द्विविधाःरूपरसाऽऽदयो युगपद्भाविनः, नवपुराणाऽऽदयस्तु क्रमभाविनः / पुनः शब्दार्थपर्यायभेदात्सर्वेऽपि द्विविधाः / तत्र' इन्द्रो दुश्च्यवनो हरिः " इत्यादिशब्दैर्येऽभिलप्यन्ते, ते सर्वेऽपि शब्दपर्यायाः। ये त्यभिलपितुं न शक्यन्ते श्रुतज्ञानविषयत्वातिक्रान्ताः केवलाssदिज्ञानविषयास्तेऽर्थपर्या- याः / पुनरेते द्विविधाः-स्वपर्यायाः, परपर्यायाश्च / पुनस्तेऽपि केचित्स्वाभाविकाः, केचित् तु पूर्वापराऽऽदिशब्दवदापेक्षिकाः / पुनरेते सर्वेऽप्यतीतानागतवर्तमानकालभेदालिविधा इत्यादिना प्रकारेण समयानुसारतः सुधिया वस्तुनो युगपदनन्तधर्मकत्वं भावनीयम्। स च नयः सप्तविधः सप्तप्रकार इति। 2180 / / विशे० / आ० म०। ननु नयस्य प्रमाणाभेदेन लक्षणप्रणयनमयुक्तम् , स्वार्थव्यव- | सायाऽऽत्मकत्वेन तस्य प्रमाणस्वरूत्वात् / तथाहि-नयः प्रमाणमेव, स्वार्थव्यवसायकत्वादिष्टप्रमाणवत् , स्वार्थव्यवसायकस्याप्यस्य प्रमाणत्वानभ्युपगमे प्रमाणस्यापि तथाविधस्य प्रमाणत्वं न स्यादिति कश्चित् / तदसत् / नयस्य स्वार्थकदेशनिर्णीतिलक्षणत्वेन स्वार्थव्यवसायकत्वासिद्धेः / ननु नयविषयतया सम्मतोऽर्थकदेशोऽपि यदि वस्तु तदा तत्परिच्छे दी नयः प्रमाणमेव, वस्तुपरिच्छेदलक्षणत्वात्प्रमाणस्य / स न चेद्वस्तु तर्हि तद्विषयो नयो मिथ्याज्ञानमेव स्यात्, तस्यावस्तुविषयत्वलक्षणत्वादिति चेत् / तदवद्यम्। अर्थकदेशस्य वस्तुत्वावस्तुत्वपरिहारेण वस्त्वंशतया प्रतिज्ञानात्। तथा चाऽवाचि" नाऽयं वस्तुन चाऽवस्तु, वस्त्वंशः कथ्यते बुधैः। नाऽसमुद्रः समुद्रो वा, समुद्रांशो यथैव हि // 1 // तन्मात्रस्य समुद्रत्वे, शेषांशस्याऽसमुद्रता। समुद्रबहुता वा स्यात् , तत्त्वे क्वास्तु समुद्रवित् ? // 2 // " यथैव हि समुद्राशस्य समुद्रत्वे शेषसमुद्रांशानामसमुद्रत्वप्रसङ्गात् समुद्रबहुत्वाऽऽपत्तेर्वा तेषामपि प्रत्येकं समुद्रत्वात् तस्याऽसमुद्र-त्वे वा शेषसमुद्रांशानामप्यसमुद्रत्वात् क्वचिदपि समुद्रव्यवहारा-योगात् समुद्रांशः समुद्रांश एवोच्यते, तथा-स्वार्थकदेशो नयस्य न वस्तु, स्वार्थकदेशान्तराणामवस्तुत्वप्रसङ्गाद्वस्तुबहुत्वानुषक्तेर्वा नाप्ययस्तु, शेषांशानामप्यवस्तुत्वेन क्वचिदपि वस्तुव्यवस्थाऽनु-पपत्तेः। किंतर्हि वस्त्वंश एवासौ तादृक्प्रतीतेर्बाधकाभावात् ? ततो वस्त्वंशे प्रवर्त्तमानो नयः स्वार्थकदेशव्यवसायलक्षणो न प्रमाण, नापि मिथ्याज्ञानामिति // 1 // (रत्ना०) नयप्रकारसूचनायाऽऽहु:सव्याससमासाभ्यां दिप्रकारः॥३॥ स प्रकृतो नयः व्यासो विस्तरः, समासः संक्षेपः, ताभ्यां द्विभेदःव्यासनयः,समासनयश्चेति॥३॥ व्यासनयप्रकारान् प्रकाशयन्तिव्यासतोऽनेकविकल्पः // 4 // एकांशगोचरस्य हि प्रतिपत्त्रभिप्रायविशेषस्य नयस्वरूपत्वमुक्तं, ततश्वानन्तांशाऽऽत्मके वस्तुन्येकैकांशपर्यवसायिनो यावन्तः प्रतिपत्तॄणामभिप्रायास्तावन्तो नयाः, ते च नियतसंख्यया संख्यातुं न शक्यन्त इति व्यासतो नयस्यानेकप्रकारत्वमुक्तम्॥ 4 // समासनयं भेदतो दर्शयन्तिसमासतस्तु द्विभेदो-द्रव्यार्थिकः, पर्यायार्थिकश्च / / 5 / / नय इत्यनुवर्तते; द्रवति द्रोष्यति अदुद्रुवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्य, तदेवार्थः, सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स द्रव्यार्थिकः / पर्येत्युत्पादविनाशौ प्राप्नोतीतिपर्यायः स एवार्थः, सोऽस्ति यस्यासौ पर्यायार्थिकः / एतावेव च द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकाविति, द्रव्यस्थितपर्यायस्थिताविति, द्रव्यार्थपर्यायार्थाविति न प्रोच्यते। ननु गुणविषयस्तृतीयो गुणार्थिकोऽपि किमिति नोक्त इति चेत् . गुणस्य पर्याय एवान्तर्भूतत्वेन पर्यायार्थिकनैव तत्संग्रहात्। पर्यायो हि द्विविधः कमभावी, सहभावी च। तत्र सहभावी गुण इत्यभिधीयते; पर्यायशब्देन तु पर्यायसामान्यस्य स्वव्यक्तिव्यापिनोऽभिधानान्न दोषः। ननु द्रव्यपर्यायव्यतिरिक्तौ सामान्यविशेषौ वि
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________________ णय 1956 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय घेते ततस्तद्गोचरमपरमपि नयद्वयं प्राप्नोतीति चेत् / नैतदनुपद्रवम् / द्रव्यपर्यायाभ्यां व्यतिरिक्तयोः सामान्यविशेषयोरप्रसिद्धः / तथाहिद्विप्रकारं सामान्यमुक्तम्-ऊर्द्धतासामान्यं, तिर्यक्सामान्यं च / तत्रोद्धर्वतासामान्यं द्रव्यमेव; तिर्यक् सामान्यं तु प्रतिव्यक्तिसदृशपरिणामलक्षणं व्यञ्जनपर्याय एव / स्थूलाः कालान्तरस्थायिनः शब्दानां सङ्केतविषया व्यञ्जनपर्याया इति प्रावचनिक प्रसिद्धः / विशेषोऽपि वैसदृश्यविवर्तलक्षणः पर्याय एवान्तर्भवतीति नैताम्यामधिकनयावकाशः / / 5 / / द्रव्यार्थिकभेदानाहुःआद्यो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदात् त्रेधा॥६॥ आद्यो द्रव्यार्थिकः॥६॥ तत्र नैगमंप्ररूपयन्तिधर्मयोर्धर्मिणोधर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगमः // 7 // पर्यायवोर्द्रव्ययोर्द्रव्यपर्याययोश्च मुख्यामुख्यरूपतया यद्विवक्षणं स | एवंरूपो नैके गमा बोधमार्गा यस्याऽसौ नैगमो नाम नयो ज्ञेयः / / 7 / / अथास्योदाहरणाय सूत्रत्रयीमाहुःसचैतन्यमात्मनीति धर्मयोः // 8 // प्रधानोपसर्जनभावेन विवक्षणमितीहोत्तरत्र च सूत्रद्वये योजनीयम्। अत्र चैतन्याऽऽख्यस्य व्यञ्जनपर्यायस्य प्राधान्येन विवक्षणम् , विशेष्यत्वात्। सत्त्वाऽऽख्यस्य तुव्यञ्जनपर्यायस्योपसर्जनभावेन; तस्य चैतन्यविशेषणत्वादिति धर्मद्वयगोचरो नैगमस्य प्रथमो भेदः / / 6 / / वस्तुपर्यायवद् द्रव्यमिति धर्मिणोः || 6 || अत्र हि पर्यायवद् द्रव्यं वस्तु वर्तत इति विवक्षायां पर्यायवद् द्रव्याऽऽख्यस्य धर्मिणो विशेष्यत्वेन प्राधान्यम् , वस्त्वाख्यस्य तु विशेषणत्येन गौणत्वम्। यद्वा-किं वस्तुपर्यायवद्रव्यमिति विवक्षायां वस्तुनो विशेष्यत्वात् प्राधान्यम् , पर्यायवद्रव्यस्य तु विशेषणत्वाद् गौणत्वमिति धर्मियुग्मगोचरोऽयं नैगमस्य द्वितीयो भेदः / / 6 / / क्षणमेकं सुखी विषयाऽऽसक्तजीव इति धर्मधर्मिणोः / / 10 // अत्र हि विषयाऽऽसक्तजीवाऽऽख्यस्य धर्मिणो मुख्यता, विशेष्यत्वात्, सुखलक्षणस्य तु धर्मस्याप्रधानता, तद्विशेषणत्वेनोपात्तत्वादिति धर्मधालम्बनोऽयं नैगमस्य तृतीयो भेदः / न चास्यैव प्रमाणाऽऽत्मकत्वानुषङ्गोधर्मधर्मिणोः प्राधान्येनात्र ज्ञप्रसंभवात् तयोरन्यतर एव हि नैगमनयेन प्रधानतयाऽनुभूयते / प्राधान्येन द्रव्यपर्यायहयाऽऽत्मकं चार्थमनुभवद्विज्ञानं प्रमाणं प्रतिपत्तव्यं नान्यत्॥ 10 // (रत्ना०) ___ अथ संग्रहस्वरूपमुपवर्णयन्तिसामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः / / 13 // सामान्यमात्रमशेषविशेषरहितं सत्त्वद्रव्यत्वाऽऽदिकं गृह्णातीत्येवंशीलः, समेकीभावेन पिण्डीभूततया विशेषराशिं गृह्णातीति संग्रहः / अयमर्थः-स्वजातेदृष्टष्टाभ्यामविरोधेन विशेषाणामेकरूपतया यद्ग्रहणं स संग्रह इति / / 13 // अमुंभेदतो दर्शयन्तिअयमुभयविकल्पः -परोऽपरश्च / / 15 / / तत्र परसंग्रहमाहुःअशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रममिमन्यमानः परसंग्रहः / / 15 / / परामर्श इत्यग्रेतनेऽपि योजनीयम्॥१५ / / उदाहरन्तिविश्वमेकं सदविशेषादिति यथा॥१६॥ अस्मिन् उक्ते हि सदिति ज्ञानाभिधानानुवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताकत्वेनैकत्वमशेषार्थानां संगृह्यते // 16 // (रत्ना०) अथापरसंग्रहमाहुःद्रव्यत्वाऽऽदीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तद्देदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसंग्रहः || 16 || द्रव्यत्वमादिर्येषां पर्यायत्वप्रभृतीनां तानि तथा, अवान्तरसामान्यानि सत्ताऽऽख्यमहासामान्यापेक्षया कतिपयव्यक्तिनिष्ठानि तद्भेदेषु द्रव्यत्वाऽऽद्याश्रयभूतविशेषेषु द्रव्यपर्यायाऽऽदिषु गजनिमीलिकामुपेक्षाम् // 16 // उदाहरन्तिधर्माऽधर्माऽऽकाशकालपुद्गलजीवद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वाभेदादित्यादिर्यथा // 20 // अत्र द्रव्य द्रव्यमित्यभिन्नज्ञानाभिधानलक्षणलिङ्गानुमितद्रव्यत्वाऽऽत्मकत्वेनैक्यं षण्णामपि धर्माऽऽदिद्रव्याणां संगृह्यते / आदिशब्दाचेतनाचेतनपर्यायाणां सर्वेषामेकत्वम् ; पर्यायत्वाविशेषादित्यादि दृश्यम् / / 20 // (रत्ना०) अथव्यवहारनयं व्याहरन्तिसंग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः॥ 23 // संग्रहगृहीतान् सत्त्वाऽऽद्यर्थान् विधाय, न तु निषिध्य यः परामर्शविशेषः, तानेव विभजते, स व्यवहारनयस्तझैः कीर्त्यते // 23 // उदाहरन्तियथा यत्सत्तद् द्रव्यं पर्यायो वेत्यादिः / / 24 / / आदिशब्दादपरसंग्रहगृहीतार्थगोचरव्यवहारोदाहरणं दृश्यम्।यद्रव्यं तज्जीवाऽऽदिषड्विधं, यः पर्यायःस द्विविधः-क्रमभावी, सहभावी चेति। एवं यो जीवः मुक्तः संसारी च, यः क्रमभावी पर्यायः स क्रियारूपः, अक्रियारूपश्चेत्यादि।। 24 / / (रत्ना०) द्रव्यार्थिकं त्रेधाऽभिधाय पर्यायार्थिकं प्रपञ्चयन्तिपर्यायार्थिकश्चतुर्धा-ऋजुसूत्रः,शब्दः, समभिरूढः, एवंभूतश्व / / 27 // एषु ऋजुसूत्रंतावद्वितन्वन्तिऋजु वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमात्रं प्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः // 28 // ऋजु अतीतानागतकालक्षणलक्षणकौटिल्यवैकल्यात् प्राञ्जलम् अयं हि द्रव्यं सदपि गुणीभावान्नार्पयति, पर्यायांस्तु क्षणध्वंसिनः प्रधानतया दर्शयतीति / / 28 / /
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________________ णय 1857 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय उदाहरन्तियथा सुखविवर्तः सम्प्रत्यस्तीत्यादिः॥ 26 / / अनेन हि वाक्येन क्षणस्थायिसुखाऽऽख्यं पर्यायमात्रं प्राधान्येन प्रदर्श्यते, तदधिकरणभूतं पुनरात्मद्रव्यं गौणतया नार्म्यते; आदि-शब्दाद् दुःखपर्यायोऽधुनाऽस्तीत्यादिकं प्रकृतनयनिदर्शनमभ्यूहनीयम् // 26 / / (रत्ना०) शब्दनयं शब्दयन्तिकालाऽऽदिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः / / 32 / / कालाऽऽदिभेदेन कालकारकलिङ्गसंख्यापुरुषोपसर्गभेदेन // 32 // उदाहरन्तियथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादिः // 33 // अत्राऽतीतवर्तमानभविष्यल्लक्षणकालत्रयभेदात् कनकाऽचलस्य भेद शब्दनयः प्रतिपद्यते।द्रव्यरूपतया पुनरभेदममुप्योपेक्षते। एतच्च कालभेदे उदाहरणम्। करोति क्रियते कुम्भ इति कारकभेदे; तटस्तटी तटमिति लिङ्गभेदे, दाराः कलत्रमित्यादि संख्याभेदे, एहि मन्थे रथेन यास्यसिन हि यास्यसि यातस्ते पितेतिपुरुषभेदे, संतिष्ठतेऽवतिष्ठत इत्युपसर्गभेदे // 33 // (रत्ना०) समभिरूढनयं वर्णयन्तिपर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थं सममिरोहन सममिरूढः // 36 // शब्दनयो हि पर्यायभेदेऽप्यभिदमभिप्रेति, समभिरूढस्तु पर्यायभेदे भिन्नानानभिमन्यते, अभेदं त्वर्थगतंपर्यायशब्दानामुपेक्षत इति।। 36 / / उदाहरन्तिइन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छक्रः, पूरणात् पुरन्दर इत्यादिषु यथा / / 37 // इत्यादिषु पर्यायशब्देषु यथा निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थं समभिरोहऋभिप्रायविशेषः समभिरूढः, तथाऽन्येष्वपिघटकुटकुम्भाऽऽदिषु द्रष्टव्यः // 37 // (रत्ना०) एवंभूतनयं प्रकाशयन्तिशब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाऽऽविष्टमर्थ वाच्यत्वेनाऽभ्युपगच्छन्नेवंभूतः // 40 // समभिरूढनयो हीन्दनाऽऽदिक्रियायां सत्यामसत्यां च वासवाऽऽदेरर्थस्येन्द्राऽऽदिव्यपदेशमभिप्रैति, पशुविशेषस्य गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत् तथा रूढेः सद्भावात् / एवम्भूतः पुनरिन्दनाऽऽदिक्रियापरिणतमर्थ तत्क्रियाकाले इन्द्राऽऽदिव्यपदेशभाजमभिमन्यते; न हि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति, गौरश्व इत्यादिजातिशब्दाभिमतानामपि क्रियाशब्दत्वाद्गच्छतीति गौः, आशुगामित्वादश्व इति / शुक्लो नील इति गुणशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दाएव-शुचिभवनात् शुक्लो, नीलनान्नील इति। देवदत्तो यज्ञदत्त इति यदृच्छाशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दा एव-देव एनं देयात्, यज्ञ एनं देयादिति। संयोगिद्रव्यशब्दाः समवायिद्रव्यशब्दाश्चाभिमताः क्रियाशब्दा एव-दण्डोऽस्याऽस्तीति दण्डी, विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यस्ति क्रियाप्रधानत्वात्। पञ्चतयी तु शब्दानां व्यवहारमात्राद्न निश्चयादित्ययं नयः स्वीकुरुते॥ 40 // उदाहरन्तियथेन्द्रनमनुभवन्निन्द्रः, शकनक्रियापरिणतः शक्रः, पूरणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्युच्यते // 41 // रत्ना०७ परि०। (6) ननु सर्वत्र वास्तव्येवापेक्षा नयप्रवृत्तिहेतुः, उत वैज्ञानिक्य-पि? उच्यते-क्वचिद् वैज्ञानिक्यपि,यत्र मतभेदोऽध्यवसायः। तथा चाऽऽहनानानयमयो व्यक्तो, मतभेदो ह्यपेक्षया। कोट्यन्तरनिषेधस्तु, प्रस्तुतोत्कटकोटिकृत् // 4 // (नानेति) हि निश्चितं मतभेदः-बौद्धौपनिषदादिदर्शनभेदः, नानानयमयः-स्वेच्छानिवेशितत्वेनाऽनेकनयविकाररूपः, वस्तुत्वप्रकृतिरूपोवा; अपेक्षया व्यक्तः, शुद्धपर्यायशुद्धद्रव्याऽऽद्यपेक्षयैव तत्तदर्थव्यवस्थितेः।नयविशेषतात्पर्यमतद्, न त्वपेक्षेति चेत्। न। तात्पर्यस्याऽपि वस्तुसंबन्धरूपापेक्षामालम्ब्य प्रवृत्तेः, असति संबन्धे तात्पर्यस्य प्रामाण्याप्रसरात् / सा चेयमपेक्षा वैजातिकः संबन्धः; अत एव विकल्पसिद्धस्य धर्मिणः प्रतिषेधाऽऽदिसाधनमामनन्ति साम्प्रदायिकाः / ईश्वरो नास्ति, प्रकृति स्तीत्यादौ विशिष्टज्ञानाऽऽकारविषयत्वेन तत्र धर्मिणो विकल्पसिद्धत्वाद्विशिष्टवस्तुसिद्धौ कथं विशिष्टाऽऽकारो भवेदिति चेत् ? यथा तत्र विशिष्टानतिरेकेऽपि विशिष्टाभावोऽतिरिक्तः प्रतिबिम्बबलात् सिद्धः, तथा मम विशिष्टाऽऽकारोऽपीति किं बाधकम् ? खण्डशः प्रसिद्धधर्मधर्मिरूपसदुपरागेणासदाकारोत्पत्तेनस्त्यिस्यातिप्रसङ्गः ? यद्वा-आलयविज्ञानसन्ततिरूप आत्माऽपि यदि क्षणिकः, किं पुनर्वाच्यं बाह्यवस्तुष्विति वैराग्यप्रतिपन्थितृष्णोच्छेदकानित्यभावनोद्देशेन बौद्धदर्शनस्य ? मुमुक्षुणा सर्व परित्यज्य स्वात्मनिष्ठेन भवितव्यम्; स च एक एवेति शोकद्वेषाऽऽदिनिबन्धनानेकसंबन्धबुद्धिमलप्रक्षालनगङ्गाजलसमानिकत्वभावनोद्देशेन च वेदान्तिकदर्शनस्य प्रवृत्तेः; तत्तदर्शनार्थज्ञानेषु तत्तद्भावनोद्देशप्रयुक्तमेवा-पेक्षात्वं, तेनैव तस्य सुनयत्वव्यवस्थितेः। अन्यथा बौद्धसिद्धान्ते बाह्यार्थज्ञानाऽऽदिवादानां, वेदान्तिसिद्धान्ते च प्रतिबिम्बाभासावच्छेददृष्टिसृष्टिवादाऽऽदीनामन्योऽन्यविप्रतिषिद्धत्वेन जात्या दुर्न-यत्वं सम्यग्दृष्टिपरिग्रहेणाऽपि निराकर्तुमशक्यत्वात्। न हि जात्या हलाहलं सवैद्यहस्तोपादानमात्रेणाऽमृतायते, रसायनीकरणं तु तस्योक्तापेक्षयैवेति दृढतरमवधेयम्। ननूक्तापेक्षयाऽतिशुद्धर्जुसूत्राऽऽदीनामितरनयार्थप्रतिषेधवृत्तौ कथं न दुर्नयत्वम् ? इतरांशौदासीन्यस्येव सुनयलक्षणत्वात्।दृश्यन्ते चते नयाः स्वसमये, परसमये चस्वेतरनयार्थबाधेनेव प्रगल्भमाना इत्याशक्ड्याऽऽह-कोट्यन्तरस्येतरनयार्थस्य, निषेधो निराकरणं, प्रस्तुता या उत्कटकोटिस्तत्कारी, विशिष्टविधेर्विशेषणविश्रामण प्रस्तुतकोटरुत्कटत्वकृदित्यर्थः / अयं भावः-यदीतरनयार्थप्रतिषेधो द्वेषबुद्ध्या तदा दुर्नयत्वमेव, यदि चोक्तभावानदाढ्यानुगतस्वविषयोत्कर्षाऽऽधानाय, तदा सुनयत्वमेव, जात्या र्दुनयस्याऽपि चिन्ताज्ञानेन फलतः सुनयीकरणाद्, भावनाज्ञानेन ऐदम्पर्यार्थप्रधानकरणप्रमाणवाक्यैकदेशत्वाऽऽपादनाच। तदाहुः श्रीहरिभद्रसूरयः षोडशप्रकरणे"ऐदम्पर्य शुद्ध्यति, यत्राऽसावागमः सुपरिशुद्धः। तदभावे तद्देशः, कश्चित् स्यादन्यथाग्रहणात्।।१२।।"
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________________ णय 1855 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय अस्य व्याख्या-ऐदम्पर्य तात्पर्य पूर्वोक्तं, शुध्यति स्फुटीभवति यत्राऽऽगमे, असावागमः सुपरिशुद्धः प्रमाणभूतः, तदभावे ऐदम्पर्यशुद्ध्यभावे, तद्देशः परिशुद्धाऽऽगमैकदेशः, कश्चिदन्य आगमः स्यात्, न तु मूलाऽऽगम एव, अन्यथाग्रहणाद् मूलाऽऽगमैकदेशस्य सतो विषयस्याऽन्यथाप्रतिपत्तेर्यतः समतामवलम्बमानास्तेऽपि तथेच्छन्ति। 12 // (षो०१६ विव०) तत्राऽपि च न द्वेषः कार्यो, विषयस्तु यत्नतो मृग्यः, तस्याऽपिन सद्वचनं सर्व यत्प्रवचनादन्यदिति। नन्वयं स्वसमयनयवाक्येभ्यः परसमयनयवाक्यानां को विशेषः,फलतो जातितश्च शुद्ध्यशुद्ध्योरविशेषात् ? न हि ज्ञानदर्शनलिङ्ग-चारित्राऽऽदिवादेषु स्वसमये स्थितपक्षोऽपि स्वविषये प्राधान्यं विदधानः ज्ञानाऽऽदिनयविषये च तन्निराकुर्वाणो जात्या शुद्धत्वमङ्गीकुरुते। तथा च स्थितपक्षवचनम्-" जम्हा दंसणनाणा, संपुण्णफलं न दिति पत्तेयं / चारित्तजुआ दिति उ, विसिस्सए तेण चारित्तं " // 1 // इति / अत्र हि ज्ञानाऽऽदिनये नैतद्वक्तुं शक्यम् , यथा त्वया संपूर्णफलप्रापकत्येन चारित्रमुत्कृष्यते, तथा मया तदुपनायकत्वेन" दासेण मे खरो कीओ, दासो वी मे खरो वि मे " इति-न्यायः / इत्यादिन्यावाद् व्यापारतया चारित्रान्यथासिङ्ख्यापादनाच ज्ञानाऽऽदिकमेवोत्कर्षमारोपणीयमिति / विजृम्भितं चेदमध्यात्ममतपरीक्षायां बहुधाऽस्माभिः। तथा च प्राधान्यस्याप्यव्यवस्थितत्वात् कुत्र केन नयेन जात्या व्यवस्थेयम् ? फलतः शुद्धिस्तु स्वपर-समययोरविशिष्टेति चेत् , अत्रास्माकमाभाति-यथा देशप्रदेश-खण्डपरमाणुवादीनां स्कन्ध(संबन्ध) संबन्धाभ्यां भेदः, तथा स्व-समयपरसमयस्थविचित्रनयानां प्रमाणवाक्यान्तर्भावबहिर्भावाभ्याम् / तौ च पदार्थवाक्यार्थाऽऽदिभावेन साकासतया स्वान्त्र्येण निराकाजतया चेति न जातिभेदाऽनुपपत्तिः / स्वसमये नयेषु निराकाङ्गप्रमाणबोधपर्यवसाने तदत्यन्तोत्कर्षरूपके वलज्ञानफलोद्देशः, परसमये नयेषु च उक्तभावनामात्रफलोद्देश इति फलतोऽपि भेदो व्यक्त एवेति सर्वमवदातम्। ननु यद्येवं नयार्था आपेक्षिकाः, तदा अवयव्येकत्वमपि द्वित्वाऽs - दिवबुद्धिजन्यमेव स्यात्; उभयमपि वा ज्ञानाऽऽकारमात्रं इति चेत्। न / एकत्वद्वित्वाऽऽदीनामनन्तानां संख्यापर्यायाणामेकद्रव्यवृत्तीनामेव सतां यथा क्षयोपशमबुद्धिविशेषेण प्रतिनियतानामेव ग्रहणमित्यभ्युपगमात् / युक्तं चैतत् / अन्यथा एकत्रैव घटे तद्रूपतद्रसवतोरैक्यमित्यादिना द्विवचनप्रयोगस्य, बहुषु करि-तुरग-रथ-पदातिषु सेनेत्येकवचनप्रयोगस्याऽनुपपत्तेः। अथैकत्वद्वित्वाऽऽदितत्तद्धर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्वाऽऽदिकं गौणमेव द्वित्वाऽऽदिव्यवहारनिमित्तं, तच तत्तद्धविच्छेदेन पर्याप्तमिति नैको द्वावित्यादेः प्रसङ्गः, मुख्यं तु द्वित्वम्अपेक्षाबुद्धिजन्यं द्वित्वमन्यदेवेति न दोष इति चेत् / न / उक्तविषयतारूपद्वित्वाऽऽदेरप्येकत्वपर्याप्तत्वात् तत्तद्धर्मप्रकारतानिरूपितत्वविशिष्टविषयताया अपि क्वचित्संबन्धाऽऽदिभेदेन प्रकारताभेदादेकस्या अभावात् ; भावेऽपि च द्वयस्य प्रत्येकानतिरिक्तत्वेन एकधर्मावच्छेदेन द्वित्वाऽऽदिपर्याप्तिप्रसङ्गाद्, धर्मगतद्वित्वस्यैव तत्पर्याप्त्यवच्छेदकताऽवच्छेदकत्वस्वीकारे च तत्राऽपि द्वित्वस्य वास्तवस्याऽभावाद् रूपत्वरसत्वाऽऽदिप्रकारकबुद्धिविषयत्वस्यैव गौणस्य स्वीकारे, तत्पर्याप्त्यवच्छेदकाऽऽदिगवेषणेऽनवस्थिते वास्तवद्वित्वाऽऽधभावे ज्ञानाऽऽकारतापर्यवसानेन साकारवादप्रसङ्गात् / तस्माद् द्रव्यत्यावच्छिन्नैकत्वाऽऽदेः पर्याप्तिस्वीकारेऽनेकान्तवाद एवानाविला व्यवस्थेति ध्येयम् / अत एव-" दव्वट्टयाए एगे अहं, नाणदसणट्टयाए बुवे अहं।" इत्यादि पारमर्षम्। इदमप्यत्र विचार्यत-द्वित्वाऽऽदिकमपेक्षाबुद्ध्या जन्यवा, व्यङ्ग्यं वेति ? तत्र जन्यमेवेति नैयायिकाः / व्यङ्ग्यमिति प्राभाकराः। तत्र नैयायिकानमयमाशयः-द्वित्वस्य व्यङ्ग्यत्वनये अपेक्षाबुद्धेर्द्वित्वत्वप्रकारकलौकिकप्रत्यक्षत्वकार्यताऽवच्छेदकत्वं वाच्यम् , जन्यत्वनये तु द्वित्वमेवेति लाघवम् / न च व्यङ्ग्यत्वनयेऽपि लौकिकप्रकारतासंबन्धेन द्वित्वमेव तत्कार्यताऽवच्छेदकं वक्तुं शक्यम् , गुणत्वसंख्यात्वतव्यक्तित्वाऽऽदिना विनाऽप्यपेक्षाबुद्धिं तत्प्रत्यक्षप्रसङ्गात् , तेन रूपेण तत्प्रत्यक्ष प्रति तस्याहेतुत्वकल्पने चातिगौरवात्। न च स्वाश्रयविषयतया द्वित्वत्वस्य कार्यताऽवच्छेदकतया न दोष इति वाच्यम् / तथाऽपि व्यङ्ग्यत्वनये स्वाश्रयविषयत्वं कार्यताऽवच्छेदकताऽवच्छेदकः संबन्धः, जन्यत्वनये तु समवाय इतिजन्यत्वपक्ष एव श्रेयान.लाघवात। अथ द्वित्वप्रत्यक्षेऽपि प्रत्यक्षत्वमेव कार्यताऽवच्छेदकम् , द्वित्ववृत्तिविषयतायाः कार्यताऽवच्छेदकसंबन्धत्वेनैवानतिप्रसङ्गात्। अन्यथा द्वित्वप्रत्यक्षस्य विषयतया द्वित्वत्वाऽऽदावपि जायमानत्वेन व्यभिचारात् अपेक्षाबुद्धित्वं कारणताऽवच्छेदक, तच मानसत्वव्याप्यो जातिविशेषः, कारणताऽवच्छेदकः संबन्धः स्वविषयपर्याप्तत्वम्, तेन घटपटैकत्वबुद्धित्वेनाऽपेक्षाबुद्धेर्घटपट द्वित्वप्रत्यक्षहेतुत्वेऽनन्तकार्यकारणभावाऽऽपत्तिः, द्वित्वप्रत्यक्षताऽवच्छिन्नेऽपेक्षाबुद्धित्वेन सामान्यतो हेतुत्वेऽपि घटपटद्वित्वप्रत्यक्षकाले घटकुड्यद्वित्वप्रत्यक्षाऽऽपत्तिः,स्वविषयवृत्तित्वसंबन्धेनापेक्षाबुद्धस्तत्राऽपि सत्त्वादित्यादिदूषणानवकाशः / घटपटैकत्वबुद्धेर्घटकुड्यद्वित्वे स्वविषयपर्याप्तत्वसंबन्धेनाऽसत्त्वादिति व्यङ्ग्यत्वनयेऽपि न गौरवमिति चेत् / न / एवं सति प्रत्यक्षत्वं वा कार्यताऽवच्छेदकं, ज्ञानत्वं वाऽनुभवत्वं वेत्यादौ विनिगमकाभावात्। किश-व्यङ्गयत्ववादिना मैत्रीयापेक्षाबुद्ध्या संनिकर्षाऽऽदिवशाद् चैत्रीयप्रत्यक्षोत्पत्तिवारणाय चैत्रीयापेक्षाबुद्धित्वस्य चैत्रीयप्रत्यक्षत्वाऽऽदिना कार्यकारणभावो वाच्य इति गौरवमेव / अथ तव पुरुषान्तरापेक्षाबुद्धिजनितद्वित्वस्य पुरुषान्तराप्रत्यक्षत्वाय द्वित्वनिष्ठविषयतासंबन्धेन चैत्रीय प्रत्यक्ष मैत्रीयद्वित्वाऽऽदिभेदस्याऽपि हेतुत्वं कल्पनीयम् / यदा-चैत्रीयद्वित्वप्रत्यक्ष प्रति चैत्रापेक्षाबुद्धिजन्यद्वित्वेन हेतुता कल्पनीया, कार्यताऽवच्छेदकः संबन्धो द्वित्वनिष्ठविषयताकारणताऽऽवच्छेदकस्तादात्म्यम् / अत एव-चैत्रमैत्रापेक्षाबुद्धिभ्यां तुल्यविषयाभ्यां युगपदुत्पन्नाभ्यामुत्पादितं द्वित्वमेकमेवेति मतेऽपिन क्षतिरिति कल्पनायामधिकं गौरवमिति चेत्।न। तद्गौरवस्य फलमुखत्वेनाऽदोषत्वात्। यद्यपि द्वित्वाऽऽदावपेक्षाबुद्धेनैकत्वावगाहिबुद्धित्वेन हेतुता, अयं घट एक इति बुद्धितोऽपि द्वित्वोत्पत्त्यापत्तेः; नाऽपि नैकत्वावगाहिबुद्धित्वेन, अयमेकश्चिरनष्टो घटश्चैक इति बुद्धितोऽपि तदापत्तेः; तथाऽपि द्वित्वाऽऽदिजनकताऽवच्छेदका मानसत्वव्याप्या नानाजातयो वाच्याः, अन्यदा कदाचिद् द्वित्वं कदाचित्रित्वमिति नियमोन स्यात्।नच स्मृतित्वव्याप्यत्वमेव तासां न कुतः ? इति वाच्यम्; यद्व्यक्तिविशेष्यत्वैकस्मरणं कस्याऽपि न जातं, तत्र स्मरणाऽनुभवकार्यकारणभावकल्पने संस्कारव्यवधानेन क्षणविलम्बे च गौरवात् , स्मृतित्वव्याप्यत्वेऽपि स्मरणाऽऽत्मकैकत्वबुद्धिकल्पनाक्षणे मानसोत्पत्तौ बाधकाभावादुपनायकज्ञानघटितसामग्रीसत्त्वात् मानसं प्रति तत्तत्स्मृतिसामय्या प्रतिबन्धकत्वकल्पने च महागौरवात् / सन्तु वा चाक्षुषन्वाऽऽदि
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________________ णय 1956 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय व्याप्या नानाजातयः, द्वित्वाऽऽदौ मानाभावाद् द्वौ त्रय इत्यादिविलक्षणबुद्धेर्विजातीयज्ञानं प्रकारभेदं विनाऽसंभवात् / अन्यथा-सर्वत्र विषयनिरपेक्षैरेव ज्ञानैस्तद्व्यवहारजननप्रसङ्गात्। नच द्रा-वित्यादिबुद्धेर्विजातीयज्ञानं विषयः, अचाक्षुषत्वाऽऽपत्तेः। न च" इमो द्वौ मधुपौ; एते त्रयः कमलकहारकलहंसाः "इत्यादौ युगपदेव द्वित्वत्रित्वप्रतीतः, एकत्र बुद्धौ द्वित्वजनकताऽवच्छेदकजात्यम्युपगमे जातिसंकरप्रसङ्ग इति वाच्यम् ; द्वित्वत्रित्वोत्पादकापेक्षाबुद्धरुत्पादे सूक्ष्मकालभेदकल्पनात्, 'गिरिरयं वह्निमान् , अहं तदज्ञानवान्' इत्यनुमितिप्रत्यक्षयोरिव। अथ तत्र भिन्नविषयेऽनुमितिसामग्र्या प्रतिबन्धं प्रतिबन्धकत्वादस्तु तयोर्युगपदनुत्पादः, न तु प्रकृते इति चेत् , तर्हि प्रतिबन्धक किश्चिदत्राऽपि कल्प्यतान् , अन्यथाऽनुपपत्तेर्बलीयस्त्वात्। अस्तु वा तदत्रापेक्षाबुद्धावुभयजनकताऽवच्छेदको जातिविशेषः; स च द्वित्वत्रित्वयोस्तजन्यताऽवच्छेदको जातिविशेषः / एतेन समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानामविशिष्टत्वे द्वित्वत्रित्वाऽऽद्युत्पत्ति नियमे किं कारणम् ? द्वाभ्यामेकत्वाभ्यां द्वित्वं त्रिभिस्त्रित्वमारभ्यते इति वक्तुमशक्यत्वात् , एकत्वेषु द्वित्वाऽऽदेरभावात् / न च शुद्धनयापेक्षा बुद्ध्या द्वित्वं, द्वित्वसहितया च तया त्रित्वमुत्पाद्यते इत्यपि सुवचम् , द्वित्वत्रित्वयोर्युगपदेव तत्प्रत्ययविषयत्वात्। न चैकत्वेष्विव द्वित्वाऽऽदिजनकताऽवेच्छदका जातिविशेषा अभ्युपेयाः, तत एव द्वित्वाऽऽदिव्यवहारोपपत्तौ द्वित्वाऽऽधुच्छेदप्रसङ्गादित्यादिपर्यनुयोगो निरस्तः; अपेक्षाबुद्धिनिष्ठद्वित्वत्रित्वाऽऽदिजनकताऽवच्छेदकजातिभेदेनैव ततः सामग्रीभेदात् एकापेक्षाधीजन्यद्वित्वत्रित्वयोरप्यन्यत्र परिपुष्टभेदवज्जातीयत्वेनैव भेदात् // उदयनाऽऽचार्याःतद् द्वित्वप्रागभावगर्भव द्वित्वसामग्री, त्रित्वप्रागभावगर्भा च त्रित्वसामग्रीति तयोर्विशेषः / इतोऽपि हि प्रागभावसिद्धिः; अन्यथा तयोर्विशेषो न स्यात्, पर्याप्तिसंबन्धेन द्वित्वाऽऽदिकं प्रति पर्याप्तिसंबन्धेन तत्प्रागभाव एव नियामकः; अत एवैकस्मिन्नपर्याप्तिसंबन्धेन द्वित्वाऽऽदिप्रत्ययः तत्प्रागभावस्यैकस्मिन्पर्याप्तभावेन तस्याऽपि तदभावादित्याहुः / अथापेक्षाबुद्धिजन्यत्वे द्वित्वस्य' द्वेद्रव्ये ' इति लौकिकप्रत्यक्षानुपपत्तिः; अपेक्षाबुद्धिरथ द्वित्वम् , अथ द्वित्वत्वं निर्विकल्पक, ततो द्वित्वत्वविशिष्टं प्रत्यक्षं, तदेव च द्वित्वत्वनिर्विकल्पके न स्वोत्तरवृत्तिविशेषगुणविधया जनितोऽपेक्षाबुद्धिविनाशः, ततश्च द्वेद्रव्ये ' इति लौकिकप्रत्यक्ष, तदेव चापेक्षाबुद्धिविनाशाद् द्वित्वविनाश इति द्वित्वत्वाऽभिमता व्यवस्था, साऽत्रानुपपन्ना; अपेक्षाबुद्धेस्तजन्यसंस्कारेण द्वित्वनिर्विकल्पकोत्पत्तिक्षण एव नाशात् / योन्यविभुविशेषगुणनाशं प्रति स्वोत्तरवृत्तियोग्यजातीयविभुविशेषगुणत्वेन हेतुत्वात् सुषुप्तिप्राकालवर्तिज्ञाननाशकतयैव तत्सिद्धेः, अन्यथाऽनुभवध्वंसेनैव संस्काराऽन्यथासिद्धेरिति चेत्। न। अपेक्षाबुद्धेः संस्काराजनकत्वादपेक्षाबुद्धिभिन्नत्वस्यापि संस्कारजनकताऽवच्छेदककोटिप्रदेशात्। न चैवमप्यपेक्षाबुद्धिजनितैकत्वाऽऽदिविशिष्ट बुद्ध्या अपेक्षाबुद्धिनाशयसङ्गः / तदुक्तम्-" अपेक्षाबुद्धिः संस्कारान्माकार्षीत् , विशिष्टबुद्धिस्तु कुर्यादेव " इति वाच्यम्; विशिष्टबुद्धिजननेऽपि द्वित्वसामग्र्यादेरेव फलबलेन प्रतिबन्धकत्वकल्पनात् / वस्तुतोऽपेक्षाबुद्धिनाशे द्वित्वलौकिकप्रत्यक्षस्य विशिष्य कारणत्वकल्पनान्न दोषः / न च तथाऽपि पूर्वापेक्षाजनितद्वित्वनिर्विकल्पके न स्वद्वितीयक्षणोत्पन्ने नापेक्षाबुद्धेस्तृतीयक्षणे नाशप्रसङ्गः, प्रतियोगितयाऽपेक्षाबुद्धिनाशे स्वविषयजनकत्वसंबन्धेन | द्वित्वलौकिकप्रत्यक्षत्वेन हेतुत्वात्। नन्वेवमपि द्वेद्रव्ये ' इति लौकिकप्रत्यक्षं कथं, तदुत्पत्तिक्षणे द्वित्वनाशादिति चेत् ? मैयम् / द्वित्वस्य हि तत्प्रत्यक्षे विषयविधया हेतुत्वं, न तु कार्यसहवर्तितयेति दोषाभावात्। न हि सर्वेषां कारणानां कार्यसहवर्तितयैव हेतुत्वम्, प्रागभाव-पक्षताऽऽदेरहेतुत्वप्रसङ्गादिति। प्राभाकरवृद्धानुसारिणस्तुसोऽयं नैयायिकाऽऽशयोन युक्तः, अनन्तद्वित्वाऽऽदिध्वंसप्रागभावाऽऽदिकल्पनायां गौरवात्, तयङ्ग्यत्वपक्षस्यैव युक्तत्वात् / अन्यथा नानापुरुषीयक्र मे काऽपेक्षाबुद्धिः ? समसंख्यतुल्यव्यक्तिकनानाद्वित्वाऽऽदिकल्पनेऽपि महागौरवात् / मम तु नित्यानामेव तेषां तत्तदपेक्षाबुद्धिव्यङ्ग्यत्वाद् दोषाभावात् / न चैवं तेषां जातित्वाऽऽपत्तिः, असमवायित्व सत्यनेकसमवेतत्वस्य, समवेतत्वस्यैव वा जातिव्यवहारनिमित्तत्वात्। न च विशेषेऽतिप्रसङ्गः, तत्र मानाभावात् / किञ्चद्वित्वाऽऽदेर्जन्यत्वे प्रतियोगितया नाशाजन्यतन्नाशे स्वप्रतियोगिजन्यत्वसंबन्धेनापेक्षाबुद्धिनाशत्वेन हेतुता वाच्या; तथा च-ट्यणुकपरिणामहेतुपरमाणुद्वित्वस्येश्वरापेक्षाबुद्धिजन्यस्य नाशानुपपत्तिः / न च चैत्रीयद्वित्वनाशे चैत्रापेक्षाबुद्धिनाशो हेतुरित्येवं विशेष्यैव कल्प्यते; परमाणुद्वित्वे तु यादृशोपाधिविशिष्टाया ईश्वरापेक्षाबुद्धेर्हेतुत्वं, तादृशोपाधिनाशादेव तनाशः, अविशिष्टायास्तस्या हेतुत्वे सर्वथा द्वित्वोत्पत्तिप्रसङ्गादिति वाच्यम्; स्वाव्यवहितपूर्वक्षणावच्छिन्नत्वेनैव तस्यापेक्षाबुद्धित्वमिति तन्नाशात्परमाणुद्वित्वनाशे तस्य क्षणिकत्वप्रसङ्गात् , अतिरिक्तानुगतोपाधेश्चानिर्वचनात्। अपि च-एवं तत्तद्दिवत्वनाशे तत्तदपेक्षाबुद्धिनाशत्वेन हेतुत्वे महागौरवम्।नचफलमुखत्वादस्यादोपत्वम् अस्यां कल्पनायामेव तावद् गुरुतरं कल्पनीयमिति प्रागेवोपस्थितौ तद्दोषताया वज्रलेपत्वात्, तददोषत्वेप्रागनुपस्थितेरेव बीजत्वात्। अपि च-मानसत्वाऽऽदिव्याप्यजातिविशेषेणापेक्षाबुद्धेर्द्धित्वाऽऽदिहेतुत्वे ईश्वरापेक्षाबुद्ध्या परमाणुद्वित्वाऽऽदिजननापत्तिः, ईश्वरज्ञानसाधारणद्वित्वाऽऽदिजनकताऽवच्छेदकजातिस्वीकारे च जन्यसाक्षात्कारित्वाऽऽदिना साङ्कधर्म त्रित्वाऽऽद्युत्पत्तिकाले द्वित्वाऽऽद्यापत्तिश्च दुर्निवारा / एतेन द्वित्वाऽऽदिजनकताऽवच्छेदकतयाऽपेक्षाबुद्धिनिष्ठलौकिकविषयत्वस्वीकारोऽपि निरस्तः, परार्धाऽऽदिसंख्याऽनुत्पत्तिप्रसक्तेश्च, तदाश्रययावद्रव्यवृत्तिलौकिकविषयताया असंभवात् , ईश्वरीयापेक्षाबुद्धचैव तदुत्पत्त्यङ्गीकारे चाऽन्यत्रापि कारणान्तरोच्छेद इति न किञ्चिदेतदित्याहुः / / केचित्तु द्वित्वत्रित्वाऽऽदिकं तुल्यव्यक्तिवृत्तिकमेव सामान्यम् , अनित्यस्य संयोगाऽऽदेरिव नित्यस्याऽपि द्वित्वाऽऽदेव्यासज्यवृत्तित्वे विरोधाभावात् , भिन्नेन्द्रियग्राह्याणां रूपरसाऽऽदीनामिव समानेन्द्रियग्राह्याणामपि सत्यप्येकावच्छेदेन समानदेशत्वे प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्गयत्वे विरोधाभावात् , सहचारदर्शनमात्रस्याकिश्चित्करत्वात् / भेदश्च विरुद्धधर्माऽध्यासात् / स च न्यूनाधिकदेशपर्याप्तवृत्तिकत्वमित्याहुः / / परे तु घटकुटकुड्यकुशलेषु द्वित्वत्रित्वाऽऽदिप्रतीतावेकतरनाशे तवृत्तेर्द्वित्वाऽऽदेरपि संयोगाऽऽदेवि विनाशप्रत्ययादनित्यवृत्तिनानाव्यक्तिकमेव द्वित्वाऽऽदिकम् , आश्रयविनाशोत्पादाभ्यामेव तस्योत्पादविनाशौ / असमवायिकारणं तु चाऽऽश्रयस्यैकत्वं, परिणाम वा, एकवृत्तिकमेकत्वमिव तुल्यव्यक्तिवृत्तिकं द्वित्वाऽऽद्यपि नाऽनेकम्, तुल्यव्यक्तिवृत्तिकद्वित्वाऽऽदेः प्रतिबन्धकत्वात् / बुद्धिविशेषस्तद्व्यञ्जको , न तूत्पादको, नित्येषु चैकव्यक्तिकमनेकव्यक्तिकं वा नित्यमित्याहुः / / वयं तु ब्रूमः-जन्यत्वनये अपेक्षाबुद्धेर्जन्यता
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________________ णय 1860- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय वच्छेदकमेकत्वान्यसंख्यात्वं वाच्यम् / यद्वा-एकत्वजन्यतावच्छेदकतया द्वित्वमारभ्य परार्द्धपर्यन्तमेका जातिः सिध्यति, लाघवात् / ननु जन्यसंख्यात्वमेवैकल्यजन्यताऽवच्छेदकं, कारणकार्यकार्यप्रत्यासत्तिभेदात् इति तस्यैव द्वित्वाऽऽदिपरार्द्धपर्यन्तसंख्यावृत्तिजातिविशेषितस्य तथात्वम् / व्यङ्गचत्वनये चैकत्वाऽन्यसंख्याप्रत्यक्षत्वम् , उक्तजातिविशेषप्रत्यक्षत्वं वाऽपेक्षाबुद्धेर्जन्यताऽवच्छेदकं वाच्यम् / द्वयोरप्यनयोर्मतयोरेको धान्यराशिरित्यादिप्रत्ययसिद्धेः सामूहिकैकत्वे व्यभिचारः। न च तत्रैकत्वं गौणमेव; वस्तुतस्त्वपेक्षाबुद्ध्या राशिसेनाबनाऽऽदौ बहुत्वविशेष एवोत्पाद्यते, व्यज्यते वेति वाच्यम्; स्वारसिकैकत्वानुभवविरोधात्। एते बहवः कणाः, एते बहवः करि-तुरग-रथपदातयः, एते बहव आम्र-निम्ब-धव-खदिरा इत्यादौ राशित्व-सेनात्ववनत्वाऽऽद्यनापत्तेश्व। अपेक्षाबुद्ध्या तत्र राशित्वाऽदिरूपस्यैव बहत्वत्वमेकत्वद्वित्वान्यसंख्यात्वं त्रित्वमारभ्य परार्द्धपर्यन्तवृत्ति जातिविशेषोवा, राशित्वाऽऽदिरूपबहुत्वे चापेक्षाबुद्धिविशेषजन्यताऽवच्छेदकस्तद्व्याप्य एव जातिविशेषः / बहुत्वंचतदवच्छिन्नोपस्थितिश्चैकवचनान्तराश्यादिपदं वेति शाब्दबोधस्थले नानुपपत्तिः। प्रत्यक्षे च बहव इत्यादौ क्वचिद् दोषवशात्तदग्रहान्नानुपपत्तिरिति वाच्यम्; अनुभूयमानैकत्वप्रतीतेर्बहुत्वविशेषेण समर्थने द्वित्वाऽऽदिप्रतीतेरप्येकत्वविशेषेणैव समर्थयितुं शक्यत्वाद् ; वास्तवाभावे गौणानुपपत्तेरप्युक्तत्वाच / न च ' ताविमौ नीलपीतौ इति गौणद्वित्वाऽऽदिलक्षणं द्वाविमौ घटपटावित्यत्र द्वित्वमनुभूयते। न चैकत्रज्ञाने द्वित्वं प्रकारः, अन्यत्र तुनेत्यपि विनिगन्तुं शक्यम् विजातीयज्ञानविषयत्वसंबन्धेन स्वस्थितस्वप्रकारतया बुद्धिवैलक्षण्योपपादनमप्युभयत्र तुल्ययोगक्षेमम् / एकत्राऽपि च घटे नीलत्वघटत्वाभ्यां द्वित्वमनुभूयत एव, अनुभूयते एव चैते बृक्षा वनमिति बहुत्वाऽवच्छिन्नेऽपि केनचिदुपाधिना एककारत्वमिति स्वसामग्रीप्रभवैकत्वंद्वित्वानन्तपर्यायोपेत-द्रव्य एवाक्षाबुद्धिहेतोरपेक्षाऽऽत्मकभावपथा क्षयोपशमं कदाचिदे-कत्वप्रकारकं कदाचिच द्वित्वाऽऽदिप्रकारकं ज्ञानं जायते, इत्य-पेक्षाबुद्धिगम्यत्वमेव द्वित्वाऽऽदेर्युक्तम् / अत एव नयरूपत्वादस्या नयान्तरसंयोजनया सप्तभङ्गीरीतिरपि संगता / यादृशविषयता-विशिष्टाया अपेक्षाबुद्धेः परैर्जनकत्वं व्यञ्जकत्वं वा स्वीक्रियते, तादृशविषतानिरूपितापेक्षात्वाऽऽख्यविषयता द्वित्वाऽऽदौ नाऽ-स्माकमसुलभा / सामान्यविशेषत्वाऽऽदेरापेक्षिकत्वेऽपीयमेवरीतिरनुसर्तव्या / न चैवमनपेक्षकत्वद्वित्वाऽऽदिप्रत्यक्षाऽनुपपत्तिः, द्रव्यनयावलम्बनेनानपेक्षाऽऽत्मकविषयतान्तरस्याऽपि स्वीकारा-त् / अत एव सापेक्षत्वमपि स्याद्वादः, अस्मदुक्तपक्ष एवापेक्षाबुद्धिद्वित्वबुद्ध्योः पौर्वापर्यानवभासोपपत्तिः, अनन्तकार्यकारणभावप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावाऽऽदिकल्पनागौरवदूषणानवकाशश्चेति सर्वमवदातम्। (7) तस्मात्स्वसमये परसमये एकत्वद्वित्वाऽऽदिप्रकारकनानाविधलौकिकव्यवहारे च नयापेक्षयैव विविक्तो बोध इति स्थितम् / फलितमाहतेन सापेक्षभावेषु, प्रतीत्यवचनं नयः। अभावाऽभावरूपत्वात् , सापेक्षत्वं विधावपि // 5 // (तेनेति) तेनोक्तहेतुना सापेक्षत्वभावेषु परस्परप्रतियोगिषु धर्मेषु प्रतीत्यवचनमपेक्षाऽऽत्मकं वाक्यं नय इति सिद्धम् / नन्वेवं स्यान्नाऽस्त्येवेत्येकवचनं नयः स्यात् , न तु स्यादस्त्यैवेति; तदर्थस्य / विधेरप्रतियोगिकत्वात् / अत एवाऽऽह-विधावपि-अस्तित्वाऽऽ- 1 दिभावेऽपि, अभावाभावरूपत्वान्नास्तित्वाऽऽद्यभावरूपत्त्वात्तेन रूपेण प्रतियोगिनिरूपणाधीननिरूपणतया सापेक्षत्वमस्त्येव। अयं भावः-अभावज्ञानेऽपि न सर्वत्र प्रतियोगिज्ञानापेक्षा, प्रतियोगिज्ञानं विनाऽपीदन्त्वप्रमेयत्वाऽऽदिनानाभावमानस्य सार्वजनीनत्वात् / घटाभावत्वाऽऽदिना घटाऽभावाऽऽदिज्ञाने घटज्ञानाऽऽद्यपेक्षाप्रतियोगिनिरूपणेन तेषां सप्रतियोगिकत्वं ग्रहीष्यते, तर्हि नास्तित्वाभावत्वाऽऽदिनाऽस्तित्वाऽऽदीनां तेन रूपेण तथात्ये तुल्यमभावाभावः प्रतियोग्येवेति परेषामपि मूलसिद्धान्तात् संयोगाऽऽदावेव विशेषणतात्वकल्पनया निर्वाहेण नास्तीति प्रतीतिबलादतिरिक्त एव स इति नव्यमतनियुक्तिकत्वात् / तस्मात्स्वरूपतोऽभावाभावत्वयोरपि निष्प्रतियोगिकत्वं, विशिष्टतया तु द्वयोरपि सप्रतियोगिकत्वमिति स्याद्वाद एव श्रेयान् / अथ निष्प्रतियोगिकाभावपक्षे प्रतियोगिज्ञानस्याऽभाव प्रत्यहेतुत्वे विना प्रतियोगिज्ञानेनेत्याकारकप्रत्ययाऽऽपत्तिः / न चाभावत्वस्याऽपीदन्त्वेन ग्रहादापादकाभावः प्रथममभावाभावत्वयोनिर्विकल्पकेऽभाव इत्याकारकप्रत्यक्षाऽऽपत्तेर्दुवारत्वादिन्द्रियस्य चक्षुस्त्वगादिभेदभिन्नत्वेन महागौरवम् / न च पृथग्प्रतियोगिधीहेतुत्वेऽपि नेत्याकारकप्रत्यक्षाऽऽपत्तिः, उपस्थितस्य प्रतियोगिनोऽभावे वैशिष्टयामाने बोधकाभावात्। न चाऽभावो न घटीय इत्यादिबाधधीदशायां तदापत्तिः, अभावत्वावच्छेदेनाभावे तादृशबाधधिय आहार्यत्वात् , अभावत्वसामानाधिकरण्येन च तद्दशायामपि प्रतियोगिवैशिष्ट्यामानसंभवात् / यद्वाघटत्वाऽऽद्यवच्छिन्नप्रकारतानिरूपिताभावविषयताकस्य प्रत्यक्षे घटाऽऽदिधियो हेतुत्वम् , अन्यथा घटाऽऽद्यभाव इत्याकारकप्रत्यक्षं च न जायते, निखिलप्रतियोगिज्ञानकार्यताऽवच्छेदकाऽऽक्रन्तिदृशप्रत्यक्ष यत्किञ्चित्प्रतियोगिज्ञाने असंभवात्, यावत्प्रतियोगिज्ञानस्य चाऽसंभवात् , अभावत्वांशे निर्विकल्पकत्वं, भावांशे यत्किञ्चित्प्रतियोगिविशिष्टविषयत्वाद्यत्किञ्चित्प्रतियोगित्वात् साध्यमेवेति नानुपपत्तिरिति चेत्। न। प्रतियोगिज्ञानाभावेऽप्यभावत्वमात्रेण प्रत्यक्षस्येष्ठत्वात्, शून्यमिदं दृश्यते इत्यादिप्रत्ययात् तत्स्यमेवाभावत्वस्य भावभेदस्य पिशाचाऽऽदिभेदवद् योग्यस्य घटो नाऽस्तीत्यादौ स्वरूपतो भानमिति प्राचा वचनस्योपपत्तेः। ननूल्लेखस्तुप्रतियोगिवाचकपदनियतोन सार्वत्रिकः। किञ्च-उक्तरीत्या प्रतियोगिज्ञानस्य हेतुत्वे केवला-ऽभावत्वनिर्विकल्पकाऽऽपत्तिः, अभावत्वस्याखण्डत्वात्। अन्य-थाऽभावविशिष्टबुद्धावपि तनिर्विकल्पकायोगात् / अपि च-घट पटौ नेत्यादि प्रत्यक्ष घटज्ञानपटज्ञानाऽऽदिकार्यताऽवच्छेदकाऽनाऽऽक्रान्ततया तद्विरहेऽपि स्यात्, तस्माद् घटपटत्वाऽऽद्यवच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविषयताकप्रत्यक्षत्वमेव लाघवाद् घटाऽऽदिधीकार्यताऽवच्छेदक युक्तमिति घटाऽस्तित्वनास्तित्वयोः सप्रतियोगिताऽप्रतियोगिकत्वे तुल्ययोगक्षेमे; त्वदुक्तहेतुसद्भावेऽपि लाघवाद् भावांशत्यागेन केवलाऽभावस्येव केवलभावस्याऽपि न भानमिति वक्तुं शक्यत्वात् , निर्विकल्पके प्रमाणाभावात् क्षयोपशमविशेषेणैव तत्तद्विशिष्टज्ञानोपपत्तौ तस्य तदकल्पकत्वात्। अत एव" द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः / क्व कदा केन किंरूपाः, दृष्टा मानेन केन वा?"॥१॥ इत्यस्मत्संप्रदायवृद्धाः सं गिरन्ते / शुद्धाभावप्रत्यक्षप्रतियोगितासंबन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपिताभावविषयताक प्रत्यक्ष एव विशेषणताया हेतुत्वान्न भवतीत्यपि रिक्तं वचः; प्रतियोगितामात्रेण द्रव्यं नास्ति, मेयं नास्तीत्यादे
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________________ णय 1861 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय रापत्तेः, प्रकारीभूतकिश्चिद्धर्माऽवच्छिन्नस्यैव प्रतियोगिताविशेषणेऽपि न विस्तारः, घटाऽभावपटाऽभावयोरुभयोः संनिकर्षे घटाऽभावांशे प्रतियोगिविशेषितस्य पटाभावाशे च तदविशेषितस्य समूहाऽऽलम्बनस्य प्रमाणात्। किश्चैवमिदन्त्वादिनाऽभावप्रत्यक्षं न स्यात् न स्याचाभावप्रतियोगिघट इत्याद्याकारं, तादृशप्रत्यक्षेष्वपि पृथक्कारणत्वकल्पने चाऽतिगौरवम्। तस्मात्सन्निकर्षमात्रस्यैव किञ्चिद्धर्मावच्छिन्नविषयतानिरूपितविषयताकप्रत्यक्षत्वाऽवच्छिन्ने, विशिष्टाऽऽकारप्रत्यक्षत्वाऽवच्छिन्ने वा हेतुत्वम्। अतो नापायमात्रस्य विचारजन्यचरमशुद्धद्रव्योपयोगितुल्यतेति भावांशेऽभावांशे वा न शुद्धविषयकं प्रत्यक्षमित्यभाव एव सापेक्षो, न भाव इति किमिदमर्द्धजरतीयम् / एतेनाऽभावलौकिक प्रत्यक्षस्य घटाऽऽद्यन्यतमविशिष्टविषयकत्वनियमाद्विशेषसामग्री विना सामान्य-सामग्रीमात्रात् कार्यानुत्यत्तेन भावनिर्विकल्पकं, नेत्याकारकप्रत्यक्ष वा; विशेषणाऽऽदिज्ञानरूपविशेषसामग्र्यभावात् / न चाऽभावलौकिकप्रत्यक्षत्वघटत्वाऽऽदिविशिष्टविषयक प्रत्यक्षत्वयोर्याप्यव्यापकभावाऽभावात्कथं विशेषसामग्रीत्वमिति वाच्यम् : कार्यताऽवच्छेदकीभूततद्धर्माऽऽश्रययत्किञ्चिद्व्यक्तिनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताऽवच्छे दकयावत्प्रत्येकतत्तदवच्छिन्नसामग्रीत्वादवश्यं कार्यतद्धर्मावच्छिन्नोत्पत्तिरित्येव नियमात , तद्धर्मव्याप्यधर्माऽवच्छिन्नयत्किश्चिद्व्यक्तिनिष्ठकार्यतानिरूपितेत्याधुक्तौ व्याप्तिज्ञानपरामर्शयोः सत्त्वे बाधधीसत्त्वेऽप्यनुमित्यापत्तौ (सद्धर्म) तद्धर्मव्याप्यव्यापकधर्माऽवच्छिन्नयत्किशिव्यक्तिनिष्ठकार्यतानिरूपितेत्याधुक्तौ गौरवात् / घटत्वाऽऽदिविशिष्टवैशिष्ट्यविषयकप्रत्यक्षत्वस्याऽभावलौकिक प्रत्यक्षत्वव्याप्यतत्तदभावालौकिक प्रत्यक्षत्वव्याप्यतत्तदभावलौकिक प्रत्यक्षत्वव्यापकत्वात्प्रकृतसिद्धेश्चेत्यादि नव्यकल्पनाऽपि निरस्ता / एवं सति द्रव्यविषयकप्रत्यक्षस्य, वस्तुविषयकप्रत्यक्षस्य वा यत्किञ्चित्पर्याप्तिविशिष्टविषयकत्यनियमेन भावनिर्विकल्पकस्य शुद्धभावप्रत्यक्षस्याऽपि चाऽसंभवात् / अत एव सविचारया सामान्यदृष्ट्या सर्व निर्विकल्पकम् , विशेषदृष्ट्या च सर्व सविकल्पकमित्यनेकान्तः पुरुषदृष्टान्तेन सम्मतौ प्रतिपा-दितः। तथाहि" वंजणपज्जायस्स उ, पुरिसो पुरिसो त्ति निच्चमविअप्पो। बालाऽऽइवियप्पं पुण, पासइ से अत्थपज्जाओ॥ 34 / / सविअप्प णिव्विअप्पं, इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं / सविअप्पमेव वा णिच्छएण ण य णिच्छिओ समए॥ 35 // " व्याख्या-व्यञ्जयति न्यनक्ति अर्थानिति व्यञ्जनं शब्दः, न पुनः शब्दनयः, तस्य ऋजुसूत्रसमानपर्यायविषयत्वात्। तस्य पर्यायो वाच्यता तद्ग्राहक नयेन पुरुषः पुरुष इति पुरुषत्वप्रकारकज्ञानविषय इति नित्यमाजन्मनो मरणान्तं यावदविकल्पः पुरुषत्वाऽतिरिक्ताप्रकारकज्ञानविषयः / इदमुपलक्षणम्-द्रव्यवस्तुत्वाऽऽदिनाऽप्यविकल्पत्वस्य शुद्धद्रव्योपयोगे तु पदद्वयस्य निर्धर्मकत्वलक्षणया शुद्धधर्मिविषयकभानविषयत्वमेवाविकल्पकत्वं द्रष्टव्यम्।' से तस्य पुरुषस्याऽर्थपर्याय ऋजुसूत्राद्यर्थग्राहकनयः पुनर्बालाऽऽदिविकल्पमेव वा, निश्चयमविकल्प स्यात्काराऽङ्किततदुभयपदघटितमहावाक्यबोधस्वरूपपुरुषद्रव्यं यो भणेद्-अविकल्पमेव सविकल्पमेव वा निश्चयेनैकान्तेन स्वसमये परनार्थे न निश्चितः-निश्चयो निश्चितं तदस्यास्तीति निश्चितः, अर्श आदित्वादचप्रत्ययो, न तदन्यथेत्यर्थः / दुर्नयानिवेशान्नयज्ञत्वाद्वा संपूर्णानका न्तवस्तुस्वरूपापरिच्छेदादिति रहस्यम्॥तदेवं निषेधव विधावपिपक्षत्वं प्रतिपादितम्। एवं स्वद्रव्याऽऽद्यपेक्षया सन्परद्रव्याऽऽद्यपेक्षयाऽसन् इति तृतीयोल्लिख्यमानावच्छेदकप्रतीत्याऽपि सापेक्षत्वं भावनीयम् / अत एव परेऽपिव्याप्यवृत्तावव्याप्यवृत्ताविव प्रतीतिबलात् तत्तदवच्छिन्नवृत्तिकल्पन स्वीकुर्वते इति दिक् / नयो० / रत्ना०। (8) सामान्यविशेषः / एवं निर्विकल्पसविकल्पस्वरूपे प्रतिपा-वि पुरुषाऽऽदिवस्तुनि तद्विपर्ययेण तद्वस्तु प्रतिपादयन् वस्तुस्वरूपानबोधस्वात्मनि ख्याप्रयतीति दर्शनार्थमाहसविअप्पणिग्विअप्पं, इय पुरिसं जो भणेज्ज अविअप्पं / सविअप्पमेव वा णि-च्छएण ण य निच्छिओ समए।। 35 / / सविकल्पनिर्विकल्पं स्यात्कारपदलाञ्छितं पुरुषं द्रव्यं यः प्रतिपादकस्तद्वस्तु ब्रूयादविकल्पमेव सविकल्पमेव वा, निश्चयेनेत्यवधारणेन, स यथाऽवस्थितवस्तुप्रतिपादने प्रस्तुतेऽन्यथाभूतं वस्तुतत्त्वं प्रतिपादयन्न निश्चित इति निश्चित तदस्यास्तीति निश्चितः, अर्श आदित्वादच् / समये परमार्थिनो वस्तुसत्त्वस्य परिच्छेत्तेति यावत् / तथाहि-प्रमाणपरिच्छिन्नं तथैव वादिसुसंवादि वस्तुप्रतिपादयन् वस्तुनः प्रतिपादक इत्युच्यते। न च तथाभूतं वस्तु केनचित्कदाचित् प्रतिपन्नं प्राप्यते वा, येन तथाभूतं तद्वचस्तत्र प्रमाणं भवेत् ; तथाभूतवचनाभिधानात् / च चाप्रमाणतया लोके व्यपदेशमासादयेत्। परस्पराकान्तभेदाभेदाऽऽत्मकस्य वस्तुनः सदसद्भावमभिधायकस्य वचसः पुरुषस्याऽपि तदभिधानद्वारेण सम्यग् मिथ्यावादि-त्वं प्रतिपाद्याधुना भावविषयं तत्रैवैकान्तानेकान्ताऽऽत्मकमंशं प्रतिपादयतो विवक्षया सुनयदुर्नयप्रमाणरूपतां तत्प्रतिपादकं वचो यथाऽनुभवति, तथा प्रपञ्चतः प्रतिपादयितुमाह। यद्वा-यथैव तद्वस्तु व्यवस्थितं तथैव वचनात्प्रतिपादयतो निपुणत्वं भवति / अन्यथा साङ्ख्यबौद्धकणभुजामिव भिन्नभिन्नपरस्परनिरपेक्षोभय-वस्तुस्वरूपाभिधानायावस्तुधर्ममर्हन्मतानुसारिणामपि स्यादस्तीत्यादिसप्तविकल्परूपतामनापन्नवचनलक्षणस्यात्कारपदालाञ्छितवस्तुधर्मप्रतिपादयतामनिपुणता भवेदिति प्रपञ्चतः सप्तविकल्पोत्थाननिमित्तमुपदर्शयितुं गाथासमूहमाहअत्यंतरभूएहि अ, नियएहि य दोहि समयमाईहिं। वयणविसेसाऽऽईयं, दव्वमवत्तव्वयं पडइ॥३६॥ अस्यास्तात्पर्याऽर्थः-अर्थान्तरभूतः पटाऽऽदिः, निजो घटः, ताभ्यां निजार्थान्तरभूताभ्यां सदसत्त्वं घटवस्तुनः प्रथमद्वितीय-भङ्गनिमित्त प्रधानगुणभावेन भवतीति प्रथमद्वितीयौ भड़ौ / यदा तु द्वाभ्यामपि युगपत्तद्वस्त्वभिधातुमभीष्टं भवति, तदाऽवक्तव्यभङ्ग-कनिमित्तं तथाभूतस्य वस्तुनोऽभावात् तत्प्रतिपादकवचना- तीतवत् तृतीयभङ्गसद्भावो, वचनस्य वा तथाभूतस्याभावाद-वक्तव्यं वस्तु / तथाहि-असत्त्वोपसर्जनसत्त्वप्रतिपादने प्रथमो भङ्गः, तद्विपर्ययेण तत्प्रतिपादने द्वितीयः, द्वयोस्तु धर्मयोः प्राधान्येन गुणभावेन च प्रतिपादने न किश्चिद्वचः समर्थ, यतो न तावत्समासवचनं तत्प्रतिपादकम; नापि वाक्यं संभवति / स-मास षड्विधः / तावन्न बहुब्रीहिरत्र समर्थः, तस्याऽन्यपदार्थ-प्रधानत्वात्, अत्र चोभयप्रधानत्वात्। अव्ययीभावोऽपि नात्र प्रवर्त्तते, तस्यात्रार्थेऽसंभवात् / द्वन्द्वसमासे तु यद्यप्युभयपद
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________________ णय 1862 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय प्राधान्यं, तथाऽपि द्रव्यवृत्तिस्तावन्न प्रकृतार्थप्रतिपादकः, गुणवृत्तिरपि ऽतीतानागतवर्तमानक्षणरूपतयाऽप्यघटः, एवं सति सर्वदा तस्याद्रव्याऽऽश्रितगुणप्रतिपादको, द्रव्यमन्तरेण गुणानां तेषूत्पादादिक्रिया- | भावप्रसक्तिः, एकान्तपक्षेऽप्ययमवे दोष इत्यभावादेवावाच्यः॥५॥ यद्वाऽऽधारत्वासंभवात्तस्या द्रव्याऽऽश्रित्वाद् न प्रधानाऽऽश्रितयोर्गुणयोः / क्षणपरिणतिरूपे घटे लोचनजप्रतिपत्तिविषयत्वाभ्यां निजाप्रतिपाद्यत्यम्। तत्पुरुषोऽपि नाऽत्र विषये प्रवर्त्तते, तस्याऽप्युत्तरपदार्थ- र्थान्तरभूताभ्यां सदसत्त्वात् प्रथमद्वितीयौ भङ्गी, ताभ्यां युगपदप्रधानत्वात्। नाऽपि द्विगुः, संख्यावाचिपूर्वपदत्वात्तस्य। कर्मधारयोऽपि भिधातुमशक्योऽवाच्यः / तथाहि-लोचनजप्रतिपत्तिविषयत्वेनेव न, गुणाऽऽधारद्रव्याऽऽश्रयत्वात् / न च समासान्तरसद्भावः, वेन यदीन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविषयत्वेनाऽपि घटः स्यादिन्द्रियान्तरयुगपद्गुणद्वयं प्रधानभावेन समासपदवाच्यं स्यात्। अतएव न वाक्यमपि कल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः, इन्द्रियसङ्करप्रसक्तिश्च / अथेन्द्रियान्तरजतथाभूतगुणद्वयप्रतिपादक संभवति, तस्यापि वृत्त्यभिन्नार्थत्वात् / न च प्रतिपत्तिविषयत्वेनेव चक्षुर्जप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि न घटः, तर्हि केवलं पदं वाक्यं वा लोकप्रसिद्धम्, तस्याऽपि परस्परापेक्षद्रव्याऽऽदि- तस्याऽरूपत्वप्रसक्तिरेकान्तवादेऽपि तदितराभावे तस्याप्यभावाविषयतया तथाभूतार्थप्रतिपादकत्वायोगात्। न च-" तो सत् / / 3 / दवाच्य एव / अथवा-लोचनजप्रतिपत्तिविषये तस्मिन्नेव घटे घट२। 177 / / (पाणि०) इति शतृशानचोरिव साङ्केतिकपदवाच्यत्वम् , शब्दवाच्यता निजं रूप, कुटशब्दाभिधेयत्वमर्थान्तरभूतं रूपं, ताभ्यां विकल्पप्रभवशब्दवाच्यत्वप्रसक्तेः, विकल्पानां च युगपदप्रवृत्तेर्नेकदा प्रथमद्वितीयौ, युगपत्ताभ्यामभिधातुमिष्टोऽवाच्यः / यदि हि तयोस्तद्वाच्यतासंभवः, न च तेनार्थान्तरैकान्ताभ्युपगमेऽप्यर्थस्य घटशब्दवाच्यत्वेनेव कुटशब्दवाच्यत्वेनापि घटः स्यात्तर्हि त्रिजगत पाच्यता, तथाभूतस्यात्यन्तासत्त्वात् , सर्वथा सत्त्वेऽनयोावृत्तत्वा- एक शब्दवाच्यताप्रसक्तिः, घटस्य वाऽशेषपटाऽऽदिशब्दवाच्यन्महासामान्यवद्धटार्थत्वानुपपत्तेः, अर्थान्तरत्वे पररूपादिव स्वरूपादपि त्वप्रतिपत्तौ समस्ततद्वाचकशब्दप्रतिपत्तिप्रसङ्गश्च। तथा घटशब्देनाऽपि व्यावृत्तौ खरविषाणवदसत्त्वादवाच्यतैवानच घटत्वे घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्ते यद्यवाच्यः स्याद् , घटशब्दोचारणवैयर्थ्यप्रसक्तिः / एकान्ताभ्युपगमेऽपि विधिरूपे सिद्धे असंबद्ध एव अर्थान्तरत्वे पररूपादपि तत्र पटाऽऽद्य- घटस्यैव सत्त्वात्सङ्केतद्वारेणाऽपिनतद्वाचकः कश्चिच्छब्द इत्यवाच्य एव। र्थप्रतिषेध इति वाच्यम्, पटाऽऽदेस्तत्राभावाभावत्वे घटशब्दप्रवृत्ति- अथवा-घटशब्दाभिधेये तत्रैव घटे हेयोपादेयान्तरङ्गबहिरङ्गोपनिमित्तस्य घटत्वस्यैवासिद्धेः,शब्दानां चार्थज्ञापकत्वं न कारकत्वमिति योगायोगरूपतया सदसत्त्यात्प्रथमद्वितीयौ, ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यः / तथाभूतार्थप्रकाशेन तथाभूतेन शब्देन विज्ञेयमिति नासंबद्धस्तत्र यदि हि हेयबहिरङ्गानर्थक्रियाकार्यसन्निहितरूपेणार्थक्रियाक्रमाऽऽपटाऽऽद्यर्थप्रतिषेधः / अथवा-सर्व सर्वाऽऽत्मकमिति साङ्ग्यमतव्य- दिरूपेणेव धटः स्यात् , तदा पटाऽऽदीनामपि घटत्वप्रसक्तिः, तर्हि च्छेदार्थं तत्प्रतिषेधो विधीयते, तत्र तस्य प्रतीत्यभावात् / यद्वा- घटोपादेयसन्निहिताऽदिरूपेणाप्यघटः स्यात्। अन्तरङ्गस्य वक्तृगतहेतुनामस्थापनाद्रव्यभावभिन्नेषु विधित्सिताविधित्सितप्रकारेण फलभूतघटाकारावबोधकत्वे तस्योपयोगस्याऽप्यभावे घटस्याऽप्यप्रथमतृतीयौ भङ्गो, न च तत्प्रकाराभ्यां युगपदादिष्टोऽयम् , भावप्रसङ्ग इत्यवाच्यः, एकान्ताभ्युपगमेऽप्ययमेव प्रसङ्ग इत्यवाच्यः / तथाऽभिधेयपरि-णामरहितत्वात्तस्य, यतो यद्यपि विधित्सितरूपेणाऽपि अथवा-तत्रैवोपयोगवदर्थावबोधकत्वानभिमतार्थाऽनवबोधकत्वेन सदघटः स्यात् / प्रतिनियतनामाऽऽदिभेदव्यवहाराभावप्रसक्तिः / तथा च सत्त्वात् प्रथमद्वितीयौ, ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यः, विवविधि-त्सितस्याऽपि नाऽऽत्मलाभ इति सर्वाभाव एव भवेत्। तथा यद्य- क्षितार्थप्रतिपादकत्वेनेवेतरेणाऽपि यदि घटः स्यात्प्रतिनियतोपविधित्सितप्रकारेणाऽप्यघटः स्यात् , तदा तन्निबन्धनव्यवहारो- योगाभावः, तथाऽभ्युपगमे प्रतिनियतरूपोपयोगप्रतिपत्तिर्न भवेत् / च्छेदप्रसक्तिरेव, एकपक्षाऽभ्युपगमेऽपितदितराभावे तस्याप्यभाव इत्यपि तदुपयोगरूपेणापि यद्यघटो भवेत् , तदा सर्वाभावो, विशेषप्रसङ्गो वा। न वाच्यः / अथवा-स्वीकृतप्रतिनियतप्रकारे तत्रैव नामाऽऽदिके यः चैवम् , तथाऽप्रतीतेः ; एकान्त-पक्षेप्ययमेव प्रसङ्ग इत्यवाच्यः / / 6 / / संस्थानाऽऽदिस्तत्स्वरूपेण घटः, इतरेण चाघट इति प्रथमद्वितीयौ, अथवा सत्त्वमसत्त्व वाऽन्तरभूतं, निजं घटत्वं, ताभ्यां ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्ते रवाच्यः / विवक्षितसंस्थानाऽऽदिनेव प्रथमद्वितीयावभेदेन, ताभ्यामनिर्दिष्टो घटोऽवक्तव्यो भवति। तथाहियदीतरेणाऽपि घटरूपादेकस्य सर्वघटाऽऽत्मकत्वप्रसक्तिः / अथ यदि सत्त्वमा- साद्य घटत्वं विधीयतेतदा सत्त्वस्यघटत्वव्याप्तेर्घटस्य सर्वगविवक्षितेन, अघटे पटाऽऽदाविव घटार्थिनस्तत्राऽप्यवृत्तिप्रसक्तिः / तत्वप्रसङ्गः, तथाऽभ्युपगमे प्रतिभासबाध्यव्यवहारविलोपश्च / तथाएकान्ताभ्युपगमेऽपि तथाभूतस्य प्रमाणाऽविषयत्वतोऽसत्त्वादवाच्यः / / असत्त्वमर्थमप्यनूद्य यदिघटत्वं विधीयते, तर्हिप्राग-भावाऽऽदेश्चतुर्विधस्याऽपि 3 / / यदि दा-स्वीकृतप्रतिनियतसंस्थानाऽऽदौ मध्यावस्थायां घटेन व्याप्तेरघटत्वप्रसङ्गः, अघटत्वमनूद्य सत्वं विधीयतेतदा घटत्वं यत्तदेव निजरूपम्, कुशूलकपालाऽऽदिलक्षणे पूर्वोत्तराऽवस्थेऽर्थान्तररूपम् , सदसत्त्वे प्रसज्येत / तथा च-पटाऽऽदीनां प्रागभावाऽऽदीनां वा ताभ्यां सदसत्त्वे प्रथमद्वितीयौ, युगपत्ताभ्यामभिधातुमसामर्थ्यादवाच्य- भावप्रसक्तिरिति प्राक्तनन्यायेन विशेषणविशेष्य-लोपात्स न घट लक्षणस्तृतीयो भङ्गः / तथाहि-मध्यावस्थावदितरावस्थायामपि यदि इत्येवमवक्तव्योऽघट इत्येवमप्यवक्तव्यः ; चैतत्तो वाच्यः, अनेकान्तपक्षे तु घटः स्यात्तस्यानाऽऽद्यनन्तत्वप्रसक्तिः / अथ मध्यावस्थारूपेणा- कथञ्चिदवाच्य इति न कश्चिद्दोषः // 10 // यद् व्यञ्जनपर्यायोऽऽर्थान्तऽप्यघटः, सर्वदा घटाभावप्रसक्तिः / अतीतानागतवर्तमानक्षणरूपतया रभूतस्तदतद्विषयत्वात्तस्य घटार्थपर्यायस्त्वन्यत्राप्रवृत्तेर्निजः, ताभ्यां सदसत्त्वात् प्रथमद्वितीयभङ्गौ, ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्तेरवाच्य- प्रथमद्वितीयाभ्यां भेदेन ताभ्यां निर्देशो वक्तव्यः, यतोऽत्रापि यदि लक्षणस्तृतीयः / तथाहि-यदि वर्तमानक्षणवत्पूर्वोत्तरक्षणयोरपि घटः व्यञ्जनमत्तयघटपर्यायविधिः, तदा तस्याऽशेषघटाऽऽत्मकताप्रसक्तिरिति स्याद्वर्तमानक्षणत्वमेवाऽसौ जातः, पूर्वोत्तरयोर्वर्तमानताप्राप्तेः / न च भेदनिबन्धनतद्व्यवहारविलोपः। अथाऽर्यपर्यायमनूद्य व्यञ्जनपर्यायविधिः, वर्तमानक्षणमात्रमपि, पूर्वोत्तरापेक्षस्य तदभावेऽभावात् / अथा- / तत्रापि कार्यकारणव्यतिरेकाभावप्रसक्तिः, सिद्धविशेषानुवादेनघटत्वसामान्य
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________________ णय 1863 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय विधाने तस्याकार्यत्वात् / एवं च घटस्याभावादवाच्यः, अनेकान्तपक्षेऽपि युगपदभिधातुमशक्यत्वात् कथश्चिदवाच्यः सिद्धः // 11 // यद्वासर्वमर्थान्तरभूतं, तस्य विशेषवदेकत्वादनन्वयिरूपता, अत एव न तावद्वाच्यमन्त्यविशेषवत्, अन्न्यविशेषस्तु निजः सोऽप्यवाच्यः, अनन्वयात् / प्रत्येकवक्तव्याभ्यां ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः, अनेकान्तपक्षे तु कथञ्चिदवक्तव्यः। अथवा-सद्भूतरूपाः सत्त्वाऽऽदयो घट इत्यत्र दर्शने अर्थान्तरभूताः सत्त्वाऽऽदयो निजसद्भूतरूपत्वाभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः, यतः सद्भूतरूपस्य सत्त्वरजस्तमःस्वरूपत्वे रजस्तमसामभावप्रसक्तिः, तेषां परवलक्षण्येनैव सत्त्वात्सदभतरूपत्वे च / वैलक्षण्यभावादभाव इति विशेष्याभावादवाच्यः / असत्त्वे त्वसत्कार्योत्पादप्रसङ्गः। न चैतदभ्युपगम्यते, अभ्युपगमेऽपि विशेषणाभावादवाच्यः / अथैवं रूपाऽऽदयोऽर्थान्तरभूता असद्भूतरूपमेवं निजं. ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः, यथा ह्यरूपाऽऽदिव्यावृत्ता रूपाऽऽदयः,तएव च रूपाऽऽदीना घटतामवाच्याः, रूपाऽऽदित्वाघटस्य,न हि परस्परविलक्षणबुद्धिग्राह्या रूपाऽऽदय एकानेकाऽऽत्मकप्रत्ययग्राह्यरूपाऽऽदिरूपघटतां प्रतिपद्यन्ते, इयं घटता अवाच्यरूपाऽऽदित्वाद् घटस्य न हि परस्परविलक्षणेति विशेष्यलोपादवाच्यः। यदिवा-रूपाऽऽदयोऽर्थान्तरभूताः, असद्भूतार्थो निजः, ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः, रूपाऽऽद्यात्मकैराभासप्रत्ययविषयध्यतिरेकेणापरसंबन्धान्नयगतेर्विशेष्याभावाद्रूपाऽऽदिमान् घट इत्यबाह्यगतैवाकारप्रतिभासाद्व्यतिरेकेणापररूपाऽऽदिप्रतिभास इति विशेषणाभावादप्ययाच्यः, अनैकान्तेतु कथञ्चिदवाच्यः / / 15 / / अथवा-बाह्योऽर्थान्तरभूतः, उपयोगस्तु निजः, ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः / तथाहि-य उपयोगः स घट इति यधुपेतः, तर्जुपयोगमात्रकमेव घट इति सत्त्वोपयोगस्य घटत्वप्रसक्तिरिति प्रतिनियतस्वरूपाभावादवाच्यः / अथाऽयं घटस्य उपयोग इत्युच्यते, तथाऽप्युपयोगस्यार्थत्वप्रसक्तिरित्युपयोगाभावे घटस्याऽप्यभावः, ततश्च कथशिदवाच्यः // 16 // एते च त्रयो भङ्गा गुणप्रधानभावेन सकलधर्माऽऽत्मकैकवस्तुप्रतिपादकाः स्वयं तथाभूताः सन्तो निरवयवप्रतिपत्तिद्वारेण सकलादेशाः / वक्ष्यमाणास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपत्तिद्वारेणाशेषधर्माऽऽकान्तं वस्तु प्रतिपादयन्तोऽपि विकलादेशा इति केचित्प्रतिपन्नाः / वाक्यं च सर्वमेकानेकाऽऽत्मकं सत्स्वाभिधेयमपि तथा- भूतमवबोधयति, यतो न तावन्निरवयवेन वाक्येन वस्तुस्वरूपाभिधानं संभवति / अनन्तधर्माऽऽक्रान्तैकाऽऽत्मकत्वाद्वस्तुनो निरवयववाक्यस्य त्वेकस्वभाववस्तुविषयत्वात्तथाभूतस्य चवस्तुनोऽसंभवान्निरवयवस्य तस्य वाक्यमभिधायकम्,नाऽपि सावयवं वाक्यं वस्त्वभिधायकं संभवति; वस्तुन एकत्वात्। नच वस्तुनो व्यतिरिक्तास्तद्देशाः, तद्व्यतिरेकेण तेषामप्रतीतेरेकस्वरूपव्याप्त्याऽनेकांशप्रतिभासः, न च तदेकाऽऽत्मकमेव, अनेकांशानुरक्तस्यैवैकाऽऽत्मनः प्रतिभासात्, अतो वस्तुन एकानेकस्वभावत्वा तथाभूतवस्त्वभिधायकाः शब्दा अपि तथाभूता एव, नैकान्ततः सावयवाः, उतनैकान्ततो निरवयदरूपा वा तत्र विवक्षाकृतप्रधानभावः सदेकधर्माऽऽत्मकस्यापेक्षितोऽपराशेषधर्मक्रोडीकृतस्य वाक्यार्थस्य स्यात्कारपदलाञ्छितवाक्यताप्रतीतेः, स्यादस्ति घटः, स्यान्नाऽस्ति घटः, स्यादवक्तव्यो घटः, इत्येते त्रयो भङ्गा इति सकलादेशाः / विवक्षाविरचिताद्विचित्रधर्मानुरक्तस्य स्यात्- कारपदसंसूचितसकलधर्मस्वभावस्य धर्मिणो वाक्यार्थरूपस्य प्रतिपत्तेश्चत्वारो वक्ष्यमाणका विकलादेशाः-स्यादस्ति च नास्ति घट इति प्रथमो विकलाऽऽदेशः, स्यादस्ति चाऽवक्तव्यश्च घट इति द्वितीयः, स्यान्नास्ति चाऽवक्तव्यश्व घट इति तृतीयः, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति चतुर्थः / एत एव सप्त भङ्गाः स्यात्पदलाञ्छनविरहिणोऽवधारणैकस्वभावा विषयाभावतो दुर्नया भवन्ति / धर्मान्तरोपादानप्रतिषेधाकरणात् स्वार्थमात्रप्रतिपादनप्रवणा एत एव सुनयरूपतामासादयन्ति, स्यात्पदलाञ्छनविवक्षितैकधर्मावधारणवशाद्वा सुनयाः। द्रव्यादेरेकदेशस्य व्यवहारनिबन्धनत्वेन विवक्षितत्वाधर्मान्तरस्य वा निषिद्धत्वादतः स्यादस्तीत्यादिप्रमाणमस्त्येवेत्यादिदुर्नयः, अस्तीत्यादिकः सुनयाः। ननु संव्यवहारात् स्यादस्त्येवेत्यादिः सुनय एव व्यवहारकारणम् , स्वपराव्यावृत्तवस्तुविषयप्रवर्तकवाक्यव्यवहारकारणत्वात् , अन्यथाऽतद्योगादेवं निरवय ववाक्यस्वरूप दर्शयितुमाहअह देसो सम्भावे, देसोऽसब्भावपज्जवे णियओ। तंदवियमत्थि नत्थिय, आएसविसेसियं जम्हा / / 37 / / (अथेति) यदा देशो वस्तुनोऽवयवसद्भावेऽस्तित्वे नियतः सन्नेवायमित्येवं निश्चितोऽपरश्च देशोऽसद्भावे एव पर्याय नास्तित्व एव नियतोऽसन्नेवायमित्यवगतः; अवयवेभ्योऽवयविनः कथञ्चिदभेदादवयवधर्मस्तस्याऽपि तथाट्यपदेशो यथा कुण्डो देवदत्त इति; ततोऽवयवसत्त्वासत्त्वाभ्यामवयव्यपि सन्न संभवति। ततस्तद्रव्यमस्ति च नास्ति चेति भवत्युभयप्रधानावयवभागेन विशेषितं यस्मात्। तथाहियदवयवोन विशिष्टधर्मिणोऽस्ति, परद्रव्याऽऽदिरूपेण च स एव नाऽस्ति। तथा च पुरुषाऽऽदिवस्तुविवक्षितपर्यायेण बालाऽऽदिना परिणतं, कुमाराऽऽदिना या परिणतमित्यादि-दिष्टमिति योज्यम्। पूर्वभङ्गकप्रदर्शितन्यायेन पञ्चमभङ्गकप्रदर्शनमाहसमावे आइट्ठो, देसो देसो य उभयहा जस्स। तं अस्थि अवत्तव्वं, च होइदविअं वियप्पवसा / / 3 / / सद्भावेऽस्तित्वे यस्य यस्य संभवति घटाऽऽदेर्धर्मिणो देशो धर्म आदिष्टोऽवक्तव्यानुविद्धस्वभावः, अन्यथा तदसत्त्वात् , न ह्यपरधर्माप्रविभक्ततामन्तरेण विवक्षितधर्मास्तित्वमस्य संभवति / खरविषाणाऽऽदेरिव तस्यैवापरो देश उभयथाऽस्तित्वनास्तित्वप्रकाराभ्यामेकदैव विवक्षितोऽस्तित्वानुबिद्ध एवावक्तव्यस्वभावः; अन्यथा तदसत्त्वप्रसक्तिः / न ह्यस्तित्वाभावे उभयातिरिक्तता शशशृङ्गाऽऽदेरिव तस्य संभवति, प्रथमतृतीयकेवलभङ्गव्युदासस्तथा-विवक्षावशात्कृतो द्रष्टव्यः, तत्र प्रथमतृतीययोर्भङ्गकयोः परस्पराविशेषणभूतयोः प्रतिपाद्येनाधिगन्तुमिष्टत्वात् , प्रतिपादकेनाऽपि तथैव विवक्षितत्वाद् , तत्र तु तद्विपर्ययादतद्धर्माऽऽत्मकस्य धर्मिणः प्रतिपाद्यानुरोधेन तथाभूतधर्माऽऽकान्तत्वेन च वक्तुमिष्टत्वात्तद्रव्यमस्ति चाऽवक्तव्यम् , तद्धर्मविकल्पनवशात्। धर्मयोस्तथापरिणतयोस्तथा व्यपदेशे धर्मोऽपि तद्द्वारेण तथैव व्यवदिश्यतेति षष्ठभङ्गक दर्शयितुमाहआइट्ठोऽसम्भावे, देसो देसो अ उभयहा जस्स। तंणऽत्थि अवत्तव्वं, च होइ दवियं वियप्पवसा / / 36 / /
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________________ णय 1865 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय आदेशमन्तरेण विवक्षितधर्मास्तित्वमस्य न संभवति, यस्य वस्तुनो देशोऽसत्वे निश्चितोऽसन्नेवायमित्यवक्तव्याऽनुविद्धोऽपरस्मादनुविद्ध उभयथा सन्न श्वेत्येवं युगपनिश्चितस्तदा तद्रव्यं नास्ति चावक्तव्यं च भवति, विकल्पवशाद् व्यपदेशाद् द्रव्यमपि तद्व्यपदेशमासादयति / केवलद्वितीयतृतीयभङ्गकव्युदासेन षष्ठभङ्गः प्रदर्शितः। सप्तमप्रदर्शनायाऽऽहसब्भावाऽसब्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स। तं अत्थि णत्थिऽवत्त-व्वयं च दवियं वियप्पवसा!। 40 // यस्य देशिनो देशोऽवयवो देशो धर्मो वा सदभावे नियतो निश्चितोऽपरस्त्वसद्भावादभावेऽसत्त्वे. तृतीयश्चोभयथेत्येव देशानांसद-सन्न वक्तव्यः, व्यपदेशात्तदपि द्रव्यमस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च भवति, विकल्पवशात् तथाभूतविशेषणाध्यासितस्य द्रव्यस्यानेन प्रतिपादनादपरसङ्गव्युदासः / एते च परस्पररूपापेक्षया सप्तभङ्गाऽऽत्मकाः प्रत्येक स्वार्थ प्रतियन्ति, नान्यथेति प्रत्येकं तत्समुदायो वा सप्तभङ्गाऽऽत्मकः प्रतिपाद्यमपि तथाभूतं दर्शयतीति व्यवस्थितमत्र चाऽऽद्यभङ्गकस्विधा; द्वितीयोऽपि त्रिथैव; तृतीयो दशधा; चतुर्थोऽपि दशधैव; पञ्चमाऽऽदयस्तु / त्रिंशदधिकशतपरिमाणाः / प्रत्येक श्रीमन्मल्लवादिप्रभृतिभिर्दर्शिताः, पुनश्च षविंशत्यधिकाः चतुर्दशशतपरिमाणास्त एव च व्यादिसंयोगकल्पनया कोटिशो भवन्तीत्यमिहितं तैरेव / अत्र तु ग्रन्थविस्तरभयात्तथा न प्रदर्शिताः, तत एवावधार्याः / अथानन्तधर्माऽऽत्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादक- वचनस्य सप्तधा कल्पनेऽष्टमवचनविकल्पपरिकल्पनमपि किं न क्रियते? इतिन वक्तव्यम् , तत्परिकल्पननिमित्ताभावात्। तथाहि-नैतत्साऽवयवाऽऽत्मकादपर निमित्तं तत्परिकल्पयितुं युक्तम् , चतुर्थाऽऽदिवचनविकल्पेषु तस्यान्तर्भावप्रसक्तेः / नाऽपि निरवयवाऽऽत्मकमन्योन्यनिमित्तकं तत्परिकल्पनामर्हति, प्रथमाऽऽदिषु तत्पूर्वप्रसक्तेः / न च गत्यन्तरमस्तीति नाऽष्टमभङ्गपरिकल्पना युक्ता। किश्चाऽसौ क्रमेण वीतधर्मद्वयं प्रतिपादयति, योगपद्येन वा प्रथमपक्षे गुणप्रधानभावेन तत्प्रतिपादने प्रथमद्वितीययोरन्तर्भावः / प्रधानभावेन तत्प्रतिपादने भङ्गान्तरकल्पनायां प्रथमद्वितीयभड़क एव प्रसज्यते। प्रथमतृतीयसंयोगात्पञ्चप्रसक्तिः, द्वितीय-तृतीयसंयोगात् षष्ठप्रसक्तिः, प्रथमद्वितीयतृतीयसंयोगात्सप्तमः, प्रथमसंयोगे द्विसंयोगकल्पनायां / पुनरुक्तदोषः, तस्मान्न कथञ्चिदष्टमभङ्गसंभव इत्युक्तन्यायाद्वस्तुप्रतिपादने सप्तविध एव वचनमार्गः। अन्योऽन्यापरित्यागव्यवस्थितस्वरूपवाक्यनयानां शुद्धयशुद्धिविभागेन संग्रहाऽऽदिव्यपदेशमासादयतां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयावेव मूलाधार इति प्रदर्शनार्थमाहएवं सत्तवियप्पो, वयणपहो होइ अत्थपञ्जाए। वंजणपजाए पुण, सवियप्पो णिव्वियप्पो उ॥४१॥ एवमित्यनन्तरोक्तप्रकारेण सप्तविकल्पः सप्तभेदः वचनमार्गो वचनपथो भवत्यर्थपर्यायऽर्थनये संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रलक्षणे सप्ताप्यनन्तरोक्ता भङ्गका भवन्ति / तत्र प्रभूमः संग्रहे सामान्यग्राहिणि, द्वितीयस्तु नास्तीत्ययं तु व्यवहारे विशेषग्राहिणि, ऋजुसूत्रे तृतीयः, चतुर्थः संग्रहव्यवहारयोः, पञ्चमः संग्रहऋजुसूत्रयोः, षष्टो व्यवहारऋजुसूत्रयोः, सप्तमः संग्रहव्यवहारऋजुसूत्रेषु / व्यञ्जनपर्याये शब्दनये सविकल्पः, प्रथमे पर्यायशब्दवाच्यताविकल्पसद्भावेऽप्यर्थस्यैकत्वात् / द्वितीयतृतीये निर्विकल्पः, द्रव्यार्थसामान्यलक्षणान्तर्गतपर्यायाभिधायकत्वात् , समभिरूढस्य पर्यायभेदभिन्नार्थत्वात् , एवंभूतास्याऽपि विवक्षितक्रियाकालार्थत्वाल्लिङ्गसंज्ञाक्रियाभेदेन भिन्नस्यैकशब्दवाच्यत्वात् शब्दाऽऽदिषु तृतीयः, प्रथमद्वितीयसंयोगे चतुर्थः, तेष्वेव चानभिधेयसंयोगे पञ्चमषष्ठसप्तमा वचनमार्गा भवन्ति / अथवा-प्रदर्शितस्वरूपा सप्तभङ्गी संग्रहव्य-वहारर्जुसूत्रेषु चार्थनयेषु भवतीत्याह-" एवं सत्तवियप्पा" इत्या-दिगाथाम्।अस्यास्तात्पर्याऽर्थः-अर्थनय एव सप्तभङ्गाः,शब्दाsऽदिषु त्रिषु नयेषु प्रथमतृतीयावेव भङ्गो / यो ह्यर्थमाश्रित्य वक्तस्थसंग्रहव्यवहारसूत्राऽऽख्यप्रत्ययः प्रादुर्भवति सोऽर्थनयः, अर्थवशेनतदुत्पत्तेः, अर्थ प्रधानतयाऽसौ व्यवस्थापयतीति कृत्वा / शब्दं तु स्वप्रभवमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति, तत्प्रयोगस्य परार्थत्वात्। यस्तु श्रोतरि तच्छब्दश्रवणादुद्गच्छति शब्दसमभिरूढ एवं-भूताऽऽख्यः प्रत्ययस्तस्य शब्दप्रधानं, तद्वशेन तदुत्पत्तेरर्थः प्रधानं तथाऽप्युपसर्जन तदुत्पत्तावनिमित्तत्वात् , स शब्दनय उच्यते / तत्र च वचनमार्गः सविकल्पनिर्विकल्पतया द्विविधःसविकल्पं सामान्यनिर्विकल्पपर्यायः, तदभिधानाद्वचनमपि तथा व्यपदिश्य ते / तत्र शब्दसमभिरूढी संज्ञाक्रियाभेदेऽप्यभिन्नमर्थ प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः / एवं-भूतस्तु क्रियाभेदाद्भिन्नमेवार्थतत्क्षणे प्रतिपादयतीति निर्विकल्पो द्वितीयभङ्गकरूपस्तद्वचनमार्गः / अवक्तव्यभङ्गकस्तु व्यञ्जननये न संभवत्येव, यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थ प्रतिपद्यते, न शब्दाश्रवणात् / अवक्तव्यस्तु शब्दाभावविषय इति नावक्तव्यभङ्गको व्यञ्जनपर्याये संभवतीत्यभिप्रायवता व्यञ्जनप-र्याये तु सविकल्पनिर्विकल्पी प्रथमद्वितीयवेव भङ्गावभिहितावाचार्येण / तुशब्दस्य गाथायामेवकारार्थत्वात्। इदानीं परस्पररूपापरित्यागप्रवृत्तसंग्रहाऽऽदिनयप्रादुर्भूततथाविधा एव वाक्यनयास्तथाविधार्थप्रतिपादका इत्येतत्प्रतिपाद्यान्यथाऽभ्युपगमे तेषामप्यध्यक्षविरोधतोऽभाव एवेत्येतदुपदर्शनाय केवलानां तेषां तावन्मतमुपन्यस्यतिजह दवियप्पियं तं, तहेव अस्थि त्ति पज्जवणयस्स। ण य स समयपन्नवणा, पञ्जवणयमेत्तपडिपुण्णा / / 42 / / यथा वर्तमानकालसंबन्धितया यद् द्रव्यमर्पितं प्रतिपादयितुमभीष्ट, तत्तथैवाऽस्ति, नान्यथा, अनुत्पन्नविनष्टनयभाविभूतयोरविद्यमानत्वेनाप्रतिपत्तेः; अप्रतीयमानयोश्च प्रतिपादयितुमशक्तेरिति प्रसङ्गात् वर्तमानसंबन्धेनैव तस्य प्रतीतेरिति पर्यायार्थिकनयवाक्यस्याऽभिप्रायः। एतदेकान्तवादी दूषियितुमाह-नेति प्रतिषेधे, सइति तथाविधो वाक्यनयः परामृश्यते, समय इति सम्यङ् मीयते परिच्छिद्यत इति समयोऽर्थः, तस्य प्रज्ञापना प्ररू-पणा, पर्यायनयमात्रे द्रव्यनयनिरपेक्षे पर्यायनये प्रतिपूर्णा पुष्कला संपद्यते। न स वाक्यनयः सम्यगर्थप्रत्यायन पूरयतीति पर्यायनयस्य साधारणैकान्तप्रतिपादनरूपस्याध्यक्षवाधनात्। तद्वाधां चाग्रतः प्रतिपादयिष्यते। द्रव्यार्थिकवाक्यनयेऽप्ययमेष न्याय इति तदभिप्रायं तावदाह
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________________ णय 1865 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय पडिपुण्णजोव्वणगुणो, जह लज्जइ बालभावचरिएहिं। कुणइ य गुणपणिहाणं, अणागयसुहोवहाणत्थं // 43 / / प्राप्तयौवनगुणः पुरुषो लज्जते बालभावसंवृत्ताऽऽत्मीयानुष्ठानस्मरणात्-पूर्वमहमप्यस्पृश्यसंस्पर्शाऽऽदिव्यवहारमनुष्ठितवान् / यथेत्युदाहरणार्थो गाथायामुपन्यस्तः, यथैवं ततोऽतीतवर्तमानयोरेकत्वमवसीयते / करोति च गुणेषुत्साहाऽऽदिषु प्रणिधानमेकायम, अनागतं यत्सुखंतस्योपधान प्राप्तिः, तस्यैतदर्थमपि, तस्मा-त्सुखसाधनात्सुखं प्राप्तव्यमिति, यतश्चैवमतोऽनागतवर्तमानयोरैक्यम्। अत्राऽपि मते यथाऽवस्थितवस्तुस्वरूपप्ररूपणा न प्रतिपूर्यत इति सूत्रान्तरेण दर्शयतिण य होइ जोव्वणत्थो, बालो अण्णो वि लज्जइ ण तेण / ण वि य अणागयवयगुण-पसाहणं जुञ्जइऽविभत्ते / / 44 // न च भवति यौवनस्थः पुरुषो बालः, अपि त्वन्य एव, अन्योऽपि न लज्जते बालचरितेन पुरुषान्तरवत् , तेनाऽन्येन / अथाऽनागतवृद्धावस्थायां सुखप्रसाधनार्थमुत्साहस्तस्य युज्यते अत्यन्तभेदे / एतदेवाऽऽह-विभक्त इति / विभक्तिर्भेदः / अकारप्रश्लेषादविभक्ते भेदाभावे अविचलितस्वरूपतया तत्प्रसाधकगुणयत्नासंभवात् , तस्मान्नाभेदमात्रं तत्त्वं, कथञ्चिद्देदव्यवहतिप्रतिभासवाधितत्या-त्, नापि भेदमात्रम् , एकत्वव्यवहारप्रतिपत्तिनिराकृतत्वादिति भेदाभेदाऽऽत्मके तत्त्वमभ्युपगन्तव्यम्। अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः। एवमभेदभेदाऽऽत्मकस्य पुरुषतत्त्वस्य यथाऽतीतानागतदोषगुणनिन्दाऽभ्युपगमाभ्यां संबन्धः, तथैव भेदाऽभेदाऽऽत्मकस्य तस्य संबन्धाऽऽदिभियोग इति दृष्टान्तदान्तिकोपसंहारार्थमाहजाइकुलरूवलक्खण-सण्णासंबधओ अहिगयस्स! वालाऽऽइभावदिट्ठवि-गयस्स जह तस्स संबंधो / / 15 / / जातिः पुरुषत्वाऽऽदिका, कुलं प्रतिनियतपुरुषजन्यत्वम्, रूप सुरूपकुरूपाऽऽदित्व, लक्षणं तिलकाऽऽदि सुखाऽऽदिसूचकम्, संज्ञा | प्रतिनियतशब्दाभिधेयत्वम् / एभिर्यः संबन्धस्तदात्मपरिणामः, ततस्तमाश्रित्याधिगतस्य ज्ञानस्य तदात्मकत्वेनाभिन्नावभासविषयस्य / यद्वा-संबन्धो जन्यजनकभावः, एभिरधिगतस्य लक्षणतत्स्वभावस्यैकाऽऽत्मकस्येति यावत् / बालाऽऽदिभावैर्दृष्टविगतस्य तैरुत्पादविगमाऽऽत्मकस्य तथा भेदप्रतीतेस्तस्य, यथा तस्य संबन्धो भेदाभेदपरिणतिरूपो, भेदाभेदाऽऽत्मकत्वप्रतिपत्तेर्बाह्याध्यक्षेणाध्यात्मिकाऽध्यक्षतोऽपि तथा प्रतीतेः। तथारूपं तद्वस्त्विति प्रतिपादयन्नाह दृष्टान्तदान्ति कोपसंहारेणतेहिँअतीतानागय-दोसगुणदुगंछणब्भुवगमेहिं। तह बंधमोक्खसुहदु-क्खपत्थणा होइ जीवस्स / / 46 // ताभ्यामतीतानागतदोषगुणजुगुप्साऽभ्युपगमाभ्यां यथा भेदाभेदाऽऽत्मकस्य पुरुषत्वस्य सिद्धिः, तदा दार्शन्तिकेऽपि (तह बंधमोक्खसुहदुक्खपत्थणा होइ जीवस्स इति) तथा बन्धमोक्षसुखदुःखप्रार्थना; तत्र च बन्धनोपादानपरित्यागद्वारेण भेदाभेदाऽऽत्मकस्यैव जीवद्रव्यस्य भवति, बालाऽऽद्यात्मकपुरुषद्रव्यवत्। ततोजीवस्य पूर्वोत्तरभावानुभवितुरभावाद्वन्धमोक्षभावाभावः, उत्पादव्ययध्रौव्याऽऽत्मकतयाऽनाद्यनन्तस्य प्रसाधितत्वात् / तथाहि-मरणचित्तं भावाऽऽद्युत्पादस्थित्यात्मकं, मरणचित्तत्वात् , जीवदवस्थाविनाशचित्तयत् / तथा जन्माऽऽदौ चित्तप्रादुर्भावोऽतीतचित्तस्थितिविनाशाऽऽत्मकः, चित्तप्रादुर्भावत्वात् , मध्यावस्थाचित्तप्रादुर्भाववत्। अन्यथा तस्याप्यभावप्रसक्तिः / न चास्याभावः, हर्षविषादाऽऽद्यनेकविवर्ताऽऽत्मकस्यानन्यत्वात् बाह्यस्यान्तर्मुखाऽऽकारतया स्वसंवेदनाऽध्यक्षतः शरीरवैलक्षण्यतोऽनुभूतेः / न च तथा प्रतीयमानस्याप्यभावः, शरीराऽऽदेरपि बहिर्मुखाऽऽकारतया प्रतीयमानस्थाऽभावप्रसक्तेः / न च नित्यैकान्तरूपे आत्मनि जन्ममरणेऽप्यसंभवे, कुतो बन्धमोक्षप्रसक्तिः ? न च नित्यस्याऽप्यात्मनोऽभिनवबुद्धिशरीरेन्द्रियैर्योगो जन्म, तद्वियोगो मरणमितिकल्पना संगता, अस्याः पूर्व निषिद्धत्वात् / न चैकान्तोत्पादविनाशाऽऽत्मके विषये इहलोके परलोके च परलोकव्यवस्था, बन्धाऽऽदिव्यवस्था वा युक्ता / यत ऐहिककायत्यागे-नाऽऽमुष्मिकतदुपादानमेकरयापरलोकः, पूर्वग्रामपरित्यागादथ तदितरैकपुरुषरूपवत्। न च दृष्टान्तेऽप्येकत्वमसिद्धम् , उभयावस्थायास्तस्यैकत्वेन प्रतिपत्तेः / न चेयं मिथ्या, बाधकाभावात् , विरुद्धधर्मसंसर्गाऽऽदेः बाधकस्याऽध्यक्षबाधाऽऽदिना निरस्तत्वात्। न च पूर्वावस्यात्याग एकस्योत्तरावस्थोपादानमन्तरेण दृष्टः, पृथुबुध्नोदराऽऽद्याकारविनाशवन्मृद्रव्यस्य कपालोत्पादनमन्तरेण दर्शनात्। न च कपालोत्पादनमन्तरेण घटविनाश एवन सिद्धः, घटकपालव्यतिरेकेणाऽपरस्य नाशस्याप्रतीतेरिति वक्तव्यम् , कपालोत्पादस्यैव कथञ्चिद् घटविनाशाऽऽत्मकतया प्रतिपत्तेः, अत एव सहेतुकत्वं विनाशस्य, कपालोत्पादस्य सहेतुकत्वात्। न च कपालानां भावरूपतैव के वला, घटानिवृत्तौ तद्विविक्तताया नेष्टभावप्रसक्तेः / न चैकस्योभयत्र व्यापारविरोधः, दृष्टत्वात् / न च घटनिवृत्तिकपालयोरेकान्तेन भेदः, कथञ्चिदेकत्वप्रतीतेः / न च मुदगराऽऽदे श प्रत्यव्यापारे क्वचिदभ्युपयोगे कपालेषु न तदुपयोगः, अन्त्यावस्थायामपि घटक्षणान्तरीत्पत्तिप्रसक्तेः, तस्य तदुत्पादनसाम ाविनाशात्, तस्य स्वर(स)तो विनाशात्तदव्यतिरेकसामर्थ्यस्याविनाशः / न पूर्व तद्विनाशेऽपि तस्याविनाशो विरोधिमुद्गरसन्निधानात् / ननु समानजातीया क्षणान्तरं जनयतीति चेत् / न / घटविरोधी न च तद्विनाशयतीति व्याहतत्वात् / न च तद्धत्वभावात्सामर्थ्याभावः, तथाविधकार्यजननसमर्थहेतोर्भावात् / अन्यथा प्रागपि तथाविधफलोत्पत्तिर्न भवेत् / न च स्वहेतुनिवर्तित एव दण्डाऽऽदिसन्निधौ सामर्थ्याभावः, दण्डाऽऽदिसन्निधिमपेक्षमाणस्य तस्य तद्धेतुत्वोपपत्तेः, अन्यत्रापि तद्भावस्य तन्मात्रनिबन्धनत्वात्। न च तद्व्यापारानन्तरं तदुपलम्भात्तस्य तत्कार्यत्वे मृद्रव्यस्याऽपि तत्कार्यताप्रसक्तिः, तस्य सर्वदोपलम्भात् , सर्वदा तस्यानभ्युपगमे उत्पादविनाशयोरभावप्रसक्तिश्चेति प्रतिपादितत्वाच; तस्यैव तद्रूपतया परिणतौ कथञ्चिदुत्पादस्यापीष्टत्वात्। यदि चपूर्वोत्तराऽऽकारत्यागोपादानतयैकं मृदादिवस्त्वध्यक्षतोऽनुभूयते, तदा तत्तदपेक्षकारणं कार्यविनष्ट च उत्पन्नमनुत्पन्न चैककालमनेककालं च भिन्नमभिन्नं चेति कथं नाभ्युपगमविषयः ? न चाऽत्र विरोधः, मृद्ध्यतिरिक्ततया घटकपालयोरुत्पन्नविनष्टस्थितिस्वभावतया प्रतीतेः / न च प्रतीयमाने वस्तुस्वरूपे विरोधः, अन्यथा ग्राह्यग्राहकाऽऽकाराभ्यामेकत्वेन स्वसंवेदनाऽध्यक्षतः प्रतीयमानस्य संवेदनस्य विरोधप्रसक्तेः / न च संशयदोषप्रसक्तिरिति, उत्पत्तिस्थितिनिरोधना निश्चितरूपतया वस्तुन्यविगमात् / न च स्थाणुर्वा
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________________ णय 1966 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय पुरुषो वेति प्रतिपक्षादिव प्रकृतानिश्चये सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद् विशेषस्मृतेश्व संशय इति निमित्तमस्तिनच व्यधिकरणेनादोषप्रसक्तिरिति, घटकपालविनाशोत्पादयोर्मुद्रव्याऽऽधिकरणतया प्रतिपत्तेः / न चोभयदोषानुषङ्गः, त्र्यात्मकस्य वस्तुनो जात्यन्तरत्वात्। सङ्करदोषप्रसक्तिरपि नास्ति, अनुगतव्यावृत्तेस्तदात्मके वस्तुनि स्वस्वरूपेणैव प्रतिभासनात् / अनवस्थादोषोऽपि न संभवी, भिन्नोत्पादव्ययध्रौव्यव्यतिरेकेण तदात्मकस्य वस्तुनोऽध्यक्ष प्रतिभासनात् स्वयमतदात्मकस्याऽपरयोगेऽपि तदात्मकताऽनुपपत्तेः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / तथा प्रतिभासादेवाभावाद्दोषोऽपिनसंभवी, अवाधितप्रतिभासस्यतदभावेऽभावाद् , भावेवानतावदवस्तुव्यवस्थितिरिति सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः। न च त्र्यात्मकत्वमन्तरेण घटस्य कपालदर्शनाद्विनाशानुमानं संभवति, तत्र तेषां प्रतिबन्धानवकाशात् / न हि तद्विनाशनिमित्तानि मुद्गराऽऽदीनि, हेतुत्वाद्भावस्य कारणत्वात्सत्त्वासत्त्वाच यद्यपिघटहेतुकानि तानि, तथाऽपि घटसद्भावमेव गमयेयुर्न तदभावम्, न हि धूमः / पावकहेतुकस्तदभावगमक उपलब्धः, नवा भिन्ननिमित्तजन्यता तयोः प्रतिबन्धः, भावस्यांशकार्यताऽभ्युपगमात् / नाऽपि तादात्म्यलक्षणः, तयोस्तादात्म्यायोगात्। न च घटस्वरूपव्यावृत्तत्यात्तेषां तदभावप्रतिपत्तिजनकत्वम् , सकलत्रैलोक्याभावप्रति-पत्तिजनकत्वप्रसक्तेः, तेषां ततोऽपि व्यावृत्तस्वरूपत्वात् / न च घटविनाशरूपत्वात्तेषां वायं दोषः, तेषां वस्तुरूपत्वाद्विनाशस्य च निःस्वभावत्वात् , तथा च तादात्म्यविरोधः, अन्यथा घटानुपलम्भवत्तेषामपि तदनुपलब्धिर्भवेत् , तस्मात्प्रागभावाऽऽत्मकः सन घटः प्रध्वंसाभावाऽऽत्मकता प्रतिपद्यत इत्यभ्युपगन्तव्यम्। अन्यथा पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तिः। सत्त्वलक्षणस्याऽपि हेतोर्गमकत्वमनेनैव प्रकारेण संभवति / अन्यथोत्पत्त्यभावादस्त्वित्वाभावः, तदभावे विनाशस्याऽप्यभावः, असतो विनाशायोगादिति त्र्यात्मकमेकं वस्त्वभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा तदनुपपत्तेरिति प्राक् प्रदर्शितत्वाद् न पुनरुच्यते / यथा चाऽऽत्मनः परलोकगामित्वं शरीरमात्रव्यापकत्वं च तथा प्रतिपादितमेव / ननु शरीरमात्रय्यापित्वे तस्य गमनाभावाद्देशान्तरे तद्ग्रहणोपलब्धिर्न भवेत् , न च तदधिष्ठितशरीरस्य गमनाविरोधात्पुरुषाधिष्ठितदारुयन्त्रवत् / न च मूर्त्तामूर्तयोघंटाऽऽकाशयोरिव प्रतिबन्धाभावान्मूर्तशरीरगमनेऽपि नामूर्तस्याऽऽत्मनो गमनमिति वक्तव्यम् , संसारिणस्तस्यैकान्तेनामूर्तत्वासिद्धेस्तव प्रतिबद्ध्यत्वाभावासिद्धेः। एतदेवाऽऽहअण्णोणाऽणुगयाणं, इमं व तं व त्ति विभयणमजुत्तं / जह दुद्धपाणियाणं, जावंतविसेसपज्जाया।। 47 // अन्योन्यानुगतयोः परस्परानुप्रविष्टयोरात्मकर्मणोरिद वा तद्वेतादं कर्म अयमात्मेति यद्विभजनं पृथक्करणं तदयुक्तमघटमानकम् , प्रमाणाभावेन कर्तुमशक्यत्वात् , यथा दुग्धपानीययोः परस्परप्रवेशानुप्रविष्टयोः / किंपरिमाणोऽयमविभागो जीवकर्मप्रदेशयोरित्याह-यावन्तो विशेषपर्यायाः, तावान् , अत एवमवस्तुत्वप्रसक्तेरन्त्यविशेषपर्यन्तत्वात्सर्वविशेषाणाम्। अन्त्य इति विशेषणाऽन्यथाऽनुपपत्ते वकर्मणोरन्योऽन्यानुप्रवेश इत्याहरूवाऽऽइपज्जवा जे, देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि। ते अण्णोण्णाऽणुगया, पण्णवणिज्जा भवत्थम्मि।। 48 // रूपरसगन्धस्पर्शाऽऽदयो ये पर्याया देहाऽऽश्रिता जीवद्रव्ये विशुद्धरूपे च ये ज्ञानाऽऽदयस्तेऽन्योन्यानुगता जीवे रूपाऽऽदयो देहे ज्ञानाऽऽदय इति प्ररूपणीया भयस्थे संसारिणि, अकारप्रश्लेषाद्वाऽसंसारिणि। न च संसारावस्थायां देहाऽऽत्मनोरन्योन्यानुबन्धाद्रूपाऽऽदिभिस्तद्व्यपदेशः, मुक्तावस्थायां तु तदभावान्नासौ युक्त इति वक्तव्यम् , तदवस्थायामपि देहाऽऽद्याश्रितरूपाऽऽदिग्रहणपरिणतज्ञानदर्शनपर्यायद्वारेणाऽऽत्मनस्तथाविधत्वात् , तथा व्यपदेशसंभवादात्मपुद्गलयोश्व रूपाऽऽदिज्ञानाऽऽदीनामन्योऽन्यानुप्रवेशात्कथश्चिदेकत्वमनेकत्वं च मूर्तत्वममूर्त्तत्वं वा व्यतिरेकात्सिद्धमिति। एतदेवाऽऽहएवं एगे आया, एगे दंडो य होइ किरियाए। करणविसेसेण य तिवि-हजोगसिद्धी उ अविरुद्धा / / 46 // एवमित्यनन्तरोदितप्रकारेण मनोवाक्कायद्रव्याणामात्मन्यनुप्रवेशादात्मैव, नतद्व्यतिरिक्तास्त इति तृतीयाङ्कस्थान (एगे आया इति) प्रथमस्तत्र प्रतिपादितः सिद्धएक आत्माएको दण्ड एका क्रियेति भवति, मनोवाक्कायेषु दण्डक्रियाशब्दौ प्रत्येकमभिसंबन्धनीयौ, करणविशेषेण च मनोवाक्कायस्वरूपेणाऽऽत्मन्यप्रवेशावाप्तविविधयोगस्वरूपत्वात्रिविध-योगसिद्धिरपि आत्मनोऽविरुद्धैवेति / एकस्य सतस्तस्य त्रिविधयोगाऽऽत्मकत्वादनेकान्तरूपता व्यवस्थितैवानचाऽन्योन्यानुप्रवेशादेकाऽऽत्मकत्वे बाह्याभ्यन्तरविभागाभाव इति। अत्र हर्षविषादाssद्यनेकविवर्ताऽऽत्मकमेकं चैतन्यं, यथेह बालकुमारयौवनाऽऽद्यनेकावस्थैकाऽऽत्ममेकं शरीरमध्यक्षतः संवेद्यत इत्यस्याविरोधः, बाह्याभ्यन्तरविभागावपि निमित्तान्तरतद्व्यपदेशसंभवात्। एतदेवाऽऽहण य बाहिरओ भावो, अभितरओ य अस्थि समयम्मि। जो इंदियं पुण् पडुच होइ अभितरो भावो / / 50 // आत्मपुद्गलयोरन्योऽन्यानुप्रवेशादुक्तप्रकारेणार्हतप्रणीतशासनेन बाह्यो भावोऽभ्यन्तरोवा संभवति, मूर्तामूर्युत्पादितत्वादनेकाऽऽत्मकत्वाच्च, संसारोदरवर्तिनः सकलवस्तुनोऽभ्यन्तर इति व्यपदशेस्तु नोइन्द्रियमनःप्रतीतस्याऽऽत्मपरिणतिरूपस्य पराप्रत्यक्षत्वाच्छरीरवानिव / न च शरीराऽऽत्मावयवयोः परस्परानुप्रवेशात् शरीराभेदे आत्मनोऽपि तद्वत्परप्रत्यक्षताप्रसक्तिः, इन्द्रियज्ञानस्याशेषपदार्थस्वरूपग्राहकत्वायोगादित्यस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्। अतः शरीरप्रतिबद्धत्वमात्मनोन भवति, अमूर्तत्वात्। अत्र योगे हेतुरसिद्धः, यदि चात्मपरिणतिरूपमनसः शरीरादाव्यन्तिको भेदः स्यात्तद्विकाराविकाराभ्यां शरीरस्य तत्त्वं न स्यात् , तदुपकारापकाराभ्यां या आत्मनः सुखदुःखानुभवश्च न भवेत् , शरीरविघातकृतश्च हिंसकत्वमनुपपन्नं भवेत्। शरीरपुष्ट्यादेरागाऽऽधुपचयहेतुत्वं, शरीरस्य कृशोऽहं स्थूलोऽऽहमिति प्रत्ययविषयत्वं च दूरोत्सारितं भवेत् / पुरुषान्तरशरीरस्येव घटाऽऽकाशयोरपिप्रदेशोऽन्योन्यप्रदेशलक्षणो बन्धोऽस्त्येवेत्ययुक्तो दृष्टान्तः, अन्यथा घटस्यावस्थितिरेव न भवेत्, न वाऽन्योन्यानुप्रवेशसभावेऽप्याकाशवच्छरीरपरतन्त्रताऽऽत्मनोऽनुपपन्ना, मिथ्यात्वाऽऽदेः पारतन्त्र्यनिमित्तस्याऽऽत्मनि भावात् , आकाशे
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________________ णय 1567- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय च तदभावात् / न च शरीराऽऽवत्तत्वे सति तस्य मिथ्यात्वाऽऽदिबन्धहेतुभियोगः, तस्मात्र तत्प्रतिबद्धमितीतरेतराश्रयत्वम् , अनादित्वाभ्युपगमेनास्य निरस्तत्वात् / न च शरीरसंबन्धात् प्रागात्मनोऽमूर्त्तत्वम् , सदा तैजसकार्मणः शरीरसंबन्धात् प्रागात्मनोऽमूर्त्तत्वम्, सदा तैजसकार्मणः शरीरसंबन्धात् संसारावस्थायां तस्यान्यथाभावात् स्थूलशरीरसंबन्धित्वायोगात् / पुद्गलोपष्ट - म्भव्यतिरेकेणोद्धगतिस्वभावस्यापरदिग्गमनासंभवात्स्थूलशरीरेणातिसूक्ष्मस्य रज्ज्वादिनेवाऽऽकाशस्य संबन्धायोगात् संसारिशून्यमन्यया जगत्स्यादिति संसार्यात्मनः सूक्ष्मशरीरसंबन्धित्वं सर्वदाऽभ्युपगन्तव्यम्। अथ शरीराऽऽत्मनोस्तादात्म्ये शरीरावयवच्छेदे आत्मावयवस्यापि छेदप्रसक्तिः, अच्छेदे तयोर्भेदप्रसङ्गः।न।कथञ्चिच्छेदस्याभ्युपगमाद्, अन्यथा शरीरात्पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिन भवेत् / न च छिन्नावयवानुप्रविष्टस्य पृथगात्मत्वप्रसक्तिः, तत्रैव पश्चादनुप्रवेशाच्छिन्ने हस्ताऽऽदौ कम्पाऽऽदितल्लिङ्गादर्शनादियं कल्पना / न चाऽन्यत्र गमनात् तस्य तल्लिङ्गानुपलब्धिरेकत्वादात्मनः, शेषस्याऽपि तेन सह गमनप्रसक्तावेकर संततावनेक आत्मेत्येकज्ञानवद् ज्ञानिनामेकत्राऽनुभवाधारे प्रतिभासप्रसक्तेः, शरीरान्तरव्यवस्थितात्मान्तरवत्। न च पृथग्भूतहस्ताऽऽद्यवयवव्यवस्थितोऽसौ, न तत्रैव विनष्ट इति कल्पनाऽपि युक्तिसंगता, शेषस्याऽप्येकत्वेन तद्वद्विनाशप्रसक्तेः। ततोऽन्यत्रागतेस्तत्रासत्त्वादविनष्टत्वाच तदनुप्रवेशोऽवसीयते, गत्यन्तराभावात्। न चैकत्वे आत्मनो विभागाभावात् छेदाभाव इति वक्तव्यम् , शरीरद्वारेण तस्यापि सविभागत्वात् / अन्यथा सावयवशरीरव्यापिता तस्य कथं भवेत् ? नचामूर्तद्रव्याऽऽदिव्यवच्छिन्नावयवस्य सर्वदैव तस्य तथाभावः, उत्तरकालमपि तदवयवोपष्टम्भोपलब्धस्यार्थस्य तथैव स्मरणादन्यथा त्वतदर्शनात् / न चासावारभ्य मूर्तद्रव्यवव्यणुकाऽऽदिप्रक्रमेणावस्थितसंयोगैस्तैरभावः, येन तद्वत्त्वस्य तथैव भावप्रसक्तिः। नचानारब्धत्वात्तस्य निरवयवत्वं, शरीरसर्वगतत्वाभावप्रसक्तेः। नचशरीरासर्वगतोऽसौ, तत्र सर्वत्रैव स्पर्शापलम्भात्। न तद्व्यापकस्य तच्छेदे छेदः, अतिप्रसङ्गात्।नचतदवयवच्छेदेन छिन्नः, तत्र कम्पाऽऽद्युपलब्धेरतस्तत्रैवानुप्रविष्ट एकत्वादितिज्ञायते कथं छिन्नाछिन्नयोः संघटनं पश्चादिति / न चैकान्तेन च्छेदाभावात्पद्मनालतन्तुवद् विच्छेदाभ्युपगमाद् विघटनमपि तथाभूतादृष्टवशादविरुद्धमेव / न चाऽऽत्मनः शरीरमात्रव्यापकत्वेऽन्यशरीरगत्यन्तरसंबन्धान्यथानुपपत्त्या गतिक्रियाप्रसक्तेरनित्यत्वप्रसक्तिर्दोषः, कथञ्चित्तस्येष्टत्वात्, गृहान्तर्गतप्रदीपप्रभावत् संकोचविकाशाऽऽत्मकत्वेन तस्य न्यायप्राप्तत्वात्। न च देहाऽऽत्मनोरन्योन्यानुबद्धत्वे देहे भस्मसाद्भावे आत्मनोऽपि तथात्वप्रसक्तिः, क्षीरोदकवृत्तयोर्लक्षणभेदान्नाभेदात्। न हि भिन्नस्वरूपयोरन्योन्यानुप्रवेशे सत्यप्येकक्षयोऽपरस्य क्षयाय, यथा पच्यमाने क्षीर प्रथममुदकक्षयोऽपि न क्षीरक्षयाय / न चेह लक्षणभेदो नास्ति / तथाहिरूपरसगन्धस्पर्शाऽऽदिधर्मवन्तः पुद्गलाः, चेतनालक्षणश्वात्मेति सिद्धस्तयोर्लक्षणभेदः / यथा चैकान्तामूर्ताऽऽदिरूपत्वेऽर्थक्रियाऽऽदेर्व्यवहारस्याभावस्तथा प्रतिपादितमनेकधेति मूर्त्तामूधिनेकान्ताऽऽत्मकत्वमात्मनोऽभ्युपगन्तव्यम्। अस्य च मिथ्यात्वाऽऽदिपरिणतिवशोपात्तपुद्गलान्ताद् विभागलक्षणो बन्धः, तद्वशोपनतसुखदुःखाऽऽद्यनुभवस्वरूपश्च भोगोऽनेकान्ताऽऽत्मत्वे सत्युपपद्यते / अन्यथा तयोरयोग इति प्रतिपादनार्थमाह- / (दव्वट्टियस्सेत्यादि) अथवा परस्परसापेक्षद्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकयोः प्ररूपणा प्रदर्शितन्यायेन संभविनी, निरपेक्षयोः कथंसा ? इत्याहदव्वट्ठियस्स आया, बंधइ कम्म फलं च वेएइ। विइयस्स भावमेत्तं, ण कुणइ ण य कोइ वेएइ / / 51 / / द्रव्यास्तिकस्येयं प्ररूपणाऽऽत्मकस्थायी कर्म ज्ञानाऽऽदिनिब-न्धकं बध्नाति स्वीकरोति, तस्य कर्मण: फलं च कार्यभूतं वेदयते भुङ्क्ते आत्मैव / द्वितीयस्य तु पर्यायार्थिकस्येयं प्ररूपणानैवाऽऽत्माप्यस्ति, किंतु भावमात्रं विज्ञानमात्रमितिन करोति,नच कश्चिद्वेदयते, उत्पत्तिक्षणानन्तरध्वंसिनः कर्तृत्वानुभवितृत्वायो-गात्। तथेयमपि तयोर्भूतयोः प्ररूपणेत्याहदव्वट्ठियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयई णियमा। अण्णो करेइ अण्णो, परिमुंजइ पज्जवणयस्स / / 52 / / य एव करोति स एव वेदयते, नित्यत्वात् , द्रव्यास्तिकस्यैतन्मतम् / अन्यः करोत्यन्यश्च भुक्ते, क्षणिकत्वात , पर्यायस्य नयस्यैतन्मतम्। ननु पूर्वगाथोक्तमेव पुनरपि तदेव तावत्पिष्टपेषणमाचार्येण कृतं भवेत्। न / उत्पत्तिसमनन्तरमेव करणं भोगो वा संभवीति प्राक् प्रतिपादितम्, इहोत्पत्तिक्षण एव कर्ता तदनन्तरक्षणश्च भोक्तेति न पुनरुक्तम्। भोक्तृत्वं चपरैः भुक्तिर्येषां क्रिया सैव कारकः सैव चोचित इति। इयमसंयुक्तयोरनयोः स्वसमयप्ररूपणा न भवति, या तु स्वसमयप्ररूपणा, तामाहजं वयणिअवियप्पा, संजुजंतेसु होंति एएसु / सा ससमयपण्णवणा, तित्थयरासायणा अन्ना / / 53 / / ये वचनीयस्याभिलापस्य विकल्पास्तत्प्रतिपादका अभिधानभेदाः, संयुज्यमानयोरन्योऽन्यसंबद्धयोर्भवन्त्यनयोर्द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकवाक्यनययोः, तेच कथञ्चिन्नित्य आत्मा कथञ्चिदमूर्त इत्येवमादयः, सैषा स्वसमयस्येति तदर्थस्य प्रज्ञापना निदर्शना। अन्या तु निरपेक्षयोस्नयोरेव नयोर्या प्ररूपणा तीर्थकरस्याऽऽसादनाऽधिक्षेपः।" एगमेगेण जीवस्य पएरने अणंतेहिं णाणावरणिज्जपोग्गलेहिं आवेढिए पवेडिए " इति तीर्थकृद्वचने प्रमाणोपपन्ने सत्यपि" नामूर्त मूर्ततामेति, मूर्त नायात्यमूर्त्तताम् / द्रव्यं कालत्रयेऽपीत्थं, च्यवते नात्मरूपतः " / / 1 / / इति तीर्थकृन्मतमेवैतन्त्रयवादनिरपेक्षमिति कैश्चितप्रतिपादयस्तिस्याधिक्षेपप्रदानात् परस्परनिरपेक्षयोः नययोः प्रज्ञापना तीर्थकराऽऽसादनेति। अस्थापवादमाहपुरिसज्जायं तु पडुच जाणओ पण्णविज्ज अण्णयरं / परिकम्मणानिमित्तं, दाएहा सो विसेसं पि।। 54 / / पुरुषजातं प्रतिपन्नपर्यायान्यतरस्वरूपं श्रोतारं या प्रतीत्याऽऽश्रित्य ज्ञायकः स्याद्वादवित् , प्रज्ञापयेदवक्षीत, अन्यतरत् पर्यायं द्रव्यं वाऽभ्यु-पेतपर्यायं द्रव्यमेवाङ्गीकृतद्रव्यार्थ च पर्यायमेव कथयेत् / किमित्येकमेव कथयेत् ? परिकर्मनिमित्तं बुद्धिसंस्कारार्थ, परिकर्मितमते दर्शयिष्यते। सः स्याद्वादाभिज्ञः विशेषमपि द्रव्यपर्याययोः परस्पराविनिर्भागरूपम् , एकांशविषयविज्ञानस्यान्यथा विपर्ययरूपताप्रसक्तिः स्यात् ; तदितराभावे तद्विषयस्याऽ
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________________ णय 1868 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय प्यभावात्। सम्म०१ काण्ड / स्था०। (सप्तभङ्गीवक्तव्यता तु' स- मद्वाक्यं प्रमाणवाक्यमिति लक्षणं सिद्धम् // इत्थं च तदन्तर्भूत-स्य तभंगी' शब्दे वक्ष्यते) तबहिर्भूतस्य वाऽन्यतरभङ्गस्य प्रदेशपरमाणुदृष्टान्तेन नय(६) अथ सप्तभङ्गयामित्थं नवविभागमुपदर्शयन्ति वाक्यत्वमेवेत्यर्थतो लभ्यते। इतरप्रतिक्षेपीतु नयो नयाभासो, दुर्नयो श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादाः वेत्युच्यते // मलयगिरिचरणास्तुनयो दुर्नयः सुनयश्चेति दिगम्ब"एवं सत्तविअप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए। रिव्यवस्था, न त्वस्माकम्, नयदुर्नययोराविशेषात्स्याच्छब्देन विवक्षितधर्मोपरागेण कालाऽऽदिभिरेतवृत्त्याऽभेदोपरागादाऽनन्तवंजणपजाए पुण,सविअप्पो णिव्विअप्पो उ॥४१॥(स०१ का०) धर्माऽऽत्मकवस्तुप्रतिपादने प्रमाणवाक्यस्यैव व्यवस्थितेः / अत एव एवमनन्तरोक्तप्रकारेण सप्तविकल्पः सप्तभेदो वचनपथो भवत्यर्थपर्यायेऽर्थनये संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रलक्षणे / तत्र प्रथमो भङ्गः संग्रहे स्याच्छब्दलाञ्छिततयैव सर्वत्र साधूनां भाषाविनयो विहितः / अवधारणीयभाषा च निषिद्धा; तस्या नयरूपत्वात्, नयानां च सर्वेषां सामान्यग्राहिणि, द्वितीयस्तु नास्तीत्ययं व्यवहारे विशेषग्राहिणि ऋजुसूत्रेतृतीयः, चतुर्थः संग्रहव्यवहारयोः, पञ्चमः संग्रहर्जुसूत्रयोः, षष्ठो मिथ्यादृष्टित्वात् / तथा चानुस्मरन्ति-" सव्वे णया मिच्छावाइणो व्यवहारर्जुसूत्रयोः, षष्ठो व्यवहारर्जुसूत्रयोः, सप्तमः संग्रहय्यवहार त्ति। " न च सप्तभङ्ग्यात्मकं प्रमाणवाक्यम् , एकभड्ग्यात्मकं च नयवाक्यमित्यपि नियन्तुं शक्यम् , सप्तभङ्ग्याः सप्तविधजिज्ञासोर्जुसूत्रेष्विति / प्रयोगश्चैतैश्चतुर्थतृतीययोर्व्यत्यये नेष्यते इति न तृतीये पाधिनिमित्तत्वात्।नच तासां सार्वत्रिकत्वम्।' को जीवः ?' इति प्रश्ने ऋजुसूत्रयोजनाऽनुपपत्तिः / अत्र यद्धर्भप्रकारकः संग्रहाऽऽख्यो बोधः लक्षणमात्रजिज्ञासया" स्याद्ज्ञानाऽऽदिलक्षणो जीवः " इति प्रमाणप्रथमभङ्गफलत्वेनाभिमतः, तद्धर्माभाव-प्रकारको व्यवहाराऽऽख्यो वाक्यरूपस्योत्तरस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात्। स्यात्पदस्य चात्राऽनन्तबोध एव द्वितीयभङ्गफलत्वेनेष्टव्यः / तेन स्याद् घटः स्वान्नीलघट धर्माऽऽत्मकत्वद्योतकत्वेन प्रमाणाङ्गत्वम्।द्योतकत्वं चात्रोपसंपादनकी इत्यादिसामान्यविशेषसंग्रहव्यवहाराभ्यां न सप्तभडीप्रवृत्तिः; न शक्तिलक्षणा वेत्यन्यदेतत्। तत्रच श्रुतपदप्रतिपादनधर्माशे लौ-किकी वैकवचनबहुवचनाऽऽदिना भङ्गान्तरवृद्धिरित्यवधेयम् / अथ तृतीयभङ्गस्यर्जुसूत्रनिमित्तकतायां किं बीजम् ? युगपत्सत्त्वाभ्यासात् , इष्टं विषयता स्यात्पदद्योत्या; अन्तधर्माऽऽत्मकत्वांशे च लोकोत्तरेति विशेष इत्यपि निःसंदधेते / तन्मतमनुरुद्धप्रमाणलक्षणान्तरं समुचिनोति च हि सग्रहव्यवहाराव-प्यवक्तव्यमेव ब्रूतः, संग्रहव्यवहारौ युगपदुभयथा पुनर्वाक्यमेकधर्मकं प्रतिनियतकधर्मप्रतिपिपादयिषया प्रयुक्तं दिशत एव नेति चेत्, ऋजुसूत्रोऽपि कथं तथा देष्टुं प्रगल्भताम् ? स्यात्पदादपरे येऽनन्ता धर्मास्तानुल्लिखतीत्येवंशीलं वाक्यं तदपि मध्यमक्षणरूपायाः सत्तायास्तेनाप्यभ्युपगमात् सङ्ग्रहाभिमतयाव प्रमाणवाक्यं व्यवहर्तव्यमित्यर्थः / अयं च समुच्चयद्रव्यमपि दनुवृत्तसामान्यानभ्युपगमात्। ऋजुसूत्रेणावक्तव्यभङ्ग उत्थाप्यत इति संप्रदायमतमिति कृत्वा समुन्नीतः / वस्तुतो नयदुर्नयप्रमाणविभागेचेत्, सोऽयं प्रत्येकावक्तव्यत्वकृतोऽवक्तव्यत्वभङ्गः,तदुत्थापने च सङ् नैवादर एव। हेमसूरिभिरपि-" सदेव सत्स्यात्सदिति त्रिधाऽर्थो, मीयेत ग्रहोऽपि समर्थः / ऋजुसूत्राभिमतमध्यमक्षणरूपसत्तानभ्युपग-न्त्रा दुर्नीतिनयप्रमाणैः 28 " (स्या०) इत्यादिविभज्याभिधानात ; आकरे तेनाऽपि तदस्थापनस्य सुकरत्वादिति चेत् / अत्रेदमाभाति नयतदाभासाना व्यक्तेरुदाहृतत्वाच। अवधारणी च भाषा एकान्तवासंग्रहव्यवहारा युगपन्नोभयथा देष्टुं प्रगल्भेते, स्वानभिमतांशादेशे दाऽऽत्मिकैव निषिद्धा, न तु नयरूपाणि, तस्याः प्रमाणपरिकल्पितऽनिष्टसाधनत्यप्रतिसंधानात् , ऋजुसूत्रस्य तु वर्तमानपर्यायमात्र त्वेन तत्रावधारणीयत्वस्य निश्चायकत्वरूपभाषालक्षणान्ययेनैव ग्राहिणस्तियनूर्द्धताऽऽधारांशान्यतररूपं सामान्यम् , अन्यापोहरूपो सिद्धान्तसिद्धत्वात् / अत एव निराकासानासन्नाऽऽदिस्थले विशेषश्चेति दावपि संवृतावेवेति तदपेक्षया युगपदुभयथाss शाब्दसमानाकारमानसस्वीकारे किमपराद्धं शाब्दबोधेनेति पर्यनुयोगो हार्यतदादेश पंभवादवक्तव्यभङ्गोत्थानमनाबाधम् / न चैवमपि मानसस्य संशयाऽऽकारस्यापि संभवान्निश्वायकरूपशाब्दबोधानुपतजनितबोध य प्रसङ्गरूपत्वाद् विपर्ययपर्यवसाने संग्रहव्यवहा पत्तेरेव यौक्तिकैर्निराकृतः / न च भाषामात्रस्यावधारणीयत्वेऽप्यारान्यतरसामा. मिति वाच्यम् , विषयाबाधे कूटलिङ्गजाऽनुमितिरिव राधकत्वविराधकत्वतदुभयानुभयैः सत्याऽऽदिभेदचतुष्टयोपदेशाप्रकृतिभङ्गजबोधस्य प्रमात्वेन विपर्ययपर्यवसानकदर्थनाऽनवकाशात, नयभाषाया देशाऽऽराधकत्वेन तृतीयभङ्गः एव निक्षेपात्साधूनामनाव्यञ्जनपर्याय शब्दनये पुनः सविकल्पः, प्रथमे पर्यायशब्दवाच्यता दरणीत्वमित्यपि युक्तम्, चतुर्धा विभागस्य द्रव्यभावभाषायामेवोपविकल्पसभावादर्थस्यैकत्वाच, द्वितीय-तृतीययोनिर्विकल्पश्च, देशात् , तत्र च परिगणितमिश्रभाषाभेददशकानामन्तर्भावादेव द्रय्यार्थात्सामान्यल णान्निर्गतस्य पर्यायरूपस्य विकल्पस्याभिधाय नयभाषायां दोषाभावात् , श्रुतभावभाषायां च तृतीयभाषायामेवानकत्वात्तयोः। तथा घटो नामघठ्याचकयावच्छब्दवाच्यः / शब्दनयेऽ धिकृतत्वाचारित्रभावभाषायामाद्यन्तयोर्भाषयोरधिकृतत्वेऽप्यायुक्तस्त्येव समभिरूढेवभूतयोस्त्येिवेति द्वौ भङ्गो लभ्येते, लिङ्गसंज्ञा तया चतसृणामपि भाषणेऽपराधकत्वाविरोधस्य प्रज्ञापनाऽऽदावुक्तक्रियाभेदेन 'भिन्नस्यैकशब्दवाच्यत्वात् शब्दाऽऽदिषु तृतीयः, त्वात्। किश्चप्रतीत्यसत्यात्वलक्षणमत्रस्फुटभेव किं नोन्नीयते ? नच प्रथमद्वितीयसंयोगातुर्थः, तेष्वेव चानभिधेयसंयोगे पञ्चमषष्ठसप्तमा सप्तभनयात्मकवाक्यस्यैव प्रतीत्यसत्यात्वम् अपेक्षाऽऽत्मकबोधवचनमार्गा भवन्ति। अथवा शब्दनये पर्यायान्तरसहिष्णौ सविकल्पो जनकवाक्यत्वस्यैव तल्लक्षणत्वात्, अन्यथैकत्रापेक्षया हस्वदीर्घावचनमार्गः, तर्द-सहिष्णौ तु निर्विकल्प इति द्वावेव भङ्गौ, अवक्तव्य- ऽऽदिलौकिवचनस्यालक्ष्यत्वाऽऽपत्तेः। न च सत्या सर्वत्रालौकिक्येव भङ्गस्तु व्यञ्जनेनये न संभवत्येव, श्रोतरि शब्दोपरक्तार्थबोधनस्यैव लक्ष्या, जनपदसत्याऽऽदिभेदानामसंग्रहाऽऽपत्तेः / ननु तथाऽप्युत्सतत्प्रयोजनत्वात् अवक्तव्यबोधनस्य च तन्नये संप्रदायविरुद्धत्वेन तथा र्गतोऽनादरणीयनयदुर्नयभावयोरविशेषः / तथोक्तं वादिना- " बुबोधयिषाया एवासंभवादिति / अधिकमस्मत्कृतानेकान्तव्य- सीसमईवित्थारणमित्तत्थोऽयं कओ समुल्लावो। इहरा कहामुहं चेव वस्थायाम् / तदेवं प्रतिपर्यायं सप्तप्रकारकबोधजनकतापर्याप्ति- णत्थि एवं ससमयम्मि // 25||" (सम्म०३काण्ड)इति चेत् / न।
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________________ णय 1866 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय शिष्यमतिविस्तारकत्वं हि नयवाक्यस्य प्रमाणाऽऽत्मकमहावाक्यजन्यशाब्दबोधजनकावान्तरवाक्यार्थज्ञानजनकत्वं, तदनुकूलाऽऽकाजोत्थापकत्वं वा, तेन तस्याऽऽदरणीयत्वस्यैव सिद्धेः / तदुक्तं वादिनैव-" पुरिसज्जायं तु पडुच जाणओ पन्नविज्ज अण्ण-यर / परिकम्मणानिमित्तं, दाएहा सो विसेसं पि // 54 / / (सम्म०१ का०) इति / प्रमाणवाक्यमपि ह्यनेकान्तरुचिशालिनं पुरुषविशेषमधिकृत्यैव प्रयुज्यते, तदनयोर्द्वयोरपि कारणिकत्वे प्राप्ते स्वस्वकाले औत्सर्गिकत्वमेव न्यायसिद्धम् विप्रतिषिद्धकारणविधिस्थले तथाव्युत्पत्तेः / तस्मात् " स्याद् ज्ञानाऽऽदिलक्षणो जीवः'' इत्यपि सुनयवाक्यमेव, एकभङ्गरूपत्वात् / प्रमाणवाक्यता तत्राऽप्युत्थाप्याऽऽकासाक्रमेण भगषट्कसंयोजनयैव / सकलाऽऽदेशत्वं च प्रतिभङ्गमनन्तधर्माऽऽत्मकत्वद्योतनेन; अन्यथा च विकलाऽऽदेशत्वमित्येके / / अखण्डवस्तुविषयत्वेन त्रिष्वेवाऽऽद्यभङ्गेषुतत्, चतुषु चोपरितनेषु एकदेशविषयत्वेन विकलाऽऽदेशत्वमित्यन्ये।। अयं व्युत्पत्तिविशेषःसर्वसप्तभड़ीसाधारणः, स्याच्छब्दलाञ्छिौकमात्रेण तुन प्रमाणवाक्यविश्रामः, सुनयवाक्यार्थस्यैव ततः सिद्धेः / अत एव कृष्णः सर्प इत्यादिविशेषणविशेष्यभावबोधकवाक्येऽपि सर्पमात्रे कृष्णत्वस्याभावादनन्ते व्यभिचारात् पृष्ठावच्छेदेन कृष्णोऽप्युदरावच्छेदेन शुक्लत्वोपलम्भात् स्याच्छब्दसंयोजनया नयवाक्यत्वमित्याह समन्तभद्रः / लक्ष्यलक्षणाऽऽदिव्यवहारोऽपि नयवाक्यैरेव सिद्ध्यति, उद्देश्यलौकिकबोधस्थानतिप्रसक्तस्यतेभ्य एव सिद्धेः / प्रमाणवाक्यत्वं लौकिकबोधार्थ सप्तभङ्ग्यात्मकमेवाऽऽश्रयणीयम्। अत एव तद्व्यापकत्वं सम्मत्यादौ महताच यत्नेन साधितमिति किमतिविस्तरेण ? // 6 // (10) नन्वेकत्र वस्तुन्यनेकाऽऽकाराप्रमाणधीः, एकाऽऽकारा चनयधीः कथमुत्पद्यते? इति जिज्ञासायामाहयथा नैयायिकैरिष्टा, चित्रेऽनेकैकरूपधीः। नयप्रमाणभेदेन, सर्वत्रैव तथाऽऽर्हतः।। 7 // (यथेति) यथा नैयायिकैश्चित्रे नीलपीताऽऽदिना शबले घटाऽऽदा- | वनेकरूपा नीलपीताऽऽद्याकारा, एकरूपा च चित्राऽऽकारा धीरिटाऽभ्युपगता, तथाऽनुभत्वात् , स्यान्मतभेदाऽऽश्रयणादा, तथा सर्वत्रैव वस्तुन्येकानेकरूपतया चित्रे प्रमाणनयभेदेन द्विविधा बुद्धिराहतैरिष्टा, अनुभवसिद्धेऽर्थे विरोधाभावादितिभावः। यथा च सर्वस्य वस्तुनश्चित्रत्वं तथोक्तमस्माभिरात्मख्यातौ, विस्तरभिया नेह प्रतन्यते। चित्ररूपे तु मतभेदं तर्करसिकव्युत्पत्त्यर्थमुपदर्शयामः-तत्र नीलं नीलान्यरूपासमवायिकारणं न वेति चित्ररूपे विप्रतिपत्तिः, विधिकोटिः सामानाधिकरण्येन, निषेधकोटिरवच्छेदकावच्छेदेन / तेन नांऽशतो याधः, सिद्धसाधनं वा / यत्तु नीलरूपासमवायिकारणकं पीतरूपासमवायिकारणकं न वेति प्रतिपत्तिरिति / तन्न / नीलरूपासमवायिकारणस्य नीलस्य पक्षत्वे वाधात्। चित्ररूपस्य पक्षल्ये आश्रयासिद्धेः / यदपि नीलरूपासमवायिकारणकवृत्तित्वविशिष्टरूपत्वं पीतरूपासमवायिकारणवृत्ति न वेति केषाञ्चिद्विप्रतिपयुद्भावनम् / तदपि न रमणीयम्। विशिष्टस्य, विशिष्टाऽऽधेयताया वाऽनतिरिक्तत्वादिति दिक् / तत्र साम्प्रदायिकाः-नानारूपवदवयवाऽऽरब्धे वस्तुनि नीलपीताऽऽ दिभिरेक संभूय चित्ररूपमारभ्यते। न च सामग्रीसत्त्वान्नीलाऽऽदिभिर्नीलाऽऽदेरपि तत्र जननाऽऽपत्तिः, अगत्या नीलेतररूपाऽऽदेनीलाऽऽदिकप्रतिबन्धकत्वकल्पनात्, प्रतिबन्धकताऽवच्छेदकः संबन्धः स्वसमवायिसमवेतत्वम् , प्रतिबद्ध्यतावच्छेदकश्च समवायः। चित्रत्वावच्छिन्नेऽपि नीलेतरपीतेतररूपत्वाऽऽदिनैव हेतुता, तेन न केवलनीलकपालाऽऽरब्धे चित्रोत्पत्तिप्रसङ्गः। यत्त्ववयवनिष्ठनीलाभावाऽऽदिषट्कस्यैव चित्रं प्रति हेतुत्वमिति / तन्न / नीलपीतोभयकपालाऽऽरब्धे घटपाकनाशितावयवपीते स्वचित्रेऽवयवे व्याप्यवृत्तिनीलोत्पत्तिकाले चित्रोत्पत्त्यापत्तेः। नचकार्यसहभावेन नीलाभावाऽऽदीनांतद्धेतुत्वादयमदोषः, नीलपीतश्वेतत्रितयकपालाऽऽरब्धे पीतश्वेतयोः क्रमेण नाशे श्वेतनाशकालेऽपि तदापत्तेरिति; पाकजचित्रे च न व्यभिचारः / पाकादवयवे नानारूपः, अन्यत्रानन्तरमेवावयविनि चित्रस्वीकारात; पाकचित्रस्वी-कारे च विजातीयचित्रं प्रति नीलेतरत्वाऽऽदिना हेतुता, अग्निसंयोगजचित्रे चावच्छेदकत्वसंबन्धावच्छिन्न(प्रतियोगिताका नीलजनकाग्निसंयोगाऽऽदेरभावरूपजनकविजातीयाग्निसंयोगाश्च हेतवः / अस्तु वा तेजःसंयोगमात्रजन्ये विजातीये चित्रे विजातीयतेजः संयोगस्य हेतुत्वं, पाकयोरुभयजन्ये विजातीये चित्रे चोभयोरेव रूपमात्रजाऽतिरिक्त एव वा विजातीयतेजःसंयोगो हेतुः, फलबलेन वैजात्यकल्पनात्। न चाग्निसंयोगजमात्रातिरिक्त रूपमेव हेतुरस्तु इति विनिगमकाभावः / उभयस्थले नीले तराऽऽदिसमाजाभावस्यैव विनिगमकत्वादित्याहुः / / शिरोमणिभट्टाऽऽचार्यमतानुसारिणस्तुचित्रघटेऽव्याप्यवृन्येव नीलपीताऽऽदीनि नानारूपाणि, एकरूपमितिप्रतीतेरेकोऽन्नराशिरितिवत्समूहकत्वविषयत्वात्; सविषयावृत्तिव्याप्यवृत्तिजातेरव्याप्यवृत्तित्वविरोधस्तुप्रामाणिक एव / अत एव" लोहितो यस्तु वर्णेन, मुखे पुच्छे च पाण्डुरः। श्वेतः खुरविषाणाभ्यां, सनीलो वृष उच्यते // 1 // इति स्मृतिरप्युपपद्यते। अथाऽव्याप्यवृत्तिनीलाऽऽदिकल्पने गौरवम् / तथाहि-अवच्छेदकतासंबन्धेन नीलाऽऽदिकं प्रति समवायेन नीलेतररूपाऽऽदीनां प्रतिबन्धकत्वमस्मिन् पक्षे वाच्यम् , अन्यथा पीतावयवावच्छेदेन नीलोत्पत्तिप्रसंगात्।नचनीलस्य स्वाश्रयावच्छेदेन नीलजन्यत्वस्वाभाव्यादेव न तदापत्तिः, विनैतादृशप्रतिबध्यप्रतिन्धक भावं तथा स्वाभाव्यानिर्वाहात् / ननु समवायेन नीलं जायत एव पीतावयवावच्छेदेनेत्यत्र चाऽऽपादकाभाव इति चेत् / न। समवायस्येवावच्छेदकताया अपि कारणनियम्यत्वात्। एवं चनीलाऽऽदौ नीलेन रूपाऽऽदीना, नीलेतररूपाऽऽदौ वा नीलाऽऽदीनां प्रतिबन्धकत्वे विनिगमकाभावः / मम नीलेतररूपाऽऽदौ नीलाऽऽदीनां न प्रतिबन्धकत्वम्। नीलपीताऽऽरब्धे नीलरूपत्वप्रसङ्गस्य बाधकत्वादिति चेत्। मैवम्। ममाऽपि नीलत्वाऽऽदिकमेव प्रतिबध्यताऽवच्छेदक, न तु नीलेतररूपत्वाऽऽदि, गौरवादिति वक्तुं शक्यत्वात्। नचनीलत्वेन प्रतिबन्धकत्वं, नतुनीलेतरत्वेन, गौरवादित्येव किं न स्यादिति वाच्यम्; प्रतिबन्धकताऽवच्छेदकगौरवस्यादोषत्वात् / अस्तु वाऽवच्छेदकतया नीलाऽऽदौ समवायेन नीलाऽऽदीनामेव हेतुत्वम् / न च नानारूपवत्कपालाऽऽरब्धघटनीलस्य तत्कपालावच्छदेनोत्पत्तिप्रसङ्गः, केवलनीलत्वाऽऽदिनैव तद्धेतुत्वात्।न च केवलत्वं नीलाभविसमानाधिकरणत्वमिति गौरवम् , अनवच्छिन्नसमवायेन नीलाऽऽदिहेतुत्वस्यैव तदर्थत्वात् / समवायेन नीलाऽऽदौ च स्वसमवायिसमवेतत्वसंबन्धेन नीलाऽऽदिनां हेतुत्वं, व्याप्यव
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________________ णय 1870 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय त्तिनीलस्थलेऽव्याप्यवृत्तित्ववारणाय चावच्छेदकतया नीलाऽऽदौ भावादेव न तत्र नीलोत्पचिरित्ति विभाव्यते, तदा नीलं प्रति नीलेस्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायित्वसंबन्धेन नीलेतररूपाऽऽदीनां तररूपाऽऽदेः प्रतिबन्धकत्वे चित्ररूपत्वाऽऽदिना न कल्पनीयमित्यतिहेतुत्वमित्यव्याप्यवृत्तित्वपक्षेऽष्टादश कार्यकारणभावाः, चित्ररूप- लाघवम् / एवं च सामानाधिकरण्यसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताको पक्षेऽप्येतावन्त एव। चित्ररूपे नीलेतररूपाऽऽदीनां षट्कस्य, नीलाऽऽदौ नीलेतराभावः समानावच्छेदकत्वप्रत्यासत्त्या नीलहेतुरित्यपि निरस्तम्; च नीलाऽऽदिषट्कस्य हेतुत्यम् , नीलेतराऽऽदिषट्कस्य च नीलाऽऽदौ समानाधिकरणस्य व्याप्यवृत्तित्वेन तत्संबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रतिबन्धकत्वमित्यादिनाऽऽधिक्याभावात् / वस्तुतोऽवच्छेदकतया नीलेतराभावासत्त्वाचेति बहवः संप्रदायं समादधते। केचित्तुविजातीयनीलाऽऽदौ स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायिसमवेतत्वसंबन्धन नीलेत- चित्रं प्रति स्वविजातीयत्वस्वसंवलितत्वोभयसंबन्धेन रूपविशिष्टरूररूपाविशिष्टनीलत्वाऽऽदिनैव हेतुत्वम्। न च नीलेतरत्वाऽऽद्यवच्छिन्नं पत्वेनैव हेतुत्वम् / स्ववैजात्यं च चित्रत्वाव्यतिरिक्तं यत्स्ववृत्ति प्रतिनीलविशिष्टनीलेतरत्वाऽऽदिना हेतुत्वे विनिगमकाभावः, नीलत्वा- तद्भिन्नधर्मसमवायित्वम्, स्वसंबलितत्वं चस्वसमवायिसमवेतद्रव्यपेक्षया नीलेतरत्वस्य गुरुत्वात् , इत्थं चाभिनिष्कर्षेऽस्माकं द्वादशैव समवायिवृत्तित्वम्। नच सत्त्वाननुगमः, संबन्धमध्ये तत्तत्प्रवेशात्संबकार्यकारणभावा इति लाघवादित्याहुः / तदसत् / चित्ररूपस्वीकार न्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकानां हेतुत्वादित्याहुः॥ परे तु नीलपीतोभयापक्षेऽपि नीलाऽऽदौ नीलेतराऽऽदिप्रतिबन्धकत्वेनैव शुक्लावयवमात्रा भावपीतरक्तोभयाभावाऽऽदीनां स्वसमवायिसमवेतत्वसंबन्धावच्छिन्नऽऽरब्धे नीलाऽऽद्यनुत्पत्तिनिर्वाहात्, नीलाऽऽदौ नीलाऽऽदिहेतुत्वा प्रतियोगिकानां समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताकानां विजातीयपाकोकल्पनात्, कार्यकारणभावसंख्यासाम्यादव्याप्यवृत्तिनानारूपतत्प्राग भयाभावाऽऽदीनां यावत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक एको भावश्चित्रत्वावभावभावावध्वंसाऽऽदिकल्पने परं परस्यैव गौरवात् / किश्च-अव्या च्छिन्नं प्रति हेत्तुरित्याहुः / / रूपत्वेनैव चित्रं प्रति हेतुत्वम्, कार्यप्यवृत्तिरूपपक्षेऽवच्छेदकतासंबन्धेन रूपे उत्पन्ने पुनस्तेनैव संबन्धे सहभावेनचित्रतेराभावस्याहेतुत्वेनानतिप्रसङ्गादित्यन्ये / / परे तुनावयवे रूपोत्पत्तिवारणायावच्छेदकतासंबन्धेन रूपं (प्रत्यवच्छेद चित्रत्वावच्छिन्ने रूपत्वेनैव हेतुत्वम्, नीलपीतोभयाऽऽरब्धवृत्तिकतासंबन्धेन रूप) प्रतिबन्धक कल्पनीयमिति गौरवम्। न चावयविनि चित्रत्वावान्तरवैलक्षण्यावच्छिन्ने च नीलपीतोभयत्वेन हेतुता / एवं समवायेनोत्पद्यमानमवयवेऽवच्छेदकतयोत्पत्तुमर्हतीत्यवयविनिरूपस्य तत्रितयाऽऽरब्धे तत्त्रितयत्वेन, नीलपीतोभयाऽऽदिमात्राऽऽरब्धे च प्रतिबन्धकस्य सत्त्वेन रूपसामग्यभावादेव नावयवेऽवच्छेदकतया तदा नीलपीतान्यतरादितररूपत्वेन प्रतिबन्धकत्वान्नत्रितयारब्धचित्रवति द्वितयाऽऽरब्धसंप्रयोगः / न चैवं गौरवम्, प्रामाणिकत्वात् / वस्तुतः रूपोत्पत्त्यापत्तिरिति वाच्यम्। एवं ह्यवयविनिष्ठरूपाभावोऽवच्छेदकता समवायेन द्वितयजचित्रादौ स्वाधिकरणपर्याप्तवृतिकत्वसंबन्धेनैव संबन्धेन रूपं प्रति हेतुर्वाच्यः, तथा च नानारूपवत्कपालाऽऽरब्धघटस्य द्वितयाऽऽर्दानांहेतुत्वम्, नातःप्रागुक्तप्रतिबन्धकत्व-कल्पनागौरवनीलरूपाऽऽदेर्नीलकपालिकाऽवच्छेदेनानुत्पत्तिप्रसङ्गात् , तदवयविनि मित्याहुः / उच्छृङ्खलास्तुनीलपीतरक्ताऽऽद्यारब्धघटाऽऽदौ नीलपीतरकपाले रूपसत्त्वात् / अपि च-नीलपीतवत्यग्निसंयोगात्कपालनील क्ताऽऽदि ष्वेवनीलपीतोभयजपीतरक्तोभयजतत्त्रितयजादीनामुनाशात्तदवच्छेदेनानुत्पत्तिर्न स्यात् , समवायेन रूपं प्रति तेन रूपस्य त्पत्तिः, सर्वेषां सामग्रीसत्त्वात् / नात्र चरमं व्याप्यवृत्ति, इतराणि प्रतिबन्धकत्वात् , तदवच्छिन्नरूपे तदवच्छिन्नरूपस्य प्रतिबन्धकत्व त्वव्याप्यवृत्तीनीति विशेषः / न चैकमेव तदस्त्विति वाच्यम्, तत्तदवयकल्पने चाति-गौरवम् / अथावच्छिन्ननीलाऽऽदौ नीलाभावाऽऽदिषट् वद्वयमात्रावच्छेदेनेन्द्रियसन्निकर्षे विलक्षणविलक्षणचित्रोपलम्भात्। नच कमवयवगतमवयविगतं च हेतुः, रक्तनीलाऽऽरब्धे रक्तनाशकपाकेन नीलपीताऽऽदिविशिष्ट चित्रेणावान्तरचित्रप्रतीतसंभवोऽखण्डोत्र, व्याप्यवृत्तिनीलोत्पत्तौ चावयविनि नीलाभावाभावानवच्छिन्ननीलो सामान्यचित्रत्वेनाखण्डावान्तरचित्रत्वानां सामानाधिकरण्यप्रत्ययात्। त्पत्तिः, केवलनीले पाकेन क्वचिद्रक्तोत्पत्तौ च प्राक्तननीलनाशादेवा न चेदेवं तदा नीलाऽऽद्यविशेषिता ये नीलाऽऽदिभेदास्तत्तदाश्रयरूपवच्छिन्ननीलोत्पत्तिरिति चेत् / न / नीलपीतश्वेताऽऽद्यारब्धे श्वेता समुदायेनानुगतचित्रप्रतीतेश्चित्रत्वं नीलाऽऽदिभेदसमुदायेन नीलाऽऽधनुऽऽद्यवच्छेदेन नीलजनकपाके सति प्राक् तननीलनाशेन तत्तदव गतप्रतीतिसम्भवान्नीलत्वाऽऽदिकमपि च विलीयेतेति जातेरच्याप्यच्छिन्ननानानीलकस्य नाशापेक्षया एकचित्रकल्पनाया एव लघुत्वा-त्। वृत्तित्वे पुनरस्त्वेकमेव यत्किञ्चिदवच्छेन तत्र नीलत्वपीतत्वरक्तत्वविलअथ व्याप्यवृत्तिरूपस्या(व्य)वच्छे दकस्वीकारादवच्छेदकतया क्षणचित्रत्वाऽऽदिसंभवादित्याहुः॥ तदिदमखिलमशिक्षितप्रलापमात्रम्।। नीलाऽऽदिकं प्रत्येव समवायेन नीलाऽऽदेर्हेतुत्वम्। न चैवं घटेऽपि तया चित्रपटोचिते च रूपाप्रतिपत्तेरनुभवविरुद्धत्वात्, शुक्लाऽऽदिरूपाणानीलाऽऽधुपपत्तिः; अवयवनीलत्वेन, दव्यविशिष्टनीलत्वेन वा तद्धेतुत्वात्। मपि परस्परभिन्नानां साक्षात्संबन्धेन निर्विगानं तत्र प्रतीतेः, प्रत्येतव्यनचनीलमात्रपीतमात्रकपालिकाद्वयाऽऽरधनीलपीतकपाले तदापत्तिः, कल्पनागौरवेण प्रतीतिवाधे रूपाऽऽदेस्तु तन्मात्रगतत्वाऽऽपत्तेः / नीलकपालिकाऽवच्छिन्नतदवच्छेदेन तदुत्पत्तेरिष्टत्वात् , अस्तु वा तया तदिदमाहुःसंमतिटीकाकृतः-"नच चित्रपटाऽऽदावपास्तशुक्लाऽऽदिनीलाऽऽदौ नीलेतररूपाऽऽदेरेव विरोधित्वमिति चेत् / न / नीलाऽऽदौ विशेषरूपमात्रं तदुपलम्भान्यथानुपपत्त्याऽस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् , कर्थ नीलेतररूपाऽऽदिप्रतिबन्धकतयैवोपपत्तौ तत्र नीलाऽऽदिहेतुतायां माना- चित्ररूपः पट इति प्रतिभासाभावप्रसक्तेरिति, एकाधिकरण्यावच्छिन्नभावान्नानारूपवदवयवाऽऽरब्धे चित्ररूपस्यैव प्रामाणिकत्वाद् व्याप्य- शुक्लाऽऽद्यवयवावच्छेदः, एवं कथञ्चित्समुदाय्यतिरिक्तचित्रमिति, तत्र वृत्तेरवच्छेदका-योगान्त्रीलेतराऽऽदौ नीलाऽऽदेः प्रतिबन्धकत्वेऽविनिग- शुक्लाऽऽद्यग्रहे चित्राग्रहप्रसक्तिरित्येव तात्पर्यम्। किश्चिच्छुक्लावयवामाच / यदि च-स्वाऽऽश्रयसंबन्धेन नीलं प्रति स्वव्यापकसमवायेन वच्छेदेनाऽपि चक्षुः-संनिकर्षण चित्रोपलम्भःस्यात्, अथ चित्रत्वग्रहे नीलरूपं हेतुरुपेयते, नीलपीताऽऽद्यारब्धस्थले च स्वाऽऽश्रयसबन्धेन परम्परयाऽवयवगतनीलेतररूपपीतेतररूपाऽऽदिमत्त्वग्रहो हेतुः, अतएव नीलरूपस्य पीतकपालेऽपि संभवेन व्यभिचारात्। उक्तसंबन्धन हेत्व- / त्र्यणुकचित्रं चक्षुषा नगृह्यत इत्याचार्याः / न च चित्रत्वनिष्ठविषयतया चित्र
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________________ णय 1871 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय त्वग्रहे स्वविशेषसमवेतत्वसंबन्धेनोक्तस्य हेतुत्वे घटाक्यवगततद्ग्रहात् शुक्लावयवावच्छेदेन चित्रपटसन्निकर्षेऽपि तद्रूपचित्रत्वप्रत्यक्षाऽऽपत्तिरिति वाच्यम्, विशेष्यतया चित्रत्वप्रकारकप्रत्यक्ष एव चरमसमवेतत्वविनिर्मुक्तसंबन्धेन तद्धेतुत्वात् / न च नीलेतररूपत्वाऽऽधवच्छिन्नप्रकारताग्रहो न हेतुर्नीलपीतत्वाऽऽदिनाऽवयवगतनीलपीताऽऽदिग्रहेऽप्यवयविचित्रप्रत्यक्षोत्पादादिति वाच्यम् , विलक्षणचित्रप्रत्यक्षे तेन तेन रूपेण तत्तद्ग्रहस्यापि हेतुत्वात् / वस्तुतो नीलेतररूपत्वाऽऽदिव्याप्यत्वेन नीलेतररूपत्वपीतत्वाऽऽद्यनुगमान्न क्षतिरिति चेत् / न / त्र्यणुकचित्ररूपाग्रहे चतुरणुकचित्रप्रत्यक्षानुपपत्तेः, चित्रावयवाऽऽरब्धे चित्रग्रहेऽवयवविषयकनीलेतररूपत्वाऽऽदिव्याप्यचित्रत्वावच्छिन्नप्रकारकग्रहस्यैव हेतुत्वात्। यदिच नीलेतररूपपीतेतररूपाऽऽदिमदवयवावच्छिन्नेन्द्रियसंनिकर्षस्यावयवनीलाऽऽदिगतनीलत्वाऽऽदिग्रहप्रतिबन्धकदोषाभावानां च चित्रप्रत्यक्षेहेतुत्वम् अतस्त्रसरेणुचित्रस्याऽपि चक्षुषा ग्रह इत्युद्भाव्यते, तदाऽनन्तहेतुहेतुमद्भावकल्पनागौरवात्। चित्रत्वं व्यासज्यवृत्त्यैव, तत्र च समानाधिकरणनानारूपग्रहव्यङ्ग्यत्वमित्येव कल्प्यमानं शोभते। न ह्येवं गौरवं, चित्रत्वग्रहे सामानाधिकरण्येन रूपविशिष्टरूपग्रहत्वेनैव हेतुत्वादुक्तहेत्वभावे चित्रत्वविनिर्मुक्तचित्रप्रत्यक्षस्य चोभयोस्तुल्यत्वात् / यदि च ना-नाऽवयवावच्छिन्नपर्या(य)प्तवृत्ति एक चित्रमप्यनुभूयतेऽत एवैकावयवावच्छेदेन चित्राभावप्रतीतेरप्युपपत्तिरिति स्वीक्रियते, तदैकानेकचित्रद्रव्यस्वभावाभ्युपगमं विना न काऽप्युपपत्तिः, देशस्कन्धनियतधर्माणां तद्ग्राहकसामग्रीग्राह्यत्वेनैवोक्तोपपत्तेः। देशस्कन्धपरिमाणविशेषग्रहेऽपीयमेव गतिरिति दिक् / किच-नीलेतररूपाऽऽदिषट्कस्यैव चित्ररूपे हेतुत्वमित्येतावतैव नोपपत्तिः, अवयवगतोत्कृष्टापकृष्टनीलाभ्यामपि चित्रसंभवात् / ते चोत्कर्षापकर्षा विचार्यमाणा अनन्ता एव / तदाह श्रीसिद्धसेनः" पशुप्पण्णम्मि विप-जयम्मि भयणागई पडइ दव्यं / जं एगगुणाऽऽईया, अणतकप्पा गुणविसेसा "||6|| (स०३का०) व्याख्या-प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽपि पर्याय भजनागतिं भेदाभेदप्रकार पतत्यासादयति द्रव्यम्, यस्मादेकगुणाऽऽदयः कृष्णत्वाऽऽदयोऽनन्तप्रकारास्तत्र गुणविशेषाः प्रकारवाचिनः। तेषां च मध्ये केनचिदेव गुणविशेषेण युक्तं तदिति कृष्णं हि द्रव्यं द्रव्यान्तरेण तुल्यमधिक मूनं वा भवेत् , प्रकारान्तराभावात् / आद्ये सर्वतुल्यत्वे तदेकताऽऽपत्तिः / उत्तरयोः संख्येयाऽऽदिभागगुणवृद्धिहानिभ्यां षट्स्थानकप्रतिपत्तिरवश्यंभाविनी / तथा च प्रतिनियतहानिवृद्धियुक्तकृष्णाऽऽदिपर्यायेण सत्त्वं, नाऽन्येनेति / इत्थं च नीलत्वाऽऽद्यवान्तरजातीनामनन्तत्वात तरतमशब्दमात्रेण तदनुगमस्य कर्तुमशक्यत्वात् / तत्तदवान्तरजातीयनीलपीताऽऽदीनामनन्तचित्रहेतुत्वकल्पने गौरवमिति षट्स्थानपतितवर्णपर्यायेण चित्रद्रव्यमेव स्वसामग्रीप्रभवमभ्युपगन्तव्यम्; आर्यसमाजसिद्धधर्मस्याऽपि तथा भव्यत्वकार्यतावच्छेदकत्वस्वीकारात् / एतेन चित्रप्रत्यक्षमनेकताऽवच्छेदकमपि चक्षुःसंयोगनिष्ठं वैजात्यं स्वीकर्तव्यमित्यपि निरस्तम् / सूक्ष्मेक्षिकयाऽनन्तावान्तरचित्रानुभवादनन्तवैजात्यकल्पनाऽऽपत्तेरत्यन्ताप्रामाणित्वादिति द्रष्टव्यम् / / अव्याप्यवृत्तिरूपपक्षेऽप्यययवगतोत्कृष्टापकृष्टनीलाभ्यामवयविनी- 1 लेतयोरवच्छिन्नयोः सामान्यसामग्रीवशादर्थादनवच्छिन्नस्य नीलस्योत्पत्तिप्रसङ्गोऽवयविनीलेतरत्वाऽऽद्यवच्छिन्न एवावयवनीलेतरत्वाऽऽदिना हेतुत्वे नीलत्वावच्छिन्नस्याऽऽकस्मिकत्वप्रसङ्गः / किमाकस्मित्वमिति चेत् ? तद्धर्मावच्छिन्नार्थ तयाप्रवृत्तिविरहः, एतत्कारणसत्त्वे नीलत्वावच्छिन्नस्यावश्यमुत्पत्तिरित्यनिश्चयश्च प्रतीयते। तत्र नीलसामान्यमनवच्छिन्नम्, अवच्छिन्नाश्वतद्विशेषाः। केवलशुक्लेऽपि च स्वल्पबह्ववयवावच्छेदेनेन्द्रियसन्निकर्षेऽणुमहत्वोपेतशुक्लविशेषाः, तदनुवक्तं शुक्लसामान्यं चेत्येकानेकवर्णविशिष्टद्रव्यपरिणामाभ्युपगमं विना न कथमपि विस्तारः / एतेनाऽव्याप्यवृत्तिनीलाऽऽदिकल्पने ग्राहकान्तरकल्पने अव्याप्यवृत्तिद्रव्यसमवेतप्रत्यक्षत्वाऽवच्छिन्नं प्रति चक्षुःसंयोगकावच्छेदकावच्छिन्नसमवायसंबन्धावच्छिन्नाऽऽधारतासंनिकर्षण, संयोगाऽऽदिप्रत्यक्षस्थले क्लुप्तेनैवानतिप्रसङ्गात् / नीलपीतोभयकपालाऽऽरब्धघटीयनीले च नीलकपालिक्येव परम्परयाऽवच्छेदिकेत्यभ्युपगमादित्यादि निरस्तम् / शाखामूलोभयावच्छिन्नदीर्घतन्तुतरुसंयोगवन्नीलेतरोभयाऽऽद्यवयवावच्छिन्नविलक्षणरूपस्याऽनुभवसिद्धत्वेन तद्ग्राहकोभयाऽऽदिपर्याप्तावच्छेदकताकाऽधिकरणतागर्भसंनिकर्षाऽऽदिकल्पनाया अप्यावश्यकत्वादुपदर्शितसंयोगस्थलेऽपि एकैकावच्छिन्नसंयोगद्वयस्वीकारेच तद्वत्तिकृता सर्वेश्च नीलेतराऽऽरब्धेsवयविनि नीलानीलं स्वस्वावच्छेदेन समुत्पद्यमान रूपमविरोधाद् व्यापकमेवोत्पद्यते, सजातीयविजातीयेषु नानापदार्थेषु जायमानं समूहाऽऽलम्बनमिवैकं ज्ञानमिति सर्व विलूनशीर्ण स्यात् , यथा दर्शनसंस्कारतात्पर्याभ्यां नानकसंयोगरूपाभ्युपगमे व्यञ्जितं स्याद्विनैव ? एतेन नानारूपवदवयवाऽऽरब्धे व्याप्यावृत्तीन्येव नीलपीताऽऽदीन्युत्पद्यन्ते, नीलाऽऽदिकं प्रति नीलेतराऽऽदिप्रतिबन्धकत्वनीलाऽऽदिकारणत्वकल्पनापेक्षया व्याप्यवृत्तिनीलपीताऽऽदिकल्पनाया एव न्याय्यत्वादित्यपि परेषां मतं निरस्तम्, नीलकपालावच्छेदेन चक्षुःसन्निकर्षे पीताऽऽदेरुपलम्भाऽऽपत्तेरपि तत्र दोषत्वात् / तदाह सम्मतिटीकाकार:- "आश्रयव्यापित्वेऽप्येकावयवसहितेऽप्यवयविन्युपलभ्यमाने-ऽपरावयवानुपलब्धावप्यनेकरूपप्रतिपत्तिः स्यात् , सर्वरूपाणामाश्रयव्यापित्वादिति।" न च नीलाऽऽद्यवयवावच्छिन्नसन्निकर्षस्य नीलाऽऽदिग्राहकत्वकल्पनाददोषः, पीतकपालिकाऽवच्छिन्ननीलपीतोभयकपालावच्छेदेन संनिकर्षेऽपि नीलग्रहप्रसङ्गात्। न च केवलनीलावयवावच्छिन्नसन्निकर्ष एव ग्राहक इति वाच्यम् , नीलपीतोभयव्यणुकाऽऽरब्धत्रसरेणुनीलप्रत्यक्षाऽऽपत्तेः / परमाणुसंनिकर्षेऽस्यैव परमाण्ववच्छिन्नसंनिकर्षस्याऽपि द्रव्याग्राहकत्वेन तद्गतरूपाग्राहकतया चित्रस्वभावत्वमानुभविकम्, तथा ग्राहके ज्ञानेऽपि तत्राखण्डाया एकाऽऽकारतायाः, सखण्डानां च नानाऽऽकारताविशेष्यतासांसर्गिकविषयताना नयनिरूपितानां शुद्धानां चानुलोमप्रतिलोमभावेन समानम् , संवितसंवेद्यतानियामक वैचित्र्यशालिनीनां च बह्वीनामनुभवात् / अत एव " सावज्जजोगविरओ, तिसु गुत्तो छसु सुसंजुतो। उवउतो जयमाणो, आया सामाइयं होइ॥ 1 // " इति सप्तनयाऽऽत्मकमहावाक्यार्थजज्ञाने एकाऽवशिष्टा प्रमाणाऽऽकारता, अनेकाश्वांशिक्यो नयविषयतापरस्परसंयोगजाश्च बढ्योऽनुभूयन्ते। नैयायिकास्तुविशेषणं, तत्र च विशेषणान्तरम् 1, विशिष्टस्य वैशिष्ट्यम् 2, एक विशिष्ट ऽपरवैशिष्ट्यम् 3, एकत्र द्वयम् 4, इत्येवं चतुर्धा
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________________ णय 1872 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय विशिष्टा वैशिष्ट्यबुद्धिः / तत्र मध्यमद्वये विशेषेण विशेष्यताऽवच्छेदकप्रकारकनिश्चयत्वाभ्यां हेतुता, इतरद्वये तु विशेषणाज्ञानासंसर्गग्रहयोः, विशेष्ये विशेषणामितिरीत्या बुद्धित्वरक्तत्वाऽऽधवच्छिनप्रकारतानिरूपितदण्डत्वाऽऽद्यवच्छिन्नप्रकारकबुद्धित्वम् तेन दण्डो रक्तो दण्डवात्पुरुष इति समूहाऽऽलम्बने नातिप्रसङ्गः, तत्र दण्डत्वावच्छिन्नप्रकारतायाः रक्तत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपित-त्वात्। न च विशिष्ट वैशिष्ट्यविषयतास्वीकारे रक्तदण्डवानित्यत्र विशेष्ये विशेषणमितिविषयितायां दण्डो रक्तो दण्डवात्पुरुष इति समूहालम्बनव्यावृत्तायां मानाभावः / रक्तरूपदण्डत्वोभयावच्छिनदण्डनिष्ठ प्रकारताभिन्नाया रक्तरूपत्वाऽवच्छिन्नप्रकारतानिरूपितशुद्धदण्डत्वावच्छिन्नप्रकारताया आनुभविकत्वम् / किञ्चरक्तदण्डवानित्यादिवाक्यादयुगपदुपस्थितस्वघटकाखिलपदार्थाजायमानाया अनन्वितान्वयबुद्धेः रक्तो दण्डो दण्डवात्पुरुष इति वाक्यजसमूहाऽऽलम्बनावैलक्षण्ये रक्तदण्डाभाववानित्यादिबाधधीकालेऽप्युत्पत्त्यापत्तिरिति तत्प्रतिबध्यताऽवच्छ देकतयैव तत्सिद्धिरुक्तबाधधिया रक्तरूपत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितशुद्धदण्डत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितपुरुषत्वाऽवच्छिन्नविशेष्यताक-धियैव प्रतिबद्ध्यत्वाविशिष्टवैशिष्ट्यविषयताया बाधप्रतिबध्यता-वच्छेदकत्वे उक्तस्थल एवानुपपत्तेः / अपिच-विशकलितज्ञानाद व्यापकविषयताशालिमानसस्वीकारेण तत्साधारण्येनैव प्रतिबद्ध्यत्वं युक्तिमत्। अथैवं दण्डो रक्तो न देति संशयकाले उक्तवाक्याद्विशेष्ये विशेषणमिति रीत्याऽन्वयबोधाऽऽपत्तिरिति चेत् / न / प्रथममिष्टत्वात् , अनन्तरं च विशिष्टस्य वैशिष्ट्यमिति रीत्याऽन्वयधियः संभवात् / तदनुभवोऽप्यविरुद्धः, प्रात्यक्षिकी बुद्धिरप्युक्तसंशयकाले रक्तत्वांशे संशयाकारा इष्टैव / यत्तु घटघटत्वाऽऽदिनिर्विकल्पकोत्तरं घटवदित्याकारा धीविशेष्ये विशेषणमिति रीत्या जायत इति / तत्र घटाऽऽद्यंशे तद्धीप्रकारताया निरवच्छिन्नत्वेऽपसिद्धान्तः, जात्यतिरिक्तस्य किञ्चित्प्रकारेणैव भानात्। तादृशधीविरोधिनोऽसंसर्गग्रहस्यासंभवात्तथा विशेषणधियोऽहेतुत्वाच। तस्या घटत्वाऽऽद्यवच्छिन्नत्वे तु तद्धियो घटो नास्तीत्यादिबुद्धिवद्विशिष्टवैशिष्ट्यधीत्वस्यैवाध्यवसितप्रकारकज्ञानमेवोपनायकम् , तस्य च कार्यतावच्छेदकं लौकिकविषयिताशून्यम् , तद्विषयिकज्ञानत्वापेक्षया लाघवाद्विशिष्टवैशिष्ट्याऽऽख्यविषयताशालिप्रत्यक्षत्वमेवेति घटत्वप्रकारकज्ञानोत्तरं जायमानायां घटवदिति बुद्धौ विशिष्टवैशिष्ट्यधीत्वमेव; निर्विकल्पकोत्तरंतु विशेष्ये विशेषणमितिरीत्या लौकिकविषयताशालिज्ञानस्यैव स्वीकारात्। न च दण्ड इत्याद्यात्मकमानसबोधासंग्रहः, तत्र ज्ञानांशे दण्डस्य प्रकारकत्वात्। न चात्मन्युपनीतभावे च ज्ञानाभावेऽपि तत्रागत्या लौकिकविषयाशून्यत्वं निवेशनीयम, तादात्म्येन स्वस्मिन् स्वप्रकारकत्वाभ्युपगमादित्यादिनिरस्तम् / नव्यनये निर्विकल्पकसाधारप्रत्यासत्तिस्वीकारेणोपनयकार्यताऽवच्छेदके लौकिकविषयिताशून्यत्वस्यैव निवेशात् घटवदित्यादौ सर्वत्र विशेष्ये विशेषणमिति-रीत्या विषयतायां प्रागसकृदुक्तबाधकस्यैव न साम्राज्यार्थवेति ? भावः, दण्डी न वेति संशयकाले दण्डाभाववदितिधीविशिष्ये विशेषणमिति रीत्या स्यात्, तयाऽभावे प्रतियोगिताऽवच्छे दक विशिष्ट प्रतियोगिनो बुद्धेरप्रसिद्ध्या तत्प्रतिबन्धकत्वस्याप्ययोगादिति चेत् / न / तादृशबुद्धेरप्रसिद्धत्वे दण्डाभावसंसर्गाग्रहाऽऽदिसामान्य-सामग्या / विशिष्टवैशिष्ट्यविषयिताबोध एव हेतुत्वात् , तादृशबुद्धेरापादकाभावाद्विशेष्ये विशेषणमिति विषयितायाः वैशिष्ट्यविषयिताकबोध एव हेतुत्वात , तादृशबुद्धेरापादकाभावाद्विशेष्ये विशेषणमिति विषयिताया विशिष्टवैशिष्ट्यविषयिताव्यापकत्वे दण्डाभाववदिति ज्ञानेऽपि तस्याः सत्त्वेन तदवच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वसंभवाच्च / अत एव दण्डो रक्तोन वेति संशयकाले यदि विशेष्ये विशेषणमिति रीत्याऽपि रक्तदण्डवानिति धियो नोत्पत्तिः, तदा तत्र दण्डो रक्त इत्यादिनिश्चयाभावविशिष्टो दण्डो रक्तो न वेत्यादिसंशयः प्रतिबन्धकः स्वीक्रियते / इत्थं च व्यापकत्वाद् विशिष्ये विशेषणमिति रीत्या विषयतैवानुमितिप्रवृत्त्यादिजनकताऽवच्छे-दिका। विशिष्टवैशिष्ट्यबुद्धित्वं तुरक्तदण्डात्वाऽऽदिविशिष्ट पर्याप्तिप्रकारताकबुद्धिल्वं रक्तदण्डेन जानामीति प्रतीतेरिति संप्रदायविदः / तदसत् / अस्या एवाऽनुमित्यादिजनकताऽवच्छेदकत्वे विशिष्टवैशिष्ट्यविषयितायां मानस्य दुरापास्तत्वात् / रक्तदण्डवानित्यादिज्ञानेऽपि रक्तत्वाऽऽदिप्रकारतानिरूपितदण्डाऽऽदिनिष्ठविशेष्यताया एवानुभवात् रक्ताऽऽदेर्दण्डाऽऽदिविशेष्य इत्येव प्रतीतेः। तस्मादिशिष्टवैशिष्ट्यविषयताकबुद्धित्वमेवानुमित्यादिजनकताऽवच्छेदकम्। विशेष्ये विशेषणमिति बुद्धित्वं तु विशेषणताऽवच्छेदकसंशयकालीनज्ञानसाधारणमित्यलं संशयप्रतिबन्धकत्वेन, विशिष्टपर्याप्त प्रकारत्वासंभवभिया परामर्शवैशिष्ट्यबुद्धित्वमित्यपि न युक्तम् / वहिव्याप्ये धनवानित्यादौ विशिष्टव्याप्तेरसिद्धत्वेन प्रकारत्वासंभवभिया परामर्शः, दीधितौ खण्डशो निरुक्तेरानर्थक्याऽऽपातात् / अनेन वैशिष्ट्य च वैज्ञानिकम, तेन लोहितवह्निमानित्यादौन विशिष्टवैशिष्ट्यबोधानुपपत्तिरितिमथुरानाथाद्युक्तमपास्तम् / विशिष्टवैशिष्ट्यविषयताविशेषणता:वच्छेदकसंबन्धभेदेन भिन्नेति सर्वैः स्वीकारेण समवायाऽऽदिघटिततद संभवस्य वैज्ञानिकसंबन्धेन समाधातुमशक्यत्वाच्च, तत्तत्संबन्धेन विशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकनिश्चयस्य तत्तत्संबन्धनिरूपितवैज्ञानिकसंबन्धेनैव विशिष्टवैशिष्ट्यबुद्धित्वाऽवच्छिन्नं प्रति हेतुत्वकल्पने त्वतिगौरषम् , संशयदशायामपि शुद्धसंबन्धेन कार्याऽऽपत्तिश्च / न चेष्टापत्तिः, अनुभवविरोधात्। अन्यथा विशिष्टवैशिष्ट्यं न कार्यतावच्छेदकम् , अर्थसमाजसिद्धत्वाद्विशेषणज्ञानद्वयादेव तादृशबोधाऽऽपत्तिरिति मिश्रमतसाम्राज्याऽऽपत्तिः, दण्डी रक्तो न वेति सशयानन्तरमजायमानस्य, दण्डो रक्त इति निश्चयानन्तरं च जायमानस्य बोधस्याऽनुभवसिद्धत्वात् / एवं हि तत्रोक्तकार्यकारणभावेन तन्मतं निराक्रियते, नियतसंबन्धगर्भत्वेऽपीयमेव युक्तिरिति / इदं तु स्याद्रक्तदण्डवानित्यत्र दण्डाऽऽश्रितैव प्रकारता, तदवच्छेदकता चरक्तदण्डल्ये च पर्याप्ता, रक्तेन दण्डत्वेन चामुमत्र जानामीति प्रतीते-~धिकरणस्याप्यवच्छेदकत्वात् / तत्ववच्छेदकत्वाऽऽदिकम इदं रजतमित्यादि पीतशङ्खवदित्यादिभ्रमवदविरुद्धम् / साऽवच्छेदकता तत्तद्धमाशे समानाधिकरणव्यधिकरणतत्तत्संबन्धावच्छिन्ना, तत्र निरूपकबुद्धित्वं, विशिष्टवैशिष्ट्यबुद्धित्वं बहिव्याप्ये धनवानित्यादावपि संभवतीत्यलं दीधितिकृतः खण्डशो निरुक्ताः, इयमेवानुमित्यादिजनकताऽऽवच्छेदिका नानाप्रकारताऽऽदिघटितधर्मस्य जनकताऽऽद्यवच्छेदकत्वे गौरवादिति / अथ दण्डो रक्त इति निर्णयस्य रक्तत्वदण्डत्योभयधर्माऽवच्छिनप्रकारताकत्वं जन्यताऽवच्छेदकमित्यभ्युपगमेऽपि रक्तत्वधर्मिताऽवच्छेदकदण्डत्वप्रकारकनिर्णयजन्ये दण्डरक्तवानिति विशिष्टवैशिष्ट्यबोधे व्यभिचार इति चेत् / न / रक्तत्वप्रकारतानिरूपितदण्डत्वावच्छिन्न
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________________ णय 1973 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय विशेष्यताशालित्वस्याऽपि तादृशनिर्णयजन्यतावच्छेदके प्रवेशात् , उक्तस्थले दण्डत्वप्रकारतानिरूपितरक्तत्वावच्छिन्नविशेष्यताया एव सत्त्वात् / उभयधर्मावच्छिन्नप्रकारता परित्यज्योभयपर्याप्त प्रकारतानिवेशेन हेतुत्वस्वीकारे तु पर्वतो लौहित्याभाववानिति ज्ञानकाले लोहितवह्निमानिति विशिष्टवैशिष्ट्यबुद्ध्यवगमाऽऽपत्तिः; पर्वतो न लोहित इति ज्ञानस्यलौहित्यप्रकारकपर्वतेविशेष्यकज्ञान एवं प्रतिबन्धकत्वात्। नच रक्तत्वावच्छिविशेष्यताकरक्तप्रकारकस्यरक्तो रक्त इति स्मरणस्य प्रसङ्गः, तत्र तथा निर्णयस्य हेतुत्वादिति वाच्यम्; रक्तत्वावच्छिन्नविशेष्यतायास्तत्र रक्तत्वप्रकारतानिरूपितत्वेऽपि रक्तत्वावच्छिन्नविशेष्यतात्वे तस्यास्तादृशप्रकारतानिरूपितत्वानभ्युपगमात् , तेन रूपेण रक्तत्वप्रकारतानिरूपितत्वेऽपि रक्तत्वावच्छिन्नविशेष्यतात्वेतच्छालिन्य ज्ञानस्यैव, रक्तो रक्त इत्याकारकस्मृतिजनकतया तादृशस्मरणाऽऽपत्त्यसंभवात् / दण्डो रक्तो न वेति संशयानुव्यवसायस्तु वस्तुत्वविशिष्टदण्डवैशिष्ट्यावगाही रक्तदण्डेन संदेहीत्यप्रत्ययात्, किं तु रक्तत्वतदभावप्रकारकत्वदण्डविशेष्यकत्वावगाही रक्तत्वेन तदभावेन च दण्ड संदेहीति प्रत्ययादिति न तत्र व्यभिचार इति केचित्। तचिन्त्यम्। समुचयानुव्यवसायवत्तत्तविशेषणद्वयनिरूपितवैशिष्ट्यविषयताशालित्वस्यैव वक्तुं शक्यत्वात् / रक्तदण्डे न संदेरीत्यनभिलापस्य दण्डिनं जानामीत्यनभिलापवदेवोपपत्तेानत्वेन संदेहाऽनुव्यवसाये चोक्तप्रकाराभावाद्विशेषणोपर्युल्लेख्यमानस्य विशेषणताऽवच्छेदकस्य विशेष्यनिष्ठसंबन्धावगाहिताया एवोक्तज्ञाने समर्थन चान्यत्राप्यतिप्रसङ्गात्। तस्माद्विशेष्ये विशेषणमिति रीत्यैव संशयानुव्यवसाय इति न व्यभिचार इति बहवः / न च संदेहीत्यनुव्यवसायस्य विशेषणमिति रीत्याऽभ्युपगमे रक्तदण्डो द्रव्यमिति व्यवसायानन्तरमपि रक्तदण्ड जानामीत्यनुव्यवसायप्रसङ्ग इति वाच्यम्, रक्तविशिष्ट प्रकारतानिरूपितविषयित्वसांसर्गिकविषयितानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेनाऽव्यवसायं प्रतिरक्तत्वप्रकारतानिरूपितदण्डत्वावच्छिन्नविशेष्यताकत्वेन व्यव-सायहेतुताया आवश्यकत्वात्। अन्यथा रक्तो दण्ड इति प्रत्यक्षानन्तरं रक्तवान् दण्डश्चेति समूहाऽऽलम्बनस्मरणाऽऽदिस्थले रक्तदण्डं स्मराभीत्यनुव्यवसायोपपत्तेः।नचदण्डो रक्तइतिज्ञानोपरमेऽपि रक्तदण्ड करोमीत्याकारककृतिसाक्षात्कारोत्पत्त्या व्यभिचारः, हेतुताऽवच्छेदके ज्ञानज्ञानिनिवेशे च रक्तदण्डइत्यनुदबुद्धसंस्काराद्रक्तत्वनिर्विकल्पकदशाया विशिष्टबोधाऽऽपत्तिः, उद्बोधकानां संस्कारजविशिष्टवैशिष्ट्यबोधहेतुत्वेऽपितदभावे सामान्यसामग्रया फलजननेनाबाधकभावादिति वाच्यम् , कृतिसाक्षात्कारपूर्व नियमतो दण्डो रक्त इति स्मरणानभ्युपगमात् / वस्तुतः संस्कारल्यावृत्तज्ञानेच्छाकृतिवृत्तिजातिविशेष कल्पयित्वा विशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकविजातीयगुणत्वेनैव हेतुत्वं स्वीक्रियते, अनन्तस्मृतिव्यक्तितद्धेतुत्वकल्पनापेक्षया तादृशजातिकल्पानाया एवोचितत्वात् / न च कृतिसाक्षात्कारपूर्व विषयस्मृतिकल्पनमावश्यकम्, अन्यथोपनायकज्ञानविरहेण विषयभानासंभवेन कृतिसाक्षात्कारानुदयप्रसङ्गादिति वाच्यम्; ज्ञानलक्षणप्रत्यासत्तेरपीच्छाकृतिसाधारणतद्विषयकविजातीयगुणत्वेनैव हेतुत्वोपगमात् / अवश्यं च गुणमानसजनकावच्छेदकतया संस्काराऽऽदिव्यावत्तजातिविशेषकल्पनम् / अन्यथा संस्काराऽऽदिमानसताऽऽपत्तेरिति विशिष्टवैशिष्ट्यानुभवत्वमेव च जन्यताऽवच्छेदकमास्थीयते, स्मरणे च | तादृशविषयतानियामक इति बहवः। केचित्तु अनुभवत्वजातौ मानाभावेन ज्ञानत्वस्याऽपि नित्यसाधारणतया जन्यताऽवच्छेदकत्वाजन्यप्रत्यक्षवृत्तिजातिविशेष एव विशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकनिर्णयजन्यताऽवच्छेदकोऽनुमित्यादौ च परामर्शाऽऽदिरेव तादृशविषयतानियामकः, एवं शाब्दबोधेऽवान्तरवाक्यार्थबोध एव, तथाऽप्यविजातीयप्रत्यक्षत्वस्य तज्जन्यताऽवच्छेदकत्वे इतरव्यापकीभूताभावप्रतियोगिपृथिवीत्ववति पृथिवीत्याकारक परामर्शादितरभेदत्वप्रकारकज्ञानदशायामिव तच्छून्यदशायामपि पृथिवीतरभेदवतीत्याकारक विशिष्ट वैशिष्ट्यविषयताशालिनाऽनुमितेरापत्तिः, तादृशानुमितान्वयव्याप्तिज्ञानस्यैव हेतुत्वान्नापत्तिरित्युक्तौ च स्वातन्त्र्येणतेरभेदत्वप्रकारकज्ञानस्य सत्ये तादृशानुमित्यनुदयाऽऽपत्तिः।न च पृथिव्यामितरभेदविशेष्यकानुमितेरेव स्वीकारान्नेयमापत्तिः, साध्यविशेष्यकानुमितौ साध्यप्रसिद्धेर्विरोधितया तत्र तादृशानुमित्युत्पादासंभवात्। नच विशेष्ये विशेषणमिति रीत्या पृथिवीतरभेदवतीत्याकारानुमितिस्तत्रजायत एवेति वाच्यम् ,तथासति साध्यज्ञानशून्यकाले तादृशपरामर्शात्पृथिव्यामितरभेदः पृथिवीतरभेदवतीत्याद्याकारकद्विविधविषयताशालिन्या अनुमितेरापत्तेः / न च विशिष्टबुद्धिं प्रति विशेषणज्ञानस्य हेतुत्वान्नेयमापत्तिः, एवमपि प्रमेयत्वेनेतरभेदज्ञानकाले तथाविधानुमितेरापत्तिसंभवात्। न च प्रमेयत्याऽऽदिनासाध्यज्ञानकाले साध्यविशेष्यकानुमितिप्रतिबन्धकीभूतसाध्यसिद्धिसत्त्वेतत्र तथाविधविषयताशाल्यनुमित्यापत्तिरिति वाच्यम् , साध्यताऽवच्छेदकप्रकारकसिद्धेरेव साध्यविशेष्यकानुमितिविरोधित्वात्। अन्यश्चेतरभेदत्वरूपेण भेदान्तरावगाहिसिद्धिकाले तादृशानुमितिवारणाय तत्र पक्षविषयतानिवेश्यसिद्धेः प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावान्तराऽऽपत्तेः, तस्मादितरभेदत्वप्रकारकज्ञानकालीनव्यतिरेकव्याप्तिज्ञानजन्यानुमितिविशिष्टवैशिष्ट्यविषयतास्वीकार आवश्यकः, तत्साधारण्यं च विशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकज्ञानजन्यताऽवच्छेकस्यावश्यकम् / तथा च सतीतरभेदत्वप्रकारकज्ञानशून्यकाले विशेष्ये विशेषणमिति रीत्येतरभेदत्वप्रकारकद्विविधविषयताशाल्यनुमित्यापत्तिः, विशिष्ट वैशिष्ट्यानवगाहिन्या विशेष्ये विशेषणमिति रीत्या जायमानाया अनुमितेरप्रसिद्धः / विशिष्ट वैशिष्ट्यावगाहिन्यां च विशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकनिर्णयस्य हेतुत्वादिति चेत् , एवमप्यनुमितौ स्वातन्त्र्येणैव हेतुत्वम् , अनुमितिसाधारणजन्यताऽवच्छेदकत्वे नित्यव्यावर्तनाय जन्यत्वनिवेशस्यावश्यकत्वम्, मिथो विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहेण नानाकार्यकारणाभावस्याऽऽवश्यकत्वादवच्छेदकप्रकारकज्ञानशून्यकालीनस्मरणेईश्वरज्ञाने च विशेष्ये विशेषणमित्येतादृशविषयतामात्रमभ्युपेयते, अतो न व्यभिचारः, न वा नित्यसाधारणमित्याहुः / केचित्तु-विशेषणताऽवच्छेदकसंशयकाले विशिष्टवैशिष्ट्य-बोधस्वीकृत्य विशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकज्ञानत्वेनैव हेतुत्व-माहः / तदसत्। संशयसाधारणज्ञानस्य हेतुत्वेऽप्रामाण्यनिर्णयस्यैवोत्तेजकतया निर्णयत्वेन हेतुत्वे त्वप्रामाण्यज्ञानस्यैव तथात्वे निर्णयत्वेन हेतुत्वकल्पनाया एवोचितत्वात् / अन्यथा विशेषणताऽवच्छेदप्रकारक ज्ञानीयनिर्णयत्वापेक्षया गुरुशरीरस्याप्रामाण्यज्ञाननिर्णयत्वस्य निवेशने महागौरवप्रसङ्गात् / अथ विशेषणताऽवच्छेदकसंशयकाले तत्र चाप्रामाण्यशङ्कायां भवन्मतस्य
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________________ णय 1874 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय इव ममापि विशिष्टवैशिष्ट्यबोधो न जायते, इत्यप्रामाण्यज्ञानत्वावच्छिन्नाभावस्यैव निवेशे क्व दोषः ? इति चेत् , एवमपि संशयसाधारणज्ञानस्य विशिष्ट वैशिष्ट्यबोधहेतुत्वेऽनुमित्यादिकं प्रति परामर्शहेतुत्वे व्याप्त्याद्यशे निर्णयत्वनिवेशे महागौरवाद्विशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकनिश्चयस्य चानाहार्यस्यैव हेतुत्वस्वीकारादाहार्यतदुत्तरोत्पन्नज्ञाने व्याप्त्यंशे निर्णयत्वनिवेशानावश्यकत्वात् / ननु तयाऽपि विशेष्ये विशेषणमितिज्ञानसाधारण्ये चाऽतिरिक्तप्रकारिताऽस्तु, तदवच्छिन्नेऽप्रामाण्यनिश्वयाभावकूटविशिष्टसंशयाभावस्य नियामकस्याप्रामाण्यज्ञानाभावकूट विशिष्ट निश्चयत्वावच्छिन्नतो लघुत्वादियमेव योग्यता ज्ञानाऽऽदिनिष्ठहेतुताऽवच्छेदिका, बाधाऽऽदिप्रतिबन्धकताऽवच्छेदिका च / अत एवानन्वितान्वयबुद्धेर्बाधाऽऽदिप्रतिबद्ध्यत्वप्रतिबन्धकत्वे, अत एव च व्याप्तिप्रकारकं निश्चयोत्तरमपि व्याप्त्यभावांशे आहार्यसंशयाऽऽत्मक-तथाविधज्ञानादनुमित्यनापत्तिः, कार्यतासहभावेन तथाविधसंशयस्य प्रतिबन्धकत्वादिति चेत् / न / अप्रामाण्यनिश्चयत्वावच्छिन्नाभावविशिष्टनिरुक्तसंशयाभावत्वेन हेतुत्वे गौरवात्, प्रतियोगिताऽवच्छेदकप्रकारकनिश्चयस्य प्रतियोगिताऽवच्छेदकविशिष्टविषय-केऽभावस्य प्रत्यक्षे हेतुत्वं कल्पमानमभावांशाप्रवेशेन लाघवात्तादृशज्ञान एव युक्तमिति तबलेन निश्चयजन्यताऽवच्छेदकविशिष्टवैशिष्ट्यविषयतासिद्धेश्च; शाकपाकजत्वाऽऽदौ साध्यव्यापकत्वसंदेहेनाहिते हेतौ साध्यव्यापकत्वव्यभिचारसंदेहः; उपाधिदीधित्युक्तस्तु फलीभूतसंदेहे शाकपाकजत्वविशिष्टे साध्यव्यापकस्याऽविशेषणात्। अन्यथा तु द्रव्यत्वाऽऽदौ तस्य निश्चयात्तत्र तद्विशेषणे तु साध्यव्यापकत्वांशे विशेष्ये विशेषणमिति रीत्या संशयाऽऽकार एव स रक्तो दण्डो न वेति संशयकालीनो रक्तो दण्डवानिति प्रात्यक्षिकबोध इव रक्तत्वांश इति द्रष्टव्यम् / इदं तु बोध्यम्-किशि-द्धर्मावच्छिन्ने यद्विशेषणताऽवच्छेदकं तत्प्रकारकनिश्चयत्वेनैव हेतुत्वमन्तरा धर्मिताऽवच्छेदकानियन्त्रितस्थले दण्डवदित्यादौ तु दण्डत्वाऽऽदिप्रकारकज्ञानत्वेनैव निर्द्धर्मिताऽवच्छेदकनिश्चयत्वस्य दुर्वचत्वात् , तत्प्रवेशे वैयांचेति / विशिष्टवैशिष्ट्यमिति बुद्धित्वं तु रक्तदण्डत्वोभयधर्मावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितप्रकारता-शालिबुद्धित्वम् / कारणता च तत्र दण्डत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरू-पितरक्तत्वप्रकारताशालिनिर्णयत्वेन। कार्यता च रक्तत्वविशिष्ट-दण्डत्वावच्छिन्नविशेष्यताशालिज्ञानत्वेनैव। तेनैकद्वयमिति रीत्या दण्डो रक्तोऽप्रमेयश्चेति ज्ञाने न व्यभिचारः, तत्र दण्डत्वविशिष्ट-विशेष्यताया रक्तत्वानवच्छिन्नत्वेन, रक्तत्वं धर्मितावच्छेदकीकृत्य प्रमेयत्वाऽऽदिबाधकालेऽपि तथाविधज्ञानाऽऽपत्तिरिति तादृश-विशेष्यताया रक्तत्वावच्छिन्नत्वमावश्यकमिति वाच्यम्। एकाऽपि प्रमेयत्वाऽऽदिप्रकारतानिरूपितदण्डत्वावच्छिन्नविशेष्यताभिन्नाया एव रक्तत्वावच्छिन्नविशेष्यताया अभ्युपगमादेकस्याविशेष्यताया रक्तदण्डत्वोभयानवच्छिन्नत्वेनाव्यभिचारात्; तत्रापि रक्तत्वधर्मि-ताऽवच्छेदकदण्डत्वप्रकारकनिर्णयजन्ये दण्डो रक्तः प्रमेय इत्येता-दृशबोधे व्यभिचारवारणाय तादृशविशेष्यतायां रक्तप्रकारकताऽऽ-दिनिरूपितदण्डत्वावच्छिन्नविशेष्यताभिन्नत्वं निवेशनीयम् / एकत्र द्वयमिति विषयिता च प्रकारिताद्वयावच्छिन्नविशेष्यतारूपा / यथा-चैत्रो दण्डी / कुण्डलीत्यत्र / न चैकमेकत्र त्रयादिकमप्यतिरिच्येत, एकत्र द्वयमिति संज्ञयैव संग्रहात् / अयं च दण्डी चैत्रो न कुण्डली, दण्डी चैत्रः कुण्डलीत्युभयत्र सत्त्वादुद्देश्यताऽवच्छेदकत्वविधेयत्वयोः प्रकारताविशेषत्वात् तादृशबाधधीप्रतिबद्ध्यताऽवच्छेदकत्वादेव चास्याश्चैत्रत्वेन शरीरद्वयेनेदं कुण्डलग्रहादेकत्र चैत्रो दण्डी कुण्डली चेति विधियो विशेषो रक्तदण्डाभावधियः समूहालम्बनादिव, इयं चैकविशिष्टेऽपरवैशिष्ट्यविषयिताव्यापिका दण्डी कुण्डली चैत्रो द्रव्यमित्यत्रेव दण्डी कुण्डली चैत्र इत्यत्राऽपि सत्त्वात्तत्प्रयो-जकसामग्रीव्यापकसामग्रीकत्वाचेति वदन्ति / तदसत् / सामान्य-विशेषापेक्षयेकानेकाऽऽत्मकवस्त्वनभ्युपगमे एकान्तवादस्य कुत्राप्यघटमानत्वात् / विशिष्टबुद्धिष्वपि हि सामान्यत एका, विशेषतश्च परनिरूपितत्वेन बहुतरा अपि विषयता अनुभूयन्त इति चतुर्द्ध वेति कोऽभिनिवेशः ? अत एवैकत्र द्वयस्थलेऽप्ये कत्र भासमानयोर्विशेषणयोः परस्परमपि सामानाधिकरण्येन वैशिष्ट्यभानाद्विषयताभेदः, यदि च तत्र प्रकारकतया तयोर्निरूपितत्वविशेषानातिरेकः, तदा विशिष्टवैशिष्ट्यस्थलेऽपि एकप्रकारताऽवच्छिनापरप्रकार-तयोपपत्तावतिरेके किं मानम् ? विशेष्ये विशेषणमिति स्थले हि रक्तत्वप्रकारतानिरूपिता दण्डत्वावच्छिन्ना प्रकारता, विशिष्टवैशिष्ट्यस्थले चरक्तप्रकारताऽवच्छिन्ना दण्डत्वावच्छिन्ना प्रकार-तेत्येवं विशेषसंभवात् / स्वीक्रियता वा तत्रावच्छे दकत्वाऽऽदेरित्येव प्रकारताप्रकारताद्वयघटितरूपेण तु यथा हेतुतावच्छेदकत्वं तथा प्रागुक्तमेव, यथा संनिवेशध्रौव्येणेति न रक्तत्वदण्डत्योभयावच्छिनप्रकारतयैव रक्तदण्डस्यैव विशिष्टवैशिष्ट्यविषयता / अन्यथा रक्तदण्डद्रव्यवानित्यतो रक्तदण्डवानित्यस्य वैलक्षण्यातक्तत्वदण्ड-स्यैट त्वनिष्ट द्वित्वावच्छिन्नपर्याप्तधीरनाकारवच्छे दकताक प्रकारताऽऽश्रयणेऽतिगौरवात् / गुणवान् दण्डवानित्यतो वैलक्षण्यसंपादनाय रक्तत्वत्वविशिष्टदण्डत्वोभयापर्याप्तावच्छेदताकप्रकारकतानुधावने रक्तत्वेन दण्डो, पीतावगाहिनि तादृशबोधेऽवगतेश्च तस्माद् रक्तत्वावच्छिन्नावच्छेदकतानिरूपकदण्डत्वावच्छिन्नप्रकारताकबुद्धित्वमेव रक्तदण्डवानिति विशिष्टवैशिष्ट्यबुद्धित्वमाश्रयणीयम्, अनुमितिहेतुपरामर्शोऽपि हेतुताऽवच्छेदकतानिरूपितप्रतियोगित्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपिताधिकरणनिष्ठावच्छेदकतानिरूपिताधेयत्वावच्छिन्नावच्छे दकतानिरूपितहेतुताऽवच्छेदकावच्छिन्नप्रकारताकत्वमेव निवेश्यताम् / न च यत्र व्याप्तिधूमत्वयोरेकत्वे द्वयमिति रीत्यैव हेतुनिष्ठप्रकारताऽवच्छेदकत्वे तादृशपरामर्शादनुमित्यापत्तिः, इष्टापत्तौ च विरोधव्यभिचारयोर्हेत्वाभासत्वानुपपत्तिः, तादृशज्ञानस्य तदज्ञानाप्रतिबध्यत्वादिति तत्साधारणाय व्याप्तिप्रकारतानिरूपितविशेष्य-तात्वेन धूमत्वावच्छिन्नप्रकारता निवेशनीया / तत्वेन धूमत्वावच्छिन्नत्वं च धूमप्रकारतायां तत्रैव यत्रधूमत्वस्य व्याप्तिधर्मिताऽवच्छेदकत्वम् अन्यत्र तुधूमप्रकारकत्वेनैवेति नातिप्रसङ्गः।तथा च-प्रागुक्तरीत्या व्याप्यत्वाऽवच्छिन्ननिवेशस्यैवौचित्यात्।नचाऽयमेकान्तोऽपियुक्तः,परस्परानिरूपितावान्तरावयवैः स्थानीयविषयताया अप्यनुभवात्। न च विशिष्टपर्याप्सप्रकारतैकान्तपक्षोऽपि युक्तः, विशिष्टविशिष्टपर्याप्तप्रकार-तान्तरस्याऽपि सिद्ध्यापत्तेः, तत्सिद्धाविष्टापत्तिः। दण्डविशिष्ट-पुरुषविशिष्टभूतलपर्याप्तप्रकारताकबुद्धौ च दण्डाशे निश्चयाऽऽत्मकदण्डविशिष्टपुरुषवभूतलमिति निश्चयो हेतुः, अत एव दण्डाशे पुरुषांशे च संशयनिश्चयाऽऽत्मकतादृशज्ञानादण्डाशे विज्ञेप्ये विशेषणमिति रीत्या पुरुषांशे विशिष्टनिरूपितवैशिष्ट्यविषयताशालिज्ञानाऽऽपत्तिरित्यभ्युपगमे च विशेषणविशिष्ट
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________________ णय 1975 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय शिष्ट्यबुद्धिस्थले नवत्यंशे निश्चयाऽऽत्मकमेकं ज्ञानं हेतुभूतं कल्पनीयम्। ततः पूर्व चैकै कहासेनाष्टानवतिज्ञानानि पश्चानुपूर्व्या हेतुभूतानि कल्पनीयानीति सर्वमिदमनुभवसिद्धम् / तत्र विशृङ्खलोपस्थितवद्विशेषणमिति रीत्या बोधस्वीकारे च तत्र दण्डांशेऽनुभूयमानस्य निश्चयाऽऽकारस्य नियामकः, तत्र संशयसामग्र्यभाव एवाऽवाच्यः / तथा चविशिष्टवैशिष्ट्यविषयिता वहिव्याप्यतदभाववद-धूमवानित इव पर्वतो वहिव्याप्यधूमवान्न वेत्यादितोऽपि व्यावृत्ताऽस्तु, तदवच्छिन्ननियामकश्च तत्तत्संशयसामग्र्यभाव एवेति विषयताविशेषपर्यनुयोगे किमुत्तरम् ? तस्मात् क्षयोपशमविशेषजन्यताऽवच्छेदिकाः समनियता एवैता विषयिताः, अत्राऽपेक्षाभेदेन प्रतीयमाना असमुदितपर्याप्ता अनेकाः प्रतिपत्तव्याः, ग्राह्यस्येव ग्राहकस्य चित्रस्वभावस्यापेक्षयैव विवेचयितुं शक्यत्वात्। हन्तवमखण्डोऽपि विषयताविशेषः सिद्धयेत्, सामान्यदृष्ट्या तथाऽप्यनुभवात्। तथा च-एतेनैव परामर्शाऽदेर्हेतुत्वाऽऽपत्तिरिति चेत्। सत्यम् / भावसंग्रहेण विषताविशेषणे शक्तिविशेषणे वा हेतुत्वेऽभावसंग्रहेण चाभावविशेषणे तथात्वे बाधकाभावाद् व्यवहारोच्छेदस्य व्यवहारनयसिद्धकार्यकारणभावे तैरेव निराकरणात्। अनुभवसिद्धास्तु ग्राह्यग्राहकनिष्ठाः सामान्यविशेषधर्मान कल्पनामात्रेणाऽऽपादितुं शक्या इति दिक्। " उत्तिष्ठन्तु विकल्पवीचिनिचयाः पर्यायमर्यादया, द्रव्यार्थाऽऽदियुते तु चेतसि चिरंशाम्यन्तु तत्रैव ते। वस्तु प्रस्तुतमस्तु सागरसमं सर्वोपपत्तिक्षम, बाह्य वा स्फुटमान्तरं समुचितस्याद्वादमुद्राङ्कितम्॥१॥ ईहाऽपायपरम्परापरिचयः सर्वोऽप्ययं युज्यते, वस्त्वंशेऽप्युपयोगमाकलयतामन्तर्मुहूर्तावधि। अन्येषां तु विकल्पशिल्पघटितो बोधस्तृतीयक्षणध्वंसी ध्वस्तसमस्तहेत्वमिलितः कस्मिन् विचारे क्षमः? // 2 // तदेवमेकानेकरूपा नयप्रमाणप्रतिपत्तयः प्रामाणिका इति स्थि-तम्॥ 7 / नयो०। (11) ननु यदि प्रमाणं नयाः तर्हि ' प्रमाणनयैरधिगमः' इति प्रमाणनयभेदकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः / अथाप्रमाणं, तथाऽप्यधिगमानुपपत्तिः, तत्पृथग्भूतस्यापरस्यासंवेदनात् , प्रमाणाभावाप्रसक्तिश्च / असदेतत् / यतोऽप्रमाणं नयाः, नयन्तीतररूपसापेक्ष स्वविषयं परिच्छिन्दन्तीति नया इति व्युत्पत्तेः / न चापरिच्छेदकाः, नयतेर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वात् , ज्ञानस्य च परिच्छेदाऽऽत्मकत्वा-त्।न च परिच्छेदाऽऽत्मकत्वेऽपि प्रमाणता, समस्तनयविषयी-कृतानेकान्तवस्तुग्राहकत्वेन प्रकृष्ट मानं प्रमाणम् इतरांशसव्य-पेक्षस्वांशग्राही नव इति, तत्स्वतस्त्ववस्थितेः। न चाऽनेकान्ता-ऽऽत्मकवस्तुग्राहिणो नया न भवन्ति, प्रत्येकं स्वविषयनियतत्वात् तेषां तद्व्यतिरिक्तस्य वाऽन्यस्य तद्विषयस्याऽननुभवात् / प्रमाणा-भावोऽपि न आत्मनः, कथञ्चित् तद्व्यतिरिक्तस्य प्रमाणत्वेनानु-भवसिद्धत्वात् / तत्तन्नयविषयीकृताशेषवस्त्वंशाऽऽत्मकैकद्रव्यग्राहकत्वस्य तत्र प्रतीतेः। न च संशयाऽऽदिज्ञानैरात्मनः प्रमाणात्वेऽतिप्रसङ्गः, प्रमीयतेऽनेन प्रमिणोतीति वा प्रमाणमिति प्रशब्देन तस्य निरस्तत्वात् / न चाऽऽत्मनः कर्तृत्वात् करणरूपप्रमाणताऽनुपपत्तिः, उत्पादव्ययध्रौव्याऽऽत्मकस्य तस्याऽनेककयत्वेन कर्तृकरणभावाविरोधात्। एतेन प्रत्येकं मिथ्यादृष्टयो नयाः समुदिताः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्त इत्यत्र नयसमुदायार्थं दृष्टे प्रत्येकमदृष्टत्वाद्जात्यन्धसमूहवदित्येतन्निरस्तम्, अदृष्टतत्समूहसम्यक्त्वानभ्युप-गमात् ; स्वविषयपरिच्छेदकत्वाच नयानामदृष्टत्वाच / नयानाम-दृष्टत्वादिति हेतुरसिद्धिः, परिपूर्णवस्त्वनधिगन्तृत्वाऽऽदिहेतौ प्रतिज्ञार्थकदेशाऽसिद्धिः, सिद्धसाध्यता च समुदायिनो दृष्टत्वनिषेधे साध्ये; अथ तत्समुदायस्य दृष्टत्वनिषेधः साध्यः, तदाऽध्यक्ष-विरोधः, समुदाय्यतिरिक्तस्यैकान्तेन समुदायस्याभावात् धर्मिणो-ऽप्रसिद्धिः, साध्यतावचनसमुदायाभावे नया एव परस्परव्यावृत्त-स्वरूपा इति न क्वचित् सम्यक्त्वम् , नयप्रमाणाऽऽत्मकै कवैष-म्यप्रतिपत्तेः, रत्नावलीवदिति। एतदाहजहऽणेगलक्खणगुणा, वेरुलियाऽऽईमणी विसंजुत्ता। रयणावलिववएसं, न लहंति महग्घमुल्ला वि॥ 22 // यद्वा-यत्प्रत्येकं न नयेषु सम्यक्त्वंतत्तेषा समुदायेऽपि न भवति, यथा सिकतासु प्रत्येकमभवत् तैलं तासां समुदायेऽपि न भवति / अत्र हेतोरनैकान्तिकताप्रतिपादनार्थमाह-(जहऽणेगलक्खणे-त्यादि) यथाऽनेकप्रकाराः-विविधानि हेतुत्वाऽदीनि लक्षणानि नीलत्वाऽऽदयश्च गुणा येषां ते, वैडूर्याऽऽदयोऽनध्यमणयः पृथग्भूता रत्नावलीव्यपदेशं न लभन्ते महार्घमूल्या अपि। तहणिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णोण्णपक्खणिरवेक्खा। सम्मइंसणसई, सव्वे वि णया णं पार्वेति / / 23 / / तथा प्रमाणावस्थायामितरसव्यपेक्षस्वविषयपरिच्छेदकाले वा स्वविषयपरिच्छेदकत्वेन सुनिश्चिता अप्यन्योऽन्यपक्षनिरपेक्षाः प्रमाणमित्याख्यां सर्वेऽपि नया न प्राप्नुवन्ति निजकवादनिरपेक्षाः, सामान्याऽऽदिवादे सुविनिश्चिता हेतुप्रदर्शनकुशला अन्योऽन्यपक्षनिरपेक्षत्वात्सम्यग्दर्शनशब्दं सुनया इत्येवं रूपं सर्वेऽपि संग्रहा-ऽऽदयो नया न प्राप्नुवन्ति। जह पुण ते चेव मणी, जहा गुणविसेसभागपडिबद्धा। रयणावलि त्ति भण्णइ, जहंति पाडिकसण्णाओ॥ 24 // यथा पुनस्त एव मणयो यथा गुणविशेषपरिपाट्या प्रतिबद्धा रत्नावलीत्याख्यामासादयन्ति, प्रत्येकाभिधानानि च त्यजन्ति, रत्नानुबिद्धतया रत्नावल्यास्तदनुबिद्धतया च रत्नानां प्रतीतेः, रत्नावलीति तत्र व्यपदेशः, न पुनः प्रत्येकाभिधानम् // 24 / / तह सव्वे णयवाया, जहाऽणुरूवं णिउत्तवत्तव्वा। सम्मइंसणस,लहंति ण विसेससण्णाओ।।२५।। तथा सर्वे नयवादा यथाऽनुरूपं विनियुक्तवक्तव्या इति / यथे- ति वीप्साऽर्थे, अनुरिति सादृश्य, रूपमिति स्वभावः, तेनानुरूपमित्यव्ययीभावः। पुनर्यथाशब्देन स एव" यथा सादृश्ये"।२।१।७। (पाणि०) इत्यनेन। यद्यदनुरूपंतत्र विनियुक्तंवक्तव्यम्, उपचारात्त-द्वाचकः शब्दो येषां ते तथा, यथाऽनुरूपं द्रव्यध्रौव्याऽऽदिषु प्रमाणाऽऽत्मकत्वेन व्यवस्थिताः सम्यग्दर्शनं प्रमाणमित्याख्यां लभन्ते, न विशेषसंज्ञाः पृथग्भूताभिधानानि; एकाऽऽत्मकत्वेन चैतन्य-प्रतिपत्तेः; अन्यथा चाऽप्रतिपत्तेरिति / ननु नयप्रमाणाऽऽत्मकचैतन्यस्याध्यक्षसिद्धत्वेन रत्नावलीतिदृष्टान्तोपादानं व्यर्थम् , न / अध्यक्षसिद्धमप्यनेका
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________________ णय १८७६-अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय न्तमनभ्युपगच्छन्तं प्रति व्यवहारसाधनाय दृष्टान्तोपादानस्य साफल्यात, प्रवर्तितश्च तेनाऽपि.तत्रानेकान्तव्यवहारः। दृष्टान्तगुणप्रतिपादनायाऽऽहलोइयपरिच्छियसुहो-ऽनिच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो य। अह पण्णवणाविसओ, त्ति तेण वीसत्थमुवणीओ / / 26 / / व्युत्पत्तिकलनाद् युक्तं प्राणिसमूहसुखग्राह्यत्वमेकानेकाऽऽत्मकभावविषयवचो वाऽऽगमजनकत्वं वा / अथेत्यवधारणार्थः, अनन्तधर्माऽऽत्मकवस्तुप्ररूपकवाक्यविषयत्वं दृष्टान्तस्यैव तैः कारणैः शङ्काव्यवच्छेदेनायमुपदर्शित इति गाथातात्यार्थः / न चाऽऽवल्यवस्थायाः प्रागुत्तरकालं च रत्नानां पृथगुपलम्भादिह च सर्वदा तथोपलम्भाभावाद्विषममुदाहरणमिति वक्तव्यम् , अवस्थाया उदाहरणत्वेनोपन्यासात्। न च दृष्टान्तदान्तिकयोः सर्वथा साम्यम् , तत्र तदभावानुपपत्तेः / रत्नाऽऽदिकारणेष्वावल्यादि कार्य सदैवेति साङ्ख्यः , तेषामेवानेन रूपेण व्यवस्थितत्वात् / तदव्यतिरिक्त विकारमात्र कार्य तदेवेति सांख्यविशेष एव। न कार्य कारणे विद्यते इति तेभ्यस्तत् पृथग्भूतं, न हि कारणमेव कार्यरूपेण व्यवतिष्ठते परिणमते इति वैशेषिकाऽऽदयः। नच कार्य कारणं वाऽस्ति, द्रव्यमात्रमेव तत्त्वमित्यपरः / एवंभूताभिप्रायवन्त एकान्तवादिनो दृष्टान्तस्य साध्यसमता मन्यन्ते। तान् प्रत्याहइहरा समूहसिद्धो, परिणामकउ व्व जो जहिं अत्थो। ते तं च ण तं तं चेव वत्ति नियमेण मिच्छत्तं / / 27 / / इतरथोक्तप्रकारादन्यथा, समूहे रत्नानां, सिद्धो निष्पन्नः परिणामकृतो वा मण्यादिष्वावल्यादिः, क्षीराऽऽदिषु दध्यादि। यो यत्राऽर्थः तं ते मण्यादय आवल्यादिकार्य, क्षीरं दध्यादिकं, तत्र तत्सद्भावात् , तस्य तत्परिणामरूपत्वात् समूहः सिद्धः परिणाम-कृतो वेति च द्वयोरुपादानं लौकिकव्यवहारापेक्षया / परमार्थतस्तु परमाणुसमूहपरिणामाऽऽत्मकत्वात् सर्व एव समूहकृतः, परिणामकृतो वेति न भेदः / अयं चाभ्युपगमो मिथ्या (मिथ्यात्वं च सम्मतौ विवृतम्)। सम्म०१ काण्ड। (12) ननु नयग्रन्थे सम्मत्यादौ बौद्धाऽऽदिदर्शनपरिग्रहेण नैयायिकाऽऽदिदर्शनखण्डन श्रूयते, तत्र दुर्नयपरिग्रहे किं न मिथ्यात्वै-कान्त इत्याशङ्कयाऽऽहबौद्धाऽऽदिदृष्टयोऽप्यत्र, वस्तुस्पर्शेन नाऽप्रमाः। उद्देश्यसाधने रत्न-प्रभायां रत्नबुद्धिवत् // 11 // (बौद्धाऽऽदीति) अत्र नयग्रन्थे उद्देश्यं यदपि निविष्टतरनयखण्ड-नं. तत्साधने तत्साधननिमित्तं, बौद्धाऽऽदिदृष्टयोऽपि बौद्धाऽऽदिनयपरिग्रहा अपि, वस्तुस्पर्शन शुद्धपर्यायाऽऽदिवस्तुप्राप्त्या, नाप्रमाः फलतो न मिथ्यात्वरूपा इत्यर्थः / किंवत् ? रत्नप्रभायां रत्नबुद्धिवत्। यथा हि तत्राऽरत्ने रत्नावगाहितया स्वरूपतो न प्रामाण्यम् , दूरविप्रकर्षात्तु वस्तुप्रापकतया फलतः प्रमाण्यम् , तथा दुर्नयान्तरच्छेदाय दुर्नयान्तरपरिग्रहेऽपीति न कश्चिद्दोषः / / 11 // (13) एवं सामान्यलक्षणं विचिन्त्य तद्विभागमाहअयं संक्षेपतो द्रव्य-पर्यायार्थतया विधा। द्रव्यार्थिकमते द्रव्यं, तत्त्वं नेष्टमतः पृथक् / / 12 / / (अयमिति) अयं सामान्यलक्षणलक्षितो नयः संक्षेपतोऽवान्तरभेदापरिग्रहेण द्रव्यपर्यायतया द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति द्विधा द्विप्रकारः, तीर्थङ्करवचनसंग्रहविशेषप्रस्तारमूलत्वेनेत्थमेव मूलनयविभजनात् / तदाह वादी-" तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वट्टिओ व पज्ज-वणओ य सेसा विगप्पा सिं // 3 // " इति। (सम्म० 1 काण्ड) तत्राऽऽदौ द्रव्यार्थिकमत आह-द्रव्या-र्थिकस्य मते द्रव्यं तत्त्वं परमार्थ सदतः द्रव्यात् पृथग भिन्नं विकल्प-सिद्ध गुणपर्यायस्वरूपतत्त्वं नेष्टम् संप्रतिसतोऽपि तस्य परमार्थ-तोऽसत्त्वादिति भावः / / 12 / / नयो० / द्रव्या०। (14) अत्र कुण्ठधियोऽप्यन्तेवासिनो योग्यताप्रतिपादनार्थः प्रकरणाऽऽरम्भः प्रतिपादितः / सा च विशिष्टसामान्यविशेषाऽऽत्मकतदुपायभूतार्थप्रतिपादनमन्तरेणातः प्रकरणान्न संपद्यत इति प्रकरणाभिधेयं योग्यतोपायभूतमर्थम्तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वढिओ य पज्जव-णओ य सेसा विगप्पा सिं // 3 // इत्यनया गाथया निर्दिशति / अस्याश्च समुदायार्थः पातनिकयैव प्रतिपादितः। अवयवार्थस्तु-तरन्ति संसारार्णवं येन तत्तीर्थ वाद-शाङ्गम्, तदाधारो वा सङ्घः, तत्कुर्वन्त्युत्पद्यमानमुत्पादयन्ति तत्स्वाभाव्यातीर्थकरनामकर्मोदयाद्वेति हेत्वाद्यर्थे टच् / तीर्थकराणां वचनमाचाराऽऽदि, अर्थतस्तस्य तदुपदिष्टत्वात् , तस्य संग्रहवि-शेषौ द्रव्यपर्यायौ सामान्यविशेषशब्दवाच्यावभिधेयो, तयोः प्रस्ता-र:-प्रस्तार्यते येन नयराशिना संग्रहाऽऽदिकेन स प्रस्तारः, तस्य संग्रहव्यवहारप्रस्तारस्य मूलव्याकरणी आद्यवक्ता ज्ञाता वा द्रव्या-स्तिकः द्रुतिर्भवनं द्रव्यं सत्तेति यावत्। तत्राऽस्तीति मतिरस्य द्रव्या-स्तिकः" सह सुपा"।२।१। 4 / इत्यत्र" सूपा सह " इति योगविभागाद् , मयूरव्यंसकाऽऽदित्वावा द्रव्यास्तिकशब्दयोः स-मासः। द्रव्यमेव वाऽर्थोऽस्येति द्रव्यार्थिकः, द्रव्ये वा स्थितो द्रव्य-स्थितः। परि समन्तादवनमवः पर्यवो विशेषः, तद् ज्ञाता वक्ता वा यो नयः नीतिः सपर्यवनयः। अत्र छन्दोभङ्गभयात्पर्यायास्तिक इति वक्तव्ये पर्यवनय इत्युक्तम् , तेनाऽत्राऽपि पर्याय एवाऽस्तीति द्रव्यास्तिकवद् व्युत्पतिर्द्रष्टव्या / स च विशेषप्रस्तारस्य ऋजुसूत्रशब्दाऽऽदेराद्यो वक्ता / ननु च मूलव्याकरणीति, अस्य द्रव्यास्तिकपर्यायनयावभिधेयाविति द्विवचनेन भाव्यं, न प्रत्येकं, वाक्यपरिसमाप्तेः / अतएव चकारद्वयं सूत्रनिर्दिष्टम्।शेषास्तुनैगमाऽऽदयो विकल्प्या भेदाः, अनयोर्द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकयोः (सिमिति) प्राकृतशैल्या" बहुवयणेण दुक्यणं " इति द्विवचनस्य बहुवचन-म् / तथाहि-परस्परविविक्तसामान्यविशेषविषयत्वाद्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकावेव नयौ। नच तृतीयं प्रकारान्तरमस्ति, यद्विषयोऽ-न्यस्ताभ्यां व्यतिरिक्तो नयः स्यात्। तृतीयविषयस्य चाऽसंभवः, भेदाभेदविनिर्मुक्तस्य भावात्प्रकृतविकल्पानतिवृत्तेः तत्स्वभा-वातिक्र मे वा खपुष्पसदृशत्वप्रसक्तेः, ताभ्यां तद्वतोऽन्तिरस्य सर्व-था संबन्धप्रतिपादनापायासंभवात्समयस्य तैरसंबन्धे तद्व्यपदेशानुपपत्तेः समवायान्तरकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेर्विशेषणविशे-ष्यसंबन्धकल्पनायामप्यपरापरतत्कल्पनाप्रसक्तेर्न संबन्धसिद्धिः। ततः स्थितमेतन्न किञ्चिन्नयद्वयबहिर्भाविभावस्वभावान्तरविकल्पनाऽऽविलं विलम्बि प्ररूपणान्तरमिति। केवलंतयोरेव शुद्ध्य
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________________ णय १८७७-अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय शुद्धिभ्यामनेकधा वस्तुस्वभावनिरूपणविकल्पाऽभिधानवृत्तयो व्यतिष्ठन्ते। तत्र शुद्धो द्रव्यास्तिको नयग्रहनयाभिमतविषयप्ररू-पकः। / तथा च-संग्रहनयाभिप्रायः-सर्वमेव सत्, अविशेषात्। सम्म०१ काण्ड। विशे०। (द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकयोर्मतम् ' दवट्टिय-पज्जवट्टिय' शब्दयोर्द्रश्व्यम्) (15) तदेवमुक्तौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकलक्षणो मूलनयभेदी. अनयो गमाऽऽदिषु मतभेदेन यथाऽन्तर्भावस्तथाऽऽहतार्किकाणां त्रयो भेदाः, आद्या द्रव्यार्थतो मताः। सैद्धान्तिकानां चत्वारः, पर्यायार्थगताः परे / / 18 // (तार्कि काणामिति) तार्किकाणां वादिसिद्धसेनमतानुसारिणामाद्यास्त्रयो भेदाःनैगमसग्रहव्यवहारलक्षणाः द्रव्यार्थतो मता द्रव्य-मेवार्थ विषयीकृत्याभिप्रेताः, आद्यास्त्रयो भेदास्तार्किकमते द्रव्या-र्थिका इति संमुखोऽर्थः / सैद्धान्तिकानां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण-वचनानुसारिणां चत्वार आद्या ऋजुसूत्रसहिताः, द्रव्यार्थिका इति शेषः। परे तुउक्तशेषाः, उभयेषामपि पर्यायार्थगताः पर्यायार्थिकाः-ऋजुसूत्राऽऽदयश्चत्वारः पर्यायार्थिका वादिनः, शब्दाऽऽदयस्त्रय एव च क्षमाश्रमणानामिति निर्गलितोऽर्थः / ऋजुसूत्रो यदि द्रव्यं नाभ्यु-पेयात् तदा" उज्जुसुयस्स एगे अणुवउत्ते एग दव्वावस्सयं पुहत्ते णेच्छइ " इति सूत्रं विरुध्येतेति सैद्धान्तिकाः / तार्किकानुसारिण-स्तु-अतीतानागतपरकीयभेदपृथक्त्वपरित्यागादनुसूत्रेण स्व-कार्यसाधकत्वेन स्वकीयप्रवर्तमानवस्तुन एवोपगमानास्य तुल्यां-शध्रुवांशलक्षणद्रव्याभ्युपगमः, अत एव नास्यासद्धटितभूतभावि-पर्यायकारणत्वद्रव्यत्वाभ्युपगमोऽपि, अधुवधर्माऽऽधारांशे द्रव्य-मपि नास्य विषयः, शब्दनयेष्वतिप्रसङ्गात्। उक्तसूत्रं त्वनुपयोगा-शमादाय वर्त्तमानाऽऽवश्यकपर्यायद्रव्यपदोपचारात्समाधेयम् , पर्यायार्थिकन मुख्यद्रव्यपदार्थस्यैव प्रतिक्षेपात्। यदि चैवमप्येको-ऽनुपयुक्त एकं द्रव्यावश्यकमित्यत्रानुपयोगस्य विषयनियन्त्रितत्वे-नार्थक्यादुद्देश्यविधेयभावानुपपत्तिरिति विभाव्यते, यथा द्रव्याऽऽ-वश्यकपदं द्रव्याऽऽवश्यकत्वेन व्यवहर्तव्यम्, परं विवरणपरतया चैतदयोजनीयमिति न कश्चिद् दोष इत्यालोचयामः / / 18 / (नयो०) सर्वधर्मविरहः शून्यतेति शुद्धतरपर्यायास्तिकमतावलम्बी ऋजुसूत्र एव / व्यवस्थितः, अथवा सौत्रान्तिकवैभाषिकौ बाह्यार्थमा-श्रितावृजुसूत्रशब्दौ, यथाक्रमं वैभाषिकेण नित्याऽनित्यशब्दवाच्य-पुद्गलस्याऽभ्युपगमात्। शब्दनये तु प्रवेशः, तस्य चार्यप्रतिक्षेपेण विज्ञानमात्रसमभिरूढो योगाचारः, एकानेकधर्मविकलतया विज्ञा-नमात्रस्याप्यभाव इत्येवंभूतो व्यवस्थितः, एवंभूतो माध्यमिक इतिव्यवस्थितमेतत्। तस्य तु शब्दाऽऽदयः शाखाः सूक्ष्मभेदा इति न योगद्वारवत् , शेषास्तु योगद्वारेष्वपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको मूलव्याकरणिनाविति दर्शयत्यनयोापकताम्। सम्म०१ काण्ड। अनु०। विशे०। (16) नैगमाऽऽदयो मूलनयाःसे किं तंणए ? सत्त मूलणया पण्णत्ता। तं जहा-णेगमे, संगहे, ववहारे, उजुसुए, सद्दे, समभिरूदे, एवंभूए।। अनु०। नैगमः संग्रहश्चैव, व्यवहारर्जुसूत्रको। शब्दः समभिरूढाऽऽख्यः, एवं भूतश्च सप्त ते // 16 // (नैगम इति) स्पष्टः, ते मूलनयप्रभेदाः।। 16 / नयो०। अनु०। विशे० / दश०। स्था०। ज्ञा० / गा अष्ट०। प्रव०। आ०म०। तत्र नैगमनस्य संग्रहव्यवहारयोरन्तर्भावात् , शेषाणा संग्रहाऽऽदीनां षण्णां नयानां संक्षिप्य मतं तावदुपदर्शयन्नाहसामन्नमह विसेसो, पचुप्पन्नं च भावमेत्तं च / पइसदं च जहत्थं, च वयणमिह संगहाऽऽईणं / / 3586 // इह सामान्यमेवास्तिन विशेष इति संग्रहस्य वचनम्, विशेषा एव सन्ति न सामान्यमिति व्यवहारस्य वचः। प्रत्युत्पन्नं च वर्तमानमेव वस्त्वस्तिन त्वतीतमनागतं चेति ऋजुसूत्रस्य वचनम् / नामाऽऽ-दिनिक्षेपाणां मध्ये भावेन्द्राऽऽदिकं भावनिक्षेप एवास्ति, न नामा-ऽऽदिक्षेपा इति शब्दनयस्य वचः / इन्द्रशक्रपुरन्दराऽऽदिशब्दानां प्रतिशब्दमन्यान्य एवाऽर्थो वाच्यः, नत्वेक एवेति समभिरूढस्य वचः / यथार्थमेव स्वाभिधायकशब्दवाच्यमर्थं कुर्वदेव घटाऽऽदिकं वस्तु भवति, नाऽन्यथा, इत्येवंभूतनयस्य वचनम्। इत्युक्तप्रकारं संग्रहाऽऽदीनां वचनं मतं संक्षेपेणावगन्तव्यमिति॥३५८६।। विशे०। स्वरूपमाहनैगमो देशसंग्रही, व्यवहारर्जुसूत्रको। शब्दः समभिरूढश्चे-त्येवमेते प्रचक्षते // 45 // (नगम इति) नैगमो नैगमनयः देशसंग्राही अवान्तरसंग्रहः, सर्व-संग्रहस्य सन्मात्रार्थत्वात् तत्त्यागः / व्यवहारर्जुसूत्रको व्यवहारनय ऋजुसूत्रनयश्च शब्दः समभिरूढश्चेत्येत नया एवं प्रचक्षते॥ 45 // भावमौदयिकं गृङ-नेवंभूतो भवस्थितम् / जीवं प्रवक्त्यजीवं तु, सिद्धं वा पुद्गलाऽऽदिकम् // 46 // (भावमिति) एवंभूतनयस्तु औदयिकं भावं व्युत्पत्तिनिमित्तमेव प्रवृत्तिनिमित्ततया गृह्णन् भवस्थितं संसारिणं जीवं प्रवक्ति-जीव-शब्देन व्यपदिशति, अजीवमजीवपदार्थं तु सिद्धं वा पुद्गलाऽऽ-दिद्रव्यं वेच्छत्यसौ।। 46 // नो अजीवश्च नो जीवो, न जीवाऽजीवयोः पृथक् / देशप्रदेशौ नास्येष्टा-विति विस्तृतमाकरे / / 47 / / (नो इति) नो जीवो नो अजीवश्च एतन्नये जीवाजीवयोवक्तव्ययोः सतोः पृथग न पार्थक्यं नापद्यते, यतोऽस्य नयस्य देशप्रदेशौ नेष्टा-विति, नोशब्दः सर्वनिषेधार्थ एव घटते, इत्येतदाकरेऽनुयोगद्वारा-5ऽदौ विस्तृतम्।। 47 // इत्थं स्वसमयसिद्धामेवंभूतनयार्थप्रक्रियामुपपाद्य, तया दि गम्बरोक्तप्रक्रियां दूषयतिसिद्धो निश्चयतो जीवः, इत्युक्तं यद्दिगम्बरैः। निराकृतं तदेतेन, यन्नयेऽन्त्येऽन्यथा प्रथा / / 48 / / (सिद्ध इति) एतेन पूर्वोक्तेन सिद्धो निश्चयतो जीव इति यदिगम्बरैरुक्तम् - ' तिक्काले च दुपाणा, इंदियबलमाउ आगपा
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________________ णय 1875 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय णाय। ववहारा सो जीवो, णिच्छयदो दुचेदणा जस्स॥१॥"इतयदिना, यस्मात्प्रसिद्धोऽनादिधातुपाठाऽऽदिप्रतीयमानो योऽर्थ-स्तदनुरोधेन तन्निराकृतम् / यद् यस्मादन्त्ये एवंभूतनयेऽन्यथा प्रथाऽप्रसिद्धो जीव नयान्तरस्य मार्गणा विचारणा भवति / यथा च यादृशइत्येव प्रसिद्धिः, शुद्धनिश्चयश्च स एवेति कथं निश्चयतः सिद्धो जीव इति धात्वर्थमुपलक्षणीकृत्येतरनयार्थप्रतिसन्धानं तादृशधात्वर्थप्रकावक्तुं शक्यमिति ? // 48| रकजिज्ञासयैवभूताऽभिधानस्य सांप्रदायिकत्वान्न तत्र भावनिक्षेनन्येवंभूतः पर्यायार्थिकष्वेव शुद्धनिश्चयस्तेनाऽस्मदुक्तावनु- पाऽऽश्रयणं युक्तमित्यर्थः / अन्यथा तत्राऽपि निक्षेपान्तराऽऽश्रयणेपपत्तावपि द्रव्यार्थिकप्रभेदेन सर्वसंग्रहनयेन शुद्ध ऽनवस्थानात्प्रकृतमात्रापर्यवसानादन्ततो ज्ञानाद्वैते शून्यतायां वा निश्चयेन तदुपपादयिष्याम इत्याकाङ्क्षायामाह पर्यवसानात् / किञ्चैतादृगुपरितनैवंभूतस्य प्राक्तनैवंभूताभिधानात् आत्मत्वमेव जीवत्व-मित्ययं सर्वसंग्रहः। पूर्वमेवाभिधानं युक्तम्, अन्यथाऽप्राप्तकालत्वप्रसङ्गात् / तस्माद् जीवत्वप्रतिभूः सिद्धः, साधारण्यं निरस्य न || 46 // व्यवहाराऽऽद्यभिमतव्युत्पथ्यनुरोधेनौदयिकभावग्राहकत्वमेवास्य सूरिभिरुक्तं युक्तमिति स्मर्तव्यम् / न चेन्द्रियरूपप्राणानां क्षयोपश(आत्मत्वमिति) आत्मत्वमेव जीवत्वं जीवपदप्रवृत्तिनिमित्तं, मिकत्वात्कथमेवंभूतस्यौदयिकभावमात्रग्राहकत्वमित्यप्याशङ्क-नीयम्, पारिणामिकभावस्य कालत्रयानुगतत्वेन सत्यत्वात् , औदयिक-भावस्य प्राधान्येनायुःकर्मोदयलक्षणस्यैव जीवनार्थस्य ग्रहणात्। उपहतेन्द्रियेऽचौपाधिकत्वेन कालत्रयानुगतत्वेन च तुच्छत्वादित्यर्थः। सर्वसंग्रहनयस्तु प्यायुरुदयेनैव जीवननिश्चयादिति दिक् / / 51 / / सिद्धिसाधारण्यं भवस्थतौल्यं निरस्य जीवत्व-साधने न प्रतिभूः, सर्वत्र तुल्यजीवत्वादेवैको व्यवहारतो जीवोऽन्यश्च निश्चय इति विभागकर शङ्काशेषमुपन्यस्य परिहरतिणमसमीक्षिताभिधानमेवाऽऽपद्येत, सर्वसंग्रह एव हि कर्मापाधिनिरपेक्ष- शैलेश्यन्त्यक्षणे धर्मो, यथा सिद्धिस्तथाऽसुमान्। शुद्धद्रव्यार्थिकः, तेन च संसारि चैतन्यमपि निरुपरागं शुद्धमिति वाच्यं नेत्यपि यत्तत्र, फले चिन्तेह धातुगा / / 52 / / परिणेष्यत एव / तदुक्तं द्रव्यसंग्रहे-" मग्गणगुणठाणेहि अ,चउ दस य (शैलेश्यन्त्यक्षण इति) शैलेश्या अयोगिगुणस्थानस्यान्त्यक्षणे च हवति तह असुद्धणया।विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा उसुद्धणया।। 1 // चरमक्षणे यथा निश्चयतो धर्मस्तदक्तिनकालभावी तु व्यवहारत एव / " इति। न च संसारिचैतन्यस्य संग्रहनयेनशक्त्या शुद्धचैतन्य, निश्चयेऽपि तदुक्तं धर्मसंग्रहण्यां हरिभद्राऽऽचार्य:-" सो उभयक्खयहेऊ, व्यक्त्या शुद्धचैतन्यस्य सिद्ध एव निश्चयान्न साधारण्यमिति शङ्कनीयम्, सेलेसीचरमसमयभावी जो। सेसो पुण णिच्छयओ, तस्सेह पसा-हगो संग्रहस्य शाक्तिग्राहकत्वेन शक्तिग्राहकताया व्यवहार एव विश्रान्तेर्निश्चयतो भणिओ // 1 // इति / तथाऽसुमान् जीवोऽपि निश्चयतः सिद्ध एव हि चेतनाशाली सिद्ध एव जीव इत्यस्य व्याघातात्।। 46 / / भविष्यतीत्यपि न वाच्यम् / यतस्तत्र-" सो उभयक्ख-य" नत्येवं निश्चयतः सिद्धस्याऽजीवत्वे भवद्भिरिष्यमाणे भवतामेव ग्रन्थे इत्यादिगाथायां धारयति सिद्धिगतावात्मानमिति धर्मः, इति फले संसारिसिद्धसाधारणजीवपदार्थाभिधानं कथमित्याशङ्काया-माह फलरूपे धात्वर्थे चिन्ता। सा च कुर्वद्रपत्वेन कारणत्वं वदत एवंभूतनयस्य यज्जीवत्वं क्वचिद् द्रव्य-भावप्राणान्वयात् स्मृतम् / मते शैलेश्यन्त्यक्षण एव धर्मपदार्थसिद्धिसाक्षिणि, तदनन्तरं विचित्रनगमाऽऽकूतात् , तद् ज्ञेयं न तु निश्चयात् / / 50 / / सिद्धिसाधारणरूपसाफल्यव्यवधानात् , इह तु धातुगा धात्ववि(यदिति) यजीवत्वं क्वचिद् ग्रन्थे द्रव्यप्राणानां भावप्राणानां च्छिन्नस्वरूपविषयिणी चिन्ता, सा च केन सहाव्यवधानं गवेषयत् ? चान्वयादेवीकरणात् स्मृतं, संसारिसिद्धसाधारण्यमिति विशेषः / स्वरूपं तुप्रसिद्ध्यनुरोधेन संसारिण्येव पर्यवसाययेन तु सिद्ध इति महान् तद्विचित्रो विविधावस्थो यो नैगमस्तस्याऽऽकृतादभिप्रायाद् ज्ञेयं, न तु विशेषः / स्यादेतत्। धर्मपदेऽपि धात्वर्थो धा-रणसामान्यमेव, तच यतो निश्चयादेवभूतनयात् , तथा चैवंभूतनयेनैव सिद्धमजीवं वयं प्रतिजा विशेषतात्पर्यवशासिद्धिसाधारणरूप-विशेषे पर्यवस्यति, तथा नीमहे, न तु नयान्तराभिमतेन जीवत्वेऽपि विप्रतिपद्यामहे, इति जीवपदार्थोऽपि विशेषेपर्यवस्थति, सिद्ध एव दत्तपदो भविष्यति। मैवम्। शुद्धाशुद्धेन नैगमनयेन साधारणजीवत्वाभ्युपगमेऽपि न क्षतिः / इयांस्तु ' जीव ' प्राणधारणे इत्यत्र प्राण-पदसमभिव्याहृतसाधारणस्य विशेष प्रसिद्धनैगम औदयिकभावोपलक्षितमात्मत्वाऽऽख्यं पारिणा भूरिप्रयोगवशादौदयिकप्राणधारण एव पर्यवसानात्। अत एव गोपदस्य मिकभावमेव जीवपदप्रवृत्तिनिमित्तमभ्युपैति, तद्विशेषश्च कश्चिदुप नानाऽर्थत्वेऽपि ततो भूरिप्रयो-गवशात्सास्नाऽऽदिमत एवोपस्थितेः, चारोपजीवी द्रव्यभावप्राणान्यतरवत्त्वेनानु-गतमौदयिकक्षायिकभाव अश्वाऽऽदेस्तु पदान्तरसम-भिव्याहाराऽऽदिनेति तान्त्रिकाः / द्वयमिति नेदं सिद्धान्तार्णणे नयविकल्प-कल्लोलवैचित्र्य तत्सप्तवव्य तदेवमेवंभूतनयाभिप्रायेण सिद्धो नजीव इति व्यवस्थापितम्। यदि पुनः प्रस्थकन्यायाद्विशुद्धतरनैगमभेदमाश्रित्य प्रागक्तस्वग्रन्थगाथासनविक्षोभाऽऽवहम् // 50 // व्याख्यायते परैः तदा न किञ्चिदस्माकं दुष्यतीति किमल्पीयसि ननु ' जीव ' प्राणधारणे इत्यत्र भावप्राणधारणत्वमेव धात्वर्थस्य दृढतरक्षोदेन? विवक्षितत्वाद् , निश्चयतः सिद्धस्य जीवत्वं समर्थथिष्याम इत्या " ऐन्द्री ततिः प्रणयिपुण्यमिवाड्कुररागैकाङ्क्षायामाह यत्पादपद्मकिरणैः कलयत्युदीतम्। धात्वर्थे भावनिक्षेपा-त्परोक्तं न च युक्तिमत् / स्नात्राम्भसा दलितयादवदुष्टकष्ट, प्रसिद्धार्थोपरोधेन, यन्नयान्तरमार्गणा / / 51 / / शड्वेश्वरप्रभुमिमं शरणीकरोमि // 52 / / " (धात्वर्थ इति) धात्वर्थे जीवत्यर्थे भावनिक्षेपाभावसकेतप्रहात् परोक्तं | ('जीव' शब्दे 1521 पृष्ठेऽयं विषयः प्रासङ्गिकत्वेनोक्तोऽपि जयपरत्वेन निश्चयतः सिद्ध एव जीव इति दिगम्बरोक्तं न च नैव युक्ति-मत् / यद् | पात्रोपेतितः)
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________________ णय 1876 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय (17) सिद्धसेनीयाः पुनः षमेव नयानभ्युपगवन्तः, नैगमस्य संग्रहस्य संग्रहव्यवहारयोरन्तर्भावविवक्षणात् / तथाहि-यदा नैगमः सामान्यप्रतिपत्तिपरस्तदा संग्रहेऽन्तर्भवति, सामान्याभ्युपगमपरत्वात्। विशेषाभ्युपगमनिष्टस्तु व्यवहारे। आह च सिद्धसेनीयमतमुपसंजिघृक्षुर्भाष्यकृत्जो सामन्नग्गाही, स नेगमो संगहं गतो अहवा। इअरो ववहारमितो,जो तेण समाणनिद्देसो // 36 // आ० म०१ अ०१ खण्ड / विशे० / (नैगमाऽऽदीनां नयानां पृथक् पृथड् मतं स्वस्वस्थाने द्रष्टव्यम् ) (18) शुद्ध्यशुद्धी नयाना, प्रस्थकाऽऽदिदृष्टान्तश्चसे किं तं णयप्पमाणे? णयप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहापत्थगदिद्रुतेणं, वसहिदिटुंतेणं, पएसदिढतेणं / (से किं तं णयप्पमाणे इत्यादि) अनन्तधर्मणो वस्तुन एकांशेन नयनं नयः, स एव प्रमाणं नयप्रमाणं त्रिविधं प्रज्ञप्तमिति / यद्यपि नैगमसंग्रहाऽऽदिभेदतो बहवो नयाः, तथाऽपि प्रस्थकाऽऽदिदृष्टान्तत्रयेण सर्वेषामिह निरूपयितुमिष्टत्वात् त्रैविध्यमुच्यते। तथा चाऽऽह। तद्यथा-प्रस्थकदृष्टान्तेनेत्यादि प्रस्थकाऽऽदिदृष्टान्तत्रयेण हेतुभूतेन त्रिविधं नयप्रमाणं भवतीत्यर्थः। (16) प्रस्थकदृष्टान्तं दर्शयतिसे किं तं पत्थगदिटुंतेणं? पत्थगदिट्ठतेणं से जहानामए केइ पुरिसे परसुंगहाय अडवीसंमुहत्तो गच्छेज्जा, तं पासित्ता कोइ वएज्जा-कहिं भवं! गच्छसि ? अविसुद्धो नेगमो भणइ-पत्थयस्स गच्छामि। तं च कोइ छिंदमाणं पासित्ता वएग्जा-किं भवं ! छिंदसि? विसुद्धो नेगमो भणइ-पत्थयं छिंदामि / तं च कोइ तच्छमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं तच्छसि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पत्थयं तच्छामि। तं च कोइ उक्कीरमाणं पासित्ता वएजा-किं भवं ! उक्कीरसि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइपत्थयं उक्कीरामि / तं च कोइ लिहमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं ! लिहसि? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पत्थयं लिहामि। एवं विसुद्धतरणेगमस्स नामाउट्टिओ पत्थओ / एवामेव ववहारस्स वि संगहस्स मिउमेजसमारूढो पत्थओ। उज्जुसुयस्स पत्थओ विपत्थओ, मेजं पिपत्थओ, तिण्हं सद्दनयाणं पत्थयस्स अत्थाहिगारं जाणओ, जस्स वा वसेणं पत्थओ निप्फजइ, से तं पत्थयदिट्ठतेणं। तद् यथा नाम-कश्चित्पुरुषः परशुं कुठारं गृहीत्वा, अटवीसंमुखो गच्छेदित्यादि / इदमुक्तं भवति-प्रस्थको मागधदेशप्रसिद्धो धान्यमानविशेषः / तद्धेतुभूतकाष्ठकर्तनाय कुठारभ्यग्रहस्तं तक्षाऽऽदिपुरुषमटवीं गच्छन्तं दृष्ट्वा कश्चिदन्यो वदेत्त्-क्व भवान् गच्छति ? तत्राऽविशुद्धनै गमो भणति, अविशुद्धनैगमनयमतानुसारी सन्नसौ प्रत्युत्तरयतीत्यर्थः / किमित्याह-प्रस्थकस्य गच्छामि। इदमुक्तं भवतिनैको गमो वस्तुपरिच्छे दो यस्याऽपि तु बहवः, स निरुक्तवशात्ककारलोपतो नैगम उच्यते / अतो वद्यप्यत्र प्रस्थककारण भूतकाष्ठनिमित्तमेव गमनं, न तु प्रस्थकनिमित्तम् , तथाऽप्यनेकप्रकारवस्त्वभ्युपगमपरत्वात्कारणे कार्योपचारः / तथा व्यवहारदर्शनादेवमप्यभिधत्तेऽसौ-प्रस्थकस्य गच्छामि इति / तं च कश्चित् छिन्दन्तं वृक्षं पश्येद् , दृष्ट्वा च वदेत् किं भवाँछिनत्ति ? ततः प्राक्तनात्किचिद्विशुद्धनैगमनयमतानुसारी सन्नसौ भणति-प्रस्यक छिनमि। अत्रापि कारणे कार्योपचारात्तथा व्यवहतिदर्शनादेव काष्ठेऽपि छिद्यमाने प्रस्थकं छिनमीत्युत्तरं, केवलं काष्ठस्य प्रस्थकं प्रति कारणताभावस्याऽत्र किश्चिदासन्नत्वाद्विशुद्धत्वं प्रावयुनरतिव्यवहितत्वादमलीमसत्वम् एवं पूर्वपूर्वापक्षया यथोत्तरस्य विशु-द्धता भावनीया, नवरंतक्ष्णन्तं तनूकुर्वन्तम् , उत्किरन्तं वेधनकेन मध्याद्विकिरन्तं लेखन्या मृष्टं कुर्वाणम् / एवमेतेन प्रकारेण तावन्ने-यं यावद्विशुद्धतरनै गमस्य (नामाउट्टिओ ति) आकुट्टितनामा प्रस्थकोऽयमित्येवं नामाङ्कितो निष्पन्नः प्रस्थक इति / एवमेव व्यवहारस्याऽपीति लोकव्यवहारप्राधान्येन यो व्यवहारनयः, लोके च पूर्वोक्तावस्थासु सर्वत्र प्रस्थकव्यवहारो दृश्यते, अतो व्यवहारनयोऽप्येवमेव प्रतिपद्यते इति भावः / (संगहस्सेत्यादि) सामान्यरूपतया सर्व वस्तु संगृह्णाति क्रोडीकरोतीति संग्रहः, तस्य मतेन चिताऽऽदिविशेषणविशिष्ट एव प्रस्थो भवति, नान्यः। तत्र चितो धान्येन व्याप्तः। स च देशतोऽपि भवत्यत आहमितः पूरितः। अने-नैव प्रकारेण मेयं समारूढ यत्र स आहिताऽऽदेराकृतिगणत्वाद् मेयसमारूढः। अयमत्र भावार्थ:-प्राक्तननयद्यस्याऽविशुद्ध-त्वात्प्रस्थककारणमपि प्रस्थक उक्तो निष्पन्नः प्रस्थकोऽपिस्वकार्याकरणकालेऽपि प्रस्थक इष्टः, अस्य तु ततो विशुद्ध-त्वाद्धान्यमानलक्षणं स्वार्थं कुर्वन्नेव प्रस्थकः, तस्य तदर्थत्वात् / तदभावे च प्रस्थकव्यपदेशेऽतिप्रसङ्गादिति यथोक्त एव प्रस्थकः / सोऽपि प्रस्थकसामान्या व्यतिरेकाद्व्यतिरेकप्रस्थकत्वप्रसङ्गात्सर्व एक एव प्रस्थकइति प्रस्तुतनयो मन्यते, सामान्यवादित्वादिति / (उज्जुसुयस्सेत्यादि) ऋजुसूत्रः पूर्वोक्तशब्दार्थः, तस्य निष्पन्नस्वरूपोऽर्थक्रियाहेतुः प्रस्थकोऽपि प्रस्थकः, तत्परिच्छिन्नं धान्याऽऽदिकमपि वस्तु प्रस्थकः, उभयत्र प्रस्थकोऽयमिति व्यवहारदर्शनात्तथा प्रतीतेः। अपरं चाऽसौ पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद्वर्तमाने एव मानमेवे प्रस्थकत्वेन प्रतिपद्यते, नाऽतीताऽनागतकाले, तयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादिति। (तिण्हं सदनयाणं इत्यादि) शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः शब्दसम-भिरुदैवंभूताः, शब्देऽन्यथा स्थितेऽर्थमन्यथा नेच्छन्त्यमी, किंतु यथैवशब्दो व्यवस्थितस्तयैव शब्देनार्थ गमयन्तीत्यतः शब्दनया उच्यन्ते / आद्यास्तु यथा कथञ्चिच्छब्दाः प्रवर्तन्तामर्था एव प्रधानमित्यभ्युपगमपरत्वादर्थनयाः प्रकीर्त्यन्ते / अत एषा त्रयाणां शब्दनयानां प्रस्थकार्थाधिकारज्ञः प्रस्थकस्वरूपपरिज्ञानोपयुक्तः प्रस्थकः / भावप्रधानात्तुते नया इत्यतो भावप्रस्थकमेवेच्छन्ति, भावप्रस्थकोपयोगोऽतः सप्रस्थकः, तदुपयोगवानपिच, ततोऽव्यतिरेकात्प्रस्थकः।यो हि यत्रोपयुक्तः सोऽमीषां मते सएव भवति, उपयोगलक्षणो जीवः, उपयोगश्चेत्प्रस्थकाऽऽदिविषयतया परिणतः किमन्यजीवस्य रूपान्तरमस्ति? यत्र व्यपदेशान्तरं स्यादिति भावः। (जस्स वा वेसेणेत्यादि) यस्य वा प्रस्थककर्तृगतस्योपयोगस्य वशेन प्रस्थको निष्पद्यते, तत्रोपयोगे वर्तमानः कर्ता प्रस्थकः / न हि प्रस्थकेऽनुपयुक्तः
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________________ णय 1880- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय प्रस्थकं निर्वर्तयितुं कर्ता समर्थः, ततस्तदुपयोगानन्यत्वात्स एव प्रस्थकः / इमां च तेऽत्र युक्तिमभिदधतिसर्व वस्तु स्वात्मन्येव वर्तते, न त्वात्मव्यतिरिक्त आधारे वक्ष्यमाणयुक्त्या, एतन्मतेनाऽन्यस्याऽन्यत्र वृत्त्ययोगात्, प्रस्थकश्च निश्चयाऽऽत्मकं मानमुच्यते, निश्चयश्च ज्ञानम् , तत्कथं जडाऽऽत्मनि काष्ठभाजने वृत्तिमनुभविष्यति? चेतनाचेतनयोः सामानाधिकरण्याभावात् , तस्मात्प्रस्थकोपयुक्त एव प्रस्थकः।" से तं " इत्यादि निगमनम् / अनु० / प्रस्थकदृष्टान्तं विवेचयतिप्रस्थकार्थ व जामीति, वने गच्छन् ब्रवीति यत्। आदिमो [पचारोऽसौ, नैगमव्यवहारयोः।। 62 / / (प्रस्थकार्थमित्यादि) प्रस्थको मगधदेशप्रसिद्धो धान्यमानहेतुद्रव्यविशेषः, तदर्थ व्रजामीति वने गच्छन् यद् व्रवीति कश्चित्, असौ नैगमव्यवहारयोर्हि निश्चितमादिम उपचारः।। 62 / / नन्वत्र प्रस्थकार्थ वने गच्छतः प्रस्थकेच्छाया मुख्यार्थस्याबाधितत्वात्कथं प्रस्थकपदस्योपचार इति? अत्र आहअत्र प्रस्थकशब्देन, क्रियाऽऽविष्टवनकधीः। प्रस्थकेऽहं व्रजामीति, ह्युपचारोऽपि च स्फुटः॥६३ // (अत्रेति) अत्राधिकृतप्रयोगे क्वेत्यधिकरणाकाडया, प्रस्थकार्थमिति चतुर्थी, प्रकृतार्थेनैव निवृत्तेः प्रस्थकदलयोग्यवृक्षप्राप्ति-रूपक्रियाऽऽविष्टवनस्यैकाऽद्वितीया धीरिति, तत्रोपचार आवश्यक इत्यर्थः / ननु तथाऽपि सप्तम्यन्तप्रश्श्रे सप्तम्यन्तमेवोत्तरमुचितमित्यत आह-क्व भवान् गच्छतीति प्रश्ने प्रस्थकेऽहं व्रजामीति सप्तम्यन्तप्रस्थकपदस्योपचारोऽपि वने स्फुट एव दृश्यत इत्यर्थः / तथा च वनगमने प्रस्थकशब्देन वनाभिधानं नैगमव्यवहारयोः प्रथम उपचार इति सिद्धम् / / 63 / / छिनधि प्रस्थकं तक्ष्णो-म्युत्किराम्युल्लिखामि च। करोमि चेति तदनू-पचाराः शुद्धताभृतः।। 64 / / (छिनीति) किं भवान् छिनत्तीति प्रश्रे प्रस्थकं छिनमीत्युत्तरे प्रस्थकपदस्य च्छेदकयोग्ये काष्ठे उपचारः, स पूर्वस्मातशुद्धः / एवं क्रमेण किं भवान् तक्ष्णोति, उत्किरति, उल्लिखति, करोतीति प्रश्श्रेषु, प्रस्थकं तक्ष्णोमि, उत्किरामि, उल्लिखामि, करोमीत्युत्तरेषु प्रस्थकपदस्य तक्ष्णाऽऽदिक्रियायोग्यकाठेखूपचारायथोत्तरं भवन्तः क्रमेण शुद्धताभृतो भवन्ति / ननु सर्वत्र प्रस्थकपदस्य प्रस्थकयोग्यकाष्ठ एक एवोपचारः, तत्क्रियाविशेषितार्थधीश्च तत्तत्क्रियावाचकपदसमभिव्याहारादेव भविष्यतीति कथमेतावन्त उपचारा यथाक्रमशुद्धा उच्यन्त इति चेत् ? सत्यम्। दुग्धमायुर्दध्वायुर्घतमायुरित्यादौ दुग्धाऽऽदिकारणे आयुःकार्योपचारस्यातिशयविशेषेण तारतम्यवत् प्रकृतेऽपि छेदनाऽऽदिक्रियाव्यापाराऽऽवेशेन तज्जन्यावयवसंयोगाऽऽदिविशेषजन्यतया वा विलक्षणेषु काष्ठद्रव्येषु काष्ठप्रस्थकपर्यायोत्पत्तिव्यवधानाऽव्यवधानाभ्यां प्रस्थकपदोपचारतारतम्यस्यानुभवसिद्धत्वात्॥६४ // तमेतावतिशुद्धौ तू-त्कीर्णनामानमाहतुः / चितं मितं तथा मेया-रूढमेवाऽऽह संग्रहः।। 65 / / (तमिति) अतिशुद्धौ त्वेतौ नैगमव्यवहारनयौ तं प्रस्थकमुत्कीर्णनामानं प्रस्थकपर्यायवन्तं प्रस्थकमाहतुः, अनुत्कीर्णनाम्नोऽद्रव्यादविशेषादिति भावः / संग्रहनयस्तु चितमासादितं प्रस्थक-पर्यायं, मितमाकुट्टितनामानं, मेयं धान्यविशेषम् , आरूढं प्रस्थकमाह, मेयारूढपदेन तदनारूढस्यान्यद्रव्याविशिष्टस्यासंग्रहाद् नैग-मोपदर्शितार्थसंकोचकत्वेन स्वनाम्नोऽन्वर्थत्वसिद्धः / अयं हि विशुद्धत्वात् कारणे कार्योपचारं कार्यकारणकाले प्रस्थकं च नाड़ी-कुरुते / न च तदा तस्य घटाऽऽद्यात्मकत्वप्रसङ्गः, तदर्थक्रियां विना तत्त्वायोगात्। घटाऽऽदिशब्दार्थक्रिया यथा कथञ्चित्तत्रास्त्येवेति चेत्, साधारणतदर्थक्रियाकारित्वस्यैव तदात्मकत्यप्रयोजकत्वातत्, तथाऽपि प्रस्थकक्रियाविरहे नाऽयं प्रस्थको घटाऽऽधनात्म-कत्वाचनाप्रस्थक इत्यनुभयरूपः स्यान्न स्यात्, प्रतियोगिकोटौ स्वस्थाऽपि प्रवेशेन यावद्घटाऽऽद्यनात्मकत्वासिद्धेः। अर्थक्रिया-भावाभावाभ्यां द्रव्यभेदाभ्युपगमे ऋजुसूत्रमतानुप्रवेश इति चेत् / न / नैगमनयोपगतार्थासकोचनाय कादाचित्कतयोपगमेऽपि सर्वत्र तथाऽभ्युपगमाभावेन तदननुप्रवेशात्, इत्थं चार्थक्रियाकारितदकारिप्रस्थकव्यक्तिभेदादर्थक्रियाजनकप्रस्थकव्यक्तौ प्रस्थकत्वसामान्यमपि नास्तीत्यभ्युपगमेऽपि न कश्चिद्दोषः / वस्तुतो व्यावृत्तिविशेषाऽऽद्यतिरिक्तन नैयायिकाऽऽदिकल्पितसामान्येन क्वचिदपि निर्वाहः, तन्मते घटत्वाऽऽदिसामान्यस्याऽपि समर्थयितुमशक्यत्वात्। मृत्स्वर्णरजतपाषाणाऽऽदिघटेषु मृत्त्वस्वर्णत्वाऽऽदिना साङ्कर्येण तदसिद्धेः, अस्तु मृत्त्वे स्वर्णत्वाऽऽदिव्याप्यता, नैवं घटत्वम्। कुलालस्वर्णकारजन्यताऽऽद्यवच्छेदकतया तन्नानात्वस्याऽऽवश्यकत्वात्। न हि स्वर्णघटाऽऽदौ चक्राऽऽदिकं मृद्घटाऽऽदौ चलोहवर्तुलाऽऽदिकं हेतुः, अननुगतधीस्तु कथञ्चित् सौसादृश्यात्. घटपदं तुनानार्थकमित्यभ्युपगमे कथञ्चिदित्याद्यनिर्वचनेनै-वाशक्तिराविष्क्रियते / अननुगतानां जातीनामिव व्यक्तीनामपि सौ-सादृश्येनैवानुगमसंभवेन जात्युच्छेदाऽऽपत्तिः, घटपदस्य नानार्थत्वे स्पष्ट एव लौकिकव्यवहारवाधश्व, घटत्वाऽऽदिकर्मकत्ववृत्त्यैव मृत्त्वाऽऽदिकमेव वा, तथा कुम्भकारस्वर्णकाराऽऽदेविजातीय-कृतिमत्त्वेन चक्राऽऽदिवर्तुलाऽऽदेश्च कथञ्चिद्विजातीयध्यापारकत्वेन हेतुत्वमित्यादिनवीनकल्पना तु ? दोषादेकत्वाग्रहेऽपि घटत्वाऽऽदिग्रहादेकत्वस्यैकत्वात्प्रसिद्धरूपेण कार्यकारणभावोच्छेदे व्यवहारविलोपाच्चानुपपत्तेरिति नयविशेषेण तत्र तत्र व्यावृत्तिविशेषरूपसामान्याभ्युपगमं विना न निर्वाह इति प्रकृते कार्याकरणकाले व्यावृत्तिविशेषरूपप्रस्थकत्वसामान्याभावाभ्युपगमे न क्षतिरिति किमति प्रपञ्चितेन? // 65 // प्रस्थकश्चर्जुसूत्रस्य, मानं मेयमिति द्वयम्। न ज्ञकर्तृगताद्भावा-च्छब्दानां सोऽतिरिच्यते / / 66 / / (प्रस्थक श्चेति) ऋजुसूत्रस्य मानं मेयं चेति द्वयमेव प्रस्थकस्वरूप, तन्मेयधान्यं च समवहित एव प्रस्थकव्यवहारादेकतरविनाशभावे तत्परिच्छेदासंभवात्। किञ्चमेयाऽऽरूढः प्रस्थकः प्रस्थकत्वेन व्यपदेश्य इति संग्रहनयमते मेयारूढः प्रस्थकः, प्रस्थकाऽऽरूढ मेयं वा, तथेत्यत्र विनिगमकाभावादुभयत्रैव प्रस्थकपदशक्तेासज्यवृत्तित्वं युक्तम् / कथं तर्हि प्रस्थकेन धान्यं मीयत इति प्रयोग एकोत्तरोभयवाचकपदेनैकस्यानुपस्थापनादिति चेत्। न। एतन्नयेन कथञ्चित्प्रस्थकपदशक्यताऽवच्छेदकस्य व्यासज्यवृत्तित्वेन विवक्षाभेदात् करणरूपानुप्रवेशस्या
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________________ णय 1951 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय ऽपि संभवान्न तदनुपपत्तिरिति द्रष्टव्यम् / शब्दाना शब्दसमभिरुढवंभूताऽऽख्यानां त्रयाणां नयानां मते स प्रस्थकः ज्ञकर्तृगताद्भावानातिरिच्यते न भिद्यते / ज्ञश्च कर्ता च ज्ञकर्तारौ, ज्ञकोंर्गतो ज्ञकर्तृगतः, तस्मादिति समासः / प्रस्थकाद् ज्ञगतात् प्रस्थककतृगताद्वा प्रस्थकोपयोगादतिरिक्तं प्रस्थकं ते न सहन्ते निश्चयज्ञानात्मकप्रस्थकस्य जडवृत्तित्वायोगाद् बाह्यप्रस्थकस्याऽप्यनुपलम्भकालेऽसत्त्वेनोपयोगानतिरेकाऽऽश्रयणादन्ततो ज्ञानद्वैताय पर्यवसानाद्वा / न च ज्ञानाऽऽमकत्वोभयनयविषयसमावेशविरोधात्प्रत्येकमनयत्वमाशङ्कनीयम् , तादात्म्येनोभयरूपासमावेशेऽपि विषयत्वतादात्म्याभ्यां तदुभयसमावेशात्। विषयत्वमपि कथञ्चित्तादात्म्यमिति तु नयान्तराऽऽकृतम्, यदाश्रयेण ' अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेयाः ' इति प्राचीनैर्गीयत इति दिग् // 66 // विवेचितः प्रस्यकदृष्टान्तः / नयो०। विशे० (20) वसतिदृष्टान्तःसे किं तं वसहिदिटुंतेणं? वसहिदिटुंतेणं से जहानामए केइ पुरिसे किंचि पुरिसं वएज्जा-कहिं भवं वससि ? अविसुद्धोणेगमो भणइ-लोगे वसामि। लोगे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-उडलोए, अहोलोए, तिरिअलोए / तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धो णेगमो भणइ-तिरिअलोए वसामि / तिरिअलोए जंबुद्दीवाऽऽइआ सयंभूरमणपज्जवसाणा असंखिज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-जंबु-द्दीवे वसामि / जंबुद्दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता / तं जहा-भरहे, एरवए, हेमवए, एरण्णवए, हरिवस्से, रम्मगवस्से, देवकुरू, उत्तरकुरू, पुव्वविदेहे, अवरविदेहे। तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-भरहे वासे वसामि। भरहे वासे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-दाहिणड्ढभरहे, उत्तरडभरहे अ। तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-दाहिणड्ड-भरहे वसामि / दाहिणड्डभरहे अणेगाइंगामागरणगरखेडकव्व-डमडंवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसण्णिवेसाई, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पाडलिपुत्रे वसामि / पाडलिपुत्ते अणेगाई गिहाइं, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्धो णेगमो भणइ-गब्भघरे वसामि / एवं विसुद्धस्स णेगमस्स वस-माणो वसइ। एवमेव ववहारस्स वि। संगहस्स संथारसमारूढो वसइ। उज्जुसुअस्स जेसु आगासपएसेसु ओगाढो तेसु वसइ। तिण्हं सद्दनयाणं आयभावे वसइ। सेत्तं वसहिदिटुंतेणं / (से किं तं वसहीत्यादि) वसतिर्निवासः, तदृष्टान्तेन नयविचार उच्यते / तद्यथानामकः कश्चित्पुरुषः पाटलिपुत्राऽऽदौ वसन्तं कश्चित्पुरुष वदेत्-क्व भवान् वसति ? तत्राविशुद्धो नैगमो भवति-अविशुद्धनैगमनयमतानुसारी सन्नसौ प्रत्युत्तरं प्रयच्छतिलोके वसा-मि। तन्निवासक्षेत्रस्याऽपि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकादनन्तरत्वात् / इत्यमपि च व्यवहारदर्शनाद् / विशुद्धनगमस्त्वतिव्याप्तिपरत्वादिदमसङ्गतं मन्यते / ततस्तिर्यग्लोके वसामीति संक्षिप्योत्तरं ददाति | विशुद्धतरस्त्विदम्। अथातिविशुद्धतरस्त्विदमप्यतिव्याप्तिनिष्ठं मन्यते। ततो जम्बूद्वीपे वसामीति संक्षिप्ततरमाह / एवं भारतवर्षदक्षिणार्द्धभरतपाटत्रिपुत्रदेवदत्तगृहगर्भगृहेष्वपि भावनीयम्। (एवं विसुद्धस्स णेगमस्स वसमाणो वसइ त्ति) एवमुत्तरोत्तरभेदापेक्षया विशुद्धतरनैगमस्य वसन्नेव वसति, नान्यथा। इदमुक्तं भवति-यत्र गृहाऽऽदौ सर्वदा निवासत्वेनाऽसौ विवक्षितस्तत्र तिष्ठन्नेव एष तत्र वसतीति व्यपदिश्यते / यदि पुनः कारणवसतोऽन्यत्र रथ्यादौ वर्तते, तदा तत्र विवक्षते गृहाऽऽदौ वसतीति न प्रोच्यते, अतिप्रसङ्गादिति भावः / (एवमेवेत्यादि) लोकव्यवहारनिष्ठो हि व्यवहारनयः लोके च नैगमोक्तप्रकाराः सर्वेऽपि दृश्यन्ते इति भावः / अथ चरमनैगमोक्तप्रकारो लोके नेष्यते, कारणतो ग्रामाऽऽदौ वर्तमानेऽपि देवदत्ते पाटलिपुत्र एष वस-तीति व्यपदेशदर्शनादिति चेत्। नैतदेवम्। प्रोषिते देवदत्ते स इह वसति न वेति केनचित् पृष्टो, प्रोषितोऽसौ नेव वसतीत्यस्याऽपि लोकव्यवहारस्य दर्शनादिति / (संगहस्सेत्यादि) प्राक्तनाविशुद्धत्वात्संग्रहनयस्स गृहाऽऽदौ तिष्ठन्नपि संस्तारकाऽऽरूढ एव शयनक्रियावान वसतीत्युच्यते / इदमुक्तं भवति-संस्तारेऽवस्थानादन्यत्र निवासार्थ एव न घटते, चलनाऽऽदिक्रियावत्त्वान्मार्गाऽsदिप्रवृत्तवत्। संस्तारके च वसतो गृहाऽऽदौ वसतीति व्यपदेशायोग एव, अतिप्रसङ्गात्। तस्मात् क्वाऽसौ वसतीति निवासजिज्ञासायां संस्तारके शय्यामात्रस्वरूपे वसतीत्येतदेवास्य मतेनोच्यते, नान्यदिति भावः। स च नानादेशाऽऽदिगतोऽप्येक एव, संग्रहस्य सामान्यवादित्वादिति / ऋजुसूत्र-स्य तु पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद्येष्वाकाशप्रदेशेष्ववगाढः, तेष्वेव वसतीत्युच्यते, न संस्तारके; सर्वस्याऽपि वस्तुवृत्त्या नभस्ये - वावगाहात् / येषु प्रदेशेषु संस्तारको वर्तते, संस्तारकेणैवाऽऽक्रान्तस्ततो येष्वेव प्रदेशेषु स्वयमवगाढस्तेष्वेव वसतीत्युच्यते / स च वर्तमानकाले एवास्ति, अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्न-त्वेनैतन्मतेऽसत्वादिति। त्रयाणां शब्दनयानामात्मभावे स्वस्वरूपे सर्वोऽपि वसति, अन्यस्याऽन्यत्र वृत्त्ययोगात् / तथाहि-अन्योऽन्यत्र वर्तमानः किं सर्वाऽऽत्मना वर्तते? देशाऽऽत्मना वा ? यद्याद्यः पक्षस्तर्हि तस्याऽऽधारव्यतिरेकिणा स्वकीयरूपेणाप्रतिभासनप्रसङ्गः / यथाहिसंस्तारकाऽऽद्याधारस्य स्वरूपं सर्वाऽऽत्मना तत्र वृत्तं न तद्व्यतिरेके णोपलभ्यते, एवं देवदत्ताऽऽदिरपि सर्वाऽऽत्मना तत्राधीयमानस्त द्व्यतिरेकेण नोपलभ्यते। अथ द्वितीयो विकल्पः स्वीक्रियते, तर्हि तत्राऽपिदेशेऽनेन वर्तितव्यम्। ततः पुनरपि विकल्पद्वयम्- किं सर्वा-ऽऽत्मना वर्तते, देशाऽऽत्मना वेति ? सर्वाऽऽत्मपक्षे देशिनो देशरूपताऽऽपत्तिः। देशाऽऽत्मपक्षे तु पुनस्तत्रापि देशे देशिना वर्तितव्यं, ततः पुनरपि तदेव विकल्पद्वयमः तदेव दूषणमित्यनवस्था। तस्मात्सर्वोऽपि स्वस्वभाव एव निवसति, तत्परित्यागेनान्यत्र निवासे तस्य निःस्वभावताप्रसङ्गादित्यलं बहुभाषितया। "सेत्तं'' इत्यादि निगमनम् / अनु० / नयो० / ननु वसनं नाम वर्तनमुच्यते / तथा च-देवदत्तो गृहे वसती- ति। किमुक्तं भवति ? देवदत्तो गृहे वर्तते, तच वर्त्तनं सर्वस्याऽपि वस्तुनः स्वस्वरूप एव, नाऽन्यत्र, तथा प्रत्यक्षत उपलभ्यमानत्वात्। तथाहि-यघटगतं स्वरूपं तत्घटेएव वर्तते, नाऽन्यत्र भूतले पटाऽऽदौ वेति। प्रसिद्धमेतत्, देवद
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________________ णय 1852 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय त्ताऽऽदिलक्षणं वस्तु स्वरूपमपहाय कथमन्यत्र विलक्षणस्वरूपे वस्तुनि आकाशलक्षणे वर्तितुमुत्सहते / तथा चाऽत्र प्रयोगः-यवस्तु सत् तत् सर्वमात्मस्वरूपे वर्तते, यथा चेतना जीवे, वस्तुचदेव-दत्ताऽऽदिकमिति तदपि स्वस्वरूप एव वर्तते, नान्यत्रेति / अथवा-ऽयं व्यतिरेकमुखेन प्रयोगः-विवादाऽऽस्पदीभूतो देवदत्तो नाऽऽ-काशप्रदेशेष्यवतिष्ठते, ततो विलक्षणत्वात् , यद् यतो विलक्षणं न तत्तत्र वर्त्तते, यथा छाया आतपे, विलक्षणाश्वाचेतनत्वेन देवदत्ता-दाकाशाप्रदेशा इति नासौ तत्र वर्तते। उक्तं च भाष्यकारैः" आगासे वसइत्ति य, भणिए भणइ किह अन्नमन्नम्मि। मोत्तूणाऽऽयसहावं, वसेज वत्थु विहम्मम्भि।। 2241 / / वत्थु वसइ सहावे, सत्ताओ चेयणा व जीवम्मि। न विलक्खणत्तणाओ, भिन्ने छायातवे चेव / / 2242 / / एष वसतिदृष्टान्तः। (21) संप्रति प्रदेशदृष्टान्तभावनातत्र प्रकृष्टो देशः प्रदेशः, स एव दृष्टान्तः प्रदेशदृष्टान्तः / स चायम्नैगमो वदति-षण्णां जगति प्रदेशः / तद्यथा-धर्मास्तिकायप्रदेशः / अधर्मास्तिकायप्रदेशः, आकाशास्तिकायप्रदेशः, जीवप्रदेशः, स्कन्धप्रदेशः, स्कन्धगतैकदेशप्रदेशश्च। सर्वत्र षष्ठीतत्पुरुषः समा-सः। / यथा धर्मास्तिकायस्य प्रदेशो धर्मास्तिकायप्रदेशः / एवं सर्व-त्रापि। स च धर्मास्तिकायप्रदेशाऽऽदिः सामान्यविवक्षया एको, विशेषविवक्षयाऽनेक इति / एवं वदति नैगमे संग्रहो वदति-यद ब्रूवे-षण्णा प्रदेश इत्यादि। तन्न भवति / यस्माद् सः स्कन्धगतैकदेश-प्रदेशः, स तस्यैव स्कन्धस्य प्रदेशः, देशस्य स्कन्धाव्यतिरिक्तत्वात्। तथा च लोकेऽपि वक्तार:-" दासेन मे खरः क्रीतो, दासो-ऽपि मे खरोऽपि मे। " एवं यत्स्कन्धस्य संबन्धिनो देशस्य प्रदेशः,सतस्यैव स्कन्धस्य। ततो मैवं वादीः-यदुत षण्णां प्रदेश इत्यादि, किं त्वेवं वद-यथा पश्चानां प्रदेशः। तद्यथा-धर्मास्तिकायप्रदेशः, अधर्माऽस्तिकायप्रदेशः, आकाशास्तिकायप्रदेशः,जीवप्रदेशः, स्कन्धप्रदेश इति। अयं च धर्मास्तिकायप्रदेश: स्वस्वधर्मास्ति-कायाऽऽद्यनुगतः सर्वोऽप्येक एव द्रष्टव्यः, सामान्यविवक्षणात्। एवं च संग्रहोऽविशुद्धः प्रतिपत्तव्यः, अपरसामान्याभ्युपगमात्। एवम-भिदधानं संग्रह प्रति व्यवहारोऽभिधत्तेयद्वदति भवानपञ्चानां प्रदेश इति, नान्यथा। न चैतदस्ति। तस्मादेवं वक्तव्यम्-पञ्चविधः प्रदे-शः। तद्यथा-धर्मास्तिकायप्रदेशो यावत् स्कन्धप्रदेश इति एवमुक्ते व्यवहारेण ऋजुसूत्रो वदति-यभाषते भवान्-पञ्चविधः प्रदेश इ-त्यादि / तदसम्यक् ।तत्राऽपि शब्दार्थे विचार्यमाणेऽतिप्रसङ्गदोषा-पत्तेः। तथाहिपञ्चविधः प्रदेश इत्युक्ते शब्दार्थपर्यालोचनायां यो यः प्रदेशः स पञ्चविध इति प्राप्तम् , एवं च सत्येकैकः प्रदेशः पञ्चविंशतिविधः प्रदेशः प्रसक्तः। न चैतदस्ति / तस्मादेवमत्र वक्तव्यम्- भाज्यः प्रदेशः / तद्यथास्याद्धर्मास्तिकायप्रदेशः, स्यादधर्मा-स्तिकायप्रदेशः, स्यादाकाशास्तिकायप्रदेशः, स्याजीवप्रदेशः, स्यात् स्कन्धप्रदेशः / एवमाचक्षाणमृजुसूत्रंशब्दनयः प्रत्याचष्टे-यद्वदसि भाज्यः प्रदेश इत्यादि। तन्न भवति। कथमुच्यते ? यदि भाज्यः प्रदेश इति समं ततः स्यात्पदलाञ्छने प्रतिनियते धर्मा-स्तिकायाऽऽद्यनुगतप्रदेशस्वरूपावधारणासंभवात् , धर्मास्तिका-यप्रदेशोऽपि स्यादधर्मास्तिकायप्रदेशः, अधर्मास्तिकाय- | प्रदेशोऽपि स्याद्धर्मास्तिकायप्रदेश इत्यादि / तत एवं वक्तव्यम्- | धर्मास्तिकायः प्रदेशः प्रदेशोऽधर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः प्रदेशः प्रदेशो धर्मास्तिकाय इत्यादि। एवं हि वदतः शब्दनयस्यायमभिप्रायःय एव धर्मास्तिकायाऽऽदिरूपो देशी स एव देशः प्रदेशो वा न स्यात् , तदव्यतिरिक्तत्वात्। न खलु देशिनो भिन्नो देशः प्रदेशो वा भवितु-मर्हति, भेदे सति तस्याऽसौ देशःप्रदेशो वेति संबन्धानुपपत्तेः। न हिघटः पटस्येति सचेतसा वक्तुं शक्यम् , संबन्धश्चेत्तर्हि संबन्धस्या-ऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वाद्देशः प्रदेशो वा देशिनः सकाशादभिन्नः प्रतिपत्तव्यः, तथा च सतिय एव देशी स एव देशः प्रदेशश्चेति सिद्ध सामानाधिकरण्यम् / एतदेव च सामाधिकरण्यं समभिरूढोऽपि मन्यते / एवंभूतस्तु प्रदेशवस्तुनो देशः प्रदेशो वा, युक्त्ययोगात्। तथाहि-देशः प्रदेशो वा देशिनो भिन्नोऽभिन्नो वा, गत्यन्तराभावात्। यदि भेदस्तस्येति संबन्धानुपपत्तिः / अथाभेदस्ततो देशः प्रदेशो वा देश्येव, तदव्यतिरिक्तत्वात्, स्वरूपवत्। तथा च सति यौ देशप्रदेशशब्दौ तौ परमार्थतो धर्मास्तिकायाऽऽदिदेशप्रतिपादकौ, ततो यथा पर्यायशब्दत्वादेककालमेकस्मिन् वस्तुनि घटकुटौ नो-चार्येते, एके नाऽपि शब्देन तदर्थस्य प्रतिपादने द्वितीयशब्दप्रयोगस्य नैरर्थक्यात्। एवमिहापि धर्मास्तिकायाऽऽदिरूपे वस्तुनि धर्मास्तिकायाऽऽदिशब्दो देशप्रदेशाऽऽदिशब्दश्व नैककालमुचारणम-हतः, द्वयोरप्येकार्थतयैकेनापि तदर्थस्याऽभिधानत्वेऽपरशब्दप्रयोगस्य वैयर्थ्यात् / तथा च सति धर्मास्तिकायप्रदेशः, अधर्मास्तिकायप्रदेश इत्यादि वचनजातं सर्वमुपपन्नम् / देशप्रदेशशब्दयोः परमार्थतो धर्मास्तिकायाऽऽदिरूपदेशिवाचकतया पौनरुक्त्यदोषानुषङ्गात् / योऽपि च नोशब्द एकदेशवचनः, सोऽप्येतन्मते सर्वथाऽनुपपन्नः, तत्राप्युक्तदोषानतिक्रमात् / तथाहि-नोशब्दः सम्पूर्ण वस्त्वभिदध्यात् , वस्त्वेकदेशं वा ? यदि सम्पूर्ण, ततस्तस्य प्रयोगों निरर्थकः, धर्मास्तिकायाऽऽदिपदेनैव तस्याऽभिधानात् / अथ वाऽस्त्वेकदेशमिति पक्षः। सोऽप्यसमीचीनः, वस्तुनो देशाभावात्। न हि वस्तुनो भिन्नो देश उपपन्नते, तस्येति संबन्धाऽभावात्। अभेदे तु देश्येव, न देश इत्युपपादितमेतत्। उक्तं च भाष्यकारैः"नो सद्दो वि समत्तं, देसं व भणिज्ज जइ समत्तं तो। तस्स पओगोऽणत्थो, अह देसो तो न सो वत्थु / / 2256 / / " अत्र (न सो वत्थु त्ति) न स देशो वस्तु, भेदपक्षेऽभेदपक्षे वा, तस्यासंभवादिति / येऽपि च नीलोत्पलाऽऽदयः शब्दा लोकप्रसिद्धाः, तेऽप्येतन्मतेन विचार्यमाणाः सर्वथाऽनुपपन्नाः। तथाहि-तन्मतेन सर्व वस्तु प्रत्येकमखण्डरूपं, न तस्य गुणाः पर्यायावा देशाः प्रदेशा वा सर्वथा कथञ्चिद्वा वस्त्वन्तररूपा वर्तन्ते, ततो नीलशब्देनाऽपि तदेव वस्त्वखण्डमभिधीयते, उत्पलशब्देनाऽपि तदेवेति, नीलोत्पलशब्दयोरन्यतरशब्देन तदर्थस्याऽभिधानात् / द्वितीयशब्दप्रयोगो व्यर्थ इत्ययुक्ता नीलोत्पलाऽऽदयः शब्दाः / प्रकृते प्रदेशदृष्टान्तभावनाऽपि तथैव / तदेवमुक्ता नयाः / एतेषां च नयानामाद्याश्चत्वारो नया अर्थनयाः, मुख्यवृत्त्या जीवाऽऽद्यर्थ-समाश्रयणात्। शेषास्तुत्रयः शब्दाऽऽदयो नयाः शब्दनयाः, शब्दत एवार्थभेदोपयोगात्। उक्तंच" चत्वारोऽर्थनया ह्येते, जीवाऽऽद्यर्थविनिश्चयात्। त्रयः शब्दनयाः सत्य-पदविद्यां समाश्रिताः " // 1 //
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________________ णय 1983 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय तत्र (सत्यपदविद्यां समाश्रिता इति) सत्यानि अविपरीतानि, शब्दानुशासनोपदर्शितयथोक्तलक्षणोपेतानीति भावः / तानि च ता-नि पदानि सत्यपदानि, तेषां विद्या परिज्ञानं कालकारकाऽऽदिभेदतोऽवगमः। तां समाश्रिताः, तद्वशादर्थभेदमभ्युपगतवन्त इत्यर्थः / संप्रत्येतेषामेव नयाना प्रभेदसंख्याप्रदर्शनार्थमाह नियुक्ति-कारःइक्केको य सयविहो, सत्त नयसया हवंति एमेव / अन्नो विय आएसो, पंचेव सया नयाणं तु / / 2264 // नया मूलभेदापेक्षया यथोक्तरूपा नैगमाऽऽइयः सप्त, एकैकश्च प्रभेदतः / शतविधः शतभेदः, ततः सर्वप्रभेदगणनया सप्त नयशतानि भवन्ति / एवमन्येऽपि च आदेशाः पञ्चशतानि भवन्ति नयानां शब्दाऽऽदीनामेकत्वादेकैकस्य च शतषिधत्वादिति हृदयम्। अपि-शब्दात् षट् चत्वारि द्वे वा शते / तत्र षट् शतान्येवम्-नैगमः सामान्यग्राही संग्रह प्रविष्टो, विशेषग्राही व्यवहारे। उक्तं च भाष्यकारैः- " जो सामन्नगाही, स नेगमो संगहं गतो अहवा / इयरो ववहारमि-तो, जो तेण समाणनिद्देसो " // 39 // ततः षडेव मूलनयाः, एकै-कश्च प्रभेदतः शतभेदः, इति षट् शतानि / अपरादेशाः संग्रहव्य-वहारर्जुसूत्रशब्दा इति चत्वार एव मूलनयाः, एकै कश्च शतविध इति चत्वारि शतानि / शतद्वयं तु नैगमाऽऽदीनामृजुसूत्रपर्यन्तानां द्रव्यास्तिकत्वात् , शब्दाऽऽदीनां तु पर्यायास्तिकत्वात् , तयोश्च प्रत्येकं शतभेदत्वात् / अथ वा यावन्तो वचनपथाः, तावन्तो नया इत्यसंख्याताः प्रतिपत्तव्याः / आ० म०१ अ०२ खण्ड। प्रदेशदृष्टान्तस्तुसे किं तं पएसदिटुंतेणं? पएसदिट्ठतेणं णेगमो भणइ-छण्हं पएसो / तं जहा-धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपएसो, जीवपएसो, खंधपएसो, देसपएसो / एवं वयं णेगम संगहो भणइ-जं भणसि छह पएसो, तं न भवइ, कम्हा ? जम्हा देसपएसो, सो तस्स दव्वस्स एव, जहा को दिढतो-"दासेण मे खरो कीओ, दासो वी मे खरो वि मे।" तं मा भणहि छण्हं पएसो, भणाहि-पंचण्हं पएसो। तं जहा-धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपएसो,जीवपएसो,खंधपएसो। एवं वयं संगहं ववहारो भणइ-जं भणसि-पंचण्हं पएसो, तं न भवइ, कम्हा? जइ जहा पंचण्ह गोहिआणं पुरिसाणं केइ दय्वजाए सामण्णे भवइ / तं जहा-हिरण्णे वा, सुवण्णे वा, धणे वा, धण्णे वा, तहापंचण्ह पएसो, तंमा भणिहि पंचण्ह पएसो भणाहि-पंचविहो पएसो / तं जहा-धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपएसो, जीवपएसो, खंधपएसो। एवं वयंतं ववहारं उज्जुसुओ भणइ-जं मणसि-पंचविहो पएसो,तं न भवइ, क-म्हा? जइते पंचविहो पएसो,एवं ते एक्केको पएसोपंचविहो, एवं तेपणवीसविहोपएसो मवइ, तंमा भणाहि पंचविहो प-एसो,भणाहि-भइयव्वो पएसो, सिअधम्मपएसो, सिअ अध-म्मपएसो, सिअ आगासपएसो, सिअ जीवपएसो, सिअ खंध-पएसो। एवं वयंतं उज्जुसुयं पइ सद्दनओभणइ-जं भणसि-भइयव्वोपएसो,तं न भवइ, कम्हा? जइ भइअव्वो पएसो, एवं ते धम्मपएसो वि सिअ अधम्मपएसो सिअ आगासपएसो सिअ जीवपएसो सिअ खंधपएसो; अधम्मपएसो वि सिअधम्मपएसो० जाव खंधपएसो।जीवपएसो वि सिअ धम्मपए-सो० जाव सिअखंधपएसो, खंधपएसो वि सिअ धम्मपएसो० जाव सिअ खंधपएसो / एवं ते अणवत्था भविस्सइ, तंमा भ-णाहि भइयव्वो पएसो, भणाहि-धम्मे पएसे से पएसे धम्मे, अहम्मे पएसे से पएसे अहम्मे, आगासे पएसे से पएसे आगासे, जीवे पएसे से पएसे नो जीवे, खंधे पएसे से पएसे नो खंधे / एवं वयंतं सद्दनयं समभिरूढो भणइ-जं भणसिधम्मे पएसे से पएसे धम्मे, जीवे पएसे से पएसे नोजीवे, खंधे पएसे से पएसे नोखंधे, तं न भवइ, कम्हा ? इत्थं खलु दो समासा भवंति / तं जहा-तप्पुरिसे अ, कम्मधारए अ / तं ण णज्जइ कयरेणं समा-सेणं भणसि, किं तप्पुरिसेणं ? किं कम्मधारएणं? जइ तप्पुरि-सेणं भणसि, तो मा एवं भणाहि, अह कम्मधारएणं भणसि, तो विसेसओ भणाहि-धम्मे अ से पएसे अ मे से पएसे धम्मे, अहम्मे असे पएसे अमे से पएसे अहम्मे, आगासे असे पएसे अमे से पएसे आगासे,जीवे असे पएसे अ मे से पएसे नो जीवे, खंधे असे पएसे अमे से पएसे नो खंधे / एवं वयंतं समभिरूढं पइ एवं-भूओ भणइ-जं जं भणसितं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरव-सेसं एगगहणगहितं, देसे वि मे अवत्थू , पएसे वि मे अवत्थू / से तं पएसदिटुंतणं / से तं नयप्पमाणे // (से किं तं पएसदिहतेणमित्यादि) प्रकृष्टो देशः प्रदेशो, निर्विभागो भाग इत्यर्थः / स एव दृष्टान्तः, तेन नयमतानि चिन्त्यन्ते। तत्र नैगमो भणतिषण्णां प्रदेशः। तद्यथा-(धम्मपएस इत्यादि) धर्मशब्देन धर्मास्तिकायो गृह्यते, तस्य प्रदेशो धर्मप्रदेशः / एवमधर्माऽऽकाशजीवास्तिकायेष्वपि योज्यम्। स्कन्धं पुद्गलद्रव्यनिचयः, तस्य प्रदेशः स्कन्धप्रदेशः, देश एषामेव पञ्चानां धर्मास्तिकायाऽऽदिद्रव्याणा प्रदेशद्वयाऽऽदिनिर्वृत्तोऽवयवः, तस्य प्रदेशो देशप्रदेशः / अयं च प्रदेशसामान्याव्यभिचारात् षण्णां प्रदेश इत्युक्तम् , विशेषविवक्षायां तुषट् प्रदेशाः, एवं वदन्तं नैगर्म प्रति निपुणतरः संग्रहो भणति, यद्भणसि-षण्णां प्रदेश इति, तन्न भवति तन्न यु-ज्यते। कस्माद् ? यस्माद्यो देशप्रदेश इति षष्ठे स्थाने भवतां प्रति-पादितं, तदसङ्गतमेव / यतो धर्मास्तिकायाऽऽदिद्रव्यस्य संबन्धी यो देशस्तस्य यः प्रदेशः, स वस्तुवृत्त्या तस्यैव द्रव्यस्य यत्संबन्धी देशो विवक्ष्यते, द्रव्याव्यतिरिक्तस्य देशस्य यः प्रदेशः स द्रव्यस्यैव भवति। यथा कोऽत्र दृष्टान्त इत्याह-"दासेणेत्यादि" लोकेऽ
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________________ णय 1854 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय प्येव व्यवहृतिर्दृश्यते। यथा कश्चिदाह-मदीयदासेन खरः क्रीतः, तत्र दासोऽपि मदीयः, खरोऽपि मदीयः, दासस्य मदीयत्वात् तत्-क्रीतः खरोऽपि मदीय इत्यर्थः / एवमिहाऽपि देशस्य द्रव्यसंबन्धित्वात् तत्प्रदेशोऽपि द्रव्यसंबन्ध्येवेति भावः। तस्मान्मा भणषण्णां प्रदेशः, अपि त्वेवं भण-पञ्चानां प्रदेश इति, त्वदुक्तषष्ठदेशस्यैवाऽघटनादित्यर्थः। तदेव दर्शयति-तद्यथा-धर्मप्रदेश इत्यादि। एतानि पञ्च द्रव्याणि, तत्प्रदेशश्वेत्येवमविशुद्धसंग्रह एवं मन्यते, अवान्तरद्रव्यसामान्याऽऽद्यभ्युपगमात्। विशुद्धस्तु द्रव्यबाहुल्यं प्रदेशकल्पनांच नेच्छत्येव, सर्वस्यैव वस्तुसामान्यक्रोडीकृतत्वेनैकत्वादित्यलं प्रसङ्गेन। प्रकृतमुच्यते-एवं वदन्तं संग्रह ततोऽपि निपुणो व्यवहारो भणति-यद्भणसि-पञ्चानां प्रदेश इति, तन्न भवति न युज्यते, कस्मात् ? यदि यथा पञ्चानां गोष्ठिकानां पुरुषाणा किञ्चित् द्रव्यं सामान्यमेकं भवति / तद्यथा-हिरण्यं वेत्यादि / एवं यदि प्रदे-शोऽपि स्याततो युज्यते वक्तुं पञ्चानां प्रदेश इति। इदमुक्तं भवतियथा केषाञ्चित्पञ्चानां पुरुषाणां साधारणं किञ्चिद्विरण्याऽऽदि भवति, एवं पञ्चानामपि धर्मास्तिकायाऽऽदिद्रव्याणां यद्येकः कश्चित्साधारणप्रदेशः स्यात्तदेयं वाचो युक्तिर्घटत; न चैतदस्ति, प्रतिद्रव्यं प्रदेशभेदात्। तस्मान्मा भणपञ्चानां प्रदेशः / अपि तु पञ्चविधः पञ्चप्रकारः प्रदेशः, द्रव्यलक्षणस्याऽऽश्रयस्य पञ्चविधत्वादिति भावः। तदेवाऽऽह-धर्मप्रदेश इत्यादि। एवं वदन्तं व्यवहारमृजुसूत्रो भणति-यद्भणसिपञ्चविधः प्रदेशः, तन्न भवति, कस्मात् ? यस्मादेव पञ्चविधः प्रदेशः, एवमेकैको धमास्तिकायाऽऽदिप्रदेशः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, शब्दादत्र वस्तुव्यवस्था, शब्दे त्वेवमेव प्रतीतर्भवति / एवं च सति पञ्चविंशतिविधः प्रदेशः प्राप्नोति। तन्मा भणपञ्चविधः प्रदेशः, किं त्वेवं भण-भाज्यः प्रदेशः स्याद्धर्मप्रदेश इत्यादि / इदमुक्तं भवति-भाज्यो विकल्पनीयो विभजनीयः प्रदेशः कियद्भिर्विभागैः स्याद्धर्मप्रदेश इत्यादि पञ्चभिः, ततश्च पञ्चभेद एव प्रदेशः सिद्ध्यति। स च यथा स्वमात्मीयमात्मीय एवाऽस्ति, नपरकीयः, तस्यार्थक्रियासाधकत्वात्, प्रस्तुतनयमतेनासत्त्वा-दिति। एवं भणन्तमृजुसूत्रं प्रति शब्दनयो भणति-यद्भणसि-भाज्यः प्रदेशः, तन्न भणति, कुतः ? यदि भाज्यः प्रदेशः, एवं ते धर्मास्तिकायप्रदेशोऽपि कदाचिदधर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशः स्यात् , अधर्मास्तिकायप्रदेशोऽपि कदाचिद्धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशः स्यात् , इत्थमपि भजनाया अनिवारितत्वात् , यथा एकोऽपि देव-दत्तः कदाचिद्राज्ञो भृत्यः, कदाचिदमात्याऽऽदेरिति। एवमाकाशास्तिकायाऽऽदिप्रदेशेऽपि वाच्यम्। तदेवं नैयत्याभावादनवस्था प्रपद्यते। तन्मैवं भण-भाज्यः प्रदेशः, अपि तु इत्थं भण-" धम्मे पएसे से पएसे धम्मे" इत्यादि। इदमुक्तं भवतिधर्मप्रदेश इति, धर्माऽऽत्मकः प्रदेश इत्यर्थः। अत्राऽऽह-नन्वयं प्रदेशः सकल-धर्मास्तिकायादव्यक्तिरिक्तः सन् धर्माऽऽत्मक इत्युच्यते, आहो-स्थित् तदेकदेशाव्यतिरिक्तः सन् , यथा सकलजीवास्तिकायैकदेशैकजीवद्रव्याव्यतिरिक्तः संस्तत्प्रदेशो जीवाऽऽत्मक इतिव्यप-दिश्यत इत्याह-(से पएसे धम्मे त्ति) स प्रदेशो धर्मः, सकलधर्मा-स्तिकायादव्यतिरिक्त इत्यर्थः / जीवास्तिकाये हि परस्पर भिन्ना-न्येवानन्तानि जीवद्रव्याणि भवन्त्यतो य एकजीवद्रव्यस्य प्रदेशः, सनिःशेषजीवास्तिकायैकदेशवृत्तिरेव सन जीवाऽऽत्मक इत्यु-च्यते। अत्र तुधर्मास्तिकाय एकमेव द्रव्य, ततः सकलधर्मास्ति-कायाव्यतिरिक्त एव संस्तत्प्रदेशो धात्मक उच्यत इति भावः / अधर्माऽऽकाशास्तिकाययोरप्येकैकद्रव्यत्वादेवमेव भावनीयम्। जीवास्तिकायेतु (जीवे पएसे पएसे नो जीवे त्ति) जीवः प्रदेश इति, जीवास्तिकायाऽऽत्मकः प्रदेश इत्यर्थः / स च प्रदेशो नोजीवः, नोशब्दस्येह देशवचनत्वात् , सकलजीवास्तिकायैकदेशवृत्तिरित्यर्थः / यो ह्येक जीवोद्रव्याऽऽत्मकः प्रदेशः स कथमनन्तजीवद्रव्याऽऽत्मके समस्तजीवास्तिकाये वर्तेत इति भावः / एवं स्कन्धाऽऽत्मकः प्रदेशो नोस्कन्धः, स्कन्धद्रव्याणामनन्तत्वादेकदेशवर्तिरित्यर्थः / एवं वदन्तं शब्दनयं नानार्थसमभिरोहणासमभिरूढः प्राऽऽह-यद्भणसिधर्मः प्रदेशो धर्म इत्यादि, तन्न भवति न युज्यते, कस्मात् ? इत्याह-इह खलु द्वौ समासौ भवतः / तद्यथातत्पुरुषः, कर्मधारयश्च / इदमुक्तं भवति-" धम्मे पएसे से पएसे धम्मे" इत्युक्ते समासद्वयाऽऽरम्भकवाक्यद्वयमत्र संभाव्यते / तथाहि-यदि धर्मशब्दात् सप्तमीयं तदा सप्तमीतत्पुरुषस्याऽऽरम्भकमिदं वाक्यम् / यथा वने हस्तीत्यादि / अथवा-प्रथमा, तदा कर्मधारयस्य / यथानीलमुत्पलमित्यादि। ननु यदि वाक्यद्वयमेवाऽत्र संभाव्यते, तर्हि कथं द्वौ समासौ भवत इत्युक्तम् ? उच्यतेसमासाऽऽरम्भकवाक्ययोः समासोपचारात्। अथवा-अलुक्समासविवक्षया समासावप्येतौ भवतः, यथा-कण्ठे काल इत्यादी-त्यदोषः / यदि नाम द्वौ समासावत्र भवतः, ततः किमित्याह-तन्न ज्ञायते कतरेण समासेन भणसि ? किं तत्पुरुषेण ? कर्मधारयेण वा ? यदि तत्पुरुषेण भणसि, तन्मैवं भण, दोषसंभवादिति शेषः। स चाऽयं दोष: धर्मे प्रदेश इति भेदाऽऽपत्तिः, यथा कुण्डे वदराणी-ति।नच प्रदेशप्रदेशिनौ भेदेनोपलभ्येते। अथ अभेदेऽपि सप्तमी दृश्यते। यथा-घटे रूपमित्यादि। एवमुभयत्र दर्शनात्संशयलक्षणो दोषः स्यात्। अथ कर्मधारयेण भणसि, ततो विशेषेण (धम्मे असे पएसे असे त्ति) धर्मश्च स प्रदेशश्च स इति समानाधिकरणः कर्मधारयः। एवं च सप्तम्याशङ्काऽभावतो न तत्पुरुषसंभव इति भावः। आह-नन्वयं प्रदेशः समस्तादपि धर्मास्तिकायादव्यतिरिक्तः सन् समानाधिकरणतया निर्दिश्यते, उत तदेकदेशवृत्तिः सन् ? यथा जीवास्तिकायैकदेशवृत्तिजीवप्रदेश इत्याशङ्कयाऽऽह-(मे से पएसे धम्मे ति) स च प्रदेशः सकलधर्मास्तिकायाऽऽदिव्यतिरिक्तो, न पुनस्तदेकदेशवृत्तिरित्यर्थः / शेषभावना पूर्ववत्।" से पएसे नो जीवे से पएसे नो खंधे " इत्यत्राऽपि पूर्ववदेवार्थकथनम् / एवं वदन्तं समभिरूढं प्रत्येवंभूतो भणति-यद्यद् धर्मास्तिकायाऽऽदिक वस्तु भणसि, तत्तत्सर्वसमस्तं कृत्स्नं देशप्रदेशकल्पनारहितं प्रतिपूर्णमात्मस्वरूपेणाऽविकलं निरवशेषं तदेवैकत्वानिरवयवम् , एक्ग्रहणगृहीतम् एकाभिधानाभिधेयं, नामानि होकस्मिन्नर्थे नेच्छन्ति, अभिधानभेदे वस्तुभेदाभ्युपगमात् / तदेवंभूतं तद् धर्मास्तिकायाऽऽदिकं वस्तु भण, न तु प्रदेशाऽऽदिरूपतया, यतो देशप्रदशौ ममाप्रदेशौ अवस्तुभूतो, अखण्डस्यैव वस्तुनः सत्त्वेनोफ्गात् / तथा-हि-प्रदेशप्रदेशिनोभेंदोऽभेदो वा ? यदि प्रथमः पक्षः, तर्हि भेदेनोपलब्धिप्रसङ्गः, न च तथोपलब्धिरस्ति / अथाऽभेदस्तर्हि धर्मप्रदेशशब्दयोः पर्यायतैव प्राप्ता, एकार्थविषयत्वात्। न च पर्यायशब्दयोर्युगपदुचारणं युज्यते, एकेनैव तदर्थप्रतिपादने
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________________ णय 1885 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय द्वितीयस्य वैयर्यात् , तस्मादेकाभिधानाभिधेयं परिपूर्णमेकमेव वस्त्विति / तदेवमेते निजनिजार्थसत्यताप्रतिपादनपरा विप्रतिपद्यन्ते नयाः / एते च परस्परं निरपेक्षा दुर्नयाः सौगताऽऽदिसमयवत् . परस्परसापेक्षास्तुसुनयाः, तैश्च परस्परसापेक्षैः समुदितैरव संपूर्णजिनमतं भवति, नैकैकावस्थायाम्। उक्तं च स्तुतिकारण" उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ! दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ||1|| एते च नया ज्ञानरूपाः, ते जीवगुणत्वेन यद्यपि गुणप्रमाणेऽन्तर्भवन्ति, तथाऽपि प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणेभ्यो नयरूपतामात्रेण पृथक् सिद्धत्वाद् बहुविचारविषयत्वाजिनाऽऽगमे प्रतिस्थानमुपयोगित्वाच्च गुणप्रमाणाः पृथगुक्ताः, तदेतत्प्रदेशदृष्टान्तेनेति निगमनम् / प्रस्थकाऽऽदिदृष्टान्तत्रयेणैव नयप्रमाणं प्रतिपाद्योपसंहरति-तदेत-नयप्रमाणमिति। अनेन च दृष्टान्तत्रयेण दिगमात्रदर्शनमेव कृतं,यावता यत्किमपिजीवाऽऽदिवस्त्वस्ति, तत्र सर्वत्र नयविचारः प्रवर्तते, इत्यलं बहुजल्पितेनेति। अनु०। (22) एतैर्दृष्टान्तैरयमस्मान्नयाच्छुद्ध इति कथं ज्ञेयम् ? इत्याहशुद्धा ह्येतेषु सूक्ष्मार्थाः, अशुद्धाः स्थूलगोचराः। फलतः शुद्धतां त्वाहु-र्व्यवहारे न निश्चये / / 74 / / (शुद्धा हीति) एतेषु नयेषु उक्तदृष्टान्तरीत्या ये यतः सूक्ष्मार्थाः ते ततः शुद्धाः, ये च यतः स्थूलगोचराः ते ततोऽशुद्धाः, सूक्ष्मत्वं स्थूलत्वं चाऽर्थानां तादृशतादृशबुद्धिविषयत्वेनानुगमनीयम् , न तु बह्वल्पविषमभावेन, तथासत्युत्तरोत्तरेभ्यः पूर्वपूर्वेषां सूक्ष्मार्थत्वप्राप्तेः। यत उक्तम् (प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारे)- पूर्वः पूर्वो नयः प्रचुरगोचरः, परः परस्तु परिमितविषयः॥ 46 / / सन्मात्रगोचरात् संग्रहान्नैगमो भावाभावभूमिकत्वाद् भूमविषयः / / 47 / / सद्विशेषप्रकाशकाद् व्यवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदर्शकत्वाद् बहुविषयः / / 48 / / वर्तमानविषयादृजुसूत्राद् व्यवहारस्त्रिकालविषयाऽवलम्बित्वादनल्पार्थः / / 46 / / कालाऽऽदिभेदेन भिन्नार्थोपदर्शिनः शब्दादृजुसूत्रस्तद्विपरीतवेदकत्वान्महार्थः // 50 // प्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमभीप्सतः समभिरूढाच्छब्दस्तद्विपर्ययानुया-यित्वात्प्रभूतविषयः / / 51 प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थ प्रतिजानानादेवंभूतात् समभिरूढस्तदन्यथाऽर्थस्थापकत्वाद्महागोचरः // 52 // " इति। एवं सदृजुसूत्राऽऽदेर्व्यवहारस्य वह्वर्थत्वेन सूक्ष्मार्थत्वं स्यादिति बहुविचारसहत्वं सूक्ष्मार्थत्वम्, अल्पविचारसहत्वं च स्थूलार्थत्वमित्यादिकं वा यथासमयं परिभाषणीयम्, इत्थंचनिश्चयनया एवैतेषु शुद्धाः, व्यवहारनयाश्चाशुद्धा इति फलितम / निश्वयत्वं च | व्यवहारतदुपजीवनयान्यनयत्वं व्यवहारतदपजीवितयाऽन्यतरत्वमिति / विवेकः / "अहवा सव्वणयमयं, विणिच्छओ इगमयं च ववहारो (विशे०)" इति भाष्योक्तं पक्षान्तरं च निश्चयस्य सप्तभड्ग्यादिविशेषिततयोपपादनीयम् / अयं च निश्चयव्यवहारयोः शुद्धाशुद्धत्वोपन्यासः स्वरूपतः; फलतः शुद्धतां त्वभियुक्तां च व्यवहारनये प्राहुन तु निश्चये / / 74 ।नयो०। व्य०॥ (23) के पुनस्ते प्रभेदाः ? इत्याहइक्किको य सयविहो, सत्त नयसया हवंति एमेव / अन्नो वि य आएसो, पंचेव सया नयाणं तु / / 2264 / / एतेषां मूलजातिभेदतः सप्तानां नैगमाऽऽदिनयानामेकैकः प्रभेदतः शतविधः शतभेदः / एवं च सर्वैरपि प्रभेदैः सप्त नयशतानि भवन्ति / अन्योऽपि चाऽऽदेशः प्रकारः, तेन पच नयशतानि भवन्ति / शब्दाऽऽदिभिस्त्रिभिरपि नयैर्यदा एक एव शब्दनयो विवक्ष्यते तदा पञ्चैव मूलनया भवन्ति, एकैकस्य च शतविधत्वात्पञ्चशतविधत्वं नयानाम्। (अन्नो वि यत्ति) अपिशब्दात्षट्, चत्वारि, द्वे वा शते नयानाम् / तत्र यदा सामान्यग्राहिणो नैगमस्य संग्रहे, विशेषग्राहिणस्तु व्यवहारेऽन्तर्भावो विवक्ष्यते, तदा मूलनयानां षड्विधत्वादेकैकस्य च शतभेदत्वात्षट् शतानि नयानाम् ; यदा तु संग्रहव्यवहारऋजुसूत्रलक्षणास्त्रयोऽर्थनयाः विवक्ष्यन्ते, एकस्तु शब्दनयः पर्यायास्तिकस्तदा चत्वारो मूलनया भवन्ति, प्रत्येकं च शतभेदत्वाचत्वारि नयशतानि। यदातुनैगमाऽऽदयश्वत्वारोऽप्येको द्रव्यास्तिकः, शब्दनयास्तु त्रयोऽप्येक एव पर्यायास्तिक इत्येवं द्वावेव नयौ विवक्ष्येते, तदा अनयोः प्रत्येक शतभेदत्याद्वे नयशते भवतः / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 2264 / / (24) अथवा किमनेन स्तोकभेददर्शनेन ? उत्कृष्टतोऽसंख्याता अपि नया भवन्ति, तेऽपि चापिशब्दाद् द्रष्टव्या इतिदर्शयन्नाहजावंतो वयणपहा, तावंतो वा नया विसद्दाओ। ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सवे / / 2265 / / ' वा ' अथवा, यावन्तो वचनपथा वचनमार्गाः, वचनप्रकारास्तेऽपीहापिशब्दात्संगृहीताः। य एव च नयास्त एव च सावधारणाः सर्वेऽपि परसमयास्तीर्थिकसिद्धान्ताः, समुदितास्तु निरवधारणाः स्याच्छन्दलाञ्छिताः सर्वेऽपि नयाः सम्यक्त्वं जिनशासनभावं प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः / आह च स्तुतिकारः-"उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ! दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः // 1 // इति / / 2265 / / एतदक्षममाणः परः प्राऽऽहन समेंति न य समेया, सम्मत्तं नेव वत्थुणो गमगा। वत्थुविघायाय नया, विरोहओ वेरिणो चेव / / 2266 // न समयन्ति न समुदायभावमापद्यन्ते नयाः, नाऽपि समेतास्ते सम्यक्त्वं भवन्ति, प्रत्येकावस्थायां मिथ्यादृष्टित्वात्, तत्समुदाये महामिथ्यात्वप्रसङ्गात्, प्रचुरविषलवसमुदाये विषप्राचुर्यवत् / नाऽपि तेसमेता वस्तुनो गमकाः, प्रत्येकावस्थायां तदगमकत्वात् / समुदिताश्च ते विवदमानाः प्रत्युत वस्तुविधातायैव भवन्ति, न पुनस्तद्गमकाः / कुतः पुनस्ते न समयन्ति ? नच समुदिताः सम्यक्त्वं, नाऽपि वस्तुगमकाः? इत्याहविरोधित्वाद्वैरिवदिति // 2266 // अत्रोत्तरमाहसव्वे समयंति सम्म, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि। मिच्चववहारिणो इव, राओदासीणवसवत्ती।। 2267 / / परस्परविरुद्धा अपि नयाः सर्वेऽपि समयन्ति समुदिता जायन्ते, सर्व च सम्यक्त्यं भवन्ति / कु तः ? इत्याह-एक स्य जिनसाधोर्वशवर्तित्वाद् , राजवशवर्तिनानाऽभिप्रायभृत्यवर्गवत् / अथवाव्यवहारिण इवोदासीनवशवर्तिनः / इदमुक्तं भवति-यथा नयदर्शिना आज्ञासारेण एके न राज्ञा विरोधाऽऽदिभावमा
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________________ णय १५५६-अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 Ury पन्ना बहवोऽपि भृत्याः सम्यगुपायतो विरोधाऽऽदिकारणान्यपनीय एकत्र मील्यन्ते, सत्प्रवृत्तिं च कार्यन्ते; यथा वा धनधान्यभूम्याद्यर्थे परस्पर विवदमाना बहवोऽप्यर्थिप्रत्यर्थिलक्षणा व्यवहारिणः सम्यगन्यायदर्शिना केनाऽप्युदासीनेन युक्तिभिर्विवादकारणान्यपनीय मील्यन्ते, सन्मार्ग च ग्राह्यन्ते, तथेहापि परस्परविरुद्धान्बहूनपि नयान् सम्यग्ज्ञानी जैनसाधुस्तेषां सावधारणतालक्षणं विरोधकारणमपनीय एकत्र मीलयति, सावधारणत्वे च मिथ्यात्वकारणेऽपनीते तान् सम्यग्रुपतां ग्राहयति / प्रचुरविषलवा अपि हि प्रौढमन्त्रवादिना निर्विषीकृत्य कुष्ठाऽऽदिरोगिणो दत्ता अमृतरूपतां प्रतिपद्यन्त एवेति // 2267 / / प्रत्येकावस्थायामेकैकांशग्राहित्वात्समुदिता अपि कथं ते वस्तुगमकाः? इत्याहदेसगमगत्तणाओ, गमग चिय वत्थुणो सुयाऽऽइ व्व। सव्वे समत्तगमगा, केवलमिव सम्मभावम्मि॥ 2268 / / इह नया वस्तुनस्तावत्सामान्येन गमका अवबोधकाः, प्रापका इति पक्षः, तद्देशगमकत्वात्। ननु वस्तुनो देशमात्रमेव प्रत्येकममी गृह्णन्ति, तत्कथं वस्तुगमका उच्यन्ते ? इत्याह-श्रुताऽऽदिवत्। इदमुक्तं भवतिघटाऽऽदीना रूपमात्रमेव चक्षुर्गृह्णाति, न रसाऽऽदिधर्मान् पर्वताऽऽदीनां चार्वाग्देशमात्रमेव गृह्णाति,न परभागमिति / एवं देशग्राहकमपि सद्वस्तु गमयत्येव, एवं नया अपि। किञ्च-एत एव सर्वे नयाः मिथ्यात्वापगमेन सम्यक्त्वसद्भावे क्रमेण विशुद्धयमानाः सर्वाऽऽवरणप्रतिबन्धाभावासमस्तवस्तुगमका भवन्ति, केवलज्ञानमिवेति / / 2268 / / आह-ननु यदि ते प्रत्येकमपि वस्तुगमकाः, तर्हि मिथ्यादृष्टयः कथम् ? | इत्याहजमणेगधम्मणो व-त्थुणो तदंसे च सव्वपडिवत्ती। अंध व्व गयावयवे, तो मिच्छद्दिविणो वीसु // 2266 / / यद्यस्मादनेकधर्मस्यानेकधर्माऽऽत्मकस्य वस्तुनस्तदंशेऽपि गृहीतेऽनित्यत्वादेकधर्ममात्रेऽपि परिच्छिन्ने बौद्धाऽऽदेर्नयवादिनः" समस्तं वस्तु मया गृहीतम् " इत्येवंभूता प्रतिपत्तिर्भवति; ततस्तस्माद्विष्वक्पृथगेकैकशी मिथ्यादृष्टयः, विपर्यस्तबुद्धित्वात् , एकस्मिन्पुच्छपादाऽऽद्यवयवे समस्तगजप्रतिपत्तारोऽन्धा इवेति / / 2266 / / समुदिता अपि तर्हि कथं ते सम्यग्दृष्टयः? इत्याहजं पुण समत्तपञ्जा-यवत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं / सम्मत्तं चक्खुमओ, सध्वगयावयवगहणे व्व // 2270 / / यस्मात् तु समुदिता नयाः समस्तपर्याया यस्य वस्तुनः तत्समस्तपर्याय वस्तु, तस्य गमकाः प्रापकाः भवन्ति / तेन ते सम्यक्त्वं सम्यग्यादिनो व्यपदिश्यन्ते / यथा समस्तगजावयवग्रहणे सर्वगजावयवसमुदायाऽऽत्मकगजवादिनचक्षुष्मन्तः / निरवधारणोऽपर - नयसापेक्षः स्यात्पदलाञ्छित एकोऽपि नथः सम्यग्वादी, ये तुसावधारणा अन्योन्यमनपेक्षाः स्यात्पदलाञ्छिताः ते बहवोऽपि समुदिता मिथ्यादृष्टय एवेतीह तात्पर्यम्। अत एव ये सावधारणास्ते बहवोऽपि समुदितव्यपदेशं नलभन्ते, तत्त्वतस्तेषामसमुदितत्वा-त्। निरवधारणास्तु नयाः पृथगपि स्थिताः परस्परं सापेक्षत्वेन समुदिता भण्यन्त इति / / 2270 / / दृष्टान्तान्तरेणाऽपि समुदितानां समस्तवस्तुगमकत्वं समथर्यन्नाहन समत्तवत्थुगमगा, वीसुं रयणाऽऽवली मणओ व्व। सहिया समत्तगमगा, मणओ रयणाऽऽवलीए व्व / / 2271 / / न समस्तवस्तुगमकाः पृथग्भूता नयाः, परस्परनिरपेक्षत्वात् , पृथस्थितरत्नावलीव्यपदेशानहमणय इव / त एव समुदिताः समस्तवस्तुगमकाः, यथास्थानविनियोगेन परस्परसापेक्षत्वाद्, एकसूत्रक्रमप्रोतरत्नावलीमणय इवेति / / 2271 / / अथ परस्परं विवदमानान्नयान्समीक्ष्य ये मुह्यन्ति, न किचिदिह परस्परं मिलति' इत्यादि भाषणतः समयाऽऽ सातनां च कुर्वन्ति, तदुपदेशगर्भमुपसंहरन्नाहएवं सविसयसच्चे, परविसयपरंमुहत्तए नाउं। नेएसुन संमुज्झइ, न य समयाऽऽसायणं कुणइ // 2272 / / एवमुक्तप्रकारेण यो यस्य द्रव्यास्तिकायाऽऽदिनयस्याऽऽत्मीयो नित्यत्वाऽऽदिको विषयस्तन्मात्रप्रतिपादने सत्योऽवितथो नयः, परस्य तुपर्यास्तिकाऽऽदिनयस्य योऽनित्यत्वाऽऽदिको विषयस्तत्र पराङ्मुखः, नतं निराकरोति, निरवधारणत्वेन सम्यग्नयत्वात्, नाऽपितं स्थापयति, नयत्वेनैकांशग्राहित्वादित्यर्थः / एवंभूतान् सर्वानपि नयान् ज्ञात्याऽन्योऽन्यरूपतया तेषां स्वविषयप्रतिपादनेऽपि नयविधिज्ञः साधु येषु वस्तुषु न संमुह्यति, न दोलायमानमानसो भवति / नाऽपि निन्दाऽऽदिभिः समयाऽऽशातनां विधाय मिथ्यात्वमुपगच्छति, किंतु' कथञ्चिदेतदप्यस्ति, कथञ्चिदिद-मपि च घटते ' इत्यादिरूपतया नयान्विषयविभागेन व्यवस्थाप्य वस्त्वर्थ गमयतीति / / 2272 / / विशे० / उत्त० / स्था०। (25) वस्तुनिबन्धनाऽध्यवसायनिमित्तव्यवहारमूलकारणतामनयोः प्रतिपाद्याधुनाऽध्यारोपितानध्यारोपितनामस्थापनाद्रव्यभावनिबन्धनव्यवहारनिबन्ध नतामनयोरेव प्रतिपादयन्नाहाऽऽचार्यःनामं ठवणा दविए, तिएसु दव्वट्ठियस्स निक्खेवो। भावो उपज्जवट्ठिअ-परूवणा एस परमत्थो / / 6 / / (नाम ठवणेत्यादि)अस्याश्च समुदायार्थः-नामस्थापनाद्रव्यमित्येष द्रव्यार्थिकस्य निक्षेपः / भावस्तु पर्यायार्थिकनिरूपणाया निक्षेप इत्येव परमार्थः / सम्म०१ काण्ड / (नामाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने / नामस्थापनाद्रव्यभावनयानां स्वस्वस्थाने मतानि) तदेवं नामाऽऽदिनयानां परस्परविप्रतिपत्तिमुपदो पसंहारपूर्वकं मिथ्येतरभावं दर्शयितुमाहएवं विवयंति नया, मिच्छाऽभिनिवेसओ परोप्परओ। इयमिह सव्वनयमयं, जिणमयमणवजमचंतं / / 72 // एवमुक्तप्रकारेण परस्परतो मिथ्याभिनिवेशाद् विवदन्ते विवाद कुर्वन्ति नामनयाऽऽदयो नयाः / ततश्च मिथ्यादृष्टय एते, असंपूर्णाथंग्राहित्वात्, गजगात्रभिन्नदेशसंस्पर्शने बहुविधविवादमुखरजात्यन्धवृन्दवत्। यदि नामैते मिथ्यादृष्टयः, तर्हि निर्मिथ्यं किम् ? इत्याहइदमिहैव लोके वर्तमानमनुभवप्रत्यक्षसिद्धं जिनमतं जैनाऽभ्युपगमरूपम् / कथंभूतम् ? सर्वनयमयं निःशेषनयसमूहाभ्युपगमनिवृत्तम् , अत्यन्तमनवध नामाऽऽदिनयपरस्परोद्भाविताऽविद्यमाननिःशेष
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________________ णय 1887 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय दोषम् , सम्पूर्णाऽर्थग्राहित्वात् , चक्षुष्मतां समन्तात् समस्तहस्ति- | शरीरदर्शनोल्लापवत् / इति गाथार्थः / / 72 // तथा चसम्पूर्णाऽर्थग्रहरूपं जिनमतमेव दर्शयतिनामाऽऽभेअसद्द-त्थबुद्धिपरिणामभावओ निययं / जंवत्थुमत्थि लोए, चउपज्जायं तयं सव्वं / / 73 / / घटपटाऽऽदिकं यत् किमपि वस्त्वस्ति लोके, तत् सर्व प्रत्येकमेव नियतं निश्चितं चत्वारः पर्याया नामाऽऽकारद्रव्यभावलक्षणा यत्र तचतुष्पर्यायम्; न पुनर्यथा नामाऽऽदिनयाः प्राहुः, यथा-केवल-नाममयं वा, केवलाऽऽकाररूपं वा, केवलद्रव्यताश्लिष्ट वा, केवल-भावाऽऽत्मकं वेति भावः / कुतश्चतुष्पर्यायमेव ? इत्याह-(नामादि-भेअ इत्यादि) नामाऽऽदिभेदेष्वेकत्वपरिणतिसंवलितनामाऽऽकारद्रव्यभावेष्वेवेत्यर्थः / शब्दश्चाऽर्थश्व बुद्धिश्च शब्दार्थऽबुद्धय-स्तासां परिणामस्तस्य भावः सद्भावस्तस्मात् , नामाऽऽदिभेदेषु समुदितेष्वेव योऽयंशब्दाऽर्थबुद्धीना परिणामसद्भावस्तस्माद्धेतोः सर्वं चतुष्पर्याय वस्त्वित्यर्थः / प्रयोगःयत्र शब्दार्थबुद्धिपरिणामसद्भावः, तत् सर्व चतुष्पर्यायम्, चतुष्पायत्वाभावे शब्दाऽऽदिपरिणामभावोऽपि न दृष्टः, यथा शशशृङ्गे, तस्माच्छदाऽऽदिपरि-णामसद्भावे सर्वत्र चतुष्पर्यायत्वं निश्चितमिति भावः / इदमुक्तं भवति-अन्योऽन्यसंवलितनामाऽऽदिचतुष्टयाऽऽत्मन्येव वस्तुनि घटाऽऽदिशब्दस्य तदभिधायकत्वेन परिणतिर्दृष्टा, अर्थस्याऽपि पृथुबुध्नोदराऽऽद्याकारस्य नामाऽऽदिचतुष्टयाऽऽत्मकतयैव परिणामः समुपलब्धः, बुद्धेरपि तदाकारग्रहणरूपतया परिणतिस्तदा-त्मन्येव वस्तुन्यवलोकितान चेदंदर्शनं भ्रान्तम् , बाधकाऽभावात्। नाऽप्यदृष्टाऽऽशङ्कयाऽनिष्टकल्पनायुक्तिमती, अतिप्रसङ्गात्, न हि दिनकराऽस्तमयोदयोपलब्धरात्रिन्दिवाऽऽदिवस्तूनां बाधकसम्भावनयाऽन्यथात्वकल्पनासङ्गतिमावहति / न चेहाऽपि दर्शनाऽदर्शने विहायाऽन्यद् निश्चायकं प्रमाणमुपलमामहे, तस्मादेकत्वपरिणत्यापन्ननामाऽऽदिभेदेष्वेव शब्दाऽऽदिपरिणतिदर्शनात् सर्वं चतुष्पर्यायं वस्त्विति स्थितम्। इति गाथाऽर्थः / / 73 / / आह-ननु यदि नामाऽऽदिचतुष्पर्यायं सर्वं वस्तु, तर्हि किं नामा-ऽऽदीनां भेदो नास्त्येव ? इत्याहइय सव्वभेअसंघा-यकारिणो भिन्नलक्खणा एते। उप्पाया इति जं पिव, धम्मा पइवत्थुमाउज्जा / / 74 // इत्येवं ये पूर्व भिन्नलक्षणा भिन्नस्वरूपा धर्मा नामाऽऽदयः प्राक्तोः, ते प्रतिवरत्वायोज्या आयोजनीया इति सम्बन्धः / कथम्भूताः सन्तः? इत्याह-भेदश्च सातश्च भेदसङ्घातौ, सर्वस्य स्वाऽऽश्रय-भूतवस्तुनो भेदसवातौ, तौ कर्तुं शीलं येषां ते सर्वभेदसजातका- रिणो, निजाऽऽश्रयस्य सर्वस्याऽपि वस्तुनः कशिद् भेदकारिणः, कथञ्चित्त्वभेदकारिण इत्यर्थः / तथाहि-केनचिदिन्द्र इत्युच्चरिते अन्यः प्राऽऽह-किमनेन नामेन्द्रो विवक्षितः, आहोस्वित् स्थापनेन्द्रः, द्रव्येन्द्रः, भावेन्द्रो वा? नामेन्द्रोऽपि द्रव्यत किं गोपालदारकः, हालिकदारकः, क्षत्रियदारकः, ब्राह्मणदारकः, वैश्यदारकः, शूद्रदारको वा ? इत्यादि। तथा क्षेत्रतोऽपि नामेन्द्रः, किं भारतः, ऐरवतः, महाविदेहजो वा ? इत्यादि / कालतोऽपि किम-तीतकालसंभवी, वर्तमानकालभावी, | भविष्यन् वा ? इत्यादि; अतीतकालभाव्यपि किमितोऽनन्ततमसमयभावी, असङ्ख्यात-तमसमयभावी, संख्याततमसमयभावी वा ? इत्यादि / भावतोऽपि किं कृष्णवर्णः, गौरवर्णः, दीर्घः, मन्थरो वा ? इत्यादि / तदेवमेको-ऽपि नामेन्द्रस्याऽऽश्रयभूतोऽर्थस्तावद् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाऽधिष्ठितोऽनन्तभेदत्वं प्रतिपद्यते। तथा स्थापनाद्रव्य-भावाऽऽश्रयस्याऽप्युक्ताऽनुसारतः प्रत्येकमनन्तभेदत्वमनुसरणीयम् / इत्येवमेते नामाऽऽदयो भेदकारिणः / अभेदकारिणस्तहिं कथम् ? इति चेत् / उच्यते-यदैकस्मिन्नपि वस्तुनि नामाऽऽदयश्वत्वारोऽपि प्रतीयन्ते, तदाऽभेदविधायिनः / तथाहि-एकस्मिन्नपि शचीपत्यादौ ' इन्द्र' इति नाम, तदाकारस्तु स्थापना, उत्तरावस्थाकारणत्वंतु द्रव्यत्वम् दिव्यरूपसम्पत्तिकुलिशधारण-परमैश्वर्याऽऽदिसंपनत्वं तु भाव इति चतुष्टयमपि प्रतीयते / तस्मादेव सर्वस्य स्वाऽsश्रयभूतस्य वस्तुनो भेदसङ्घातकारिणो भिन्नलक्षणा एते नामाऽऽदयो धर्मा उत्पादव्ययध्रौव्यत्रिकवत् प्रतिवस्तु आयोजनीयाः पर-स्पराऽविनाभाविनः प्रतिवस्तु द्रष्टव्या इति तात्पर्यम् / इति गाथार्थः // 74 / / " नत्थि नएहिँविहूणं, सुत्तं अत्थो अजिणमए किंचि। आसज्जउ सोयारं, नएण य विसारओ बूया ''||1 // इतिवचनाजिनमते सर्व वस्तु प्रायो नयैर्विचार्यते. अतो नामस्थापनाऽऽदीनपि प्रस्तुतान् नयैर्विचारयन्नाहनामाऽऽइतियं दव्व-ट्ठियस्स भावो य पज्जवनयस्स। संगहववहारा पढ-मगस्स सेसा य इयरस्स।। 75 / / एतेषु नामाऽऽदिषु मध्ये नामस्थापना-द्रव्यनिक्षेपत्रयं द्रव्यास्तिकनयस्यैवाऽभिमतं, न पर्यायास्तिकस्य, नामाऽऽदिनिक्षेपत्रयस्य विवक्षितभावशून्यत्वात् , पर्यायास्तिकस्य तु भावग्राहित्वादिति। भावो भावनिक्षेपः पुनः पर्यायास्तिकनयस्याऽभिमतो नेतरस्य, तस्य द्रव्यमात्रग्राहित्वेन भावाऽनवलम्बित्वादिति। आहननु नया नैगमाऽऽदयः प्रसिद्धाः, ततस्तैरेवाऽयं विचारो युज्यते, अथ तेऽत्रैव द्रव्य - पर्यायास्तिकनयद्येऽन्तर्भवन्ति, तयुच्यता कस्य कस्मिन्नन्तर्भावः ? इत्याशड्क्याऽऽह-(संगहेत्यादि) नैगमस्तावत् सामान्यग्राही संग्रहेऽन्तर्भवति, विशेषग्राही तु व्यवहारे, संग्रहव्यव-हारी तु प्रस्तुतनयद्वयस्य मध्ये प्रथमकस्य द्रव्यास्तिकस्य मतम-भ्युपगच्छतः द्रव्यास्तिकमतेऽन्तर्भवत इति तात्पर्यम् / शेषास्तु ऋजुसूत्राऽऽदय इतरस्य द्वितीयस्य पर्यायास्तिकस्य मतमभ्युप-गच्छन्तोऽत्रैवाऽन्तभवन्तीति हृदयम् / आचार्यसिद्धसे नमतेन चेह ऋजुसूत्रस्य पर्यायास्तिकेऽतभावो दर्शितः, सिद्धान्ताऽभिप्रायेण तु संग्रहव्यवहारवद् ऋजुसूत्रस्याऽपि द्रव्यास्तिक एवान्तर्भावो द्रष्टव्यः। तथा चोक्तं सूत्रे-" उजुसुयस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एग दव्यावस्सयं पुहत्तं नेच्छइ" इति / (अस्याऽर्थः-ऋजुसूत्रस्यैकोऽनुपयुक्त आगमत एकं द्र- व्यावश्यक पृथक्त्वं नेच्छति / अनुयोगद्वारसूत्रस्योऽयं पाठः / तट्टीका चेयम्- " उज्जुसुयस्सेत्यादि " ऋजु अतीताऽनागतपरकीयपरिहारेण प्राञ्जलं वस्तु सूत्रयत्यभ्युपच्छतीति ऋजुसूत्रः, अयं हि वर्तमानकालभाव्येव वस्तु अभ्युपगच्छति, नाऽतीतम्: विनष्टत्यात् ; नाऽप्यनागतम्, अनुत्पन्नत्यात् वर्तमानकालभाव्यपि स्वकीयमेव मन्यते, स्वकार्यसाधकत्वा
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________________ णय 1888 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-१ णय त्, स्वधनवत् , परकीयं तु नेच्छति, स्वकार्याऽऽप्रसाधकत्वात् , परधनवत् / तस्मादेको देवदत्ताऽऽदिरनुयुक्तोऽस्य मते आगमत एकं द्रव्याऽऽवश्यकमिति / " पहत्तं नेच्छड त्ति" अतीताऽनागतभेदतः परकीयभेदतश्च पृथक्त्वं पार्थक्यं नेच्छत्यसौ. किं तर्हि ? वर्तमानकालीनं स्वकमेव चाऽभ्युपैति, तचैकमेवेति।) तदनेनाऽस्य द्रव्यवादित्वं दर्शितम् , इति कथं पर्यायास्तिकेऽन्तर्भावः स्यात् ? इति गाथाऽर्थः।। 75 / / आह-ननु संग्रहाऽऽदिनया नामनिक्षेपं सर्वमप्येकत्वेनेच्छन्ति; भेदेन वा? एवं स्थापनाऽऽदिनिक्षेपेष्व पि प्रत्येकं वक्तव्यम् , इत्याशक्याऽऽहजं सामन्नग्गाही, संगिण्हइ तेण संगहो निययं / जेण विसेसग्गाही, ववहारो तो विसेसेइ / / 76 / / सहजुसुया पञ्जा-यवायगा भावसंगहं वेति। उवरिमया विवरीआ, भावं भिंदंति तो निययं / / 77 / / / यद् यस्मात् कारणात् संग्रहनयः सामान्यग्राही सामान्यवादी, तेन कारणेन संगृह्णात्येकत्वेनाऽध्यवस्थति प्रत्येकं त्रितयं नामस्थापनाद्रव्यनिक्षेपलक्षणं यानि कानिचिद् नाममङ्गलानि तत् सर्वमप्येक नाममङ्गलम्, तथा स्थापनामङ्गलान्यशेषाण्यप्येकं स्थापनामङ्गलम् , एवं द्रव्यमङ्गलान्यपरिशिष्टान्यप्येकं द्रव्यमङ्गलमित्यर्थः। व्यवहारनयस्तु येन कारणेन विशेषग्राही, ततो नामाऽऽदिनिक्षेपान् विशेषयति भेदेनेच्छतिनाममङ्गलानि सर्वाण्यपि पृथक् नाममङ्गलत्वेनेच्छति, एवं स्थापनाऽदिनिक्षेपेष्वपि वाच्य-म्॥७६॥ (सदुञ्जसुयेत्यादि) शब्दर्जुसूत्रनयौ पुनः पर्यायैरेकार्थ-भिन्नाऽभिधानैर्वस्तुवक्तुं शीलं ययोस्तौ पर्यायवाचिनौ सन्तौ नाम-स्थापनाद्रव्यनिक्षेपपरिहारेणैकस्यैव भावस्य भावनिक्षेपस्य संगृ-हीतिः संग्रहोऽभिन्नत्वमेकत्वं भावसंग्रहस्तंबूतः प्रतिपादयतः / इदमुक्तं भवति-ऋजुसूत्रशब्दनयौ पूर्वनयेभ्यो विशुद्धत्वादनाम-स्थापनाद्रव्यनिक्षेपं तावद् नेच्छतः, किन्त्वेकमेव भावनिक्षेपमभ्युपग-च्छतः, केवल समभिरूद्वैवंभूतनयाऽपेक्षयाऽविशुद्धत्वाद् विभिन्नाऽनेकपर्यायाऽभिधेयत्वेऽपि भावनिक्षेपस्य संग्रहमेकत्वमेव प्रतिपद्यते, न भिन्नत्वमिति भावः / ततश्चैतन्मतेन यदेव मङ्गलशब्दवाच्यं भावमङ्गलं प्रत्यूद्दोपशमकाऽनिष्टविघातकृद् विघ्नापहरणाऽऽदि-शब्दानामपि तदेव वाच्यम् , न भिन्नम् , इति तात्पर्यम्। (उवरिमया विवरीआ इत्यादि) उपरितनौ तुसमभिरूद्वैवंभूतौ नयौ ऋजुसूत्र-शब्दनयाऽपेक्षया विपरीतौ भिन्नाऽनेकपर्यायाऽभिधेयस्य भावस्यैकत्वं नेच्छतः, किन्तु भिन्नत्वमभ्युपगच्छतः / तथाहि-समभिरूढ-मतेनाऽन्यदेव मङ्गलशब्दवाच्यं भावमङ्गलम् , अन्यच प्रत्येक प्रत्यूहोपशकाऽऽदिपर्यायवाच्यम् / एवम्भूतस्याऽप्येवमेव, केवलमयं पूर्वस्माद् विशुद्धत्वादेकपर्यायाभिधेयमपि भावमङ्गलं भावमङ्गल-कार्य कुर्वदेव मन्यते, नाऽन्यदा, यथा धर्मोपकरणाऽन्वितः सम्यक् चारित्रोपयोगे वर्तमानः साधुरिति / तदेवमृजुसूत्रशब्दनयाऽभ्युपगमापेक्षया विपरीताऽभ्युपगमपरत्वाद् विपरीतावेतौ (तोत्ति)तस्माद्भाव भावमङ्गलाऽऽदिकमर्थ नियतं निश्चितं पर्यायभेदाद भिन्तः-भेदेनेच्छत इत्यर्थः / यदि हि पर्यायभेदेऽपि वस्तुनो न भेदः, तर्हि घटपटऽऽदीनामपि स न स्यादित्यादियुक्तेः पर्यायभेदेन भिन्नमेव भावमङ्गलमभ्युपगच्छत इति भावः / इति गाथाद्वयाऽर्थ / / 76 // 77 / / विशे०। (26) परस्परं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकोतत्क्षणक्षयप्रधाने प्रत्यक्षाऽऽदेः प्रमाणस्थानवताराद्वाधकत्वेन च तस्यैकत्याध्यवसायिनः प्रवृत्तिप्रतिपादनाद् न पर्यायास्तिकाभिमतपूर्वापरक्षणविविक्तमध्यक्षणमात्रं वस्तु, किं त्वतीताऽनागतपर्यायाऽऽधारमेकं द्रव्यं वस्त्विति द्रव्यार्थिकनिक्षेपः सिद्धः, द्रव्यं वा न भूतपर्यायमनुभविष्यत्, पर्यायं चैकमेव, तेनाऽनुभूतपर्यायशब्देन तत्कदाचिदभिधीयते, कदाचिचानुभविष्यत्पर्यायशब्देन, यथाऽतीतधृतसंबन्धो घटो घृतघट इत्यभिधीयते; भविष्यत्तत्सं-बन्धोऽपि तथैवाभिधानगोचरचारी, शुद्धतरपर्यायास्तिकेन च नि-राकारस्य ज्ञानस्याऽर्थग्राहकत्वाऽसंभवात् , साकारस्य ज्ञानार्थ-ग्राहकत्वासंभवात् साकार ज्ञानमभ्युपगतं, तत्संवेदनमेव वाऽर्थ-संवेदनंज्ञानाऽनुभवव्यतिरेकेणाऽपरस्याऽर्थानुभवस्याभावाद् घटोपयोग एव घटः, तन्मतेन तत्पर्यायेणाऽतीतेन परिणश्यद्वा द्रव्यं तच्छब्दवाच्यं द्रव्यार्थिकमतेन व्यवस्थितं पूर्ववत् , अत एव घटाऽऽद्यर्थाभिज्ञस्तत्र चानुपयुक्तो द्रव्यमिति प्रतिपादितो द्रव्यार्थिकनिक्षेपश्च, द्रव्यमागमेवाच्यमनेकधा प्रतिपादितम्, इह तु युक्तिसंस्पर्शमात्रमेवप्रदर्श्यते / तदर्थत्वात्प्रयासस्य / भवति विवक्षितवर्तमान-समयपर्यायरूपेणोत्पद्यत इति भावः" विभाषा ग्रहः " // 3 / 1 / 143 / / (पाणि०) इत्यत्र सूत्रे केचिद्भवतेश्चेत्यपीष्यते। अथवा-भूतिर्भावो वज्रकिरीटाऽऽदिधारणवर्तमानपर्यायेण इन्द्राऽऽदिरूपतया वस्तुनो भवन, तद्ग्रहणपर्यायेण वा ज्ञानस्य भवनं, यथा चाय पर्यायार्थिकप्ररूपणा तथा प्रदर्शित एव प्राक्, न पुनरुच्यते। एष एव नयनिक्षेपानुयोगः प्रतिपादितः, उभयप्रविभागः परमार्थः, परम हृदयमागमस्यैतदव्यतिरिक्तविषयत्वात्सर्वनयवादानाम्, न हि शास्त्रपरमहृदयनयव्यतिरिक्तः कश्चिन्नयो विद्यते / सामान्यविशेषस्वरूपविषयद्वयव्यतिरिक्तविषयोऽन्तराभावाद्विषयिणोऽप्यपरस्य नयान्तरस्याऽभाव इति प्राक् प्रतिपादितम्। एतदपि नयद्वयं शास्त्रस्य परमहृदयम्-द्रव्यं पर्यायाशून्यं, पर्यायाश्च द्रव्याविरहिण इत्येवंभूतार्थप्रतिपादनपरम् , नाऽन्यथेत्येतस्याऽ-र्थस्य प्रदर्शनार्थमाहपज्जवनिस्सामण्णं, वयणं दव्वट्ठियस्स अत्थि त्ति। अवसेसो वयणविही, पज्जवभयणा सपडिवक्खो।।७।। परस्परनिक्षेपस्य नयद्वयस्य प्रत्येकमेवं वचनविधिः-द्रव्यास्तिकस्यानुषक्तविशेषं वचनमस्तीत्येतायन्मानं पर्यायास्तिकस्य स्वपरामृष्टसत्तास्वभावं द्रव्यं पृथिवी घटः शुक्ल इत्याद्याश्रितपर्याय परस्परनिरपेक्षं चोभयनयवचोऽसदेव, वचनार्थासत्त्वाद्वचनमसदर्थमिति तदर्थस्याऽप्यसत्त्वमावेदितं भवतीति समुदायार्थः / अवयवार्थस्तु-पर्यायनयेन सह निःसामान्यमसाधारणं वचन द्रव्यास्तिकस्याऽस्तीत्येतद् भेदवाद्यभ्युपगतस्य, विशेषस्य त्वनुरूपानुप्रवेशात् , एतच वचो निर्विषयं निर्विशेषत्वाद् विवत्कुसुमाऽभिधानवत् / " निर्विशेषं सामान्य, भवेत् शशविषाणवत् / '' इति प्रसाधितत्वात् नाव्याप्तिः, हे तोरसिद्धिः पराऽभ्युपगमादेव परिहृता / तन्न / एकान्तभावनाप्रवृतस्य द्रव्यास्तिक - नयस्य परमार्थिता, पर्यायास्तिक स्याऽप्येवं प्रवृत्तस्य न से ति
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________________ णय 1559 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय पश्चार्द्धन प्रतिपादयति-अवशेष इति शेषः, स चोपयुक्तादन्यः; वचनविधिर्वचनभेदः सत्तविकलविशेषप्रतिपादकः; पर्यायेषु सत्ताव्यतिरिक्तेष्वसत्सुभजनात् सत्ताया आरोपणात् , सत्प्रतिपक्ष इति-सतः प्रतिपक्षो विरोध्यसन भवति / / तथाहि-प्रतिपादको वचनविधिरवस्तुविषयो, निःसामान्यत्वात् , खपुष्पवत् / भावना तु द्रव्यार्थिकवचनविपर्ययेण प्रयोगस्य कार्या / अथवा-अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया इत्यनयोः स्वरूपमभिधायाभिधानस्य द्रव्यास्तिकस्वरूपस्य तदभिधायकस्य प्रतिपादनार्थमाह-(पज्जवणिस्सामण्णमित्यादि) पर्यायान्निष्क्रान्तं तद्विकलं, सामान्य संग्रह स्वरूपं यस्मिन् वचने तत्पर्यायानिःसामान्यं वचनम् / कि पुनस्तदित्याह-अस्तीति, तच द्रव्यार्थिकस्य रूप, प्रतिपादकं वा / यद्वापर्यायऋजुसूत्रनयविषयादन्यो द्रव्यत्वाऽऽदिविशेषः, स एव च निश्चित सामन्यं वचन, द्रव्यत्वाऽऽदिसामान्यविशेषा-ऽभिधायीति यावत / तच्चाशुद्धद्रव्यार्थिक संबन्धि, तत्प्रतिपाद-कत्वेन तत्स्वरूपत्वेन वा अवशेषो वचनविधिर्वर्णपद्धतिः, स प्रतिपक्षोऽस्य वचनस्य पर्यायार्थिक नयरूपः, तत्प्रतिपादको वा पर्यायमेव, अन्यथा कथमवशेषवचनविधिः स्यात् , यदि विशेष नाऽश्रयेत् ? एवं तायद् द्रव्यार्थिकभेदेन भेदमनुभवतां नयानां स्वरूप प्रतिपाद्यानेकान्तभावाभावतयैवेषां सत्यता नास्त्येत्त्प्रतिपादनार्थ ज्ञानानेकान्तमेव तावदाहपज्जवणयवोकतं, वत्थु दव्वट्ठियस्स वयणिज्ज / जाव दविओवओगो, अपच्छिमवियप्पनिव्वयणो / / 8 // / द्रव्यास्तिकस्य वक्तव्यं परिच्छेद्यो विषयो, निश्चयकर्तृवचनं च विकल्पनिर्वचनं, विद्यते पश्चिमं यस्मिन् विकल्पनिर्वचने तत्तथा, ततः परं विकल्पवचनाप्रवृत्तेः, यावदपश्चिमविकल्पनिर्वचनो द्रव्यो-पयोगः प्रवति, तावद् द्रव्यार्थिकस्य विषयो वस्तुतत्त्वपर्यायाऽऽ-क्रान्तमेव / अन्यथा ज्ञानार्थयो रप्रतिपत्ते रसत्त्व प्रसक्तिः / न हि पर्यायानाक्रान्तसत्तामात्रसद्भावग्राहकं प्रत्यक्षमनुमानं वा प्रमाणमस्ति, द्रव्याऽऽदिपर्यायाऽऽक्रान्तस्यैव सर्वदा सत्तारूपस्य ताभ्यामवगतेः। यद्वायद्वस्तु सूक्ष्मतरतमाऽऽदिबुद्धिना पर्यायनयेन स्थूलरूपत्यागेनोत्तरतत्तत्सूक्ष्मरूपाऽऽश्रयणाद् व्युत्क्रान्तं गृहीतत्यक्तम् , यथा किमिदंभूतसामान्य घटाऽऽदिभिर्विना प्रतिपत्तिविषयः, तावत् शुक्लतमरूपस्वरूपोऽन्यो विशेष एव, न द्रव्यार्थिकस्य वस्तुविषयो, यतो यावदपश्विमविकल्प-निर्वचनोऽन्यो विशेषस्तावद् द्रव्योपयोगो द्रव्यज्ञानं प्रवर्तते / न हि द्रव्याऽऽदयो विशेषान्ताः सदादिप्रत्यया विशिष्टकान्तव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यतया प्रतीयन्ते, तथाऽप्रतीयनास्तथाऽभ्युपगमार्हाः, अतिप्रसङ्गात्। तदेवं न सत्ता विशेषविरहिणी, नाऽपि विशेषाः सत्तावि कला इति प्रदोपसंहरन्नाहदव्वढिओ त्ति तम्हा, नत्थि णओ नियम सुद्धजाईओ। न य पज्जवडिओ णा-मको य भयणाय उ विसेसो // 6 // तस्माद् द्रव्यार्थिक इति नयः शुद्धजातीयो विशेषविनिर्मुक्तो नास्ति नियमेनेत्यवधारणाऽर्थः, विषयाभावेन विषयिणोऽप्याभावात् / न च पर्यायार्थिकोऽपि कश्चिन्नयो नामेति प्रसिद्धाऽर्थो नियमेन शुद्धस्वरूपः संभवति, सामान्यविकलात्यन्तव्यावृत्तविशेषविषयाभावेन विषयिणोऽप्यभावात् / यदि विषयाभावादिमौ नयौ न स्तः, यदुक्तम् - ' तीर्थकरवचनसंग्रह ' इत्यादि, तद्विरुध्यते इत्याह-(भयणाय उविसेसो त्ति) भजनायास्तु विवक्षाया एव विशेष इदं द्रव्यमयं पर्याय इत्ययं भेदः, तथा तभेदाद्विषयिणोऽपि तथैव भेद इत्यभिप्रायः / भजना च सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुतत्त्वे उपसर्जनीकृतविशेष यदन्वयिरूपं तद्रव्यम् इति विवक्ष्यति यदा तदा द्रव्यार्थिक विषयः, यदा तूपसर्जनीकृतान्वयिरूपं तस्यैव वस्तुनो यदसाधारणं रूपं तद्विवक्ष्यते तदा पर्यायनयविषयस्तद्-भवतीति। एवंरूपभजनाकृतमेव भेद दर्शयितुमाहदव्वट्ठियवत्तव्वं, अवत्थु णियमेण होइ पञ्जाए। तह पन्जव वत्थु अव-त्थुमेव दव्वट्ठियनयस्स / / 10 / पर्यायास्तिकस्य द्रव्यास्तिकाभिधेयमस्तित्वमवस्त्वेव, भेदरूपापन्नत्वात् , द्रव्यास्तिकस्याऽपि पर्यायास्तिकाभ्युपगता भेदा अवस्तुरूपा एव भवन्ति, सत्तारूपाऽऽपन्नत्वात् / अतो भजनामन्तरेणैकत्र सत्ताया अपस्त्र भेदानांनष्टत्वादिदं द्रव्यमेतेच पर्याया इति नास्ति भेदः / न च प्रतिभासमानयोर्द्रव्यपर्याययोः कथं पर्यायास्तिकद्रव्यास्तिकाभ्यां प्रतिवक्तव्यम् ? यतः प्रतिभासोऽप्रतिभासस्य बाधकः, न तु निथ्यात्वस्य, मिथ्यारूपस्यापि प्रतिभासनात्। तथाहिपर्यायास्तिकः प्राऽऽह-न मया द्रव्यप्रतिभासो निषिध्यते, तस्याऽनुभूयमानत्वात् , किं तु विशेषव्यतिरेकेण द्रव्यस्याप्रतिभासनादव्यतिरेके तुव्यक्तिस्वरूपवत्तस्यानन्चयात् , उभयरूपतायाश्चैकत्र विरोधाऽऽदिगत्यन्तराभावाद् द्रव्याऽप्रतिभासस्तत्र मिथ्यैव, विशेषप्रतिभासस्त्वन्यथा, बाधकाभावात् , यतः प्रतिक्षणं वस्तुनो वृत्ते शोत्पादौ पर्यायलक्षणं न स्थितिः / द्रव्यार्थिकस्तु भजनोत्थापितास्वरूपः प्राऽऽह-अस्माकमप्ययमेवाभ्युपगमः, न विशेष प्रतिभासप्रतिक्षेपः, किं तु तस्य भेदोभयविकल्पैर्वाध्यमानत्वाद् मिथ्यारूपतैव, अभेदप्रतिभासस्त्वनुत्पादव्ययलक्षणस्य द्रव्यत-द्विषयसर्वदाऽवस्थितेरबाध्यमानत्वात् सत्य इति कल्पना। व्यवस्थापितपर्यायास्तिकद्रव्यास्तिकयोरेवंलक्षणप्रदर्शितस्वरूपयोर्मिथ्यारूपताप्रतिपत्तिः सुकरा भविष्यतीत्याहउप्पजंति वयंति अ, भावा निअमेण पञ्जवणयस्स। दव्वट्ठियस्स सव्वं,सया अणुप्पण्णमविणटुं / / 11 // उत्पद्यन्ते प्रागभूत्वा भवन्ति, विशेषेण निरन्वयरूपतया व्रजन्ति गच्छन्ति नाशमनुभवन्ति भावाः पदार्था नियमेन इति अवधारणे / पर्यायनयस्य मतेन प्रतिक्षणमुत्पादविनाशस्वभावा एव भावाः पर्यायस्याऽभिमताः, द्रव्यार्थिकस्य सर्व वस्तु सदाऽनुत्पन्नमविनष्टम् , आकालं स्थितिस्वभावमेवेति मतम् / एतच नयद्वयस्याऽभिमतवस्तुकस्य सर्वं वस्तु सदाऽनुत्पन्नमिति प्राक् प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते। परस्परनिरपेक्षे च उभयनयप्रदर्शितं वस्तु प्रमाणाभावतो न संभवतीत्याहदव्वं पञ्जवविजुयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि। उप्पायद्विइमंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं / / 12 / / द्रव्यं पर्यायविमुक्तं नास्ति, मत्पिण्डस्थासकोशकु शूलाऽऽद्यनुगतमृत्सामान्यप्रतीतेः। द्रव्यविरहिताश्च पर्यायान सन्ति, अनुगतैकाऽऽकारमृत्सामान्यात् तु विरुद्धतया मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलाऽऽदीनां विशेषाणां प्रतिपत्तेः / अतो द्रव्यार्थिकाभिमतं वस्तु पर्यायाऽऽकान्तमेव, न तद्विविक्तं पर्यायाऽभिमतमपि द्रव्यार्थानुषक्तं तद्विकलं, परस्परविविक्तयोः कदाचिदप्यप्रतिभासनात् / किं
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________________ णय 1890- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय भूतं पुनर्द्रव्यमस्ति? इत्याह-उत्पादस्थितिभङ्गा यथा व्यावर्णितस्वरूपाः परस्पराविनिर्भागवर्तिनः, हन्दीत्युपप्रदर्शने / द्रव्यलक्षणं द्रव्यास्तित्वव्यवस्थापको धर्म एव दृश्यताम् , यतः पूर्वोत्तरपर्यायपरित्यागोत्पादाऽऽत्मकै का स्वयं प्रतिपत्तिः तथाभूतद्रव्यसत्त्वं प्रतिपादयतीति उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं वस्त्वभ्युपगन्तव्यम् / एतच त्रितयं परस्परानुबिद्धम् , अन्यतमाभावे तदितरयोरप्यभावात्। सम्म०१ काण्ड। (27) एते च परस्परसव्यपेक्षा द्रव्यलक्षणं च स्वतन्त्रा इति प्रदर्शनायाऽऽहएए पुण संगहओ, पाडिक्कमलक्खणं दुविण्हं पि। तम्हा मिच्छदिट्ठी, पत्तेयं दो वि मूलणया।। 13 / / एते उत्पादादयः संग्रहतः शिविकोद्वाहिपुरुषा इव परस्परस्वरूपोपादानेनैव लक्षणं, प्रत्येकमेकका उत्पादादयो द्वयोरपि द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकयोरलक्षणम्, उक्तवत्तथाभूततद्विषयाभावे तद्ग्राहकयोरपि तथाभूतयोरभावात्, उत्पादादीनां च परस्परविविक्तरूपाणामसंभवात् / तस्मान्मिथ्यादृष्टी एव प्रत्येक परस्परविविक्ता द्वावप्येतौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकस्वरूपो मूलनयौ समस्तनयराशिकारणभूतस्योत्पादे। तद्भवतु परस्परनिरपेक्षयोर्मिथ्यात्वम् , उभयनयाऽऽब्ध स्त्वेकः सम्यग्दृष्टिभविष्यतीत्याहणय तईओ अत्थि णओ, ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपण्णं / जेण दुवे एगता, विभजमाणा अणेगंता / / 14 // न च तृतीयः परस्परसापेक्षोभयथाऽस्ति नयः कश्चित् , तथाभूतार्थस्यानेकान्ताऽऽत्मकत्वात्तदग्राहिणः प्रत्ययस्य नयाऽऽत्मकत्वानुपपत्तेः / न च सम्यक्त्व न तयोः प्रतिपूर्णम् , प्रतिषेधद्वयेन प्रकृतार्थविगतः, अशेषं हि प्रामाण्यं सापेक्षं गृह्यमाणयोरेव विषययोर्व्यवस्थितम, येन द्वावप्येकान्तरूपतया व्यवस्थितौ मिथ्यात्वनिबन्धनतत्परित्यागेनान्वयव्यतिरेको विशेषेण परस्परात्यागरूपे-ण भज्यमानौ गृह्यमाणावनेकान्तौ भवत इति सम्यक्त्वहेतुत्वमेत-योरिति / एवं सापेक्षद्वयग्राहिणो नयत्वानुपपत्तेस्तृतीयनयाभावः। प्रदर्शितनिरपेक्षग्राहिणा तु मिथ्यात्वं दर्शयितुमाहजह एए तह अण्णे, पत्तेयं दुण्णया णया अन्ने / हंदिहु मूलणयाणं, पण्णवणा वावडा ते वि।।१५।। यथैतौ निरपेक्षद्वयग्राहिणौ मूलनयौ मिथ्यादृष्टी, तथा उभयवाद-रूपेण व्यवस्थितानामपि परस्परनिरपेक्षत्वस्य मिथ्यात्वनिबन्धनस्य तुल्यत्वात् प्रत्येकमितरानपेक्षा अन्येऽपि दुर्नयाः / न च प्रकृतनयव्ययव्यतिरिक्तनयान्तराऽऽधत्वादुभयवादस्य नयानामपि वैचित्र्यादन्यत्राऽऽरोपयितुमशक्यत्वात् तद्रूपस्यान्ये सम्यक् प्रत्य-या भविष्यन्तीति वक्तव्यम् , यतः हन्दीत्येवं गृह्यताम, हुरिति हेतौ, मूलनयद्वयपरिच्छिन्नवस्तुनि ये व्यापृतास्तेऽपि तद्विषयव्यतिरिक्तविषयान्तराऽभावात् सर्वनयवादानां च सामान्यविशेषोभयैकान्तविषयत्वात् तन्न नयान्तरसद्भावः, यतस्तदारब्धोभयवादे नयान्तरं भवेत्। ननु संग्रहाऽऽदिनयसद्भावात् कथंतव्यक्तिनयान्तराभावः ? सत्यम्। सन्ति संग्रहाऽऽदयः, किं तु तद्विषयव्यतिरिक्तविषयान्त-राभावतस्तदुद्वितविषयास्तेऽपि तदूषणेनैव दूषिता यतो न मूलच्छेदे तच्छाखास्तदवस्थाः संभवन्तीत्याह सव्वणयसमूहम्मि वि, णत्थि णओ उभयवायपण्णवओ। मूलणयाण उ आणं, पत्तेयविसेसियं विति॥ 16 // संग्रहाऽऽदिसकलनयसमूहेऽपि नास्ति कश्चिन्नय उभयवादप्ररू-पकः, यतो मूलनयाभ्यामेव यत् प्रतिज्ञातं वस्तु तदेवाऽऽश्रित्य प्रत्येकरूपाः संग्रहाऽऽदयः पूर्वपूर्वनयाधिगतांशविशिष्टमंशान्तरमधिगच्छन्तीति न विषयान्तरगोचरः। अतोऽवस्थितं परस्परात्यागप्रवृत्तसामान्यविशेषविषयसंग्रहाऽऽद्यात्मकनयद्वयद्वयाधिगमाऽऽत्मकत्वात वस्त्वप्युभयाऽ5त्मकं न केवलं बाह्यघटाऽऽदि वस्तु उभयात्मकं, तथाविधप्रमाणग्राह्यत्वात् किन्त्वान्तरमपि,हर्षशोकभयकरुणौदासीन्याऽऽद्यनेकाऽऽकारविवर्ताऽऽत्मकैकचेतनास्वरूपं तदात्मकहर्षाऽऽद्यनेकविकाराऽनेकाऽऽत्मकं च स्वसंवेदाध्यक्षप्रतीतं, तस्य भेदैकान्तैकरूपताऽभ्युपगमे दृष्टाऽदृष्टविषयसुखदुःखसाधनस्वीकारत्यागार्थप्रवृत्तिनिवृत्तिस्वरूपसकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरिति प्रतिपाद यितुमाहण य दव्वट्ठियपक्खे, संसारो णेव पञ्जवणयस्स। सासयवियत्तिवाई, जम्हा उच्छेअवाईआ।। 17 // द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयद्वयाऽभिमते वस्तुनि न संसारः संभव-ति, शाश्वतव्यक्ति प्रतिक्षणान्यत्वैकान्ताऽऽत्मक चैतन्यग्राहकविषयीकृतत्वात्, पावकज्ञानविषयीकृते उदकवत्। तथाहि-संसारः संसृतिः, सा चैकान्तनित्यस्य पूर्वावस्थापरित्यागे सति न संभवति; तत्परित्यागेनैव गतेर्भवान्तराऽऽपत्तेर्वा संसृतेः संभवात्। नाऽप्यु-च्छेदे उत्पत्त्यनन्तरनिरन्वयध्वंसलक्षणे संसृतिः संभवति, गते - वान्तरापत्ते कथञ्चिदन्वयिरूपमन्तरेणायोगात् / अथैकस्य पूर्वापरशरीराभ्यां वियोगयोगगौ संसारः, असावपि सदाऽविकारिणि न संभवति, नित्यस्य पूर्वाऽपरशरीराभ्यां वियोगयोगाऽनुपपत्तेः। निरन्वयक्षणध्वंसिनोऽप्येकाधिकरणत्वाऽसंभवान्न तल्लक्षणः संसारः, न चाऽमूर्तस्याऽऽत्मनः सर्वगतैकमनोऽभिष्वक्तशरीरेण विशिष्टयोगयोगौ संसारो, मनसोऽकर्तृकत्वेन शरीरसंबन्धस्याऽ-नुपपत्तेः। यो ह्यदृष्टस्य विधाता स तन्निर्वर्तितशरीरेण सह संबध्यते, न चैवं मनः / न च मनसः शरीरसंबन्धेऽपि तत्कुतसुखदुःखोपभो-क्कत्वमात्मनि तस्याऽपगमात. तदर्थ च शरीरसंबन्धोऽभ्युपगम्यत इति तत्संबन्धपरिकल्पनं मनसोव्यर्थम, मनसि सुखदुःखोपभो-कृत्वाभ्युपगमे वा आत्मनः कल्पनावैयर्थ्यम्, मनस आत्मसि-द्धः / / 17 / / सुहदुक्खसंपओगो, ण जुञ्जई णिचवायपक्खम्मि। एगंतच्छेयम्मिवि, सुहदुक्खवियप्पणमजुत्तं / / 18|| सुखेनाऽबाधस्वरूपेण, दुःखेन बाधनालक्षणेनं, संप्रयोगः संब-न्धी, न युज्यते न घटते आत्मनः नित्यवादपक्षे द्रव्यास्तिकाभ्यु-पगमे सुखस्वभावस्याऽविचलितरूपत्वात् सदा सुखरूपतैवाऽऽ-त्मनो न दुःखसंप्रयोगः, दुःखस्वभावत्वे तद्रूपतैव, तत्त्वादेव, एका-न्तोच्छेदे च पर्यायास्तिकपक्षे सुखदुःखसंप्रयोगो न युज्यत इति संबन्धः / तथा पक्षद्वयेऽपि सुखार्थ दुःखवियोगार्थं च विशिष्टनयनं कल्पतेरत्र यतनार्थत्वात्, अयुक्तमघटमानकं सुखदुःखोपादानत्यागार्थप्रयत्नस्याप्ययुक्तत्वम् , उक्तन्यायात् / संसरति निरुपभोगभावैरधिवासितं लिङ्गमिति साङ्ख्यमतमपि निरस्तम्, न्यायस्य सर्वकान्तसाधारणत्वात्।
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________________ णय 1861 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 5 णय एकान्तपक्षे आत्मसुखदुःखोपभोगनिर्वर्तकशरीरसंबन्धहे त्वदृष्टोत्पादकनिमित्तानामप्यसंभवं दर्शयन्नाहकम्म जोगनिमित्तं, वज्झइ बंधट्ठिई कसायवसा। अपरिणउच्छिण्णेसु य, बंधट्ठिइकारणं णत्थि / / 16 / / कादृष्टं योगनिमित्तं मनोवाक्कायव्यापारनिमित्तं, बध्यते आदीयते, बध्यत इति बन्धोऽदृष्ट मेव, तस्य स्थितिः कालान्तरफलदातृत्वेनाऽऽत्मन्यवस्थानम् , सा कषायवशात्क्रोधाऽऽदिसामर्थ्यात् / एतदुभयमप्येकान्तवाद्यभ्युपगत आत्मचैतन्यलक्षणे भावे अपरिणते उत्सन्ने च बन्धस्थितिकारणम् , नास्ति / न ह्यपरिणामिन्यत्यन्तानाधेयातिशये आत्मनि क्रोधाऽऽदयः संभवन्ति / नाऽप्येकान्तोत्सन्नेऽनुसन्धानविकले अहमनेनाक्रुष्ट इति द्वेषसंभवः। तथा चाऽन्य आक्रुष्टोऽन्यो व्यापृतोऽपरो बद्धोऽपरश्च मुक्त इति कुशलाऽकुशलकर्मगोचरप्रवृत्त्याद्यारम्भवैफल्यशक्तिः, न ोकसन्ततिनिमित्तोऽयं व्यवहारः, क्षणिकैकान्तपक्षे सन्ततिकल्पनाबीजभूतो-पादानोपादेयभावस्यैवाऽघटमानत्वात्। न चेयमनुसन्धानप्रतिपत्तिः, मिथ्याद्वेषगर्वशाठ्यासन्तोषाऽऽदीनामन्योन्यविरुद्धस्वभावानां क्रमवर्तिना चिद्विवर्तानां स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धाना तथा तथाऽनुभवितुश्च संशयविपर्यासादृढज्ञाना गोचरीकृतस्यैकस्य चैतस्यानुभवात्। न च बाधारहितानुभवविषयस्यापह्नवः, सुखाऽऽदेर-प्यनुभवविषयस्यापहृतिप्रसङ्गात्। तथा च प्रमाणप्रमेयाऽऽदिव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः / यदपि मिथ्याऽध्यारोपाहानार्थ यत्ने सत्यपि नोक्तरीत्युक्तं, तदप्यनेनैव प्रतिविहितम्, यथोक्तप्रतिपत्ते मिथ्यात्वासिद्धेः / न चाऽनुमाननिश्चितेऽर्थे आरोपबुद्धेरुत्पत्ति—मनिश्चया-वगतधूमध्वज इव / न च मिथ्याज्ञानस्य सहजत्वाविपरीतार्थोप-स्थापकानुमानप्रवृत्तिः, तथाऽभ्युपगमे बोधसन्तानवत्तस्य सर्वदा-ऽनिवृत्तिरित्यनुमितिप्रसक्तिः, असहज तु तत्त्वज्ञानप्रादुर्भावोऽवश्यं निवर्तते शुक्तिकावगमे रजतभ्रम इव, अनिवृतौ वा न प्रमाणबाधकं भवेत् / न च क्षणक्षयनिश्चये स एवाऽहमितिप्रत्ययो युक्तः, अपितुस इवेति स्यात्, न हि गवयनिश्चये गौरेवेति प्रत्ययो दृष्टः, अपि तु गोरिवेति / न च क्रमवत्तेष्वभिष्वङ्गद्वेषाऽऽदिपर्यायेषु चैतन्याऽनुस्यूतिप्रत्ययस्य मानसत्वमात्मनि क्षणक्षयम्, अनुमानानिश्चितत्वेऽपितदेव स्पष्टमनुभूयमानत्वाद, विकल्पद्वयस्य युगपदुत्पत्तिः परेनष्टति विकल्परूपत्वे एकत्वप्रत्ययस्य क्षणिकत्वनिश्चयसमये सद्भावो न भवेदित्येकान्तनित्यानित्यच्युतोभयपक्ष एव बन्धस्थितिकारणं युक्तिसङ्गतम्। किञ्चैकान्तवादिना संसारनिवृत्तिस्तत्सुखमुक्तिप्राप्त्यर्था प्रवृ तिश्चासङ्गतेत्याहबंधम्मि अपूरते, संसारभओहदसणं मोड्। बंधं च विणा मोक्खसु-हपत्थणा णत्थि मोक्खो य / / 20 / / बन्धे चासति संसारो जन्ममरणाऽऽदिप्रबन्धः, तत्र तत्कारणे वा मिथ्यात्वाऽऽदावुपचारात् तच्छब्दवाच्ये भयोघो भीतिप्राचुर्य, तस्य दर्शनम्-सर्वं चतुर्गतिपर्यटनं दुःखाऽऽत्मकमिति पर्यालोचन, मौदयं मूढताऽनुपपद्यमानं संसारदुःखोऽप्यविषयत्वाद् मिथ्याज्ञानं बध्यासुतजनितबाध्यगोचरभीतिविषयपर्यालोचनविद्, मिथ्याज्ञानपूर्विका च प्रवृत्तिर्विसंवादिन्येव बन्धं विना संसारनिवृत्तिः, तत्सुखप्रार्थना च न भवत्येव / अथ मोक्षस्याऽनुपपत्तौ निरपरा धपुरुषवदबद्धस्य मोक्षसंभवात, बन्धाभावश्च योगकषाययोः, प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाऽऽत्मकबन्धहेत्वोरेकान्तपक्षे विरुद्धत्वात् / न चैकरूपत्वाद् ब्रह्मणो बन्धाऽऽद्यभावप्रेरणा न दोषाय, चेतनाऽचेतनाऽऽदिभेदरूपतया जगतः प्रतिपत्तेः / न च भेदप्रतिपत्तिर्मिथ्याऽविद्यानिर्मितत्वादिति वक्तव्यम् , अविद्यायाः प्रतिपत्तिजननविरोधात्, अविरोधे विद्यारूपताप्राप्तेः द्वैतप्राप्तिरिति प्रतिविहितश्चाद्वैतवाद इति न पुनःप्रतन्यते। तदेवमेकान्ताभ्युपगमे बन्धहेत्वाद्यनुपपत्तेरैहिकाऽऽमुष्मिकसर्वव्यवहारविलोप इत्येकान्तव्यवस्थापकाः सर्वेऽपि मिथ्यादृष्टयो नयाः, अन्योऽन्यविषयापरित्यागवृत्तयस्तु त एव सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरन्नाहतम्हा सव्वे विणया, मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिआ उण, हवंति सम्मत्तसब्भावा।।२१।। यस्मादेकान्तनित्याऽनित्यवस्त्वभ्युपगमो बन्धाऽऽदिकारणयोगकषायाऽभ्युपगमबाधितः, तदभ्युपगमोऽपि नित्याऽऽद्येकान्ताऽभ्युपगमप्रतिहत इत्येवंभूतपूर्वोत्तराभ्युपगमस्वरूपाः, तस्मान्मिथ्यादृष्टयः सर्वेऽपि नयाः स्वपक्षप्रतिबद्धाः-स्व आत्मीयः पक्षोऽभ्युपगमः, तेन प्रतिबद्धाः प्रतिहता ये ते इति, नयज्ञानानां च मिथ्यात्वे तद्विषयस्य तदभिधानस्य च मिथ्यात्वमेव / तेनैवं प्रयोग:-मिथ्या सर्वनयवादाः, स्वपक्षेणैव प्रतिहतत्वात् , चौरवाक्यवत् / / अथ तेषां मिथ्यात्वे बन्धाऽऽद्यनुपपत्तौ सम्यक्त्वाऽनुपपत्तिः सर्वत्रेत्याहअन्योऽन्यनिःसृताः परस्परापरित्यागेन व्यवस्थिताः, पुनरिति त एव सम्यक्त्वस्य यथाऽवस्थितवस्तुप्रत्ययस्य सद्भावा भवन्तीति न बन्धाऽऽद्यनुपपत्तिः। ननु यदि नयाः प्रत्येक सन्ति, कथं प्रत्येकावस्थायां तेषां सम्यक्त्वाभावः? स्वरूपव्यतिरेकेणा-परसम्यक्त्वाभावात् ,तस्य चतेष्वभ्युपगमात्। अथन सन्ति, कथं तेषां समुदायः सम्यक्त्वनिबन्धनो भवेत् , असतां समुदाया-नुपपत्तेः ? न चाऽसतोऽपि सम्यक्त्वं, नयवादिष्वपिसम्यक्त्व-प्रसक्तेः नच प्रत्येक तेषां सतामसम्यक्त्वेऽपि तत्समुदाये सम्य-क्त्वं भविष्यति, "दव्वडिओ त्ति तम्हा, णत्थिणओ'' (6) इत्याद्युपसंहारः, तत्र विरोधात् / न च प्रत्येकमेकैकांशग्राहिणः संपूर्णवस्तुग्राहकाः समुदिताइति सम्यक्त्वव्यपदेशमासादयन्ति, तत्ततस्वगोचरापरित्यागेन तत्राऽपि विषयान्तरे तेषामप्रवृत्तेः / न च प्रत्येकमसम्यक्त्वे समुदायेऽपि सम्यक्त्वं युक्तम् , सिकतासु तैल-वत् असतः सदुत्पत्तेविरोधाच / अत्राऽभिधीयते-प्रत्येकमप्यपे - क्षितेतरांशस्वविषयग्राहकतयैव सन्तो नयाः, तद्व्यतिरिक्तरूपतया त्वसन्त इति सतां तत्समुदाये सम्यक्त्वे न कश्चिद्दोषः / नन्वितरेतरविषयापरित्यागवृत्तीनां ज्ञानानां कथं समुदायः संभवी ? येन तत्र सम्यक्त्वमभ्युपगम्येत ? अनुक्तोपालम्भ एषः न ह्येकज्ञानोत्पाद-तस्तेषां समुदायो विवक्षितोऽपि तु स्वपरित्यक्तेतररूपविषयाध्यव-साय एव समुदायः," अन्योऽन्यनिश्रिताः " इत्यनेनानेकार्थः प्रतिपादितः। न हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यामत्यन्तपृथग्भूताभ्यामङ्गुलिद्वयसंयोगवदुभयवादोऽपरप्रारब्धः / सम्म०१ काण्ड। (28) अथ दर्शनयोजनामभिधित्सुराहजातं द्रव्यास्तिकाच्छुद्धा-दर्शनं ब्रह्मवादिनाम् / तत्रैके शब्दसन्मात्रं, चित्सन्मात्रं परे जगुः / / 110 / /
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________________ णय 1892- अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय (जातमित्यादि) शुद्धाद्रव्यास्तिकाद्ब्रह्मवादिनां दर्शनं जातम्। तदाह वादी-" दव्वालियनयपयडीसुद्धा संगहपरूवणा विसओ।"(५) इति। तत्रैके ब्रह्मवादिनः शब्दसन्मात्रमिच्छन्ति, अन्ये च चित्सन्मात्रम् / तत्राऽऽद्यमतावलम्बी शब्दस्वभावं ब्रह्म सर्वेषां शब्दानां सर्वेषां चार्थानां प्रकृतिरित्यभ्युपैति / नयो० / सम्म० / सर्वमेकं सत् , अविशेषादिति द्रव्यास्तिकाऽभिप्रायः। सम्म०३ काण्ड / स्या०। (शब्दब्रह्मवादिनां मतम् ' सह शब्दे वक्ष्यते) (26) अथवा व्यवहारनिश्चयनयद्वये तेषां समवतारोऽतस्तस्यैव व्यवहारनिश्चयनयद्वयस्य स्वरूपमुपदर्शयन्नाहलोगव्यवहारपरो, ववहारो भणइ कालओ भमरो। परमत्थपरो मण्णइ, निच्छइओ पंचवण्णो त्ति। 3556 / / लोकव्यवहाराऽभ्युपगमपरो नयाँ व्यवहारनय उच्यते / स च / कालवर्णस्यैव उत्कटत्वेन लोके व्यवह्रियमाणत्वाद्भणति प्रति-पादयति कालको भ्रमर इति / परमार्थपरस्तु पारमार्थिकार्थवादी नैश्वयिको निश्चयनय उच्यते / स पुनर्मन्यते-' पञ्चवर्णो भ्रमरः 'बादरस्कन्धत्वेन तच्छरीरस्य पञ्चवर्णपुद्गलैर्निष्पन्नत्वात् , शु-क्लाऽऽदीनां च न्यग्भूतत्वेनानुपलक्षणादिति / / 3586 / / विशे० / निश्चयव्यवहारौ हि, द्रौ च मूलनयाँ स्मृतौ। निश्चयो द्विविधस्तत्र, शुद्धाशुद्धविभेदतः॥१॥ (निश्चय इति) हि निश्चितम् , अध्यात्मभाषायां मूलनयौ द्वौ स्मृ-तौ। तौ च निश्चयव्यवहारौ, निश्चिनोति तत्त्वमिति निश्चयः / 1 / व्यवहियते इति व्यवहारः। 2 / तत्राऽपि निश्चयो नाम द्विविधोः द्विप्रकारःस, एकः शुद्धनिश्चयनयः, द्वितीयोऽशुद्धनिश्चयनयः। एवं द्विप्रकारो ज्ञेयः // 1 // यथा केवलज्ञानाऽऽदि-रूपो जीवोऽनुपाधिकः। शुद्धो मत्यादिकस्त्वात्मा-ऽशुद्धः सोपाधिकः स्मृतः।। 2 // यथा हि केवलज्ञानाऽऽदिरूपो जीवोऽनुपाधिकः, उपाधिः कर्म-जन्यः, तेन विहीनोऽनुपाधिकः, शुद्ध इति शुद्धनिश्चयभेदेन प्रथ-मः / अत्र हि केवलज्ञानमासाद्य शुद्धगुणमयाऽऽत्मकरूपेण जीव-स्याऽभेदो दर्शितः। तथा च मतिज्ञानाऽऽदिक आत्मा अशुद्धनि-श्वयभेदेन द्वितीयः। अत्र हि आत्मनः सोपाधिकस्याऽऽवरणक्षय-जनितज्ञानविकल्पेनाऽऽत्मा मतिज्ञानी अशुद्ध उपलक्ष्यते। सोपा-धिकत्वात् केवलज्ञानाऽऽख्यो गुणः शुद्धगुणस्तदुपेत आत्माऽपि शुद्धस्तन्नामनयोदयात् शुद्धनिश्चयनयः। 1 / मतिज्ञानाऽऽदिगुणो-ऽशुद्धस्तदुपेत आत्माऽप्यशुद्धस्तदाख्यया नयोऽपि अशुद्धनिश्चय इति / निश्चयशब्द आत्ममात्रपरः, शुद्धशब्दः कर्माऽऽवरणविशि-ष्टः / आवणक्षये शुद्धः, सति तस्मिन्नशुद्धः॥२॥ अथ व्यवहारस्य भेदंदर्शयतिसद्भूतश्चाऽप्यसद्भूतो, व्यवहारो द्विधा भवेत्। तत्रैकविषयस्त्वाद्यः, परः परगतो मतः / / 3 / / व्यवहारोऽपि सद्भूतः पुनरसद्भूत इति भेदाभ्यां द्विधा द्विप्रकारः। तत्र आद्यः प्रथम एकविषय एकद्रव्याऽऽश्रितः सद्भूतव्यव-हारः / परः परविषयः परद्रव्याऽऽश्रितोऽसद्भूतव्यवहार इति / / 3 / / उपचरितसद्भूता-नुपचरितभेदतः। आद्यो द्विधा च सोपाधि-गुणगुणिनिदर्शनात्॥४॥ उपचरितसद्भूतभेदेन, अनुपचरितसद्भूतभेदेन च आद्यः एकद्रव्याऽऽश्रितसद्भूतव्यवहारो द्विधा द्विप्रकारः / तत्र च सोपाधिकगुणगुणिभेदात् प्रथमो भेदो भवति // 4 // यथोपचारतो लोके, जीवस्य मतिरुच्यते। यथा जीवस्य मतिज्ञानम् / अत्र हि मतिरुपाधिः कर्माऽऽवरणकलुषिताऽऽत्मनः सकलज्ञानत्वेन ज्ञानमिति कल्पनं सोपाधिकम् , उपचारतो जातमिदम्। अथ द्वितीयभेदभाहअनुपचरितसद्भूतो-ऽनुपाधिगुणतद्वतोः।।५।। उपाधिरहितेन गुणेन अनुपाधिक आत्मा यदा संपद्यते, तदा अनुपाधिकगुणगुणिनोर्भेदाभिन्नोऽनुपचरितसद्भूतोऽपि द्वितीयो भेदः समुत्पद्यते इति।।५।। अथास्योदाहरणं श्लोकार्द्धनाऽऽहकेवलाऽऽदिगुणोपेतो, गुण्यात्मा निरुपाधिकः। केवलाऽऽदिगुणोपेतः केवलज्ञानसहितः कर्मक्षयाविर्भूतप्रभूतानुभवभावाऽऽत्मको जीवो निरुपाधिकगुणोपेतो निरुपाधिको गुणी भवति / आत्मा हि संसारावस्थायाम् अष्टकर्मजनिताऽऽवरणपरिस्फुटप्रभावभावितः सोपधिकगुणैर्मत्यादिभिस्तद्वानिति सोपाधिक आत्मेति व्यपदेशभाग भवति। अत्र तु तदभावे तदभावाद् निरुपाधिकगुणगुणिभेदभावनासमुत्पादादनुपचरितसद्भूतभेदोऽपि समुत्पन्नः / केवलाऽऽदिरिति केवलस्यैकत्वात् आदिरिति तदुत्थानन्तगुणोदयात् केवलादिरिति कथनम्। अथाऽसद्भूतव्यवहारस्यापीत्थमेव भेदद्वयं प्रकटयन्ना ह श्लोकार्द्धनअसद्भूतव्यवहारो, द्विधैवं परिकीर्तितः॥६॥ (असद्भूतेति) असद्भूतव्यवहारोऽपि एवं पूर्वोक्तसद्भूतवद् द्विधा द्विप्रकारः परिकीर्तितः कथित इति // 6 // अर्थतस्यासद्भूतव्यवहारस्य भेदद्वयं सोदाहरण पूर्वकं प्रकटयन्नाहअसंश्लेषितयोगेऽग्न्यो, देवदत्तधनं यथा। स्यात्संश्लेषितयोगेऽन्यो, यथाऽऽस्ते देहमात्मनः॥७॥ (असंश्लेषितेति) अत्र द्वयोरपि भेदयोर्मध्ये, अयः अग्रे भवो-ऽग्रयो मुख्यः प्रथमः, असंश्लेषितयोगे कल्पिसंबन्धविषये उप-चरितासद्भूतव्यवहारो भवेत् / यथा-देवदत्तधनम् / इह धनेन देवदत्तस्य संबन्धः स्वस्वामिभावरूपश्च जायते, तदपि कल्पितत्वात् उपचरितम् / यतो देवदत्तः पुनर्धन चैकद्रव्यं, न हि तस्माद्भिन्नद्रव्यत्वादसद्भूतभावनाकरणे नासद्भूतय्यवहार इति / तथा द्वितीयोऽन्यः संश्लेषितयोगे कर्मजसंबन्धे भवति। यथा आत्मनो जीवस्य देहमिति आस्ते तिष्ठति। अत्र हि आत्म-देहयोः संबन्धे देवदत्तधनसंबन्धमिव कल्पनं नास्ति विपरीत-भावनानिवर्त्यत्वाद् यावज्जीवस्थायित्वादनुपचरितं, तथा भिन्न-विषयत्वादसद्भूतव्यवहार इति॥७॥
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________________ णय 1863 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय अथोक्तविषयस्वामित्वमाहनयाश्योपनयाश्चैते, तथा मूलनयावपि / इत्थमेव समादिष्टं, नयचक्रेऽपि तत्कृता / / 8|| (नयेति) एते नया उक्तलक्षणाः, च पुनरुपनयास्तथैव द्वौ मूलनयौ, अपि निश्चयेन इत्थनमुना प्रकारेण एव, नयचक्रेऽपि दिगम्बरदेवसेनकृते शास्त्रे नयचक्रेऽपि, तत्कृता तस्य नयचक्रस्य कृता उत्पादकेन समादिष्ट कथितम् / एतावता दिगम्बरमतानुगतनय-चक्रग्रन्थपाठपठितनयोपनयमूलनयाऽऽदिकं सर्वमपि सर्वज्ञप्रणीत-सदागमोक्तयुक्तियोजनासमानतन्त्रत्वमेवाऽऽस्ते, न किमपि विसं-वादितयाऽस्तीति। 8 / अथ पुनरपि श्वेताम्बरदिगम्बरयोः समानतन्त्रत्व मुपदिशन्नाहयद्यपीहार्थभेदो न, तस्याऽस्माकमपि स्फुटम्। तथाऽप्युत्क्रमशैल्याऽसौ, दह्यते चाऽन्तराऽऽर्मना / / 6 / / यद्यपि तस्य देवसेनस्य दिग्वाससोऽपि, तथा अस्माकं श्वेतभि-क्षूणां, स्फुटं प्रकटं यथा स्यात्तथा, इह द्रव्याऽऽदिपरिज्ञानोपयोगि-नि नयविचारे, अर्थभेदो विषयभेदो नास्ति, उभयोरप्याऽऽदेशे विषयाभेदत्वमेव, शब्दाऽऽदेशे किमपि पाठान्तरत्वाद् न किमपि दोषः / यथा हि अर्थे प्रयोजनवन्तस्तार्किकाः, शब्दस्याऽप्रयोजक-त्वात्। तथाऽप्यसौ देवसेनो दिगम्बर उत्क्रमशैल्या विपरीतपरि-भाषया अर्थस्य तादृशत्वेन शब्दस्यातादृशत्वेन च उत्क्रमशैल्या कृत्वा, अन्तराऽऽत्मना अन्तरङ्गपरिणामेन ईर्ष्यालुत्वाद् , दह्यते खिद्यते / ईलिवो हि अन्तरुपतापपरा एव भवन्ति निष्कारण-मेवेति। यतः-" यद्यपि न भवति हानिः, परकीयां चरति रासभो द्राक्षाम्। असमञ्जसं तु दृष्ट्वा, तथाऽपि परिखद्यते चेतः // 1 // " इति वचनाद् यथोक्तभागवतसिद्धान्तशुद्धपरिभाषां त्यक्त्वा स्वकपोलकल्पितसंस्कृतभाषया श्रीवीतरागोतार्थविषयमङ्गीकृत्य नवीनग्रन्थं विरचय्य प्रभावं ख्यापयतीत्यर्थः / / 6 / / (30) अथ वोटिकमताऽभिमतविपरीतपरिभाषां दर्श यन्नाहतत्त्वार्थेऽपि नयाः सप्त, पञ्चाऽऽदेशान्तरेऽपि वा। अन्तर्भूतौ समुद्धृत्य, नवेति किमु कल्पते ? // 10 // तत्त्वार्थसूत्रे नयाः सप्त उक्ताः, पुनरादेशान्तरे मतान्तरे तत्रैव नयाः पञ्च प्रतिपादिताः। तथा च तत्सूत्रम्-"सप्त मूलनयाः, पञ्च इत्या-देशान्तरे' इति / शब्दः, समभिरूढः, एवंभूत इति नयत्रिक शब्द-नय इति नाम्ना संगृहीतानां त्रयाणामेवैकं नाम शब्दनय इति जायते, ततः प्रथमे चत्वारोऽतस्तैः सह पञ्च नया इति। अथैकैकस्य भेदानां शतमस्ति, तत्र च सप्तशतं तथा पञ्चशतम् , एवं मतदयेऽपि भेद-कल्पनम्।तथोक्तमावश्यके-" इक्किको यसयविहो, सत्तणयसया हवंति एमेव। अण्णो वि हु आएसो, पंचेव सया णयाणं तु " // (2264) एतादृशीं शास्त्रपरिभाषा त्यक्त्वा द्रव्यार्थिकपर्यायार्थि-कनामानौ एष्वन्तर्भावितावेव उद्धृत्य दूरे कृत्वा नव नयाः कथिताः, इति किमु कल्पते देवसेनेन कः प्रपञ्चः क्रियते ? // 10 // पुनश्चर्या कथयन्नाह यदि पर्यायद्रव्यार्थ-नयौ मिन्नौ विलोकितौ। अर्पितानर्पिताभ्यां तु, स्युर्नकादश तत्कथम् ? // 11 // (यदीति) यदि पर्यायार्थद्रव्यार्थनयौ भिन्नौ विलौकितौ पृथक् दृष्टी, तत्तस्मान्नव नया इति कथम् ? अर्पितानर्पिताभ्यां सह एका-दश नया इति कथं न स्युः, अपि तु स्युः / भावार्थस्त्वयम्-नैगम-संग्रहव्यवहारभेदाद् आधो द्रव्यार्थिकस्त्रिधा, पर्यायार्थिकश्वतु ऋजुसूत्रं, शब्दः, समभिरूढः, एवंभूतश्चेति। अर्पितानर्पिताभेदावपि सामान्यविशेषपर्यायौ,तौ च द्रव्यपर्याययोश्चेति। तथाहि-सामान्यं द्विप्रकारम् . ऊर्द्धतासामान्यं, तिर्यक्सामान्यं च / तत्र ऊर्द्धतासामान्यं द्रव्यमेव, तिर्यक्सामान्यं तु प्रतिव्यक्ति सदृशपरिणतिलक्षणं व्यञ्जनपर्याय एव, स्थूलाः प्रावचनिकप्रसिद्धेः / विशेषोऽपि वैसदृश्यविवर्त्तलक्षणः पर्याय एवान्तर्भवतीति, नैताभ्यामधिकनयावकाशः / / 11 // संग्रहे व्यवहारे च, यदीमा युङ्क्थ केवलम् / तदाद्यन्तनयस्तोके, किं न युफ्थ हि तावपि ? / / 12 // अथ संग्रहे च पुनर्व्यवहारे यदि इमौ अर्पितानर्पितौ युक्थ, तर्हि आद्यन्तनयस्तोके तावपि(द्रव्यपर्यायौ)किं न युथ इति? यदि एवं कथयथ अर्पितानर्पितसिद्धेरित्यादिसूत्रेषु अर्पिता विशेषाः, अनर्पिताः सामान्याः / तत्र अर्पिता व्यवहाराऽऽदिविशेषनयेषु अन्तर्भवन्ति, अनर्पिताः संग्रहेऽन्तर्भवन्ति, तदा आद्येषु प्रथमेषु, अन्त्येषु पाश्चात्येषु नयस्तोकेषु इमौ द्रव्यपर्यायौ कथं न युञ्जीत सप्तनयसंबन्धसिद्धेरिति विचारणीयम् ? सिद्धान्ते श्रीजिनवाणी सप्तनयाऽवतारिका एवाऽस्ति, न न्यूनाधिका / यतः-" से किं तं नए ? सत्त मूलनया पण्णत्ता / तं जहा-णगमे 1, संगहे 2, व्यवहारे 3, उज्जुसुए४, सद्दे 5, समभिरूढे 6, एवंभूए७।" इत्यादिसूत्र-पाठोऽपि ज्ञेयोऽतस्तत्सूत्रमार्ग त्यक्त्वा नया नव इत्यधिकयोजना न साधीयसी। अथ अन्तर्भूतानां पृथक्करणमपि पिष्टपेषणमेवेति // 12 // द्रव्या० 8 अध्या०। (31) व्यवहारनयात्साङ्ख्यम्अशुद्धाद्व्यवहाराख्या-त्ततोऽभूत्साङ्ख्यदर्शनम्। चेतनाऽचेतनद्रव्या-ऽनन्तपर्यायदर्शकम्॥१११॥ (अशुद्धादिति) व्यवहाराऽऽख्याद् व्यवहारनामधेयादशुद्धात्ततो द्रव्यार्थिकनयात् साङ्ख्यदर्शनमभूत्। कीदृशं तत् ? चेतनश्चाचेतनद्रव्यं चानन्तपर्यायाश्चाविर्भावतिरोभावाऽऽत्मकास्तेषां दर्शकं प्रतिपादकमिति / (111) नयोः / अशुद्धस्तु द्रव्यार्थिको व्यवहारनयमतावलम्बी एकान्तनित्यचेतनवस्तुद्वयप्रतिपादकसाङ्ख्यदर्शनाश्रितोऽत एव तन्मताऽनुसारिणः साङ्ख्याः / सम्म०१ काण्ड। (32) अथवेदान्तिसाङ्ख्यदर्शनयोः शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकप्रकृतिकत्वं यदुक्तं, तत्राऽविशेष दृष्ट्या भेदबीजाभावमाशङ्कतेयद्यप्येतन्मतेऽप्यात्मा, निर्लेपो निर्गुणो विभुः। अध्यासाव्यवहारच, ब्रह्मवादेऽपि संमतः // 112 / / (यद्यपीत्यादि) यद्यपि एतन्मतेऽपि सा ख्यमतेऽप्यात्मा निर्लेपः कर्तृत्वाऽऽदिले परहितो निर्गुणो गुणस्पर्शशून्यो विभुयापकश्चेति शुद्धाऽऽत्माऽभ्युपगमेनोभयत्र शुद्धितौल्यम्। नच
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________________ णय 1864 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय भोक्तृत्वस्योपचरितस्याऽऽत्मन्यभ्युपगमेन साङ्ख्यदर्शने वेदान्तदर्शनापेक्षयाऽशुद्धत्वम्, यतोऽध्यासाद्व्यवहारो ब्रह्मवादेऽपि संमतः, ब्रह्मवादिनोऽपि हि बुद्धिगुणान् ज्ञानाऽऽदीनात्मनि कल्पितानेवाऽभ्युपयन्ति, न पारमार्थिकानिति नायमपि प्रकार उभयोः शुद्ध इति विशेषः / / 112 // प्रत्युताऽऽत्मनि कर्तृत्वं, साङ्ख्यानां प्रातिभासिकम्। वेदान्तिनां त्वनिर्वाच्यं, मतं तद् व्यावहारिकम्॥ 113 / / (प्रत्युतेति) प्रत्युत वैपरीत्येन साङ्ख्यानां मते कर्तृत्वम्, उपलक्षणाद्भोक्तृत्वाऽऽदि च, प्रातिभासिकमन्यस्थमेवान्यत्राऽऽरोपितम्। वेदान्तिनां तु मतेनान्तःकरणधर्माणां कर्तृत्वाऽऽदीनां कर्तव्यम् , तच परमार्थतोऽसदपि व्यवहारतः सदिति स्थूलव्यवहाराऽनुरोधाद्वेदान्तदर्शन एवाशुद्धत्वं स्यात्, अविद्ययाऽप्यन्यधर्ममात्मन्यस्पर्शयत्युपचारेण च व्यवहारबलं कुण्ठगतिनिश्चयबलं चोत्तेजति साङ्ख्यदर्शन एव शुद्धत्वं स्यादिति भावः।। 113 // किञ्च-सत्कार्यवादित्वादपि साङ्ख्यस्य न व्यवहाराऽनुरोधि-त्यम् , व्यवहारनयो हि कारणव्यापारानन्तरमेव कार्योत्पत्तिं पश्यन्न सत्कार्यपक्षमेवाऽऽश्रयते, नच क्षणिकासत्कार्यानभ्युपगममात्रेणास्य व्यवहारपक्षपातित्वम्, तदनभ्युपगमेऽप्युत्पत्यनभ्युपगमेन व्यवहारबहिर्भावादित्यभिप्रायस्पष्टीकरणपूर्व निगमयन्नाह अनुत्पन्नत्वपक्षश्च, निर्युक्तौ नैगमे श्रुतः। नेति वेदान्तिसाङ्ख्योक्त्योः , संग्रहव्यवहारता / / 11 / / अनुत्पन्नपक्षश्व नियुक्ती नमस्कारनियुक्ती नैगमे नैगमनये अतः " उप्पन्नाणुप्पन्नो, इत्थ णया नेगमस्सऽणुप्पन्नो / सेसाणं उप्पन्नो, जइ कत्तो तिविहसामित्ता ? || 2806 / / " इति (आवश्यकनियुक्ति-) वचनात् / तथा चानुत्पत्तिवादी साख्यो नैगमनयमेवोपजीवी, व्यावहारिकोत्पत्तिवादी वेदान्ती च व्यवहारनयमिति भावः / इति हेतोर्वेदान्तिसाङ्ख्योक्त्योस्तद्दर्शनयोः संग्रहव्यवहारता संग्रहव्यवहाराऽऽख्यशुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकप्रकृतिकता न भवति / तथा च संमतौ तथोक्तेः का गतिरिति भावः? // 114 / / समाधत्ते तथापीतिद्वयेनतथाऽप्युपनिषद् दृष्टि-सृष्टिवादाऽऽत्मिका परा। तस्यां स्वप्नोपमे विश्वे, व्यवहारलवोऽपि न / / 115 / / तथाऽपि उपनिषद्वेदान्तदर्शनप्रवृत्तिः दृष्टिसृष्टिवादाऽऽत्मिका परा उत्कृष्टा मूलाभियुक्ता, अभ्युपगतत्वात् , तस्यां चाज्ञातसत्त्वाभावेन स्वप्नोपमे विश्वे जगति सति व्यवहारस्य लवोऽपि लेशोऽपि नाऽस्ति, तन्मते जाग्रद्व्यवहारस्य स्वप्नव्यवहारतुल्यत्वात् / तथा च मौलस्य वेदान्तदर्शनस्य व्यवहारापेतत्वेन व्यवहारप्रकृतिता, किं त्वेकाऽऽत्मसंग्रहप्रवणतया संग्रहप्रकृतितैवाऽऽकाशोदकपातकल्पमूलदर्शनप्रवृतावेव चेयं नयप्रकृतिचिन्तेति नार्वाचीनवेदान्तिनां मिथो विरुद्धकल्पनाकोटिक्लेशपराहतानां व्यवहाराभ्याससमर्थनेनाऽपि प्रतिश्रुतव्याहतिरिति हृदयम् // 115 // साङ्ख्यशास्त्रे च नानाऽऽत्म-व्यवस्था व्यवहारकृत्। इत्येतावत्पुरस्कृत्य, विवेकः संमतावयम् / / 116 / / (साख्येति) साङ्ख्यशास्त्रे च नानाऽऽत्मनां व्यवस्था प्रतिनियतजन्ममरणाऽऽदि व्यवहारकृद्भवति इत्येतावत्पुरस्कृत्य तात्पर्यविषयीकृत्वाऽयं विवेकः सम्मतौ। यदुतव्यवहारप्रकृतिक साङ्ख्यदर्शनं, संग्रहप्रकृतिकं च वेदान्तदर्शनमिति वेदान्तप्रकृतिभूतसंग्रहनयेनेव तथाविषयीकृतस्याऽऽत्मनो भेदकरणेन संग्रहविषयभेदकत्वलक्षणसमन्वयाद्व्यवहारप्रकृतिकत्वंसाङ्ख्यदर्शनस्य विवक्षितमितितात्पर्यम् / तेन सत्कार्याऽऽयंशे व्यवहारप्रकृतित्वाऽभावेऽपि न क्षतिः, आत्मन एव सकलशास्वप्रयोजनभागित्वेन मुख्यत्वात्, मुख्योद्देशेनैव च नयानां प्रकृतिविकृतिचिन्ताया युक्तत्वादिति भावः / / 116 / / नयो० / अत्र च नैगमसंग्रहव्यवहारलक्षणास्त्रयो नयाः शुद्ध्यशुद्धिभ्यां द्रव्यास्तिकमतमाश्रिताः, ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतास्तु शुद्धितारतम्यतः पर्यायनयभेदाः / तथाहि-संग्रहमतं तावत्प्रदर्शितमेव / येषां तु मते न नैगमनयस्य सद्भावस्तस्य स्वरूपमेव वर्णितम् , राश्यन्तरोपल-ब्धंक नित्यत्वमनित्यत्वं च नयतीति निगमव्यवस्थाभ्युपगमपरो नैगमव्यः / निगमो हि नित्यानित्यसदसत्कृतकाकृतकस्वरूपेषु भावेष्वपास्तसाकार्यस्वभावः सर्वथैव धर्मधर्मिभेदेन संपद्यत इति। सपुनर्नंगमोऽनेकधा व्यवस्थितः, प्रतिपत्तुरभिप्रायवशान्नयव्यवस्थानात् / प्रतिपत्तारश्च नानाभिप्रायाः। यतः केचिदाहुः-"पुरुष एवेदं सर्वमित्यादि "यदाश्रित्योक्तम्-" ऊर्द्धमूलमधः शाख-मश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि, यस्तं वेद स वेदवित्॥१॥"पुरुषोऽप्येकत्वनानात्मभेदात्कै श्चिदभ्युपगतो द्वेधा, नानात्वेऽपि तस्य कर्तृत्वाऽकर्तृत्वभेदोऽपरैराश्रितः / कर्तृत्वेऽपि सर्वगतेरभेदः, असर्वगतत्वेऽपि शरीरव्याप्त्यव्याप्तिभ्यां भेदः, व्यापिमूर्तेतरविकल्पाझेद एव / अपरैस्तु प्रधानकारणिकं जगदभ्युपगतं, तत्राऽपि सेश्वरनिरीश्वरभेदाभेदोऽभ्युपगतः, अन्यैस्तु परमाणुप्रभवत्वमभ्युपगतं जगतः, तत्रापि सेश्वरनिरीश्वरभेदादभेदोऽभ्युपगतः, सेश्वरपक्षेऽपि स्वकृतकर्मसापेक्षानपेक्षत्वाभ्यां तदवस्थ एव भेदाभ्युपगमः। कैश्चित्स्वभावकालयदृच्छाऽऽदिवादाः समाश्रिताः, तेष्वपि सापेक्षत्वानपेक्षत्वाभ्युपगमाद् भेदव्यवस्थाऽभ्युपगतैव / तथा कारणं नित्यं कार्यमनित्यमित्यपि द्वैतं कैश्चिदभ्युपगतम् तत्राऽपि कार्य स्वरूपं नियमेन त्यजति, न वेत्ययमपि भेदाभ्युपगमः / एवं मूतैरेव मूर्तमारभ्यते, मूर्तर्मूर्त मूर्तरमूर्तमित्याधनेकधा प्रतिपत्त्रभिप्रायतोऽनेकधा निगमनागमोऽनेकभेदः / व्यवहारनयस्त्वपास्तसमस्तभेदादेकमभ्युपगच्छतोऽध्यक्षीकृतभेदनिबन्धनव्यवहारविरोधप्रशक्तेः कारकज्ञापकभेदे परिकल्पनाऽनुरोधेन व्यवहारमारचयन् प्रवर्तते इति कारणस्याऽपि न सर्वदा नित्यत्वं, कार्यस्याऽपि नैकान्ततः प्रक्षय इति / ततश्च न कदाचिदनीदृशं जनदिति प्रवृत्तोऽयं व्यवहारो न केनाऽपि प्रवर्त्यते, अन्यथा प्रवर्तकावस्थाप्रसक्तिः, ततो व्यवहाराशून्यं जगत् / न च प्रमाणाविषयीकृतः पक्षोऽभ्युपगन्तुंयुक्तः, अदृष्टपरिकल्पनाप्रसक्तेः। दृष्टानुरोधेन ह्यदृष्टमपि वस्तु कल्पयितुं युक्तम् , अन्यथा कल्पनासंभवादिति। संग्रहनेगमाभ्युपगतवस्तुविवेकाल्लोकप्रतीतपथाऽनुसारेण प्रतिपत्तिः, गौरवपरिहारेण प्रमाणप्रमेयप्रमितिप्रतिपादनं व्यवहारप्रसिद्धयर्थ परीक्षकैः समाश्रितमिति व्यवहारनयाभिप्रायः / ततः स्थित नैगमसंग्रहव्यवहाराणां द्रव्यास्तिकनवप्रभेदत्वं, विषयभेदश्चयां प्रतिपादितः।
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________________ णय 1865 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय / तदुक्तम् कि बीजम् ? अदर्शनेऽपि किश्चित्कल्पयिष्याम इति चेत्, तर्हि दृष्ट "शुद्धद्रव्यं समाश्रित्य, संग्रहस्तदशुद्धितः। स्वतन्त्रद्रव्यपर्यायो भयविषयत्वमेव तथाऽस्तु / तथा च तत एव नैगमव्यवहारी स्तां, शेषाः पर्यायमाश्रिताः // 1 // कणादमतोत्पत्तियुक्तति परीक्षापूर्वमाहअन्यदेव हि सामान्य-मभिन्नज्ञानकारणम्। स्वतन्त्रव्यक्तिसामान्य-ग्रहा येऽत्र तु नैगमे। विशेषोऽप्यन्य एवेति, मन्यते नैगमो नयः / / 2 // औलक्यसमयोत्पत्तिं, ब्रूमहे तत एव हि।। 116 / / सद्रूपताऽनतिक्रान्त-स्वस्वभावमिदं जगत्। (स्वतन्त्रेति) स्पष्टः / अत्र चार्थे प्रदर्शितन्यायेन द्रव्यपर्यायरूपसत्तारूपतया सर्वं, संगृह्णन् संग्रहो मतः // 3 // व्यवहारस्तु तामेव, प्रतिवस्तुव्यवस्थिताम्। मुभयमपि परस्परविविक्तमेकत्र विद्यत इत्यभिप्रायो नैगमोऽशुद्ध द्रव्यास्तिकप्रकृतिरिति सम्मतिवृत्तिस्वरसोऽपीति ध्येयम्॥११६।। तथैव दृश्यमानत्वाद् , व्यवहारयति देहिनः " / / 4 / / इति। पर्यायनयभेदा ऋजुसूत्राऽऽदयः। ऋजुसूत्राऽऽदितः सौत्रा-न्तिकवैभाषिको क्रमात्। "तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्या-च्दुद्धपर्यायसंश्रिता। अभुवन् सौगता योगा-चारमाध्यमिकाविति // 120 // नेश्वरस्यैव भावस्य, भावस्थितिवियोगतः “॥१॥सम्म०१ काण्ड। (ऋजुसूत्राऽऽदित इति) ऋजुसूत्राऽऽदित ऋजुसूत्रशब्दसमभि(३३) यद्येवं संग्रहव्यवहारौ वेदान्तिसाङ्ख्यपदर्शनप्रवर्तको, नेग रूदैवभूतेभ्यः क्रमात् सौत्रान्तिक वैभाषिकयोगाचारमाध्यमिका इति मनयस्तर्हि कस्य दर्शनस्य प्रवर्तकः? इति जिज्ञासायामाह चत्वारः सौगता अभूवन्नुदपद्यन्ते। हेतुर्मतस्य कस्याऽपि, शुद्धाऽशुद्धो न नैगमः। एतेषां स्वरूपमेतेनकाव्येनज्ञेयम् "अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणेक्ष्यते, अन्तर्भावो यतस्तस्य, सङ्ग्रहव्यवहारयोः।। 117 // प्रत्यक्षो न हि बाह्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकैराश्रितः। (हेतुरिति) सामान्यविशेषाऽऽद्युभयग्राहित्वेन शुद्धाशुद्धो नैगम-नयः योगाऽऽचारमतानुगैरभिमता साकारबुद्धिः परा, कस्याऽपि मतस्य दर्शनस्य न हेतुर्न प्रकृतिः, यतः सामा-न्यग्रहाय मन्यन्ते वत मध्यमाः कृतधियः स्वच्छां परां संविदम् // 1 / / इति / प्रवृत्तस्य संग्रह एव, विशेषग्रहाय च प्रवृत्तस्य व्यवहार एवान्तर्भाव इति। एतद्विशेषाऽवगमपुष्पमदार्थिनातुमत्कृतलताद्वयं परिशीलनीयम्।अत्र तदुभयभिन्न स्वात्मानमेवालभमानस्यन भिन्न-दर्शनप्रकृतित्वमभिधातुं वैभाषिकस्य शब्दनयपक्षपातित्वं, नित्यानित्यशब्दवाच्यपुद्गलाभ्युयुज्यत इति / / 117 / / पगमात् , ज्ञानार्थलक्षणयौगपद्यरूपत्वं जनपर्यायप्रधानत्वाचावगन्तकुतस्तर्हि वैशेषिकदर्शनमुत्पन्नं, कथं वा तस्य न सम्य व्यम्। योगाचारमाध्यमिकयोश्च शुद्धशुद्धतर-त्वेन समभिरूढवंभूतपक्षवक्त्यम् ? इत्याकाङ्खायामाह तित्वमिति / / 120 // द्वाभ्यां नयाभ्यामुन्नीत-मपि शास्त्रं कणाऽशिना। नयसंयोगजः शब्दा-लङ्काराऽऽदेश्च विस्तरः। अन्योऽन्यनिरपेक्षत्वा-न्मिथ्यात्वं स्वमताग्रहात्॥११८॥ कियान् वाच्यो वचस्तुल्यसंख्या ह्यभिहिता नयाः॥१२१॥ (द्वाभ्यामिति) द्वाभ्यां सामान्यविशेषग्राहिभ्यां संग्रहव्यवहाराभ्यां (नयेति) शब्दालङ्काराऽऽदेर्व्याकरणसाहित्याऽऽदिशास्त्रस्य च विस्तरो नयाभ्यामुन्नीतं पृथग् व्यवस्थापितमपि कणाऽशिना कणादमुनिना नयसंयोगजो नानानयमयः, आदित एव तत्प्रवृत्तौ नानानयविवक्षायाशास्त्रम् , अन्योऽन्यनिरपेक्षत्वात्परस्परविविक्तद्रव्यपर्यायोभया मुपजीवनात्। अन्यथा सार्वपार्षदत्वानुपपत्तिः। अत एव मीमांसका अपि वगाहित्वात् स्वमताग्रहात् स्वकल्पनाऽभिनिवेशान्मिथ्यात्यम् // न हि द्रव्यपर्याययोः सार्वजनीनभेदाभेदाऽऽद्युपपत्तये व्यवहारनयमानन्त्यव्यनयद्वयावलम्बनमेव शास्त्रस्य सम्यक्त्वप्रयोजकं, किं तु यथास्थाने भिचाराभ्यां विभ्यतो व्यक्तिशक्तिमपहाय जातौ शक्तिव्युत्पत्तये संग्रहनयं तद्विनियोगः / स च स्वप्रयुक्तभङ्गद्वयेतरयावद्भङ्गानां स्याद्वादलाञ्छि चाद्रियमाणाः स्वमतप्रवृतौ नयसंयोगमेवाऽऽदावपेक्षन्ते / यत्तु तानां परस्परसाकाङ्क्षाणां तात्पर्यविषयतया संपद्यते, एकतरस्या मीमांसकमतस्याशुद्धद्रव्यास्तिकव्यवहारनयप्रकृतित्वं सम्मतिवृत्तौ ऽप्यतात्पर्य सिद्धान्तविराधनाया अपरिहारात् / तदाह-" जे नामनिक्षेपावसरे भाषितं, " तच्छब्दार्थयोर्नित्यसंबन्धमात्रवादापेक्षया, वयणिज्जविअप्पा, संजुज्जतेसु होंति एएसु / सा ससम-यपण्णवणा, औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन संबन्धः " इति, तत्सूत्रे औत्पत्तिक इत्यस्य सिद्धतविराहणा अण्णा " || 1 // इति / तदिह सामान्यविशेषयोगः विपरीतलक्षणया नित्य इति व्याख्यानात् पूर्वपूर्वसंकेतापेक्षायामनवकुतस्तरामन्येषां भङ्गानामिति स्फुटमेव मिथ्यात्वम् , अतिरिक्त स्थानां नित्यपदसंबन्धाभ्युपगम एव। प्रवृत्तिमूलव्यवहाराऽऽद्यन्तशुद्धसामान्यविशेषापेक्षा विना महासामान्यान्त्यविशेषयोरिव वस्तुमात्रस्य शास्वैद-म्पर्यपर्यालोचनायां तु तस्य नयसंयोगत्वमेवमुक्तम्। अन्यथास्वत एव सामान्यविशेषाऽऽत्मकत्वमित्यर्थस्यैव यथावन्नयद्वयविनि शब्दानुशासनेऽपि स्फीटविचारे शब्दसन्मात्रसंग्रहप्राधान्येन नययोगरूपत्वात्, अन्यथाऽनवस्थानात्। तदिदमुक्तम्-" स्वतोऽनुवृत्तिव्य संयोगजत्वं न स्यात्, नयसंयोगजत्वे शब्दाऽऽदीनां कथं न स्व-समयतिवृत्तिभाजो, भावा न भावान्तरनेयरूपाः / पराऽऽत्मतत्त्वादतथा तुल्यत्वमिति चेत् , मूढनयानां तेषां यथावद्विभागाकरणात् / अत एवं ऽऽत्मतत्वाद्, द्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति / / 4 / / " (स्या०) इति / यथावन्नयविभागचिकीर्षया" सिद्धिः स्याद्वादात्" / / 111 / 2 // इति एतेन नैयायिकदर्शनमपि व्याख्यातम्, पदार्थप्रमाणाऽऽदिभेदं विना (हैम०) सूत्रमुपन्यस्य श्रीहेमसूरयः स्वोपज्ञशब्दानुशासनस्य प्रायस्तस्य वैशेषिकदर्शनसमानविषयत्वादिति दिग् / / 118 / / स्वसमयान्तर्भावन दृढप्रामाण्यमाविश्चक्रुः / संक्षेपमभिप्रेत्याह उक्तो विस्तरः ननु संग्रहव्यवहारयोरेव विषयविवेकेन नैगमस्याऽन्तर्भाव तस्य पार्थक्ये / किवान् वाच्यो, हि यतः, वस्तुल्यसंख्या नया अभिहिता॥ 121 / /
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________________ णय १८९६-अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय स्याद्वादनिरपेक्षैश्च, तैस्तावन्तः परागमाः। ज्ञेयोपयुज्य तदियं, दर्शने नययोजना / / 122 / / (स्याद्वादेति) तैयैः स्याद्वादनिरपेक्षैः स्याद्वादैकवाक्यतारहितैस्तावन्तो वचस्तुल्यसंख्या एव परागमाः परसिद्धान्ता भवन्ति, अभिनिवेशान्वितनयत्वस्यैव परसमयलक्षणत्वात् / इदमुक्तं सम्मतितृतीयकाण्डे-" जावइया वयणपहा, तावइआ चेव हुंति णयवाया। जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया || 47 // एतावत्स नयेष्विच्छाकल्पितसंयोगजभेदेऽपि समवायान्तराक्षेपकः सुलभ एव, इयं दर्शने नययोजनोपयुज्य ज्ञेया, न त्वापातत एव; आपातज्ञानस्य स्वसमयपरसमयविपर्यासफलत्वात्। अत एव वस्तुस्थितिविचारे-'जे पज्जवेसु णिरदा, जीवा परसमयगतिविणिहिट्ठा। आयसहावम्मि ठिया, ते सगसमया मुणेयव्वा " // 1 // इति दैगम्बरं वचनं वक्तुः सम्यक स्वसमयनिष्णाततामभिव्यञ्जयति / द्रव्यास्तिकाभिप्रायः स्वसमयः, पर्यायास्तिकाभिप्रायः परसमय इत्यस्य स्याद्वादनिरपेक्षत्वान्नयवाक्यमेवैतदिति चेत् , तर्हि प्रवचनप्रक्रियाव्युत्पादने क इवास्योपयोगः ? स्थूलसूक्ष्मनयार्थानां क्रमव्युत्पादनस्यैव शास्त्रार्थत्वादिति मुग्धबन्धनमात्रमेतत्। यदपि प्रावचनिकानां जिनभद्रसिद्धसेनप्रभृतीनां स्वस्वतात्पर्यविरुद्धविषये सूत्रे परतीर्थिकवक्तव्यताप्रतिबन्धप्रतिपादनं, तदप्यभिनिवेशेन चेत्तदा प्रावचनिकत्वक्षतिरिति / तत्र परतीर्थिकपदं भिन्नपरम्परायाततात्पर्यानुसारिपदम् अत एव नयाभिप्रायेण प्रवृत्तत्वादिति हेत्वभिधानोपपत्तिः / अत एव च नयाभिप्रायेणोभयसमा- | धानमस्माभिर्ज्ञानबिन्दौ विहितमिति / एवमन्यत्राऽपि दर्शनप्रयोजनाभ्यामुपयोगो विधेयः समयनिष्णातैः / / 122 / / नयो०। (34) के पुनरेषु नयेष्वर्थप्रधानाः, के च शब्दनया इति दर्शयन्तिएतेषु चत्वारः प्रथमेऽर्थनिरूपणप्रवणत्वादर्थनयाः / / 44 / / शेषास्तु त्रयः शब्दवाच्याऽर्थगोचरतया शब्दनयाः॥ 45 / / कः पुनरत्र बहुविषयः, को वाऽल्यविषयो नय इति विवेचयन्तिपूर्वः पूवो नयः प्रचुरगोचरः, परः परस्तुपरिमितविष-यः॥ 46 // तत्र नैगमसंग्रहयोस्तावन्न संग्रहो बहुविषयो नैगमात्परः, किं तर्हि नैगम एव संग्रहात्पूर्व इत्याहुः सन्मात्रगोचरात्संग्रहान्नैगमो भावाऽभावभूमिकत्वाद् भूम-1 विषयः॥४७॥ भावाऽभावभूमिकत्वाद्भावाऽभावविषयत्वाद्, भूमविषयो बहुविषयः॥४७॥ संग्रहाद्व्यवहारो बहुविषय इति विपर्ययमपास्यन्तिसद्विशेषप्रकाशकान्यवहारतः संग्रह समस्तसत्समूहोपदशकत्वाद् बहुविषयः॥ 48|| व्यवहारो हि कतिपयान् सत्प्रकारान् प्रकाशयतीत्यल्पविषयः, संग्रहस्तु सकलसत्प्रकारायां समूहं ख्यापयतीति बहुविषयः॥४८|| व्यवहारात् ऋजुसूत्रो बहुविषय इति विपर्यासं निरस्यान्तिवर्तमानविषयादृजुसूत्राट्यवहारस्त्रिकालविषयाऽवलम्बि- | त्वादनल्पार्थः // 46 // वर्तमानक्षणमात्रस्थायिनमर्थमजुसूत्रः सूत्रयतीत्यसावल्पविषयः, व्यवहारस्तुकालत्रितयवर्त्यर्थजातमवलम्बत इत्ययमनल्पार्थ इति॥ 46 // ऋजुसूत्राच्छब्दो बहुविषय इत्याशङ्कामपसारयन्तिकालाऽऽदिभेदेन भिन्नार्थोपदर्शिनः शब्दादृजुसूत्रस्तद्विपरीतवेदकत्वान्महार्थः / / 50 // शब्दनयो हि कालाऽऽदिभेदाद्भिन्नमर्थमुपदर्शयतीति स्तोकविषयः, ऋजुसूत्रस्य कालाऽऽदिभेदतोऽप्यभिन्नमर्थं सूचयतीति बहुविषय इति / / 50 // __ शब्दात्समभिरूढो महार्थ इत्यारेका पराकुर्वन्तिप्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमभीप्सतः समभिरूढाच्छब्दस्तद्रिपर्ययाऽनुयायित्वात् प्रभूतविषयः॥५१॥ समभिरूढनयो हि पर्यायशब्दानांव्युत्पत्तिभेदेन भिन्नार्थतामर्थयत इति तनुगोचरोऽसी, शब्दनयस्तु तेषां तद्भेदेनाऽप्येकार्थतां समर्थयत इति समधिकविषयः॥५१॥ समभिरूढादेयम्भूतो भूमविषय इत्यप्याकूतं प्रतिक्षिपन्तिप्रतिक्रियं विभिन्नमर्थ प्रतिजानानादेवंभूतात्समभिरूढस्तदन्यथाऽर्थस्थापकत्वान्महागोचरः॥५२॥ एवंभूतनयो हि क्रियाभेदेन मिन्नमर्थं प्रतिजानीत इति तुच्छविषयोऽसौ, समभिरूढस्तु तद्भेदेनाऽप्यभिन्नं भावमभिप्रेतीति प्रभूतविषयः // 52 // अथ यथा नयवाक्यं प्रवर्तते तथा प्रकाशयन्तिनयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गीमनुव्रजति / / 53 // नयवाक्यम्-प्राग्लक्षितविकलाऽऽदेशस्वरूपं; न केवलं स कलाऽऽदेशस्वभावं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दीऽर्थः / स्वविषये स्वाऽभिधेये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां परस्परविभिन्नार्थनय-युग्मसमुत्थविधाननिषेधाभ्यां कृत्वा सप्तभङ्गीमनुगच्छति, प्रमाणसप्तभङ्गीवदेतद्विचारः कर्तव्यः, नयसप्तभङ्गीष्वपि प्रतिभङ्ग स्यात्कारस्यैवकारस्य च प्रयोगसद्भावात् / तासां विकलाऽऽदेशत्वादेव सकलाऽऽदेशाऽऽत्मिकायाः प्रमाणसप्तभङ्ग्या विशेषव्यवस्थापनात्। विकलाऽऽदेशस्वभावा हि नयसप्तभङ्गी, वस्त्वंशमात्रप्ररूपकत्वात्; सकलाऽऽदेशस्वभावा तु प्रमाणसप्तभङ्गी सम्पूर्णवस्तुस्वरूपप्ररूपकत्वादिति / / 53 / / रत्ना०७ परि०। यावदेवभेदाभेदरूपं वस्तूपदर्श्य भेदस्य पर्यायार्थिक विषयस्य द्वैविध्यमाहसो पुण समासओ चिय, वंजणणियओ य अत्थणियओ य। अत्थगओ य अभिण्णो, भइयव्वो वंजणवियप्पो॥ 30 // स पुनर्विभागः समासतः संक्षेपतो व्यञ्जननियतः शब्दनयनिबन्धनोऽर्थनियतश्चार्थनयनिबन्धनश्च, तत्राऽर्थगतस्तु विभागोऽभिन्नः संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रार्थप्रधाननयाविषयोऽर्थप योऽभिन्नोऽसदद्रव्यातीतानागतव्यवछिन्नाभिन्नार्थपर्यायरूपत्वात्तद्विषया नया अप्यर्थगतो विभागोऽभिन्न इत्युच्यते /
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________________ णय 1897- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय भाज्यो व्यञ्जनविकल्प इति विकल्पितः शब्दपर्यायो भिन्नोऽभिन्नश्चानेकाभिधान एकः, एकाभिधानश्चैक इति कृत्वा समानलिङ्गसंख्याकालाऽऽदिरनेकशब्दो घटः कुटः कुम्भ इत्यादिक एकार्थ इति शब्दनयः / समभिरूढस्तु-भिन्नाभिधेयौ घटकुटशडदौ भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्रूपरसाऽऽदिशब्दवदित्येकार्थ एकशब्द इति मन्यते। एवंभूतस्तुचेष्टासमय एवघटोघटशब्दवाच्यः, अन्यथा-ऽतिप्रसङ्गात्। तदेवमभिन्नोऽर्थो वाच्योऽस्य त्वभिन्नार्थो घटशब्द इति मन्यते यत्तदन्यतो विभक्तेन स्वरूपेणैकमनेकं च वस्तूक्तं तदनन्तप्रमाणमित्याख्यातुमाहएगदवियम्मि जे अ-त्थपज्जवा वयणपज्जवा वा वि। तीयाऽणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं // 31 // एकस्मिन् जीवाऽऽदौ द्रव्येऽर्थपर्याया अर्थग्राहकाः सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्राख्यास्तद्ग्राह्या वाऽर्थभेदा वचनपर्यायाः शब्दनयाः शब्दसमभिरूद्वैवंभूतास्तत्परिच्छेद्या वस्त्वंशा वा, ते चातीताऽनागतवर्तमानरूपतया सर्वदा विवर्तन्ते, विवृताः, विवर्तिष्यन्त इति, तेषामानन्त्यावस्त्वपितावत्प्रमाणं भवति। तथाहि-अनन्तकालेन सर्वेण वस्तुना सर्वावस्थानां परस्परानुगमेनासादितत्वादवस्था-तुश्वावस्थानां कथञ्चिदनन्यत्वाद्घटाऽऽदिवस्तु कुटपुरुषाऽऽदिरूपेणाऽपि कथञ्चिद्विकृतमिति सर्व सर्वाऽऽत्मकं कथञ्चिदिति स्थितम् / दृश्यते चैकं पुद्गलद्रव्यमतीतानागतवर्तमानद्रव्यगुणकर्म सामान्यविशेषपरिणामाऽऽत्मकं युगपत्क्रमेणापि तत्तथाभूतमेव, एकान्तासत उत्पादायोगात्, सतश्च निरन्वयविनाशासंभवादिति प्रतिपादितत्वात्। एवं तावद् बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधस्याऽपि वस्तुनोऽनेकान्ताऽऽत्मकत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रतिपादनवाक्यनयानामपि तथाविधमेव स्वरूपं नान्यादृग्भूतमस्तीति प्रति पादयन्नाहपुरिसम्मि पुरिससद्दो, जम्माऽऽई मरणकालपजंतो। तस्स उबालाऽऽईया, पज्जवजोया बहुवियप्पा / / 32 // अथवा-अर्थव्यञ्जनपर्यायैः शक्ति व्यक्तिरूपैरनन्तरैरनुगतोऽर्थः सविकल्पो, निर्विकल्पकश्च / प्रत्यक्षतोऽवगत इति इदानी पुरुषदृष्टान्तद्वारेण व्यञ्जनपर्यायं तदविकल्पत्वनिबन्धनमर्थपर्याय च। तत्र सविकल्पत्वनिमित्तमाह-"पुरिसम्मि " इत्यादिना सूत्रेण, अतीतानागतवर्तमानानन्तार्थव्यञ्जनपर्यायाऽऽत्मके पुरुषवस्तुनि पुरुष इति शब्दो यस्याऽसौ पुरुषशब्दस्तद्वाच्योऽर्थो जन्माऽऽदिर्मरणपर्यन्तोऽभिन्न इत्यर्थः, पुरुष इत्यभिन्नाभिधानप्रत्ययव्यवहारप्रवृत्तेः / तस्यैव बालाऽऽदयः पर्याययोगाः परिणतिसंबन्धा बहुविकल्पा अनेकभेदाः प्रतिक्षणसूक्ष्मपरिणामान्तभूता भवन्ति, तत्रैव तथा व्यतिरेकज्ञानोत्पत्तेः / एवं च स्यादेक इत्यविकल्पः, स्यादनेक इति सविकल्पः सिद्धः / अन्यथाऽभ्युपगमे तदभाव एवेति विपक्षः " अत्थिति णिव्वियप्पं (33)" इत्यनन्तरगाथया बाधां दर्शयिष्यति, द्वितीयपातनिकया न। गाथार्थस्तुपुरुषवस्तुनि पुरुषध्वनिर्व्यञ्जनपर्यायः, शेषो बालाऽऽदिधर्मकलापोऽर्थपर्याय इति गाथासमुदायार्थः / ननु कोऽयं पुरुषशब्दः, कथं वा शब्दोऽर्थस्य पर्यायः, ततोऽत्यन्तभिन्नत्वाद्घटस्येव पटः।। (32) सम्म० १काण्ड। यच्च कथं शब्दो वस्त्वन्तरत्वात्पुरुषाऽऽदेर्वस्तुनो धर्मः ? येनाऽसौ तस्य व्यञ्जनपर्यायो भवेदित्युक्तम् / तत्र नामनयाऽभिप्रायात् " नामनामवतोरभेदात् "पुरुषशब्द एव पुरुषार्थस्य व्यञ्जनपर्यायः / यदा-पुरुष इति शब्दो वाचको यस्याऽर्थगततद्वाच्यधर्मस्यासौ पुरुषशब्दः, स चाभिधेयपरिणामरूपोव्यञ्जनपर्यायः कथं नाऽर्थधर्मः, सच व्यञ्जनपर्यायः पुरुषोत्पत्तेरारभ्याऽऽपुरुषविनाशाद्- भवतीति जन्माऽऽदिर्मरणसमयपर्यन्त उक्तः, तस्यतुबालाऽऽदयः पर्याययोगा बहुविकल्पाः, तस्य पुरुषाभिधेयपरिणामवतो बाल-कुमाराऽऽदयस्तत्रोपलभ्यमाना अर्थपर्याया भवन्त्यनन्तरूपाः। एवं च पुरुषो व्यञ्जनपर्यायेणैको, बालाऽऽदिभिस्त्वर्थपर्यायैरनेको, यथा पुरुषस्तथा सर्वं वस्त्वेकमनेकं वा, सर्वस्य तथैवोपल-ब्धेः, अन्यथाऽभ्युपगमे एकान्तरूपमपि तन्न भवेदिति दर्शयन्नाहअस्थि त्ति णिव्वियप्पं, पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम्मि। सो बालाऽऽइवियप्पं, न लहइ तुल्लं वयावेजा॥३३॥ अस्तीत्येवं निर्विकल्पं निष्क्रान्ताशेषभेदस्वरूपं पुरुषमेकरूपंपुरुषद्रव्यं यो ब्रवीति पुरुषकाले पुरुषोत्पत्तिक्षण एवाऽसौ बालाऽऽदिभेदं न लभते, बालाऽऽदिभेदरूपतया नाऽसौ स्वयमेव व्यवस्थितिं प्राप्नुयात् , नाऽपि तद्रूपतया अपरमसौ पश्येदेवं वा भेदरूपमेव तत् पुरुषवस्तु प्रसज्येत, तुल्यं वा प्राप्नुयात् , तदप्यभेदरूपं बालाऽऽदितुल्यत्वमेव भावरूपतया प्राप्नुयाझेदाप्रतीतावभेदस्याप्यप्रतीतेरभाव इति भावः / यद्वा-अस्तीत्येवं निर्विकल्पनिश्चिनोति विकल्पो भेदो यस्मिन् पुरुषद्रव्ये तनिर्विकल्पं भेदरूपं पुरुषं तत्स्वरूपलाभकाले भणत्यसौ बालाऽऽदिविकल्पं न लभेत तुल्य-मिति द्रव्यतुल्यतामेवाऽसौ प्राप्नुयात्, अत्राऽपि पूर्ववत् तदग्रहे तदग्रहाद्भेदरूपताया अप्यभाव इति भावः। न चैवमेवास्तीति वक्तव्यम्, सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेरिति भेदाऽभेदरूपमेव वस्तु। अस्यैवोपसंहारार्थमाहवंजणपज्जायस्स उ, पुरिसो पुरिसो त्ति णिचमवियप्पो। बालाऽऽइवियप्पं पुण, पासइ से अत्थपज्जाओ॥ 34 // शब्दपर्यायणविकल्पः पुरुषः, बालाऽऽदिना त्वर्थपर्यायण सविकल्पः सिद्ध इति गाथातात्पयार्थः / यजयति, व्यनक्ति वाऽर्थानिति व्यञ्जनं शब्दो, न पुनः शब्दनयः, तस्य ऋजुसूत्रार्थनय-विषयत्वादिति केचित्। तस्य पर्याय आ जन्मनो मरणान्तं यावद-भिन्नस्वरूपपुरुषद्रव्यप्रतिपादकत्वं, तद्वशेन तत्प्रतिपाद्य वस्तु-स्वरूपमत्र-ग्राह्यम् , उपचारात्। एवं च द्वितयमप्येतत्पुरुषः पुरुष इत्यभेदरूपतया न भिद्यते, व्यञ्जनपर्यायमतेन पुरुषवस्तु सदाऽविकल्पं, भेदं न प्रतिपद्यत इति यावत्। बालाऽऽदिविकल्पं बालाऽऽदिभेदं पुनस्तस्यैव पश्यत्यर्थपर्याय ऋजुसूत्राऽऽद्यर्थनयः / अत्रापि विषयिणा विषय ऋजुसूत्राऽऽद्यर्थनयविषयेऽभिन्ने पुरुषरूपे भेदे स्वरूपो निर्दिष्टः, उपचारात् / एवं चाभिन्नं पुरुषवस्तु भेदं प्रतिपद्यत इति यावत् / सम्म० 1 काण्ड। स्था०। (35) नयेषु मिथ्यात्वसम्यक्त्वे। अथनयोत्पादितेष्वपरिमितेषु दर्शनेषु कस्मिन् मिथ्यात्वं, कस्मिश्च सम्य क्त्वमिति जिज्ञासायामाहनास्ति नित्यो न नो कर्ता, न भोक्ताऽऽत्मा न निर्वृतिः। तदुपायश्च नेत्याहु-मिथ्यात्वस्थानकानि षट्।। 123 / /
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________________ णय 1868 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय (नास्तीत्यादि) नाऽस्त्यात्मेति चार्वाकमते, न नित्य इति क्षणि-क वादिमते, न कर्ता न भोक्तेति साङ्ख्यमते। यद्वा न कर्तेति साङ्ख्यमते, नभोक्तेत्युपचरितभोक्तृत्वस्यानभ्युपगमात् वेदान्तिमते, नास्ति निर्वृत्तिः सर्वदुःखविमोक्षलक्षणेति नास्तिकप्रायाणां सर्वज्ञानभ्युपगन्तृणां यज्वना मते, अस्ति मुक्तिः परं तदुपायो नास्ति, सर्वभावानां नियतत्वेनाकस्मादेव भावादिति नियतिवादिमते / इत्येतानि षट् मिथ्यात्वस्थानकान्याहुः पूर्वसूरयः।। 123 // षडेतद्विपरीतानि, सम्यक्त्वस्थानकान्यपि। मार्गत्यागप्रवेशाभ्यां, फलतस्तत्त्वमिष्यते॥१२४ // (षडेतदिति) एतेभ्यः प्रागुक्तेभ्यो विपरीतानि षट् सम्यक्त्वस्थानकान्यपि भवन्ति-अस्त्यात्मा नित्यः कर्ता साक्षाद्भोक्ता, अस्ति मुक्तिरस्तिचतत्कारणं रत्नत्रयसाम्राज्यमिति।तदिदमुक्तम्-"अस्थि जिओ तह णिचो, कत्ता भुत्ता स पुन्नपावाणं / अस्थि धुवं णिव्याणं, तस्सोवाओ अछट्ठाणा / / 1 / / " इति चार्वाकाऽऽदिपक्षनिरासश्चातिभूयानिति लताऽऽदित एव तदवगमो विधेयः / नयो०) नयाः समुदिताः सम्यक्त्विनः। आद्यस्तुतिकारोऽप्यवोचत"नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे, रसोपविष्टा इव लोहधातयः। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ।।१।।''आ० म०१ अ०१ खण्ड। अधुना परदर्शनानां परस्परविरुद्धाऽर्थसमर्थकतया मत्सरित्वं प्रकाशयन सर्वज्ञोपज्ञसिद्धान्तस्यान्योऽन्यानुगतसर्वनयमयतया मात्सर्याभावमाविर्भावयति अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षमावाद्, यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः। नयानशेषानविशेषमिच्छन पक्षपाती समयस्तथा ते // 30 // प्रकर्षणोद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतोऽर्थो यैरिति प्रवादाः / यथा येन प्रकारेण, परेभवच्छासनादम्ये, प्रवादाः दर्शनानिमत्सरिणः-अतिशायने मत्वर्थीयविधानात् सातिशयाऽसहनताशालिनः क्रोधकषायकलुषितान्तःकरणाः सन्तः पक्षपातिनः इतरपक्षतिरस्कारेण स्वकक्षीकृतपक्षव्यवस्थापनप्रवणा वर्तन्ते। कस्माद्धेतोर्मत्सरिणः? इत्याह-अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् / पच्यते व्यक्तीक्रियते साध्यधर्मवैशिष्टयेन हेत्वादिभिरिति पक्षः-कक्षीकृतधर्म-प्रतिष्ठापनाय साधनोपन्यासः।। तस्य प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः। पक्षस्य प्रतिपक्षो विरोधी पक्षः, तस्य भावः पक्षप्रतिपक्षभावः / अन्योऽन्यं परस्परं यः पक्षप्रतिपक्षभावः पक्षप्रतिपक्षत्वमन्योऽन्य-पक्षप्रतिपक्षभावस्तस्माता तथाहि-य एव मीमांसकानां नित्यः शब्दः इति पक्षः, स एव सौगतानां प्रतिपक्षः, तन्मते शब्दस्याऽ-नित्यत्वात्। य एव सौगतानाम्-अनित्यः शब्दः इति पक्षः, स एव मीमांसकानां प्रतिपक्षः। एवं सर्वप्रयोगेषु योज्यम्। तथा तेन प्रकारेण, ते तव, सम्यग् एतिगच्छति शब्दोऽर्थमनेनेति "पुन्नाम्निघः " // 5 / 3 / 130 // समयः सङ्केतः। यद्वा-सम्यगवैपरीत्येनाऽऽय्यन्ते ज्ञायन्ते जीवाऽजीवाऽऽदयोऽर्था अनेनेति समयः सिद्धान्तः। अथवा-सम्यगयन्ते गच्छन्ति जीवाऽऽदयः पदार्थाः स्वस्मिन् रूपे प्रतिष्ठा प्राप्नुवन्ति अस्मिन्निति समय आगमः। न पक्षपाती नैकपक्षानुरागी। पक्षपातित्वस्य हि कारणं मत्सरित्वं परप्रवादेषू-क्तम्। त्वत्समयस्य चमत्सरित्वाभावान्न पक्षपातित्वम्। पक्षपातित्वं हि मत्सरित्वेन व्याप्तम्। व्यापकं च निवर्तमान व्याप्यमपि निवर्तयतीति मत्सरित्वे निवर्तमाने पक्षपातित्वमपि निवर्तत इति भावः।' तव समयः इति वाच्यवाचकभावलक्षणे संबन्धे षष्ठी। सूत्रा-पेक्षया गणधरकर्तृकत्वेऽपि समयस्याऽर्थापेक्षया भगवत्कर्तृकत्वाद्वाच्यवाचकभावो न विरुध्यते-" अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथति गणहरा निउणं। " (1116) इति (भाष्य) वचनात्। अथवा-उत्पादव्ययध्रौव्यप्रपञ्चः समयः, तेषां च भगवता साक्षान्मातकापदरूपतयाऽभिधानात् / तथा चार्षम्-" उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा " इत्यदोषः। मत्सरित्वाभावमेव विशेषणद्वारेण समर्थयति-" नयानशेषानविशेषमिच्छन् " इति। अशेषान् समस्तान्नयान् नैगमाऽऽदीन् अविशेषं निर्विशेष यथा भवत्येवमिच्छन्नाकाजन्, सर्वनयाऽऽत्मकत्वादनेकान्तवादस्य / यथा विशकलिताना मुक्कामणीनामेक सूत्रानुस्थूतानां हारव्यपदेशः, एवं पृथगभिसंधीनां नयानां स्याद्वादलक्षणैकसूत्रप्रोतानां श्रुताऽऽख्यप्रमाणव्यपदेश इ-ति / ननु प्रत्येक नयानां विरुद्धत्वे कथं समुदिताना निर्विरोधिता? उच्यते-यथा हि समीचीनं मध्यस्थं न्यायनिर्णतारमासाद्य परस्पर विवदमाना अपि वादिनो विवादाद्विरमन्ति, एवं नया अन्योऽन्य वैरायमाणा अपि सार्वज्ञ शासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तयः सन्तः परस्परमत्यन्तसुहृद्रूपतयाऽवतिष्ठन्ते। एव च सर्वनयाऽऽत्मकत्वे भगवत्समयस्य सर्वदर्शनमयत्वमविरुद्धमेव, नयरूपत्वाद्दर्शनानाम् / न च वाच्यम् , तर्हि भगवत्समयस्तेषु कथं नोपलभ्यत इति ? समुद्रस्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विभक्तासु तास्वनुपलम्भात्। तथा च वक्तृवचनयोरैक्यमध्यवस्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादाः" उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीस्त्वियि नाथ! दृष्टयः। नच तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः // 1 // अन्ये त्वेवं व्याचक्षते-यथा-' अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात्परे प्रवादा मत्सरिणस्तथा तव समयः सर्वनयान् मध्यस्थतयाऽङ्गीकुर्वाणो न मत्सरी / यतः कथंभूतः ? पक्षपाती, पक्षमेकपक्षाभिनिवेशं पातयति तिरस्करोतीति पक्षपाती, रागस्य जीवनाशनष्ठत्वात्। अत्रच व्याख्याने मत्सरीति विधेयपदं, पूर्वस्मिश्च पक्षपातीति विशेषः / अत्र च क्लिष्टाक्लिष्टव्याख्यानविवेको विवेकिभिः स्वयं कार्य इति काव्यार्थः // 30 // स्या० / अष्ट1 सम्म०1 न कारणमेव कार्य परिणामो वा, परिणामो न कार्य नापि कारणम्, अपि तु द्रव्यमानं तत्त्वमिति, तदेव वेति नियमेनैकान्ताभ्युपगमे सर्व एवैते मिथ्यावादाः, उक्तन्यायेन नियमेन मिथ्यात्वमित्यभिधानात्। कथञ्चिदभ्युपगमे सम्यग्वाद एवैते। इत्युक्तं भवति-यत उत्पादव्ययध्रौव्याऽऽत्मकत्वे वस्तुनः स्थिते, तद्वस्तु तत्तदपेक्षया कार्यमकार्य च कारणमकरणं च कारणे कार्य सचासच कारणं कार्यकाले विनाशवदविनाशवच, तथैव प्रतीतेः, अन्यथा चाप्रतीतेः / अत एकान्तरूपस्य वस्तुनोऽभावात् सर्वेऽपि नयाः
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________________ णय 1896 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णय स्वविषयपरिच्छेदसमर्था अपीतरनयविषयव्यवच्छेदेन स्वविषये वर्तमाना मिथ्यात्वं प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरन्नाहणिययवयणिज्जसचा, सव्वनया परवियालणे मोहा। ते पुण ण दिवसमओ, विभइ य सच्चे व अलिए वा // 28 // / निजकवचनाये स्वाशे परिच्छेद्ये सत्याः सम्यग्ज्ञानरूपाः सर्व एव नयाः संग्रहाऽऽदयः परविचालने परविषयोत्खनने मोहाः महन्तीति मोहा मिथ्याप्रत्ययाः, परविषयस्याऽपि सत्यत्वेनोन्मूलयितुमशक्यत्वात् तदभावे स्वविषयस्याऽप्यव्यवस्थितेस्ततश्च परविषयस्यासत्त्वे स्वविषयस्याप्यसत्त्वात्।तत्प्रत्ययस्य मिथ्यात्वमेव, तद्व्यतिरिक्तग्राह्यग्राहकप्रमाणस्य वा भावात्तानेव नयान पुनः-शब्दस्यावधारणार्थत्वात्, नेति प्रतिषेधे, विभजनक्रियाया दृष्टः समयः सिद्धान्तवाच्यमनेकान्ताऽऽत्मकं वस्तुतत्त्वं येन सा सतथा सन विभजते सत्येतरतया स्वेतरविषयमवधारयमाणोऽपि तथा तन्नैव विभजते / अपि वितरनयविषयसव्यपेक्षमेव स्वनयाऽभिप्रेतं विषयं सत्यमेवावधारयतीति यावद् ग्राह्यसत्यासत्ये इत्येव-मभिधानम्। तच्च दृष्टाऽनेकान्तत्वस्य विभजनम्, स्यादस्त्येव द्रव्यार्थतइत्येवरूपः। अतो नयप्रमाणाऽऽत्मकैकरूपताव्यवस्थितमात्मस्वरूपमनुगतव्यावत्ताऽऽत्मकमत्सर्गापवादरूपग्राह्यग्राहकाऽऽत्मकत्वाद व्यवतिष्ठत इत्यर्थप्रदर्शनायाऽऽहदव्वट्ठियवत्तवं, सव्वं सव्वेण णिचमवियप्पं / आरद्धो अविभागो, पज्जववत्तव्वमग्गो य // 26 // यत् किञ्चिद् द्रव्यार्थिकस्य संग्रहाऽऽदेः सदादिरूपेण व्यवस्थितं वस्तु वक्तव्यं परिच्छेद्यतत्सर्व सर्वेण प्रकारेण नित्यं सर्वकालमविकल्पं निर्भेद, सर्वस्य सदविशेषाऽऽत्मकत्वात्। तच भेदेन संपृक्तमिति दर्शयितुमाहआरब्धश्चाविभागः, स एवाविभागः सत्तारूपो यो द्रव्याऽऽदिनाऽऽकारेण प्रस्तुतः, चशब्दस्य प्रक्रान्ताविभागान्न कर्षणार्थत्वात् : पर्यायवक्तव्यमार्गश्च पर्यायार्थिकस्य यद्वक्तव्यं विशेषस्तस्य मार्गः पन्थाः जातः पर्यायार्थिकपरिच्छेद्यस्वभावो विशेषः संपन्न इति। सम्म०१ काण्ड (36) एवं नयस्य लक्षणसंख्याविषयान व्यवस्थाप्येदानी फलं स्फुटयन्तिप्रमाणवदस्य फलं व्यवस्थापनीयम्॥ 54 // प्रमाणस्येव प्रमाणवत् , अस्येति नयस्य, यथा खल्वानन्तर्येण प्रमाणस्य संपूर्णवस्त्वज्ञाननिवृत्तिः फलमुक्तम्, तथा नयस्याऽपि वस्त्वेकदेशाज्ञाननिवृत्तिः फलमानन्तर्येणावधार्यम्।यथाचपार-म्पर्येण प्रमाणस्योपादानहानोपेक्षाबुद्धयः संपूर्णवस्तुविषयाः फलत्वेनाभिहिताः, तथा नयस्याऽपि वस्त्वंशविषयाः, ताः परम्पराफलत्वेनावधारणीयाः / तदेतद् द्विप्रकारमपि नयस्य फलं, ततः कथञ्चिभिन्नमभिन्नं वाऽवगन्तव्यम्, नयफलत्वान्यथाऽनुपपत्तेः / कथञ्चिद्भेदाभेदप्रतिष्ठा च नयफलयोः प्रागुक्तप्रमाणफलयोरिव कुशलैः कर्तव्या 1 रत्ना०७ परि०। नन्यनेन संमोहहेतुना नयविचारेण मूलत एव किं प्रयोजनम् ? इत्याहअत्थं जो न समिक्खइ, निक्खेवनयप्पमाणओ विहिणा। तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं व पडिहाइ।। 2273 / / परसमएगनयमयं, तत्पडिवक्खनयओ निवत्तेज्जा। समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए / / 2274 / / यो नामस्थापनाऽऽदिद्वारेण, तथा नैगमाऽऽनियः, प्रत्यक्षाऽऽदि-भिश्च प्रमाण रथं सूक्ष्मेक्षिकया विचार्य न समीक्षते न परिभावयति, तस्याऽविचारितरमणीयतया अयुक्त युक्तं प्रतिभाति, युक्तमपि वाऽन्यतयाऽयुक्तं प्रतिभाति, अतः कर्तव्यो नयविचारः।।२२७३|| किश्चबौद्धाऽऽदिपरसमयरूपमनित्यत्वाऽऽदिप्रतिपादकस्य ऋजुसूत्राऽऽदिकनयस्य यन्मतं तन्त्रयविधिज्ञः साधुः (तप्पडिवक्ख-नयओ त्ति) तस्यानित्यत्वाऽऽदिप्रतिपादकनयस्य प्रतिपक्षभूतो नित्यत्याऽऽदिप्रतिपादको यो द्रव्यास्तिकाऽऽदिनयस्तस्मात्ततो निवर्तयेन्निराकुर्यात् / अथवा-समये स्वसिद्धान्ते, जैनागमेऽपीत्यर्थः / यदज्ञानद्वेषाऽऽदिदोषकलुषितेन परेण दोषबुद्ध्या किमपि जीवाऽऽदिकं वस्तु परिगृहीतं भवति, तदपि नयविधिज्ञो निवर्तयेत्-नयोक्तिभिर्गुणरूपतया तत्स्थापयेदित्यर्थः / अस्मात्कर्त्तव्यो नयविचार इति गाथा (द्वया) ऽर्थः // 2274 // आह-किं सर्वत्र सर्वदा सर्वोऽपि कर्तव्यो नयविचा ? न, इत्याहएएहिँ दिट्ठिवाए, परूवणा सुत्त-अत्थकहणाय। इह पुण अणब्भुवगमो, अहिगारो तीहि ओसन्नं / / 2275 / / एभिर्नेगमाऽऽदिभिर्नयैः सप्रभेदैर्दृष्टिवादे सर्ववस्तुप्ररूपणा सूत्राऽर्थकथना च, क्रियते इति शेषः / इह पुनः कालिकश्रुतेऽनभ्युप-गमो, नावश्यं नयैर्व्याख्या कार्या / यदि च-श्रोत्रपेक्षया नवविचारः क्रियते, तदा त्रिभिराद्यैरुत्सन्नं प्रायेणात्राधिकार इति नियुक्तिगाथार्थः / / 2275 / / किमिति त्रिभिरेवाऽऽद्यनयैरिहाधिकारो, न शेषैः ? इत्याहपायं संववहारो, ववहारं तेहिँतिहिँ य ज लोए। तेण परिकम्मणत्थं, कालियसुत्ते तदहिगारो॥ 2276 / / सुगमा / नवरं शिष्यमतिपरिकर्मणार्थ तैः स्थूलसंव्यवहारार्थप्रतिपादकैरेव नैगमसंग्रहव्यवहारनयैरिहाधिकार इति गाथार्थः / / 2276 // आह-नन्दिह पुनर्नाभ्युपगम इत्यभिधाय पुनस्विनयानुज्ञा किमर्थम् ? इत्याहनत्थि नएहि विहूणं, सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि। आसज्ज उसोयारं, नए नयविसारओ बूया // 2277 / / सूत्रमर्थो वा नास्ति जिनमते नयैर्विहीनं किञ्चिदपि, तथाऽप्याचार्यशिष्याणां मतिमान्द्यापेक्षया सर्वनयविचारनिषेधः कृतः / विमलमतिं श्रोतारं पुनरासाद्य नयविशारदः सूरिः समनुज्ञातमाद्यन-यत्रयं शेषान् वा नयान् ब्रूयादिति नियुक्तिगाथार्थः / / 2277 / / अत्र भाष्यम् - मासिज्ज वित्थरेण वि, नयमयपरिणामणासमत्थम्मि। तदसत्ते परिकम्मण-मेगनएणं पि वा कुजा / / 2278 / / सुगमा / नवरं वाशब्दान्नयद्वये न त्रयेण वा शिष्यमतिपरिक
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________________ णय 1900 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णय मणां कुर्यात् , तथाविधमतिमान्द्ये तु नैकमपि नयं भावेत, इत्येत-दपि द्रष्टव्यमिति॥ 2278 // तदेवमुक्तं नयद्वारम् / विशे० / अनु०। (37) अथवा ज्ञानक्रियानयद्वये संग्रहाऽऽदीनां समवता रोऽतस्तत्स्वरूपमाहनाणाहीणं सव्वं, नाणनओ भणइ किं व किरियाए। किरियाए करणनओ, तदुभयगाहो य सम्मत्तं / / 3511 // ज्ञानाधीनमेव सर्वमैहिकाऽऽमुष्मिकं सुखम् , किमत्र क्रियया कर्तव्यम् ? युक्तिश्चेहानन्तरमेव वक्ष्यति। करणनयस्तु क्रियानयो वक्ष्यमाणयुक्तेरेव सर्वमैहिकाऽऽमुष्मिकं सुखं क्रियाया एवाऽऽधीनमिति भणति / उभयग्राहश्चेद सम्यक्त्वं स्थितपक्ष इति / / 3561 // विशे० आव० / सूत्र० / सम्म० / नि० चू० / अनु० / आचा० / आ० म० / विपा० / आ० चू० / (ज्ञानक्रियानयशब्दयोर्मतमनयोरवलोकनीयम्।' अणुओग ' शब्दे प्रथमभागे 358 पृष्ठे ' अजरक्खिय ' शब्दे 214 पृष्ठे च नयानां पार्थक्यमार्यवरेण कृतम्) (38) क्वैतेषां नयानां समवतारः, क्व वाऽनवतारः? इति संशयापनोदार्थमाहमूढनइयं सुयं का-लियं तु न नया समोयरंति इहं / अपुहत्ते समोयारो, नत्थि पुहत्ते समोयारो / / 2276 / / मूढा अविभागस्था नया यत्र तन्मूढनयं, तदेव मूढनयिकम् , किं तत् ? कालिकं श्रुतम्-काले प्रथमचरमपौरुषीलक्षणे कालग्रहणपूर्वकं पठ्यत इति कालिकं, तत्र न नयाः समवतरन्त्यत्र प्रतिपदं न भण्यन्त इत्यर्थः। क्व पुनस्तहमीषां समवतार आसीत्, कदा चाऽयमनवतारस्तेषाभूद् ? इत्याह-(अपुहत्ते इत्यादि) चरणकरणाऽनुयोगधर्मकथाऽनुयोगगणिताऽनुयोगद्रव्याऽनुयोगानामपृथग्भावोऽपृथक्त्वं प्रतिसूत्रमविभागेन वक्ष्यमाणेन विभागाभावेन प्रवर्तनं प्ररूपणमित्यर्थः / तस्मिन्नपृथक्त्वे नयानां विस्तरेणाऽऽसीत् समवतारः / चरणकरणाऽऽद्यनुयोगानां पुनर्वक्ष्यमाणलक्षणे पृथक्त्वे नाऽस्ति समवतारो नयानाम् , भवति वा क्वचित्पुरुषापेक्षोऽसौ / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 2276 / / भाष्यकारव्याख्याअविभागत्था मूढा, नय त्ति मूढनइयं सुयं तेण / न समोयरंति संता, पइप्पयं जंन भण्णंति / / 2280 // अपुहत्तमेगभावो, सुत्ते सुत्ते सवित्थरं जत्थ। भण्णंतणुओगा चर-णधम्मसंखाण दव्वाणं / / 2281 // तत्थेव नयाणं पि हु, पइवत्थु वित्थरेण सव्वेसिं। देसिंति समोयारं, गुरवो भयणा पुहत्तम्मि| 2282 // एगो चिय देसिज्जइ, जत्थऽणुओगोन सेसया तिण्णि। संता वितं पुहत्तं, तत्थ नया पुरिसमासज्ज / / 2283 // चतस्रोऽपि गतार्थाः, नवरं प्रथमगाथोत्तरार्द्ध यद्यस्मात्सन्तो- ऽपि प्रतिपदं न भण्यन्ते, अपृथक्त्वं किमुच्यते ? इत्याह-एक-भावः। एकभावमेव विवृणोति-(सुत्ते सुत्त इत्यादि) यत्र सूत्रे सूत्रेऽनुयोगा व्याख्यानानि भण्यन्ते / केषाम् ? इत्याह-(चरणेत्यादि) संख्यानं गणितमुच्यते / ततश्चेदमत्र हृदयम्-यत्रैकै कस्मिन् सूत्रे चरणकरणा ऽनुयोगः, धर्मकथानुयोगः, गणितानुयोगः, द्रव्यानु-योगश्च सविस्तर व्याख्यायते, न तु वक्ष्यमाणेन पार्थक्येन तदपृथ-क्त्वमिति शेषः / पृथक्त्वंतु किमुच्यते? इत्याह-(एगो चियइत्यादि) इदंच" कालियसुयं च"(२२६४) इत्यादिवक्ष्यमाणगाथायांव्यक्तीभविष्यतीति इयं च गाथा ग्रन्थतोऽवसेया, नेह गृहीता।। 2250 / / 2281 // 2282 // 2283 // आह-क्रियन्तं कालं यावत्पुनरिदं पृथक्त्वमासीत् ? कुतो वा पुरुषविशेषादारभ्य पृथक्त्वमभूदित्याहजावंति अज्जवइरा, अपुहत्तं कालियाऽणुओगस्स। तेणाऽऽरेण पुहत्तं, कालियसुय दिट्ठिवाए य / / 2284 // यावदार्यवैरा गुरवो महामतयस्तावत्कालिकश्रुताऽनुयोगस्यापृथक्त्वमासीत् , तदा व्याख्यातॄणां च तीक्ष्णप्रज्ञत्वात् / कालिकग्रहण च प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथोत्कालिकेऽपि सर्वत्र प्रतिसूत्रं चत्वारोऽप्यनुयोगास्तदानीमासन्नेवेति / तदारतस्त्वार्यरक्षितेभ्यः समारभ्य कालिकश्रुते दृष्टिवादे चाऽनुयोगानां पृथक्त्वमभूत् / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 2284 // भाष्यम्अपुहत्तमासि वइरा, जावं ति पुहत्तमारओऽभिहिए। के ते आसि कया वा, पसंगओ तेसिमुप्पत्ती / / 2285 / / आर्यवैराद्यावदपृथक्त्वमासीत् , तदारतस्तु पृथक्त्वमुक्तम् एतस्मिश्वाऽभिहिते क एते आर्यवराः, कदाच ते आसन् ? इति विनेयपृच्छायां प्रसङ्गत आर्यवैराणामुत्पत्तिरुच्यत इति गाथार्थः // 2285 // विशे० / ('अजरक्खिय' शब्दे 212 पृष्ठे सर्वं वृत्तम्) नयविभागे विशेषतः कारणमाहसविसयमसद्दहंता, नयाण तम्मत्तयं च गिण्हता। मण्णंताय विरोह, अपरीणामाऽतिपरिणामा॥ 2292 / / गच्छेज मा हु मिच्छं, परिणामा य सुहुमाइबहुभेए। होजाऽसत्ते घेत्तुं, न कालिए तो नयविभागो / / 2263 / / (सविसयेत्यादि) इह शिष्यास्त्रिविधाः / तद्यथा-अपरिणामाः, अतिपरिणामाः, परिणामाश्चेति / तत्राऽविपुलमतयोऽगीतार्था अपरिणतजिनवचनरहस्या अपरिणामाः / अतिव्याप्त्याऽपवाददृष्टयोऽतिपरिणामाः / सम्यक्परिणतजिनवचनास्तु मध्यस्थवृत्तयः परिणामाः / तत्र ये अपरिणामास्ते नयानांयः स्वः स्व आत्मीय आत्मीयो विषयो"ज्ञानमेव श्रेयः क्रिया चाऽश्रयेः "इत्यादिकः, तमश्रद्दधानाः। ये त्वतिपरिणामास्तेऽपि यदेवैकेन नयेन क्रिया-ऽऽदिकं वस्तु प्रोक्तं तदेव तन्मात्रं प्रमाणतया गृह्णन्त एकान्तनित्याऽऽदिकवस्तुप्रतिपादकनयानां च परस्परविरोधं मन्वाना मिथ्यात्वमागच्छेयुः, येऽप्युक्तस्वरूपाः परिणामाः शिष्यास्ते यद्यपि मिथ्यात्वं न गच्छन्ति, तथाऽपि विस्तरेण नयख्यिायमानैर्ये सूक्ष्माः सूक्ष्मतराश्च तद्भेदाः, तान् गृहीतुमशक्ता असमर्था भवेयुरिति मत्वा तत आर्यरक्षितसूरिभिः कालिक इत्युपलक्षणत्वात्सर्वस्मिन्नपि श्रुते नयविभागो विस्तरव्याख्यारूपो न कृत इति गाथा (दया) र्थः / / 2262 // 2263 // विशे० / आ० चू० / आ० क०। आ० म० / अभिप्रायविशेषे, चं० प्र०१ पाहु०। आ० म०। न्याये, औ० / नीतौ च / विशे०।
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________________ णय 1901- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णयकप्प (36) तमेव नयमष्टप्रकारमाहआलोयणा य विणए, खेत्त दिसाऽभिग्गहे य काले य। रिक्खगुणसंपदा वि य, अभिवाहारे य अट्ठमए / / 3366 / / इहाऽऽभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाशनमालोचना; विनयश्च बाह्य आसनादानाभ्युत्थानाऽऽदिः, अन्तरङ्गस्तु बहुमानाऽऽदिः; तथा क्षेत्रभिक्षुक्षेत्राऽऽदि, तथा दिगभिग्रहश्च वक्ष्यमाणलक्षणः, कालश्च दिवसाऽऽदिः, तथा ऋक्षसंपन्नक्षत्रसंपदिति, गुणाः प्रियधर्मत्वाऽऽदयः, तत्संपत्प्राप्तिरिति, अभिव्यावहरणमभिव्याहारः कालिकाऽऽदिश्रुतविषय उद्देशसमुद्देशाऽऽदिरिति / अयं चाऽष्टमो नय इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 3366 / विशे०।आ० म०। औ०। (आलोचनाऽऽदिनयानां विवरणं' सामाइय' शब्दे दर्शयिष्यामि) द्यूतभेदे, कर्तरि अच् / नेतरि, न्याय्ये च। त्रि०वाच०। णयकप्प पुं०(नयकल्प) नयतत्त्वसमाचारे, पं० चू०। ...........", णयकप्पमियाणि वोच्छामि / / सव्वेसि पि णयाणं, आदेसणयंतरं पि सट्ठाणे। एस णयंतरकप्पो, पुव्वण, विसालमादीसुं / / सव्वे विणेगमाऽऽदी, आदिस्सति जो णयो स आदेसो। णयतो अण्हो वि णओ, णयंतरं होति णायव्वं // सट्ठाणे सहाणे , सव्वे वलिया हंति सव्विसए। एसो णयकप्पो तू , पुष्वगतम्मी समक्खाओ / / उप्पयपुव्व विसालं, तमादि काउंतु सव्वपुव्वेसु। भणतो तु णयविभागो, पच्छं चोदेति अह सीसो।। कम्हा कालियसुत्ते, ण णया तु समोयरंति हु कहं वा? नयविगले होति साहण-मोक्खस्स तु भण्हति सुणाहि।। णयवजिओ वि हु अलं, दुक्खक्खयकारओ जतिजणस्स। चरणकरणाणुओगो, तेण उ पढमं कयं दारं / / आयारपकप्पधरो, कप्पव्ववहारधारओ अजो! णयसुत्तवजिओ वि हू , गणपरियट्टी अणुण्हातो॥ पच्छित्तकरण अणुपालणा य भणिता उ कप्पववहारे। एतेण सत्थधारी, गणधारी जो चरणधारी॥ अजो! ती आमंतण-णिद्देसे वा णयस्स सुत्ताई। जातिं तु दिट्ठिवाते, पच्छित्तं दिजते तह तु // तेहिं विणा विजाणति, आयारपकप्पधारओ जम्हा। तम्हा तु अणुण्हातो, गणपरियट्टी तु सो णियमा / / करणाऽणुपालयालं, पज्जवकसिणं समासतो णाणं। करणाऽणुपालणजुतं, पज्जवकसिणं भवे तिविहं।। दु-त्ति-पण-छक्ककणयं-तरेसु सोलस हवंति ठाणाई। करणट्ठाणपसत्था, करणट्ठाणा उ अपसत्था / / एयाइं ठाणाई, दोहि विगाहाहिँ जाइँ भणिताई। तेसि परूवणमिणमो, समासतो होति बोधव्वा / / करणं तु किया होती, पडिलेहणमादि सामयारी तु / तं पालेज तु णाणेण तं च दुविहं मुणेयव्वं / / दारं। पज्जवकसिण समासो, पञ्जवकसिणं तु चोडसं पुव्वा। सामासियं पकप्पो, होति समासो मुणेयव्वो।। पज्जवकसिणं तिविहं, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव। एमेव समासो वि हु, तेहिं तु पालिज्जए चरणं / / तस्स णएहिं मग्गण, ते उ समासेण होंति दुविहा तु। दव्वट्ठपज्जवट्ठिय-णया उ अविसेसियविसिट्ठा।। वण्हादिससमुदियं तू , दव्वट्ठीदव्वमिच्छते णियमा। तं चेव पज्जवणओ, दव्वाइविसेसियं इच्छे॥ अहवा वि तिण्हि विणया, दव्वट्ठिय-पज्जवट्ठिय-गुणट्ठी। पञ्जायविसेस चिय, सुहुमतरागा गुणा होति / / एगगुणकालगाऽऽदिसु , परिसंखगुणट्टितो तु णायचो। दव्वा उ गुणो णण्हे, गुणा विसेस त्ति एगट्ठा।। आदिण्ह तिहि तु णया, एक्को वितिओ य होति उज्जुसुओ। सद्दादि तिहि चेको, तिण्हि णया होति एवं वा।। अहवा णिग्गमसंगह-ववहारुज्जुसुऐं होंति चउरेते। सद्दणया तिहि एक्को, पंच णया होंति एवं तु / / अहवा वि होज छकं, गर्मों संगाहिगो असंगाही। संगहिगो संगहं तू , ववहारपविट्ठऽसंगाही।। तम्हा तु संगहणओ, ववहारो चेव होति उज्जुसुओ। सद्यो य सममिरूढो, एवंभूतो य छ त्तु णया / / एतेहिं पुण सव्वे, वी दुग-तिग-पण-छक्क-मेलिया संता। सोलसणयंतराई,समासओ होंति एयाई॥ जदि कुणति दवियकप्पं, एतेहिं णयंतरेहिं तु विसुद्धं / करणहाणे पसत्था, ते खलु होती मुणेयव्वा / / अकरते अपसत्था, कप्पे सणयंतरे समक्खाओ। पं०भा०। इयाणिं नवंतरकप्पो-गाहा-(सव्वेसि पि नयाणं) आदेसनओजो जाणओ आइस्सइ / नयंतरं नाम-नयाओ नयस्स अंतरं / एस णयंतरकप्पो पुव्वनए भणिओ विसालाइसु, उप्पयपुव्वमेव विसालं। तत्थ किर सव्वाणि वि आकरिसिजति / आह-कालियसुत्ते कम्हा नया न समोयरंति ? उच्यते-(नयवजिओ विहु अलं गाहा) सिद्धम, नयाइति कोऽर्थः? नयन्तीति नयाः। अथवा-नयः नीतिमार्गः,पन्थाः, दृष्टिग्राहक इत्यर्थः। ते च नैगमाऽऽद्याः जीवाऽऽदयः पदार्थाः विविधैः प्रकारैः नयन्ति उववादयंति उपदर्शयन्तीत्यर्थः / तेषां च दृष्टिवादे समवतारः / आहअस्मिन् चरणकरणाऽनुयोगनयवादेऽप्यनभिज्ञानां कथं चरणविशुद्धिभवति? उच्यते-श्रूयताम्। (आयारपकप्पधरो गाहा) आचरणमाचारः, क्रिया इत्यर्थः / स चाऽष्टप्रकारः-पञ्चसमितयः, गुप्तित्रयम्। एष चारित्राचारः / आचारप्रकल्पधरो नाम-निशीथेषु सूत्रार्थधर इत्यर्थः / किं च-कल्पव्यवहारधरश्च / अज्जो ! त्ति आमन्त्रणे निर्देशो वा(नयसुत्तवजिओ त्ति) नयन्तीति नयाः, हुः पादपुरणे / दुक्खक्खयकारओ जम्हा एएण गणपरियट्टी अणुण्हाओ। आह-कहमनुज्ञातः ? गाहा(पच्छित्तकरण) जम्हा पायच्छित्तकरणं अणुपालयंति, तम्हा यणो
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________________ णयकप्प 1902 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णयामास अणुपालिज्जइ, ते पकप्पयकप्पववहारेसु भणियं, एएण सत्थधारी जो / णयणिउण त्रि०(नयनिपुण) नैगमाऽऽदिषु नयेषु निपुणे, सम्म / नयसो गणपरियट्टी अणुण्हाओ चरणजुत्तो जइ भवइ / गाहा-(कर- निपुणतया नयवक्तव्यताऽवसरे सम्यक् सप्रपञ्चवैविक्त्येन नयानभिधत्ते / णाणुपालगाणं) तंदुविहं-पज्जवकसिणं, समासतश्च। पज्जवकसिणं नाम- सम्म०१ काण्ड। चोहसपुव्वाणि समासओ आयारपकप्पो, समासः संक्षेप इत्यर्थः / यथा णयण्णु त्रि०(नयज्ञ) सर्वनयरहस्यविज्ञे, अष्ट० 32 अष्ट०। समुद्रभूतस्तडागः, चन्द्रमुखी देवदत्ता, सिंहो माणवकः, एकदेशेनाप्यौ णयप्पमाण न०(नयप्रमाण) नया नैगमाऽऽदयः सप्त, द्रव्यास्तिकपम्यं क्रियते। चतुर्दशपूर्वधरः, सर्वपर्यायेषु सूत्रार्थेषु ये चरणकरणाऽऽदयः पर्यायास्तिकभेदात्। ज्ञाननयक्रियानयभेदावा द्वौ तौ एतावेव वा प्रमाण पदार्थाः, तान् प्रज्ञापयितुं समर्थः / आचारकल्पधरस्त्वेकदेशतः। दोण्ह वस्तुतत्त्वपरिच्छेदनं नयप्रमाणम् / आपेक्षिकप्रमाकरणे, स० 5 अङ्ग। वि चरणकरणं अणुपालेउं समत्था / तेनैकदेशाऽभिज्ञत्वं प्रतीत्य यथा (प्रस्थाऽऽदिदृष्टान्तैर्नयप्रमाणं णय 'शब्दे 1876 पृष्ठे उक्तम्) समासतोऽप्यर्थधराः कल्पव्यवहाराऽऽदयो गणपरिपालनसमर्था भवन्ति / (पज्जवकसिणं तिविहं, सुत्ते अत्थे यतदुभएचेव) गाहा-(लिग णयप्पहाण त्रि०(नयप्रधान) नैगमाऽऽदिभिः सप्तभिः प्रत्येकं शतपणग) तिगं ति दव्वट्ठियपज्जवट्टियगुणट्ठिया। अहवा-नेगमसंगहयवहारा विधैर्नयैः शेषजनप्रधाने, यस्य वा नयाः प्रधानास्तस्मिन् , रा०। एग चेव, उज्जुसुओ विइओ, तइओ सद्दो। अहवा पंचनेगमसंगहववहारा, णयररक्खणपुर न०(नगररक्षणपुर) नासिक्यपुरस्थानभेदे, ती० 27 उज्जसुओ, सद्दो (छक्को त्ति) नेगमो दुविहो-संगहिओ, असंगहिओ य। कल्प। संगहिओ संगहं पविट्ठो, असंगहिओ ववहारे। एएछ भवंति। एएसुनयंतरेसु णयरवलीवद्द पुं०(नगरबलीवर्द) वर्द्धितगवे, विपा० 1 श्रु०२ अ०। सोलस ठाणाई भवति / कयराइं ताई सोलस ? उच्यते-छव्विहकप्पे / णयरी स्त्री०(नगरी) राजधानीकल्पे नगरे, यथा-आमलकल्पा। (रा०) सोलस सोलसविहो अजीवदवियकप्पो / आ-हाराइ जीवकप्पंन सोहणे चम्पा। औ० / सू० प्र०। त्ति / एयाई जह करेंतो करणट्ठाणाइं पसत्थाई, अकरेंतस्स ताणि चेव णयविजय पुं०(नयविजय) तपागच्छे श्रीविजयदेवसूरिवराणां शिष्ये अप्पसत्थाणि / एस नयकप्पो। पं० चू०। यशोविजयोपाध्यायगुरौ, श्रीहीरविजयसूरिशिष्यकल्याणविजयणयगइ स्त्री०(नयगति) नयानां सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणावा- . शिष्यलाभविजयशिष्यजीतविजयसतीर्थ्य स्वनामख्याते आचार्ये, द्वा०। धितवस्तुव्यवस्थापने, नैगमाऽऽदीनां नयानां स्वस्वमतपोषणे च। प्रज्ञा० " प्रकाशार्थ पृथ्व्यास्तरणिरुदयाद्रेरिह यथा, 16 पद। यथा वा पाथोभृत्सकलजगदर्थं जलनिधेः। णयचं : गरि पुं०(नयचन्द्रसूरि) हम्मीरमहाकाव्यरम्भामजाद्य तथा वाराणस्याः सविधमभजन् ये मम कृते, नेकग्रन्थकर्ताचार्ये, जै० इ०। सतीस्तेि तेषां नयविजयविज्ञा विजयिनः // 5 // (इति यशोणयचक्कन०(नयचक्र) दिगम्बरदेवसेनकृते नयप्रतिपादके शास्त्रे, द्रव्या० विजयोक्तेः) द्वा० 32 द्वा०। प्रति०। अष्ट० / नय० / 8 अध्या० / पूर्वविद्भिः सकलनयसंग्राहीणि सप्तनयशतान्युक्तानि, णयविहि पुं०(नयविधि) नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढेवभूतेषु यत्प्रतिपादक सप्तशतारं नयचक्राध्ययनमासीत्। उक्तं च-'' इक्केको य नयभेदेषु, उत्त०२८ अ०। सयविहो, सत्त नयसया हवंति एमेव।" (2264) इत्यादि। सप्तानां च णयविहिण्णु त्रि०(नयविधिज्ञ) नैगमाऽऽदीनां नयानां नीतीनां वा नयशतानां संग्राहकाः पुनरपि विध्यादयो द्वादश नयाः, यत्प्ररूपकमिदानीमपि द्वादशारं नयचक्रमस्ति। अनु०॥ प्रकारज्ञे, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। णयण न०(नयन) नी-ल्युट् / प्रापणे, आ० म० 1 अ० 1 खण्ड। उत्त० / णयसार पुं०(नयसार) प्रथमभवे पश्चिममहाविदेहे स्वनामख्याते करणे ल्युटा नीत्वा निवेशने, पं० सं०५ द्वार। विशे०। लोचने, प्रश्र०१ वीरस्वामिजीवे, कल्प० 2 क्षण। आ० क० / आश्र० द्वार / को०।" वाऽक्ष्यर्थवचनाऽऽद्याः " / / 8 / 1 / 33 / / णयामास पुं०(नयाऽऽभास) नयान्तरनिरक्षेपे नये दुर्नये, आ० म०१ इति नयनशब्दस्य प्राकृते स्त्रीत्वमपि-" नयना नयनाई" प्रा०१पाद / अ०२ खण्ड। स्वाभिप्रेतादशादितरांशापलापिनि नये, स्या०। णयणकीया स्त्री०(नयनकीका) नेत्रमध्यतारायाम , रा०। ज्ञा० / औ०। नयाऽऽभासं दर्शयन्तिणयणभूसणकर त्रि०(नयनभूषणकर) ६त०। नेत्राऽऽनन्दकरे, नयनयोर्हि स्वाभिप्रेतादशादितरांशापलापी पुनर्नयाऽऽभासः॥२॥ आनन्द एव भूषणम्। कल्प० 3 क्षण। पुनःशब्दो नयाद् व्यतिरेकं द्योतयति / नयाऽऽभासो नयप्रतिणयणमाला स्त्री०(नयनमाला) श्रेणीभूतजननेत्रपङ्क्तौ, भ० 6 श० | बिम्बाऽऽत्मा दुर्नय इत्यर्थः / यथा तीथिकानां नित्यानित्याऽऽ३३ उ०। द्येकान्तप्रदर्शकं सकलं वाक्यमिति // 2 // (रत्ना०) णयणविस न०(नयनविष) दृष्टिविषे, रोषे, ज्ञा० 1 श्रु० अ० / भ०। अथ नैगमाऽऽभासमाहुःणयणामय पुं०(नयनामय) कामलाऽऽदौ नेत्ररोगे, व्य०६ उ०। धर्मद्रयाऽऽदीनायकान्तिकपार्थक्स्याधिपन्धि गमाऽऽभावः // 11||
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________________ णयाभास 1903 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरकंतप्पवाय आदिशब्दाद् धर्मिद्वयधर्मधर्मिद्वययोः परिग्रहः / ऐकान्तिकपार्थक्याभिसन्धिरैकान्तिकभेदाऽभिप्रायो नैगमाऽऽभासो नैगमदुर्नय इत्यर्थः // 11 // अत्रोदाहरन्तियथाऽऽत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तं पृथग्भूते इत्यादिः / / 12 // आदिशब्दाद्वस्त्वाख्यपर्यायवद् द्रव्याऽऽख्ययोर्धर्मिणोः सुखजीवलक्षणयोधर्मधर्मिणोश्च सर्वथा पार्थक्येन कथनंतदाभासत्वेन द्रष्टव्यम्। नैयायिकवैशेषिकदर्शनं चैतदाभासतया ज्ञेयम्।।१२।। (रत्ना०) संग्रहाऽऽभासमाहुःसत्ताऽद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान्निराचक्षाणस्तदाभासः / / 17 // अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानो हि परामर्शविशेषः संग्रहाख्यां लभते, / न चाऽयं तथेति तदाभासः॥ 17 // उदाहरन्तियथा सत्तैव तत्त्वं ततः पृथग्भूतानां विशेषाणामदर्शनात्॥१८॥ अद्वैतवादिदर्शनान्यखिलानि साङ्ख्यदर्शनं चैतदाभासत्वेन प्रत्येयम् / अद्वैतवादस्य सर्वस्याऽपि दृष्टष्टाभ्यां विरुध्यमानत्वात्॥१८॥ (रत्ना०) व्यवहाराऽऽभासं वर्णयन्तियः पुनरपारमार्थिकद्रव्यपर्यायविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः // 25 // यः पुनः परामर्शविशेषः कल्पनाऽऽरोपितद्रव्यपर्यायप्रविवेकं मन्यते, सोऽत्र व्यवहारदुर्नयः प्रत्येयः // 25 // उदाहरन्तियथा चार्वाकदर्शनम्॥२६॥ चार्वाको हि प्रमाणप्रतिपन्नं जीवद्रव्यपर्यायाऽऽदिप्रविभागं कल्पनाऽऽरोपितत्वेनापछुते, अविचारितरमणीयं भूतचतुष्टयप्रविभागमात्र तु स्थूललोकव्यवहारानुयायितया समर्थवत इत्यस्य दर्शनं व्यवहारनयाऽऽभासतयोपदर्शितम् // 26 // (रत्ना०) ऋजुसूत्राऽऽभासंब्रुवतेसर्वथा द्रव्यापलापीतदाभासः॥३०॥ सर्वथा गुणप्रधानभावाभावप्रकारेण तदाभास ऋजुसूत्राऽऽभासः॥ 30 // उदाहरन्तियथा तथागतमतम्॥३१॥ तथागतो हि प्रतिक्षणविनश्वरान् पर्यायानेव पारमार्थिकतया समर्थयते, तदाधारभूतं तु प्रत्यभिक्षाऽऽदिप्रमाणप्रसिद्धं त्रिकालस्थायि द्रव्यं तिरस्कुरुत इत्येतन्मतं तदाभासतयोदाहृतम्।३१।। (रत्ना०) शब्दाऽऽभासंब्रुवतेतभेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः॥३४॥ तद्भेदेन कालाऽऽदिभेदेन तस्य ध्वनेस्तमेवार्थभेदमेव, तदाभासः | शब्दाभासः / / 34 // उदाहरन्तियथा बभूव भवति भविष्यतिसुमेरुरित्यावयो त्तिन्नकालाःशब्दा भिन्नमेवाऽर्थमभिदधति, भिन्नकालशब्दत्वात् , तादृक् सिद्धान्यशब्दवदित्यादिः॥३५॥ अनेन हि तथाविधपरामर्शोत्थेन वचनेन कत्तनावऽदिभेदाद्भिनस्यैवाऽर्थस्याऽभिधायकत्वं शब्दानां व्यञ्जितम् / एतच्च प्रमाणविरुद्धमिति तद्वचनस्य शब्दनयाऽऽभासत्वस् / आदिशब्देन करोति क्रियते कट इत्यादिशब्दनयाभासोदाहरणं सूचितम्।।३५॥ (रत्ना०) समभिरूढनयाऽऽभासमाभाषन्तेपर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः // 38 // तदाभासः समभिरूढाऽऽभासः॥३८ / / उदाहरन्तियथेन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दया भिन्नाऽभिधेया एव, मिन्नशब्दत्वात्, करिकुरङ्गतुरङ्गशब्दवदित्यादिः // 36 // (रत्ना०) एवंभूताऽऽभासमाचाक्षतेक्रियाऽनाविष्ट वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपस्तु तदाभासः।। 42 // क्रियाऽऽविष्टं वस्तु ध्वनीनामभिधेयः प्रतिजानानोऽपि यः परामर्शस्तदनाविष्ट तत्तेषां तथा प्रतीतिपति न तूपेक्षते, स एवंभूतनयाऽऽभासः, प्रतीतिविघातानाऽपि // 42 // उदाहरन्तियथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाऽऽख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यं, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाशून्यत्वात्, पटवदित्यादिः॥ 13 // अनेन हि वचसा क्रियाऽनाविष्टस्य घटाऽऽदेर्वस्तुनो घटाऽऽदिशब्दवाच्यतानिषेधः क्रियते, स च प्रमाणबाधित इति तद्वचनमेवंभूतनयाऽऽभासोदाहरणतयोक्तम् // 43 // रत्ना०७ परि०॥ णर पुं०(नर) नृणन्ति विवेकमासाद्य नयधर्मपरा भवन्तीति नराः। कर्म० 4 कर्म०।" वाऽऽदौ"॥१॥२२६ असंयुक्तस्याऽऽदौ वर्तमानस्य नस्य णः / इति नस्य णः। प्रा० 1 पाद / मनुष्ये, आ० म० 1 अ०२ खण्ड। आचा० / औ० / प्रश्न० / कर्म० / रा० / नराश्चतुर्विधाःसम्मूर्छिमाः, कर्मभूमिकाः, अकर्मभूमिकाः, अन्तर्भूमिकाः / आ० म० 1 अ० 1 खण्ड / सामान्यमनुष्ये, सूत्र०१ श्रु० 2 अ० 1 उ० / रा०। प्राकृतपुरुष, शास्त्रावबोधविकले, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ० / पुरुष, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। पुसि, ध०१ अधि०। औ०। णरउसम पुं०(नरवृषभ) अङ्गीकृतकार्यभरनिर्वाहकत्वाद् वृषभो-पडिते नरे, औ०। णरकंतप्पवाय पुं०(नरकान्तप्रपात) जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरतो रम्यकवर्षे नरकान्तानद्या उद्गमप्रपातह्नदे, स्था० ठा० 3 उ०।
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________________ णयाभास 1904 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरकंतप्पवाय णरकंता स्त्री०(नरकान्ता) रम्यकवर्षे पूर्वाऽर्णवगामिन्यां महानद्याम् , जं० 4 वक्षः / नरकान्ता महापुण्डरीकहदाद्दक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य रम्यकवर्ष भजतीति हरिकान्तातुल्यवक्तव्या पूर्वसमुद्रमधिगता। स्था० 2 ठा०३ उ०। रा० / जं० / स०। णरकताकूड न०(नरकान्ताकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेण रुक्मिवर्षधरपर्वतस्य चतुर्थे कूटे, स्था०८ ठा०। णरकिंदगपुं०(नरकेन्द्रक) सीमान्तकाऽऽदिषु नरकवरेषु, स्था०६ ठा० / णरग पुं०(नरक) नरान् कायन्ति शब्दयन्ति योग्यताया अनतिक्रमेणाऽऽकारयन्ति जन्तून् स्वस्वस्थाने इति नरकाः।नं०। आ० म०।' कै' '''' शब्द इतिधातोः नरान् शब्दयन्तीत्यर्थः / आव०१ अ०। पापकर्मिणां यातनास्थानेषु, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। निरये, स्था० 4 ठा० 130 / रत्नप्रभाऽऽदिषु नारकोत्पत्तिस्था-नेषु, उत्त०३ अ०। (1) नरकपदनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहणिरए छकं दव्वं, णिरयाउ इहेव जे भवे असुभा। खेत्तं णिरओगासो, कालो णिरएसु चेव ठिई // 65 // भावे उणिरयजीवा, कम्मुदओ चेव णिरयपाओग्गो। सोऊण णिरयदुक्खं, तवचरणे होइ जइयव्वं / / 65 / / "णिरए छक्कं " इत्यादि गाथाद्वयम्। तत्र नरकशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोढा निक्षेपः। तत्र नामस्थापने क्षुण्णे। द्रव्यनरक आगमतः, नो आगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यक्तिरिक्तः / इहैव मनुष्यभवे, तिर्यग्भवे, केचनाऽशुभकारित्वादशुभाः सत्त्वाः कालकसौकरिकाऽऽदय इति / यदि वा-यानि कानिचिदशुभानि स्थानानि चारकाऽऽदीनि, याश्च नरकप्रतिरूपा भेदनाः, ताः सर्वा द्रव्यनरका इत्यभिधीयन्ते। यदि वा-कर्मशयनो-कर्मद्रव्यभेदाद् द्रव्यनरको द्वेधातत्र नरकवेद्यानि यानि बद्धानि तानि चैकभविकस्य बद्धायुष्कस्याऽभिमुखनामगोत्रस्य चाऽऽश्रित्य द्रव्यनरको भवति / नोकर्मद्रव्यनरकस्त्विहैव येऽशुभा रूपरसगन्धवर्णशब्दस्पर्शा इति / / क्षेत्रनरकस्तु नरकावकाशकालमहा-कालरौरवमहारौरवप्रतिष्ठानाऽभिधानाऽऽदिनरकाणां चतुरशीतिलक्षसंख्यानां विशिष्टो भूभागः / / कालनरकस्तु यत्र यावती स्थितिरिति / / भावनरकस्तु ये जीवा नरकाऽऽयुष्कमनुभवन्ति / तथा नरकप्रायोग्यः कर्मोदय इति / एतदुक्तं भवतिनरकान्तवर्तिनो जीवास्तथा नरकाऽऽयुष्कोदयाऽऽपादिताऽसातावेदनीयाऽऽदिकर्मोदयाश्चैतद् द्वितयमपि भावनरक इत्यभिधीयते। तदेवं श्रुत्वाऽवगम्य तीव्रमसह्यं नरकदुःखं क्रक चपाटनकुम्भीपाकाऽऽदिकं परमाऽधर्मिकाऽऽपादितं परस्परोदीरणाकृतं च, तपश्चरणे संयमाऽनुष्ठाने नरकपातपरिपन्थिनि स्वर्गापवर्गगमनैकहे तोर्वाऽऽत्महितमिच्छता प्रयतितव्यम्-परित्यक्तान्यकर्तव्येन यत्नो विधेय इति। सूत्र० 1 श्रु०५ अ०१ उ०। नरकविभक्तिः समाप्ता। (2) नरकपृथिव्यः सप्तरयणप्पभा, सक्करप्पभा, वालुकप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, | तमप्पभा, तमतमप्पभा। प्रज्ञा०२ पाद। (3) साम्प्रतं पृथ्वीनामगोत्रं वक्तव्यम् - पढमा णं भंते ! पुढवी किंनामा? किंगोता पण्णत्ता ? गोयमा! धम्मा नामेणं, रयणप्पभा गोत्तेणं / दोचा णं भंते ! पुढवी किनामा किंगोत्ता पण्णत्ता? गोयमा! वंसा नामेणं, सक्करप्पमा गोत्तेणं / एवं एतेणं अमिलावणं सव्वासिं पुच्छा। नामाणि इमाणि-सेला तचा, अंजणा चउत्था, रिट्ठा पंचमा, मघा छट्ठा, माघवती सत्तमा / बालुयप्पभा० जाव तमतमप्पभा गोत्तेणं पण्णत्ता। तत्र नामगोत्रयोरय विशेषः-अनादिकालप्रसिद्धमन्वर्थरहितं नाम, सान्वर्थ नाम गोत्रमिति। तत्र नामगोत्रप्रतिपादनार्थमाह-(इमा णं भंते ! इत्यादि) इयं भदन्त! रत्नप्रभा पृथिवी किनामा किमनादिकालप्रसिद्धान्यर्थरहितनामा? किंगोत्रा किमन्वर्थयुक्तनामगोत्रा ? भगवानाह-गौतम! नाम्ना घर्मेति प्रज्ञप्ता, गोत्रेण रत्नप्रभा / तथा चात्रान्वर्थमुपदर्शयन्ति पूर्वसूरयः-रत्नानां प्रभा बाहुल्यं यत्र सा रत्नप्रभा, रत्नबहुलेति भावः / एवं शेषसूत्राण्यपि प्रति-पृथिवीप्रश्ननिर्वचनरूपाणि भावनीयानि। नवरं शर्कराप्रभाऽऽदी-नामियमन्वर्थभावनाशर्कराणां प्रभा बाहुल्यं यत्र सा शर्कराप्रभा / एवं बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा इत्यपि भावनीयम् / तथा धूमस्येव प्रभा यस्यां सा धूमप्रभा। तथा तमसः प्रभा बाहुल्यं यत्र सा तमःप्रभा, तमस्तमसः प्रकृष्टतमसः प्रभा बाहुल्यं यत्र सातमस्तमःप्रभा। अत्र केषुचित पुस्तकेषु संग्रहणी गाथे" घम्मा वंसा सेला, अंजण रिहा मघा य माघवती। सत्तण्डं पुढवीणं, एए नामा उ नायव्वा / / 1 / / रयणा सक्कर-वालय-पंका धमा तमा तमतमा य। सत्तण्डं पुढवीणं, एए गोत्ता मुणेयव्या" // 2 // (4) अधुना प्रतिपृथिवीबाहल्यमभिधित्सुराहइमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी केवतिया बाहल्लेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी असीउत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता। एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाथा अणुगंतव्वा" आसीतं बत्तीसं, अट्ठावीसं तहेव वीसं च। अट्ठारस सोलसगं, अतुत्तर हेट्ठिमया // 1 // (इमाणं भंते! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कियबाहुल्येन प्रज्ञप्ता ? अत्र गोत्रेण प्रश्नो नाम्नो गोत्रं प्रधानम् , न च प्रश्नोपपन्नमिति न्यायप्रदर्शनाथः। उक्तंच-"नहीना वाग् सदा सतामिति। "भगवानाहअशीत्युत्तरम्-अशीतियोजनसहस्राभ्यधिकं योजनशतसहसं बाहल्येन प्रज्ञप्ता / एवं सर्वाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि। अत्र संग्रहणी गाथा"आसीणं बत्तीसं, अट्ठावीसंतहेव वीसं च। अट्ठारस सोलसगं, अळुत्तरमेव हेठिमया।॥ 1 // " (5) काण्डानिइमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कतिविधा पण्णत्ता ? गोयमा! तिविधा पण्णत्ता। तं जहा-खरकंडे, पंकबहुले कंडे,आवबहुले कंडे।
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________________ णरग 1905 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग (इमा णं भंते ! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कतिविधा कतिप्रकारा-कतिविभागा प्रज्ञप्ता ? भगवानाह-गौतम! त्रिधा त्रिविभागा प्रज्ञप्ता। तद्यथा-(खरकंडमित्यादि) काण्डं नाम-विशिष्टो भूभागः, खरं कठिनं पङ्कबहुलमबहुलं चान्वर्थतः प्रतिपत्तव्यम्। क्रमश्चैतेषामेवमेव / तद्यथा-प्रथमं खरकाण्ड, तदनन्तरं पङ्कबहुलं, ततोऽब्बहुलमिति। (6) खरकाण्डवक्तव्यतामाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलसविधे पण्णत्ते / तं जहा-रयणे, वइरे, वेरुलिए, लोहितक्खे, मसारगल्ले, हंसगन्भे, पुलए, सोइंधिए, जोतिरसे, अंजणे, अंजणपुलए, रयते,जातरूवे, अंके,फरिहे, रितु कंडे॥ (इमीसेणंभंते! इत्यादि)अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यांखरकाण्ड कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ! षोडशविधं षोडशविभाग प्रज्ञप्तम् / तद्यथा-(रयणे इति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् रत्नकाण्डम्-तच प्रथमम् , द्वितीयं वजकाण्डम्, तृतीयम्-वैडूर्यकाण्डम्, चतुर्थम्-लोहिताक्षकाण्डम् / पञ्चमम्-मसारगल्लकाण्डम् , षष्ठम्हंसगर्भकाण्डम् , सप्तमम्-पुलककाण्डम् , अष्टमम्-सौगन्धिककाण्डम्, नवमम्-ज्योतीरसकाण्डम् , दश-मम्-अञ्जनकाण्डम् , एकादशमम्अञ्जनपुलाककाण्डम्, द्वा-दशम्-रजतकाण्डम् , त्रयोदशम् - जातरूपकाण्डम् , चतुर्दशम्-अङ्ककाण्डम् , पञ्चदशम्-स्फटिककाण्डम्, षोडशम्-रिष्टकाण्डम् / तत्र रत्नानि कर्केतनाऽऽदीनि तत्प्रधान काण्ड रत्नकाण्डम्, वजरत्नप्रधान काण्डं वज्रकाण्डम्। एवं शेषाण्यप्येकैकंच काण्ड योजनसहस्रबाहुल्यम्। (7) रत्नकाण्डवक्तव्यतामाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते / एवं० जाव रिटे। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुले कडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते / इमीसे णं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए आवबहुले कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवी कतिविधा पण्णत्ता ? गोयमा! एगागारा पण्णत्ता / एवं० जाव अहे सत्तमाए। (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्या रत्नकाण्ड कतिविधं कतिप्रकारं, कतिविभागमिति भावः / प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-एकाकारं प्रज्ञातम्। एवं शेषकाण्डविषयाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि क्रमेण भणनीयानि। एवं पङ्कबहुलाऽब्बहुल-विषयाण्यपि। जी० 3 प्रति० / प्रज्ञा०। (8) संप्रति प्रतिपृथिवीनरकाऽऽवाससंख्याप्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता? गोयमा ! तीसं निरयावाससतसहस्सा पण्णत्ता / एवं एतेणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा। इमा गाथा अणुगंतव्वा"तीसाय पण्णवीसा, पण्णरस दसेव तिण्णि य हवंति। पंचूण सतसहस्सं,पंचेव अणुत्तरा णरगा।।१॥" ०जाव अहे सत्तमाएपंच अणुत्तरा महतिमहालया महाण-रगा पण्णत्ता / तं जहा-काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपतिट्ठाणे॥ (इमीसे णं भंते! इत्यादि) सुगमम्। नवरमियमत्र सङ्ग्रहणी गाथा-" तीसा य पण्णवीसा, पण्णरस दसेव सयसहस्साई / तिण्णेगं पंचूणं, अणुत्तरा णिरया // 1 // " अधः सप्तम्यां च पृथिव्यां कालाऽऽदयो महा नरका अप्रतिष्ठानाऽभिधानकस्य नरकस्य पूर्वाऽऽदिक्रमेण / उक्तं च-" पुव्वेण होइ कालो, अवाइणा अप्पइट्ठ महकालो। रोरू दाहिणपासे, उत्तरपासे महारोरू // 1 // " रत्नप्रभाऽऽदिषु च तमःप्रभापर्यन्तासु षट्सु पृथिवीषु प्रत्येक नरकाऽऽवासा द्विविधाः / तद्यथा-आवलिकाप्रविष्टाः, प्रकीर्णकरूपाश्च। तत्र रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रयोदश प्रस्तटाः / प्रस्तटा नामवेश्मभूमिकाकल्पाः / तत्र प्रथमे प्रस्तटे पूर्वाऽऽदिषु दिक्षु प्रत्येकमेकोनपञ्चाशत् नरकाऽऽवासाः, चतसृषु च विदिक्षु प्रत्येकमष्टचत्वारिंशत् , मध्ये च सीमान्तकाऽऽख्यो नरकेन्द्रकः, सर्वसंख्यया प्रथमप्रस्तटे नरकाऽऽवासानामावलिकाप्रविष्टानामेकोननवत्यधिकानि त्रीणि शतानि 386, शेषेषु व द्वादशसु प्रस्तटेषु प्रत्येकं यथोत्तरं दिक्षु विदिक्षु च एकैकनरकाऽऽवासहानिभावात् अष्टकाष्टकहीना नरकाऽऽवासा द्रष्टव्याः। ततः सर्वसंख्यया रत्नप्रभायां पृथिव्यामावलिकानरकाऽऽवासाश्चतुश्चत्वारिंशत् शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि 4433 / शेषासु एकोनत्रिंशल्लक्षणानि पञ्चनवतिसहस्राणि पाशतानि सप्तषष्ट्यधिकानि 2665567 प्रकीर्णकाः / तथा चोक्तम्-" सत्तट्ठी पंच सया, पणनउइ सहस्स लक्ख गुणतीसं / रयणाए सेढिगया, चोयालसया उ तेत्तीसं // 1 // " उभयमीलने त्रिंशल्लक्षा नरकाऽऽवासानाम् 3000000 / शर्कराप्रभायामेकादश प्रस्तटाः; नरकपटलानि अधोऽधो द्वन्द्वहीनानीति वचनात् / तत्र प्रथमे प्रस्तटे चतसृषु दिक्षु षट्त्रिंशत् आवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाः, विदिक्षु पञ्चत्रिंशत् , मध्ये चैको नरकेन्द्रकः। सर्वसंख्यया द्वे शते पञ्चाशीत्यधिके 285, शेषेषु दशसु प्रस्तटेषु प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्टकयानिः, प्रतिदिन 2 एकैकनरकाऽऽवासहानेः, ततस्तत्सर्वसंख्यया आवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाः षट्विंशतिशतानि पञ्चनवत्यधिकानि 2665, शेषाश्चतुर्विंशतिलक्षाः सप्तनवतिसहस्राणि त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि 2467305 पुष्पावकीर्णकाः / उक्तं च-"सत्ताणउइ सहस्सा, चउवीसलक्ख तिसयपंचविहं / वीयाए सेढिगया, छब्बीससया उ पणनउया''।। 1 / / उभयमीलने पञ्चविंशतिलक्षा नरकाऽऽवासानाम् 2500000 /
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________________ णरग १६०६-अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग - बालुकाप्रभायां नव प्रस्तटाः / प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां दिशि | उदधिर्धनोदधिरितिवा, धनः पिण्डीभूतो वातो धनवात इति वा, तनुवात आवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाः पञ्चविंशतिः 2, विदिशि चतुर्विशतिः, इति वा, अवकाशान्तरमिति वा / अवकाशान्तरं नामशुद्धमाकाशम् ? मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति। सर्वसंख्यया सप्तनवतिशतम्। शेषेषु चाष्टसु भगवानाह-हन्त अस्ति; एवं प्रतिपृथिवी तावद्वाच्यं यावदधः सप्तम्याः। प्रस्तटेषु प्रत्येक क्रमेणाऽधोऽधोऽष्टकहानिः / तत्र च कारणं प्रागेवोक्तम्। इभीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे केवतियं बाहततः सर्वसंख्ययाः तत्राऽऽवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाश्चतुर्दश शतानि ल्लेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पञ्चाशीत्यधिकानि 1485 / शेषास्तु पुष्पावकीर्णकाः चतुर्दशलक्षा पण्णत्ते। अष्टानवतिसहस्राणि पञ्च शतानि पञ्चदशाऽधिकानि 1468515 / उक्त (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः च-"पंचसया पन्नरसा, अद्वनवइ सहस्स लक्ख चोद्दसया / तइयाए संबन्धियत् प्रथमं खरं खराऽभिधानं काण्ड तत् क्रियद्बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ? सेढिगया, पणसीया चोइससया उ॥१॥" उभयमीलने पञ्चदश लक्षा भगवानाह-गौतम ! षोडशयोजनसहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तम्। नरकाऽऽवासा-नाम् 1500000 / पङ्कप्रभायां सप्त प्रस्तटाः। प्रथमे च (10) रत्नकाण्डम्प्रस्तटे प्रत्येकं दिशि षोडश आवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाः, विदिशि इमीसे णं भंतें ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे केवतियं बाहपञ्चदश, मध्ये चैको नरकेन्द्रकः / सर्वसंख्यया पञ्चविंशं शतम् 125 / ल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कजोयणसहस्सबाहल्लेणं पण्णत्ते शेषेषु षट्सु प्रस्तटेषु पूर्ववत् प्रत्येकं क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाष्टकहानिः, ततः एवं० जाव रिटे। सर्वसंख्यया तत्राऽऽवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाः सप्त शता-नि (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नं सप्तोत्तराणि 707 / शेषास्तु पुष्पाऽवकीर्णका नव लक्षा नवनव रत्नाऽभिधानं काण्ड तत् क्यित्बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ! तिसहस्त्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके 666263 / उक्तं च-" ते णउया एकं योजनसहस्रम् / शेषाण्यपि काण्डानि वक्तव्यानि, यावत् रिष्ट दोन्नि सया, नवनउयसहस्स नव य लक्खा य। पंकाए सेढिगया, सत्त रिष्टाऽभिधानं काण्डम् / एवं पङ्कबहुलाब्बहुलकाण्डसूत्रे अपि व्याख्येये। सया दोतिसत्तहिया॥ 1 // " उभयमीलने नरकाऽऽवासाना दश लक्षाः (11) पङ्कबहुलम्१००००००। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुले कंडे धूमप्रभायां पञ्च प्रस्तटाः। प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां दिशि नव नव केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! चतुरसीतिजोयण आवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासा, विदिशि अष्टौ, मध्ये चैको नरकेन्द्रकः / सहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इति सर्वसंख्यया एकोनसप्ततिः 66 / शेषेषु च चतुर्षु प्रस्तटेषु पूर्ववत् पङ्कबहुलं काण्ड चतुरशीतियोजनसहस्राणि बाहल्येन। प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकहानिः, ततः सर्वसंख्यया तत्राऽऽवलिका (12) अब्बहुलं काण्डम्प्रविष्टा नरकाऽऽवासा द्वे शते पञ्चषष्ट्यधिके,शेषाः पुष्पाऽऽवकीर्णकाः द्वे इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अब्बहुले कंडे केवतियं लक्षे नवनवतिसहस्राणि सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि 266735 / बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! असीतिं जोयणसहस्साई बाहउक्तं च " सत्त सया पणतीसा, नवनवइ सहस्स दो यलक्खा य। धूमाए ल्लेणं पण्णत्ते। सेढिगया, पण्णद्वा दो सया होति // 1 // " सर्वसंख्यया तिस्रो लक्षा अशीतियोजनसहस्राणि सर्वसंख्यया रत्नप्रभायां बाहल्यमशीतिसनरकाऽऽवासानाम् / हस्राधिकं लक्षम्। तमःप्रभायां त्रयःप्रस्तटाः। तट प्रथमे प्रस्तटे प्रत्येक दिशि चत्वार (13) धनोदधिघनवातयोर्बाहल्यम्आवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाः, विदिशि त्रयः त्रयः, मध्ये चैको इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधि केवतियं बाहनरकेन्द्रक इति / सर्वसंख्यया एकोनत्रिंशत् 26, शेषयोस्तु प्रस्तटयोः ल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! वीसं जोअणसहस्साई बाहल्लेणं प्रत्येकं क्रमेणाऽधोऽधोऽष्टकहानिः, ततः सर्वसंख्यया आवलिकाप्रविष्टा पण्णत्ते। नरकाऽऽवासास्त्रिषष्टिः / शेषास्तु नवनवतिसहस्राणि नव शतानि इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवाते केवतियं बाहद्वात्रिंशत्यधिकानि पुष्पावकीर्णकाः 66632 / उक्तंच-" नवनउइसय ल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा! असंखेज्जाइं जोअणसहस्साइं बाहसहस्सा, नव चेव सया हवंति बत्तीसा। पुढवीए छट्ठीए, पइण्णगाणेस ल्लेणं पण्णत्ताई। एवं तणुवाते वि, एवं उवासंतरे वि। संखेवो॥१॥" उभयमीलने पञ्चोनं नरका-ऽऽवासानां लक्षम्। 66665 / सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधि केवतियं बाहल्ले(E) संप्रति प्रतिपृथिवीधनोदध्यस्तित्वप्रतिपादनार्थमाह णं पण्णत्ते? गोयमा! वीसंजोअणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णअस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे घणोदधि त्ति ताई। वा घणवाते ति वा तणुवाते ति वा उवासंतरे ति वा ? हंता सकरप्पभाए पुढवीए घणवाते केवइए पण्णत्ते ? गोयमा ! अस्थि एवं० जाव अहे सत्तमा। असंखेज्जाइं जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ताई। (अस्थि णं भंते ! इत्यादि) अस्ति भदन्त ! अस्याः प्रत्यक्षत उप- | एवं तणुवाए वि, उवासंतरे वि, जहा सक्करप्पभाए पुढवीए। लभ्यमानाया रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधो घनः स्त्यानीभूतोदक | एवं० जाव अहे सत्तमाए।
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________________ णरग १९०७-अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णरग तस्या अधो घनोदधिः विंशतियोजनसहस्राणि बाहल्येन, तस्या अधो घनवातोऽसंख्येयानि योजनसहस्राणि बाहल्येन, तस्या अप्यधोऽसंख्येयानि योजनसहस्राणि तनुवातो बाहल्येन, तस्या अप्यधोऽसंख्येयानि योजनसहस्राणि बाहल्येनावकाशान्तरम् / एवं शेषाणामपि पृथिवीनां घनोदध्यादयः प्रत्येकं तावद्वक्तव्या यावदधः सप्तम्याः / (14) क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानायाः पृथिव्याःइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए खेत्तछित्तेणं छिज्जमाणाए अस्थि दव्वाइं वण्णतो-कालनीललोहितहालिद्दसुक्किलाई, गंधतो-सुब्भिगंधाई, दुभिगंधाई, रसतो-तित्तकडुयकसायअंबिलमहुराई, फासओ-कक्खडमउयगरुलहुयसीतउसिणणिद्धलुक्खाई, संठाणतोपरिमंडलवट्टतंसचउरंसआययसंठाणपरिणयाई अण्णमण्णबद्धाइं अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णओगाढाई अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धाइं अण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति ? हंता ! अत्थि। (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यामशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायां क्षेत्रच्छेदनबुद्ध्यामतरकाण्डविभागेन च्छिद्यमानायाम् , अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनार्थगर्भ:सन्ति द्रव्याणि, वर्णतः-कालानि नीलानि लोहितानि हारि-द्राणि, शुक्लानि, गन्धतः-सुरभिगन्धीनि, दुरभिगन्धीनि च, रस-तःतिक्तरसानि, कटुकानि, कषायाणि, अम्लानि, मधुराणि, स्पर्शतःकर्कशानि, मृदूनि, गुरुकाणि, लघूनि, शीतानि, उष्णा-नि, स्निग्धानि, रूक्षाणि, संस्थानतः-परिमण्डलानि, वृत्तानि, त्र्यस्त्राणि, चतुरस्राणि, आयतानि। कथंभूतान्येतानि सर्वाण्यपी-त्यत आह-(अण्णमण्णपुट्ठाई इत्यादि) अन्योऽन्यं परस्परं स्पृष्टानि स्पर्शमात्रोपेतानि। तथा-अन्योऽन्यं परस्परमवगाढानि यत्रैकं द्रव्यमवगाढं तत्राऽन्यदपि देशतः, क्वचित्सर्वतोऽवगाढमित्यर्थः। तथाऽन्योऽन्यं परस्परं स्नेहेनप्रतिबद्धानि येनैकस्मिन् चाल्यमाने गृह्यमाणे वा अपरमपि चलनाऽऽदिधर्मोपेतं भवति / (एवमण्णोऽण्णघडताए चिट्ठति इति) अन्योऽन्यं परस्परं घटन्ते संबघ्नन्तीति अन्योऽन्यघटाः, तद्भावोऽन्योऽन्यघटता, तया परस्परं संबद्धतया तिष्ठन्ति / भगवानाह-(हंता ! अत्थि) हन्तेति प्रत्यवधारणे, सु-न्त्येवेत्यर्थः। (15) खरकाण्डस्यइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरस्स कंडस्स सोलसजोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तछित्तेणं छिज्जंतं चेव जाव हंता अत्थि, एवं० जाव रिट्ठस्स। एवमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाण्डस्य षोडशयोजनसहस्रप्रमाणबाहल्यस्य, तदनन्तरं रत्नकाण्डस्य योजनसहरन - बाहल्यस्य ततो वज्रकाण्डस्य० यावद्रिष्टकाण्डस्य। (16) पङ्कबहुलस्यइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुलस्स कंडस्स चउरसीतिं जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तं तं चेव / एवं आबबहुलस्स वि असीतिजोअणसहस्सबाहल्लस्स। तदनन्तरमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां पङ्कबहुलकाण्डस्य चतुरशीतियोजनसहस्रबाहल्यस्य तदनन्तरमब्बहुलकाण्डस्य अशीतियोजनसहस्रबाहल्यस्य। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिस्स वीसं जोयणस्स बाहल्लेस्स खेत्तच्छेदे तहेव / एवं घणवातस्स असंखेज्जजोयणस्स बाहल्लस्स तं चेव। तदनन्तरमस्या एव रत्नप्रभाया घनोदधेर्यो जनविंशतिसहस्रप्रमाणबाहल्यस्य, ततोऽसंख्यातयोजनप्रमाणबाहल्यस्य घनवातस्य तत एतावत्प्रमाणबाहल्यस्य तनुवातस्य, ततोऽवकाशान्तरस्य तावत्प्रमाणस्य। सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए खेत्तच्छेदेणं छिज्जमाणाए अस्थि दव्वाई, वण्णतो० जाव घडताए चिट्ठति ? हंता ! अस्थि / एवं घणोदहिस्स वीसं जोअणसहस्सबाहल्लस्स घणवातस्स असंखेज्जजोयणसहस्सबाहल्लस्स / एवं० जाव उवासंतरस्स जहा सक्करप्पभाए, एवं जाव अहे सत्तमाए। ततः शर्कराप्रभायाः पृथिव्याः द्वात्रिंशत्सहस्रोत्तरयोजनसतसहस्रबाहल्यपरिमाणायाः तस्या एवाधस्ताद् यथोक्तबाहल्यानां घनवाततनुवाताऽवकाशान्तराणामेवं यावदधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टसहस्राधिकयोजनशतसहस्रपरिमाणाबाहल्यायास्ततः तस्या एवाऽधः सप्तमपृथिव्या अधस्तान्मध्ये घनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणां प्रश्ननिर्वचश्नसूत्राणि यथोक्तद्रव्यविषयाणि भावनीयानि। (17) सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाहइमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किंसंठिता पण्णत्ता ? गोयमा ! झल्लरिसंठिया पण्णत्ता। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरे कंडे किंसंठिते पपणत्ते ? गोयमा ! झल्लरिसंठिते पण्णत्ते / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणे कंडे किंसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! झल्लरिसंठिते पण्णत्ते / एवं० जाव रिटे। एवं पंकबहुले आबबहुले वि। घणोदधि वि, धणवाए वि, उवासंतरे वि, सव्वे झल्लरिसंठिया पण्णत्ता। सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवी किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! झल्लरिसंठिया पण्णत्ता। सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधि किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते / एवं० जाव उवासंतरे जहा सक्करप्पभाए वत्तव्वता, एवं जाव अहे सत्तमाए वि। (इमा णं भंते ! इत्यादि) इयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमाना, णमिति वाक्याल कृतौ / रत्नप्रभा पृथिवी, किमिव संस्थिता प्रज्ञप्ता ? भगवानाह-गौतम ! झल्लरीव संस्थिता प्रज्ञप्ता; विस्तीर्ण - वलयाऽऽकारत्वात् / एवमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाण्डं, तत्राऽपि रत्नकाण्डं, ततो वज्रकाण्डम् , ततो यावत्
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________________ णरग 1908 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग रिष्टकाण्डम् , तदनन्तरं पङ्कबहुलं काण्डम् , ततो जलकाण्डम् , तदनन्तरमस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधस्तात् क्रमेण घनोदधिघनवाततनुवातावकाशान्तराणि, एवं यावदधः सप्तमी पृथिवी। तस्या अधस्तात् क्रमेण धनोदधिधनवाततनुवातावकाशान्तराणि झल्लरीसंस्थानानि वक्तव्यानि / ननु चैताः सप्तापि पृथिव्यः सर्वासु दिक्षु किमलोकस्पर्शिन्यः ? उत नेति ब्रूमः। यद्येवं ततः। (18) लोकान्तादबाधाइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ केवतियं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते ? गोयमा ! दुवालसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते / एवं दाहिणिल्लातो पञ्चच्छिमिल्लातो उत्तरिल्लाओ। सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ केवतिअं अवाहाए लोयंते पण्णत्ते ? गोयमा! तिभागणेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अवाहाए लोयंते पण्णत्ते, एवं चउद्दिसिं। बालुयप्पभाए णं भंते ! पुढवीए पुरच्छिमिल्लाओ पुच्छा? गोंयमा ! सतिभागेहिं तेरसेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते / एवं चउहिसिं पि, एवं सव्वासिं चउसु विदिसासु पुच्छियव्वं। पंकप्पभाए चोद्दसहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पण्णत्ते।। धूमप्पभाए तिमागूणेहिं पण्णरसे हिंजोयणेहिं अबाहाए लोयंते पण्णत्ते। छट्ठी सतिभागेहिं पण्णरसेहिंजोयणेहिं अबाहाए लोयंते पण्णत्ते / सत्तमाएसोलसएहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं० जाव उत्तरिल्लातो। (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः (पुरच्छिमिल्लाओ इति) पूर्वदिग्भाविनश्चरमान्तात् (केवइयाए इति) कियत्या अबाधया अपान्तरालरूपया लोकान्तोऽलोकाव-धिपरिच्छिन्नः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-द्वादशयोजनानि, द्वादशयोजनप्रमाणो य इत्यर्थः / अबाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः / किमुक्तं भवति ? रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वस्यां दिशि चरमपर्यन्तात् परतो लोकादर्वाग् अपान्तरालं द्वादशयोजनानि, एवं दक्षिणस्यामपरस्यामुत्तरस्यां चापान्तरालं वक्तव्यम् / दिग्ग्रहणं चोपलक्षणम् , तेन सस्विपि विदिक्ष्वपि यथोक्तमपान्तरालमवसातव्यम्। शेषाणां तु पृथिवीनां सर्वासुदिक्षुच चरमपर्यन्तादलोकः क्रमेणाधोऽधस्विभागोनेन योजनेनाधिकैदशभिर्योजनैरवगन्तव्यः / तद्यथा-शर्कराप्रभायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्तादलोकादगिपान्तरालं त्रिभागोनानि त्रयोदश योजनानि। बालुकाप्रभायाः सत्रिभागानि त्रयोदश योजनानि / पङ्क प्रभायाः परिपूर्णानि चतुर्दश योजनानि, धूमप्रभायास्विभागोनानि पञ्चदश योजनानि / अधः सप्तमपृथिव्याः परिपूर्णानि षोडश योजनानि / सूत्राक्षराणि पूर्ववद् योजनीयानि / जी० 3 प्रतिः / (19) रत्नप्रभादीनामधःअत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गेहाइ वा, | गेहावणाइ वा ? गोयमा ! णो इणटे समढे। अत्थि णं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए इमीसे अहे गामाइ वा० जाव सण्णिवेसाइ वा? णो इणटे समढे। अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उराला वलाहया संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति? हंता! अत्थि, तिण्णि विपकरेइ, देवो विपकरेइ, असुरो वि, नागो वि / अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बादरे थणियसहे? हंता अस्थि तिण्णि विपकरेंति / अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बादरे अगणिकाए ? गोयमा ! णो इणढे समढे,णण्णत्थ विग्गहगइसमावण्णएणं / अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए चंदिम० जाव तारारूवा? णो इणढे समठे। अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए चंदाभाई वा? णो इणढे समढे / एवं दोचाए पुढवीए भाणियव्वं, एवं तचाए विभाणियध्वं / णवरं देवो विपकरेइ, असुरो विपकरेइ, नो नाओ पकरेइ, चउत्थीए वि, नवरं देवो एक्को पकरेइ, नो असुरो, नो नाओ, एवं हेडिल्लासु देवो एक्को पकरेइ। (बादरे अगणिकाए इत्यादि) ननु यथा बादराग्नेर्मनुष्यक्षेत्र एव तद्भावान्निषेध इहोच्यते, एवं बादरपृथिवीकायस्याऽपि निषेधो वाच्यः स्यात् , पृथिव्यादिष्वेव स्वस्थानेषु तस्य भावादिति / सत्यम्। किं तु नेह यद्यत्र नास्ति तत्तत्र सर्वं निषिध्यते, मनुष्याऽऽदिवत् , विचित्रत्वात् सूत्रगतेरतोऽसतोऽपीह पृथिवीकायस्य न निषेध उक्तः। अप्कायवायुवनस्पतीना त्विह घनोदध्यादिभावेन भावान्निषेधाभावः सुगम एवेति / (नो नाओ ति) नागकुमारस्य तृतीयायाः पृथिव्या अधोगमनं नास्तीत्यत एवाऽनुमीयते। (नो असुरो नो नागो त्ति) इहाप्यत एव वचनाचतुर्थ्यादीनामधोऽसुरकुमारनागकुमारयोर्गमनं नाऽस्तीत्यनुमीयते। भ० 6 श० ८उ०। (20) अथाऽमूनि रत्नप्रभाऽऽदीना द्वादशयोजनप्रमाणाऽऽदीनि अपान्तरालानि किमाकाशरूपाणि, उत घनोदध्यादिव्याप्तानि ? उच्यते-घनोदध्यादिव्याप्तानि, तत्र कस्मिन्नपान्तराले कियान् घनोदध्यादिरिति प्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-धणोदधिवलए, घणवायवलए, तणुवातवलए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए दाहिणिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविधे पण्णत्ते / तं जहा, एवं चेव० जाव उत्तरिल्ले, एवं सध्वासिंजाव अहे सत्तमाए उत्तरिल्ले। (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वदिग्भावी चरमान्तोऽपान्तराललक्षणः कतिविधः कतिप्रकारः, कतिविभाग इत्यर्थः / प्रज्ञप्तः? भगवानाह-गौतम! त्रिविधः प्रज्ञप्तः। तद्यथाघनोदधिवलयोवलयाऽऽकारघनोदधिरूप इत्यर्थः। एवंघनवातवलयस्तनुवातवलयश्च / इय- मत्र भावनासर्वासां पृथिवीनामधो यत् प्राक् बाहुल्येन
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________________ णरग 1906 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णरग घनोदध्यादीनां परिमाणमुक्त, तन्मध्यभागे द्रष्टव्यम् / ते हि मध्यभागे यथोक्तप्रमाणबाहल्याः, ततः प्रदेशहान्या प्रदेशहान्या हीयमानाः स्वस्वपृथिवीपर्यन्तेषु तनुतरभूताः; तनुतरीभूत्वा स्वस्वपृथिवीवलयाऽऽकारेण वेष्टयित्वा स्थिताः। अत एवामूनि वलयान्युच्यन्ते, तेषां वलयानामुचस्त्वं सर्वत्र स्वस्वपृथिव्यनुसारेण परिभावनीयम् , तिर्यग्वाहल्यं पुनरगे वक्ष्यते / इदानीं तु विभागमात्रमेवापान्तरालस्य प्रतिपादयितुमिष्टमिति तदेवोक्तम् , एवमस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः शेषासु दिक्षु, एवं शेषाणामपि पृथिवीनां चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येक विभागसूत्रं भणितव्यम्। (21) संप्रति घनोदधिवलयस्य तिर्यग्बाहल्यमानमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा! छज्जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / / (इमीसे ण भंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षुचरमान्तेघनोदधिवलयः कियबाहल्येन तिर्यग्बाहल्येन प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-गौतम ! षड्योजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः / तत ऊर्ध्व प्रतिपृथिवि योजनस्य विभागो वक्तव्यः। तद्यथासक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधिवलए केवतियं बाह- | ल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! सतिभागाई छज्जोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ते / बालुयप्पभाए पुच्छा ? गोयमा ! तिभागूणाई सत्त जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं एतेणं अभिलावेणं पंकप्पभाए सत्त जोयणाई बाहल्लेणं, धूमप्पभाए सतिभागाइं सत्त जोयणाई पण्णत्ते / तमप्पभाए तिभागणाइं अट्ठ जोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ते / अहे सत्तमाए अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। शर्कराप्रभायाः सत्रिभागानि, बालुकाप्रभायास्त्रिभागोनानि सप्त योजनानि, पङ्कप्रभायाः परिपूर्णानि सप्त योजनानि, धूमप्रभावाः सत्रिभागानि सप्त योजनानि, तमःप्रभायाः त्रिभागोनानि अष्टौ योजनानि, अधः सप्तमपृथिव्याः परिपूर्णानि अष्टौ योजनानि। सूत्राक्षराणि तु सर्वत्र पूर्ववद् योजनीयानि। (22) संप्रति घनवातवलयस्य तिर्यग् बाहल्यपरिमाण प्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अद्धपंचमाइंजोयणाइंबाहल्लेणं पण्णत्ते॥ सक्करप्पभाए पुच्छा? गोयमा! कोसूणाईपंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते // एवं एएणं अभिलावेणं बालुयप्पभाए पंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / / पंकप्पभाए सक्कोसाइं पंच जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / / धूमप्पभाए अद्धछट्ठाइं जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / तमप्पभाए कोसूणाई छ जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / अहे सत्तमाए छ जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / / (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः धनवातवलयः तिर्यग् बाहल्येन अद्धपञ्चमानि सार्द्धानि चत्वारि योजनानि प्रज्ञप्तः / अत ऊर्ध्वं तु प्रतिपृथिवि गव्यूतं वद्धनीयम् / तथा चाऽऽहद्वितीयस्यः पृथिव्याः क्रोशोनानि पञ्च योजनानि, तृतीयस्याः पृथिव्याः परिपूर्णानि पञ्च योजनानि, चतुर्थ्याः पृथिव्याः सक्रोशानिपञ्च योजनानि, पञ्चम्याः पृथिव्या अर्द्धषष्ठानि सानिपञ्च योजनानि, षष्ठ्याः पृथिव्याः क्रोशोनानिषड्योजनानि, सप्तम्याः पृथिव्याः परिपूर्णानिषड्योजनानि। (23) संप्रति तनुवातवलयस्य तिर्यग् बाहल्यपरिमाणप्रति पादनार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवातवलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! छक्कोसेणं बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं एतेणं अभिलावेणं सक्करप्पभाए सतिभागे छक्कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते। वालुयप्पभाए तिभागूणे सत्तकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते। पंकप्पभाए पुढवीए सत्तकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते। धूमप्पभाए सतिभागे सत्तकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते / तमप्पभाए तिभागूणे अट्ठकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते / अहे सत्तमाए पुढवीए अट्ठकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते / (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्यास्तनुवातवलयः कियत् किंप्रमाणं बाहल्येन प्रज्ञप्तः ? भगवानाहषट्क्रोशं बाहल्येन प्रज्ञप्तः / अत ऊर्ध्वं तु पृथिवीक्रोशस्य त्रिभागो बर्द्धनीयः / तथा चाऽऽह-द्वितीयस्याः पृथिव्याः सत्रिभागोनान् षट् क्रोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः / तृतीयस्याः पृथिव्याः त्रिभागोनान् सप्त क्रोशान, चतुर्थ्याः पृथिव्याः परिपूर्णान् सप्त क्रोशान्, पञ्चम्याः पृथिव्याः सत्रिभागान् सप्त क्रोशान् ,षष्ट्याः पृथिव्याः त्रिभागोनान् अष्टौ क्रोशान्, अधः सप्तम्याः पृथिव्याः परिपूर्णान् अष्टौ क्रोशान्। उक्तंच"छचेव अद्ध पंचम, जोयणसद्धं च होइ रयणाए। उदहीघणतणुवाया, जहसंखेणं विणिद्दिहा / / 1 / / तिभागो गाउयं चेव, तिभागो गाउयस्स य। आइ धुवे पक्खेवो, अम्हें अहो जाव सत्तमिया // 2 // " एतेषा च त्रयाणामपि घनोदध्यादिविभागानाम् एकत्र मीलने प्रतिपृथिवि यथोक्तमपान्तरालमानं भवति। (24) संप्रति एतेष्वेव घनोदध्यादिवलयेषु क्षेत्रच्छेदेन कृष्ण वर्णाऽऽधुपेतद्रव्यास्तित्वप्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलयस्स छजोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दवाई वण्णओ काल० जाव हंता अत्थि। सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधिवलयस्स सतिभाग
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________________ णरंग 1910- अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णरग - - छज्जोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स० जाव हंता अस्थि, एवं० जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाहल्लं / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवायवलयस्स अद्धपंचमजोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेदेण छिज्ज० जाव हंता अत्थि एवं० जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाहल्लेणं, एवं तणुवातवलयस्स वि० जाव अहे सत्तमा जं जस्स बाहल्लं। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! वट्टवलयागारसंठाणसंठिते पण्णत्ते / जेणं इमं रयणप्पभं पुढविं सव्वतो समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति / एवं० जाव अहे सत्तमाए पुढवीए घणोदधिवलए, णवरं अप्पाणं पुढविं संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलए किंसंठिते | पण्णत्ते ? गोयमा ! वट्टवलयागारे तहेव० जाव जेणं इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलयं सव्वतो समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठइ। एवं जाव अहे सत्तमाए घणवातवलयं / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवातवलए सिंठिते पण्णत्ते ? गोयमा! वट्टवलयागारसंठाणसंठिए० जाव जेणं इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलयं सव्वतो समंता संपरिखिवित्ताणं चिटुंति। एवं जाव अहे सत्तमाए तणुवातवलयं / / (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घनोदधिवलयः किमिव संस्थितः किंसंस्थितः प्रज्ञप्तः ? भगवानाहगौतम ! वृत्तः चक्र बालतया परिवर्तुलो वलयस्य मध्ये शुषिरवृत्तविशेषस्याऽऽकार आकृतिबलयाऽऽकार इव संस्थानं वलयाऽऽकारसंस्थानं, तेन संस्थितो क्लयाऽऽकारसंस्थानसंस्थितः / कथमेवं गम्यते ?-वलयाऽऽकारसंस्थानसंस्थित इति ? तत आह-(जेणमित्यादि) येन कारणेन इमां रत्नप्रभा पृथिवीं सर्वतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च संपरिक्षिप्य सामस्त्येन वेष्टयित्वा तिष्ठति वर्तते, तेन कारणेन वलयाऽऽकारसंस्थासंस्थितः प्रज्ञप्तः। एवं घनवातवलयसूत्र, तनुवातवलयसूत्रं च परिभावनीयम् / नवरं धनवातवलयो घनोदधिवलयं संपरिक्षिप्येति वक्तव्यम्। तनुवातवलयो धनवातवलयं संपरिक्षिप्येति / एवं शेषास्वपि पृथिवीषु प्रत्येकं त्रीणि सूत्राणि भावनीयानि। (25) आयामविष्कम्भौ पृथ्वीनाम्इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी केवतियं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता? गोयमा! असंखेजाई जोअणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, असंखेज्जाइं ज़ोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता। एवं० जाव अहे सत्तमा। (इमा णं भंते ! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कियता आयामविष्कम्भेण, समाहारो द्वन्द्वः / आयामविष्कम्भाभ्यां प्रज्ञप्ता / | भगवानाह-असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन। किमुक्तं भवति? असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन / किमुक्तं भवति ?-असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामतोऽसंख्येयानि योजनसहस्राणि विष्कम्भेन, आयामविष्कम्भयोस्तुपरस्परमल्पबहुत्वचिन्तने तुल्यत्वम्, तथा असंख्येयानियोजनसहस्राणि परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञता। एवमेकैका पृथिवी तावद्वक्तव्या यावदधः सप्तमी पृथिवी। (26) अन्तर्बहिर्वा समाः पृथ्व्यःइमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी अंते य मज्झेय सव्वत्थ समा बाहल्लेणं पण्णत्ता ? हंता गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी अंते य मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्लेणं एवं जाव अहे सत्तमा। (इमाणं भंते! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी अन्ते च मध्ये च सर्वत्र समाबाहल्येन पिण्डभावेन प्रज्ञप्ता? भगवानाह-(गौतम! इत्यादि) सुगमम् / एवं क्रमेणकैका पृथिवी तावद्वक्तव्या यावत्सप्तमी। (27) पृथिवीषु जीवाः सर्वत्र उपपन्नपूर्वाःइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववन्नपुटवा सव्वजीवा उववन्ना ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुव्वा, नो चेवणं सव्वजीवा उववण्णा, एवं० जाव अधे सत्तमाए पुदवीए॥ (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वजीवाः सामान्येन उपपन्नपूर्वाः कालक्रमेण तथा सर्वजीवा उपपन्ना उत्पन्ना युगपत् / भगवानाह-गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्व जीवाः सांव्यवहारिक जीवराश्यन्तर्गताः प्रायो वृत्तिमाश्रित्य सामान्येन उपपन्नपूर्वा उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण संसारस्याऽनादित्वात, न पुनः सर्वजीवा उपपन्ना उत्पन्ना युगपत् , सकलजीवानामेककालं रत्नप्रभापृथिवीत्वेनोत्पादे सकलदेवनारकाऽऽदिभेदाभावप्रसक्तेः / चैतदस्ति, तथा जगत्स्वाभाव्यात्। एवमेकैकस्याः पृथिव्यास्तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याः। इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी सव्वजीवेहिं विजढपुव्वा सव्वजीवेहिं विजढा? गोयमा! इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी सव्वजीवेहिं विजढपुवा, नो चेवणं सव्वजीवेहिं विजढा, एवं० जाव अहे सत्तमा॥ (इमा णं इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी (सव्वजीवेहि विजढपुव्या इति) सर्वजीवैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा; तथा सर्वजीवैर्युगपद् विजडा परित्यक्ता। भगवानाह-गौतम ! इयं रत्नप्रभा पृथिवी प्रायो वृत्तिमाश्रित्य सर्वजीवैः सांव्यवहारिकः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, नतुयुगपत, परित्यागस्यासंभवात् तथानिमित्ताभावात्, एवं तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तमी पृथ्वी। (28) पृथ्वीषु सर्वे जीवाः प्रविष्टपूर्वाःइमीसे णं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सव्वपोग्गला पविट्ठपुटवा, सव्वपोग्गला पविट्ठा ? गोयमा ! इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वपोग्गला पविठ्ठपुवा, नो चेव
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________________ णरग 1911 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग णं सव्वपोग्गला पविट्ठा, एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए।। (इमीसे णं इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वे पुद्गला लोकोदरविवरवर्तिनः कालक्रमेण प्रविष्टपूर्वाः, तद्भावेन परिणतपूर्वाः; तथा सर्वे पुद्गला प्रविष्टा एककालं तद्भावेन परिणताः ? भगवानाहगौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वे पुद्गला लोकवर्तिनः प्रविष्टपूर्वाःतद्भावेन परिणतपूर्वाः, संसारस्याऽनादित्वाद्, नपुनरेककालं सर्वपुद्गलाः प्रविष्टाः-तद्भावेन परिणताः, सर्वपुद्गलानां तद्भावेन परिणतो रत्नप्रभाव्यतिरेकेणाऽन्यत्र सर्वत्राऽपि पुद्गलाभावप्रसक्तेः न चैतदस्ति, तथाजगत्-स्वाभाव्यात्। एवं सर्वासु पृथिवीषुक्रमेण वक्तव्यं, यावदधः सप्तम्यां पृथिव्यामिति। (26) सर्वे पुद्गलाः त्यक्तपूर्वाःइमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी सव्वपोग्गले हिं विजढपुव्वा, सव्वपोग्गले विजढा? गोयमा ! इमाणं मंते ! रयणप्पमा पुढवी सव्वपोग्गलेहिं विजढपुव्वा, नो चेव णं सव्वपोग्गले विजढा, एवं० जाव अहे सत्तमा / (इमाणं भंते ! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्- गलैः कालक्रमेण (विजढपुव्वा इति) परित्यक्तपूर्वा, तथा सर्वपुद्- गलैरेककालं परित्यक्ता ? भगवानाह-गौतम ! इयं रत्नप्रभा पृथिवी सर्वपुद्गलैः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, संसारस्याऽनादित्वात्, न पुनः सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यक्ता, सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यागे तस्याः सर्वथा स्वरूपाभावप्रसक्तेः। न चैतदस्ति.तथाजगत्स्वाभाव्यतः शाश्वतत्वात्। एतचानन्तरमेव वक्ष्यति। एवमेकैका पृथिवी क्रमेण तावद्वाच्या, यावदधः सप्तमी पृथिवी। (30) शाश्वती, अशाश्वती वा रत्नप्रभा?इमा णं मंते ! रयणप्पमा पुढवी किं सासता, असासता ? गोयमा ! सिय सासता, सिय असासता। सेकेणतुणं भंते ! एवं वुचइ-सिय सासता, सिय असासता ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासता, वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपञ्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासता, से एएणडेणं गोयमा! एवं वुचति-तं चेव० जाव सिय असासता, एवं० जाव अहे सत्तमा। (इमा णं भंते ! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी किं शाश्वती, अशाश्वती ? भगवानाह-गौतम ! स्यात् कश्चित् , कस्याऽपि नयस्याऽभिप्रायेत्यर्थः / शाश्वती। स्यात् कथञ्चित् अशाश्वती। एतदेव सविशेष जिज्ञासुः पृच्छति-(से के णढे णमित्यादि) ' से ' शब्दोऽथशब्दार्थः / स च प्रश्ने, केन अर्थेन कारणेन भदन्त! एवमुच्यतेयथा स्यात् शाश्वती, स्यादशाश्वतीति ? भगवानाह-गौतम ! (दव्वट्टयाए इत्यादि) द्रव्यार्थतया शाश्वती, तत्र द्रव्यं सर्वत्राऽन्वयि सामान्यमुच्यते, द्रवति गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति वा द्रव्यमिति व्युत्पत्तेः, द्रव्यमेवाऽर्थः तात्त्विकपदार्थो यस्य, न तु पर्यायाः, स द्रव्यार्थी द्रव्यमात्रास्तित्यप्रतिपादको नयविशेषः, तद्भावो द्रव्यार्थता, तथा द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादकतयाऽभिप्रायेणे ति यावत् / शाश्वती द्रव्यार्थिकनयमतपर्यालोचनायामेवंविधस्य रत्नप्रभायाः पृथिव्या आकारस्य सदाभावाद् वर्णपर्यायैः कृष्णाऽऽदिभिः, गन्धपर्यायैः सुरभ्यादिभिः, रसपायैस्तिक्ताऽऽदिभिः स्पर्शपर्यायः कठिनत्वाऽऽदिभिः, अशाश्वती अनित्या, तेषां वर्णाऽऽदीनां प्रतिक्षणं कियत्कालानन्तरं वाऽन्यथा-न्यथाभवनात्, अतादवस्थ्यस्य चाऽनित्यत्वात् / न चैवमपि भिन्नाधिकरणे नित्यत्वाऽनित्यत्वे द्रव्यपर्याययोर्भेदाभेदोपगमात्, अन्ययोभयोरप्यसत्त्वाऽऽपत्तेः / तथाहिशक्यते वक्तुं पर-परिकल्पितं द्रव्यमसत् , पर्यायव्यतिरिक्तत्वात् , बालत्वाऽऽदिपर्यायशून्यबन्ध्यासुतवत् , तथा परपरिकल्पिताः पर्याया असतः द्रव्यत्वव्यतिरिक्तत्वात् , बन्ध्यासुतगतबालत्वाऽऽदिपर्यायवत्। उक्तं च-" द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिताः / क्व कदा केन किंरूपाः, दृष्टा मानेन केन वा ? // 1 // " इति कृतं प्रसङ्गेन। विस्तरार्थना धर्मसंग्रणिटीका निरूपणीया।" (से एएणऽटेण-मित्यादि) उपसंहारमाह-' से 'शब्दोऽथशब्दार्थः। स चाऽत्र वाक्योपन्यासे, अथ एतेनाऽनन्तरोदितेन कारणेन गौतम ! एवमुच्यतेस्यात् शाश्वती, स्यादशाश्वती। एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तमी पृथिवी। इह ययावत्संभवाऽऽस्पदं तच तावन्तं कालं शश्वद्भवति, तदा तदपि शाश्वतमुच्यते / यथा तन्त्रान्तरे-" आकप्पट्ठाई पुढवी सासया " इत्यादि / ततः संशये किमेषा रत्नप्रभा पृथिवी सकलकालवस्थाचिन्तया शाश्वती ? उताऽन्यथा ? यथा तन्त्रान्तरीयैरुच्यते इति, ततस्तदपनोदार्थ पृच्छति। (31) कालस्थितिःइमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कालतो केवचिरं होति ? गोयमा ! ण कदा विण आसि,ण कदा विणस्थि,ण कदा विण भविस्सति, भूविं य, भवति य, भविस्सति य, धुवा णियता सासता अक्खया अव्वया अवट्ठिता णिचा एवं जाव अहे सत्तमा। (इमाणं भंते! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कालतः कियचिरं कियन्तं कालं यावद्भवति? भगवानाह-गौतम ! न कदाचिन्नासीत् , सदैवासीदिति भावः / अनादित्वात्। तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदैव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः / अत्रापि स एव हेतुः, सदा भावादिति / तथा न कदाचिन्न भविष्यति, भविष्यचिन्तायाः सर्वदैव भविष्यतीति भावः, अपर्यवसितत्वात् / तदेवं लालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय संप्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-(भुविं चेत्यादि) अभूत, भवति, भविष्यति च। एवं त्रिकालभावित्वेन ध्रुवा, ध्रुवत्वादेव नियता नियतावस्थाना, धर्मास्तिकायाऽऽदिवत्, नियतत्यादेव च शाश्वती शश्वद्भावे प्रलयाभावात्, शाश्वतत्वादेव च सततं गङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पौण्डरीकसद इवान्यतर-पुद्गलविचटनेऽप्यन्यतरपुद्गलोपचयभावादक्षया, अक्षयत्वादेव चाव्यया मानुषोत्तराद् बहिः समुद्रयत, अव्ययत्वादेवावस्थिता स्वप्रमाणावस्थिता सूर्यमण्डलाsऽदिवत् , एवं सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या जीवस्वरूपवत्। यदि वा ध्रुवाऽऽदयः शब्दा इन्द्रशक्राऽऽदिवत् पर्यायशब्दा नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपन्यस्ता इत्यदोषः। एवमेकैका पृथिवी क्रमेण तावद्वक्तव्या, या
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________________ णरग 1912 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग वदधः सप्तमी / (पृथिवीषु विभागतोऽन्तरवक्तव्यता ' अंतर ' शब्दे प्रथमभागे 71 पृष्ठे गता) (32) पृथिव्यो बाहल्येन तुल्याःइमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोचं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला विसेसाहिया संखेजगुणा, वित्थारेणं किं तुल्ला विसेसहीणा संखेज्जगुणहीणा ? गोयमा ! इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं णो तुल्ला, विसेसाहिता, नो संखेजगुणा, वित्थारेणं णो तुल्ला विसेसहीणा, णो संखेजगुणहीणा। दोचाणं भंते ! पुढवी तचं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला, एवं चेव भाणियव्वा / एवं तचा चउत्थी पंचमी छट्ठी / छट्ठी णं भंते ! पुढवी सत्तमिं पुढविं पणिहाय बाह-ल्लेणं किं तुल्ला विसेसाहिया संखेजगुणा, एवं चेव भाणियध्वं, सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (इमा णं भंते ! इत्यादि) इय भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीयां शर्कराप्रभां प्रणिधायाऽऽश्रित्य बाहल्येन पिण्डभावेन किं तुल्या, विशेषाधिका, संख्येयगुणा ? बाहल्यमधिकृत्येदं प्रश्नत्रयम् / ननु एकाऽशीत्युत्तरयोजनलक्षमाना, अपरा द्वात्रिंशदुत्तरयोजनलक्षमाना इत्युक्तम् , तत्तदर्थावगमे सत्युक्तलक्षणं प्रश्नत्रयमयुक्तम् , विशेषाधिकेति स्वयमेवाऽर्थपरिज्ञानात्। सत्यमेतत्। केवलज्ञप्रश्नोऽयं तदन्यमोहाऽपोहार्थः / एतदपि कथमवसीयते ? इति चेत्, स्वावबोधाय प्रश्नान्तरोपन्यासात्। तथा चाऽऽह-विस्तरेण विष्कम्भेन किं तुल्या, विशेषहीना, संख्येयगुणहीनेति ? भगवानाह-गौतम ! इयं रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीया पृथिवीं प्रणिधाय बाहल्येनन तुल्या, किंतु विशेषाधिका, नाऽपि संख्येयगुणा। कथमेतदेवमिति चेत् ? उच्यते-इह रत्नप्रभा पृथिवी अशीत्युत्तरयोजनलक्षमाना, शर्कराप्रभा द्वात्रिंशदुत्तरयोजनलक्षमाना, तदत्रान्तरमष्टाचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि, ततो विशेषाधिका घटते, न तुल्या, नाऽपि संख्येयगुणा; विस्तरेण न तुल्या, किंतु विशेषहीना, नाऽपि संख्येयगुणा, प्रदेशाऽऽदिवृद्ध्या प्रवर्द्धमाने तावति क्षेत्रे शर्कराप्रभाया एव वृद्धिसंभवात्। एवं सर्वत्र भावनीयम्। जी०३ प्रति० 1 उ०। (32) संप्रति कस्यां पृथिव्यां कस्मिन् प्रदेशे नरकाऽऽवासा इत्येतत् प्रतिपादनार्थ तावदिदमाहकइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-रयणप्पभा० जाव अहे सत्तमा। (कइ णं भंते ! इत्यादि) कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः ? इति विशेषाऽभिधानार्थमेतदभिहितम् / उक्तं च-" पुटवभणियं जं भण्ण-इ तत्थ कारणं अत्थि पडिसेहो, अणुण्णा, कारणविसेसोवलंभो वा " / भगवानाह-गौतम ! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञाप्ताः / तद्यथा-रत्नप्रभा, यावत्तमस्तमःप्रभा। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उवरि केवतियं ओगाहित्ता, हेट्ठा केवतियं वजेत्ता, मज्झे केवतिए के वतिया निरयावाससयसहस्सा / पण्णत्ता? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा वि एगंजोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अवत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए नेरतियाणं तीसं निरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। (इमीसेणं भंते! इत्यादि) अस्या भदन्त! रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरि क्रियत् किंप्रमाणमवगाह्य, उपरितनभागात् कियत् अतिक्रम्येत्यर्थः / अधस्तात् कियत् किंप्रमाणं वर्जयित्वा, मध्ये कियति किंप्रमाणे कियन्ति नरकाऽऽवासाः शतसहस्राणि प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-गौतम ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्याया उपरि एक योजनसहस्रमवगाह्य, अधस्तादेकं योजनसहखं वर्जयित्वा, मध्ये मध्यभागे अष्टसप्तत्युत्तरे अष्टसप्ततिसहस्राधिके योजनशतसहस्रम् , अत एतस्मिन् रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां योग्यानि त्रिंशन्नरकाऽऽवासशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया, शेषैश्च तीर्थकृभिः, अनेन सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनता प्रवेदिता। (34) वर्णकःते णं णरगा अंतो वट्टा वाहिं चउरंसा० जाव असुभा णरएसु वेयणा, एवं एएणं अमिलावेणं उववजिऊण भाणियव्वं, ठाणपयाणुसारेणं जत्थ जं बाहल्लं जत्तिया वा णेरइयावाससयसहस्सा० जाव अहे सत्तमाए पुढवीए, अहे सत्तमाए मज्झे केवतिए कति अणुत्तरा महतिमहालया महाणिरया पण्णत्ता ? एवं पुच्छियव्वं वागरेयव्वं पितहेव छट्ठी सत्तमासु काओअगणिवण्णाभा भाणियव्वा। (ते णं णरगा इत्यादि) ते नरका अन्तर्मध्यभागे वृत्ता वृत्ताकारा बहिर्बहिर्भागे चतुरस्त्राः चतुरस्राऽऽकाराः, इदं च पीठोपरिवर्तिनं मध्यभागमधिकृत्य प्रोच्यते। सकलपीठाऽऽद्यपेक्षया तु आवलिकाप्रविष्टा वृत्तव्यस्रचतुरस्रसंस्थानाः, पुष्पावकीस्तु नानासंस्थानाः प्रतिपत्तव्याः / एतच्चाग्रे स्वयमेव वक्ष्यति-(अहे खुरप्पसंठाणसंठिया इति) अधो भूमितले क्षुरप्रस्येव प्रहरण-विशेषस्य यत् संस्थानमाकारविशेषःतीक्ष्णतालक्षणः, तेन संस्थिताः क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः। तथाहि-तेषु नरकाऽऽवा- सेषु भूमितले मसृणत्वाभावतः शर्करिले पादेषु न्यस्यमानेषु शर्क-रामात्रसंस्पर्शेऽपि क्षुरप्रेच पादाः क्षत्यन्ते (कृत्यन्ते) (निचधकारतमसा इति) नित्यान्धकारा उद्द्योताभावतो यत्तमस्तेन तमसा नित्यं सर्वकालमन्धकारो येषु नित्यान्धकाराः। तत्रापवरकाऽऽदिष्वपि नामान्धकारोऽस्ति, केवलं बहिः सूर्यप्रकाशे मन्दं तमो भवति, नरकेषु तु तीर्थकरजन्मदीक्षाऽऽदिकालव्यतिरेके-णान्यदा सर्वकालमपि उद्द्योतलेशस्याऽप्यभावतो जात्यन्धस्येव मेघच्छन्नकालाऽर्द्धरात्र इवातीव बहलतरो भवति / तत उक्त-तमसा नित्यान्धकाराः, तमश्च तत्र सदावस्थितम् , उद्योतकारिणामभावात्। तथाऽऽह-(ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइ-सपहा) व्यपगतः परिभ्रष्टो ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्ररूपाणाम, उपलक्षणमेतत्तारारूपाणां ज्योतिष्काणां पन्था मार्गो यत्र व्यपगत-सूर्यनक्षत्रज्योतिष्कपथाः। तथा-(मेययवसापूयरुहिरमंस
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________________ णरग 1913 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग चिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला इति) स्वभावतः संपन्नैर्मेदोवसापूतिरुधिरमांसैर्यश्चिक्खिल्लः कर्दमस्तेन लिप्तमुपदिग्धमनुलेपनेन सकृल्लिप्तस्य पुनःपुनरुपलेपनेन तलं भूमिका येषां ते मेदोवशापूतिरुधिरमांसचिक्खिल्ललिप्तानुलेपनतलाः, अत एवाशुचयोऽपवित्राः, वीभत्सा दर्शनेष्वतिजुगुप्सोत्पत्तेः, परमदुरभिगन्धा मृतगवादिकडेवरेभ्योऽप्यतीवानिष्टदुरभिगन्धाः (काओअगणिवण्णाभा इति) लोहे धम्यमाने यादृक्कपोतो बहुकृष्णरूपोऽग्नेर्वर्णः / किमुक्तं भवति?-यादृशी बहुकृष्णवर्णरूपा अग्निज्वाला विनिर्गच्छतीतितादृशी आभा वर्णस्वरूपं येषां ते कपोताग्निवर्णाभाः, तथा कर्कशोऽतिदुस्सहोऽसिपत्रस्येव स्पर्शो येषां ते कर्कशस्पर्शाः, अत एव-(दुरहियासा इति) दुःखेनाध्यस्यन्ते दुरध्यासाः, अशुभा दर्शनतो नरकास्तथा गन्धरसस्पर्शशब्दैरशुभा अतीवासातरूपाः नरकेषु वेदनाः, एवं सर्वास्वपि पृथिवीष्वालापको वक्तव्यः / जी० 3 प्रति०। (' ठाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1700 पृष्ठ दर्शित आलापः) (नरकाऽऽवाससंख्या उपर्यधश्चैकैकं योजनसहस्रं मुक्त्या यावत्प्रमाणं नरकाऽऽवासयोग्यं पृथिवीबाहल्यं, तत्सर्व संग्रहणीगाथाभिः ठाण' शब्दे 1702 पृष्ठे प्रतिपादितम् ) (35) संप्रति नरकाऽऽवाससंस्थानप्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किंसंठिता पण्णता? गोयमा! दुविधा पण्णत्ता / तं जहा-आवलियपविट्ठा य, आवलियबाहिरा य / तत्थ णं जे ते आवलियपविट्ठा ते तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-वट्टा, तंसा, चउरंसा। तत्थ णं जे ते आवलियवाहिरा, ते णाणासंठाणसंठिता पण्णत्ता / तं जहा-अयकोट्ठसंठिया, पिट्ठपयणगसंठिया, कंडूसंठिया, लोहीसंठिया, कडाहसंठिया, थालीसंठिया, पिहडगसंठिया, किण्डगसंठिया, उडजसंठिया, मुरयसंठिया, मुइंगसंठिया, णंदिमुइंगसंठिया, आलिंगसंठिया, सुघोससंठिया, दद्दरसंठिया, पणवसंठिया, पडहसंठिया, भेरीसंठिया,झल्लरिसंठिया, कुत्युवकसंठिया, नालीसंठिया, एवं० जाव तमाए। (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किमिव संस्थिताः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-गौतम ! नरका द्विविधाः प्रज्ञप्ता: ? तद्यथा-आवलिकाप्रविष्टाश्च, आवलिकाबाह्याश्च। चशब्दावुभयेषामप्यशुभतासूचकौ / आवलिकाप्रविष्टा नामअष्टासु दिक्षु समश्रेण्या व्यवस्थिताः, आवलिकासु श्रेणिषु प्रविष्टा व्यवस्थिता आवलिकाप्रविष्टाः, ते संस्थानमधिकृत्य त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-वृत्ताःत्र्यस्राः, चतुरस्राः। तत्र येते आवलिकाबाह्याः, ते नानासंस्थानसंस्थिता प्रज्ञप्ताः / तद्यथाअयःकोष्ठो लोहमयकोष्ठस्तद्वत् संस्थिताः (पिट्ठपयणगसंठिया इति) यत्र सुरासंधानाय पिष्टं पच्यते तत् पिष्टपचनकं, तद्वत् संस्थिताः। अत्र संग्रहणीगाथे" अयकोढपिट्ठपयणग-कंडूलोहीकडाहसंठाणा। थालीपिहडगकिण्हग-उडए मुरए मुइंगेसु। नंदिमुइंगे आलिं-गि सुघोसे ददरेवपणवे य। पडहगझल्लरिभेरी-कुत्थुवगनालिसंठाणा // कण्डूः पाकसंस्थानं, लोहीकटाही प्रतीतौ, तद्वत्संस्थानाः, स्थाली उषा, पिहमग यत्र प्रभुतजनयोग्यं धान्यं पच्यते, उटजस्तापसाऽऽश्रमः, मुरजो मर्दलविशेषः, नन्दीमृदङ्गो द्वादशविधतूर्यान्तर्गतो मृदङ्गः। स च द्विधा / तद्यथा-मुकुन्दो, मर्दलश्च / तत्रोपरि संकुचितोऽधो विस्तीर्णो मुकुन्दः, उपर्यधश्च समो मर्दलः / आलिङ्गो मृन्मयो मुरजः, सुघोषो देवलोकप्रसिद्धो घण्टाविशेषः, आतोद्यविशेषो वा, दर्दरो याद्यविशेषः, पणवो भाण्डानाम, पटहः प्रतीतः, भेरी ढका, झल्लरी चौवनदा विस्तीर्णवलयाऽऽकारा, कुस्तुम्बकः संप्रदायगम्यः, नाडी घटिका। एवं शेषास्वपि पुथिवीषु तावद् वक्तव्यं यावत् षष्ठ्याः / सूत्रपाठस्त्वेवम्-" सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए णरगा किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-आवलियापविट्ठा य, आवलियाबाहिराय।" इत्यादि। (36) अधः सप्तमीविषयं सूत्रं साक्षादुपदर्शयतिअहे सत्तमाए णं भंते ! पुढवीए नरगा किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बट्टे य, तंसा य। (अहे सत्तमाएणं भंते! इत्यादि) अधः सप्तम्यां भदन्त! पृथिव्यां नरकाः किमिव संस्थिताः? भगवानाह-गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा(वट्टे यतंसा य इति) अधः सप्तम्यां हिपृथिव्यां नरका आवलिकाप्रविष्टा एव, नावलिकाबाह्याः, आवलिकाप्रविष्टा अपि पश्च, नाधिकाः, तत्र मध्ये अप्रतिष्ठानाभिधाननरकेन्द्रको वृत्तः, सर्वेषामपि नरकेन्द्रकाणां वृत्तत्वात् / शेषास्तु चत्वारः पूर्वाऽऽदिषु दिक्षु ते त्रयस्यस्राः, तत उक्तंवृत्ताश्च त्र्यप्राश्च। (37) संप्रति नरकाऽऽवासानां बाहल्यप्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरया केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ता? गोयमा ! तिण्णि जोयणसहस्साइंबाहल्लेणं पण्णत्ता / तं जहा-हेडिल्ले चरिमंते घणा सहस्सं, मज्झे सुसिरा सहस्सं, उपि संकुइया सहस्सं, एवं जाव अहे सत्तमाए॥ अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कियबाहल्येन बहलस्य भावो बाहल्यंपिण्डभावः, उत्सेध इत्यर्थः / तेन प्रज्ञप्ताः ? भगवानाहगौतम ! त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-अधस्तात् पादपीठेघना निचिताः सहस्रं योजनसहस्रं मध्ये पीठस्योपरि मध्यभागे शुषिराः सहस्रं योजनसहस्रं (तत उप्पि ति) उपरि संकुचिताः शिखरीकृत्य संकोचनमुपगता योजनसहस्रं, तत एवं सर्वसंख्यया नरकाऽऽवासानां त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्यतो भवन्ति, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम्। __ तथा चोक्तमन्यत्रापि" हेट्ठाघणा सहस्सं, उप्पिं संकोचतो सहस्संतु। मज्झे सहस्स सुसिरा, तिण्णि सहस्सूसिया णरया // 1 // " (38) संप्रति नरकाऽऽवासानामायामविष्कम्भप्रति पादनार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरगा के वतियं आयामविक्खंभेणं, के वतियं परिक्खे वेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता / तं जहा-संखेजवित्थडा य, असंखेज
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________________ णरग 1914 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरंग वित्थडा य / तत्थ णं जे ते संखेचवित्थडा ते णं संखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता। तत्थ णं जे ते असंखेजवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता / एवं० जाव तमाए॥ (इमीसेण भंते! इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किंप्रमाणमायाविष्कम्भेन, समाहारो द्वन्द्वः, आयामविष्क-म्भाभ्या- | मित्यर्थः / कियत् परिक्षेपेण परिरयेण प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह- गोयमा ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-संख्येयविस्तृताश्च, असंख्येयविस्तृताश्च / संख्येयं संख्येययोजनप्रमाणं विस्तृतं विस्तारो येषांते संख्येयविस्तृताः, एवमसंख्येयं विस्तृतं येषां तेऽसंख्येयविस्तृताः / चशब्दो स्वगतानेकभेदप्रकाशनपरौ / तत्र ये ते संख्येयविस्तृतास्ते संख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण, संख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण / तत्र येतेऽसंख्येयविस्तृतास्ते असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः। एवं प्रतिपृथिवि तावद् वक्तव्यं यावत् षष्ठी पृथ्वी। सूत्रपाठस्त्वेवम्-'' सक्करप्पभाए णं पुढवीए नरगा केवइयं आयामविक्खंभेणंय, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-संखेनवित्थडा य, असंखेजवित्थडा य।" इत्यादि / / अहे सत्तमाए णं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता ? तं जहा-संखेजवित्थडे य, असंखेज्जवित्थडा य / तत्थ णं जे से संखेज्जवित्थडे, से णं एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साइं सोलस सहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिष्णि कोसे अट्ठावीसं धणुसयाई तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलयं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णते। तत्थ णं जे ते असंखेजवित्थडा, ते णं असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं असंखेन्जाइं० जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ता। (अहे सत्तमाएणं भंते ! इत्यादि) अधः सप्तम्यां भदन्त! पृथिव्यां नरकाः कियदायामविष्कम्भेण, कियत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः? भगवानाह-गौतम! द्विविधाः / तद्यथा-सङ्ख्येयविस्तृत एकः, स चाप्रतिष्ठानाऽभिधानो नरकेन्द्रकोऽवसातव्यः / असंख्येयविस्तृ-ताश्चत्वारः / तत्र योऽसौ संख्येयविस्तृतोऽप्रतिष्ठानाऽभिधानो नरकेन्द्रकः, स एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशे सप्तविंशत्यधिके त्रयः कोशा अष्टाविंशं धनुश्शत त्रयोदश अङ्गुलानि अङडुलं च किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः / इदं परिक्षेपपरिमाणं गणितभावनया जम्बूद्वीपपरिक्षेपपरिमाणवद्भावनीयम् / ये ते शेषाश्चत्वारोऽसंख्येयविस्तृतास्तेऽसंख्येयानि योजनशतसह-स्राण्यायामविष्कम्भेण, असंख्येयानियोजनसहरत्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः। (36) संप्रति नरकाऽऽवासानां वर्णप्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं रयप्पभाए पुढवीए नरया के रिसया वण्णेणं पण्णत्ता? गोयमा ! काला, कालावभासा, गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता, एवं० जाव अहे सत्तमाए। (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कीदृशा वर्णेन प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-गौतम ! कालाः, तत्र कोऽपि निष्प्रभतया मन्दकालोऽपि आशङ्कथेत, ततस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-कालाऽवभासाः कालः कृष्णोऽवभासः प्रतिभाविनिर्गमो येभ्यस्ते कालावभासाः, कृष्णप्रभापटलोपचिता इति भावः। अत एव गमभीररोमहर्षाः-गम्भीरोऽतीवोत्कटो रोमहर्षो भयवशाद् येभ्यस्ते गम्भीररोमहर्षाः / किमुक्तं भवति ?-एवं नाम ते कृष्णाः कृष्णाऽवभासाः, यदर्शनमात्रेण नारकजन्तूनां भयसंपादनेन रोमहर्षमुत्पादयन्तीति। अत एव भीमा भयानकाः, भीमत्वादेव उत्त्रास्यन्ते नारका जन्तव एभिरिति उत्त्रासनाः, उत्त्रासना एव उत्त्रासनकाः, वर्णन वर्णमधिकृत्य परमकृष्णाः प्रज्ञप्ताः; यत ऊर्द्ध न किमपि भयानक कृष्णमस्तीति भावः / एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम्। (40) गन्धमधिकृत्याऽऽहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहानामए अहिमडे ति वा, गोमडे ति वा, सुणमडे ति वा, मजारमडे ति वा, मणुस्समडे ति वा, महिसमडे ति वा, मुसगमडे ति वा, आसमडे ति वा, हत्थिमडे तिवा, सीहमडे तिवा, वग्घमडे तिवा, विगमडे तिवा, दीवयमडे ति वा, मयकुहियचिरविनट्ठकुणिमवावण्णदुरभिगंधे असुइचिलीणविगयवीभच्छदरिसणिज्जे किमिज्जालाउलसंसत्ते / भये एयारूवे सिया ? णो इणढे समढे गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा एत्तो अणिट्ठतरका चेव अकंततरका चेव० जाव अमणामतरा चेव गंधेणं पण्णत्ता। एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए॥ (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह-गौतम! तद्यथा नाम-अहिमृत इति वा, अहिमृतो नाम-मृताहिदेहः, एवं सर्वत्र भावनीयम् / गोमृत इति वा, श्चमृत इति वा, मार्जारमृत इति वा, हस्तिमृत इति वा. सिंहमृत इति वा, व्याघ्रमृत इति वा, द्वीपकमृत इति वा, द्वीपक श्चित्रकः / सर्वत्र अहिश्चासौ मृतश्च अहिमृत इत्येवं विशेषणसमासः / इह मृतकं सद्यःसंपन्नं न विगन्धि भवति।तत आह-(मयकुहियचिरविणट्ठकुणिमवावण्णे त्यादि) मृतः सन् कुथितः पूतिभावमुपगतो मृतकुथितः, स चोच्छूनावस्थामात्रगतोऽपि भवति / न च स तथा विगन्धस्तत आह-चिरविनष्ट उच्छूनावस्थां प्राप्य स्फुटित इति भावः / सोऽपि तथा दुरभिगन्धः, तथा न भवति, तत आह(कुणिमवावण्णेति) व्यापन्नं विशरारुभूतं कुणिम मांसं यस्य स तथा। ततो विशेषणसमासः / दुरभिगन्ध इति / दुरभिः सर्वेषामाभिमुख्येन दुष्टो गन्धो यस्याऽसौ दुरभिगन्धः। अशुचिश्चिलीनो मनसः कलिमलप
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________________ णरग 1915 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग रिणामहेतुः (विगयं इति) विप्रनष्ट तदभिमुखतया प्राणिनां गतं गमनं यस्मिन् स तथा, वीभत्सया निन्दयाऽदर्शनीयो बीभत्सादर्शनीयः, ततो विशेषणसमासः, अशुचिर्विगतबीभत्सादर्शनीयः (किमिजालाउलसंसत्ते इति) संसक्तः सन कृमिजालाकुलो जातः कृमिजालाकुलसंसतः, मयूरव्यंसकाऽऽदित्वात् समासः, संसक्तशब्दस्य चपरनिपातः। एतावदुक्ते गौतम ! आह-(भवे एयारूवे सिया इति) स्याद्भवेदेतद् यदुत भवेयुरेतद्रूपा यथोक्तविशेषणविशिष्टाऽहिमृताऽऽदिरूपगन्धेनाधिकृता नरकाः, सूत्रे च बहुवचनेऽपि एकवचनं प्राकृतत्वात्। भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थःनायमर्थ उपपन्नः, यतोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका इतो यथोक्तविशेषणविशिष्टाऽहिमृतादनिष्टतरा एव, तत्र किञ्चिद्भव्यमपि कस्याऽप्यनिष्टतरं भवति / तत आह-अकान्ततरा एव स्वरूपतोऽप्यकमनीयतरा एव, अभव्या एवेति भावः / तत्राकान्तमपि कस्याऽपि प्रियं भवति, यथा गर्ताशुकरस्याशुचिः, तत आह-अप्रियतरा एव, न कस्यापि प्रिया इति भावः। अत एवामनोज्ञतरा एव गन्धमधिकृत्य प्रज्ञप्ताः, तत्र मनोज्ञं मनोऽनुकूलमात्रं यत् पुनः स्वविषये मनोऽत्यन्तमासक्तं करोति तद्, न मनोज्ञममनोज्ञम्। एकार्थिका वाएते सर्वे शब्दाः शक्रेन्द्रपुरन्दराऽऽदिवद् नानादेशजविनेयजनानुग्रहार्थमुपात्ताः, एवं पृथिव्यां तावद्द्वक्तव्यं यावदधः सप्त-म्याम्। (41) स्पर्शमधिकृत्याऽऽहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरया के रिसया फासेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहानामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलंवचीरियापत्तेइ वा सत्तग्गेति वा कुंतग्गेति वा तोमरग्गेति वा नारायग्गेति वा मूलग्गेति वा लउडग्गेति वा भिंडिमालग्गेति वा सूचिकलाएति वा कविकच्छुत्ति वा विच्छुकंटेति वा इंगालेति वा जालाएति वा मुम्मुरएति वा अचि त्ति वा अलाएति वा सुद्धागणिएति वा / भवे एयारूवे सिया? णो इणढे समढे / गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीएणरगा एतो अणिकृतरा चेव जाव अमणामतरा चेव वा फासेणं पण्णत्ता / एवं० जाव अहे सत्तमाए पुढवीए। (इमीसे णमित्यादि) प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह-गौतम ! तद्यथा नाम-असिपत्रमिति वा-असिः खङ्ग,तस्य पत्रमसिपत्रं, क्षुरपत्रमिति वा, कदम्बचिरिकापत्रमिति वा, कदम्बचिरिका तृणविशेषः-सच दर्भादप्यतीव तुदकः, शक्तिः प्रहरणविशेषः, तदग्रमिति वा, कुन्ताग्रमिति वा, तोमराग्रमिति वा, भिण्डिमालः प्रहरणविशेषः, तदग्रमिति वा, सूचीकलाप इति वा, कपिकच्छूरिति वा, कपिकच्छूः कण्डूतिजनको वल्लीविशेषः, वृश्चिकदंश इतिवा, अङ्गार इति वा, अङ्गारो निधूमाग्निः, ज्वालेति वा, ज्वाला अनलसंबद्धा (मुम्मुर इतिवा) मुर्मुरः फुस्फुकाऽऽदौ मसृणोऽग्निः, अर्चिरिति वा, अर्चिरनलविच्छिन्ना ज्वाला, अलातमुल्मुकम् , शुद्धाग्निरयःपिण्डानुगतोऽग्निः, विद्युदादिर्वा, इतिशब्दः सर्वत्रापि उपमाभूतवस्तुस्वरूपपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्दः परस्परसमु चये / इह कस्याऽपि नरकस्य स्पर्शः शरीरावयवच्छेदकोऽपरस्य भेदकोऽन्यस्य व्यथाजनकोऽपरस्य दाहक इत्यादि / ततः साम्यप्रतिपत्त्यर्थमसिपत्राऽऽदीनां नानाविधानामुपमानानामुपादानम् (भवे एयारूवे सिया इत्यादि) प्राग्वत्। (42) संप्रति नरकाऽऽवासानां महत्त्वमभिधित्सुराहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरगा किं महालया पण्णत्ता? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वभंतरए सव्वखुद्दाए वट्टे तेल्लापूत (तेल्लपूप)(तेल्लापूप) संठाणसंठिते वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिते वट्टे रहचक्कबालसंठाणसंठिते वट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिते एक जोयणसतसहस्सं आयामविक्खंभेणं जाव किंचि विसेसा-हिए परिक्खेवेणं, देवे णं महिडिए० जाव महाणुभागे० जाव इणामेव त्ति कट्ट के वलकप्पं जंबुद्दीवं तिहिं अच्छराणि वा तिहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, से णं देवे ताए उकिट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्धाए जइणाए छेइयाए उद्धयाए दिव्वाए देवगईए वीतीवयमाणे जहण्णेणं एगाहं वा दुयाह वा तियाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे वीईवएज्जा, अत्थेगतिएणरगे वीईवएज्जा, अत्थेगतिए णो वीतीवएज्जा, महालया णं गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा पण्णत्ता / एवं० जाव अहे सत्तमाए अत्थेगतियं नरगं वीईवएज्जा, अत्थेगइयं नरगं नो वीईवएज्जा। (इमीसे णं इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किं महान्तः किंप्रमाणा महान्तः प्रज्ञप्ताः ? पूर्व त्वसंख्येयविस्तृता इति कथितं, तचासंख्येयत्वं नावगम्यते इति भूयः प्रश्नः। अत एवाऽवनिर्वचनं भगवानुपमयाऽभिधत्ते-गौतम ! अयमिति यत्र स्थिता वयं, णमिति वाक्यालङ्कारे, अष्टयोजनोच्छूितया रत्नमय्या जम्ब्वा उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः, सर्वद्वीपसमुद्राणां घातकीखण्डलवणाऽऽदीनां सर्वाभ्यन्तर आदिभूतः, सर्वक्षुल्लकः सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको ह्रस्वः सर्वक्षुल्लकः / तथाहि-सर्वेलवणाऽऽदयः समुद्राः सर्वेधातकीखण्डाऽऽदयो द्वीपा अस्माद् जम्बूद्वीपादारभ्य प्रवचनोक्तक्रमेण द्विगुणद्विगुणाऽऽयामविष्कम्भपरिधयः, ततोऽयं शेषसर्वद्वीपसमुद्रापेक्षयाः सर्वलघुरिति, तथा वृत्तो, यतस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तैलेन पक्वोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हिपक्वोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति, नघृतेन पक्व इति तैलविशेषणं, तस्येव संस्थान, तेन संस्थितस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो, यतः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो, यतो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो, यतः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः, अनेकधोपमानोपमेयभावो नानादेशजविनेयप्रतिपत्यर्थः / एक योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतनैव स्राणि षोडश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशे त्रय शा अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदश अङ्गुलानि अङ्गुिलानि किचिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः / परिक्षेपपरिमाण भावना क्षेत्रसमासटीकातो, जम्बूद्वीपप्रज्ञमिटीक
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________________ णरंग 1616 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग दितव्या। (देवे य णमित्यादि) देवश्च, णमिति वाक्यालङ्कारे। मह-द्धिकः महती ऋद्धिर्विमानपरिवाराऽऽदिका यस्य स महर्द्धिकः, महती द्युतिः शरीराभरणविषया यस्य स महाद्युतिकः, महद् बलं शरीरं प्राणा यस्य स महाबलः, महद्यशः ख्यातिर्यस्य स महायशाः, तथा (महेसक्खे इति) महेश इति महान् ईश्वर इत्याख्या यस्य स महेशाख्यः। अथवाईशनमीशो भावे घञ्प्रत्ययः, ऐश्वर्यमित्यर्थः, ' ईश 'ऐश्वर्ये इतिवचनात् / तत ईशमैश्वर्यमात्मनः ख्यातिः, अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति प्रथवति, ईशाख्यः महाँश्चासावीशाऽऽख्यश्च महेशाख्यः / क्वचित्" महासोक्खे" इति पाठः। तत्र महत् सौख्यं यस्य प्रभूतसवद्योदयवशात् समहासौ-ख्यः। अन्येपठन्ति-" महासक्खे इति "तत्रायं शब्दसंस्कारो महाश्वाक्षः / इयं चात्र पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शिता व्युत्पत्तिः, आशुगमनादश्वो मनः, अक्षाणि इन्द्रियाणि स्वविषयव्यापकत्वात् , अश्वश्चाक्षाणि च अश्वाक्षाणि, महान्ति अश्वाक्षाणि यस्याऽसौ महाश्वाक्षः / तथा(महाणुभागे इति) अनुभागो विशिष्टवैक्रियाधिकरणविषया अचिन्त्या शक्तिः," भागो चिंता सत्ती " इति वचनात्। महान् अनुभागो यस्य स महानुभागः। अमूनि महर्द्धिक इत्यादीनि विशेषणानि तत्सामर्थ्यातिशयप्रतिपादकानि / यावदिति चप्पुटिकात्रयकरणकालावधिप्रदर्शनपरम् / " इणामेव त्ति कटु "एव-मेव मुधिकया,' एमेव मोरकल्ला (कुल्ला), मुहा य मुहिय त्ति नायव्वा।" इति वचनात् / अवज्ञयेति भावः। उक्तं च मूलटीका-याम्-(इणामेवेति कटु) एवमेव मुधिकया अयज्ञयेति इतिकृत्वेति हस्तदर्शितचप्पुटिकात्रयकरणसूचकम् , केवलकल्पं परिपूर्ण जम्बू-द्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपातैः / अप्सरोनिपातो नामचप्पुटिका, तत्र तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरिति द्रष्टव्यम् / चप्पुटिकाश्च कालोपलक्षणं, ततो यावता कालेन तिसश्चप्पुटिकाः पूर्यन्ते, तावत्कालमध्ये इत्यर्थः / त्रिःसप्तकृत्व एकविंशतिवारान् , अनुपरिवर्त्य सामस्त्येन परिभ्रम्य, ' हव्वं शीघ्रमागच्छेत् . स इत्थम्भूतगमनशक्तियोग्यो देवस्तया देवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया प्रशस्तविहायोगतिनामोदयात् प्रशस्तया, शीघ्रसंचरणात् त्वरितया, त्वरा संजाता अस्यामिति त्वरिता, तया त्वरितया, शीघ्रतरमेव तया प्रदेशान्तराक्रमणमिति; चपलेव चपला, तया, क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनात् चण्डेव चण्डा, तथा, निरन्तरं शीघ्रगुणयोगात् शीघ्रा, तयाशीघ्रया, परमोत्कृष्टवेगपरिणामोपेता जवना, तया। अन्ये तु जैनया विपक्षजेतृत्वेनेति व्याचक्षते; छेकया निपुणया, वातोद्भूतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गतिः सा उद्भूता, तथा / अन्ये त्वाहुः-उद्भूतया तदर्थातिशयेनेति, दिव्या दिवि देवलोके भवा दिव्या, तया, देवगत्या व्यतिव्रजन् जघन्यत एकाहं वा एकमहावत्, एवं व्यहं त्र्यहमुत्कर्षतः षण्मासान्यावत्व्यतिव्रजन्, तत्रास्त्येतद्द्यदुत एककान् काश्चन नरकान् व्यतिव्रजेत् उल्लङ्ध्य परतो गच्छेत् , तथाऽस्त्येतत् यदुत-इत्थंभूतयाऽपि गत्या षण्मासानपि यावद् निरन्तरं गच्छनएककान काँश्चन नरकान् नव्यतिव्रजेत् नोलध्य परतो गच्छेत्, अतिप्रभूतायामतया तेषामन्तस्य प्राप्तुमशक्यत्वात् , एतावन्तो महान्तो गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां नरकाः प्रज्ञप्ताः / एवमेकैकस्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं, यावदधः सप्तम्यां, नवरमधः सप्तम्यामेवं वक्तव्यम्-" अत्थेगइयं णरगं वीईवएज्जा, अत्थेगइए नरगे नो वीईवएज्जा / " अप्रतिष्ठानाऽभिधस्यैकस्य नरकस्य लक्षयोजनाऽऽयामविष्कम्भतया अन्तस्य प्राप्तुं शक्यत्वात्, शेषाणां च चतुर्णामपि प्रभूतासंख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वेनान्तस्य प्राप्तुमशक्यत्वात्। (43) संप्रति किंमया नरकाः?, इति निरूपणार्थमाहइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरगा किंमया पण्णत्ता? गोयमा ! सव्ववइरामया पण्णत्ता। तत्थ णं णरएसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, उववजंति, सासता णं ते नारगादवट्ठयाएवण्णपज्जवेहिं गंधपञ्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासता, एवं० जाव अहे सत्तमा / / (इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किम्मयाः किंविकाराः प्रज्ञप्ताः? भगवानाह-गौतम! (स-व्यवइरामया इति) सर्वाऽऽत्मना वज़मयाः प्रज्ञप्ताः, वज़शब्दस्य सूत्रे दीर्घता प्राकृतत्वात् / तत्र च येषु नरकेषु णमितिवाक्यालडारे, बहवो जीवाश्च खरबादरपृथिवीकायिकरूपा, पुद्गलाश्च अपक्रामन्ति, च्यवन्ते, उत्पलन्ते / एतदेव शब्दद्वयं यथाक्रमं पर्यायद्वयेन व्याचष्टे-(चयंति उववजंति) च्यवन्ते, व्युत्क्रामन्ति उत्पद्यन्ते। किमुक्तं भवति ?-एके जीवाः पुद्गलाश्च यथायोगं गच्छन्ति, अपरं त्वागच्छन्ति / यस्तु प्रतिनियतसंस्थानाऽऽदिरूप आकारः स तदवस्थ एवेति। अत एवाऽऽह(सासता समिति) पूर्ववत्, ते नरका द्रव्यार्थतया तथाविधप्रतिनियतसंस्थानाऽऽदिरूपतया वर्णपर्यायैः गन्धपर्यायैः रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायः पुनरशाश्वता वर्णाऽऽदीनामन्यथाभवनात्। एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तमी पृथिवी / जी० 3 प्रति०। (44) किंप्रतिष्ठिता नरकाः?तिपइट्ठिया णरगा पण्णत्ता / तं जहा-पुढवीपइट्ठिया णरगा आगासपइट्ठिया, आयपइट्ठिया / णेगमसंगहववहाराणं पुढविपइट्ठिया, उज्जुसुयस्स आगासपइट्ठिया, तिण्हं सद्दणयाणं आयपइट्टिया। स्फुट केवलं नारका नरकाऽऽयासा आत्मप्रतिष्ठिताः स्वरूपप्रतिष्ठिताः। तत्प्रतिष्ठानं नयैराह-(णेगमेत्यादि) नैकेन सामान्यविशेषग्राहकत्वात् तस्याऽनेकेन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैगमः / अथवा-निगमा निश्चितार्थबोधाः, तेषु कुशलो भवो वा नैगमः। अथवा-नैको गमोऽर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगमः // 1 / / संग्रहणं भेदानां संगृह्णाति वा तान् संगृह्यन्ते वा ते येन स संग्रहः, सामान्यमात्राभ्युपगमपर इति // 2 // व्यवहरणं व्यवह्रियते वा तेन विशेषेण वा सामान्येन व्यवहियते निराक्रियतेऽनेनेति लोकव्यव-हारपरो व्यवहारो विशेषमात्राभ्युपगमपरः // 3 // एतेषां नयानां मतेनेति गम्यम्। ऋजु अवक्रमभिमुखं श्रुतं श्रुतज्ञानं यस्येति ऋजु-श्रुतः, ऋजुवाऽतीतानागतवक्रपरित्यागाद्वर्तमानं वस्तु सूत्रयति गमयतीति ऋजु सूत्रः, स्वकीय सांप्रतं च वस्तु नान्यदित्यभ्युपगमपरः / शद्यते अभिधीयते अभिधेयमनेनेति शब्दो वाचको ध्वनिः, नयन्ति परिच्छिन्दन्ति अनेकधर्माऽऽत्मकं सद् वस्तु सावधारणतयैकेन धर्मेणेति नयाः शब्दप्रधाननयाः। ते च त्रयः-शब्दसमभिरूदैवंभूताऽऽख्याः / तत्र शपनमभिधानं, शप्यते वा येन वस्तु स शब्दः, तदभिधेय विमर्शनपरो नयोऽपि श
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________________ गरग 1917- अभिधानराजेन्द्रः भाग-१ णरग ब्द एवेति। सच भावनिक्षेपरूपं वर्तमानमभिन्नलिङ्गवाचकं बहुपर्यायमपि च वरत्वभ्युपगच्छतीति। वाचकं वाचकं प्रति वाच्यभेदं समभिरोहत्याश्रयति यः स समभिरूढः / स ह्यनन्तरोक्तविशेषणस्याऽपि वस्तुनः शक्रपुरन्दराऽऽदिवाचकभेदेन भेदमभ्युपगच्छति, घटपटाऽऽदिवदिति। यथा शब्दार्थो घटते चेष्टत इति घट इत्यादि-लक्षण एवमिति तथाभूतः सत्यो घटाऽऽदिरों, नान्यथेत्येवमभ्युपगमपर एवंभूतो नयः। अयं हि भावनिक्षेपाऽऽदिविशेषणोपेत व्युत्पत्त्यर्थाऽऽविष्टमेवार्थमिच्छति, जलाऽऽहरणाऽऽदिचेष्टावन्तं घटमेवेति / तत्राऽऽद्यत्रयस्याऽशुद्धत्वात् प्रायो लोकव्यवहारपरत्वाच पृथिवीप्रतिष्ठितत्वं नारकाणामिति तत्त्वम्, चतुर्थस्य शुद्धत्वात् आकाशस्य च गच्छतां तिष्ठतां वा सर्वभावानामैकान्तिकाऽऽधारत्वाद् भुवोऽनैकान्तिकत्वाचाऽऽकाशप्रतिष्ठितत्वमिति, त्रयाणां तु शुद्धतरत्वात् सर्वभावानां स्वभावलक्षणाऽधिकरणस्याऽन्तरङ्गत्वादव्यभिचारित्वाच्च आत्मप्रतिष्ठितत्वमिति / न हि स्वस्वभावं विहाय परस्वभावाधिकरणा भावाः कदाचनाऽपि भवन्तीति। यत आह भाष्यकार:-" वत्थु वसइ सहावे, सत्ताओ चेयण व्व जीवम्भि। न विलक्खणतणाओ, भिन्ने छायातवे चेव " // 2242 / / (विशे०) इति। स्था० 3 ठा० 3 उ० (उपपातः ' उववाय ' शब्दे द्वितीयभागे 615 पृष्ठादारभ्य द्रष्टव्यः)(एवं शरीरावहारणावगाहने-ऽपि स्वस्थाने) (45) नरकदुःखवर्णनम्पुच्छिस्सहं केवलिणं महेसिं, कहऽभितावा णरगा पुरस्था। अजाणओ मे मुणि ! वूहि जाणं, कहिं नु वाला नरए उविति ? ||1|| जम्बूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः। तद्यथा-भगवन् ! किंभूता नारकाः, कैर्वा कर्मभिरसुमतां तेषूत्पादः, क्रीदृश्यो वा तत्रत्या वेदनाः ? इत्येवं पृष्टः सुधर्मस्वाम्याह-यदेतद्भवताऽहं पृष्टस्तदेतत् केवलिनमतीतानागतवर्तमानसुक्ष्मव्यवहितपदार्थवेदिनं, महर्षिमुग्रतपश्चरणकारिणमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णु श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिनं, पुरस्तात् पूर्व पृष्टवानस्मिा यथा-कथंकिं-भूता अभितापान्विता नरका नरकावासा भवन्ति ? इत्येतदजानतो मे मम हे मुने ! जानन् पूर्वमेव केवलज्ञानेनावगच्छन् ब्रूहि कथय / कथं नुकेन प्रकारेण किमनुष्ठायिनः ? नुरिति वितर्के / बाला अज्ञा हिताहितप्राप्तिविवेकरहिताः, तेषु नरकेषूपसामीप्येन तद्योग्यकर्मोपादानतया, यान्ति गच्छन्ति।१। (46) किंभूताश्च तत्र गतानांवेदनाः प्रादुःषन्तीत्येतद्याऽऽह एवं मए पुढेंमहाणु भवे, एवं मए पुढेमहाणुभावे, इण मोऽव्ववी कासवेआसुपन्ने। पवेदइस्सं दुहमट्ठदुग्गं, आदीणिणं दुक्कमिणं पुरत्था / / 2 / / एवमनन्तरोक्तं, मया विनेयेनोपगम्य पृष्टो महाँश्चतुस्विंशदतिशयरूपोऽनुभावो माहात्म्यं यस्य स तथा प्रश्नोत्तरकालं चेदं वक्ष्यमाणम् , "मो'' इति वाक्यालङ्कारे, केवलाऽऽलोकेन परिज्ञाय मत्प्रश्ननिर्वचनम ब्रवीदुक्तवान् / कोऽसौ ? काश्यपो वीरो वर्द्धमानस्यामी, आशुप्रज्ञः, सर्वत्र सदोपयोगात् , स चैवं मया पृष्टो भगवानिदमाह-यथा यदेतद्भवता पृष्टं तदहं प्रवेदयिष्यामि कथयिष्या-म्यग्रतो दत्तावधानः शृण्विति / तदेवाऽऽह-दुःखमिति नरकं दुःख-हेतुत्वात् असदनुष्ठानम् / यदि वा नरकाऽऽवास एव दुःखयतीति दुःखम् / अथवा-असातावेदनीयोदयात् तीव्रपीडाऽऽत्मकं दुःख-मित्येतचाऽर्थतः परमार्थतो विचार्यमाणं दुर्ग गहनं विषमं दुर्विज्ञेयम् असर्वज्ञेन, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावादित्यभिप्रायः / यदि वा (दुह-मट्ठदुग्गं ति) दुःखमेवार्थो यस्मिन् स दुःखनिमित्तो वा दुष्प्रयोजनो वा दुःखार्थो नरकः, स च दुर्गो विषमो दुरुत्तरत्वात् , तं प्रतिपाद-यिष्ये / पुनरपि तमेव विशिनष्टि-आ समन्ताद्दीनमादीनं तद्विद्यते यस्मिन् स आदीनिकोऽत्यन्तदीनसत्त्वाऽऽश्रयः तद् , दुष्कृतमस-दनुष्ठानं पापंवा तत्फलं वा, असातावेदनीयोदयरूपंतद्विद्यते यस्मिन् स दुष्कृतिकः, तं. पुरस्तादग्रतः प्रतिपादयिष्ये। पाठान्तरं वा(दुक्कडिणं ति) दुष्कृतं विद्यते येषां ते दुष्कृतिनो नारकास्तेषां संबन्धि चरितं पुरस्तात् पूर्वस्मिन् जन्मनि नरकगतिगमनयोग्यं यत्कृतं प्रतिपादयिष्यत इति। यथाप्रतिज्ञातमेवाऽऽहजे केइ वाला इह जीवियट्ठी, पावाइँ कम्माइँ करंति रुद्दा। ते घोररूवे तडिसंघयारे, तिव्वामितावे नरए पडं ति॥३॥ ये केवल महारम्भपरिग्रहपञ्चेन्द्रियवधपिशितभक्षणाऽऽदिके सावद्यानुष्ठाने प्रवृत्ता बाला अज्ञा रागद्वेषोत्कटास्तिर्यग्मनुष्याः, इहास्मिन् संसारेऽसंयमजीवितार्थिनः पापोपादानभूतानि कर्माण्यनुष्ठानानि रौद्राः प्राणिनां भयोत्पादकत्वेन भयानकहिंसाऽनृताऽऽदीनि कर्माणि कुर्वन्ति, त एवंभूतास्तीव्रपापोदयवर्तिनो घोररूपेऽत्यन्तभयानके (तमिसंघयारे ति) बहुलतमोऽन्धकारे यत्राऽऽत्माऽपि नोपलभ्यते-चक्षुषा केवलमवधिनाऽपि मन्द मन्दमुलूका इवाह्नि पश्यन्ति। तथा चाऽऽगमः-" कण्हलेस्से णं भंते ! णेरइए कण्ह-लेस्सं जेरइयं पाणयाए ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे केवइयं खेत्तं जाणइ, केवइअंखेत्तं पासइ ? गोयमा ! नो बहुययरं खेत्तं जाणइ, णो बहययरं खेत्तं पासइ। इत्तरियमेव खेत्त जाणइ, इत्तरिअमेव खेतं पासइ।" इत्यादि / तथा तीव्रो दुःसहः खदिरागगारमहाराशितापादनन्तगुणोऽभितापः संतापो यस्मिन् स तीव्राभितापस्तास्मिन् एवंभूते नरके बहुवेदनेऽपरित्यक्तविषयाऽभिष्वङ्गाः स्वकृतकर्मगुरवः पतन्ति, तत्र च नानारूपा वेदनाः समनुभवन्ति च। तथा चोक्तम्"अच्छदियविसयसुहे, पडइ अविज्झायसिहिसिहाणिवहे। संसारोदहिवलए-ऽसुहम्मि दुक्खाऽऽगरे निरए / / 1 / / पूयक्कनीस्थलगुह-कुहरुच्छलिएरुहिरगंडूसे। कक्खत्तिकत्तियदुहा-विरिक्कविवइण्णदेहः // 2 // जंतंतरभिज्जंतु-च्छलंतसंसहभरियदिसिविवरे। मजंतुम्फिडियसमु-च्छलंतसीसद्विसंधाए।। 3 / / सुक्कक्कंदकडाहु-कदंतदुक्यकयंतकम्मते। मूलविभिन्नुखित्तु-द्धदेहणित्तंतपब्भारे / / 4 / / बद्धधयारदुग्ग-धबंधणायारदुद्धरकिलेसे। भिन्नकरचरणसंकर-रुहिरवसादुग्गमप्पवहे / / 5 / /
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________________ णरंग 1918 - अमिधानराजेन्द्रः भाग-४ णरग नशा गिद्धमुहणिवउक्खि-तबंधणोम्मुद्दकंधरकबंधे। दढगहियतत्तसंडा-सयग्गविसमुक्खुडियजीहे॥६॥ तिक्खंकुसग्गकड्डिय-कंटयरुक्खग्गजजरसरीरे। निमिसंतरं पिदुल्लह-सुक्खेऽवक्खेवदुक्खम्मि॥७॥ इय भीसणम्मिणिरए, पडति जे विविहसत्तवहनिरया। सव्वब्भट्ठाय नरा, जयम्मि कयपावसंघाया / / 8 / / " इत्यादि। किश्चान्यत्तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसति आयसुहं पडुच्च। जे लुसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि / / || (तिव्वं तसेत्यादि) तथा तीव्रमतिनिरनुकम्पं रौद्रपरिणामतया हिंसायां प्रवृत्तः, त्रस्यन्तीति वसा द्वीन्द्रियाऽऽदयः, तान् , तथा स्थावरॊश्च पृथिवीकायाऽऽदीन् ,यःकश्चिन्महामोहोदयवर्ती, हिनस्ति व्यापादयति, आत्मसुखं प्रतीत्य, स्वशरीरसुखकृते नानाविधैरुपायैर्यः प्राणिनां लूषक उपमर्दकारी भवति, तथा अदत्तमपहर्तुं शीलमस्यासावदत्तहारी परद्रव्यापहारकः, तथा न शिक्षते नाभ्यसति नादत्ते (सेववियस्स त्ति) सेवनीयस्याऽऽत्महितैषिणा सदनुष्ठाने यस्य संयमस्य किचिदिति / एतदुक्तं भवतिपापोदयाद् विरतिपरिणाम काकमांसाऽऽदेरपि मनागपि न विधत्ते इति // 4 // तथापागब्भि पाणे बहुणं-तिवाती, अनिव्वते घातमुवेति बाले। णिहो णिसं गच्छति अंतकाले, अहो सिरं कट्ट उवेइ दुग्गं // 5 // प्रागल्भ्यं धाटयं तद्विद्यते यस्य स प्रागल्भी, बहूनां प्राणिनां प्राणानतीव पातयितुं शीलमस्य स भवत्यतिपाती। एतदुक्तं भवतिअतिपात्यपि प्राणिनः प्राणानतिधाट्याद् वदति-यथा वेदाऽभिहिता हिंसा अहिं सैव भवति, तथा राज्ञामयं धर्मो यदुत आखेटकेन विनोदक्रिया। यदि वा-" न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने / प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला " // 1 // इत्यादि / तदेवं क्रू रसिंहकृष्णसर्पवत् प्रकृत्यैव प्राणातिपातानुष्ठायी, अनिर्वृतः कदाचिदप्यनुपशान्तः क्रोधाग्निना दह्यमानः। यदि वा लुब्धकमत्स्याऽऽदिवधकजीविकाप्रसक्तः सर्वदा परिणामपरिणतोऽनुपशान्तो, हन्यते प्राणिनः स्वकृतकर्मविपाकेन यस्मिन् स घातो नरकस्तमुपसामीप्येन एति याति कः ? बालोऽज्ञोरागद्वेषोदयवर्ती, सोऽन्तकाले मरणकाले (निहो त्ति) न्यगधस्तात् (सिणं ति) अधोऽन्धकारं गच्छतीत्यर्थः, यथा तेन दुश्चरितेन अधः शिरः कृत्वा दुर्ग विषमं यातनास्थानमुपैतिः अवाशिरा नरके पतती-त्यर्थः / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। (47) दशविधवेदनाःनेरइया णं दसविहं वेयणं पच्चणभवमाणा विहरंति। तं जहासीयं, उसिणं, खुहं, पिवासं, कंडूं, परभं, भयं, सोगं, जरां वाहि॥ " नेरइया " इत्यादि कण्ठ्यम् / नवरं वेदनां पीडा, तत्र शीत- | स्पर्शजनिता शीता, ता, साच चातुर्थ्यादिनरकपृथिवीष्विति। एवमुष्णां प्रथमाऽऽदिषु, क्षुधं बुभुक्षां, पिपासा तृष, कण्डूं खर्जूम, (परउभं ति) परतन्त्रता, भयं भीति, शोकं दैन्यं, जरां वृद्धत्वं, व्याधिं ज्वरकुष्टाऽऽदिकमिति / स्था० 10 ठा०। (48) साम्प्रतं पुनरपि नरकवर्तिनो नारका यदनुभवन्ति तद्दर्शयितुमाहहण छिंदह भिंदणं दहेति, सद्दे सुणिंता परहम्मिया णं / ते नारगाओ भयभिन्नसन्ना, कंखंति के नाम दिसं वयामो? // 6 // तिर्यड्मनुष्यभवात् सत्त्वा नरकेषूत्पन्ना अन्तर्मुहूर्तेन निलूनाण्डजसन्निभानि शरीराण्युत्पादयन्ति पर्याप्तिभावमागताश्चातिभयानकान् शब्दान् परमाधार्मिकजनितान् शृण्वन्ति। तद्यथा-हत मुद्गराऽऽदिना, छिन्त खड्गाऽऽदिना, भिन्त शूलाऽऽदिना, दहत मुर्मुराऽदिना, णमिति वाक्यालङ्कारे। तदेवभूतान् कर्णासुखान् शब्दान् भैरवान् श्रुत्वा, ते तु नारका भयोद्भान्तालोचना भयेन भीत्या भिन्ना नष्टा संज्ञाऽन्तःकरणवृत्तिर्येषां ते तथा, नष्टसंज्ञाश्च कां दिर्श व्रजामः ? कुत्र गतानामस्माकमेवंभूतस्याऽस्य महाघोरारवदारुणस्य दुःखस्य त्राणं स्यादित्येतत् कासन्तीति। (46) ते च भयोद्भान्ता दिक्षु नष्टा यदनुभवन्ति तद्दर्शयितुमाह इंगालरासिं जलियं सजोतिं, तेणोवमं भूमिमणुक्कमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरद्वितीया / / 7 // (इंगालेत्यादि) अङ्गारराशिं खदिराङ्गारपुजंज्वलितं ज्वालाऽऽकुलं, तथा सह ज्योतिषोद्योतेन वर्तत इति सज्योतिर्भूमिस्तेनोपमा यस्याः सा तदुपमा, तामङ्गारसन्निभां भूमिमाक्रमन्तस्ते नारका दन्दह्यमानाः करुणं दीनं स्तनन्त्याक्रन्दन्ति / तत्र बादराग्नेरभावात् , तदुपमा भूमिमित्युक्तम्। एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तम् , अन्यथा नारकतापस्येहत्याग्निना नोपमा घटते / ते च नारका महानगरदाहाधिकेन तापेन दह्यमाना अरहःस्वरा अप्रकटस्वरा महाशब्दाः सन्तः, तत्र तस्मिन्नरकावासे, चिरं प्रभूतं कालं स्थितिरवस्थानं येषां ते, तथा ह्युत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि तिष्ठन्तीति। जइ ते सुया वेयरणीऽऽभिदुग्गा, णिसिओ जहा खुर इव तिक्खसोया। तरंति ते वेयराणिंऽभिदुग्गां, उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा||८|| (जइ ते सुया इत्यादि) सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतीदमाह-यथा भगवतेदमाख्यातम्-यदिते त्वया श्रुता श्रवणपथमुपागता वैतरणी नाम क्षारोष्णरुधिराऽऽकारजलवाहिनी नदी आभिमुख्येन दुर्गाऽभिदुर्गा दुःखोत्पादिका / तथा निशितो यथा क्षुरस्तीक्ष्णानि शरीरावयवानां कर्तकानि स्रोतांसि यस्याः सा तथा, तेच नारकास्तप्ताङ्गारसन्निभा भूमि विहायोदकं पिपासवोऽभितप्तः सन्तस्तापापनोदायाभिषिषिक्षवो वा तां
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________________ णग 1916 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग वैतरणीमभिदुर्गा तरन्ति / कथंभूताः? इषुणा शरेण प्रतोदेनेव चोदिताः प्रेरिताः, शक्तिभिश्च हन्यमानास्तामेव भीमा वैतरणीं तरन्ति / तृतीयार्थे सप्तमी / / 8 // किञ्चकीले हिँ विज्झंति असाहुकम्मा, नावं उविंते सइविप्पहूणा। अन्ने तु सूलाहिँ तिसूलियाहिं, दीहाहि विभ्रूण अहे करंति / / 6 / / ताँश्च नारकानत्यन्तक्षारोष्णेन दुर्गन्धेन वैतरणीजलेन अभितप्सतानायसकीलाकुलां नावमुपगच्छन्तः पूर्वाऽऽरूढा असाधुकर्माणः परमाधार्मिकाः कीलेसु कण्टकेषु विध्यन्तीति, ते च विध्यमानाः कलकलायमानेन सर्वस्रोतोऽनुयायिना वैतरणीजलेन नष्टसंज्ञा अपि सुतरां स्मृत्या विप्रहीणा अपगतकर्तव्यविवेका भवन्ति / अन्ये पुनर्नरकपाला नारकैः क्रीडन्तस्तान्नष्टाँस्त्रिशूलिकाभिर्दीधिकाभिरायताभिर्विद्धा अधो भूमौ कुर्वन्तीति // 6 // अपिचके सिंच बंधित्तु गले सिलाओ, उदगसिं बोलंति महालयंसि। कलंवुयावालुऍ मुम्मुरे य, लोलंति पचंति अ तत्थ अन्ने // 10 // (केसिं च इत्यादि) केषाञ्चिन्नारकाणां परमाधार्मिकाणां महतीं शिलां गले बध्वा महत्युदके (बोलंति त्ति) निमज्जयन्ति, पुनस्ततः समाकृष्य वैतरणीनद्याः कलम्बुकावालुकायां मुर्मुराग्नौ च लोलयन्ति अतितप्तबालुकायां चणकानिव समन्ततो लोलयन्ति, तथाऽन्ये तत्र नरकाऽऽवासे स्वकर्मपाशावपाशितान् नारकान् शूलके प्रोतकमांसपेशवित् पचन्ति भर्जयन्तीति॥१०॥ तथाअसूरियं नाम महाभितावं, अंधंतमं दुप्पतरं महंतं। उड्ढे अहेयं तिरिअं दिसासु, समाहिओ जत्थऽगणी झियाइं॥११॥ (असूरियमित्यादि) न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सोऽसूर्यो नरको बहलान्धकारः कुम्भीपाकाऽऽकृतिः, सर्व एव वा नरकाऽऽवासोऽसूर्यो व्यपदिश्यते। तमेवंभूतं महाभितापमन्धतमसं दुष्प्रतरं दुरुत्तरं महान्तं विशाल नरके महापापोदयाद्व्रजन्ति। तत्र च नरके ऊर्ध्वमस्तिर्यक् च सर्वतः समाहितः सम्यगाहितो व्यवस्थापितोऽग्निर्जाज्वलतीति। पठ्यते च-(समूसिओ जत्थडगणी झियाई) यत्र नरके सम्यगूर्व श्रितः समुच्छ्रितोऽग्निः प्रज्वलति, तं तथाभूतं नरकं वराका भवन्ति / / 11 / / किश्चान्यत्जंसी गुहाए जलणेऽतिउट्टे, अविजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णो। सया य कलुणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं / / 12 / / (जंसी गुहाए इत्यादि) यस्मिन्नरकेऽतिगतोऽसुमान् गुहायामित्युष्ट्रिकाकृतौ नरके प्रवेशितो ज्वलनेऽग्नावतिवृतो वेदनाऽभिभूतत्वात् स्वकृतं दुश्चरितमजानन् लुप्तप्रज्ञोऽपगतावधिविवेको दन्दह्यते। तथा सदा सर्वकालं पुनः करुणप्रायं कृत्स्नं वा धर्मस्थानमुष्णस्थानं, तापस्थानमित्यर्थः / (गाढ ति) अत्यर्थमुपनीतम् दौकितं दुष्कृतकर्मकारिणां यत् स्थानं तत्ते व्रजन्ति। पुनरपितदेव विशिनष्टि-अतिदुःखरूपो धर्मः स्वभावो यस्मिन्निति / इदमुक्तं भवति-अक्षिनिमेषमात्रमपि कालं न तस्य दुःखस्य विश्राम इति / तदुक्तम्" अच्छिनिमीलणमेत्तं, णत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्ध। णिरए पोरइयाण, अहोणिसं पञ्चमाणाणं " // 1 / / 12 / / अपिचचत्तारि अगणिओ समारभित्ता, जेहिं कुरकम्माऽभितविंति वालं। ते तत्थ चिट्ठतिभितप्पमाणा, मच्छा व जीवंतुवजोतिपत्ता / / 13 // चतसृष्वपि दिक्षु चतुरोऽग्नीन समारभ्य प्रज्वाल्य, यस्मिन्नरकाऽऽवासे क्रूरकर्माणो नरकपाला आभिमुख्येनात्यर्थं तापयन्ति भटित्रवत्पचन्ति बालमज्ञ नारकं पूर्वकृतदुश्चरितं, ते तु नारकजीवा एवमभितप्यमानाः कदर्थ्यमानाः स्वकर्मनिगमिताः तत्रैव प्रभूतं कालं महादुःखाऽऽकुले नरकतिष्ठन्तिा दृष्टान्तमाह-यथा जीवन्तो मत्स्या मीना उपज्योतिरग्नेः समीपे प्राप्ताः परवशत्वादन्यत्र गन्तुमसमर्थाः, तत्रैव तिष्ठन्त्येवं नारका अपि, मत्स्यानां तापासहिष्णुत्वादग्नावत्यन्तं दुःखमुत्पद्यत इत्यतस्तद्ग्रहणमिति / / 13 // किश्चान्यत्संतच्छणं णाम महाहितावं, ते नारया जत्थ असाहुकम्मा। हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, फलग व तच्छंति कुहामहत्था // 14 // (संतच्छमित्यादि) समेकीभावेन तक्षणं संतक्षणं, नामशब्दः संभावनायां, यदेत्संतक्षण तत्सर्वेषां प्राणिनां महाभितापं महादुःखोत्पादकमित्येवं संभाव्यते / यदेवं ततः किमित्याह-ते नारका नरकपाला यत्र नरकाऽऽवासे स्वभवनादागता असाधुकर्माणः क्रूरकर्माणो निरनुकम्पाः कुठारहस्ताः परशुपाणयः, तान्नारकानत्रा-णान् हस्तैः पादैश्च बध्वा संयभ्य फलकमिव काच्छशकलमिव, लक्ष्णुवन्ति तनूकुर्वन्ति, छिन्दन्तीत्यर्थः // 14 // अपि चरुहिरे पुणो वचसमुच्छिअंगे, भिन्नुत्तमंगे परिवत्तयंता। पयंति णं णेरइए फुरंते, सजीवमच्छे व अयोकवल्ले॥१५॥ ते परमाधार्मिकास्तान् नरकान् स्वकीये रुधिरे तप्तकवल्या प्रक्षिप्ते पुनः पचन्ति। वर्चःप्रधानानि समुच्छ्रितान्यन्त्राणि अङ्गानि वा येषां ते तथा तान्, भिन्नंचूर्णितमुतमाङ्गं शिरोयेषांतेतथा, तानिति। कथंपचन्तीत्याह-परिवर्तयन्त
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________________ णरग 1920 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णरग उत्तानानवाङ्मुखान् वा कुर्वन्तः, णमिति वाक्यालङ्कारे। तान् स्फुरत इतश्चेतश्च विह्वलमात्मानं निक्षिपतः सजीवमत्यानिवाऽऽयसकवल्यामिति / / 15 / / णो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जती तिव्वऽभिवेयणाए। तमाणुभाग अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कमेणं // 16 // (णो चेवेत्यादि) ते च नारका एवं बहुशः पच्यमाना अपि (नो) चैव तत्र नरके पाके वा नरकानुभवे वा सति मषीभवन्ति नैव भस्मसाद्भवन्ति। तथा तत्तीवाभिवेदनया नापरमग्निप्रक्षिप्तमत्स्याऽऽदिकमप्यस्ति, यन्मीयते उपमीयते; अनन्यसदृशी तीव्र वेदनां वाचामगोचरामनुभवन्तीत्यर्थः / यदि वा-तीव्राभिवेदनयाऽप्यननुभूतस्वकृतकर्मत्वान्न मिन्यते इति। प्रभूतमपि कालं यावत्तत्तादृशं शीतोष्णवेदनाजनितं, तथा दहनच्छेदनभेदनतक्षणत्रिशूलाऽऽरोपणकुम्भीपाकशाल्मल्यारोहणाऽऽदिकं परमाधार्मिकजनितं परस्परोदीरणनिष्पादितं चानुभागं कर्मणां विपाकमनुवेदयन्तः समनुवेदयन्तः समनुभवन्तस्तिष्ठन्तिा तथा स्वकृतेन हिंसाऽऽदिनाऽष्टादशपापस्थानरूपेण सततोदीर्णदुष्कृतेन दुःखिनो दुःखयन्ति पीडयन्ते; नाक्षिनिमेषमपिकालं दुःखेन मुच्यन्त इति।।१६।। किञ्चान्यत्तेहिं च ते लोलणसंपगाढे, गाढ सुतत्तं अगणिं वयंति। न तत्थ सायं लहतीऽभिदुग्गे, अरहियाऽमितावा तह वी तविति / / 17 // तस्मॅिश्च महायातनास्थाननरके, तमेव विशिनष्टि-नारकाणां लोलने सम्यक् प्रगाढो व्याप्तो भृतः स तथा तस्मिन् नरके, शीतार्ताः सन्तो गाढमत्यर्थं सुष्टुतप्तमग्निं व्रजन्तिा तत्राऽप्यग्निस्थानेऽभिदुर्गे दह्यमानाः सात सुखं मनागपिन लभन्ते, अरहितो निरन्तरोऽभितापो दाहो येषां ते अरहिताभितापास्तथाऽपि तान्नारकाँस्ते नरकपालास्तापयन्तीत्यर्थः, तप्ततैलाग्निना दहन्तीति / / 17 // अपिचसे सुचई नगरवहे व सद्दे, दुहोवणीयाणि पयाणि तत्थ। उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति // 18 // ' से 'शब्दोऽथशब्दार्थे। अथाऽनन्तरं तेषां नारकाणां नरकपालैः रौद्रैः कदर्थ्यमानानां भयानको हाहारवप्रचुर आक्रन्दनशब्दो नगरवध इव श्रूयते समाकर्ण्यते, दुःखेन पीडयोपनीतानि उच्चरितानि करुणाप्रधानानि यानि पदानि-हा मातस्तात ! कष्टम् अनाथोऽहं शरणाऽऽगतस्तव त्रायस्व मामित्येवमादीनां पदानां तत्र नरके शब्दः श्रूयते, उदीर्णमुदयप्राप्त कटुविपाक कर्म येषां तथोदीर्णकर्माणो नरकपाला मिथ्यात्वहास्यरत्यादीनामुदये वर्तमानाः पुनः पुनर्बहुशस्ते (सरह ति) सरभरसं सोत्साह नारकान दुःखयन्त्यतस्तदसह्यं नानाविधैरुपायैर्दुःखमसातवेदनीयमुत्पादयन्तीति / / 18 // तथापाणेहि णं पाव विओजयंति, तं भे एवक्खामि जहातहेणं / दंडेहिँतत्था सरयंति बाला, सव्वेहि दंडेहिँपुराकडेहिं / / 16 / / (पाणेहि णमित्यादि) णमिति वाक्यालङ्कारे। प्राणैः शरीरेन्द्रियाऽऽदिभिस्ते पापाः पापकर्माणो नरकपाला वियोजयन्ति शरीरावयवानां पाटनाऽऽदिभिः प्रकारैर्विकर्तनादवयवान् विश्लेषयन्ति / किमर्थमेवं कुर्वन्तीत्याह-तद्दुःखकारण' भे 'युष्माकं प्रवक्ष्यामि याथातथ्येनावितथं प्रतिपादयामीति / दण्डयन्ति पीडामुत्पादयन्तीति दण्डा दुःखविशेषास्तैरिकाणामापादितैर्बाला निर्विवेका नरकपालाः पूर्वकृतं स्मारयन्ति / तद्यथा-तदा रुष्टस्त्वं खादसि समुत्कृत्य प्राणिनां मांस, तथा पिवसि तद्रसं, मद्यं च, गच्छसि परदारान्, साम्प्रतं तद्विपाकापादितेन कर्मणाऽभितप्यमानः किमेवं रारटीषीत्येवं सर्वैः पुराकृतैर्दण्डैर्दुःखावशेषैः स्मारयन्तस्तादृगभूतमेव दुःखविशेषमुत्पादयन्तो नरकपालाः पीडयन्तीति॥ 16 // तथाते हम्ममाणा णरगे पडंति, पुन्ने दुरूवस्स महाऽमितावे। ते तत्थ चिट्ठति दुरूवमक्खी, तुइंति कम्मोवगया किमीहिं॥ 20 // (ते हम्ममाणा इत्यादि) ते वराका नारका हन्यमानास्तोद्यमाना नरकपालेभ्यो नरकेऽन्यस्मिन् घोरतरे नरकैकदेशे पतन्ति गच्छन्ति / किंभूते नरके ? पूर्ण भृते, दुष्ट रूपं यस्य तद् दुरूपं विष्ठाऽसृङ्मांसाऽऽदिकं मलं तस्य भृते, तथा महाभितापिते सन्तापोपेते, ते नारकाः स्वकर्मावबद्धास्तत्रैवंभूते नरके, दुरूपभक्षिणोऽशुच्यादिभक्षकाः प्रभूतं कालं यावत्तिष्ठन्ति / तथा कृमिभिः नरकपालाऽऽपादितैः परस्परकृतैश्च स्वकर्मोपगताः स्वकर्मढौकितास्तुद्यन्ते व्यथ्यन्ते इति। तथा चाऽऽगमः"छट्ठीसत्तमासुणं पुढवीसुनेरइया महंताई लोहिकुंथुरूवाई विउव्वित्ता अन्नमन्नरस कायं समचउरंगेभाणा 2 अणुज्झायमाणा अणुज्झायमाणा चिट्ठति / / 20 // किञ्चान्यत्सया कसिणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म। अंदूसु पक्खिप्प विहत्तु देह, वेहेण सीसं सेऽभितावयंति॥२१॥ (सया कसिणमित्यादि) सदा सर्वकालं, कृत्स्नं संपूर्ण, पुनस्तत्र नरके धर्मप्रधानम् उष्णप्रधानं स्थितिः स्थानं नारकाणां भवति / तत्र हि प्रलयातिरिक्ताग्निवाताऽऽदीनामत्यन्तोष्णरूपत्वात् तच दृढनिधत्तनिकाचितावस्थैः कर्मभिरिकाणामुपनीतं ढौकितम्। पुनरपि विशिनष्टिअतीव दुःखमसातावेदनीयः धर्मः स्वभावो यस्य तत्तथा, तस्मैिश्चैवविधे स्थाने स्थितोऽसुमान् अन्दुषु निगमेषु देह विहत्य प्रक्षिप्य च यथा
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________________ णरग 1921 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग शिरश्च' से 'तस्यनारकस्य वेधेन रन्ध्रोत्पादनेनाऽभितापयन्तीति // 21 // अपि चछिंदंति बालस्स खुरेण नक्कं, उठे वि छिंदंति दुवे वि कन्ने / जिब्भं विणिकस्स विहत्थिमित्तं (वितस्ति-वसतिभरत-कातर-मातुलिङ्ग हः / / 8 / 1 / 214 / / ), तिक्खाहि सूलाहिऽभितावयंति॥२२॥ (छिदंति बालस्सेत्यादि) ते परमाधार्मिकाः पूर्वदुश्चरितानि स्मरयित्वा बालस्याज्ञस्य निर्विवेकस्य प्रायशः सर्वदा वेदनासमुद्धातोपगतस्य क्षुरप्रेण नासिकां छिन्दन्तिा तथोष्ठावपि, द्वावपि कर्णी छिन्दन्ति, तथा मद्यमांसरसाभिलिप्सोम॒षा भाषिणो जिहां वितस्तिमात्रामाक्षिप्य तीक्ष्णाभिः शूलाभिरमितापयन्त्यपनयन्ति / / 22 // तथाते तिप्पमाणा तलसंपुडं व, राइंदियं तत्थ थणंति बाला। गलंति ते सोणियपूयमंसं, पञ्जोइया खारपइद्धियंगा।॥ 23 // (ते तिप्पमाणेत्यादि) ते छिन्ननासिकौष्ठजिह्वाः सन्तः शोणितं तिप्यमानाः क्षरन्तो यत्र यस्मिन् प्रदेशे रात्रिन्दिवं गमयन्ति, तत्र बाला अज्ञास्तालसंपुटा इव पवनेरितशुष्कतालपत्रसंचया इय सदा स्तनन्ति दीर्घविस्वरमाक्रन्दन्तस्तिष्ठन्ति / तथा प्रद्योतिता वहिना ज्वलिताः, तथा क्षारण प्रदिग्धाङ्गाः शोणितं पूर्व मांसंच अहर्निशं गलन्तीति // 23 // किशजइ ते सुता लोहितपूअपाई, बालागणीतेअगुणा परेणं। कुंभी महंताऽहियपोरिसीया, समूसिता लोहियपूयपुण्णा / / 24 // (जइ ते सुता इत्यादि) पुनरपि सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य भगवद्वचनमाविष्करोति-यदि ते त्वया श्रुता आकर्णिता, लोहितं रुधिरं पूयं रुधिरमेव पक्वं, ते द्वे अपि पक्तुं शीलं यस्यां सा लोहितपूयपाचिनी कुम्भी। तामेव विशिनष्टिबालोऽभिनवः प्रत्यग्रोऽग्निस्तेन तेजोऽभितापः स एव गुणो यस्याः सा बालाग्नितेजोगुणा, परेण प्रकर्षण तप्तेत्यर्थः। पुनरपि तस्या एव विशेषणम्- महती बृहत्तरा (अहियपोरिसीयं ति) पुरुषप्रमाणाधिका समुच्छ्रि-तोष्ट्रिकाऽऽकृतिरूवं व्यवस्थिता, लोहितेन पूयेन च पूर्णा सैवंभूता कुम्भी समन्ततोऽग्निना प्रज्वलिता अतीव वीभत्सदर्शनेति भावः / / 24 // (50) तासु च यत् क्रियते तद्दर्शयितुमाहपक्खिप्प तासु पवयंति बाले, अट्टस्सरे ते कलुणं रसंते। तण्हाइया ते तउयं च तत्तं, पजिजमाणाऽऽट्टतरं रसंति।।२५ // (पक्खिप्प इत्यादि) तासु प्रत्यग्निना दीप्तासु लोहितपूयशरीरावयवकिल्विषपूर्णासुदुर्गन्धासु च बालान्नारकॉस्त्राणरहितानार्त-स्वरान् करुण दीनं रसतः प्रक्षिप्य प्रपचन्ति, ते च नारकास्तथा कदर्यमाना विरसमाक्रन्दन्तः तृषार्ताः सलिलं प्रार्थयन्तो मद्यं ते अतीव प्रियमासीदित्येवं स्मरयित्वा तप्तं त्रषुपाय्यमाना आर्ततरं रसन्तिरारटन्तीति॥ 25 // उपसंहारमाहअप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता, भवाहमे पुव्वसते सहस्से / चिट्ठति तत्था बहु कूरकम्मा, जहा कडं कम्म तहा सि भारे / / 26 // (अप्पेणेत्यादि) इहाऽस्मिन् मनुष्यभवे आत्मना परवञ्चनप्रवृत्तेन स्वत एव परमार्थत आत्मानं वञ्चयित्वा अल्पेन स्तोकेन परोपघातसुखेन आत्मानं वञ्चयित्वा बहुशो भवानां, मध्ये अधमा भवाधमा मत्स्यबन्धकलुब्धकाऽऽदीनां भवास्तान् पूर्वजन्मसुशतसहस्रशः समनुभूय तेषु भवेषु विषयोन्मुखतया सुकृतपराङ्मुखत्वेन वाऽवाप्य महाघोरमतिदारुण नरकवासंतत्र तस्मिन् मनुष्याः क्रूरकर्माणः परस्परतो दुःखमुदीरयन्तः प्रभूतं कालं यावत्तिष्ठन्ति। अत्र कारणमाह-यथा पूर्वजन्मसु यादृग्भूतेन अध्यवसायेन जधन्यजघन्यतराऽऽदिना कृतानि कर्माणि, तथा तेनैव प्रकारेण (से) तस्य नारकजन्तोर्भारा वेदनाः प्रादुर्भवन्ति स्वतः, परतः, उभयतो वेति। तथाहि-मांसादाः स्वमांसान्येवाग्निना प्रताप्य भक्षन्ते, तथा मांसरसपायिनो निजपूयरुधिराणि तप्तत्रपूणीव पाय्यन्ते, तथा मत्स्यघातकलुब्धकाऽऽदयस्तथैव छिद्यन्ते भिद्यन्ते यावन्मार्यन्ते, तथाऽनृतभाषिणां तत्स्मारयित्वा जिह्वाश्चेच्छिद्यन्ते, तथा पूर्वजन्मनि परकीयद्रव्यापहारिणामङ्गोपाङ्गान्यपह्रियन्ते, तथा पारदारिकाणां वृषणच्छेदः शाल्मल्युपगूहनाऽऽदि चतैः कार्यन्ते। एवं महापरिग्रहाऽऽरम्भवतां क्रोधमानमायालोभिनां चजन्मान्तरस्वकृतक्रोधाऽऽदिदुष्कृतस्मारणेन तादृगविधमेव दुःखमुत्पाद्यत इति कृत्वा सुष्टुच्यते तथाविधं कर्म तादृविधभूत एव तेषां तत्कर्मविपाकाऽऽदितो भार इति॥२६॥ तत्र किशान्यत्समन्जिणित्ता कलुसं अणज्जा, इटेहि कंतेहि य विप्पहूणा। ते दुब्भिगंधे कसिणे अफासे, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति / / 27 / / (समञ्जिणित्ता इत्यादि ) अनार्या अनार्यकर्मकारित्वाद् हिंसाऽनृतस्ते याऽऽदिभिराश्रवद्वारैः कलुषं पापं समा शुभकर्मोपचयं कृत्वा, ते कू रकणिो दुरभिगन्धे नरके आवसन्तीति संटङ्कः / किंभूताः ?- इटैः शब्दाऽऽदिभिर्विषयैः कान्तैः कमनीयैः
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________________ णरग 1922 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरग विविधं प्रकर्षेण हीना विप्रमुक्ता नरके वसन्ति, यदि वा यदर्थ कलुषं हंता गोयमा! समर्जयन्ति, तैर्मातापुत्रकलत्राऽऽदिभिः कान्तैश्च विषयैर्विप्रमुक्ता इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तहेव जाव एकाकिनस्ते दुरभिगन्धेन कुथितकलेवरातिशायिनि नरके कृत्रने महावेयणतरका चेव, एवं० जाव अहे सत्तमाए। संपूर्णेऽत्यन्ताशुभस्पर्श एकान्तोद्वेजनीये शुभकर्मापगताः (कुणिमे त्ति) इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयमांसपेशीरुधिरपूयान्त्रफि फिसकल्मषाऽऽकुले सर्वा मेध्याधमे सहस्सेसु एकमेकसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे वीभत्सदर्शने हाहाऽऽरवाऽऽकन्देन कष्टं मा तावदित्यादिशब्दाव जीवा सव्वे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए० जाव वणस्सइकाइयत्ताए धीरितदिगन्तराले परमाधमे नरकाऽऽवासे आ समन्तादुत्कृष्टत णेरइयत्ताए उववन्नपुव्वा ? खयस्त्रिशत्सागरोपमाणि यावद्यस्यां वा नरकपृथिव्यां यावदायु हंता गोयमा ! असई, अदुवा अणंतखुत्तो, एवं० जाव अहे स्तावद्वसन्ति तिष्ठन्ति। (नैरयिकानामुद्वर्तना' उव्वटणा ' शब्दे 111 पृष्ठे द्वितीयभागे, उपपातश्च ' उववाय ' शब्दे 625 पृष्ठे उक्तः / सत्तमाए पुढवीए, णवरं जत्थ जत्तिया णरगा / नैरयिकविषयादुद्गर्त्य तीर्थकृत्त्वाऽऽदिलाभः, अन्तक्रियाच अंतकिरिया' (इमीसे णं इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति शब्दे प्रथमभागे 56 पृष्ठे द्रष्टव्याः) नरकावासशतसहस्रेषु एकै कस्मिन् नरकाऽऽवासे सर्वे प्राणा द्वीन्द्रि(५१) संप्रति नरकेषु पृथिव्यादिस्पर्शस्वरूपमाह याऽऽदयः सर्वे भूता वनस्पतिकायिकाः, सर्वे सत्त्वाः पृथिव्यादयः सर्वे जीवाः पञ्चेन्द्रियाऽऽदयः। इमीसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया के रिसयं पुढवी उक्तंचफासं पचणुब्भवमाणा विहरंति ? "प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ताः, भूताश्च तरयः स्मृताः। गोयमा ! अणिट्ठ० जाव अमणामं एवं० जाव अहे सत्तमाए। जीवाः पश्शेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः।। 1 / / '' इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया के रिसयं आउ पृथिवीकायिकतया अप्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिफार पच्चणुब्भवमाणा विहरंति? कायिकतया नैरयिकतया उपपन्नपूर्वाः / भगवानाह-(हंतेत्यादि) गोयमा ! अणिटुं० जाव अमणामं, एवं० जाव अहे सत्तमाए, हन्तेतिप्रत्यवधारणे / गौतम ! असकृत् अनेकवारम्, अथवाएवं० जाव वणस्सई फासं अहे सत्तमाए पुढवीए। अनन्तकृत्वोऽनन्तान् वारान् संसारस्यानादित्वात् / एवं प्रतिपृथिवि (रयणप्पभेत्यादि)रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! कीदृशं तावद्वक्तव्यम् , यावदधः सप्तमी पृथिवी। नवरं यत्र यावन्तो नरकास्तत्र पृथिवीस्पर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? भगवानाह-गौतम ! (अनिट्ठ तावन्त उपयुज्य वक्तव्याः। अकंतं अप्पियं अमणुण्णं अमणाम) अस्यार्थः प्राग्वत्। एवं प्रतिपृथिवि ___ क्वचिदिदमपि सूत्रं दृश्यतेतावद्वक्तव्यं यावत् तमस्तमायाम् / एवमप्तेजोवायुवनस्पतिस्पर्श " इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरयपरिसामंतेसु ण जे सूत्राण्यपि भावनीयानि / नवरं तेजःस्पर्शउष्णरूपतापरिणतनरक बायरपुढविकाइया० जाव वणस्सइकाइया ते णं भंते ! जीवा महाकुट्यादिस्पर्शः, परोदीरितवैक्रियरूपो वा वेदितव्यः, न तु साक्षाद् कम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महावेयणतरा चेव ? हंता गोयमा ! बादराग्निकायस्पर्शः, तत्राऽसंभवात्। जाव महावेयणतरा चेव, एवं० जाव अहे सत्तमा।" (52) पृथ्वीनां बाहल्याऽऽदि अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकपरिसमन्तेषु नरकाइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए दोचं पुढविं पणिहाय ऽऽवासपर्यन्तवर्तिषु प्रदेशेषु बादरपृथिवीकायिकाः (०जाव वणसव्वमहंतिया बाहल्लेणं, सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु? हंता गोय-मा! स्सइकाइया इति) बादराप्कायिकाः बादरवायुकायिका बादरइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए दोचं पुढविं पाणिहाय० वनस्पतिकायिकास्ते भदन्त ! जीवा महाकर्मतरा एव महत् प्रभूतमजाव सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु ? हंता गोयमा ! सातवेदनीयं कर्म येषां ते महाकर्माणः, अतिशयेन महाकणिो दोचा णं भंते ! पुढवी तचं पुढविं पणिहाय सव्वमहंतिया बाह महाकर्मतराः, चेत्यवधारणे / महाकर्मतरा एव कुत इत्याहल्लेणं पुच्छा ? हंता गोयमा! (महाकिरियतरा एव) महती क्रिया प्राणातिपाताऽऽदिका आसीत्प्राग्जदोघाणं पुढवी० जाव खुड्डिया सव्वंतेसु, एवं एएणं अभिला न्मनि, तद्भवे तु तदध्यवसायानिवृत्त्या येषां ते महाक्रियाः, अतिशयेन महाक्रियतराः" निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीना वेणं. जाव छट्ठिया पुढवी अहे सत्तमि पुढविं पणिहाय० जाव प्रायो दर्शनम्' इति न्यायात् / हेतावत्र प्रथमा। ततोऽयमर्थः-यतो सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु॥ महाकर्मतरा एव / महाक्रियतरत्वमपि कुत इत्याह-महाश्रवतरा एव (53) महाकर्ममया वेदनाश्च महान्त आश्रयाः पापोपादानहेतव आरम्भाऽऽदयो येषाभासीरन ते इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेस जे महाश्रवा अतिशयेन महाश्रवा महाश्रवतराः, चैवेति पूर्ववत् , तदेवं यतो पुढवीकाइया० जाव वणस्सइकाइया ते णं भंते ! जीवा महाकर्मतरा एव, ततो महावेदनतरा एव, नरकेषु क्षेत्रस्वभावजाया महाकम्मतरा चेव, महाआसवतरा चेव, महावेयणतरा चेव ? | अपि वेदनाया अतिदुःसहत्वात् / भगवानाह-गौतम ! (ते
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________________ णरग 1923 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरंग जीवा महाकम्भतरा चेवेत्यादि) प्राग्वत्। एवं प्रतिपृथिवि तावद् वक्तव्यं यावदधः सप्तमी। जी०। (एकैकस्मिन् नरके सर्वे जीवा उपपन्नपूर्वा इति ' उववाय ' शब्दे द्वितीयभागे 680 पृष्ठे चिन्तितम् ) (54) संप्रत्युद्देशकार्थसंग्रद्दणिगाथा: प्राऽऽहपुढविं ओगाहित्ता, नरगा संठाणमेव बाहल्ले। विक्खंभपरिक्खेवो, वण्णो गंधो य फासो य॥१॥ तासे महालयाए, उवमा देवेण होइ कायव्वा। जीवा य पोग्गलाऽवक्कमंति तह सासया निरया // 2 // उववायपरीमाणं, अवहारुचत्तमेव संघयणं / संठाणवण्णगंधा, फासा ऊसासमाहारे / / 3 / / लेस्सा दिट्ठी णाणे, जोगुवओगे तहा समुग्घाए / तत्तो खुहा पिवासा, विउव्वणा वेयणा य भए।। 4 / / उववाओ पुरिसाणं, ओवम्म वेयणाएँ दुविहाए! ठिइ उव्वट्टण फासो, उववाओ सव्वजीवाणं // 5 // आसामक्षरमात्रगमनिका-(पुढवीओ इति) पृथिव्य अभिधेयाः / तद्यथा-(कइण भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? इत्यादि) तदनन्तरम् / (ओगाहित्ता नरगा इति) यस्यां पृथिव्यां यदवगाह्य यादृशाश्च नरकाः, तदभिधेयम् (इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहित्ता ? इत्यादि) ततो नरकाणां संस्थानम् , ततो बाहल्यं, तदनन्तरं विष्कम्भपरिक्षेपौ, ततो वर्णः, ततो गन्धः, तदनन्तरं स्पर्शः, ततस्तेषां नरकाणां महत्तायामुपमा देवेन भवतिकर्तव्या, ततो जीवाः पुद्गलाश्च तेषु नरकेषु व्युत्क्रामन्तीति, तथा शाश्वताश्च नरका इति वक्तव्यं, तत उपपातो वक्तव्यः। तद्यथा-(इमीसेणं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए कतो उववजंति ? इत्यादि) तत एकसमयेनोत्पद्यमानानां परिमाण, ततोऽपहारः, तत उच्चत्वं, तदनन्तर संहननं, ततः स्थानं, ततो वर्णः, तदनन्तरं गन्धः, ततः स्पर्शः, तत उच्छ्वासवक्तव्यता, तदनन्तरमाहारः, ततो लेश्या, ततो दृष्टिः, तदनन्तरं ज्ञानं, ततो योगः, तत उपयोगः, तदनन्तरं समुद्धातः, ततः क्षुत्पिपासे, ततो विकुर्वणाः / तद्यथा-(रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउव्वत्तए पहुत्तं पभू विउव्वत्तए इत्यादि) ततो वेदना, ततो भयं, तदनन्तरं पुरुषाणां पञ्चानामधः सप्तम्यामुपपातः, तत औपम्य वेदनाया द्विविधायाः, शीतवेदनाया उष्णवेदनायाश्चेत्यर्थः। ततस्तत्स्थितिर्वक्तव्या, तदनन्तरमुद्वर्तना, ततः स्पर्शः पृथिव्यादिस्पर्शी वक्तव्यः, ततः सर्वजीवानामुपपातः। तद्यथा(इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वे भूया इत्यादि) जी०३ प्रति० 2 उ०। (55) पुद्गलपरिणामःइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया के रिसयं पुग्गलपरिणामं पचणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुं० जाव अमणाम, एवं० जाव अहे सत्तमाए एवं णेयव्वं / (रयणप्पभेत्यादि) रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! कीदृशं पुद्गलपरिणाममाहाराऽदिपुद्गलविपाकं प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति ? भगवानाह-गौतम! अनिष्टमित्यादि प्राग्वत्, एवं प्रतिपृथिवि तावद् वक्तव्यं, यावदधः सप्तमी / एवं वेदनालेश्यानामगोत्रारतिभयशोकक्षुत्पिपासाव्याध्युछवासानुतापक्रोधमानमायालोभऽऽहारमैथुनपरिग्रहसंज्ञासूत्राणि वक्तव्यानि। अत्र संग्रहणीगाथेपोग्गलपरिणामं वेयणा य लेसा य णामगोएय। अरई भए य सोए, खुहा पिवासा य वाही य / / 1 / / उस्सासे अणुताये, कोहे माणे य माएँ लोभे य। चत्तारि य सन्नाओ, नेरइयाणं तु परिणामा।।२।। (56) संप्रति सप्तमनरकपृथिव्यां ये गच्छन्ति, तान् प्रतिपादयतिएत्थ किर अतिवतंती, गरवसभा केसवा जलयरा य। मंडलिया रायाणो, जे य महारंभ कोडंबी॥३।। (एत्थ किरेत्यादि) इह परिग्रहसंज्ञापरिणामवक्तव्यतायां चरमसूत्रं सप्तमनरकपृथिवीविषयं, तदनन्तरं च इयं गाथा, तत " एत्थ" इत्यनन्तरमुक्ताधः सप्तमी पृथिवी परामृश्यते / तत्र अधः सप्तमनरकपृथिव्यां, किलेत्याप्तवादस्तवने, आप्तवचनमेतदिति भावः / अतिव्रजन्ति अतिशयेन बाहुल्येन गच्छन्ति, नरवृषभाः केशवा वासुदेवा जलचराश्च तन्दुलमत्स्यप्रभृतयो, मण्डलिका वसुप्रभृतय इव, राजानश्चक्रवर्तिनः सुभूमाऽऽदय एव, ये च महारम्भाः कुटुम्बिनः कालसौकरिकाऽऽदय इव / / 3 // संप्रति नरकेषु प्रस्तावात् तिर्यगादिषु चोत्तरवैक्रि यावस्थानकालमानमाहमिन्नमुहुत्तो नरए-सु तिरियमणुएसु होइ चत्तारि। देवेसु अद्धमासो, उक्कोसविउव्वणा भणिया।। 4 / / (भिन्नमुहुत्तो निरएसु इत्यादि) भिन्नः खण्डो मुहूर्तो भिन्नमुहूर्तः, अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः / नरकेषूत्कर्षतो विकुर्वणा स्थितिकालः, तिर्यमनुष्येषु चत्वारि, अन्तर्मुहूर्तानि देवेष्वर्द्धमासः, उत्कर्षतो विकुवणाऽवस्थानकालो भणितः तीर्थकरगणधरैः / / 4 / / संप्रति नरकेषु आहाराऽऽदिस्वरूपमाहजे पोग्गला अनिट्ठा, णियमा सो तेसिँहोइ आहारो। संठाणं पिय तेसिं, नियमा हुंडं तु णायव्वं / / 5 / / (जे पोग्गलेत्यादि) ये पुद्गला अनिष्टाः नियमात स तेषां भवत्याहारः, संस्थानं तु संस्थानं पुनः हुण्ड हुण्डमपि जघन्यमतिनिकृष्ट वेदितव्यम् / एतच भवधारणीयशरीरमधिकृत्य वेदितव्यम् , उत्तरवैक्रियसंस्थानस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वात्। इयं च प्रागुक्तार्थसंग्रहगाथा, ततो न पुनरुक्तदोषः / / 5 // संप्रति विकुर्वणास्वरूपमाहअसुभा विउव्वणा खलु, नेरइयाणं तु होइ सव्वेसिं। वेउव्वियं सरीरं, संघयणं हुंडसंठाणं // 6 //
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________________ णरग 1924 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णरग सर्वेषां नैरयिकाणां विकुर्वणा खलु निश्चितमशुभा भवति / यद्यपि शुभं विकुर्वणेयं चिन्तयति, तथाऽपि तथाविधप्रतिकूलको दयतस्तेषामशुभैव विकुर्वणा भवति, तदपि च वैक्रियमुत्तरवैक्रियं शरीरमसंहननम् , अस्थ्यभावात् , उपलक्षणमेतत् , भवधारणीयं च वैक्रियशरीरं च संहननं, तथा हुण्डसंस्थानं तत उत्तरवैक्रियं शरीर हुण्डस्थाननाम्न एव भवप्रत्यय उदयभावात्॥६॥ अस्साओ उववन्नो, अस्साओ चेव जहइ निरयभवं / सव्वपुढवीसु जीवा, सव्वेसु ठिई विसेसेसु॥७॥ (अस्साओ उववण्णो इत्यादि) कश्चिद् जीवः सर्वास्वपि पृथिवीषु रत्नप्रभाऽऽदिषु तमस्तमापर्यन्तासु, सर्वेष्वपि च स्थितिविशेषेषु जघन्याऽऽदिरूपेषु असातोऽसातोदयकलित उपपन्न उत्पत्तिकालेऽपि प्राग्भवमरणकाले भूतमहादुःखानुवृत्तिभावात् , उत्पत्त्यनन्तरमपि असात एवासातोदयकलित एव, सकलमपि निरयभव (जहइ) त्यजति क्षपयति, न तु जातुचिदपि सुखलेशमप्यास्वादयति / आह-किं तत्र कदाचित् सातोदयोऽपि भवति येनैवमुच्यते? उच्यते-भवति॥७॥ तथा चाऽऽहउववाएण च सातो, नेरइओ देवकम्मुणा वा वि। अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेण / / 8 // (उववाएणेत्यादि)" उववाएणं " इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, उपपातकाले सातं सातवेदनीयकर्मोदयं कश्चिद्वेदयते, यः प्राग्भवे दाहच्छेदाऽऽदिव्यतिरेकेण मरणमुपगतोऽनतिसंक्लिष्टाध्यवसायी समुत्पद्यते, तदा न हि तस्य प्राग्भवानुबद्धमाधिरूपं दुःखं, नाऽपि क्षेत्रस्वभावजं, नाऽपि परमाधार्मिककृतं, नाऽपि परस्परोदीरितम् / तत एवंविधदुःखाभावादसौसातं वेदयते इत्युच्यते। (देवकम्मुणा वा वि इति) देवकर्मणा पूर्वसामन्तिकदेवप्रयुक्तया क्रियया / तथाहि-गच्छति पूर्व सामन्तिको देवः, पूर्वपरिचितस्य नैरयिकस्य वेदनोपशमनार्थ, यथा बलदेवकृष्णवासुदेवस्य। स च वेदनोपशमो देवकृतो मनाक् कालमात्र एव भवति।तत ऊर्द्धनियमात् क्षेत्रस्वभावजा, अन्या वा वेदना प्रवर्तते, तथास्वभाव्यात् / (अज्झवसाणनिमित्तमिति) अध्यवसाननिमित्तं सम्यक्त्वोत्पादकाले, तत ऊर्ध्व वा कदाचित् तथाविधिविशिष्टशुभाध्यवसायप्रत्ययं कश्चिन्नैरयिको बाह्य क्षेत्रस्वभावजवेदनासद्भावेऽपि सातोदयमेवानुभवति, सम्यक्त्वोत्पादकाले हि जात्यन्धस्य चक्षुभि इवमहान् प्रमोद उपजायते, तदुत्तरकालमपि कदाचित् तीर्थकरगुणानुमोदनाऽऽद्यनुगतां विशिष्टां भावनां भावयतः, ततो बाह्यक्षेत्रस्वभावजवेदनासद्भावेऽप्यन्तःसातोदयो विजृम्भमाणो न विरुध्यते / (अहवा कम्माऽणुभावेणमिति) अथवा कर्मानुभावेन बाह्यतीर्थकरजन्मदीक्षाज्ञानापवर्गकल्याणसंभूतिलक्षणसंज्ञानिमित्तमधिकृत्य तथाविधस्य सातवेदनीयस्य कर्मणोऽनुभावेन विपाकोदयेन कश्चित् सातं वेदयते / न चैतद् व्याख्यानमनार्यम् / यत उक्तं वसुदेवचरिते-इह नैरयिकाः कुम्भ्यादिषु पच्यमानाः कुन्ताऽऽदिभिर्भिद्यमाना वा भयोत्त्रस्तास्तथाविधप्रयत्नवशादूर्ध्वमुत्प्लवन्ते।। 8 / / ततस्तदुत्पातपरिमाणप्रतिपादनार्थमाहनेरइयाणुप्पाओ, उक्कोसं पंचजोयणसयाई। दुक्खेणऽभियाणं, वेयणसतसंपगाढाणं / / 6 / / (नेरइयाणुप्पाओ इति) नैरयिकाणां दुःखेनाऽभिद्रुतानां सर्वाऽऽत्मना व्याप्ताना वेदनाशतसंप्रगाढाना वेदनाशतानि अपरिमिता वेदनाः संप्रगाढानि अवगाढानि येषां ते वेदनाशतसंप्रगाढाः। सुखाऽऽदिदर्शनाद् निष्ठान्तस्य परनिपातः / तेषां, हेतुहेतुमद्भावश्चात्रयतो वेदनाशतसंप्रगाढाः ततो दुःखेनाऽभिदुताः। तेषां जघन्यत उत्पातो गव्यूतमात्रम्, एतच संप्रदायादवसीयते, तथा च दृश्यते क्वचिदेवमपि पाठः-" नेरइयाणुप्पाओ, गाउयउक्कोसपंचजोयणसयाई। " इति / उत्कर्षतः पञ्चयोजनशतानि दुःखेनाऽभिहतानामित्युक्तम् // 6 // ततो दुःखमेव निरूपयतिअच्छिनिमीलणमेत्तं, नत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं / नरए नेरझ्याणं, अहोनिसं पचमाणाणं / / 10 / / अतिसीयं अतिउण्हं, अइतण्हा अइखुहा अइभयं च। नरए नेरइयाणं, दुक्खसताई अविस्सामं / / 11 // (अच्छिनिमीलणमेत्तमित्यादि) नरके नैरयिकाणामुष्णवेदनायाः शीतवेदनाया वा अहर्निशं पच्यमानानां नाऽक्षिनिमीलनमात्रमपि अक्षिनिकोचकालमात्रमपि अस्ति सुखं, किं तु दुःखमेव केवलं प्रतिबद्धमनुबद्ध, सदाऽनुगतमिति भावः / / 10 // 11 // अथ यत्तेषां वैक्रियशरीरं तत्तेषां मरणकाले कथं भवतीति निरूपणार्थमाहतेयाकम्मसरीरा, सुहुमसरीरा य जे अपञ्जत्ता। जीवेण विप्पमुक्का, वचंति सहस्ससो भेदं / / 12 / / (तेयाकम्मेत्यादि) तैजसकार्मणशरीराणि यानि सूक्ष्मशरीराणि सूक्ष्मनामकर्मोदयवतां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि वैक्रियाऽऽहारकशरीराणि च तेषामपि प्रायो मांसचक्षुरग्राह्यतया सूक्ष्मत्वात् , तथा यानि अपर्याप्तानि अपर्याप्तशरीराणि, तानि जीवेन मुक्तमात्राणि सन्ति सहस्रसो भेदं व्रजन्ति; विशक लितास्तत्परमाणुसकाता भवन्तीत्यर्थः / / 12 / / एतासामेव गाथानां संग्राहिका गाथामाहएत्थ य भिन्नमुहुत्तो पुग्गल असुभा य होइ अस्साओ! उववाओ उप्पाओ, अत्थिसरीराय नायव्वा / / 13 / / (एत्थय भिन्नेत्यादि) प्रथमा गाथा (एत्थ) इतिपदोपलक्षिता। द्वितीया(भिन्नमुहत्तो इति) तृतीया-(पोग्गला इति) (जे पोग्गला अनिट्ठा इत्यादि) चतुर्थी-(असुभा इति) (असुभा विउव्यणा खलु इत्यादि) एवं शेषपदान्यपि भावनीयानि // 13 // जी०३ प्रति०३ उ०। (स्त्रीणा सप्तमनरकपृथिवीगमनविचारः' इथिलिंगसिद्ध शब्दे द्वितीयभागे 561 पृष्ठे गतः) सुया मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई। बालाणं कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा / / 12 // 'मे' मया नरके स्थानानि श्रुतानि, या गतिर्नरकाऽऽदि अशीलाना गतिर्विद्यते / यत्र यस्यां गतौ कू रकर्मणां बालानां मूर्खाणाम् आत्महितविध्वंसकानां प्रगाढा वेदनाऽस्ति।।१२।। उत्त०५ अन
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________________ परग 1925 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरगविभत्ति विषयसूची(१) नरकनिक्षेपः। (2) सप्तनरकपृथिवीनामानि / (3) पृथ्वीनामगोत्रनिरूपणम्। (4) प्रतिपृथिवि बाहल्यप्ररूपणम्। (5) त्रिविधकाण्डप्रतिपादनम्। (6) तत्र खरकाण्डवक्तव्यता। (7) रत्नकाण्डविचारः। (8) प्रतिपृथिवि नरकावाससंख्यासंख्यानम्। (9) प्रतिपृथिवि घनोदध्यस्तित्वप्ररूपणा। (10) रत्नकाण्डबाहल्याऽऽख्यानम् / (11) पङ्कबहुलकाण्डवक्तव्यता। (12) अब्बहुलकाण्डस्य बाहल्यम्। (13) घनोदधिघनवातयोहिल्यम्। (14) क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानायाः पृथिव्या द्रव्याणां वर्णगन्धरसस्पर्शसं स्थानवर्णनम्। (15) खरकाण्डाऽऽदीनां बाहल्यवर्णाऽऽदिप्ररूपणम् / (16) पङ्कबहुलकाण्डाऽऽदीनां बाहल्यवर्णाऽऽदिनिरूपणम्। (17) रत्नप्रभाऽऽदीनां संस्थानप्रतिपादनम्। (18) लोकन्तादबाधा। (16) रत्नप्रभापृथिव्यादीनामधो गृहाऽऽदिसत्तानिराकरणम् / (20) अमूनि रत्नप्रभाऽऽदीनामपान्तरालानि घनोदध्यादिव्याप्तानि, तत्र कस्मिन्नपान्तराले कियान् घनोदध्यादिरिति प्रतिपादनम्। (21) घनोदधिबलयस्य तिर्यग्बाहल्यमानम्। (22) घनवातवलयस्य तिर्यग्बाहल्यपरिमाणप्रतिपादनम्। (23) तनुवातवलयस्य तिर्यग्बाहल्यपरिमाणनिरूपणम्। (24) एष्वेवघनोदध्यादिबलयेषु क्षेत्रच्छेदेन कृष्णवर्णाऽऽद्युपेतद्रव्या स्तित्वप्ररूपणम्। (25) पृथ्वीनामायामविष्कम्भी। (26) पृथ्व्यः समा अन्तर्बहिर्वा / (27) पृथिवीषु जीवाः सर्वत्र उपपन्नपूर्वाः। (28) सर्वे जीवाः पृथ्वीषु प्रविष्टपूर्वाः। (26) त्यक्तपूर्वाः सर्वे पुद्गलाः। (30) रत्नप्रभायाः शाश्वतत्वाशाश्वतत्वविचारः / (31) रत्नप्रभायाः कालस्थितिः / (32) पृथिव्यो बाहल्येन तुल्याः। (33) यस्यां पृथिव्यां यस्मिन् प्रदेशे नरकाऽऽवासास्तत्प्रतिपादनम्। (34) नरकवर्णकः। (35) नरकावाससंस्थानविवरणम्। (36) अधःसप्तमीविषयं संस्थानवर्णनम्। (37) नरकावासाना बाहल्यप्रतिपादनम्। (38) नरकावासानामायामविष्कम्भप्ररूपणम् / (36) नरकावासानां वर्णप्रतिपादनम्। (40) तत्र गन्धविवेकः। (41) तथा स्पर्शप्ररूपणम्। (42) नरकावासानां महत्त्वाभिधानम्। (43) नरका यन्मयास्तत्प्ररूपणम्। (44) नरका यत्प्रतिष्ठितास्तत्प्रतिपादनम् / (45) नरकदुःखवर्णनम्। (46) तत्र गतानां यादृशी वेदना प्रादुर्भवति तन्निरूपणम्। (47) दशविधवेदनावर्णनम्। (48) नरकवर्तिनां नारकाणां वेदनानुभवस्य प्रतिपादनम्। (46) नारका भयोद्धान्ता दिक्षु नष्टा यदनुभवन्ति तत्प्ररूपणम्। (50) कुम्भ्यादिषु यत् क्रियते तत्प्रदर्शनम्। (51) नरकेषु पृथिव्यादिस्पर्शस्वरूपनिरूपणम्। (52) पृथ्वीनां बाहल्याऽऽदिप्ररूपणम्। (53) महाकर्ममया वेदनाः। (54) पूर्वोक्तार्थप्रतिपादिकाः संग्रहगाथाः। (55) पुद्गलपरिणामः। (56) सप्तमनरकपृथिव्यां ये गच्छन्ति तेषां प्रतिपादनं, तत्प्रस्ता वादाहारविकुर्वणातदुत्पातपरिमाणाऽऽदिनिरूपणम् / णरगगइस्त्री०(नरकगति)नृणन्ति विवेकमासाद्य नयधर्मपरा भवन्तीति नरा मनुष्याः, तेषु विषये गतिर्नरकगतिः (कर्म०) नरानुपलक्षणत्वात्तिरश्चोऽपि प्रभूतपापकारिणः कायन्तीवाऽऽहृयन्तीवेति नरका नरकावासाः, तत्रोत्पन्ना जन्तवोऽपि नरकाः, नरको वा विद्यते येषां ते" अभाऽऽदिभ्यः " / 7 / 2 / 46 / (हैम०) इत्यप्रत्यये नरकाः,तेषु विषये गतिर्नरकगतिः / गतिभेदे, कर्म० 4 कर्म०। आव० / णरगछिद्द त्रि०(नरकछिद्र) नरकगतिनिवारके, अष्ट० 20 अष्ट०। गरगजायणा स्त्री(नरकयातना) नरकेषुदुःखभोगे, नरकपीडायाम् (उत्त०) "प्रदीप्ताङ्गारकल्येषु, वज्रकुण्डेष्वसन्धिषु। कूजन्तः करुण केचिद् , दह्यन्ते नरकाग्निना / / 1 / / अग्निभीताः प्रधावन्तो, गत्वा वैतरणी नदीम्। शीततोयामिमां ज्ञात्वा, क्षाराम्भसि पतन्ति ते॥२॥ क्षारदन्धशरीराश्च, मृगवेगोत्थिताः पुनः। असिपत्रवनं यान्ति, छायायां कृतबुद्धयः / / 3 / / शक्त्यसिप्रासकुन्तैश्च, खड्गतोमरपट्टिशैः। छिद्यन्ते कृपणास्तत्र, पतद्भिर्वातकम्पितैः / / 4 // " उत्त० 3 अ०। णरगतिग न०(नरकत्रिक) नरकगति-नरकानुपूर्वी-नरकायुस्स्वरूपे नरकत्रये, कर्म०३ कर्म०। पं० सं०। णरगपुढवी स्त्री०(नरकपृथिवी) रत्नप्रभाऽऽद्यासु पृथिवीषु, उत्त०३६ अ०। प्रव०। णरगवाल पुं०(नरकपाल) पञ्चदशप्रकारे परमाधार्मिके, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। णरगविभत्ति स्त्री०(नरकविभक्ति) नरकाणां विभागो विभजनं विभक्तिः / नरकप्रविभागे, तदर्थप्रतिपादके सूत्रकृतः प्रथम श्रुतस्कन्धस्य पञ्चमेऽध्ययने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। आ० चू० / स०।"पुढवीफासं अण्णाणुवक्कम णिरयवालवहणं च / तिसु वेदंति अताणा, अणुभग्गं
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________________ णरगविभत्ति 1926 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरसुंदर चेव सेसासु / / 67 // " सूत्र०नि०१ श्रु० 5 अ०१ उ०। (नरकविभक्तिवर्णकः ‘णरग' शब्दे 1904 पृष्ठे गतः) णरगाउन०(नरकायुष ) नारकायुष्के, कर्म०१ कर्मः / णरगावास पुं०(नरकावास) नरकरूपे आवासे, स्था० 8 ठा०। णरगिंद पुं०(नरकेन्द्र) बृहत्त्वात्प्रधानत्वाच्च तथाविधे नरके चतुर्थ्या नरकपृथ्व्यां सप्त नरकेन्द्रकाः। यथोक्तम्-" आरे मारे णारे, तच्छे य.मए य बोधव्ये / क्खोडक्खडे य खडखडे, इंदयनिरया चउत्थीए।।१।।" स्था० 6 ठा०। णरणारीसंपडिवुड त्रि०(नरनारीसंपरिवृत) नरैर्नारीभिश्च समन्तात् परिवृते, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। णरदत्ता स्त्री०(नरदत्ता) श्रीमुनिसुव्रतस्य शासनदेव्याम् , प्रव० 27 द्वार / ती०। परदुगन०(नरद्विक) नरगतिनरानुपूर्वीलक्षणे, कर्म० 3 कर्म० / णरदेवपुं०(नरदेव) नराणां देवाः नरदेवाः / चक्रवर्तिषु, स्था०५ टा०१ उ०।'' पोग्गलपरियट्टद्धं, जं नरदेवंतर सुए भणियं। (805) विशे०। स्वनामख्याते श्रीऋषभदेवपुत्रे, कल्प०७ क्षण। णरभव पुं०(नरभव) ६त० / मनुष्याणां जन्मसु, कर्म० 5 कर्म० / णररुहिर न०(नररुधिर) मनुष्यरुधिरे, तद्धि लोहितवणौत्कटमिति रक्तत्वेनोपमीयते / रा०। णरवइ पुं०(नरपति) राजनि, रा० / दश / औ० / स्था० / आव० / विश्रुते राजनि, प्रश्न०४ सम्ब० द्वार / नरनायके, नरस्वामिनि, स०। औ० / ज्ञा०। णरवइदत्तपयार पुं०(नरपतिदत्तप्रचार) नृपानुज्ञातकामचारे, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०॥ णरवइदिन्नपयारपुं(नरपतिदत्तप्रचार) नृपानुज्ञातकामचारे, ज्ञा० 1 20 16 अ०। णरवरीसरपुं०(नरवरेश्वर) नराणां श्रेष्ठराजानि, " सगरंतंचइत्ता णं, भरह नरवरीसरो।" उत्त० 18 अ० / उत्क्षिप्तकार्ये भारनिर्वाहकत्वात्। स० / णरवसह पुं०(नरवृषभ) नराणां मध्ये गुणैः प्रधानत्वात् (प्रश्न० 4 आश्र० द्वार) धराभारधुरन्धरत्वाद् वृषभकल्पे, कल्प०३ क्षण। णरवाहण पुं०(नरवाहन) स्वनामख्याते भृगुकच्छनरेश्वरे, आव०१ अ० / ती०। आ० म०1 आ० चू० / कुबेरे, वाच०। (सच महाधनः शालिवाहनेन रुद्ध इति पणिहि 'शब्दे वक्ष्यते) णरवाहणा स्त्री० (नरवाहना) कुबेरायां देव्याम् , ती० 8 कल्प। गरविग्गहगइ स्त्री०(नरविग्रहगति) निरयविग्रहगतो, स्था० 10 ठा०। णरवेय पुं०(नरवेद) पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाषे, कर्म० 4 कर्म० / णरसंघाडगन०(नरसंघाटक) नरयुग्मे, जं० 1 वक्ष० / णरसीह पुं०(नरसिंह) शूरत्वात् (प्रश्न० 4 आश्र० द्वार) दुःसहपरा- 1 क्रमत्वात् (कल्प०३ क्षण) विक्रमयोगात् (स०) सिंहत्वोपमिते नरे, शरीरार्द्धतो नरे शरीरार्द्धतः सिंहे च / ज्ञा० 1 श्रु० 16 अ० / विशे०। / मानतुङ्गसूर्यन्ववाये जाते स्वनामख्याते सूरौ, "श्रीदेवानन्दगुरुविक्रमसूरिगुरुश्च नरसिंहः / बोधितसिंहकयक्षः''। ग० 4 अधि०। णरसुंदर पुं०(नरसुन्दर) ताम्रलिप्तीनगरीश्वरे स्वनामख्याते राजनि, (ध०२०) तत्कथा पुनरेवम्" पयडियउदया बहुविह-सत्ता वरकम्मगंथवित्ति व्य। नवर बंधविमुक्का, अस्थि पुरी तामलितीह // 1 // सम्मपरिणयजिणसमय-अमयरसहणियविसयविसपसरो। गिहिवाससिढिलचित्तो, राया नरसुंदरो तत्थ / / 2 / / निरुवमलवणिमरूवा, बंधुमई नाम आसि से भइणी। उजेणिसामिणा सा, अवंतिनाहेण परिणीया।। 3 / / सो तीए अणुरत्तो, आसत्तो मजपाणवसणम्मि। जूयम्मि अइपसत्तो, मत्तो वोलेइ बहुकालं॥ 4 // तम्मि निवम्मि पमत्ते, रज्जे रट्टे विसीयमाणम्मि। रजपहाणनरेहि, सचिवेहि य मंतियं सम्म।। 5 / / पुत्तं ठवेमि रज्जे, मज्जं पाइतु निसि पसुत्तो सो। देवीइ समं नियमा-णुसेहिँउज्जाविओ रन्ने।६।। चेलंघले य बद्धो, लेहोऽणागमणसूयगो तस्स। अह गोसे पडिबुद्धो, जा दिसिचक्कं नियइ सया।।७।। हरिहरिणरुद्दसर्दू-लसंकुलं सव्वओ पिता रन्नं। तं लेहं च निरिक्खिय, सविसाओ भणइ इय दइयं / / 8 / / ओ पिच्छ पिच्छु पावा- ताण सामंतमंतिपमुहाणं! तह तह उवयरियाणं, वियरियगुरुदाणमाणाणं / / 6 / / निचंगुरुगुरुतरबहु-पसायपावियपसिद्धिरिद्धीणं। अवराहपए वि सया, सिणिद्धदिट्टीइ दिहाणं / / 10 / / अविभिन्नरहस्साणं, संसइयत्थेसुपुच्छिणिजाणं। नियकुलकमाणुरूवं, चिट्ठियमेवंविहं सुयणु! // 11 // इय विरसं जंपतो, अविभावियदुट्ठदिव्वपरिणामो। राया बंधुमईए, सुजुत्तिजुत्तं इमं वुत्तो / / 12 // किं चिंतिएण सामिय ! विहलीकयसयलपुरिसयारस्स। अघडतघडणरुइणो, हयविहिणो विलसिएणिमिणा? // 13 // लहु पहु ! चयसु विसायं, गच्छामो तामलित्तिनयरीए। नरसुंदरनरनाह, पिच्छामो तत्थ सप्पणयं / / 14 / / रन्ना पडिवन्नमिणं, गंतु पयट्टाइँताइँ तो कमसो। पत्ताइँ तामलित्ती, पुरी समीवट्ठउजाणे / / 15 / / अह बंधुमई जंपई, इहेव चिट्ठेसु सामि ! खणमेगं। तुह आगमणं गंतूण भाउणो जाव साहेमि।। 16 / / कह कह वि होउ एवं, ति जंपिए नरवरेण अह पत्ता। निविडपडिबंधबंधुर-बंधवगेहम्मि बंधुमई॥१७॥ तस्थ य महंतसाम-तविंदसेविजमाणपयजुयलो। पासट्ठियपणतरुणी-करचालियचामरुप्पीलो॥ 18 // जय जीव जीव इय से-वगेहिंवुचंतओ य पइवयणं। सिंघासणोवविठ्ठो, दिवो नरसुंदरो तीए।। 16 / /
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________________ णरसुंदर 1927 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरिंदसमणी तेण वि विम्हियमणसा, भगिणी अवितक्कियागया दटुं। उचियपडिवत्तिपुव्वं, पुट्ठा सयलं पि वुत्तंतं / / 20 / / तो तीइ वि सो कहिओ, उज्जाणे जाव चिट्ठइ निवृत्ति / सव्विड्डीइतओ सो,तयभिमुहं पट्ठिओ झत्ति / / 21 // सो पुण अवंतिणाहो, अइगाढछुहाइ पीडिओ तझ्या। वालुंकिडक्खणत्थं, एगम्मि अचिग्भिमीकच्छे।। 22 / / अवदारेण चोरु, व्य पविसमाणो स कत्थ यनरेण। मम्मपएसम्मि हओ, मुट्ठीए तह य लट्ठीए।। 23 // निट् ठुरपहारविहुरो, पलायमाणो तओ इमो तुरियं। धरणीवहे पडिओ, निचिट्ठो कट्ठघडिउ व्व।। 24 // इत्तो नरसुंदरनर-वरो विनियविजयरहवरारुढो। भगिणीवइस्सऽभिमुह, तम्मि पएसम्मि संपत्तो / / 25 / / नवरं तरलतुरंगम-निट्टुरखुरखणियरेणुपूरेण। उद्धरतिमिरवंत, व नहयलं तक्खणे जायं / / 26 / / तो दंसणविरहाओ, नरवररहतिक्खचक्रधाराए। तह निवडियस्स कंठो, दुहा कओऽवंतिनाहन्स / / 27 // अह पुव्वुत्तुजाणे, अवंतिनाहं निवो अपिच्छंतो। संभतो भइणीए, वुत्तंतमिमं कहावेइ / / 28 / / हा दिव्व! दिव्व ! किमिअं, ति सममुभंततरलतारच्छी। बंधुमई बंधुगिरं, निसामिउं आगया तत्थ // 26 // तो अवलोयंतीए, पणदुरयणं व निउणदिडीए। कह कहमवि तमवत्थं, संपत्तो तीइ सो दिट्ठो।। 30 / / अह नाउ मयं सपई, गुरुमुग्गरचूरिय व्व सा सहसा। पडिया अतुच्छमुच्छा-निमीलियच्छी महीपीढे। 31 / / पासट्ठियपरियणविहि-यसिसिरउवयारलद्धचेयन्ना। परिमुक्कपिकमुकं, एवं विलवेइ दीणमणा / / 32 // हा हियय ! दइय! पिययम ! गुणनिवहनिवास! पणयकयतोस ! केणं पाविट्टण, एयमवत्थं तुमं नीओ? // 33 // हा नाह ! तायसु मह, विओगवञ्जासणीइ भिज्जतं / हिययं हिययसुहावह ! कीस उविक्खेसि चिरकालं? // 34 // हयदिव्य ! किं न तुट्ठो, रज्जवहारेण देसचाएण। सुहिजणविओयणेण य, जमेयमवि ववसिओ पाव ! / / 35 / / इचाइविलवमाणी, वारिजंती वि बंधवनिवेण / सा णियपइणा सद्धिं, पडिया जालाउले जलणे।। 36 / / अहं निव्वेओवगओ, राया नरसुंदरो विचिंतेइ। अविचिंतणीयरूवा, अहो अणिचा जयस्स ठिई॥ 37 // जत्थ सुही विहु दुहिओ, निवो वि रोरो सुमित्तमवि सत्तू। संपत्ती वि विवत्ती, निमेसमित्तेण परिणमइ // 38 / / कहमहुणा भइणीए, चिरकालाओ समागमो जाओ? कहमिहि पि विओगो, धिरत्थु संसारवासस्स॥ 36 / / अवियजे खलु तिहुयणजणपलय-ताणकरणक्खडा जिणवरिंदा। सयय अणिच्चयाए, उररीकीरति ते वि हहा ! // 40 // रणसवडमुहउब्भड-भिडतरिउसुहड़चक्कअक्कमणे। जे पहुणो ते विखणे-ण चक्किणो जंति हा निहणं / / 41 जे गुरुभुयबलबलभ-दसंगया दलियदक्खपडिवक्खा / ते विहु हरिणो हरिणु, व्व हरेह हा हा कयंतहरी।। 42 // मन्ने करिकन्नसुरि-दचावतडिचावलेन निम्मवियं। इत्थं वत्थुसमत्थं, तेणं खणदिट्ठवटुं ति। 43 / / एवंविहे य ज इह, खणमवि निवसति मुणियपरमत्था। पीसत्था सगिहेसु, अहह महाधिविमा तेसिं॥ 44 / / इय सो विरतचित्तो, संबद्धो विहु घणाइसु कहं पि। भावण अपडिबद्धो, गेहम्मि गमेइ कइ वि दिणे॥ 45 // कालेण नंदणे र-जभारधरणुद्धरे ठविय रज्ज। सिरिसेणगुरुसमीवे, दिक्खं गिण्हइ महीनाहो / / 46 / / वत्थाइसु गामाइसु, समयाइसु कोहमाणमाईसु। दव्वे खित्ते काले, भावे परिमुक्कपडिबंधो।। 47 / / काऊण अणसणं सा-सणं मणे जिणवराण धारंतो। देहे वि अपडिबद्धो, मरिउंगेवे सुरो जाओ।। 46 // तत्तो य उत्तरुत्तर-सुरनरसिरिमणुहवित्तु कइ वि भवे। पव्वजं पडिवज्जिय, सो संपत्तो पयं परमं / / 46 / / श्रुत्वैव, नरसुन्दरस्य चरितं, हेतोगरीयस्तरात्, कस्मादप्यनलंभविष्णुमनसो, दीक्षा गृहीतु द्रुतम्। संबद्धा अपि देहगेहविषय-द्रव्याऽऽदिषु द्रव्यतो, भावेन प्रतिबन्धबुद्धिमसमां, मैतेषु भव्याः ! कृत // 50 // ध० 2074 गाथा // णराअ न०(नाराच) "वाऽव्ययोत्खातादावदातः " | 8 | 1 / 67 / इत्यातोऽन्वम् / ('णाराय ' प्रकरणे वक्ष्यमाणेर्थे) प्रा०१ पाद। णराहिव पुं०(नराधिप) राजनि, उत्त०६ अ०।"कुंथूनाम नराहियो।" उत्त०६अ। णरिंद पुं०(नरेन्द्र) नराणामिन्द्रो नरेन्द्रः / दशा० 10 अ०।" ह्रस्वः संयोगे दीर्घस्य" / 81 / 84 / इति हस्वः / प्रा० 1 पाद / परमैश्वर्ययोगात् (स०। औ०) समस्तभरताधिपे (प्रश्न० 4 आश्र द्वार) राजनि, औ०। चक्रवर्यादौ,ध०२ अधि० आ०म०। उत्त०। प्रजापतौ, व्य०२ उ० ! बृ०। णरिंदप्पह पुं०(नरेन्द्रप्रभ) हर्षपुरीयगच्छोद्भवे ताराचन्द्रसूरिशिष्ये, अनेन अलङ्कारमहोदधिः, काकुत्स्थकेलिश्चेति द्वौ ग्रन्थौ रचितौ। जै० इ०। णरिंदवसह पुं०(नरेन्द्रवृषभ) राजमुख्ये, उत्त० 15 अ०।" एवं नरिंदवसहा, निक्खंता जिणसासणे।" उत्त०६ अ०। परिंदसमणी स्त्री०(नरेन्द्रश्रमणी) मासराजकुलपालितायां श्रमण्याम्, सा चाऽदत्ताऽऽदानेन संसारं पर्यटितेति। सा उण लहिऊण अदत्तादाणगं मासरायकुलवालिया णरिदसमणी गोयमा ! तेणं मायासल्लभावदोसेणं उववन्ना विजुकुमाराणं वाहणत्ताए नउलीरूवेणं किंकरी देवेसु तओ वूया समाणी पुणो पुणो उववज्जंती वावजंती आहिंडियमाणुसतिरियच्छेसु सयलदोहग्गस्स दुक्खदारिद्वपरिगया सव्वलोयपरिभूया सकम्मफलमणुभवमाणी गोयमा ! ०जाव णं कह वि कम्माणं खओवसमेणं बहुभवंतरेसु तं आयरिय य पाविऊण निरइयारसामण्णपरिवालणेणं सव्वत्थामसुं च सव्वए मायालंबणविप्पमुक्केणं तु उज्जमिऊणं निद्दडावसेसीकयभवंकुरे तहा वि गोयमा ! जा सा सरागा चक्खुणाऽऽलोइया तक्कमदोसेणं माहणिच्छित्ताए परिनिव्वुमेणं से रायकुलवालियाणरिंदसमणीजीवे / महा०२ चू०।
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________________ णरीसर 1928 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णव णरीसर पुं०(नरेश्वर) नृपे," इक्खागुरायवसहो, कुंथू नाम नरीसरो।'' उत्त०१८ अ०। णरीसरत्तण न०(नरेश्वरत्व) नृपत्वे, पञ्चा० / सामण्णे मणुयत्ते, धम्माओ णरीसरत्तणं णेयं / इव मुणिऊणं सुंदर ! जत्तो एयम्मि कायव्वो // 17 // सामान्ये बहूनां प्राणिनां साधारणे, मनुजत्वे नरत्वे, धर्मात् कुशलकर्मणः नरेश्वरत्वं नृपत्वं भवतीति ज्ञेयं ज्ञातव्यम्। इत्येतद् ज्ञात्वा अवगम्य, सुन्दर ! नरप्रधान ! यत्न उद्यमः, अत्र धर्मे, कर्तव्यो वि-धेयो भवति / इति गाथार्थः // 17 // पञ्चा० 6 विव० / गरोत्तम पुं०(नरोत्तम) श्रीऋषभदेवस्य चतुश्चत्वारिंशेपुत्रे, कल्प०७ क्षण। णल पुं०(नड) नस्य णः, डस्य तु" डोलः | 8 | 1 / 202 / इति लः। प्रा० 1 पाद / तृणविशेषे, जी० 3 प्रति०२ उ० / प्रज्ञा० / आचा० / शुषिरशराऽऽकारे यवाऽऽदीनां कडङ्गरे, स्था०५ठा०२ उ० / चन्द्रवंश्ये नृपभेदे, वानरभेदे, श्राद्धदेवे, पितृगणभेदे, दैत्यभेदे, पद्म, न०। वाच०। णलकूवर पुं०(नलकूवर) नलः कूवरो युगन्धरोऽस्य। कुबेरपुत्रे, वाच०। "अट्टपुत्ते पयाहिसि सिरीए नलकूवरसमाणे / " आ० म० 1 अ० 2 खण्ड। णलगिरि पुं०(नलगिरि) प्रद्योतनृपतेर्हस्तिरत्ने, अनलगिरिरिति तन्नामान्तरम् / आ० क० / आ० म०। आ० चू० / नि० चू० / आव०। णलत्थंभ पुं०(नलस्तम्भ) वृक्षविशेषे, आव०३ अ०। णलदाम(ण) न०(नलदामन्) स्वनामख्याते कुविन्दे, स्था० 4 ठा०३ उ०। दश० / व्य० / आ० म०। (अधर्मयुक्त हेतौ नलदामकुविन्दोदाहरणम् ' अधम्मजुत्त शब्दे प्रथमभागे 567 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) णलय पुं०(नलद) देशी-उशीरे, दे० ना० 4 वर्ग। णलागणि पुं०(नलाग्नि) नलदहनप्रवृत्तेऽग्नौ, स्था० 5 ठा० 2 उ० णलाड न०(ललाट)"ललाटेलडोः " / / 8 / 2 / 123 / / इति ललाटशब्दे डलयोर्व्यत्ययः।" णलाडं। णमालं " प्रा०२ पाद / णलिअ (देशी) गृहे, दे० ना० 4 वर्ग। णलिण न०(नलिन) ईषद्रक्ते कमले, चं० प्र०१ पाहु० 1 पाहु० पाहु०। रा०। ईषद्रक्तपञ, रा० / जं०। आ० म० / प्रज्ञा० / ईष-न्नीले पद्मे, जं० 1 वक्ष० / जलजकुसुमविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। आचा० / चतुरशीतिलक्षगुणिते नलिनाङ्गे, भ०६ श०७ उ० / जी० / ज्योः / जं०। अनु० / स्था० / कच्छाऽऽदिषु द्वाविंशे विजयक्षेत्रयुगले, "दो णलिणा।" स्था०२ ठा०३ उ० / स्वनामख्याते विमाने, स०१८ सम० / स्था०। रुचकपर्वतस्य दाक्षिणात्ये कुंटे, द्वी०। स्था० / जम्ब्वाः सुदर्शनायाः पूर्वस्यां दिशि पुष्करिण्याम्, जं०४ यक्ष०। जी०। णलिणंग न०(नलिनाङ्ग) चतुरशीतिलक्षगुणिते पद्मशतसहस्रे, जी०३ प्रति० 4 उ० / अनु० / जं० / स्था। णलिणकूड पुं०(नलिनकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्यपर्वस्य पूर्वस्यांशीताया / महानद्या उत्तरकूले वक्षस्कारपर्वते, स्था० 3 ठा० 3 उ० "दो णलिणकूडा।" स्था० 2 ठा०३ उ०। कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं सीआए उत्तरेणं मंगलावत्तस्स विजयस्स पचच्छिमेणं आवत्तस्स विजयस्स पुरच्छिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे सेसं जहा चित्तकूडस्स० जाव आसयंति। गलिणकूडे णं भंते ! कति कूडा पण्णत्ता ? गोयमा! चत्तारि कूडा पण्णत्ता। तं जहा-सिद्धाययणकूडे, णलिणकूडे, आवत्तकूडे, मंगलावत्तकूडे, कूडा पंचसइआ रायहाणीओ उत्तरेणं / जं० 4 वक्षः / णलिणगुम्म न०(नलिनगुल्म) श्रेणिकभार्याया नलिनगुल्माया अप-त्ये, स च वीरजिनान्तिके प्रव्रजितस्त्रीणि वर्षाणि प्रव्रज्यापर्यायं परिपाल्य सहसारे उपपन्नः, ततश्च्युत्वा महाविदेहे सेत्स्यति, इति कल्पावतसिकाया अष्टमेऽव्ययने सूचितम्। नि०१ श्रु०१ वर्ग० 8 अ० / अर्हता महापोन प्रवाजिष्यमाणे स्वनामख्याते राजनि, स्था०८ ठा० / अष्टमदेवलोकस्ये स्वनामख्याते विमाने, स०१८ सम०।"णलिणगुम्मे विमाणे देवत्ताए उववण्णा / " आ० चू० 1 अ० / उत्त० / नलिनीगुल्ममप्यत्र / विशे० / स्वनामख्याते अध्ययने च।" अन्नया पदोसकाले आयरिया णलिणगुम्मं अज्झयणं परियट्टति।" आव० 4 अ०। णलिणवण न०(नलिनवन) पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिण्या नगर्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे स्वनामख्याते वने, ज्ञा० 1 श्रु० 18 अ० / आ० म० / उत्त०। अनु०। णलिणावई स्त्री०(नलिनावती) कच्छाऽऽदिषु चतुर्विशे विजयक्षेत्रयुगले, स्था० 2 ठा०३ उ० / ज्ञा०। णलिणी स्त्री० (नलिनी) पद्मिन्याम् , ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / प्रज्ञा० / आ०क०। णलिणीकुमार पुं०(नलिनीकुमार) महापद्मतीर्थकृतः प्रथमपुत्रे, " जेट्ट णलिणकुमारं, रज्जे ठाइत्तु तं महापउमो।" ति०। णलिणोदग न०(नलिनोदक) समुद्रभेदे, " गोतित्थेहि विरहिय, खेत्तं नलिणोदगसमुद्दे / ' द्वी०। णव त्रि०(नव) संख्याविशेषे विशिष्टे, नि० चू०१3०। "नव खोडा।' प्रतिलेखनायाम् , नव खोडकाः,ते च त्रयस्वयः प्रमार्जनानां त्रयेण त्रयेण अन्तरिताः कार्याः, इति पदद्वयेनाऽपि पञ्चमी अप्रमादप्रत्युपेक्षणोक्ता। स्था०६ ठा० / ध० / नि० चू० / प्रत्यग्रे, दश०१ अ०। चं० प्र० / सूत्र० / अपूर्वे, बृ०१ उ०। अजीर्णे, जं०३ वक्ष०। अभिनवे, आचा० 2 श्रु० 1 0 5 अ० 1 उ० / नवकर्मणामनादानम् / नवान्युपचीयमानानि / आव० 4 अ०।" ते वरिसो होइ नवो।" प्रवज्यापर्यायण यस्य त्रीणि वर्षाणि नाधिकमित्येव त्रिवर्षो भवति नवः। व्य०३ उ०।" नवहरियभासंतपत्तंधयारगंभीरदरिसणिजा" इति।नवेन
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________________ णव 1926 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णवणाम(ण) - प्रत्यग्रेण हरितेन नीलेन मासमनेन स्निग्धत्वाद्देदीप्यमानेन पत्रभारेण | दलसंचयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा अलब्धमध्यभागाः सन्तो दर्शनीयाः / जी० 3 प्रति० 4 उ० / "नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिजमाणगंडे / " नवमिव प्रत्यग्रमिव हेम यत्र ते नवहेमनी, नवहेमभ्यां चारु चित्राभ्यां चञ्चलाभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ गण्डौ यस्य स तथा / जी०४ प्रति०२ उ०। *नम् धा० / प्रहत्वे शब्दे, "रुदनमोर्वः "||41226 // / इत्यनेन अन्त्यस्य नस्य वः। नवइ नमति। प्रा० 4 पाद। णवंगसुत्तपडिबोहिया स्त्री०(नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधिता) नवाङ्गानि श्रोत्र 2 चक्षु २णि 2 रसनात्वग्मनोलक्षणानि सुप्तानि सन्ति प्रतिबोधितानि यौवनेन यस्याः सा तथा। विपा०२ श्रु०१ अ०। नवयौवनायाम् , ज्ञा० १श्रु०३ अ०। विपा०ा औ०।" नवंगसुत्तपडिबोहियाए।" द्वे अक्षिणी द्वौ कर्णो द्वौ नासापुटौ जिह्वास्पर्शने नवमं मनः, एतानि नव अङ्गानि यावदद्यापि यौवनं न भवतितावत्सुप्तानि भवन्ति, न खलुतदानीमेतेषामतीचाराभिष्वङ्गसुखं भवति, ततःसुप्तानीति व्यपदिश्यन्ते, यौवने तु प्राप्तस्वकल्पगुणेन प्रतिबुद्धानि जायन्ते / व्य० 10 उ०। णवको डिपरिसुद्ध त्रि०(नवकोटिपरिशुद्ध) ३त० / नवभिर्विभागैर्निदोषे, "नवकोडीपरिसुद्धे, भिक्खे पण्णत्ते।" नवभिर्विभागैर्निर्दोषे, स्था० 6 ठा०। णवक्ख त्रि०(नव) " शीघ्राऽऽदीनां बहिल्लाऽऽदयः " ||8|| 422 / / इत्यपभ्रंशे नवशब्दस्य णवक्खाऽऽदेशः / प्रत्यग्रे, प्रा०४ पाद। णवगणिवेस पुं०(नवकनिवेश) प्रथमावासे, नि० चू०। जे भिक्खू नवआसु गामंसि वा णगरंसि वा (णगारंसि वा). जाव सन्निवसंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइज्जइ // 36 // निक चू०५ उ०। (अत्र' गोयरचरिया शब्दः तृतीयभागे 661 पृष्ठे द्रष्टव्यः) णवग्गह पुं०(नवग्रह) अभिनवग्रहणे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। णवच्छिद्द त्रि०(नवच्छिद्र) नवरन्ध्रोध्रोपेते, तं०। णवजोयणिम त्रि०(नवयोजनिक) नवयोजनाऽऽयामे," जंबूदीवे णं दीवे नवजोयणिया मच्छा। " स्था० 6 ठा० / णवणवमिया स्त्री०(नवनममिका) नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका, नव नवमानि च भवन्ति नवसुनवकेष्विति तत्परिमाणेयमिति / एकाशीतिदिनैः समाप्येऽभिग्रहविशेषे, (स्था०) णवणवमिया णं भिक्खुपडिमा एकासीएहिं राइंदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासएहिं अहासुत्ता० जाव आराहिया यावि भवइ / / (णवणवमिया णं) इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका, नव नवनानि च भवन्ति नवसुनवकेष्विति तत्परिमा- णेयमिति, नव च नवकान्येकाशीतिरिति कृत्वा एकाशीत्या रात्रिन्दिवैरहोरात्रैर्भवति। तथा प्रथमनवके प्रतिदिनमेका दत्तिः पानकस्य भोजनस्य चेत्येवमेकोत्तरया वृद्ध्या नवमे नवके नव दत्तयः। ततश्च सर्वसङ्कलनया चतुर्भिश्च पञ्चोत्तरैर्भिक्षाशतैर्यथासूत्रं यथा-कल्पं यथामार्ग यथातत्त्वं सम्यक्कायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्तिता आराधिता चाऽपि भवतीति / स्था०६ ठा० / प्रव० स० / औ० / अन्तः। णवणवसंवेगपुं०(नवनवसंवेग) अपूर्वापूर्वे वैराग्ये, (30) अथ" नव नवो य संवेगो " इति व्याख्यानयन्नाहजइ जह सुयमोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुष्वं / तह तह पल्हाइ मुणी, णवणवसंवेगसद्धाओ॥ यथा यथा श्रुतमागर्म पूर्वमगाहते, कथंभूतम् ?-अतिशयरसप्रसरसंयुतम् / अतिशया अर्थविशेषास्तेषु यो रसः श्रीतॄणामाक्षेपकारी गुणविशेषः, तस्य यः प्रसरः अतिरेकः, तेन संयुतं युक्तम्। यद्वा-श्रवणं श्रुतं, तत्कथभूतम् ?-अतिशयस्याऽर्थस्यरस आस्वादनं तत्रयः प्रसरो गमनं तेन संयुतम् , अपूर्व यथा यथाऽवगाहते तथा तथा मुनिः प्रह्लादते शुभभावसुखासिकया मोदते। कथंभूतः ? इत्याह-नवनवोऽपूर्वापूर्वो यः संवेगो वैराग्यं, तद्भवा श्रद्धा मुक्तिमार्गाभिलाषलक्षणा यस्य स नवनवसंवेगश्रद्धाक इति। गतं नवनवसंवेगद्वारम्। बृ०१उ०। णवणवसंवेगो खलु, णाणावरणक्खओवसमभाओ। तत्ताहिगमो य तहा, जिणवयणायन्नणस्स गुणा // 3 // नवनवसंवेगः प्रत्यग्रः प्रत्यग्रः संवेग आर्द्रान्तःकरणता, मोक्षसुखाऽभिलाष इत्यन्ये। खलुशब्दः पूरणार्थः; संवेगस्य शेषगुणनिबन्धनत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थो वा। तथा ज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमभावः ज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमसत्ता संवेगादेव / तत्त्वाधिगमश्च तत्त्वाऽतत्त्वपरिच्छेदश्च तथा, जिनवचनाऽऽकर्णनस्य तीर्थकरभाषितश्रवणस्यएते गुणा इति॥३॥ श्रा०। णवणाम(ण) न०(नवनामन्) नवपदार्थनामनि, अनु०। नवनामनिदर्शयन्नाहसे किं तं णवणामे ? णवणामे णव कव्वरसा पण्णत्ता। तंजहावीरो सिंगारो अ-मुओ य रोदो अहोइ बोद्धव्वो। वीलणओ वीभच्छो, हासो कलुणो पसंतो अ॥१॥ (से किं तं णवणामे इत्यादि) नवनामे नव काव्यरसाः प्रज्ञप्ताः / तत्र कवेरभिप्रायः काव्यं, रस्यन्तेऽन्तराऽऽत्मनाऽनुभूयन्त इति रसाः, तत्सहकारिकारणसन्निधानोऽभूताः चेतीविकारविशेषा इत्यर्थः। उक्तं च-" बाह्यार्थाऽऽलम्बनो वस्तुविकारो मानसो भवेत्। स भावः कथ्यते सद्भिः, तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः // 1 // " काव्येषूपनिबद्धा रसाः काव्यरसाः, वीरशृङ्गाराऽऽदयः। तानेवाऽऽह-(वीरो सिंगारो) इत्यादि / गाथा सुगमा, नवरम् 'शूर वीर' विक्रान्ती, इति वीरयति विक्रामय
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________________ णवणाम(ण) 1930- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णवरि ति रागतपोवैरिनिग्रहेषु प्रेरयति प्राणिनमिति उत्तमप्रकृतिपुरुष- र्भपर्यन्ते, रा० / जी। चरित्रश्रवणाऽऽदिहेतुसमुद्भूतोदानाऽऽद्युत्साहप्रकर्षाऽऽत्मको वीरो रसः, णवधम्म(ण) त्रि०(नवधर्मन्) अभिनवश्रावके, बृ० 1 उ०। इतिःसर्वत्र गम्यते॥१॥शृङ्ग सर्वरसेभ्यः परमप्रकर्षकोटिलक्षणमियर्ति णवपज्जवण न०(नवपायन) नवं प्रत्यग्रं ' पज्जणं ति 'प्रतापितस्यागच्छतीति कमनीयकामिनीदर्शनाऽऽदिसंभवो रतिप्रकर्षाऽऽत्मकः ऽयोधनकुट्टनेनतीक्ष्णीकृतस्य पायनं जलनियोलन यस्य तन्नवपायनम्, शृङ्गारः सर्वरसप्रधान इत्यर्थः / अत एव " शृङ्गारहास्यकरुणाः, सद्याऽग्नितप्ते तीक्ष्णीकृतेजलक्षेपेण शीतीकृते, "णवपज्जणएणं असिपएणं रौद्रवीरभयानकाः। वीभत्साद्भुतशान्ताश्च, नव नाट्ये रसाः स्मृताः।। पडिसाहरिया।"भ० 14 श०७ उ०। 1 // " इत्यादिष्वयं सर्वरसानामादावेव पठ्यते / अत्र तु त्यागतपोगुणी णवपुट्वि(ण) पुं०(नवपूर्विन्) परिपूर्णनवपूर्वधरे, इहासतां नवपूर्विणः वीररसे वर्तेते, त्यागतपसी च" त्यागो गुणो गुणशतादधिको मतो मे।" परिपूर्णनवपूर्वधराः, किंतु नवमस्य पूर्वस्य यत्तृतीयमाचारनामकं वस्तु, ' परं लोकातिगं धाम, तपः श्रुतमिति द्वयम्।" इत्यादि-वचनात् तावन्मात्रधारिणोऽपि नवपूर्विणः / व्य० 1 उ०। समस्तगुणप्रधान इत्यनया विवक्षया वीररसस्याऽऽदावुपन्यास इति णवबंभचरेगुत्त त्रि०(नवब्रह्मचर्यगुप्तिगुप्त) नवब्रह्मचर्याणि गुप्तिशब्दश्रुतम् // 2 // शल्यं त्यागतपःशौर्यकर्माऽऽदि वा सकलभुवनातिशायि लोपाद् वसतिकथाद्या नवब्रह्मचर्यगुप्तयस्ताभिर्गुप्तः संरक्षितो नवकिमप्यपूर्व वस्त्वदभुतमुच्यते; तदर्शनश्रवणाऽऽदिभ्यो जातो ब्रह्मचर्यगुप्तिगुप्तः। पा०। नवभिमथुनव्रतस्य रक्षाप्रकारैः सुसंवृत्ते, पा०। रसोऽप्युपचारात् विस्मयरूपोऽद्भुतः / / 3 / / रोदयत्यतिदारुणतया नि० चू०। अश्रूणि मोचयति इति रौद्रं, रिपुजनमहदारण्यान्धकाराऽऽदितदर्शनाऽऽद्युभयो विकृताध्यवसायरूपो रसोऽपि रौद्रः / / 4 / / ब्रीडयति णवम त्रि०(नवम) नवसंख्यापूरके, उत्त० 1 अ०। स्था०। लज्जामुत्पादयति लजनीयवस्तुदर्शनाऽऽदिप्रभवो मनोव्यलीकताऽऽ- णवमल्लइ पुं०(नवमल्लकिन) क्षत्रियविशेषजातीये, वीरस्वामिमोदिस्वरूपो वीडनकः, अस्य स्थाने भयजनकसंग्रामाऽऽदिवस्तुदर्शना क्षगमनतिथिरात्रौ नवमल्लकिभिः पोषधोपवासः कृतः, तत्र नवऽऽदिप्रभवो भयानको रसः पठ्यतेऽन्यत्र, सचेह रौद्ररसान्तर्भावविवक्ष मल्लकिजातीयाः काशिदेशस्य राजानः / कल्प०६ क्षण। णात् पृथग् नोक्तः / / 5 / / शुक्रशोणितोच्चारप्रश्रवणाऽऽद्यनिष्टमुवैजनीयं णवमालिया स्त्री०(नवमालिका) (नेवारी) पुष्पप्रधाने वनस्पतिभेदे, वस्तु वीभत्समुच्यते, तद्दर्शनश्रवणाऽऽदिप्रभवो जुगुप्साप्रकर्षस्वरूपो कल्प०३ क्षण। आचा०। रसोऽपि वीभत्सः // 6 // विकृतासंबद्धपरवचनवेषालङ्काराऽऽदि- णवमिया स्त्री०(नवमिका) सुपुरुषस्य किम्पुरुषेन्द्रस्य द्वितीयाहास्यार्हपदार्थप्रभवो मनःप्रकर्षाऽऽदिचेष्टाऽऽत्मकोऽपि रसो हास्यः // यामग्रमहिष्याम , स्था० 4 ठा०१उ। भ / ती। (अस्या पूर्वभवः 7 / / कुत्सितं रौत्यनेनेति निरुक्तवशात् करुणः, करुणाऽऽस्पदत्वात् 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 171 पृष्ठे गतः) शक्रस्य देवेन्द्रस्य करुणः प्रियविप्रयोगाऽऽदिदुःखहेतुसमुत्थः शोकप्रकर्षस्वरूपः करुणो षष्ठ्यामग्रमहिष्याम , (अस्याः पूर्वभवकथा ' अग्गमहिसी ' शब्दे रस इत्यर्थः / / 8 / / प्रशाम्यति क्रोधाऽऽदिजनितौत्सुक्यरहितो प्रथमभागे 173 पृष्ठे उक्ता) मन्दरस्य पश्चिमे रुचकवरपर्वतस्य रुचभवत्यनेनेति प्रशान्तः, परमगुरुवचःश्रवणाऽऽदिहेतुसमुल्लसित कोत्तमकूटे परिवसन्त्यां दिकुमार्याम् , स्था०८ ठा०1 आव०। आ० उपशमप्रकर्षाऽऽत्मा प्रशान्तो रस इत्यलं विस्तरेण / / 6 / / अनु०। (एषां चू० / जं० / आ० म०। नवनाम्नां नवकाव्यरसानां लक्षणानि स्वस्वशब्दे द्रष्टव्यानि) णवमी स्त्री०(नवमी) अष्टमीदशम्यन्तराले तिथौ, द०प० / विशे०। ज्यो०। णवणिहि पुं०(नवनिधि) अजागृहतीर्थेपार्श्वनाथप्रतिमायाम, ती०२ कल्प। णवमीपक्ख पुं०(नवमीपक्ष) नवम्यास्तिथेः पक्षो ग्रहो यस्य तिथिणवणीइया स्त्री०(नवनीतिका) पुष्पप्रधाने वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। मेलपाताऽऽदिषु तथादर्शनात् तिथिपाते यत्कृत्यस्याष्टमे च क्रिय"णवणीइया गुम्मा।" जं०२ वक्ष० / माणत्वात् स नवमीपक्षः / अष्टमे दिवसे, "चित्तबहुलस्स णवमीपणवणीय न०(नवनीत) मक्षणे, औ०। नि०। आ० चू० / आव० / स्था० / क्खेणं।" जं०३ वक्षः। ज्ञा०। (मक्खन)(नेनू )(मसका) इतिख्याते, ध०२०। रा०। प्रश्न०। / णवय पुं०(नवत) ऊर्णविशेषमये 'जीन इति लोकप्रसिद्धेऽर्थे, ज्ञा०१ ज०। नि० चू० / भ० / कल्प० / पञ्चा०। जी0। आ० म०।" नवनीत श्रु०१ अ०! आचा०। यथा दघनश्चन्दनं मलयादिव। ब्रह्माण्ड वैपुराणेभ्यस्तथा प्राहुर्मनीषिणः णवयारचिंतणाइय त्रि०(नमस्कारचिन्तनाऽऽदिक) परमेष्ठिपञ्चक // 1 / / '' उत्त० 25 अ० / नवनीतं हि महाविकृतितया निर्विकृतिकैर- नमस्कृतिध्यानप्रभृतिके, पञ्चा० 1 विव०। भक्ष्यम्। स्था०६ ठा० / नवनीतमपि गोमहिष्यजाऽविसंबन्धेन चतुर्धा, णवरं अव्य०(नवरम् ) केवलमित्यर्थे, पञ्चा० 18 विव० / ग० / प्रश्नः / तदपि सूक्ष्मजन्तुराशिखनित्वात्याज्यमेवा यतः-" अन्तर्मुहूतात्परतः, विपा०। स्था०।" णवरं केवले " // 8 / 2 / 157 // इति केवलेऽर्थे सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः। यत्र मूर्छन्ति तन्नाद्यं, नवनीतं विवेकिभिः॥१॥" णवरमिति प्रयोगः।" णवरं पि आइचिअणिव्वमं ति।" प्रा०२ पाद / इति / ध०२ अधि०। दे० ना०। णवत्तयकुसंतपुं०(नवत्वकुशान्त) नवा त्वक् येषां तेनवत्वचः कुशान्ता | णवरि अव्य(नवरि) आनन्तर्ये," आनन्तर्थे णवरिं" // 12 // दर्भपर्यन्ताः, नवत्वचश्च ते कुशान्ताश्च नवत्वककुशान्ताः। प्रत्यक्त्वग्द- | 158 / / आनन्तर्ये णवरीति प्रयोक्तव्यमिति / तथा प्रयोगः-" ण
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________________ णवरि 1931 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाआ वरि अ से रहुवइणा / केचित्तु केवलानन्तर्यार्थयोर्णवरणवरीत्येकमेव अक्रियावादिभेदे, (स्था०) तथाहि-नास्त्यात्मा, प्रत्यक्षाऽऽदि सूत्रं कुर्वते, तन्मते तु उभावप्युभयाौँ / प्रा०२पाद / दे० ना० / प्रमाणाविषयत्वात् , खरविषाणवत्, तदभावान्न पुण्यपापलक्षणं कर्म गवरिअ (देशी) सहसार्थे, दे० ना० 4 वर्ग। तदभावान्न परलोको, नाऽपि मोक्ष इति। यचैतचैतन्यं तद्भूतधर्म इति / अस्याऽक्रियावादिता स्फुटैव / न चैतस्य मतं संगच्छते, प्रत्यक्षाऽऽद्यणवलग पुं०(नवलक) वस्त्रमये पक्कदोरकजालकमये वा (नवली वसनी प्रवृत्त्या आत्माऽऽदीनां निराकर्तुमशक्यत्वात् , सत्यपि वस्तुप्रमाणखरिया जाली जावी इति ख्याते) मुद्राकोशे, कोऽपि कस्याऽपि पार्श्वे प्रवृत्तिदर्शनादागमविशेषसिद्धत्वाच, भूतधर्मताऽपि न चैतन्यस्य, सुवर्णपणभृतं नवलकं क्षिप्तवान् / नं०। विवक्षितभूताभावेऽपि जातिस्मरणाऽऽदिदर्शनादिति / स्था० 8 ठा० / णवलया (देशी) नियमविशेषे, दे० ना० 4 वर्ग। णसण न०(न्यसन) व्यवस्थापने, विशे० न्यासे, आरोपणे, जी०१ प्रति०। णवल्ल त्रि०(नव)"ल्लो नवैकाद् वा " / / 8 / 2 / 165 / / इति णस्समाण त्रि०(नश्यत् )" नशेर्णिरिणासणिवहावसेहपडिसासेस्वार्थे ल्लः / नूले, प्रा०२ पाद। हावहराः " ||8| 4 | 178 // इति नशेर्णियद्यादेशाभावे / प्रा०४ णवविगइस्त्री०(नवविकृति) नवसु क्षीराऽऽदिविकृतिषु,' णव-विगईओ पाद।" शकाऽऽदीनां द्वित्वम् " / / 4 / 4 / 230 // इति सद्वित्वम्। पण्णत्ताओ। तं जहा-खीरं, दहि, णवणीयं, सप्पिं, तिल्ल गुलो, महुँ, सन्मार्गात् च्यवमाने, उपा०७ अ०। मजं, मंसं। “स्था० 6 ठा०। (एतासां विस्तरः' विगइ ' शब्दे वक्ष्यते) णह पुं०(नख) खुराग्रभागे, भ० 12 श०७ उ० / करजे, तं०। प्रश्न०। णवसुत्त त्रि०(नवसूत्र) नवं सूत्रं वल्कलाऽऽदि यस्मिन् स तथा / स० / प्रव०। पाणिपादजे, प्रव० 40 द्वार। गन्धद्रव्यभेदे च। ल० प्र०। नवसूत्ररचिते," आसंदियं च नवसुत्तं, पाउल्लाइं संकमट्ठाए।" (15) *नभस् न०1" स्नमदामशिरोनभः " // 81 // 32 // इतिनभः सूत्र०१ श्रु०४ अ० 2 उ०। पर्युदासान्नपुंसकत्वम्। प्रा० 1 पाद / आकाशे, दश०७ अ०। कल्प० / णवसोयपरिस्सवा स्त्री०(नवश्रोतःपरिस्रवा) नवभिः श्रोतोभिः छिद्रैः / णहच्छेज्जन०(नखच्छेद्य) नखच्छेदनविधिविशेषे कलाभेदे, कल्प० परिसवति मलं क्षरति इति नवश्रोतःपरिसवा / छिद्रनवकेन मलं ७क्षण। क्षरन्त्याम् , स्था०। णहच्छेदणय न०(नखच्छेदनक) नखकर्तन्याम , आचा०२ श्रु०१ चू० णवसोयपरिस्सवा वोंदी पण्णत्ता। तं जहा-दो सोया, दो णित्ता, 7 अ०१ उ०। दो घाणा, मुहं, पोसए, वाऊ। णहमुह (देशी) घूके, दे० ना० 4 वर्ग। (एवेत्यादि) नवभिः श्रोतोभिः छिद्रैः परिस्रवति मलं क्षरतीति णहयल न०(नभस्तल) व्यो म्नि, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। प्रश्नः / नवश्रोतःपरिस्रवा वोन्दी शरीरमौदारिकमेवैवंविधं, द्वे श्रोत्रे कर्णा, नेत्रे | "ओविरएमि नहयले।" प्रा०२ पाद। नयने, घ्राणे नासिके, मुखमास्यम् , (पोसएत्ति) उपस्थम् , पायुरपान- णहरी (देशी) क्षुरिकायाम् , दे॰ ना० 4 वर्ग। मिति / स्था०६ ठा। णहरणी स्त्री०(नखरदनी) वेण्वादिमय्यां नखशोधन्याम् , 50 व०३द्वार। णवा स्त्री०(नवा) प्रत्यग्रयौवनायाम् , अतिनवोढायां वा स्त्रियाम् / सूत्र० णहवाहण पुं०(नभोवाहन) स्वनामख्याते मरुकच्छराजे पद्मावतीपतौ, १श्रु०३ अ०२ उ० / व्रतपर्यायेण यावत्रिवर्षायां श्रमण्याम् , व्य० 4 ऊ। यद्भार्यया पद्मावत्याः काव्यश्रवणेन पूर्व मानितः पश्चात्तिरस्कृतोऽणवि (अव्य) वैपरीत्ये," णवि वैपरीत्ये"||२१७८॥णवीति परिवारो वज्रभृतिराचार्यः / व्य०३ उ० / आव०। विशे०| वैपरीत्ये प्रयोक्तव्यमिति।" णवि हावणे।" प्रा० 2 पाद। दे० ना० / णहसिरन०(नखशिरस् ) नखाग्रे, भ० 5 श० 4 उ० / णविअन०(नत)"ते " // 8 / 3 / 156 // इत्यत इत्त्वम्। नमने, प्रा० णहसिहा स्त्री०(नखशिखा) नखाग्रभागे, कल्प० 6 क्षण / नि० चू०। णहसेण पुं०(नभःसेन) उग्रसेनतनये कमलायाः पत्यौ, विशे०। गविय त्रि०(नव्य) अभिनवे, आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ०। णहहरणी स्त्री०(नखहरणी) नखकर्तन्याम्, यया नखा उध्रियन्ते। णवोद्धरण (देशी) उच्छिष्टे , दे० ना० 4 वर्ग। बृ०३ उ०। णवोद्धर (देशी) उच्छिष्टे, दे० ना० 4 वर्ग। णहि(ण) त्रि०(नखिन् ) नखप्रधाने, अनु० / णव्व त्रि०(नव्य) तत्कालमुत्पन्ने, ध० 2 अधि०। णहु अव्य०(नहु) नैवेत्यर्थ, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। आव० / व्य०। णव्वाउत्त (देशी) ईश्वरे, दे० ना० 4 वर्ग। णाअ त्रि०(ज्ञात)"ज्ञो जाणमुणौ " ||8||7 / / इति ज्ञाघातोणसंतिपरलोगवाइ(ण ) पुं०(नशान्तिपरलोकवादिन् ) न विद्यते | __णिमुणाऽऽदेशाभावे ' णाअं'। अवबुद्धे, प्रा०४ पाद। शान्तिश्च मोक्षः परलोकश्च जन्मान्तरमित्येवं यो वदति स तथा।। णाआ (देशी) गर्विष्ठ, दे० ना०४ वर्ग। ३पाद।
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________________ णाइ 1932 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णाइल णाइ स्त्री०(ज्ञाति) पूर्वापरसंबद्धे स्वजने, आचा० 1 श्रु०२ अ० 5 उ०। भ० / समानजाती, नि०१ श्रु० 1 वर्ग 5 अ० / कल्प० / औ० / विपा० / अष्ट० / सूत्र० / मातापितृपुत्रकलत्राऽऽदौ, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। उत्त०। ज्ञा० / ज्ञाने, संविदि, स्था०५ ठा०३ उ०। णाई (अव्य) नअर्थे, "अणणाई नअर्थे " || 8 | 2 | 160 / / इति नार्थे ' णाई ति ' प्रयोगः।" णाई करेमि रोसं। "प्रा०२पाद। णाइमट्टिअ त्रि०(नातिमृत्तिक) नातिकर्दमे, भ० 15 श०। णाइय त्रि०(नादित) ध्वनिमात्रे, ज्ञा० 1 श्रु०१०। विपा० भ०। प्रतिशब्दे, कल्प०५ क्षण / रा०। जं०। लपिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ०।। णाइल पुं०(नागिल) आर्यवज्रसेनस्यान्तेवासिनि, यत आर्यनागिला | शाखा निर्गता / कल्प० 8 क्षण / आ० चू० / नागिलकुलवशवर्तिनां साधूनामाचारादारभ्य यावदनुत्तरोषपातिक दशास्तावन्नास्ति आचाम्लम् / व्य० 1 उ० / दुष्प्रसहानगारसमये भविष्यति श्रावके, यदनुशिष्टो दुष्प्रसहोऽनगारः प्रव्रजिष्यति / ति० / महा०।" सट्ठी य नाइलो नाम गाहवती सावगाण पच्छिमओ।" (34) ति० / ती०।" पविरलगामे जणवए, पविरलमणुएसु नाम दोसेसु / नामेण नाइलो नाम गणहरो होहिइ महप्पा // 20 // ' तिः / इति भविष्यत्यनगारे सुमतिभ्रातरि, महा०। अस्थि इहेव भारहे वासे मगहा णाम जणवओ। तत्थ कुसत्थलं नाम पुरं / तम्मि य उवलद्धपुन्नपावे सुमुणियजीवाऽऽदिपयत्थे सुमइ-णाइल-णामधिले दुबे सहोयरे महिड्डिए सडगे अहेसि। अहन्नया अंतरायकम्मोदएणं वियलियं विहवं तेसिं, ण उण सत्तं परक्कम ति / एवं अचलियसत्तपरकमाणं तेसिं अचंतपरलोगभीरूणं विरयकूडकवडालीयाणं पडिवन्नजहोवइट्ठदाणाइचउक्खंधउवासगघम्माणं अपिसुणामच्छरीणं अमायावीणं किं बहुणा ? गोयमा ! ते उवासगे णं आवसहगुणरयणाणं पभवा खंतीनिवासे सुयणमेत्तीणं, एवं तेसिं बहुवासरवन्नणिज्जगुणरयणाणं पि जाहे असुहकम्मोदएणं न बहुप्पए संपया ताहे ण पहुप्पंति अट्ठाहियामहिमादओ इट्ठदेवयाणं जहिच्छिए पूयासकारे साहम्मियसम्माणे बंधुजणसंववहारे या अहन्नया अचलंतेसु अतिहिसक्कारेसु अपूरिज्जमाणेसुपणइजणमणोरहेसु विहडतेसु य सुहिसयणमित्तबंधवकलत्तपुत्तणत्तुयगणेसुं विसायमुवगएहिं गोयमा ! चिंतियं तेहिं सडगेहिं / तं जहा "जा विहवो ता पुरिसस्स होइ आणापडिच्छओ लोओ। गलिओदयं घणं विजुला व दूरं परिचयइ "|| 1 || एवं च चिंतिऊण परोप्परं भणिउमारद्धे। तत्थ पढमो "पुरिसेण माणधणव-जिएण परिहीणभागधेओणं। ते देसा गंतव्वा, जत्थ ण वासादिदीसंति" // 1 // तह बीओ" जस्स घणं तस्स जणो, जस्सऽत्थो तस्स बंधवा बहवे। घणरहिओ उमणूसो, होइ समो दासपेसेहिं " // 2 // अह एवं परोप्परं संजोजेऊण गोयमा ! कयं देसपरिचायनिच्छयं तेहिं ति। जहा" वचामो देसंतरं, ति तत्थ णं कयाइ पुजंति। चिरचिंतिए मणोरहें, हवइ पवजाऐं सह संजोगो" // 1 // जइ दिव्वो बहु मन्नेजा जाव णं उजिण्णंतंकगयं कुसत्थलं, पडिवन्नं विदेसगमणं / अहन्नया अणुप्पेहेणं गच्छमाणेहिं दि8 पंच साधुणो (छिटुं समणो) वासगं ति / तओ भणि गाइलेण। जहा-भो भो सुमती भद्दमुह ! पेच्छ केरिसो साहुसत्थो ? ता एएणं चेव साहुसत्थेणं गच्छामो, जइ पुणो वितए गंतव्वं / तेण भणियं-एवं होउत्ति। तओ सम्मिलिया तत्थ सत्थे जावणं पयाणगमावहंति, ताव णं भणिओ-सुमती णाइलेणं / जहा-णं भद्दमुह ! मए हरिवंसतिलयमरगयछविणो सुगहियनामधेन्जवाक्सितमतित्थगरस्स णं अरिट्टनेमिनाहस्स पायमूले सुहनिसनेणं एवमवधारियं आसी। जहा-जे एवं विहे अणगाररूवे भवंति, ते य कुसीले, ते दिट्ठीए वि निरिक्खिउंन कप्पंति, ता एते साहुणो तारिसे, ण कप्पइएतेसिं समं अम्हाण गमणं, संसगं वा ! ता वयंतु एते, अम्हे अप्पसत्थेणं चेव वइस्सामो, न कीरइ तित्थयरवयणस्सातिक्कमो, जओ णं ससुरासुरस्सावि जगस्स अलंघणिज्जा तित्थयरवाणी, अन्नं च जाव एतेहिं संघ गच्छइ, तावणं चिट्ठउ, ताव दरिसणआलावादीणि य मा भवंतु, ता किं तुम्हेहिं तित्थयरवाणिं उल्लंघियत्ताणं गंतव्वं / एवं तमणुभाणिऊण तं सुमतिं हत्थे गहाय निव्वडिओ नाइलो साहुसत्थाओ, निस्विट्ठो य चक्खुविसोहिए फासुगभूपएसे / तओ भणियं सुमइणा। जहा "गुरुणो मायापित्तस्स जेट्ठभाया तहेव भइणीणं / जत्थुत्तरं न दिजइ, हा देव ! भणामि किं तत्थ? ||1|| आएसमवी माणं, पमाणपुव्वं तह तिनायव्वं / मंगलममंगलं वा, तत्थ वियारो न कायव्यो / / 2 / / णवरं एत्थ य णं मे, दायव्वं अजमुत्तरमिमस्स। खरफरुसकक्कसानिट्ठदुट्ठनिट्ठरसरहिं तु / / 3 / /
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________________ णाइल 1933 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाइल अहवा कह उच्छल्लउ, जीहा मे जिट्ठभाउणो पुरओ। जस्सुच्छंगे वि णियं, मए सदेहं असुइविलित्तं ? || 4 || अहवा कीस ण लज्जइ, एस सयं चेव एव पभणंतो। जं तु कुसीले एते, दिट्ठीए वी ण दट्ठव्वे" ||5|| साहुणो त्ति। जाव न वयइ ताव णं इंगियागारकुसलेणं मुणियं नाइलेणजहा णं अलीयकसाइओ एस मणगं सुमती, ता किमहं पडिभणामि त्ति चिंतिउं समाढत्तो। जहा"कजेण विणा अकडे, एस पकुविओ हु ताव संचिठे। संपइ अणुणिज्जंतो, ण जाणिमो किं च बहु मन्ने ? // 1 // ता किं अणुणेमि इमं, उयाहुबोलउखणद्धताऽलं वा। जेणुवसमियकसाओ, पडिवज्जइतंतहा सव्वं // 2 // अहवा पत्थावमिणं, एयस्स वि संसयं अवहरेमि। एस ण जाणइ भई, जाव विसेसंण परिकहियं "||3|| इति चिंतिऊण भणिउमाढत्तो" णो देमि तुज्झ दोसं, ण यावि कालस्स देमि दोसमहं। जं पियबुद्धीऍ सहोयरा वि भणिया पकुव्वंति॥१॥ जीवाणं वि ण एत्थं, दोसं कम्मट्ठजालकसिणाणं / जं चउगइनिप्फिडिणं, हिओवएसं न वुज्झंति / / 2 / / घणरागदोसकुग्गा-हमोहमिच्छत्तखवलियमणा णं / भावियविसकालउड, हिओवएसाइ मन्नंति " // 3 // एवमाइ सुणिऊण तओ भणि सुमइणा-जहा तुमं चेव सत्थवादी भणसु एयाए, णवरं ण जुत्तमेयं जं साहूणं अवण्णवायं भासिज्जइ, अन्नं तु किं न पेच्छसि तुमं एएसिं महागुभागाणं चेट्ठियं-छट्ठट्ठमदसमदुवालसमासखमणाईहिं आहारग्गहणं, गिम्हे ता वणवाणं वीरासणउकुडुयासणनाणाभिग्गहधारणेणं च कट्ठतवोऽणुचरणेणंच सुकं मंससोणियं ति, महाउवासगो-ऽसि तुमं, कहं महाभासासमिती विहिया तए, जेण एरिसगुण-जुत्ताणं पि महाणुभागाणं साहूणं कुसील त्ति नामं संकप्पियं ति। तओ भणियं नाइलेणं जहा-मा वच्छ ! तुम एतेणं परितो-समुवयासु जहा अहयं अतिचारेणं परिमुसिओ, अकामनिज्ज-राए वि किंचि कम्मक्खयं भवइ, किं पुण जंबालतवेणं, ता एते बालतवस्सिणो दट्ठव्ये, जओ ण किंचि उस्सुत्तं मग्गं आयारियं एएसिं पओसे, अन्नं च वच्छ ! सुमइ ! णत्थि ममं इमाणोवरि को वि सुहूमो वि मणसा विपओसो, जेणाहमेएसिं दोसग्गहणं करेमि, किं तुमए भगवओ तित्थयरस्स सगासे एरिसमवघा-रियं जहा-कुसीले अदट्ठव्वे / ताहे भणिअं सुमइणा जहा-जारिसो तुमं निबुद्धीओ, तारिसो सो वि तित्थयरो, जेणं तुज्झमेयं वायरियं ति। तओ एवं भणमाणस्स सहत्थेणं झंपिअं मुहकुहरं सुमइस्स नाइलेणं, भणिओ य जहा-भद्दमुह ! माजगेक्कगुरुणो तित्थयरस्सासायणं कुणसु, मए पुण भणसु जहिच्छियं, नाहं ते किं विपडिमणामि / तओ भणियं सुमइणा जहा-जइ एते वि साहुणो कुसीला, ता एत्थ जगे ण कोइ सुसीलो अत्थि। तओ भणिणाइलेण जहाभद्दमुह सुमइ ! इत्थ जयाऽलंघणिज्जवक्कस्स भगवओ वयणमायरेयव्वं जं वच्छ ! कयाइ ण विसंवएज्जा णो णं बालतवस्सीणं चेट्ठियं,जओ णं जिणिंदवयणेणं नियमओ ताव कुसीले इमे दीसंति, पव्वजाए पुण गंधं पि ण दीसइ एएसिं, जेणं पिच्छ पिच्छ तावे-यस्स साहुणो विपज्जयमुहणंतगंदीसइ, ता एस ताव अहिंग-परिग्गहदोसेणं कुसीलो, ण एवं साहूणं भगवया इ8 जमहिय-परिग्गहविधारणं कीरे, ता वच्छ ! हीणसत्ताणं एस वेसो मण-साऽज्झवसि जहा जइ ममेयं मुहणंतगं विप्पणस्सिहिइ, ता कीयं कत्थ पावेज्जा ? नो एवं चिंतेइ मूढो जहा अहिगा-णुवओगोवहिधारणेणं मज्झं परिग्गहवयस्स भंग होही। अ-हवा किं संजमेऽभिरओ एस मुहणंतगाइसंजमोवओग-धम्मोवगरणेणं विसीएजा नियमओ ण विहीए णवर-मत्ताणपहीणसत्तोऽहमिइ पायडे उम्मग्गायरणं च पयंसेइ, पवयणं च मइलेइत्ति एसो उण पेच्छसि सामन्नवतो एएणं कल्लं तीए विणीयं सेणाए इत्थीए अंगजट्टि निजाइऊण जन्नालोइयं पडिक्कतं तं किं तए ण विनायं, एस उण पेच्छसि परूढविप्फोडगविम्हिया णाणा एते य संपयं चेव लोयट्ठाए सहत्थेण अदिन्नं छारगहणं कयं, तए च दिट्ठमेयं ति एसो उण पेच्छसि, परूढविप्पोडगं पेच्छसि, संघडियकल्लो पएणं अणुग्गए सूरिए उट्टेह, वच्चामो उग्गयं सूरियं ति तहा विहसियमिणं एसो उण पेच्छसि एसिं जिट्ठसेहो एसो अज्ज रय-णीए अणुवउत्तो पसुत्तो विजुक्काए फुसिओ ण एतेणं कप्प-गहणं कयं, तहा पभाए हरियतणं वासाकप्पं बलेणं संघ- ट्टियं, तहा बाहिरोदगस्स णं परिभोगं कयं, बीयकायस्सो-यरेणं फरिसं कओ अविहीए, एस खारथंडिलाओ महुरं थंडिलं संकमिओ, तहा पहपडि वन्ने णं साहुणा कम्मसुयाइ कम्मे इरियं पडिक्कमियव्वं, तहा चरेयवं, तहा चिट्टेयव्वं, तहा आसेयव्वं, तहा सएयव्वं, जहा छक्कायमइगयाणं जीवाणं सुहुमवायरपज्जत्तापज्जत्तगमागमसव्वजीवपाणभूयसत्ताणं संघट्टणपरियावणाकिलामणोद्दवणं वाण भवेजा। ता एतेसिंपव्वइयाणं एयस्स एकमवि ण एत्थ दीसइ, जे पुण मुहणंतगं पडिलेहमाणो अज्ज मए एस चोइओ-जहा एरिसं पडिलेहणं करेइ, जेण वाउक्कायस्स फट्ट
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________________ णाइल 1934 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णागकेउ फडस्स संघटेजा, सरियं च पडिलेहणाए संतियं कारणं ति जस्से रिसं, जइणं एरिसं सोवओगं बहु काहिसि संजमंण सं- / देहं जस्सेरिससमाउत्तत्तणं तुज्झं ति, एत्थ च तएहिं विणिवारिओ जहा णं मगोवाहीणं अम्हाणं साहहिं समं किंचि भणियव्वं कप्पे ता किमेयं ते विसुमरियं, ता भद्दमुह ! एएणं समं संज-मट्ठाणं नराणं एगमवि णो परिक्खियं, ता किमेस साहू भन्ने जा जस्सेरिसं पमत्तत्तणं, णो एस साहू जस्से रिसं णिद्धम्मसंपलत्तणं, भद्दमुह ! पेच्छ पेच्छ सूणो इव णित्तिं सो छक्कायणिमद्दणा कह अभिरमे एसो। अहवा वरं सूणो, जस्सणं सुहममवि नियवयभंग णो भवेजा, एसो उणियमभंग करेमाणो केणं उवमेजा, ता वच्छ ! सुमइ ! भद्दमुह ! ण एरिसकत्तव्वायरणाओ भवंति साहु, एतेहिं च कत्तट्वेहिं तित्थयरवयणं सरेमाणो को एतेसिं वंदणगमवि करेजा, अन्नं च एएसिं संसग्गेणं कयाइ अम्हाणं पि चरणकरणेसु सिढिलत्तं भवेजा, जेणं पुणो पुणो आहिंडिमो घोरभवपरंपरं / तओ भणियं सुमइणा, जहा ण एए कुसीला, जइ एए कुसीले तहा विमए एएहिं समं पव्वज्जा कायव्वा, जं पुण इमं कहेसि तमेव धम्म, णवरं को अजं तं असुकरं समायरिउं सक्को ? ता मए एतेहिं समं गंतव्वं जाव णो दूरं वयंति से साहुणो त्तिा तओ भणियं णाइलेण-भद्दमुह सुमइ ! णो कल्लाणं एतेहिं समं गच्छमाणस्स तुझं ति, अहयं च तुज्झं हियवयणं भणामि एवं, तए जं चेव बहुगुणं तमेवाणुसेवय, णाहं तए दुक्खेण धरेमि / अह अन्नया अणेगोवाएहिं पि णिवारिजंतो ण उ ठिओ सो मंदभग्गो सुमती, गोयमा ! पव्वइओ य / अह अन्नया वच्चंतेणं म सपंचगेणं आगओ महारोरवो दुवालससंवच्छरिओ दुब्भिक्खो, तओते साहुणो तक्कालदोसेण अणालोइयपडिकंता मरिऊण उववन्ने भूयजक्खरक्खसपिसायादीणं वाणमंतरदेवाणं वाहणत्ताए, तओ चविऊणं मच्छजातीए कुणिमाहारकूरज्झदसायदोसओ सत्तमाए, तओ उव्वट्टिऊणं तइयाए चउवीसिगाए संमत्तं पाविहिंति। तओ य संमत्तलब्भभवाओ तइए भवे चउरो सिज्झिहिंति, एगो ण सिज्झिहिइजो, सो पंचमगो सव्वजेट्ठो, जओ णं से एगंतमिच्छदिट्ठी अभ-व्वो य। महा० 4 अ० / ग० णाइवं त्रि०(ज्ञातिवत् ) ज्ञातिर्विद्यते यस्य स ज्ञातिवान्। स्वजनवति, "मित्तब णाइवं होइ।" उत्त० 4 अ०। णाइविगट्ठ त्रि०(नातिविकृष्ट) अनत्यन्तदीर्धे, विपा०१ श्रु० 3 अ०। णाइसंग पुं०(ज्ञातिसङ्ग) मातापितृकलत्राऽऽदिसङ्गे, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० 2 उ०। णाइसीय त्रि०(नातिशीत) न विद्यतेऽतिशयेन शीतं यत्र स नातिशीतः / अतिशीताऽऽबाधारहिते, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 1 उ०। णाउल्ल (देशी) गोमति, दे० ना० 4 वर्ग। गाउं अव्य०(ज्ञात्वा) विज्ञायेत्यर्थे, पञ्चा०६ विव० / विनिश्चित्येर्थे, आ० म०१ अ० 1 खण्ड। णाऊण पुं०(ज्ञात्वा) विज्ञायेत्यर्थे, प्रा० 4 पाद / माग पुं०न०(नाक) स्वर्गे, ध०२ अधि०। *नागपुं०। भवनपतिविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। प्रव० / जी०। औ० / अनु०। नागकुमारे, नं०। भ० / ज्ञा० / स०। हस्तिनि, भ० 12 श०८ उ० / नागवेशप्रसृते, औ० / ज्ञा० / उत्त० / आ० के० / प्रज्ञा० / सर्प, औ० / भद्रिलपुरे नगरे सुलसयाः श्राविकोत्तमायाः पत्यौ, आ० म०१ अ० 2 खण्ड / स्था०। अन्त०। कल्प० / आव०। आर्यरक्षस्य शिष्ये स्वनामख्याते आचार्ये, कल्प० 8 क्षण / द्रुमविशेषे, रा०। कल्प० / आचा० / ध्रुवकरणानां चतुष्पदाऽऽदीनामन्यतमे, सूत्र० 1 श्रु० 101 उ०। ज०। विशे० / कल्प० / स्वनामख्याते द्वीपभेदे, समुद्रभेदे च। सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 3 उ० / नागकेशरे, नागदन्तके, मुस्तके, देहस्ये उद्गारकारके पवनभेदे, पर्वतभेदे, रङ्गे, सीसके च / वाच०। णागकुमार पुं०(नागकुमार) नागाश्च ते कुमाराश्च नागकुमाराः। प्रज्ञा०१ पद। द्वितीयभवनपतिषु, स्था०३ ठा० 4 उ० / प्रज्ञा० / स्या०। स० / (नागकुमारवक्तव्यताऽन्यत्र) णागके उ पुं०(नागकेतु) चन्द्रकान्तानगरीराजविजयसेननृपसख श्रीकान्तव्यवहारिभार्यायाः श्रीसख्याः सुते, येन हि स्तनन्धयेनापि पर्युषणायामष्टमं तपश्चक्रे, (कल्प०) चन्द्रकान्ता नगरी, तत्र विजयसेनो नाम राजा, श्रीकान्ताख्यश्च व्यवहारी, तस्य श्रीसखी भार्या, तया च बहुप्रार्थित एकः सुतः प्रसृतः / स च बालक आसन्ने पर्युषणापर्वणि कुटुम्बकृतामष्टमवार्तामाकर्ण्य जातजातिस्मृतिः स्तन्यपोऽप्यष्टम कृतवान् / ततस्तं स्तन्यपानमकुर्वाण पर्युषितमालतीकुसुममिव म्लानमालोक्य मातापितरावनेकान् उपायाँश्चक्रतुः / क्रमाच मूर्छा प्राप्त तं बालं मृतं ज्ञात्वा स्वजना भूमौ निक्षिपन्ति स्म / ततश्व विजयसेनो राजा तं पुत्रं तदुःखेन तत्पितरं च मृतं विज्ञाय तद्वनग्रहणाय सुभटान् प्रेषयामास / इतश्च अष्टमप्रभावात् प्रकम्पिताऽऽसनो धरणेन्द्रः सकलं तत्स्वरूपं विज्ञाय भूमिष्ठ तंबालकममृतच्छटया आश्वास्य विप्ररूपं कृत्वा धनं गृहतस्तान निवारयामास। तत् श्रुत्वा राजाऽपि त्वरितं तत्रागत्योवाचभो भूदेव ! परम्पराऽऽगतमिदमस्माकमपुत्रधनग्रहणं कथं निवारयसि ? धरणोऽवादीत्-राजन्! जीवत्यस्य पुत्रः / कथं कुत्रास्तीति राजाऽऽदिभिरुक्तः / भूमेस्तं जीवन्तं बालकं साक्षात्कृत्य निधानमिव दर्शयामास / ततः सर्वैरपि सविस्मयैः स्वामिन् ! कस्त्वं कोऽयमिति पृष्ट सोऽवदत्-अहं धरणेन्द्रो नागराजः कृताष्टमतपसोऽस्य महात्मनः साहाय्यार्थमागतोऽस्मि / राजाऽऽदिभिरुक्तम्-स्वामिन् ! जातमात्रेणानेन अष्टमतपः कथं कृतम् ? धरणेन्द्र उवाच-राजन् ! अयं हि पूर्वभवे कश्चिद्ध-णिक्पुत्रो बाल्येऽपि मृतमातृक आसीत् , स च अपरमात्राऽत्यन्तं पीड्यमानो मित्राय स्वदुःखं कथयामास। सोऽपि त्वया पूर्वजन्मनि तपो न कृतं तेनैवं पराभवं लभसे इत्युपदिष्टवान् / ततोऽसौ
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________________ णागकेउ 1935 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णागज्जुण यथाशक्ति तपोनिरत आगामिन्यां पर्युषणायामवश्यमष्टमं करिष्या-मिति मनसि निश्चित्य तृणकुटीरे सुष्वाप / तदा च लब्धावसरया विमात्रा आसन्नप्रदीपनकादग्निकणस्तत्र निक्षिप्तः तेन च कुटीरके ज्वलिते सोऽपि मृतः, अष्टमध्यानाच अयं श्रीकान्तमहेभ्यनन्दनो जातः / ततोऽनेन पूर्वभवचिन्तितमष्टमतपः साम्प्रतं कृतं, तदसौ महापुरुषो लघुकर्माऽस्मिन् भवे मुक्तिगामी यत्नात् पालनीयः, भवतामपि महते उपकाराय भविष्यतीति उक्त्वा नागराजः स्वहारं तत्कण्ठे निक्षिप्य स्वस्थानं जगाम / ततः स्वजनैः श्रीकान्तस्य मृतकार्य विधाय तस्य नागकेतुरिति नाम कृतं, क्रमाच स बाल्या-दपि जितेन्द्रियः परमश्रावको बभूव। एकदा च विजयसेनराजेन कश्चिद् अचौरोऽपि चौरकलन हतो व्यन्तरो जातः समग्रनगरवि-घाताय शिलां रचितवान् , राजानं च पादप्रहारेण रुधिरं वमन्तं सिंहाऽऽसनाद् भूमौ पातयामास / तदा स नागकेतुः कथमिमं सङ्घ-प्रासादविध्वंसं जीवन् पश्यामीति बुद्ध्या प्रासादशिखरमारुह्य शिलां पाणिनाद / ततः सव्यन्तरोऽपितत्तपः-शक्तिमसहमानः शिलां संहृत्य नागकेतुंनतवान्। तद्वचनेन भूपालमपि निरुपद्रवं कृतवान्। अन्यदा च नागकेतुर्जिनेन्द्रपूजां कुर्वन् पुष्पमध्यस्थितसर्पण दष्टोऽपि तथैवाऽव्यग्रो / भावनाऽऽरूढः केवलज्ञानमासादितवान्, ततः शासनदेवताऽर्पितमुनिवेषश्चिरं विहरति स्म। कल्प०१क्षण। णागकेसरपुं०(नागकेशर) स्वनामख्याते पुष्पप्रधाने वनस्पती, वाच०। आव०। णागग्गह पु०(नागग्रह) नागावेशोत्थे ज्वराऽऽदौ, जी०३ प्रति०। णागघर न०(नागगृह) उरगप्रतिमायुक्ते चैत्ये, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। णागजण्ण पुं०(नागयज्ञ) नागपूजायाम् नागोत्सवे, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। णागजसास्त्री०(नागयशस्) पन्थकपुत्र्यां ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाम् उत्त० 13 अ०। णागजुण पुं०(नागार्जुन) हिमवदाचार्याणां शिष्ये, (20) मिउमद्दवसंपण्णे, अणुपुटिव वायगत्तणं पत्ते। ओहसुयसमायारे, नागजुणवायण वंदे / / 40 // (मिउ इत्यादि) मृदुमार्दवसंपन्नान् मृदु कोमलं मनोज्ञ सकलभव्यजनमनःसन्तोषहेतुत्वाद् यन्मार्दवं चोपलक्षणं, तेन क्षान्तिमार्दवाऽऽर्जवसन्तोषसंपन्नानिति द्रष्टव्यम् / तथा आनुपूर्त्या वयः पर्यायपरिपाट्या वाचकत्वं प्राप्तान् ; इदं च विशेषणमैदयुगीनसूरीणां सामाचारीप्रदर्शनपरमवसेयम्। (नं०) तथा ओघश्रुतसमाचारकान् ओघश्रुतमुत्सर्गश्रुतमुच्यते, तत्समाचरन्ति येते ओघश्रुतसमाचारकाः, तान् नागार्जुनवाचकान् वन्दे / 40 / / नं०।। आचाराङ्गाऽऽदिषु, नागार्जुनीयाना पाठभेदोऽस्ति, स च नागार्जुनोऽयमेवेति प्रतीयते / अन्योऽपि पादलिप्तसुरीणां शिष्यः श्रावको महाप्रभावकः सिद्धनागार्जुननामा आसीत्। तत्कथा चैवम्"पुरमन्थि पाडलिपुरं, गंधियहट्ट सुरहिगंधड्ड! तत्थ मुरडो निवई, ईसरसयसहस्सनमियकमो॥१॥ कयमयणदमो बहुसुद्धआगमो संगभु त्ति वरसूरी। दूरीकयपावभरो, विहरतो तत्थ संपत्तो॥२॥ गुणवुड्डिभावकलिओ, सकिरियालंकिओ राइरसहो। लक्खणगंथु व्व सम-त्थि तस्स एगो पवरसीसो॥३॥ सो बालो वि अबाल-प्पइभागुणरयणरोहणसमाणो। आणिय चउत्थरसियं, कया वि इय कहइ गुरुपुरओ।। 4 / / अंबं तंबच्छीए, अपुप्फियं-पुप्फदंतपंताए। नवसालिजियं नव-बहूइ कुडएण मे दिन्नं / / 5 / / तो गुरुणा संलत्तो, वच्छ ! पलित्तो सि पढसि जं एवं। सो आह मह विहिजउ, आयारेणं पसाउ ति॥६॥ तह विहिए गुरुणा तो, जणेण पाणित्तओ ति सो वुत्तो। बहुसिद्धिजुओ वाई, ठविओ सूरीहिँ निययपए॥७॥ कइया वि वसहिबाहिं, वक्खित्तो सो कहिं वि कजम्मि। जा चिट्ठइ तातहिय, संपत्ता वाइणो के वि।।८।। पुच्छति सूरिनिलयं, कहइ इमो वंकदीहरपहेण। कालविलंबकए लहु, वसहीइ सयं पुणो पत्तो॥ 6 // दाउ कवाडे कवडेण सुवइजा मुणिवरो तहिं ताव। पत्ता वाई पुच्छति कत्थ पालित्तओ सूरी॥ 10 // अह पभणति विणेया, सुहं सुहेणं सुवंति किर गुरुणो। उवहासकए विहिओ, कुक्कुडसद्दो तओ तेहिं॥११॥ गुरुणा वि विरालीए. सद्दो विहिओ कहति तो एए। लीलाइ तए जिणिया, अम्हे सव्ये वि मुणिनाह ! // 12 // दिजउ दंसणमिहि, तो लहु उद्वेइ सो तयं लहुयं। दटुं तजिणणत्थ, पवाइणो इय पयंपंति।।१३।। पालित्तय ! कहसु फुड, सयलं महिमंडलं भमंतेण। दिट्टो कह वि सुओ वा, चंदणरससीअलो अग्गी / / 14 / / " श्रीकालः सूरिराजो नमिविनमिकुलोत्तंसरत्नायमानस्तच्छिष्यो वृद्धवादी द्विजकुलतिलकः सिद्धसेनो बभूव। बिभ्राणः कूटनिद्रां कपट इति जने विकृतो विश्वरूपः, संजातः संगमोऽयं तदनु च गणभृत् पादलिप्तस्ततोऽहम् / / 15 / / " इय जिणपवयणनहयल-ससिणो वरवाइणो महाकविणो। कहियनियपुव्वपुरिसे, भणियं पालित्तएणेयं / / 16 / / अयसाभिधायअभिदु-म्मियस्स पुरिसस्स सुद्धहिययस्स। होइ वहंतस्स पुणो, चंदणरससीयलो अगी।॥ 17 // इय निजिणिया वाए, अपचवाए वि वाइणो गुरुणो। णवरसतरंगलोला, तरंगलोलाकहा य कया / / 18 // समिया य सिरोवियणा, अट्टस्स मुरुंडराइणो तह य। विहियं तं पहुसं (पडम) जं, अज्ज वि कइणो न पावंति॥ 16 // तथाहिदीहरफणिंदनाले, महिहरकेसरदिसामुहदलिल्ले। उअ पिअइ कालभमरो, जणमयरंदं पुहइपउमे।। 20 // जेलद्धलक्खभावेण सूरिणा गूढसुत्तमाईया। नाया बहुया भावा, वित्थरगंथाउते नेया।।२१।। अट्टमिमाईपव्वसु, पालित्तो लेविऊण नियचलणे। रेवयविमलगिरीसुं, वंदइ देवे नहपहेणं // 22 // पुनश्चइत्तो सुरट्ठविसए, अजुणरससिद्धिलद्धमाहप्पो। सव्वत्थ लद्धलक्खो, जोगी णागज्जुणो अस्थि // 23 // सो दटु भणइ सूरिं, वियरसु नियपायलेवसिद्धि मे। गिण्हेसु मज्झ कंचण-सिद्धिं तो भणइ मुणिपवरो।। 24 / / भो कंचणसिद्ध ! अकिंचणस्स मह कंचणरस सिद्धीए। किं कज्जमवजाए, कंचणसिद्धा वि किं वऽस्थि? / / 25 / /
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________________ णागजुण 1936 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णागराइ तुह पायलेवसिद्धि, सावजं तेण न हुपयच्छेमि। जं सावजुवएसो, मुणीण नो कप्पए भद्द! / / 26 / / तत्तो इमो विलक्खो, सुलद्धलक्खो लहुं पि सिक्खेइ। समणोवासगकिरियं, चिइवंदणवंदणाईयं / / 27 // तित्थागयाण सूरीण वंदण देइ चरणकमलेसु। कुसलत्तणेण पुरओ, ठाउं सव्वेसि सड्डाणं / / 2 / / गुरुचरणं तो काउं, नियमउलि नमइ तयणु गंधण। लक्खइ स लद्धलक्खो, सत्तुत्तरमोसहीण सयं / / 26 / / तेणं ओसहिनियरेण पायले सयं कुणइ एसो। तव्वसओ गयणे कुकुडुव्व उप्पडइपडइ पुणो // 30 // पुणरागएण गुरुणा, दिट्ठो पुट्ठोय कहइ सो एवं। पहु ! तुह पायपसायं, गंधेण मए इमं नायं / / 31 // पहु ! पसिव कहसु सम्मं, जोगं जेणं हवेमि सुकयत्थो। गुरुउवएसेण विणा, जम्हा ण हवंति सिद्धीओ।।३२॥ तो चिंतइ मुणिणाहो, सुलद्धलक्खत्तणं इमस्स अहो! जं हेलाए नाओ, धम्मो तह ओसहिगणो य॥ 33 // अन्नं पि इभो नाही, सुहेण इय चिंतिउं भणइ सूरी। जइ होसि मज्झ सीसो, कहेमि तो तुह अहं जोगं / / 34 // सो आह नाह! नाहं, सत्तो जइधम्मभारमुव्यहिउँ। किंतु पहु ! तुह समीवे, गिहत्थधम्म पवजिस्सं / / 35 / / एवं करेसु इय भणि-य सूरिणा गाहिओ इमो सम्म। सम्मत्तमूलममल, गिहिधम्म पणिओ य इमं / / 36 / / सट्टियते दुलसलिलेण कुणसुतं पायलेवमेयं ति। कुणइ तह चियमेसो, जाया नहगमणलद्धी से / / 37 / / तीए पभावओ सो, वंदइ उजिंतमाइसु जिणिंदे। पालित्ता णं च पुरं, संठावइ सूरिनामेणं 1138 // गिरिनारगिरिसमीवे, तुरगसुरंगा दसारमंडवओ। चेइपमुहं विहियं, तेणं नेमिस्स भत्तीए॥३६॥ एवं निहत्थधम्म, जिणसासणउण्णइंवकाऊण। इह परलोए कल्लाण-भायणं एस संजाओ।। 40 / / नागार्जुनस्येति फलं विशिष्ठ, सलब्धलक्ष्यस्य निशम्य सम्यक्। गुणेऽत्र निःशेषगुणप्रधाने, कृतप्रयत्ना भविका भवन्तु " / / 41 // ध०र० / आ० क० / स्वनामख्याते काञ्च्यामिभ्यधनेश्वरे, " काञ्च्यामिभ्यधनेश्वरेण महता, नागार्जुनेनाऽर्चितः। पायात्स्तम्भनके पुरे स भवतः, श्रीपार्श्वनाथो जिनः॥१॥" ती०५ कल्प। णागणिय न०(नाग्न्य) निर्ग्रन्थभावे संयमानुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। णागदंत पुं०(नागदन्त) गजदन्ते, तदाकारे गृहान्निर्गते नकुण्टके, अड्कुट के, जी० 3 प्रति० / रा० / (वर्णकस्तु ' विजय ' शब्दे विजयद्वारस्य नैषेधिकीवक्तव्यताऽवसरे वर्णयिष्यते) णागदत्त पुं०(नागदत्त) स्वनामख्याते राजपुत्रे, स च पूर्वभवे क्षुल्लक साधुः कोपेन मृतो ज्यौतिष्केषूपपद्य ततश्च्युतो राजसुततयो-त्पन्नः प्रव्रजितः कोपरूपं भावापायं परिहृत्य केववलीभूय सिद्धः / स्था०३ | ठा० 4 उ० / दश०। (' अपाय ' शब्दे प्रथमभागे 803 पृष्ठे अस्य सर्वो वृत्तान्त उदाहृतः) ऋषभपुत्राणामन्यतमे, कल्प०७ क्षण / | प्रतिष्ठानपुरवास्तव्यनागवसुश्रेष्ठिनः सुते, आ० क० / आव०। आ० चू०। / (स च प्रव्रज्याऽयोग्योऽपि सन् निष्प्रतिकर्मतां गृहीत्वा पतित इति' णिप्पडिकम्म(ण)' शब्दे उदाहरिष्यते) नागदैवता-ऽऽराधनाल्लब्धे लक्ष्मीपुरवास्तव्यदत्तश्रेष्ठिपुत्रे, आ० क० / आव० आ० चू० / आo म० / (स च गन्धर्वकलानिपुणो गन्धर्वनागदत्त इति ख्यातः सर्पक्रीडापरः पूर्वभवमित्रदेवसपैश्चिक्रीडेति कषाय-प्रतिक्रमणे ' पडिक्कमण' शब्दे उदाहरिष्यते) बलराजभार्यायाः सुभद्राया आत्मजस्य महाबलकुमारस्य पूर्वभवसत्कजीवे मणि-नगरवास्तव्ये स्वनामख्याते नरे, विपा०२ श्रु० 7 अ०। णागदार न०(नागद्वार) ती० 6 कल्प। सिद्धायतनानां पश्चिमदिवस्थे नागावासभूते द्वारे,स्था० 4 ठा०२ उ०। णागधर पुं०(नागधर) हस्तिधारकपुरुषे, औ०। णागपडिमा स्त्री०(नागप्रतिमा) नागदैवतप्रतिमायाम् ," तेसि ण जिणपडिमाणं पुरओ दो दो नागपडिमाओ पण्णत्ताओ।" जी०३ प्रति० / णागपरियावणिया स्त्री०(नागपरिज्ञा) नागा नागकुमारास्तेषां परिज्ञा यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा नागपरिज्ञा। कालिकश्रुतभेदे, तस्याश्चेयं चूर्णिकृता उपदर्शिता भावना-" जाहे तमज्झयणं समणे णिमाथे परियट्टइ ताहे अकयसंकप्पस्स चित्ते नागकुमारा तत्थत्था चेव तं समणं परियाणंति वंदति नमसति बहुमाणं च करेंति सिंगनादित-कजेसुयवरदा भवंति!" नं०। पा०। णागपव्वय पुं०(नागपर्वत) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमेन शीतोदाया महानद्या उत्तरेण वक्षस्कारपर्वते, स्था०५ ठा०२ उ०।" दो णागपव्वया / " स्था० 2 ठा०३ उ० / जं०। णागपुप्फ न०(नागपुष्प) नागकेशरकुसुमे, जं० 4 वक्षः। णागपुर न०(नागपुर) हस्तिनापुरे राजधानीलक्षणे कुरुजनपद प्रधाननगरे, स्था० 10 ठा०। ज्ञा०। णागवल्ली स्त्री०(नागवल्ली) ताम्बूलीलतायाम् , आचा० 1 श्रु०८ अ० 1 उ०। णागभद्दपुं०(नागभद्र) सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। नागद्वीपाधिपतौ देवे, सू० प्र० 16 पाहु० / चं० प्र०। णागभूय न०(नागभूत) स्थविरादार्यरोहणान्निर्गतस्य उद्देहगणस्य प्रथमे कुले, कल्प०८क्षण। णागमह पुं०(नागमह) नागदेवताके उत्सवे, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ० 2 उ०। णागमहाभद्द पुं०(नागमहाभद्र) नागाऽऽख्यद्वीपाधिपतौ देवे, सू० प्र० 16 पाहु०। चं० प्र०। णागमहावर पुं०(नागमहावर) नागसमुद्राधिपतौ देवे, सू०प्र०१६ पाहु० / च०प्र० णागमित्त पुं०(नागमित्र) आर्यमहागिरिशिष्याणामन्यतमे, स्था० 3 ठा० 4 उ०। णागर पुं०स्त्री०(नागर) नगरवासिनि, कल्प०३क्षण। आ० म०। प्रश्नः / देवरे, नागरों, जम्वरभेदे, वाच०। णागराइ पुं०(नागराज) नागकुमारे, " वेलंधरनागराईणं " स०१७ सम० / स्था० / अष्ट० / अनन्ते, सर्प, ऐरावते, गजे चा वाचा
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________________ णागरिय 1937- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण णागरिय त्रि०(नागरिक) नगरधर्मेरुपयुक्ते, सूत्र० 2 श्रु०७ अ०। तथा ह्यपयशःप्रधानानामपारसंसारसरित्पति- स्रोतःपतितानां जागरुक्ख पुं०(नागवृक्ष) स्वनामख्याते वृक्षभेदे, "णागरुक्खे परममुनिजनोपधृतलिङ्गविडम्बकानाम् अलं सन्तानपरिवृद्धयेति। केषां भुयंगाणं / ' स्था०८ ठा० / प्रज्ञा० / स०। संबन्धी वाचकवंशः परिवर्द्धतामित्यादि। आर्यनागहस्तिनामार्य णागलया स्त्री०(नागलता) तिर्यक्शाखाप्रसराभावाद् लताकल्पेषु नन्दिलक्षपणशिष्याणाम् / कथंभूताना-मित्याह-व्याकरणकरणभङ्गी कर्मप्रकृतिप्रधानाना, तत्र व्याकरणं संस्कृतशब्दव्याकरणं, प्राकृतशब्दद्रुमविशेषेषु, ज०१ वक्ष०ारा०। जी०। प्रज्ञा०ा यस्य तिर्यक् तथाविधा व्याकरणं, प्रश्नव्याकरणं च; करणं पिण्डविशुद्ध्यादि / उक्तं च-" शाखा प्रशाखा वा न प्रसूता सा लतेत्यभिधीयते / रा० जी०। औ०। पिंडविसोही 4 समिई 5, भावण 12 पडिमा य 12 इंदियनिरोहो 5 / प्रज्ञा०। पडिलेहण 25 गुत्तीओ 3, अभिग्गहा 4 चेव करणं तु " // 1 // भगी णागलयामंडवग पुं०(नागलतामण्डपक) नागलतामयमण्डपके, जी० भङ्गबहुलं श्रुतं, कर्मप्रकृतिः प्रतीता / एतेषु प्ररूपणामधिकृत्य 3 प्रति प्रधानानाम् / न० / आ० चू०। णागलोगेस पुं०(नागलोकेश) उरगपतौ, अष्ट० 20 अष्ट० / णागिंद पुं०(नागेन्द्र) नागराजे नागकुमाराणामिन्द्रे, "असुरिंदणागवर पुं०(नागवर) प्रधानगजे, औ० / जं० / गजवरे, तं० / हस्ति- | सुरिंदणागिंदा / " स० / स्वनामख्याते साधुकुले, "नागेन्द्रगच्छप्रधाने, भ० 6 श०३३ उ० / नागसमुद्राधिपतौ देवे, सू०प्र० 16 पाहु०। / गोविन्दवक्षोऽलङ्कारकौस्तुभाः। ते विश्ववन्द्यानन्द्यासु-रुदय-प्रभसूरयः चं०प्र०। // 6 // ' स्या० / तदुत्पत्तिश्च महा दुर्भिक्षान्ते पोतद्वारा धान्यागमने णागवसु पुं०(नागवसु) प्रतिष्ठानपुरे नागश्रियाः पत्यौ नागदत्तपितरि, आ० जाते जिनदत्तः श्रावको नागेन्द्रनामपुत्रसहितो वज्रसेनसूरीणामन्तिके क० / आव० / आ० चू०। दीक्षां जग्राह, ततो नागेन्द्रशाखा प्रवृत्तेति भाति / कल्प० 8 क्षण। णागवाण पुं०(नागवाण) दिव्याश्वभेदे, जी० 3 प्रति०। णागिल पुं०(नागिल) कुमारनन्दिनः स्त्रीलोलसुवर्णकारस्य मित्रे श्रमणोपासके, आ० म०१ अ० 2 खण्ड / गच्छविशेषाश्रितेषु साधुषु, णागवीही स्त्री०(नागवीथी) हयवीय्या, ऐरावणपदे, " भरणीस्वा कल्प०८ क्षण / यथा नागिला रजोहरणमूर्ध्वमुखं कृत्वा कायोत्सर्ग त्याग्नेयं, नागाख्या वीथिरुत्तरे मार्गे।'' स्था०६ ठा०। कुर्वन्ति / व्य० 1 उ० / धातकीखण्डपूर्वविदेहेषु नन्दिग्रामपती णागसहस्सी स्त्री०(नागसाहस्री) नागकुमारदेवसहस्रे, स०७२ सम० / ललिताङ्गदेवदेव्याः स्वयंप्रभायाः पूर्वभवजीवनिर्नामिकायाः पितरि, नागिलभार्यायां निनामिकाया मातरि, आ० के० / आ० चू० / आ० म०। आ० क०। जागसिरी स्त्री०(नागश्री) प्रतिष्ठाननगरवास्तव्यनागवसुश्रेष्ठिभार्यायां, णागी स्त्री०(नागी) सर्पिण्याम , "मायामई अ णागी, णियडिकवडनागदत्तमातरि, ज्ञा०१ श्रु०१४ अ०। चम्पानगरवास्तव्यसोमद्विजस्य वंचणाकुसला / '' मायाऽऽत्मिका नागी निकृतिकपटवञ्चनाकुशला। भार्यायाम, यथा धर्मरुचये विषयुक्तान्नं दत्तं पश्चाद् भवेषु भ्रान्त्वा आव०४ अ०। द्रौपदीजन्म लब्धम् / आ० क० / आ० चू०1 णाडइजन०(नाटकीय) नाटकप्रतिबद्धपात्रे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विपा० / णागसुदाढ पुं०(नागसुदाढ) सुदाढनामके नागकुमारे, स च पूर्वभवे णाडइणी स्त्री०(नाटकिनी) नर्तक्याम् , बृ०३ उ० / तत्प्रतिपादके श्रुते सिंहरित्रपुष्टन विदारितो नागकुमारतयोपपन्नो वीरजिनाधिष्ठितां नावं च। स्था० 6 ठा० / संथा० / जं०। अनु०। आ० म०। (द्वात्रिं-शद्विधिभिन्न बोलितुमारब्धः / आ० क० / नाटक ' नट्ट 'शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1768 पृष्ठ उक्तम्) णागसुहम न०(नागसूक्ष्म) स्वनामख्याते मिथ्यादृक्परिकल्पिते श्रुते, / णाडग न०(नाटक) अभिनयविशेषे, बृ०। तचेदानी नोपलभ्यते / अनु० / गर्ल्ड होइ अगीयं, गीयजुयं नाडयं तु णायव्वं / णागसेण पुं०(नागसेन) उत्तरचावालायां जाते स्वनामके गृहपतौ, सच इहागीतंगीतविरहितं नाट्यं भवति, यत्पुनर्गीतयुक्त तन्नाटकं ज्ञातव्यम्। उत्तरचावालायां स्वामिनं क्षीरेण प्रतिलम्भितवान् पक्ष दिव्यानि बृ०१3०1 जातानि / कल्प०६ क्षण / आ० क० / आ० म० / आ० चू० / णाहीय पुं०(नाडीक) नाडीवद्यस्य फलानिस नाडीकः / वनस्पति-विशेषे, गागहत्थि(ण) पुं०(नागहस्तिन् ) आर्यनन्दिलक्षपणशिष्ये, (न०) भ०१० श०७ उ०। वडउ वायगवंसो, जसवंसो अञ्जनागहत्थीणं / णाण न० (ज्ञान) ज्ञातिर्ज्ञानम् , भावेऽनट्प्रत्ययः। अथवा ज्ञाय- ते वस्तु वागरणकरणभंगिय-कम्मप्पयडीपहाणाणं / / 34 / / परिच्छिद्यतेऽनेनेति ज्ञानम् , करणेऽनट्। नं० / पा० / अनु०। नि० चू० / (वडउ इत्यादि) विनेयान् वाचयन्तीति वाचकाः, तेषां वंशः क्रम- पं० सं०। सम्म० / कर्म०।"ज्ञो जाणमुणौ "|||4 / 7 / / इति भाविपुरुषपूर्वप्रवाहः, स वर्द्धतां वृद्धिमुपयातु, मा कदाचिदपि तस्य जानातेणिमुणाऽऽदेशस्य बाहुलकत्वा-न्न मुणाऽऽदेशः। प्रा० 4 पाद। वृद्धिमुपगच्छतो विच्छेदो भूयादिति यावत्। वर्धतामित्यत्राऽऽशं-सायां "म्नज्ञोणः ।।८।२।४२॥इति ज्ञभागस्य णादेशः। प्रा०२पाद / पञ्चमी। कथंभूतो वाचकवंशः ? इत्याह-यशोवंशो मूर्तो यशसा वंश इव उत्त०। विमर्शपूर्वके बोधे, उत्त० 1 अ० संविज्ञानमवगमो भावोऽभिप्राय पर्वप्रवाह इव यशोवंशः, अनेनापयशःप्रधानपुरुष-वंशव्यवच्छेदमाह। इत्यन-र्थान्तरम् / आ० म०१ अ० 1 खण्ड / व्य० / यथास्थि
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________________ णाण 1938 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण तपदार्थपरिच्छेदने, आचा०१ श्रु०३ अ०१उ०। द्वा०। अष्ट। स्था०1 द्रव्यपर्यायविषये बोधे, स्था० 3 ठा०२ उ० / विशेषावबोधे, औ० / अष्ट० / स्वपरपरिच्छेदिनि जीवस्य परिणामे ज्ञानाऽऽवरणविगमय्यक्ते तत्त्वार्थपरिच्छेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ०। अष्ट। स्था०। औ०। सत्त्वप्रधानायां बुद्धिवृत्तौ, द्वा० 2 द्वा० / (1) पर्यायार्थिकस्य विशेष एवं वस्तु. स एव गृह्यते येन तज्ज्ञानमभिधीयते।" विसेसियं नाणं / " सम्म०२ काण्ड। ज्ञातिनि-मिति भावसाधनः, संविदित्यर्थः / ज्ञायतेवाऽनेनारमावति ज्ञानं, तदावरणस्य क्षयः, क्षयोपशमो वा / ज्ञायते वाऽस्मिन्निति ज्ञानमात्मा, तदावरणक्षयक्षयोपशमपरिणामयुक्तो, जानातीति वा ज्ञानम् / स्था०५ ठा०३ उ०।" एगेणाणे। "नं०। आ० म०। ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनाऽस्मिन् अस्मातेति ज्ञानं ज्ञानदर्शनाऽऽवरणयोः क्षयः, क्षयोपशमो वा, ज्ञातिर्वा ज्ञानमावरणद्वयक्षयाऽऽद्याविभूत आत्मपर्यायविशेषः / सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि विशेषांशग्रहणप्रवणः सामान्यांशग्राहकश्च ज्ञानपञ्चकाज्ञानत्रयदर्शनचतुष्टयरूपः, तच्चानेकमप्यवबोधसामान्यात्, एकमुप-योगापेक्षया वा। तथाहि-लब्धितो बहूना बोधविशेषाणामेकदा संभवेऽप्युपयोगत एक एव संभवत्येकोपयोगत्वाद् जीवानामिति। स्था० 1 ठा० / उत्त०। (2) ज्ञानानिणाणं पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा-आमिणिबोहियणाणं, सुयणाणं, ओहिणाणं, मणपज्जवणाणं, केवलणाणं / (णाणं पंचविहं पण्णत्तमित्यादि) ज्ञातिनि, भावेऽनट्प्रत्ययः / अथवाज्ञायते वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेति ज्ञानं, करणेऽनट् / शेषास्तु व्युत्पत्तयो मन्दमतीनां समोहहेतुत्यान्नोपदिश्यन्ते। पञ्चेति संख्यावाचकः, विधानं विधा, "उपसर्गादातः"॥५।३।११०॥ इत्यङ्प्रत्ययः। पञ्च विधाः प्रकारा यस्य तत्पञ्चविधं पञ्चप्रकार, प्रज्ञप्तं प्ररूपितं, तीर्थकरगणधरैरिति सामर्थ्यादवसीयते, अन्यस्य स्वयं प्ररूपकत्वेन प्ररूपणासंभवात्।नं०। ज्ञानं तीर्थकरैरपि सक-लकालाविलम्बिसमस्तवस्तुस्तोमसाक्षात्कारिकेवलप्रज्ञया पञ्च-विधमेव प्राप्त,गणधरैरपि तीर्थकृभिरुपदिश्यमानं निजप्रज्ञया पञ्चविधमेव प्राप्त, न तु वक्ष्यमाणनीत्या विभेदमेवेति / अथवा-प्राज्ञात्तीर्थकरादाप्तं प्राज्ञाप्तं, गणधरैरिति गम्यते। अथवा-प्राज्ञैगणधरैराप्त तीर्थकरादित्यनुमीयते; तद्यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः / आभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं, मनःपर्यायज्ञानं, केवलज्ञानं च। नं०। भ० / रा०। कर्म०। सूत्र० / ध०र० / विशे०। आ० म० / आतु० / प्रव० / दर्श०। अनु०।। (३)ज्ञानभेदकारणानिननु सकलमपीदं ज्ञानं ज्ञप्त्येकस्वभावं, ततो ज्ञप्त्येकस्वभावत्याविशेषे किंकृत एष अभिनिबोधिकाऽऽदिभेदः ? ज्ञेयभेदकृत इति चेत्।। तथाहि-वार्तमानिकं वस्त्वाभिनिबोधिकस्य ज्ञानस्य ज्ञेयं, त्रिकालसाधारणः समानः परिणामो ध्वनिगोचरः श्रुतज्ञानस्य, रूपिद्रव्याणि अवधिज्ञानस्य, मनोद्रव्याणि मनःपर्यायज्ञानस्य, समस्तपर्यायान्वितं सर्व वस्तु केवलज्ञानस्य। तदेतदसमीचीनम् / एवं सति के वलज्ञानस्य भेदबाहुल्यप्रसक्तेः / तथाहि-ज्ञेयभेदाद् ज्ञानस्य भेदः / यानि च ज्ञेयानि प्रत्येकमाभिनिबोधि-काऽऽदिज्ञानानामिष्यन्ते तानि सर्वाण्यपि केवलज्ञानेऽपि विद्यन्ते, अन्यथा केवलज्ञानेन | तेषामग्रहणप्रसङ्गादविषयत्वात्, तथा च सति केवलिनोऽप्यसर्वज्ञत्वप्रसङ्गः, आभिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानचतुष्टयविषयजातस्य तेनाग्रहणात्। न चैतदिष्टमिति। अथोच्येत-प्रति-पत्तिप्रकारभेदतः आभिनियोधिकाऽऽदिज्ञानभेदः / तथाहि-न यादृशी प्रतिपत्तिराभिनिबोधिकस्य ज्ञानस्य तादृशी श्रुतज्ञानस्य, किन्त्वन्यादृशी। एवमबध्यादिज्ञानानामपि प्रतिपत्तव्यं, ततो भवत्येव प्रतिपत्तिभेदतो ज्ञानभेदः / तदप्ययुक्तम्। एवं सत्येकस्मिन् अपि ज्ञानेऽनेकभेदप्रसक्तेः / तथाहि-तत्तद्देशकालपुरुषस्वरूप-भेदेन विविच्यमानमेकैकं ज्ञानं प्रतिपत्तिप्रकारानन्त्य प्रतिपद्यते, तन्नैषोऽपि पक्षः श्रेयान् / स्यादेतत् , अस्त्यावारकं कर्म, तच्चानेक-प्रकारं, ततस्तद्भेदात्तेनावार्य ज्ञानमप्येकतां प्रतिपद्यते, ज्ञाना-वारकं च कर्म पञ्चधा, प्रज्ञापनाऽऽदौ तथाऽभिधानात। ततो ज्ञान-मपिपञ्चधा प्ररूप्यते, तदेतदतीव युक्त्यसङ्गतम्।यत आवार्यापेक्षमायारकमत आवार्यभेदादेव तद्भेदः, आचार्य च ज्ञप्तिरूपा-पेक्षया सकलमप्येकरूपं, ततः कथमावारकस्य पश्चरूपता, येन तदभेदाद् ज्ञानस्यापि पञ्चविधो भेद उद्गीर्येत? अथ स्वभावत एवाऽऽभिनिबोधाऽऽदिको ज्ञानस्य भेदो, न च स्वभावः पर्यनुयोगमश्नुते. न खलु किमिह दहनो दहति, नाकाशमिति कोऽपि पर्यनुयोगमाचरति / अहो महती महीयसी भवतः शेमुषी। ननुयदिस्वभावत एवाऽभिनिबोधाऽऽदिको ज्ञानस्य भेदः, तर्हि भगवतः सर्वज्ञत्वहानिप्रसङ्गः / तथाहिज्ञानमात्मनो धर्मः, तस्य चाभिनिबोधाऽऽदिको भेदः स्वभावत एव व्यवस्थितः, ततः क्षीणाऽऽवरणस्यापि तद्भावप्रसङ्गः / सति च तद्भावेऽरमादृशस्येव भगवतोऽप्यसर्वज्ञत्वमापद्यते, केवलज्ञानभावतः समस्तवस्तुपरिच्छेदाद् नासर्वज्ञत्वमिति चेत्, ननुयदा केवलोपयोगसंभवः, तदा भवतु भगवतः सर्वज्ञत्वं, यदात्वाभिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानोपयोगसंभवः, तदा देशतः परिच्छेदसंभवादस्मादृशस्येव तस्यापि बलादसर्वज्ञ-त्वमापद्यते / न च वाच्यं तस्य तदुपयोग एव न भविष्यत्यात्मनः स्वभावत्वेन तस्याऽपि क्रमेणोपयोगस्य निवारयितुमशक्यत्वात् , केवलज्ञानानन्तरं केवलदर्शनोपयोगवत्,ततः केवलज्ञानोपयोगकाले सर्वज्ञत्वं, शेषज्ञानोपयोगकाले चासर्वज्ञत्वमापद्यते, तच विरुद्धमतोऽनिष्टमिति। आहच" नन्नेगसहावत्ते, आभिणिबोहाइ किं कओ भेओ? नेयविसेसाउ चिय, न सव्वविसयं जओ चरिमं / / 1 / / अह पडिवत्तिविसेसा, नेगम्मि अणेगभेयभावाओ। आवरणविभेओ वि हु, सभावभेयं विणा न भवे।।२।। तम्मि य सइ सव्वेसिं, खीणावरणस्स पावई भावो। तद्धम्मत्ताउ चिय, जुत्तविरोहा स चाणिडो॥ 3 // अरहा वि असव्वन्नू , आभिणिबोहाइभावओ णियमा। केवलभावाउ चिय, सव्वन्नू नणु विरुद्धमिणं "|| 4 || तस्मादिदमेव युक्तियुक्तं पश्यामो-यदुतावग्रहज्ञानादारभ्य यावदुत्कर्षप्राप्तपरमावधिज्ञानं तावत्सकलमप्येकं, तचासकलसंज्ञितम् , अशेषवस्तुविषयत्वाभावात् / अपरं च के वलिनः, तच सकलमसंज्ञितमिति द्वावेव भेदौ / उक्तं च-" तम्हा अवग्गहाओ, आरज्ा इहेगमेव नाण ति। जुत्तं छउमत्थस्सा; सगलं इयरं च केवलिणो॥१॥" अत्र-प्रतिविधीयते -तत्र यत्तावदुक्तं सकलमपीदं ज्ञान ज्ञप्त्येक स्वभावं, ततो ज्ञप्त्येक स्वभावत्वाविशेषे किं कृत एष अभिनिबोधाऽऽदिको भेद इति ? तत्र ज्ञप्त्ये क स्व
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________________ णाण 1936 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण भावता किं सामान्यतो भवताऽभ्युपगम्यते, विशेषतो वा ? तत्र न तावदाद्यः पक्षः क्षितिमाधत्ते, सिद्धसाध्यतया तस्य बाधकत्वायोगात्। बोधरूपतारूपसामान्यापेक्षया हि सकलमपि ज्ञानमस्मा-भिरेकमभ्युपगम्यत एव, ततः का नो हानिरिति ? अथ द्वितीयः पक्षः, तदयुक्तम् , असिद्धत्वात्। न हि नामविशेषतोऽपि ज्ञानमेकमेवोपलभ्यते, प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रत्यक्षेणोत्कर्षदर्शनात्। अथयधुत्कर्षापकर्षमात्रभेददर्शनाद् ज्ञानभेदस्तर्हितावुत्कर्षापकर्षा प्रतिप्राणि देशकालापेक्षया शतसहस्रशो भिद्येते, ततः कथं पञ्चरूपता? नैष दोषः / परिस्थूरनिमित्तभेदतः पक्षधात्वस्य प्रतिपादनात् / तथाहि-सकलघातिक्षयो निमित्त केवलज्ञानस्य, मनः-पर्यायज्ञानस्य त्वामर्षांषध्यादिलब्ध्युपेतस्य प्रमादलेशेनाप्यकलङ्कितस्य विशिष्टो विशिष्टाध्यवसायानुगतोऽप्रमादः, "तं संजयस्स सव्वप्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमतो।" इतिवचनप्रामाण्यात् / अवधिज्ञानस्य पुनस्तथाविधानीन्द्रियरूपिद्रव्य - साक्षादवगम-निबन्धनं क्षयोपशमविशेषः, मतिश्रुतज्ञानयोस्तु लक्षणभेदाऽऽदिकं तथाऽग्रे वक्ष्यते। उक्तंच" नन्नेगसहावतं, ओहेण विसेसओ पुण असिद्ध / एगततस्सहाव-तणे उ कह हाणिवुड्डीओ? // 1 // जं अविचलियसहावे, तत्ते एगन तस्सहावत्तं। नयतं तहोवलद्धा, उक्करिसावगरिसविसेसा // 2 // तम्हा परिथूराओ, निमित्तभेयाओं समयसिद्धाओ। उववत्तिसंगओ विय, आभिणिबोहाइओ भेओ।।३।। घाइक्खओ निमित्तं, केवलणाणस्स वण्णिओ समए। मणपज्जवणाणस्स उ. तहाविहो अप्पमाउ त्ति / / 4 / / ओहिं सोऽण्णस्स तहा, अणिदिएसं पिजो खओवसमो। मइसुयनाणाणं पुण, लक्खणभेदादिओ भेओ॥ 5 // " यदप्युक्तं ज्ञेयभेदकृत इत्यादि, तदप्यनभ्युपगमतिरस्कृतत्वाद् दुरापास्तप्रसरम् / न हि वयं ज्ञेयभेदमात्रतो ज्ञानस्य भेदमिच्छामः, एकेनाऽप्यवग्रहाऽऽदिना बहुविधवस्तुग्रहणोपलम्भात् / यदपि च प्रत्यपादि-प्रतिपत्तिप्रकारभेदकृत इत्यादि तदपि न नो बाधामाधातुमलम् / यतस्ते प्रतिपत्तिप्रकाराः देशकालाऽऽदिभेदेनाऽऽनन्त्यमपि प्रतिपद्यमाना न परिस्थूरनिमित्तभेदेन व्यवस्थापितानाभिनिबोधिकाऽऽदीन जातिभेदा नातिक्रामन्ति, तत्कथमेकरिमन् एकभेदभावप्रसङ्गः। उक्तं च-" न य पडिवत्तिविसेसो, एगम्मि अणेगभेयभावो त्ति / जं ते तहा विसिट्टे , न जाइभेए विलंघेइ // 1 // " यदप्यवादीदावार्यापेक्ष ह्यावरकमित्यादि, तदपि न नो मनोबाधा-यै। यतः-परिस्थूरनिमित्तभेदमधिकृत्य व्यवस्थापितो ज्ञानस्य भेदः; ततस्तदपेक्षमावारकमपि तथा भिद्यमानं न युष्मादृशदुर्जनवचनीयतामास्कन्दति। एवमुक्ते जितो भूयः सावष्टम्भं परः प्रश्न-यतिननुपरिस्थूरनिमित्तभेदव्यवस्थापिता अप्यमी आभिनियो -धिकाऽऽदयो भेदा ज्ञानस्याऽऽत्मभूताः, उताऽनात्मभूताः ? किं चातः-उभयथाऽपि दोषः / तथाहि-यद्यात्मभूताः, ततः क्षीणाऽऽ-वरणेऽपि तद्भावप्रसङ्गः। तथा चासर्वज्ञत्वं प्रागुक्तनीत्या तस्या-ऽऽपद्यते। अथाऽनात्मभूताः, तर्हि न ते पारमार्थिकाः, ततः कथ-मावार्यापेक्षो वास्तव आवारकभेदः। तदपि न मनोरमम् , सम्यग् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् / इह हि सकलधनपटलविनिर्मुक्तशारददिनमणिरिव समन्ततः समस्तवस्तुस्तोमप्रकाशनैक स्वभावो जीवः, तस्य च तथाभूतस्वभावः केवलज्ञानमिति व्यपदिश्यते। सच यद्यपि सर्वघातिना केवलज्ञानाऽऽवरणेन आवियते,तथाऽपि तस्यानन्ततमो भागो नित्योद्घाटित एव, "अक्खरस्सऽणतो भागो निचुग्घाडिओ, जइ पुणो सो वि आवरिज्जा तेण जीवा अजीवत्तणं पवेजा।" इत्यादिवक्ष्यमाणवचनप्रामाण्यात् / ततस्तस्य केवलज्ञानाऽऽवरणाऽऽवृतस्य घनपटलाऽऽच्छादितस्येव सूर्यस्य यो मन्दः प्रकाशः सोऽपान्तरालावस्थितमतिज्ञानाऽऽद्यावरणक्षयोपशमभेदसंपादितं नानात्वं भजते / यथा घनपटलाऽऽवृतसूर्यस्य मन्दप्रकाशोऽपान्तरालावस्थितकटकुड्याऽऽद्यावरणं विवरप्रदेशभेद-तः, स च नानात्वं तत्क्षयोपशमानुरूपं तथा प्रतिपद्यमानं तत्क्षयोपशमानुसारेणाभिधानभेदमश्नुते / यथा-मतिज्ञानाऽऽद्यावरणक्षयोपशमजनितः स मन्दः प्रकाशो मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमजनितः श्रुतज्ञानमित्यादि, तत आत्मस्वभावभूताज्ञानस्याऽभिनिबोधिकाऽऽदयो भेदाः, ते च प्रवचनोपदर्शितपरिस्थूरनिमित्तभेदतः पञ्चसंख्याः, ततस्तदपेक्षमावारकमपि पञ्चधोप-वर्ण्यमानं न विरुध्यते / न चैवमात्मस्वभावभूतत्वे क्षीणाऽऽवरण-स्याऽपि तद्भावप्रसङ्गः। यतएते मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिक्षयो-पशमरूपोपाधिसंपादितसत्ताकाः, यथा-सूर्यस्य घनपटलाऽऽवृतस्य मन्दःप्रकाशभेदः कटकुड्याऽऽवरणविवरभेदोपाधिसंपादितः। ततः कथंतेतथारूपक्षयोपशमाभावे भवितुमर्हन्ति, न खलु सकलघनपटलकटकुड्याऽऽद्यावरणापगमे सूर्यस्य ते तथारूपा मन्दप्रकाशभेदा भवन्ति / उक्तं च-" कडविवरागयकिरणा, गेहं-तरियस्स जह दिणेसस्स। ते कडमेहावगमे, न होति जह तह इमाई पि // 1 // ततो यथा जन्माऽऽदयो भावा जीवस्य आत्मभूता अपि कर्मोपाधिसंपादितसत्ताकत्वात्तदभावेन सन्ति, तद्वदाभिनिबोधिकाऽऽदयोऽपि भेदा ज्ञानस्याऽऽत्मभूता अपि मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्षयोपशमसापेक्षत्वात् तदभावे केवलिनो न भवन्ति, ततो नासर्वज्ञत्वदोषः / उक्तं च-" जमिह छउमत्थधम्मा, जम्माईया न होति सिद्धाणं / इय केवलीणमाभिणिबोहियभावम्मि को दोसो? // 1 // " इति। नं०1 आ० म०। आव० / सं- था० / कर्म! सम्म०1 स्था०। (4) तदेवं ज्ञानपञ्चकस्याऽप्यभिधानार्थे कथिते आह कश्चित-नन्वादी मतिश्रुतोपन्यासः किमर्थः ? इति। अत्राऽऽचार्य आहजं सामि-काल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिँतुल्लाई। तब्भावे सेसाणि य, तेणाईए मइसुयाई।। 85 // तेन कारणे नाऽऽदौ मतिश्रुते निर्दिष्टे / येन किम् ? इत्याह-(जं सामीत्यादि) इति संटङ्कः / मतिशब्दोऽत्राभिनिबोधिकसमानार्थी द्रष्टव्यः आभिनिबोधिकं ह्यौत्पत्तिक्यादिमतिप्रधानत्वाद् मतिरित्यप्युच्यते / यद् यस्मात् कारणात् स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वैस्तुल्ये समानस्वरूपे मतिश्रुते, तेनाऽऽदौ निर्दिष्टे इत्यर्थः / तत्र स्वामी तावदनयोरेक एव, "जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं' इत्याद्यागमवचनादिति / कालोऽपि द्विधानानाजीवापेक्षया, एकजीवापेक्षया च / स चायं द्विविधोऽप्यनयोस्तुल्य एव नानाजीवापेक्षया द्वयोरपि सर्वकालमनुच्छे दाद, एक जीवापेक्षया तूभयोरपि निरन्तरसातिरेकसागरोपमषट्षष्टि स्थितिकत्वेनात्रैवाभिधास्यमानत्वादिति / कारणमपीन्द्रियमनो लक्षणं, स्वा
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________________ णाण 1940 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 वरणक्षयोपशमस्वरूपं च द्वयोरपि समानम् / उभयस्यापि सर्वद्रव्या- | ऽऽदिविषयत्वाद् विषयतुल्यता। परनिमित्तत्वाच परोक्षत्वसमता। ननु यद्येवमनयोः परस्परंतुल्यता, तह:कत्र द्वयोरप्युपन्यासोऽस्तु, आदावेव तु तदुपन्यासः कथम् ? इत्याह-(तभावे इत्यादि) तद्भावे मतिश्रुतज्ञानसद्भाव एव शेषाण्यवध्यादीनि ज्ञानान्यवाप्यन्ते, नाऽन्यथा, न हि स कश्चित् प्राणी भूतपूर्वः, अस्ति, भविष्यति वा, यो मतिश्रुतज्ञाने अनासाद्य प्रथममेवाऽवध्यादीनि शेषज्ञानानि प्राप्तवान् , प्राप्नोति, प्राप्स्यति वेति भावः / ततस्तदवाप्तौ शेषज्ञानावाप्तेश्चाऽऽदौ मतिश्रुतोपन्यासः इति गाथाऽर्थः / / 85|| भवतु तादौ मति-श्रुतोपादानं, केवलं पूर्व मतिः, पश्चात्तु श्रुत-मित्यत्र किं कारणं, यावता विपर्ययोऽपि कस्मान्न भवति ? इत्याहमइपुट्वं जेण मुयं, तेणाईए मइ विसिट्ठो वा। मइभेओ चेव सुयं, तो मइसमणंतरं भणियं / / 86 // मतिः पूर्व प्रथममस्येति मतिपूर्व, येन कारणेन श्रुतज्ञानं, तेन श्रुतस्याऽऽदौ मतिः तीर्थकर-गणधरैरुक्तेति शेषः।नावग्रहाऽऽदिरूपे मतिज्ञाने पूर्वमप्रवृत्ते क्वापि श्रुतप्रवृत्तिरस्तीति भावः / (विसिट्टो वा, मइभेओ चेव सुयं ति) यदि वा इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तद्वारेणोपजायमानं सर्व मतिज्ञानमेव, केवलं परोपदेशादागमवचनत्वाच्च भवन् विशिष्टः कश्चिन्मतिभेद एव श्रुतं, नान्यत्। ततो मूलभूताया मतेरादौ विन्यासः, तभेदरूपं तु श्रुतज्ञान तत्समनन्तरं भणितमित्यदोषः।" मइपुव्वं जेण सुयं। "इत्यादिकश्वार्थः पुरतः प्रपञ्चेन भणिष्यते। इतिगाथार्थः।। 86 / / अथ मतिश्रुतानन्तरमवधेस्तत्समनन्तरं च मनःपर्यायज्ञानस्योपन्यासे कारणमाहकालविवजयसामि-त्तलाभसाहम्मओऽवही तत्तो। माणसमित्तो छउमत्थविसयभावादिसामण्णा।।७।। ततो मतिश्रुताभ्यामनन्तरमवधिनिर्दिष्टः / कुतः ? इत्याह-कालविपर्ययस्वामित्वलाभसाधात् / तत्र नानाजीवापेक्षया, एकजीवापेक्षया च मतिश्रुताभ्यां सहावधेः समानस्थितिकालत्वात् कालसाधर्म्यम्। यथा च मिथ्यात्वोदये मतिश्रुतज्ञाने अज्ञानरूपं विपर्ययं प्रतिपद्येते, तथाऽवधिरपि, इति विपर्ययसाधर्म्यम्। य एव च मतिश्रुतयोः स्वामी, स एवावधेरपीति स्वामिसाधर्म्यम् / लाभोऽपि कदाचित्कस्यचिदमीषा त्रयाणामपि ज्ञानानां युगपदेव भवती-ति लाभसाधर्म्यम् / (माणसमित्तो इत्यादि) इतोऽवधेरनन्तरं मनोविषयत्वान्मनसि भवं मानसं मनःपर्यायज्ञानं युक्तम् / कुतः ? इत्याह-छद्मस्थविषयभावाऽऽदिसामान्यात् ; आदिशब्दात् प्रत्य-क्षत्वाऽऽदिसामान्य गृह्यते, समानस्य भावः सामान्यं, साम्य, तस्मादित्यर्थः / तत्र यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्यैव भवति, तथा मनःपर्यायज्ञानमपीति छद्मस्थसाम्यम् / उभयोरपि पुद्गलमात्रविषयत्वाद् विषयसाम्यम्, द्वयोरपि क्षायोपश- 1 मिकभाववृत्तित्वाद्भावासाम्यम्, द्वितयस्यापि साक्षाद्दर्शित्वात् प्रत्यक्षत्वसाम्यम् / एवमन्याऽपि प्रत्यासत्तिरभ्युह्येति गाथाऽर्थः / / 87 // अथ केवलज्ञानस्य सर्वोपरि निर्देशे कारणमाहअंते केवलमुत्तम-जइसामित्तावसाणलाभाओ। इत्थं च मइसुयाइं, परोक्खमियरं च पञ्चक्खं / / 88 / / अन्ते सर्वज्ञानानामुपरि केवलज्ञानमभिहितम् / कुतः ? इत्याहभावप्रधानत्वान्निर्देशस्य उत्तमत्वात्, सर्वोत्तम हि केवलज्ञानम् , अतीतानागतवर्तमाननिःशेषज्ञेयस्वरूपाऽवभासित्वादिति / यथा च मनःपर्यायज्ञानस्य यतिरेव स्वामी, तथा केवलज्ञानस्यापि, ततो यतिस्वामित्वसाम्याद्मनःपर्यायज्ञानाऽनन्तरं केवलज्ञानमभिहि-तम् / तथा समस्ताऽपरज्ञानानामवसान एवाऽस्य लाभादवसान एव निर्देश इति / तदेवमुपन्यासक्रमे समर्थित सत्याह कश्चित्-नन्वेतानि पक्ष ज्ञानानि किं परोक्षस्वरूपाणि, आहोश्वित् प्रत्यक्षाणि ? इति। अत्राऽऽह(इत्थं चेत्यादि) एतेषु पञ्चसु ज्ञानेषु मध्ये मतिश्रुते परोक्षे, इतरत्ववध्यादिज्ञानत्रयं प्रत्यक्षमिति गाथार्थः / / 88 // विशे०। (5) तथा चाऽऽगमःदुविहे णाणे पण्णत्ते / तं जहा-पचक्खे चेव, परोक्खे चेव / पच्चक्खणाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-केवलणाणे चेव, णो केवलणाणे चेव। ज्ञानं विशेषावबोधः, अश्नाति भुङ्क्ते, अश्नुते वा व्याप्नोति ज्ञानेनार्थानित्यक्ष आत्मा, तं प्रति यद्वर्तते इन्द्रियमनोनिरपेक्षत्वेन तत्प्रत्यक्षमव्यवहितत्वेनार्थसाक्षात्करणादक्षमिति। आह च-" अक्खो जीवो अत्थ-व्वावणभोयणगुणन्निओ जेणं। तंपइ वट्टइनाणं, जपचक्खं तमिह तिविहं " / / 1 // इति / परेभ्योऽक्षापेक्षया पुद्गलमयत्वेन द्रव्येन्द्रियमनोभ्योऽक्षस्य जीवस्य यत्तत्परोक्ष निरुक्तिवशादिति / आह च-" अक्खस्स पोग्गलकया, जं दविदियमणापरा तेण / तेहिंतो जं णाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं वा"||१|| इति। अथवा-परैरक्षं संबन्धन जन्यजनकभावलक्षणमस्येति परोक्षम्। इन्द्रियमनोव्यवधानेनाऽऽत्मनोऽर्थप्रत्ययकर्मसाक्षात्कारीत्यर्थः / स्था० 2 ठा०१3०। (प्रत्यक्षज्ञानभेदाः 'पचक्ख'शब्देवक्ष्यते) प्रत्यक्षं द्विविधं-केवलज्ञानं, नो केवलज्ञानं च। (केवल-ज्ञानभेदाः केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे 647 पृष्ठे गताः) (6) केवलणाणे दुविहे पण्णत्ते / ओहिणाणे चेव, मणपजवणाणे चेव // स्था०२ ठा०१ उ०। आ० म०। आव० / संथा। कर्म०। सम्म०। (अवधिज्ञानभेदः ' ओहि' शब्दे तृतीयभागे 140 पृष्ठे गतः) (मनःपर्यायज्ञानभेदाः 'मणपज्जवणाण' शब्दे वक्ष्यन्ते) परोक्खणाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-आमिणिबोहियणाणे चेव, सुयणाणे चेव। (परोक्षज्ञानभेदाः ' परोक्खणाण' शब्दे वक्ष्यन्ते) (7) स्वाम्यादिभेदामतिश्रुतभेदः / साम्प्रतं "जंसामिकाल-कारणविसय-परोक्खत्तणेहिँतुल्लाइं। (85)" इति यदुक्तं प्राक्, तदुपजीव्य परः प्राऽऽहसामित्ताइविसेसा-भावाओ मइसुएगया नाम। लक्खणभेयादिकयं, नाणत्तं तयविसेसे वि।। 66|| परः प्राऽऽह-ननु पूर्वं मतिश्रुतयोः स्वामिकालाऽऽदिभिः तुल्यत्वमभिदधानैर्भवद्भिः स्वहस्ताङ्काराऽऽकर्षणमनुष्ठितम्, यत एवं सति
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________________ णाण 1941 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णाण स्वामित्वाऽऽदिभिर्विशेषाभावान्मतिश्रुतयोरेकतैव प्राप्ता, न भेदः स्यात्; तथा च न ज्ञानपञ्चकसिद्धिः, धर्मभेदे हि वस्तूना भेदः स्यात; तदभेदे तु घटतत्स्वरूपयोरिवाभेद एव श्रेयानिति भावः। अत्राऽऽचार्यः प्रत्युत्तरमाह(लक्खणेत्यादि) तेषां स्वामित्वाऽऽदीनामविशेषस्तदविशेषस्तत्र सत्यपि मतिश्रुतयो नात्वं भिन्नत्वमस्ति। किंकृतम् ? इत्याह-लक्षणभेदाऽऽदिकृतम् , आदिशब्दाद् वक्ष्यमाणकार्यकारणभावाऽऽदिपरिग्रहः / इदमुक्तं भवति-यद्यपि स्वामिकालाऽऽदिभिर्मतिश्रुतयोरेकत्वम्, तथाऽपि लक्षणकार्यकारणभावाऽऽदिभिर्नानात्वमस्त्येव, घटाऽऽकाशाऽऽदीनामपि हि सत्त्वप्रमेयत्वार्थक्रियाकारित्वाऽऽदिभिः साम्येऽपिलक्षणाऽऽदिभेदाभेद एव / यदि पुनर्बहुभिर्धमै दे सत्यपि कियधर्मसाम्यमात्रादेवार्थानामेकत्वं प्रेर्यते, तदा सर्व विश्वमेकं स्यात; किं हि नाम तद्दस्त्वस्ति यस्य वस्त्वन्तरैः सह कैश्चिद्धर्मन साम्यमस्ति? तरमात्स्वाम्यादिभिस्तुल्यत्वेऽपिलक्षणाऽऽदिभिर्मतिश्रुतयोर्भेदः। इति गाथार्थः / / 66 तान्येव लक्षणाऽऽदीनि पुरतो विस्तराभिधेयात्सपि ण्ड्यैकगाथया दर्शयतिलक्खणभेया हेऊ-फलभावओ मेयइंदियविभागा। वागऽक्खरमूएयर-भेया भेओ मइसुयाणं / / 67 // लक्षणभेदाद्भिन्नलक्षणत्वाद् मतिश्रुतयोर्भेदः / तथा-मतिज्ञानं हेतुः, श्रुतं तु तत्फलं तत्कार्यम् : इति हेतुफलभावात्तयोर्भेदः। तथा-(भेय त्ति) विभागशब्दोऽत्रापि योज्यते, ततश्च भेदानां विभागो विशेषो भिन्नत्वं भेदविभागः, तस्मादपि मतिश्रुतयोर्भेदः, अवग्रहा-ऽऽदिभेदादष्टाविंशत्यादिभेदं हि मतिज्ञानं वक्ष्यते "अक्खर सण्णी सम्म" इत्यादिवक्ष्यमाणवचनाचतुर्दशाऽऽदिभेदं च श्रुतज्ञानमिति भेदविभागात्तयोर्भेद इति भावः / (इंदियविभाग त्ति) तत्त्वतः श्रोत्रविषयमेव श्रुतज्ञानम् , शेषेन्द्रियविषयमपि मतिज्ञानम् , इत्येवं वक्ष्यमाणादिन्द्रियविभागाच्च तयोर्भेदः। (वागेत्यादि) वल्काश्चाक्षरं च मूकं च वल्काऽऽदिप्रतिपक्षभूतानीतराणि च वल्काक्षरमूकेत-राणि, तैर्योऽसौ भेदः तस्मादपि मतिश्रुतयोर्भेद इत्यर्थः / तथाहि-" अन्ने मग्गति मई, वग्गसमा सुबसरिसयंतुसुयं। (154)" इत्यादिना ग्रन्थेन कारणत्वावल्कसदृश मतिज्ञानं, शुम्बसदृशं तु श्रुत-ज्ञानम् , कार्यत्वादित्यत्रैव वक्ष्यते। तत्र वल्कः पलाशाऽऽदित्वग्रन्थः, शुम्बं तु इतरशब्देनेहोपात्तं तज्जनिता दवरिकोच्यते / तत-श्चायमभिप्रायः-यथा वलनाऽऽदिसंस्कृतो विशिष्टावस्थाऽऽपन्नः सन्वल्को दवरिकेत्युच्यते, तथा परोपदेशार्हद्वचनसंस्कृतं विशि-ष्टावस्थाप्राप्तं सद् मतिज्ञानं श्रुतमभिधीयते, इत्येवं वल्केतरभेदाद् मतिश्रुतयोर्भेदः / तथा-"अन्ने अणक्खरऽक्खरविसेसओ मइसुयाइँ भिंदंति / जं मइनाणमणक्खर-मक्खरमियरं च सुयनाणं // 161 // इत्यादि ग्रन्थेन वक्ष्यमाणादक्षरेतरभेदात्तयोर्भेदः। तथा-" सपरप्पचायणओ, भेओ मूएयराण वाऽभिहिओ। जं तु सुयं, मइनाणं, सपरप्पचायगं सुत्तं " / / 171 / / इत्याद्यभिधास्यमानवचनान्मूकेतरभेदान्मतिश्रुतयोर्भेदः। इति गाथासंक्षेपार्थः। विस्तारार्थ तु भाष्यकार: स्वत एव वक्ष्यति। इयं च गाथा बहुष्वादशेषु न दृश्यते, केवलं क्वचिदादर्शेऽपि दृष्टा, अतीव सोपयोगा च, इत्यस्माभिः किश्चिद् व्याख्यातेति / / 67 // तत्र" यथोद्देशं निर्देशः " इति कृत्वा लक्षणभेदं तावदाहजममिनिबुज्झइ तमभिनि-बोहो जं सुणइ तं सुयं भणियं / सदं सुणइ जइ तओ, नाणं तो नाऽऽयभावो तं / / 18| यज्ज्ञानं कर्तृ, वस्तु कर्मताऽऽपन्नमभिनिबुध्यते अवगच्छति, तज्ज्ञानमभिनिबोधः तदाभिनिबोधिकं तन्मतिज्ञानमिति यावत् / (जं सुणइ इत्यादि) यत्पुनर्जीवः शृणोति तच्छुत्तमः इत्येवं सूत्रोक्तलक्षणभेदान्मतिश्रुतयोर्भदः। तथा च सूत्रम्-" जइ वि सामित्ता-ईहिं अविसेसो, तह वि पुणोऽत्थाऽऽयरिया णाणत्तं पण्णणवयंति। तं जहाअभिबुज्झइत्ति आभिणिबोहियं, सुणेइ ति सुयं।" इत्या-दि। अत्राऽऽह प्रेरक:-यदि नाम यदात्मा शृणोति तत् श्रुतमिति श्रुतज्ञानस्य लक्षणमुच्यते, हन्त ! तर्हि शब्दमेव शृणोति जीव इति सकलजगत्प्रतीतमेव / ततः किं भूयते ? इत्याह-(जइ तओ इत्यादि) यदि च सकः स शब्दो ज्ञानं श्रुतरूपम् . (तो त्ति) ततो नाऽऽत्मनो जीवस्य भावः परिणामः तच्छुतं प्राप्नोति, शब्दस्य श्रुतत्वेनेष्टत्वात् , तस्य च पौद्गलिकत्वेन मूर्तत्वात् , आत्मनस्त्वमूर्तत्वाद् , मूर्तस्य चामूर्तपरिणामत्वायोगाद् , आत्मनः परिणामश्च श्रुतज्ञानमिष्यते तीर्थकराऽऽदिभिः, इति कथं न विरोधः ? इति भावः। इति गाथार्थः / / 68 / / अत्राऽऽचार्यः प्रत्युत्तरयतिसुयकारणं जओ सो, सुयं च तकारणं ति तो तम्मि। कीरइ सुओवयारो, सुयं तु परमत्थओ जीवो / / 66 || यतो यस्मात् कारणात् स शब्दो वक्त्राऽभिधीयमानः श्रोतृगतस्य श्रुतज्ञानस्य कारणं निमित्तं भवति, श्रुतं च वक्तृगतश्रुतोपयोगरूपं व्याख्यानकरणाऽऽदौ तस्य वक्त्राऽभिधीयमानस्य शब्दस्य कारणं जायते, इत्यतः तस्मिन् श्रुतज्ञानस्य कारणभूते कार्यभूते वा शब्दे श्रुतोपचारः क्रियते। ततो न परमार्थतः शब्दः श्रुतं, किं तूपचारत् इत्यदोषः / परमार्थतस्तहिं किं श्रुतम् ? इत्याह-(सुयं त्वित्यादि) परमार्थतस्तु जीवः श्रुतं, ज्ञानज्ञानिनोरनन्यभूतत्वात् / तथा च पूर्वमभिहितम्-शृणोतीति श्रुतमात्मैवैति। तरमाच्छूयत इति श्रुत-मिति कर्मसाधनपक्षे द्रव्यश्रुतमेवाऽभिधीयते, शृणोतीति श्रुतमिति: कर्तृसाधनपक्षे तु भाव श्रुतमात्मैव, इति न काचिदनात्मभावता श्रुतज्ञानस्य। इति गाथार्थः / / 66 | (8) अथ प्रकारान्तरेणाऽपि मतिश्रुतयोर्लक्षणभेदमाहइंदियमणोनिमित्तं, जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं। निययत्युत्तिसमत्थं, तं भावसुयं मई सेसं / / 100 / / इन्द्रियाणि च स्पर्शनाऽऽदीनि, मनश्च, इन्द्रियमनांसि, तानि निमित्तं यस्य तदिन्द्रियमनोनिमित्तम् , इन्द्रियमनोद्वारेण यद्विज्ञानमुपजायत इत्यर्थः / तत् किम् ? इत्याह-तद्भाव श्रुतं श्रुतज्ञानमित्यर्थः / इन्द्रियमनोनिमित्तं च मतिज्ञानमपि भवति, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-श्रुतानुसारेणेति श्रूयत इति श्रुतम् / द्रव्यश्रुतरूपं शब्द इत्यर्थः, स च सङ्केतविषयपरोपदेशरूपः श्रुतग्रन्थाऽऽत्मकश्वेह गृह्यते, तदनुसारेणैव यदुत्पद्यते तत् श्रुतज्ञान, नान्यत् / इदमुक्तं भवति-सङ्केतकालप्रवृत्त, श्रुतगन्थसंबन्धिनं वा घटाऽऽदि
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________________ णाण 1942 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण - शब्दमनुसृत्य वाच्यवाचकभावेन संयोज्य' घटो घट: ' इत्याद्यन्तजल्पाकारमन्तःशब्दोल्लेखान्वितमिन्द्रियाऽऽदिनिमित्तं यज्ज्ञान-मुदेति तच्छुतज्ञानमिति / तच कथं भूतम् ? इत्याह-' निजकाऽोक्तिसमर्थमिति निजकः स्वस्मिन् प्रतिभासमानो योऽसौ घटाऽऽदिरर्थः तस्योक्तिः परस्मै प्रतिपादनं तत्र समर्थ क्षम निजकार्योक्तिसमर्थम् / अयमिह भावार्थ:-शब्दोल्लेखसहितं विज्ञानमुत्पन्नं स्वप्रतिभासमानार्थप्रतिपादकं शब्दं जनयति, तेन च परः प्रत्याय्यते, इत्येवं निजकार्योक्तिसमर्थमिदं भवति, अभिलाप्यवस्तुविषयमिति यावत्। स्वरूपविशेषणं चैतत्, शब्दानुसारेणोत्पन्नज्ञानस्य निजकार्योक्तिसामर्थ्याऽव्यभिचारादिति। (मइसेसं ति) शेषमिन्द्रियमनोनिमित्तश्रुतानुसारेण यदवग्रहाऽऽदिज्ञानं तन्मतिज्ञानमित्यर्थः / अत्राऽऽह कश्चित्-ननु यदिशब्दोल्लेखसहितं श्रुतज्ञानमिष्यते, शेषं तु मतिज्ञानम्, तदा वक्ष्यमाणस्वरूपोऽवग्रह एव मतिज्ञानं स्यात्, न पुनरीहापायाऽऽदयः, तेषां शब्दोल्लेखसहितत्वात् ; मतिज्ञानभेदत्वेन चैते प्रसिद्धाः, तत् कथं श्रुतज्ञानलक्षणस्य नातिव्याप्तिदोषः ? कथं च न मतिज्ञानस्याव्याप्तिप्रसङ्गः ? अपरं च-अङ्गानङ्गप्रविष्टाऽऽदिषु " अक्खर सन्नो सम्म, साईयं खलु सपज्जवसियं च / '' इत्यादिषु च श्रुतभेदेषु मतिज्ञानभेदस्व-रूपाणामवग्रहेहाऽऽदीनां सद्भावात् सर्वस्याऽपि तस्य मतिज्ञानत्वप्रसङ्गात्, मतिज्ञानभेदानांचेहापायाऽऽदीनां साभिलापत्वेन श्रुतज्ञानत्वप्राप्तेरुभयलक्षणसंकीर्णतादोषश्च स्यात् / अत्रोच्यतेयत्तावदुक्तम्-अवग्रह एव मतिज्ञानं स्यात्, न त्वीहाऽऽदयः, तेषां शब्दोल्लेखसहितत्वात् / तदयुक्तम् / यतो यद्यपि ईहाऽऽदयः साभिलापाः, तथाऽपि न तेषां श्रुतरूपता, श्रुतानुसारिण एव साभिलापज्ञानस्य श्रुतत्वात्। अथावग्रहाऽऽदयः श्रुतनिष्ठिता एव सिद्धा-न्ते प्रोक्ताः, युक्तितोऽपि चे हाऽऽदिषु शब्दाभिलापः सके तकालाऽऽधाकर्णितशब्दानुसरणमन्तरेण न संगच्छते, अतः कथं न तेषां श्रुतानुसारित्वम् ? तदयुक्तम्। पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेरेवैते समुप-जायन्त इति श्रुतनिश्रिता उच्यन्ते, न पुनर्व्यवहारकाले श्रुतानुसारित्वमेतेष्वस्ति। वक्ष्यते च-" पुव्वं सुयपरिकम्मिय-मइस्स जं संपयं सुयाऽऽईयं / तं सुयनिस्सियं" इत्यादि। यदपि युक्तितोऽपि चेत्याधुक्तम्, तदपि न समीचीनम् , संकेतकालाऽऽद्याकर्णितशब्दपरिकर्मितबुद्धीनां व्यवहारकाले तदनुसरणमन्तरेणाऽपि विकल्पपरम्परापूर्वकविविधवचनप्रवृत्तिदर्शनात्, न हि पूर्वप्रवृत्तसंकेताः, अधीतश्रुतग्रन्थाश्च व्यवहारकाले प्रतिविकल्पन्ते-एतच्छब्दवाच्यत्वेनैतत्पूर्व मयाऽवगतमित्येवंरूप संकेतम् , तथाऽमुकस्मिन् ग्रन्थे एतदित्थमभिहितमित्येवं श्रुतग्रन्थं चाऽनुसरन्तो दृश्यन्ते, अभ्यासपाटववशात् तदनुसरणमन्तरेणाऽप्यनवरतं विकल्पभाषणप्रवृत्तेः / यत्र तु श्रुतानुसारित्वं तत्र श्रुतरूपताऽस्माभिरपि न निषिध्यते। तस्मात् श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतत्वाभावादीहापायधारणानां सामस्त्येन मतिज्ञानत्वान्न मतिज्ञानलक्षणस्याव्याप्तिदोषः, श्रुतरूपतायाश्च श्रुतानुसारिष्वेव साऽभिलापज्ञानविशेषेषु भावाद्न श्रुतज्ञानलक्षणस्याऽतिव्याप्तिकृतो दोषः / अपरं च-अङ्गाऽनङ्गप्रविष्टाऽऽदिश्रुतभेदेषु मतिपूर्वमेव श्रुतम् ' इति वक्ष्यमाणवचनात्प्रथम शब्दाऽऽद्यवग्रहणकालेऽवग्रहाऽऽदयः समुपजायन्ते, एते चाश्रुतानुसारित्वान्मतिज्ञानम्, यस्तु तेष्वङ्गानङ्गप्रविष्ट श्रुतभेदेषु श्रुताऽनुसारी / ज्ञानविशेषः स श्रुतज्ञानम् / ततश्च-अङ्गानङ्गप्रविष्टाऽऽदिश्रुतभेदानां सामस्त्येन मतिज्ञानत्वाभावाद् , ईहाऽऽदिषु च मतिभेदेषु श्रुताऽनुसारित्वाभावेन श्रुतज्ञानत्वाऽसंभवान्नोभयलक्ष-णसंकीर्णतादोषोऽप्युपपद्यत इति सर्व सुस्थम्।नचेह मतिश्रुतयोः परमाणुकरिणोरिवाऽऽत्यस्तिको भेदः समन्वेषणीयः, यतःप्रागिहैवोक्तम्-विशिष्टः कश्चिन्मतिविशेष एव श्रुतं, पुरस्तादपि च वक्ष्यते-वल्कसदृशं मतिज्ञानं तज्जनितदवरिकारूपे श्रुतज्ञानम् , न च वल्कशुम्बयोः परमाणुकुञ्जरवदात्यन्तिको भेदः, किं तु कारण-कार्यभावकृत एव, स चेहाऽपि विद्यते, मतेः कारणत्वेन, श्रुतस्य तुकार्यत्वेनाभिधास्यमानत्वात्।नच कार्यकारणयोरैकान्तिको भेदः; कनककुण्डलाऽऽदिषु, मृत्पिण्डकुण्डाऽऽदिषु च तथाऽदर्शनात्। तस्मात्तदवग्रहापेक्षयाऽनमिलापत्वाद् , ईहाऽऽद्यपेक्षया तु साभिलापत्वात् साभिलापानभिलापं मतिज्ञानम् , अश्रुतानुसारि च सङ्केतकालप्रवृत्तस्य श्रुतग्रन्थसंबन्धिनो वा शब्दस्य व्यवहार-काले अननुसरणात् / श्रुतज्ञानं तु साभिलापमेव, श्रुतानुसार्येव च, सङ्के तकालप्रवृत्तस्य श्रुतग्रन्थसंबन्धिनो वा शब्दरूपस्य श्रुतस्य व्यवहारकालेऽवश्यमनुसरणादिति स्थितमिति गाथार्थः // 10 // अथ श्रुतज्ञानलक्षणस्याऽव्याप्तिदोषमुद्भावयन्नाह परःजइ सुयलक्खणमेयं, तो न तमेगिंदियाण संभवइ / दव्वसुयाणुभावम्मि वि, भावसुयं सुत्तजइणो व्व // 101 / / यदि श्रुतज्ञानस्येदमनन्तरगाथोक्तं लक्षणमिष्यते-श्रुतानुसारि ज्ञानं यदि श्रुतमभ्युपगम्यत इत्यर्थः, तदा तदेकेन्द्रियाणां नसंभवतिन घटते, शब्दानुसारित्वस्य तेष्वसंभवात्; तदसंभवश्व मनः-प्रभृतिसामग्रयभावात्। इष्यते चाऽऽगमे-" एगिदिया नियमं दुयण्णाणी / तं जहा-मइअण्णाणी य, सुयअन्नाणी य" इति वचनादेके न्द्रियाणामपि श्रुतमात्रम् . इत्यव्यापकमैवेतद् लक्षणम्। अत्रो-तरमाह-(दव्वसुयेत्यादि) द्रव्यश्रुत शब्दस्तस्याभावेऽप्येकेन्द्रियाणां भावश्रुतमभ्युपगन्तव्यम् , सुप्तयतेरिव। इदमुक्तं भवति-यद्य-प्येकेन्द्रियाणां कारणवैकल्या द्रव्यश्रुतं नास्ति, तथाऽपि स्वापा-ऽऽद्यवस्थायां साध्वादेरिवाशब्दकारणम्, अशब्दकार्य च श्रुताऽऽ-वरणक्षयोपशममात्ररूयं भाव श्रुतं केवलिदृष्टममीषां मन्तव्यम्; न हि स्वापाऽऽद्यवस्थायां साध्वादिः शब्दं न शृणोति, न विकल्पयतीत्येतावन्मात्रेण तस्य श्रुतज्ञानाभावो व्यवस्थाप्यते, किं तु स्वापाऽऽद्यवस्थोत्तरकालं व्यक्तीभवद्भावश्रुतं दृष्ट्वा पयसि सर्पि-रिव प्रागपि तस्य तदासीदिति व्यवहियते, एवमे के न्द्रियाणामपि सामग्रीवैकल्याद्यद्यपि द्रव्यश्रुताभावः, तथाऽप्यावरणक्षयोपश-मरूपं भावश्रुतमवसेयम्, परमयोगिभिर्दृष्टत्वाद् वल्ल्यादिष्वाहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाऽऽदेस्तल्लिङ्गस्य दर्शनाचेति। आहननु सुप्तयतिलक्षण दृष्टान्तेऽपि तावद्भावश्रुतं नावगच्छामः / तथाहि-श्रुतोपयोगपरिणत आत्मा शृणोतीति श्रुतं, श्रूयते तदिति वा श्रुत-मित्यनयोर्मध्ये कया व्युत्पत्त्या सुप्तसाधोः श्रुतमभ्युपगम्यते? तत्रा-ऽऽद्यपक्षो न युक्तः, सुप्तस्य श्रुतोपयोगासंभवात्। द्वितीयोऽपि न संगतः, तत्र शब्दस्य वाच्यत्वात् . तस्यापि च स्वपतोऽसंभवादि-ति। सत्यम्। किं तु शृणोत्यनेन, अस्माद, अस्मिन्वेति व्युत्पत्ति-रिहाश्रीयते, एवं च श्रुतज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमो वाच्यः संपद्यते, स च सुप्तयतेः, एकेन्द्रियाणां चास्तीति न किञ्चित्परिहीयते / इति गाथार्थः / / 101 / /
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________________ गाण 1943 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण अथ दृष्टान्तदान्तिकयोर्वेषम्याऽऽपादनेनैकेन्द्रियाणां श्रुतसद्भाव विघटयन्नाहभावसुयं भासासोयलद्धिणो जुञ्जए न इयरस्स। भासाऽभिमुहस्स जयं, सोऊण य जं हवेजाहि // 102 / / भावश्रुतं युज्यत इति संबन्धः / कस्य युज्यते ? इत्याह-भाषाश्रोत्रलब्धिमतः-भाषालब्धिमतः, श्रवणेन्द्रियलब्धिमतश्चेत्य- र्थः / कथंभूतं यद्भावश्रुतम् ? इत्याह-भाषाऽभिमुखस्य शब्द-मभिधित्सोः 'प्रथममेव मध्ये एतत्प्रतिपादयामि' इत्युपयोगरूपं यद्भवेत् श्रुत्वा वा परोदीरिता भाषां यद्भवेद् 'एतदनेन प्रतिपादितमिति।' इह च यथासंख्यमवगन्तव्यम्-भाषालब्धिमतः प्रथमं भवेत, श्रवणेन्द्रियलब्धिमतस्तु द्वितीयं भवेदिति। (न इयरस्स ति) इतरस्य तु भाषाश्रोत्रलब्धिरहितस्य भावश्रुतं न युज्यते। अयमभिप्रायः-यस्य सुप्तसाधोर्भाषाश्रोत्रलब्धिरस्ति, तस्योत्थितस्य परप्रतिपादनपरोदीरितशब्दश्रवणाऽऽदिलक्षणं भावश्रुतकार्य दृश्यते, तद्दर्शनाच सुप्तावस्थायामपि तस्य लब्धिरूपतया तदाऽऽसीदित्यनुमीयते, यस्य त्वेकेन्द्रियस्य भाषाश्रोत्रलब्धिरहितत्वेन कदाचिदपि भावश्रुतकार्यं नोपलभ्यते, तस्य कथं तदस्तीति प्रतीयेत? इति गाथाऽर्थः / / 102 / / अत्रोत्तरमाहजह सुहमं भाविंदिय-नाणं दटिवदियावरोहे वि! तह दव्वसुयाभावे, भावसुयं पत्थिवाइणं / / 103 / / इह केवलिनो विहाय शेषसंसारिजीवानां सर्वेषामप्यतिस्तोकबहुबहुतरबहुतमाऽऽदितारतम्यभावेन द्रव्येन्द्रियेष्वसत्स्वपि लब्धीन्द्रियपञ्चकाऽऽवरणक्षयोपपशमः समस्त्येवेति परममुनिवचनम्। ततश्च यथा येन प्रकारेण पृथिव्यादीनामेकेन्द्रियाणां श्रोत्रचक्षु-णिरसनलक्षणाना प्रत्येक निवृत्युपकरणरूपाणां द्रव्येन्द्रियाणां तत्प्रतिबन्धककर्माऽऽवृतत्वादवरोधेऽप्यभावेऽपि सूक्ष्ममव्यक्तं लब्ध्युपयोगरूपं श्रोत्राऽऽदि भावेन्द्रियज्ञानं भवति, लब्धीन्द्रिया-ऽऽवरणक्षयोपशमसंभूताणीयसी ज्ञानशक्तिर्भवतीत्यर्थः। तथा तेनैव प्रकारेण द्रव्यश्रुतस्य द्रव्येन्द्रियस्थानीयस्याभावेऽपि भाव श्रुतं भावेन्द्रियज्ञान कल्पं पृथिव्यादीनां भवतीतिप्रतिपत्तव्यमेव / इदमुक्तं भवति-एकेन्द्रियाणां तावच्छ्रोत्राऽऽदिद्रव्येन्द्रियाभावेऽपि भावेन्द्रियज्ञानं किञ्चिद् दृश्यते एव, वनस्पत्यादिषु स्पष्टतल्लिङ्गो-पलम्भात् / तथाहि-कलकण्ठोद्गीर्णमधुरपश्चमोद्गारश्रवणात्सद्यः कुसुमपल्लवाऽऽदिप्रसवो विरहकवृक्षाssदिषु श्रवणेन्द्रिय-ज्ञानस्य व्यक्तं लिङ्गमवलोक्यते। तिलकाऽऽदितरुषु पुनः कमनी-यकामिनीकमलदलदीर्घशरदिन्दुधवललोचनकटाक्षविक्षेपात् कुसुमाऽऽद्याविर्भावश्चक्षुरिन्द्रियज्ञानस्य, चम्पकाऽऽद्यहिपेषु तु विविधिसुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिश्रविमलशीतलसलिलसेकातत्प्रकटनं घ्राणेन्द्रियज्ञानस्य, बकुलाऽऽदिभूराहेषु तु रम्भाऽतिशायिप्रवररूपवरतरुणभामिनीमुखप्रदत्तस्वच्छसुस्वादुसुरभिवारुणीगण्डूषाऽऽस्वादनात तदाविष्करणं रसनेन्द्रियज्ञानस्य, कुरबकाऽऽदिविटपिष्वशोकाऽऽदिद्रुमेषु च घनपीनोन्नतकठिनकुचकुम्भविभ्रमापभ्राजितकुम्भीनकुम्भरणन्मणिवलयक्वणत्कङ्कणाऽऽभरणभूषितभव्यभामिनीभुजलताऽवगूहसुखान्निष्पिष्ट पारागचूर्णशोणतलतत्पादकमलपाणिप्रहाराच्च झगिति प्रसुनपल्लवाऽऽदिप्र-भवः स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्य स्पष्टं लिङ्गमभिवीक्ष्यते / ततश्च यथैतेषु द्रव्येन्द्रियासत्त्वेऽप्येतद्भावेन्द्रियजन्यं ज्ञानं सकलजनप्रसिद्ध-मस्ति, तथा द्रव्य श्रुताभावे भाव श्रुतमपि भविष्यति / दृश्यते हि जलाऽऽद्याहारोपजीवनाद्वनस्पत्यादीनामाहारसंज्ञा, संकोचनवल्ल्यादीनां तु हस्तस्पर्शाऽऽदिभीत्याऽवयवसंकोचनाऽऽदिभ्यो भयसंज्ञा, विरहकतिलकचम्पककेशराशोकाऽऽदीनां तु मैथुन-संज्ञा दर्शितैव, विल्वपलाशाऽऽदीनां तु निधानीकृतद्रविणोपरि पादमोचनाऽऽदिभ्यः परिग्रहसंज्ञा / न चैताः संज्ञाः भाव श्रुतमन्तरेणोपपद्यन्ते / तस्माद्भावेन्द्रियपञ्चकाऽऽवरणक्षयोपशमाद्भावे-न्द्रियपञ्चकज्ञानवद्भावश्रुताऽऽवरणक्षयोपशमसद्भावाद् द्रव्य-श्रुताभावेऽपि यच यावच्च भावश्रुतमस्त्येवैकेन्द्रियाणाम् , इत्यलं विस्तरेण / तर्हि-'" जं विन्नाणं सुयानुसारेणं "(100) इति श्रुत-ज्ञानलक्षणं व्यभिचारि प्राप्नोति, श्रुतानुसारित्वमन्तरेणाऽप्येकेन्द्रियाणां भावश्रुताभ्युपगमादिति चेत्। नैवम्, अभिप्रायापरिज्ञानात्, शब्दोल्लेखसहितं विशिष्टमेव भावश्रुतमाश्रित्य तल्लक्षणमुक्तम्, यत्त्वेकेन्द्रियाणामौधिकमविशिष्टभावश्रुतमात्रं तदावरण-क्षयोपशमस्वरूपम् , तच्छुतानुसारित्वमन्तरेणाऽपि यदि भवति, तथाऽपि न कश्चिद् व्यभिचारः / इति गाथार्थः 11 103 / / पुनरप्याह परःएवं सव्वपसंगो, न तदावरणाणमक्खओवसमा। मइसुयनाणाऽऽवरण-क्ख ओवसमओ मइसुयाइं / / 104 / / यदि भाषाश्रोत्रलब्धिरहितानामपि काष्ठकल्पानां पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां स्पष्ट किमप्यनुलभ्यमानमपि केनाऽपि वागाडम्बरमात्रेण ज्ञानं व्यवस्थाप्यते, तर्हि सर्वेषामपि केवलज्ञानपर्यन्तानां पञ्चाना-मपि ज्ञानानां प्रसङ्गः सद्भावस्तेषां प्राप्नोतीत्यर्थः / पञ्चापि ज्ञानानि एकेन्द्रियाणां सन्ति, इत्येतदपि कस्मान्नोच्यते ? स्पष्टानुपलम्भस्य विशेषाभावादिति भावः / अत्रोत्तरमाह-तदेतन्न / कुतः ? इत्याहतदावरणानामवधिमनःपर्यायकेवलज्ञानाऽऽवारक-कर्मणामक्षयोपशमादिति, अक्षयाचेति स्वयमपि द्रष्टव्यम्। इदमुक्तं भवति-केवलज्ञानं तावत् स्वावारककर्मणः क्षय एव जायते, अव-धिमनःपर्यायज्ञानेतुतस्य क्षयोपशमे भवतः, एतचैकेन्द्रियाणां नास्ति, तत्कार्यादर्शनाद , आगमेऽनुक्तत्वाच; इति न सर्वज्ञानप्रसङ्गः। मतिश्रुतेऽपि तर्हि मा भूताम्, इति चेत् / इत्यत्राऽऽह-(मईत्यादि) मतिश्रुतज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमस्त्वेकेन्द्रियाणामस्त्येव, तत्कार्यदर्शनात्, सिद्धान्तेऽभिहितत्वाचाततश्व तत्क्षयोपशमसद्भावन्मतिश्रुते भवत एव तेषाम्। इतिगाथाऽर्थः / / 104 / / तदेव सप्रसङ्गः प्रदर्शितो लक्षणभेदा मतिश्रुतयोर्भेदः, साम्प्रतं हेतुफलभावात्तमुपदर्शयन्नाहमइपुव्वं सुयमुत्तं, न मई सुयपुब्विया विसेसोऽयं / पुव्वं पूरणपालण-भावाओ जं मई तस्स / / 105 / / " मइपुव्वर्ग सुत्तं " इति वचनादागमे मतिः पूर्व यस्य तद् मतिपूर्व श्रुतमुक्तम् , न पुनर्मतिः श्रुतपूर्विका, इत्यनयोरयं विशेषः / यदि होकत्वं मतिश्रुतयोर्भवेत् , तदा एवंभूतो नियमेन पूर्वपश्चाद्भावो घटतत्स्वरूपयोरिव न स्याद् , अस्ति चाऽयम् , ततो भेद इति भावः / किमिति पुनर्मतिपूर्वमेव श्रुतमुक्तम् ? इत्याह-यद् यस्मात् कारणात् तस्य श्रुतस्य भतिः पूर्व प्रथममेवोपपद्य
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________________ णाण 1944 - अमिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण - ते कुतः ? इत्याह-पूरणेत्यादि' पृ' धातुः पालनपूरणयोरर्थरयोः पठ्यते, तस्य च पिपर्तीति पूर्वमिति निपात्यते। ततश्च शतस्य पूरणात् पालनाच मतिर्यस्मात्पूर्वभव युज्यते, तस्मान्मतिपूर्वमेव श्रुतमुक्तम्, पूर्वशब्दश्वायमिह कारणपर्यायो द्रष्टव्यः, कार्यात् पूर्वमेव कारणस्य भावात्." सम्यग्ज्ञानपूर्विका पुरुषार्थसिद्धिः " इत्यादौ तथादर्शनाच। ततश्च मतिपूर्व श्रुतमिति कोऽर्थः ? श्रुतज्ञानं कार्यम्, मतिस्तु तत्कारणम् , कार्यकारणयोश्व मृत्पिण्डघटयोरिव कथ-ञ्चिद् भेदः प्रतीत एवेति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 105 // पूरणाऽऽदिधर्मानव मतेवियन्नाहपूरिजइ पाविजइ, दिज्जइ वा जं मईए नाऽमइणा। पालिज्जइय मईए, गहियं इहरा पणस्सेज्जा / / 106 / / अनुप्रेक्षाऽऽदिकाले अभ्यूह्य श्रुतपर्यायवर्द्धनेन मत्यैव श्रुतज्ञानं पूर्यते पोष्यते पुष्टिं नीयत इत्यर्थः, तथा मत्यैवान्यतः तत् प्राप्यते गृह्यते, तथा मत्यैव तदन्यस्मै दीयते व्याख्यायते, नामत्या न मति-मन्तरेणेत्यर्थः, प्राकृतत्वात्पुंल्लिङ्गनिर्देशः। तथा गृहीतं सदेत-त्परावर्तनचिन्तनद्वारेण मत्यैव पाल्यते स्थिरीक्रियते, इतरथा मत्यभावे तद् गृहीतमपि प्रणश्येदेवेत्यर्थः / श्रुतज्ञानस्यैतं पूरणाऽऽदयोऽर्था विशिष्टाभ्यूहधारणाऽऽदीनन्तरेण कर्तुनशक्यन्ते, अभ्यूहाऽऽदयश्चमतिज्ञानमेव, इति सर्वथा श्रुतस्य मतिरेव कारणम् , श्रुतं तु कार्यम् , कार्यकारणभावश्च भेदे सत्येवोपपद्यते, अभेदे पटतत्स्वरूपयोरिव तदनुपपत्तेः / तस्मात् कारणकार्यरूपत्वाद् मतिश्रुतयोर्भेदः / इति गाथाऽर्थः / / 106 / / अथ श्रुतस्य मतिपूर्वतां विघटयन्नाहणाणाणऽण्णाणाणि य, समकालाई जओ मइसुयाइं। तो न सयं मइपुव्वं, मइणाणे वा सुयन्नाणं / / 107 / / इत मतिश्रुते वक्ष्यमाणयुक्त्या द्विविधे-सम्यग्दृष्टे िनस्वरूपे, मिथ्यादृष्टस्त्वज्ञानस्वभावे। तत्रज्ञाने अज्ञाने चैते प्रत्येक समकाल-मेव भवतः, तत्क्षयोपशमलाभस्यापगमे युगपदेव निर्देशात् / यत-चैते ज्ञाने अज्ञाने चमतिश्रुते पृथक् समकाले भवतः, ततो न श्रुतं मतिपूर्व युज्यते, न हि सममेवोत्पन्नयोः सव्येतरगोविषाणयोरिवपूर्वपश्चाद्भावः सङ्गच्छते। अथोत्सूत्रोऽप्यसदाग्रहवशात्स न त्यज्यते, इत्याह-(मइनाणे वा इत्यादि) इदमुक्तं भवतिमतिज्ञाने समुत्पन्ने तत्समकालं च श्रुतज्ञानेऽनभ्युपगम्यमाने श्रुताऽज्ञाने जीवस्य प्रसज्यते, श्रुतज्ञानानुत्पादेऽद्यापि तदनिवृत्तेः, न च ज्ञानाऽज्ञानयोः समकालमवस्थितिरागमे क्वचिदप्यनुमन्यते, विरोधात्-ज्ञानस्य सम्यग्दृष्टिसंभावित्वात्, अज्ञानस्य तु मिथ्या-दृष्टिभावित्वादिति गाथार्थः / / 107 / / अत्र प्रतिविधानमाहइह लद्धिमइसुयाई, समकालाई न तूवओगो सिं। मइपुव्वं सुयमिह पुण, सुओवओगो मइप्पभवो / / 108 ! ननु ध्यानध्यविजृम्भितमिदं परस्य, अभिप्रायापरिज्ञानात्। त-थाहि | द्विविधे मतिश्रुते तदावरणक्षयोपशमरूपलब्धितः, उप-योगतश्च। तत्रेह | लब्धितो ये भतिश्रुते से एवं समकालं भवतः, यस्त्व-नयोरुपयोगः स युगपन्न भवत्येव, किं तु केवलज्ञानदर्शनयोरिव तथास्वाभाव्यात्क्रमेणैव प्रवर्तते। अत्र तर्हि लब्धिमङ्गीकृत्य मति-पूर्वता श्रुतस्योक्ता भविष्यतीति चेत् / नैवम् , इत्याह-मतिपूर्व श्रुतम् , इह तु श्रुतोपयोग एव मतिप्रभवोऽङ्गीक्रियते, न लब्धिरिति भावः / श्रुतोपयोगो हि विशिष्टमन्तर्जल्पाऽऽकारं श्रुतानुसारि ज्ञानमभिधीयते, तचावग्रहेहाऽऽदीनन्तरेणाऽऽकस्मिकं न भवति, अवग्रहाऽऽदयश्च मतिरेव, इति तत्पूर्वता श्रुतस्य न विरुध्यते / इति गाथार्थः / / 108 / / तदेवं मतिपूर्व श्रुतमिति समर्थितम् , परस्तुमतेरपि श्रुतपूर्वताऽऽपादनेनाऽविशेषमुद्भावयन्नाहसोऊण जा मई भे, सा सुयपुव्व त्ति तेण न विसेसो। सा दव्वसुयप्पभवा, भावसुयाओ मई नत्थि // 106 / / परस्माच्छब्दं श्रुत्वा तद्विषया (भे) भवतामपि या मतिरुत्पद्यते सा श्रुतपूर्वा श्रुतकारणैव, शब्दस्य श्रुतत्वेन प्रागुक्तत्वात् , तस्याश्च मतेः तत्प्रभवत्येन भवतामपि सिद्धत्वात् / ततश्च (न विसेसो त्ति) अन्योऽन्यपूर्वभावितायां मतिश्रुतयोर्न विशेष इत्यर्थः। तथा च सति"न मई सुयपुध्विय त्ति " यदुक्तं प्राक् , तदयुक्तं प्राप्नोतीति भा-वः / अत्रोत्तरमाह-परस्माच्छब्दमाकर्ण्य या मतिरुत्पद्यते, साह-न्त ! शब्दस्य द्रव्यश्रुतमात्रत्वाद् द्रव्यश्रुतप्रभवा, न भावश्रुतकारणा, एतत्तु न केनाऽपि वार्यते, किं त्वेतदेव वयं बूमो यदुत-भावश्रुताद् मतिर्नास्ति, भावश्रुतपूर्विका मतिर्न भवतीत्यर्थः, द्रव्यश्रुतप्रभवा तु भवतु; को दोष ? इति गाथाऽर्थः / / 106 / / ननु भावश्रुतादूर्ध्वं मतिः किं सर्वथा न भवति ? इत्याहकज्जतया न उ कमसो, कमेण को वा मई निवारेइ ? जं तत्थावत्थाणं, सुयस्स सुत्तोवओगाओ॥ 110 // भावश्रुताद् मतिः कार्यतयैव नास्तीत्यनन्तरोक्तगाथाऽवयवेन संबन्धः (न उ कमसो त्ति) क्रमशस्तु मतिनास्तीत्येवं न, किं तर्हि ? क्रमशः साऽस्ति, इत्येतत् सर्वोऽपि मन्यते, अन्यथा आम-रणावधि श्रुतमात्रोपयोगप्रसङ्गात् / यदि क्रमशः साऽस्ति, तर्हि क्रमेण भवन्त्यास्तस्या भवन्तः किं कुर्वन्ति? इत्याह-(कमेणे-त्यादि) वाशब्दः पातनार्थे, सा च कृतैव, क्रमेण भवन्तीं मति को निवारयति? मत्या श्रुतोपयोगो जन्यते, तदुपरमे तु निजकारण-कलापात् सदैव प्रवृत्ता पुनरपि मतिरवतिष्ठते, पुनस्तथैव श्रुतम् , तथैव च मतिः, इत्येवं क्रमेण भवन्त्या मतेनिषेधका वयं न भवाम इत्यर्थः / किमिति ? इत्याह-यद् यस्मात् कारणात् तत्र तस्यां मतौ अवस्थानं स्थितिर्भवति, श्रुतोपयोगात् च्युतस्य ततः क्रमेण मतिं न निषेधयामः / इदमुक्तं भवति-यथा सामान्यभूतेन सुवर्णेन स्वविशेषरूपाः कङ्कणाडलीयकाऽऽदयो जन्यन्ते, अतस्ते तत्कार्यव्यपदेशं लभन्त एव, सुवर्णं त्वतज्जन्यत्वात् तत्कार्यतया न व्यवह्रियते, तस्य कारणान्तरेभ्यः सिद्धत्वात् , कङ्कणाऽऽदिविशेषोपरमे तु सुवर्णावस्थानं क्रमेण न निवार्यते; एवं मत्याऽपि सामान्यभूतया स्वविशेषरूपश्रुतोपयोगो जन्यते, अतस्तत्कार्य स उच्यते, मतिस्त्वतजन्यत्वात्तत्कार्यतया न व्यपदिश्यते, तस्या हेत्वन्तरात् सदा सिद्धत्वात् , स्वविशेषभूतश्रुतोपयोगपरमे तु क्रमाऽऽयातं मत्यवस्थानं न निवार्यते, आमरणान्तं के वलश्रुतोपयोगप्रसङ्गादिति गाथार्थः / / 110 // तदेवं भावश्रुतं मतिपूर्व व्यवस्थाप्य मतान्तरमुपदर्शयन्नाहदव्वसुयं मइपुव्वं, भासइ जं नाऽविचिंतियं केइ।
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________________ णाण 1945 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण भावसुयस्साभावो, पावइ तेसिंनय विसेसो॥१११॥ (केइ त्ति) मतिपूर्व श्रुतमित्यत्राऽऽगमवचने केचिदेवं व्याचक्षते। किम् ? | इत्याह-द्रव्यश्रुतं शब्दरूपं मतिपूर्वम, न भावश्रुतम् / तत्र युक्तिमाह- / (भासइ जं नाविचिंतिय ति) यद् यस्मात् कारणादविचि-न्तितम् अविवक्षितं न कोऽपि भाषते न शब्दमुदीरयति, यच्च विव-क्षाज्ञानं तत् किल मतिरिति तेषामभिप्रायः, ततश्च मतिपूर्व द्रव्य-श्रुतं सिद्धं भवति। एतस्मिन् व्याख्याने दोषमाह-तेषामेवं व्याख्या-तृणां भावश्रुतस्य सर्वथैवाभावः प्राप्नोति, यतो वक्तृगत विवक्षोप-योगज्ञानं तैरेव मतित्वेन व्याख्यातम् , अन्यथा शब्दस्य मतिपूर्य-कत्वाभावात् , श्रोतुरपि शब्द श्रुत्वा प्रथमं यदवग्रहाऽऽदिज्ञानं तत्तावन्मतिरेव, ऊर्ध्वमपि च तस्या भावश्रुतं नाभ्यपगन्तव्यम्, मति-पूर्वं भावभुतमित्यस्मत्पक्षवर्तित्वप्रसङ्गात् / यदशृण्वतोऽभाषमाणस्य चानुप्रेक्षाऽऽदिष्वन्तर्जल्पारूपितं ज्ञानं विपरिवर्तते तद्भाव-श्रुतं भविष्यतीति चेत्। तदयुक्तम् , यतस्तदपि यद्यवग्रहाऽऽद्यात्मकमतिपूर्वं तदा भावश्रुतं नेष्टव्यम् , अस्मत्पक्षाभ्युपगमप्राप्तेरेव। अथ मतिपूर्व तन्नेष्यते, तथाऽपि तत्सविकल्पकत्वेन मतिरेव, शब्द-विवक्षाज्ञानवत् ; शब्दविवक्षाज्ञानेऽपि हि शब्दविकल्पोऽस्ति, तमन्तरेण शब्दाभिधानासंभवात्। न चाऽसौ भावश्रुतत्वेनेष्टः; तस्माद् मतेरनन्तरं सर्वत्र शब्दमात्रस्यैवोत्थानम्, न भावश्रुतस्य: अस्मत्पक्षाङ्गीकरणप्रसङ्गात्। विकल्पज्ञानानि च विवक्षाज्ञानवन्मतित्वेनोक्तान्येव, इति सर्वत्र भावश्रुताभावः प्रसजति। भवतु स तर्हि, इति चेत्। इत्याह-(नय विसेसो त्ति) भावश्रुताभावे मति-श्रुतयोर्विशेषो भेदश्चिन्तयितव्यो न स्यात्, स हि द्वयोरेवोपपद्यते। यदा च मतिरेवाऽस्ति, न भावश्रुतम् , तदा तस्याः केन सह भेदचिन्ता युज्येत? इति भावः / द्रव्यश्रुतरूपेण शब्देन सह मतेर्भेदचिन्ता भविष्यतीति चेत् / तदयुक्तम् / ज्ञानपञ्चकविचारस्य इहा-धिकृतत्वात् , तदधिकारे च शब्देन सह भेदचिन्ताया अप्रस्तुतत्वात्। चिन्त्यता वा मतिपूर्व द्रव्यश्रुतम् इत्येवंमतेः शब्देनापि सह विशेषः, किंतु सोऽपि न घटते। इति गाथाऽर्थः / / 111 // कुतो नघटते ? इत्याहदव्वसुयं बुद्धीओ, सा वि तओ जमविसेसओ तम्हा। भावसुयं मइपुव्वं, दव्वसुयं लक्खणं तस्स // 112 // यदिति यस्मात् कारणाद् यथा द्रव्यश्रुतं शब्दो बुद्धेर्मतेः सकाशाद् भवतीति भवद्भिः प्रतिपाद्यते, तथा हन्त ! साऽपि बुद्धिस्ततः शब्दात् श्रोतुर्भवत्येव / ततश्च ''मइपुव्वं सुयमुत्तं, न मई सुयपुट्विया विसेसोऽयं / " (105) इति मतिश्रुतयोर्भेदप्रतिपादनार्थ योऽसौ विशेषोऽत्र प्रतिपादयितुं प्रस्तुतः, स द्वयोरप्यन्योन्यं पूर्वभावितायाः समानत्वान्न प्राप्नोति, इत्यनन्तरगाथापर्यन्तावयवेन संबन्धः / तस्मात्तेषां मतेऽविशेषतः कारणाद्यदस्माभिः प्राक् समर्थितम्भावश्रुतं मतिपूर्वमिति, तदेव युक्तियुक्तम्।शब्दलक्षणं तुद्रव्यश्रुतंतस्य भावश्रुतस्य लक्ष्यते गम्यतेऽनेनेति लक्षणं लिङ्गमिति गाथाऽर्थः / / 112 / / कुतस्तत्तस्य लक्षणम् ? इत्याहसुयविन्नाणप्पभवं, दव्वसुयमियं जओ विचिंतेउं। पुव्वं पच्छा भासइ, लक्खिज्जइ तेण भावसुयं / / 113 / / श्रुतविज्ञानप्रभवं सविकल्पकविवक्षाज्ञानकार्य शब्दरूपं द्रव्यश्रुतमिदं यत्परैर्मतिपूर्वत्वेन इष्यते, कथं पुनस्तद्भावश्रुतप्रभवं विज्ञायते ? इत्याह-यतः सर्वोऽपि पूर्व विचिन्त्य वक्तव्यमर्थं चित्ते विकल्प्य पश्चात् शब्द भाषते, यच तचिन्ताज्ञानं तत् श्रुतानुसारित्वाद् भावश्रुतम् इति भावश्रुतप्रभवता द्रव्यश्रुतस्य विज्ञायते; यच यस्मात्प्रभवति तत्तस्य कार्यम्, यतस्तेन कार्यभूतेन द्रव्यश्रुतेनस्वकारणभूतंभावश्रुतंलक्ष्यतइतितत्तस्य लक्षणमुक्तम् . अस्तिभावश्रुतमत्र, तत्कार्यस्य शब्दस्य श्रवणाद्, इत्येवंतेन भावश्रुतस्य लक्ष्यमाणत्वादिति / द्रव्यश्रुतस्य च भाव श्रुतलक्षणता मतान्तरवादिनां विपर्यस्तत्यप्रतिपादनार्थमुपदर्शिता, भावश्रुतप्रभवस्याऽपि शब्दस्य तैर्मतिपूर्वत्वप्रतिपादनादिति गाथाऽर्थः // 113 // अथ यथा मतिश्रुतयोः कार्यकारणभावद् भेदः, तथा तयोः प्रत्येक स्वस्थानेऽपि सम्यक्त्वमिथ्यात्वपरिग्रहाद् भेद एवेत्यनुषगतो दर्शयितु नन्द्यध्ययनाऽऽगमे मतिश्रुतयोः कार्यकारणभावेन भेदप्रतिपादनानन्तरमिदं सूत्रमस्ति। तद्यथा" अविसेलिया मई-मइनाणं च, मइअन्नाणं च / विसेसिया मईसम्मदिद्विस्स मई मइनाणं, मिच्छादिट्ठिरस मई मइअनाणं / एवं अविसेसिय सुर्य सुयनाणं, सुयअन्नाणं च, विसेसियं सुयं-सम्मदि-विस्स सुयं सुयनाणं, मिच्छादिहिस्स सुयं सुयअन्नाणं! " सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिसंबन्धतोऽविशेषितेन मतिशब्देन मतिज्ञानं, मत्यज्ञानं च द्वे अपि प्रतिपाद्येते, सम्यग्दृष्टित्वविशेषितेन तुमति-ध्वनिना मतिज्ञानमेवोच्यते, मिथ्यादृष्टित्वविशेषितेन तु तेनैव मत्यज्ञानमेवाभिधीयते, एवं श्रुतेऽपि वाच्यमिति सूत्रभावार्थः। तदेतदानुषङ्गिक सूत्रोक्तमनुवर्तमानो भाष्यका रोऽप्याहअविसेसिया मइ चिय, सम्मद्दिहिस्स सा मइन्नाणं। मइअण्णाणं मिच्छा-दिहिस्स सुर्य पि एमेव / / 114 / / सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिभावेनाविशेषिता मतिर्मतिरेवोच्यते, नतुमतिज्ञानं मत्यज्ञानं चेति निर्धाय व्यपदिश्यते, सामान्यरूपायां तस्यां ज्ञानाज्ञानविशेषयोर्द्वयोरप्यन्तर्भावाद् / यदा तु सम्यग्दृष्टिरेव संबन्धिनी सा मतिबिंवक्ष्यते, तदा मतिज्ञानमिति निर्दिश्यते / यदा तु मिथ्यादृष्टिसंबन्धिनी तदा मत्यज्ञानम्। एवं श्रुतमप्यविशेषितं श्रुतमेव, विशेषितं तु सम्यग्दृष्टेः श्रुतज्ञानम् , मिथ्यादृष्टस्तुश्रुता-ज्ञानम्, सम्यग्दृष्टिसंबन्धिनो बोधस्य सर्वस्यापि ज्ञानत्वात् ; मिथ्यादृष्टिसत्कस्य त्वज्ञानत्वादिति गाथाऽर्थः // 114 // ननु यथा मतिश्रुताभ्यां सम्यग्दृष्टिर्घटाऽऽदिकं जानीते, व्यवहरति च तथा मिथ्यादृष्टिरपि, तत्किमति तस्य सत्कं सर्वमप्यज्ञान-मुच्यते ? इत्याशङ्कयाऽऽहसदसदविसेसणाओ, भवहेउजदिच्छिओवलंभाओ। नाणफलाभावाओ, मिच्छद्दिहिस्स अन्नाणं / / 115 / / सवासच सदसती, तयोरविशेषणमविशेषतः, तस्माद्धेतो:,
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________________ णाण 1946 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण मिथ्यादृष्टः संबन्धि व्यवहारमात्रेण ज्ञानमपि निश्चयतोऽज्ञान-मुच्यते, भव-ति, यथा धनुर्धरयचैत्रोऽन्यो चेति, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धेरवग्रहहाऽऽसतो ह्यसत्त्वेन असद् विशिष्यते, असतोऽपि च सत्त्वेन सद्भिद्यते / दिरूपाया मतित्वात् , श्रुतानुसारिण्यास्तु श्रुतत्वादिति / यदि पुनः मिथ्यादृष्टिश्च घटे सत्त्वप्रमेयत्वमूर्तत्वाऽऽदीन्, स्तम्भरम्भाऽम्भोरुहा- श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेत्यवधार्यते, तदा तदुपलब्धेर्मतित्वं सर्वथैव ऽऽदिव्यावृत्यादीश्च पटाऽऽदिधर्मान् सतोऽप्यसत्त्वेन प्रतिपद्यते,' नस्यात्. इण्यते च कस्याश्चित् तदपीति भावः / यदि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः सर्वप्रकारैर्घट एवायम् इत्यवधारणात् / अनेन ह्यवधारणेन सन्तोऽपि श्रुतंतर्हि शेषं किं भवतु? इत्याह-(सेसयंत्वित्यादि) श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि सत्त्वप्रमेयत्वाऽऽदयः पटाऽऽदिधर्मा न सन्तीति प्रतिपद्यते, अन्यथा विहाय ' शेषक ' यच्चक्षुरादीन्द्रिय-चतुष्टयोपलब्धिरूपं तन्मतिज्ञानं, सत्त्वप्रमेयत्वाऽऽदिसामान्यधर्मद्वारेण घटे पटाऽऽदीनामपि सदभावात् ' भवति इति वर्तते / तुशब्दः समु-चये, स चैव समुचिनोति, न केवलं सर्वथा घट एवायम् ' इत्यव-धारणानुपपत्तेः, 'कथञ्चिद् घट एवायं' शेषेन्द्रियोपलब्धिर्मतिज्ञानं, किं तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्च काचिदवइत्यवधारणे त्वनेकान्त-वादाभ्युपगमेन सम्यग्दृष्टित्वप्रसङ्गात् , तथा ग्रहहाऽऽदिमात्ररूपा मतिज्ञानं भवति। तथा च सत्यनन्तरमवधापटपुटनटशकटाऽ5-दिरूपं घटेऽसदपि सत्त्वेनायमभ्युपगच्छति' सर्वः रणव्याख्यानमुपपन्नं भव-ति / " से सयं तु मइनाणं " इति प्रकारैर्घटोऽस्त्ये-व' इत्यवधारणात्,' स्यादस्त्येव घटः' इत्यवधारणे सामान्येनैवोक्त शेषस्य सर्वस्या-प्युत्सर्गेण मतित्वे प्राप्ते सत्यपवादमाहतु स्याद्वादाऽऽश्रयणात् सम्यग्दृष्टित्वप्राप्तेः / तस्मात्सदसतोर्विशेषा (मोत्तूणं दव्वसुयं ति) पुस्तकाऽऽदिलिखितं यद् द्रव्यश्रुतं तन्मुक्त्वा भावादु-न्मत्तकस्येव मिथ्यादृष्टोधोऽज्ञानम्।तथा विपर्यस्तत्वादेव भव परित्यज्यैव शेषं मतिज्ञानं द्रष्टव्यम् , पुस्तकाऽऽदिन्यस्त हि भाव श्रुतहेतुत्वात् तद्बोधोऽज्ञानम् / तथा पशुवधहेतुत्वात् तद्बोधोऽज्ञानम्। तथा कारणत्वात् शब्दवत् द्रव्यश्रुतमेव, इति कथं मतिज्ञान स्याद् ? इति पशुवधतिलाऽऽदिदहनजलाऽऽद्यवगाहनाऽऽदिषु संसारहेतुषु मोक्षहेतुत्व भावः / न केवलं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम् , किं तु यश्च शेषेषु चतुर्यु बुद्धेः, दयाप्रशमब्रह्मचर्याऽकिञ्चन्यादिषु तु मोक्षकारणेषु भवहेतुत्वाध्यव चक्षुरादीन्द्रियेषु श्रुतानुसारिसामिलापविज्ञानरूपोऽक्षरलाभः सोऽपि सायतो यदृच्छो पलम्भात् तस्याऽज्ञानम् / तथा विरस्यभावेन श्रुतम् , न त्वक्षरलाभमात्र, तस्येहापायाऽऽद्यात्मके मतिज्ञानेऽपि सद् भावादिति / आह-यदि चक्षुरादीन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रुतं, तर्हि यज्ञानफलाभावाद मिथ्यादृष्टरज्ञानमिति गाथाऽर्थः / / 115 / / दाद्यगाथाऽवयवे' श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतम् ' इत्यवधारणं कृतम् , तदेवं सप्रसङ्गः प्रतिपादितो हेतुफलभावादपि मतिश्रुतयो तन्नोपपद्यते / शेषेन्द्रियोपलब्धेरपीदानीं श्रुतत्वेन समर्थितत्वा-त् / भेंदः, साम्प्रतं भेदभेदात्तयोस्तमभिधातुमाह नैतदेवम् , शेषेन्द्रियाक्षरलाभस्याऽपि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरूपत्वात्। स भेयकयं च विसेसण-मट्ठावीसइविहंगभेयाई। हि श्रुतानुसारिसामिलापज्ञानरूपोऽत्राधिक्रियते, श्रोत्रे-न्द्रियोपलब्धिइंदियविभागओ वा, मइसुयभेओ जओऽभिहियं / / 116 // रपि चैवंभूतैव श्रुतमुक्ता। ततश्व साभिलापविज्ञानं शेषेन्द्रियद्वारेणाऽप्युत्पन्न भेदाऽवग्रहाऽऽदयः, अङ्गानङ्गप्रविष्टत्वाऽऽदयश्च, तत्कृत वा मतिश्रुत योग्यतया श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव मन्तव्यम् , अभिलापस्य सर्वस्यापि योर्विशेषण भेदः, यतोऽवग्रहाऽऽदिभेदादष्टाविंशत्यादिविध मतिज्ञानं,' श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्यत्वादिति। अत्राऽऽहननु" सोइंन्दिओवलद्धी होइ वक्ष्यते' इति शेषः / श्रुतज्ञानं त्वङ्गानङ्गप्रविष्टत्वाऽऽदिभेदमभिधास्यते। सुयं। " तथा-"अक्खरलंभोयसेसेसु।" इत्युभयवचनात् श्रुतज्ञानस्य अथवा-इन्द्रियविभागान्मतिश्रुतयोर्भेदः, यतोऽन्यत्र पूर्वगतेऽभिहितमिति सर्वेन्द्रियनिमित्तता सिद्धा। तथा-" सेसय तुमइनाणं " इति वचनात् . गाथाऽर्थः // 116 // तुशब्दस्य समुच्चयाच मतिज्ञानस्यापि सर्वेन्द्रियकारणता प्रतिष्ठिता; भवदभिस्तु इन्द्रियविभागाद मतिश्रुतयोर्भेदः प्रतिपादयितुमारब्धः; स किमभिहितम् ? इत्याह चैव न सिद्धयति, द्वयोरपि सर्वेन्द्रियनिमित्ततायास्तुल्यत्वप्रतिसोइंदिओवलद्धी, होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं। पादनादिति / अत्रोच्यते-साधूक्तं भवता, किं तु यद्यपि शेषेन्द्रियमोत्तूणं दव्वसुयं, अक्खरलंभो य सेसेसु // 117 / / द्वाराऽऽयातत्त्वात्तदक्षरलाभः शेषेन्द्रियोपलब्धिरुच्यते, तथाऽप्यइन्द्रो जीवः, तस्येदमिन्द्रियम् . श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम, तद्य तदिन्द्रिय भिलापाऽऽत्मकत्वादसौ श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्य एव, ततश्च तत्त्वतः चेति श्रोत्रेन्द्रियम् , उपलम्भनमुपलब्धिर्ज्ञानम् श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेवाऽयम्। यथा च सति परमार्थतः सर्वं श्रोत्र-विषयमेव श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरिति तृतीयासमासः: श्रोत्रेन्द्रियस्य वा उपलब्धिः श्रुतज्ञानम् , मतिज्ञानं तु तद्विषयं शेषेन्द्रियविषयं च सिद्ध भवति, अत इत्थमिन्द्रियविभागान्मतिश्रुतयोर्भदो न विहन्यते; इत्यलं विस्तरेण / श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरिति षष्ठीसमासः, श्रोत्रेन्द्रियद्वारकं ज्ञानमित्यर्थः / इति पूर्वगतगाथासक्षेपार्थः // 117 // श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिर्यस्येति बहुब्रीहिणाऽन्यपदार्थे शब्दोऽप्यधिक्रियते। ततश्चाऽऽद्यसमासद्वये श्रोत्रेन्द्रियद्वारकमभि-लापप्लावितोपलब्धि अथ विस्तरार्थमभिधित्सुर्भाष्यकार एव परेण पूर्वपक्ष लक्षणं भाव श्रुतमुक्तंद्रष्टव्यम्, बहुब्रीहिणा तुतस्याभावश्रुतोपलब्धावनुप कारयितुमाहयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतम् , तदुपयुक्त-स्य तु वदत उभयश्रुतमभिहितं सोओवलद्धि जइ सुयं, न नाम सोउग्गहाइओ बुद्धी। वेदितव्यम् / इह च व्यवच्छेदफलत्वात् सर्वं वाक्यं सावधारणं भवति, अह बुद्धीओ न सुयं, अहोभयं संकरो नाम / / 118 / / इष्टश्चावधारणविधिः प्रवर्तते; ततः 'चेत्रो धनुर्धर एव' इत्यादिष्विवेहा- ' श्रोत्रोपलब्धिरेव श्रुतम् ' इत्यवधारणार्थमनवगच्छतः ' श्रुतयोगव्यवच्छेदेनाव-धारणं द्रष्टव्यम्। तद्यथा-श्रुतं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव, / मेव तदुपलब्धिः 'इत्येवं च तदर्थमवबुध्यमानस्य परस्य वचननतु श्रोत्रे-न्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेति; श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिस्तु श्रुतं मतिर्वा | मिदम् / तद्यथा-यदि श्रोत्रोपलब्धिः श्रुतमेव, तर्हि ' नाम '
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________________ णाण 1947- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण इति कोमलाऽऽमन्त्रणे, अहो ! श्रोत्रेन्द्रियद्वारोत्पन्ना अवग्रहेहाऽऽ-दयो बुद्धिर्मतिज्ञानं न प्राप्नुवन्ति, तदुपलब्धेः सर्वस्याऽपि श्रुत-त्वेनावधारणात्।मा भूव॑स्ते मतिज्ञानम् , किं नः सूयते ? इति चे-त्, नैवम्। तथा सति तस्य वक्ष्यमाणाष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वहानेः / अथैतद्दोषभयाद् बुद्धिस्तेऽभ्युपगम्यन्ते, ततस्तर्हि न ते श्रुतम् , तथा च सति-" सोइंदिओवलद्धी, होइ सुयं ' (117) इत्यसङ्गतं प्राप्नोति / अथोभयदोषपरिहारार्थम् ,' उभयं बुद्धिश्च श्रुतं च ते इष्यन्ते, तर्हि एवं सत्येकस्थानमीलितक्षीरनीरयोरिव संकरः, संकीर्णता मतिश्रुतयोराप्नोति, न पृथग्भावः / अथवा-'यदेव मतिः, तदेव च श्रुतं, यदेव च श्रुतं तदेव मतिः, इत्येवमभेदोऽप्यनयोः स्याद्, इति स्वयमेव द्रष्टव्यम्। भेदश्चेह तयोः प्रतिपादयितुं प्रस्तुतः, तदेतत् शान्तिकरणप्रवृत्तस्य वेतालोत्थानमिति प्रेरकगाथार्थः / / 118 // तदेतत्प्रेर्य केचित यथा परिहरन्ति, तथा तावद्दर्शयन्नाहकेई वेंतस्स सुयं, सद्दो सुणओ मइत्ति तं न भवे / जं सव्वो चिय सद्दो, दव्वसुयं तस्स को भेदो ? || 116 // " सोइंदियोवलद्धी" (117) इत्यत्र श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिर्य-स्येति केवलबहुव्रीह्याश्रयणात् श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः शब्द एवेति केचिन्मन्यन्ते, स च प्रज्ञापकस्य बुवतः श्रूयत इति कृत्वा श्रुतम्, शृण्वतस्तु श्रोतुरवग्रहहापायाऽऽदिरूपेण मन्यते ज्ञायत इति मतिः / एवं च सत्युभयमुपपन्नं भवति, श्रोत्रगतावग्रहाऽऽदीनां च श्रुत-त्वं परिहृत भवति / आचार्यः प्राऽऽह-' तं न भवेति' तदेतत् केषाश्चिद् मतं युक्तं न भवति। कुतः ? इत्याह-यद्यस्मात् कारणात युवतः श्रोतुश्च संबन्धी सर्व एव शब्दो द्रव्यश्रुतम् द्रव्यश्रुतमात्रत्वेन च सर्वत्र तुल्यस्य सतस्तस्य शब्दस्य को भेदः को विशेषः ? येनासौ वक्तरि श्रुतम् , श्रोतरितु मतिः स्यात् / यदपि श्रूयत इति श्रुतम् , मन्यते इति मतिः / उच्यते-तत्रापि धात्वन्तरमात्रकृत एव विशेषः, शब्दस्तुस एव श्रूयते स एव मन्यते, इति न क्वचिदुभयं दृश्यते / इति गाथाऽर्थः // 116 / / दूषणान्तरमप्याहकिं वा णाणेऽहिगए, सद्देणं जइय सहविन्नाणं / गहियं तो को भेदो, भणओ सुणओ व जो तस्स? / / 120 // | यदि वा ज्ञाने ज्ञानविचारे अधिकृते किं पुद्गलसंघातरूपेण शब्देन गृहीतेन कार्यम् , अप्रस्तुतत्वात् ? अथ श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिशब्देन शब्दविज्ञानं गृह्यत इति / अत्राऽऽह-(जइ येत्यादि) यदि च श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धेः शब्दस्य कारणभूतत्वात् कार्यभूतत्वाचोपचारतो वक्तृगतं श्रोतृगतं च शब्दविज्ञान श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिशब्दवाच्यत्वेन गृहीतम् , तच ब्रुवतः श्रुतं, शृण्वतस्तुमतिरित्युच्यते। हन्त!तत-स्तर्हि तस्य विज्ञानस्य ब्रुवतः शृण्वतो वा यो भेदो विशेषः, स कः ?इति कथ्यता, येन तद्वक्तुः श्रुतं, श्रोतुश्च मतिः स्यात् ? इति नास्त्यसौ विशेषः, शब्दज्ञानत्वाविशेषादिति भावः। किं च-एवं सति श्रोतुरपि कदाचित् श्रुत्यनन्तरमेव ब्रुवतः सैव शब्दजनिता तन्मतिरवशिष्टा श्रुतं प्रसजति, "वेतस्स, सुय' (११६)"सु-णओ मइ"(११६) इत्यभ्युपगमात्; ततश्च तदेवैकत्व मतिश्रुतयोः, इति कोऽतिशयः कृतः स्याद् ? इति। किंच-वदि-शृण्वतः सर्वदैव मतिरित्ययमेकान्तः, तर्हि यदेतद् व्यक्तं सर्वत्रोच्यते-आ- I चार्यपारम्पर्येणेदं श्रुतमायातमिति, तदसत् प्राप्नोति, तीर्थकरा-दर्वाक् सर्वेषामपि श्रोतृत्वेन मतिज्ञानस्यैवोपपत्तेः / अथ नैवम् , तहोकत्वं मतिश्रुतयोरिति गाथाऽर्थः / / 120 // तदेवम्-" केई वेतस्स सुयं "(190) इत्यादि दूषयित्वा प्रस्तुतप्रकरणोपसंहारव्याजेन परमेव शिक्षयन्नाहभणओ सुणओ व सुयं, तं जमिह सुयाणुसारिविन्नाणं / दोण्हं पि सुयाईयं, जं विन्नाणं तयं बुद्धी॥ 121 / / तस्माद्ब्रुवतः श्रुतम् ,शृण्वतस्तुमतिः,इत्येतन्नयुक्तम् , उक्त-दूषणाद्, अनागमिकत्वाच्च। किंतर्हि युक्तम् ? इति चेत्। उच्यते-भणतः शृण्वतो वा यत्किमपि श्रुतानुसारि परोपदेशाहद्वचनानुसारि विज्ञानम् , तदिह सर्व श्रुतम्, यत्पुनर्द्वयोरपि वक्तृश्रोत्रोः श्रुतातीत हृषीकमनोमात्रनिमित्तमवग्रहाऽऽदिरूपं विज्ञानम् , तत्सर्वं बुद्धि-मतिज्ञानमित्यर्थः / तदेव द्वयोरपि वक्तृश्रोत्रोः प्रत्येक मतिश्रुते यथो-क्तस्वरूपे अभ्युपगन्तव्ये, न पुनरेकैकस्यैकैकमिति भावः / इति गाथाऽर्थः 11 121 // भवत्वेवम् , किंतु-" सोओवलद्धिजइ सुयं, न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी" (118) इत्यादिना यः परेण पूर्व-पक्षोऽभ्यधायि, तस्य तर्हि कः परिहारः? इत्याशङ्कय भाष्यकार एवेदानीम् " सोइंदिओवलद्धी, होइ सुयं" (117) इत्यादिमूलगा थां विवृण्वन्नाहसोइंदियोवलद्धी, चेव सुयं न उतई सुयं चेव। सोइंदिओवलद्धी, विकाइ जम्हा मइन्नाणं / / 122 / / इह श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिशब्दस्य तृतीयाषष्ठीसमासः, बहुव्रीहिश्च; आद्यसमासद्वयेन भावश्रुतम् , बहुव्रीहिणातुभावश्रुतानुपयुक्तस्यवदतो द्रव्यश्रुतम् , तदुपयुक्तस्य तु ब्रुवत उभयश्रुतं गृहीतमिति प्राग्वृत्तौ दर्शितं सर्वं द्रष्टव्यम् / अवधारणविधिमपि प्रागुपदर्शितमाह-श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतम् , इत्येवमवधारणीयम्। ( न उ तइ ति) न पुनः सा श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेति। कुतो नैवमवधा-यंते ? इत्याह-यस्मात् श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि काचित् श्रुतानुसा-रिणी अवग्रहेहाऽऽदिमात्ररूपा मतिज्ञानमेव, अतः ' श्रोत्रेन्द्रियोप-लब्धिः श्रुतमेव ' इति नावधार्यत इतिभावः। एवं च सति" न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी "(118) इत्यादि परेण यत्प्रेरितम् , तत्परि-हृतं भवति, श्रोत्रावग्रहाऽऽदीनामपि बुद्धिरूपतायाः समर्थितत्वा-दिति गाथाऽर्थः // 122 / / तदेवमवधारणविधिना श्रोत्रावग्रहाऽऽदीना मतित्वं समर्थितं, यदि वा" सेसयं तुमइनाणं" (117) इत्यत्र योऽसौ तुशब्दः, ततोऽपि तेषां तत्स मर्थ्यते इति दर्शयन्नाहतुसमुचयवयणाओ, व काइ सोइंदिओवलद्धी वि। मइरेवं सइ सोउ-ग्गहादओ हुंति मइभेया / / 123 / / " से सयं तु मइनाणं ' (117) इत्यत्र यो ऽसौ तुशब्दः समुचयवचनः, ततश्च कि मुक्तं भवति ?- शेषकं मतिज्ञानम् , काचिदनपेक्षितपरोपदेशाहद्वचना श्रोत्रेन्द्रियो पलब्धिश्च मति
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________________ णाण 1948 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण ज्ञानमित्येवं वा श्रोत्रावग्रहाऽऽदयो भवन्ति मतिभेदाः / तथा च सति मतेरष्टाविंशतिभेदत्वंन परिहीयते. ततश्च"न नाम सोउग्गहादयो बुद्धी' (118) इत्यादि परप्रेर्य प्रतिक्षिप्तमेवेति गाथार्थः / / 123 / / मूलगाथाया व्याख्यातशेषं व्याख्यानयन्नाहपत्ताइगयं सुयका-रणं ति सद्दो व्व तेण दव्वसुयं / भावसुयमक्खराणं, लाभो सेसं मइन्नाणं / / 124 // मूलगाथायां' श्रोत्रावग्रहाऽऽदयः,शेषकं चमतिज्ञानम् ' इत्युक्ते शेषस्य सर्वस्यापि उत्सर्गतो मतित्वे प्राप्ते, अपवादः-"मोत्तूणं दव्वसुयं ति" (117) इत्युक्तम् / तत्र किं तद् द्रव्यश्रुतं यदिह वय॑ते ? इत्याह भाष्यकार:-पत्राऽऽदिगतं पुस्तकपत्राऽऽदिलिखितम् , तेन कारणेन द्रव्यश्रुतम् ; येन किम् ? इत्याह-श्रुतकारण-मिति। किंचद् ? इत्याहशब्दवदिति यथा भावश्रुतकारणत्वात् शब्दो द्रव्य श्रुतम्, तथा-पुस्तकपत्राऽऽदिन्यस्तमपि तत्कारणत्वाद् द्रव्यश्रुतमित्यर्थः / तन्मुक्त्वा शेषचक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं मतिज्ञानम्। (भावस्सुयमक्खराणमित्यादि) न केवल श्रोत्रेन्द्रियो-पलब्धिः श्रुतम् , यश्च श्रुतानुसारित्वाद् भावश्रुतं भावश्रुतरूपः, शेषेषु चक्षुरादीन्द्रियेष्वक्षराणां लाभः परोपदेशार्हद्वचनानुसारिण्य-क्षरोपलब्धिरित्यर्थः, सोऽपि श्रुतम् इत्येवं मूलगाथायां संबन्धः कार्यइति हृदयम्, सवप्रागवृत्तौ कृतएवातस्माचाक्षरलाभाचक्षुरादीन्द्रियेषु यच्छेषमश्रुतानुसार्यवग्रहे हाऽऽद्युपल-ब्धिरूपम् , तन्मतिज्ञानम् , इत्येवमिहाप्येतत्संबध्यते। इति गाथाऽर्थः।। 124 // अथ परः पूर्वापरविरोधमुद्भावयन्नाहजइ सुयमक्खरलाभो, न नाम सोओवलतिरेव सुयं / सोओवलद्धिरेव-क्खराइँ सुइसंभवाओ त्ति।। 125 / / इयमपि प्राग मूलगाथावृत्तौ दर्शिताथैव, तथाऽपि विस्मरणशीलानामनुग्रहार्थ किञ्चिद्व्याख्यायते-ननु यद्युक्तन्यायेन शेषे-न्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रुतम् , तर्हि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतम् , इति यदवधारणं कृतम् . तदसङ्गतंप्राप्नोति, शेषेन्द्रियाक्षरलाभ-स्यापि श्रुतत्वात्। अत्रोत्तरमाह"सोओवलद्धिरेवेत्यादि।" यद्यसौ शेषेन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिर्न स्यात् , तदा स्यादेवावधारणमसङ्गतम् , तच नास्ति, यतः शेषेन्द्रियद्वाराऽऽयातज्ञानेऽपि प्रतिभासमानान्यक्षराणि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव / अहो ! महदाश्चर्यम् , यतो यदि शेषेन्द्रियाक्षरलाभः, कथं श्रोत्रोपलब्धिः?, साचेत्, कथं शेषेन्द्रियाक्षरलाभः? इत्याशङ्कयाऽऽह(सुइसंभवाओ त्ति) शेषेन्द्रियज्ञानप्रतिभासभाज्यक्षराणि श्रोत्रोपलब्धिरेव। कुतः? इत्याह-तेषां श्रुतेः श्रवणस्य संभवात्। इद-मुक्त भवति-अभिलापरूपाणि हि एतानि अक्षराणि, अभिलापश्च तस्मिन् वा विवक्षिते काले, अन्यदा वा; तत्र वा विवक्षिते पुरुष, अन्यत्र वा श्रवणयोग्यत्वात् श्रोत्रेणोपलभ्यते / अतः श्रोत्रोपलम्भ-योग्यत्वेन श्रुतिसंभवात सर्वोऽप्यभिलापः श्रोत्रोपलब्धिरेव; इति न किश्चिदवधारण विरुध्यते। इति गाथाऽर्थः / / 125 / / किं सर्वोऽपि शेषेन्द्रियाक्षरलाभः श्रुतम् , आहोस्वित्क चिदेव ? इत्याहसो वि हु सुयऽक्खराणं, जो लाभो तं सुयं मई सेसा। जइ वा अणक्खर चिय, सा सव्वा न प्पवत्तेज्जा / / 126 // सोऽपि च शेषेन्द्रियाक्षरलाभः स एव श्रुतम् , यः किम् ? इत्याह-यः श्रुताक्षराणा लाभः, न सर्वः, यः संकेतविषयशब्दानुसारी, सर्वज्ञवचनकारणो वा विशिष्टः श्रुताक्षरलाभः, स एव श्रुतम् , न त्वश्रुतानुसारी, ईहाऽपायाऽऽदिषु परिस्फुरदक्षरलाभमात्रमित्यर्थः / (जइ वत्ति) यदि पुनरक्षरलाभस्य सर्वस्याऽपि श्रुतेन क्रोडीकरणादनक्षरैव मतिरभ्युपगम्येत तदा सा यथाऽवग्रहेहाऽपायधारणरूपा सिद्धान्तेप्रोक्ता, तथा सर्वाऽपि न प्रवर्तेत, सर्वाऽपि मतित्वं नानुभवेदित्यर्थः, किं त्वनक्षरत्वादवग्रहमात्रमेव मतिः स्यात् , न त्वीहाऽऽदयः, तेषामक्षरलाभाऽऽत्मकत्वात्। तस्मात् श्रुतानुसार्यवा-क्षरलाभः श्रुतम् , शेष तु मतिज्ञानमिति गाथाऽर्थः // 126 // तदेवं व्याख्याता भाष्यकृताऽपि " सोइंदिओवलद्धी ' (117) इत्यादिगाथा, साम्प्रतं त्वस्यां यः श्रुतविषयः पर्यवसितोऽर्थः प्रोक्तो भवति, तं संपिण्ड्योपदर्शयतिदव्वसुयं भावसुयं, उभयं वा किं कहं व होज ति। को वा भावसुयं सो, दव्वाइसुयं परिणमेज्जा ? / / 127 / / इह " सोइदियोवलद्धी" (117) इत्येतस्यां गाथायां " मोत्तूणं दव्वसुयं " (117) इत्यनेन पुस्तकाऽऽदिन्यस्तं द्रव्यश्रुतमुक्तम् , अक्षरलाभवचनात्तु भावश्रुतम् , श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिवचनेन तु शब्दः, तद् विज्ञानं चेत्युभयश्रुतमुक्तम् / तत्रानन्तरवक्ष्यमाणपूर्वगतगाथायामेतच्चिन्त्यते-किं तद् द्रव्याऽऽदिश्रुतम् ? कथं वा तद्भवति ? को वा कियान वा इत्यर्थः, भाव श्रुतस्यांशो भागो द्रव्यश्रुतं द्रव्यश्रुत-रूपतया, आदिशब्दादुभयश्रुतरूपतया वा परिणमेदिति गाथाऽ-र्थः / / 127 / / का पुनरसौ पूर्वगतगाथा ? इत्याहबुद्धिद्दिढे अत्थे, जे भासइ तं सुयं मईसहियं / इयरत्थ वि होज सुयं, उवलब्धिसमं जइ भणेज्जा / / 128 // मतिश्रुतयोर्भेदोऽत्र विचार्यत्वेन प्रस्तुतः, इत्यतः केचिदेनां गाथा तदनुयायित्वेन व्याख्यानयन्ति; भाष्यकारस्तुतेना- पि प्रकारेण पश्चाद् व्याख्यास्यति, साम्प्रतं प्रस्तावानुयायित्वेन तावद् व्याख्यायते-तत्र बुद्धिः श्रुतरूपेह गृह्यते, तया दृष्टा गृहीताः पर्यालोचिता बुद्धिदृष्टा अभिलाप्या अर्थाः पदार्थाः, ते च बहवः सन्ति, अतस्तन्मध्याद वक्ता यान् भाषते वक्ति तद् श्रुतम् / कथं यान् भाषते ? इत्याह-मतिः श्रुतोपयोगरूपात-त्सहितं यथा भवति / एवं यान् भावान् भाषते तत् श्रुतमुभय- रूपमित्यर्थः / इदमुक्तं भवति-श्रुताऽऽत्मकबुद्रुपलब्धानर्थान् तदुपयुक्तस्यैव वदतो द्रव्यश्रुतभावश्रुतरूपमुभयश्रुतं भ- वति, तत् श्रुतमित्युक्तेऽपि सामर्थ्यादुभयश्रुतं लभ्यते " जे भा-सइ " इत्यनेन शब्दरूपस्य द्रव्यश्रुतस्य सूचितत्वात् ' बुद्धिदिढे अत्थे " इत्यनेन " मइसहिय" इत्यनेन च भावश्रुतस्याऽभिधित्सितत्वादिति / तदेतावता ''सोइंदिओवलद्धी (117) इत्यादिगाथोक्तस्य उभयश्रुतस्य स्वरूप-मुक्तम्; यान् पुनः प्रथमं श्रुतबुद्ध्या दृष्टामपि पश्चादभ्यासबलादेवानुपयुक्तो वक्ति, तद् द्रव्य श्रुतम्, इत्येतावद्गाथायामनुक्तमपि सामर्थ्याद् गम्यते; तथा यान् श्रुतबुद्ध्या पश्यत्येव, नतुमनसि स्फुरतोऽपि भाषतेतद्भाव श्रुतम् , इतीदमपिस्व
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________________ णाण 1946 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण यमेवावगन्तव्यम् / तदेतावता किं तद् द्रव्याऽऽदिश्रुतम् ? कथं वा तद्भवति? इत्येवं चिन्तितम्। अथ-" को वा भावसुयं सो ' (127) इत्यादि चिन्त्यते-तत्र भावश्रुतमुभयश्रुताद् द्रव्यश्रुताचा-नन्तगुणम् , एतस्मात् तु उभय श्रुतं द्रव्यश्रुतं चानन्ततमे भागे वर्तत इति भावनीयम्, वाचः क्रमवर्तित्वात् , आयुषश्च परिमितत्वात् सर्वेषामपि भावश्रुतविषयभूतानामर्थानामनन्ततममेव भागं वक्ता भाषत इति भावः / ततश्च भावश्रुतस्यानन्ततम एव भागो द्रव्यश्रुत-त्वेन उभयश्रुतत्वेन च परिणमतीत्युक्तं भवति / एतच्च सर्वमनन्तर-मेव भाष्यकारः स्वयमेव विस्तरतो भणिष्यति, इत्यलं विस्तरेण। आह-ननु यानुपयुक्तो भाषते तदुभयश्रुतम् ,याँस्त्वनुपयुक्तो वक्ति तद् द्रव्यश्रुतमित्युक्तम् , याँस्तर्हि न भाषते, केवलं श्रुतबुद्ध्या पश्य-त्येव, तत्राऽपि द्रव्यश्रुतरूपता, उभयश्रुतरूपता च किमिति नेष्य-ते ? इत्याशङ्कयाऽऽह- " इयरत्थ वि" इत्याद्युत्तरार्द्धम्।'" जे भासइ तं च सुयं " इत्युक्ते तत्प्रतियोगिस्वरूपमभाषमाणावस्था-भावि भावश्रुतमेव इतरत्र शब्दवाच्यं भवति। ततश्चायमर्थ:-द्रव्य-श्रुतोभयश्रुताभ्यामितरत्राऽपि भावश्रुते भवेत् श्रुतम्-द्रव्यश्रुतरूप-ता, उभयश्रुतरूपता वा भवेदित्यर्थः / यदि किं स्याद् ? इत्याह-उपलम्भनमुपलब्धिः, तत्सम तत्प्रमाणं यदि भणेत्-यावद्वस्तुनि-कुरम्बमुपलभते तावत्सर्वमुपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यदि वदेदित्यर्थः / एतच नास्ति, श्रुतोपलव्ध्या उपलब्धानामर्थानामनन्तत्वात् , वाचः क्रमवर्तित्वाद् , आयुषश्च परिमितत्वादिति / तस्मादभिला-प्यानां श्रुतोपलब्ध्या समुपलब्धानां भावानां मध्यात् सर्वेणापि जन्मना अनन्ततममेव भागं भाषते वक्ता, अतस्तत्रैवानुपयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतरूपता, उपयुक्तस्य तु वदत उभयश्रुतरूपता भवेत् , नेतरत्र भाव श्रुते, भाषणस्यैवासंभवात् / इति पूर्वगतगाथाऽर्थः / / 128!! तदेवं व्याख्याताऽस्माभिरियं गाथा, सा म्प्रतं भाष्यकारस्तव्याख्यानमाहजे सुयबुद्धिद्दिढे, सुयमइसहिओ पभासई भावे / तं उभयसुयं भन्नइ, दव्वसुयं जे अणुवउत्तो ! 126 / / गतार्थव / नवरं सुखार्थं किञ्चिद् व्याख्यायते- श्रुतरूपा यका बुद्धिस्तया दृष्टाः पर्यालोचिता ये भावास्तन्मध्याद् ' मइसहियं " (128) इत्यस्यतात्पर्यव्याख्यानमाह-श्रुताऽऽत्मकमतिसहितः, श्रुतोपयुक्त इति यावत्।यान् भावान् प्रभाषते तद्रव्यभावरूप-मुभयश्रुतं भण्यते। यान् पुनरनुपयुक्तो भाषतेतद्रव्यश्रुतं, शब्द-मात्रमेवेत्यर्थः / याँस्तु श्रुतबुद्ध्या पर्यालोचयत्येव केवलम् , न तु भाषते, तद्भावश्रुतमित्यर्थाद् गम्यते। इति गाथाऽर्थः / / 126 // उत्तरार्द्धव्याख्यानमाहइयरत्थ विभावसुए, होज तय तस्सम जइ भणिज्जा। नय तरइ तत्तियं सो, जमणेगगुणं तयं तत्तो / / 130 / / यद्भाषते तदुभयश्रुतं, द्रव्यश्रुतं वेत्युक्ते भावश्रुतमेवेतरत्र शब्द-वाच्य गम्यते। ततश्चेतरत्रापि भावश्रुते भवेत् तद् द्रव्यश्रुतमुभयश्रुतं वा, यदि तत्सममुपलब्धिसम भणेत् , तच नास्ति, यस्माच्छुत-ज्ञानी स्वबुध्या यावदुपलभते तावद्वक्तुं 'न तरति न शक्नोति। कुतः? इत्याह-यद् यस्मात् कारणात् ततो भाषाविषयीकृतात् श्रुतात् तदशक्यभाषणक्रिय भावश्रुतमनेकगुणमनन्तगुणम् , अतो नोपलब्धिसम भणतीति गाथाऽर्थः / / 130 // उपलब्धिसममित्येतस्य समासविधिमाहसह उवलद्धीए वा, उवलद्धिसमं तथा व जंतुल्लं / जं तस्समकालं वा, न सव्वहा तरइवोत्तुं जे / / 131 / / यद् भाषणमुपलब्ध्या सह वर्तने तदुपलब्धिसमम् , प्राकृतशैलीनिपातनात् सहस्य समभावः, या या श्रुतोपलब्धिस्तया तया सह यद्भाषणं तदुपलब्धिसममित्यर्थः। (तया व जंतुल्ल ति) तया चोपलब्ध्या यत् तुल्यं समान तदुपलब्धिसमम्-यावती काचित् श्रुतोपलब्धिस्तत्तुल्यं तत्संख्यं यद्भाषणं तद्वोपलब्धिसममित्यर्थः / (जं तस्समकालं वेति) तया उपलब्ध्या समकालं वा यद्- भाषणं तदुपलब्धिसमम् / यथा मध्ये शूलं वेदयतस्तत्समकाल-मेवान्यस्मै तद्व्यथाकथनम, एवमन्तः सर्वामपि श्रुतोपलब्धिमनु-भवतस्तत्समकालमेव यद्भाषणं तद्वा उपलब्धिसममिति भावः। किं बहुना? सर्वथा सर्वस्मिन्नपि समासविधावयं तात्पर्यार्थः कः? इत्याह-श्रुतज्ञानी यावत् श्रुतबुद्ध्या समुपलभते. तावत्सर्वं न तरति न शक्नोति वक्तुं (जे इति) अलङ्कारमात्रे / इति गाथा-ऽर्थः / / 131 // (E) अथ कथं पुनरन्ये एतां गाथा मतिश्रुतभेदार्थे व्याख्यानयन्ति? इत्याहकेई बुद्धिदिटे, महसहिए भासओ सुयं तत्थ। किं सद्दो मइरुभयं, भावसुयं सव्वहा जुत्तं / / 132 / / इह केचनाप्याचार्या मतिश्रुतयोर्भेदं प्रतिपिपादविषयो'" बुद्धि-द्दिष्टे अत्थे, जे भासइ" (128) इत्यादि मूलगाथायां बुद्धिः श्रुत-बुद्धिरिति न व्याख्यानयन्ति, किं तु 'बुद्धिर्मतिरिति व्याचक्षते। ततश्च बुद्ध्या मत्या दृष्टेषु बहुवर्थेषु मध्ये काँश्चित् तदृष्टानान्मतिसहितान् भाषमाणस्य श्रुतं भवति / आह-ननु मतिज्ञान्येव मतिसहितो भवति, तत्कथमर्थानां मतिसहितत्वं विशेषणम् ? स-त्यम् , किंतु मूलगाथायां " मइसहियं " (128) इति वचनान्म-त्युपयोगे वर्तमानोऽत्र वक्ता गृह्यते, अतस्तस्य मत्युपयोगसहित-त्वादर्थानामप्युपचारस्ततस्तत्सहितत्वमुच्यते। तस्मान्मतिज्ञान-दृष्टानर्थान् तदुपयुक्तस्यैव भाषमाणस्य श्रुतं भवतीति तात्पर्यम् / अनुपयुक्तस्य तु वदतो द्रव्य श्रुतम् , पारिशेष्यादभाषमाणस्य पदा-र्थपर्यालोचनमात्ररूपं मतिज्ञानम् , इति मतिश्रुतयोर्भेदः / तदेवं कैश्चिन्मूलगाथायाः पूर्वार्द्ध व्याख्याते सूरिर्दूषणमाह-(तत्थ किं-सट्टो इत्यादि) तत्रं तैरेवं व्याख्याते भावश्रुतं सर्वथैवायुक्तं स्यात् सर्वथा तदभावः प्राप्नोतीत्यर्थः / तथाहि-किं भाष्यमाणः शब्दो भाव श्रुतम् , मतिर्वा, उभयं वा ? इति त्रयी गतिः। अस्य च त्रितयस्य मध्ये नैकमपि भावश्रुतंयुक्तमिति भावः। इति गाथाऽर्थः / / 132 // कथम् ? इत्याहसद्दो वा दव्वसुयं, मइराभिणिबोहियं न वा उभयं / जुत्तं उभयाभावे, भावसुयं कत्थं तं किं वा ? / / 133 / / मत्युपयुक्तस्य शब्दमुदीरयतो यस्तावत् शब्दः स द्रव्यश्रुतमेव, इति कथं भावश्रुतं स्यात् ? मतिस्त्वाभिनिबोधिकज्ञानम्। भवतु तर्हि मतिशब्दलक्षणमुभयं समुदित भावश्रुतम् , इत्या
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________________ णाण 1950 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण ह-(न वा उभयं, जुतं ति) नैव यथोक्तमुभयं समुदितमपि भावश्रुतं युक्तम्, प्रत्येकावस्थायां तद्भावाभावात्, न हि प्रत्येक सिकता-कणेषु असत्तैलं समुदितावस्थायामपि भवतीति भावः। तदेवमुभय-स्य स्वतन्त्रस्याऽस्वतन्त्रस्य वा भावश्रुतत्वेनाभावे सति तद्भाव-श्रुतं क्व शब्दाऽऽदौ? किं वा तत् ? न किञ्चिदिति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 133 // अथ भाषापरिणतिकाले मतेः किमप्याधिक्यमुपजायते, इति उभयस्य श्रुतत्वं न विरुध्यते, इत्याहभासापरिणइकाले, मईऐं किमहियमहऽण्णहत्तं वा। भासासंकप्पविसे-समेत्तओ वा सुयमजुत्तं / / 134 / / मतेरन्तर्विज्ञानविशेषस्य भाषापरिणतिकाले शब्दप्रारम्भवेलायां पूर्वावस्थानः किमधिकं रूपं संपद्यते? येनोभयावस्थायां सा ज्ञानान्तर स्यात् , श्रुतव्यपदेशः स्यादित्यर्थः। (अहऽण्णहत्तं वेति) अथवाअन्यथात्वं किंमतेर्भाषापरिणतिकाले निर्मूलत एव अन्य-थाभावः कः, येन श्रुतत्वं स्यात् ? न कश्चिदिति भावः / भाषाऽऽ-रम्भ एवात्र विशेषः, इति चेत् ? इत्याह-(भासेत्यादि) भाषायाः संकल्पः प्रारम्भः, स एव विशेषमात्रम् , मात्रशब्दो मनागपि विकार-भवननिषधार्थः, तस्माद् भाषासंकल्पविशेषमात्राद् मतेः श्रुतत्व-मयुक्तम् / एतदुक्तं भवतिअन्तर्विज्ञानस्य स्वयमविशिष्टस्य बाह्य-क्रियाऽऽरम्भादत्यन्तजातिभेदाभ्युपगमे धावनवल्गनकराऽऽस्फोटनाऽऽदिबाह्यक्रियाऽऽनन्त्यान्मतेरानन्त्यमेव स्यात्, स्वयं चाऽनुपजातविशेषाणां ज्ञानानां शब्दपरिणतिसन्निधानमात्रत एव ज्ञानान्तरत्वेऽतिप्रसङ्गः स्यात, अवध्यादिष्वपि तथाप्राप्तेरिति गाथाऽर्थः / / 134 / / तदेवं कैश्चिद्विहितं मूलगाथायाः पूर्वार्द्धव्याख्यानं दूषितम् . अथोत्तरार्द्धव्याख्यानमुपदर्थ्य दूषयितुमाहइयरत्थ वि मइनाणे, होज सुयं ति किह तं सुयं होइ? किह व सुयं होइ मई, सलक्खणाऽऽवरणभेयाओ॥ 135 / / "बुद्धिदिखे अत्थे" (128) इत्यत्र बुद्धिर्मतिज्ञान व्याख्या-तम् . तन्मतेन" इयरत्थ वि होज सुयं, उवलद्धिसमं जइ भणे-जा।" (128) इत्युत्तरार्द्धगतस्य इतरत्रशब्दस्य मतिज्ञानमेव वाच्यम् , शब्दसहितमतेर्द्रव्यभावश्रुतत्वेनोक्तत्वात् , तदितरस्य मतिज्ञानस्यैव तत्र संभवात् / ततश्च तद्व्याख्यानमनूध दूषयति-इतरत्रापि मतिज्ञाने श्रुतं भवेद्यधुपलब्धिसमं भाषेत, इति यत्तै-रुच्यते, तदयुक्तम् , यतो हन्त! यन्मतिज्ञानम् , तत्कथं श्रुतं भवि-तुमर्हति ? श्रुतं चेत् , कथं वा तन्मतिर्भवत् ? कुतः पुनरित्य न भवति? इत्याह-मतिश्रुतयोर्यत् स्वकीयं लक्षणम् , कर्म चाऽऽ-वारकम् , तयोर्भेदेनाऽऽगमे प्रतिपादनात्। यदि च यदेव मतिज्ञानं तदेव श्रुतम् यदेव च श्रुतं तदेव मतिज्ञानं स्यात् , तदा लक्षणाऽऽ-वरणभेदोऽपि तयोर्न स्यादिति गाथाऽर्थः / / 135 / / तदेवम्-"बुद्धिद्दिढे अत्थे,जे भासइ" (128) इत्यादि मूल-गाथा मतिश्रुतभेदप्रतिपादनपरतया व्याचिख्यासोः परस्य मति-भविश्रुतं न युज्यत इति प्रतिपादितम् / यदि तु द्रव्यश्रुतं साऽभ्यु-पगम्यते तदा न दोषः, इत्युपदर्शयन्नाहअहव मई दव्वसुय-त्तमेउ भावेण सा विरुज्झेजा। जो असुयक्खरलाभो, तं मइसहिओ पभासेजा।। 136 // | अथवा मतिर्द्रव्यश्रुतत्वमेतु आगच्छतु, न तत्र वयं निषेद्धारः, केवलमेतदेव निर्बन्धेनाभिदध्मो यदुत-भावेन भावश्रुतत्वेन सा मतिविरुध्येत दर्शितन्यायेन विरोधमनुभवेत् / इदमुक्तं भवति-" केई बुद्धिद्दिडे, मइसहिए भासओ सुयं " (132) इत्यत्र गाथार्द्ध योऽसौ श्रुतशब्दः स यदि द्रव्यश्रुतवाचित्वेन व्याख्यायते तदा विरोधो न भवति। कथम् ? इति चेत् / उच्यते-बुद्धिर्म तिस्तदृष्टान् मत्युपयोगसहितानर्थान् भावमाणस्य सा मतिः शब्दलक्षणस्य द्रव्यश्रुत-स्य कारणत्वाद्रव्यश्रुतम् , अभाषमाणस्य तु मतिज्ञानम् , इत्येवं मतिद्रव्यश्रुतयोर्भेदः प्रोक्तो भवति, न तु मतिश्रुतज्ञानयोः केवलं विरोधपरिहारमात्रमित्थमुपकल्पितं भवति। अत्राऽऽह कश्चित्-ननुयदि मत्युपयोगे वर्तमानो भाषेत कश्चित् तदा द्रव्यश्रुतकारणत्वाद्मतिः स्याद् द्रव्य श्रुतम् , एतच न भविष्यति, इत्याह-(जो असुये-त्यादि) योऽश्रुतानुसार्यक्षरलाभः, तं मत्युपयोगे वर्तमानो भाषेत वक्ता, नाऽव कश्चित् संदेहः, यस्तु श्रुतानुसार्यक्षरलाभस्ते श्रुतोप-योगे एव वर्तमानो भाषेत, अतो न तच्छब्दस्य मतिः कारणम् , श्रुतपूर्वत्वात्तस्येति भावः। इदमुक्तं भवति-यः परोपदेशार्हद्वचन-लक्षणं श्रुतमनुश्रित्याक्षरलाभोऽन्तः स्फुरतितं श्रुतोपयोगे एव वर्त-मानो भाषेत, यस्त्वश्रुतानुसारी स्वमत्यैव पर्यालोचित ईहाऽपायेषु स्फुरत्यक्षरलाभः, तंयदा मत्युपयोगसहित एव भाषते, तदा तस्य शब्दलक्षणस्य द्रव्यश्रुतस्य कारणत्वाद् भवत्येव मतिर्द्रव्यश्रुतम्। इति गाथाऽर्थः // 136 // अथारिमन्नेव मतेर्द्रव्यश्रुतत्वपक्षे" इयरत्थ विहोज सुयं" (128) इत्यादौ मूलगाथाया उत्तरार्द्ध योऽर्थः संपद्यते, तमाचार्यः प्रदर्शयन्नाहइयरम्मि वि मइनाणे, होञ्ज तयं तस्समं जइ भणेजा। न य तरइ तत्तियं सो, जमणेगगुणं तयं तत्तो / / 137 // भाषमाणस्य मतिद्रव्यश्रुतमित्युक्तम् , अतोऽभाषमाणावस्था-भावि मतिज्ञानमितरत्र शब्दवाच्यं भवति। ततश्चेतरत्राप्यभाष-माणावस्थाभाविनि मतिज्ञाने भवेत् तद् द्रव्यश्रुतं यदितत्सम मतिज्ञानोपलब्धिसमं भणेत् , यावद् मतिज्ञानेनोपलभतेतावत्सर्व वदेदित्यर्थः एतच नास्ति। कुतः? इत्याह-(न च) नैव तरति शक्नोति स यावन्मतिज्ञानेनोपलभते तावद् वक्तुम्। कुतः? इत्याह-यद्यस्मात् ततो वक्तुं शक्यातत्सर्वमपि मतिज्ञानोपलब्धमनेकगुणमनन्तगुणमिति गाथाऽर्थः / / 137 / / अत्र विनेया प्राऽऽहकह मइसुओवलद्धा, तीरंति न भासिउं बहुत्ताओ। सव्वेण जीविएण वि, भासइजमणंतभागं सो।। 138 // नन्वनन्तरगाथायां मत्युपलब्धाः सर्वेऽपि वक्तुं न शक्यन्त इत्युक्तम्, पूर्व तु श्रुतोपलब्धा अपि सर्वेऽभिधातुं न पार्यन्त इत्यभिहि-तम् : तदेतत्कथम् , यन्मतिश्रुतोपलब्धा भावा न तीर्यन्ते भाषि-तुम् ? अत्राऽऽह-बहुत्वात्-प्राचुर्यात्। तत्रैतत् स्यात्-कुतः पुनरे-तावद्बहुत्वं तेषां निश्चितम् ? इत्याह-यद्यस्मात् कारणात् सर्वे-णाऽप्यायुषा सः मतिश्रुतज्ञानी समुपलब्धानामर्थानामनन्ततम-मेव भाग भाषत इत्यागमे निर्णीतम् , तरमाद् बहुत्वावगमः। इति गाथाऽर्थः / / 138 / /
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________________ णाण 1951 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण अथ मत्याधुपलब्धार्थानां सामस्त्येनाभिधानाशक्यत्वे पूर्वोक्तम् , अपरमपि च हेतुं विषयविभागेनाभि धित्सुराहतीरंति न वोत्तुं जे, सुओवलद्धा बहुत्तभावाओ। सेसोवलद्धभावा, सा भव्वबहुत्तओऽभिहिया / / 136 / / सर्वेऽपि श्रुतोपलब्धा भावा न तीर्यन्ते न पार्यन्ते वक्तुम्।' जे ' इति पूर्ववदेव / कुतस्ते वक्तुं न पार्यन्ते ? इत्याह-बहुत्वभावाद् बहुत्वसद्भावादेवेत्यवधारणीयम् , न तु तत्स्वाभाव्यादित्यभि-प्रायः / (सेसोवलद्धभावा, सा भव्व त्ति) शेषं श्रुतादन्यत् प्रस्तुतं मतिज्ञानम् , समानवक्तव्यताप्रस्तावलब्धानि मत्यवधिमनःपर्या-यकेवलानि वा शेषाणि, तेन तैर्वा उपलब्धा ज्ञाताः शेषोपलब्धाः, ते च ते भावाश्चेति समासः, स्वाभाव्यादेव अनभिलाप्याऽऽत्मक-त्वादेव न तीर्यन्ते भावितुम्। आह-नन्वते यथाऽनभिलाप्यत्वा-दभिधातुं न शक्यन्ते, तथा बहुत्वादपि, तत् किमित्यनभिलाप्य-स्वभावत्वमेवैकमत्र हेतुत्वेनोच्यते? सत्यम् , किं त्वभिलाप्यत्वे सति बहुत्वाल्पत्वचिन्ता क्रियमाणा विभाजते, ये तु मूलत एवान-भिलाप्यास्तेषु बहुत्वलक्षणो हेतुरुच्यमानोऽपि निष्फल एव, अन-भिलाप्याऽऽत्मकत्वेनेवाभिधानाशक्यत्वस्य सिद्धत्वादिति / किं च-(बहुत्तओऽभिहिय ति) बहुत्वाच्छेषोपलब्धा भावा यथा वक्तुं न शक्यन्ते, तथा " कह मइसु ओवलद्धा, तीरंति न भासिउ बहुत्ताओं / " (138) इत्याद्यनन्तरगाथायामभिहिता एव, इति किं बहुत्वहेतूपन्यासेन ? पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् / शेषज्ञानेषु मध्ये मतिरेव स तत्र प्रोक्तः, अत्र त्ववध्यादीन्यपि गृहीतानि सन्ति, अतस्तदर्थमयमिहापि वक्तव्य इति चेत् , नैवम् , मतेरुपलक्षणत्वेनावध्यादिष्वप्यसौ तत्र द्रष्टव्य इत्यदोषः। यद्येवम् , तर्हि श्रुतस्यापि बहुत्वलक्षणो हेतुः प्रागुक्त एव, किमितीह पुनरप्युच्यते ? इति चेत् / सत्यम् , किं तु श्रुतोपलब्धा बहुत्वात् , शेषोपलब्धास्तु तत्स्वाभाव्यान्न शक्यन्ते अभिधातुम् इति विषयविभागदर्शनार्थं तस्येह पुनरुपन्यासः। अपरस्त्वाहननु मत्याद्युपलब्धानामपि केषाश्चि-दभिलाप्यत्वात् किमुच्यते ?-(सेसोवलद्धभावा, सा भव्य त्ति) सत्यम् , किं तु तेषां श्रुतविषयत्वेनैवाभिधानाशक्यत्वस्योक्तत्वाद-दोषः / इति गाथाऽर्थः / / 136 || विनेयः पृच्छतिकत्तो एत्तियमेत्ता, भावसुयमईण पञ्जया तेसिं। भासइ अणंतभागं, भण्णइ जम्हा सुएऽभिहियं / / 140 // कुतः पुनरेतावन्तो भावश्रुतमत्योः पर्याया उपलब्धार्थविषया विशेषाः, येषां सर्वेणापि जन्मनाऽनन्तभागमेव जायत इति प्रागु-क्तम् ? अत्र गुरुराह-भण्यतेऽत्रोत्तरम्-यस्मात् सूत्रे आगमे वक्ष्य-माणमभिहितम् , तस्मात् तयोरेतावन्तः पर्यायाः। इति गाथाऽ-र्थः / / 140 / / किं तत्सूत्रेऽभिहितम् ? इत्याहपण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं। पण्णवणिजाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबद्धो / / 141 // प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्त इति प्रज्ञापनीया वचनपर्यायत्वेन श्रुतज्ञान- | गोचरा इत्यर्थः / के ? भावा ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकान्तर्निविष्टभूभव नधिमानग्रहनक्षत्रतारका:त्वादयस्ते सर्वेऽपि मिलिताः किम् ? इत्याहअनन्ततम एव भागे वर्तन्ते / केषाम् ? अत्राऽऽहअनभि-लाप्यानामर्थपर्यायत्वेनावचनगोचराऽऽपन्नानामित्यर्थः, अनभिलाप्यवस्तुराशेरभिलाप्यपदार्थसार्थः सर्वोऽप्यनन्ततम एव भागे वर्तत इत्यर्थः / प्रज्ञापनीयपदार्थानां पुनरनन्तभाग एव चतुर्दशपूर्व-लक्षणे श्रुते निबद्धो भगवद्भिर्गणधरैः साक्षाद् ग्रथितः / इति गाथाऽर्थः / / 141 / / कुतः पुनरेतद् विज्ञायते यदुत-प्रज्ञापनीयानामनन्तभाग एव श्रुतनिबद्धः? इत्याहजं चोद्दसपुव्वधरा, छट्ठाणगया परोप्परं होति। तेण उ अणंतभागो, पण्णवणिज्जाण जं सुत्तं / / 142 / / यद् यस्मात् कारणात् चतुर्दशपूर्वधराः षट्स्थानपतिताः परस्परं भवन्ति, हीनाधिक्येनेति शेषः। तथाहि-सकलाभिलाप्यवस्तु-वेदितया य उत्कृष्टः चतुर्दशपूर्वधरः, ततोऽन्यो हीनहीनतराऽऽदिः, आगमे इत्थं प्रतिपादितः / तद्यथा-" अणंतभागहीणे वा, असंखे-जभागहीणे वा, संखेज्जभागहीणे वा, संखेनगुणहीणे वा, असंखे-अगुणहीणे वा, अणंतगुणहीणे वा / " यस्तु सर्वस्तोकाऽभिलाप्य-वस्तुज्ञायकतया सर्वजघन्यः, ततोऽन्य उत्कृष्ट उत्कृष्टतराऽऽदि-रप्येवं प्रोक्तः। तद्यथा" अणंतभागभहिए वा, असंखेजभागब्भ-हिए वा, संखेचभागम्भहिए वा, संखेजगुणभहिए वा, अंसखेज-गुणन्भहिए वा, अणंतगुणब्भहिए वा।" तदेवं यतः परस्परं षट्- स्थानपतिताः चतुर्दशपूर्वविदः, तस्मात् कारणाद् यत्सूत्रं चतुर्दशपूर्वलक्षणं तत् प्रज्ञापनीयानां भावानामनन्तभाग एवेति। यदि पुन-र्यावन्तः प्रज्ञापनीया भावास्तावन्तः सर्वेऽपिसूत्रे निबद्धा भवेयुः, तदा तद्वेदिनांतुल्यतैव स्यात्, नषट्स्थानपतितत्वमिति भावः / इति गाथाऽर्थः।।१४२॥ __ आह-ननु यदि सर्वेऽपि चतुर्दशपूर्वविदः, तर्हि कथं तेषां परस्परं हीनाऽऽधिक्यम् ? इत्याहअक्खरलंभेण समा, ऊणऽहिया होंति मइविसेसेहि। ते वि अमईविसेसे, सुयनाणऽडभंतरे जाण // 143 / / चतुर्दशपूर्वगतसूत्रलक्षणेनाक्षरलाभेन समास्तुल्याः सर्वेऽपि चतुर्दशपूर्वविदः, ऊनाधिकास्ते मतिविशेषैर्भवन्ति क्षयोपशमवैचित्र्याद् यथोक्ताक्षरलाभानुसारिभिरेव तैस्तैर्गम्यार्थविषयैर्विचित्रैर्बुद्धिविशेपैहीनाधिका भवन्तीत्यर्थः / इह च मतिशब्दोपादानविभ्रमात् ते मतिविशेषा मा भूवन्नाभिनिबोधिकज्ञानविशेषाः, इत्यह आह-'ते वि येत्यादि / इदमुक्तं भवति-मतिशब्देनेह श्रुतमतिर्विवक्षिता, न त्वाभिनिबोधिकमितिः। ततश्च यश्चतुर्दशपूर्वविदो हीनाधिका-स्तानपि च मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि श्रुतज्ञानान्त-भांविन एव विद्धि, न त्वाभिनिबोधिकान्तर्वर्तिन इति भावः / यद्य-वम् " ते वि य मईविसेसे, सुयनाणं चेव जाणाहि।" इत्येवमेव प्रगुणे कस्मान्नोक्तम् , किमभ्यन्तरशब्दोपादानक्लेशेन ? नैतदेवम् , अस्याऽपि न्यायस्य दृष्टत्वाद् , अङ्गाभ्यन्तराऽऽदिव्यपदेशवद् , यथा ह्यङ्गमेवाङ्गाभ्यन्तरम् , एवं श्रुतमेव श्रुताभ्यन्तरामित्युक्तं भवति / अथवा-छन्दोभङ्गभयादभ्यन्तरग्रहण, यदि वा-" सुयनाण-" इत्यनेन चतुर्दशपूर्वलक्षणं श्रुतमधिक्रियते, ततश्च तानपि गम्यान मतिविशेषाँश्चतुर्दशपूर्वाक्षरलाभरूपस्य श्रुतस्रौवाभ्यन्तरे जानीहि त्वम् , न व्यतिरिक्तानिति शिष्योपदेशः, चतुर्दशभिरपि हि पूर्वैः कश्चित् साक्षात्, कश्चित्तु गम्यतया सर्वोऽप्यभिलाप्य
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________________ णाण 1952- अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण पदार्थोऽभिधीयत एव; ततश्च गम्या अपि मतिविशेषास्तदन्त विन एव, तदनुसारित्वादिति गाथाऽर्थः // 143 // चतुर्दशपूर्वलक्षणश्रुतानुसारित्वेन यदेतद् मतिविशेषाणां तदन्त वित्वमुक्तम् , तदेव समर्थयन्नाहजे अक्खरानुसारेण मइविसेसा तयं सुयं सव्वं / जे उण सुयनिरवेक्खा, सुद्धं चिय तं मइन्नाणं / / 144 // ये अक्षरानुसारेण श्रुतग्रन्थमनुसृत्य जायन्ते मतिविशेषाः तत्सर्व श्रुतमेव, इत्यसकृदुक्तम् / ये तु यथोक्तश्रुतनिरपेक्षाः स्वयमेवोत्प्रोक्षितवस्तुतत्त्वा मतिविशेषाः समुत्पद्यन्ते तच्छुद्धं मतिज्ञानमेव, / इत्येतदप्यनेकधा प्रागप्यभिहितम् / तस्माचतुर्दशपूर्वगताक्षरानुसारेण जायमानाः प्रस्तुतमतिविशेषाः सर्वे, श्रुतमेवेति गाथाऽर्थः / / 144 / / (10) तदेवं द्रव्यश्रुताऽऽदिश्रुतस्वरूपप्रतिपादनप्रकारेण" बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ" (128) इत्यादि मूलगाथा व्याख्याय" केई बुद्धिद्दिट्टे, मइसहिए भासओ' (132) इत्यादिना दर्शितमपि विशेषदूषणाऽभिधित्सया पुनरपि म तान्तरमुपदर्शयन्नाहकेइ अभासिजंता, सुयमणुसरओ विजे मइविसेसा। मन्नंति ते मइ चिय, भावसुयाभावओ तन्नो / / 145 / / केचिद् व्याख्यातारः (मन्नंति ते मइ चिय त्ति) तान् मतिविशेषान् श्रुतमनुसरतोऽपि मतिरेवेति मन्यन्ते। ये किम् ? इत्याह-येऽभाष्यमाणाः, येषु शब्दप्रवृत्तिर्नास्तीत्यर्थः। श्रुतानुसारिणोऽपि मतिविशेषा ये प्रवृत्तिरहिताः केवलं हृद्येव विपरिवर्तन्ते, ते मतिज्ञानमेवेति केचिद् मन्यन्त इति भावः / तदेतद् न / कुतः ? इत्याह-भाव श्रुताभावप्रसङ्गात् . तदभावश्च" किं सद्दो मइरुभयं, भाव-सुयं सव्वहा जुत्तं / (132)" "सद्दो तादव्वसुयं, मइराभिणिबोहियं न वा उभयं। " (132) इत्यादि पूर्वोक्तग्रन्थाद् भावनीयम्। इति गाथाऽर्थः / / 145 / / किंचकिह मइसुयनाणविऊ, छट्ठाणगया परोप्परं होजा। भासिज्जंतं मोत्तुं, जइ सव्वं सेसयं बुद्धी / / 146 / / यदि भाष्यमाणं मुक्वा शेषकं सर्वमपि बुद्धिर्मतिज्ञानमित्यर्थः, तर्हि मतिश्रुतज्ञानाभ्यां विदन्तीति मतिश्रुतज्ञानवेदिनः परस्परं स्वस्थाने परस्थाने च कथं षट्रस्थानपतिताः स्युः ? न कथञ्चिदित्यर्थः। तथाहिसर्वेणापि जन्मना मतिश्रुतोपलब्धानामर्थानामनन्तभाग एव भाष्यत इति प्रागिहैवोक्तम्। ततश्च मतिज्ञानी श्रुतज्ञानिनः सकाशात् सदैवानन्तगुणाधिकः, श्रुतज्ञानी वितरस्मान्नित्यमनन्तगुणहीण एव प्राप्नोति इति न तावत्परस्थाने षट्स्थानपतितत्वम् / स्वस्थानेऽपि श्रुतज्ञानी अन्यस्मात् श्रुतज्ञानिनः संख्यातेनैव हीनोऽधिको वा स्यात्, न त्वसंख्यातेन, अनन्तेन वा, भाषकचतुर्दशपूर्वविदा संख्येयवर्षाऽऽयुष्कत्वेन असंख्येयस्यानन्तस्य वा भाषणस्यैवासंभवादिति / अस्येव च विशेषदूषणस्याभिधानार्थं पुनरत्रेदं मतान्तरमुपन्यस्तम्। अन्यथा हि" केई बुद्धिद्दिडे, मइसहिए भासओ सुर्य (132)" इत्यादिना सर्वमिदं | प्रागभिहितमेवेति गाथाऽर्थः / / 146 // तदेवं " बुद्धिद्दिढे अत्थे" (128) इत्यादिपूर्वगतगाथाश्रुतस्वरूपाभिधायिना प्रकारेण व्याख्याता, मतिश्रुतयोश्च भेदस्य व्याख्येयत्वेन प्रस्तुतत्वात्तदभिधायकत्वेनाऽपि मतान्तरेण व्याख्याता, तब व्याख्यानमयुक्ततत्वाद्दूषितम्। अथाऽऽत्माऽभिमतेन निरवद्यमतिश्रुतभेदप्रकारेणैतां व्याख्यातुमाहसामन्ना वा बुद्धी, मइसुयनाणाई तीऍ जे दिट्ठा। भासइ संभवमित्तं, गहियं न उ भासणामित्तं / / 147 / / मइसहियं भावसुयं, तं नियममभासओ वि मइरन्ना / मइसहियं ति जमुत्तं, सुओवउत्तस्स भावसुयं // 148 / / स्वविहितप्रथमव्याख्यानापेक्षया वाशब्दो यदि वेत्यर्थः, " बुद्धिद्दिष्टे अत्थे (128)" इत्यत्र येय बुद्धिः, असौ सामान्या गृह्यते, ततः किम् ? इत्याह-(मइसुयनाणाई ति) मतिश्रुतज्ञाने द्वे अपिबुद्धिरिहेत्यर्थः, तथा बुद्धिश्रुतज्ञानाऽऽत्मिकया बुद्ध्या ये दृष्टा भावास्तेषु मध्ये यान् भाषते तद्भावश्रुतमित्युत्तरगाथायां संबन्धः / भाषत इत्यत्र च भाषणस्य संभवमात्रं गृहीतम्, नतु भाषणमात्रम्। ततश्चेदमुक्तं भवतितत्रान्यत्र वा देशे, तदाऽन्यदा वा काले, स चान्यो वा पुरुषः, सति सामग्रीसंभवे निश्चयेनैतान् भाषत एव, इत्येवं यान् भावानन्तर्विकल्पे प्लवमानान् भाषणयोग्यताया व्यवस्थापयति, ते ऽभाष्यमाणा अपि भाषणयोग्याः सन्तो भावश्रुतं भवन्ति, न तु भाष्यमाणा एवेति भावः / एवं च सति मत्युपलब्धानामनभिलाप्यानामर्थानां भावणायोग्यत्वाभावश्रुतत्वमपाकृतं भवति / भाषणयोग्यानां त्वभाष्यमाणानामपि सर्वेषां विकल्पप्रतिभासिनामर्थानां भावश्रुतत्वमावेदितं भवति॥१४७ / / अत एव पर्यवसितमर्थ द्वितीयगाथायामाह-नियतं निश्चितं तद्भाव श्रुतमभाषमाणस्याऽपि भवति, योग्यतामात्रेणैव भाषणस्य गृहीतत्वा-दिति भावः / आह-ये सामान्यबुद्धिदृष्टा अर्था ये भाषणयोग्याः, यदि तेषां भावश्रुतत्वम्, तर्हि मतिज्ञानान्तर्वयंपायविकल्पावभासिनामपि तत्प्रसङ्गः, न हि तेऽपिन भाषणयोग्याः, इत्याशक्याऽऽह-" मतिसहितमिति। “अस्य व्याख्यानमाह-(मइ-सहियं तीत्यादि) मतिसहितमिति यदुक्तं तस्य कस्तात्पर्यार्थः? इत्याह-श्रुतोपयुक्तस्यैव भाषमाणस्य, अभाषमाणस्य वा भाव श्रुतं भवति नान्यस्य / इदमुक्तं भवतिमतिसहितमिति श्रुतमतिसहितं यथा भवति, एवं यान् भाषते त एव भावश्रुतम्, नान्ये, ततश्च श्रुतोपयुक्तस्यैव भाषणयोग्यानर्थान् विकल्पयतो भावश्रुतं सिद्धं भवति। एवं च सति श्रुतानुसाररित्वाभावेन श्रुतोपयुक्तत्वस्याऽसंभवाद्मतिविकल्पस्य भाषणयोग्यत्वेसत्यपि कुतो भावश्रुतत्वम् ? इति / आहननु मतिदृष्टत्वमर्थानां संभवति? श्रुतबुद्धिदृष्टत्वस्यैव तत्र संभवात् / नैतदेवम् , मतिपूर्व हि श्रुतम् , ततो यत्र श्रुतबुद्धिदृष्टत्वं तत्र मतिदृष्टत्वमस्त्येव, इति न काचित् क्षतिः, इत्यलमतिचर्चितेन् / तदेवं श्रुतज्ञानोपयुक्तः सामान्यबुद्धिदृष्टानान् संभवतो यान् भाषते तद्भावश्रुतमिति स्थितम् / नन्वर्थानां कथं भावश्रुतत्वम् ? ज्ञानस्यैव तत्संभवात्। सत्यम्, किंतुविषयविषयिणोरभेदोपचाराद्भावश्रुतेप्रतिभासमाना अर्था अपि भावश्रुतम्, इत्यदोषः। ( मइरन्न त्ति ) यथोक्ताद्भावश्रुतादन्या व्यतिरिक्ता मतिर्द्रष्टव्या / इदमुक्तं भवतियेऽभिलाप्या अपि
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________________ णाण 1953 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण सन्तो घटाऽऽदयः श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतोपयुक्तेन विकल्प्यन्ते, ये चाऽर्थपर्यायत्वेन वाचकध्वनेरभावाद् मूलत एवाभिलपितुमशक्या अनभिलाप्याः, ते यस्यां विज्ञप्तौ प्रतिभासन्ते सा मतिरित्यवगन्तव्या, न तु श्रुतम्, अभिलाप्यवस्तुविषयायां श्रुतानुसारित्वाभावाद , अनभिलाप्यवस्तुविषयायांतुभाषणायोग्यत्वादिति गाथाद्वयार्थः / / 148 || अथेष्टतोऽवधारणविधिमुपदर्शयन्नाहजे भासइ चेय तयं, सुयं तु न तु भासओ सुयं चेव / केइ मइए वि दिट्ठा,जंदव्वसुयत्तमुवयंति / / 146 / / "बुद्धिदिढे अत्थे, जे भासइ" (128) इत्यत्र यान् कदाचित् / संभवमात्रेण भाषत एव तत् श्रुतमित्येवमेवावधारणीयम् , न तु भाषमाणस्य श्रुतमेवेति यान् भाषते तत् श्रुतमेवेत्येवं नावधार्यत इत्यर्थः / कुतः? इत्याह-यद्यस्मात्कारणात् केचिदभिलाप्याः पदार्था मत्याऽपि दृष्टा अवग्रहेणावगृहीताः, ईहया त्वीहिताः, अपायविकल्पेन तु निश्चिता इत्यर्थः, द्रव्यश्रुतत्वमुपयान्ति, शब्दलक्षणेन द्रव्यश्रुतेन भाष्यन्त इत्यर्थः / यदिच भाषमाणस्य श्रुतमेवेत्यवधार्येत, तदा एषामपि श्रुतत्वं स्यात्, न चैतदिष्यते, श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतोपयुक्तत्वस्य तेष्वसंभवात, तस्माद् यथोक्तमेवावधारणमिति गाथाऽर्थः / / 146 / / अथ यथोक्तव्याख्यानलब्धमतिश्रुतभेदोपदर्शनपूर्वकमुपसं हरन्नाहएवं धणिपरिणाम, सुयनाणं उभयहा मइन्नाणं। जं मिन्नसहावाइं, ताई तो भिन्नरूवाई / / 150 / / एवं प्रागुक्तप्रकारेण केवलाऽभिलाप्यार्थविषयत्वात् सर्वमपि श्रुतज्ञानं ध्वनिपरिणाममेव, ध्वनेः शब्दस्य परिणमनं विपरिवर्तनं परिणामो यत्र तद्ध्वनिपरिणामं भवत्येव, श्रुतानुसारित्वेनोत्पन्नमेव ह्येतदिष्यते, श्रुतं च संकेतकालभाविपरोपदेशरूपः, श्रुतग्रन्थरूपश्च द्विविधः शब्दोऽत्राधिकृतः, तदनुसारेण चोत्पन्ने ज्ञाने ध्वनिपरिणामो भवत्येवेति।मतिज्ञान तुभयथाऽपि भवति-शब्दपरिणामम् , अशब्दपरिणामंच, अभिलाप्यानभिलाप्यपदार्थविषयं ह्येतत्। ततश्च श्रुतानपेक्षस्यमत्यैव विकल्प्यमानेष्वभिलाप्येषु ध्वनिपरिणामोऽस्मिन्नपि प्राप्यते / अनभिलाप्यविषयतायां तु नाऽसौ तत्र लभ्यते / अनभिलाप्यपदार्था हि स्वयमेव बुद्ध्यमाना अपि वाचकध्वेनेरभावाद्विकल्पयितुं, परस्मै प्रतिपादयितुवा न शक्यन्ते, यथा नालिकेरद्वीपाऽऽयातस्य वयादयः क्षीरेक्षुगुडशर्कराऽऽदि-माधुर्यतारतम्याऽऽदयो वा; इति कुतस्तद्विषतायां ध्वनिपरिणामः ? अभिलाप्यपदार्थेभ्योऽनन्तगुणाश्चानभिलाप्याः सन्ति, ततोऽभिलाप्यानभिलाप्यवस्तुविषयत्वात् शब्दाशब्दपरिणाम मतिज्ञानमिति स्थितम् / अथोपसंहरति-(तो त्ति) तस्मात्ते मतिश्रुते स्वामिकालाऽऽदिभिरविशेषेऽपि भिन्नरूपे भेदवती मन्तव्ये / कुतः? इत्याह-यद् यस्मात् कारणाद् द्वे अपि भिन्नस्वभावे, उक्तन्यायेनैकस्य ध्वनिपरिणामित्वात्, अपरस्य तूभयस्वभावत्वादिति गाथाऽर्थः // 150 / / तदेवं मूलगाथायाम्-"बुद्धिद्दिढे अत्थे, जे भासइतंसुयं मईसहियं।" (128) इत्येतत् पूर्वार्द्धम्-" सामण्णा वा बुद्धी" (147) इत्यादिना व्याख्यातम्। अथ-"इयरत्थ विहोज सुयं, उवलद्धिसमंजइ भणेजा।" | (128) इत्येतदुत्तरार्द्ध व्याचिख्या-सुराहइयर त्ति मइन्नाणं, तओ वि जइ होइ सद्दपरिणामो। तो तम्मि वि किं न सुयं, भासइज नोबलद्धिसमं? ||151 / / " इयरत्थ वि होज सुयं" (128) इति मूलगाथोत्तरार्द्ध इतरशब्दस्य किं वाव्यम् ? इत्याह-इतरदिति मतिज्ञानं तत्राऽभिसंबध्यते, इत्याचार्येणोक्ते परः प्राऽऽह-(तओ विजइ होइ सद्दपरिणामो। तो तम्मि वि किं न सुयं ति) तत इति सप्तम्यन्तात्तस्प्रत्ययः, ततश्च-" उभयहा मइन्नाणं " (150) इतिवचनाद्यदि तस्मिन्नपि मतिज्ञाने शब्दपरिणामो भवति, ततस्तस्मिन्नपि किं न श्रुतंतदपि भाव श्रुतरूपता किं न प्रतिपद्यते ? इत्यर्थः शब्दपरिणामस्य श्रुतत्वेन उक्तत्वादिति भावः / अत्राऽऽचार्य उत्तरमाह-(भासइ ज नोवलद्धिसमं ति) यद् यस्मात कारणादुपलब्धिसम मतिज्ञानी न भाषते, ततो न मतिज्ञानस्य श्रुतरूपतेति गाथाऽर्थः / / 151 / / कथं पुनरुपलब्धिसममसौ न भणति? इत्याहअभिलप्पाऽणमिलप्पा, उवलद्धा तस्समंच नो भणइ। तो होउ उभयरूवं, उभयसहावं ति काऊणं // 152 / / प्रागुक्तन्यायेन अभिलाप्यानभिलाप्याः पदार्था मतिज्ञानोपलब्धाः, एवंभूतोपलब्ध्या चसमं भणितुं न शक्नोत्येव, अनभिलाप्यानां सर्वथैव वक्तुमशक्यत्वादिति भावः / अत्र परः प्राऽऽह-(तो होउ इत्यादि) ततस्तर्हि भवतु मतिज्ञानमुभयरूपं श्रुतमतिरूपम् / कुतः ? इत्याहउभयस्वभावमिति कृत्वा, अभिलाप्यानभिलाप्यवस्तुविषयत्वेन द्विस्वभावत्वादित्यर्थः / इदमुक्तं भवति-यदभिलाप्यपदार्थान् उपलभते भाषते च, तत् श्रुतज्ञानमस्तु, अनभिलाप्यपदार्थांस्तु भाषणायोग्यान् यदवगच्छति, तन्मतिज्ञानं भवति / इति गाथाऽर्थः // 152 / / अत्रोत्तरमाहजं भासइ तं पिजओ, न सुयाऽऽदेसेण किं तु समईए। न सुओवलब्धितुल्लं, ति वा जओ नोवलद्धिसमं / / 153 / / यदपि किञ्चिदभिलाप्यवस्तूपलब्धं मतिज्ञानी भाषते तदपि यतो न श्रुताऽऽदेशेन, किं तु स्वमत्या, अतो न तत् श्रुतमिति। इदमुक्तं भवतिपरोपदेशः, श्रुतग्रन्थश्च श्रुतमिहोच्यते, तदादेशेन तुतदनुसारेण विकल्प्य यदा भाषते, तदा श्रुतोपयुक्तस्य भाषणात् श्रुतमुपपद्यत एव, यत्र तु स्वमत्यैव पर्यालोच्य भाषतेनतु श्रुतानुसारेण, तत्र श्रुतोपयुक्तत्वाभावान्मतिज्ञानमेवातदेवम्-" भासइ जं नोवलद्धिसमं " (151) इत्यस्य गाथाऽवयवस्य "अभिलाप्पाणभिलप्पा, उवलद्धा'' (152) इत्यादिना व्याख्यानं कुर्वताऽऽचार्येण मतिज्ञानी मतिज्ञानोपलब्ध्या समं न भाषते, अतस्तत्रोपलब्धिसमं भाषणं न भवति, इत्यतो न मतिज्ञाने श्रुतरूपतेत्युक्तम्: श्रुतज्ञानी त्वभिलाप्यानुपलभते, ताँश्च भाषतेऽतस्तत्रैवोपलब्धिसमत्वस्य सद्भावात् श्रुतरूपतेति भावः / साम्प्रतं तु मतिज्ञानी श्रुतोपलब्ध्या तुल्यं समं न भाषते, इत्येवमुपलब्धिसमत्वाभावमुपदर्शयनाह-(न सुओवलद्धीत्यादि ) वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतकः, ततश्च न श्रुतोपलब्ध्या तुल्यं मतिज्ञानी भाषत
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________________ णाण 1954 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण इति वा, यतो यस्मात् कारणात् नोपलब्धिसम मतिज्ञानिनो भाषणम्, तस्मान्न तत्र श्रुतरूपता / इदमुक्तं भवति-श्रुतोपलब्धौ परोपदेशार्हद्वचनलक्षणश्रुतानुसारेणोपलब्धानर्थान् भाषते, मत्युपलद्धौ तुतदुपलब्धानेव, इत्यतो मतिज्ञानिनो भाषणं श्रुतोपलब्धिसमम्, ततश्च न तत्र श्रुतसंभवः / इति गाथाऽर्थः / / 153 / / तदेवम्-'" सोइंदिओबलद्धी होइ सुयं "(117) इत्यादिमूल-गाथया तत्त्वतः श्रोत्रेन्द्रियविषयमेव श्रुतज्ञानम्, सर्वेन्द्रियविषयं च मतिज्ञानमित्येवं मतिश्रुतयोर्भेदः प्रतिपादितः; तत्प्रतिपादनक्रमे च" बुद्धिघिटे अत्थे, जे भासइ ' (128) इत्यादिगाथा समायाता, सा च द्रव्यभावोभयश्रुतरूपाऽभिधायकत्वेन मतिश्रुतयोर्भदाऽभिधानपरतया च व्याख्याता, तद्व्याख्याने चावसिते इन्द्रियविभागादपि मतिश्रुतयोर्भेदः। साम्प्रतं वल्कशुम्बोदाहरणात्तमभिधित्सुराहअन्ने मन्नंति मई, वग्गसमा सुंबसरिसयं सुत्तं / दिलुतोऽयं जुत्तिं, जहोवणीओ न संसहइ / / 154 / / अन्ये केचनाप्याचार्या मन्यन्ते / किम् ? इत्याह-वल्कसमा वल्कसदृशी मतिः, ततः सैव यदा शब्दतया संदर्भिता भवति-तज्जनितो यदा शब्द उत्तिष्ठतीत्यर्थः, तदातदुत्थशब्दसहिता श्रुतमुच्यते, तच शुम्बसदृश वल्कजनितदवरिकातुल्य श्रुतं भवति, एवं तदभ्युपगमः शोभन इति चेत्, नैवमित्याह-(दिद्रुतोऽयमित्यादि) अयं वल्कशुम्बदृष्टान्तो यथा तैरुपनीतः-उक्तप्रकारेण प्रकृते योजितः, तथा युक्तिं न सहतेन क्षमते, अन्यथा त्वस्मदभिमतवक्ष्यमाणप्रकारेणोपनीयमान एषोऽपि युक्तिक्षमो भविष्यतीति भावः / इति गाथाऽर्थः // 154 / / कुतो न संसहते ? इत्याहभावसुयाभावाओ, संकरओ निव्विसेसभावाओ। पुवुत्तलक्खणाओ, सलक्खणाऽऽवरणभेयाओ / / 155 / / नैष दृष्टान्तो युक्तिं क्षमत इति सर्वत्र साध्यम् मतेरनन्तर शब्द-मावस्येव भावेन भावश्रुतस्याभावप्रसङ्गात्। अथ मतिसहितोऽयं शब्दो न केवल इति तत्र भाव श्रुतत्वं भविष्यति / तदयुक्तम् / कुतः ? इत्याह-संकरः साङ्कर्यम् , संकीर्णत्वम् , मिश्रत्वमिति यावत् मतिश्रुतयोस्तस्य प्राप्तेः / निर्विशेषभावाद् वायदेव मतिज्ञानम्, तदेव भावश्रुतमिति प्रतिपादनादेकमेव किञ्चित्स्यात् . नोभयमिति भावः / अस्तु विशेषाभाव इति चेत्, नैवम्।कुतः? इत्याह-स्वलक्षणाऽऽवरणमेदात्। कथम्भूताद् ? इत्याहपूर्वोक्तलक्षणात् "किह व सुर्य होइ मई, सलक्खणाऽऽवरणभेयाओ।" (135) इति पूर्वाभिहितगाथाऽवयवोक्तस्वरूपात् / इदमुक्तं भवतिअभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिकम्, श्रूयत इति श्रुतम्, इत्यादिकं मतिश्रुतयोर्यत् स्वकीयं स्वकीय लक्षणम्, आवारकं च कर्म, तयोर्भदात् पूर्वाऽभिहितस्वरूपाद् मतिश्रुतयोर्निर्विशेषभावो न युज्यते / यदि हि तयोनिर्विशेषता एकत्वं स्यात्, तदा लक्षणभेदः, आवरणभेदश्च पूर्वोक्तस्वरूपो न स्यादिति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 155 / / अथ द्रव्यभावश्रुतयोरनेन दृष्टान्तेन भेदः प्रतिपाद्यते, सो ऽपि न युक्तः, इति दर्शयन्नाहकप्पेजेज्ज व सो भावदव्वसुत्तेसु तेसु वि न जुत्तो। मइसुयभेयावसरे, जम्हा किं सुयविसेसेणं? / / 156 / / यदि वा भावद्रव्यश्रुतयोः सः-वल्कशुम्बोदाहरणाद् भेदः कल्पेतभावश्रुतं हि कारणल्वात् किल वल्कसदृशम् , शब्दलक्षणं तु द्रव्यश्रुतं कार्यत्वात् शुम्बप्रतिमम् इत्येवमनयोर्भेद इष्येतेति भावः। तयोरप्यसौ नयुक्तः। कुतः? इत्याह-यस्मान्मतिश्रुतयोर्भदाभिधानेऽवसरप्राप्ते (किं सुयविसे सेणं ति) श्रुतयोर्द्रव्यभावश्रुतलक्षयोर्विशेषो भेदः श्रुतविशेषस्तेनाऽभिहितेन किम् ? असंबद्धत्वान्न किञ्चिदित्यर्थः / इति गाथाऽर्थः / / 156 // अथान्यथा पराभिप्रायमाशङ्कमानः प्राऽऽहअसुयऽक्खरपरिणामा, व जा मई वग्गकप्पणा तम्मि। दव्वसुयं सुंबसमं, किं पुण तेसिं विसेसेणं? // 157 / / श्रुतानुसार्यक्षरपरिणामो यस्यां सा श्रुतानुसार्यक्षरपरिणामा, न तथाश्रुतानुसारित्वरहितशब्दमात्रपरिणामान्विता या मतिरिन्यर्थः / तस्यां वा वल्ककल्पना क्रियते, तज्जनितशब्दरूपं तु द्रव्यश्रुतं शुम्बसदृशम् , अतस्तयोः प्रस्तुतोदाहरणाद् भेदो युक्तियुक्तो भविष्यति। श्रुतानुसार्यक्षरपरिणामा मतिविश्रुतमेव स्याद्, अतः पूर्वस्मान्न विशेष्येत, इत्यश्रुताक्षरपरिणामित्वं विशेषणम्।साच पर्युदासाऽऽश्रयणादश्रुतानुसारिणा शब्देनैवान्विता गृह्यते, न तु शब्दपरिणामरहिताऽवग्रहरूपा, तस्याः शब्दजनकत्वाभावेनानन्तरं शुम्बसदृशद्रव्यश्रुताभावादिति / अत्रोत्तरमाह-(किं पुणतेसिं विसेसेणं ति) किं पुनस्तयोर्यथोक्तमतिद्रव्यश्रुतयोर्विशेषेण भेदेनोक्तेन ? अप्रस्तुतत्वान्न किशिदित्यर्थः / श्रुतज्ञानेनैव सहात्र मते दो विचारयितुं प्रक्रान्तः इत्यतः किं द्रव्यश्रुतेन सह तच्चिन्तया? इति भावः। इति गाथाऽर्थः / / 157 / / एतदेव भावयन्नाहइहइं जेणाहिकओ, नाणविसेसो न दव्वभावाणं / नय दव्वभावमेत्ते, विजुज्जए सोऽसमंजसओ // 158 // इहास्मिन् प्रक्रमे येन कारणेन ज्ञानयोरेव मतिश्रुतलक्षणयोर्विशे-षो भेदोऽधिकृतो न तु द्रव्यभावयोर्मतिज्ञानद्रव्यश्रुतलक्षणयोः, इत्यतः किं तभेदाभिधानेन ? इति / न च यथोक्तद्रव्यभावयोरप्यसौ युज्यते / कुतः ? इत्याह-असमञ्जसतो दृष्टान्तदाान्तिकयोर्वसदृश्यादिति गाथाऽर्थः / / 158 // तथाहिजह वग्गा सुबत्तण-मुविंति सुंबं च तं तओऽणण्णं / न मइ तहा धणित्तण-मुवेइ जं जीवभावो सा / / 156 / / यथा वल्काः शुम्बत्वमुपयान्ति आत्माऽव्यतिरिक्तशुम्बपरिणामाऽऽपन्नाः शुम्बमित्युच्यन्ते, नतुशुम्बाद्व्यतिरिक्ताः: तदपि च शुम्बंतेभ्यो वल्केभ्योऽनन्यरूपमव्यतिरिक्तं, नतथा मतिर्ध्वनित्वमुपैति, यद्यस्माद् कारणाद् सा मतिराभिनिबोधिकज्ञानत्वेन जीव-भावो जीवपरिणामः, शब्दस्तुमूर्तत्वान्न जीवभावः; इत्यतः कथममूर्तपरिणामा मतिर्मूर्तध्वनिपरिणाममुपगच्छेत् ? अमूर्तस्य मूर्तपरिणामविरोधात् / तस्माद् दृष्टान्तदाष्टन्तिकयोवैषम्यादिदमपिव्याख्यानमुपेक्षणीयमितिगाथाऽर्थः॥ 156 // पुनः परवचनमाशङ्य तस्यैव शिक्षणार्थमाहअह उवयारो कीरइ, पभवइ अत्यंतरं पि जं जत्तो।
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________________ णाण 1955 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण तं तम्मयं ति भण्णइ, तो मइपुव्वं जओ भणियं / / 160 // / भावसुयं तेण मई, वग्गसमा सुंबसरिसयं तं च। जं चिंतिऊण य तया, तो सुयपरिवाडिमणुसरइ // 161 / / अथोपचारः क्रियते-उपचारविधिराश्रयिते, ततश्चार्थान्तरमपि यद् यस्मात् प्रभवति तत्तन्मयमिति भण्यते, यथा-'तदपथ्यमियन्तं विक्रियाविस्तरमुपगतम्' 'तदेकं वचनमेतावन्तं विपाकमापन्नम्' इत्यादि, ततश्चातन्मयेऽपि ध्वनौ मतिगता ज्ञानमयतोपचर्यते। तथा च सति वल्कशुम्बसादृश्येन मतिश्रुतयोरयं भेदः सिद्धो भवति / एवमुक्ते आचार्यः सुहृद् भूत्वा परं शिक्षयति-(तो मइपुव्वं इत्यादि) हन्त ! यधुपचारवादी भवान्, ततो मतिपूर्व भावश्रुतं यस्मादागमे भणितम, तेन कारणेन मतिर्वल्कसमा, तच भावश्रुतं शुम्बसदृशम् , इत्येवं दृष्टान्तोपनयं कुरु, येनोपचारमन्तरेणाऽपि सर्व सुस्थं भवति, यथा हि वल्काः शुम्बकारणम् तथा मतिरपि भावश्रुतस्य, यथा च शुम्बं वल्कानां कार्य तथा भावश्रुतमपि मतेः / कुतः? इत्याह-यद् यस्मात् कारणात् तया मत्या चिन्तयित्वा ततः श्रुतपरिपाटीमनुसरति-वाच्यवाचकभावेन परोपदेशश्रुतग्रन्थयोजनां वस्तुनि करोति; तस्मान्मतिश्रुतयोर्वल्कशुम्बयोरिव कार्यकारणभावाद् भेदसिद्धिः, इत्येवं दृष्टान्तोपनयो युक्ति संसहते, न तु परोक्तप्रकारेणेति गाथाऽर्थः / / 160 / / 161 / / तदेवं वल्कशुम्बोदाहरणादप्पभिहितो मतिश्रुतयोर्भेदः; साम्प्रतं त्वक्षरानक्षरभेदात्तमभिधित्सुः पराभिप्रायं तावदुपन्यस्यन्नाहअण्णे अणक्खरऽक्खर-विसेसओ मइसुयाइँ भिंदंति। जं मइनाणमणक्खर-मक्खरमियरं च सुयनाणं // 162 // अन्ये केचनाऽपि सूरयोऽनक्षराक्षरवद्विशेषतो मतिश्रुते भिन्दन्ति, यद् यस्मात् किल मतिज्ञानमनक्षरम्, श्रुतज्ञान त्वक्षरवद्भवति, इतरचानक्षरवदुच्छवसितादीत्यर्थः / इति गाथाऽर्थः / / 162 // अत्राऽऽचार्यो दुषणमाहजइ मइरणक्खर चिय, भविज नेहाऽऽदओ निरभिलप्पे। थाणुपुरिसाइपज्जायविवेगो किह णु होजाहि? / / 163 / / यदि हन्त ! मतिरनक्षरैव स्यात्-अक्षराभिलापरहितैव भवताऽभ्युपगम्यते, तर्हि निरभिलाप्ये प्रतिभासमानाऽभिलापे स्थाण्यादिके वस्तुनि ईहाऽऽदयो न प्रवर्तेरन् / ततः किम् ? इत्युच्यतेतस्यां मतावनक्षरत्वेन स्थाण्वादिविकल्पाभावात् ' स्थाणुरयं पुरुषो वा ' इत्यादि-पर्यायाणां वस्तुधर्माणां विवेको वितर्कोऽन्वयव्य-तिरेकाऽऽदिना परिच्छेदो न स्यात् / तथाहि-यदनक्षरं ज्ञानं न तत्र स्थाणुपुरुषपर्यायाऽऽदिविवेकः, यथाऽवग्रहे, तथा चेहाऽऽदयः, तस्मात्तेष्वपि नासौ प्राप्नोतीति गाथाऽर्थः / / 163 // अथ विभ्रान्तस्य परस्योत्तरमाहसुयणिस्सियवयणाओ, अह सो सुयओ मओ न बुद्धीओ। जइ सो सुयवावारो, तओ किमन्नं मइन्नाणं? / / 164 // आगमे मतिज्ञानं द्विधा प्रोक्तम्-श्रुतनिःश्रितमवग्रहेहाऽऽदिचतुष्कम् , अश्रुतनिश्रितं चौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयम् / ततश्च सूरिरित्थं पराभिप्रायमाशङ्कते-अथैवं परो ब्रूयात्-आगमे श्रुतनिःश्रितत्वेनाऽपि मतिज्ञानस्य भणनात् श्रुतात् श्रुततोऽक्षराऽऽत्मकादसौ स्थाणुपुरुषा ऽऽदिपर्यायविवेकः मतः, न बुद्धेर्न मतेः सकाशात्, तस्याः स्वयमनक्षररूपत्वात्। अत्रोत्तरमाह-(जइ सो इत्यादि) यदि हन्त! स स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेकः श्रुतव्यापारस्तविग्रह मुक्त्वा किमन्यमतिज्ञान ? न किञ्चिदित्यर्थः / यदि स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेकोऽक्षराऽऽत्मकत्वात् श्रुतव्यापार इष्यते, तदेहाऽपायाऽऽदयो मतिभेदाः सर्वेऽप्यक्षराऽऽत्मकत्वात् श्रुतत्वमापन्नाः, इत्यतोऽक्षराभिलापरहितमवग्रह मक्त्वाऽशेषस्येहाऽऽदिभेदभिन्नस्य सर्वस्याऽपि मतिज्ञानस्याभावप्रसङ्गः। इति गाथाऽर्थः // 164 // अथाऽन्यथा परस्य वचनमाशक्य दूषयितुमाहअह सुयओ वि विवेगं, कुणओ न तयं सुयं सुयं नत्थि। जो जो सुयवावारो, अन्नो वितओ मई जम्हा।। 165 // अथ श्रुतादपि स्थाणुपुरुषाऽऽदिविवेकं कुर्वतः प्रमातुर्न तत् श्रुत-म् , कि तु मत्यभावभीत्या मतित्वेनाभ्युपगम्यते, हन्त ! तय कत्र सन्धिल्सतोऽन्यतः प्रच्यवते, यत एवं सति श्रुतं क्वचिदपि नास्तिश्रुताभावः प्राप्नोतीत्यर्थः / कुतः? इत्याह-यो यश्चरणकरणाऽऽदिप्रतिपादनलक्षणोऽन्योऽपि श्रुतस्याऽऽचाराऽऽदेव्यापारः सकोऽसौ यस्मान्मतिज्ञानमेव, अक्षराऽऽत्मकत्वात्, स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेकवदिति गाथाऽर्थः / / 165 // अथ स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेको मतिश्च श्रुतं च भविष्यति; अतो नैकस्याप्यभावप्रसङ्ग इत्याहमइकाले वि जइ सुयं, तो जुगवं मइसुओवओगा ते। अह नेवं एगयरं, पवजओ जुज्जए न सुयं // 166 / / स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेकलक्षणे मतिकालेऽपि यदि श्रुत-व्यापार इष्यते, ततो युगपदेव मतिश्रुतोपयोगौ ते तव प्रसज्जते, न चैतत् युक्तम् , समकालं ज्ञानद्वयोपयोगस्य निषिद्धत्वात् / अथैतदोषभयाद् नैयमुपयोगद्वयं युगपदभ्युपगम्यते, त.कतरं प्रतिपद्यमानस्य स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेककाले मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं वा इच्छतो भवत इत्यर्थः, किम् ? इत्याह-(जुद्धए नसुयं ति) श्रुतमिह प्रतिपत्तुंनयुज्यते. किंतु मतिज्ञानमेव। इदमुक्तं भवति-" सावकाशानवकाशयोरनवकाशो विधिर्बलवान " इति न्याया-दन्यत्रानवकाशं मतिज्ञानमेवैकं तवैकतरं प्रतिपद्यमानस्येह प्रतिपत्तुं युज्यते; न तु श्रुतं, तस्याऽन्यत्र श्रुतानुसारिण्याचाराऽऽदिज्ञानविशेष सावकाशत्वात्। एवं च सति स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेको मतेरेव, न तु श्रुतात्, स चाऽक्षराभिलापसमनुगत एव, इति नैकान्तेन मतिज्ञानमनक्षरमिति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 166 / / किं च-अक्षरानुगतत्वमात्रभुपलभ्य स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेको भवता श्रुतनिश्रित उक्तः,एव चा तिप्रसङ्गःप्राप्नोतीति दर्शयतिजइ सुयनिस्सियमक्खरमणुसरओ तेण मइचउक्कं पि। सुयनिस्सियमावन्नं, तुह तं पि जमक्खरप्पभवं / / 167 // यदि स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेकविधानेनाक्षरमनु सरतः प्रमातुनि श्रुतनिश्रितं भवता प्रोच्यते, तेन तत्पित्तिक्यादिमतिचतुष्क मपि तव श्रुतनिश्रितमापन्नम्, यस्मात्तदप्यक्षरप्रभवं वर्णाऽऽलिङ्गितमित्यर्थः / तदपि हि नेहाऽऽदिविरहेण जायते, ईहा5ऽदयश्च न वर्णाऽभिलापमन्तरेण संभवन्ति; तस्मान्मतिचतु
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________________ णाण 1956 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण ष्कमपि त्वदभिप्रायेण श्रुतनिश्रितमायातम् , न चैतदस्ति, आगमेऽश्रुतनिश्रितत्वेन तस्याभिधानात् / तस्माद्देवानां प्रियेणाद्यापि श्रुतनिश्रितम्य स्वरूपमेव नावगम्यते; तत् किं वय ब्रूमः ? इति गाथाऽर्थः / / 167 // तदेवं श्रुतनिश्रितवचनश्रवणमात्राद्विभ्रान्तस्तत्स्वरूपमजा नानः परो युक्तिभिर्निराकृतोऽपि विलक्षीभूतः प्राऽऽहजइ तं सुएण न तओ, जाणइ सुयनिस्सियं कहं भणियं ? जं सुयकओवयारं, पुटिव इण्हि तयणवेक्खं / / 168 / / यदितस्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेकसंघातं श्रुतेन न जानाति सकोऽसौ | ज्ञानी, तर्हि श्रुतनिश्रितमेवावग्रहाऽऽदिकं सूत्रे कथं केन प्रकारेण भणितम् ?-मतिः स्वयमनक्षरैव, यस्त्विहाक्षरोपलम्भः स यदि श्रुतनिश्रितो नेष्यते, तर्हि कथमन्यथाऽसौ अटिष्यते ? इति विस्मयभयाऽऽपूरितहृदयस्य परस्याऽयं प्रश्न इति भावः। अत्रोच्यतेननुभवानेव प्रष्टव्यो योऽसमीक्षितमित्थं प्रभाषतेयोऽक्षरोपलम्भः स सर्वोऽपि श्रुतनिश्रय इति / अथ न ज्ञायते भवता, तर्हि वयमेवं ब्रूमः, श्रूयतम् (ज | सुए इत्यादि) श्रुतं द्विविधम्-परोपदेशः, आगमग्रन्थश्च व्यवहारकालात् पूर्व तेन श्रुतेन कृत उपकारः संस्काराऽऽधानरूपो यस्य तत् कृतश्रुतोपकारम् , यद् ज्ञानमिदीनी तु व्यवहारकाले तस्य पूर्वप्रवृत्तस्य संस्काराऽऽधायकश्रुतस्यानपेक्षमेव प्रवर्तते तत् श्रुतनिश्रितमुच्यते, न त्वक्षराभिलापयुक्तत्वमात्रेणेति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 168 // एतदेव भावयन्नाहपुव्वं सुयपरिकम्मिय-मइस्स जं संपयं सुयाऽऽईयं / तं निस्सियमियरं पुण, अणिस्सिअंमइच उक्कं तं // 166 / / व्यवहारकालात्पूर्व यथोक्तरूपेण श्रुतेन परिकर्मिता-आहित-संस्कारा मतिर्यस्य स तथा तस्य साध्वादेर्यन्साम्प्रतं व्यवहारकाले श्रुतातीतं श्रुतनिरपेक्षं ज्ञानमुपजायते तच्छुतनिश्रितमवग्रहाऽऽदिक सिद्धान्ते प्रतिपादितम् / इतरत्पुनरश्रुतनिश्रितम् , तचौत्पत्तिक्यादिमतिचतुष्क द्रष्टव्यम् , श्रुतसंस्कारानपेक्षया सहजत्वात् तस्य / अत्राऽऽहननु" भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थ-गहियपेयाला। उभयलोगे फलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धी॥१॥" इत्यादिवचनात् तत्राऽपि मतिचतुष्के वैनयिकी मतिः श्रुत-निश्रिता समस्ति। सत्यम् , किंतु सकृत् श्रुतनिश्रित्वे सत्यपि बाहुल्यमङ्गीकृत्याश्रुतनिश्रितंतदुच्यते इत्यदोषः। (इममेवाऽभिप्राय नन्दध्ययने अस्या एव गाथाया विवरणस्थले श्रीमन्मलयगिरिसूरिरप्याह। तथाहि-" नन्वश्रुतनिश्रिता बुद्धयो वक्तुमभि-प्रेताः, ततो यद्यस्यास्त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वम्, ततोऽश्रुतनि-श्रित्वे नोपपद्यते, न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं संभवति। अत्रोच्यते-इह प्रायो वृत्तिमाश्रित्याऽश्रुतनिश्रितत्वमुक्तम्, ततः स्वल्पश्रुतभावेऽपिन कश्चिद्दोषः " इति।। "इहातिगुरुकार्य दुर्निर्बहत्वाद् भर इव भरस्तन्निस्तरणे समर्था भरनिस्तरणसमर्थाः, वयो वर्गास्त्रिवर्गा लोकरूढ्याश्धर्मार्थकामास्तदर्जनोपायप्रतिपादक यत् सूत्र यश्चतदर्थस्तौ त्रिवर्गसूत्रार्था, तयोगृहीत 'पेयाल 'प्रमाणं सारो वा यथा सा तथाविधा / " इति नन्दिटीकायां / व्याख्यातोऽख्या अर्थः।) तस्माद् यदुक्तम्- "ज मइनाणमणक्खर मियरं सुयनाणमिति' (162) तदयुक्तम् , मतेरनक्षरत्वेस्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्यायविवेकाभावप्रसङ्गात्, श्रुतनिश्रितत्वस्य चान्यथा समर्थितत्वादिति स्थितम् / इति गाथाऽर्थः / / 166 / / यद्यनक्षरा मतिर्न भवति, तर्हि " लक्खणभेया हेऊ, फलभावओ (67)" इत्यादिगाथायां प्रतिज्ञातोऽक्षरानक्षरभेदाद मतिश्रुतयो र्भेदः कथं गमनीयः ? इत्याहउभयं भावऽक्खरओ, अणक्खरं होज्ज वंजणऽक्खरओ। मइनाणं सुत्तं पुण, उभयं पि अणक्खरऽक्खरओ।। 170 / / इहाक्षरं तावद् द्विविधम-द्रव्याक्षरम् , भावाक्षरं च / तत्र द्रव्याक्षरं पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताऽऽकाराऽऽदिरूपम् , ताल्वादिकारणजन्यः शब्दो वा; एतच व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनाक्षरमप्युच्यते / भावाक्षर त्वन्तःस्फुन्दकाराऽऽदिवर्णज्ञानरूपम् / एवं च सति (भाव-क्खरओ त्ति) भावाक्षरमाश्रित्य मतिज्ञानं भवेत् / कथंभूतम् ? इत्याह-(उभयं ति) उभयरूपम्-अक्षरवत्, अनक्षरं चेत्यर्थः; मतिज्ञानभेदे ह्यवग्रहे भावाक्षरं नास्तीति तदनक्षरमुच्यते, ईहाऽऽदिषु तु तद्भेदेषु तदस्तीति मतिज्ञानमक्षरवत् प्रतिपाद्यत इति भावः। (अणक्खरं होज वंजणऽक्खरओ ति) व्यञ्जनाक्षरं द्रव्याक्षरमित्यनर्यान्तरम्, तदाश्रित्य मतिज्ञानमनक्षरं भवेत् , न हि मतिज्ञाने पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताकाराऽऽदिकं शब्दो वा व्यञ्जनाक्षरं विद्यते, तस्य द्रव्यश्रुतत्वेन रूढत्वात्, द्रव्यमतित्वेनाप्रसिद्धत्वादिति। (सुत्तं पुणेत्यादि) सूत्रं श्रुतज्ञानम् , पुनरुभयमपिद्रव्यश्रुतम् , भावश्रुतं च इत्यर्थः, प्रत्येकमनक्षरतः, अक्षरतश्च भवेत्। इद-मुक्त भवति-"ऊससिय नीससियं, निच्छूट खासियं च छीयं च। निरिंसघियमनुसार, अणक्खर छेलियाईयं" // 1 // इत्यादि-वचनाद् द्रव्यश्रुतमनक्षरम्-पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षररूपम्, शब्दरूपं च तदेव साक्षरं भावश्रुतमपि श्रुतानुसार्यकारादिवर्णविज्ञानऽऽत्मकत्वात्साक्षरम्, पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताकाराऽऽद्यक्षररहितत्वात् शब्दाभावाच तदेवानक्षरम्, पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षरस्य शब्दस्य चद्रव्यश्रुतान्तःपातित्वेन भावश्रुतेऽसत्त्वात; तदेवं मतेविश्रुतस्य च साक्षरानक्षरकृतो नास्तिविशेषः; प्रत्येक द्वयोरप्यक्षरानक्षररूपत्वेनोक्तत्वात्; केवलं सामान्येन' श्रुतम् ' इत्युक्ते तन्मध्ये द्रव्यश्रुतं लभ्यत इति कृत्वा तत्रद्रव्यश्रुतमाश्रित्य द्रव्याक्षरमस्ति, मतौ तु तन्नास्ति, तस्या द्रव्यमतित्वेनाऽऽरूढत्वादिति। एवमनयोर्द्रव्याक्षरापेक्षया साक्षरानक्षरत्वकृतो भेदः / इति गाथाऽर्थः / / 170 / / तदेवमक्षरेतरभेदाद मतिश्रुतयोर्भेदमभिधाय मूकेतर भेदात्तमभिधित्सुराहसपरप्पचायणओ, भेओ मूएयराण वाऽमिहिओ। जं मूयं मइनाणं, सपरप्पच्चायगं सुत्तं / / 171 // अन्यैस्तु कैश्चिदाचार्यः स्वपरप्रत्यायनतो मतिश्रुतयोर्भेदोऽभिहितः। कयोरिव ? इत्याह-मूकेतरयोरिव, यथा हि मूकः स्वमात्मानमेव प्रत्याययति प्रतीतिपथं नयति, न तु परम्, तत्प्रत्यायनहेतुवचनाभावाद; इतरस्त्वमूकः स्वं परं च प्रत्याययति, वचनसद्भावात्। तथा सति यथा मूक मुखरयोर्भेदः, एवं मतिश्रुतयोरपि, यद् यस्मात् परप्रत्यायनहेतुद्रव्याक्षराभावाद् मूकं मतिज्ञानम् , मुखरं तु श्रुतज्ञानम्,
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________________ णाण 1957 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण कुतः ? स्वपरप्रत्यायकत्वाद्-द्रव्याक्षरसद्भावेन परप्रत्यायक-त्वस्यापि तत्र लभ्यमानत्वादिति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 171 / / एतदाचार्यो मतिश्रुतयोस्तुल्यताऽऽपादनेन किश्चिद् दूषयितु-माहसुयकारणं ति सद्दो, सुयमिह सो य परबोहणं कुणइ। मइहेयवो वि हि परं, बोहिंति कराइचेट्ठाओ / / 172 / / इह तावद्भवन्तं पृच्छामः-हन्त ! शब्दः श्रुतमुच्यते, उपलक्षणत्वात्पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च श्रुतमभिधीयते (सुयकारण ति) श्रुतकारणत्वात्-कारणे कार्योपचारादिति भावः / स च शब्दः, पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च परबोधनं परप्रत्यायनं करो-तीत्येव परतः श्रुतज्ञानं परप्रत्यायकमुच्यते, न तु स्वतः; इति तावद्भवतोऽभिप्रायः। एतच मतिज्ञानेनाऽपि समानम्। कुतः? इत्याह-हि यस्मान्मतिहेतवोऽपि मतिजनका अपि कराऽऽदिचेष्टाविशेषाः पर बोधयन्त्येव / तथाहि-अक्षराऽऽत्मकत्वात् किलशब्दः, पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च श्रुतस्य कारणं, करशीर्षाऽऽदिचेष्टास्त्वक्षररहितत्वात् किल मतिज्ञानस्य हेतवः-करवक्त्रसंयोगे हि कृते भुजिक्रियाविषया किल मतिरुत्पद्यते, शीर्षेचधूनिते निवृत्तिप्रवृत्तिविषयासा समुपजायते, इत्येवं मतिहेतवः कराऽऽदिचेष्टाऽपि परप्रबोधिका एवेति माथाऽर्थः / / 172 / / यदि मतिहेतवोऽपि परं प्रबोधयन्ति, ततः किम् ? इत्याहन परप्पबोहयाई, जं दो विसरूवओ मइसुयाइं। तकारणाई दोण्ह वि, बोहेति तओ न भेओ सिं / / 173 / / मतिहेतूनामपि परप्रबोधकत्वे सतिन (भेओ सिं) अनयोर्मतिश्रुतयोर्न भेदः / कुतः ? इत्याह-(तउ त्ति) ततस्तस्मात् कारणात्। करभात् ? इत्याह-यद् यस्माद् द्वे अप्येते मतिश्रुते स्वरूपतो विज्ञानाऽऽत्मना न परप्रबोधके, विज्ञानस्य मूकत्वेन परप्रबोधकत्वायोगात् , अवध्यादिवदिति। अथ श्रुतस्य यत्कारणं शब्दाऽऽदिकं तत्परप्रबोधकम् इत्येतावता मतिज्ञानाद् विशिष्यते श्रुतज्ञानम् / नन्वेतद् मतिज्ञानेऽपि समानम् , तत्कारणस्याऽपि करचेष्टाऽऽदेः परावबोधकत्वादिति / एतदेवाऽऽहतानि चतानि पूर्वोक्तरूपाणि कारणानि च तत्कारणानि द्वयोरपि मतिश्रुतज्ञानयोर्यथासंख्यं शब्दाऽऽदीनि, कर चेष्टाऽऽदीनि च परं बोधयन्त्येव, इति कोऽनयोर्विशेषः ? न कश्चिदित्यर्थः / इति किमुच्यतेमूकेतरभेदाद् भेदः ? इति गाथार्थः / / 173 / / तदेवं परोक्ते व्यभिचारिते ततो निरुत्तरं विलक्षीभूत तूष्णीभावमापन्नं परमवलोक्य संजातकारुण्यः स्वयमेव सूरिरुत्तरमाहदव्वसुयमसाहारण-कारणओ परविबोहयं होजा। रूढं ति व दव्वसुयं, सुयं ति रूढा ण दव्वमई / / 174 / / द्रव्यश्रुतं पुस्तकन्यस्ताक्षरशब्दरूप श्रुतज्ञानस्यैव कारणम् , नतुमतेः. इति श्रुतज्ञानं प्रत्यसाधारणकारणत्वाद् द्रव्यश्रुतं परप्रबोधकं भवेत, न तु कराऽऽदिचेष्टाः, तासां मतिश्रुतोभयकारणत्वेन साधारणकारणत्वादिति भावः / इदमुक्तं भवति-पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षररूप, शब्दाऽऽत्मकं च द्रव्यश्रुतम्, श्रुतज्ञानस्य मतिपूर्वकत्वाद्यधप्यानन्तर्येणावग्रहेहाऽऽदीन् | जनयति, तथाऽप्यक्षररूपत्वाद् मुख्यतया श्रुतज्ञानस्यैव किलासाधारणं कारणमुच्यते, कारणत्वेनोपचारतः श्रुतज्ञानेऽन्तर्भवति, परप्रबोधकत्वेन च तत्सर्वस्यापि विदितमिति / एवं कारणस्य परप्रबोधकत्वात् श्रुतज्ञानं परप्रबोधक घटते, कराऽऽदिचेष्टास्तु मतिज्ञानस्यासाधारणकारणं न भवन्ति, श्रुतज्ञानहेतुत्वादपि करवक्त्रसंयोगाऽऽदिकायां हि करचेष्टायां दृष्टात्वं न केवलं तद्विषयाऽवग्रहाऽऽदय उत्पद्यन्ते, किंतु-''भोक्तुमिच्छत्ययम्" इत्यादिश्रुतानुसारिविकल्पाऽऽत्मकं श्रुतज्ञानभप्युपजायते इति। अतोऽसाधारणकारणत्वाभावात् कराऽऽदिचेष्टाः परमार्थतो मतिज्ञानस्य कारणमेव न संभवन्ति, ततश्च न तत्रान्तर्भवन्ति; तथा च सति न मतिज्ञानं परप्रबोधकम्। अथवा-(दव्वसुयमसाहारणकारणओ त्ति) द्रव्यश्रुतं पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताऽऽचाराऽऽदिग्रन्थाक्षररूपम् , गुरुजनोदीरितदेशनाशब्दस्वरूपं च परप्रबोधकंभवेत्। कुतः ? इत्याहअसा-धारणस्य मोक्ष प्रत्यनन्यसाधारणकारणस्य क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य वस्तुकलापस्य कारणत्वाद् हेतुत्वात् ; ततश्च तद्द्वारेण श्रुतज्ञानमपि परप्रबोधकं घटते, कराऽऽदिचेष्टास्तु यद्यपि मतिज्ञानस्य कारणम् , तथाऽपि यथोक्तो विशिष्टः परप्रबोधस्तासु प्रायो न संभवति, अतो विशिष्टपरप्रबोधाभावाद् न ताः परप्रबो-धिकाः, तथा च सति न तद्द्वारेणापि मतिज्ञानं परप्रबोधकम् / इति सूत्रस्य सूचकत्वात् सोपस्कारः पूर्वार्द्धस्यार्थोऽवसेयः। अथोत्तरार्द्धस्य व्याख्या प्रस्तूयते(रूढं ति वेत्यादि) वेत्यथवा, भवतु मतिज्ञानस्य कारणं कराऽऽदिचेष्टा, तथापि सा ' द्रव्यमतिः ' इत्ये-वमागमे क्वचिदपि न रूढाः; द्रव्यश्रुतं पुनः पूर्वोक्तस्वरूपं ' श्रुतम् ' इत्येवं सर्वत्र रूढम् / ततश्च यद्यपि कराऽऽदिचेष्टा मतिज्ञानस्य कारणम् , परप्रबोधिका च; तथापि द्रव्यमतित्वेनाऽऽरूढत्वात् कारणे कार्योपचारतो मतिरूपतया नव्यवहियते। अतो मतिज्ञानात्त-स्याः पृथग्भूतत्वाद् न तद्द्वारेण तस्य परप्रबोधकत्वम् , द्रव्यश्रुतंतुकारणे कार्योपचारतः श्रुतज्ञानत्वेन प्ररूप्यते, इति तद्द्वारेणास्यपरप्रबोधकमुपपद्यते एव। इति युक्तो मूकेतरभेदामतिश्रुतयो-मैदः / ततश्च-" तक्कारणाई दोण्ह, वि बोहिंति तओन भेओ सिं।" (173) इत्येतदपास्तं भवतीति गाथाऽर्थः / / 174 / / (11) तदेवं कराऽऽदिचेष्टाया मतिकारणत्वमभ्युपगम्योक्तम् , साम्प्रतं सा मतेः कारणमेव न भवति, किंतु श्रुतस्येति दर्शयन्नाहसा वा सद्दत्थो चिय, तया विजं तम्मि पच्चओ होइ। कत्ता वि हु तदभावे, तदभिप्पाओ कुणइ चिटुं / / 175 / / यदि वा सा कराऽऽदिचेष्टा करवक्त्रसंयोगाऽऽदिलक्षणा / किम् ? इत्याह-शब्दार्थ एव शब्दो वक्तृसमुदीरितवचनरूपः, तस्यार्थः शब्दार्थः श्रोतृगतज्ञाने प्रतिभासमानतदभिधेयवस्तुरूपः श्रुतज्ञानमिति तात्पर्यम् / किमित्यसौ शब्दार्थ एव ? इत्याह-यद्यस्मात्ः कारणात् तयाऽपि का विहितया तस्मिन् शब्दार्थेभोजनेच्छाऽऽदिलक्षणे प्रतिपत्तुः प्रत्ययो भवति / तथा कर्ताऽपि तदभावे शब्दाभावे जिह्वारोगाऽऽदिसद्भावात् शब्दोदीरणसााभाव इत्यर्थः / (तदभिप्पाउ ति) तस्मिन् शब्दार्थ भोजनेच्छाऽऽदिलक्षणे परस्मै प्रतिपादयितव्येऽभिप्रायो मनोविकल्पो यस्यासौ तदभिप्रायः करोति चेष्टां करवक्त्रसंयोगाऽऽदि
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________________ णाण 1958 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण लक्षणाम् / इदमुक्तं भवति- यद्यपि कराऽऽदिचेष्टाऽनन्तरभावेनाऽवग्रहाऽऽदीन् जनयति, तथाऽपि शब्दार्थ एव सा श्रुतज्ञानमेवेत्यर्थः, यस्मात् तयाऽपि विहितया तत्र शब्दार्थप्रत्ययो भवति, अतः शब्दार्थप्रत्ययजनकत्वात् कारणे कार्योपचारात् शब्दार्थप्रत्यय एव सा, न पुनर्मतिः, तथा कर्ताऽपि 'भोक्तृ मिच्छत्यसौ' इत्यादिप्रतिपत्ता जानात्वित्यभिप्रायवानेव भाषणशक्त्यभावे कराऽऽदिचेष्टां करोति। ततश्च कर्ताऽपि शब्दार्थद्योतनाभिप्रायेण क्रियमाणत्वात् कराऽऽदिचेष्टा शब्दार्थ एव / ततश्व एषाऽपि श्रुतकारणत्वात् श्रुत एवान्तर्भवति, शब्दवत् , न मतौ, तथा च सत्येषा परमार्थतो मतेः कारणमेव न भवत्यतः कारणद्वारेणाऽपि न परप्रत्यायकं मतिज्ञानम्, श्रुतं तु तद्वारेण परावबोधकम्। इति युक्तो मूकेतरभेदाद् मतिश्रुतयोर्भेदः // 175 / / विशे० / स्था० / आ०म० / कर्म० / न०। (12) श्रुतानन्तरमवधिज्ञानस्य विवेकःकालविपर्ययस्वामित्वलाभसाधाद् मतिश्रुतानन्तरमवधि-ज्ञानमुक्तम् / प्रवाहापेक्षया, अप्रतिपतितकसत्त्वाऽऽधारापेक्षया वा थावान् मतिश्रुतयोः स्थितिकालः तादानेवावधिज्ञानस्याऽपि तथा यथैव मतिक्षुतज्ञाने मिथ्यादर्शनोदयतो विपर्ययरूपतामासादयतः, तथाऽविधज्ञानमपि / तथाहि-मिथ्यादृष्टः सतस्तान्येव मतिश्रुतावधिज्ञानानि, मत्यज्ञाने श्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानि भवन्ति / उक्तं च-" आद्यत्रयमज्ञानम्-पि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम्। '' इति / तथा य एव मतिश्रुतज्ञानयोः स्वामी स एवावधिज्ञानस्याऽपि। तथा विभङ्गज्ञानिनः त्रिदशाऽऽदेः सम्यग्दर्शनावाप्तौ युगपदेव मतिश्रुतावधिज्ञानाना लाभसंभवस्ततो लाभसाधाम् अवधिज्ञानानन्तरं च छद्मस्थविषयभावप्रत्यक्षत्वसाधाद् मनःपर्यायज्ञानमुक्तम् / तथाहि-यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्य भवति, तथा मनःपर्यवज्ञानमपीति छद्मस्थसाधर्म्यम्। तथा यथाऽवधिज्ञानं रुपिद्रव्यविषयं तथा मनःपर्याय ज्ञानमपि, तस्य मनःपुद्गलाऽऽलम्बनत्वादिति विषयसाधर्म्यम् / तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते, तथा मनःपर्यायज्ञानमपीति भावसाधाम्। यथा चाऽवधिज्ञानं प्रत्यक्ष तथा मनःपर्यायमपीति प्रत्यक्षत्वसाधर्म्यम्। उक्तंच-"कालविवजयसामित्तलाभसाहम्मओऽवही तत्तो। माणसमित्तो छउमत्थविसयभावाइँ साहम्मा'' || 87 / / (विशे०) तथा मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानस्योपन्यासः, सर्वोत्तमत्वात् , अप्रमत्तयतिस्वामिसाधात् सर्वावसानलाभाच / तथाहि-सर्वाण्यपि मतिज्ञानाऽऽदीनि ज्ञानानि देशतः परिच्छेदकानि, केवलज्ञानं तु सकलवस्तुस्तोमपरिच्छेदकं सर्वोत्तम, सर्वोत्तमत्वात् चान्ते सर्वशिरःशेखरकल्पे उपन्यस्तम् / तथा-यथा मनःपर्यायज्ञानमप्रमत्तयतेरेवोदयते, तथा केवलमप्यप्रमादभावमुपगतस्यैव यतेर्भवति, नान्यस्य, ततोऽप्रमत्तयतिसाधर्म्यम् / तथा यः सर्वाण्यपि ज्ञानानि समासादयितुं योग्यः स नियमात् सर्वज्ञानावसाने केवलज्ञानमवाप्नोति, ततः सर्वान्ते के वलमुक्तम् / उक्तं च-"अन्ते के क्लमुरा, जइ सामित्तावसाणलाभाओ।' इति / तथा यथा मनःपर्यायज्ञानं न विपर्ययमासादयति, तथा केवलज्ञानमपाते। विपर्ययाभावसाधर्म्याच मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानमुक्तमिति कृतं प्रसङ्गेन।नं।" खइयं खओवसमियं, दुविहं नाणं मुणेयव्वा खइयं केवलनाण, खओवसमिया सेसणाणाई॥ 1 // "पं० भा०। (13) ज्ञानं प्रत्यक्ष परोक्षं च। तथाहितं समासओ दुविहं पण्णत्तं / तं जहा-पचक्खं च, परोक्खं च / तत्पञ्चप्रकारमपि ज्ञानं समासतः संक्षेपेण द्विविधं द्विप्रकारं प्रज्ञ-सं, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः / प्रत्यक्षं च, परोक्षं च / नं०। आ० म०। आ० चू०। स्था०। (प्रत्यक्षवक्तव्यता' पचक्ख शब्दे) (परोक्षभेदाः ' परोक्ख' शब्दे वक्ष्यन्ते) (अवध्यादिज्ञानानां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (तृतीयभागे ' ओहि ' शब्दे द्वितीयभागे 255 पृष्ठ संशयाऽऽदीनामपि ज्ञानवत्त्वमावेदितम्) (१४)न ज्ञानमात्मव्यतिरेकेण गुणःननु चैतन्यं ज्ञानमात्मनः क्षेत्रज्ञादन्यदत्यन्तव्यतिरिक्तम्, असमासकरणादत्यन्तमिति लभ्यते। अत्यन्तभेदे सति कथमात्मनः संबन्धि ज्ञानमिति व्यपदेशः ? इति पराशङ्कापरिहारार्थमोपाधिकमिति विशेषणद्वारेण हेत्वभिधानम् / उपाधेरगतमौपाधिकम् / सनवायसंबन्धलक्षणेनोपाधिना आत्मनि समेवेतमात्मनः स्वयं जडरूप-त्वात् समवायसंबन्धोपढौ कि तमिति यावत् / यद्यात्मनो ज्ञानादव्यतिरिक्तत्वमिष्यते, तदा दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावाद् बुध्यादीनां नदानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदावसरे आत्मनोऽप्युच्छेदः स्यात्। तदव्यतिरिक्तत्वात्। अतो भिन्नमेवाऽऽत्मनो ज्ञानं यौक्तिकमिति / (स्या०) अत्राह-ज्ञानमपि यद्येकान्तेनाऽऽल्मनः सकाशाद्भिन्नमिष्यते, तदातेन चैत्रज्ञानेन मैत्रस्येव नैव विषयपरिच्छेदः स्यादात्मनः। अथ यत्रैवा-ऽऽत्मनि समवायसंबन्धेन समवेतं ज्ञानं तत्रैव भावावभासं करो-तीति चेत्। न। समवायस्यैकत्वाद् नित्यत्वाद् व्यापकत्वात् च सर्वत्र वृत्तेरविशेषात् समवायवदात्मनामपि व्यापकत्वादेकज्ञानेन सर्वेषां विषयावबोधप्रसङ्गः। यथा चघटेरूपाऽऽदयः समवायसंबन्धेन समवेताः, तद्विनाशे च तदाश्रयस्य घटस्याऽपि विनाशः। एवं ज्ञानमप्यात्मनि समवेतं, तच क्षणिकं, ततस्तद्विनाश आत्मनोऽपि विनाशाऽऽपत्तेरनित्यत्वाऽऽपत्तिः / अथाऽस्तु समवायेन ज्ञानाऽऽत्मनोः संबन्धः, किंतु स एव समवायः केन तयोः संबध्यते? सम-वायान्तरेण चेदनवस्था, स्वेनैव चेत् , किं न ज्ञानाऽऽत्मनोरपि तथा। अथ यथा प्रदीपस्तत्स्वाभाव्यादात्मानं परं च प्रकाशयति. तथा समवायस्येदृगेवस्वभावो यदात्मानं, ज्ञानात्मानौ च संबन्धयतीति चेत्ज्ञानात्मनोरपिकिंन तथास्वभावता, येन स्वयमेवैतौ संबध्येते ? किञ्चप्रदीपदृष्टान्तोऽपि भवत्पक्षे न जाघटीति / यतः प्रदीपस्तावद् द्रव्यम् , प्रकाशश्च तस्य धर्मः, धर्मधर्मिणोश्च त्वयाऽत्यन्तं भेदोऽभ्युपगम्यते; तत्कथ प्रदीपस्य प्रकाशाऽऽत्मकता? तदभावे च स्वपरप्रकाशकस्वभावताभणितिनिर्मूलैव / यदि च प्रदीपात्प्रकाशस्यात्यन्त भेदेऽपि प्रदीपस्य स्वपरप्रकाशकत्वमिष्यते, तदा घटाऽऽदीनामपि तदनुषज्यते, भेदाविशेषात् / अपि चतौ स्वपरसंबन्धनस्वभावौ समवायाद्भिन्नौ स्याताम् , अभिन्नौ वा ? यदिभिन्नौ, ततस्तस्यैतौ स्वभावाविति कथं संबन्धः ? संबन्धनिन्बधनस्य समवायान्तरस्यानवस्थाभयादनभ्युपगमात्। अथाऽभिन्नौ, ततः समवायमात्रमेव, न तौ। तदव्यतिरिक्तत्वात, तत्स्वरूपवदिति / किस-यथेह समवायिषु समवाय इति मतिः
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________________ माण 1956 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण समवायं विनाऽप्युपपन्ना, तथेहाऽऽत्मनि ज्ञानमित्ययमपि प्रत्ययस्तं विनैव चेदुच्यते, तदा को दोष: ? अथाऽऽत्मा कर्ता, ज्ञानं च करणम् , कर्तृकरणयोश्च वर्द्धकिवासीवद्भेद एव प्रतीततः, तत्कथं ज्ञानाऽऽत्मनोरभेदः? इति चेत्।न। दृष्टान्तस्य वैषम्यात्।वासी हि बाह्य करणम् , ज्ञानं चाभ्यन्तर, तत्कथमनयोः साधर्म्यम् ? न चैवं करणस्य द्वैविद्ध्यमप्रसिद्धम् / यदाहुलाक्षणिकाः-" करणं द्विविधं ज्ञेयं, बाह्यमाभ्यन्तरं बुधैः। यथा लुनाति दात्रेण, मेरुं गच्छति चेतसा // 1 // यदि हि किञ्चित्करणमान्तरमेकान्तेन भिन्नमुपदय॑ते, ततः स्याद् दृष्टान्तदाष्टान्तिकयोः साधर्म्यम्, न च तथाविधमस्ति / न च बाह्यकरणगतो धर्मः सर्वोऽप्यान्तरे योजयितुं शक्यते। अन्यथा दीपेन चक्षुधा देवदत्तः पश्यतीत्यत्रापि दीपाऽऽदिवचक्षुषोऽप्येकान्तेन देवदत्तस्य भेदः स्यात् / तथा च सति लोकप्रतीतिविरोध इति / अपि चसाध्यविकलोऽपि वासिवर्द्धकिदृष्टान्तः / तथाहि-नायं वर्द्धकि: काष्टमिदमनया वास्या घटयिष्यते इत्येवं वासिग्रहणपरिणामेनापरिणतः सन्तामगृहीत्वा घटयति, किंतु तथापरिणतस्तां गृहीत्वा। तथापरिणामे च वासिरपि तस्य काष्ठस्य घटने व्याप्रियते, पुरुषोऽपि / इत्येवं लक्षणैकार्थसाधकत्वाद् वासिवर्द्धक्योरभेदोऽप्युपपद्यते, तत्कथमनयोर्भेद एवेत्युच्यते? एवमात्माऽपि-'विवक्षितमर्थमनेन ज्ञानेन ज्ञास्यामि' इति ज्ञानग्रहणपरिणामवान् ज्ञानं गृहीत्वाऽर्थ व्यवस्यति, ततश्च ज्ञानाऽऽत्मनोरुभयोरपि संवित्तिलक्षणैककार्यसाधकत्वादभेद एव / एवं कर्तृकरणयोरभेदे सिद्धे संवित्तिलक्षण कार्य किमात्मनि व्यवस्थितम् , आहोस्विद् विषये इति वाच्यम् ? आत्मनि चेत्-सिद्धं नः समीहितम्। विषये चेत् , कथमात्मनोऽनुभवः प्रतीयते ? अथ विषयस्थितसंवित्तेः सकाशादात्मनोऽनुभवस्तर्हि किं न पुरुषान्तरस्यापि ? तद्भेदाविशेषात् / अथ ज्ञानाऽऽत्मनोरभेदपक्षे कथं कर्तृकरणभाव इति चेत् ? ननु यथा सर्प आत्मानमात्मना वेष्टयतीत्यत्राभेदे यथा कर्तृकरणभावस्तथाऽत्रापि / अथ परिकल्पितोऽयं कर्तृकरणभाव इति चेद्वेष्टनाऽवस्थायां प्रागवस्थाविलक्षणगतिनिरोधलक्षणार्थक्रियादर्शनात् कथं परिकल्पितत्वम् ? न हि परिकल्पनाशतैरपि शैलस्तम्भ आत्मानमात्मना वेष्टयतीति वक्तुं शक्यम् / तस्मादभेदेऽपि कर्तृकरणभावः सिद्ध एव / कि शु-चैतन्यमिति शब्दस्य चिन्त्यतामन्वर्थः-चेतनस्य भावश्चैतन्यम् / चेतनश्चात्मा त्वयाऽपि कीर्त्यते, तस्य भावः स्वरूपंचैतन्यम् / यच यस्य स्वरूपंनतत्ततो भिन्नं भवितुमर्हति, यथा वृक्षावृक्षस्वरूपम्। अथास्ति चेतन आत्मा, परं चेतनासमवायसंबन्धाद्, न स्वतः; तथा प्रतीतेरिति चेत् / तदयुक्तम् / यतः प्रतीतिश्चेत् प्रमाणीक्रियते, तर्हि निर्वाधमुपयोगाऽऽत्मक एवाऽऽत्मा प्रसिध्यति। न हि जातु-चित् स्वयमचेतनोऽहं चेतनायोगात् चेतनः / अचेतने वा मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति, ज्ञाताऽहमिति समानाधिकरणतया प्रतीतेः / भेदे तथा प्रतीतिरिति चेत् / न / कथञ्चित्तादात्म्याभावे सामानाधिकरण्यप्रतीतेरदर्शनात्। यष्टिः पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचाराद् दृष्टा, न पुनस्तात्त्विकी। उपचारस्य तु बीज-पुरुषस्य यष्टिगतस्तब्धत्वाऽ5दिगुणैर भेदः, उपचारस्य मुख्यार्थस्पर्शित्वात् / तथा चाऽऽत्मनि ज्ञाताऽहमिति प्रतीतिः कथञ्चिचेतनाऽऽत्मतां गमयति, तामन्तरेण ज्ञाताऽहमिति प्रतीतेरनुपपद्यमानत्वाद्, घटाऽऽदिवत्। न हि घटाऽऽदिरचेतनाऽऽत्मको ज्ञाताऽहमिति प्रत्येति / चैतन्ययोगाभावादसौ न तथा प्रत्येतीति चेत् / न / अचेतनस्यापि चैतन्ययोगाचेतनोऽहमिति प्रतिपत्तेरनन्तरमेव निरस्तत्वात् , इत्यचेतनत्वं सिद्धम्-आत्मनो जडस्याऽर्थपरिच्छेद पराकरोति, तं पुनरिच्छता चैतन्यस्वरूपताऽस्य स्वीकरणीया। ननु ज्ञानवानहमिति प्रत्ययादात्मज्ञानयोर्भेदः, अन्यथा धनवानिति प्रत्ययादपि धनधनवतोर्भेदाभावनुषङ्गः / तदसत् / य तो ज्ञानवानहमिति नाऽऽत्मा भवन्मते प्रत्येति, जडत्वैकान्तरूप-त्वात् , घटवत्। सर्वथा जडश्च स्यात्-आत्मा ज्ञानवानहमिति प्रत्ययश्चस्यादस्य विरोधाभावात् , इति मा निर्णषीः; तस्य तथो-त्पत्त्यसंभवात् / ज्ञानवानहमिति हि प्रत्ययो नागृहीते ज्ञानाऽऽख्ये विशेषणे विशेष्ये चाऽऽत्मनिजातूत्पद्यते, स्वमतविरोधात् ; "नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" इति वचनात् / गृहीतयोस्तयोरुत्पद्यत इति चेत्-कुतस्तद्ग्रहीतिः ? न तावत् स्वतः, संवेदनाऽनभ्युपगमात्। स्वसंविदिते ह्यात्मनि ज्ञाने च स्वतः सा युज्यते, नाऽन्यथा, सन्तानान्तरवत्। परतश्चेत्तदपि ज्ञानान्तरं विशेष्यं ना-गृहीते ज्ञानत्वविशेषणे गृहीतुं शक्यम् / गृहीते हि घटत्वे घटग्रहण-मिति ज्ञानान्तरात्तद्ग्रहणेन भाव्यम् , इत्यनवस्थानात् कुतः प्रकृ-तप्रत्ययः? तदेवं नाऽऽत्मनो जडस्वरूपता संगच्छते। तदसङ्गतौ च चैतन्यमोपाधिकमात्मनोऽन्यदिति वाङ्मात्रम् / स्या०। आचा०। विपा०। ('आता' शब्दे द्वितीयभागे 200 पृष्ठे ज्ञानज्ञानिनोरभेदविचारोऽदर्शि) (15) ज्ञानज्ञानिनोरन्यत्वे बन्धमोक्षपरामर्शःचेयण्णस्स उजीवा, जीवस्स उचेयणाउ अन्नत्ते। दवियं अलक्खणं खलु, हविज न य बंधमोक्खाओ। चैतन्यस्य जीवाजीवस्य चेतनाया अन्यत्वे द्रव्यं जीवद्रव्यमलक्षणं' चेतनालक्षणो जीवः इति लक्षणरहितं भवेत् , चेतनाया घटाऽऽदिवद् जीवादप्येकान्तव्यतिरिक्तत्वाद् , लक्षणाभावे चलक्ष्यस्याप्यभाव इति, खरशृङ्गवत् / अत्यन्तासन् जीवो न बध्यते, बन्धस्य वस्तुधर्मत्वात् / नापि मुच्यते, बन्धाभावादिति बन्धमोक्षावपिन स्याताम्। अथ मन्येथा अचेतनोऽपि स बध्यते, मुच्यते चेति। तदप्ययुक्तम् / अचेतनानामप्येव धर्मास्तिकायाऽऽदीनां बन्धमोक्षप्रसक्तेः / बृ०१ उ०। विशे०। (16) बोधमात्रं, सकारो वा बोधः प्रमाणम्तथाहि-" बोधः प्रमाणम्" इति वदन्तो वैभाषिकाः पर्यनुयोज्याः। किं बोधमात्रस्य प्रामाण्यम्, आहोस्विद्बोधविशेषस्य ? यदिबोधमात्रस्य, तदा तल्लक्षणमयुक्तम् व्यवच्छेद्याभायात्। अबोधस्य व्यवच्छेद्यत्येऽपि संशयविपर्ययाऽऽदीनां बोधस्वभावत्वात् प्रमाणताप्रसक्तिः। नच संशयाऽऽदीनामपि प्रमाणता, लोकशास्त्रविरोधात् / लोकप्रसिद्धं च प्रमाण व्युत्पादयितुमारब्धम् , तत्र चेन्द्रियाऽऽदेरपि प्रमाणतायाः प्रसिद्धेः बोधस्य प्रामाण्येऽव्याप्तिश्च लक्षणदोषः / न चाबोधरूपस्येन्द्रियाऽऽदेर्लोकप्रमाणता नव्यपदिशति, प्रदीपेनोपलब्धं चक्षुषा दृष्ट धूमेनावगतमिति लौकिकव्यवहारदर्शनात् / न चौपचारिकं प्रामाण्यम्, प्रमितिक्रियायां साधकतमत्वेन मुख्यप्रामाण्योपपत्तेः / अत एव शास्त्रान्तरेष्वपि विशेष्योपलब्धिजनकस्य बोधाबोधरूपविशेषत्यागेन, सामान्यतो" लिखितं साक्षिणो भुक्तिः, प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्' इत्युक्तिः / किं चप्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणशब्दः करणविशेषप्रतिपादकः / करणविशेषत्वं चास्य विशेष्योपलब्धिजनकस्य बोधाबोधरूपविशेषत्यागेन सामान्यतो
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________________ णाण 1960 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण लिखितस्वरूपकार्यजनकत्वेन कार्यस्य चाव्यभिचाराऽऽदिस्वरूपत्वात् तजनकत्वेनापरेण साधकतमेन भाव्यम्, एकस्यैव स्वात्मनि करणक्रियाविरोधात्। ततो बोधाबोधरूपस्य प्रमितिजनकस्य प्रमाणतोपपत्तेबाँधमात्रं प्रमाणमित्यत्राव्याप्तिर्लक्षणदोषः प्राप्नोतीति स्थितम्। अथ बोधविशेषः प्रमाणं, तदाऽत्रापि वक्तव्यम् कः पुनरसौ बोधस्य विशेषः ? यद्यव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टत्वं, तदा प्रमितिस्वभावस्य तस्य प्रमाणताप्रसक्तिः / न चाभ्युपगम्यत एवेति वाच्यम् , करणविशेषस्य प्रमाणव्यवस्थितेः / अत एव 'निराकारो बोधोऽर्थसहभाव्येकसाग्यधीनस्तत्रार्थे प्रमाणम् ' इति वैभाषिकोक्तमसङ्गतम् / अपि च-कर्मण्यसी प्रमाणमभ्युपेयते। यत उक्तम्- " सव्यापारमिवाऽऽभाति, व्यापारेण स्वकर्मणि।" इति / कर्मता च बोधसहभाविनोऽर्थस्य तद्बोधापेक्षया न संभवति, तत्समानकालस्य तत्कृतविकार्यत्वात्। द्वयोः कर्मरूपत्वे च तत्र करणक्रिययोः कथं प्रतिनियमः? तदभावे चैकस्य सामग्यधीनतायामपि सर्वः सर्वस्य बोधो भवेत् / किश्चैकसामग्यधीनत्वस्य द्वयोरप्यविशेषाद्यथा बोधार्थस्य ग्राहकः, तथाऽर्थोऽपि बोधस्य किं न भवेत् ? तन्न' निराकारो बोधः प्रमाणं ' संभवति / अथ स्यान्नि-राकारो बोधः, प्रमाणं माऽस्त्वसौ, प्रमितिक्रियायां साधकतमत्वात् प्रमाणम् / ननु च बोधस्य प्रमाणस्वरूपत्वादर्थाऽऽकाराऽऽ - त्मकत्वमयुक्तम्, प्रमेयरूपताऽऽपत्तेः। न च प्रमेयरूपमेव प्रमाणं भवितुमर्हति, प्रमाणस्य तद्ग्राहकत्वेन प्रतिभासनात् / न च तथात्वेन प्रतिभासमानमपि प्रमेयरुपयुक्तम्, प्रमाणप्रमेययोरन्तर्बहि-र्व्यवस्थितत्वेनावभासनात्। भेदेन च प्रतिभासमानं नान्यथाऽधिगन्तुं युक्तम्।न हि प्रतिभासः साक्षात्कारणाऽऽकारत्वात् प्रत्यक्षरूपोऽर्थव्यवस्थापकः प्रमाणान्तरादनुग्रह, वाधां वा प्रतिपद्यते। उक्तं च-"प्रमाणस्य प्रमाणेन, न बाधा नाप्यनुग्रहः / बाधायाम-प्रमाणत्वमानर्थक्यमनुग्रहे / / 1 / / " इति। सर्वदा बहिर्युच्छिन्नाविभासिनोऽध्यक्षस्याप्रमाणत्वे प्रमाणान्तराप्रवृत्तिरेव / न चाध्यक्षेण ज्ञानमेव बहिराकारं प्रतिपद्यते, न बाह्योऽर्थः, इति कथं निराकारता तस्येति वक्तव्यम् ? ज्ञानरूपताया बोधस्याध्यक्ष प्रति-भासनात् अर्थस्य च ज्ञानरूपतायाः प्रतिपत्तेः। न ह्यनहङ्काराऽऽस्पदत्वेनार्थस्य प्रतिभासे अहङ्काराऽऽस्पदबोधरूपस्यैव ज्ञानरूपता युक्ता। यदि स्वहङ्काराऽऽस्पदत्वे नार्थस्य प्रतिभासः स्यात्तदा रूपादभिन्नत्वात्तदात्मनोऽहं घट इति प्रतिभासः स्यात्। न चान्यथाभूता प्रतिपत्तिरन्यथाभूतमर्थ व्यवस्थापयितुं शक्ता, प्रतिपत्तिव्यतिरेकेणाप्यर्थव्यवस्थितिप्रसक्तिश्च; नीलप्रतिपत्तेरपि पीताऽऽदिव्यवस्थापनाप्रसङ्गात्। अथ साकारविज्ञानमाकारप्रतिनियमात्तत्प्रतिपत्त्यैवार्यस्तदाकारता तजनकस्याऽर्थस्य व्यवस्थापये दिति प्रतिकर्मव्यवस्था | सिध्यति; निराकारं तु विज्ञानं बोधमात्रतया व्यवस्थितम् , सर्वार्थान प्रत्यविशिष्टत्वात्। नीलस्येदं संवेदनं न पीतस्येति प्रतिकर्मव्यवस्थानिबन्धनं न भवेदिति साकारं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम्। असदेतत्। सर्वार्थान् प्रति बोधमात्रतया निराकारस्याविशिष्टत्वादिति हेतोर्निराकारत्वमपि चक्षुरादिवृत्या बोधस्य तत्रैव नियमितत्वात्। न च नियतत्वस्य सर्वार्थेषु नीलाऽऽदावेव तस्य प्रतीतिः, समानत्वेऽपि वा पुरोवर्तिन्येव नीलाऽऽदौ / समानत्वस्य संभवात् न सर्वार्थसाधारणी प्रतिपत्तिः निराकारज्ञानवादिनो न काचित् क्षतिः, तथादृष्टत्वात् / न हि दृष्टरनुपपन्नं नाम निराकारत्वे किमिति पुरोवर्तिन्येव नीलाऽऽदौ प्रवर्तते, विज्ञानं चक्षु रादिभिस्तव नियमितत्वादिति प्रतिपादितं प्राक् / कस्मात्तैः तत्र नियम्यत इति चेत् ? अत्र वस्तुस्वभावैरुत्तरं वाच्यम् / न हि कारणानि कार्यजननप्रतिनियमे पर्यनुयोगमर्हन्ति, तत्र तस्य वैफल्यात् / साकारत्वेऽपि चाऽयं पर्यनुयोगः समानः / तथाहि-साकारमपि ज्ञान किमिति नीलाऽऽदिकमेव पुरोवर्ति, सन्निहितमेव च व्यवस्थापयति, तेनैव तथा तस्य जननाऽऽदिवत् समानमेतन्निराकारत्वेऽपि / किशचक्षुरादिजन्यं तद्विज्ञानमिति चक्षुराद्याकारं न भवतीति पर्यनुयोगे भवताऽपि वस्तुस्वभावैरत्रोत्तरं वाच्यमिति वक्तव्यम्, तदस्माभिरभिधीयमानं किमित्यसाङ्गत्यं भवतः प्रतिभाति ? अपि च-साकारता विज्ञानस्य किं साकारेण प्रतीयते, आहोस्वित् निराकारेण ? यदि साकारेण, तदा तत्राऽपि प्रतिपत्तावाका-रान्तरपरिकल्पनमित्यनवस्थाप्रसक्तिः / निराकारेण चेत्, बाह्यार्थस्याऽपि तथाभूते नैव प्रतिपत्तिप्रसक्तिः / न च बाह्ये प्रत्यासत्तिनियमाभावान्न तथाभूतेन प्रतिपत्तिरिति वाच्यम् , इतरत्रापि प्रत्यासत्तिनियमाभावस्य तुल्यत्वात्। शुक्ले पीताऽऽकारदर्शनादभ्रान्तेन प्रतिनियमाभाव इति चेत्, निराकारेऽपि तद्यभ्रान्ततत्वादेव प्रतिनियमो भविष्यतीति किमाकारपरिकल्पनया ? कथमाकारमन्तरेण प्रतिनियम इति न वाच्यम् , आकारेऽप्यस्य समानत्वात्। तथाहि-साकारवादिनोऽपि कथं प्रतिनियम इति प्रेरणायां प्रतिनियताऽऽकारपरिग्रह एव प्रतिनियम इति नोत्तर युक्तम्, प्रतिनियताऽऽकारपरिग्रहस्यैव प्रतिनियमरूपतयोपन्यस्तस्याद्यापि चिरायमाणत्वात् अथ चानुमानाद्वाह्योऽर्थः प्रतीयते, तर्हि प्रतिबन्धसिद्धिर्वक्तव्या। नच बाह्योऽर्थोऽध्यक्षतः कदाचनाऽपि सिद्धो, नापि तत्प्रतिबद्धो ज्ञानाऽऽकार इति न प्रतिबन्धसिद्धिः, तामन्तरेण न चानुमानप्रवृत्तिरिति कथं बाह्यार्थसिद्धिः? यथाऽर्थापत्त्या बाह्योऽर्थोऽधिगम्यते, तथाऽपत्त्याऽर्थस्वरूपप्रतिपत्तौ तस्याः प्रत्यक्षरूपताप्रसक्तेः / न च स्वरूपप्रतिपत्तिमन्तरेणाप्यनुमानवत्तस्याप्रामाण्यम्, अनुमानस्यावगतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवत्वेन प्रामाण्यात्, अत्र च तदभावात् / न चाऽत्यन्तपरोक्षस्यार्थस्य केनचिदाकारण विषयीकरणमिति न तस्य प्रतिपत्तिविषयता, अनुमानविषयस्य तु पूर्वदृष्टत्वात्। इदं तदित्याकारेण प्रतिपत्तिविषयता संभवत्यपीति नार्थापत्त्याऽप्यर्थप्रतीतिः / अथ दूरस्थितवृक्षाऽऽदौ मृत्पिण्डाऽऽकारो यथा बाह्यवृक्षाऽऽद्यर्थव्यतिरेकेण नप्रति-भासविषयः, तद्वत्पुरोवर्तिनिस्तम्भाऽऽदौ तदाकारः सत्येव बाह्ये स्तम्भाऽऽद्यर्थे इति सिद्ध एव बाह्यार्थः। नच वृक्षाऽऽदायपि पिण्डाऽऽद्यकारिएव वृक्षाऽऽदिः,तस्य स्वपरावभासस्यान्यथा-प्रतीतेः। असदेतत्। यतः-स्वपराभ्यामसौ सन्निहितः प्रतीयमानः साकारेण वा ज्ञाने प्रतीयते ? निराकारेण वा ? यदि साकारेणेति पक्षः, तदाऽसावपि ज्ञानाऽऽकार एव, न बाह्योऽर्थ इति क्वचिदप्यसिद्धेरसिद्धो दृष्टान्तः। तथा च-प्रतिबन्धाप्रसिद्धेन ज्ञानाऽऽकाराद् बाह्याऽर्थसिद्धिः / अथ निराकारेण तेनार्थः स्वपराभ्यां प्रतीयत इति प्रतिबन्धसिद्धिरिभ्युपगम्यते पिण्डाऽऽद्याकारस्य बाह्यार्थेन सह (?) नन्वेवं निराकारज्ञानं बाह्यार्थग्राहकं सिद्धमिति व्यर्थ ज्ञानाकारकल्पनम् / न च तत्रापि प्रतिभासमानो वृक्षो ज्ञानाकार एवेत्यपरमर्थ सावयति, तत्राप्यपरापरार्थकल्पनायामनवस्थाप्रसङ्गात् कुतोऽर्थसिद्धिः? ज्ञानाऽऽकाराऽऽदिभिरिति चेत् , ननु प्रतिबन्धाग्रहणे कथं तदा तसिद्धिः? इति पुनरपि तदेव वक्तव्यमित्यपर्यवसिता पर्यनुयोगानवस्था।
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________________ 1961 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण तस्माद निराकारादेव ज्ञानाद् बाह्यार्थासिद्धिरभ्युपगन्तव्या / अथ निराकारं ज्ञानं नीलाऽऽदावर्थे सव्यापारं नियापारभिति कल्पनाद्वयम्। प्रथमकल्पनायामप्यव्यतिरिक्तव्यापारवत् , उत व्यतिरिक्तव्यापारवत् ? इति कल्पनाद्वयम् / आद्यविकल्पेज्ञानरूपमेव व्यापारःकश्चित् / न व व्यापारतद्वतोरभेदो युक्तो, धर्मधर्मितया प्रतीतेः / द्वितीयविकल्पेऽपि संबन्धासिद्धिः, ततस्तस्योपकाराभावात् / उपकारेऽपि तस्य तन्निर्वर्तितेऽपरो व्यापारः कल्पनीय इत्यनवस्था / व्यापारस्यापि चार्थग्रहणव्यापृतावपरो व्यापारः कश्चित् परिकल्पनीय इत्यत्राप्यनवस्था। निटापारस्यार्थव्यापृतावर्थस्यापि ज्ञानग्रहणे व्यापृतिप्रसक्तिरित्यर्थस्यापि ज्ञानं प्रति ग्राहकता स्यात् / न च निराकारों बोधों निर्व्यापारोऽपि बोधस्वरूपत्वादर्थग्राहकोऽर्थस्याप्यर्थरूपतया बोधप्रति ग्राहकतो ग्राह्यरूपासंस्पर्शान्न बोधकस्य ग्राहकता (?) न च ग्राह्यार्थरूपान्यथाऽनुपपत्त्या बोधस्याग्राहकताव्यवस्था, इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसक्तेः / तथाहि-ग्राह्यरूपव्यवस्था ग्राहकरूपसंस्पर्शात् . ग्राहकरूपव्यवस्थाऽपि ग्राह्यरूपसंस्पर्शादितिकथं नेतरेतराश्रयदोषः? न च समानकालयोर्नीलबोधयोाह्यग्राहकभावव्यवस्था, कर्मकर्तृरूपत्वासिद्धेः / न हि समानकालतायां निर्वयविकार्यप्राप्य - रूपकर्मतासंभवः, समानकालस्य निर्वर्त्यविकार्यताऽयोगात् / प्राप्यरूपता च न तद्व्यतिरिक्ता संभवति, समानकालयोयोरपि ग्राह्यग्राहकभावाविशेषात् / तन्न निराकारस्याप्यर्थव्यवस्थापकत्वं बोधस्येति विज्ञप्तिमात्रमेव नार्थव्यवस्येति विज्ञानवादिनोक्तमेतत्, सप्रतिघरूपतयाऽध्यक्षता बाह्यस्य सिद्धविज्ञप्तिमात्रत्वे तद्रूपताऽभावप्रसक्तिर्भवत्। न चाध्यक्षतःसप्रतिघबाह्यरूपतया प्रतीयमानस्य विज्ञप्तिरिति नामकरणे काचिन्न क्षतिः, नामकरणमात्रेण सप्रतिघत्वबाह्यरूपत्वाऽऽदेरर्थधर्मस्याव्यावृत्तेः / अतः सप्रतिघत्वाऽऽदिरूपो बाह्योऽर्थः, तद्विपरीतश्वान्तरो बोध इति कथं विज्ञप्तिमात्रम् ? न च सप्रतिधाऽऽकारतया बोधप्रतिपत्तिः, तद्विषयतया तु तस्य प्रतिपत्तिरस्त्येव, नीलविषयो बोधो मयाऽनुभूयते इति निश्चयोत्पत्तेः। न च प्रतिभासनिश्चयमन्तरेणापरस्य पदार्थस्वरूपव्यवस्थिती निबन्धनमुत्पश्यामः, ततो निराकारादेव बोधाद् बाह्यार्थसिद्धिरभ्युप्या। असदेतत्। यतो निराकारं ज्ञानमर्थव्यवस्थापकमिति कि प्रत्यक्षतोऽवगम्यते, आहोस्विदनुमानतः, उताऽपित्ते रिति विकल्पः ? तत्र न तावत् प्रत्यक्षतस्तत्प्रतिपत्तिः, प्रतिभासमानशरीरस्तम्भाऽऽदिव्यतिरिक्तस्यापरस्य ज्ञानस्यानुपलम्भेनासत्त्वात्।न च सुखाऽऽद्यान्तररूपेणाहद्वाराऽऽस्पदतया स्वसवेदनाध्यक्षतो ज्ञानरूपं प्रतीयत एवेति कथं तस्यानुपलम्भः ? यतः सुखाऽऽदयो नान्तःस्पृष्टशरीराः, नातिरिच्यमानतनवःप्रतिभान्ति / अहमिति प्रत्ययोऽपि तथाभूतशरीराऽऽलम्बनतया संवेद्यत इति। न चव्यतिरिक्तो बोधाऽऽत्मा स्वप्नेऽप्यनुभवविषय इति न प्रत्यक्षतो ग्राह्यव्यतिरिक्तवद् ग्राहकस्वरूपमवभासते / अथाभूतशरीराऽऽलम्बनतया संवेद्यत इति न तत्प्रत्यक्षावसेयम्, नाऽप्यनुमानाधिगम्यम् , प्रत्यक्षाप्रवृत्ती तत्पूर्वकस्य तत्र तस्याप्यप्रवृत्तेः / नाप्यर्थापत्तिस्तद्भावमवगमयति, तस्याः प्रामाण्यानुपपत्तेः / किञ्च-अनुस्मरणमात्रमापत्तिः, न चेदं तदित्युल्ले - खवदनुस्मरणमदृष्टऽर्थमासादयति। न च ज्ञानस्वरूप कदाचनापि दृष्ट, दृष्टे वा तत एव तत्सिद्धेः, किमर्थापत्त्या ? अथार्थस्य ज्ञानमिति निसकारस्य ज्ञानस्य प्रतीतेस्तत्सद्भावः / न चार्थग्राहकत्वेन सर्व दार्थस्य ज्ञानमित्येवं-प्रतीयमानस्याविसंवादिप्रत्ययविषयस्य तस्याभावः, संवेदनमात्रस्याप्यभावप्रसक्तेः। अतो निराकाराऽविसंवादिप्रत्ययविषया बुद्धिः सिद्धेति युक्तमुक्तम् निराकरा नो बुद्धिरिति / असदेतत् / यतो निराकराऽर्थबुद्धिमया प्रतीयत इत्यपरा बुद्धेस्तदर्थस्य चग्राहिका बुद्धिः प्रसज्येता तथा च सत्याकारमन्तरेण केनाऽऽकारण बुद्धिरर्थस्येति योग्या प्रतीयेत? न हीद तदित्यतिरूपिताऽऽकारमाकारान्तरेण योजनामर्हति / न च तथाऽप्रतीयमाना बुद्धिरिति व्यपदेशमासादयति, शशशृङ्गाऽऽदेरपि बुद्धित्वप्रसङ्गोक्तेः / अथाऽपि स्वात्मनाऽर्थबुद्धिरासीदिति नार्थाऽऽकारव्यतिरिक्ता सा प्रतिभाति, किं तु पृथगपोद्धारपरिकल्पनया प्रकाशरूपतया व्यवस्थापिता बुद्धिरिति व्यपदिश्यते / अयुक्तमेतत् / यतो नाव्यतिरेकेण प्रतीयमाना बुद्धिर्विकल्पनापोद्धर्तुं शक्या, न च पृथक् प्रतीयते सेत्युक्तम् / अथ सुखस्तम्भाऽऽद्याकारतयाऽयं तदन्तःस्पृष्टविरूपाऽऽदिकमेव ज्ञान प्रतिभाति न पुनस्ततो व्यतिरिक्तमपरं ज्ञानम् , तथा सति संवेदनमात्रमेव प्रसक्तम्। एवं च चक्षुरादिना मया रूपं प्रती यत इति संबन्धाभावात्कथं प्रतीतिः? अस्ति चेयं प्रतीतिः / तस्मादुपलब्धेऽत्र रूपाऽऽदिकेऽभिमुखीभूतं चक्षुस्तत्प्रकाशत्वं विदधाति, स वै बुद्धिरुच्यते / न च नीलाऽऽद्याकारमविद्यमानमेव तत्र प्रकाशत्वमुत्पन्नमिति वक्तव्यम्, व्यज्यमाननीलाऽऽदिविषयचक्षुरादिव्यापारऽऽदिव्यज्यमानस्य प्रकाशत्वस्यैव तत्रोत्पतेः, नीलाऽऽदेस्तु पूर्वमेव भावात्। तथा च सत्यर्थस्य बुद्धिरिति ध्यपदेशः सिद्ध एव / अत एवोक्तमबुद्धिरुपल-ब्धिनिमित्यनान्तरमिति। एतदप्यसत। यतो न प्रकाश-व्यतिरेकेण नीलाऽऽदिरुपलभ्यत इति कुतः पूर्वव्यवस्थिते एव नीलाऽऽदौ प्रकाशता चक्षुरादेरुदयतीति वक्तुं शवयम् ? न हि प्रकाशतारहित कदाचिदुपलब्धं नीलाऽऽदिकम् , उपलम्भे वा सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसक्तिः / अथ नीलस्य प्रकाश इति व्यतिरेक उपलभ्यत एव।न। शिलापुत्रकस्य शरीरं स्तम्भस्य स्वरूपमित्यत्रापि व्यतिरेकोपलब्धेर्व्यतिरेकः स्यात् , प्रकाशस्य प्रकाशतेति चादृष्टो भेदः प्रकाशतायाः स्यात्। अथात्रैकव प्रकाशतोपलभ्यते नापरा इति न प्रकाशस्थापरः प्रकाशः, व्यतिरेकोपलम्भस्य प्रत्यक्षबाधित्वात्, तर्हि नीलप्रकाशयोरपि न प्रत्यक्षप्रतीतो भेद इति, तत्राऽपि समानन्यायतो व्यतिरेकस्यासिद्धेः।नीलाऽऽद्याकारैव प्रकाशिता, साचबुद्धिरिति सिद्धा साकारता ज्ञानस्य / अथ परोक्षा बुद्धिः निराकारा च ततः साकारस्य बोधस्य बुद्धिरिति विकल्पेऽप्यप्रतिभासनात् , अर्थापत्तेश्व प्रक्षयः, प्रकाशमात्रेणार्थस्य सिद्धत्वाद् व्यर्थ तदपरबुद्धिपरिकल्पनम् / ततश्च यदुक्तनिराकारमेव ज्ञान-मर्थोन्मुखमुपलभ्यमानं प्रतिनियमेन कथं सर्वसाधारणम् ? इति सिद्धः प्रतिकर्मप्रत्यय इति। तदप्ययुक्तम्। यतो न किञ्चिन्नीलाऽऽद्याकारप्रकाशिताव्यतिरेकेणोपलभ्यतेऽपर- मिति कस्यार्थे प्रत्यासन्नता परैः परिकल्प्यते ? प्रकाशता तु यदि निराकरा स्यात, प्रतिकर्मव्यवस्था न भवेत् / न ह्यालोकमात्रेणामिश्रितघटाऽऽदिरूपेण तद्रूपप्रकाशनं युक्त, कथं तर्हि चक्षुरादिना घटादिरुपलभ्यत इति व्यवस्था ? बाह्यार्थवादि-परिकल्पिते परोक्ष रूपाऽऽदितदाकारा प्रकाशता चक्षुरादिना जन्यत इति तथा व्यपदेशः संभवी; प्रकाशिता चापोद्धारपरि-कल्पनयाऽनादिवासनानियमाद् भिन्ना व्यपदिश्यत इति न किशिदयुक्तम् / यद्वापूर्वसमग्रीतश्चक्षुरादिरूपाऽऽद्याकारप्र
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________________ णाण 1962 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण काशताबुद्धिस्वभावोपजायत इत्येकसामग्यधीनया तया व्यप- देशः / दृश्यते हि प्रदीपप्रकाशयोः समानकालयोः प्रदीपनघटप्रकाशन इत्ये कसामन्यधीनया व्यपदेशः / न ह्येककालयोरपि प्रकाश्य - प्रकाशकयोः कार्यकारणभावमुपपद्यते / ननु यदि साकारं विज्ञानमभ्युपगम्यते, तदा चक्षुरादिकोऽर्थः प्रतिक्षिप्त एव, चक्षुराद्याकारस्य संवेदनमात्रस्यैवोपलब्धेन तदाकाराऽर्थव्यवस्था स्यात् / यतो न बाह्यार्थः, तदाकारं च विज्ञानद्वयमुफ्लम्भविषयः, तत्त्वे चाज्ञानमेव, तत्रापि साकारं तत्राप्यर्थस्य पुनरुपलब्ध्याऽभ्युपगमे ज्ञानाऽऽकारेऽनुभव इति न कदाचित्स्वरूपेणोपलब्धिर्भवेदिति नार्थव्यवस्था। असदेतत्। कार्यव्यतिरेकेण बाह्यार्थपरिकल्पनाऽपित्त्या वा परेषामभिगतेति तदभ्युपगमादर्थस्यायमाकारं प्रकाशकमनुप्रविष्ट इत्यभिधानार्थोक्तदोषानुपपत्तेः / अथवा-विज्ञानवादेऽसिद्धिप्रेरणं सिद्धसाधनदोषाऽऽवहमिति साकारमेव ज्ञानं प्रमाणमभ्युपपन्नाः सौत्रान्तिकयोगाचाराः। अत्र प्रतिविधीयते-निराकारं विज्ञानमर्थग्राहकमिति न प्रत्यक्षतः प्रतीयते, शरीरस्तम्भाऽऽदिव्यतिरेकेण उपलम्भस्यासत्त्वादिति / तस्यासत्त्वादित्यत्र हेतुरसिद्धः, अहङ्कारस्य सुखाऽऽदेनिविशेषस्यान्तःस्वसंवेदनप्रत्यक्षानुभूयमानस्य सत्त्वात् / न च स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धस्याप्यसत्त्वम्, स्तम्भाऽऽद्याकारस्यापि ज्ञानस्यासत्त्वप्रसक्तेः / न हि तथाप्रतिभासव्यतिरेकेणापरमत्रापि सत्त्वनबन्धनम् / न चाहमिति प्रत्ययोऽन्तःस्पृष्टशरीराऽऽद्यालम्बनः; शरीरस्य सप्रतिधत्वेन, अपरप्रत्यक्षविषयत्वेन वाऽज्ञानरूपतया सुख्यहप्रत्ययविषयत्वानुपपत्तेः ज्ञानस्यवाप्रतिघातसंवेद्यरूपस्यान्तःसुखाऽऽकारस्य सुख्यहप्रत्ययविषयत्वात, अहं कृशः स्थूल इत्यादिशरीराऽऽलम्बनत्वस्याहं प्रत्ययस्यौपचारिकत्वादु पचारनिबन्धनत्वस्य च प्राक् प्रतिपादितत्वात् / तेन निराकारस्य ज्ञानस्य स्वप्नेऽप्यसंवेदनान्न प्रत्यक्षतो बाह्यव्यतिरिक्तं ग्राहकस्वरूपं प्रतिभातीति प्रत्युक्तम् , नीलमह वेद्यीति बाह्मनीलार्थग्राहकस्यान्ताह्यव्यतिरिक्तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतो ज्ञानस्याहमहमिकया प्रतीतेः / न चान्तः सुखाऽऽदयो बहिश्च नीलाऽऽदयः परिस्फुटवपुषः स्वयं विदिताः प्रतिभान्ति, न पुनस्तद्व्यतिरिक्तनिराकारज्ञानस्वरूपमर्थग्राहकमाभाति, सुखाऽऽदेरर्थग्राहकत्वायोगादिति वक्तव्यम् / यतो बाह्यं प्रति सुखाऽऽदीनां नैवास्माभिरपि ग्राहकत्वमभ्युपगम्यते / न हि सुखाऽऽदयो भावनोपनेयजन्मानो बहिरर्थसन्निधिमन्तरेणाऽपि प्रादुर्भवन्तः पदार्थव्यक्तीनां नियमेनोद्द्योतकाः, स्ववपुःपर्यवसितस्वरूपत्वात् तेषां, चक्षुरादिप्रभवास्तु सविदो बहिरर्थमुद्भासयन्त्यः स्पष्टावभासा अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पृथगवसीयन्त इति पदार्थग्राहिण्यस्ता एवाभ्युपगमनीयाः / सुखाऽऽदिवेदिनं तु हदि परिवर्तमानं बाह्याऽर्थसंविद पृथगेव, न तद् बाह्यार्थग्राहकतयाऽभ्युपगमविषयः / तदेवं ग्राह्याव्यतिरेकेण निराकारज्ञानस्य संवेदनाध्यक्षसिद्धत्वादनुमानमपि तत्सत्त्वप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तत एव विप्रतिपत्तिसद्भावे। यच्चापित्त्यप्रामाण्यान्नाऽतस्तत्प्रतिपत्तिरिति / तत्सिद्धसाधनमेव / यदपि निराकारा मया बुद्धिः प्रतीयत इति बुद्धेरप्यपरा बुद्धिाहिकेत्याद्युक्तम् / तदप्य-सङ्गतमेव, यतः स्वपरार्थग्राहक बुद्धः स्वरूप, तेन च रूपेण स्व-संविदि प्रतिभासमाना कथं शशशृङ्गाऽऽदिवदव्यवस्थितरूपा भवे-त् ? यदपि तदव्यतिरिक्ततया प्रतीयमाना न विकल्पेनाप्यपोद्धर्तु शक्या इति / तदप्यसङ्गतम् / ग्राह्मस्वरूपवक्तव्यतया स्वरूपेण तत्प्रतिभासनस्य प्रतिपादितत्वात् / यदपि प्रकाशतारहित नीलाऽऽदिकं नोपलभ्यते, तथोपलम्भे सर्व सर्वदा भवेदिति तत्राऽपि यदि ज्ञान विना नीलाऽऽदिकं नोपलभ्यते इत्युच्यते, तदा सिद्धसाध्यता, तदन्तरेण तदुपलम्भस्यानिष्टेः / अथ नीलमेव प्रकाशरूपमिति प्रतिपाद्यते / तदयुक्तम् / नीलस्य जड़तया प्रकाशरूपत्वानुपपत्तेः परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया जडाजड़योरेकत्वयोगात्। यदपि नीलस्य प्रकाश इति व्यतिरेकः शिलापुत्रस्य शरीरमित्यादावभेदेऽपि संभवीति / तदपि न सम्यक् / दृष्टान्ते हि प्रत्यक्षावगतो भेदप्रतिभासः स्यात् वाक्ये न तु दार्शन्तिके प्रत्यक्षारूढे तदेव प्रतिभासः समस्ति। तथाहि-ग्राह्यरूपस्तभाऽऽद्यनन्यव्यावृत्तत्वेन ग्राह्यतयाऽध्यक्षे प्रतिभाति प्रकाशितुं, स्तम्भाऽऽदिकर्मणि व्यावृतत्वेन ग्राहकतया प्रतिभाति। तेन स्तम्भतत्संवेदनयोरभेदावभासोऽध्यक्षाऽऽरूढोऽवभाति। न केवलं ग्राह्याऽऽकारोऽन्यव्यावृत्तत्वेन ग्राह्यतयाऽध्यक्ष प्रतिभाति प्रकाशित, स्तम्भाऽऽदिकर्मणि व्यावृत्तेन ग्राहकतया प्रतीतेन स्तम्भः प्रतिभाति, किं त्वालादाऽऽदिस्वभावतयाऽहङ्काराऽऽस्पदश्च प्रतिभासनिश्चयाभ्यामवसीयते, तद्ग्राह्यस्तु तद्विपरीतत्वेन / न चाध्यक्षसिद्धभेदयोर्नीलतत्संवेदनयोः कुतश्चित् प्रमाणाऽऽदिकताऽवसातुं शक्येति न भेदप्रतिभासस्य बाधा। न च नीलाऽऽदिरेव ज्ञानरूपः, अहं नीलाऽऽदिरित्यनवगमात् / तेन नीलाऽऽद्याकारैव प्रकाशिता, सा च बुद्धिरिति साकारता ज्ञानस्येति यदुक्तं, तदपि निरस्तं द्रष्टव्यम्। यदपि प्रकाशतामात्रेणार्थस्य सिद्धत्वाद् व्यर्थ तदपरबुद्धिपरिकल्पनम्, तदपि सिद्धमेव साधितम् : अर्थप्रकाशताया अर्थव्यतिरिक्ताया बुद्धित्वेन तदपरिकल्पनाया असिद्धत्वात्। यदपि नायमाकारं नीलाऽऽद्या-कारप्रकाशिताव्यतिरेकेणोपलभ्यत इति कस्यार्थे प्रत्यासन्नता परैः परिकल्प्यते, तदपि नीलाऽऽद्यर्थग्रहणपरिणते ज्ञानस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतः सिद्धरयुक्ततया स्थितम्। प्रकाशता तु यदि निराकारा भवेत्, प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यादिति यदुक्तं, तदप्यसङ्गत्तमेव / यतः प्रकाशता किं नीलाऽऽकारा? आहोस्विद् गाहाऽऽकाराऽभ्युपगम्यते ? यदि प्रथमो विकल्पस्तदा वक्तव्यम्-किमेकदेशेन नीलाऽऽद्याकारा प्रकाशता ? आहोस्वित् सर्याऽऽत्मनेति ? तत्र यो कदेशेन नीलाऽऽधाकारा प्रकाशता, तदा स्वांशैकप्रकाशताप्रसक्ते रित्यनेकान्तसिद्धिः / अथ सर्वाऽऽत्मना, तदा प्रकाशताया जडरूपनीलाऽऽदिस्वभावत्वाद्विज्ञप्तिरूपताऽभावप्रसक्तिः, जड-स्य प्रकाशरूपताऽयोगादग्राह्याकारित्वमपीतरेतराश्रयत्वम्। न हि देवदत्तस्य प्रतिनियताऽऽकारतासिद्धौ यज्ञदत्तस्य तदाकारतासिद्धिदृष्टा / न च प्रकाशता साकारतासिद्धिमन्तरेणापि ग्राह्यस्य प्रतिनियतरूपसिद्धिनिराकारा, ज्ञानस्य प्रतिकर्मव्यवस्थाहेतुत्वप्रसक्तेः / न च यद् यदाकारं तत्तस्य ग्राहकमिति व्याप्तिसिद्धिः, अन्यथोत्तरनीलक्षणपूर्वनीलक्षणस्य ग्राहकः स्यात्। न च तस्याज्ञानरूपत्वाद्नायं दोषः, देवदत्तनीलज्ञानस्य यज्ञदत्तनीलज्ञानग्राहकताप्रसक्तेः। न च तयोः कार्यकारणभावाभावान्नाय दोषः, सदृशसमनन्तरज्ञानं प्रति उत्तरज्ञानक्षणस्य ग्राहकताप्रसक्तेः। अथ तत्र तादृगविधसारूप्याभावाद् नायं दोषः / ननु तथाविधं यदि कश्चित् सारूप्यमभिधीयते, तदाऽनेकान्तवादाऽऽपत्तिः / अथ सर्वात्मना सारूप्यं, तदोत्तरक्षणस्यापि पूर्वक्षणरूपताप्रसक्तिरित्येकक्षण
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________________ णाण 1963 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णाण मात्र सर्वः सन्तानो भवेत् / न च पूर्वोत्तरक्षणयोः परपक्षे भिन्नमभिन्नं वैकान्ततः सारूप्यं संभवति, भेदपक्षे सामान्यवादप्रसक्तेः, अभेदपक्षे तु तदभावप्रसक्तेः।नच परपक्षे सारूप्यग्रहणोपायः संभवतीत्युक्तम्। किश्चयदि नीलाऽऽकारं ज्ञानमनुभूयत इति बाह्योऽप्यों नीलतया व्यवस्थाप्यते, तर्हि त्रैलोक्यगतनीलार्थव्यवस्थितिस्ततो भवेत् . सर्वनीलार्थसाधारणत्वात् तस्य / अथ नीलाऽऽकारताविशेषेऽपि कश्चित्प्रतिनियमहेतुस्तत्र विद्यते, यतः पुरोवर्तिन एव नीलाऽऽदेस्ततो व्यवस्था, तहनाकारत्वेऽपि ज्ञानस्य तत एव नियमहे तो: प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं भविष्यतीति तत्साकारपरिकल्पनं व्यर्थम्। यदपि चक्षुरादिना रूपमुपलभ्यत इति व्यपदेशनिबन्धनं जन्यत्वं / रूपाऽऽकारप्रकाशस्योक्तम् , तदपि स्वजाड्याऽऽविष्करणमात्रम्। यतो यथा प्रत्यासत्या चक्षुरादिकं समानकालं भिन्नकाल या भिन्न रूपाऽऽद्याकारं ज्ञानं भवति, तयैव निराकारमपि ज्ञानं समानकालं भिन्नकालं वा स्वग्राह्यं भिन्नमपि ग्रहीष्यति / न हि चक्षुरादेर्विभिन्नकार्योत्पादनव विभिन्नग्राह्यग्रहणे शक्तिप्रक्षयः कश्चिद् ज्ञानस्य संभवी। अथ विभिन्नकार्योत्पादनमप्यसंभवी नाऽभ्युपगम्यते, तर्हि ' प्रमाणमविसंवादि ' इति प्रमाणलक्षणप्रणयनमनर्थकं धर्मकीर्तेराप्यते, अविसंवादित्वस्याऽर्थक्रियाज्ञानजनकत्वलक्षणस्याऽभावात् / अथ व्यावहारिकमेतद् लक्षणं न पारमार्थिकम् ,किं तर्हि पारमार्थिकमिति वक्तव्यम् ? ..........., अज्ञातार्थप्रकाशो वेति चेत्, तत्रापि यद्यज्ञातस्याऽर्थस्य प्रकाशः स्वसंविदितोऽर्थग्रहणपरिणाम आत्मसंबन्धी, तदाऽऽस्मन्मताभ्युपगम इति न कश्चिद्दोषः / अथ "स्वरूपस्य स्वतो गतिः' इति वचनादज्ञातार्थप्रकाशः स्वरूपसंवेदनमात्र, तदाऽध्यक्षबाधदोषः, स्वपरसंवेदकत्वेन ज्ञानस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतः प्रतिपत्तेरिति प्रतिपादकत्वात् , प्रतिपादितत्वात् , प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च / एतेन एकसामग्यधीनतया चक्षुरादिना रूपमुपलभ्यत इति व्यपदेश इत्येतदपि निरस्तम्। भिन्नानामेकसामग्यधीनत्वलक्षणप्रतिबन्धाविरोधे ग्राह्यग्राहकलक्षणस्यापि तस्याविरोधात्। यथा चैकसामग्यधीनानां चक्षुरादीनां समानसमयेऽपि स्वरूपप्रतिनियमः, तथा ग्राह्यग्राहकयोरपि समानकालत्वाविशेषेऽपि विज्ञानग्राहकमेव, अर्थस्तु ग्राह्य एवेति प्रतिनियमो भविष्यति। अथ एकसामग्यधीनत्वं रूपप्रतिनियमश्चक्षुरादेर्नेष्यते, तर्हि प्रमा-णाऽऽदिव्यवहारस्य सकलस्य विलोपात्साकारज्ञानाऽभ्युपगमोइसङ्गत एव स्यात्। यदपि कार्यव्यतिरेकेण बाह्यार्थकल्पताऽर्थापत्त्या च परेषामिति तदभ्युपगमेनोच्यते-अर्थस्यायमाकारः प्रकाशतामनुप्रविष्ट इत्युक्तम्, तदपि परदर्शनानभिज्ञता ख्यापयति। न हि जैनानां कार्यव्यतिरेकादर्थापत्त्या वाऽर्थपरिकल्पना, किं तु तद्ग्राहिप्रतिभासवशात्। साकारज्ञानवादिनस्तु-यदि ज्ञानाऽऽकारोऽर्थव्यतिरेकेण नोपपद्यत इत्यर्थव्यवस्थापकः, तदा नियतार्थव्यवस्थापकः स्यात्। जनकस्यैव L व्यवस्थापक इति चेत् / न / चक्षुरादेरपि व्यवस्थापकः स्यात् / / तजनकत्वेऽपि चक्षुरादेरनाकारत्वान्नेति चेत् , ननु चक्षुरादिजन्य॑त्वेऽपि किमिति तज्ज्ञानं तदाकारं न भवति चक्षुरादिवा साकारज्ञानजनकमिति वक्तव्यम् ? स्वहेतुबलाऽऽयाततत्स्वभावत्वात् तयोरिति चेत् / ननु निराकारज्ञानपक्षेऽपि तत्स्वाभाव्याद् ज्ञानमेव चक्षुरादिव्यतिरेकेण स्वजनकार्थव्यवस्थापकमिति किन्नाभ्युपगम्यते ? न्यायस्य समान- | त्वात् / किञ्चग्राहकस्यार्थजन्यत्वेन साकारता, सा च प्रतिभासगोचरा, एवं च ग्राहके आकारस्य जनकस्यैव प्रतिभासविषयत्वेऽन्यस्य तजनकस्य कल्पनाप्रसक्तिस्तत्राप्येवमित्यनवस्था भवेत् / तत्र साकारज्ञानानुभववशादर्थव्यवस्थाप्रकाशताऽनुप्रविष्टताऽर्थाssकारस्यायुक्तैव, वस्त्वन्तरानुप्रवेशासंभवात्। संभवे या प्रकाशताया अपि चैतन्यरूपतायाः पृथिव्याद्यनुप्रवेशात् परलोकाय दत्तो जलाञ्जलिभवत् / यदप्यर्थवादिन एवाऽयं दोषो, ज्ञानवादेतु सिद्धसाध्यतेति, तदपि न्यायबहिष्कृतम्। प्रमाणसिद्धस्याप्यर्थस्याभावो यदि न दोषाय भवेत्, ज्ञानाभावोऽपिन दोषाय स्यात् / न च शून्यताऽभ्युपगमात् तदभावोऽपि न दोषाऽऽयह इति वक्तव्यम्, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावाद् न तेन साकारज्ञानप्रमाणवादोऽभ्युपगमार्हः, अनेकदोष-दुष्टत्वादिति स्थितम् / सम्म०२काण्ड। (17) जैमिनीयाऽभिमतस्य तु ज्ञातृव्यापारस्य फलानुमेयस्य यथा प्रमाणता न संभवति, तथा स्वतः प्रामाण्यं निराकुर्वद्भिः प्रदर्शितमिति न पुनः प्रतन्यते। यदप्यनधिगतार्थाधिगन्तृत्व ज्ञातृव्यापारविशेषणत्वेन प्रतिपादितम् , तदप्यसङ्गतमेव! यतः प्रमाणं वस्तुव्यधिगतेऽनधिगतेवा व्यभिचाराऽऽदिविशिष्टां प्रमा जनयन्नोपालम्भविषयः / न चाऽधिगते वस्तुनि किश्चित्तत्प्रमाणतामाप्नोतीति वक्तव्यम् , विशिष्टतां विदधानस्य प्रमाणताप्रतिपादनात्। न च पूर्वोऽसन्नेव प्रमाणेनजन्यते, प्रमित्यन्तरोत्पादकत्वेन प्रमाणत्वात् / न च प्रमित्यन्तरजनकत्वेऽधिगते विषये तस्याकिश्चित्करत्वेनोपलम्भविषयताऽनुपपत्तिः / न च एकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वे प्रामाण्यं तस्यावसातुं शक्यम्, तद् व्यर्थ तथभावित्वलक्षणं संवादादवसीयते, स च तदर्थात्तरज्ञानवृत्तिः / न चानधिगतार्थाधिगन्तुरेव प्रामाण्ये संवादप्रत्ययस्य प्रामाण्यमुपपन्नम्। नच प्रमाणेन संवादप्रत्ययेन प्राक्तनस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयितुं शक्यम्, अतिप्रसङ्गात् / अतो यथाऽधिगतार्थाधिगन्तुरर्थक्रियानि सिनः सिद्धं ज्ञानस्य प्रामाण्यं, तथा साधननिर्भासिनोऽप्यभ्युपगन्तव्यम् / न च सामान्यविशेषतादात्म्यवादिन एकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वं प्रमाणस्य संभवति, इदानीन्तनास्तित्वस्य पूर्वास्तित्वाभेदात, तस्य च पूर्वमप्यधिगतत्वसंभवात् कथञ्चिदनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभ्युपगमेऽस्मन्मतानुप्रवेशप्रसक्तिः / अथाप्रेक्षापूर्वकारितया प्रमाणस्याऽनुपालम्भविषयत्वेऽपि पुरुषस्य प्रेक्षापूर्वकारिणोऽभिगतविषयमपि प्रमाणं पर्येषमाणस्योपालम्भविषयता। स हि पूर्वाधिगते वस्तुनि प्रेक्षापूर्वकारी किमित्यधिगमाय प्रमाणान्तरमन्देषते ? निष्पन्नप्रयोजनापेक्षया हेतुव्यापारतः प्रेक्षापूर्वकारिताहानिप्रसक्तेः / नैतादिदम् / यतो यदर्थ प्रमाणोत्पत्त्यतिशयजनकत्वेन सप्रयोजनत्वात् प्रमाणान्वेषणस्य न तदन्येष्टुः पुरुषस्योपालम्भार्हता। न च निश्चिते विषये न किञ्चिन्निश्चयान्तरण प्रयोजनम् , यतस्तदर्थ प्रमाणान्वेषणं न वैयर्थ्यमनुभवेत् / यतो भूय उपलभ्यमाने दृढतरा प्रतिपत्तिर्भवतीति सुखसाधनं तथैव निश्चित्योपादत्ते, दुःखसाधनं च तथात्वेन सुनिश्चितं परित्यजेत् / अन्यथा विपर्ययेणाप्युपादानत्यागौ भवेताम्। अत एवैकविषयाणामपि शब्दाऽनुमानाध्यक्षाणां प्रामाण्यमुपपन्नम्, प्रतिपत्तिविशेषस्य, प्रीत्यतिशयादेश्च सद्भावात् / न च प्रथमप्रत्यये नैवाऽर्थ - क्रियासमर्थप्रदर्शने प्रवर्तितः पुरुषः, प्रापितश्चार्थ इति तज्ज्ञापक
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________________ णाण 1964 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण प्रमाणान्वेषणं वैयर्थ्यमनुभवेत् : भूयो भूय उपलभ्यमाने दृढतरा प्रतिपत्तिर्भवतीति सुखसाधनं तथैव निश्चित्योपादत्ते, दुःखसाधनं च तथात्वेन सुनिश्चित परित्यजेत्, अन्यथा विपर्यवेणाप्युपादा-नत्यागी भवेताम्। अत एवैकविषयाणामपि पुरुषप्रवृत्तेः प्रमाणा-धीनत्वाभावाद् विशिष्टप्रमाया एव प्रमाणाधीनत्वात् , तां च जन-यत उपेक्षणीयाऽऽदौ विषये प्रमाणस्याप्रवर्तकस्यापि प्रमाणत्वेन लोके प्रसिद्धत्वात् , प्रवृत्तेस्तु पुरुषेच्छानिबन्धनत्वात् तदभावेनोक्तफलजनकस्य प्रमाणत्वव्याघातः। न च पुरुषार्थसाधनप्रवर्तकत्वमेव तस्य प्रवर्तकत्वं, तत् सद्भावेऽपि प्रवर्तितोऽहमत्र नात्रेति तद्ग्रहणे भावेच्छाप्रतिपत्त्यनुपपत्तेः / न च प्रवृत्त्यभावे तस्य प्रदर्शकत्वान्न तत्प्रदर्शकमिति लोकप्रतीतिः / तन्नानधिगतार्थाधिगन्तृत्वमपि ज्ञातृव्यापारविशेषणमुपपत्तिमत्।। अतोऽनधिगतार्थाधिगन्तृज्ञातृव्यापारोऽर्थप्रकटताऽऽख्यफलानुमेयो जैमिनीयपरिकल्पितो न प्रमाणमिति स्थितम् / (18) सौगतैस्तु 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्' इति वचनादविसंवादकत्वं प्रमाणलक्षणमुक्तम् / अविसंवादकत्वं च प्राप्तिनिमित्तं प्रवृत्तिहेतुभूतार्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शकत्वम् / यतोऽर्थक्रियाऽर्थी पुरुषस्तन्निर्वर्तनक्षममर्थमवाप्तुकामः प्रमाणमप्रमाणं वाऽन्वेषते / यदेव चार्थक्रियानिर्वर्तकवस्तुप्रदर्शकं तदेव तेनान्विष्यते। प्रत्यक्षानुमाने एव च तथाभूतार्थप्रदर्शक, न ज्ञानान्तरमिति / ते च लक्षणार्हे, तयोश्च द्वयोरप्यविसंवादकत्वमस्ति लक्षणम् / प्रत्यक्षेण ह्यर्थक्रियासाधनं दृष्टतयाऽवगतं प्रदर्शितं भवति; अनुमानेन तु दृष्टलिङ्गाव्यभिचारतयाऽध्यवसितमित्यनयोः प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् / न ह्याभ्यां प्रदर्शितऽर्थ प्रवृत्तौ न प्राप्तिरिति नान्यत् प्रदर्शकत्वव्यतिरेकेण प्रापकत्वम् , तच शक्तिरूपम् / उक्त च-'प्रापणशक्तिः प्रामाण्य, तदेव च प्रापकत्वम्। अन्यथा ज्ञानान्तरस्वभावत्वेन व्यवस्थितायाः प्राप्तेः कथं प्रवर्तकज्ञानशक्तिस्वभावता / तत्र यद्यपि प्रत्यक्ष वस्तु क्षणग्राहि, तद्ग्राहकत्वं च तस्य प्रदर्शकत्वं, तथापि क्षणिकत्वेन तस्याप्राप्तेस्तत्सन्तान एव प्राप्यत इति सन्तानाध्यव-सायोऽध्यक्षस्य प्रदर्शकव्यापारो द्रष्टव्यः। अनमानस्य तुवस्त्वग्राहकत्वात्तत्प्रापकत्वं यद्यपि न संभवति, तथाऽपि स्वाकारस्य बाह्यवस्त्वध्यवसायेन पुरुषप्रवृत्तौ निमित्तभावोऽस्तीति तस्य तत्प्रापकमुच्यते / एतदुक्तं भवति-प्रत्यक्षस्य हि क्षणो ग्राह्यः, स च निवृत्तत्वान्न प्राप्तिविषयः, सन्तानस्त्वध्यवसेयः प्रवृत्तिपूर्विकायाः प्राप्तर्विषय इति तद्विषयं प्रदर्शितार्थप्रापकत्वमध्यक्षस्य प्रामाण्यम् / अनुमानेन त्वारोपितं वस्तुगृहीत, स्वाकारोवा, तयोर्द्वयोरप्यवस्तुत्वान्न प्रवृत्तिविषयतेति न तद्विषयं तस्य प्रापकत्वम् / अपि त्वारोपिततबाह्यव्यापारभेदाध्यवसायेन वस्तुन्येव प्रवर्तकत्वप्रापकत्वेऽस्य द्रष्टव्ये / तेनानुमानस्य ग्राह्योऽनर्थः, प्राप्यस्तु बाह्यः स्वाकारो भेदेनाध्यवसित इति तद्विषयमस्यापि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं प्रामाण्यमुक्तम् / तथा परमप्युक्तम्-'न ह्याभ्यामर्थ परिच्छुिद्य प्रवर्तमानोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यते इति। अत्र च प्रत्यक्षानुमानयो-योरपि छेदसन्तानविषयोऽध्यवसायो द्रष्टव्यः। तथा प्रामाण्य वस्तुविषयं द्वयोरिति चोक्तम्। अत्रापि सन्तानविषयित्वेन वस्तु-विषयत्वं द्वयोरित्युक्तम् / लौकि कं | चैतदविसंवादकत्वं प्रामाण्यं, यतो लोके प्रतिज्ञातमर्थ प्रापयन् पुरुषः संवादकः प्रमाणमुच्यते, तद्वदत्रापि द्रष्टव्यम् / न च क्षणिकस्य ज्ञानस्याऽर्थप्राप्तिकालं यावदनवस्थितेः कथं प्राप्यते ? इत्याशङ्कनीयम्, प्रदर्शकत्वव्यतिरेकेण तस्यास्तत्रासंभवादित्युक्तत्वात् / न चान्यस्य ज्ञानान्तरस्य प्राप्तौ सन्निकृष्टत्वात् तदेव प्रापकमित्याशङ्कनीयम् / यतो यद्यप्यनेकरमाद्ज्ञानक्षणात्प्रवृत्तावर्थप्राप्तिः, तथाऽपिपलोच्यमानमर्थप्रदर्शकत्वमेव ज्ञानस्य प्रापकत्वम्, नान्यत् / तच प्रथमज्ञान-क्षण एव संपन्नमिति नोत्तरोत्तरज्ञानक्षणानां तदुपयोगि, प्राप्यमाणं च वस्तु नियतदेशकालाऽऽकारं प्राप्यत इति तथाभूतवस्तुप्रदर्शकयोरेव प्रामाण्यं, न ज्ञानान्तरस्य / तेन प्रदर्शितप्रापकत्वलक्षणे प्रामाण्ये पीतसंवादिग्राहिज्ञानानामपि प्रापकत्वात् प्रामाण्यप्रसक्तिर्न भवेत् ; तर्हि तानि प्रदर्शितमर्थ प्रापयन्ति; यद्देशकालाऽऽकार वस्तु तैः प्रदर्शितं न तत्तथा प्रापयति, यथा प्राप्यते न तैस्तथा प्रदर्शितम् / देशाऽऽदिभेदेन वस्तुभेदस्य निश्चितत्वान्न तेषां प्रदर्शितार्थप्रापकता / एवमपि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वे जलाऽऽदिप्रदर्शकस्य मरीच्यादिवस्त्वन्तरप्राप्तौ प्रदर्शितप्रापकत्वेन प्रामाण्य-प्रसक्तिरिति न किञ्चिदप्रमाणं भवेत् / प्रमाणद्वयातिरिक्तं च ज्ञानं नियतप्रदर्शितार्थप्रापकम् / तेन हि भावाभावसाधारणोऽनियतोऽर्थः प्रदर्शितः। स च तथाभूतोऽसत्त्वात् न प्राप्तुं शक्य इति / न च तत्प्रदर्शितार्थप्रापकत्वेन प्रमाणम् / अनियतार्थप्रदर्शकत्वं च शब्दाऽऽदेः साक्षात्, पारम्पर्येण वा प्रतिपाद्याददिनुत्पत्तेः / तत् स्थितं प्रापणशक्तिस्वभावमविसंवादकत्वं प्रामाण्यं द्वयोरेवा प्रापणशक्तिश्च प्रमाणस्यार्थाविनाभावनिमित्ता दर्शनपृष्ठभाविना विकल्पेन निश्चीयते / तथाहि-दर्शनं यतोऽर्थादुत्पन्नं तद्दर्शकमात्मानं स्वानुरूपावसायोत्पादनाद् निश्चिततदर्थाविनाभावित्वं प्रमाणशक्तिनिमित्तं प्रामाण्यं स्वतो निश्चिनोतीत्युच्यते, नपुनर्ज्ञानान्तरं तन्निश्चायकमपेक्ष्यते / अर्थानुभूताविव ततोऽविसंवादकत्वमेव प्रमाणलक्षणमुक्तम्। एतदप्ययुक्तम् / यतो नार्थप्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वं, पुरुषेच्छाऽधीनप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् / सति वस्तुन्यर्थप्रापकत्वं पुरुषेच्छाऽऽप्तेः / एतच्च प्राक् प्रतिपादितम्। उपेक्षणीये च विषये पुरुषस्यतद्विषयार्थित्वाऽऽद्यभावे प्राप्तिपरित्यागयोरभावेऽपि तत्प्रदर्शकत्वलक्षणस्य प्रामाण्ये न कश्चिद् व्याघात उपलभ्यते / अथेष्टानिष्टसाधनार्थव्यतिरेकेणोपेक्षणीयस्याऽर्थान्तरस्याभावाद् न तत्प्रदर्शकं किश्चिद् ज्ञानं समस्तीति कथं प्रापकत्वाभावेऽपि प्रदर्शकत्वस्य संभवने दोषाऽऽपादनं क्रियते। तथा च तृतीयविषयाभावमवगत्यैवोक्तम्-अर्थानर्थविवेचनस्यानुमानायत्तत्वात्। तथा-हिताहितप्राप्तिपरिहारयोरिति च, तृतीयाविषयाभावश्च सर्वस्य वस्तुनो राशिद्वयेन भावात् / तथाहि-तृतीयं वस्तु नेष्टसाधनम् , उपेक्षणीयत्वात् / यच तत्साधनं न भवति तस्याऽनिष्टसाधनराशावन्तर्भावः। एतचाऽयुक्तम् / स्वसंविदितवस्त्वपह्नवस्य युक्तिशतेनापि कर्तुमशक्यत्वात् / तथाहि-यद्वा तद् वस्त्विष्टसाधनं न भवति, तथाऽनिष्टसाधनमपि न भवति, इष्टानिष्टसाधनयोर्यत्नोपादेयत्वहेयत्वदर्शनात् / उपेक्षणीयस्य चायनसाध्योपादानत्यागविषयत्वात् कथमिष्टानिष्टसाधनयोरन्तर्भावः ? तत्र प्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वं, बौद्धाभ्युपगमे न प्रदशितार्थप्रापकत्वं क्वचिदपि ज्ञाने संभवति / तद्धि संतानाऽऽश्रयेण सौगतैः परिकल्प्यते, न च संतानः संभवति। स हि स्वरूपेण वा वस्तु सन् भवेत् , सन्तानिरूपेण वा ? नतावत्स्वरूपेण, सन्तानिव्यतिरेकेण तस्य वस्तुनोऽसतोऽनभ्युपगमात् / अभ्युपगमे वा क्षणिकवादहानिप्रसक्तिः, सामा
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________________ णाण 1965 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण न्यानभ्युपगमश्च निर्निबन्धनो भवेत् / इति न तस्य स्वरूपेण प्रवृत्यादिविषयता, सन्तानरूपेणाऽपि तस्य सत्त्वे सन्तानिन एव तथाभूतानव्यतिरिक्तः सन्तानः प्रवृत्यादिविषयः, सन्तानिनां चोल्पत्यनन्तरध्वंसित्वाद्न तद्विषयस्य विज्ञानस्य प्रदर्शितार्थप्रापक-स्वम्, दृश्यप्राप्ययोः क्षणयोरत्यन्तभेदात् / यत्र हि देशकालभेदेन प्रतीयमानस्याऽपि वस्तुनो भेदोऽभ्युपगभ्यते, तत्र स्वरूपेण भिन्नयोः पूर्वोत्तरक्षणयोः कथमभेदः ? येन प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं साधननिर्भासिज्ञानस्य युक्तिसंगतं भवेत् / अथ संवृत्या सन्तानस्य स्वरूपसिद्धिः पूर्वोक्तमदूषणतया च प्रतिपादितम् / सांव्यवहारिकस्य च प्रमाणस्यैतल्लक्षणम्, न त्वेवं लोकव्यवहारानुरोधेन यदि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं साधननिर्भासिज्ञानस्य युक्तिसङ्गतं भवेत्। अथ संवृत्या प्रमाणस्याऽभ्युपगम्यते, तदा नित्यानित्यवस्तुप्रदर्शकस्य तदभ्युपगम्यताम् , लोकव्यवहारस्य तत्रैवोपपत्तेः / न च तथाभूत-सद्ग्राहकस्य युक्तिवाधितत्वाद् निर्विषयम् , सन्तानविषयस्यैव पूर्वोक्तन्यायेन युक्तिबाधितत्वोपपत्तेः / तन्नाध्यासितार्थप्रापकं प्रत्यक्ष पराभ्युपगमेन संभवति / तथाहि-यदेवाध्यक्षेणोपलब्धं तदेव तेनाध्यवसितम् / न च सन्तानस्तेन पूर्वमुपलब्ध इति कथमसावध्यवसीयते ? न हि क्षणमात्रभाविना सन्तानिनां दर्शनविषयत्वे तत्पृष्ठभाविनाऽध्यवसायेः दृष्टस्यैव विषयीकरणम्। न चाऽन्यथा-भूतस्य वस्तुग्रहणेऽन्यथाभूताऽध्यवसायिनः प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं प्रामाण्यं युक्तम्, तथाऽभ्युपगमे शुक्तिकायां रजताध्यवसायिनोऽपि तत् स्यात्। अथाऽत्र प्रवृत्ते रजतं न प्राप्यत इति न प्रदर्शितार्थप्रा-पकत्वं, तर्हि सन्तानेऽध्यवसितेक्षणः प्राप्यत इति प्रकृतेऽपि न प्रदर्शितार्थप्रापकत्वम्। अथाऽत्र सन्तान एव प्राप्यते, तर्हि स एव वस्तु सन् भवेदितिन सामान्यधर्माः स्वरूपेणासन्तोऽभ्युपगन्तव्याः, अक्षणिकस्य च वस्तुनः सिद्धेः / यदुक्तं भवदभिःदर्शनेन क्षणिकाक्षणिकत्वसाधारणस्यार्थस्य विषयीकरणात् कुतश्चिद्भमनिमित्तादक्षिवत्त्वारोपेऽपि नदर्शनमक्षणिकत्वे प्रमाणम् , किं तु प्रत्यक्षाप्रमाणम् , विपरीताध्यवसायाऽऽकान्तत्वात्। क्षणिकत्वे-ऽपि न तत्प्रमाणम्, अनुरूपाध्यवसायाजननात्। नीलरूपे तु तथाविधनिश्चयकरणात् प्रमाणमिति हि विरुध्यते / किञ्च-एवंवा-दिन एकस्यैव दर्शनस्य क्षणिकत्वाक्षणिकत्वयोरप्रामाण्यम्, नीलाऽऽदौ तु प्रामाण्यं प्रसक्तमित्यनेकान्तवादाभ्युपगमो बलादापतति। न क्षणग्रहणे तद्विपरीतसन्तानाध्यवसायोत्पत्तौ दर्शनस्य प्रामाण्यं युक्तम्, मरीचिका स्वलक्षणग्रहणे जलाध्यवसायिन इव। यतो यदेव मायात्वतो दृष्ट, तदेव प्राप्तमित्यध्यवसाये तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यते / न च दृष्टस्य क्षणिकसन्तानिस्वरूपेण सन्तानस्य प्राप्तिरिति प्राक् प्रतिपादितम्, स्वरूपेण तु तस्यासत्त्वात् प्राप्त्यविषयतैवेतिन धर्मोत्तरमतपयलोचनया किञ्चित् परमार्थतः प्रदर्शितार्थप्रापकं प्रमाण संभवति; अतः संवादकत्वमपि तन्मतेन प्रमाणलक्षणमयुक्तम्। (16) नैयायिकास्तु-"अव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टार्थो - पलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणम्" इति प्रमाणसामान्यलक्षणं प्रतिपन्नाः, तजनकत्वमेव प्रामाण्यमिति च / अथ सामग्रया प्रमाणत्वे साधकतमत्वमनुपपन्नम्। सामग्री ह्यनेककारकस्वभावा, तत्र चानेकसमुदाय कस्य | स्वरूपेणातिशयो वक्तुं शक्यते ? तथाहि-सर्वस्मात् कारणकलापात् कार्यमुपजायमानमुपलभ्यते / तदन्यतमापायेऽप्यनुपजायमानं कस्य कार्योत्पादने साधकतमत्वमावेदयतु ? न च समस्तसामग्याः साधकतमत्वम्, अपरस्यासाधकतमस्याभावे तदपेक्षया साधकतमत्वस्यानुपपत्तेः, असाधकतममपेक्ष्य साधकतमत्वव्यवस्थितेः / न चानेककारकजन्यत्वेऽपि कार्यस्य 'विवक्षातः कारकाणि भवन्ति'' इति न्यायात साधकतमत्वं विवक्षितमिति वक्तव्यम्, पुरुषेच्छानिबन्धनत्वेन वस्तुव्यवस्थितेरयोगात्। अथ कर्मकर्तृविलक्षणस्याऽव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टोपलब्धिजनकस्य प्रमाणत्वान्न यथोक्तदोषानुषङ्गः / असदेतत्। अनेकसन्निधानात् कार्यस्य स्वरूपालाभे एकस्य तदुत्पत्ती वैलक्षण्याभावे साधकतमत्वानुपपत्तेः / तत्र कर्मकर्तृवैलक्षण्यमपि साधकतमत्वम् / अत्र चाऽनेकपक्षानुभाय्योद्योतकरोत्तराध्ययनकारप्रभृतिभिः साधकतमत्वं निरस्तम् ते च पक्षा ग्रन्थगौरवभयाद्नेह प्रदर्श्यन्ते। सन्निपत्य जनकत्वे पूर्वोदितदोषाभावः। तथाहि अनेकस्मिन् सन्निधौ कार्यनिष्पत्तेः साधकतमत्वानुपपत्तिः, तस्मिस्तु सति यदा नियमेन कार्यमुपजायते तदा कथं न तस्य साधकतमत्वोपपत्तिः ? असदेतत् / एवं प्रमाणत्वस्याव्यवस्थितिप्रसक्तेः / तथाहि-दीपाऽऽप्रकाशस्य सामग्येकदेशस्य कस्याश्चिदवस्थायां प्रमाणितऽभिमतस्य सद्भावेऽपि प्रमेयाभावात् कार्यानिष्पत्तौ तत्सद्भावे तु तन्निष्पत्ती तस्यापि प्रदीपवदसन्निपत्त्यकारकत्वात् प्रमाणताप्रसक्तिर्भवत् / तथा प्रमातुरपि मूर्जाऽऽद्यवस्थायाम् , अनवधाने वाऽन्यकारकसन्नि-धानेऽपि कार्यानुपपत्तौ तदवधानाऽऽदिसन्निधाने तज्जन्यकार्यनि-पत्तेः / सन्निपत्य जनकत्वेन साधकतमत्वप्रसक्तिः / अत्र कारक-साकल्यस्य साधकतमत्वेनाऽभ्युपगमात् पूर्वोक्तदोषाभाव केचिन् मन्यन्ते।तथाहिनैकस्य प्रदीपाऽऽदेः सामग्यैकदेशस्य करणता, अपि तु कारकसाकल्यस्य, तदभावे कारकसाकल्यानभिमतकार्यासत्त्वमिति प्रमातृप्रमेयसदभावे कारकसाकल्यस्तोत्पत्तौ प्रमितिलक्षणस्य कार्यस्य भाव एव। अथ मुख्यप्रमातृप्रमेयसद्भावेऽपि पूर्वोदितस्य नियमस्य तुल्यता, न कारकसाकल्पभावाभावनिमित्तत्वात् तन्मुख्या गौणभावस्य / तथाहि-कथञ्चित् कारकवैकल्ये तयोः सत्त्वेऽपि गौणता। तत्साकल्ये कुतश्विन्निमित्तान्तराद् यथोक्त प्रमितिलक्षणकार्यनिष्पत्तावगौणता प्रमातृप्रमेययोः, तयोश्चानुपपत्तौ साकल्यस्यासत्त्वम्, अतः कारकसाकल्ये कार्यस्यावश्यंभाव इति तस्यैव साधकतमत्त्वम्। अनेककारकसन्निधाने उपजायमानोऽतिशयः सन्निपत्य जननं साधकतमत्वं यधुच्येत, तदान कश्चिद्दोषः। तथाहि-सामग्येकदेशकारकसहभावेऽपि प्रमि-तिकार्यस्याऽनुपपत्तेरेकदेशस्यन प्रमाणता, सामग्रीसद्भावे त्ववश्यतया विशिष्टप्रमितिस्वरूपोपपत्तेः। एकदेशापेक्षया तस्या एव सन्निपत्य जनकत्वमेव साधकतमता। न चाऽत्र किमपेक्षया तस्याः साधकतमत्वम् ? अन्यस्मिन्नसाधकतमे साधके साधकतरे वा सति तदपेक्षया तस्याः साधकतमत्वमुपपत्तिमदिति प्रेरणीयम्: यतो न सामग्यन्तर्गतानामेकदेशानां जनकत्वव्याघातः, तेषामेव धर्ममात्रत्वात् सामग्यस्येति जनकैकदेशापेक्षया तत्सामग्यस्य साधकतमत्वात्प्रमाणत्वमुपपन्नमेव / एतेन यत्परैः प्रेरितंकिल सामग्रीकारणतच कर्तृकापक्ष, सामग्रीजन-कत्वेन चेत्, तयोर्ध्या तेरान्तरभूतयोरभावात् किमपेक्ष्य साधकतमवमासाद
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________________ णाण १९६६-अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णाण येदिति ? तदपि निरस्तम् / यतः कर्तृकर्मणोः सामग्रीजनकत्वेन स्थितयोः कथमसत्त्वम् ? तत्सद्भावे च तदपेक्षया कथं न तस्याः करणता ? अथापि स्यात् तस्यास्तजन्यत्वे करणत्वव्याघातः, अन्यतः सिद्धस्य करणत्वसद्भावात्। असदेतत् / यतो दृश्यत एव प्रदीपाऽऽदेस्तजन्यत्वे करणत्वव्याघातेऽन्यस्यापि करणत्वसद्भाव इति न कश्चिद् व्याघातः / तज्जन्यत्वकरणत्वयोस्ततोऽव्यभिचाराऽऽदिभिर्विशेषणा पिलब्धिजनिका सामग्री बोधस्वभावा तदेकदेशभूतकारकजन्या प्रमाणविशेषिका अप्येतदेव प्रमाणसामान्यलक्षणं प्रतिपादयन्ति / एतत्कार्यभूता वा यथोक्तविशेषके विशिष्टोपलब्धिः प्रमाणसामान्यलक्षणम् , तथा स्वकारणस्य प्रमाणाभासेभ्यो व्यवच्छिद्यमानत्वात्। इन्द्रियजत्वाऽऽदिविशेषणविशेषिता सैवोपलब्धिः प्रमाणस्य विशेषलक्षणमिति स्थित सामग्रीप्रमाणमिति। अत्र प्रतिविधीयते-यत्तावदुक्तं कारकसाकल्यकरणत्वेनाभ्युपगमे पूर्वोक्तदोषाभाव इति / अत्र वक्तव्यम्-किमिदं कारकसाकल्यम्- किं सकलान्येव कारकाणि, आहोस्वित्तद्धर्मः, उत तत्कार्यम् , किंवा पदार्थान्तरम् ? इति पक्षाः / तत्र न तावत् सकलान्येव कारकाणि साकल्यं, कर्तृकर्मभावे तेषां करणत्वानुपपत्तेः; तत्सद्भावे वा नान्येषां कर्तृकर्मरूपता, तेषां करणत्वाभ्युपगमात् / न च कर्तृकर्मरूपाणामपि तेषां करणत्वम्, तेषां परस्परविरोधात् / तथा-हि-ज्ञानचिकीर्षाssधारता, स्वातन्त्र्यं वा कर्तृता; निर्वाऽऽदि-धर्मयोगित्वात् कर्मत्वम् , प्रधानक्रियाऽनाधारत्वं करणत्वम् एता-निपरस्परविरुद्धानि कथमेकत्र संभवन्ति ? अथापरापरनिमित्त-भेदाऽऽदेः कर्तृकर्मकरणरूपताया अविरोधः / ननु तान्यपि निमि-तानि सकलकारकेभ्यो व्यतिरिक्तानि, उताव्यतिरिक्तानि? इति वाच्यम्। यदि-श्रव्यतिरिक्तानीति पक्षः, तदा तदभेदे तेषामप्यभेदः, तेषां वा भेदे कारकस्याऽपि भेदः, अन्यथा व्यतिरेकासिद्धेः / अथ व्यतिरिक्तानि तदा संबन्धासिद्धिः / न च समवायलक्षणः संबन्धः, तस्य निषिद्धत्वात् , निषेत्स्यमानत्वाच / न चैकान्तभेदे विशेषण-विशेष्यभावाऽऽदिकोऽपि संबन्धः कश्चित्संभवति, तत्रापि संबन्धान्तरकल्पनातोऽनवस्थाप्रसक्तेः / न च तस्य संबन्धरूपत्वात् संबन्धान्तरमन्तरेणाऽपि संबन्धत्वानवस्था, एकान्तभेदे संबन्धरूपताया एवायोगात्, कथञ्चिनिमित्तानां कारकेभ्योऽभेदे अनेकान्तवादाऽऽपत्तिः, तन्न सकलकारकाणि साकल्यम्। अथ कारणधर्मसाकल्याननु सोऽपि यदि कारकाव्यतिरिक्तस्तदा धर्ममात्रं, कारकमानंदा? अथव्यतिरिक्तस्तदा सकलकारकधर्मः साकल्य-मिति संबन्धासिद्धिः। संबन्धेऽपि यदि सर्वकारकेषु युगपदसौ संबध्यते, तदा बहुत्वसंख्यया तत्पृथक्त्वसंयोगविभागसामान्यानामन्यतमस्वरूपाऽऽपत्तिस्तस्येति तदूषणेन तस्य दूषितत्वान्न साधकतमत्वमुपपत्तिमत्। अथ तत्कार्य साकल्यम् / तदप्ययुक्तम्। नित्यानां साकल्यजननस्वभावत्वे सर्वदा तदुत्पत्तिप्रसक्तेः / ततश्चैकप्रमाणोत्पत्तिसमये सकलतदुत्पाद्यप्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिः / तज्जनकस्वभावस्य कारणेषु पूर्वोत्तरकालभाविनां सर्वप्रमाणानां तदा नित्याभिमतं जनकमात्माऽऽदिकं कारणमिति कथं न तदैव सकलतदुत्पाद्यप्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिः ? अथाऽऽत्माऽऽदिके सत्यपि तदा तानि न भवन्ति, न तर्हि तत् तत्कारणं, नापि तानि तत्कार्याणीति सकृदपि तानि ततो न भवेयुरिति सकलं जगत्प्रमाणविकल्पमापद्यते / न चाऽऽत्माऽऽदिके तत्करणसामर्थ्य सत्यपि स्वयमेव यथाकालं तानि भवन्तीति वक्तव्यम्, तेषां तत्कार्यताभाव-प्रसक्तेः तस्मिन् सत्यपितदाभावात् स्वयमेवान्यदाच भावात् / न च स्वकालेऽपि कारणे सत्येव भवन्तीति तत्कार्यता, गगनाऽऽदि-कार्यताप्रसक्तेः, गगनाऽऽदावपि सत्येव तेषां भावात् / न च गगना-ऽऽदेरपि तत्प्रति कारणत्वस्येष्टे र्नाऽयं दोषः, प्रमितिलक्षणस्य तत्फलस्याऽपि व्योमाऽऽदिजन्यतयाऽऽत्मनाऽऽत्मविभागाभावप्रसक्तेः। अथ यत्र प्रमितिः समवेता, स एवाऽऽत्मा, न ध्योमाऽऽदिरिति न तद्विभागाभावः। ननु समवेत इति कोऽर्थः? समवायेन संबद्ध इति चेत्। ननु तस्य नित्यसर्वगतैकत्वेन व्योमाऽऽदावपि प्रमितः संबन्धान्न तत्परिहारेणाऽऽत्मनो विभागः / न च समवाय-विशेष समवायिनो विशेषान्नायं दोषः, समवायस्याभावप्रसक्तेः / अथ यदा यत्र यथा यद् भवति तदा तत्र तथा तदात्माऽऽदिकं कर्तुं समर्थ मिति नेकदा सकलतदुत्पाद्यप्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिः।न।स्व-भावभूतसामर्थ्यमन्तरेण कार्यस्य कालाऽऽदिभेदायोगात् / अन्यथा दृश्यपृथिव्यादिमहाभूतकार्यनानात्वस्य कारणं किमदृष्टपृथिवीपर-माण्वादिचतुर्विधमभ्युपेयते, एकमेवानन्तं नित्यं सर्वगं सर्वोत्पत्तिमतां समवायिकारणमभ्युपगतम् ? अथ कारणजातभेदमन्तरेण न कार्यभेदउपपद्यते, तर्हि कारणशक्तिभेदमन्तरेणाऽपि न कार्यभेद उपपद्यत इत्यभ्युपगन्तव्यम्। अथ यथा शक्त्यैकमनेका शक्तिर्विभक्तिः, तत्राप्यनेकशक्तिपरिकल्पनेऽनवस्थाप्रसक्तेः / न च तदाऽनेक कार्य विधास्यतीति न शक्तिभेदपरिकल्पना / असदेतत्। यतो नजैनस्यायमभ्युपगमः-यदुत भिन्नाः शक्तीः कयाचित् प्रत्यासत्ति-लक्षणया शक्या एकः कश्चिद्वारयतीति, किं तु यत्तदात्मकं तदपि तथाविधं न कस्याश्चित् शक्तेः, अपितु स्वकारणवशात् / न चैक-स्यानेकाऽऽत्मकत्वमदृष्टमेव परिकल्प्यते, अनेकरूपाऽऽद्यात्मकस्यैकस्य पटाऽऽदेः प्रमाणतः प्रतिपत्तेः / अन्यथा गुणगुणिभाव एव न भवेत् , समवायस्य तन्निमित्तस्याभावात् / सकलकारणानि सा-कल्यजननस्वभावानि, सकलकालभाविसाकल्यस्य तदैवोत्प-त्तिप्रसक्तेः / न चातज्जननस्वभावानि नैकदाऽपि तदुत्पत्तिः, अतज्जननस्वभावात् सकृदपि तस्यानुपपत्तेः / न च सहकारिसव्यपेक्षाणि तानि तज्जनयन्ति, नित्यस्यानुपकार्यतया सहकार्यपेक्षायोगात् / न च संभूयैककार्यकारित्वं तेषां सहकारित्वम् , एकान्तनित्यवादे तस्यापि निषिद्धत्वात् / तत्र सकलकार्यकारणमपि साकल्यं संभ-वति। किञ्च-सकलानि कारणानि साकल्यं जनयन्ति, उतासक-लानि? न तावदसकलानि, अतिप्रसङ्गात्। नापि सकलानि, साकल्यमन्तरेण सकलानीति व्यपदेशाभावात् / भावे वाऽकिञ्चि-त्करं साकल्यमिति तत्परिकल्पना व्यर्था / किञ्च-यथा प्रत्यासत्या तानि साकल्यं जनयन्ति तथैव प्रमितिमप्युत्पादयिष्यन्तीति व्यर्था साकल्यपरिकल्पना / अथ साकल्यस्य साधकतमत्वात् तदभावेनाकरणिका प्रमित्युत्पत्तिः, तर्हि साकल्योत्पत्तावपि तेषां न परं साकल्यलक्षणं करणमभ्युपगन्तव्यम् / अन्यथा-अकरणिका साकल्यस्यापि कथमुत्पत्तिः ? अथ तदत्पत्तावपि करणाभ्युपगमस्तर्हि तदुत्पत्तावप्यपरं करणमभ्युपगन्तव्यमित्यनवस्था। अथ करणोत्पत्तौ नापरं करणमभ्युपगम्यत इति नानवस्था, तर्हि उपलब्ध्युत्पत्तावपिन करणमभ्युपगन्तव्यमितिन साकल्यप्रमाणपरिकल्पना युक्तिसङ्गता।नच साकल्यस्याध्यक्षाऽऽदिप्रमाणसिद्धत्वादध्यक्षबाधितोऽयं विकल्पकलापः, आत्माऽन्तःकरणतत्संयोगाऽऽदे करणसाकल्यातीन्द्रियत्वेनाध्यक्षाविषयत्वात्
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________________ णाण 1967 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण तत्पूर्वकत्वेन पूर्ववदादेरनुमानस्याप्यभ्युपगमान्न ततोऽपि साक- | ल्यसिद्धिः / के वलं विशिष्टार्थो पलब्धिलक्षणमध्यक्षसिद्ध कार्य करणमन्तरेण नोपपद्यत इति तत्परिकल्पना, तच साकल्यमिति न कल्पयितुं शक्यमात्माऽऽदिकरणसद्भावे कार्यस्योपपत्तावपरपरिकल्पनेऽदृष्टपरिकल्पनाप्रसक्तिः, ततोऽपरापरदृष्टिपरिकल्पनयाऽनवस्थाप्रसक्तेः / तन्न सकलकारणकार्यमपि साकल्यम् / अथ पदार्थान्तरं सकलकारणेभ्यः साकल्यं, तदा यत् किञ्चित् पदार्थान्तर तत्साकल्यं प्रसज्येत, इति यस्य कस्यचित्पदान्तिरस्य सद्भावेऽर्थोपलब्धिर्भवेदिति सर्वदा सर्वस्य सर्वज्ञताप्रसक्तिः, तन्न कारकसाकल्यं प्रमाणम् / तेन प्रभातृप्रमेययोरभावः साकल्याभाव इत्यादि प्रतिक्षिप्तम् , तत्सद्भावेऽपि भवदभिप्रायेण साकल्यानुपपत्तेः / यदपिमुख्यगौणभावस्य कारकसाकल्याभावाभावनिमित्तत्वादित्यादि। तदपिव्योमकुसुभावतंसकभावकृदेवदत्तसौभाग्यासौभाग्यप्रख्यं द्रष्टव्यम्। तेन सन्निपत्य जननं साधकतमत्वं यद् व्याख्यातम् / तदपि निरस्तम्। तस्याऽपि साकल्यार्थत्वात् / यदपि साकल्यं हि तेषामेव धर्ममात्र नैकान्तेन वस्त्वन्तरमित्यभिधेयशून्यं वचः, वस्त्वन्तरपक्षे तु दोषाः प्रतिपादिता एव / यदपि प्रमातृप्रमेयजन्यत्वेऽपि सामग्या न करणत्वच्याहतिरिति / तदपि न सङ्गतम्। सामग्यास्तजन्यत्वेऽनवस्थाऽऽद्यनेकदोषाऽऽपत्तेः प्रतिपादनात् / यदप्यव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणमित्युक्तम् / तदप्यसङ्गतम् / अव्यभिचारादेकोपलब्धिविशे-षणस्य भवदभिप्रायेणायोगात् / (यथा च तस्यायोगस्तथा प्रत्यक्षलक्षणे प्रदर्शयिष्यामः / प्रत्यक्षलक्षण सम्मतौ द्रष्टव्यम् ) सामग्री चतजनिका यथा न संभवति तथाऽभिहितमेव साकल्य विचारयद्भिः / यचाबोधस्वभावस्यापि प्रदीपाऽऽदेः प्रमाणत्वं प्रतिपाद्यते / तदप्यसङ्गतम् / बोधस्वभावस्य तस्य प्रमितिक्रियायां साधकतम-त्वायोगात् / यच्च लोकस्तेषां प्रामाण्य दीपेन मया दृष्ट, चक्षुषाऽवगतं, धूमेन प्रतिपन्नमिति व्यवहरतीति तदुपचारतः, यथा ममाऽयं पुरुषश्चक्षुरिति, न तु मुख्यतः / मुख्यतस्तु बोधस्यैव प्रमिति प्रति तादात्म्यादव्यवहितं साधकतमत्वम् / चक्षुरादेस्तु बोधव्यवधानाद् गौणम् / न च व्यपदेशमात्रपरतया न पारमार्थिकवस्तुव्यवस्था, उपचारतोऽपि नड्वलोदकं पादरोग इत्यादिव्यपदेशप्रवृत्तेः / न च प्रमाणस्य प्रमितिरूपता विरुद्धा, स्वरूपे विरुद्धासिद्धिः / न च प्रमाणप्रमित्योरेकान्ततो भेद एवाभ्युपगम्यते, कथञ्चिद् बोधादर्थपरिच्छित्तिविशेषस्य भेदात् प्राक्तनपर्यायनिरोधेन कथञ्चिदवस्थितस्यैव बोधस्याऽर्थपरिच्छित्तिविशिष्टरूपतयोत्पत्तेः / अन्यथा कार्यकारणभावविरोधादित्यसकृत् प्रतिपादितत्वात्। एतेन "लिखितं साक्षिणो भुक्तिः, प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्" इति यत् शास्त्रान्त-रेषु बोधाबोधरूपस्य प्रमाणत्वाऽभिधानं तदप्युपचारेण व्याख्येय-मित्युक्तं भवति / अन्यथा प्रमाणविरोधप्रदर्शितन्यायेन.........(?) यदपि तत्कार्यभूता चोदिलविशेषणोपलब्धिस्तस्य सामान्यलक्षणमित्युक्तम्। तदप्यसङ्गतम्। न हि यथोक्तविशेषणोपलब्धिः पराभ्युपगमे न संभवति, नाऽपि पराभ्युपगतप्रमाणकार्यतयाऽसौ सिद्धा, येन स्वकारणं प्रमाणाभासेभ्यो व्यवच्छिद्यात। तन्नाक्षपाद-कणभुड्मतानुसारिपरिकल्पितमपि प्रमाणसामान्यलक्षणमुपपत्तिक्षमम्। तस्मात् 'प्रमाण स्वार्थनिर्णीतिस्व- | भावं ज्ञानम् ' इत्येतदेव प्रमाणसामान्यलक्षणमनवद्यम् / ननु चात्रापि स्वग्रहणविधुरस्य ज्ञानस्य नैयायिकाऽऽदिभिरभ्युपगमाद् बौद्धस्त्वर्थग्रहणविधुर-स्येति स्वार्थनिर्णीतिस्वभावताऽसिद्धा। सम्म० 2 काण्ड। " ज्ञानं स्वस्थं परस्थं वा, यथा ज्ञानेन गृह्यते। ज्ञाता स्वस्थः परस्थो वा, तथा ज्ञानेन गृह्यताम् ||1|| उत्त०२ अ० / (20) अनुव्यवसायप्रकाश्यं ज्ञानम्तथाहि नैयायिकाः प्रतिपादयन्ति-घटाऽऽदिज्ञानं स्वग्राह्यं न भवति, ज्ञानान्तरग्राह्य वा, शेयत्वात्, घटाऽऽदिवत् / अत्र प्रयोगे हेतुः स्वरूपासिद्धः, आश्रयासिद्धश्च। धर्मिणो ज्ञानस्याऽप्रतिपत्तौ तदाश्रितज्ञेयत्वधर्माप्रतिपत्तेः। न चाऽऽश्रयासिद्धस्य परैधार्मिकत्वमभ्युपगम्यते। अन्यथा सामान्याऽऽदिनिषेधे सामान्यस्याऽसिद्धौ परं प्रत्याश्रयासिद्धो हेतुरिति दोषोद्भावनं युक्तियुक्तं भवेत् / घटाऽऽदिज्ञानस्य प्रमाणतः प्रसिद्धेनयिं दोषः। ननुतत्प्रसिद्धिरध्यक्षतोऽनुमानतोवा ? प्रमाणान्तरस्यात्रानधिकारात्।नतावदध्यक्षतः, तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वाभ्युपगमात् / न च ज्ञानस्य चक्षुरादीन्द्रियेण सन्निकर्षो, न च तद्व्यतिरिक्तमिन्द्रियान्तरमस्ति, अथ मनोलक्षणमन्तःकरणमस्ति, तस्य च ज्ञानेन संयुक्तसमवायः सन्निकर्ष इति तत्प्रभवमध्यक्षं तत्र प्रवर्तत इति। तथाहिआत्मना मनः संयुक्तम्, आत्मनिचसमवेतं ज्ञानमिति मनोज्ञानेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नतदेकार्थसमवेताध्यक्षग्राह्यत्वाद् घटाऽऽदिज्ञानस्य कथमाश्रयासिद्धत्वाऽऽदिर्हेतोर्दोषः ? अयुक्तमेतद्यदीन्द्रियं मनः सिद्धं भवेत् / अथानुमानात्तत्सिद्धिः / तथाहि-घटाऽऽदिज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजं, प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानत्वाचक्षुरादिप्रभवरूपाऽऽदिज्ञानवन्नास्य हेतोरप्रसिद्धविशेषणत्वम् / न हि घटाऽऽदिज्ञानस्याध्यक्षत्वं सिद्धम् , इतरेतराश्रयत्वात् / तथाहि-मनस इन्द्रियसिद्धावस्याध्यक्षत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च सविशेषणहेतुसिद्धर्मनस इन्द्रियसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / न च घटज्ञानाद् भिन्नमपरं ज्ञानं तद्ग्राहकमनुभूयत इति विशेष्यासिद्धश्च हेतुः, सुखाऽऽदिसंवेदनेन व्यभिचारी च / तथाहितत्संवेदनमध्यक्षत्वे सति ज्ञानंच तज्जन्यभितिव्यभिचारः। अथास्यापि पक्षीकरणाददोषः / तथा सुखाऽऽदिसंवेदनमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजमध्यक्षज्ञानत्वाच्चक्षुरादिप्रभवरूपाऽऽदिवेदनवत्, सुखाऽऽदिर्वा भिन्नज्ञानवेद्यो, ज्ञेयत्वात् , घटवत्। नन्वेवं व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणे न कश्चिद् हेतुर्व्यभिचारी स्यात्। तथाहि-अनित्यः शब्दः, प्रमेयत्वाद्, घटवदित्यत्राप्यात्माऽऽदेर्व्यभिचारविषयस्यपक्षीकरणाद्न व्यभिचारः / शक्यं ह्यत्राऽपि वक्तुम्-अनित्य आत्माऽऽदिः, प्रमेयत्वाद, घटवत् / न चाऽत्र प्रत्यक्षबोधः, अन्यत्राऽपि तस्य समानत्वात्। न हि सुखाऽऽद्यविदितस्वरूपं पूर्व घटाऽऽदिवदुत्पन्नं पुनरिन्द्रियसंबन्धापजातज्ञानान्तराद्वेधत इति लोकप्रतीतिः, अपि तु प्रथममेव स्वप्रकाशरूपं तदुदयमासादयदुपलभ्यते आत्मनि त्रिविध इति चेत् / न / स्वरूपेण पदार्थस्य विरोधाभावात्। अन्यथा प्रदीपाऽऽदेरप्यपरप्रकाशविकलस्वरूपप्रकाशविरोधः स्यात्। तस्य तत्स्वरूपं कुतः सिद्धमिति चेत् ? प्रदीपाऽऽदौ कुतस्तथा दर्शनभितरत्रापि समानम् / न चैकस्य स्वभावोऽपरत्राप्यभ्युपगमार्हः, अन्यथा स्वपरप्रकाशस्वभावो घटगतः प्रदीपेऽभ्युपगते तयोर्भवत् / न च तदवगमात् पूर्वमप्रतीयमानमपि सुखाऽऽद्यभ्युपगन्तुं युक्तम्: श्रवणसमवात् प्राक् पश्चाच शब्दस्य सत्ताऽभ्युपगमप्रसङ्गतो नित्यत्वाऽऽपत्तेः। न चाऽऽत्मनो
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________________ णाण 1668 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण ज्ञानाचार्थान्तभूता एव सुखाऽऽदयोऽनुग्रहाऽऽदिविधायिनो भवे-युः इतरथाऽयोगिनोऽपि ते तथा स्युः / न च तेषां तत्रासमवायान्नाय दोषः, / समवायस्य निषिद्धत्वात् / सुखाऽऽदिग्रहणे मनस इन्द्रियसिद्धिः। अत / एव चाऽऽत्मा मनसायुज्यते, तत्र च समवेताः सुखाऽऽदय इत्यादिक्रिया अनुपपन्नैवानच निरशयोरात्ममनसोः संयोगः संभवी, एकदेशेन तत्संयोगे सांशत्वप्रसक्तेः, सर्वाऽऽत्मना संयोगे उभयोरेकत्वप्राप्तेः / यदि च यत्र मनः संयुक्त तत्र समवेत ज्ञानं समुत्पादयति,तदा सर्वाऽऽत्मना व्याप्तितया सामान्यदेशत्वेन मनसः तैः संयुक्तत्वात् सर्वाऽऽत्मसमवेतसुखाऽऽदिषु द्विधैवैकं ज्ञानमुत्पादयतीति प्रतिप्राणि भिन्नं मनःपरिकल्पनमनर्थमासज्येत / न च यस्य संबन्धि यन्मनः, तत्समवेतसुखाऽऽदिज्ञाने तदेव हेतुरिति नायं दोषः, प्रतिनियताऽऽत्मसंबन्धित्वस्यैव तत्रासिद्धः। न हि तत्कार्यत्वेन तत्संबन्धेन तस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् तत्र चानाधेयाप्रहेयाऽतिशये तत्कार्यतायोगान्नापि तत्संयोगात् तस्याऽपि तत्रैकदेशेन सर्वाऽऽत्मना वा योगात्। योगेऽपि व्यापकत्वेन समानदेशि-सर्वाऽऽत्मभिर्युगपत् संयोगेन प्रतिनियताऽऽत्मसंबन्धित्वानुपपत्तेः / न च यददृष्टप्रेरितं तत्प्रवर्तते तत्संबन्धीति वक्तव्यम्, अदृष्टस्याचेतनत्वेन प्रतिनियतविषयतया तत्प्रेरकत्वायोगात् / प्रेरकत्वे वा ईश्वरपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः / न चेश्वरप्रेरितयैवासौ तत्प्रेरक इतिन तत्परिकल्पनावैयर्थ्यम्, अदृष्टप्रेरणामन्तरेण ईश्वरस्य साक्षान्मनःप्रेरकत्वोपपत्तेरदृष्टपरिकल्पनावैयर्थ्य पुनः प्रसज्यते / न च प्रतिनियतनिमितमदृष्ट परिकल्पना, तस्यापि स्वतः प्रतिनियतत्वासिद्धेः / येनाऽऽत्मना यदृष्ट निर्वर्तितं तत्तस्य इति प्रतिनियमसिद्धिरिति चेत्, ननु किमिदमात्मनोऽदृष्टनिर्वर्तकत्वम् ? तदा-धारभाव इति चेत्, ननु समवायस्यैकत्वे आत्मनां च व्यापकत्वेन एकदेशत्वे प्रतिनियत एव आत्मा प्रतिनियतादृष्टाऽऽधार इत्येतदेव दुर्घटम् . समवायाविशेषेऽपि समवायिनोर्विशेषात् प्रतिनियमे सम-वायप्रसक्तरित्यात्मसुखाऽऽद्योस्तत्संवेदनस्य कथञ्चित् तादा-त्म्यमभ्युपेयम्। अन्यथातदेकार्थसमवेतग्राह्यज्ञानत्वेन सुखाऽऽदयो न सिद्धिमासादयेयुः / तत्रादृष्टमपि मनसः प्रतिनियमहेतुः, न च येनाऽऽत्मना यन्मनः प्रेर्यते तत् तत्संबन्धीति प्रतिनियमः, अदृप्रत्वादात्मनोऽप्यचेतनत्वेन तत्प्रत्ययप्रेरकत्वात्। चेतनत्वेऽपिनानुपलभ्यस्य प्रेरणमिति न नियतं मनः सिध्यतीति / एकस्मात् ततो युगपत् सर्वसुखाऽऽदिसंवेदनप्रशक्तिः, इत्युक्तन्यायेन सुखाऽऽदिसंवेदनस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यत्वाभावाद् हेतुरनेन व्यभिचारी। किञ्चस्वसंविदितविज्ञानानभ्युपगमे सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानाऽऽलम्बनोऽनेकत्वात् पशाङ्गुलिवदित्यत्र पक्षीकृतैकदेशेन व्यभिचारः, तज्ज्ञानान्यत्वे सदसद्भर्गयोरनेकत्वाविशेषेऽप्येक्ज्ञानाऽऽलम्बनत्वाभावात्, एकशाखाप्रभवत्वानुमानवत् / अथ सर्वज्ञज्ञानस्वसंविदितमिति नानेकत्वानुमानस्य व्यभिचारः, तर्हि तज्ज्ञानवदन्यज्ञानस्यापि न स्वाऽऽत्मनि क्रियाविरोध इति सर्वज्ञानं स्वसंविदितं ज्ञानत्वात् सर्वज्ञज्ञानवदिति तत् दृष्टान्तबलात् स्वसंविदितसकलज्ञानसिद्धिः / घटाऽऽदिज्ञानं ज्ञानान्तरग्राह्य, ज्ञेयत्वाद्, घटवदित्यत्र च व्यभिचारः। सम्म०२ काण्ड। ननु "जुगवं दो णस्थि उवओगा' इति वचनाद् भवतोऽपि युगपद् ज्ञानानुत्पत्तिः सिद्धैवान।मानसविकल्पद्वययोगपद्यनिषेधपरत्वादस्य, नेन्द्रियमनोविज्ञानयोर्योगपद्यनिषेधः / न च विवादाऽऽस्पदीभूतानि ज्ञानानि क्रमभावीनि ज्ञानत्वाद् मानसविकल्पद्वयवदित्यतोऽनुमानतद्विभ्रमसिद्धिः, अस्य प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वात् / न चैतदनुमान-बाधितत्वाद् युगपत्प्रतिपत्त्यनुभवः प्रत्यक्षमेव न भवति, अश्रावणः शब्दः, सत्त्वात्, घटवदित्यनुमानबाधितत्वात् श्रावणशब्दज्ञानस्याप्यप्रत्यक्षताप्रसक्तेः / न च सौगतमतमेतद् जैनमतमिति वक्तव्यम्,-" सहभावितो गुणाः, क्रमभाविनः पर्यायाः " इति जैनैरभिधानात्। तथा सहभावित्वं गुणानां प्रतिपादयता दृष्टान्तार्थमुक्तम्" सुखमाह्रादनाऽऽकार, विज्ञानमयबोधनम्।। शक्तिः क्रियाऽनुमेया स्याद् , यूनः कान्तासमागमे // 1 // तदेवं मनसोऽसिद्धेन घटाद् विज्ञानं, तेन सन्निकृष्टमिति कुतस्तत्राऽध्यक्षज्ञानोत्पत्तिरिति यतस्ततस्तत् प्रतीयते ? न चान्यत्तदुत्प-तौ पराभ्युपगमे निमित्तमस्ति, सद्भावे चेन्द्रियार्थसन्निकर्षा त्यनत्वाऽऽदिना तव ग्राहिणोऽध्यक्षता विरुध्यते / अथ ज्ञानान्तरेऽस्यानध्यक्षत्वेऽपि घटज्ञानग्राहकता भविष्यतीति न धर्म्यसिद्धेराश्रयासिद्धो हेतुर्भविष्यति, घटज्ञानस्य ततः सिद्धेः / असदेतत् / स्वयमसिद्धेन ज्ञानेन गृहीतस्याप्यगृहीतरूपत्वात् / अन्यथा सर्वज्ञज्ञानगृहीतस्य रथ्यापुरुषज्ञानगृहीतत्वं भवेदिति तस्याऽपि सर्वज्ञताप्रसक्तिः / न च स्वज्ञानगृहीतादगृहीतमिति नायं दोषः, स्वसंविदितज्ञानाभावे स्वज्ञानमित्यस्यैवासिद्धेः / स्वस्मिन् समवेतस्वज्ञानमभिधीयत इति नायं दोष इति चेत् / न / तस्याभावात् , भावेऽप्यविशिष्टत्वाच। नयस्वोत्पादितं स्वमिति वक्तव्यम्, तदु-त्पादस्य परदर्शने तदाधेयत्वेन प्रसिद्धत्वात् / समवायाभावे च तस्याऽप्यसिद्धत्वाद् नित्यस्य चेश्वरज्ञानस्य तदसिद्धिः / न च स्वसंविदितज्ञानवादेऽपि स्वसंविदितत्वाविशेषाद्देवदत्तज्ञानं प्रसज्येत, यज्ञदत्तज्ञानस्य देवदत्तासविदितत्वात्स्वज्ञानस्य कथञ्चित् स्वा-त्मना तादात्म्यात् तस्यैव तद्रूपतया परिणतेरिति प्रसाधितत्वात्। ज्ञानान्तरेण तस्यासंवेदनाद नागृहीतत्वमिति चेत् / न / तस्याऽपि ज्ञानान्तरेण ग्रहणेऽनवस्थाप्रसक्तेः / अग्रहणेऽगृहीतवेदनेन गृहीतस्य द्वितीयज्ञानस्यागृहीतरूपत्वाद् न तेन प्रथमग्रहणमिति तदवस्था धर्मसिद्धिः / तेन घटाऽऽदिज्ञानस्य धर्मिणा द्वितीयेन तस्याऽपि तृतीयेन ग्रहणादर्थसिद्धे परज्ञानकल्पनमिति नानवस्थेति यदुक्तम् / तदप्यसंगतम् / तृतीयाऽऽदेनिस्थाग्रहणे प्रथमस्याप्यसिद्धेः / उक्तन्यायाद् यदि पुनस्तृतीयज्ञानेन स्वयमसिद्धेनापि द्वितीयं गृह्यते, द्वितीयेन तथाभूतेनैव प्रथम, तेनाऽपि तथाभूतेनैवार्थो ग्रहीष्यत इति द्वितीयज्ञानपरिकल्पनमपि व्यर्थमासज्येत। न च विदितोऽर्थ इति ज्ञानविशेषणस्यार्थस्य प्रतिपत्तेरगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिर्नोपजायत इति विशेषणग्राहिज्ञानं द्वितीयं परिकल्प्यते / न च विशेषणस्याप्युपरि विशेषणसविशिष्टता प्रतीयते, येन तृतीयाऽऽदिज्ञानपरिकल्पना युक्तिसङ्गता भवेदिति वक्तव्यम् / विशेषणस्यैव तृतीयाऽऽदिज्ञानपरिकल्पनामन्तरेण ग्रहणासंभवादित्युक्तेः / स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगम एव ज्ञानविशेषणविशिष्टार्थप्रतिपत्तिः संभवति, अन्यथा तदयोगादनवस्थानिवृत्तेः / न च विषयान्तरसंचारादनवस्थानिवृत्तिः, यतो धर्मिज्ञानविषयात साधनाऽऽदिर्विषयान्तरं, तत्र ज्ञानस्योत्पत्तिर्विषयान्तरसंचारः। न चाप
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________________ णाण 1966 - अभिधानराजेन्द्रः भाग-४ णाण रापरज्ञानग्राहिज्ञानसमुत्पत्ताववश्यंभाविबाह्यसाधनो विषयसन्निधानं, येन तत्र ज्ञानस्य संचारो भवेत, सन्निधानेऽप्यन्तरङ्गबहिरङ्गयोरन्तरङ्गस्यैव बलीयस्त्वान्नान्तरङ्गविषयपरिहारेण बाह्यविषयज्ञानोत्पत्तिर्भवेदिति कुतोऽनवस्थानिवृत्तिः ? न चादृष्टवशादनबस्थानिवृत्तिः, स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगमेनाप्यनवस्थानिवृत्तेःसंभवात् / अन्यथा कार्येऽनुपपद्यमानेऽदृष्टपरिकल्पनाया उपपत्तेः, स्वसंवेदनेऽपि चादृष्टस्य शक्तिप्रत्यक्षाभावात्। एतेन ईश्वराऽऽदेरनवस्थानिवृत्तिरिति प्रतिविहितम्, तस्यादृष्टकल्पनायाः प्रतिषिद्धत्वाच्चतुर्थज्ञानाऽऽदेरनुत्पत्तेरनवस्थानिवृत्तिः, धर्मिग्रहणस्यैवमभावाऽऽपत्तेः / किञ्चशक्तिर्यद्यात्मनोऽव्यतिरिक्ता, तदा तत्क्षये आत्मनेऽपि क्षयाऽऽपत्तिः।व्यतिरिक्ता चेत्, तत एव ज्ञानोत्पत्तेर-नर्थक आत्मा भवेत्। न च सा तस्येति नात्माऽऽनर्थक्यम्, सम-वायाभावे तस्याप्यसिद्धेः। किञ्च-यदि सिद्धिप्रक्षपादनवस्थातिवृत्तेर्बाह्यविषयमपि ज्ञानं न भवेत् , शक्तिप्रक्षयादेव / न च चतुर्था - ऽऽदिज्ञानजननशक्तेरेव प्रक्षयः / न / बाह्यविषयज्ञानशक्तयुगपदनेकशक्त्यभावात् / भावे वा युगपदनेकज्ञानीत्पत्तिप्रसक्तिः, सहकार्यपेक्षाऽपि नित्यस्यासंभविनी, प्रतिपादितक्रमेण शक्तिभावे कृतः स इति वक्तव्यम् ? आत्मन इति चेत्। न / अपरशक्तिवैकल्यात् / ततस्तदभावादपरशक्तिपरिकल्पते तदभावेऽप्यपरशक्तिपरिकल्पनमित्यनवस्था। तदेवं स्वसंविदितविज्ञानाभ्युपगमे कथञ्चिद् घटाऽऽदिज्ञानस्यासिद्धेराश्रयासिद्धो ज्ञेयत्वादिति हेतुः, स्वरूपासिद्धश्चेति व्यवस्थिमेतत् स्वनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानमिति। सम्म०२ काण्ड। (युगपद् ज्ञानद्वयानुभवो' दोकिरिय शब्दे निषेत्स्यते) (21) ज्ञानस्य स्वप्रकाशकत्वम्अस्त्येव प्रदीपाऽऽदिलक्षणो दृष्टान्तो ज्ञानस्य प्रकाशं प्रति सजातीयापरानपेक्षणे साध्ये / तथाहि-यथा प्रदीपाऽऽद्यालोको न स्वप्रतिपत्तावालोकान्तरमपेक्षते, तया ज्ञानमपि स्वप्रतिपत्तौ न समानजातीयज्ञानापेक्षम् / एतावन्मात्रेणाऽऽलोकस्य दृष्टान्तत्वम् , न पुनस्तस्यापि ज्ञानत्वमासाद्यते / येनेन्द्रियाग्राह्यत्वाच क्षुष्मतामिवान्धानामपि तत्प्रतीतिवसङ्ग इति प्रेर्यते। न हि दृष्टान्ते साध्यधर्मिधर्माः सर्वेऽप्यासञ्जयितुंयुक्ताः, अन्यथा घटेऽपि शब्दधर्माः शब्दत्वाऽऽदयः प्रसज्येरनिति तस्याऽपि श्रोत्रग्राह्यत्वप्रसङ्गः / न च साधर्म्यदृष्टान्तमन्तरेण प्रमाणप्रतीतस्याप्यर्थस्याप्रसि-द्धिरितिशक्यं वक्तुम्। अन्यथा जीवच्छरीरस्यापि सात्मकत्वे साध्ये तत्प्रसिद्धदृष्टान्तस्याभावात् प्राणाऽऽदिमत्त्वाऽऽदेन्तसिद्धिर्न स्यात्। अथ साधर्म्यदृष्टान्ताभावेऽपि दृष्टवैधHदृष्टान्तस्य घटा-ऽऽदेः सद्भावात् केवलव्यतिरेकिबलात्तत्र तत्सिद्धिः तर्हि यत्र स्वप्रकाशकत्वं नास्तितत्रार्थप्रकाशकत्वमपि नास्ति, यथा घटाऽऽदाविति व्यतिरेकदृष्टान्तसद्भावादर्थप्रकाशकत्वलक्षणाखेतोः स्वप्रकाशकत्वं विज्ञानस्य किमिति न सिद्धिमासादयति? यत्तूक्तंकस्यचिदर्थस्य काचित्सामग्री, तेन प्रकाशः प्रकाशान्तरनिरपेक्ष एवं स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभाति / तदयुक्तमेव / यथा हि स्वसामग्रीत उपजायमानाः प्रदीपाऽऽलोकाऽऽदयो न समानजातीयमालोकान्तरं स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमाना अपेक्षन्ते, तथा स्वसामग्रीत उपजायमानं विज्ञान स्वार्थप्रकाशस्वभावं स्वप्रतिपत्तौ न ज्ञानान्तरमपेक्षते, प्रतिनियतत्वात् स्वकारणाऽऽयत्तजन्मनां भावशक्तिनाम्। | यत्तुप्रदीपाऽऽलोकाऽऽदिकं सजातीयाऽऽलोकान्तरनिरपेक्षमपि स्वप्रतिपत्तौ ज्ञानमपेक्षते, तत्तम्याज्ञानरूपत्वात् ज्ञानस्य च तद्विपर्ययस्वभावत्वाद् युक्तियुक्तमिति नैकत्र दृष्टः स्वभावोऽन्यत्राऽऽसजयितुंयुक्त इति पूर्वपक्षवचो निःसारतया व्यवस्थितम् / अथाऽऽलोकस्य तदन्तरनिरपेक्षा प्रतिपत्तिरुपलब्धेति न तदृष्टान्तबलाद् ज्ञानस्यापि ज्ञानान्तरनिरपेक्षा प्रतिपत्तिः; अदृष्टत्वात्, स्वात्मनि क्रियाविरोधाच। नन्वेवमुपलभ्यमानेऽपि वस्तुनि यद्यदृष्टत्वं, विरोधश्चोच्येत, तदा स्वात्मवघटाऽऽदेरपि बाह्यस्य न ग्राहकं ज्ञानम्। अदृष्टत्वात् , जडस्य प्रकाशायोगाचेत्यपि वदतः सौगतस्य न वक्त्रवक्रता समुपजायते / तथाहि-असावप्येवं वक्तुं समर्थःजडवस्तुन स्वतः प्रकाशते, विज्ञानवद्, जड़त्वहानिप्रसङ्गात् / नाऽपि परतः प्रकाशमानम्, नीलसुखाऽऽदिव्यतिरिक्तस्य विज्ञानस्यासंवेदनेनासत्त्वात् / अथ नीलस्य प्रकाश इति प्रकाशमाननीलाऽऽदिव्यतिरिक्तस्तत्प्रकाशः / अन्यथा भेदेनास्याप्रतिपत्ती संवेदनस्य तत्प्रतिभासो न स्यात् / ननु न नीलतद्वेदनयोः पृथगवभासः प्रत्यक्षसंभवी, प्रकाशविविक्तस्य नीलाऽऽदेरननुभवात् तद्विवेकेन च बोधस्याप्रतिभासनात् / न चाध्यक्षतो विवेकेनाप्रतीयमानयोर्नीलतत्संविदो दो युक्तः, विवेकादर्शनस्य भेदविपर्ययाऽऽश्रयत्वान्नीलतत्रवरूपवत् / अथापि कल्पना नीलतत्संविदोर्भेदमुल्लिखति-नीलस्यानुभव इति / नन्वभेदेऽपि भेदोल्लेखो दृष्टः, यथा शिलापुत्रकस्य वपुः, नीलस्य वा स्वरूपमिति! अथ तत्र प्रत्यक्षाऽऽरूढो भेदो बाधक इति न भेदोल्लेखः सत्यः, स तर्हि नीलसंविदोरपि प्रत्यक्षाऽऽरूढो भेदोऽस्तीति न भेदकल्पना सत्या। तदेवं नीलाऽऽदिक सुखाऽऽदिक वस्तु प्रकाशवपुः प्रतिमातीति स्थितम् / तद्व्यतिरिक्तस्य प्रकाशस्य प्रतिभासनेनाभावात्। भवतु वा व्यतिरिक्तो बोधः, तथाऽपि न तद्ग्राह्या नीलाऽऽदयो युक्ताः / तथाहि-तुल्यकालो वा बोधस्तेषां प्रकाशकः, भिन्नकालो वा? तुल्यकालोऽपिपरोक्षः, स्वसविदितो या ? न तावत्परोक्षः, यतोऽप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यतीत्यादिना स्वसंविदितत्यं ज्ञानस्य प्रसाधयन्त एतत्पक्षं निराकरिष्यामः (निराकरणं ग्रन्थतोऽवसेयम्।) नाऽपि ज्ञानान्तरवेद्यः, अनवस्थाऽऽदिदूषण-स्यात्र पक्षे प्रदर्शयिष्यमाणत्वात् / स्वसंवेदनपक्षे तु यथाऽन्तर्नि-लीनो बोधः स्वसंविदितः प्रतिभाति; तथा तत्काले स्वप्रकाशव-पुषो नीलाऽऽदयो बहिर्देशसंबन्धितया प्रतिभान्ति, इति समान-कालयोनीलतत्संवेदनयोः स्वतन्त्रयोः प्रतिभासनात्सव्येतरगो-विषाणयोरिव न वेद्यवेदकभावः / समानकालस्यापि बोधस्य नीलं प्रति ग्राहकत्वे नीलस्यापि संप्रात ग्राहताप्रसङ्गः / समानकालप्रतिभासाविशेषेऽपि बुद्धिर्नीलाऽऽदीनां ग्रहणमुपरवयतीति ग्राहिका, नीलाऽऽदयस्तु ग्राह्याः / नैतदपि युक्तम्। यतो नीलबोधव्यतिरिक्ता न ग्रहणक्रिया प्रभाति / तथाहि-बोधः सुखाऽऽस्पदीभूतो हृदि, बहिः स्फुटमुद्भासमानतनुश्च नीलाऽऽदिराभाति, न त्यपरा ग्रहणक्रिया प्रतिभासविषया / तदनवभासे च न तया व्याप्यमानतया नीलाऽऽदेः कर्मता युक्ता / भवतु वा नील-बोधव्यतिरिक्ता क्रिया, तथाऽपि किं तस्या अपि स्वतः प्रतीतिः यद्वा अन्यतः? तत्र यदि स्वतो ग्रहणक्रिया प्रतिभाति; तथा सति बोधो, नीलम् ग्रहणक्रिया चेति वयं स्वरूपनिमग्नमेककालं प्रतिभातीति न कर्तृकर्मक्रियाव्यवहतिः / अथान्यतोग्रहणक्रिया प्रतिभाति, नतु तत्राप्यपरा ग्रहणक्रियोपेया, अन्यथा तस्या ग्राह्यतसिद्धेः पुनस्तत्राप्यपरा कर्मतानिबन्धन क्रियोपेयेन्यन
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________________ णाण 1970 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णाण वस्था / तन्न ग्रहणक्रियाऽपराऽस्ति, तत्स्वरूपानवभासनात्। ततशान्तः संवेदनम् , बहिर्नीलाऽऽदिकं च स्वप्रकाशमेवेति स्वसंवित्तिमात्रवादः साधीयान यदि, तमुन्तर्निलीनो बोधो नीलाऽऽदेर्न बोधकः, किं तु स्वप्रकाश एवाऽसौ / तथा सति नीलमहं वेद्मीति कर्मकर्तृभावाभिनिवेशो प्रत्ययो न भवेत् , विषयस्य कर्मकर्तृभावस्याभावात् / ननु विषयमन्तरेणापि प्रत्ययो दृष्ट एव,यथा शुक्तिकाया रजतावगमः / अथ बाधकोदयात् पुनर्भान्तिरसौ, नीलाऽऽदौ तु कर्मताऽऽदेन बाधाऽस्तीति सत्यता / नन्वत्रापि बोधनीलाऽऽदेः स्वरूपासंसक्तस्य द्वयस्य स्वातन्त्र्योपलम्भोऽस्ति बाधकः कर्मकर्तृभावोल्लेखस्य। अथ किमस्या भ्रान्तेर्निबन्धनम् ? न हि भ्रान्तिरपि नि:जा भवति। ननु पूर्वभ्रान्तिरेवोत्तरकर्मकर्तृभावा-वगतेर्निबन्धनम् / पूर्वभ्रान्तिकर्मताऽऽदेरप्यपरा पूर्वभान्तिरित्यना-दिभ्रान्तिपरम्पराकर्मताऽऽदिर्न तत्त्वम् / अथवा नीलमिति प्रतीतिस्तावन्मात्राध्यवसायिनी पृथग, अहभित्यपि भतिरन्तरुल्लेखमुद्वहन्ती भिन्ना; वेद्यीत्यपि प्रतीतिरपरेव / ततश्च परस्पराससक्त-प्रतीतित्रितयं क्रमवत्प्रतिभाति, न कर्मकर्तृभावः, तुल्यकालयो-स्तस्यायोगात् / भिन्नकालयोरप्यनवभासनादन कर्मताऽऽदि-गतिः कथञ्चित् संभविनी। अथापि दर्शनात्प्राक् सन्नपि नीलाऽऽत्मा न भाति, तदुदयेच भातीति कर्मता तस्य। नैतदपि साधीयः / यतः प्राग्भावोऽर्थस्य न सिद्धः / दर्शनन स्वकालावधेरर्थस्य ग्रहणात्। दर्शनकाले हि नीलमाभाति, न तु ततः प्राक्, तत्कथं पूर्वभावोऽर्थस्य सिध्येत् ? तस्य दर्शनस्य पूर्वकाले विरहात् / न च तत्काले दर्शन प्रागर्थसन्निवि व्यनक्ति, सर्वदा तत्प्रतिभासप्रसङ्गात् / अथान्येन दर्शनेन प्रागर्थः प्रतीयते / ननु तदर्शनादपि प्राग् सद्भावोऽर्थस्यान्येनावसेय इत्यनवस्था। तस्मात्सर्वस्य नीला-ऽऽदेर्दर्शनकाले प्रतिभासनाद् न तत्पूर्व सता सिद्ध्यति / अथापि पूर्वदृष्ट पश्यामीति व्यवसायात् प्रागर्थः सिद्धयति, प्रागर्थसत्ता विना दृश्यमानस्य पूर्वदृष्टन एकत्वगतेरयोगात्। केन पुनरेकत्वं तयोर्गम्यते ? किमिदानीन्तनदर्शनेन, पूर्वदर्शननवा? न तावत्पूर्वदर्श-नेन, तत्र तत्कालावधेरेवार्थस्य प्रतिभासनात्। न हितेन स्वप्रति-भासिनोऽर्थस्य वर्तमानकालदर्शनव्याप्तिरवसीयते, तत्काले सा-म्प्रतिकदर्शनाऽऽदेरभावात्। न चासत्प्रतिभाति, दर्शनस्य वितथत्वप्रसङ्गात् / नापीदानीन्तनदर्शनेन पूर्वदर्शनाऽऽदिव्याप्तिनीलाऽऽदेरवसीयते, तदर्शनकाले पूर्वदृक्कालस्यास्तमयात् / न चास्तमितपूर्वदर्शनाऽऽदिसंस्पर्शमवतरति प्रत्यक्षम, वितयत्वप्रसङ्गा- देव / तस्मादपास्ततत्पूर्वदृगादियोग सर्व वस्तु दृशा गृह्यते, पूर्वदृष्टता तु रम्मृतिरुल्लिखति / तदपास्तम् / दृष्टतोल्लेखाभावात् / न च स एवायमिति प्रतीतिरेका / स इति स्मृतिरूपम् ,अयमिति तु दृशः स्वरूप, तत्परोक्षापरोक्षाऽऽकारत्वाद् नैकस्वभावो प्रत्ययौ; तत्कृतस्तत्त्वसिद्धिः? अथानुमानात्प्राग्भावोऽर्थस्य सिद्ध्यति, प्राक् सतां विना पश्चाद्दर्शनायोगादिति / तदप्यसत् / यतः पश्चाद्दर्शनस्य प्राक् सत्तायाः संबन्धो न सिद्धः, प्राक् सत्तायाः कथश्चिदप्यसिद्धेः। न चासिद्धया सत्तया व्याले पश्चाद्दर्शन सिद्ध्यति: येन ततस्तत्सिद्धिः। अथयदि प्रागर्थमन्तरेण दर्शनमुदयमासादयति, तथा सति नियामकाभावात्सर्वत्र सर्वदा सर्वाऽऽकारं तद्भवेत् / नायमपि दोषः, नियतवासनाप्रबोधेन संवेदननियमात् / तथाहि-स्वप्नावस्थायां वासनाबलाद्दर्शनस्य देशकालाऽऽकारनियमो दृष्ट इति जाग्रद्दशायामपि तत एवासी युक्तः / अर्थस्य तुन सत्ता सिद्धा। नापि तद्भेदात् संवित्तिनियम इति तन्न ततः संविद्वैचित्र्यम्। तस्मान्न कथञ्चिदपिनीलाऽऽदेः प्राक् सत्तासिद्धिः / अथ पूर्वसत्ताविरहे किं प्रमाणम् ? नन्वनुपलब्धिरेव प्रमाणम् / यदि नीलं पूर्वकालसंबन्धिस्वरूपं स्यात्तेनैव रूपेणोपलभ्येत, न च तथा दर्शनकालभुवः सर्वदाऽप्रतिभासनात् / यच्च येनैव रूपेण प्रातभाति, तत्तेनैव रूपे-णास्ति। यथा नीलं नीलरूपतयाऽवभासमानं तथैव सद्न पीताऽऽदिरूपतया। सर्वं चोपलभ्यमानं रूपं वर्तमानकालतयैव प्रतिभाति, न पूर्वाऽऽदितया, तन्न पूर्व सत्ताऽर्थस्य / अथ नीलं, तदर्शनविरतावपि परदृशि प्रतिभातीति साधारणतया ग्राह्यम, विज्ञानं त्यसाधारणतया प्रकाशकम् / नैतदपि युक्तम् / यतो नीलस्य न साधारणतया सिद्धः प्रतिभासः, प्रत्यक्षेण स्वप्रतिभासिताया एवावगतेः। न हि नीलं परदृशि प्रतिभातीत्यत्र प्रमाणमस्ति, परदृशोऽनधिगमे नीलाऽऽदेस्तवेद्यताऽनधिगतेः। अथानुमानेन नीलाऽऽदीनां साधारणता प्रतीयते / यथैव हि स्वसंताने नीलदर्शनात्तदा दानार्था प्रवृत्तिस्तथाऽपरसन्तानेऽपि प्रवृत्तिदर्शनात् , तद्विषय दर्शनमनुमीयते। नैतदप्यस्ति / अनुमानेन स्वपरदर्शनभृतो नीलाऽऽदेरेकताऽसिद्धेः तद्विसदृशव्यवहारदर्शनादुपजायमानं स्वदृष्ट सदृशता परदृष्टस्य प्रतिपादयेत्। यथाऽपरधूमदर्शनात् पूर्वसदृशं दहनमधिगन्तुमीशा, न तु तमेव पूर्वदृष्टम, सामान्येनान्वयपरिच्छेदात्। नानुमानतोऽपि ग्राह्याऽऽकारस्यैकता / ननु भेदोऽप्यस्य न सिद्ध एव / प्रतिभासभेदे सति कथमसिद्धः? परप्रतिभासपरिहारेण स्वप्रतिभासात, स्वप्रतिभासपरिहारेण च परप्रतिभासात् , विवेकस्वभावान् व्यतिरेचयति? अन्यथा तस्यायोगात्। ततः स्वपरदृष्टस्य नीलाऽऽदेः प्रतिभासभेदाद् व्यवहारे तुल्येऽपि भेद एव।इतरथा रोमाञ्चनिकरसदृशकार्यदर्शनात् सुखाऽऽदेरपि स्वपरसन्तानभुवस्तत्त्वं भवेत्। अथापि सन्तानभेदात् सुखाऽऽदेर्भ-दः। नन सन्तानभेदोऽपि किमन्यभेदात? तथा चेदनवस्था। अथ तस्य स्वरूपभेदाभेदः, सुखाऽऽदेरपितर्हि स एवास्तु, अन्यथा भेदासिद्धेः / न ह्यन्यभेदादन्यद्भिन्नम् अतिप्रसङ्गात्। नीलाऽऽदेरपि स्वपरभासिनः प्रतिभासभेदोऽस्तीति नैकता। अथ देशैकत्वादेकत्वम्। ननु देशस्यापि स्वपरदृष्टस्यानन्तरोक्तन्यायाद्नैकतायुक्ता। तस्माद् ग्राहकाऽऽकारवत् प्रतिपुराषमुभासमाननीलाऽऽदिकमपि भिन्नमेव / तचैककालोपलम्भात् , ग्राहकवत् स्वप्रकाशम् / अथ ग्राहकाऽऽकारश्चिद्रूपत्वाद् वेदको, नीलाऽऽका-रस्तु जडत्वाद् ग्राह्यः / अत्रोच्यते-किमिदं बोधस्य चिद्रूपत्वम् ? यदि अपरोक्षं स्वरूप, नीलाऽऽदेरपि तर्हि तदस्तीति न जडता / अथ नीलाऽऽदेरपरोक्षस्वरूपमन्यस्माद्भवतीति ग्राह्यम् / ननु बोधस्याऽपि स्वस्वरूपमिन्द्रियाऽऽदेर्भवतीति ग्राह्य स्यात्। अथ यदीन्द्रियाऽऽदिकार्य न तद्वेद्य, नीलाऽऽदिकमपि तर्हि नयनाऽऽदिकार्यमस्तु न तु ग्राह्यम् / अथापि बोधो बोधस्वरूपतया नित्यः, नीलाऽऽदिकस्तु प्रकाश्यरूपतया अनित्य इति ग्राह्यः / तदप्यसत् / स्तम्भाऽऽदेनयनाऽऽदिबलादुदेति रूपमपरोक्षत्वम् / तदनित्यः स्तम्भाऽऽदिर्भवतु, ग्राह्यस्तु कथम् ? न हि यद यस्मादुत्पद्यते तत्तस्य वेद्यम् / अतिप्रसङ्गात्। तस्मादपरोक्षस्वरूपाः स्तम्भाऽऽदयः स्वप्रकाशाः, बोधस्तु नित्योऽनित्यो वा तत्काले केवल
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________________ णाण 1971 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण मुद्भाति, न तु वेदकः; द्वयोरपि परस्परं ग्राह्यग्राहकताऽऽपत्तेः / अथ नीलोन्मुखत्वाद् बोधो ग्राहकः / किमिदं तदुन्मुखत्वं नाम बोधस्य? यदि नीलकाले सत्ता, सा नीलस्याऽपि तत्काले समस्तीति नीलमपि बोधस्य वेदकं स्यात् / अथान्यदुन्मुखत्वं तत्,तर्हि स्वरूपनिमग्नं चकासत्तृतीयस्वरूपं भवेत्। तथाहि-तस्य तदुन्मुखत्वं तद्व्यापारः। स चव्यापारो यदि नीले व्याप्रियते, तदा तत्राप्यपरो व्यापार इत्यनवस्था। अथ न व्याप्रियते, न तद् बलात् बोधस्य ग्राहकत्वं, नीलाऽऽदेस्तु ग्राहाल्वम् / अथ व्यापारस्याघर-व्यापारव्यतिरेकेणापि नील प्रति व्यापृतिरूपता, तस्य तद्रूपत्वात्। ननु नीलस्यापि स्वं स्वरूप विद्यत इति बोधं प्रति ग्रहणव्यापृतिः स्यात् / किच-बोधेन यदि नील प्रति ग्रहणक्रिया जन्यते सा नीलाद्भिन्ना, अभिन्ना वा? भिन्ना चेत्, न तया तस्य ग्राह्यत्वम्। भिन्नत्वादेव। अथाभिन्ना, तर्हि नीलाऽऽदेशनिरूपता, ज्ञानजन्यत्वादुत्तरज्ञानक्षणवत्। अथ ज्ञानस्य एवंभूता शक्तिर्येन तस्य नीलं प्रति ग्राहकता, नीलाऽऽदेस्तुतंप्रति ग्राह्यता। ननुबोधस्य ग्राहकत्वे, नीलाऽऽदेस्तु ग्राह्यत्वे सिद्धे शक्तिपरिकल्पना युक्ता, शक्तेः कार्यानुमेयत्वात्। तदसिद्धौ तु तत्परिकल्पनमयुक्तम्, इतरेतराऽऽश्रयप्रसङ्गात्। तथाहि-बोधस्यशक्तिविशेषसिद्धेील प्रति ग्राहकत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्व तच्छक्तिसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराऽऽश्रयत्वम् तन्न बोधत्य नीलं प्रति ग्राहकत्वसिद्धिः / तस्माद् व्यतिरिक्तऽपि बोधेऽभ्युपगते सहोपलम्भनियमात् स्वसंवेदनमेव युक्तम्। परमार्थतसतु सुखाऽऽदयो नीलाऽऽदयवापरोक्षा इत्येतावदेव भाति। निराकारस्तु बोधः स्वप्नेऽपि नोपलभ्यत इति नतस्य सद्भाव इति कथं तस्यार्थग्राहकत्वम् ? अत एव ते प्रमाणयन्ति-इह खलु यत् प्रतिभाति, तदेव सद्व्य वहृतिपशमवतरति, यथा हृदि प्रकाशमानवपुः सुखं, न तत्काले पीडाऽनुद्भासमाना समस्ति, विज्ञप्तिरेव च नीलाऽऽदिरूपतया सकलतनुभृतामाभातीति स्वभावहेतुः / तदेवमर्थग्राहकत्वस्याप्यसिद्धेः,जडस्य प्रकाशविरुद्धत्याच नार्थग्राहकत्वमपि बौद्धदृष्ट्या युक्तम् / अथ बहिर्देशसंबद्धस्य जडस्यापि नीलाऽऽदेरनुभवाद् न नीलाऽऽदिप्रकाशस्य तद् ग्राहकत्वमसिद्धम्, नाप्यनुभूयमाने स्तम्भाऽऽदिके जड़े प्रकाशविषयत्वविरोधोद्भावनं युक्तिसङ्गतम् / प्रत्यक्षसिद्धे स्वभावे च सति तद्विरुद्धस्वभावाऽऽवेदकस्यानुमानस्य प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तकालात्ययापदिष्टत्वदोषदुष्टहेतुप्रभवत्वेनानुमानाऽऽभासत्वात् / न च प्रत्यक्षसिद्धे स्वभावे विरोधः सिद्ध्यति, अन्यथा ज्ञानस्यापि ज्ञानत्वविरोधप्राप्तिः / नन्येवं नीलाऽऽदिसंवेदनस्याऽपि हृदि स्वसंवेदनविषयतयाऽनुभवादन स्वसंवेदितत्वमसिद्धम्, नापि स्वाऽऽत्मनि क्रियाविरोधोद्धावनं युक्तियुक्तम्, अनुभूयमाने विरोधासिद्धेः / अस्वसंवेदनज्ञानसाधकत्वेनोपन्यस्यमानस्य च हेतोः प्रत्यक्षनिराकृतपक्षविषयत्वेन न साध्यसाधकत्वमित्यपि समानम् / किशस्वसं विदितज्ञानानभ्युपगमे प्रतीयतेऽयमर्थो बहिर्देशसंबन्धितयेत्यत्र प्रतीतेर्व्यवस्थापिकाया अप्रतीतत्वेनाव्यवस्थितौ व्यवस्थाप्यस्यार्थस्यन व्यवस्थितिः स्यात्। न हि स्वयमव्यवस्थितं खरविषाणाऽऽदि कस्यचिद्व्यवस्थापकमुपलब्धम्। अथ प्रतीतेरसंविदितत्वेऽपि एकार्थसमवेतानन्तरप्रतीतिव्यवस्थापितत्वेन नाव्यवस्थितत्व, तर्हि तदेकार्यसमवेतानन्तरप्रतीतेरप्य परतथाभूतप्रतीत्यवस्थापितत्वेनार्थव्यवस्थापनप्रतीतिव्यवस्थापकत्वमिति पुनरपि तथाभूताऽपरा प्रतीतिः प्रतीतिव्यवस्थापिकाऽभ्युपगन्तव्येत्यनवस्था। अथ प्रतीतिव्यवस्थापिका प्रतीतिः स्वसंविदितत्वेन स्वयमेव व्यवस्थितेति नायं दोषः, तॉर्थव्यवस्थापिकाऽपि प्रतीतिः तथा किं नाभ्युपगम्यते? न्यायस्य समानत्वात् / अथ प्रतीतिरप्रतीताऽपि प्रतीत्यन्तरव्यवस्थापिका, तर्हि प्रथमप्रतीतिरप्यव्यवस्थिताऽप्यर्थव्यवस्थापिका भविष्यतीति 'नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः' इति वचः कथं न परिप्लवेत् ?; प्रतीतोऽर्थ इति विशेष्यप्रतिपत्तौ प्रतीतिविशेषणानवगमेऽपि विशेष्यप्रतिपत्त्यभ्युपगमात् / अपि च-यदि तदेकार्थसमवेतज्ञानान्तरग्राह्य ज्ञानमर्थग्राहकमभ्युपगम्यते, तदा पूर्वपूर्वज्ञानोपलम्भनस्वभावानामुत्तरोत्तरज्ञानानामनवरतमुत्पत्तेर्विष्यान्तरसंचारो ज्ञानानां न स्यात् : विषयान्तरसन्निधानेऽपि पूर्वज्ञानलक्षणस्य तदेकार्थसमवेतस्यान्तरङ्गत्वेनातिसन्निहिततरस्य विषयस्य सद्भावात्। यस्त्वाह-विषयोपलम्भनिमित्तमात्रप्रतिपत्तौ प्रतीतिविशेषणस्यार्थस्य सिद्धत्वाद् नानवस्था। तदे-तदेव न संगच्छते। स्वसंवेदनज्ञानानभ्युपगमात् / एतच प्रतिपादितम् / अपि च-प्रमाणसंप्लवाऽऽदिना नैयायिके न प्रत्यक्षशाब्दज्ञानयोरेकविषयत्वमभ्युपगतम्, तथा चाध्यक्षज्ञानवत् शाब्देऽपि तस्यैवान्यूनातिरिक्तस्य विषयस्याधिगमे न प्रतिपत्तिभेद इत्यध्यक्षवच्छाब्दमपि स्पष्टप्रतिभासंस्वात्। अथैकविषयत्वे सत्यपि इन्द्रियसंबन्धाभावात् शब्दविषये प्रतिपत्तिभेदः / नन्वक्षैरपि विषयस्वरूपमुद्भासनीयम्। तच यदि शाब्देनापि प्रदर्श्यते, तथा सतीन्द्रियसंबन्धाभावेऽपि किमिति न स्पष्टावभासः शाब्दस्य ? न हि विषयभेदमन्तरेण ज्ञानावभासभेदो युक्तः / अन्यथा ज्ञानावभासभेदाद् विषयभेदव्यवस्था न स्यात् / नहि बहिरपि तदवभासभेद-संवेदनव्यतिरेकेणान्यभेदव्यवस्थानिबन्धनमुत्पश्यामः। अन्य-का प्रत्यक्षेऽपि साक्षादिन्द्रियसंबन्धोऽस्तीतिन स्वरूपेण ज्ञातुं शक्यः। तस्यातीन्द्रियत्वात्, किं तु स्वरूपप्रतिभासात् कार्यात्। तथाविकलं यदि शाब्देऽपि वस्तुस्वरूपं प्रतिभाति, तदा तत एवेन्द्रियसंबन्धस्तत्राऽपि किं नाभ्युपगम्यते? अथ तत्र स्पष्टप्रतिभासाभावाद् नासावनुमीयते / ननु तदभावस्तदक्षसंगतिविरहात्, तदभावश्च स्फुटप्रतिभासाभावादिति सोऽयमितरेतराऽऽश्रयदोषः। तस्माद् विषयभेदनिबन्धन एव ज्ञानप्रतिभासभेदाध्यवसायोऽभ्युपगन्तव्यः। स च एकविषयत्वे शाब्दाऽध्यक्षशानयोर्न संगच्छते। अथ शब्दैर्वस्तुरूपावभासेऽपिनसकलतद्गतविशेषावभास इत्यस्पष्टप्रतिभासं तत् / नन्वेवं प्रत्यक्षावभासिनो विशेषस्यार्थक्रियाक्षमस्य तत्राप्रतिभासनात्तदेव भिन्नविषयत्वंशाब्दाध्यक्षयोः प्रसक्तम्। अथोभयत्रापिव्यक्तिस्वरूपमेकमेवनीलाऽऽदित्वं प्रतिभाति, विशदाविशदौ वाऽऽकारौज्ञानाऽऽत्मभूतौ। नन्वेवमक्षसंबद्धे विषये प्रतिभासमाने तत्कालः स्पष्टत्वावभासो ज्ञानावभास इति प्राप्तम्, विशिष्टसामग्रीजन्यस्य ज्ञानस्य विशदत्वात् / तदवभासव्यतिरेकेण त्वक्षसंबद्धनीलप्रतिभासकालेऽन्यस्य भवदभ्युपगमेन वैशद्यप्रतिभासनिमित्तस्यासंभवात् / अथ भवतु विशदज्ञानप्रतिभासनिमित्त एव तत्र वैशद्यप्रतिभासव्यवहारः, तथाऽपि न स्वसंविदिततज्ज्ञानसिद्धिः, तदेकार्थसमवेतज्ञानान्तरवेद्यत्वेऽपि तद्व्यवहारस्य संभवात्। एककालावभासव्यवहारस्तुलघुवृत्तित्याद्मनसः क्रमानुपलक्षणनिमित्तः, उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत्। नन्वेवं सत्यङ्गुलि
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________________ णाण 1972 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण पशकस्यैकज्ञानावभासोऽपि क्रमावभासे सत्यपि तत एव क्रमप्र- | तिभासानुपलक्षणकृत इति सदसद्वर्गः सर्वः कस्यचिदेकज्ञानप्रत्यक्ष: प्रमेयत्वात् पञ्चाङ्गुलिवदिति सर्वज्ञसाधकप्रयोगे दृष्टान्तस्य साध्यविकलताप्रसक्तिः / तथा समस्तसदसद्वर्गग्राहकेण सर्वविद्- ज्ञानेन ज्ञानाऽऽत्मा गृह्यते, उत नेति? यदि न गृह्यते, तदा तस्य प्रमेयत्वे सति तेनैव प्रमेयत्वलक्षणो हेतुर्व्यभिचारी, अप्रमेयत्वे तस्य भागासिद्धो हेतुः / अथ सर्वज्ञज्ञानेन सर्वपदार्थग्राहिणा आत्माऽपि गृह्यत इति नानैकान्तिकः / नन्वेवं सति यथा ईश्वरज्ञानं ज्ञानत्वेऽप्यात्मानं स्वयं गृह्णाति, न च तत्र स्वात्मनि क्रियाविरोधः, तथाऽस्मदादिज्ञानमप्येवं भविष्यतीति न कश्चिद् विरोधः / किञ्चएवमभ्युपगमे ज्ञानं ज्ञानान्तरग्राह्यं प्रमेयत्वाद् घटवदित्यत्र प्रयोगे ईश्वरज्ञानस्य प्रमेयत्वे सत्यपि ज्ञानान्तरग्राह्यत्वाभावात् तेनैवा नैकान्तिकः प्रमेयत्वादिति हेतुः / तस्मात् ज्ञानस्य ज्ञानान्तरग्रा-ह्यत्वेऽनेकदोषसंभवात स्वसंविदितं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम। ज्ञानस्वरूपश्वाऽऽत्मा / अन्यथा भिन्नज्ञानसद्भावादाकाशस्येव तस्य ज्ञातृत्वं न स्यात्। न चाऽऽकाशव्यतिरेकेण ज्ञानमात्मन्येव समवेतमिति तस्यैव ज्ञातृत्वं नाऽऽकाशाऽऽदेरिति वक्तुं युक्तम्, समवायस्य निषेत्स्यमानत्वात् / ज्ञानस्य च स्वसंविदितत्वे सिद्धे आत्मनोऽपि तदव्यतिरिक्तस्य तत्सिद्धमिति कथं न स्वसंवेदन-प्रत्यक्षसिद्धत्वमात्मनः? तन्न प्रथमपक्षस्य दुष्टत्वम्। द्वितीयपक्षे–ऽपि यदुक्तम्- नहि कश्चित्पदार्थः कर्तृरूपः, करणरूपो वा स्वा–ऽऽत्मनिकर्मणीव सव्यापारो दृष्ट इति। तदप्यसङ्गतम्। भिन्नव्या-पारव्यतिरेकेणापि आत्मनः कर्तुः, प्रमाणस्य च ज्ञानस्य स्वसंवि-दितत्वप्रतिपादनात् / एकस्यैव च लिङ्गाऽऽदिकरणमपेक्ष्यावस्थाभेदेन यथा प्रमातृत्व, प्रमेयत्वं च भवद्भिरविरुद्धत्वेनाभ्युपगम्यते, तथैकदाऽप्येकस्याऽऽत्मनोऽनेकधर्म सद्भावात् प्रमातृत्वप्रमाण-त्वप्रमेयत्वान्यविरुद्धानि किं नाभ्युपगम्यते? तत्तद्धर्भयोगात्तत्तत्स्वभावत्वस्य प्रमाणनिश्चितत्वेनाविरोधात् / यत्रोक्तम्-प्रमाणाविषयत्वेऽप्यपरोक्षतेत्यस्यकोऽर्थ इत्यादि। तदप्यसारम् / ज्ञातृतया प्रमाणत्वेन च स्वरूपावभासनस्य प्रतिपादितत्वातानच घटाऽऽदेः स्वरूपस्य भिन्नज्ञानग्राह्यत्वात प्रमातः, प्रमाणस्य च स्वरूपं भिन्नज्ञानग्राह्यम् / तयोश्चिद्रूपत्वेन घटाऽऽदेस्तु तद्विपर्ययेण स्वरूपसिद्धत्वात् / न च प्रमाणप्रमातृस्वरूपग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य तल्लक्षणेनासंग्रहः, तत्संग्राहकस्यलक्षणस्य प्रदर्शितत्वात्। यदपि घटमहं चक्षुषा पश्यामीत्यनेनातिप्रसङ्गाऽऽपादनं कृतम्। तदप्यसङ्गतम्। न हि चक्षुषो जडरूपस्यास्वसंविदितत्वे प्रमातृप्रामत्यो-रपि चिद्रूपयोरस्वसंविदितत्वं युक्तम्, अन्यस्वभावत्वानुपपत्तेः / यत्तूक्तम्इन्द्रियव्यापारे सति शरीराद व्यवच्छिन्नस्य विषयस्यैव केवलस्या:वभासनमिति / तदत्यन्तमसङ्गतम् / विषयस्येव तदवभाससंवेदनस्यापि व्यवस्थापितत्वात्, तदभावे विषयावभास एव न स्यादित्यस्य चातः प्रमात्रवभास उपपन्न एव / सम्म०१ काण्ड। स्था०! (22) साम्प्रतं नित्यपरोक्षज्ञानवादिनां मीमांसकभेदभट्टानाम, एकाऽऽत्मसमवायिज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादिनां च यौगानां मतं विकुट्टयन्नाह'स्वार्थावबोधक्षम एव बोधः, प्रकाशते मार्थकथाऽन्यथा तु। परे परेभ्यो भयतस्तथाऽपि, प्रपेदिरे ज्ञानमनात्मनिष्ठम् // 12 // बोधो-ज्ञानं, स च स्वार्थावबोधक्षम एव प्रकाशते, स्वस्याऽऽत्मस्वरूपस्य, अर्थस्य च पदार्थस्य, योऽवबोधः-परिच्छेदः, तत्र क्षम एवसमर्थ एव प्रतिभासते : इत्ययोगव्यवच्छेदः / प्रकाशत इति क्रिययाऽवबोधस्य प्रकाशरूपत्वसिद्धेसर्वप्रकाशानां तु स्वार्थप्रका-- शकत्वेन, बोधस्यापि तत्सिद्धिः। विपर्यये दूषणमाह-नार्थकथा-ऽन्यथा त्विति / अन्यथेति-अर्थप्रकाशनेऽविवादाद, ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वानभ्युपगमेऽर्थकथैव न स्यात्। अर्थकथा पदार्थसंब-धिनी वार्ता, सदसद्रूपाऽऽत्मक स्वरूपमिति यावत् / तुशब्दोऽ-वधारणे भिन्नक्रमश्च, स चार्थकथया सहयोजित एव। यदि हि ज्ञानं स्वसविदितं नेष्यते, तदा तेनाऽऽत्मज्ञानाय ज्ञानान्तरमपेक्षणीयम्, तेनाप्यपरमित्याद्यनवस्था, ततो ज्ञान तावत्स्वावबोध-व्यग्रतामग्रम् ; अर्थस्तु-जडतया स्वरूपज्ञापनासमर्थ इति को नामार्थस्य कथामपि कथयेत् ? तथाऽपिएवं ज्ञानस्य स्वसंवि-दितत्वे युक्त्या घटमानेऽपि, परेतीर्थान्तरीयाः, ज्ञानं-कर्मताऽऽ-पन्नम्, अनात्मनिष्ठ न विद्यत आत्मनः स्वस्य निष्ठा निश्चयो यस्य तदनात्मनिष्ठम्, अस्वसंविदितमित्यर्थः, प्रपेदिरेप्रपन्नाः / कुतः? इत्याह-परेभ्यो भयतः; परेपूर्वपक्षवादिनः, तेभ्यः सकाशाद् ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वं नोपपद्यते, स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्यु-पालम्भसंभावनासंभवं यद्भयं, तस्मात्, तदाश्रित्येत्यर्थः / इत्थ-मक्षरगमनिकां विधाय भावाऽर्थः प्रपञ्च्यतेभट्टास्तावदिदं वदन्ति यद् ज्ञानं स्वसंविदितं न भवति-स्वात्मनि . क्रियाविरोधात्। न हि सुशिक्षितोऽपि नटवटुःस्वस्कन्धमधिरोदं पटुः, न च सुती-क्षणाऽऽप्यसिधारा स्वेछेत्तुमाहितव्यापारा; ततश्च परोक्षमेव ज्ञानमिति / तदेतन्न सम्यक् / यतः-किमुत्पत्तिः स्वात्मनि विरुध्यते, ज्ञप्तिा? यदि उत्पत्तिः, सा विरुध्यता, न हि वयमपि ज्ञानमात्मानमुत्पादयतीति मन्यामहे। अथ ज्ञप्तिः-नेयमात्मनि विरुद्धा; तदाऽऽत्मनैव ज्ञानस्य स्वहेतुभ्य उत्पादात्, प्रकाशाऽऽ-त्मनेव प्रदीपाऽऽलोकस्य / अथ प्रकाशाऽऽत्मैव प्रदीपाऽऽलोक उत्पन्न इति परप्रकाशकोऽस्तु, आत्मानमप्येतावन्मात्रेणैव प्रका-शयतीति कोऽयं न्याय? इति चेत् तत्किं तेन वराकेणाप्रकाशिते-नैव स्थातव्यम्, आलोकान्तराद्वाऽस्य प्रकाशेन भवितव्यम्? प्रथमे प्रत्यक्षबाधो, द्वितीयेऽपि-सैवानवस्थाऽऽपत्तिश्च / अथ नासौ स्वमपेक्ष्य कर्मतया चकास्तीत्यस्वप्रकाशकः स्वीक्रियते, आत्मानं न प्रकाशयतीत्यर्थः; प्रकाशरूपतया तूत्पन्नत्वात् स्वयं प्रकाशत एवेति चेचिरं जीवः न हि वयमपि ज्ञानं कर्मतयैव प्रतिभासमानं स्वसंवेद्यं ब्रूमः; ज्ञानं स्वयं प्रतिभासत इत्यादावकर्मकस्य तस्य चकासनात् / यथा तु ज्ञानं स्वं जानामीति कर्मतयाऽपि तद्भाति, तथा प्रदीपः स्वं प्रकाशयतीत्ययमपि कर्मतया प्रथित एव। यस्तु स्वात्मनि क्रियाविरोधो दोष उद्भावितःसोऽयुक्तः अनुभवसिद्धे-ऽर्थे विरोधासिद्धेः 'घटमहं जानामि' इत्यादी कर्तृकर्मवद्ज्ञप्तेरप्यवभासमानत्वात्। स्या०१२ श्लोक। (अतीन्द्रियान् धर्मा-स्तिकायाऽऽदीन् छद्मस्थो न जानातीति 'छउमत्थ' शब्दे तृतीयभागे 1336 पृष्टे उक्तम्) (23) अथ ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च निरूपयन्नाहजीवा णं भंते ! किं णाणी, किं अण्णाणी? गोयमा ! जीवाणाणी वि, अण्णाणी वि। जे णाणी, ते अत्थे
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________________ णाण 1973 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण गइया दुयणाणी, अत्थेगइया तिण्णाणी, अत्थेगइया चउणाणी, अत्थेगइया एगणाणी। जे दुयणाणी, ते आभिणि-बोहियणाणी य, सुयणाणी य / जे तिण्णाणी, ते आभिणि-बोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी / अहवा-आमिणिबो-हियणाणी, सुयणाणी, मणपज्जवणाणी। जे चउणाणी, ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी / जे एगणाणी, ते नियमा केवलणाणी / जे अणाणी, ते अत्थेगइया दुअण्णाणी, J अत्थेगइया तिअण्णाणी। जे दुअण्णाणी, ते मइअण्णाणी य, सुयअणाणी य। जे तिअण्णाणी, ते मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगणाणी। (24) नैरयिकजीवानधिकृत्याऽऽहणेरइयाणं भंते ! किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! णाणी वि, अणाणी वि। जेणाणी, ते नियमा तिण्णाणी। तं जहा-आमिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी / जे अण्णाणी, ते अत्थेगइया दुअण्णाणी, अत्थेगइया तिअण्णाणी, एवं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। इह च नारकाधिकारे-"जे नाणी, ते नियमा तिण्णाणी'' इति। सम्यग दृष्टिनारकाणां भवप्रत्ययमवधिज्ञानमस्तीत कृत्वा ते नियमात् त्रिज्ञानिनः। "जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दुअण्णाणी'' इति / कथमुच्यते? असंज्ञिनः सन्तो ये नारकेषूत्पद्यन्ते, तेषामपर्याप्तकावस्थायां विभङ्गामावादाद्यमेवाज्ञानद्वयमिति ते द्वयज्ञानिनः / ये तु मिथ्यादृष्टि संज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते, तेषां भवप्रत्ययो विभङ्गो भवतीति तेऽज्ञानिनः / एतदेव निगमयन्नाह-(एवं तिणि अण्णाणाणि भयणाए त्ति) असुरकुमाराणं भंते ! किं णाणी, अण्णाणी ? जहेव णेरइया तहेव तिण्णि णाणाणि नियमा, तिणि अण्णाणि भयणाए, एवं० जाव थणियकुमारा। पुढविकाइयाणं भंते ! किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! नो णाणी, अण्णाणी। नियमा दुअण्णाणी-मतिअण्णाणी, सुय-- अण्णाणी य। एवं०जाव वणस्सइकाइया। (25) द्वीन्द्रियाः सिद्धपर्यन्ताःवेइंदियाणं पुच्छा? गोयमा ! णाणीवि, अण्णाणी वि। जेणाणी, ते णियमा दुण्णाण / तं जहा-आमिणिबोहियणाणी य, 1 सुयणाणीय / जे अण्णाणी, ते नियमा दुअण्णाणी / तं जहा-- मइअण्णाणी य, सुयअण्णाणी य। एवं तेइंदियचउरिदिया वि। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि / जे णाणी, ते अत्थेगइया दुन्नाणी, अत्थेगइया तिण्णाणी। एवं तिण्णि णाणाणि, तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। मणुस्सा जहा जीवा तहेव पंच णाणाई, तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। वाणमंतराजहाणेरझ्या, जोइसियवेमाणियाणं तिण्णि णाणाई, तिण्णि अण्णाणाई नियमा। सिद्धाणं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! णाणी, नोअण्णाणी, नियमा एगणाणी, केवलणाणी। (वेइंदियाणमित्यादि) द्वीन्द्रियाः केचिद् ज्ञानिनोऽपि सासादन-- सम्यग्दर्शनभावनापर्याप्तकावस्थायां भवन्तीत्यत उच्यते-(नाणी वि, अण्णाणी वि त्ति) अनन्तरं जीवाऽऽदिषु षड्विंशतिपदेषु ज्ञान्यज्ञानिनश्चिन्तिताः। (26) अथ तान्येव गतीन्द्रियकायाऽऽदिद्वारेषु चिन्तयन्नाहनिरयगइयाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि, तिण्णि णाणाई नियमा, तिपिण अण्णाणाई भयणाए। तिरियगइयाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? दो णाणा, दो अण्णाणा नियमा। मणुस्सगइयाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? तिण्णि णाणाइं भयणाए, दो अण्णाणाई नियमा। देवगतिया जहा निरयगतिया। सिद्धगइया णं भंते !?; जहा सिद्धा। गत्यादिद्वाराणि चैतानि"गइ इंदिए य काए, सुहमे पजत्तए भवत्थे य। भवसिद्धिए य सन्नी, लद्धी उवओगजोगे य / / 1 / / लेस्सा कसाय वेए, आहारे नाणगोयरे काले। अंतर अप्पाबहुयं, च पजवा चेह दाराई।।२।।" तत्रच निरये गतिर्गमनं येषां ते निरयगतिकाः, तेषामिह च सम्यग्दृष्टयो, मिथ्यादृष्टयो वा ज्ञानिनोऽज्ञानिनोवा ये पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्येभ्यो नरके उत्पत्तुकामा अन्तरगतौ वर्तन्ते, ते निरयगतिका विवक्षिताः, एतत्प्रयोजनत्वाद् गतिग्रहणस्येति / (तिण्णि णाणाई नियम त्ति) अवधेर्भवप्रत्ययत्वेनान्तरगतावपि भावात् / (तिणि अण्णाणाई भयणाए त्ति) असंज्ञिनां नरके गच्छता द्वे अज्ञाने अपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात्। संज्ञिनां तु मिथ्यादृष्टीनां त्रीणे अज्ञानानि, भवप्रत्ययविभङ्गस्य सद्भावात्। अतस्त्रीणि अज्ञानानि भजनयेत्युच्यत इति। (तिरियगइयाणं ति) तिर्यक्षु गतिर्गमनं येषां ते तिर्यग्गतिकाः, तेषां तदयान्तरालवर्तिनाम् (दो णाण त्ति) सम्यग् दृष्टयो हि अवधिज्ञाने प्रतिपतित एव तिर्यक्षु गच्छन्ति, तेन तेषां द्वे एव ज्ञाने (द्वो अन्नाणेति) मिथ्यादृष्योऽपि विभङ्गज्ञाने प्रतिपतित एव तिर्यक्षु गच्छन्ति, तेन तेषां वे अज्ञाने इति। (मणुस्सगइयाणामित्यादि) (तिण्णि नाणाई भयणाए त्ति) मनुष्यगतौ हि गच्छन्ति केचिज्ज्ञानिनोऽवधिना सहैव गच्छन्ति, तीर्थकरवत् केचिच तद्विमुच्यन्ते, तेषां त्रीणि वा द्वे वा ज्ञाने स्याता–मति, ये पुनरज्ञानिनो मनुष्यगतावुत्पत्तुकामास्तेषां प्रतिपतित एव विभङ्गे तत्रोत्पत्तिः स्यादित्यत उक्तम् / (दो अन्नाणाई नियम ति) (देवगइया जहा निरयगइय त्ति) देवगतौ ये ज्ञानिनो यातुकामा-स्तेषामवधिर्भवप्रत्ययो देवायुःप्रथमसमय एवोत्पद्यते, अतस्तेषां नाणकाणामिवोच्यते- “तिण्णि नाणाइं नियम त्ति / ये
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________________ णाण 1974 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण निनस्तेऽसज्ञिभ्य उत्पद्यमाना व्यज्ञानिनोऽपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात्, संज्ञिभ्य उपद्यमानास्तु यज्ञानिनो भवप्रत्ययविभङ्गस्य / सद्भावात्, अतस्तेषां नारकाणामिवोच्यते-"तिण्णि अन्नाणाई भयणाए त्ति' (सिद्धगइयाणं इत्यादि) यथा सिद्धाः केवलज्ञानिन एव, एवं सिद्धिगतिका अपि वाच्या इति भावः। यद्यपि च सिद्धानां सिद्धिगतिकाना चान्तर्गत्यभावाद् न विशेषोऽस्ति, तथाऽपीह गतिद्वारबलाऽऽयातत्वात् तेदर्शिताः, एवं द्वारान्तरेष्वपि परस्परान्तर्भावेऽपि तत्तद्विशेषापेक्षयाsपौनरुक्त्यं भावनीयमिति। (27) अथेन्द्रियद्वारेसइंदियाणं भंते! जीवा किंणाणी,अण्णाणी? गोयमा! चत्तारि नाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। एगिदिया णं भंते! जीवा किं णाणी, किं अण्णाणी? जहा पुढ विकाइया / वेइंदियतेइंदियचउरिदियाणं दो णाणा, दो अण्णाणा नियमा।पंचिंदिया जहा सइंदिया / अणिंदियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, किं / अण्णाणी? जहा सिद्धा॥ (सइंदियेत्यादि) सेन्द्रिया इन्द्रियोपयोगवन्तः, ते च ज्ञानिनः, अज्ञानिनश्च / तत्र ज्ञानिनां चत्वारि, ज्ञानानि भजनया, स्याद् द्वे, स्यात् त्रीणि, स्यात् चत्वारि। केवलज्ञानं तु नास्ति, तेषामतीन्द्रियज्ञानत्वात्, तस्य द्वयादिभावश्च ज्ञानानां लब्ध्यपेक्षया, उपयोगापेक्षया तु सर्वेषामेकदैकमेव ज्ञानम्। अज्ञानिनांतुत्रीण्यज्ञानानि भजनयैव, स्याद् द्वे, स्यात् त्रीणीति / (जहा पुढविकाइय त्ति) एकेन्द्रिया मिथ्यादृष्टित्वादज्ञानिनः, ते च व्यज्ञाना एवेत्यर्थः। (वेइंदियेत्यादि) एषां द्वे ज्ञाने सासादनस्तेषूत्पद्यत इति कृत्वा सासादनश्चोत्कृष्टतः षडावलिकामानः, अतो द्वे ज्ञाने तेषु लभ्येते इति / (अणिदिय त्ति) केवलिनः। (28) कायद्वारेसकाइयाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए / पुढविकाइया०जाव वणस्सइकाइया, नो नाणी, अण्णाणी, नियमा दुअण्णाणी। तं जहा-मइअण्णाणी य, सुयअण्णाणी य / तसकाइया जहा सकाइया। अकाइयाणं भंते ! जीवा किं णाणी, किं अण्णाणी? जहा सिद्धा॥ (सकाइयाणमित्यादि) सह काये नौदारिकाऽऽदिना शरीरेण पृथिव्यादिषट्कायान्यतरेण वा कायेन येते सकायास्त एव सकायिकाः; ते च केवलिनोऽपि स्युरिति सकायिकानां सम्यग्दृशां पञ्च ज्ञानानि, मिथ्यादृशां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनया स्युरिति / (अकाइयाणं ति) नास्ति काय उक्तलक्षणो येषांह तेऽकायाः,त एवाकायिकाः सिद्धाः। (26) सूक्ष्मद्वारेसुहमाणं भंते ! जीवा किं णाणी, किं अण्णाणी? जहा पुढविकाइया। बादराणं भंते ! जीवा किं णाणी, किं अण्णाणी? जहा सकाइया / नो सुहुमा नो बादरा णं भंते ! जीवा ? जहा सिद्धा। (जहा पुढविकाइया ति)द्व्यज्ञानिनः सूक्ष्माः, मिथ्यादृष्टित्वादित्यर्थः / (जहा सकाइय त्ति) बादराः के वलिनोऽपि भवन्तीति कृत्वा ते सकायिकवद्भजनया पञ्च ज्ञानिनस्त्र्यज्ञानिनश्च वाच्या इति। (30) पर्याप्तकद्वारेपज्जत्ताणं भंते ! जीवा किं णाणी, किं अण्णाणी? जहा सकाइया। पज्जत्ता णं भंते ! नेरइया किं णाणी, किं अण्णाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि य अण्णाणा नियमा जहा नेरइया, एवं० जाव थणियकुमारा / पुढविकाइया जहा एगिदिया, एवं०जाव चउरिदिया / पज्जत्ताणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं णाणी, किं अण्णाणी? तिण्णि णाणा, तिणि अण्णाणा भयणाए, मणुस्सा जहा सकाइया वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेरइया / अपजत्ताणं भंते ! जीवा किं णाणी, किं अण्णाणी? तिणि णाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए / अपज्जत्ता णं भंते ! नेरइया किं णाणी, किं अण्णाणी? तिण्णि णाणा नियमा, तिणि अण्णाणा भयणाए, एवं०जाव थणिय-कु मारा, पुढविकाइया०जाव वणस्सइकाइया,जहा एगिदिया वेइंदियाणं पुच्छा? दो णाणा, दो अण्णाणा नियमा, एवं०जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अपजत्तगाणं भंते ! मणुस्सा किं णाणी, किं अण्णाणी? तिण्णि नाणाइं भयणाए, दो अण्णाणाई नियमा। वाणमंतरा जहा नेरइया अपज्जत्तगा, जोइसियवेमाणियाणं तिणि नाणा, तिणि अण्णाणा नियमा। नो पज्जत्तगा, नो अपजत्तगाणं भंते ! जीवा किं णाणी, किं अण्णाणी? जहा सिद्धा॥ (जहा सकाइय त्ति) पर्याप्तकाः केवलिनोऽपि स्युरिति ते सकायिकवत्पूर्वोक्तप्रकारेण वाच्याः, पर्याप्तकद्वार एव चतुर्विशतिदण्डके पर्याप्तकनारकाणां (तिन्नि य अन्नाणा णियम ति) अपर्याप्तकानामेवासंज्ञिनारकाणां विभङ्गाभाव इति पर्याप्तकावस्थायां तेषामज्ञानत्रयमेवेति / (एवं०जाव चउरिदिय त्ति) द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तकाः, द्वयज्ञानिन एवेत्यर्थः / (पञ्जत्ता णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खेत्यादि) पर्याप्तक पञ्चेन्द्रियतिरश्चामवधिर्विभङ्गो वा केषाञ्चित् स्यात्, केषाञ्चित्पुनर्नेति त्रीणि ज्ञानानि, अज्ञानानि वा द्वे वा ज्ञाने अज्ञाने वा तेषां स्यातामिति / (वेइंदियाणं दो णाणेत्यादि) अपर्याप्तकद्वीन्द्रियाऽऽदीना केषाञ्चित्सासादनसम्यग्दर्शनस्य सद्भावाद् द्वे ज्ञाने, केषाञ्चित् पुनः तस्यासद्भावाद् द्वे एवाज्ञाने, अपर्याप्तकमनुष्याणां पुनः सम्यग्दृशामवधिभावे त्रीणि ज्ञानानि, यथा तीर्थकराणां, तदभावे तु द्वे ज्ञाने, मिथ्यादृशां तु द्वे एवाज्ञाने, विभङ्ग स्यापर्याप्तकत्वे तेषामभावात् / अत एवोक्तम्-(तिण्णि नाणाई भयणाए, दो अण्णाणाई नियम त्ति)(वाणमंतरेत्यादि) व्यन्तरा अपर्याप्तका नारका इव त्रिज्ञाना व्यज्ञानास्यज्ञाना वा वाच्याः / तेष्वण्यसंज्ञिभ्य उत्पद्यमानानामपर्याप्तकानां विभङ्गाभावात, शेषाणां चावधोर्विभङ्गस्यवाभावात्। (जोइसियेत्यादि) एतेषुहि संज्ञिभ्यएवोत्पद्यन्ते,
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________________ णाण 1975 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण तेषां चापर्याप्तकत्वेऽपि भवप्रत्ययस्यावधेर्विभङ्गस्य चावश्य भावात्, त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि वा स्युरिति / (नोपजत्तगनोअपजत्तग त्ति) सिद्धाः। / (31) भवस्थद्वारेनिरयभवत्थाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? जहा / निरयगइया / तिरियभवत्थाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? तिण्णि णाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए, मणुस्सभवत्था जहा सकाइया / देवभवत्थाणं भंते ! जहा निरय-भवत्था, अभवत्था ? जहा सिद्धा।। (निरयभवत्थाणमित्यादि) निरयभवे तिष्ठन्तीति निरयभवस्थाः प्राप्तोत्पत्तिस्थानाः, ते च यथा निरयगतिकाः त्रिज्ञानाः, व्यज्ञानास्त्र्यज्ञानाश्चोक्ताः, तथा वाच्या इति। (32) भव्यद्वारेभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? जहा सकाइया / अभवसिद्धियाणं पुच्छा? गोयमा ! नो णाणी, अण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए, नो भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धियाणं जीवा जहा सिद्धा। भवसिद्धिकाः केवलिनोऽपीति ते सकायिकवद् भजनया पञ्चज्ञानाः, तथा यावत्सम्यक्त्वं न प्रतिपन्नास्तावद्धजनयैव त्र्यज्ञानाश्च वाच्या इति। अभवसिद्धिकानां त्वज्ञानत्रयं भजनया स्यात्, सदा मिथ्यादृष्टित्वात् तेषाम् / अत उक्तम्-"नो णाणी, अण्णाणी'' इत्यादीति। (33) संज्ञिद्वारेसण्णीणं पुच्छा? जहा सइंदिया, असण्णी जहा वेइंदिया, नो सण्णी, नो असण्णी, जहा सिद्धा। ज्ञानानि चत्वारि भजनया, अज्ञानानि च त्रीणि तथैवेत्यर्थः ।(असन्नी जहा वेइंदिय त्ति) अपर्याप्तकावस्थायां ज्ञानद्वयमपि सासादनतया स्यात्, पर्याप्तकावस्थायां त्वज्ञानद्वयमेवेत्यर्थः / भ०५२०२उ०। (लब्धिभेदा 'लद्धि' शब्दे दर्शयिष्यन्ते) (34) लब्धिद्वारेणाणलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! णाणी, नो अण्णाणी, अत्थेगइया दुणाणी, एवं पंच णाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! णो णाणी, अणाणी, अत्थेगइया दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। आमिणिबोहियणाणलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी, अत्थेगइया दुणाणी, चत्तारिणाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि। जे णाणी, ते नियमा एगणाणी, केवलणाणी। जे अण्णाणी, ते अत्थेगइया दुअण्णाणी, तिणि अण्णाणाई भयणाए / एवं सुयणाणलद्धिया वि / तस्स अलद्धिया वि जहा आभिणिबोहियणाणस्स लद्धिया। ओहिणाणलद्धियाणं पुच्छा? गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी, अत्थेगइया तिण्णाणी, अत्थेगइया चउणाणी, जे तिण्णाणी, ते आमिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी! जे चउणाणी, ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी / तस्स अलद्धियाणं पुच्छा ? गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि, ओहिणाणवज्जाइं चत्तारि णाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए। मणपज्जवणाणलद्धियाणं पुच्छा? गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी, अत्थेगइया तिण्णाणी, अत्थेगइया चउणाणी। जे तिण्णाणी, ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, मणपज्जवणाणी। जे चउणाणी, ते आमिणिबोहियणाणी सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी / तस्स अलद्धियाणां पुच्छा? गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि / मणपज्जवणाणवज्जाइं चत्तारि णाणाइं, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। के वलणाणलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी नियमा एगणाणी, केवलणाणी / तस्स अलद्धियाणं पुच्छा? गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि, के वलणाणवजाइं चत्तारि णाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। अण्णाणलद्धियाणं मंते ! पुच्छा? गोयमा ! नो णाणी, अण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए / तस्स अलद्धियाणं भंते ? गोयमा! णाणी, नो अण्णाणी, पंच नाणाई भयणाए, जहा अण्णाणस्स लद्धिया अलद्धिया भणिया, एवं मइअण्णाणस्स, सुयअण्णा-णस्स य लद्धिया अलद्धिया य भाणियव्वा / विभंगणालद्धियाणं तिण्णि अण्णाणाई नियमा / तस्स अलद्धियाणं पंच णाणाई भयणाए, दो अण्णाणाई नियमा। दसणलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? गोयमा! णाणी वि, अण्णाणी वि, पंच णाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं भंते! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! तस्स अलद्धिया नस्थि / सम्मईसणलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए / तस्स अलद्धियाणं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। मिच्छादसणलद्धियाणं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! नो नाणी, अन्नाण्णी, तिपिण अण्णाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं भंते ! किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि। पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए। सम्मामिच्छादंसणलद्धिया अलद्धिया य जहा मिच्छादसणलद्धिया अलद्धिया य तहेव भाणियव्वा।
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________________ णाण 1976 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण (तस्स अलद्धियाणं ति) तस्य ज्ञानस्य अलब्धिका अलब्धिमन्तो, ज्ञानलब्धिरहिता इत्यर्थः / (आभिणिबोहियणाणेत्यादि) आभिनिबोधिकज्ञानलब्धिकानां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलिनो नास्त्याभिनिबोधिकज्ञानमिति / मतिज्ञान स्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते केवलिनः, ते चैकज्ञानिन एव, ये त्वज्ञानिनस्तेऽज्ञानद्वयवन्तोऽज्ञान यवन्तो वा; एवं श्रुतेऽपि / (ओहिणाणलद्धीत्यादि) अवधिज्ञानलब्धिकाः त्रिज्ञानाः, केवलमन पर्यायसद्भावे चतुर्माना वा; केवलाभावात्, अवधिज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते द्विज्ञाना मतिश्रुतभावात्, त्रिज्ञाना वा मतिश्रुतमनः पर्यायभावात्, एकज्ञाना वा केवलभावात्। ये त्वज्ञानिनस्तेद्व्यज्ञाना मत्यज्ञानश्रुताज्ञानभावात्, त्र्यज्ञाना वा त्रयस्यापि भावात। (मणपजवेत्यादि) मनःपर्यवज्ञानलब्धिकाविज्ञानाः, अवधि केवलाभावात्, चतुर्माना वा केवलस्यैवाभावात् / मनःपर्यवज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते द्विज्ञानाः, आद्यद्वयभावात्, त्रिज्ञाना वा आद्यत्रयभावात्, एकज्ञाना वा केवलस्यैव भावात्, ये त्वज्ञानिनः ते व्यज्ञाना आद्याज्ञानद्वयभावात्, त्र्यज्ञाना वा अज्ञानत्रयस्यापि भावात्। (केवलनाणेत्यादि) केवलज्ञानलब्धिका एवाज्ञानिनः, ते च केवलज्ञानिन एव, केवलज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषामाद्यज्ञानद्वयं तत्त्रय मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानानि वा केवलज्ञानवर्जानि चत्वारि वा ज्ञानानि भवन्ति / ये त्वज्ञानिन–स्तेषामाद्यमज्ञानद्यं, तत्त्रयं वा भवतीत्येवं भजनाऽवसे येति / (अण्णाणलद्धियाणमित्यादि) अज्ञानलब्धिका अज्ञानिनस्तेषां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया, द्वे अज्ञाने, त्रीणि वा अज्ञानानीत्यर्थः। अज्ञानालब्धिकास्तु ज्ञानिनस्तेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया पूर्वोपदर्शितया वाच्यानि / (जहा अण्णाणेत्यादि) अज्ञानजब्धिकानां त्रीणि अज्ञनानि भजनयोक्तानि, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलब्धिकानामपि तानि तथैव / तथा अज्ञानालब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि भजनयोक्तानि, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलब्धिकानामपि पञ्च ज्ञानानि भजनयैव वाच्यानीति / (विभंगेत्यादि) विभङ्गज्ञानलब्धिकानां तु त्रीण्यज्ञानानि नियमात्, तदलब्धिकानां ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां च द्वे अज्ञाने नियमादिति / (दसणलद्धीत्यादि) दर्शनलब्धिकाः श्रद्धानमात्रलब्धिका इत्यर्थः, तेच सम्यक् श्रद्धानवन्तो ज्ञाननः, तदितरे त्वज्ञानिनः, तत्र ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैवेति।(तस्स अलद्धिया नस्थि त्ति) तस्य दर्शनस्य येषामलब्धिः, ते न सन्त्येव, सर्वजीवानां रुचिमात्रस्यास्तित्वादिति / (सम्मईसणलद्धियाणं ति) सम्यग्दृष्टीनाम् / (तस्स अलद्धियाणमित्यादि) तस्यालब्धिकानां सम्यग् दर्शनस्यालब्धिमतां मिथ्यादृष्टीनां मिश्रदृष्टीनां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया, यतो मिश्रदृष्टीनामप्यज्ञानमेव तात्त्विकसदोधाहेतुत्वाद् मिश्रस्येति / (मिच्छादसणलद्धियाण ति) मिथ्यादृष्टीनाम् / (तस्स अलद्धियाणमित्यादि) तस्यालब्धिकानां मिथ्यादर्शनस्यालब्धिमता सम्यग्दृष्टीनां मिश्रदृष्टीनां च क्रमेण पञ्च ज्ञानानि, त्रीण्यज्ञानानि च भजनवेति / भ०८ श०२ उ०। (निर्ग्रन्थाना 'णिग्गथ' शब्द तथा संयतानां संजय' शब्दे / वक्तव्यता) चरित्तलद्धियाणं भंते ! जीवा किंणाणी, अण्णाणी? गोयमा! पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धिआणं मणपञ्जवणाणवजाई चत्तारि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए / सामाइयचरित्तलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? गोयमा! चत्तारिणाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई, तिपिण्ण य अण्णाणाई भयणाए / एवं जहा सामाइयचरित्तलद्धिया अलद्धिया य भणिया एवं०जाव अहक्खायचरित्तलद्धिया अलद्धिया य भाणियव्वा, नवरं अहक्खायचरित्तलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए। चरित्ताचरित्तलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी, अत्थेगइया दुनाणी, अत्थेगइया तिण्णाणी, जे दुनाणी, ते आमिणिबोहियणाणी, सुयणाणी याजे तिण्णाणी, ते आभिणिबोहियणाणी य, सुयणाणी य, ओहिणाणी य / तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। (चरित्तलद्धियाणमित्यादि) चरित्रलब्धिका ज्ञानिन एव, तेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया, यतः केवल्यपि चारित्री, चरित्रलब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां मनःपर्यववर्जानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया भवन्ति, कथमसंयतत्थे आद्यं ज्ञानद्वयं, तत्त्रयं वा; सिद्धत्वे च केवलज्ञानं, सिद्धानामपि चरित्रलब्धिशून्यत्वात्, यतस्ते नो चरित्रिणो नोऽचरित्रिण इति / ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया। (सामाइयेत्यादि) सामायिकचरित्रलब्धिका ज्ञानिन एव, तेषां च केवलज्ञानवर्जानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया, सामायिकचरित्रालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनः तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया छेदोपस्थापनीयाऽऽदिभावेन, सिद्धभावेन वा;ये त्वज्ञानिनः तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया, एवं छेदोपस्थापनीयाऽऽदिष्वपि वाच्यम्। एतदेवाऽऽह-(एवमित्यादि) तत्र छेदोपस्थापनीयाऽऽदि चरित्रत्रयलब्धयो ज्ञानिन एव, तेषां चाऽऽद्यानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया, तदलब्धयो यथाख्यातचरित्रालब्धयश्च ये ज्ञानिनः, तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, ये त्वज्ञानिनस्तेषामज्ञानत्रयं भजनयैव, यथाऽऽख्यातचरित्रलब्धिकानां तु विशेषोऽन्ति, अतः तद्दर्शनायाऽऽह-(नवरमहक्खायेत्यादि) सामायिकाऽऽदिचरित्रचतुष्टयलब्धिमतां छद्मस्थत्वेन चत्वार्यव ज्ञानानि भजनया, यथाख्यातचरित्रलब्धिमतां छद्मस्थेतरभावेन पञ्चापि भजनया भवन्तीति तेषां तथैव तानि उक्तानीति / "चरित्ताचरित्त" इत्यादौ (तस्स अलद्धिय त्ति) चरित्राचरित्रस्यालब्धिकाः श्रावकादन्ये ते च ये ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनयैव। दाणलद्धियाणं पंच णाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं पुच्छा? गोयमा ! नाणी, नो अन्नाणी णियमा एगणाणी के क्लणाणी / एवं०जाव वीरियलद्धिया, अलद्धिया भाणियव्वा / बालवीरियलद्धियाणं तिण्णि णाणाई, तिणि अण्णाणाइं भयणाए / तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए / पंडि यवीरियलद्धियाणं
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________________ णाण 1977- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण पंच नाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं मणपज्जवनाणवज्जाई नाणाई अण्णाणाई तिण्णि य भयणाए / बालपंडियवीरियलद्धियाणं तिण्णि नाणाइं भयणाए। तस्स अलद्धियाणं पंच णाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। (दाणलद्धियाणमित्यादि)दानान्तरायक्षयक्षयोपशमाद्दाने दातव्ये लब्धिर्येषां ते दानलब्धयः, ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च / तत्र ये ज्ञानिनः तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, केवलज्ञानिनामपि दानलब्धियुक्तत्वात्। ये तु अज्ञानिनः तेषां त्रीणि अज्ञानानि भजनयैव, दानस्यालब्धिकास्तु सिद्धाः, ते च दानान्तरायक्षयेऽपि दातव्याभावात् संप्रदानासत्त्वात् दानप्रयोजनाभावाच दानालब्धय उक्ताः, ते च नियमात् केवलज्ञानिन इति, लाभभोगोपभोगवीर्यलब्धिः सेतरा। अतिदिशन्नाह-(एवमित्यादि) इह चालब्धयः सिद्धानामेवोक्तन्यायादवसेयाः / ननु दानाऽऽद्यन्तरायक्षयात्केवलिनां दानाऽऽदयः सर्वप्रकारेण कस्मान्न भवन्तीति? उच्यते-प्रयोजना-भावात्, कृतकृत्या हि ते भगवन्त इति / (बालवीरियलद्धियाण-मित्यादि) बालवीर्यलब्धयोऽसंयताः, तेषा च ज्ञानिनां त्रीणि ज्ञानानि, अज्ञानिनां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया भवन्ति, तदल-ब्धिकास्तु संयताः, संयतासंयताश्च, ते च ज्ञानिन एव; तेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया। ''पंडियवीरिय'' इत्यादौ (तस्स अलद्धियाण ति) असंयतानां संयतासंयतानां सिद्धानां चेत्यर्थः, तत्रासयतानामाद्यज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं च भजनया, संयतासंयतानां तु ज्ञानत्रयं भजनयैव भवति, सिद्धानां तु केवलज्ञानमेव, मनःपर्यायज्ञानं तु पण्डितवीर्यलब्धिवतामेवेति, नान्येषाम् / अत उक्तम्-(मणपज्जवेत्यादि) सिद्धानां च पण्डितवीर्यालब्धिकत्वं पण्डितवीर्यवाच्ये प्रत्युपेक्षणाऽऽद्यनुष्ठाने प्रवृत्त्यभावात्। "बालपंडिय' इत्यादौ (तस्स अलद्धियाणं ति) अश्रावकाणामित्यर्थः / इंदियलद्धियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा! चत्तारि नाणाई, तिण्णि य अन्नाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं पुच्छा? गोयमा ! नाणी नो अण्णाणी नियमा एगनाणी / केवलणाणी / सोइंदियलद्धियाणं जहा इंदियलद्धिया, तस्स अलद्धियाणं पुच्छा? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। जे नाणी, ते अत्थेगइया दुनाणी, अत्थेगइया एगनाणी / जे दुनाणी, ते आमिणिबोहियनाणी, सुयणाणी। जे एगनाणी, ते केवलनाणी, जे अण्णाणी, ते नियमा दुअण्णाणी। तं जहा-मतिअण्णाणी, सुयअण्णाणी। चक्खिदियघाणिंदियलद्धियाणं अलद्धियाण य जहेव सोइंदियलद्धिया अलद्धिया / जिभिं-दियलद्धियाणं चत्तारि नाणाई, तिण्णि अन्नाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं पुच्छा ? गोयमा ! नाणी वि, अन्नाणी वि। जे नाणी, ते नियमा एगनाणी केवलनाणी, जे अन्नाणी, ते णियमा दुअण्णाणी। तं जहा-मइअन्नाणी य, सुयअन्नाणी य / फासिंदियलद्धिया य, अलद्धिया य जहा इंदियलद्धिया अलद्धिया य। (इदियलद्धियाणमित्यादि) इन्द्रियलब्धिका ये ज्ञानिनः, तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलं तु नास्ति, तेषां के वलिनामिन्द्रियोपयोगाभावात् / ये त्वज्ञानिनः, तेषामज्ञानत्रयं भजनयैवेति / इन्द्रियालब्धिकाः पुनः केवलिन एवेत्येकमेव तेषां ज्ञानमिति। (सोइंदिय इत्यादि) श्रोत्रेन्द्रियलब्धय इन्द्रियलब्धिका इववाच्याः,तेच ये ज्ञानिनः, ते अकेवलित्वादाद्यज्ञानचतुष्टयवन्तो भजनया भवन्ति, अज्ञानिनस्तु भजनया त्र्यज्ञानाः, श्रोत्रेन्द्रियालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनः ते आद्यद्विज्ञानिनः, ते च अपर्याप्तकाः सासादनसम्यग्दर्शनिनो विकलेन्द्रिया एकज्ञानिनोवा केवलज्ञानिनः,ते हि श्रोत्रेन्द्रियालब्धिका इन्द्रियोपयोगाभावात्, ये त्वज्ञानिनः ते पुनराद्याज्ञानद्वयवन्त इति / (चक्खिदिय इत्यादि) अयमर्थः--यथा श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमतां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, त्रीणि चाज्ञानानि भजनयैव, तदलब्धिकानां च द्वे ज्ञाने, द्वे चाज्ञाने, एकं च ज्ञानमुक्तम् / एवं चक्षुरिन्द्रियलब्धिकानां घ्राणेन्द्रियलब्धिकानां तदलब्धिकानां च याच्यम्, तत्र चक्षुरिन्द्रियलब्धिका घ्राणेन्द्रियलब्धिकाश्च ये पञ्चेन्द्रियाः, तेषां केवलवर्जानि चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि चाज्ञानानि भजनया. ये तु विकलेन्द्रियाः चक्षुरिन्द्रियघ्राणेन्द्रियलब्धिकाः, तेषां सासादनसम्यग्दर्शनभावे आद्यं ज्ञानद्वयं, तदभावे त्वाद्यमेवा-ज्ञानद्वयम्, चक्षुरिन्द्रियघाणेन्द्रियालब्धिकास्तु यथा-योगं त्रिव्ये केन्द्रियाः केवलिनश्च, तत्र त्रिद्वीन्द्रियाऽऽदीनां सासादनभावे आद्यज्ञानद्वयसंभवः, तदभावे त्वाद्याज्ञानद्वयसंभवः, केवलिनां त्वेकं केवलज्ञानमिति / "जिभिंदिय'' इत्यादौ (तस्स अलद्धिय त्ति) जिह्वालब्धिवर्जिताः, ते च केवलिन एकेन्द्रियाश्चेत्यत आह-(नाणी वीत्यादि) ये ज्ञानिनस्ते नियमात् केवलज्ञानिनः, येऽज्ञानिनस्ते नियमाद् व्यज्ञानिनः, एकेन्द्रियाणां सासादनभावतोऽपि सम्यग्दर्शनस्याभावात्, विभङ्गाभावाचेति / (फासिंदिय इत्यादि) स्पर्शनेन्द्रियलब्धिकाः केवलज्ञानवर्जज्ञानचतुष्कवन्तो भजनया, तथैवाज्ञानत्रयवन्तो वा, स्पर्शनेन्द्रियालब्धिकास्तु केवलिन एव / इन्द्रियलब्ध्यलब्धिमन्तोऽप्येवंविधा एवेत्यत उक्तम्-(जहा इंदिय इत्यादि) (35) उपयोगद्वारेसागारोवउत्ताणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ?पंच णाणाइं, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए / आभिणिबोहियणाणसागारोवउत्ताणं भंते ! चत्तारिणाणाई भयणाए। एवं सुयणाणसागारोवउत्ता वि1 ओहिणाणसागारोवउत्ता जहा ओहिणाणलद्धिया / मणपज्जवणाणसागारोवउत्ता जहा मणपज्जवणाणलद्धिया। केवलणाणसागारोवउत्ता जहा केवलणाणलद्धिया। मइअण्णाणसागारोवउत्ताणं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए / एवं सुयअण्णाणसागारोवउत्ता वि। विभंगणाणसागारोवउत्ताणं तिण्णि अण्णाणाइ नियमा। अणागारोवउत्ताणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए। एवं चक्खुदंसणअचक्खुदंसण अणागारोवउत्ता वि, नवरंचत्तारिनाणाई, तिणि अण्णाणाईभयणाए। ओहिदसण अणागारोवउत्ताणं पुच्छा?
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________________ णाण १९७८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि, जे नाणी, ते अत्थेगइया तिनाणी, अत्थेगइया चउनाणी, जे तिनाणी, ते आभिणिबो-- हियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी / जे चउनाणी, ते आभिणिबोहियणाणी०जाव मणपज्जवणाणी। जे अण्णाणी, ते नियमा तिअण्णाणी। तं जहा-मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगणाणी। केवलदसणअणागारोवउत्ता जहा केवलणाण-लद्धिया।। (सागारोवउत्ता इत्यादि) आकारो विशेषः, तेन सह यो बोधः स साकारो, विशेषग्राहिको बोध इत्यर्थः / तस्मिन्नुपयुक्ताः तत्संवेदका ये ते साकारोपयुक्ताः, ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, स्यात् द्वे, स्यात् त्रीणि, स्यात् चत्वारि, स्यादेकं, यच स्यात् द्वे इत्याधुच्यते, तल्लब्धिमात्रमङ्गीकृत्य, उपयोगापेक्षया त्वेकदैकमेव ज्ञानमज्ञानं चेति, अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैवेति / अथ साकारोपयोगभेदापेक्षमाह-(आभि–णीत्यादि) (ओहिणाणसागारेत्यादि) अवधिज्ञानसाकारोपयुक्ता यथा अवधिज्ञानलब्धिकाः प्रागुक्ताः, स्यात् त्रिज्ञानिनो मतिश्रुतावधियोगात्, स्याचतुर्जानिनो मतिश्रुतावधिमनः पर्यवयोगात् तथा वाच्याः / (मणपज्जव इत्यादि) मनः पर्यवज्ञानसाकारोपयुक्ता यथा मनःपर्यवज्ञानलब्धिकाः प्रागुक्ताः, स्यात् त्रिज्ञानिनो मतिश्रुतमनः पर्यवयोगात्, स्याचतुर्जानिनः केवलवर्जज्ञानयोगात् तथा वाच्या इति / (अणागारोवउत्ताणमित्यादि) अविद्यमान आकारो यत्र तदनाकारं दर्शनं, तत्रोपयुक्ताः तत्संवेदका ये ते तथा. ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां लब्ध्यपेक्षया पञ्च ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैव / (एवमित्यादि) यथा अनाकोरोपयुक्ता ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्चोक्ताः,एवं चक्षुर्दर्शनाऽऽधुपयुक्ता अपि (नवरं ति) विशेषः पुनरयम्-- चक्षुर्दर्शनेतरोपयुक्ताः केवलिनो न भवन्तीति तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजनयेति। (36) योगद्वारेसजोगीणं भंते ! जीवा किं नाणी, अण्णाणी? जहा सकाइया। एवं मणजोगी, वयजोगी वि, कायजोगी वि, अजोगी जहा सिद्धा। (सजोगीणमित्यादि) (जहा सकाइय ति) प्रागुक्त कायद्वारे यथा सकायिका भजनया पञ्च ज्ञानाः त्र्यज्ञानाश्चोक्ताः, तथा सयोगा अपि वाच्याः / एवं मनोयोगाऽऽदयोऽपि, केवलिनोऽपि, मनोयोगाऽऽदीना भावात् / तथा मिथ्यादृशां मनोयोगाऽऽदिमतामज्ञानत्रयभावाच / (अजोगी जहा सिद्ध त्ति) अयोगिनः केवललक्षणेकज्ञानिन इत्यर्थः / (37) लेश्याद्वारेसलेस्साणं भंते ? जहा सकाइया / किण्हलेस्साणं भंते ? जहा सकाइया सइंदिया। एवं०जाव पम्हलेस्सा, सुकलेस्सा, जहा सलेस्सा / अलेस्सा? जहा सिद्धा। (जहा सकाइय त्ति) सलेश्याः सकायिकवद्भजनया पञ्च ज्ञानाः, त्र्यज्ञानाश्च वाच्याः, केवलिनोऽपि शुक्ललेश्यासम्भवेन सलेश्यत्वात्। (कण्हले स्सेत्यादौ) (जहा सइंदिय त्ति) कृष्णलेश्याश्वतु निनः त्र्यज्ञानिनश्व भजनयेत्यर्थः। (सुक्कलेस्सा जहा सलेस्स त्ति) पञ्च ज्ञानिनो भजनया व्यज्ञानिनश्चेत्यर्थः / (अलेस्सा जहा सिद्ध त्ति) एकज्ञानिन इत्यर्थः। (38) कषायद्वारेसकसाइयाणं भंते ! जहा सइंदिया। एवं जाव लोहकसाइयाणं। अकसाइयाणं भंते ! किं णाणी, अण्णाणी? पंच नाणाई भयणाए। (सकसाइया जहा सइदिय त्ति) भजनया, केवलिवर्जचतुर्ज्ञानिनरत्र्यज्ञानिनश्वेत्यर्थः / (अकसाइयाणमित्यादि) अकषायिणां पश्च ज्ञानानि भजनया, कथमुच्यते? छद्मस्थो वीतरागः केवली चाकषायः, तत्र छास्थवीतरागस्याऽऽद्यज्ञानचतुष्क भजनया भवति, केवलिनस्तु पञ्चममिति। (36) वेदद्वारेसवेदगाणं भंते ! जहा सइंदिया / एवं इत्थिवेदगा वि, एवं पुरिसवेदगा पि, नपुंसगवेदगा वि। एवं अवेदगा, जहा अकसाइया। (जहा सइंदिय त्ति) सवेदकाः सेन्द्रियवदजनया केवलिवर्जचतुज्ञानिनः,त्र्यज्ञानिनश्च वाच्याः। (अवेद्वगा जहा अकसाइयत्ति) अवेदका अकषायिवद्भजनया पञ्चज्ञाना वाच्याः, यतोऽनिवृत्तिबादयराऽऽदयोsवेदका भवन्ति, तेषु च छद्मस्थानां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलिना तु पञ्चममिति। (४०)आहारकद्वारेआहारगाणं भंते ! जीवा? जहा सकसाइया, नवरं केवलनाणं पि / अणाहारगाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? मणपजवनाणवज्जाइं नाणाई अन्नाणाई तिण्णि भयणाए। (आहारगेत्यादि) सकषाया भजनया चतुर्मानास्त्र्यज्ञानाश्चोक्ताः, आहारका अप्येवमेव, नवरमाहारकाणां केवलमप्यस्ति, केवलिन आहारकत्वादपीति / (अणाहारगाणमित्यादि) मनःपर्यवज्ञानमाहारकाणामेवाऽद्यं पुनर्ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं च विग्रहे केवलं च केवलिनः समुद्धातशैलेशीसिद्धावस्थास्वनाहारकाणामपि स्यात्। अत उक्तम्(मणपञ्जयेत्यादि) भ०८ श०२ उ०। प्रज्ञा०। अष्ट। कर्म०। (गुणस्थानकमाश्रित्य ज्ञानविचारो 'गुणट्टाण' शब्दे तृतीयभागे 627 पृष्ठे कृतः) 'मागहा इंगिएणं तु, पेहिएणय कोसला। अद्भुत्तेण उपंचाला, नाणुत्तं दक्खिणावहा / / 1 / / '' व्य०१० उ०। (आभिनियोधिकाऽऽदिज्ञानानां विषयाः 'आभिणिबोहियणाण' इत्यादिशब्दे द्रष्टव्याः) (कायस्थितिः 'कायट्टिइ' शब्दे तृतीयभागे 458 पृष्ठे उक्ता) ('पज्जव' शब्दे आभिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानपर्यवा द्रष्टव्याः) (जीवाः प्रत्याख्यान जानन्तीति ‘पञ्चक्खाण' शब्दे वक्ष्यते) (41) तत्त्वसंवेदनं ज्ञानम्विषयप्रतिभासं चाऽऽत्मपरिणतिमत्तथा। तत्त्वसंवेदनं चैव, ज्ञानमाहुमहर्षयः।।१।। विषयः श्रोत्राऽऽदीन्द्रियज्ञानगोचरः शब्दाऽऽदिः, तस्यैव न पुनस्तत्प्रवृत्तौ तज्जन्यस्याऽऽत्मनोऽर्थानर्थसद्भावस्य, प्रतिभासः प्रति
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________________ णाण 1976 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण भासनं परिच्छे दो यत्र तद् विषयप्रतिभासमै हिकाऽऽमुष्मिकेषु छाद्मस्थिकज्ञानविषयेषु अर्थेषु प्रवृत्तावात्मनस्तात्त्विकार्थानर्थप्रतिभासशून्यमित्यर्थः / ज्ञानमाहुरिति संबन्धः, चशब्द उत्तरज्ञानविशेषापेक्षया समुच्चयार्थः / इदं च मिथ्यादृशां भवतीति। तथा आत्मनो जीवस्य परिणतिरनुष्ठानविशेषसंपाद्यःपरिणामविशेषः, सैव ज्ञेयतया यस्मिन्नस्ति ज्ञानेन पुनस्तदनुरूपप्रवृत्तिनिवृत्ती अपि तदात्मपरिणतिमत्। तथोत समुचये। इदं चाविरतसम्यग्दृष्टीनां भवति, तत्त्वं परमार्थः, तत् सम्यक् विद्यते ज्ञायते येन तत्तत्वसंवेदनं, हेयोपादेयार्थप्रवृत्तिनिवृत्तिसंपादकमित्यर्थः / चशब्दः समुच्चये,एवकारोऽवधारणे / तस्य चैवं प्रयोग:-तत्त्वसंवेदनमेव च, नोक्तव्यतिरिक्तम्, इदं च विशुद्धचारित्रिणां स्यात्, ज्ञानं बोधम्, आहुर्बुवते, महर्षयो महामुनयः, एते च त्रयो ऽपि ज्ञानभेदा मत्यादिविशेषा एवेति / / 1 / / आद्यस्वरूपमाहविषकण्टकरत्नाऽऽदौ, बालाऽऽदिप्रतिभासवत्। विषयप्रतिभासं स्यात्, तद्धेयत्वाऽऽद्यवेदकम् / / 2 / / विषं च शृङ्गिकाऽऽदिकम्, कण्टकाश्च बब्बूलाऽऽद्यवयवविशेषा इति हेयं वस्तु, रत्नानि च मरकताऽऽदीनि तानि चोपादेयं, विषकण्टकरत्नानि तानि आदिर्यस्य तत्तथा, तत्र विषकण्टकरत्नाऽऽदौ द्रष्टव्ये, इहाऽऽदिशब्दाद् हेयोपादेयरूपवस्त्वन्तरपरिग्रहः, उपेक्षणीयपरिग्रहो वा। बालः शिशुरादिर्येषां ते बालाऽऽदयः, आदि-शब्दादतिमुग्धपरिग्रहः / तेषां प्रतिभासो वस्तुबोधो बालाऽऽदि-प्रतिभासः, स इव बालाऽऽदि प्रतिभासवत्, तत्तुल्यमित्यर्थः / विषयप्रतिभासमुक्तनिर्वचनं ज्ञानं, स्याद् भवेत्। कथं बालाऽऽदिप्रतिभासतुल्यत्वमस्येत्याह-तेषां ज्ञेयविषयाणां, हेयत्वाऽऽदि हेयत्वमुपादेयत्वमुपेक्षणीयत्वं चेत्यर्थः / तस्यावेदकमनिश्चायकं तद्धेयत्वाऽऽद्यवेदकं यथा बालाऽऽदिप्रतिभासो विषाऽऽदिविषयस्य रूपाऽऽदिमात्रमेवाध्यवस्यति, न तु हेयत्वाऽऽदिकं तद्धर्मम्, एवं यद् ज्ञानं बहुश्रुतानामप्यभिन्नग्रन्थीनां मोहमलमलीमसमानसत्येनातत्त्वानां हेयतायास्तत्त्वानां चोपादेयताया विमक्षिम तत्त्वातत्त्वयोः समताऽवभासकं विपर्ययावभासकं वा तद्विषयप्रतिभासमिति भावना / उक्तं च-"विसयपडिमासमित्तं, बालस्सेवऽवखरयणविसयं ति। वयणाऽऽइएसुनाणं, सव्वत्थानाणमोणेयं" ||1|| (वयणाइएसु त्ति) सूत्रार्थाऽऽदिष्विति। इदमेव लिङ्गाऽऽदिभिर्निरूपयन्नाहनिरपेक्षप्रवृत्त्यादि-लिङ्ग मेतदुदाहृतम्। अज्ञानाऽऽवरणापाय,महापायनिबन्धनम्।।३।। निर्गता अपेता अपेक्षा ऐहिकाऽऽमुष्मिकापायशङ्का यस्याः सा तथा निरपेक्षा, प्रवृत्तिः प्रवर्तनमादिर्यस्य निवृत्त्यादेः तन्निरपेक्षप्रवृत्त्यादि, निरपेक्षस्य वा निराशङ्कस्य प्रवृत्त्यादि निरपेक्षप्रवृत्त्यादि, तल्लिङ्ग चित्रं यस्य तन्निरपेक्षप्रवृत्त्यादिलिङ्गम्, एतदनन्तरोदित विषयप्रतिभासं ज्ञानम्, उदाहृतम् आप्तैरुपदिष्टम् / अथ किहेतु-कमिदमित्यत आह-न ज्ञानमज्ञान मिथ्यात्वोदय इति, ते मतिश्रुते, अवधिश्च, नञः कुत्सार्थत्वात्। आह च"अविसेसिया मइ चिय, सम्मद्दिहिस्स सा मइण्णाणं। मइअण्णाणं मिच्छा-दिहिस्स सुयं पि एमेव // 114 // " तथा "सदसदविसेसणाओ, भवहेऊ जहिच्छिओवलंभाओ। णाणफलाभावाओ, मिच्छादिट्ठिस्स अन्नाणं / / 521 / / " (विशे०) तस्याज्ञानस्य मन्यज्ञानाऽऽदिलक्षणस्याऽऽवरणमावृत्तिकारणं कर्म अज्ञानाऽऽवरणं, तस्यापायोऽपगमः क्षयोपशमो यस्मिन् तदज्ञानाऽऽवरणापायं, मत्यज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्षयोपशमहेतुकमित्यर्थः / अथवा-अविद्यमानो ज्ञानाऽऽवरणापायो यत्र तत्तथा / अथ किंफलमिदमित्याह-महान्तश्च ते गुरुका अपायाश्च स्वपरगतैहिकाऽऽमुष्मिकप्रत्यपायास्तेषां निबन्धन हेतुर्महापायनिबन्धनम् / इदं च भावतोऽज्ञानमेव, भवति चाज्ञानं महापायनिबन्धनम् / यत आह"अज्ञानं खलु कष्ट, क्रोधाऽऽदिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः / अर्थ हितमहित या, न वेत्ति येनाऽऽवृतो लोकः // 1 // " अथ द्वितीयज्ञाननिरूपणायाऽऽहपाताऽऽदिपरतन्त्रस्य, तद्दोषाऽऽदावसंशयम्। अनर्थाऽऽद्याप्तियुक्तं चाऽऽत्मपरिणतिमन्मतम्॥॥ पातोऽधःपतनम्, आदिर्यस्य ऊर्द्धतिर्यगाकर्षणविपरीतशिक्षाऽश्वोद्वहनाऽऽदेःतत्पाताऽऽदि, तेन तस्य वा परतन्त्रः पराऽऽयत्तः, पाताऽऽदिपरतन्त्र इव पाताऽऽदिपरतन्त्रः, तस्य विषयकषायाऽऽ-- दिवशीकृतस्य देहिनः, तस्मिन् पाताऽऽदौ यो दोषोऽङ्गभङ्गमरणाऽऽदिलक्षणः स आदिर्यस्य रूतोत्करमृदुस्पर्शाऽऽदिगुणस्य स तथा, तत्र दोषाऽऽदौ, दार्शन्तिकेतु कर्मबन्धदुर्गत्यादिदोषे गुणे च अभ्युदयाऽऽदौ ज्ञेयेऽसंशयम्, उपलक्षणमेतत्-अविद्यमानसंदेहविपर्यय विलीनमोहग्रन्थित्वेन यथावन्निश्चयस्य स्वरूपमित्यर्थः / अनर्थोऽपायोऽङ्गभङ्गाऽऽदिरादिर्यस्य सुखस्पर्शाऽऽदेरर्थस्य तथा तस्याऽऽप्तिः प्राप्तिः तया युक्तम् अन्वितम् अनर्थाऽऽद्याप्तियुक्तम् / इह च यद्यपि पुरुषस्यैवानर्थाऽsद्याभियोगस्तथाऽपि ज्ञानाव्यतिरिक्तत्वात्तस्याज्ञानमेवानर्थाऽऽद्याप्तियुक्तमुक्तम्, दार्शन्तिके त्वनाऽऽद्याप्तिः कर्मबन्धदुर्गतिगमनपरम्परावर्गाऽऽगमनरूपाऽवगन्तव्या, चशब्दो विशेषणान्तरसमुच्चयार्थः / तदेवंविधज्ञानमात्मपरिणतिमत् प्रतिपादितं निर्वचन मतमभिमतमध्यात्मतत्त्वविदुषामिति / इह च संवादगाथे"भिन्ने उतए नाणं, जहऽक्खरयणेसुतग्गयं चेव। पडिबंधम्मि वि सद्धाऽऽइभावओ सम्मरूवं तु // 1 // " भिन्ने तु, कस्मिन्? मोहग्रन्थावित्यर्थः / (तग्गयं चेव त्ति) अक्षे अक्षगतमेव, रत्ने रत्नगतमेव, प्रतिबन्धेऽपि सदनुष्ठानव्याघातेऽपीत्यर्थः / "जमिणं असप्पवित्ती-इ दव्वओ संगयं पि नियमेण। होइ फलंग असुहाणुबंधवोच्छेयभावाओ॥१॥" इति। एतदेव लिङ्गाऽऽदिभिर्निरूपयन्नाहतथाविधप्रवृत्त्यादि-व्यङ्ग्यं सदनुबन्धि च। ज्ञानाऽऽवरणहासोत्थं,प्रायो वैराग्यकारणम्॥५॥ तथा तत्प्रकारा विधा स्वरूपं यस्याः सा तथाविधा-"हियए जिणाण आणा, चरियं मह एरिसं अओऽन्नस्स / एयं आलप्पालं, अव्वो ! दूर विसंवयइ / / 1 / / " इत्यादिभावनया असंक्लिष्टा चासौ प्रवृत्तिश्च हिंसाऽऽदिषु वर्तन तथाविधप्रवृत्तिः, स आदिर्यस्य निवृत्तिप्राप्त्यादेः तत्तथाविधप्रवृत्त्यादि, तेन व्यज्यते व्यक्तीक्रियते यत्तत्तथाविधप्रवृत्त्यादिव्यङ्गय; तथा सन्शोभतोऽनुबन्धः परम्परया मो--
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________________ णाण 1980- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण क्षफलप्रदायकत्वं सदनुबन्धः, सोऽस्यास्तीति सदनुबन्धि, चशब्दो विशेषणसमुचये / किंतुकमिदमित्याह-ज्ञानाऽऽवरणं मत्याद्यावारक कर्म, तस्य हासः क्षयोपशमः, तस्मादुत्तिवृत उत्पद्यते यत्तद् ज्ञानाऽऽवरणहासोत्थम्। कथमिदं सदनुबन्धीत्यत आहप्रायो बाहुल्येन वैराग्यकारणं सद्भावनानिमित्तं यतो भवतीति गम्यते। यदाह-'बालधूलीगृहक्रीडातुल्याऽस्यां भाति धीमताम् / तमोग्रन्थिविभेदेन, भवचेष्टाऽखिलैव हि ||1 // " प्रायोग्रहणं च कषायोदयविशेषे सति तद्वैराग्यकारणं न स्यादपि राज्याऽऽदिप्रसाधानप्रवृत्तभरताऽऽदेरिवेति प्रतिपादनार्थमिति / / 5 / / तृतीयप्रतिपादनायाऽऽहस्वस्थवृत्तेःप्रशान्तस्य, तद्धेयत्वाऽऽदिनिश्चयम्। तत्त्वसंवेदनं सम्यग, यथाशक्ति फलप्रदम्।।६।। स्वस्था अनाकुला वृत्तिर्वचनकायव्यापाररूपं वर्तनं यस्य सतथा तस्य स्वस्थवृत्तेः। एतदेव कुत इत्याह-प्रशान्तस्य रागद्वेषाऽऽद्यु-पशमप्रकर्षवतः, तत्त्वसंवेदनं भवतीति क्रिया। किंभूतमिति ? आह-तेषां शेयवस्तुतत्त्वाना हेयत्वं त्यजनीयत्वम्, आदिशब्दादुपादेयत्वोपेक्षणीयत्वपरिग्रहः / तत्र निश्चयो निर्णयो यस्य तत्तद्धेयत्वाऽऽदिनिश्चयमिति यथा वा यदिति शेषः / ततश्च स्वस्थवृत्तेः प्रशान्तस्य पुंसो यद् ज्ञानं तत्तत्त्वसंवेदनमितियोगः। तत्त्वसंवेदनमुक्तनिर्वचनं सम्यक् समीचीनतया यथाशक्ति पुरुषस्य संहननाऽऽदिसामर्थ्यानुसारतः फलप्रद स्वप्रयोजनप्रसाधकम् ज्ञानस्य चानन्तरफलं विरतिः, परम्पराफलंत्वपवर्ग इति॥६|| एतस्य लिङ्गाऽऽदि प्रतिपादयन्नाहन्याय्याऽऽदौ शुद्धवृत्त्यादि-गम्यमेतत् प्रकीर्तितम्। सज्ज्ञानाऽऽवरणापायं, महोदयनिबन्धनम्।।७।। न्यायो नीतिः तस्मादनपेतो न्याय्यः-सम्यग्दर्शनाऽऽदित्रयरूपो मोक्षमार्गः, स आदिर्यस्य न्यायस्य मिथ्यादर्शनाऽऽदिरूपस्य भवमार्गस्य स न्याय्याऽऽदिः, तत्र शुद्धवृत्तिनिरतिचारप्रवृत्तिः, आदिर्यस्या निवृत्तेः सा तथा तया, गम्यमनुमेयं शुद्धवृत्त्यादिगम्यम् / एतदनन्तरोदितस्वरूपं तत्त्वसंवेदनज्ञानं, प्रकीर्तितम् ज्ञानस्वरूपविद्धिः संशाब्दितम्। किंतुकमिति? आह सत्शोभनं प्रकृष्टं यद् ज्ञानमाभिनिबोधिकाऽऽदि, तस्य यदावरणं, तस्यापायोऽपगमः क्षयः क्षयोपशमलक्षणो यस्मिन् तद् ज्ञानाऽऽवरणापायम् / अथवा-सन् विद्यमानो ज्ञानाऽऽवरणापायो यत्र तत्तथा फलमस्या आह-महोदयो महाभ्युदयो निर्वाणं, तस्य निबन्धनमक्षेपेण कारणं महोदयनिबन्धनमिति / / 7 / / उपसंहरन्नुपदेशमाहएतस्मिन् सततं यत्नः, कुग्रहत्यागतो भृशम् / मार्गश्रद्धाऽऽदिभावेन, कार्य आगमतत्परैः।।८।। एतस्मिन्ननन्तरोक्ते तत्त्वसंवेदनज्ञाने, सततमनवरतं. यत्न आदरः, कार्य इति संबन्धः। कुतः? कुग्रहत्यागतः शास्त्रबाधिताभिनिवेशपरित्यागेन, भृशमत्यर्थ , केन करणभतेन कार्यो यत्न इत्याह-मार्गो मोक्षमार्गः श्रद्धाऽऽदिर्गिश्रद्धाऽऽदिः तद्रूपो भाव आत्मपरिणामो मार्गश्रद्धाऽऽदिभावः तेन, तत्र श्रद्धा श्रद्धानम्, आदिशब्दाद् ज्ञानमासेवनं चेति कार्यो विधेयः कैरिति? आह-आगमतत्परैराप्तप्रवचनप्रधानैरिति॥८॥ इति। हा०६ अष्टा द्वा०। अत उक्तम्-"तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः / तमसः कुतोऽस्ति शक्तिः, दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ? ||1 // " नं०। आचा०। धo गुरुपारतंतनाणं, (सद्दहणं एयसंगयं चेव) (7) गुरुपारतन्त्र्यं ज्ञानाधिकाऽऽचार्याऽऽयतत्वं यत्तद् ज्ञानं बोधो विशिष्ट ज्ञानविकलानामपि गुरुपारतन्त्र्यस्य ज्ञानफलसाधकत्वात्।यदाह"यो निरनुबन्धदोषात्, श्राद्धोऽनाभोगवान् वृजिनभीरुः / गुरुभक्तो ग्रहरहितः, सोऽपि ज्ञान्येव तत्फलतः॥१॥ चक्षुष्मानेकः स्यादन्धोऽन्यस्तन्मतानुवृत्तिपरः। गन्तारौ गन्तव्यं, प्राप्नुत एतौ युगपदेव ।।२।।''पञ्चा०११ विव०। "णाणाहिओ वरचरण-हीणो विहुपवयणं पभासंतो। ण य दुक्करं करेंतो, सुठ्ठ वि अप्पागमो पुरिसो // 1 // " तथा-"हीणस्स वि सुद्धपरू-वगस्स नाणाहियस्स कायव्व।" द्रव्या 01 अध्या। स्था०। (प्रत्यक्षाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) आगमपूर्वक बोधे, द्वा०२३ द्वा०ा "अन्नाणं परियाणामि।" (42) अज्ञानं सम्यग्ज्ञानादन्यद्, ज्ञानंतु भगवद्वचनम्।ध०३ अधिका अत्र यशोविजयोपाध्यायकृतमष्टकम्मज्जत्यज्ञः किलाज्ञाने, विष्ठायामिव शूकरः। ज्ञानी निमञ्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ||1|| निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः / तदेव ज्ञानमुत्कृष्ट, निर्बन्धो नास्ति भूयसा / / 2 / / स्वभावलाभसंस्कार-स्मरणं ज्ञानमिष्यते / ध्यानध्यमात्रमतस्त्वन्यत्तथा चोक्तं महात्मना / / 3 / / (हरिभद्राचार्यण।' अकुत्थासजतं नाणं, सुयपाढउ व्व विण्णेयं'।) वादाँश्च प्रतिवादाँश्च, वदन्तोऽनिश्चितास्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवगतौ // 4|| स्वद्रव्यगुणपर्याय-चर्यावर्या पराऽन्यथा। इति दत्ताऽऽत्मसन्तुष्टिभुष्टिज्ञानस्थितिमुनेः / / 5 / / अस्ति चेद् ग्रन्थिभिद् ज्ञानं, किं चित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः। प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चे? // 6|| मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिद्, ज्ञानदम्भोलिशोभितः। निर्भयः शक्रवद्योगी, नन्दत्यानन्दनन्दने / / 7 / / पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनौषधम्। अनन्यापेक्षमैश्वर्य, ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ||8|| अष्ट०५अष्ट। "जो विणओ तं नाणं, जं नाणं सो अवुचई विणओ। विणएण लहइ नाणं, नाणेण विजाणई विणयं" ॥६सा द०प० (वचनानुष्ठानं चारित्रवतो नियोगेनेत्युक्तम् 'अणुट्ठाण' शब्दे प्रथमभागे 377 पृष्ठे) (४३)तत्र ज्ञानयोजनामाहश्रुतमयमात्रापोहात्, चिन्तामयभावनामये भवतः। ज्ञाने परे यथार्ह, गुरुभक्तिविधानसल्लिङ्गे // 12 // श्रुतेन निर्वृत्तं श्रुतमयं, तदेव तन्मात्रमवधृतस्वरूपमन्यज्ञानव
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________________ णाण 1981 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण यनिरपेक्षम्, तदपोहात्तन्निरासात् / अन्यज्ञानद्वयसापेक्षं तु श्रुतमयं न निरस्यत इति ज्ञेयम्। चिन्तामयभावनामये वक्ष्यमाणस्वरूपे नयप्रमाणसूक्ष्मयुक्तिचिन्तानिवृत्तं चिन्तामयं हेतुस्वरूपफलभेदेन कालत्रयविषय भावनामयं, ते भवतो जाये ते ज्ञाने परे प्रधाने यथार्ह मौचित्येन गुरुभक्तिविधानं सच्छोभनं लिङ्ग ययोर्गुरुभक्तिविधानसल्लिङ्गे // 12 // ज्ञानत्रयं सफलं दृष्टान्तद्वारेण प्रतिपिपादयिषुराहउदकपयोऽमृतकल्पं, पुंसां सज्ज्ञानमेवमाख्यातम् / विधियत्नवत्तु गुरुभिर्विषयतृडमपहारि नियमेन // 13 // उदकपयोऽमृतकल्पमुदकरसाऽऽस्वादकल्पं पयोरसाऽऽस्वादकल्पम् अमृतरसाऽऽस्वादकल्प, पुंसां विद्वत्पुरुषाणाम्, सज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम्, एवमाख्यातं स्वरूपतो, विधियत्नवत्तु विधौ यत्नः स विद्यते यस्मिस्तद्विधियत्नवदेव, न विधियत्नशून्यं, गुरुभिराचार्य राख्यातं विषयतृडपहारि विषयतृषमपहर्तुं शीलमस्येति, नियमेन अवश्यं तया, श्रुतज्ञानं स्वस्थस्वादुपथ्यसलिलाऽऽस्वादतुल्यं, चिन्ताज्ञानं तु क्षीररसाऽऽस्वादतुल्यं, भावनाज्ञानममृतरसाऽऽस्वादतुल्यमितित्युक्तं भवति, विषयतृडपहारीत्युक्तम् // 13 // यस्य तु विषयाभिलाषातिरेकः स ज्ञानत्रयवानेष, फलाभावाद् न भवतीत्ययोग्यत्वप्रतिपादनाय तस्येदमाहशृण्वन्नपि सिद्धान्तं, विषयपिपासाऽतिरेकतः पापः। प्राप्नोतिन संवेगं, तदाऽपि यः सोऽचिकित्स्य इति ||14|| शृण्वन्नपि तीर्थकराभिहितमर्थतः सिद्धान्तं प्रतिष्ठितपक्षरूपं गणधराऽऽद्युपनिबद्धमागमं विषयपिपासाऽतिरेकतो रूपरसगन्धस्पशशब्दाभिलाषातिरेकेण पापः संक्लिष्टाध्यवसायत्वाद् न प्राप्नोति संवेगं मोक्षाभिलाषं, तदाऽपि सिद्धान्तश्रवण कालेऽपि, आस्तां तावदन्यदा, यएवंविधः, सोऽचिकित्स्य इत्यचिकित्सनीयः, स वर्त्तते, शास्त्रविहितदोषचिकित्साया अनर्हत्वादिति / / 14|| इत्थं कर्मदोषवतः किं कर्तव्यम्? इत्याहनैवंविधस्य शस्तं, मण्डल्युपवेशनप्रदानमपि / कुर्वन्नेतद् गुरुरपि, तदधिकदोषोऽवगन्तव्यः / / 15 / / न प्रतिषेधे, एवंविधस्य, पुरुषस्य शस्तं प्रशस्तमनुज्ञातमित्यर्थः / मण्डल्युपवेशनप्रदानमपि अर्थमण्डल्यां यदुपवेशनं श्रवणार्थ तत्प्रदानमपि कुर्वन् संपादयन्नेतत् पूर्वोक्तं गुरुरपि प्रस्तुतोऽर्थाभिधायी तदधिकदोषोऽयोग्यपुरुषाधिकदोषोऽवगन्तव्योऽवबोधव्यः; सिद्धान्तावज्ञाऽऽपादनादिति // 15 // पूर्वोक्तार्थ व्यतिरेकेणाऽऽहयः शृण्वन् संवेग, गच्छति तस्याऽऽद्यमिह मतं ज्ञानम्। गुरुभक्त्यादिविधानात्, कारणमेतद् द्वयस्येष्टम् / / 16 / / यः कश्चिद् योग्यः शृण्वन, सिद्धान्तमिति संबध्यते / संवेगं गच्छति आस्कन्दति। तस्य योग्यस्याऽऽद्यमिह प्रथममिह मतं ज्ञानं श्रुतज्ञानम्। गुरुभक्त्यादिविधानाद् गुरुभक्तिविनयबहुमानाऽऽदिकरणात, कारणमेतद्वयस्येष्ट चिन्तामयभावनामयज्ञानद्वयस्य हेतुरेतत् श्रुतज्ञानमिष्टम् / तस्माज्ज्ञानत्रयेऽपि रत्नत्रयकल्पे परमाऽऽदरो विधेय इति // 16 // षो०१० विव० (सुस्सूसा शब्दे शुश्रूषाविवेचनम्) (44) इदानीं त्रयाणां श्रुताऽऽदिज्ञानानां किञ्चिद्विभागमु पदर्शयतिऊहाऽऽदिरहितमाद्यं, तद्युक्तं मध्यमं भवेद्ज्ञानम्। चरमं हितकरणफलं, विपर्ययो मोहतोऽन्य इति / / 6 / / ऊहो वितर्कः, ऊहाऽपोहविज्ञानाऽऽदिरहितमाद्यं प्रथमं श्रुतमयं, तद्युक्तमूहाऽऽदियुक्तंमध्यमं चिन्तामयं भवेद्ज्ञानं द्वितीय, चरमं भावनामयं तृतीयं हितकरणफलं हितकरणं फलमस्येति स्वहितनिर्वर्तनफलं, विपर्ययो विपर्यासो मिथ्याज्ञानं, मोहतो मोहान्मिथ्यात्वमोहनीयोदय द् ज्ञानत्रयादन्योऽबोध इति // 6| (45) श्रुतमयज्ञानस्य लक्षणमाहवाक्यार्थमात्रविषयं, कोष्ठकगतबीजसन्निभं ज्ञानम्। श्रुतमयमिह विज्ञेयं, मिथ्याऽभिनिवेशरहितमलम् / / 7 / / सकलशास्वगतवचनाविरोधिनिर्णीतार्थवचनं वाक्यं, तस्यार्थमात्रं प्रमाणनयाधिगमरहितम्, तद्विषयं तद्गोचरम्-वाक्यार्थमात्रविषयं, न तु परस्परविभिन्न विषयशास्त्रावयवभूतपदमात्रयाच्यार्थविषयम् / कोष्ठके लोहकोष्ठकाऽऽदौ गतं स्थितं यद् बीजं धान्यं तत्सन्निभमविनष्टत्वात्कोष्ठकगतबीजसन्निभंज्ञानं श्रुतमयमिह प्रक्रमे, विज्ञेयं वेदितव्यम्, मिथ्याभिनिवेशोऽसदभिनिवेशः, तेन रहितं विप्रमुक्तम्, अलमत्यर्थम्॥७॥ (46) चिन्तामयज्ञानस्य लक्षणमाहयत्तु महावाक्यार्थज-मतिसूक्ष्मसुयुक्तिचिन्तयोपेतम्। उदक इव तैलविन्दुर्विसर्पि चिन्तामयं तत्स्यात्॥८॥ यत्तु यत्पुनर्महावाक्यार्थजमाक्षिप्तेतरसर्वधर्माऽऽत्मकत्ववस्तुप्रतिपादकानेकान्तवादविषयार्थजन्यमतिसूक्ष्मा अतिशयसूक्ष्मबुदिगम्याः शोभना अविसंवादिन्यो या युक्तयः सर्वप्रमाणनयगर्भाः, तचिन्तया तदालोचनयोपेतं युक्तम् / उदक इव सलिल इय तैलबिन्दुस्तैललवो विसर्पणशीलं विसर्पि विस्तारयुक्तम्, चिन्तया निवृत्त चिन्तामयं, तज्ज्ञानं स्याद्भवेत्॥८॥ (47) भावनाज्ञानलक्षणमाहऐदम्पर्यगतं यद्, विध्यादौ यत्नवत्तथैवोः। एतत्तु भावनामयमशुद्धसद्रत्नदीप्तिसमम् // 6|| ऐदम्पर्य तात्पर्य सर्वज्ञेयक्रियाविषये सर्वज्ञाज्ञैव प्रधानं कारणमित्येवंरूपं तद्गतं तद्विषयं यद् ज्ञानं विध्यादौ विधिद्रव्यदातृपात्राऽऽदौ, यत्नवत्परमाऽऽदरयुक्तं, तथैवोच्चैः-ऐदम्पर्यवत्त्वापेक्षया यत्नवत्त्वस्य समुच्चयार्थ तथैवेत्यस्य ग्रहणम्। एतत्तु एतत्पुनर्भावनया निवृत्तं भावनामयं ज्ञानम् / अशुद्धस्य सद्रत्नस्य जात्यरत्नस्य स्वभावत एव क्षारमृत्पुटपाकाऽऽद्यभावेऽपि भास्वररूपस्य या दीप्तिस्तया सममशुद्धसद्रत्नदीप्तिसमम् / यथाहि जात्यरत्नस्य स्वभावत एवान्यरत्नेभ्योऽधिका दीप्तिर्भवति, एवमिदमपि भावनाज्ञानमशुद्धसद्रत्नकल्पस्य भव्यजीवस्य कर्ममलमलिनस्यापि शेषज्ञानेभ्योऽधिकप्रकाशकारि भवति / अनेन हि ज्ञान ज्ञातनाम क्रियाऽप्येतत्पूर्विकैव मोक्षायाऽऽक्षेपेण संपद्यत इति / / 6 / / साम्प्रतं त्रयाणां श्रुतचिन्ताभावनामयज्ञानानां विषय विभागार्थ फलाभिधानाय प्रक्रमते कारिकाद्वयेनआद्य इह मनाक् पुंसः, तद्रागात् दर्शनग्रहो भवति।
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________________ णाण 1982- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 न भवत्यसौ द्वितीये, चिन्तायोगाद कदाचिदपि॥१०॥ आद्ये श्रुतज्ञाने, इह प्रवचने, मनागीषत, पुंसः पुरुषस्य, तद्रागात् | श्रुतमयज्ञानानुरागात्, दर्शनग्रहो भवति, दर्शन मतं श्रुतमिति एकोऽर्थः / तद् ग्रहः तदाग्रहो यथेदमत्रोक्तमिदमेव च प्रमाण नान्यदित्येवंरूपो, न भवत्यसौ दर्शनग्रहो यथेदमस्मदीयं दर्शनं शोभनमन्यदीयमशोभनमित्येवंरूपो, द्वितीये चिन्तायोगादतिसूक्ष्मसुयुक्तिचिन्तनसंबन्धात् कदाचिदपि काले नयप्रमाणाधिगमसमन्वितो हि विद्वान् प्रेक्षावत्तया स्वपरतन्त्रोक्तं न्यायबलाऽऽयातमर्थ सर्व प्रतिपद्यते, तेनास्यदर्शनग्रहो / न भवति // 10 // चारिचरकसजीव-न्यचरकचारणविधानतश्चरमे। सर्वत्र हिता वृत्तिर्गाम्भीर्याद् समरसापत्त्या।।११।। चारेश्चरको भक्षयिता संजीविन्या औषधेरचरकोऽनुपभोक्ता, तस्य चारणमभ्यवहारण, तस्य विधानं संपादनं, तस्माचारिचर-कसजीवन्यचरकचारणविधानतश्वरमे भावनामयज्ञाने सति सर्वत्र सर्वेषु जीवेषु हिता वृत्तिः हितहेतुः प्रवृत्तिर्न कस्यचिदहिता। गाम्भीर्यादाशयविशेषात् समरसापत्त्या सर्वानुग्रहरूपया "कयाचित् स्त्रिया कस्यचित् पुरुषस्य वशीकरणार्थ परिवाजिकोक्ता-यथेमं मम वशवर्तिनं वृषभं कुरु, तथा च किल कुतश्चित् सामर्थ्यात् सवृषभः कृतः,तेचारयन्ती पाययन्ती चास्ते। अन्यदा च वटवृक्षस्य अधस्तान्निषण्णे तस्मिन् पुरुषगवे, विद्याधरीयुग्ममाकाशमागमत्, तरै कयोक्तम्-अयं स्वाभाविको न गौः, द्वितीययोक्तम्-कथमयं स्वाभाविको भवति? तत्राऽऽद्ययोक्तम्-अस्य वटस्याधस्तात् संजीवनी नामौषधिरस्ति / यदि तां चरति, तदाऽयं / स्वाभाविकः पुरुषो जायते। तच विद्याधरीवचनं तया स्त्रिया समाकर्णितं, तया चौषधि विशेषतोऽजानानया समिव चारिं तत्प्रदेशवर्तिनी सामा-- न्येनैव चारितः, यावत्संजीवनीमुपभुक्तवान् / तदुपभोगानन्तरमेवासी पुरुषः संवृत्तः।" एवमिदं लौकिकमाख्यानकं श्रूयते। यथा तस्याः स्त्रियाः / तस्मिन् पुरुषगवे हिता प्रवृत्तिरेवं भावनाज्ञानसमन्वितस्यापि सर्वत्र भव्यसमुदायेऽनुग्रहप्रवृत्तस्य हितैव प्रवृत्तिरिति / / 11 / / विपर्ययो मोहतोऽन्य इत्युक्तम्. स पुनः कः? इत्याह-- गुर्वादिविनयरहितस्य यस्तु मिथ्यात्वदोषतो वचनात्। दीप इव मण्डलगतो, बोधः स विपर्ययः पापः ||12|| गुर्वादिविनयरहितस्य गुरूपाध्यायाऽऽदिविनयविकलस्य यस्तु यः पुनर्मिथ्यात्वदोषतो मिथ्यात्वदोषात् तत्त्वार्थाश्रद्धानरूपाद् वचनादागमाद् दीप इव, मण्डलगतो मण्डलाऽऽकारो बोधोऽवगमस्तैमिरि-1 कस्येव स तथविधो, बोधो वचनाद् भवन्नप्यध्यारोपदोषतो विपर्ययो मिथ्याप्रत्ययरूपः पदमात्रवाच्यार्थविषयः पापः स्वरूपेण वर्तते / / 12 / / विपर्यय एव प्रस्तुते दृष्टान्तगर्भमुपनयमाह कारि काद्वयेनदण्डीखण्डनिवसनं, भस्माऽऽदिविभूषितं सतां शोच्यम्। पश्यत्यात्मानमलं, गृही नरेन्द्रादपि ह्यधिकम् / / 13 / / मोहविकारसमेतः, पश्यत्यात्मानमेवमकृतार्थम् / तद् व्यत्ययलिङ्ग रतं , कृतार्थमिति तद्ग्रहादेव // 14 // दण्डीखण्ड प्रसिद्ध, निवसनं परिधानमस्येति दण्डीखण्डनिवसनः, तं भस्माऽऽदिभिर्विभूषितं विच्छुरितंभस्माऽऽदिविभूषितं सत्पुरुषाणां शोच्य शोचनीयं पश्यत्यवलोकयत्यात्मानमलमत्यर्थ, गृही गृहवान, नरेन्द्रादपि ह्यधिक चक्रवर्तिनोऽप्यधिकं यथेति गम्यते / / 13 / / मोहविकारसमेतो मनोविभ्रमदोषसमन्वितः पश्यत्यात्मानमेवमकृतार्थं सन्त विपर्य्यबोधवान कृतार्थमिति पश्यति, तस्य कृतार्थस्य व्यत्ययेन यानि लिङ्गानि तेषुरतस्तं तव्यत्ययलिङ्गरतम्। अनेनाकृतार्थत्वमेव वस्तुवृत्त्या दर्शयति / एवंविधोऽपि कृतार्थमिति कुतो मन्यते? तद्ग्रहादेव, स चासौ ग्रहश्च, तस्मादेव विवक्षितग्रहाऽऽवेशादेव / एवं ग्रहगृहीतेन विपर्ययवत उपनयः कृतः // 14 // ज्ञानविपर्यययोः स्वाभ्युपदर्शनार्थमिदं कारिकाद्वयमाहसम्यग्दर्शनयोगाद्, ज्ञानं तद् ग्रन्थिभेदतः परमम् / सोऽपूर्वकरणतः स्याद्, ज्ञेयं लोकोत्तरं तच / / 15|| सम्यग्दर्शनयोगात्तत्त्वार्थश्रद्धानसंबन्धाद्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं, तत् सम्यग दर्शनं ग्रन्थिभेदतो ग्रन्थिभेदात्, परमं प्रधान स्वरूपतो वर्तते, सग्रन्थिभेदो नियमत एवापार्द्धपुद्गलपरावर्ताधिकसंसारच्छेदी, अपूर्वकरणतः स्यादपूर्वपरिणामाद् भवेत्, ज्ञेयं लोकोत्तरं तच, तचापूर्वकरणं लोकात् सर्वस्मादप्युत्तरं प्रधानं ज्ञेयम्। अपूर्वकरणमपूर्वपरिणामः शुभोऽनादावपि संसारे तेषु तेषुधर्मस्थानेषु सूत्राऽर्थग्रहणाऽऽदिषु वर्तमानस्याप्यसंजातपूर्व इति कृत्वा / / 15|| लोकोत्तरस्य तस्माद्, महानुभावस्य शान्तचित्तस्य। औचित्यवतो ज्ञानं, शेषस्य विपर्ययो ज्ञेयः।।१६।। लोकादुत्तरःप्रधानो ज्ञानवानिह गृह्यते, तस्य लोकोत्तरस्य तस्मादिति निगमने महानुभावस्याचिन्त्यशक्तेः शान्तचित्तस्योपशान्तमनसः / औचित्यवत औचित्ययुक्तस्य ज्ञानमनेन ज्ञानस्वामी निदर्शितः / शेषस्योक्तगुणविपरीतस्य विपर्ययो ज्ञेयो ज्ञानत्रयादन्यः पदमात्रवाच्यार्थविषयः पूर्वोक्त इति! 16 // षो०११ विव०। (48) ज्ञानं किमिहभविकं परभविकं वा-- इहभविए भंते ! णाणे, परभविए णाणे, तदुभयभविए णाणे? गोयमा ! इहभविए विणाणे, परभविए विणाणे, तदुभयभविए विणाणे य। ''इहभविए" इत्यादि व्यक्तम्, नवरम् इह च भवे वर्तमानजन्मनि यद्वर्तते, न तु भवान्तरे तदैहभविकम्, काकुपाठाचेह प्रश्नताऽवसेया, तेन किमैहभविकं ज्ञानमुत-(परभदिए त्ति) परभवे वर्तमानानन्तरभाविन्यनुगामितया यद्वर्तते तत्पारभविकम्, आहोस्वित्-(तदुभयभविए त्ति) तदुभयरूपयोरिहपरलक्षणयोर्भवयोर्यदनुगामितया वर्तते तत्तदुभयभविकम्, इदं चैव न पारभविकाद्भिद्यत इति। परतरभवेऽपि यदनुयाति तद् ग्राह्यम्, इहभवव्यतिरिक्तत्वेन परतरभवस्यापि परभवत्वात्, हस्वतानिर्देशश्चेह सर्वत्र प्राकृतत्वादिति, प्रश्ननिर्वचनमपि सुगम, नवरम् (इहभविए वित्ति) ऐहभविकं यदिहाधीतं, नानन्तरभवेऽनुयाति, पारभविकं यदनन्तरभवेऽनुयाति. तदुभयभविकं तु यदिहाधीतं परभवे परतरभवे चानुवर्तत इति / भ०१ श०१उ०। शास्त्राभ्यासे, दर्श०५ तत्त्व / ज्ञानमागमितमित्येकोऽर्थः। व्य०१०उ० ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञेयप्र
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________________ णाण 1983 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाण काशके दीपकल्पे आचाराङ्ग श्रुताऽऽदौ, हा०३० अष्ट। बृ०। "तम्हा धिइउडाणुच्छाहकम्मबलविरियसिक्खियं नाणं। धारेयव्वं नियमा, नय अविणीएसु दायव्वं // 5 // " अत्र ज्ञानं चन्द्रप्रज्ञप्तिलक्षणम्। चं०प्र०२० पाहु। छउमत्थे णं भंते ! मणूसे परमाणुपोग्गलं किं जाणइ, पासइ, उदाहु न जाणइ, न पासइ? गोयमा ! अत्थेगइए जाणइ, ण पासइ, अत्थेगइए ण जाणइ, ण पासइ / छउमत्थे णं भंते ! दुपदेसियं खंधं किं जाणइ, पासइ? एवं चेव / एवं०जाव असंखेजपएसियं / छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से अणंतपएसियं खंधं किं पुच्छा? गोयमा ! अत्थेगइए जाणइ, पासइ, अत्थेगइए जाणइ, ण पासइ, अत्थेगइए ण जाणइ, पासइ, अत्थेगइए ण जाणइ, ण पासइ / आहोहिएणं मणुस्से परमाणु०जहा छउमत्थे एवं आहोहिए वि०जाव अणंतपदेसियं / परमाहोहिए णं भंते ! मणूसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणइ, तं समयं पासइ, जं समयं पासइ, तं समयं जाणइ? णो इणढे समढे / से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-परमाहोहिए णं मणूसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणइ, णो तं समयं पासइ, जं समयं पासइ, णो तं समयं जाणइ ? गोयमा ! सागारे से गाणे भवइ, अणागारे से दंसणे भवइ, से तेणद्वेणं०जाव णो तं समयं जाणइ, एवं०जाव अणंतपएसियं / केवलीणं भंते ! मणूसे जहा परमाहोहिए तहा केवली वि०जाव अणंतपएसियं / (छउमत्थेत्यादि) इह छद्मस्थो निरतिशयो ग्राह्यः। (जाणइ, न पासइ ति) श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी, श्रुते दर्शनाभावात्, तदन्यस्तु"नजाणइन पासइ ति" अनन्तप्रदेशिकसूत्रे चत्वारो भङ्गा भवन्ति, जानाति स्पर्शनाऽऽदिना, पश्यति च चक्षुषेत्येकः / तथाऽन्यो जानाति स्पर्शनाऽऽदिना, न पश्यति च चक्षुषा, चक्षुषोऽभावादिति द्वितीयः / / तथाऽन्यो न जानाति स्पर्शाद्यगोचरत्वात्, पश्यति चक्षुषेति तृतीयः / तथाऽन्यो नजानाति न पश्यति चाविषयत्वादिति चतुर्थः / छद्मस्थाधिकाराच्छास्थविशेषभूताधोऽवधिकपरमाधोऽवधिकसूत्रे परमावधिकवावश्यमन्तर्मुहूर्तेन केवली भवतीति केवलिसूत्रम्। तत्र च (सागारे से नाणे भवइ त्ति) साकारं विशेषग्रहणस्वरूपम् / 'से' तस्य परमाधोऽवधिकस्य तद्वा, ज्ञानं भवति, तद्विपर्ययभूतं च दर्शनमतः परस्परविरुद्धयोरेकसमये नास्ति संभव इति / भ०१८ श०८उ०। व्रतमङ्गभेदादतीचाराणां सम्यगवबोधे, ध०४अधि०/ संप्रति (व्रतकर्मणि) ज्ञानाऽऽख्य द्वितीयभेदं व्याचिख्या सुर्गाथोत्तरार्द्धमाहभंगयभेयइयारे, वयाण सम्मं वियाणेइ / / 3 / / व्रतानामणुव्रताऽऽदीनामिहैव गाथाढ़ें भेदातिचारप्रस्तावे वक्ष्यमाणस्वरूपाणां भङ्गकान् द्विविधत्रिविधेत्यादीननेकप्रकारान्(सम्मं ति) सम्यक् समयोक्तेन विधिना विजानात्यवबुध्यते (35) ध०र०३५ गाथा। (भङ्गसङ्ख्याप्रदर्शनमनुपयुक्तत्वान्नेह प्रतन्यते) विषयसूची(१) सव्युत्पत्तिक ज्ञाननिर्वचनम्। (2) ज्ञानस्य पञ्चविधत्वम्। (3) ज्ञानभेदकारणानि। आदौ मतिश्रुतोपन्यासे कारणनिरूपणानन्तरं मतिश्रुतानन्तरमवधेस्तत्समनन्तरं च मनःपर्यायज्ञानस्योपन्यासकारणनिरू पणं, केवलज्ञानस्य सर्वोपरि निर्देशे कारणं च। (5) प्रत्यक्षपरोक्षत्वाभ्यां ज्ञानस्य द्वैविध्य प्ररूप्य केवलनो-- केवलज्ञानभेदेन प्रत्यक्षज्ञानस्य द्वैविध्यप्रदर्शनम्। (6) अवधिमनःपर्यायज्ञानत्वेन केवलज्ञानस्य द्वैविध्यं निरूप्याss भिनिबोधिकश्रुतज्ञानभेदेन परोक्षज्ञानस्य द्वैविध्यप्रदर्शनम्। (7) स्वाम्यादिभेदाद् मतिश्रुतभेदः। (8) प्रकारान्तरेणापि मतिश्रुतयोर्लक्षणभेदप्ररूपणा। (E) आचार्यभेदेन मतिश्रुतभेदार्थे शङ्कननिराकरणे। (10) तदनन्तरं विशेषदूषणाभिधित्सया पुनरपि मतान्तरोपन्यासः / (11) कराऽऽदिचेष्टा मतेःकारणमेव न भवति, किन्तु श्रुतस्येतिशङ्को द्घाटनम्। (12) श्रुतानन्तरमवधिज्ञानस्य विवेकः। (13) वस्तुतो ज्ञानस्य द्वैविध्यमेवेतिनिरूपणम्। (14) न ज्ञानमात्मव्यतिरेकेण गुणः। (15) ज्ञानज्ञानिनोभिन्नत्वस्वीकारे बन्धमोक्षाभावपरामर्शः। (16) बोधमात्रं प्रमाणं, साकारो वा बोधः प्रमाणमित्यत्र वैभाषिकमत विचारः। (17) जैमिनीयस्वीकृतप्रमाणलक्षणनिराकरणम् / (18) प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमिति सौगतनिर्मितलक्षणपरामर्शः। (16) अव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टाऽर्थोपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणमितिनैयायिकमतव्युदासः। (20) अनुव्यवसायप्रकाश्यं ज्ञानमित्यत्र नैयायिकमतमुद्धाट्यपर्या लोचना। (21) ज्ञानस्य स्वप्रकाशकत्वे प्रदीपाऽऽदिदृष्टान्तमुपन्यस्य पदार्थ परिशोधनम्। (22) नित्यपरोक्षज्ञानवादिना भट्टानाम्, एकात्मसमवायिज्ञानान्तर वेद्य-ज्ञानवादिना यौगाना च मतस्य विकुट्टनम्। (23) ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च निरूपणम्। (24) तत्र नैरयिकजीवानधिकृत्य प्रदर्शनम्। (25) द्वीन्द्रियाः सिद्धपर्यन्ताः। (26) तान्येव गतिद्वारमवलम्ब्य चिन्तनम्। (27) इन्द्रियद्वारमुपन्यस्य निरूपणम्। (28) कायद्वारमुद्भाव्य प्ररूपणम्। (26) सूक्ष्मद्वारमुदीर्य प्रदर्शनम्।। (30) पर्याप्तकद्वारे तत्प्रतिपादनम्। (31) भवस्थद्वारतोऽपि तन्निर्देशः / (32) भव्यद्वारे ज्ञान्यज्ञानिविचारः।
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________________ णाण 1984 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणकिरियाणय (33) संज्ञिद्वारे तेषां निरूपणम्। (34) लब्धिद्वारमधिकृत्य तत्परामर्शः / (35) उपयोगद्वारमुपन्यस्य तदुपदर्शनम्। (36) योगद्वारे सयोग्ययोगिनां तद्विमर्शः। (37) लेश्याद्वारे तथैव सलेश्यालेश्यानाम् / (38) कषायद्वारे सकायिकाकायिकानाम्। (36) वेदद्वारे सवेदकावेदकानाम्। (40) आहारकद्वारे आहारकानाहारकाणाम् / (41) तत्त्वसंवेदनं ज्ञानमिति चिन्तनम्। (42) अज्ञानं सम्यग ज्ञानादन्यद्, ज्ञानं तु भगवद्वचनम्। (43) तत्र ज्ञानयोजना। (44) त्रयाणां श्रुताऽऽदिज्ञानानां स्वल्पविभागः। (45) तत्र श्रुतमयज्ञानस्य लक्षणम्। (46) चिन्तामयज्ञानस्य लक्षणम्। (47) भावनाज्ञानलक्षणम्। (48) इहभविकपरभविकज्ञानविमर्शः। (46) छद्मस्थजीवानधिकृत्य ज्ञानाऽऽदिपरामर्शः। णात न०(ज्ञात)ज्ञायतेऽस्मिन् सतिदान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम्। दृष्टान्ते, स्था। ज्ञायतेऽस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे क्तप्रत्ययोपादानाद् ज्ञातं दृष्टान्तः-साधनसद्भावे साध्यस्याऽवश्यंभावः, साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमभाव इत्यपदर्शनलक्षणः / यदाह"साध्येनानुगमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता / ख्याप्यते यः स दृष्टान्तः, स साधयंतरो द्विधा / / 1 / / " इति / तत्र साधर्म्य दृष्टान्तःअग्निरत्र, धूमात्, यथा महानस इति। वैधर्म्यदृष्टान्तस्तु-अग्न्यभावे धूमो न भवति, यथा जलाशय इति। अथवा-आख्यानकरूप ज्ञात, तच चरितकल्पितभेदाद् द्विधा-तत्र चरितं यथानिदानं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येव / कल्पितं यथा--प्रमादवतामनित्यं यौवनाऽऽदीनीति। निदर्शनीयं यथापाण्डुपत्रेण किसलयानां देशितम्। तथाहि"जह तुम्भे तह अम्हे, तुडभे वि य होइ हा ! जहा अम्हे। अप्पा हेइ पमंतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं / / 1 / / " इति। अथवा-उपमानमात्र ज्ञातम्-सुकुमारः कर: किसलयमिवेत्यादिवत्। अथवा-ज्ञातमुपपत्तिमात्र ज्ञानहेतुत्वात्, कस्मात्? यवाः क्रीयन्ते, यस्मात् मुधा न लभ्यन्ते, इत्यादिवदित्येवमनेकधाऽपि साध्यप्रत्यायनरूपं ज्ञातमुपाधिभेदात् चतुर्विधं दर्शयति। स्था०४ ठा०३उ०। "चउविहे णाणे पण्णत्ते / तं जहा आहरणे, आहरण-तद्देसे, आहारणतद्दोसे, उववन्नासोवणए।" स्था०४ ठा०३उ०। (आहरणाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) मनुजक्षेत्रे व्यवस्थिताना मनोमात्रग्राहका ऋजुमतय इति कल्पसूत्रावचूादौ, तथा प्रज्ञापनावृत्ती मनःपर्यायज्ञातम्, इदं चाद्धतृतीयद्वीपद्विसमुद्रान्तर्वर्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यावलम्बन मिति व्याख्यानानुसारेण वर्तमानानामेवं संज्ञिनां मनोगतपर्यायावभासो जायत इति / तथा च सति यदुक्तं प्रज्ञापनाटीकायाम् मनःपर्यायज्ञानमपि पल्योपमासंख्येयभागमतीतं जानातीति कथं संगच्छते? इति प्रश्ने उत्तरम-वर्तिपदं मनु-जक्षेत्राधिक क्षेत्रवर्तिसंज्ञिमनागतद्रव्यावबोधनिषेधपरं, न तु वर्तमानसंज्ञिमनोगतद्रव्यावबोधनियमपरम्, तेनावधिज्ञानिवन्मनः पर्यायज्ञान्यपि यथोक्तातीतमनोगतभावान् जानातीति न कश्चिद् विरोध इति। 158 प्रवा सेन०२ उल्ला०। णाणंतराय पुं०(ज्ञानान्तराय) 6 त०। श्रुतस्य तद्ग्रहणाऽऽदौ विघ्ने, भ०५श०६ उ णाणकप्प पुं०(ज्ञानकल्प) श्रुतज्ञानविषयके कल्पे, पं०भाग एत्तो उणाणकप्पं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए। सुत्तुद्देसे वायरण-पडिच्छपुच्छपरियट्टअणुपेहा।। आयरियउवज्झाया, अह होति तु सुत्तकप्पविही। आयारमादि काउं, सुयं तु जा होति दिद्विवादो तु॥ अंगाणंगपविलु, कालियमुक्कालियं वा वि। तं पुण सव्वं पि भवे, संवादसमुट्ठितं च णिज्जूढं / / पत्तेयबुद्धभासिएँ, अह व समत्ती य होजाहि। पं०भा०। पं०चू०। (श्रुतकल्पाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) णाणकसायकुसील पुं०(ज्ञानकषायकुशील) ज्ञानमाश्रित्य कषाय कुशीले, भ०२५ श०६ उ०। णाणकिरियाणय पुं०(ज्ञानक्रियानय) ज्ञानक्रियाद्वयं मोक्षहेतुरिति सिद्धान्तव्यवसिते नये, (रत्ना०)('किरियाणय' शब्दे तृतीयभागे 554 पृष्ठे क्रियाप्राधान्यमुक्तम्) ('णाणणय' शब्दे ज्ञानप्राधान्यं वक्ष्यते) अत्र समुन्चयवादी प्राह-ततः सम्यग्ज्ञानं सम्यक् क्रियासध्रीचीनमेव फलसिद्धिनिबन्धनमित्यभ्युपगन्तव्यम्, न तु ज्ञानैकान्तः कान्तः / क्रियैकान्तोऽपि भ्रान्त एव। “यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, नज्ञानात् सुखितो भवेत् / " ("क्रियैव फलदा पुंसा, न ज्ञानं फलदं मतम्" / इति पूर्वार्धम् / ) इतितुन युक्तम् / यतः सम्यग्ज्ञानकारणैकान्तवादिनामयमुपालम्भो, न पुनरस्माकं, सम्यग्ज्ञानक्रिययोरुभयोरपि परस्परापेक्षयोः कारणत्वस्वीकारात् / न च नितम्बिनीमोदकाऽऽदिगोचरायां प्रवृत्तौ तद्विज्ञानं सर्वथा नास्त्येव, यतः-क्रियाया एव तत्कारणता कल्प्येत / तद्गोचरविज्ञानसनाथैव तत्र प्रवृत्तिः प्रीतिपरम्परोत्पादनप्रत्यला, अन्यथाउन्मत्तमूञ्छिताऽऽदेरपि प्रौढप्रेमपरायणप्रणयिनीनिविडाऽऽश्लेषक्रियाऽपि तदुत्पादाय किं न स्यात् ? अथासौ क्रियैव तत्त्वतो न भवति, सैव हि क्रिया तात्त्विकी, या स्वकीयकार्याव्यभिचारिणी; हन्त ! तर्हि तदेव तात्त्विकं ज्ञानं यत् स्वकीयकार्याव्यभिचारीति कथं "स्त्रीभ-- क्ष्यभोगज्ञः" इत्युपालम्भः शोभेत ? ततः कार्यमर्जयन्ती यथा निश्चयनयेन क्रिया क्रियोच्यते, तथा ज्ञानमपिः इति क्वचिद् व्यभिचाराभावाद् वयमेवैतत् फलोत्पत्तिकारणमनुगुणमिति। रत्ना०७ परि०। अत्र यशोविजयोपाध्यायकृतो वेदान्तिभङ्गया समुच्चयवादःअत्र ज्ञानकर्मसमुचयवादे स्वपरसमयवि चारः कश्चिद् लिख्यतेक्रियानयः क्रियां ब्रूते, ज्ञानं ज्ञाननयः पुनः। मोक्षस्य कारणं तत्र, भूयस्यो युक्तयो द्रयोः।।१२।। तत्र मुमुक्षुकर्मव्यापारतन्त्रं तत्त्वज्ञानवृत्ति, न वा? इति विप्रतिपतिविधिकोटि सदयनाचार्याणाम्, निषेधकोटिभर्भास्करीयाणाम् /
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________________ णाणकिरियाणय 1985 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणकिरियाणय तत्र भास्करीयाणामयमाशयःतीर्थविशेषस्नानमहादानयमनि- / यमाऽऽदिकर्मणां निःश्रेयसकारणत्वं तावच्छब्दबलादेवावगम्यते / तत्त्वज्ञानव्यापारकत्वं तु तेषां निःश्रेयसे जनयितव्ये न तावच्छब्द एव / बोधयति, तत्र तस्यौदासीन्यात् / न च साक्षात् साधनताव्यासः साधनताप्रतीतेः परम्पराघटकव्यापारमविषयीकृत्य नघटत इत्यपूर्ववाच्यतान्यायेन शब्द एव वस्तुतः तत्त्वज्ञानव्यापारकता बोधयितुं प्रगल्भते इति शङ्कापद हृदि निधेयं, सामान्यशब्दोऽन्यतमविशेषबाधेतं त्यजति, न तु विशेषान्तरमुपादित्सितमपि विशिष्य बोधयतीति स्वभावाद् दृष्टान्तस्यैवासंप्रतिपत्तेः / न च कर्मणामाशुतरविनाशित्वेन व्यापारोऽवश्यं स्वीकरणीयः, तत्र दृष्टन तत्त्वज्ञानेनैवोपपत्तावदृष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वाद् लाघवसहवृत्तानुपपत्तिरेव तत्त्वज्ञानव्यापारकल्वे मानमिति वाच्यम्, तत्त्वज्ञानस्याऽपि व्यवहितत्वेन तत्राऽपि कर्मणोऽदृष्टद्वाराऽऽवश्यकत्वान्निःश्रेयसेद्वारद्वयकल्पने गौरवाद् निःश्रेयसे कर्मणामदृष्टद्वारा हेतुत्वे तत्त्वज्ञानोत्पत्त्यनन्तरमपि यमनियमाऽऽद्यनुष्ठान स्यादिति चेत्, स्यादेव, तदानीमपि मुमुक्षाया अधिकारस्याक्षते / न च तत्त्वज्ञानत्वेनेव मोक्षजनकत्वात्प्राथमिकतत्त्वज्ञानादेव मोक्षोत्पत्तौ क्व कर्मानुष्ठानमिति शङ्कनीयम् ? "नित्यनैमित्तिकैरेव, कुर्वाणो दुरितक्षयम् / ज्ञान च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तुपाचयेत्।।१।। अभ्यासात पक्वविज्ञानः, कैवल्यं लभते नरः"। इत्यादि पुराणेषु तदभ्यासश्रवणात्। श्रुतिरप्यत्र विपक्षबाधकतया प्रमाणमस्ति / तथाहि-"अन्धंतमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः।" अस्या अर्थः-अविद्या कर्म, तदुपासतेज्ञानत्यागेन तत्राऽऽसक्ता भवन्ति येतेऽन्धतमः प्रविशन्ति, संसारान्न मुच्यन्ते, तेन केवलकर्मोपासने न जन्माऽऽदिविच्छेदः / ये च विद्यायां रताः, विद्यातत्त्वज्ञान, तन्मात्राऽऽसक्ताः, उ इत्यव्ययं चकारार्थम्। ते भूयोऽतिशयेन अन्धन्तमः प्रविशन्ति, नित्याकरणे प्रत्यवायस्य बहुतरत्वात् / ननु 'मोक्षाऽऽश्रमश्चतुर्थो वै, यो भिक्षोः परिकीर्तितः" इत्यागमाच्चतुर्थाऽऽश्रमिणामेव मोक्षेऽधिकारः / तत्र च ''सन्यस्य सर्वकर्माणि'' इति स्मृतेः कर्ममात्रत्यागात् क्व समुच्चयः, क्व वाऽकरणे प्रत्यवाय इति चेत् / न / यानि कर्माणि उपनीतमात्रकर्तव्यत्वेन विहितानि, तत्परित्यागस्याशास्त्रीयत्वात् संकोचे मानाभावात्, निषिद्धानि काम्यानि च बन्धहेतुत्वाद्धनमूलानि चधनत्यागादेव त्यज्यन्त इत्येतावत एव संन्यासपदार्थत्वात्। तथा च गीतावचनम्"काम्यानां कर्मणांन्यासं, संन्यासं कवयो विदुः।" "नियतस्य तु संन्यासः, कर्मणो नोपपद्यते। मोहात्तस्य परित्यागः, तामसः परिकीर्तितः / / " इति। साक्षात्समुच्चय प्रतिपादिकाऽपि श्रुतिः-''अविद्यां च विद्यां च यस्तद्देदोभयं त्विह / अविद्यया मृत्यु तीा विद्ययाऽमृतमश्नुते / " अत्राविद्या कर्म, विद्यां च तत्त्वज्ञानं तुल्यं चेह यो वेद प्राप्नोतीति पूर्वार्थिः / वेदेति प्रयोगाद् विदृ लाभे इति धातोश्छान्दसत्वेन भास्करीयैर्दर्शितत्वात्। "तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था | विद्यतेऽयनाय।" ति वाक्यं त्वेवकारस्य विदित्वा इत्यनन्तरं योजनात् तत्त्वज्ञानस्याप्यपवर्गसामग्रीनिवेशननियमपरं, न तु वाक्यान्तरावधृतकारणताककर्मव्युदासपरम् / समुच्चयेऽन्यान्यपि भूयांसि वचनानि सन्ति / तथा च गीतावचनम्-'स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः, संसिद्धिं लभते नरः / स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य, सिद्धि विन्दति मानवः" / / 1 / / विष्णुपुराणेऽप्युक्तम्-'तस्मात् तत्प्राप्तये यत्नः, कर्तव्यः पण्डितैनरैः। तत्प्राप्तिहेतुर्विज्ञानं, कर्मचोक्तं महामते!" ||1|| हारीत:--''उभाभ्यामपि पक्षाभ्या, यथा खे पक्षिणां गतिः / तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते ब्रहा शाश्वतम् // 1 // " श्रुतिश्च-"सत्येन लभ्यः तपसा ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण च" इति। एतन्मूलकमेव परिज्ञानाद्भवे प्रसिद्धिः 'न होकपक्षो विहगः प्रयाति' इत्यादि। न च काम्यनिषिद्धनैमित्तिकाभ्यां कर्मभ्यां न समुच्चयः, तयोस्त्यागात्, न नैमित्तिकनित्येनैकैकशो व्यभिचारात् संकल्पनासंभवात् / नाऽपि यत्याश्रमविहितेन"न्यायाऽऽगतधनस्तत्त्वज्ञाननिष्ठोऽतिथिप्रियः। श्राद्धकृत सत्यवादी च, गृहस्थोऽपि विमुच्यते / / 1 / / " इत्यागमेन गृहस्थस्यापि मोक्षश्रवणादित्युपपत्तिविरोधादेव न समुच्चय इति वाच्यम्; यत्राऽऽश्रमे यानि मोक्षहेतुतया विहितानि, तैरेव तदाश्रमे तत्त्वज्ञानस्य समुच्चयोपपत्तेः / न च कर्मणां परस्परव्यभिचारान्निःश्रेयसे च स्वर्गवद् वैचित्र्याभावान्न तत् प्रति कारणत्वमिति वाच्यम्, स्वाभाविकविशेषविर हेऽपि प्रतियोगिभेदन विशेषस्य निःश्रेयसेऽप्यविरोधात् / तत्पुरुषीयमुमुक्षुविहितकर्मत्वेन तत्पुरुषीयविजातीयदुःखध्वंसे हेतुत्वसंभवात्, अवश्यं चाभावरूपे कार्ये प्रतियोगिभेदेन विशेषोऽभ्युपेयः, कथमन्यथा आश्रयनाशपाकयोः रूपनाशकारणत्वमिति / न च ज्ञानस्य विहितत्वाददृष्टजनकत्वेनादृष्टस्यैव प्राधान्यम्, न च रागाऽऽद्यभावाद् योगिनोऽदृष्टोत्पत्त्यसंभवः, मुक्तिविरोध्यपूर्वोत्पत्तावेव रागाऽऽदेः सहकारित्वात्तावतैव मोक्षफलकविध्यनुपपत्तिपरिहारादिति वाच्यम्, मुक्त्यादितत्त्वज्ञानसाध्यतया क्लुप्तेन मिथ्या ज्ञानविध्वंसेन दृष्टनौवोपपत्तावदृष्टकल्पनायोगात्। अन्यथा भेषजाऽऽदिष्वपि तत्कल्पनाऽऽपत्तेः / एवं च विहितत्वं तत्रैव व्यभिचारादिति द्रष्टव्यम् / न चावघातवन्नियमादृष्ट कल्पना, तत्र वैतुष्यस्याऽन्यथाऽपि संभवेन सा, अत्र तु मिथ्याज्ञानस्य निवृत्तेः, अन्यथाऽसंभवा इति विशेषात् / नन्वत्रापि विरोधिगुण्यन्तरोत्पत्तेरपि मिथ्याज्ञानध्वंसः संभवति / न च मिथ्याज्ञानपदं तद्वासनापर, तत्त्वज्ञानात् तद् ध्वंसस्यैवाङ्गीकारात्. तस्य चान्यथाऽसंभव एवेति वाच्यम्, अचिकित्स्यरोगाऽऽदिना तस्याऽपि संभवात् / न चेतरवासनानाशेऽपिनततः संसारवासनाया अनाश इति वाच्यम, सामान्यावच्छेदे न पाक्षिकप्राशेरेव नियममूलत्वात् / अन्यथाऽपूर्वाय व्रीहिविशेष नखनिर्भेदाप्राप्तेः, तत्राऽपि नियमादृष्टानुपपत्तिरिति चेत् / न / शक्यपरिवर्जनपाक्षिकप्राप्तेरेव नियममूलत्वात्। यथा वीहीनवहन्तीत्यत्र पक्षे प्राप्तस्य नखनिर्भेदाऽऽदेः शक्येन परिवर्जननावघातो नियम्यतेअवहन्तव्या एव, न नखैर्निभत्तव्या इति नैवमत्र तत्त्वज्ञानेनैव मिथ्याज्ञान निवर्तयेत्, न विरोधिगुणरागाऽऽदिना इति शक्यं प्रतिज्ञातुम् , तस्यापुरुषतन्त्रत्वात् / अत एव प्रोक्षितब्रीह्यवघातत्वेनेव श्रवणजन्यतत्त्वज्ञानत्येन नियमादृष्ट-हेतुत्वध्रौव्यमिति निरस्तम्, प्रोक्षणाऽऽदेः प्रधानाङ्गत्वेन प्रधानापूर्वफलकादृष्टजनकत्वात्।तत्रतथोक्तिसंभवेऽ-प्यत्र प्रधानस्यैव दृष्टफलत्वेन तथा वक्तुमशक्यत्वात्। किश्च-अत्र विजातीय
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________________ णाणकिरियाणय 1986 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणकिरियाणय तत्त्वज्ञानत्वेनैव दृष्टद्वारा मुक्तिहेतुत्वाद् न नियमादृष्टकल्पना / तत्र वैजात्येनैव हेतुत्ये तदवच्छिन्ने प्रोक्षणहेतुत्वोक्तौ कण्डने प्रोक्षणबाधाऽऽपत्तेः / न चावहतव्यप्रोक्षणत्वेनाप्यदृष्टहेतुत्वात् तत्राऽपि नियमादृष्ट कल्पनीयम्, दृष्टार्थस्यैव नियमादृष्टार्थस्य सिद्धान्तत्वादित्यन्यत्र विस्तरः। उदयनानुसारिणस्तु-अनुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य ज्ञानार्थिनः तत्प्रतिबन्धक दुरितनिवृत्तिद्वारा प्रायश्चित्तवत् आरादुपकारकं कर्म, संनिपत्योपकारकं च तत्त्वज्ञानम्, उत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य त्वन्तरलब्धदृष्टः कारीरीसमाप्तिवदारब्धाग्रिमपालनं लोकसंग्रहार्थम्, यद्यपि लोकसंग्रहे न प्रयोजनं, सुखदुःखाभावतत्साधनेतरत्वात्, तथाऽप्यकरणे लोकानामनित्यत्वेन यत् ज्ञानं तत्परिहारार्थम्, तत्तद् दुःखयोगेन कर्मनाशार्थं वा तत्। इदमेव च द्वारिद्वारयोः कर्मतत्त्वज्ञानयोः कारणत्वं, तुल्यकक्षतया समुचयो नेष्ट इत्यनेन विवक्ष्यते / यद्यपि च तीर्थविशेषस्नानाऽऽदीनां तत्त्वज्ञानव्यापारकत्वं न शाब्दं, तथाऽपि तीर्थविशेषस्नानाऽऽदीनि तत्त्वज्ञानद्वारकाणि, मोक्षजनककर्मत्वाद्, यमाऽऽदिवदित्यनुमानात्तथात्वसिद्धिः। न च योगत्वमुपाधिः, "कथयति भगवानिहान्तकाले, भवभयकातरतारकं प्रबोधम्" इत्यादिपुराणात् "रूद्रस्तारकं ब्रह्म व्याचष्टे" इति श्रुतेश्च काशीप्रयागाऽऽदे: तत्त्वज्ञानव्यापारकत्वसिद्धौ तत्र साध्याव्यापकत्वादित्याहुः। स्वतन्त्रास्तु-तत्त्वज्ञानं प्रत्यङ्गत्वपक्षे कर्मणामपूर्वद्वारा जनकत्वं, दुरितध्वंसकल्पनातो लघुत्वात् / वस्तुतः कर्मणां निःश्रेयसहेतुत्वे तज्जन्यनिःश्रेयसजनकतया तत्त्वज्ञानस्य कर्मव्यापारत्वं वाच्यं, तदेव तु न युक्तम्। "न कर्मणा न प्रजया धनेन / नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। नास्त्यकृतः कृतेन'। 'कर्मणा बध्यते जन्तु-विद्यया च विमुच्यते / तस्मात् कर्म न कुर्वन्ति, यतयः पारदर्शिनः // 1 // " इत्यादिश्रुतिस्मृतिशतेन निषेधात्, कर्मजन्यत्वाभावाच / 'तपसा कल्मषं हित्वेति। अविद्यया च मृत्यु तीर्थ्यो / ततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः, कषायपक्तिः कर्मभ्यः" इत्यादि-भिस्तत्त्वज्ञानोत्पत्तिप्रतिबन्धकदुरितनिवृत्त्यैवान्यथासिद्धेः प्रदर्शनात् / न च "विविदिषन्ति यज्ञेन" "सर्वं कर्माखिलं पार्थ! ज्ञानेपरिसमाप्यते'' इत्यादिभिः कर्मजन्यताऽपि प्रतीयत इति वाच्यम्। सा हि नापूर्वद्वारा प्रतिबन्धकदुरितानुच्छेदेऽपूर्वसहस्रस्याप्यकिश्चित् करत्वात्, तदुच्छेदेन तज्जननेतु प्रमाणान्तरावधृतकारणाभावेन प्रतिबन्धकाभावेनैवान्यथासिद्धेः / न चैवं यागाऽऽदेरप्यपूर्वेणान्यथासिद्धिः स्यात्, तस्य यागकारणताग्रहोत्तरकल्प्यत्वेनोपजीव्यापरिपन्थित्वात्, इह तु प्रतिबन्धकाभावस्य कार्यमात्रकारणतायाः प्रागेवावधारणमिति शेषात् / अत एव मङ्गलकारीयोः प्रतिबन्धकदुरितनिवृत्तिमात्रफलकत्वं, वृष्टिसमाप्ती तु स्वकारणादेवेति सिद्धान्तः (नवीनानाम् / ) किश-कर्मकारणताग्रहानुपजीवनेन लौकिकान्वयव्यतिरेकावधृतमिथ्याज्ञाननिवर्तनभावसंभावितस्यमोक्षसाधनत्वस्य "ज्ञानादेव तु कैवल्यम्, तरतिशोकमात्मवित्, ब्रह्मविदाप्नोति परं, ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति," इत्यादिश्रुतिस्मृतिशतेन तत्त्वज्ञानादिष्टतया ग्रहणात् तदेव मोक्षसाधनम्। कर्माणितु तत्रैवान्यथासिद्धानीति युक्त, यथा च न तत्रापि व्यापारः तथोक्तमेव / अत एवार्थावबोधपर्यन्तताऽध्ययनविधेः, न तु तेन क्रत्वाद्यनुष्ठानेन / स्वर्गाऽऽदिफलकत्वमिति संप्रदायः / न च तत्त्वज्ञानस्य कर्मणां | निःश्रेयसप्रागभावव्याप्यप्रागभावप्रतियोगित्वरूपतदनुकूलताबोधने एव तात्पर्यात् श्रुत्यन्तरसिद्धेऽन्यथासिद्धत्वे तदन्यथासिद्धताया बोधयितुमशक्यत्वात्तावतैव श्रुतेः कर्मप्रवृत्तिपरतानिर्वाहादित्याहुः। अत्र वयं वदामः-मोक्षस्तावत् पुरुषार्थत्वाद् दुःखसाधनकर्मध्वंस एव, न तु दुःखध्वंसः, उत्पन्नानुत्पन्नविवेकिना तद्ध्वंसस्याऽसाध्यत्वात्। तत्रच ज्ञानकर्मणो(जात्येन मुमुक्षुविहितत्वादेव हेतुत्वं तुल्यमेवेत्येकतरपक्षपातो न श्रेयान्। ज्ञाने केवलज्ञानत्वरूपस्य, कर्मणि च यथाख्यातचारित्रत्यरूपस्य वैजात्यस्य कल्पनायाः क्षायिकस्थले क्षायोपशमिकस्थले चतदनुकूलतामात्रस्य द्वयोस्तुल्ययोगक्षेमत्वात्। एतेन कारणोच्छेदक्रमेण कार्योच्छेदाद् मुक्तिरिति ज्ञानकर्मसहकारित्वं मिथ्याज्ञानोन्मूलने कर्मविनाश-कृतस्यैव तस्य दिग्मोहाऽऽदौ हेतुत्वावधारणाऽऽदि निरस्तम्: मिथ्याज्ञाननाशेऽपि विरोधिगुणमात्रस्य हेतुत्वात्, मिथ्याज्ञानप्रभावासहवृत्तिमिथ्याज्ञानध्यंसे च हेतुताया लोकप्रमाणाविषयत्वेन ज्ञानकर्मणोर्द्वयोरेव कल्पनौचित्यात्। वस्तुत आर्थसमाजसिद्धत्वात् तद्रूपावच्छिन्नेऽपिन हेतुता, किंतु सामान्यावच्छिन्नध्वंसनये कर्मत्वावच्छिन्नध्वंसे, तत्सम यावत् कर्मक्षयसमनियतक्षायिकसुखत्वावच्छिन्ने वेति न कस्यापि न्यूनत्वम्, पराभिमतद्वारस्थान एव फलाभिषेकात्। एकपुरस्कारेणान्यनिराकरणवचनं च तत्तदर्थवाद एवेति नकर्मकारणताबोधकवचनेऽनुकूलत्वमात्रमर्थः / कारणता शक्तपदस्यानुकूलत्वम्, लक्षणायां गौरवात्। अन्यथा सिद्धिचतुष्टयराहित्यगर्भत्वेन तत्र लाघवमिति दृष्टिदाने च विधिप्रत्ययमात्रार्थाऽपीष्टानुकूलत्वमात्रमेव स्यादितियागाऽऽदेरप्यपूर्वेणान्यथासिद्धिः कर्मणाम्, नतत्त्वज्ञाने। नच तद् द्वारा मुक्तौ हेतुत्वमित्युक्तम् / तदपि न युक्तम् / प्रतिबन्धकत्वस्य विशिष्य विश्रामेण तदभावकार्यमात्रेऽनुगतहेतुताया अयोगात्, प्रतिबन्ध-कविशेषनिवृत्तिहेतुतायाश्च कर्मकारणताग्रहोत्तरकल्पनीयत्वेन तदन्यथासिद्ध्यनापादकत्वात् / किं च -प्रतिबन्धकनिवृत्त्याऽन्यथासिद्धत्वेन कर्मणोऽहेतुत्वोक्तौ तत्त्वज्ञानस्य सुतरां तथात्वं स्यात्। न हि उत्पन्न केवलज्ञाना अपि भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयं प्रतिबन्धकमनिवर्तयित्वा सद्य एव मुक्तिमासादयन्तीति मुक्तिप्रतिबन्धककर्मनिवर्तकत्वेन तत्त्वज्ञानस्य कुतोऽनान्यथासिद्धिः? अथ कर्मणो भोगनाश्यत्वेन ज्ञानस्य तदनाशकत्वाद् नान्यथासिद्धिः, न हि भोगस्तत्त्वज्ञानव्यापारः, तथाऽश्रवणात्, तेन विनाऽपि कर्मण एव तदुपपत्तेश्च / न च वासुदेवाऽऽदीनां कायव्यूहश्रवणात् तत्त्वज्ञानेन कायव्यहमुत्पाद्य भोगद्वारा कर्मक्षयमित्यपि साम्प्रतम. तपःप्रभावादेव तत्त्वज्ञानस्योत्पादेऽपि कायव्यूहसंभवाद् भोगजननार्थ कर्मभिरवश्य तत्कार्यनिष्पादनमिति न तत्र तत्त्वज्ञानोपयोगः, यौगपद्यं च कायाना तज्जनककर्मस्वभावात्तपः प्रभावाद्वेति। न च "तावदेवास्य चिरं यावत्र विमोक्षोऽथ संपत्स्यते कैवल्येन'' इति श्रुतौ तावदेवास्योत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य चिरं विलम्बो यावन्नोत्पन्नकर्मणो विमोक्षः। अथ संपत्स्यते कैवल्येन' भोगेन क्षपयित्वेति शेष इति व्याख्यानाद् भोगस्य तत्त्वज्ञानव्यापारत्वंयुक्तमेव।नच शेषदाने मानाभावः, सत्यपि ज्ञाने कर्मावस्थाने क्लृप्तसामान्यभोगस्यैवनाशकत्वेनाऽऽक्षेपादिति वाच्यम्, तत्त्वज्ञाने सति तत्त्वज्ञानदशायां न मोक्षः, किंतु तदपि म्रक्षण(?) इत्यर्थेनाप्युपपत्ते रिति चेत् / मैवम् / कर्मणो भोगनाश्यत्वेऽपि ज्ञानस्य कर्मनाशकत्वम्, भोगस्य तत्त्वज्ञानाव्यापारत्वात् / न च तत्त्वज्ञा
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________________ णाणकिरियाणय 1987- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणकिरियाणय नं विनःऽपि भोगेन कर्मनाशे व्यभिचारः, कर्मप्रागभावासहवृत्तिकर्मनाशे युगपदोगे वाच्यव्यभिचाराभावादिति मणिकृतवोक्तत्वात्। अस्मत्सिद्धान्तेऽपि नाशार्थिवृत्तौ नाश्यनिश्चययिधयैव केवलज्ञानस्य कर्महेतुत्वमनपायम्। तदुक्तं निर्युक्तौ समुद्धाताधिकारेण--"ऊणवेयणिज अइबहुयं आउयं च थोवग्गं वच्चंति जिणा समुग्घायं।" अत्र क्त्वाप्रत्ययबलादेव नियतवर्णोपर्यस्यार्थाचानन्यसिद्धत्वस्य प्रतीतेः कारणत्यलाभे अन्यदप्याभोगवीर्यस्यैव केवलिनः कर्मक्षयहेतुत्वादाभोगान्वितवीर्यत्वेनैव वीर्यान्विताऽऽभोगत्वेनापि हेतुत्वादुक्तार्थसिद्धिः / यत्पुनः "दोषपक्तिर्मतिज्ञानात्, अकिञ्चिदपि केवलात्। तमः-प्रचयनिःशेषविशुद्धिफलमेव तत्" // 1 // इत्यनेन केवलज्ञानस्याकिञ्चित्करत्वमुच्यते, न दोषपक्तिरूपकार्यापेक्षया, न तु पक्यानां भवोपग्राहिणां क्षपणरूपकार्यमप्याश्रित्य, तत्तद्व्यापारस्य सदा जागरूकत्वात् / यदि च स्वरूपशुद्धिग्राहकनयेन 1 केवलज्ञानस्य निर्व्यापारत्व स्वीक्रियते, तदा यथाख्यातचारित्राऽऽत्मकक्रियाया अपि तथात्वमेवाभ्युपगन्तुं युक्तम् , समुद्धाताऽऽदिना कर्मक्षपणव्यापारस्य योगविशेषेणैव वक्तुं शक्यत्वात्। मुक्तिबन्धहेतुविवेकेन फलशुद्धिग्राहकनयेन तत्र चारित्रहेतुत्वाभ्युपगम्यमानो ज्ञानहेतुतामपि न व्याहन्ति।। अनन्तकारणग्राहकनयेन तत्र चारित्रमेव हेतुरिति चेत् / न / उत्पत्तावनन्तरत्वस्य यथाऽऽख्यातचारित्रापेक्षया केवलज्ञान एव संभवाद, व्यापारानन्तर्यस्य च कल्प्यमानस्योभयत्रापि विनिगमात्।३। एतेनाऽऽक्षेपककारणग्राहकनयेन-"जम्हा दंसणनाणा" इत्यादिवचनाचारित्रमेव मुक्तिहेतुरित्यपि निरस्तम् / आक्षेपकत्वं हि स्वेतरसकलकारणसमवधाननियतसमवधानकत्वं, तच यथाख्यात इव केवलज्ञानेऽपीत्यविशेषात् क्षयोपशभदशायामप्यपुनर्बन्धकाऽऽदिचारित्रव्यावृत्तजातिविशेषवतश्चारित्रस्यव विषयप्रतिभासाऽऽत्मपरिणामज्ञानोर्ध्वभाविनस्तत्त्वज्ञानस्याऽऽक्षेपकत्वाविशेषात्।४। मुख्यैकशेषनयेन चारित्रमेवोत्कृष्यत इति चेत्। न / तत्र मुख्यत्वस्यैव विनिगन्तुमशक्यत्वात्।५। पुमर्थग्राहकनयेन क्रियायामेव मुख्यत्वं विनिगम्यत इति चेत् / न / परमभावग्राहकनयेन ज्ञान एव तद्धिनिगमनायाः सुक्चत्वात्।६। 'जं सम्म ति पासहा तं मोणं ति पासहा' इत्यादिवचनात् कारकसम्यक त्वशरीरनिर्वाहकत्वनयेन चारित्रमेवोत्कृष्यत इति चेत् / न / "जं अन्नाणी कम्म खवेइ" इत्यादिवचनात्। सम्यक् क्रियाशरीरनिर्वाहकत्वनयेन चारित्रमेवोत्कृष्यत इति चेत् / न / "जं अन्नाणी कम्मं खवेइ" इत्यादिवचनात् सम्यक् क्रियाशरीरनिर्वाहकत्वनयेन ज्ञानेऽप्युत्कर्षस्य वक्तुं शक्यत्वात्।७। एतेन 'णिच्छयणयस्स चरणस्सुवघाएण नाणदसणवहो वि।' इत्यादिवचनात् ज्ञाननाशव्याप्यनाशप्रतियोगित्वग्राहकशुद्धनयेन ज्ञानातिशयस्याप्यदुर्व-वत्वात्।। व्यापारप्राधान्यग्राहकक्रियानयेन चारित्रोत्कर्ष इत्युकावपि दर्शनप्रधानग्राहकज्ञाननयेन ज्ञानोत्कर्षः सुवच एवादृष्टान्ती चात्र पङ्ग्वन्धौ। तयोरन्यतरस्याऽकिञ्चित्करत्वेन संयोगपक्ष एव श्रेयान्। न च कुर्वद्रूपत्वनये शैलेश्यन्त्यक्षणभावे चारित्रमुक्तम्, एवं मुक्तिरूपफलोपधायकत्वेन विशिष्यत इत्यपि शङ्कनीयम्, कुर्वदूपक्षणस्य सहकारिसमवधाननियतत्वेन तत्कालनिज्ञानक्षणस्यापि मुक्तिहेतुत्वात्।। पुञ्जात् पुजोत्पत्तिपक्षे बीजपाथः पवनाऽऽदीनामेकत्रोपादानत्वेन, अन्यत्र च निमित्तत्वेन हेतुत्वमिति चारित्रलक्षणस्य मुक्तावुपादानत्वेन हेतुत्वाद्विशेष इत्यप्यसाम्प्रतम, ज्ञानाऽऽदिसंवालितमुक्तिक्षणे संघलितक्षणस्यैव हेतुत्वात् / तचाऽतद्व्यावृत्त्या, शक्तिविशेषाऽऽदिना वेत्यन्यदेतत् / कथं तर्हि "सद् दुजुसुआणं पुण, निव्वाणं संजमो चेय।" इति नियुक्तिवचनं श्रद्धानम्, तेषां कुर्वद्रूपलक्षणावगाहित्यात्, तत्र चैकान्तस्यानुपदमेव निरस्तत्वादिति शङ्कनीयम्: एकैकस्य शतभेदत्वेनाक्षेपककारणत्वरूपस्थूलापेक्षयैव तदेकान्ताभिधानोपपत्तेः / अत एव शैलेश्यन्त्यक्षणभाविधर्महेतुत्वमिति विशुद्धवंभूताऽभिप्रायेणैवास्माभिस्तत्र तत्र समर्थितम्।येतु मिथ्यादृशो मिथ्याज्ञानोन्मूलनद्वारा तत्वज्ञानमेव युक्तिहेतुरिति मन्यन्ते, ते मिथ्याज्ञानोन्मूलनेऽपि तत्तम्मनः प्रणिधानरूपक्रियाया हेतुत्वं कथं न पश्यन्ति? मिथ्याज्ञानवासनोन्मूलनवत्कर्मनिरपेक्ष तत्त्वज्ञान हेतुरिति चेत्तर्हि अदृष्टपरिकल्पनमेतत् / मिथ्याज्ञानिवासनायाः स्मृत्येकनाश्यत्वात् तत्त्वज्ञानस्य तन्नाशताया लोकेऽदृष्टत्वाद्, अदृष्टकल्पने चाऽऽगमानुसारेणाज्ञानवत्कर्मणोऽपि मलक्षयद्वारा मुक्तिहेतुत्वकल्पनमेव ज्यायः / तथा चाभ्यधात् सूरोऽपि वासिष्ठ-"तन्दुलस्य यथा चर्म, यथा ताम्रस्य कालिका। नश्यति क्रियया पुत्र ! पुरुषस्य तथा मलम्" ||111 इत्यादि / किं च-विहितत्वेन पुण्यपापक्षयान्यतरहेतुत्वव्याप्ते तत्त्वज्ञानस्य कर्मतुल्यत्वम्।नच किचित् सादावेव व्यभिचारः, मुमुक्षुविहितत्वेन व्याप्तौ व्यभिचाराभावादिति पुष्टिशुद्ध्यनुबन्धद्वारा ज्ञानकर्मणोर्मुक्तौ तुल्यवदेव हेतुतया समुच्चयपक्ष एवानाबिल इति सिद्धम्। (नयो०) ज्ञानमेव शिवस्याध्वा, मिथ्यासंस्कारनाशनात्। क्रियामात्रं त्वभव्यानामपि नो दुर्लभं भवेत् // 132 / / तन्दुलस्य यथा चर्म, यथा ताम्रस्य कालिका। नश्यति क्रियया पुत्र ! पुरुषस्य तथा मलम् // 133 / / ववर्रश्च (वठरश्चेति पाठान्तरम्। तपस्वी च, शूरश्चाप्यकृतव्रणः। मद्यपा स्त्री सती चेति, राजन् ! न श्रद्दधाम्यहम् / / 134|| ज्ञानवान् शीलहीनश्च, त्यागवान् धनसंग्रही। गुणवान् भाग्यहीनश्च,राजन् ! न श्रद्दधाम्यहम् / / 135 / / इति युक्तिवशात् प्राहुरुभयोस्तुल्यकक्षताम्। मन्त्रेऽप्याहानं देवाऽऽदेः, क्रियायुग ज्ञानमिष्टकृत्॥१३६|| ज्ञानं तुर्ये गुणस्थाने, क्षायोपशमिकं भवेत् / अपेक्षते फले षष्ठ-गुणस्थानजसंयमम् / / 137 // प्रायः संभवतः सर्व-गतिषु ज्ञानदर्शने। तत्प्रमादो न कर्तव्यो, ज्ञाने चारित्रवर्जिते॥१३८|| क्षायिकं केवलज्ञानमपि मुक्तिं ददाति न। तावन्नाविर्भवेद् यावच्छेलेश्यां शुद्धसंयमः।।१३६।। व्यवहारे तपोज्ञानसंयमा मुक्तिहेतवः / एकः शब्दर्जुसूत्रेषु, संयमो मोक्षकारणम् // 140 / / संग्रहस्तु नयः प्राऽऽह, जीवो मुक्तः सदा शिवः।
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________________ णाणकिरियाणय 1988 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणग अनवाप्तिभ्रमात् कण्ठ-स्वर्णन्यायात् क्रिया पुनः॥१४१।। अनन्तमर्जितं ज्ञानं, त्यक्ताश्चानन्तविभ्रमाः। न चित्रं कलयाऽप्यात्मा, हीनोऽभूदधिकोऽपि वा। 142 / / धावन्तोऽपि नयाः सर्वे , स्युभवि कृतविश्रमाः। चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाऽऽश्रितः॥१४३|| सुनिपुणमतिगम्यं मन्दधीदुष्प्रवेशं, प्रवचनवचनं न वाऽपि हीनं नयौधैः। गुरुचरणकृपातो योजयंस्तान् पदे यः, परिणमयति शिष्यास्तं वृणीते यशः श्रीः॥१४४|| गच्छे श्रीविजयाऽऽदिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः, प्रौढिं प्रौढिमधाम्निजीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः। तत्सातीर्थ्यभृतां नयाऽऽदिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशुः, तत्त्वं किञ्चिदिदं 'यशोविजय' इत्याख्याभृदाख्यातवान् 145 नयो। नाणं किरियारहियं, किरियामित्तं च दो वि एगता। असमत्था दाएउं, जम्ममरणदुक्ख मा भाइ।।६८।। ज्ञायते यथावद्जीवाजीवाऽऽदितत्त्वमनेनेति ज्ञानम्, क्रियत इति क्रिया यथोक्तानुष्ठानम्, तया रहितं, जन्ममरणदुःखेभ्यो मा भैषीरिति दर्शयितुम्, दातुंवाऽसमर्थाम् / न हि ज्ञानमात्रेणैव पुरुषो भयेभ्यो मुच्यते, क्रियारहितत्वाद, दृष्टप्रदीपनकप्रपलायमानपङ्गवत् / क्रियामात्रं वा ज्ञानरहितं न भयेभ्यो मा भैषीरिति दर्शयितुं दातुं वा समर्थम् / न हि क्रियामात्रात् पुरुषो भयेभ्यो मुच्यते, ज्ञानविकलत्वात्, प्रदीपनकभयप्रपलायमानान्धवत् / तथा चाऽऽगम:-"हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो अ अंधओ" // 36 // (महा०)('मोक्ख' शब्द चैतद् विवेचयिष्यते) उभयसद्धावस्तुतेभ्यो मा भैषीरिति दर्शयितुं समर्थः / तथाहि-सम्यग् ज्ञानक्रियावान् भयेभ्यो मुच्यते, उभयसंयोगत्वात्, प्रदीपनकभयान्धस्कन्धाऽऽरूढपड्गुवत। (सम्म०३ काण्ड) उक्तंचसंजोगसिद्धीऍ उ गोयमा ! फलं, नहु एगचक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा / / 37 // नाणं पसासयं सोहउ, तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हं पि समाजोगे, गोयम ! मोक्खो न अन्नहा // 38 // महा०१अ०। (संजोगसिद्धीएत्यादि) तस्मात् सम्यग्ज्ञानाऽऽदित्रितयनयसमूहान्मुक्तिः, नयसमूहविषयं च सम्यग्ज्ञानं श्रद्धानं च, तद्विनयं सम्यग्दर्शन, तत्पूर्व चाशेषपापक्रियानिवृत्तिलक्षणं चारित्रं, पिधानोपसर्जनभावेन, मुख्यवृत्त्यावा तत्त्रितयदर्शकं च वाक्यमागमो, नान्यः, एकान्तप्रतिपादकससदर्थत्वेन विसंवादकतया तस्य प्राधान्यानुपपत्तेः / जिनवचनस्य तु तद्विपर्ययण दृष्टवाददृष्टार्थेऽपि प्रामाण्यसंगतेः / सम्म०३ काण्ड। महा। (ज्ञान शीलं श्रुतं वा श्रेय इत्यन्ययूथिकैः सह 'अण्ण उत्थिर' शब्दे प्रथमभागे 458 पृष्ठे चिन्तितम्) आह च-ज्ञानक्रिययोः सात्येक मुक्तेरवापिका शक्तिरसती कथं समुदायेऽपि भवति? न हि गोप प्रत्ये नास्ति तत्तेषां समुदायेऽपि भवति, यथा प्रत्येकमसत्समुदितास्वधि सिकतासु तैलं, प्रत्येकमसती ज्ञानक्रिययोर्मुक्तेरवापिका शक्तिः / तदुक्तम्- 'पत्तेयमभावाओ, निव्वाणं समुदियासु वि ण जुत्तं / णाणकिरियासु वोत्तु, सिकयासमुदायतिल्लंव11" उच्यते- स्यादेव यदि सर्वथा प्रत्येक तयोर्मुक्तयनुपकारितोच्येत, यदा तु तयोः प्रत्येक देशोपकारिका, समुदाये तुसंपूणो हेतुतोच्यते, तदान कश्चिद्दोशः / आह च-''वीसुंण सव्वह चिय, सिकयातेलं व साहणाभावो। देसोबरिया जा,सासमवायम्मि संपुण्णा।।१॥" अतः स्थितमेतद्ज्ञानक्रिये समुदिते एव मुक्तिकारणं, न तु प्रत्येकमिति तत्त्वम्। तथा च पूज्याःणाणाहीणं सव्वं, णाणणओ भणइ किं व किरियाए? किरियाए करणनओ, तदुभयगाहोय सम्मत्तो ३५६१"(विशे०) "क्वचित्सौत्र्या शैल्या, क्वचिदधिकृतप्राकृतभुवा, वचिचार्थापत्त्या, क्वचिदपि समारोपविधिना। क्वचिचाध्याहारात्, क्वचिदविकलप्राक् क्रमबलादियं व्याख्या ज्ञेया, क्वचिदपि तथाऽऽम्नायवसतः // 1 // " उत्त०१अगदर्श०। आ०का अष्ट। आचार्यः प्राऽऽहसव्वेसिं पिनयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता। तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुणद्वितो साहू॥ सर्वेषामपि मूलनयानाम्, अपिशब्दात्तद्भेदानामपि नयाछा द्रव्यास्तिकायाऽऽदीनाम-बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेव, विशेषा एव, उभयमेव वा परस्परनिरपेक्षमित्यादिरूपाम्, अथवा-नागादिनयानां मध्ये को नयः कं साधुमिच्छतीत्यादिरूपां, निशम्य श्रुत्वा, तत्सर्वनयविशुद्ध सर्वनयसम्मतं वचनं, यचरणगुणस्थितश्चारित्रज्ञानस्थितः साधुर्यस्मात् सर्वेऽपि नया भावनिक्षेपमिच्छन्तीति / बृ०६उ०। तथा चाऽऽगमः--"दोहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अणाइयं अणवदग्गदीहमद्ध वा चाउरंतसं सारकंतारं वीईवएज्जा। तंजहा-विजाए चेव, चरणे चेव।" स्था०१ठा० दशाव्या णाणकु सील पुं०(ज्ञानकुशील) गुरुकज्ञानाऽऽवरणोदयेनाहर्निश प्रधर्षयति कुत्सितशीले, महा०३अ० णाणग न०(नाणक) मुद्रायां, कार्षापणे, पणे च / आ०क०। "केनापि कस्यचित् प्राज्य-मूल्यनाणकसंभृतः। नयस्तो नवलकस्तेनोपात्तास्ते बहुमूल्यकाः "|1|| आ००। स्वनामख्याते तीर्थभेदे, मोढेरे वायडे नाणके पल्ल्यां मेत्तुण्डके श्रीमहावीरः / ती०४३ कल्प। पन्यासजीतविजयगणिकृतप्रश्रः-यथा प्रत्यहं प्रह्लादनविहारे पञ्चशती वीसलप्रियाणां भोगः कथितोऽस्ति, तन्नाणकं किं नामकं कथ्यते? इति प्रश्ने, उत्तरम्-वीसलदेवाऽऽज्ञापातितं वीसलप्रियनामक तत्कालीनं किश्चिन्नाणकविशेष संभाव्यते, तदधुना प्रसिद्ध नास्ति, परं षट् त्रिंशन्गूढकद्रम्मैर्वी सलप्रियनाणकमष्टशतविंशतिसहस्राधिकद्विषष्टिलक्षप्रमाण कथितमस्तीति / / 404|| प्र०ा सेन०३ उल्ला
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________________ णाणगुण 1986 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणणय णाणगुण पुं०(ज्ञानगुण) जीवाऽऽश्रिते ज्ञा तदविनाभाविनि पर्याय ज्ञानमाहात्म्ये, आव०४ अ० णाणचासायणा स्त्री०(ज्ञानात्याशातना) ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा हील नायाम, भ०८ श०६उ० णाणजोग पुं०(ज्ञानयोग) ज्ञानमेव योगः कौशलं ब्रह्मप्राप्त्युपायो वा। ब्रह्मलाभोपाये निष्ठाभेदे, वाच० अष्ट०। जाणट्ठया स्त्री०(ज्ञानार्थता)ज्ञानमेवार्थो यस्य स ज्ञानार्थस्तद्धावस्तत्ता। ज्ञानार्थित्वे, स्था०५ ठा०२उ०। णाणड्ड त्रि०(ज्ञानाढ्य) बह्वागमे, जीवा०१६ अधि०। णाणड्डि स्त्री०(ज्ञानर्द्धि) "पभूणं भंते! चोद्दसपुव्वी।''तथा-"ज अन्नाणी कम्म" इत्यादिरूपायामृद्धौ, दश०३ अ०॥ णाणणय पुं०(ज्ञाननय) ज्ञानमेव प्रधानमैहिकाऽऽमुष्मिकफलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वादिति सिद्धान्तव्यवस्थिते नये, आव०६ अ०। सम्मा एतन्मतं यथाइह केचिज ज्ञानादेव मोक्षमास्थिपत। तथाह्येते ब्रुवतेसव्यग्-ज्ञानमेव फलसंपादनप्रत्यलं, न क्रिया; अन्यथा मिथ्याज्ञानादपि क्रियायां फलोत्पादप्रसङ्गात्। यदुक्तम्"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् / / 126 / / "(नयो०) तथा"श्रियः प्रसूते विपदो रुणद्धि, यशांसि दुग्धे मलिनं प्रमार्टि। संस्कारशौचेन परं पुनीते,शुद्धा हि बुद्धिः कुलकामधेनुः / / 1 / / '' रत्ना०७परि० इह कश्चिद् ज्ञानमेव प्रधानमपवर्गबीजमिच्छति; यतः किल एवभागमः"जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुआहिँ वासकोडीहिं। त नाणी तेहिं ती, खवेइ ऊसासमित्तेणं / / 1 / / " तथा"सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि। जीवो तहा ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे ॥शा" तथा"नाणं गिण्हइ नाणं, मुणेइ नाणेण कुणइ किचाई। भवसंसारसमुह, नाणी नाणट्टिओ तरइ // 3 // " तस्माद् ज्ञानमेव प्रधानमपवर्गप्राप्तिकारणमतो ज्ञानिन एव कृतिकर्म / कार्यम्। अथाऽनन्तरगाथायामेव द्रव्यभावसमायोगे श्रमण उक्तः। तस्य च कृतिकर्म कार्यमित्युक्तम्। "चरणं च भावो वर्तते" इत्युक्ते सत्याहकाम वरणं भावो, तं पुण नाणसहिओ समाणे इ ("समापेः समाणः" ||84142|| समाप्नोतेः समाण आदेशो या। 'समाणइ। सनावेई') न य नाणं तु न भावो, तेन र नाणिं पणिवयामो॥७१।। काममनुमतमिदं यदुत चरणं चारित्रं भावो भावशब्दो भावलिङ्गी- पलक्षणार्थः / तत्पुननिसहितो ज्ञानयुक्तः समापयति निष्ठां नयति, यतः-इदमित्थमासेवनीयमिति ज्ञानादेवावगम्यते, तस्मात्तदेव प्रधान, न च ज्ञानं तु न भावः, भाव एव भावलिङ्गान्तर्गतमिति भावना, तेन कारणेन 'र' इति निपातः पूरणार्थः। ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी, तं ज्ञानिन, प्रणमामः पूजयामः / इति गाथाऽर्थः 71|| यतश्च बाह्यकरणसहितस्याप्यज्ञानिनश्चरणभाव एवोक्तःतम्हा न बज्झकरणं, मज्झ पमाणं न यावि चारित्तं / नाणं मज्झ पमाणं, नाणे च ठियं जओ तित्थं / / 72 / / तस्मान्न बाह्यकरणं पिण्डविशुद्ध्यादिकं मम प्रमाणम्, न चापि चारित्रं व्रतलक्षणं, तज्ज्ञानाभावे तस्याप्यभावात्। अतो ज्ञानं मम प्रमाणं, सति तस्मॅिश्वरणस्याऽपि भावात, ज्ञाने च स्थितं यतस्तीर्थ, तस्याऽऽगमरूपत्वात्। इति गाथाऽर्थः // 72 // किश्च दर्शन भावयिष्यते, "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति वचनात् / तच दर्शनं द्विधा-अधिगमजम्, नैसर्गिक च / इदमपि ज्ञानाऽऽयत्तोदयमेव वर्तते / तथा चाऽऽहनाऊण य सम्भावं, अहिगमसम्म पि होइ जीवस्स। जाइस्सरणनिसग्गुग्गया विन निरागमा दिट्ठी॥७३।। ज्ञात्वा च अवगम्य च सद्भावं सतां भावः सद्भावः, तं, सन्तो जीवाऽऽदयः किमधिगमाद् जीवाऽऽदिपदार्थपरिच्छेदलक्षणात्, सम्यक्त्वं श्रद्धानलक्षणम्, अधिगमसम्यक्त्वम्, इदमधिगमसम्यक्त्वमपि अपिशब्दात् चारित्रमपि, भवति जीवस्य जायते आत्मन इत्यर्थः / नैसर्गिकमाश्रित्याऽऽह-जातिस्मरणात्सकाशान्निसर्गेण स्वभावेनोद्गता संभूता जातिरमरणनिसर्गोद्रता, असावपि न निरागमा नागमरहिता, दृष्टिः, दर्शनं दृष्टिरिति, यतः स्वयंभूरमणमत्स्याऽऽदीनामपिजिनप्रतिमाऽऽद्याकारमत्स्यदर्शनाद् जातिमनुस्मृत्य भूतार्थालोकनपराणामेव नैसर्गिकं सम्यक्त्वमुपजायते, भूतार्था लोकनं च ज्ञानं, तस्मादिदमपि ज्ञानाऽऽयत्तोदयमिति कृत्वा ज्ञानस्य प्राधान्याद् ज्ञानिन एव कृतिकर्म कार्यमिति स्थित-मयं गाथाऽर्थः // 73 // इत्थं ज्ञानवादिनोक्ते सत्याहाऽऽचार्यःनाणं विसए निययं, न नाणमित्तेण कञ्जनिप्फत्ती। मग्गन्नू दिटुंतो, होइ सचिट्ठो अचिट्ठो अ॥७॥ ज्ञानं प्रक्रान्तं स्वविषये नियतं 2 स्वविषयः पुनरस्य प्रकाशनमेव, यतश्चैवमतो न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः, मात्रशब्दः क्रियाप्रतिषेधवाचकः। अत्रार्थे मार्गज्ञदृष्टान्तो भवति, सचेष्टः सव्यापारः, अचेष्टश्च अविद्यमानचेष्टश्च / एतदुक्तं भवति-यथा कश्चित् पाटलिपुत्राऽऽदिमार्गज्ञो जिगमिषुश्चेष्टदेशप्राप्शिलक्षणं कार्य गमनचेष्टोद्यत एव साधयति, न चेष्टाविकलो भूयसाऽपि कालेन तत्प्रभावादेवैवं ज्ञानी शिवमार्गमविपरीतमवगच्छन्नपि संयमक्रियोद्यतएव तत्प्राप्तिलक्षणं कार्य साधयति, नानुद्यतो ज्ञानप्रभावादेव, तस्मादलं संयमरहितेन ज्ञानेन / इति गाथाहृदयार्थः / / 74 / / प्रस्तुतार्थप्रतिपादकमेव दृष्टान्तान्तरमभिधित्सुराहआउज्जनट्टकुसला, वि नट्टिआ तं जणं न तोसेइ। जोगं अजुजमाणी, निंदं खिंसं च सा लहइ / / 7 / / आतोद्यानि मृदङ्गाऽऽदीनि, नृत्तं करचरणनयनाऽऽदिविशिष्टपरिस्पन्दविशेषलक्षणम्, आतोद्यैः करणभूतैः नृत्तमातोद्यनृत्तं, तस्मिन् कुशला निपुणा आतोद्यनृत्तकुशला, असावपि नर्तकी,
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________________ णाणणय 1960 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणणय - अपिशब्दाद् रङ्ग जनपरिवृत्ताऽपि, तं जनं रङ्गजनं न तोषयति न हर्ष विहारो आसकल्पाऽऽदिः, तेन विहारेण, स्थानमूर्द्धस्थानं, चङ्कमणं नयतीत्यर्थः / किभूता सती?-योगमयुञ्जती कायाऽऽदिव्यापार- गमनं,स्थानं च चङ् क्र मणं चेत्येकवद्भावः / तेन चाविरुद्धमकुर्वती, ततश्च अपरितुष्टाद् रङ्गजनाद्न किश्चिद्रव्यजातं लभत इति देशकायोत्सर्गकरणेन युगमात्रावनिप्रलोकनपुरस्सराऽद्रुतगमनेन गम्यते। अपितु निन्दांच खिंसां च सालभते रङ्गजनादिति। तत्समक्षमेव चेत्यर्थः / शक्यः सुविहितो ज्ञातुम, भाषावैनयिकेन च-विनय एव या हीलना सा निन्दा, परोक्षं तु खिसेति गाथाऽर्थः / / 75|| वैनयिकम् समालोच्य भाषणेन आचार्याऽऽदिविणयकरणेन चेति भावना / इत्थं दृष्टान्तमभिधाय दार्शन्तिकयोजनां प्रदर्श नैतान्येवंभूतानि प्रायशोऽसुविहितानां भवन्तीति गाथाऽर्थः / / 76 / / यन्नाह इत्थमभिहिते सत्याह चोदकः-- इअ लिंगनाणसहिओ, काइअजोगं न जंजई जो उ। आलएणं विहारेणं,ठाणाचंकमणेण य / न लहइ स मुक्खसुक्खं, लहइ अनिंदं सपक्खाओ // 76 // नसका सुविहिओ नाउं, भासावेणइएवण य||८|| 'इय' एवं लिङ्ग ज्ञानाभ्यां सहितो युक्तः लिङ्ग ज्ञानसहितः काययोग आलयेन विहारेण स्थानचङ्कमणेन च न शक्यः सुविहितो ज्ञातुं, कायव्यापारं न युक्ते न प्रवर्तयति, यस्तु न लभते न प्राप्नोति, स भाषावैनयिकेन चोदायिनृपमारकमाथुरकोट्टइल्लाऽऽदिभिर्व्यभिचारात्। इत्थंभूतः, किम्? मोक्षसौख्यं सिद्धिसुखमित्यर्थः / लभते च निन्दा तथा च प्रतीतमिदम्-असंयता अपि हीनसत्त्वाः लब्ध्यादिनिमित्तं स्वपक्षात, चशब्दात् शिवस्यैव। इह च नर्तकीतुल्यः साधुः, आतोद्यतुल्यं संयतवचेष्टन्ते, संयता अपि च कारणतोऽसंयतवदिति गाथाऽर्थः / / 80|| द्रव्यलिङ्ग, नृत्तज्ञानतुल्यं ज्ञान, योगव्यापारतुल्यं चरणं, रङ्ग परितोष किञ्चतुल्यः सङ्घपरितोषः, दानलाभतुल्यः सिद्धिसुखलाभः / शेष सुगमम्। यत भरहो पसन्नचंदो, सभिंतरवाहिरं उदाहरणं / एवमतो ज्ञानचरणसहितस्यैव कृतिकर्म कार्यमिति गाथाभावार्थः 176 / / दोसुप्पत्तिगुणकरं, न तेसि बज्झं भवे करणं / / 1 / / चरणरहितं ज्ञानमकिञ्चित्करम्, अस्यार्थस्य भरतः प्रसन्नचन्द्रः साभ्यान्तरबाह्यमुदाहरणम्-अभ्यन्तरं भरतः, साधका बहवो दृष्टान्ताः सन्तीति प्रदर्श यतस्तस्य बाह्यकरणरहिस्यापि विभूषितस्यैवाऽऽदर्शकग्रहप्रविष्टस्य नाय पुनरपि दृष्टान्तमाह विशिष्टभावनापरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् / बाह्यम्-प्रसन्नचन्द्रः / जाणंतो वि अ तरिउं, काइअजोगं न जुंजई नइए। ('पसण्णचंद' शब्दे प्रसन्नचन्द्रकथाविस्तरः) यतस्तस्योत्कृष्टबाह्यसो वुज्झइ सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो 77 / / करणवतोऽप्यन्तःकरणविकलस्याधः सप्तमनरकप्रायोग्यकर्मबन्धो जानन्नपि च तरीतु यः काययोग कायव्यापार न युङ्क्ते नद्यां स पुमान् बभूव / तदेवं दोषोत्पत्तिगुणकरं न तयोर्भरतप्रसन्नचन्द्रयोः। (बज्झं भवे उह्यते हियते श्रोतसा पयःप्रवाहेन, एवं ज्ञानी चरणहीनः संसारनद्या करणं ति) छान्दसत्वादभूत् करणं दोषोत्पत्तिकारकं भरतस्य नाभूदप्रमोदश्रोतसोह्यत इत्युपनयः। तस्माचरणविकलस्य ज्ञानस्याकिश्चि- शोभनं, बाह्य करणं गुणकारकं प्रसन्नचन्द्रस्य नाभूच्छोभनमपीति। त्करत्वात् उभययुक्तस्यैव कृतिकर्म कार्यमिति गाथाऽभिप्रायः / / 77 / / तस्मादान्तरमेव करणं प्रधानम्, न च तदालयादिनाऽवगन्तुं शक्यते, एवमसहायज्ञानपक्षे, निराकृते, ज्ञानचरणोभयपक्षे च सम गुणाधिक चवन्दनमुक्तमिति कृत्वा भाव एव श्रेयानिति स्थितम्। इत्यये र्थिते सत्यपरस्त्वाह गाथाऽभिप्रायः // 81|| गुणअहिए वंदणयं, छउमत्थ गुणागुणे अजाणतो। इत्थं तीर्थाङ्ग भूतव्यवहारनयनिरपेक्षं चोदकमवगम्याऽन्येषां वंदिज्ज व गुणहीणं, गुणाहिअं वावि वंदावे / / 78|| पारलौकिकापायप्रदर्शनायाऽऽहाऽऽचार्यःइहोत्सर्गतो गुणाधिके साधौ वन्दनं, कर्तव्यमिति वाक्यशेषः / अय पत्तेअबुद्धकरणे, चरणं नासंति जिणवरिंदाणं / चार्थः-श्रमणं वन्देतेत्यादिग्रन्थसिद्धः, गुणहीने तु प्रतिषेधः, पञ्चाना आहचभावकहणे, पंचहिँ ठाणेहिँ पासत्था / / 2 / / कृतिकर्मेत्यादिग्रन्थात् / इदं च गुणाधिकत्वं गुणहीनत्वं च तत्त्वतो प्रत्येकबुद्धाः पूर्वभवाभ्यस्तोभवकरणा भरताऽऽदयः, तेषां करणं, दुर्विज्ञेयमतः छद्मस्थस्तत्वतो गुणागुणानात्मान्तरवर्तिनोऽजानानोऽ- तस्मिन्नान्तर एव फलसाधके सति मन्दमतयश्वरणं नाशयन्ति नवगच्छन् किं कुर्याद्, वन्देत वा गुणहीन किञ्चित् गुणाधिकं वाऽपि जिनवरेन्द्राणां संबन्धिभूतम्, आत्मनः, अन्येषां च। पाठान्तरं वा-''बोहि वन्दापयेत्, उभयथाऽपि च दोषः- एकत्र गुणानुज्ञाप्रत्ययः, अन्यत्र तु नासेंति जिणवरिंदाणं।" कथम्? "आहचभावकहणे त्ति" कादाचित्कविनयत्यागप्रत्ययः, तस्मात्तूष्णीभाव एव श्रेयान्, अल वन्दनेन / इति भावकथने बाह्यकरणरहितैरेव भरताऽऽदिभिः केवलमुत्पादितमित्यागाथाऽभिप्रायः // 7 // दिलक्षणे, कथं नाशयन्ति? पञ्चभिः स्थानः प्राणातिपाताऽऽदिभिः इत्थं चोदकेनोक्ते सति व्यवहारनयमतमधिकृत्य गुणाधिक पारम्पर्येण करणभूतैः, पार्श्वस्था उक्तलक्षणाः / इति गाथाऽर्थः / / 82|| त्वपरिज्ञानकारणानि प्रतिपादयन्नाहाऽऽचार्य: यतश्चआलएणं विहारेणं, ठाणाचंकमणेण य। उम्मग्गदेसणाए, चरणं नासंति जिणवरिंदाणं / सक्कासुविहिओ नाउं, भासावेणइएण य।७६|| वावन्नदंसणा खलु, न हुलब्धा तारिसा ददै / / 3 / / आलयो वसतिः सुप्रमार्जिताऽऽदिलक्षणा / अथवा-स्त्रीपशु- / उन्मार्गदेशनयाऽनयाऽनन्तराभिहितं चरणं नाशयन्ति जिनवपण्डकविवर्जित इति। तेनाऽऽलयेन, नाऽगुणवत एवं खल्वालयो भवति। रेन्द्राणां संबन्धिभूतमात्मनोऽन्येषां वा; व्यापन्नदर्शनाः खलु विनष्ट
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________________ णाणणय 1961 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणत्ता सम्यग्दर्शना निश्चयतः 'खलु' इत्यपिशब्दार्थो निपातः। तस्य व्यवहितः संबन्धः / तमुपरिष्टाद् दर्शयिष्यामः। (न हुलब्भा तारिसा दटुंति) नैव कल्पन्ते तादृशा दृष्टुमपि, किंपुनर्ज्ञानाऽऽदिना प्रतिलाभयितुमिति गाथाऽर्थः / / 83 / / आव०३ अ० ति०। ('दंसण' शब्दे दर्शनप्राधान्यविचारः) तत्र ज्ञाननयदर्शनम्-इदं ज्ञानमेवैहिकाऽऽमुष्मिकफलप्राप्तिका-रणं प्रधानं, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चाऽऽह नियुक्तिकार:नायम्मि गिण्हियव्वे, अगिण्हियव्वम्मि चेव अत्थम्मि। जइयव्वमेव इइ जो, उवएसो सो नओ नाम ||3562 / / नायम्मि' ज्ञाते सम्यक्परिच्छिन्ने ग्रहीतव्ये उपादेये (अगिहि-यव्वम्मि त्ति) अग्रहीतव्ये अनुपादेये, हेय इति भावः / चशब्दः खलूभयोर्ग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतिव्यानुकर्षणार्थः, उपेक्षणीयवस्तुसमुच्चयार्थो वा / एवकारश्वावधारणार्थः / तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः / ज्ञान एव ग्रहीतव्ये, तथाऽग्रहीतव्ये, उपेक्षणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते अर्थे ऐहिकाऽऽमुष्मिके। तत्रैहिको ग्रहीतव्यः स्रक्चन्दनाऽऽदिभिः, अग्रहीतव्यो विषशसकण्टकाऽऽदिः उपेक्षणीयस्तृणाऽऽदिः / आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनाऽऽदिः, अग्रहीतव्यो मिथ्यात्वाऽऽदिः, उपेक्षणीयो विषयाऽऽदिः, तस्मिन्नर्थे यतितव्यमेव अनुस्वारलोपाद् यतितव्यमेव क्रमेण ऐहिकाऽऽमुष्मि-कफलप्राप्त्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्यादिलक्षणो यत्नः कार्य इत्यर्थः। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्-सम्यगज्ञाते प्रवर्त्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात्। तथा चोक्तमन्यैरपि"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात्' / / 126 / / (नयो०)। तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनाऽपि ज्ञानादेव यतितव्यम् / (3562) आ०म०१ अ०२खण्ड / इह ज्ञाननयो ज्ञानप्राधान्यख्यापनार्थ प्रतिपादयति-नन्वैहिकाऽऽमुष्मिकफलार्थिना तावत् सम्यग् विज्ञात एवार्थे प्रवर्तितव्यम्; अन्यथाप्रवृत्तौ फलविसंवाददर्शनात् / तथा चान्यैरप्युक्तम्-'"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् / / 226 / / (नयो०) तथा चाऽऽगमेऽप्युक्तम्-" "पढमं नाणं तओ दया'' इत्यादि।''जं अन्नाणी कम्म खवेइ" इत्यादि / तथाऽपरमप्युक्तम्- ''पावाओ विणिवत्ती, पवत्तणा तह य कुसलपक्खम्मि। विणयस्स वि पडिवत्ती, तिन्नि वि नाणे समप्पंति / / 1 / / " इतश्च ज्ञानस्यैव प्राधान्यम्,यतस्तार्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलाना विहारोऽपि निषिद्धः। तथा च तद्वचनम्"गीयत्थो य विहारो, बीयो गीयत्थमसिओ भणिओ। एतो तइयविहारो, नाणुन्नाओ जिणवरेहि // 1 // " न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक् पन्थानं प्रतिपद्यत इति भावः / एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तम्, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव ज्ञेयम्,यस्मादर्हतोऽपि भवाम्भोधेः तटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते, यावदखिलजीवाऽऽदिवस्तुस्तोमसाक्षात् करणदक्ष केवलज्ञानं नोत्पन्नम् / तस्माद् ज्ञानमेव पुरुषार्थसिद्धेर्निबन्धनम् / प्रयोगश्चात्रयद् येन विना न भवति तत्तन्निबन्धनमेव, तथा जीवाऽऽद्यविनाभावी तन्निबन्धन एवाड़ -कुरः, ज्ञानाविनाभाविनी च सकलपुरुषार्थसिद्धिरिति। ततश्चायं नयश्चतुर्विधसामायिके सम्यक्त्यश्रुतसामायिके एवाभ्युपगच्छति, ज्ञानाऽऽत्मकत्वेन तयोरेव मुख्यमुक्तिकारणत्वात् / देशसर्वविरतिसामायिके तु नेच्छति, ज्ञानकार्यत्वेन गौणत्यातयोरिति। विशेला वृक्षा सूत्रका अनु०। आचा०ा नि०चूला दशा सम्मा णाणणिण्हवया स्त्री०(ज्ञाननिहवता) 6 त०] श्रुतस्य श्रुतगुरूणां वाऽपलपने, भ०८श०६उ णाणणिव्वत्ति स्त्री०(ज्ञाननिर्वृत्ति) ज्ञानस्य आभिनिबोधिकादितया निष्पत्तौ, सा चाभिनिबोधिकाऽऽदिभेदेन पञ्चविधा / यस्य यावन्ति ज्ञानानि तस्य तावती / भ०२० श०५उ०। णाणतव न०(ज्ञानतपस्) तीर्थकृता केवलोत्पत्त्यर्थ कृतेऽष्टमाऽऽदितपसि, यथा पार्श्वजिनर्षभस्वामिमल्लिनाथारिष्टनेमीनामष्टमेन वासुपूज्यस्य चतुर्थेन शेषाणामजितस्वाम्यादीनामूनविंशतिजिनानां षष्ठेन भक्तेन केवलज्ञानमुत्पेदे। प्रव०४५ द्वार। णाणतह न०(ज्ञानतत्थ) मत्यादिकेन ज्ञानपञ्चकेन यथास्वमवितथे विषयोपलम्भे, सूत्र०१श्रु०१३अ०। णाणतिग न०(ज्ञानत्रिक) मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानत्रये, कर्म०४ कर्म०| णाणतिलगगणि पुं०(ज्ञानतिलकगणिन) पद्मराजगणिशिष्ये गौतमकुलकवृत्तिकारके, स च वैक्रमीये 1660 मिते वत्सरेवर्तमान आसीत्। जै०३० णाणत्त न०(नानात्व) नानाभावो नानात्वम् / वर्णाऽऽदिकृते वैचित्र्ये, प्रज्ञा०१५ पद / भ०नि०चूला व्या स्थान णाणत्ता स्त्री०(नानाता) नानाभावो नानाता। विशेषे, आ०म०१ अ०२ खण्ड। अथ 'नाणत्त त्ति' नानातालक्षणं विवरीषुराहनाणत्त त्ति विसेसो, सो दव्वक्खेत्तकालभावहिं। असमाणाणं णेओ, समाणसंखाणमविसेसो।।२१६१।। परमाणुदुयणुयाणं, जह नाणत्तं तहाऽवसेसाणं / असमाणाणं तह खेत्तकालभावप्पभेयाणं // 2162 / / नाना इत्येतस्य भावो नानातावस्तूनां परस्परं भिन्नता, विशेष इत्यर्थः / स च विशेषो द्रव्यक्षेत्रकालभावैरसमानानामसमानसंख्यानां ज्ञेयोऽवगन्तव्यः, द्रव्याऽऽदिभिः समानसंख्यानां पुनरविशेष इति // 2161 / / अत्रोदाहरणमाह-(परमाण्वित्यादि) यथा द्रव्यसंख्यया असमानानां परमाणूनां व्यणुकरकन्धानां च, तथाऽवशेषाणां द्वयणुकानां त्र्यणुकानां च, तथा त्र्यणुकानां चतुरणुकानां च, तथा चतुरणुकानां पशाणुकानां चेत्यादिद्रव्यसंख्ययाऽसमानानां परस्परं नानात्वं विशेषोज्ञेयः। तथा तेनैव प्रकारेण क्षेत्रकालभावसंख्ययाऽसमानानां क्षेत्रकालभावप्रभेदानामपि परस्परं नानात्वं विशेषो मन्तव्यः; तद्यथा-एक प्रदेशावगाढाना द्वयादिप्रदेशावगाढानां च, तथैक-समयस्थितिकानां द्वयादिसमयस्थितिकानां च, तथा एकगुणकालकाऽऽदीनां द्विगुणकालकाऽऽदीनांचेत्यादि। उपलक्षणं चेदमुद्रव्यतः समानसंख्यानामपिपरमाण्वादीनां क्षेत्रकालभा
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________________ णाणत्ता 1962 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणमंजरी जण वैनानात्वं द्रष्टव्यम् / एवमेकाऽऽदिप्रदेशावगाढानां क्षेत्रावगाढप्रदेशः | णाणपडिसेवणाकु सील पुं०(ज्ञानप्रतिसेवनाकुशील) ज्ञानस्य समानसंख्यानामपि द्रव्यकालभावैर्नानात्वम्, एकसमयाऽऽदिस्थितीनां प्रतिसेवनया कुशीलो ज्ञानप्रतिसेवनाकुशीलः / प्रतिसेवना-कुशीले, च स्थितिसमयैः समानसंख्यानामपिद्रव्यक्षेत्रभावैर्नानात्वम्, एकगुणका- भ०२५ श०६उ०। लकाऽऽदीनां च वर्णगन्धाऽऽदिगुणैः समानसंख्यानामपि द्रव्यक्षेत्र- | णाणपरिणाम पुं०(ज्ञानपरिणाम) ज्ञानलक्षणे जीवपरिणामे, प्रज्ञा० कालैनानात्वमिति // 2162 / / विशे०। आ०चू०। 15 पद। *ज्ञानात्मन् पुं० / ज्ञानविशेषत उपसर्जनीकृतदर्शनाऽऽदिरात्मा | णाणपरीसह पुं०(ज्ञानपरीषह) ज्ञान मत्यादि तत्परीषहणं च ज्ञानाऽऽत्मा। सम्यग्दृष्टरात्मनि, भ०१२ श०१० उ०। ज्ञानपरीषहः / विशिष्टस्य ज्ञानस्य सद्भावे मदवर्जन अभावे, दैन्यवर्जने, णाणदंसण न०(ज्ञानदर्शन) ज्ञानं च दर्शन च, ज्ञानेन वा दर्शनं ग्रन्थान्तरे त्वज्ञानपरीषह इति पठ्यते, तथैवास्माभिर्दर्शितम् / ज्ञानदर्शनम् / ज्ञानदर्शनयुग्मे, "अस्थि णं मम अइसेसे नाणदसणे भ०८०८० समुप्पन्ने।" स्था०७ ठा णाणपायच्छित्त न०(ज्ञानप्रायश्चित्त) पापं छिनत्तीति / प्रायश्चित्तभेदे, णाणदंसणलक्खणा स्त्री०(ज्ञानदर्शनलक्षणा) ज्ञानं चदर्शनं चलक्षणं स्था०३ठा०४उन स्वरूपं यस्याः सा ज्ञानदर्शनलक्षणा। सम्यग् ज्ञानसम्यग्दर्शनरूपायां णाणपुरिस पुं०(ज्ञानपुरुष) ज्ञानलक्षणभावप्रधाने पुरुष, स्था०३ मोक्षमार्गगतो, "मोक्खमग्गगइंतत्थं,सुणेह जिणभासिय। चउकारण- ठा०१उ०। संजुत्तं, नाणदंसणलक्खण" ||1|| उत्त०२८ अग णाणपेजदोष न०(नानाप्रेमदोष) प्रेमचद्वेषश्च प्रेमद्वेष, नानाप्रकार प्रेमद्वेष णाणदंसणसमग्ग त्रि०(ज्ञानदर्शनसमग्र) ज्ञानदर्शनाभ्यां पूर्णे, "तत्तो | नानाप्रेमद्वेषम्। अविनयभेदे, स्था०३ ठा० ३उ०। णाणदसणसमग्गे" उत्त०८अ०| णाणप्पओस पुं०(ज्ञानप्रद्वेष) श्रुताऽऽदौ ज्ञाने, ज्ञानवत्सु याऽप्रीतौ, णाणदव्व न०( ज्ञानद्रव्य) ज्ञानद्रव्यं देवकार्ये उपयोगि स्यान्न वा, यदि भ०८श०६उ० स्यात्तदा देवपूजायां प्रासादाऽऽदौ वेतिप्रश्रे, उत्तरम्- "एकत्रैव स्थानके णाणप्पयार त्रि०(नानाप्रकार) विचित्रे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ आव०॥ देवरिक्तं, क्षेत्रद्वय्यामेव तु ज्ञानरिक्तम् / सप्तक्षेत्र्यामेव तु स्थापनीयं, णाणप्पवाय न०(ज्ञानप्रवाद) यत्र ज्ञान मत्यादिकं स्वरूपभेदाऽऽदिभिः श्रीसिद्धान्तो जैन एवं ब्रवीति / / 1 / / " एतत्काव्यमुपदेशसप्ततिका- प्रोद्यते तज्ज्ञानप्रवादम्। सा स्था०ा ज्ञानं ज्ञानाऽऽदिभेदभिन्नं पञ्चप्रकार प्रान्तेऽस्त्येतदनुसारेण ज्ञानद्रव्यं देवपूजायां प्रासादाऽऽदौ चोपयोगि तत्सप्रपञ्चं वदति ज्ञानप्रवादम्।नं। ज्ञानस्य मतिज्ञानाऽऽदिपञ्चकस्य भवतीति। 84 प्र०ा सेन०२ उल्ला०। भेदप्ररूपणा यस्मात् तज्ज्ञानप्रवादम्। चतुर्दशानां पूर्वाणां पञ्चमे, स० णाणदाण न०(ज्ञानदान) श्रुतज्ञाने, "अन्येभ्यो भव्यवर्गेभ्योऽध्या- स्था। तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी / नं० "नाणप्पवायस्स णं पनश्रावणाऽऽदिभिः / यद्दानमागमस्यैतज्ज्ञानदानमुदाहृतम् / / 1 / / " पुवस्स वारस वत्थूपण्णत्ता"। सा ग०२अधि। णाणफल त्रि०(ज्ञानफल) ज्ञानं फलं येषां तानि ज्ञानफलानि / णाणदिट्ठि स्त्री०(ज्ञानदृष्टि) तत्त्वज्ञानरूपायां दृष्टौ, अष्ट०१ अष्ट। श्रुतज्ञानाऽऽराधनाऽऽदिषु कर्मसु, उत्त०२ अ० णाणदीव पुं०(ज्ञानदीप) अज्ञानध्वान्तनाशात् तत्त्वज्ञानप्रदीपे, द्वा० | णाणबल न०(ज्ञानबल) ज्ञानबलमतीताऽऽदिवस्तुपरिच्छेदसामर्थ्यम्, 25 द्वा०। चारित्रसाधनतया मोक्षसाधनसामर्थ्य वा तस्मिन् / स्था०१० ठा०। णाणधण त्रि०(ज्ञानधन) ज्ञानवित्ते विपश्चिति, आव०४ अ०। णाणबोहि पुं०(ज्ञानबोधिन्) ज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमभूता ज्ञानप्राप्तिः / णाणधम्मपुं०(ज्ञानधर्म) वर्धमानसूरिवंशपरम्परायां साधुरङ्गसूरः शिष्ये, / स्था०२ ठा०४उ० "तच्छिष्या ज्ञानधर्माख्याः, पाटकाः परमोत्तमाः / जैनाऽऽगमरह- णाणभट्ट त्रि०(ज्ञानभ्रष्ट) 5 त०। सदसद्विवेकभ्रष्टे, आचा०१ श्रु०६ स्यार्थदायका गुणनायकाः / / 1 / / ' तच्छिष्याणां दीपचन्द्राणां अ०४०। शत्रुजयाऽऽद्यनेकतीर्थेषु प्रतिष्ठाविधायिनां शिष्येण देवचन्द्रेण णाणभाव पु०(ज्ञानभाव) अधिगमे उपयोगे, नि०चू०२०3०। यथोविजयकृतज्ञानसाराष्टकस्य टीका विरचिता। अष्ट०३२ अष्ट। णाणभावणा स्त्री०(ज्ञानभावना) ज्ञानस्य भावना ज्ञानभावना। एवंभूतं णाणपज्जव पुं०(ज्ञानपर्याय) ज्ञानविशेषे बुद्धिकृतेऽविभागपलि-च्छेदे, मौनीन्द्रं ज्ञानप्रवचनं यथाऽवस्थिताशेषपदार्थाविर्भावकमित्येवंरूपायां भ०२ श०१उ०। भावनायाम, आचा०२ श्रु०३चू०१ अ०१3०। णाणपडि णीयया स्त्री०(ज्ञानप्रत्यनीकता) ज्ञानस्य श्रुताऽऽदेः | णाणमंजरी स्त्री०(ज्ञानमञ्जरी) यशो विजयोपाध्यायकृततत्साधनस्य पुस्तकाऽऽदेः (कर्म०१कर्म०) तदभेदाद् ज्ञानवता वा ज्ञानसाराभिधाष्टकग्रन्थस्य देवचन्द्रगणिकृतायां टीकायाम्. सा सामान्येन प्रतिकूलतायाम्, भ०८श०६ उ०| चात्यशुद्धति विद्वज्जनचेतश्चमत्कृतिं नादधाति ।"स्याद्वादसु
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________________ णाणमंजरी 1963 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणसागर ठा। रहस्यानां, ज्ञानाल्लब्धोदयेन च / देवचन्द्रेणः बोधार्थ , सट्टीकेयं / णाणविसंवायणाजोग पुं०(ज्ञानविसंवादनायोग)ज्ञानस्यज्ञानिनां वा विनिर्मिता'' ||1|| वैक्रमीये रसनिधिजलधिचन्द्र 1796 मिते संवत्सरे। व्यभिचारदर्शनाय व्यापारे, भ०८।०६ उ० अए०३२ अष्ट। णाणविसोहि स्त्री०(ज्ञानविशुद्धि) ज्ञानाऽऽचारपरिपालनतो ज्ञानस्य णाणमंत त्रि०(ज्ञानवत्) ज्ञानशालिनि, नि०चू०१उ०) विशुद्धौ, स्था०१० ठा०। णाणमग्ग त्रि०(ज्ञानमग्न) आत्मस्वरूपोपलब्धियुक्ते, अष्ट०२ अष्टा णाणवुड्ड पुं०(ज्ञानवृद्ध) ज्ञानं हेयोपादेयवस्तुनिश्चयः, तेन वृद्धा णाणमय पुं०(ज्ञानमद) आत्मनो विज्ञत्वहेतुकेऽहङ्कार, "ज्ञानं मददर्पहरं, महान्तः / ध०१ अधि०श्रुतस्थविरेषु, हा०२४ अष्ट०। माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः? अगदो यस्य विषायति, तस्य चिकित्सा ज्ञानबुद्ध पुं० / ज्ञानेन प्रतिबुद्धे, स्था०२ ठा०४उ०। (व्याख्याऽस्य 'बुद्ध' कथं क्रियते?" / / 1 / / सूत्र०१ श्रु०१३अ०। शब्देद्रष्टव्या) *ज्ञानमय त्रि०। ज्ञानाऽऽत्मके, आव०४० णाणसंका स्त्री०(ज्ञानशङ्का) श्रुतज्ञानविषयकशङ्कायाम, सूत्र०१ णाणमूढ पुं०(ज्ञानमूढ) उदितज्ञानाऽऽवरणे, स्था०२ ठा०४ उ०। श्रु०१३अ० णाणसंपण्ण पुं०(ज्ञानसंपन्न) श्रुतसंपन्ने, सच दोषविपाकं प्रायश्चित्तं, गाणमोह पुं०(ज्ञानमोह) ज्ञानविषयके मोहे, स्था०२ ठा०४ उ०। चाऽवगच्छतीति आलोचनाऽर्हतयोक्तः। स्था०८ ठा०। (व्याख्याऽस्य 'मोह' शब्दे द्रष्टव्या) णाणसंपण्णया स्त्री०(ज्ञानसंपन्नता) श्रुतज्ञानसहितत्वे, (उत्त०) णाणरासि पुं०(ज्ञानराशि) सद्बोधनिकरे, पञ्चा०१५ विव०| नाणसंपण्णयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? नाणसंपण्णणाणवलन०(ज्ञानबल) अतीताऽऽदिवस्तुपरिच्छेदसामर्थ्य , स्था०१० याए णं जीवे सधभावाभिगमं जणयइ, नाणसंपण्णे य णं जीवे चाउरंतसंसारकंतारे न विणस्सइ। "जहा सूई ससुत्ता पडिया णाणवाइ(ण) त्रि०(ज्ञानवादिन) यथाऽवस्थितवस्तुपरिज्ञानादेव मोक्ष विन विणस्सई / तहा जीवो ससुत्तो संसारे वि न विणस्सइ" इत्येवंवादिनि, सूत्र०१ श्रु०६ अ० ||1|| नाणविणयतवचरित्तजोगं संपाउणइ, ससमयपरसमयणाणवि त्रि०(ज्ञानवित्) ज्ञानं यथाऽवस्थितपदार्थपरिच्छेदकं तद्वत्तीति विसारए संघायणिज्जे भवइ / / 6 / / ज्ञानवित्। ज्ञानवेत्तरि, "से आयविणाणवि' आचा०१ श्रु०३ अ०१उ०। हे भदन्त ! ज्ञानसंपन्नतया ज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्य संपन्नता श्रुतणाणविणय पुं०(ज्ञानविनय) ज्ञानमाभिनिबोधिकाऽऽदि पञ्चधा, तदेव ज्ञानसंपत्तिः, तया जीवः किं फलं जनयति ? तदा गुरुराह-हे शिष्य ! विनयो, ज्ञानस्य वा विनयो भक्त्यादिकरणं ज्ञानविनयः। स्था०७ ठा०। श्रुतज्ञानसंपन्नतया जीवः सर्वभावाभिगमम् सर्वे चतेभावाश्च सर्वभावाः ज्ञानाना श्रद्धानभक्तिबहुमानतद्दृष्टार्थभावनाविधिग्रहमत्यादिना-ऽभ्यासे, जीवाजीवाऽऽदयः, तेषामभिगमः सर्वभावाऽभिगमः,तं सर्वभावाभिगमं भ०२५ श०७उ०। ज्ञानविनयः पञ्चधा, ज्ञानस्य पक्षविधत्वात् / औ०। जीवाजीवाऽऽदितत्त्वज्ञानं जनयति। तथा ज्ञानसंपन्नो जीवश्चतुरन्तज्ञानविनयमाह संसारकान्तारे चतुर्गतिलक्षणे संसारवने न विनश्यति मोक्षाद् विशेषेण नाणं सिक्खइ नाणं, गुणेइ नाणेण कुणइ किच्चाई। दूर नादृश्यो भवति। तथाहि-ससूत्रा सूचीकचवराऽऽदिषु पतिता सतीन नश्यति-अदृश्या न भवति, नाशं न प्राप्नोति / तथा जीवोऽपि ससूत्रः नाणी नवं न बंधइ, नाणविणीओ हवइ तम्हा।।३।। श्रुतज्ञानसहितः संसारे विनष्टो न भवतीति भावः / ततश्च श्रुतज्ञानज्ञान शिक्षयत्यपूर्व ज्ञानमादत्ते, ज्ञानं गुणयति गृहीतं सत् प्रत्या विनयतपश्चारित्रयोगान् संप्राप्नोति / ज्ञानं च विनयश्च तपश्च चावर्तयति, ज्ञानेन करोति कृत्यानि संयमकृत्यानि, एवं ज्ञानी नवं कर्म न रित्रयोगाश्च ज्ञानविनयतपश्चारित्रयोगाः, तान् सम्यक् प्रकारेण प्राप्नोति, बध्नाति, प्राक्तनं च विनयति यस्माद् ज्ञानविनीतो ज्ञानेनापनीतकर्मा तत्र ज्ञानम्-अवध्यादि, विनयः प्रसिद्धः, तपो द्वादशविधम्, चारित्रव्याभवति, तस्मादिति गाथाऽर्थः / / 83 // दश०६ अ०१उ०। पारास्तान् सर्वान् लभते, पुनः श्रुतज्ञानी स्वसमयपरसमयसङ्घातनीयो णाणविणयपरिहीण त्रि० (ज्ञानविनयपरिहीन) ज्ञानाऽऽचारपरिहीने, भवति स्वमतपरमतयोः सङ्घातनीयो मीलनीयः स्यात् / एतावता चं०प्र०२० पाहुन स्वमतपरमताभिज्ञत्वेन प्रधानपुरुषत्वात्, पण्डितेषु गणनीयो भवतीति णाणविमलगणि पुं०(ज्ञानविमलगणिन) श्रीवल्लभमुनिगुरौ, अयं भावः // 56|| उत्त०२६अग विक्रमसंवत् 1654 मिते विद्यमान आसीत् / अनेन महेश्वरसूरि- | णाणसमाहि पुं०(ज्ञानसमाधि) अपूर्वश्रुतावगाहनपूर्वकभावसमाधौ, कृतशब्दप्रभेदग्रन्थस्योपरि टीका कृता। जै०३०। "जह जह सुयमवगाहइ. अइसयरसपसरसंजुयमउव्वं / तह तह पल्हाइ णाणविराहणा स्त्री०(ज्ञानविराधना) विराधना खण्डना, ज्ञानस्य मुणी, णवणवसंवेगसद्धाए।।१।।" सूत्र०१ श्रु०१० अ० विराधना ज्ञानविराधना, ज्ञाननिन्दया गुर्वादिनिन्हवेन च ज्ञान- णाणसागर पुं०(ज्ञानसागर) तपागच्छीयसोमसूरीणां शिष्ये, खण्डनायाम, ध०३अधि०ा निवाऽऽदिरूपायां ज्ञानप्रत्यनीकतायाम, ग०४ अधि०। अनेनाऽऽवश्यकौघनियुक्तिचूण्या , मुनिसुव्रतस०१समा स्तवनं धनौघनवखण्डपार्श्वनाथस्तवनं चेत्यादयो अन्या रचि
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________________ णाणसागर 1964 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणायार ताः। अस्य विक्रमसंवत् 1405 मिते जन्म, 1417 मिते दीक्षा, 1441 मिते सूरिपदं, 1460 मिते स्वर्गतिः / जै०६०। णाणसार न०(ज्ञानसार) यशोविजयोपाध्यायकृते पूर्णाष्टकाऽऽदिकेऽष्ट श्लोकाऽऽत्मकद्वात्रिंशदष्टकविभूषिते ग्रन्थविशेष, अष्ट०१ अष्ट। णाणसिद्ध पुं०(ज्ञानसिद्ध) भवस्थकेवलिनि, दश०४ अ०। णाणा अव्य०(नाना)न+ना। विनार्थे , अनेकार्थे, उभयार्थे च। वाच०। "णाणादुमलयाऽऽइन्न, णाणापक्खिणिसेविअं / णाणाकुसु मसंछन्नं, उजाणं णंदणोवम / 1 / " नानाद्रुमलताकीर्ण विविधवृक्षवल्लीभिर्व्याप्तम्। उत्त०२० अ०! सूत्र०ा रा० स० णाणाइगुणजुय त्रि०(ज्ञानाऽऽदिगुणयुत) सम्यग्ज्ञानश्रद्धानगुरु भक्तिसत्त्वप्रभृतिगुणसंपन्ने, पञ्चा०२ विव०। णाणाछंद त्रि०(नानाछन्द) नाना भिन्नश्छन्दोऽभिप्रायो येषां ते तथा। भिन्नाभिप्रायेषु, सूत्र०२ श्रु०२अ०॥ णाणादिहि त्रि०(नानादृष्टि) नानारूपा दृष्टिदर्शनं येषां ते तथा। सूत्र०२ श्रु०१ अ०१उ०। नानारूपा दृष्टिरन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा / सर्वज्ञप्रणीताऽऽगमानाश्रयणान्निबन्धनाभावाद् भिन्नदर्शनेषु, सूत्र०२ श्रु०२० णाणादुवग्गह पुं०(ज्ञानाऽऽद्युपग्रह) साधुगतज्ञानप्रभृतिगुणोपष्टम्भे, पश्चा०१२ विवा णाणापन्न त्रि०(नानाप्रज्ञ) नानाप्रकारा विचित्रक्षयोपशमात् प्रज्ञायतेऽ नयेति प्रज्ञा, सा विचित्रा येषां ते तथा / नानामतिषु, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। णाणापिंडरय त्रि०(नानापिण्डरत) नाना अनेकप्रकाराभिग्रहविशेषात प्रतिगृहमल्पाल्पग्रहणाच पिण्ड आहारपिण्डः, नाना चासो पिण्डश्च नानापिण्डः, अन्तप्रान्ताऽऽदि वा / तस्मिन् रता नानापिण्डरताः / नानापिण्डेऽनुद्वेगवत्सु, 'णाणापिंडरया दंता, तेण चंति साहुणो।' दश०१० णाणाभिगम पुं०(ज्ञानाभिगम) मत्यादिज्ञानेन बोधे, स्था०३ ठा०२०। णाणामणि पुं०(नानामणि) नानाप्रकारेषु मणिषु, राधा णाणामणिकणगरयणभूसणविराइयंगमंगाणं / नानाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु भूषणेषु तानि, तै नामणिकनकरत्नभूषणैर्विराजितान्यङ्गोपाङ्गानि यासा तास्तथा तासाम् / णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहणिउणोचियमिसमिसंतविरइयमहाभरणकडगतुडियवरभूसणुजलंतपीवरपलंवदाहिणभुयं पसारेति। नानाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु तानि नानामणिकनकरत्नानि, मणयो नानाविधाश्चन्द्रकान्ताऽऽदयः, कनकानि नानावर्णतया, रत्नानि नानाविधानि कर्केतनाऽऽदीनि, तथा विमलानि निर्मलानि, तथा महान्तमुपभोक्तारमर्हति / यदि वामहदुत्सर्व क्षणमर्हन्तीति महार्हाणि, तथा निपुणं निपुणबुद्धिगम्यं यथा भवति। रा०ा भाजी०। ''णाणामणितित्थसुबद्धाओ।" नानामणिभिर्नानाप्रकारैर्मणिभिस्तीर्थानि सुबद्धानि यासां ता नानामणितीर्थसुबद्धाः / रा० जी०'णाणामणि मा लंकिया।" नानामणयो नानामणिमयानि दामानि मालास्तैरलड्कृतानि नानामणिदामालकृतानि। रा० जी०। नानाजातीयेषु मणिषु, कल्प०२ क्षण। णाणामल्ल न०(नानामाल्य) नानारूपे पुष्पे, जी०३ प्रति०४ उ०। "नानामल्लपिणद्धा।" नानारूपाणि माल्यानि पुष्पाणि पिनद्धानि आविद्धानि यासा ता नानामाल्यपिनद्धाः / क्तान्तस्य परनिपातः, सुखाऽऽदिदर्शनात् / रा० णाणामय न०(ज्ञानामृत) ज्ञानमवबोधः, तदेवामृतम्, अविनाशिपदहेतुत्वात् / अष्ट०७ अष्टका ज्ञानरूपे पीयूषे, 'पीत्वा ज्ञानामृतं भुक्त्वा, क्रियासुरलताफलम् / साम्यताम्बूलमास्वाद्य, तृप्तिं याति परां मुनिः ||1|| अष्ट०१०अष्ट। णाणायार पुं०(ज्ञानाचार) ज्ञानं श्रुतज्ञानं, तद्विषय आचारः / स०२३सम०। श्रुतज्ञानविषये कालाध्ययनविनयाध्यापनाऽऽदिरूपे व्यवहारे, स०१अङ्ग। साम्प्रतं ज्ञानाऽऽचारमाहकाले विणएँ बहुमाणे, उवहाणे तह य अनिण्हवणे। वंजणअत्थतदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो।।१६।। (काल इति) यो यस्याङ्गप्रविष्टाऽऽदेः श्रुतस्य काल उक्तः, तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कर्तव्यो, नान्यदा, तीर्थकरवचनात्। दृष्ट च कृष्यादेरपि कालग्रहणे फलं, विपर्यये च विपर्यय इति। अत्रोदाहरणम्"एको साहू पादोसियं कालं घेत्तूण अइछताए वि पढमपोरिसीए अणुवओगेण पढति कालियं सुत्तं / सम्मद्दिट्टिदेवया चिंतेतिमा अण्णा पंतदेवया छलिज्ज त्ति काउतक्कं कुंडे घेत्तूण तक कं तक कं तितस्स पुरओ अभिक्खण 2 गयागयाइं करेति / तेण य चिरस्स सज्झायस्स वाघात करेइ त्ति / भणिया य अयाणिए ! को इमो तक्कस्स विक्कयणकालो? वेलं ता पलोवेह / तीए वि भणियं-अहो को इमो कालियसुयस्स सज्झायकालो त्ति? तओ साहुणा णायं-जहा ण एसा पागइत्थि त्ति / उवउत्तो णाओ अद्धरते दिण्णं मिच्छादुक्कडं / देवयाए भणियंमा एवं करेजासि, मा पंता छलेजा। तओ काले सज्झाइयव्वं, ण उ अकाले त्ति। दश०। (एतच तृतीयभागे 466 पृष्ठे 'कालायार' शब्दे द्रष्टव्यम्) तथा श्रुतग्रहणं कुर्वता गुरोविनयः कार्यः, विनयोऽभ्युत्थानपादधावनाऽऽदिः, अविनयगृहीतं हि तदफलं भवति / दश०नि०३अ०) आचा०। (एवं विनयबहुमानोपधानानिहवाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वशब्दे द्रष्टव्या) अत्रानाचरणे प्रायश्चित्तम्इदाणि कालाणायाराऽऽदिसु जेऽभिहिता पच्छित्ता, ते केइ मतविसेसिया जहा भवंति न भवंति य, तहा भण्णतिसुत्तमि एते लहुगा, पच्छित्ता अत्थे गुरुग केसिं वि। तं तु ण पुज्जति जम्हा, दोण्ह विलहुआ अणज्झाए।।२१।। जेएतेपच्छित्ता भणितातेसुत्ते लहुगा, अत्थे गुरुगा, केसिंमतेणेव भण्णति। आयरिओ भणतितदिद केसिंमतंण जुजते, णयघडए, णोववंत्ति पडिच्छति। सीसो भणतिकम्हा? आयरिओ भणतिजम्हा दोण्ह विलहुता अणज्झाए
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________________ पाणायार 1995 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणावरण अकाले असज्झाइए वा सुत्तत्थाई करेंताणं सामण्णेण लहुगा भणिता, तम्हा ण घडति। जे पुण केइ आयरिया लहुगुरुविसेसं इच्छंति, ते इमेण कारणेणं भणंतिअत्थधरो तु पमाणं,तित्थगरमुहुग्गतो तु सो जम्हा। पुव्वं च होति अत्था, अत्थे गुरु जेसि तेसेवं / / 22 / / सुत्तधरे णामेगे, णो अत्थधरे, एवं चउभंगो कायव्यो। कालदावराणं भंगाणं सुत्तत्थप्पत्ते गहियाण गुरुलाघवं चिंतिज्जति, कुलगण-संघसमितीसु सामायारीपरूवणेसु य सुत्तधराओ अत्यधरो पमाणं भवति। तहा गणाणुण्णाकाले गुरू ततियभंगिल्लासति बितियभंगे अत्थधरे गणाणुण्णं फरेति, ण सुत्तधरे, एवं अत्यधरो गुरुतरो, पमाणं च। किं च-तित्थगरमुहुगतो सो अत्थो जम्हा, सुत्तं पुण महत्तगणधरमुहागतं-''अत्थं भासति अरहा गाहा," तम्हा गुरुतरो अत्थो। किंच"पुष्यं च होति अत्थो, पच्छा सुत्तं भणति भणियं च / अरहा अत्थ भासति, तमेव सुत्तीकरेति गणधारी। अत्येण विणा सुत्तं, अणिस्सियं केरिस होति ? // 1 // " (जेसिं ति) जेसिं आयरिआणं तेसेवं ति / जगारुट्टिाणं तगारेणं ति णिवेसो कीरति / सगारा एगारो पिही पिहो कजति एवं ततो भवति / एवंसद्देण य एवं कारणाणि घोसेंति भणंति य। अत्थे गुरूणि सुत्ते लहुआ पच्छित्ता / इत्ति भणितो अट्टविही णाणायारो। नि०चू० १उ०॥ णाणारंभ त्रि०(नानाऽऽरम्भ) नानाप्रकार आरम्भो धर्मानुष्ठानं येषां ते नानाऽऽरम्भाः। विभिन्नधर्मकेषु,सूत्र०२ श्रु०१अ०। कृषिपा-शुपाल्यविपणिशिल्पिकर्मसेवाऽऽदिषु अन्यतराऽऽरम्भकर्तरि, सूत्र०२ श्रु०२अ०। जाणाराहण न०(ज्ञानाऽऽराधन) आगमार्थानुपासने, पचा०१७ विव०। "नाणाराहणा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा / "स्था०३ठा०४उवा णाणारिय पुं०(ज्ञानार्य) ज्ञानेन आर्यत्वहेतुना। आर्यभेदे, प्रज्ञा०।१पद।। आभिनिबोधिकाऽऽदिभेदात् पञ्चविधा ज्ञानार्याः / प्रज्ञा०१ पद। णाणारुइ त्रि०(नानारुचि) नानारूपा रुचिः चेतोऽभिप्रायो येषां ते तथा / सूत्र०२ श्रु०१ अ०। विभिन्नाभिप्रायेषु, आहारविहारशयनाऽऽसनाऽऽच्छादनाऽऽभरणयानवाहनगीतवादित्राऽऽदिषु मध्येऽन्यस्चान्या रुचिर्भवति। सूत्र०२ श्रु०२० णाणावरण न०(ज्ञानाऽऽवरण) ६त०। सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि विशेषग्रहणाऽऽत्मक स्य बोधस्य मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवललक्षणस्य स्वप्रभावत आच्छादके अष्टानां कर्मणां प्रथमे, प्रव० 216 द्वार / पं०सं०1 उत्त०। बृ०॥ (ज्ञानाऽऽवरणकर्मणोऽवि-- भागपरिच्छेदैरशैः सर्वजीवानामनन्ततमो भागो नित्यापावृत इति 'अक्खर' शब्दे प्रथमभागे 136 पृष्ठे उक्तम्) ज्ञानाऽऽवरणं पञ्चधामतिज्ञानाऽऽवरणं, श्रुतज्ञानाऽऽवरणम्, अवधिज्ञानाऽऽवरण, मनः पर्यायज्ञानाऽऽवरण, केवलज्ञानाऽऽवरणं च / प्रव० 216 द्वार (तत्र पञ्चाना ज्ञानानां स्वरूपं यथास्थानं द्रष्टव्यम्) इदानीमेतेषामावरणमाहएसिं जं आवरणं, पडु व्व चक्खुस्स तं तयावरणं / (6) एषां मतिज्ञानाऽऽदीनां पञ्चानां ज्ञानानां यदावरणमाच्छादकं, पट इव सूत्राऽऽदिनिष्पन्नशाटक इव, चक्षुषो लोचनस्य, तत्तेषां मतिज्ञानाऽऽदीनामावरणं तदावरणमुच्यते। इदमत्र हृदयम्-यथा घनघनतरधनतभेन पटेनाऽऽवृतं सन्निर्मलमपि चक्षुर्मन्दमन्दतरमन्दतमदर्शनं भवति, तथा ज्ञानाऽऽवरणेन कर्मणा घनघनतरघनतमेनाऽऽवृतोऽयं जीवः शारदशशधरकरनिकरनिर्मलतरोऽपि मन्दमन्दतरमन्दतमज्ञानो भवति, तेन पटोपमं ज्ञानाऽऽवरण कर्मो च्यते / तत्राऽऽवरणस्य सामान्यत एकरूपत्वेऽपि यत्पूर्वोक्तानेकभेदभिन्नस्य मतिज्ञानस्यानेकभेदमेवाऽऽवरणस्वभावं कर्म तन्मतिज्ञानाऽऽवरणमेकग्रहणेन गृह्यते चक्षुषः पटलमिव 11 तथा पूर्वाऽभिहितभेदसन्दोहस्य श्रुतज्ञानस्य यदावरणस्वभावं कर्मतत् श्रुतज्ञानाऽऽवरणम् श तथा प्राक् प्रपञ्चितभेदकदम्बकस्यावधि-ज्ञानस्य यदावरणस्वभाव कर्म तदवधिज्ञानाऽऽवरणम् 3 / तथा प्रानिीतभेदद्वयस्य मनःपर्यवज्ञानस्य यदावरणस्वभावं कर्म तन्मन:पर्यायज्ञानाऽऽवरणम् 4 / तथा पूर्वप्ररूपितस्वरूपस्य केवलज्ञानस्य यदावरणस्वभावं कर्म तत्केवलज्ञानाऽऽवरणम् 5 / उक्तं च बृहत्कर्मविपाके"सरउग्गयससिनिम्मल-तरस्स जीवस्स छायणं जमिह। नाणावरण कम्म, पडोवड होइएवं तु।।१।। जह निम्मला वि चक्खू, पडेण केणावि ठाइया संती। मंद मंदतराग, पिच्छइ सा निम्मला जइ वि।।२।। तह मइसुयनाणावर--णअवहिमणकेवलाण आवरणं / जीवं निम्मलरूवं, आवरइ इमेहिँ भेएहिं // 3 // तदेवमेतानि पञ्चाऽऽवरणान्युत्तरप्रकृतयः, तन्निष्पन्नं तु सामान्येन ज्ञानाऽऽवरणं मूलप्रकृतिः / यथाऽङ्गुलिपञ्चकनिष्पन्नो मुष्टिः मूलत्वक पत्रशाखाऽऽदिसमुदयनिष्पन्नो वा वृक्षः, धृतगुडकणिक्काऽऽदिनिष्पन्नो वा मोदक इति; एवमुत्तस्त्रापि भावनीयम्। व्याख्यातं पशविध ज्ञानाऽऽवरणं कर्म / कर्म०१ कर्म णाणआवरणं चेव, आहियं तु दुपंचहा / / 5 / / ज्ञानाऽऽवरणं द्विपञ्चधा दशप्रकारमाख्यातम्। तानेव दश भेदान् विवेक्तुमाहसोयावरणे चेव वि, णाणावरणं च होइ तस्सेव / एवं दुयभेएणं, णायव्वं जाव फासो त्ति॥६॥ श्रोत्राऽऽवरणं, तथा तस्यैव श्रोत्रस्य ज्ञानाऽऽवरणमेव द्विकभेदेन तावद् ज्ञातव्यं यावत् स्पर्शः। तद्यथा-चक्षुरिन्द्रियाऽऽवरणं चक्षुरिन्द्रियज्ञानाऽऽवरणम्, घ्राणेन्द्रियाऽऽवरणं घ्राणेन्द्रियज्ञानाऽऽवरणम्, रसनेन्द्रियाऽऽवरणं रसनेन्द्रियज्ञानाऽऽवरणम्, स्पर्शन्द्रियाऽऽवरणं स्पर्शेन्द्रियज्ञानाऽऽवरणमिति / व्य०१०उ०। (सर्वज्ञसिद्धिप्रस्तावे रागाऽऽदीनां ज्ञानाऽऽवरणत्वम् (ज्ञानाऽऽवरणीयस्योत्तरप्रकृतीरधिकृत्य बन्धोदयसत्तास्थानानां संवेधः “कम्म" शब्दे तृतीयभागे 266 पृष्ठे गतः) णाणावरणिज न०(ज्ञानाऽऽवरणीय) ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानाऽऽवरणीयम्। ज्ञानाऽऽवरणकर्मणि, "सरउग्णयससिणिम्मलतरस्स जीवस्स छायणं जमिह। नाणाऽऽवरणं कम्म, पडोवम होइएवं तु॥१॥" स्था०२ ठा०४उ०) णाणावरणिजे कम्मे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-देसणाणाव
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________________ णाणावरण 1966 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाणि (ण) मुक्तम्) रणिज्जे चेव, सव्वणाणावरणिज्जे चेव, दरिसणावरणिज्जे कम्मे | __ यज्झयपडागमंडियं / ' नानाविधै रागैर्भूषिता ये ध्वजाः सिंहा-- एवं चेद। ऽऽदिरूपोपलक्षिता बृहत्यः प्रताकाश्च लध्वास्ताभिर्मण्डितं विभूषितम्। देश ज्ञानस्याऽऽभिबोधिकाऽऽदिमावृणोतीति देशज्ञानाऽऽवरणी-यम्, कल्प०५ क्षण। सर्व ज्ञानं के वलाऽऽख्यमावृणोतीति सर्वज्ञानाऽऽवरणीयम्, णाणासील त्रि०(नानाशील) नानाप्रकार शीलमनुष्ठानं येषां ते तथा / केवलज्ञानाऽऽवरण हि आदित्यकल्पकेवलज्ञानरूपस्य जीवस्या- अनेकाऽऽचारेषु, सूत्र०२ श्रु०१अ०ा परतीर्थिका नानाशीलाः, तत्र शीलं ऽऽच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति तत्सर्व ज्ञानाऽऽवरणम् / व्रतविशेषः, स च भिन्नस्तेषामनुभवसिद्धएव। सूत्र०२ श्रु०२अ01 मत्याद्यावरणं तु घनाऽऽच्छादिताऽऽदित्येषत्प्रभाकल्पस्य केवल-- णाणाहुइमंतपयाभिसित्त त्रि०(नानाऽऽहुतिमन्त्रपदाभिषिक्त) आहुतयो ज्ञानदेशस्य कटकुड्याऽऽदिरूपज्ञानाऽऽवरणतुल्यमिति देशाऽऽव घृतप्रक्षेपाऽऽदिलक्षणाः मन्त्रपदान्यग्नये स्वाहा इत्येवमादीनि, तैरभिषिरणमिति। पठ्यते च-"केवलणाणावरणं, दंसणछक्कं च मोहवार-सगं। क्तम्।दीक्षासंस्कृते, दश०६ अ०१उ०। ता सव्वघाइसन्ना, भवंति मिच्छत्तवीसइम' / / 1 / / इति / (अनन्तानु णाणि(ण) त्रि०(ज्ञानिन्) ज्ञानं सकलपदार्थाऽऽविर्भावकं विद्यतेयस्यासौ बन्धाऽऽदीत्यर्थः) अथवा देशोपघाति सर्वोपघाति पड्डुकापेक्षया ज्ञानी / आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। विशिष्ट विवेकवति, सूत्र०१ देशसर्वाऽऽवरणत्वमस्य। श्रु०१अ०४उ०। नि००। प्रज्ञा०। यथार्थतत्त्वस्वरूपावबोधिनि, यदाह अष्ट०६ अष्टा परमार्थविदि, आचा०१ श्रु०३अ०३301 सूत्रा "मइसुयनाणाऽऽवरणं, दंसणमोहं च तदुपघाईणि। जीवस्वरूपतद्वन्धकर्मवेदिनि, सूत्र०१ श्रु०११अ० "णाणी तु तिहिं गुत्तो, तप्पड्डगाइँ दुविहाइँ देससव्वोपधाईणि // 1 // खेवइ ऊसासमितेणं।" सूत्र०२ श्रु०५अ०। अनु०। उत्त। "जं अन्नाणी सव्येसु सव्वघाईसुहएसुदेसोवघाइयाणंच। कम्म,खवेइ बहुआ' वासकोडीहिं। तं नाणी तेहिंती,खवेइऊसासमेत्तेणं भोगेहि मुच्चमाणो, समए समए अणतेहिं / / 2 / // 1 // " द०पार था०। ('णाणणय' शब्दे 1660 पृष्ठे ज्ञानप्राधान्यपढम लभइ णगारं, एकेक वन्नमेवमन्नं ति। कमसो विसुज्झमाणो, लहइ समत्तं णमोकारं // 3 // " ज्ञानवदवज्ञा यथास्था०२ ठा०४उ० पढइनडो वेरग्गं, इचाइ निदंसिऊण केइऽत्थ। णाणावरणिज्जवग्ग पुं०(ज्ञानाऽऽवरणीयवर्ग) ज्ञानाऽऽवरण कर्मप्रकृति- नाणड्डाणमवन्नं, कुणंति नेयं वियाणंति / / 1 / / समुदाये, क०प्र०। पठति नटो वैराग्यमित्यादि निर्दिश्य कथयित्वा, आदिशब्दात्णाणावरणिज्जकम्मसंघाय पुं०(ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मसङ्घात) ज्ञानघ्न- 1 "णिच्छिजिजा य बहुजणो जेण तं तह सढो जालेण समोयरइ" इति कर्मनिवहे, "सुयदेवया भगवई, नानावरणीयकम्मसंघायं। तेसिंखवेउ दृश्यम्, सुगमंच। केऽपि स्तोका अनाभोगत एव, अनेके च। पकारलोपः सययं, जेसिं सुयसागरे भत्ती // 1 // ' पाo पूर्ववत् रूपमिदम्। ज्ञानाऽऽढ्याना बहागमानामवज्ञामश्लाघाऽऽदिरूपा णाणावरणोदय पुं०(ज्ञानाऽऽवरणोदय) तत्काले ज्ञानाऽऽवरणी- कुर्वन्ति विदधति। नेति निषेधे, इदं च वक्ष्यमाणं, विजानन्ति बुध्यन्ते। यकर्मविपाके, आव०४अग इति गाथाऽर्थः // 1 // णाणाविह त्रि०(नानाविध) विविधप्रकारे, तं०। रा०बहुप्रकारे, सूत्र०२ तदेवाऽऽहश्रु०३अ०। सला'णाणाविहरागवसणा।"नानाविधो नानाप्रकारो रागो नाणाहिओ वरतरं, हीणो विहुपवयणं पभावितो। येषां तानि नानाविधरागाणि, तान्येव वसनानि वस्त्राणि संवृततया यासां न य दुक्करं करितो, सुद्धवि अप्पागमो पुरिसो ||2|| ता नानाविधरागवसनाः / जी०३ प्रति०४ उ०। आचा०। सुबोधार्था। राला 'नाणाविहपंचवण्णेहिं उवसोभिए / " नानाविधा जातिभेदाद् तथानानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तैरुपशोभितः। आ०म०१ अ०१ खण्ड। छट्ठऽट्ठमदसमदुवालसेहिँ अबहुसुयस्स जा सोही। प्रज्ञाला "नाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोभिया।"प्रत्यासन्नीनाप्रकारैर्गु एत्तो बहुअरिया पुण, हविज जिमियस्स नाणिस्स ||6|| च्छैर्वृन्ताकीप्रभृतिभिर्गुल्मैवमल्लिकाऽऽदिभिर्मण्डपैक्षाऽऽदिमण्डपकैरुपशोभिता नानाविधगुच्छगुल्ममण्डपकशोभिता / जी०३ इयमपि सुगमा। प्रति०४ उ० "णाणाविहरामरंजितउच्छितज्झयविजयवेजयंती ननु यद्येवं तर्हि पूर्वोक्तस्य व्याहतिः, सत्यम्, तन्निन्दावाक्यमेवमसौ भण्यते। येन क्रियायामुद्यमं करोति नचाऽसौ गुणविकलः, कथमन्यथा पडागातिपडागमंडित करें ति।" नानाविधा रागा येषु ते नानाविधरागाः, नानाविधरागैरुच्छितैरूर्वीकृते र्ध्वजैः पताकाऽतिपताकाऽऽदिभिश्च त्वयोक्तं मे "नाणाहियस्स नाणं पूइज्जइ" इत्यादि। माण्डतां कुर्वन्ति / जी०३ प्रति०४उ०। "णाणामणिकणगरयण अत्रैवार्थे जीवोपदेशमाहखइयउज्जलब लबहुसमसुविभत्तनिचितरमणिज्जकु टिमतला।" संसारसंभवाओ, दुहाओं जइ जीव ! तं सि निव्विओ। नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र स नानामणिकनकरत्न- मा नाणीणमवणं, करेसु ता दीवतुल्लाणं / / 64|| खचितः, निष्ठान्तस्य परनिपातो भार्याऽऽदिदर्शनात् / तथोज्ज्वलो संसारसंभवाद् भवोद भूताद् दुःखादसाताद यदि जीव ! त्वं निर्मलो बहुसमोऽत्यन्तसमः सुविभक्तो निचितो निविडो रमणीयश्च भवान् असि भवसि निर्विणः श्रान्तो, मेति निषेधे, भूमिभागो यस्यां सा जी०३प्रति०। रा०ा 'णाणाविहरागभूसि-- तर्हि दीपतुल्यानां दीपसदृशानां, ज्ञानिना ज्ञानवताम्, अवर्णम
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________________ णाणि(ण) 1967 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाम श्लाघ कुरु / अयमभिप्रायः-ज्ञानवतामवज्ञाऽऽदिकरणाद् ज्ञाना- णाति स्त्री०(ज्ञाति) स्वजने, सूत्र०१ श्रु०३अ०१उ०। ऽऽवरणीयं कर्म बध्यते / तथैव दर्शनाऽऽवरणीयं, तेन च मोहनीयं | णादिय त्रि०(नादित) लपिते, जी०३प्रति०४उ०। मोहनीयेन वा उदीर्णेनाऽष्टौ कर्माणि,ततश्च भवभ्रमणम्, एतच | णाध पुं०(नाथ) "थो धः शौरसेन्याम् / " ||84267 / / इति शतकभगवत्यादिषु सूत्रेषु प्रतीतमिति न वितन्यते / अत उक्तम्- प्राकृतसूत्रेण थस्य धकारः / प्रभौ, प्रा०४ पाद। ज्ञानाऽऽद्यवज्ञातो भवदुःखमिति गाथार्थः / जीवा०१६ अधि०। गाभि पुं०(नाभि) शकटरथाङ्गे, दश०७ अ० जठरस्य मध्या-वयवे, ज्ञानक्रियाकर्तरि, व्य०१उ०। (जीवा ज्ञानिनोऽज्ञानिनन 'णाण' उत्त०२ अ०। अस्यामवसर्पिण्या भरतक्षेत्रजे प्रथमकुलकरे श्रीऋषभदेवशब्देऽस्मिन्नेव भागे 1972 पृष्ठे उक्ताः) अवधिज्ञानिनो मनःपर्यव- पितरि, आव०१ अनिका आचाला तिला आ०म०ा प्रव०। जंoा स्था०| ज्ञानिनो वा कियन्तो भवान् कुर्वन्तीति प्रश्ने उत्तरम्-"आभिणि- णाभिचक्क न०(नाभिचक्र) शरीरमध्यवर्तिनि समस्ताङ्ग सन्निवेशबोहियनाणिस्सणं भंते! अंतरं कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा! जहन्नेणं | मूलभूते देहावयवे, द्वा०२६ द्वा०। अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं अणंतं कालंजाव अवड्डपोग्गल-परिअदं च णाभिप्पभव त्रि०(नाभिप्रभव) नभिरुत्पन्ने,तं०। पदेसूणं, सुअनाणिओहिनाणिमणपञ्जवनाणीणं एवं चेव, केवलनाणिस्स | णाभिरसहरणी स्त्री०(नाभिरसहरणी) नाभिनाले, तं०। नत्थि अंतरं।" इत्यादिभगवतीसूत्राष्टमशतकद्वितीयोद्देशके एतदक्षरानु णाभेय पुं०(नाभेय) चतुःसहस्रभूपैः सह श्रीनाभेयजिनो दीक्षां जग्राह, सारेणावधिज्ञानेन मनःपर्यवज्ञानिना वाऽनन्तभवान् कुर्वन्तीति ज्ञायत तेषां दीक्षोचारः केन कारित इति प्रश्ने, उत्तरम-ततः श्रीप्रथमजिनेन इति। 380 प्र०। सेन०३ उल्ला० सह प्रभुक्तं जगृहरिति ऋषिचरित्राऽऽदौ। 256 प्र०। सेन०३ उल्ला०| णाणिंद पुं०(ज्ञानेन्द्र) श्रुताऽऽद्यन्यतरज्ञानवशविवेचितवस्तुविशरे णाम पुं०(नाम) नमनं नामः / परिणामे, भावे, (भ०) केवलिनि, स्था०२ ठा०४उ०। (व्याख्या 'इंद' शब्दे द्वितीयभागे 534 कइविहे णं भंते ! णामे पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहे णामे पृष्ठे उक्ता) पण्णत्ते / तं जहा-उदइए०जाव सण्णिवाए। से किं तं उदइए णाणुप्पायमहिमा खी०(ज्ञानोत्पादमहिमन्) तीर्थकृतां केवल- णामे ? उदइए णामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-उदइए य, ज्ञानोत्पादेचकृतमहोत्सवे, स्था०३ ठा०१उ०। उदयणिप्फमो य / एवं जहा सतरसमसए पढमे उद्देसए भावो जाणोक्ओगपुं०(ज्ञानोपयोग) ज्ञाने व्याप्रियमाणतायाम्, प्रव०१०द्वार / तहेव इह वि। णवरं इमं णाणत्तं सेसं तहेव०जाव सण्णिवाइए।। णाणोक्षाय पुं०(ज्ञानोपघात) प्रमादतःश्रुतज्ञानोपघाते, स्था० १०टा०॥ नमनं नामः, परिणामो, भाव इत्यनर्थान्तरम्। (णवरं इमं नाणत ति) गाणोवसंपया स्त्री०(ज्ञानोपसंपत्) श्रुतज्ञानार्थमाचार्यान्तरोपसंपत्तौ / सप्तदशशते भावमाश्रित्य इदं सूत्रमधीतमिह तु नामशब्दमाश्रिध०३अधि०। ('उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 685 पृष्ठे तद्विधिः) त्येत्येतावान् विशेष इत्यर्थः / भ०२५ श०५ उ०। गात न०।त्रि०(ज्ञात) दृष्टान्ते, नि०चू०१०उ०। आहरणे, नि०चू०१५ *नामन् अव्य०। अलंकृतौ, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / वाक्यालङ्कारे, उन अनु०। निदर्शने, पञ्चा०४ विव०। ज्ञा०। उदाहरणे, ज्ञाताध्ययने, स्था०४ ठा०१ उ०। सूत्र०। दश०। पादपूरणे, प्रा०३ पाद / विपा०। नं०। सूत्रा आगमिते, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। ज्ञातमागमितमित्येकार्थम्।। नि०चू०। शिष्याऽऽमन्त्रणे, जं०१ वक्ष०ा विशे०। जीवा०ा कोमला-- व्य०३उ०। सम्यक् परिच्छिन्ने, त्रिका आव०६ अ० आचा०। विदिते, ऽऽमन्त्रणे, बृ०३उ०॥ तं०। विशे०। संभावनायाम, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०) आचा०। स्था०। ज्ञा०। अनु०। विशे० दशा० भ०। प्रसिद्धौ, सूत्र०१ श्रु०६ अ० उदारक्षत्रिये, बृ०१उ०। आचा०। उत्त०। प्रश्नका कल्प०६ क्षण। अभ्यनुज्ञायाम, विशे० नमति ज्ञान-रूपाऽऽदिपर्यायइक्ष्वाकुवंशविशेषभूते, ज्ञा०१ श्रु०८अाश्रीऋषभदेवजातीये (कल्प०५ भेदानुसारतो जीवपरमाण्वादिवस्तुप्रतिपादकतया प्रहीभवतीति नाम / क्षण) क्षत्रियविशेषे, पुं०। सूत्र०१ श्रु०६ अ० स्था। आचा०। यद्वशे तथा चाऽऽह-"जं वत्थुणोऽभिहाणं, पजवभेयाणुसारियं नाम। पइभेयं श्रीवीरस्वामी जज्ञे / स्था०६ ठा०। ज्ञातपुत्रे, सूत्र०१ श्रु०२ जं नमए, पइभेयं जाइयं भणियं // 1 // " उत्त० 10 / विशे०। सूत्र अ०२उ०ाआ०चू यादृच्छिकाभिधाने, ज्ञा०१ श्रु०१० जातकुमार पुं०(ज्ञातकुमार) राज्याहे ज्ञातक्षत्रियकुमारे,ज्ञा०१ श्रु०८ अ०| __ सामान्येन नाम्नस्तावल्लक्षणमाहभातकुलचंद पुं०(ज्ञातकुलचन्द्र) ज्ञातकुले चन्द्र इव / महावीर पजायाणभिधेयं, ठियमण्णत्थे तयत्थनिरवेक्खं / स्वामिनि, कल्प०५ क्षण। आचा०। जाइच्छियं च नाम, जावद्दव्वं च पाएण / / 25 / / णातखंड न०(ज्ञातखण्ड) स्वनामख्याते वने, यत्र महावीरस्वामी यत् कस्मिँ श्चिद् भृतकदारकाऽऽदौ इन्द्राऽऽद्यभिधानं क्रियते, प्रव्रजितः / स्था०१० ठा०1 आ०चू० तन्नाम भण्यते। कथंभूतं तत् ? इत्याह-- पर्यायाणां शक्रपुरन्दरणातपुत्त पुं०(ज्ञातपुत्र) ज्ञातः सिद्धार्थः तस्य पुत्रः / कल्प०५ क्षण। पाकशासनशतमखहरिप्रभृतीनां समानार्थवाचकानां ध्वनीनामसिद्धार्थकक्षत्रियपुत्रे श्रीमहावीरे, 'णातपुत्ते महावीरे, एवमाह, नभिधे यमवाच्यम, नामवतः पिण्डस्य संबन्धी धोऽयं जिणुत्तमे।" सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ० नाम्न्युपचरितः, स हि नामवान् भृतकदारकाऽऽदिपिण्डः कि
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________________ णाम 1968 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णाम लै के न सङ्के तितमात्रेणेन्द्राऽऽदिशब्देनैवाभिधीयते, न तु शेषैः वाच्यव्यावृत्तयेऽशक्यार्थ इति करणार्थाच्छक्यस्य पर्यायानभिधेयं शक्रपुरन्दरपाकशासनाऽऽदिशब्दैः, अतो नामयुक्तपिण्डगतधर्मो चेत्यनेन लक्षणस्य च व्यावृत्तौ तात्पर्यात् / ओमिति चेत्, तर्हि नाम्न्युपचरितः पर्यायानभिधेय इति। पुनरपि कथंभूतं तन्नाम? इत्याह- रूपसत्यादिविषयेऽतिव्याप्तिः, तस्य द्रव्यनिक्षेपविषयत्वे च तत्रैव सति (ठियमण्णत्थे ति) विवक्षिताद् भृतकदारकाऽऽदिपिण्डा- चेत्, न, उक्तलक्षण एव भावनिक्षेपविषयाभेदव्यवहारोपयिकरूपरादन्यश्वासावर्थश्चान्यार्थो देवाधिपाऽऽदिः, सद्भावतस्तत्र यत् स्थितम्, हितयावशेषेण दाने दोषाभावात्। निरूढलक्षणायाः स्वीकारे तुलक्षणाया भृतकदारकाऽऽदौ तु सङ्के तमात्रतयैव वर्तते; अथवा-सद्भावतः निरूढत्वज्ञापकवचनमेव निक्षेपः। तद्विषयविशेषस्तु अन्यव्यावृत्त्यादिना स्थितमन्वर्थे--अनुगतः संबद्धःपरमैश्वर्याऽऽदिकोऽथों यत्र सोऽन्वर्थः-- यथाव्यवहारं स्वीकार्य इति नातिप्रसङ्ग इति दिक् / नयो। पारिभाषिक्यां शचीपत्यादिः। सद्भावतस्तत्र स्थित भृतकदारकाऽऽदो तर्हि कथं वर्तते ? संज्ञायाम, विशेला पितृपितामहाऽऽदेर्वाचकेऽभिधाने, अनु०॥ इत्याह-तदर्थनिरपेक्ष तस्येन्द्राऽऽदिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः परमैश्वर्याऽऽ गौणाऽऽदि नाम चतुर्दा / तद्यथा-गौणं, समयजं, तदुभयजम, दिस्तस्य निरक्षेप सङ्केतमात्रेणैव तदर्थशून्ये भृतकदारकाऽऽदौ वर्तते. अनुभयज च। तत्र गुणादागतं गौणम् / अथ कोऽसौ गुणः, कथं च तत इति पर्यायानभिधेयम्, स्थितमन्यार्थे, अन्वर्थे वा, तदर्थनिरपेक्ष यत् आगतम् ? उच्यते-इह शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं योऽर्थो, यथाज्वलनस्य क्वचिद् भृतकदारकाऽऽदौ इन्द्राऽऽद्यभिधानं क्रियते , तन्नाम, इतीह दीपनं 'ज्वल' दीप्ताविति वचनात्, सगुणः / गुणश्चेह परतन्त्रो विवक्षितो, तात्पर्यार्थः / प्रकारान्तरेणापि नाम्नः स्वरूपमाह यादृच्छिक चेति / न पारिभाषिको रूपाऽऽदिः; तेन यच्छब्दस्य वस्तुनि प्रवर्तमानस्य इदमुक्त भवति-न केवलमनन्तरोक्तं, किं त्वन्यत्रावर्तमानमपि यदेवमेव व्युत्पत्तिनिमित्तं द्रव्यं, गुणः, क्रिया वा, स गुण इत्यभिधीयते। तत्र द्रव्यं व्युत्पतिनिमित्तम्-शृङ्गी, दन्ती, विषाणीत्यादौ / गुणोजातरूपं सुवर्ण, यदृच्छया केन चिद् गोपालदारकाऽऽदेरभिधानं क्रियते, तदपि नाम, स्वादु रसाश्चेते इत्यादौ। क्रियातपनःश्रमणो दीग्रो हिंस्रोज्वलन इत्यादौ / यथा डित्थो, डवित्थ इत्यादि / इदं चोभयरूपमपि कथंभूतम्? इत्याह जातिश्च नाम्नो व्युत्पत्तिनिमित्तं न भवति, किं प्रवृत्तिनिमित्तं; यथा यावद् द्रव्यं च प्रायेणेतियावदेतद्वाच्यं द्रव्यमवतिष्ठते तावदिद नामाप्य गोशब्दस्य गोजातिः / तथाहि-गोशब्दस्य गमनक्रिया व्युत्पत्तिनिमित्तं, वतिष्ठत इति भावः / किं सर्वमपि ? न इत्याह- प्रायेणेति, मेरु न गोत्वं, गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्तेः केवलमेकार्थसमवायबलाद् द्वीपसमुद्राऽऽदिकं नाम प्रभूतं यावद् द्रव्यभावि दृश्यते; किश्चित्त्व गमनक्रियया खुरककुदला गूलसास्नाऽऽदिमत्त्वं प्रवृत्तिनिमिन्यथाऽपि समीक्ष्यते.देवदत्ताऽऽदिनामवाच्यानां द्रव्याणां विद्यमा तमुपलक्ष्यते, इति गच्छत्यगच्छति वा गोपिण्डे गोशब्दस्य प्रवृत्तिः। एवं नानामप्यपरापरनामपरावर्तस्य लोके दर्शनात्। सिद्धान्तेऽपि यदुक्तम् सर्वेष्वपि जातिशब्देषु नामसु व्युत्पत्तिनिमित्तवत्सु भावनीयम्। ये तु "नाम आवकहियं ति" तत् प्रतिनियतजनपदाऽऽदि-संज्ञामेवाङ्गी जातिशब्दा व्युत्पत्तिरहिता यथाकथञ्चित् जातिमत्सु रूढिमुपागतास्तेषु कृत्य, यथोत्तराः कुरव इत्यादि / तदेवं प्रकारद्वयेन नाम्नः स्वरूप- व्युत्पत्तिनिमित्तमेव नास्तीति कुतस्तत्र जातेयुत्पत्तिनिमित्तत्वप्रसङ्गः? मत्रोक्तम्, एतच तृतीयप्रकारस्योपलक्षणम्, पुस्तकपत्रचित्राऽऽदि- तस्मात् जातिः परतन्त्राऽपि शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तमिति न सा लिखितस्य वस्त्वभिधानभूतेन्द्राऽऽदिवर्णाऽऽवलीमात्रस्थाप्यन्यत्र गुणग्रहणेन गृह्यते। ये तु गोत्वविशिष्टो गोमानित्यादयो जातिव्युत्पत्तिनामत्वेनोक्तत्वादिति / एतच सामान्येन नाम्नो लक्षणमुक्तम् / विशे०/ निमित्ता, न ते नामरूपा इति न तैर्व्यभिचारः, ततो गुणादागतं गौणं, (किशिन्नाम निरर्थकमपि भवतीति 'उस्सारकप्पिय' शब्दे द्वितीयभागे व्युत्पत्तिनिमित्तं द्रव्याऽऽदिरूपं गुणमधिकृत्य यद्वस्तुनि प्रवृत्त नाम 1176 पृष्ठे गतम्) सर्वस्यापि घटपटाऽऽदिवस्तुन आत्मीयेऽभिधाने, तद्गुणनामेति भावार्थः। एतदेव नाम लोके यथार्थमित्याख्यायते। तथाविशे०) व्य०। संज्ञायाम, "यद् वस्तु नोऽभिधानं, स्थितमन्यार्थे समयज यदन्वर्थरहितं समय एव प्रसिद्धम्। यथा--ओदनस्य प्राभृतिका तदर्थनिरपेक्षः / पर्यायानभिधेयं, च नाम यादृच्छिकं च तथा / / 1 / / " इति नाम / उभयजं यद्गुणान्निष्पन्नं समयप्रसिद्धं च, यथा धर्मध्वजस्य इति / स्था०३ ठा०१ उ०। दशा आचा०। उत्त० यत्तु "णाम रजोहरणमिति नाम। इदं हि समयप्रसिद्धमन्वर्थयुक्तं च। तथाहि-बाह्यम्, आवकहिय' इति सूत्रे प्रोक्तं, तत्प्रतिनियतजनपदसंज्ञामाश्रित्यैवेति आभ्यन्तरं च रजो हियत इत्यनेन रजोहरणम्। तत्र बाह्य रजोऽपहारि... ध्येयम्। ननु 'गङ्गायां घोषः' इत्यत्र गङ्गापदेन गङ्गातीरमभिधीयते। तत्र त्वमस्य सुप्रतीतम् / आन्तररजोऽपहरणसमर्थाश्च परमार्थतः किं नामनिक्षेपस्य प्रवृत्तिः, उत निक्षेपान्तरस्य ? नाद्यः / जाह्नव्या संयमयोगाः, तेषां च कारणमिदं धर्मलिङ्गमिति कारणे कार्यों पचाराद् दिपर्यायाऽभिधेयत्वेन तत्र नामनिक्षेपाप्रवृत्तेः / न द्वितीयः / प्रसि रजोहरणमित्युच्यते। द्धनिक्षेपान्तराविषये तत्राप्रसिद्धनिक्षेपकल्पने तदियत्ताक्षतिप्रस-1 उक्तंचङ्गादिति चेत्। "जत्थयजं जाणिज्जा, णिक्खेवं णिक्खिवे णिरवसेसं / ' "हरइ रयं जीवाणं, बज्झं अभिंतरं च जं तेणं। इत्यनेन यथापरिज्ञानं निक्षेपान्तरकल्पनाया अप्यनुमतत्वेन दोषाभा- रयहरणं ति पवुच्चइ, कारणकजोवयाराओ / / 1 / / वात् / अस्तु वा तत्राभिप्रायिकी स्थापनैव, भवतु वा वैज्ञानिको संजमजोगा इत्थं, रओहरा तेसि कारणं जेणं। भावनिक्षेपः, एवं गढ़ापदेन तीरे गङ्गाभेदाभिव्यक्तिवृत्त्या गङ्गागतशैत्यपा- स्यहरणं उवयारा, भन्नइ तेणं रओकम्मं / / 2 / / ' वनत्वाऽऽदिधर्मयोगस्याभिव्यञ्जयितुमशक्यत्वात्, तत्प्रपञ्चितमल अनु भयजं यदन्वर्थरहित, समयाप्रसिद्धं च / यथा कस्यापि कारचुडामणिवृत्तावस्मदादिभिः। तत् किं शक्तिलक्षणाऽन्यतरवृत्तिनिर- पुसः शौर्यक्रो ऽदिगुणासंभवे न उपचाराभावे सिंह इति पेक्षशब्दसङ्केतविषयत्वमेव नामलक्षणं स्थितमन्यार्थ इत्यत्र अनेकार्थ- | नाम / यद्वादे वा एनं दे यासु रिति व्युत्पत्ति निमित्तासं भदे
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________________ णाम 1966 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णामकम्म(ण) देवदत्त इति नाम / एवं पिण्ड इति वर्णाऽऽवलीरूपमपि नाम गौणाऽऽदिभेदाचतुर्दा / तत्र यदा बहूनां सजातीयानां विजातीयानां च कठिनद्रव्याणामेकत्र पिण्डने पिण्ड इति नाम प्रवर्तते, तद् गौणम्, व्युत्पत्तिनिमित्तस्य वाच्ये विद्यमानत्वात् / यदा तु समयपरिभाषया पानीयेऽपि पिण्ड इति नाम प्रयुज्यते तदा समयजम्, लोके हि कठिनद्रव्याणामेकत्र संश्लेषे पिण्ड इति प्रतीतं, न तु द्रवद्रव्यसं-घाते, ततश्च पिण्डनं पिण्ड इति व्युत्पत्त्यघटनात् / पिं०। नाम च यथार्थाऽऽदिभेदात्रिविधम् / तद्यथा-यथार्थम्, अयथार्थम्. अर्थशून्य च। तत्र यथार्थम-प्रदीपाऽऽदि. अयथार्थम्-पलाशाऽऽदि, अर्थशून्यम्डित्थाऽऽदि / स्था०१ ठा०। विशे० नामस्थापनाद्रव्यमित्येव द्रव्यार्थिकस्य निक्षेपः ।सम्म०१ काण्ड। से किं तं णामे ? णामे दसविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगणामे, दुणामे, तिणामे, चउणामे, पंचणामे, छणामे, सत्तणामे, अट्ठणामे, नवणामे, दसणामे। (णामे इत्यादि) इह जीवगतज्ञानाऽऽदिपर्यायेऽजीवगतरूपाऽ5दिपर्यायानुसारेण प्रतिवस्तु भेद नमति तदभिधायकत्वेन प्रवर्तत इति नाम, वस्त्वभिधानमित्यर्थः / उक्त च- ''जं वत्थुणोऽभिहाणं, पजयभेयाणुसारियं णामं / पइभेअंजं नमई, पइभेअं जाइयं भणि // 1 // " अनु०। (एकनामाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) विचित्र-- पर्यायर्नमयति गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम / कर्म०६ कर्म०। पं०सं०। स्था०। दशा०। प्रव०। गत्यादिहेतौ कर्मणो मूलप्रकृतिभेदे, कर्मा णामकम्म(ण) न०(नामकर्मन्) क०स०। जीवानां विचित्रपरिणामकर्मणामहेतौ कर्मभेदे, कर्म०। तद् द्विविधम्णामकम्मे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-सुभणामे चेव, असुभणामे चेव। विचित्रपर्यायैर्नमयति परिणमयति यजीवं तन्नाम। एतत्स्वरूपंच"जह चित्तयरो निउणो, अणेगरूवाइँ कुणइ रूवाई। सोहणमसोहणाई, चक्खुमचक्रोहिँ वन्नेहिं / / 1 / / तह नाम पि हुकम्म, अणेगरूवाइँ कुणइ जीवस्स। सोहणमसोहणाई, इटाणिहाणि लोयस्स" // 2 // इति / शुभं तीर्थकराऽऽदि, अशुभमनादेयत्वाऽऽदीति। स्था०२ ठा०४उ०। नामकर्माभिधित्सुराह ..........नामकम्म चित्तिसमं। बायालतिनवइविहं, तिउत्तरसयं च सत्तट्ठी।।२३।। (नामकम्म चित्तिसम इत्यादि) नामकर्म भवति चित्रिसम, चित्रं कर्म, तत् कर्तव्यतया विद्यते यस्य स चित्री चित्रकरः, तेन समं सदृश चित्रिसमम् / यथा हि चित्री चित्र चित्रप्रकारं विविधवर्णकः करोति, तथा नामकर्मापि जीवम्-नारकोऽयम्, तिर्यग्योनिकोऽयम, एकेन्द्रियोऽयम्, द्वीन्द्रियोऽयमित्यादिव्यपदेशैरनेकधा करोतीति चित्रिसममिदमिति।। एतचानेकभेदम् / कथमित्याह-(बायालतिनवइविहं तिउत्तरसयं उ सत्तट्टि ति) अत्र विधाशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् द्विचत्वारिंशद्विधम् / यद् यात्रिनवतिविधम्, यदि वा-त्र्युत्तरशतविधम्, अथवा-सप्तषष्टिविधम् / चशब्दः समुच्चये व्यवहितसंबन्धश्च, स च तथैव योजितः / / 23 / / कर्म०१ कर्मन नामकम्मे बायालीसविहे पण्णत्ते। तं जहा-गइनामे, जाइनामे, सरीरनामे, सरीरवंगनामे, सरीरोबंधणनामे, सरीरसंघायणनामे, संघयणनामे, संठाणनामे, वन्ननामे, गंधनामे, रसनामे, फासनामे, अगुरुलहुयनामे, उवघायनामे, पराघायनामे, आणुपुव्वीनामे, उस्सासनामे, आयवनामे, उज्जोयनामे, विहगगइनामे, तसनामे, थावरनामे, सुहुमनामे,बायरनामे, पज्जत्तनामे, अपञ्जत्तनामे,साहारणसरीरनामे, पत्तेयसरीरनामे, थिरनामे, अथिरनामे, सुभनामे, असुभनामे, सुभगनामे, दुब्भगनामे, सुस्सरनामे, दुस्सरनामे, आएजनामे, अणाएजनामे, जसो कित्तिनामे, अजसोकित्तिनामे, निम्माणनामे, तित्थगरनामे / स० ४२सम अथ नामकर्मणो द्विचत्वारिंशत भेदान् प्रचिकटयिषुराहगइजाइतणुउवंगा, बंधणसंघायणाणि संघयणा। संठाणवन्नगंधर-सफासअणुपुट्विविहगगई।॥२४॥ इह नाम्नः प्रस्तावत् सर्वत्र गत्यादिषु नामेत्युपस्कारः कार्यः। तथाहिगतिनाम, जातिनाम, तनुनाम, उपाङ्गनाम, बन्धननाम, सङ्घातननाम, संहनननाम, संस्थाननाम, वर्णनाम, गन्धनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, आनुपूर्वीनाम, विहायोगतिनामेति / कर्म०१ कर्म०। उक्ता नामकर्मणो द्विचत्वारिंशद्भेदाः / अथ तस्यैव त्रिनवतिभेदान् प्ररूपयितुकामो गत्यादिपदाना पिण्डप्रकृतिसंज्ञकानां मध्ये येन पदेन यावन्ती भेदाः पिण्डिता वर्तन्ते, तान् भेदान् तेषामाह-- गइयाईण उ कमसो, चउ पण पण ति पण पंच छ च्छकं / पण दुग पणऽट्ठ चउ दुग, इय उत्तरभेयपणसट्ठी।।२६।। गत्यादीनां पिण्डप्रकृतीनां पूर्वप्रदर्शितस्वरूपाणां पुनः क्रमशः क्रमेण, यथासंख्यमितियावत्, चतुरादयो भेदा भवन्तीति वाक्यार्थः / तथाहिगतिनाम चतुर्धा, जातिनाम पञ्चधा, तनुनामपञ्चधा, उपाङ्गनाम विधा, बन्धननाम् पञ्चधा, सनातननाम पञ्चधा, संहनननाम षोढा, संस्थाननाम घोढा, वर्णनाम पञ्चधा, गन्धनाम द्वेधा, रसनाम पञ्चधा, स्पर्शनाम अष्टधा, आनुपूर्वी नाम चतुर्द्धा, विहायोगतिनाम द्वधा / एतेषां सर्वमीलने भेदाग्रमाह-(इय त्ति) इत्यमुना चतुरादिभेदमीलनप्रकारेणोत्तरभेदानां पञ्चषष्टिरिति // 26 // अडवीसजुया तिनवइ, संते वा पनरबंधणे तिसयं। बंधणसंघायगहो, तणूसु सामन्नवन्नचऊ // 30 / / एषा पूर्वोक्ता पञ्चषष्टिरष्टाविंशतियुता प्रत्येकप्रकृत्यशाविंशत्या सह मीलने त्रिभिरधिका नवतिस्विनवतिर्भवति। सा च कोपयुज्यत इत्याह-(संतेत्ति) प्राकृतत्वात् सत्तायां सत्कर्म प्रतीत्य बोद्धव्येत्यर्थः / वाशब्दो विकल्पार्थो व्यवहितसंबन्धन / स चैवं योज्यतेपश्चदशबन्धनैस्त्रिशतं वा पञ्चदशसंख्यैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैर्बन्धनैः प्रदर्शितत्रिनवतिमध्ये प्रक्षिप्तस्विभिरधि
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________________ णामकम्म(ण) २०००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णामगुत्त के शतं त्रिशतं वा, सत्तायामधिक्रियत इति शेषः / अथ त्रिनवतिमध्ये त्वमिश्रवर्जाः षड् विंशतिः, आयुषि चतस्रः, नाम्नि भेदान्तरसंभवेऽपि पञ्चदशाना प्रकृतीनां प्रक्षेपेऽष्टोत्तरं शतं भवतीति चेत् ।उच्यतेया प्रदर्शितयुक्त्या सप्तषष्टिः,गोत्रे द्वे, अन्तराये पश्चेत्येतद् विंशत्युत्तरं वक्ष्यमाणाः पञ्चदश बन्धननामप्रकृतयस्तासु मध्यात्सामान्यत / प्रकृतिशतं बन्धेऽधिक्रियते। एतदेव सम्यक्त्वमिश्रसहितं द्वाविंशत्युत्तरऔदारिकाऽऽदिबन्धनपञ्चकस्य त्रिनवतिमध्ये पूर्वप्रक्षिपत्वाच्छेषाणां प्रकृतिशतमुदये, उदीरणायां च / सत्तायां पुनः शेषकर्मणां पञ्चपञ्चाशद् दशानां प्रक्षेपे त्रिशतमेव भवतीति न कश्चिद् विरोधः / सूत्रे च- नाम्नः त्रिनवतिरित्यष्टाचत्वारिंशं शतम्। यद्वाशेषकर्मणां पञ्चपञ्चाशद् "पनरबंधणे' इत्यत्र विभक्तिवचनव्यत्ययः प्राकृतत्वात् / इत्युक्ता नाम्नस्त्युत्तरशतमित्यष्टापञ्चाशं शतमधिक्रियते, इत्येतदेव मनसिनामकर्मणः त्रिनवतिस्त्र्युत्तरशतं च भेदानाम् / अथ सप्तषष्टिभेदानाह- कृत्याऽऽह-(बंधुदए सत्ताए इत्यादि) इह शतशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् (बंधणसंघायगहो तणूसु ति) बन्धनानि च पञ्चदश सङ्घाताश्च यथासंख्यं बन्धे विंशं शतम्, उदये उपलक्षणतवादुदीरणायां च द्वाविंश संघातनानि पञ्च बन्धनसंघातास्तेषांग्रहणं ग्रहो बन्धनसंघातग्रहः। तनुषु शत, सत्तायामष्टपञ्चाशं शतम्; उपलक्षणत्वादष्टाचत्वारिंशं शतमिति शरीरेषु तनुग्रहणेनैव बन्धनसंघाता गृह्यन्ते, न पृथग् विवक्ष्यन्त इत्यर्थः / भावना सुकरैव।।३१।। कर्म०१ कर्म०। उत्त०। तथा-(सामनवन्नवउ ति) सामान्यं कृष्णनीलाऽऽद्य विशेषितं इदानीं वर्णाऽऽदिचतुष्कोत्तरविंशतिभेदानां शुभाशुभवर्णेनोपलक्षितं चतुष्कं सामान्यवर्ण चतुष्क, गृह्यत इति शेषः / __ त्वयोरभिधित्सया प्राऽऽहअयमत्राऽऽशयः--इह सप्तषष्टिमध्ये औदारिकाऽऽदितनुपञ्चकमेव गृह्यते, नीलकसिणं दुगंधं, तित्तं कडुयं गुरुं खरं रुक्खं / नतद् बन्धनानि तत्संघातनानि च, यत औदारिकतन्वा स्वजातीयत्या सीयं च असुहनवगं, इक्कारसगं सुभं सेसं / / 41 // दौदारिकतनुसदृशानि तद्बन्धनानि तत्संघाताश्च गृहीताः। एवं वैक्रिया नीलकृष्ण नीलकृष्णाऽऽख्ये कर्मणी अशुभे, दुर्गन्धनाम 'तिक्तऽऽदितन्वाऽपि निजनिजबन्धनसंघाता गृहीता इति न पृथगेते पञ्चदश बन्धनानि पञ्च संघाता गण्यन्ते / तथा-वर्ण गन्धरस-स्पर्शानां कटुकमिति तिक्तकटुके रसनाम्नी, गुरु खरं रूक्षं शीत चेति चत्वारि स्पर्शनामानि / एतानि च सर्वाण्यपि समुदितानि किमुच्यते? इत्याहयथासंख्यं पञ्चद्विपञ्चाष्टभेदेर्निष्पन्नां विंशतिमपनीय तेषामेव सामान्य 'अशुभनवकम्' नव प्रकृतयः परिमाणमस्य प्रकृतिवृन्दस्य तन्नक्कम, वर्णगन्धरसस्पर्शलक्षणं चतुष्कं गृह्यते, ततश्चानन्तरोदितत्र्युत्तरशताद्वाऽऽदिषोडशक बन्धनपशदशक संघातपशक लक्षणाना अशुभं च तन्नवकं चाशुभनवकम्। 'एकादशकम् एकादशप्रकृतिसमूह रूपम्, यथा--रक्तपीतश्वेतवर्णाः, सुरभिगन्धो, मधुराऽऽम्लकषायरसाः, षट्त्रिंशत्प्रकृतीनामपसारणे सति सप्तषष्टिर्भवतीति॥३०॥ लघुमृदुरिनग्धोष्णस्पर्शा इति शुभं शुभविपाकवेद्यत्वात् शुभस्वरूपम्। एतदेवाऽऽह कीदृक्षं तदित्याह--'शेषम्,' कु वर्णनवकादवशिष्टं, कोऽर्थः?इय सत्तट्ठी बंधो-दए य न य सम्ममीसया बंधे। कुवर्णनक्काच्छेषा एकादश वर्णाऽऽदिभेदाः शुभवर्णकादशकमुच्यत इति बंधुदए सत्ताए, वीसदुवीसऽट्ठवन्नसयं // 31 / / / / 41 / / कर्म०१ कर्म०। ननु च शरीरपर्याप्त्यैव शरीरं भविष्यति, किं इति पूर्वोतप्रकारेण सप्तषष्टि मकर्मप्रकृतीना भवति / सा च प्रागभिहितेन शरीरनाम्ना? नैतदस्ति, साध्यभेदात् / तथाहिवोपयुज्यते? इत्याह-(बंधोदए यत्ति) बन्धश्च उदयश्च बन्धोदयं, तस्मिन् शरीरनाम्नो जीवेन गृहीतानां पुद्गलानामौदारिकाऽऽदिशरीरत्वेन बन्धोदर्य, बन्धे चोदये च सप्तषष्टिर्भवति, च-शब्दादुदीरणायां च परिणतिः साध्या, शरीरपर्याप्तः पुनरारब्धशरीरस्य परिसमाप्तिरिति। सप्तषष्टिः / अथ बन्धनसनातनवर्णाऽऽदिविशेषाणां विवक्षावशादेव अथ प्रागुक्तेनोच्छवासनाम्नैवोच्छुसनस्य सिद्धत्वादिहोच्छ्वासपर्याप्ति-- बन्धेनाधिकार इत्युक्तम्, संप्रति ययोः प्रकृत्योः सर्वथैव बन्धो न भवति, निविषयेति / नैवम्,सतीमप्युच्छासनामोदयेन जनितामुच्छ्रसनलते आह-(न य सम्ममीसया बंधे त्ति) न च नैव सम्यक त्वमिश्रके बिधमात्मशक्तिविशेषरूपामुच्छ्रासपर्याप्तिमन्तरेण व्यापारयितुं न बन्धेऽधिक्रियेते। अयमभिप्रायः--सम्यक्त्वमिश्रयोर्बन्ध एव न भवति, शक्नुयात्। यथाहि-शरीरनामोदयेन गृहीता अप्यौदारिकाऽऽदिपुद्गलाः किं तु मिथ्यात्वपुद्गलानामेव। जीवः सम्यक् त्वगुणेन मिथ्यात्वरूपताम शक्तिविशेषरूपां शरीरपर्याप्ति विना शरीररूपतया परिणमयितुं न पनीय केषाञ्चिदत्यन्तविशुद्धिमापादयति, अपरेषां त्वीषद् विशुद्धि, शक्यन्त इति शरीरनाम्नः पृथगिष्यते शरीरपर्याप्तिः, एवमत्राप्युच्छासके चित्पुनर्मिथ्यात्वरूपा एवावतिष्टन्ते, तत्र येऽत्यन्तविशुद्धास्ते नाम्नः पृथगुच्छ्रासपर्याप्तिरेष्टव्या, तुल्ययुक्तित्वादिति // 48 // कर्म०१ सम्यक्त्वव्यपदेशभाजः, ईषद् विशुद्धा मिश्रव्यपदेशभाजः, शेषा कर्म०। स० श्रा० आचा०। पं०सं०। (यत्र गुणस्थानके यावत्यः प्रकृतयः मिथ्यात्वमिति। संवेधमाश्रित्य भवन्ति, ताः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 313 पृष्ठ दर्शिताः) उक्तं च णामकरण न०(नामकरण) अभिधानमात्रकरणे, आ०म०१ अ०२ "सम्यक्त्वगुणेन ततो, विशोधयति कर्म तत्समिथ्यात्वम्। खण्ड। "नाम्नाऽन्वर्थेन कीर्तिः स्यात्।'' नाम्नाऽन्वर्थेन गुणनिष्पन्नेन यद्वच्छगणप्रमुखैः, शोध्यन्ते कोद्रवा मदनाः॥१॥ कीर्तिः स्यात् तत्कीर्तनमात्रादेव शब्दार्थप्रतिपत्तेर्विदुषां प्राकृतजनस्य यत्सर्वथाऽपि तत्र विशुद्धं तद्भवति कर्म सम्यक् त्यम्। च मनःप्रसादाद्यथा भद्रबाहुसुधर्मस्वामिप्रभृतीनाम्। द्वा०२८ द्वा०ाना मिश्रं तु दरविशुद्धं, भवत्यशुद्धं तु मिथ्यात्वम्॥२॥' णामगुत्त न०(नामगोत्र) नाम्ना गोत्रमिति प्रसिद्धं यत्कर्म गोत्राऽभिधानं उदयोदीरणासत्तासुपुनः सम्यक्त्वमिश्रके अप्यधिक्रियेते। एवं च सति / कर्मेत्यर्थः / कल्प०२ क्षण / अन्वर्थयुक्ते नाम्नि, इहान्यर्थयुक्तं नाम ज्ञानाऽऽवरणे पञ्च, दर्शनाऽऽवरणे नव वेदनीये द्वे, मोहनीये सम्यक | सिद्धान्तपरिभाषया नामगोत्रमित्युच्यते / सू०प्र०१६ पाहु०रा०l
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________________ णामणय 2001 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णामप्पमाण णामणय पुं०(नाभनय) नामरूपमेव सर्व वस्त्वित्येवं सिद्धान्तं व्यवसिते संसयविवजया वाऽणज्झवसाओऽहवा जदिच्छाए। नये, (नयो०) होजत्थे पडिवत्ती, न वत्थुधम्मो जया नामं // 62 / / नामनयमाह--"यतो नाम विना नास्ति, वस्तुनो ग्रहणं ततः / नामैव यदा वस्तुधर्मो नाम नेष्यते, तदा वक्त्रा घटशब्दे समुचारित श्रोतुः तद् यथा कुम्भो, मृदेवान्यो न वस्तुतः / / 1 / / '' तथाहि यत्प्रतीतावेव 'किमयमाह? इत्येव संशय एव स्यात्, न घटप्रतिपत्तिः। अथवा घटशब्दे यस्य प्रतीतिः, तदेव तस्य स्वरूपम्। यथा मृत्प्रतीतावेव प्रतीयमानस्य प्रोते पटप्रतिपत्तिलक्षणो विपर्ययः स्यात् / अथवा-'न जाने घटस्य मृदेव रूपं, नामप्रतीतावेव प्रतीयते वस्तु / न च विनाऽपि नाम किमप्यनेनोक्तम् इति चित्तव्यामोहेन वस्त्वप्रतिपत्तिरूपोऽनध्यवसायः निर्विकल्पकाविज्ञानेन वस्तुप्रतीतिरस्तीति हेतोरसिद्धता, असर्वसंविदा स्यात् / यदि वा-यदृच्छयाऽर्थ प्रतिपत्तिर्भवेत्-कदाचिद् घटस्य, वाग्रपत्वात्। तथा च भर्तृहरिः-- "वाग्रूपता चे बोधस्य, व्युत्क्रामेतेह कदाचित् पटस्य, कदाचित्तु स्तम्भस्येत्यादिः न चैवं भवति, तस्माद् शश्वती। न प्रकाशः प्रकाशेत, सा हि प्रत्यवमर्शिनी ||1 // यदि च वस्तुधर्म एव नाम / इति गाथाऽर्थः / / 6 / / नामरूपमेव वस्तु न स्यात्, ततश्च तदवगतावपि वस्तुसंशयाऽऽदिनाम अपि चन्यतममेव स्यात् तथा च पूज्याः- "संसयविवज्जया वाऽणज्झ वत्थुस्स लक्खलक्खण-संववहाराऽविरोहसिद्धीओ। वसाओऽहवा जदिच्छाए। होज्जऽत्थे पडिवत्ती, न वत्थुधम्मो जया णामं अभिहाणाऽहीणाओ, बुद्धी सद्दो य किरिया य॥६३॥ 62" (विशे०) उत्त०१ अ०॥ वस्तुनो जीवाऽऽदेः, किम्? इत्याह-अभिधानाधीना नामाऽयत्ताः। अस्मिंश्च नामाऽऽदिरूपचतुष्टये नामनयः प्रधानं नामैव काः? इत्याह-लक्ष्यच,लक्षणंच, संव्यवहारश्च लक्ष्यलक्षणसंव्यवहाराः, मन्यते। तत्र ये सुगतमतानुसारिणो "न ह्यर्थे शब्दाः तेषामविरोधेनाऽविपर्ययेण सिद्धयः प्रतिष्ठाः। तत्र लक्ष्यं जीवत्वाऽऽदि, सन्ति'' इत्यादिवचनाद्नाम्नो वस्तुधर्मत्वमेव लक्षणमुपयोगःह, संव्यवहारोऽध्येषणप्रेषणाऽऽदिः। तथा बुद्धिशब्दनेच्छन्ति, तान् प्रति नामनयः प्राऽऽह क्रियाश्च'अभिधानाऽधीनाः' इत्यत्राऽपि संबध्यते। तत्र बुद्धिर्वस्तुनिश्चयवत्थुसरूवं नामं, तप्पञ्चयहेउओ सधम्म व्य / रूपा, शब्दो घटाऽऽदिषु निरूपः, क्रिया चोरक्षेपणाऽवक्षेपणाऽऽदिका। वत्थु नाऽणमिहाणा, होजाऽभावो विवाऽवचो।।६१।। तस्मादभि व्यक्त वस्तु सत्, तदाऽऽयत्ताऽऽत्मलाभत्वात् सर्वव्यवहारनामनयस्यायमभिप्रायः-वस्तुनः स्वरूपं नाम, तत्प्रत्ययहेतुत्वात्, मानचसि गाथाऽर्थः / / 63 / / विशे०। स्वधर्भवत, इह यद् यस्य प्रत्ययहेतुस्तत् तस्य धर्मः, यथा घटस्य / णामणिप्फण्ण पुं०(नामनिष्पन्न) गौणाऽऽदिनामनिष्पन्नं / दश० स्वधर्मा रूपाऽऽदयः, यचयस्य धर्मो न भवति न तत् तस्य प्रत्ययहेतुः, / नि०च०१उन यथा घटस्य धर्माः पटस्य, संपद्यते च घटाभिधानाद् घटे संप्रत्ययः, णामणिमित्तत्त न०(नामनिमित्तत्व) नामनिमित्त नामहेतुकं तद्भातस्मात् तत् तस्य धर्मः, सिद्धश्व हेतुरावयोः, घटशब्दात् पटाऽऽदिव्य वस्तत्वम् / नामप्रतिपाद्यगुणाऽऽत्मकत्ये, षो०१२ विव०। दच्छेदेन घट इति प्रतिपत्त्यनुभूतेः। सर्व च वस्तु नामरूपतां न णामधेज न०(नामधेय) नामेव नामधेयम् / "नामरूपभागाद् धेयः" व्यभिचरतीति दर्शयन्नाह-(वत्थुमित्यादि) यदि वस्तुनो नामरूपता न // 7 / 2 / 158|| इति (हैम०) स्वार्थे धेयप्रत्ययः। सू०प्र०१०पाहु०१३ स्यात्, तदा तद् वस्त्वेव न भवेदिति संबन्धः। कुतः? इत्याह पाहु01 प्रश्रका स्था०ा प्रशस्ते नामनि, स्था०६ ठा० दश०। नि०५०। अनभिधानादभिधानरहितत्वादित्यर्थः / अवाच्योऽभिधानरहितत्वे नं०। ज्ञाता पर्यायध्वनौ, अनु०॥ नाऽनभिधेयो योऽसावभावः षष्ठभूताऽऽदिलक्षणस्तद्वदिति दृष्टान्तः। इह णामधेजवई स्वी०(नामधेयवती) प्रशस्तनामधेयवत्याम, ज्ञा० 1 यदभिधानरहितं तद् वस्त्वेव न भवति, यथाऽभिधानरहितत्वेनाऽवाच्यः षष्ठभूतलक्षणोऽभावः; अभिधानरहितं च वस्त्वभ्युपगम्यते परैः, श्रु०१ अ० ततोऽवस्तुत्वमेवास्य भवेद, अवस्तुत्वे च कुतस्तत्प्रत्ययहेतुत्वलक्षणस्य णामपञ्चयफड्डुगपरूवणा स्त्री०(नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा) हेलोवृत्तिः, येनाऽनैकान्तिकता स्यात्? तत्र तवृत्तौ वा तस्यापि नामप्रत्ययस्य बन्धननामनिमित्तस्य शरीरप्रदेशस्पर्धकस्य प्ररूवस्तुत्वमेव भवेत्, स्वप्रत्ययजनकत्वात्, घटाऽऽदिवदिति। विपक्ष एव पणायाम, क०प्र० नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणायां षडनुयोगद्वाराणि / वृत्तेर-भावाद विरुद्धताऽप्यसंभविनीति। तस्माद् वस्तुधर्म एव नामेति तद्यथा-अविभागप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरस्थितम्। नच 'नधास्तीरे गुडभृतशकटम्' इत्यादिशब्दात् प्रवृत्त-स्य प्ररूपणा, वर्गणापुद्गलस्नेहाविभागसकलसमुदायप्ररूपणा, स्थानप्ररूकदाचिद् वस्त्वप्राप्तेरवस्तुधर्मता तस्येत्याशङ्कनीयम्, प्रत्य–क्षाऽऽदि पणा चेति। (23 गा०) क०प्र०ा (एतत्सर्व बंध' शब्दे स्पष्टीभविष्यति) प्रमाणानामपि तत्प्रसङ्गात-तेभ्योऽपि हि प्रवृत्तस्य कदाचिद वस्त्वप्राप्तेः। णामपुरिस पु०(नामपुरुष) सज्ञामात्रेण पुरुष, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। अबाधितेभ्यस्तेभ्यः प्रवृत्ती भवत्येवाऽर्थप्राप्तिरिति चेत् तदेतदिहापि / पुरुषतिनाम्नि, स्था०३ ठा०१ उ०। समानम्, सुविवेचितादाप्तप्रणीतशब्दाद् वस्तुप्राप्तेस्त्राऽप्यवश्यंभावि Jणामप्पमाण न०(नामप्रमाण) अर्थाभिधायके शब्दे, (अनु०) त्वात्, इत्यादि बहन वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात्, अथ नामप्रमाणम्अन्यत्रोक्तत्वाच्च / इति गाथाऽर्थः // 61 / / से किं तं णामप्पमाणे ? णामप्पमाणे जस्स णं जीवस्स वा किंच अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदु
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________________ णामप्पमाण 2002 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायज्जियधण भयाण वा पमाणे त्ति नाम कज्जइ, से तं णामप्पमाणे। 532 पृष्ठेद्रष्टव्यः) अथ किं तन्नामप्रमाणम्?-नामैव वस्तुपरिच्छेदहेतुत्वात्प्रमाणं | णामुदय पुं०(नामोदय) कालोदाय्यादीनामन्ययूथिकानामन्यतमेनामप्रमाणम्, तेन हेतुभूतेन किं नाम भवतीति प्रश्नाभिप्रायः। एवमन्य- | ऽन्ययूथिके, भ०७ श०१० उ०। त्रापि भावनीयम् अत्रोत्तरमुच्यतेयस्य जीवस्य वाऽजीवस्य वा जीवानां | णामोक्कसिअ (देशी) कार्य , देवना० 4 वर्ग। वाऽजीवानां वा तदुभयस्य वा तदुभयानां वा यत्प्रमाणमिति नाम क्रियते णाय पुं०(न्याय) इण' गतौ निपूर्वः। नितरामीयते गम्यते मोक्षो-ऽनेनेति तन्नामप्रमाण न तत् स्थापनाद्रव्यभावहेतुकम्, अपि तु नाममात्रविर न्यायः। व्यवहाराध्ययने, व्य०१ उ० श्रुतोपदेशे, व्य०३ उ०ा अभीष्टार्थचनमव तत्र हेतुरिति तात्पर्यम्। अनु०। सिद्धेः सम्यगुपायत्वाद् न्यायः / अथवा-जीवकर्मसंबन्धापनयनाद् णामभेय पुं०(नामभेद) संज्ञाविशेष, द्वा०१६ द्वा०। न्यायः। आवश्यके, यथा कारुणिकैदृष्टो न्यायो द्वयोरर्थिनोभूमिद्रव्याऽऽणाममुद्दा स्त्री०(नाममुद्रा) नामाङ्कितायां मुद्रायाम, उपा०१ अ० दिसंबन्धिविवादं चिरकालीनमप्यपनयति, एवं जीवकर्मणोरनादिका"अभयस्स कहियं नाममुद्दा।" आव०६ अ०॥ लीनमप्याश्रयायिभावसंबन्धमपनयतीत्यावश्यकमपि न्यायं उच्यते। णामय पुं०(नामक) विनयालङ्कतो गुर्वादावादेशदानोद्यतेऽगदा वाऽऽत्मानं अनु०। विशेof "अच्चेति लोगसंजोग, एस णाए एवुचई।" योऽयं नामयतीति नामकः। सदा गुर्वादौ प्रह्ने साधौवा, सूत्र०१ श्रु०१६ उ० लोकसंयोगातिक्रम एष न्यायः-एष सन्मार्गो मुमुक्षूणामयमाचारः णामवग्ग पुं०(नामवर्ग) नामप्रकृतिसमुदाये, जी०२ प्रति०। क०प्र०) प्रोच्यतेऽभिधीयते / अथवा-परमात्मानं मोक्षं नयतीति छान्दसत्वात् णामवीर पुं०(नामवीर) यस्य जीवस्याजीवस्य वाऽन्वर्थरहितं इति नाम कतरि घञ्न्यायः। यो हि त्यक्तलोकसंयोग एष एव परात्मनो मोक्षस्य क्रियते स नामवीरः / नामनामवतोरभेदाद् त्तस्नी वीरश्च नामवीरः / न्यायः आचा०१श्रु०२ अ०६ उ०। नीयते संवित्तिं प्राप्यते वस्त्वनेनेति वीरभेदे, सू०प्र०२ पाहुन न्यायः। प्रस्तुतार्थसाधके प्रमाणे, विशे०। द्विजक्षत्रियविट्शूद्राणां *एवमसत्य न०। नामाभिधानं तत्सत्यं नामसत्यम्। नाण सत्ये, यथा स्ववृत्त्य-नुष्ठाने, आव०६ अ०। उपपत्तौ, पञ्चा०४ विवा अविचलितरूपे कुलमवर्धयन्नपि कुलवर्धन उच्यते, एवं धनवर्धन इति। स्था० 10 ठा०। मार्गे, षो०१६ विव०। अतिदेशे, प्रतिका न्यायनिर्णायके, औ०। ज्ञा०। ध० प्रज्ञा नं०। 'जात' शब्दार्थे (दृष्टान्ते), नि०चू०१० उ०। णामसम न०(नामसम) नामाभिधान, तेन समम् / ग०४ अधिका णायकारि(ण) त्रि०(न्यायकारिन्) उपपत्तिकारिणि, "एवं आलोइय आ०म०। आ०चूला स्वकीयेन नाम्ना समे, यथा स्वनाम शिक्षितं तथा पडिकंतस्स जो सामाइयं देति सो णायकारी" आ०चू० 10 // तदप्यावश्यकम्। विशेष णायकुमार पुं०(ज्ञातकुमार) 'णातकुमार' शब्दार्थे , ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। णामसमरण न०(नामस्मरण) चतुविशतिस्तवाऽऽदिनामानु-चिन्तने, णायकुलचंदपुं०(ज्ञातकुलचन्द्र) 'णातकुलचंद' शब्दार्थे , कल्प०५ क्षण! नाम्नः स्मरणेन नामिस्मरणे तद्गुणसमापत्त्या फलम्। प्रति णायखंड न०(ज्ञातखण्ड) 'णातखंड' शब्दार्थे, स्था०१० ठा०। णामसव्व न०(नामसर्व) नाम च तत्सर्व च नामसर्वम्। सचेतनाऽऽदेर्वा णायग पुं०/स्त्री०(ज्ञातक) पूर्वसंस्तुते, व्य० 6 उ०। मातापित्रादौ, वस्तुनो यस्य सर्वमिति नाम तन्नामसर्वम्, नाम्ना सर्व, सर्वमिति वा नाम [ सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। स्वजने, प्रज्ञायमाने, नि० चू०८ उ०। सूत्रा यस्येति विग्रहाद् नामशब्दस्य पूर्वनिपातः। स्था० 4 ठा०२ उ०। *नायक त्रि०। प्रभौ, यथा राष्ट्रस्य राष्ट्रमहत्तरकः स०३० समादशा०| णामसुह न०(नामशुभ) तीर्थकराऽऽदिसंबन्धिनि नामकर्मणि, दश० नगरकटकाऽऽदिप्रधाने, औ०। अधिपतौ, स्था० 5 ठा०१ उ० प्रणेतरि, 10 सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। स्वामिनि, स०१ समका व्याकर्मणां नेतरि, भ० णामाणंतय न०(नामानन्तक) अनन्तकमिति नामभूतायां वर्णा- 20 श०२ उ० व्य०। चक्रवादी राजनि, औला प्रधाने, आव०५ अ०। नुपूर्व्याम, यस्य वा सचेतनाऽऽदेवस्तुनोऽनन्तकमिति नाम तस्मिन्, ज्ञा०ा नयति वृद्धिं प्रापयति यः स नायकः / प्रश्न०५ सम्ब० द्वार / स्था० 10 ठा०। ज्ञानाऽऽदीनां प्रापके, व्य०३ उ०। सूत्रका णामित्ता स्त्री०(नमयित्वा) नतिं कारयित्वेत्यर्थे, 'णामित्ता गहियाणि | णायज्जियधण न०(न्यायार्जितधन) असिमषीकृतिवाणिज्याऽऽधुचितपच्छत्तगाणि।' नि०चू० 130 // कलया परवञ्चननिरपेक्षतयाऽर्जिते द्रव्ये, द्रव्या०६ अ० न्यायार्जितं णामिय न०(नामिक) वाचके पदे, यथा 'अश्व' इत्यादि / आ०म० / धनं गृहिधर्म:१अ०रखण्ड। अनुग तत्र सामान्यतो गेहि-धर्मो न्यायार्जितं धनम्। (5) णामिंदपुं०(नामेन्द्र) यथार्थसंज्ञेइन्द्रे, अथवा-इन्द्रार्थशून्यत्वाद् नाममात्रे (न्यायर्जितं धनमित्यादि) तत्र स्वामिद्रोहमित्रद्रोहविश्वइन्द्रे, वृ०"केवलसन्ना उनामिंदा।" केवला एका संज्ञा तदर्थनिरपेक्षा, | सितवानचौर्यादिगार्थोिपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायस नामेन्द्रः। बृ०१ उ०। स्था०। (विस्तरस्तु 'इंद' शब्दे द्वितीयभागे भूतः स्वस्ववर्णानुरूपः सदाचारो न्यायः, तेनाऽर्जितं संपादित
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________________ णायज्जियधण 2003 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायविहि धनम्-अयमेव धर्मः / न्यायार्जित हि धनमशङ्कनीयतया स्वशरीरेण उत्क्षिप्तैकषादौ मेघकुमारजीवहस्तीवेति / एतदर्थाऽभिधायकं सूत्रमतत्फलभोगाद् मित्रस्वजनाऽऽदौ संविभागकरणाचेह लोकहिताय / धीयमानत्वादध्ययनमुक्तम्; एवं सर्वत्र 1, तथा सङ्घाटक, श्रेष्ठिचौरयदाह-'सर्वत्र शुचयो धीराः, स्वकर्मबलगर्विताः / स्वकर्मनिन्दिता- योरेकबन्धनबद्धत्यम्, इदमप्यभीष्टार्थज्ञापकत्वाद्ज्ञातम्। एवमौचित्येन ऽऽत्मानः, पापाः सर्वत्र शङ्किताः।।१।।" सत्पात्रेषु विनियोगाद् दीनाऽऽदी सर्वत्रज्ञातशब्दो योज्यः, यथायथंच ज्ञातत्वं प्रत्यध्ययनंतदर्थावगमाकृपया वितरणाच परलोकहिताय / पठ्यते च धार्मिकस्य धनस्य दवसेयमिति 2, नवरम्-अण्डकं मयूराण्डम् 3, कूर्मश्च कच्छपः ४,शैलको शास्त्रान्तरे दानस्थान यथा-"पात्रे दीनाऽऽदिवर्गे च, दानं विधिवदिष्यते। राजर्षिः 5, तुम्बं च अलाबु 6, रोहिणी श्रेष्ठिवधूः 7. मल्ली पोष्यवर्गाविरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् // 1 // ' अन्यायोपात्तं तु एकोनविंशतितमजिनस्थानोत्पन्ना तीर्थकरी 8, माकन्दी नाम वणिक्, लोकद्वयेऽप्यहितायैव-इह-लोके विरुद्धकारिणो वधबन्धाऽऽदयो / तत्पुत्रौ माकन्दीशब्देनेह गृहीतौ 6, चन्द्रमा इति च 10, (दावद्दवे त्ति) दोषाः, परलोके च नरकाऽऽदिगमनाऽऽदयः / यद्यपि कस्यचित् समुद्रतटे वृक्षविशेषाः 11, उदक नगरपरिखाजलं, तदेव ज्ञातमुदाहरणपापानुबन्धिपुण्याभावादैहलोकिकी विपद् न दृश्यते, तथाप्यायत्या- मुदकज्ञातम् 12, मण्डूकः नन्दमणिहारश्रेष्ठिजीवः 13, (तेतली विय मवश्यंभाविन्येव / यतः-"पापेनैवार्थरागान्धः, फलमाप्नोति यत् त्ति) तेतलीसुताऽभिधानोऽमात्य इति च 14, (नंदिफल त्ति) नन्दिवृक्षाक्वचित् / बडिशामिष-वत्तत्तमविनाश्य न जीर्यति॥१॥" इति न्याय एव भिधानतरुफलानि 15, अपरकङ्का धातकीखण्डभरतक्षेत्रनराजधानी परमार्थतोऽर्थोपार्जनोपायोपनिषत् / यदाह--''निपानमिव मण्डूकाः, 16, (आइण्णे त्ति) आकीर्णा जात्याः समुद्रमध्यवर्तिनोऽश्वाः 17, सरः पूर्णमिवाण्डजाः। शुभकर्माणमायान्ति, विवशाः सर्वसंपदः॥१॥" (सुसमा इय त्ति) सुसमाऽभिधाना श्रेष्ठिदुहिता 18, अपरं च इति। ईदृशं धनं च गार्हस्थ्ये प्रधानकारणत्वेन धर्मतयाऽऽदौ निर्दिष्टम्, पुण्डरीकज्ञातमेकोनविंशतितममिति 16 / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आवास० अन्यथा तदभावे निर्वाहविच्छेदेन गृहस्थस्य सर्वश्रुतक्रियोपरमप्रसङ्गा- णायद पुं०(न्यायद) न्यायदर्शिनि, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। दधर्म एव स्यात् / पठ्यते च-"वित्तीवोच्छेयम्मी, गिहिणो सीयंति णायपुत्त पुं०(ज्ञातपुत्र) ज्ञातः सिद्धार्थः तस्य पुत्रः / कल्प०५ क्षण। सव्वकिरियाओ। निरवेक्खस्स उ जुत्तो, संपुन्नो संजमो चेव // 1 // " वीरवर्द्धमानस्वामिनि, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। आचा०ा दश० इति / ध०१ अधिन णायपुत्तवओरय त्रि०(ज्ञातपुत्रवचोरत) भगवद्वर्धमाने वीरे निः णायजियवित्तेस पुं०(न्यायार्जितवित्तेश)न्यायोपार्जितद्रव्यस्वामिनि, सङ्गताप्रतिपादनपरे सक्ते, दश० 6 अ०॥ धो०५ विवा णायपुत्तवयण न०(ज्ञातपुत्रवचन) श्रीमन्महावीरवचन 10 अ०। जायज्झयण न०(ज्ञाताध्ययन) उत्क्षिप्ताऽऽद्युदाहरणप्रतिपाद णायपुत्तिय न०(ज्ञातपुत्रीय) वीरस्वामिसंबन्धिनितीर्थ , आचा०१ श्रु०१ केऽध्ययने, ज्ञा०। षष्ठस्याङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे 16 ऊनविंशति ___ अ०३ उ० ज्ञाताध्ययनानि। णायविहि पुं०(ज्ञातविधि) स्वजनभेदे, व्या छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता / तं जहा-णायाणिय, भिक्षोतिविधिसूत्रम्धम्मकहाओ य / पढमस्स ण भंते ! सुयक्खंधस्स समणेणं भिक्खू य इच्छेज्जा णायविहिं एत्तए, णो से कप्पति थेरे अणाभगवया महावीरेणं०जाव संपत्तेणं णायाणं कति अज्झयणा पुच्छित्ता; कप्पति से थेरे आपुच्छित्ता णायविहिं एत्तए, थेरा य पण्णता? एवं खलु जंबू ! जाव समणेणं भगवया महावीरेणं० से वियरेज्जा एवं से कप्पति णायविहिं एत्तए थेरायणो से वियरेजा जाव संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा एवं से णो कप्पति णायविहिं एत्तए। जे तत्थ थेरेहिं अवितिण्णे "उक्खित्तणाए संघाडे, अंडे कुम्मे य सेलगे। णायविहिं एइ, से अंतरा छेदे वा परिहारे वा ||1|| तुंबे य रोहिणी मल्ली, मायंदी चंदमा इय // 1 // णो से कप्पति अप्पस्सुयस्स अप्पागमस्स एगागिदावद्दवे उदगनाए, मंडुक्के तेतली वि य॥ यस्स णायविहिं एत्तए / 2 / कप्पति से जे तत्थ बहुस्सुए नंदिफले अवरकंका, आइण्णे सुंसुमा इय / / 2 / / बब्भागमे तस्सद्धिं णायविहिं एत्तए; तत्थ णं से पच्छागमणेणं अवरे य पुण्डरीए, णायाए गूणविंसतिमे'। पुवाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते मिलिंगसूवे, कप्पति से (णायाणि त्ति) ज्ञातान्युदाहरणानीति प्रथमः श्रुतस्कन्धः / (धम्म- चाउलोदणे पडिग्गहित्तए, णो से कप्पति भिलिंगसूवे कहाओ त्ति) धर्मप्रधानाः कथाः धर्मकथा इति द्वितीयः। "उक्खित्त' पडिग्गहित्तए॥३॥ तत्थ से पच्छागमणेणं पुवाउत्ते भिलिंगइत्यादि श्लोकद्वयं सार्द्धम् / तत्र मेघकुमारजीवेन हस्तिभवे प्रवर्तमानेन सूवे पच्छाउत्ते चाउलोदणे, कप्पइ से भिक्खू मिलिंगसूवे यः पाद उत्क्षिप्तस्तेनोरिक्षप्तेनोपलक्षितं मेघकुमारचरितमतुतिक्षप्त- पडिग्गहित्तए, नो से कप्पति चाउलोदणे पडिग्गहित्तए, मेवोच्यते। उत्क्षिप्तमेव ज्ञातमुदाहरणं विवक्षितार्थसाधनमुत्क्षिप्तज्ञातम्। दो वि पुवाउत्ते कप्पति दो वि पडिग्गहित्तए / / 4 / / ज्ञातता चास्यैवं भावनीयादयाऽऽदिगुणवन्तः सहन्त एव देवदाहकष्टम्, तत्थ से पच्छागमणेणं दो वि पच्छाउत्ते, णो से कप्पति दो
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________________ णायविहि 2004 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायविहि विपडिग्गहित्तए ।।१।।जे से तत्थ पच्छागमणेणं पच्छाउत्ते, से / णो कप्पति पडिग्गहित्तए // 6|| जे से तत्थ पच्छागमणेणं पुव्वाउत्ते, से कप्पति॥७॥ भिक्षुः, चशब्दाद भिक्षुकी च, इच्छेत ज्ञातविधि स्वजनभेदमागन्तुम। 'से' तस्य न कल्पते स्थविरान् अनापृच्छ्य ज्ञातविधिमागन्तुम् / "कप्पति थेरे" इदं प्राग्वत् / (नो से कप्पइ इत्यादि) न 'से' तस्य कल्पते अल्पश्रुतस्य अगीतार्थस्य अल्पागमस्य बहिः शास्त्रेष्वतिपरिचयस्याऽविद्यमाननिजाऽऽगमस्यैकाकिनो ज्ञातविधिमागन्तुम् / कल्पते 'से' तस्य यस्तत्र गच्छे बहुश्रुतः सूत्रापेक्षया, बह्वागमोऽर्थापेक्षया, तेन सार्द्ध ज्ञातविधिमागन्तुम् / तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, तस्य ज्ञातविधिमागतस्य पश्चादागमनेन आग-मनात् पश्चाद् य पूर्वायुक्तः चाउलोदनः / पूर्वायुक्त इति केचिद् व्याचक्षतेआगमनात्पूर्व चुल्ल्यामारब्धो रन्धनाय। अपरे व्याचक्षते-आगमनात्पूर्व पाकाय समीहितम् / एतद् मतद्वयमप्यसङ्गतम् आरब्धे, समीहिते च पुनः प्रक्षेपसंभवात्। तस्मात् पूर्वायुक्त इति किमुक्तं भवति? आगमनात्पूर्व गृहस्थैः स्वभावेन रध्यमानः स तन्दुलोदनो, भिल्लिङ्ग सूपो नाम 'सस्नेहः सूपः,' स कल्पते प्रतिगृहीतुम्। योऽसौ तत्र पूर्वमागताः साधव इति हेतोः पश्चादायुक्तः प्रवृत्ति दुलोदनो, भिलिङ्गसूपो वा, नासौ कल्पते प्रतिगृहीतुम द्वय सूत्रसंक्षेपार्थः। अत्र भाष्यकारो ज्ञातविधिपदं व्याख्यानयतिअम्मापितिसंबंधो, पुव्वं पच्छा व संथुया जे उ। एसो खलु णायविहीऽणेगे भेया य एकेके / / 3 / / मातृद्वारण, पितृद्वारेण च यः संबन्ध एष ज्ञातविधिः / अथवा-ये पूर्व संस्तुता मातापित्रादयः, ये च पश्चात् संस्तुताः श्वश्रूश्वशुराऽऽदयः। एष समस्तोऽपि ज्ञातविधिः, एकैकस्मिश्च मातृद्वारे, पितृद्वारे वा, यदि वा--- पूर्वसंस्तुते, पश्चात् संस्तुते वाऽनेके भेदाः। अनेन विधिशब्दो भेदवाची व्याख्यातः // 3 // अधुना नियुक्तिविस्तरःणायविहिगमणे लहुगा, आणाऽऽदि विराहसंजमाऽऽयाए। संजमविराहणा खलु, उग्गमदोसा तहिं होज्जा // 4|| निष्कारणे विधिनाऽपि ज्ञातविधौ गमनं करोति तर्हि प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, तथा आज्ञाऽऽदयो दोषाः, तथा संयमे आत्मनि च विराधना। तत्र संयमविराधना, यतस्तत्र खलु निश्चितमुगभदोषा आधाकर्माऽऽदयो भवेयुः / / 4 / / कथमुद्गमदोषा भवेयुः? अत आहदुल्लभलाभा समणा, नीया नेहेण आहकम्मादी। चिरआगयस्स कुजा, उग्गमदोसं तु एगतरं // 1 // दुर्लभलाभाः खलु श्रमणाः, तथा महता स्नेहेनास्माकं वन्दा–पनाय नीता निर्गताः, ततश्चिरादागतस्याऽऽत्मस्वजनस्य तस्य प्राघूर्णकत्वकरणायोगमदोषमाधाकर्माऽऽदिकमेकतरं कुर्यात् / / 5 / / इति संजमम्मि एसा, विराहणा हो-इमा उ आयाए। छगलगसेणावतिकलु-णरयणथाले य एमादी॥६॥ इति एवममुना प्रकारेण, एषा अनन्तरोदिता, संयमे विराधना भवति। आत्मविराधना पुनरियं वक्ष्यमाणाछागदृष्टान्तेन सेनापतौ मृते समागते करुणारोदने, रत्नस्थाले रत्नभृते स्थाले ढोकिते, एवमादौ / / 6 / / तत्र यथा छागदृष्टान्तेनाभिसमीहिते सेनापतौ मृते तस्मिन् आगते आत्मविराधना भवति, तथा भावयतिजह रण्णो सूयस्सा, मंसं मजारएण अक्खित्तं / सो अद्दण्णो मंसं, मग्गइ इणमो य तत्थाऽऽतो // 7 // कडुहंडपोट्टलीए, गलबद्धाए उ छगलओ तत्थ। सूयेण य सो बहितो, थक्के आत त्ति नाऊणं / / 8 / / यथा राज्ञा सूपस्य सूपकारस्य मांस माजरिणाऽऽक्षिप्त नीतं. ततः स सुपकारो भीतोऽर्दनो जातो मांस मृगयते, तस्मॅिश्व मृगयमाणे तत्र महानसे अयमतर्कितः कटुभाण्डपोट्टलिकया गलबद्धया युक्तश्छाग आयातः सन् सूपेन सूपकारेण मारितः थक्के प्रस्तावे'आता' इति ज्ञात्वा। एष दृष्टान्तः॥७८|| साम्प्रतमुपनयमाहएवं अद्दण्णाई, ताई मग्गंति तं समंतेण। सो य तहिं संपत्तो, ववरोवितों संजमा तेहिं / / 6 / / एवं सूपकार इव तस्य साधोर्ये स्वजनाः, तेषां सेनापतिर्मृतः, ततस्तानि स्वजनरूपाणि मानुषाणि (अद्दण्णाई इति) अशरणानि तं श्रमणीभूतं सेनापतिभ्रातरमात्मीयं समन्ततो मृगयन्ते, सच मृग्यमाणः तत्रैव संप्राप्तः, ततस्तं समुपस्थिताः स्वजनाः, वयं परिभूता भविष्यामो, न च त्वयि नाथे विद्यमाने परिभवोऽस्माकं युक्तः, तस्मात् कुरु प्रसादमित्येवं तैरुपसर्यमाणः संयमाव्यप-रोपितः / / 6 / / संप्रति करणद्वारभाहसेणावती मतो तू, भाय-पिया वा वि तस्स जो आसी। अण्णो य नत्थि अरिहो, नवरि इमो तत्थ संपत्तो / / 10 / / सेनापतिम॑तः, तस्य यो भ्राता पिता वा आसीत् सोऽपि तावद् मृतः, अन्यश्च तस्मिन् गृहे अ) योग्यः सेनापतित्वस्य, नास्ति, नवरमयमेव योग्यः, स च तत्र संप्राप्तः / / 10 / / तो कलुणं कंदंता, बिंति अणाहा वयं विणा तुमए। माय इमा सेणावति-लच्छी संकामओ अन्नं // 11 // ततस्तत्संप्राप्तयनन्तरं ते स्वजनाः करुणं क्रन्दन्तो ब्रुवतेवयमनाथास्त्वया विना / इयं च प्रत्यक्षत उपलभ्यमाना सेनापतिलक्ष्यीरन्यं पुरुषान्तरं मा संक्रामतु॥११॥ तं च कुलस्स पमाणं, बलविरियं तुज्झऽधीणमेयं च / पच्छा वि पुणो धर्म, काहिसि दाणिं पसीयाहि // 12 // त्वंचकुलस्यास्य समस्तस्यापिकुलस्य प्रमाणम्, एतच्च बलं हस्त्यादि, वीर्यमान्तरोत्साहः समस्तस्यापि कुलस्य, तवाधीनं पश्चादपि त्वं धर्म करिष्यसि, संप्रति एतदेवार्थये यत् सेनापतिपदप्रतिपत्त्या प्रसीद / / 12 / / एवं कारुण्णेणं, इड्डीए लोभितो तु सो तेहिं। ववरोविजइ ताहे, संजमजीयाउ सो तेहिं / / 13 / / एवमुपदर्शितेन प्रकारेण कारुण्येन, ऋद्ध्या च तैः स्वजनैः स लोभितो लोभं गाहितः, ततो लो भग्रहणानन्तरं स तैः
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________________ णायविहि 2005 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायविहि संयमजीविता व्यपरोप्यते॥१३॥ तदेवं करुणाद्वार व्याख्यातम्। अथ रत्नस्थालद्वारमाहअविभवअविरेगेणं, विणिग्गतो पच्छ इड्डिमं जातो। थालं वसूण पुण्णं, उवणे ती गेण्हिमेतं ति / / 14 / / कदाचित् सव्रती अविभवेन, दारिद्रयेणेत्यर्थः / रिक्थं च पूर्वपुरुषोपार्जितं विरेक्तुं स्वजनैः तदा नेष्ट, ततोऽविरेकेण च रोषेण गृहान्निर्गत्य प्रव्रजितोऽभवत्, पश्चाच्च स स्वजनवर्गो भ्रात्रादिक ऋद्धिमान जातः, ततो वसूनां रत्नानां पूर्ण भृतं स्थालं तस्याऽऽगतस्योपनयन्ति, यथा गृहाण रत्नस्थालमेतदिति / / 14 / / तस्स वि दट्ठण तयं, अह लोभकली ततो तु समुदिण्णो / ववरोवितों संजमतो, एए दोसा हवंति तहिं ||15|| तस्यापि साधोः तत् रत्नभृतं स्थालं दृष्ट्वा, अथानन्तरं ततो रत्नभृतस्थालदर्शनाद् लोभकलिः समुदीर्णः सम्यगुदयं प्राप्तः, ततस्तेन संयमाद् व्यपरोपितः। एते दोषास्तत्र ज्ञातविधिगमने भवन्ति / / 15 / / संप्रति 'एमादी'' इति व्याख्यानयन् प्रकारान्तरमाहअहवा न होज एते, अण्णे दोसा हवंति तत्थ इमे। जेहिं तु संजमातो, चालिजइ सुहितो ठितओ।।१६।। अथवा एतेऽनन्तरोदिता दोषा न भवेयुः, अन्ये इमे वक्ष्यमाणास्तत्र / ज्ञातविधिगमने दोषा भवन्ति / यैः सुस्थितोऽपि स्थितकः सन् | संयमाचल्यते // 16 // के ते दोषा इत्यतस्तत्संसूचक द्वारगाथाद्वयमाहअक्कंदट्ठाणे ससुरओव्वरऍ पेल्लणाएँ उवसग्गे। पंथेरोयणभतए, ओभावणे अम्ह कम्मकरा / / 17 / / छाघातो अणुलोमे, अभिजोग विसे सयं च ससुरेणं / पंतवणबंधरुंभण, तं वा ते वाऽतिवाएंति॥१८| आक्रन्दस्थानद्वारं प्रथमम् / द्वितीयं श्वशुरेणापवरके क्षिप्त इति द्वारम्। तृतीय प्रेरणाद्वारम्। चतुर्थमुपसर्गद्वारम् / पञ्चमं पथि रोदनभृतके भार्या | इति द्वारम् / षष्ठमपभाजनाद्वारम-यथाऽस्माकमेष कर्मकर आसीत्। सप्तमं छागघातद्वारम्। अष्टममनुलोमद्वारम्। नवममभियोग्यद्वारम्। दशर्म विषद्वारम् / ततः स्वयं श्वशुरेण प्रान्तापणबन्धरोधनानि क्रियन्ते, ततः कोपात् तं श्वशुरं सोऽतिपातयेद् विनाशयेत्, ते वा श्वशुरप्रभृतयः तं साधुमतिपातयेयुः, इति एकादशं द्वारमिति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः 1.17 / 18 // साम्प्रतमेतदेव विवरीषुः प्रथमत आक्रन्दस्थानद्वारमाह*दीसंता वि हुणीया, पव्वयहिययं पि संपकंति। कलुणकिवणाणि किं पुण, कुणमाणा एगसेज्जाए ? ||16 // सेनापतौ मृते स तत्र ज्ञातविधौ गतः, तत्र दृश्यमाना अपि निजकाः पर्वतहृदयमपि पर्वतसदृशमानसमपि साधु संयमात् संप्रकम्पयन्ति सम्यगन्तीनीभूय प्रकर्षेण च्यावयन्ति, किं पुनरेकस्यां शय्यायां वसतौ करुणकृपणानि रोदनानि कुर्वाणाः? सुतरां संयमाद् भ्रंशयन्ति / / 16 / / अकंदट्ठाणठितो, तेसिं सोचा उ नायगादीणं / पुव्वावरत्तरोयण, 'जाय अणाहा' वएको वि॥२०॥ * "सीदंता" इति पाठान्तरम्। सोऽधिकृतः साधुर्यत्र ते ज्ञातकाः क्रन्दन्ति, तस्मिन्नाक्रन्दस्थाने स्थितः पूर्वरात्रे अपररात्रे च रोदनं तेषां ज्ञातकाऽऽदीनां करुणकृपणं यथा- 'जाता वयमनाथाः, भविष्यामः सर्वेषां परिभवाऽऽस्पदम्' इति श्रुत्वा कश्चिद् व्रजेत् प्रव्रज्यां मुश्चेदित्यर्थः / / 20 // गतमाक्रन्दस्थानम्। अधुना 'ससुरउव्वरए" इत्यादि द्वारमाहमहिलाएँ समं छोढुं, ससुरेणं ढकितो उ उव्वरओ। नायविहिमागयं वा, पेल्ले उब्भामिगसगाए।।२१।। तस्य साधोः श्वशुरकः, तं तत्र समागतं साधु दृष्ट्वा निजदुहितरं सर्वालङ्कारभूषितां कारयेत्; कारयित्वा च वन्दापनाय, भिक्षार्थं वा तत्र समागतेन श्वशुरकेन महेलया भार्यया सममपवरके क्षिप्त्या, अपवरको ढक्कितः- स्थगितद्वारः कृतः। तत्र च उपसर्म्यमाणः कश्चिदुत्प्रव्रजेत्। प्रेरणाद्वारमाह-ज्ञातविधिमागतं च तं साधुं दृष्ट्वा स्वजनवरस्तस्य स्वकीयया उद्भामिकया भार्यया प्रेरयेत् संयमाद् च्यावयेत् / / 21 / / गतं प्रेरणाद्वारम्। साम्प्रतं चतुर्थमुपसर्गद्वारं प्रतिपिपादयिषुरिदमाहमोहुम्मायकराइं, उवसग्गाई करेइ से विरहे। भज्जा जेहिं तरू विव, वाएणं भजते सजं // 22 // भार्या 'से' तस्य स्वजनविधिगतस्य सा विरहे मोहोन्मादकरान् उपसर्गान् आलिङ्गनाऽऽदीन् करोति, यैस्तरुरिव वातेन भज्यते सद्यः॥२२॥ संप्रति पंथरोयणभतए' इति व्याख्यानमाहकइवेण सभावेण य, भतओ भोइं पहम्मि पंतावे। हिययं अमुंडियं मे, भयवं पंतावए कुवितो / / 23 / / साधुतिविधि गतस्तत्र च लज्जया भिक्षां न हिण्डते, तत उद्भ्रमकभिक्षाचर्यायां गतः, तेषां च ज्ञातकानां क्षेत्रं पथि, तत्र कैतवेन वा स्वभावेन वा तस्य भार्या भृतकेन समं क्षेत्रं गता, तत्र स भृतकः कैतवेन स्वभावेन वा कर्मणि भार्या (?) ||23|| कम्महतो पव्वइतो, भतओ एसऽम्ह आसि मा वंदा। उन्भामगए खुद्दे, छाघायं तस्स सा देइ // 24 // कदाचित् स प्रव्रजितः कर्मकर आसीत्, ततस्तं बहुजनो दृष्ट्वा ब्रूयात्एषोऽस्माकं भृतक आसीत्, कर्महतः कर्मभग्गः सन् प्रव्रजितः, तस्माद् मा वन्दिषत। छागघातद्वारमाह-उद्भ्रामकके उद्भ्रामकभिक्षाचर्यागतेऽधिकृते भृतकरूपे साधौ क्षुद्रे मूर्खे तस्य सा भृत्या छागघातं ददाति, कुपिता सती छागमपि तं घातयतीत्यर्थः // 24 // ___ अधुनाऽनुलोमोपसर्गमाहमा छिज्जउ कुलतंतू, धणगोत्तारं तु जणय मेगसुयं / वत्थनमादीएहिं, अभिजोजेउं वसंणेति॥२५॥ तस्य ज्ञातविधिगतस्य साधोतिविधिरेवं ब्रूयात्-मा छिद्यतां छेदं यायात, कुलतन्तुः कुलसन्तानः, तस्मात् धनरक्षकमेकं सुतं प्रसाद कृत्वा जनय, पश्चात्पुनव्रतं गृह्णीथाः, एवमुक्तः सन् कश्चित् उत्प्रव्रजेत्। अधुना अभियोग्यद्वारमाह-वस्त्राऽऽदिकैः, आदिशब्दात् खादिमस्वादिमाऽऽदिविशेषपरिग्रहः / तैरभियोज्य वशीकृत्य स्वजनस्तमात्मवंश नयन्ति॥२५||
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________________ णायविहि 2006 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायविहि विषद्वारमाहनेच्छंति देवरा मे, जीवंते इमम्मि इति विसं देजा। अण्णेण व दावेज्जा, ससुरो वा से करेइ इमं // 26 // तं ज्ञातविधिगतं साधुंदृष्ट्वा तद्भार्येदं विचिन्तयेत्-अस्मिन् जीवति मां देवरा भोग्यतरा नेच्छन्ति, तस्मान्मारयामि केनाप्युपायेन चैनमिति विचिन्त्य स्वयं वा विषं दद्यात्, अन्येन वा दापयेत्। 'सयं च ससुरेण' इत्यादिद्वारमाह-'से' तस्य साधोः श्वशुरो वा स्वयमिदं कुर्यात्।।२६।। किं तदित्याहपंतवणबंधभण, तस्स वि नीयल्लगा उखुडभेजा। अहवा कसाइतो तू, सो वऽतिवाएज एकतरं // 27|| श्वशुरस्तं दृष्ट्वा कुप्येत्, यथा-एतेन मम दुहिता जीवच्छल्यी कृता, ततः कोपात् तस्य साधोः प्रान्तापणं प्रहारदानं, बन्धनं वा निगमाऽऽदिभिः, रोधं वा गृहान्नगराद्वा अनिर्गमनं कुर्यात्, कारयेत् वा / तस्यापि च साधोः, निजका आत्मीयाः, तमेनामवस्थां प्राप्तं दृष्ट्वा, ज्ञात्वा वा क्षुभ्येयुः, क्षोभाच श्वशुरेण समं युद्धं कुर्युः, तत्र परस्परमपद्रावणाऽऽदि भूयात् / अथवा स एव साधुः कषायितः कषायोदयं प्राप्तः सन् एकतरं श्वशुराऽऽद्यन्यतममतिपातयेत् // 27 // अत्र प्रायश्चित्तविधिमाहएकम्मि दोसु तीसु व, मूलऽणवट्ठो तहेव पारंची। अह सो अतिवाएजइ, पावइ पारंचियं ठाणं // 28 // एकस्मिन्नतिपातिते मूलप्रायश्चित्तभाग भवति, द्वयोरतिपातितयोरनवस्थाप्यः, त्रिषु अतिपातितेषु पाराची / अथ स एव अतिपात्यते साधुस्तर्हि स यदि कथमपि जीवति ततः पाराञ्चित स्थान प्राप्नोति॥२८॥ अन्यान् दोषानाहअहवा विधम्मसडा, साहू तेसिं घरे न गेण्हंति।। उग्गगदोसाऽऽदिभया, ताहे नीया भणंति इमं / रक्षा अथ वेति प्रकारान्तरेण दोषकथनोद्योतने, साधवो धर्मश्रद्धा उद्गमदोषाऽऽदिभयात्तेषां गृहे न किमपि गृह्णन्ति, ततस्ते निजाः स्वजना इदं भणन्ति // 26 // किं तदित्याहअम्हं अणिच्छमाणो, आगमणे लजणं कुणति एसो। ओहावण हिंडते, अण्णो लोगो व णं भणति // 30|| अस्माकं गृहे किमप्यभिच्छन् एष आगमने लज्जनमयशस्कारं करोति। यतः-अस्मिन् प्रतिगृहमन्यत्र भिक्षा हिण्डमाने महती नूनमस्माकमपभ्राजना, लोको वाऽन्य इदं भणति // 30 // किं तदित्याहनीयल्लस्स वि भत्तं, न तरह दाउंति तुझें कियण त्ति / गेहे भुंजसु वुत्ते, भणाति नो कप्पियं भुजे // 31 // तं साधु भिक्षामटन्तं दृष्ट्वा केचित् अन्ये स्वजनान् प्रति ब्रूयुः-यथा यूयं कृपणा निजकस्याप्येकस्य प्राघूर्णकाऽऽगतस्य भक्तं दातुं न शक्नुथ, ततस्ते एवमुक्ताः सन्तः साधुसमीपमागत्य ब्रुवते-यावन्ति दिनानि यूयमत्र तिष्ठथ,तावन्माऽन्यत्र भिक्षामटत,तु गहे भुध्वम्, अन्यत्र भिक्षाटने हि महत्यस्माकमपभ्राजना। स एवमुक्तः साधुर्भणति-युष्मद्गृहे न भुजे, यतः अहं कल्पिकं भुजे, युष्मद् गृहे च उद्माऽऽदिदोषाऽऽशङ्का / / 31 / / एवमुक्ते ते स्वजनाः प्राऽऽहुःकिं तं ति खीरमादी, ददामों दिन्ने य भातिभजाओ। बेंति सुते जायंते, पडिया णे करा बहू पुत्ता ! ||32|| किं तत् कल्पिक यत्त्वं मुझे , ततः साधवो ब्रुवतेयानि युष्माकं यथाप्रवृत्तानि क्षीराऽऽदीनि क्षीरदधिघृतगुडाऽऽदीनि; ततस्ते आहुःएतानि यथाप्रवृत्तानि दास्यामः / गाथायां 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानबद्धा"॥३३१३१॥ इति वचनात् तेदातुं प्रवृत्ताः, ततो दत्ते क्षीराऽऽदिके भ्रातृभार्याः सुतान् क्षीराऽऽदीनि याचमानान् प्रति ब्रुवते-हे पुत्राः ! बहवोऽस्माकं कराः पतिताः॥३२॥ तानेवाऽऽहदहिघयगुलतेल्लकरा, तक्ककरा चेव पाडिया अम्हं। रायकरपेल्लियाणं, समणकरा दुक्करा वोद्धं // 33 // दधिकरघृतकरगुडकरतलकराः, तथा तक्रकराश्च, अस्माकं पातिताः श्रमणैः / राजकरा अस्माकमपतन, तैः सदैव प्रेरिता वयं वर्तामहे, परं राजकरप्रेरितानामस्माकमयं श्रमणकरोदुष्करो वोढुमिति, प्रभूतसर्वापहरणात् // 33 // एए अण्णे य तहिं, नायविहिगमणे हों ति दोसाओ। तम्हा उन गंतव्वं, कारणजाते भवे गमणं // 34|| एतेअनन्तरोदिताः,अन्ये चानुक्ताः, तत्र ज्ञातविधिगमने, दोषा भवन्ति, तस्माद ज्ञातविधौ न गन्तव्यम् / एष उत्सर्गः / कारणे पुनग्लानत्वाऽऽदिलक्षणे जाते पुनरपवादतो गमनं भवेत्॥३४॥ तदेवाऽऽहगेलण्णकारणेणं, पाउम्गासति तहिं तु गंतव्वं / जे उ समत्थुवसग्गे, सहिउं ते जंति जयणाए॥३५|| ग्लानत्वकारणेन अन्यत्र प्रायोग्यस्य औषधाऽऽदेरसत्यभावे, उपलक्षणमेतद्-वैद्याभावे च तत्र गन्तव्यम् / तत्र वैद्यस्य, प्रायोग्यस्य औषधस्याऽऽसनाऽऽदेश्य प्राप्यभाणत्वात्, तत्र ये उपसर्गान् सोढुं समर्थाः, ते यतनया वक्ष्यमाणया यान्ति गच्छन्ति // 35 // तामेव यतनामाहबहिऐं अणापुच्छाए, लहुगा लहुगो य दोच्चऽणापुच्छा। आयरियस्स वि लघुका, अपरिच्छियपेसवंतस्स // 36|| अत्र इदं सूत्रं पठति-"नो से कप्पति थेरे अणापुच्छित्ता नायविहिं एत्तए" इत्यादि / तत्र यदि बहिः स्थविराणामनापृच्छया व्रजति, ततस्तस्य प्रायश्चित्तं, चत्वारो लघुकाः, स्थविरान आपृच्छय तैर्विसर्जितो यदि द्वितीयस्थविरान् अनापृच्छ्य व्रजति, ततो द्वितीया-नापृच्छायां मासलघु, आचार्योऽपि यदि अपरीक्षितान् प्रेषयति, ततस्तस्यापरीक्षितान् प्रेषयतश्चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तम् // 36 // तम्हा परिच्छियव्वो, सज्झाए चेव मिक्खभावे य। थिरमथिरजाणणट्ठा, सो उववाएहिमेहिं तु // 37 / / यत एवमपरीक्षितप्रेषणे प्रायश्चित्तं, तस्मात् स्थिरास्थिरज्ञानार्थ
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________________ णायविहि 2007- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायविहि स्वाध्याये भिक्षाभावे च परीक्षितव्यः स एभिर्वक्ष्यमाणैरुपायैः / / 37 / / तानेवाऽऽहचरणकरणस्स सारो, मिक्खायरिया तहेव सज्झाओ। एत्थ परितम्ममाणे, तं जाणसु मंदसंविग्गं / / 3 / / चरणं व्रतश्रमणधर्माऽऽदि। उक्तं च-"वयसमणधम्म संजमवेयावचं च बंभगुत्तीओ।नाणाइतियं तक्कोहनिग्गहा इइ चरणभेयाः ॥१॥"(सम्म०३ काण्ड) करणं पिण्डविशुद्ध्यादि। उक्तंच-"पिंडविसोही समिती, भावण पडिमा य इंदिय निरोहो / पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु // 1 // " (ग०१ अधि०) तस्य चरणकरणस्य सारो भिक्षाचर्या, स्वाध्यायश्च ततोऽत्र भिक्षाचर्यायां, स्वाध्याये च परिताम्यति क्लेश मन्यते, तं जानीत मन्दसंविग्नम्॥३८॥ चरणकरणस्स सारो, मिक्खायरिआ तहेव सज्झाओ। एत्थ उ उज्जममाणे,तं जाणसु तिव्वसंविग्गं ||3|| चरणकरणस्य सारो भिक्षाचर्या, तथैव स्वाध्यायः, ततोऽत्र भिक्षाचर्याऽऽदावुद्यच्छति, तं जानीत तीव्रसंविग्नं, तदेवं स्थिरा-- स्थिरपरिज्ञानार्थं परीक्षा उक्ता // 36 // संप्रति किमेष उपसर्ग सहिष्णुः, किं वा न ? इति परीक्षार्थमाहकइवेण सहावेण य, अण्णस्स व साहसं कहिजते। मायपितिभायभगिणी-मज्जापुत्ताऽऽदिएसुं तु॥४०॥ यथा स शृणोति तथा कैतवेन स्वभावेन वा अन्यस्य साधोः मातापितृभातृभगिनीभार्यापुत्राऽऽदिषु विषये साध्वसं कथ्यते॥४०।। केन प्रकारेण? इत्यह आहसिरकोट्टणकलुणाणि य, कुणमाणाइं तु पायवडियाई। अमुएण न गणियाइं,जो जंपति निप्पिपासो त्ति / / 4 / / मातापित्रादीनां शिरःकुट्ट न करुणरोदनभाषणानि क्रियमाणानि पादपतितानि वाऽमुकेन न गणितानि, एवं साध्वसे कथ्यमाने, वो जल्पति-अतीव खलु निष्पिपासो घोरहृदयः, न युज्यते तादृशेन सह वक्तुमपीति // 41 // सो भावतों पडिबद्धो, अपडीबद्धो वएज्ज जो एवं / सोइहिति केत्तियाऊ,नीया जे आसि संसारे? ||42|| सभावतः स्वज्ञातेषु प्रतिबद्धो ज्ञातव्यो, न शक्तः स सोढुमुपसर्गानिति। यस्तु तथा साध्वसे कथ्यमाने,एवं ब्रूते-संसारे सर्व-जीवाः सर्वेषां | पुत्रत्वाऽऽदिकमुपगताः, ते आसीरन् संसारेऽनन्ते निजाः, तान् कियतः स शोचयिष्यति? किंवा मातापित्रादिभिः शोचितैर्ये निजान संसाराद्न च संजमे पातयन्ति? स ज्ञातव्यो भावतः स्वजनेष्वप्रतिबद्धः समर्थः सोढुमुपसर्गानिति // 42 // मुहरागमादिएहि य, तेसिं नाऊण रागवेरग्गं / नाऊण थिरं ताहे, ससहायं पेसवेंति ततो / / 43|| यस्य ज्ञातविधिजिगमिषोः शोभनो मुखरागः, स ज्ञायते स्व-जनेषु भावतः प्रतिबद्धः, उपसर्गानसहिष्णुश्च; यस्य तु न तथाविधो मुखरागः स्पष्टो लक्ष्यते स ज्ञेयो भावतः स्वजनेष्वप्रतिबद्धः, सहिष्णुश्च उपसर्गान्। एवं मुखरागाऽऽदिभिस्तेषां ज्ञातविधिंगन्तुमिच्छतां राग वैराग्यं च, तथा स्थिरगुणलक्षणमस्थिरं च ज्ञात्वा, ततः स्थिरं भावतः स्वजनेष्वप्रतिबद्ध ससहायं सुरयः प्रेषयन्ति॥४३॥ साम्प्रतमल्पश्रुताल्पाऽऽगमपदव्याख्यानार्थमाहअबहुस्सुतो अगीतो, बाहिरसत्थेहिँ विरहितो इयरो। तव्विवरीए गच्छे, तारिसगसहायसहितो वा।।४।। अबहुश्रुतो नामाल्पश्रुतः, स चागीतार्थ उच्यते, इतरोऽल्पागमो यो बाह्यशास्वैर्विरहितः, एतादृशो नगच्छेत् स्वजनविधौ, किंतु तद्विपरीतो बहुश्रुते बागमश्च, यदि वा-स्वयमल्पश्रुतोऽल्पाऽऽगमो वा तादृशसहायकसहितः॥४४॥ बहुश्रुतविशेषमाहधम्मकहीवादीहि य, तवस्सिगीएहि संपरिवुडो उ। नेमित्तिएहिँ य तहा, गच्छइ सो अप्पछट्टो उ॥४५|| धर्मकथिभिर्द्वित्रिप्रभृतिभिः वादकुशलैः तपस्विभिः षष्ठाष्टमाऽऽ-- दितपःकारिभिर्गीतार्थः सूत्रार्थतदुभयनिष्णातैर्निमित्तिकैश्च संपरिवृतो गच्छेत् / अथधर्मकथ्यादयो बहवो न सन्ति, ततो जघन्य-तोऽप्येकैकधर्मकथ्यादिसहाय आत्मषष्ठो व्रजेत्॥४५।। तत्र प्रवेशविधिमाहपत्ताण वेल पविसण, अह पुण पत्ता पगे भविजाहि। तं बाहिरं ठवेलं, वसहिं गेण्हति अन्नत्थ।।४६|| यदि वेलायां स्थान प्राप्तास्तर्हि समकालमेव सर्वेषां प्रवेशनम् / अथ पुनः प्रगे प्रभात एव प्राप्ता भवेयुस्तदा तं स्वजनं बहिः स्थापयित्वा वसतिमन्यत्र गृह्णन्ति॥४६॥ पडिपत्तीकुसलेहिं, सहितो ताहे तु वचए तहियं / वास पडिग्गहगमणं,नातिसिणेहाऽऽसणग्गहणं / / 47|| अन्यत्र वसतौ गृहीतायां प्रतिपत्तिकुशलैः सहितस्ततो बहिः-स्थानात् तत्रवसतौ व्रजति, तत्र तावदावासोयावद्भिक्षावेलाः, ततः पतद्रह गृहीत्वा गमन विधेयम्। तत्र यदि प्राप्तायां भिक्षावेलायां पतद्ग्रहं गृहीत्वा व्रजन्ति, तदा तत्कालमेव गृह्णन्ति भक्ताऽऽदि-कम्, अथ भिक्षावेलायामप्राप्तायां तत्र एतद्ग्रहं गृहीत्वा व्रजन्ति, निमन्त्रयन्ति च ते, तदा तत्क्षणमेव यल्लभन्ते तद् गृह्णन्ति। अथ मुहूर्तानुगुण्यतः कृतभिक्षाकाः तत्र गताः, तर्हि यत्र पतद्ग्रहं न नयन्ति, तत्र च गत्वा नातिस्नेहः स्यज्ञातकाला दर्शनीयः, यदि पुनरतिस्नेहं दर्शयति, ततः-अनुरक्तोऽस्माकमिति ज्ञात्वा ते उप-सर्गयेयुः / तथा तत्र गतेनाऽऽसनपरिग्रहः कर्तव्यः, न पुनरेवं चिन्तनीयम्- "आसंदीपलियंकेसुमंचमासालयेसु वा / अणायरियमजाणं, आसइत्तु सइत्तु वा" ||1|| ()आसनपरिग्रहाभावे हि अपभ्राजना भवति। तस्मादासने उपवेष्टव्यम्॥४७॥ सयमेव उ धम्मकही, सासणपण्णे य निम्मुहे कुणति। अपडुपण्णे य तहिं, कहेइ तल्लद्धिओ अण्णो // 48|| यदि स स्वज्ञातिकसाधुः धर्मकथायां कुशलप्रायः शासनप्रत्यनीकाँश्च निरुत्तरान् कर्तुं समर्थः, ततः स्वयमेव तस्यधर्मकथा कथनीया भवति। अथ सोऽप्रत्युत्पन्नोऽनागमिकः प्रतिपत्त्यकुशलो वा तदा तरिमन्नप्रत्युत्पन्नेऽन्यस्तल्लब्धिको धर्मकथालब्धिसंपन्नः प्रत्युत्तरदानलब्धिसंपन्नश्च कथयति॥४८॥ मलिया य पीढमद्दा, पव्वजाए य थिरनिमित्तं तु।
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________________ णायविहि 2008 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायविहि थावच्चापुत्तेणं, आहरणं तत्थ कायव्वं // 46|| "पीढमद्दा नाम मुखप्पियजंपगा, ते पव्वजाओभावणावयणाणि भणिजति, ते य पडिवात्तकुसलेणं कहएणं मलिया महिया भवति'' इति चूर्णिः / स्थिरीकरणानमित्तं तत्र धर्मकथायां स्थापत्यापुत्रेण ज्ञाताधर्मकथाप्रसिद्धनाऽऽहरणं कर्तव्यम् // 46 / / कहिए व अकहिए वा, जाणणहेउं अइंति भत्तघरं / पुवाउत्तं तहियं, पच्छाउत्तं व जाणंति // 50|| धर्मे कथिते, अकथिते वा भिक्षाग्रहणवेलायामुद्रमाऽऽदिशुद्धिज्ञानार्थ भक्तगृहं महानसं प्रविशन्ति, प्रविश्य च यत्तत्र पूर्वायुक्तं पूर्वप्रवृत्तभुपस्क्रियमाणं,पश्चादायुक्तं यत्तेषु साधुष्वागतेषु तन्निमित्तमुपस्क्रियमाणं तत्परिभावयन्ति // 50 // पूर्वायुक्तमित्यत्र व्याख्यानद्वयं परमतेन दर्शयतिपुव्वाउत्ताऽऽरुहिते, केसिं वि समीहियं तु जं तत्थ। एए न होंति दोण्णि वि, पुव्वपवत्तं तु जं तत्थ // 51 // केचिद् व्याचक्षतेपूर्वायुक्त नाम चुल्यां पाकार्थमारोपितम् / केपाश्चित्पुनरिदं व्याख्यानम्-यत्तत्र समीहितं पाकाय दौकितम् / एतौ द्वावप्यादेशौ प्रमाण न भवतः, तस्मादिदं व्याख्यानम्-यत्तत्र गृहस्थानां पूर्वप्रवृत्तमुपस्क्रियमाण तत्पूर्वायुक्तमिति / / 51 / / अथ कस्मादितरदादेशद्वयं न प्रमाणमत आह-- पुव्वाऽऽरुहिते य समी-हिए य किं छुभइ न खलु अण्णं? तम्हा खलु जं उचियं, तं तु पमाणं न इतरं तु // 52 // पूर्व चुल्यामारोपिते समीहिते वा किं न क्षिप्यते? इति भावः / तस्मात् खलु यदुचित्तं व्याख्यानं, तत्प्रमाण, नेतरत्परकीयमादेशद्वयम्॥५२॥ बालगपुच्छाऽऽदीहिं,नाउं आयरमणायरेहिं च। जं जोग्गं तं गेण्हइ, दव्यपमाणं च जाणेज्जा / / 53 / / बालकपृच्छाऽऽदिभिरादिशब्दाद् बालकोल्लापाऽऽदिभिश्च पिण्डनियुक्तिप्रसिद्धैः, तथा आदरानादराभ्यां च योग्यमयोग्यं विज्ञाय तत्र च यद् योग्यं श्रमणप्रायोग्यं प्रतिभाति तत् गृह्णाति वरवृषभः / द्रव्यप्रमाणं च जानीयात्-कियत् कुटुम्बमन्यद्वा? भोजनं कियद् वा रद्धमित्येवं यद् यावत् प्रायोग्यं प्रतिभासते, तावद् गृह्णीयात् // 53 / / संप्रत्येतदेव सविशेषतरमाहदव्वपमाणं गणणा, खारिय फोडिय तहेव अद्धा य / संदिग्ग एगठाणे, अणेगसाहूसु पन्नरस // 54|| द्रव्यं प्रमाणं नाम द्रव्याणां गणना / यथा-एतावन्तोऽत्रौदन भेदाः, एतावन्ति च शाकविधानानि, इयन्तश्च खाद्यविशेषाः, एतावन्ति च द्राक्षापानकाऽऽदीनि, तथा क्षारितानि लवणखरण्टितानि शालकानीत्यर्थः / स्फोटितं जीरकहिड्गुधूपवासितम्। एतत्सर्व ज्ञातव्यम्। तथा अद्धा कालो भिक्षायाः ज्ञातव्यः, अन्यथाऽवष्वष्कणाऽऽदयो दोषाः स्युः / तथा संविना एकस्थाना एकसाटाऽऽत्मकाः प्रविशन्ति, ततः / कल्पते, अनेकसाधुषु अनेकेषु साधुसङ्घाटेषु प्रविशत्सु न कल्पते, यतस्तत्र नियमादाधाकर्मसहिता औद्देशिकाऽऽदयः पञ्चदश दोषाः॥५४॥ एतदेव विवरीषुः प्रथमतो द्रव्यप्रमाणमाहसत्तविहमोदणो खलु, साली वीही य कोद्द जवे य / गोहुमरालगआरण्णकूर खज्जा यऽणेगविहा / / 5 / / सप्तविधो, मकारोऽलाक्षणिकः, ओदनः कूरः, तथा-शालिःकलमशाल्यादिकूरः, व्रीहिः सामान्यतन्दुलौदनः, कोद्रवकूरो, यवकूरः, गोधूमकूरो, रालककूरः, अकृष्टपच्याऽरण्यब्रीहिकूरश्च, खाद्यानि च अनेकविधानि // 5 // सागविहाणा य तहा, खारियमादीणि वंजणाई वा। खंडाऽऽदिपाणगाणि य, नाउंतेसिं तु परिमाणं // 56 / / शाक विधानानि प्राजमनकानि, क्षारिताऽऽदीनि, आदिशब्दात् स्फोटितपरिग्रहः, व्यञ्जनानि, तथा खण्डानि, पानकानि, आदिशब्दाद् द्राक्षाऽऽदिपरिग्रहः / तेषामोदनाऽऽदीनां परिमाणं ज्ञात्वा / / 56|| किमिति? आहपरिमियभत्तगदाणे, दसुवक्खमियम्मि एगभत्तट्ठो। अपरिमिते आरेण वि, गेण्हइ एवं तु जं जोग्गं / / 57 / / परिमितभक्तदाने परिमितानां भक्त कमेभिर्दा तव्यमिति निश्चये यावद्दशानां योग्यमुपस्कृतं तावत्येकभक्तार्थों ग्राह्यः एकयोग्यं तत्र भक्तं ग्राह्यमिति भावः / अपरिमिते अपरिमितभक्तकदाने दशानामारतोऽपि नवानामष्टानां वा योग्यं यदुपस्कृतम्, तत्रैवं स्थानपरिमाणचिन्ताध्यतिरेकेण यद् योग्यं तद् यावत् पर्याप्तं गृह्णाति॥५७।। अद्धाय जाणियय्वा, इहरा ओसक्कणाऽऽदयो दोसा। संविग्गे संघाडो, एगो इयरेसुन विसंता / / 58|| अद्धा भिक्षावेला ज्ञातव्या, इतरथाऽवष्वष्कणाऽऽदयो दोषा भवेयुः। तथा 'संविगे' संविग्नानामेकः सङ्घाटो यत्र प्रविशति तत्र गन्तव्यम्। इतरेषु यत्र बहवः सङ्घाटकाः प्रविशन्ति, तत्र न गच्छन्ति।।५८|| तेहिं गिलाणगस्सा, अहागडाइं हवंति सव्वाई। अभंगसिरावेहो, अपाणछेयावणेज्जाई।।५।। यदि स्वजनाना संबन्धी कोऽपि ग्लानो वर्तते, ततस्तस्य चिकित्सा वैद्यः करोति / यदि वा-वैद्यः साधुस्वजनाना, स्वजनोऽस्य कस्यापि ग्लानस्य क्रियां करोति, ततस्तत्र ग्लानो ज्ञातविधि नीयते, यतस्तत्र ग्लानस्याभ्यङ्गं शिरावेधोऽपानमपानकर्म छेदेनापनीयानि छेदापनीयानि, एतानि सर्वाणि यथाकृतानिपुरः कर्मपश्चात्कर्मरहितानि भवन्ति // 56 // एतदेव स्पष्ट भावयतिजइ नीयाण गिलाणो, नीओ विज्जो व कुणइ अन्नस्स। तत्थ हुन पच्छकम्म, जायइ, अब्भंइमाईसु // 6 // यदि निजकानां संबन्धी ग्लानो, वैद्यो वा निजकोऽन्यस्य कुरुते चिकित्सा, तत्र 'हु' निश्चितं, न पश्चात्कर्माभ्यङ्गाऽऽदिषु जायते। कथं न जायते? इत्याहपुव्वं च मंगलट्ठा, उप्पेउं जइ करेइ गिहियाणं / सिरवेधवत्थिकमाइएसुन उपच्छकम्मोऽयं // 61 / / पूर्व यदि मङ्गलार्थं साधौ ‘उप्पेय' देशीपदमेतत् अभ्यङ्ग कृत्वा, पश्चाद् गृहिकाणां गृहस्थानां करोत्यभ्यङ्गम्, एतत् पश्चात्कर्म
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________________ णायविहि 2006 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायाधम्मकहा न भवति / एवं शिरावेधवस्तिकर्माऽऽदिष्वपि पूर्व साधौ कृत्वा पश्चाद् आभवनव्यवहारः / तानि चान्यानि कार्याणि कारणानीमानि॥६८|| गृहस्थेषु क्रियमाणेषु न पश्चात्कर्म / / 61 / / तान्येवाऽऽहअत्तट्ठा उवणीया, ओसहमादी हवंतिते चेव। तवसोसिय अप्पायण, ओमे य असंथरंत गच्छेज्जा। पत्थाऽऽहारो य तहिं, अहाकडो होइ साहुस्स / / 62 / / रमणिजं वा खेत्तं, तिकालजोग्गं तु गच्छस्स // 66 // आत्माऽर्थ यान्युपनीतानि औषधाऽऽदीनि गृहस्थैः, तान्यव साधोरपि तपसा विकृष्टन शोषितस्तपः शौषितः, स्वजनाश्व प्रचुरदानाः, तत भवन्ति, पथ्याऽऽहारोऽपि च तत्र साधोर्यथाकृतो भवःते, न ततः आप्यायननिमित्तं सपरिवारो ज्ञातविधि व्रजेत् / अथवा-अवमं दुर्मिक्ष पश्चात्कर्म // 62 / / ज्ञातं, तत्रासंस्तरन्तो ज्ञातविधिं गच्छेयुः, रमणीयं वा तत् क्षेत्रं गच्छस्य अगिलाणे उ गिहिम्मी, पुव्वुत्ताए करेंति जयणाए। त्रिकालयोग्य, ततो गच्छन्ति // 66 / / अण्णत्थ पुण अलंभे, नायविहिं नेंति अन्नतरं / / 6 / / त्रिकालयोग्यतामेव भावयतियदि निजकानां संबन्धी न कश्चिद् ग्लानो, नाऽपि निजको वैद्यो- वासे निचिक्खिल्लं, सीयल दव पउरमेव गिम्हासु। ऽन्यच चिकित्सां करोति, तदा गृहिणि गृहस्थे अग्लाने, अन्यत्र पूर्वोक्तया सिसिरे य घणनिवाया, वसही तह घट्ट मट्ठा य 70|| यतनयापूर्वं कल्पाध्ययने ग्लानसूत्रे चिकित्सा यतना उक्ता, तया वर्षे वर्षाकाले 'निचिक्खिल्लं' कर्दमाभावः, ग्रीष्भेषु ग्रीष्मकाले प्रचुर चिकित्सा कुर्वन्ति। तथाऽन्यत्रौषधीनां लाभो नास्ति। तत आह–अन्यत्र शीतलं द्रवं लभ्यते, शिशिरे शीतकाले घनमतिशयने निर्वाता पुनरौषधीनामलाभे ज्ञातविधिमन्यतरं तं ग्लानं नयन्ति / तदेवं वसतिर्लभ्यते घृष्टा मृष्टा च // 70|| ग्लानविधिरप्युक्तः // 63|| छिणमंडवयं च तयं, सपक्खपरपक्खविरहितोमाणं / सम्प्रति लाभचिन्तायामाभवनविधिमाह पत्तेय उग्गह त्तिय, काऊणं तत्थ गच्छेज्जा // 71 / / अहुणा तु लाभचिंता, तत्थ गयाणं इमा हवइ तेसिं! यदन्यत् क्षेत्रं गन्तव्यं तच्छिन्नमण्डपं, यत्र तु स्वजनाः सन्ति जइसव्वेगाऽऽयरियस्स होंति तो मग्गणा नऽत्थि॥६॥ तत्स्वपक्षपरपक्षकृतापमानविरहितम् / गाथायामपमानशब्दस्याअधुना तेषां तत्र गतानां ज्ञातविधौ गतानामियं लाभचिन्ता भवति / ऽन्यथानिपातः प्राकृतत्वात् / प्रत्येकं ग्लानबालाऽऽदीनामवग्रह यदि ते धर्मकथ्यादयः सर्वेऽप्येकस्याऽऽचार्यस्य भवन्ति, तर्हि नाऽस्ति उपष्टम्भश्च जायते, इति कृत्वा इति हेतोः, तत्र ज्ञातविधौ गच्छेत् / मार्गणा; सर्वमाचार्यस्याऽऽभवतीति भावः // 64 // उवदेसं काहामि य, धम्मं गाहिस्स पव्वयाविस्सं। संतासंती अहवा, अण्णगणा जे वितीयगा नीया। सङ्घाणि व बुग्गाहे, मिच्छुगमादी ततो गच्छे // 72 / / तत्थ इम मग्गणा ऊ, आभव्वे होइ नायव्वा // 65 / / धर्मोपदेशं वा स्वजनानां करिष्यामि / यदि वा-धर्म श्रावकधर्म सद्भावो नाम सन्ति साधवः, परं न धर्मकथाऽऽदिषु कुशलाः, ग्राहयिष्यामि / अथवा-ते निष्क्रामतुकामा वर्तन्ते, ततः प्रव्राजअरपद्भावोमूलत एव न सन्ति साधवः / एवं सद्भावेनासद्भावेन वा यिष्यामि, दानश्रद्धानि वा तानि कुलानि भिक्षुकाऽऽदि व्युद् ग्राहयेत्, येऽन्यगणसत्का द्वितीयका नीताः, तेषामियमाभाव्ये मार्गणा भवति तत एतैः कारणैतिविधिं गच्छेत्। व्य०६ उ०। ज्ञातव्या // 65 // णायव्व त्रि०(ज्ञातव्य) स्वरूपतोऽवबोधव्ये, आव०५ अ०। उत्ता दर्शा तामेवाऽऽह णायसंग पुं०(ज्ञातसङ्ग) पुत्राऽऽदिसंबन्धे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०) जंसो उवासामेती, तन्निस्साए य आगया जे तु। "विबद्धो नायसंगेहिं / " ज्ञातसङ्गैर्विबद्धो मातापितृपुत्रकलते सव्वे आयरितो, लभते पव्वायगो तस्स // 66|| त्राऽऽदिमोहितः। सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। सज्ञातविधिमागतः सन्यमुपशमयति प्रव्रज्यापरिणाम ग्राहयति, येच णायसंड न०(ज्ञातखण्ड) कुण्डपुराद् बहिरुद्याने, आ०म०१ अ०२ तन्निश्रया तस्य ज्ञातविधिमागतस्य निश्रयास्वजनोऽस्माकमिति बुद्ध्या खण्ड / यत्र वीरस्वामी प्रव्रजितः। आचा०२ श्रु०३ चू०१ अ०। आ०म०। तत्समीपमागताः, तान् सर्वान, योज्ञातविधिंद्रष्टुमागतः, तस्यसाधोर्यः कल्प प्रव्राजक आचार्यः, स लभते। णायागय त्रि०(न्यायागत) द्विजक्षत्रियविट्शूद्राणां स्ववृत्त्यनुष्ठाजे पुण अह भावेणं धम्मकही सुंदरो त्ति वा सोउं। नलक्षणेन लोकव्यवहार्येण न्यायेन प्राप्ते, आव०६ अ०। आउ-वसामिय तेहिं,तेसिं चिय ते हवंती उ॥६७|| णायाधम्मकहा स्त्री०(ज्ञाताधर्मकथा) ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना ये पुनः यदि वा ये-सुन्दरो धर्मकथी इति श्रोतुमागताः सन्तः, धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा। अथवा-ज्ञातानि ज्ञाताध्ययनानि प्रथमश्रुतवैर्धर्मकथ्यादिभिरुपशामिताः प्रव्रज्यापरिणाम ग्राहिताः, ते तेषामेव स्कन्धे, धर्मकथा द्वितीये यासु ग्रन्थपद्धतिषु ता ज्ञाताधर्मकथाः, भवन्ति // 67 // पृषोदराऽऽदित्वात् पूर्वपदस्य दीर्घान्तता। षष्ठेऽङ्गे (ज्ञा०) अण्णेहि कारणेहि य, गच्छंताणं तु जयण एसेव। तत्र जन्बूस्वामी सुधर्माणं गणधरमेवं पप्रच्छववहारो सेहस्स य, ताइंच इमाई कजाइं॥६८|| तते णं से अजजंबूणामे जायसवे जायसंसए जायकोऊहले व्यास्तां स्वजनवन्दापनाय, ग्लानप्रयोजनेन वा ज्ञातविधिं गतानां संजायसवे संजायसंसए संजायकोऊहले उप्पण्णसड्ढे उप्पयतना प्रागुक्ता भवति, अन्य कारणैर्वक्ष्यमाणैतिविधि गच्छ- ण्णसंसए उप्पण्णकोऊहले समुप्पण्णसवे समुपप्पणसंसए तामेषेवाऽनन्तरोदिता यतना-एषैव शैक्षस्य विषये अनन्तरोदित | समुपप्पणकोऊहले उठाए उठेति, उट्ठाए उद्वित्ताजेणामेव अजसुहम्मे
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________________ णायाधम्मकहा 2010- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णायाधम्मकहा थेरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छ इत्ता अजसुहम्मे थेरे / तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेइ, करेइत्ता वंदति, नमसति, / वंदित्ता नमंसित्ता अजसुहम्मस्स थेरस्स नचासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पजुवासमाणे एवं वयासी जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसपुंडरीएणं पुरिसपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहेणं लोगगहिएणं लोगपईवेणं लोगपञ्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं बोहिदएणं धम्मदयेणं धम्मदेसएणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेणं जिणेणं जावएणं बुद्धेणं बोधएणं मुत्तेणं मोयगेणं तिन्नेणं तारएणं सिवमयलमरूवमणंतमक्खयमव्वावाहमपुणरावत्तयं सासयं ठाणमुवगएणं पंचमस्स अंगस्स विवाहपन्नत्तीए अयमढे पन्नत्ते / छट्ठस्स णं अंगस्स भंते ! णायाधम्मकहाणं के अढे पण्णत्ते ? जंबू ! ति अजसुहम्मे थेरे अजजंबूनामं अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं० जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता / तं जहानायाणि य, धम्मकहातो य / ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। ('णायज्झयण' शब्देऽत्रैव भागे 2003 पृष्ठे 'धम्मकहा' शब्दे च श्रुतस्कन्धाऽध्ययनानि द्रष्टव्यानि) विषयःसे किं तं नायाधम्मकहाओ ? नायाधम्मकहासु णं नायाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो / अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइया परलोइया इडिविसेसा भोगपरिव्वाया पव्वज्जाओ परियाया सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई संलेहणाओ भत्तपचक्खाणाई पावोवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुले पचायाइओ पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ आधविजंति दस धम्मकहाणं वग्गा / तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई, एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाई, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयासयाई, एवमेव सपुव्वावरेणं अद्भुट्ठाओ कहाणगकोडीओ हवंति त्ति मक्खायं / नायाधम्मकहाणं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखेज्जा वेढा संखेजा सिलोगा संखेजाओ निजुत्तीओ संखेजाओ संगहणीओ संखेजाओ पडिवतीओ से णं अंगठ्ठायाए छ8 अंगे दो सुयक्खंधा एगूणवीसं अज्झयणा एगूणवीसं उद्देसणकाला एगूणवीसं समुद्देसणकाला संखिज्जा पयसहस्सा पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अणंतागमा अणंता पञ्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविनंति पन्नविशंति परूविजंति दंसिजति निदंसिर्जति उवदंसिजंति, से एवं आया एवं / नाया एवं विन्नाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ, सेत्तं नायाधम्मकहाओ॥६॥ "से किं तं" इत्यादि / अथ कास्ता ज्ञाताधर्मकथाः? ज्ञातानि उदाहरणानि, तत्प्रधानाः धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथाः। अथवा-ज्ञातानि ज्ञाताध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कन्धे धर्मकथा, द्वितीये यासु ग्रन्थपद्धतिषु ताज्ञाताधर्मकथाः, पृषोदराऽऽदित्वात् पूर्वपदस्य दीर्घान्तता। सूरिराहज्ञाताधर्मकथासु, णमितिवाक्यालङ्कारे, ज्ञातानामुदाहरणभूतानां, नगराऽऽदीन्याख्यायन्ते।तथा-(दस धम्मकहाणं वग्गा इत्यादि) इह हि प्रथमश्रुतस्कन्धे एकोनविंशति-ताध्ययनानि। ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधानान्यध्ययनानि / द्वितीयश्रुतस्कन्धे दश धर्मकथाः धर्मस्याहिंसाऽऽदिलक्षणस्य प्रतिपादिकाः कथाः धर्मकथाः / अथवाधर्मादनपेताधाः , धाश्च ताः कथाश्वधर्मकथाः। तत्र प्रथमे श्रुतस्कन्धे यान्येकोनविंशतिर्शाताध्ययनानि, तेषु आदिमानि दश ज्ञातानि ज्ञातान्येव, न तेष्वाख्यायिकाऽऽदिसंभवः / शेषाणि पुनः नव ज्ञातानि, तेष्वेकैकस्मिन् चत्वारिंशानि पञ्च पञ्चाऽऽख्यायिकाशतानि भवन्ति। एकैकस्यां चाख्यायिकायां पञ्च पञ्चोपाख्यायिकाशतानि / एकैकस्यां चोपाख्यायकायां पञ्च पञ्चाऽऽख्यायिकाशतानि। सर्वसंख्यया एकविंश कोटिशतं लक्षाः पञ्चाशत्। तत एवं स्थिते प्रस्तुतसूत्रस्याऽवतारः। आह च टीकाकृत- ''इगवीस कोडिसयं, लक्खा पन्नास चेव होइ बोधव्वा। एवं कए समाणे, अहिगयसुत्तस्स पत्थाओ / / 1 / / " द्वितीयश्रुतस्कन्धे दश कथाना वर्गाः, वर्गः समूहो, दशधर्मकथासमुदाय इत्यर्थः / अत एव च दशाध्ययनानि एकस्यां धर्मकथायां, कथासमूहरूपायामध्ययनप्रमाणायां पञ्च पञ्चाऽऽख्यायिकाशतान्येकैकस्यां चाऽऽख्यायिकायां पञ्चपशोपाख्यायिकाशतानि, एकै कस्यां चोपाख्यायिकायां पञ्चपञ्चाऽऽख्यायिकाशतानि, सर्वसंख्यया पञ्चविंशं कोटिशतम्। इह नव ज्ञाताध्ययनसंबद्धाऽऽख्यायिकाऽऽदिसदृशा या आख्यायिकाऽऽदयः पञ्चाशल्लक्षाधिकैकविंशति कोटिशतप्रमाणाः, ता अस्मात् पञ्चविंशतिकोटिप्रमाणाद्राशेः शोध्यन्ते, ततः शेषा अपुनरुक्ता अर्द्धचतुर्थाः कथानक--कोट्यो भवन्ति / तथा चाऽऽह--एवमेवोक्तप्रकारेणैव गुणने शोधनेच कृते सपूर्वापरेण श्रुतस्कन्धाः पूर्वापरश्रुतस्कन्धकथाः समुदिता अपुनरुक्ताः (अद्भुट्ठाओ ति) अर्द्धचतुर्थाः कथानककोटयों भवन्तीत्याख्यातं तीर्थकरगणधरैः / आह च टीकाकृत्- "पणवीस कोडिसय, एत्थ य समलक्खणा इमा जम्हा। नव नायासंबद्धा, अक्खाइयमाइया तेणं / / 1 / / ता सोहिजंति फुडं, इमाओं रासीऔं वेगलाणं तु। पुणरुत्तवज्जियाणं, पमाणमेयं विणिघिद्वं // 2 // " तथा ''नायाधम्मकहाणं परित्ता वायणा'' इत्यादि सर्व प्राग्वद् भावनीयम, यावन्निगमनं, नवरं संख्ये यानि पदसहस्राणि, पदाग्रेण पदपरिमाणेन च तानि पहा लक्षाः षट् सप्ततिसहस्राः, पदमपि चात्रौपसर्गिक, नैपातिकं, नामिकमाख्यातिकं, मिश्र चेति
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________________ णायाधम्मकहा 2011 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णारग वेदितव्यम् / तथा चाऽऽह चूर्णिकृत्- "पयग्गेण ति-उवसग्गपयं, निवायपयं, नामियपयं, अक्खायपदं, मिस्सपयं च। एए पए अहि-किच पंचलक्खा छावत्तरिसहस्सा पयग्गेणं भवंति।" अथवा-इह पदं सूत्रालापकरूपमुपगृह्यते, ततः तथारूपपदापेक्षया संख्येयानि पदसहस्राणि भवन्ति, न लक्षाः / आह च चूणिकृत्-"अथवा सुत्तालावगपयग्गेणं संखेज्जाई पयसहस्साई भवंति ति।" न०। स० आया अनु०। सूत्र०ा ग्रन्थान्ते टीकाकारोऽभयदेवसूरिः-समाप्ता चेयं ज्ञाताधर्मकथाप्रदेशटीकेति। "नमः श्रीवर्द्धमानाय, श्रीपार्श्वप्रभवे नमः। नमः श्रीमत्सरस्वत्यै, सहायेभ्यो नमो नमः ||1|| इह हि गमनिकाथ , यन्मयाऽभ्यूहयोक्तम्, किमपि समयहीन, तद्विशोध्यं सुधीभिः। न हि भवति विधेया सर्वथाऽस्मिन्नुपेक्षा, दयितजिनमतानां तायिनां चाङ्गिवर्गे // 2 // परेषां दुर्लक्षा भवति हि विवक्षा फुटमिदं, विशेषादृद्धानामतुलवचनज्ञानमहसाम्। निराम्नायाधीभिः पुनरतितरां मादृशजनैः, ततः शास्त्रार्थे मे वचनमनघं दुर्लभमिह // 3 // ततः सिद्धान्ततत्त्वज्ञैः, स्वयमूह्यः स यत्नतः। न पुनरस्मदाख्यात, एव ग्राह्या नियोगतः॥४॥ तथाऽपि माऽस्तु मे पापं, सद्धमत्युपजीवनात्। वृद्धन्यायानुसारित्वात्, हितार्थं च प्रवृत्तितः / / 5 / / तथाहि किमपि स्फुटीकृतमिह स्फुटेऽप्यर्थतः, सकटमतिदेशतो विविधवाचनातोऽपि यत्। समार्थपदसंश्रयाद्विगुणपुस्तकेभ्योऽपि यत्, पराऽऽत्महितहेतवेऽनभिनिवेशिना चेतसा // 6 // यो जैनाभिमतं प्रमाणमनघं व्युत्पादयामासिवान, प्रस्थानैर्विविधैर्निरस्य निखिलं बौद्धाऽऽदिसंबन्धि तत्। नानावृत्तिकथाः कथापथमतिक्रान्तं च चक्रे तपो, निःसंबन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा // 7 // तस्याऽऽचार्यजिनेश्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्धिनः, तबन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि। छन्दोबन्धनिबद्धबन्धुरवचः शब्दाऽऽदिसल्लक्ष्मणः, श्रीसंविग्नविहारिणः श्रुतनिधेश्वारित्रचूडामणेः॥८॥ शिष्येणाभयदेवाऽऽरख्यसूरिणा विवृतिः कृता। ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य, श्रुतभक्त्या समासतः / / / " ज्ञा०२ श्रु०१० वर्ग 1 अग णारइय पुं०(नारयिक) नैरपिके नरकपृथिवीषूत्पन्ने, प्रा०२ पाद। णारग पु०(नारक) नरकेषु भवानारकाः। नरको वा विद्यते येषां ते नारकाः / नरकपृथिवीषूपूपन्नेषु जीवेषु, नं०ा आ०म०। प्रव०। कर्म०। आवा नारकाऽस्तित्वसिद्धिःकिं मण्णे नेरइया, अस्थि नऽत्थि त्ति संसओ तुझं। वेयपयाण य अत्थं, न जाणसी तेसिमो अत्थो।।१८५७।। किं नारकाः सन्ति, न वा? इति त्वं मन्यसे / अयं च तव संशयो विरुद्धवेदपदश्रवणनिबन्धनः / तथाहि-"नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति' इत्यादि / एष ब्राह्मणो नारको जायते यः शूद्रानमश्नातीत्यर्थः; इत्यादीनि वाक्यानि नारकसत्ताप्रतिपादकानि, "न ह वै प्रेत्य नारकाः सन्ति' इत्यादीनि तु नारकाभावप्रतिपादकानि, तत्रैषां वेदपदानामर्थ, चशब्दाधुक्तिहृदयं च त्वं न जानासि,यत एतेषामयं वक्ष्यमाणोऽर्थ इति // 1887 / / अत्र भाष्यम्तं मन्नसि पचक्खा , देवा चंदाऽऽदओ तहऽन्ने वि। विजामंतोवायणफलाइसिद्धाऍ गम्मंति॥१९५८|| जे पुण सुइमेत्तफला, नेरइय त्ति किह ते गहेयव्वा। सक्खमणुमाणओ वाऽणुवलंमा भिन्नजाईया? // 1586 हे आयुष्मन्नकम्पित ! त्वमेवं मन्यसेदेवास्तावच्चन्द्राऽऽदयः प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धा एव, अन्ये त्वप्रत्यक्षा अपि विद्यामन्त्रोपयाचितकाऽऽदिफलसिद्ध्याऽनुमानतो गम्यन्ते, ये पुनः "नारका" इत्यभिधानमात्ररूपा श्रुतिरेव फलं येषां, नपुनः तदभिधायकशब्दव्यतिरिक्तोऽर्थः, ते साक्षात, अनुमानतो वाऽनुपलभ्यमानत्वेन तिर्यड्नरामरेभ्यः सर्वथा भिन्नजाता याः कथं 'सन्ति' इति गृहीतव्याः, खरविषाणवद्? इति // 1888 // 1886 / / अथ भगवानुत्तरमाहमह पचक्खत्तणओ, जीवाई य व्व णारए गिणह। किं जं सप्पचक्खं, तं पचक्खं नवरि इकं? |1860 // जं कासइ पच्चक्खं, पञ्चक्खं तं पि घेप्पइ लोए। जह सीहाऽऽइदरिसणं, सिद्धं न य सव्वपञ्चक्खं // 1861 / / हे आयुष्मन् ! अकम्पित ! साक्षादनुपलभ्यमानत्यादित्यसिद्धो हेतुः, यतोऽहं केवलप्रत्यक्षेण साक्षादेव पश्यामि नारकान, ततो मत्प्रत्यक्षत्वात् 'सन्ति' इति गृहाण प्रतिपद्यस्व नारकान, जीवा-जीवाऽऽदिपदार्थवत्। अथैवं मन्यसेममाप्रत्यक्षत्वात्कथमेतान् गृहामि? ननु दुरभिप्रायोऽयम्, यतः किं यत् स्वस्याऽऽत्मनः प्रत्यक्षं तदेवैकं नवरं प्रत्यक्षमुच्यते? इति काक्वा नेयम् / ननु यदपि कस्यचित् प्रत्ययितपुरुषस्यान्यस्य प्रत्यक्षं, तदपि प्रत्यक्षमिति गृह्यते व्यवहियते लोके / तथाहि- सिंहसरभहंसाऽऽदिदर्शनं सिद्धं प्रसिद्ध लोके, नच सिंहाऽऽदयः सर्वजनप्रत्यक्षाः, देशकालग्राम-नगरसरित्समुद्राऽऽदयश्चन सर्वेऽपि भवतः प्रत्यक्षाः, अथ चान्यस्यापि प्रत्यक्षास्ते प्रत्यक्षतयो व्यवहियमाणा दृश्यन्ते, अतो मत्प्रत्यक्षा नारकाः किमिति प्रत्यक्षतया न व्यवलियन्ते? इति // 1860||1861 // अथाभिप्रायान्तरमाशक्य परिहरन्नाहअहवा जमिंदियाणं, पचक्खं किं तदेव पचक्खं? उवयारमेत्तओ तं, पचक्खमणिंदियं तत्थं / / 1862 / / अथवा-कि यदिन्द्रियाणां प्रत्यक्षं तदेव प्रत्यक्षमिष्यते भवता, मदीय तु प्रत्यक्षं नाभ्युपगम्यते, अतीन्द्रियत्वात्? ननु महानयं विपर्यासः, यस्मादुपचारमात्रत एव तदिन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रत्यक्षतया व्यवहियते यथाऽनुमाने बाहाधूमाऽऽदिलिङ्ग द्वारेण बाह्यमग्न्यादि वस्तु ज्ञायते, नैवमत्र, तत उपचारात् प्रत्यक्षमिव प्रत्यक्षमुच्यते। परमार्थतस्तुइदमपि परोक्षमेव, यतोऽक्षो जीवः, सचानुमानवदत्रापि वस्तु साक्षाद् न पश्यति,किं
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________________ णारग 2012 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णारय त्विन्द्रियबारेणैव, ततोऽतीन्द्रियमेव तथ्यं प्रत्यक्षमवगन्तव्यम्, तत्र जीवन नारकाः सन्ति, किन्तु य इहोत्कृष्ट पापमर्ज यति, स इतो गत्वा प्रेत्य साक्षादेव वस्तुन उपलम्भादिति // 1862 / / (विश०) नारको भवति, अतः केनापि तत्पापं न विधेयं, येन प्रेत्य नारकैर्भूयते। __ अनुमानं त्विदम् विशे०। आ०म०। सूत्रकृदङ्ग प्रथम-श्रुतस्कन्धचतुर्थाध्ययनवृत्तीपावफलस्स पगिट्ठस्स भोइणो कम्मओऽवसेस व्व। “छिन्नपादभुजस्कन्धाः, छिन्न-कर्णोष्ठनासिकाः। छिन्नतालुशिरोमेद्राः, संति धुवं तेऽभिमया, नेरइया अह मई होजा।।१८६६।। भिन्नाक्षिहृदयोदराः" / / 1 / / इत्युक्तम्, तत्र नारकाणां नपुंसकत्वे छिन्नमेढ़ा इति कथमिति प्रश्ने, उत्तरम्-नारकाणां नपुंसकत्वेऽपि मेद्रसत्ता न अन्नत्थदुक्खिया जे, तिरियनरा नारग त्ति तेऽभिमया। विरुद्ध्यते, “महिलासहावो सरवन्नभेओ, मेढि मडतंमउआयवाणी।" तं न जओ सुरसोक्खप्पगरिससरिसंनतं दुक्खं // 1900 / इत्यादिलक्षणस्य पुष्पमालाऽऽदावुक्तत्वादिति / २५६प्र०। सेन०३ प्रकृष्टस्य पापफलस्य भोगिनः केचित् ध्रुवं सन्ति (कम्मओ त्ति) उल्ला०। ('णरग' शब्देऽत्रैव भागे 1917 पृष्ठ सर्वा वक्तव्यतोक्ता) कर्मफलत्वात् तस्य इत्यर्थः / अवशेषवदिति-यथा जघन्यमध्य-- णारगदुक्खोववण्णण न०(नारकदुःखोपवर्णन) नारकाणामुप-- मपापफलभोगिनः शेषाः तिर्यड् नरा विद्यन्त इत्यर्थः, इति दृष्टान्तः। लक्षणत्वाद् तिर्यगादीनां चाऽशर्मोपवर्णने, (ध०) (तेऽभिमया नेरइय त्ति) ये प्रकृष्टपापफलभोगिनः, ते नारका इति तथा चोक्तं धर्मविन्दौअभिनताः / अथ परस्यैवंभूता मतिर्भवेत्, अत्यर्थ दुःखिता ये तिर्य "नारकदुःखोपवर्णनमिति।" नरके भवा नारकाः, तेषामुपलक्षणत्वात् मनुष्याः,तएव प्रकृष्टपापफलभोगित्वान्नारकय्यपदेशभाजो भविष्यन्ति, तिर्यगादीनां च दुःखान्यशर्माणि, तेषामुपवर्णनं विधेयम्। यथाकिमदृष्टनारककल्पनया? इति तदेतन्न / यतोऽतिदुःखितानामपि "तीक्ष्णैरसिभिदीप्तैः, कुन्तैर्विषमैः परश्वधैश्चक्रेः। तिर्यङ्मनुष्याणां यद् दुःखं तदमरसौख्यप्रकर्षसदृशप्रकर्षवन्न भवति। इदमुक्तं भवति-येषामुत्कृष्टपापफलभोगः, तेषां संभवद्भिः सर्वरपि परशुत्रिशूलतोमरमुद्गरवासीभुसण्डीभिः / / 1 / / प्रकारैर्दुःखेन भवितव्यम्, न चैवमतिदुःखितानामपि तिर्यगादीनां दृश्यते, संभिन्नतालुशिरसश्छिन्नभुजाश्छिन्नकर्णनासौष्ठाः। आलोकतरुच्छायाशीतपवनसरित्सरःकूपजलाऽऽदिसुखस्याति भिन्नहृदयोदरान्त्राः, भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्ताः / / 2 / / दुःखितेष्वपि तेषु दर्शनात्-छेदनभेदनपाचनदहनदम्भनवजकण्टक निपतन्त उत्पतन्तो, निचेष्टमाना महीतले दीनाः। शिलाऽऽस्फालनाऽऽदिभिश्च नरकप्रसिद्धैः प्रकारैः दुःखस्यादर्शनाद्, नेक्षन्ते त्रातारं, नैरयिकाः कर्मपटलान्धाः / / 3 / / इत्यादिप्रागुक्तानुसारेण स्वयमेवाभ्यूह्य वाच्यमिति। आगमार्थश्वायमव- क्षुत्तृहिमान्युष्णभयार्दिताना, गन्तव्य इति। पराभियोगव्यसनातुराणाम्, "सततमनुबद्धमुक्तं, दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम्। अहो तिरश्चामतिदुःखितानां, तिर्यसूष्णभयक्षुत्तृडादिदुःखं सुखं चाल्पम्।।१।। सुखानुषङ्गः किल वार्तमेतत्॥४॥ सुखदुःखे मनुजानां, मनःशरीराऽऽश्रये बहुविकल्पे। मानुष्यकेऽपि दारिद्रयरोगदौर्भाग्यशोकमौाणि / सुखमेव तु देवानामल्पं दुःखं तु मनसि भवम्॥२॥" जातिकुलावयवाऽऽदि-न्यूनत्वं चाश्नुते प्राणी / / 5 / / इति // 1866 / 16000 देवेषु च्यवनवियोगदुखितेषु, प्रागनेकशोऽभिहितानुमानतोऽपि नारकान् साधयितुमाह क्रोधेामदमदनातितापितेषु / सचं चेदमकंपिय ! मह वयणाओऽवसेसवयणं व। आर्याः! नस्तदिह विचार्य संगिरन्तां, सव्वण्णुत्तणओ वा, अणुमयसव्वण्णुवयणं व॥१९०१|| यत्सौख्यं किमपि निवेदनीयमस्ति॥६॥'' इति / ध०१ अधिक। नारकाः सन्ति इति सत्यमकम्पित ! इदं, मद्वचनत्वात्, यथाऽवशेष / णारय पुं०(नारद) समुद्रविजयनृपपालिते सौर्यपुरे यज्ञयशसः सुतस्य त्वत्संशयाऽऽदिविषयं मद्वचनम् / अथवा-सर्वज्ञवचनत्वाद् इत्येव / सोममित्रायां जातस्य यज्ञदत्तस्य सोमयशोनामभार्यायां जाते पुत्रे, हेतुर्वक्तव्यः, त्वदनुमतमनुजैमिन्यादिसर्वज्ञवचनवदिति।।१६०१।। आ०० अपि च-- तत्कथाभयरागदोसमोहा-भावाओ सच्चमणइवाइंच। "आसीद्यदा सौर्यपुरे, समुद्रविजयो नृपः। सव्वं चिय मे वयणं, जाणयमज्झत्थवयणं व / / 1902 / / तदा यज्ञयशास्तत्र, तापसस्तस्य वल्लभाः // 1 // (1578 गाथाऽपीयमेव गता।)प्रागनेकधा व्याख्यातेयम्।।१६०२।। सोममित्रा सुतो यज्ञदत्तः सोमयशाः स्नुषा। अकम्पिताऽभिप्रायमाशङ्कयाऽऽत्मनि सर्वज्ञताऽऽदिसाधनाय तत्पुत्रो नारदस्तेषामुञ्छवृत्त्या च भोजनम्॥२॥ भगवानाह तदप्येकान्तरं ते चाऽशोकाधो नारदं सुतम्। किह सव्वण्णु त्ति मई, पच्चक्खं सव्वसंसयच्छेया ! मुक्त्वोञ्छन्ति दिवा यान्तो, जृम्भकास्तेन वर्मना॥३॥ भयरोगदोसरहिओ, तल्लिंगाभावओ सोम्म ! ||1603 / / / ते दृष्ट्वाऽवधिना ज्ञात्वा, स्वनिकायच्युतं ततः। इयमपि व्याख्यातार्था / यदपि 'न ह वै प्रेत्य नारकाः सन्ति'' इत्यादी स्तम्भन्ति स्म तरोश्छायां, मा भूत्तापोऽस्य दुःखकृत्॥४॥ नारकाभावः शङ्कयते भवता, तदप्ययुक्तम्, यतोऽयमत्राभिप्रायो प्रत्यावृत्तैर्ग्रहातस्तैः, शिक्षितो व्यक्तचेतनः। मन्तव्यः न खलु प्रेत्य परलोके मेर्वादिवच्छाश्वताः केचनाप्यवस्थिता / पूर्वप्रेम्णा ददे तस्य, विद्याः प्रज्ञप्तिकाऽऽदिकाः / / 5 / /
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________________ पारय 2013 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णालंदा याति व्योम्ना ततः कृत्वा, पादयोर्मणिपादुके। सुवर्णकुण्डिकापाणिरन्यदा द्वारकां गतः // 6|| आ०क० / औ०। ब्राह्मणपरिव्राजकभेदे, ती० 27 कल्प०। गन्धर्वानीकाधिपतौ गन्धर्वे, स्था०७ ठा०। प्रज्ञा०ा नारदाः सर्वेऽपि मोक्ष एव यान्ति, स्वर्गे वेति प्रश्ने, उत्तरम्-नारदा मोक्ष, स्वर्ग च यान्तीति ऋषिमण्डलवृत्तौ। किञ्चते पूर्व मिथ्यात्विनः पश्चात्सम्यक्त्विन-स्तत्रैवोक्ता इति / अन्यच्च-भीम 1 महाभीम 2 रुद्र 3 महारुद्र 4 काल 5 महाकाल 6 चतुर्मुख 7 नवमुख 8 उन्मुखा ह एवंविधानि तेषां नामान्यपि सन्तीति। 70 प्र०। सेन०३ उल्ला०। नव नारदाः कस्मिन् वाऽऽरके संजाता? इति साक्षरं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्-नव नारदा वासुदेवसमानकालीनाः संभाव्यन्ते, तत्तचरित्राऽऽदिषु तदारके तेषां गमनाऽऽगमनाऽऽदिश्रवणादिति / / १०६प्र०। सेन०३ उल्ला) णारयपुत्त पुं०(नारदपुत्र) स्वनामके वीरजिनानगारे, भ०५ श०७ उ०। (स च ‘णिग्गंथीपुत्त' शब्दे पुद्गलविषयं प्रश्नं करिष्यति) णाराचंद पुं०(नाराचन्द्र) हर्षपुरीयगच्छोद्भवे मलधारिदेवप्रभसूरिशिष्ये, अनेन मुरारिक विकृताऽनर्घराघवटीका, न्यायकन्दलीटीका, ज्योतिषसारः, प्राकृतदीपिका च इत्यादयो बहवो ग्रन्था रचिताः / जै००। णाराय न०(नाराच) यत्रास्थ्न्योरुभयतो मर्कटबन्ध एव केवलं, न पुनः कीलिका ऋषभसंज्ञपट्टश्च तादृशे तृतीये संहनने, जी०१ प्रतिका तका रा०ा स्था०। च०प्र०। कर्म०। सर्वलोहयाणे, पुं०। ज०३ वक्ष०ातं०। स० स्था णारायण पुं०(नारायण) दशरथपुत्र रामभ्रातरि लक्ष्मणनामके अवसर्पिण्या भरतक्षेत्रजे अष्टमे वासुदेवे, प्रव० 210 द्वार / ति०। स० आव०। वासुदेवमात्रे, उत्त० 6 अ० णारिकंतप्पवायदह पुं०(नारिकान्ताप्रपातहृद) यत्र नारिकान्ता महानदी निपतति, यश्च नारिकान्तादेवीद्वीपेन सभवनेन भूषितमध्यभागः तस्मिन् म्यकवर्षीये प्रपातहदे, स्था०२ ठा० ३उ०। णारिकता स्त्री०(नारिकान्ता) रम्यकवर्षे अपरार्णवगायां महानद्याम, सं० 6 वक्ष०। सकारा०। (नीलवद्वर्षधरपर्वते केशरिहदादुत्तरतो निर्गत्य पश्चिमसमुद्रगा नारिकान्ता इति ‘णीलवंत' शब्दे व्याख्यास्यते) णारिकताकूड न०(नारिकान्ताकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य उत्तरेण नीलवतः पर्वतस्य षष्ठे कूटे, स्था०६ ठा०। णारी स्त्री०(नारी) नरस्त्रियाम्, बृ०४ उ०॥ निरुक्तिःपुरिसे कामरागपडिबद्धे नाणाविहेहिं उवायसयसहस्से हिं वहबंधणमाणयंति पुरिसाणं नो अन्नो एरिसो अरी अत्थि त्ति नारीओ। तं जहा-नारीसमा न नराणं अरीओ नारीओ।। (पुरिसे इत्यादि यावत् नारीओ त्ति) 'नारीओ त्ति' खण्डयति। कथम्? ना-आ-अरि इति। नानाविधैरुपायशतसहस्रः कामरागप्रतिबद्धे पुरुषे वधबन्धनं प्रति, आइति-'आणयंति प्रापयन्ति(अरीति) पुरुषाणां च नान्यसदृशोऽरिः शत्रुः, अस्तीति नार्यः। (तं जह त्ति) तत्पूर्वोक्तं, यथेति दर्शयतिनारीसमा न नराणाम् अरयः सन्तीति नार्यः / तं०] "जहा नई वेयरणी, दुत्तरा इह संमता! एवं लोगसि नारीओ, दुतरा अ नई मया 1 // 16 // " सूत्र०१ श्रु०३ अ०४उ०। उत्त०। (स्त्रीपरिज्ञा 'इत्थी' शब्दे द्वितीयभागे 62 पृष्ठे दर्शिता) णारोट (देशी) विले, देना०४ वर्ग। णाल न०(नाल) कन्दोपरिवर्त्यवयवे, जं०४ वक्ष०ा उत्पलाऽऽदि पुष्पाऽऽधारे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० उ०| णालंदइज न०(नालन्दीय) नालन्दायां भवं नालन्दीयं, नालन्दा समीपोद्यानकथनेन वा निर्वृत्तं नालन्दीयम् / सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य षष्ठेऽध्ययने, सूत्रा साम्प्रतं प्रत्ययार्थ दर्शयितुकाम आहनालंदाएँ समीवे, मणोरहे भासि-इंदभूइण्णा ! अज्झयणं उदगस्त उ, एयं नालंदइज्जतु ||4|| (नालंदाए इत्यादि) नालन्दायाः समीपे मनोरथाऽऽख्ये उद्या-ने इन्द्रभूतिना गणधरेणोदकाऽऽख्यनिर्गन्थपृष्ठेन, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् तस्यैव, भाषितमिदमध्ययनम् / नालन्दायां भवं नालन्दीयम्, नालन्दासमीपोद्यानकथनेन वा निवृत्तं नालन्दीयम् / यथा चेदमध्ययनं नालन्दायां संवृत्तं तथा "पासावचिज्जो पुच्छियाइयो अज्जगोयमं! उदगो। सावगपुच्छाधम्म,सोउं कहियम्मि उवसंता।।५।।" सूत्र०२ श्रु०१७ अ० स्था०। प्रश्न०। णालंदा स्त्री०(नालंदा) प्रतिषेधवाचिनो नकारस्य, तदर्थस्यैवा-- लंशब्दस्य, 'हु दा' दाने इत्येतस्य धातोमर्मीलनेन नालं ददातीति नालंदा। इदमुक्तं भवति-प्रतिषेधप्रतिषेधेन धात्वर्थस्यैव प्राकृतस्य गमनात् सदाऽर्थिभ्यो यथाभिलषितं ददातीति नालंदा। राजगृहनगरयाहिरिकायाम्, (सूत्र०) तदिह प्रतिषेधवाचिनाऽलंशब्देनाऽधिकार इत्येतद् दर्शयितुमाहपडिसेहणणगारस्स, इत्थीसद्देण चेव अलसद्दो। रायगिहे नयरम्मी, नालंदा होइ बाहिरिया / / 3 / / (पडिसेहणेत्यादि) सत्यप्यलशब्दस्यार्थत्रये नकारस्य सान्निध्यात् प्रतिषेधविधानादप्येवेह गृह्यते, ततश्च निरुक्तविधा नादयमर्थ:-नालं ददातीति नालंदा बाहिरिका, या स्त्रियोद्देश-कत्वेन च नालशब्दस्य स्त्रीलिङ्गता, सा च सदैवैहिकाऽऽमुष्मिक सुखहेतुत्वेन सुखप्रदा राजगृहनगरबाहिरिका धनकनकसमृद्धत्वेन सत्साध्वाश्रयत्वेन च सर्वकामप्रदेति / सूत्र०२ श्रु०७ अ० आ०म०। सा च बाहिरिका राजगृहनगरादुत्तरस्यां दिशि, तत्र श्रीवीरस्वामी चतुर्दशवर्षारावान कृतवान् / कल्प०६ क्षण। "नालन्दाऽलंकृते यत्र, वर्षारात्राश्चतुर्दश। अवतस्थे प्रभुर्वीरः, तत्कथं नास्तु पावनम् ? // 25 / /
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________________ णालंदा 2014 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णावा यस्यां नैकानि तीर्थानि, नालंदा नायनश्रियाम्। नालिका घटिका लोहमयी कर्तव्या, सा च संस्थानमधिकृत्य भव्यानां जनिताऽऽनन्दा, नालन्दा नः पुनातु सा''।।२६।। दाडिमपुष्याऽऽकारा कर्तव्या, दाडिमपुष्पस्येव आकारः संस्थानं यस्याः ती०११ कल्प। सा तथा। तस्याश्चैवंभूताया नालिकाया मूले अधस्तात् छिद्रं कर्तव्यं, णालबद्ध पुं०(नालबद्ध) पितृभ्रातृपुत्रप्रभृतिके वल्लीबद्धे, (बृ०) तस्य च छिद्रस्य प्रमाणं पूर्वसूरिपरम्परागतं कथयतो मे मम शृणुत। श्रुतोपसंपदि द्वाविंशतिनालवद्धानिलभ्यन्ते, यथा-माता, पिता, भ्राता, छिद्रप्रमाणमेव कथयति-- भगिनी, पुत्रो, दुहिता, मातुर्माता, मातुःपिता, मातु(ता, मातुर्भगिनी। छन्नउयमूलवालेंहि, तिवस्सजाया गयकुमारीए। एवं पितुर्माता, पिता, भ्राता, भगिनी, भ्रातृपुत्रो, दुहिता, भगिन्याः उज्जुकयपिंडिएहि उ, कायव्वं नालियाछिदं / / पुत्रपुत्रिकाः, पुत्रस्य पुत्रः, पुत्रपुत्रिकाः, दुहितुः पुत्रः। पुत्रिका चेति। बृ०४ त्रिवर्षजातायाः त्रीणि वर्षाणि जातायास्त्रिवर्षजाताः,"कालो द्विगौ च उ०। (श्रुतोपसंपवर्णने 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 1014 पृष्ठे, तथा- मैयैः" / / 3 / 1 / 57 / / इतितत्पुरुषसमासः। तस्या गजकुमार्याः षण्णवति'उग्गह' शब्दे 720 पृष्ठे च विस्तरो गतः) संख्यैर्मूलवालैः पुच्छमूलवालैः ऋज्वीकृतपिण्डितैरूव॑मृज्वीकृत्यैकत्र णालंपिअ (देशी) आक्रन्दिते, देवना०४ वर्ग। मीलितैर्नालिकाया अधस्तात् तत्तले छिद्रं कर्तव्यम् / किमुक्तं भवति? णालंबी (देशी) कुन्तले, देवना०४ वर्ग। ऊर्ध्वमृज्वीकृता गजकुमार्याः षण्णवतिसंख्या पुच्छमूलबाला एकत्र गालिएर पुं० नारि(लि)केर] नल-इण-नालिः, केन वायुना जलेन वा / पिण्डिता यावत्प्रमाणे छिद्धे परिपूर्णमाति, न चापान्तराल सूक्ष्ममपि इलति चलति कः। रलयोरैक्यम् / वृक्षभेदे, वाचा अयं चैक-जीविको भवति, तावत्प्रमाणं नालिकाया अधो मूले छिद्रं कर्तव्यम्। वृक्षभेदः। प्रज्ञा०१ पद। आर्दै नालिकेरे शुष्क वा कियन्तो जीवाः सन्ति? प्रकारान्तरेण-छिद्रप्रमाणमाहतथा नालिकेरवीजके संख्याताः, असंख्याताः, अनन्ता वा कियन्तो अहवा दुवस्सजायाएँ गयकुमारीऍ पुच्छवालेहिं। जीवाः सन्ति? यतस्तमत्र केचिदनन्तजीवाऽऽत्मक प्रतिपादयन्तीति बिहिं बिहिँ गुणेहिँ तेहिं उ, कायव्वं नालियाछिदं / / प्रश्ने, उत्तरम्--बीजकसंबद्धे नालिकेरे एक एव जीव इति / 265 प्र०। अथवेति प्रकारान्तरद्योतने, गजकुमार्या द्विवर्षजातायाः, तैः प्रागुक्तसेन०। 3 उल्ला० नालिकेर्यप्यत्र / स्त्री०। आचा०१ श्रु०१अ०५ उ० संख्याकैः षण्णवत्येत्यर्थः / पुच्छबालैः प्रत्येक द्वाभ्यां द्वाभ्यां गुणैः गुण्यन्ते जंग प्रज्ञा०ा तत्फले, नं० स्म, गुणा गुणिता इत्यर्थः ; तैः / किमुक्तं भवति?-- षण्णवतिसंख्यैर्द्विणालिएरदीव पुं०(नारिकेलद्वीप) नारिकेलवृक्षप्रधाने द्वीपे, यद्वास्तव्या गुणितैर्नालिकाया अधो मूले छिद्रं कर्तव्यमिति भावार्थः प्राग्वदवगन्तव्यः। मनुष्या अस्मद्भाषाऽऽदिव्यवहार नावबुध्यन्ते। भा०म०१ अ०२ खण्ड। प्रकारान्तरेण छिद्रप्रमाणमेवाऽऽहणालिएरमत्थप न०(नालिकेरमस्तक) नालिकेरवृक्षस्तवके, आचा०२ अहवा सुवण्णमासेहिं चउहिँ चउरंगुला कया सूई। श्रु०१ चू०१ अ०८ उ० नालियतलम्मि तीए, कायव्वं नालियाछिर्छ / / णालिया स्त्री०(नालिका) घटिकायाम, नि०चू०१ उत० ताम्रा- अथवेति पूर्ववत् / सुवर्णमाषैर्वक्ष्यमाणप्रमाणैश्चतुर्भिश्चतुः संख्यैः ऽऽदिमथयटिकायाम्, अनु०। आव०। प्रज्ञा चतुरङ्गुलप्रमाणा या कृता सूची, तथा सूच्या नालिकाया अधस्तात् तया हि कालो मीयते तले नालिकाछिद्रं नालिकारूपकालविशेषप्रमितये कर्तव्यम् / किमुक्तं णाली' परूवणया, जह तीऍ गतो उनञ्जए काला। भवति? यावत्प्रमाणे छिद्रे यथोक्तप्रमाणा सूचिः प्रविशति, न च तह पुव्वधरा भावं, जाणंति वि सुज्झपजेण / / मनागप्यपान्तरालं भवति, तावत्प्रमाणं छिद्र कर्तव्यमिति / ज्यो०२ नालिका नाम घटिका, तस्याः पूर्व प्ररूपणा कर्तव्या; यथा पाद पाहु०। आचा०। यष्टिविशेषे, चतुर्हस्तप्रमाणयष्टिविशेषरूपायां नालिकायाम, अनु० भ०। आत्मप्रमाणचतुरङ्गुलाधिकायां यष्टौ, लिप्तकृतविवरणे कालज्ञाने / व्य०१ उ०। ओघला द्यूतविशेषे, भ०६ श०७ उ०। कलम्बुकावृक्षे, सू०प्र०४ पाहु०। संप्रति मानं घटिकाऽऽदीनां वक्तव्यम्-तत्र प्रथमतो नालि णालियाखेड न०(नालिकाखेल) द्यूतविशेष, मा भूदिष्टदायाद्विकायाः संस्थानाऽऽदि विवक्षुराह परितपाशकनिपतनमिति नालिकया यत्र पाशकः पात्यते। जं०२ वक्ष०। तीसे पुण संठाणं, छिडु उदगं च वोच्छामि / ज्ञा०ा ओघo तस्याः पुननालिकायाः संस्थानमाकृति, तथा छिद्र विवरमधीभागे |णाली स्त्री०(नाडी)"डो लः" / / 1 / 20 / / इति डस्यलः / प्रा०१ येनोदकं नालिकामध्ये प्रविशति, उदकं च यादृगभूतं छिद्रेण प्रविशति, पाद / देहस्थायां शिरायाम्, गुच्छस्य काण्डे, नाले, व्रणभेदे, गण्डनालिका भुक्त्वा यथोक्तनालिका कालविशेषपरिमाण-हेतुर्भवति तादृक् दूर्वायाम, षष्टिपलाऽऽत्मके काले, तृणभेदे, वंशनाल्यां च / वाच०२ सूत्रं वक्ष्यामि। नाली स्त्री०। कालभापिकायां घटिकायाम, जी०३ प्रति० २उ०नि०चू० तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुकामः प्रथमतः संस्थानप्ररूपणां, श्रा०॥ वल्लीभेदे, प्रज्ञा०१ पद। छिद्रप्रमाणवक्तव्यतोपक्षेपं च कुर्वन्नाह णावा स्त्री०(नौ) "नाव्यावः" / / 8 / 1 / 164 // इत्यात आवादालिमपुप्फाऽऽगारा, लोहमयी नालिगा उ कायव्वा / 5ऽदेशः। प्रा०१ पाद / जलतरण साधने तरणा, वाच०। तीसे तलम्मि छिदं, छिद्दपमाणं कहिऐं मे सुणह / / आचा०। बृ०(नावा-रोहणप्रकाराः ‘णई संतार' शब्देऽत्रैव
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________________ णावा 2015 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णासिकपुर भागे 1746 पृष्ठ दर्शिताः। विस्तरस्तु पडिसेवणा' शब्दे वक्ष्यते) रूपान्तराणुसंबन्धात्, स्कन्धत्वं यद्यणोरपि। णावापूरग पुं०(नौपूरक) चुलुके, "तिहिं नावापूरएहि आयामइ'' तत्संयोगविभागाभ्या-मपि भेदप्रबन्धता॥२७।। नावापूरओ नाम पसती। बृण / यद्यपि अणोः रूपान्तरपरमाणुसंबन्धात् स्कन्धत्वमणुसंबद्धणावासंतारिम न०(नौसंतार्य) यत्र नावा तरति तावत्युदके, आचा०१ स्कन्धताऽस्ति, तदिति तथाऽपि संयोगविभागाभ्यां कृत्वा द्रव्योश्रु०१ चू०३ अ०१ उ त्पादनाशाभ्या द्विप्रकाराभ्यामेव भेदप्रबन्धता द्रव्यविनाशद्वैविध्यमेव णाविय पुं०(नापित) नखशोधके वारिके, व्य०६ उ०। कल्प०। ज्ञेयम, एतदुपलक्षणं ज्ञेयम्, यतो द्रव्योत्पादविभागेन यथा *नाविक पुं०। नावा जीवति नाविकः / अनु०। नौवाहके, भ० 5 104 पर्यायोत्पादविभागः, तथा द्रव्यनाशविभागेनैव पर्यायनाशविभागो उ०ा कैवर्तक, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० "णंदो नाम नाविओ गंगाए लोग भवेदिति, ततः समुदायविभागः, तथाऽन्तरगमनं चेति द्वयमेव उत्तारेइ।" आ०म० अ०२खण्ड। "णाविओ विव नावं ति।" नाविक व्यवह्रियते / तत्र प्रथमः तन्तुपर्यन्तपटनाशः, द्वितीयः घटोत्पत्तिइव नावं द्रोणीम्। भ०५ श०४ उ०। आ०म० पर्यन्तमृत्पिण्डाऽऽदिनाशश्च ज्ञेयः / उक्त च सम्मतितृतीयकाण्डे णास पुं०(नाश) अभावाऽऽपादने, आ०म०१अ०१खण्ड। उत्त। ध्वंसे, "विगमस्स वि एस विही, समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो / विशे०। अभावे, (द्रव्या०) समुदयविभागमित्तं, अत्यंतरभावगमणं च।।३४॥" इत्यादिगाथया शेयम अथ नाशस्वरूपमाह // 27|| द्रव्या०६ अध्या०। नाशोऽपि द्विविधो ज्ञेयो, रूपान्तरविगोचरः। *न्यास पुं०। निक्षेपे, विशे०/ उत्त०। अनु० स्था०ा नामस्थापनाद्रव्यअर्थान्तरगतिश्चैव, द्वितीयः परिकीर्तितः // 25 // भावैर्वस्तुनो निक्षेपो न्यासः। सा नाशोऽपि द्विविधो ज्ञातव्यः, एकस्तत्र रूपान्तरविगोचरः रूपा णासण न०(नाशन) पलायने, गणादपत्रानणे, राजाऽऽदिभवनान्तर्धान, न्तरपरिणामः, द्वितीयस्तु अर्थान्तरगतिरर्थान्तरभावगमनं चेति / ध०२ अधि०। नृपदायाऽऽदिभयेन चैत्यस्य गर्भगृहाऽऽदिप्यन्तर्धाने, भावार्थस्त्वयम् प्रव०३८ द्वार।कर्मप्रकृतेः स्थिवुकसंक्रमणे प्रकृत्यन्तरगमने, आचा०१ "परिणामो ह्यर्थान्तर-गमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम्। श्रु०६अ०१उ० न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदाभिष्टः / / 1 / / *न्यासन न०ा व्यवस्थापने, अनु० सत्पर्यायेण विनाशः, प्रादुर्भावोऽसताच पर्यवतः। णासणिण्हव पुं०(न्यासनिहव) न्यस्यते रक्षणायान्यस्मै सनर्व्यते इति द्रव्याणां परिणामः, प्रोक्तः खलु पर्यवनयस्य / / 2 // " न्यासः सुवर्णाऽऽदिः, तस्य निह्नवोऽपलापः।न्यासापहारे, ध०२ अधिन एतद्द्वचनं संमतिप्रज्ञापनावृत्तिविषयि-कश्चित् सद् रूपान्तरं प्राप्नोति, | णासव धा०(नाशि) नश्-णिच् / अभावाऽऽपादने, "नशेर्विउडसर्वथा न विनश्यति यत्तद् द्रव्यार्थिकनयस्य परिणामत्वं कथितम्।। नासव-हारव-विप्पगाल-पलावाः" |84 / 31 / / इति ण्यन्तस्य पूर्वसत्पर्यायेण विनश्यति, उत्तरासत्पर्यायेणोत्पद्यते यत्तत्पर्यायार्थिक नशेनसिवाऽऽदेशः / 'णासवइ' नाशयति / प्रा०४ पाद। नयस्य परिणामत्वं कथितम् / एतदभिप्रायं विचारयतामेको रूपान्तर- णासा स्त्री०(नासा) घोणायाम्, तं०) पशा०) प्रज्ञा०। औ०। आ०म०। परिणामविनाशः, एकश्चार्थान्तरगमनविनाशः, इत्थं विनाशस्यापि ___ गन्धग्राहकेन्द्रिये, वाचन भेदद्वयं संपन्नम्।।२५॥ णासाणिस्सासवोज्झ त्रि०(नासानिश्वासवाह्य) अतिलधुत्वाद् पुनराह नासानिश्वासवातवाह्ये, भ०६ 2033 उमाजी तत्रान्धतमसस्तेजो-रूपान्तरस्य संक्रमः। णासामेय पुं०(नासाभेद) नासिकाविवरकरणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। अणोरण्वन्तरापातो, ह्यर्थान्तरगमश्च सः॥२६।। णासावहार पुं०(न्यासापहार)न्यासस्य धनधान्याऽऽदिस्थापनिकाया (तत्र इति) तत्र नाशे अन्यतमसोऽन्धकारस्य तेजोरूपान्तरस्य संक्रम | अपहरणमपलापो न्यासापहारः / ध०२ अधि०ा स्थूलमृपावादविरतः उद्योतताऽवरिथतद्रव्यस्य रूपान्तरपरिणामरूपनाशो ज्ञेयः, चपुनरणोः प्रथमेऽतिचारे, स्वामिमित्रविश्वस्तदेवगुरुवृद्धकालद्रोहन्यासापहारापरमाणोरण्वन्तरापातोऽणोरण्वन्तरसंक्रमो द्विप्रदेशाऽऽदिभावमनुभवन् ऽऽदीनितु तद्धत्याप्रायाणि महापातकानि सर्वथा विशिष्य वर्जनीयानि / पूर्वपरमाणुत्वं विगतमित्यनेनाऽर्थान्तरगमः स्कन्धपर्याय उत्पन्नः, तेन ध०२ अधि०। उत्त। कृत्वाऽन्तरगतिरूपनाशस्य स्थितिर्भवति / निष्कर्षस्त्वराम णासि(ण) त्रि०(नाशिन्) विनशनशीले, स्था०। यत्रान्चकारस्तत्रापि तदाकारपरमाणुप्रचयो निरन्धतमः खमस्ति, तत्रैव णासिकपुर न०(नासिक्यपुर) पचवटीविभूषितोत्तरकूलाया गोदावयां पुनरुद्योतपरमाणुप्रचयसंचारनिरस्तान्धकारपरमाणुत्वतत्स्थानत- दक्षिणकूलस्थे स्वनामख्याते नगरे, आ०का आ०म०। आ०चू० नंक तत्परमाणुसंक्रमित तेजः परमाणुत्वलक्षणो रूपान्तरसंक्रमो जातः, यथा 'चंदप्पहजिणचंदं, वंदिआजिअभयसयं भणिस्सानि / वा-अवयवानां परमाणूनामवयविस्कन्धत्वसंक्रमेणार्थान्तरत्वोद्भाव- नासिअकलिमलनिवह, नासिक्कपुरस्स कप्पमहं / / 1 / / " नयाऽर्थान्तरगतिलक्षणो नाशः समुत्पन्न इति // 26 / / 'नासिक्क पुरतित्थस्स उप्पत्ति बंभणाइपरतित्थिया एवं पुनराह वण्णंतिपच्विं किर नारयरिसिण एगया भयव कमलाऽऽसणो पुट्ठो
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________________ णासिक्कपुर 2016 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 णि पुण्णभूमिट्ठाणं कत्थ त्ति? कमलाऽऽसणेणं भणि जत्थेव इम मज्झ तं बिंब निक्खिविय तदुवरि लेवो दिणी, जाया लेवमई पडिमा। तओ पउम पडिहइ, तं चेव पवित्तं भूमिट्ठाणं ति! अण्णया विरंचिणा तं पउम रण्णा जिणमंदिरमागएणतं बिबन दिटुं। पुच्छिओ लोओ। तेण जहाड्डिए मुछ, पडिअं मरहट्टजणवयभूमीए अरुणगंगाहिं नईहिं भूसियाए विन्नत्ते रण्णा चिंतियं-कहं एग चेव लेवपडिमं भिंदित्ता मूलबिंब कडेमि णाणाविहवणस्सइमणहराए देवभूमिप्पायाए / तत्थ पउमाऽऽसणेण त्ति, तओणरिदेण तस्स उद्धार काउंचउवीसं गामा देवस्स दिण्णा। जं पउमपुर ति नगरं निवेसियं / तत्थ कयजगेजण्णो आढत्तो पिआमहेण, तेसु दविण - मुप्पज्जइ......(?) तओ कित्तिए च कालंतरगए मिलिआ सुरा सव्वे, असुरा य हक्कारिजंता वि नाऽऽगया सुरभएणं / ते आसन्नवत्तितंबयदेवाहिद्वियमहादुग्गबंभगरिडिओ वाइओनाम महल्लयभणति-जइ भयवं चंदप्पहसामी अंतरे आगच्छइ,ता अम्हे वीसत्था खत्तियजाई वरडो आसि, तेण पासाओ पाडिओ, तसोऊण पल्लीवालआगच्छामो, तओ चमक्किअचित्तो चउवयणो जत्थ सामी विहरइ तत्थ वंसावयंससाहुईसरपुत्तमाणिकपुत्तेणं कुच्छि सरोवररायहंसेण गंतूण पणमिऊण जोडियकर-संपुडो विण्णवेइ-भयवं! तत्थाऽऽगच्छह, साहकुमारसीहेण परमसावरण पासाओपुण णवो कारिओ। सफलीकयं जहा मज्झ कजं सिज्झइ / सामिणा भणियं मह पडिरूवेणावित नायागयं नियवित्तं, उत्तारिओ अप्पा भवसमुद्दाओ। एवमणेगुद्धारं सिज्झिस्सइ। तओ बंभणा चंदकतिमणिमय बिंब सोहम्मिंदाओ घितूण नासिक्कमहातित्थं अज्ज विजत्तामहूसवकरणेण आराहिंति चाउहिसाओ तत्थाऽऽणीयं / आगया दाणया, पारद्धोजण्णमहो / तत्थ कारिओ आगंतूणसंघा, पभावितिकलिकालदप्पनिन्नासणं भयवओसासणं ति"। चंदप्पहविहारो पआवइणा सुरदुवारे य सिरिसुंदरो ठाविओ "नासिकपुरस्स इम, कप्पं पोराणपरमतित्थस्स। नयररखणपुरे / एवं ताव पढमजुगे पउमपुरं ति तित्थं पसिद्धा तेयाजुगेय वायंतपढ़ताणं, संपज्जइ वंछिया रिद्धी / / 1 / / दासरही रामो सीयालक्खणसंजुओ पिउआणाए वणवासं गओ, किंचि परसमइयमुहा, ससमयपारविउमुहाउतह सोउं। गोयमगंगातीरे पंचवडीआसमे चिरं वण्णहारेणं ठिओ / इत्थंतरे सिरिजिणपहसूरीहि,लिहिओ नासिक्कपुरकप्पो // 2 // " रावणभइणी सुप्पणहा तत्थ पत्ता, रामं दटूण अज्झोववण्णा, पत्थंती इतिश्रीनासिक्यपुरकल्पः। ती० 27 कल्प। रामेण पडिसिद्धा लक्खणमुवट्ठिया / तेण तीए नासिया ठिण्णा, तत्थ णासियासिंघाणग न०(नासिकासिङाणक) घ्राणजमलविशेषे, तं० नासिकपुरं जायं। कमेण सीया रावणेण हरिआ, राहवेण जुद्धे वाधाइओ णाह पुं०(नाथ) “खघथधमाम्"||११८७॥ इतिथस्य हः। प्रा०१ रावणो, विभीसणस्स दिण्णं लंकारनं, तओ नयरि पइवलंतेण रामेण पाद। प्रभौ, स०१ समा योगक्षेमकृति, नं०। ज्ञा०। स्वामिनि, स्या०। चंदप्पहसामिणो भवणं उद्धरिअं, एसगभुद्धारो / एवं णासिकपुरे संजाए णाहड पुं०(नाथ) मरुदेशे सत्यपुर (साचोर) नगरे श्री वीरजिनकालंतरे पुण्णभूमि नाउं आगओ मिहिलाहिंतो तत्थ जणयराओ, तेण य बिम्बकारके गृहपतौ, ती०१६ कल्प। तत्थ दस जण्णा कारिया, जण्णट्ठाणं ति तन्नयरं रूढं / ' (ती०) णाहल न०(लाहल) "लाहललाङ्गललाङ्गले वाऽऽदेणः" (नासिक्यपुरस्य जनस्थानमिति नामान्तरं यथाज्ञामिति देवजानीवृत्ते ||1 / 256 / / इत्यादेर्लस्य वाणः प्रा०१ पादाम्लेच्छविशेषे, प्रा० दु० 'जणट्टाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1387 पृष्ठे द्रष्टव्यम्। तथा 'कुंतीविहार' १पाद। इत्यपि नाम, तद्वक्तव्यता 'कुंतीविहार' शब्दे तृतीयभागे 570 पृष्ठ गता) | णाहवाइय पुं०(नाथवादिक) पार्श्वस्थे, पार्श्वस्था नाथवादिकइओ अ दीवायणरिसिणा वारवईए दडिए उपक्खीणप्पाए जायववंसे ___ मण्डलचारिणः। सूत्र०१ श्रु०३अ०४उ०) वजकुमारो नाम जायवखत्तिओ आसि। तस्स गब्भवई भजा, सावारखईए णाहसुतेय पुं०(नाथसुतेजस्) अतीतायामुत्सर्पिण्या भारतातीतजिने, डज्झमाणीए बहुभत्तिपुव्वं दीवायणरिसिणा मुक्कलाविता चंदप्पहसामिण प्रव०७ द्वार। चेव सरणमागया, पुन्ने समए पुन्नवंशं पुत्तं तत्थेवपसूआ, दढप्पहारि ति से | णाहि अव्य०(नहि)"किलाऽथवा-दिवा-सहनहेः किराहवइ दिवे सहु नाम कयं, सो अ अइकं तबालभावो संपत्तजुव्वणो जाओ महारहो, नाहिं"||१४|४१६॥ इति अपभ्रंशे नहेर्नाहिमादेशः। निश्चिते निषेधे, इक्कगेणाविसुअडलक्खेणं समंजुद्धं काउंसमत्थो। अन्नया तत्थ चोरेहि "पेक्खु गहीरिम सायरओ एक वि कणिय नाहिं ओहट्टइ।"प्रा०४ पाद। गावीओ हरियाओ / ताओ सव्याओ वि इक्केण दढप्पहारिणा चोरे णाहिय पुं०(नास्तिक) लौकायतिके, स्याo| "धर्म्यशे नास्तिको ह्येको, निगिहिऊण वालियाओ / तओ तं अइपयंडपरिक्कम पासिऊण बार्हस्पत्यः प्रकीर्तितः। धर्माशे नास्तिका ज्ञेयाः, सर्वेऽपि परतीर्थिकाः बंभणाइनरलोएणं तस्स तलारघयं(?) दिण्णं, निग्गहिया तेण // 125 / / 'नयो०। चोरवरडाइणो, जाओ सो कमेण महाराया। तत्थेव नयरे लायववंसस्स , णाहियवाइ(ण) पुं०(नास्तिकवादिन्) अतिचावकि जीवना-स्तित्वभग्गं मूलं उव्वरियं ति सबहुमाणं चंदप्पहसामिणो तेण भवणमुद्धरि।। चटप्पडसामिणो तेण भवणमरि। प्रतिपादके, दश०१अ०॥ एवं तइअजुगे उद्धारो काराविओ। पुव्विं किर कल्लाणकडए नयरे परमड्डी | णाहियवाय पुं०(नास्तिकवाद) चार्वाकमताभ्युपगमे, (ग०) धूर्तानाम राया रज्जं करेइ / तेण जिणभत्तेण तत्थ पासाए चंदकंतमणिबिंब ____ऽऽख्यानाऽऽदिवदसंबद्धजल्पने, ग०२ अधि० सोऊण चिंतिअं-अहमेयं बिंब नियनयरे आणिऊण देवयावसरे पूइस्सामि | णाहिविच्छअ (देशी) जघने, दे०ना० ४वर्ग। त्ति। तओ कहचि तव्वइयरं नाउं नासिक्कनयरलोएण तंबमयसंपुडमझे | णि अव्य०(नि) नह-डि:। नितरामर्थे विपा० १श्रु०अ०
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________________ 2017 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिउत उत्त० / नैयत्ये, अनु०। निश्चये, आधिक्ये च / उत्त०१ अ०। सूत्रा // 20 // " निपुणमिव निपुणम् / उत्त०६अ। उपायविचक्षणे, कल्प०३ आ००। निवेशे, भृशार्थे, नित्यार्थे, संशये, कौशले, क्षेपे, उपरमे, क्षण / संयमानुष्ठानकुशले, दश०२ चू०। संगतोपचारकुशले, औ०। 'न सामीप्ये, आदरे,दाने मोक्षे, अन्तर्भावे, बन्धने, राशौ, अथोभागे, वालभेजा निउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणओ समं वा / / 5 / / " उत्त०३२ विन्यासे चावाचा अ०ा अवगततत्त्वे, आचा०१ श्रु०२ अ०२उ०। "निउणगंधव्वगीयणिअक्कल (देशी) वर्तुले, देवना० 4 वर्ग 36 गाथा। रइया / ' निपुणगन्धर्वगीतरतिकाः-निपुणाः परमकौशलोपेता ये णिअच्छधा०(दृश्) प्रेक्षणे, "दृशो निअच्छ-पेच्छावयच्छावय-ज्झ गन्धर्वजातीया देवास्तेषां गीतं तत्र रतिर्येषां ते तथा / जी०३ प्रतिक वजा-सव्ववदे क्खो अक्खावक्खावअक्ख पु लो एपुल- 430aa "निउणगंधव्वसमयकुसलेहिं।' निपुणं यथा भवति एवं गन्धर्वएनिआवआसपासाः" |41181 / इति सूत्रेण 'निअच्छ' आदेशः। समये नाट्यसमये ये कुशलाः। जी० ३प्रति०४ उ०। 'निअच्छइ। पश्यति। प्रा०४ पाद। देवना०। णिउणकुसल पुं०(निपुणकुशल) निपुणानां मध्ये अतिशयेन कुशले, रा०| णिअडी (देशी) दम्भे, देखना० 4 वर्ग 26 गाथा। णिउणणयजुय त्रि०(निपुणनययुत) सूक्ष्मनीतिसंगते, पञ्चा०२ विव०॥ णिअत्थ परिहिते, देखना०४ वर्ग 33 गाथा। णिउणदिट्ठि स्त्री०(निपुणदृष्टि) सूक्ष्मबुद्धौ, पं०व०४ द्वार। पञ्चा०। णिअय (देशी) रते, शयनीये, शाश्वते, घटे च / दे०ना० 4 वर्ग 48 गाथा। णिउणधी त्रि०(निपुणधी) 6 बहु०। कुशलबुद्धौ, षो०६ विव० णिअरिअ (देशी) निकरेण स्थिते, देना०४ वर्ग 38 गाथा। णिउणबुद्धि स्त्री०(निपुणबुद्धि) सूक्ष्मधियाम, पञ्चा० 11 विव०। णिअलं (देशी) नूपरे, दे०ना० 4 वर्ग 28 गाथा। णिउणसिप्पोवगय त्रि०(निपुणशिल्पोपगत) निपुणं यथा भवति एवं णिअंधण (देशी) वस्त्रे, देवना० 4 वर्ग 38 गाथा। शिल्पं क्रियाकौशलमुपगतः / रा०ा निपुणानि सूक्ष्माणि यानि शिल्पानि णिअंसण (देशी) वस्त्रे, दे०ना० 4 वर्ग 38 गाथा। अङ्गमर्दनाऽऽदीनि तान्युपगतोऽधिगतः / ज्ञा०१ श्रु०१०। औ०। णिआणिआ (देशी) कुतृणोद्धरणे, दे०ना०४ वर्ग 35 गाथा। सूक्ष्मशिल्पसमन्विते, उत्त०५ अ०॥ णिआर (देशी) रिपुगृहे, देवना० 4 वर्ग 26 गाथा। णिउणिय पुं०(नैपुणिक) निपुर्ण सूक्ष्मं ज्ञानं, तेन चरन्तीति नैपुणिकाः। णिइय त्रि०(नित्य) सदकारणवति, नं० / अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरै निपुणा एव वा नैपुणिकाः / निपुणज्ञानेषु निपुणेषु, (स्था०) कस्वभावे, सूत्र० 1 श्रु० 1104 उ०। परिणामानित्यतायामपि नव णिउणिया वत्थू पण्णत्ता / तं जहा-"संखाणे निमित्ते द्रव्यार्थतया नियते, सूत्र०२ श्रु० 4 अ०) काईए, पोराणे पारिहत्थिए परिपंडिएयवाई य भइकम्मे तिगिणिइयपिंड पुं०(नित्यपिण्ड) निमन्त्रितपिण्डे, पं०चू० च्छिए"||१|| निपुणं सूक्ष्म ज्ञानं, तेन चरन्तीति नैपुणिकाः निपुणा एववा नैपुणिकाः। णिउअ त्रि०(निवृत) "उदृत्वादौ" 18111131 / इति ऋत उत्वम्। (वत्थु त्ति) आचार्याऽऽदिपुरुषवस्तूनि, पुरुषा इत्यर्थः / (संखाणे नितरां वृते, प्रा०१ पाद। सिलोगो) सङ् ख्यानं गणितं, तद्योगात् पुरुषोऽपि तथा, सङ्ख्याने वा णिउक्क (देशी) तूष्ण्णीके, दे०ना० 4 वर्ग 27 गाथा। विषये निपुण इति। एवमन्यत्रापि, नवरं निमित्तं चूडामणिप्रभृतिः, कायिक णिउक्कण (देशी) वायसे, मूके च। देवना०४ वर्ग 51 गाथा। शारीरिकन्इडापिङ्गलाऽऽदिप्राणतत्त्वमित्यर्थः / पुराणो बद्धः, स च णिउज्जम पुं०(निरुद्यम) कार्यमात्रोद्यमरहिते, "णिउज्जमा वणगा समणगा चिरजीवित्वाद् दृष्ट बहुविधव्यतिकरत्वान्नैपुणिक इति, पुराणं वा पव्वयंति।" सूत्र०२ श्रु०२० शास्त्रविशेषः, तज्ज्ञो निपुणप्रायो भवति॥४॥(पारिहत्थिए त्ति) प्रकृत्यैव णिउज्जमाण त्रि०(नियोजयत्) व्यापारयति, सूत्र०१ श्रु०१० अ० दक्षः सर्वप्रयोजनानाम-कालहीनतया कर्तेति च // 5 // तथा परः प्रकृष्टः णिउड्ड धा०(मस्ज) बुडने, "मस्जेराउजु-णिउड्डु-वुड-खुप्पाः" पण्डितः प्रपण्डितः, परपण्डितो बहुशास्त्रज्ञः, परोवा मित्राऽऽदिः पण्डितो ||4|101 / इति मजतेः णिउड्डाऽऽदेशः। णिउड्डइ। मजति। प्रा०५ पाद। यस्य स तथा, सोऽपि निपुणसंसर्गानिपुणो भवति, वैद्यकृष्णकवदिति। णिउण त्रि०(निगुण) नियतगुणे, निश्चितगुणे च / विशे। सुनिश्चित, पञ्चा० वादी वाद-लब्धिसंपन्नो, यः परेण नजीयते, मन्त्रवादी धातुवादी वेति। 4 विव०॥ ज्वराऽऽदिरक्षानिमित्तं भूतिदानं भूतिकर्म, तत्र निपुणः / तथा चिकित्सने *निपुण त्रि०ा कुशले, इति वृद्धोक्तिः। सूक्ष्मदर्शिनि, उपा०७ अ०। औ०। निपुणः, अथवाऽनुप्रवादाभिधानस्य नवमपूर्वस्य नैपुणिकानि वस्तूनि आव०। आचा०। सूक्ष्मे, औ०। सूक्ष्मज्ञाने, स्था०८ ठा० उपायाऽ- अध्ययनविशेषा एवेति। स्था०६ ठा० ऽरम्भके, अनु०। नि०चू०। 'सुण ताव सूरपण्णत्तिवण्णण वित्थरेण ज | णिउणोचिय त्रि०(निपुणोचित) निपुणेन शिल्पिना परिकर्मिते, भ०६० पिउणं।'' निपुणं निपुणभतिगम्यम्। ज्यो०२ पाहु०। रा०। ज्ञा०ा 'सद्धं 33 उ०। च णगरं किचा, तवसंवरमग्गलं / खंति णिउणपागारं, तिगुत्त दुप्पधंसयं | णिउत त्रि०(नियुत) नितरां संगते, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०।
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________________ णिउत्त 2018 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 जिंदा णिउत्त त्रि०(नियुक्त) व्यापारिते, पञ्चा० 8 विव०। आ०म० उत्त० | णिओगपुर न०(नियोगपुर) नियोगो राजा, तस्य पुरम् / राजधान्याम्. उचितव्यापारे, नियोगेनार्पिते, अनु०। देशे, जनपदे, राज्ये, राष्ट्रे च ! जीता णिउर पुं०(निकुर) वृक्षविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०॥ णिओजिय त्रि०(नियोजित) व्यापारिते, "सोऊण जिणागमण, *नुपुर न०। "इदेतौ नूपुरे वा" ||8/1 / 123 / / इति ऊत इत्त्वम्।। निउत्तअणिओजियाइएसुवा।" आ०म०१ अ०२ खण्ड। स्त्रीणां पादाऽऽभरणे, प्रा०१ पाद। थित त्रि०(नयत्) निर्गच्छति, नि०चू०१3०। आ०म०। णिउरंब न०(निकुरम्ब) समूह, औ० जी०। रा0 जंoा ज्ञाof "रम्मे / जिंदंत त्रि०(निन्दत्) जुगुप्समाने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अन्तका महामेहनिउरंबभूए।" महामेहवृन्दकल्प इत्यर्थः / ज्ञा०१ श्रु०१ अ जिंदण न०(निन्दन) मनसा कुत्सने ज्ञा०१ श्रु०८ अास्था०। आत्मनैव णिएल्लग त्रि०(निजकीय) आत्मीये, "ताहे जा इच्छं ति सव्वे | दोषपरिकुत्सने, भ०१७ श०३ उपञ्चात्तापे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ णिएल्लगा।" आ०म०१अ०१ खण्ड। जिंदणा खी०(निन्दना) निन्द-ल्युट, प्राकृते स्वार्थे तत् / आणिओगपुं०(नियोग) नियतो निश्चितो हितो वाऽनुकूलः सूत्रस्याभिधेयेन | त्मनैवाऽऽत्मदोषपरिभावने, उत्त०२ अ० आत्मसाक्षिकमात्मनो सह यो योगः सम्बन्धः स नियोगः। अनुयोगशब्दस्यार्थे , विशे० निन्दायाम, उत्त। अधुना नियोगमाह तत्फलमअहिगो जोगों निओगो, जहाऽइदाहो भवे निदाहो त्ति। निंदणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? निंदणयाए णं पच्छाअत्थनिउत्तं सुत्तं, पसुवइ चरणं जओ मुक्खो / / णुतावं जणयइ, पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेटिं निराधिक्ये, अधिको योगो नियोगो, यथाऽतिदाघो निदाघः, कस्य पडिवज्जइ, करणगुणसेटिं पडिवण्णे य अणगारे मोहणिज्जं कम्म केन सहाऽऽधिक्यमिति चेत्? उच्यते-सूत्रस्यार्थेन। आधिक्येन योगस्य उग्घाएइ॥६॥ किं फलमिति चेत्? अत आह-अर्थेन सममाधिक्येन नियुक्तं सूत्र, चरणं हे भदन्त ! निन्दनया जीवः किं जनयति ? गुरुराह-हे शिष्य ! आत्मनः चारित्रं प्रसूते, यतः संसाराद् मोक्षः॥ पापस्य निन्दनेन पश्चात्तापं जनयति-हा ! मया दुष्कृतं कृतमित्यादि अत्रैव प्रसवने दृष्टान्तमाह बुद्धिमुत्पादयति / पश्चात्तापेन विरज्यमानो वैराग्यं प्राप्नुवन् सन् वच्छनियोगे खीरं, अत्थनियोगेण चरणमेवं तु / करणगुणश्रेणिमपूर्वकरणेन पूर्व कदापि अप्राप्तेन विशदमनः पत्तग दंडियमुभयं, दंडीसरिसो तहिं अत्थो।। परिणामविशेषगुणश्रेणिं क्षपकश्रेणि प्रतिपद्यते अङ्गीकुरुते, करणगुणश्रेणि यथा गौर्वत्सेन नियुक्ता सती क्षीरं प्रसूते, एवमर्थन समं नियुक्त सूत्रं प्रतिपन्नोऽपूर्वगुणश्रेणिः सन् अनगारः साधु हनीयं कर्म दर्शनमोह नीयाऽऽदिक कर्मोद्घातयते अतिशयेन क्षपयति / / 6 / / उत्त० 26 अ01 चरण प्रसूते / यदि पुनरेकं केवलं सूत्रं स्यान्नार्थस्तेन संगृहीतो भवेत्, ततश्चरणप्रसवस्याभावः, यथा वत्सनियोगाभावे गोक्षीरप्रसव जिंदा स्त्री०(निन्दा) "णिदि' कुत्सायाम. अस्य "गुरोश्चहलः" स्याभावः; अर्थोऽपि केवलः सूत्रविहीनो न कार्यसाधको, यथा केवलो // 33103 / / इत्यप्रत्ययः। मिथ्यादुष्कृते, आव० 4 अ० स्व-प्रत्यक्षमेव वत्सः / अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह-(पत्तगदंडियउभयं ति) पत्रकलेखः, जुगुप्सायाम्, पा०। सूत्रका प्रति०। उत्त०। आ०म०) आव०। "णिंदामि दण्डिका लेखस्योपरि मुद्रानियोगः उभयं-पत्रक, दण्डिका च। इयमत्र गरिहामि / ' निन्दागर्दाऽभिधेयस्यापि जुगुप्सार्थस्य विशेषतो भावना--"तिन्नि पुरिसा रायाणमोलग्गति, राया तुट्ठो करिसइ नगरे भेदोऽस्ति। तथाहि- स्वप्रत्यक्षाऽऽत्मसाक्षिकी जुगुप्सा, सा समये पसाओ कओ / तत्थ एगेण पुरिसेण जे तम्मि नयरे रायपुरिसा, तेसिं सिद्धान्ते निन्दामीत्यनेनगम्यते। या तु गुरुप्रत्यक्षा गुरुसाक्षिकी जुगुप्सर, जोगं पत्तयमाणीयं / विइएणं दंडिया चेव केवला / तइएणोभयं / तत्थ सा गह मीत्यनेन शब्देन गम्यते। विशेष जेण मुद्दारित्तं पत्तयमाणीयं, सो रायपुरिसेहिं भणिओ-नत्थि सा च नामाऽऽदिभेदतः षोढा भवति। तथा चाऽऽहपत्तगस्सोपरि मुद्दाविणिओग तिन मन्ने सो। विइओ भणिओ-अस्थि नाम उवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। इयं मुद्दा, परं को रण्णा पसाओ कओ, को वा न कओ त्ति? न जाणामो एसो खलु जिंदाए, निक्खेवो छव्विहो होइ / / 6 / / त्ति, तम्हा नदेमो त्ति। तइएणोभयं दरिसिय ति सव्वं जहिच्छिय लद्धं।" तत्र नामस्थापने क्षुण्णे; द्रव्यनिन्दातापसाऽऽदीनामनुपयुक्तस्य वा एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयः-पत्रकसदृशं सूत्र, दण्डिकासदृशोऽर्थः, यथा सम्यग्दृष्टा उपयुक्तस्य वा निहवस्याशोभनद्रव्यस्य येति। क्षेत्रनिन्दापत्रकं केवलं, दण्डिका वान कार्यस्य प्रसाधिका, उभयं तु साधकम्, एवं यत्र व्याख्यायते या क्रियते वा संसक्तस्य वेति। कालनिन्दायस्मिन्नन्दा सूत्रमर्थश्च पृथक् न चरणप्रसाधकः, उभयं तु प्रसाधकम् बृ० 130 / आ० व्याख्यातेवादुर्भिक्षाऽऽदेर्वा कालस्य। भावनिन्दाप्रशस्ताप्रशस्तेन द्विभेदा, चूला व्यापारे, व्य०२ उ०1 पञ्चा०ा अवश्यतायाम्, पं०३०४ द्वार। पञ्चा०। प्रशस्ता संयमाऽऽद्याचरणविषया, अप्रशस्ता पुनरसंयमाऽऽद्याचरणविष - नियमे, पं०व०४ द्वार। द्वा०। पञ्चा०। निश्चिता आज्ञाऽऽदिना कृतव्यापारा येति। "हादुटुकयंहा दुटुकारियं दुटु अणुमयं हत्ति। अंतो बाहिर उज्झइ, यस्य स नियोगः / राजनि, जीत० ग्राम, क्षेत्रे च / बृ०१ उ०। सुसिरो व्व दुमो वणदवेणं // 1 // ' अथयौघत एवोपयुक्तसम्यग्दृष्टरिति /
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________________ जिंदा 2016 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिकायकाय आव० 4 अ० (निन्दायां चित्रकरसुतोदाहरणं 'णग्गइ' शब्देऽत्रैव भागे मणलक्षणः / निकायकायः षट्जीवनिकायः / अस्तिकायो धमा१७६५ पृष्ठे द्रष्टव्यम्) स्तिकायाऽऽदिः / द्रव्यकायश्च त्र्यादिघटाऽऽदिसमुदायः / मातृजिंदाचाग पुं०(निन्दात्याग) परिवादापनोदे, द्वा०१२ द्वा० काकायस्त्र्यादीनि मातृकाऽक्षराणि / पर्यायकायो द्विधा जीवाडजिंदित्ता अव्य०(निन्दित्वा) जुगुप्सित्वेत्यर्थे, "णिदित्ता गरहित्ता जीवभेदेन-जीवपर्यायकायो ज्ञानाऽऽदिसमुदायः, अजीवपर्यायकायो पडिक्कमित्ता अहारिहं उत्तरगुणं पायच्छित्त।" आचा०२ श्रु०३चू० 110 रूपाऽऽदिसमुदायः। संग्रहकायः संग्रहैकशब्दवाच्यः, त्रिकटुकाऽऽदिवत्। जिंदिया स्त्री०(निन्दिता) एकदा विजातीयतृणाऽऽद्यपनयनेन शोधितायां भारकायः कापोती। बृद्धास्तु व्याचक्षतेकृषौ, स्था०४ ठा०४ उ०॥ एके काओ दुहा जाओ, एगो चिट्ठइ एगो मारिओ। णिंब पुं०(निम्ब) 'नीबड़ा' इति ख्याते वृक्षविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। तत्फले, जीवंतो मएण मारिओ, तल्लव माणव केण हेउणा?।।२८८|| न०। उज्जयिन्यामम्बर्षिद्विजपुत्रे मालुकाऽऽत्मजे, स च पित्रा सह, उदाहरणम-"एगो काहरोतलाए दोघडा पाणिवस्स भरेऊण कावोडीए प्रवजितो दुर्विनीतत्वेन साधुभिस्तिरस्कृत इति विनयोपगते उदाहरणम् / वहति, सो एगो आउक्कायकाओदोसुघडेसुदुहा कओ। तओ सो काहरो गच्छतो पक्खलिओ, एगो घडो भग्गो। तम्मि जो आउक्काओ सो मओ। आ०का आवा इतरम्म जीवति: तस्स अभावे सो वि भग्गो / ताहे सो तेण पुवमएणं णिंबअपुं०(निम्बक) अभिप्रायवशाद् निम्बक इति नामाभिधेये, अनु०॥ मारिओ ति भण्णति / अहवाएगो घडो आउक्कायभरिओ, ताहे जिंबोलिया स्त्री० (निम्बगुलिका) निम्बफले, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ तमाउक्काय दुहा काऊण अद्धो ताविओ, सोमओ। अताविओ जीवति / णिकरण न०(निकरण) निश्चयेन नितरां नियतं वा क्रियन्ते नाना ताहे सो वितत्थेवपक्खित्तो। तेण मएण जीवंतो मारिओ ति। एस भारकाओ दुःखावस्या जन्तवो येन तन्निकरणम् / निकारे, शारीरमानसदुः गओ।' भावकायश्चौदारिकाऽऽदिसमुदायः / इह च निकायः काय खोत्पादने, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०॥ इत्यनर्थान्तरमिति कृत्वा कायनिक्षेप इत्यदुष्ट एवेति गाथाऽर्थः // 288 / / णिकाइय त्रि०(निकाचित) नियुक्तिसंग्रहणीहेतूदाहरणाऽऽदिमि इत्थं पुण अहिगारो, निकायकाएण होइ सुत्तम्मि। रनेकधा व्यवस्थापिते, नं० नितरां काचनं बन्धनं निकाचितम्। कर्मणः उचरियअत्थसरिसाण कित्तणं सेसगाणं पि।।२८६।। सर्वकरणानामयोग्यत्वेनावस्थापने, पूर्वबद्धस्य तप्तमिलितसंकुटित अत्र पुनः सूत्रे इति प्रयोगः, सूत्र इत्यधिकृताध्ययने / किमित्याहलोहशलाकासंबन्धसमाने करणे, स्थावा'चउविहे निकाइए पण्णत्ते। अधिकारी निकायकायेन भवति / अधिकारः प्रयोजनम्, शेषा-- तं जहा-पगइनिकाइए, ठिइनिकाइए, अणुभागनिकाइए, पएसनि णामुपन्यासवेयर्थ्यमाशङ्कयाऽऽह-उच्चरितार्थसदृशानामुचरितो काइए।" स्था०४ ठा०२ उ01 निकायः, तदर्थतुल्याना, कीर्तनं संशब्दनमः शेषाणामपि नामाणिकाइंसु त्रि०(निकाचितवत्) नितरां बद्धवति, भ०१ श०१उ०। ऽऽदिकायानां व्युत्पत्तिहेतुत्वात् प्रदेशान्तरोपयोगित्वाचेति गाथाऽर्थः नियमितवति, सूत्र०२ श्रु०१० // 286 // दश०४ अ०) णिकाम न०(निकाम) अत्यर्थे , निश्चये, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। कायमणिओ वि वुचइ, बद्धमवि निकायमाहंसु / णिकामकामीण न०(निकामकामीन) निकाममत्यर्थं प्रार्थयते यः स बद्धमपि किशिल्लेखाऽऽदिनिकायम्, (आसु त्ति) निकाचिनिकामकामीनः। आहारोपकरणाऽऽदिकस्यार्थस्य प्रार्थक, सूत्र०१ श्रु० तमाख्यातवन्तः। आव०५ अ०॥ षड्जीवनिकायवन्निकायः। आवश्यके, 10 अ० अनु०। (असुराऽऽदिनिकायेन्द्राणां, सौधर्माऽऽदिदेवलोकेन्द्राणां च णिकामचारि(ण) त्रि०(निकामचारिन) निकाममत्यर्थ चरति तच्छीलश्च नामानि इंद' शब्दे द्वितीयभागे 535 पृष्ठे द्रष्टव्यानि) निकामचारी / आधाकर्माऽऽदीनां तन्निमित्तनिमन्त्राणाऽऽदीनां वा | *निकाच पुंज निकाचनं निकाचः। छन्दने, निमन्त्रणे. स०१२ सम०। ग्रहणशीले, सूत्र० 1 श्रु० 10 अ० *निकाच्य अव्य०। व्यवस्थाप्येत्यर्थे , "णिकाय समयं पत्तेयं पत्तेयं णिकाय पुं०(निकाय) निसर्गतःकाय औदारिकाऽऽदिर्यरमाद् यस्मिन् __ पुच्छिस्सामो।" आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। वा सति स निकायः / मोक्षे, आचा०१ श्रु०१ अ० ३उ०। समूहे, ओघo! | णिकायकाय पुं०(निकायकाय) षड्जीवनिकाये, दश०४ अ०॥ आ००। गणकायनिकायस्कन्धवर्गराश्यादीनि च स्कन्धैकार्थिकानि। निकायकायः प्रतिपाद्यतेविशे० णिययमहिगो व काओ, जीवनिकाओ निकायकाओ अ॥५॥ साम्प्रतं निकायपदं व्याचिख्यासुराह नित्यः कायो निकायः, नित्यताऽस्य त्रिष्वपि कालेषु भावात् नियुक्तिकृत् अधिको वा कायो निकायः; यथाऽधिको दाहो निदाह इति / णामं ठवण सरीरे, गई निकायऽस्थिकाय दविए य / आधिक्यं चास्य धर्माधर्मास्तिकायापेक्षया स्वभेदापेक्षया वा / माउग पञ्जव संगह-भारे तह भावकाए य / / 287 // तथाहि-एकाऽऽदयो यावदसंख्येयाः पृथिवीकायिकास्तावत्कायः स एव नामस्थापने क्षुण्णे / शरीरकायः शरीरमेव तत्प्रायोग्याऽणुसं- | स्वजातीयान्यप्रक्षेपापेक्षया निकाय इति; एवमन्येष्वपि विभावघाताऽऽत्मकत्वात् / गतिकायो यो भवान्तरगतौ; स च तैजसका- नीयमित्येवं जीवनिकायः सामान्येन निकायकायो भण्यते। अथवा
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________________ णिकायकाय 2020- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिक्कट्ठ जीवनिकायः पृथिव्यादिभेदभिन्नः षड्डिधोऽपि निकायो भण्यते, | रिकाऽऽदिर्यस्माद् यस्मिन् वा सति स निकायो मोक्षः, तं प्रतिपन्नो तत्समुदाय एव च निकायकाय इति। आव०४ अ० निकायप्रतिपन्नः / सम्यग्दर्शनाऽऽदेः स्वशक्त्यनुष्ठानाद मोक्ष प्रतिपन्ने, णिकायणा स्त्री०(निकाचना) कच' बन्धने / नितरां कच्यते स्वयमेव | आचा०१ श्रु०१ अ०३७०। बन्धमायाति कर्म जीवस्य तथाविधसंक्लिष्टाध्यवसायपरिणतस्य, णिकिंचण त्रि० (निष्किञ्चन) निर्गतं किञ्चन हिरण्याऽऽदि येभ्यस्ते तत्प्रयुक्ते जीव एव, तथानुकूल्येन भवनात्, ततः 'प्रयोक्तृव्यापारे निष्किञ्चनाः आ०म०१अ०१ खण्ड। णिच' (श्रीम०आ-६५) ततो निकाच्यते अवश्यवेद्यतया निबध्यते यया णिकूड त्रि०(निष्कूट) अमाये, आव०५ अ०॥ कर्म सा निकाचना। जीववीर्यविशेषपरिणतिरूपे समस्तकरणाऽयोग्यत्वेन णिके अपुं०(निकेत) निवासे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० गृहे, उत्त०२ उ०। व्यवस्थापने, क०प्र०ा सूत्रा णिक (देशी) सर्वथा विगतमले, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०) संप्रति निधत्तिनिकाचनाकरणे प्रतिपिपाद *निष्क पुं० न०। निश्चयेन कायति कैकः / शास्त्रीयषोडशमाषकयिषुराह परिमितसुवर्णानामष्टाधिकशते, व्यवहारिकरूपके दीनारे, (टाका)। देसोवसमणतुल्ला, होइ निहत्ती निकाइया नवरं। चतुःसुवर्णपरिमिते पलपरिमाणे मानभेदे, षोडशद्रम्मे (काहन) परिमाणे, संकमणं पि निहत्ती-ऐं नत्थि सेसाण विअरस्स | 1|| वक्षोभूपणे, हेमपात्रे, च। वाच०।। (देसोवसमण त्ति) निधत्तिर्निकाचना च देशोपशमनातुल्या। इदमुक्तं णिक्कअपुं०(निष्क्रय) न विद्यते क्रयो यस्य सः। "कगटडतदपशषस क भवतिये देशोपशनाया भेदाः, ये च स्वामिनः, ते अन्थूनातिरिक्ता पामूज़ लुक" ||277 / / इति पलुक् / “सर्वत्र लवरामचन्द्रे " निधत्तिनिकाचनयोरपि वेदितव्याः। नवरम् अर्थपदं निधत्तिनिकाचन- ||27|| इति र लुक, अनादौ द्वित्वम्। "कगचजतदपयवां प्रायो योरिदं संक्रमणमपि परप्रकृतिसंक्रमणमपि, अपिशब्दादुदीरणाऽऽदीन्यपि लुक"।।६/११७७। इति यलुक्। प्रा०२ पादा"कस्कयोनाम्नि" निधत्तौ सत्यांन भवन्ति, उद्भूर्त्तनाऽपवर्तने पुनर्भवत एव; इतरस्या १८।२।४इति स्वत्वे न, नाम्नीति तत्र विशेषणात् / क्रयरहिते, निकाचनायां शेषे अपि उद्वर्तनापवर्त्तने अपि न भवतः। सकलकरणयोग्य प्रा०२ पाद। निकाचितमित्यर्थः / / 7 / / शिकंकड त्रि०(निष्कङ्कट) निष्कञ्चुके, निरावरणे, निरुपघाते, स०। इह यत्र गुणिश्रेणिस्तत्र प्रायो देशोपशमनानिधत्तिनिका णिकंकडच्छाय त्रि०(निष्कङ्कटच्छाय) निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणा चनायथाप्रवृत्तसंक्रमा अपि संभवन्ति, ततस्तत्रा-- निरुपघातेति भावः। छाया दीप्तिर्यस्य तन्निष्कङ्कटच्छायम्। रा०। जं0 __ऽल्पबहुत्वमाह औ०। निरावरणदीप्तौ, औ०। स०। प्रज्ञा०। रा०) स्था०ा जी० भ०। गुणिसेढिपएसग्गं, थोवं पत्तेगसो असंखगुणं / णिकं खिय न०(निष्कासित) काशितं देशसर्वकासाऽऽत्मकं, त-- उवसामणाइ तीसु वि, संकमणेऽहप्पवत्ते य॥२॥ स्याभावो निष्कासितम्। अन्यान्यदर्शनानभिलाषे, उत्त०२ अ० प्रवा (गुणसेढि त्ति) गुणश्रेणिप्रदेशाग्रं स्तोकम् / ततः प्रत्येकशः प्रत्येक निर्गता कासाऽन्यान्यदर्शनग्रहणरूपा यस्याऽसौ निष्काशितः। सूत्र०२ प्रत्येकमुपशमनाऽऽदिषु त्रिषु यथाप्रवृत्ते च संक्रमणे असंख्येयगुण श्रु०७ अ०। देशसर्वकाङ्क्षारहिते, ध०२ अधि०1 ग० व्या रा०ा औ०। वक्तव्यम् / इयमत्र भावनायस्य तस्य वा कर्मणो गुणश्रेणिप्रदेशाग्र दर्शनान्तराऽऽकाक्षारहिते, दशा० 10 अ०। सर्वस्तोकम्, ततो देशोपशमनायामसंख्येयगुणम् / ततो निधत्त णिकंत त्रि०(निष्क्रान्त) प्रव्रज्यां गृहीतवति, आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। मसंख्येयगुणम् / ततोऽपि निकाचितमसंख्येयगुणम् / ततोऽपि णिक्कं तार न०(निष्कान्तार) कान्तारमरण्यं, निर्गतः कान्ताराद् यथाप्रवृत्तसंकमेण संक्रान्तमसंख्येयगुणम् / 2 / क०प्र०७। 8 प्रक०। निष्कान्तारः / कान्तारानिष्क्रान्ते, कंताराओ णिकंतारे करेजा।" पं०सं० स्था०। "इचेयं महव्वयउच्चारणं णिकायणा / " निकाचनेव निष्कान्तारं निष्क्रामितारं वा / स्था०३ ठा०१3०। निकाचना, स्वव्रतप्रतिपत्तिदृढतरनिबन्ध इत्यर्थः / शुभकर्मणां वा |णिकंप पुं०(निष्कम्प) दृढे, द्वा०६ द्वा०ा स्थिरचित्तवृत्तौ, बृ० निकाचनाहेतुत्वान्निकाचनेयमुच्यते, नच सरागसंयमिनामय-मर्थो घटत अथ निष्कम्पताद्वारमाहइति / पा०। धo दापने, "निकायण त्ति वा दावण त्ति वा एगट्ठा।" णाणाऽऽणत्तीऍ पुणो, दंसणतवनियमसंजमे ठिचा। नि०चू० 5 उ०ा "जं मासातिआरोवणाए विहीणधियाए वा जहा महाए विहरइ विसुज्झमाणो, जावजीवं पि णिशंपो।। आरोवणाए आरोवयंति, तं णिकाइतं भण्णति।" नि०चू० 20 उ०। ज्ञानस्य या आज्ञप्तिरादेशः-"जाएँ सद्धाएँ निक्कतो, तामेव णिकायपडिवण्ण त्रि०(निकायप्रतिपन्न) निर्गतः काय औदा- मणुपालए।" इत्यादिकः, तया दर्शनप्रधाने तपोनियमरूपे संयमे स्थित्वा * श्रीमत्प्रणीतं रुचिरतरमस्त्येव शब्दानुशासनं सवृत्तिकं, तत्र नामाऽऽख्यात कर्ममलेन विशुद्ध्यमानः सन यावज्जीवमपि निष्कम्पः स्थिरचित्तवृत्तिकृदाख्यं यथार्थाख्यं प्रकरणत्रयंक्रमेण नबदशषट्पादप्रमाणम्, ततश्चात्र श्रीमल विहरति संयमाध्वनि गच्छतीति। बृ०१ उ०। यगिरिपूज्यपादकृतप्रकरणपादसूत्रसंख्यासूचनं क्रमेणावसे यमध्यवसित- Jणिक्कन्ज (देशी) अनवस्थिते, दे०ना० 4 वर्ग 33 गाथा। वाङ्मयसारैः। णिक्कट्ठ त्रि०(निकृष्ट) निष्कर्षिते, तपसा कृशदेहे, स्था०४ ठा०४ उ०
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________________ णिक्कट्ठ 2021 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिक्किय *निष्कृष्ट त्रिका तपसा कृषीकृते, स्था०४ ठा०४ उ०। णिकड (देशी) कठिने, दे०ना० 4 वर्ग 26 गाथा। णिकमण न०(निष्क्रमण) प्रव्रज्यायाम, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०ा बृ०| निर्-क्रम-ल्युट् / बहिर्गमने, चतुर्थे मासि शिशोः कर्त्तव्ये संस्कारभेदे च। "चतुर्थे मासि कर्तव्यं, शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्।'' इति मनुः। वाचा णिक्कम्म पुं०(निष्कर्मन्) निष्क्रान्तः कर्मणो निष्कर्मा / मोक्षे, सम्बरे, आचा०१ श्रु०४अ०४उ01 णिक्कम्मदंसि(ण) त्रि०(निष्कर्मदर्शिन्) निष्कर्मा मोक्षः, सम्बरो वा, तं द्रष्टुं शीलमस्येति निष्कर्मदी / मोक्षसम्बरतत्त्ववेत्तरि, "णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहिं कम्माणि सफलत्तं दट्ठ।" आचा०१ श्रु० 4 अ०४उ०| निष्कर्माणमात्मानं पश्यतीति तच्छीलश्च निष्कर्मदीं। कर्मबन्धनविप्रमुक्ते, "पलिच्छियाणं णिक्कम्मदंसी।'' निष्कर्मत्वादपगताऽऽवरणः सर्वज्ञानी सर्वदर्शी च भवति। आचा०१ श्रु०३अ० २उ०। णिकल वि०(निष्कल) त्रासाऽऽदिदोषरहिते, भ०१५ श०। णिकलुण त्रि०(निष्करुण) निर्गता करुणा दया यस्मादसौ निष्करुणः। स्नेहविरहिते, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। णिकवय त्रि०(निष्कवच) निरावरणे, स्था०४ ठा०२ उ०/ गिकसण न०(निष्कसन) निर्गमने. सूत्र०१ श्रु०१४ अ० णिक्कसाय त्रि०(निष्यपार) कषायरहिते, आतु०। आगमिव्यन्त्या मुत्रापिण्या भविष्यति त्रयोदशे तीर्थेश्वरे, ती०२० कल्प। स०ा प्रव०। णिकसिजंत त्रि०(निष्कास्यमान) निर्वास्यमाने, निःसार्य माणे, उत्त० 9301 शिक्काम त्रि० (निष्काम) शुभरसगन्धाऽऽद्युपभोगरहिते, बृ०१ उ०। शिकारण न०(निष्कारण) ग्लानाऽऽदिवारणाभावे, आव०६ अाव्या शिक्कासिय त्रि०(निष्कासित) विनिर्गते, औ०। / णिक्किं चण त्रि०(निष्किञ्चन) "णिकिंचण' शब्दार्थे , आ०म०१ अ०१ देवमणुस्सगयागइ, जाईसरणाऽऽइया च ण हि॥३४॥ नि०) (को वेएईत्यादि) आत्मनोऽकर्तृत्वात्कृतं नास्ति, ततश्चाकृतं को वेदयते? तथा निष्क्रियत्वे वेदनक्रियाऽपि न घटां प्राशति / अथाऽकृतमप्यनुभूयेत, तथा सत्यकृताऽऽगमकृतनाशाऽऽपत्तिः स्यात्। ततश्च एककृतपातकेन सर्वप्राणिगणो दुःखितः स्यात्, पुण्येन च सुखी स्यादिति / न चैतद् दृष्टमिष्ट वा / तथा व्यापित्यान्नित्वत्वाचाऽऽत्मनः पञ्चधा पञ्चप्रकारानारकनिर्यड् मनुष्यामरमोक्षलक्षणा गतिर्न भवेत् / ततश्च भवतां साख्यानां काषायचीवरधारणशिरस्तुण्डमुण्डनदण्डधारणभिक्षाभोजित्वपञ्चरात्रोपदेशानुसारयमनियमाऽऽद्यनुष्ठानम्, तथा- “पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राऽऽश्रमे रतः। जटी मुण्डी शिखी वाऽपि, मुच्यते नात्र संशयः / / 1 / / " इत्यादि सर्वमपार्थकमाप्नोति।तथादेवमनुष्याऽऽदिषु गत्यागती न स्याता, सर्वव्यापित्वादात्मनः / तथा नित्यत्वाच विस्मरणाभावाद्जातिस्मरणाऽऽदिका च क्रिया नोपपद्यते, तथा-ऽऽदिग्रहणात् प्रकृतिः करोति, पुरुष उपभुड्क्त इति भुजिक्रिया या समाश्रिता, साऽपि न प्राप्नोति / तस्या अपि क्रियात्वादिति / अथ मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन भोग इति चेत्, एतत्तु निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, वाइमात्रत्वात् : प्रतिबिम्बोदयस्यापिच क्रियाविशेषत्वादेव। तथा नित्ये चाविकारिण्यात्मनि प्रतिबिम्बोदयस्याऽभावाद्यत्किञ्चिदेतदिति // 34 // ननु च भुजिक्रियामात्रेण प्रतिबिम्बोदयमात्रेण च यद्यप्यात्मा सक्रियः, तथापि न तावन्मात्रेणास्माभिः सक्रियत्वमिष्यते, कि तर्हि समस्तक्रियावत्त्वे सतीत्येतदा शड क्य नियुक्तिकृदाहण हु अफलथोवऽणिच्छित-ऽकालफलत्तणमिहं जदुमहेऊ। णादुद्धथोवदुद्ध-तणेणऽगावित्तणे हेऊ // 35 // नि०। (ण हु अफलेत्यादि) न हु नैवाऽफलत्वं द्रुमाभावे साध्ये हेतुर्भवति।न हि यदैव फलवांस्तदैव द्रुमोऽन्यदा त्वद्रुम इति भावः / एवमात्मनोऽपि सुप्ताऽऽद्यवस्थायां यद्यपि कथञ्चिनिष्क्रियत्वं, तथाऽपि नैतावता त्वसौ निष्क्रिय इति व्यपदेशमर्हति / तथा स्तोकफलत्वमपि न वृक्षाभावसाधनाबालम; स्वल्पफलोऽपि हि पनसाऽऽदिवृक्षस्य व्यपदेशभाब्भवति / एवमात्माऽपिस्वल्पक्रियोऽपि क्रियावानेव / कदाचिदेषा मतिर्भवतो भवेत्-स्तोकक्रियो निष्क्रिय एव / यथैककार्षापणधनो न धनित्वमास्कन्दत्येवमात्माऽपि स्वल्पक्रियत्वादक्रिय इत्येतदप्युपचारः / यतोऽयं दृष्टान्तः प्रतिनियतपुरुषापेक्षया चोपगम्यते, समस्तपुरुषाऽपेक्षया वा? तत्र यद्याद्यः पक्षः, तदा सिद्धसाध्यता / यतः सहस्राऽऽदिधनवदपेक्षया निर्धन एवासी / अथ समस्तपुरुषापेक्षया / तदसाधु / यतोऽन्यान् जरचीवरधारिणोऽपेक्ष्य कार्षापणधनोऽपि धनवाने न तथाऽऽत्मापि यदि विशिष्टसामोपेतपुरुषक्रियाऽपेक्षया निष्क्रियोऽभ्युपगम्यते, न काचित्क्षतिः / सामान्यापेक्षया तु क्रियावानेवेत्यलमतिप्रसङ्गे न। एवमनिश्चिताकालफलत्याऽऽख्यहेतुद्वयमपि न वृक्षाभावरााधकमित्यादि योज्यम् एवमदुग्धत्वस्तोकदुग्धत्वरूपावपि हेत खण्डा णिक्किय- त्रि०(निष्क्रिय) सर्वव्यापित्वेनावकाशभावाद् गमनागमनाऽऽदिक्रियावर्जत, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। षो। आत्मा निष्क्रिय इति साङ्ख्याःजे ते उ वाइणो एवं, लोऐ तेसिं कओ सिया ? तमाओ ते तमो जंति, मंदा आरंभनिस्सिया।।१४।। ये एते अकारकवादिन आत्मनोऽमूर्तत्वनित्यत्वसर्वव्यापित्वेभ्यो हेतुभ्यो निष्क्रियत्वमेवाभ्युपपन्नाः, तेषां य एष लोको जरामरणशोकाऽऽक्रन्दनहर्षाऽऽदिलक्षणो नरकतिर्यड् मनुष्यामरगतिरूपः, सोऽयमेवभूतो निष्क्रिये सत्यात्मन्यप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावे कुतः कस्माद्धेतोः स्यात्? न कथञ्चित्कुतश्चित्स्यादित्यर्थः। ततश्च दृष्टष्टबाधारूपात्तमसोऽज्ञानरूपात्ते तमोऽन्तरं निकृष्ट यातनास्थानं यान्ति / किमिति? यतो मन्दा जडाः प्राण्यपकारकाः, आरम्भनिश्रिताश्च ते इति।१४। अधुना नियुक्तिकारोऽकारकवादिमतनिराकरणार्थमाहको वेएई अकयं, कयनासो पंचहा गई नऽत्थि /
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________________ णिक्किय 2022 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिक्खमणपवेस न गोत्वाभावत्वं साधयतः / उक्तन्यायेनैव दान्तिकयोजना कार्येति असिवे ओमेयरिए, रायहुट्टे भए व गेलण्णे। ||35|| सूत्र०नि०१ श्रु०१अ०१ उ०। सेहे चरित्तसावय-भए व जयणाएँ णिकोरे॥१९१|| णिकिव त्रि०(निष्कृप) कृपारहिते, गतघृणे, पं०व०४ द्वार। नि०चून जत्थ अहाकडं लब्भति, तत्थ असिवाऽऽदिकारणेहिं आगच्छतो निष्कृपमाह अप्पबहुं परिकम्मं जयणाए णिकोरेइ। चंकमणाऽऽईसत्तो, सुनिक्किवो थावराऽऽइसत्तेसु। गाहाकाउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निकिवो होइ।। जति नाम पुटवसुद्धे, कोरिजंतम्मि वितिएँ ततिए वा। स्थावराऽऽदिसत्त्वेषु चङ्क्रमण गमनम्, आदिशब्दात् स्थान- तिप्पंच सत्त वीया, होजा सुद्धं तहा वि गता / / 192|| शयनाऽऽसनाऽऽदिकं सक्तः क्वचित्कार्यान्तरे व्यासक्तः सन् सुनिष्कृपः पुष्वंगहणकाले सुद्धे पच्छा कोरिजते (वितिए त्ति) अप्पपरिकम्मे (ततिए सुष्टु गतघृणो, निः शूकः करोतीति शेषः, कृत्वा च तेषु चङ्क्रमणाऽऽदिक त्ति) बहुपरिकम्मे, जति तिण्णि पंच वा सत्त वा वितिया होज्जा तहा वि नानुतप्यते, केनचिन्नोदितः सन् पश्चात्तापपुरस्सरमिथ्यादुष्कृतं न सुद्धं / नि०चू०१४ उ०। यत्पुनः पात्रस्य मुखकरणानन्तरं तदप्यन्तरददातीत्यर्थः। ईदृशो निष्कृपो भवति। इदं निष्कृपस्य लक्षणमिति भावः / वर्तिनो गिरस्योत्कीर्णनं तनिष्कोर (ल) णमभिधीयते। बृ० 1 उ०) वृ०१ उ०। "णिक्वि! अकयण्णुय ! निष्कृप ! मम दुःखिताया अप्रती- | णिक्ख न०(निष्क) "कस्कयो म्नि" ||24| इतिष्कभागस्य कारात्, अकृतज्ञ ! मदीयोपकारस्यानपेक्षणात्। ज्ञा०१ श्रु०६ अ01 खः। सुवर्णे, प्रा०२ पाद। णिकीलिय न०(निष्क्रीडित) गमने,प्रव० 271 द्वार। औ०। अन्त०] णिक्खंत त्रि०(निष्क्रान्त) संसाराद् गृहाच निःसृते, उत्त० 18 अ० णिक्कुड पुं०(निष्कुट) तापनायाम्, अनु० / आ०म०। प्रव्रजिते, सूत्र०१ श्रु०८ अ० अनु० प्रव्रज्याप्रतिपत्त्या गृहवासाणिकोरण न०(निष्कोलन) दुःसहस्य वस्तुनोऽपनयने, नि० चू०। निर्गते, हा०२७ अष्टा जे भिक्खू पादं णिकोरेइ, कोरावेइ, कोरियमाहट्टु दिज्जमाणं | णिक्खत्त त्रि०(निःक्षत्र) क्षत्रियजातिविहीने, पशुरामेण त्रिः-सप्त-कृत्वो पडिग्गाहइ, पडिग्गाहंतं वा साइजइ॥४६|| निःक्षत्रिया पृथिवी कृता। सूत्र०१ श्रु०८ अ० मुहस्स अवणयणं णिक्कोरणं, तंझुसिरं त्ति काऊण चउलहुँ। णिक्खमन०(निष्क्रम) निष्क्रमणं निष्क्रमः।प्रव्रज्यायाम, इह च द्विर्भावो, गाहा नपुंसकता च प्राकृतत्वात्। निष्क्रमणमेव भवस्थानां सुखम्। सुखभेदे, कयमुहें अकयमुहे वा , दुविहा णिक्कोरणाऽनुपायम्मि। स्था० 10 ठा०1 भाद्रव्यभावगृहात्प्रव्रज्याग्रहणे, दश०१० अ०। मुहकारणे य एवं, चलो भंगा मुणेयव्वा // 188 / / णिक्खमण न०(निष्क्रमण) सूर्याचन्द्रमसोः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद् पुव्वद्धं कंठं। भायणस्स मुहकारणे, णिकोरणे य चउभंगा। बहिर्गमने, सू०प्र० 13 पाहु०। द्रव्यभावसङ्गाद् निष्क्रान्तिरूपगाहा प्रव्रज्यायाम्, पं०व०१ द्वार। अन्तला बृ०ा अगारवासन्निर्गमे, पञ्चा०६ मुहकोरण समणट्ठा, बितिए मुह ततिएँ कोरणं समणे। विव०। बहिर्गमने, नि०चू० 130 / उद्वर्तने, आचा० १श्रु०१अ०६उ०। दो गुरु ततिए सुत्तं,दोहि गुरु तवेण कालेणं / / 186 / / णिक्खमणचरियणिबद्ध न०(निष्क्रमणचरितनिबद्ध) भगवतो महावीर स्वामिनोऽन्येषां च प्रव्रज्यामहोत्सवचरितनिबद्धे नाट्यविधौ, रा० तत्थ भावणस्स मुहं समणट्ठा कयं, समणट्ठाए णिशोरियं / वितियभंगे समणट्ठाए मुहं कयं, आयट्ठाए णिक्कोरितं। ततियभंगे आयट्ठाए मुहं कयं, णिक्खमणपवेसं पुं०(निष्क्रमणप्रवेश) निर्गमनागमनयोः, नि०चू०। समणट्ठाए णिक्कोरितं / चरिमे उभयंतं पि आयट्ठाए। एत्थ आदिमेसु दोसु जे भिक्खू तं पडुच्च णिक्खमइवा, पविसइ वा, णिक्खमंतं वा भंगेसु चउगुरुगापढमवितियभंगेसु चउगुरुगा। ततियभंगेसु सुत्तनिवातो, पविसंतं वा साइज्जइ॥१४॥ चउलहुमित्यर्थः / पढमभंगे दोहि वि तवकालेहिं विसिहो, वितियभंगे (पडुच्च त्ति) जाहे सो निहत्थो काइयादि णिगच्छति, ताहे संजतो तवगुरू, ततियभंगे कालगुरू, चउत्थमंगेबीयरहिए वि झुसिरं तिकाऊण चिंतेति-एस काइयं गतो, अहमविएयणिस्साए काइयं गच्छामि, उट्ठवेहि चउलहुं भवति। वा एहिं बचामो। गाहा गाहाएतेसामण्णतरं, पाथं जो तिविहकरणजोगेणं / संवासे जे दोसा, णिक्खमणे पवेसणम्मि ते चेव। णिकोरेती भिक्खू, सो पावति आणमादीणि||१६|| णातव्वा तु मतिमता, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि।।१३५।। आणादी दोसा; कुंथुमाऽऽदिविराहणे संजमविराहणा; सत्थमादिणा जे संवासे अधिकरणाऽऽदी दोसा भवंति, ते णिग्गच्छंते वि। लंछिते आयविराहणा। तत्थ परितावणाऽऽदिणिप्फण्णं / जम्हा एवमाई इमे अधिकतरा / गाहादोसा, तम्हा जहाकडं मग्गियव्यं, तस्स असति अप्पपरिकम्म। गिहिसहितो ती संका, आरक्खिगमादिगेण्हणाऽऽदीया। एत्थ इमो अववातो। गाहा उभयाचरणे दवाऽसति, अवण्ण अपमजऽऽणादीया।।१३६।।
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________________ णिक्खमणपवेस 2023 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिक्खित्त गिहत्थसहितो त्ति काउं चोरपारदारिओ त्ति काउं जाहे संका भवति, ताहे दंडपासियाऽऽदीहिं गेण्हणाऽऽदी दोसा / काइयसण्णा उभयं ते वोसिरतो दवावि / असतीए उड्डाहो / लोगो अवण्णं भासति, पादथंडिलाऽऽदी ण पमज्जति संजमविराहणा। निचू०८उ०ा कल्पसूत्रे सामाचार्यामेकपञ्चाशत्तमसूत्रे-"निक्खमित्तए वा पवि-सित्तए वा'' इति पदद्वयमधिकमिव दृश्यत इति प्रश्ने, उत्तरम्- "भत्तपाणपडिआइक्खित्तए" इति वचनात् कश्चित्सामान्यतो विहितानशनः, कश्चिच्च कृतपादपोपगमनो भिक्षुर्विहर्तुं प्रवर्तितुमिच्छेदित्यर्थः संगच्छते, तदनुसारेण सामान्येन कृतानशनस्य 'निक्खमित्तए वा' इत्यादिविशेषणानि यथा संभवं संगच्छन्त एव, न तु कृतपादपोपगमनस्येतिन काऽप्यधिकतेति / 22 प्र०ा सेन०२ उल्ला०। (स्थविरकल्पिका जिनकल्पिका वा कदा निष्क्रामन्ति, कदावा प्रविशन्तीति 'थविरकल्प' शब्दे वक्ष्यते) (राज्याभिषेके निष्क्रमणप्रवेशविषयः'रायाभिसेय' शब्दे णिक्खमणाभिसेय पुं०(निष्क्रमणाभिषेक) निष्क्रमणाभिषेक सामग्याम, भ०६ श०३३ उ०॥ णिक्खममाण त्रि०(निष्क्रामत्) निर्गच्छति, आचा०१ श्रु०१ चू०२ अ०३उ। णिक्खमित्तए अव्य०(निष्क्रमितुम्) प्रवेष्टुमित्यर्थे , कल्प०६ क्षण / द०प० णिक्खम्म अव्य०(निष्क्रम्य) गेहान्निःसृत्य प्रव्रजितो भूत्वेत्यर्थे , सूत्र०१ श्रु० 10 अ०। स्वदर्शनविहितां प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थे, सूत्र० 2 श्रु०१ अ० णिक्खय (देशी) निहते, देना० 4 वर्ग 32 गाथा। णिक्खसरिअ (देशी) मुषिते, देवना० ४वर्ग 41 गाथा। णिक्खित्त त्रि०(निक्षिप्त) स्वस्थानन्यस्ते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। विमुक्ते, ज्ञा०१ श्रु०१०) सुप्तोत्थिते, दे०ना०५ वर्गव्यवस्था-पिते, आचा०२ श्रु०१ चू०१अ०७उ० परित्यक्ते, व्य०२ उ०। "णिक्खित्तं णामगरलिगाबद्धं स्थापयति।" नि०चू०१ उ०। सचित्तस्योपरि स्थापिते, तच एषणादोषदुष्टत्वान्न ग्राह्यम्। प्रव०६७ द्वार। जीत०) अथ निक्षिप्तद्वारमाहसञ्चित्तमीसएसुं, दुविहं काएसु होइ निक्खित्तं / एकेक तं दुविहं, अणंतर परंपरं चेव / / 572 / / इह कल्पनीयं निक्षिप्तं द्विधा-सचित्तेषु, मिश्रेषु च / एकैकमपि द्विधा। तद्यथा-अननतरं, परम्परं च / तत्रानन्तरमव्यवधानेन, परम्परं व्यवधानेन। यथा सचित्तपृथिवीकायस्योपरि स्थापनिका, तस्या उपरि देयं वस्त्विति / इह परिहार्यापरिहार्यविभागं विना सामान्यतो निक्षिप्त सचित्ताचित्तमिश्ररूपभेदात् त्रिधा।तत्र च त्रयश्चतुर्भङ्गाः। तद्यथा-सचित्ते सचित्तम् 1, मिश्रे सचित्तम् 2, सचित्ते मिश्रम३, मिश्रे मिश्रमित्येका चतुर्भङ्गी तथा-सचित्ते सचित्तम्१, अचित्ते सचित्तम् 2, सचित्ते अचित्तम् 3, अचित्ते अचित्तमपि द्वितीया चतुर्भङ्गी। तथा–मिश्रे मिश्रम् 1, अचित्ते मित्रम् 2, मिश्रे अचित्तम् 3, अचित्ते अचित्तमिति तृतीया चतुर्भगी।। * पुस्तकान्तरे-- "सचित्तमीसएहिं दुविहं काएहि' इतिपाठः। सम्प्रत्यस्यैवानन्तरपरम्परविभागमाहपुढवीआउकाए-तेऊवाऊवणस्सइतसाणं। एक्के को दुगभेओ-ऽणंतरपरऽगणिम्मि सत्तविहो / 573 / पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायानां सचित्ताना प्रत्येकं सचितपृथिव्यादिषु निक्षेपः संभवति, तत्र पृथिवीकायस्य निक्षेपः षोढा / तद्यथा-पृथिवीकायस्य पृथिवीकाये निक्षेप इत्येको भेदः, पृथिवीकायस्याप्काये इति द्वितीयः, पृथिवीकायस्य तेजस्काये इतितृतीयः, वातकाये इति चतुर्थः, वनस्पतिकाये इति पञ्चमः, जसकाये इति षष्ठः। एवमष्कायाऽऽदीनामपि निक्षेपः प्रत्येकं षोढा भावनीयः। सर्वसङ्ख्यया षत्रिंशत् भङ्गाः / एकैकोऽपि च भेदो द्विधा। तद्यथा-अनन्तरेण, परम्परया च / अनन्तरपरम्परव्याख्यानं च प्रागेव कृतम् / केवलमग्निकाये पृथिव्यादीनां निक्षेपः सप्तधा। एतच स्वयमेव वक्ष्यति। संप्रति पृथिवीकाये निक्षेपस्य यदुक्तं प्रत्येकं घोढात्वं, तत्सूत्रकृत् साक्षादृर्शयतिसचित्तपुढविकाए, सचित्तो चेव पुढवि निक्खित्तो। आऊतेउवणस्सइ-समीरणतसेसु एमेव // 574|| सचित्तपृथिवीकार्य सचित्तपृथिवीकायो निक्षिप्तः। एवं च पृथिवीकाये इव अप्तेजोवनस्पतिसमीरणत्रसेषु सचित्त एव पृथिवीकायो निक्षिप्त इति पृथिवीकायनिक्षेपः षोढा। एवं शेषकायेष्वतिदेशमाहएमेव सेसयाण वि, निक्खेवो होइ जीवकाएसु। एक्के को सट्ठाणे, परठाणे पंच पंचेव // 575 / / एवमेव पृथिवीकायस्येव, शेषाणामप्कायाऽऽदीना, निक्षेपो भवति, जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु। तत्र एकैको भङ्गः स्वस्थाने, शेषाः पञ्च पञ्च परस्थाने तथाहि-पृथिवीकायस्य पृथिवीकाये निक्षेपः स्वस्थाने, अप्कायाऽऽदिषु शेषेषु पञ्चसु परस्थाने / एवमप्कायाऽऽदीनामपि भावनीयम्। ततः स्वस्थाने एकैको भङ्गः, परस्थाने पञ्च पञ्च / तदेवं प्रथमचतुर्भङ्गिकायाः सचित्ते सचित्तमित्येवंरूपे प्रथमे भड्ने षट्त्रिंशभेदाः। सम्प्रति प्रथमचतुर्भङ्गया एव शेषं भङ्गत्रय, द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गयौ चाऽतिदेशतः प्रतिपादयतिएमेव मीसएसु वि, मीसाण सचेयणेसु निक्खेवो। मीसाणं मीसेसु य, दोण्हं पि य होइ चित्तेसु // 576 / / एवमेव सचित्तेषु इव मिश्रेष्वपि मिश्रपृथिव्यादिनिक्षेपः षट्त्रिंशदभेदोऽवगन्तव्यः / एतेन प्रथमचतुर्भङ्गो व्याख्यातः / एवमेव मिश्राणां पृथिव्यादीनां मिश्रेषु पृथिव्यादिषु निक्षेपः षट्त्रिंशद् भेदः / अनेन प्रथमचतुर्भङ्गचाश्चतुर्थो भङ्गो व्याख्यातः। सर्वसंख्यया प्रथमचतुर्भङ्गयां चतुश्चत्वारिंशं भङ्ग शतम् / एवमेव द्वयोरपि सचित्तमिश्रयोरचित्तेषु निक्षिप्यमाणयोर्ये द्वे चतुर्भङ्ग्यौ प्रागुक्ते, तत्रापि प्रत्येक प्रत्येक चतुश्चत्वारिंश भङ्गशतं भवति / सर्वसङ्ख्यया भङ्गानां शतानि चत्वारि द्वात्रिंशदधिकानि भवन्ति / उक्ता निक्षेपस्य भेदाः। सम्प्रत्यस्यैव निक्षेपस्य पूर्वोक्तं चतुर्भङ्गीत्रयमधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिमाहजत्थ उ सचित्तमीसे, चउमंगो तत्थ चउसु वि अगेज्झं।
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________________ णिक्खित्त 2024 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिक्खित्त तं तु अणंतर इयरं, परित्तऽणंतं च वणकाए // 577 / / यत्र निक्षेपे सचित्तमिश्रे आद्या चतुर्भङ्गी भवति, प्रथमा चतुर्भङ्गी भवतीत्यर्थः / तत्रचतुष्वपि भङ्गेषु, अपिशब्दाद् द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गयोरपि, आधेषु त्रिषु भड्नेषु वर्तमानमनन्तरं, परम्परा च। वनस्पतिविषये परीतकमनन्तं वा तत्सर्वमग्राह्यम्, सामर्थ्यत्वात् / द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गयोश्चतुर्थे चतुर्थभने वर्तमानं ग्राह्यम्, तत्र दोषाभावात्। सम्प्रति सचित्ताऽऽदिभिस्त्रिभिरपि मतान्तरेण तामेव चतुर्भङ्गी कल्प्याकल्प्वविधि प्रदर्शयतिअहव ण सचित्तमीसे, उ एगओ एगओ य अचित्तो। एत्थं चउक्कभंगो, तत्थाऽऽइतिए कहा नऽत्थि / / 578|| अथवेति प्रकारान्तरताद्योतकः, णमिति वाक्यालङ्कारे। इह चतुर्भङ्गी प्रतिपक्षपदोपन्यासे भवति। तत्रैकस्मिन् पक्षे सचित्तमिश्रे एकः, एकश्च अचित्तः, तत् प्रागुक्तक्रमेण चतुर्भङ्गी भवति / तद्यथा-सचित्तमिश्रे सचित्तमिश्रम्, सचित्तमिश्रे अचित्तम्, अचित्ते सचित्तम्, अचित्ते अचित्तमिति / अत्राऽपि प्रागिवैकैकस्मिन् भने पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदात् षट्त्रिंशत् षट्त्रिंशद् भेदाः / सर्वसंख्यया चतुश्चत्वारिंशं भङ्ग शतम्। तत्राऽऽदित्रिके आदिमे भङ्गत्रये, कथा नास्ति ग्रहणे वार्ता न विद्यते। सामर्थ्याचतुर्भङ्गी कल्पते। तदेवं 'पुढवी' इत्यादिमूलगाथायाः पूर्वार्द्ध व्याख्यातम्। सम्प्रति "एक्कछ दुहाणंतर" इत्यवयव व्याचिख्यासुर्द्धितीयचतुर्भङ्गयाः सत्कस्य तृतीयस्य भङ्गस्य सामान्यतोऽशुद्धस्य विषये विशेष विभणिषुरनन्तरं, परम्परया वा मार्गणा करोतिजं पुण अचित्तदव्वं, निक्खिप्पइ चेयणेसु दव्वेसु। तहिं मग्गणा उ इणमो, अणंतर परंपरं होइ / / 576 / / यत्किमपि अचित्तं द्रव्यमोदनाऽऽदि चेतनेषु सचित्तेषु, मिश्रेषु वा निक्षिप्यते, तत्रेयमनन्तरं, परम्परया वा मार्गणा परिभावनं भवति। ओगाहिमादणंतरं, परंपरं पिढरगाइ पुढवीए। नवणीयाइ अणंतरं, परंपरं नावमाईसु // 580 / / अवगाहिमाऽऽदि पक्वान्नमण्डकप्रभृति, पृथिव्यामनन्तरनिक्षिप्तम; पृथिव्या एवोपरि स्थिते पिठरकाऽऽदौ यन्निक्षिप्तमवगाहिमाऽऽदि, तत्परम्परनिक्षेप उक्तः। सम्प्रत्यप्कायमाश्रित्याऽऽह-(नवणीए इत्यादि) नवनीताऽऽदिम्रक्षणस्त्यानीभूतघृताऽऽदिसचित्ताऽऽदिरूपे उदके निक्षिप्तमनन्तरनिक्षिप्त, तदेव नवनीताऽऽदि, अवगाहिमाऽऽदि वा, जलमध्यस्थितेषु नावादिषु स्थितं परम्परनिक्षिप्तम्। संप्रति तेजस्कायमधिकृत्यानन्तरपरम्परे व्याख्यानयन "अग-णिम्भि सत्तविहो'' इत्यप्यवयवं व्याख्यानयतिविज्झायमुम्मुरिंगा-लमेव अप्पत्तपत्त समजाले। वोकंते सत्त दुगं, जंतोऽलित्ते य जयणाए।।५८१|| इह सप्तधाऽग्निः / तद्यथा-विध्यातो, मुर्मुरोऽङ्गारः, अप्राप्तः, प्राप्तः, समज्वालो, व्युत्क्रान्तश्च / तत्र यः स्पृष्टतया प्रथमतं नोपलभ्यते, पश्चात्त्विन्धनप्रक्षेपे वर्द्धनमपि गच्छति, स व्युत्क्रान्तः। एते सप्त * 'अहवण त्ति' अखण्डमव्ययपदमथवेत्यस्यार्थे / वृ०१ उ०। भेदास्तेजस्कायस्य / तत्र एकैकस्मिन् भेदे भेदद्विकम् / तद्यथाअनन्तरनिक्षिप्तम; परम्परनिक्षिप्तं च। तत्र यद् विध्याताऽऽदिरूपे वही मण्डकाऽऽदि प्रक्षिप्यतेतत् अनन्तरनिक्षिप्तम्। यत्पुनररुपरि स्थापिते पिठरकाऽऽदौ क्षिप्तं तत्परम्परनिक्षिप्तम् तत्र सप्तानां भेदानां मध्ये यमेव तमेव वाऽधिकृत्य यन्त्रेषु रसपाकस्थाने कटहाऽऽदौ अवलिप्ते मृत्तिकाखरण्टिते यतनया परिशाटिपरिहारेण ग्रहणभिक्षुरसस्य कल्पते। सम्प्रत्येनामेव गाथां व्याख्यानयन् प्रथमतो विध्या ताऽऽदीनां स्वरूपं गाथाद्वयेनाऽऽहविज्झाओ त्ति न दीसइ, अग्गी दीसेइ इंधणे छूढे / आपिंगलमगणिकणा, मुम्मुरे निजालइंगाले // 582 / / अप्पत्ता उचउत्थे , जाला पिठरं तु पंचमे पत्ता। छ8 पुण कन्नसमा, जाला समइच्छिया चरिमे // 583 // सुगमम, नवरम् (अप्पत्ता उ चउत्थे जाला इति ) चतुर्थे अप्राप्ताऽऽख्योभेदः पिठरमप्राप्ता ज्वाला द्रष्टव्या पश्चममेवमन्यत्राप्यक्षरगमनिका कार्या। संप्रति "जंतोऽलित्ते य जयणाए" इत्यवयवं व्याचिख्यासुराहपासोलित्त कडाहे, परिसाडी नऽत्थितं पि य विसालं। सो विय अचिरच्छूढो, उच्छ्रसो नाइउसिणो य / / 554|| इह यदीति सर्वत्राऽध्याहियते, यद्यदि कटाहः पिटरविशेषः, पिठरः पार्श्वेषु मृत्तिकयाऽवलिप्तो भवति, दीयमाने चेक्षुरसे यदि परिशाटिर्नोपजायते, तदपि च कटाहरूपं भाजनं यदि विशालं विशालमुखं भवति, सोऽपि चेक्षुरसोऽचिरक्षिप्त इति कृत्वा यदि नात्युप्णो भवति तदा स दीयमान इक्षुरसः कल्पते / इह यदि दीयमानस्येक्षुरसस्य कथमपि विन्दुर्बहिः पतति, तर्हि स लेप एव वर्तते, न तु चुल्लीमध्यस्थितः तेजस्कायमध्यपतितः, पाश्वोपलिप्त इति कटाहस्य विशेषणमुक्तम्। तथा विशालमुखादाकृष्यमाण उदञ्चनःपिठरस्य कर्णे न लगति, ततो न पिठरस्य भङ्ग इति न तेजस्कायविराधनेति विशालग्रहणम्। अनत्युष्णग्रहणे तु कारण स्वयमेव वक्ष्यति। सम्प्रत्युदकमधिकृत्य विशेषमाहउसिणोदगं पिघेप्पइ, गुलरसपरिणामियं न अचुसिणं / जंतु अघट्टियकन्नं, घट्टियपडणम्मि मा अग्गी // 585|| उष्णोदकमपि गुमरसपरिणामिनमनत्युष्णं गृह्यते / किमुक्तं भवति? यत्र कटाहे गुडः पूर्व क्वथितो भवति, तस्मिन निक्षिप्तं जलमीपत्तप्तमपि कटाहसंसक्तगुडरसमिश्रणात् सत्वरमचित्तीभवति,ततस्तदनन्तरमपि कल्पते। अत्राऽपिपावावलिप्तकटाहस्थितमपरिशाटितमिति विशेषणद्वयमनुपात्तमपि द्रष्टव्यम्। तथा यत् अघटितकर्णम्, न यस्मिन् दीयमाने पिठरस्य कर्णावुदश्चनेन प्रविशता निर्गच्छता वा घट्येते, तद्दीयमानं कल्पते इत्याह-(घट्टियपडणम्मि मा अग्गी) उदञ्चनेन प्रविशता निर्गच्छता वा पिठरस्य कर्णयोर्घट्यमानयोर्लेपस्योदकस्य वा पतनेन माऽग्निर्विराध्येतेकृत्वा / एतेन च वक्ष्यमाणो षोडशभङ्गानामाद्यो भङ्गो दर्शितः। सम्प्रति तानेव षोडश भङ्गान दर्शयतिपासोलित्त कडाहे, नचुसिणो अपरिसाडऽघट्टते।
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________________ णिक्खित्त 2025 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिक्खित्त सोलस भंगविगप्पा, पढमेऽणुन्नान सेसेसु // 586|| पाश्वविलिप्तः कटाहः१, अनत्युष्णो दीयमान इक्षुरसाऽऽदिः 2, अपरिशाटिः परिशाट्यभावः 3, (अघट्टते इति) उदश्चनेन पिठरकर्णाघट्टने 4, इत्येतानि चत्वारि पदान्यधिकृत्य षोडश भङ्गा भवन्ति। भङ्गानां च नयनार्थमियं गाथापयसमदुग अब्भासे-माणं भंगाण तेसिमह रयणा / एगंतरिय लहु गुरु, लहुगुरु दुगुणा य वामेसु / / 587 / / अस्या व्याख्या-इह यावतां पदानां भङ्गा अमुनेष्यन्ते, तावन्तो द्विका ऊधिःक्रमेण स्थाप्यन्ते-२/२, 2/2 ततः प्रथमो द्विको द्वितीयेन द्विकेन गुण्यते, जाताश्चत्वारः, तैस्तृतीयो द्विको गुण्यते, जाता अष्टौ, तैरपि चतुर्थो द्विको गुण्यते, जाताः षोडश। एतावन्तश्चतुर्णा पदानां भङ्गा भवन्ति / तेषां च पुनर्भङ्गानामेषा रचना-प्रथमपत्तावेकान्तरितं लघुगुरुप्रथम लघु, ततो गुरु, पुनर्लघु, पुनर्गुरु / एवं यावत् षोडशो भङ्गः / ततः प्रज्ञापकापेक्षया वामेषु वामपाज्ञेषु द्विगुणा द्विगुणा लघुगुरवः / तद्यथाद्वितीयपक्तौ प्रथमं द्वौ लघू, ततो द्वौ गुरू, ततो भूयोऽपि द्वौ लघू, एवं यावत् षोडशो भङ्गः। तृतीयपक्तौ प्रथमं चत्वारो लघवः, ततश्चत्वारो गुरवः, ततश्चत्वारो लघवः, पुनश्चत्वारो गुरवः / चतुर्थपड्क्त्यां प्रथममष्टी लघवः, ततोऽष्टौ गुरवः। स्थापना-अत्र ऋजर्वोऽशाः शुद्धाः, वक्राश्चाशुद्धाः / इह षोडशाना भङ्गानामाद्ये भङ्गेऽनुज्ञा, नशेषेषु पञ्चदशसु भङ्गेषु / सम्प्रत्युष्णग्रहणे दोषानाहदुविह विराहण उसिणे, छडणे हाणी य भाणभेओ य। उष्णेऽत्युष्णे इक्षुरसाऽऽदौ दीयमाने द्विधा विराधना-आत्मविराधना, परविराधना च। तथाहि-यस्मिन् भाजने तत्-अत्युष्णं गृह्णाति, तेन तप्त सभाजनंहस्तेन साधुण्हन् दह्यते, इत्यात्मविराधना। येनापि स्थालेन दात्री ददाति, तेनाप्यत्युष्णेन सा दह्यत इति / तथा-(छडुणे हाणी यत्ति) अत्युष्णमिक्षुरसाऽऽदि कष्टन दात्री दातुं शक्नोति, कष्टनच दाने कथमपि साधुसत्कभाजनागहिरुज्झनेहानिदीयमानस्येक्षुरसाऽऽदेः, तथा-(भाण-भेओ य इति) तस्य भाजनस्य साधुना वा नयनायोत्पाटितस्य पतद्ग्रहणाऽऽदेर्दात्र्या वा दानायोत्पाटितस्योदश्चनस्य गण्डरहि-तस्य अत्युष्णतया झगिति भूमौ मोचने भङ्गः स्यात् / तथा च षड्-जीवनिकायविराधनेति। संप्रति वायुकायमधिकृत्यानन्तरपरम्परे दर्शयतिवाउक्खित्ताऽणंतर-परम्परा पप्पडिय वत्थी॥५८८।। वातोत्क्षिप्ताः समीरणोत्पाटिताः पर्पटिकाः शालिपर्पटिका अनन्तरनिक्षिप्त, परम्परनिक्षिप्तं वस्तीति। विभक्तिलोपाद्वस्तौ। उपलक्षणमेतत्समीरणाऽऽपूरितवस्तिदृतिप्रभूतिव्यवस्थित मण्डकाऽऽदि। संप्रति वनस्पतिवंशविषयं द्विविधमपि निक्षिप्तमाहहरियाइ अणंतरिया, परंपरं पिढरमाइसु वणम्मि। पूपाइ पीढ़ेऽणंतर, भरए कुउपाइसू इयरा // 586|| वने वनस्पतिविषये अनन्तरनिक्षिप्तं हरिताऽऽदिषु सचित्तब्रीहिकाप्रभृतिषु अनन्तरिता निक्षिप्ताः, अपूपाऽऽदय इति शेषः / हरिताऽऽदीनामेवोपरि स्थितेषु पिठराऽऽदिषु निक्षिप्ता अपूपाऽऽदयः परम्परनिक्षिप्तम् / तथा बलीवर्दाऽऽदीनां पृष्ठे अनन्तरनिक्षिप्ता अपृपाऽऽदयः, तत्रानन्तरनिक्षिप्तम्। बलीयर्दाऽऽदिपृष्ठ एव भरके कुतुपाऽऽदिषु वा भाजनेषु निक्षिप्ता मोदकाऽऽदयः परम्परनिक्षिप्तम् / इह सर्वत्रानन्तरनिक्षिप्तं न ग्राह्यम्, सचित्तसंघट्टनाऽऽदिदोषसंभवात् / परम्परनिक्षिप्तं तु सचित्तसंघट्टनाऽऽदिपरिहारेण यतनया ग्राह्यमिति सम्प्रदायः। पिं० आचा०ा पञ्चा०ा नि०चू०। निक्षिप्तं न ग्राह्यम्असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। उदगम्मि हुन्जा निक्खित्तं, उत्तिंगपणगेसु वा // 56 // अशनं पानकं वाऽपि खाद्यं स्वाद्यं, तथा उदके भवेन्निक्षिप्तमुत्तिझपनकेषु वा कीटिकानगरोल्लीषु वेत्यर्थः / "उदयनिक्खित्तं दुविहंअणंतर, परंपरं च। अणंतरंणवणीतपोग्गलियमादी। परंपरं-जलघडोवरि भायणत्थं दधिमादी' एवं 'उत्तिंगपणएसु" भावनीयमितिसूत्रार्थः // 56 / / तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं / / 6 / / तद्भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत-न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थ // 60 // तथाअसणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। तेउम्मि हुज्ज निक्खित्तं,तंच संघट्टिया दए।६१|| अशनं पानकं वाऽपि खाद्यं स्वाद्यं, तथा तेजसि भवेद् निक्षिप्त तेजसीत्यग्री, तेजस्काय इत्यर्थः / तच संघट्य यावद्भिक्षां ददामि तावत्तापातिशयेन मा भूदुर्त्तिष्यत इत्याघट्य दद्यादिति सूत्रार्थः // 61 / / तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 62|| तद्भवे भक्तपानं तुसंयतानामकल्पिकम्, अतो ददतीं प्रत्याचक्षीतन मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥६२।। एवं उस्सिकिया ओसक्किया उज्जालिया पजालिया निव्या-विया उस्सिचिया निस्सिचिया ओवत्तिया ओयारिया दए॥६३।। यावद्भिक्षां ददामि तावद् मा भूद् विध्यास्यतीत्युत्सिच्य दद्यात्। (एवं ओसक्किया) अवसM, अतिदाहभयादुल्मकान्युत्सार्येत्यर्थः / (एवं उज्जालिया पजालिया) उज्ज्वाल्यार्द्धविध्यातं सकृदिन्धनप्रक्षेपण, प्रज्वाल्य पुनः पुनः / एवं (निव्वाविया) निर्वाप्य, दाहभयादेवेति भावः / एवं (उस्सिचिया निस्सिंचिया) उत्सिच्यातिभृतादुज्झनभयेन, ततो वा दानार्थं तीमनाऽऽदीनि निषिच्य तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने तेन दद्यात्। उद्वर्तनभयेन वा तद्रहितमुदकेन निषिच्य। एवं (ओवत्तिया ओयारिआ) अपवर्त्य तेनैवाग्रिनिक्षिप्तेन भाजनेना
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________________ णिक्खित्त 2026 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिक्खित्तदंग न्येन वा दद्यात्। तथा अवतार्वदाहभयाद्दानार्थ वा दद्यात्। अत्र तदन्यच परित्तसचित्तेसु अणंतरणिक्खित्ते चउलहुँ / एत्थ सुत्तं णिवयति / साधुनिमित्तयोगे न कल्पते // 63 / / सचित्तपरंपरेमासलहु। मीसे अर्णतरे मासलहुँ। परंपरे पणगं। अणंतरा ते तं भवे भत्तपाणं तु, संपयाण अकप्पियं। चेव गुरुगा पच्छित्ता। दितियं पडिआइक्खे,न मे कप्पइ तारिसं // 64|| चोदगाऽऽह"तं भवे ति" सूत्रं पूर्ववत्। गोचराधिकार एव गोचरप्रविष्टस्य।।६४|| तत्थ भवे णणु एवं, उक्खिप्पं तम्मि तेसि आसासो। दश०५ अ१ उ०। संजतणिमित्त घट्टण,थेरुवमाएणं तदुत्तं // 52 / / से भिक्खू वा भिक्खुणी वाजाव समाणे से जंपुण पाणगजायं पुढवादिकायाण उवरि ट्ठियंजपि उक्खिप्पं, तेण तेहिं आसासो भवति। जाणेज्जा अणंतरहियाए पुढवीएन्जाव संताणए ओहट्ट 2 आचार्याऽऽह-तम्मि उक्खिप्पते जा संघट्टणा, सा संजयणिमित्तं / ताण णिक्खित्ते सिया, असंजए भिक्खुपडियाए उदउल्लेण वा य अप्पसंघयणाण संघट्टणाए महंती वेदणा / भवति। एत्थ थेरुवमा। ससणिद्धेण वा सकसारण वा मत्तेण वा सीतोदएण वा संभोएत्ता गाहाआहटु दलएज्जा, तहप्पगारं पाणगजायं अफासुयं लाभे संते जरजज्जरो उ थेरो, तरुणेणं जमलपाणिपुडहंतो! णो पडिगाहेजा / एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा जारिसवेदण देहे, एगिंदियघट्टिते तह उ॥५३॥ सामग्गियं जंसव्वड्डेहि समिएहिं सहिएहिं सदा जएजासित्ति वेमि। जहा जराजुण्णदेहो थेरो बलवता तरुणेण जमलपाणिणा सुद्धे आहतो (से भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्तत्पानकं सचित्तेष्व- जारिसंवेयणं वेयति, ततो अधिकतरंएगिदिया संघट्टिता वेयणं अणुहवंति, व्यवहितेषु पृथिवीकायाऽऽदिषु तथा मर्कटाऽऽदिसन्तानके वाऽन्यतो तम्हा ण जुत्तं जं तुम भणसि। भाजनादुद्धृत्योद्धृत्य निक्षिप्तं व्यवस्थापितं स्यात् / यदि वा स इमं वितियपदा गाहाएवासंयतो गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया भिक्षुमुद्दिश्य उदकाट्टैण गलद्विन्दुना असिव ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे। सस्निग्धेन गलदुदकविन्दुना सकषायेण सचित्तपृथिव्याद्यवयवगुण्डितेन अद्धाणरोहगे वा, जयणा गहणं तु गीयत्थे // 54 // मात्रेण भाजनेन शीतोदकेन वा (संभा-एत्ता) मिश्रयित्वा, आहृत्य पूर्ववत्। दद्यात् / तथाप्रकारं पानकजातमप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा न __ गीयत्थो इमाए जयणाए गहणं करेति। गाहापरिगृह्णीयात्। एतत्तस्य भिक्षोभिक्षुण्या वा सामग्र्यम्- समग्रो भिक्षुभाव पुव्वं मीसें परंपर, मीसेऽणंतर सचित्तपर परए। इति। आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०७उ० तत्तो साचत्तऽणंतर, एमेव अणंतकाए वि।।५।। से भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अण्णयरं वा पुव्वं मीसे परंपरहितो गेण्हति, ततो मीसे अणंतरो, ततो सचित्तेपरपरे, पुढवीकायपतिट्ठियं दिजमाणं पडिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइज्जइ ततो सचित्ते अणंतरे। एवं अणंतकाए वि। एस परित्ताणतेसु कमोदरिसिओ। / / 251 / / जे भिक्खू असणं वा०४ आउकायपइट्ठियं दिजमाणं गहणे पुण इमा जयणापडिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइजइ / / 252 / / जे भिक्खू असणं पुट्विं परित्ते मीसपरंपरद्वितो गेण्हति, ततो मीसं अणंतरपरंपरं, ततो वा० 4 तेउकायपइट्ठियं दिजमाणं पडिगाहेइ, पडिगाहंतं वा / सचित्तपरित्तपरंपरं, ततो अणंतमीसं अणंतरं, ततो अणंतसचित्तपरंपर, साइजइ / / 253|| जे भिक्खू असणं वा० 4 वणप्फतिकाय ततो परित्तसचित्तअणंतरं, ततो अणंतसचित्तअणंतरं आहारे भणियं। पइट्ठियं दिनमाणं पडिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइज्जइ / / 254 / / गाहागाहा आहारे जो उ गमो, णियमा उवहिम्मि होति सो चेव। सचित्तमीसएसुं, काएसु य होति दुविह निक्खित्तं। णायव्वा तु मतिमता, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि।।५६।। अण तर परंपरं विय, विभासियव्वं जहा सुत्ते // 50 // कंठा॥५६॥ नि०चू०१७ उ०। पावकभाजनादनुते, औ०। जे पुढवातीकाया, ते दुविहा–सचित्ता, मीसा वा / सचित्तेसु अणं- | मिक्खितक्खित्तचरय पं०(निक्षिप्तोरिक्षप्तचरक) निक्षिप्तं भोजनतरणिक्खित्तं, परंपरणिक्खित्तं वा / मीसेसु वि अणंतरणिक्खित्तं, पात्र्यामुत्क्षिप्तं च स्वार्थ, तत एव निक्षिप्तोत्क्षिप्त, चरत्यभिग्रहवशेन इति परंपरणिक्खित्तं वा / पिंडणिज्जुत्तिगाहासुत्ते जहा, तहा सवित्थर | निक्षिप्तोत्क्षिप्तचरकः / अभिग्रहविशेषेण तथाविधभिक्षाचरके, और। स्था० भाणियध्वं / आयारवितियसुयक्खंधेवा जहा सचित्तपिंडसणासुतं, तहा णिक्खित्तचरय पुं०(निक्षिप्तचरक) निक्षिपत पाकभाजनादनुधृतं भाणियव्यं / तदर्थमभिग्रहतश्चरति तद्गवेषणाय गच्छतीति निक्षिप्तचरकः / अभिग्रहगाहा विशेषात् तथाभिक्षाचरणशीले, औ०। सुत्तणिवातो अचि-तऽणंतरे तं तु गेण्हती जो उ। णिक्खित्तदंड त्रि० (निक्षिप्तदण्ड) निश्चयेन क्षिप्तः परित्यक्तः सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 51 // कायमनोवाड्मयः प्राण्युपघातकारी दण्डो यैस्ते तथा /
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________________ णिक्खित्तदंड 2027 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिक्खेवग आचा०१ श्रु० 4 अ०३ उ०॥ निक्षिप्ताः संयमिता मनोवाकावरूपाः निक्षिप्यते, यत्र तु सर्व भेदा न ज्ञायन्ते, तत्राऽपि नामाऽऽदिचतुष्टयेन प्राण्युपमर्दकारिणो दण्डा यैस्तेतथा। त्रिविधेन करणेन परित्यक्तदण्डेषु, वस्तु चिन्तनीयमेव, सर्वव्यापकत्वात् तस्य। न हि किमपि तद्वस्त्वस्ति आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०॥ यन्नामाऽऽदिचतुष्टयं व्यभिचरतीतिगाथाऽर्थः / अनु०। आव०। बृ०॥ णिक्खित्तपुव्व त्रि०(निक्षिप्तपूर्व) पूर्वमेवाऽऽत्मकृते निष्पादिते, आचा०२ | आ०चूल। स०ा आचा०ा विशे० न० आ०म०! श्रु०१ चू०२ अ०३३० निक्षेप ओघनिष्पन्नाऽऽदिःणिक्खित्तभर त्रि०(निक्षिप्तभर) न्यस्तकुटुम्बाऽऽदिकार्यभरे, पञ्चा० 10 से किं तं णिक्खेवे? णिक्खेवे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-- विव० ओहनिप्पण्णे, नामनिप्पण्णे, सुत्तालावनिप्पण्णे / / शिक्खित्तसत्थमुसल त्रि०(निक्षिप्तशस्त्रमुशल) त्यतखङ्गाऽऽदि- से किं तं णिक्खेवे इत्यादि) निक्षेपः पूर्वोक्तशब्दार्थस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः / शस्त्रमुशले, भ०७ श०१ उ० तद्यथा-ओघनिष्पन्न इत्यादि, तत्रौघः सामान्यमध्ययनाऽऽदिकं णिक्खिप्पमाण त्रि०(निक्षिप्यमाण) स्वस्थाने न्यस्यमाने, "अग्गपिंड श्रुताभिधानं, तेन निष्पन्न ओघनिष्पन्नः, नामश्रुतस्य सामायिकाउक्खिप्पमाणं, अग्गपिंडं णिक्खिप्पमाणं / ' आचा०२ श्रु०१ चू०४ ऽऽदिविशेष नाम, तेन निष्पन्नो नामनिष्पन्नः। सूत्राऽऽलापका:-"करेमि अ०५ उ01 भंते ! सामाइय'' इत्यादिकाः, तैर्निष्पन्नः सूत्राऽऽलाप-कनिष्पन्नः / णिक्खिविअव्व त्रि०(निक्षेप्तव्य) मोक्तव्ये, प्रश्न०१ संव० द्वार। एतदेव भेदत्रय विवरीषुराहणिक्खिविउं अव्य०(निक्षिप्य) निक्षेपं कारयित्वेत्यर्थे व्य०१ उ०। से किं तं ओहनिप्पण्णे? ओहनिप्पण्णे चउव्विहे पण्णत्ते / तं णिक्खुड (देशी) अकम्पे, देवना० 4 वर्ग 28 गाथा। जहा-अज्झयणे, अक्खीणे, आए, खवणा !| अनु०॥ णिक्खुरिअ (देशी) अदृढे, देना०४ वर्ग 40 गाथा। (एषां व्याख्या स्वस्वस्थाने) णिक्खेव पुं०(निक्षेप) निक्षेपणं निक्षेपः / शास्त्राऽऽदेर्नामस्थाप नामनिष्पन्नःनाऽऽदिभेदेन न्यासन व्यवस्थापन निक्षेपः / निक्षिप्यते नामाऽऽदि से किं तं नामनिप्पण्णे ? नामनिप्पण्णे सामाइए समासओ भेदैव्यवस्थाप्यते अनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपः / अनु०। पिं०। चउविहे पण्णत्ते / तं जहा–णामसामाइए, ठवणासामाइए, यथाभूतार्थनिरपेक्षमभिधानमात्रे, आचा०१ श्रु० 2 अ०१ उ०। स्था०। दव्वसामाइए, भावसामाइए। अनु०॥ यथासंभवमावश्यकाऽऽदेर्नामाऽऽदिभेदप्ररूपणे, अनु उपक्रमाऽऽनीत- नामनिष्पन्ननिक्षेपस्तु गुणनिष्पन्ननामकस्यैवेति। सूत्र० 1 श्रु०६ अगा व्याचिख्यासितशास्त्रनामाऽऽदिन्यसने, ज०१ वक्ष। सूत्राऽऽलापकनिष्पन्नःअथ निक्षेपस्य निरुक्तिमाह से किं तं सुत्तालावगनिप्पण्णे? इआणिं सुत्तालावगनिप्पण्णं निक्खिप्पइ तेण तहिं, तओ व निक्खेवणं व निक्खेवो। निक्खेवं इच्छावेइ, से अ पत्तलक्खणो वि ण णिक्खिप्पइ / नियओ व निच्छिओ वा, खेवो नासो त्ति जं भणियं / / 12 / / कम्हा? लाघवत्थं / अत्थितइए अणुओगदारे अणुगमे त्ति, तत्थ णिक्खित्ते इह णिक्खित्ते भवइ, इह वा णिक्खित्ते तत्थ णिक्खित्ते निक्षिप्यते शास्त्रमध्ययनोद्देशाऽऽदिकं च नामस्थापनाद्रव्याऽऽदि भवइ, तम्हा इहं न निक्खिप्पड़, तहिं चेव निक्खिप्पइ, सेत्तं भेदैन्यस्यते व्यवस्थाप्यते अनेन, अस्मिन्, अस्माद्वेति निक्षेपः, निक्खेवं / अनु०॥ गुरुवाग्योगाऽऽदिविवक्षा तथैव / अथवा-निक्षेपणं शाखाऽऽदेनामस्थापनाऽऽदिभेदैर्व्यसनं व्यवस्थापनमिति निक्षेपः / निशब्द (से किं तं सुत्तालावग इत्यादि) अथ कोऽयं सूत्रालापकनिष्पन्नो क्षेपशब्दयोरर्थमाह- नियतो निश्चितो वा क्षेपः-शास्त्राऽऽदेनामा निक्षेपः-"करेमि भंते ! सामाइयं / '' इदानीं सूत्राऽऽलापकानां ऽऽदिन्यास इति निक्षेप इति यदुक्तम्, भवत्ययं परमार्थ इत्यर्थः / / 6 12 // स्थापनाऽऽदिभेदभिन्नो यो न्यासः, स सूत्राऽऽलापकनिष्पन्नो, निक्षेप विशे० आ०म० उत्तम इति शेषः / अनु०। स्था०। आचा०आव०। आ०म०। विशे०नि०चून सूत्र०। बृ०आ०चूला व्य०। (कस्य नयस्य मते को निक्षेप इति तत्र जघन्यतोऽप्यसौ चतुर्विधो दर्शनीय इति निक्षेपनययोजना ‘णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1886 पृष्ठे उक्ता) नियमार्थमाह (नामाऽऽदिनिक्षेपस्य नयविचारः णमोकार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1824 जत्थ य जं जाणेजा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं / पृष्ठे गतः) (स्थापनानिक्षेपाऽनुपगन्तृणां लुम्पकानां मतं 'चेइय' शब्दे जत्थ वि अन जाणेजा, चउक्कगं निक्खिवे तत्थ / / तृतीयभागे 1206 पृष्ठे खण्डितम्) अप्रस्तुतार्थापाकरणात् यत्र जीयाऽऽदिवस्तुनि यं जानीयान्त्रिक्षेपं न्यासं, यत्तदोर्नित्याभिस- / प्रस्तुतार्थव्याकरणाच निक्षेपः फलवान्। व्य०१ उ०। विन्यासे, विशेष म्बन्धात, तत्र वस्तुनि तं निक्षेपं निक्षिपेद् निरूपयेन्निरवशेष समग्रम् / प्रश्रा आ०म०। गणनिक्षेपणे, व्य०४ उ01 मोक्षे, पं०व०४ द्वार। मोचने, यत्राऽपि च न जानीयान्निरवशेष निक्षेपभेदजालं, तत्रापि नामस्थापना- ओघा परित्यागे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०१उ०। द्रव्यभावलक्षणं चतुष्कं निक्षिपेत्। इदमुक्तं भवति यत्र तावन्नामस्थापना- णिक्खेवग पुं०(निक्षेपक) भावे णकप्रत्यय निक्षेपणे (वस्त्रनिक्षेपकः द्रव्यक्षेत्रकालभवभावाऽऽदिलक्षणा भेदा ज्ञायन्ते, तत्र तैः सर्वैरपि वस्तु | 'वत्थ' शब्दे वक्ष्यते)
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________________ णिक्खेवण 2028 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिगम णिक्खेवण न० (निक्षेपण) निक्षेपे, स्थापने, प्रव० 6 द्वार। एवमादिकारणेहिं णिक्खिवंतो इमाए जयणाए णिपृथिव्यादौ निक्षिपति विखवति / गाहाजे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं या साइमं वा पुढवीए दूरगमणे णिसिं वा, वेहासणे इहरहा तु संथारे। णिक्खिवइ, णिक्खिवंतं वा साइज्जइ // 36 // भूमीए ठवेज व णं, घणबंध अभिक्ख उवओगो / / 672 / / जे भिक्खू असणं वा०४ संथारए णिक्खिवइ, णिक्खिवंतं वा / दूरं गंतुकामो णिसिं वा जं परिवासिज्जति, तं वेहासेदोरगेण णिविखवति साइजइ॥३७॥ (इहरहेति) आसण्णे गंतुकामो आसपणे वा किंचि लोयमादी काउंकामो गाहा तत्थ संथारे भूमीए वा ठवेइ। वकारो विगप्पे, णकारो पादपूरणे, तं पि पुढवीतणवत्थादिसु, संथारे तह य होइ वेहासे। ठवेंतोघणं चीरेण बंधइ, पिपीलिगभया छगणादीहि वा लिंपइ, अभिक्खणं जे भिक्खू णिक्खिवती, सो पावति आणमादीणि / / 667 / / च उवओगं करेति। पुढविगहणतो ओवट्टगादिभेदा दट्ठव्वा / दभाऽऽदितणसंथारए वा, जे भिक्खू असणं वा०४ उवहासे णिक्खिवइ, णिक्खिवंतं वा वत्थसंथारए वा, कंवलाऽऽदिफलसंथारे वा, वेहासे वा दोरगेण उल्लंवेइ. साइज्जइ / / नि०चू०१६ उ०। एवमादिपगाराण अण्णयरेण जो णिक्खिवइ. तस्स चउलहुँ, आणादिया (उपहासेऽशनाऽऽदिनिक्षेपे प्रायश्चित्तं 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे य दोसा, संजमाऽऽयविराहणा।। 477 पृष्ठे गतम्) तं तत्थ संजमे। गाहा णिक्खेवणा स्त्री०(निक्षेपणा) दलिकनिक्षेपे, क०प्र०४-५ प्रक०। प्रक०। तकेंत परंपरओ, पलोट्ट छिण्णे व भेद कायवहो / ('उव्वट्टणा' शब्दे द्वि०भा०१११० पृष्ठे 'अववट्टणा' शब्दे प्र०भा०७६६ अहिमूसलालविच्छुय-संचयदोसापसंगो वा॥६६८।। पृष्ठे च व्याख्यातेयम्) णिक्खेवणाहिगरण न०(निक्षेपणाधिकरण) प्रतिलेखनाप्रमार्जनाऽऽद्यसुण्णे भत्तपाणे चउरिंदिया घरकोइला तकेंति, तं पि मजारी, एवं करणेनोत्पन्नेऽधिकरणे, नि०चू०४ उ०) तकेंतपरंपरो दुप्पत्तं वाताऽऽदिवसेण वा पलोट्टति छक्कायविराहणा, णिक्खेवणिजुत्तिअणुगम पुं०(निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम) निक्षेपो नामस्थाआयपरिहाणी, वेहासद्वितं मूसगादिछिण्णे भायणभेदो, छक्कायवहो, आयपरिहाणीय। एसा संजमविराहणा। इमा आय--विराहणा--अहिस्स, पनाऽऽदिभेदभिन्नः, तद्विषया या नियुक्तिः निक्षेपनियुक्तिः तस्या मूसगादिस्स वा सिंघमाणस्स लाला पडेजा, णीससंतो वा विसं वा मुंचेज, वाऽनुगमो निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमः / नियुक्त्यनुगमभेदे, (अनु०) विच्छुगाइ वा पडेज, जे वा संणिहि-संचए दोसा, तत्थ वि णिक्खित्ते ते से किं तं णिक्खेवणिजुत्तिअणुगमेए णिक्खेवणिजुत्तिअणुगमे चेव दोसा, पसंगओ संनिहिं पट्टवेजा। किं च-जो भत्तपाणं णिक्खिवइ। अणुगए। सेत्तं णिक्खेवणिजृत्तिअणुगमे। अत्रैव प्रागावश्यकसामायिकाऽऽदिपदानां नामस्थापनाऽऽदिनिक्षेपगाहासो समणसुविहियाणं, कप्पातो अववितो त्ति णायव्वा। द्वारेण यद् व्याख्यानं कृतं, तेन निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतः प्रोक्तो द्रष्टव्यः। अनु०॥ दसरायम्मि य पुण्णे, जो उवहि सो उवहतो होति / / 666 / / / णिक्खेवय पुं०(निक्षेपक) निक्षेपणं निक्षेपकः / "नाम्नि पुंस च' समणकप्पोतम्मि अवविओ अपगतः, समणकप्पातो वा अवगओ, एवं // 5 / 3 / 121 / / इति। (हैम०) भावे णकप्रत्ययः। प्रथम स्वार्थ निक्षिप्य णिक्खिवंतरस दस राते गते जम्मि पाते तं भत्तादि णिक्खिवइ, तं उवहतं पश्चात् साधूनामनुज्ञाने, बृ०१ उ०। निगमने, यथा-'"एवं खलु जंबू ! होइ, जो य उवहिणिक्खित्तो अत्थइ, दसराई अपडिलेहिओ, सो वि समणेणं० जाव उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम8 पण्णते उवहतो भवति। त्ति वेमि।" उपा०१ अग गाहा णिक्खोभ त्रि०(निक्षोभ) निष्प्रकम्पे, दर्श०४ तत्त्व / वादिना क्षोभयितुउव्वद्धपीढफलतं-तुसंगतं ठवितभत्तपाणं तु। मशक्ये, स०२ अङ्ग। सुविहितकप्पा चवितं, सेयत्थि विवज्जए साहू ||670 / / णिखव्व न०(निखर्व) शतगुणिते खर्वे, कल्प०७ क्षण / संथारगाऽऽदियाणं बंधे जो पक्खस्स ण मुंचइ सोउब्बद्धो, णि- | णिखिल न०(निखिल) समग्रे, अनु०॥ क्खित्तभत्तपाणो य जो सो सुविहितकप्पातो अवगतो, जो सेयत्थी साधू, णिगच्छमाण त्रि०(निर्गच्छन्) बहिर्गच्छति, नि०चू०६ उ० तेण वज्जेयव्यो, ण तेण सह संभोगो कायव्यो। णिगज्झिय अव्य०(निगृह्य) निग्रहं कारयित्वेत्यर्थे, "पाए णिगिज्झिय इमो अववाओ। गाहा पप्फोडेमाणे!" स्था०७ ठा। वितियपदं गेलण्णे, रोहग अद्धाण उत्तिमट्ठो वा। णिगढ (देशी) धर्मे, दे०ना० 4 वर्ग 27 गाथा। एतेहिं कारणेहिं, जयणाए णिक्खिवे भिक्खू // 671 / / णिगम पुं०(निगम) प्रभूततरवणिग्वर्णवासे, आचा०१ श्रु० 8 अ०६ उ०। गिलाणकजवावडो णिक्खिवति, रोहगे वा संकड़वसहीए वेहासे करेति, स्था०। अनु०। उत्त०। सूत्र०। प्रश्न०। व्य०। प्रज्ञा०) वणिग्जनप्रधाने अद्धाणे वा सागारिए भुंजमाणो उत्तिमट्ट पवण्णस्स वा करणिज्जं करेंतो स्थाने, भ०१श०१ उ०ाजी०ा प्रश्नावणिगजनाधिष्ठितेसन्निवेशे, ज्ञा० णिविखवति। 1 श्रु० 8 अ०। प्रज्ञा०। पौरवणिगविशेष, बृ०३ उ०। वाणिजकसमूहे, स०
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________________ णिगम 2026 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिगोय 30 सम०। आचा०। दशा दशा०ा वणिजि, भ०७ श०६ उ०। "णिगमो ____ऽदिपिहितस्थले, वाचा ओघा "एगम्मि वणनिगुंजे ठविऊण पंथे णेगमवग्गो वसइ जहिं / " निगमं नाम यत्र नैगमा वाणि-जकविशेषाः, आगतो।' आ०म०१ अ०२ खण्ड। तेषां वर्गः समूहो वसति। अत एव निगमे भवा नैगमा इति व्यपदिश्यन्ते। | णिगूढ त्रि०(निगूढ) गुप्ते, मौनिनि च / व्य०७ उ०। कल्पना बृ० 1 उ०। आव०ा स्था०ा कारणिके, भ०७ श०६ उ० नि०चूला णिगूढजाणु त्रि०(निगूढजानु) गुप्तजानौ, कल्प०२ क्षण। सामान्यविशेषाऽऽत्मकस्य वस्तुनो नैकेन प्रकारेणावगमः परिच्छेदो णिगूहिय त्रि०(निगृहित) गोपिते, आ०म० 210 / आचा०। निगमः / सूत्र०२ श्रु०७ अ०। आ०म०ा निश्चितार्थबोधे, स्था०३ ठा०३ णिगोय पुं०(निगोद) अनन्तकायिके, प्रव० 255 द्वार / सूक्ष्मबादरा उला "लोगत्थनियोहा वा णिगमा" (2187) लोकार्थनिबोधाः अर्था निगोदाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च एकस्मिन्निगोदेऽनन्ताजीवाः, अत्र निगोदः जीवाऽऽदयः, तेषु नितरामनेकप्रकारा बोधा लोकस्यार्थनिबोधा कः? जीवाश्च के? इतिप्रश्रे, उत्तरम्-निगोद-शब्देनैकं शरीर वनस्पतिरूपं लोकार्थनिबोधाः / विशे० विचित्रेष्वभिग्रहविशेषेषु, रा० / साधारणमनन्तजीवजनितमुच्यते, तच्च चानन्ता जीवास्तिष्ठन्ति, अत णिगमण न०(निगमन) निश्चितं गमनं निगमनम् / निश्चितेऽवसाये, एव अनन्तकायिका जीवाः साधारणा उच्यन्ते। 6 प्र०ा ही०३ प्रका०। तचानुमानस्य दशमोऽवयवः / दश०१ अ०। आ०क०। निगमनं सम्प्रति यथैकस्मिन् निगोदशरीरे अनन्ता जीवाः पलक्षयन्ति रिणताः प्रतीतिपथमवतरन्ति, तथा प्रतिपादसाध्यधर्मस्य पुनर्निगमनम् // 51|| यन्नाहसाध्यधर्मिण्युपसंहरणमिति योगः। जह अयगोलो धंतो, जाओ तत्ततधणिज्जसंकासो। यथा तस्मादग्निरत्र // 52 // रत्ना०३ परि०। सव्यो अगणिपरिणओ, णिओयजीवे तहा जाण / / 16 / / निगमनाऽऽभासमुदाहरन्तितस्मिन्नेव प्रयोगे तस्मात्कृतकः शब्द इति तस्मात्परिणामी एगस्स दोण्ह तिण्ह व, संखेज्जाणं व पासिउं सक्का ! कुम्भ इति च ! 82 // दीसंति सरीराइं, णिओयजीवाणऽणताणं / / 20 / / अत्रापि साधनधर्म साध्यधर्मिणि, साध्यधर्म वा दृष्टान्तधर्मि "जह अयगोलो' इत्यादि / यथाऽयोगोलोध्मातः सन् स तप्तण्युपसंहरतो निगमनाऽऽभासः / एवं पक्षशुद्ध्याद्यवयवपञ्चकस्य भान्त्या तपनीयसङ्काशः सर्वोऽग्निपरिणतो भवति, तथा निगोदजीवान् जानीहि / वैपरीत्यप्रयोगे तदाभासपञ्चकमपि तर्कणीयम्॥श रत्ना०६ परि०। निगोदरूपेऽप्येकैकस्मिन् शरीरे तच्छरीराऽऽत्मकतया अनन्तान् जीवान् विशेष जानीहि / / 16 / / एवं च सति (एगस्सेत्यादि) एकस्य द्वयोस्त्रयाणा यावत्सङ्ख्येयाना, वाशब्दादसङ्ख्येयानांवा निगोदजीवानां शरीराणि णिगर पुं०(निकर) राशिमात्रे, विपा०१ श्रु०६ अाज्ञा०। वृन्दे, दलनिकरो द्रष्टुं न शक्यानि / कुतः? इति चेदुच्यते अभावात् / न ह्येकाऽऽदिदलवृन्दम् / ज्ञा०१ श्रु०६ अ०॥ हिरण्यद्रव्याऽऽदिनिकरवन्निकरः / जीवगृहीतानि अनन्तवनस्पतिशरीराणि सन्ति, अनन्तजीवपिण्डाऽऽभावस्कन्धे, अनु० त्मकत्वात्तेषाम, कथं तर्जुपलभ्यानीत्यत आह-(दीसंतीत्यादि) दृश्यन्ते णिगलिय त्रि०(निगरित) ज०२ वक्षः। सर्वथा शोधिते सारीकृते, तं०। शरीराणि निगोदजीवानां बादरनिगोदजीवानां अनन्तानाम् / ननु णिगाम न०(निकाम) अत्यर्थे , स्था०५ ठा०२ उ०ा आव०। सूक्ष्मनिगोदजीवानां तेषां शरीराणामनन्तजीवसनाताऽऽत्मकत्वेऽप्यनुणियामपडिसेविणी स्त्री०(निकामप्रतिसेविनी) निकाममत्यर्थ बीजपातं पलभ्यस्वभावत्वात्, तथा सूक्ष्मपरिणामपरिणतत्वात; अथ कथमेतदवयावत् पुरुष प्रतिसेवते इत्येवं शीला निकामप्रतिसेविनी। बीजपातं सीयते? निगोदरूपं शरीरं नियमादनन्तजीवपरिणामाविर्भावित यावन्मैथुनकर्मकारिकायाम्, सा च पुरुषसंयुक्ताऽपि गर्भ नो धरते। भवतीति? उच्यते, जिनवचनात्। तचेदम्-"गोला य असंखेज्जा, होति स्था०५ ठा०२ उ०। निगोया असंखया गोले / एक्केको य निगोओ, अणंतजीवो मुणेयध्वो णिगामसज्जा स्त्री०(निकामशय्या) शयनं शय्या, निकामं शय्या ॥१॥"प्रज्ञा०१पद। निकामशय्या। प्रतिदिवसं प्रकामशय्यायाम, ध०३ अधि०। आव० निगोदभेदान् पृच्छतिणिगामभोयण न०(निकामभोजन) "बत्तीसाइपरेणं, पगाम निचं तमेव कतिपिहे णं भंते ! णिओया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा उ निगाम।'' प्रमाणातीतमाहारं प्रतिदिवसमनतो भोजने, पिं० पण्णत्ता। तं जहा-णिओया य, णिओदजीवा य / निओया णं णिगामसाइ(ण) पुं०(निकामशायिन्) सूत्रार्थवेलामप्युल्लङ्घय शयाने, भंते ! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा .............. णिगामसाइरस / उच्छोलणापहोअस्स दुल्ला सुगइ सुहुमणिओया य, बादरनिओया य / सुहुमनिओया णं भंते ! तारिसगस्स" // 26|| दश० 4 अ०। कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पज्जत्तगा णिगास पुं०(निकर्ष) सन्निकर्षे, पुलाकाऽऽदिना परस्परेण संयोजने, भ० य, अपज्जत्तगा य / बायरनिओया वि दुविहा पण्णत्ता। तं जहा 25 श०७ उ०। पज्जत्तग य , अपजत्तगा य / निओदजीवा णं भंते ! कतिविहा णिगिज्झ अव्य०(निगृह्य) स्थित्वेत्यर्थे, कल्प०६ क्षण। व्या स्था०। पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहासुहमनिओदजीवा णिगुंज पुं०(निकुञ्ज) निःशेषेण की जायते जन-दु०-पृ० लता- य, बायरनिओदजीवा य / सुहुमनिगोदजीवा दुविहा पण्णत्ता। तं
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________________ णिगोय 2030 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिगोय जहा-पज्जत्तगा य, अपञ्जत्तगा य / बायरनिगोदजीवा दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पज्जत्तगाय, अपज्जत्तगाया "णिओया णं भंते !" इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह- गौतम! | द्विविधाः प्रज्ञाप्ताः / तद्यथा-सूक्ष्मनिगोदाश्च, बादरनिगोदाश्च / तत्र सूक्ष्मनिगोदाः सर्वलोकाऽऽपन्नाः सर्वलोकाऽऽपन्नाः, बादरनिगोदाः मूलकन्दाऽऽदयः। (सुहुमनिओया णमित्यादि) सूक्ष्मनिगोदा भदन्त ! कतिविधाः प्रज्ञप्ताः? भगवानाह-गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथापर्याप्तकाः, अपर्याप्तकाश्च / एवं बादर-निगोदविषयमपि सूत्रं वक्तव्यम्। संप्रति सामान्यतो निगोदसंख्यां जिज्ञासिषुः पृच्छतिनिओदाणं भंते! दव्वट्ठयाए किं संखेजा, असंखेजा, अणता? गोयमा! नो संखेज्जा, असंखेज्जा, नो अणंता। एवं पञ्जत्तगा वि, अपज्जत्तगा वि।सुहुमनिओदाणं भंते ! दव्वट्ठयाए किं संखेज्जा, असंखेजा, अणंता? गोयमा ! नो संखेज्जा, असंखेजा, नो अणंता / एवं पञ्जत्तगा वि, अपज्जत्तगा वि, एवं बायरा वि पज्जत्तगा वि अपञ्जत्तगा वि, नो संखेज्जा, असंखेजा, नो अणंता। निओयजीवा णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं संखेज्जा, असंखेज्जा, अणता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेजा, अणंता / एवं पञ्जत्ता वि, अपजत्ता वि। एवं सुहमनिओयजीवा विपज्जत्तगा वि, अपज्जत्तगा वि। बादरनिओयजीवा वि पज्जत्तगा वि, अपज्जत्तगा वि। "निओया णं" इत्यादि / निगोदा जीवाऽऽश्रयविशेषाः / भदन्त ! | द्रव्यार्थतया द्रव्यरूपतया किं संख्येया असंख्येया अनन्ताः? भगवानाह-- गौतम ! नो संख्येयाः, अङ्गुलासंख्येयभागवगाहनानां तेषां सर्वलोकाऽऽपन्नत्वात्, किं त्वसंख्येयाः, असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्। नाप्यनन्ताः, तथा केवलवेदसाऽनुपलम्भात्। एवमपर्याप्तसामान्यनिगोदसूत्रं पर्याप्तसामान्यनिगोद-सूत्रं भावनीयम् / यथा च सामान्यनिगोदविषयसूत्रत्रयमुक्तमेवं सूक्ष्मनिगोदविषयमपि सूत्रत्रय बादरनिगोदविषयमपि सूत्रत्रयं पृथक् वक्तव्यम्। भावना च पूर्वानुसारेण स्वयं विधेया। तदेवं द्रव्यार्थताविषयाणि नव सूत्राण्युक्तानि। संप्रति प्रदेशार्थताविषयाणि नव सूत्राणि विवक्षुः प्रथमतः सामान्यतो निगोदविषयं सूत्रमाहनिओदाणं भंते ! पदेसट्टयाए किं संखेज्जा पुच्छा? गोयमा ! | णां संखेजा, णो असंखेजा, अणंता / एवं पजत्तगा वि, अप-- जत्तगा वि / एवं सुहमनिओया वि पज्जत्तगा वि, अपजत्तगा वि, पएसट्ठयाए सव्वे अणंता / एवं बायरनिओया वि पजत्तया वि, अपज्जत्तया वि, पएसट्ठयाए सव्वे अणंता / एवं निओदजीवा वि सत्तविहा पएसट्ठयाए सव्वे अणंता। "निओदा णं भंते ! पएसट्टयाए" इत्यादि / निगोदा उक्तस्वरूपाः, णमिति वाक्यालङ्कारे। भदन्त! प्रदेशार्थतया प्रदेशरूपतया चिन्त्यमाना किं संख्येया असंख्येया अनन्ता वा? भगवानाह- गौतम ! नो संख्येया नो असंख्येयाः, किन्तु अनन्ताः, एकैकस्मिन् निगोदे प्रदेशानामनन्तत्वात्। एवं शेषाण्वष्टौ सूत्राणि पूर्वक्रमेण भावनीयानि। सम्प्रत्येतेषामेव सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तनिगोदानां द्रव्यार्थ प्रदेशार्थोभयार्थतया परस्परमल्पबहुत्वमाह-- एतेसिणं भंते ! निओयाणं सुहमाणं बायराणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं दव्वट्ठयाएपएसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे०२ जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायरनिओया पज्जत्तगा दवट्ठयाए, बादरनिगोदा अपज्जत्तगा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहुमनिओया अपज्जत्तगा दवट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहुमनिओदा पजत्तगा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा / एवं पदेसट्ठयाए वि / दव्वट्ठपएसठ्ठयाए सव्वत्थोवा बादरनिओया पज्जत्तया दव्वट्ठयाए०जाव सुहुमनिओदा पजत्तया दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, सुहुमनिओएहिंतो पज्जत्तएहिंतो दवट्ठयाए बादरनिगोदा पञ्जत्ता पएसट्ठयाए अणंतगुणा, बायरणिओदा अप-- जत्तगा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा०जाव सुहुमनिओया पञ्जत्ता पएसट्ठयाए संखेजगुणा। एवं निओयजीवा वि, णवरिं संकमए० जाव सुहुमनिओयजीवेहिंतो पज्जत्तएहिंतो दव्वट्ठयाए बायरनिओया जीवा पज्जत्ता पएसठ्ठयाए असंखेजगुणा, सेसं तहेव० जाव सुहुमनिओयजीवा पज्जत्ता पएसट्ठयाए संखेजगुणा। "एतेसि णं भंते ! निगोदा ण' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाहगौतम ! सर्वस्तोका बादरनिगोदा मूलकन्दाऽऽदिगताः पर्याप्तका द्रव्यार्थतया, प्रतिनियतक्षेत्रवर्तित्वात्. तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थलया असंख्येयगुणाः, एकैकपर्याप्तबादरनिगोदनिश्रया असंख्येयानामपर्याप्तानां बादरनिगोदानामुत्पादात्, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तका द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, सकललोकाऽऽपन्नतया क्षेत्रस्य संख्येयगुणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया संख्येयगुणाः, सूक्ष्मेष्वोघतोऽपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां संख्येयगुणत्वात्। (पएसट्टयाए इति) अत ऊर्द्ध प्रदेशार्थतया चिन्ता क्रियते, तामेव करोतिसर्वस्तोकाः बादरनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया, द्रव्याणां स्तोकत्वात् / तेभ्यो बादरनिगोदाअपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, द्रव्याणामसंख्येयगुणत्वात्। एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः। (दव्ववपएसट्टयाए इति) अधुना द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया चिन्ता क्रियतेसर्वस्तोका बादरनिगोदाः पर्याप्ताः द्रव्यार्थतया, बादरनिगोदा अपर्याप्ताः द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया संख्येयगुणाः / अत्र सर्वत्राऽपि युक्तिः प्राक्तन्येव। तेभ्यो बादरा निगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणाः, एकैक-निगोदस्यानन्ताणुकानन्तस्कन्धनिष्पन्नत्वात् / तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असं
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________________ णिगोय 2031 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिगोय ख्येयगुणाः, द्रव्याणामसंख्येयगुणत्वात्। तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः युक्तिः प्राक्तन्येव / तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः संख्येयगुणाः, द्रव्याणां संख्येगुणत्वात्। तदेवमुक्ता निगोदाः। अधुना निगोदजीवानिधिकृत्य भेदप्रश्नमाह-('एवं निओयजीवा वि' इत्यारभ्य 'पएसट्टयाए संखेजगुणा' इति यावद् मूले संक्षिप्तमुक्तमिति विभावनीयं सुधीभिः / ) "निगोयजीवा णं भंते !" इत्यादि सुगमम् / भगवानाह- गौतम ! निगोदजीवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथासूक्ष्मनिगोदा बादरनिगोदजीवाश्च / चशब्दौ निगोदजीवतया तुल्यतासुचकौ / एवमन्यत्राऽपि यथायोगं भावनीयौ / "सुहुमनिगोयजीवा णं भंते !" इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तविषयं सूत्रं त्विदं पाठसिद्धम / सम्प्रति द्रव्यार्थतया संख्या पिपृच्छिषुराह-"सुहमनिगोयजीवा णं भंते ! दव्वदयाए'इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम्। भगवानाह-गौतम ! नो संख्येया नाप्यसंख्येयाः, किं त्वनन्ताः; प्रतिनिगोदमनन्तानां निगोदजीव- | द्रव्याणां भावात्। एवमपर्याप्तसूत्रं वक्तव्यम् / तदेवं सामान्यतो निगोदद्रव्यविषयं सूत्रकमुक्तम् / एवं सूक्ष्मनिगोदजीवविषयं सूत्रत्रिकं, बादरनिगोदजीवविषयं सूत्रत्रिकं वक्तव्यम्। सर्वसंख्यया नव सूत्राणि। एवमेट प्रदेशार्थताविषयाण्यपि नव सूत्राणि, नानात्वाभावात् / भावना सर्वत्रापि सुप्रतीता / ये किल द्रव्यार्थतयाऽनन्तास्ते प्रदेशार्थतया सुतरामनन्ताः, प्रतिद्रव्यम संख्याताना प्रदेशानां भावात्। सर्वसंख्यया चागून्यष्टादश सूत्राणि / साम्प्रतमेतेषामेव सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तनिगोदजीवाना द्रव्यार्थप्रदेशार्थोभयार्थतया परस्परमल्पबहुत्वमाह"एएसिणं' इत्यादि / सर्वस्तोका बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, निगोदानां स्तोकत्वात्, तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, निगोदानामसंख्येयगुणत्वात् / तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्तका द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया संख्येयगुणः / कारण पूर्ववदूह्यम्। प्रदेशार्थतया सर्वस्तोका बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ताः, प्रदेशार्थतया द्रव्याणां स्तोकत्वात् तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, द्रव्याणामसंख्येयगुणत्वात्। एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता प्रदेशार्थतया, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया सर्वस्तोकाः, बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता व्यार्थतया संख्येयगुणाः, तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, प्रतिबादरनिगोदपर्याप्तजीवमसंख्येयानां प्रदेशाना भावात्, तेभ्यः सूक्ष्मबादरनिगोदजीवाश्च पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, बादरनिगोदापर्याप्तभ्यो बादरनिगोदपर्याप्तानामसंख्यातगुणत्वात्। तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्तकाः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः। भावना प्रागिव। सम्प्रति सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तनिगोदजीवानां द्रव्यार्थप्रदेशार्थोभयार्थतया परस्परमल्पबहुत्वमाहएते सिणं भंते ! सुहमाणं निगोदाणं बायराणं पज्जत्तगाणं अपजत्तगाणं निओयजीवाणं सुहमाणं वायराणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं दव्वट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्ठयाए कयरे 20 जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायरनि-ओया पज्जत्ता दवट्ठयाए, बायरनिओदा अपजत्ता दवट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहुमनिगोदा अपज्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेअगुणा, सुहमनिओदा पजत्ता दवट्ठयाए संखेजगुणा, सुहुमनिओएहिंतो पजत्तएहिंतो दव्वट्ठयाए बायरनिओदजीवा पजता अणंतगुणा, बायरनिओदजीवा अपञ्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहमनिओयजीवा अपज्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, सुहुमनिओयजीवा पज्जत्ता दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, पएसट्ठयाए, सव्वत्थोवा, वायरनिओदजीवा पज्जत्ता पएसट्ठयाए, बायरनिओदजीवा अपज्जत्ता पएसट्ठयाए असंखेज्जगुणा, सुहुमनिओयजीवा अपज्जत्ता पएसट्टयाए असंखेजगुणा, सुहुमनिओदजीवा पजत्ता पएसट्ठयाए संखेज्जगुणा, सुहुमनिओदजीवेहिंतो पज्जत्तएहितो बायरनिओया पन्जत्ता पदेसट्ठयाए अणंतगुणा, बायरनिओया अपजत्ता पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा०जाव सुहुमनिओया पजत्ता पएसट्ठयाए संखेज्जगुणा, दव्वट्ठपदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा, बायरनिओया पज्जत्ता दव्वट्ठयाए, बायरनिओदा अपज्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणाजाव निगोदा पज्जत्ता दव्वट्ठयाए संखेजगुणा, सुहमनिओएहिंतो पज्जत्तएहिंतो बायरनिओदजीवा पञ्जत्ता दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, सेसा तहेव०जाव सुहुमनिओदजीवा पज्जत्तगा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, सुहुमनिओयजीवेहिंतो पजत्तएहिंतो दव्वट्ठयाए बायरनिओयजीवा पज्जत्ता, पएसट्टयाए असंखेजगुणा, सेसं तहेव०जाव सुहुमनिओया पजत्ता पएसट्ठयाए संखेनगुणा। 'एएसिण' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका बादरनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्भनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाःपर्याप्ता द्रव्यार्थतया संख्येयगुणाः। अत्र सर्वत्रापि युक्तिः प्रागुक्तैव। सूक्ष्मनिगोदेभ्यः द्रव्यार्थतया बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः एकैकस्मिन् निगोदे अनन्ताना जीवानां भावात्, तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः, द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, निगोदानामसंख्यातगुणत्वात् / एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया संख्येयगुणाः, प्रदेशार्थतया सर्वस्तोकाः, बादरनिगोदजीवाः पर्याप्तकाः प्रदेशार्थतया, निगोदानां स्तोकत्वात् / तेभ्यो बादरनिगोदजीवाः अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, निगोदानामसंख्येयगुणत्वात्। एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगु
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________________ णिगोय 2032- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ णाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रश्ने, उत्तरम्-सूक्ष्मनिगोदस्य क्षुल्लकभवग्रहणरूपमेवान्तर्मुहूर्तमासूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया युर्भवति / बादरनिगोदस्य तु क्षुल्लकभवग्रहणरूपं किञ्चिन्न्यूनमन्तअनन्तगुणाः, एकैकस्य निगोदस्य अनन्ताणुकानन्तस्कन्धनिष्ठाऽऽ- मुहूर्तरूपं भवति, सामान्येन तूभयोरप्यन्तर्मुहूर्तमुच्यत इति 155 प्र०। पन्नत्वात्। तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, सेन०३ उल्लाका सूक्ष्मनिगोदात्रिर्गतो जीवः पुनः सूक्ष्मनिगोदमध्ये एकैकबादरपर्याप्तनिगोदनिश्रया संख्यातीतानां बादरापर्याप्तनिगोदा- याति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् सूक्ष्मनिगोदान्निर्गतो जीवः पुनरपि नामुत्पादात्। तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्यात- सूक्ष्मनिगोदे यातीति। २७३प्र०। सेन०३ उल्ला० गुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः, णिगोदजीव पुं०(निगोदजीव) साधारणनामकर्मोदयवर्तिनि जीवे, भ० द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया सर्वस्तोकाः, बादरनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, 25 श०६उ०। नारकजीवेभ्यो निगोदजीवानां दुःखमधिकं, तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः निगोदजीवेभ्यो वा नारकजीवानाम? इति प्रश्ने, उत्तरम्-निश्चयतो सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः नारक जीवेभ्यो निगोदजीवानां जन्ममरणाऽऽद्ये कशरीरानन्त-- सुक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया संख्येयगुणाः / अत्र युक्तिर्निंगीदाना जीवावस्थानाऽऽदिरूपं महद् दुःखं, परं तन्मत्तमूञ्छिताऽऽदीनामिव द्रव्यार्थतया चिन्तायामिव / तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदभ्यः पर्याप्तभ्यो नातिदुस्सहम् / व्यवहारतस्तु निगोदजीवेभ्यो नारक जीवानां वादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया अनन्तगुणाः, प्रतिबादरनिगोद परमाधार्मिककृतवेदनाऽऽदिरूपं दुःखं प्रति किं साम्यं, हीनाधिकत्वं वा? मनन्तानां जीवानां भावात् / तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ता इति प्रश्ने, उत्तरम् -तेषां व्यवहारेण समानं दुःखमवसीयते, निश्चयस्तु द्रव्यार्थतया असख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ता के वलिगम्य इति / 343 / 344 / प्र०ा अनादिनिगोदजीवाः किं द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया जनितबहुकर्मवशेन तत्र तिष्ठन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रवाहापेक्षया संख्येयगुणाः। अत्र युक्तिर्निगोदजीवानां द्रव्यार्थतया चिन्तायामिवा तेभ्यः अनादिकर्मसंबन्धेन तत्र तिष्ठन्तीति / 345 प्र०। केचन निगोदजीवा सूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तभ्यो द्रव्यार्थतया चिन्तितेभ्यो बादरनिगोद लघुकर्मीभूय व्यवहारराशौ समायान्ति, तेषां तत्र लघुकर्मीभवने किं जीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, प्रतिबादरनिगोद कारणमिति प्रश्ने, उत्तरम-भव्यत्वपारिपाकाऽऽदिकं तेषां लघकर्मीभवने पर्याप्तजीवमसंख्येयानां लोकाऽऽकाशप्रमाणाना प्रदेशाना भावात् / कारणमिति ३४६प्र०। सेन०३ उल्ला०मांसमध्ये निगोदजीवा तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः उत्पद्यमानाः कथिताः सन्ति / तथाहि-"आभासु अ पक्षासु अ, विपचमाणासु मंसपेसीसु / उप्पजति अणंता, तटवण्णा तत्थ सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसंख्येयगुणाः, तेभ्यः जंतूओ / / 1 / / एतद्गाथायां योगशास्त्रतृतीयप्रकाशमध्ये कथितमस्ति, सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः / युक्तिस्त्र यन्निगोदशब्देन शरीरं कथ्यतेऽतो मांसमध्ये शरीरिणोऽनन्ता जीवा निगोदजीवानां प्रदेशार्थतया संख्येयगुणचिन्तायामिव / तेभ्यः उत्पद्यन्ते, तच्छरीराणिकानि? मांसमेव शरीरतया परिणमति,तद्रूपाणि सूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तभ्यः प्रदेशार्थतया चिन्तितेभ्यो बादरनिगोदाः किं वाऽसंख्यातानि शरीराणि उत्पद्यन्ते तानि, तेषामप्यनन्तपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणाः। एकैकस्मिन् निगोदे अनन्तानामणूना शरीरिणामाबाधोत्पद्यते? न वा? इति प्रश्न-उत्तरम्-मांसमध्ये सद्भावात्। तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, रसजद्वी-न्द्रियजीवा अनेके उत्पद्यमानाः संभाव्यन्ते, तथा "आमासु तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, तेभ्यः अपक्कासु अ, 'एतद्राथायां ये निगोदजीवा उत्पद्यमानाः कथिताः सन्ति, सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः / अत्र तत्र निगोदशब्देन सूक्ष्मजीवा एव अर्थः परम्परया कथ्यमानोऽस्ति, परं युक्ति निगोदानां प्रदेशार्थतया चिन्तायामिव / जी०६ प्रतिक साधारणवनस्पतिवदनन्तजीवाऽऽश्रय एकशरीरनिगोद एवं विधोऽर्थः सांव्यवहारिकाः के प्रतिपाद्यन्ते, किं निगोदावस्थात उद्धृताः, उत कथ्यमानो नास्ति / यच्चः प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तौ मासमध्ये तद्वर्णा अनेके सूक्ष्मनिगोदेभ्य उद्धृताः, उत सूक्ष्ममात्रोवृताः? इति प्रश्ने, उत्तरम् जीवा उत्पद्यमानाः कथिताः सन्ति, परमनन्ता असंख्यातान कथिताः प्रज्ञापनावृत्तौ निगोदादु वृता इति सामान्य वचो न विशेषबाधां कर्तुं समर्थ सन्ति, तस्मादनन्ता असंख्याता यत्र कथिताः सन्ति, पर तत्रानन्ताsस्यात् / सूक्ष्ममात्राणां निगोद इति संज्ञा नाऽस्ति, निगोद इति नाम संख्यातशब्देन बहव इत्यर्थो ज्ञेयः, एवं परम्पराऽस्ति / तानि च वनस्पतौ रूढम्, तथा सूत्रेऽपि तथैव दृश्यते, सूक्ष्मनिगोदेभ्य उद्धृताः, जीवशरीराणि मासपुद्गलतयाऽन्यपुद्गलतया च मिश्रितानि उत्पद्यमानानि अत एव सांव्यवहारिका इति। श्रुतिपरम्परयाऽपि बहुश्रुतानामयं प्रघोषः / संभाव्यन्ते, तथा तक्राऽऽरनालाऽऽदिषु द्वीन्द्रियजीवा उत्पद्यमानाः यतः-''सर्वे जीवा व्यवहार्यव्यवहारितया द्विधा / निगोदा व्यवहार्यास्ते, कथिताः सन्ति, तद्वत्तेषामपि मांसजीवानामायाधोत्पद्यते इति चान्येऽपि व्यवहारिणः // 1 // इति योगशास्त्रवृत्तौ इति / १३७प्र०। संभाव्यते,परमेकशरीरस्थानन्तजीववन्नोद्यते इति ज्ञातं नास्तीति सेन०१ उल्ला०। अनादिनिगोदमध्ये यथा भव्यस्य ज्ञानदर्शनचारित्राणां १४४०|सेन०४ उल्ला सत्ता, तथा अभव्यस्य भवति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-अभव्यस्य / णिग्गंथ पुं०(निर्गन्थ) निर्गता ग्रन्था द्रव्यतः सुवर्णाऽऽदिरूपाद्भावतो मिथ्याज्ञानाऽऽदिसत्ता भवति, परमभव्यतया सामग्रीसद्भावेन प्रकटीभवति, त्वाऽऽदिलक्षणादिति निर्गन्थः / व्य०३ उ०। स्था०। सूत्र०। निर्गती भव्यस्य तु तद्योगेऽस्याप्रकटीस्यादिति / १२८प्र०। सेन०२ उल्ला बाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्स निर्ग्रन्थः / सूत्र०१ श्रु०६ अ०। बाह्याभ्यआवलिकायुःप्रमाणं सूक्ष्मबादरनिगोदयोरुभयोः, किं वाऽऽद्यस्यैत्रेति न्तरग्रन्थिरहिते, दश०६अ। जैनसाधी, दश०३ अगसास्थान (व्याख्या
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________________ णिग्गंथ 2033 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ 'दिसा' शब्दे द्रष्टव्या) "णिग्गंथा जिणसासणभवा / " निर्ग्रन्थास्ते भण्यन्ते, ये जिनशासनभवाः प्रतिपन्नपारमेश्वरप्रवचनमुनयः। प्रव०६४ द्वार। पञ्चविधाः श्रमणाः, तत्र निर्ग्रन्था जैनसाधवः / आचा०२ श्रु०१ चू० 101 उ०। सूत्रका स्था०। आ०का ज्ञा०ा प्रश्नाआ०चूला नं। (१)निन्थिशब्दव्याख्यासहिरनगा सगंथा, अहिरन्नसुवण्णगा समणा। सहिरण्यकः सग्रन्थ उच्यते / अत्र हिरण्यग्रहणं बाह्यभ्यन्तरपरिग्रहोपलक्षणं, ततो यः सपरिग्रहः स सग्रन्थः / श्रमणाः पुनरहिरण्यसुवर्णकाः अतो निर्ग्रन्थाः। हिरण्यं रूप्यं, सुवर्ण कनकम्। बृ०१ उ०॥ (ग्रन्थनिक्षेपो गथ' शब्दे तृ०भा०७६३ पृष्ठे उक्तः) प्रस्तुतयोजनामाहसावलेण विमुक्का, अडिमंतरबाहिरेण गंथेण / निग्गहपरमा य वि हू, तेणेवं हों ति निग्गंथा। सावद्यः सपापः कर्मोपादाननिबन्धनत्वाद्यो ग्रन्थः, तेन साभ्यन्तरबाह्येन ये मुक्तास्ते निर्ग्रन्था उच्यन्ते। येऽपि चान्तरं ग्रन्थेन न सर्वथा मुक्तास्तेऽपि, ये न विद्वांसः क्रोधाऽऽदिदोषवेदिनः, तथा निग्रहपरमाः, तन्निर्जयप्रधानाः, तेनैवं कारणेन ते निर्ग्रन्था भवन्ति (2) अथाऽऽन्तरं ग्रन्थमधिकृत्य ये मुक्ताः, ये चामुक्ताः, तदेत दभिधित्सुराहकेई सध्वविमुक्का, कोहाईएहिँ केइ भइयव्वा। सेदिदुर्ग विरचित्ता, जाणसु जो निग्गओ जत्तो।। क्रोधाऽऽदिभिरन्तरग्रन्थैः केचित्सर्वविमुक्ताः सर्वरपि विप्रमुक्ताः, केचित्पुनर्भक्तव्या विकल्पनीयाः-कैश्चिद् मुक्ताः, कैश्चिदपि न मुक्ता इत्यभिप्रायः। अत्र शिष्यः प्राऽऽह-कथनुनामेदं ज्ञास्यते? अमी सर्वथा मुक्ताः, अमी च न मुक्ता इत्युच्यते-श्रेणिद्विकमुपशमश्रेणि-क्षपकश्रेणिलक्षणं, विरचय्य यथोक्तपरिपाट्या स्थापयित्वा ततो जानीहि यो यतः क्रोधाऽऽदेर्निर्गतः, अनिर्गतो वेति। बृ०१ उ० भ० उत्त०। सूत्र०। (श्रेणियप्ररूपणा 'खवगसेढि' शब्देतृ०भा०७२७ पृष्ठे, 'उवसमसेढि' शब्दे द्वि०भा० 1043 पृष्ठे च द्रष्टव्या) (3) एना क्षपक श्रेणिमध्यासीनेन येन यदनन्तानुबन्ध्यादिकं क्षपित, स तेन मुक्त इत्यवसातव्यम् / येऽपि श्रेणिद्वयमद्याऽपि न प्रतिपद्यन्ते, किन्तु सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकानामन्यतमस्मिन् संयमे वर्तन्ते, तेऽपि संकलनचतुष्टयवर्जेंदशभिः कषायैर्मुक्ता इत्यवगन्तव्यम्। यत उक्तम्- "बारसविहे कसाए. खविए उवसामिएय जोगेहिं / लब्भइ चरित्तलंभो, तस्स विसेसा इमे पंच // 1||" ततश्चजे वि अन सव्वगंथे-हि निग्गया होंति केइ निग्गंथा। ते वि य निग्गहपरमा, हवंति तेसिं खउज्जुत्ता।। ये पि च सरागसंयमवर्तिनः सर्वेभ्य आभ्यन्तरग्रन्थेभ्यो न निर्गताः तेऽपि तेषां संज्वलनकषायाऽऽदीनां क्षयोयुक्ता उदयनिरोधोदयप्राप्तविफलीकरणाभ्यां क्षयकरणायोद्यताः सन्तो निग्रहपरमा अन्तरग्रन्थनिग्रहप्रधाना भवन्तीत्यतो निर्ग्रन्था उच्यन्ते। अपिचकलुसफलेन न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो। ___ संते विजे कसाए, निगिण्हई सो वि तत्तुल्लो॥ कलुषयन्ति सहजनिर्मलं कर्मरजसा मलिनयन्तीति ''अच्' // 5/1146 / / इति अच्प्रत्यये कलुषा कषायाः, तेषां यत्फलं पुरुषभाषणनयनमुखविकारै रौद्रध्यानानुबन्धाऽऽदिक, तेन सह यन्न युज्यते न संबन्धमुपयाति, विगतरागो विशेषेणापुनर्भावने गतो रागो यस्मात्स विगतरागः, क्षीणमोह इत्यर्थः / तत्र कि चित्रं किमाश्चर्य ? कषायलक्षणकारणाभावान्न किञ्चिदित्यर्थः / यस्तु सतोऽपि विद्यमानानपि कषायानिगृह्णाति, उदीयमानानेव प्रथमतो निरुणद्धि, कथञ्चिदुदयप्राप्तान वा विफलीकरोति, सोऽपि तत्तुल्यो वीतराग इव निष्कषायो मन्तव्यः, सतामपि कषायाणामसत् कल्पनाकरणात्, अतः सरागसंयतोऽपि निर्ग्रन्थोऽभिधीयते। अथपरं प्रश्यतिजइ अभिंतरमुक्का, बाहिरगंथेण मुक्कया किह णु? गिण्हंता उवगरणं जम्हा अममत्तया तेसु॥ यद्यनन्तरोक्तप्रकारेणाभ्यन्तरग्रन्थमुक्ताः, ततो वस्त्रपात्राऽऽदिकमुपकरणं गृह्णन्ततः कथं, नुरिति वितर्के। बाह्यग्रन्थेन मुक्ता उच्येरन्? वस्वाऽऽदेरपि ग्रन्थरूपत्वादित्यभिप्रायः सूरिरहयस्मात्तेषु वस्खपात्राऽऽदिषु न विद्यतेममत्वं मूर्छा येषां ते अममत्वकाः “शेषाद्वा" / / 7 / 3 / 175|| इति कच् प्रत्ययः / मूरिहिताः। तेन बाह्यग्रन्थमुक्ता अप्यभिधीयन्ते। इयमत्र भावनामूर्छा परिग्रहो गीयते तनूपकरणाविधारणमात्रम्, "मुच्छा परिगहो वुत्तो" इति वचनात् / अतः संयमोपष्टम्भाऽऽदिनिमित्तमुपकरणं धारयन्नपि विशुद्धचेतोवृत्तिरपरिग्रह एव ज्ञातव्यः / तदुक्तं परमगुरुभिः- "अज्झत्थविसोहीए, उवगरणं बाहिरं परिहरंतो। अपरिगहो त्ति भणिओ, जिणेहिँ तेलुनंदसीहिं' ||1|| बृ०१ उ०। भ० / उत्त। सूत्रा (4) अथ निर्ग्रन्थनिक्षेपमाह नियुक्तिकृत्णिक्खेवो णियंठम्मी, चउविहाँ दुविहो य होइ दव्वम्मि। आगम णो आगमओ, णो आगमओयसो तिविहो॥३२नि०॥ निक्षेपो न्यासः (नियंठम्मित्ति) निर्गन्थे निर्ग्रन्थविषये चतुर्विधः, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्। तत्र नामस्थापने क्षुण्णे। द्विविधो भवति द्रव्येआगमतो, नो आगमतश्च / तत्राऽऽगमतः प्राग्वत्, नो आगमतश्च स इति निम्रन्थस्त्रिभेद इति गाथाऽर्थः / उत्त० (पाईटीका) 6 उ०॥ त्रैविध्यमेवाऽऽह- द्रव्यतो एकः, अन्यो न द्रव्यतो भावतः, अपरो द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि / तत्र द्रव्यतो निर्ग्रन्थः स उच्यते, यो लिङ्ग सहितो द्रव्यलिङ्ग युक्तो निःशङ्कः सन्नध्यवस्यते, उत्पव्रजतीत्यर्थः / यस्तु प्रव्रज्यायामभिमुखो न तावदद्याऽपि प्रव्रजति, कारणेन वा यः साधुः परलिङ्गे वर्त्तते, स द्वितीयो द्वितीय-भङ्गवर्ती / यस्तु उदयसहितो द्रव्यभावलिङ्गयुक्तः स तृतीयः। उभयथा निर्ग्रन्थ इति भावः / बृ०३ उ०। जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते यणिण्हवादीसु। भावम्मि णियंठो खलु, पंचविहो होइ णायव्यो / / 33 / / नि०)
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________________ णिग्गंथ 2034 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिगंथ (जाणगसरीरभविए त्ति) ज्ञशरीरनिर्गन्थो, भव्यशरीरनिर्ग्रन्थश्च / पश्चात्कृतपुरस्कृतनिर्गन्थपर्यायतयाऽयं घृतकुम्भ इत्यादिन्यायतः प्राग्वद्भावनीयः / तद्व्यतिरिक्ताश्व निवाऽऽदिषु / आदिशब्दात्पावस्थाऽऽदिपरिग्रहः / भावनिर्गन्थोऽप्यागमतो,नो आगमतश्व, तत्राऽऽगमतस्तथैव। नो आगमतस्तु स्वत एवाऽऽह नियुक्तिकृत्-भावे निर्ग्रन्थः, खलुक्यालङ्कारे, पञ्चविधः पञ्चभेदो भवति ज्ञातव्य इति गाथाऽर्थः। उत्त० (पाईटीका)६अ (5) पञ्चविधनिर्ग्रन्थस्वरूप चेदम्कइणं भंते ! णियंठा पण्णता? गोयमा ! पंच णियंठा पण्णत्ता। तं जहा-पुलाए, वउसे, कुसीले, णियंठे, सिणाए। (णियंठ त्ति) निर्गताः सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थादिति निर्ग्रन्थाः साधवः, एतेषां च प्रतिपन्नसर्वविरतीनामपि विचित्रचारित्रमोह-नीयकर्मक्षयोपशमाऽऽदिकृतो भेदोऽवसेयः। तत्र-(पुलाए त्ति) पुलाको निःसारोधान्यकणः, पुलाकवत्पुलाकः संयमसारापेक्षया, स च संयमवानपि मनाक् तमसारं कुर्वन् पुलाक इत्युच्यते। (वउसे त्ति) वकुशं शवलं, कुत्रमित्यनथान्तरम्, ततश्च वकुशसंयमयोगाद्वकुशः। (कुसीले ति) कुत्सितं शीलं चरणमस्येति कुशीलः। (नियंठे त्ति) निर्गतो ग्रन्थान्मोहनीयकर्माऽऽख्यादिति निन्थः / (सिणाए त्ति) स्नात इव स्नातो घातिकर्मलक्षणमलपटलक्षालनादिति। भ०२५ श०६ उ०। तओ णियंठाणोसण्णोवउत्ता पण्णत्ता / जहा-पुलाए, णियंठे, सिणाए। तओ णियंठा सण्णणोसण्णोवउत्ता पण्णत्ता। तं जहावउसे, पडिसेवणाकुसीले, कसायकुसीले। (तओ इत्यादि) निर्गता ग्रन्थात् सबाह्याभ्यन्तरादिति निर्ग्रन्थाः / संयताः, 'नो' संज्ञायामाहाराऽऽद्यभिलाषरूपायां, पूर्वानुभूतस्मरणानागतचिन्ताद्वारेणोपयुक्ता ये ते नोसंज्ञोपयुक्ताः, तत्र पुलाको लब्ध्युपजीवनाऽऽदिना संयमासारताकारको वक्ष्यमाणलक्षणः, निग्रन्थ उपशान्तमोहः, क्षीणमोहो वेति / स्नातको घातिकर्ममलक्षालनावाप्तशुद्धज्ञानस्वरूपः / तथा त्रय एव संज्ञोपयुक्ताः, नोसंज्ञोपयुक्ताश्चेति संकीर्णस्वरूपाः, तथा स्वरूपत्वात्। तथा चाऽऽह-(सन्न नोसन्नोवउत्त त्ति) संज्ञा चाहाराऽऽदिविषया, नोसंज्ञा च तदभावलक्षणा। संज्ञानोसंज्ञ, तयोरुपयुक्ता इति विग्रहः। पूर्वह्रस्वता प्राकृतत्वादिति / तत्र वकुशः | शरीरोपकरणविभूषाऽऽदिना सबलचारित्रपटः, प्रतिसेवनया मूलगुणाऽऽदिविषयया कुत्सित शीलं यस्य स तथा। एवं कषायकुशील इति। स्था०३ ठा०२ उ०। ध०र०। ध०। पं०भा०। पं०यू०। दर्शा (पुलाकाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (6) एते पुलाकाऽऽदयः पञ्च निग्रन्थविशेषाएभिः संयमा ऽऽदिभिरनुगमविकल्पैः साध्या भवन्तिपण्णवण वेय रागे, कप्प चरित्त पडिसेवणा णाणे / तित्थे लिंग सरीरे, खित्ते काले गति संजम णिकासे / / 1 / / जोगुवओग कसाए, लेसा परिणाम बंधवेदे य। कम्मोदीरण उवसं-पजहण्ण सण्णा य आहारे / / 2 / / भव आगरिसे कालं-तरे य समुधाय खेत्त फुसणा य। भावे परिणामे खलु, अप्पाबहुयं णियंठाणं / / 3 / / भ०२५श०६ उ01 (7) तत्र वेदद्वारेपुलाए णं भंते ! किं सवेयए होज्जा, अदेदए होज्जा? गोयमा ! सवेयए होजा, णो अवेदए होज्जा / जइ सवेदए होजा किं इत्थीवेदए होज्जा, पुरिसवेदए होज्जा, पुरिसणपुंसगवेयए होजा? गोयमा ! णो इत्थीवेयए होजा, पुरिसवेयए होज्जा, पुरिसणपुं-- सगवेयए होज्जा / वउसे णं भंते ! किं सवेयए होज्जा, अवेदए होजा? गोयमा ! सवेदए होज्जा, णो अवेदए होजा। जइ सवेदए होजा किं इत्थीवेयए होजा, पुरिसवेयए होज्जा, पुरिसणपुंसगवेयए होजा? गोयमा ! इत्थीवेयए होज्जा, पुरिसवेयए होज्जा, पुरिसणपुंसगवेयए होजा / एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसाय कुसीले णं भंते ! किं सवेयए पुच्छा? गोयमा ! सवेयए वा होजा, अवेदए वा होजा / जइ अवेदए होजा किं उवसंतवेदए होजा, खीणवेदए होज्जा ? गोयमा ! उवसंतवेदए वा होज्जा, खीणवेदए वा होज्जा। जइ सवेदए होज्जा किं इत्थीवेदए होज्जा पुच्छा? गोयमा ! तिसु वि जहा वउसे णियंठे णं भंते ! किं सवेदए पुच्छा? गोयमा ! णो सवेदए होजा, अवेदए होजा। जइ अवे-दए होजा किं उवसंतवेदए होजा, खीणवेदए वा होज्जा पुच्छा? गोयमा! उवसंतवेदए वा होजा, खीणवेदए वा होजा। सिणाए णं भंते ! किं सवेयए होज्जा? जहा णियंठे तहा सिणाए वि, गवरं णो उवसंतवेदए होजा, खीणवेदए होजा। पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुशीलानामुपशमक्षपकश्रेण्योरभावात् / (नो इत्थीवेयए त्ति) स्त्रियाः पुलाकलब्धेरभावात्। (पुरिसनपुंसगवेयए त्ति) पुरुषः सन् यो नपुंसकवेदको वर्द्धितकत्वाऽऽदिभावात्। (वेदए वा होजा, खीणवेदए वा होज्ज त्ति) सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं यावत्कषायकुशीलो भवति, स च प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणेषु सवेदः, अनिवृत्तिबादरे तूपशान्तेषु क्षीणेषु वा वेदेष्ववेदः स्यात्, सूक्ष्म-सम्पराये चेति। (नियंठे णमित्यादि) (उवसंतवेयए वा होजा, खीणवेयए वा होज त्ति) श्रेणिद्वये निर्ग्रन्थत्वभावादिति / (सिणाए णमित्यादि) (णो उवसंतवेदए होद्धा, खीणवेदए होज ति) क्षपक श्रेण्यामेव स्नातकत्वभावादिति। (8) रागद्वारेपुलाए णं भंते ! किं सरागे होना, वीयरागे होजा? गोयमा ! सरागे होजा, णो वीयरागे होजा, एवंजाव
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________________ णिग्गंथ 2035 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ कसायकुसीले / णियंठे णं भंते ! किं सरागे होज्जा पुच्छा? संजमे होजा। णियंठे णं पुच्छा? गोयमा! णो सामाइयसंजमे गोयमा ! णो सरागे होजा, वीयरागे होजा। जइ वीयरागे होजा वा होजा०जावणो सुहमसंपरायसंजमे वा होज्जा, अहक्खाकिं उवसंतकसायवीयरागे होजा,खीणकसायवीयरागे होजा? यसंजमे वा होजा। एवं सिणाते ति॥शा गोयमा ! उवसंतकसायवीयरागे होज्जा, खीणकसायवीयरागे चरित्रद्वारं व्यक्तमेव। होजा। सिणाते एवं चेव, णवरंणो उवसंतकसायवीयरागे होजा, (10) प्रतिसेवनाद्वारेखीणकसायवीयरागे होजा। पुलाए णं भंते ! किं पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होजा? (पुलाए णं भंते! किं सरागे त्ति) सरागः सकषायः। गोयमा ! पडिसेवए होज्जा, णो अपडिसेवए होजा। जइ पडि(८) कल्पद्वारे सेवए होज्जा, किं मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए पुलाए णं भंते ! किं ठियकप्पे होजा, अट्ठियकप्पे होजा? होजा? गोयमा ! मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए गोयमा ! ठियकप्पे वा होञ्जा, अट्ठियकप्पे वा होज्जा / एवं०जाव होज्जा, मूलगुणपहिसेवमाणे पंचण्हं अणासवाणं अण्णयरं सिणाए। पुलाए णं भंते ! किं जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होजा, पडिसेवेजा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पञ्चक्खाणस्स कप्पातीते होजा? गोयमा ! णो जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे अण्णयरं पडिसेवेज्जा / वउसे णं पुच्छा? गोयमा ! पडिसेवए होज्जा, णो कप्पातीते होजा / वउसे णं भंते पुच्छा? गोयमा ! होजा, णो अपडिसेवए होञ्जा। जइ पडिसेवए होज्जा किं मूलजिणकप्पे वा होजा, थेरकप्पे वा होजा, णो कप्पतीते होजा। गुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा? गोयमा ! णो एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीले णं पुच्छा? गोयमा ! | मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा। उत्तरगुणजिणकप्पे वा होजा, थेरकप्पे वा होज्जा, कप्पातीते वा होज्जा। पडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेज्जा णियंठे णं पुच्छा? गोयमा ! णो जिणकप्पे होजा, णो थेरकप्पे पडिसेवणाकुसीले जहा पुलाए। कसायकुसीले पुच्छा? गोयमा! होजा, कप्पातीते होजा। एवं सिणाए वि।।४।। णो पडिसेवए होजा। एवं णियंठे वि। एवं सिणाते वि / / 6 / / (किं ठियकप्पे इत्यादि) आचेलक्याऽऽदिषु दशसु पदेषु प्रथम- (पडिसेवए त्ति) संयमप्रतिकूलार्थस्य संज्वलनकषायोदयात्सेवकः पश्चिमतीर्थकरसाधवः स्थिता एवाऽवश्यं तत्पालनादिति / तेषा प्रतिसेवकः, संयमविराधक इत्यर्थः। (मूलगुणपडिसेवए त्ति) मूलगुणाः स्थितकल्पः, तत्र वा पुलाको भवेत् / मध्यमतीर्थकरसाधवस्तु तेषु प्राणातिपातविरमणाऽऽदयः, तेषां प्रातिकूल्येन सेवकः मूलगुणप्रतिस्थिताश्चास्थिताश्च स्थितास्थिताश्चेत्यस्थितकल्पः, तेषां तत्र वा पुलाको | सेवकः / एवमुत्तरगुणप्रतिसेवकोऽपि, नवरमुत्तरगुणाः दशविधप्रत्याभवेत् / एवं सर्वेऽपि / अथवा-कल्पो जिनकल्पः, स्थविरकल्पश्चैतद् ख्यानरूपाः / (दसविहस्स पच्चक्खाणस्स त्ति) तत्र दशविध प्रत्याख्याद्विधेति / तमाश्रित्याऽऽह-(पुलाए णं भंते ! किं जिणकप्पे इत्यादि) | नम्, 'अणागभइक्कतं कोडीसहियं' इत्यादिप्रागव्याख्यातस्वरूपम्। (कप्पातीते ति) जिनकल्पस्थविरकल्पाभ्यामन्यत्र / (कसायकुसीले अथवा- ''नवकारपोरिसीए" इत्याद्यावश्यकप्रसिद्धम् / (अण्णयरं णमित्यादि) (कप्पातीते वा होज त्ति) कल्पातीते वा कषायकुशीलो / पडिसे वेज्ज त्ति) एकतरं प्रत्याख्यानं विराधयेदुपलक्षणत्वाचास्य भवेत्, कल्पातीतस्य छद्मस्थतीर्थकरस्य सकषायत्वादिति। (नियंठे पिण्डविशुद्ध्यादिविराधकत्वमपि सम्भाव्यत इति। णमित्यादि) कप्पातीते होज त्ति) निर्ग्रन्थः कल्पातीत एव भवेत, (11) ज्ञानद्वारेयतस्तस्य जिनकल्पस्थविरकल्पधर्मा न सन्तीति। पुलाए णं भंते ! कइसु णाणेसु होजा? गोयमा ! दोसु वा तिसु () चरित्रद्वारे वा होजा, दोसु होजमाणे दोसु आभिणिबोहियणाणसुअणापुलाए णं भंते ! किं सामाइयसंजमे होज्जा, छे ओवट्ठावणिय-। णेसु होजा, तिसु होज्जमाणे तिसु आमिणिबोहियणाणसुअणासंजमे होजा, परिहारविसुद्धियसंजमे होज्जा, सुहुमसंपराय- | णओहिणाणेसु होज्जा / एवं वउसे वि / एवं पडिसेवणाकुसीले संजमे होजा, अहक्खायसंजमे होआ? गोयमा ! सामाइय-- वि। कसायकुसीले णं पुच्छा? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु संजमे होजा, छेओवट्ठावणियसंजमे होजा, णो परिहारविसु-- वा होज्जा / दोसु होजमाणे दोसु आभिणिबोहियणाणसुअणाद्धियसंजमे होजा, णो सुहुमसंपरायसंजमे होजा, णो अह- णेसु होजा / तिसु होजमाणे तिसु आमिणिबोहियणाणसुअक्खायसंजमे होज्जा / एवं वउसे वि। एवं पडिसेवणाकुसीले णाणओहिणाणेसु होज्जा, अहवा तिसु आमिणिबोहियणाणवि। कसायकुसीले णं पुच्छा? गोयमा ! सामाइयसंजमे वा ___ सुअणामणपज्जवणाणेसु होजा, चउसु होज्जमाणे चउसु आमिहोजा०जाव सुहमसंपरायसंजमे वा होजा, णो अहक्खाय- णिबोहियणाणओहिणाणमणपज्जवणाणेसु होजा। एवं णियं--
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________________ णिग्गंथ 2036 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ ठे वि। सिणाते णं पुच्छा? गोयमा ! एगम्मि केवलणाणेसु होज्जा। / पुलाए णं भंते ! केवइयं सुयं अहिज्जेज्जा? गोयमा ! जहण्णेणं णवस्स पुटवस्स ततियं आयारवत्थु, उक्कोसेणं णवपुव्वाई अहिज्जेज्जा / वउसे णं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेणं दस पुव्वाइं अहिज्जेज्जा / एवं पडिसेवणाकुसीले वि / कसायकुसीले णं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेणं चउद्दस पुव्वाइं अहिज्जेज्जा / एवं णियंठे वि। सिणाते णं पुच्छा? गोयमा! सुयवतिरित्ते होज्जा / / 7 / / आभिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानप्रस्तावाद् ज्ञानविशेषभूतं श्रुत विशेषेण चिन्तयन्नाह-(पुलाए ण भंते ! केवइयं सुयमित्यादि) (जहण्णेणं अट्ट पवयणमायाओ त्ति) अष्ट प्रवचनमातृपालनरूप-त्वाचारित्रस्य, तद्वतोऽष्टप्रवचनमातृपरिज्ञानेनाऽवश्यं भाव्य, ज्ञानपूर्वकत्वाचारित्रस्य, तत्परिज्ञानं च श्रुतादतोऽष्टप्रवचनमातृ-प्रतिपादनपरं श्रुतं वकुशस्य जघन्यतोऽपि भवतीति / तच "अट्ठण्हं पवयणमाईणं' इत्यस्य यद्विवरणसूत्र तत्सम्भाव्यते / यत्पुनरुत्तराध्ययनेषु प्रवचनमातृप्रतिपादननामकमध्ययन, तद् गुरुत्वाद्विशिष्टतरश्रुतत्वाच न जघन्यतः सम्भवतीति बाहुल्याऽऽश्रयं चेदं श्रुतप्रमाणं, तेन न माषतुषाऽऽदिना व्यभिचार इति। (12) तीर्थद्वारे-- पुलाए णं भंते ! किं तित्थे होज्जा, अतित्थे होजा? गोयमा ! तित्थे होजा, णो अतित्थे होजा। एवं वउसे वि। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीले पुच्छा? गोयमा ! तित्थे वा होजा, अतित्थे वा होज्जा। जइतित्थे होजा किं तित्थयरे होज्जा, पत्तेयबुद्धे होजा? गोयमा ! तित्थयरे वा होजा, पत्तेयबुद्धे वा होजा। एवं णियंठे वि। एवं सिणाते / / 8 / / (कसायकुसीलेत्यादि) कषायकुशीलश्छद्मस्थानस्थायां तीर्थकरोऽपि स्यादतस्तदपेक्षया तीर्थव्यवच्छेदे च तदन्योऽप्यसौ स्यादिति, तदन्यापेक्षया च "अतित्थे वा होज ति'' इत्युच्यते / अत एवाऽऽह"जदि तित्थे होजा, किं तित्थगरे होज्जा'' इत्यादि। (13) लिङ्गद्वारेपुलाए णं भंते ! किं सलिंगे होजा, अण्णलिंगे होजा, गिहि-- लिंगे होजा? गोयमा ! दव्वलिंग पमुच सलिंगे वा होज्जा, अण्णलिंगे वा होज्जा / भावलिंगं पडुच णियमं सलिंगे होज्जा, एवं जाव सिणाए, लिङ्ग द्विधा, द्रव्यभावभेदात् / तत्र भावलिङ्ग ज्ञानाऽऽदि, एतच्च | स्वलिङ्ग मेव, ज्ञानाऽऽदिभावस्याहतामेव भावात् / द्रव्यलिङ्गं तु द्वेधा, स्वलिङ्ग परलिङ्गभेदात् / तत्र स्वलिङ्गं रजोहरणाऽऽदि / परलिङ्गं च द्विधा कुतीर्थिकलिङ्ग, गृहस्थलिङ्ग चेत्यत आह-(पुलाए ण भंते ! किं सलिंगे इत्यादि) त्रिविधलिङ्गेऽपि भवेद् द्रव्यलिङ्गा-नपेक्षत्वाचरणपरिणामस्येति। (14) शरीरद्वारेपुलाए णं भंते ! कइसु सरीरेसु होजा? गोयमा ! तिसु ओरा-- लियतेयाकम्मएसु होज्जा / वउसे णं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होज्जा, तिसु होज्जमाणे तिसु ओरालियतेयाकम्मएम होजा। चउसु होज्जमाणे चउसु ओरालियवेउव्यियतेयाकम्मएसु होज्जा / एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीले पुच्छा?गोयमा! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा होज्जा / तिसु होञ्जमाणे तिसु ओरालियतेयाकम्मएसु होजा, चउसु होज्जमाणे चउसु ओरालियवेउदिवयतेयाकम्मएसु होजा। पंचसु होजमाणे पंचसु ओरालियवेउव्वियआहारगतेयाकम्मएसु होला। णियंठो, सिणाओ य जहा पुलाओ।।१०।। शरीरद्वार व्यक्तम्। (15) क्षेत्रद्वारेपुलाए णं भंते ! किं कम्मभूमीसु होजा? गोयमा ! जम्मणसं-- तिभावं पडुच कम्मभूमीए होज्जा, णो अकम्मभूमीए होजा? वउसे णं पुच्छा ? गोयमा ! जम्मणसंतिभावं पडुच कम्मभूमीए होजा, णो अकम्मभूमीए होना / साहरणं पडुच्च कम्मभूमीए होज्जा, अकम्मममीए वा होज्जा / एवं जाव सिणाए।।११|| (पुलाए ण भंते ! कि कम्मभूमीए इत्यादि) (जम्मणसंतिभावं पडुच त्ति) जन्म उत्पादः, सद्भावश्च विवक्षितक्षेत्रादन्यत्र, तत्र वा जातस्य, तत्र चरणभावे नास्तित्वम्, एतयोश्च समाहारद्वन्द्वोऽतस्तत्प्रतीत्य पुलाकः कर्मभूमी भवेत् , तत्र जायते, विहरति च तत्रैवेत्यर्थः / अकर्मभूमी पुनरसौ न जायते, तजातस्य चारित्राभावात्। न च तत्र वर्त्तते, पुलाकलब्धौ वर्तमानस्य देवाऽऽदिभिः संहर्तुमशक्यत्वात् / वकुशसूत्रे (नो अकम्मभूमीए होज त्ति) अकर्मभूमौ वकुशो न जन्मतो भवति, स्वकृतविहारतश्च, पर कृतविहारतस्तु कर्मभूम्यामकर्मभूम्यां च सम्भवतीत्येतदेवाऽऽह-(साहरणं पडुच्चेयादि) इह च संहरणं क्षेत्रान्तराक्षेत्रान्तरे देवाऽऽदिभिर्नयनम्। (16) कालद्वारेपुलाए णं भंते ! किं ओसप्पिणीकाले होज्जा, उस्सप्पिणीकाले होजा, णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणीकाले होजा? गोयमा! ओसप्पिणीकाले वा होजा, उस्सप्पिणीकाले वा होजा, णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणीकाले वा होजा। जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा किं सुसमसुसमाकाले होजा 1, सुसमाकाले होजा 2, सुसमदुस्समाकाले होजा३, दुस्समसुसमाकाले होज्जा 4, दुस्समाकाले होज्जा 5, दुस्समदुस्समाकाले होजा 6? गोयमा! जम्मणं पडुच्च णो सुसमसुसमाकाले होजा१, णो
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________________ णिगंथ 2037- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 णिग्गंथ सुसमाकाले होज्जा 2, सुसमदुस्समाकाले या होज्जा 3, दुस्स- / मसुसमाकाले वा होजा 4, णो दुस्समाकाले होज्जा ए.णो दुस्समदुस्समाकाले होजा 6 / संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमाए होन्जा 1, णो सुसमाए होज्जा 2, सुसमदुस्समाए होजा 3, दुस्समसुसमाए होज्जा 4, दुस्समाए होज्जा 5, णो दुस्समदुस्समाए होज्जा 6 जदि उस्सप्पिणीकाले होज्जा किं दुस्समदुस्समाकाले होज्जा 1, दुस्समाकाले होज्जा 2, दुस्समसुसमाकाले होजा 3, सुसमदुस्समाकाले होज्जा 4, सुसमाकाले होज्जा 5, सुसमदुस्समाकाले होजा 6? गोयमा ! जम्मणं पडच णो दुस्समसुसमाकाले होना 1, दुस्समाकाले होज्जा 2, दुस्समसुसमा-काले वा होज्जा 3, सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा 4, णो सुस–माकाले वा होज्जा 5, णो सुसमसुसमाकाले वा होजा 6 / संतिभावं पडुच्च णो दुस्समदुस्समाकाले होजा 1, णो दुस्स-माकाले होज्जा 2, दुस्समसुसमाकाले होज्जा 3, सुसमदुस्समा-काले वा होजा 4, णो सुसमाकाले होज्जा 5, णो सुसमसुसमा-काले होज्जा 6 / जइ णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणी काले होजा किं सुसमसुसमापलिभागे होज्जा 1, सुसमापलिभागे होज्जा 2, सुसमदुस्समापलिभागे होज्जा 3, दुस्समसुसमापलिभागे होज्जा 4 ? गोयमा ! जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमापलिभागे होजा 1, णो सुसमापलिभागे होन्जा 2, णो सुसमदुस्समापलिभागे होज्जा 3, दुस्समसुसमापलिभागे होजा 4 / वउसे णं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! ओसप्पिणीकाले वा होजा, उस्सप्पिणीकाले वा होजा, णो ओसप्पिणीकाले वा होजा, णो उस्सप्पिणीकाले वा होज्जा / जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा किं सुसमसुसमाकाले वा होज्जा पुच्छा ? गोयमा ! जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमाकाले होज्जा 1, णो सुसमाकाले होज्जा 2, सुसमदुस्समाकाले होजा 3. दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा 4, दुस्समाकाले वा होजाए, णो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा 6 / साहरणं पडुच अण्णयरे समाकाले जदि ओसप्पिणीकाले होजा किं दुस्समदुस्समाकाले होजा? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च णो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा, जहेव पुलाए। संतिभावं पडुच णो दुस्समदुस्समाकाले होजा। एवं संतिभावेण वि जहा पुलाएजाव णो सुसमसुसमाकाले होजा। साहरणं पडुच्च अण्णयरे समाकाले होजा, जहा णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणीकाले होज्जा पुच्छा? गोयमा ! जम्मणं | संति भावं पडुच णो सुसमसुसमापलिभागे होज्जा / जहेव पुलाए०जाव दुस्स-मसुसमापलिभागे होज्जा / साहरणं पडुच अण्णयरे पलिभागे होजा, जइ वउसे, एवं पडिसेवणाकुसीले वि। एवं कसाय-कुसीले वि। णियंठो, सिणाओ य जहा पुलाए; णवरं एएसिं अब्भहियं साहरणं भाणियव्वं; सेसं तं चेव / / 12 / / त्रिविधः कालोऽवसर्पिण्यादिः। तत्राऽऽद्यद्वयं भरतैरावतयोः, तृतीयस्तु महाविदेह हैमवताऽऽदिष / (सुसमदुस्समाकाले वा होज त्ति) आदिदेवकाले इत्यर्थः / (दुस्समसुसमाकाले वेति) चतुर्थे अरके इत्यर्थः / उक्तात्समादयात्राऽन्यत्राऽसौ जायते / (संतिभाव पडुचेत्यादि) अवसर्पिण्या सद्भावं प्रतीत्य तृतीयचतुर्थपञ्चमाऽऽरकेषु भवेत्, तत्र चतुर्थारके जातः सन्पश्चमेऽपि वर्तते, तृतीयचतुर्थारकसद्धावस्तु तज्जन्मपूर्वक इति / (जइ उस्सप्पिणीत्यादि) उत्सर्पिण्यां द्वितीयतृतीयचतुर्थेष्वरकेषु जन्मतो भवति, तत्र द्वितीयस्याऽन्ते जायते, तृतीये तु चरणं प्रतिपद्यते, तृतीयचतुर्थ-योस्तु जायते, चरणं च प्रतिपद्यत इति / सद्भाव पुनः प्रतीत्य तृतीयचतुर्थयोरेव तस्य सत्ता, तयोरेव चरणप्रतिपत्तेरिति। (जइणो ओसप्पिणीत्यादि) (सुसमसुसमापलिभागे त्ति) सुषमसुषमायाः प्रतिभागः सादृश्यं यत्र काले स तथा / स च देवकुरूत्तरकुरुषु। एवं सुषमाप्रतिभागो हरिवर्षरम्यकवर्षेषु, सुषमदुःषमाप्रति-भागो हैमवतैरण्यवतेषु, दुःषमसुषमाप्रतिभागो महाविदेहेषु / (नियंठो, सिणाओ य जहा पुलाए त्ति) एतौ पुलाकवद्वक्तव्यौ। विशेष पुनराह-(नवरं एएसिं अब्भहियं साहरणं भाणियध्वं ति) पुलाकस्य हि पूर्वोक्तयुक्त्या संहरणं नास्त्येतयोश्च तत्सम्भवतीति कृत्वा तद्वाच्यं, संहरणद्वारेण च यस्तयोः सर्वकालेषु सम्भवोऽसौ पूर्वसंहृतयोर्निग्रन्थस्नातकत्वप्राप्ती द्रष्टव्यः, यतो नापगतवेदानां संहरणमस्तीति / यदाह' 'समणीमवगयवेयं, परिहारपुलायमप्पमत्तं च / चोद्दसपुवि आहारंग च न य कोइ संहरइ।।१।।'ति। (17) गतिद्वारे सौधर्माऽऽदिका देवगतिरिन्द्राऽऽदयस्त - दास्तदायुश्च पुलाकाऽऽदीनां निरूप्यते-- पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे कं गतिं गच्छइ? गोयमा ! देवगतिं गच्छइ। देवगतिं गच्छमाणे किं भवणवासीसु उवव जेज्जा, वाणमंतरेसु उववजेजा, जोइसियवेमाणिएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो भवणवासीणोवाणमंतरणोजाइसिय-वेमाणिएसु उववजेजा। वेमाणिएसु उववजमाणे जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे उववजेजा / वउसे णं एवं चेव, णवरं उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे / पडिसेवणाकुसीले जहा वउरो / कसायकुसीले जहा पुलाए, णवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु य / णियंठे णं भंते ! एवं चेव, जाव० वेमाणिएसु उववजमाणे अजहण्णमणुक्कोसं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा / सिणाए णं भंते ! कालगए समाणे कं गतिं गच्छति? गोयमा ? सिद्धगतिं गच्छति। पुलाए णं भंते!
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________________ णिग्गंथ 2038 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ देवसु उववजमाणे किं इंदत्ताए उववज्जेज्जा, तायत्तीसगत्ताए उववशेजा, लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा, अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा? गोयमा ! अविराहणं पडुच इंदत्ताए उववजेजा, सामाणियत्ताए / उववजेजा, तायत्तीसगत्ताए उववजेजा, लोगपालत्ताए उववजेजा, णो अहमिंदत्ताए उववजेज्जा / विराहणं पडुच अण्णयरेसु उववजेजा / एवं वउसे वि / एवं पडिसेवणाकुसीले वि / कसायकुसीले पुच्छा? गोयमा ! अविराहणं पडुच इंदत्ताए वा | उवव जा०जाव अहमिदंत्ताए उववज्जेज्जा / विराह णं पडुच्च अण्णयरेसु उववज्जेज्जा / णियंठे पुच्छा? गोयमा ! अविराहणं पडुच णो इंदत्ताए उववजेज्जा०जावणो लोगपालत्ताए उववज्जेजा, अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा। विराहणं पडुच अण्णयरेसु उदव ज्जा / पुलागस्सणं भंते ! देवलोगेसु उववजमाणस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमपुहत्तं, उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमाइं।वउसस्स णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमपुहत्तं, उक्कोसेणं वायीसं सागरोवमाई / एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि / कसायकुसीलस्स पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णे णं पलिओवमपुहत्तं, उक्कोसे णं तेत्तीसं सागरोवमाइं। णियंठस्स पुच्छा? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाई / / 13 / / / तत्र च-(अविराहणं पडुच त्ति) अविराधना ज्ञानाऽऽदीनाम्। अथवा लब्धेरनुपजीवनादतस्ता प्रतीत्य अविराधकाः सन्त इत्यर्थः। (अण्णयरेसु उववजेज त्ति) भवनपत्यादीनामन्यतरेषु देवेषूत्पद्यन्ते. विराधितसंयमानां भवनपत्याधुत्पादस्योक्तत्वात् / यच प्रागुक्तम्- ''वेमाणिएसु उववजेज त्ति' तत्संयमाऽविराधकत्वमाश्रित्यावसेयम्। (18) संयमद्वारे संयमस्थानानि, तेषां चाल्पत्वाऽऽदिचिन्त्यते- / पुलागस्स णं भंते ! केवइया संजमट्ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! असंखेज्जा संजमट्ठाणा पण्णत्ता / एवं 0 जाव कसायकुसीलस्स। णियंठस्सणं भंते ! केवइया संजमट्ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा! एगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे पण्णत्ते / एवं सिणायस्स वि। एएसि णं भंते ! पुलागवउसपडिसेवणाकसायकुसीले ण / णियंठसिणायाणं संजमट्ठाणाणं कयरे कयरे०जाव विसेसाहिया / वा? गोयमा ! सव्वत्थोवेणियंठस्स सिणायस्स एगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे / पुलागस्स संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा। वउसस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा / पडिसेवणाकुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा / कसायकुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा // 14 // तत्र-(पुलागस्सेत्यादि) संयमश्वारिय, तस्य स्थानानि शुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षकृता भेदाः संयमस्थानानि, तानि च प्रत्येकं सर्वाss काशप्रदेशाग्रगुणितसर्वाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणपर्यवोपेतानि भवन्ति, तानि च पुलाकरयासङ्खयेयानि भवन्ति, विचित्रत्वाचारित्रमोहनीयक्षयोपशमस्य। एवं यावत्कषायकुशीलस्य। (एगे अजहण्णमणुकोसए संजमट्ठाणे त्ति) निर्ग्रन्थस्यैकं संयमस्थानं भवति, कषायाणामुपशमस्य क्षयस्य चाविचित्रत्वेन शुद्धेरेकविधत्वादेकत्वादेव चतदजघन्योत्कृष्ट, बहुष्वेव जघन्योत्कृष्टभावसद्भावादिति। अथ पुलाकाऽऽदीनां परस्परतः संयमस्थानाल्पबहुत्वमाह-(एएसि णमित्यादि) सर्वेभ्यः स्तोकं सर्वस्तोकं निर्गन्थस्य स्नातकस्य च संयमस्थानं, कुतो यरमादेकं किंभूतं तदित्याह-(अजहण्णेत्यादि) एतचैवं शुद्धेरेकविधत्वात्, पुलाकाऽऽदीनां तूक्तक्रमेणासंख्येयगुणानि तानि क्षयोपशमवैचित्र्यादिति। (16) अथ निकर्षद्वारम्-तत्र निकर्षः सन्निकर्षः पुलाकाऽऽदीनां परस्परेण संयोजनं, तस्य च प्रस्तावनार्थमाह-- पुलागस्स णं मंते ! केवइया चरित्तपज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता चरित्तपज्जवा पण्णत्ता। एवं०जाव सिणायस्स। पुलाए णं भंते ! पुलागस्स सट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए? गोयमा ! सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अन्महिए। जइहीणे अणंतभागहीणे वा, असंखेजभागहीणे वा, संखेजभागहीणे वा, संखेजगुणहीणे वा, असंखेजगुणहीणे वा, अणंतगुणहीणे वा / अह अब्भहिए अणंतभागमभहिए वा, असंखेज्जभागमब्भहिए वा, संखेजभागमभहिए वा, संखेजगुणमन्महिए वा, असंखेजगुणमब्भहिए वा, अणंतगुणमब्भहिए वा / पुलाए णं भंते ! वउसस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए? गोयमा ! हीणे, णो तुल्ले, णो अब्भहिए अणंतगुणे / एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कुसायकुसीलेणं समं छट्ठाणवडिए जहेव सट्ठाणे / णियंठस्स जहा वउसस्स / एवं सिणायस्स वि। वउसे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपञ्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्महिए? गोयमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अब्भहिए, अणंतगुणमब्भहिए। वउसे णं भंते ! वउसस्स सट्ठाणस्स सण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहिं पुच्छा? गोयमा ! सिय हीणे, सिये तुल्ले, सिय अब्महिए। जइहीणे छट्ठाणवडिए। वउसे णं भंते ! पडिसेवणाकुसीलस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे छट्ठाणवडिए? एवं कसायकुसीलस्स वि? वउसे णं भंते ! णियंठस्स परट्ठाणसण्णिगासे णं चरित्तपुच्छा ? गोयमा ! हीणे, णो तुल्ले, णो अन्भहिए अणंतगुणहीणे / एवं सिणायस्स वि। पडिसेवणाकुसीलस्स एवं चेव / वउसस्स वत्तव्वया भाणियव्वा / कसायकुसीलस्स सण्णिगासेणं एस चेव वउसवत्तव्वया, णवरं पुलाएण वि समं छट्ठाणवडिए। णियंठे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठा
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________________ णिग्गंथ 2036 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ णसण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहिं पुच्छा? गोयमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अब्भहिए, अणंतगुणमब्भहिए। एवं०जाव कसायकुसी-- लस्स। णियंठे णं भंते ! णियंठस्स सण्णिगासेणं पुच्छा? गोयमा! णो हीणे, तुल्ले, णो अब्भहिए। एवं सिणायस्स वि। सिणाए णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं, एवं जहा णियंठस्स वत्तव्वया, तहा सिणायस्स विभाणियव्वा०जाव सिणाएणभंते ! सिणायस्स सट्ठाणसण्णिगासेणं पुच्छा ? गोयमा ! णो हीणे, तुल्ले, णो अभिहिए। (पुलागस्सेत्यादि) (चरितपज्जव त्ति) चरित्रस्य सर्वविरतिरूपपरिणामस्य पर्यवा भेदाश्चरित्रपर्यवाः, ते च बुद्धिकृता अविभागपलिच्छेदाः, विषयकृता वा। (सट्ठाणसन्निगासेणं ति) स्वमात्मीयं सजातीयं स्थानं पर्यवाणामाश्रयः स्वस्थानं पुलाकाऽऽदेः पुलाकाऽऽदिरेव, तस्य सन्निकर्षः संयोजनं स्वस्थानसन्निकर्षः, तेन। (किं हीणे त्ति) विशुद्धसंयमस्थानसम्बन्धित्वेन विशुद्धतरपर्यवापेक्षया अविशुद्धतरसंयमस्थानसंबन्धित्वेनाविशुद्धतराः पर्यवा हीनाः, तद्योगात्साधुरपि हीनः / तुल्ले ति) तुल्यशुद्धिकपर्यवयोगात्तुल्यः। (अब्भहिए ति) विशुद्धतरपर्यवयोगादिभ्यधिकः / (सिय हीणे त्ति) अशुद्धसंयमस्थानवर्तित्वात्। (सिय तुल्ले त्ति) एकसंयमस्थानवर्तित्वात् / (सियअब्भहिए त्ति) विशुद्धतरसंयमस्थानवर्तित्वात्। (अणंतभागहीणे त्ति) किलासद्भावस्थापनया पुलाकस्योत्कृष्टसंयमस्थानपर्यवाग्रं दश सहस्राणि 1000 / तस्य सर्वजीवान्तकेन शतपरिमाणतया कल्पितेन भागे हृते लब्धे शतम् 100 / द्वितीय प्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवागू नव सहस्राणि नवशताधिकानि 6600 / पूर्वभागलब्धं शतं, तत्र प्रक्षिप्त जातानि दश सहस्राणि, ततोऽसौ सर्वजीवानन्तकभागहारलब्धेन शतेन हीन इत्यनन्तभागहीनः / (असंखेज्जभागहीणे व त्ति) पूर्वोक्तकल्पितपर्यायराशेर्दशसहसस्य (10000) लोकाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणेनासङ्खये यकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन भागे हते लब्धा द्विशती, द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवागग्रं नव सहस्राण्यष्टौ च शतानि 1800 / पूर्वभागलब्धा च द्विशती, तत्र प्रक्षिप्ता जातानि दश सहस्राणि, ततोऽसौ लोकाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणाऽसंख्येयकभागहारलब्धेन शतद्वयेन हीन इत्यसङ्ख्येयभागहीनः / (संखेजभागहीणे व त्ति) पूर्वोक्तकल्पितपर्यायरशेर्दशसहस्रस्य | (10000) उत्कृष्टसङ्ख्येय-केन कल्पनया दशकपरिमाणेन भागे हृते लब्धं सहस्रम् / द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवागं नव सहस्राणि 1000 / पूर्वभागलब्धं च सहस्रं तत्र प्रक्षिप्त, जातानि दश सहस्राणि, ततोऽसावुत्कृष्टसङ्ख्येयकभागहारलब्धेनसहस्रेण हीन इति सङ्ख्येयभागहीनः / (संखेज्जगुणहीणे व त्ति) किलैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं कल्पनया सहस्रदशकं, द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं च सहसं, ततश्चोत्कृष्टसङ्ख्येयकेन कल्पनया दशकपरिमाणेन गुणकारेण हीनोऽनभ्यस्य इति संख्येयगुणहीनः / (असंखेज्जगुणहीणे व त्ति) किलैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवागं कल्पनया सहस्रदशकं, द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवागं च द्विशती, ततश्च लोकाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणेनासंख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन गुणकारेण गुणितो द्विशतिको राशिर्जायते दशसहस्राणि, स च तेन लोकाऽऽकाशपरिमाणासंख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन गुणकारेण हीन इति असंख्येयगुणहीनः / (अणतगुणहीणे व त्ति) किलैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं कल्पनया सहस्रदशकं, द्वितीयप्रतियोगिपुलाकचरणपर्यवाग्रं च शतम् / ततश्च सर्वजीवनन्तकेन कल्पनया शतपरिमाणेन गुणकारेण गुणितः शतिको राशिर्जायते दशसहस्राणि, सच तेन सर्वजीवानन्तकेन कल्पनया शत-- परिमाणेन गुणकारेण हीन इत्यनन्तगुणहीनः / एवमभ्यधिकषट्स्थानकशब्दार्थोऽप्येभिरेव भागापहारगुणकारैयाख्येयः / तथाहिएकस्य पुलाकस्य कल्पनया दश सहस्राणि चरणपर्यवमानं, तदन्यस्य नवशताधिकानि नव सहस्राणि, ततो द्वितीयापेक्षया प्रथमोऽनन्तभागाभ्यधिकः / तथा यस्य नवसहस्राण्यष्टौ च शतानि पर्यवागं, तस्मात्प्रथमोऽसंख्येयभागाधिकः, तथा यस्य नव सहस्राणि चरणपर्यवाग, तस्मात्प्रथमः संख्येयभागाधिकः, तथा यस्य चरणपर्यवाग्रं सहसमानं, तदपेक्षया प्रथमः संख्येयगुणाधिकः, तथा यस्य चरणपर्यवाग्रं द्विशती, तदपेक्षयाऽऽद्योऽसंख्येयगुणाधिकः, तथा यस्य चरणपर्यवागू शतमानं, तदपेक्षयाऽऽद्योऽनन्तगुणाधिक इति। (पुलाएणं भंते ! वउसस्सेत्यादि) (पर-ट्ठाणसन्निगासेणं ति) विजातीययोगमाश्रित्येत्यर्थः / विजातीयश्च पुलाकस्य वकुशाऽऽदिः, तत्र पुलाको वकुशाद् हीतः, तथाविधविशुद्ध्यभावात्। कसायकुसीलेणं समं छट्ठाणवडिए जहेव सट्टाणे त्ति) पुलाकः पुलाकापेक्षया यथाऽभिहितः, तथा कषायकुशीलापेक्षयाऽपि वाच्य इत्यर्थः। तत्र पुलाकः कषायकुशीलाद्धीनो वा स्यादविशुद्धसंयमस्थानवृतित्वात्, तुल्यो वा स्यात्समानसंयमस्थानवृत्तित्वात्, अधिको वा स्याच्छुद्धतरसंयमस्थानवृत्तित्वात्। यतः पुलाकस्य, कषायकुशीलस्य च सर्वजघन्यानि संयमस्थानान्यधः, ततस्तौ युगपदसंख्येयानि तानि गच्छतः, तुल्याध्यवसानत्वात्, ततः पुलाको व्यवच्छिद्यते, हीनपरिणामत्वात्, व्यवच्छिन्ने च पुलाके कषायकुशील एकक एवासंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छति, शुभतरपरिणामत्वात्, ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलवकुशा युगपदसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छन्ति, ततश्च वकुशो व्यवच्छिद्यते, प्रतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलावसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छतः, ततश्च प्रतिसेवनाकुशीलो व्यवच्छिद्यते, कषायकुशीलस्त्वसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छति, ततः सोऽपिव्यवच्छिद्यते, ततो निर्गन्थस्नातकावेकं संयमस्थानं प्राप्नुत इति। (नियंठस्स जहा वउसस्स त्ति) पुलाको निर्ग्रन्थादनन्तगुणहीन इत्यर्थः, चिन्तितः पुलाकोऽवशेषैः सहाथ वकुशश्चिन्त्यते-(वउसे णमित्यादि) वकुशः पुलाकादनन्तगुणाभ्यधिक एव, विशुद्धतपरिणामत्वात्, वकुशात्तु हीनाऽऽदिर्विचित्रपरिणामत्वात्, प्रतिसेवनाकषायकुशीलाभ्यामपि हीनाऽऽदिरेव, निर्गन्थस्नातकाभ्यां तु हीन एवेति / (वउसस्स वत्तव्वया भाणियव्व त्ति ) प्रतिसेवनाकुशीलस्तथा वाच्यो, यथा वकुश इत्यर्थः / कषायकुशीलोऽपि वकुशवद्वाच्यः, केवलं पुलाकाद्बकुशोऽभ्यधिक एवोक्तः, सकषायस्तु षट्स्थानपतितो वाच्यो हीनाऽऽदिरित्यर्थः, तत्परिणामस्य पुलाकापेक्षया हीनसमाधिकस्वभावत्वादिति। (20) अथ पर्यवाधिकारात्तेषामेव जघन्याऽऽदिभेदानां पुला काऽऽदिसंबन्धिनामल्पत्वाऽऽदि प्ररूपयन्नाहएएसि णं भंते ! पुलागस्स वउसपडि सेवणाकु सीलक
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________________ णिग्गंथ २०४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ सायकुसीलणिसंठसिणाताणं जहण्णुक्कोसगाणं चरित्तपज्ज-वाणं कयरे कयरे०जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! पुलागस्स कसायकुसीलस्स एएसि णं जहण्णगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सव्वत्थोवा पुलागस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा / वउसस्स, पडिसेवणाकुसीलस्स य / एएसिणं जहण्णगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा / वउसस्स उक्कोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा / पडिसेवणाकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, कसायकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपञ्जवा अणंतगुणा; णियंठस्स, सिणायस्स य एएसि णं अज-- हण्णमणुक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वितुल्ला अणंतगुणा / / 15 / / (21) योगद्वारेपुलाए णं भंते ! किं सजोगी होज्जा, अजोगी होजा? गोयमा! सजोगी होजा, णो अजोगी होजा / जइ सजोगी होजा किं मणजोगी होज्जा, वइजोगी होज्जा, कायजोगी होज्जा? गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होता ! एवं० जाव णियंठे / सिणाए णं पुच्छा? गोयमा ! सजोगी वा होज्जा, अजोगी वा होना / जइ सजोगी होज्जा किं मणजोगी होज्जा?; सेसं जहा पुलागस्स।१६॥ इहायोगी शैलेशीकरणे। (22) उपयोगद्वारे-- पुलाएणं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा, अणागारोवउत्ते होज्जा? गोयमा! सागारोवउत्ते होजा, अणागारोवउत्ते होजा। एवं०जाव० सिणाए।॥१७॥ टीका सुगमत्वान्न लिखिता। (23) कषायद्वारेपुलाए णं भंते ! किं सकसायी होजा, अकसायी होज्जा? गोयमा ! सकसायी होजा, णो अकसायी होज्जा / जइसकसायी होज्जा से णं भंते ! कइसु कसाएसु होज्जा? गोयमा ! चउसु कोहमाणमायालोभेसु होजा। एवं वउसे वि। एवं पडिसेवणाकुसीले वि / कसायकुसीले णं पुच्छा? गोयमा ! सकसायी होजा, णो अकसायी होज्जा / जइ सकसायी होज्जा से णं भंते ! कइसु कसाएसु होजा? गोयमा ! चउसु वा तिसु वा दोसु वा एगम्मि वा होज्जा / चउसु होजमाणे चउसु संजलणकोहमाणमायालोभेसु होज्जा / तिसु होजमाणे तिसु संजलणमाणमायालोभेसु होला / दोसु होज्जमाणे दोसु संजलणमायालोभेसु होज्जा। एगम्मि होजमाणे एगम्मि संजलणलोभेसु होजा। णियंठे णं पुच्छा? गोयमा ! णो सकसायी होजा, अकसायी होना।। जइ अकसायी होज्जा किं उवसंतकसायी होज्जा, खीणकसायी होजा? गोयमा ! उवसंतकसायी वा होजा, खीणकसायी वा होला / सिणाए एवं चेव, णवरं णो उवसंतकसायी होजा, खीणकसायी होज्जा।।१८॥ (सकसायी होज त्ति) पुलाकस्य कषायाणां क्षयस्योपशमस्य वा भावात्। (तिसु होज्जमाणे इत्यादि) उपशमश्रेण्यां क्षपक श्रेण्या वा संज्वलने क्रोधे उपशान्तेक्षीणेवा, शेषेषु त्रिषु, एवं माने विगते द्वयोर्मायायां तु विगतायां सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके एकत्र लोभे भवेदिति। (25) लेश्याद्वारेपुलाएणं मंते ! किं सलेस्से होजा, अलेस्से होजा? गोयमा ! सलेस्से होज्जा, णो अलेस्से होजा। जइसलेस्से होजा, से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होज्जा ? गोयमा ! तिसु वि सुद्धलेस्सासु होज्जा / तं जहा-तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए. सुक्कलेस्साए। एवं वउसस्स वि। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीले पुच्छा? गोयमा ! सलेस्से होजा, णो अलेस्से होजा / जइ सलेस्से होजा से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होजा? गोयमा छलेस्सासु होज्जा / तं जहाकण्हलेस्साए०जाव सुक्कलेस्साए। णियंठे णं पुच्छा? गोयमा ! सलेस्से होजा, णो अलेस्से होना / जइ सलेस्से होज्जा से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होजा? गोयमा! एगाए सुक्कलेस्साए होज्जा 1 सिणाए पुच्छा? गोयमा ! सलेस्से वा होज्जा, अलेस्से वा होजा। जइसलेस्से होज्जा से णं भंते ! कइसु लेस्सासु होजा? गोयमा! एगाए परमसुक्कलेस्साए होज्जा / / 16 / / (तिसु वि सुद्धलेस्सासु त्ति) भावलेश्यापेक्षया प्रशस्तासु तिसृषु पुलाकाऽऽदयस्त्रयो भवन्ति / कषायकुशीलस्तु षट्स्वपि सकषायमेवाऽऽश्रित्य ''पुव्वपडिवण्णओ पुण अण्णयरीए लेस्साए" इत्येतदुक्तमिति सम्भाव्यते / (एकाए परमसुक्कलेस्साए त्ति) शुक्लध्यानतृतीयभेदावसरे या लेश्या। सा परमशुक्ला, अन्यदातु शुक्लैव, साऽपीतरजीवशुक्ललेश्याऽपेक्षया स्नातकस्य परमशु-क्लेति। (25) परिणामद्वारेपुलाए णं भंते ! किं वड्डमाणपरिणामे होजा, किं हीयमाणपरिणामे होज्जा, अवट्ठियपरिणामे होज्जा? गोयमा ! वड्डमाणपरिणामे वा होजा, हीयमाणपरिणामे वा होजा, अवट्ठियपरिणामे वा होज्जा / एवं०जाव कसायकुसीले। णियंठे णं पुच्छा ? गोयमा! वड्डमाणपरिणामे होजा, णो हीयमाणपरिणामे होजा, अवट्ठियपरिणामे होज्जा / एवं सिणाए वि।। (वड्डमाणपरिणामेत्यादि) तत्र वर्द्धमानःशुद्धे रुत्कर्ष गच्छन्, हीयमानस्त्वपकर्ष गच्छन्, अवस्थितस्तु स्थिर इति। तत्र निर्ग
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________________ णिग्गंथ 2041 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिगंथ न्थो हीयमानपरिणामो न भवति, तस्य परिणामहानौ कषायकुशीलव्यपदेशात् / स्नातकस्तु हानिकारणाभावान हीयमानपरिणामः | स्यादिति। (26) परिणामाधिकारादेवेदमाहपुलाएणं भंते! केवइयं कालं वड्वमाणपरिणामे होजा? गोयमा! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अंतो मुहुत्तं / केवइयं कालं हीयमाणपरिणामे होजा? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उकोसेणं अंतो मुहत्तं / केवइयं कालं अवट्ठियपरिणामे होजा? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं सत्त समया / एवं० जाव कसायकुसीले वि। णियंठे णं भंते ! केवइयं कालं यड्वमाणपरिणामे होजा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहत्तं, उक्कोसेणं अंतो मुहुत्तं / केवइयं कालं अवट्ठियपरिणामे होजा? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतो मुहुत्तं / सिणाए णं भंते ! केवइयं कालं वड्डमाणपरिणामे होजा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहत्तं, उक्कोसेणं विअंतो मुहत्तं / केवइयं कालं अवट्ठियपरिणामे होजा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहत्तं, उक्कोसेणं देसूणाई पुवकोडी॥२०॥ (पुलाए णमित्यादि) तत्र पुलाको वर्द्धमानपरिणामकाले कषायविशेषेण बाधिते तस्मिस्तस्यैकाऽऽदिकं समयमनुभवतीत्यत उच्यतेजघन्येनैक समयमिति। (उक्कोसेणं अंतो मुहत्तं ति) एतत्स्वभावत्वाद्वर्द्धमानपरिणामस्येति / एवं वकुशप्रतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलेष्वपि, नवरं वकुशाऽऽदीनां जघन्यत एकसमयता मरणादपीष्टा, न पुनः पुलाकस्य, पुलाकस्य पुलाकत्वे मरणाभावात् / स हि मरणकाले कषायकुशीलत्वाऽऽदिनाा परिणमति, यच्च प्राक् पुलाकस्य कालगमनं, तद्भूतभावापेक्षयेति। निर्गन्थो जघन्येनोत्कर्षेण चान्तर्मुहूर्त वर्द्धमानपरिणामः स्यात्, केवलज्ञानोत्पत्तौ परिणामान्तरभावात्, अवस्थितपरिणामः पुनः निर्ग्रन्थस्य जघन्यत एकं समयं मरणात्स्यादिति। (सिणाए णं भंते! इत्यादि) स्नातको जघन्येतराभ्यामन्तर्मुहूर्त वर्द्धमानपरिणामः, शैलेश्यां तस्यास्तत्प्रमाणत्वात्। अवस्थितपरिणामकालेऽपि जघन्यतस्तस्यान्तर्मुहूर्तम् / कथम्? उच्यतेयः केवलज्ञानोत्पादानन्तरमन्तमुहूर्तमवस्थितपरिणामो भूत्वा शैलेशी प्रपद्यते तदपेक्षयेति। (उक्कोसेणं देसूणाई पुवकोडी ति) पूर्वकोट्यायुषः पुरुषस्य जन्मतो जघन्येन नवसु वर्षेष्वतिगतेषु केवलज्ञानमुत्पद्यते, ततोऽसौ तदूनां पूर्वकोटीमवस्थितपरिणामः शैलेशी यावद्विहरति, शैलेश्यां च वर्द्धमानपरिणामः स्यादित्येवं देशोनामिति / / (27) बन्धद्वारेपुलाए णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधइ? गोयमा ! आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधइ / वउसे पुच्छा ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा सत्त बंधमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधइ, अट्ठबंधमाणे पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीले णं पुच्छा ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा, छविहबंधए वा, सत्तबंधमाणे आउयवजाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधइ, अट्ठ बंधमाो पडिपुण्णाओ अट्ट कम्मपगडीओ बंधइ। छबंधमाणे आउयमोहणिज्जवजाओ छ कम्मपगडीओ बंधइ। णियंठे णं पुच्छा? गोयमा! एगे वेयणिज्ज कम्मं बंधइ। सिणाए णं पुच्छा? गोयमा ! एगविहबंधए वा, अबंधए वा। एगबंधमाणे एग वेयणिज्जं कम्मं बंधइ॥२१॥ (आउयवजाओ त्ति) पुलाकस्याऽऽयुर्बन्धो नास्ति, तद्वन्धाध्यवसायस्थानानां तस्याभावादिति / (वउसे इत्यादि) त्रिभागाऽऽद्यवशेषाऽऽयुषो हि जीवा आयुर्बध्नन्तीति / त्रिभागद्वयाऽऽदौ तन्न बध्नन्तीति कृत्वा वकुशाऽऽदयः सप्तानामष्टानां वा कर्मणां बन्धका भवन्तीति / (छबंधमाणे इत्यादि) कषायकुशीलो हि सूक्ष्मसंपरायत्वे आयुर्न बध्नाति, अप्रमत्तान्तत्वात् तद् बन्धस्य, मोहनीयं च बादरकषायोदयाभावान्न बध्नातीति शेषाः षडेवेति। (एगे वेयणिज्जं ति) निर्गन्थो वेदनीयमेव बध्नाति बन्धहेतुषु योगानामेव सद्भावात्। (अबंधए वत्ति) अयोगी बन्धहेतुनां सर्वेषामभावादबन्धक एवेति॥ (28) वेदनद्वारेपुलाए णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ वेदेइ? गोयमा ! णियमं अट्ठ कम्मपगडीओ वेदेइ, एवं०जाव कसयाकुसीले / णियंठे णं पुच्छा? गोयमा ! मोहणिञ्जवजाओ सत्त कम्मपगडीओ। सिणाए णं पुच्छा? गोयमा ! वेयणिज्जआउयणामगुत्ताओ चत्तारि कम्मपगडीओ वेदेइ / / 22 / / (मोहणिजवजाओ त्ति) निर्गन्थो हि मोहनीयं न वेदयति, तस्योपशान्तत्वात् क्षीणत्वाद् वा / स्नातकस्य तु घातिकर्मणां क्षीणत्वाद्वेदनीयाऽऽदीनामेव वेदनमत उच्यते-(वेयणिज्जेत्यादि) (26) उदीरणाद्वारेपुलाए णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ उदीरेइ ? गोयमा ! आउयवेयणिज्जवजाओ ब कम्मपगडीओ उदीरेइ ! वउसे ण पुच्छा? गोयमा! सत्तविहउदीरए वा, अट्ठविहउदीरए वा, छव्विहउदीरए वा, सत्तविहउदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ उदीरेइ, अट्ठविहउदीरेमाणे परिपुण्णाओ अट्ठ कम्मपगडीओ उदीरेइ, छव्विहउदीरेमाणे आउयवेयणिज्जवज्जाओ छकम्मपगडीओ उदीरेइ / पडिसेवणाकुसीले एवं चेव। कसायकुसीले पुच्छा? गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा, अट्ठविह उदीरए वा, छविहउदीरए वा, पंचविहउदीरए वा, सत्त विहउदीरेमाणे आउयवजाओ सत्त कम्मपगडीओ उदीरेइ, अट्ठउदीरेमाणे पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मपगडीओ उदीरेइ, छ उदीरेमाणे आउ-- यवेयणिजवजाओछकम्मपगडीओ उदीरेइ।पंच उदीरेमाणे आउयवेयणिजमोहणिज्जवजाओ पंच कम्मपगडीओ उदीरेति / णियंठे
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________________ णिग्गंथ 2042 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ णं पुच्छा? गोयमा! पंचविहउदीरए वा, दुविहउदीरए वा, पंच गोयमा ! णो सण्णोवउत्ते होजा / वउसे णं भंते ! पुच्छा? उदीरेमाणे आउयवेयणिजमोहणिज्जवजाओ पंच कम्मपगडी- गोयमा ! सण्णोवउत्ते होज्जा,णो सण्णोवउत्ते होज्जा। एवं पडिओ उदीरेइ, दो उदीरेमाणे णामं च गोयं च उदीरेइ। सिणाएणं सेवणाकुसीले वि / एवं कसायकुसीले वि। णियंठे, सिणाए य पुच्छा ? गोयमा ! दुविह उदीरए वा, अणदीरए वा, दो उदीरे- जहा पुलाए ||25|| माणे णामं च गोयं च उदीरेति / / 23 / / (सण्णो वउत्ते ति) इह संज्ञा आहाराऽऽदिसंज्ञा, तत्रोपयुक्तः (आउयवेयणिज्जवज्जाओ त्ति) अयमर्थः-पुलाक आयुर्वेदनीयप्र- कशिदाहाराऽऽद्यभिष्वङ्ग वान् संज्ञोपयुक्तः, नो संज्ञोपयुक्तस्तु कृतीर्नोदीरयति, तथाविधाध्यवसायस्थानाभावात्, किं तु पूर्व ते उदीर्य आहाराऽऽधुपभोगेऽपि तत्रानभिषक्तः, तत्र पुलाकनिर्ग्रन्थस्नातका नो पुलाकतां गच्छति, एवमुत्तरत्रापि यो याः प्रकृती!दीरयति स ताः / संज्ञोपयुक्ता भवन्त्याहाराऽऽदिष्वनभिष्वगात् / ननु निर्ग्रन्थस्नातपूर्वमुदीर्य वकुशाऽऽदितां प्राप्नोति, स्नातकः सयोग्यवस्थायां तु कावेवं युक्तौ, वीतरागत्वात् , न तु पुलाकः, सरागत्वात्, नैवं, न हि नामगोत्रयोरेवोदीरकः, आयुर्वेदनीये तु पूर्वोदीणे एव, अयोग्यवस्थायां सरागत्वे निरभिष्वङ्गता सर्वथा नाऽस्तीति वक्तुं शक्यते, वकुशाऽऽदीनां त्वनुदीरक एवेति। सरागत्वेऽपि निःसङ्गताया अप्रतिपादितत्वात्। चूर्णिकारस्त्वाह-''नो (30) उवसंपजहण्ण त्ति' द्वारे-- सण्णा नाणसण्ण त्ति।' तत्र च पुलाकनिर्ग्रन्थस्नातका नोसंज्ञोपयुक्ता पुलाए णं भंते ! पुलायत्तं जहमाणे किं जहति, किं उवसंप- ज्ञानप्रधानोपयोगवन्तो न पुनराहाराऽसदिसंज्ञोपयुक्ताः। वकुशाऽऽदयजइ? गोयमा ! पुलायत्तं जहति, कसायकुसीलं वा असंजमं स्तूभयथाऽपि तथाविधसंयमस्थानस्वभावादिति / वा उवसंपन्जइ / वउसे णं भंते ! वउसत्तं जहमाणे किं जहति, (32) आहारकद्वारेकिं उवसंपज्जइ / गोयमा ! वउसत्तं जहति, पडिसेवणाकुसीलं पुलाएणं भंते ! किं आहारए होज्जा, अणाहारए होजा? गोयमा! वा कसायकुसीलं वा असंजमं वा संजमा संजमं वा उवसंप- आहारए होजा,णो अणाहारए होजा। एवं०जाव णियंठे। सिणाए जइ। पडिसेवणाकुसीले णमंते ! पुच्छा? गोयमा! पडिसेव- णं पुच्छा? गोयमा! आहारएवा होजा, अणाहारएवा होजा।।२६|| णाकुसीलत्तं जहति, वसं वा कसायकुसीलं वा असंजमं वा (आहारए होज त्ति) पुलाकाऽऽदिनिर्ग्रन्थान्तस्य विग्रहगत्वादीसंजमासंजमं वा उवसंपज्जइ। कसायकुसीले पुच्छा? गोयमा! नामनाहारकत्वकारणानामभावादाहारकत्वमेव / (सिणाए इत्यादि) कसायकुसीलत्तं जहति, पुलायं वा वउसं वा पडिसेवणाकु स्नातकः केवलिसमुग्धाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेष्वयोग्यवस्थायां सीलं वा णियंठं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपञ्जइ। चानाहारकः स्यात्, ततोऽन्यत्र पुनराहारक इति। णियंठे णं पुच्छा? गोयमा ! णियंठत्तं जहति, कसायकुसीलं (33) भवद्वारेवा सिणातं वा असंजमं वा उवसंपज्जइ। सिणाए णं पुच्छा ? पुलाए णं भंते ! कइ भवग्गहणाई होज्जा ? गोयमा ! जहपणेणं गोयमा ! सिणायत्तं जहति, सिद्धगतिं उवसंपअइ॥२४॥ एवं भवग्गहणं, उक्कोसेणं तिण्णि / वउसे णं पुच्छा? गोयमा ! उपसम्पदुपसम्पत्तिः प्राप्तिः। (जहण्ण त्ति) हानं त्यागः, उपसं-- पच्च जहण्णेणं एवं , उक्कोसेणं अट्ठ। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। एवं हानं च उपसंपद्धानं, किं, पुलाकत्वाऽऽदि त्यक्त्वा , किं, क- कसायकुसीले वि। णियंठे जहा पुलाए / सिणाए णं पुच्छा? कषायत्वाऽऽदिकमुपसम्पद्यते इत्यर्थः। तत्र (पुलाए णमित्यादि) पुलाकः गोयमा ! एक // 27 // पुलाकत्वं त्यक्त्वा संयतः कषायकुशील एव भवति, तत्सदृशसंयम (पुलाए णमित्यादि) पुलाको जघन्यत एकस्मिन् भवग्रहणे भूत्वा स्थानतस्तद्भावात् / एवं यस्य यत्सदृशानि संयमस्थानानि सन्ति, स कषायकुशीलस्वाऽऽदिकं संयतत्वानन्तरमेकशोऽनेकशो वा तत्रैव भवे तद्भावमुपसम्पद्यते, मुक्त्वा कषायकुशीलाऽऽदीन् / कषायकुशीलो हि भवान्तरे वाऽवाप्य सिद्ध्यति, उत्कृष्टतस्तुदेवाऽऽदिभवान्तरितान्त्रीन विद्यमानस्वसदृशसंयमस्थानकान्युलाकाऽऽदिभावानुपसम्पद्यते, भवान् पुलाकत्वमवाप्नोति / (वउसेत्यादि) इह कश्चिदेकत्र भवे अविद्यमानसमानसंयमस्थानकं च निर्ग्रन्थभावम, निर्ग्रन्थस्तु कषायित्व वकुशत्वमवाप्य कषायकुशीलत्वाऽऽदि च सिद्ध्यति, कश्चित्त्वेकत्रैव वा स्नातकत्वं वा याति, स्नातकस्तु सिद्ध्यत्येवेति / निर्ग्रन्थसूत्रे- वकुशत्वमवाप्य भवान्तरेषु तदन्यान्येव सिद्ध्यतीत्यत उच्यते"कसायकुसीले वा, सिणायं वा / " इह भावप्रत्ययलोपात्कषाय (जहण्णेणं एक भवरगहण उक्कोसेणं अट्ठ त्ति)किलाऽष्टौ भवग्रहणाकुशीलत्वमित्यादि दृश्यम्। एवं पूर्वसूत्रेष्वपि। तत्रोपशमनिर्ग्रन्थः श्रेणीतः न्युत्कर्षतया चरणमात्रमवाप्यते, तत्र कश्चित् तान्यष्टौ वकुशतया पर्यन्तिप्रच्यवमानः सकषायो भवति, श्रेणीमस्तके तु मृतोऽसौ देवत्वेनोत्पन्नोऽ-- मभवे सकषायत्वाऽऽदियुक्तया, कश्चित्तु प्रतिभवं प्रतिसेवनाकुशीलत्वासंयतो भवति नोसंयतासंयतो, देवत्वे तदभावात्। यद्यपि च श्रेणिपति- ऽऽदियुक्तया पूरयतीत्यत उच्यते-(उक्कोसेणं अट्टत्ति) तोऽसौ संयतासंयतोऽपि भवति, तथाऽपि नासाविहोक्तः, अनन्तरतया (34) अथाऽऽकर्षद्वारम्तदभावादिति। पुलागस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया के वइया आगरिसा (31) संज्ञाद्वारे पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को, उक्कोसेणं तिण्णि / पुलाएणं भंते ! किं सण्णोवउत्ते होजा, णो सण्णो वउत्ते होजा? | वउसस्स ण पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को, उक्कोसे
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________________ णिग्गंथ 2043 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिगंथ णं सयग्गसो / एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीले एवं चेव। णियंठस्सणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को, उक्कोसेणं दोण्णि / सिणातस्स णं पुच्छा? गोयमा ! एको०। पुलागस्सणं भंते ! णाणाभवग्गहणिया आगरिसा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सत्त। वउसस्स णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं दोषिण, उक्कोसेणं सहस्सग्गसो / एवं०जाव कसायकुसीलस्स। णियंठस्सणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं दोपिण, उक्कोसेणं पंच। सिणा तस्स णं पुच्छा ? णो एक्को वि।॥२८॥ स्वाऽऽकर्षणमाकर्षः, चारित्रस्य प्राप्तिरिति / (एगभवग्गहणिय त्ति) एक भवग्रहणे ये भवन्ति / (सयग्गसो त्ति) शतपरिमाणेनेत्यर्थः / शत्पृथक्त्वमिति भावना। उक्तं च-- "तिण्हसहस्सपुहत्तं, सयपुहत्तं च होइए ति।" (उक्कोसेणं दोण्णि त्ति) एकत्र भवे वारद्वयमुपशमश्रेणिकरणादुपशमनिर्गन्थत्वस्य द्वावाकर्षाविति / (पुलागस्सेत्यादि) (नाणाभवनहणिय त्ति) नानाप्रकारेषु भवग्रहणेषु ये भवन्तीत्यर्थः / (जहणणेणं दोणि ति) एक आकर्ष एकत्र भवे, द्वितीयोऽन्यत्रेत्येवमनेकत्र भवे आकर्षों स्याताम / (उक्कोसेणं सत्त त्ति) पुलाकत्वमुत्कर्षतस्विपु भवेषु स्यात, एकत्र च तदुत्कर्षतो वारत्रयं भवति। ततश्च प्रथमभवे एक आकर्षोऽन्यत्र च भवद्वये त्रयस्त्रय इत्यादिभिर्विकल्पैः सप्त ते भवन्तीति। (वउसस्सेत्यादि) (उक्कोसेणं सहस्सग्गसो त्ति) वकुशस्याप्टौ भवग्रहणान्युत्कर्षत उक्तानि, एकत्र च भवग्रहणे उत्कर्षत आकर्षशतपृथक्त्वमुक्तम्, तत्र च यदाऽटास्वपि भवग्रहणेषत्कर्षतो नव प्रत्येकमाकर्षशतानि भवन्ति, तद नवानां शतानामष्टाभिर्गुणनात्सप्त सहस्राणि शतद्वयाधिकानि भवन्तीति : (नियंठस्सेत्यादि) (उक्कोणं पंच ति ) निर्ग्रन्थस्योत्कर्षतरत्रीणि भवग्रहणान्युक्तानि, एकत्र च भवे द्वावाकर्षावित्येवमेकत्र द्वावन्यत्र च द्वावपरत्रचैक क्षपकनिर्ग्रन्थत्वाकर्ष कृत्वा सिद्भ्यतीति कृत्वोच्यते पञ्चेति। (35) कालद्वारेपुलाए णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ?गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतो मुहुत्तं / वउसे णं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं देसूणाई पुव्वकोडी। एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीले वि एवं चेव / णियंठे णं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतो मुहुत्तं। सिणाए णं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणाई पुव्वकोडी। पुलागस्स णं भंते ! कालओ केव चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अंतो मुहूत्तं / वउसा णं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! सव्वद्धं एवं०जाव कसायकुसीला। णियंठा जहा पुलागा। सिणाता जहा वउसा // 26 // (पुलाए णमित्यादि) (जहणणेणं अंतो मुहत्तं ति) पुलाकत्वं प्रतिपन्नोऽन्तर्मुहूर्तापरिपूर्ती पुलाको न मियते, नाऽपि प्रतिपततीति कृत्वा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमित्युच्यते, उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमेतत्प्रमाणत्वादेतत्स्वभावस्येति। (वउसेत्यादि) (जहण्णेणमेकं समयं ति) वकुशस्य चरणप्रतिपत्त्यनन्तरसमय एव मरणसंभवादिति / (उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडि त्ति) पूर्व कोट्यायुषोऽष्टवर्षान्ते चरणप्रतिपत्ताविति। (नियंठे णमित्यादि) (जहण्णेण एक समयं ति) उपशान्तमोहस्य प्रथमसमयसमनन्तरमेव मरणसम्भवात्। (उक्कोसेणं अंतो मुहुत्त ति) निर्गन्थाद्धाया एतत्प्रमाणत्वादिति / (सिणायेत्यादि) (जहण्णेणं अंतो मुहत्तं ति ) आयुष्कान्तिमान्तर्मुहूर्ते केवलोत्पत्तावन्तर्मुहूर्त जघन्यतः स्नातककालः स्यादिति। पुलाकाऽऽदीनामेकत्वेन कालमानमुक्तम्। अथ पृथक्त्वेनाऽऽह-(पुलागस्सा णमित्यादि) जघन्येनैकं समयमिति / कथम्? एकरय पुलाकस्य योऽन्तर्मुहूर्त्तकालस्यान्त्यसमयेऽन्यपुलाकत्व प्रतिपन्न इत्येवं जघन्यत्वविवक्षायां द्वयोः पुलाकयोरेकत्र समये सद्भावो, द्वित्वे च जघन्यं पृथक्त्वं भवतीति। (उकोसेणं अंतो मुहत्तं ति) यद्यपि पुलाका उत्कर्षत एकदा सहस्रपृथक्त्वपरिमाणाः प्राप्यन्ते, तथाऽप्यन्तर्मुहूर्त्तत्वातदद्धाया बहुत्वेऽपि तेषामन्तर्मुहूर्तमेव तत्कालः, केवल बहूनां स्थिती यदन्तर्मुहूर्त तदेकपुलाकस्थित्यन्तर्मुहन्मिहत्तरमित्यवसेयम् / वकुशाऽऽदीनां तु स्थितिकालः सर्वाद्धा, प्रत्येकं तेषां बहुस्थितिकल्वादिति। (नियंठा जहा पुलाग त्ति)। तच्चैवम्-जघन्यत एक समयम्, उत्कपतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति। (36) अन्तरद्वारेपुलागस्सणं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ? गोयमा ! जह-- पणेणं अंतो मुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं / अणंताओ ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अवर्ल्ड पोग्गलपरियट्ट देसूणं, एवं०जाव णियंठस्स / सिणायस्स णं पुच्छा? णत्थि अंतरं / पुलागा णं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एकं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वासाइं। वउसाणं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! णत्थि अंतरं, एवं०जाव कसायकुसीलाणं / णियंठाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। सिणायाणं जहा वउसाणं / / 30 / / (पुलागस्स णमित्यादि) तत्र पुलाकः पुलाको भूत्वा कियता कालेन पुलाकत्वमापद्यते? उच्यते-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनः पुलाक एव भवति, उत्कर्षतः पुनरनन्तन कालेन पुलाकत्वमाप्नोति। कालानन्त्यमेव कालतो नियमयन्नाह-(अणंताओ इत्यादि) इदमेव क्षेत्रतोऽपि नियमयन्नाह- (खेत्तओ इति) स चानन्तः कालः क्षेत्रतो मीयमानः किं मानः? इत्याह-(अवड्डमित्यादि) तत्र पुद्गलपरावर्त एवं श्रूयतेकिल केनाऽपि प्राणिना प्रतिपदेश म्रियमाणेन मरणैर्यावता कालेन लोकः समस्तोऽपि व्याप्यते, तावता क्षेत्रतः पुद्गल परावर्तो भवति / स च परिपूर्णोऽपि स्यादत आह- अपार्द्धमपगतार्द्धम, अर्द्धमात्रमित्यर्थः / अपार्दोऽप्यर्द्धतः पूर्णः स्यादतः आह- (देसूणं ति) देशेन भागेन न्यूनमिति। (सिणायस्स नत्थि अंतर त्ति) प्रतिपाताभावात्। एकत्वापेक्षया पुलाकत्वाऽऽदीनामन्तरमुक्तम्। अथ पृथक्त्वापेक्षया तदेवाऽऽह(पुलाया णमित्यादि) व्यक्तम्। (37) समुद्धातद्वारेपुलागस्स णं भंते ! कइ समुग्घाया पण्णत्ता? गोयमा ! ति--
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________________ णिग्गंथ 2044 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ णि समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-वेयणासमुग्घाए, कसाय--- समुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए / वउसस्स णं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! पंच समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-वेयणासमुग्घाए, जाव तेयासमुग्घाए / एवं पडिसेवणाकुसीले वि / कसायकु-- सीलस्स पुच्छा? गोयमा ! छ समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-- वेयणासमुग्धाए, जाव आहारगसमुग्घाए। णियंठस्सणं पुच्छा? गोयमा ! णत्थि एको वि। सिणायस्स णं पुच्छा? गोयमा! एगे केवलिसमुग्घाएपण्णत्ते / / 31 / / (कसायसमुग्धाए इत्यादि) चारित्रवता संज्वलनकषायोदयसम्भवेन कषायसमुद्धातो भवतीति। (मारणंतियसमुग्घाए त्ति) इह च पुलाकस्य मरणाभावेऽपि मारमान्तिकसमुद्धातो न विरुद्धः, समुद्धातानिवृत्तस्य कषायकुशीलत्वाऽऽदिपरिणामे सति मरणाभावात् / (नियंठस्स सि) (नऽस्थि एको वित्ति) तथास्वभावत्वादिति। (38) अथ क्षेत्रद्वारम्पुलाए णं भंते ! लोगस्स किं संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेजइलोगे होजा, संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु होजा, सव्वलोए होजा? गोयमा ! णो संखेजइभागे होज्जा, असंखेजइभागे होज्जा, णो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, असंखेओसु भागेसु होजा, णो सव्वलोए होज्जा / एवं०जाव णियंठे। सिणाए णं पुच्छा? गोयमा ! णो संखेजइभागे होजा, असंखेजइभागे होज्जा, णो संखेजेसु भागेसु होज्जा, असंखेजेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोए वा होज्जा // 32 / / तत्र क्षेत्रमवगाहनाक्षेत्रं, तत्र (असंखेजइभागे होज त्ति) पुलाकशरीरस्य लोकासङ्खयेयभागमात्रावगाहित्वात्। (सिणाए णमित्यादि) (असंखेजइभागे होज त्ति) शरीरस्थो दण्डकपाटकरणकाले चलोकासङ्खयभागवृत्तिः, केवलिशरीराऽऽदीनां तावन्मात्रत्वात्। (असंखेजेसु भागेसु त्ति) मथिकरणकाले बहोलॊकस्य व्याप्तत्वेन स्तोकस्य चाव्याप्ततयोक्तत्वाल्लोकस्यासङ्खये येषु भागेषु स्नातको वर्तते, लोकापूरणे च सर्वलोके वर्तत इति // 32 // (36) स्पर्शनाद्वारे-- पुलाए णं भंते ! सव्वलोगस्स किं संखेज्जइभागं फुसइ, असंखेज्जइभागं फुसइ, एवं जहा ओगाहणा भणिया, तहा फुसणा विभाणियव्वा०जाव सिणाए।॥३३॥ स्पर्शना क्षेत्रवन्नवर क्षेत्रमवगाढमात्र, स्पर्शनान्त्ववगाढस्य तत्पाचवर्तिनश्चेति विशेषः // 33 // (40) भावद्वारेपुलाए णं भंते ! कयरम्मि भावे होला ? गोयमा ! खओवसमिए भावे होजा, एवं०जाव कसायकुसीले / णियंठे पुच्छा? गोयमा ! उवसमिए वा, खइए वा भावे होजा। सिणाए पुच्छा? गोयमा ! खइए भावे होला / / 34 / / भावद्वार व्यक्तमेव। (41) परिमाणद्वारे-- पुलाया णं भंते ! एगसमएणं केवइया होजा ? गोयमा ! पडि--- वजमाणए पडुच सिय अत्थि, सिय णत्थि / जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं / पुथ्वपडिवण्णए पडुच सिय अत्थि, सिय णत्थि / जइ अत्थि जहणणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं / वउसाणं भंते ! एगसमएणं पुच्छा ? गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अत्थि, सिय णत्थिा जइ अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं / पुच्वपडिवण्णए पडुच जहण्णेणं कोडि-सयपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसयपुहत्तं / एवं पडिसेवणाकुसीले वि। कसायकुसीला णं पुच्छा? गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अत्थि, सिय णत्थिा जइ अस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं को डिसहस्सपुहत्तं / पुटवपडिवण्णए पडुच्च जहण्णेणं कोडिसहस्सपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसहस्सपुहत्तं। णियंठाणं पुच्छा? गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडच सिय अस्थि, सिय णत्थि / जइ अत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं वावटुं सतं, अट्ठसयं खवगाणं चउपण्णं उवसमगाणं। पुव्यपडिवण्णए पडुच्च सिय अस्थि, सिय णत्थि / जह अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सतपुहत्तं / सिणाता णं पुच्छा ? गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच सिय अस्थि, सिय णत्थि। जइ अत्थिजहणणेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं अट्ठसयं / पुव्वपडिवण्णए पडुच जहणणेणं कोडिपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिपुहत्तं ||35|| (पुलाया णमित्यादि) ननु सर्वसंयतानां को टिसहस्रपृथक्त्वं श्रूयते / इह तु केवलानामेव कषाकुशीलानां तदुक्तं, ततः पुलाकाऽऽदिमानानि ततोऽतिरिच्यन्त इति कथं न विरोधः? उच्यते-कषायकुशीलानां यत्कोटिसहसपृथक्त्वं, तद् द्विवाऽऽदिक टिसहस्ररूपं कल्पयित्वा पुलाकवकुशाऽऽदिसङ्ख्या तत्र प्रवेश्यते, ततः समस्तं संयतमानं यदुक्तं, तन्नातिरिच्यत इति। (42) अल्पबहुत्वद्वारेएएसि णं भंते ! पुलागवउसपडिसेवणाकुसीलकसायकुसीलणियंठसिणाताणं कयरे कयरे०जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा णियंठा, पुलागा संखेज्जगुणा, सिणाया संखेज्जगुणा, वउसा संखेनगुणा, पडिसेवणाकुसीला संखेज्ज-- गुणा, कसायकुसीला संखेजगुणा // 36 / / (सव्वत्थोवा णियंठ त्ति) तेषामुत्कर्ष तोऽपि शतपृथवत्वस ख्यत्वात् / (पुलागा संखेनगुण ति) तेषामुल्कर्षतः सहस्रपृथवत्वसङ्ख्यत्वात् / (सिणाया संखेजगुण ति) तेषामुत्कर्षतः कोटिपृथक्त्वमानत्वात् / (वउसा संखेजगुण ति) तेषामुत्कर्षतः कोटिशतपृथक्त्वमानत्वात् / (पडिसेवणाकुसीला संखेजगु
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________________ णिग्गंथ 2045 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथ ण त्ति) कथमेतत्? तेषामप्युत्कर्षतः कोटिशतपृथक्त्वमानतयो निर्ग्रन्थशब्दस्थविषयसूचीतत्वात्, सत्यम्, किन्तु वकुशानां यत्कोटिशतपृथक्त्वं तद् द्वि- (1) निर्ग्रन्थशब्दव्याख्यायामहिरण्यसुवर्णकपदोपादानेन बाह्याभ्यन्तरवाऽऽदिकोटिशतमानं, प्रतिसेविनां तु कोटिशतपृथक्त्वं चतुःषट्- परिग्रहशून्यत्वं निर्ग्रन्थस्य लक्षणमुक्तम्। कोटिशतमानमिति न विरोधः कषायिणांतुसङ्ख्यातगुणत्वं व्यक्तमेव, (2) क्रोधाऽऽदेर्निर्गमानिर्गमाभ्यां क्षपक श्रेणिमुपकल्प्य निग्रन्थविचारः / उत्कर्षतः कोटिसहखपृथक्त्वमानतया तेषामुक्तत्वादिति। भ०२५ श०६ (3) ये कषायैर्मुक्ता निर्गन्थास्तेषां कषायाणां क्षयकरणायोद्यतत्वेन उ०ा उत्तका ('अणगारधम्म' शब्दे प्र०भा० 276 पृष्ठे, 'समणधम्म' शब्दे निग्रहपरमत्वं प्रसाध्य, सतामपि कषायाणामसत्कल्पनाकरणात् च क्षान्त्यादिनिन्थधर्मो दृश्यः) सरागसयतत्वेन निर्ग्रन्थत्वाभिधानम्। (४३)चत्तारि णिग्गंथा पण्णत्ता। तं जहा-रायणिए समणे णिग्गंथे (4) निर्ग्रन्थनिक्षेपे नामस्थापनाद्रव्यभावानां मध्ये द्रव्यस्यागमनो महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिए धम्मस्स अणाराहए आगमभेदेन निर्ग्रन्थत्रैविध्यं प्ररूप्य, ज्ञशरीरभव्यशरीराऽऽदि-- भवइ 1, रायणिए समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे अप्प-किरिए आयावी प्ररूपणम्। समिए धम्मस्स आराहए भवइ 2, ओमरायणिए समणे णिग्गंथे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिए धम्म-स्स अणाराहए पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकभेदेन पञ्चविधनिन्थस्वरूपं निरूप्य, निर्ग्रन्थाना नोसंज्ञोपयुक्तत्वेन पुलाकाऽऽदिभेदत्रयप्ररूपभवइ 3, ओमरावणिए समणे णिग्गंथे अप्पकम्मे अप्पकिरिए ___णानन्तरं संज्ञनोसंझोपयुक्तत्वेन वकुशाऽऽदिभेदत्रयप्ररूपणम्। आयावी समिए धम्मस्स आराहए भवइ 4 / निगर्ता बाह्याभ्यन्तरग्रन्थाद् निर्ग्रन्थाः साधवः, रत्नानि भावतो (6) पुलाकाऽऽदयः पञ्च निर्गन्थविशेषायैः साध्या भवन्ति, तेषां निरूप णाय द्वारगाथाः। ज्ञानाऽऽदीनि, तैर्व्यवहरतीति रात्निकः, पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः, श्रमणो निर्ग्रन्थो, महान्ति गुरूणि स्थित्यादिमिस्तथाविधप्रमाणाऽऽद्यभिव्य (7) वेदद्वारेपुलाकाऽऽदीनां स्त्रीपुन्नपुंसकवेदत्वप्ररूपणम्। झ्यानि कर्माणि यस्य स महाकर्मा / महती क्रिया कायिक्यादिका (8) रागद्वारे पुलाकाऽऽदीनां सरागवीतरागत्वविचारः, तथा कल्पद्वारे कर्मबन्धहेतुर्यस्य स महाक्रियः, न आतापयति आतापनां शीताऽऽदि तेषां स्थितकल्पाऽऽदिविवेकः। सहनरूपां करोतीत्यनातापी, मन्दश्रद्धत्वादिति / अत एवासमितः (E) चरित्रद्वारे पुलाकाऽऽदीनां सामायिकच्छेदोपस्थापनीयाऽऽदिसमितिभिः / स चैवभूतो धर्मस्यानाराधको भवतीत्येकः / अन्यस्तु विमर्शः। पर्यायज्येष्ठ एवाल्पकर्मा लघुकर्माऽल्पक्रिय इति द्वितीयः। अन्यस्तु अवमो (10) प्रतिसेवनाद्वारे प्रतिसेवकाप्रतिसेवकाऽऽदिविचारः। लघुः पर्यायेण रात्निकोऽवमरात्निकः / स्था०४ ठा०३उ०। निर्गतो (11) ज्ञानद्वारे पुलाकाऽऽदीनामाभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञाननिरूपणम्। मोहनीयकर्मलक्षणाद् ग्रन्थादिति निर्ग्रन्थः। निर्ग्रन्थभेदे, भ० 25 श०६ (12) तीर्थद्वारे पुलाकाऽऽदीनां तीर्थातीर्थविचारः। उ०। प्रवन (13) लिङ्गद्वारे पुलाकाऽऽदीनां द्रव्यभावलिङ्गं प्रतीत्य सलिङ्गान्य(४४) स च पञ्चविधः प्रथमसमयाऽऽदि: लिङ्गप्ररूपणम्। णियठ पचविह पण्णत्त / त जहा-पढमसमयाणयठ, अपढ- (14) शरीरद्वारे पुलाकाऽऽदीनामौदारिकवैक्रियाऽऽहारकाऽऽदिनिरूपणा। मसमयणियंठे, चरिमसमयणियंठे, अचरिमसमयणियंठे, अहा (15) क्षेत्रद्वारे पुलाकाऽऽदीनां जन्मास्तिभाव प्रतीत्य, कर्मभूम्यकर्मसुहमणियंठे णामं पंचमे। भूमिप्ररूपणा। निर्गतो ग्रन्थान्मोहनीयाऽऽख्यान्निर्ग्रन्थः क्षीणाकषाय उपशान्तमोहो (16) कालद्वारे पुलाकाऽऽदीनामवसर्पिण्युत्सर्पिणीकालाभिधानम्। वा, क्षालितसकलघातिकर्ममलपटलत्वात्। स्था०५ ठा०३ उ०। (17) गतिद्वारे पुलाकाऽऽदीनां देवगत्यादिनिरूपणम्। (45) तओ ठाणा णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहियाए असुहाए (18) संयमद्वारे पुलाकाऽऽदीनां संयमस्थाननिदर्शनम्। अक्खमाए अणिस्सेयसाए अणाणुगामियत्ताए भवइ / तं जहा (16) निकर्षद्वारे पुलाकाऽऽदीना चरित्रपर्यवानन्त्यं प्ररूप्य, परस्परेण कूअणया, कक्करणया, अवज्झाणया / तओ ठाणा णिग्गंथाण वाणिग्गंथीण वा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए, अणुगामि हीनतुल्याभ्यधिकत्वकथनम्। यत्ताए भवइ। तं जहाअकूयणया, अकक्करणया, अणवज्झाणया। (20) पर्यवाधिकारात् तेषामेव जघन्याऽऽदिभेदानां पुलाकाऽऽदिसं"तओ' इत्यादि स्पष्टम् / किन्तु अहिताय अपथ्याय, असुखाय बन्धिनामस्पत्वाऽऽदिप्ररूपणम् / दुःखाय, अक्षमाय अयुक्तत्वाय, अनिःश्रेयसाय अमोक्षाय, अना (21) योगद्वारे पुलाकाऽऽदीनां सयोग्ययोगित्वं प्रसाध्य, मनोवाक्नुगामिकत्वाय न शुभानुबन्धायेति / कूजनता आर्तस्वरकरणम्, काययोगित्वप्रसाधनम्। कर्क रणता शय्योपध्यादिदोषोद्भावनगर्भप्रलपनम् / अपध्यानता (22) उपयोगद्वारे पुलाकाऽऽदीनां साकारानाकारोपयुक्तत्वविचारः। आर्तरौद्रध्यायित्वमिति। उक्तविपर्ययसूत्रं व्यक्तमेव / स्था०३ ठा०३ उ० (23) कषायद्वारे पुलाकाऽऽदीनां सकषायाकषायत्वं प्ररूप्य, क्रोध(निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनामेकत्र संवसनं 'संवास' शब्दे निषेत्स्यते ) मानमायालोभाऽऽदीनां विमर्शः।
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________________ णिग्गंथ 2046 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथी (24) लेश्याद्वारे पुलाकाऽऽदीना सलेश्यालेश्यत्वं निरूप्य, कृष्णशुक्ला ऽऽदिलेश्यानिरूपणम्। (25) परिणामद्वारे पुलाकाऽऽदीनां वर्द्धमानहीयमानावस्थितपरि णामत्वप्रदर्शनम्। (26) परिणामाधिकारादेव जघन्योत्कर्षाऽऽदिभेदेन कालनिरूपणम्। (27) बन्धद्वारे पुलाकाऽऽदीनां कर्मप्रकृतिबन्धविचारः / (28) वेदनद्वारे तेषामेव कर्मप्रकृतिवेदविमर्शः। (26) उदीरणाद्वारे तेषामेव कर्मप्रकृत्युदीरणाऽध्यवसायः। (30) उपसंपद्धानद्वारे पुलाकाऽऽदीना पुलाकत्वाऽऽदित्यागोपादाननि रूपणम्। (31) संज्ञाद्वारे पुलाकाऽऽदीनां संज्ञोपयुक्तनोसंज्ञोपयुक्तत्वविचारणम्। (32) आहारकद्वारे पुलाकाऽऽदीनामाहारकानाहारकत्वप्ररूपणम् / (33) भवद्वारे पुलाकाऽऽदीनां भवग्रहणनिरूपणम् / (34) आकर्षद्वारे जघन्योत्कर्षभेदेनाऽऽकर्षविमर्शः / (35) कालद्वारे पुलाकाऽऽदयः कियचिरं भवन्तीति प्रतिपादनम्। (36) अन्तरद्वारे जघन्योत्कर्षतः तेषामेवान्तरनिरूपणम्। (37) समुद्धातद्वारे तेषां समुद्घातविचारः।। (38) क्षेत्रद्वारे संख्येयासंख्येयसर्वलोकाऽऽदिभवनभावना। (36) स्पर्शनाद्वारे संख्येयासंख्येयभागेन स्पर्शनप्रतिपादनम्। (40) भावद्वारे पुलाकाऽऽदीनां क्षायोपशमिकाऽऽदिभावविचारः / (41) परिमाणद्वारे तेषामेव परिमाणनिर्देशः। (42) अल्पबहुत्वद्वारे पुलाकाऽऽदीनामल्पबहुत्वनिदर्शनम्। (43) निर्ग्रन्थानां प्रकारान्तरेण चातुर्विध्यम्। (44) प्रथमाप्रथमचरमाचरमसमययथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थाऽऽदिभेदेनपञ्चवि धत्वम्। (45) कूजनताकर्करणताऽपध्यानताऽऽदिभेदेन निर्गन्थानां, निर्गन्थी नामसुखत्वाऽऽदि प्ररूप्य, तद्वैपरीत्येन सुखत्वाऽऽदिनिरूपणम्। *नैन्थ्य न०1 निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ्यम् / विशे०। आव०। आर्हते प्रवचने, सूत्र०२ श्रु०६ अ० आ०म० णिग्गंथधम्म पुं०(निर्ग्रन्थधर्म) निर्गतो बाह्याभ्यन्तररूपो ग्रन्थो-- ऽस्थास्तीत निर्ग्रन्थः, स चाऽसौ धर्मश्च निर्ग्रन्थधर्मः / श्रुतचारित्राऽऽख्ये क्षान्त्यादिके वा सर्वज्ञोक्ते धम, सूत्र०२ श्रु०६ अ० णिग्गंथपावयण न०(नैर्ग्रन्थ्यप्रावचन) निर्ग्रन्थानां साधूनामिद नैर्ग्रन्थ्य, प्रावचनमिति प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवाऽऽदयो यस्मिन्निति प्रावचनम् / जैनाऽऽगमे,'इणमेव णिग्गथे पावयणे सच्चे अढे, सेसमणट्टे।''आव०४ अ० स्था०ा आ०चूला णिग्गंथी स्त्री०(निन्थी) निग्रन्थः साधुः, तेषामियं निर्ग्रन्थी। साध्व्याम्, स्था०२ ठा०१उका सा चतुर्विधा चत्तारि णिग्गंधीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रायणिया समणी णिग्गंथी०जाव आराहिया भवइ 41 निर्ग्रन्थसूत्रवत्, स्था०४ ठा०३उ०। (निर्ग्रन्थ्या अधिकारा यथा-- स्थानमुक्ताः, वक्ष्यन्ते च / यथा 'गहण' शब्दे तृतीयभागे 856 पृष्ठे पतन्त्याः प्रस्खलन्त्या ग्रहणमुक्तम्) नवरमिहछहिं ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गंथिं गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ। तं जहा-खित्तचित्तं, दित्तचित्तं, जक्खाइट्ट, उम्मायपत्तं, उवसग्गपत्तं, साहिगरणं / ६ठा० उ०॥ (क्षिप्तचित्ताऽऽदीनां प्ररूपणा 'खित्तचित्त' आदिशब्देषु द्रष्टव्या) चउहिं ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गंथिं आलवमाणे वा संलवमाणे वा णाइक्कमइ / तं जहा-पंथं पुच्छमाणे, पंथं देसमाणे, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दलयमाणे वा, दवावेमाणे वा। "चउहिं" इत्यादि स्फुटं, किं तु आलपन्नीषत्प्रथमतया वा जल्पन्, संलपन मिथो भाषणेन, नातिक्रामतिनलचयति निम्रन्थाचारम्-''एगो एगत्थिए सद्धिं, नेव चिट्टे न संलवे।" विशेषतः साध्व्या इत्येवं रूप, मार्गप्रश्नाऽऽदीनां पुष्टाऽऽलम्बनत्वादिति। तत्र मार्ग पृच्छन् प्रश्रनीयसाधर्मिकगृहस्थपुरुषाऽऽदीनामभावे-हे आर्ये! कोऽस्माकमितो गच्छतां मार्गः? इत्यादिना क्रमेण मार्ग वा तस्या देशयन्-धर्मशीले ! अयं मार्गस्ते इत्यादिना क्रमेण, अशनाऽऽदि च ददद्धर्मशीले ! गृहाणेदमशनाऽऽदीत्येवं, तथाऽशनाऽऽदिदापयन् आर्ये! दापयाम्येतत् तुभ्यम्, आगच्छेह गृहाऽऽदावित्यादिविधिनेति / स्था०४ ठा०२ उ०। (निर्ग्रन्थैर्निर्ग्रन्थिकाभिश्च सह कायोत्सर्गोन कार्यः, इति'ठाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1665 पृष्ठे उक्तम्) सचेला निर्ग्रन्थी, अचेलश्च निर्ग्रन्थः सह संवसतःपंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे अचेलए सचेलियाहिं णिग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णाइक्कमइ / तं जहा–खित्तचित्ते समणे निग्गंथे निग्गंथेहिं अविजमाणे हिं अचेलओ सचेलियाहिं निग्गंथीहिं सद्धिं संवसमाणे नाइकमइ / एवमेएणं गमएणं दित्तचित्ते, जक्खाइटे, उम्मायपत्ते, निग्गंथीपव्वावियए समणे निग्गंथेहिं अविजमाणेहिं अचेलए सचेलियाहिं निगंथीहिं सद्धिं संवसमाणे णाइक्कमइ।। अचेलः क्षिप्तचित्तत्वाऽऽदिना क्षिप्तचित्तः शोकेन, तत्प्रतिजागरकाः साधवो न विद्यन्ते, ततो निर्ग्रन्थिकाः पुत्राऽऽदिकमिव तं संगोपायन्तीति न ततोऽप्यसावाज्ञामतिक्रामति / दृप्तचित्तो हर्षातिरेकात्, यक्षाऽऽविष्टो देवाधिष्ठितः, उन्मादप्राप्तो वाताऽऽदि-क्षोभात् / निर्ग्रन्थिकया कारणवशात् पुत्राऽऽदिः प्रव्राजितः, स च बालत्वादचेलो महानपि वा तथाविधवृद्धत्वाऽऽदिनेति / स्था०५ ठा०२ 70 / (अथ निग्रन्थीनां मासकल्पविहारवक्तव्यतायां सर्वा वक्तव्यता) से गामंसि वा०जाव रायहाणिंसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निग्गथीणं हेमंतगिम्हासु दो मासा वत्थए / / 8 / /
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________________ णिग्गंथी 2047- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथी अस्यापि व्याख्या प्राग्वत, नवरमबाहिरिके क्षेत्रे कल्पते निर्ग-न्थीनां हेमन्तग्रीष्मेषु द्वौ मासौ वस्तुमिति। अथ भाष्यविस्तरः-- एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। जं इत्थं णाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं // 1207 / / एष एव निर्ग्रन्थसूत्रोक्तः 'पवजा सिक्खापय," इत्यादिकः क्रमो नियमानिन्थीनामपि ज्ञातव्यो भवति / यत्पुनरत्र विहारद्वारे नानात्वं, तदहं वक्ष्ये समासेन। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनिगंथीणं गणहर-परूवणा खेत्तमग्गणा चेव। वसही वियार गछ-स्स आणणा वारए चेव / / 1208|| भत्तट्ठणए य विही, पडिणीए भिक्खनिग्गमे चेव / निग्गंथाणं मासो, कम्हा तासिंदुवे मासा? / / 1206 / / निग्रन्थीनां यो गणधरो गच्छवर्तापकः, तस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या। ततः क्षेत्रस्य संयतीप्रायोग्यस्य मार्गणा प्रत्युपेक्षणा वक्तव्या। ततस्तासां योग्या वसतिर्विचारभूमिश्च, संयतीगणधरस्यानयना, ततो वारको लघुघटस्वरूपं, तदनन्तरं भक्तार्थनं समुद्देशनम्, तस्य विधिर्व्यवस्था, ततः प्रत्यनीककृतोपद्रवतो यथा निवारणं, ततो भिक्षायां निर्गमः, ततो निर्ग्रन्थानां कस्मादेको मासः? तासां च कस्माद् द्वौ मासौ? एतानि द्वाराणि वक्तव्यानीति द्वारगाथाद्वयसमुदायार्थः / (अत्र गणधरलक्षणं 'गणहर' शब्दे तृतीयभागे 820 पृष्ठे समुक्तम्) अथ क्षेत्रमार्गणाद्वारमाहखित्तस्स उपडिलेहा, कायव्वा होइ आणुपुथ्वीए। किं वच्चई गणहरो, जो चरई सो तणं वहइ // 1212 / / क्षेत्रस्य संयतीप्रायोग्यस्य, आनुपूर्व्या 'थुइमंगलमामंतण'' इत्यादिना पूर्वोक्तक्रमेण, प्रत्युपेक्षणा गणधरेण कर्तव्या। अथ कि केन हेतुना गणधरः स्वयमेव क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय व्रजति? उच्यते-यो बलीवर्दाऽऽदिश्चारि चरति, स एवतृणभारंवहति, यो निर्ग्रन्थीगणस्यधिपत्यमनुभवति,सएव सर्वमपि तचिन्ताभरमुद्वहति। आह-संयत्यः किमर्थं नगच्छन्ति? इत्युच्यतेसंजइगमणे गुरुगा, आणादी सउणिपेसिपेल्लणया। लोभे तुच्छा आसिया--वणाय एमाइणो (भवे) दोसा।।१२१३।। यदि संयत्यः क्षेत्र प्रत्युपेक्षितुं गच्छन्ति, तत आचार्यस्य चतुर्गुरवः, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः / यथा शकुनिका पक्षिणी श्येनस्य गम्या भवति (पेसि त्ति) यथा वा मांसपेशिका, आम्रपेशिका वा सर्वस्याऽप्यभिलषणीया, तथा एता अपि / अत एव (पेल्लणय त्ति) विषयार्थिना प्रेर्यन्ते। तथा तुच्छास्ताः, ततो येन तेनाप्याहाराऽऽदिलोभेनोपप्रलोभ्य 'आसियावणं' अपहरणं तासां क्रियते, एवमादयो दोषा भवति। इदमेव भावयतितुच्छेण वि लोभिज्जइ, भरुयच्छाऽऽहरणनिगडिसडेणं / गंतनिमंतणवहणे, चेइयरूढाण अक्खिवणं!|१२१४|| तुच्छेनाल्पाऽऽहारवस्त्वादिना स्त्री लोभ्यते, अत्र च भृगुकच्छप्राप्तेन निकृतिश्राद्धेनोदाहरणम् / कथमित्याह-"णंत त्ति' वस्त्राणि, तैर्निमन्त्रणां कृत्वा, वहने प्रवहणे चैत्यवन्दनार्थमारूढानां संयतीनामाक्षेपणमपहरणं कृतमिति / "जहा भरुअच्छे आगंतुगवाणियओ, स च निइयसड्ढो संजईओ ववईओ दटूण कवडसङ्घत्तणं पडिवण्णो। ताओ सस्स वीसंभियाओ / गमणकाले पवत्तिणि विन्नवेइवहणट्ठाणमंगलट्ठा पडिलेहणं करेमि, तो संजईओ पट्टवेह, अम्हे वि अणुग्गहिया होज्जामो। तओ पट्टविया। तत्थ गया कवडसद्देणं भणतिपढमवहणे चेइयाई वंदह, तो पडिलेहणं करेमि ति / ताओ जाणंति-अहो ! विवेको / तओ चेइयवंदणत्थमारूढाणं पयट्टियं वहणंजाव आसियावियाओ"। एएहि कारणेहिं, न कप्पई संजईण पडिलेहा। गंतव्व गणहरेणं, विहिणा जो वण्णिओ पुच्विं / / 1215 / / एतैः कारणैः संयतीनां क्षेत्रप्रत्युपेक्षा कर्तुं न कल्पते, कैः पुनस्तर्हि प्रत्युपेक्षणायां गन्तव्यमित्याहगन्तव्यं गणधरेण विधिना, कः पुनर्विधिरित्याहयः पूर्वमत्रैव मासकल्पः प्रकृते स्थविरकल्पिकविहारद्वारे वर्णितः। आह-कीदृशं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षणीयम्? उच्यतेजत्थाहिवई सूरो, समणाणं सोय जाणइ विसेसं। एतारिसम्मि खेत्ते, समणाणं होइ पडिलेहा / / 1216 / / जहियं दुस्सीलजणो, तक्करसावयभयं च जहिं नस्थि / निप्पचवायखेत्ते, अजाणं होइ पडिलेहा॥१२१७।। यत्र ग्रामाऽऽदावधिपतिर्भागिकाऽऽदिकः शूरः चौरवरटाऽऽदिभिरनभिभवनीय इत्यर्थः / स च श्रमणानां साधूनां विशेष जानातियथेदृशममीषां दर्शने व्रतम्, ईदृशश्च समाचारः, एतादृशे क्षेत्रे साध्वीयोग्ये श्रमणानां प्रत्युपेक्षणा भवति। तथा यत्र दुःशीलजनस्तस्करश्वापदभयं वा यत्र नास्ति, ईदृशे निष्प्रत्यपाये क्षेत्रे आर्यिकाणां प्रायोग्ये प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या भवति। अथ वसतिद्वारमाहगुत्ता गुत्तदुवारा, कुलपुत्ते सत्तमंत गंभीरे। भीयपरिस मद्दविए, ओभासण चिंतणा दोण (पुस्तकान्तरे'थंडिलआसणवारगमंडलपडिणीयवारणया' इति पाठः।)।१२१८|| गुप्ता वृत्या, कुड्येन वा परिक्षिप्ता, गुप्तद्वारा कपाटद्वयोपेतद्वारा, यस्यां च शय्यातरः कुलपुत्रकः / कथंभूतः? सत्त्ववान न केनापि क्षोभ्यते, महदपि च प्रयोजनं कर्तुमध्यवस्यति / गम्भीरो नाम-संयतीनां परुषाऽऽद्याचरणं दृष्ट्वाऽपि विपरिणामं न याति। तथा भीता चकिता पर्षत् यस्य स भीतपर्षत्, आजैकसारतया यस्य भृकुटीमात्रमपि दृष्ट्वा परिवारः सर्वोऽपि भयेन कम्पमानस्तिष्ठति, न च क्वचिदन्याये प्रवृत्तिं करोति / मार्दयमस्तब्धता, तद्विद्यते यस्य समार्दविकः, एवंविधो यदि कुलपुत्रको भवति। ततः (ओभासण त्ति) संयतीनामुपाश्रयस्यावभाषणं कर्त्तव्यम्। अवभाषिते च यद्य-सावुपाश्रयमनुजानीते, ततो भण्यते (चिंतण त्ति) यथा स्वकीयाया दुहितुः, स्नुषायावा चिन्तां करोषि, तथा यद्येतासामपि प्रत्यनीकाऽऽद्युपसर्गरक्षणे चिन्तां कर्तुमुत्सहसे. ततोऽत्र स्थापयामः। स प्राऽऽहवाढं करोमि चिन्ता, परं कथं पुनः संरक्षणीयाः? ततो
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________________ णिग्गंथी 2048 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथी 25 ऽभिधातव्यम्-यथा किलाक्षिणी स्वहस्खेन परहस्तेन वा उपद्रूयमाणे रक्ष्येते, तथैता अपि यद्यात्ममानुषैः, परमानुषैर्वा उपद्रूयमाणा रक्षसि, तत एता रक्षिता भवन्तीति / यद्येव प्रतिपाद्योपाश्रयस्य दान करोति, ततः स्थापनीयाः। अथाप्रतिपद्यामाने स्थापयन्ति, ततश्चत्वारो गुरुकाः अन्याऽऽचार्यभिप्रायेणामुमेवार्थमाहघणकुड्डा सकवाडा, सागारियभाउभगिणिपेरंता। निप्पचवाय जोग्गा, वित्थिन्नपुरोहडावसही // 1216 / / घनकुड्या पक्वेष्टकाऽऽदिमयभित्तिका, सकपाटा कपाटोपेतद्वारा, सागारिकसत्कानां मातृभगिनीनां गृहाणि पर्यन्ते पार्श्वतो यस्याः सा सागारिकमातृभगिनीगृहपर्यन्ता। गाथायामनुक्तोऽपि गृहशब्दो द्रष्टव्यः। निष्प्रत्यपाया दुर्जनप्रवेशाऽऽदिप्रत्यपायरहिता, विस्तीर्ण पुरोहडं' गृहपश्चाद्धागो यस्यां सा विस्तीर्णपुरोहडा, एवंविधा वसतिः संयतीनां योग्या। नासन्न-नातिदूरे, विहवापरिणयवयाण पडिवेसे। मज्झत्थऽवियाराणं, अकुऊहलभावियाणं च / / 1220 / / विधवाश्च ताः परिणतवयसश्च थविरस्त्रियः तासां, तथा मध्यस्थानां कन्दर्पाऽऽदिभावविकलानामविकाराणां गीताऽऽदिविकाररहितानाम्, अकुतूहलानाम्- संयत्यो भोजनाऽऽदिक्रिया कथं कुर्वन्तीति कौतुकवजिताना, भावितानां साध्वीसामाचारीवासितानां संबन्धि यत्प्रतिवेश्म प्रत्यासन्नगृह, तत्र नाविदूरे संयतिप्रतिश्रयो ग्राह्यः / ___ अथान्याऽऽचार्यप्रतिपाद्यशय्यातरस्वरूपमाहभोइयमहत्तराऽऽदी, बहुसयणो पिल्लओ कुलीणो य। परिणतवओ अमीरू, अणभिग्गहिओ अकूतुहली।।१२२१।। कुलपुत्त सत्तमंतो, भीयपरिस भद्दओ परिणओ अ। धम्मट्ठी य विणीतो, अञ्जासेजायरो भणिओ / / 1222 / / यो भोगिक महत्तराऽऽदिर्बहुस्वजनो बहुपाक्षिकः, तथा प्रेरकः षङ्गाऽऽदीनां स्वगृहे प्रविशन्तीनां निवारकः, कुलीनः, परिणतवयाश्च प्रतीतः, अभीरुरुत्पन्ने महत्यपि कार्ये न बिभेति, कथमेतत् कर्तव्यमिति ? अनभिगृहीत आभिग्रहिकमिथ्यात्वरहितः, अकुतूहली संयतीनां भोजनाऽऽदिदर्शने कौतुकवर्जितः / यस्तु कुलपुत्रकः, सत्त्ववान् न केनाप्यभिभवनीयः, भीतपर्षत् प्राग्वत्, भद्रकः शासने बहुमानवान्, परिणतो वयसा मत्या वा, धर्मार्थी धर्मश्रद्धालुः, विनीतो विनयवान्। एष आर्याणां शय्यातरोभणितस्तीर्थकरैः / गत वसतिद्वारम्। बृ० 130 / ('वसहि' शब्दे विशेषविधिः) अथ विचारद्वारमाहअणॉवायमसंलोगा, अणॉवाया चेव होइ संलोगा। आवायमसंलोगा, आवाया चेव संलोगा।।१२२३।। अनापाता असंलोकाः 1, अनापाताश्चैव संलोकाः 2, आपाता असंलोकाः 3, आपाताः संलोकाश्चेति 4 / चतस्रो विचारभूमयः। एतासु संयतीनां विधिमाहबीयारे बहि गुरुगा, अंतो वि य तइयवञ्जिते चेव। तइए वि जत्थ पुरिसा, उवेंति वेसित्थियाओ य॥१२२४।। यदि 'पुरोहडे' विद्यमाने संयत्यो ग्रामाद् बहिर्विचारभुवं गच्छन्ति, ततश्चतुर्ध्वपि स्थण्डिलेषु प्रत्येकं चतुर्गुरुकाः, अन्तरेऽपि च ग्रामाभ्यन्तरे पुरोहडाऽऽदौ आपातासंलोकलक्षणं तृतीयस्थण्डिलं वर्जयित्वा शेषेषु त्रिषु स्थण्डिलेषु गच्छन्तीनां त एव चत्वारो गुरुकाः। तृतीयेऽपि स्थण्डिले यत्र पुरुषा वेश्यास्त्रियश्चोपयन्ति आपतन्ति, तत्र चत्वारो गुरुकाः। यत्र तु कुलजानां स्त्रीणामापातो भवति तत्र गन्तव्यम्। किं पुनः कारणं प्रथमाऽऽदीनि स्थण्डिलानि तासां नानु जायन्ते? उच्यतेजत्तो दुस्सीला खलु, वेसित्थिनपुंसहेट्ठतेरिच्छा। सा उ दिसा पडिकुट्ठा, पढमा बिइया चउत्थी य / / 1225 / / (जत्तो त्ति) यस्यां दिशि दुःशीलाः परदाराभिगामिनः पुरुषाः, तथा वेश्याः स्त्रियो, नपुंसकाश्च (हेढ त्ति) अधो नापिताः, तिर्यश्चश्च वानराऽऽदय आपतन्ति, सा तु सा पुनर्दिग्, प्रथमा द्वितीया चतुर्थी च प्रतिबिद्धा, प्रथमाऽऽदीनि स्थण्डिलानीत्यर्थः / अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याचष्टेचारभडघोडमिंठा, सोलगतरुणाय जे य दुस्सीला। उन्भामित्थी-वेसी-अपुमे सु उविंति उतदट्ठा।।१२२६।। चारभटा राजपुरुषः, घोटाश्चेटाः, मिण्ठाः गजपरिवर्तकाः, सोलास्तुरगचिन्तानियुक्ताः / एवमादयो ये तरुणाः सन्तो दुःशीलाः, ते प्रथमद्वितीययोः स्थण्डिलयोरनापातत्वादेकान्तमिति कृत्वा बभ्रामकस्त्रीषु वा वेश्यासु वा (अपुमेसु त्ति) नपुंसकेषु वा पूर्वाप्राप्तेषु, तदर्थ तेषामुद् भ्रामकरत्रीप्रभृतीनां प्रतिसेवनार्थमायान्तीति। चतुर्थे तु स्थण्डिले संलोकत्वादेते दुःशीलाऽऽदयः संयतीवर्गान् पश्येयुः, संयतीवर्गेण वा ते दृश्येरन्नित्यतस्त दपि निषिध्यतेहिट्ठ उवासणहेउं, णेगाऽऽगमणम्मि गहण उडुहो। वानरमयूरहंसा, छाला सुणगादितेरिच्छा।।१२२७।। अधस्तादुषासनमध्ये लोचकर्म, तद्धेतोरधो नापिते पूर्वप्राप्ते लध्वनेकेषां मनुष्याणां मध्ये लोचकर्मकारापकर्मणामागमने सति यादीर्णमोहास्ते संयति गृह्णन्ति, ततो ग्रहणे उड्डाहो भवति, तथा वानरमयूरहंसाः, छगलाः, शुनकाऽऽदयश्व तिर्यश्चस्तत्राऽऽयाताः संयतीमुपसर्गयेयुः / यत एवं ततः किमित्यत आहेजइ अंतो वाघाओ, बहिया तासिं तइय अणुन्नाया। सेसा णाणुन्नाया, अजाण वियारभूमीओ।।१२२८|| यद्यन्तरे ग्रामाभ्यन्तरे व्याघातः पुरोहडाऽऽदेरभावः, ततो बहिस्तासां तृतीया विचारभूमिरापातासंलोकरूपाऽनुज्ञाता, तत्राऽपि स्वीणामेवाऽऽपातो ग्राह्यो, न पुरुषाणां, शेषा विचारभूमयोऽनापातासंलोकाऽऽद्या आर्यिकाणां नानुज्ञाताः / गतं विचारद्वारम् / वृ०१ उ०। ('वसहि' शब्दे रात्रौ मात्रकयतना) अथ संयतीगच्छस्याऽऽनयनमिति द्वारमाहपडिलेहियं च खेत्तं, संजइवग्गस्स आणणा होइ।
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________________ णिग्गंथी 2046 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथी निकारणम्मि मग्गओं, कारणे समगं च पुरतो वा // 1226 / / एवं वसतिविचारभूम्यादिविधिना प्रत्युपेक्षितं च संयतीप्रायोग्य क्षेत्रं, ततः संयतीवर्गस्याऽऽनयनं तत्र क्षेत्रे भवति। कथम् ? इत्थाह-निष्कारणे निर्भये, निराबाधे वा सति साधवः पुरतः स्थिताः, संयत्यस्तु मार्गतः पृष्ठतः स्थिता गच्छन्ति, कारणे तु समकं वा साधूनां पार्चतः, पुरतो वा साधूनामग्रतः स्थिताः संयत्यो गच्छन्ति। निप्पच्चवायसंबं-धिभाविए गणहरऽप्पविइ तइए। तेणादिभए सत्थे-ण सद्धि कयकरणसहिते वा // 1230 // निष्प्रत्यपाये संयतीनां ये संबन्धिनः स्वज्ञातीयाः, भाविताश्च सम्यक्परिणतजिनवचना निर्विकाराः संयताः, तैः सह गणधर आत्मद्वितीयः, आत्मतृतीयो वा संयतीर्विवक्षितं क्षेत्रं नयति / अथ स्तेनाऽऽदिभयं वर्त्तते, ततः सार्थेन सार्द्ध नयति, यो वा संयतः कृतकरण इषुशास्त्रेण सहितः संयतीस्तत्र नयति,सचगणधरात्स्वयं पुरतः स्थितो गच्छति, संयत्यस्तु मार्गतःस्थिताः। अत्रैव मतान्तरमुपन्यस्य दूषयन्नाहउभयट्ठाइनिविटुं, मा पेल्ले वतिणि तेण पुरतेगे। तं तु न जुज्जइ अविणय, विरुद्ध उभयं च जयणाए।।१२३१।। एके सूरयो बुवते उभयं कायिकीसंज्ञे, तदर्थम्, आदिशब्दादपरस्मिन् वा क्वचित्प्रयोजने विनिविष्टमुपविष्ट सन्तं संयतं, व्रतिनी मा प्रेरयतु, इत्यनेन हेतुना संयत्यः पुरतो गच्छन्ति। अत्राऽऽचार्य आह-तत्तुयदुक्तं, न युज्यते कुतः? इत्याह-पुरतो गच्छन्तीना तासामविनयः साधुषु संजायते, लोकविरुद्ध चैवं परिस्फुट भवति-अहो ! महेलाप्रधानमासा दर्शनं, यत एवमतो मार्गतः स्थिता एव ता गच्छन्ति, उभयं च कायिकीसंज्ञारूपं यतनया कुर्यात्। का पुनर्यतना? इति चेदुच्यते यत्रैकः कायिकी संज्ञा वा व्युत्सृजति, तत्र सर्वेऽपि तिष्ठन्ति, तथास्थिताँश्व तान् दृष्ट्वा संयत्योऽपि नाग्रतः समागच्छेयुः, ता अपि पृष्ठत एव शरीरचिन्तां कुर्वन्तीति / गतं गच्छस्याऽऽनयनमिति द्वारम्। अथ वारकद्वारमाहजहियं च आगरिजणो, चोक्खन्भूतो सुईसमायारो। कुडमुहदद्दरएणं, वारगनिक्खेवणा भणिया।।१२३२।। यस्मिश्च ग्रामाऽऽदावगारीजनोऽविरतिकालोकः, चोक्षभूतः शुचिसमाचारश्च वर्तते, तत्र वारकग्रहणं निर्ग्रन्थीभिः कर्त्तव्यम् / अथ न कुर्वन्ति, ततश्चत्वारो गुरवः / यच्च प्रवचनोड्डाहाऽऽदिकं, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / यत एवमतः कुटमुखे घटकण्ठके श्लक्ष्णचीवरदर्दरकेण पिहितस्य वारकस्य निक्षेपणा भणिता भवति।। थीपडिबद्धे उवस्सएँ, उस्सग्गपदेण संवसंतीओ। वचंति काइभूमि, मत्तगहत्थाण आयमणं // 1233 / / उत्सर्गपदेन संयतीभिः स्त्रीप्रतिबद्धे उपाश्रये वस्तव्यमिति कृत्वा तत्र संवसन्त्यो यदा कायिकी भूमिं व्रजन्ति, तदा मात्रकहस्तावारकं हस्ते गृहीत्वा व्रजन्ति, तासामगारीणां प्रत्ययो जायते-एताः कायिकी कृत्वा पश्चादाचमनं करिष्यन्ति, अहो ! शुचिसमाचारा इति। तत्र च गतास्तासामदर्शनीभूता आचमनं कुर्वन्ति। सच वारको अन्तर्लिप्तः कर्त्तव्यः कुतः? इत्यत आह दुक्खं विसुयावेठ, पणगस्स य संभवो अलित्तम्मि। संदंते तसपाणा, आवञ्जणतक्कणाऽऽदीया।।१२३४।। वारकोऽलिप्तः सन् किम्? (विसुयावेउंति) शोषयितुं दुःखं दुःखकरो भवति, अलिप्ते च पानकभावितत्वात्पनकस्य संभवः संमूर्छन भवति, अलिप्तश्च वारकः पानके प्रक्षिप्ते सति स्यन्दते परिगलति, स्यन्दने च उसप्राणिनः कीटिकामक्षिकाऽऽदयः समागच्छेयुः / (आवजणं ति) यदनन्तकायनिकायविकलेन्द्रियेषु संघट्टनाऽऽदिकमापद्यते, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। (तक्कणाई यत्ति) ततोवारकानपानकेन परिमलति मक्षिकाः पतन्ति, तासां ग्रसनार्थ गृहकोकिला धावति, तस्या अपि भक्षणार्थ मार्जारीत्येवं तर्कणम् , तदादयो दोषा भवेयुः। यत्र पुनः कायिकीभूमौ सागारिकं भवति, तत्रेयं यतनासागारिए परंमुह-दगसद्दमसंफुसंतिओ णेत्तं। पुलएज्ज मा य तरुणी, तो अच्छदवं तु जा दिवसो।।१२३५|| ("दृशो नियच्छ०" ||8|4|181 / / इत्यादिना 'पुलए' आदेशः।) सागारिके सति पराङ्मुखीभूय कायिकीं कृत्वा नेत्रं भगमसंस्पृशन्त्यो दकशब्दं पानक प्रक्षालनानुमापकं कुर्वते, तथा तरुण्यः रिचयः किमत्रास्ति पानकं, न वेति जिज्ञासया मा प्रलोकन्तामिति हेतोस्तस्मिन्वारके तावदच्छमकलुषं द्रवं पानकं प्रक्षिप्त तिष्ठति, यावदिवसः, ततः सन्ध्यासमये तत्पानकं पिवन्ति। गतं वारकद्वारम्। अथ भक्तार्थनाविधिद्वारमाहमंडलिठाणस्सऽसती, बला व तरुणीसु अहिपतंतीसु। पत्तेयकमढ जण-मंडलिथेरी उ परिवेसे // 1236|| यद्यसागारिकं, ततो मण्डल्या समुद्दिशन्ति, अथ मण्डलीभूमिः सागारिकबहुला, ततो मण्डलिस्थानस्यासति, बलाद्वा प्रणयेन तरुणीष्वभिपतन्तीषु तत्रौर्णिकमल्पमधः प्रस्तीर्य तस्योपरि सौत्रिकं तत्राप्यलावुपात्रकाणि स्थापयित्वा प्रत्येकं कमटकेषु भुञ्जते, प्रवर्तिनी च पूर्वाभिमुखा धुरि निविशते, तत एका मण्डलिस्थविरा यमलजननी सहोदरा सर्वासामपि परिवषयेत्, आत्मनोऽपि योग्यमात्मीये कमठके प्रक्षिपेत्। ओगाहिमाइविगई, समभाएं करेइ जत्तिया समणी। तासिं पच्चयहेतुं, अणहिक्खट्ठा अकलहो अ॥१२३७।। अवगाहिम पक्वान्नम्, आदिशब्दाद् घृताऽऽदिकाश्च विकृतीः, यावत्यः श्रमण्यः, तावतः समभागान्, मण्डलिस्थविराकरोति। किमर्थम्? तासां श्रमणीनां प्रत्ययार्थम्, तथा-(अणहिक्खट्ट त्ति) अनधिकखादनार्थ, सर्वासमप्यविषमसमुद्देशनार्थम्, अकलहश्चैवं भवति, असंखडं न भवतीत्यर्थः। ताश्च समुद्देष्टमुपविशन्त इत्थं ब्रूतेनिव्वीइए विइयाई, विगईओ लंवणा वए विइया। अण्ण गिलायंविलिया, अज्ज अहं देह अन्नासिं / / 1238|| एका व्यादिसंख्याविकृतयो मुत्कलाः, शेषाणां प्रत्याख्यानम्, अपरा भणति-अद्य मामेतावन्तो लम्वनाः कवलाः, इत ऊर्द्ध नियमः। अन्याऽभिधत्ते-अद्याहमन्नग्लाना, ग्लानपर्युषितमन्नं मया भोक्तव्यमित्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहा। तदपरा बूते-अद्याहमाचाम्लिका, कृता चाम्लप्रत्याख्याना, अत इदं विकृ त्यादिक मन्यासा प्रय
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________________ णिग्गंथी 2050 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गंथी च्छत, एवं समुद्दिश्य पानकेनाऽऽचमनं कुर्वन्ति, प्रवर्तिन्याः कमठक क्षुल्लका निर्लेपयन्ति, ततः सर्वास्वपि समुद्दिष्टासु मण्डलीषु स्थविरा समुद्दिशति। एवंविधं दृष्ट्वा किं भवति? इत्याहदठूण निहुयवासं, सोयपयत्तं अलुद्धमत्तं च। इंदियदमं च तासिं, विणयं च जणो इमं भणइ 1236 / / तासां संयतीनां निभृतवासं विकथाऽऽदिविरहेण नियापारतयेवाऽऽवस्थानं, शौचप्रयत्नं वारकग्रहणाऽऽदिरूपम्, अलुब्धवत्त्वं च विकृत्यादिप्रत्याख्यानाभिधातम्, इन्द्रियदमं च श्रोत्राऽऽदीन्द्रियनिग्रहणं, विनयं प्रवर्त्तिन्यादिषु अभ्युत्थानाऽऽदिरूपं. दृष्ट्वा जनो लोक इदं ब्रवीतिसच्चं तवो य सीलं, अणहिक्खाओ अ एगमेगस्स। जइ बंभं जइ सोयं, एयासु परंण अन्नासु // 1240 / / बाहिरमलपरिबुद्धा, सीलसुगंधा तवोगुणविसुद्धा। धन्नाण कुलुप्पन्ना, एआ अ वि होज अम्हं पि।।१२४१।। सत्यं वाकर्मणोरविसंवादिता, तपोऽनशनाऽऽदि, शीलं सुस्वभावता, अनधिकखादश्वाविषमभोजनम्, एकैकस्याः परस्परमूषाम्, तथा यदि ब्रह्मचर्यं यदि शौच शुचिसमाचारता। एतानि सत्याऽऽदीनि, यदि परमेतासु संयतीषु दृश्यन्ते, नान्यासु शाक्याऽऽदिपाखण्डिनीषु, ततो यद्यप्येता बाह्यमलेन परिक्षिप्ताः, तथापि शीलेन सुगन्धाः, तपोगुणैरनशनाऽऽदिभिः, यद्वातपसा प्रतीतेन, गुणैश्वोपशमाऽऽदिभिर्विशुद्धाः, धन्यानां कुलोत्पन्नाः, एता येषां कुले उत्पन्नास्तेऽपि धन्या इति भावः / अपिः संभावनायां संभाव्यते / किमर्थः? यदस्माकमपि भगिनी,दुहिता च एतादृशस्वकुलोज्ज्वालनकारिण्यो भवेयुः। एवं तत्थ वसंती-णुवसंतो सो य सिं अगारिजणो। गिण्हंति य संमत्तं, मिच्छत्तपरंमुहो जाओ।॥१२४२।। एवं तत्र वसन्तीनां तासामगारीजन उपशान्तः प्रतिबुद्धः, ततो मिथ्यात्वपराड्मुखो जातः सन् सम्यक्त्वं गृह्णाति, च-शब्दादेशविरतिं वा, कश्चित्तद्गुणग्रामरजितमनाः सर्वविरतिमपि प्रतिपद्यते / गतं भिक्षार्थनाविधिद्वारम्। अथ प्रत्यनीकद्वारमाहतरुणीण अभिवणे, संवरितो संजतो निवारेइ। तह वि य अठायमाणे, सागारिओं तत्युवालभइ / / 1243 / / तरुणीनां संयतीनामभिद्रवणे प्रत्यनीकेन विधीयमाने सति संवृतः संयतीवेषाऽऽच्छादितः संयतो निवारयति, तथाऽपि चातिष्ठति तस्मिन् सागारिकः शय्यातरः, तत्रोपसर्गे , तमुपालभते। एतामेव नियुक्तिगाथां भावयतिगणिणीणऽकहणे गुरुगा, सा वि य न कहेइ जइ गुरूणं तु। सिट्टम्मि य ते गंतुं, अणुसट्ठी मित्तमाईहिं॥१२४४|| कश्चित्तरूणो विषयलोलुपतया संयतीनामुपद्रवं कुर्यात्, ततस्तत्क्षणादेव ताभिः प्रवर्तिन्याः कथनीयम्, यदि न कथयन्ति, ततश्चत्वारो गुरवः / सा च प्रवर्तिनी यदि गुरूणां न कथयति, तदा चतुर्गुरवः, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः, तस्मात्कथयितव्यम्, ततः शिष्टे कथिते ते आचार्यास्तस्याविरतिकस्य पार्श्व गत्वा साध्वीशीलभङ्गस्य दारुणविपाकतासूचिकामनुशिष्टिं ददति / यद्युपरमते ततः सुन्दरम् / अथ नोपरमते, ततो यानि तस्य मित्राणि, आदिशब्दाद्ये वा भ्रात्रादयः स्वजनास्तेषां निवेद्यम्, तैः प्रज्ञापिते यदि स्थितः, ततो लष्टम्। तह वि य अठायमाणे, वसभा भेसिंति तह वि य अठंते। अमुगत्थ घरे पजह, तत्थ य वसभा वतिणिवेसा // 1245|| तथाऽप्यतिष्ठति तस्मिन् प्रत्यनीके, वृषभा गच्छस्य शुभाशुभकार्यचिन्तानियुक्ताः, तंप्रत्यनीकं भापयन्ति, तथाऽप्यतिष्ठति यस्तरुणः कृतकरणः स संयतीनेपथ्यं कृत्वा तस्य संकेतं प्रयच्छति, यथा-अमुकत्र गृहे समागच्छत, ततो वृषभा व्रतिनीवेषं परिधाय तेन साधुना सह तत्र गत्वा प्रत्यनीकस्य शिक्षां कुर्वन्ति, तथाऽप्यनुपशान्ते तस्मिन् सागारिकस्य निवेद्यते, तेनोपलब्धे यदि स्थितः, ततः सुन्दरम्। अथ नास्ति तदानीं सन्निहितःसागारिए असंते, किचकरे भोइयस्स व कहिंति। अण्णत्थ ठाणे जिंती,खेत्तस्सऽसती सति णिवे वा // 1246 / / सागारिके असंनिहिते कृत्यकरस्य ग्रामचिन्तानियुक्तस्य भोगिकस्य ग्रामस्वामिनः कथयति, तेन शासितोऽपि यदि नोपरमते, ततः संयतीरन्यत्र स्थाने क्षेत्रे नयन्ति। अथ नास्ति संयतीप्रायोग्यमपर, स्वयं वा संयता ग्लानाऽऽदिकार्यव्यापृता न शक्नुवन्ति क्षेत्रान्तरं गन्तुं, ततो नृपस्य दण्डिकस्य निवेद्यते, स प्रत्यनीकमुपद्रवन्तं निवारयति / गतं प्रत्यनीकद्वारन्। बृ०१ उ०। नि०चू०। ('गोयर-चरिया" शब्दे तृ०भा० 676 पृष्ठे भिक्षाविधिरुक्तः) अथ निर्ग्रन्थीना मासः। कस्मात्तासां द्वौ मासाविति दारं व्याख्यायते-शिष्यः पृच्छति-किं निर्ग्रन्थीनामभ्यधिकानि महाव्रतानि, येन तासां द्वौ मासौ, निर्ग्रन्थानामेकं मासमेकत्र वस्तुमनुज्ञायते? सूरि राहजइ वि य महव्वयाई, निग्गंथीणं न होंति अहियाई। तह विय निचविहारे, हवंति दोसा इमे तासिं / / 1264 / / यद्यपि च निर्ग्रन्थीनां महाव्रतानि नाधिकानि भवन्ति, तथाऽपि नित्यविहारे मासे मासे क्षेत्रान्तरं संक्रमणे, इमे दोषास्तासां भवन्ति। मंसाइपेसिसरिसा, वसही खेत्तं च दुल्लभं जोग्गं / एएण कारणेणं, दो दो मासा अवरिसासु // 1265 / / मांसाऽऽदिपेशीसदृशाः संवत्यः, सर्वस्याप्यभिलषणीयत्वात, तथा तासा योग्या वसतिर्दुर्लभा, क्षेत्रं च तत्प्रायोग्योपेतं दुर्लभ, ततो यथोक्तगुणविकलायां वसतौ दोषदुष्ट वा क्षेत्रे स्थाप्यमानानां बहवः प्रवचनविराधनाऽऽदयो दोषा उपढौकन्ते / एतेन कारणेन तासामवर्षासु वर्षावासं विमुच्य द्वौ द्वौ मासावेकत्र वस्तुमनुज्ञायते। अथ द्वयोरुपरि वसन्तीनां दोषान्, द्वितीयपदं चोप दर्शयतिदुण्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य / विइयपयं च गिलाणे, वसती भिक्खं च जयणाए / / 1266 / /
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________________ णिग्गंथी 2051 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गम द्वयोगसियोरुपरि वसन्ति, ततः प्रायश्चित्तं, दोषाश्च भवन्ति, द्वितीयपद च ग्लाने च सति वसति, भैक्षं च यतनया ग्रहीतव्यम्। भावार्थो निन्थानामिव द्रष्टव्यः। मासावाससूत्रम्से गामंसि वान्जाव रायहाणिंसि वा परिक्खेवंसि वा बाहिरियंसि कप्पइ निग्गंथीणं हेमंतगिम्हासु चत्तारि मासा वत्थए, अंतो दो मासे, बाहिं दो मासे, अंतो वसमाणीणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं वसमाणीणं बाहिं भिक्खायरिया / / 6 / अस्य व्याख्या प्राग्वत्। नवरं सबाहिरिके क्षेत्रे अन्तद्वी मासौ, बहिर्दी मासावित्येवं चतुरो मासान् निर्ग्रन्थीनां वस्तु कल्पत इति। अथ भाष्यम्एसेव कमो नियमा, सपरिक्खे सबाहिरीयम्मि। नवरं पुण नाणत्तं, अंतो बाहिं चउम्मासा।।१२६७।। एष एव पूर्वसूत्रोक्तः क्रमो नियमात् सपरिक्षेपे सबाहिरिके क्षेत्रे वसन्तीनां संयतीनां द्रष्टव्यः, नवरं पुनर्नानात्व विशेषोऽयम्-अन्तरभ्यन्तरे, बहिबाहिरिकायामेवमुभयोश्चत्वारो मासाः पूरणीयाः। चउण्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य। नाणत्तं असईएँ तु, अंतो वसही बहिं चरइ / / 1268|| चतुर्णा मासानामुपरि यदि सबाहिरिके क्षेत्रे संयती वसनि, तदा तदेव प्रायश्चित्तं, त एव दोषाः, द्वितीयमपि तदेव मन्तव्यम,नानात्व विशेषः, पुनरबाहिरिकाया वसतेः, शय्यातरस्य वा यथोक्तगुणस्यासत्यभावे, अन्तः प्राकाराभ्यन्तरे, (वसहि त्ति) वसतौ पूर्वस्यामेव स्थिताः, बहिर्वाहिरिकायां चरन्ति भिक्षाचर्यामटन्ति। जोग्गवसहीऍ असई, तत्थेव ठिया चरंति बाहिं तु / पुव्वगहिए विगिंचिय, तत्तो चिय मत्तगादी वि।।१२६६॥ बहिः संयतीयोग्याया वसतेरभावे, तत्रैवाभ्यन्तरोपाश्रये स्थिताः सत्यो बहिश्वरन्ति, पूर्वगृहीतं शौचकत्तृणमगलाऽऽदि परित्यज्य तत एव बाहिरिकाया मात्रकाऽऽदीनप्यानेतव्यानि, न केवलं भिक्षेत्यादिशब्दार्थः / श्रुतसंहननाऽऽदिविषया सामाचारी, क्षेत्रकालाऽऽदिविषया वा स्थितिः स्थविरकल्पिकानामिव द्रष्टव्या / तदेवमुक्त आर्यिकाणामपि मासकल्पविधिः / बृ०१ उ० (निर्ग्रन्थीनां दूरतः परिहरणीयत्वं 'वसई' शब्दे वक्ष्यते) णिग्गम पुं०(निर्गम) निर्गमनं निर्गमः, कुतः सामायिक निर्गतमित्येवमादिरूपे निर्गमने, विशे०। अनु आ०म०। निर्गमस्य षड्डिधो निक्षेपःनामं ठवणा दविए,खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो उ निग्गमस्स य,निक्खेवो छविहो होइ।।१५३३।। नामस्थापनानिर्गमौ नामाऽऽवश्यकाऽऽद्युक्तानुसारेण भावनीयो। द्रव्याद् द्रव्यस्य वा निर्गमः, क्षेत्रात्क्षेत्रस्य वा, कालात्कालस्य वा, भावाद्भावस्य वा निर्गम इत्यादि वाच्यम् / इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः ||1533|| विस्तरार्थं तु भाष्यकारः प्राऽऽहदव्वाओ दव्वस्स व, विणिग्गमो दव्वनिग्गमो सो य। तिविहो सचित्ताई, तिविहाओ संभवो नेओ।।१५३४॥ द्रव्याद् द्रव्यस्य वा निर्गमो द्रव्यनिर्गमः / स च सचित्ताऽऽदिद्रव्यसंबन्धित्वात् सचित्ताऽदिस्विविधः / तस्य च त्रिविधस्य सचित्ताऽऽदेस्त्रिविधादेव सचित्ताऽऽदेर्द्रव्यात्संभव उत्पादोज्ञेय इति॥१५३४|| तथाहिपभबो सचित्ताओ, भूमेरंकुरपयंगवफाई। किमिगब्भसोणियाई, मीसाओथीसरीराओ॥१५३५।। किमिधुणघुणचुण्णाई, दारूओ जंव निग्गय जत्तो। दव्वं विगप्पवसओ, जह सब्भावोवयारेहिं / / 1536 / / सचित्ताद् भूमिद्रव्यात्सचित्तद्रव्यस्याङ्कुरस्य प्रभवो निर्गमो ज्ञातव्यः, मिश्रस्य तु पतङ्गद्रव्यस्य, तस्य हि पक्षाऽऽदिप्रदेश अचित्ताः, शेषं तु सचित्तमिति मिश्रता / अचित्तस्य तु वाष्पद्रय्यस्या तदेवं सचित्तात्सचित्ताऽऽदेस्विविधस्य निर्गम इत्युक्तम् / अथ मिश्रात्स्त्रीशरीरद्रव्यात्सचित्तद्रव्यस्य कृमेर्निर्गमो वेदितव्यः, मिश्रस्य तु गर्भद्रव्यस्य मिम्भरूपस्य, तद्गतकेशाऽऽदीनामचित्तत्वात्, शेषस्य तु सचित्तत्वान्मिश्रताः अचित्तस्य तु शोणितद्रव्यस्य / मिश्रात्सचित्ताऽऽदेर्निगम इत्यपि भावितम्। अचित्तद्रव्याद्दारुणः काष्ठात्सचित्तस्य कृमिद्रव्यस्य निर्गमः, मिश्रस्य तुघुणस्य, पतङ्गवदस्यापि मिश्रत्वात्, अचित्तस्यतुधुणचूर्णस्य घुणाऽऽकृष्ट श्लक्ष्णतदवयवनिवहस्येत्यर्थः / अचित्तात्सचित्ताऽऽदेः निर्गम इत्यपि गतम् / तथा- 'जं व' इत्यादि। 'यद्वा- द्रव्यं यस्माद् द्रव्याद्विकल्पवशतो मानसकल्पनासमारोपाद्यथा सद्भावेन सद्भूतप्र-कारेण, उपचारेण वा निर्गतम्,सोऽपि द्रव्यान्निर्गमो द्रव्यनिर्गम उच्यते। तत्र यथा सद्भावेन विकल्पवशाद्यथा दुग्धाऽऽदिद्रव्यात् घृताऽऽदिद्रव्यस्य निर्गमः। अत्र हि भूमेः "संमूर्छजचटकन्यायेन"दुग्धात् घृताऽऽदिनिर्गमोन दृश्यत इति 'विकल्पवशतः' इत्युच्यते, दुग्धस्य च दधिधृताऽऽदिभावेन परिणाभिकारणता समीक्ष्यते, इत्येतावता यथा सद्भावेनेत्यभिधीयते। उपचारेण तु रूपकाऽऽदेर्द्रव्यागोजनाऽऽदेर्निर्गम इत्यादि सर्व यथासंभवमन्यदपि स्वबुद्ध्याऽभ्यूह्य वक्तव्यमिति // 1535 / / 1536 / / क्षेत्रनिर्गममाहखित्तस्स विनिग्गमणं, सरूवओ नऽत्थितं जमकिरियं / खेत्ताओ खेत्तम्मि वि, हविज दव्वाइनिग्गमणं / / 1537 / / उवयारओं खेत्तस्स य, विनिम्गमो लोगनिक्खुडाणं व / लद्धं विनिग्गयं ति य, जह खेत्तं राउला उत्ति / / 1538 / / यथा द्रव्यस्यापि क्वचित्कल्पनया निर्गम उच्यते, न तु स्वरूपतः, एवं क्षेत्रस्याऽपि स्वरूपेण कुतोऽपि निर्गमो नास्ति, तस्याऽक्रियत्वेन तदयोगात्। क्षेत्रात्पुनः निर्गमोऽस्ति, यथा आयुःक्षयाऽऽदिसमये ऊद्धधिोलोकाऽऽदिक्षेत्रादेवनारकद्रव्याऽऽदेर्निर्गमः / क्षेत्रेऽपिधान्याऽऽदेर्निर्गमोद्रष्टव्यः, नतु क्षेत्रस्य
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________________ णिग्गम 2052 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गम स्वरूपेण निर्गमः / किं सर्वथा नास्ति? इत्याह-उपचारतः कल्पनामात्रेण, क्षेत्रस्यापि निर्गमः समस्त्येव, यथा लोकक्षेत्रान्निष्कुटा निर्गता इति; तेषां स्वरूपेणाऽवस्थितानां निर्गमक्रियाभावेऽपि निर्गता इव निर्गता इति निर्गमोपचारः। तथा लब्ध विनिर्गतं क्षेत्रं राजकुलात्, निर्गत भरताऽऽदिक्षेत्रं दुःषमाऽऽदिकालाद्दुर्भिक्षाऽशिवाऽऽदेर्वेत्यादिति // 1537 // 1538 // कालनिर्गममाहकालो वि दव्वधम्मो, निक्किरिओ तस्स निम्गमो पभवो। तत्तो चिय दवाओ, पभवइ काले व जं जम्मि / / 1536 / / उवयारओ व सरओ, विणिग्गओ णिग्गओ य तत्तोऽहं। अहवा दुक्कालाओ, नरो व बालाइकालाओ॥१५४०|| कालोऽपि वर्तनारूपो द्रव्यधर्म एव / स च स्वरूपेण निष्क्रियः , द्रव्यद्वारेणैव तक्रियाप्रवृत्तेः / तस्य च तत एव स्वाश्रयभूताव्यान्निर्गमः प्रभव उत्पत्तिः / यथा-हरिताऽऽदिकं यस्मिन् वर्षाऽऽदिके काले प्रभवत्युत्पद्यते स कालनिर्गम इति।अथवा-उपचारतोऽपि कालनिर्गमा यथा-शरत्समयोऽसौ निर्गत आविर्भूतः, ततो वा शरत्कालाद्, दुष्कालाद्वा निर्गतो निस्तीर्णोऽहं बालाऽऽद्यवस्थातो वा नरो निर्गत इत्याधुपचारतः कालनिर्गम इति / 1536 / / 1540 / / अथ भावनिर्गममाहभावो विदव्वधम्मो, तत्तो चिय तस्स निग्गमो पभवो। दव्वस्स व भावाओ, विणिग्गमो भावओऽवगमो॥१५४१।। रूवाइपोग्गलाओ, कसायनाणादओ य जीवाओ। निंति एभवंति ते वा, तेहिंतो तचिओगम्मि / / 1542 / / भावोऽपि कालवद्रव्यधर्म एव। तस्य च ततो द्रव्याद्द्यो निर्गमः प्रभवः स भावनिर्गमः, द्रव्यस्य वा भावान्निर्गमो भावनिर्गमः / कः? इत्याहभावतो भावमाश्रित्य यो द्रव्यस्थापगमो विनाशः। इदमुक्तं भवति यदा द्रव्यं पूर्वपर्यायेण विनश्यति, अपूर्वपर्यायेण तूत्पद्यते, तदा पूर्वपर्यायात्प्राक्तनभावाद् द्रव्यस्य निर्गतत्वाद्भावान्निर्गमी भावनिर्गम इत्युच्यते / तथा रूपाऽऽदयो भावाः पुद्गलद्रव्यात्, कषायज्ञानाऽऽदयश्च जीवान्निर्गच्छन्ति प्रभवन्तीति भावाना निर्गमो भावनिर्गम उच्यते। (ते वा तेहिंतो त्ति) अथवा ते पुदलजीवाऽऽदयः पदार्थास्तेभ्यो रूपाऽऽदिभ्यः कषायाऽऽदिभ्यश्च भावेभ्यस्तद्वियोगे प्राक्तनभावविनाशे निर्गच्छन्तीति भावेभ्यो निर्गमो भावनिर्गम इत्युच्यत इति / तदेवं विनेयमतिव्युत्पादनार्थमभिहितः षड्डिधो निर्गमः // 1541 / / 1542|| इदानीं प्रकृते यावता प्रयोजनं तदुपदर्शयितुं प्रशस्तभावनिर्गमस्वरूपं तावद्दर्शयन्नाहतत्थ पसत्थं मिच्छ-तण्णाणाविरइभावनिग्गमणं / जीवस्स संभवंति य, जं सम्मत्तादओ तत्तो।।१५४३।। तत्रानन्तरोक्ते भावनिर्गमे प्रशस्तं शुभं निर्गमनम् / किम्? इत्याहमिथ्यात्वाऽज्ञानाविरतिलक्षणादप्रशस्तभायात् यनिंगमने निःसरणं जीवस्य। किमिति? इत्याह यद्यस्मात्संभवन्त्येव ततो मिथ्यात्वाऽऽद्यप्रशस्तभावनिर्गमाञ्जीवस्य मुक्तिपदप्राप्तिहेतवः सम्यक्त्वाऽऽदयो गुणा इति ||1543 // भवत्येवं, प्रस्तुते केन प्रयोजनम्? इत्याहएत्थ उपसत्थभाव-प्पसूइमेत्तं विसेसओऽहिगयं। अपसत्थावगमो विय, सेसा वि तदंगभावाओ // 1544|| इह च प्रक्रमे सामायिकाध्ययनं प्रस्तुतम् / तच क्षायोपशमिके भावे वर्त्तते। अत इह तस्यैव प्रशस्तक्षायोपशमिकभावस्य या प्रसृतिर्महावीरात् तनिमिरूपा, तयैव विशेषतोऽधिकृतमधिकारः। तथाऽप्रशस्तमिथ्यात्वाऽऽदिविषयौदयिकभावस्य योऽपगमो विनाशस्तेनापि चाधिकारः, तदपगमाभावे प्रशस्तभावप्रसूतेरेवायोगादिति / शेषास्तु निर्गमभेदास्तदङ्गभावेन प्रशस्तभावनिर्गमकारणतयाऽऽनन्तर्येण पारम्पर्येण वा कोऽपि कथञ्चिद् व्याप्रियत इतीह निर्दिष्टा इति / / 1544 / / तदङ्गत्वमेव द्रव्याऽऽदीनां दर्शयतिवीरो दव्वं खेत्तं, महसेणवणं पमाणकालो य। भावो य भावपुरिसो, समासओ निग्गमंगाई।।१५४५।। यतो द्रव्यात्सामायिकं निर्गतं, तद् द्रव्यमत्र श्रीमन्महावीरो मन्तव्यः, यस्मिँश्च क्षेत्रे तन्निर्गतं, तदिह महसेनवनमवगन्तव्यम् / कालस्तु प्रथमपौरुषीलक्षणः प्रमाणकालः / भावस्तु भावपुरुषो वक्ष्यमाणलक्षणः / एतानि समासतः संक्षेपतः सामायिकस्य निर्गमाङ्गानीति / / 1545 / / एतदेव दर्शयतिसामइयं वीराओ, महसेणवणे पमाणकाले य / भावपुरिसा हि भावो, विणिग्गओ वक्खमाणोऽयं / / 1546 / / गतार्था, नवरं श्रीमन्महावीरजीवलक्षणाद्भावपुरुषादयं वक्ष्यमाणविस्तरस्वरूपः सामायिकलक्षणोभावो विनिर्गतः, इह चक्षायो-पशमिके भावे वर्तमानत्वात् 'सामायिकलक्षणो भावः" इत्युक्तम् // 1546|| अथ महावीरलक्षणस्य द्रव्यस्य निर्गमं तावदभिधित्सुराह-- इच्चेवमाइ सव्वं, दव्वाहीणं जओ जिणस्सेव। तो निग्गमणं वोत्तुं, वोच्छं सामाइयस्स तओ॥१५१७।। इत्येवमादिकं क्षेत्रकालनिर्गमनाऽऽदिकं सामायिकाध्ययनाऽ5-- वश्यकश्रुतस्कन्धाऽऽचाराऽऽदिकं वा सर्वमपि यतो यस्माद् द्रव्यस्य महावीरलक्षणस्याधीनम्, ततस्तस्यैव महावीरजिनस्य निर्गमनमुक्त्वा, ततः सामायिकस्य निर्गमनं वक्ष्य इति // 1547 / / ननु महावीरजिनस्याऽपि निर्गमनं कथं वक्तव्यम्? इत्याहमिच्छत्ताइतमाओ, स निग्गओ जह य केवलं पत्तो। जह य पसूयं तत्तो, सामइयं तं पवक्खामि / / 1558 / / तमिति तदेतत्सर्वं प्रवक्ष्यामीति गाथार्थः // 1548 / / विशे०। अत्र वक्ष्यमाणो भावः सामायिकलक्षणः, एतत्र सर्व भगवन्महावीरलक्षणद्रव्याधीनमतस्तस्यैव प्रथमतो मिथ्यात्वाऽऽदिभ्यो निर्ग--- ममभिधित्सुराहपंथं किर देसित्ता, साहूणं अडविविप्पणट्ठाणं। संमत्तपढमलंभो, बोधव्वो बद्धमाणस्स // 146 / / पन्थान किले त्याप्तवादे, देशयित्वा कथयित्वा, साधुभ्यः सूत्रे षष्ठी प्राकृ तत्वात् / (अमवि त्ति) प्राकृ तत्वादेवात्र सप्तम्या लोपः। अटव्यां पथो विप्रनष्टेभ्यः परिभ्रष्टेभ्यः, पुनस्तेभ्य एव दे
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________________ णिग्गम 2053 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिग्गुणबंभ शनां श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्राप्त एवं सम्यक्त्वप्रथमलाभो बोद्धव्यो वर्द्ध- विशेषाभिधानमदुष्टमेव, सामान्याभिधाने सति सर्वत्राऽपि विशेषामानस्येति गाथाऽक्षरार्थः // 146 // भिधानस्य दर्शनात् / स च इक्ष्वाकुकुले जातः, कुलकराः (वक्ष्य-- भावार्थः कथानकादवसेयः / तचेदम-"अवरविदेहे एगम्मि गामे माणलक्षणाः) तेषां वंशः प्रवाहः, तस्मिनन्नतिक्रान्ते,यतश्चैवमत वलाहिओ, सो य रायाऽऽएसेण सगडाणि गहाय दारानिमित्तं महाडविं इक्ष्वाकुकुलस्य भवति उत्पत्तिर्वाच्येति शेषः।।।१५४|| आ०म०१अ०१ पविट्ठो। इतो य साहुणो मगं पवन्ना सत्थेण समं वचंति, सत्थे आवासिए खण्ड / आ०चू० (कुलकरवक्तव्यता 'कुलगर' शब्दे तृतीयभागे 562 भिक्खं पविट्ठा. सत्थो गतो, ते मग्गतो पहाविया अयाणंता भुल्ला, पृष्ठे समुक्ता) मूढदिसा पंथ अयाणता तेण अडविपंथेण मज्झण्हदिवसकाले तण्हाए णिग्गमग पुं०(निर्गमक) प्रस्थाने, बृ०१ उ० छुहाएय अपरद्धा तं देसं गया, जत्थ सोसगडसंनिवेसो। सोय बलाहिओ णिग्गमण न०(निर्गमन) अपक्रमणे, निस्सरणे, पलायने, व्य०१ उ०॥ ते पासित्ता महतं संवेगमावन्नो भणइ-अहो ! इमे साहुणो अदेसिया निस्सरणमार्गे , ज्ञा०२ श्रु०१ अ०। (गच्छान्निर्गत्योपसंपविधिः तवरिसणो अडविमणुप्पविट्ठा। तेसिं सो परमभत्तीए विउलं असणं पाणं 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 1005 पृष्ठे उक्तः) दाऊण आह-एह भगवं! जेण पंथे समवतारेमि पुरतो संपत्थितो, ताहे णिग्गय त्रि०(निर्गत) निःसृते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। उत्तवा नं०। निका ते वि साहुणो तस्सेव मग्गेण अणुगच्छति, ततो गुरू तस्स धम्म अभिनिष्क्रान्ते,आ०म०१ अ०१खण्ड / रहिते, संथा०। पञ्चा०। कहेउमारखो, सो तस्सुवगतो, ततो पंथं समोयारित्ता नियत्तो। ते पत्ता अविद्यमाने, स्था०१ ठा० प्रतिपातिते, स०६ अङ्ग। "उड् ढंमुहेसदेस / सो पुण अविरयसम्मदिट्टी कालं काऊण सोहम्मे कप्पे निग्गयजीहनेते निर्गतजिह्वनेत्रान् / उत्त० 11 अ० "णिग्गयग्गदंता।" पलिओवमट्टिइओ देवो जातो।" निर्गता अग्रदन्ता यस्य स निर्गताग्रदन्तः। ज्ञा०१ श्रु०८ अ० स्थानान्तरएतदेवोपप्रदर्शयन् गाथाद्वयमन्तर्भाष्यकृदाह प्राप्त्या निश्चितेऽनिश्चित गमने, भ० 14 श० १उन अवरविदेहे गाम-स्स चिंतगो रायदारुवणगमणं। णिग्गह पुं०(निग्रह) अनाचारप्रवृत्तेनिषेधने, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ० साहू भिक्खनिमित्तं, सत्था हीणे तहिं पासे // 150|| ज्ञा०ा अन्यायकारिणां दण्डे, आव०६ अ० ग० भ०ा रोधे, भ०७ श० दाणऽन्न पंथनयणं, अणुकंप गुरूण कहण सम्मत्तं / 6 उ०। इन्द्रियनोइन्द्रियनियन्त्रणे, उत्त० 17 अ० आ०चू०। णिग्गहजुत्त त्रि०(निग्रहयुक्त) इन्द्रियकषायाणां निग्रहसमर्थे, बृ०४ उ०। सोहम्मे उववन्नो, पलियाउ सुरो महिड्डीओ।।१५१।। णिग्गहट्ठाण न०(निग्रहस्थान) वादकाले वादी प्रतिवादी वा येन निगृह्यते अपरविदेहे ग्रामस्य चिन्तकः, (रायदारुवणगमणमिति) अत्र तन्निग्रहस्थानम्। सुत्र०१ श्रु०१२ अायादिवञ्चनार्थक प्रतिज्ञाहान्यादी निमित्तशब्दलोपो द्रष्टव्यः-राजदारुनिमित्तं तस्य वनगमनं, स साधून न्यायपरिभाषिते पदार्थे , स्था०१ ठा०। भिक्षानिमित्तं सार्थाद् भ्रष्टान् तत्र दृष्टवान्, ततोऽनुकम्पा परमभक्त्या णिग्गहदोस पुं०(निग्रहदोष) निग्रहस्थलाऽऽदिना पराजयस्थानरूपं दानमन्नपानस्य, नयन प्रापणं पथि, तदनन्तरं गुरोः कथनं, ततः दोषभेदे, स्था० 10 ठा०। सम्यक्त्वप्राप्तिः, तत्प्रभान्मृत्वाऽसौ सौधर्मलोके उत्पन्नः पल्योपमायुः सुरो महर्द्धिक इति। णिग्गहप्पहाण न०(निग्रहप्रधान) अनाचारप्रवृत्तिनिषेधप्रधाने, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। औ० लभ्रूण य सम्मत्तं, अणुकंपाए सो सुविहियाणं वि। णिम्गहसमत्थपुं०(निग्रहसमर्थ) जितेन्द्रिये, तरुणाऽऽदीना वा संयतीभासुरवरबोंदिधरो, देवो वेमाणिओ जातो॥१५२।। रुपसर्गयतां खरण्टाऽऽदिना शिक्षाकारणदक्षे,बृ०१ उ०। स ग्रामचिन्तकः सुविहितानामनुकम्पया परमभक्तया तेभ्यः सम्यक्त्वं णिग्गहिय त्रि०(निगृहीत) वादे पराजिते, "सो वादी णिग्गहितो, पच्छा लब्ध्वा भासुरां दीप्तिमती वरां प्रधानां बोन्दिं तनुं धारयतीति सावगेहिं गोट्ठामाहिलो धरितो।" आ०म०२ अ भास्वरवरबोन्दिधरः, देवो वैमानिको जातः। इति नियुक्तिगाथाऽर्थः / / 152 / / णिग्गा (देशी) हरिद्रायाम्, देखना०४ वर्ग 25 गाथा। चइऊण देवलोगा, इह चेव य भारहम्मि वासम्मि। णिग्गाहि(ण) पुं०(निग्राहिण) निगृह्णाति मनोजवेन वशीकरोतीति इक्खागुकुले जातो, उसभसुयसुतो मरीइत्ति // 153|| निग्राही। निग्रहणशीले उत्त० 4 अ० ततो देवलोकात्स्वायुःक्षये च्युत्त्वा इहैव भारते वर्षे इक्ष्वाकुकुले जात | णिग्गिण (देशी) निर्गत,देवना० 4 वर्ग 36 गाथा। उत्पन्न ऋषभसुतसुतो मरीचिः, ऋषभपौत्र इत्यर्थः। णिग्गुण त्रि०(निर्गुण) निर्गतगुणे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / उत्तरगुणापेक्षया यतश्चैवमतः निर्मर्याद, स्था०३ ठा०२ उ० भ०। उत्तरगुणविकले, जं०२ वक्षा स्था०| इक्खागुकुले जातो, इक्खागुकुलस्स होइ उप्पत्ती। गुणवतरहिते, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ० तीक्ष्णाऽऽदिगुणाभावात् (दशा०६ कुलगरवंसेऽतीए, भरहस्ससुओ मरीइ त्ति // 154 // अ०) क्षान्त्यादिगुणाभावाद् गुणविकले, रा० / भ०। इक्ष्वाकूणां कुलमिक्ष्वाकुकुलं, तस्मिन् जात उत्पन्नो, भरतस्य सुतो | णिग्गुणबंभ न०(निर्गुणब्रह्मान) योगाऽऽदिरहिते आत्मनि, सत्त्वरजमरचिरिति योगः तत्र सामान्येन ऋषभपौत्रत्वाभिधाने सतीदं | स्तमोरूपगुणरहिते ब्रह्मणि, अष्ट० 8 अष्टा
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________________ णिग्गूढ 2054 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिच्चभत्तिय णिग्गूढ त्रि०(निगूढ) स्थिरतया स्थापिते, सूत्र०२ श्रु०७अ०। णिचय पुं०(निचय) द्रव्योपचये तन्निमित्ताऽऽपादितकर्मनिचये, सूत्र०१ णिग्गोह पुं०(न्यग्रोध) वटवृक्षे, अनु० स्था० स० जी०। श्रु०१० अ०। आचालाराका औलाशूकराऽऽदिसंघाते, पिं०। संचये, ओघ०। णिग्गोहपरिमंडलन०(न्यग्रोधपरिमण्डल) न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य | णिचिक्खिल्ल पुं०(निश्चिखिल) कर्दमाभावे, व्य०६ उ०। तन्नयग्रोधपरिमण्डलम् / कर्म०६ कर्म०। प्रज्ञा०। जी० नाभेरुपरि णिचिय त्रि०(निचित) निविडे, अनु०। प्रश्न रा०1 स्था० औ० भ०| न्यग्रोधवन्मण्डले, आद्यसंस्थानयुक्तत्वेन विशिष्टाऽऽकारे द्वितीय- निविडतरचयमापन्ने, आ०म०१अ०१खण्ड। संस्थाने, अनु०॥ यथा न्यग्रोध उपरिसंपूर्णावयवोऽधस्तनभागे पुनर्न | णिच त्रि०(नित्य) शाश्वते. उत्त० 18 अ०। आव० संघा०। सर्वदातथा, तथेदमपि नाभेरुपरि विस्तरबहुलं शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभागम- ऽवस्थायिनि, आचा०१ श्रु०१अ०५ उ० उत्पत्तिविनाशरहिते, प्रव०१ धस्तु हीनाधिकप्रमाणमिति / स्था०६ ठा०। पं०सं०। कर्म। द्वार। अविनाशधर्मिणि, स्यानधन अविचलितस्वभावे, दश०१ अ०। णिग्गोहपरिमंडलणाम न०(न्यग्रोधपरिमण्डलनामन्) न्यग्रोध- अव्यवच्छिन्नरूपे, विशे०। अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावे, आचा०१ परिमण्डलनिबन्धने नामकर्मभेदे, कर्म०१ कर्म०। श्रु०५ अ०५ उ०स्था०। दश। अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया णिग्घट्ट (देशी) कुशले, देना० 4 वर्ग 4 गाथा। कूटस्थनित्यत्वेन व्यवस्थापिते, आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। ध्रुवे, प्रश्र०३ णिग्घाय पुं०(निर्घात) वैक्रियाशनिप्रपाते, जी० 1 प्रति०। प्रज्ञा०। आश्र० द्वार / औला सर्वकाले, राधा कल्प० जी०व्या प्रश्न। विद्युत्प्रपाते, जी०१ प्रति०४ उ०। साभ्रे निरभ्रे वा गगने व्यन्तरकृते सर्वदेत्यर्थे , संथा। जंगप्रश्न०। रा० स्था० सूत्र०ा उत्त। 'रागदोसे यजे पावे, पावकम्मपवत्तणे / जे भिक्खूरुभई णिचं, से न अत्थइ मंडले महागर्जितध्वनौ, स्था०१० ठा०। आव०ा नि०चूल निर्जरणे, सूत्र०१ // 1 // " उत्त० 31 अ "णिचं नीयकम्मोवजीविणो / " नित्यं सदा श्रु०१५ अग नीचा-न्यधमजनोचितानि कर्माण्युपजीवन्ति तैर्वृत्तिं कुर्वन्तियेते तथा / णिग्घायण न०(निर्घातन) निराधिक्येन घातो निघतिः / निर्जरणे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। आ०चू० 5 अ० णिचउग्गाह पुं०(निश्चयोद्ग्राह) निश्चयनयोपन्यासे, "तेनाऽऽदौ णिग्घायणट्ठ पुं०(निर्घातनार्थ) निर्धातननिमित्ते, ''पावाण कम्माण निश्चयोद्ग्राहो, नग्नानामपहस्तितः / रसायनीकृतविषप्रायोऽसौ न णिग्घायणट्टाए।" आव०५अ०ा निर्यातनमुच्छेदः, स एवार्थः प्रयोजन जगद्धितः" 1176 || निश्चयनयोद् ग्राहो निश्चयनयोपन्यासः / नयो। तस्मै / ध०२ अधि। णिचंधकारतमसन०(नित्यान्धकारतमस) नित्यमेवान्धकारतमसं येषु णिग्धिण त्रि०(निघृण) न विद्यते घृणा पापजुगुप्सालक्षणा यत्र स निघृणः / ते तथा / मेघावच्छिन्नाम्बरतलकृष्णपक्षरजनीवत् तमोबहुलेषु नरकेषु, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। न विद्यते घृणा पापजुगुप्सा यस्य सः। प्रव० 274 सूत्र०२ श्रु०२ अ० द्वार / प्रश्नका निर्दये, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० आव०) "डो दीर्घा वा" निचंपरदार पुं०(नित्यपरदार) प्रतिक्रमणसूत्रमध्ये श्राविकाः ''निचंपर॥३॥३८॥ इति संबुद्धौ वा दीर्घः। रे रेणिग्घिणया!' प्रा०३ पाद। दारगमणविरईओ।" इत्यादिपाठं कथयन्त्युत "निच्चं कापुरिसगमणणिग्घिणता स्त्री०(निपुणता) निर्दयतायाम्, पञ्चा० 10 विव० विरईओ।'' इत्यादि चेति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रतिक्रमणसूत्रपाठस्तु णिग्घिणमइ त्रि०(निघृणमति) परस्य द्रव्यादविरते, प्रश्न०३ आश्रद्वार। श्राद्धश्राविकाणां सदृश एवज्ञायते, येनैतवृत्तौ स्त्रियं प्रति परपुरुषवर्जनणिग्घेउं अव्य०(निगृहीतुम) निरुध्येत्यर्थे, "पुवपयत्तेण सक्कितो मुपलक्षणा द्रष्टव्यमिति व्याख्यातमस्तीति। 35 प्र०ा सेन०२ उल्ला०1 णिग्घेउं / ' नि०चू०१ उ। णिच्चच्छणिय त्रि०(नित्यक्षणिक) नित्यं सर्वदा क्षणा उत्सवा यत्राऽसौ णिग्योर (देशी) निर्दये, दे०ना० 4 वर्ग 37 गाथा। नित्यक्षणिकः सार्वदिकोत्सवयुक्ते, ज्ञा०१ श्रु०४ अ० णिग्घोस पुं०(निर्घोष ) नितरां घोषो निर्घोषः / तं०। आव०। महा- | णिचतल्लित्त त्रि०(नित्यतल्लिप्त) सदैव तत्परे, पञ्चा० 17 विव०॥ प्रयत्नोत्पादिते शब्दे, भ०६ श०३३ उ०। महाशब्दे, कल्प०५ क्षण।। णिचदुक्खिय त्रि०(नित्यदुःखित) सदा दुःखाऽऽकुले, तं०। रा०ा आ०म०। विपा०महाध्वनौ, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। जी०। आचा णिच्चदोस पुं०(नित्यदोष) अविनाशिदोषे, स्था०। तथा नित्यो यो ज्ञा०ा राम दोषोऽभव्यानां मिथ्यात्वाऽऽदिरनाद्यपर्यवसितत्वात्, सदोषः सामान्याणिघंटु पुं०(निघण्टु) नामसड् ग्रहे, कल्प०२ क्षण / कोशे, औ०। पेक्षया विशेषः अथवा-सर्वथा नित्ये वस्तुनि अभ्युपगते यो दोषो नामकोशे, "णिघंटुछट्ठाणं संगोवंगाणं चउण्हं वेयाणं / " नि०१ श्रु०१ बालकुमाराऽऽद्यवस्थाभावाऽऽपत्तिलक्षणः, सदोषः सामान्यापेक्षया वर्ग 5 अ०। कल्पका दोषविशेष इति / स्था०१० ठा०। णिघस पुं०(निकष) कषपट्टगतायां कषितसुवर्णरेखायाम, अनु०। नि०५०। / णिचपिंड पुं०(नित्यपिण्ड) निमन्त्रितस्य नित्यं गलतो ग्राह्ये पिण्डे, आ०म० / भ०। चं०प्र० प्र०ा कषपट्टके, सर्वेषामभिधानानामागमी प्रव०२ द्वार। निकषः हेमरजतकल्पजीवाऽऽदिपदार्थपरिज्ञानहेतुत्वात् कषपट्टकः। / णिचमत्त न०(नित्यभक्त) अनवरतभोजने, पञ्चा०६ विव०॥ अनु णिच्चभत्तिय पुं०(नित्यभक्तिक) नित्यमेकाशनिनि साधी, कल्प०६ क्षण।
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________________ णिचभाव 2055 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिच्छयणय णिच्चभाव पुं०(नित्यभाव) सर्वदा सद्भावे, पञ्चा०६ विव०) णिच्छइय पुं०(नैश्चयिक) निश्चये भवो नैश्वयिको नयः / निश्चयनये, णिचर धा०(कथ) दुःखकथने, “दुःखे णिव्वरः"!!८४३।। इति | विशे०। भ०। दुःखविषयस्य कर्णिचर इत्यादेशः / "णिचरइ' दुःखं कथयतीत्यर्थः। णिच्छक त्रि०(देशी) निर्लज्जे, बृ०१ उ०॥ धृष्टे, व्य०५ उ०। अनवसरज्ञ, प्रा०४ पाद। ज्ञा०१ श्रु०६अ णिचल धा०(मुच) दुःखमोचने, "दुःखे णिव्वरः"||CIE२|इति णिच्छय पुं०(निश्चय) निराधिक्ये चयनं चयः पिण्डीभवनमधिक-श्चयो दुःखविषयस्य मुचेर्णिचलाऽऽदेशः / “णिच्चलइ / दुःखं मुञ्चतीत्यर्थः। निश्चयः / अनु० निरधिकश्चयो निश्चयः / सामान्ये, आ०चू० 10) प्रा०४ पाद। परमार्थे , पं०व०३ द्वार / पञ्चा० / आ० म०। आव० सूत्र०। औ०। *निश्चल त्रि०ा "हस्वात् थ्य-श्व-त्स-प्सामनिश्चले" // 2 // 21 // अवश्यङ्करणाभ्युपगमे तत्त्वनिर्णये, भ०२ श०५ उ०। आ० म०। सूत्र०। इति श्वभागस्य च्छो न, अनिश्चलेतिपर्युदासात् / प्रा०२ पाद। अचले, ज्ञा०ा नियमे, अव्यभिचारे, निश्चयपरिच्छेदे, सम्म०३ काण्ड। इत्थमेवेदं उत्त०५ अ० "उअ णिच्चलणिप्पंदा, भिसिणीपत्तम्मि रेहइ बलाया।" विधेयमित्येवंरूपनिर्णये, भ०१८ श०२ उ०। प्रा०२ पाद / गमागमाऽऽदिरहिते, ज्ञा०१ श्रु०२ अारा०। णिच्छयकहा स्त्री०(निश्चयकथा) अपवादे, "अपवादो णिच्छयकहा णिञ्चलपय न०(निश्चलपद) मोक्षे, पं०व०४ द्वार। रा०। भण्णति / " ऋजुसूत्राऽऽदिभिः शुद्धनयैः क्रियमाणायां कथायाम्, णिचवाय पुं०(नित्यवाद) नित्यैकान्तवादे, स्या०। नि०चू०५ उ०। णिचसंदण त्रि०(नित्यस्यन्दन) नित्यस्रवणशीले सततवाहिनि, कल्प० / णिच्छयगोयर पुं०(निश्चयगोचर) निश्चयविषये, द्रव्या०८ अध्या०। क्षण। णिच्छयणय पुं०(निश्वयनय) तत्त्वनयमतेपरिणामवादे, पञ्चा०१३ विव०। णिचसति स्त्री०(नित्यस्मृति) सार्वदिकस्मरणे, पञ्चा०१ विव०। प्रा०। द्रव्यास्तिकनये, सम्म० 3 काण्ड / ऋजुसूत्राऽऽद्यास्तु चत्वारो णिच्चसहाय पुं०(नित्यसहाय) अवस्थितसहाये, व्य०६ उ०॥ निश्चयनयाः / बृ० 4 उ०। (निश्चयनयस्वरूप 'णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे णिच्चसुह त्रि०(नित्यसुख) सदा सौख्ये, आव०६ अ०। 1862 पृष्ठे प्रतिपादितम्) णिचाणिच त्रि०(नित्यानित्य) स्थितिभवनभङ्गरूपापेक्षया नित्ये, निश्चयव्यवहारयोः पार्थक्यम्भवनभङ्ग रूपापेक्षयाऽनित्ये, स्था० 1 ठा०। निश्चयाद् व्यवहारेण, कोपचार विशेषता? सर्वस्यैव वस्तुन उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तता। इत्यत्र प्रमाणम् मुख्यवृत्तिर्यदैकस्य, तदाऽन्यस्योपचारता / / 22 / / "असतो नस्थि पसूई, होज व जइ होउ खरविसाणस्स। (निश्चयेति) निश्चयाद् निश्चयनयाद् व्यवहारेण सहोपचारविशेषता न य सव्वहा विणासो, सव्वुच्छेयप्पसंगाओ।।१६६८॥ काऽस्ति? व्यवहारविषये उपचारोऽस्ति, निश्चये उपचारो नास्त्ये तावद्विशेषता / यदैकनयस्य मुख्यवृत्तिर्गृह्यते, तदापरनयस्योपचातोऽवत्थियस्स केणइ, विलओ धम्मेण भवणमन्नेण। रवृत्तिरायाति / रत्नाकरवाक्ये स्याद्वादरत्नाकरे च प्रसिद्धमस्तिसव्वुच्छेओन मओ, संववहारोवरोहाओ" ||1666 / / 'स्वस्यार्थसत्यत्वस्याभिमानोऽखिलनयानाम्-न्योऽन्यं वर्तते, फलात् अन्यत्र विवृतम्। विशे०। (सादिश्रुतप्रकरणेऽप्येतत) सत्यत्वं तु सम्यग्दर्शनयोग एवास्ति।" एवं च प्रकृतमर्थ व्याख्यायतेणिचालोग पुं०(नित्यालोक) चतुःषष्टितमे महाग्रहे, "दोणिचालोया।" निश्चयनयाद् व्यवहारनयेन सहोपचारविशेषता काऽस्ति? या स्था०२ ठा०३ उ०ा कल्प०। सू०प्र० ०प्र०ा नित्यमालोक उद्योतो उपचारविशेषता वर्तते, तां दर्शयति-यदैकस्य कस्यचिन्नयस्य मुख्यता यत्रेति। सर्वकालमुद्द्योतमाने, कल्प०३ क्षण। मुख्यभावो वर्तते, तदाऽन्यस्याऽन्यनयस्य उपचारता गौणत्वं भवतीति णिच्चिद वि०(निश्चिन्त) "अधः क्वचित्" ||4261 / / इति शौर ज्ञेयम् / यथाहि-निश्चयेन आत्मेति शब्द एतस्य निश्चयार्थस्तुसेन्यां तस्य दः / चिन्ताविकले, प्रा०४ पाद। "असंख्यातप्रदेशी निरञ्जनोऽनन्तज्ञानाऽऽदिगुणोपेतो नित्यो णिचुञ्जोय पुं०(नित्योद्योत) पञ्चषष्टितमे महाग्रहे, "दो णिचुज्जोया।" विभुःकर्म दोषैरसङ्ग तः सिद्ध इव देहे उपलभ्यते / " तदाऽस्य स्था०२ ठा०३ उ०। कल्प। चं०प्र०ा सू०प्र०। व्यवहारणौपाधिकस्य जडशरीराऽऽदेः सङ्गतस्यौदयिकाऽऽदिभावोपगणिचुट्विग्ग त्रि०(नित्योद् विग्न) सदाऽप्रशान्ते, दश०५ अ०२ उ०। तनरनैरयिकाऽऽदिभावस्पर्शतोऽपि गौणत्वं भासते / अथ च 'अतति सदोदासीने, अष्ट० 22 अष्टा सातत्येन गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्यात्मा / ' संसारस्थो देहाऽऽणिचेट्ट त्रि० (निश्चेष्ट) व्यापाररहिते, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। दिसंगतो जन्ममरणजरायौवनाऽऽदिक्लेशमनुभवमानः प्रत्यक्षप्रमाणेन णिचेयणय त्रि० (निश्चेतनक) चैतन्यवर्जिते शरीरे, तं०। व्यवहाराऽऽदेशाद्देवो मनुष्यो नारकास्तिर्यक् चकथ्यते, तत्र सिद्धत्वस्य णिचोउआ स्त्री०(नित्यर्तुका) नित्यं सदा, न त्र्यहमेव ऋत् रक्त- गौणत्वम् // 22 प्रवृत्तिलक्षणो यस्याः सा नित्यर्तुका / सदा रजस्वलायाम्, सा च गर्म न __ अथ पुनस्तदेव प्रतिपादयतिधरते। स्था०५ ठा०२ उ० तेनेदं भाष्यसदिष्टं, ग्रहीतव्यं विनिश्चयम् / णिचोयग त्रि० (नित्योदक) प्रचुरजले, कल्प० 6 क्षण। तत्त्वार्थ निश्चयो दक्ति, व्यवहारा जनोदितम् / / 23 / /
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________________ णिच्छयणय 2056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिज्जरा (तेनेति) तेन कारणेनेदं विनिश्चयं निश्चयव्यवहारयोर्लक्षणं, भाष्यसंदिष्ट णिच्छू ढ न०(निष्ट्यूत) निष्ठीवने, विशे०। आ०म०। "क्ते नाविशेषाऽऽवश्यकनिरूपितं, ग्रहीतव्यमवधारणीयम् / अथ निश्चयव्यव- प्फुण्णाऽऽदयः।।१४।२५८|| इति उद्धृतशब्दस्य निच्छूटाऽऽदेशः प्रा०४ हारयोर्लक्षणमाहनिश्चयो निश्चयनयः, तत्त्वार्थ युक्तिसिद्धमर्थ, वक्ति पाद / उत्क्षिप्ते, भुक्तोज्झने च / वाचा "सो परिव्वायगो हीलिजंतो कथयति / पुनर्व्यवहारो व्यवहारनयो, जनोदितं लोकाभिमतग्राहित्वं णिच्छूढो।" आ०म०१ अ०२ खण्ड। वक्ति / यतो लोकाभिमतमेव व्यवहारः, तस्य ग्राहकं प्रमाणं न भवति, णिच्छ्हणा स्त्री०(निक्षोभणा) निःसरास्माद् गेहादिति भर्त्सने, ज्ञा०१ प्रमाणं तु तत्त्वार्थग्राहकमेवास्ति। तथापि प्रमाणस्य सकलतत्त्वार्थग्राही _श्रु०१६ अ०। निश्चयनयः, एकदेशतत्त्वार्धग्राही व्यवहारश्चायं विवेकः / निश्चयनयस्य णिच्छेय त्रि०(निश्चय) निश्चीयत इति निश्चयः। अवश्यकरणीये, रा०ा विषयत्वम्, अथ च व्यवहारनयस्य विषयत्वमनुभवसिद्ध भिन्नमेवाऽऽस्ते णिच्छोडइत्ता अव्य०(निश्छोट्य) प्राप्मर्थं त्याजयित्वेत्यर्थे, भ०१५ यथा सविकल्पकज्ञानं नष्टप्रकारताऽऽदिकमन्यवादिनो भिन्नमेवाऽऽम- श०। पुरुषान्तरसम्बन्धिहस्ताऽऽद्यवयवतो वियोजयित्वेत्यर्थे, भ०१५ नन्तीति हृदये विमर्शनीयम् // 23 // शासम्बन्धान्तरसंबद्धहस्ताऽऽदौ गृहीत्वा बलात् क्षिप्त्वेत्यर्थे, स्था०५ अथोपचारं निर्दिशति ठा०१उका उपान बाह्यस्याऽभ्यन्तरत्वं यद्, बहुव्यक्तेरभेदता। णिच्छोडणा स्त्री०(निश्छोटना) त्यजास्मदीयवस्त्राऽऽदीत्यादिरूपे यच द्रव्यस्य नैर्मल्य-मिति निश्चयगोचराः॥२४॥ भनि, भ०१५ शाज्ञा (बाह्येति) यद्बाह्यस्य बाह्यार्थस्याऽभ्यन्तरत्वमन्तरङ्गत्वं वर्तत, तदपि णिच्छोलण न०(निश्छोटन) त्वगपनयने, "अंगादाणं णिच्छोलेइ, गोचरम, निश्चयविषय मित्यर्थः / यथा-"समाधिर्नन्दनं धैर्यो, दम्भोलिः णिच्छोलंतं वा साइजइ।" णिच्छोलेति त्वचमपनयति, महामणिं समता सभा। ज्ञान महाविमानं च, वासवश्रीरियं पुनः॥१॥'' इत्यादि प्रकाशयति इत्यर्थः / नि०चू०१ उ० पुण्डरीकाध्ययनाऽऽद्यर्थोऽप्येवं भावनीयः। अथपुनर्बहुव्यक्तेरनेकविशेष णिजुद्ध न०(नियुद्ध) सर्वसन्धिविक्षोभणपूर्वक युद्धे, नि०चू० 12 उ०। स्याभेदता भेदरहित्यं, तदपि निश्चयविषयम् / यथा- ''एगे आया" औ०। ज्ञा० इत्यादि सूत्रम्, तथा वेदान्तदर्शनमपि शुद्धसंग्रहनयाऽऽदेशरूपः णिज्ज (देशी) सुप्ते, देख्ना० 4 वर्ग 25 गाथा। शुद्धनिश्चयनयार्थः संमतिग्रन्थे कथितः। (स चास्मिन्नेव भागे 1861 पृष्ठे णिज्जप्पपाणभोयण न०(निर्याप्यपानभोजन) क०स०। निर्यापनादर्शितः) तथा पुनर्द्रव्यस्य पदार्थस्य यन्नैर्मल्यं तदपि निश्चयविषयम्, ___ कारकेषु दुर्बलेषु पानभोजनेषु, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। नैर्मल्यं तु विमलपरिणतिः बाह्यनिरपेक्षपरिणामः, सोऽपि निश्चयनयाऽर्थो णिजरट्ठया स्त्री०(निर्जरार्थता) ममाऽप्येतान् वाचयतः कर्मनिर्जरा विपुला बोद्धव्यः / यथा-'आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठ।' एवमेते __ भविष्यतीति प्रयोजने, 'उग्गहठ्ठयाए णिजरट्टयाए पज्जवजाएणं / ' अभ्यन्तरत्वाऽऽदयो निश्चयगोचरा एव / यथा यथा रीत्या लोकातिक्रा- आ०म०१ अ०१ खण्ड। स्था०। न्तोऽर्थोऽवाप्यो, तथा, तयारीत्या निश्चयनयस्य भेदा भवन्ति / तस्माच णिजरट्ठि(ण) त्रि०(निर्जरार्थिन्) कर्मक्षयकामे, प्रति०। लोकोत्तरार्थभावना समायातीति ज्ञेयम्॥२४|| द्रव्या०८ अध्या०।। णिज्जरण न०(निर्जरण) यतनोपयोगिज्ञानदर्शनविशुद्धव्रते, औ०। दाने णिच्छर पुं०(निर्झर) "चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्य द्वितीयो" ___च, "णिजरणं भवत्थाणं।" व्य०७ उ० ||84325 / / इति चतुर्थस्य झस्य छः। गिरिपतत्प्रस्रवणे, प्रा० ४पाद। णिज्जरमाण त्रि०(निर्जरयत्) निर्जरां कुर्वाणे , भ०१८ श०३ उ०। णिच्छल्ल धा०(छिद्) छेदने, "छि देर्दुहाव-णिच्छल्ल- णिज्जरा स्त्री०(निर्जरा) निर्जरण निर्जरा / कर्मक्षये, आव०३ अ०। निज्झो डणिध्वर-णिल्लू र-लू राः" ||8|4|124 / / इति पञ्चा० / स्था०। दर्श०। ओघ०। आचा०ा कर्मणां जीवप्रदेशेभ्यः णिच्छल्लाऽऽदेशः। णिच्छल्लइ, छिंदइ, छिनत्ति / प्रा०४ पाद। परिशटने, स्था० 10 ठा०। कात्य॑ नानुसमयं विशेषकर्मविपाकहान्या णिच्छल्लिय त्रि०(निश्छल्लिक) छल्लीरहिते, बृ०१ उ०॥ परिशटने, स्था०४ ठा०४उ०। कर्मपुद्गलशाटने, सूत्र०२ श्रु०५ अ०। आव०। स्था०ा नाशे, श्रा० कर्मणोऽकर्मताभवने, स्था०२ ठा०४ उ०। णिच्छाय त्रि० (निश्छाय) गतश्रीके, ज्ञा०३ श्रु०३ अ०। विशोभे, प्रश्र०२ विशरणे परिशटने, स्था०१ ठा०ा अपचये, कर्मा आश्र० द्वार। एगा णिज्जरा। णिच्छिड्डु त्रि०(निश्छिद्र) स्थगितरन्ध्रे, दर्श० 4 तत्त्व। भ०। निर्जरणं निर्जरा, विशरणं परिशटनमित्यर्थः / सा चाष्टविधकर्माणिच्छिण्ण त्रि०(निश्छिन्न) रूपाऽऽदिव्यावृत्तेः पृथक्कृते, विशे०। पेक्षयाऽष्टविधाऽपि, द्वादशविधतपोजनितत्वेन च द्वादशविधाऽपि, णिच्छिय त्रि०(निश्चित) अवश्यंभाविनि, स०६ अङ्ग। निश्चयवति, ज्ञा०१ अकामक्षुत्पिपासाशीताऽऽतपदंशमशकसहनब्रह्मचर्यधारणाऽऽश्रु०१ अ०। प्रना असंशये, स०११ अङ्ग। द्यनेकविधकारणजनितत्वेनाऽनेकविधाऽपि, द्रव्यतो वस्त्राऽऽदेर्भावतः णिच्छुभण न०(निक्षुभण) निष्काशने, व्य०८ उ०ा "असंखडिणि कर्मणामेवं द्विविधाऽपि वा, निर्जरा सामान्यादेकै वेति / ननु च्छुभणे।" नि०चू०१ उ० निर्जरामोक्षयोः कः प्रतिविशेषः? उच्यते-देशतः कर्मक्षयो निर्जरा, णिच्छूड (देशी) निर्दये, दे०ना० 4 वर्ग 37 गाथा। सर्वतस्तु मोक्ष इति। स्था० 1 ठा०। अनु० स०!
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________________ णिज्जरा 2057 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग! णिज्जरा अधुना यद्गुणवशाजीवानां यावती निर्जरा, तामाहएयगुणा पुण कमसो, असंखगुणणिज्जरा जीवा / / 83 / / एते प्रागुपदर्शिताः सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरत्यादयो गुणा धर्मा येषां ते एतद्गुणाः, जीवा इत्युत्तरेण संबन्धः / कथम्? इत्याह-पुनरिति पुनःशब्दो गुणश्रेणिस्वरूपापेक्षया व्यतिरेकार्थः / क्रमशो यथोत्तरं क्रमेण, असंख्यातगुणिता निर्जरा कर्मपुद्गलपरिशाटरूपा येषां तेऽसंख्यातगुणनिर्जराः,जीवाः सत्त्वाः, भवन्तीति शेषः। तत्र सम्यक्त्वगुणा जीवाः स्तोकपुद्गलनिर्जरकाः, ततो देशविरता असंख्येयगुणनिर्जराः, ततः सर्वविरता असंख्येयगुणनिर्जराः, ततोऽनन्तानुबन्धिविसंयोजका असंख्येयगुणनिर्जराः, ततो दर्शनक्षपका असंख्येयगुणनिर्जराः, ततो मोहशमका असंख्येयगुणनिर्जराः, तत उपशान्तमोहा असंख्येयगुणनिर्जराः, ततः क्षपका असंख्येयगुणनिर्जराः, ततः क्षीणमोहा असंख्येयगुणनिर्जराः, ततः सयोगिकेवलिनोऽसंख्येयगुणनिर्जराः, ततोऽप्ययोगिकेवलिनोऽसंख्येयगुणनिर्जराः (83) कर्म०५ कर्म० स्था०। (देशेन सर्वेण चाऽऽत्मा निर्जरयतीति 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 166 पृष्ठे उक्तम्) (भक्तप्रत्याख्यानेन निर्जराभवतीति भत्तपच्चक्खाण' शब्दे वक्ष्यते) "जीवा णं चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ णिजरें सु, णिज्जरिंति, णिज्जरिस्संति / 'कर्मणोऽकर्मकत्वभवनमिति / इह च देशनिर्जरैव ग्राह्या, सर्वनिर्जरायाश्चतुर्विशतिदण्डके असम्भवात्, क्रोधाऽऽदीनां चतदकारणत्वात्, क्रोधाऽऽदिक्षयस्यैव तत्कारणत्वादिति। स्था०४ ठा०१ उन ज्ञानी शीघ्रं कर्म क्षपयति / तत्र निर्जराद्वारमाहजं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाइँ वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिँ गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं // यदज्ञानी जीवो नैरयिकाऽऽदिभवेषु वर्तमानो वहीभिर्वर्षकोटीभिः कर्म क्षपयति, तत्कर्म ज्ञानी त्रिषु मनोवाक्कायेषु गुप्तः, समुच्छ्वासमात्रेणापि कालेन क्षपयति। बृ०१ उ०। कर्मनिर्जराहेतौ बुभुक्षाऽऽदिसहने, स्था०४ ठा०४ उ०। (वैयावृत्यमहानिर्जराहेतुरित्यतिशयानां प्रसङ्गे 'अइसेस' शब्दे प्र०भा०३० पृष्ठे आवेदितम्) यो महावेदनः स महानिर्जरःजीवा णं भंते ! किं महावयणा महानिज्जरा, महावयणा अप्पनिजरा, अप्पवेयणा महानिजरा, अप्पवेयणा अप्पनिजरा? गोयमा ! अत्थेगइया जीवा महावेयणा महानिज्जरा, अत्थेगइया जीवा महावेयणा अप्पनिजरा, अत्थेगइया जीवा अप्पवेयणा महानिज्जरा, अत्थेगइया जीवा अप्पवेयणा अप्पनिजरा / से केणद्वेणं ? गोयमा ! पडिमापडिवण्णए अणगारे महावेयणे महानिजरे, छट्ठसत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेयणा अप्पनिजरा, सेलेसिपडिवण्णए अणगारे अप्पवेयणे महानिजरे, अणुत्तरोववाइया देवा अप्पवेयणा अप्पनिजरा / भ०६ श०१ उ० से गूणं भंते ! जे महावेयणे से महाणिज्जरे, जे महाणिज्जरे से महावेयणे, महावेयणस्स य अप्पवेयणस्सय से सेए जे पसत्थनिजराए? हंता गोयमा ! महावेयणे० एवं चेव / छट्ठसत्तमासु णं भंते! पुढवीसु नेरइया महावेयणा? हंता ! महावेयणा। ते णं भंते ! समणेहिंतो निग्गंथेहिंतो महानिज्जरतरागा? णो इणढे समढे / से केणं अटेणं मंते ! एवं वुच्चइजे महावेयणे० जाव पसत्थनिजराए? गोयमा ! से जहानामए दुवे वत्था सियाएगे वत्थे कद्दमरागरत्ते, एगे वत्थे खंजणरागरत्ते, एएसि णं गोयमा ! दोण्हं वत्थाणं कयरे वत्थे दुधोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, दुपरिकम्मतराए चेव; कयरे वा वत्थे सुधोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरिकम्मतराए चेव, जे वा से वत्थे कद्दमरागरत्ते, जे वा से वत्थे खंजणरागरते? भगवं ! तत्थ णं जे से कद्दमरागरत्ते से णं वत्थे दुधोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, दुपरिकम्त्मतराए चेव? एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माइं गाढीकयाई चिकणीक याई सिढि लीकयाई खिलीकयाइं भवंति, संपगाढं पि य णं ते वेयणं वेयमाणा णो महानिजरा नो महापज्जवसाणा भवंति, से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरणिं आउट्टेमाणे महया महया सद्देणं महया महया घोसेणं महया महया परंपराधाएणं णो संचाएइ, तीसे अहिगरणीए अहावायरे पोग्गले परिसाडित्तए एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माइंगाढीकयाइं०जाव नो महापज्जवसाणाई भवंति। भगवं ! तत्थ जे से वत्थे खंजणरागरत्ते से णं वत्थे सुधोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरिकम्मतराए चेव? एवामेव गोयमा! समणाणं निग्गंथाणं अहावायराइं कम्माई सिढिलीकयाई निट्ठियाइं कमाई विपरिणामियाइं खिप्पामेव विद्धत्थाई भवंति, जावइयं तावइयं पिय णं ते वेयणं वेयमाणा महानिजरा महापज्जवसाणा, भवंति, से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविजइ? हंता! मसमसाविज्जइ, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहावायराई कम्माइं०जाव महापज्जवसाणाई भवंति। से जहानामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदगविंदु०जाव हंता ! विद्धंसमागच्छइ, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं०जाव महापज्जवसाणा भवंति, से तेणद्वेणं जे महावेयणे से महानिजरे जाव निजराए। (से णूण भंते ! जे महावे यणे इत्यादि) महावेदन उपसर्गाऽऽदि समुद्भूतविशिष्टपीडः, महानिर्जरो विशिष्ट कर्मक्षयः, अनयोश्चा न्योन्याऽविनाभूतत्वाविर्भावनाय-"जे महानिजरे इत्यादि'' प्रत्यावर्त्तनमित्येकः प्रश्नः। तथा-महावेदनस्य चाल्पवदनस्य च
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________________ णिज्जरा 2058 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिज्जरा मध्ये स श्रेयान यः प्रशस्तनिर्जराकः कल्याणानुबन्धनिर्जर इति, एष च द्वितीयः प्रश्नः / प्रश्रता च काकुपाटाऽवगम्या। हन्तेत्याधुत्त--रम् / इह च प्रथमप्रश्रस्योत्तरे महोपसर्गकाले भगवान्महावीरो ज्ञातः, द्वितीयस्याऽपि स एवोपसर्गानुपसर्गावस्थायामिति / यो महावेदनः स महानिर्जर इति यदुक्तं, तत्र व्यभिचारं शङ्कमान आह-(छट्ठीत्यादि)(दुधोयतराए त्ति) दुष्करतरधावनप्रक्रियम्,(दुवामतराए त्ति) दुर्बाम्यतरकं दुस्त्याज्यतरकलङ्कम, (दुप्परिकम्मतराए त्ति) कष्टकर्तव्यतेजोजननभङ्गकरणाऽऽदिप्रक्रियम्। अनेन च विशेषणत्रयेणाऽपि दुर्विशोध्यमित्युक्तम्। (गाढीकयाई ति) आत्मप्रदेशः सह गाढबद्धानि, सणसूत्रगाढबद्धसूचीकलापवत्। (चिक्कणीकयाईति) सूक्ष्मकर्मस्कन्धानां सरसतया परस्पर गाढसम्बन्धकरणतो दुर्भेदीकृतानि, तथाविधमृत्पिण्डवत्। (सिदिलीकयाई ति) श्लथीकृतानि निधत्तानि, सूत्रबद्धाग्नितप्तलोहशलाकाकलापवत्। खिलीभूतानि अनुभूतिव्यतिरिक्तोपायान्तरेण क्षपयितुमशक्यानि, निकाचितानीत्यर्थः / विशेषणचतुष्टयेनाप्येतेन दुर्विशोध्यानि भवन्तीत्युक्तं भवति / एवं च एवमेत्रेत्याद्युपनयवाक्यं सुघटनं स्यात् / यतश्च तानि दुर्विशोध्यानि स्युस्ततः(संपगाढमित्यादि) (नो महापज्जवसाणा भवंति त्ति) अनेन महानिर्जराया अभावस्य निर्वाणाभावलक्षणं फलमुक्तमिति नाप्रस्ज्ञतुतत्वमस्याऽऽशङ्कनीयमिति। तदेवं यो महावेदनः स महानिर्जर इति विशिष्टजीवापेक्षमवगन्तव्यम्, न पुनरिकाऽऽदिक्लिष्टकर्मजीवापेक्षम्। यदपियो महानिर्जरः स महावेदन इत्युक्तं, तदपि प्रायिकम् / यतो भवत्ययोगी महानिर्जरी, महावेदनस्तु भजनयेति / (अहिगरणि त्ति) अधिकरणी, यत्र लोहकारा अयोधनेन लोहानि कुट्टयन्ति / (आउट्टेमाणे ति) आकुट्टयन् (सद्देणं ति) अयोधनघातप्रभवेन ध्वनिना, पुरुषहुइ कृतिरूपेण वा / (घोसेणं ति)तस्यैवानुनादेन। (परंपराघाएणं ति) परम्परा निरन्तरता, तत्प्रधानो घातस्तामनं, परम्पराघातः, तेन उपर्युपरि घातेनेत्यर्थः / (अहावायरे त्ति) स्थूलप्रकारात् / एवामेवेत्याधुपनये-'गाढीकयाई' इत्यादिविशेषणचतुष्केण दुष्परिशाटनीयानि भवन्तीत्युक्तं भवति। (सुधोयतराए इत्यादि) अनेन सुविशोध्यं भवतीत्युक्तं स्यात् / (अहावायराइं ति) स्थूलतरस्कन्धान्यसाराणीत्यर्थः / (सिढिलीकयाइंति)श्लीथीकृतानि, मन्दविपाकीकृतानि। (निट्ठियाई कडाई ति) निःसत्ताकानि विहितानि। (विपरिणामियाई ति) विपरिणाम नीतानि स्थितिघातरसघाताऽऽदिभिः, तानि च क्षिप्रमेव विध्वस्तानि भावन्ति, एभिश्च विशेषणैः, सुविशोध्यानि भवन्तीत्युक्तं स्यात् ततश्च (जावइयमित्यादि)। भ०६ श०१उ०। या वेदना सा निर्जरासे णूणं भंते ! जा वेयणा सा निजरा, जा निजरा सा वेयणा? णो इणढे समढे / से केणतुणं भंते ! एवं वुचइजा वेयणा न सा निज्जरा, जा निजरा न सा वेयणा? गोयमा ! कम्मवेयणा, णो / कम्मनिज्जरा, से तेणद्वेणं गोयमा !जावन सा वेयणा / नेरइया / णं मंते ! जा वेयणा सा निज्जरा, जा निन्जयरा सा वेयणा? णो इणढे समढे। से केणद्वेणं एवं वुच्चइनेरइयाणं जा वेयणा न सा निज्जरा, जा निजरा न सा वेयणा ? गोयमा ! नेरझ्याणं कम्मवेयणा णो कम्मनिज्जरा, से तेणटेणं गोयमा ! जाव न सा वेयणा, एवंजाव वेमाणियाणं / से नूणं भंते ! जं वेदंसू तं निजरिंसु, जं निजरिंसु तं वेदंसु? णो इणढे समढे। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जं वेदंसु नो तं निजरिंसु, जं निजरिंसु नो तं वेदंसु? गोयमा ! कम्म वेदंसु नो कम्म निजरिंसु, से तेणटेणं गोयमा ! ०जाव नो तं वेदंसु / नेरइया णं भंते ! जं वेदंसु, तं निजरिंसु, एवं नेरइया वि। एवं० जाव वेमाणिया। से नूर्ण भंते! जं वेदें ति तं निजरंति, जं निजरंति तं वेदेति ? णो इणद्वे समझे। से केणद्वेणं एवं वुचइ०जाव नो तं वेदें ति? गोयमा ! कम्म वेदेति, नो कम्म निजरंति, से तेणऽटेणं गोयमा !०जाव नो तं वेदेति। एवं नेरइया वि०जाव वेमाणिया। से नूणं भंते! जं वेदिस्संति, तं निजरिस्संति, जं निजरिस्संति तं वेदिस्संति? णो इणढे समठे। सेकेणद्वेणं०जावणोतं वेदिस्संति? गोयमा ! कम्मं वेदिस्संति, नो कम्मं निजरिस्संति / से तेणटेणं०जाव नो तं निजरिस्संति / एवं नेरइया वि० जाव वेमाणिया। से नूर्ण भंते! जे वेदणासमए से निजरासमए, जे निजरासमए से वेदणासमए? णो इणढे समढे / से केणतुणं भंते ! एवं दुश्चइ-जे वेदणा-समए न से निज्जरासमए, जे निज्जरासमए न से वेदणासमए? गोयमा ! जं समयं वेदें तिनो तं समयं निजरंति, जं समयं निजरंति नो तं समयं वेदेति; अण्णम्मि समए वेदेति अण्णम्मि समए निजरंति, अण्णे से वेदणासमए अण्णे से निजरासमए, से तेणऽट्टेणंजाव न से वेदणासमए। नेरइया णं मंते ! जे वेदणासमए से निजरासमए, जे निजरासमए से वेदणासमए? णो इणढे समढे। सेकेणऽटेणं भंते ! एवं वुचइनेरइयाणं जे वेदणासमएनसे निजरासमए, जे निजरासमए न से वेदणा-समए? गोयमा ! नेरइया णं जं समयं वेदें ति नो तं समयं निरंति, जं समयं निञ्जरंति नो तं समयं वेदेति, अण्णम्मि समए वेदेति अण्णम्मि समए निज्जरंति, अण्णे से वेदणासमए अण्णे से निजरासमए, से तेणटेणंजाव न से वेदणासमए। एवं०जाव वेमाणियाणं / (कम्मवेयण त्ति) उदयं प्राप्तं कर्म वेदना, धर्मधर्मिणोरभेदवि वक्षणात्।(नो कम्म निजर त्ति) काभावो निजरा, तस्या एवंस्व रूपत्वादिति / (नो कम्म निजरिंसु त्ति) वेदतरसं कर्म ना कर्म तन्निर्जरितवन्तः, कर्मभूतस्य कर्मणो निर्जरणासम्भवादिति / भ०७ श०३ उ०। (कियता तपसा कियती निर्जरा भवतीति 'अण्णइलाय' शब्दे प्रथमभागे 444 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) (परिणामानुसारेण निर्जरेति 'अइसेस' शब्दे प्र० भागे 25 पृष्ठे गतम्) (सम्यक्त्वं विना निर्जरा नास्तीति वक्ष्यते 'सम्मत्त' शब्दे) "गणवारणमगिलाए, कुणमाणे णिज
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________________ णिज्जरा 2056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिज्जाणमग्ग रेति कम्माई / अन्ने य णिज्जरावे, तम्हा तू णिज्जरा होति / / 1 / / " ध०२ अधि०। पञ्चा०। असमर्थस्य प्रायश्चित्तिनः प्रायश्चित्तस्य खण्डशः इत्युक्तलक्षणे अनुज्ञारूपेऽर्थे, पं०भा०ा क्रियावादिनामक्रियावादिनां च करणेन निर्वाहके, भ० 25 श०७ उ स हि तथा प्रायश्चित्तं दत्त यथा मिथ्यादृशा सकामनिर्जरा भवति, न वा? यदि सकामनिर्जरा, तर्हि परो निर्वोढुमलं भवतीति। स्था० 10 ठा०। नेदानीं निर्यापकाः सन्तीति ग्रन्थाक्षराणि प्रसाद्यानीति प्रश्ने, उत्तरम्-क्रियावादिनामक्रियावादिनां न०। व्य०। 130 // च केषाञ्चित्सकामनिर्जराऽपि भवतीत्यवसीयते, यतोऽकामनिर्जरामु- / यदप्युक्तं निर्यापका व्यवच्छिन्ना इति, तदपिन तथा, कथमिति चेदत त्कर्षतो व्यन्तरेष्वेव / बालतपस्विनां चरकाऽऽदीना तु ब्रह्मलोकं आह–निर्यापकैः निर्याप्यमाणाः / इह द्विविधा निर्यापकास्तथायावदुपपातः प्रथमोपाङ्गाऽऽदावुक्तोऽस्तीति, तदनुसारेण पूर्वोक्तानां आत्मनः, परस्य वा / उभयानप्याह-- सकामनिर्जरति तत्त्वम्। 248 प्र० सेन० 3 उल्ला०। पादोवगमे इंगिणि, दुविहा खलु होति आयनिजवगा। णिज्जरापेहि(ण) त्रि०(निर्जराऽपेक्षिन) निर्जरणं निर्जरा कर्मणा- निजवगा य परेण उ, भत्तपरिन्नाएँ बोधव्वा / / मात्यन्तिकः क्षयः, तामपेक्षतेकथं ममाऽसौ स्यादित्यभिलषतीति आत्मनिर्यापकाः खलु द्विविधा भवन्ति / तद्यथा-पादपोपगमे, निर्जराऽपेक्षी। उत्त०२ अ०। कर्मक्षयमभीप्सौ, उत्त०२ अ०। इङ्गिनी मरेण च / परेण पुनर्नियापका भक्तपरिज्ञायां बोद्धव्याः। व्य०१० निर्जराप्रेक्षिन् त्रि०ा निर्जरां प्रेक्षितुं शीलमस्येति निर्जराप्रेक्षी। उ०ा निर्निश्चित यापयति प्रायश्चित्तविधिषु याप्यमालोचकं करोति / निर्जरातत्त्वज्ञे, "मज्झत्थो णिज्जरापेही, समाहिमणुपालए।' आचा०१ निर्वाहयतीति यावदिति नियोपः, अच्-प्रत्ययः अपरा-धकारी यथोक्तं श्रु०८ अ०८ उ०| प्रायश्चित्तं कर्तुमसमर्थो यथा यथा निर्वाहयति तथा तथा तदुचितप्रायणिज्जरापोग्गल पुं०(निर्जरापुद्गल) निजीणेकर्मदलिके, भ०१८ श० ३उ०॥ श्चित्तप्रदानतः प्रायश्चित्तं कारयति स निर्यापक इति भावः / व्य०१ उ०। णिञ्जराभावणा स्त्री०(निर्जराभावना) निर्जरातत्त्वपर्यालोचने, (प्रव०) णिजवणा स्त्री०(निर्यापणा) निराधिक्येन यान्ति प्राणिनः प्राणास्तेषां निर्यतां निर्गच्छतां प्रयोजकं निर्यापणा। अष्टाविंशगोणहिंसायाम्, प्रश्न०१ अथ निर्जराभावना आश्र० द्वार प्रश्नार्थव्याख्यानस्य निगमने, आ०म०१ अ०२ खण्ड। "संसारहेतुभूतायाः, यः क्षयः कर्मसंततेः। आ०चूल। ........ णिज्जवणा, पच्चब्भासो णिगमणं ति / "(2932) निर्जरा सा पुनधा, सकामाकामभेदतः / / 1 / / निर्यापना तु दापनादर्शितस्यैवार्थस्य प्रत्याभ्यासः प्रत्युचारण श्रमणेषु सकामा स्या-दकामा शेषजन्तुषु। निगमनम्। विशे०। (णमोकार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1834 पृष्ठे पाकः स्वत उपायाच, कर्मणां स्यात् यदाम्रवत् / / 2 / / व्याख्यातम् ) मीमांसिततया निर्दोषत्वेन निश्चयने, व्य०१ उ०ा नि०चून कर्मणां न क्षयो भूया-दित्याशयवतां सताम्। णिजाअ (देशी) उपकारे, देवना०४ वर्ग 34 गाथा। वितन्वता तपस्यादि, सकामा शमिनां मता / / 3 / / णिजाण न०(निर्याण) यान्ति तदिति यानम्, "कृत्यल्युटो बहुलम्' एकेन्द्रियाऽऽदिजन्तूनां, संज्ञानरहिताऽऽत्मनाम्। // 3 / 3 / 113 / / इति (पाणिनि) वचनात्कर्मणि ल्युट् / निरुपम याने शीतोष्णवृष्टिदहन-च्छेदभेदाऽऽदिभिः सदा।।४।। निर्याणम् / ईषत्प्राग्भाराऽऽख्ये मोक्षपदे, आव०४ अ०। ज्ञा०ा भावे ल्युट् / कष्टं वेदयमानाना, यः शाटः कर्मणां भवेत्। संसारात्पलायने, आ०चू०४अ० अनावृत्तिगमने, औ०। आचा०ा स्था०। अकामनिर्जरामेना-मामनन्ति मनीषिणः / / 5 / / भरणकाले शरीरान्निर्गमे, स्था०३ ठा०४ उ०। नगरान्निर्गमे, स्था०३ ठा०४ उ०। पुरस्य निर्गमनमार्गे, सू०प्र०४ पाहु। च०प्र०ा "रायादियाण तपःप्रभृतिभिर्वृद्धिं, व्रजन्ती निर्जरा यतः। णिग्गमवाणं णिज्जाणिया, णगरगमेवा जं पियंतं णिजाणं' नि०चू०८ उ०। ममत्वं कर्म संसार, हन्यात्तां भावयेत्ततः॥६॥" णिज्जाणकहा स्त्री०(निर्याणकथा) राजकथाभेदे, स्था०४ ठा०२ उ०। प्रव०६७ द्वार। (व्याख्या 'रायकहा' शब्दे द्रष्टव्या) णिज्जराहेउ पुं०(निर्जराहेतु) क०स० कर्मक्षयकारणे, ब०स०। णिजाणमग्ग पुं०(निर्याणमार्ग) निर्वाणस्य मोक्षपदस्य मार्गो कर्मक्षयजनके, पञ्चा० 12 विव०। निर्याणमार्गः / विशिष्टनिर्याणप्राप्तिकारणे, "इणमेव णिग्गंथं पावयणं णिज्जरिज्जमाण त्रि०(निर्जीयमान) नितरामपुनर्भावेन क्षीयमाणे णिजाणमग्गं णिव्वाणमग्गं / " आव०४ अ० धाज्ञा०ा सिद्धिक्षेत्रगमकर्मपुद्गले, भ०१ श०२ उ०। स्था०। नोपाये, भ०६ श०३३ उ०। निर्याणस्य मरणकाले शरीरिणः शरीरान्निर्गणिज्जरिय त्रि०(निर्जरित) सर्वथा क्षयं नीते, तं०। "णिज्जरियजरामरणं, मस्य मार्गो निर्याणमार्गः / पादाऽऽदिके, स्था०। वंदित्ता जिणवरं महावीरं / ' वन्दित्वा कायवाग्मनोभिः स्तुतिं विधाय पंचविहे जीवस्स णिजाणमग्गे पण्णत्ते।तंजहा-पाएहिं, उरूहिं, जिना रागद्वेषाऽऽदिजयनशीलाः सामान्यकेवलिनः, तेषु तेभ्यो वा वरः उरेणं, सिरेणं, सव्वंगेहिं। पाएहिं णिज्जाणमाणे निरयंगामी भवइ, प्रधानातिशयापेक्षया श्रेष्ठो जिनवरस्तम्। तं०। उरूहिं णिज्जाणमाणे तिरियगामी भवइ, उरेणं णिज्जाणमाणे णिज्जवग पुं०(निर्यापक) निर्यापयति तथा करोति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं मणुयगामी भवइ, सिरेणं णिज्जाणमाणे देवगामी भवइ, सव्वंगेहिं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापकः / स्था०८ ठा०। प्राकृतत्वाद्रूपनिष्पत्तिः। णिजाणमाणे सिद्धिगतिपज्जवसाणे पण्णत्ते।
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________________ णिज्जाणंमग्ग 2060- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिज्जुत्ति व्यक्तं, किन्तु निर्याणं मरणकाणे शरीरिणः शरीरान्निर्गमः, तस्य मार्गो | ऽभीष्टयात्रासिद्धये निर्यामकरत्नेभ्यस्तीर्थकृद्यः स्तवचिकीर्षये-दमाह-- निर्याणमार्गः पादाऽऽदिकः, तत्र-(पाएहिं) पादाभ्यां मार्गभूताभ्यां निजामगरयणाणं, अमूढनाणमइकन्नधाराणं ! कारणताऽऽपन्नाभ्यां जीवः शरीरान्निर्यातीति शेषः / एवमूरुभ्या- वंदामि विणयपणता, तिविहेण तिदंडविरयाणं / / मित्यादावपि / अथ क्रमेणास्य निर्याणमार्गस्य फलमाहपादाभ्यां निर्याभकरत्नेभ्योऽहंग्यः, अमूढज्ञाना यथावस्थितज्ञानाः, मननं मतिः शरीरान्निर्यान् जीवो (निरयंगामि त्ति) प्राकृतत्वादनुस्वार इति, संवित्, सैव कर्णधारो येषां ते तथाविधाः, तेभ्यो वन्दे विनयप्रणतनिरयगामी भवति एवमन्यत्रापि सर्वाणि च तान्यङ्गानि च सर्वाङ्गानि, स्त्रिविधन त्रिदण्डमविरतेभ्यः-“शपाऽऽदिभिर्बहुलम् / / (?)" इति तैर्निर्यान् सिद्धिगतिः पर्यवसानं संसरणपर्यन्तो यस्य स सिद्धिगति चतुर्थी / आ०म०११०२ खण्ड। पर्यवसानः प्रज्ञप्त इति / स्था०५ ठा०३उ०। देवानामुत्तरणमार्गस्तु णिज्जाय त्रि०(निर्यात) निश्चयेनापगते, आव०६ अ०॥ सौधर्मेशानाऽऽदीनां कल्पाना मध्यतः, तत्र सौधर्मेन्द्रः स्वकीयात्या णिज्जायकारण त्रि०(निर्यातकारण) निश्चयेन यातमपगतं कारणं प्रयोजनं लकाद् विमानादुत्तरन्नुत्तरेणोत्तरति, ईशानेन्द्रज्ञस्तु स्वविमानात्पुष्पका यस्मिन्नसौ निर्यातकारणः / अपगतप्रयोजने, आव०६ अ०। ज्ञा०। दुतरन् दक्षिणेनोत्तरति / भ०२६ श०२ उ०॥ णिज्जायमाण त्रि०(निर्यत्) निर्याणकारके, “पाएहिं णिज्जायमाणे णिज्जाणियलेण न०(नैर्याणिकलयन) नगरनिर्गमग्रहे, भ०१३ श० 6 उ०। / निरयंगामी भवइ।" स्था०५ ठा०३ उ०। णिज्जाणिया स्त्री०(निर्याणिकी) निर्याणक्रीडायाम, नि०चू० 8 उ०। णिज्जायरूवरयय त्रि०(निर्यातरूपरजत) निर्गतसुवर्णरूप्ये, द्वा० 26 णिज्जामग पुं०(निर्यामक) प्रापके, विशे० कर्णधारे, औ० समुद्रे द्वाला "णिज्जायरूवरयए गिहिजोगपरिवजएजे से भिक्खू।" दश०६ अ०। प्रवहणनेतरि, व्य०३ उ० आ०म०ा आव०। विशेला आ००। रा० णिज्जासपुं०(निर्यास) स्नेहे, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। रसे, सूत्र०२श्रु० 1 अ०। सम्प्रति प्रपञ्चेनार्हता गुणानुपदर्शयन्नाह णिजिण्ण त्रि०(निजीर्ण) क्षीणे, भ०१ श०१ उाक्षीणरसीकृते, भ०१२ अमवीरें देसयत्तं, तहेव निजामगा समुद्दम्मि ! श०४ उ०। छक्कायरक्खणट्ठा, महगोवा तेण वुचंति // 2656 / / णिज्जियसत्तु त्रि०(निर्जितशत्रु) पराजितशत्रौ, रा०ा सूत्र०। आ०म० अ०२ खण्ड / आ०चूल आचा०। (णमोझार' शब्दे-- णिजियसत्तुसेण त्रि०(निर्जितशत्रुसेन) स्ववशीकृतविपक्षनृपतिसैन्ये, ऽस्मिन्नेव भागे 1836 पृष्ठे व्याख्या समुक्ता) उत्तमार्थाऽऽराधकस्य बृ०१ उ० गुणोत्कीर्तनेनोपबृहके, दर्श०४ तत्त्व। णिज्जीव न०(निर्जीव) निर्जीवकरणे, हेमाऽऽदिधातुमारणे, रसेन्द्रस्य पावेंति जहा पारं, सम्म निजामगा समुदस्स। मूर्छाप्रापणे च। एतच एकसप्ततितमा कला। ज०२ वक्ष०ा ज्ञा०ा औ०। स०| भवजलहिस्स जिणिंदा, तहेव जम्हा अतो अरिहा। णिज्जुत्त त्रि०(निर्युक्त) खचिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० औ०। निश्चयेनाप्रापयन्ति नयन्ति यथा येन प्रकारेण पारं पर्यन्तः, सम्यक् शोभनेन ऽऽधिक्येन साधु वा आदौ वा युक्ताः संबद्धा निर्युक्ताः। नियुक्तिविधिना, निर्यामकाः प्रतीताः समुद्रस्य, तथव भवजलधेर्भवसमुद्रस्य, व्यवस्थापितेषु, आ०म०१ अ०१ खण्ड। निश्चयेन प्ररूपिते, आ०म० पारं जिनेन्द्राः प्रापयन्ति, यस्मादेवमतस्तस्मादर्हा नमस्कारस्य / एष / २अ० संक्षेपार्थः / पुनरेवम्-''एत्थणिज्जामगा दुविहा। तं जहा-दव्वणिज्जामगा, णिजुत्ति स्त्री०(नियुक्ति) नियुक्तानामैव सूत्रेऽर्थानां युक्तिः परिपाट्या भावणिज्जामगा य।" (आ०म०) योजनम्, नियुक्तयुक्तिरितिवाच्ये, युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः। दश० 1 अ०॥ तत्र यथा जलधौ कालिकावातरहिते अनुकूले गर्जभवाते निपुण स०। ओघ०। निश्चयेनार्थप्रतिपादिका युक्तिर्नियुक्तिः / आचा०१ श्रु०२ निर्यामकसहिता निश्चिताः पोता ईष्सितं पत्तनं प्राप्नुवनित, एवम् अ०१उ०। सूत्र०। भद्रबाहुस्वामिकृते व्याख्यानग्रन्थे, विशे। मिच्छत्तकालियावा-यविरहिए समत्तगज्जभपवाए। व्याख्योपायभूते सत्पदप्ररूपणताऽऽदौ, अनु०॥ एगसमएण पत्ता,सिद्धिवसहिपट्टणं पोया। ___ साम्प्रतं नियुक्तिस्वरूपाभिधानार्थमाहमिथ्यात्वमेव कालिकावातो मिथ्यात्वकालिकावातः, तेन रहिते निजुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ निजुत्ती। भवाम्भोधौ, तथा सम्यक्त्वमेव गर्जभः प्रवातो यत्र स तथा तस्मिन्, तह वि य इच्छावेई, विभासिउं सुत्तपरिवाडी।।१०५५।। एकसमयेन प्राप्ताः सिद्धिवसतिपत्तनं पोता जीवबोधिस्थाः, अर्हन्निाम यद्यस्मात्सूत्रे निश्चयेनाऽऽधिक्ये न साधु वा आदौ वा युक्ताः कोपकारात्। संबद्धा निर्युक्ता एव सन्तस्ते श्रुताभिधेया जीवाजीवाऽऽदयोऽर्था ततो यथा सांयान्त्रिकः सार्थः प्रसिद्धनिर्यामक चिरगतमपि अनया प्रस्तुतनियुक्त्या बद्धा व्यवस्थापिताः व्याख्याता इति यात्रासिद्ध्यर्थं पूजयति, एवं ग्रन्थकारोऽपि सिद्धिपत्तन प्रस्थितो यावत् / ते नेयं भवति नियुक्तिः / निर्युक्तानां सूत्रे प्रथममेव * प्रतिकूलवायुः कालिकावातः। अपरोत्तरस्यां शुद्धविदिगवातो गर्जभवातः। / संबद्धानां सतामर्थानां व्याख्यारूपा युक्तिर्योजन नियुक्तयुक्तिरिति
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________________ णिज्जुत्ति 2061 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिज्जुत्तिअणुगम प्राप्ते शाकपार्थिवाऽऽदिदर्शनाद् युक्तलक्षणस्य पदस्यलोपान्नियु-क्तिरिति नास्या ईदृशो मातङ्गकुलजन्माऽऽदिको विपाकः, अनया च भर्तृमित्रे भवति। ननु यदि प्रथममेव सूत्रेऽर्थाः संबद्धा एव सन्ति, तर्हि किमितिते प्राघूर्णके समायाते मुखमोटको दत्त आसीद् अनया तु सत्यपि विभवे नियुक्तया व्याख्यायन्ते, संबद्धानां स्वयमेव विनेयवर्गेणावबुध्यमा- भिक्षाचरेष्वागच्छत्सु सदैव नास्तिनास्तीत्यावेद्यो ष्ट, तेनेदृश ईदृशश्च नत्वात? तत आह-(तह वियेत्यादि) यद्यपि सूत्रे संबद्धा एवार्थाः सन्ति, दुःखविपाको जात इत्यादि / तथाऽत्रापि श्रोतृवैचित्र्यं पश्यन् तथाऽपि तान् सूत्रे निर्युक्तानपि अर्थान्, विभाषितुं व्याख्यातु, सर्वानुग्रहप्रवणबुद्धिराचार्यः सूत्रे निर्युक्तानप्यान्नियुक्त्या विभाषते सूत्रपरिपाटी सूत्रपद्धतिः, एषयतीव एषयति प्रयोजयति। इयमत्र भावना- इति / / 1086 // अप्रतिबुध्यमाने श्रोतरि गुरुं तदनुग्रहार्थ सूत्रपरिपाट्येव विभाषितु अथवा-नियुक्तिगाथोत्तरार्द्धमन्यथा व्याख्यायते। मेषयति-''इच्छत इच्छत मा प्रतिपादयितुम्" इतीत्थं प्रयोजयतीवेति / कथम्? इत्याहक्वचित् सूत्रपरिपाटीमिति पाठः। तत्रैवं व्याख्याशिष्य एव सूत्रपरिपाटीम अहवा सुयपरिवाडी,सुओवएसोऽयमेव जदवस्सं। नवबुध्यमानो गुरुमिच्छायां प्रवर्त्तयति-"इच्छत इच्छत मम विभाषितुं सोयव्वं निस्संकिय-सुयविणयत्थं सुबोहं पि॥१०६०।। व्याख्यातुं सूत्रपरिपाटीम्" इति।व्याख्या च नियुक्तिरतः पुनर्योजनरूपा नियुक्तिरित्थमदोषायेति। आ०म०१ अ०१ खण्ड। अथवा-श्रुतपरिपाटी श्रुतस्य विधिः श्रुतस्योपदेशोऽयमेव यदवश्य विस्तरतो व्याख्यातुं भाष्यकारः प्राऽऽह सुबोधमपि श्रुतं निःशङ्कितत्वहेतोविनयोपचारार्थ च मुमुक्षुभिः श्रोतव्यम्। अत एवंभूता सूत्रपरिपाटी यद्यपि सूत्रे निर्युक्ता एवार्थाः सन्ति, तथाऽपि जं निच्छयाऽऽइजुत्ता, सुत्ते अत्था इमीऍ वक्खाया। विभाषितु व्याख्यानयितुमेषयति प्रयोजयतीत्येषोऽत्र भावार्थः तेणेयं णिज्जुत्ती, णिजुत्तत्थाऽभिहाणाओ॥१०८६|| स्वयमेवावगन्तव्य इति / / 1060 // यद्यस्मात्सूत्रे निश्चयेनाऽऽदिशब्दादाधिक्येन, आदौ साधु वा युक्ताः "सूत्रपरिपाटीम्" इति पाठान्तरं वचित् / तत्राऽऽहसंबद्धा निर्युक्ता एव सन्तोऽर्था अनया नियुक्त्या व्याख्याताः, तेन इच्छइ विभासिउं मे, सुयपरिवाडि न सुट् ठु बुज्झामि। तस्मात्कारणादियं निर्युक्तार्थाऽभिधानान्निर्युक्तानां युक्ति-युक्तशब्द नातिमई वा सीसो, गुरुमिच्छावेइ वोत्तुं जे ||1061|| लोपान्नियुक्तिर्भवति // 1056 // 'वा' इत्यथवा, नातिशयेन मतिर्यस्यासौ नातिमतिर्मन्दमतिः शिष्यो अथ प्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाह गुरुमाचार्यम् (इच्छावेइ त्ति) एषयति प्रयोजयति वक्तुम्, 'जे' सुत्ते निजुत्ताणं, निजुत्तीए पुणो किमत्थाणं / इत्यलड्कारार्थः / कथं वक्तुमेषयति? इत्याह-(इच्छह विभासिउं में निद्भुत्ते वि न सव्वे, कोइ अवक्खाणिए मुणइ / / 1087 // त्ति) इच्छत इच्छत विभाषितुंमम श्रुतपरिपाटीं सूत्रपद्धति, नाहमेतांस ननु सूत्र व निर्युक्तानां निबद्धाना सतामर्थानां तद्व्याख्यानार्थ सुष्ठ बुद्ध्ये-प्रथममेव नियुक्तत्वेन सतोऽप्येततदभिधेयानर्थान्मन्दभतिक्रियमाणया नियुक्त्या किं पुनःकार्यम्? न किञ्चिदित्यर्थः / ये हि सूत्रे त्वाद् भवद्भिरव्याख्यातान्नाह सम्यगवगच्छामीत्यर्थः / अथ वाएव विद्यमानार्थाः सन्ति, तान्स्वत एव विनेयवर्गों ज्ञास्यति, प्रक्रमादेवेह नियुक्तिः प्रयोक्त्रीविवक्ष्यते, ततश्वेत्थमक्षरयोजना-यद्यपि अतस्तद्विभाषणप्रवृत्ता वृथैय नियुक्तिरिति भावः / अत्रोत्तरम्-(निज्जुत्ते सूत्रे नियुक्तत्वेन सन्त एवार्थास्तथाऽपि तानप्रतिबुद्ध्यमानः श्रोता यदैवं वीत्यादि) सूत्रे निर्युक्तानपि सतः सर्वानप्यर्थान् कोऽपि / वक्तिनातिमतिर्मन्दमतिरहं सदामपि सूत्रपरिपाटी सुष्टु न बुध्ये तथाविधप्रज्ञापाटवरहितः शिष्यो निर्युक्त्याऽव्याख्यातान्न मुणति सम्यग्नावगच्छामि, अत इच्छतेच्छत प्रभो ! एतां मम विभाषितुमिति। नाऽवबुद्ध्यत इति // 1087 // तदित्थं वदति तस्मिन् श्रोतरि नियुक्तिरेव गुरुं सूत्रपरिपाटीं वक्तुमेषयति ततः किम्? इत्याह प्रयोजयति-इच्छतेच्छतास्मै महानुभावायैतां विभाषितुम् / ततो तो सुयपरिवाडि चिय, इच्छावेइ तमणिच्छमाणं पि। नियुक्तिद्वारेणैव तस्य शिष्यस्य गुरुस्ता विभाषत इति / तदेवं निजुत्ता निजुत्ते वितदत्थे,वोत्तुं तदणुग्गहठ्ठाए॥१०५८|| ते अत्था' इत्यादिप्राक्तननियुक्तिगाथा व्याख्याता / / 1061 / विशेष ततः श्रुतपरिपाट्येव सूत्रपद्धतिरेव विभाषितुमनिच्छन्तमपि तं नंगा आव०ा औ०। आचा०) नियुक्तिकरिमाचार्य तस्य सूत्रस्यास्तिदर्थान् सूत्रे निर्युक्ता- णिज्जुत्तिअणुगम पुं०(निर्युक्त्यनुगम) नियुक्ति मस्थापनाऽऽदि-प्रकारैः नप्यनवबुद्ध्यमाने श्रोतरि तदनुग्रहार्थं तान् वक्तु मेषयतीव एषयति सूत्रविभजनेत्यर्थः, तद्रूपोऽनुगमस्तस्या वाऽनुगमो-व्याख्यानं प्रयोजयति, अतस्तानाचार्यो नियुक्त्या विभाषते, इति तस्याः निर्युक्त्यनुगमः। अनुगमभेदे, (अनु०) साफल्यमिति // 1058|| सच त्रिविधःअत्र दृष्टान्तमाह से किं तं णित्तिअणुगमे? णिज्जुत्तिअणुगमे तिविहे पण्णत्ते। फलयलिहियं पि मंखो, पढइ पभासइ तहा कराऽऽईहिं! तं जहा-निक्खेवनिजुत्तिअणुगमे, उवग्घायनिजुत्तिअणुगमे, दाएइ य पइवत्थु, सुहवोहत्थं तह इह पि / / 1056 / / सुत्तफासियनिजृत्तिअणुगमे। यथा मङ्खः फलके नानाप्रकारं लिखितमपि वस्तु ग्रन्थतः पठति, निक्षेपो नामस्थापनाऽऽदिभेदभिन्नः, तस्य तद्विषया वा नियुक्तिः पूर्वोअर्थतश्च प्रभाषतेव्याचष्टे, शलाकाऽगुल्यादिना च बालगोपाला- क्तशब्दार्था निक्षेपनियुक्तिः, तस्या वाऽनुगमो निक्षेपनियुक्त्यनुगमः / तथा ङ्गनाऽऽदिमुग्धप्रबोधनार्थं प्रतिवस्त्वपरजन्माऽऽचीर्ण कर्मविपाका- उपोद्घातेन व्याख्येयस्य सूत्रस्थ व्याख्या विधिसमीपीकरणमुपोद्घातऽऽदिक दर्शयति / यथा-अन्यजन्मन्यनया भर्त्ता साटिकया वञ्चितस्ते- / नियुक्तिः, तद्रूपस्तस्यावाअनुगम उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः। तथासूत्रस्पृशतीति
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________________ णिजुत्तिअणुगम 2062- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णितहणा सूत्रस्पर्शिका, सा चासौ नियुक्तिः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः / सूत्रनिक्षे- आवश्यकस्य, दशवैकालिकस्य, तथा-भामा सत्यभामेत्यादापनियुक्त्यनुगमाऽनुगतो वक्ष्यते च / इदमुक्तं भवति-अत्रैव प्रागा- विवपदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्-"उत्तरज्झ' इति / उत्तरावश्यकसामायिकाऽऽदिपदानां नामस्थापनाऽऽदिनिक्षेपद्वारेण यद्वाख्यानं ध्ययनग्रहणम्। ततोऽयमर्थः-उत्तराध्ययनाऽऽचारयोः। तथा-सूत्रकृतेकृतं, तेन निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतः प्रोक्तो द्रष्टव्यः। अनु०। उत्त०। सूत्रकृताङ्ग विषयां नियुक्तिं वक्ष्ये। तथा दशानां च दशाश्रुतस्कन्धस्य। आ०म० संघाला विशेष तथा कल्पस्य। तथा-व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य। अत्र परमग्रहणं एतदेव नियुक्तिवैविध्य भाष्यकारोऽप्याह मोक्षाङ्गत्वात्, निपुणग्रहणं त्वव्यसकत्वात् / न खल्वयं व्यवहारो निजुत्ती तिविगप्पा, नासो-वग्घायसुत्तवक्खाणं / मन्वादिप्रणीतव्यवहार इव व्यंसकः, "सच्चपइन्ना खु ववहारा।" इति णिक्खेवस्साणुगया, उद्देसाऽऽईहुवग्घाओ॥६७२|| वचनात् / तथा सूर्यप्रज्ञप्तेर्वक्ष्ये / तथा-ऋषिभाषितानां च नियुक्तिस्विविकल्पा त्रिभेदा / कथम्? इत्याह-(नासोवग्घाय-- देवेन्द्रस्तवाऽऽदीनाम्। अनेकशः क्रियाऽभिधानं शास्त्रान्तरविषयत्वात् सुत्तवक्खाणं ति) न्यासो नामाऽऽदिनिक्षेपः, उपोद्घातः शास्त्रो समासव्यासरूपत्वाच शास्त्राऽऽरम्भस्येत्यदुष्टम्। एतेषां श्रुतविशेषाणां, त्पत्तिः,सूत्रं प्रतीतम्, तेषां व्याख्यानम्-निक्षेपनियुक्तिः, उपोद् नियुक्तिं वक्ष्याम्यहं जिनोपदेशेन, न तु स्वमनीषिकया। कथंभूताम्? घातनियुक्तिः, सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिश्चेत्यर्थः / तत्र निक्षेपनियुक्तिरनुगता इत्याह-आहरणहेतुकारणपदनिवहाम्-इमामन्तस्तत्त्वनिष्पन्ना, अनुक्रान्तापूर्वमेवोक्तेति यावदिति, अत्रैव प्रागावश्यकसामायिका- समासेन संक्षेपेण / तत्र साध्य-साधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमाहरणम्, ऽऽदिपदानां नामस्थापनाऽऽदिनिक्षेपद्वारेण यद् व्याख्यानं कृतं, तेन दृष्टान्त इति भावः / साध्ये सत्येव भवति, साध्याभावे च न भवत्येवं निक्षेपनियुक्तिरनुगता प्रोक्ता, द्रष्टव्येत्यर्थः / उपोद्घातनियुक्तिस्तू- साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणो हेतुः ! हेतुमुल्लङ्घ्य प्रथम दृष्टान्तादेशनिर्देशाऽऽदिभिरिरवगन्तव्येति / / 672 / / भिधानं न्यायप्रदर्शनार्थम्, चिद्धेतुमनभिधाय दृष्टान्त एवोच्यते। यथातान्येवोद्देशाऽऽदीनि द्वाराण्याह गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टाभको धम्मास्तिकायो, उद्देसे निइसे, य निग्गमे खेत्त काल पुरिसे य / मत्स्याऽऽदीनां सलिलमिव / तथा क्वचिद्धेतुरेव केवलोऽभिधीयते, न कारण पञ्चय लक्खण, नए समोयारणाऽणुमए ||973|| दृष्टान्तः, यथा-मदीयोऽयमश्वो, विशिष्टचिह्नोपलब्ध्यन्यथाऽनुपपत्तेः तथा च नियुक्तिकारेणाभ्यधायि-"जिणवयणं सिद्धं चिय, भन्नइ कत्थइ किं कइविह कस्स कहिं, केसु कहं के चिरं हवइ कालं। उदाहरणं / आसज्जउ सोयारं, हेऊ वि कहचि भण्णेज्जा / / 1 / / " इति / कइसंतरमविरहियं, भवागरिसफोसणनिरुत्ती॥९७४|| कारणमुपपत्तिमात्रम्, यथा-निरुपमसुखः सिद्धः, ज्ञानानाबाधकइदं गाथाद्वयमपि पुरस्ताद्विस्तरेण व्याख्यास्यते // 673674 / / प्रकर्षात् / नानाविद्वदड़नाऽऽदिलोके प्रतीतः साध्यसाधनधानुगतो विशेग दृष्टान्तोऽस्ति। आहरणं च हेतुश्च कारणं च आहरणहेतुकारणानि, तेषां श्रुतज्ञाने सर्वा नियुक्तीः संगृह्याऽऽह पदान्याहरणहेतुकारणपदानि, तेषां निर्वहः सङ्घातो यस्यां नियुक्ती सा ते वंदिऊण सिरसा, अत्थपुहुत्तस्स तेहिँ कहियस्स। तथाविधा, ताम्॥१०७४|| 1075 / / 1076 // आ०म०११०१ खण्ड। सुयनाणस्स भगवतो, णिज्जुत्तिं कित्तयिस्सामि॥१०६६।। / णिज्जुत्तिगार पुं०(नियुक्तिकार) चतुर्दशपूर्वधरै श्रीभद्रवाही, तेन हि सर्वा तान् अनन्तरोक्तान तीर्थकराऽऽदीन, शिरसा, उपलक्षणत्वाद नियुक्तयः कृताः / आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०ा नियुक्तिकारिणः पूर्वधरा मनःकायाभ्यां च, वन्दित्वा, किम्? नियुक्ति कीर्तयिष्यामि, कस्य? भवन्ति, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्-नियुक्ति कारिणश्चतुर्दशपूर्वविदो भवन्तीति अर्थपृथक्त्वस्य, अर्थात्कथञ्चिदिन्नत्वात् सूत्रं पृथक् उच्यते, प्राकृतत्वाच ज्ञायत इति। 115 प्र०। सेन०१ उल्ला०। पृथगेव पृथक्त्वम्, अर्थस्तु सूत्राभिधेयः प्रतीत एव, अर्थश्च पृथक्त्वं णिजूद त्रि०(नियूँढ) निष्काशिते, व्य०२ उ०। "णिज्जूढपदुट्टा सा भणेइ।" चार्थपृथक्त्वम्, समाहारो द्वन्द्वः, तस्य, श्रुतज्ञानविशेषणमेतत् सूत्रार्थो सा नियूंढा निष्काशिता सती साधूनामुपरि प्रद्वेषं यायात् / बृ०३ उ०॥ भयरूपस्येत्यर्थः / तैस्तीर्थकरगणधराऽऽदिभिः, कथितस्य प्रतिपादि पूर्वगतादुद्धृत्य विरचिते, दश०१ अ०। पं०व० 'सत्तेक्कगई सत्त वि, तस्य, कस्य? इत्याह-श्रुतज्ञानस्य भगवतः, स्वरूपाऽभिधानमेतत् / णिझूढाई महापरिणाओ / ' आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। सूत्रार्थयोः परस्परं नियोजन संबन्धनं नियुक्तिः, ताम्, कीर्तयिष्यामि उज्झितप्राये,बृ०१उ० प्रतिपादयिष्यामि। णिजूह पुं०(निफूह) गवाक्षे, व्य०१ उ०ा नीत्रे, देवना० 4 वर्ग 28 गाथा। ननु किमशेषश्रुतज्ञानस्य? न किन्तु श्रुतविशेषाणामावश्य णिजूहग त्रि०(निर्वृहक) पूर्वगतोद्धृतार्थविरचनाकर्तरि,दश०१ अ०। काऽऽदीनाम्। अत आह द्वारोपरितनपूर्वविनिगतदारुणि, न०। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। आवस्सयस्स दसका-लियस्स तह उत्तरज्झमायारे। णिज्जूहगय त्रि०(नियूहगत) गवाक्षगते, व्य०१ उ०। सूयगडे निजुत्तिं, वोच्छामि तहा दसाणं च / / 1074 / / णिजहणा स्त्री०(नि!हणा) निष्काशनायां, कर्मशत्रूणामात्मनगकप्पस्स य णिज्जुत्तिं, ववहारस्स य परमनिउणस्स। रान्निर्वासनायाम, "महव्वयउच्चारण णितहणा।" पा० गच्छात् संघाद् सूरियपण्णत्तीए, वोच्छं इसिभासियाणं च।।१०७५।। वा निष्काशनायाम्, व्य०१ उ०॥ एएसिं नियुत्तिं, वोच्छामि अहं जिणोवएसेणं। तिलतुसविभागमित्तो, वि जस्स असुभे न विज्जए भावो। आहरणहेउकारण-पयनिवहमिणं समासेणं / / 1076 / / निजहणाऽरिहो सो, सेसे णिजूहणा नऽस्थि / / व्य०१ उ०॥
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________________ णिज्हणा 2063 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिट्ठाभासि(ण) यस्य गच्छान्नियूंढस्य तिलतुषविभागमात्रोऽपि नियूंढोऽहमित्यशुभो | नास्त्येवेतरजनक्षुण्णोऽयं विकल्प इति। आचा०१ श्रु०३ अ०३उ०) भावो न विद्यते, स नि!हणाया अझै योग्यः / शेषस्य एतद्गुणविकलस्य / पिढेंक (देशी) टङ्कच्छिन्ने, विषमे च / देवना० 4 वर्ग 50 गाथा। निर्वृहणा, नास्ति न कर्त्तव्येत्यर्थः / बृ०१ उ०। णिटुंकिय त्रि०(निष्टङ्कित) निर्धारिते, अष्ट०३२ अटका स्था०। णिजूहित्तए अव्य०(निर्वृहितुम्) अपाकर्तुमित्यर्थे, व्य०। अधुना निष्टङ्कितं प्रायश्चित्तम्"णिजूहितए'' इति व्याचिख्यासुराह-नियूँहणा नामवैयावृत्त्य- तत्थ णं जेसु ठाणेसु जत्थ जत्थ जावइयं पच्छित्तं तमेव स्याकरणं, यदि वा वसतौ दोषाभावे यत्स्थान न ददाति एषा नि!हणा। निर्दृकियं भण्णइ से भयवं ! केणमटेणं भण्णइ-जहाणं तमेव वैयावृत्त्याकरणाऽऽदिना यत्तस्य तपोऽकरणं सा नियूहणेति भावः / व्य०२ निमुकिय भन्नइ? गोयमा ! अणंतराणंतरक्कमेणं इमे पच्छित्त उ०। (ग्लानपाराञ्चिताऽऽदीनां नि!हणा स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या) परित्यागे, सुत्ता-अणेगे भव्वसत्ता चउगइसंसारवारगाओ बद्धपुट्ठणिकास्था०४ ठा०२ उ०। इयदुविमोक्खघोर (पारद्ध) पावकम्मनिगडाइं संचुन्निऊण णिजूहियव्व त्रि०(नियूंहितव्य) ताम्बूलिकपत्रदृष्टान्तेन संघाद् बहिः अचिरा विमुच्चिहिंति, इह अहिगारो विहाणं च गोयमा ! विहग कर्तव्ये, कल्प०६क्षण। इवापरिबुद्धो वजेत्ता नाणदंसणचरित्ताणणासगा घोरपरीसहोवणिज्जोअ (देशी) प्रकरे,देवना०४ वर्ग 33 गाथा। सग्गाईच जिणंतो उग्गाभिग्गहपडिमाए रागदोसेहिं दूरतो विमुक्को णिज्जोग पुं०(निर्याग) परिकरे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०ा यथा पात्रनिर्योगः। रोद्दऽदृज्झाण विवजिओ य विग्गहासु य असतो जो चंदणेण बृ०३ उ० बाहुं आलिंपइ वासिगावज्जो तत्थत्थो संथुणइ, जो य निंदइ, णिज्जोमी (देशी) रश्मी, देवना० 4 वर्ग 31 गाथा। समभावो होज दुण्हं पि,एवं अणिगू हियबलविरियपुरि सक्कारपरक्कमे समतणुमणिलेट् ठुकंचणो देको परिचत्तकलत्तणिज्झर धा०(क्षि) क्षये,"क्षेणिज्झरो वा / / 84 / 20 / / इति क्षयते णामो पच्छित्तसुयं अणेगसुयं अणेगगुणगणाइन्नस्स दढव्वयच णिज्झराऽऽदेशो वा / 'णिज्झरइ,' पक्षे-'झिज्जइ।' प्रा०४ पाद। (प) रित्तस्सएगंतेणं जोग्गस्सेव विवक्खिए पएसे चउकन्नं *निर्झर पुंगाना रलोपः। "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः" ||REDII पन्नवेयव्वं, णो छकन्नं पन्नवेयव्वं, तहा य जस्स जावइएण इति झाकारोपरि जकारः। प्रा०२ पाद / उदकस्य सवणे, भ०५ श०७ पायच्छित्तेणं परमविसोही भवेजा, तं तस्स णं अणुयत्तणाविउ०। स्यन्दने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० स्रोताऽऽदिविवरेषु, अनु०। जीर्ण, रहिएणं धम्मक्करसिएहिं वयणेहिं जहट्ठियं अणूणाहियं, तावइयं दे०ना०४ वर्ग 26 गाथा। चेव पायच्छित्तं पयच्छेज्जा, एएणं अटेणं एवं दुचइजहा णं णिज्झाअ (देशी) निर्दये, देवना० 4 वर्ग 37 गाथा। गोयमा ! तमेव निट्टंकियं पायच्छित्तं भन्नइ / महा०७ अ01 णिज्झाएत्ता अव्य० (निाय) निपूर्वो ध्या दर्शनार्थः / नि-निर् वाणिट्ठवणिया स्त्री०(निष्ठापनिका) परिसमाप्तिकारिकायाम्, यथा पक्षस्य ध्यात्या / "ध्यागोझागौ" ||8|4|6| इति ध्या इत्यस्य ज्झ ऽऽदेशः। / पञ्चदशी, अमावस्या च। ज्यो०४ पाहुण दृष्टेित्यर्थे, प्रा०४ पाद। प्रलोक्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। निश्चयेन णिढवय पुं०(निष्ठापक) समाप्तिकारके दिवसे, आव०६ अ०। ध्यात्वा चिन्तयित्वेत्यर्थे, आचा०१ श्रु०१अ०६उ०। णिट्ठविंसु त्रि०(निष्ठापितवत्) निष्ठां नीतवति, भ० 26 श०१ उ०। *निर्यातृ त्रिका दर्शनानन्तरमतिशयेन चिन्तयति, त्रि०। स्था०६ टा० | णिट्ठविय त्रि०(निष्ठापित) समाप्तिमिते, पं० 202 द्वार। णिज्झाएमाण वि०(निायत्) पश्यति, प्रेक्षमाणे, "आलोपमाणे | णिट्ठवियअट्ठमदट्ठाण त्रि०(निष्ठापिताष्टमदस्थान) निष्ठापितानि क्षयं णिज्झाएमाणे।" आचा०२ श्रु०३ चू०१ अ०। नीतानि अष्टौ मदस्थानानि मानभेदाःजातिकुलरूपबललाभश्रुततणिज्झोड धा०(छिद्) फलाऽऽदीनां वृक्षाऽऽदेरिव विश्लेषणे, पोविभवमदाख्या येनासौ निष्ठापिताष्टमदस्थानः। क्षीणमदे, ग०१ अधि० "णिज्झोडइ।" पक्षे-छिन्दइ, छिनत्ति / प्रा०४ पाद। णिट्ठा स्त्री०(निष्ठा) पर्यवसाने, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। समापने, आच०२ णिज्झोसइत्ता त्रि०(निर्दोषयितृ) पूर्वोपचितकर्मणां क्षपके, आचा० अ०। सारे सद्भावे, आ०चू०१ अ० "एयाणि दव्वाणि णिट्ठ पत्ताणि ''णिज्झोसइत्ता का अरती, के आणंदे?" पूर्वोपचित-कर्मणां | कम्मसिद्धो।" आ०चू०१अ० निझोषयिता क्षपकः, क्षपयिष्यति वा, तृजन्तमेतल्लुडन्तं वा। णिट्ठाण न०(निष्ठान) निष्पत्तौ, नि०चू० १उ०। निष्ठीयतेऽत्र। स्थाल्युट्। कर्मक्षपणायोद्यतस्य चधर्मध्यायिनः शुक्लध्यायिनो वा महायोगीश्वरस्य भक्ताऽऽद्यन्नोपसेचनेदध्यादौ व्यञ्जने, सर्वगुणोपेते, दश०१ अावाचा निरस्तसंसारसुखदुःखविकल्पाऽऽभासस्य यत्स्यात्तदर्शयति-'का | णिट्ठाणकहा स्त्री०(निष्ठानकथा) विकथाभेदे, स्था०४ ठा०२ उ०॥ अरई के आणंदे?" इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारो रतिः, | (व्याख्या भत्तकहा' शब्दे वक्ष्यते) अभिलषितार्थावाप्तावानन्दः / योगिचित्तस्य तु धर्माशुक्लध्यानावेशा-णिट्ठाभासि (ण) त्रि०(निष्ठाभाषिण) सावधारणभाषिणि, आचा०१ वष्टब्धं ध्येयान्तरावकाशस्यारत्यानन्दयोरुपादानकारणाभावाद- श्रु०१ चू०४ अ०१ उ०। निशम्य भाषिणि, आचा०२ श्रु०१ चू०४ नुत्थानमेवेत्यतोऽपदिश्यतेकेयमरतिमि? को वाऽऽनन्द इति? अ०२ उ01
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________________ णिट्ठिक 2064 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिण्हग णिट्ठिक त्रि०(नैष्ठिक) सर्वधर्मप्रकर्षपर्यन्तवर्तिनि, प्रश्न०३ सम्ब० द्वार। णिड (देशी) पिशाचे, दे०ना०४ वर्ग 25 गाथा। णिट्ठिय त्रि०(निष्ठित) निष्ठां गते कृतस्वकार्ये , ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। मोक्षे, | णिडाल न०(ललाट) "पक्चाङ्गारललाटे वा" ||1/47 // इत्यापरिसमाप्ते, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। व्य०। निःसत्ताके, भ०६ देरत इत्त्वं वा।"ललाटेच"॥८/१।२५७॥ इत्यादेर्लस्य णः। 'णिडालं'। श०१3०। क्षयं गते, ध०३ अधि०। कालगते, बृ०२ उ०। आ०म० सिद्धे / प्रा० 1 पाद। भाले, तं०। उत्त०। अलीके, जी०३ प्रति० 4 उ०। जं०। अशनाऽऽदौ , आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०| णिणाय पुं०(निनाद) नितरां नादो महान् घोषः / जी०३ प्रति०४ उ०। निष्ठितशब्दार्थमाह महति घोषे, कल्प०५ क्षण / ज्ञा०ा निर्घोष, आ०म०१ अ०२ खण्ड। असणाऽऽईण चउण्ह वि, आमं जं साहुगहणपाउग्गं / प्रतिध्वनौ, ज०३ वक्ष०ा प्रश्रा तं निट्ठियं वियाणसु, ..............................!! णिण त्रि०(निम्न) "म्नज्ञोर्णः" ||8 / 2 / 12 / / इतिम्नभागस्य णः। नीचे, अशनाऽऽदीनां चतुर्णामपि मध्ये यदाममपरिणतं सत् साधुग्रहण- प्रा०२ पाद। "णिण्णेसु य आससा एया।" नीचभूमिभागे, उत्त० 12 प्रायोग्यं कृतं,प्रासुकीकृतमित्यर्थः; तं निष्ठितं विजानीत। पिं०। अ० शुष्कसरः प्रभृतौ, भ० 15 श०। णिट्ठियह त्रि०(निष्ठितार्थ) विषयसुखनिष्पिपासे, आचा०१०६अ०४ | णिण्णक्खु त्रि०। निस्सारयतीत्यर्थे, 'बहिहावा णिण्णक्खु।" आचा०२ उ०। निष्ठितः समापितोऽर्थः प्रयोजनं यस्यसनिष्ठितार्थः। आचा०१ श्रु० | श्रु०१ चू०२ अ०१ उ०। 5 अ०६ उ०। कृतकृत्ये, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। प्रज्ञा०ा आ०म०। णिण्णगा स्त्री०(निम्नगा) नद्याम्, नीचैर्गामिनि, त्रि०। प्रज्ञा० 1 पाद। णिट्ठियट्ठि(ण) त्रि०(निष्ठितार्थिन) निष्ठितो मोक्षस्तेनार्थी / मुमुक्षौ, | णिण्णय पुं०(निर्णय) निश्चये, आ०म०१ अ०१ खण्डा प्रमाज्ञाने, विशे०। आचा०१ श्रु०५ अ०६उ०। णिण्णार त्रि०(निर्नगर) नगरनिष्क्रान्ते, "अप्पेगइए णिण्णारे करहिंति।" पिट् ठु अ धा०(क्षर) सञ्चाले, "क्षरे: खिरज्झरपज्झरपञ्च- भ०१५ श डणिचलणिट् ठुआः" ||84173 / / इति क्षरेणिठुआऽऽदेशः। | णिण्णामिया स्त्री०(निर्नामिका) ईशानकल्पोपपन्नस्य ललिताङ्गनाम्न णिटुअइ, क्षरति। प्रा०४ पाद। ऋषभदेवाऽष्टमभवजीवस्वयंप्रभानाम्न्यां देव्याम, कल्प०७ क्षण / णिठुर त्रि०(निष्ठुर) नि-स्था-उरच्। "क-ग-ट-ड-त-द-प-श- आ०म०। आ० चू०। तत्कथा ऋषभस्वामिनः श्रेयांसेन 'उसभ' शब्दे ष-स क पामूर्ध्व लुक्" ||82277|| इति षलुक् / प्रा०२ पाद।। द्वितीयभागे भवाष्टककथनावसरे 1133 पृष्ठे गता) मार्दवाननुगते, ग०१ अधि०। प्रस्तरे, ग०२ अधि०। यथा हेक्काप्रधाना णिण्णिमेस त्रि०(निर्निमेष) अचेष्टे, म्रियमाणे, तद्वत्प्रवचनकार्यानु भाषा निष्ठुरा, अशक्यप्रतीकारतया दुर्भदा भाषा निष्ठुरा / रा०ा आचा०। पयोगिनि, स्था०५ ठा०२ उ०। णितुल त्रि०(निष्ठुर) "हरिद्राऽऽदौलः" 1/1254 // इति रस्य पिण्णेह त्रि०(निस्नेह) स्नेहरहिते, "जइससिणेही तो मुण्इ, अह जीवइ लः। अमृदुनि, प्रा०१ पाद। णिण्णेह।" प्रा०४ पाद। णिट्ठवण न०(निष्ठीवन) नासिकामुखेन परित्यागे, दर्श० 1 तत्त्व। णिण्हइया स्त्री०(नैह्रविकी) ब्राह्मलिपिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। स०। कासितश्लेष्माऽऽदिप्रक्षेपणे, दश०२ अ० "निठुवणाइत्ति'निष्ठीव- | णिण्हग पुं०(निव) निमुक्तेऽपलपन्ति अन्यथा प्ररूपयन्तीति निवाः। नाऽऽदौ इह साधवो द्विधागच्छगताः, गच्छनिर्गताश्च। तत्र ये गच्छनिर्ग- स्था०७ ठा०। आ०म०। मिथ्यात्वाभिनिवेशाजिनोक्तार्थस्यापलापकेषु तारते नियमादनिष्ठीवकाः, औपग्रहिकमल्लकाऽऽद्युपकरणासम्भवात् / जमाल्यादिषु, विशेला त्यक्तसम्यग्दर्शनेषु, व्य०१ उ०। गच्छगता अपि ये विधिना निष्ठीव्यन्ति ते अनिष्ठीवका एव, न तेच सप्तप्रायश्चित्तविषयाः / अविधिना खेल्लमल्लके निष्ठीवने दण्डक इव समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्थंसि सत्त पवयणनिसप्तभङ्गाः, दण्डक इवैवचाऽऽद्येषु प्रत्येकं लघुमासः / उत्तरेषु त्रिषु प्रत्येक ण्हगा पण्णत्ता / तं जहा-बहुरया, जीवपएसिया, अव्वत्तिया, रात्रिंदिवपञ्चकम्, सप्तमभङ्ग वर्तिनस्त्वनिष्ठीवका एव, विधिना सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया। निष्ठीवनात् / उपरितनेष्वपि च त्रिषु भङ्गेषु यदि भूमौ निष्ठीव्यति, तदा "समणेत्यादि" कण्ठ्यम्, नवरं प्रवचनमागमं निववतेऽपलपन्त्यन्यथा मासलघु / यच निष्ठीवने प्राणिनां परितापनाऽऽद्युपजायते तन्निष्पन्नं च प्ररूपयन्तीति प्रवचननिह्नवाः प्रज्ञप्ता जिनैस्तत्र / (बहुरय त्ति) एकेन तस्य प्रायश्चित्तम् / आदि-शब्दात्कण्डूयनपरिग्रहः / कण्डूयनेऽपि हि समयेन क्रियाऽध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुत्पत्तेःप्रभूतसमयै श्वोदण्डक इव सप्तभङ्ग कम्, तथैव च प्रायश्चित्तविधिः / व्य०१ उ०। त्पत्तेबहुषु समयेषु रताः सक्ता बहुरताः, दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण निष्ठीवनकर्तरि, स्था०५ ठा० 1 उ०। विशे० इत्यर्थः 1 / तथा जीवः प्रदेश एव येषां तेजीवप्रदेशास्त एय णिशहिअ (देशी) यूत्कृते, देना०४ वर्ग 41 गाथा। जीवप्रादेशिकाः / अथवा-जीवप्रदेशो जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां णिठूह (देशी) स्तब्धे, देना० 4 वर्ग 33 गाथा। ते, तथा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिण इति हृदयम् 2 / तथा अव्य
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________________ টি 2065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिण्हग नाणुप्पत्तीऍ दुबे, उप्पन्ना निव्वुए सेसा॥२३०५।। चतुर्दश वर्षाणि / तथा षोडश वर्षाणि। तथा-(चोदा वीसुत्तरा य दोन्नि सय त्ति) चतुर्दशाधिके द्वे शते, विंशत्युत्तरे च द्वेशते, वर्षाणामिति गम्यते। तथा अष्टाविंशत्यधिकेच द्वेशते, तथा पञ्चैवशतानिचतुश्चत्वारिंशदधिकानि, पर शतानि चतुरशीत्यधिकानि, षट् चैव शतानि नवोत्तराणि भवन्ति / एतावता व्यवधानकालेन ज्ञानोत्पत्तेरारभ्याऽऽद्यौ द्वौ निह्नवी समुत्पन्नौ। शेषास्तुषड्भवन्ति। श्रीमन्महावीरे निर्वृते निर्वाणकालादारभ्य उक्तशेषेण यथोक्तेन व्यवधानकालेनोत्पन्नाः / इदमुक्तं भवति–श्रीमन् महावीरस्य केवलोत्पत्तेश्चतुर्दशभिर्वर्षरतिक्रान्तैर्बहुरताः समुत्पन्नाः / षोडशभिवर्षय॑तिक्रान्तैः जीवप्रदेशाः समुत्पन्नाः / भगवतएव निर्वाणकालाच्छेषेण चतुर्दशाधिकवर्षशतद्वयाऽऽदिना कालेनातिक्रान्तेन शेषा अव्यक्ताऽऽदयो निहवाः समुत्पन्ना इति / / 2304 / 2305 / / विशे०| आ०क०। आ०चू० / आ०म०। (एषां प्रत्येकं विस्तृतव्याख्या स्वस्वस्थाने) (वोटिकस्य च सूत्रानुक्तस्याष्टमनिहवस्य व्याख्या 'वोडिय' शब्दे वक्ष्यते) संप्रति निववक्तव्यतां निगमयन्नाहएवं एए कहिया, ओसप्पिणिए उणिण्हगा सत्त / वीरवरस्स भगवतो, सेसाणं पवयणे नऽत्थि / / 2610 / / एवमुक्तेन प्रकारेणैते ऽनन्तरोदिताः कथिताः प्रतिपादिता अस्यामवसर्पिण्यां निहवाः सप्त। अष्टमस्तु वोटिकः, तुशब्दः समुचये। वीरवरस्य भगवतः प्रवचने तीर्थे / शेषाणां तु तीर्थकृतां प्रवचने (नऽत्थि त्ति) प्राकृतत्वाद् नासन् निवाः। तमस्फुट वस्तु अभ्युपगमतो विद्यते येषां ते अव्यक्तिकाः, संयता-- ऽऽधवगमे संदिग्धबुद्धय इति भावना 3 / तथा-समुच्छेदः प्रसूत्यनन्तरं सामस्त्येन प्रकर्षेण च च्छेदः समुच्छेदो विनाशः, समुच्छेदं ब्रुवत इति सामुच्छेदिकाः, क्षणक्षयिकभावप्ररूपका इत्यर्थः 4 तथा द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रियं, तदधीयते तद्वेदिनो वा द्वैक्रियाः, कालाभेदेन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिण इत्यर्थः५ / तथा जीवाजीवनोजीवभेदात् त्रयो राशयः समाहृताः त्रिराशि, तत्प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिकाः, राशित्रयाऽऽख्यापका इत्यर्थः 6 / तथास्पृष्टं जीवेन कर्म न स्कन्धबन्धबद्धद्रुमबद्धं, तदेषामस्तीत्यवद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपका इति हृदयम् 7 / स्था०७ ठा०। विशे०। निहवकारिणां गामान्याहएएसि णं सत्तण्हं पवयणणिन्हगाणं सत्त धम्मायरिया होत्थाजमाली, तिस्सगुत्ते, आसाढे,आसमित्ते, गंगे,छल्लुए, गोट्ठामाहिले / स्था०७ ठा० / नि०चू०। विशे०। (एषां व्याख्या स्वस्वस्थाने) अथ येभ्यो ये निवाः समुत्पन्नास्तदेतदाहबहुरय जमालिपभवा, जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वत्ताऽऽसाढाओ, सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ / / 2301 / / गंगाओ दोकिरिया, छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती। थेरा य गोट्ठमाहिल, पुट्ठमबद्धं परूवें ति // 2302 / / बहुरता जमालिप्रभवाः, जमालेराचार्यात्प्रभव उत्पत्तिर्येषां ते जमालिप्रभवाः 1 / जीवप्रदेशाः पुनस्तिष्यगुप्तादुत्पन्नाः 2 / अव्यक्ता आषाढात् 3 / सामुच्छेदा अश्वमित्रादिति 4 / गङ्गाद् द्वैक्रियाः 51 षडुलूकात् राशिकानामुत्पत्तिः ६ास्थविराश्च गोष्ठामाहिलाः स्पृष्टमबद्धं प्ररूपयन्ति 7 / 'कर्म' इति गम्यते। "परूविसु वा" इति पाठान्तर वा। ततो गोष्ठामाहिलादबद्धिका जाता इति सामर्थ्याद्गम्यत इति // 2301 // 2302 / / येषु स्थानेष्वेते समुत्पन्नास्तानि क्रमेणाऽऽहएएसि ण सत्तण्हं पवयणनिण्हगाणं सत्त उप्पत्तिनगरे होत्था। स्था०७ठा०। आ०क०। तद्यथासावत्थी उसभपुरं, सेयविआ मिहिल उल्लुगातीरं। पुरमंतरंजि दसउर, रहवीरपुरं च नयराइं // 2303 / / श्रावस्ती, ऋषभपुरं, श्वेतविका, मिथिला, उल्लुकातीरं, पुरमन्तरञ्जिका, दशपुरं, रथवीरपुरं चेति। एतान्यष्टौ नगराणि निहवानां यथायोगमुत्पत्तिस्थानानि बोद्धव्यानि। अष्टमं नगरं द्रव्यलिङ्गमात्रेणापि भिन्नानां सर्वापलापिनां महामिथ्यादृशां वक्ष्यमाणानां वोटिकनिहवाना लाघवार्थमुत्पत्तिस्थानमुक्तमिति // 2303 / / अथ भगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्य परिनिर्वृत-- स्य च कः कियता कालेन निह्नवः समुत्पन्नः? इत्येतत्प्रतिपादयन्नाहचोदस सोलस वासा, चोदा वीसुत्तरा य दोन्नि सया। अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया य चोयाला / / 2304 / / पंचसया चुलसीओ, छच्चेव सया नवुत्तरा होति। मोत्तूणमेसिमेकं , सेसाणं जावजीविया दिट्ठी।। एकेकस्स य एत्तो, दो दो दोसा मुणेयव्वा / / 2611 / / मुक्त्वा , एषामेकं गोष्ठामाहिलं निहवाधर्म, शेषाणां जमालिप्रभृतीनां प्रत्याख्यानमगीकृत्य यावज्जीविका दृष्टिरासीत् / न ते प्रत्याख्यानं गोष्ठामाहिल इवापरिमाणमब्रुवन्नितिभावना / आह-प्रकरणादेवेदमवसीयते किमर्थमस्योपन्यासः? उच्यते-प्रतिदिवसोपयोगिनः प्रत्याख्यानस्यातीवोपयोगित्वान्मा कश्चित्तथैव प्रतिपद्येत, ततो ज्ञाप्यतेनिहवानामपि प्रत्याख्यानविषये इयमेव दृष्टिरिति / (एत्तो त्ति) प्राकृतत्वादमीषा मध्ये एकैकस्य निवस्य द्वौ द्वौ दोषौ ज्ञातव्यौ, मुक्त्वैकमिति वर्तते। तथाहि-बहुरता जीवप्रदेशिकान् प्रत्यूचुर्भवन्तो द्वाभ्यां कारणाभ्यां मिथ्यादृष्टयः। तत्रैकमिदं यद्वदथएकप्रदेशो जीव इति, द्वितीयं क्रियमाणं कृतमिति / जीवप्रदेशिका अपि बहुरतान् प्रत्यपादि-धु′′यमपि कारणद्वयेन मिथ्यादृष्टयः / एकं तावदिदं यद्वदथक्रियमाणमकृतं जीवप्रदेशं न जीव इति प्रतिपद्यध्वे / एवं शेषाणामपि परस्परं भावनीयम्। गोष्ठामाहिलमधिकृत्य पुनरेकैकस्य त्रयो दोषाः / तथाहि-बहुरतान् प्रति गोष्ठामाहिलोऽब्रवीत्कारणत्रयाद्भवन्तो मिथ्यादृष्टयः / तथैकमिदं यत्कृतं कृतमिति बूथ, द्वितीयं प्रतिप्रदेशबद्धं कर्म, तृतीयं यावजीवं प्रत्याख्यानमिति। बहुरता अपि तं प्रत्यवोचन्-- भवानपि कारणत्रयाद् मिथ्यादृष्टिः। एक तावदिदं यत् क्रियमाणं कृतमिति वदति, द्वितीयं स्पृष्टमबद्धं कर्म, तृतीयमपरिमाणं प्रख्यानमिति / एवं सर्वान् प्रति योजनीयम्। अन्ये त्याहुः एकै
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________________ णिण्हग 2066- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णितंब कस्य द्वौ द्वौ दोषौ एवं वेदितव्यौ-एक तावत्स्वयं विप्रतिपन्नाः, द्वितीय सुत्तत्थतदुभयाइं, जो घेत्तुं निन्हवे तमायरियं / परानपि व्युद्ग्राहयन्तीति। लहुया गुरुया अत्थे, गेरुयनायं अबोही य !! नन्वेता दृष्टयः संसाराय, आहोस्विदपवर्गाय? इत्या यः सूत्रार्थतदुभयानि कस्यचित्पाचे गृहीत्वा तमाचार्य निन्हुते शङ्कानिवृत्त्यर्थमाह अपलपतिअपरं कमपि विद्याख्यातमाचार्यमुद्दिशति / अथवा ब्रूयातसत्तेया दिट्ठीओ,जाइजरामरणगब्भवसहीणं। मया स्वयमेवाभ्यूह्य श्रुतं निर्णीतं, केवलं तैर्वाचनाऽऽचार्यः मम मूलं संसारस्य उ, हवंति णिग्गंथरूवेणं // 2616|| दिगमात्रमेव दत्तमिति / अत्र च यदि सूत्राऽऽचार्य निहते, तदा चत्वारो सप्ताप्येता दृष्टयो, वोटिकास्तु मिथ्यादृष्टय एवेति न तद्विचारः। लघुकाः, अर्थे अर्थदायकमाचार्य निढुवानस्य चत्वारो गुरुकाः, जातिजरामरणगर्भवसतीनामिति / जातिग्रहणं नारकाऽऽदिप्रसूतिग्रहे तदुभयाऽऽचार्यमपलपतस्तदुभयं प्रायश्चित्तमिति / अत्र च गेरुकः चरितार्थमिति गर्भवसतिग्रहणमदुष्टम्। मूलकारण, भवन्तीति योगः। मा परिव्राजकः, तस्य ज्ञातं दृष्टान्तः / (बृ०) (स च 'अणिण्हवण' शब्दे भूत्सद्भाविनीनां जातिजरामरणगर्भवसतीनां मूलमिति प्रत्ययः / तत प्रथमभागे 334 पृष्ठे द्रष्टव्यः) "अयमत्थोव–णओ-जहा सो पहावियं आह-(संसारस्स उइति) संसरणं संसारस्तिर्यङ् नरनारकामरभवानु- विज्ञायरियं निन्हवेंतो ओहावणं पत्तो, एवं अन्ने वि अप्पगासं पि भूतिरूपः प्रदीर्घः, तस्यैव, तुशब्दस्यावधार–णत्वात्। केन रूपेणेत्याह- वायणायरियं निन्हवेता इह लोए चेव बहूणं समणसावगाईणं हीलणिज्जा निर्ग्रन्थरूपेण। भवंति, देवयाहि य छलिज्जति त्ति / " (अबोही य त्ति) परलोके अर्थते निवाः किं साधवः, डत तीर्थान्तरीयाः, आहोस्वित मि- अबोधिफलं कर्म गुरुनिह्नवकोऽर्जयति, एवंविधस्य (श्रुतं) नदातव्यम्। थ्यादृष्टयः? उच्यते---न साधवः, यतः साधूनामे क स्याप्याय यत आहयत्कृतमशनाऽऽदि तच्छेषाणां न कल्पते, नैवं निहवानाम्। उवहयमइविण्णाणे, न कहेयव्वं सुयं व अत्थो वा। तथा चाऽऽह नमणी य सयसहस्सो, आविसइ कोत्थु भासस्स / / पवयणनीहूयाणं, तेसिं कारियं जहिं जत्थ। मतिः स्वस्वाभाविकी, विज्ञानं च गुरूपदेशज, मतिविज्ञाने, ते उपहते भज परिहरणाए, मूले तह उत्तरगुणे य ! / 2617 / / दूषिते यस्य स उपहतमतिविज्ञानो गुरुनिहृतः। कथमिति चेदुच्यते-इह (नीहूय ति) देशीवचनमकिञ्चित्करार्थे / ततः प्रवचने पारमेश्वरे / तावद् गृहस्था अपि मिथ्यादृष्टयस्तत्त्वातत्त्वव्यतिकरविवेकविकलाः, यथोक्त क्रियाकलापं प्रत्यकिञ्चित्कराणाम् / अथवा-(नीहूय त्ति) ऐहिकफलार्थमर्थशास्त्रं धनुर्वेदाऽऽदि यस्य सकाशे शिक्षितवन्तस्तं आर्षत्वाद् निद्भुतं, तत्र प्रवचनं निद्भुतमपलपितं यैस्ते प्रवचननि-हुताः। यावजीवं गुरु प्रतिपद्यमानाः सर्वस्यापिलोकस्य पुरतः श्लाघन्ते, न पुनः सुखाऽऽदिदर्शनाद् निष्ठान्तस्य पाक्षिकः परनिपातः। तेषाम्, यदशना- कदाऽपि कस्यापि पुरतो निढवते / स पुनः सर्वज्ञशासनप्रतिपन्नोऽप्यऽऽदि, तेषामुपभागोय कारित यद् यस्मिन् काले यत्र क्षेत्रे, तद्भाज्यं चिन्त्यचिन्तामणिकल्पश्रुतदायकानपि परमगुरून् निहते इत्यतोऽसौ विकल्पनीयम्। परिहरणे कदाचित्परिह्रियते, कदाचिन्नेति। यदि लोको तेभ्योऽप्यधमत्वादुपहतमतिविज्ञानोऽभिधीयते / एवंविधे शिष्ये न नजानाति-यथैते साधुभ्यो भिन्नास्तदा परिहियते, अथ जानाति, तदा कथयितव्यम्, श्रुतं वा सूत्रम्, अर्थो वा तदभिधेयः / अमुमेवार्थ न परिहारः / अथवा-परिहरणा नाम परिभोगः / तथा चोक्तम्- प्रतिवस्तूपमया द्रढयति-(न मणी इत्यादि) (कोत्थु त्ति) आर्षत्वात् 'परिहरणा उवभोगो परिभोगो / ' ततः कदाचित्परिभुज्यते, कौस्तुमो नाम मणिः शतसहस्रो लक्षमूल्यो भासस्य शकुन्ताऽऽख्यस्य कदाचिन्नेति निहवत्वपरिज्ञाने युज्यते, शेषकालं नेति / कथम्भूतं तत् पक्षिणो गलके नाऽविशति, अयोग्यत्वात् एवमस्यापि गुरुनिहोतुरत्यन्ताअशनाऽऽदि तन्निमित्तं कारितमित्यत आह-मूले मूलगुणविषयम्, पात्रभूतस्य श्रुतेस्त्र प्रदानमनुचितमिति न विधेयम् / बृ०१ उ० कर्म०। आधाकर्माऽऽदि, तथोत्तरगुणे उत्तरगुणविषयं च, क्रीतकृताऽऽदि, ततो नि० चू० / अपलापे, आव०४ अ०। सूत्र०। नैते साधवो, नापि गृहस्थाः, नाप्यन्यतीर्थ्याः, यतस्तदर्थाय कृतमे- णिण्हव धा०(निह) अपलपने, "उवर्णस्यावः" / / 8 / 4 / 233 // कान्तेन कल्प्यमेव भवति। अत्र तु भजना ततो व्यक्ता एवेति। इत्युवर्णस्याऽवादेशः / "णिण्हवइ,' निद्भुते / प्रा० 4 पाद। अपलपति, आह-यद्वोटिकानां कारितं, तत्र का वार्ता? उच्यते बृ०१ उ मिच्छादिट्ठीयाणं,जंतेसिं कारियं जहिं जत्थ। निहव पुं० "णिण्हग" शब्दार्थे , स्था०७ ठा०। सव्वं पि तयं सुद्धं, मूले तह उत्तरगुणे य // 2618 / / णिण्हवण पुं०(निहवन) अपलपने, प्रव०६ द्वार (आचार्यापलपनेन का तेषां मिथ्यादृष्टीनां वोटिकानामुपभोगाय यत्कारितमशनाऽऽदि गृहस्थैः | गतिरिति 'अणिण्हवण' शब्दे प्रथमभागे 334 पृष्ठे उक्त म्) कारित मूले मूलगुणविषयमुत्तरगुणे उत्तरगुणविषय, तत्सर्वमपि शुद्धं (आचार्यापलपने प्रायश्चित्त 'णिण्हग' शब्देऽनुपदमेव गतम्) कल्पनीयमिति भावः // 2618|| आ०म० अ०२ खण्ड। (निवाः अपहृतधनाऽऽदिपरधनापहाराऽऽदिकं यैरपहृते न प्रकाशयति ते परलोकस्याऽऽराधकाः, अनाराधका वा? इति 'आराहग' शब्दे निहवनाः / अपहारगोपनच्छलप्रयोगेषु, विपा०१ श्रु०२ अ०। द्वितीयभागे 382 पृष्ठे गतम्) आचार्यापलापिनि, बृ०१ उ०। णितंब पुं०(नितम्ब) पर्वताऽऽदेः कटके, स्वीकटेः पश्चाद् भागे च / निवद्वारं विवृणोति 'णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे।" जं०४ वक्ष०।
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________________ णितिओमाण 2067 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णितियवास णितिओमाण न०(नित्थावमान) नित्यमवमानं प्रवेशः स्वपक्षपर- सहितो वा ज्ञानदर्शनचारित्रैरेवम्भूतश्च सदा युतस्तेन संयमयुक्तो पक्षयोर्येषु तानि तथा / सर्वदा भिक्षूणां गोचराय कृतप्रवेशेषु कुलेषु, भवेदित्युपदेशः / अधीमीति / जम्बूनामानं सुधर्मस्वामीदमाह-भगवतः आचा०। नित्यलाभात् तेषु स्वपक्षः संयतवर्गः, परपक्षोऽपरभिक्षाचरवर्गः सकाशात श्रुत्वाऽहं ब्रवीमि, न तुस्वेच्छयेति। शेषं पूर्ववदिति। आचा०२ सर्वो भिक्षार्थ प्रविशेत्। आचा०२ श्रु०१चू०१अ०१3०। श्रु०१चू०१ अ०१3०1 (अत्र वक्तव्यम् 'अग्गपिड' शब्दे प्रथमभागे 165 णितिय न०(नित्य) ध्रुवे, सतते, निचून पृष्ठे उक्तम्) जे भिक्खू णितियं वंदइ, वंदंतं वा साइज्जइ // 47 // नित्यपिण्डो न भोक्तव्यःजे भिक्खू णितियं पसंसइ, पसंसंतं वा साइज्जइ // 48 // जे भिक्खू णितियं पिण्डं भुंजइ, मुंजंतं वा साइज्जइ // 32 / / 'जे णितिय द्वे सूत्रे, णिचमवट्ठाणातो णितियो। जे भिक्खू णितियं अवळ मुंजइ, भुंजतं वा साइज्जइ॥३३।। गाहा जे भिक्खू णितियं भागं भुंजइ, जंतं वा साइजइ // 34|| जं पुव्वं णितियं खलु, चउव्विहं वणियं तु वितियम्मि। जे भिक्खू णितियं उववभागं मुंजइ, भुजंतं वा साइजइ॥३५।। तं आलंवणरहितो, सेवंतो होति णितिओ उ||१२|| पिंडो भत्तट्ठो, अवड्डो तदड्डी, तस्स अद्धं भागो त्रिभागः, त्रिभागड्ढे दव्वखेत्तकालभावा एतं चउब्विहं इहेव अज्झयणे वितिउद्देसे वणियं, उवड्डभागो। तं णिक्कारणे सेवंतो णितिओ भवति। नि०यू० १३उ०। गाहाणितियपिंड पुं०(नित्यपिण्ड) मया एतावद्दातव्यं, भवता तु नित्यमेव एसेव गमो नियमा, णितिए पिंडम्मि होतऽवड्वे य। ग्राह्यमित्येवं नियमग्राह्ये पिण्डे, स्था० 10 ठा०। भागे य तस्सुवड्डे,पुटवे अवरम्मि य पदम्मि / / 222|| नित्यपिण्ड न गृहीयात् जो गमो णितिए अग्गपिंडे भणितो, सो चेव गमो पिंडादिएसु चउसु वि से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए सुत्तेसु उस्सग्गाववाएण भाणियव्यो। पविसित्तुकामे से जाइं पुण कुलाई जाणेजा-इमेसु खलु कुलेसु सूत्रार्थप्रतिपादनार्थं पिंडगाहाणितिए पिंडे दिजति, णितिए अग्गपिंडे दिज्जति, णितिए भाए पिंडो खलु भत्तट्ठा, अवड्डपिंडो उ तस्स जं अद्धं / दिजइ, णितिए अवड्डभाए दिजइ, तहप्पगाराई कुलाई णिति- तस्सऽव भागमादी, तस्सडमुववभागो उ॥२२३।। याइं णितिओमाणाई णो भत्ताए वा पाणाए पविसेज वा, णि गतार्थव। नि०चू०२ उ०। क्खमेज वा / एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा मिक्खुणीए वा / णितियवास पुं०(नित्यवास) नित्यमवस्थानाद् नित्यः। नित्यवासिनि, सामग्गियं, जं सव्वद्वेहिं समिते सहिते सयाजुए त्ति वेमि। ऋतुबद्धवर्षासु प्रमाणाधिकवासे, निन्। स भिक्षुर्यावद् गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः / स तच्छब्दार्थे , स च जे भिक्खू णितियं वासं वसइ, वसंतं वा साइजइ // 36|| वाक्यार्थापन्यासार्थः / यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात्। तद्यथा उदुबद्धवासासु अतिरिक्तं वसतः णितियवासो भवति। इमेषु कुलेषु, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे। नित्यं प्रतिदिन पिण्ड पोषो दीयते, इदानी नियुक्तिमाहतथाऽग्रपिण्डः शाल्योदनाऽऽदेः प्रथममुद्धत्य भिक्षार्थ व्यवस्थाप्यते, दव्वे खेत्ते काले,भावे णितियं चउव्विहं होति। सोऽग्रपिण्डः, नित्यं भागोऽर्द्धपोषो दीयते। तथा-नित्यमपार्धभागः पोषचतुर्थभागः / तथाप्रकाराणि कुलानि, नित्यानि नित्यदानयुक्तानि, एतेसिंणाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए।।२२४।। नित्यदानादेव (णितिओमाणाइं ति) नित्यं (ओमाण ति) प्रवेशः दव्यखेत्तकालभावेसु णितियं चउन्विहं, एतेसिं जं नानात्वं विशेष, स्वपक्षपरपक्षयोर्येषु तानि तथा इद-मुक्तम्भवतिनित्यलाभात्तेषु स्वपक्षः तमानुपूर्व्या वक्ष्ये। संयतवर्गः, परपक्षोऽपरमिक्षाचरवर्गः सर्वो भिक्षार्थ प्रविशेत्, तानि च संयोगचतुष्कभङ्गप्रदर्शनार्थमाहबहुभ्यो दातव्यमिति तथाभूतमेव पाकं कुर्युः, तत्र चषट्कायबधः / अल्पे दव्वेण य खेत्तेण य, णितियाणितिए चउक्कभयणा उ। च पाके तदन्तरायःकृतः स्यात् / इत्यतस्तानि नो भक्तार्थ पानार्थ वा एमेव कालमावे, दुयस्स व दुए समोतारो॥२२५।। प्रविशेन्निःक्रामेद्वेति / सर्वोपसंहारार्थमाह--(एयमित्यादि) एतदिति दटवतो णितिए, खेत्ततो णितिए, एवं चउभंगो कायव्वो / तत्थ यदादेरारभ्योक्तं, खलुशब्दो वाक्यालकारार्थः / एतत्तस्य भिक्षोः पढमभंगभावणा संथारगाइदव्वाणि कालदुगातीताणि, तम्मि चेव सामग्यं समग्रता, यदुद्गमोत्पादनग्रहणैषणासंयोजनाप्रमाणाङ्गाल- खेले परिभुंजतो णितिओ भवति / पढमभंगो संथारगादिदव्या धूमकारणैः सुपरिशुद्धस्य पिण्डस्योपादानं क्रियते, तद् ज्ञानाऽऽचार- कालदुगातीता अण्णम्मि खेत्ते उपरि जति। वितियभंगो तम्भि चेव सामग्य, दर्शनचारित्रतपोवीर्याऽऽचारसंपन्नता चेति / अथ वैतत्सामाग्यं खेत्ते अण्णे संथारगादि गेण्हति / ततियभंगो नितियं पडुच / सूत्रेणैव दर्शयतियत्सर्वार्थ :सरसविरसाऽऽदिभिराहारगतैः, यदि वा- चउत्थभंगो सुण्णो। एवं कालभावेसु वि चउभंगो कायव्यो / कालओ वि रूपरसगन्धस्पर्शगतैः, समितः संयत इत्यर्थः। पञ्चभिर्वा समितः शुभेतरेषु णितिए, भावओ वि णितिए। तत्थ पढमभंगो कालदुगातीतं च सति रागद्वेषरहित इति यावत् / एवम्भूतश्च सह हितेन वर्तत इति सहितः।। सड्ढादिसु भावपडिबद्धो पढमभंगो, कालदुतातीतं वसति, ण सड्ढातिसु
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________________ णितियवास 2068- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णितियवास रागपडिबद्धो बितियभंगो / कालदुगनिग्गतस्स वि न सड्ढातिसु | भावपडिबद्धो ततियभंगो, चतुर्थःशून्यः, (दुवस्स वदुवे समोतारो त्ति) कालभावदुअरस दव्यखेत्तदुए समोतारः। गाहाकालो दव्वोतरती, जस्स व दव्वस्स सो तु पजाओ। भावो खेत्ते जम्हा, वासादी सुन्नमन्नत्थ।।२२६।। कालो दव्ये समोतरति,जम्हा सो दव्वपजातो, एत्थदव्वकालेसु चउभंगो भावेयव्यो। भावो हेत्ते समोतरति, जम्हा गाइसु भावपडिबंधो भवति / एत्थ वि खेत्ते भावेसु चउभंगो भावेयव्यो। खेत्तकालचउभंगे इमा भावणा-- तम्मि य खेत्ते मासातीतं वसति पढमभंगो, चरिमं उदुबद्धितं जत्थ मासकप्पविया तत्थेव वासंतियाणं बितियभंगो, अन्यकालप्राप्तेरिति। अण्णं भागं पडिवसभंवा संकमंतस्स सचेव, भिक्खायरियाएततियभंगो, चतुर्थः शून्यः। जो दव्वणितिओ सो इमे पडुच / गाहापरिसाडिम परिसाडी, संथाराऽऽहारदुविहमुवधिम्मि। डगलगसरक्खमल्लग-मत्तगमादीसु दव्वम्मि॥२२७|| संथारो दुविहो–परिसाडी, अपरिसाडी य / आहारे तेसु चेव कुलेसु गेण्हति, दुविहो उवही-आहितो. उवग्गहितोय। पासवणखेल्लसण्णातिणिमित्तया / गाहाकालदुगातीताई,संथारादीणि सेवमाणा उ। एसो उ दव्वणितिओ, पुण्णे अंतो बहिं णितो / / 228|| एते संथारगादि दवे कालदुगातीतं अपरिहरंतो णितिओ भवति, स बाहिरियसि वा खेत्तं अंतो मासकप्पे पुण्णे ते चेव संथारगादी बहिं णितो दव्यणितिओ भण्णति। इदाणिं खेत्तणितिओओवासे संथारे, विहारउच्चारउवधिफलगामे / णगरादिदेसरज्जे, वसमाणे खित्ततो णितिए॥२२६।। संथारगोवासे, अहवा संथारो पृथक् परिगृह्यते, विहारो सज्झायभूमी, उच्चारो सण्णाभूमी, कुलगामादि ण मुंचति, पुनः पुनस्तेष्वेव विहरति / एस खेत्तणितिओ। इदाणिं कालणितिओचाउम्मासा उवरिं, एगट्ठाणे वसंति जे भिक्खू / बुड्डिनिमित्ते असती, वसमाणे कालतो णितिए।।२३०॥ उदुवासकालातीतं वसंतो कालणितिओ, बुड्डिणिमित्तं वसतो बहुकालेण वि णितिओण भवति। वुड्डकार्यपरिसमाप्तौ उपरिष्टादसन् नितिओ भवति। इदाणि भावणितिओओवासे संथारे, भत्ते पाणे परिग्गहे सड्ढे। सेहेसु संथयेसु य, पडिबद्धे भावतो णितिए॥२३१।। जेसेहाण तावत्प्रव्रजति, पूर्वापरेणसंथवेण संथुताओवासादिसु सव्वेसु रागं करें तो भावपडिबद्धो भवति। गाहावसहीण एरिसा खलु, होहिति अण्णत्थ णेव संथारो। त्थं भत्तमणुत्तम-सड्ढा सेहादिवा णत्थि।।२३२। अण्णत्थ एरिसा वसही णत्थि तिरागं करेंति, एवं संथारगभत्तपाणससेहाऽऽदिसु वि। इदाणिं दव्वखेत्तकालभावेसु पच्छित्तं भण्णतिउकोसोवधिफलए, देसे रज्जे य वुडवासे य। लहुगा भावे गुरुगा, सेसे पणगं च लहुगो तु / / 233 / / दव्वं पडुच्च उक्कोसोवहिए फलए य चउलहुआ। खेत्तं पडुच देसे रज्जेसु चउलहुआ। काल पडुच्च वासातीते वुड्डवासातीते य चउलहुया। रागेण भावे सव्वत्थ चउगुरुगा। संथारगवजेसु तणेसु डगलपत्थारपल्लएसुव पणगं। सेसे दव्वादिएसु प्रायशो मासलहुयं। गाहासुत्तणिवातो णितिए, चतुविधे मासियं जहिं लहुगं। उच्चारितसरिसाइं, सेसाइँ विगोवणट्ठाए॥२३४।। चउविहे दव्यादि णीयते, जत्थ मासलहुं तत्थ सुत्तणिवातो, सेसा पच्छित्ता शिष्यस्य विगोषणट्टा भणिता, कारणओ पुण दव्वादिचउव्विहं पि णितियं वसेज्ज। ते इमे कारणा दुविहाअसिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व आगाढे। गेलण्ण उत्तिमढे, चरित्तें सज्झाइए असती // 235|| बाहिं असिवं वट्टति अतो कालदुगातीत पि एगक्खेते वसेज / बहिं ओमरायदुट्ठबोहियभए वा आगाढे वसेज, आगाढ़े वा गेलण्णे वसेज, उत्तिमट्ठ परियरगा वा वसेज्जा, बहिया चरगादिसु चरित्तदोसा अतो वसेजा, बहिं वा सज्झाओण सुज्झति, अतो सज्झायणिमित्तं वसेज। असती वा बहिं मासकप्पओग्गा ण, तत्थेव वसेज। चोदगाऽऽह-एगखेत्ते कालदुगातीतं वसमाणा कहं सुद्धचरणा? आचार्याऽऽहएगक्खेत्तणिवासा, कालातिकंतचारिणो जंति। सुद्धचरणणाणा खलु, विसुद्धमालवणं जेणं / / 236 / / एगखेत्ते कालदुगातिकतं पि वसमाणा, तहा वि णिरतियारा, जतो विसुद्धालवणावलंबी, ज्ञानाऽऽवरणाऽऽढ्यं चाऽऽलंवणं / किंचआणाएँ अमुकधुरा, गुणवुड्डी जेण णिज्जरा तेणं / मुक्कधुरस्स ण मुणिणो, सोधी संविज्जति चरित्ते / / 237|| आण त्ति तित्थकरवयणं, जहा तित्थकरवयणातो णितियं ण वसति, तहा तित्थकरवयणाओ चेव कारणा णितिय वसति, स एवं आणाए संजमे अमुक्कधुरो चेव, अमुक्धुरस्स णियमा णाणाऽऽदि-गुणपरिवुड्डी, जेणय तस्स गुणपरिवुड्डी तेण णिज्जरा विउला भवति, जो पुण तप्पडिपक्खे वट्टति, तस्स सोही चरित्तस्स ण विज्जति। इदाणिं गतोऽप्यर्थः स्फुटतरः क्रियतेगुणपरिवुढिणिमित्तं, कालातीते ण हों ति दोसा तु / जत्थ तु पहितो णाणी, ठविज तहियं न विहरेज्जा / / 238|| कालाओ दुगातिकांत ज्ञानादिगुणपरिवृद्धिणिमित्तं वसतो न दोषः / जत्थ पुण बहिं विहरंतो णाणादीणं हाणी हवेज, ण तत्थ विहरेज इत्यर्थः / नि० चू० 2 उ० /
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________________ णितियवास 2066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णितियवास नित्यवासफलम्-ननु किमित्येवमुपदिश्यते? यावता मासकल्पे-न विहरतामवश्यंभाव्येव जीवोपमर्दः, सूत्रार्थोभयहानिरपि जायते, मार्गगमनश्रमसंभवादपरिचितजनादुपयोगिभक्तपानाऽऽद्यसंप्राप्तेर्वा वातपित्ताऽऽदिक्षोभादात्मविराधनासंभवाच प्रत्यक्षं दोष एव दृश्यत इति / प्रयोगश्चात्र-अयुक्तमिदं मासाऽऽदिविहारेण ग्रामानुग्रामभ्रमणमिति पक्षः। संयमाऽऽत्मविराधनाहेतुत्वादिति हेतुः। तथाविध-कष्टसाध्यसावद्यानुष्ठानादिति दृष्टान्तः। यद्यत्संयमाऽऽत्मविराधनाहेतुभूतमनुष्ठानं तत्तत्संयभवतामनारम्भणीयमेव, यथा कृष्यादिसावद्यानुष्ठानम्,तथाभूतं चेदं मासकल्पाऽऽदिना ग्रामानुग्रामभ्रमणमित्युपनयः / अतो न युक्तमिदमिति निगमनम्। न चास्य हेतोरसिद्धत्वाऽऽदिदोषोद्भावनाऽपि कर्तुं शक्यते, पूर्वमेव सूत्रार्थोभयसंयमाऽऽत्मविराधनायाः सप्रपञ्चं प्रतिपादितत्वात्। अन्यचैकत्र निवासे गुण एव दृश्यते यतो मार्गगमनाभावात्समस्तजीवोपमर्दाभावे संयमवृद्धिरुपजायते / व्यायामाभावात्प्रासुकैषणीयोचितभक्तपानलाभसंभवाच्च वातपित्ताऽऽदेः क्षोभावादात्मविराधनाऽपि न भवति। तथाऽऽचार्यनिवासपुस्तकाऽऽद्यविकलपठनका-रणकलापसंभवात् सूत्रार्थोभयवृद्धयः शिष्या दीप्ता भवन्ति। उक्तंच-"आरोग्यबुद्धिविनयोद्यमशास्त्ररागाः, पञ्चाऽऽन्तरा जगति पाठगुणा भवन्ति / आचार्यपुस्तकनिवाससहायवल्भाः, बाह्याश्च पञ्च पठनं परिवर्द्वयन्ति // 1 // " अन्यचागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः। यतः--"पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे। वाससयं पि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया ||1 // " इत्याद्यनेकगुणकलापोपेतत्वाद् नित्यवासस्य, युक्तमेव तत्करणमिति मन्तव्यम्। एवं व्यवस्थितेऽपि यदन्यथापरिकल्पन, तत्कदाग्रहग्रहगृहीतवचन-मिवापकर्णनोयमिति स्थितम्।। अत्रोच्यते-यत्तावत्प्रतिपादितम्-'भासाऽऽदिविहारे' इत्यादिना पृथिव्यादिमर्दाऽऽदिना संयमाऽऽदेविराधनेति दूषणकदम्बकम् / तद् नित्यवासेऽपि समानमेव / यतो विहारपरिहारेण सर्वदैकत्र निवासवता प्रासुकैषणीयवसतिलाभाभावाद् गृहस्थाइवाऽऽश्रयाभावेषु मुक्तसमस्तजीवोपमर्दाऽऽदयः स्वयंग्रहकरणकारणानुमोदनाऽऽदौ प्रवर्तन्ते / ततश्चैषणायामपि जीवनिकायानामाकुट्यापि विराधनोत्पद्यते / ततश्च प्राणातिपात (विरमण) महाव्रतभङ्गनिरर्थकताया अपि शिरस्तुण्डमुण्डनाऽऽदेवैयर्थ्यं स्यात् / अन्यथैकत्र निवासे प्रतिदिनमाहाराऽऽदिदानवन्दनाऽऽदिप्रतिपत्त्योपगृहीतानां साधूनामनादिभवाभ्यासवशवर्तिना प्रतिबन्धाऽऽदयः संभवन्ति। उक्तंच-पडिबंधो लहुयत्तं, न जणुवयारोन देसविन्नाणं। नाऽऽणाराह--णमेए, दोसा अविहारपक्खम्मि" / / 1 / / ततश्च प्रतिबन्धात्संबन्धः, संबन्धाचित्तविप्लुतिः, चितविप्लुतेरकार्यप्रवृत्तिरिति। एवंवाऽतिस्फुटतरा संयमविराधना-यदाच चित्तविप्लुत्या प्रेरितः स्त्रीसेवाऽऽदौ प्रवर्तते, तदा न केवल प्रथमव्रतभङ्गः, अपितु पश्चानामपीति / तथाहि-रमणीरमणमनाःसंकेतस्थाने व्रजन्नागच्छन् वा व यास्यसि, कुतो वा प्रत्यावृत्तः? इति के नचित्पेरितोऽलीकशठोत्तरदानाय वक्ति-उदरबाधा मेऽस्ति, ततः शरीरचिन्तायै गमिष्यामि, तां वा कृत्वा सभागतः, इति वदतो मृषावादः। स्वाम्यादिभिरननुज्ञातमतो निषेवतोऽदत्ताऽऽदानम्। तत्स्नेहात् तु प्राणातिपातमैथुनपरिग्रह (विरमण) व्रतभङ्गोऽपि स्त्रीपरिगहकरणाद्भवति / अन्यच्चसूत्रार्थो भयहानिरपि तदशगस्या तथा--समस्तानां कषायाणां वृद्धिरुपजायतेऽनुरागवशगस्य, तदसप्राप्तौ ज्वराऽऽद्युत्मादसभवादात्मविराधना / प्रवचनोपघातश्चयथैत श्वेतभिक्षवो वदन्तिचेलाञ्चलमपि प्रमादायाः संबन्धिनमस्माभिः परित्यज्यते, व्यापारः पुनरेतेषामीदृशः। प्रयोगश्चात्र-भवभ्रमण-भीरूणां गृहीतव्रतयतीनां समस्तानर्थनिबन्धनो नित्यवास इति अयुक्त एवेतिपक्षः। समस्तप्रमादनिबन्धनत्वादिति हेतुः / गृहवासवदिति दृष्टान्तः। यद्यत्प्रमादनिबन्धनं तत् तद् पुनर्यतीनामयोग्यम्, यथा-गृहवासनिषेधनम्, प्रमादनि बन्धनश्वायमित्युपनयः। ततोऽयुक्तोऽयमिति निगमनम्।नचास्य हेतोरसिद्धताऽऽदिदोषोद्भावना विभावयितुं शक्यते, पूर्वोक्तयुक्तेरतिप्रतीतत्वात्। यथोक्तम्-आगमोऽप्येवमेवेत्यादि, तस्यायुक्ततरतमत्वाद् वक्तुमहानिर्धर्मता चाऽऽवेदिता भवति। यतस्तत्राय प्रक्रमः"जो होज उ असमत्थो, रोगेण व पेल्लिओ झुसियदेहो। सव्वमवि जहा भणियं, कयाइन तरेज काउंजे" ||1|| अस्या भावार्थः यः स्यादसमर्थो विकृष्टतपश्चरणाऽऽदिना, रोगेण च, राजभयाऽदिना प्रेरितः स्वाभाविकशक्तेश्च्यावितः, तथा झुषितदेहो जराऽतिव्याप्तत्वादशक्तिनिविष्टः / किं बहुनोक्तेनैवमादिकारणैः सर्वमपि यथा भणितं यथाऽऽगमे प्रतिपादितं क्रियाऽनुष्ठानं, कदाचनाऽपि यदि कथञ्चिद, विधातुं, (न तरेज त्ति) न शक्नुयावति। 'जे' इति पादपूरणे निपात इति गाथाऽर्थः। तदा कि प्राप्ताऽऽलम्बन इव समस्तमपि त्यजेदेवेत्याह-- 'सो विय निययपरक्कम-ववसायधिइबलं अगूहेंतो। मोचूण कूडचरिय, जयई जइतो अवस्स जई"||१|| अस्या व्याख्या-सोऽपि च पूर्वोक्तकारणैः सकलशक्तिरहितोऽपि निजपराक्रमव्यवसायधृतिबलमगोपयन् कूटचरितं मुक्त्वा , यत-ते यदि शक्तिपराक्रमोचितं विधत्ते, तदा यतिरेवाऽसौ, सुसाधुरेवेति, न पुनरन्योऽसाधुरित्यर्थः / तत इत्थंभूतस्यापि युक्तसंयमानुष्ठानस्यागत्यैवेति काकाऽऽवेदितम्, समर्थस्य पुनः का वार्ता? इति गाथाऽर्थः। अतो हेतोर्नित्यवासमपि समस्तानर्थबीजभूतं विदधाना यदीत्थं भूता भवन्ति, तदैवाऽऽराधना, नान्यथेत्यावेदयन्निदं गाथात्रयमाह"निम्मम निरहकारा, उज्जुत्ता नाणदंसणचरित्तम्मि। एगवखेत्ते वि ठिया, खवेंति पोराणयं कम्मं / / 1 / / जियकोहमाणमाया, जियलोहपरीसहा य जे धीरा। बूढावासे वि ठिया, खवेंति पोराणयं कम्मं / / 2 / / पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे। वाससयं पि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया ||3|| सुगम चेदम, नवरमस्य विवरणं विदधताऽत्राभिहितम्-किमिदमेकार्थिकगाथात्रयम्? उच्यते-अत्यादरख्यापनपरम् / आदरश्चात्र सकलशक्तिरहितत्वाद् जङ्घाबलहीनतया चाऽऽगमनिषिद्धमपि नित्यवास कुर्वन् यदि यथाशक्तयोछच्छति-निर्ममत्वाऽऽदिविशेषणयुक्तो भवति, तदैवाऽऽराधको, नान्यथेत्यावेदितमिति। __आगमनिषेधश्चेतः सूत्रादेवावसीयते-- "साहेउ अट्टमासे, वासासु सभूमिओ निवा जंति। परबलरुद्धे वि पुरे, हावंतो मासकप्पं तु / / 1 / / कालाइदोसओ जइ, तदचओ एस कीरई नियमा। सव्वेण तह वि करइ, संथारग........याईहिं // 2 // वृद्धावासे पि, न यथाकथञ्चिदेव, कुशलः काशावलम्बनतोऽप्यवसेयः।
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________________ णितियवास 2070 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णितियवास यत आगमवचनमेवं व्यवस्थितम्"खेत्तेण अद्धजोयण, कालेण जाव भिक्खवेलं ति। खेत्तेण य कालेण य, जाणसु सपरक्कम थेरं / / 1 / / " अस्या अयं भावार्थ:-यदि जड धाबलहीनताऽऽदिकारणैः प्रभातोत्थितः प्रस्तुतभिक्षाचरवेलायामर्द्धयोजनं गन्तुं शक्नोति, तदा सपराक्रमत्वाद्विहारमेव कार्यते, न नित्यवासम्। यत आह"खेत्तेण अद्धगाउय, कालेणं जाव भिक्खवेलं ति। खेत्तेण य कालेण य, जाणसु अपरक्कम थेरं / / 1 / / " एवं पुनश्चाक्रमणरहितत्वान्नित्यवासं यतनया कार्यते। साचेयलेशतः"मासे मासे वसही, तणडगलाई य अन्न गेण्हति। भिक्खायरियवियारा, जहिं ठिया तत्थ नऽन्नासु // 1 // " अस्या इयमक्षरगमनिका-वातोद्रेकोपद्रुतोऽपि मूर्छाऽऽदिरोगाऽऽघ्राततनुजजाबलहीनतया ज्ञानाऽऽदिग्रहणकारणेन वा नित्यवास कुर्वाणो मासे मासे अन्यां वसति, तृणडगलाऽऽदीनि चान्यानि गृह्णाति, भिक्षा नान्यविभागे, विचारश्च बहिर्भूमियत्र विभागे स्थितास्तत्रैव, नान्यत्रेति गाथार्थः। वसत्यादिविभागासंप्राप्तौ किं कर्त्तव्यमित्याह"अट्टाए जाव एक, करेंति भागं असंथरगाम। अट्ठाए चिय वसहि, विभजती जाव मूलवसहीए" ||1|| अस्या अयं भावार्थ:-(अट्ठाए त्ति) यदि तृणडगलाऽऽदिविभागेनस्थातुं शक्नोति, तदैकमेव ग्राममष्टसप्तषष्ठाऽऽदिहीयमानभागैः प्रकर्वन् यावत्सकलमपि ग्राममेकेनैव विभागेन विधाय वसतिंचान्यान्यां गृह्णाति, तदभावे एकस्यामपि स्थितः संस्तारकंयतीनां विधत्ते, मा चित्तशुद्धेरभावे पापबन्धः स्यादिति / ततस्तच्छुद्धिनिमित्तमागममर्यादापरिपालनार्थ चानयात युक्त्या तिष्ठति, तत आराधको भवतीति गाथाऽर्थः। यत्पुनः पूर्वमेवंविधं प्रतिपादितम्-मासकल्पाऽऽदिना विहरतः संयमाऽऽत्मविराधना, सूत्रार्थो भयहानिरपीति। तदज्ञानविजृम्भितम्। नहि विदितपरमार्थाः संविग्ना मोक्षसुखाभिलाषिण एवं विध परमपुरुषाऽऽसे वितं सकलशास्त्रप्रतिपादितं परमनिर्जराकारणमेकान्ततः प्रभावनाकारणं समस्तभव्यप्राणित्राणक्षममुदितोदितमासकल्पविहारमतिदुष्करमवीरपुरुषाणामेवंविधाऽऽलम्बनजालपरिकल्पनया दूषयन्ति / तथाहि-यत्तावत्प्रतिपादितम् अवश्य मार्ग गतानां पृथिवीकायाऽऽदीनां विराधना संयमविराधना, सा न संभवति / यत ईर्यासमितिसमिताः साधवो भवन्ति / यत उक्तम्-"जुगमेत्तरदिट्टी, पयं पयं चक्खुणा विसोहंतो। अव्वक्खित्ताऽऽउत्तो, इरियासमिओ मुणी होइ॥१॥" अधमार्गे क्वापि सचेतनाया मिश्राया भुवः संभवः, कापि च हरितायाः, संभवो भविष्यति, ततोऽवश्यंभाविनी विराधनेति / न / तत्रावश्यंभाविगमनसंभवे शास्त्रेऽप्यनुज्ञानात्, केवलमत्र प्रायश्चित्तशुद्धेश्व निर्दोष एवेति। यचेर्यायुक्तस्यापि चड्क्रमणकृता विराधनाऽवश्यंभाविनीति भवता संभावितम् / तत्राऽपि न दोषलेशोऽप्यस्ति। यतः"उच्चालियम्मि पाए, इरियासमियरस संकमट्ठाए। आवजेज कुलिंगी, मरेज तं जोगमासज्ज / / 1 / / नहु तस्स तन्निमित्तं, बंधो सुहुमो विदेसिओ समए। अणवज्जो उवओगे-ण सव्वभावेण सो जम्हा॥२॥" इत्यतस्तेषां भगवतां परमसंयमिनां धीरपुरुषचवरितानुगामिनां परीषहोपसर्गदत्तोरस्थलानां मासकल्पविहारिणां नास्त्येव संयमबाधागन्धोऽपि / यच-परिश्रमेत्यादिनाऽऽत्मविराधनेत्युक्तम् / तदपि सुखधीबन्धनं व्यतिरिच्यान्यद् न साधयति / यतः प्रायः प्राणिनां रोगशोकभयभोगाऽऽदयः पूर्वोपात्तकर्मवसतः संभवन्ति, न यथाकथचित्, तत्पुनर्नित्यवासेऽपि समानम् / यदि पुनरेतदुच्यतेविशेषतो बाह्यकारणकलापमासाद्य तदुदयमासादयति, तदा तस्याङ्गीकृतत्वादवश्यवेद्यत्वादात्मविरोधनाऽपि न भवति। यतोऽवश्यवेद्यकर्मणां केनाऽपि त्राणं कर्तुं न शक्यते, अवश्यवेद्यत्वादेव। यच्चोक्तम्-अपरापरग्रामनगराऽऽदिगमने अपरिचितजनसकाशादुचितभक्तपानादेरसंभवे वातपित्ताऽऽदिक्षोभः स्यादिति। तदपि बालप्रलापकल्पम् / यतो व्रतग्रहणकाले तदङ्गीकृतमेव लाभालाभाऽऽदिकम् / यतः सर्वदैव साधूनामयमाशयविशेषः-"लाभालाभेसुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा। स्तुतौ निन्दाविधाने च, साधवः समचेतसः॥१॥ अन्यच्चाऽऽपूर्वापूर्वग्रामनगरा-ऽऽदौ विहारं विदधता शिष्योपधिश्रावकप्रतिबोधाऽऽहाराऽऽदेर्वि-शेषतो लाभः सम्भवति, विशेषदेशनाश्रवणाद्विशेषतो भावसम्भवादिति / तथाहिलोकेऽप्येवमेव दृश्यते-देशान्तराऽऽयातप्राघूर्णकस्य सविशेषस्नानविलेपनचीरप्रदानपर्युपास्तिवचनश्रवणाऽऽदेस्तथैव दर्शनादिति; नित्यवासिना पुनः सर्वाऽभाव एव, असकृ-दायातप्राघूर्णकस्येव / उक्तं च--"अतिपरिचयादवज्ञा, भवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः / लोकः प्रयागवासी, कूपे स्नानं सदाचरति"||१|आगमेऽप्यभाणि-"पडिबंधो लहुयत्तं," इत्यादि। यदपि प्रतिपादितम् सूत्रार्थोभयहानिः स्यादिति। तदपि मिथ्यात्वतिमिरावगुण्ठितचेतसो वञ्चना। यतो न हि विहारवता संयमस्वाध्यायाऽऽद्यनुष्ठानं व्यतिरिच्यान्यत् कर्त्तव्यमस्तिा यः पुनर्विहारे वस्तुपरिकर्मणादौ तव्याघात उद्भावितः,सोऽङ्गीकृत एव; यतः सूत्रार्थोभयाभ्यासोऽपि संयमाऽऽद्यनुष्ठाननिमित्तमेव विधीयते, न जनरजनार्थम् / यत एतदुच्यते- "निचम्मि स सज्झाओ।" अन्यच्च "पैशाचिकमाख्यानं, श्रुत्वा गोपायनं च कुलवद्धाः / संयमयोगैरात्मा, निरन्तरं व्यापृतः कार्यः // 1 // " इति / यदपि मुग्धबुद्धिबन्धनार्थ किञ्चित्प्रयोगश्चेति जल्पितम्। तदपि न विदुषां मनागप्यसुखमुत्पादयति। साक्षाद्धेतोरसिद्धताऽऽङ्गनाऽऽलिङ्गितत्वान्नोत्सहते मासकल्पाऽऽधुचितविहारनिषेधव्यापारान्तरं प्रति, अनेकोपपत्तिभिर्मासकल्पविहारस्य संयम प्रति श्रवणतया समर्थितत्वादिति। अतः स्थितमिदम्मोक्षार्थ ग्रहीतदीक्षेण संयमार्थिना मासकल्पाऽऽदिना विहर्त्तव्यमिति / अस्यार्थस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यामुपदेशमालाविधायकेन भगवता धर्मदासगणिनाऽपि तथैव समर्थितत्वात्। तथा च तत्सूत्रम्"कारणनीयावासे, सुठुतरं उज्जमेण जइयव्वं। जह ते संगमथेरा, सपाडिहेरा तथा आसि" // 1 // अस्यायमक्षरार्थः-कारणे हीनजवाबलत्वलक्षणे नित्यवासः कारणनित्यवासः, कारणनित्यवासे सुष्टुतरमतिशयेन यतितव्यमुद्यमेनाप्रमादेनेत्यर्थः / यथा-ते भगवन्त आगमप्रसिद्धाः संगमस्थविरसूरयः सप्रातिहार्या अप्रमत्ताऽऽदिगुणगणाऽऽवर्जितहृदयतया देवैरपि स्तूयन्ते, तदा, यदाऽसौ भगवान् वद्धवासमगमत्, आसीद् भूयादिति गाथाऽर्थः / दर्श०४ तत्त्व। जाहे वि अपरितंता गामाऽऽगरनगरपट्टणमडंता। तो केइ निअयवासी, संगमथेरं ववइसंति|११|
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________________ णितियवास 2071 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिद्दड्डमज्झ यदाऽपि च परिश्रान्ताः, सर्वथा श्रान्ता इत्यर्थः / किं कुर्वन्तः सन्तः? | णित्तुस त्रि०(निस्तुप) अचोप्पडे, अवग्धारिते. बृ०१ उ०) ग्रामाऽऽकरपत्तनाऽऽद्यटन्तः सन्तः / ग्रामाऽऽदीनां स्वरूपं प्रसिद्धमेव। | णित्तुस त्रि०(निस्तुष) तुषरहिते, तद्वद् विशुद्धे च। प्रश्र०४ सम्ब० द्वार। ततः केचन नष्टनाशका नित्यवासिनः, न तु सर्व एव / किम्? | णित्तेय त्रि०(निस्तेजस्) गतकान्तौ, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ० निर्वीर्य, संगमस्थविरमाचार्य , व्यपदिशन्त्यालम्बनतयेति गाथाऽर्थः / / 11 // भ०६ श०३३ उम कथम्? णित्थरण न०(निस्तरण) पारप्रापणे, जं०३ वक्ष०ा "भरणित्थसंगमथेरायरिओ, सुद्ध तवस्सी तहेव गीअत्थो। रणसमत्था।" आ०म०१ अ०२ खण्ड! जं० पेहित्ता गुणदोसं, नितियावासं पवन्नो उ।।१२।। णित्थरिजंत त्रि०(निस्तीर्यमाण) पर्यन्ते प्राप्यमाणे, संथा 0 इयं चान्यकर्तृकी गाथा सोपयोगा च निगदसिद्धा! कः पुनः संगम- | णित्थाण त्रि०(निस्थान) स्थानभ्रष्टे, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०) स्थानस्थविरः? इत्यत्र कथानकम्-''कोल्लइपुरे नगरे संगमथेरा दुभिक्ख- | वर्जिते, विपा०१ श्रु०३ अ०। तेण साहूहिं विसज्जिया। ते तं नगरं नवहा काऊण जंघारलपरिहीणा णित्थारग त्रि०(निस्तारक) पारगे, "णित्थारगपारगा होहा।" इति विहरंति। नगरदेवया किर तेसिं उवरि पसन्ना। तेसिं सीसो दत्तो नाम वन्दकं प्रति गुरुवचनम्। निस्तारकाः संसारसमुद्रात्, प्राणिनां प्रतिज्ञाया आहिडिउ चिरेण कालेण उदंतवाहओ आगओ। सो तेसिं पडिस्सए न वा पारगाः। संसारसमुद्रतीरगामिनो भवत यूयमित्याशीर्वचनम्। पा०। ध० पविसति निययवासि त्ति काउं / भिक्खावेलाए उग्गाहियं हिंडता | णित्थारणा स्त्री०(निस्तारणा)पारप्रापणायाम्,०३ वक्ष०ा ('परिहार' संकिलस्सति, कुंटोऽयं सट्टकुलाणि नदाएंति। एगत्थ सेट्टिकुले रेवईए शब्दे संयमे सीदतां संयतानां निस्तारणा वक्ष्यते) गहीओ दारओ। छम्मासा रोवंतस्स आयरिएहिं चप्पुडिया कया। मारोव।। णिदंसण न०(निदर्शन) कथञ्चिद् गृह्णतः अभ्युपगच्छतः परानुकम्पया वाणमंतरीए मुक्को। तेहिं तुडेहिं पडिलाभिया जहिच्छिएण। सो विसजिओ। निश्चयेन पुनः पुनदर्शने, स्था०१० ठा०। अनु०। ग०। उत्ता आयरिया सुइरं हिंडिऊण अंतपतंगाहायागया समुट्ठिा। आवस्सय णिदंसिय त्रि०(निदर्शित) नितरामनुज्ञाते. षो०६ विव०। कथञ्चिद् गृह्णतः आलोचणाए आयरिया भणंति-आलोएहि / सो भणति-तुज्झेहिं सम परयाऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्दर्शिते, ग०२ अधि०। अनु०॥ हिंडिओ ति। ते भणति-धातिपिंडो ते भुत्तो ति। भणतिमम अतिसुहु णिदरिसण न०(निदर्शन) निश्चयेन दर्श्यतेऽनेन दान्तिक एवार्थ इति माणि पाससि त्ति पइलो। देवयाए अड्डरत्ते वासं, अंधकारं च विउटिवयं / निदर्शनम्। दृष्टान्ते, दश० 1 अ०॥ एस हीलेइति / आयरिएहिं भणिओ-एहि / सो भणइ-अंधयारो त्ति / णिदा स्त्री०(निदा) निदानं निदा। प्राणिहिंसा नरकाऽऽदिदुःखहेतुरिति आयरिएहिं अंगुली दाइया पज्जलिया आउट्टो आलोए त्ति। आयरिया वि जानतोऽपि, यद् वा साधूनामाधाकर्म न कल्पते इति परिज्ञानवतोऽपि नवभागे परिकहिति। एवमयं पुट्ठाऽऽलंबणो ण होइ, सव्वेसिं मंदधम्माण जीवानां प्राणव्यपरोपणे, पिं०। नियतं दानं शुद्धिर्जीवस्य 'दैप्' शोधने मालंबणं ति" // 12 // इति वचनाद्, निदा / ज्ञाने, आभोगे, तद्युक्ता वेदनाऽपि निदा। आभोगआह च वत्या वेदनायाम, भ०१६ श०५ उ०। ओमे सीसपवासं, अप्पडिबंधं अजंगमत्तं च। णिदाह (निदाघ) नितरां दह्यतेऽत्र / नि-दह-घञ्। न्यक्वादि-त्वात् न गणें ति एगखित्ते, गणेति वासं निअयवासी।।१३।। कुत्वम्। उष्णे, घमें ,धर्मकालेचा वाचा लोकोत्तरीत्या श्रावणाऽऽदि'ओमे' दुर्भिक्षे, शिष्यप्रवासं शिष्यगमनं, तथा तस्यैवाप्रति- | गणनया एकादशे लौकिकरीत्या ज्येष्ठाऽऽख्ये मासे, आव०५ अ०। बन्धमनभिष्वङ्गमजङ्गमत्वं च वृद्धत्वं, चशब्दात्तत्रैव क्षेत्रविभागभजनं च / *निदाह पुं०। अधिको दाहो निदाहः / असाधारणदाहे, आव०५ अ०। इदमालम्बनजालन गणयन्ति नापेक्षन्ते, नाऽऽलोचयन्तीत्यर्थः / किंतु णिइंझाण न०(निद्राध्यान) निद्रापरतन्त्रस्य ध्यान निद्राध्यानम् / एकक्षेत्रे गणयन्ति वासं, नित्यवासिनो मन्दधियः। इति गाथाऽर्थः / / 13 / / स्त्यानद्धिनिद्रया महिषमासभक्षिमोदकाभिलाषिहस्तिदन्तोत्पाटआव०३ अ०। ध००। कारि-प्राक्कुम्भकारत्वाभ्यस्तमृत्पिण्डबोटनवत् साधुमस्तकत्रोटिणितियावाइ(ण) त्रि०(नित्यावादिन) नित्यो मोक्षो यत्र गताना वटशाखाभेदिसाधूनामिव दुर्व्याने, आतु। पुनरागमनाऽऽदि नास्ति / नित्यतयाऽवस्थितिर्यत्रास्ति तन्निषेध णिद्दक्खय पुं०(निद्राक्षय) स्वापप्रमोक्षे, निद्राक्षयेण सुप्तोऽपि बुध्यते। प्ररूपके, दशा०६ अ० "णितिया सव्वभावा मंगुलीणं।'' उपा० ६अ। स्था०५ ठा०२ उम णित्त न०(नेत्र) नयने, लोचने, स्था० 10 ठा०। णिद्दड्ड पुं०(निर्दग्ध) सीमन्तक प्रभान्नरके न्द्रकात्पूर्वस्यामावलि-- णित्तल त्रि०(निस्तल) अनिवृत्ते, "तेणं णित्तलं मणिरयणं अस्सादेति।' कायामकविंशेऽपक्रान्तनरके, स्था०५ ठा०२ उ०। 'माया' शब्दे भ०१५ श उदाहरिष्यमाणायां रण्डायाम्, स्त्री०। महा०२ चू० णित्तिरडिअ (देशी) त्रुटिते, दे०ना० 4 वर्ग 41 गाथा। णिहड्डमज्झ पुं०(निर्दग्धमध्य) सीमन्तकमध्यादुत्तरस्यामाणित्तिरडी (देशी) निरन्तरे, देना०४ वर्ग 40 गाथा। वलिकायामेकविंशेऽपक्रान्तमहानरके, स्था०६ ठा०।
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________________ णिद्दड्डावत्त 2072 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिद्देस णिड्डावत्त पुं०(निर्दग्धाऽऽवर्त) सीमन्तकाऽऽवर्तात् पश्चिमायाम- निदाएज वा, पयलाएज वा, जहा हसेज्जा तहा, णवरं दरिसकविंशेऽपक्रान्तमहानरके, स्था०६ ठा। णावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं निदाएइ वा, पयलाएइ वा, से णिद्दड्डोसिट्ठ पुं०(निर्दग्धावशिष्ट) सीमन्तकावशिष्टादक्षिणस्यामा णं केवलिस्स नत्थि, अण्णं तं चेव // वलिकायामेकविंशेऽपक्रान्तमहानरके, स्था०६ ठा०। "छउमत्थे" इत्यादि।(णिद्दाएन व त्ति) निद्रां सुखप्रतिबोधलक्षणां, णिद्दय त्रि०(निर्दय) निष्करुणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। निष्कृपे, प्रश्न०१ कुर्यात् निद्रायेत् / (पयलाएज व ति) प्रचलां ऊर्द्धस्थितनिद्राकरणआश्र० द्वार। निघृणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। लक्षणां कुर्यात् प्रचलायेत् / भ०५ श०४ उ०॥ णिद्दर पुं०(निर्दर) कन्दरायाम्, हैमेऽभिधानचिन्तामणौ / नितरां द्रान्ति गच्छन्ति कुत्सितामवस्थामिहामुत्र चानयेति निद्रा। णिद्दलण न०(निर्दलन) मर्दने, आचा०१ श्रु०१ अ०४ उ०। तद्वशाद् प्रदीपनकाऽऽदिषु विनाशमिहैवानुभवन्ति / धर्मकार्येष्वपि शून्यमानसत्वान्न प्रवर्तन्ते इति। अक्षिसङ्कोचनरूपायाम, सूत्र०२ श्रु०२ णिदह धा०(विगल) वि-गल / "विगले थिप्प-णिटु हो" अ० सुप्ततायाम्, उत्त० 4 अ० आ०म० "जागरिता धम्मीणं, // 5 / 4 / 175|| इति विगलतेर्णिबहाऽऽदेशः। 'णिद्दहइ / पक्षे 'विगलइ'। अधम्मियाणं च सुत्तिया सेया / वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो विगलति / प्रा०४ पाद। जयंतीए // 206 / / "( इति 'जागरिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1448 णिवा स्त्री०(निद्रा) 'द्रा' कुत्सायां गतौ / नियतं द्राति कुत्सित पृष्ठे,'जयती' शब्दे च 1416 पृष्ठ चिन्तितम् ) त्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यभनयेति निद्रा।'"षिद् भिदादिभ्योऽड्" णिद्दाण त्रि०(निद्राण) सुप्तप्रमत्ते, प्रति०] / / 3 / 3 / 104 // इति अङ् प्रत्ययः स्वापावस्थाविशेषे, कर्म०६ कर्म०। णिद्याणिवा स्त्री०(निद्रानिद्रा) निद्रातोऽतिशायिनी निद्रा निद्रा-निद्रा / प्रव०। पा०। पं०सं०। उत्त०। स्था०। मयूरव्यसकाऽऽदित्वान्मध्यमपदलोपी समासः / कर्म०१ कर्म०। सुहपडिबोहा णिद्दा, ............................(11) शाकपार्थिवाऽऽदित्वान्मध्यमपदलोपी वा समासः / स्था०६ ठा०। सुखेनाकृच्छ्रेण नखच्छोटिकामात्रेणाऽपि प्रतिबोधो जागरणं स्वप्तुर्यस्या दुष्प्रबोधायां स्वापावस्थायाम, कर्मा स्वापावस्थायां सा सुखप्रतिबोधा निद्रा, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रानिद्रास्वरूपमाहकारणे कार्योपचारान्निद्रेत्युच्यते। कर्म०१ कर्म०। अनु०। प्रज्ञा०। निद्रा .............,णिद्दाणिद्दा यदुक्खपडिवोहा।(११) पाविधानिद्रा 1, निद्रानिद्रा 2, प्रचला 3, प्रचलाप्रचला 4, दुःखेन काटन बहुभिर्घोलनाप्रकारैरत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैतन्यत्वेन स्त्यानर्द्धिश्च 5 इति / बृ०४उ० स०। (आसां पृथक् पृथक् व्याख्या प्रतिबोधो यस्यां सा दुःखप्रतिबोधा। कर्म०१ कर्म०। प्रव०ा तस्यां हि तत्तच्छब्दे) चैतन्यस्यात्यन्तमस्फुटतरीभूतत्वाद् बहुभिर्घोलनाप्रकारैः प्रबोधो णिद्दाऽऽदिचउक्कं पडिसिद्धकाले आयरमाणस्स पच्छित्तं भण्णति भवत्यतः सुखप्रबोधनिद्रातोऽस्या अतिशायिनीत्वं, तद्विपाकवेद्या दिवसें णिसि पढमें चरिमे, चतुक्क आसेवणे लहूमासो। कर्मप्रकृतिरपि निद्रानिद्रा / प्रव०२१६ द्वार। कर्म०। पं०सं०। उत्त०। आणऽणवत्थुडहो, विराधणा णिहवुड्डी य॥१३४|| नि०चू०स्था०। प्रज्ञा०। प्रव० स०) दिवसतो धउसु वि जामेसु. णिसा रात्री, ताए पढमजामे, चरिमे वा , णिद्दापमाय पुं०(निद्राप्रमाद) क०स० प्रमादकारणीभूतनिद्रायाम्, जामे, चउक्कं णाम-णिहा, णिवाणिद्दा, पयला, पयलापयला। आसेवणं "निद्राशीलो न श्रुतं नाऽपि वित्तं, लब्धुं शक्तो हीयते चैष ताभ्याम् / णाम-एतासुबट्टति। तत्थ से पत्तेगं चउसु विमासलहुं / णिहाए दोण्ह वि / ज्ञानद्रव्याभावतो दुःखभागी, लोकद्वैते स्यादतो निद्रयाऽऽलम्॥१॥" लहुँ, अतिणिहाए कालगुरुं / पयलाए तवगुरुं / अतिपयलाए दोहिं वि इति / स्था०६ ठा०। गुरुं / सुवंताण य इमे दोसा-भगवता पडि-सिद्धेसु जओ आणाभंगो कओ | णिद्दामत्त त्रि०(निद्रामत्त) निद्राऽभिभूते, आव०५ अ०॥ भवति, आणाभंगेण य चरणभंगो। जतो भणियं-"आणाए चिय चरणं, णिद्दायण न०(निद्रायण) निषण्णस्य स्वप्नावस्थायाम, बृ०३ उ०। तब्भंगे जाण किं न भग्गं तु?" अणवत्थदोसो य-एगो पडिसिद्धकालेसु / णिवारिय त्रि०(निर्दारित) विस्फारिते, प्रश्न०३ आश्र०। द्वार / सुवतो, अण्णो वितं दटुं सुवति, "एगेण कयमकजं,करेति तप्पचया निष्कासिते, "निद्दालियग्गजीहे।" उपा०२ अ०। अण्णो।"उड्डाहोय भवति-दिवसे सुवंतोय दिट्टो असंजएहिं चिंतयति- |णिद्दिट्ठ त्रि०(निर्दिष्ट) कथिते, विशे० त०। प्रतिपादिते, दर्श०३ तत्त्व। जाहे एस णिक्खित्त सज्झायज्झाणजोगो सुवति, ताहे लक्खिजति- ___ आवादर्शिते, पञ्चा०३ विव०। रातो रतिकिलंतो, एवं उड्डाहो भवति। अहवा भणंतिण कम्म,ण धम्मो, णिबुद्धिया स्त्री०(निर्दुग्धिका) दुग्धरहितायाम्, तं०॥ अहो सुव्वइत्तं / विराहणासुत्तो आलीवणगे डज्झेजा। णिहवुड्डो य। यत णिद्देस पुं०(निर्देश) निर्देशनं निर्देशः। विशेषाभिधाने, यथा आवश्यके उक्तम्- 'पशवर्द्धन्ति कौन्तेय!, सेव्यमानानि नित्यशः / आलस्य मैथुन सामायिकमिति / अनु०। आ०म० "सामाइयं ति निद्देसो त्ति।" निद्रा, क्षुधा क्रोधश्च पञ्चमः // 1 // '' नि० चू० 1 उ०। बृ०। (उदकतीरे (तत्स्वरूपम् 'उद्देश' शब्दे द्वितीयभागे 766 पृष्ठे उक्तम्) (निर्देशनिनिद्रापञ्चककरणनिषेधो 'दगतीर' शब्दे वक्ष्यते) क्षेपोऽपि तत्रैवोक्तः) छद्मस्थो निद्राति, प्रचलायतीत्याह यकाभ्यां चोद्देशनिर्देशाभ्यामिहाधिकारस्तदाहछउमत्थे णं भंते ! मणूसे निदाएज वा, पयलाएज वा ? हता! औदइओ खइओ त्ति व,नाणं चरणं ति भावनिद्देसो।
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________________ णिद्देस 2073 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिद्देस एत्थ विसेसाहिगओ, समासउद्देसनिद्देसो।।१५०२।। अज्झयणं उद्देसो, तं चिय सामाइयं ति निद्देसो। बुद्धीऍ जहासंभव-माजोज्जं सेसएसं पि॥१५०३।। औदयिको भावः, क्षायिको भाव इत्यादि / अथवा-ज्ञानं, दर्शन, चारित्रमित्यादिको ज्ञानाऽऽदीनां क्षायिकक्षायोपशमिकभाववृत्तित्वाद्भावनिर्देशः / इह च प्रत्येकमष्टविधे उद्देशे निर्देशे च समासोद्देशः, समासनिर्देशश्च विशेषेणाधिकृतः / तथाहि-प्रस्तुतेऽध्ययनम्, इत्येष समासोद्देशः, सामायिकमिति च विशेषाभिधानरूपत्वात्समासनिर्देशः। एवं स्वबुद्ध्या यथासम्भवं शेषेष्वपि श्रुतस्कन्धचतुर्विशतिस्तवाऽऽद्यध्ययनेष्वायोज्यम्, यथा श्रुतस्कन्ध इति समासोद्देशः, आवश्यकमिति समासनिर्देश इत्यादि / / 1502 / / 1503 // उत्तरगाथासंबन्धनार्थमाहसामाइयं नपुंसय-मस्स पुडं थी नपुंसगं वा वि। निविट्ठा तत्थिच्छइ, कं निद्देसं नओ को णु? ||1504|| इह सामायिकमिति नपुंसकतया रूढम् / अस्य च त्रिविधो निर्देष्टा उच्चारयिता, स्त्रीपुन्नपुंसकभेदात् / तत्रेदं नयैर्विचार्यतेको नयः के निर्देशमिच्छति? किं निर्देश्यवशात्, निर्देशकवशाद्वा? इति विनेयः पृच्छतीति गाथाऽर्थः / / 1504 / / अरिंभश्च प्रश्न सत्याहदुविहं पि नेगमनओ, निद्दिढं संगहो य ववहारो। निद्देसयमुझुसुओ, उभयसरिच्छं च सहस्स।।१५०५।। नैके गमा वस्तुधर्मपरिच्छेदा यस्याऽसौ ककारवर्णनाशान्नैगमः, अनेकप्रकारवस्त्वभ्युपगमपर इत्यर्थः / नैगमश्चासौ नयश्च नैगमनयः। स द्विविधमपि निर्देश्यवशान्निर्देशकवशाच निर्देशमिच्छति, इति शेषः, लोकव्यवहारपरत्वात्, अनेकगमरूपत्याचस्य नयस्य / लोके च निर्देश्यवशात्, निर्देशकवशाच निर्देशप्रवृत्तिर्दृश्यते तत्र निर्देश्यवशाद् यथा-'वासवदत्ता, तरङ्ग वती, प्रियदर्शनाकथा' इत्यादि। निर्देष्ट्रवशात्तु मनुना प्रणीतो ग्रन्थो मनुः, अक्षपादेनोक्तोऽक्षपाद इत्यादि। लोकोत्तरे तु निर्देश्यवशात् षट्जीवनिकायप्रतिपादकमध्ययनं षट्जीवनिका, साध्वाचारप्रतिपादको ग्रन्थ आचार इत्यादि। तथा निर्देशकवशानिर्देशो यथा-कपिलेन प्रणीतं कापिलीयमध्ययनं, हरिकेशिना प्रणीतं हरिकेशीयं, केशिगौतमाभ्यामभिहितं कैशिगौतमीयं, नन्दिसंहिता, जिनप्रवचनमित्यादि। एवं सावधविरमणरूपं सामायिक रूढितो नपुंसकमिति कृत्वा निर्देश्यवशान्नैगमो नपुंसकनिर्देशमेवास्य मन्यते। यथा-सामायिक नपुंसकमिति / तथा सामायिकं निर्देष्टुः स्त्रीपुनपुंसकलिङ्गत्वात्तद्वशात्सामायिकरय त्रिलिङ्ग ताऽप्येतन्मतेन भवति। यथासामायि-कं स्त्री, सामायिकं पुरुषः, सामायिकं नपुंसकमिति। यथा वा देवदत्ताऽऽदिना घटाऽऽदिशब्दे समुचारिते स घटाऽऽदिशब्द उच्चारयितृदेवदत्ताऽऽदिपरिणामत्वाद्देवदत्ताऽऽदिशब्दत्वेन टयपदिश्यते, तथा तदभिधेयपृथुबुध्नोदराऽऽद्याकारघटाऽऽदिपदार्थपरिणाम-त्वाद् घटाऽऽदिशब्दत्वेनापि लोके निर्दिश्यते / एवं स्वाभिधेयसावद्यविरमणपर्यायत्वात्सामायिकस्य नैगमो नपुंसकनिर्देशं मन्यते / अभिधायक स्त्रीपुरुषाऽऽदिपरिणामत्वात्तु लिङ्ग त्रय निर्देशमप्य स्याभ्युपगच्छति, यथा- 'सामायिकं स्त्री' इत्यादि। आह–'दुविहं पि णेगमणओ' एतावन्मात्रोक्तो निर्देश्यवशाद्, निर्देशकवशाच द्विविध निर्देशमिच्छतीति कुतो लभ्यते? इति / अत्रोच्यते-"निद्दिष्ट संगहो य ववहारो" इतिवचनात्। अत्र ह्ययमर्थः-निर्दिष्टमभिधेयं वस्त्वङ्गीकृत्य संग्रहव्यवहारौ निर्देशमिच्छतः, निर्देश्यपर्यायत्वात् वचनस्य, इत्यादियुक्तिश्च भाष्ये वक्ष्यते / तदिद निर्दिष्ट वस्त्याश्रित्येतिवचनात्प्रागपि "दुविह पि' इत्यत्र निर्दिष्ट निर्देश-कवशानिर्देश इति गम्यते / (निद्देसयमुज्जुसुओ ति) निर्दिशतीति निर्देशको वक्ता, तमगी कृत्य ऋजुसूत्रो निर्देशमिच्छति / यथा-'सामायिकं स्त्री' इत्यादि। वक्तृपर्यायत्वाद्वचनस्येत्यादि युक्तिस्त्रापि भाष्येऽभिधास्यते / (उभयसरिच्छं च सद्दस्स त्ति) उभयमिह निर्देश्यं निर्देशकं च वस्तु तस्योभयस्य सदृशं समानलिङ्गमेवाऽऽश्रित्य शब्दनयस्य, निर्देशप्रवृत्तिरिति गम्यते। यदि हि निर्देश्यं नपुंसकं, तदा निर्देष्टाऽपि स्त्रीपुनपुंसकलक्षणो नपुंसकमेव, वक्तुर्वाच्योपयोगानन्यत्वेन तद्रूपत्वात् / उपयोगप्रधाना हि शब्दनयाः, ततो यो यत्रोपयुक्तः स तद्रूप एव, यथाऽग्न्युपयुक्तोऽग्निः, तथा च सति स्त्रीपुरुषावपि यदारूढितो नपुंसके सामायिके उपयुक्तौ भवतः, तदा निर्देश्यनपुंसकोपयुक्तत्वान्नपुंसकमेव, तदुपयोगानन्यत्वेन तद्रूपत्वादिति। स्त्रीपुरुषौ वा नपुंसकं ब्रूत इत्यस्य त्वर्थस्य शब्दनयमतेनासम्भव एवेति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 1505 / / अथ विस्तरार्थमभिधित्सुर्भाष्यकारः प्राऽऽहजं संववहारपरो-ऽणेगगमो णेगमो तओ दुविहं / इच्छइ संववहारो, दुविहो जं दीसए पायं / / 1506 / / यद्यस्माल्लोकव्यवहारपरोऽनेकगमश्च नैगमनयः, ततस्तस्मानिर्देश्यवशानिर्देशकवशाच द्विविधमपि निर्देशमिच्छति / लोकव्यवहारश्व प्रायो द्विधा दृश्यते // 1506 / / कथम्? इत्याहछज्जीवणियाऽऽयारो, निद्दिट्ठवसेण तह सुयं चऽण्णं / तं चेव य जिणवयणं, सव्वं निद्देसयवसेणं / / 1507 / / जह वा निद्दिट्टवसा, वासवदत्तातरंगवइयाई। तह निद्देसगवसओ,लोए मणुरक्खवाउत्ति // 1508 / / लोको द्विधा-अर्हद्दर्शनानुगतो लोकोत्तररूपः, तद्व्यतिरिक्तश्च / तत्र लोकोत्तरे निर्दिष्टार्थवशानिर्देशो यथा-षट्जीवनिका नामाध्ययनम्, आचारः, आवश्यकमित्यादि। (तह सुयं च ण्णं, तं चेव येत्यादि) तथा अत्रैवलोकोत्तरेतदन्यच श्रुतं निर्देशकवशात्सर्वमपि जिनप्रवचनमुच्यते। तथा अन्यत्किमपि श्रुतं निर्देशकवशादेवोच्यते। तथा भद्रबाहुनिमित्त, नन्दसहिता, कापिलीयमित्यादि। यथावा-इतरलोके निर्दिष्टवशाद्वासवदत्ता, तरङ्गवतीत्यादिनिर्देशः, निर्देशकवशात्तु मनुः, अक्षपाद इत्यादि // 1507 / 1508 // तथा किम्? इत्याशङ्कय प्रकृते योजयन्नाहतह निद्दिट्ठवसाओ, नपुंसगं नेगमस्स सामइयं / थीपुंनपुंसगंवा, तं चिय निद्देसयवसाओ॥१५०६।। यथा षट् जीवनिका, आचार इत्यादौ निर्दिष्टार्थवशानिर्देशः, तथाऽत्रापि सावध विरमणलक्षणनिर्दिष्ट नपं सकार्थवशात्सामायिकम्, इति नपुंसक निर्देशः, यथा वा मनुः, अक्षपादइ--
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________________ णिद्देस 2074 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिद्देस त्यादौ निर्देशकवशानिर्देशः, तथाऽत्रापि योषित्पुरुषनपुंसकलक्षणत्रिविधनिर्देशकवशात् तदेव सामायिक स्वीपुंनपुंसकं भवति / स्त्र्यादित्रिविधनिर्देशकवशाद् नन्दसंहितामनुकापिलीयाऽऽदिवत् त्रिष्वपि लिङ्गेषु सामायिकस्य निर्देशप्रवृत्तिः, यथा--'सामायिक स्त्री' इत्यादि / / 1506 / / अथ प्रकारान्तरेणाऽपि लोकव्यवहारोपदर्शनेन प्रकृतं सम र्थयन्नाहजह वा घडाभिहाणं, घडसद्दो देवदत्तसद्दो त्ति। उभयमविरुद्धमेवं, सामइयं नेगभनयस्स / / 1510 / / इयं च गाथा-यथा वा देवदत्ताऽऽदिना घटाऽऽदिशब्दे समुच्चारिते इत्यादिना व्याख्यातैवेति // 1510 // "निद्दिष्ठं संगहो य ववहारो"(१५०५) इत्येतद्व्याख्यातुमाहअत्थाउ चिय वयणं,लहइ सरुवं जओ पईवो व्व / तो संगहववहारा, भणंति निद्दिट्ठवसगं तं // 1511|| यतो यरमादर्थादेव वाच्याद् घटाऽऽदेः सकाशाद्वाचकं वचनं स्वरूपमात्मलाभ लभते, नान्यथा, यथा प्रदीपः / प्रदीपो हि प्रकाश्यमेवार्थ प्रकाशयन् प्रदीपो भण्यते, यदि तु प्रकाश्यं वस्तु न स्यात् तदा किमपेक्षोऽसौ प्रदीपः स्यात्? तस्माद्यथा प्रकाश्यादेवार्थात्प्रदीप आत्मलाभ लभते, तथा वाच्यादेवार्थाद् वचनमात्मस्वरूपमाप्नोति। ततस्तस्मात्संग्रहव्यवहारनयौ निर्दिश्यते इति निर्दिष्ट वाच्यं वस्तु तदशगतं तदधीनमेव तद्वचन भणतो ब्रूतः / वाच्यं चेह सामायिकशब्दस्य सावद्यविरतिरूपः,तदभिधेयोऽर्थः / स च रूढितो नपुंसकतया प्रसिद्ध इति / अतः सामायिकस्य नपुंसकलिङ्गतामेव संग्रहव्यवहारावभ्युपगच्छतः। अथवा सामायिकवतां सत्त्वानां स्त्रीपुंनपुंसकत्वात् तत्परिणामानन्यत्वेन च सामायिकार्थस्य स्त्र्यादिरूपत्वाद्वाच्यवशेन त्रिलिङ्गताऽपिसामायिकस्य संग्रहव्यवहारनयमतेन द्रष्टव्येति॥१५११।। प्रकारान्तरेणाऽपि निर्दिष्टवशानिर्देशं समर्थयन्नाहअहवा निविद्वत्थ-स्स पञ्जओ चेवतं सधम्म व्व। तप्पच्चयकारणओ, घडस्स रूवाइ धम्म व्व।।१५१२।। अथवा तद्वचनं निर्दिष्टार्थस्य वाध्यवस्तुनः पर्याय एव, प्रत्ययकारणत्वात्-वाच्यार्थप्रतीतिहेतुत्वात्, यथा तस्यैव निर्दशस्य घटाऽऽदेरन्ये संस्थानाऽऽदयो धाः। इह यद्यस्य प्रत्ययकारणं तत्तस्य स्वपर्यायः, यथा घटस्य रूपाऽऽदयः, वचनं च वाच्यार्थस्य प्रत्ययकारणम्, अतस्तत्पर्यायः, पर्यायश्च पर्यायिणोऽधीन एवेति युक्तो निर्देश्यवशानिर्देश इति // 1512 // स्यादेतदसिद्धोऽयं हेतुः, एतत्प्रत्ययकारणत्वाद्वच नस्य,इत्येतन्निराकरणार्थमाहवयणं विन्नाणफलं, जइ तं भणिए वि नत्थि किं तेणं? अन्नत्थ पच्चए वा, सव्वत्थ दिपचओ पत्तो // 1513 / / अभिवेयसंकरो वा, वत्तरि पचओऽणभिहिए वि। तम्हा निविट्ठवसा, नपुंसगं वेंति सामइयं / / 1514|| अर्थविज्ञानफलं हि वचनं,यदि भणितेऽप्युदीरितेऽपि वचने (तं ति) तदर्थविज्ञानं, नास्ति न भवति, तर्हि कण्ठोष्ठशोषमात्रविधायिना किं तेनोक्तेन, निष्फलत्वात्? स्यादेतद्वाच्यादर्थादन्यत्र वक्तृलक्षणेऽर्थे विज्ञानं जनयिष्यति वचनम्, ततश्च विज्ञानफलं च तद्भविष्यति, वाच्येऽर्थे विज्ञानं च न जनयिष्यति, तथा च सति वाच्यार्थपर्यायो वचनं न भविष्यतीत्याशङ्कयाऽऽह-(सव्वत्थे-त्यादि) यदि हि वाच्यमर्थ विहाय वक्तृलक्षणेऽर्थान्तरे प्रत्ययं वचनं जनयेत्तीविशेषेणैव सर्वत्राऽर्थे प्रत्ययः प्राप्तः, न वा क्वचिदप्यर्थेऽसौ भवेत्, अविशेषादिति-अतत्पर्यायत्वेऽपि तत्प्रत्ययहेतुत्वे सर्वत्राऽसौ भवेत्, नवा क्वचिद्भवेदिति भावः / स्यादेतद्वचनाद्वक्तरि प्रत्ययो भवत्येव, यथाऽनेनेदमभिहितमिति, तत्किभुच्यते''जइ त भणिए वि नस्थि किं तेणं?" इति / इत्याशड्क्याऽऽह-- "अभिधेयसंकरो वेत्यादि / " अथ वा वाच्यादर्थादन्यत्र प्रत्ययेऽभ्युपगम्यमाने सर्वत्राऽपि प्रत्ययो न भवेदित्येको दोष उक्तः / अथ दोषान्तरमभिधित्सुराह-(अभिधेयसं करो वेत्यादि) यदि हि वक्तर्यनभिहितेऽपि वचनात्तत्र प्रत्ययोऽभ्युपगम्यते, हन्त ! तर्हि वक्तृवदनभिहितानि खरोष्ट्रढेङ्कवकाऽऽदीनि बहूनिवस्तूनि सन्ति, ततो वक्तृवत्तेषामपि श्रोतुः प्रत्यये सत्यभिधेयानां सर्वेषाम्, अभिधेयेन वा घटाऽऽदिना सह वक्त्रादीनाममन्येषां सङ्करः, एकस्यां श्रोतृप्रतीतौ साङ्कय युगपत्तदाकारसंक्रमणं प्राप्नोति, न चैतदस्ति, एकस्माद्वचनादेकरयैव प्रतिनियतस्य घटाऽऽद्याकारस्य संवेदनादिति। तस्मादभिधेयपर्याय एव वचनम्, तत्प्रत्ययकारणत्वात् / अतो निर्दिष्टमाह सामायिकशब्दस्यार्थरूपं सामायिक रूढितो नपुंसकम्, तद्वशात्सामायिकशब्दः संग्रहव्यवहारयोर्नपुंसकलिङ्गवृत्ति / अथवा सामायिकवतः स्वीपुंनपुंसकत्वात्, तत्परिणामानन्यत्वाच सामायिकार्थस्य त्रिलिङ्गतामपि संग्रहव्यवहारावभ्यपगच्छतः। ततो निर्दिष्टस्य सामायिकार्थस्य त्रिलिङ्गत्वान्निर्देश्यवशादपि सङ्गहव्यवहारमतेन सामायिकस्य त्रिलिङ्गताऽपि भवति; यथा-'सामायिकं स्त्री' इत्यादि / एतच्च स्वयमेव द्रष्टव्यम् // 1513 // 1514 // "निद्देसगमुजुसुओ' (1505) इति व्याचिख्यासुराहउज्जुसुओ निद्देसग-वसेण सामाइयं विणिदिसइ। वयणं वत्तुरहीणं, तप्पज्जाओ यतं जम्हा // 1515 / / ऋजुसूत्रनयो निर्देशकवशेनाभिधातृपारतन्त्र्येण सामायिकं निर्दिशति, यदेव निर्देशकस्य लिङ्ग तदेव सामायिकस्यासौ मन्यते, यथा'सामायिकं स्त्री' इत्यादि, वचनस्य वक्त्रधीनत्वात्, तत्पर्यायत्वाच्च, विज्ञानवदिति। अथ वचनस्य वक्त्रधीनत्वे युक्तिमाहकरणत्तणओ मण इव, सपज्जयाओ घडाऽऽइरूवमिव / साहीणतणओ वि य, सधणं व वओ वयंतस्स // 1516 / / वदत एव संबन्धिवचः, इति पर्यन्ते प्रतिज्ञा। अत्र सदृष्टान्तान् हेतूनाहकरणत्वात, मनोवत; तथा--स्वपर्यायत्वात्, घटाऽऽदे रूपाऽऽदिवत् तथा-स्वाधीनत्वात्, स्वधनवदिति / / 1516|| युक्त्यन्तरमाहतह सुत्तदुरुत्ताओ, तस्सेवाणुरगहोवघायाओ। तस्स तयमिंदियं पि व, इहरा अकयाऽऽगमो होज्जा / / 1517|| तस्यैव वक्तुस्तद्वच इति पक्षः, वचनस्य सूक्त त्वदुरुक्तत्वाभ्यां वक्तुरेवानुग्रहापघातदर्शनात् / इह यस्य यन्निमित्तावन--
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________________ णिद्देस 2075 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिद्देस ग्रहोपघातौ तस्य तदात्मीयम्, यथा देवदत्ताऽऽदेरिन्द्रियम्, दृश्येते वचनसूक्तत्वदुरुक्तत्वाभ्यां वक्तुरनुग्रहोपघातौ, तस्मात्तत्तस्याऽऽत्मीयम्। विपर्यये बाधकमाह-इतरथा अन्यथा वचनस्य वक्तुरसंबन्धित्वे तस्याऽनुग्रहोपघातयोरकृताभ्यागम एव स्यादिति / / 1517 / / अत्र परः प्राऽऽहनिविट्ठस्स वि कस्सचि, नणूवघायाइओ तयं जुत्तं ! ते तस्स सकारणओ, इहरा थाणुस्स वि हवेज्जा // 1518|| ननुन केवल निर्देशकस्य, किंतु निर्दिष्टस्याप्यभिधेयस्यापिकस्यचित् तस्कराऽऽदेर्वचनादुपघाताऽऽदयो दृश्यन्ते, यथा-'वध्यता, हन्यता चाय तस्करः, मुच्यता चायमित्याधुक्ते तस्य विषादाऽऽद्युत्पत्तेरुपघाताssदयोऽध्यक्षत एवोपलभ्यन्ते / अतस्तद्दर्शनान्निर्दिष्टस्याऽपि संबन्धि तद्वचनं वक्तुं युज्यते / अत्रोत्तरमाह-(ते इत्यादि) ये इष्टाऽनिष्टवचनश्रवणात्तस्कराऽऽदेः निर्दिष्टस्यानुग्रहाऽऽदयो दृश्यन्ते, तेतस्य स्वकीयश्रवणेन्द्रियमनः पुण्यपापाऽऽदिकात्कारणादेव मन्तव्याः, न त्विष्टानिष्टवचनोक्तिमात्राद्, अन्यथा श्रोत्राऽऽदिकरणविकलानां स्थाण्वादीनामपि तदुक्तिमात्रात्ते भवेयुरिति / / 1518 / / वक्तृधर्मत्वमेव वचनस्य हेत्वन्तरोक्तेः समर्थयन्नाहसरनामोदयजणियं, वयणं देहो व्य वत्थुपञ्जाओ। तं नाभिधेयधम्मो, जुत्तमभावाभिहाणाओ॥१५१६।। 'वक्तृपर्यायो वचनम्' इति प्रतिज्ञा, स्वररूपनामकर्मोदयजन्यत्वात, इह यन्नामकर्मोदयजन्यं तत्तस्यैव वक्तुर्देवदत्ताऽऽदेः पर्यायः, यथा तस्यैव देहः, नामकर्मोदयजन्यं च वचनं, तस्मात्तस्यैव वक्तुः पर्यायः / तत्तस्मान्न वचनमभिधेयधर्मो युक्तम्, किं त्वभिधातुरेव / उपचयमाह-अभावस्यापि वचनेनाभिधानात् / इदमुक्तं भवतिअभावोऽपि हि वचनेनाभिधीयते, न च वचनं तद्धर्म इति वक्तुं शक्यते, अभावस्यासत्त्वात्, यदि च वचनं तद्धर्मः स्यात्, तदा सोऽपि भावः स्याद्, वचनाऽऽश्रयत्वात्, देवदत्ताऽऽदिवदिति / / 1516 / / यस्यापि च घटाऽऽदिशब्दाभिधेयस्य घटाऽऽदे भविस्य वचनं, तत्प्रत्ययकारणत्वाद्धर्मत्वेनाभ्युपगम्यते, तत्रापि पृच्छ्यते / किम्? इत्याहभावम्मि विसंबद्धं, तमसंबद्धं व तं पगासेजा। जइ संबद्धं तिहुयण-वावि त्ति तयं पगासेउ।।१५२०।। भावेऽपि घटाऽऽदिके वचनाभिधेये पृच्छामो भवन्तम्-तद्वचनं तत्र भावे किं संबद्धसत्तं भावंप्रकाशयति, आहोस्विदसंबद्धम् ? इति। यदि संबद्ध, तर्हि "चउहि समएहिं लोगो, भासाए निरंतरं तु होइ फुडो।" (376) इत्यादिवचनात् त्रिभुवनव्यापित्वात्तद्गतं समस्तमपि पदार्थजातं प्रकाशयतु, संबद्धत्वाविशेषादिति॥१५२०॥ अथासंबद्धं प्रकाशयति, तत्राऽऽहनिविण्णाणत्तणओ, नासंबद्धं तयं पईवो व्व / भासयइ असंबद्धं, अह तो सव्वं पगासेउ॥१५२१।। नासंबद्धं तत्पदार्थान् प्रभासयति। कुतः? इत्याह-निर्विज्ञा-नत्वात्, विज्ञानादन्यत्वे सत्यसंबन्धत्वादिति भावः / अयंच हेतुः / प्रदीपवदिति | दृष्टान्तः। विज्ञानमसंबद्धमपि वस्तुप्रकाशयति, नच वचनं विज्ञानरूपम्, अतो नासंबद्धमर्थ प्रकाशयति, प्रदीपवद् / अथासंबद्धमपि तद्वस्तु प्रकाशयति, तर्हि सर्वमपि प्रकाशस्तु, असंबद्धत्वाविशेषात् / तस्माद्वाच्यप्रत्ययकारणत्वेन तद्धो वचनमिति॥१५२१।। आह-ननूक्तं वचनमर्थादात्मलाभ लभते, प्रदीपवद्, अतः कथमिदं वक्तुरेवेष्यते? इत्याहजइ विवयणिज्ज वत्ता, बज्झऽभंतरनिमित्तसामण्णं / वत्ता तह वि पहाणो, निमित्तमभंतरं जं सो॥१५२२| इह यद्यपि वचनीयं वक्ता च यथासंख्यं बाह्यमभ्यन्तरं च वचनस्य सामान्य निमित्त कारणम्, तथाऽपि वक्ता प्रधानः / कुतः? इत्याहयद्यस्मादन्तरङ्ग प्रत्यासन्नं निमित्तमसौ। तस्माद्वचनस्य, वाधीनत्वात्, यदेव वक्तुर्लिङ्ग तदेव सामायिकस्य ऋजुसूत्रनयमतेन लिङ्ग मिति स्थितम् // 1522 // "उभयसरिच्छंच सदस्स।" (1505) इत्येतद्व्याचिख्यासुराहसद्दो समाणलिंगं, निघसं भणइ विसरिसमवत्थु / उवउत्तो निद्दिट्ठा, निद्दिस्साओ जओऽणण्णो // 1523|| शब्दप्रधानो नयः शब्दो निर्देशं वचनमिच्छति किंविशिष्टम? इत्याहसमानलिङ्ग निर्देश्यनिर्देशकयोस्तुल्यमेव लिङ्गमसाविच्छतीत्यर्थः / विसदृशं त्वसमानलिङ्ग निर्देशमघटमानकत्वादवस्तुत्वेनैव मन्यते / कुतः? इत्याह-उपयुक्तः निर्देश्येऽर्थेऽर्पितान्तःकरणो निर्देष्टा यद् यस्मानिर्देश्यादनन्योऽभिन्नः / इदमुक्तं भवतिवक्तुस्विलिङ्गवतोऽपि पुमांसमभिदधतः पुंनिर्देश एव, स्त्रियं प्रतिपादयतः स्त्रीनिर्देश एव,नपुंसक निर्दिशतो नपुंसकनिर्देश एव, वाच्ये उपयुक्तस्य वक्तुच्यत्वादभिन्नत्वादिति / / 1523 / / तथा चाऽऽहथीं निद्दिसइ जइ पुमं,थी चेव तओ जओ तदुवउत्तो। थीविण्णाणाणन्नो, निद्दिट्ठसमाणलिंगो त्ति॥१५२४॥ स्त्र्यादेः समानलिङ्ग स्त्र्यादिकं निर्दिशतः स्यादिनिर्देश इति तावत्किल प्रतीतमेव / यद्यपि च पुमान् कर्ता स्त्रियं कर्मताऽऽपन्ना निर्दिशति / यथा-वासवदत्ते ! इदमित्थं विधेहीति, तदपि तकोऽसौ निर्देष्टा पुरुषः स्त्र्येव भवति / कुतः? इत्याह-यतो यस्मात्तदुपयुक्तः स्त्र्युपयुक्तः स्त्रीविज्ञानाद्वासवदत्ताऽध्यवसायादनन्योऽभिन्नः सन्निर्दिष्ट्या स्त्रिया समानलिङ्गः पुरुषो भवति / ततश्च यदा पुरुषो नपुंसकमभिधत्ते, तदाऽपि निर्दिष्टसमानलिङ्गत्वान्नपुंसकमेवाऽसौ। एवं स्त्रियां नपुंसके च निर्देष्टरि निर्दिष्टसमानलिङ्गता योजनीयेति / / 1524 // ननु कथं स्त्रीविज्ञानादनन्यः स पुरुषोऽपि स्त्र्येव भवति, न पुरुषोऽपि स्यात्? इत्याहजइ स पुडं तो नत्थी, अह थी न पुमं न वा तदुवउत्तो। जो थीविण्णाणमओ, नो थी सोसव्वहानस्थि॥१५२५।। यदि स निर्देष्टा पुंमान, ततो न स्वीन खल्वसौं स्त्र्युपयोगवानित्यर्थः / अथासौ स्त्र्युपयोगोपयुक्तत्वात् स्त्रीत्यभ्युपगम्यते, तर्हि न पुमान्न पुंस्त्येनायमेष्टव्यः, किं तु स्त्र्युपयोगोपयुक्तत्वात् स्त्र्येवासौ मन्तव्य इत्यर्थः / अथ नैवं, तर्हि न वा न खल्वसौ,त
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________________ णिद्देस 2076 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिद्देस दुपयुक्तः स्त्र्युपयुक्तः,तदुपयुक्तस्य सर्वथैव पुंस्त्वविरोधात्। किंबहुना? यः स्त्रीविज्ञानमयः स्त्र्युपयोगोपयुक्तोऽपि न स्त्री, किं तु पुमान्नपुंसकं वा, स एवम्भूतः पदार्थः सर्वथा नस्तिअसन्नेव, खरविषाणवदिति।।१५२५।। अर्थानुपयुक्तः स्त्रियं भाषमाणोऽपि पुरुषो भविष्यति, इत्याश-याऽऽह भासइ वाऽणुवउत्तो, जइ अन्नाणी तओ न तव्वयणं। निद्देसो जेण मयं, निच्छियदेसो त्ति निद्देसो।।१५२६।। यदि वा उच्यते भवता-अनुपयुक्तोऽसौ पुरुषः स्त्रियं भाषतेऽतो न स्त्रीरूपतां प्रतिपद्यते / तदयुक्तम्, यत एवं सति तकोऽसावनुपयुतभाषकोऽज्ञानी, उपयोगशून्यत्वात्, घटाऽऽदिवत्, ततश्च न तद्वचन निर्देशः, उपयोगपूर्वकत्वाभावात्, उन्मत्ताऽऽदिवचनवत् / कुतः? इत्याह-येनैतन्मतं सम्भत विपश्चिताम् / किम् ? इत्याह-उपयोगपूर्वकतया निश्चित्य देशनं भाषणं देशो निर्देशः। अथवा-निश्चितो देशो भाषणंयत्रासौ निर्देशोभण्यते।नच निरुपयोगभाषणकस्यैवं सम्भवतीति / / 1526|| एतदेव भावयतिसो जइ नाणुवउत्तो-ऽणुवउत्तो वा न नाम निद्देसो। निद्देसोऽणुवउत्तो, य वेइ सद्दो नतं वत्थु / / 1527 / / हन्त ! स यदि निश्चितदेशो निर्देशोऽभ्युपगम्यते, तर्हि तद्वान देवदत्ताऽऽदिर्नाऽनुपयुक्तो युज्यते। अथानुपयुक्तोऽसौ, तर्हि न तस्य निर्देशः, निश्चितज्ञानपूर्वकत्वात्तस्य / किं बहुना? निर्देशः, अनुपयुक्तश्च तद्वानित्येवंभूतं यन्मतंतच्छब्दनयोऽवस्त्वेव बूते, विरुद्धत्वात्, अचेतन आत्मा, अश्रावणः शब्दः, इत्यादिवदिति।।१५२७|| __ अथोपसंहरन्नाहतम्हा जं जं निद्दि-स्सइ तदुवउतो स तम्मओ होइ। वत्ता वयणिज्जाओ, अणण्णो त्ति समाणलिंगो सो॥१५२८|| तस्मादेतच्छब्दनयमतस्य तात्पर्य,यः पुरुषाऽऽदिर्वक्ता यं यं स्त्र्यादिकमर्थं तदुपयुक्तः स्त्र्याधुपयुक्तो निर्दिशति वक्ति, स तन्मयो वाच्यार्थाऽऽत्मको भवति / कुतः? इत्याह-वक्ता वाच्योपयुक्तो वचनीयादनन्य एव भवतीति कृत्वा / ततो वक्तृवचनीयसमानलिङ्गोऽयमस्य निर्देश इति स्थितम् / / 1528 // प्रकृतमुपदर्शयन्नाहसामाइओवउत्तो, जीवो सामाइयं सयं चेव। निद्दिसइ जओ सव्वो, समाणलिंगो स तेणेव / / 1526 / / इह प्रस्तुते सामायिके निर्देश्य उपयुक्तो निर्देष्टा जीवः सामायिकमेव, भवतीति शेषः ततश्चाऽसौ सामायिक निर्दिशन् स्वकमेवाऽऽत्मानमेव निर्दिशति। कुतः? इत्याह-यतो यस्मात्स्त्रीपुंनपुंसकरूपः सर्वोऽप्यसौ निर्देष्टा तदुपयुक्तत्वात् तेनैव निर्देश्येन सामायिकेन समानलिङ्गो भवति, सामायिकार्थस्य रूढितो नपुंसकत्वात्, स्त्रियाः, पुंसो नपुंसकस्य वा सामायिकमभिदधानस्य नपुंसकलिङ्गनिर्देश एव भवतीति / आह-यदि पुनर्भावस्य द्वैविध्यान्निर्देश्यनिर्देशकोभयवशतोऽपि निर्देशः स्यात् तर्हि को दोषः? तथाहि--द्विविधो भावोऽर्थस्य विज्ञानं, परिणतिश्च, भावाभिधायिनश्च शुद्धनयाः / तत्र यदा पुमानुपयुक्तः सामायिक नपुंसकमाह, तदा वक्तुन पुसकविज्ञानानन्यत्वान्नपुंसकनिर्देशोऽस्तु,निर्देष्टु श्व मुखरोमाऽऽदिरूपपुरुष परिणतिमयत्वात् पुंनिर्देशोऽपि भवत्विति। अत्रोच्यते-भावस्य द्वैविध्ये सत्यपि वस्तुनो विज्ञानमेवेहोपयोगरूपमधिक्रियते , न पुनस्तत्परिणतिः, विज्ञानरूपस्यैदेह निर्देशस्याभिप्रेतत्वात् / आह-ननु शब्दोऽपि पुद्गलद्रव्यरूपो, निर्दिश्यत इति कृत्वा निर्देश एवोच्यते, तत्किमिति तदुपयोगरूप एव निर्देशोऽधिक्रियते / नैतदेवं, शब्दस्य द्रव्यमात्रत्वात् , ज्ञानलक्षणभावग्राहिणश्च शब्दनयाः। अत एव पुरुषपरिणतेः सत्यपि भावत्वे न तस्या इह ग्रहणम्, किंतु विज्ञानरूप एवात्र निर्देशो गृह्यते / तत्रैतत्स्यात्, शब्दप्रधान एव हि शब्दनयः,तत्कथमिह शब्दरूपो निर्देशो नेष्यते? तदयुक्तम्, भावार्थापरिज्ञानात् / शब्दनयो हि शब्दादेवार्थज्ञानमभ्युपगच्छति, तद्भावभावित्वात्तस्या एवं च सति शब्दस्यज्ञानकारणत्वात्, कारणस्य च द्रव्यत्वात्, द्रव्यस्य च भावशून्यत्वात्, शब्दनयस्य च भावग्राहित्वाद् न शब्दमात्रप्रधानता युक्तेति। अत्रापरस्त्वाह-ननु यधुपयुक्तो वक्ता यमर्थमाह, तद्वशान्निर्देश इष्यते, ततो निर्देश्यवशान्निर्देश इति प्राप्तम,एवं च सति संग्रहव्यवहारयोः शब्दनयस्य च को विशेषः? अत्रोच्यतेसंग्रहव्यवहारयोरुपयुक्तस्यानुपयुक्तस्य वा वक्तुरात्मनिरपेक्षोऽभिधेयमात्रवशाच्छब्दमात्रमेव निर्देशः, इह तु बाह्यवस्तुप्रत्ययमात्रमुररीकृत्य य उपयोगस्तस्मादनन्यत्वादभिधातुजीवस्योपयोगरूपं स्वरूपमेव निर्देशोऽङ्गीक्रियते। आह-यद्येवम्, ऋजुसूत्रादस्य को विशेषः, तस्याऽपि हि निर्देशकवशाद् निर्देशः, स एवेहाप्यापन्नः? अत्राप्युच्यतेऋजुसूत्राभिप्रायेणाऽनुपयुक्तस्याऽपि वक्तुः शब्दमात्रं निर्देशः, अत्र तु वाच्योपयोग एव निर्देश इति विशेषः, इत्यलं प्रसङ्गेनेति।।१५२६।। तदेव नयमतान्यभिधाय सम्यग्मिथ्याविभागमाहइह सव्वनयमयाई, परित्तविसयाई समुदियाइंतु। जइणं वज्झऽभंतर-निद्देसनिमित्तसंगाही।।१५३०।। इत्येवमुक्तप्रकारेण सर्वाण्यपि नैगमाऽऽदिनयमतानि परीत्तविषयाण्यन्योन्यनिरपेक्षतया एकैकांशग्राहीणि, अतो मिथ्यारूपत्वात् तान्यप्रमाणमिति भावः / समुदितानि पुनस्तान्येवाऽन्योन्यसापे–क्षतया संपूर्णवस्तुग्राहित्वाज्जैन मतं भवति / कथम्भूतं जैन मतम् ? इत्याह(बज्झेत्यादि) बाह्याऽऽभ्यन्तराणि निर्देशस्य वचनस्य शब्दस्य निमित्तानि संग्रहीतुमभ्युपगन्तुं शीलं यस्य तद् बाह्याऽऽभ्यन्तरनिर्देशनिमित्तसंग्राहि / तत्र बाह्यान्यभिधेयघटपटशकटाऽऽदीनि, आभ्यन्तराणि तु स्वरनामकर्मोदयताल्वादिकरणप्रयत्नादीनि निर्देशस्य निमित्तानि द्रष्टव्यानि / समस्ततत्सामग्रीजन्यनिर्देशाभ्युपगमपरत्वेन सम्यग्रूपत्वाज्जैन मतंप्रमाणमितीह भावार्थः। आह-बाह्यो घटाऽऽदिरर्थः शब्दस्य कथं निमित्तम्, संबन्धाभावात्? तदयुक्तं शब्दार्थयोर्वाच्यवाचकसंबन्धस्य विद्यमानत्वात्। यद्यर्थस्य शब्दोवाचकः,तहगृहीतसंकेतस्यापिम्लेच्छाऽऽदेरसावर्थं प्रतिपादयेदिति चेत्। नैवम्, कर्मक्षयोपशमसव्यपेक्षस्यैव तस्य तत्प्रतिपादकत्वात्, क्षयोपशमस्य च सङ्केताऽऽदिसापेक्षत्वात्। न हि प्रदीपः प्रकाशक इत्येतावन्मात्रेणैवान्धाऽऽदीनामप्यर्थ प्रकाशयति / ननु यदि क्षयोपशमापेक्षः शब्दोऽर्थ प्रकाशयति, तर्हि संके तक रणेऽपि तदप्रकाशनप्रसङ्गः, न चैतदस्ति, गृहीतसङ्केतानामविगानेनार्थप्रतिपत्तिदर्शनात्, ततः किमन्तर्गडुकल्पक्षयोपशमकल्पनेन? तदयुक्तम्, तथाहि-केषा
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________________ णिद्देस 2077- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिद्भूय ञ्चिजडमतीना शास्त्रव्याख्यानाऽऽदौ विषमपदवाक्येषु विशिष्ट क्ष- | णिद्धअ (देशी) अविभिन्नगृहे, देना०४ वर्ग 38 गाथा। योपशमाभावात्संकेतोऽपि कर्तुं न शक्यते, अन्ये तु तत्करणेऽपि नार्थ णिवंत त्रि०( निर्मात) नितरामग्निसंयोगेन यद्ध्मातं विशोधितम्। जी० प्रतिपद्यन्ते / यदपि केषाञ्चिदपूर्वम्लेच्छभाषाऽऽदिश्रवणेऽकृ 3 प्रति०४ उ०। औ०। दग्धमले, औ०॥ तं०। प्रश्न। तसक तानामाप झागत्यव कथमप्यथप्रातपात्तदृश्यत, तत्रापि | णिद्धंधस०(निर्धन्धस) प्रवचनोपघातनिरपेक्षे, आव०३ अ०। निर्दये, क्षयोपशमस्यैवातिपटुत्वं हेतुः। तस्मात्कर्मक्षयोपशमाऽऽदिसाम देना०४ वर्ग 37 गाथा। ग्रीसव्यपेक्षः शब्दो वाचकः,अर्थस्तु वाच्यः, इति शब्दार्थयोर्वाच्य णिद्धच्छवि स्त्री०(स्निग्धच्छवि) स्निग्धा च कान्तिमती छविस्त्वक् / वाचकभावलक्षणः संबन्ध इति / तदेवं व्याख्याता "दुविहं पि नेगम कान्तत्वचि, "सुवन्नवन्ने सुकुमारया य, णिद्वच्छवी।" वृ०३ उ०। नओ।" (1505) इत्यादि गाथा, तद्व्याख्याने च व्याख्यातमुमोद्घातनियुक्तिद्वारगाथाद्वयस्य द्वितीयं द्वारम् // 1530 / / विशेष णिद्धण त्रि०(निर्धन)"सर्वत्र लवरामवन्द्रे"८।२७६।।इति रलोपः / आ०म०। निर्देशनं निर्देशः / कर्माऽऽदिकारकशक्तिभिरनधिकस्य "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः" ||८|शEO|| इति दकाराऽऽगमः प्रा०२ लिङ्गार्थमात्रस्य प्रतिपादने, 'निद्देसे पढमा होइ।" निर्देशे प्रथमा पाद / गोमहिष्यादिरहिते, विपा०१ श्रु० 3 अ०। विभक्तिर्भवति। यथा-स वा अयं वाऽऽस्ते, अहं वा आसे। स्था० 8 ठा०/ णिद्धण्णय त्रि०(निर्धान्यक) धान्यकणविवर्जिते, तं०। अनु०। प्रश्रिते कार्य नियतार्थे, उत्तरे, भ०३ श०१ उ०। निर्देशो हि प्रथमतः णिद्धफासणाम(ण) न०(स्निग्धस्पर्शनामन) स्पर्शनामभेदे, यदुकायप्रयोगेण भाषाद्रव्याण्यादाय पश्चाद्वाक् पर्याप्तिकरणप्रयोगतो दयाजन्तुशरीरं घृताऽऽदिवत् स्निग्धं भवति तत्। कर्म० 1 कर्म०। विधीयते / ज्यो०१ पाहु०। हेतुदृष्टान्तोपदर्शनेन स्पष्टतरीकरणे, नं० णिद्धमण न०(निर्धमन) क्षाले, जलनिर्गममार्गे , स्था०५ ठा० 1 उ०। उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादने, उत्त० 10 // 'खाल' इति देशप्रसिद्धम / तं०। "कुणालाए णिद्धमणमूले वसही णिद्देसदोस पुं०(निर्देशदोष) उचितनिर्देशाकरणरूपे सूत्रदोषे, अनु०। वरिसायाले देवयाणुकपेणं न वरिसइ / " आ० म०१ अ०२ खण्ड / स च यत्र निर्दिष्टपदानामेकवाक्यता न क्रियते, यथेह देवदत्तः ऋद्धिरससातगौरवैर्युक्तत्वेन मृत्वा यक्षत्वमुपागते आर्यमङ्ग्याचार्य, स्थाल्यामोदनं पचतीत्यभिधातव्ये पचतीति शब्दं नाभिधत्ते / अनु० / आव०४अ०। गृहजलप्रवाहे, दे०ना० 4 वर्ग 36 गाथा (आर्यमङ्गु कथा विशे० निर्देशदोषो नाम यत्र वस्तुपर्यायवाचिनः पदार्थस्यार्थान्तरपरि- 'अज्जमंगु'शब्दे प्रथमभागे 211 पृष्ठे गता) कल्पनाऽऽश्रयणम्। यथा-द्रव्यपर्यायवाचिना सत्ताऽऽदीनां द्रव्यादर्था णिद्धमाअ (देशी) अविभिन्नगृहे, देना०४ वर्ग 38 गाथा। न्तरपरिकल्पनमुलूकस्या आ०म० अ०२खण्ड। णिद्धम्म त्रि०(निर्धर्म) निर्गतो धर्मात् श्रुतचारित्रलक्षणादिति निर्धर्मः। णिद्देसवत्ति(ण) त्रि०(निर्देशवर्तिन) आज्ञावर्तिनि, "णिद्देसवत्ती पुण प्रश्न०१ आश्र० द्वार | धर्मादपक्रान्ते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / जे गुरूण।" दश० अ०२३० अविभिन्नगृहे, देवना० 4 वर्ग 38 गाथा। णिदोत्थ न०(निर्दास्थ्य) निर्भये, व्य०४ उ०। स्वस्थे, व्य०७ उ०। / *निर्धर्मन् त्रिका निर्गतो धर्मो यस्य / असंयतीभूते, व्य० 10 उ०। णिद्दोस त्रि०(निर्दोष) निरवद्ये, पञ्चा० 7 विव० "अलियमुवघाय पार्श्वस्थाऽऽदिषु, नि०चू०१ उ०ा एकमुखयायिनि, दे०ना०४ वर्ग 35 जणियं।" इत्यादिद्वात्रिंशत्सूत्रदोषरहिते, स्था०७ठा० आ०म०। अनु०। गाथा। हिंसाऽऽदिदोषरहिते, अनु०। समस्तोक्तानुक्तदोषविप्रमुक्ते, विशेष णिद्धाडण न०(निर्धाटन) निष्कालने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। दोषस्याभावे, व्य०१ उ०। अप्रायश्चित्ते, निचू०१उ०। (व्याख्या 'सुत्त' णिद्धारण न०(निर्धारण) निर् धृ-णिच् ल्युट। जातिगुणक्रियासंज्ञाभिः शब्दे वक्ष्यते) समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणे, यथा'नराणां क्षत्रियः शूरः।" इत्यादी णिद्ध पुं०(स्निग्ध) संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारणे रसभेदे, "एगे नररूपसमुदायात क्षत्रियजातेरेकदेशस्य शूरत्वेन पृथक्करणम् वाच०। णिद्धे / ' स्था०१ ठा०। पुद्गलद्रव्याणां मिथः संयुज्यमानानां बन्ध आचा निबन्धने तैलाऽऽदिस्थिते रसे, अनु० कर्मा आचा०ा सस्नेहे, त्रि०। ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। आव० स०। "डा ओसद रसियं मणुण्णं णिद्धं णिद्धणे अव्य० (निर्दूय) प्रस्फोट्येत्यर्थे , "अणिस्सिए सणिभुणे लुक्खं / " आचा०२ श्रु०१ चू०१अ०५ उ०। रात्रिभोजनाभ्य धुन्नमले।" दश०७ अ० ङ्ग सूत्रयोर्यद् गृहाऽऽदिक तैलवर्जितमद्रवं भवति तदेव स्निग्धमुच्यते। णिझूम त्रि०(निधूम) धूमरहिते, "णिभूमगं च गाम,महिलाथूभं च सुन्नयं बृ०५ उ० अरूक्षे, कल्प०२ क्षण जीता औ० प्रज्ञा०ा जं०। कान्ते, दटुं।'' निर्धूमं ग्रामं दृष्ट्वा अतीव भिक्षाप्रस्ताव इति ज्ञायते। आ०म०१ प्रश्न०४ आश्र0 द्वार / तं०। औ०। "णिद्धतेया।'स्निग्धं मनोहर तेजो अ०२ खण्ड। यासां ताः स्निग्धतेजसः। जी०३ प्रति०४ उ० "णिद्धपाणिलेहा।" णिभूमग पुं०(निधूमक) अपलक्षणभेदे, यत्प्रभावतो राज्यमनुशासति वचनखण्डाऽपेक्षया स्निग्धा पाणौ रेखा यासां ताः।जी०३ प्रति०४ उ०। / रन्धनीयमेव न भवति। व्य०३ उ०। प्रश्न० जी० णिद्भूय त्रि०(निर्धूत) अपनीते, रा०।
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________________ णिस्यजरढपंडुपत्त 2078 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिप्पडिकम्मया णिद्भूयजरढपंडुपत्त त्रि०(निर्दूतजरठपाण्डुपत्र) निद्भूतानि अपनीतानि सुधोगतोगारपरम्परा, तवेति प्रकरणात्सामर्थ्याद्वा गम्यते। तत्त्वं यथाऽव जरठानि पाण्डुपत्राणि येभ्यस्ते निभृतजरठपाण्डु-पत्राः। जी०३ प्रति०४ स्थितवस्तुस्वरूपपरिच्देदः, तदेव जरामरणापहारित्वाद्विबुधोउ०। अपगतपुराणपाण्डुपत्रेषु, औ०] "णि यजरढपंडुपत्ता। 'निर्दूता- पभोग्यत्वान्मिथ्यात्वविषोर्मिनिराकरिष्णुत्वादान्तराऽऽह्लादकारित्वास न्यपनीतानि जरठानि पाण्डुपत्राणि येभ्यस्ते निर्दूतजरटपाण्डुपत्राः / सुधा पीयूषं तत्त्वसुधा / नितरामनन्यसामान्यतया पीता आस्वादिता या किमुक्तं भवति?-यानि वृक्षस्थानि जरठानि पाण्डुपत्राणि वातेन निधूय तत्त्वसुधा, तस्या उद्गता प्रादुर्भूता तत्कारणिका उद्गारपरम्परा, निधूय भूमौ पतितानि भूमेरपि च प्रायो निर्धूय निर्धूयान्यत्रापसारि- उद्गारश्रेणिरिवेत्यर्थः। यथाहि-कश्चिदाकण्ठंपीयूषरसमापीय तदनुविधातानीति / रा० / जी यिनीमुद्गारपरम्परां मुञ्चति, तथा भगवानपि जरामरणापहारितत्त्वामृतं णिद्धोभास त्रि० (स्निग्धावभास) स्निग्धत्वेनावभासमाने, ज्ञा०१ श्रु०१ स्व-रमास्वाद्यतद्रसानुविधायिनी प्रस्तुतानेकान्तवादभेदचतुष्टयीलक्षअ० राम णामुगारपरम्परां देशनां मुखेनोद्गीर्णवानित्याशयः / अथवा-यैरे-- णिद्धोय त्रि०(निीत) नितरामपुनविन धौते, "वंदिय णिद्धो-यसव्व कान्तवादिभिः मिथ्यात्वगरलभोजनमातृप्ति भक्षित, तेषां तत्तदकम्ममलं / ''(1) नितरामपुनविन धौतः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपः चनरूपा उद्गारप्रकाराः प्राक् प्रदर्शिताः / यैस्तु पचेलिमप्राचीनपुसलिलप्रभावेणापगमितः सर्व एव कमैवाष्टप्रकारं जीवमालिन्यहेतुत्वाद् ण्यप्राग्भारानुगृहीतैर्जगद्गुरुवदनेन्दुनिस्यन्दि तत्त्वामृतं मनोहत्य पीतं मल इच मलो येन स निर्णीतसर्वकर्ममलः। कर्म०१ कर्मा तेषां विपश्चितां यथार्थवादविदुषां हे नाथ ! इयं पूर्वहदलदर्शिणिधत्त न० (निधत्त) निधानंह निहितं वा निधत्तम, भावे कर्मणि वा तोल्लेखशेखरा उद्गारपरम्परेति व्याख्येयम्। स्था० 25 श्लोक। क्तप्रत्यये निपातनादुद्वर्त्तनापवर्तनवर्जिताना शेषकरणानामयोग्यत्वेन *निपीय अव्या नितरामास्वाद्येत्यथ, वाचा कर्मणोऽवस्थाने, पूर्वबद्धस्य कर्मणस्तप्तसमीलितलोहशलाकासंब- णिप्पएस पुं०(निष्प्रदेश) परमाणौ, विशेष न्धसमाने करणे, "चउविहे णिधत्ते पण्णत्ते / तं जहापगइणिधत्ते, णिप्पंक त्रि०(निष्पङ्क) आर्द्रमलरहिते, औ०। कर्दमविशेष रहिते, ठिइणिधत्ते, अणुभागणिधत्ते, पएसणिधत्ते,' स्था०४ ठा०२ उ०। कलङ्कविकले च / स० प्रज्ञा०। आ०म० जी०। स्था०। रा०ा जं०। विशिष्टानां परस्परतः पुद्गलानां निचयं कृत्वा धारणं रूढिशब्दत्वेन | "णिरया णिम्मला णिप्पंका।" प्रज्ञा०२ पद। निधत्तमुच्यते। भ०१ श०१उ०। क०प्र०ा पं०सं०। णिप्पदं त्रि०(निष्पन्द) किञ्चिचलनेनापि रहिते, उपा०७ अ०। णिधत्ति पुं०(निधत्ति) निधीयते उद्वर्तनाऽपवर्त्तनावर्जशेषकरणा- | | णिप्पकंप त्रि०(निष्प्रकम्प) स्वरूपतोऽपीषद् व्यभिचारलक्षणक-- योग्यत्वेन व्यवस्थाप्यते यया सा निधत्तिः / पृषोदराऽऽदित्वाच्छ- ___म्पाभावात् (स०२ अङ्ग) अतीव निश्चले, आव० 4 अ०। ब्दरूपनिष्पत्तिः / पं०सं० 5 द्वार / निधत्ताऽऽख्यकरणे, नि०चू० 13 णिप्पचक्खाणपोसहोववास त्रि०(निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवास) उ०। (विस्तरेण 'णिकायणा' शब्दे 2020 पृष्ठे प्रसङ्गान्निधत्तिरुक्ता) प्रत्याख्यानपरिणामपर्वदिवसोपवासपरिणामाभावात् (रा०) अविद्यणिधूय अव्य०(निर्धूय) अपनीयेत्यर्थे, "णिधूय कम्मण पचं चुवेइ।" मानपौरुष्यादिप्रत्याख्याने, असत्पर्वदिनोपवासे, दशा०६ अ०। सूत्र०१ श्रु०७ अ० असत्पौरुष्यादिनियमे, अविद्यमानाष्टम्यादिपर्वोपवासे, भ०७श०६उला णिन्दित्तए अव्य०(निन्दितुम्) निन्दितुमतिचारान् स्वसमक्षजुगु- स्थान प्सितुमित्यर्थे, स्था०२ ठा०१ उ०/ णिप्पचवाय त्रि०(निष्प्रत्यवाय) प्रत्यवाय (मार्गोपद्रव)रहिते, णिन्दू स्त्री०(निन्दू) मृतप्रजायां स्त्रियाम्, निन्दूमहेला यद्यदपत्यं प्रसूयते ''अणकते ण णिप्पचवारण गंतव्वं ।नि०चू०१उ० तत्तनम्रयते, एवं य आचार्यो यं यं प्रव्राजयति स स म्रियते अपगच्छतिवा, णिप्पट्ट (देशी) अधिके, देवना०४ वर्ग 31 गाथा। ततः स निन्दूरिव निन्दुः / व्य०३ उ० णिप्पट्ठपसिणवागरण त्रि०(निःस्पृष्टप्रश्रव्याकरण) निर्गतानि स्पृष्टानि णिपडिसाडि(ण) त्रि०(निष्परिशाटिन्) परिशाटिरहिते, "णिप्पडि- प्रश्नव्याकरणानि यस्य स तथा। निरुत्तरीकृते, भ०१५ श०। सडिमभुजंतगायकयभूमिकम्मंता।" बृ०२ उ०। *निःस्पष्टप्रश्नव्याकरण त्रिका निरस्तानि स्पष्टानि व्यक्तानि (वागर-- णिपतंत त्रि०(निपतत्) नीचैः पतति, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। णानि) प्रश्नव्याकरणानि यस्य स निःस्पष्टप्रश्नव्याकरणः / निरुत्तरीकृते, णिपरिग्गहरुइ पुं०(निष्परिग्रहरुचि) निर्गता परिग्रहरुचिर्यस्य सः। / "अटेहि य हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य कारणेहि य णिप्पट्ठपपरिग्रहविरते, प्रश्र०५ संब० द्वार। सिणवागरणं करेह / " भ० 15 श०। णिपातिणी स्त्री० (निपातिनी) अभिमुखपातिन्याम, 'सिलाहिँ हम्मति | | णिप्पडिकम्मया स्त्री०(निष्प्रतिकर्मता) शरीरस्य प्रतिकर्माऽकरणे, णिपातिणीहिं।" सूत्र०१ श्रु०६ अ० आ०का णिपीय त्रि०(निपीत) नितरामास्वादिते, स्या०। निष्प्रतिकर्मद्वारे वैधर्योदाहरणगाथामाहविपश्चितांनाथ! निपीततत्त्व-सुधोद्गतोद्गारपरम्परेयम्। (25) | पइठाणे नागवसू, नागसिरी नागदत्त पवज्जा। हे विपश्चिता नाथ ! संख्यावतां मुख्य ! इयमनन्तरोक्ता, निपीततत्त्व- एगविहारुट्ठाणे, देवय साहू अ विल्लगिरं // 1 //
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________________ णिप्पडिकम्मया 2076 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिबंध - अर्थ:कथातो ज्ञेयः णिप्पाण त्रि०(निष्प्राण) उच्छ्रासाऽऽदिरहिते, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०॥ "आसीत्प्रतिष्ठानपुरे, श्रेष्ठी नागवसुः पुरा। णिप्पाव पुं०(निष्पाव) वल्लाऽऽख्ये धान्यभेदे, "णिप्पावाईधण्णा, गंधे नागश्रीः श्रेष्टिनी तस्य, नागदत्तस्तु तत्सुतः।।१।। वाइगपलंडुलसुणाऽऽई।" इतिधान्येषु निष्पावः पुलाकधान्यम्। बृ०५ निर्विणकामभोगः सन्, व्रतमादत्त सोऽन्यदा। उ० ज०००। स्था० भ०। दश०। आचा०। सत्रिभागकाकण्या जिनकल्पिकसत्कारं, दृष्ट्वाऽवादीद् गुरूनिदम् / / 2 / / त्रिभागोनगुञ्जाद्वयेन वा निवृत्ते प्रतिमाने, अनु०। *निष्पाप त्रि०ा पापरहिते. वाच०। जिनकल्पं करिष्येऽह-मप्याचार्यैर्निवारितः। णिप्पिवास त्रि०(निष्पिपास) पिपासायास्तृष्णाया निर्गतो निष्पिपासः। स्वयं स्वीकृत्य तं चक्रे, प्रतिमा व्यन्तरौकसि // 3 // निस्पृहे, उत्त० 16 अ० निराका क्षे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / निःस्नेहे, सम्यगदृशा देवतया, मा विनश्यत्वसाविति। प्रश्र०१ आश्र० द्वार। स्त्रीरूपेणोपहाराऽऽद्यं, गृहीत्वाऽऽगत्य तत्र सा॥४।। णिप्पिह त्रि०(निःस्पृह) इच्छारहिते, प्रा०२ पाद / समस्तपरभाअर्चित्वा व्यन्तरं स्माऽऽह, गृहाण क्षपकोद्धृतम्। वाऽभिलाषरहिते, अष्ट० 11 अष्ट) भक्ष्यभोजनं गृहीत्वा तत्, स्वादित्वा प्रतिमां स्थितः / / 5 / / णिप्पीलण न०(निष्पीडन) निश्चयेन पीडने, आचा०१ श्रु० 4 अ०४ उ०) अतीसारोऽस्य संजातो, देवताऽऽख्यद् गुरोरिदम्। णिप्पुंसण न०(निष्पुंसन)"क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स-कसाधून प्रेष्याऽऽनयत्तं स, देवताऽकथयत्पुनः / / 6 / / पामूर्ध्व लुक्" 118/277 // इतिषलुक्।"अनादौ शेषाऽऽ-देशयोः दद्या विल्वगिरं दत्तं, स्वस्थोऽभूच्छिक्षितस्ततः। द्वित्वम्" / / 8 / 2 / 86 नो णः / स्फेटने, प्रा०२ पाद। पुनरेतन कर्तव्यं, गता निष्प्रतिकर्मता॥७॥ आ०कास आचा। | णिप्पुरिसणाडग न०(निष्पुरुषनाटक) निर्गता रहिताः पुरुषा णिप्पडियार त्रि०(निष्प्रतीकार) अचिकित्स्ये, प्रश्र०४ सम्ब० द्वार। यस्मिन्नाटके तन्निष्पुरुषनाटकम् / केवलस्त्रीपात्रमये नाटके, सङ्घा० 1 णिप्पडिवक्ख त्रि०(निष्प्रतिपक्ष) बाधकरहिते, स्या। अधि०१ प्रस्ता णिप्पण्ण त्रि०(निष्पन्न) सिद्धे, पञ्चा०८ विव०। णिप्पुलाय पुं०(निष्पुलाक) आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां भरते वर्षे भविष्यति बलदेवजीवे चतुर्दशे तीर्थकरे, ती०२० कल्प० प्रव०। णिप्पण्णजोगपुं०(निष्पन्नयोग) योगिविशेषे, षो०। स०। ति। तल्लिङ्गं चेदम् णिप्पंद त्रि०(निष्पन्द) व०सा "ष्प-स्पयोः फः" / / 8 / 2153 / / इति "दोषव्यपायः परमा च तृप्ति ष्पस्य फः। प्रा०२ पाद। हस्ताऽऽद्यवयवचलनरहिते, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०॥ रौचित्ययोगः समता च गुर्वी। अन्त०। "उअ णिचलणिप्फंदा, भिसिणीपत्तम्मि रेहइ बलाआ।" वैराऽऽदिनाशोऽथ शतम्भरा धी प्रा०२ पाद। निष्पन्नयोगस्य तु चिह्नमेतत्॥१॥" षो०१३ विव०। णिप्फण्ण त्रि०(निष्पन्न) परिनिष्ठिते, विशे० ''भयवया कहित णिप्पण्णमेइणीय पुं०(निष्पन्नभेदनीक) निष्पन्ना, कोऽर्थः? नि- ___णिप्फन्नो / ' आ०म०१ अ०२ खण्ड। ष्पन्नसर्वशस्या मेदिनी यत्र स तथा / शस्यनिष्पत्तिकाले, "णिप्पन्न- | णिप्फरिस (देशी) निर्दये, देना० 4 वर्ग 37 गाथा। मेइणीयसि कालंसि य मुइयपत्रीलिएसु जणवएसु।" कल्प०४ क्षण। णिप्फाइऊण अव्य०(निष्पाद्य) निर्माप्येत्यर्थे ,पञ्चा०७ विव० णिप्पत्त त्रि०(निष्पन्न) स्वभावतः पत्ररहिते, व्य० 1 उ०॥ णिप्फाइय त्रि० (निष्पादित) योग्यतामापादिते, आचा०१ श्रु०८ अ०१ णिप्पत्ति स्त्री०(निष्पत्ति) निष्पादने, व्य०१ उ०ा सिद्धौ, स्था०६ ठा०। उ०। 'ताहे तम्मि दिवसे समयसहस्सेणं तत्तं णिप्पादितं चिंतेइ।" विशे०। गच्छवासे गुणोऽयमपि-"णिप्पत्तिसंताणो / " निष्पत्तिः आ०म०२ अग सद्गुणत्वेन शिष्यसंसिद्धिःफलसन्तानसाधनसमर्थधान्यनिष्पत्ति- णिप्फायण न०(निष्पादन) करणे, आसेवने, आव०४ अ०। तुल्यः; ततः सन्तानः शिष्यप्रशिष्याऽऽदिवंशः संसारगर्तगताङ्गिवर्गस्य णिप्फाव पुं०(निष्पाव) "पस्पयोः फः"||।२।५३।। इतिष्पभागस्य निर्गमनसोपानपरम्परारूपः / पञ्चा०१८ विव०। फः। प्रा०२ पाद / वल्लनामके धान्यभेदे, जं०२ वक्ष०। णिप्पभ पुं०(निष्प्रभ) प्रभारहिते, "देवे चइस्सामीति जाणइ विमाणा- | णिप्फेडिय त्रि०(निष्फेटित) निष्काशिते, आ०म०१ अ०२ खण्ड। भरणाई णिप्पभाई पासित्ता।" विमानाऽऽभरणानां निष्प्रत्वमौत्पातिक | निःसारिते, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अपहृते, स्था०३ ठा०४ उ०। तचक्षुर्विभ्रमरूपं वा / स्था०३ ठा०३ उ०। णिप्फेस पुं०(निष्पेष) "पस्पयोः फः" ||8/2053 / / इति ष्पस्य फः। णिप्परिग्गह त्रि०(निष्परिग्रह) बाह्याऽऽभ्यन्तरपरिग्रहरहिते, उत्त०१४ "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः" ||8 / 2 / 60|| इति फस्योपरि पः। प्रा०२ अ०। क्वचिदविद्यमानस्वीकारे, उत्त०१४ अ०। पाद। संघर्षे , वाचा शब्दनिर्गम, देखना०४ वर्ग 26 गाथा। णिप्पलाय पुं०(निष्पलाक) भरते वर्षे भविष्यति चतुर्दशे तीर्थकरे, | णिबंध पुं०(निबन्ध) निबन्ध-घ / कालविशेषे देयत्वेन स०। ती०। प्रतिश्रुते वस्तुनि, “निबन्धो द्रव्यमेव'' इति स्मृतिः। 'अम्मापि--
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________________ णिबंध 2050 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिमंतणा यरो य पुत्तनेहेण अणुजाणंति, नेच्छइ निबंधे वि कए, कह सुचिररक्खियं / णिम धा०(न्यस्) नि-अस् / स्थापने, "न्यसो णिमणुमौ" ||8/4/166 / / वयं भंजामि?" आव० ४अ०। इति न्यस्यतेर्णिमाऽऽदेशः / 'न्यस्यति / प्रा०४ पादा णिबंधण न०(निबन्धन) निबध्यतेऽनेनात्र वा ल्युट्। हेतौ, वाच०। विशे०। णिमंतणा स्त्री०(निमन्त्रणा) विषयोपभोग प्रति प्रार्थने, सूत्र०१ श्रु०३ आलम्बने, विशे०। वीणायास्तन्त्रीनिबन्धनोलभागे च / भावे ल्युट् / अ०२ उ०। भोगोपभोग प्रति अभ्युपगमकरणे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०॥ बन्धने, वाचन अनु०। आचा०। औ०। अगृहीतेनाशनाऽऽदिनाऽहं भवदर्थमशनाऽऽणिबंधणवियोग पुं०(निबन्धनवियोग) निमित्तविरहे, द्वा० 25 द्वा०। द्यानयामीत्येवं भूतायां (ध०२अधि०) भक्तितः प्रार्थनायाम्, पञ्चा०१२ णिबद्ध त्रि०(निबद्ध) निथिते, स०१अङ्ग। विव०। स्था०। जीता नि०चू०। ध० भ०। णिबोलिज्जमाण त्रि०(निवोड्यमान) निमज्जमाने, प्रश्र०३ आश्र0 द्वार। अथ निमन्त्रणायाः सामाचार्याः स्वरूपम्णिब्बल त्रि०(निर्बल) निर्गत बलं सामर्थ्य यस्येति निर्बलम्। निःसारे, सज्झायादुव्वाओ, गुरुकिच्चे सेसगे असंतम्मि। आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। तं पुच्छिऊण कजे, सेसाण णिमंतणं कुज्जा // 38|| णिब्बलासय पुं०(निर्बलाशक) निर्बलं निस्सारमन्तप्रान्ताऽऽदिकं यद् (सज्झायादुव्वाओ त्ति) स्वाध्यायध्यानाऽऽदिकरणपरिश्रान्तः सन् द्रव्यं, तदशकस्तद्भोजी। अभिग्रहविशेषेण वल्लचणकाऽऽदिमात्र- गुरुकृत्ये रत्नाऽऽधिककार्ये विश्रामणावस्त्रपरिकाऽऽदौ, शेषके भोजिनि, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। कृतावशेष, असत्यविद्यमाने, किम् ? अत आहतं गुरुम, पृष्ट्वा यदुताऽहं णिब्बलिय त्रि०(निर्वलित) शुद्धाशुद्धस्वरूपे, विशे०/ साधुनिमित्तं भक्ताऽऽद्यानयामीत्यापृच्छ्य, कार्ये भक्तपानकाऽऽदिप्रयो-जने, णिभंजण न०(निर्भञ्जन) पक्वान्नोत्तीर्णदग्धघृते, ध०२ अधि० प्रश्र०) तद्विषयमित्यर्थः / शेषाणां गुरुव्यतिरिक्तानाम्, निमन्त्रणमामन्त्रणं भवदर्थ णिडभग्ग (देशी) उद्याने, देवना०४ वर्ग 34 गाथा। भक्ताऽऽद्यानयामीत्येवंलक्षणम्, कुर्याद्विदध्यादिति गाथाऽर्थः // 38 // णिब्भच्छण न०(निर्भर्त्सन) अरे दुष्टकर्मकारिन्नपसर दृष्टिमार्गादि किमित्येवं सदा व्यापृतेनैवाऽऽसितव्यमित्यत आहत्यादिरूपे (प्रश्र०२ आश्र० द्वार) आक्रोशविशेषे कटुकवचने, प्रश्न०३ दुलहं खलु मणुयत्तं, जिणवयणं वीरियं च धम्मम्मि। आश्र० द्वार। अङ्गुल्यादिना तर्जने, नि०चू०१उ०॥ एयं लभूण सया, अपमाओ होइ कायव्वो // 36 / / णिन्भच्छणा स्त्री०(निर्भर्त्सना) न त्वया मम प्रयोजनमित्यादिपरुष दुर्लभं खलु दुष्प्रापमेव, मनुजत्वं मानुषत्वम् / तथा जिनवचनवचने, भ०१५ श० महन्मत, वीर्य चोत्साहश्च, धर्मेचारित्रधर्मविषये, चशब्दःपदत्रये-ऽपि णिब्भय त्रि०(निर्भय) इहलोकाऽऽदिसप्तभयविप्रमुक्ते, आव०४ अ०| दुर्लभत्वसंबन्धनार्थः / किं चातः, एतन्मनुजत्वाऽऽदित्रयम्, लब्ध्वा प्रश्र०। गतभीके, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। आ०म०। अविद्यमान- प्राप्य, सदा सर्वदा, अप्रमादो धर्मकार्येष्वनालस्यम्, भवति स्यात्, राजाऽऽदिभये, प्रश्र०३ सम्ब० द्वार / भयरहिते, यत्र भयं न विद्यते। कर्तव्यो विधेयः / इत्यतः स्वाध्यायाऽऽदिखिन्ने न निमन्त्रणा कार्येति "णिभयं जत्थ चोरभयं नत्थि' नि०चू०१ उ०। गाथाऽर्थः // 36 // णिब्भयणा स्त्री०(निर्भजना) निश्चिता भजना निर्भजना। निश्चिते भागे, दुग्गतरयणायररय-णगहणतुल्लं जईण किचं ति। औला "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः" ||8||6|| इति भकारोपरि वः। आयतिफलम वसा-हणं च णिऊणं मुणेयव्वं // 40 / / प्रा०२ पाद। दुर्गतस्य दरिद्रस्य रत्नाकरे विचित्रमाणिक्योत्पादस्थाने प्राप्तस्य णिब्भर न०(निर्भर) निःशेषेण भरो भारोऽत्र / अतिमात्रेतद्युक्ते, त्रिका यद्रत्नग्रहणं माणिक्योपादानं, तेन यत्तुल्यं सदृशमभिलाषोपरमाभाववाचा "मेघो य णिभर वरिसइ।"आ०म०१ अ०२ खण्ड। साधयत्तिदुर्गतरत्नाकररत्नग्रहणतुल्यम् / किं तदित्याहयतीनां णिभिजमाण त्रि०(निर्भिद्यमान) नितरामतिशयेन भिद्यमाने, जी०३ साधूनाम्, कृत्यं कर्तव्यं स्वाध्यायवैयावृत्याऽऽदि / यथा हि दुर्गतस्य प्रति०४ उ०। ज०। प्राबल्याभावेनाधो विदार्यमाणे, "अह भंते ! रत्नाकरे गतस्य रत्नग्रहणे इच्छाया अविच्छेदो भवति. एवं साधोश्वरणमकोट्टपुडाण वा०जाव केतइपुडाण वा अणुवायंसि उभिजमाणाणं धिगतस्य वैयावृत्याऽऽदिषु साधुकृत्येष्वनवच्छिन्ना वाञ्छा स्यादिति णिभिज्जमाणाणं वा।''भ०१८ श०२ उ० जंग दुर्गतरत्नाकररत्नग्रहणतुल्यं यतिकृत्यमित्युक्तम्। इतिशब्दप्रयोगं णिभ त्रि०(निभ) सदृशे, जं०३ वक्ष०ा उत्त० औ०। दर्शयिष्यामः। तथा आयतावागामिकाले, परभवे इत्यर्थः। फलं साध्यमणिभंग पुं०(निभङ्ग) गात्राणां भजने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। स्येत्यायतिफलम् / पाठान्तरेण-आयत-फलं मोक्षफलम् / तथाणिभमेत्तन०(निभमात्र) उदाहरणमात्रे, नि०चू०८ उ०। अध्रुवाणि नश्वराणि साधनानि मानुष्यक्षेत्रजात्यादीनि यस्य तदध्रुवणिभाल धा०(निभाल) दर्शन, चुरा०। "खंधावारनिवेसे निभालेहि।" साधनम् / चशब्दः समुच्चयार्थः / इत्येतन्निपुर्ण सम्यक् 'मुणेयव्वं ति' आ०म०१अ०२खण्ड। आचाo ज्ञातव्यम् / ज्ञातं च तदैव स्याद्यदा सततं तत्राऽप्रमादो विधीयते / इति णिभेलण (देशी) गृहे, "सोमलच्छीनिभेलणं1" कल्प०३ क्षण। गाथाऽर्थः // 40 //
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________________ णिमंतणा 2051 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिमित्त गुरुमापृच्छ्य साधुनिमन्त्रणा कार्येत्युक्तम्, अथ तमनापृ च्छयैव प्रत्यासन्नताऽऽदिकारणात् साधवो निमन्त्रितास्तदा को विधिः? इत्याहइयरेसिं परिक्खित्ते, गुरुपुच्छाए णिओगकरणं ति। एवमिणं परिसुद्धं, वेयावच्चे तु अकए वि / / 11 / / इतरेषामपि गुर्वपेक्षया शेषसाधूनामपि, आक्षिप्ते उपन्यस्ते निमन्त्रणे, गुरुपृच्छाया रत्नाधिकप्रश्रस्य, नियोगकरणमवश्यंतया विधानम्, युक्तमिति शेषः / इदमुक्तं भवति-यद्यपि शेषसाधुविषया निमन्त्रणोपन्यस्ता, तथाऽपि न तद्वचनादेव प्रवर्तितव्यम्, अपि तु गुरुपृच्छाऽवश्य विधेयेति / इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ / कस्मादेवमित्याह-एवमुक्तन्यायेन गुरुप्रश्नपूर्वलक्षणेन, इदं शेषसाधुनिमन्त्रणं, परिशुद्धमेव निर्दोषमेव, भवतीति गम्यम् / “सो विहिना य'इत्यादिपूर्वोक्तप्रामाण्यात् / ननु यदि पृष्टो गुरुवारयेल्लाभो वा न भवेत्तदा भक्ताऽऽदेरसंपादनेन निमन्त्रणस्य निष्फलत्वात् कथं परिशुद्धताऽस्येत्याह-वैयावृत्त्ये भक्ताऽऽदिदाने, तुशब्द एवकारार्थो योजित एव / अकृतेऽप्यविहितेऽपि,आस्ता विहिते। भावतस्तस्य कृतत्वात्, गुर्वाज्ञाकरणस्यैव च महाफलत्वात्, गुरोरपि पुष्टाऽऽलम्बनतस्तन्निषेधनान्न यथाकथञ्चित् / क्वचित् "वेयावच्चं तु" इति पठ्यते / तत्र वैयावृत्यमेव तन्निमन्त्रणमिति प्रक्रमः, अकृतेऽपि वैयावृत्त्ये / इति गाथाऽर्थः // 41 // पञ्चा० 12 विवा णिमंतेमाण त्रि०(निमन्त्रयत्) निमन्त्रणं कुर्वाणे, "तओ पच्छा तस्स गिहेणिमंतेमाणस्स अणिमंतेमाणस्स।" आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०३ उ०। णिमंसू (देशी) तरुणे, देना० 4 वर्ग 32 गाथा। णिमग्ग त्रि०(निमग्न) अधोजलगमनानि कुर्वाणे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। पकाऽऽद्यवसन्ने, औ०। आ०म०। णिमग्गजला स्त्री०(निमग्नजला) निमज्जयत्यस्मिन् तृणाऽऽदिकमखिलं वस्तुजातमिति निमग्नम्, बहुलवचनादधिकरणे क्तप्रत्ययः निमग्नं जलं यस्यां सा तथा / तमिस्नगुहाया मध्ये वहन्त्यां नद्याम्, जं०३ वक्ष। आ०चू० णिमज्जग पुं०(निमज्जक) वानप्रस्थभेदेषु, ये स्नानार्थ निमग्ना एव क्षणं तिष्ठन्ति। नि०१ श्रु०४ वर्ग 1 अ०। औ०। भ०। णिमजण न०(निमज्जन) जलप्रवेशे, ग०२ अधि० 0 / णिमिअ त्रि०(स्थापित) "क्तेनाप्फुण्णाऽऽदयः"||4||२५८|| इति स्थापितस्य निमिआदेशः / न्यस्ते, प्रा०४ पाद। णिमित्त न०(निमित्त) हेतौ, कारणे, विशेष सहकारिकारणे, निमित्तकारणे च। सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ अष्ट०। उपष्टम्भकारणे, विशे०ा आ०म०ा व्य०। द्वे शब्दस्य निमित्ते / तद्यथा-व्युत्पत्तिनिमित्त, प्रवृत्तिनिमित्तं च / यथा गोशब्दस्य। तथाहि गोशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं गमनक्रिया, गच्छतीति गौरिति व्युत्पादनात् / तेन च गमनेनैकार्थिसमवायतया यदुपलक्षित सास्नाऽऽदिमत्त्वं, तत्प्रवृत्तिनिमित्तं, तेन गच्छति, अगच्छति वा गोपिण्डे गोशब्दः प्रवर्तते, उभय्यामप्यवस्थायां प्रवृत्तिनिमित्तभावात्। अश्वाऽऽदौ तुन प्रवर्तते, यथोक्तरूपस्य प्रवृत्तिनिमित्तस्य तत्राभावात्। व्य०१ उ० प्रयोजने, फले, संघा०१ अधि०१ प्रस्ता०। अतीतानागतवर्तमानवस्तुपरिज्ञानहेतौ ज्ञानविशेषे, प्रव०७३ द्वार। निमित्तमाहतिविहं होइ निमित्तं, तीयपडप्पन्नऽणागयं चेव। तेण न विणा उ नेयं, नज्जइ तेणं निमित्तं तु॥ त्रिविधं भवति निमित्तम् / तद्यथा--अतीतं, प्रत्युत्पन्नम्, अनागतं च / कालत्रयवर्तिलाभालाभाऽऽदिपरिज्ञानहेतुश्चूडामणिप्रभृतिकः, शास्त्रविशेष इत्यर्थः / कृत? इत्याह-तेन विवक्षितशास्त्रविशेषेण, विना ज्ञेयं लाभालाभाऽऽदिकं, न ज्ञायत इति लाभाऽऽदिज्ञाननिमित्तत्वान्निमित्तमुच्यते / एतानि कौतुकाऽऽदीनि य आजीवति स तत्तदाजीवको मन्तव्य इति / बृ०१ उ०। आ०म० आव०। ग०। पं०व०ाधादर्शका जे भिक्खू तीतं निमित्तं करेइ, करंतं वा साइज्जइ / / 7 / / जे भिक्खू पडुप्पण्णं निमित्तं वागरइ, वागरंतं वा साइजइ।।॥ जे भिक्खू अणागयं निमित्तं करेइ, करंतं वा साइजइ / / 6 / / जे भिक्खू पडुप्पण्णं णिमित्तं वागरति आगमस्स काले लाभादि वागरेति। छव्विहं णिमित्तं इमलाभालाभं सुहदुक्खं जीवितमरणऽतीतवज्जाई। गिहिअण्णतित्थियाण व, जे भिक्खू वागरिजा णं / / 2 / / लाभालाभं सुहं दुक्खं जीवितं मरणं / एतानि छ अतीतकाल-वजाणि वागरेति, वट्टमाणे एस्से चेत्यर्थः / गिहीणं, अण्णतित्थियाणं वा जो वागरेज भिक्खू सो आणादी दोसा पावेज। छव्विवट्टमाणगप्रदर्शनार्थं गाहा-- पट्टविओ मे अमुओ,लभति ण लभति व तस्सिमा वेला। सीमं सा दुक्खी हं,सुही ति अमुअंव ते दुक्खं / / 3 / / अमुगो मया अमुगसमीव पेसितो लाभणिमित्तं, सो तत्थ तं लभेज वा, णो लभेजा? अधवा इमा तस्स आगमणवेला, सो लद्धलाभो अलद्धलाभो वा आगच्छति,ण वा? सीमं सड्ढा वा कोइ पुच्छेज्ज-किमहं सुही,दुक्खी वा? अहवा–वट्टमाणकाले चेव वागरेति-इमंतेसारीरंदुक्खं, माणसं वा वट्टति। गाहाजीवति मओ त्ति वा सं-कितम्मि एगतरगस्स णिद्देसे। एवं होहिति तुज्झं, तस्स व लाभाऽऽदओ एस्सो ||4|| कोइ विदेसत्थो ण णजति–जीवति, मतो वा? एरिसे संकिते पुच्छितो एगतरणिद्देसं करेज, एवं वट्टमाणे.एस्सेवा जस्स पुच्छिज्जति सोपचक्खो, परोक्खो वा / पचक्खो भण्णतितुझं एस्सकाले एवं होहितिलाभो, अलाभो वा, सुह, दुक्खं वा, जीवियं, मरणं वा / परोक्खेतस्स एस्से काले इमो लाभो, अलाभो वा, सुहं, दुक्खं जीवितं मरणं वा भविस्सइ। जीवइ त्ति भणिते गाहाआणंद अपडिहयं, संखडिकरणं च उभयधा होति। खिन्नादिमरणकोट्टण, अधिकरणमणागए वा वि।।८।। आणंद अपडि हयं करेति, वर्द्धमानक इत्यर्थः / मतो त्ति भणिते संखडि करणं करेज / एवं उभयहा अविधे अधिक रणदोसो भवति / अहवा-- मतो ति भणिते खिन्नचित्तो भवे, मरति जापू
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________________ णिमित्त 2082 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिमित्तपिंड वा,उरसिरकुट्टणादि वा करेज, मितकिच्चकरणेसु वा अधिकरणं भवे। अहवा-अणागते णिमित्ते वागरिते एते खिन्नचित्ताऽऽदिया दोसा भवंति। जंच णिमित्तबलेण कज्जसंधणं करेजउच्छाहों विसीदंते, अगंतुकामस्स हाति गमणं तु। अहिकरणथिरीकरणं, कयविक्कयसंणियत्ती य॥८६।। अणागतणिमित्तवागरणेण कज्जे विसीदंतस्स उच्छाहो कतो भवति, लाभस्थिणो परदेसा अगंतुकामस्स अवस्संते लाभो भविस्सति त्ति गमणं करेति / किसिमादिअधिकरणेसु विसीदंतस्स अवस्सं वुड्डी भविस्सति त्ति वागरिए अधिकरणे स्थैर्य भवति। अहवा-परदेसं गंतुकामस्स इहेव लाभो भविस्सतित्ति थिरीकरणं भवति. इमं किणाहि, इतो कम्मारंभातो संणियत्ता इमम्मि कम्मारंभे पयट्टसु, एवं ते लाभो भविस्सति, एवं अधिकरणदोसा। एवमाएसदोसाआएसविसंवादे, पओसनिच्छुभणमादि वोच्छेओ। अहिकरणं अण्णेण व, उड्डाह अणण्णवादो य।।७।। आएसे य विसंवदति पदोसं गच्छेज, वसही वा णिच्छुभेज, आहारादिवसहीण वा वोच्छेदं करेज, अण्णेण वा निमित्तिएण सद्धि अधिकरणं भवे, अण्णेण वा निमित्तिएण संवादिते साधूण अण्णण्णवादो भवति, उड्डाहो य भवेज। गाहानियमा तिकालविसए, नेमित्ते छविहे भवे दोसो। सयमेव वट्टमाणे, उभए वा तस्थिमं णातं / / 8 / / णियमा अवस्सदोसो भवति तिकालविसए-अतीते, वट्टमाणे, एस्से य। छविहे लाभादिए सयमेव वर्तमानकाले आदेसे दोसो भवति, उभयमिति-अप्पणो, परस्स वा / तत्थिमंणातं दृष्टान्त इत्यर्थः / सवपरियणो पव्वोणीए णिग्गतो / अग्गगतिया पव्वोणी। तेण पुच्छियंकहं ते णाय? तेहिं कहियं-एरिसो तारिसो खमगो मित्तिओ, तेण कहितं / सो तं बोहिरत्तं णिमित्त पुच्छति। तेण वि से सुविणादि सादीयंकारं णिमित्तं अवितहं कहियं / सो भोतिओ कुवितो पुच्छति-एस वलवा गबिभणी, एतीए कि भविस्सति? तेण भणियं-पंचपुंडो आसो भविरसति। तेण तक्खणा चेव फालविया दट्ठो। ताहे भोतिओ भणति-जइ एवं ण होजा, तो तुह पेट्टफालियं होतं। एवं अवितहणेमित्तिया कति भविस्संति? जम्हा एते दोसा तम्हा ण वागरेज। गाहाअसिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे। अद्धाणरोहए वा, जयणाए वागरे भिक्खू / / 12 / / एतेहिऽसंथरंतो, पणगादीकम्मइच्छितो संतो। एस्सेव पडुपण्णं,च भणति भद्देसु उवउत्ते ||6|| एतेहिं कारणेहिं असंथरंतो पणगपरिहाणीए जाहे आहाकम्म अइक्कतो, ताहे पुव्वं अतीत णिमित्तं वागरेति भद्दगेसु अतीव उवउत्तो, पच्छा आगमिस्सं पडुप्पण्णं / नि०चू०१० उ०। अतीतानागतवर्तमानानामतीन्द्रियभावानामधिगमे निमित्तं हेतुर्यद्वस्तुजातं तन्निमित्तं, तदभिधायकशास्त्राण्यपि निमित्तानीत्युच्यन्ते इति ।भौमाऽऽदिलक्षणशास्त्रेषु, स्थाला 'अढविहे महानिमित्ते पण्णत्ते। तं जहा भोमे, उप्पाए, सुविणए, अंतलिक्ने, अंगे, सरे, लक्खणे, वंजणे।" स्था०८ ठा०ा आव०ा प्रव० बृ०। (भौमाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (विस्तरार्थिना तु अङ्ग विद्या नाम ग्रन्थो वीक्षणीयः। प्ररूपितं चैतद् 'अंगविज्जा' शब्दे प्र० भागे 36 पृष्ठे) वाक्प्रशस्त-शकुनाऽऽदिकेषु, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०1 चूडामणिप्रभृतौ निमित्तज्ञपुरुष, स्था०६ ठा०ादशा आचा०ा औ०। णिमित्तकारण न०(निमित्तकारण) पटस्य निमित्तं तन्तव एव कारणं निमित्तकारणम्, तद्व्यतिरेकेण पटानुत्पत्तेः / तथा च तन्तुभिर्विना न भवति यतः, तथा तद्वततानागऽऽदिचेष्टाव्यतिरेकेणापि न भवति, तस्याश्च चेष्टाया वेमाऽऽदि कारणम् / अन्यद्रव्यकारणभेदे, आ०म० अ० रखण्ड / आ०चू। णिमित्तणिप्पण्ण त्रि०(निमित्तनिष्पन्न) चिह्ननिष्पन्ने करणनिष्पन्ने, "चिंधणिप्पन्न ति, करणणिप्पन्नं ति, णिमित्तणिप्पन्नं ति वा एगटुं।" आ०चू०१० णिमित्तपिंड पुं०(निमित्तपिण्ड) निमित्तमङ्गुष्ठप्रश्नाऽऽदि, तदवाप्तो निमित्तपिण्डः। आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०। अतीतानागतवर्तमानकालेषु लाभाऽऽदिकथनं भिक्षार्थ कुर्वता उत्पादनादोष-संपर्केण गृहीतपिण्डे, ध०३ अधिo जीता अथ त भोजननिषेधःजे भिक्खू णिमित्तपिंड भुंजइ, भुंजंतं वा साइज्जइ / / 61 / / तीतमणागतवट्टमाणत्थाणोपलद्धिकारणं णिमित्तं भण्णति जो तं पउंजित्ता असणाऽऽदिमुप्पादेति, सो णिमित्तेहिं पिंडो भण्णति, आणादिया य दोसा, चउलहुं च से पच्छित्तं। भिक्खू णिमित्तपिंडं, कहेज सज्जं तु अहव सातिज्जे / गाहा आकंपिया निमित्ते-ण भोइणी भोतिए चिरगतम्मि। पुव्वभणितं कहेती, आगतों रुट्ठो य वलवाए।।६।। एगो णिमित्तिओ, तेण भोतिणी गामसामिणी आकंपिता-अविसंवातिणिमित्तेण आउट्टिता / अण्णया सा भोतिणी भोतिय चिरगत पुच्छतिकया सो भोतिओ आगच्छति? तेन कहिय-अमुगदिणे अमुगवेलाए आगच्छति। सोय आगतो।ताहेतस्स णेमित्तियपुव्वभणितं इत्थमादिपरियणो सव्वं कहेति। तम्मि कहिते सोऽतीसाधुभावेण सट्ठो बलवाए संपुच्छति। गाह दाराऽऽभोगण एगा-गिआगमो परियणस्स पव्वोणी ('पत्योणी' शब्दो देशीवचनः संमुखार्थः 1) / पुच्छा य खमणकहणं, सादीयंकार सुविणादी||६|| कोहो वलवा गभं, च पुच्छितो भणति पंचपुंडाऽऽसो। फालण दिटे जति णे-व तो तुहं अवितहं कति वा? ||1|| सती असती वा मे दारा, तस्स आभोगणट्टा एगागी आगतो पेच्छति--
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________________ णिमित्तपिंड 2083 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिम्मद्विय सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे।।१४२॥ निमित्ताऽऽदेशिनमाहनियमा तिकालविसए, णेमित्ते छव्विहे भवे दोसो। तिविह निमित्तं एके-क छट्विहं जं तु वन्नियं पुट्विं / सयमेव वट्टमाणे, उभए वा तत्थिमं णातं / / 143 / / अभिमाणभिनिवेसा, वागरियसं आसुरं कुणइ। कंठा। तिविधो कालो-अतीतो, वट्टमाणो, आगमिस्सो। एक्ककं छव्विहं त्रिविधमतीताऽऽदिकालत्रयविषयं यत्पूर्वमिहैवाऽऽभियोगिकभाणिमितं पउंजति। तत्थ इमते छन्भेदालाभं, अलाभ, सुह, दुहं, जीवियं, वनायां वर्णितं, तदेकै क षड्विधं लाभालाभसुखदुःखजीवितमरणं / एगम्मि पउत्तेणियमा संजमायपरोभया दोसा भवंति। एत्थ तीतं मरणविषयभेदात्षट् प्रकारणम् / आह-आभियोगिकभावानानिअप्पदोसतरं, ततो आगमिस्सं बहुदोसतरं, ततो पडुप्पण्णं बहुदोसतरं। बन्धनतया पूर्वमिदमुक्तम्, अतः कथमिदमिहाभिधीयत इत्याहतत्थपडुप्पण्णे इमं उदाहरण-- अभिमानाभिनिवेशादहङ्कारतीव्रतया व्याकृतं प्रकटितमेतन्निमिआकंपिया णिमित्ते-ण भोइणा भोइए चिरगयम्मि। तमासुरीं भावनां करोति, अन्यथा त्वाभियोगिकी मतिः। बृ०१ उ०। पुव्वभणितं कहेती, आगतों रुट्ठो य वलवाए // 144|| णिमित्तलक्खण न०(निमित्तलक्षण) विज्ञानहेतौ निमित्तशास्त्रे, विशे०। इमा भद्दबाहुकया गाहा। अथ निमित्तलक्षणं विवृण्वन्नाहएतीए इमाओ दो वक्खाणगाहाओ लक्खिज्जई सुभासुभ-मणेण तो लक्खणं निमित्तं ति। दाराऽऽभोयण एगा-गिआगमो परियणस्स पव्वोणी। भोमाइ तदट्ठविहं, तिकालविसयं जिणाभिहियं // 2163 / / पुच्छाय खमणकहणं, सादीयंकार सुविणादी॥१४५॥ लक्ष्यते विज्ञायते यस्माच्छुभाशुभमनेन ततो निमित्तमपि लक्षणम् / कोहो वडवा गभं, च पुच्छितो भणति पंचपुंडाऽऽसो। तराष्टविधमष्टप्रकारम् / उक्तं च-"भोमसुमिणंऽतलिक्खं, दिव्वं फालण दि8 जति णे-व तो तुहं अवितहं कति वा? ||146 / / अंगसरलक्खणं तह या वंजणमट्टविहं खलु,निमित्तमेवं मुणेयव्वं // 1 // " इति। भौमाऽऽदिस्वरूपंच ग्रन्थान्तरादवसेयम्। इदं चाष्टविधमपि निमित्तं एगम्मि गामे ओसण्णो णिमित्ती अत्थति, तत्थ जो गामभोतिओ सो प्रत्येकमतीतानागतवर्तमानरूपकालत्रयविषयं जिनैरभिहितमिति पवसितो, तस्य यजा भोइणी, सा तंणेमित्तियं णिमित्तं पुच्छति। ताहे तेण सा अवितहणिमित्तेणं आकंपिया / अण्णदा सा तं पुच्छति / तेण // 2163|| विशे०। आ०चू० कहियं-कल्लं अमुगवेलाए एति। सो वि भोइओ चिंतेइ-सव्वं इहेव छोउं णिमित्तसंजोग पुं०(निमित्तसंयोग) कारणसाहित्ये, "शुभो निमित्तएगागी जामि दाराभोगेण तिगवेसामि-किं वभिचारं वभिचरति, ण वा ? संयोगो, पञ्चकोदयतो मतः / "(18) शुभः प्रशस्तो निमित्तसंयोगः तस्सागमणवेलाए यसव्वो परियणो पव्वोणीए णिग्गतो। अपगगतिए एति, सद्योगाऽऽदिसम्बन्धः, सद्योगाऽऽदीनामेव निःश्रेयससाधननिमित्तसोय दिह्रो सागते कए पुच्छए-कह भंणति ? तेण भणियं-खमगोणेमिती, त्वात्। (18) / द्वा०२१ द्वारा तेण कहियं / आगतो घरं कलुसितमणसा एस वभिचारि त्ति भुत्तुत्तरे णिमित्तसुद्धि स्त्री०(निमित्तशुद्धि) शुभहेतुवस्तुशुद्धौ, यथा श्रावकणेमित्ती सदावितो, कहेति णिमित्तं, तेण जं किंचि पुव्वभणियं, भुत्तं वा, व्रतग्रहणे तत्कालोच्छलितशङ्कपणवाऽऽदिनिनादश्रवणपूर्णजम्भभृङ्गारअणुभूतं वा सुविणादिगतं तं सव्वं सचंकारेहिं कहित। एवं कहिते वि कोवं छत्रध्वजचामराऽऽद्यवलोकनशुभगन्धाऽऽध्राणाऽऽदिस्वभावा / ध०२ ण मुंचति / ततो रुट्ठो पुच्छति एतए वडवाए किं गब्भे त्ति / णेमित्तिणा अधिo उवओगेण भणियं-किसोरी पंचपुंडो। ततो रुट्ठो कालं ण पडिच्छति ति णिमित्तजीविया स्त्री०(निमित्ताजीविका) त्रैकालिकलाभालाभणति-फाडेह उदरं / से फाडियं दिट्ठो। ततो भणति-जति एवं णिमित्तं भाऽऽदिविषयनिमित्तोपात्ताऽऽहाराऽऽद्युपजीवने, स्था०४ ठा० 470 / एवं ण भवति, तो तुझं पोट्ट फाडियं होतं / एरिसा अवि-तहणिमित्ती | णिमिल्लण न०(निमीलन) नि-मील-ल्युट / "प्रादेमी ले" केत्तिया भविस्संति? जतो वभिचरंति णिमित्ता, छाउमत्थपओग य ||23|| इति अन्त्यस्य द्वित्वं वा, द्वित्वे ह्रस्वो वा। अक्षिसंकोचे, वितहा भवंति, अधिकरणादओ य दोसा आयपरोभयसमुत्था, | प्रा०४ पाद। संकाऽऽदिया य इत्थीसु दोसा, अतो ण णिमित्तं वागरेयव्यं / णिमीलण न०(निमीलन) 'णिमिल्लण' शब्दार्थे, प्रा०४ पाद। अववादेण वागरेयव्वं / गाहा णिमेण (देशी) स्थाने, देवना०४ वर्ग 37 गाथा। असिवे ओमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे। णिमेल (देशी) दन्तमांसे, देना०४ वर्ग 30 गाथा। अद्धाण रोहए वा जयणाए वागरे भिक्खू // 147 // णिमेला (देशी) धनपाले, देवना० ४वर्ग 30 गाथा। असिवादिकारणेहिं सुट् ठुउवउत्तो तीताइणिमित्तं वागरेति, जाहे | णिमेस पुं०(निमेष) अक्षिनिमीलने, भ० 14 श०१ उ०। आ० म०। पणगपरिहाणीए चउलहुं पत्तो। नि०चू०१३ उ०। _स्वाभाविकचक्षुर्निमीलनकाले, वाचा णिमित्तमाएसि(ण) पुं०(निमित्तादेशिन्) निमित्तमतीताऽऽदिभेद-णिम्मद्दग पुं०(निर्मर्दक) चौरविशेषे, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। भिन्नमादिशति यः स तथा। नैमित्तिकसाधौ, पं०व०४ द्वार। णिम्मद्विय त्रि०(निर्मर्दित) दलिते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार।
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________________ णिम्मम 2054 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिम्मियवाइ(ण) णिम्मम त्रि०(निर्मम) निर्गतं ममत्वं बाह्याऽऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु यस्मा- |णिम्माण धा० (निर्मा) विरचने, निष्पादने, प्रा०४ पाद। दसौ निर्ममः / सूत्र०१ श्रु० 10 अ०। ममत्वरहिते, संथा०। आवा *निर्माण न०। उत्तरकरणे, विशे०। पं०भा०। प्रज्ञा०ा आ०म० वस्त्रपात्राऽऽदिषु ममत्वरहिते, उत्त०१६ अ०। णिम्माणणाम(ण) न०(निर्माणनामन्) सर्वजीवशरीरावयवनि-ष्पादके अस्यां भारतभूमौ उत्सर्पिण्यां भविष्यति सुलसाजीवे पञ्चदशे तीर्थकरे, अङ्गोपाङ्गकर्मणि, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। कर्मा पं०सं०। उत्त०। प्रव०४६ द्वार। ती० तिला स० प्रवन णिम्ममभाव पुं०(निर्ममभाव) आकालं सकलपरिग्रहोपादनशून्य अंगोवंगणियमणं, णिम्माणं कुणइ सुत्तहारसमं / (47) चिदानन्दैकमूर्तिकशुद्धाऽऽत्मस्वभावानुभवजनिते निर्ममत्चे, द्वा० 27 द्वा०। निर्माण निर्माणनामाङ्गोपाङ्ग नियमनम्, अङ्ग प्रत्यङ्गानां प्रतिनिणिम्मल त्रि०(निर्मल) स्वाभाविकाऽऽगन्तुकमलरहिते, जी०३ प्रति०४ यतप्रदेशव्यवस्थापन, करोति विदधाति, अतः सूत्रधारसमं सूत्रउ०तं० प्रज्ञा० आ०म०। जं० रा०। विमले, औ०। प्रश्र०। भृत्कल्पम् / यदुदयाजन्तुशरीरेष्वङ्गोपाङ्गानां प्रतिनियतस्थानवृत्तिता कठिनमलरहिते, भ०२ श०६ उ०। स०) औ०। विशुद्धे, ज्ञा०। 1 श्रु० भवति, तत्सूत्रधारकल्पं निर्माणनामेत्यर्थः। तदभावे हि तद्भूतककल्पै१अ० स्वच्छे, कल्प०३ क्षण। भ०ा घट्टिनीघटिते, ''मट्टा घट्ठा नीरया रङ्गोपाङ्गनामाऽऽदिभिर्निवर्तितानामपि शिरउदराऽऽदीनां स्थानवृत्तेरनिम्मला निप्पंका" प्रज्ञा०२ पद। पूर्वबद्धकर्मविनिर्मुक्ते द्रव्यमलवर्जिते नियमः स्यात्। (47) कर्म०१ कर्म०। सिद्धे, औ०। ब्रह्मलोके षण्णां विमानप्रस्तटानां चतुर्थे , स्था०६ ठा०। निर्गतो मलो यस्मात् / 5 ब० वी०। कतके, तस्य हि संबन्धाद् णिम्माय पुं०(निर्मात) निष्पन्ने, बृ०६ उ०। परिनिष्ठामुपागते, व्य० 1 जलमलनाशकत्वं प्रसिद्धम् / वाचा उ०। पञ्चाका विशिष्टाभ्यासवति, कल्प०३ क्षण / सूत्रार्थतदुभयज्ञे, "आयरियाण सगासे, अमुयत्तेणं तु णिम्माया।" व्य०३ उ०। णिम्मलजलपुण्ण त्रि०(निर्मलजलपूर्ण) निर्मलने जलेन भृते, कल्प०३ क्षण। णिम्मावित्त त्रि०(निर्मापयितव्य) कर्तव्ये, (सूत्र०) 'पंच महब्भूया णिम्मलफलिह पुं०(निर्मलस्फटिक) विमले स्फटिकमणी, 'निर्मल अणिम्मिया अणिम्माविता अकडा णो कित्तिमा''। सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ स्फटिकस्येव, निर्मलं रूपमात्मनः / अध्यस्तोपाधिसंबन्धो, जडस्तत्र णिम्मिय त्रि०(निर्मित) निवेशिते, उपा०७ अ०। ज्ञा० न्यस्ते, ज्ञा०१ विमुह्यति ||6|| अष्ट०४ अष्टा श्रु०१ अ०ा निष्पादिते, सूत्र०२ श्रु०१०। कृते, स्था०८ ठा०। औ०। णिम्मलबोहवंत त्रि०(निर्मलबोधवत्) विमलबोधसंपन्ने,षो० 3 विव०। | णिम्मियवाइ(ण) त्रि०(निर्मितवादिन) निर्मितमीश्वरब्रह्मपुरुषाऽऽदिना निर्मलबोधस्तु- "निर्मलबोधोऽप्येवं, शुश्रूषाभावसंभवो ज्ञेयः / कृतं लोकं वदतीति निर्मितवादी। ईश्वरकृतलोकवादिलक्षणे शमगर्भशास्त्रयोगात्, श्रुतचिन्ताभावनासारः।।' षो०४ विव०। अक्रियावादिनि, (स्था०) णिम्मल्ल न०(निर्माल्य) देवोच्छिष्ट देवार्चाद्रव्ये, वाचला तार्थाss- "आसीदिदं तमोभूत-मप्रज्ञातमलक्षणम्। दिगतसप्रभावप्रतिमाशेषे, पिं० अप्रतय॑मविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः / / 1 / / भोगविणटुं दव्वं, णिम्मल्लं विंति गीयत्था। तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टे स्थावरजङ्गमे। यजिनबिम्बाऽऽरोपितं सद्विच्छायीभूतं विगन्धिसंजातं दृश्यमानं च नष्टामरनरे चैव, प्रणष्टोरगराक्षसे / / 2 / / निःश्रीकतया न भव्यजनमनःप्रमोदहेतुः, तन्निर्माल्यं ब्रुवन्ति बहुश्रुताः / केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते। सङ्घा०१ अधि०१ प्रस्ता अचिन्त्याऽऽत्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः / / 3 / / *नैर्मल्य न०। निर्मलपरिणतो, द्रव्या०८ अध्या०। तत्र तस्य शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतम्। णिम्मव धा०(निर्मा) निर्+मा। विरचने, निष्पादने, "निर्मेनिम्माण तरुणरविमण्डलनिभं, हृद्यं काञ्चनकर्णिकम्॥४।। निम्मवा" ||8||16|| इति निरपूर्वस्य मिमीते: णिम्माण तस्मिन्पो भगवान्, दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः / निम्मवाऽऽदेशौ। णिम्माणेइ। णिम्मवइ। निर्मिमीते। प्रा०४ पाद। कर्मणि यक। निर्माप्यन्ते। परिसमाप्तिं नीयमाने, पं०सू० १सूत्रा ब्रह्मा तत्रोत्पन्न-स्तेन जगन्मातरः सृष्टाः / / 5 / / णिम्मवइत्ता त्रि०(निर्मापयितृ) सफलतापर्यन्तकार्यनतरि, स्था०४ अदितिः सुरसङ्घाना, दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम्। ठा०४ उन विनता विहङ्गमानां, माता विश्वप्रकाराणाम् // 6 // णिम्मह धा०(गम्) गतौ, "गमेरईअइच्छाणुवज्जावजसोक्कुसा कद्रूः सरीसृपाणां,सुलसा माता तु नागजातीनाम्। क्कुस-पचडु-पच्छन्द-णिम्मह-णी-णीण-णीलुक्क–पदअ रम्भ सुरभिश्चतुष्पदाना-मिला पुनः सर्वजीवानाम् // 7 / / इति। परिअल्ल-वोल-परिअल-णिरिणास-णिवहाव-सेहावहराः" प्रमाणयति चासौ-बुद्धिमत्कारणकृतं भुवनं, संस्थानवत्त्वात्, ||8 / 16 / / इति सूत्रेण गमेर्णिम्महाऽऽदेशः। 'णिम्महइ' गच्छति।। घटवदित्यादि / अक्रियावादिता चास्य न कदाचिदनीदृशं जगदिति प्रा०४ पाद। वचनादकृत्रिमभुवनस्याकृत्रिमतानिषेधात् / न चेश्वराऽऽदिणिम्महियरागरोस त्रि०(निर्मथितरागरोष) निराकृतप्रीतिद्वेषे, जीवा० कर्तृकत्वं जगतोऽस्ति, कुलालाऽऽदिकारकवैयर्थ्य प्रसङ्गात् / १अधि। कु लालाऽऽदिवचेश्वराऽऽदेबुद्धिमत्कारणस्यानीश्वरताप्रस
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________________ णिम्मियवाइ(ण) 2085 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियइ ङ्गात् / किञ्च-ईश्वरस्याशरीरतया कारणाभावात् क्रियास्वप्रवृत्तिः स्यात् / सशरीरत्वे च तच्छरीरस्यापि कर्वन्तरेण भाव्यम, एवं चानवस्थाप्रसङ्ग इति। स्था०५ ठा०। ('इस्सर' शब्दे द्वितीयभागे 636 पृष्ठे चैतन्मतं परीक्षितम्) णिम्मिस्सवल्ली स्त्री०(निर्मिश्रवल्ली) नालबद्धेऽनन्तरस्वजनवर्ग, षड् निर्मिश्राणिमाया पिया य भाया, भगिणी पुत्तो तहेव धूया य। एसा अणंतरा खलु, णिम्मिसा होति वल्ली उ॥ माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्रो दुहिताच। एषा खल्वनन्तरा भवति वल्ली / व्य० 10 उ०॥ णिम्मूल त्रि०(निर्मूल) उच्छिन्नमूले, "णिम्मूलुल्लुणकण्णोठ्ठना-सिका छिन्नहत्थपङ्कया / ' प्रश्न०१ आश्र० द्वार / णिम्मूलितंतफुरफुरंतविगलमम्महयविगयगाढदिण्णपहारमुच्छितरुलंतविभलविलावकलुणो / निर्मूलितानि विकुक्षितो बहिः- कृतानि अन्त्राणि उदरमध्यावयवविशेषा येषां ते तथा प्रश्न०३ आश्र० द्वार। णिम्मूलण न०(निर्मूलन) क्षये, द्वा० 26 द्वा०॥ णिम्मेअ (देशी) गते, देवना०४ वर्ग 34 गाथा। णिम्मरे त्रि०(निर्मर्याद) परस्त्रीपरिहाराऽऽदिमर्यादाविलोपित्वात् (रा०।। दशा०) लोककुलाऽऽद्यपेक्षया (स्था०३ ठा०२ उ०) अविद्यमानकुलाऽऽदिमर्याद, जं०२ वक्ष०ा भ०। प्रतिपन्नाऽपरिपालके, स्था०३ ठा०१ उ०। णिम्मोअ पुं०(निर्मोक) कञ्चुके, ''केंचुल'' इति ख्याते सर्पत्वचि, विशे० "सेसस्स व निम्मोओ।" प्रा०२ पाद। णिम्मोयणी स्त्री०(निर्मोचनी) निर्मोके कञ्चुके, "जहा य भोई तणुयं भुयंगो, णिम्मोयणिं हिच पलेइ मुत्तो (34)" उत्त०१४ अ०॥ णिय त्रि०(निज) आत्मीये, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। कर्म०। अष्टा णियजाइलद्धदलिया-ऽणतंसो.............। (81) यका यकाः प्रकृतयो यस्यां मूलप्रकृतौ पतिता विद्यन्ते तासां सैव मूलप्रकृतिर्निजजातिर्विज्ञेया / तया तया निजनिजमूलप्रकृतिरूपया निजजात्या यल्लब्धं प्राप्तं दलिकानम्। (81) कर्म०५ कर्म०। णियइस्त्री०(निकृति) मायायाम्, तत्प्रच्छादनार्थे मृषावचने च 1 प्रश्न०२ आश्र० द्वार। सा *नियति स्त्री०। नियमनं नियतिः। यथाभवने, सूत्र०१ श्रु०१अ०३ उ01 अवश्यंभाव्युदये, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। सा च पदार्थानामवश्यतया यथाभवने प्रयोजककर्तीति। स्था०४ ठा०४ उ०। आचा० अथ नियतिवादिगोशालाना मतानीह दर्श्यन्तेआघायं पुण एगेसिं, उववण्णा पुढो जिया। वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणओ।।१।। पुनःशब्दः पूर्वोऽऽदिभ्यो विशेषं दर्शयति-नियतिवादिनां पुनरेकेषामेतदाख्यातम् / अत्र चाविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्तीति ख्याते तिोर्भाव निष्ठाप्रत्ययः, तद्योगे कर्तरि षष्ठी / ततश्चायमर्थःतैर्नियतवादिभिः पुनरिदमाख्यातं, तेषामयमाशय इत्यर्थः / तद्यथा उपपन्ना युक्त्या घटमानका इत्यनेन च पञ्चभूततज्जीवतच्छरीरवादिमतमपाकृतं भवति / युक्तिस्तु लेशतः प्राग्दर्शितैव, प्रदर्शयिष्यते च / पृथक् पृथक् नारकाऽऽदिभवेषु शरीरेषु चेत्यनेनाऽप्यात्माऽद्वैतवादिनिरासोऽवसे यः / के पुनस्ते पृथगुपपन्नास्तदाह-जीवाः प्राणिनः सुखदुःखभोगिनः / अनेन च पञ्चस्कन्धातिरिक्तजीवाभावप्रतिपादकबौद्धमताऽपक्षेपः कृतो द्रष्टव्यः। तथा ते जीवाः पृथक् पृथक् प्रत्येकदेहे व्यवस्थिताः सुखं दुःखं च वेदयन्त्यनुभवन्ति / न वयं प्रतिप्राणिप्रतीतं सुखदुःखानुभवं निहुमहे / अनेन चाऽकर्तृवादिनो निरस्ता भवन्ति / अकर्तर्यविकारिण्यात्मनि सुखदुःखानुभवानुपपत्तेरिति भावः / तथैतदस्माभिर्नोऽपलप्यते / (अदुवेति) अथवा-ते प्राणिनः सुखं दुःखं चानुभवन्ति, विलुप्यन्ते उच्छिद्यन्ते, स्वायुषः प्रच्याव्यन्ते, स्थानात्स्थानान्तरं संक्राम्यन्त इत्यर्थः / ततश्चौपपातिकत्वमप्यस्मामिस्तेषां न निषिध्यते। इति श्लोकार्थः / / 1 / / तदेवं पञ्चभूतास्तित्वाऽऽदिवादिनिरासं कृत्वा यत्तैर्निय-- तिवादिभिराश्रीयते, तच्छ्लोकद्वयेन दर्शयितुमाहन तं सयं कडं दुक्खं, कओ अन्नं कडं च णं? सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं / / 2 / / सयं कडं न अण्णेहिं वेदयंति पुढो जिया। संगइअंतं तहा तेसिं, इहमेगेसि आहियं / / 3 / / यत् तैः प्राणिभिरनुभूयते सुखं, दुःखं स्थानविलोपनं वा, न तत्स्वयमात्मना पुरुषकारेण कृतं निष्पादित दुःखमिति, कारणे कार्योपचाराद् / दुःखकारणमेवोक्तम्। अस्य चोपलक्षणत्वात् सुखाऽऽद्यपि ग्राह्यम् / ततश्चेदमुक्तम्भवतियोऽयं सुखदुःखानुभवः स पुरुषकारकृतकारणजन्यो न भवतीति / तथा कुतोऽन्येन कालेश्वरस्वभावकर्माऽऽदिना च कृतं भवेत्? णमित्यलङ्कारे / तथाहि-यदि पुरुषकारकृतं सुखाऽऽद्यनुभूयेत ततः सेवकवणिक्कर्षकाऽऽदीनां समाने पुरुषकारे सति फलप्राप्तिवैस दृश्यं, फलप्राप्तिश्च न भवेत्। कस्यचित्तु सेवाऽऽदिव्यापाराभावेऽपि विशिष्टफलावाप्तिदृश्यत इत्यतो न पुरुषकारात्किञ्चिदासाद्यते, किं तर्हि नियतेरेवेत्येतच द्वितीयश्लोकान्तेऽभिधास्यते / नापि कालः कर्ता, तस्यैकरूपत्वाज्जगति फलवैचित्र्यानुपपत्तेः / कारणभेदे हि कार्यभेदो भवति, नाभेदे। तथा ह्ययमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा घटते, यदुत विरुद्धधर्माध्यासः, कारणभेदश्चातथेश्वरकर्तृकेऽपि सुखदुःखेन भवतः / यथाऽसावीश्वरो भूर्तोऽमूर्तो वा? यदि मूर्तस्ततः प्राकृतपुरुषस्येव सर्वक र्तृत्वाभावः / अथाऽमूर्तस्तथासत्याकाशस्येव सुतरां निष्क्रियत्वम्। अपि च यद्यसौ रागाऽऽदिमात्रस्ततोऽस्मदाद्य व्यतिरेकाद्विश्वस्याकर्तव। अथाऽसौ विगतरागः, ततस्तत्कृतं सुभगदुर्भगेश्वरदरिद्राऽऽदिजगद्वैचित्र्यं न घटां प्राञ्चति, ततो नेश्वरः कर्तेति। तथा-स्वभावस्यापि सुखदुः खाऽऽदिकर्तृत्वानुपपत्तिः / यतोऽसौ स्वभावः पुरुषाद्भिन्नोऽभिन्नो वा? यदि भिन्न? न पुरुषाऽऽश्रिते सुखदुःखे कर्तुमलं, तस्मादिन्नत्वादिति / नाप्यभिन्नोऽभेदे पुरुष एव स्यात्तस्य चाकर्तृत्वमुक्तमेय। नाऽपि कर्मणः सुखदुःखं प्रति कर्तृत्वं घटते। यतस्तत्कर्म पुरुषादिन्नभिन्नं वा भवेत? अभिन्नं चेत्पुरुषमात्रताऽऽपत्तिः कर्म
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________________ णियइ 2056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियइ णः, तत्र चोक्तो दोषः। अथ भिन्नतत्किम्-सचेतनम्, अचेतनं वा? यदि / न्तेनाऽऽश्रयन्त्यतोऽजानानाः सुखदुःखाऽऽदिकारणम्, अबुद्धिका सचेतनम्, एकस्मिन् काये चैतन्यद्वयाऽऽपत्तिः / अथाऽचेतनम, तथा बुद्धिरहिता भवन्तीति / तथाहि-आर्हतानां किञ्चित्सुखदुःखानि सति कुतस्तस्य पाषाणखण्डस्येवास्वतस्त्रस्य सुखदुःखोत्पादनं प्रति नियतित एव भवन्ति, तत्कारणस्य कर्मणः कस्मिंश्चिदवसरेऽवश्यंभाव्युकर्तृत्वम्? इत्येतचोत्तस्त्र व्यासेन प्रतिपादयिष्ये; इत्यलं प्रसङ्गेनातदेवं दयसद्भावान्नियतिकृतमित्युच्यते / तथा किशिदनियतिकृतं च सुखं सैद्धिक सिद्धावपवर्गलक्षणायां भवं, यदि वा दुःखम्- पुरुषकालेश्वरस्वभावकाऽऽदिकृतं, तत्र कथञ्चित्सुखदुःखाऽऽदेः असातोदयलक्षणमसैद्धिकं सांसारिकम्।यदि वोभयभप्येतत्सुख दुःखं पुरुषकारसाध्यत्वमप्याश्रायते। यतः क्रियातः फलं भवति, क्रिया च वा स्रक्चन्दनाऽङ्गनाऽऽद्युपभोगक्रियासिद्धौ भवं, तथा कशाताड- पुरुषकाराऽऽयत्ता प्रवर्त्तते / तथा चोक्तम्- "न दैवमिति संचिन्त्य, नाङ्कनाऽऽदि सिद्धौ भवं सैद्धिकम् 1 तथाऽसैद्धिकं सुखमान्तर त्यजेदुद्यमात्मनः। अनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्नुमर्हति? ||1 // " मानन्दरूपमाकस्मिकमनवधारितबाह्य-निमित्तम् / एवं दुःखमपि यत्तु समाने पुरुषव्यापारे फलवैचित्र्यं दूषणत्वेनोपन्यस्तं, तददूषणमेव। ज्वरशिरोऽर्तिशूलाऽऽदिरूपमङ्गोत्थम-सैद्धिकम् / तदेतदुभयमपि, न यत-स्तत्रापि पुरुषकारवैचित्र्यमपि फलवैचित्र्ये कारणं भवति। समाने स्वयं पुरुषकारेण कृतं, नाप्यन्येन केनचित् कालाऽऽदिना कृतं, वा पुरुषकारे यः फलाभावः कस्यचिद्भवति, सोऽदृष्टकृतः / तदपि वेदयन्त्यनुभवन्ति, पृथक् जीवाःप्राणिन इति। कथं तर्हि तत्तेषामभूदिति चास्माभिः कारणत्वेनाऽऽश्रितमेव / (सूत्र०)(कालकर्तृत्वविचारः नियतिवादी स्वाभिप्रायमाविष्करोति (संगइअंति) सम्यक् स्वपरि 'काल' शब्दे तृतीयभागे 462 पृष्ठे गतः) तथेश्वरोऽपि कर्ता। आत्मैव हि णामेन गतिर्यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवनं, सा सङ्गतिर्नियतिः, तत्र तत्रोत्पत्तिद्वारेण सकलजगद्व्यापनादीश्वरः। तस्य सुखदुःखोत्पतस्यां भवं साङ्गतिकम् / यतश्चैव न पुरुषकाराऽऽदिकृतं सुखदुःखा त्तिकर्तृत्वं सर्ववादिनामविगानेन सिद्धमेव / यचात्र मूर्तामूर्ताऽऽदिदूषणऽऽद्यतस्तत्तेषां प्राणिनां नियतिकृतं साङ्गतिकमित्युच्यते / इहास्मिन् मुपन्यस्तं, तदेवंभूतेश्वरसमाश्रयणे दूरोच्छेदितमेवेति। स्वभावस्याऽपि कथञ्चित्कर्तृत्वमेव / तथाहि-आत्मन उपयोगलक्षणत्वमसंख्येयसुखदुःखानुभववादे, एकेषां वादिनामाख्यातम्, तेषामयमभ्युपगमः। प्रदेशत्वम् / पुगलानां च मूर्त्तत्वं धर्माधमास्तिकाययोर्गतिस्थित्युपष्टतथा चोक्तम् म्भकारित्वममूर्तत्वं चेत्येवर्मादिस्वभावाऽऽपादितम्। यदपि चाऽऽत्मव्य"प्राप्तव्यो नियतिवलाऽऽश्रयेण योऽर्थः, तिरेकाऽव्यतिरेकरूपं दूषणमुपन्यस्तं, तददूषणमेव / यतःस्वभाव सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। आत्मनोऽव्यतिरिक्तः / आत्मनोऽपि च कर्तृत्वमभ्युपगतमेव, तदपि भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, स्वभावाऽऽपादितमेवेति। तथा कर्माऽपि कर्तृ भवत्येव। तद्धि जीवप्रदेशः नाभाव्यं भवतिन भाविनोऽस्तिनाशः॥१॥" सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। सहान्योन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थितं कथञ्चिचाऽऽत्मनोऽभिन्नं, ये नियतिवादिनस्ते ह्येवमाहुः-नियति म तत्त्वान्तरमस्ति, यद्वशादेते तद्वशाचाऽऽत्मा नरकतिर्यड्मनुष्यामरभवेषु पर्यटन् सुखदुःखाऽऽदिभावाः सर्वेऽपि नियतेनैव रूपेण प्रादुर्भावमश्नुवते, नान्यथा। तथाहि- कमनुभवतीति। तदेवं नियत्यनियत्योः कर्तृत्वे युक्तयुपपन्ने सति नियतेयद्यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते / रेव कर्तृत्वमभ्युपगच्छन्तो नियुक्तिका भवन्तात्यवसेयम्।।४।। अन्यथा कार्यभावव्यवस्था, प्रतिनियतरूपव्यवस्था च न भवेत्, तदेवं युक्त्या नियतिवादं दूषयित्वा तदादिनामनियामकाभावात् / तत एवं कार्यनयत्यतः प्रतीयभानामेनां नियति को पायदर्शनायाऽऽहनाम प्रमाणपथकुशलो बाधितुं क्षमते? मा प्रापदन्यत्रापि प्रमाणपथ- एवमेगे उपासत्था, ते भुजो विप्पगडिमआ। व्याघातप्रसङ्गः। एवं उवठुिआ संता, ण ते दुक्खविमोक्खया // 5 // तथा चोक्तम् (एवमेगे उ इत्यादि) एवमिति पूर्वाभ्युपगमसंसूचकम्, सर्वस्मित्रपि "नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवन्ति यत्। वस्तुनि नियतानियते सत्येके नियतमेवाऽवश्यंभाव्येव कालेततो नियतिजा ह्येते, तत्स्वरूपानुबोधतः / / 1 / / श्वराऽऽदिनिराकरणेन निर्हेतुकतया नियतिवादमाश्रिताः। तुरवधारणे। यद्यदैव यतो यावत्, तत्तदैव ततस्तथा। त एव नान्ये / किंविशिष्टाः पुनस्ते? इति दर्शयति-युक्तिकदम्बकाद् नियतं जातये न्यायात्, क एनां वाधितुं क्षमः?" ||2| न०ा एवं बहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, परलोकक्रियापार्श्वस्था धा। नियतिपक्ष समाश्रयणात्परलोक क्रियावैयर्थ्यम् / यदि वा-पाश इव पाशः, श्लोकद्वयेन नियतिवादिमतमुपन्यस्यास्योत्तरदानायाऽऽह कर्मबन्धनम् / तचेह युक्तिविकलनियतिवादप्ररूपणम्, तत्र स्थिताः एवमेयाणि जंपंता, बाला पंडियमाणिणो। पाशस्थाः / अन्येऽप्ये कान्तवादिनः कालेश्वराऽऽदिकारणिकः निययानिययं संतं,अयाणंता अबुद्धिया / / 4 / / पार्श्वस्थाः, पाशस्था वा द्रष्टव्या इत्यादि। ते पुनर्नियतिवादमाश्रित्यापि, एवमित्यनन्तरोक्तस्योपप्रदर्शने, एतानि पूर्वोक्तानि नियतिवादा- | भूयो विविधं विशेषेण वा प्रगल्भिता धाष्ट्योपगताः परलोकसाधकासु ऽऽश्रितानि वचनानि / जल्पन्तोऽभिदधतो, बाला अज्ञाः सदस- , क्रियासु प्रवर्तन्ते। धााऽऽश्रयणं तु तेषां नियतिवादाऽऽश्रयणे सत्येव। द्विवेकविकला अपि सन्तः, पण्डितमानिन आत्मानं पण्डितं मन्तु शीलं पुनरपि तत्प्रतिपन्थिनीषु क्रियासु प्रवर्त्तनादिति / ते पुनरेवमयेषां ते तथा। किमिति त एवमुच्यन्ते? इत्येतदाह-यतः (निययानिययं प्युपस्थिताः परलोकसाधकासु क्रियासु प्रवृत्ता अपि सन्तो नाऽऽत्मदुः संतमिति) सुखाऽऽदिकं किञ्चिन्नियतिकृतभवश्यंभाव्युदयप्रापितं, खविमोक्षकाः; असम्यक् प्रवृत्तत्वान्नात्मानं दुःखाद्विमोचयन्ति। गता तथाऽनियतमात्मपुरुषकारेश्वराऽऽदिप्रापितं सद्, नियतिकृतमेवैका- नियतिवादिनः / सूत्र०१ श्रु०१अ०२ 101 आचा० ) अकस्मा
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________________ णियइ 2087- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियंटिय द्भवतीत्यनुपायवादिमतं चात्यन्तोपयुक्तत्वात् किचिद्विचार्यते- हेतुत्वान्न व्यभिचार इति चेत्।न। तथाऽपि संसबन्धिकताऽवच्छेदकअकस्मादिति किं किंशब्दस्य हेतुपरतया हेत्वभावभवनपरम्, उत- प्रकारकज्ञानत्वेन हेतुत्वमित्यत्र संबन्धिमात्रवृत्तित्वस्यैवावच्छेदक"अमानोनाः प्रतिषेधे" इति स्मरणान्निषेधार्थकस्य किं शब्दस्य पदार्थत्वात्। प्रकृते चेयंवहिव्यक्तिस्तृणजन्येति कारणताप्रत्यक्षस्यापि क्रियासंबन्धसभवाद् भवनाभावपरम्? किं वा-किं शब्दस्य स्व- तृणकार्यताऽऽश्रयमात्रवृत्त्येतदहित्यप्रकारकज्ञानसाध्यत्वसंभवात् / भिन्नपरतया, अलीकभिन्नपरतया वा स्वहेतुकत्वपरम्, अलीक- यद्वा-इयं वह्विस्तृणजन्येति प्रत्यक्षस्य एतदहित्वावच्छिन्नकार्यताऽवहेतुकत्वपरं वा? अथवा-अकस्मादिति स्वभावादित्यर्थे रूढतया गाहित्ये व्यवच्छेदकत्वाशे भ्रमत्वेऽपि कार्यतांशे प्रमात्वान्न कोऽपि दोषः। स्वभावादेव कादाचित्कमित्यर्थकः? एतेषु पञ्चसुनैकोऽपि प्रकारो युक्तः, (124) नयो०। सम्म नियतावधिकार्यदर्शनात् / अनियतावधित्वे, निरवधित्वे वा कादाचि- णियइकड त्रि०(नियतिकृत) अवश्यंभाव्युदयप्रापिते, सूत्र०१ श्रु०१ त्कत्वस्वभावाव्याकोपात् / तत्स्वभाव्ये च सहेतुकत्वस्याऽऽवश्य- अ०२० कत्वात् / तदुक्तमुदयनेन "हेतुभूतिनिषेधो न, स्वानुपाऽऽख्यविधिर्न णियइकम्म न०(निकृतिकर्मन्) निकृतेर्मायायाः कर्म निकृतिकर्म / च / स्वभाववर्णना नैवमवधेर्नियतत्वतः॥५॥" इति। अथाऽऽकाशत्वा- एकोनत्रिंशे गौणचौर्ये प्रश्र०३ आश्र० द्वार। ऽऽदीनां कादाचित्कत्ववत् कादाचित्कत्वमपि न सहेतुकत्वसाधकमिति | णियइपण्णाण त्रि०(निकृतिप्रज्ञान) निकृतिर्माया, तद्विषये प्रज्ञानं यस्य चेत्।न। आकाशत्वाऽऽदीनां सर्वत्र सत्त्वे आकाशाऽऽदिस्वभात्वाभाव- स तथा। ग्लानः प्रतिचरणीयोमा भवत्वितिग्लानवेषमहं करोमीत्येवप्रसङ्गात् / तत्स्वभावत्वं च धर्मिग्राहकमानसिद्धमिति हेतु विनाऽपि मादिविकल्पवति, स०। “सड्डे नियइपण्णाणे, कलुसाउलचेयसा / देशनियमस्तेषामिति। अथैवं कादाचित्कत्वमपि घटाऽऽदिस्वभावत्वादेव अप्पणो य अबोहीए, महामोहं पकुव्वइ / / 1 / / ' स०३० सम०) हेतुं विनाऽपि गमनाऽऽदिव्यावृत्तमस्त्विति चेत्।न।कादाचित्कत्वस्या- णियइपव्वय पुं०(नियतिपर्वत) नियत्या नैयत्येन पर्वता नियतिपर्वताः। वधिनियतत्वात् सन्त्यवधयो, नत्वपेक्ष्यन्त इति चेत्।न। नियतपश्चा- नियतपर्वतेषु यत्र वाणमन्तरा देवा देव्यश्च भवधाणीयत्वेन वैक्रियशरीरेण द्भावित्वस्यैवापेक्षार्थत्वात् / अन्यथा गर्दभाद् धूम इत्यपि प्रतीयेत, प्रायः सदा रममाणा अवतिष्ठन्त इति। जी०३ प्रति०४ उ०। राधा तन्नियतत्वेऽपि तद्गतोपकाराजनकस्य कथं तद्धेतुत्वमिति चेत्? णियइवाइ(ण) पुं०(नियतिवादिन्) सर्वभावानां नियतिकृतत्वउपकारोहि कार्यमिति तद्गतकार्यहेतुत्वस्य तद्धेतुत्वेऽतन्त्रत्वात्। अन्य- वादिनि, नं०। ('णियइ' शब्दे चैषां मतमनुपदमुपपादितम्) थोपकारहेतुत्वाचोपकारेऽप्युपकारान्तरस्वीकारेऽनवस्थाऽऽपत्तेः, तर्हि णियंटिय त्रि०(नियन्त्रित) नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितमिति / नियते घटादिति नियतत्वं कपालाऽऽदावेव, न तन्ताविति / कुत इति चेत्? प्रतिज्ञातदिनाऽऽदौ ग्लानत्वाऽऽद्यन्तराभावेऽपि नियमात्कर्तव्ये स्वभावादिति गृहाण / अथ तथापि ग्राहकाभावात्तदसिद्धिः, न च प्रत्याख्यानभेदे, न०। एतच प्रथमसंहनिनामेवेत्यभ्यधायि च / स्था० धूमाऽऽदौ वक़्यादेरन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानसचिवं वड्यादिप्रत्य- 10 ठा० क्षमेव हेतुहेतुमद्भावग्राहकं, धूममात्रेऽन्वयव्यतिरेकज्ञानासम्भवात् मास मासे अतवो, अमुगो अमुगदिवसम्मि एवइओ। यत्किञ्चिधूमे रासभाऽऽदेरपि तथा ज्ञानातासभाऽऽदेर्व्यभिचारज्ञानान्न हढेण गिलाणेण व,कायव्वो जाव उस्सासो॥१०॥ तद्ग्रह इति चेत् न / वयादेरपि व्यभिचारशङ्कासाभाल्यादिति / मासे मासे च तपः, अमुकोऽमुकदिवसे, एतावत्षष्ठाऽऽदि, हृष्टन नीरोगेण, धूमाऽऽद्यर्थिनो वयादौ प्रवृत्तिश्च संभावनयैवोपपद्यत इति परमतमिति ग्लानेन वा अनीरोगेण, कर्तव्यं, यावदुच्छासो यावदायुरिति गाथाचेत् / न / सामान्यव्यभिचारानुगतागुरु (ग्रह) विशेषान्तरानुपस्थिति समासार्थः।।१०।। दशायां यत्किञ्चिद्धमवयोस्तद्ग्रहसामग्या एव वहिधूममात्रे तद्ग्राह एअंपचक्खाणं, णियंटिअंधीरपुरिसपन्नत्तं / कत्वात् सति लाघवज्ञाने व्यभिचारशङ्काया अप्रतिबन्धकत्वात् / जं गिण्हतऽणगारा, अणिस्सिअप्पा अपडिबद्धा / / 11 / / रासभाऽऽदौ तु व्यभिचारनिर्णय एव / असति तन्निर्णये तत्र धूमहे एतत्प्रत्याख्यानमुक्तस्वरूपं, नियन्त्रितं धीरपुरुषप्रज्ञप्तं तीर्थतुत्वग्रहेऽपि भ्रमत्वमेव, ग्राह्याभावात् / 'अनन्यथासिद्धनियत करगणधरप्ररूपितं, यद् गृण्हन्ति प्रतिपद्यन्तेऽनगाराः साधवः, अनिः पूर्ववर्तित्वं हि हेतुत्वम्।" तथा च- वढ्यादेरवधिभूतस्य धूमाss सृताऽऽत्मानोऽनिदाना अप्रतिबद्धाः क्षेत्राऽऽदिष्विति गाथासमासार्थः दिनियतपूर्ववर्तित्वादनन्यथासिद्धत्वाच्च तद् दुर्निवारम् / यागा // 11 / / आव०६ अग ऽदृष्टाऽऽदौ स्वर्गाऽऽदिनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणताग्रहश्चावच्छेद हटेण गिलाणेण व, अमुगतवोऽमुगदिणम्मि नियमेण / कविनिर्मोकण शब्दानुमानाऽऽदिनैव तत्प्रामाण्यस्यापि तत्र व्यवस्थापितत्वात् / तृणाऽरणिमण्यादीनां वह्निकारणताग्रहेऽपीयमेव रीतिः, कायव्वो ति णिअंटिअं, पचक्खाणं जिणा विंति |5|| तृणत्वेन व्यभिचारज्ञानस्य तेनैव रूपेण कारणताग्रहविरोधित्वात्, हृष्टेन नीरोगेण, ग्लानेन वा सरोगेण, अमुकं तपः षष्ठाष्टमाऽऽदि, अवच्छेदकौदासीन्येन तृणत्वसमानाधिकरणकारणताग्रहे विरोधाभावात्। अमुकस्मिन् दिने, नियमेन निश्चयेन, मयेति शेषः। (कायव्यो त्ति) कर्तव्यं, अवच्छेदकरूपानुपस्थितौ कथमवच्छेद्यकारणताग्रहः? कारणतायाः प्राकृतत्वात् पुंसा निर्देशः, नियन्त्रितमिदं प्रत्याख्यानं, जिना ब्रुवते। इदं ससंबन्धिकपदार्थत्वेन तत्प्रत्यक्षे संबन्धिज्ञानस्य कारणत्वादिति चेत्। च प्रत्याख्यानं न सर्वकालं क्रियते , किं तर्हि, नियतकालमेव। न / 'अयं घटः' इति समवायप्रत्यक्षे व्यभिचारात् / अथ येन तथा चाऽऽहसमवायत्वाऽऽदिना रूपेण ससंबन्धिकता, तेन रूपेण तत्प्रत्यक्षे तस्य चउदसपुट्विसु जिणक-प्पिएस पढमम्मिचेव संघयणे।
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________________ णियंढिय 2058 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियंठिपुत्त एअं वोच्छिन्नं चिअ, थेरा वि तया करेसी य॥६६|| चतुर्दशपूर्विषु चतुर्दशपूर्वधरेषु जिनकल्पिकेषु, प्रथम एव संहनने वजऋषभनाराचाभिधेये, एतनियन्त्रितप्रत्याख्यानं, व्यवच्छिन्नमेव / अत्राऽऽहननु तस्मिन्नपि काले चतुर्दशपूर्वधराऽऽदय एव कृतवन्तः, स्थविरैस्तुन कृतमेवेदामित्याह (थेरा वितया करेसीय) स्थविरा अपि तदा पूर्वधराऽऽदिकाले, अकार्षुः, चशब्दादन्येऽप्यस्थविराः प्रथम संहनिन इति। प्रव०४ द्वार। भला आ०चू०। आव०/ णियंठ पुं०(निर्ग्रन्थ) निर्गता ग्रन्थात्सबाह्याभ्यन्तरादिति निर्गन्थाः। साधुषु, ते पञ्चधा-पुलाकः, वकुशः, कुशीलः, निन्थः,स्नात-कश्चेति / तत्र निर्ग्रन्थः निर्गतो मोहनीयकर्मलक्षणाद् ग्रन्थादिति निर्ग्रन्थः। ध०३अधि० भ०। (सर्वेऽप्येते ‘णिग्गंथ' शब्देऽस्मि-नेव भागे 2034 पृष्ठे प्रतिपादिताः) णियंठे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-पढमसमयणियंठे, अपढमसमयणियंठे, चरिमसमयणियंठे, अचरिमसमयणियंठे, अहासुहुमनियंठे णामं पंचमे / / "णियंठे" इत्यादि सुगमम् / नवरम् अन्तर्मुहूर्तप्रमाणाया निर्ग्रन्थाद्धायाः प्रथमे समये वर्तमान एकः, शेषेषु द्वितीयः, अन्तिमे तृतीयः, शेषेषु चतुर्थः, सर्वेषु पञ्चम इति विवक्षया भेद एषामिति। स्था०५ ठा०३ उन दरिद्रे, उत्त०१२ अ०) णियंठिपुत्त पुं०(निर्ग्रन्थिपुत्र) पेढालविद्याधरेण सुज्येष्ठाभिधानायां साध्व्यामुत्पादिते सत्यको, स्था०१० ठा०। तदवृत्तं चेत्थम्"सत्यकिः खेचरः कोऽसौ, तदुत्पत्तिर्निगद्यते॥(३०) चेटकस्यैव सुज्येष्ठा, सुताऽऽसीत्प्राव्रजच सा। उपाश्रयाङ्गणे नित्यं, कायोत्सर्ग ददाति च / / 31 / / इतः परिव्राट् पेढालो, विद्यासिद्धो नभश्चरः। तनयं ब्रह्मचारिण्याः, विद्यां दातुं निरीक्षते॥३२॥ कायोत्सर्गस्थितां दृष्ट्वा, सुज्येष्ठां ब्रह्मचारिणीम्। कृत्वा सधूम्या व्यामोहं, वीर्य तस्यां न्यवेशयत्॥३३॥ जाते गर्भेऽतिशयिभिः,ख्यातमस्या न विक्रिया / अथैधत श्राद्धगृहे, तत्सूनुर्वन्दितुं प्रभुम्॥३४॥ संयतीभिः समं यातः, कालसंदीपकस्तदा। अप्राक्षीन्मे कुतो भीतिः, स्वाम्याख्यत्सत्यकेरितः।।३।। तत्याचेऽथ स गत्वोचे, त्वंरे! मां मारयिष्यसि? इत्युदित्वा हठादात्म–पादयोस्तमपातयत्॥३६।। वयस्थोऽथ परिव्राजा, हुत्वा विद्याः स शिक्षितः। रोहिणी साधयन् पञ्च, भवान् स मारितस्तया॥३७॥ षष्ठे षण्मासशेषाऽऽयुः, सिद्ध्यन्तीं तां स नेष्टवान्। सप्तमे च भवे तां स, साधनायोपचक्रमे // 38|| शवं चितास्थं प्रज्वाल्य, तस्योपर्द्रिचर्म च। विस्तार्य वामाङ्गुष्ठेन, तत्र तज्ज्वलनावधि // 36 / / तस्य संक्रम्यमाणस्य, कालसंदीपकस्तदा। चिक्षेपाऽऽगत्य काष्ठानि, सप्तरात्रे गते ततः॥४०॥ देवता स्वयमेत्योचे, विघ्नमेतस्य मा कृथाः। सिद्ध्याम्यस्याहमूचे तं, कस्मिन्नने विशामि ते? // 41 // तेनादर्श्यलकं, तत्राऽविशत्तत्राभवद्विलम्। सा तुष्टा तद् व्याधान्नेत्रं, स त्रिनेत्रोऽथ विश्रुतः।।४२।। धर्षिताऽनेन साध्वीति, पेढालस्तेन मारितः। ततो रुद्राभिधः सोऽभू-त्कालं संदीपकं ततः॥४३॥ सिधासौ तत्र सोऽनश्य-दूधिः स तमन्वगात्। सोऽथो विकृत्य त्रिपुरं, पाताले लावणेऽनशत् / / 4 / / दग्ध्वा तन्मारयित्वातं, स विद्याचक्रवर्त्यभूत्। सर्वास्तीर्थकृतो नत्वा, त्रिसन्ध्यं नाट्यपूर्वकम् / / 4 / / रमते सोऽथ शक्रस्तं, महेश्वराभिधं व्यधात्। स विप्रद्वेषतस्तेषां, विध्वंसयति कन्यकाः॥४६॥ अन्तःपुरीभि पानां, स्वस्त्रीभिरिव खेलति। तस्य शिष्यद्वयं जज्ञे, नन्दी नन्दीश्वरस्तथा।४७|| स पुष्पकविमानेन, नभसा सर्वतोऽभ्रमत्। अन्यदोजयिनीपुर्या चण्डप्रद्योतभूभुजः॥४८॥ अन्तःपुरं विदध्वंसे, शिवां देवीं विनाऽखिलम्। सोऽथ दध्यौ विनाश्योऽयं, दुर्द्धरः खेचरः कथम्? // 46|| तत्रैवाऽसीदुमा नाम, गणिका रूपशालिनी। दृष्ट्वाऽऽयान्तं महेशं सा, धूपं तं प्रत्युदक्षिपत्॥५०॥ सोऽन्यदाऽवातरत्तत्र, तस्या हस्तेऽम्वुजद्वयम्। स्मेरं च मुकुलं चेशः, स्मेरहस्तमवाहयत(?)॥५१॥ मुकुल साऽर्पयन्त्यूचे, योग्योऽसि त्वममूदृशः। न स्मेरकमलप्रायाः, मादृशाः पुनरीक्षसे / / 5 / / तदुक्तिरञ्जितस्तत्र, तया सार्द्धमुवास सः। एकान्ते साऽन्यदाऽप्राक्षी-द्विद्याः स्युना॑न्तिके कदा?॥५३।। सोऽवदन्मैथुनाऽऽसड़े, तया राज्ञोन्यवेद्यत। राजोचेऽसौ तदा मार्य-स्त्वं रक्ष्या प्रत्ययाय च / / 54 / / पत्रं तदुदरे दत्त्वा, खगेनच्छदितं भटैः। मार्या त्वियमपीत्युक्त्वा, प्रच्छन्नाः स्थापिता भटाः // 55 // मारितस्तैस्तदासक्त-स्तया सह स खेचरः। ततो नन्दीश्वरस्ताभि-विद्याभिः समधिष्ठितः / / 56 / / शिलां व्योम्नि विकृत्योच्चै हीहताश ! हनिष्यसे। तमथाऽक्षमयगीतो, राजाऽऽर्द्रपटशाटकः / / 57 / / सोऽवदचेदिदं युग्म–मेतद्रूपं पुरे पुरे।। विधाप्याऽऽयतनेऽर्चध्वे, ततो मुञ्चामि नान्यथा / / 58 / / तत्प्रपेदे नरेन्द्रोऽथ, सर्वत्रापि व्यधापयत्। तत्प्रासादान्महोच्छ्राया-नेतस्योत्पत्तिरीदशी"॥५६|| आ०का स चोत्सर्पिण्यां जगत्प्रदीपो नाम तीर्थकरो भविष्यति। प्रव०३६ द्वार / वीरजिनाऽनगारभेदे, भ०। __सचनारदपुत्रेण पृष्टः पुद्गलान् व्याकरोदित्युच्यतेतेणं कालेणं तेणं समएणंजाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी णारयपुत्ते णामं अणगारे पगइभहएन्जाव विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स० जाव अंतेवासी नियंठिपुत्ते णामं अणगारे पगइभद्दए० जाव विहरइ। तएणं से नियंठिपुत्ते अणगारे जेणा मेव नारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी-सव्वे पोग्गल त्ति अजो ! किं सअट्ठा, समज्झा, सपएसा? उदाहु-अणट्ठा, अमज्झा, अपएसा? अञ्जो ! त्ति
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________________ णियंठिपुत्त 2086 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियंठिपुत्त नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं बयासी- सव्वे पोग्गला मे अज्जो ! सअड्डा, समज्झा,सपएसानो अणड्डा, अमज्झा, अपएसा / तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी-जइ णं ते अञ्जो ! सव्वे पोग्गला सअवा, समज्झा,सपएसा, नो अणब्वा, अमज्झा, अपएसा / किं दव्दादेसेणं अञ्जो ! सव्वपोग्गला सअड्डा, समज्झा, सपएसा, नो अणड्डा, अमज्झा, अपएसा। खेत्तादेसेणं अञ्जो ! सव्वपोग्गला सअड्डा० तहेव चेव; कालादेसेणं तं चेव, भावादेसेणं अज्जो ! तं चेव / तएणं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी-दव्वादेसेण वि मे अञ्जो ! सव्वपोग्गला असढा, समज्झा, सपएसा; नो अणड्ढा, अमज्झा, अपएसा ।खेत्ता-एसेण वि, कालाएसेण वि, भावाएसेण वि / तए णं से नियंठि-पुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी-जइ णं अञ्जो ! दव्वाएसेणं सव्वपोग्गला सअड्डा, समज्झा, सपएसा;नो अणड्डा, अमज्झा, अपएसा / एवं ते परमाणुपोग्गले वि असले, समज्झे, सपएसे; णो अणड्ढे, अमज्झे, अपएसे। जइणं अजो! खेत्ताएसेण वि सव्वपोग्गला सअड्ढा, समज्झा, सपएसा०जाव एवं ते एगपएसोगाढे वि पोग्गल सअड्डे, समज्झे, सपएसे / जइ णं अञ्जो ! कालाएसे णं सव्वपोग्गला सअड्डा, समज्झा, सपएसा / एवं ते एगसमयद्विइए वि पोग्गले सअड्डे, समझे, सपएसे। तं चेव जइणं अज्जो ! भावाएसेणं सव्वपोग्गला सअड्डे ३,एवं एगगुणकालए वि पोग्गले सअड्डे 3 तं चेव, अह ते एवं न भवंति, तो जे वयसि दव्वाएसेण वि सव्वपोग्गला सअड्डा, समज्झा, सपएसा; नो अणड्डा, अमज्झा, अपएसा / एवं खेत्ताएसेण वि, कालाएसेण वि, भावाएसेण वि। तं णं मिच्छा। तए णं से नारयपुत्ते अणगारे सियंठिपुत्तं अणगारं एवं क्यासीनो खलु एयं देवाणुप्पिया ! एयमढे जाणामो, पासामो। जइणं देवाणुप्पिया ! नो गिलायंति परिक हित्तए, तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म जाणित्तए। तए णं से णियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासीदव्वाएसेण वि अजो! सव्वपोग्गला सपएसा वि, अपएसा वि अणंता; खेत्ताएसेण वि एवं चेव, कालाएसेण वि, भावाएसेण वि एवं चेव।। (दव्वादेसेणं ति) द्रव्यप्रकारेण,द्रव्यत इत्यर्थः / परमाणुत्वाऽऽद्याश्रित्येति यावत्। (खेत्तादेसेणं ति) एकप्रदेशावगाढत्वाऽऽदिनेत्यर्थः। (कालादेसेणं ति) एकाऽऽदिसमयस्थितिकत्वेन। (भावादेसेणं ति) एकगुणकालकत्वाऽऽदिना / (सव्वपोग्गला स पएसा वीत्यादि) इह च यत्सविपर्ययसार्धाऽऽदिपुद्गलविचारे प्रक्रान्ते सप्रदेशा अप्रदेशा एव ते प्ररूपिताः, तत्तेषां प्ररूपणे सार्द्धत्वाऽऽदि प्ररूपितमेव भवतीति कृत्येत्यवसेयम्।तथाहि-सप्रदेशाः सार्धाः, समध्या वा। इतरे त्वनाः | अमध्याश्चेति। (अणंत त्ति) तत्परिमाणज्ञापनपरं तत्स्वरूपाभिधानम्। अथ द्रव्यतोऽप्रदेशस्य क्षेत्राऽऽद्याश्रित्याप्रदेशाऽऽदित्वं निरूपयन्नाहजे दव्वओ अपएसे से खेत्तओ नियमा अपएसे; कालओ सिय सपएसे, सिय अपएसे; भावओ सिय सपएसे, सिय अपएसे। (जे दव्वओ अपएसे इत्यादि) यो द्रव्यतोऽप्रदेशः परमाणुः, सच क्षेत्रतो नियमादप्रदेशो, यस्मादसौ क्षेत्रस्यैकत्रैव प्रदेशेऽवगाहते, प्रदेशद्वयाऽऽद्यवगाहे तु तस्याप्रदेशत्वमेव न स्यात्। कालतस्तु यद्यसावेकसमयस्थितिकस्तदाऽप्रदेशोऽनेकसमयस्थितिकस्तु सप्रदेश इति / भावतः पुनर्योकगुणकालकाऽऽदिस्तदाऽप्रदेशो, द्विगुणकालकाऽऽदिस्तुसप्रदेश इति निरूपितो द्रव्यतोऽप्रदेशः। अथ क्षेत्रतोऽप्रदेशं निरूपयन्नाहजे खेत्तओ अपएसे-से दव्वओ सिय सपएसे, सिय अपएसे; कालओ भयणाए, भावओ भयणाए, जहाखेत्तओ एवं कालओ, भावओ। जे दव्वओ सपएसे-से खेत्तओ सिय सपएसे, सिय अपएसे / एवं कालओ, भावओ वि / जे खेत्तओ सपएसे-से दव्वओ नियमा सपएसे, कालओ भयणाए, भावओ भयणाए, जहा दव्वओ तहा कालओ, भावओ वि। (जे खेत्तओ अपएसे इत्यादि) यः क्षेत्रतोऽप्रदेशः स द्रव्यतः स्या-- त्सप्रदेशः, व्यणुकाऽऽदेरप्येकप्रदेशावगाहित्वात् / स्यादप्रदेशः, परमाणोरप्येकप्रदेशावगाहित्वात् / (कालओ भयणाए त्ति) क्षेत्रतोऽप्रदेशो यः स कालतो भजनया अप्रदेशाऽऽदिर्वाच्यः / तथाहिएकप्रदेशावगाढ एकसमयस्थितिकत्वादप्रदेशोऽपि स्यादनेकसमयस्थितिकत्याच सप्रदेशोऽपि स्यादिति / (भावओ भयणाए त्ति) क्षेत्रतोऽप्रदेशो योऽसावेकगुणकालकाऽऽदित्वादप्रदेशोऽपि स्यादनेकगुणकालकाऽऽदित्वाच सप्रदेशोऽपि स्यादिति। अथ काला-प्रदेश, भावाप्रदेशं च निरूपयन्नाह-(जहा खेत्तओ, एवं कालओ, भावओ ति) यथा क्षेत्रतोऽप्रदेश उक्तः,एवं कालतो भावतश्चासौ वाच्यः। तथाहि-(जे कालओ अपएसे, से दव्वओ सिय सपएसे, सिय अपएसे) एवं क्षेत्रतो, भावतश्च / तथा-(जे भावओ अपएसे से दव्वओ सिय सपएसे, सिय अपएसे) एवं क्षेत्रतः, कालतश्चेति। उक्तोऽप्रदेशः। अथ सप्रदेशमाह-(जे दव्वओसपएसे इत्यादि) अयमर्थः यो द्रव्यतो व्यणुकाऽऽदित्वेन सप्रदेशः, स क्षेत्रतः स्यात्सप्रदेशो द् व्यादिप्रदेशावगाहित्वात्, स्यादप्रदेश एकप्रदेशावगाहित्वात्। एवं कालतो, भावतश्च / तथायः क्षेत्रतः सप्रदेशा व्यादिप्रदेशावगाहित्वात् स द्रव्यतः सप्रदेश एव, द्रव्यतोऽप्रदेशस्य द्विप्रदेशावगाहासम्भवात् / कालतो, भावतश्चासौ द्विधाऽपि स्यादिति। तथा यः कालतः सप्रदेशः, स द्रव्यतः, क्षेत्रतो, भावतश्च द्विधाऽपि स्यात्। तथा यो भावतः स प्रदेशः, स द्रव्यक्षेत्रकालैर्दिधाऽपि स्यादिति सप्रदेशसूत्राणां भावार्थ इति।
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________________ णियंठिपुत्त 2060 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियंठिपुत्त अथैषामेव द्रव्याऽऽदितः सप्रदेशाप्रदेशानामल्पबहुत्वविभाम माहएएसिणं मंते ! पोग्गलाणंदव्वादेसेणं खेत्तादेसेणं कालादेसेणं भावादेसेणं सपएसाणं अपएसाण य कयरे कयरे अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? नारयपुत्ता ! सव्व-त्थोया पोग्गला भावादेसेणं अपएसा, कालादेसेणं अपएसा असंखेनगुणा; दव्वादेसेणं अपएसा असंखेज्जगुणा; खेत्तादेसेणं अपएसा असंखेजगुणा, खेत्तादेसेणं चेव सपएसा असंखेनगुणा; दव्वादेसेणं सपएसा विसेसाहिया; कालादेसेणं सपएसा विसेसाहिया; भावादेसेणं सपएसा विसेसाहिया। तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारंवदइ, नमसइ, नमसइत्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो भुजोखामेइ, खामेइत्ता संजमेण० जाव विहरइ॥ "एएसिणं'' इत्यादि सूत्रसिद्ध, नवरम् अस्यैव सूत्रोक्ताल्प बहुत्वस्य भावनार्थ गाथाप्रपञ्चो वृद्धोक्तोऽभिधीयते"वोच्छं अप्पाबहुयं, दव्ये खेत्तऽद्धभावओ यावि। अपएससप्पएसा-ण पोग्गलाणं समासेणं॥१।। दव्वेणं परमाणू, खेत्तेणेगप्पएसमोगाढा। कालेणेगसमइया, अपएसा पोग्गला होति / / 2 / / भावेणं अपएसा, एगगुणा जे हवंति वन्नाइ। ते चिय थोवा जं गुण-बाहुल्लं पायसो दव्वे' / 3 / / पर्णाऽऽदिभिरित्यर्थः। द्रव्ये प्रायेण व्यादिगुणा अनन्तगुणान्ताः कालकत्वाऽऽदयो भवन्ति, | एकगुणकालकाऽऽदयस्त्वल्पा इति भावः। "एतो कालाएसे-ण अप्पएसा भवे असंखुगुणा। किं कारणं पुण भवे, भण्णइ परिणामबाहुल्ला?'' ||4|| अयमर्थः-यो हि यस्मिन् समये यद्वर्णगन्धरसस्पर्शसङ्ख्यातभेदसूक्ष्मत्वबादरत्वाऽऽदिपरिणामान्तरमापन्नः, स तस्मिन् समये तदपेक्षया कालतोऽप्रदेश उच्यते / तत्रैवैकसमयस्थितिरित्यन्ये, परिणामाक्ष बहव इति प्रतिपरिणामं कालाप्रदेशसम्भवात्तद् बहुत्वमिति।। एतदेव भाव्यते"भावेणं अपएसा, जे ते कालेण हों ति दुविहा वि। दुगुणाऽऽदओ वि एवं, भावेणं जावऽणंतगुणा" ||5|| भावतोयेऽप्रदेशा एकगुणकालकत्वाऽऽदयो भवन्ति, ते कालतो द्विविधा अपि भवन्ति; सप्रदेशाः, अप्रदेशाश्चेत्यर्थः। तथा भावेन द्विगुणाऽऽदयोऽपि अनन्तगुणान्ता एवमिति द्विविधा भवन्ति। ततश्च-- "कालप्पएसयाणं, एवं एक्कक्कओभवइ रासी। एकेकगुणट्ठाण-म्मि एगगुणकालयाईसु"॥६॥ एकगुणकालकाऽऽदिषु गुणस्थानकेषु मध्ये एकैकस्मिन् गुणस्थानके कालाप्रदेशानामेकैको राशिर्भवति। ततश्चानन्तत्वाद् गुणस्थानकराशीनामनन्ता एव कालाप्रदेशराशयो भवन्ति। अथप्रेरकः"आहाऽणंतगुणत्ताण-मेवं कालापएसयाणं ति। जमणंतगुणट्ठाणे-सु हो ति रासी वि हु अणंता // 7 // (एवमिति) यदि प्रतिगुणस्थानकं कालाप्रदेशराशयोऽभिधीयन्त इति / अत्रोत्तरम्"भण्णति एगगुणाण वि, अर्णतभागम्मि जं अणंतगुणा / तेणासंखगुण चिय, भवंति नाणत्तगुणियत्तं // 8 // अयमभिप्रायः-यद्यप्यनन्तगुणकालत्वाऽऽदीनामनन्ता राशयस्तथाऽप्येकगुणकालत्वाऽऽदीनामनन्तभाग एव ते वर्तन्त इति, न तद्वारेण कालाप्रदेशानामन्तगुणत्वम्, अपित्वसङ्घयातगुणत्वमेवेति। "एवं ता भावमिणं, पडुच कालापएसया सिद्धा। परमाणुपोग्गलाइसु, दव्ये वि हु एस चेव गमो''||६|| एवं तावद्धावं वर्णाऽऽदिपरिणामभिममुक्तरूपमेकाऽऽद्यनन्तगुणस्थानवर्तिनमित्यर्थः / प्रतीत्य कालाप्रदेशकाः पुद्गलाः सिद्धाः कालाप्रदेशभावाः पुद्गलाः सिद्धाः प्रतिष्ठिता द्रव्येऽपि द्रव्यपरिणाममप्यङ्गीकृत्य परमाण्वादिष्वेक एव भावपरिणामोक्तएव गमः / व्याख्या "एमेव होइ खेत्ते, एगपएसाऽवगाहणाईसु।। ठाणंतरसंकति, पडुच्च कालेण मग्गणया, / / 10 / / एवमेव द्रव्यपरिणामवद्भवति, क्षेत्रे क्षेत्रमधिकृत्य, एकप्रदेशावगाढाऽऽदिषु पुद्गलभेदेषु स्थानान्तरगमनं प्रतीत्य कालेन कालाप्रदेशानां मार्गणा, यथा क्षेत्रत एवमवगाहनाऽऽदितोऽपीत्येतदुच्यते। "संकोय विकोयं पिहु, पडुच ओगाहणाइएमेव / तह सुहुमबायरथिरे-यरेयसद्दाइपरिणाम "|11|| अवगाहनायाः सड्कोचं विकोचं च प्रतीत्य कालाप्रदेशाः स्युः। तथा सूक्ष्मबादरस्थिरास्थिरशब्दमनः कर्माऽऽदिपरिणामं च प्रतीत्येति। "एवं जो सच्चो चिय, परिणामो पोग्गलाण इह समए। तं तं पडुछ एसिं, कालेणं अप्पएसत्तं // 12 // (एसिं ति) पुद्गलानामित्यर्थः। "कालेण अप्पएसा, एवं भावा पएसएहितो। होतं असंखेनगुणा, सिद्धा परिणामबाहुल्ला // 13 // एतो दव्वादेसे-ण अप्पएसा हवतिसंखगुणा। के पुणते परमाणू, कह ते बहुय त्ति तं सुणसु? / / 14 / / अणुसंखेज्जपएसिय, असंखऽणंतप्पएसिया चेव। चउरो चिय रासी पो—गलाण लोए अणंताण // 15|| तत्थाऽणंतेहिंतो,सुत्तेणं तप्पएसिएहिंतो। जेण पएसट्टाए, भणिया अणवो अणंलगुणा" ||16|| अनन्तेभ्योऽनन्तप्रदेशिकस्कन्धेभ्यः प्रदेशार्थतया परमाणवोऽनन्तगुणाः सूत्रे उक्ताः। सूत्रं चेदम्-"सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए ते चेव, पएसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपोग्गला दव्वट्ठपएसट्टयाए अणंतगुणा, संखेजपएसिया खंधा दट्वट्टयाए संखेजगुणा, तेचेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, असंखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए असंखेजगुणा, तेचेवपएसट्ठयाए असंखेजगुण त्ति।" "संखेज्जइमे भागे, संखेज्जपएसिया ण वट्टति। नवरमसंखेज्जपए-सियाण भागे असंखइमे" ||17|| संख्येयतमे भागे संख्यातप्रदेशिकानामसंख्येयतमते भागे संख्यातप्रदेशिकानामणवो वर्तन्ते, उक्तसूत्रप्रामाण्यादिति।
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________________ णियंठिपुत्त 2061 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियट्टि "सइवि असंखेजपए-सियाण तेसिं असंखभायत्ते। कालाप्रदेशेषु सहसंवर्द्धते, तदेवं भावसप्रदेशेभ्यः कालसप्रदेशेषु हीयत बाहुल्लं साहिजइ, फुडमवसेसाहि रासीहि / / 18 / / इत्येवमन्यत्रापीति। संख्यातप्रदेशिकानन्तप्रदेशिकाऽभिधानाभ्यामिह च संख्यात- "अहवा खेत्ताईणं, जमप्पएसाण हायए कमसो। प्रदेशिकराशेः संख्यातभागवृत्तित्वातेषां स्वरूपतो बहुत्वमवगम्यते, तं चिय खेत्ताईणं, परिवड्इ सप्पएसाणं // 30 // अन्यथा तस्याप्यसंख्येयभागेऽनन्तभागे या तेऽभविष्यन्निति। अवरोप्परप्पसिद्धा, वुड्डी हाणी य होइ दोण्हं पि। "जेणेमरासिणो चिय, असंखभागे न सेसरासीणं। अपएससप्पएसा–ण पोग्गलाणं सलक्खणओ॥३१।। तेणासंखेजगुणा, अणवो कालापएसेहिं ||16|| ते चेव य ते चउहिँ वि, जमुवचरिजति पोग्गला दुविहा। न शेषराइयोरित्यस्यायमर्थः-अनन्तप्रदेशिकराशेरनन्तगुणास्ते, तेण वुड्डी हाणी, तेसिं अन्नोन्नसंसिद्धा // 32 // " संख्यातप्रदेशिकराशेस्तु संख्यातभागे संख्यातभागस्य च विवक्षया चतुर्भिरिति भावकालाऽऽदिभिरुपचर्यन्त इति विशेष्यन्ते। नात्यन्तमल्पताऽतः कालतः सप्रदेशेष्वप्रदेशेषु च वृत्तिमतामणूना "एएसिं रासीणं, निदरिसणम्मि णं भणामि पच्चक्खं / बहुत्वात्कालाप्रदेशानां च सामायिकत्वेनात्वन्तमल्पत्वात्काला वुड्डीए सव्वपोग्गल, जावंतावाण लक्खाओ'॥३३॥ प्रदेशेभ्योऽसंख्यातगुणत्वं द्रव्याप्रदेशानामिति। कल्पनया यावन्तः सर्वपुद्गलास्तावन्तो लक्षा इति। "एतो असंखगुणिया, हवंति खेत्ता पएसया समए। "एक चदो यपंच य, दस य सहस्साइँ अप्पएसाणं। जंते ता सव्वे चिय, अपएसा खेत्तओ अणवो॥२०॥ भावाईणं कमसो, चउण्ह विजहोवइट्ठाणं // 34|| दुपएसियाइएसु वि, पएसपरिवड्डिएसु ठाणेसु। णउइपंचाणउई, अट्ठाणउई तहेव नवनउई। लब्भइ एक्केको चिय, रासी खेत्तापएसणं // 21 // एवइयाइ सहस्सा-इँ सप्पएसाण विवरीयं // 35 // एतो खेत्ताएसे-ण चेव सपएसया असंखगुणा। एएसि जहसंभव-मत्थोवणयं करिजरासीण। एगपएसोगाढे, मोत्तुं सेसावगाहणया॥२२॥ सब्भावओ य जाणे-जते अणते जिणाभिहिए"॥३६॥ ते पुण दुपएसोगा-हणाइया सव्वपोग्गला सेसा। भ०५ श०८ उ०। तेय असंखेनगुणा, अवगाहणठाणबाहुल्ला / / 23 / / णियंठिया स्त्री०(नैर्ग्रन्थिकी) निर्ग्रन्थो भगवाँस्तस्येयं नैर्ग्रन्थिकी। दव्वेण होंति एत्तो, सपएसा पोग्गला विसेसहिया। तीर्थकरकृतायाम्, "जछन्न तन्न वत्तव्यं, एसा आणा नियंठिया। सूत्र०१ कालेण य भावेण य, एमेव भवे विसेसहिया // 24 // श्रु०६अ। द्वी भावाईया वुड्डी, असंखगुणिया जमप्पएसाणं / णियंसण न०(निवसन) परिधाने, औ०। उत्त० / जीवा०। तो सप्पएसियाणं, खेत्ताइविसेसपरिवुड्डी''।।२५।। णियंसणा स्त्री०(निदर्शना) "अभवद् वस्तुसंबन्ध उपमा परिकल्पिता, एतद्भावना च वक्ष्यमाणस्थापनातोऽवसेया। निदर्शना" इति मम्मटोक्ते, असम्बन्धे सम्बन्धरूपातिशयोक्तिलक्षणेवा "मीसाण संकमंपइ, सपएसा खेत्तओ असंखगुणा। अर्थालङ्कारभेदे, प्रति भणिया सट्टाणे पुण, थोव चिय ते गहेयव्वा"|२६|| णियंसित्ता अव्य०(न्पुष्य) परिधायेत्यर्थे, 'देवदूसजुगलं नियंसित्ता मिश्राणामित्यप्रदेशसप्रदेशानां मीलितानां संक्रमं प्रति अप्रदेशेभ्यः ___ अग्गेहिं वरेहि य मल्लेहि य अच्चेइ।" जी०३ प्रति०२ उ०। रा० सप्रदेशेष्वल्पबहुत्वविचारसंक्रमे क्षेत्रतः सप्रदेशाः असंख्येयगुणाः, णियग पुं०(निजक) स्वकीये पुत्राऽऽदौ, पञ्चा०१० विवानिास्वजने, क्षेत्रतोऽप्रदेशेभ्यः सकाशात् स्वस्थानेपुनः केवलसप्रदेशचिन्तायां स्तोका निचू० 270 आत्मीये बान्धवे, सुहृदिच। आ०चा०१श्रु०२अ०१उ०। एव ते क्षेत्रतः सप्रदेशा इति। णियगपरिवाल पुं०(निजकपरिवार) आत्मीयपरिवारे, "णियएतदेवोच्यते गपरिवालेण सद्धिं संपरिवुडे।'' रा०ा औ०। "खेत्तेण सप्पएसा, थोवा दव्वद्धभावओ अहिया। णियच्छइत्ता अव्य०(नियम्य) अवश्यतया प्राप्येतयर्थे , सूत्र०१ श्रु०१ सपएसऽप्पाबहुयं, सट्टाणे अत्थओएवं // 27 // अ०१ उ०। निश्चयेनावतीर्य युक्त्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०१ अर्थत इति व्याख्यानापेक्षया। णियजोगपवित्ति स्त्री०(निजयोगप्रवृत्ति) आत्मीयमनः प्रवृत्तौ, "अण्णे "पढमं अपएसाणं, बीयं पुण होइ सप्पएसाणं। णियजोगपवित्तीओ य / ' निजयोगानामाचार्यसत्कमनः प्रभृतीनां तइयं पुण मीसाणं, अप्पबहू अत्थओ तिन्नि ||28|| प्रवृत्तिः प्रवर्त्तनं निजयोगप्रवृत्तिः। पञ्चा०२ विव०। अर्थतो व्याख्यानद्वारेण त्रीण्यल्पबहुत्वानि भवन्ति / सूत्रे त्वेकमेव | णियट्टपग इअहिगार पुं०(निवृत्तप्रकृत्यधिकार) आधिधार्मिक मिश्राल्पबहुत्वमुक्तमिति। बोधिसत्त्वे, ध०१ अधि। "ठाणे ठाणे वड्डइ, भावाईणं जमप्पएसाणं। णियट्टमाण त्रि०(निवर्तमान) व्यावर्त्तमाने, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। तं चिय भावाईणं, परिभरसइ सप्पएसाणं" ||26 / / णियट्टि स्त्री०(निवृत्ति) 'वृतु' वर्तने इत्यस्य निपूर्वस्य क्तिनि निवर्त्तनं यथा किल कल्पनया लक्षं समस्तपुद्गलाः, तेषु भावकालद्रव्य- निवृत्तिः। त्यागे, प्रतिक्रमणे, आव०) क्षेत्रतोऽप्रदेशाः क्रमेण एकद्विपञ्चदशसहस्रसङ्ख्याः सप्रदेशास्तु नव साच षोडा। यत आहनवत्यष्टनवतिपञ्चनयतिनवतिसहससङ्ख्याः ततश्च भावाप्रदेशेभ्यः / नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य।
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________________ णियट्टि 2062 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियत एसो अणियट्टीए, निक्खेवो छविहो होइ। तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यनिवृत्तिस्तापसाऽऽदीनां हलकृष्टऽऽदिनिवृत्तिरित्याद्यखिलो भावार्थः स्वबुध्या वक्तव्यो, यावत्प्रशस्तभावनिवृत्त्येहाधिकारः। आव०४ अ०। भावनिवृत्तिः प्रतिक्रमणम्। आ०चू०१ अ आ०म० इदानी निवृत्तौ दृष्टान्तः"एकत्र नगरे शाला-पतिः शालासु तस्य च / धूर्ता वसन्ति तेष्वेको, धूर्तो मधुरगीः सदा // 1| कुविन्दस्य सुता तस्य, तेन सार्द्धमयुज्यत। तेनोचे साऽथ नश्यामो, यावद्वेत्ति न कश्चन / / 2 / / तयोचे मे वयस्याऽस्ति, राजपुत्री तथा समम्। संकेतोऽस्ति यथा द्वाभ्या, पतिरेकः करिष्यते॥३॥ तामप्यानय तेनोचे, साऽथ तामप्यचालयत्। तदा प्रत्यूषे महति, गीत केनचनाऽप्यदः // 4 // " "जइ फुल्ला कणिआरया, चूअय! अहिमासयम्मि घुट्टम्मि। तुहनखडं फुल्लेउ,जइ पचंता करितिडमराई (न क्षमन युक्त, प्रत्यन्ता नीचकाः, डमराणि विल्पवरूपाणि, शेषं स्पष्टम्।।१।।" श्रुत्वैवं राजकन्यासा, दध्यौ चूतमहातरुः। उपालब्धो वसन्तेन, कर्णिकारोऽधमस्तरुः // 5 // पुष्पितो यदि किं युक्तं, तवोत्तम ! ततस्तया। अधिमासघोषणा किं, न श्रुतेत्यस्य गीः शुभा।।६।। चेत्कुविन्दी करोत्येवं, कर्त्तव्यं किं मयाऽपि तत् ? निवृत्ता सा मिषादन्न-करण्डो मेऽस्ति विस्मृतः॥७|| राजसूः कोऽपि तत्राऽहि,गोत्रजैस्वासितो निजैः। ततस्तं शरणीचक्रे, प्रदत्ता तेन तस्य सा / / 8 / / तेन श्वशुरसाहाय्या-निर्जिन्य निजगोत्रजान्। पुनर्लेभ निज राज्य, पट्टराज्ञी बभूव सा / / 6 / / निवृत्तिद्रव्यतोऽभाणि, भावे चोपनयः पुनः / कन्यास्थानीया मुनयो, विषया धूर्तसंनिभाः / / 10 / / यो गीतिगानाऽऽचार्योप-देशात्तेभ्यो निवर्तते / सुगते जनं स स्याद्, दुर्गतस्त्वपरः पुनः''||११|| "द्वितीयोऽप्यत्र दृष्टान्तो, द्रव्यभावनिवर्तने / क्वचिद् गच्छे यदा साधुः, क्षमो ग्रहणधारणे // 1 // इत्याचार्याः पाठयन्ति, तदादरपरायणाः। सोऽन्यदोदितदुःकर्मा, निर्गच्छामीति निःसृतः // 2|| तदा च तरुणाः शूराः, साभिमानमिदं जगुः। मङ्गलार्थ च तत्साधुः, सोपयोगः स शुश्रुवान्"|३|| "तरिअव्वा य पयन्निआ, मरिअव्वं वा समरे समत्थएण। असरिसजणउल्लावा, न हुसहिअव्वा कुलपसूएणं''|११॥ सूक्तं चैतत्केनापयुक्तम्"लज्जा गुणौघजननी जननीमिवार्या-- मत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः। तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्''||१| गीत्यर्थकश्वायम्स्वमिसंमानिताः केऽपि, सुभटाः प्राप्तकीर्तयः। रणाद्भग्नाः प्रणश्यन्तो, निजपक्षयशोऽर्थिनः // 2 // ऊचिरे केनचिन्नैव, नष्टाः शोभिष्यथ क्वचित्। ततः प्रतिनिवृत्तास्ते, परानीकमभञ्जयन् / / 3 / / प्रभुसमानितास्तेऽथ, शोभन्ते स्म समन्ततः / एवं गीतार्थमाकर्ण्य, साधुरेवं व्यचिन्तयत्।।४|| रणस्थानीया प्रव्रज्या, भग्नोऽहं विदितोऽधुना। भ्रष्टोऽयमिति हीलिष्ये, जनैरसदृशैरपि // 5 // ततः प्रतिनिवृत्तोऽभूद्, दृढधर्मो विशेषतः। आलोचितप्रतिक्रान्तो,गुरोरिच्छामपूरयत्"||६|| आ००आव०। आचा०। आ०चू०। समकालप्रतिपन्नानां जीवानामध्यवसायभेदे, स०१४ सम०ा क्षीणमोहावस्थायाम्, सूत्र०१ श्रु० ११अग णियट्टिबायर पुं०(निवृत्तिबादर) निवृत्तिप्रधानो बादरो बादरसंपरायो निवृत्तिबादरः / स०१४ सम० / क्षपक श्रेण्यन्तर्गत क्षीणदर्शनसप्तके अपूर्वकरणाऽऽख्यसप्तमगुणस्थानवर्तिनिजीवग्रामे, आव०४ अ० "इदाणि नियट्टी-जदाजीवो मोहणिज्जं कम्मखवेतिवा, उवसमेति वा, तदा अप्पमत्तसंजतस्स अणंतरपमत्ततरेसुअज्झवसाणट्ठाणेसुवट्टमाणो दसणमोहणिजे कम्मे खवेति, उवसामितेवाजाव हासरतिअरतिसोगभवदुगुछाणं उदयवोच्छेदोन भवति, ताव सो भगवं अणगारो अंतोमुहत्तकालं नियट्टि त्ति भवति।" आ०चू०४अ० कर्मा ("अपुव्वकरण' शब्दे प्रथमभागे 611 पृष्ठे विस्तर उक्तः) णियडि स्त्री०(निकृति) नितरां करणं निकृतिः। आदरकरणेन परवञ्चने पूर्वकृतमायाप्रच्छादनार्थे मायान्तरकरणे, भ० १२श०५ उ०। प्रना आव०। स० आकारवचनाऽऽच्छादने, व्य०४ उ०। वकवृत्त्या कुक्कुचाऽऽदिकरणेन दम्भप्रधानवणिक्श्रोत्रियसाध्वाकारेण परवञ्चनार्थ गलकर्तकानामिवाव स्थाने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ दशा०। आ०म० ज्ञा०ा स्था०ा तं०। वकवृत्त्या कुक्कुचाऽऽदिकरणे, अधिकोपचारकरणेन परच्छलने, (इत्यन्ये) मायाप्रच्छादनार्थ मायान्तरकरणे, (इत्यप्यन्ये) ज्ञा०१ श्रु०१८ अामायायाम्, आव०५ अ०। सूत्र०व्या दशा। णियडिल्लया स्वी०(निकृतिमत्ता) निकृतिर्वश्चनार्थं चेष्टा, माया प्रच्छादनार्थ मायान्तरमित्येके। अत्यादरकरणेन परवञ्चनमित्यन्ये / तद्वत्ता / भ० 8 श०६ उ निकृतिश्च वञ्चनार्थं कायचेष्टाऽऽधन्यथाकरणलक्षणाभ्युपचारलक्षणं वा, तद्वत्ता। निकृतौ, स्था०४ ठा०४ उ०। णियडिसार त्रि०(निकृतिसार) मायाप्रधाने, पं०व०३ द्वार। णियण न०(निदान) निर्दलने, "नियणाऽलुणणमहणवावारे बहुविहे दिया काउं।" बृ०१ उ० णियणिय त्रि०(निजनिज) स्वकीयस्वकीये, पञ्चा०२ विव०॥ णियणियकाल पुं०(निजनिजकाल) आत्मीयाऽऽत्मीयकाले , प०व०१द्वार। णियणियतित्थ न०(निजनिजतीर्थ) स्वकीयस्वकीयप्रवचनावसरे, पञ्चा०६ विव० णियत त्रि०(नियत) निश्चिते, विशे० / सूत्र०। उत्त०। प्रतिनियतस्वरूपे, आ०म०१ अ०१ खण्ड / परिच्छिन्ने, आव०४
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________________ णियत 2063 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिययपव्वय अ० परिमिते, विशे०1शाश्वते, आव०४ अ० एकरूपत्वात् (स्था०५ / स्वाध्याये श्वरप्रणिधानानि नियमाः।" इति / (2-32) द्वा०२२ द्वा०। ठा०३ उ०) शाश्वतत्वात् सर्वकालमवस्थिते, जं०४ वक्ष०ा इन्द्रियाऽऽदिदमने, नं०] "अक्रोधो गुरुशुश्रूषा, शौचमाहारलाघवम् / णियत्त त्रि०(निवृत्त) अपरते, "परिग्गहारंभनियत्तदोसा।" उत्त०१४ अप्रमादश्चेति / / " द्वा०८ द्वा०। यदाहुर्भागवताः- "उपव्रतानि अ० "निवृत्ता जीवितास्तेऽत्र, सर्वेऽप्यन्ये पुनर्मृताः। (5)" आ०क०। नियमाः / / '' द्वा०८ द्वा०ा निश्चये, अव्यभिचारे, विशे०। प्रव०॥ णियत्तण न० (निवर्तन) भूमिपरिमाणविशेषे, उत्त० 1 अ० आगमने, अवश्यंभावनायाम, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० पञ्चा० श्रा० अवश्यकआव०४ अ० र्तव्यताऽङ्गीकारे, पञ्चा०१ विव०। अवश्यंकरणे, स०६ अङ्गा नियोगे, णियत्तणसयय न०(निवर्तनशतक) निवर्त्तनं भूमिपरिणामविशेषो पञ्चा०७ विव०ा नियमः पूर्वमीमासोक्तः-पक्षतः प्राप्तस्य इतरपक्षव्युदासेन देशविशेषप्रसिद्धः, ततो निवर्तनशतं कर्षणीयत्वेन यस्याऽस्ति एकतरपक्षे व्यवस्थापनम्, यथा-'व्रीहीनवहन्ति। अत्र वितुषीकरणतन्निवर्तनशतकम् / निवर्त्तनशतकर्षके हले, 'पंचहिं हलसएहिं साधनभूतस्य नखाऽऽदेरवहननस्य वा उभयोः प्राप्तौ अवधात इव प्रवृशिर्व्यवस्थाप्यते व्रते, "नियमस्तु स यत् कर्मानित्यमाग-- णियत्तणसयएणं हलेणं अवसेसं खेत्तवत्थु पञ्चक्खामि। 'उपा०१ अ०। न्तुसाधनम्" इत्युक्तेऽनित्ये आगन्तुकसाधने उपवासाऽऽदौ कर्मणि, णियत्तणिय न०(निवर्तनिक) निवर्त्तनं क्षेत्रमानविशेषः, तत्परिमाण शौचाऽऽदिषु च। वाचा (विस्तरस्तु वाचस्पत्ये द्रष्टव्यः) निवर्तनिकम् / निवर्त्तनमावे, निजतनुप्रमाणे, (इत्यन्ये) "णियत्तणि णियमओ अव्य०(नियमतस्) नियोगेनेत्यर्थे , पञ्चा० 10 विव०। यमंडलं आलिहेत्ता सलेहणाझूसणाझूसियस्स।" भ०३ श०१ उ०। णियमण न०(नियमन) संयम, उद्देसम्मिचउत्थे, समासवयणेण नियमणं णियत्तभाव त्रि०(निवृत्तभाव) निवृत्तपरिणामे अदुष्टाध्यवसाये, "सुहुमो भणिय। "(2) आचा०नि०१ श्रु० ४अ०१उ०। कारणे, आचा०१ श्रु०२ वि कम्मबंधो, न होइ उ नियत्तभावस्स।' व्य०२ उ०। चू०अ०। बन्धने, सूत्र०१ श्रु०८ अ० उपरमे, "अदत्तवरदारनियमणेहिं।" णियत्तमाण त्रि०(निवर्तमान) प्रत्यावर्तने, "गुरुगा नियत्तमाणे।''व्य०१ उ०। आतु नियत्ति स्त्री०(निवृत्ति) निवर्त्तने, "असंजमे नियत्तिं च, संजमे य णियमणिप्पकंप न०(नियमनिष्प्रकम्प) नियमेनावश्यंभावेन निष्प्र-- पवत्तणं / " उत्त०३१ अग कम्पमविचलं निरतिचारं यत्तत्तथा। निरपवादे व्रतान्तरं सापवादमपि णियत्थ त्रि०(निवसित) परिहिते, आ०म०१ अ०२ खण्ड। स्याद, ब्रह्मचर्य तु निरपवादमेव / 'ण य किंचि अणुन्नायं।'' इत्युक्तेः / णियदोसपज्जणीय त्रि०(निजदोषप्रत्यनीक) स्वकीयरागाऽऽदि प्रश्र०१आश्रद्वार। दूषणप्रतिपक्षे, पञ्चा० 10 विव०) णियमप्पहाण त्रि०(नियमप्रधान) विचित्रैरभिग्रहविशेषैरुत्तमे, ते या णियद्विय त्रि०(न्यर्दित) नितरामर्दिते, अनुगते, "अट्टनियद्दियचित्ता।" नियमा उत्तमा यस्य तस्मिन्, रा०॥ औला सू०प्र० णियमसाधग त्रि०(नियमसाधक) नियमेन कार्यकारणाव्यभिचारिणि, णियबुद्धि स्त्री०(निजबुद्धि) स्वकीयधियाम, पञ्चा० 10 विव०) प०सू०४ सूत्र। णियम पुं० (नियम) नियमनं नियमः / दर्श०५ तत्त्व अभिग्रहे,निरोधे, | णियमारक्खिय पुं०(नियमारक्षिक) राज्ञः सर्वप्रकृतीर्यो नियमाद्रक्षति पं०चूला व्रते, संथा०। अभिग्रहविशेषे, संथा०। पञ्चा०। ज्ञा० औ० | स नियमारक्षिकः / श्रेष्ठिनि, नि०चू० 4 उ०। द्रव्यक्षेत्रकालभावेनाभिग्रहप्रहणे, उपा०७अ० संथा०। महाव्रता- | णियमिय त्रि०(नियमित) अवधृते, विशे०। ऽऽदिरूपे, (सूत्र० 1 श्रु०३अ०२उ०) विरमणे, संथा। आ०म०। णियय त्रि०(निजक) आत्मीये, आव०३ अ०। पिण्डविशुद्ध्यादिके उत्तरगुणे, प्रश्र०४ सम्ब०द्वार। सा शौचाऽऽदिके *नियत त्रि० शाश्वते, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। "णियया सव्वभावा योगिपरिभाषितेऽर्थे द्वारा मगुलीण / ' नियताः सर्वभावा यैर्यथा भवितव्यं ते तथैव भवन्ति, न नियमाः शौचसन्तोषौ, स्वाध्यायतपसी अपि। पुरुषकारबलादन्यथा कर्तुं शक्यन्ते इति / उपा०६ अ०। “णिययाऽदेवताप्रणिधानं च, योगाऽऽचार्यैरुदाहृताः / / 2 / / णियया भिक्खायरिआ पाणन्नलेवाडं / / '' भिक्षाचर्या नियता(नियमा इति) शौचं शुचित्वम्। तद् द्विविधम्-बाह्यम्, आभ्यन्तरं च।। कदाचिदाभिग्रहिकी, अनियताकदाचिदनाभिग्रहिकी।" बृ०१उ०। बाह्य-मृजलाऽऽदिभिः कायप्रक्षालनम्, आभ्यन्तरंमैत्र्यादिभिश्चित्त- | णिययचारि(ण) त्रि०(नियतचारिन्) अप्रतिबद्धविहारिणि, सूत्र०१ मलप्रक्षालनम् / सन्तोषःसन्तुष्टिः / स्वाध्यायः प्रणवपूर्वाणां मन्त्राणां श्रु०७ अ० जपः / तपः-कृच्छचान्द्रायणाऽऽदि / देवताप्रणिधानमीश्वरप्रणिधानं, णिययपरिणाम पुं०(निजकपरिणाम) स्वाभिप्राये,"णिययपरिणामा।' सर्वक्रियाणां फलनिपेक्षतयेश्वरसमर्पणलक्षणम् / एते योगाऽऽचार्य : / स्वाभिप्रायान्। जीवा० 28 अधि०| पतञ्जल्यादिभिर्नियमा उदाहृताः / यदुक्तम्-''शौचसन्तोषतपः / णिययपव्वय पुं०(नियतपर्वत) क०स०। सदा भोग्यत्वे नाव
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________________ णिययपव्वय 2064 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण स्थितेषु पर्वतेषु,येषु देवा देव्यश्च भवधारणीयेनैव वैक्रियशरीरेण प्रायः त्वनामन्त्रितस्य / दश०३ अ० सदा रममाणा अवतिष्ठन्ते / रा०। जी०। णियागठि(ण) त्रि०(नियागार्थिन) नियागो मोक्षस्तद्धर्मो वा तदर्थनि, णिययपिंड पुं०(नियतपिण्ड) मया एतावद्दातव्यं,भवता तु नित्यमेव सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। मोक्षार्थिनि, उत्त० 5 अ०। "एवमेगे णियागडी, ग्राह्यमित्येवं नियततया गृह्यमाणे पिण्डे, स्था० 10 ठा०। (नियतपिण्ड- धम्ममाराहगा वयं / ' सूत्र०१ श्रु०१ अ०२३०। निषेधः 'णितियपिंड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2067 पृष्ठे द्रष्टव्यः) णियागपडिवण्ण त्रि०(नियागप्रतिपन्न) यजनं यागो, नियतो निश्चितो णिययवयणिज्ज त्रि०(निजकवचनीय) स्वांशपरिच्छेद्ये, 'णियय- वा यागो नियागो मोक्षमार्गः, सङ्गताध्वर्युत्वाद्धेतोः सम्यग्ज्ञा-- वयणिज्जसच्चा, सव्वनया वियालणे मोहा।''सम्म०९ काण्ड। नदर्शनचारित्राऽऽत्मकतया गतं सङ्गतमिति तं नियाग सम्यग्दर्शनणिययवास पुं०(नियतवास) विहारकाले विहारमकृत्वा एकत्र वासे, ज्ञानचारित्राऽऽत्मकं मोक्षमार्ग प्रतिपन्नो नियागप्रतिपन्नः / मोक्षमार्गस्य "जाहे वि अपरितंता, गामागरनगरपट्टणमडता / तो केइ निययवासी, सम्यग्दर्शनाऽऽदेरनुष्ठातरि, (आचा०) "णियागपडिवन्ने अमायं कुव्वमाणे संगमथेरं ववइसंति / / 11 / / " आव०३ अ० ('णितियवास' वियाहिए।" आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। सूत्रका शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2067 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता) 'भवयमणियतविहारं, णियाण न०(निदान) निश्चितं दानं निदानम् / अप्रतिक्रान्तस्याणिययविहारंणताव साहूणं / कारणनीयावासं, जो सेवे तस्स का वत्ता?" ऽवश्यमुदयापेक्षेतीव्रकर्मबन्धे, आ०चू०४अ०। नि०चू०। 11|| महा०४ अ०1 अस्थि अणिदाणओ ती-उन्मेओ तेण परिहर णिदाणे। णिययाणियय त्रि०(नियताऽनियत) अवश्यमनवश्यंभाविनि, “नियया- ते पुण तुल्लातुल्ला, मोहणियाणा दुपक्खे वि॥२२०।। निययं संतं, अयाणंता अबुद्धिआ।(४)" सुखाऽऽदिकं किञ्चिन्नियति- णिदाणं णाम-जं पडुच्च मोहणिज्जं उदिज्जति / तं जहा-इट्ठसद्दा-ऽऽदि। कृतमवश्यंभाव्युदयप्रापितं, तथाऽनियतमात्मपुरुषकारेश्वराऽऽदि- उक्तंच-"दव्यं खेत्तं कालं, भावंच भवंतहासमासज्जा तस्ससमासुद्दिडो, प्रापितं सद् नियतकृतमेवैकान्तेनैवाऽऽश्रयन्त्यतोऽजानानाः / सूत्र०१ उदओ कम्मस्स पंचविहो।।१।।"(दुपक्खे वित्ति) 'इत्थीणं पुरिसाण य श्रु०१अ०२ उ०) तुल्ला / ' नि०चू० 15 उ०। दिव्यमानु-षऋद्धिसंदर्शन श्रवणाभ्यां णिययाभिप्पायउञ्जयविहारि(ण) त्रि०(निजकाभिप्रायोद्यतविहारिन्) तदभिलाषाऽनुष्ठाने, आव०४अ स्वर्ग-माऽऽदिशद्धिप्रार्थने, आतु० स्वमतसुविहिते, जी०१ प्रतिका स्था०। भोगप्रार्थनायाम, व्य०१ उ०। स्था०। निदायते लूयते णिययावास पुं०(नियतवास) 'णिययवास' शब्दार्थ , आव०३ अ०॥ ज्ञानाऽऽद्याराधनालताऽऽनन्दरसोपेतमोक्षफला येन परशुनेव णियल न०(निगड) लोहमये "वेडी'' इतिख्याते पादयोर्बन्धने, और देवेन्द्राऽऽदिगुणद्धिप्रार्थनाऽध्यवसानेन तन्निदानम् / स्था०१० ठा०। "नियलेहि य बद्धा पिहिया य।" आ०म०१ अ०२ खण्ड। सूत्र०। नव निदानानिणियलिंगि(ण) पुं०(निजलिङ्गिन्) स्वमतवेषिणि, जीवा 35 अधिक तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम णगारे होत्था / णियल्ल पुं०(निगड) अष्टाशीतिमहाग्रहाणं त्रयःपञ्चाशत्तमे महाग्रहे, "दो वण्णओ / गुणसिलए चेइए रायगिहे णगरे सेणिए णामं राया नियल्ला।'" स्था०२ ठा०३ उ०। चं०प्र० होत्था। रायवण्णओ। एवं जहा उववातिए०जाव चेल्लणाए सद्धिं विहरति। *निज पुं०। महाग्रहे, स्था०२ ठा०३ उ०। चं०प्र० (तेणं कालेणमित्यादि) व्याख्या प्राग्वत्। (सेणिए त्ति) श्रेणिको नाम णियविहव पुं०(निजविभव) स्वकीयविभूतौ, पञ्चा०६ विव०॥ राजा (होत्था ति) अभवत्, आसीदित्यर्थः / (रायवण्णओ ति) णियसत्ति स्त्री०(निजशक्ति) स्वसामर्थ्य, द्वा०१५ द्वा०॥ राजवर्णकः-''महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे, अचंतविसुद्धणियसमय पुं०(निजसमय) स्वकीयावसरे, पञ्चा० 6 विव० रायकुलवंसप्पसूए, निरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे, बहुजणबहुणियसिस्सखंधचढिय त्रि०(निजशिष्यस्कन्धचटित) साध्वंशा माणपूइए, सव्वगुणसमिद्धे। (औ०) इत्यादिको वाच्यः / तस्य देवी ऽऽरूढे, जीवा० 21 अधि। समस्तान्तः पुरप्रधाना भार्या सकलगुणसमन्विता चेल्लणा नाम्नी / णियाइय त्रि०(निकाचित) नियमिते, सूत्र०१ श्रु०६ अ०| तस्या वर्णको यथा औपपातिकनाम्नि ग्रन्थेऽभिहितस्तथाऽत्राऽणियाग पुं०(नियाग) नितरां यजनं यागः पूजा यस्मिन् सोऽयं नियागः। / भिधातव्यः / स चायम्-''सुकुमालपाणिपाया, अहीणपडिपुन्नपंचिंमोक्षे, तत्रैव नितरां पूजा सम्भवात् / उत्त० 1 अ०। अष्टका संयमे च / दियसरीरा, लक्खणवंजणगुणोववेया, माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजाकार्ये कारणोपचारात् / सूत्र०२ श्रु०१ अ०। आचा०। यसव्वंगसुंदरंगी०।"(औ०) इत्यादिको वाच्यः। "जाव ति" *नित्य पुं० आमन्त्रितपिण्डे, "जे नियागं ममायंति, कीयमुद्देसिया- यावत्करणात्-चेल्लणाए सद्धिं अणुरत्ते इ8 सद्दफरिसे रसरूपगंधे पंचविहे हडं वहंते समणुजाणंति, इय वुत्तं महेसिणा // 46 // " दश०६ अ०। माणुस्सए कामभोग पचणुभवमाणे विहरइ।'' इतिपदकदम्बकपरिग्रहः, "उद्देसियं कीयगडं, नियागं अमिहडाणि य / " इति अनाचरितेषु विस्तरव्याख्यौपपातिकानुसारेण वाच्या, नेह विस्तरभिया प्रतन्यते। परिगणनात् / तत्र नियागमित्यामन्त्रितस्य पिण्डग्रहणं नित्यं, न तए णं से से णिए राया अण्णया कयाइ पहाए क यव--
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________________ णियाणं 2065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण लिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सिरसा कंठे मालाकडे आविद्धमणिसुवण्णे कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंबमाणकडिसुत्तयसोभे पिणद्धगेवेग्जे अंगुलजुगलजाव कप्परुक्खए चेव अलंकिय बिभूसिते परिंदे सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं०जाव ससि व्व पियदंसणे नरवई, जेणेव बाहि-रिया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति, निसीइत्ता कोई बियपुरिसे सदावेइ,सद्दावेइत्ता एवं वयासीगच्छह णं तुज्झे देवाणुप्पिया ! जाई इमाइं रायगिहस्स नगरस्स बहिया। तं जहा-आरामाणि य, उज्जाणाणि य, आएसणाणि य, आययणाणि य, देवकुलाणि य, सभाओ य, पवाओ य, पणियसालाओ य, जाणसालाओ य, सुधाकम्मंताओ य, वाणिज्जकम्मंताओ य, कट्ठकम्मंताओ या जे तत्थ वणमहत्त-- रया चिट्ठति, ते एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सेणिए राया भिंभिसारे आणवेइ-जया णं समणे भगवं महावीरे आदिगरे० जा०......... पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगाम दूइजमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे इहेव उ विहरेज्जा, तया णं तुज्झे समणस्स भगवतो महावीरस्स अहापडिरूवं ओग्गहं जाणेह, अवधारेत्ता सेणियस्स रन्नो मिंभिसारस्स एयमटुं णिवेदेह! (तते णं से सेणिए इत्यादि) ततोऽनेकमल्लयुद्धव्यायामाऽऽदिकरणानन्तरं स पूर्वनिर्दिष्टः श्रेणिको राजा, अन्यदाऽन्यस्मिन्नवसरे, कदाचित् (पहाते इत्यादि) स्नानं कृतवान्, ततोऽनन्तरं कृतं बलिकर्म येन स्वगृहदेवतानां स तथा, कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नाऽऽदिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्येन स तथा। अन्ये त्वाः"पायच्छित्त ति" पादेन पादे वा क्षिप्तो दृग्दोषपरिहारार्थ पादक्षिप्तः, कृतकौतुक मङ्गलप्रायश्चित्तश्चासौ इति विग्रहः / तत्र कौतुकानि मषीतिलकाऽऽदीनि, मङ्गलानि तु दध्यक्षतदुर्वाङ् कुराऽऽदीनि। (सिरसा कंठे मालाकडे त्ति) शिरसा कण्ठे च माला कृता धृता येन स तथा। क्वचित्-"सिरसिपहाए कंठे मालाकडे" इति पाठः / तत्र शिरसि स्नातः / ननु पूर्वमपि ''पहाए त्ति'' उक्त, तर्हि किमर्थ भूयोऽपि-"सिरसि बहाए त्ति।"पुन-रुक्तप्रसङ्गात् ? उच्यते-स्नातः सामान्यतोऽपि कण्ठस्नात उच्यते, अतः पुनरुपादान, तस्मिन् दिने विशेषत उक्तम्-शिरसि स्नातः, द्वितीय पदं सुबोधम् / (आविद्धमणिसु वण्णे त्ति) आविद्धं परिहितम्। (कप्पियेत्यादि) कल्पितानीष्टानि रचितानि च हाराऽऽदीनि कटीसूत्रान्तानि यस्य / तानि च सुकृतशोभान्याभरणानि यस्य स तथा। पिनद्धगवेयकः / यावत्करणात्- "अंगुलिजुगललिकयाभरणे, नाणामणिकणगरयणवरकडगतुडियर्थभियभुए, अहियरूवसरिसरीए, कुंडलाउज्जोतिताणणो मउडदित्तसिरए, हारोच्छयसुकयरइयवत्थे, मुद्धियापिंगलंगुलिए, पालंबयलंबमाणसुकयपमउत्तरिजे, नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणोचियमिसिमिसंतविरइयसुसिलिट्ठविसिट्टलट्टआविद्धवीरवलए किं बहुणा।" इतिपद कदम्बकपरिग्रहः। (कप्परुक्खए चेव त्ति) कल्पवृक्ष एव। (अलंकियविभूसिए त्ति) अलङ् कृतो मुकुटाऽऽदिभिः (विभूसिय त्ति) वस्त्राऽऽदिभिरिति। नराणामिन्द्रो नरेन्द्रः (सकोरेंटेत्यादि) सकोरेण्टानि कोरेण्टाभिधानकुसुमस्तवकवन्ति माल्यमानि पुष्पसजो यत्र तत्तथा, एवंविधेन छत्रेण ध्रियमाणेन, शिरसीत्यध्याहारः / यावत्करणात-"से यवरचामराहि मंगलजयसद्दकयालोए, अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाड वियमंतिमहामतिगणगदोवारियअमच्चचेडपीढमद्दणगरनिगमसेडिसेणावति-- सत्थवाहदूयसंधिवालसद्धिं संपरिवुडे, धवलमहामेहनिग्गए इव गहगणदिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे'(औ०) इति पदकदम्बकग्रहः / शशीव प्रियदर्शनो नरपतिर्यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला आस्थानमण्डपो, यत्रैव सिंहासनं, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरे पूर्वाभिमुखः संनिषीदति, निषा कौटुम्बिकपुरुषान् नृपाधिकारिणः पुरुषान् शब्दयति आमन्त्रयति, आमन्त्र्यैवमवादीत्-गच्छत / णमिति वाक्यालङ्कारे। यूयं देवानां प्रियाः सरलस्वभावाः! यानि इमानि अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपाणि, राजगृहस्य नगरस्य बहिर्भवन्ति इति शेषः / तद्यथा(आरामाणीत्यादि) आरमन्ति येषु माधवीलतागृहाऽऽदिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः, प्राकृतत्वान्नपुंसकत्वम् / उद्यानानि पुष्फाऽऽदिमवृक्षसंकुलान्युत्सवाऽऽदौ बहुजनभोग्यानि, आवेशनानि येषु लोका आविशन्ति तानि वाऽयस्कारकुम्भकाराऽऽदिस्थानानि, आयतनानि देवकु-लपाश्चपिवरकाः, देवकुलानि प्रतीतानि, सभा--आस्थामण्डपाः, प्रपा उदकदानस्थानानि, पण्यशालाः पण्यगृहाणि, पण्या पणाः। यानशाला यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते। सुधाकर्मान्तानि यत्र सुधापरिकर्म क्रियते। वाणिज्यकर्मान्तानि यत्र वाणिज्यार्थं बहवो मिलन्दि लोकाः। एवं काष्ठकर्मान्तानि यत्र काष्टानि क्रयार्थ , जलार्द्रभवनभिया वा यत्र संनिक्षिप्तास्तिष्ठन्ति / उपलक्षणत्वात्-दर्भबर्धवल्लयानरथगृहान्तानि द्रष्टव्यानि। चशब्दः सर्वत्रापरापरभेदसंसूचकः। तत्र ये वनमहत्तरकाः, वनमुपलक्षणमाविशनाऽऽदीनामाज्ञाता अत्यर्थ ज्ञाता अधिपतित्वेन प्रसिद्धास्तिष्ठन्ति, तान् एवं वदत। किं तदित्यादि-(एवं खल्वित्यादि) एवममुना प्रकारेण, खल्वित्यवधारणे, अहो देवानां प्रियाः! श्रेणिको राजा (भिभमारे त्ति) भिम्भा भेरी, सैव सारा प्रधाना यस्सासौ भिम्भसारः / तदा ख्यानमेव कुमारभावे-"अग्गिणा घरे परित्ते सेणिएण य भिंभियं घेतूण णिग्गतो / अवसेसा कुमारा आभरणगादि / पिउणा पुच्छिया। सव्वेहिं कहिय-जेहिं जं णीयं। सेणिएण भणियंमए भिंभणी णीया। सेणियो पिउणा भणितो-तुज्झकिं एस सारो? तेण भणियं आम ति / ततो से रण्णा भिंभासारो णामं कयं / ' शेष ज्ञातचरमेवा (आणवेइ त्ति) आज्ञापयति / किं तदित्याह-(जया णमित्यादि) यदा, णमिति वाक्यालङ्कारे / श्रमणो भगवान्महावीर आदिकरः। यावत्करणात"तित्थगरे सयंसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे०" (औ०) इत्यादिकः समस्तोऽपि औपपातिक ग्रन्थप्रसिद्धो भगवद्वर्णको वाच्यः, स चातिगरीयानिति, न लिख्यते, केवलमौपपातिकग्रन्थादवसेयः / सप्राप्तुकामो मोक्षं प्रति तदनुकूलव्यापारवान्। पुनः (पुव्वाणुपुस्वि तिपूर्वानुपूर्व्या, नाऽनानुपूर्या चेत्यर्थः / (संचरमाणे ति) चरन् संचरन् / एतदेवाऽऽह-(गामाणुगामं दूइज्नमाणे त्ति) ग्रामश्च
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________________ णियाण 2066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण प्रतीतोऽनुगामश्च विवक्षितग्रामानन्तरो ग्रामो ग्रामानुग्राम, तंद्रवन् गच्छन् एकरमाद् ग्रामादनन्तरं ग्राममनुल्लङ्घयन्नित्यर्थः / अनेनाप्रतिबद्धविहारमाह, तत्राप्यौत्सुक्यभावमिति। (सुहं सुहेणं विहरमाणे ति) अत एव सुखं सुखेन शरीरस्वेदाभावेन, संयमबाधाभावेन च विहरन् स्थानात् स्थानान्तरं गच्छन्, ग्रामाऽऽदिषु वा तिष्ठन, संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् वासयन, इहैव अत्रैव नगरे, उकारोऽलाक्षणिकः, विहरेदागच्छेत, यूयं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य यथाप्रतिरूपं चिरन्तनसाध्वयग्रहसदृशमवग्रहमनुजानीध्वम् अनुदद्ध्वम्। अनुजानीय श्रेणिकस्य राज्ञो भिम्भासारस्य हि एनमर्थ निवेदयध्वम्। तते णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना भिंभिसारेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ०जाव हियया कय०जाव एवं सामि ! त्ति आणाए विणएणं पडिवसुणे ति, पडिसुणेत्ता सेणियस्स अंतियाओ णिक्खमंति, णिक्खमित्ता रायगिहं णगरं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जाइं इमाई रायगिहस्स बहिया-- आरामाणि य०जाव जे तत्थ महत्तरया अन्नया चिटुंति, ते एवं वदंति०जाव सेणियस्स रण्णो एयमलृ पियं निवेदिज्जा, पियं भे भवतु / दोचं पि एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूता तामेव दिसिं नगरस्स परिगता / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आदिकरेजाव गामाणुगामं दूइज्जमाणे०जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति / तए णं रायगिहे णगरे सिंघाडगतियचउकचचर०जाव परिसा णिग्गया०जाव पञ्जुवासेति तते णं जेणेव महत्तरया तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति, नमसति, वंदिता नमंसित्ता णाम गोयं पुच्छति, पुच्छित्ता णामगोत्ताए धारेति, णामगोत्ताए धारेतित्ता एगंततो मिलति, एगंततो मिलित्ता एगंतमवक्कमति, एगतमवक्कमित्ता एवं वदासी-जस्सणं देवाणुप्पिया! सेणिए राया भिभसारे दसणं कंखति, जस्स णं देवाणुप्पिया ! सेणिए राया दंसणं पत्थेति०जाव अभिलसति, जस्सणं देवाणुप्पिया! सेणिए राया णामगोत्तस्स वि सवणताए हट्ठतुट्ठा०जाव भवति, से णं समणे भगवं महावीरे आदिकरे तित्थकरे०जाव सवण्णू सव्वदरिसी पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइ-जमाणे सुहं सुहेणं विरहति / इहमागते इहसंपत्तिए०जाव अप्पाणं भावेमाणे सम्म विहरइ;तं गच्छह ण देवाणुप्पिया ! सेणियस्स रन्नो एयमढें निवेदेमो-पियं भे भवतु त्ति कट्ट एयमढे अण्णमण्णस्स पडिसुणे ति,अण्णमण्णस्स पडिसुणेत्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सेणियस्स रन्नो गिहे, जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सेणियं रायं करयलपरिग्गहियं०जाव जएणं विजएणं वद्धावें ति, बद्धावित्ता एवं वयासी-जस्स णं सामी ! दंसणं कंखइ०जाव, से णं समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेइए०जाव विहरइ / तेणं देवाणुप्पियाणं पियं निवेदमोपियं भे भवतु / तेणं से सेणिए राया तेसिं पुरिसाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठ०जाव हियए सीहासणाओ अब्भुट्टेति, अब्भुद्वित्ता जहा कोणिए०जाव वंदति, णमंसति, वंदित्ता णमंसित्ता ते पुरिसे सक्कारेति, सम्माणेति, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति, पडिविसजेति, पडिविसज्जेत्ता णगरगुत्तिए सद्दावेति, णगरगुत्तिए सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायगिहं नगरं सभिंतरबाहिरियं आसियसम्मज्जितोवलित्तं० जाव पचप्पिणंति। तेणं से सेणिए राया बलवाउयं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हयगयर-हजोहकलियं चाउरंगिणं सेणं सण्णाहेह०जाव से दि पञ्चप्पिणंति। तते णं से सेणिए राया जाणसालियं सद्दावेति, जाणसालियं सद्दावेत्ता एवं वदासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि / तते णं ते जाणसालिए सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठ०जाव हियएजेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता जाणसालं अणुपविसति, जाणसालं अणुप्पविसित्ता जाणगं पचुवेक्खति, जाणगं संपमज्जति, जाणगं संपमज्जित्ता दूसं पवीणेति, दूसं पदीणेत्ता जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता वाहणसालं अणुप्पविसति, वाहणसालं अणुप्पविसित्ता वाहणाई पचुविक्खति, वाहणाई संपमजेत्ता वाहणाई अप्फाले ति, वाहणाइं अप्फालित्ता वाहणाई णीणेति,णीणेत्ताईसी पडीणेति, ईसी पडीणेत्ता वाहणाई सालं करेति, वाहणाई वरभंडमंडिताई करेत्ता जाणगं जोएति, जाणगं जोएतित्ता वदुमं गाहेति, वदुर्म गाहेत्ता पउयलट्ठिपउयधरसमं अरहयति, अरहयित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता०जाव एवं वदासीजं तए सामी ! धम्मिए जाणप्पवरे आइट्ठा भद्रं तव आरुहाहि / तते णं से सेणिए राया भिंभसारे जाणसालियस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठा० जाव मजणघरं अणुपविसति०जाव कप्परुक्खए चेव अलंकितचित्तविभूसिए णरिंदे०जाव मज्जणघरातो पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव चिल्लणा देवी, तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता चेल्लणं देविं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थगरे०जाव पुष्पाणुपुट्विं०जाव संजमेणं अप्पाणं भावे
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________________ णियाण 2067- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण माणे विहरइ / तं महाफणं देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहंताणं०जावतं गच्छामो देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे वंदामो, णमंसामो, सक्कारेमो, सम्माणेमो, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो / एतेणं इह भवे य परमवे य हियत्ताए सुहाए खमाए निस्सेयसाएoजाव आणुगामियत्ताए भविस्सति / तते णं सा चिल्लणा देवी सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमद्वं सोचा निसम्म हट्ठतुद्वा० जावपडिसुणेति, पडिसुणेताजेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता पहाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता किंते (?) वरपायपत्तणेउरमणिमेहलाहाररइयविहियकडगखडुगएगावलिकंठमुरयतिसरयवलयहेमसुत्तकुंडलुञ्जोइताणणा रयणमणिमूसियंगी चीणंसुयवत्थपारिहिया दुगुल्लसुकुमालकंतरमणिजउत्तरिजा सव्वोउयसुरमिकुसुमसुंदरायितपलंबंतसोहंतकंतविकंतविकसंतचित्तमाला वरचंदणचचिता वराभरणमूसियंगी कालागरुधूवधूविता ससिरीसमावेसा बहूहिं खुजाहिं चिलातियाहिं०जाव महत्तरगवंदपरिक्खित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जे-णेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति / तते णं से सेणिए राया चिल्लणाए देवीए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहति, सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं उववाइयगमएणं०जाव पञ्जुवासति / एवं चिल्लणा वि०जाव महत्तरगपरिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवाग-- च्छित्ता,समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, सेणियरायं पुरतो काउंठिया चेव०जाव पजुवासति। तते णं समणे भगवं महावीरे सेणियस्स रण्णो भिभिसारस्स चिल्लणाए देवीए सद्धिं तीसे महति महालयाए परिसाए वतिपरिसहदेवपरिसहअणेगसयाए ०जाव धम्मो कहितो, परिसा पडिगता, सेणिए राया पडिगए। तत्थ णं अत्थेगतियाणं निग्गथाण य निग्गंथीण य सेणियं रायं चिल्लणं देविंपासित्ता णं इमेयारूवे अज्झस्थिए०जाव संकप्पे समुप्पञ्जित्थाअहो णं सेणिए राया महिडिएन्जाव महासक्खे, जेणं पहाते कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिते चेल्लणाए देवीए सद्धिं उरालाइं मोगभोगाई मुंजमाणे विहरइ / ण मे दिखे देवा देवलोगंसि, सक्खं खलु अयं देवो / जति इमस्स तवनियमबंभचेरफलविसेसे अस्थि, वयमवि आगमिस्साई एताई उरालाई एतारूवाइं माणुस्सगाई भोगमो-गाई मुंजमाणे विहरामो, सेतं साहु / अहो णं चिल्लणा देवी महिड्डिया०जाव महेसक्खा, जाणं व्हाया कयबलिकम्मा० जाव सव्वालंकारविमूसिया सेणिएणं रन्ना सद्धिं उरालाइं०जाव माणुस्सगाई भोगमोगाइं मुंजमाणी विहरति / ण मे दिट्ठाओ देवीओ देवलोगंसि, सक्खं खलु इयं देवी जइ इमस्स सुचरि यस्स तवनियमबंमचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, वयमवि आगमिस्साइंइमाइंएयारूवाइंउरालाइं०जाव विहरामो, से तं साहुणी।।। (तते णमित्यादि) व्यक्तं, नवरम् एवमुक्ताः सन्तो (हट्टतुट्ठा इत्यादि) हृष्टतुष्टाः, अतीव तुष्टा इति भावः। अथवा-हृष्टा नाम विस्मयमापन्नाःयथा अहो ! भगवद्वा निवेदनार्थमस्माकमादिशतीति / तुष्टाः तोषं कृतवन्तः यथा भव्यमभूद्यदस्मान् नगरवार्ता जिज्ञासुः श्रेणिको राजा आदिशति / यावत्करणात्-"चित्तमाणंदिया पीइमणा" इत्यादिपदकदम्बकपरिग्रहः / (अक्षरार्थमात्रबोधिका टीकेत्युपेक्षता) तत्र प्रथमम्अजओ ! ति समणे भगवं महावीरे बहवे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य आमंतित्ता एवं वदासी-सेणियं रायं चेल्लणं देविं पासित्ता इमेयायरूवे अज्झस्थितेजाव समुप्पजित्था-अहो णं सेणिए राया महिडिए०जाव से तं साहु ! अहोणं चिल्लणा देवी महिड्डिया सुंदराजाव से तं साहुणी। से णूणं अज्जो ! अत्थे समझे?हंता ! अत्थिा एवं खलु समणाउसो ! एए धम्मे पण्णत्ते, इणामेव णिग्गंथे पावयणे०जाव अणुत्तरे पडिपुण्णे केवले संसुद्धे णेयाउए सल्लकत्ताणे सिद्धिमग्गे निव्वाणमग्गे णिजाणमग्गे अवितहमविसंधिसव्वदुक्खप्पहीणमग्गे इत्थं ट्ठिया जीवा सिज्झंति, बुज्झति, मुचंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाण-मंतं करें ति। जस्स णं धम्मस्स णिग्गथे सिक्खाए उवद्विते विहरमाणे पुरा दिगिंछाए पुरा पिवासाए पुरा वातातवेहिं पुरा पुढे विरूवेहिं परीसहोवसग्गेहिं उदिण्णकामजाते याविविहरेजा, सेयपरक्कमेज्ज, से य परक्कममाणे पासेज्जाजे इमे उम्गपुत्ता महासा(मा) उया, भोगपुत्ता महामाउया, तेसिणं अण्णतरस्स अतिजायमाणस्स वा निजायमाणस्सवा उभओतेसिंपुरतो महं दासीदासकिंकरकम्मकरपुरिसा पदातपरिक्खित्तं छत्तं भिंगारं गहाय णिग्गच्छति / तयाणंतरं चणंपुरतो महा आसा आसवरा, पिट्टओ तेसिणं णागा णागवरा, पिट्ठतो रथा रथसंगिल्ली, से उद्धए सेयछत्ते अब्भुगतभिंगारे पग्गहियतालिवेटेवीयमाण-सेयचामरवालवीयणाए अभिक्खणं २अभिजातिय णिज्जातिय सप्पभासपुव्वापरण्हं बहाए कयवलिकम्मे०जाव सव्वालंकारभूसिए महति महालयाए कूडागारसालाएमहति महालयंसिसीहासणंसिदुहओ विव्वोयणिं दुहओजाव सव्वरातिएणं जोतिणीसि झायमाणेणं इत्थीगुम्मसंपरिवुडे महताऽऽहतनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगमहलपडुप्पवाइयरवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोगमोगाई मुंजमाणे विहरति / तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स० जाव चत्तारि पंच अणुत्ता चेव अन्मुटेइभण देवाणुप्पिया ! किं करेमो, किं आहरामो, किं उवणेमो, किं आचिट्ठामो, किं भे हिय
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________________ णियाण 2018 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण एच्छितं, किं भे आसगस्स सदति, जं पासित्ता णिग्गंथे णिदाणं करेति-जइ इमस्स तवनियमबंभचेरवासस्स तं चेव० जाव साहु / एवं खलु समाणाउसो ! णिग्गंथे णिदाणं किचा तस्स आणालोइय अपडिकं ते कालमासे कालं किच्चा अणुत्तरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति / महिडिएसु०जाव चिरद्वितीए, से णं तथा देवेसु भवति महिड्डिए०जाव चिरट्ठि--- तीए, ततो देवलोगा आउक्खएणं ठितिक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया, तेसिणं अण्णतरंसि कुलंसि पुमत्ताए पचायंति, से णं तत्थ दारए भवति,सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे ! तते णं से दारए उम्मुक्कबालभावे विणयपरिणतमेत्ते त्ति जोव्यणगमणुप्पत्ते सयमेव पेत्तियं दायं पडिवजंति / तस्स णं अतिजायमाणस्स वा०जाव पुरतो महं दासी दास० जाव किं भे आसगस्स सदति। तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसस्स जातस्स तहारूवे समणे वा उभतो कल्लं केवलिपण्णत्तं धम्ममाइक्खेजा? हंता ! आइक्खेजा। एवं संपडिसुणेज्जा? णो इणढे समढे। से भगवं ! महिच्छे महारम्भे महापरिग्गहे अहम्मिए० जाव आगमे साणं दुल्ल भबोहिए यावि भवति / ते एवं खलु समणाउसो ! तस्स निदाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे, जं णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए / / 1 / / क्वचिद् ''महामाउगा' इति पाठः, तत्र महती शीलरूपाऽऽदियुक्ता माता येषां ते महामातृका इति / एवं भोगपुत्राः, आदिदेवाऽवस्थापितगुरुवंशजपुत्राः। उपलक्षणं चैतत्-राजेक्ष्वाकुकौरवनागाऽऽदीनाम् / प्रकृतमाह-(तेसि णमित्यादि) तेषामुग्रपुत्राऽऽदीनामन्यतरस्य (अतिजायमाण त्ति) आगच्छतो बहिः प्रदेशात् स्वगृह प्रति। (निज्जायमाण त्ति) निर्गच्छतः स्वगृहाऽऽदेर्बहिः प्रदेश प्रति / कथमित्याहउभयतस्तेषाम् उग्रपुत्राऽऽदीनां (पुरतो महमित्यादि) पुरतोऽग्रतो महान्तो ये दास्यश्चेट्यो, दासाश्चेटकाः, किङ्कराः प्रतिकर्म प्रभोः पृच्छापूर्वकारिणः, कर्मकरास्तदन्यथाविधाः, ते च ते पुरुषाश्चेति समासः / पदात पदातिसमूहः, तैः परिक्षिप्त परिवृतं यत्तत्तथा। एवंविधं छत्रं, भृङ्गारं च (गहाय निग्गच्छति) इत्यनेनास्य प्रभुत्वमावेदितं भवति / (तया णमित्यादि) ततोऽनन्तरं पुरतोऽग्रतो महान्तो बृहत्तमा अश्वाः तुरङ्गाः, (आसवर त्ति) अश्ववरा अश्वानां मध्ये प्रधानाः, (नाग त्ति) नागा हस्तिनः, नागवराः नागानां प्रधानाः / एवं पृष्ठतो रथाः (रथसंगेल्लि त्ति) रथसमुदायः। (से णमित्यादि) सोऽनिर्दिष्टनामा। उद्धृतश्च तच्छत्रः। तथा (अब्भुग्गयभिंगारे त्ति) अभ्युद्गतोऽभिमुखमुद् गत उत्पाटितो भृङ्गारो यस्म स तथा। (पग्गहियतालिवेटे ति) प्रगृहीतं तालवृन्त यं प्रति तथा। वीज्यमानाः श्वेतचामरबालव्यजनिका यं प्रति स तथा। (अभिवखणं 2 ति) भूयो भूयः, एकवचनं निर्गमनसमयमङ्गीकृत्य तदेषामाह / कथम्भूतास्ते? (सप्पभा इति) सती शोभना प्रभा कान्तिर्येषां ते सत्प्रभाः / (सपुव्यावरण्हमित्यादि) सह पूर्वेसण पूर्वाणि कर्तव्येनापरेण वाऽपरालि कर्तव्येन / यदि वा पूर्व यत्क्रियतेऽन्नाऽऽदिकं, तथाऽपर च यत्क्रियते विलेपनभोजनाऽऽदिकं, तेन सहवर्तत इति सपूर्वापरम्। इदमुक्तं भवति-यद्यदा प्रार्थ्यते, तत्तदा संपद्यते, इत्यभिलषितार्थप्राप्तमेव दर्शयितुमाह-(पहाते इत्यादि) व्यक्तार्थम्। कृतवलिकर्मा यावत्करणात् / (कंठे मालाकडे ति) कण्ठे कृतमालम् / (कप्पिय त्ति) कल्पितश्चासौ माला प्रधानो मुकुलितः कमलसंचितो मुकुटश्च स तथा विद्यते यस्य स कल्पितमालामुकुलमुकुटः / (वग्धारितेत्यदि)प्रलम्बित श्रोणिसूत्रं मल्लदामकलापश्च येन स तथा / अहतं मूखिकाऽऽद्यनुपहतं यद्वस्त्रं तत्परिहितं येन स तथा। (चंदणोक्किण्णगातसरीरे त्ति) चन्दनेन प्रतीतेन उत्कीर्णमिवोत्कीर्ण , गात्राणि शरीरं च यस्य स तथा एवंविधम्। (महति महालयाए इत्यादि) महत्यामुचायां, महालयायां विस्तीर्णायां, कूटाकारशालायां, कूटस्येव या पर्वतशिखा तस्या इवाऽऽकारो यस्याः सा कूटाऽऽकारा, यस्या उपरि आच्छादनं शिखराऽऽकारं सा कूटाऽऽकारेति भावः / कूटाऽऽकारा चासौ शाला च कूटाऽऽकारशाला। यदि वा कूटाऽऽकारेण शिखराकृत्योपलक्षिता शाला कूटाऽऽकारशाला / उपलक्षणं चैतत्-प्रासादाऽऽदीनाम् / कूटाऽऽद्याकारशालाग्रहण निर्जनत्वाप्रधानभोगवृद्धिकारणत्वात् / (महति)महालये शयनीये (दुहतो) उभयतः, उभौ शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य। (विव्वोयणि त्ति) उपधानं यत्तथा तस्मिन् / (दुहओ त्ति) उभयतः, उन्नते मध्ये ततं भिन्नत्वाद् गम्भीर च महत्वोन्नतं गम्भीरं तत्र / (वण्णओ त्ति) वर्णकग्रहणात् 'गंगापुलिणवालुयाअवदातसालिसए" इत्यादिपदकदम्बकपरिग्रहः / (सव्वराति त्ति) सर्वरात्रिकेण ज्योतिषदीपरूपेण ध्मायमानेन जाज्वल्यमानेन (इत्थीगुम्म त्ति) स्त्रीगुल्मेन युवतिजनेन सार्द्धमपरपरिवारेण संपरिवृतो वेष्टितः, तथा (महया हयेत्यादि) महता, रवेणेति योगः। (अहय इति) आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धाः। अथवाअहतानि, आहतानि, अव्याकृतानीति भावः। नाट्यगीतवादितानि च, तन्त्री वीणा, तला हस्ततालाः, ताला कांसिका, त्रुटितानि शेषतूर्याणि, तथा घनो धनसदृशो ध्वनिः सामर्थ्यात् यो मृदङ्गो मर्दलः, पटुना दक्षपुरुषेण, प्रवादितः, तत एतेषां पदाना द्वन्द्वः / तेषां यो रवस्तेन, उदारान् प्रधानान् २मानुष्यसंबन्धीन्। शेषव्याख्या प्राग्वत्। (तस्सेत्ति) तस्य क्वचित् प्रयोजने समुत्पन्ने सत्येकमपि पुरुषमाज्ञापयतो, यावचत्वारः पञ्च वा पुरुषा अनुक्ता एव समुपतिष्ठन्ते।तेच किंकुर्वाणाः? एतद्वक्ष्यमाणं जगुः / तद्यथा-भणाऽऽज्ञापय, हे स्वामिन्! धन्या वयं येन भवताऽप्येवमादिश्यन्ते, किं कुर्म इत्यादि (आहरामो त्ति) आनयामः, (किं उवणेमो त्ति) सदपि किमुपनयामः। किमातिष्ठामोऽन्नाऽऽदिपचनक्रियारूपम् (किं भे) किं युष्माकं हृदयेप्सितं, तथा किं च (भे) युष्माकमास्यकस्य स्वदते स्वादु प्रतिभाति। यदि वा यदेव भवदीयस्याऽऽस्यस्य स्वदति तदेव वयं कुर्मः। प्रस्तुतमाहयं पूर्वोक्तस्वरूप पुरुषम् (पासेत्ता) दृष्ट्वा निर्गन्थो निदान करोति।" जइ इमस्सेत्यादि' पूर्ववत् / (एवं खल्वित्यादि) एवमनन्तरोक्तप्रकरण हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! निर्गन्थो निदानं कृत्वा (तस्स त्ति) तस्य निदानरूपस्थानस्य, अनालोच्य गुरूणामतिचारजातमनिवेद्य, एवमप्रतिक्रम्य पुनःकरणेनाऽनभ्युत्थाय (अकरणयाए त्ति) क्रियते इति करणं, तस्य भावः करणता, तया, अनभ्युत्थाय / (अहारिहमिति) यथाऽर्हप्रायश्चित्तापनयनयोग्यं तपः कर्म निकाचिताऽऽदिकपापच्छेदकत्वात् पापच्छित, प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्रायश्चित्तम् / अप्रतिपद्य ग्रैवेयकानां मध्ये अन्यतमेषु देवेषु देवतया उपपत्तारो भवस्ति। कथंभूतेष्वित्याह-(महिड्डिएसु ) इत्यादि प्राग्वत्। नवरं
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________________ णियाण 2066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण चिरा प्रभूतकालभाविनी स्थितिर्येषां ते चिरस्थितिकाः, ततोऽनन्तरं व्यवधानाभावेन (आउक्खएणमित्यादि) आयुःक्षयेण आयुर्दलिकनिर्जरणेन, स्थितिक्षयेण आयुःकर्मणः स्थिनिर्जरणेन भवक्षयेण देवभवनिबन्धनभूतकर्मणा गत्यादीनां निर्जरणेनेति / अनन्तरं देवभवसंबन्धिनां चयं शरीरम् (चइत्त त्ति) त्यक्त्वा (पुमत्ताए त्ति) पुरुषत्वेन, प्रत्यायान्ति / स तत्र दारको भवति, कुमारक इत्यर्थः / कथम्भूत इत्याह-(सुकुमालेत्यादि) सुकुमारौ पाणी पादौ च यस्याऽसौ सुकुमारपाणिपादः / यावत्करणात्-"अहीणपडिपुण्णपचिंदियसरीरे, लक्खणवंजणगुणोववेए'' इत्यादिपदसमूहो द्रष्टव्यः / तत्र अहीनानि स्वरूपतः पूर्णानि या संख्याः, पुण्यानि वा पूतानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तथा तदेवंविधं शरीरं यस्य स तथा, तम्। (लक्खणवंजणगुणोववेया) लक्षणानि स्वस्तिकाऽऽदीनि, व्यञ्जनानि मषीतिलकाऽदीनि, तेषां यो गुणः प्रशस्तता, तेनोपपेतो युक्तो यः स तथा, तम् / (ससिसोम्माकारं कंत पियदसणं) शशिवत् सौम्याऽऽकारं कान्तं कमनीयमत एव प्रियं द्रष्टुणां दर्शन रूपं यस्य सः, तम्। (विनयपरिणयमेते त्ति) विज्ञ एव विज्ञकः, स चासौ परिणतमात्रश्च, कलादिष्विति गम्यते। विज्ञकः परिणतमात्रः। (जोव्वण त्ति) यौवनमेव यौवनकमनुप्राप्तः स्वयमेव पैतृकं दायशब्देन धन प्रतिपद्यते, आत्मायत्तं करोति। शेष व्यक्तम्। (धम्ममाइक्खेज्ज त्ति) धर्ममकथयत्। (एवं संपडि त्ति) एवं संप्रतिशृणुयात् ? नायमर्थः समर्थः, अभविकोऽयोग्यः स तस्य धर्मस्य श्रवणतायै, एतन्निदानस्यैतदेव फलं, यत्केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं श्रोतु न समर्थो भवति, नवरम् (पावए फलविवागे त्ति) पापकः फलविपाकः / इति प्रथमं निदानस्वरूपम् // 1 // एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते / तं जहा-इणमेव निग्गंथे पावयणेजाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति / जस्स णं धम्मस्स णिग्गंथीए सिक्खाए उवट्ठिया विहरमाणा पुरा दिगिंछाए उदिण्णकामजाया विहरेजा, साय परक्कमेजा, साय परक्कमेमाणी पासेज्जासे जा इमा इत्थिया भवति एगा एगजाता एगाभरणादिपिहाणा तेल्लपेला इव सुंसगोपिता, चेलपेला इव सुसंपरिग्गहिया रयणकरंडगसमाणा / तेसि णं अतिजायमाणीए वा निजायमाणीए वा पुरतो महं दासी दासा चेव०जाव किं भे आसगस्स सदति, जं पासित्ता णं णिग्गंथा णिदाणं करेंतिजति इमस्स सुसंपग्गहियस्स तवनियम० जाव भुंजमाणी विहरामि, तं साहुणी / एवं खलु समणाउसो ! णिदाणं किया तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिकंता कालमासे कालं किचा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति / महिडिएसु०जाव सा णं तत्थ देवे भवति० जाव भुंजमाणे विहरति। साणं ताओ देवलोगातो आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्ख-- एणं अणंतरं चयं चइत्ता जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया, भोगपुत्ता महामाउया, एतेसिणं अण्णतरंसिदारियत्ताए पचायाति, साणं तत्थ दारिया भवति। सुकुमाल०जाव सुरूवा। तते णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्क बालभावं विणयपरिणयमेत्तं जोव्वणगमणुपत्तं पडिरूवेणं सुज्झेण पडिरूवस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलयंति, साणं तस्स भारिया भवति, एगा एगजाता इहा कंता०जाव रयणकरंडगसमाणा, तीसे०जाव अतिजायमाणीए वा पुरतो महं दासी दासजाव किं भे आसगस्स सदति। तीसे णं तहप्पगाराए इत्थियाए तहारूवे समणे वा उभतो कालं केवलिपण्णत्तं धम्ममाइक्खेज्जा? हंता आइक्खेजा। तेणं भंते ! पडिसुणिज्जा? णो इणट्टे समढे। अभविया णं सा तस्स धम्मस्स सवणयाए, सा च भवति महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा०जाव दाहिणगामिणेरइए आगमिस्सए दुल्लभबोहिए यावि भवति। एवं खलु समणाउसो! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागं जंणो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणेत्तए // 2 // द्वितीये किमपि लिख्यते-''एगे'' इत्यादि। एका स्वरूपतः, एकजाता तज्जातीयान्यसपत्नीवर्जिता। (एकाभरणा इति) एकाभरणानि एकजातीयहेमरूप्यरत्नाभरणानि, पिधानानि च वस्त्राणि यस्याः सा तथा / पुनः कथंभूता? इत्याह-(तेल्लपेला इव इत्यादि) तैलपेटा सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृन्मयतैलस्य भाजनविशेषः / स च भङ्ग भयाल्लोटनभयाच सुष्टु संगोप्यते। एवं साऽपि / चेलपेटा इव सुसंपरिगृहीता। चेलानि वस्त्राणि तेषां पेला पोट्टलिका इव सुसंपरिगृहीता, सुरक्षिता इत्यर्थः / (रयणेत्यादि) रत्नकरण्डकसमाना बहुमूल्यतया यत्नेन रक्षिता। शेष कण्ठ्यम्। (दारियत्ताए त्ति) पुत्रीतया (पडिरूवेणं सुज्झेणं) प्रतिरूपेण स्वरूपत उभयकुलोचितेन विवाहमीलनदानरूपेण शुद्धेन कन्यासदृशरूपेण, प्रतिरूपस्य वयःप्रभृतिगुणसमेतस्य भर्तुर्भार्या, तया ददति / एतस्य निदानस्यैतत्फलं यत्केवलिभाषितधर्मश्रवणं न प्राप्नोति / / 2 / / एवं खलु समणाउसो ! भए धम्मे पण्णत्ते / तं जहा-इणमेव निग्गंथे पावयणेतहेवचेव / जस्सणं धम्मस्स णिग्गंथे सिक्खाए उवट्ठिते विहरमाणे पुरा दिगिंछाए०जाव से य परक्कमेमाणे पासिज्जा, इमा इत्थिया भवति, एगा एग०जाव किं भे आसगस्स सदति, जं पासित्ता निम्गंथे णिदाणं करेति दुक्खं खलु पुमत्तणए, जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया, भोगपुत्ता महामाउया। एतेसि णं अण्णतरेसु उच्चावएसु महासमरसंगामेसु उच्चावयाई सत्थाई उरसि चेव पडिसंवेदेति, तंदुक्खं खलु पुमत्तणए, इत्थित्तणयं साहु / जति इमस्स तवनियमबंभचेरवासस्स फलवित्तिविसेसे अस्थि, वयमवि आगमे, से पंजाव से तं साधु / एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथे णिदाणं किया तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु०जाव से णं तत्थ देवे भवति, महिड्डिएन्जाव विहरति, सेणंताओदेवलोगाओ आउक्ख
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________________ णियाण 2100 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण एणं०जाव अण्णतरंसि कुलंसि दारियत्ताए पञ्चायाति०जाव तेणं तं दारिधंजाव भारियत्ताएदलयंति, साणं तस्स भारिया भवति, एगा एग०जाव तहेव सव्वं भाणियव्वं, तीसे णं अत्थि जायमाणिए वाजाव किं भे आसगस्स सदति? तीसे णं तहप्पगाराए इत्थिगाए एतारूवे समणे वा माहणे वा० जाव पडिसुणिज्जा? णो इणढे समढे। अभविया णं सा तस्स धम्मस्स सवणताए, सा य भवति महिच्छा०जाव दाहिणगामिए णेरइए आगमे, साण दुल्लभबोहिए यावि भवति / तं एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावर फलविवागे भवति, जंणो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणेत्तए / / 3 / / तृतीये किमपि लिख्यते-(दुक्खं खलु इत्यादि) दुःखं कष्ट पुरुषत्वे। तदेवाऽऽह-(से त्ति) 'से' शब्दोऽथशब्दः। अथशब्दश्वेह वाक्योपक्षेपी भवति-(उच्चावएसु त्ति) उच्चा महत्प्रभुप्रारम्भिताः, अवचास्तथाविधनीचपुरुषप्रारम्भितास्तेषु, समरसंग्रामाविहैकार्थी उचावचानि शस्त्राणि सशरतोमराऽऽदीनि। (उरसि त्ति) वक्षसि एव पतन्ति / उपलक्षणं चैतत् शेषाङ्गानाम् / अतः स्त्रीत्वं साधु सम्यग् (उभयो कण्ण त्ति) उभयोः श्रावणार्थम् / अस्याऽपि निदानस्यैवंविधं फलं, यन्न केवलिप्रणीतं धर्म श्रोतुमाप्नोति / / 3 / / एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णते / तं जहा- इणमेव णिग्गंथे पावयणे, सेसं तं चेव०जाव जस्स णं धम्मस्स णिग्गंथी सिक्खाए उवहिता विहरमाणी पुरा दिगिंछाए पुरा० जाव उदिण्णकामजाता यावि विहरेज्जा, सा य परक्कमेज्जा, सा य परकमेमाणी पासेजा-जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया, भोगपुत्ता महामाउया०जाव किं भे आसगस्स सदति? जं पासित्ता णं णिग्गंथी णिदाणं करेतिदुक्खं खलु पुमत्तणए से, जे इमे भवंतिउग्गपुत्ता, मम एएणं उवागएसु महासमरसंगामेसु उग्गं वहाय सत्थाइएसिं पडिवेइति, तं दुक्खं खलु पुमत्तणए, णं इत्थित्तणए०साहु / जइ इमस्स०जाव अस्थि वयमवि आगमि-- स्साणं इमेयारू वाई उरालाई इत्थिभोगाई भुजमाणे | विहरिस्सामि, से तं साधु / एवं खलु समणाउसो ! णिग्गंथा णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइत्ताजाव अपडिकंता कालमासे कालं क्लिचा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। से णं देवलोयाओ आउक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता से जे इमे भवंति उग्गपमुहा, तेसिं अन्नयरंसि कुलंसि दारियत्ताए पचायाति / तए णं तेसिं अम्मापियरो तहेव०जाव किं भे आसगस्स सदइ? अह णं भंते! तहप्पगाराए इत्थियाए तहारूवे समणे वा उभओ कालं के वलिपण्णत्तं धम्म आइक्खेजा? हंता ! आइक्खेज्जा / से तं भंते ! पडिसुणिज्जा? णो इणढे समढे। अभविया णं सातस्स धम्मस्स सवणयाए, सा य भवइ महिच्छा०जाव दुल्लभबोहीए यावि भवति। तं एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमयारूवे पावए फलविवागे केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणेजा, एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव निग्गथंजाव अंतं करेइ / जस्स णं धम्मस्स निग्गंथं सिक्खाए उवट्ठिया विहरमाणं पुरा दिगिंछाएजाव उदिण्णकामजाया यावि विहरेजा जाव साय परक्कममाणिं पासेज्जा, से जे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया, तेसि णं अण्णयरस्स अतिमाणा वाजाव किं च मे आसयस्स सदइ? जंपासित्ता णिग्गंथी णिदाणं करेइदुक्खं खलु इत्थित्तणए दुस्संचाराइं गामंतराइं०जाव संनिवेसंतराई, से जहाणामए अंवपेसिया ति वा, अंबाडगपेसिया ति वा, मंसपेसिया ति वा, माउलिंगपेसिया ति वा, उच्छुखंडिया ति वा, संवलियाफालिया ति वा बहुजणस्स आसादणिज्जा पत्थणिज्जा पच्छणिज्जा पीहणिज्जा अभिलसणिज्जा, एवामेव इत्थिया वि बहूजणस्स आसादणिजा०जाव अभिलसणिज्जा, तं दुक्खं खलु इत्थित्तणए, पुमत्तणए साधु / जइ इमस्स तवनियमस्स०जाव साहू / एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथी णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइयमपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, महिड्डिए०जाव चइत्ता जे इमे उग्गपुत्ता तहेव दारए०जाव किं भे आसगस्स सदति? तस्स णं तहापगारस्स पुरिसजातस्स०जाव अभविएणं से तस्स धम्मस्स सवणताए,से य भवति महिच्छे०जाव दाहिणगामिए० जाव दुल्लभबोहिए यावि भवति, एवं खलुजाव पडिसुणित्तए॥४॥ चतुर्थे किमपि लिख्यते-(दुक्खं खलु इत्थित्तणए) दुःख कष्ट स्त्रीत्वे। तदेवाऽऽह-(दुस्संचारा इति) दुःसंचारा ग्रामाः,दुर्गमा इत्यर्थः शब्दव्याख्या प्राग्वत्। (से जहाणामए) से' अथयथानामम्। (मंसपेसिय त्ति) मांसपेशिका मांसखण्ड, आम्रपेशिका च दृष्टाऽपि सती सुखं करोति। एवं मातु लिङ्गपेशिका / मातुलिङ्गो नाम बीजपूरकः (उच्छुखंडिय त्ति) इक्षुखण्डिका इक्षुपर्वरूपा। (संवलियाफालियत्ति) शाल्मली वृक्षविशेषः, तत्फालिका पलाशरूपा। (बहुजणस्सेत्यादि) बहुजनस्य बहुलोकस्य आस्वादनीया ईषत्स्वादनयोग्या भवति, प्रार्थनीया तथाभूतसहायजनेभ्यः सकाशाद्याचनीया / (अभिलसणिज्जा इति) अभिलषणीया आभिमुख्येन कमनीया। (एवामेव त्ति) एवामेवाऽकारोऽलाक्षणिकः / (अभविए त्ति) अभविकोऽयोग्यः स तस्य धर्मस्यऽश्रद्धानतया, स च भवतिमहेच्छः, एतस्य निदानस्यैतत्फलं यन्न केवलिप्रज्ञप्तं धर्म शक्नोति श्रद्धातु, परं शृणोति इति विशेषः / / 4 / / एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते / तं जहा-इणमेव निग्गंथं पावयणं०तहेव, जस्सणं धम्मस्स निग्गंथो वा निग्गंथीए वा सिक्खाए उवट्ठविए वि विहरमाणे पुरा दिगिंछा० जाव
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________________ णियाण 2101 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण उदिण्णकामभोगे विहरेजा, सिय परक्कमेजा, सेय परक्कममाणे माणुस्सेहिं कामभोगेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा, माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अणिया असासता सडणपडण विद्धंसणधम्मा उचारपासवणखेलसंघाणगवंतपित्तसुक्कसोणियसमुन्भवा दुरूवउस्सासनिस्सासदुरूवमुत्तपुरीसपुण्णा वंतासवा पित्तासवा खेलासवा पच्छा पुरं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा, संति खलु अत्थ देवा देवलोगंसि ते णं तत्थ अण्णेसिंदेवाणं देवीओ अभिजुंजिय 2 परियारेति, अप्पणा चेव अप्पाणं विउव्वित्ता 2 परियारेति, जति इमस्स तव०जावतं सेव सव्वं भाणियव्यं जाव वयमवि आगमेस्साणं इमाइं एतारूवाइं दिव्वाइं भोग भोगाई भुंजमाणे विहरामो, से तं साहु / एवं खलु समणाउसो ! निग्गंया वा निग्गंथी वा निदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणा-लोइय अपडिकं ते कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति,तं जहा महिड्डिएसु०जावसे, ते णं अण्णं देवं अण्णं देविं तं चेव० जाव परियारेति, से णं ताओ देवलो-- / गाओ तं चेव जाव परियारेति, से णं ताओ देवलोगाओ तं चेव पुमत्ताएजाव किं भे आसगस्स सदति तस्स ण तहप्पगारस्स पुरिसजातस्स इमेयारूवे समणे वा माहणवा० णाव पडिसुणिजा? हंता पडिसुणिज्जा / से णं सद्दहेजा, रोएज्जा? णो इण? समढे। अभविए णं से तस्स धम्मस्स सद्दहणताए से य भवति महिच्छे०जावदाहिणगामिणणरइए आगमेस्साए दुल्लभबो-हिए यावि भवति। एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारुवे पावए फलविवागे जंणो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्म सद्दहति वा॥५॥ पञ्चममेव विवृणोति-(माणुस्सएहिं इत्यादि) मानुष्यकेषु काम-भोगेषु निर्वेद वैराग्यं गच्छेत् / तदेवाऽऽह-(माणुस्सगा इति) इह कामभोगग्रहणे तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यपि गृहीतानि / (अधुवा इत्यादि) अधुवाः चलाः, अनियता अनेकस्वरूपाः, अशाहयताः प्रतिक्षणं परिणामान्तरीयाः, शटनपतनविध्वंसधर्माणः, एतादृक्रस्वभावाः, उचारप्रश्रवणश्लेष्मसियाणकाः, एतद्रूपा इत्यर्थः / वात्तपित्तकरणशीलाः, शुक्रशोणिताभ्यां समुद्भव उत्प-त्तिर्येषां ते शुक्रशोणितसमुद्भवाः / (दुरूवउस्सासनिस्सासा) दुरूपेण पूतिकपुरुषेण पूर्णाः / इह दुरूपं विरूपम्, वान्तमाश्रवन्ति श्रान्ताश्रवाः, एवं पित्ताश्रवाः, पश्चात् मरणसमयानन्तरं, पूर्व जराया आगमात् च, अवश्यमविनश्य नियतता, अवशं वा, विप्रज्ञह्यात्, सन्ति विद्यन्ते च, खल्वित्यवधारणेऽत्र देवा देवलोके (ते णं तत्थ अण्णेसिमित्यादि) तद्देवत्वोत्पन्ना निर्ग्रन्थाः तत्र देवलो के अन्येषां देवानां संबन्धिनीर्देवीः (अभिजुजिय 2) अभियुज्य श्वशीकृत्य 2 आश्लिष्य वा, परिचारयन्ते परिभुजते। (अप्पणा चेव अप्पाणं ति) आत्मनैव आत्मानं, स्त्रीपुरुषरूपतया विकृत्येत्यर्थः / शेषं सुबोधार्थम्॥५॥ एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते / तं जहा-तं चेव से य परक्कममाणे माणुस्सएसु कामभोगेसु निव्वेदं गच्छेजा, माणु- | स्सगा खलु कामभोगा अणिया तहेव०जाव संति उड्ढं देवा तंच लोगंसि ते णं तत्थ अण्णदेवाणं अन्नदेविं अभिजूजियर परियारें ति, अप्पणा वीयाए देवीए अभिजुंजियर परियारेति, अप्पणामेव अप्पणा विउव्विय परियारेति। इमस्स तव०जावतं चेव सव्वंजाव से णं सहहिज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा ? णो इणटेसमटे / अण्णरुई रुइमायाए से य भवति से, जे इमे आरण्णिया आवसहिया गामंतिया कण्हरहस्सिया णो बहुसंजता णो बहुपडिविरता सव्वपाणभूतजीवसत्तेसु अप्पणा विरता अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विप्पडिवे-ति-अहं णं हंतव्यो, अण्णे हंतव्वा, अहं न अजवियव्वो, अन्ने अञ्जवियव्वा, अहं ण परितावेयव्वो, अन्ने परितावेयव्वा, अहं ण परिघेतव्वो, अन्ने परिघेतव्वा, अहं ण अवद्दवेयव्वो, अण्णे अवद्दवेयव्वा, एवामेव इत्थिकामेहिं च मुच्छिता गिद्धा गढिया अज्झोववण्णा जाववासाइं चउपंचछसत्तयाई भोगभागाई भुंजित्ता तेहिं जिया कालमासे कालं किच्चा अण्णतराई आसुराई किदिवसियसाई ठाणाई उववत्तारो भवंति, ते ततो विप्पमुच्चमाणा भुञ्जो एलमूयत्ताए तमुयत्ताए य पञ्चायंति, तं एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स०जाद णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्मं सद्दहित्तए वा॥६॥ (किं तु अण्णरुइ त्ति) अन्यत्र जैनधातिरिक्त स्थाने रुचिरभिलाषा यस्याः सा चान्यरुचिः पररुचिः रुचिमात्रया धर्मश्रद्धारूपया स च भवति, ये चामी वक्ष्यमाणा भवन्ति-(आरणियत्ति) अरण्ये वसन्त्यारण्यकाः, तापसा कन्दमूलफलाऽऽहाराः, ततः केचन वृक्षमूले क्सन्ति / तथा(आवसहिय त्ति) आवसथिकाः, अवसथास्तापसाश्रया उटजाऽऽदयः, तत्र वसन्तीति आवसथिकाः। (गाडतिया इति) ग्रामाऽऽदिकमुपजीवन्तो ग्राम स्यान्ते समीपे वसन्तीति ग्रामान्तिकाः / तथा-(कण्हरहस्सिया इति) क्वचित्कार्ये मण्डलप्रवेशाऽऽदिके रहस्सं येषां ते वचिद्राहस्यिकास्ते एते न बहुसंयता न सर्वसावद्यानुष्ठाने भोगनिवृत्ताः। एतदुक्तं भवति-न बाहुल्येन त्रसेषु दण्ड समारभन्ति? विदधति, एकेन्द्रियोपजीविनस्त्वविगानेन तापसाऽऽदयो भवन्ति इति / तथा न बहुप्रतिविरताः-न सर्वेष्वपि प्राणातिपातविरमणाऽऽदिव्रतेषु वर्तन्ते, किं तु द्रव्यतः कतिपय तिनो, न भावतो, मनागपि तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनस्याभावात् / सम्यक्त्वं विना न तदनुष्ठानमपि शोभनं, सम्यक्त्वमेव मूलं सर्वस्याऽपि विरत्यादेरित्यभिप्रायः / इत्येतदेवाऽऽविर्भावयितुमाह- (सव्वपाणेत्यादि) ते ह्यारण्यकाऽऽदयः सर्वप्राणभूतसत्त्वेभ्य आत्मना स्वतो विरताः, तदुपमर्दकाऽऽरम्भादविरता इत्यर्थः / तथा ते पाखण्डिकाः आत्मना स्वतो बहूनि सत्यामृषाभूतानि वाक्यान्येवं वक्ष्यमाणानीत्यविशेषेण प्रयुञ्जन्तो 'विप्पडिवेदेति' विप्रतिबुवते इत्यर्थ:। यदि वासत्यान्यपि तानि प्राण्युपमर्दकत्वेन मृषाभूतानि सत्यामृषाण्येवं ते प्रयुञ्जतीति दर्शयन्ति? तद्यथा-''अहं ब्राह्मणत्वाद्दण्डाऽऽदिभिर्न हन्तव्यः अन्ये तु शूद्रत्वाद्धन्तव्याः" / तथाहि-तद्वाक्यम्-"शूद्रं व्यापाद्य प्राणायाम
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________________ णियाण 2102 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण जपेत''। तथा-"क्षुद्रसत्त्वानामनस्थिकाना शकटभरमपि व्यापाद्य ब्राहाणं भोजयेत्' इत्यादि। अपरं चाऽऽह-''वर्णोत्तमत्वान्नज्ञाप-- यितव्यः, अन्ये त्वाज्ञापयितव्याः / अहं न परितापयितव्यः, अन्ये तु परितापयितव्याः।' तथा ''अहं वेतनाऽऽदिना कर्मकारणायन ग्राह्योऽन्ये तु शूद्रा ग्राह्याः" इति / किं बहुनोक्तेन-''नाहमपद्रावयितव्यो जीवितव्यात्, अन्ये त्वपदावयितव्याः" इति। तदेवं तेषां परपीडोपदेशः / ततो न मूढतयाऽसंबद्धप्रलापिनामशातावृतानामात्मम्भरिणां विषमदृष्टीनां प्राणातिपातविरतिरूपव्रतमस्ति। अस्य चोपलक्षणार्थत्वान्मृषावादादत्ताऽऽदानविरमणाभावोऽप्यायोज्यः। अधुनात्वनादिभवाभ्यासाद् दुस्त्यजत्वेन प्राधान्यात् सूत्रेणेवाब्रह्माधिकृत्याऽऽह-(एवामेवेत्यादि) एवमेव पूर्वोक्तेनैव कारणत्वेनातिमूढत्वाऽऽदिना परमार्थमजानानास्ते तीर्थकाः स्वीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः / यदि वा-स्त्रीपुंसकामेषु, चशब्दात्तेषु मूञ्छिता गृद्धाः, ग्रथिता अध्युपपन्नाः। अत्र चात्यादरख्यापनार्थ प्रभूतपर्यायग्रहणम् / एतच्च स्त्रीषु शब्दाऽऽदिषु प्रवर्तनं प्रायः प्राणिनां प्रधान संसारकारणम् / तथा चोक्तम्- "मूलमेयमहम्मस्स''इत्यादि। इह च स्त्री सङ्गाऽऽसक्तस्यास्यावश्यंभाविनी शब्दाऽऽदिविषयाऽऽसक्तिरिति, अतः स्वीकामग्रहणम् / तत्र चाऽऽसक्ता यावन्तं कालमासते, तत्सूत्रेणैव दर्शयति-यावद्वर्षाणि चतुःपञ्चषड्सप्तकानि / अयं च कालो गृहीतः। एतावत्कालोपा-दानंच प्रायिकम् , प्रायस्तीर्थिका अतिक्रान्तवयस एव प्रव्रजन्ति, तेषां चेतावानेव कालः संभाव्यते। यदि वा मध्यग्रहणात्तत ऊर्द्धमधश्च गृह्यते / तदर्शयतितस्माचापेतकालादल्पतरो भूयस्तरो वाऽपि कालो भवति। तत्र च ते त्यक्त्वाऽपि गृहवास, भुक्त्वा भोगभोगाविति, स्त्रीभोगे सत्यवश्यं शब्दाऽऽदयो भोगभोगास्तान् भुक्त्वा ते च भोगेभ्यो जिता इति, न च भोगेभ्यो विनिवृत्ताः, यतोऽसाध्यादृष्टनयनज्ञानवत्त्वात्सम्यविरतिपरिणामरहिताः, ते चैवंभूतपरिणामाः स्वायुषः क्षये कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेष्वासुरिकेषु किल्विकषु स्थानेषु उत्पादयितारो भवन्ति। ते ह्यज्ञानतपसा मृता अपि किल्विषिकेपुत्पत्स्यन्ते, तस्मादपि स्थानादायुषः क्षयाद्विप्रमुच्यमानाश्च्युताः किल्विषबहुलास्तत्कर्मशेषेणैलवद् मूका एलमूकाः, तद्भावेनोत्पद्यन्ते किल्विषस्थानाद्च्युतः सन्ननन्तरभवेवा मानुषत्वमवाप्य ययैकोऽव्यक्तभाग्भवत्येवमेषामव्यक्तवाक् समुत्पद्यत इति / तथा (तमुयत्ताए त्ति) तमस्त्वेनात्यन्तान्धतमस्त्वेन ज्ञानावृततया वा,तथैलमूकत्वेनाऽपि गतवाच इह प्रत्यागच्छन्तीति। शेषं प्रतीतम् / / 6 / / एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्तेजाव माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा तहेव संति उड्डे देवा देवलोयंसि अण्णं देवं अण्णं च देविं अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारें ति,णो अप्पणा चेव अप्पाणं विउव्विय विउव्विय परियारेंति-जति इमस्स तवनियम०जावतं चेवजाव एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथे वा निग्गंथी वा णिदाणं किच्चा अणालोइय तं चेवन्जाव विहरति, से णं भवं अन्नं भवं देवं अण्णं देविं णो अदेवेणं अभि-जंजिय अभिजुजिय परियारेंति, नो अप्पणा चेव अप्पाणं वेउव्विय वेउव्विय परियारेति, सणं ताओ देवलोगातो आउ-क्खएणं तहेव वत्तव्वं, णवरं हंता सद्दहेज्जा, पत्तिएजा, रोएजा। से णं सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहोववासाइं पडिव-रोजा? जो इणढे समढे / से णं दंसणसावए भवति, अभिगय-जीवाजीवे आटेमिंजापेमाणुरागरत्ते सेसे अणि8, से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाई समगोवासगपरियागं पाउणइ, बहूई समणोवासगपरियागं पाउणित्ता कालमासे कालं किया अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति / एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावफलविवाए, जं णो संचाएति सीलव्वगुणपोसहोववासाइं पडिवइत्तए।।७।। सप्तमे किमपि लिख्यते-"णवरं" इति विशेषः। (हंता सद्दहेजा इति) श्रद्दधेत, प्रतीयत्प्रतीतिं विदध्यात्, रोचयेत्चेतसिसम्यक्तया जानीयात् (सीलव्वय त्ति) प्राग्वत् / प्रतिपद्येत अङ्गीकुर्यात्? गुरुराह-नायमर्थः समर्थो नायमों युक्त्योपपन्नः, स हि दर्शनश्रावको भवति।दर्शनं नामसम्यक्त्वं, तदाश्रित्येत्यभिप्रायः। (अभिगयेत्यादि) अग्रे व्याख्यास्यते। एवं भूतः स बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं पालयति, केवलेनाऽपि सम्यक्त्वेन श्रावको भवत्येव, क्रियायामपि तस्यैव प्रधानतरत्यात्।।७।। एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, तं चेव सव्वं०जाव से य परकममाणे दिव्वमाणुस्सगा कामभोगा अधुवा०जाव विप्पजहाणिज्जा, दिव्वा वि खलु कामभोगा अधुवा अणितिया असासता वलावयणधम्मा पुणरागमणिज्जा पच्छा पुव्वं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा, जति इमस्स तवनियमस्स०जाव आगमेस्साणं जइइमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया०जाव पुमत्तए पव्वायंति / तत्थ ण समणोवासए भविस्सामि अहिगतजीवाजीवा०जाव फासुयएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणे विहरिस्सामि, से तं साधु / एवं खलु समणाउसो! निगंथो वा निग्गंथी वा णिदाणं किया तस्स ठाणस्स अणालोइयजाव देवलोएसु देवताए उववज्जेज्जाजाव किं भे आसगस्स सदति? तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजातस्स वि हंता सद्दहिज्जा, से णं सीलव्वय०जाव पोसहोववासाई पडिवज्जेज्जा, से णं मुडे भवित्ता अगावराओ अणगारियं पव्वएजा? णो इणढे समटे / से णं समणोवासए भवति अहिगतजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरति, से णं एतारूवेणं विहरमाणे बहूणि वासाणि समणोवासगपरियागं पाउणिति, बहइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता आवाहंसि उप्पण्णं वा हंता! पञ्चक्खाएइ, हंता! बहूइं भत्ताई अणसणाए छेदइ, छेदेइत्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। एवं खलु समणा
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________________ णियाण 2103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण उसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे एवं फलविवागो जंणो / संचाएति सव्वतो सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।॥८॥ अष्टमे किमपि लिख्यते-(तत्थणं) तत्रपुत्राऽऽदिषु अहं श्रमणो-पासको भूयासं, विशिष्टोपदेशार्थ श्रमणानुपास्ते सेवते इति श्रमणो-पासकः। स च श्रमणोपासनतः (अहिगतजीवाजीये इत्यादि) अधिगतौ सम्यग्विज्ञाती जीवाजीवौ येन स तथा / यावत्करणात्- "उवलद्धपुन्नपावे' इत्यादिपदकदम्बकसग्रहः। उपलब्धे यथाऽवस्थितस्वरूपेण विज्ञाते पुण्यपापे येन स उपलब्धपुण्यपापः, आश्रवानां प्राणातिपाताऽऽदीनां संवरस्य प्राणातिपाताऽऽदिप्रत्याख्यानरूपस्य निर्जरायां कर्मणा देशतो निर्जरणस्य क्रियाणां कायिक्यादीनामधिकरणानां खङ्गाऽऽदीनां बन्धस्य कर्म पुद्गलजीवप्रदेशान्योऽन्याऽऽगमरूपस्य मोक्षस्य सर्वाऽऽत्मना कर्मापगमरूपस्य कुशलः सम्यक्परिज्ञाता, आश्रवसंवरनिर्जराक्रियाऽधिकरणबन्धमोक्षकुशलः। एतेन चास्य ज्ञानसंपन्नतोक्ता / (असहेज्जे इति) अवद्यमानसहायः कुतीर्थिकप्रेरितसम्यक् त्वाविचलनं प्रति नपरसाहाय्यमपेक्षते इति भावः। तथा चाऽऽह-(देवासुरनागसुवनजक्खरक्खसकिं नरकिंपुरिसगरुडगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निगंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जे) देवा वैमानिका असुर-कुमारा नागकुमारा राक्षसकिन्नरकिम्पुरुषा व्यन्तरभेदाः (गरुड त्ति) गरुडचिह्नाः सुवर्णकुमारा गन्धर्वमहोरगाश्व व्यन्तराः, तैः(अणति-कमणिले इति) अनतिक्रमणीया अचालनीयाः। एवं चैतत् / यतः-(निग्गंथे पावयणे निस्संकिए इत्यादि) निर्ग्रन्थे प्रावचने निःसंशयः (निक्कंखिए त्ति) दर्शनान्तराकाङ्क्षारहितः। (निव्वतिगिच्छे) फलं प्रति निःशङ् कः। (लद्धडे) अर्थश्रवणतः (गहियढे) ग्रहीतार्थो ऽवधारणतः (पुच्छियडे) प्रष्टार्थः, सांशयिकार्थप्रश्रकरणात्। (अहिगयढे त्ति) अधिगतोऽर्थो येन स तथा / अभिगतार्थो वा, अर्थावधारणात्। (विणिच्छियडे त्ति) विनिश्चितार्थः, एवं पर्याप्तोपलम्भात् / अत एव-(अद्विमिजापेम्माणुरागरत ति) अस्थीनिचकीकसाति। 'मिजाच'तन्मध्यवर्ती धातुविशेषः अस्थिमिजास्ताः प्रेमानुरागेण सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्भाऽऽदिरागेण रक्ता इव रक्तायः सतथा। केनोल्लेखेनेत्यत आह-(अयमाउसो ! निगंथे पावयणे अढे अयं परमट्ठो, सेसे अणट्टे त्ति) अयमिति प्राकृतत्वादिदम्। (आउसो त्ति) आयुष्मन्निति पुत्राऽऽदेशमन्त्रणम्। (सेसे त्ति) शेषं निर्ग्रन्थप्रवचननेनातिरिक्तं धनधान्यकलत्रपुत्रमितकुप्रवचनाऽऽदिकम्, अनर्थोऽनर्थकारणत्वात् इति / (डच्छियफलिहे त्ति) उच्छ्रितोच्छ्रितमुन्नत स्फटिकमिव स्फटिकं चित्तं यस्यासौ उच्छ्रितस्फटिकः, मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमना इत्यर्थः / एषा वृद्धव्याख्या / अपरे त्वाहः-उच्छ्रितोऽर्गलाऽस्थानादपनीय ऊर्कीकृतो न तिरश्चीनः कटेः पश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः / उत्सृतो वा अपगतः परिघोऽर्गला गृहद्वारेयस्याः सा, व्युत्सृतपरिघो वा औदार्यातिरेकतोऽतिशयदानदायित्वेनानुकम्पया भिक्षुकप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः / (अवंगयदुवारे) अप्रावृतद्वारः भिक्षुकप्रवेशार्थ कपाटानामपि पश्चात्करणात् / वृद्धानां तु भावनावाक्यमेव / सम्यग्दर्शनलाभे सति न कस्माचित्पाषण्डिकादबिभेति, शोभनमार्गपरि,ग्रहणे उद्घाटितशिरा स्तिष्ठतीति भावः। (चियंत्ततेउरघरप्पवेसे इति) (घियत्तोत्ति)लोकानां प्रतीत एवान्तःपुरे वा गृहे वा प्रवेशो यस्य स तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्राऽनाशङ्कनीय इत्यर्थः। (चियत्ते ति) नाप्रीतिकरोऽन्तःपुरगृहयोः प्रवेशः शिष्टजनप्रवेशनं यस्य स तथा, अनीालुताप्रतिपादनान्तरं चेत्थं विशेषणमिति। अथवा (चियत्तो त्ति) त्यक्तोऽन्तःपुरगृहयोः परकीययोर्यथाकथञ्चित्प्रवेशे येन स तथा। (चाउद्दसट्टमिअमावसापुण्णमासिणीसु पडिपुन्नपोसहमणुपालेमाणे त्ति) चतुर्दशी पर्वविधिना प्रतीता, अष्टमी च, तयोः अमावास्यासु मासार्दोक्तपर्वत्वेन प्रत्याख्यानासु, पौर्णमासीषु च पूर्णमासत्वेन पूर्णचन्द्रोदयत्वेन मासान्तपर्वसु प्रसिद्धासु, एवंभूतेषु धर्मदिवसेषु शुद्धयतिशयेन प्रतिपूर्णो यः पौषधौ व्रताभिग्रहविशेषः, तं प्रति पूर्णमाहारशरीरसंस्कारी ब्रह्मचर्यव्यापाररूपं पौषधमनुपालयन्, संपूर्णश्चावकधर्ममनुचरति। तदनेन विशिष्टं देशचारित्रमावेदितं भवति। (समणे निग्गथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुच्छणेणं) अत्र वस्त्रं प्रतीतम्, पतद्भक्तं पानं वा गृह्णाणतीति पतद्ग्रहः। लिहाऽऽदित्वादच् प्रत्ययः / पात्रं पादप्रोच्छनकं रजोहरणम्। (ओसहभेसजेणं ति) औषधमेकद्रव्याऽऽश्रयं यत्समुदायरूपम्।अथवौषधं त्रिफलाऽऽदिभैषज्यम् (पाडिहारिएणं पीठफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे त्ति) प्रतिहरः प्रत्यर्पणं प्रयोजनमस्येति प्रातिहारिकं, पीठमासनं, फलकमवष्टाभनार्थः काष्ठविशेषः, शय्या वशतिः, शयनं च यत्र प्रसारितपादः सुप्यते, संस्तारको लघुतरशयनमेव / (बहुहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोवयासेहिं आहापरिग्गहि अप्पाणं भावेमाणे ति) शीलव्रतानि अणुव्रतानि, गुणा गुणव्रतानि, वि रमणानि रागाऽऽदिविरतिप्रकाराः, प्रत्याख्यानानि नमस्कारसहिताऽऽदीनि, पौषधोपवासो विशेषतोऽष्टम्यादिदिनेषवसनमाहाराऽऽदित्याग इत्यर्थः / (विहरिस्सामि त्ति) विचरिष्ये / क्वचिदेतानि पदानि अननुगमेनापि दृश्यन्ते। तान्यपि अनेन व्याख्याऽनुक्रमेण वाच्यानि। (सेणं मुंडे इत्यादि) स मुण्डो मस्तकलोचनेन भूत्वा, (आगाराओ त्ति) अगैर्दुमदृषदादिभिर्निवृत्तं, तस्मात् निष्क्रम्यतीति शेषः / अनगारितां साधुतां प्रव्रजेत् प्रतिपद्येत,शेष व्यक्तम्। (से णमित्यादि) सपूर्वोक्तनिदानकृता यथाशक्ति सदनु-छान विधा उत्पन्ने वा कारणे अनुत्पन्ने वा भक्तं प्रत्याख्यायानालोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः सन् कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु लोकेषु उत्पद्यते इति / एतानि चाभिगतजीवाऽऽदिकानि पदानि हेतुमद्भावेन नेतव्यानि। तद्यथा यस्मादभिगतजीवाजीवः, तस्मादुपलब्धपुण्यपापः, यस्मादुपलब्धपुण्यपापस्तस्मादुच्छृतमनाः, एवमुच्छ्रतमनाः सन् श्रावकधर्म साधुधर्म्म वा प्रकाशयन् विहरति / अष्टमीचतुईश्यादिषु पौषधोपवासाऽऽदिपारणकेषु साधून प्रासुकेन प्रतिलाभयते / एतन्निदानस्यैतत्फलं, यजानन्नपि कटुकविपाकान् विषयान् विहाय न चारित्रं प्रतिपद्यते॥८॥ एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते०जाव से य परक्कममाणे दिव्वमाणुस्सएहिं कामभोगे हिं निव्वेयं गच्छे जा, माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा०जाव विप्पजहणिज्जा दिव्वा वि खलु कामभोगा अधुवा०जाव पुणरागमणिज्जा, जति इमस्स तवनियम०जाव वयमवि आगमेस्साणं जाई इमाइं अंतकुलाणि वा, तुच्छकुलाणि वा दरिदकु
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________________ णियाण 2104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण लाणि वा, कि विणकु लाणि वा, मिक्खागकु लाणि वा, बंभकुलाणि वा। एएसिणं अण्णतरंसि कुलंसि पुमत्ताए पचाएंति, एएहिं मे आतापरियारसुणीहडे भविस्सति, से तं साधु / एवं समणाओ खलु सो णिग्गंथे नियाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिकंते सव्वं तं चेव०जाव से णं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइजा, से ण तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झेज०जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा? णो इणढे समढे / से णं भवइ सेसे जे अणगारा भवंतो इरियासमिताजाव बंभचारी,ते णं विहारेणं विहरमाणा बहूईवासाइंसामण्णपरियागं पाउणंति, बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता आवाहंसि उप्पण्णंसि वा०जाव भत्तं पच्चाइक्खित्ता० भाव कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंतीति। ते एवं समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागं, जंणो संचाएति तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झेजा०जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा / नवमे किमपि लिख्यते-(अंतकुलाणि व शि) जघन्यकुलानि, अन्त्यवर्णत्वात् प्रान्तकुलानि तुच्छकुलानि स्वल्पकुटुम्बानि दरिद्रकुलानि सर्वथा निर्धनकुलानि कृपणकुलानि सत्यपि विभवेऽतीव निःसत्त्वानि भिक्षणशीलानि भिक्षुककुलानि भिक्षामात्रोपजीवीनि , ब्राहाणकुलानि प्रतीतानि। एतेषामन्यतरस्मिन् कुले पुंस्त्वेन प्रत्यागमिष्यामि, यत एतेभ्यः कुलेभ्यः ममाऽऽत्मपर्यायेषु निःसारितो भविष्यति, प्रव्रज्याभिप्राये संजते न कोऽपि मां प्रतिबन्धको भविष्यतीति हृदयम्। (से णं तेणेव त्ति) स तस्मिन् भवग्रहणे ततः प्रव्रज्याऽपि सिद्ध्येत् / पदव्याख्या पूर्ववत् / “अणगारा" इत्यादि व्यक्तम् / यावत्करणात्"भासासमिए एसणासमिए'' इत्यादिपदानि द्रष्टव्यानि। (सुहुयेत्यादि) सुष्ठ हुतं क्षिप्तं घृताऽऽदियत्राऽसौ सुहुतोघृताऽऽदितर्पितः, सचासौ हुताशनश्च वहिस्तद्वत्तेजसा ज्ञानरूपेण तपस्तेजसा वा ज्वलन् दीप्यमानः। शेष सुबोधम् / एतन्निदानस्यैतत्फलं यन्न शक्नोति कर्मक्षयं विधाय मोक्षगमनं प्रतीतितितात्पर्यमिति नवमम् / / 6 / / एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते / तं जहा-इणमेव निग्गंथे०जाव से परक्कमेजा, अणुदिण्णकामजाए सव्वकामविरते सध्वरागविरते सव्वसंगातीते सव्वसिणेहातिकंते सव्यचारित्तएणं परिवुडे तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं णाणेणं अणुत्तरेणं दंसणेणं०जाव परिनिव्याणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पशेजा। तते णं से भगवं अरहा भवति जिणे केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी सदेवमणुयासुराए०जाव बहूई केवलपरियागंपाउणंति, बहूई केवलपरियागं पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं आभोएति, आभोएत्ता भत्तं पचक्खाइत्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति, बहूई भत्ताई अणसणाएछेदित्ता ततो पच्छा चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं सिज्झतिजाव सव्वदु-खाणं अंतं करेति, तं एवं खलु समणाउसो! तस्स अणिद्दा-णस्स इमेयारूवे कल्लाणफलविवागे, जं तेणेव भवग्गहणेण सिजतिजाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति / तते णं ते बहवे णिग्गंथाओ निग्गंथीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एवमटुं सोचा णिसम्म समणं भगवं महावीरं वंदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोएंति, पडिक्कमंतिम्जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवजंति। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं सदेवमणुयासुराए परिसाए मज्झगते एवं आइक्खति, एवं भासति, एवं परूवेति, आयातिट्ठाणे णाम अज्जो ! अज्झयणे सअटुं सहेउअं सकारणं सुत्तं च अत्थं च तदुभयं च भुजो उवदरिसेति त्ति बेमि॥१०॥ (अणुदिण्णकामजाते त्ति) अनुदीर्णः कामजातः कामगमः (सव्वकामविरतेति) सर्वकामविरक्तः सर्वसङ्गातीतः सर्व स्नेहाभिक्रान्तः सर्वचारित्वेन सर्वधर्मानुष्ठायित्वेन परिवृत्तः, तस्य भगवतः (अणुत्तरेणं णाणेणं ति) ज्ञानं मत्यादि, तदपेक्षया अनुत्तरं प्रधानं तेन। यावत्करणात्"दसणेणं चरित्तेणं " इत्यादिपदानि द्रष्टव्यानि / (परिनिव्वाणमग्गेणं ति) परिनिर्वाण कषायदाहोपशमनमार्गेण आत्मानं भावयतो वासयतः, अनेनाऽऽत्मैव प्रधानमोक्षाङ्गीमत्युक्तम्। (अणंते इत्यादि) अनन्तमनन्तार्थविषयाद्वा अनन्तमन्तरहितमपर्यवसितत्वात् / अनुत्तरं सर्वोत्तरं सर्वोत्तमत्वात्। नियाघात कटकुड्याद्यप्रतिहतत्वात् / निरावरणं क्षायिकत्वात्। कृत्स्नं सकलार्थग्राहकत्वात्। प्रतिपूर्ण सकलस्यांशसमन्वितत्वात् राकाचन्द्रवत् केवलमसहायम्, अत एव वरं प्रधानं ज्ञानं च दर्शनंचज्ञानदर्शनम्। ततः पूर्वपदाभ्यां कर्मधारयः। समुत्पद्यते सकलावरणक्षयादाविर्भवति / (तते णमित्यादि) ततः स भगवानहन् जिनः केवली च भवति सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वविशेषाणां सामान्यस्य च प्रथमद्वितीयाऽऽदिसमयेषु अवबोधमानः सदेवमनुजासुरा या जन्तुसन्ततिः। यावत्करणात्-“सव्वभावे जाणमाणे'' इत्यादि द्रष्टव्यम् / भावानिति पर्यायान् उत्पादस्थितिव्ययलक्षणान् जानाति यथावदवगच्छन् विहरत्यास्ते (अप्पणो आउसेसं ति) आत्मानमायुशेषं पश्यति। शेष सुबोधम् / अथोपसंहर्तुकामो भगवानिदमाह-(एवं खल्वित्यादि) एवं पूर्वोक्तप्रकारेण हे श्रमण! हे आयुष्मन्! तस्यानिदानस्यायमेतद्रूपः कल्याणः शुभः फलविपाकः वृत्तिविशेषः। किं तदित्याहतेनैव भवग्रहणेनं सर्वदुःखानामन्तं करोति / इति श्रुत्वा यत्ते कृतवन्तस्तदाह-(तते णमित्यादि) सुबोधम् (तस्स ति) स्थानस्यानन्तरोक्तस्थानस्य निदानरूपस्याऽऽलोचयन्ति। स्वमनीषिकापरिहाराय भगवान् भद्रबाहुस्वामी प्राऽऽह(तेण कालेणमित्यादि) राजगृहे गुणशिलालये समवसरणावसरे श्रमणा--
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________________ णियाण 2105 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण ऽऽदिसुरान्तपरिषन्मध्यवर्ती , एवमाख्यातीति यथोक्तं कथयति, एवं भाषते वाग्योगेन, एवं प्रज्ञापयति अनुपालितस्य फलं प्रदर्शयति, एवं प्ररूपयति। किं तदित्याह-(आयातिट्ठाणे त्ति) आयति म उत्तरकालस्तस्य स्थानं पदमित्यभिधानम्। हे आर्याः! अध्ययनं (सअवमित्यादि) व्याख्यातार्थम् / इति धीमीति पूर्ववत दशा० 10 अ०) (मध्यस्थस्य केवलं वस्तुस्वभावपरस्य निदानमपि अनिदानमेवेति प्रथमभागे 236 पृष्ठे 'अट्टज्झाण' शब्दे उक्तम्) भिजा णिदाणकरणे मोक्खमग्गस्स परिमंथू, सव्वत्थ भगवया अणिदाणया पसत्था। 'भिज्ज त्ति' लोभः, तेन यन्निदानकरणं चक्रवर्तीन्द्राऽऽदिऋद्धिप्रार्थनं, तन्मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपस्य परिमन्थुरार्तध्यानरूपत्वात्। भिजाग्रहणाद्यत्पुनरलोभस्य भवनिर्वेदमार्गानुसारिताऽऽदिप्रार्थनं, तन्न मोक्षमार्गस्य परिमन्थुरिति दर्शितमिति। स्था०६ ठा० ननुतीर्थकरत्वाऽऽदिप्रार्थनन राज्याऽऽदिप्रार्थनवदुष्टम; अतस्तद्विषयं निदानं मोक्षस्य परिमन्थुन भविष्यति? नैवम् / यत आह-(सव्वत्थेत्यादि) सर्वत्र तीर्थकरत्वचरमदेहत्वाऽऽदिविषयेऽपि, आस्तां राज्याऽऽदौ, अनिदानता अप्रार्थनमेव, भगवता समग्रैश्वर्याऽऽदिमता श्रीमन्महावीरस्वामिना (पसत्थ त्ति) प्रशंसिता श्लाघिता। एष सूत्रार्थः / (बृ०) अथ निदानकरणमाहअनियाणं निव्वाणं, काऊणमुवद्वितो भवे लहुओ। पावति धुवमायातिं, तम्हा अणियाणता सेया॥२५७|| अनिदानं निदानमन्तरेण साध्यं निर्वाणं भगवद्भिः प्रज्ञप्तं, ततो यो निदानं करोति, तस्य तत्कृत्वा पुनर्निदानकरणेनोपस्थितस्य लघुको मासः प्रायश्चित्तम् / अपि च यो निदानं करोति, स यद्यपि तेनैव भवग्रहणेन सिद्धि गन्तुकामः, तथापि धुवमवश्यमायातिं पुनरेवाऽऽगमनं प्राप्नोति, तस्मादनिदानता श्रेयसी। इदमेव व्याचष्टेइह परलोगनिमित्तं, अवि तित्थकरत्तचरिमदेहत्तं / सव्वत्थेसु भगवता, अणिदाणत्तं पसत्थं तु / / 258|| इहलोकनिमित्तमिहै व मनुष्यलोके-अस्य तपसः प्रभावेण चक्रवादिभोगानहं प्राप्नुयामिहैव भावविपुलान् भोगानासादयेयमितिरूपं, परलोकनिमित्तं मनुष्यापेक्षया देवभवाऽऽदिकः परलोकः, तत्र महर्द्धिक इन्द्रसामानिकाऽऽदिरहं भूयासमित्यादि-रूपं, सर्वमपि निदानं प्रतिषिद्धम् / किं बहूना? तीर्थकरत्वेन आर्हत्येन युक्तं चरमदेहत्वं मे भवान्तरे भूयादित्वेतदपि नाऽऽशंसनीयम्। कुतः? इत्याह-सर्वार्थेष्वप्यैहिकाऽऽमुष्मिकेषु प्रयोजनेषु अभिष्वङ्ग विषयेषु भगवता अनिदानत्वमेव प्रशस्तंश्लाधितम्, तुशब्द एवकारार्थः। सच यथास्थानयोजितः। (बृ०) आह-निदाने किमिति द्वितीयपदं नोक्तम्? उच्यते-नास्ति, कुतः? इति चेदत आहजा सालंबणसेवा, तं वीयपयं वयंति गीयत्था। आलंबणरहियं पुण, निसेवणं दप्पियं वेंति / / 266 / / या सालम्बनसेवा या ज्ञानाऽऽद्यालम्बनयुक्ता प्रतिसेवा, तां द्वितीयपदं गीतार्था वदन्ति, आलम्बनरहितां पुनर्निषेवणां प्रतिसेवांदर्पिका बुवतेतच्चाऽऽलम्बनमनिदानकरणे किमपि तद्विद्यते- "सव्वत्थ अनियाणया | भगवया पसत्था '' इति वचनात् / अथ भोगार्थ विधीयमानं निदानं तीव्रविपाकं भवतीति कृत्वा मा क्रियतां, यत्पुनरमुना प्रणिधानेन निदानं करोतिमाम ! मे राजाऽऽदिकुले उत्पन्नस्य भोगाभिष्वक्तस्य प्रव्रज्या न भविष्यतीत्यतो दरिद्रकुलेऽहमुत्पद्येयम्, तत्रोत्पन्नस्य भोगाभिष्वङ्गोन भविष्यति, एवं निदानकरणेऽदोषः? सूरिराहएवं सुनीहरो मे, होहिति अप्प त्ति तं परिहरंति। हंदि हुणेच्छंति भवं, भववोच्छित्तिं विमग्गंता // 267 / / एवमवधारणे, किमवधारयति-दरिद्रकुले उत्पन्नस्य मे ममाऽऽत्माअसंयमात् सुनिर्हरः सुनिर्गमो भविष्यति-सुखेनैव संयममगीकरिष्यामीत्यर्थः / इतीदृशमपि यन्निदानं, तदपि साधवः परिहरन्ते / कुतः? इत्याह-'हंदीति' नोदकाऽऽमन्त्रणे, हुरिति यस्मादर्थे / हे सौम्य ! यस्मान्निदानकरणेन भवानां परिवृद्धिर्भवति, सर्वोऽपि च प्रव्रज्याप्रयत्नोऽस्माकं भवव्यवच्छित्तिं कर्तुमिति विविधैः प्रकारैर्गियन्तः साधवो भवं नेच्छन्ति। अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन द्रढयतिजो रयणमणग्घेयं, विकिज्जऽप्पेण तत्थ किं साहू? दुग्गयभवमिच्छत्ते, एसो चिय होति दिटुंतो।।२६८|| वोऽनयमिन्द्रनीलमरकताऽऽदिकं रत्नमल्पेन स्यल्पमूल्येन काचाssदिना विक्रीणीयात्तत्र किं साधु कि माम! शोभनम्? न किञ्चि दित्यर्थः / दुर्गतभवं दरिद्रकुलोत्पत्तिमिच्छत एष एव दृष्टान्त उपनेतव्यो भवति / तथाहि-अन_रत्नस्थानीयं चारित्रं, निरुपमानन्ताऽऽनन्दमयमोक्षफलसाधकत्वात्, काचशकलस्थानीयो दुर्गतभवः, तुच्छत्वात, ततो यचारित्रविक्रयेण तत्प्रार्थनं करोति, स मन्दभाग्योऽनय॑रत्न विक्रीय काचशकलं गृह्णातीति मन्तव्यम्। अपि चसंग अणिच्छमाणो, इह परलोए य मुचति अवस्सं। एसेव तस्स संगो, आसंसति तुच्छयं जंतू॥२६६।। इहलोकविषयं परलोकविषयं च सङ्ग मुक्तिपदप्रतिपक्षभूतम् अभिष्वङ्गमनिच्छन्नवश्यं मुच्यतेकर्मविमुक्तो भवति, कः पुनस्तस्य सङ्ग? इत्याह-एष एव तस्य सङ्गो यन्मोक्षाऽऽख्यविपुलफलदायिनः तपसः तुच्छकं फलमाशास्ते प्रार्थयति। तद्रूपोऽपि निदानस्यैव पर्यायकथनद्वारेण दोषमाहबंधो त्ति णियाणं ति य, आससजोगो य होति एगट्ठा। ते पुण ण बोहिहेऊ, बंधावचया भवे बोही // 270 / / बन्ध इति वा, निदानमिति वा, आशंसायोग इति वा एकार्थानि पदानि भवन्ति / ते पुनर्बन्धाऽऽदयो न बोधिहेतवो न ज्ञानाऽऽद्यवाप्तिकारणं भवन्ति, किं तु ये बन्धापचयाः, कारणे कार्योपचारात्कर्मबन्धस्यापचयहेतवोऽनिदानताऽऽदयः, तेभ्यो बोधिर्भवति। आह-यदि नाम साधवो भवं नेच्छन्ति, ततः कथं देवलोके त्पद्यन्ते इत्यर्थः? उच्यतेनेच्छंति भवं समणा, सो पुण तेसिं भवे इमेहिं तु / पुव्वतवसंजमेहिं, कम्मं तं चावि संगणं / / 271 / /
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________________ णियाण 2106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाण श्रमणाः साधवो नेच्छन्त्येव भवं, परंस पुनर्भवो देवत्वरूपस्तेषाममीभिः कारणैर्भवेत्। तद्यथा-पूर्वं वीतरागापेक्षया प्राचीनावस्थाभावि यत्तपरतेन सरागावस्थाभाविना तपसा साधवो देवलोकेषूत्पद्यन्ते इत्यर्थः / एवं पूर्वसंयमेन सरागेण सामायिकाऽऽदिचारित्रेण साधूनां देवत्वं भवति / कुत इत्याह-(कम्म ति) पूर्वतपः संयमावस्थायां हि देवगतिप्रभृतिकं कर्म बध्यते, ततो भवति देवे-धूपपातः। एतदपि कर्म केन हेतुना बध्यते? इति चेदत आह-तदपि कर्म सङ्गेन संज्वलनक्रोधाऽऽदिरूपेण बध्यते। बृ०६ उ०॥ कित्तियवंदियमहिया, जे एलोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्गबोहिलाह, समाहिवरमुत्तमं किंतु / / 6 / / उत्तमं सर्वोत्कृष्ट, ददतु प्रयच्छस्तु। आह-किमिदं निदानम, उत नेति? यदि निदानम्, अलमनेन, सूत्रप्रतिषिद्धत्वात्। न चेत्, सार्थकमनर्थक वा? यद्याद्यः पक्षः, तेषां रागाऽऽदिमत्त्वप्रसङ्गः, प्रार्थनाप्रवीणे प्राणिनि तथादानात् / अथ चरमः, तत आरोग्याऽऽदिदानविकला एते इति जानानस्यापि प्रार्थनायां मृषावादप्रसङ्ग इति? अत्रोच्यते- न निदानमेतत्, तल्लक्षणायोगात् , द्वेषाभिष्वङ्गमोहगर्भ हि तत् , तथा तन्त्रप्रसिद्धत्वात् धर्माय हीनकुलाऽऽदि-प्रार्थनं मोहः, अतहेतुकत्वात्, ऋद्ध्यभिष्वङ्गतोधर्मप्रार्थनाऽपि मोहः, अतद्धेतुकत्वादेव। तीर्थकरत्वेऽप्येतदेवमेव प्रतिषिद्धमिति। अत एवेष्टभावबाधकृदेतत्, तथेच्छाया एव तद्विघ्नभूतत्यात्, तत्प्रधानतयेतरत्रोपसर्जनबुद्धिभावात् अतत्त्वदर्शनमेतत्, महदपायसाधनम्, अविशेषज्ञता हि गर्हितापृथग जनानामपि सिद्धमेतत्, योगिबुद्धिगम्योऽयं व्यवहारः, सार्थकानर्थकचिन्तायां भाज्यमेतत्, चतुर्थभाषारूपत्वात्। तदुक्तम्"भासा असचमोसा, णवरं भत्तीऍ भासिया एसा। ण हु खीणपेजदोसा, देंति समाहिं च बोहिं च / / 1 / / तप्पत्थणाएँ तह विय, ण मुसावाओ वि एत्थ विण्णेओ। तप्पणिहाणाओ चिय, तग्गुणओ हंदि फलभावा // 2 // चिंतामणिरयणादिहिँ,जहा उ भव्वा समीहियं वत्थु। पावंति तह जिणेहि, तेसि रागादभावे वि // 3 // वत्थुसहाओ एसो, अउव्वचिंतामणी महाभागो। थोऊणं तित्थयरे, पाविजइ बोहिलाभो त्ति ||4|| भत्तीऐं जिणवराणं, खिजंती पुव्वसंचिया कम्मा। गुणपगरिसबहुमाणो, कम्मवणदवाणलो जेण // 5 // " एतदुक्तं भवति-यद्यपि ते भगवन्तो वीतरागत्वादारोग्याऽऽदि न प्रयच्छन्ति, तथाऽप्येवंविधवाक्यप्रयोगतः प्रवचनाऽऽराधनतया सन्मार्गवर्तिनो महासत्त्वस्य तत्सत्तानिबन्धनमेव तदुपजायत इति गाथार्थः // 6 // लक। भत्तीऍ जिणवराणं, खिज्जंती पुव्वसंचिआ कम्मा। आरियणमुकारेणं, विज्जा मंताय सिज्झंति !|56| भक्त्याऽन्तःकरणाऽऽदिप्रणिधानलक्षणया, जिनवराणां तीर्थकराणां, संबन्धिन्या हेतुभूतया, किम्? क्षीयन्ते क्षयं प्रतिपद्यन्ते, पूर्वसञ्चितानि अनेकभवोपात्तानि, कर्माणि ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनि, नि, इत्थं स्वभावत्वादेव तद्भक्तेरिति / अस्मिन्नेवार्थ दृष्टान्तमाह। तथाहिआचार्यनमस्कारेण विद्या, मन्त्राश्च सिद्ध्यन्ति, तद्भक्तिमतः सत्त्वस्य शुभपरिणामत्वात् तत्सिद्धिप्रतिबन्धककर्मक्षया-दिति भावना / अयं गाथाऽर्थः ||56 / / अतः साध्वी तद्भक्तिर्वस्तुतोऽभिलषितार्थप्रसाधकत्वादारोग्यबोधिलाभाऽऽदेरपि तन्निवर्त्य त्वात्तथा चाऽऽहभत्तीऍ जिणवराणं, परमाए खीणपेज्जदोसाणं। आरुग्गबोहिलाभ, समाहिमरणं च पावंति॥६०|| भक्त्या जिनवराणां, किंविशिष्ट्या? परमया प्रधानया, प्रावभक्त्येत्यर्थः / क्षीणप्रेमद्वेषाणां जिनाना, किम? आरोग्यबोधिलाभं समाधिमरां च प्राप्नुवन्ति प्राणिन इति / इयमत्र भावनाजिनभक्त्या कर्मक्षयः, ततः सकलकल्याणावाप्तिरित्याह-समाधिमरण च प्राप्नुवन्तीत्येतदारोग्यबोधिलाभस्य हेतुत्वेन द्रष्टव्यम्, समाधिमरणप्राप्ती नियमत एव तत्प्राप्तेरिति गाथाऽर्थः // 60 // साम्प्रतं बोधिलाभप्राप्तावपि, जिनभक्तिमात्रादेव पुनयोंधिलाभो भविष्यत्येव किमनेन वर्तमानकालदुष्करणा-- नुष्टानेन? इत्येवंवादिनमनुष्ठानप्रमादिनं सत्त्वम धिकृत्यौपदेशिकमिदं गाथाद्वयमाह......................(आव०२अ०......................। ........................||611 // लद्धिल्लिअंच बोहिं, अकरितोऽणागयं च पत्थंतो। अन्नदाइं बोहिं, लब्मिसि कयरेण मुल्लेण? ||6|| (लद्धिल्लियं च त्ति) लब्धां च प्राप्तां च वर्तमानकालिकां बोधि जिनधर्मप्राप्तिमकुर्वन्निति कर्मपराधीनतया सदनुष्ठानेन सफलामकुर्वन, अनागतां चाऽऽयत्यामन्यां च प्रार्थयन् किं द्रक्ष्यसि? यथा-त्वं हे विहल ! जडप्रकृते ! इमं चान्यां च बोधिमधिकृत्य किं "चुक्किहिसि' इति देशीवचनतो भ्रश्यसि, न भविष्यसीत्यर्थः तथा लब्धां च बोधिमकुर्वन्ननागतां च प्रार्थयन् (अन्नदाई ति) निपातः, असूयायाम्, अन्ये तुव्याचक्षते-अन्याभिदानी बोधिं, किंलप्स्यसे कतरण मूल्येन? इयमत्र भावनाबोधिलाभे सति तपः संयमानुष्ठानपरस्य प्रेत्य वासनावशात्तत्तत्प्रवृत्तिरेव बोधिलाभोऽभिधीयते, तदनुष्टानरहितस्य पुनर्वासनाभावात् कथं तत्प्रवृत्तिरिति बोधिलाभानुपपत्तिः? स्यादेतत्, एवं सत्याद्यस्य बोधिलाभस्यासंभव एव उपन्यस्तवासनाभावान्न अनादिसंसारे राधाबेधोपमानेनानाभोपगत एव कथञ्चित्कर्मक्षयतस्तदवाप्तिरिति। एतदावेदितमेवोपोद्घात इत्यलं विस्तरेणेति गाथाद्वयार्थः // 61 / / 62 / / तस्मात्सति बोधिलाभे तपःसंयमानुष्ठानपरेण भवितवं, न यत्किञ्चिचैत्याद्यालम्बनं चेतस्याधाय प्रमादिना भवितव्यमिति, तपस्सयमोद्यमवतश्चैत्याऽऽदिषु कृत्याविराधकत्वात्। तथा चाऽऽह चेइयकुलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणे सुए अ। सव्वेसु वि तेण कयं, तवसंजममुञ्जमतेणं / / 63 / / चैत्यकुलगणसङ्केषु, तथा आचार्याणां च, तथा प्रवचनश्रुतयोश्च, किम्? सर्वेष्वपि तेन कृतं, कृत्यमिति गम्यते / के न? तपःसंयमोद्यमवता साधुनेति। तत्र चैत्यान्यर्हत्प्रतिमालक्षणानि, कुलं विद्याधराऽऽदि, गणः कुलसमुदायः, सङ्घः समस्त एव साध्वादिसजातः / आचार्याः प्रतीताः, चशब्दादुपाध्यायाऽऽदिपरिग्रहः। भेदाभिधानं च प्राधान्यख्यापनार्थम् / एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् / प्रवचनं द्वादशाङ्गमपि सूत्रार्थतदुभयरूपं, श्रुतं सूत्रमेव। चशब्दः स्वगता
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________________ णियाण 2107 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णियाणमरण ऽनेकभेदप्रदर्शनार्थः। एतेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु तेन कृतं कृत्यम्, यः तपःसंयमोद्यमवान् वर्तते। इयमत्र भावना-अयं हि नियमाद्ज्ञानदर्शनसंपन्नो भवत्ययमेव च गुरुलाघममालोच्य चैत्याऽऽदिकृत्येषु सम्यक् प्रवर्तते। यथैहिकाऽऽमुष्मिकगुणवृद्धिर्भवति, विपरीतस्तु कृत्येऽपि प्रवर्तमानोऽप्यविवेकादकृत्यमेव संपादयत्यत्र बहु वक्तव्यमिति गाथार्थः // 63 / / आव०२ अ०। पं०सू०। (प्रणिधानलक्षणं 'पणिहाण' शब्दे वक्ष्यते) ("जय वीयराय जगगुरु, होउ ममं तुह पभावओ भयव ! भवणिवेओ मग्गाणुसारिया इट्टफलसिद्धी॥३३॥" इति प्रणिधानसूत्रं "चेइयवंदण' शब्दे तृतीयभागे 1320 पृष्ठे उक्तम्) ("एतो चियण णियाणं, पणिहाणं बोहिपत्थणासरिसं / सुहभावहेउभावा, णेयं इहराऽ पवित्ती उ'' // 30 // इत्यपि तत्रैव 1321 पृष्ठे व्याख्यातम्) यदुक्तं प्रणिधानं निदानं न भवतीत्यस्यार्थस्य साधकं प्रमाणं दर्शयन्नाहमोक्खंगपत्थणा इय, ण णियाणं तदुचियस्स विण्णेयं / सुत्ताणुमइत्तो जह, बोहीए पत्थणा माणं // 36| म्लक्षाङ्गानी निवृतिकारणानां प्रार्थना आशंसा। अथवा-मोक्षाङ्गं चासौ प्रार्थना चेति मोक्षाङ्ग प्रार्थना / इति एषा "जय वीयराय (33)" इत्याद्यनन्तरोक्तप्रकारा, अनेन च तीर्थकरत्वं मे भूयादित्यादिकाया रागाऽऽकुलमानसकृताया भवाङ्ग भूताया व्युदासः। 'न' नैव, निदानमार्त्तध्यानविशेषो भवतीति , विज्ञेयं ज्ञातव्यमिति प्रतिज्ञा / कुतः? इत्याह-तदुचितस्य प्रणिधानोचितस्य, प्रमत्तसंयमान्तस्य गुणस्थानित इत्यर्थः। सूत्रानुमतित आगमानुज्ञातत्वात्। अप्रमत्तसंयताऽऽदेहि तत्सूत्रं नानुमन्यते, तस्यानभिष्वङ्गत्वाद्, तदन्यस्य त्वनुमन्यते, साऽभिष्वइत्वाद्, विशिष्टप्रणिधानस्य निरभिष्वङ्गताहेतुत्वादिति / अनेन च हेतुरुक्तः। यथेति दृष्टान्तसूचनार्थः / बोधेर्वोधिलाभस्य, प्रार्थनाऽऽशंसेति, मानं प्रमाणम् / इदमनुमानलक्षणं प्रणिधानस्य निदानत्वाभावसाधकत्वमिति। प्रयोगश्चास्यैवम्-यत् सूत्रानुमतं मोक्षाड्गप्रार्थन, तन्निदानं न भवति, यथा बोधिप्रार्थनम्, सूत्रानुमतं चेदमधिकृतं मोक्षाङ्गप्रार्थनमिति गाथाऽर्थः // 36 / / नन्वमोक्षाङ्गानां प्रार्थनं निदानं, तीर्थकरत्वं तु मोक्षाङ्गम्, अतस्तस्यापि प्रार्थनाप्रतिषेधो यो दशाश्रुत स्कन्धेऽभिहितो नासौ युक्तः? इत्याशक्याऽऽहएवं च दसाऽऽईसुं, तित्थयरम्मि विणियाणपडिसेहो। जुत्तो भवपडिबद्धं, साभिस्संगं तयं जेण // 37 // एवं चानेन च पूर्वो केन प्रकारेण मोक्षाङ्गप्रार्थनाया एवानिदानताप्रतिपादनलक्षणेन; दशाऽऽदिषु दशाश्रुतस्कन्धप्रभृतिषु (2104 पृष्ठेऽत्र स विषय उक्तः। आवश्यकसूत्ररथ ध्यानशतकम्।), आदिशब्दाद्ध्यानशतकाऽऽदिपरिग्रहः / तीर्थकरेऽपि भवभवनभीतजननिर्वाणनगरगमनसार्थवाहकल्पे जिनेऽपि विषये, आस्तां संसाराऽऽवर्त्तपातनिमित्तभूतभूपतित्वाऽऽदौ। निदानस्य 'अमुतो धर्मात्तीर्थकरो भूयासम्' इत्येवं प्रार्थनस्य प्रतिषेधो विधेयतया निषेधो निदानप्रतिषेधः / किमित्याहयुक्तः सङ्गतो वर्तते। केन कारणेनेत्याह-भवप्रतिबद्धं संसारानुषक्तम्, येन यस्मात्कारणात्। (तयं तितकं तीर्थकरत्वप्रार्थनं भवप्रतिबद्धमेव। कुतः? इत्याह-यतः साभिष्वङ्ग रागोपेतम् / यतस्तीर्थकरसत्क स्यामरवरनिर्मितसमवसरणकनककमलप्रमुखविभवस्य दर्शनात् श्रवणाद्वा संजाततदभिलाषः कोऽपि विकल्पं करोति, भवभ्रमणतोऽप्यह तीर्थकरो भूयासमिति गाथार्थः // 37 / / एतस्यैव साभिष्वङ्गताविपर्यये दोषाभावामाहजं पुण णिरभिस्संगं, धम्मा एसो अणेगसत्तहिओ। णिरुवमसुहसंजणओ, अपुव्वचिंतामणीकप्पो॥३८|| ता एयाणुट्ठाणं, हियमणुवहायं पहाणभावस्स। तम्मि पवित्तिसरूवं, अत्थापत्तीऍतमदुटुं / / 36 / / (युग्मम्) (जं पुण त्ति) साभिष्वङ्गं तावत् दुष्टमेव, यत्पुनस्तीर्थकरत्वप्रार्थन निरभिष्वङ्ग रागाभावेन विहितं, तत् अदुष्टमिति संबन्धः। निरभिष्वइतामेव तस्याऽऽहधर्मात् कुशलानुष्ठानरूपादर्हद्वात्सल्याऽऽदेः सकाशाद्धर्मायया भव्यानाम्, एष तीर्थकरः, भवतीति गम्यम्। किम्भूतः? अनेकसत्त्वहितः निखिलजगज्जन्तुजातपरमबान्धवः। कथम् ? यतो निरुपमसुखसंजनकः अनुपमाऽऽनन्दसंपादको, निर्वाणहेतुत्वात्। अत एवापूर्वचिन्तामणिकल्पः चिन्तातिक्रान्तसुखविधायित्वादिति / (ता इति) यस्मादनेक-सत्त्वहितत्वाऽऽदिविशेषणस्तीर्थकरस्तस्माद्, एतस्य तीर्थकर-स्यानुष्ठानं सद्धर्मदेशनाऽऽदिकमेतदनुष्ठानम्। किमित्याह-हितं पथ्यम्, इष्टार्थसाधकत्वात् / किम्भूतम्? अनुपहतमप्रतिघातम् / इह स्थाने इति शब्दो द्रष्टव्यः / ततश्च इति प्रधानभावस्य एवम्भूतप्रवराध्यवसायस्य देहिनः, किम्भूतं तीर्थकरत्वप्रार्थनमित्याह-तस्मिन् धर्मदेशनाऽऽदिजिनानुष्ठाने, प्रवृत्तिस्वरूपं प्रवर्तनस्वभावम् / ननु तीर्थकरोऽहं भवेयमित्येतस्य प्रार्थनस्य तीर्थकरवृत्तिकत्वात कथमिदं धर्मदेशनाप्रवर्तनस्वभावम् ? इत्यत आह-अर्थापत्त्या न्यायतः। यद्यपि तत्प्रार्थन साक्षात्तीर्थकरत्ववृत्तिक, तथाऽप्यर्थापत्त्या धर्मदेशनाऽऽदावेव वर्तते, तीर्थकरत्वप्रार्थनाद्वारेण धर्मदेशनाऽऽदिजिनानुष्ठानस्यैव हिताऽऽदिविशेषणस्य प्रार्थितत्वादिति तीर्थकरत्वप्रार्थनमदुष्ट, न दूषणवदिति गाथाद्वयार्थः / / 38||36 // पञ्चा० 4 विव०। ("जाईपराइओ खलु, कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्म। चुलणीऍ बंभदत्तो, उववन्नो नलिणगुम्माओ॥१॥" (उत्त०१३ अ०) इति निदानकरणे ब्रह्मदत्तोदाहरणं 'बंभदत्त' शब्दे वक्ष्यते) (द्रोपद्याः पूर्वभवे निदानकरणं 'दुवई शब्देऽग्रे वक्ष्यते) स्वर्गावाप्त्यादिलक्षणेऽर्थे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३उ०। आकाङ्क्षायाम्, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। कारणे, बृ०१उ०। विशे०। सूत्र०ा उत्थानकारणे,बृ०१3०1 उत्पादने, आचा०१ श्रु०६ अ०१3०। णियाणंझाण न०(निदानध्यान) प्राकृतत्वादनुस्वारः / नन्दिषेणगङ्ग दत्तसम्भूतद्रौपद्यादीनामिव स्वर्गमाऽऽदिऋद्धिप्रार्थनध्याने, आतु० णियाणकरण न० (निदानकरण) चक्रवर्तीन्द्राऽऽदिप्रार्थने, स्था०२ टा०४उ णियाणकारि(ण) त्रि०(निदानकारिण) निदानकरणशीले, "नियाण कारी संग तु कुरुते उड्डदेहियं / " स्था०६ ठा०। णियाणमयग पुं०(निदानमृतक) निदानं कृत्वा बालतपश्चरणा ऽऽदिमत्त्वेन मृतेषु, औ०। णियाणमरण न०(निदानमरण) मरणभेदे, स्था०६ ठा०। (व्याख्याऽस्य 'मरण' शब्दे वक्ष्यते)
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________________ णियाणसल्ल 2108 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिरणुबंधदोस णियाणसल्ल न०(निदानशल्य) निदानं देवाऽऽदिऋद्धीनां दर्शन- (कल्प०६ क्षण / ज्ञा०) रञ्जनं रागाऽऽद्युपरञ्जनं, तस्मानिर्गतः। श्रवणाभ्यामितो ब्रह्मचर्याऽऽदेरनुष्ठानान्ममैता भूयासुरित्यध्ववसायः, / स्था०१० ठा०ा रागाऽऽदिमुक्ते, "संखो इव निरंजणे।" स्था०१ ठा०। तदेव शल्यम् / स०३ सम०ा अधिकरणानुमोदनानि दानशल्यम् / / णिरंतर त्रि०(निरन्तर) निर्गतमन्तरात्, निर्गतमन्तरं वा यस्मात्। निविडे, शल्यभेदे, आव०४ अ०। 'दिव्यं वा मानुसंवा विभवं पा.सतूण सोऊण | निरवधौ, निश्छिद्रे च / वाचा सतते, नैरन्तर्ये, विशे०। रा० अविश्रामे, वा निदाणस्स उप्पत्ती भवेज्जा, तेण किं भवति? उच्यते-"सणियाणस्स सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ० प्रज्ञा०ा स्था०। "निरंतररायलक्खणविराइचरित्तं न वट्टति / कस्मात्? अधिकरणानुमोदनात्, तत्थोदाहरणं यगुवगो / ' नैरन्तर्येण राजलक्षणैश्चक्रस्वस्तिकाऽऽदिभिर्विरालिताबंभदत्तो।''आ०चू०४ अ०1 न्यगानि शिरःप्रभृतीन्युपाङ्गानि चाङ्गुल्यादीनि यस्य स तथा। स्था०२ णियामित्ता अव्य०(नियम्य) नियन्त्र्येत्यर्थे, (सूत्र०) "उवसग्गा टा०१ उ०। णियामित्ता, आमोक्खाए परिवए।'' सूत्र०१ श्रु०३ अ०३उ०। णिरंतरिय त्रि०(निरन्तरिक) निर्गताऽन्तरिका लघ्वन्तररूपा येषां ते णियावाइ(ण) पुं०(नियतवादिन) नियतं नित्यं वस्तु वदतियः स तथा / निरन्तरिकाः लघ्वन्तररहितेषु, रा०ा "णिरंतरियघणकवाडा भित्ती।" रा० निर्गताऽन्तरिका लघ्वन्तररूणा ययोस्तौ निरन्तारिको, अत एव एकान्तनित्यवादिन्यक्रियावादिनि, स्था० नित्यो लोकः, आविर्भाव घनौ कपाटौ यस्य तन्निरन्तरिकघन पाटम्। जी०३ प्रति०४ उ०। जं०| तिरोभावमात्रत्वात् उत्पादविनाशयोः, तथाऽसतोऽनुत्मादाच्छशवि णिरंबर पुं०(निरम्बर) निर्गतमम्बरं थेभ्यस्ते निरम्बराः। जिनकषाणस्येव, सतश्चाविनाशात् घटवत्, न हे सर्वश्चा घटो विनष्टः, कपालाऽऽद्यवस्थाभिः तस्य परिणतत्वाः. तासां चापारमार्थिकत्वाद् ल्पिकाऽऽदिषु, आ०म०११०१ खण्ड। मृत्सामान्यस्यैव पारमार्थिकत्वात्, तस्य वाविनष्टत्वादिति। अक्रियवादी णिरंस पुं०(निरंश) निरवयवे, विशे०। चायम्, एकान्तनित्यस्य स्थिरैकरूपतया सकलक्रियाविलोपाभ्यु णिरक्क (देशी) चोरे, स्थिते, पृष्ठे च। देवना०४ वर्ग 46 गाथा। पगमादिति // 7 // स्था०८ ठा०। णिरग्गिसरण पुं०(निरग्निशरण) निर्गतमग्नेः पावकाच्छरणं शीता ऽऽदिपरित्राणं यत्र / अथवा-निर्गते स्वीकाराभावादग्निशरणे वह्निभवने णियुद्ध न०(नियुद्ध) मल्लयुद्धे,२ वक्ष०।' यत्रासौ निरग्निशरणः / पा०। अग्निशरणरहिते, " इमरस धम्मस्स णियोग पुं०(नियोग) नियतो निश्चितो वा योगः सम्बन्ध इति नियोगः। णिरग्मिसरणस्स संपक्खालियस्स।"ध०३अधि०। यथा घटशब्देन घटस्यैव प्रतिपादन, न पटाऽऽदेरिति / अनुयोगे, णिरट्ठ त्रि० (निरर्थ) निष्प्रयोजने, उत्त०१ अ० "णिरवसोया परिताआ०म०१अ०१ खण्ड / व्यापार, उत्त०३ अ०। सूत्र०ा आ०म०| वमेइ।" निरर्थः शोको यस्याः सा निरर्थशोका / उत्त०२० अ०। अवश्यतायाम्, षो०१ विव०। मोक्षमार्गे ,सत्संयमे च / सूत्र०१ श्रु०१६ णिरट्ठग न०(निरर्थक) अर्थ प्रयोजनं, तदभावो निरर्थ, तदेव निरर्थकम् / अ०। (विशेषः 'णिओग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2018 पृष्ठ गतः) प्रयोजनाऽभावे, "णिरहगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसंयुडो।" (42) णियोगपडिवन्न त्रि०(नियोगप्रतिपन्न) नियोगो मोक्षमार्गः, सत्संयमोवा, उत्त०२ अ० तं सर्वाऽऽत्मना भावतः प्रतिपन्नो नियोगप्रतिपन्नः। मोक्षमार्गप्रतिपन्ने, णिरणुकंप त्रि०(निरनुकम्प) दयांशवर्जिते, तं०। सूत्र०ा निः-शूके, सूत्र० 1 श्रु०१६अ। प्रश्र०३ आश्रद्वार। णियोचित त्रि०(नियोजित) "चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराधद्वि निरनुकम्पमाहतीयौ // 8/4/325 / / इति तृतीयस्याऽऽद्यम् / व्यापारिते, प्रा०४ पाद। जो उ परं कंपंतं, दटूण न कंपए कढिणभावो। णियोजित त्रि०(नियोजित) "नादियुज्योरन्येषाम् // 8 / 4 / 327 // इति एसो उणिरणुकंपो, अणु पच्छाभावजोएणं / चूलिकापैशाचिकेऽन्येषामाचार्याणा मतेतृतीयस्य प्रथमो न / व्यापारिते. यस्तु परं कृपाऽऽस्पदं कुतश्चिद् भयात्कम्पमानमपि दृष्ट्वा कठिनभावः प्रा०४ पाद। सन्न कम्पते, एष निरनुकम्पः / कुतः? इत्याह--अनुशब्देन पश्चाद्भावणिर अव्य०(निर्) भृशार्थे , उत्त०१ अ०। निश्चये, आधिक्ये, उत्त०६ अ०॥ वाचकेन यो योगः संबन्धःतेन। किमुक्तं भवति? अनु पश्चाद् दुःखितः णिरइ स्त्री०(निक्रति) राक्षसे, मूलधिष्ठातृदेवतायाम्, "दो निरई।" सत्वकम्पनादनन्तरं यत्कम्पनं सा अनुकम्पा, निर्गता अनुकम्पा स्था०२ ठा०३उ० जंग यस्मादिति निरनुकम्प उच्यते। बृ०१ उ०। णिरओवम त्रि०(निरयोपम) नरकोपमे नरकतुल्ये, दश०१चूला प्रश्रा | णिरणुतावि(ण) पुं०(निरनुतापिन्) अपश्चात्तापिनि,जीतका सेवितेऽणिरंकुस त्रि०(निरङ् कुश) गुर्वाज्ञाऽऽद्यतिचारिणि, ग०२ अधि०। प्यकृत्ये मनागपि न पश्चात्तापभाक् / प्रव० 274 द्वार। बाधाशून्ये, अनिवार्ये च। वाच०। णिरणुबंधग त्रि०(निरनुबन्धक) अनुबन्धरहिते, द्वा०२२ द्वा०। णिरंगी (देशी) शिरोऽवगुण्ठने, देना०४ वर्ग 31 गाथा। णिरणुबंधदोस पुं०(निरनुबन्धदोष) क०स०। व्यवच्छिन्नसन्ताने णिरंजण त्रि०(निरञ्जन) रञ्जनं रागाऽऽद्युपरञ्जनं, तेन शून्यत्वात् | रागाऽऽदी, षो० 12 विव०॥
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________________ णिरति 2106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिरयावलिया णिरति स्त्री०(निरति) देवानन्दायाम, कल्प०६ क्षण। णिरयरोग पुं०(निरयरोग) नरकरोगे, "पणकोडि अट्ठसट्टी, लक्खा णिरत्थ त्रि०(निरस्त) निष्काशिते, व्य०८उ०। नवनवइसहसपंचसया। चुलसीअहिया रोगा, छठेतह सत्तमे नरए।।१॥" णिरत्थग न०(निरर्थक) सत्यार्थान्निष्क्रान्ते, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / इयं गाथा क्वास्ति? प्रथमाऽऽदिनरकेषु च कियन्तो रोगा भवन्तीति प्रश्ने, वर्णक्रमसत्यार्थरहिते, उत्त० 18 अ०। निर्देशवति, आ० भ०१ अ०२ उत्तरम्-इयं गाथैतत्पाठरूपा गुन्थे दृष्टाऽपि न स्मर्यते, खण्ड / यत्र वर्णानां क्रममा निर्देशमात्रमुपलभ्यते, न त्वर्थः। यथा एतद्भावार्थरूपाऽनुवर्तते। यथा-"रोगाणं कोडीओ, हवंति पंचेव लक्ख अआइई इत्यादि / विशे०। अनु०। निष्प्रयोजने, द्वा० 10 द्वा०ा यस्य अडसट्ठी। नवनवइसहस्साइं, पंचसया तह य चुलसीइ''||१|| एते रोगा वाऽवयवेष्वर्थो न विद्यते। यथा-डित्थः, डवित्थः, वाग्जनः। बृ०१ उ०। अप्रतिष्टाने नरकावासे नित्याः, अन्यत्रापि च संभवन्ति यथायोगम्। ततश्च यस्मिन्नरकभवे एतावन्तो रोगाः क्षयहेतवस्तस्मिन् धर्म एव सार णिरप्प (देशी) पृष्ठे, उद्वेष्टिते च / दे०ना० 4 वर्ग 46 गाथा। इत्यादरणीयः सर्वशक्त्येत्युपदेशरत्नाकरे पञ्चविंशत्यधिकैकशतपत्र*स्था धागा गतिनिवृत्तौ, "स्थष्ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः" / / 8 / 4 / 16 / / मिलपुस्तके एकाशीतितमपत्रे। २७प्र०ा सेन०१ उल्ला०। इति तिष्ठतेर्निरप्पाऽऽदेशः / 'निरप्पई। तिष्ठति / प्रा०४ पाद / णिरयवासपुं०(निरयवास) नरकरूपेवासे, "णिरयवासगमणनिधणो।'' णिरभिग्गह त्रि०(निरभिग्रह) निर्गता अभिग्रहा येभ्यस्ते निरभिग्रहाः। निरयो नरकः, स एव वासो निरयवासः, तत्र गमनं तदेव निधनं पर्यवसानं अभिग्रहरहितेषु केवलसम्यग्दर्शिषु, आव०६ अ०॥ यस्य स निरयवासगमननिधनस्तत्फल--इत्यर्थः / प्रश्न०१ आश्र० द्वार। णिरभिराम त्रि०(निरभिराम) अरमणीये, "पहसितवीहणकणिरभिरामे।" णिरयविग्गहगइ स्त्री०(निरयविग्रहगति) निरयाणां नारकाणां विग्रहात् प्रश्न०३ आश्र० द्वार। क्षेत्रविभागानतिक्रम्य गतिर्गमनं निरयविग्रहगतिः / स्थितिनिवृत्तिणिरभिस्संग त्रि०(निरभिष्वङ्ग) सङ्ग रहितत्वे, पश्चा०६ विय०। लक्षणायामृजुवकरूपायां विहायोगतिकर्मापाद्यायां वा गतौः, स्था० 10 ठा०। सर्वाऽऽशंसाविप्रमुक्ते,पं०व०१ द्वार। मिथ्यादृष्टिव्यवहारेषु वाह्यद्रव्ये च णिरयविभत्ति स्त्री०(निरयविभक्ति) नरकप्रविभागे, तदर्थके सूत्रनिस्पृहे, पञ्चा०२ विव०। कृतोऽध्ययने च, प्रश्र०२ आश्र० द्वार। णिरय पुं०(निरय) निर्गतमविद्यमानमयमिष्टफलं दैवं कर्म सातवे णिरयवेयणिज्ज न०(निरयवेदनीय) निरये वेद्यतेऽनुभूयते यन्निरययोग्य दनीयाऽऽदिरूपं येभ्यस्ते निरयाः / कर्म०५ कर्म०। स्था०। निर्गतमयं वा यद् वेदनीयमत्यन्ताशुभनामकर्माऽऽदि, असातवेदनीयं वा / शुभमरमादिति निरयः। स्था०४ टा०१ उ०। सीमन्तकाऽऽदिषु नरकेषु, नरकगतिनामकर्मणि, "णेरइए णिरयवेयणिज्जसि कम्मसि।'' स्था०४ कर्म०१ कर्म०। स्था०। प्रश्न०। आव०। (सर्वा वक्तव्यता ‘णरग' टा०१ उ01 शब्देऽरिमन्नेव भागे 1604 पृष्ठादारभ्य 1625 पृष्ठपर्यन्तं स्थिता) निर्गता णिरयावलिया स्त्री०(निरयावलिका) आवलिकाप्रविष्ट नरकेषु, अयाच्छुभादिति निरयाः। नारकेषु, स्था०१० ठा० आचा० "णिरयावलियासु निरयपत्थडेसु / " प्रज्ञा०२ पद / ब०व०॥ यत्रा*निरत त्रि०ा सक्ते, दश०१० अ० स०। 5ऽबलिकाप्रविष्टा इतरे च नरकाऽऽवासाः प्रसङ्गतस्तद् गामिनश्च णिरयगइ स्त्री०(निरयगति) निरये नरके वा गतिर्निरयगतिः, निरयश्वासी / नरास्तिर्यञ्चो वा वर्ण्यन्ते, ता निरयावलिकाः, एकस्मिन्नपि ग्रन्थे वाच्ये गतिश्चेति वा निरयगतिर्निरयप्रापिका वा गतिर्निरयगतिः। स्था०५ बहुवचनं शब्दशक्तिस्वाभाव्याद्, यथा पञ्चाला इत्यादि / नं०। पा०| ठा०३उला निर्गता अयाच्छुभादिति निरया नरकाः, ते गतिर्गम्यमानत्वाद् अन्तकृद्दशाङ्गाऽऽदीनां दृष्टिवादपर्यन्तानां पञ्चानामुपाङ्गानामुपाङ्गरूपे निरयो नरकस्तद्गतिनामकर्मोदयसंपाद्यो नारकत्वलक्षणः पर्यायविशेषो कल्पिकाऽऽदिपञ्चवर्गाऽऽत्मकश्रुतस्कन्धे, तत्र पञ्च वर्गाः पञ्चानामुपावेति निरयगतिः। गतिभेदे, स्था०१० ठा०। गानि। तथाहि-अन्तकृद्दशाङ्गस्य कल्पिका 1, अनुत्तरोपपातिकदणिरयगोयर पुं०(निरयगोचर) ब० स०) नरकवर्त्तिनि जीवे, प्रश्र०२ शागस्य कल्पावतंसिका 2, प्रश्रव्याकरणस्य पुष्पिका३,विपाकश्रुतस्य आश्र०द्वार। पुष्पचूलिका 4, दृष्टिवादस्य दृष्टिदशा 5 / जं०१ वक्ष०) णिरयदं सि(ण) निरयदर्शिन् निरय स्वरूपतो येत्त्यनर्थपरित्या तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था। रिद्धगरूपत्वाद् ज्ञानस्य, परिहरति च / समानमपि पश्यति, परिहरति च, गुणसिलए चेइए। वन्नओ। असोगवरपायवे पुढविसिलापट्टए। निरयदर्शी / नरकनिदानवेत्तरि, "जे मारदंसी से णिरयदंसी, जे तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेणिरयदंसी से तिरियदंसी।" आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ०) वासी अजसुहम्मे नामं अणगारे जातिसंपन्ने जहा केसी०जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुटवाणुपुट्विं चरमाणे णिरयपत्थड पुं०(निरयग्रस्तट) नरकप्रस्तरे, प्रज्ञा०३ पद। जेणेव रायगिहे नगरे०जाव अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता णिरयपरिसामंत पुं०(निरयपरिसामन्त) नरकपारिपाचे, भ०१३ श० संजमेणं०जाव विहरति / परिसा निग्गया | धम्मो कहिओ। 6 उ०। निरयवासानां पार्चे, भ०१३ श०४ उ०। परिसा पडिगया / तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स णिरयपाल पुं०(निरयपाल) नरकपालेषु परमाधार्मिकेषु , स्था०। 4 अणगारस्स अंतेवासी जंबूणामं अणगारे समचउरंसठाणसंठिए ठा०१ उ०। (नरकपालकर्तव्य 'णरग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1612 पृष्ठे ०जाव संखित्तविपुलतेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स दर्शितम्) अदूरसामंते उड्ढे जाणूजाव विहरति / तए णं से भगवं जंबू०
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________________ णिरयावलिया २११०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिरयावास जाव सङ्क०जाव पञ्जुवासमाणे एवं वयासी-उवंगाणं भते! | भगवया०जाव दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता।तं जहा-"निसढे समणेणं०जाव संपत्तेणं के अट्टे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ! समणेणं | अभि दह बहे, पगती जुति दसरहे दढरहे य। महाधणू सत्तधणू, भगवया०जाव संपत्तेणं एवं उगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता। तं जहा- दसधणू नाम सए।।१।।" नि०१ श्रु०५ वर्ग 1 अ०। निरयावलियाओ, कप्पवर्डे सियाओ पुप्फियाओ, पुप्फचूलि- एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महाजाव निक्खेवओ। एवं याओ, वण्हिदसाओ / जइ णं भंते ! समणेणं० जाव संपत्तेणं सेसा वि एक्कारस अज्झयणा नेयव्वा, संगहणीअणुसारेण उवंगाणं पंच वग्गा पण्णत्ता / तं जहा-निरयावलियाओ०जाव अहीणमइरित्तं एकारससु वि निरयावलियासुयक्खंधो सम्मत्तो, वण्हिदसाओ। पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं निरयावलि- सम्मत्ताणि उर्वगाणि, निरयावलियाउवंगे णं एगो सुयक्खंधो, याणं समणेणं भगवया०जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पन्नत्ता? पंच वग्गा पंचसु दिवसेसु उद्दिस्संति / तत्थ चउसु वग्गेसु दस एवं खलु जंबू ! समणेणं०उवंगाणं पढ मस्स वग्गस्स दस उद्देसगा, पंचमगे बारस उद्देसगा निरयावलियासुयक्खंधो निरयावलियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा- "काले सम्मत्तो। नि०१ श्रु०५ वर्ग 12 अ०। सुकाले मह-काले, कण्हें सुकण्हे तह महाकण्हे / वीरकण्हे इह ग्रन्थे प्रथमवर्गो दशाऽध्ययनाऽऽत्मको निरयावलिकानामकः। बोधव्वे, रामकण्हे तहेव अट्ठमए। पिउसेणकण्हें नवमे, दसमे द्वितीयवर्गो दशाध्ययनात्मकः, तत्र च कल्पावतंसिका इत्याख्या महसेणकण्हे उ॥" अध्ययनानाम् / तृतीयवर्गोऽपि दशाध्ययनाऽऽत्मकः, पुष्पिकाशभगवता उपाङ्गानां पश वर्गाः प्रज्ञप्ताः / वर्गोऽध्ययनसमुदायः। ब्दाभिधेयानिच तान्यध्ययनानि। तत्राऽऽो चन्द्रज्योतिष्केन्द्रवक्तव्यता। तद्यथेत्यादिना पञ्च वर्गान् दर्शयति-(निरयावलियाओ कप्पयडिं द्वितीयाध्ययने सूर्यवक्तव्यता / तृतीये शुक्र महाग्रहवक्तव्यता। सयाओ पुफियाओ पुप्फचूलियाओ वहिदसाओ ति) प्रथमवर्गो चतुर्थाध्ययने बहुपुत्रिकादेवीवक्तव्यता / पञ्चमेऽध्ययने पूर्णभद्रदेववदशाऽध्ययनाऽऽत्मकः प्रज्ञप्तः / अध्ययनदशकमेवाऽऽह-"काले क्तव्यता। षष्ठे माणिभद्रदेववक्तव्यता। सप्तमे प्राग्भविक-वन्दनागतगङ्गसुकाले' इत्यादीनां मातृनामभिस्तदपत्यानां पुत्राणां नामानि / यथा दत्तनामकदेवस्य द्विसागरोपमस्थितिकस्य वक्तव्यता। अष्टमाध्ययने काल्या अयमिति कालःकुमारः / एवं सुकाल्याः, महाकाल्याः, शिवगृहपतिमिथिलावास्तव्यस्य देवत्वेनोत्पन्नस्य द्विसागरोपमस्थितिकृष्णायाः, सुकृष्णायाः, महाकृष्णायाः, वीरकृष्णायाः, रामकृष्णायाः, कस्य वक्तव्यता नवमे च हस्तिनापुरवास्तव्यस्य द्विसागरोपमाऽऽयुष्कतपितृसेनकृष्णाया महासेनकृष्णाया अयमित्येवं पुत्रनाम वाच्यम् / इह योत्पन्नसय देवस्य ....नामकस्य वक्तव्यता। दशमाऽध्ययने 'अणाढिय' काल्या अपत्यमित्याद्यर्थः प्रत्ययेनोत्पाद्यःकाल्यादिशब्देष्वपत्येऽर्थे गृहपतेः काकन्दीनगरीवास्तव्यस्य द्विसागरोपमाऽऽयुष्कतयोत्पन्नस्य देवस्य वक्तव्यता। इति तृतीयवर्ग अध्ययनानि। चतुर्थो वर्गोऽपि दशा-- ण्यत्प्रत्ययः / कालस्तु कालाऽऽदिनाम्ना सिद्धेरेव वाच्यः। कालः१, ध्ययनात्मकः, श्री-ही-धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्मी-इलादेवीतदनु सुकालः 2, महाकालः 3. कृष्णः४, सुकृष्णः 5, महाकृष्णः 6, सुरादेवी-रसदेवी-गन्धदेवीतिवक्तव्यताप्रतिबद्धाध्ययनाऽऽत्मकः। तत्र वीरकृष्णः 7, रामकृष्णः८, पितृसेनकृष्णः६, महासेनकृष्णः 10 दशमः। श्रीदेवीसौधर्मकल्पोत्पन्ना भगवतो-महावीरस्स नाट्यविधिइत्येवंदशाध्ययनानि निरयावलिकानामके प्रथमे वर्गे इति। नि०१ श्रु० दारकविकुर्वणया प्रदर्श्य स्वस्थानं जगाम, प्राग्भवे राजगृहे सुदर्शनगृहपतेः 1 वर्ग 1 अ०। (निरयावलिकाद्वितीयवर्गवक्तव्यता 'कप्पवडिंसया' शब्दे प्रियभाया अङ्गजा भूया नाम्न्यऽभवत्, न केनापि परिणीता, तृतीयभागे 235 पृष्ठ गता) पतितस्तनी जाता, चरकपरिवर्जिता वरयितृप्रस्वेदिता भाऽपरिणीतचस्सणं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं पुप्फियाणं के अटे पण्णत्ते? ताऽभृत्। सुगम सर्वं यावच्चतुर्थवर्गः समाप्तः। पञ्चमे वर्गे वह्रिदशाभिधानएवं खलु जंबू ! समणेणं०जाव संपत्तेणं पुफियाणं दस द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि-"निसढे" इत्यादीनि / प्रायः सर्वोऽपि अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा-"चंदे सूरे सुक्के, बहुपुत्तिय सुगमः पञ्चमवर्गः। नि०१ श्रु०३वर्ग। पुण्णभद्दे माणिभद्दे य / दत्ते सिवे वलियाए, अणाढिए चेव णिरयावास पुं०(निरयावास) आवसन्ति येषु, ते आवासाः, निरयाश्च ते बोधव्वा / / 1 / / " नि०१ श्रु०३ वर्ग 1 अ० आवासाश्च निरयाऽऽवासाः। नरकाऽवासेषु रत्नप्रभा-ऽऽदिषु / भ०। जइणं भंते ! समणेणं भगवया उक्खेवओ०जाव दस अज्झयणा नरकाऽऽवाससंख्यापण्णत्ता / तं जहा-"सिरि हरि घिति कित्ती, बुद्धी लच्छी य होइ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए कइ निरयावाससयबोधव्वा / इलदेवी सुरदेवी, रसदेवी गंधदेवी य / / 1 / / " सहस्सा पण्णत्ता? गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा जइ णं भंते ! समणेणं भगवया०जाव संपत्तेणं उवंगाणं चउ-- पण्णत्ता। गाहा- (प्रथमपृथ्यां 30 लक्षनरकावासाः। द्वितीये 25 त्थस्स वग्गस्स पुप्फचूलाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता। लक्षमिताः / तृतीये 15 लक्षमिताः / चतुर्थे 10 लक्षमिताः / पञ्चमे 3 पंचमस्स गं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं वण्हिदसाणं समणे णं लक्षमिताः / षष्ठ के पञ्चूना एकलक्षमिताः। सप्तमे 5 पश्च / इति गाथार्थः भगवया०जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ! समणेणं // 172 / / संग्रहणी।)"तीसा य पण्णवीसा, पण्णरस दसेव
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________________ णिरयावास 2111 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिरवलाव य सयसहस्सा / तिण्णेगं पंचूणं, पंचेव अणुत्तरा णिरया णिरवग्गह पुं०(निरवग्रह) विशृङ्खले, को०। ॥१७२।।"भ०१श०४ उ०॥ णिरवच त्रि०(निरपत्य) अविद्यमानशिष्यसंतती, स०७१ सम०। (इयं गाथा 'ठाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1702 पृष्ठे वर्णिता) शिष्यसन्तानरहिते, कल्प०८ क्षण। "तित्थसुहम्मातो, निरवचा गणहरा दोचाए णं पुढवीए पणवीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। / सेसा।" आ०म०१ अ०२ खण्ड। स०२५ सम०। णिरवज त्रि०(निरवद्य) असावद्ये, "से संजए समक्खाए. निरवजाहार रयणप्पभाए णं पुढवीए तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। जे विऊ।' दश०५ अ०१उ०। स०३० सम। णिरवज्जवत्थुविसय त्रि०(निरवद्यवस्तुविषय) निरवद्यं सावधपपढमपंचमछट्ठिसत्तमासु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं णिरयावास- रिहारेण वद्वस्तु धर्मगतं तद्विषयो यस्या असावधविषयके, षो०३ विव०। सयसहस्सा पण्णत्ता / स०३४ सम०। णिरवयक्ख त्रि०(निरपेक्ष) निर्गताऽपेक्षा परप्राणविषया, परलोवितियचउत्थीसु दोसु पुढवीसु पणतीसं णिरयावाससयस काऽदिविषया वा यस्मिन्नसौ निरपेक्षः, निरवकासोवा। प्रश्न०१आश्र० हस्सा पण्णत्ता / स०३५ सम० द्वार / परप्राणापेक्षावर्जिते, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। चउसु पुढवीसु एकचत्तालीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। *निरवकास त्रि०(आकाशावर्जिते, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। तं जहा-रयणप्पभाए, पंकप्पभाए, तमाए, तमतमाए। णिरवयव त्रि०(निरवयव) निरंशे, विशेष (चउसु इत्यादि) क्रमेण सूत्रोक्तासु चतसृषु प्रथमचतुर्थषष्ठसप्तमीषु णिरवराहि(ण) त्रि०(निरपराधिन्) अकृतापराधे, "निरवराही तो पृथिवीषु त्रिंशतो दशानां च नरकलक्षणानां पञ्चोनस्य चैकस्य पञ्चानां च देवया।" आव०६अ। नरकाणां भावाद्यथोक्तसंख्यास्ते भवन्तीति। स०४० समका णिरवलंब त्रि०(निरवलम्ब) निरालम्बने, यत्र न पतद्भिः किञ्चिपढमचउत्थपंचमासु पुढवीसु तेयालीसं निरयावाससरस--- दवाप्यते। प्रश्र०३ आश्र० द्वार। हस्सा पण्णत्ता / स०४२ सम०। पढमविइयासु दोसु पुढवीसु पणपन्नं निरयावाससयसहस्सा गिरवलाव त्रि०(निरपलाप) अन्यस्मैऽकथके, "केरिसगस्स, मूले आलोयव्व ? निरवलावस्स, जो अन्नस्स न कहेति / " आव०४ अ०) पण्णत्ता। स०५५ सम०। निरपलापः स्यान्नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः / स०३२ सम० पढमदोच्चपंचमासु तिसुपुढवीसु अट्ठावन्नं निरयावाससयस दंतपुर दंतवको, सचवई डोहले अणवरए। हस्सा पण्णत्ता। स०५७ सम०| चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चोवत्तरि निरयावाससयसहस्सा धणमितें धणसिरीए,पउमसिरी चेव दढमित्ते।।७।। पण्णत्ता। स०७४ सम०। "दंतपुरे नगरे दंतवको राया, सचवती देवी, तीसे दोहलो, कहं दंतमए चउरासी निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता।। पासाए अभिरमेज त्ति? रायाए पुच्छियं-दंतनिमित्तं / घोसा--वियं रन्नाचतुरशीतिस्थानके किमपि लिख्यते-चतुरशीतिर्नरकलक्षाण्यमुना जहा उचियं मोल्लं देमि, जो न देइ. तस्स राया विणासं करेइ। तत्थेव विभागेन-'तीसा य पण्णवीसा, पण्णरस दसेव तिन्नि य हवंति। नगरे धणमित्तो नाम वाणियओ। तस्स दो भारियाओ-धणसिरी महंती, पंचूणसयसहस्सं, पंचेव अणुत्तरा णिरया॥१॥" स०८४ समा पउमसिरी डहारिया वि पियतरी यत्ति। अन्नया सवत्तीणं भंडणे धणसिरी इमीसे णं रयणप्पभाएपुढवीए केवइयं खेत्तं ओगाहेत्ता केवइया भणइ-किं तुम एवं गटिवया? किं तुज्झममाओ अहियं? जहा सचवतीए णिरयावासा पण्णत्ता? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए तहा ते किं पासाओ कीरेजा? सा भणइ-जइ न कीरइ, तो अहं न असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगंजोयण-सहस्सं जीवेमि त्ति उव्वरते वारं बंधित्ता ठिया / वाणियाओ आगओ पुच्छड्ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठ- कहिं पउमसिरी? दासीहिं कहिआतत्थेव अतिगओ पसाएइ, तहा वि सत्तरिजोयणसहसहस्से, एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए णेर- न पसीयति-जइ नस्थि न जीवामि / तस्स मित्तो दढमित्तो नाम, सो इयाणं तीसं णिरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाया, ते णं आगतो। तेण पुच्छियं सव्वं कहेइ। भणइ-कीरउ, मा इमीएमरंतीए तुमं पि णिरयावासा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा०जाव असुभा णिरया। स०। मारिजासि, तुम मरते अहं पि। रायाएय घोसावियं, तो पच्छन्नं कायव्यं, णिरवकंख त्रि०(निरवकाङ्क्ष) वाञ्छारहिते, उत्त०३० अ०॥ ताहे सो दह मेत्तो पुलिंदगपा-उग्गाणिमणी य,अलत्तगं, कंकणं च गहाय णिरवकं खि(ण) त्रि०(निरवका क्षिण) परित्यक्तभोगे, ज्ञा० 1 श्रु० अडविंगओ। दंता लद्धा, पुंजो कओ, तेण पिंडगाण मज्झे बंधित्ता सगड ६अ। भरेत्ता आणणो या, नगरं पवेसिजंतेसुवसभेणं तणपिंडगा कड्डिया। ततोख
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________________ णिरवलाव 2112 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिरामगंध डत्ति दंतोपडिओ, नगरगुत्तिएहिं दिह्रो, गहिओ, रायाए उवणीओ, बज्झो प्रमादपरिहाराय, महासामर्थ्यसंभवे / भाणिजइ / धणमित्तो सोऊण आगओ रायाए पायपडिओ विन्नवेइ- कृतार्थानां निरपेक्ष-यतिधर्मो ऽतिसुन्दः / / 83 // जहा एएमए आणाविया / सो पुच्छिओ भणइ-अहमेयं न याणामि, को / महासामर्थ्याम् आद्यसंहननत्रययुक्ततया, वजकुड्यसमानधृतितया च त्ति? एवं ते अपरोप्परं भणति। रायाए सबधसाविया पुच्छिया, अभओ कायमनसोः शक्तिः, तस्य संभवे विद्यमानत्वे, प्रमाद-परिहाराय दिन्नो, परिकहियं / पूइत्ता विसजिया / एवं णिरवलावेण होयव्वं प्रागुताष्टविधप्रमादत्यागाय, कृतार्थानां कृतकृत्यानामाचार्योआयरिएणं / वितिओ विएगेण एगस्स हत्थे भाणं वा किंचि दिण्णं, अंतरा पाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकलक्षणपदपश्चक-योग्यतया पडियं / तत्थ भाणियव्वंभम दोसो, इयरेण वि मम ति।" आव०४ अ०॥ शिष्याणां निष्पादनेन निष्ठितार्थानामित्यर्थः, निरपेक्षयतिधर्मों णिरवसेस त्रि०(निवशेष) समग्रे, अनु०। आव०। समस्ते, भ०१४ श०३ गच्छनिर्गतयतिधर्मोऽतिसुन्दरोऽतिशयेन श्रेयान्, प्रमादजयार्थ उ०। संपूर्णे , आ०म०१अ० १खण्ड / सर्वस्मिन्, आ०म०११०२ कृतकृत्यानामाचार्याऽऽदीनामयमतिश्रेष्ठ इत्यर्थः / अत्रेदमवधेयम्खण्ड / विशे०। पञ्चा०। निरपेक्षा यतयोजिनकल्पिकाः, शुद्धपारिहारिकाः, यथालन्दिकाश्च / णिरवसे सपञ्चक्खाण न०(निरवशेषप्रत्याख्यान) सर्वाऽऽशन धर्म०५ अधि०। (जिनकल्पिकाऽऽदयः पृथक् पृथक् स्वस्वस्थाने पानत्यागाद् निरवशेषे प्रत्याख्याने, ध०२ अधिo द्रष्टव्याः ) इदानीं निरवशेषमाह णिरहंकार त्रि०(निरहङ्कार) अहङ्काररहिते, उत्त० 16 अ०। रागद्वेषरहिते, सूत्र०१ श्रु०६ अ० सवं असणं सव्वं, च पाणगं खाइमं पिसव्वं पि। णिरहिगरण त्रि०(निरधिकरण) गुरुतराऽऽरम्भवर्जिते, पञ्चा० 16. विव०। वोसिरइ साइमं पि हु, सव्वं जं तं निरवसेसं / / 101 / / णिरहिगरणि(ण) त्रि०(निरधिकरणिन्) निर्गतमधिकरणमस्मादिति 'अश' भोजने, अश्यत इत्यशनमोदनमण्डकमोदकखज्जकाऽऽ-दि। निरधिकरणी। समासान्तविधिः (इन्) अधिकरणदूरवर्तिनि, भ० 16 पीयत इति पानं, कर्मणि ल्युट्। खूर्जयरद्राक्षापानाऽऽदि। खादनं खादो, श०१ उण भावे घञ् / खादेन निवृत्तम्- 'भावादिमन्"॥६।४।२१।। इति इमनि णिराअ (देशी) प्रकटे, ऋजौ, रिपौ च / दे०ना०४ वर्ग 50 गाथा। खादिम नालिकेरफलादि, गुडधानाऽऽदिकं च / स्वदनं स्वादः, तेन णिराकिच्च अव्य०(निराकृत्य) अपनीयेत्यर्थे , सूत्र०१ श्रु० 11 अ० निर्वृत्तं, तथैव इमनि स्वादिमम्। एलाफलकर्पूरलवङ्गपूगीफलहरीतकी परित्यज्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। "ततो वायं णिराकिच, ते नागराऽऽदि। ततश्च सर्वमशनं, सर्व पानकं, खादिमं च सर्वमपि व्युत्सजति भुजो विप्पगडिभए।" सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। परित्यजति स्वादिममपि सर्व तत्, निरवशेष तद्विज्ञे-यमिति। प्रव०४ णिरागस पुं०(निराकर्ष) आकृष्यत इति आकर्षो, न विद्यते आकर्षो यस्य द्वार। भ०। "वित्थरत्थो-जो पुण असणस्स सत्तरसविहस्स वोसिरइ, स निराकर्षः / द्रविणरहिते, "किण्णे निरागसाणं, गुत्तिकरो काहितो पाणगरस अणेगविहस्स खंडपाणगादियस्स वा, इमं अणेगविहं राया।" नि०चू०२ उ०। फलमाइ, साइमं अणेगविहंमधुमादि, तं सव्वं जो वोसिरइ / एत णिरागारपचक्खाण पुं०(निराकारप्रत्याख्यान) निर्गतं महत्तरानिरवसेसं / " आव०६ अ०॥ ऽऽद्याकारान्निराकारम्, तच प्रत्याख्यानं चेति। अनाकारप्रत्या ख्याने, णिरवसेससव्वय न०(निरवशेषसर्वक) निरवशेषव्यक्तिसमाश्रयेण सर्व निराकारेऽऽप्यनाभोगसहसाकाररूपाऽऽकारद्वयस्याऽवश्य भावानिरवशेषसर्वकम्। यथा अनिमिषाः सर्वे देवाः, न हि देवव्यक्तिरनिमिषत्वं न्महत्तराऽऽद्याकारवर्जनाऽऽश्रयणम् / ध०२ अघिन काचिद् व्यभिचरतीत्यर्थः। स्था०४ ठा०२ उ०॥ णिराणुकंप त्रि०(निरनुकम्प) प्राकृतत्वाद् दीर्घः / अनुकम्पारहिते, णिरवाय त्रि०(निरपाय) अपायेभ्यो निर्गते, षो० 8 विव०॥ पं०व० 4 द्वार। णिरवेक्ख त्रि०(निरपेक्ष) पुत्रदारधनधान्यहिरण्याऽऽदिकमनपेक्षमाणे / णिरातंक त्रि०(निरातङ्क) नीरोगे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। औ० त० सूत्र०१ श्रु०६ अ०। अनपेक्षे, आव०४अ०। अपेक्षारहिते, ध०३ अधिका हिते, ध०३ आधि० | णिराद (देशी) नष्टे, दे०ना० 4 वर्ग 30 गाथा। वृत्तिनिस्पृहे, पञ्चा०४ विव० जी०। उत्त० बालाऽऽदिषु चिन्तारहिते, णिरावाह त्रि०(निराबाध) सर्वशारीरकमानसिकबाधाविवर्जिते, दर्श० व्य०३ उ०।आचार्यस्य शिष्यैः, प्रतीच्छकैश्च सर्व कर्तव्यं,येतुन कुर्वन्ति, | 4 तत्त्व / अष्टा स्वाऽऽयत्ताऽऽनन्दरूपत्वात् / (स्था० 10 ठा०) ते निरपेक्षा इति। (एतच "अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 27 पृष्ठे उक्तम्) बाधारहिते, आव०४ अ०। द्विविधाः साधवः-सापेक्षाः, निरपेक्षाश्च / "णिरवेक्खा जिणाइया, ते णिराभिराम त्रि०(निरभिराम) अभिरमणीये, प्रश्र०२ आश्र० द्वार। सरीरगच्छादिणिरवेक्खत्तणओ णिरवेक्खा / ' नि०चू० 20 उ०। णिरामगंध त्रि०(निरामगन्ध) निर्गतोऽपगत आमोऽविशोधिकोट्याख्यः, निरभिलाषे निरभिष्वङ्गे, 'पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए।' तथा गन्धो विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः। मूलोत्तरउत्त०६ अ० गुणभेदभिन्नां चारित्रक्रियां कृतवति, सूत्र०१ श्रु०६ अ०॥"से सव्वदंसी णिरवेक्खजइधम्म पुं०(निरपेक्षयतिधर्म) गच्छनिर्गतसाधुधर्मे, (ध०) अभिभूय नाणी, णिरामगंधे धिइमं ठितप्पा। (5)" सूत्र०१ श्रु०६ अ० साम्प्रतं निरपेक्षयतिधर्मप्रस्तावनाया तद्योग्यतामाह "णिरामगंधे सपरिवएज्जा।" आचा०१ श्रु०२ अ०५ अ०|
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________________ णिरामय 2113 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिरुजसिखतव णिरामय त्रि०(निरामय) नीरोगे, दश०४ अ०। निर्मलपरमात्मानु-भवे. | णिरिक्खण न०(निरीक्षण) आलोकने, सङ्घा० 1 अधि०१ प्रस्ता०। अष्ट०१० अष्टक। "अतीव निरामया नो अहो वातो निस्सरह।" | आव०। आ०म०१अ०२खण्ड। णिरिक्खणा स्त्री०(निरीक्षणा) प्रत्युपेक्षणायाम, ओघा णिरामिस त्रि०(निरामिष) विषयाऽऽदिपदार्थे, उत्त०। “सामिसं | णिरिक्खिय त्रि०(निरीक्षित) आलोकिते, "उप्पण्णनाण दंसण-धरेहि कुललं दिस्स, बज्झमाणं णिरामिसं / आमिसं सध्वमुज्झित्ता, | तेलुक्कनिरिक्खियमहियपूइएहिं / " तत्र निरीक्षिता मनोरथ-परम्पराविहरिस्सामो णिरामिसा // 46 // " निष्क्रान्त आमिषाद् गृद्धिहे- सम्पत्तिसंभवननिश्चयसमुत्थसम्मदविकासिलोचनैरालोकिताः। नंगा तोरभिलषितविषयान्निर्गतूं वा आमिषमस्येति। उत्त० पाई०१४ अ० | णिरिग्घ निली धा० (नि+लिङ्) निलयने, "निलीडेर्णिलीअ-णिलुक्कणिरायास त्रि०(निरायास) अखेदकारणे, प्रश्र०४ सम्ब० द्वार। णिरिग्ध-लुक्क-लिक-ल्हिक्काः" ||455 / / इति निलीडो णिरारंभ त्रि०(निरारम्भ) निर्गत आरम्भादसत्क्रियाप्रवर्तनलक्षणान्नि- | णिरिग्घाऽऽदेशः / 'णिरिरघई। पक्षे–'निलिआई। निलीयते / प्रा०४ रारम्भः। आरम्भरहिते, उत्त०२ अ०। पाद। णिरालंब त्रि० (निरालम्ब) ज्ञानाऽऽद्यालम्बनरहिते, व्य०४ उ०| णिरिणास धा०(गम्) गमने, "गमेरई अइच्छाणुवजावजसोक्कुणिरालंबण त्रि०(निरालम्बन) त्राणायाऽऽलम्बनीयवस्तुवर्जित, ज्ञा०१ साक्कुस-पचड्ड-पच्छंद-णिम्मह-णी-णीण-णीलुक्क-पदअश्रु० अ० "गयणमिव णिरालंबणो।''गगनमिव निरालम्बनो, न रम्भ-परिअल्ल-वोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसे-हावहराः" कुलग्रामाऽऽद्यवलम्बत इति भावः / स्था०६ ठा०। ऐहिकाऽऽमुष्मिका- ||8/4 / 162 / इति सूत्रेण गमेणिरिणासाऽऽदेशः। 'णिरिणासई / ssशंसारहिते, "इमम्मि लोए परते य दोसु वि न विजइ बंधणं जस्स गच्छति / प्रा०४ पाद। किंचि वि, से हुनिरालंबणे।" आचा०२ श्रु०४ अ०१उ०। *नश् धा०। अदर्शन, "नशेर्णिरिणास-णिवहावसेह-पडिसा-- णिरालंबणया स्त्री०(निरालम्बनता) निर्गत आलम्बनादाश्रयणीयाद् / सेहावहराः"||१४१७८|| इति नशेर्णिरिणासाऽऽदेशः। 'णिरिणासइ। गच्छकुटुम्बकाऽऽदेरिति निरालम्बनस्तद्भावो निरालम्बनता। आश्रयान नश्यति। प्रा०४ पाद। पेक्षत्वेऽविनयभेदे, स्था०४ ठा०३उ०। *पिष् धा। पेषणे, "पिषेर्णिव्वह-णिरिणास-णिरिणज-रोध-चड्डाः" णिरालोय त्रि०(निरालोक) निर्गताऽऽलोके, "निरालोयाओ दिसाओं / / 8 / 4 / 185 / / इति पिषेणिरिणासाऽऽदेशः / 'णिरिणासई'। पिनष्टि / कारेमाणे।" नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। प्रा०४ पाद। णिरिणिजधा०(पिष) पेषणे, "पिषेर्णिव्वह-णिरिणास-णिरिणिज्जणिरावकं खि(ण) त्रि०(निरावकासिण) निस्पृहे, "निक्खम्म गेहाउ रोच-चड्डाः " ||14|185 / / इति पिष् धातोर्णिरिणिज्जाऽऽदेशः / णिरावकंखी, कायं विऊ सेज्ज नियाणछिन्ने।" निरावकाङ्की काय शरीर 'णिरिणिज्जई। पिनष्टि। प्रा०४ पाद। व्युत्सृज्य निष्प्रतिकर्मतया चिकित्साऽऽदिकमकुर्वन् छिन्ननिदानो भवेत् / णिरुंभइत्ता अव्य०(निरुध्य) सन्मार्गे व्यवस्थाप्येत्यर्थे, सूत्र०१श्रु०४ सूत्र०१ श्रु०१०अ० णिरावयक्ख त्रि०(निरवकास) निरपेक्षे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अ०२ उ० दशा णिरुंभण न०(निरोधन) प्रक्षेपणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वारा प्रतिबन्धे, सूत्र०१ णिरावरण न०(निरावरण) क्षायिकत्वात् (औ० / भ०। दशा०) श्रु०५ अ०१ उ० समस्ताऽऽवरणरहिते, कल्प०१क्षण। णिरुच्चार त्रि०(निरुचार) प्राकारस्योद्धजनप्रवेशनिर्गमवर्जिते, णिरास त्रि०(निरास) परित्यागे, प्रतिक्षेपे, वधे, निष्कासने, वाच०। / पुरीषविसर्गार्थ जनानां बहिर्निर्गमनरहिते, ज्ञा०१श्रु०८ अनिरुद्धपुरीआ०म० पोत्सर्गे, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। *निराश पुं०ाक्षीणमनोरथे, बृ०६उ०। प्रश्न। णिरुच्छाह त्रि०(निरुत्साह) सत्त्वपरिवर्जिते. जं०२ वक्ष०ा निरुद्यमे, णिरासंख त्रि०(निराशंस) इहपरलोकाऽऽशंसाविप्रमुक्ते, आव० 4 अ० ग०१ अधिo ऐहिकाऽऽमुष्मिकाऽऽशंसारहिते, आचा०२ श्रु०४ चू०१अ०1 णिरुज न०(निरुज) रुजानामभावो निरुजम् / रोगाणामभावे, पश्चा० णिरासबहुल त्रि०(निराशबहुल) आशाऽभावप्रचुरे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। | 16 विवा णिरासव त्रि०(निराश्रव) कर्माऽऽदानरहिते, प्रश्न०३ सम्ब० द्वार। णिरुजसिखतवन०(निरुजशिखतपस्) रुजानां रोगाणामभावो निरुजं, णिरिअ (देशी) अविशेषिते, दे०ना० ४वर्ग 28 गाथा। तदेव शिखेव शिखा प्रधान फलतया यचाऽसौ निरुजशिखः, स एव तपः। णिरिंक (देशी) नते, देवना०४ वर्ग 30 गाथा। पञ्चा०१६ विव०ा आरोग्यार्थे तपोभेदे, (प्रव०) णिरिंधणया स्त्री०(निरिन्धन) न० प्राकृते स्वार्थिक स्त्रीत्वम्। धूमस्येव निरुजशिखं तपः प्राऽऽहकर्मेन्धनविमोचने, भ०७ श०१ उ०। एवं निरुजसिखो विहु, नवरं सो होइ सामले पक्खे। TI
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________________ णिरुजसिखतव 2114 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिरुवक्केस तम्मिय अहिओ कीरइ, गिलाणपडिजागरणनियमो / / 556 / / श्रु०२ अ०३ उ०। परिगलिते. आचा०१ श्रु० अ०३ उ०। रुजाना रोगाणामभावो निरुज, तदेव प्रधानफलधिवक्षया शिखेव शिखा विवक्षितदिग्गमननिवारिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ01 जलचरजीव विशेषे, चूला यत्राऽसौ निराजशिखः, तपोविशेषः / सोऽप्येवमेव सर्वांग सुन्दर- कल्प०३ क्षण। तपोवदष्टनिरुपवासैराचाम्लपारणवैर्द्रष्टव्यः। नवर केवल स निरुजशिख- | णिरुद्धजोगपुं०(निरुद्धयोग) चतुर्थे शुक्लध्यानभेदे, सूत्र०१ श्रु०६ अ० स्तपोविशेषः, श्यामले कृष्णपक्षे भवति, अधिक श्च तत्र क्रियते ! णिरुद्धपमा त्रि०(निरुद्धप्रज्ञ) निरुद्धाऽऽच्छादिता ज्ञानाऽऽवरणाऽs - ग्लानप्रतिजागरणनियमः, ग्लानो मया पथ्याऽऽदिदानतः प्रतिचरणीय | दिनाकर्मण। प्रज्ञा ज्ञान यस्य सः। अज्ञानप्रकाशे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। इत्यो वरूपप्रतिज्ञाग्रहणमित्यर्थः। शेष तु जिनपूजाऽऽदिकं तथैवेति। णिरुद्धपरियाय पुं०(निरुद्धपर्याय) निरुद्धो विनाशितः पर्यायो यस्य स प्राः२७१ द्वार। निरुद्धपर्यायः / व्य० 3 उ०। पश्चात्कृतत्वेन पूर्वपर्यायनिरोधात् णिरुट्ठाइ(ण) त्रि०(निरुत्थायिन) प्रयोजनेऽपि न पुनः पुनरु- तदेवसिकपर्याय, ('निरुद्धपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ तद्विवसं थानशीलः / उत्त० 1 अ० निमित्तं विनाऽनुत्थापके, उत्त० ३अ०। आयरियउवज्झायत्ताए।'' इति सूत्रम्-'उद्देस' शब्दे द्वितीयभागे 803 णिरुत्तन० (निरुक्त) अभिधानाक्षरानुसारतो निश्चितार्थस्य वचने भणने, | पृष्ठे व्याख्यातम्) अनु०। अनुयोगे सूत्रव्याख्यायाम, (60) णिरुद्धबुद्धि त्रि०(निरुद्धबुद्धि) निरुद्धा संशयकोटीकृता बुद्धिर्यपा ते सम्प्रति अनुयोगमधिकृत्य निरक्तद्वारमाह निरुद्धबुद्धिर्वा संशयितेषु.बृ०३ उ। निच्छियमुत्त णिरुत्तं, तं पुण सुत्ते य होइ अत्थे य। णिरुद्धवासपरियाय पुं०(निरुद्धवर्षापर्याय) निरुद्धो विनाशितो सुत्ते उवरिं वोच्छं, अत्थणिरुत्तं इमं तत्थ / / वर्षापर्यायो यस्य स निरुद्धवर्षापर्यायः। अनेकवर्षापर्याये, व्य०३ उ०। नि००। ("तिण्णि य जस्स अपुण्णा, वासा पुण्णेहिँ वा तिहिं त तु। निश्चितमुक्त निरुक्तम् / तच द्विधा-सूत्रस्यार्थस्य च / तत्र सूत्रस्योपरि वासेहिं निरुद्धेहि, लक्खणजुत्तं पसंसति // 1 // " इते 'उद्देस' शब्द " नेरुत्तियाणि तस्स उ'' इत्यादिना ग्रन्थेन वक्ष्ये। अर्थनिरुक्तं पुनरिदं द्वितीयभागे 805 पृष्ठे व्याख्यातम्) वक्ष्यमाणम्। णिरुद्धाउय पुं०(निरुद्धायुष्क) परिगलिते आयुष्के, 'इमं णिरुद्धाउयं तदेव विवक्षुःप्रथमतस्तद्विषयान् दृष्टान्तान् संघेहाए।" आचा०१ श्रु०४ अ०३उ० वक्तव्यान् सूचयति णिरुय न०(निरुज) णिरुज शब्दार्थे , पश्चा० 16 विवा अणु बायरे य उंडिय, पडिंसुया चेव अब्भपडले य। णिरुयसिखतव न०(निरुजशिखतपस्)णिरुजसिखतव' शब्दार्थे, वत्तिऍ चउक्कभंगो, निरुतादी वत्तणी च जहा।। पशा० 16 विवा अनुयोगे अणुत्वे बादरत्वे च दृष्टान्तो वक्तव्यः, अनुयोगे उण्डिकापत्रक- | णिरुली (देशी) मकराऽऽकृतिग्राहे, देवना०४ वर्ग 27 गाथा। दृष्टान्तः, उण्डिका मुद्रा / माषायां प्रतिश्रुतदृष्टान्तः। विभापायामभ्रपटलः। णिरुवक्कम पुं०(निरुपक्रम) निर्गत उपक्रमान्निरुपक्रमः। अपवर्तबार्तिक चत्वारो भङ्गाः, तत्र मनदृष्टान्तः। तथा-निरुक्ताऽऽदीनि। यथा नाकरणाभिर्गत अनुभागे, भला तत्र मरणविषयाऽऽयुषि सप्तभिरष्टभिर्वा वर्द्धमानस्वाम्याख्यातवान तथा किमृषभाऽऽदयोऽपि, उतान्यथा? कर्गवामिव मरुषु जलगण्डूषग्रहणरुपैर्यत्पुद् गलोपादानं तदतिदृढमउच्यते-तथेति, केवलज्ञानस्य तुल्यत्वात्, यथा वर्तनी मार्गः स पवर्तयितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते। उत्त० ५अा उपक्रमणाभावे, सर्वजनपदेषु प्रमाणत एकैव भवति। बृ०१ उ०। विशे०। पदमजने, भ०२० श०१० उ०। पदव्युत्पत्तिरूपे टीकाऽऽदौ, कल्प० 2 क्षण / शब्दनिरुक्तप्रतिपादके णिरुवक्कमभाव पुं०(निरुपक्रमभाव) अनुपक्रमणीयत्वे कर्मणामववेदाड़े, औ०। आ०म०। अनु आव०। सर्वजैरुपादेयतया नितरामुक्ते, श्यंवेद्यस्वभावत्वे, पञ्चा०३ विव०॥ प्रश्न०३ सम्ब०द्वार / निश्चये, देख्ना०४ वर्ग 30 गाथा। णिरुवक्कमाउ त्रि०(निरुपक्रमायुष) अकालमरणरहित, श्रा०। आ०म०/ णिरुत्ति स्त्री०(निरुक्ति) निश्चिता उक्तिनिरुक्तिः / विशे०। आ०म०। यदा ह्यसुमान् स्वायुषस्त्रिभागत्रिभागे वाजघन्यतएके द्वाभ्यां चोत्कृष्टतः निर्वचनं निरुक्तिः / क्रियाकारकभेदपर्यायैः शब्दार्थकथने, विशे०। सप्तभिरष्टभिर्वा वरन्तर्मुहर्त्तप्रमाणेन कालेनाऽऽत्मप्रदेशरचनानाडिआ०मा आ०चू० कान्तर्वर्तिन आयुष्ककर्मवर्गणापुद्गलान् प्रयत्नविशेषेण विधत्ते तदा णिरुत्तिय न०(नैरुक्तिक) निरुते भवं नैरुक्तम् / निरुक्तवर्शनार्थ- | निरुपक्रमाऽऽनुर्भवति। आचा०१ श्रु० 2 अ०१उ०। वेपा०। प्रतिपादके नामनि, (अनु०) "से किं तं णिरुत्तिए? मह्याशेते महिषः। णिरुवक्कय (देशी) अकृते, दे०ना०४ वर्ग 51 गाथा। भ्रमति चरतीति भ्रमरः। मुहुर्मुहुर्लसतीति भुसलम् / कपेरिव लम्बते णिरुवक्किट्ठ त्रि०(निरुपक्लिष्ट) स्वगतशोकाऽऽधुपक्लेशवियुक्ते, भ० कपित्थम्। चिचं करोतिखल्लं च भवति चिक्खल्लन्। ऊर्द्धकर्ण उलूकः। 25 श०७ उ "हट्ठस्स णवगलुस्स णिरुवक्किट्ठस्स जंतुणो " अनु०। स्वस्य माला मेखला। सेत्तं णिरुत्तिए।" अनु०॥ णिरुवक्के स पुं०(निरुपक्लेश) शोकाऽऽदिबाधावर्जिते, स्था०७ णिरुद्ध त्रि०(निरुद्ध) आच्छादिते, सूत्र०१ श्रु०१२ अ० आवृते. सूत्र०१ | ___ठा०ा "णिरुवक्के से परिआए।" निरुपक्लेशः पर्यायः इति एभि
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________________ णिरुवक्केस 2115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिरुवहि रेवोपक्लेशै रहितः प्रव्रज्यापर्यायोऽनारम्भी कुचिन्तावर्जितः श्लाघनीयो रागाऽऽद्युपरञ्जनं तेन शून्यत्वात् / जीव इव अप्रतिहतगतिः, विदुषामित्येवं चिन्तनीयम्। दश०१ चू०। सर्वत्रास्खलितविहारित्वात् / गगनमिव निरालम्बनः, कस्याप्याधारणिरुवगारि(ण) त्रि०(निरुपकारिन्) निरुपकत्तुं शीलमस्येति / स्यानपेक्षणात् / वायुरिव अप्रतिबद्धः, एकस्मिन् स्थाने वाप्यव निरुपकारकारके गुर्वादिकार्येष्वप्रवर्तके, आ०म०१ अ०१ खण्ड। स्थानाभावात्। शारदसलिलमिव शुद्धहृदयः, कालुष्याकलङ्कितत्वात्। णिरुवग्गहया स्त्री०(निरुपग्रहता) गन्त्र्यादिरहितपनु वद् धर्मा- पुष्करपत्रं कमलपत्रं, तद्वन्निरुपलेपः, यथा कमलपत्रेजललेपोनलगति, स्तिकायाभावेन तज्जनितगत्युपष्टम्भाभावे, स्था०४ ठा०३उ०। तथा भगवतः कर्मलपो न लगतीत्यर्थः / कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः। णिरुवचरिय त्रि०(निरुपचरित) उपचारेणाऽऽत्मनोऽसंबन्धिनि, ज्ञा०१ खङ्गि विषाणमिव एकजातः / यथा- खङ्गिनःश्वापदबिशेषस्य विषाणं श्रु०५ अ० शृङ्ग मेकं भवति, तथा भगवानपि, रागाऽऽदिना सहायेन च रहितत्वात्। णिरुवहाणि (ण) त्रि०(निरुपस्थानिन्) निर्गतमुपस्थानमुद्यमो यस्य / विहग इय विप्रमुक्तः, मुक्तपरिकरत्वात् अनियतनिवासाच। भारण्डपक्षीव स निरुपस्थायी। सर्वज्ञप्रणीतसदाचाराऽनुष्ठानविकले, आचा०१ श्रु०५ अप्रमत्तः, भारण्डपक्षिणोः किलैकं शरीरम् / यतः- "एकोदराः पृथग् अ०६ उ०। ग्रीवास्त्रीपदा मर्त्यभाषिणः / भारण्डपक्षिणस्तेषां, मृतिभिन्नफणिरुवद्दव त्रि०(निरुपद्रव) अविद्यमानराजाऽऽदिकृतोपद्रवे, औ०। लेच्छया'' // 1 // ते चात्यन्तम् अप्रमत्ता एव जीवन्तीति तदुपमा। कुञ्जर ज्ञा०ाराका रोगाऽऽदिक्लेशरहिते,तं०। उपद्रवो नाम-अशिवं, गल- इव शौण्डीरः कर्मशत्रून् प्रतिशूरः, वृषभ इव जातस्थामा जातपराक्रमः, रोगाऽऽदिकं वा। तस्याभावो निरुपद्रवम्। उपद्रवाभावे, नंगा "णिरुववव स्वीकृतमहाव्रतभारोगहनं प्रति समर्थत्वात् / सिंह इव दुर्धर्षः, चखेडं च होहिति।" बृ०४ उ०। अशिवाऽऽद्युपद्रववर्जिते, बृ०१ उ०। परीषहाऽऽदिश्वापदैरजय्यत्वात्। मन्दर इव मेरुरिव अप्रकम्पः, उपसर्गणिरुवम त्रि०(निरुपम) सकलोपमाऽतीते, दर्श०५ तत्त्व। उपमा-रहिते, वातैरचलितत्वात् / सागर इव गम्भीरः, हर्षविषादकारणसद्भावेऽपि जी०३ प्रति०४ उ। तं०। आव०॥ "णिरुवमपिडियासिरा।" निरुपम अविकृतस्वभावत्वात् / चन्द्र इव सौम्यलेश्यः, शान्तत्वात् / सूर्य इव पिण्डिोव व लत्वेन पिण्डिकायमानमग्रशिरः शिरोऽग्रंयेषांते तथा। तं०। दीप्ततेजाः / द्रव्यतो देहकान्त्या, भावतो ज्ञानेन जात्यकनकमिव जातं णिरुवमसुहसंगय त्रि०(निरुपमसुखसङ्गत) निरुपमाऽऽख्येनाविद्य रूपं स्वरूपं यस्य स तथा। यथा किल कनकं गलज्वलनेन दीप्तं भवति, मानाऽऽक्षेपेण सङ्गत इति समासः। असंयोगिकाऽऽनन्दयुक्ते, पं०सं०१ द्वार। तथा भगवतोऽपि स्वरूपं कर्ममलविगमेन अतिदीप्तस्तीति भावः / णिरुवयरिय त्रि०(निरुपचरित) 'णिरुवचरिय' शब्दार्थे , ज्ञा०१ श्रु०५ अ० वसुन्धरा इव पृथ्वीव सर्वस्पर्शसहः, यथा हि शीतोष्णाऽऽदि सर्व पृथ्वी णिरुवलेव त्रि०(निरुपलेप) द्रव्यता निर्मलदेहत्वाद् भावतो बन्ध समतया सहते, तथा भगवानपि। सुष्ठ हुतोघृताऽऽदिभिः सिक्त एवंविधो हेत्वभावान्निर्गत उपलेपो यस्मादिति निरुपलेपः। स्था०६ ठा० द्रव्यतो यो हुताशनोऽनिस्तद्वत्तेजसा ज्वलन् / नास्त्ययं पक्षःयत्तस्य भगवतः निर्मलदेहे, भावतस्तु कर्मबन्धहेतुलक्षणोपलेपरहिते, औ०। कल्प० कुत्रापि प्रतिबन्धो भवति, तस्य भगवतः कुत्रापि प्रतिबन्धो नास्तीति ज्ञा०ा प्रश्नवा सका लेपरहिते, औ०। स्नेहवर्जित, प्रश्र० 4 सम्ब० द्वार। भावः / कल्प०६क्षण। निरुपलेपं दृष्टान्तैर्भावयति णिरुवसग्ग पुं०(निरुपसर्ग) जन्माऽऽद्युपसर्गरहिते मोक्षे, प्रति०। आव० णिरुवलेवे-कंसपाई इव मुक्कतोए, संखो इव णिरंजणे, जीवे आचा०ा आ०चूला राजगुणभेदे, यतः सकलेऽपि देशे मारिडमराऽऽधुपइव अप्पडिहयगई, गगणामिव णिरालंबणे, वाउ व्व अप्पडि सर्गासम्भवः। व्य०३उ०। बद्धे, सारयसलिलं व सुद्धहियए, पुक्खरपत्तं व णिरुवलेवे, णिरुवसग्गवत्तिया स्त्री०(निरुपसर्गप्रत्यय) जन्माऽऽद्युपसर्गाभा-वेन कुम्मो इव गुत्तिं दिए, खग्गिविसाणं व एगजाए, विहग इव | निरुपसों मोक्षस्तत्प्रत्ययः। "वत्तिया ति आर्षत्वात्। मोक्षनिमित्ते, विप्पमुक्के, भारंडपक्खी इव अप्पमत्ते, कुंजरो इव सॉ डीरे, "अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सगं णिरुवसग्गवत्तियाए बोहिलाहवसभो इव जायथामे, सीहो इव दुद्धरिसे मंदरो इव अप्पकंपे, वत्तियाए।" ध०२ अधि०। ल०। सागरो इव गम्भीरे, चंदो इव सोमले से, सूरो इव दित्ततेए, णिरुवहय त्रि०(निरुपहत) वाताऽऽद्यनुपहते,भ०७ श०१उ०। ज्ञान जच्चकणगं व जायरूवे, वसुंधरा इव सव्वफासविसहे, उत्त०। विकारविरहिते, औ०। रा०ा ज्वराऽऽदिदशाऽऽद्युपद्रवरहिते, सुहुयहुयासण इव तेयसा जलंते / नत्थि णं तस्स भगवंतस्स जी०३ प्रति०४ उ० रोगाऽऽदिभिरनुपहते, प्रश्न०४ आश्र० द्वार / कत्थई पढिबंधे भवइ। "णिरुवयउदत्तलट्टपचिंयिवर्ल्ड ति।" निरुपहतानि अविद्यमानवातानिरुपलेपो द्रव्यभावमलापगमेन, तत्र द्रव्यमलः शरीरसंभवः, भावमलः ऽऽधुपघातानि उदात्तानि उत्तमवर्णाऽऽदिगुणानि अत एव लशानि कर्मजनितः / अथ निरुपलेपत्वं दृष्टान्तैर्दृढयति–कांस्य पात्रीव मुक्त मनोहराणि पश्चापीन्द्रियाणि पटूनि च स्वविषयग्रहणदक्षाणि यत्र तत्तथा / तोयमिव स्नेहो येन स तशा, यथा कारयपात्रं तोयेन न लिप्यते, तथा / भ०६ श०३३उ० भगवान् स्नेहेन न लिप्यते इत्यर्थः / तथा शङ्ख इव निरञ्जनः, रञ्जन / णिरुवहि त्रि०(निरुपधि) उपधिश्छद्म, मायेत्यनान्तरम् / अयं
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________________ णिरुवहि 2116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिल्लूर चक्रोधाऽऽद्युपलक्षणं, ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एव कषाया येभ्यस्ते | णिलाम न०(ललाट) भाले, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। निरुपधयः / निष्कषायेषु, "हेउविभत्ती निरुवहि जियाण अवहेण य | णिलिंत त्रि०(निलीयमान) नीडाऽऽद्याश्रयति, रा०ा निविशमाने, औला जियंति // 144 // " दश०१० णिलिज्जमाण त्रि०(निलीयमान) अपनयति, धान्यशुद्धिं कुर्वाणे, सूत्र० णिरुवार धा०(ग्रह) ग्रहणे, "ग्रहो क्ल-गेह-हर-पङ्ग-निरुवाराहि- | 2 श्रु०२ अ० संवाधनं कुर्वति, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०२उ०। पचुआः" !||4|206 / / इति ग्रहेर्निरुवाराऽऽदेशः। “निरुवारइ' | | णिलीअधा०(निली) निलयने, "निलीङोर्णिलीअ-णिलुक्क-णिरिग्धगृह्णाति / प्रा०४ पाद। लुक्क-लिक्क-ल्हिक्काः" ||84155 // इति निपूर्वस्य लीडो 'णिलीअ' णिरुस्साह त्रि०(निरुत्साह) सदनुष्ठाननिरुद्यमे, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उ०। आदेशः। 'णिलीअई। निलीयते। प्रा०४ पाद। णिरूविअ त्रि०(निरूपित) आलोच्य कथिते, "विद्धकइणिरू-वि।" | णिलुक्क (देशी) विरते, "खिप्पामेव णिलुक्को।''आ०म०१अ०१ खण्ड। वृद्धकविनिरूपितम्। प्रा०२ पाद। अन्तर्हिते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० निलुक्को निवृत्तः। आ०क०। णिरूविऊण अव्य०(निरूप्य) आलोच्येत्यर्थे पञ्चा०८ विव०। *निली धा०। निली निलयने, 'निलीडोर्णिलीअणिलुक्क०-" णिरूवियव्व त्रि०(निरूपयितव्य) आलोचनीये, पञ्चा० 11 विव०। / / 8 / 4 / 55 / / इत्यादिसूत्रेण निलीडो णिलुक्काऽऽदेशः / 'णिलुक्क्इ' / णिरूह पुं०(निरूह) विरचने, सूत्र०१ श्रु० अ० निलीयते / प्रा० 4 पाद। णिरेय त्रि०(निरेजस्) निष्प्रकम्पे, भ०५ श०७ उ०। कल्प०। निश्चले, *तुड् धा०॥ त्रोटने, "तुडेस्तोड-तुट्ट-खुट्ट-खुडोक्खडोल्लुकनि०चू०२० उ० सैजसो निरेजासंच पुद्गलानां कायस्थितिरुक्ता। भ० णिलुक्क- लुक्कोल्लूराः" ||4|116 / / इति तुडेर्णिलुक्काऽऽदेशः / 25 श०४ उन "णिलुक्कइ।" तुमति। प्रा०४ पाद। णिरेयण त्रि०(निरेजन) निश्चले, औ०। प्रज्ञा०ा निष्प्रकम्पे, आव०५ अ०। णिल्लंक (देशी) पतद् गृहे, देवना०४ वर्ग 31 गाथा। णिरोदर त्रि०(निरोदर) विकृतोदररहिते, जी०३ प्रति०४ उ० तुच्छोदरे, णिल्लंबण न०(निर्लाञ्छन) नितरां लाञ्छनमगावयवच्छेदः, गवा दिकर्णकम्बल शृङ पुच्छच्छेदनासावेधाङ्कनखण्डनत्वग्दाहाऽऽद्युष्ट पृष्ठ प्रश्न०४ आश्र0 द्वार। गालनाऽऽदिरूपे (ध०२ अधि०) छेदनव्यापारे, बलीवदतुरङ्गाऽऽदीनां णिरोहपुं०(निरोध) निरोधनं निरोधः। प्रलयकरणे, ''छउमत्थाणं झाणं, वर्धितकरणे, ध०र०। प्रश्रा आ०चू०। प्रव०। 'नासावेधोऽङ्कन पुच्छजोगनिरोहो जिणाणं च / " आव०४ अ०। आ००। अशेषकर्मक्षये, च्छेदनं पृष्ठागालनम्। गोकर्णकम्बलच्छेदो, निलाञ्छनमुदीरितम्।।१॥" सूत्र०१ श्रु०१४अ०1 निश्चयेन धरणे, आव०४ अ०। तत्राऽङ्कनं गवाश्वाऽऽदीनां चिह्नकरणं मुष्कोऽण्डस्तस्य छेदनं वर्द्धितमुत्तणिरोहे चक्खं, वचणिरोहेण जीवियं जहति। कीकरणं, अस्मिन् जीवबाधा व्यक्तैव / ध०२ अधि०। उड्डणिरोहे कोढं, गेलन्नं वा भवे तीसु // 663 / / णिल्लंछणकम्म न०(निर्लाञ्छनकर्मन) निलाञ्छनमेव कर्म जीविका मूत्रनिरोधे विधीयमाने चक्षुरुपहन्यते / वर्चः पुरीषं, तस्य निरोधेन निर्लाञ्छनकर्म। गोमहिष्यादीनां नासावेधे, गवाश्वाऽऽदीनां वर्धितकरणे, जीवित परित्यजति, अचिरादेव मरणं भवतीत्यर्थः / ऊर्द्ध वमनं, तस्य प्रव०६ द्वार। श्रा०। उपा०। पञ्चा०ा आव०। एतच कर्मत उपभोगपरिनिरोधे कुष्ठं भवति, ग्लान्यं वा सामान्यतो मान्धं त्रिष्वपि मूत्रपुरीषवमनेषु भोगवर्तिना कर्माऽऽदानहेतुरतीचार एवेति वय॑म्। ध०२ अधिo निरुध्यमानेषु भवेत्। बृ०३ उ०। प्रकाशप्रवृत्तिनियमरूपविघाते, स च / पिल्लुंछ धा०। (मुच) "मुचेश्छड्डावहेड-मेल्लोस्सिक-रेअव णिनिरोधोऽभ्यासाद् वैराग्याच भवति / तदुक्तम्- "अभ्यासवैराग्याभ्यां ल्लुञ्छ धंसाडाः "||4|1|| इति मुचेर्णिल्लुज्छाऽऽदेशः" तन्निरोधः।" द्वा० 23 द्वारा णिल्लुञ्छइ 1 मुञ्चति / प्रा०४ पाद। णिरोहपरिणाम पुं०(निरोधपरिणाम) चित्तस्य तथाविधस्थैर्यविशेष, | णिल्लज्ज त्रि०(निर्लज्ज) लज्जारहिते,प्रश्न०२ आश्र0 द्वार। द्वा०। व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावाभ्यां निरोधक्षण णिल्लस धा०(उल्लस) उत-लस उल्लसने, लसिते, "उल्लसेरूसचित्तान्वयो निरोधपरिणाम इति / द्वा०२३ द्वा० लोसुम्भ-णिल्लस-पुलआअ-गुजोल्ला-रोआः" / / 8 / 4 / 20 / / इति णिलज त्रि०(निर्लज) लज्जारहिते, "हुं निलज्ज ! समोसर।" प्रा०२ पाद। उत्पूर्वस्य लसधातोः णिल्लिसाऽऽ-देशः। प्रा०४ पाद। णिलजिमा पुंoास्त्री०। (निर्लज्जिमन्) निर्लज्जस्य भावो निलजिमा। जिल्लसिअ (देशी) निर्गत, देवना०४ वर्ग 36 गाथा। "वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्"॥८/१।३५।। इति वा स्त्रियां प्रयोगः। “एसा पिल्लालिय त्रि०(निालित)प्रसाति, ज्ञा०१ श्रु०१अ० विवृतमुखाद् निलजिमा, एस निलज्जिमा''। लज्जाराहित्ये, प्रा०१ पाद। निःसारिते, ज्ञा०१ श्रु०८ अगलपलपायमाने, कल्प०२ क्षण। णिलय पुं०(निलय) गृहे, उत्त०३२ अ०। कोला / पिल्लूर धा०(छिद्) द्वैधीकरणे, "छिदेर्दुहाव-णिच्छल्ल-निज्झोड-- णिलयण न०(निलयन) वसतौ, नयानां निलयनौपम्यम् / विशे०। णिव्वर-णिल्लूर-लूराः" / / 8 / 4 / 124 / / इति छिदेर्णि-ल्लूराऽऽदेशः / (वसतिदृष्टान्तः ‘णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1880 पृष्ठे प्ररूपितः) 'णिल्लूरइ छिनत्ति / प्रा०४ पाद।
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________________ णिल्लेव 2117 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिवण्णुस्सिय णिल्लेव त्रि० (निर्लेप) चेतनस्य सकलपरभावसंयोगाभावेन ट्या- आव०४ अन प्यव्यापकग्राहककर्तृत्वभोक्तृत्वाऽऽदिशक्तीनां स्वभावावस्थाने, अष्टा / पिल्लेवग पुं०(निर्लेपक) रजके, व्य०१ उ०ा 'रायगिहे सेणिओराया, चेतनस्य सकलपरभावसयोगाभावेन व्याप्यव्यापकग्राहककर्तृत्वभोक्त- तेण खोमजुयलं णिल्लेवगस्स दिन्नं।''आ०चू०४ अ०। त्वाऽऽदिशक्तीनां स्वभावावस्थानं निर्लेपः। नामतो निर्लेप:-अभिलाषा- णिल्लेवण न०(निर्लेपन) मलस्याभावे मलच्छोटने, व्य०१ उ०नि०चू। ऽऽत्मकजीवाजीवानाम् / स्थापनानिर्लेपःनिन्थाऽऽकाराऽऽदिः। निर्लेप,"उव्वत्तणणिल्लेवणपीहंते।" ओघ०। द्विविधानि शरीराणिद्रव्यनिर्लेपः- कांस्यपात्राऽऽदिस्तद्व्यतिरिक्तः / शेषस्तु पूर्ववत् / बद्धानि, मुक्तानि चेति / भ०७ श०४उ०। (तेषां निर्लेपनमपि 'सरीर' भावनिलेपः- जीवाजीवभेदात् / अजीवा धर्माधर्माऽऽकाशाऽऽदिः / शब्दे वक्ष्यते) जीवास्तु समस्त विभावाभिष्वङ्ग रहितः मुक्ताऽऽत्मा / नयैस्तु णिल्लेहण न०(निर्लेखन) ईषच्छुष्कस्योद्वर्त्तने, आचा०२ श्रु०१ चू०३ द्रव्यपरिग्रहाऽऽदिष्वलिप्तः। नैगमेन संग्रहेण जीयो जात्याऽलिप्तः, अ०२ उ० व्यवहारेणालिप्तः द्रव्यतस्त्यागी। शब्दनयेन सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानपरि- | णिल्लोह त्रि०(निर्लोभ) विगतलोभे, उत्त०८अ० प्रतिबोध्य तेन भगवता च्छिन्नपरभावपरित्यागी तन्निमितभूतातु धनस्वजनोपकरणात् निर्लोभचूडामणिना प्रव्राजिता। ती०३५ कल्प। तेष्वनासक्तः। समभिरूढ़े नाऽरिहन्ताऽऽदिप्रशस्तनिमित्तै बहुतरैः णिव पुं०(नृप) राजनि, नि०चू० २उ० "दशवेश्यासमो नृपः।" आचा०१ परिमाणैरलिप्तत्वात क्षीणमोहो जिनः केवली चालिप्तः। एवंभूतेन सिद्धः, श्रु०२ अ०६ उ०। दण्डिके, बृ०१ उ०। सर्व पर्यायैरलिप्तत्वात् / वाचनान्तरे तु-नैगमालिप्तः, अंशत्यायी णिवइ पुं०(नृपति) राजनि, व्य०१उ०। नैगमाऽऽकाररूपेण संग्रहेण सम्यग्दर्शनी सत्तया आत्मानं सर्वथा विभक्तत्वात् / व्यवहारेण तच्छ्रद्धयाऽपास्तरागाऽऽदिलेपत्यागात् / णिवइता त्रि०(निपतितृ) अवतरीतरि, स्था०४ ठा०४उ०। ऋजु सूत्रस्तु सन्निमित्ताऽऽदिष्वरक्तत्वेनावलम्बनात् / शब्दत णिवइय त्रि०(निपतित) उपरि पतिते तथा सत् यत् पीडयति तन्निअभिसंधिजवीर्यबुद्धिपूर्वकोपयोगस्य रागाऽऽदिषु अपरिणमनात् / पतितम् / त्वविषे दृष्टिविषे वा विषभेदे, न०। स्था०४ ठा०४ उ०। समभिरूढतः सर्वचेतनायाः सर्ववीर्यस्य विभावाऽऽश्लेषरहितत्वात् / अधोलम्बमाने, 'समुच्छिएइवा, णिवएइ वा।" आचा०२ श्रु०१ चू०४ एवंभूततः पूर्वाभ्यासचक्रभ्रमाऽऽदिभवोपग्राहिसर्वपुद्गलसङ्गरहितस्य अ०१उ०। सिद्धस्य निर्लेपत्वम् / पुनर्निक्षेपत्रये नयचतुष्टयम् भावनिक्षेपे पर्याया- | णिवउप्पय पुं०(निपातोत्पात) निपातपूर्वक उत्पातो यत्र स लिप्तत्वेनाऽन्तिमनयत्रवम् / इति तत्त्वार्थवृत्तैराशयः। अत्र भावसम्यक् निपातोत्पातः / नाट्यभेदे, यत्र पूर्व निपतन्ति, तत उत्पतन्ति। आ०म०१ साधकनिर्लेपाधिकारः अ०१ खण्ड। जं० संसारे निवसन् स्वार्थ-सज्जः कजलवेश्मनि। णिवकर पुं०(नृपकर) राजहस्ते, पञ्चा०१८ विव०। लिप्यते निखिलो लोको, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते / / 1 / / णिवकरल्याकिरियाजयणा स्त्री०(नपकरलताक्रियायतना) नृपकरे नाऽहं पुद्गलभावानां, कर्ता कारयिता च न / राजहस्ते लूता वातिको रोगविशेषो नृपकरलूता, तस्या उपशमे क्रिया नानुमन्ताऽपि चेत्यात्मज्ञानवान लिप्यते कथम्? ||2|| चिकित्सा मन्त्रापमार्जनाऽऽदिका, तस्यां या यतना प्रत्यत्नः सा तथा। लिप्यते पुदलस्कन्धो, न लिप्ये पुदलैरहम् / राजहस्तलूताचिकित्साप्रयत्ने, पञ्चा०१८ विय०। चित्रव्योमाञ्जनेनेव,ध्यायान्निति न लिप्यते / / 3 / / णिवट्टण न०(निवर्त्तन) निवृत्तौ मार्गनिवर्तनस्थाने, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। लिप्तताज्ञानसंपात-प्रतिघाताय केवलम्। णिवडण न०(निपतन) अधःपतने, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। णिवडिऊण अव्य०(निपत्य) अधः पतित्वेत्यर्थे, 'णिवडिऊण लेणेसु निर्लेपज्ञानमग्नस्य, क्रिया सर्वोपयुज्यते // 4 // पयं पियं करेह मे भयवं ! पसायं।" दर्श०३ तत्त्व। तपः श्रुताऽऽदिना मत्तः, क्रियावानपि लिप्यते। णिवडिय त्रि०(निपतित) नीचैः पतिते, "सव्वंगेहिं णिवडिया।" भावनाज्ञानसंपन्नो, निष्क्रियोऽपि न लिप्यते॥५।। आ०म०१अ०२खण्ड। अलिप्तो निश्चयेनाऽऽत्मा,लिप्तश्च व्यवहारतः। णिवण्ण त्रि०(निवन्न) शपिते, आव०४ अ० लुप्ते, संथा०। त्वशुद्धयत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा / / 6 / / ग्वर्तिते, बृ० १उ० ज्ञानक्रियासमावेशः, सहैवोन्मीलने द्रयोः। *निपन्न पुंगा 'धम्म सुक्कं च दुवे, न वि झायइन वि अ अट्टरुघाई। एसो भूमिकाभेदतस्त्वत्र, भवेदेकै कमुख्यता / / 7 / / काउस्सगो, णिवण्णओ होइ नायव्यो / / 1 // " इत्युक्तलक्षणे कायोसज्ञानं यदनुष्ठानं, न लिप्तं दोषपङ्कतः। त्सर्गभेदे कायोत्सर्गभेदे, आव०५ अ०। शुद्धबुद्धस्वभावाय, तस्मै भगवते नमः||८|| णिवण्णणिवण्ण पुं०(निपन्ननिपन्न) "अट्ट रुद्रं च दुवे, झायइ झाणाइँ अष्ट०११ अष्ट०। विगतलेपे, भ०६ श०७ उ०। 'सेपल्ले खीणे गीरए जो णिवण्णो उ / एसो काउस्सग्गो, णिव्वण्णणिवण्णगो नाम // 1 // " णि-मल्ले णिट्टिए णिल्लेवे अवहडे। विसुद्धे भवइ।" अत्यन्तसंश्लेषात् | इत्युक्तलक्षणे कायोत्सर्गभदे, आव०५ अ०) तन्मयतागतवालाग्रापहारादपनीतभित्यादिगतधान्यलेपकोष्ठागारवद् | णिवण्णु रिसय पुं०(निपन्नो रिसत) 'धम्म सुक्कं च दुवे, निर्लेपः। भ०६ श०७ उ०। अनु० जी०। लेपरहिते पृथुकाऽऽदौ, झायइ झाणाइँ जो णिवण्णो उ / एसो काउस्सग्गो, होइ
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________________ णिवण्णुस्सिय 2118- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिवुट्ठित्ता णिवष्णुस्सिओ नाम // 1 // '' इत्युक्तलक्षणे कायोत्सर्गभदे, आव०५ अन / वातरहितमपि महद् भवति तत्तथा। भ०७ 208 उ०! णिवत्तमाण वि०(निवर्तमान) प्रत्यावर्त्तमाने, "गुरुगा णिवत्तमाणे।" | णिवायण न०(निपातन) गर्ताऽऽदिप्रक्षेपणे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। सूत्र०। व्य०१ उ व्याकरणप्रसिद्धे आदेशाऽऽगमाऽसाध्ये समुदायाऽऽदेशे, आ०म० 1 अ०२ णिवत्ति रत्री०(निवृत्ति) बन्धने, स्था०४ टा०१ उ०। निष्पत्तौ, स्था०४ खण्ड। ठा०४उन णिवायसरणप्पईव पुं०(निवातशरणप्रदीप) निर्गतबात है क.. णिवपडिमा स्त्री०(नृपप्रतिमा) राज्ञ आकारे, 'संगामे णिव पडिम, देवी देशस्थदीपे, "जं पुण सुनिप्पकंप, निवायसरणप्पईवमिव चित्तः " काऊण जुज्झति रणम्मि।" व्य०१ उ०। आव०४ अ० णिववस पुं०(नृपवश) नरेशवशे, जीवा०१२ अधिक। णिवायसरणप्पईवज्झाण न०(निवातशरणप्रदीपध्यान) वातवर्जितणिवविट्ठि स्त्री०(नृपविष्टि) राजविष्टौ, व्य०२ उ०। गृहदीपज्वलने, णिवायसरणप्पईवज्झाणमिव णिप्पकंपे।'' प्रश्न०५ सम्ब०द्वार। णिवसण न०(निवसन) परिधाने, ज्ञा०१ श्रु०८ उ०। विशिष्टरच-नारचिते णिवारण न०(निवारण) नितरां वारणं निवारणम्। प्रतिघाते, भ०६ श० परितः परिधाने, अनु० "महिलिअंणिवसणेणं।"अनु०॥ 33 उ०। नितरां वार्यते निषिध्यतेऽनेन शीताऽऽतपाऽऽदीनीति णिवह पुं०(निवह) सङ्घाते. विशे०। आ०म० निवारणम / सौधाऽऽदिके तथाविधे गृहे, वस्त्राऽऽदौ च / उत्त०२ अ० *गम् धा०। गतौ, "गमेरई-अइच्छाणुवजावजसोक्कुसाक्कुस "न मे निवारणं अत्थि, छवित्ता णन विजई। अहं तु अगि सेवामि, इइ पचडु-पच्छन्द-णिम्मह-णी-णीण-णीलुक्क-पदअ-रम्म-परि भिक्खून चिंतए 17 // " उत्त०२ अ०। अल्ल-दोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसे हावहराः" णिवारय त्रि०(निवारक) मैवं कार्षीरित्येवं निषेधके, ज्ञा०१ श्रु० 16 |4|162 / / इति सूत्रेण गमधातोर्णिवहाऽऽदेशोवा। 'णिवहइ पक्षे __ अ० नि 'गच्छइ / गच्छति। प्रा०४ पाद। णिवारिय त्रि०(निवारित) प्रतिषिद्धे, आव० 4 अ०। *नश् धा०। अदर्शने, "नशेणिरिणास-णिवहादसेह-पडिसासेहा णिवास पुं०(निवास) निवसने भूमिभागे, नि०१ श्रु०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०॥ वहराः" ||84178 // इति सूत्रेण णिवहाऽऽदेशः। 'णिवहई। नश्यति / णिविट्ठ त्रि०(निविष) अध्युपपन्ने, आचा०१ श्रु०४ अ०२उ०। सूत्रका ज्ञा०। प्रा०४ पाद / समृद्धौ, देवना० 4 वर्ग 26 गाथा। जीवप्रदेशेषु, भ० 13 श०७ उ०। तीव्रानुभावजनकतया स्थिते कर्माशे, णिवाअ (देशी) स्वेदे, देना०४ वर्ग 34 गाथा। प्रज्ञा०२ पद। भा णिवाइ(ण) त्रि०(निपातिन्) निपतितुं शीलमस्येति निपातीति विगृह्य | *निर्विष्ट त्रिकालब्धे, उपात्ते,"थोवं बहु णिविट्टम्मि" इत्यादौ निर्विणिनिः। निपतनं वा निपातः, सोऽस्यास्तीति निपाती। भ्रष्ट, अधःपतिते, शब्दस्य लाभार्थस्य दर्शनात्। स्था०५ ठा०२उ० संयमादसंयम प्राप्ते, "जे पुन्बुवाई णो पच्छा णिवाई, जे पुव्वुट्ठाई पच्छा णिविट्ठकप्पट्ठिइ स्त्री०(निर्विष्टकल्पस्थिति) कल्पशास्त्रोक्तसाधुणिवाई, जे णो पुव्वुट्टाई पच्छा णिवाई।' आचा०१ श्रु० 5 अ०३उ०। सामाचारीभेदे, स्था०५ ठा०२ उ०। (व्याख्या 'कम्पट्टिइ' शब्दे णिवाडे इत्ता अव्य०(निपात्य) लगयित्वेत्यर्थे , "जाणु धरिणतलसि तृतीयभागे 233 पृष्ठे दर्शिता) निहटु णिवाडेइत्ता।" जी०३ प्रति०४ उ०। णिविड त्रि०(निविड)'डो लः' / / 1 / 202 / / इत्यस्य कादाचित्कणिवाण न०(निपान) जलपानस्थाने, बृ०३उ०। त्वान्न डस्य लः। प्रा०१ पाद / सान्द्रे, वाचा णिवाय पुं०(निपात) निपतनं निपातः। आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०ा पतने, णिवित्ति स्त्री०(निवृत्ति) आरम्भनिवर्त्तने, 'न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विनाशे, पिं० निवेशने, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। नितरां न च मैथुने / प्रवृत्तिरेषा भृताना, निवृत्तिस्तु महाफला'' ||1| सूत्र०१ पातो निपातः। संयोगे, 'आयवस्स णिवारण / ' उत्त०२ अ०। श्रु० अ० "...... नियमविहूणस्स, परदारगमस्स उ। अणियत्तस्स तत्तदर्थद्योतनाय तेषु तेषु निपततीति निपातः। प्रभ०२ सम्ब० द्वार / भवे बंधो, णिवित्तीए महाफलं / / सुंघेवाण (?) निवितिं जो, मणसा विय "निपात एकाजना'' // 1:1 / 14 / / 'चादयोऽसत्वे / / 114157 / / इति विराहए। सो मओ दुग्गई गच्छे, मेघमाला जहज्जिया।' महा०६ अ०। निपातेतिसंझितेषु द्योतकत्वेनापरिमितार्थेषु चाऽऽदिषु, विशे०। ज्ञान णिवित्तिपहाण त्रि०(निवृत्तिप्रधान) आरम्भान्तरनिवर्तनसारे बहुआ०म०ा मरणे, वाचन तरसत्वधातनिवर्तनसारे, पञ्चा०७ विव०। *निवात त्रि०। वायुप्रवेशरहिते, भ०७ श०८ उ०। ज्ञा०ा "तंसिप्पेगे णिवुट्ट त्रि०(निवृष्ट) नितरां वृष्टे, “पवुट्टो देव त्ति वा निवुट्ठो देव त्ति वा णो अणगारा, हिमवाए णिवायमेसंति / ' शीतार्दिता निवातमेषयन्ति वए।" आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०१ उ०। घड्यशालाऽऽदिवसतीर्वातायनाऽऽदिरहिताः। आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। / णिवुट्टित्ता अव्य०(निर्वेष्ट्य)हापयित्वेत्यर्थे, "दिवसखेत्तस्स णिवुट्टित्ता णिवायगंभीर त्रि०(निवातगम्भीर) निवातविशाले, यद् हि गृहाऽऽदिक | रतणिक्खेत्तस्स अभिवुट्टित्ता चारं चरति।" सू०प्र०१पाहु०।
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________________ णिवुट्टेमाण 2116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वत्तणा णिवुढे माण वि०(निर्वेष्टयत्) हापयति, सू०प्र०। "विक्खंभवुट्टि पणगपरिहाणी ते गिण्हंति, जहा वा अगीतअपरिणामगाण जाणंति णिवुट्टेमाणे अट्ठारसजोयणाई परिरयवुट्टि णिवुट्टि णिवुट्टेमाणे।" सू०प्र०२ / तहा गीयत्था गेण्हेति।'' नि०चू०११ उ० पाहुन णिवेस पुं०(निवेश) नि-आधिक्येन वेशो निवेशः / प्रवेशे, नि०चू०४ णिवुड्डि स्त्री०(निवृद्धि) वातपित्ताऽऽदिभिः शरीरोपचयहानौ, स्था०। उ०। स्थापने, स्था०६ ठा०। यत्र प्रभूतानां भाण्डानां प्रवेशस्तादृशे निरशब्दस्याभावार्थत्वाद, निरुदरा कन्येत्वादिवत्। "दोण्हं गढमत्थाण स्थाने,बृका "णिवेसो सस्थाऽऽइजत्ता वा ।'निवेशो नामयत्र सार्थ निवुड्डी पण्णत्ता। तं जहा-मणुस्साणं चेय, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण आवासितः, आदिग्रहणेन ग्रामो वा, अन्यत्र प्रस्थितः सन् यत्रान्तरा चव।'' था०२ ठा०३ उ०। 'तिहिं ठाणेहि जीवाणं णिवुड्डी पण्णत्ता / तं समधिवसति, यात्रायां चागतो लोको यत्र तिष्ठति। एष सर्वोऽपि निवेश जहा-उड्डाए, अहोए, तिरियाए।" स्था०३ ठा०२ उ०। वृद्धयभावे, उच्यते बृ०१ उ। स्०प्र०१२ पाहुन णिवेसइत्ता अव्य०(निवेश्य) अवधार्येत्यर्थे, 'इत्थीण चिशंसि णिवुत्त त्रि०(निवृत्त) “निवृत्तवृन्दारके वा" ||1 / 132 / / इति ऋत निवेसइत्ता, दटुं ववस्रो समणे तवस्सी।" उत्त०३२ अ०। उत्वम् / प्रवृत्तिविमुखे, प्रा०१ पाद। णिवेसण न०(निवेशन) स्थाने, आचा०१ श्रु०५ अ०४उ०। एकद्वारे पृथक णिवे एउं अव्य० (निवेद्य) गुर्वादराख्याप्येत्यर्थे , पञ्चा०१५ विवा परिक्षिप्ते अनेकगृहे, आव०४ अायथा एकनिष्क्रमणप्रवेशानि व्यादीनि णिवेयण न०(निवेदन) गुरोः प्रत्यर्पणे, विशे०। यथा-''भवदीयोऽयं गृहाणि / बृ० १उ०। किङ्करः, यूयं मे भवोदधिनिमग्नस्य नाथाः' इत्येवं समर्पणम्। णिवेसिय अव्य०(निवेश्य) प्रवेश्येत्यर्थे , "अप्पणो अंगुलाए णिवेसिय पञ्चा०१विव०। णं णीहरइ। 'नि०चू०३उ०। णिवेयणापिंड पुं०(निवेदनापिण्ड) यक्षाऽऽदिभ्यो निवेद्यमाने पिण्डे, णिवेसियव्व त्रि०(निवेष्टव्य) स्थापनीये, 'परलोगे चित्त णिवेसयव्यं नि००। असासयं जीवियं / " आ०म०१ अ०१ खण्ड। जे भिक्खू णिवेयणापिंड भुंजइ, भुजंतं वा साइजइ॥१८७।। णिव्व (देशी) ककुदे, देना०४ वर्ग 48 गाथा। आवाइयं, अणोवाइयं वा जं पुण्णभद्वमाणिभद्दसव्वाणजक्ख णिव्वच्छण (देशी) अवतारणे, देवना० 4 वर्ग 40 गाथा। महंडिमादियाण निवेदिजति, सो णिवेयागापिंडो / सो य दुविहो णिव्वट्ट त्रि०(गाढ) अत्यर्थे "शीघ्राऽऽदीनां बहिल्लाऽऽदयः" साहुणिरताकडो, अणिस्साकडो या णिस्साकड गेण्हतस्स चउ-गुरुग, अणिस्साकडे मासलहुं, आणादिया य दोसा। ||4422 // इति गाढस्य णिव्वट्टः। "विहवे कस्स थिरतणउँ,जोव्वणि कस्स भरट्ट / सो लेखडउ पठाविअइ, जो लग्गइ णिव्वट्ट // 1 // ' गाहा प्रा०४ पाद। सव्वाणमाइयाणं, दुविहो पिंडो निवेयणाओ य। णिव्वट्टग त्रि०(निर्वर्तक) कतरि, आव०४ अ० करणे, विशेष णिस्साएँ अणिस्साए, णिस्साए आणमादीणि // 206 / / णिव्वट्टित्ता अच्य०(निर्वर्त्य) जीवप्रदेशेभ्यः शरीरं पृथक् कृत्वेत्यर्थे, सव्वाण दिया जे अरहतपक्खिया देवता, ताण जो पिंडो निवेदिञ्जति, स्था०२ ठा०४ उ०। (देशेन सर्वेण वाऽऽत्मा शरीरं निर्वर्त्य निर्यातीति, सा दुविहोणिस्साकड़मणिरसाकडोय। णिस्साकडं गेण्हते आणादिया। 'आता' शब्दे द्वितीयभागे २०१पृष्ठे उक्तम्) इमंग विधिणा णिस्साकडं करेंति। गाहा णिव्वट्टिय त्रि०(निर्वर्तित) कृते, स्था०१ ठा०। 'असंथडा ति वा, वरुगं करेउ आहा, समणाणत्थं उवक्खड भोत्तुं / बहुणिव्यट्टियफला ति वा, बहुसंभूवा ति वा।" आचा०२ श्रु०१ 04 सवाकडं ठवेति य,णिस्सापिंडम्मि सुत्तं तु // 207 // अ०२ उ०। प्रश्न दाणरुइसडो वा णिवेयणवरुववदेस कातुं साधूण देति, आधाकम्म ठवितं च / अहवा-जाव साहू अत्थंति, ताव ओवातियं देमो, सुहं साहू णिव्वड धा०(भू) पृथगभवने / "पृथक्स्पष्ट णिव्वडः" ||2|| गिण्हति, एत्थ ओसफणमीसजायठवियगदोसा / जया वा साहू इति पृथग्भूते स्पष्टे च कर्तरि भुवो णिव्वडेत्यादेशः। "णिव्वडइ"। आगमिरसंति, तदा दाहेमो / एत्थ ओसक्कणमीसजातठवियदोसा पृथग्भवतीत्यर्थः / प्रा०४ पाद / नगे, देखना०४ वर्ग 28 गाथा। सड्ढाकर शाहु णिस्साएवा कडं साहु णिस्सा वा ठवेति, एत्थ ठवियगदोसो | णिव्वण त्रि०(निर्वण) विस्फोटकाऽऽदिकृतक्षतरहिते, जं० 2 वक्ष केवलो। एसणिस्सा कडो, एत्थ सुत्तणिवातो, इमो अणिस्सातो कडो औ०। जी। साहू होउवा, मावा, देवता ते पुव्यपवत्तं ठवेति, सा य ठवितो साहू य | णिवत्त त्रि०(निवृत्त) निर्वर्तिते, स्था०६ ठा० अतिक्रान्ते, ज्ञा०१ पत्ताए सो कम्पति। श्रु०१० णिस्साकडो वि कप्पति इमेहि कारणेहि णिव्वत्तणया स्त्री० (निर्वर्तनता) निष्पत्ती, "तो निव्वत्तणया तओ असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे / परियाइणत्ता।" प्रज्ञा० 34 पद। अद्धाणरोहए वा, जयणा गहणं तु गीयत्थे।।२०५|| / णिवत्तणा स्त्री०(निर्वर्तना) इन्द्रियाणां निष्पादनायाम, उत्त०३ अ०।
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________________ णिव्वत्तणाहिगरणिकिरिया 2120 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वत्ति - णिवत्तणाहिगरणिकि रिया स्त्री०(निर्वर्तनाधिकरणिक्रिया) निर्वर्तनमसिशक्तितोमराऽऽदीनां निष्पादनं, तदेवाधिकरणक्रिया। आधिकरणिक्याः क्रियाया भेदे, भ०३ श०३उ०। स्था०। निष्ठानयने, स्था०२ ठा०१ उ० णिव्वत्ति स्त्री०(निर्वृत्ति) वस्तुनः करणे, "अन्नोन्नसमाहाणं, जमिहं करणं न णिव्वत्ती।" विशे०। निर्वर्तनं निर्वृत्तिनिष्पत्तिः। निष्पत्तौ, भ०। निवृत्तिभेदा:कइविहा णं भंते ! जीवणिवत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा जीवणिवत्ती पण्णत्ता / तं जहा-एगिदियजीवणिवत्ती०जाव पंचिंदियजीवणिव्वत्ती। एगिंदियजीवणिव्वत्तीणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा-पुढवीकाइयएगिंदियजीवणिव्वत्ती०जाव वणस्सइकाइयएगिं-दियजीवणिव्वत्ती / पुढवीकाइयएगिदियजीवणिव्वत्ती णं भंते! कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुहुमपुढवीकाइयएगिदियजीवणिव्वत्ती य, बादरपुढवीकाइयएगिदियजीवणिवत्ती य / एवं एएणं अभिलावेणं भेदा-जहा वडुगबंधे तेयगसरीरस्स०जाव सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिदियजीवणिव्वत्ती णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ? दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्तगसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव देवपंचिंदियजीवणिवत्ती य, अपज्जत्तगसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय०जाव देवपंचिंदियजी-- वणिव्वत्तीय। कइविहाणं भंते ! कम्मणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा! अट्ठविहा कम्मणिवत्ती पण्णत्ता / तं जहा-णाणावरणिज्जकम्मणिव्वत्ती०जाव अंतराइयकम्मणिव्वत्ती। णेरड्या णं भंते ! कइविहा कम्मणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! अट्ठविहा कम्मणि-- व्वत्ती। पण्णत्ता / तं जहा-णाणावरणिज्जकम्मणिव्वत्ती०जाव अंतराइयकम्मणिव्वत्ती य / एवं० जाव वेमाणियाणं / कइविहा | णं भंते ! सरीरणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा सरीरणिव्वत्ती पण्णत्ता / तं जहा-ओरालियसरीरणिवत्ती०जाव / कम्मगसरीरणिव्दत्ती / एवइया णं भंते ! एवं चेव / एवं०जाव वेमाणियाणं, णवरं णायव्यं जस्स जइ सरीराणि / कइविहा णं भंते ! सव्विंदियणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा सव्यिंदियणिवत्ती पण्णत्ता / तं जहा-सोइंदियणिव्वत्ती०जाव फासिंदियणिवत्ती। एवं णेरइया०जाव थणियकुमारा / पुढवीकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! एगा फासिंदियणिव्वत्ती पण्णत्ता। एवं जस्स जइ इंदियाणिजाव वेमाणियाणं / कइविहा णं भंते! भासाणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! चउविहा भासाणिव्वत्ती पण्णत्ता / तं जहा-सच्चभासाणिवत्ती, मोसभासाणिव्वत्ती, सचामोसमासाणिवत्ती, असच्चामोसमासाणिवत्ती / एवं एगिदियवजं जस्स जा भासान्जाव वेमाणियाणं / कइविहा णं भंते ! मणणिवत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! चउव्विहा मणणिव्वत्ती पण्णत्ता। तं जहा-सच्चमणणिव्वत्ती०जाव असच्चामोसमणणिव्वत्ती। एवं एगिदियवजं विगलिंदियवज्जंजाव वेमाणियाणं / कइविहाण भंते ! कसायणिव्वत्ती पण्णता? गोयमा! चउव्विहा कसायणिव्यत्ती पण्णत्ता / तं जहा-कोहकसायणिव्वत्ती०जाव लोभकसायणिव्वत्ती। एवं०जाव वेमाणियाणं। कइविहा णं भंते! वण्णणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा वण्णणिव्वत्तीपण्णत्ता। तं जहा-कालवण्णणिव्वत्ती०जाव सुक्किल्लवण्ण-णिव्वत्ती। एवं णिरवसेसंजाव वेमाणियाणं / एवं गंधणिव्वत्ती दुविहा० जाव वेमाणियाणं / रसणिवत्ती पंचविहाजाव वेमाणियाणं / फासणिव्वत्ती अट्ठविहाजाव वेमाणियाणं / कइविहाणं भंते ! संठाणणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! छविहा संठाणणिव्वत्ती पण्णता? तं जहा-समचउरंससंठाणणिवत्ती ०जाव हुंडसंठाणणिवत्ती / णेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! एगा हुंडसंठाणणिवत्ती पण्णत्ता / असुरकुमाराणं पुच्छा? गोयमा! एगा समचउरंससंठाणणिव्वत्ती एवं०जाव थणियकुमारा / पुढवीकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! एगा मसूरचंदसंठाणणिव्वत्ती पण्णत्ता / एवं जस्स जं संठाणं०जाव वेमाणिया। कइविहा णं भंते ! सण्णाणिव्वत्ती पण्णता? गोयमा ! चउट्विहा सण्णाणिवत्ती पण्णत्ता / तं जहा-आहारसण्णाणिवत्ती०जाव परिग्गहसण्णाणिव्वत्ती। एवं०जाव वेमाणिया। कइविहाणं भंते ! लेस्साणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! छव्दिहा लेस्साणिवत्ती पण्णत्ता / तं जहा-कण्हलेस्साणिवत्ती०जाव सुक्कलेस्साणिव्वत्ती। एवं०जाव वेमाणिया जस्स जइ लेस्साओ तस्स तत्तिया भाणियव्व। कइविहाणं भंते ! दिट्ठिणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा दिद्विणिव्यत्ती पण्णत्ता / तं जहा-सम्मदिद्विणिव्वत्ती, मिच्छादिट्ठिणिव्वत्ती, सम्मामिच्छादिट्ठिणिवत्ती एवंजाव वेमाणिया, जस्स जइविहा दिट्ठी कइविहा णं भंते ! णाणणिवत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा णाणणिवत्ती पण्णत्ता। तं जहा-आभिणिबोहियणाणणिवत्ती०जाव केवलणाणणिव्वत्ती। एवं एगिदियवजंजाव वेमाणिया जस्स जइ णाणा / कइविहा णं भंते ! अण्णाणणिव्वत्ती पण्णत्ता गोयमा ! तिविहा अण्णाणणिव्वत्ती पण्णत्ता / तं जहा-मइ-अण्णाणणिवत्ती, सुअअण्णाणणिव्वत्ती, विभंगणाण-णिवत्ती। एवं
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________________ णिव्वत्ति 2121 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वाण जस्स जइ०जाव वेमाणिया / कइविहा णं भंते ! जोगणिव्वत्ती, चं०प्र०१८ पाहु०१ पाहु०। सू०प्र०। पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-मणजोगणि- | णिव्वाघाय अव्य०(निाघात) व्याघातस्याभावो निर्व्याघातम्। व्वत्ती, वइजोगणिव्वत्ती, कायजोगणिव्वत्ती। एवं०जाववेमाणिया व्याधाताभावे, प्रज्ञा०२ पद। "णिव्वाधाएणं पन्नरसकम्मभूमीसु।" जस्स जइविहो जोगो। कइविहा णं भंते ! उवओ-गणिव्वत्ती प्रज्ञा०२ पद / धरणीधराऽऽदिभिः प्रतिहतत्वात् (स्था०६ ठा०) पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा उवओगणिव्वत्ती पण्णत्ता। तं जहा- कटकुड्याऽऽद्यप्रतिहतत्वाव्याघातरहिते केवलज्ञाने, औ०। दशा०। सागारोवओगणिव्वत्ती, अणागारोवओगणिवत्ती / एवं०जाव णिव्वाण न०(निर्वाण) निर्वृतौ, विशे०। उत्त०। पञ्चा०। आ०चू०। सूत्र०। वेमाणिया। आत्मस्वास्थ्ये, आ०चू०४ अ01 आचा०। आव०। कर्मकृतअत्र संग्रहणीगाथे वाचनान्तरे विकाररहितत्वे, स्था०३ ठा०३ उ०। सकलसंतापरहितत्वे, औ०। "जीवाणं णिव्वत्ती, कम्मप्पगडी(णिव्वत्ती) सरीरणिव्वत्ती। सर्वद्वन्द्वोपरतिभावे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उसकलकर्मविरहजे सुखे, सव्विंदिणिव्वत्ती, भासा य मणे कसाया य // 1|| ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। सकलकर्मक्षयजे आत्यन्तिके सुखे, औ०। वण्णे गंधे रसें फासे, संठाणविही य होइ बोधव्यो। अशेषकर्मक्षयरूपे (सूत्र 01 श्रु०६ अ०ा आचा०) मोक्षे, ध०२ अधि०। लेस्सा दिट्ठी णाणे, उवओगो होइ जोगे य"|२|| प्रश्न०। आतुणसूत्र०। परमपदे, षो० 15 विवाघातिकर्मचतुष्टयरूपेण (कइविहेत्यादि) निर्वर्तनं निर्वृत्तिनिष्पत्तिर्जीवस्यैकेन्द्रियाऽऽदितया कर्मक्षयेण केवलज्ञानावाप्तौ, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। मोक्षपदशेषे निर्वृत्तिजीवनिर्वृत्तिः। (जहा वड्डगबंधेतेयगसरीरस्स त्ति) यथा महल्ल कर्मक्षयरूपे ईषत्प्रारभाराऽऽख्ये भूभागोपर्यवस्थितक्षेत्रखण्डे, सूत्र०२ बन्धाधिकारेऽष्टमशतकनवमोद्देशकाभिहिते तेजः शरीरस्य बन्ध उक्तः, श्रु०२ अ० एवमिह निर्वृत्तिर्वाच्याः, सा च तत एव दृश्येति। पूर्व जीवापेक्षया मोक्षसिद्धिःनिर्वृत्तिरुक्ता, अथ तत्कार्यतद्धर्मापेक्षया तामाह-(कइविहेत्यादि) ते पव्वइए सोउं, पहासों आगच्छई जिणसयासं। (कसायणिव्वत्ति त्ति) कषायवेदनीयपुद्गलनिर्वर्तनम्। (जस्स जं संठाणं वचामिण वंदामी, वंदित्ता पछ्वासामि / / 1672 / / ति) तत्राप्कायिकानां स्तिवुकसंस्थानं, तेजसा सूचीकलापसंस्थानं, सुगमा / / 1672 // वायूनां पताकासंस्थानं, वनस्पतीनां नानाऽऽकारसंस्थानं, विकलेन्द्रि ततः किमित्याहयाणा हुण्डम्, पश्शेन्द्रियतिरश्चां, मनुष्याणां च षड्यन्तराऽऽदीनां समच आभट्ठो य जिणेणं, जाइजरामरणविप्पमुक्केणं। तुरस्रसंस्थानम्। भ० 16 श०८उ०। नामेण य गोत्तेण य, सव्वण्णु सव्वदरिसीणं / / 1973 / / णिव्वत्तिय त्रि०(निर्वर्तित) बन्धयोग्यता निष्पादिते, स्था० 10 ठा०। तथैव // 1673 // सामान्येनोपार्जिते, स्था०२ ठा०४उ०। आभाष्य ततः किमुक्तोऽसावित्याहणिव्वमिअ (देशी) परिभुक्ते, देवना०४ वर्ग 36 गाथा। किं मन्ने प्रणेव्वाणं, अस्थी नस्थि त्ति संसओ तुज्झ? णिव्वय त्रि०(निर्वत) अविरते, स्था०३ ठा०१उ०। प्राणातिपाता वेयपयाण य अत्थं, न याणसी तेसिमो अत्थो / / 1674|| ___ऽऽद्यनिवृत्ते, स्था०३ ठा०२उ०। अणुव्रतरहिते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०॥ हे आयुष्मन् ! प्रभास ! त्वमेवं मन्यसे किं निर्वाणमस्ति, न वा? इति। णिव्वयण न०(निर्वचन) निरुक्तौ, विशे०। शब्दार्थकथने, आ०म० अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रवणनिबन्धनः। तानि चामूनि १अ०२ खण्ड।व्याकरणे, स्था०१० ठा०॥ वेदपदानि-"जरामर्थ वैतत्सर्वं यदग्निहोत्रम् / " तथा- 'सैषा गुहा णिव्वलिअ (देशी) जलधौते, प्रविगणिते, विघटिते च / दे०ना० 4 वर्ग दुरवगाहा।' तथा 'द्वे ब्रह्मणी परमपरं च।" तत्र 'परं सत्यं ज्ञानमनन्तरं 51 गाथा। ब्रह्मेति"एतेषां चायमर्थस्तव चेतसि वर्ततेयदेतदग्निहोत्रं तज्जरामर्यमेव णिव्वह धा०(पिष) पेषणे, "पिषेर्णिव्वह-णिरिणास-णिरिणज-रोश यावजीवं कर्त्तव्यमिति। अग्निहोत्रक्रिया च भूतवधहेतुत्वाच्छवलरूपा। चड्डाः"||४|१८|| इति पिषेर्णिव्वहाऽऽदेशः। णिव्वहइ।' पिनष्टि। सा च स्वर्गफलैव स्यान्नापवर्गफला। 'यावज्जीवम्' इतिचोक्ते कालान्तरं प्रा०४ पाद / 'णिव्वहेएजा।'निर्वह येत्, असारतामापादयेत्। सूत्र०१ नास्ति, यत्रापवर्गहेतुभूतक्रियाऽन्तराऽऽरम्भः स्यात्तस्मात्साधनाभावाशु०६ अग न्मोक्षाभावः। ततश्चेत्यादिकानि किल मोक्षाभावप्रतिपादकानि। शेषाणि णिव्वहण (देशी) विवाहे, दे०ना० 4 वर्ग 36 गाथा। तु तदस्तित्वसूचकानि, यतो गुहाऽत्र मुक्तिरूपा, सा च संसाराभिनन्दिना णिव्वा धा०(विश्रम) वि श्रम विरामे, श्रमान्ते, स्वास्थ्ये, "विश्रम- दुरवगाहा, दुःप्रवेशात् / तथा-परं ब्रह्म सत्यं मोक्षः, अनन्तरं तु र्णिव्वा"||८१४/१५६।। इति विपूर्वस्य श्रमधातोर्णिव्वा-ऽऽदेशः। ब्रह्मज्ञानमिति / ततो मोक्षास्तित्वं नास्तित्वं च वेदपदप्रतिपादित‘णिव्वाइ' / पक्षे–'वीसमइ' विश्राम्यति। प्रा०४ पाद। मवगम्य तव संशयः। तत्रैषां वेदपदानामर्थं त्वं न जानासि, यतस्तेषाणिव्वाघाइम त्रि०(नियाघांतिम) व्याहननं व्याघातः पर्वताऽऽ- मयमों वक्ष्यमाणलक्षण इति॥१६७४||युक्तिमपि मोक्षाभावप्रतिपादने दिस्खलनम्, तेन निर्वृत्तं व्याघातिमम्। ''भावादिमन्"॥६॥४।२१।। प्रभासाध्यवसितां दूषयितुं भगवान् प्रकटयितुमाहइति इमन् प्रत्ययः / निर्व्याघातिम व्याघातान्निर्गताम् / स्वाभाविके, | मन्नसि किं दीवस्स व, नासो निव्वाणमस्स जीवस्स?
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________________ णिव्वाण 2122 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वाण दुक्खक्खयाइरूवा, किं होज व से सओऽवत्था? ||1975|| आयुष्मन् ! प्रभास ! त्वमेवं मन्यसे-किं दीपस्येवास्य जीवस्य नासो ध्वंस एव निर्वाणम् ? यथाऽऽहुः सौगतविशेषाः केचित्। तद्यथा"दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काश्चिद्विदिशं न काञ्चित्, स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् // 1 // जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्, क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् // 2 // इति। किं वा यथा जैनाः प्राऽऽहुः तथा निर्वाणं भवेत्? किं तदित्याह- सतो विद्यमानस्य जीवस्य विशिष्टा काचिदवस्था। कथं भूता? रागद्वेषमदमोहजन्मजरारोगाऽऽदिदुःखक्षयरूपा। उक्तं च- "केवलसंविदर्शनरूपाः सर्वार्तिदुःखपरिमुक्ताः। मोदन्ते मुक्तिगताः, जीवाः क्षीणाऽऽन्तरारिगणाः // 1 // " इति // 1675|| प्रकारान्तरेणापि संशयकारणमाहअहवाऽनाहत्तणओ,खस्स व किं कम्मजीवजोगस्स? अविओगाओ न भवे, संसाराभाव एव त्ति / / 1676|| अथवा त्वमेवं मन्यसे-नूनं संसाराभाव एव न भवेत् / कुतः? अवियोगाद्वियोगायोगात् / कस्य? कर्मजीवयोः संयोगस्य / कुतः? अनादित्वात्, खस्येव / इह ययोरनादिः संयोगस्तयोवियोगो नास्ति, यथा जीवाऽऽकाशयोः / अनादिश्च जीवकर्मणोः संयोगः। ततो वियोगानुपपत्तिः / ततश्च न संसाराभावः / तथा च सति कुतो मोक्षः? इति / / 1676|| अथ प्रत्यासत्तेरेवानन्तरोक्तस्यैव प्रतिविधा नमाहपडिवज्ज मंडिओ इव, विओगमिह कम्मजीवजोगस्स। तमणाइणो वि कंचण-धाऊण व णाणकिरियाहिं / / 1977|| (अणाइणो वित्ति) अनादेरपि जीवकर्मसंयोगस्य (तमिति) त्वं प्रतिपद्यस्व वियोग, बन्धमोक्षवादे मण्डिकवत्। कयोरिव यो वियोगः? काञ्चनधातुपाषाणयोरिव। किं निर्हेतुष्क एव जीवकर्म–णोर्वियोगः? न, इत्याह-ज्ञानक्रियाभ्याम् / इदमुक्तं भवति-नाय-मेकान्तो यदनादिसंयोगो न भिद्यते, यतः काञ्चनधातुपाषाणयोर-नादिरपि संयोगोऽग्न्यादिसंपर्केण विघटत एव, तद्वजीवकर्मसंयोगस्याऽपि सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां वियोग मण्डिकवत् त्वमपीह प्रतिपद्यस्वेति ||1677|| अथ प्रकारान्तरेणाऽपि मोक्षाभावप्रतिपादकं प्रभा साभिप्रायं भगवान् प्रकटयितुमाहजं नारगाइभावो, संसारो नारगाइभिण्णो य। को जीवो तं मन्नसि, तन्नासे जीवनासो त्ति // 1978|| यद्यस्मानारकतिर्यनरामरभाव एव नारकाऽऽदित्वमेव संसार उच्यते, नान्यः, नारकाऽऽदिपर्यायभिन्नश्च कोऽन्यो जीवः? न कोऽपीत्यर्थः / नारकाऽऽदिभावादन्यत्वेन कदाचिदपि जीवस्यानुपलम्भादिति भावः। ततस्तन्नाशे नारकाऽऽदिभावरूपसंसारनाशे जीवस्य स्वस्वरूपनाशात्सर्वथा नाश एव भवति, ततः कस्याऽसौ मोक्षः? इति त्वं मन्यसे? / / 1678|| तदेतदयुक्तम्। कुतः? इत्याहन हि नारगाइपज्जा-यमेत्तनासम्मि सव्वहा नासो। जीवद्दव्वस्स मओ, मुद्दानासे व हेमस्स / / 1976|| कम्मकओ संसारो, तन्नासे तस्स जुज्जए नासो। जीवत्तमकम्मकयं, तन्नासे तस्स को नासो ? / / 1680|| नारकतिर्यगादिरूपेण यो भावः स जीवस्य पर्याय एव, न च पर्यायमात्रनाशे पर्यायिणो जीवद्रव्यस्यापि सर्वथा नाशो मतः, कथञ्चित्तु भवत्यपि। न हि मुद्राऽऽदिपर्यायमात्रनाशे हेम्नः सुवर्णस्य सर्वथा नाशो दृष्टः / ततो नारकाऽऽदिसंसारपर्यायनिवृत्तौ मुक्तिपर्यायान्तरोत्पत्तिजीवस्य, मुद्रापर्यायनिवृत्तौ कर्णपूरपर्यायान्तरोत्पत्तिरिव सुवर्णस्य, न किञ्चिद्विरुध्यत इति / ननु यथा कर्मणो नाशे संसारो नश्यति, तथा तन्नाशे जीवत्वस्यापि नाशान्मोक्षाभावो भविष्यति? एतदप्यसारम् / कुतः ? इत्याह-(कम्मकओ इत्यादि) कर्मकृतः कर्मजनितः संसारः, ततस्तन्नाशे कर्मनाशे तस्य संसारस्य नाशो युज्यत एव, कारणाभावे कार्याभावस्य सुप्रतीतत्वात्। जीवत्वं पुनरनादिकालप्रवृत्तत्वात्कर्मकृतं न भवत्यतस्तन्नाशे कर्मनाशे तस्य जीवस्य को नाशः? न कश्चित् / कारणव्यापकयोरेवकार्यव्याप्यनिवर्तकत्वात्, कर्म तुजीवस्यन कारणं, नापि व्यापकमिति भावः / / / 1676 1680|| इतश्च जीवो न विनश्यति; कुतः? इत्याहन विगाराणुवलंभा-दागासं पि व विणासधम्मो सो। इह नासिणो विगारो,दीसइ कुंभस्स वाऽवयवा।।१६८१।। न विनाशधा जीव इति प्रतिज्ञा। विकारानुपलम्भादिति हेतुः। इह यो विनाशी तस्य विकारो दृश्यते / यथा मुद्गराऽऽदिध्वस्तस्य कुम्भस्य कपाललक्षणा अवयवाः; यस्त्वविनाशी न तस्य विकारदर्शनम्, यथा आकाशस्येति। ततो मुक्तस्य जीवस्य नित्यत्वान्नित्यो मोक्ष इति // 1681 // स्यान्मतिः, तर्हि प्रतिक्षणध्वंसी मोक्षो मा भूत, कालान्तरविनाशी तु भविष्यति, कृतकत्वात्, घटवत्। तदयुक्तम्, घटप्रध्वंसाभावेनानै-- कान्तिकत्वादिति दर्शयन्नाहकालंतरनासी वा, घडो व्व कयगाइओ मई होज्जा। नो पद्धंसाभावो, भुवि तद्धम्मा वि जं निचो // 1952 // अत्र प्रेर्य परिहारं चाऽऽहअणुदाहरणमभावो, खरसिंग पि व मई न तं जम्हा। कुंभविणासविसिट्ठो, भावो चिय पोग्गलमओ सो॥१६८३|| यद्वा-कृतकत्वं मोक्षस्याभ्युपगम्योक्तम्, इदानीं तदेव तस्य नास्तीति सोदाहरणमुपदर्शयन्नाहकिं वेगतेण कयं, पोग्गलमेत्तविलयम्मि जीवस्स। किं निव्वत्तियमहियं, नभसो घडमेत्तविलयम्मि।।१९८४|| अनुमानात्पुनरपि मुक्तस्य नित्यत्वं साधयतिदव्वामुत्तत्तणओ, मुत्तो निचो नभं व दव्वतया। नणु विभुयाइपसंगो, एवं सइ नाणुमाणाओ / / 1955||
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________________ णिव्वाण 2123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वाण नित्यो मुक्ताऽऽत्मा,द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वात् : (दव्वतय त्ति) यथा द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वान्नित्यं नमः / आह-नन्वनेन दृष्टान्तेन व्यापकत्वाऽऽद्यपि सिध्यति जीवस्य / तथाहि-विभुयापकः सर्वगतो जीवः, द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वात्, यथा नभः / तदेतन्न / कुतः? सर्वगतत्वबाधकानुमानसद्भावात् / तथाहि-त्वपर्यन्तदेहमात्रव्यापको जीवः तत्रैव तद्गुणोपलब्धेः, स्पर्शनवत्, इत्यनुमानाबाध्यते सर्वगतत्वं जीवस्य। एवं "न बध्यते, नापि मुच्यते जीवः,द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वात, नभोवद्" इत्याद्यपि दूषणं, "बध्यते पुण्यपापकर्मणा जीवः, दानहिंसाऽऽदिक्रियाणां सफलत्वात्, कृष्यादि-क्रियावत्, तथा विघटते सम्यगुपायात्कोऽपि जीवकर्मसंयोगः, संयोगत्वात, काञ्चनधातुपाषाणसंयोगवद्'' इत्याद्यनुमानात्परिहर्तव्यमिति // 1985 / / अथवा-किमेकान्तेनबद्धाऽऽग्रहर्मोक्षस्य नित्यत्वं साध्यते, सर्वस्याऽपि वस्तुतः परमार्थतो नित्यानित्यरूपत्वात्? उत्कटानुत्कटपर्यायविशेषविवक्षामात्रेणैव हि केवलम्' इत्यादिव्यपदेश इति दर्शयन्नाहको वा निचग्गाहो, सव्वं चिय विभवभंगठिइमइयं / पजायंतरमेत्तप्पणादनिच्चाइववएसो।।१९८६॥ अथ कथञ्चिदनित्यत्वेऽपि मोक्षस्य न किञ्चिद् नः सूयत इति भावः / इह "कालतरनासी वा धडो व्व" इत्यादिगाथाः प्रागपि षष्ठगणधरे बन्धमोक्षविचारे व्याख्याता एव / ततो यदिह न व्याख्यातं, तत्ततो (ग्रन्थतो)ऽवगन्तव्यमिति।।१६८६|| अथ प्रथमपक्षे यदुक्तम्- 'किं दीवस्सव नासो निव्वाणं' (1975) इत्यादि। तत्रोत्तरमाहन य सव्वहा विणासो-ऽणलस्स परिणामओ पयस्सेव। कुंभस्स कवालाण व, तहाविगारोवलंभाओ // 1987|| न प्रदीपानलस्य सर्वथा सर्वप्रकारैर्विनाशः, परिणामत्वात, पयसो दुग्धस्येव / अथवा-यथा मुद्गराऽऽद्याहतस्य कपालतया परिणतस्य घटस्य, यथा वा चूर्णिकृतानां कपालानाम् / कुतो न सर्वथा विनाशः? इत्याह तथा तेन रूपान्तरप्रकारेण विकारस्य प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणोपलम्भादिति / / 1687|| अथ प्रेर्य , परिहारं चाऽऽहजइ सव्वहान नासो-ऽणलस्स किं दीसएन सो सक्खं? परिणामसुहुमयाओ, जलयविगारंजगरउ व्व / / 1688| यदि सर्वथाऽनलस्य न नाशस्तर्हि विध्यातानन्तरं किमित्यसो साक्षान्न दृश्यते? अत्रोत्तरमाह-(परिणामेत्यादि) विध्याते प्रदीपेऽनन्तरमेव तामसपुगलरूपो विकारः समपलभ्यत एव, चिरं चासो पुरस्ताद्यनोपलभ्यते, तत्सूक्ष्मसूक्ष्मतरपरिणामभावात्। तथाहि-विशीर्यमाणस्य जलदस्यापि यः कृष्णाभ्रपुद्गलविकारः स परिणामसौक्ष्म्यान्नोपलभ्यते। तथाऽजनस्यापि पवनेन हियमाणस्य यदुत्कृष्टरज उड्डीयते, तदपि परिणामसौक्षम्यान्नोपलभ्यते, न पुनरसत्त्वादिति / / 1688 / / चित्ररूपश्च पुद्गलपरिणाम इति दर्शयन्नाहहोऊण इंदियंतर-गज्झा पुणरिदियंतरग्गहणं / खंधा एंति न एंति य, पोग्गलपरिणामया चित्ता // 1986|| इह सुवर्णपत्रलवणसुण्ठीहरीतकीचित्रक गुमाऽऽदयः स्कन्धाः | पूर्वमिन्द्रियान्तरग्राह्याश्चक्षुरादीन्द्रियविषया भूत्वा पुनद्रव्यक्षेत्रका.. लाऽऽदिसामग्रयन्तरं प्राप्य पुद्गलपरिणामवैचित्र्यादिन्द्रियान्तरग्रहण स्पर्शनरसनाऽऽदीन्द्रियग्राह्यतामायान्ति / तथाहि-सुवर्ण पत्रीकृत चक्षाा भूत्वा शोधनार्थमग्नौ प्रक्षिप्तं भस्मना मिलितं सत्स्पर्शनन्द्रियग्राह्यतामेति, पुनः प्रयोगेण भस्मनः पृथक् कृतं चक्षुर्विषयतामुपगच्छति। लवणसुण्टीहरीतकीचित्रकगुडाऽऽदयोऽपि प्राक् चक्षुरिन्द्रियग्राह्या भूत्वा पश्चात्सूपाऽऽद्यन्ते बहौषधसमुदाये च छाथचूर्णावलेहाऽऽदिपरिणाभान्तरमापन्नाः सन्तो रसनेन्द्रियसंवेद्या भवन्ति। कर्पूरकस्तूरिकाऽ5दीनामपि पुद्गलाश्चक्षुर्गाह्या अपि वायुना दूरमुपनीताघ्राणसंवेद्या भवन्ति / योजननवकात्तु परतो गतास्तथाविधं कशित्सूक्ष्मपरिणाममापन्ना नैकस्याऽपीन्द्रियस्य विषयता प्रतिपद्यन्ते इति। अनया दिशाऽन्याऽपि पुद्गलपरिणामता चित्रा भावनीयेति // 1686|| अथास्यैव पुद्गलपरिणामवैचित्र्यस्य प्रस्तुते योजनार्थमाह-- एगेगेंदियगज्झा, जह वा दव्वादयो तहा गेया। होउं चक्खुग्गज्झा, घाणिंदियगज्झयामेंति॥१६६०।। वायुः स्पर्शनन्द्रियस्यैव ग्राह्यः, रसो रसनस्यैव, गन्धो घाणस्यैव, रूपं चक्षुष एव, शब्दस्तु श्रोत्रस्यैव ग्राह्यः। तदेवं यथा वाय्वादयः पुद्रला एकैकस्य प्रतिनियतस्येन्द्रियस्य ग्राह्या भूत्वा पश्चात्परिणामान्तरं किमप्यापन्ना इन्द्रियान्तरग्राह्या अपि भवन्तीति स्वयमेव गम्यते, तथा प्रस्तुता अपि प्रदीपगता आग्नेयाः पुद्गला-श्वक्षुाह्या भूत्वा पश्चाद्विध्याते तस्मिन प्रदीप त एव तामसीभूताः सन्तो घ्राणेन्द्रियग्राह्यतामुपयान्ति, तत्किमुच्यते?''किं दीसएनसोसक्खंति'' (1688) ननुघ्राणेन्द्रियेणोपलभ्यते एव विध्यातप्रदीपविकार इति // 1660|| यद्येवं, ततः प्रस्तुते किमित्याहजह दीवो निव्वाणो, परिणामंतरमिओ तहा जीवो। भण्णइ परिनिव्वाणो, पत्तोऽणावाहपरिणामं / / 1961|| यथाऽनन्तरोक्तस्वरूपपरिणामान्तरं प्राप्तः प्रदीपो 'निर्वाणः' इत्युच्यते, तथा जीवोऽपि कर्मविरहितकेवलामूर्तजीवस्वरूपभावलक्षणमबाध परिणामान्तरं प्राप्तो निर्वाणो निवृति प्राप्त उच्यते। तस्माद्दुःखाऽऽदिक्षयरूपा सतोऽवस्था निर्वाणमिति स्थितम् / / 1661!! तर्हि शब्दाऽऽदिविषयोपभोगाभावान्निःसुख एवायमिति चेत्। नैवम् / कुतः? इत्याह-- मुत्तस्स परं सोक्खं, णाणाणावाहओ जहा मुणिणो। तद्धम्मा पुण विरहा-दावरणाऽऽवाहहेऊणं / / 1662 / / मुक्तस्य जन्तोः परं प्रकृष्टमकृत्रिमममिथ्याभिमानजं स्वाभाविक सुखमिति प्रतिज्ञा / (णाणाणावाहउ त्ति) ज्ञानप्रकर्ष सति जन्मजराव्याधिमरणेष्टवियोगारतिशोकक्षुत्पिपासाशीतोष्णकामक्रोधमदशाठ्यतृष्णारागद्वेषचिन्तौत्सुक्याऽऽदिनिःशेषाबाधविरहितत्वादिति हेतुः / तथाविधप्रकृष्टमुनेरिव / यथोक्ताबाधरहितानि काष्ठादीन्यपि वर्तन्ते, परं तेषां ज्ञानाभावान्न सुखम्, अतस्तद्-व्यवच्छे दार्थ ज्ञानग्रहणम्। कथं पुनरसौ प्रकृष्टज्ञानवान्, आबाधरहितश्च? इत्याह(तद्धम्मेत्यादि) तद्धर्मा प्रकृष्टज्ञानानाबाधवान् मुक्ताऽऽत्मा। कुतः? विरहाद्अभावात्। केषाम्? आवरणहेतूनामाबाधहेतूनांच। एतदुक्तं भवतिक्षीणनिः
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________________ णिव्वाण 2124 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वाण शेषाऽऽवरणत्वात् प्रकृष्ट ज्ञानवानसौ, वेदनीयकर्माऽऽदीना च सर्वेषामप्याबाधहेतूनां सर्वथाऽपगमात्सर्वाऽऽबाधरहितोऽयमिति / प्रयोगः स्वाभाविके न स्वेन प्रकाशेन प्रकाशवान्मुक्ताऽऽत्मा, समस्तप्रकाशाऽऽवरणरहितत्वात, तुहिनांशुवत्। तथा चाऽऽह-"स्थितः शीतांशुवज्जीवः,प्रकृत्या भावशुद्धया / चन्द्रिकावच विज्ञानं, तदावरणमभ्रवत्" / / 1 / / इति / तथा-अनाबाधसुखो मुक्ताऽऽत्मा, समस्ताबाधहेतुरहितत्वात्, ज्वराऽऽद्यपगमे स्वच्छाऽऽतुरवत् / तथा चोक्तम्-"सव्याबाधाभावात्सर्वज्ञत्वाच भवति परमसुखी। व्याबाधाभावोऽत्र, स्वच्छस्य ज्ञस्य परमसुखम्" // 1 // इति // 1662 // अपरस्त्वाहमुत्तो करणाभावा-दण्णाणी खं व नणु विरुद्धोऽयं / जमजीवया वि पावइ, एत्तो चिय भणइतन्नाम / / 1963|| नन्वज्ञानी मुक्ताऽऽत्मा, करणाभावाद्, आकाशवत् / अत्राऽऽ-चार्यः प्राऽऽह-ननु धर्मिस्वरूपविपरीतसाधनद्विरुझोऽयं हेतुः। तथाहिअनेनैतदपि सिध्यति-अजीवो मुक्ताऽऽत्मा. करणाभावात्, आकाशवत्। अत्र परः सोत्कर्ष भणति-(तन्नाम त्ति) नामे-त्यभ्यनुज्ञायाम्अस्त्वेतत्, न नः किमपि सूयते? न हि मुक्ताऽऽत्मनामजीवत्वेऽस्माक, किञ्चिन्नश्यति, येन हेतोर्विरुद्धता प्रेय माणा शोभेत। अत्राऽऽह कश्चित्ननु मुक्तस्याजीवत्वमार्हतानामप्यनिष्टोव , ततश्चैतदूषणमाचार्येणाऽपि परिहर्त्तव्यमेव, यचाऽऽत्मनोऽपि दूषणं समापपति तत्कथं परस्यैवैकस्योद्भाव्यते? सत्यमेतत्। किन्तु परशक्तिपरीक्षार्थ प्रेर्यमाचार्यः कृतवान, कदाचित्क्षोभाद् विगलितप्रतिभः परोऽत्रापि प्रतिबिधाने स्खलितस्तू-ष्णी विदध्यात्।परमार्थतस्तुजीवस्याऽजीवत्वं कदाचिदपिन भवत्येव।।१६६३|| कुतः ? इत्याहदव्याऽमुत्तत्त सहा-वजाइओ तस्स दूरविवरीयं / न हि जचंतरगमणं, जुत्तं नभसो व्व जीवत्तं ||1964|| तस्य मुक्ताऽऽत्मनो हि यस्मात् कारणान्न युक्तमिति संबन्धः। किं तन्न युक्तम् ? इत्याह-एकस्या जीवत्वलक्षणाया जातेर्यदजीवत्वलक्षणं जात्यन्तरतत्र गमनं जात्यन्तरगमन, तन्न युक्तम्। कथंभूतं जात्यन्तरम्? इत्याह--दूरमत्यर्थं विपरीतं दूर विपरीतम्। कस्या दूरविपरीतम्? इत्याह-(सहावजाईओ त्ति) जीवत्वलक्षणायाः स्वाभाविकी स्वभावभूताजातिः स्वभावजातिः, तस्याः। किंवत्या स्वभावजातिः? इत्याहउपमानप्रधानत्वान्निद्देशस्य, द्रव्याऽमूर्तत्ववदिति द्रव्यत्ववदमूर्तत्ववचेत्यर्थः / स्वभावजातेर्दूरविपरीतं सत् कस्य यथा कि न युक्तम्? इत्याह-नभस इव जीवत्वम् / इदमत्र हृदयम्-द्रव्यत्वम्,अमूर्तत्वं च जीवस्य तावत्स्वभावभूता जातिः, तस्याश्च यद्दूरविपरीतजात्यन्तरमद्रव्यत्वम्, अमूर्तत्वं च, तत्र गमनं तस्य कस्यामप्यवस्थायां न भवति। एवं जीवत्वमपि जीवस्य स्वभावभूतैव जातिः, ततस्तस्या अपि स्वभावजातेर्यद् दूरविपरीतमजीवत्वलक्षणं जात्यन्तर तत्र गमनं मुक्तावस्थायामपि तस्य न युज्यते। न ह्यजीवस्यसतो नभसः कदाचिदपि जीवत्वाप्राप्तिर्भवति / तस्मान्मुक्तो जीवो यथाऽद्रव्य मूर्तश्च न भवति, तद्विपक्षस्वभावत्वात्, एवं जीवस्वाभाव्यादजीवोऽप्यसौ कदाचिदपि न भवति; अन्यथा नभःपरमाण्वादीनामपि स्वस्वभावत्यागेन वैपरीत्या पत्त्याऽतिप्रसङ्गादिति। अत्राऽऽह- यद्येयं, तर्हि यद्भवतैवोक्तम्- ''अजीवो मुक्ताऽऽत्मा, करणाभावाद्, आकाशवद्" इति, तत्कथं नेतव्यम्? अत्रोच्यते-परस्य प्रसङ्गाऽऽपादनमेव तदस्माभिः कृतम्, तत्करणे च कारणभुक्तमेव, न पुनरनेन हेतुना मुक्तस्याजीवत्वं सिद्ध्यति, प्रतिबन्धाभावात् / तथाहि-यदि करणैर्जीवत्वं कृतं भवेत्, यथा दहनेन धूमः, व्यापकानि वा जीवत्वस्य करणानि यदि भवेयुः, यथा शिंशपाया वृक्षत्वम्, तदा करणनिवृत्तौ भवेज्जीवत्वनिवृत्तिः, यथाऽनिवृक्षत्वनिवृत्ती धूमशिंशपात्वयोः, न चैतदस्ति। जीत्वस्यानादिपारिणामिकभावरूपत्वेनाकृतकत्वात् / व्याप्यव्यापकभावोऽपीन्द्रियाणां शरीरेणैव सह युज्यते, उभयस्यापि पौद्गलिकत्वात्। न तु जीवत्वेन, जीवस्यामूर्तत्वेनात्यन्तं तद्विलक्षणत्वात् / तस्मात्करणनिवृत्तावप्यनिवृत्तमेव मुक्तस्य जीवत्वमिति / 1664|| आह-यद्येवम्, 'अज्ञानी मुक्ताऽऽत्मा, करणाभावाद्, आकाशवद्' इत्यत्र धर्मिस्वरूपविपरीतसाधनाद्या हेतोर्विरुद्धतोद्भतोद्भाविता, सा न भवद्भिरपि परिहृता, अतस्तत्रान्यत्किमप्युत्तरमुच्यतामित्याशक्याऽऽहमुत्ताऽऽइभावओ नो-वलद्धिमंतिंदियाइँ कुंभो व्व। उवलंभधाराणि उ, ताई जीवो तदुवलद्धा / / 1665|| तदुवरमे विसरणओ, तव्वावारे वि नोवलंभाओ। इंदियभिन्नो आया, पंचगवक्खोवलद्धा वा / / 1666|| अनयोख्यिा पूर्ववत्, केवलं प्रस्तुते भावार्थ उच्यते यदीन्द्रियाण्युपलब्धिमन्ति भवेयुस्तदा तन्निवृत्तावप्युपलब्धिनिवृत्तिर्भवेत्, न चैतदस्ति, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां जीवसयोपलब्धिमत्त्वनिश्चयादिति ||1665||1666|| स्वभावभूतं च ज्ञानं जीवस्य, इति कथं करणनिवृत्ती मुक्तस्य तन्निवर्तत इति दर्शयन्नाहनाणरहिओ न जीवो, सरूवओऽणु व्य मुत्तिभावेणं / जं तेण विरुद्धमिदं, अत्थिय सो नाणरहिओ य॥१६६७|| यद्यस्माज्ज्ञानरहितो जीवः कदाचिदपि न भवति, ज्ञानस्य तत्स्वरूपत्वात्, यथा मूर्तिभावेन रहितोऽणुर्न भवति, तेन तस्मात्कारणाद्विरुद्धमेतद्-''अस्ति चासौ मुक्तो जीवः, अथ च स ज्ञानरहितः" इति / न हि स्वरूपस्याभावे स्वरूपवतोऽवस्थानं युज्यते, तव्यतिरिक्तस्य तस्यासत्त्वात्, तथा चानन्तरमेवोक्तम्- "न हि हि जचंतरगमणं, जुत्त नभसो व्व जीवत्तं / " (1664) इति / 1667|| पराभिप्रायमाशङ्क्यैतदेव समर्थयन्नाहकिह सो नाणसरूवो, नणु पच्चक्खाणुभूइओ नियए? परदेहम्मि विगज्झो,सपवित्तिनिवित्तिलिंगाओ||१९६८|| ननु कथमसौ जीवो ज्ञानस्वरूप इति निश्चीयते ? अत्रोत्तरमाहनन्वित्यक्षमायां, ननु निजे देहे तावत्प्रत्यक्षानुभवादेव ज्ञानस्वरूपो जीव इति विज्ञायते, इन्द्रियव्यापारोपरमेऽपि तद्व्यापारोपलब्धार्थानुस्मरणात्, तद्व्यापारेऽपि चान्यमनस्कतायामनुपलम्भात् अदृष्टाश्रुतानामपि चार्थानां तथाविधक्षयोपशमपाटवात्कदाचिद् व्याख्यानावस्थायां चेतसि स्फुरणात्। एतच स्वसंवेदनसिद्धपि भवतः प्रष्टव्यता गतम्।तथा
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________________ णिव्वाण 2125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वाण स जन्तुः परदेहेऽपि ज्ञानस्वरूपे एवेति ग्राह्यः / कुतः? तथाविध-- प्रवृत्तिनिवृत्तिलिङ्गादीति // 1668) अपि च मुक्तावज्ञानित्वाऽऽपादने महान् विपर्यासः, कुतः? इत्याहसव्वाऽऽवरणावमे, सो सुद्धयरो भवेज सूरो व्व। तम्मयभावाभावादण्णाणित्तं न जुत्तं से ||1966il सेन्द्रियो जन्तुर्देशतोऽप्यावरणक्षये तावत्तारतम्येन ज्ञानयुक्तएव भवति, यस्य त्वनीन्द्रियस्य सर्वमप्यावरणं क्षीणं, स निःशेषाऽऽवरणापगमे शुद्धतर एव भवति-संपूर्णज्ञानप्रकाशयुक्त एव भवतीत्यर्थः, यथा समस्ताभ्राऽऽवरणापगमे सम्पूर्णप्रकाशमयः सूर्यः, ततस्तन्मयभावस्य प्रकाशमयत्वस्य करणाभावेनाभावाद्धेतोः 'से' तस्य मुक्तस्य यदज्ञानित्व प्रेर्यते भवता, तन्न युक्तम्, आवारकाभावे, तस्यैव प्रकर्षवतो ज्ञानप्रकाशस्य सद्भावादिति / 1966 // तदेवं सति किमिह स्थितम् ? इत्याहएवं पगासमइओ,जीवो छिद्दावभासयत्ताओ। किंचिम्मेत्तं भासइ, छिद्दाऽऽवरणप्पईवो व्व / / 2000 / / सुबहुयतरं वियाणइ. मुत्तो सव्वप्पिहाणविगमाओ। अवणीयघरो व्व नरो, विगयाऽऽवरणप्पईवो व्व // 2001 / / तदेवं सति सर्वदा प्रकाशमयः प्रकाशस्वभाव एव जीवः, केवलं संसार्यवस्थायां छद्मस्थः किश्चिन्मात्रमवभासयति, क्षीणाक्षीणाऽऽवरणच्छिद्रैरिन्द्रियच्छिदैश्वावभासनात्, सच्छिद्रकुटकु ड्याऽsधन्तरितप्रदीपवदिति / मुक्तस्तु मुक्तावस्थायां प्रासरे जीवः सुबहुतरं विजानातियदस्ति तत्सर्वं प्रकाशयतीत्यर्थः, सर्वपिधानविगमात्सर्वाऽऽवरणक्षयादित्यर्थः / अपनीतसमस्तगृहः पुरुष इव, विगतसमस्तकुटकुड्याऽऽद्यावरणप्रदीप इव वेति / यो हि सच्छिद्राऽऽवरणान्तरिता स्तोकं प्रकाशयति, स निःशेषाऽऽवरणापगमे सुबहेव प्रकाशयति, न तु तस्य सर्वथा प्रकाशाभाव इति भावः / तस्मात् "मुत्तस्स परं सोक्खं, नाणाणावाहओ" (1962) इत्यादि स्थितम्॥२०००॥२००१।।। अथाद्यापि मुक्तस्य सुखाभावं पश्यन् परः प्राऽऽहपुण्णापुण्णकयाई, जं सुहदुक्खाइँ तेण तन्नासे / तन्नासाओ मुत्तो, निस्सुहदुक्खो जहाऽऽगासं // 2002 / / अहवा निस्सुहदुक्खो, नभं व देहिंदियादभावाओ। आधारो देहो चिय, जं सुहदुक्खोवलद्धीणं / / 2003 / / पुण्यात्सुखमुपजायते, पापाच दुःखमिति भवतामपि सम्मतं, तेन तस्मात् तयोः पुण्यपापयोः कारणभूतयो शे सुखदुःखयोः कार्य-- रूपयो शानिः सुखदुःख एव मुक्ताऽऽत्मा प्राप्नोति, तत् कारणाभावात्, आकाशवदिति अथवा निःसुखदुःखोऽसौ, देहेन्द्रियाभावात्, नभोवत् यद् यस्मादेह एव, तथेन्द्रियाणि च सुखदुःखोपलब्धीनामाधारो दृश्यते, न पुनर्दहाभावे सुखदुःखे दृश्यते, नापीन्द्रियाभावे ज्ञानं काप्युपलभ्यते / ततः सिद्धस्य कथं तदभावात्तानि श्रद्धायिन्ते? इति // 2002 // 2003 // अत्रोत्तरमाहपुण्णफलं दुक्खं चिय, कम्मोदयओ फलं व पावस्स। नणु पावफले वि समं, पचक्खविरोहिया चेव / / 2004|| चक्रवर्तिपदलाभाऽऽदिकं पुण्यफलं निश्चयतो दुःखमेव, कर्मोदयजन्यत्वात्, नरकत्वाऽऽदिपापफलवत् / परः प्राऽऽहननु पापफलेऽपि समानमिदम् / तथाहि-अत्रापि वक्तुं शक्यत एतत्-उक्तं पापफलं दुःखत्वेनाभिमतं परमार्थतः सुखमेव, कर्मोदयजन्यत्वात्, पुण्यफलवत्, एवं च वदतां प्रत्यक्षविरोधिता, स्वसंवेद्यसुखदुःखयोर्वेपरीत्वेन सवित्यभावादिति // 2004 // भगवानाहजत्तो चिय पचक्खं, सोम्म ! सुहं नत्थि दुक्खमेवेदं। तप्पडियारविभत्तं, तो पुण्णफलं ति दुक्खं ति // 2005 / / सौम्य ! प्रभास ! यत एव-दुःखे अनुभूयमाने कस्याप्यविपर्यस्तमतेः सुखं प्रत्यक्ष नास्ति, सुखानुभवः स्वसंविदितो न विद्यते, अत एवारमाभिरुच्यते-दुःखमेवेदम् इति, यत् किमप्यत्र संसारचक्रे सक् चन्दनाङ्गनासंभोगाऽऽदिसमुत्थमपि विद्यते, तत्सर्व दुःखमेवेत्यर्थः। केवलं तस्याङ्गनासभोगाऽऽदिविषयौत्सुक्यजनितारतिरूपस्य दुःखस्य प्रतीकारोऽङ्गनासंभोगाऽऽदिकस्तत् प्रतीकारस्तेन तत्प्रतीकारेण दुःखमपि सद्विभक्तं मूढर्भेदेन व्यवस्थापितं तत्प्रतीकाररूपं कामिनीसंभोगाऽऽदिकंपामाकण्डूयनाऽऽदिवत्सुखमध्यवसितम्, शूलाऽऽरोपणशूलशिरोबाधाऽऽदिव्याधिबन्धवधाऽऽदिजनितं तु दुःखमिति / रमणीसंभोगचक्रवर्तिपदलाभाऽऽदि सुखं स्वसंविदितं दुःखमिति वदत्ता प्रत्यक्षविरोध इति चेत् / तदयुक्तम् / मोहमूढप्रत्यक्षत्वात्तस्य, तल्लाभौत्सुक्यजनितारतिरूपदुःखप्रतीकाररूपत्वाद् दुःखेऽपि तत्र सुखाध्यवसायः, पामाकण्डू-यनाऽपथ्याऽऽहारपरिभोगाऽऽदिवत्। तथा चोक्तम्"नग्नः प्रेत इवाऽऽविष्टः, क्वणन्तीमुपगृह्य ताम्। गाढाऽऽयासितसर्वाङ्गः, स सुखी रमते किल / / 1 / / औत्सुक्यमात्रमवसादयति प्रतिष्ठा, क्लिश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव / नातिश्रमापनयनाय यथा श्रमाय, राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवाऽऽतपत्रम् / / 2 / / भुक्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं? संप्रीणिताः प्रणयिनः स्वधनैस्ततः किम् ? दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं? कल्पं स्थितं तनुभूतां तनुभिस्ततः किम्? / / 3 / / इत्थं न किञ्चिदपि साधनसाध्यजातं, स्वप्नेन्द्रजालसदृशं परमार्थशून्यम्। अत्यन्तनिवृतिकरं यदपेतबाधं, तद्ब्रह्म वाञ्छत जना यदिचेतनाऽस्ति // 4|| इत्यादिना। "पुण्णफलं ति दुक्खं ति।" यत एवमुक्तप्रकारेण दुःखेऽपि सुखाभिमातः, तस्मात्पुण्यफलमपि सर्वं तत्त्वतो दुःखमेवेति।।२००५।। एतदेव प्रपञ्चयतिविसयसुहं दुक्खं चिय, दुक्खपडीयारओ तिगिच्छ व्व। तं सुहमुवयाराओ, नो उवयारो विणा तचं // 2006|| विषयसुखं तत्त्वतो दुःखमेव,दुःखप्रतीकाररूपत्वात्, कुष्ठगण्डाझे रोगक्वाथपानच्छेदनदम्भनाऽऽदिचिकित्सावत् / यश्च लोके
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________________ णिव्वाण 2126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वाण तत्र सुखव्यपदेशः प्रवर्तते, स उपचारात्। न चोपचारस्तथ्यं पारमार्थिकं | विना क्वापि प्रवर्त्तते, माणवकाऽऽदौ सिंहाऽऽद्युप चारवदिति।।२००६।। ततः किमित्याहतम्हा जं मुत्तसुहं, तं तचं दुक्खसंखएऽक्स्सं / मुणिणोऽणाबाहस्सव, णिप्पडियारप्पसुईओ // 2007 / / तस्माद्यन्मुक्तस्य संबन्धि तदेव सुखं तथ्य निरुपचरितम् / कुतः? स्वाभाविकत्वेन निष्प्रतीकाररूपस्य तस्य प्रसूतेरुत्पत्तेः / कथम् ? अवश्यम् / व सति? दुःखसंक्षये। सांसारिकं हि सर्व पुण्यफलमपि दुःखरूपतया समर्थित, ततः पापफलम्, इतरच सर्व दुःखमेवेहास्ति, नान्यत्, तच मुक्तस्य क्षीणम्, अतस्तत् संक्षये अवश्यतया यत् तस्य निष्प्रतीकारं स्वाभाविक निरुपम सुखमुत्पद्यते, तदेव तथ्यम्। कस्येव? विशिष्टज्ञानवतोऽनाबाधस्य मुनेरिव / उक्तंच"निर्जितमदमदनाना, वाकायमनोविकाररहितानाम् / विनिवृत्तपराशानामिहेव मोक्षः सुविहितानाम्" ।।इति 2007 / अथवा प्रकारान्तरेणापि मुक्तस्य तथ्यसुखसंभवमाहजह वा नाणमओऽयं, जीवो नाणोवघाइ चावरणं / करणमणुग्गहकारिं, सव्वाऽऽवरणक्खए सुद्धी।।२००८।। तह सोक्खमओ जीयो, पावं तस्सोवघाइयं नेयं / पुण्णमणुग्गहकारिं, सोक्खं सव्यक्खए सयलं / / 2006 / / यथा वाऽनन्तज्ञानमयोऽसौ स्वरूपेण जीवः। तदीयज्ञानस्य च मत्यावरणाऽऽदिकमावरणमुपघातक मन्तव्यम्। करणानित्यिन्द्रियाणि तज्ज्ञानस्थ, सूर्याऽऽतपस्य तदावारकमेघपटलच्छिद्राणीवोपक? काणि / सर्वाऽऽवरणक्षये तु ज्ञानशुद्धिनिर्भलता सर्वथाऽवभासकत्वलक्षणा भवति / प्रकृतयोजनामाह-तथा तेनैव प्रकारेण स्वरूपतः स्वाभाविकानन्तसोख्यमयो जीवः, तस्य च सुखस्यैवोपधातकारकं पापकर्म विज्ञेयम्। पुण्य त्यनुत्तरसुरपर्यन्तसुखफलं तस्य स्वाभाविकसुखस्यानुग्रहकारकम्। ततः सर्वाऽऽवसापगमे प्रकृष्टज्ञानमिव समस्तपुण्यपापक्षये सकलं परिपूर्ण निरुपचरितं निरुपर्म स्वाभाविकमनन्तं सुखं भवति सिद्धस्येति // 2008||2006 / / अन्येन वा प्रकारेण मुक्तस्य तस्य सुखसम्भवमाहजह वा कम्मक्खयओ, सो सिद्धत्ताइपरिणइं लभइ। तह संसाराईयं, पावइ तत्तो चिय सुहं ति // 2010 / / यथावासकलकर्मक्षयादसौ मुक्ताऽत्मा सिद्धत्वाऽऽदिपरिणतिं लभते, तत एव सकलकर्नक्षयात् संसारातीत वैषयिकसुखाद्विलक्षणस्वरूप निरुपमं तथ्य सुखं प्राप्नोति / एतेन यदुक्तम्- "क्षीणपुण्यपापत्वेन कारणाभावान्निःसुखदुःखे मुक्ताऽऽत्मा, व्योभवत्' इत्येतदपि प्रत्युक्तं द्रष्टव्यग, 'कारणाभावात्' इत्यस्य हेतोरसिद्धत्वात्, सकलकर्मक्षयलक्षणकारणजन्यत्वेन सिद्धसुखस्य सकारणत्वादिति // 2010 / / यदुक्तम्-"आधारो देहो चिय,जं सुहदुक्खोवलद्धीणं' (2003) इति तत्राऽऽहसायाऽसायं दुक्खं, तव्विरहम्मि य सुहं जओ तेणं / देहिदिएसु दुक्खं,सोक्खं देहिंदियाभावे // 2011|| ननु यत्पुण्यफलं सातं सुखतया लोकव्यवहारतो रूद, तत्सर्व दुःखमेवेत्यनन्तरमेव समर्थितम् / असातं तु पापफलत्वान्निर्विवादं दुःखमेव / एवं च सति सर्व दुःखमेवास्ति संसारे, न सुखम्। तच्च दुःख सिद्धस्य सर्वथा क्षीणम् / अतस्तद्विरहे यद्यस्मात्सिद्धस्य स्वाभाविक, निरुपमम्, अनन्तं च युक्तिसिद्धमेव सुखं, तेन तस्मात्कारणात् पारिशेष्यन्यायात् संसारिणामेव जीवानां देहेन्द्रियेष्वाधारभूतेषु यथोक्तस्वरूपं दुःखम, सुखं तु देहेन्द्रियाभाव एव, सिद्धस्य क्षीणनिःशेषसुखदुःखत्वेन तस्य तत्र युक्तिसिद्धत्वादिति // 2011 / / अथवा देहेन्द्रियाभावे सुखाभावलक्षणो दोषस्तस्य भवतु यः, किमित्याह जो वा देहिं दियज, सुहमिच्छइ तं पडुच दोसोऽयं / संसाराईयमिदं, धम्मंतरमेव सिद्धिसुहं / / 2012 // यो वा कश्चित् संसाराभिनन्दी मोहमूढः परमार्थादी विषयामिषमात्रगृद्धो देहेन्द्रियजमेव सुखं मन्यते, न तु सिद्धसुखं, तस्य तेन स्वप्नेऽप्यदर्शनात्, तस्य वादिनः संसारविपक्षे मोक्षे प्रमाणतः साधिते सति ''निःसुखः, सिद्धः, देहेन्द्रियाभावात्" इत्ययं दोषो भवेत्, न त्वस्माकं संसारातीतं पुण्यपापफल सुखदुःखाभ्यां सर्वथा विलक्षणं धर्मान्तरभूतमेवानुपममक्षयं निरुपचरितं सिद्धिसुखमिच्छतामिति / / 2012 / / अत्र प्रेर्यमाश क्य परिहरन्नाहकह नणु मेथं ति मई, नाणाणाबाहउ त्ति नणु भणियं / तदणिचं णाणं पिय, चेयणधम्मो त्ति रागो ध्व // 2013 / / अत्रैवंभूता मतिः परस्य भवेत् नन्विच्छन्ति भवन्तः सिद्धस्य यथोक्त सुखं, किन्तु नेच्छामात्रतो वस्तुसिद्धिः, अपि तु प्रमाणतः, ततो येन प्रमाणेन तत्सिद्ध्यति तद्वक्तव्यम् / अनु मानेन तदनुमीयत इति चेत्, तर्हि के नानुमानेन तदनुमेयम्- अनुमीयत इत्यर्थः? इत्याह"नाणाणाबाहउ त्ति नणु भणियं ति।" ननु भणितमत्रार्थे प्रागनुमान सिद्धस्य प्रकृष्टं सुखं, ज्ञानत्वे सत्यनाबाधत्वाद्, मुनिवदिति / पुनरपि परः प्राऽऽह-यद्येवं त नित्यं सुखं ज्ञानं च सिद्धस्य, चेतनधर्मत्वात्, रागवदिति // 2013 // अथवा हेत्वन्तरमाहकयगाइभावओवा, नाऽऽवरणाऽऽबाहकारणाभावा / उप्पायट्ठिइभंगस्सहावओ वा न दोसोऽयं / / 2014 // अथवाऽनित्ये सिद्धस्य सुखज्ञाने, तपःप्रभृतिकष्टानुष्ठनिन क्रियमाणत्वात्, आदिशब्दादभूतप्रादुर्भावात्, घटवदिति अत्रो-त्तरमाह"नावरणेत्यादि।" न सिद्धस्यानित्ये ज्ञानसुखे / कुतः? आवरण चाऽऽबाधश्वाऽऽवरणाऽऽबाधौ, तयोः कारणं हेतुस्तस्याभावात्, आकाशवदिति / इदमुक्तम्भवति-सिद्धस्य ज्ञानं सुखं च यद्यपगच्छेत् तदा स्यादनित्यम्, अपगमश्च ज्ञानस्याऽऽवरणोदयात्, सुखस्य त्वाबाधहेतुभूतादसातवेदनीयोदयाऽऽदिकारणाद्भवेत्, आवरणवेदनीयाऽऽदीनि च मिथ्यात्वाऽऽदिभिर्बन्धहेतुभिर्बध्यन्ते, ते च सिद्धस्य न विद्यन्ते, अतस्तदभावाद नाऽऽवरणाऽऽबाधाकारणसद्भावः, तदभावाचन सिद्धस्य
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________________ णिव्वाण 2127- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वाण ज्ञानसुखापगमः, तदसत्त्वे च तयोः सदाऽवस्थितत्वात् कथमनित्यत्वम्? न च चेतनधर्माः सर्वेऽप्यनित्या भवन्ति, जीवगतद्रव्य-- त्वामूर्तत्वाऽऽदिभिर्व्यभिचारात् / 'ततश्च चेतनधर्मत्वात्' इत्यनैकान्तिको हेतुः, तथा कृतकत्वाऽऽदिरप्यनैकान्तिकः, घटप्रध्वंसाभावेन व्यभिचारात् / असिद्धश्चायम, सिद्धस्य ज्ञानसुचयोः स्वाभाविकत्वेन कृतकत्वाऽऽद्ययोगात् / आवरणाऽऽबाधकारणाभावेन च तत्तिरोभावमात्रमेव निवर्तते, न पुनस्ते क्रियेते, घटाऽऽदिवत्, नाप्यभूते प्रादुर्भवतः, विद्युदादिवत्, येन तयोरनित्यत्वं स्यात्। न हि धनपटलापगमे चन्द्रज्योत्स्नायाः सूर्यप्रभाया वा तिरोभावमात्रनिवृत्तौ कृतकत्वम्, अभूतप्रादुर्भावो वा वक्तुं युज्यत इति। अथ तेनाऽऽविर्भूतेन विशिष्टेन रूपेण कृतकत्वादनित्ये सिद्धस्य ज्ञानसुखे, प्रतिक्षणं च पर्यायरूपतया ज्ञेयविनाशे ज्ञानस्य विनाशात्. सुखस्यापि प्रतिसमयं परापररूपेण परिणामादेतयोरनित्यत्वमुच्यते, तर्हि सिद्धसाध्यतेति दर्शयति-"उप्पायटिइ'' इत्यादि। इत्थमात्माऽऽकाशघटाऽऽदिरूपस्य सर्वस्यापि वस्तुस्तोमस्य स्थित्युत्पादप्रलयस्वाभाव्याभ्युपगमात्सिद्धसुखज्ञानयोरपि कथश्चिदनित्यत्वाद् नायं तदनित्यत्वाऽऽपत्तिलक्षणोऽस्माकं दोष इति / / 2014|| तदेव जीवस्य सदवस्थालक्षणं निर्वाणं, निवृत्तस्य च निरुपमसुखसद्भावं युक्तितः प्रसाध्य वेदोक्तद्वारेणापि ___ तत्साधनार्थमाहन ह वै ससरीरस्स, प्पियऽप्पियावहतिरवेमादि व जं। तदमोक्खे नासम्मि व, सोक्खाभावम्मि व न जुत्तं / / 2015|| "न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति।" "अशरीरं वा वसन्त प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इति च यद्वेदोक्तं, तदप्यमोक्षे मोक्षाभावेजीवकर्मणोवियोगेऽनभ्युपगम्यमाने इत्यर्थः / तथा-'मतिरपि न प्रज्ञायते' इति वचनाद् मुक्तावस्थायां सर्वथा नाशे वा जीवस्याऽभ्युपगम्यमाने, सत्त्वे वा मुक्ताऽऽत्मनः सुखाभाव इष्यमाणे न युक्तं प्राप्नोति-- अभ्युपगमविरोधस्तवेत्यर्थः / अनेन हि वाक्येन किल यथोक्तो मोक्षः, मुक्तौ च निष्कर्मणो जीवस्य सत्त्वं, निरुपमसुखं च तस्य, एतानि त्रीण्यपि अभ्युपगम्यन्ते। एतच्च पुरस्ताद्व्यक्तीकरिष्यते। ततोऽस्य त्रितयस्य निषेध कुर्वतस्तवाभ्युपगमविरोध इति भावः / / 2015 // अत्राऽऽधन्तपक्षौ परिहत्य मध्यगतं जीवनाशपक्षसंभविन मभ्युपगमविरोधं परिहर्तुं तावत्परः प्राऽऽहनट्ठो असरीरो चिय, सुहदुक्खाइं पियऽप्पिआइंच। ताइँ न फुसंति नर्से, फुडमसरीरं ति को दोसो? / / 2016 // "न ह वै" इत्यादिवेदवाक्यस्य किल परोऽमुमर्थं मन्यतेशरीरं सर्वनाशेन नष्टः खरविषायकल्प एवोच्यते, तमेवंभूतमशरीरं नष्ट प्रियाप्रिये सुखदुःखेयन्न स्पृशतः.तत्स्फुटमेव बुध्यतएवेदम्, नष्टस्यसुखदुःखस्म संयोगात्, अशरीरशब्देन च जीवनाशाभिधानात् / एवंभूते चास्य वाक्यस्यार्थे मुमुक्षोर्जीवस्य निर्वाणप्रदीपस्येव सर्वनाशमभ्युपगच्छता कोऽस्माकमभ्युपगमविरोधलक्षणो दोषः? न कश्चिदषीति पराभिप्राय इति // 2016|| अत्र प्रभासस्य भगवान् बोधान्यथात्वमवगम्य, एतेषां वेद पदानां यथाऽवस्थितमर्थ व्याचिख्यासुराह... वेयपयाण य अत्थं, न सुटु जाणसि इमाण तं सुणसु / असरीरव्ववएसो, अधणो व्व सओ निसेहाओ॥२०१७॥ न निसेहओ य अन्नम्मि तविहे चेव पच्चओ जेण। तेणासरीरगहणे, जुत्तो जीवो न खरसिंगं / / 2018|| आयुष्मन् ! प्रभास! न केवलंयुक्ति, वेदपदानाममीषामर्थं च त्वं सुष्टुन जानासि, ततस्तंशृणु-"न हवै" इत्यादि-पूर्वार्द्ध सुगमत्वादत्र गाथाद्वये न व्याख्यातं, तदपि सुखप्रतिपत्त्वर्थ व्याख्यायते- 'न' इति निपातो निषेधार्थः / 'हवै' इत्येतदपि निपातद्वयं हिशब्दार्थत्वाद्यस्मादर्थे / सह शरीरेण वर्शत इति सशरीरो जीवस्तसय सशरीरस्येत्यत्र एवकारो द्रष्टव्यः। ततश्चायमर्थः यस्मात् सशरीरस्यजीवस्य प्रियाप्रिययोः सुखदुःखयोरपहतिर्विघातोऽन्तरं नास्ति, न त्वशरीरस्य; तस्मादशरीर शरीररहितं मुक्त्य-वस्थायां वसन्तं लोकान्तस्थितं जीवं प्रियाप्रिये सुखदुःखे न स्पृशतः। इदमुक्तं भवति-यावदयं जीवः सशरीरः, तावत् सुखेन दुःखेन वा अन्यतरेण कदाचिदपि न मुच्यते। अशरीरस्त्वसौ क्षीणवेदनीयत्वात् सुखदुःखाभ्या कदाचिदपि नस्पृश्यत इति / एवंभूते चास्य वावयस्यार्थे सति योऽयमशरीरव्यपदेशः, असौ सत एव विद्यमानस्यैव जीवस्य मुतयवस्थायां विधीयते, नतु सर्वथा नष्टस्य। कुतः? इत्याह-निषेधात, इह यो यस्य निषेधः स तस्य सत एव विधीयते, न त्वसतः, यथाऽधन इति, अत्र सत एव देवदत्तस्य धननिषेधो विधीयते, न त्वसतः खरविषाणस्य। आह-न विद्यते शरीरं यस्येत्येवं निषेधादन्यपदार्थे जीव एव कथं प्रतीयते? इत्याह-"न निसेहओ य" इत्यादि व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेः पर्युदासवृत्तिना नजा निषेधो न -निषेधस्तस्मान्नजूनिषेधात्कारणात् सशरीरादन्यस्मिस्तद्विध एव शरीरसदृशे करिमश्चिदन्यपदार्थे संप्रत्ययो विज्ञेयः, यथा "न ब्राह्मणोऽब्राह्मणः'' इत्युक्ते ब्राहाणसदृशः क्षत्रियाऽऽदिरेव गम्यते, न तु तुच्छरूपो भावः। उक्तं च"नजिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे लोके तथाह्यर्थगतिः" इति / इह च शरीरसदृशोऽशरीरो जीव एव गम्यते, द्वयोरप्युपयोगरूपत्वेन सदृशत्वात्। न चेह शरीरं सादृश्यबाधकं, तस्य जीवेन सह क्षीरनीरन्यायतो लोलीभूतत्वेनैकत्वादिति। तदेवं येन यस्मात् कारणात् ननिषेधादन्यस्मिस्तद्विध एवान्यपदार्थे सम्प्रत्ययो भवति, तेन तस्मात्कारणात, 'अशरीरं वा वसन्तम्' इत्यत्राशरीरग्रहणे जीव एवाशरीरो युज्यते, नतु खरविषाणं तुच्छरूपोऽभाव इत्यर्थः / तदेवमशरीरमिति व्याख्यातम् // 2017||2018 // इदानी "वा वसन्तम्" इत्येतद्व्याचिख्यासुराहजं व वसंतं संतं, तमाह वासद्दओ सदेहं पि। न फुसेज वीयरागं, जोगिणमिटेयरविसेसा // 2016 / / यस्माचाशरीरं, कथं भूतम् ? वसन्तं लोकाग्रे निवसन्तं, तिष्ठन्तमिति यावत्। अनेन वसनविशेषणेन तमशरीरशब्दवाच्यमर्थ सन्तं विद्यमानमाह, न त्वसद्भूतं, वसनस्य सद्धर्मत्वात् / तस्मात्कथं जीवनाशरूपं निर्वाण निर्वाणं स्यात् ? न केवलमशरीरं मुक्तं,
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________________ णिव्वाण 2128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वाणगमणपज्जवसाणफल किं तु वाशब्दात सदेहमपि सशरीरमपि वीतरागं क्षीणोपशममोहयोगिनं एवमप्युक्तप्रकारेण मुक्तो जीवो भवेदित्यकामैरभ्युपगतमस्माभिः, तथा परमसमाधिमन्तं भवस्थमपि न स्पृशेयुः / के? इष्टेतरविशेषाः, च सति जीवस्य कर्मवियोगलक्षणो मोक्षः, तत्र जीवसत्त्वं च सिद्धम्। यत्तु सुखदुःखभेदा इत्यर्थः / / 2016 / / निःसुखदुःखत्वं सिद्धस्य मया प्रेरितं, तत् 'प्रियाप्रिये अशरीरं न प्रकारान्तरेणापि "वाव सन्तम्" इत्येतद्व्याचिख्यासुराह स्पृशतः" इति वचनात् तदवस्थामेव / अत्रोत्तरमाह- तदेतन्न, वाव त्ति वा निवाओ, वासदत्थो भवंतमिह संतं / यस्मात्पुण्यपापकर्मजनिते एव जीवानां प्रियाप्रिये सांसारिकसुखदुःखे बुज्झाऽव त्ति व संतं, नाणाइ विसिट्टमहवाऽह / / 2020 / / भवतः, ते च तं क्षीणनिःशेषपुण्यपापकर्माण सकलसंसारार्णवपारप्राप्त वा इत्यथवा- 'वाव' इत्ययं शब्दो निपातः, स च वाशब्दार्थः / मुक्ताऽऽत्मानं न स्पृशत इत्युत्तरगाथायां संबन्धः। न चैतावता तस्य ततश्चाशरीरं सन्तं भवन्तं मुक्तौ विद्यमान जीवं प्रियाप्रिये न स्पृशतः, निःसुखत्वमिति स्वयमेव द्रष्टव्यम् / कुतः? इत्याह-(नाणेत्यादि) वाशब्दात सशरीरमपिवीतरागन ते स्पृशतः। यदि वा वसन्तमित्यन्यथा ज्ञानत्वे सत्यनाबाधरूपत्वादित्यर्थः। यच तद् मुक्तस्य सुखं मुक्तसुख व्याख्यायते-"बुज्झाऽव त्ति वेत्यादि / 'वा' इत्यथवाऽयमर्थः। "वाव स्वाभाविक निष्प्रतीकार निरुपमं च।" मुत्तस्स परं सोक्खं, णाणाणासंतं ति।" रक्षण गतिप्रीत्यादिष्येकोनविंशतावर्थेष्ववाधातुः पठ्यते। वाहओ जहा मुणिणो" (1962) इत्यादिना प्रागेव साधितं, तत्तस्य गत्वर्थाश्च धातवो ज्ञानार्था अपि भवन्ति / ततश्चाह-विनेय ! त्वमेवं वीतरागद्वेषस्य मुक्ताऽऽत्मनो न प्रियं न पुण्यजनितं सुखं भण्यते, न बुध्यस्व / किं तदित्याह--अशरीरंसन्तं मुक्त्यवस्थायां विद्यमानं जीवम्, चाप्रियं न पापजनितं दुःखं भण्यते, किं त्वेताभ्यां सर्वथा विलक्षणम्, अथवा ज्ञानाऽऽदिभिर्गुणैर्विशिष्ट सन्तमित्याह-बूते, प्रियाप्रिये न अकर्मजनितत्वेन स्वाभाविकत्वात्, निष्प्रतीकाररूपत्वात्, निरुपस्पृशतः 1 वाशब्दात् सशरीरमपि वीतरागमिति तथैवेति / / 2020 / / मत्वात् , अप्रतिपातित्वाचेति। आह-नन्वेवमक्षरकुट्या, मयाऽपि स्वाभिप्रायसिद्धये अथ "को पसंगोऽत्थत्ति' "अशरीरं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इत्युक्ते व्याख्यानान्तरं कर्तुं पार्यतएव, न हीयं भव कोऽत्र मुक्ताऽऽत्मनि मुक्तासुखाभावप्रसङ्गः, न कश्चिदित्यर्थः। पुण्यपाप जनितप्रियाप्रियाप्रिययोरभावे तस्य सुतरामेव भावात्। तस्मात् 'नह वै तैव केवलेन क्रेण्या ग्रहीता, इत्यभिप्रा सशरीरस्य' इत्यादिवेदपदैर्यथोक्तनीत्या जीवकार्मणशरीरविरहलक्षणो यवतः परस्य मतमाशड्क्य प मोक्षः, मुक्तावस्थस्य च जीवस्य सत्त्वम्, तथा 'अशरीरं प्रियाप्रिये न रिहरन्नाह स्पृशतः' इत्यतोऽपि वचनात् पुण्यपापक्षयसमुत्थं स्वाभाविकम्, न वसंतं अवसंतं, ति वा मई नासरीरगहणाओ। अप्रतिपाति सुखं चास्य इत्येतत् त्रितयं सिद्धम्। अतएतदनभ्युपगच्छतफुसणाविसेसेणं पि य,जओ मयं संतविसयं ति / / 2021 / / स्तवाभ्युपगमविरोध इति स्थितम् / यदपि- "जरामर्य वैतत् सर्व "अशरीरं वाऽवसन्तं'' इत्यत्र लुप्तस्व अकारस्य दर्शनात् न वसन्तम- | यदिग्नहोत्रम्" इत्येतस्माद्वाक्यान्मोक्षहेतुक्रियाऽऽरम्भयोग्यकालावसन्तं क्वाप्यतिष्ठन्तमिति व्याख्यानतो नास्ति मुव त्यवस्थायां जीवः, भावान्मोक्षाभावं शङ्कसे / तदप्ययुक्तम् तदर्थापरिज्ञानात् / तस्य क्वाप्यवसनात्, असत्त्वादेव च नामु प्रियाप्रिये स्पृशत इति परस्य ह्ययमर्थः यदेतदग्निहोत्रं तज्जावजीवं सर्वमपि कालं कर्त्तव्य, वाशब्दात् मतिर्भवेत्। तदेतन्न / कुतः? इत्याह-अशरीरग्रहणात्। एतदुक्तं भवति- मुमुक्षुभिर्मो क्षहेतुभूतमप्यनुष्ठानं विधेयमिति / इत्येवं वेदपदोक्तद्वारेण न विद्यते शरीरं यस्येत्यत्र पर्युदासनिषेधात्पूर्वोक्तयुक्त्या मुक्तयवस्थाया- युक्तिभिश्च प्रसाधितो मोक्षः। छिन्नश्च प्रभासस्य तत्संशयः // 2022 // मशरीरो जीवो गम्यते, इत्यतोऽत्राऽकारप्रश्लेषव्याख्यानं कर्तुं न पार्यते, 2023 // अशरीरग्रहणान्मुक्तो जीवसिद्धेः। किञ्च-"प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इति ततः किं कृतवानसावित्याहयदशरीरस्य स्पर्शनाविशेषणं, तदपि यस्मात् सद्विषयमेव मतं, तस्मान्न छिन्नम्मि संसयम्मी, जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं। मुक्तौ जीवस्याभावः। यदिह्यशरीरशब्दस्य जीवाभावो वाच्यः स्यात्तदा सो समणो पव्वइओ, तिहि ओसहखंडियसएहिं / / 2024|| तं प्रियाप्रिये न स्पृशत इति विशेषणमनर्थकं स्यात्। न हि 'बन्ध्यापुत्रं व्याख्या पूर्ववदिति / 2024 / विशे०। सिद्धसुखे, कर्म०५ कर्म०। प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इति विशेष्यमाणं विराजते। तस्मान्मुक्तयवस्थो (स्त्रीनिर्वाणचर्चा, प्रकीर्णकवार्ताश्च 'मोक्ख' शब्दे संग्राहिष्यते) विध्यापने जीव एवाशरीरशब्दवाच्यः, न पुनस्तद्भावः। ततो नाकारप्रश्लेषव्याख्यान आव०४ अ०। (तीर्थकृतां निर्वाणं 'तित्थयर' शब्दे वक्ष्यते) युज्यत इति / तदेवम् "अशरीरं वा वसन्तम्'' इत्यनेन जीवकार्मण निर्वाणप्रधानैककारणत्वान्निर्वाणम् / प्राणातिपातनिवृत्तौ, सूत्र०१ श्रु० शरीरवियोगलक्षणस्य मोक्षस्य मुक्तजीवसत्त्वस्य चाभिधानात्तन्निषेधं 11 अ०। दुःखकथने, देवना०४ वर्ग३३ गाथा। कुर्वतस्तवाभ्युपगमविरोध एवेति // 2021 / / णिव्वाणंग न०(निर्वाणाङ्ग) मुक्तिकारणे, पञ्चा०१६ विव०। एवमपि मुक्तस्य सुखाभावलक्षणं तृतीयपक्षमप्रतिविहिलमेवोत्प णिव्वाणगमणकाल पुं०(निर्वाणगमनकाल) मोक्षगमनप्रत्यासन्नश्यन् प्राऽऽह समये, दर्श०४ तत्त्व। एवं पि होज मुत्तो, निस्सुहदुक्खत्तणं तु तदवत्थं / णिव्वाणगमणपञ्जवसाणफल त्रि०(निर्वाणगमनपर्यवसानफल) तं नो पियऽप्पियाई, जम्हा पुण्णेयरकयाई॥२०२२।। निर्वाणगमनमुक्तिप्राप्तिः पर्यवसानेआनुषङ्गिकसुरमनुजसुखानुभवपर्यन्तेफलं नाणाबाहत्तणओ,न फुसंति वीयरागदोसस्स। यस्यासौ निर्वाणगमनपर्यवसानफलः / पा०। निर्वाणगमनं मोक्षगमनमेव तस्स पियमप्पियं वा, मुत्तसुहं को पसंगोऽत्थ? // 2023 // पर्यवसानंपरमार्थरूपंफलंयस्यसतथा। मोक्षकहेती, धा"असण्णिहिसं
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________________ णिव्वाणगमणपज्जवसाणफल 2126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्विइय चयस्स णिव्वाणगमणपञ्जवसाणफलस्स इमस्स धम्मस्स / ' | णिव्वाणाऽऽवेस पुं०(निर्वाणाऽऽवेश) मोक्षाऽऽवेशे, "यथाप्रकारा ध०२अधि। यावन्तः, संसाराऽऽवेशहेतवः / तावन्तस्तद्विपर्यासाः, निर्वाणाणिव्वाणणगर न०(निर्वाणनगर) निर्वाणपुरे, द०प० 'धम्म जिणपण्णत्तं, ___ऽऽवेशहेतवः / / 1 / / '' सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। सम्ममिणं सहामि तिविहेणं / तसथावरभूअहियं, पंथं निव्वाणनगरस्स | णिवाणि(ण) पुं०(निर्वाणिन्) अतीतायामुत्सर्पिण्यां जाते भरत-क्षेत्रजे ||1 // " द०प०। द्वितीये तीर्थकरे,प्रव०७ द्वार। णिव्वाणपय न०(निर्वाणपद) निष्कर्मताहेतुपदे, अष्ट०५ अष्टा णिव्वाणी स्त्री०(निर्वाणी) श्रीशान्तिनाथस्य शासनदेव्याम्, प्रव० 27 णिव्वाणपसाहण न०(निर्वाणप्रसाधन) मोक्षसाधने, पं०व०३द्वारा द्वार / सा च कनकरुचिः पद्माऽऽसना चतुर्भुजा पुस्तकोत्मल-युक्तणिव्वाणपुर न०(निर्वाणपुर) ईषत्प्राग्भाराऽऽख्ये सिद्धिपत्तने, आव०४ दक्षिणपाणिद्वया, कमण्डलुकमलकलितवामकरद्ववा च। प्रव० 27 द्वार। अादर्श०। णिव्याव पुं०(निर्वाप) शाकघृताऽऽदिपरिमाणे, नि०चू०१ उ०। णिव्वाणभावि (ण) त्रि०(निर्वाणभाविन्) निर्वाणे भविष्यतीति | णिव्वावक हा स्त्री० (निर्वापकथा) एतावन्तस्तत्र पक्वान्नभेदाः, निर्वाणभावी। भव्ये, विशेष व्यञ्जनभेदा वेति भक्तकथायाम्, स्था०४ ठा०२ उ०। णिव्वाणभूय त्रि०(निर्वाणभूत) असावद्यानुष्ठानभूते, सूत्राणिव्वाणभूए णिव्वावण न०(निर्वापण) विध्यापने, दश०४ अ० अभावाऽऽपादने, य परिवएजा।' अस्यायमर्थः यथा हि निर्वृतौ निर्व्यापारत्वात् दश०८०। कस्यचिदुपघातेन वर्तते, एवं साधुरपि सावद्यानुष्ठानरहितः परि समन्ताद् णिव्वावार त्रि०(निर्व्यापार) व्यापारान्निर्गतो निर्व्यापारः / निरारम्भे, व्रजेदिति। सूत्र०१ श्रु०१०अ० उत्त० अ०। परिहृतकृषिपशुपाल्याऽऽदिक्रिये, उत्त०६ अ०। णिव्वाणमग्ग पुं०(निर्वाणमार्ग) निर्वृतिनिर्वाणं, सकलकर्मक्षयज- | णिव्वाविऊण अव्य०(निर्वाप्य) विध्याप्येत्यर्थे , नि०चू० 1 उ०। मात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः / निर्वाणस्य मार्गो निर्वाणमार्गः / परम- | णिव्वाविय त्रि०(निर्वापित) शीतलीकृते, ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०। निर्वृतिकारणे, आव०४ अ०॥धा आतुला सिद्धिक्षेत्रावाप्तिपथे, उपा०२ | *निर्वाप्य अव्य०। दाहभयाद्विध्यातं विधायेत्यर्थे, ''पजालिया अलग सकलकर्मविरहजसुखोपाये, भ०६।०३३उ०। णिव्वाविया।" दश० 5 अ०१उ०। णिव्वाणमहावाड पुं०(निर्वाणमहावाट) सिद्धिमहागोस्थानविशेषे, | णिव्वाह पुं०(निर्वाह) व्यवस्थापने, द्वा०११ द्वा० उपा०७ अग णिव्वाहण न०(निर्वाहन) निःसारीकरणे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। पञ्चा०। णिव्वाणमहोयस पुं०(निर्वाणमहौजस) ऐरवते वर्षे भविष्यति सप्तमे | णिव्विइ स्त्री०(निवृति) मथुरानाथस्य पर्वतकनृपस्य सुतायाम, यया तीर्थकरे, तिला प्रव० राधावेधकृत्कुमारो भर्तृत्वेन वृत इति। पञ्चा० 14 विव०। णिध्वाणवाइ(ण) पुं०(निर्वाणवादिन) निर्वाणं सिद्धिक्षेत्राऽऽख्यं णिव्विइय न०(निर्विकृतिक) विकृतिप्रत्याख्याने, प्रकला कर्मच्युतिलक्षणं स्वरूपतस्तदुपायप्राप्तिहेतुतो वा वदितुं शीलं येषां ते *निर्विगतिक न०। मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगतिहेतुत्वाद् वा विकृतथा / निर्वाणपथदेशके, "पक्खीसु वा गेरुले वेणुदेवे, णिव्वा तयो विगतयो वा यत्र तन्निर्विकृतिकं, निर्विगतिकं वा / विकृतिणवादीणिह णायपुत्ते।" (21) / सूत्र०२ श्रु०६ अ०! प्रत्याख्याने, प्रव०। निर्विकृतिके अष्टौ नव वा आकारा भवन्ति / यथाणिव्वाणवीय न०(निर्वाणबीज) मोक्षसुखयोर्हेती, सूत्र०१ श्रु०१२ अ० "णिव्विगइयं पच्चक्खाइ अन्नत्थडणाभोगेणं सहसागारेणं लेवालेवेणं णिव्वाणसाहण नास्त्री०(निर्वाणसाधन) परमपदप्रापके, सुख गिहत्थसंसट्ठणं उक्खित्तविवेगेणं पडुच्च मक्खिएणं पारिट्ठावणियागारेण साधने च। षो०१५ विव०ा स्त्रियां डीष। 'निर्वाणसाधनीति च, फलदा / महत्तरागारेणं सव्वसमा-हिवत्तियागारेणं वोसिरइ।" (प्रव०) आकाराः तु यथार्थसंज्ञाभिः।" (10) निर्वाणं साधयतीति निर्वाण-साधनी / पूर्ववद् व्याख्येयाः, नवरं (पडुच्च मक्खिएणं ति) प्रतीत्य सर्वथा रूक्ष मनोयोगसारायाम्, षो०६ विव०। डण्डकाऽऽदिकमपेक्ष्य, मक्षितं स्नेहितमीषत्सौकुमार्योत्पादनाद् णिव्वाणसिला स्त्री०(निर्वाणशिला) उञ्जयन्तशैले नेमिनाथशि- मक्षणकृतविशिष्टस्वादुतायाश्चाभावाद् प्रक्षितमिव यद्वर्तते तत्प्रतीत्य लायाम्, "कंदप्पकप्परागा, कुगईविडवणनेमिनाहस्स। णिव्वाण-सिला मक्षितं मक्षिताभास इत्यर्थः। इह चायं विधिः-यद्यडल्या घृताऽऽदि गृहीत्वा नामेण अस्थि भुवणम्मि विक्खाया॥१॥" ती०३ कल्प०। मण्डकाऽऽदि मक्षितं, तदा कल्पते निर्विकृतिकस्य, धारया तुन कल्पते, णिव्वाणसुह न०(निर्वाणसुख) निर्वाणमशेषकर्मक्षयस्तदवाप्ती वा इति व्युत्सृजति विकृती: परिहरति / इह च यासु विकृतिषु विशिष्टकोशप्रदेशः। तेन तत्र वासुखं निर्वाणसुखम्। मोक्षसुखे, आचा०१ उत्क्षिप्तविवेकः संभवति, तासु नवाऽऽकाराः, अन्यासु द्रवरूपासु अष्टौ / श्रु०३ अ०१० ननु निर्विकृतिक एवाऽऽकारा अभिहिताः, विकृतिपरिमाण प्रत्याख्याने तु णिव्वाणसेट्ठ त्रि०(निर्वाणश्रेष्ठ) मोक्षप्रधाने, सूत्र०१ श्रु०६ कुत आकारा अवगम्यन्ते? उच्यते-निर्विकृतिकग्रहणे सति विकृतिपरि
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________________ णिव्विइय 2130- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिदिवइय माणप्रत्याख्यानस्यापि संग्रहो भवति, यतस्तत्रापित एव तथैवा-ऽऽकारा भवन्ति / यथा एकाशनकस्य, पौरुष्याः पूर्वार्द्धस्य च सूत्रे आकारा अभिदधिरे, परं व्याशनकस्य, सार्द्धपौरुष्या अपार्द्धस्य च प्रत्याख्यानस्यत एव भवन्तीति प्रत्याख्यान सूत्रानभिहितमपि भवति, अप्रमादवृद्धः सर्वत्र संभवादित्यदोषः। ननु निर्विकृतिके विकृतिपरिमाणे वा प्रत्याख्याने काष्टी, क वा नव आकारा भवन्ति? इत्याहनवणीओगाहिमगे, अद्दवदहिपिसियधयगुडे चेव। नव आगारा एसिं, सेसदवाणं च अद्वैव / / 207 / / नवनीते मक्षणके, अवगाहिमके च पक्वान्ने, अद्रवदधिपिशितघृत-गुडे चैव। अद्रवग्रहणं सर्वत्र सम्बन्धनीयमानवच आकाराः (एसिति) अमीषां विकृतिविशेषाणां भवन्ति / शेषाणां तु द्रवरूपाणामष्टेवाऽऽकाराः / अयमभिप्रायः यत्रोत्क्षिप्तविवेकोऽद्रवरूपाणां नवनीतगुडाऽऽदीनां कर्तु शक्यते, तत्र नवाऽऽकाराः, द्रवरूपाणां तु विकृतीनामुद्धर्तुमशक्यानामशावाकारा इति। प्रव०४ द्वार। आव०नि०। आकाराःपंचेव य खीराऽऽइं, चत्तारि दहीणि सप्पि नवणीए। चत्तारि अतेल्लाई, दो विअड़े फासिए दुन्नि / / 58 / / महुपुग्गलाइँ तिन्नि उ, चलचलओगाहिमं तु जं पक्कं / एएसिं संसहूं, वुच्छामि अहाणुपुर्वीए।।५६।। इदं विकृतिस्वरूपप्रतिपादकं गाथाद्वयं गतार्थमेव। अधुना एतदा-कारा व्याख्यायन्ते-तथा-''अणाभोगसहसाकारा तहेव, लेवालेवो पुण जहाऽऽयंबिलो तहेव दहव्यो। गिहत्थसंसट्टो बहुवत्तव्यो ति गाहाहिं भण्णइ। ताओ पुण इमाओ-- खीरदहीविअडाणं, चत्तारि उ अंगुलाई संसहूं। फाणियतेल्लघयाणं, अंगुलमेगं तु संसह्र / / 6 / / महुपुग्गलरसयाणं, अटुंगुलयं तु होइ संसटुं। गुलपुग्गलनवणीयं, अद्दामलगं तु संसटुं // 61 / / गिहत्थसंसठुस्स इमो विही--खीरेण कुसणिओ कूरो जइ लब्भइ, तस्स जइ कुंडगस्स ओयणाओ चत्तारि अंगुलाणि दुद्ध, ताहे निविगइयस्स कप्पड़, पंचमं चाऽऽरद्धं विगती य, एवं दधिस्स वि, वियडस्स वि, केसु वि विसएसु वियडेण मीसिज्जइ ओयणो, ओगाहिमओवा फाणियगुलस्स तेल्लघयाण या एएहि कुसणिए जइ अंगुलं उवरि अत्थइ, तो वट्टइ, परेण न वट्टइ। महुस्स, पोग्गलरसगस्सय अद्धंगुलेण संसट्टे होइ, पिंडगुलस्स पुग्गलससनवणीयस्स अद्दामलगमेत्तं संसट्ठ। जइ बहूणि एयप्पमाणाणि कप्पइ. एणं पि बहु न कप्पइ। इति गाथाद्वयार्थः।।६१।। उक्खित्तविवेगो जहा आयंबिले जं उद्धरिउ तीरइ, सेसेसु नत्थि, पडुच मक्खियं पुणजइ अंगुलीए गहाय मक्खेइ तेल्लेण वा घएण वा, ताहे नि वगइयस्स कप्पइ, अह धाराए छुडभइ, मणाग पिन कप्पइ इयाणिं पारिद्वावणियागारो-सो पुण एगासणएगट्ठाणाइसाधारणो ति कटु विसेसेण परूविज्जइ, इति तन्निरूपणार्थमाहआयंविल्लमणायं-बिले चउत्थाइबालवुड्डसहू। असहू अणहिंडिअए, पाहुणगनिमंतणा बलिआ।॥६२। विहिगहि विहिभुत्तं, उच्चरिअंजं भवे असणमाई। तं गुरु णाणुण्णायं, कप्पइ आयंबिलाईणं / / 63 / / चउरो अहो ति भंगा, पढमे भंगम्मि होइ आवलिआ। इत्ता अतइअभंगे, आवलिआ होइ नायव्वा / / 64 / / यद्वाऽत्रान्तरे प्रबुद्ध इव चोदकः पृच्छति-अहो! तावद्भगवता "एगासणएगट्ठाणगआयंबिलचउत्थछट्ठऽहमणिव्विइएसु पारिट्ठाव-णियागारो वन्निओ, नपुण जाणामि केरिसस्स साहुस्स पारिट्ठाव-णियं दायव्वं, न दायव्वं वा? आयरिओ भणइ-(आयंबिल्लमणायंविले गाहा) पारिट्ठावणियाभुंजणे जोग्गा साहू दुविहा-आयंबिलगा, अणायंबिलगा य। आयंबिलग विरहियाएगासणेगट्ठाणचउत्थछट्ठऽट्ठमनिव्विगइपजवसाणा दसमभत्तिगादीणं मंडलिए उव्वरिए पारिट्ठावणियं न कप्पइ दाउं, तेसिं पेज, उण्हयं वा दिजइ / अवि य-तेसिं देवया व होज-एगो आयंबिल्लिओ. एगो चउत्थभत्तिओहोज। कयरस्स दायव्यं? चउत्थभत्तियस्स / सो दुविहो-बालो, वुड्डो य / बालस्स य दायव्वं / बालो दुविहो-सहू, असहू य / असहुस्स दायव्वं / असहू दुविहो-हिंडियगो, अहिंडियगो या हिंडियस्स दायव्वं। हिंडियओ दुविहोवत्थव्वगो, पाहुणगो य। पाहुणगस्स दायव्वं / एवं ताव चउत्थभत्ते बालो असहू अहिंडिओ पाहुणगोपारिट्ठावणियं भुंजाविजइ।१। तस्स असइ बालो असहू हिंडिओ वत्थव्वो।श तस्स असति बालो असहू अहिंडिओ पाहुणगो।३। तस्स असति बालो असहू अहिंडिओ वत्थव्वो। 4 / एवमेतेण करणोवाएण चउहं एएहिं सोलस आवलिया भंगा भासियव्या। तत्थ पढमभंगियस्सदायव्वं, तस्सासति वितियस्सदायट्वं; तरसासइ तइयस्सा एवं०जाव चरिमस्स दायव्वं / पउरपारिट्टावणियाए वा सव्वेसिं दायट्वं / एवं आयंबिलियन्स छट्टभत्तियस्ससोलस भंगा विभासा। एवं आयंविलियस्स अट्ठमभत्तियस्स सोलस भंगा / एवं आयंबिलियस्स निव्विगइयस्स सोलस भंगा, नवरं आयबिलियस्स दायव्वं / एवं आयंबिलियस्स एकासणियस्स सालस भंगा / एवं आयंबिलियरस एगट्ठाणियस्स सोलस भंगा / एवमेए आयंबिलउ-खेवगसंजोगेसु सव्वग्गेणं छन्नउई आवलिया भवंति। आयंबिलि-गउक्खेवगो गओ। एगो चउत्थभत्तिओ, एगो छट्ठभत्तिओ, एत्थ वि सोलस, नवरं छट्ठभत्तियस्स दायव्यं / एवं चउत्थभत्तियस्स अट्ठमभत्तिअस्स वि सोलस भंगा। एगो एगासणिओ, एगो एगट्ठा-णिओ, एगट्ठाणियस्स दायव्वं, एत्थ वि सोलस / एगो एगासणिओ, एगो निविगइओ, एगासणियस्स दायव्वं, एत्थ वि सोलस। एगो एगट्ठाणिओ, एगो निविगइओ, एगट्ठाणियस्स दायव्वं, एत्थ वि सोलस जाय त्ति गाथार्थः ।६शतं पुण पारिट्ठावणियं जहाविधीए गहियं विधिभुत्तं सेसंच तेसिं दिजइ / तत्र (विधिगहियं विधिभुत्तं गाहा) विहिगहियं नामअलुद्धेण उग्गमियं पच्छा मंडलीएकड्ययरग (च्छेद)सीहखइएण वा विहीए भुत्तं, एवंविधं पारिट्ठावणियं / जाहे गुरू भणइ-अज्जो ! इमं पारिट्ठावणियं इच्छाकारेण भुंजाहि ति, ताहे से कप्पति वंदणं दाउं संदिसावेउं भोत्तव्यं ति / तत्थ चउभंगविभासा ।६३(चउरो य हॉति गाहा) विहिगहियं विहिभुत्तं 1, विहिगहियं अविहिभुत्तं 2, अविहिगहियं विहिभुत्तं३, अविहिगहियं अविहिभुत्तं४ / तत्थ पढमभंगोभिक्खं साधू हिंडति, तेण य अलुद्धेण बाहिं संजोवणादोसेण विप्पजढेण ओहारियं भत्तपाणं, पच्छा मं
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________________ णिदिवइय 2131 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिदिवइय डलीए पयरगच्छेदी तिसु विधीए समुद्दिट्ट / एवंविहं पुव्ववन्त्रियाण आवलियाणं कप्पइ समुद्दिसिओ।१। इयाणि वितिय भंगो तहेव-विहीए गहिय, भुत्तं पुण कागसियालादिदोसदुट्ट, एवं अविहीए भुत्ता तरथ जइ उव्वरइ, न उज्झिज्जइ, न कप्पइ, छड्डिमाई दोसा हवंति। एरिसं जो देइ, जो य भुंजइ,दोण्ह वि विवेगो कीरइ, अपुण कारए वा उवट्टियाणं पंचकल्लाणयं दिजइ / 2 / इयाणिं तइयभंगोतत्थ अविहिगहियं वीसुं२ उकोसगादिदव्वाणि भाणियव्वाणि। कत्थ पुङगम्भिव पडिगहे वियारेइ.. एवं मे भोजव्वं ति,आगतो पच्छा मंडलीए, रावणिएण समरसंकाउंमंडलीए विहीए समुद्दिटुं। एवंविहे जं उव्वरियं, तं पारिट्ठावणियागारं आवलियाणं विहिभुत्तं ति काउंकप्पइ।३। चउत्थभंगे आवलियाणन कप्पइ भोत्तुं, ते चेव पुव्व-वन्निया दोसा / एवमेव भावपचक्खाणं भणियं ति गाथाऽर्थः / / 64 // आव०६ अ०1 अथ यदुक्तं "निव्विइए अट्ट नय य आगारा(१०)" इति, तद्विभागदर्शनायाऽऽहणवणीओगाहिमए, अद्दवदहिपिसियघयगुले चेव। णवआगारा तेसिं, सेसदवाणं च अटेव।।११।। नवनीतं च मक्षणम् / अवगाहेन स्नेहबोलनेन निर्वृत्तमपगाहिमम, तदेवावगाहिमकं पक्वान्नं तचेति नवनीताऽवगाहिमकम्, तत्र।तथाऽअद्रवं कठिनं यद्दधिपिशितधृतगुडं प्रतीतस्वरूपं तत्तथा / समाहारद्वन्द्वगर्भ कर्मधारयपदमिदम् / तथाऽद्रवदधिपिशितघृतगुडमेव / चैवशब्दो समुच्चयावधारणाएँ / दर्शित एव चाऽनयोः प्रयोगः / किमित्याह-- नवाऽऽकारा भवन्ति / एतेषूत्क्षिप्तविवेकस्य संभवात् / तथाहि-- भक्तस्योपरि नवनीतं दधिपिशिताऽऽदीनि चाद्रवं मुक्तं,तदुत्क्षिप्यमाणं कठिनत्वेन सर्वथा विवेचयितुं शवय-मतस्तत्संसृष्टमपि भक्तं भुजानस्य "उक्खित्तविवेगेणं" इत्येत-दाकारबलाद्न भङ्गः। एवं तावदाकारनवकसंभव उक्तः। अथ तदष्टकसंभवभाह-तेषां दध्यादीनां विकृतिविशेषाणाम् / पूर्वमद्रवशब्देन विशेषितत्वादिह द्रवाणामिति विशेषणं द्रष्टव्यम् / तथा शेषाः प्रागुक्तनवनीताऽऽदिव्यतिरिक्ता विकृतिविशेषाः, ते च ते द्रवाश्च श्लथा भोजने निक्षिप्ताः सन्तः सर्वथा विवेतुमशक्याः शेषद्रवाः, तेषां शेषद्रवाणां मद्याऽऽदीनाम्। चशब्दः समुच्चये। सम्बन्धिनि प्रत्याख्यान इति गम्यते। किमित्याह--अष्टैव, न तु नव भवन्त्या-काराः। इह च विकृत्यन्तरप्रत्याख्यानमपि निर्विकृतिकमुच्यते / तेन यो मद्यदुग्धतैलाऽऽदीनां प्रत्याख्यानं करोति, तस्योरिक्षप्त-विवेकोचारणं नाऽर्थवत्, दध्यादिप्रत्याख्यातुः पुनरर्थवत्, तद्विवेकस्य संभवादिति भावना / इदं च वस्तुविचारमात्रमेव यतो दुग्धाऽऽदिकमपि प्रत्याचक्षाणेनोत्क्षिप्तविवेक उचारणीय एव, भग-वतीयोगवाहिना गृहस्थसंसृष्टाऽऽदिवदिति। अन्ये त्याहुः-वचन-प्रामाण्यान्नोच्चारणीय एवेति / एते चैवम्"निध्विगइयं पञ्चक्खाइ अण्णत्थऽणाभागेणं सहसागारेण लेवालेवेणं गिहत्थसंसट्ठणं उक्खित्तविवेगेणं पडुच मक्खिएणं पारिट्टावणियागारेणं महत्तरागा-रेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ / "व्यक्तम् / नवर गृहस्थसंसृष्टस्य निर्विकृतिक प्रति विशेषव्याख्यानमिदम्, गृहस्थेन स्वप्रयोजनाय दुग्धेन संसृष्ट ओदनो, दुग्धं यदि तमतिक्रम्योत्कर्षतश्वत्वार्यगुलानि यावत् उपरि वर्तते, तदा तद् दुग्धमविकृतिः, पश्चमामुलाऽऽरम्भे तु विकृतिरेव / अनेन न्यायेनान्या अपि। / तत्रोक्तम्"खीरदहीवियडाणं, चत्तारि उ अंगुलाई संसहूं। कामियतेल्लघ्याणं, अंगुलभेगंतु संसट्ठ॥६०॥ महुपोग्गलरसयाणं, अद्धंगुलयं तु होइ संसहूं। गुलपोग्गलणवणीय, अद्यामलयं तु संसट्ट।।६१।।"(आव०नि०) फाणियं काकवः। पुद्गलरसको मांसरसः। पुद्गलं मासम्। आर्द्रामलकंतु पीलुमयूर इति सम्प्रदाय इति। (पडुच्च मविखएणं ति) प्रतीत्य सर्वथा रूक्ष मण्डकाऽऽदिकमपेक्ष्य मेक्षितं स्नहितम, ईषत्सौकुमार्योत्पादनात्, म्रक्षणकृतविशिष्टस्वादुताया अभावाच मक्षितमिव यद्वर्तते तत्प्रतीत्यम्रक्षितं, म्रक्षिताभास इत्यर्थः। तस्मात्प्रतीत्य मक्षितादन्यत्र निर्विकृतिकम्। इह च पञ्चम्यर्थे तृतीयेति। इह चाय विधिः- यद्यड्गुल्या तैलाऽऽदि गृहीत्वा मण्डकाऽऽदि म्रक्षित, तदा कल्पते निर्विकृतिकस्य, धारया तुन कल्पते / व्युत्सृजति विकृति त्यजतीत्यर्थः। इह सूत्रे-"निव्विइए अट्ठ नव य आगारा"(१०) इत्येव निर्विकृतिकस्यैव प्रत्याख्यानतयाऽभिधानेऽपि विकृतिपरिमाणप्रत्याख्यानमपिन दुष्टम,अप्रमादवृद्धिहेतुत्वात्। अत एव सूत्रे "चउव्विहं पि आहारं'' इत्येवं पाठेऽपि द्विविधाऽऽहारस्य त्रिविधाऽऽहारस्य च पौरुष्यादिप्रत्याख्यानमदुष्टमेवमेकाशनकस्य पौरुष्याः पुरिमार्द्धस्यैव च सूत्रेऽभिधानेऽपि व्याशनकस्य सार्द्धपौरुष्या अपार्द्धस्य च प्रत्याख्यानमदुष्टमिति केचित्, अप्रमादवृद्धाशनकाऽऽदिष्वपि संभवात्। आकारा अपि य एवैकाशनकाऽऽदिषुतएवेतरेष्वपिन्याय्याः, अशनाऽऽदिशब्दसाम्यात्, विकृतिपरिमाणद्विविधाऽऽद्याहारपौरुष्यादिप्रत्याख्यानेष्विवेति। न च वाच्यमभिग्रहप्रत्याख्यानानि द्व्याशनकाऽऽदीनि, ततस्तेषु चत्वार एवाऽऽकारा भविष्यन्ति एकाशनाऽऽदिभिस्तुल्ययोगक्षेमत्वादितरेषामिति / अन्ये तु मन्यन्ते-एवं हि प्रत्याख्यानमर्यादा न काचित्स्यात्। तत एकाशनकाऽऽदीन्येव प्रत्याख्यानानि। एकाशनकाशक्तस्तु सार्द्धपौरुषी वा यावद् बुभुक्षुर्ग्रन्थिसहितमेव तदुपरि प्रत्याख्यातीति गाथाऽर्थः // 11 // अथाऽऽकाराः किमर्थमिहाभिधीयन्ते? इत्यत्राऽऽहवयभंगो गुरुदोसो, थोवस्स वि पालणा गुणकरी उ। गुरुलाघवं च णेयं,धम्मम्मि अओ उ आगारा ||12|| व्रतभङ्गो नियमभङ्गः। किमित्याह- गुरुर्महान् दोषो दूषणमशुभकर्मबन्धाऽऽदिरूपो यस्मिन्नसौ गुरुदोषः, भगवदाज्ञाविराधनात् / तथा स्तोकस्याप्यल्पस्याप्याकाराऽऽश्रयणतो व्रतस्यास्तां महतः। पालनाऽऽराधना / गुणकरी तु कर्मनिर्जरालक्षणोपकारकारिण्येव, विशुद्धकुशलपरिणामरूपत्वात् / तथा गुरु च सारं, लघु चासारं, तयोर्भावो गुरुलाघवम् / तत्र ज्ञेयं ज्ञातव्यं भवति / क्वेत्याह-धर्मे चारित्रधर्मे / तथाहि-उपवासे कृतेऽपि संजातासमाधेरौषधाऽऽदिदानतः समाधिसंपादने निर्जरागुणो गुरुर्भवति, इतरथा पुनरल्प इति विमर्शनीयम् / एकान्ताग्रहस्य प्रभूताषकारकारित्वेनाऽशोभनत्वात्, यत एवमतोऽस्मात्कारणात् / तुशब्दः पूरणार्थः / आकारा अपवादाः प्रत्याख्याने क्रियन्ते इति / इदमुक्तं भवति-कृतप्रत्याख्यानस्यापि गुरुलाघव चिन्तया समाध्याद्यर्थमाहारस्यावश्यं ग्रहणमुचितमतः कृताऽऽकारत्वेनाल्पमपि व्रतं सम्यक् पालितां भवति, अकृता
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________________ णिदिवइय 2132 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्विट्ठकाइय कारतायां तु महदपि तद्भग्नं भवति / पालनाभनौ चार्थानर्थकरा- करम्बरूपं ज्ञायते, तद् घटिकाद्वयादनु निर्विकृतिकं भवति / यच दधि वित्याकाराः समाश्रयणीया भवन्तीति गाथाऽर्थः / / 12|| दुग्धं वा "दुद्धं दहि चउरंगुल'' इत्यनुसारेण कूराऽऽदिमिश्र विधीयते, उक्त आकारविधिः / पञ्चा०५ विव०ाल०प्र०ा पं०व०॥ तद्भाष्यावरिवचनात्पर्यु-षितंसद् निर्विकृत्तिकं भवतीति / प्र० 77 / ___ अथ येषु निर्विकृतिकं प्रायश्चित्तं, तान्याह सेन० 3 उल्ला०। श्रावकस्य निर्विकृतिकप्रत्याख्याने यतिवद् इत्तरठविए सुहुमे, ससणिद्ध सरक्खमक्खिए चेव। निर्विकृतिक कल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-यतिनां श्रावकाणां च मीसपरंपरठाविया-इवीयाइएसु वाऽविगई।।४३11 मुख्यवृत्त्या निर्विकृतिकं न कल्पते, कारणेतु कल्पते, एवंविधान्यक्षराणि शास्त्रे सन्ति, तस्मात् श्राद्धः कदाचिन्निर्विकृतिकप्रत्याख्यानं करोति, इत्वरस्थापनायां सूक्ष्मप्राभृतिकायां सस्निग्धम्रक्षिते सरजस्कम्रक्षिते तस्य न कल्पते, बद्धतपसि तु कल्पते, कारणत्वात्, एकान्तेन निषेधो च मिश्रपरम्परस्थापिताऽऽदिषु, मिश्राः सचित्ताचित्तरूपाः पृथिवयप्तेजो ज्ञातो नास्ति, यतिनां तु पर्वाऽऽदिषु पुनः पुनस्तत्प्रत्याख्यानकरणात्कवायुप्रत्येकानन्तवनस्पतित्रसाः, तेषु परम्परं व्यवहितं निक्षिप्तम् / ल्पते इति ।४५२०प्र०। सेन०३ उल्ला०। बहुतरे दुग्धे दधिन वा आदिशब्दापिहितसंहृतछर्दितानि, तेषु (वीयाइएसु व ति) यत्राल्पतरान् तन्दुलान् प्रक्षिपति, तदुग्धंतद्दधिवा निर्विकृतिकं भवति, प्रत्येकवीजेष्वचित्तबीजेषु वाऽनन्तरपरम्परनिक्षिप्तपिहितसंहृतच्छ न वेति प्रश्श्रे-उत्तरम्- "दहिखीरबहुअप्पतंदुल" इति भाष्यगाथावचर्दितेषु बीजान्मिश्रच अविकृतिपरित्यागप्रायश्चित्तमित्यर्थः। वाशब्दाच नादल्पतन्दुलप्रक्षेपेऽपि तद् दुग्धं तद्दध्यपि निर्विकृतिकं भवतीति ज्ञायते "छक्कायवग्नहत्था, समणट्ठा निक्खिवित्तु ते चेव। इति। 457 प्र०ा सेन०३उल्ला० श्राद्धानामाचाम्लमध्ये निर्विकृतिमध्ये घट्टती गाहंती आरंभंती इ सड्ढाणं " // 1 // इत्यपि ज्ञेयम्। च उष्णोदकं प्रासुकं च वारि शुद्ध्यति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-उभयमपि अस्यार्थः-षट्कायव्यग्रहस्ता श्रमणार्थमुत्थाय षट्कायान भुवि निक्षिप्य | शुद्ध्यति / 476 प्र०ा सेन० ३उल्ला पुनस्तानेव घट्टयन्ती तत्संघट्ट कुर्वाणा गाहमाना विलोडनेन इतस्ततो णिव्विगप्प पुं०(निर्विकल्प) निःसन्दिग्धे, ग०२ अधिवागतशड्के, ग०२ विक्षेपणेन अगाढं गाढं चापरितापयन्ती आरम्भमाणा षट्कायोपद्रवं | अधिवा "अस्थि त्ति निविगप्पो।" दश०४ अ० निष्क्रान्ताशेषभेदकर्माऽऽरम्भं कुर्वती दात्री यदि ददाति, ततो ग्रहीतुः साधोः स्वस्थानं स्वरूपे,सम्म०१ काण्ड प्रायश्चित्तं भवति / अयमभिप्रायः-जीतकल्पे यस्यापराधस्य णिव्यिगिच्छ न०(निर्विचिकित्स्य) निर्गता विचिकित्सा निर्विचि-कित्सा, यत्प्रायश्चित्तमुक्तमस्ति, तत्तस्य स्वस्थानं, ततश्च दात्र्याः पृथिव्यप्तेजोवा- तस्य भावो निर्विचिकित्स्यम्। फलं प्रति संवेहाकरणे, उत्त० 28 अ०॥ युप्रत्येकवनस्पतिसंघट्टाऽऽगाढपरितापोपद्रवान् कुर्वत्याः, सकाशाद् निर्विचिकित्स त्रि०ा विचिकित्सा मतिविभ्रमो, निर्गता विचिकित्सा ग्रहीतुः निर्विकृतिपुरिमैकाशनाचामाम्लानि, अनन्तवनस्पतिविकले यस्मादसौ निर्विचिकित्सः। साध्वेव जिनदर्शनं, किंतु प्रवृत्तस्यापि सतो न्द्रियसंघट्टाऽऽदीन् कुर्वत्याः पार्वादादातुः पुरिमैकाशनाचामाम्लक्षप- ममास्मात्फलं भविष्यतीति वा, नवा, कृवीबलाऽऽदिक्रियासूभयथाऽणानि, पञ्चेन्द्रियसंघट्टाऽऽदीन् कुर्वत्याः प्रायश्चित्तग्राहकस्य एकाशनाचा- प्युब्धेरिति कुविकल्परहिते, धन ह्यविकल उपाय उपेयवस्तुपरिमाम्लक्षपणैककल्याणकानि प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः 1 उक्तं षट्च- प्रापको न भवतीति संजातनिश्चये, ध०१अधि० ग०। प्रव०। व्य० त्वारिंशद्दोषप्रायश्चित्तम्। मूलकर्मप्रायश्चित्तं त्वष्टमप्रायश्चित्तमध्ये भणिष्यते विचिकित्सारूपाऽतिचाररहितसम्यक्त्वे, दश०३अ०। फलं प्रति |143|| निःशके, दशा०१०अ० इहानन्तरं सूत्रगाथायां निर्विकृतिप्रायश्चित्तमुक्तं, ततस्तत्प्र- णिव्विगिय न०(निर्विकृतिक) णिव्विइय' शब्दार्थे , प्रव०२ द्वार। स्तावादन्यदपि निर्विकृतिशोध्यमाह णिटिवग्ध अव्य० (निर्विघ्न) विघ्नाभावे, ''सीसपवित्तिनिमित्तं, सहसाऽणाभोगेण व, जेसु पडिक्कमणमभिहियं तेसु / निविग्धत्थं च।" अनु०। आभोगेण वि बहुसो, अइप्पमाणे य निव्विगई // 44!! णिविट्ठ त्रि०(निर्विष्ट) आसेवितविवक्षितचारित्रे अनुपारिहारिके, सहसाऽनाभोगः प्रागुक्तस्वरूपः, सहसाऽनाभोगेन वा वासितचित्तेषु / स्था०३ टा०४उ०। अनु०। उचिते, देना० 4 वर्ग 34 गाथा। स्थानकेषु प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्तमभिहितं, तेषु स्थानकेषु मध्ये णिविट्ठकप्पट्टिइ स्त्री०(निर्विष्कल्पस्थिति) निर्विष्टा-आसेविआभोगेनापि, कोऽर्थः? जानन्नपि बहु स पुनर्यदासेवते, अतृप्यन् तविवक्षितचारित्राऽनुपारिहारिका इत्यर्थः / तत्कल्पस्थितिः। अतिमात्रं वा तदेवाऽऽसेवते तत्र सर्वत्र निर्विकृतिक प्रायश्चित्तम् // 44 // स्थितिभेदे, स्था०३ ठा०४ उ० निर्विष्टकांयिके, (तद्विषयके) यथा जीत०। निर्गतो घृताऽऽदिविकृतिभ्यो यः स निर्विकृतिकः। स्था०५ / प्रतिदिनमायाममात्रतया भिक्षा तथैवेति / उक्तं च-"कप्पविया वि ठा०१उ०। विनिर्गतविकृतिपरिभोगे, दश०। "अमञ्जमंसासि अमच्छरी पइदिणं,करें ति एमेव चायामा।"स्था०३ टा०४उ०। अ, अभिक्खणं निविगइं गया य / (7)" दश०२ चूला निर्गतघृता- णिव्विट्ठकाइय पुं०(निर्विष्टकायिक) निर्विष्टः-आसेवितः प्रस्तुततया ऽऽदिविकृतिके, औ०। दधि गृहस्थैरोदनाऽऽदिना संसृष्टं तद्दिने विशेषः, कायो येषां ते निर्विष्ट कायाः, त एव स्वार्थ प्रहरानन्तरं निर्विकृतिकं भवति,तथा दुग्धमपि राद्धकूरपृथुकाऽऽदिना कप्रत्ययोपादानान्निर्विष्टकायिकाः, तदभेदादिदमपि (चारित्रमपि) संसृष्टं निर्विकृतिकं भवति, न वा? इति प्रश्रे, उत्तरम्-- कूरमिश्र दधि / निर्विष्ट कायिकम् / अनु०। विशे०। बृ०।निर्विशमानकानुच--
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________________ णिविट्ठकाइय 2133- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वुअ रकेषु, भ०२५ श०७ उापं०सं०ा आसेवितविवक्षितचारित्रका-यिकेषु, णाणं च दंसणं वा, तहा चरित्तं समितिगुत्तीओ। तदन्वयव्यतिरेकाच्चारित्रभेदे च / कर्म४ कर्म०। (''परिहार" शब्दे चैषां एक्कासीतिपदेहि, णिव्विस-णिव्वेसणार्कप्पो।। व्याख्या वक्ष्यते) छविहकप्पाऽऽदीया, वायालं ताओं पंचवीसाए। णिटिवण्ण त्रि०(निर्विण्ण) खिन्ने, जीत०। "जो एत्तियं पि चित्ते, इच्छइ मेलीणा उ भवंती, एकासीती भवे भेदा। सो को न णिविण्णो?'' आचा०१ श्रु०३ अ०३उ०। णवरं छव्दिहकप्पे, वीसतिकप्पे य णामठवणाओ। णिविण्णचार त्रि०(निर्विण्णचार) चरणं चारोऽनुष्ठानं, निर्विण्णस्य चारो मोत्तुं सेसा सवे,एकासीती तु मेलीणा।। निर्विण्णचारः; सोऽस्यास्तीति निर्विण्णचारी। खिन्ने, "से णिविण्णचारी एवं सव्वोसिम्मी, णिव्विसमाणस्स णिव्विसणकप्पो। अरते पयासु।" आचा०१ श्रु०५ अ०३३०। एतेसिं पुण कतरो, महिड्डिओ होइ सव्वेसिं / / पं०भा०। णिविण्णवरा स्त्री०(निर्विण्णवरा) निर्विण्णा वराः परिणेतारो यस्याः (नाणं च दंसणं च गाहा) नाणे त्ति दसणप्पभावणेसु य तवजुत्तयाएय स्य निर्विण्णवरा। वरवर्जितायाम्, ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग। पंचविहचरित्तजुत्तयाए य समिइगुत्तीहि य उवउत्तयाए अणुपालेंति णिविण्णाण त्रि०(निर्विज्ञान) बलीवर्दवत् (आव०५अ०) विशिष्ट एयासीइपएहिं / कयरे पुण एकासीइकप्पा? उच्यते-छव्विहकप्पस्स ज्ञानरहिते, तं। वीसइविहकप्परस य नामठवणाकप्पो अ वि नेऊण सेसा छविहणिव्विति स्त्री०(निर्वृति) कर्णशष्कुलिकाऽऽदावाकारे द्रव्येन्द्रियभेदे, सत्तविह-दसविह-वीसविहा वायालीस त्ति एगट्ठ मेलिया एकासीइकप्पा विशे० नं० निर्वृतिराभ्यन्तरबाह्यभेदाद् द्विधैव। निर्चर्त्यत इति निवृतिः / होति। एए समं णिव्विसमाणस्स णिव्वेसकप्पो भवइ / एस णिव्विसणकप्पो। केन निर्वय॑ते? कर्मणा / तत्रोत्सेधाङ्गुलासङ्घयेयभागप्रतानानां पं०चून शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थिता णिव्विसमाण पुं०(निर्विशमान) परिहारविशुद्धिकल्पं वहमानेषु, स्था०६ वृतिरभ्यन्तरा निर्वृतिः। तेष्वेवाऽऽत्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः ठा| भग प्रतिनियतसंस्थानो निर्माणनाम्ना पुद्गलविपाकिना वर्द्धकिसंस्थानीयेन णिव्विसमाणकप्पट्ठिइ स्त्री०(निर्विशमानकल्पस्थिति) निर्विशमाना आरचितः कर्णशष्कुल्यादिविशेषः, अङ्गोपाङ्गनाम्नाच निष्पादित इति ये परिहारविशुद्धितपोऽनुचरन्ति, पारिहारिका इत्यर्थः, तेषां कल्प बाह्यनिर्वृतिः। आचा०१ श्रु०२ अ०१उ०। स्थाo स्थितिः। परिहारकल्पस्थितौ, स्था०। यथा ग्रीष्मशीतवर्षाकालेषु क्रमेण णिव्वितिलक्खण त्रि०(निर्वृतिलक्षण) सर्वसावद्ययोगोपरमस्वभावे, तपो जघन्यं चतुर्थषष्ठाष्टमाऽऽदि, मध्यम षष्ठाऽऽदीनि, उत्कृष्टमष्टमाऽऽपा० इयत्ताऽवगमरूपे, अनु०॥ दीनीति, पारणे चायाममा एवं पिण्डेषणासप्तके चाद्ययोरग्रह एवेतिपञ्चसु णिटिवदुगुंछ त्रि०(निर्विजुगुप्स) जुगुप्सारहिते, विद्वज्जुगुप्सानाम- पुनरेकया भक्तमेकया च पानकमित्येवं द्वयोरभिग्रह इति। सम्यक्त्वातिचाररहिते, ध०१ अधिक। उक्तं चणिव्विद्ध (देशी) सुप्तोत्थिते, निराशे, उद्भटे, नृशंसे च। देवना०४ वर्ग 48 "दस अटुं दस छटुं, अट्ठव य छट्ठ चउरोय। गाथा। उक्कोसमज्झिमजहन्नगा उ वासासिसिरगिम्हे / / 1 / / णिविभाग त्रि०(निर्विभाग) भागरहिते, भागाः परमाणवः। दर्श० 5 तत्व। पारणगे आयाम, पंचसु गहाँ दोसुऽभिग्गहो भिक्खा // " णिव्वियार त्रि०(निर्विकार) निर्गतो विकारः कामोन्मादलक्षणो यस्मादसौ स्था०३ ठा०४उ०ा पञ्चा निर्विकारः। विकाररहिते, "इमस्स धम्मस्स णिब्वियारस्स निविति णिव्विसमाणय पुं०(निर्विशमानक) विवक्षित (परिहार) तपोलक्खणस्स।''पा०। इन्द्रियमनोविकाररहिते, ध०३ अधिवा कोपाऽऽ विशेषाऽऽसेवके, प्रव०६६ द्वार / कर्म०। पं०सं०। साधौ, तदव्य-- दिविकाररहिते, संथा। तिरेकाचारित्रभेदे च। विशेष अनु०। बृ०(अत्र 'परिहार' शब्दो वीक्ष्यः) णिटिवयारसमाहि पुं०(निर्विकारसमाधि) आलम्बने देशकाल णिविसय त्रि०(निर्विषय) विषयाभिलाषरहिते, उत्त० 14 अ०॥ धर्मावच्छेद विना धर्मिमात्राऽवभासित्वेन भावनायाम्, समाधिभेदे, शब्दाऽऽदिविषयरहिते, उत्त०पाई०१४ अ० निर्गोचरे, अनर्थके, द्वा०२० द्वाज "वइमेत्तं णिव्विसयं, दोसा य मुंसति विन्नेयं / ' पञ्चा० 12 विव०। णिदिवस त्रि० (निर्विष) विषरहिते, "णिव्विसं पंडुरं मंसं।" औ०। देशान्निष्क्रान्ते,प्रश्न०३ आश्र० द्वार / "पुत्तदारे य णिव्विसए करेइ।" णिविसंत त्रि० (निर्विशत्) समस्तं प्रवेशयति. अपरिभुञ्जमाने, ___ आ०म०१अ०२खण्ड। अनासेवमाने, स्था०५ ठा०१उ०। णिविसी स्त्री०(निर्विषी) महौषधिभेदे,ती०६ कल्प। णिव्विसणकप्प पुं०(निर्विशनकल्प) निर्विशमानकल्पस्थितौ, पं०भा०। | णिव्विसेस त्रि०(निर्विशेष) विशेषवर्जिते, तं०। अपवादोत्सर्गज्येइयाणि णिव्विसणकप्पो ठेतराऽऽदिविशेषरहिते, त०] ......................, अहुणा वोच्छामि णिव्विसणकप्पं। णिव्वुअ त्रि० (निर्वृत) नि-वृ-क्तः / "उदृत्वादी" ||8|11131 // जह निव्विसंति समणा, सम्मं तु गुरूवएसेणं। इत्यादेब्रत उध्वम् / प्रा० 1 पाद / क्रोधाऽऽद्यपगमने
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________________ णिव्वुअ 2134 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिव्वेयणी न शीतीभूते, आचा०१ श्रु०८ अ०१उ०। निर्वाणं गते,प्रव० 33 द्वार।। णिवेय पुं०(निर्वेद) विरागे, आचा०१ श्रु०४ अ०१3०। उत्त०। स्वस्थाऽऽत्मनि, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। संसारवैराग्ये, वृ०३ उ०। संसारादुद्विग्नतायाम, उत्त०१८ अ० भ०। णिवुइ खी० (निर्वृति) "उदृत्वादौ" / / 8 / 1 / 131 / / इत्यादिषु दश। संसाराद् विरक्ततायाम, उत्त० २६अ। शब्देष्यादेत उत्वम्। प्रा०१ पादा ज्ञा०। मनःस्वास्थ्ये, प्रश्न०२ आश्र० निर्वेदफलम्द्वार। समाधौ, नं०। सुखे, आ०म०२ अ०। सामान्यसुखे, आव०४ अ०। णिवेएणं भंते ! जीवे किं जणयइ? णिव्वेएणं दिव्वमाणुसमहादुर्भिक्षे वज़सेनेन प्रव्राजितस्य जिनदत्तश्राद्धस्य सह प्रव्रजिते पुत्रे, तेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ, सव्वविसएसु यतो निर्वृतिनाम्नी शाखा निर्गता। कल्प० क्षण। निवृतिकुलीनशीला- विरजइ, सव्वविसएसु विरजमाणे आरंभपरिग्गहपरिचायं करइ, ङ्गाऽऽचार्येण प्रथमद्वितीययोरङ्गयोष्टीका कृता / आचा०१ श्रु०६ अ०४ आरंभपरिग्गहपरिचायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिंदइ, सिद्धिउ०ा मथुरायां पर्वतकराजस्य सुतायाम्, आ० म०१ अ०२खण्ड / आव०| मग्गपडिवन्ने य भवइ // 2 // णिवुइकर त्रि०(निर्वृतिकर) निर्वृतिनिर्वाणं सकलकर्भमलापगमनेन इतः प्रभृति सर्वत्र सुज्ञमत्वान्न प्रश्नव्याख्या / निर्वेदेन सामान्यतः स्वस्वरूपलाभतः परमस्वास्थ्य,तद्धेतुः सम्यग्दर्शनाऽऽद्यपि कारणे संसारविषयेण कदाऽसौ त्याज्य इत्येवंरूपेण दिव्यमानुषतरश्चेषु, सूत्रत्यात् कार्योपचारान्निर्वृतिः / तत्करणशीलो निर्वृतिकरः। प्रज्ञा०१ पद। कप्रत्ययो, यथासंभवं देवाऽऽदिसंबन्धिषु कामभोगेषूक्तरूपेषु निर्वेद सर्वकर्मक्षयभावकरे, तं०। सुखोत्पादके, रा०ा हव्वमागच्छति, यथाऽलमेतैरनर्थहेतुभिरिति, यथा च सर्वविषयेषु णिव्वुडपह पुं०(निवृतिपथ) निर्वृतेर्मोक्षस्य पन्थाः। "ऋक्पूरब्धूः विरज्यतेऽशेषशब्दाऽऽदिविषयं विरागमाप्नोति, विरज्यमानस्तेष्यापथामानक्षे" / 5 / 4 / 74 // इति समासान्तोऽच्प्रत्ययः। मोक्षमार्गे, वाचा रम्भः प्राण्युपमर्दको व्यापारस्तत्परित्यागं करोति, विषयार्थत्वात् णिव्वुइपहसासणयं, जयइ सया सव्वभावदेसणयं (25) सर्वारम्भाणाम्, तत्परित्यागं कुर्वन् संसारमार्ग मिथ्यात्याविरत्यादिरूपं निर्वृतेर्मोक्षस्य पन्थाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि / तथा चाऽऽह- व्यवच्छिनत्ति, तत्त्यागवत एव तत्त्वत आरम्भपरित्यागसंभवात्, तद् भगवानुमास्वातिवाचक:-"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इति व्यवस्थितौ च सुप्राप्य एव सिद्धिमार्गः सम्यग्दर्शनाऽऽदिरिति निर्वृतिपथः / "ऋक्पू : पथ्वपोऽप्" / / 7 / 376 / / (हैम०) इति सिद्धिमार्गप्रतिपन्नश्च भवति // 2 // उत्त० पाई० 26 अ०॥ समासान्तोऽप् प्रत्ययः / यद्यपि निर्वृतिपथशब्देन ज्ञानाऽऽदित्रयमभि ''णरगो तिरिक्खजोणी, कुमाणुसत्तं च णिव्वेओ।" नरकस्तिर्यधीयते, तथाऽपीह सम्यग्दर्शनचारित्रयोरेव परिग्रहः, ज्ञानस्योत्तरत्र ग्योनिः कुमानुषत्वं च निर्वेद इति / दश०३ अ० अनु०। अष्ट०। विशेषेणभिधानात् / निर्वृतिपथस्य शासनम्-शिष्यतेऽनेनेति शासनं मोक्षाभिलाषे, प्रव०१४ द्वार। धा विषयेष्वनभिष्वङ्गे, ध०२ अधिक प्रतिपादकं निर्वृतिपथशासनम् / ततः "कश्च" इति प्राकृतलक्षणात् जुगुप्सायाम्, आचा०१ श्रु०२ अ०४उ०। सूत्र०। स्वार्थे कः प्रत्ययः, निवृतिपथशासनकम्।नंग णिध्देयण न०(निर्वेदन) समर्पणे, द्वा०१२ द्वा०ा दर्श०) णिव्वुइपुर न०(निवृतिपुर) सिद्धिपुरे, आ०म०१अ०२ खण्ड। णिव्वेयणी स्त्री०(निवेदनी) निर्वेद्यते संसाराऽऽदेर्निविण्णः क्रियते णिव्वुड त्रि०(निवृत) शीतीभूते, आचा०१ श्रु०४ अ०३उ०। निर्वा- श्रोताऽनयेति निर्वेदनी। स्था०४ ठा०२ उ० दशा णमनुप्राप्ते, सूत्र०१ श्रु० 15 अ०ा मुक्तिपदवीडधिरूढे, व्य०२ उ०। निर्वेदनीकया चतुर्विधा'निव्वुडे कालमाकंखी, एवं केवलिणो मयं," निर्वृतं कषायौप णिव्वेयणीकहा चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहा-इहलोगदु-चिण्णा शमाच्छीतीभूतकाल मृत्युकालं यावदभिकाङ्केत्। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। कम्मा इहलोगदुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, इहलोग-दुचिण्णा निवारणे, भ०५ श०४ उ०। कम्मा परलोगदुहफलविवागसंजुत्ता भवंति / परलोग-दुचिणा णिवुडमाण त्रि०(निवुडत्) जन्ममरणाऽऽदिजले नितरां निमज्जति, कम्मा इहलोगदुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, परलोग-दुचिणा उपा०७अ० कम्मा परलोगदुहफलविवागसंजुत्ता भवंति। इहलोग-सुचिण्णा णिवुड त्रि०(निवृत) निष्ठागते, "निव्वुड़े वितिमिरे विसुद्धे ति।'' भ०५ कम्मा इहलोगसुहफलविवागसंजुत्ता भवंति, इहलो-गसुचिण्णा 2040 / कम्मा परलोगसुहफलविवागसंजुत्ता भवंति। एवं चउमंगो। णिव्वूढ (देशी) गृहपश्चिमाङ्गणे, देना०४ वर्ग 26 गाथा। इह लोके दुश्चीनि चौर्याऽऽदीनि कर्माणि क्रिया, इहलोके णिव्वूह पुं०(नियूह) गृहैकदेशविशेषे, जी०३ प्रति०४ उ०/ दुःखमेव कर्मद्रुमजन्यत्वात् फलं दुःखफलं, तस्य विपाकोऽनु - णिव्वेटुंत त्रि०(निर्वेष्टयत्) निर्जरयति, विचटयति, "दव्वेण य भावेण भावो दुःखफलविपाकः, तेन संयुक्तानि दुःखफलविपाकसं - य, निव्वेट्टतो चउण्हमन्नयरं।" विशे०। हापयति, आ०म०१ अ०२ युक्तानि भवन्ति, चौराऽऽदिनामिवेत्येका। एवं नारकाणमिवेति खण्ड। सुबद्धानि कुर्वति, आचा०२ श्रु०१ चू०३अ०२७०। द्वितीया। आगर्भाद् व्याधिदारिद्र्याभिभूतानामिवेति तृतीया। णिव्वढे (देशी) नग्ने, दे०ना० 4 वर्ग 28 गाथा। प्राक्कृताशुभकर्मोत्पन्नाना नारकप्रायोग्य बन्धता काकगृद्धाऽऽदी
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________________ णिव्वेयणी 2135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसग्गरुइ नामिव चतुर्थीति / "इहलोए सुचिन्न'' इत्यादि चतुर्भङ्गी तीर्थकर-- | णिसंत त्रि०(निशान्त) नितरां शान्तो निशान्तः / अत्यन्तं मन्दीभूते, दानदातृ 1 सुसाधु 2 तीर्थ कर 3 देवभवस्थतीर्थकराऽऽदीनामिव | आ०म०१ अ०१ खण्ड। श्रुते, अवगते, आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०२उ० भावनीयेति। स्था०४ ठा०२उ०। निशमिते श्रुते, भ०६ 2033 उ०। निःसञ्चरवेलायाम, बृ०३ उ०। निवेदनीमाह रात्र्यवसाने दिवसे, दश०६ अ०१उ०। ज्ञा०। अवधारिते , सूत्र०१ पावाणं कम्माणं, असुभविवागो कहिज्जए जत्थ। श्रु०६अ। इह य परत्थ य लोए, कहा उ णिव्वेयणी नाम // 207|| णिसंस त्रि०(नृशंस) क्रूरकर्मणि, बृ०३ उ०। शूकावर्जिते, प्रश्र०१ पापानां कर्मणां चौर्याऽऽदिकृतानामशुभविपाकः दारुणपरिणामः | सम्ब०द्वार। कथ्यते यत्र यस्यां कथायामिह च परस्त्र च लोके- "इहलोके कृतानि / णिसग्ग पुं०(निसर्ग) निसर्जनं निसर्गः। निसृष्टौ, मोक्षे, विशे०। स्वभावे, कर्माणि इहलोक एवोदीर्यन्ते' इत्यनेन चतुर्भङ्गिकामाह-कथा तु उत्त०२८ अस्था०ा आवाआ००। आ०म०। प्रज्ञा०व्यासंथा। निवेदनी नामनिर्वेद्यते भवादनया श्रोतेति निर्वेदनी। एष गाथाऽक्षरार्थः। नि०चू। भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः।।२०७|| णिसग्गकिरिया स्त्री०(निसर्गक्रिया) निसर्जनक्रियायाम, आव०। तचेदम्-"इयाणिं णिव्वेयणी। सा चउविहा। तं जहा-इहलोए दुचिण्णा णिसग्गबलरागया स्त्री०(निसर्गबलरागता) प्रकृत्या स्थिररागतायाम्, कम्मा इहलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवति त्ति / कह? जहा चोराणं पं०व०३द्वार। पारदारियाणं एवमाइ। एसा पढमा णिव्वेयणी। इदाणिं विइया--इहलोए णिसग्गचेयणाजुत्त त्रि०(निसर्गचेतनायुक्त) निसर्गा सहजा या चेतना दुचिण्णा कामा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति। कह? जहा नेरइयाण तया युक्तः सहजवेतनायुक्ते, "निसर्गचेतनायुक्तो, जीवोऽरुपी ह्यवेदकः।" अन्नम्मि भवे कयं कामं णिरयभवेफलं दे एसा विइया णिव्वेयणी गया। द्रव्या 10 अ०1 इयाणिं तइया-परलोए दुचिण्णा कम्मा इहलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति।। णिसग्गरुड़ पुं०(निसर्गरुचि) निसर्गः स्वभावः, तेन रुचिर्जिनप्र-- कहं ? जहा बालपभितिमेव अंतकुलेसु उप्पन्ना खयकोढाऽऽदीहि रोगेहि णीततत्त्वाभिलाषरूपा यस्य स निसर्गरुचिः / प्रज्ञा०१ पद / निसर्गा दारिद्येण य अभिभूया दीसंति। एसा तइया णिव्वेयणी। इदाणिं चउत्था रुचिनिसर्गतो वा रुचिरिति निसर्गरुचिः। स्वभावत एव तत्त्वश्रद्धाने, भ० णिव्वे-यणी-परलोएदुचिण्णा कम्मा परलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवंति। 25 श०७ उ०। सम्यक्त्वभेदे, स्था०१० ठा०। ध०भूतार्थेन सह संमत्या कह? जहा पुटियं दुचिण्णेहि कम्मेहिं जीवा संमासतुंडोहिं पक्खीहिं जीवाजीवाऽऽदिनवपदार्थविषयिणी रुचिनिसर्गरुचिः। भूतार्थनेत्यस्य उववजंति। तओ ते नरयपाउग्गाणि कम्माणि असंपुण्णाणि ताणि ताए भूतार्थत्वेनेत्यर्थः, भावप्रधाननिर्देशातः; सद्भूतार्था अभी इत्येवंरूपेणेति जातीए पूरिति, पूरिऊण नरयभवे वेदति। एसा चउत्था निव्वेयणी गया। यावत्। वस्तुतो भूतार्थेनेत्यस्य शुद्धनयेनेत्यर्थः / ध०२ अधिका एवं इहलोगो परलोगो वा पण्णवयं पडुच भवति, तत्थ पन्नवयस्स भूयत्थेणाधिगया, जीवाऽजीवा य पुण्णपावं च। मणुरसभवो इहलोगा, अवसेसाओ तिण्णि वि गईओ परलोगो त्ति सहसंमइयाऽऽसवसंवरो य वेएइ एस णिस्सग्गो।।२।। गाथाभावार्थः। जो जिणदिढे भावे, चउविहे सद्दहाइ सयमेव / इदानीमस्या एव रसमाह एमेव णऽण्णह त्तिय, णिस्सग्गरुइ त्ति णायव्वो // 3 // थोवं पिपमायकयं, कम्मं साहिज्जई जहिं नियमा। 'भूयत्थेण' इति भावप्रधानो निर्देशः। ततोऽयमर्थः-भूतार्थत्वेन समुद् पउरासुहपरिणामं, कहाइ णिव्वेयणीइ रसो।।२०८|| भूता अमी पदार्था इत्येवंरूपेण यस्याऽधिगताः परिज्ञाता जीवाऽजीयाः स्तोकमपि प्रमादकृतमल्पमपि प्रमादजनितं कर्म वेदनीयाऽऽदि पुण्यपापमाश्रवसंवरः, चशब्दाबन्धाऽऽदयश्च / कथमधिगताः? इत्याह(साहिज्जइ त्ति) कथ्यते यत्र नियमान्नियमेन / किविशिष्टमित्याह (सहसम्मझ्या इति) आर्षत्वाद्विभक्तिलोपाच सह सम्मत्या सहाऽऽत्मना प्रचुराशुभपरिणाम, बहुतीव्रफलमित्यर्थः। यथा यशोधराऽऽदीनामिति / या सङ्गता मतिः सा सहसम्मतिः,तया। किमुक्तं भवति? परोपदेशकथाया निवेदन्या रस एष निष्यन्दः / इति गाथाऽर्थः / / 208 // दश०३ निरपेक्षया जातिस्मरणप्रतिभाऽऽदिरूपया मत्या न केवलमधिगता,किं अ०॥ द्वा०। औ० तु तान् जीवाऽऽदीन् पदार्थान् वेदयतेऽनुरोचयति च तत्त्वरूपतया णिव्वेरिस (देशी) निर्दय, देवना०४ वर्ग 37 गाथा। आत्मसात्परिणामयति चेति भावः / एष निसर्गो निसर्गरुचिर्विज्ञेय इति णिव्वेस पुं०(निर्वेश) लाभे, स्था०५ ठा०२उ०। शेषः।।२।। अमुमेवार्थं स्पष्टतरमभिधित्सुराह-(जो जिणदिढे भावे णिव्वोढव्व त्रि०(निर्वोढव्य) निर्बाह्ये, आव०४ अ०। इत्यादि) यो जिनदृष्टान् भावान द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतो नामाऽऽदिणिव्वोदग न०(निबोदक) गृहच्छानप्रान्तगलिते जले गृहपटलान्तोत्तीर्णे | भेदतो वा चतुर्विधान स्वयमेवोपदेशनिरपेक्ष श्रद्दधाति / केनोल्लेखेन जले,पिं०। आ००। श्रद्दधाति? तत आह-एवमेव एतज्जीवाऽऽदि यथा जिनदृष्ट, नान्यथेति। णिसपुं०(निश) वृक्षविशेषे, उत्त० पाइ०१०। नृन्नरान् शंसति हिनस्तीति चः समुच्चये। एष निसर्गरुचिरिति ज्ञातव्यः / / 3 / / प्रज्ञा०१पदा आ०चू०। नृशंसः। ज्ञा०१ श्रु०२अा ध०। उत्त०। गला स्वभावत एव तत्त्वश्राद्धे, औ०।
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________________ णिसग्गसंमत्त 2136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसढ णिसग्गसम्मत्त न० (निसर्गसम्यक्त्व) निसर्गरुच्याख्ये सम्यक्त्वभेदे, आ०चू०। "णिसग्गो नाम समावो, जधा सावगपुत्तनत्तुयाणं कुलपरंप- | रागतं निसग्गत्तं भवति, जहा वा सयंभूरमणमत्थाणपडिमासंठिताणि साहुसावयाणि य पउमाणि मच्छरा वा दह्ण मा णं खओवसमेणं निसग्गसम्मत्तं भवति / तम्मूलं च देवलोगगमणं तेसिं भवति त्ति / ' आ०चू०१ अ०1 णिसज्जा स्त्री० (निषद्या) निषदनं निषद्या। आसने,प्रव०६७ द्वार। स०ा उपवेशने, व्य०४ उ०। उपवेशनविशेषे, स्था०ा सा च पञ्चधा-तत्र यस्या समंपादौ पुतौ च स्पृशतः सा समपादपुता१। यस्यां तु गोरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका 2 / यत्र पुताभ्यामुपविष्टः सन् एकं पादमुत्पाट्याऽऽस्ते सा हस्तिशुण्डिका 31 पर्याऽर्धपर्यड् का च प्रसिद्धा 4-5 / स्था०ठा०१७०। "पलियंकनिसेज्जा य, सिणाणं सो भवजण।"निषद्या च गृहे एकानेकरूपा अनाचारः। दश०६ अ० निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या। स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिते स्वाध्यायभूम्यादौ, उत्त०१ अ०। णिसह त्रि०(निसृष्ट) परेणोत्सङ् कलिते, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। दत्ते, आचा०२ श्रु०१चू०१अ०५ उ०। ज्ञा०। णिसढ पुं०(निषध(ह)) नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधः / चं०प्र० 4 पाहु०। "निषधे धो ढः" ||8/1 / 126 / / इति निषधे धस्य ढः / प्रा०१ पाद / बलीवर्दे, सू०प्र० 4 पाहु०। बलदेवस्य रेवत्यामुत्पन्ने पुत्रे, नि०। जति णं भंते ! समणेणंजाव दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता / पढमस्स णं भंते ! उक्खेवओ / एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवई नाम नगरी होत्था; दुवालसजोयणाऽऽयामा० जाव पचक्खं देवलोयभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तीसे णं वारवईए नगरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं रेवईए णामं पव्वए होत्था, तुंगे गगणतलमणुल्लिहंतसिहरे नाणाविहरुक्खगुच्छगुम्मलतावल्लीपरिगताभिरामे हंसमियमयूरकोंचसारसकागमयणसालाकोइलकुलोवचिए तडकडगविउयरओब्भरपव्वतसिहरे पउरे अच्छरगणदेवसंघविज्जाहरमिहुणसन्निवित्ते निच्चत्थणए दसारवरवीरे पुरिसतेल्लोकबलवग्गाणं सोमे सुभए पियदंसणे सुरूवे पासादीए०जाव पडिरूवे। तस्सणं रेवयगस्स पव्वयस्स अदूरसामंते एत्थ णं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था / सव्वओ य पुप्फ०जाव दरिसणिज्जे / तत्थ णं नंदणवणे उज्जाणे सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था, चिरातीए०जाव बहुजणे आगम्ममचेति सुरप्पियं जक्खाययणं / से णं सुरप्पिए जक्खा- | ययणे एगेणं महता वणसंहेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते जहा पुणभद्देजाव सिलापट्टए, तत्थ णं वारवईए नवरीए कण्हे नाम वासु देवे राया होत्था०जाव पासमाणे विहरति / से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसहं राईसरसहस्साणं पजुण्णपामोक्खाणं अद्धट्ठाणं कुमारकोडीणं सव्वया सद्धीउ दुइंतसाहस्सीणं वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसए वीरसाहस्सीणं, रुप्पिणिपामोक्खाणं सोलसण्हं देवीसहस्साणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासहस्साणं अन्नेसिं च बहूणं राईसरसत्थवाहप्पमिईणं वेयडगिरिसागरमेरागस्स दाहिणड्डभरहस्स आहेवचं०जाव विहरति / तत्थ णं वारवईए बलदेवे नाम राया होत्था, महताजाव रज्जं पासाएमाणे विहरति / तस्स णं बलदेवस्स रन्नो रेवई नामं देवी होत्था, सुकुमाला० जाव विहरति / तते णं सा रेवती देवी अन्नदा कदाई तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसिजाव सीहं सुमिणे पासत्ता एवं सुमिणदंसणपरिकहणं, कलाओ जहा महाबलस्स पन्नासओ दोतो पन्नासा रायवरकन्नगाणं एगदिवसेणं पाणिं नवरं निसढे नामंजाव उप्पिं पासादं विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी आदिकरे दसधणूई वण्णओ०जाव समोसरिते। परिसा निग्गया। तते णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हद्वतुढे कोडुंबियपुरिसं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो दुवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए समुदाणियं भेरिं तालेहि। तते णं से कोडुंबियपुरिसे०जाव पडिसुणित्ता जेणेव सदं सुणेइ, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समुदाणियं भेरिं महता महता सद्देणं ताले ति। तते णं तीसे सामुदाणियाए भेरीए महता महता सद्देणं तालियाए समाणी समुद्दविजयपामुक्खा दस दसारा देवीओ भाणियव्वाओ०जाव अणंगसेणापामोक्खा अणेगा गणियासहस्सा, अन्ने य बहवे राईसर०जाव सत्थवाहप्पभिइओ पहायाजाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया जहाविभवइड्डिसक्कारसमुदएणं अप्पेगइया हयगया० जाव पुरिसवग्गुरा परिक्खित्ता जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करतलकण्हं वासुदेवंस विजएणं बद्धावेति / तते ण से कण्हे वासुदेवे कोडु विए एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया ! अभिसे कं हत्थिकप्पे हयगयरह०जाव पचप्पिणंति / तते णं से कण्हे वासुदेव मजणघरे जाव दुरूढे अट्ठमंगलगा,जहा कूणिओ, सेयवरचा-मरेहिं उद्धृव्वमाणे हिं उद्धृवमाणे हिं समुद्दविजय पामुक्खे हिं दसहिं दसाराहिं०जाव सत्थवाइपभितीहिं सद्धिं सं परिवुड़े सव्व ड्डिएजाव रवेणं वारवईणगरं मज्झं मज्झेणं, सेसं जहा कूणिओ०जाव पजुवासति / तते णं
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________________ णिसढ 2137 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसढ तस्स निसढस्स कुमारस्स उप्पिं पासायवरगयस्स तं महतो जणसदं च जहा जमाली०जाव धम्म सोचा निसम्म वंदा, नमसइ, नमसइत्ता एवं वयासी-सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जहा चित्तो०जाव सावगधम्म पडिवजति, पडिवजेत्ता पडिगते / तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी वरदत्ते नामं अणगारे उराले० जाव विहरति / तेणं से वरदत्ते अणगारे निसढं कुमारं पासति, पासित्ता जातसड्ढे०जाव पञ्जुवासमाणे एवं वयासी-अह णं भंते ! निसढे कुमारे इढे इट्ठरूवे कंते कंतरूवे, एवं पिए मणुन्नए मणामे मणामरूवे सोमे सोमरूवे पियदंसणे सुरूवे, निसढे णं भंते ! कुमारे अयमेयारूवे मणुयइड्डिकिण्णा लद्धा किण्णा पत्ता पुच्छा? जहा सूरियाभस्स / एवं खलु वरदत्ता ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रोहीमए नाम नगरे होत्था। रिद्धमेहवन्ने उजाणे मणिदित्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे / तत्थ णं रोहीडए नगरे महब्बले नामं राया, पउमावई देवी। अन्नदा कयाई तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सीहे सुमिणे, एवं सुमिणं भाणियव्वं जहा महब्बलस्स, नवरं वीरंगतो नामं वत्तीसतो दोतो वत्तीसाए रायवरकन्नगाणं पाणिंजाव ओगिज्झमाणे ओगिज्झमाणे पाउसबरिसारत्तसरयहेमंत गिम्हवते छप्पि उउंजहा विभवे समाणे 2 इड्डे रिद्धे०जाव विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं सिद्धत्थे नाम आयरिया जातिसंपन्ना, जहा केसी, नवरं बहुस्सुया बहुपरिवारा जेणेव रोहीडए नगरे, जेणेव मेहवन्ने उज्जाणे, जेणेव मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे,तेणेव उवागतंअहापडिरूवंजाव विहरति / परिसा निग्गया। तते णं तस्स वीरंगतस्स कुमारस्स उप्पिं पासायवरगयस्स तं महता जणसद च, जहा जमाली य, निग्गते धम्मं सोचा, नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, जहा जमाली तहेव निक्खंतोजाव अणगारे जाए०जाव गुत्तबंभयारी। तते णं से वीरंगते अणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं०जाव एक्कारस अंगाई अहिज्जति, अहिन्जित बहूई०जाव चउत्थ०जाव अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाइं पणयालीसं वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता दो मासियाए संलेहणाए संलेहित्ता अत्ताणं झुसित्ता सवीसं भत्तसई अणसणे छेदित्ता आलेइय समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा बंभलोए कप्पे मणोरमविमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अप्पेगइयाणं देवाणं दससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं वीरंगयस्स देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता से णं वीरंगते देवे ताओ देवलो गाओ आउक्खए०जाव अणंतरं चयं चइत्ता इहेव वारवईए नयरीए बलदेवस्स रन्नो रेवईए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं सा रेवती देवी तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सुमिण-दसणं० जावुप्पिं पासायवरगते विहरति / तं एवं खलु वरदत्ता ! णिसढेणं कुमारेणं अयमेयारूवे उराले मणुयइड्डी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया / पभू ण मंते ! निसढे कुमारे देवाणुप्पियसाणं अंतिएन्जाव पव्वइत्तए ? हंता ! पभू से एवं भंते ! वरदत्ते अणगारे०जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।तते णं अरहा अरिट्टनेमि अन्नदा कयाई वारवतीओ नगरीओ०जाव बहिया जणवयविहारे निसढे कुमारे समणोवासए जाए अभिगतजीवाजीवेजाव विहरति / तते णं से निसढे कुमारे अन्नदा कयाई जेणेव पोसहसाला, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता०जाव दब्भसंथारोवगते णं विहरति। तते णं तस्स निसढस्स कुमारस्सं पुव्वरत्तावरत्तधम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अब्भत्थिए-धन्ना णं ते गामागरनगर०जाव संनिवेसा, जत्थ णं अरहा अरिट्ठनेमी विहरइ / धन्ना णं ते राईसर०जाव सत्थवहप्पभितिओ, जे णं अरिट्ठनेमि वंदंति, नमसंति०जाव पज्जुवासंति / जति णं अरिहा अरिट्ठनेमी पुव्वाणुपुट्विं नंदणवणे विहरेज्जा, तेणं अरिहं अरिट्ठनेमी वंदिजा०जाव पजुवासिज्जा / तते णं अरिट्ठनेमी निसढस्स कुमारस्स२ अयमेयारूवे अब्भत्थिए०जाव वियाणित्ता अट्ठारसहिं समणसहस्सेहिं जाव नंदणवणउजाणे, समोसरिता। परिसा निग्गया। तते णं निसढे कुमारे इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हट्ठ०चाउग्धंटेणं आसरहेणं गते, जहा जमाली०जाव अम्मापियरो आपुच्छित्ता पव्वइए अणगारे०जाव गुत्तबंभयारी। तते णं से निसढे अणगारे अरिहंतो अरिट्ठनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइय-- माइयं एक्कारस अंगाई अहिज्जति, अहिञ्जित्ता बहूइंचउत्थछट्ट० जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई नव वासाइं सामन्नपरियागं पाउणंति, वायालीसाई भत्ताई अणसणं छेदेति, आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते आणुपुव्वीए कालगते। तते ण से वरदत्ते अणगारे निसर्ट अणगारं कालगते जाणित्ता जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता०जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी णिसढे णामं अणगारे पगतिभद्दगे०जाव विणीओ, से णं भंते ! निसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववन्ने? तते णं से अरहा अरिट्ठनेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी-एवं खलु वरदत्ता ! ममं अंतेवासी निसढे नाम अणगारे पगइभद्दगे० जा
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________________ णिसढ 2138 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसढ व विणीए मम महारूवाणं थेराणं अंतिए सामाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जेत्ता बहुपडिपुण्णाई नव वासाइं सामण्णपरिया पाउणित्ता वायालीसं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइथपडि-। कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उद्धं चंदिमसूरियगहग-. / नक्खत्ततारारूवाणं सोहम्मीसाणं०जाव अचुते तिपिण य अट्ठारसुत्तरगेविजविमाणावाससते वीतीवइत्ता सव्वद्वसिद्धि विमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं देवाणं तेत्तीस सागरोवमाई ! ठिई पण्णत्ता / तत्थ णं निसढस्स देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। से णं भंते ! निसढे देवयाओ देवलोगाओ आउ.... क्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणं तरं चयं चइता कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति? वरदत्ता ! इहेब जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उन्नाए नगरे विसुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति। तते णं से उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणमित-. जोव्वणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए के वलं बोहिं बुज्झित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वहिति से णं तत्थ अणगारे भविस्सति इरियासमिए०जाव बंभयारी / से णं तत्थ बहूहिं चउत्थछट्टट्ठमदसमदुवालसेहिं मासऽद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणिस्सति पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसिहिति झूसित्ता, सट्ठिभत्ताई अणसणाए छेदेति / जस्सऽहाए कीरति अणगारभावे मुंडभावे अण्हाणाए०जाय अदंतधावणअत्थत्तए अणोवाहणाए फलसेज्जा कट्ठसेजा के सलोए वंभचेरवासी पराघरपवेसे लद्धावलद्धे उच्चावया य गामकंटकया अहियासिज्झति, तमढें आराहिति, आराहित्ता चरमे हिं उस्सासे हिं णिस्सासेहिं सिज्झिहिति, बुज्झिहितिजाव सव्वदुक्खाणमतं करेति। नि०१श्रु०५ वर्ग १अ०! आ०म०। विशे०प्रभ। वर्षधरपतिमद, थान 7 ठा०। स०। राम निषधः पर्वतः कास्तीति पृच्छतिकहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपव्वएपण्णत्ते? गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेणं हरिवासस्रा उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुदस्स पञ्चच्छिमेणं पञ्चच्छिमलवणसमुदस्स पुरच्छिमे एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरण्व्वए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिण्णो, दुहा लवणसमुदं पुढे पुरच्छिमिल्लाए०जाव पुढे चत्तारिजोअणसयाई उर्ल्ड उचत्तेणं चत्तारि गाउअसयाई उव्वेहेणं सोलस जोअणसहस्साइं अट्ठ य वाहल्ले जोअणसए दोण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं तस्स बाहा पुरच्छिमपचच्छिमेणं वीसं जो अणसहस्साई एगं च पणहूं जो अणसयं दुण्णि अ एगणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं तस्स जीवा उत्तरेण०जाव ऊणवई जो अणसहस्साई एगं च छप्पण्णं जोअणसयं दुण्णि अ एगूणवीसभाएजोअणस्स आयानेणं तस्स धणुंदाहिणेणं गं जोअणसहस्संचउवीसं च जोअणसहस्साई तिणि अछायाले जोअणसए णव य एगूणवीसइभाए जोअणस्स पक्खिवेणं रुअगसंठाणसंठिए सव्वतवणिज्जमए अत्थे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडे हिं०जाव संपरिक्खित्ते णिसहस्स णं वासहरपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णत्तेजाव आसयंति, सयंति। 'कहिो / ' इत्यादि प्रभसूत्र व्यक्तम्। उत्तररात्रे महाविदेहरा दक्षिा र हरिसर्प योगस्था गरिरन्यलवणोदय पश्चिमाया पथि लवणास्य पश्चिमाया पक्षिगलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यामत्रान्तरे जम्बूद्वीप निषधो नाम वर्षधरातिः प्रज्ञासः, प्राचीनप्रतीचीनेत्यादि प्राग्वत् च-चारे योजनशतान्युद्धोस वेन, चत्वारि गव्यूतशतान्युद्वेधन , भूप्रदेशेन ने वर्डसमयक्षेत्रगिरीमा स्वोमा वचतुर्थाशनोद्वेधत्वात घोडशयोजनाहयाणि द्विचत्वारिंशानि द्विवत्वारिंशदधिकानि अष्टौ च योजनशतानि दी च एकोनविंशतिभागी योजनस्य विष्कम्भेण महाहिमवतो द्विरणविष्वाभमानन्चात अथवाहाऽऽ--दिसूत्रत्रयमाह-(तस्स बाहा इत्यादि) (तरस जीवा इत्यादि) अत्र यावत्यदात्- "पाईणपड़ीणायया दुहबोलणाराभुर सुद्धा पुरछिभिल्लाए लवणसमुह०जाव पुट्टा" इति गा यम / (तस्र घणमित्यादि) एवं सूत्रानुसारेण व्याख्ययम्। अथ निषधमे / विशेषगर्वि शिष्टि-(रुअग इत्यादि) अत्र यावत्पदात- "सचओ समंता'' इति ग्राम, शेषं प्राग्वत् / अथास्य देवक्रीडायोग्यत्वं वर्णयत्राह-(शिसह इत्यादि) अत्र यावत्पदात् आलिङ्गपुष्कराऽऽदिपदकदम्बक बोध्यम् / ज०४ वक्ष०ा स०। (तन्मध्यवर्त्तिचिकित्सहदात् शीतोदा नदी प्रत्यूद्धति यक्तव्यता 'तिगिच्छदह' शब्दे वक्ष्यते) (निषेधकूटाना कूड शब्द तृतीयमागे 622 पृष्ठ वक्तव्यतोक्ता) से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ-णिसढे वासहरपव्वए, णिसढे वासहरपव्वए? गोयमा ! णिसढे ण वासहरपव्वर बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिआ उसभसंठाणसंठिआ णिसढे अइच्छदेवे महिड्डिए०जाव पलिओवमट्ठिइएपरिवसइ। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-णिसढे वासहरपव्वए, णिसढे वासहरपव्वए।। (स केणडेणं) इत्यादि व्यक्तम् / नवरं निषेधवर्षधरपर्वरी बहूनि कूटानि निपधसंस्थानरांस्थितानि। तत्र नितरां सहने स्कन्धे पृष्ठे पासमारोपितभारमिति निषधा वृषभः, पृषोदराऽऽदित्वादिष्टरलपसिद्धिा तसंस्थान - संस्थितानि / एतदेव पर्यायान्तरेणाऽऽह-वृषभसंस्थित नि, निबधश्चात्र देव आधिपत्य परिपालयति, तेन निषधाऽऽकारकूट योगाग्निपधदेवयोगाद्वा निषध इति व्यवह्रियते इति / जे०४ वक्षः। स्था०। 'हा णिसा।" स्था०२ ठा०३1०।
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________________ णिसढकूड 2136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसिज्जा णिसढकूड न०(निषधकूट) निषधपर्वताधिष्ठातृदेवनिवासोपेते (स्था०६ | इत्युक्तलक्षणे कायोत्सर्गभेदे, आव०५ अ०। ठा०) निषधवर्षधरपर्वतस्य द्वितीये कूटे, स्था० 2 ठा०३उ०ा जा णिसमेंत त्रि०(निशमयत्) आकर्णयति, आ०म०१ अ०१ खण्ड। णिसढदह पुं०(निषधहद) मन्दरस्य दक्षिणेन देवकुरुषु महाहदे, स्था० | णिसम्म अव्य०(निशम्य) ज्ञात्वेत्यर्थे, आचा०१ श्रु०१ चू०१अ०६ उ01 इह च देवकुरुषु निषधवर्षधरपर्वतादुत्तरेणाष्टौ योजनानां शतानि अवगम्येत्यर्थ, सूत्र०१ श्रु०१० अन निश्चित्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु०१ चतुरित्रंशदधिकानि योजनस्य चतुरश्च सप्तभागानतिक्रम्य शीतोदया चू० 1 अ० 3 उ०। अवधार्येत्यर्थे, स्था०३ ठा०३उ०। हृदमहानद्याः पूर्वापरकूलयोर्विचित्रकूटाभिधानौ योजनसहसोच्छ्रितो मूले येनाऽवधायेत्यर्थे, कल्प०३ क्षण। स्था०ा तं०। ज्ञा। सूत्र०ा आचा० सहस्राऽऽयामविष्कम्भावुपरिपञ्चयोजनशताऽऽयामविष्कम्भी प्रासाद णिसम्मभासि(ण) त्रि०(निशम्यभाषिण) अत्वरितभाषिणि, आचा०१ मण्डितो रवसमाननामदेवनिवासभूतौ पर्वतौ स्तः, ततस्ताभ्यामुत्तर- श्रु०१ चू०४अ०२उ०। पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य भाषके, सूत्र०१ श्रु० तोऽनन्तरोदितान्तरः शीतोदामहानदीमध्यभागवर्ती दक्षिणोत्तरतो १०अ० योजनसहस्रमायतः पूर्वापरतः पञ्चयोजनशतानि विस्तीर्णवेदिकावन णिसह त्रि०(निषध) 'णिसढ' शब्दार्थे, चं०प्र०४ पाहु०। खण्डद्वयपरिक्षिप्तौ दशयोजनावगाढो नानामणिमयेन दशयोजनना णिसहकूड न०(निषधकूट) “णिसढकूड' शब्दार्थे , स्था०६ ठा०। लेनाईयोजनबाहुल्येन योजनविष्कम्भेणार्द्धयोजनविस्तीर्णया क्रोशो णिसहदह पुं०(निषधद) 'णिसढदह' शब्दार्थे, स्था०५ ठा०२उ०। च्छ्रितया कर्णिकया युक्तेन निषधाभिधानदेवनिवासभूतभवनभासि णिसा स्त्री०(निशा) नितरां श्यति व्यापारान्। शो–कः। रात्रौ, हरिद्रायाम, तमध्येन तदईप्रमाणाष्टोत्तरशतसङ्ख्यपद्यैस्तदन्येषां च सामानिकाss मेषाऽऽदिराशिषु च। वाचला बृ०५ उ०) दिदेवनिवासभूतानां पद्मानामनेकलक्षैः समन्तात्परिवृतेन महापद्मन विराजमानमध्यभागो निषधो महाह्रदः। स्था०५ ठा०२ उ०॥ णिसाकप्प पुं०(निशाकल्प) रात्रौ द्रवाभावेन मात्रके मोकं गृहीत्या ऽऽचमने, गीतार्थाऽऽचीर्णत्वादस्य कल्पत्वम् / बृ०५ उ०। ('मोय' एतदेव सूत्रकार आह शब्दोऽत्र वीक्ष्यः) कहि णं भंते ! देवकुराए कुराए णिसढदहे णामं दहे पण्णत्ते ? | णिसापासाण न०(निशापाषाण) मुद्गाऽऽदिदलनशिलायाम, उपा०२ अ०॥ गोयमा ! तेसिं चित्तविचित्तकूडाणं पव्वयाणं उत्तरिल्लाओ णिसामिअ (देशी) श्रुते, दे०ना०४ वर्ग 27 गाथा। चरिमंताओ अट्ठ चोत्तीसे जोअणसए चत्तारि असत्तभाए जोअ णिसामित्ता अव्य०(निशम्य) आकयेत्यर्थे, उत्त०२ अ०। निशणस्स अबाहाए सीओदए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं | णिसढदहे णामं दहे पण्णत्ते / एवं जा चेव नीलवंतउत्तरकुरुचं म्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१४ अाआचा०ा अवधार्यत्यर्थे, आचा०१ श्रु०८ देरावयमालवंताणं वत्तव्वया, साचेव णिसढदेवकुरुसूरसुलस अ०३उ०। विजुप्पभाणं णेयव्वा, रायहाणीओ दक्खिणेणं ति। णिसाय (देशी) सुप्तप्रसुप्ते, देवना० 4 वर्ग 35 वर्ग। (कहि णं इत्यादि) एवमुक्ताऽऽलापकानुसारेण यैव नीलवदुत्तर णिसालोढ न०(निशालोष्ट) शिलापुत्रके, उपा०२ उ०। कुरुचन्द्ररावतमाल्यवता पञ्चानां द्रहाणामुत्तरकुरुषु वक्तव्यता, सैव / णिसिअर पुं०(निशाचर)"इ:सदादौ वा" ||8|172 / / इत्यात इत्यम्। निपधदेवकुरुसूरसुलसविद्युत्प्रभनामकानां नेतव्या; एतदीयाधि- "निरिसअरो निसाअरो।' प्रा०१ याद / "स्वस्योवृत्ते / / 8 / 1 / 8|| पसुराणां राजधान्यो मेरुतो दक्षिण इति शेषः / जं०४ वक्षा इति न सन्धिः / प्रा०१ पाद। रात्रिचरे, राक्षसे, वाच०। णिसण्ण त्रि०(निषण्ण) स्थिते, उत्त० 20 अ०। आव०। उपविष्ट, स्था०५ | णिसिक्किय अव्य०(निषिच्य) अग्नाविन्धनाऽऽदिप्रक्षिप्येत्यर्थे आचा०२ ठा०२ उ०। ज्ञा०। उत्त०। आचा०। निविष्टे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। श्रु०१चू०१ अ०७ उ०। निमग्ने सूत्र०२ श्रु०२अ० णिसिज्जा स्वी०(निषद्या)निषदनानि निषद्याः। उपवेशनप्रकारेषु, (स्था०) णिसण्णअ पुं०(निषण्णक) "संवरआसवदारो, अव्वावाहे अकंटए देसे। पंच णिसिजाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-उक्कुडुया, गोदोहिया, काऊण थिरं ठाण, ठिओ णिसण्णो णिवन्नो वा / / 1 / / " इत्युक्तलक्षणे समपायपुया, पलियंका, अद्धपलियंका। कायोत्सर्गभदे, आव०५ अof निषदनानि निषद्या उपवेशनप्रकाराः, तत्राऽऽसनलग्नपुतः पादाभ्यामणिसण्णणिसण्ण त्रि०(निषण्णनिषण्ण) "अट्टरुदंचदुवे, झायइ झाणाइ वस्थित उत्कुटुकस्तस्य या सा उत्कुटुका / तथागोर्दो हनं गोदोहिका जो णिसन्नो उ / एसो काउस्सग्गो, णिसण्णनिस्सण्णगो नाम // 1 // " तद्वद्या असौ गोदोहिका। तथा समौ समतया भूलग्नौ पादौ च पुतौ च इत्युक्तलक्षणे कायोत्सर्गभेदे, आव०५ अ०। यस्यां सा समपादपुता / तथापर्यड्का जिनप्रतिमा, तामिव या णिसणोस्सिय पु०(निषण्णोत्सृत)"धम्म सुक्कं च दुवे, झायइ झाणाइँ पद्मासनमिति रूढा। तथा अर्द्धपर्यङ्का ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणेति। जो णिसन्नो आएसो काउस्सग्गो, णिसण्णुसिओ होइ नायव्यो / / 1 // " | स्था०१ ठा०१ उ०। "णिसिज्जं गिहतरे। निषद्यां चाऽऽसनम्। सूत्र०१
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________________ णिसिज्जा २१४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसीह श्रु०६अ। आ०म०। "तिण्हमन्नयरागस्स, निसिज्जा जस्स कप्पए। जराए | णिसिय त्रि०(निशित) तीक्ष्णे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। अभिभूयस्स, बाहियस्स तवस्सिणो / / 1 / / " दश०६ अ०) जीता | णिसियर पुं०(निशाचर) पिशाचाऽऽदौ व्यन्तरे, ओघ०। प्रणिपत्य पृच्छायाम, गौममस्वामिना निषधात्रयेण चतुर्दश पूर्वाणि णिसिरणा स्त्री०(निसर्जना) दाने, आचा०२ श्रु०१ चू०१अ० 10 उ०। गृहीतानि। विशेला निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या। पादप्रोच्छनके, जीत०) निक्षेपणे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। स्था०। इयाणिं णिसिरणा दुविधाधारजोहरणोपकरणभेदे, सा च द्विधासौत्रिकी,और्णिकी चेति।बृ०३ उ०। लोइया. लोउत्तरिया य / तत्थ लोइया णिसिरणा तिविधा-सहसा, पायस्स पडोयारो, दुनिसिज्जतिपट्टपोत्तिरयहरणं!! (30) पमाएण, अणाभोगेण य / पुव्वाइलैण जोगेण किंचि सहसा णिसरति, तथा रजोहरणस्य सत्के द्वे निषद्ये। तद्यथा-बाह्या, आभ्यन्तराच। पंचविधपमायऽन्नतरेण पमत्तो णिसरति। एतविस्सती अणाभोगो, तेण इह संप्रति दशिकाऽऽदिभिः सह या दण्डिका क्रियते, सा सूत्रनीत्या / णिसिरति।"नि०चू०४ उ०। केवलैव भवति, न (2) सदशिका / तस्या निषधात्रयम्। तत्र या / णिसीइत्ता अव्य०(निषद्य) उपविश्येत्यर्थे , स्था०३ ठा०२०। दण्डिकाया उपरि एकहस्तप्रमाणाऽऽयामा तिर्यग्वेष्टकत्रयपृथुत्वा / *निषीदयितृ त्रि० / उपवेष्टरि, "सेहे रातिणियस्स सपक्खं निसीइत्ता कम्बलीखण्डरूपा सा आद्या निषद्या,(नि) तस्याश्चाग्रे दशिकाः | ___भवति।" दशा०२ अ01 सम्बध्यन्ते / तां च सदशिकामग्रे रजोहरणशब्देनाऽऽचार्यो ग्रहीष्याति णिसीइयव्व त्रि०(निषत्तव्य) संदंशकभूमिप्रमार्जनाऽऽदिन्यायेततो नासाविह ग्राह्या। द्वितीया त्वेनामेव निषधां तिर्यग् बहभिर्वेष्टकै- नोपवेष्टव्ये, भ०२श०१उ०। रावेष्टयन्ती किञ्चिदधिकहस्तप्रमाणाऽऽयामा हस्तप्रमाणमात्रपृथुत्वा णिसीढ न०(निशीथ) अप्रकाशे, नि०चू०३उ०। वस्त्रमयी निषद्या, सा आभ्यन्तरा निषद्योच्यते / तृतीया तु तस्या णिसीयंत त्रि०(निषीदत्) उपविशति, भ०१३श०६उ०। एवाऽऽभ्यन्तरनिषद्यायास्तिर्यग्वेष्टकान् कुर्वती चतुरडलाधिकैक- णिसीयण न०(निषीदन) उपवेशने, स्था०७ ठा०। व्य०। नि०० हस्तमाना चतुरखा कम्बलमयी भवति। सा च उपवेशनोपकारित्वादधुना पिं० औ०। पादप्रोच्छनकमिति रूढा, सा बाह्या निषद्येत्यभिधीयते / मिलितं च | णिसीयमाण त्रि०(निषीदत्) उपविशति, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२उ०। निषद्यात्रयं दण्डिकासहितं रजोहरणमुच्यते। ततो रजोहरणस्य सत्के द्वे णिसीरिजमाण त्रि०(निसृज्यमान) क्षिप्यमाणे, भ०८श०७उ० निषद्ये इति न विरुध्यते। पिंका निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या / उपाश्रये, णिसीह न०(निशीथ)"निशीथपृथिव्योर्वा" ||1 / 216 / / इतिथस्य पं० सं०४ द्वार। हो वा / प्रा०१ पाद। अप्रकाशे, नि०चू०३उ०। मध्यमरात्रौ, तद्वद्रहोभूतं णिसिजापट्टग पुं०(निषद्यापट्टक) रजोहरणनिषद्यायाम्, ओघा यदध्ययनं तन्निशीथम्। आचाराङ्गपञ्चमचूडायाम् , पा० नं०। णिसिजापरिसह पुं०(निषद्यापरिषह) निषद्या च उपाश्रय उच्यते, पच्छन्नं तु निसीह, निसीहनामं जहऽज्झयणं / निषीदन्त्यस्यामिति निषद्येति व्युत्पत्तिबलात्, सैवपरिषहः / श्मशानो प्रच्छन्नं तु निशीथनामकमध्ययनमिति / अथवा-निशीथं गुप्ताद्यानसत्रागारगिरिगुहाऽऽदिषु स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितेषु अनभ्यस्तपूर्वेषु र्थमुच्यते / यथा-अग्रायणीये वीर्यपूर्वे अस्ति नास्ति प्रवादे च पाठःनिवसतः सर्वत्र स्वेन्द्रियज्ञानप्रकाशपरीक्षिते प्रदेशे नियमानुष्ठानमधि "जत्थेगो दीवायणे भुंजइ तत्थ दीवायणसयं भुंजइ। जत्थदीवायणसयं तिष्ठतः सिंहव्याघ्राऽऽदिविविधभाषणध्वनिश्रवणतोऽसंजातभयस्य भुजइ तत्थेगो दीवायणो भुंजइ / तथा-जत्थेगो दीवायणो हम्मइ तत्थ चतुर्विधोपसर्गसहनेन मोक्षमार्गादप्रच्यवने, पं०सं०४ द्वार। दीवायणसयहम्मइ। जत्थदीवायणसयंहम्मइ, तत्थेगो दीवायणोहम्मइ।" णिसिजारयण न०(निषद्यारचन) उचितभूमावक्षगुरुनिषद्याकरणे, तथा चामुमेवार्थमभिधातुकाम आहपं०व०४ द्वार। अग्गेणीयम्मि जहा, दीवायण जत्थ एगों तत्थ सयं / णिसिट्ठ त्रि०(निसृष्ट) निर्गते, रा०। प्रदत्ते, आचा०१ श्रु०८ अ०२ उ०। जत्थ सयं तत्थेगो,हम्मइ वा भुंजई वा वि।। बृ०॥ स्वामिनोत्सङ्कलिते, आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०१ उ०। निसृष्टो अक्षरगमनिका सुप्रतीता / इदमालापकद्वयं सम्प्रदायप्रतीतार्थमिति नाम यस्य शय्यातरेण प्रवेशोऽनुज्ञातः / बृ०२ उ०1 गुप्तार्थत्वान्निशीथमिति। आ०म०११०२खण्ड। आ०चूला निशीथं च कु णिसित्त (देशी) सन्तुष्टे, दे०ना०४ वर्ग 30 गाथा। तः सिद्धमित्यत आह- "निसिहं नवमापुट्या, पचक्खाणस्स णिसिद्ध त्रि०(निषिद्ध) निवारिते, आ०म०१अ०२ खण्ड। तइयवत्थूओ। आयारनामधेजा, वीसइमा पाहुडा छेया॥१॥" व्य०१ णिसिद्धजोग त्रि०(निषिद्धयोग) निरुद्धसव्यापारे, पञ्चा० 12 विव० | उ०। प्रकल्पो निशीथः, स च प्रत्याख्यानपूर्वस्य यत्तृतीयं वस्तुतस्याऽपि णिसिद्धप्प(ण) पुं०(निषिद्धाऽऽत्मन) निषिद्धो निवारितः सावद्ययोगेभ्य यदाचाराऽऽख्य विंशतितमं प्राभृतम्। आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०१उ०। आत्मा स्वभावो येन स निषिद्धाऽऽत्मा। पञ्चा० 12 विव०। निषिद्धो इयाणिं णिसीहं ति दारंमूलगुणोत्तरगुणातिचारेभ्य आत्मा येन स निषिद्धाऽऽत्मा। निरतिचारे णामं ठवणाणिसीह, दव्वे खेत्ते य काले भावे य। सुसंयते, आ०म०१ अ०२ खण्ड। एसो उ णिसीहस्सा, णिक्खेवो छव्विहो होइ / / 67 //
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________________ णिसीह 2141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसीहकप्प कंठा। णामठवणा गता। दव्वणिसीहं दुविध-आगमओ, णोआ-गमओ जंतिदव्वणिसीह जाणभव्वसरीरातिरित्तं कतगफलं, जम्हा तेण या आगमओ जाणए अणुवउत्ते। णोआगमओ जाणग-भव्यसरीरवइरित्तं। कलुसुदयपक्खित्तेण मलो णिसीयति, उदगादपगच्छतीत्यर्थः / तम्हात तं चिमम् चेव कतगफलं दव्वणिसीह। खेत्तणिसीहंबहिद्दीवसमुद्दादिया, लोगाय, दवणिसीहं कतगा-दिएसु खेत्तं तु कण्हतमुणिरया। जम्हा ते पप्प जीवपुगलाणं तमभावो अवगच्छति। कालणिसीह-अहो, कालम्मि होति रत्ती, भावणिसीहं तिमंचेव॥६८|| तं पप्प रातीतमस्स णिसीयणं भवति। भावणिसीहद्रवतीति द्रव्यम्, णिसीहमप्रकाशम्। कतको णाम-रुक्खो, तरस फलं, अट्ठविहकम्मपंको, णिसीयते जेण तं णिसीह त्ति। तं कलुसोढए पक्खिप्पड़, तओ कलुस हेट्ठा ठायति, तं दव्वणिसीहं, अहवऽण्णहा विसेसो, सुइं पिजंणेति अण्णेसिं / / 7 / / सच्छ उवरि, तं अनिसीह। गयं दव्वनिसीहं। खेत्तनिसीहखेत्तमगास. तु अहत्ति संखा, विही भेओ, क्रियत इति कर्म, पङ्को-दव्ये, भावे या दव्वे पूरणे, (कण्ह इति)कण्हरातीओ, ता अणेण भगवईसुत्ताणुसारेण णेया- उदगचलणी, भावेणाणावरणातीणि पंको, सो भावपंको णिसीयते जेण / 'कति णं भंते ! कण्हराईओ पण्णताओ? गोयमा ! अट्ट कण्हराईओ तस्स भावपकस्स णिसीयणा तिविहाखओ, उवसमो, खओक्समो य। पण्णत्ताओ। कहिण भते! ताओ अट्ठ कण्हरातीओपण्णत्ताओ? गोयमा ! (जेण त्ति) करणभूतेण, तं णिसीयं भवति, तं चिमं अज्झयणं / जम्हा उप्पिं सणंकु मारमाहिंदाणं कप्पाणं, हेडिं बंभलोगे कप्पे रिटे जहुत्तं आयरमाणस्स अट्ठविहकम्मगंठी वियाराइति, तेणिमं णिसीह / विमाणपत्थडे, एत्थ णं अक्खाडगसमचउरंससंठाणसंठियाओ अट्ठ चोदग आह-जइ कम्मक्खवणस्स सामत्थाओ इमं पि णिसीधं, एवं कण्हराईओ पण्णत्ताओ / / " (तमु त्ति) तमुकाओ, सो य दव्वओ सव्वऽज्झयणाणं णिसीहत्तं भवति त्ति? गुरू भणति-आम किं पुण आउक्काओ। सो अणेण भगवतीसुत्ताणुसारेण णेओ-"तमुक्काए णं भंते! अविसेसा सव्वऽज्झयणा कम्म-क्खवणसमुत्था ? इह अज्झयणे कहिं समुट्टिए, कहिं णिट्ठिए? गोयमा ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहिया विसेसो / विसेसो णाम भेओ। को पुण विसेसो? इमो-(सुई पि ज णेति तिरियमसंखेले दीवसमुद्दे वीतीवइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स अण्णेसि) सुति सवणं सोइंदिओवलद्धी, जम्हा कारणा, ण इति पडिसेहे, बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं वायालीसंजोयणसहस्साई एति आगच्छति, प्राप्नोतीत्यर्थः। (अण्णेसिं ति) अगीत अइपरिणामो, ओगा-हित्ता, उवरिल्लाओ उज्जलताओ एगपदेसियाए सेढीए, एत्थ अतिपरिणामगाणं ति वनसेंस। किं पुण कारणं तेसिमंसुइं पिणागच्छति? तमुक्काए समुट्ठिए सत्तरस एक्कवीसे जोयणसते उड्ढे उप्पतित्ता, ततो पच्छा सुण--इदमज्झयणं अववायबहुलं / ते य अगीयत्थादिदोसजुत्त वा वित्थरमाणे 2 सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदे चत्तारि वि कप्पे आवरेत्ता विणस्सेज,तेण णागच्छति / अवि पदत्थसंभावणे / किं संभावयति? णं चिट्ठति, उड्ढ पिणंजाव बंभलोए कप्पे रिट्ठविमाण-पत्थडे संपत्ते, जति अगीयाण, अण्णसाहुपरावत्तयंताण वि सवणं पिण भवति। कओ एत्थतमुक्काए णिहिते। तमुक्काए णं भंते ! किंसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! उद्देसवायणत्थसवणाणि एवं संभावयति? अहवऽण्णहागाहा अहे मल्लगसंठिते उप्पिं कुक्कुडपंजरसंठाणसंठिते॥" (णिरया इति) समवतारिजति-अप्पगासणिसीहसद्दसामण्ण-वक्खाणओ। सीसो णरगा, ते य सीमंतगादि। एए कण्हतमुणिरया अप्पगासित्ता खेत्तणिसीह पुच्छतिलोगुत्तरलोगणिसीहाण को पडिविसेसो? उच्यते-'अट्ठविहभवंति। खेत्तणिसीहं गतं / इदाणिं कालणिसीह-कालणिसीहं रात्री ।गतं कम्मपंको गाहा / " अक्खरत्थो सो चेव / उवसंहारो इमो-जइ वि कालणिसीहं / इदाणि भावणिसीहं-भवणं भावः, णिसीहमप्पगासं, भाव लोइगारण्णमादीणि णिसीहाणि, तह वि कम्मक्खवणसमत्थाणि ण भवंतीति अविसेसे विसेसो भणितो। किं च-ताणि गिहत्थपासंडीणं ण एव णिसीहं भावणिसीह। तंदुविह-आगमओ, णोआगमओय। आगमओ जाणए उवउत्ते, णोआगमओ इम चेव पकप्पऽज्झयणं, जेण सुत्तत्थत सुतिमागच्छति।इमपुण सुतिं पिजंण एति अण्णेसिं, अण्णे निहत्थऽण्णदुभएहिं अप्पगासं, एव अवधारणे इति। तिथिया अवि सपक्खा, गीयपासंडीण वि।' नि०चू०१ उ०। *नृसिंह पुं०। पुरुषसिंहे, पुरुषोत्तमे, षो० 16 विव०। कोऽर्थ:-निसीथसद्दपट्टीकरणत्थं वा भणतिजं होति अप्पगासं, तं तु णिसीहं ति लोगसंसिद्धं / णिसीहकप्पपुं०(निशीथकल्प) निशीथाध्ययनमर्यादायाम्, (पं०भा०) जं अप्पगासधम्मं, अण्णं पि तयं निसीहं ति॥६६॥ इयाणिं णिसीहकप्पोजमिति अणिदिह, होति भवति, अप्पगासमिति अंधकार, जकारणिडेसे ............................., णिसीहकप्पं अतो वोच्छं। तगारो होइ, सदस्सअवहारणत्थेतुगारो, अप्पगासवयणस्स णिण्णयत्थे चउहा णिसीहकप्पो, सद्दहणाऽणुपालण गहण सोही। णिसीह ति, लोगे विसिटुं णिसीह अप्पगासं / जहा कोइ पवसिओ पओरसे सद्दहणा विय दुविहा, ओहनिसीहे विभागे य / / आगओ, परेण वितिए दिणे पुच्छिओ-कल्ले कं वेलमागओ सि? ओहे ति हत्थकम्मं, कुणमाणो रागडूलिया दोसा। भण्णति-णिसीहे त्ति, रात्रावित्यर्थः / न केवलं लोकसिद्धमप्पगास गिण्हणमादिविभागे, अहबोघो होति उस्सग्गो।। णिसीह जं अप्पगासधम्म, अन्नं पि, तं णिसीहं / अक्खरत्थो कंठो। अहवा होतु विभागो, सव्वं चेदं न सद्दहंतस्स। उदाहरणं-जहा लोइया रहस्ससुत्ता, विजा, मंता, जोगा य अपरिणयाणं सद्दहणाए कप्पो, होति अकप्पो पुण इमो हु / / ण पगासिज्जंति। अहवा-दव्वखेत्तकालभावणिसीहा अण्णहा वक्खाणि- मिच्छत्तस्सुदएणं, ओसन्नविहारताइसद्दहणा।
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________________ णिसीहकप्प 2142 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसीहकप्प गणहरमेरं ओहं, ण सद्दहति जो णिसीहं तु / / ओसन्नाण विहार, सदहती सुविहिताण गणमेरं। णो सद्दहती जो खलु, एस अकप्पो तु सद्दहणो।। जाणि भणिताणि सुत्ते, पुव्वावरबाहिताणि वीसाए। ताणि अणुपालयंतो, सव्वाण निसीहकप्पो तु / / सुत्तत्थतदुभयाणं, गहणं बहुमाणविणयमच्छेरं। चोदसपुस्विणिबद्धो, पकप्पगहियम्मि गणधारी।। तिविहो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव / सुत्तधर होदु तइओ, बितिओ वा होति गणधारी।। तिणिपंचपणगछक, अट्ठग नवगं च जस्स उवलद्धं / ठवणाकरणं दाणं, च सो हु सोही वियाणाहि / / णाणादीणं तियगं, पणगं ववहारों होति पंचविहो। वितियपणगं च पंच य, छकं पुण होति छक्काया / / आलोयणारिहगुणे, अट्ठ तु अहवा विसोहि अट्ठविहा। आलोयणगादीयं,मूलं तं जाणत जो उ॥ आलोयणमादीयं, अणवटुं तं तु णवविहं होति। पारंचितं तमहवा, दसविह होती च सद्देणं / / ठवणा रोयणकरणं, सफला मासा करेत्तु जो जाणे सो होति दाणअरिहो, तद्विवरीओ अणरिहो तु।। किं पुण तं दायव्वं, पायच्छित्तं तु पुच्छए सीसो। भण्णति इमेण विहिणा, दायव्वं तं तहा कमसो।। ओहेण तु सट्ठाणं, सट्ठाणविभागताएँ वित्थारो। पच्छित्तपुरिसहेतू, किं ति ण संती चरणमादी? ओहे सट्ठाणं ति य, जह चतुगुरु होति रायपिंडम्मि। सवाणविभागे पुण, ईसरमादी मुणेयव्यो / / जह वा करकम्मम्मि उ, ओहेणं होति मासगुरुयं तु / होति विभागपसंगो-ऽदिट्ठादीओ मुणेयव्वो।। पुरिसज्जातं णातुं, व दिजए जं च जारिसं वत्थु / गुरुमादि वलियदोब्बल-हट्ठगिलाणाऽऽदि जं जोग्गं / / होऊ कारणणिक्का-रणे य जयणादिसेविओ जह तु / तो देति किं निमित्तं, पच्छित्तं विज्जते सुणसु / / "पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं तु न चिट्ठइ। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थेण सचरित्तया।। तित्थम्मि य असंतम्मि, णिव्वाणं तु ण गच्छइ। णिव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा णिरत्थिया॥" एवं णिसीहकप्पो, चउहा तू वणितो समासेणं / पं०भा०॥ (चउहागाहा) "सो निसीहकप्पो चउव्विहो-सद्दहणया, आयर–णया, गहणविसोही, सोहिकप्पो या सद्दहणया दुविहा-ओहे, विभागेय। ओहे ति हत्थकम्मं करेमाणस्स तन्निप्फण्णो दोसो। विभागो गेण्हणादयो। अहवा-ओहो उस्सग्गो, विभागो अववादो। (मिच्छत्तरसुदएणं गाहा) | जो पुण मिच्छत्तोदएण न सद्दहइ, ओसन्नविहारपसंग चेव करेइ, तस्स दोससंकडया भवइ / तेण बहुदोससंकडो गणधरधारधरोघो त्ति / गणं धारयन्तीति गणधराः, धारा मेरा, मर्यादा इत्यर्थः / मेराए ओघ, तं गणधरमेरधरोधं, न सद्दहइ जो निसीहं तु अणुपालणाए (गाहा जाणि भणियाणि) जाणि भणिताणि वीसएहिं उद्देसएहिं निसीहस्स पुव्यावरवाहगाई त्ति अववादेण उस्सग्गो वाहिओ, ताई अणुपालेइ, ते अणुपालणा। (गाहा सुत्तत्थ) गहणविहिगहणे सुत्तत्थतदुभयाणं बहुमाणविणएण चोद्दसपुव्वनिबद्धं अच्छेरं ति मण्णमाणेण सोगणपरियट्टी भवइ। (गाहा तिविहो य) सोहिकप्पो त्ति तिविहो पकप्पधरो सुत्तत्थतदुभयाई, सो गणपरियट्टी, तदुभयवनगाणं पुण अत्थधरो गणपरि-यट्टी, (तिण्णि) तिण्णि जो जाणइ नाणदंसणचरित्तं, (पंच इति) पंच महव्वयाणि / अहवा-पंचिंदियाणि, पायच्छित्तं०जाव पंचिदियाणं / अहवा-पणगं नाणदरिसणचरित्ततवसंजमाई जो जाणइ सो परियट्टी। (छक्कत्ति) रायभोयणछट्ठाई वयाइं (अट्टग त्ति) आलोयणारिहाइं०जाव मूलं अट्ठविह पायच्छित्तं / (नवग इति) अणवठ्ठप्पनवमाई। एयाइंठाणाई जस्सुवलद्धाणि सो जाणइ विसोही, पायच्छित्तकरणदाणं च / (गाहा ओहणे तु) ओहो नाम-अविसे सियं, तेण ओहेण सपायच्छित्तं पडिसेवणाठाणेहिं जहा रायपिंडे चउ-गुरुगा, एए सट्ठाणे त्ति विभाएण ईसरतलवराइ, अन्ने वि होंति दोसा आकिन्नगुम्माइ। पायच्छित्तकरणं पुण पुरिसजाइं परिच्छिऊण, हेउं च समिक्खिऊण, किं निमित्तं पडिसेवियं? कारणे अकारणे त्ति जयणा वा समक्खियं / किं नामित्त पायच्छित्त दिइ? पाय-च्छित्तं सोहिकारणं / (गाहा पायच्छित्तं) पायच्छित्ते य असंतेपडिसिद्धमेव / एस निसीहकप्पो" पं०चू०। इदाणिं आयरिओ सिस्सिणीणं च इमं णिसीहऽज्झयणं हिययम्मि थिरं भवउ त्ति णिकायणत्थं इमं इमं भणइ / गाहाचउहा णिसीहकप्पो, सद्दहणाऽऽरयणगहणसोहीय। सदहण बहुविहा पुण, ओहणिसीहे विभागे य॥३८१।। अहवा जं एवं पंचमचूलाए वुत्तं सव्वं तं एयं समासतो चउव्विहं / जतो भण्णति-(चउगाहा) ओहे, विभागे य। एकेका अणेगविहा इमा। गाहाओहणिसीहं पुण होति पेढियासुत्तमो विभागो उ। उस्सग्गुववाओ ऊ, अववाओ होति उ विभागो॥१८२|| ओघः समासः, सामान्यमित्यनर्थान्तरम् / तं च णिसीहपेढियाणामणिप्पण्णो णिक्खेवो, उग्गहणादित्यर्थः / विभजनं विभागः, विस्तर इत्यर्थः / स वीसाएउद्देसएहिंजो सुत्तसंगहो, सुत्तत्थोया अहवा उस्सग्गो ओहो, तस्यापवादः विभागः। अहवाउस्सग्गो वा ओहो, आणादिसंगमो विभागो उ। वत्थु पप्प तिभागो, अवसिट्ठाऽऽवज्जणा होति॥३८३।। सुत्ते सुत्ते जं उस्सग्गदरिसणं तं ओहो होउ, जं पुण सुत्ते सुते अण्णोण्णवत्थुमिच्छत्तविराहणाविभागदरिसणं, सो विभागो। अहवाआयरियादिपुरिसवत्थुभेदेण जं भणियं सो विभागो, जो पुण अवसिट्ठा आवत्ती सो ओहो।
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________________ णिसीहकप्प 2143 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसीहचूला अहवा आदौ मासिकपदमिह, तत्प्रस्तावात्समागता मासाः। पडिसेहो वा ओहो, तक्करणाऽऽणाइ होइ वित्थारो। तानवधीकृत्याऽऽदौ, व्याख्या प्रारभ्यते चार // 3 // " आयासंजमभइया, तस्स य भेदो बहुविकप्पा / / 384|| नि०चू० 2030 ण कप्पइत्ति काउंजंज पडिसिद्ध सो सव्वो ओहो / तस्स पडिसिद्धस्स इदानीं चूर्णिकारो यदर्थं मया चूर्णिः कृता इत्येतदा-- करणाणुण्णा जा आणादिणो य भेदा, एस सव्वो वित्थरो त्ति विमागो। स ___विष्करोतिवित्थरो पुणो भाणियव्वो; णिक्कारणअविधिपडिसेवणणियमा आणाभगो. "जो गाहासुत्तत्थो, चेवंविधपागडो फुडपदत्थो। अणवत्था य, मिच्छत्तं च / ण जहा वादी तहा कारि त्ति विराहणाए रइतो परिभासाए, साहूण अणुमाहऽट्टाए।॥१॥" आयसंजमविराहणाओ भयणिज्जा कया विभवंतिण वा। जहा करकम्म "जो गाहा'' इत्यादिगाथाशब्देन भाष्यं गाथानिबद्धत्वादभिधीयते, करणे आयविराहणा भवति, ण वा। संजमेण णियमा भवति। पमत्तस्स ततो गाथा च, सूत्रं च, तयोरर्थ इति विग्रहः / (पागडो त्ति) प्राकृतः, य पढमाणस्स य आयविराहणा / तस्सेव पाणाइवायसंपत्तीए णो प्रकटो वा, पदार्था वस्तुभावा यत्र स तथा, परिभाष्यतेऽर्थोऽनयेति संजमविराहणा। एवं (तस्सि त्ति) विराहणाए भेदा / एवं बहुविगप्पा / परिभाषा चूर्णिरुच्यते। अणेग-प्रकारा उवउज्ज भाणियव्वा / एवं विभागो। ___ अधुना चूर्णिकार: स्वनामकथनार्थ गाथायुग्ममाहगाहा "तिचउपणऽट्टमवग्गा, तिपणतितिगअक्खरा चेव। अहवा सुत्तनिवाओ, ओहो अत्थाओं होति वित्थारो। तेसि पढमततिएहि, तिदुसरजुएहिं णामं कयं जस्स।।१।। अविसेसो त्ति व ओहो, जो तु विसेसो स वित्थारो॥३८५|| गुरुदिण्णं च गणित्त, महत्तरत्तं च तस्स तुट्टेहि। जे भणिता उपकप्पे, पुव्वावरबाहिता भवे सुत्ता। तेण कएसा चुण्णी, विसेसनामा निसीहस्स।।२।।" सो तह समायरंतो, सव्वो आयरणकप्पो उ॥३८६॥ "ति चउ' इत्यादि / वर्गा इह 'अ-क-च-ट-त-प-य-श-वर्गाः' सुत्तमेत्तप्रतिबद्ध, जहा–पढमसुत्ते करकम्मकरणे मासगुरुं। एस ओहो। इति वचनात् स्वराऽऽदयो हकारान्ता ग्राह्याः / तदिह प्रथम-गाथया सेसो अत्थो, जहा-पढमपोरिसीए करकम्मकरणे मूल, वितिए छेदो, जिनदास इत्येवं रूपं नामाभिहितम् / द्वितीयगाथया तदेव ततिए छगुरुं, चउत्थीए चउगुरु,पञ्चमीए मासगुरुं। एस विभागो / एवं विशेषयितुमाह-''जिणदासगणिमहत्तर इति। तेन रचिता चूर्णि-रियम्। पढमसुत्ते। एवं चेव सव्वसुत्तेसु। जो अणुवादी अत्थो सो सव्वो विभागो। अहवाजंदव्वादिपुरिसविसेसेणं अविसेसिजति सो ओहो; दव्वादिपुरि ''सम्यक्तयाऽऽम्नायभवादत्रोक्तं यत्तदुत्सूत्रम्। सविसिट्ठपुण सव्वं वित्थरे णेयव्वं / वुत्तं सट्ठाणसवहतस्स सद्दहणकप्पो। मतिमान्द्याद्वा किश्चित्तच्छोध्यं श्रुतधरैः कृपाकलितैः / / 1 / / नि०चू० 20 301 श्रीशीलभद्रसूरीणां, शिष्यैः श्रीचन्द्रसूरिभिः। णिसीद्दकरण न०(निशीथकरण) रहस्यसूत्रार्थे, विशे०/ विशकोद्देशके व्याख्या, दृब्धा स्वपरहेतवे / / 2 / / साम्प्रतमनिशीथनिशीथयोरेव स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह वेदावरुद्रयुक्ते 1174, विक्रमसंवत्सरे तु मृगशीर्षे / भूयाऽपरिणयविगए,च सद्दकरणं तहेवमनिसीहं। माघसितद्वादश्या, समर्थितेय रवौ वारे // 3 // " नि०चू० 20 उ०। पच्छन्नं तु निसीहं, निसीहनामं जहऽज्झयणं / / ('चंदसूरि' शब्दोऽत्र वीक्ष्यः) भूतमुत्पन्नम्, अपरिणतं नित्यं, विगतं विनष्टम.भतापरिणतविगतम।। णिसोहचूला खी०(निशीथचूडा) आचाराङ्गस्य पञ्चमचूडारूपे समाहारत्वादेकवचनम्। किमुक्तम्भवति? 'उप्पण्णेइ वा, विगमेइ वा, निशीथाध्ययने, नि०चू० 130 धुवेइवा'' इत्यादि। किंविशिष्टमित्यादि। शब्दकरण शब्दः क्रियते यस्मिन् आचाराने विमुक्तिचूलाऽनन्तरं निशीथचूलिकापा तत्संबन्धतत् शब्दकरणम् / आ०म०१ अ०२ खण्ड। ('करण' शब्दे तृतीयभागे श्वायम्३६८ पृष्ठे व्याख्या) 'नमिऊणऽरिहंताणं, सिद्धाणं कम्मचकमुक्काणं। णिसीहगंथ पुं०(निशीथग्रन्थ) प्रकल्पशास्त्रे,जी०१ प्रतिका सयणसिणेहविमुछाण सव्वसाहूण भावेणं / / 1 / / णिसीहचुण्णि स्त्री०(निशीथचूर्णि) निशीथाऽध्ययनव्याख्यायां सविसेसाऽऽयरजुत्तं, काउ पणामं च अत्थदायिस्स। चूर्णिग्रन्थे, नि०० / सा च चूर्णिः जिनदासगणिमहत्तरेण कृता / पज्जुण्णखमासमणस्स चरणकरणाणुपालस्स ||2|| विंशतितमोद्देशे "जे भिक्खू मासियं" इत्यादिसूत्राणां विशेषव्याख्या तु एवं कयप्पणामो, पकप्पमाणस्स विवरणं वत्ते। चन्द्रसूरिणा कृता। तथाहि पुव्वाऽऽयरियकयं चिय, अहं पितं चेव उ विसेसे / / 3 / / "प्रणस्य वीर सुरवन्दितक्रम, भणिया विमुत्तिचूला, अहुणाऽवसरो णिसीहचूलाए। विशुद्धशुद्ध्याऽखिलनष्टकल्मषम्। को संबंधो तस्सा, भण्णइ इणमो णिसामेहि // 4 // '' गुरूस्तथा निर्मलशुद्धिकारिणो, णवबंभचेरमइओ, अट्ठारसपदसहस्सिओ वेदो। विशुद्धतत्त्वान् जगते हितैषिणः / / 1 / / हवइय सपंचचूलो, बहु आयारो पयग्गेणं // 1 // विंशोद्देश श्रीनिशीथस्य चूर्णी , ब्रह्मचरणयोरुत्पत्तिनिमित्तं साधनार्थ वा शस्त्रपरिज्ञाऽऽदीनि दुर्ग वाक्यं यत्पदं वा समस्ति। उपधान श्रुतावसानानि नवाऽध्ययनान्यभिहितानि / जम्हा स्वस्मृत्यर्थ तस्य वक्ष्ये सुबोधां, णव एताणि बंभचेराणि, तम्हा णवबं भचे रमइओ इमो त्ति, व्याख्यां काश्चितसद्गुरुभ्योऽवबुद्ध्य // 2 // जहा-मिम्मओ घडो, तंतुमओ षडो, एवं णवबंभचे रम
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________________ णिसीहचूला 2144 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसीहिया इओ आयारो।सोय अज्झयणसंखाणेणणवऽज्झयणो। पयप-रिमाणेण वासपरियागस्स आरेण न दिजति त्ति, वासपरियागस्स वि अपरिणामअट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ-अट्टय दसय अट्ठारस, अट्ठारसे त्ति संखा, गस्स अतिपरिणामगस्सवान दिजति।आयारपकप्पो पुण परिणामगस्स पञ्जय इति पर्य, तं च अत्थपरिच्छेयवायगं पयं भवति, सहस्सं ति दिजति / एतेण कारणेण संबंध-गाहा पुनरुच्चायेते / अहवा बहु गणिताभिहाणेण चउत्थं ठाणं भवति जहासंख-एगं,दहं सयं, सहस्सं अतीतकालत्वात् प्रागुक्तसंबन्धस्य विस्मृतिः स्यात्. अतस्तस्य ति / स एवाऽऽयारो अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ भवति। कहम? विद प्रागुक्तसंबन्धस्य स्मरणार्थं प्रागुक्तमपि सबन्धगाहासूत्रमिह पुनरुचार्यते। ज्ञाने, अस्य धातोः घञ्प्रत्ययान्तस्य वेद इति रूपं भवति / अतस्तं नि०चू०१उ०। विदन्ति, तेन विदन्ति, तम्मि वा विदन्तीति वेदो भवति। सीसो भणति- णिसीहज्झयण न०(निशीथाध्ययन) आचाराङ्गस्य निशीथाख्यकिमेत्तियमायारो, उत अण्ण पि से अस्थि किंचि? अतो भण्णति पञ्चमचूलिकायाम्, आचा०१ श्रु०१ अ०१उ०। आ०चू०। "हवति य सपंचचूलो" हवति भवति इति भणितं होति, चशब्दो णिसीहपे ढिया स्त्री०(निशीथपीठिका) निशीथचूर्णिभूमिकायाम, चूलाणुकरिसणे, सहेति युक्तः पंच इति संखावायगो सद्दो, (चूला इति) नि०चू०। सुत्तत्थो पेढियाए देओ, नवा? कस्स देओ, कस्सवाण देओ चूल त्ति वा अगं तिवा सिहर तिवाएगट्टासाय छव्यिहा-जहादसवेयालिए इति? अहवा-कहितो सुत्तत्थो पेढियाए णिसीहियपेदियाए सुत्तत्थो भणिया तहा भणियव्वा / ताओ य पुण इमाओ पंच चूलाओ-पिंडेसणादि व्याख्यातो। सो पुण णिसीहपेढिकाए सुत्तत्थो कस्स देओ, कस्स वान जाव उग्गहपडिमा, ताव पढमा चूला। वितीया-सविक्कगा। तइया देओ? इति भण्णति। भावणा। चउत्था-विमोत्ती। पंचमी-आयारपकप्पो। एताहिं पंच-चूलाहिं जेसिं ताव ण देओ, ते ताव भणामिसहिओ आयारोबहू भवति, णवऽज्झयणेहितो बहुतरो भवति। (पयग्गेणं अबहुस्सुते वि पुरिसे, भिण्णरहस्से पईणविज्जत्ते। ति) अद्वारसपयग्गसहस्सेहिंतो पंचचूलापएहिं सहितो पयग्गेणं बहुतरो भवति त्ति / अहवा-- गवऽज्झयणा पढम-चूलासहिता बहु भवति, णिस्साणपेहए वाऽसंविग्गे दुब्बलचरित्ते / / 465|| अट्ठारसपयसहस्सा पढमचूलापदेहिं सहिता बहुतराय पयग्गेणं भवंति। बहु सुयं जस्स सो बहुस्सुतो / सो तिविहो-जहण्णो, मज्झिमो, एवं क्रमवृद्ध्या नेयं, जाव पंचमी चूला। अहवा-सपंचचूलो सुत्तपयग्गेण उकोसो / जहन्नो जेण पकप्पऽज्झयणं अधीत। उक्कोसो चोदसपुव्यधरो। मूलगंथाओ बहु भवति, अत्थपयग्गेणं बहुतरो भवति / अहवा तम्मज्झे मज्झिमो / एत्थ जहन्ने वि ताव ण पडिसेहो / न बहुस्सुओ बहुबहुतरपदेहिं सेसपदा सूचिता भवंति ते य इमेबहुतम-बहुतरतम अबहुस्सुतो, येन प्रकल्पाध्ययनं नाधीत मित्यर्थः / तस्य निशीथपीढिका बहुबहुतरतम इति। अओ भण्णतिणवबंभचेरमइओ आयारो अट्ठारसपय न देया। अहवा-अबहुस्सुतो येन हेछिल्लिसुत्तंण सुयं, सो अबहुस्सुतो सहरिसओ पढमचूलऽज्झयणसुत्तत्थपदेहिं जुत्तो बहु भवति / भण्णति / (पुरिसे त्ति) पुरिसो तिविहो-परिणामगो, अपरिणामगो, पढमचूलासहितो मूलग्गंथो दुइयचूलऽज्झयणसुत्तत्थपदेहिं जुत्तो बहुतरो अइपरिणामगो य / एत्थ अपरिणामग-अतिपरिणामगाणं पडिसेहो / भवति। एवं ततियचूलाए वि बहुतमो भवति। पढमचूलासहितो मूलग्गंथो मिण्णं रहस्सं जम्मि वि पुरिसे सो भिण्णरहस्सो, रहस्सं ण दुइयचूलऽज्झयणे सुत्तत्थपदेहिं जुत्तो बहुतमो भवति(?) एवं तति धारयतीत्यर्थः / इह रहस्सं अववातो भण्णति। तं जो अगीताणं कहेति यचूलाए वि बहुतमो भवति। चउत्थीए वि बहुतरतमो भवति। पंचमीए वि सो मिण्णरहस्सो। पइण्णावि-जत्तणं वा करेति, जस्स वा तस्स वा बहुबहुतरतमो भवति / (पयग्गेणं ति) पदानामगू पदाग्रं, पदाणेति कहयति। आदीअदिट्ठभावाण सावगाण जाव कहयति। णिस्साणंणामपदपरिमाणेनेत्यर्थः / स एवं पयग्गेणं बहुबहुतरो भवति। एवं संबंधगाहासूत्रे आलंवणं, तंपेहेति प्रार्थयति, अववातपेहि त्ति वुत्तं भवति। तं अववायपदं व्याख्याते चोदग आह-नवबंभचेरमइए आयारे वक्खाते आयारग्गाणु णिकारणे वि सेवतीत्यर्थः / ण संविगो असंविग्गो, पासत्थादि ति वुत्तं जोगारंभकाले संबंधार्थमिदमेव गाथासूत्रं प्रागुपदिष्ट, प्रथमचूडातश्व भवति। दुब्बलो चरित्ते दुब्बलचरित्तो, विणा कारणेण मूलुत्तरगुणपडिसेवणं द्वितीयचूडाया अनेनैव गाथासूत्रेण संबन्धउक्तो भवति। एवं द्वितीयचूडातः करोतीत्यर्थः / / 465|| नि०चू०१उ०। तृतीयचूडायाः, तथा तृतीयचूडातः चतुर्थचूडायाः, चतुर्थचूडातच णिसीहिया स्त्री०(निशीथिका) अल्पतरकालिकायां वसतौ, भ०१४ पञ्चमचूडायाः संबन्ध उक्त एव भवति। एवं सति प्रागुक्तस्य संबन्धगाहा- श०१० उ०। आ०चू०। निशाथिकानिक्षेपः-तत्र नामनिष्पन्ननिक्षेपे सूत्रस्येह पुनरुचारणं किमर्थम् ? आचार्य आह-पुव्वभणियं तुजं एत्थ निशीथिकेति नाम, अस्य च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभायैः षड्विधो भण्णति, तत्थ कारणं अस्थि-पडिसेहअणुण्णाकारणं, विसेसोवलंभो निक्षेपः। नामस्थापने पूर्ववत्। द्रव्यनिशीथम्-आगमतो ज्ञशरीरभव्यवा। सीसो पुच्छति-कस्स पडिसेहो, कहं वा अणुण्णा, किं वा कारणं, शरीरव्यतिरिक्तं यद् द्रव्यं प्रच्छन्नम् / क्षेत्रनिशीथं तु-ब्रह्मलोकरिष्टको वा विसेसोवलंभो? आचार्य आह-तत्र प्रतिषेधः चतुश्चूडात्मके विमानपार्श्ववर्तिन्यः कृष्णराजयो, यस्मिन् वा क्षेत्रे तद् व्याख्यायते / आचारे यत्प्रतिषिद्धत सेवंतस्स पच्छित्तं भवति त्ति काउं; कि सेवमाणस्स कालनिशीथंकृष्णरजन्यो, यत्र का काले निशीथं व्याख्यायत इति / भण्णति? सूत्रम्-"जे भिक्खू हत्थकम्मं करेति, करतं वा सातिजति' भावनिशीथानो आगमत इदमेवाध्ययनम्, आगमैकदेशत्वात् / गतो एवमादीणि सुत्ताणि / एस पडिसेहो। अत्थेण कारणं प्राप्य तमेव नामनिष्पन्नो निक्षेपः। आचा०२ श्रु०२ चू०२अ०। अणुजाणंति, तं जयणाए पडिसेवंतो सुद्धो, अजयणाए सपायच्छित्ती। अथाऽऽचाराङ्गस्य द्वितीयसप्पैकके निशीथिकागमनम्कारणमणुण्णा जुगवं गता / अयसेसोवलंभो इमो-आइल्लाओ चत्तारि पढम से भिक्खू वा भिक्खूणी वा अभिकं खति णिसीचूलाओ कमेणे व अहिजंति, पंचमी चूला आयारपकप्पो त्ति हियं गमणाए, से जं पुण णिसीहियं जाणे आ-सअंडं
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________________ णिसीहिया 2145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसीहिया सपाणंजाव मक्कडासंताणयं, तहप्पगारं णिसीहियं अफासुयं / अणेसणिजं लाभे संते णां वेतिस्सामि / / साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम् / तचेदम्-(से इत्यादि) स भावभिक्षुर्यदि वसतेरुपहताया अन्यत्र निशीथिकां स्वाध्यायभूमि गन्तुमभिका क्षेत, तां च यदि साण्डां यावत्ससन्तानकां जानीयात्ततोऽप्रासुकत्वान्न परिगृह्णीयादिति। किं च निशीथिकायामन्योऽन्यक्रियासे मिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखइ णिसीहियं गमणाए, से जं पुण णिसीहियं जाणे ज्जा-अप्पपाणं अप्पवीयं०जाव भक्कडासंताणयं तहप्पगारं णिसीहं फासुयं एसणिज्जं लाभे संते वेतिस्सामि, एवं सेज्जागमेणं णेयव्वंजाव उदयपसूयाए त्ति / / (से इत्यादि) स भिक्षुरल्पाण्डाऽऽदिकां गृह्णीयादिति / एवमन्यान्यपि सूत्राणि शय्यावन्नेयानि यावद्यत्रोदकप्रसूतानि कन्दाऽऽदीनि स्युस्तां न गृह्णीयादिति। तत्र गतानां विधिमधिकृत्याऽऽहजे तत्थ दुवग्गा वा तिवग्गा वा चउवग्गा वा पंचवग्गा अभिसंधारेइणिसीहियं गमणाए, ते णो अण्णमण्णस्स कायं आलिंगेज्जा वा, विलिंगेज्जा वा, चुंबेज्जा वा, दंतेहिं वा णहेहि वा अच्छिदेज वा, एवं खलु तस्स मिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वद्वेहिं सहिए समिए सदा जएज्जा, सेयमिणं मण्णेज्जा सि त्ति बेमि।। (जे इत्यादि) ये तत्र साधयो निषेधिकाभूमौ द्वित्राऽऽद्यागच्छेयुः, ते नान्योऽन्यस्य कायं शरीरमालिङ्गे युः, परस्परं गात्रसंस्पर्श न कुर्युरित्यर्थः / नापि विविधमनेकप्रकारं यथा मोहोदयो भवति तथा विलिङ्गेयुरिति / तथा कन्दर्पप्रधाना वक्त्रसंयोगाऽऽदिकाः क्रिया न कुर्युरित्येतस्य भिक्षोः सामग्ययद्रसौ सर्वार्थरशेषप्रयोजनैरामु-ष्मिकैः सहितः समन्वितस्तथा समितः पञ्चभिः समितिभिः, सदा यावदायुस्तावत् संयमानुष्ठाने यतैतत्तदेव य श्रेय इत्येवं मन्येतेति ब्रवीमीतिपूर्ववत् / निशीथिकाऽध्ययनं द्वितीयन्। आचा०२ श्रु०२ चू०२ अ०। *नषेधिकी स्त्री०। 'षिध' गत्यामित्यस्य निपूर्वस्य घञि निषेधः / प्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्तिः प्रयोजनमस्या नैषेधिकी। प्राणातिपातनिवृत्तायां तन्वाम्, ध०१ अधि०। आव०। उत्त०। निषेधो गमनाऽऽदिव्यापारपरिहारः, स प्रयोजनमस्याः, तमर्हतीति वा नैषेधिकी। 02 उाजीता निषीदनस्थाने, जी०३ प्रति०४ उारा०निषेधः प्रमादेभ्य आत्मनो व्यावर्तनं, तत्र भवा नैषधिकी। ग०२ अधि०॥ निषेधेन निर्वृत्ता नषेधिकी। व्यापारान्तरनिषेधरूपायां सामाचार्याम, आश्रये प्रविशतो (स्था० 10 ठा०) वसतिप्रवेशे निषिद्धोऽहं गमनक्रिययेति भणने, बृ० १उ०। ध०। रा०ा आ०म० निषेधेनासंवृतगात्रचेष्टानिवारणेन निवृत्ता तत्प्रयोजना च या शय्याऽऽदिप्रवेशक्रिया सा नैषेधिकी / पञ्चा० 12 विव०। सामाचारीभेदे, पञ्चा साम्प्रतं नषेधिकीमाह एवोग्गहप्पवेसे, णिसीहिया तह णिसिद्धजोगस्स। एयस्सेसो उचिओ, इयरस्स ण चेव नत्थि त्ति // 22 // एवमुक्तेनाऽऽवश्यकीयन्यायेन ज्ञानाऽऽदिकार्यलक्षणेन, अवग्रह-प्रवेशे शय्याऽऽदिप्रवेशने, नैषेधिकी सामाचारीविशेषो भवति। तथेत्ययवग्रहप्रवेशापेक्षया विशेषणान्तरसमुच्चयार्थः / तचेदम्- निषिद्धयोगस्येत / अथवा तथाऽऽगमन्यायेन, निषिद्धयोगस्य निरुद्धासद व्यापारस्य। करमादियमस्येत्याह-एतस्य निषिद्धयोगस्य, एष नैषेधिकीशब्दस्यात्वर्थयोगो, नैषेधिकीशब्दोचार इत्यन्ये, उचितः संगठः / विपर्ययमाह-- इतरस्यानिषिद्धयोगस्य पुनः, नैव उचित एष इति प्रकृतम् / चशब्दः पुनरर्थ: / स च सम्बन्धित एव / कस्मान्नोचित इत्याह-नास्तीति न विद्यते अन्वर्थ इति कृत्या / इति गाथाऽर्थः / / 22 / / अथ करमादवग्रहप्रवेशे नैषेधिकी विधेयेत्यत आहगुरुदेवोग्गहभूमीऍ जत्तओ चेव होति परिभोगो। इट्ठफलसाहगो सइ, अणिट्ठफलसाहगो इहरा / / 23 / / गुरुदेवावग्रहभूम्या आचार्यदेवाधिदेवाऽऽश्रयभुवः, यत्नत एव आशातनापरिहारप्रयत्नेनैव, चैवशब्दोऽवधारणे / भवति वर्तते परिभोगः / स च किंभूतः? इत्याह- इष्टफलसाधकः ईप्सितार्थनिष्पादकः, कर्मक्षयहेतुरित्यर्थः / सकृत्सर्वदा। उक्तव्यतिरेक-माहअनिष्टफलसाधकः, कर्मबन्धहेतुरित्यर्थः / इतरथाऽन्यथा, अप्रयत्नत इत्यर्थः / गुरुदेवा व ग्रहभूमेः परिभोग इति प्रकृतम्। तत्र गुर्ववग्रहस्वरूपमावश्यकेऽभिहितम् / यथा-"आयप्पमाणमेत्तो, चउद्दिसिं होइ उग्गहो गुरुणो।" इति / देवावग्रहस्तु न वापि ग्रन्थे दृष्टः, केवलं भण्यमानः श्रुतः / यथा-"सत्थोगहोय तिविहो, उक्कोसजहन्नमज्झिमो चेव। उक्कोसो *सट्ठिहत्थो, जहण्ण नव सेस विचालो॥१॥” इति गाथाऽर्थः // 23 // देवाऽऽद्यवग्रहभूमेरेव प्रयत्नपरिभोग्यतां समर्थयन्नाहएत्तो ओसरणाऽऽदिसु, दंसणमेत्ते गयाऽऽदिओसरणं। सुबइ चेइयसिहरा-इएसु सुस्सावगाणं पि॥२४॥ (एत्तो त्ति) यतो गुर्वाद्यवग्रहभूमेः प्रयत्नपरिभोग इष्टफलसाधको भवतीतोऽस्मात्कारणात, अवसरणाऽऽदिषु जिनसमवसरणप्रभृतिषु विषयभूतेषु, तेषामित्यर्थः / षष्ठ्यर्थत्वात्सप्तम्याः। आदिशब्दात्समवसरणसम्बन्धिमहेन्द्रध्वजचामरतोरणाऽऽदिपरिग्रहः। दर्शनमात्रे दृष्टिमात्र एव सति, गजाऽऽद्यपसरणं गजाश्वशिबिकाप्रभृतिभ्यो देवावग्रहगमनप्रवहणेभ्योऽवतरणं प्रयत्नविशेषलक्षणम्, श्रूयते आकर्ण्यते प्रवचने तेषु तेष्वाख्यानकेषु, तथा चैत्यशिखराऽऽदिकेषु जिनभवनशिखरकलसध्वजप्रभृतिषु, एषामित्यर्थः / दर्शनमात्र इति वर्तते / सुश्रावकाणामपि श्रमणोपासकविशेषाणामपि, सभवसरणजिनभवनाऽऽदिषु प्रवेष्टुकामानामिति गम्यते। सुसाधूनां पुनर्गुर्वाद्यवग्रहप्रेवशे प्रयत्नो विधेय इत्यर्थसंसूचनार्थोऽपिशब्दः / सुश्रावकग्रहण चेतरेषामुक्तविधेरन्यथात्वसंभवोपदर्शनार्थम्। इति गाथाऽर्थः // 24 // अथ यस्य नैषेधिकी भावती भवति, तमभिधित्सुराहजो होइ निसिद्धप्पा, णिसीहिया तस्स भावतो होइ।
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________________ णिसीहिया 2146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसीहिया अणिसिद्धस्स उ एसा, वइमेत्तं चेव दट्ठव्वा / / 25 / / यः प्राणी, भवति स्यात्, निषिद्धो निवारितः सावद्ययोगेभ्य आत्मा स्वभावो येन स निषिद्धाऽऽत्मा। नैषेधिकी उक्तनिर्वचना, तस्य प्राणिनः, भावतः परमार्थतः भवति स्यात्। अथोक्तविपर्ययमाह-अनिषिद्धस्य तु अनिवृत्तस्य पुनः, सावद्यादिति गम्यते / एषा नैषेधिकी, वाइमात्र वागेक्केवला, निरर्थकत्यर्थः / भवति स्यात्, द्रष्टव्याऽवसेया / इति गाथाऽर्थः / पञ्चा०२२ विवा ___ साम्प्रतं नैषेधिकी प्रतिपादयन्नाहसेज्जं ठाणं च जहिं, चेएइ तहिं निसीहिया होइ। जम्हा तत्थ निसिद्धो, तेणं तु निसीहिया होइ। शेरते अस्यामिति शय्या-शयनस्थान, तां शय्यां शयनस्थानं चेति स्थानमूर्द्धस्थानं, कायोत्सर्ग इत्यर्थः / यत्र चेतयते 'चिती' संज्ञाने। अनुभवरूपतया विजानाति, वेदयत इत्यर्थः। अथवा-चेतयते करोति, धातूनामनेकार्थत्वात् / शयनक्रियां च कुर्वता निश्चयतः शय्या कृता भवति, ततश्च यत्र स्वपितीत्यर्थः / चशब्दो वीराऽऽसनाऽऽद्यनुक्तसमुचथार्थः / अथ वा तुशब्दार्थे द्रष्टव्यः, स च विशेषणार्थः / किं विशिनष्टीति चेत? उच्यते-प्रतिक्रमणाऽऽद्यशेषकृतावश्यकः सन् अनुज्ञातो गुरूणां शय्यां स्थानं च यत्र चेतयते, तत्र एवंविधस्थितिक्रियाविशिष्ट स्थाने नैषेधिकी भवति, नाऽन्यत्र / किमित्यत आह-यस्मात्तत्र निषिद्धोऽसौ, तेन कारणेन नैषेधिकी भवति, निषेधाऽऽत्मत्वात्तस्या इति / पाठान्तरं वा-"सेजं ठाणं च जया, चेते तइया निसीहिया होइ। जम्हा तया निसीहा, निसेहमइया य सा जेण / / 1 / / " इयमुक्तार्थत्वात्सुगमैवा अनेन ग्रन्थेन मूलगाथया आवश्यकी निर्गच्छन् यांच आगच्छन् नैषेधिकीं करोति, व्यञ्जनमेतद् द्विधेत्येतत् स्थितिरूपनषेधिकीप्रतिपादनं व्यञ्जनभेदनिबन्धनमधिकृत्य व्याख्यातम्। साम्प्रतममुमेवार्थमुपसंजिहीर्षुराह भाष्यकार:आवस्सियं च निंतो, जं च अयंतो निसीहियं कुणइ। सेञानिसीहियाए, निसीहियाअभिमुहो होइ।। आवश्यकी निर्गच्छन् नैधिकीं करोति, तदेतद्व्याख्यातमिति शेषः / उपलक्षणमेतत् / ततः सह तृतीयपादेन व्यञ्जनमेतद् द्विधेत्यनेनेति द्रष्टव्यम् / साम्प्रतमर्थः पुनर्भवति, स एव गाथाऽवयवार्थः प्रतिपाद्यते। तत्र इत्थमेक एवार्थो भवति / यस्मान्नैषधिक्यपि नावश्यकर्त्तव्यव्यापार गोचरतामतीत्य वर्तते, ततः संयमयोगानुपालनायाशेषपरिज्ञानार्थ चेत्थमाह-(सेज्जानिसीहियाए, निसीहियाअभिमुहो होइ इति) शय्यैव नषेधिकी शय्यानषेधिकी, तस्यां शय्यानषेधिक्यां विषयभूतायाम, किं शरीरमपिनषेधिकीत्युच्यते? इत्यत आह-शरीरनैषेधिक्या करणभूतया आगमनं प्रत्यभिमुखः, ततः संवृतगात्रैः साधुभिर्भवितव्यमिति संज्ञा करोति, ततोऽवश्यकर्त्तव्यव्यापाररूपत्वाद् नैषेधिक्यप्यावश्यकीत्येक एवार्थः। एतदेव सुव्यक्तं भावयतिजो होइ निसिद्धऽप्पा, निसीहिया तस्स भावतो होइ। अनिसिद्धस्स निसिहिया, केवलमेत्तं हवइ सद्दो।। यो भवति निषिद्धाऽऽत्मा-निषिद्धो मूलगुणोत्तरगुणातिचारेभ्य आत्मा / येनेति समासः / नैषधिकी तस्य निषिद्धाऽऽत्मनो, भावतः परमार्थतो, भवति। न निषिद्धोऽनिषिद्ध उक्तेभ्य एवातिचारेभ्यः, तस्याऽनिषिद्धस्य अनुपयुक्ततया गच्छतो नैषधिकीशब्दमात्रमेव केवलं भवति, न भावतः आह-यदि नामवं, तत एकार्थतायाः किमायातम् ? उच्यतेनिषिट्वाऽऽत्मनो नैषधिकी भवतीत्युक्तम्। सचआवस्सयम्मि जुत्तो, नियमनिसिद्धो त्ति होइ नायव्वो। अहवा वि निसिद्धऽप्पा, नियमा आवस्सए जुत्तो।। आवश्यके मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानरूपे, युक्तः (नियमनिसिद्धो त्ति होइ नायव्वो इति) नियमेन निषिद्धो नियमनिषिद्ध इत्येवं भवति ज्ञातव्यः / आवश्यक ऽपि चाऽऽवश्यकयुक्त स्यैवेत्यत एकार्थता / अथवेति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः / निषिद्धाऽऽत्माऽपि नियमादावश्यके युक्तो, यतोऽप्येकार्थतेति / पाठान्तरम्"अहवा वि निसिद्धडप्पा, सिद्धाणं अंतियं जाइ।" इति। अस्यायमर्थ:तदेवंतावत् क्रियाया अभेदेन एकार्थता उक्ता, इह तु कार्याभेदेनैकार्थतोच्यते / अथवेति प्रकारान्तरे, निषिद्धाऽऽत्माऽपि सिद्धानामन्तिक समीपं याति गच्छति / अपिशब्दादावश्यकयुक्तोऽप्यतः कार्याभेदादेकार्थता / आ०म०१अ०२खण्ड / आ०चूल। उत्त०। निषेधेन स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निता नषेधिकी। स्वाध्यायमात्रनिमित्ते स्थाने, व्य०१ उ०। तत्र का नैषेधिकी, का वाऽभिशय्या? इति व्याख्यानयतिठाणं निसीहिय त्ति य, एगढ़े जत्थ ठाणमेवेगं। चिंतेति निसिहियं वा, सुत्तऽत्थनिसीहिया सा उ।। सज्झायं काऊणं, निसीहियातो निसिं चिय उर्वे ति। अभिवसिउं जत्थ निसिं, उति पातो तई सेजा।। तिष्ठन्ति स्वाध्यायव्यापृता अस्मिन्निति स्थानम् / निषेधेन स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निवृत्ता नैषेधिकी। ततः स्थानमिति वानषेधिकीतिवा (एगट्ठमिति) एकार्थम्, द्वावप्येतौ तुल्यार्थाविति भावः / व्युत्पत्त्यर्थस्य द्वयोरप्यविशिष्टत्वात् / तत्र यत्र स्थानमेव स्वाध्यायनिमित्तमेकं, न तु ऊर्ध्वं स्थानं, त्वग्वर्त्तनस्थानं वा / चेतयन्ति निशि रात्रौ, दिवा वा, सा सूत्रार्थहेतुभूता नैषेधिकी / एतेनास्मिन् या नषेधिक्युक्ता सा सूत्रार्थप्रायोग्या नैष-धिकी प्रतिपत्तट्या, न तु कालकरणप्रायोग्या नैषेधिकी प्रतिपत्तव्या। किमुक्तं भवति? यस्यां नैषधिक्यां दिवा स्वाध्यायं कृत्वा दिवैव, यदि वा निशि च स्वाध्याय कृत्वा निश्येव, निशायामवश्यं नैषेधिकीतो वसतिमुपयन्ति, सा नषेधिकी, यस्यां पुनषेधिक्यां दिवा निशायां वा स्वाध्याय कृत्वा रात्रिमुषित्वा प्रातर्वसतिमुपयन्ति (तई इति) तका अभिशय्या अभिनिषोति भावः / व्य०१ उ०। सोपद्रवेतरायां स्वाध्यायभूमी, स० 22 सम०। ज्ञा०। स्था०। 'सिज्जा निसीहियाए य, समावन्नो य गोयरे।' शय्यायां वसतौ नैषेधिक्या स्वाध्यायभूमौ शय्यैव वाऽसमञ्जसनिषेधान्नैषेधिकी, तस्यां समापन्नः / दश०५ अ०२उ०। स्वाध्यायकरणे, उत्त०२६ अ०। शवपरिष्ठापनभूमौ, अनु०। गृहाऽऽदिव्यापारपरिहारे, सङ्घा०१ अधि०१ प्रस्ता०।
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________________ णिसीहियापरिसह 2147 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिसेह नि णिसीहियापरिसह पुं०(नषेधिकीपरिषह) निषेधनं निषेधः पापकर्मणा पडिमंठियस्स कुटिया, अग्गी सीसम्मिजालेति||३उत्त० गमनाऽऽदिक्रियायाश्च, स प्रयोजनमस्या नैषेधिकी, श्मशानाऽऽदिस्वाध्यायाऽऽदिभूमिर्निषद्येति यावत्। सैव च परिषहो नैषेधिकीपरिषहः / निष्क्रान्तः प्रव्रजितो गजपुरात् कुरुदत्तसुतो, गतश्च साकेतम्, उत्त०२ अ०ा नैषेधिकी स्वाध्यायभूमिः शून्यागाराऽऽदिरूपा, तत्परि- प्रतिमास्थितस्य (कुटियत्ति) हुतगवेषकाः, अग्निं शिरसि ज्यालयन्तीति षहणं च तत्रोपसर्गष्वत्रासः / भ०८ श०८उ०। निषद्यापरिषहे, यथा- गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः। उत्त०३अ०॥ "श्मशानाऽऽदौ निषद्यायां, स्त्र्यादिकण्टकवर्जिते। उपसर्गाननिष्टटान्, अथ कुरुदत्त (सुत) साधुकथा-अत्र नैषेधिकीपरिषहः। कोऽर्थः? यथा निरीही निर्भयः सहेत्॥१॥" ध०२ अधि०।''श्मशानाऽऽदिनिषधास्तु, ग्रामाऽऽदिषु अप्रतिबद्धेन चर्यापरिषहः सहनीयः, तथा शरीरेऽप्रतिबद्धेन स्यादिकण्ट-कवर्जिते। उपसर्गाननिष्टष्टानैकोऽभीरस्पृहः क्षमेत्।।१।।'' नषेधिकीपरिषहः सहनीयः। नैषेधिकी नाम शरीरमित्यर्थः / अथ कथाआ०म० १अ०२ खण्ड। हस्तिनागपुरे हभ्यपुत्रः कुरुदत्त (सुत) नामा प्रव्रजितः विहरन क्रमात एतदेव सूत्रकार आह साकेतपुराददूरप्रदेशे प्रतिमायां स्थितः। तत्र चरमपौरुष्या सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व एगओ। गोधनापहारिणश्चौराः समायाताः, तत् पृष्ठे त्वरितं गताः, पश्चाद् अकुवकुओ निसीएजा, न य वित्तासए परं॥२०॥ गोस्वामिनः समायाताः। तैश्चौरमार्गस्वरूपे पृष्ट स यतिः न किश्चिद् ब्रूते। (सुसाणे इति) शवाना शयनमस्मिन्निति श्मशानं, तस्मिन् पितृ-वने, / ततः संजातको पैस्तैः शिरसि मृत्पालिं कृत्वाऽङ्गाराः क्षिप्ताः, स श्वभ्यो हितमिति वाक्ये "उगवादिभ्यो यद्" // 5 / 1 / 2 / / इत्यत्र 'शुनः यतिर्मनागनपसृतः तां वेदनामधिसहमानः सिद्धिं गतः। उत्त०२०। संप्रसारण दीर्घत्वम्।" (वा०) इति वचनतो यति संप्रसा-रणे दीर्घत्वे च / णिसीहियारय त्रि०(निशीथिकारत) स्वाध्यायध्यायिनि, आचा०२ शून्यम्, तच तदगारं च शून्यागारं, तस्मिन् वा। वृश्च्यत इति वृक्षः, तस्य श्रु०१चू० 30 मूलमधो भूभागो वृक्षमूलं, तस्मिन् वा, एक उक्तरूपः, स एवैककः, एको णिसीहियासत्तिक्कय न०(निशीथिकासप्तैकक) आचाराङ्गस्य वा प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ गच्छतीत्येकगः,एक वा कर्मसाहित्यविगमतामोक्षं द्वितीय श्रुतस्कन्धस्य सप्लैककस्याष्टमाध्ययनस्य द्वितीये निशीगच्छति तत्प्राप्तियोग्यानुष्ठानप्रवृत्तेर्यातीत्येकगः, अकुक्कुचोऽशिष्ट- थिकाप्रतपादकेऽध्ययने, आचा०२ श्रु०२ चू०। स्था०। चेष्टारहितो, निषीदेत् तिष्ठेत् न च नैव, वित्रासयेत परम् अन्यम्। किमुक्तं णिसुअ (देशी) श्रुते, देखना०४ वर्ग 27 गाथा। भवति? 'पडिमं पडिवञ्जिया मसाणे, नो भयाए भयभेरवाई दिस्स। | णिसंभ पं०/ निशम्भ) पश्चमे प्रतिवासदेवे. प्रव०२११ द्वार तिआव०। विविहगुणतवोरए य निचं, सरीरं चाभिकखए स भिक्खू / / " इत्या | पातिते, दे०ना० 4 वर्ग 36 गाथा। गममनुसरन् श्मशानाऽऽदावप्येककोऽप्यनेकभयानकोपलम्भेऽपि न णिसुंभण त्रि०(निपातयत्) भूमौ पातयति, सूत्र०१ श्रु०६ अ०१ उ०। स्वयं संविभीयाद्, न च विकृतस्वरमुखविकाराऽऽदिभिरन्येषां भयमुत्पा णिसुंभा स्त्री०(निशुम्भा) बलेवैरोचनेन्द्रस्य पञ्चानामग्रमहिष्याम्, दयेत् / यद्वा-(अकुक्कुए त्ति) अकुक्कुचः कुष्ट्यादिविराधनाभयात्कर्म स्था०४ ठा०२ उ०। ज्ञा०। (अस्याः पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' बन्धहेतुत्वेन कुत्सितहस्तपादाऽऽदिभिरस्यन्दमानो निषीदेत् / न च शब्दे प्रथमभागे 170 पृष्ठे उक्ता) वित्रासयेत् विक्षोभयेत, परमुन्दुराऽऽदि। मा भूदसंयम इति सूत्रार्थः / / 20 / / णिसुड त्रि०(निपातित)"क्तेनाप्फुण्णाऽऽदयः" ||84258|| इति तत्र च तिष्ठतः कदाचिदुपसर्गोत्पत्तौ यत्कृत्यं तदाह निपातितशब्दस्य निसुड्ढाऽऽदेशः / प्रा०४ पाद / तत्थ से अत्थमाणस्स,उवसग्गाऽभिधारए। णिसुढ धा०(नम्) नतौ, भाराऽऽक्रान्तेर्नमेर्णिसुढ इत्यादेशः। 'णिसुढइ। संकाभीओ न गच्छेज्जा, उद्वित्ता अन्नमासणं / / 21 / / भाराऽऽक्रान्तो नमतीत्यर्थः। प्रा०४ पाद। तत्रेति श्मशानाऽऽदौ 'से' तस्य तिष्ठतः / तथा च 'अत्थमाणस्स त्ति' / णिसणिऊ अव्य०(निश्रुत्य) श्रवणं कृत्वेत्यर्थे , जीवा०१ अधिका आसीनस्य, उप सामीप्येन सृज्यन्ते तिर्यग्मनुष्यामरैः कर्म- | णिसेज्जा स्त्री० (निषद्या) स्त्रीवसतौ, स्त्रीभिः कृतायां मायायाम, "तम्हा वशगेनाऽऽत्मना वा क्रियन्त इत्युपसर्गाः, तेऽभिधारयेयुः, अन्त- समणा ण समेति आयहियाए सण्णिसेजाए।" सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०। वितेवार्थत्वादभिधारयेयुरिव / कोऽर्थः? उत्कटतयाऽत्यन्तो पण्यशालायाम्, हट्टे,क्षुद्रखटायाम्, वाच०। 'णिसज्जा' शब्दार्थे च / प्रव० सिक्तरिपुवदभिमुखीकुर्युरिव / यथैते सह्या वयं, तत्प्रगुणीभूयाऽ- 67 द्वार। भिमुखैः स्थेयमिति / यदा-सोपस्कारत्वात् सूत्राणाम्, उपसर्गाः णिसेय पुं०(निषेक) कर्मपुद्गलानां प्रतिसमयानुभावरचनायाम्, स्था०६ संभवेयुस्ततस्तानभिधारयेत्।किनेते ममाचलितचेतसः कर्तुमल–मिति ठा०। आचा०। गर्भाधाने, “निषेकाऽऽदि श्मशानान्तम्।" इति मनुः। चिन्तयेत्। पठ्यते च--"उव सग्गभयं भवे।'' इति सुगमम् / शङ्काभीत वाचन इति / तत्कृतापकारशङ्कातो भीतस्त्रस्ता न गच्छन्न यायादुत्थाय / णिसेविय त्रि०(निषेवित) आसेविते, आ०म०१ अ०१ खण्ड। आश्रिते, कोऽर्थः ? तत्स्थानमपहाय अन्यदपरम्, आस्यतेऽस्मिन्नित्यासनं उत्त०२० अ० स्थानमिति सूत्रार्थः / / 21 / / उत्त०पाई०३ अ० णिसेह पुं०(निषेध) 'षिध' गत्यामस्य निपूर्वस्य घनि निषेधनं निषेधः / णिक्खंतो गयपुरओ, कुरुदत्तसुओ गओ य साएए। आव०३अ० निवारणायाम, पञ्चा०११ विव०
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________________ णिसेहण 2148 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिस्साठाण णिसेहण न०(निषेधन) वारणे, आ०म०१ अ०२ खण्ड। णिस्सा स्त्री०(निश्रा) रागे, व्य०१ उ०ा पक्षपाते, व्य०३उ०ा उपसंपदि, णिसेहणा स्त्री०(निषेधना) वारणायाम, आव०१ अ० व्य०४उ०ा आश्रयणे, भ०३ श०२ उ०! णिसेहिया स्त्री०(नषेधिकी) निषिध्यन्ते निराक्रियन्तेऽस्यां कर्मा-णीति | णिस्साठाण न०(निश्रास्थान)अवलम्बनस्थाने, उपग्रहहेतौ, स्था० नषेधिकी निर्वाणभूमिः। "कृत्यल्युटोऽन्यत्रापि' इत्यत्रापि-ग्रहणबभाद् धम्म णं चरमाणस्स पंच णिस्साठाणा पण्णत्ता / तं जहाल्युट् / यदि वा निषेधे सकलकर्मनिराकरणलक्षणे भवा नैषेधिकी। छक्काया, गणो, राया, गाहावई, सरीरं। मुक्तिगतौ, उत्त० 10 अ०। शवपरिष्ठापनाभूमौ, ग०२ अधि०। धर्म श्रुतचारित्ररूपं, णमित्यलङ् कारे, चरतः सेवमानस्य, पञ्च निषीदनस्थाने, द्वारकूटसमीपे नितम्बे, जी०३ प्रति०४ उ०। निश्रास्थानान्यवलम्बनस्थानानि,उपग्रहहेतव इत्यर्थः / षट्कायाः णिस्फल त्रि०(निष्फल)"सपोः संयोगे सोऽग्रीष्मे" ||8||286 / / / पृथिव्यादयः तेषां च संयमोपकारिता आगमप्रसिद्धा। इति सकारसंयोगे स एव / प्रा०४ पाद। फलरहिते, प्रा०४ पाद। तथाहि-पृथिवीकायमाश्रित्योक्तम्णिस्संक त्रि०(निःशङ्क) निर्दये, इहपरलोकाऽऽशङ्कारहिते, व्य० 10 'ठाणनिसीयतुयदृण-उच्चाराईण गहणनिक्खेवे। उ०। शङ्काया अभावो निःशङ्कम्। संशयाभावे, पञ्चा०६ विव०ा निर्गता घट्टगडगलगलेवो, एमाइपओयणं बहुहा / / 1 / / " शङ्का देशसर्वशङ्कारूपा यस्य स निःशकः / सूत्र०२ श्रु०७ अ०। आचा०। अपकायमाश्रित्यशङ्कारहिते, उत्त० 16 अ० निर्भर, दे०ना० 4 वर्ग 32 गाथा। ''परिसेयपियणहत्था-इधोयणे वीरधोयणे चेव। णिस्संकिय त्रि०(निःशङ्कित) शङ्कन शङ्कितं शङ्का, निर्गतं शङ्कितं आयमणभाणधुवणे, एमाइपओयणं बहुहा / / 2 / / " यस्मादसौ निःश कितः / देशसर्वशङ्कारहिते, व्य०१ उ०ा दश। ध०) तेजस्कायम्प्रतिगानि०चूला उत्तास्था०। निःसंशये, राणा शङ्कनं शङ्कितं देशतः सर्वतश्च "ओयणवंजणपाणग-आयामुसिणोदगं च कुम्मासा। शङ्काऽऽत्मकम् / तस्याभावो निःश कितम् / उत्त० 28 अ०। प्रव०। मगलसरक्खसूइय–पिप्पलमाई य उवओगो॥३॥" संशयाभावे निःसंदेहे, औ०। वायुकायमभिणिस्संग त्रि०(निस्सङ्ग) बाह्याभ्यन्तरसङ्गरहिते, आ०म०१ अ०१ "दइएण वत्थिणा वा, पओयण होज वाउणा मुणिणो। खण्ड / उत्त० पुत्रकलत्रमित्रधनधान्यहिरण्यसुवर्णाऽऽदिसकल गेलण्णम्मि वि होज्जा, सचित्तमीसे परिहरेज्जा // 4 // " सम्बन्धविकले, पा० आवन वनस्पतिं प्रतिणिस्संचार त्रि०(निस्संचार) द्वारापद्वारैजनप्रवेशनिर्गमवर्तिते, ज्ञा०१ "संथारपायदंडग-खोमियकप्पायपीढफलगाई। श्रु०८अ० णिस्संत त्रि०(निःशान्त) नितरामतिशयेन शान्त उपशमो वाऽन्तः ओसहभेसज्जाणि य, एमाइ पओअणं तरुसु॥५॥" क्रोधपरिहारेण बहिश्च प्रशान्ताऽऽकारतया निःशान्तः। उत्त०१ अ०) सकाये पञ्चेन्द्रियतिरश्च आश्रित्योक्तम्अत्यन्तमन्दभूते, राका ''चम्मऽद्विदंतनहरोमसिंगअमिलाणछगणगोमुत्ते। णिस्संधि त्रि०(निस्सन्धि) निर्विवरे, "णिस्संधिवारविरीहया।'' प्रश्र० खीरदहिमाइयाणं, पंचिंदियतिरियपरिभोगे"|६|| आश्र०द्वारा एवं विकलेन्द्रियमनुष्यदेवानामप्युपग्रहकारिता वाच्या / तथा गणो णिस्संस त्रि०(निःशंस) श्लाघारहिते, प्रश्र०२ आश्र० द्वार। गच्छः, तस्य चोपग्राहिता--"एगस्स कओ धम्मो, इत्यादिगाथा-- णिस्संसय त्रि०(निस्संशय) संदेहाभावे, "ततो णिज्जीवं निस्सं-सयं पूगादवसेया। तथामुणिऊण।" आ०म०१ अ०१ खण्ड। सूत्र०। णिस्सण्ण त्रि०(निःसञ्ज्ञ) नष्टसझे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। "गुरुपरिवारो गच्छो, तत्थ वसंताण निजरा विउला। णिस्सयर न०(निःस्वकर) स्वकर्मानादिसम्बन्धत्वात्तदपनयनस विणयाउ तहा सारणमाईहिँ न दोसपडिवत्ती।।७।। मर्थानि निःस्वकरणि। कर्मविश्लेषकेषु, आचा०२ श्रु०४ चू०१उ०। अन्नन्नावेक्खाए, जागति तर्हि पयदंतो। णिस्सरण न०(निःसरण) पलायने,व्य०१ उ०) निर्गमे, स्था०४ ठा०२ उ०) नियमेण गच्छवासी, असंगपयसाहगे नेओ॥८॥" इति। णिस्सरणणंदि(ण) त्रि०(निःसरणनन्दिन्) निःसरणेन निर्गमेण नन्दति तथा राजा नरपतिः, तस्य धर्मसहायकत्वं दुष्टेभ्यः साधुरक्षणात्। यो, नन्दियं यस्य स निःसरणनन्दी। प्राधूर्णकशिष्या-ऽऽदीनामात्मनो | उक्तं च लौकिकैःवा गच्छाऽऽदेर्निर्गमेण प्रसन्ने पुरुषजाते, स्था०४ ठा०२उ० क्षुद्रलोकाऽऽकुले लोके, धर्म कुर्युः कथं हि ते ? णिस्सरिअ (देशी) सस्ते, देवना०४ वर्ग 40 गाथा। क्षान्ता दान्ता अहनतारश्चेद्राजा तान्न रक्षति // 1 // " णिस्सल्ल त्रि०(निश्शल्य) मिथ्यादर्शनाऽऽदिशल्यरहिते, स०६ सम०) तथाआ०म०। उत्त "अराजके हि लोकेऽस्मिन्, सर्वतो विहृते भयात्। णिस्सह त्रि०(निःसह) नितरामशक्ते, स०६ अङ्गा रक्षार्थमस्य सर्वस्य, राजानमसृजत्प्रभुः / / 2 / / " इति।
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________________ णिस्साठाण 2146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिस्सेयस तथा गृहपतिः शय्यादाता, सोऽपि निवास्थानम्, स्थानदानेन / णिस्सिचमाण त्रि०(निस्सिञ्चत्) दत्त्वोद्वरितं प्रक्षिपति, "उस्सिचमाणे संयमोपकारित्वात्। - या निस्सिचमाणे वा आमज्जमाणे वा पमञ्जमाणे वा।" आचा०२ श्रु०१ यदुक्तम् चू०६ अ०६उ० "धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, पिस्सिचिय अव्य०(निःषिच्य) तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम्। कृत्वेत्यर्थे , दश०५ अ०१उ०। गुणश्रीसमालिङ्गितेभ्यो वरेभ्यो, णिस्सिय त्रि०(नि:श्रित) 'श्रिञ्' सेवायाम् / आ००४ अ० निश्चयेन मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः"॥१॥ श्रितः संबद्धो निःश्रितः। अध्युपपन्ने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०॥ संबद्धे, तथा प्रवृत्ते, प्रतिबद्धे, सूत्र०१ श्रु०१० अ० प्रश्नवा लिङ्ग-प्रमिते, स्था०६ "जो देइ उवसयं जइ-वराण तवनियमजोगजुत्ताणं। ठा०। सम्म०। आश्रिते, स्था० 10 ठा० स० सूत्र०। आसक्ते, सूत्र०१ तेणं दिण्णा वत्थऽण्णपाणसयणासणविगप्पं" ||1|| इति। श्रु० 1 अ० १उ०। भावे क्तः। रागे आहा--राऽऽदिलिप्सायाम्, स्था०८ तथा शरीर कायः; अस्य च धर्मोपग्राहिता स्फटव। ठा०। निश्रा रागः,निश्रा संजाताऽ-स्येति निश्रितः / रक्ते, यतोऽवाचि सर्वाऽऽशंसायुक्ते, शिष्यत्वाऽऽदिप्रतिपन्ने, स्था०५ ठा०२ उ०। *निःसृत त्रि०ा निर्गते, स्था०७ ठा० आचाल। "तं चिय सरूवओ जं, "शरीरं धर्मसंयुक्त, रक्षणीयं प्रयत्नतः। अणिस्सियम्मि त्ति / " तमेव लिङ्ग निश्रया जानानो निःसृतं शरीरात श्रवते धर्मः, पर्वतात्सलिलं यथा // 1 // इति। मुणतीत्युच्यते। विशेष भवति चात्राऽऽर्या णिस्सील त्रि०(निःशील) निर्गतशुभस्वभावे दुःशीले, स्था०३ ठा०१ "धर्म चरतः साधोलॊके निश्रापदानि पञ्चैव। उ०। सुस्वभाववर्जित, स्था०३ठा०२उ०। गताऽऽचारे, जं० २वक्ष०। राजा गृहपतिःरपरः, षट् काया गणशरीरे च"||१|| समाधानरहिते, भ०१२श०८उ०ा अपगतशुभस्वभावे, ज्ञा०१ श्रु०१८ इति / शेषं सुगमम् / स्था०५ ठा०३उ०। अ०। महाव्रताणुव्रतविकले, भ०७ श०६ उ०। ब्रह्मचर्यपरिणामाभावात् णिस्साण न०(निश्राण) आलम्बने, "णिस्साणपेहि त्ति अववात-पेहि (दशा०५ अ०) गृहस्थे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१3०। (निःशीलानां त्रैविध्यं त्ति वुत्तं भवति।" नि०चू०१ उ०। प्रश्न। 'लोग' शब्दे वक्ष्यते) णिस्साणपय न०(निश्राणपद) निश्रायते मन्दश्रद्धाकैरासेव्यते इति तओ ठाणा णिस्सीलस्स णिव्वयस्स णिग्गुणस्स णिम्मेरस्स निश्राणं, तब तत्पदं च निश्राणपदम्। अपवादे, बृ०१उ०॥ णिप्पचक्खाणपोसहोववासस्सगरहिया भवंति। तं जहा–अस्सिं णिस्सार त्रि०(निःसार) सारवर्जिते प्रजलिप्रायगुणधान्ये, स०६ अङ्ग / लोए गरहिए भवइ, उववाए गरहिए भवइ, आयाइगरहिए भवइ। सारो हि विषयगणरसतत्प्राप्तौ तृप्तिस्तदभावान्निःसारम् / तओ ठाणा ससीलस्स सव्वयस्स सगुणस्स समेरस्स तथाविधसाररहिते, आचा०१श्रु०३अ०२ उ०ाजीणे, आचा०१ श्रु०४ सपचक्खाणपोसद्दोववासस्स पसत्था भवंति। तं जहा-अस्सिं अ०३ उ०॥ वेदवचनाऽऽदिवत्तथाविधयुक्तिरहिते परिफल्गुश्रुते, अनु०) लोगे पसत्थे भवइ, उववाए पसत्थे भवइ, आयाएपसत्थे भवइ।। विशेला यत्र सारोऽर्थो न विद्यते अस्थि चर्म शिलापृष्ठंवृद्ध इति। बृ०१उ० (तओ ठाणा इत्यादि) त्रीणि स्थानानि निःशीलस्य सामान्येन णिस्सारय त्रि० [निस्सार(वत्)] निर्गत एकान्ततः सारश्चारित्रा-ऽऽख्यो शुभस्वभाववर्जितस्य, विशेषतः पुनर्निव्रतस्य प्राणातिपाताऽऽद्ययस्य सनिःसारः। यदिवा निर्गतस्य सारो निःसारः, स विद्यतेयस्याऽसौ निर्वृत्तस्य निर्गुणस्योत्तरगुणापेक्षया, निर्मर्यादस्य लोककुलाऽऽद्यनिःसारवान् / साररहिते, "णिस्सारए होइ जहा पुलाए।" सूत्र०१ पेक्षयाः निःप्रत्याख्यानपोषधोपवासस्य गर्हितानि जुगुप्सितानि श्रु०७ अ०॥ भवन्ति। तद्यथा--(अस्सिं ति) विभक्ति-परिणामादयं लोकः 'इदं णिस्सारिय त्रि०(निःसारित) संयमाच्च्याविते, विषयोन्मुखता जन्म' गर्हितो भवति, पापप्रवृत्त्या विद्वज्जनजुगुप्सितत्वात् / तथा मापादिते, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० उपपातोऽकामनिर्जराऽऽदिजनितः किल्विषाऽऽदिदेवभवो नारक-भवो णिस्सावयण न०(निश्रावचन) निश्रया वचनं निश्रावचनम् / वा, उपपातो देवनारकाणामिति वचनात्, स गर्हितो भवति, किल्विषाआहरणतद्देशभेदे, स्था०ा कमपि सुशिष्यमालम्ब्य यदन्यप्रबोधार्थ वचनं भियोग्याऽऽदिरूपतयेति, आजातिस्तस्मात् च्युतस्योद्वृत्तस्य वा निश्रावचनं, तद्यत्र विधेयतयोच्यते तदाहरणं निश्रावचनम्-यथा कुमानुषत्वतिर्यक्त्वरूपा गर्हिता, कुमानुषाऽऽदित्वादेवेति / असहनान् विनेयान् मार्दवसम्पन्नमन्यमालम्ब्य किचिद् ब्रूयात्, उक्तविपर्ययमाह-(तओ इत्यादि) निगदसिद्धम्। स्था०३ ठा०२ उ०। गौतममाश्रित्य भगवानिवेति। तथाहि-किल गौतमं तापसाऽऽदिप्रव्रजिताना केवलोत्पत्तावनुत्पन्नकेवलत्वेनाधृतिमन्तं चिरसंसृष्टोऽसि गौतम! णिस्सेणि स्त्री०(निःश्रेणि) अवतरण्याम्, प्रश्न०१आश्र० द्वार। आचा० चिरपरिचितोऽसि गौतम ! मा त्वमधृतिं कार्षीरित्यादिना वचनसंदोहे णिस्सेयस न० (निःश्रेयस) निश्चितं श्रेयः प्रशस्यम् / स्था०३ ठा०४ नानुशासयताऽन्येऽप्यनुशासिताः, तदनुशासनार्थं द्रुमपत्रकाध्ययनं च उ०। कल्याणे, स्था०६ ठा०। कर्मक्षयहेतुत्वात् (आचा०१ श्रु०८ प्रणिन्ये इति / उक्तं च -''पुच्छाएँ कोणिओ खलु, निस्सावयणम्मि अ०४ उ०) अभ्युदयप्राप्तौ,उत्त०६अ। निश्चितकल्याणे मोक्षे, गोयमस्सामी।" स्था०४ठा०३ उ०। दशा०४ अ०। मोक्षे, नि०१श्रु०१ वर्ग१ अ०।स्था०। औ०। नं० दशा०
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________________ णिस्सेयस 2150 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिहि आ०म०1 धा स्था०ा अभिलषितविषयावाप्त्याऽभ्युदये, उत्त०८ अ०। | राज्ये तत् तथा। मारितदायादे, स्था०६ ठा० णिस्सेयसिय त्रि०(नैःश्रेयसिक) निःश्रेयसं विपद् मोक्षमिच्छतीति | णिहयरय त्रि०(निहतरजस्) निहतं रजो भूय उत्थानासम्भवाद् यत्र नैःश्रेयसिकः / भ० 15 श०। निःश्रेयसं मोक्षः, तत्र नियुक्त इव / तन्निहतरजः / शान्तरजसि, राof "अप्पेगतिया देवा णिहयरयं णहरयं नैःश्रेयसिकः / मोक्षयोग्ये मोक्षार्थिनि, प्रति० भ०। भट्ठरयं उवसंतरयं पसंतरयं करें ति / ' निहतं रजो यस्यां सा णिस्सेस त्रि०(निःशेष) सम्पूर्णे , दश० अ०२ उ०। निहतरजास्ता, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थाना-भावेनाऽपि णिस्से सकम्ममुक्क त्रि०(निःशेषकर्ममुक्त) क्षीणसकलकर्मणि. सम्भवति। जी०३ प्रति०४ उाराण पञ्चा०२ विव०। णिहयसत्तु त्रि०(निहतशत्रु) निहता रणाङ्गणे पतिताः शत्रयो यत्र णिह त्रि०(निभ) सदृशे, आ०म०१अ०१खण्ड। तन्निहतशत्रु हतशत्रुके, "ओहयसत्तु णिहयसत्तुमवियसत्तु निजियसत्तु।" *निह त्रिका निहन्यते निहः। निपूवार्द्धन्तेः कर्मणि भः / आचा०१ श्रु०२ रा०। स्था०। सूत्र अ०३उ०ामायिनि, सूत्र०१ श्रु०६अ। क्रोधाऽऽदिभिः पीडिते, सूत्र०१ | णिहुव धा०(कम्) इच्छायाम्, “कमेणिहुवः॥४॥४४।। कमेः स्वार्थे श्रु०२ अ०१३०। निहन्यते प्राणिनः कर्मवशगा यस्मिन् तन्निहम् / ण्यन्तस्य णिहुवेत्यादेशः। णिहुवइ'। 'कामेइ।' प्रा०४ पाद। आघातस्थाने, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२उ०। णिहस पुं०(निकष)"निकष-स्फटिक-चिकुरे हः" |8/1 / 186|| *स्निह त्रिका स्निह्यते श्लिष्यते अष्टप्रकारेण कर्मणा इति स्निहः। रागवति, इति कस्य हः / प्रा०१ पाद! "शषोः सः" ||6/1 / 260 / / इति षस्य आचा०१ श्रु०४ अ०३ उ०। रागद्वेषयुक्ते, आचा०१ श्रु०५ अ०३उ०। सः / प्रा०१ पाद। कषपट्टकरेखायाम्, प्रज्ञा०१७ पद 2 उ०। वल्मीके, ममत्वसहिते, सूत्र०१ श्रु०२अ०२उ०| देखना०४ वर्ग 25 गाथा। णिहट्ट अव्य०(निर्हत्य) पृथक् कृत्वेत्यर्थे , "बहु अद्वियं मंसं पडिभाएता / णिहा स्वी०(निहा) निहन्यन्ते प्राणिनःसंसारे यथा सा निहा। मायायाम्, णिहटु दलएजा।" आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०१० उ०) सूत्र०१ श्रु०८ अ० *निहत्य अव्या स्थापयित्वेत्यर्थे , ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। णिहाअ (देशी) स्वेदे, समूहे च / देखना०४ वर्ग 46 गाथा। णिहट्ठ त्रि०(निघृष्ट) कृतनिघर्षे, "तदिअसणिहद्वाणंग।''प्रा०२ पाद। णिहाण न०(निधान) रत्नाऽऽदौ, स्था० 5 ठा०१ उ०। निधौ, अनु०। णिहण न०(निधन) विनाशे, सम्म०१ काण्ड / पर्यन्ते, दर्श०४ तत्त्व। निक्षिप्ते, "दव्वे निहाणमाई।" दश०८अ०। "तचेव णिहणमुवगतो।" आ०म०१ अ०१ खण्ड। "णिहणाहि णिहाय अव्य०(निधाय) व्यवस्थाप्येत्यर्थे , सन्निधिं कृत्वेत्यर्थे , सूत्र०१ रागदोसमल्ले।" कल्प०५ क्षण। कूले, देवना०४ वर्ग 27 गाथा। श्रु०७अ० परित्यज्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० णिहणिंसु (निहतवत्) क्षिप्तवति, आचा०१ श्रु० अ०३उ० णिहार पुं०(निहार) निर्गमे प्रमाणे, स्था०८ ठा०| णिहत्त न०(निधत्त) निधानं निहितं वा निधत्तं, भावे कर्मणिक्त-प्रत्यये | णिहालेउं अव्य० (निभाल्य) सम्यग्विलोक्येत्यर्थे, ग०२ अधि०। निपातनात् / उद्वर्तनापवर्तनावर्जितशेषकरणानामयोग्य-त्वेन सम्यकपरीक्ष्येत्यर्थे, ग०१अधिo कर्मणाऽवस्थापने, स्था०४ ठा०२ उ०। भ०ा निषिक्ते, निषेकश्च / णिहि स्त्रीला०(निधि) नितरां धीयते स्थाप्यते यस्मिन् स निधिः। प्राकृते प्रतिसमयबहुहीनहीनतरस्य दलिकस्यानुभवनाथ रचना (सका स्था०। "वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्" ||811 / 35 / / इति वा स्त्रीत्वम् / प्रा०१ सूत्र०) निश्चिते, प्रमाणे, निकाचिते, "मागहस्स ण जोयणस्स पाद। विशिष्टरत्नसुवर्णाऽऽदिद्रव्यभाजने, स्था०। अट्ठधणुसहस्साई निधत्ते पण्णत्ते।" स्था०८ ठा०। पंच णिही पण्णत्ताातं जहा-पुत्तणिही, मित्तणिही, सिप्प-णिही, णिहत्ति स्त्री०(निधत्ति) उद्वर्तनापवर्तनावर्जशेषकरणाऽयोग्यत्वेन धनणिही, धन्नणिही। व्यवस्थापने, क०प्र०१ प्रक०। तत्र न निधिरवि निधिः, पुत्रश्वासौ निधिश्च पुत्रनिधिद्रव्योपार्जकत्येन णिहम्म धा०(निहम्म) गतौ,'णिहम्मई'। 'णीहम्मइ / ' आहम्मइ। पित्रोर्निहिहेतुत्वात्, अत एव स्वभावेन च तयोरानन्दसुखकरत्वाच / 'पहम्मइ।' इत्येते तु हम्मगतावित्यस्यैव भविष्यन्ति / गच्छति। प्रा०४ अत्रोक्तं परैः-''जन्मान्तरफलं पुण्यं, तपोदानसमुद्भवम् / सन्ततिः पाद। शुद्धवंश्या हि, परत्रेह च शर्मणः।।१॥"इति। तथा मित्रंसुहृत्तच तन्निधिश्चेति णिहय त्रि०(निहत) मारिते, "जक्खा हु वेयावमियं करेंति, तम्हा उ एए मित्रनिधिरर्थकामसाधकत्वेनाऽऽनन्दहेतुत्वात् / तदुक्तम्" कुतस्तणिहया कुमारा।" (32) उत्त० 12 अ०। निश्चयेन हन्यते इति निहतः। स्यास्तु राज्यश्रीः, कुतस्तस्य मृगेक्षणाः / यस्य शूरं विनीतं च, नास्ति भावरिपुभिरिन्द्रियकषायकर्मभिर्हन्यमाने, आचा०१ श्रु० 4 अ०३उ० मित्रं विचक्षणम्" ||1 // शिल्पं चित्राऽऽदिविज्ञान, तदेव निधिः णिहयकंटय त्रि०(निहतकण्टक) निहता मारणात्कण्टका दायादा यत्र | शिल्पनिधिः / एतच विद्योपलक्षणं, तेन विद्या निधिरिव पुरुषार्थसाधनत्वात्।
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________________ णिहि 2151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णिहि अत्रोक्तम्-“विद्यया राजपूज्यः स्यात्, विद्यया कामिनीप्रियः। विद्या हि सर्वलोकस्य, वशीकरणकार्मणम्''॥१॥ इति।। तथा धननिधिः कोशः / धान्यनिधिः कोष्ठाऽगारमिति / अनन्तरं निधिरुक्तः; स च द्रव्यतः पुत्राऽऽदिः। भावतस्तु कुशलानुष्ठानरूपं ब्रह्म। स्था०५ ठा०३उ०। भाण्डागारे, ज्ञा०१ श्रु०३अ०। ____ महापुरुषाणां चक्रवर्तिनां संबन्धि निधिप्रकरणमाह-- एगमेगे णं महानिही नवनवजोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ते / / एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचकवट्टिस्स नव महानिहीओ पण्णत्ताओ। तं जहानेसप्पे पंडुए पिंगले य सव्वरयणे महापउमे। काले य महाकाले, माणवगमहानिही संखे / / 1 / / "एगमेगे" इत्यादि सुगमम्। नवरंनेसप्पम्मि निवेसा, गामागरनगरपट्टणाणं च / दोणमुहमडबाणं,खंधाराणं गिहाणं च / / 2 / / इह निधानतन्नायकदेवयोरभेदविवक्षया नैसर्पो देवः,तस्मिन्सति, तत इत्यर्थः / निवेशाः स्थापनानि अभिनवग्रामाऽऽदीनामिति / अथवाचक्रवर्तिराज्योपयोगिद्रव्याणि सर्वाण्यपि नवसु निधिष्ववतरन्ति, नवनिधानतया व्यवह्रियन्त इत्यर्थः / तत्र ग्रामाऽऽदीनामभिनवानां पुरातनानां च ये सन्निवेशा निवेशनानि, ते नैसर्पनिधौ वर्तन्तो, नैसर्पनिधितया व्यवह्रियन्त इति भावः / तत्र ग्रामो जनपदप्रायलोकाधिष्ठितः, आकरो यत्र सन्निवेशे लवणाऽऽद्युत्पद्यते, न करो यत्रास्ति तन्नकरम्, पत्तनं देशीस्थानं, द्रोणमुखं जलपथस्थलपथयुक्तम्, मडम्वमविद्यमानप्रत्यासन्नावासं, स्कन्धवारः कटकनिवेशः, गृह भवनमिति / / गणियस्सय वीयाणं, माणुम्माण्णस्स जं पमाणं च / पण्णस्स य वीयाणं, उप्पत्ती पंडुए भणिया।।३।। गणितस्य दीनाराऽऽदिपूगफलाऽऽदिलक्षणस्य, चकारस्य व्यवहितसम्बन्धः; स च दर्शयिष्यते। तथा बीजानां तन्निबन्धन-भूताना, तथा मान सेटिकाऽऽदि, तद्विषयं यत्तदपि मानमेव, धान्याऽऽदिमयमिति भावः / तथोन्मानं तुलाकर्षाऽऽदि, तद्विषयं यत्तदप्युन्मानं, खण्डगुडाऽऽदि धरिममित्यर्थः / ततो द्वन्द्व समाहारः कार्यः। ततस्तस्य च किमित्याहयत्प्रमाणं,चकारो व्यवहितसम्बन्ध एव, तथैव दर्शयिष्यते। तत्पाण्डुके भणितमिति लिङ्गपरिणामेन सम्बन्धः / तथा धान्यस्य ब्रीह्यादेवीं जानां च तद्विशेषाणामुत्पत्तिश्च या सा पाण्डुके पाण्डुकनिधिविषया, तद् व्यापारोऽयमिति भावः। भणितोक्ता जिनाऽऽदिभिरिति / / 3 / / सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं / आसाण य हत्थीण य, पिंगलयणिहिम्मि सा भणिया।। कण्ठ्या ||4|| रयणाइँ सव्वरयणे, चउदस पवराई चक्कवट्टिस्स / उप्पाजंति य एगिं-दियाई पंचिंदियाइंच // 5 // अक्षरघटनैवम्-रत्नान्येकेन्द्रियाणि चक्राऽऽदीनि सप्त, पञ्चेन्द्रियाणि, सेनापत्यादीनि सप्त, उत्पद्यन्ते भवन्ति, यानि चक्रवर्तिनस्तानि सर्वाणि सर्वरत्ने सर्वरत्ननामनि निधौ द्रष्टव्यानीति भावः।।५।। वत्थाण य उप्पत्ती, निप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं। रंगाण य धोवाण य, सव्वा एसा महापउमे॥६॥ वस्त्राणा वाससा योत्पत्तिः सामान्यतो, या च विशेषतो निष्पत्तिः सिद्धिः सर्वभक्तीनां सर्ववस्त्रप्रकाराणा, सर्वा वा भक्तयः प्रकारा येषां तानि तथा, तेषाम्। किंभूतानां वस्त्राणामित्याह-रङ्गाणां रङ्गवतां, रक्तानामित्यर्थः / धौताना शुद्धस्यरूपाणां,सवैषा महापद्मे महापद्यनिधिविषया।६।। काले कालण्णाणं,नव्वपुराणं च तीसु वासेसु / सिप्पसयं कम्माणि य, तिन्नि पयाए हियकराई / / 7 / / काले कालनाम्नि निधौ, कालज्ञानं कालस्य शुभाशुभरूपस्य ज्ञानं वर्तते, ततो ज्ञायत इत्यर्थः / किंभूतमित्याह-नवीनवस्तु-विषयं नव्यं, पुरातनवस्तुविषयं पुराणं, चशब्दाद्वर्तमानवस्तुविषयं वर्तमानं, (तीसु वासेसु त्ति) अनागतवर्षत्रयविषयमतीतवर्षत्रय-विषयं चेति / तथाशिल्पशतं कालनिधौ वर्तत, शिल्पशतं च घट 1 लोह 2 चित्र 3 वस्त्र 4 नापित 5 शिल्पाना प्रत्येक विंशतिभेदत्वादिति / तथा कर्माणि च कृषिवाणिज्याऽऽदीनि, कालनिधाविति प्रक्रमः। एतानि च त्रीणि कालज्ञानशिल्पकर्माणि, प्रजाया लोकस्य हितकराणि निर्वाहाभ्युदयहेतुत्वेनेति // 7 // लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकाले आगराणं च। रुप्पस्स सुवण्णस्स य, मणिमुत्तसिलप्पवालाणं / / 6 / / लोहस्य चोत्पतिर्महाकाले निधौ भवति वर्तते, तथा आकराणां च लोहाऽऽदिसत्कानामुत्पत्तिराकरी करणलक्षणा, एवं रूप्याऽऽ-- दीनामुत्पत्तिः सम्बन्धनीया / केवलं मणयश्चन्द्रकान्ताऽऽदयः, मुक्ता मुक्ताफलानि, शिलाः स्फटिकाऽऽदिकाः, प्रवालानि विद्रुमाणीति // 8 // जोहाण य उप्पत्ती, आवरणाणं च पहरणाणं च। सव्वा य जुद्धणीई, माणवए दंडनीई य |6|| योधानां शूरपुरुषाणां योत्पत्तिरावरणानां संनाहानां प्रहरणानां खड्गाऽऽदीनां, सा युद्धनीतिश्च व्यूहरचनाऽऽदिलक्षणा, माणवके निधौ निधिनायके वा भवति, ततः प्रवर्तत इति भावः / दण्डेनोपलक्षिता नीतिर्दण्डनीतिश्च सामाऽऽदिश्चतुर्विधा / अत एवोक्तमावश्यके-"सेसा उदंडनीई, माणवगनिहीउ होइ मरहस्स।"EN णट्टविहिणाडयविही,कव्वस्स चउव्विहस्स उप्पत्ती। संखे महानिहिम्मी, तुडियंगाणं च सव्वेसिं // 10 // नाट्य नृत्यं, तद्विधिस्तत्करणप्रकारो,नाटकं चरितानुसारिनाटकलक्षणोपेतं, तद्विधिश्च इहपदद्वये द्वन्द्वः / तथा काव्यस्य चतुर्विधस्य धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थप्रतिबद्धग्रन्थस्य 1, अथवा संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसंकीर्णभाषानिबद्धस्य 2, अथवा-समविषमार्द्धसमवृत्तबद्धतया गद्यतया चेति३, अथवा-गद्यपद्यगेयचीर्णपदभेदबद्धस्येति 4 / उत्पत्तिः प्रभव शङ्के महानिधौ भवति , तथा तूर्याङ्गाणां च मृदङ्गाऽऽदीनां सर्वेषामिति // 10 //
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________________ णिहि 2152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णीततर चक्कट्ठपइट्ठाणा, अदुस्सेहा य नव य विक्खंभे। निर्व्यापारे, तूष्णीके, सुरते च / देवना० 4 वर्ग 50 गाथा। वारसदीहा मंजू-ससंठिया जाण्हवीइ मुहे / / 11 / / णिहुआ (देशी) कामितावाम, दे०ना०४ वर्ग 26 गाथा। चक्रे ष्वष्टसु प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा अवस्थानं येषां ते तथा / अष्टौ | णिहुइंदिय त्रि० (निभृतेन्द्रिय) अनुद्धतेन्द्रिये,दश०१ अ०1 योजनान्युत्सेध उच्छ्रायो येषां ते तथा / नव च, योजनानीति गम्यते।। णिहुण (देशी) व्यापारे, दे०ना०४ वर्ग 26 गाथा। विष्कम्भे विस्तरे, निधय इतिशेषः। द्वादशयोजनानि दीर्घा, मञ्जूषा प्रतीता, | णिहूअन०(देशी) सुरते,देखना०४ वर्ग 26 गाथा। तत्संस्थितास्तत्संस्थानाः, जाहव्या गङ्गाया मुखे भवन्तीति॥११॥ णिहेलण न०/पुं०(नलय) "गोणाऽऽदयः" / / 8 / 2 / 174 / / इति वेरुलियमणिकवाडा, कणगमया विविहरयणपडिपुण्णा। निलयस्थाने निहेलणाऽऽदेशः / आलये, गृहे, प्रा०२ पाद / गृहे, जघने ससिसूरचक्कलक्खण-अणुसमजुगबाहुवयणा य॥१२।। च / दे॰ना० 4 वर्ग 51 गाथा। वैडूर्यमणिमयानि कपाटानि येषां ते तथा; मयशब्दस्य वृत्त्या | णिहोड धा० नि-य-पत्-णिच निवारणे, पातने च। "निवृपत्योर्णिहोमः उत्कर्षतेति-कनकमयाः सौवर्णाः, विविधरत्नप्रतिपूर्णाः प्रतीताः, // 8 / 4 / 22 // निवृगः पतेश्च ण्यन्तस्य णिहोडेत्यादेशः / 'णिहोडइ / ' शशिसूरचक्राऽऽकाराणि लक्षणानि चिह्नानि येषां ते तथा, अनुसमा निवारेइ / निवारयति / पातयति वा / प्रा०४ पाद / व्य०। अविषमाः (जुग त्ति) यूपः, तदाकारा वृत्तत्वाद्दीर्घत्वाच बाहवोद्वारशाखा णिहोडिय त्रि०(निपातित) अधःकृते,दर्श०३ तत्त्व। वदनेषु मुखेषु येषां ते तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारये शशिसूरचक्रलक्ष णी धा०(गम्) गतौ, "गमेरई-अइच्छाणुवजावजसोक्कुसाक्कुस-पच्चड्डुणानुसमयुगबाहुवदना इति। चः समुच्चये // 12 // पच्छन्द-णिम्मह-णी-णीण-णीलुका-पदअ-रम्भ--परि-अल्लपलिओवमट्ठिईया, निहिसरिणामा य तेसु खलु देवा। वोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहावहराः''।।८।४।१६२।। इति जेसिं ते आवासा, अक्केया आहिवच्चं च।।१३।। सूत्रेण गमधातोयदिशः / णीइ' / गच्छति। प्रा०४ पाद। (निहिसरिनाम त्ति) निधिभिः सदृक् सदृक्ष नाम येषां देवानां ते तथा, णीआरण (देशी) वलिघट्याम्, दे०मा०४ वर्ग 43 गाथा। येषां देवानां ते निधय आवासा आश्रयाः, किं भूताः?-अक्रे या णी स्त्री०(नीति) नये, स्था०७ठा०ाअनु०। मादायाम, पं०चूठा नीयते अक्रयणीयाः सर्वदैव तत्सम्बन्धित्वात्, आधिपत्यं च स्वामिता च तेषु. परिच्छिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयः / नैगमाऽऽदिनयेषु, येषां देवानाम्,इति प्रक्रमः॥१३|| स्था०२ ठा०२ उ०। कुलकराणां हक्काराऽऽदिषु दण्डनीतिषु, आ०म०१ एए ते नवनिहिओ, पभूयधणरयणसंचयसमिद्धा। अ०१ खण्ड। (ताश्च 'कुलगर' शब्दे तृतीयभागे 563 पृष्ठे दर्शिताः) जे वसमुवगच्छंती, सव्वेसिं चक्कवट्टीणं // 14 // राजनीतौ, "तिविहः नीई पण्णत्ता / तं जहा-सामे, दंडे, भेए। 'तत्र एए ते गाहा कण्ठ्या / / 14 // स्था०६ ठा०। प्रव० स०। आ०म०। सामनीतेः पञ्च , दण्डस्य त्रयो, भेदस्य उपप्रदानस्य च पञ्चपञ्च कामन्दतिलाआ००। काऽऽदिषु प्रसिद्धाः। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विपा०। प्रयोगश्वासामेवम्लक्षाऽऽदिप्रमाणद्रव्यस्थापने, भ०३ श०७उ०। निथिरिव निधिः। "उत्तमं प्रणिपातेन, शूर भेदेन योजयेत् / नीचमल्यप्रदानेन, समं सम्यक्त्वे, यथा हि निरवधिनिधिव्यतिरेकेण महार्ह मणिमौक्ति तुल्यपराक्रमैः" ||1|| स्था०३ ठा०३ उ०ा संग्रामनिर्गमप्रवेशे, आ०कला ककनकाऽऽदि द्रव्यं न प्राप्यते, तथा सम्यक्त्वमहा विधानानधि-गतौ णिइकोविय पुं०(नीतिकोविद) लोकनीतिचतुरे, उत्त० 21 अ०। चारित्रधर्मवित्तमपि निरुपमसुखसम्पादकं न प्राप्यते। प्रव०१४८ द्वार। णीछूट न०(निष्ट्यूत) निष्ठीवने,नं०। ध०ा विशे। निधानं निधिः / निक्षेपे, निधिर्निक्षेपो न्यासो विरचना णीजूहगन०(निहक) द्वारपार्श्वविनिर्गतदारुके, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। प्रस्तारः स्थापनेति पर्यायाः / तथा च--लौकि के निधे ह्रीदं निहितमिदमित्यत्र निपूर्वस्य धातोः निक्षेपार्थत्वप्रसिद्धेः। अनु०॥ णीजूहयंतर न०(नि!हकान्तर) नि!हक द्वारपाईर्वविनिर्गतदारु, णिहित्त त्रि०(निहित) निधा-क्त "सेवाऽऽदौ वा" ।।८।२।६इति तयोरन्तरे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ तद्वित्वं वा / पक्षे ततो लोपः / प्रा०२ पाद। निक्षिप्ते, पञ्चा० 10 विव०॥ णीड न०(नीड) पक्षिणामावासस्थाने, प्रा०१ पाद। णिहिय त्रि०(निहित) णिहित्त' शब्दार्थे , प्रा०२पाद। णीण धा०(गम) गतौ, "गमेरई०--" ||84162 / / इत्यादिसूत्रेण णिही स्त्री० अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। गमधातोणीणाऽऽदेशः / 'णीणई। गच्छति। प्रा०४ पाद। णिहु स्त्री०(स्निहु) औषधिभेदे, जी०१ प्रति०। णीणिजमाण त्रि०(गम्यमान) नीयमाने, "णीणिजमाणं पेहाए।" णिहुअ त्रि०(निभृत) "उदृत्वादौ" ।।८।१।१३१||ऋतु इत्यादिषु शब्देषु आचा०१ श्रु०२ चू०४अ० | आदेब्रत उत्वम् / प्रा०१ पाद / तदर्थमनुद्युक्ते, सूत्र०१ श्रु० ८अ०) णीणित त्रि०(गमित) नियूंढ धाडिते, नि०चू० १उ०। नियापारे, बृ०३३० निश्चले, उत्त०१६ अ०। असंभ्रान्ते, कायस्थित्या णीणिया स्त्री०(नीनिका) चतुरिन्द्रियजीवभेदे,जी०१ प्रतिका उचितधर्मे, "तेसिं सो निहुओदंतो सव्वभूयसुहा-वहो।" दश०६ अ० | णीततर त्रि०(नीचतर) अतिशयेन नीचे, नि०चू०१ उ०।
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________________ णीम 2153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णीलरत्तपीअसुकिल्ल णीम पुं०(नीप) "नीपाऽऽपीडे मो वा" / / 1 / 23 / / इत्यनेन पस्य *बुभुक्ष धा०। भोतुमिच्छायाम्, "बुभुक्षि-दीज्योणीरव-वोजो" मः। णीमो / णीवो / कदम्बे, प्रा०१ पाद। 184 // 5 // इति बुभुक्षतेीरवाऽऽदेशः। 'णीरवइ।" बुभुक्खइ। बुभुक्षते। णीय त्रि०(नीच) अत्यन्तावनतकन्धरे, उत्त०१ अ०। उच्चविपरीते, प्रा०४ पाद। स्था०३ ठा०४ उ०ा अपूज्ये, भ०३ श०१ उ०। निम्ने, नि०चू० १उ०। / णीरोग त्रि०(नीरोग) आरोग्ये, स्था०१० ठा०ा रोगवर्जिते, ज्ञा०१ श्रु०१ नीचैः स्थाने, मालाऽऽदौ, उत्त०१ अ०॥ अ० ग्लान्याभावे, बृ०३उ०औ०। *नित्य त्रि० सदाऽवस्थायिनि, स्था०१० ठा०। णीरोगय त्रि०(नीरोगक) रोगवर्जिते, जी०३ प्रति०४ उ०। रा०) *नीत त्रि०। स्वस्थानं प्रापिते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। उत्त०। सूत्रा णील धा०(निर्-स) निर्गमने, "निस्सरेणिहर-नील-धाड-वरहाडाः" णीयच्छंद त्रि०(नीचच्छन्द) अनुन्नताभिप्राये, स्था०३ ठा० ४उ०॥ // 47 // इति निस्सरतेर्नीलाऽऽदेशः। नीलइ। नीसरइ। निस्सरति। णीयजण त्रि०(नीचजन) जात्यादिहीने जने, प्रश्न०२ आश्र0 द्वार / प्रा०४ पाद। *नील त्रि०ा ईषत्सुन्दररूपे, कृष्णे, वर्णविशेषे, स्था०१ ठा०। तद्युक्ते, "णीयजणणिसेविणी लोगगरहणिज्जा।" प्रश्न०२ आश्र० द्वार। "एग णीले।" नील्यादिवद् नीलवर्णपरिणते,प्रज्ञा० १पद। "णीले णीयत्तल न०(नीचत्व) गुणधिकान् प्रति नीचभावे, दश०६ अ०३ उ०। णीलोभासे।" वनखण्डे, हरितत्वमतिक्रान्तानि कृष्णत्वमसंप्राप्तानि णीयदुवार त्रि०(नीचद्वार) नीचनिर्गमप्रवेशे, दश०५ अ०१उ०ा निम्नमुखे पत्राणि नीलानि, तद्योगाद्वनखण्डा अपि नीलाः / रा०] मरकतमणी, गृहे, पञ्चा० 13 विव० जी०३ प्रति०४ उ०ा तका जंज्ञा०ा पञ्चविंशतितमे महाग्रहे, कल्प०६ णीयल्लगपुं०(निजक) स्वज्ञातीये, "णीयल्लगाण य भया हिरिवत्तिय क्षण। "दोणीला।" स्था०२ ठा०३उपासू०प्र०ाचं०प्र०"एगेणीले।" संजमाहिगारे," व्य०४ उ०। आत्मीये, व्य०२ उ०। स्था०१ ठा०1 औ०। णीयागोय न०(नीचैर्गोत्र) सर्वजनविगीते गोत्रकर्मभेदे, सूत्र०२ श्रु०१ / णीलकंठ पुं०(नीलकण्ठ) शक्रस्य देवेन्द्रस्य महिषीनीकाधिपतौ, अ० कर्म०नीचैर्गोत्रमपूज्यत्वनिबन्धनमिति कर्मभेदे, स्था०१ ठा०। स्था०४ ठा०२उ०। यदुदयान्महाधनोऽप्रतिरूपो बुद्ध्यादिसमन्वितोऽपि पुमान् विशिष्टकुला- णीलकंठी (देशी) वाणवृक्षे, दे०ना० 4 वर्ग 42 गाथा। भावात् लोकान्निन्दां प्राप्नोति / कर्म०१ कर्म०। नीचैर्गोत्रोद् भवे णीलकणवीर पुं०(नीलकरवीर) नीलवर्णपुष्पे करवीराऽऽख्येवृक्षभेदे, रा०। वणपिसदसम्भूते, सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ णीलकूड न०(नीलकूट) नीलवर्षधरपर्वतकूटे, स्था०२ ठा० 330 णीयावास पुं०(नित्यवास) विहारकालेऽप्येकत्र वासे, आ०चू०३अ०। / णीलकेसी स्त्री०(नीलकेशी) कृष्णकेश्या तरुण्याम्, व्य०४ उ०। णीयावित्ति त्रि०(नीचैर्वृत्ति) नीचैर्वृत्तिर्वर्तनं यस्य स तथा। अनुचवृत्ती, णीलगुफा स्त्री०(नीलगुहा) स्वनामख्याते उद्याने, यत्र मुनिसुव्रतनामा व्य०१ उन तीर्थकरा निष्क्रान्तः। आ०म० अ०१खण्ड। णीयासण न०(नीचासन) नीचमासनं नीचासनम् / गुरूणां नीच- | णीलगुलिया स्त्री०(नीलगुटिका) नील्या गुटिका नीलगुटिका / गुटीरूपे तरोपवासे, नि०चू०१उ० नीलपदार्थे , "णीलगुलिया गवलप्पगासा।" जी०३ प्रति० 4 उगा रा०| णीर न०(नीर) पानीये, दर्श०१ तत्त्व। णीलणाम न०(नीलनामन्) यदुदयाज्जन्तुशरीरं मरकताऽऽदिवन्नील णीरंगी (देशी) शिरोऽवगुण्ठने, दे०ना०४ वर्ग 31 गाथा। भवति। तस्मिन् नामकर्मभेदे, कर्म०१ कर्म०। णीरजधा०(भज) आमर्दने, "भजेर्वेमय-मुसुमूर-मूर-सूरसूड- | णीलपत्त त्रि०(नीलपत्र) नीलवर्णपत्रोपेते, प्रज्ञा०१ पद। विर-पविरञ्ज-करञ्ज-नीरजाः " |||1106|| इति / णीलपाणि त्रि०(नीलपाणि) नीलः, काण्डकलाप इति गम्यते / पाणौ भजेर्नीरजाऽऽदेशः। 'नीरजई'। पक्षे-भञ्जइ। भनक्ति। प्रा०४ पाद। येषां ते नीलपाणयः / नीलवर्णकाण्डहस्ते, रा०। णीरय त्रि०(नीरजस्) निर्गतं रजो यस्य / अनु०। आगन्तुकरजोर-- णीलप्पम त्रि०(नीलप्रभ) नीलवर्णे , ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। हितत्वात् (सका औ०) सहजरजोरहितत्वात् (जं०१ वक्ष। औ०। | णीलफल त्रि०(नीलफल) "शुष्कनीलफलस्वादुर्नाम्नापक्वान्नेपशला। स्था०) स्वाभाविकरजोरहितत्वात् (प्रज्ञा०२ पद / जी०) निर्मले, शालिसूपघृतप्राज्यप्रलेहव्यञ्जनाहृता'' 11|| आ०क० / नीलं फलं सूत्र०१ श्रु०१ अ०३उ० भ० बध्यमानकर्मबन्धनैस्त्यक्ते, बध्य- यस्याः। जम्बूवृक्षे, वाचा मानक रहिते, पा० ध० आ०म०) णीलबंधुजीव त्रि०(नीलबन्धुजीव) नीलवर्णपुष्पे वृक्षविशेषे, रा०। *नीरद पुंगा मेघे, वाचा णीलमट्टिया स्त्री(नीलमृत्तिका) नीलवर्णमृत्तिकायाम्, श्लक्ष्णपृथ्वीणीरव धा०(आ-क्षिप) आ-क्षिप् / आक्षेपे, "आक्षिपेीरवः" / ___ कायभेदे, आचा० ||4|145|| इत्यापूर्वस्य क्षिपेीरवः। णीरवइ। 'अक्खिवइ।" | णीलरत्तपीअसुकिल्ल त्रि०(नीलरक्तपीतशुक्ल) नीलरक्तपीतआक्षिपति / प्रा०४ पाद। शुक्लवर्णमनोहरे, कल्प०३ क्षण।
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________________ णीललेस्सा 2154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णीलवंत णीललेस्सा स्वी०(नीललेश्या) वर्णतो नीलाशोकगुलिकावैडूर्यन्द्रनीलचाषपिच्छाऽदिलमवर्गः, रसतो मरिचपिप्पलीनागराऽऽदिसमधिकतररसैः, गन्धतो मृगतुरगशरीराऽऽदिसमाधकतरगन्धैः, स्पर्शतो जिह्वाऽऽदिसमधिकतरकर्कशस्पर्शः सकलप्रकृतिनिष्पन्दभूतैर्नीलद्रव्यैर्जनितत्वान्नीलोपिलेश्याऽऽत्मपरिणतिरिति। लेश्याभेदे, पा० स्था० णीलवंत पुं०(नीलवत्) उत्तरकुरुषु स्वनामख्याते ह्रदे, तद्वासिनि नागकुमारदेवे च। जं०४ वक्ष०ा जी०। ('उत्तरकुरा' शब्दे द्वितीय-भागे 761 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता) मन्दरस्य पर्वतस्य भद्रशालबने द्वितीये दिग्हस्तिकूटे, जा एवं णीलवंतदिसाहत्थिकूडे मंदरस्सदाहिणपुरच्छिमेणं पुरच्छिमिल्लाए सीआए दक्खिणेणं एअस्स वि नीलवंतो देवो रायहाणी दाहिणपुरच्छिमेणं // (एवमिति) पद्मोत्तरन्यायेन नीलवान्नाम्ना दिग् हस्तिकूटः मन्दरस्य दक्षिणपूर्वस्यां पौरस्त्यायाः शीतोदाया दक्षिणस्यां ततोऽयं प्राच्यजिनभवनाऽऽग्नेयप्रासादयोर्मध्ये ज्ञेयः। एतस्याऽपि नीलवान् देवः प्रभुः, तस्य राजधानी दक्षिणपूर्वस्यामिति / जं०४ वक्षः। द्वी०। स्था। वर्षधरपर्वतभेदे, जंग। कह णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णीलवंते णामं वासहरपब्वए पण्णत्ते? गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं रम्मगवासस्स दक्खिणेणं पुरच्छिमलवणसमुदस्स पच्चच्छिमेणं पञ्चच्छिमलवणसमुदस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीये दीवे णीलवंते णामं वासइरपव्वए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिपणे, णिसहवत्तव्वया णीलवंतस्स भाणिअव्वा, णवरं जीवा दाहिजेणं धणु उत्तरेणं, स्थ केसरीदहो णामदहो, एत्थ णं सीआ महाणई पव्वूढा समाणी उत्तरकुरं एजमाणी उत्तरकुरं एजमाणी जमगपव्वए णीलवंतउत्तरकुरुचंदेरावतम लवंतदहे अ दुहा विभयमाणी विभयमाणी चउरासीए सलिलासयसह-स्से हिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी भद्दसालवणं एज्जमाणी भद्द-सालवणं एजमाणी मंदरं पव्वयं दोहिं जोअणेहिं असंपत्ता पुर-च्छाभिमुही परावत्ता समाणी अहे मालवंतवक्खारपव्वयं दाल-यित्ता मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं पुव्वविदेहं वासं दुविहा भयमाणी दुविहा भयमाणी एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी पंचहिं सलिलासयसहस्सेहिं वत्तीसाए असलि-लासहस्सेहिं समग्गा अ अहे विजयस्स दारस्स जगई दालइत्ता पुरच्छिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, अवसिढें तं चेव, एवं णारिकंता वि उत्तराभिमुही अव्वा / णवरमिमं णाणत्तं गंधावइवट्टवेअड्डपव्वयं जोअणे असंपत्ता पचच्छाभिमुही आवत्ता समाणी अवसिटुं तं चेव, पवहे गुहे अ, जहा हरिकंता सलिला। क्व भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवान्नाम्ना वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः? उत्तरसूत्र व्यक्तम् / नवरं रम्यक क्षेत्र महाविदहेभ्यः परंयुग्मिमनुजाऽऽश्रयभूतमस्ति, तस्य दक्षिणतः, अयं च निषधवन्धुरिति तत्साम्येन लाघवं दर्शयति-(णिसह इत्यादि) निषधवक्तव्यता नीलवतोऽपि भणितव्या, नवरमस्यजीवा परम आयामो दक्षिणत उत्तरतः क्रमेण क्रमेण जगत्या चक्रत्वेन न्यूनान्तरत्वात् धनुः पृष्ठमुत्तरतः। अत्र केसरिद्रहो नाम द्रहः / अस्माच शीता महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरकुरून् इयती 2 परिगच्छन्ती 2 यमकपर्वतौ नीलवदुत्तरकुरुचन्द्ररावतमाल्यवन्नामकान् पञ्चाऽपि द्रहाँश्च द्विधा विभजती 2 चतुरशीत्या सलिलासहरापूर्यमाणा 2 भद्रशालव-नमियती 2 आगच्छन्ती 2 मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्यामसं-प्राप्ता पूर्वाभिमुखी परावृत्त्या सती माल्यवद् वक्षस्कारपर्वतमधो विदार्य मेरोः मन्दरस्य पूर्वस्या पूर्वमहाविदेह वासं द्विधा विभजन्ती 2 एकै कस्माचक्रवर्तिविजयादष्टाविंशत्या 2 सलिलाससहस्त्रैरा-पूर्वमाणा 2 आत्मना सह पञ्चभिर्नदीलक्षैभत्रिंशता च सलिलास-हस्त्रैः सम्ग्रा अधो विजयस्यद्वारस्य जगतीं विदार्य पूर्षस्या लवण-समुद्रमुपैति। अवशिष्ट प्रवहव्यासत्वाऽऽदिकं तदेवेति निषधनिर्गतशीतोदाप्रकरणोक्तमेव / अथास्मादेवोत्तरतः प्रवृत्तां नारीकान्तामतिदिशति-(एवं णारिकं ता इत्यादि) एवमुक्तन्यायेन नारीकान्ताऽपि उत्तराभिमुखी नेतव्या / कोऽर्थः? यथा नीलवति केसरिद्रहाद्दक्षिणाभिमुखी शीता निर्गता, तया नारीकान्ता तूत्तराभिमूखी निर्गता। तर्हि अस्याः समुद्रप्रवेशोऽपि तद्वदेवेत्याशङ् क्यमानमाह- नवरमिदं नानात्वं गन्धपातिनं वृत्तवैताढ्यपर्वतं योजनेनाऽसम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती इत्यादिकमवशिष्टं सर्वं तदेव, हरिकान्तासलिलावद्भाव्यम्। तद्यथा-"रम्भगवासं दुहा विभयमाणी 2 छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्चच्छिमेण लवणसमुई समप्पेइ ति।" अत्र चाऽवशिष्टपदसंग्रहे प्रवहमुखव्यासाऽऽदिकं न चिन्तितं, समुद्रप्रवेशावधिकस्यैवाऽऽलापकस्य दर्शनात्,तेन तत् पृथगाहप्रवहे च मुखे च यथा हरिकान्तासलिला / तथाहि- प्रयहे पशविंशतियोजनानि विष्कम्भेण अर्द्धयोजनमुद्वेधेन, मुखे 250 योजनानि विष्कम्भण 5 योजनान्युद्वेधन यच्चात्र हरिसलिलां विहाय प्रवहमुखबोर्हरिकान्ताऽतिदेशे उक्तस्तद् हरिसलिलाप्रकरणेऽपि हरिकान्ताऽतिदेशस्योक्तत्वात्। जंग।। ___ अथास्य नामनिबन्धनं पृच्छन्नाहसेकेणऽद्वेणं भंते ! एवं वुचइ-णीलवंते वासहरपव्वएणीलवंते वासहरपव्वए? गोयमा ! णीले णीलोभासे णीलवंते आइत्थदेवे महिड्डिएजाव परिवसइ, सव्ववेरुलि आमए णीलवंते० जाव णिचेति। "से केणऽटेण'' इत्यादि प्रश्नः प्राग्वत् / उत्तरसूवे चतुर्थो वर्षधरगिरिर्नीलो नीलवर्णवान् नीलावभासो नीलप्रकाश आसन्नं वस्त्वन्यदपिनीलवर्णमयं करोति, तेन नीलवर्णयोगान्नीलवान्, नीलवांश्च यत्र महर्द्धिको देवः पल्योपमस्थिति को यावत्परिवसति, तेन तद्योगाद्वा नीलवान् / अथवाऽसौ सर्ववैडूर्य रत्नमयः, तेन वैडूर्यरत्नपर्यायकनीलमणियोगान्नीः,शेषं प्राग्वत्। जं०४ वक्ष०ा स्था०। स०। ('कूड' शब्दे तृतीयभागे 626 पृष्ठे कूटान्युक्तानि)। "दो णीलर्वता।" स्था०२ ठा०३उ01
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________________ णीलवंतकूड 2155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णीसा णीलवंतकूड न०(नीलवत्कूट) नीलवद्वर्षधरपर्वतस्य द्वितीये कू-टे, | णीलुप्पलकयामेल त्रि०(नीलोत्पलकृताऽऽपीड) नीलोत्पलकृत स्था०२ ठा०३ उ०ा जं०। "दो णोलवंतकूडा।" स्था०२ ठा०३उ०। | शेखरे, उपा०७अ० णीलवंतदह पुं०(नीलवदह्रद) उत्तरकुरुषु विचित्रचित्रकूटपर्वत- | णीलुप्पलवण न०(नीलोत्पलवन) इन्दीवरकानने, तं०। समवक्तव्यताभ्यां यमकाभिधानाभ्या स्वसमाननामदेवाऽऽवा-साभ्यां णीलोभास त्रि०(नीलावभास) मयूरगलवदवभासमाने, औ०। रा०। पर्वताभ्यामनन्तरे महादे, स्था०५ ठा०२उ०ा जंवा ('उत्तरकुरा' शब्दे | णीव पुं०(नीप) कदम्बे, औ०। वृक्षविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। आ०म०। द्वितीयभागे 756 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता) णीवार पुं०.न०(नीवार) शूकराऽऽदीनां पशूना बध्यस्थानप्रवेशनभूते णीलवंतदहकुमार पुं०(नीलवदहदकुमार) नीलवद् हृदस्याधि- भक्ष्यविशेष, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। ब्रीहिविशेषकणदाने, सूत्र०१ श्रु०३ पतिनागकुमारे देवे, जी०३ प्रति०४ उ०। अ०२३० णीलवणि स्त्री०(नीलवणि) प्रत्याख्यानभेदे, सेना येन दीक्षा-ग्रहणार्थं | णीवि स्त्री०(नीवि) मूलधने, षो०६ विव०। कटिवस्त्रबन्धे, वाचा नीलवणिप्रत्याख्यानं कृतं भवति, तस्य दीक्षाग्रहणानन्तरं कल्पते, न णीस त्रि०(निरस्व)"लुप्त-य-र-व-श-ष-सांश-ष-सां दीर्घः" वा? इति प्रश्न-उत्तरम्-यदि प्रत्याख्यानकरणवेलायामेवं कथित |||1143 / / इति दीर्घः / निर्धने,प्रा०१ पाद। भवति-यद्दीक्षाग्रहणाऽनन्तरं नीलवणिः कल्पते, तदा कल्पते, | णीसंद पुं०(निस्यन्द) परिगालपरित्रावे, 'णवमपुव्वणीसंदो।" पं० नान्यथेति / 456 प्र० सेन०३उल्ला०। नीलवणि-प्रत्याख्यानिनां ___भा० / विन्दो, कर्म०१ कर्म तद्दिननिष्पन्नकइरीपाकप्रमुखं कल्पते, न वा? इति प्रश्ने, उत्तरम- | णीसंपाय (देशी) परिश्रान्ते, देखना०४ वर्ग 42 गाथा। परम्परया तत्कल्पनप्रवृत्तिर्दृश्यत इति। 63 प्र०। सेन० ५उल्ला०। णीसह त्रि०(निसृष्ट) विमुक्ते, प्रश्र०१ आश्र० द्वार / बहिर्निष्काश्य णीला स्त्री०(नीला) "अजातेः पुंसः" / / 3 / 32 / / इति अजाति- निवेदिते, यस्य याचकाऽऽदेरर्थाय निष्काशितस्तस्मै प्रदत्ते, बृ०२ उ०। वाचिनो नीलशब्दस्य स्त्रियां डीर्वा, नीली / नीला। प्रा०३ पाद। | णीसणिआ (देशी) निःश्रेण्याम, देना०४ वर्ग 43 गाथा। नीललेश्यायाम, स०ा उत्त०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरेण रक्तायां महानद्यां णीसर धा०(रम्) क्रीडायाम्, "रमेः संखुडु-खेड्डोब्भाव-किलिकिञ्चसङ्गतायां महानद्याम्, स्था० 10 ठा०। कोटुम-मोट्टाय--णीसर-वेल्लाः " / / 8 / 4 / 168 / / इति सूत्रेण णीलाभास पुं०(नीलाभास) पडूविंशतितमे महाग्रहे, "दोणीलाभासा।" | रमी सराऽऽदेशः। 'णीसरई। पक्षे-रमइ / रमते / प्रा०४ पाद। स्था०२ ठा०३उ०। चं०प्र०। सू०प्र०। कल्प०| *निस्+सृ धा०। निस्सरणे, ‘णीसरई। निःसरति / प्रा०४ पाद। णीलासोग पुं०(नीलाशोक) नीलचाऽसौ अशोकच नीलाशोकः। / णीसरण न०(निस्सरण) फेलसने, व्य०४ उ०। नीलपुष्पाशोकवृक्षे, रा०ा उत्त०। शुकपरिव्राजकजेतुः सुदर्शन श्रेष्टिन णीसल्ल त्रि०(निःशल्य) मायादर्शननिदानशल्यरहिते, संथा०। आवासभूतायाः सुगन्धिकापुर्या बहिरुद्याने, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। णीसवग पुं०(निश्रावक) कर्मनिर्जरके, आ०म०१ अ०१ खण्ड। विशेष णीली स्त्री०(नीली) गुलिकायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० जी०। रा०ा | णीसवमाण त्रि०(निश्रवयत्) कर्माणि निर्जरयति, आ०म०१ अ०२ खण्ड। जं०। गुच्छवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद / आई स्त्रीत्वविशिष्टऽर्थे , णीससंत त्रि०(निःश्वसत्) 'निःश्वसेझङ्घ :" ||8 / 4 / 201 / / इति "तहेवोसहिओ पक्काओ, निलियाओ छवीइ य।" दश०७ अ०। झवाऽऽदेशाभावेशतरिरूपम्। प्रा०४ पाद। निःश्वासान मुञ्चति, प्रश्न०३ णीलीराग पुं०(नीलीराग) नील्याः सम्बन्धी रागो यस्य स नीली--रागः। आश्र० द्वार। प्राकृते-शानजपि। "ऊससमाणे वा, णीस--समाणे वा, नीलोरक्ते, "णीलीरागं खलु, दुमहत्थी सरभासिया।' व्य० ३उ०।। कासमाणे वा, छीयमाणे वा।" आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ० ३उ०। णीलुक्क धा०(गम्) गतौ, "गमेरई-अइच्छाणुवञ्जावजसोक्कुसा- | णीससिउच्छसियसम न०(निःश्वसितोच्छूसितसम) मानमतिक्कुस-पचड-पच्छन्द-णिऽणह-णी-णीण-णीलुक्क-पदअ-रम्भ- क्रामतो गाने, स्था०७ठान परिअल्ल-बोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहा-दहराः" णीससिय न०(निःश्वसित) निःश्वसनं निःश्वसितम्।नं० अधः श्वसिते, // 6 / 4 / 162 / / इति सूत्रेण गम्लुधातोर्णी लुक्काऽऽदेशः। पीलुक्कइ / पक्ष आव०५ अ०। विशे०। आ०म० ल०। कामक्रीडायाः श्वाससमुद् भवे, 'गच्छइ प्रा०४ पाद। ज्ञा०१ श्रु०६ अ० श्वासमोक्षणे, ध०२ अधि०। णीलुप्पलन०(नीलोत्पल) "हस्वःसंयोगे दीर्घस्य" // 8/1/84 / / इति / णीसह त्रि०(निस्सह) "लुप्तय-र-व-श ष-सां शषसां दीर्घः" ओकारस्योकारः / प्रा०१ पाद / कुवलये, जं०१ वक्ष०। इन्दीवरे, | 8|1|43 // इति सलोपे दीर्घः / नितरां सहिष्णौ,प्रा०१ पाद। सौगन्धिके, नीलवर्णे कुमुदे च / वाचा ''णीलुप्पलगवलगुलिय।" णीसा स्त्री०(निश्रा) पीषण्याम् "दगवारएण पिहियं, णीसाए पीढएण उपा०२ अन वा।" दश०५ अ०१उ०।
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________________ णीसार 2156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णूला णीसार पुं०(नीशार्) नितरां शीयेते, हिमानिलावत्रानेन वा। नि-शृ- | णीहारिम न०(निर्हारिम) निहरिण निर्वृत्तं यत्तन्निारिमम् / प्रतिश्रये यो घञ् दीर्घः / हिमानिलनिवारणे प्रावरणे,काण्डपटे च / वाच०। मण्डपे, मियते तस्यैतत् कलेवरस्य निरिणात् निर्हारिमम् / पादोपदेखना०४ वर्ग 41 गाथा। गमनमरणभेदे, भ०२ श०१ उ०। ('मरण' शब्दे व्याख्या वक्ष्यते) दूरं णीसास पुं०(निःश्वास) निर्-श्वस्-घर- रलुक् / "लुकि निरः" / विनिर्गमनशीले, आ०म०१ अ०१ खण्ड। रा०। ज्ञा०। ||1663 / / इतिरेफलोपे सति इत ईकारः। "णीसासो।" प्रा०१ पाद। णीय त्रि०(निहत) अपलपिते, देशी। अकिञ्चित्करे, "पवयणणीअधःश्वासे, आ०चू०५ अ०। श्वास मोक्षणे, तं०। (के जीवाः कियता हुयाण।" आ०म०१ अ०२ खण्ड। कालेन नि श्वसन्तीति 'आण' शब्दे द्वितीयभागे 105 पृष्ठे उक्तम् ) णु अव्य०(नु) निश्चये, प्रति०। वितर्के, विशे०। सूत्रा आ०चू०। विकल्पे, संख्येयाऽवलिकापरिमिते प्राणाऽपरनामके कालविशेषे, कर्म०४ कर्म०। अनुनये, अतीते, प्रश्ने, हेतौ, अपमाने, अपदेशे, अनुतापे च / वाचका णीसासय त्रि०(निःश्वासक) निःश्वसतीति निःश्वासकः। आन णुक्कार पुं०(नुक्कार) नुगितिशब्दकरणे, 'अप्पेगइया देवाणुभारं करेंति' प्राणपर्याप्तिपरिनिष्पन्ने, आ०म०१ अ०२ खण्ड। विशेष (णुक्कार ति) नुक्कारशब्दं कुर्वन्ति। रा०। णीसित त्रि०(निष्षिक्त)"लुप्तय-र-व-श-ष-सांश-ष-सां दीर्घः णुमधा०(न्यस्) न्यासे, स्थापने, "न्यसो णिम-णुमौ" ||8||19|| // 81 / 43 / / इतिषलोपे आदेः स्वरस्य दीर्घः / कृतनिष्षेके, प्रा०१ पादा इति न्यस्यतेणुमाऽऽदेशः। 'णुमइ'। न्यस्यति। प्रा० 4 पाद। णीसीसिअ (देशी) निर्वासिते, देवना० 4 वर्ग 142 गाथा / *छादि धा। छादने, “छदेणेणुम-नूम-सन्नुम-ढकौम्बालणीसेयस न०(निःश्रेयस) निश्चितकल्याणे, जी०३ प्रति०४ उ०। पव्वालाः" ||8421 // इति छदेर्ण्यन्तस्य णुमाऽऽदेशः / 'णुमइपक्षेणीहट्ट अव्य०(निर्हत्य) निःसार्येत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ चू०६ अ०२७०। छाअइ। प्रा०४ पाद। णीहड त्रि०(निर्हत) निर्गत, आचा०२ श्रु०१ चू०१अ०१ उ०ा निष्क्रान्ते, गुमज्जण न०(निमज्जन) "द्विन्योरुत्" ||8/164| इति इत उत्वम्। आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०६उ०| अधोवुडने, प्रा०१पाद। णीहडिया स्त्री०(निर्हतिका) अन्यत्र नीयमाने सागारिकेद्रव्ये, बृ०२ उ०। णुमन्न त्रि०(निमग्न) "द्विन्योरुत्" / / 81 / 64 / / इति इतउत्वम्।७डिते, णीहम्म धा०(नि हम्म) गतौ, 'णहिम्मइ।' 'गच्छइ।' मच्छति। प्रा०४ प्रा०१ पाद। पाद। *निषण्ण त्रि०) "उमो निषण्णे" ||8/1 / 174 / / इतिनिषण्णशब्दे आदेः णीहर धा० (निर्-स) बहिर्गमने, "निःसरेीहरनीलधाडवर-हाडाः" स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सहोमादेशः / 'गुमण्णो"। णिसण्णो। ||8|7|| इति निःसरतेधहराऽऽदेशः। 'णीहरइ''। पक्षे-'णीसरइ।' उपविष्ट, प्रा०१पाद। प्रा०४ पाद। णुव्व धा०(प्रकाश) प्रकाशने, "प्रकाशेणुय्वः" ||4|45 / / इति *निर्-हृधा०। पुरीषोत्सर्जने, 'णीहरइ।' निर्हरति। पुरीषोत्सर्ग करोति / उपसर्गवशादयमर्थः / प्रा०४ पाद। प्रकाशेर्ण्यन्तस्य गुव्वेत्यादेशः / 'णुव्वई' प्रकाशयति। प्रा०४ पादा णीहरण न०(निर्हरण) निर्गमे, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। अपनयने, सूत्र०२ गुणं अव्य०(नूनम्) निश्चिते, बृ०१ उ०। उत्त०। सूत्र० भ० द्वा०। ज्ञा०। श्रु०२ अ०। परित्यागे, नि०चू०१ उ०। आचा०॥ उपमाने, अवधारणे, तर्के, प्रश्रे, हेतौ, भ० २श०६ उ०। णीहरिअ (देशी) शब्दे, देवना०४ वर्ग 42 गाथा। णूम धा०(छादि) छादने, "छदेणैर्गुम-नूम-सन्नुम-ढकौम्बालणीहरित्तए अव्य०(निर्हर्तुम्) निष्काशयितुमित्यर्थे भ०५ श०४ उ० पव्वालाः" ||84 / 21 / / इति छदेय॑न्तस्य नूमादेशः। 'णूमइ / " विशोधयितुमित्यर्थे, दशा०७ अ०। विशे०। "छाअइ।" छादयति / प्रा०४ पाद। 'मा हु णुमए तरुणी।'' माहु णीहरिय अव्य०(निर्हत्य) निष्क्राम्येत्यर्थे, नि०चू०९ उ०। समाच्छादयेत्तरुणी / बृ०१ उ०। गीहार पुं०(निर्हार) मूत्रपुरीषोत्सर्ग, स०३४ सम०। *छन्न ना अवतमसे, गाढतमसे, भ० श०८उ०। प्रच्छन्ने गिरिगुहा-- णीहारचारण पुं०(नीहारचारण) नीहारमवष्टभ्याप्कायिकजीव ऽऽदिके, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३उ०ा आचा०ा प्रच्छादने, प्रश्न०२ आश्रद्वार। पीडामजनयति गतिमसङ्गां कुर्वति चारणभेदे, प्रव०६८ द्वार / ग०) गहने, मायायाम, सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। कर्मणि, आचा०१ श्रु०८ णीहारण न० (निहारण) निस्सारणे, स्था०२ ठा०४३० अ०८उ०। सूत्र० स०ा परवञ्चनार्थं निम्नताया निम्नस्थानस्य च णीहारि(ण) त्रि०(निर्हारिण) व्यापिनि, "जोयणणीहारिणा सरेणं / " आश्रयणे, भ०१२ श०५ उ०। भिन्ने, नि०चू०११ उ० योजननिहारिणा योजनव्यापिना शब्देन / आ०म०१अ०२ खण्ड।। णूमगिह न०(छन्नगृह) वृक्षप्रधाने गृहे, आचा०२ श्रु०१चू०३अ०३उ०) योजनातिक्रामिणा शब्देन। स०३४ सम०। प्रबले, आ० म०१अ०२ भूमिगृहे, नि०चू०१२ उ०। खण्ड। घोषवति, घण्टाशब्दवच्छब्दभेदे, स्था०१० ठा०। | णूला (देशी) शाखायाम, देवना० 4 वर्ग 43 गाथा।
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________________ 2157 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णेच्छिय णे अव्य०(णे) 'णे' इति निपातः / पूरणे, जी०७ अधि०। *अस्मान् द्वि०।"अम्हे-अम्हो-अम्हणे शसा"|||३.१०८॥ इति शसा सहितस्याऽस्मदो 'णे' इत्यादेशः। प्रा०३ पाद। नि०चूल। *मया तृल। "मि-मे-मम-ममए-ममाइ-मइ-मए-मयाइ--णे टा" // 3 / 10 / / इति सूत्रेण टाविशिष्टस्याऽस्मदो 'णे' इत्यादेशः। 'णे कअं' मया कृतम्। प्रा०३ पाद। *अस्माकम् ष०) "णे-गो-मज्झ-अम्ह-अम्हं-अम्हे अम्होअम्हाण-ममाण-महाण-मज्झाण आमा" / / 8 / 3 / 114 // इति सूत्रेण आमासहितस्याऽस्मदो ‘णे' इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। उडु (देशी) सद्भावे, दे०ना० 4 वर्ग 44 गाथा। णे उणिय न०(नैपुणिक) 'णिउणिय' शब्दार्थे , अनुप्रवादपूर्वगते स्वनामख्याते वस्तुनि,आ०म०१ अ०२ खण्ड। विशे०| उण्ण न०(नैपुण्य) आलेख्याऽऽदिकलायाम, दश०६ अ० 20aa आव०॥ णेउर न०(नूपुर) ऊकारस्यैकारः / पादाऽऽभरणे,प्रश्र०४ आश्र० द्वार। "खुड्डियवरणेउरचलणमालिया।" औ०। आ०म०।दीन्द्रि-यजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। जी चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। जी०। णेऊण अव्य०(नीत्वा)"युवर्णस्य गुणः"||४।२३७॥ इति युवर्णस्य गुणः। गमयित्वेत्यर्थे, प्रा०४ पाद। णेग त्रि०(नैक) न एकं नैकम्। नायं न , किंतुन इति। प्रभूते, आ०म०१ अ०२ खण्ड। बहुके, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। सूत्र०। विशे० णेगम पुं०(नैगम) निगमा वणिजः तेषां स्थानं नैगमम् / वणिजाऽsवासे,आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०२ उ०ा वाणिजके, भ०१८ श०२ उ०। कल्प०। बृ०। सामान्यविशेषग्राहकत्वात्तस्यानेकेन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैगमः। अथवा निगमा निश्चितार्थबोधाः, तेषु कुशलो भवो वा नैगमः। अथवा-नैकोगमोऽर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगमः। निगमेषु वाऽर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नैगमः / स्था० ३ठा०३उ०। *नैकम पुं०। नैकै मनैिर्महासत्तासामान्यविशेषज्ञानर्मिमीते मिनोति वा नैकमः। अथवा नैके गमाः पन्थानो यस्य स नैकगमः। (पृषोदरा-दित्वात् रुपसिद्धिः) स्था०७ ठा०। अनु०॥ अष्टा ग०। नयभेदे, आ०म० व्युत्पत्तिःणेगेहिं माणेहिं, मिणइत्ती णेगमस्स जेरुत्ती। सेसाणं तु नयाणं, लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं॥ नएकं नैकं, नायं न , किं तु न इति। अनुस्वार इति न भवति (2) प्रभूतानीत्यर्थः / ततो नैकेनिमहासामान्यावान्तरसामान्यविशेषाऽऽदिविषयैः प्रमाणैर्मिमीते परिच्छिनत्ति वस्तुजातमिति नैगमः। "पृषोदराऽऽदयः" // 3 / 2 / 155 / / इतीष्टरूपनिष्पत्तिः / तथा चाऽऽहइति इयं, नैगमस्य निरुक्तिः निर्वचनम् / उपलक्षण-मेतत् / तेनाऽन्यथाऽपि नैगमशब्दव्युत्पत्तिः परिभावनीया। तद्यथा-निश्चितो गमो निगमः परस्परविविक्तसामान्याऽऽदिवस्तुग्रहणम्, स एव प्रज्ञाऽऽदेराकृतिगणतया स्वार्थिकात्प्रत्ययविधानान्नैगमः। यदि वा-निगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते इति निगमाः, तेषु भवो योऽभि-प्रायो नियतपरिच्छेदरूपः स नैगमः / अथवा-के गमा यस्यासौ नैगमः / पृषोदराऽऽदित्वात् ककारस्य लोपः / बहुविधवस्त्वभ्युपगमपर इत्यर्थः। आ०म०१ अ०२खण्ड। नैगमनयशब्दार्थ तावदाहणेगाई माणाई,सामन्नोभयविसेसणाणाई। जं तेहि मिणइ तो णेगमोणओ णेगमाणो त्ति // 2186|| न एक नैक, प्रभूतानीत्यर्थः,नैकानि, किं तु प्रभूतानि यानि मानानि सामान्योभयविशेषज्ञानानि / तत्र समानानां भावः सामान्य सत्तालक्षणम्, उभयं सामान्यविशेषोभयरूपमपान्तरालसामान्य वृक्षत्वगोत्यगजत्वाऽऽदिकम्, विशेषास्तु नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्यस्वरूपा व्यावृत्त्याकारबुद्धिहेतवः, तेषां सामान्योभयविशेषाणांग्राहकाणि ज्ञानानि सामान्योभयविशेषज्ञानानि, तैर्यस्मात् मिनोति, मिमीते वा,ततो नैगमः। अत एव नैकमानो नैकपरिच्छेदः, किंतु विचित्रपरिच्छेद इति।।२१८६|| नैगमनयस्वैव व्युत्पत्त्यन्तरमाहलोगत्थनिबोहा वा, निगमा तेसु कुसलो भवो वाऽयं / अहवा जं नेगगमोऽणेगपहो णेगमो तेणं // 2187 / / 'वा' इत्यथवा, निगमा भण्यन्ते / के? लोकार्थनिबोधाः अर्था जीवाऽऽदयः,तेषु नितरामनेकप्रकारा बोधा निबोधा लोकस्यार्थनिबोधा लोकार्थनिबोधाः। तेष्वेवंविधेषु निगमेषु अवः कुशलो वाऽयमिति नैगमः। अथवा अन्यथा व्युत्पत्तिः गम्यतेऽनेनेतिगमः पन्थाः, नैके गमाः पन्थानो यस्याऽसौ नैकगमः, वक्ष्यमाणनीत्या बहुविधाभ्युपगमपरत्वाद् नैकमार्गः / निरुक्तविधिना च ककारलोपान्नैगम इति // 2187 / / कथंभूतः पुनरयं, कथं चानुगन्तव्यः? इत्याहसो कमविसुद्धभेओ, लोगपसिद्धिवसओऽणुगंतव्यो। विहिणा निलयणपत्थयगामोवम्माइँ संसिद्धो।।२१८८|| सनैगमनयः क्रमेण परिपाट्या विशुद्धा विशेषवन्तो भेदाः प्रकारा यस्य स क्रमविशुद्धभेदः / तथाहि-आद्यभेदोऽस्य निर्विकल्पमहासत्ताऽऽख्यकेवलसामान्यवादित्वात्सर्वाविशुद्धः गोत्वाऽऽदिसामान्यविशेषवादी तु द्वितीयभेदो विशुद्धाविशुद्धः, विशेषवादी तु तृतीयभेदः सर्वविशुद्धः। विशे०। (दृष्टान्ता 'णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1876 पृष्ठे द्रष्टव्याः) गविह त्रि०(नैकविध) नानाप्रकारे, नि०चू०१उ०। णेचइय पुं०(नैचयिक) निचयेन संचयेनार्थाद्धान्याना ये व्यवह-रन्ति ते नैचयिकाः। धान्यव्यापारिषु, व्य०४ उ०। णेच्छंत त्रि०(अनिच्छत्) अनभिलषति, व्य०२ उ०॥ णेच्छिय त्रि०(नेच्छित) न इच्छितं नेच्छितम्। इच्छाया अविषयीकृते, जी०। णेच्छियकामगामिणो ते मणुयगणा। नेच्छितकामगामिनः-न इच्छितमिच्छाविषयीकृतं नेच्छितं, नायं नञ् किं तु नशब्दः, इत्यत्राऽऽदेशाभावः / यथा--नके द्वेषस्य पर्याया इत्यत्र नेच्छितमिच्छाया अविषयीकृतं कामं स्वेच्छया गच्छन्तीत्येवं शीला नेच्छितकामगामिनः, ते मनुजाः। जी०३ प्रति०४ उ०। जंग
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________________ गेटूर 2158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णेयाउय णेङ्करपुं०(नेहर) अनार्यदेशभेदे, तत्रत्यमनुष्ये च। प्रश्न०१ आश्र0 द्वार। प्रज्ञान णेड न०(नीड)"नीडपीठे वा" ||811106|| इतीत एत्वं वा। 'नेड' / 'नीड'। पक्षिणामावासस्थाने, प्रा०१ पाद। णेडाली (देशी) शिरोभूषणभेदे, देना०४ वर्ग 43 गाथा। णेड न०(नीड) "सेवाऽऽदौ वा"||८||६|| इति इद्वित्वम् / प्रा०२ पाद। पक्षिणामावासस्थाने, प्रा०२ पादा नीडे,देवना० 4 वर्ग 44 गाथा / णेड्डरिया (देशी) भाद्रपदोज्ज्वलदशम्यां जाते करिमश्चिदुत्सवविशेषे, देना०४ वर्ग 45 गाथा। णेत्त न०(नेत्र) नयन्त्यर्थदेशमर्थक्रियासमर्थमर्थमाविर्भावयन्ति इति नेत्राणि / चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु, आचा०१ श्रु० 4 अ०४उ० अक्षिणि, "वाऽक्ष्यर्थवचनाद्याः"।।८।१।३३।। इति वा नपुंसकत्वम्,पक्षे स्त्री। प्रा०१ पाद / "दो णेत्ता।" प्रज्ञा०१८ पद / "उड्ढमुहे णिग्गयजीहणेते।" उत्त०१२ अग मन्थदण्डाऽऽकर्षणरज्जो, उपा०२ अगवस्त्रभेदे, वृक्षमूले, रथे, जटायाम्, नाड्याम्, शलाकायाम, प्राययितरि, नयनसाधने, प्रवर्तक च। वाच०। णेत्तसूल न०(नेत्रशूल) नेत्रपीडायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०। णेम पुं०(नेम) भूमिभागावं निष्क्रामति प्रदेशे, जं०१ वक्ष०ा जी०। रा०ा आ०म० नेमशब्दो देश्यः / कार्ये , पिं०1 अवधौ, काले, अर्द्ध, प्राकारे, कैतवे,गर्तनाट्ये, अन्यस्मिन्नित्यर्थे च। अर्धार्थेऽस्य सर्वनामता। वाचा णेमि पुं०(नेमि) चक्रस्य वाह्यपरिधौ, जी०३ प्रति०४ उ०। सूत्र०। नं०। "सुकयनेमिजंतकम्माण।'' भ०६ श०३३ उ०। चक्रधारायाम्, स्था०३ ठा०३उ०। धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः। अस्याभवसर्पिण्यां जाते द्वाविंशे तीर्थकरे, कल्प०७क्षण / स०। आ०चू आवाधा प्रव०। नेमिचरित्रे सर्वसाधूनां द्वादशाऽऽवर्त्तवन्दनं कृष्णो ददौ इत्युक्तमस्ति, न त्वष्टादशसहस्राणामिति तदुक्तिलौकिकी, शास्त्रीया वेति? यदि शास्त्रीया तदा कथं तदुपपत्तिः? "पयहि-आण चतइयं तु।" इति वचनात्सर्वेषां चपदस्थत्वाभावात्।यदि सर्वेषां पदस्थत्वंतदाते कस्मिन्पदे स्थिताः? इति प्रश्ने, उत्तरम्- यथा नेमिचरित्रेतथाऽऽवश्यकवृत्त्यादावपि सर्वेषां साधूनां द्वादशा--ऽऽवर्त्तवन्दनकमुक्तमस्ति, सर्वशब्देन चाष्टादशसहनसंख्या समागतैवेति द्वारिका। किंच-सर्वेषामिति पदं विवक्षितसर्वपरं, तेन पदस्थानामेवं वन्दनकप्रदानं संभाव्यते, पदस्थेष्वपि ये गुरुनिकटस्थास्ते कथं तद्दापयन्तीति विचारेण सर्व समञ्जसमेवेति। 231 प्र०। तथा श्रीकल्पसूत्रे श्रीनेमेश्चत्वारि शतसहस्राण्यार्या उक्ताः सन्ति, नेमिचरित्रे त्वेवम्-"विना चकनकवती, रोहिणी देवकी तथा। पत्न्योऽपि प्राव्रजन् स्वामिसन्निधौ सकला अपि / / 1 / / " वसुदेवहिण्ड्यामपि द्वासप्ततिसहस्राण्वपि वसुदेवपत्न्यः श्रीनेमिपार्श्वे प्रव्रज्य मोक्षं गताः। अन्या अपि सहस्रशः कृष्णाऽऽदिपत्न्यः नेमिपार्श्वे प्रव्रजिताः सन्तीति | कथं संगच्छते? तथा सर्वेषामपि तीर्थकृतां श्राद्धश्राद्धीसाधुमाध्वीसंख्या कल्पसूत्रोक्ताऽपि संदे-हमावहतीति प्रश्ने, उत्तरम् तीर्थकृतापाचे यैः सम्यक्त्वलाभपूर्वक देशविरत्यादि प्रतिपन्नं,तएव तीर्थकृत्परिवारमध्ये गणनीयाः, नान्ये इति न कोऽपि शङ्काऽवकाश इति / 232 प्र०। अथ पन्या-सहर्षचन्द्रगणिकृतप्रश्नास्तदुत्तराणि च यथा- श्रीजिनेन्द्राम्बा जिनेन्द्रप्रसवनान्तरमपत्यं प्रसूते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-एकान्तो ज्ञातो नास्ति / नेमिनाथाऽऽदीनां रथनेमाऽऽदेलघुभ्रातृतया प्रतीतत्वादिति ।४१६।प्र०ा नेमिनाथस्यैकादश गणधरा एकविंशतिस्थानके कथिताः, कल्पसूत्रेत्वष्टादश, तत्कथमिति प्रश्ने, उत्तरम्-तावत एवैकविंशति स्थानके तथा सप्तविंशस्थानकप्रव-चनसारोद्धाराऽऽवश्यकाऽऽदिग्रन्थेषु च कथिताः सन्ति / कल्पसूत्रे तु नेमिनाथस्याष्टादश गणधरा इत्यादि यदन्तरं पतति तन्मतान्तरं ज्ञेयमिति / 448/ प्र० सेन०३उल्ला० ('अरिट्ठनेमि' शब्दे प्रथमभागे 762 पृष्ठे कथोक्ता) ('रहणेमि' शब्दे विस्तृता कथा, राजीगतिरथनेमिसम्वादश्वाभिधास्यते) णेमिचंद पुं०(नेमिचन्द्र) वि०सं० 1200 मिते विद्यमाने वैरस्वामिशिष्ये सागरेन्दुस्वामिगुरौ,अयमाचार्यः तर्कशास्त्रेऽतीव कुशल आसीत्। जै० इ०। णे मित्तकारण न०(नैमित्तकारण) निमित्तस्येदं नैमित्तं, तदेव कारणं नैमित्तकारणम् / नैमित्तिककारणे, आ०म०१ अ०२ खण्ड। विशे०। जेमित्तिय न०(नैमित्तिक) निमित्तमतीताऽऽदिपरिज्ञानोपायशास्त्रम्, तदेव नैमित्तिकम्। कूटपर्वताऽऽदौ, पापश्रुते, स्था०६ टा०ा निमित्तं कालिकं लाभालाभप्रतिपादक शास्त्रं, तद् वेत्त्यधीते च / नैमित्तिकः / ध०२ अधि०। अष्टाङ्ग निमित्तसम्पन्ने, नि०चू०१उ०। प्रव०। दश। आचा०। णेमिपडिरूवग न०(नेमिप्रतिरूपक) नेमिश्चक्रधारा, तद्योगावक्रमपि नेमिस्तत्प्रतिरूपकम्। वृत्ततया तत्सदृशम्।वृत्तस्थाने, भ०१४ श०६ उ०। णेय त्रि० (ज्ञेय) ज्ञायत इति ज्ञेयम् / ज्ञानविषये, नि०चू०१ उ०। ज्ञानक्रियाविषये परिच्छेद्ये, व्य०१ उ०। विशे०। ज्ञातव्ये, आव०४ अ०। पञ्चा यव्व त्रि० (नेतव्य) संवेदनविषयता प्रापणीये, उत्त०१ उ०। णेया त्रि०(नेतृ) नयनशीलो नेता, नयतेस्ताच्छीलिकस्तृन् / सूत्र०१ श्रु०३ अ०१उ०। प्रणायके, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। स०) णेयाउय पुं०(नैयायिक) न्यायेन चरति नैयायिकः / न्यायाऽबाधिते, आ०चू०४ अ०। न्यायानुगते, औ० न्यायानिष्ठे, उत्त०२ अ०। सूत्र०। न्यायमनतिक्रान्ते, दशा०६ अ० न्यायोपपन्ने, उत्त०३ अ०) सूत्र०। गौतमशास्त्रज्ञे आक्षपादे, पुं० ते च प्रमाणप्रमेयाऽऽदीनां पदार्थानामन्वयव्यतिरेकपरिज्ञानान्निःश्रेयसाधिगम इति व्यव-स्थिताः / सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। नयनशीलो नैयायिकः, न्याये वा भवो नैयायिकः / मोक्षगमके, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ध० भ०ा आव०) मोक्षनयनशीले, "नेयाउयं सुअक्खायं, उवादाय समीहए।' नयनशीला नेता, नयतेस्ताच्छीलिकस्तृन्। स चाऽत्र सम्यग्--दर्शनज्ञानचारित्राऽऽत्मको मोक्षमार्गः। श्रुतचारित्ररूपो वा धर्मो मोक्षनयनशीलवान् गृह्यते; मार्ग धर्म वा मोक्ष प्रति नेतारं सुष्ठ तीर्थकराऽऽदिभिराख्यातं स्वाख्यातं तमुपादाय गृहीत्वा सम्यक् मोक्षाय चेष्टते ध्यानाध्ययनाऽऽदावुद्यम विधत्ते / सूत्र०२ श्रु०८अ०
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________________ णेरइय 2156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णेरइयत्ता णेरइय पुं०(नैरयिक) निर्गतमविद्यमानमयमिष्टफलं येभ्यस्ते निरयाः,तेषु भवा नैरयिकाः / क्लिष्टसत्त्वविशेषेषु, स्था०। "तिविहा णेरड्या पण्णत्ता / तं जहा-कतिसंचया, अकतिसंच-था, अवत्तव्वगसंचया, एवं एगिदियवज्जा०जाव वेमाणिया ।"(एवमिति) नारकवच्छेषाश्चतुर्विशतिदण्डकोक्तावाच्याः, एकोन्द्रियवर्जाः, यतस्तेषु प्रतिसमयमसङ्ख्याता अनन्ता वा अकतिशब्दवाच्या एवोत्पद्यन्ते, न त्वेकः,सङ्ख्याता वा इति। आह च"अणुसमयमसंखिल्जा, संखिजाओ य तिरियमणुया य। एगिदिएसु गच्छे, आरा ईसाणदेवा य॥१॥ एगो असंखभागो, वट्टइ उव्वट्टणोववायम्मि। एगनिगोए णिचं, एवं सेसेसु वि स एव त्ति' // 2 // स्था०३ ठा०१ उ०॥ दशा० नरकभवमनुप्राप्तेषु जन्तुषु. दश०१चू० / रत्नशर्कराऽऽदिमहातमः पृथ्वीपर्यन्तनरकाऽऽवासिषु, आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ०। प्रज्ञा०। जी०। सूत्र०। उत्त०। स्था०। (नैरयिकसिद्ध्यादिकोऽधिकारः ‘णरग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1604 पृष्ठे उक्तः ) ('अहुणोववण्णग' शब्दे प्रथमभागे 886 पृष्ठऽवत्या सर्वा वक्तव्यता गता) (नैरयिकाणाम् अन्तरं, कालस्थितिः, ज्ञानं, दृष्टिः, समुद्घातश्चेत्येवमादयोऽन्तराऽऽदिशब्देषु, जीवशब्दे च पुद्गलभेदादिश्चलितकर्मनिर्जरणाऽऽदि च सर्वं विलोक्यम्) नैरयिकानाहनेरइया सत्तविहा, पुढवीसू सत्तसू भवे / (पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे) रयणाभ सक्कराभा, बालुयाभा य आहिया / / 157 / / पंकामा धूमाभा, तमामा तमतमा तहा। इति णेरइया एए, सत्तधा परिकित्तिया॥१५॥ लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे उ वियाहिया। एत्तो कालविभागं तु,तेसिंवोच्छं चउव्विहं / / 156 / संतई पप्प णाईया, अपज्जवसिया विय। ठितिं पडुच सादीया, सपज्जवसिया विय॥१६०|| सागरोवममेगं तु, उक्कोसेणं वियाहिया। पढमाए जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया।।१६१।। तिन्नेव सागरा ऊ,उक्कोसेण वियाहिया। दोचाए उ जहन्नेणं, एगयं सागरोवमं / / 16 / / सत्तेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया। तइयाए जहन्नेणं, तिन्नेव सागरोवमा।।१६३|| दससागरोवमा ऊ, उक्कोसेणं वियाहिया। चउत्थीए जहन्नेणं, सत्तेव सागरोवमा।।१६४।। सत्तरस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया। पंचमाए जहन्नेणं, दसेव सागरोवमा / / 16 / / वावीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया। छट्ठीए य जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा / / 166 / / तेतीससागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया। सत्तमाए जहन्नेणं, वाचीसं सागरोवमा।।१६७।। जा चेव य आउठिई, णेरइयाणं वियाहिया। सा तेसिं कायठिई, जहण्णुकोसिया भवे / / 168 / / अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं / विजढम्मि सए काए, णेरइयाणं तु अंतरं // 16 // एतेसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणदेसओ वा वि, विहाणाइंसहस्सओ॥१७०|| चतुर्दशसूत्राणि-नैरयिकाः सप्तविधाः समप्रकाराः, किमिति? यतः, पृथिवीषु सप्तसु। (भवे त्ति) भवेयुः, ततस्तद्रेदात्तेषां सप्तविधत्वमिति भावः। काः पुनस्ताः सप्तेत्याह-(रयणाभत्ति) रत्नानां वैडूर्याऽऽदीनामाभा स्वरूपतः प्रतिभासनमस्यामिति रत्नाभा, इत्थं चैतत्तत्र रत्नकाण्डस्य भवनपतिभवनानां च विविधरत्नवतां सम्भवात्। एवं सर्वत्र, नवरं शर्करा श्लक्ष्णपाषाणशकलरूपा / तदाह-(धूमाभे त्ति) यद्यपि तत्र धूमासंभवस्तथापि तदाकारपरिणतानां पुद्गलानां सम्भवात्, तमोरूपत्वाच तमःप्रभा, प्रकृष्टतरतमत्वाच तमस्तमा। इतीत्यमुना पृथिवीसप्तविधस्वलक्षणेन प्रकारेण नैरयिका एते सप्तधा परिकीर्तिताः / "लोगस्स" इत्यादि सूत्रद्वयं क्षेत्रकालाभिधायि प्राग्वत्, सादिसपर्यवसितत्वं द्विविधस्थित्यभिधानद्वारतो भावयितुमाह-(सागरोपममेगं तु) उत्कृष्ट न व्याख्याता, प्रथमायां प्रक्रमान्नरकपृथिव्यां, जघन्येन दशवर्षसहरत्राणि यस्यां सा दशवर्षसहस्रिका, प्रस्तावादायुःस्थिते रयिकाणामितीहोत्तरसूत्रेषु च द्रष्टव्यम् / त्रीण्येय (सागर त्ति) सागरोपमानि, तुः पूरणे, उत्कृष्टेन व्याख्याता। द्वितीयायाम्-(जहन्नेणं ति) उत्तरतुशब्दस्य पुनःशब्दार्थस्य भिन्नक्रमत्वेनेह संबन्धाजघन्येन पुनरेक सागरोपमम्। सप्तैव सागरोपमानितूत्कृष्टन व्याख्याता। तृतीयायां जघन्येन पुनस्वीण्येव सागरोपमाणि / दश सागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता। चतुर्थ्यां जघन्येन सप्तचतुःसागरोपमाणि, सप्तदशसागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता। पञ्चम्या जघन्येन दश चैव तु सागरोपमानि, द्वाविंशतिसागरोपमानि तूत्कृष्टेन व्याख्याता / षष्ठयां जघन्येन सप्तदश सागरोपमानि, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता / सप्तम्यां नरकपृथिव्यां जघन्येन द्वाविंशतिसागरोवमाणि आयुःस्थितिरुक्ता। कायस्थितिमाह-या चेति, चशब्दो वक्तव्यतान्तरोपन्यासे, एवेति भिन्नक्रमः, चः पुनरर्थः, ततो यैव च पुनरायुःस्थिति रयिकाणां व्याख्याता (से त्ति) एव-कारस्य गम्यमानत्वात्सैव तेषां कायस्थितिः जघन्योत्कृष्टा भवे-दित्थं चैतत् उवृत्तानां पुनस्तत्रैवानुपपत्तेः। ते हि तत उवृत्त्य गर्भजपर्याप्तकः संख्येयवर्षायुष्वेवोपजायते। यत उक्तम्"णरगतो उव्वट्टा, गब्भे पज्जत्तर्सखजीवीसु। णियमेण होइवासो,लद्धीण उ संभवो वुच्छं" // 1 // अन्तराभिधानाभिधायि सूत्रद्वयं प्राग्वत्. नवरमन्तर्मुहूर्त जघन्यमन्तरं यदाऽन्तरनरकादुद् वृत्त्य कश्चिजीयो गर्भजपर्याप्तक मत्स्याऽऽदिषूत्पद्यते, तत्र चातिसंक्लिष्टाध्यवसायोऽन्तर्मुहूर्तमायुः प्रतिपाल्य मृत्वाऽन्यतमनरक एवोपजायते, तदा लभ्यते इति भावनीयमिति चतुर्दशसूत्रार्थः / उत्त० पाई० 36 अ०। (नैरयिकाणां स्थितिः 'ठिइ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1717 पृष्ठे गता) णेरइयत्ता स्त्री०(नैरयिकता) नैरयिकत्वे नैरयिकभावे, स्था० 4 ठा० ४उ०
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________________ णेरझ्यावास 2160 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णेरड्यावास पुं०(नैरयिकावास) नैरयिकाणामावासभूमौ, जी०१ प्रतिका हस्तिशुण्डिका / पर्यङ्का प्रतीता / अर्द्धपर्या च यस्यामेकं स्थान जानुमुत्पाटयति, एवंविधनिषद्यया चरन्तीति नैषधिकाः। बृ०५ उ० रई स्त्री०(नैर्ऋती) निर्ऋतिर्देवताऽस्या नैर्ऋती / भ०७ श० 10 // सूत्र०ा स्था०। आचा स्था०। पूर्वस्याः पश्चिमायाश्चान्तरालविदिशि, आ०म०१ अ०२ खण्ड। णेसत्थिया स्त्री०(नैसृष्टिकी) निसर्जन निसृष्ट, क्षेपणमित्यर्थः। तत्र भवा विशे०। स्था। नैसृष्टिकी, निसृजतः कर्मबन्धरूपायां निसर्गरूपायां वा क्रियायाम्, णेरप्प न०(नैरात्म्य) आत्मराहित्ये, शौद्धोदनीयाः पुनरेव माहुः- स्था०२ ठा०१ उ०। "णेसत्थिया किरिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहानैरात्म्यभावना। नंग जीवणेसत्थिया चेव, अजीवणेसत्थिया चेव।" राजाऽऽदिसमादेशाणेरुत्त न०(नैरुक्त) अभिधानाक्षरानुसारतो निश्चितार्थस्य वचनं भणनं द्यदुदकस्य यन्त्राऽऽदिभिर्निसर्जनं सा जीवनै सृष्टि कीति; यत्तु निरुक्तं, तत्र भवं नैरुक्तम् / निरुक्तवशेनाऽर्थाभिधायके नामनि, यथा काण्डाऽऽदीनां धनुरादिभिः सा अजीवनसृष्टिकीति / अथवा-गुर्वादौ मह्या शेते महिष इत्यादि। अनु०॥ निरुक्तशास्त्राविदि, पुं०। व्य०७०। जीवं शिष्यं पुत्रं वा निसृजतो ददत एका, अजीवं पुनरेषणीयभक्तपानाणेल न०(नैल) नीलीविकारे, भ० 120 १उ० प्रज्ञा०। ऽऽदिक निसृजतो ददतोऽन्येति। स्था०२ ठा०१ उ०। आ०चू०। णेलच्छ पुं०(पण्डित) "गोणाऽऽदयः" ||12|174 / / इति पण्डित णेसत्थी (देशी) वणिक्सचिवे, देवना०४ वर्ग 44 गाथा। शब्दस्य णेलच्छाऽऽदेशः / प्राज्ञे, प्रा०२ पाद। षण्ढे, देखना०४ वर्ग 44 णेसप्प पुं०(नैसर्प) निधानभेदे, तदभेदविवक्षया देवभेदे च / स्था०| गाथा! "णेसप्पम्मि निवेसा, गामागरनगरपट्टणाणं च / दोणमुहमर्डबाणं, णेलिच्छी (देशी) कूपतुलायाम्, देना०४ वर्ग 44 गाथा। खंधाराणं गिहाणंच॥१॥" स्था०६ ठा०। ('णिहि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे णेवइय त्रि०(नैतकिक) नीतिकारिणि, व्य०१ उ०। 2151 पृष्ठे व्याख्यातम्) णेवच्छण (देशी) अवतारणे, दे०ना०४ वर्ग 40 गाथा। णेसर (देशी) रवौ, दे०ना०४ वर्ग 44 गाथा। णेवत्थ न०(नेपथ्य) वेषे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार / आ०म०। औ०। रा०| णेसाय पुं०(निषाद) निषीदन्ति स्वरा यस्मात्स निषादः। स्वरविशेषे, स्त्रीपुरुषाणां वेषे, स्था०४ ठा०२ उन परिधानाऽऽदिरचने, ज्ञा०१ श्रु०१ 'निषीदन्ति स्वरा यस्मान्निषादस्तेन हेतुना / सर्वा श्वातिभवत्येषः, अ० केशचीवरसमारचने, दर्श०४ तत्त्व। नि०ा औ०। निर्मलवेषे, ज्ञा०१ यदादित्योऽस्य दैवतम्॥१॥" स्था०७ ठा०) श्रु०१६ अ०। स्था णेह पुं०(स्नेह) "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्" णेवाइय न०(नैपातिक) निपतत्यर्हदादिपदानामादिपर्यन्तेषु इति निपातः / // 8/1 / 177 / / इति सलुक् ! प्रा०१ पाद / मोहोदयजे प्रीतिविशेषे निपाते भवं नैपातिकम्। 'अध्यात्माऽऽदिभ्यइकण्' / / 6 / 3 / 78 // इति पुराऽऽदिष्वत्यन्तानुरागे, आतुला जीता तैलाऽऽदिगतरसे, यद्-वशाद् अध्यात्माऽऽदित्वादिकण।यदि वा निपात एव नैपातिकम्। निपातसंज्ञके दाहानुकूल्यम्। वाचा पदे, विशे०। आ०म० णेहंझाण न०(स्नेहध्यान) स्नेहो मोहोदयजः प्रीतिविशेषः पुत्राणेवाल पुं०(नेपाल) देशभेदे, नेपालनामा ऋषभदेवपुत्र आसीत्त- ऽऽदिष्वत्यन्तानुरागः। मरुदेवीसुनन्दाहरन्नकमात्राऽऽदीनामिव दुर्ध्याने, द्राज्यभूतो देशोऽपि नेपालः। आव४ अ०। कल्प०। आ०चू०। आतु०॥ णेवेज्जपूया स्वी०(नैवेद्यपूजा) घृतदधिदुग्धाऽऽदिनानाव्यञ्जनरस- णेहपचय न०(स्नेहप्रत्यय) स्नेहनिमित्ते, क०प्र०१प्रक०। समग्राऽऽहारस्य जिनानां पुर उपढौकने, 'धयदहियना णावंजण- हपचयफडग न०(स्नेहप्रत्ययस्पर्धक) स्नेहप्रत्ययं स्नेहनिमित्तरससमम्गं पयदिणं जिणाणं पुरओ दाऊण भत्तीए ससत्तीण भोयणं मेकै कस्नेहाविभागवृद्धानां पुद्गलवर्गणानां समुदायरूपं स्पर्धक कायव्वं / " दर्श०१ तत्त्व। (अत्र दृष्टान्तो दर्शनशुद्धिग्रन्थादवसेयः) स्नेहप्रत्ययस्पर्धकम्। स्नेहनिमित्ते स्पर्धके, क०प्र०१ प्रक०। णेसज्ज पुं०(नैषध) समपुततयोपविष्ट, प्रव०६७ द्वार। निषद्यावति, पञ्चा० णेहफबुगपरूवणा स्त्री०(स्नेहस्पर्धकप्ररूपणा) प्रयोगेण गृहीतानां १८विव० पुगलानां स्नेहमधिकृत्य स्पर्धकप्ररूपणायाम, क०प्र०१ प्रक०। सज्जिय पुं०(नैषधिक) निषद्यया चरके, निषद्योपविष्ट, बृक्षा हालु त्रि०(स्नेहवत्) "आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मंतेत्तेनिषद्याः पञ्च भवन्ति मणामतोः" ||२|१५६।इति मत्वर्थे आलुः। स्निग्धे, प्रा०२ पाद। पंचेव निसिज्जाओ, तासि विभासा उ कायव्वा। णेहत्तुप्पियगत्त त्रि०(स्नेहोत्त्रपितगात्र) स्नेहस्नेहितशरीरे, विपा०१ निषद्याः पञ्चैव भवन्ति, तासां विभाषा कर्तव्या। सा चेयम्-निषद्या | श्रु०२अ०॥ नामोपवेशनविशेषाः, ताः पञ्चविधाः। तद्यथा-समपादपुता, गोनिष- णो अव्य०(नो) अवधारणे, सूत्र०१ श्रु०७ अ० निषेधे, विशे०। सूत्रका धिका, हस्तिशुण्डिका, पर्यन्ता, अर्द्धपर्यन्ता चेति / तत्र यस्यां समौ आ०म० भ०। सर्वनिषेधे, नं०। देशनिषेधे च / दश०१ अ० आचाo! पादौ पुतौ च स्पृशतः सा समपादपुता, यस्यां तु गोरिवोपवेशनं सा विशेग उत्ताव्या"नो कप्पइआमपलम्बो' इति सूत्रे नोकारशब्दस्यैव गोनिषधिका, यत्र तु ताभ्यामुपविश्यकं पादमुत्पाट यति सा भावनां करोति-"नोकारो खलु देसं, पडिसेहयईपकप्पिजा।" नोशब्दः
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________________ णो 2161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 णोगुण प्रायो देशप्रतिषेधे वर्तते / यथा नो घट इत्युक्ते घटैकदेशः कपाला- णोएगिदिय पुं०(नोएकेन्द्रिय) त्रसाऽऽदिषु,आव०४ अ01 ऽऽदिकः प्रतीयते, एवमत्रापि नोकारो देशं प्रतिषेधयति / वृ०१ उ०॥ णोकम्म न०(नोकर्मन्) मनोवचनकायाऽऽत्मकेषु कर्मसु. द्रव्या० 13 कल्प०। "नो घडो घडेगदोसो, तव्विवरीयं च जं दव्वं / " नोकारो अध्या०। आ०चू० देशप्रतिषेधकः, तदन्यभावसूचको वा / यथा-नो घट इत्युक्ते घटैकदेशः णोकसाय पुं०(नोकषाय) कषायैः सहचरा नोकषायाः। हास्याऽऽदिषु, कपालाऽऽदिकोऽवयवः, तद् विपरीतमन्यद् द्रव्यं पटाऽऽदिकम्। बृ०१ ते च नव, हास्याऽऽदयः षट्, त्रयो वेदाः। अत्र नोशब्दः साहचर्यवाची। उ०। साहचर्ये, कर्म०१ कर्म०। एषां हि केवलानां न प्राधान्यमस्ति,किंतु कषायैरनन्तानुबन्ध्यादिभिः, णोअक्खरसंबद्ध पुं०(नोअक्षरसंबद्ध) अक्षरसम्बद्धादितरो नोअ- सहोदयं यान्ति, तद्विपाकसदृशमेव विपाकं दर्शयन्ति, बुधग्रहवदन्यसंक्षरसम्बद्धः। अक्षरसंबद्धभिन्ने, स्था०२ ठा०३उ०। सर्गमनुवर्तन्ते इति भावः / कषायोद्दीपनाद् वा नोकषायाः / उक्तं च-- णोअजीव पुं०(नोऽजीव) अजीवत्वरहिते, नयो०। "कषायसहवर्तित्वात्, कषायप्रेरणादपि / हास्याऽऽदिनवकस्योक्ता, जीवो वा जीवदेशो वा, प्रदेशो वाऽप्यजीवगः। नोकषाया-कषायता" ||1|| कर्म०१ कर्मा पं०सं०। श्रा०) अनयैव दिशा ज्ञेयो, नोअजीवपदादपि॥४४॥ णोकसायमोहणिज्ज न०(नोकषायमोहनीय) नोकषायरूपे मोहनी(जीवो वेति) अनयैवोक्तयैव दिशा नोअजीवपदादपि नोशब्दस्य यकर्मणि, तच द्विविधम्-हास्याऽऽदिषट्कं, वेदत्रिकंचा कर्म०१ कर्म०। सर्वनिषेधकत्वे जीवो जीवपदार्थो वा बोध्यः, तस्य देशनिषेधकत्ये णोकसायवेयणिज न०(नोकषायवेदनीय) नोकषायतया वेद्यते यत्कर्म चाजीवदेशो वजीवगः अजीवाश्रितः प्रदेशो वा / "अमानोनाः तन्नोकषायवेदनीयम् / वेदनीयकर्मभेदे, स्था० प्रतिषेधे'' इत्यनुशासनतौल्येऽपि संसर्गाभावोऽन्योन्याभावश्च नञोऽर्थः / नवविहे नोकसायवेयणिज्जे कम्मे पण्णत्ते / तं जहा-इत्थीवेए, नोशब्दस्य त्वभाव एकदेशो वा, तत्र चान्ययिताऽवच्छेद कावच्छिन्न- पुरिसवेए, नपुंसगवेए, हासे, रइ, अरइ, भए, सोगे, दुगुंछा। प्रतियोगिताकत्वतदेकदेशत्वाऽऽदि व्युत्पत्तिबललभ्यमिति सिद्धान्त- नोशब्दः साहचर्यार्थः, कषायैः क्रोधाऽऽदिभिः सहचरा नोकषायाः, परिभाषेति निगर्वः // 44|| नयो। केवलानां नैषां प्राधान्यं, किं तु यैरनन्तानुबन्ध्यादिभिः सहोदयं यान्ति, णोअमण न०(नोअमनस्) अविवक्षितसम्बन्धिविशेषे मनोमात्रे, स्था०३ तद्विपाकसदृशमेव विपाकमादर्शयन्तीति, बुधग्रहवदन्यसंसर्गमनुवर्तन्ते। ठा०३उ० एवं च नोकषायतया वेद्यते यत्कर्म तन्नोकषायवेदनीयमिति। स्था०६ ठा०। णोअवयण न०(नोअवचन) वचनमात्रे, स्था०३ ठा०३उ०। णोकेवलणाण न०(नोकेवलज्ञान) "णोकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते / तं णोआउज्जसद्दन०(नोअवचन) वचनमात्रे, स्था०३ ठा०३उ०। __ जहा-ओहिणाणे चेव, मणपजवणाणे चेव।" स्था०२ ठा०१ उ०। णोआउज्जसद्द पुं०(नोआतोद्यशब्द) आतोद्यादितरो नोआतोद्य-शब्दः | णोगार पुं०(नोकार) निषेधार्थक नोइत्यक्षरे, विशे० स्था०२ठा०३उ०।"णोआउज्जस दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-भूराणसद्दे | णोगुण पुं०(नोगुण) गुणेभ्यो निष्पन्नं यत्र नो भवति तन्नोगुणम्। अयथार्थे, चेव, नो भूसणसद्दे चेव ! स्था०२ ठा० ३उ०। (स्वस्व-स्थाने व्याख्या) अनु०॥ णोआगम पुं०(नोआगम) आगमस्याभावे, आगमस्यैकदेशे, आगमेन सह से किं तं नोगुणे ? नोगुणे अकुंतो सकुंतो अमुग्गो समुग्गो मिश्रणे च / नोशब्दस्य त्रिष्वप्यर्थेषु वर्तमानत्वात् / आ०म०१ अ०१ अमुद्दो समुद्दो अलालं पलालं अउलिया सउलिया नोपलं असइ खण्ड। पदार्थाऽपरिज्ञाने, नं० ध० अनु०॥ त्ति पलासो ओमाइवाहए माइवाहए अवीअवावए वीअवावए णोआगासन०(नोआकाश) आकाशादन्यस्मिन् धर्मास्ति-कायाऽऽदौ, नोइंदगोवईए इंदगोवे / सेत्तं नोगुणे / स्था०२ ठा०१3०। (से किं तं नोगुणे इत्यादि) गुणनिष्पन्नं यत्र नो भवति तन्नोगुणम्, णोइंदिय न०(नोइन्द्रिय) मनसि, सादृश्यार्थत्वान्नोशब्दस्यार्थपरिच्छेद- अयथार्थमित्यर्थः। (अकुंते सकुंते इत्यादि) अविद्यमानः कुन्तोऽस्य कत्वेनेन्द्रियाणां सदृशमिति तत्सहचरमिति। स्था०६ ठा० भ० प्रहक णविशेष एव (सकुंत त्ति) पक्षी प्रोच्यत इत्ययथार्थता / णोइंदियत्थ पुं०(नोइन्द्रियार्थ) नोइन्द्रियस्य विषये, स्था०। औदारि- एवमविद्यमानमुद्रोऽपि कर्पूराऽऽद्याधारविशेषः समुद्गः, अडु ल्याकाऽऽदित्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमिन्द्रियं, तस्यौदारि- भरणविशेषमुद्रारहितोऽमुद्रः तथा समुद्रो जलराशिः (अलालं पलालं काऽऽदित्वधर्मलक्षणदेशनिषेधान्नोइन्द्रियं मनः, सादृश्यार्थत्वाद्वा ति) इह प्रकृष्टा लाला यत्र तत्प्रलालं वस्तु, प्राकृते पलालमुच्यते। नोशब्दस्यार्थपरिच्छेदकत्वेनेन्द्रियाणां सदृशमिति तत्सहचरमिति वा यत्र तु पलालाभावस्तत्कथं तृणविशेषरूपं पलालमुच्यत इति नोइन्द्रियं मनः, तस्यार्थो विषयो जीवाऽऽदि!इन्द्रियार्थ इति / प्राकृ तशैलीमङ्गीकृ त्यात्राऽयथार्थता मन्तव्या / संस्कृ ते तु स्था०६ ठा। तृणविशेषरूपं पलालं निर्यत्पत्रिकमेवोच्यते इति न यथार्थाऽयथार्थणोउस्सासग पुं०(नोउच्छ्रासक) उच्छासपर्याप्तिविकले, "णेरइया चिन्ता संभवति / (अउलिया सउलिय त्ति) अत्रापि कुलिकाभिः दुविहा पण्णत्ता / तं जहा--उस्सासगा चेव, णो उस्सासगा चेव, सह वर्तमान व प्राकृते 'सउलिय त्ति' भण्यते, या तु कुलिकारजाव०वेमाणिया।" स्था०२ ठा०२ उ०। हितैव पक्षिणी सा कथं "सउलिय त्ति'? एवमिहापि प्राकृतशै
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________________ जोगुण 2162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ण्हाण लीमेवाङ्गीकृत्याऽयथार्थता। संस्कृते तु शकुनिकेल साऽभिधीयते इति ___ "नेवार'' इतिख्याते सुगन्धपुष्पप्रधाने वृक्षभेदे, जं०१ वक्षाज्ञालाजी०। कुतस्तचिन्तासंभव इति / एवमन्यथाऽप्यविरोधतः सुधिया भावना णोलइआ (देशी) चञ्चौ, देवना० 4 वर्ग 36 गाथा। कार्या / पलं मांसमनश्रन्नपि पलाश इत्यादि तु सुगमम / नवरं णोलच्छा (देशी) चञ्चौ, दे०ना० 4 वर्ग 36 गाथा। मातृवाहकाऽऽदयो विकलेन्द्रियजीवविशेषाः / "सेत नोगुणे त्ति'' णोल्ल धा०(क्षिप) प्रक्षेपणे, "क्षिपे गलत्थाडुक्ख-सोल्लनिगमनम्। अनुन पेल्लणोल्लछुहहुल-परी-घत्ताः" ||8|4|143 / / इति क्षिपेण --- णोजीव पुं०(नोजीव) जीवाजीवव्यतिरिक्त पदार्थ , आ००१ अ० ल्लाऽऽदेशः। 'णोल्लई। क्षिपति। प्रा०४पाद / आ०म० विशे०। स्था०। (जीवाजीवव्यतिरिक्तं राश्यन्तरमस्तीति णोल्लिय त्रि०(नोदित) प्रेरिते, प्रश्न०३आश्र० द्वार। सिय' शब्दे वक्ष्यते) णोसुमण त्रि०(नोसुमनस्) अपहतमनः सङ्कल्पे, आव० ३अ० नोजीव इति नोशब्देऽजीवः सर्वनिषेधके। जोसुयकरण न०(नोश्रुतकरण) 'करण' शब्दे व्याख्याते करणभेदे, देशप्रदेशौ जीवस्य, तस्मिन् देशनिषेधके / / 43 // विशे०। (श्रुतकरणव्याख्या 'करण' शब्दे तृतीयभागे 368 पृष्ठे गता) (नो इति) नोजीव इतिशब्दवाच्ये नोशब्दे सर्वनिषेधके विवक्षिते--ऽजीव | णोहलिया स्त्री०(नवफलिका) "ओत् पूतर-बदर-नवमालिकाएव: देशनिषेधके तु नोशब्दे आश्रीयमाणे देशनिषेधरा देशाभ्यनुज्ञाना नवफलिका--पूगफले" ||8/1170 // इति उत ओत्वम्। प्रा०१ पाद। न्तरीयकत्वाजीवस्य देशप्रदेशावेव नोजीवशब्दव्यपदेश्यावभ्युप अचिरोत्पन्नफलिकायाम्, वाच०। गन्तव्यौ / / 43 / / नयोग ण्हं अव्यानि०(ग्रह) पादपूरणे, बृ०१ उ०। आमा वाक्यालङ्करे, णोणाणायार पुं०(नोज्ञानाचार) ज्ञानाचाराभावे, ''णोणाणायारे दुविहे कल्प०६क्षण। पण्णत्ते। तं जहा-दसणायारे चेव, गोदसणायारे चेय।" स्था२ ठा०३उ०। ण्हवण न०(स्नपन) जलक्षालने, नि०यू०१3०। सौभाग्यपुत्राऽऽ--द्यर्थ (स्वस्वशब्द व्याख्या) वध्वादेर्मज्जने, प्रश्न०२ आश्रद्वार। णोतस पुं०(नोत्रस) सा न भवन्तीति नोत्रसाः / आहाराऽऽदिषु, / हाअ त्रि०(स्नात) "सूक्ष्म-श्न-ण-स्न-ह-ह-क्ष्णां पहः" आव०४ अ० // 8275 / / इति स्नभागस्य णकाराऽऽक्रान्तोहकारः। कृतस्नाने, प्रा०२ णोतहा अव्य०(नोतया) अन्यथाऽपीतिशब्दस्यार्थे, स्था०४ ठा०२उ०। पाद। सामान्यतः कृतस्नाने, दशा०१०अ० 'पहाया कयबलिकम्मा।" णोदंसणायार पुं०(नोदर्शनाचार) नोदर्शनाऽऽचारश्चारित्राऽऽदिः। 'दुविह ज्ञा०१ श्रु०२० णोदसणायारे पण्णत्ते। तं जहा-चरित्तायारे घेव, नोचरित्तायारे चेव।" ण्हाण न०(स्नान) देशतः सर्वतो वा शरीरस्य प्रक्षाल्ने, व्य०१० उ०) स्था०२ ठा०३उ० (स्वस्वस्थाने व्याख्या) उत्त०। आ०म० णोदिय त्रि०(नोदित) प्रेरिते. गमनाभिमुखीकृते, ज्ञा०१ श्रु० 6 अ०) अथ श्रावकस्य स्नानविधिःणोपरमाणुपोग्गल पुं०(नोपरमाणुपुद्गल) स्कन्धेषु, स्था०२ ठा०३उ०। सम्यक् स्नात्वोचिते काले, संस्नाप्य च जिनान् क्रमात् / णोबद्धपासपुट्ठ पुं०(नोबद्धपार्श्वस्पृष्ट) नोबद्धाः किं तु पार्श्वस्पृष्टा पुष्पाऽऽहारस्तुतिभिश्च, पूजयेदिति तद्विधिः / / 61 / / इत्येकपदनिषेधे श्रोत्रेन्द्रियज्ञानगोचराः। एकपदनिषेधे श्रोत्रेन्द्रिय उत्तिङ्गपनककुन्थ्वाद्यसंसक्तवैषम्यशुषिराऽऽदिदोषाऽदूषितभूमा ग्रहणगोचरेषु, स्था०२ ठा०३३०॥ परिमितवस्त्रपूतजलेन संपातिमसत्त्वरक्षणाऽऽदियननारूपः। उक्त च णो भासासद्द पुं०(नोभाषाशब्द) अव्यक्तशब्दे, भाषाशब्दादितरो दिनकृत्ये-'"तसाऽऽइजीवरहिए, भूमिभाग विसुद्धए। फासुएणंतुनीरण, नोभाषाशब्दः। "णोभासासद्दे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा- आउजसद्दे चेव, इअरेण गलिए। उ।।१।।'' ''काऊणं विहिणा म्हाणं,' इति। तत्र विधिना णोआउजसद्दे चवे। 'स्था०२ ठा०३उ०। (स्वस्वस्थाने व्याख्या) परिमितोदक संपातिमसत्त्वरक्षणाऽऽदियतनयेति तदृत्तिलेशः। णोभिउरधम्म पुं०(नोभिदुरधर्म) स्वत एव नो भिद्यत इति नोभि-- पशाशकेऽपि- भूमीपेहणजलठा-णणाइ जयणा उ हाइ हाणाओ। एत्तो दुरधर्मम्। सुदृशधर्मे , स्था०२ ठा०३उ०। विसुद्धभावो, अणुहवसिद्धो चिअ बुहाणं / / 1 / / '' व्यवहारशास्त्रे तुणोभूसणसद्द पुं०(नोभूषणशब्द) भूषणशब्दव्यतिरिक्त, भूषणं नुपुराऽऽदि "नग्नातः प्रोषिताऽऽयातः, सचेलो भुक्तभूषितः। नैव स्नायादनुव्रज्य, / 'नोभूसणसद्धे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-तालसद्दे चेव, लत्तियासट्टे चेव बन्धून् कृत्वा च मङ्गलम् / / 1 / / " इत्यादि। स्नानं चद्रव्यभावाभ्यां द्विधा।' स्था०२ ठा०३उ०। (स्वस्वस्थाने व्याख्या) तत्र द्रव्यस्नानं जलेन शरीरक्षालनम्। तच देशतः सर्वतो वा, तब देशतो णोमाउयापय न०(नोमातृकापद) मातृकापदव्यतिरिक्ते अपराधपदे, मलोत्सर्गदन्तधावनजिह्वालेखनकरचरणमुखाऽऽदिक्षालनगण्डूषकरणा "नोमाउय पि दुविहं, पंच पइन्नगं च बोधव्यं / ' दश०२०॥ ऽऽदि, सर्वतस्तु सर्वशरीरक्षालनमिति / तत्र च मलोत्सगों मौनेन (अपराधपदव्याख्यानम् अवराहपय' शब्दे प्रथमभागे७६८ पृष्ठेद्रष्टव्यम्) निरवद्यार्हस्थानाऽऽदिविधिनैवोचितः / यतःणोमालिया स्त्री०(नवमालिका)"ओत् पूतर-बदर-नवमालिका- "मूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्गं, मैथुनं स्नानभोजनम्। नवफलिका-पूगफले" ||1|170 / / इति उत ओत्वम्। प्रा० 1 पाद। सन्ध्यादिकर्म पूजां च, कुर्याजापं च मौनवान् // 1 // "
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________________ ण्हाण 2163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ण्हाण विवेकविलासेऽपि"मौनी वस्त्राऽऽवृतः कुर्यादिनसन्ध्याद्वयेऽपि च / उदड़ मुखः शकृन्मूत्रे, रात्रौ याम्याननः पुनः / / 1 / / '' इति। दन्तधावनमपि"अवक्राऽग्रन्थिसत्कूर्च , सूक्ष्मागं च दशाङ्गुलम्। कनिष्ठाऽग्रसमस्थौल्य, ज्ञातवृक्षं सुभूमिजम्।।१।। कनिष्ठिकाऽनामिकयोरन्तरे दन्तधावनम् / आदाय दक्षिणा दंष्ट्रा, वामा वा संस्पृशस्तले / / 2 / / तल्लीनमानसः स्वस्थो,दन्तमांसव्यथां त्यजन्। उत्तराभिमुखः प्राची-मुखो वा निश्चलाऽऽसनः / / 3 / / " इत्यादिनीतिशास्त्रोक्तविधिना विधेयम्। गण्डूपोऽपि"अभावे दन्तकाष्ठस्य, मुखशुद्धिविधिः पुनः। कार्यों द्वादशगण्ड्वैर्जिहोल्लेखस्तु सर्वदा।।१।।" इति विधिना कार्योऽप्रत्याख्यानिना, प्रत्याख्यानिनस्तु दन्तधावनाऽऽदि विनाऽपशुद्धिरेव, तपसो महाफलत्वात्, इदं च द्रव्यस्नानं वपुःपावित्र्यसुखकरत्वाऽऽदिना भावशुद्धिहेतुः / ध० 2 अधिक। (स्नानदोषः अणायार' शब्दे प्रथमभागे 314 पृष्ठे, च शीतोदकाऽऽदिभिः पादाऽऽदिप्रधावने दोषप्रायश्चित्ते उक्ते) ततो देशस्नानं सर्वस्नानं वा सेवंतस्स आणाअणवत्थमि च्छत्तविराहणा भवति। पहाणे इमे दोसाछक्कायाण विराधणा, तप्पडिबंधो य गारव विभूसा। परिसहभीरुत्तं पिय, अविसासो चेव पहाणम्मि||६|| पहायंतो छज्जीवणिकाए वहति, पहाणे पडिबंधो भवति, पुनः पुनः स्नातीत्यर्थः / अस्नातसाधुशरीरेभ्यः निर्मलशरीरोऽहमिति गौरवं कुरुते, स्नान एव विभूषाऽलङ्कार इत्यर्थः / अण्हाहपरीसहाउ वीहेति, तं तं जिनातीत्यर्थः / लोगस्साविभूभणीयो भवति / एते स्नानदोषा उक्ताः / नि०चू० २उ० स्नानाष्टकम्-पूजाऽऽदि स्नानपूर्वकमिति स्नाननिरूपणायाऽऽहद्रव्यतो भावतश्चैव, द्विधा स्नानमुदाहृतम्। बाह्यामाध्यात्मिकं चेति, तदन्यैः परिकीर्त्यते / / 1 / / द्रवति गच्छति तास्तान् पर्यायानिति द्रव्यम्-पुद्गलाऽऽदि, त-स्माद् द्रव्यात् द्रव्यतो जललक्षणं करणभूतम् 1, देहदेशलक्षणं वा शोधनीयम् 2, मनोलक्षण वाऽपनेय, द्रव्यमाश्रित्येत्यर्थः३. अथवा-द्रव्यतोऽपरमार्थतो द्रव्यशब्दस्याप्रधान्यार्थत्वात् 4, अथवा-द्रव्यतो भावस्नानकारणत्वेन कारणार्थत्वाद् द्रव्यशब्दस्य 5 / तथा भवनं भावःपरिणामः, तस्माद्भावतः शुभध्यानलक्षण करणभूतम् 1, उपयोगभावाऽऽत्मकजीवलक्षणं वा शोधनीयम् 2, अथवा-औदयिकभावकारणभूतकर्ममललक्षणमपनेतव्यं, लक्षणं करणभूतभावमाश्रित्येत्यर्थः 3, भावतः परमार्थतो भवति / चशब्दः समुच्चये। एवकारोऽवधारणे / एवं चाऽनयोः प्रयोगः-द्रव्यतो भावत एव / ततश्च द्रव्यभावभेदेनैव द्विधा द्विप्रकारं, नामाऽऽदिभेदेन तु चतुर्धाऽपि केवलमिह चतुःप्रकारत्वं स्नानस्य नाश्रितम्, नामस्थापनयोः प्ररूपणामात्रोपयोगित्वात् / न हि स्नानस्य नामस्थापने जिननामस्थापने इव प्रमोदहेतुत्वेन पूजागोचरत्वेन च सोपयोग इति। अथवा-एवकारो द्विधेत्यनेन संबद्ध्यते, तथा द्रव्यतो भावतश्चेति! एवं द्विधैव स्नानमुदाहृतं, न तु सप्तधा। यथाऽऽहुरेके"सप्त स्नानानि प्रोक्तानि, स्वयमेव स्वयंभुवा / द्रव्यभावविशुद्ध्यर्थमृषीणां ब्रह्मचारिणाम्।।१।। आग्न्येयं वारुणं ब्राह्म, वायव्यं दिव्यमेव च। पार्थिवं मानसं चैव, स्नान सप्तविधं स्मृतम्।।२।। आग्न्येय भस्मना स्नानमवगाह्य तु वारुणम्। आपोतृष्णामयं ब्राह्म, वायव्य तु गवां रजः।।३।। (मन्त्रस्नान-मित्यर्थः) "सूर्यदृष्ट तुयद्दृष्ट, तद्दिव्यमृषयो विदुः।। पार्थिवं तु मृदा स्नान, मनःशुद्धिस्तु मानसम्॥४॥' इति सप्तविधरनानकथनं ह्यनर्थकम्, यतो यद् बाह्यमलक्षाल-नप्रत्यल तत्सर्व द्रव्यस्नानमेव ।यचाऽऽन्तरमलोन्मूलनायालं, तद्भावस्नानम् / यत्पुनरन्यथाविधं तदस्नानमेव / न च गोरजसा मन्त्रेण वा मलापनयनमुपलभ्यत इति / अतः सुष्टुच्यते द्विधैव / अथवा-द्रव्यतो द्विविधैव, भावतश्च द्विविधैव इत्येवं द्विधाशब्दप्रयोगः। द्वैविध्यं च प्रधानाऽप्रधानभेदात् / तच दर्शयिष्यत इति / द्रव्यतो भावतश्चैयमिति पाठान्तरे तु, एवकार उपप्रदर्शनार्थः / तेन एवमनेन प्रकारेण द्विधा स्नानं शुचीकरणमुदाहृतं तत्त्ववेदिभिरभिहितम् / अत्रार्थे परेषामप्यविप्रतिपत्तिमुपदर्शयन्नाह-बहिर्भव बाह्य शारीरम्, अध्यात्मे मनसि भवमाध्यात्मिक, मानसमित्यर्थः / चशब्दः समुच्चयार्थः। इति रूपप्रदर्शने / एवं चानयोः प्रयोगः- बाह्यमिति, आध्यात्मिकमिति च। तदनतिक्रमेण द्रव्यस्नान भावस्नानं च, अन्यैरिति जैनव्यतिरिक्ततार्थिकविशेषः परिकीर्त्यते संशब्दयते इति / / 1 / / तत्र द्रव्यस्नानप्रतिपादनायाऽऽहजलेन देहदेशस्य, क्षणं यच्छुद्धिकारणम् / प्रायोऽन्यानुपरोधेन, द्रव्यस्नानं तदुच्यते // 2 // जलेनाम्भसा न भस्माऽऽदिभिः, तैर्हि द्रव्यस्नानमपि न भवति, मलाऽऽद्यपनयनासमर्थत्वात्तेषाम्, "गन्धले पापहं शौचम्" इति स्नानलक्षणाच, देहदेशस्येति शरीरत्वग्लक्षणावयवस्य। इह च देहग्रहणेन स चेलस्नानेन देवार्चनं कार्यमिति मतमपाकृतम्, जलार्द्रवस्त्राणां स्नानतयाऽप्रतीतेः। देशस्येत्यनेन तु ये मन्यन्ते"एका लिङ्गे गुदे तिस्रस्तथैकत्र करे दश। उभयोः सप्त विज्ञेयाः,मृदः शुद्धौ मनीषिभिः / / 1 / / एतच्छौच गृहस्थानां, द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम्। त्रिगुणं वानप्रस्थाना, यतीनां च चतुर्गुणम् / / 2 / / '' इति। ते उपहसिता भवन्ति / न हि तैरेवं शौचं प्रति प्रयत्नवद्भिरपि लिङ्ग गुदाऽऽद्यतभागस्य शौच कर्तुं शक्यं, किं तु त्वड् मात्रस्यैव, न च कर्णनासाऽऽदीनामेवं शौचं तैर्विधीयते, न चैतान्यशुचीनि न भवन्तीति, क्षणं मुहूर्त यावन्न प्रभूतकालं, यदिति स्नान, शुद्धिकारणं मलविलयहेतु, प्रायो बाहुल्येन, प्रायोग्रहणात्तधाविधरोगग्रस्तस्य क्षणमपि शुद्धिकारण न भवतीति दर्शितम्। कुतःपुनः क्षणमेव शुद्धिकारणम्? इत्यत आहअन्यस्य प्रक्षालितमलापेक्षयाऽपरस्य मलस्याऽनुपरोधोऽनिरोधोऽप्रतिषेधोऽन्यानुपरोधः, तेनान्यानुपरोधेन हेतुना, न हि स्नानं मलाऽऽश्रयस्वभावत्वाच्छीरस्य मलान्तरमुपरोद्धुं शक्नोतीति तदित्येवं विधं स्नानम्, किमित्यत आह-द्वव्याण्युक्तलक्षणानि नीराऽऽदीन्याश्रित्य स्नानं द्रव्यभूतं वा स्नानं द्रव्यस्नानमुच्य
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________________ पहाण 2164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 पहाण तेऽभिधीयते, स्नानलक्षणविद्भिः / अन्ये तु प्रायोऽन्यानुपरोधेनेत्येतदित्थं व्याचक्षते-प्रायो बाहुल्येनान्येषां जलस्वरूपातिरिक्ताना प्राणिनामनुपरोधोऽव्यापादनं प्रायोऽन्यानुपरोधः, तेनेति / / 2 / / ___अर्थतस्यैव कर्तृवशात् प्रधानाऽप्रधानतां दर्शयन्नाहकृत्वेदं यो विधानेन, देवताऽतिथिपूजनम्।। करोति मलिनाऽऽरम्भी, तस्यैतदपि शोभनम् ||3|| कृत्वा विधाय, इदमनन्तरोदितं द्रव्यस्नानं, य इति तदधिकारवान् धार्मिकः, विधानेन धार्मिकजनोचितस्नानविधिना 'भूमीपेहणजलछाणणाइ जयणा उ होइ ण्हाणाओ।" इत्येवंरूपेण, ततः किमित्याह-देवताऽनन्तरविवेचितस्वरूपमहादेवलक्षणा, अतति सततमप्रतिबद्धविहारितया गच्छतीत्यतिथिः, अविद्यमाना था तिथिः, उपलक्षणत्वादुत्सवाऽऽदयश्च यस्येत्यतिथिः सन्मार्गनिरतो यतिः / उक्तं / च-"तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे,त्यक्ता येन महात्मना / अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः" | // 1 // इति / तयोः पूजनमुचितसत्कारकरणं देवताऽतिथिपूजनं. तत्करोति विधत्ते। द्वितीयव्याख्यानपक्षे तु-विधानेन देवताऽतिपूजन करोतीत्येवं सम्बन्धः कार्यः / कोऽसावित्याह-मलिनोऽवद्यमलयुक्त आरम्भो व्यापारो मलिनाऽऽरम्भः, सोऽस्यास्तीति मलिनारम्भी, सावद्ययोगाऽऽद्यनिवृत्तो गृहस्थ इत्यर्थः / कुतीर्थिकशिक्षणाभिप्रायप्रवणं चेदं विशेषणं,तच्छिक्षणं चैवम्हे कुतीर्थिका :! यदि यूयं मलिनाऽऽरम्भिणस्तदा युष्माकमिदं द्रव्यस्नानं कर्तुमुचितं, नान्यथा / यथा ह्यस्य विशुद्धभावहेतुत्वेन प्रशस्यता, स च विशुद्धो भावो निर्मलाऽऽरम्भाणां सदैवास्तीति किमेतेनेति? तस्येति देवताऽतिथिपूजनकर्तुमलिनाऽऽरम्भिणः, एतदपीति न केवलं वक्ष्यमाणस्वरूपं भावस्नानं शुभपरिणामरूपत्वाच्छोभनमेतदपि द्रव्यस्नानमपिशोभनं साधु, सत्यपि सावद्यत्वे प्रायोमददऽऽदिहेतुत्वे च शुभभावहेतुत्वात् तस्येति विशेषणात्तदन्यस्य त्वशोभनमेव तदिति सिद्धं भावशुद्धिनिमित्तत्वादिति // 3 // शोभनमिदमित्युक्तं तत्समर्थनार्थमाहभावशुद्धिनिमित्तत्वात्तथाऽनुभवसिद्धितः। कथञ्चिद्दोषभावेऽपि, तदन्यगुणभावतः॥४॥ भावोऽध्यवसायः, तच्छुद्धिर्निर्मलता, तस्या निमित्तं कारण, तस्य भावोभावशुद्धिनिमित्तत्वं, तस्मादेतदपि शोभनमिति प्रकृतम्। न चास्य भावशुद्धिहेतुत्वमसिद्धमित्याह-तथा तेनैव प्रकारेण भावशुद्धिनिमित्त- / तयैव योऽनुभवः संभवेदनन्तरस्य या सिद्धिः प्रतीतिः सा तथाऽनुभवसिद्धिः, तस्यास्तथाऽनुभवसिद्धितः। अथ द्रव्यस्नानं भावशुद्धिनिमितमपि सदकायिकायिकाऽऽदिजीवहिंसादोषदूषितत्वादशोभनमेवेत्याशक्याऽऽह-कथञ्चित् केनापि प्रकारेणाप्कायिकाऽऽदिविराधनालक्षणेन, दोषभावेऽपि हिंसालक्षणावद्यसद्भावेऽपि, न केवल दोषाभावे इत्यपिशब्दार्थः। तस्माद्धिसाऽऽदिदोषाद्योऽन्यो गुणः सम्यग्दर्शनशुद्धिलक्षणः, स तदन्यगुणस्तस्य भावो लाभस्तदन्यगुणभावः, तस्मातदन्यगुणभावतः। आह च- "पूयाए कायवहो, पडिकुट्टो सो उ किंतु जिणपूआ। सम्मत्तसुद्धिहेउ त्ति भावणीया उणिरवज्जा" ||1|| यत्स्नानं पूजार्थं तत्पूजाऽङ्गत्वात्तव्यपदेशमर्हतीति / इह च हेतुप्रयोग एवम्- | द्रव्यस्नानमपि शोभनं, भावशुद्धिनिमित्तत्वात्, यद्यद्भावशुद्धिनिमित्तं तत्तच्छोभनम्, यथा चैत्यवन्दनम्, भावशुद्धिनिमित्तं च द्रव्यस्नानं, तस्माच्छोभनमिति। अथायम-सिद्धो हेतुरित्यत्रोच्यते यद्यथाऽनुभूयते तत्तथा प्रतिपत्तव्यम्, यथा विचित्रं सुखाऽऽदिसंवेदनम्, अनुभूयते च भावशुद्धिनिमित्ततया द्रव्यस्नानं, तस्माद्भावशुद्धिनिमित्तं तदिति। अथ कथधित् सदो-षत्वात्कथं शोभनत्वमस्य? इत्यत्रोच्यतेयद्यद्विशिष्टतरगुणान्त-रोत्पत्तिहेतुस्तत्तदोषसद्भावेऽपि शोभनम्, यथा श्रमपङ्काऽऽदिदोषोपेतमपितृविच्छेदाऽऽदिविशिष्टतरगुणहेतुकूपखननम्, विशिष्टसम्यग्दर्शनशुद्ध्यादिगुणहेतुश्च द्रव्यस्नानमिति // 4|| यदि भावशुद्धिनिमित्तत्वाच्छोभन द्रव्यस्नानं, तर्हि करोति मलिनाऽऽरम्भीति कस्मादभिहितम्? मलिनाऽऽरम्भणोऽपि तथैव तस्य शोभनत्वादित्याशक्याऽऽहअधिकारिवशाच्छास्खे, धर्मसाधनसंस्थितिः। व्याधिप्रतिक्रिया तुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः ||5|| अधिकारोऽस्यास्तीत्यधिकारी योग्यानुष्ठाता, तस्य वशोऽपेक्षाधिकारी वशस्तस्मात्, न यथाकथञ्चिदित्यर्थः। शास्त्रे सुनिश्चिताऽऽप्ताऽऽगमे, धर्मसाधनयोः प्रस्तुतयोर्द्रव्यस्नानभावस्नानलक्ष–णयोः, संस्थितिः सम्यग् व्यवस्था धर्मसाधनसंस्थितिः। किंरूपे-यमित्याहव्याधिप्रतिक्रिया तुल्या रोगचिकित्साव्यवस्था समाना, विज्ञया सद्गुरूपदेशादर्थभिरवसेया / कयोर्विषया? इत्याह-गुणदोषयोः, गुणदोषावाश्रित्येत्यर्थः / इयमत्र भावना-यथाऽऽतुरवशाद् व्याधिचिकित्सा गुणकरी, दोषकरी च, तथा मलिनाऽऽरम्भीतरलक्षणानुष्ठातृवशाद् द्रव्ये तरस्नानरूपे धर्मसाधने गुणदोषकरे, द्रव्यस्नानं मलिनाऽऽरम्भिण एव गुणकर, नेतरस्येति हृदयम्। यतो मलिनाऽऽरम्भी देवतोद्देशेन स्नानाऽऽदावधिकारी, न त्वितरः। के चित्पुनर्वदन्ति-- मलिनाऽऽरम्भ्यपि नेहाधिकारी, यस्माद् वक्ष्यति अयमेव ग्रन्थकारः"धर्मार्थ यस्य वित्तेहा, तस्याऽनीहा गरीयसी। प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य, दूराद-स्पर्शनं वरम्" // 1 // इति। अनेन धर्मार्थं सावधप्रवृत्तिर्निषिद्धा, तथा शुद्धाऽऽगमैर्यथालामिति वक्ष्यति, अनेन च पुष्पत्रोटनाभावो देवसंवन्ध्यारामाभावश्च दर्शित इति। न चायं सम्यगुल्लापः, यतः स्नानं विधेयतया देवार्चनार्थमुपदिष्टमेवा यदाह-"तत्थ सुइणा दुहा वि हु, दब्वे हाएणसुद्धवत्थेण।" इति। अथ प्रासङ्गिकः स्नानापेक्षोऽयमुपदेशो, नतु देवतोद्देशिकः। एतदपिनसङ्गतम्। एवं हि यदा कदाचित्स्नातो भवेत् तदा देवार्चनं कुर्यादित्युपदिष्ट स्यात्, न नित्यकृत्यतया। नित्यकृत्यं चैतत्। आह च-"वंदतिचेइयाई, तिकालंपूइउण विहिणा उ।" इति। यत्रोक्तम्धर्मार्थमित्यादिना धर्मार्था सावधप्रवृत्तिर्निषिद्धा, तत् सत्यं, केवल स निषेधः सर्वविरतापेक्षया,तदधिकारेऽस्य श्लोकस्याधिकृतत्वात् / गृहस्थापेक्षया तु सावद्यप्रवृत्तिविशेषोऽनुज्ञात एव / यदाह- "दव्वत्थएँ कूवदिट्टतो।" इति / तथा वाणिज्याऽऽदि-सावधप्रवृत्तिरपि काचित् कस्यचिन्न दुष्टा, विषयविशेषप्रक्षयात्तद्रूपत्वेन पापक्षयगुणबीजलाभहेतुत्वात्, यथा संकाशस्य, संकाशश्रावको हि प्रमादाद्भक्षितचैत्यद्रव्यो निबद्धलाभान्तरायाऽऽदिक्लिष्टकर्मा चिरं पर्यटितदुरन्तसंसारकान्तारोऽनन्तकालाल्लब्धमनुष्यभवो दुर्गतनरशिरः शेखररूपः पारगतसमी
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________________ ण्हाण 2165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 पहाण पोपलब्धस्यकीयपूर्वभववृत्तान्तः पारगतोपदेशतो दुर्गतत्वनिबन्धनकर्मक्षपणाय, "पदहमुपार्जयिष्यामि द्रव्यं तद् ग्रासाऽऽच्छादनवर्ज जिनाऽऽयतनाऽऽदिषु नियोक्ष्ये," इत्यभिग्रह गृहीतवान्, कालेन च निर्वाणमवाप्तवानिति। अथ युक्तं संकाशस्यैतत्, तथैव तत्कर्मक्षयोपपत्तेः, न पुनरन्यस्य / नैवम् / सर्वथैवाशुभस्वरूपव्यापारस्य विशिष्टनिर्जराकारणत्वायोगादिति / यत्तु-"शुद्धाऽऽगमैर्यथालाभम्' इत्यादि / तन्न स्वयं पुष्पत्रोटननिषेधनपरं, किं तु पूजाकालोपस्थिते मालिके दर्शनप्रभावनाहेतोर्वणिक्कला न प्रयोक्तव्येत्यस्यार्थस्य ख्यापनपरम्, इतरथा-"सुच्चइ दुग्गयनारी, जगगुरुणो सिंदुवारकुसुमेहिं / पूयापणिहाणेणं, उववन्ना तियसलोगम्मि॥१॥" (पञ्चा०) न हि तया यथालाभं, न्यायोपात्तवित्तेन वा तानिं गृहीतानीति / तथा चैत्यसम्बन्धितया ग्रामाऽऽदीनां प्रति-पादनान्नाऽऽरामाऽऽद्यभावः प्रोक्तः / यदाहः'चोएइ चेइयाण, रुप्पसुवन्नाइ गामगावाइ। लगतस्स हु मुणिणो, तिकरणसुद्धी कह नु भवे? ||1|| भन्नइ एत्थ विभासा, जा एयाइं सयं वि मग्गेजा। नहु तस्स हुज सुद्धी, अह कोइ हरेज एयाइं॥२॥ सव्वत्थामेण तहिं, संघेणं होइ लगियव्वं तु। सचरित्तीणं एयं,सव्वेसिं होइ कर्ज तु॥३॥" तदेवं मलिनाऽऽरम्भिणो धर्मार्थ स्नानाऽऽदिकमविरुद्धमिति स्थितम्। ननु यतिस्त्र कस्मान्नाधिकारी, यतः कर्मलक्षणो व्याधिरेको द्वयोरपि यतिगृहस्थयोरतस्तचिकित्साऽपि पूजाऽऽदिल--क्षणा समैव भवति, ततो यद्येकस्याधिकारः, कथं नापरस्य? अथ "स्नानमुत्तनाऽभ्यङ्ग, नखकेशाऽऽदिसंस्क्रियाम्। गन्धमाल्यंचधूपंच,त्यजन्ति ब्रह्मचारिणः'' / / 1 / / इति वचनाद् यतेः स्नाने, तत्पूर्वकत्वाद्देवार्चनस्य तस्मिश्च, नाधिकारः, नैवम्, भूषार्थस्यैव तस्य निषेधात्। अथ सावधनिवृत्तोऽसाविति तत्र नाधिकारी ननु यदि यतिः सावधान्निवृत्तस्ततः को दोषः, यत्स्नानं कृत्वा देवताऽर्चनं न करोति? यदि स्नानपूर्वकदेवताऽर्जने सावद्ययोगः स्यात्, तदाऽसौ गृहस्थस्याऽपि तुल्य इति,तेनापिनकर्त्तव्यं स्यात् / अथ गृहस्थः कुटुम्बाऽऽद्यर्थे ऽपि सावद्ये प्रवृत्तः,तेन तापि प्रवर्तताम्, यतिस्तु तत्राप्रवृत्तत्वात्कथं स्नानाऽऽदौ प्रवर्तेत इति? ननु यद्यपि कुटुम्बाऽऽद्यर्थ गृही सावधे प्रवर्तते, तथाऽपि तेन धर्मार्थ तत्र न प्रवर्तितव्यं स्यात्,यतो नैकं पापमाचरितमित्यन्यदप्याचरितव्यं स्यात्। अथ कूपोदाहरणात् पूजाऽऽदिजनितमारम्भदोष विशोध्य गृही गुणान्तरमासादयतीति युक्तं गृहिणः स्नानपूजाऽऽदि। ननु यथा गृहिणां कूपोदाहरणात्स्नानाऽऽदि युक्तम्, एवं यतेरपि तद् युक्तमेव / एवं च कथं स्नानाऽऽदौ यति धिकारीति पूर्वपक्षः? अत्रोच्यते-यतयो हि सर्वथा सावधव्यापारान्निवृत्ताः, ततश्च कूपोदाहरणेनाऽपि तत्र प्रवर्तमानानां तेषामवद्यमेव चित्ते स्फुरति, न धर्मः, तत्र सदैव शुभध्यानाऽऽदिभिः प्रवृत्तत्वात्। गृहस्थास्तु सावो स्वभावतः सततमेव प्रवृत्ताः, न पुनर्जिनार्चनाऽऽदिद्वारेण स्वपरोपकाराऽऽत्मके धर्मे , तेन तेषां तत्र प्रवर्तमानानां स एव चित्ते लगति, न पुनरवद्यमिति कर्तृपरिणामवशादधिकारेतरौ मन्तव्या-विति / स्नानाऽऽदौ गृहस्थ एवाधिकारी, न यतिरिति / आगमो-ऽप्येवं व्यवस्थितः। यदाह "छज्जीवकायसंजमों, दव्वत्थएँ सो विरुज्झए कसिणो। तो कसिणो संजमविउ, पुप्फाईयं न इच्छति॥१॥ अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणे,दव्वत्थऍ कूवदिटुंतो॥२॥" तथा द्रव्यस्तवरूपत्वात् पूजायाः, तस्य च भावस्तवहेतुत्वात प्रधानत्वाच यतीनां न द्रव्यस्तवेऽधिकारः / अत एव सामायिकरथः श्रावकोऽप्यनधिकारी, तस्याऽपि सावधनिवृत्ततया भावस्त-वाऽऽरूढत्वेन श्रमणकल्पत्वात् / अत एव गृहिणोऽपि प्रकृत्या पृथिव्याधुपमर्दनभीरोर्यतनावतः सावध संक्षेपरुचेर्यतिक्रियाऽनुरागिणो न धर्मार्थ सावद्याऽऽरम्भप्रवृत्तियुक्ता / यदाह-''असदारंभपवत्तो, जं च गिही तेण तेसि विन्नेया। तन्निवित्तिफल चिय, एसा परिभा-वणीयमिणं / / 1 / / " न चायमनन्तरोदितोऽसदारम्भप्रवृत्तः, तत्कथं तस्य तन्निवृत्तिफलत्वेन स्नानाऽऽदौ सावद्याऽऽरम्भप्रवृत्तिर्युक्ता, अतः स्थितमिदंन सर्व एव सर्वत्राधिकारी, किंतुय एवैत्राधिकारी, स एवान्यत्रानधिकारीति // 5|| अथ भावस्नानप्रतिपादनायाऽऽहध्यानाम्भसा तु जीवस्य, सदा यच्छुद्धिकारणम्। मलं कर्म समाश्रित्य, भावस्नानं तदुच्यते // 6 / / ध्यानं शुभचित्तैकाग्रतालक्षणं धर्माऽऽदि, तदेवाम्भो जलं,तद्ध्यानाम्भस्तेन, तुशब्दः पुनरर्थः,यत् स्नानं शुद्धिकारणं निर्मलत्वहेतुः, तद्भावस्नानमुच्यते इति सम्बन्धः प्रक्षालनीयप्रदर्शनायाऽऽहमलं मालिन्यनिबन्धनं, कर्म ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिलक्षणं, समाश्रित्याऽङ्गीकृत्य, भावान् ध्यानाऽऽदीनाश्रित्य भावतो वा परमार्थतः स्नानं भावस्नान, तदित्येवंभूतमुच्यते तत्स्वरूपविद्भिरभिधीयत इति // 6 // अस्यैव कारकभेदेनोत्तमस्वरूपतामाहऋषीणामुत्तमं ह्येतन्निर्दिष्टं परमर्षिभिः। हिंसादोषनिवृत्तानां, व्रतशीलविवर्द्धनम्॥७॥ पश्यन्ति यथावद्वस्त्विपि ऋषयो मुनयस्तेषां, हिशब्दोऽवधारणार्थः, तेन ऋषीणामेवोतमं प्रधानमेत्तद्भावस्नानं निर्दिष्ट प्रतिपादितं, परमीषिभिर्मुनिपुङ्गवैः, सर्वज्ञैरित्यर्थः / ऋषीणामुत्तममिति विशेषणसामर्थ्यादन्येषां त्वनुत्तममेव तदिति सिद्धं तेषाम, विशिटधर्मध्यानाभावादिति / अथवा-ऋषीणामुत्तममेतदेवेत्येवमव-धारणं दृश्यम्। ततश्चोत्तमत्वात्तदेव तेषां विधेयम्। ननु देवार्चनार्थ द्रव्यस्नानमपि, किंभूतानामृषीणामित्याह-हिंसा प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं,सैव दोषो दूषणं हिंसादोषः, ततो निवृत्ता उपरता येते तथा, तेषां हिंसादोषनिवृत्तानाम्, न तु ऋषय एवंविधा एव भवन्तीति विशेषणे मिदमनर्थकम्,नैवम्,हेतुतया सोपन्यासात् / ततश्च ऋषीणामुत्तममिदे हिंसादोषनिवृत्तत्वादिति वाक्यार्थः स्यात्। किंभूतमिदमित्याह-व्रतानि महाव्रतानि , शीलं च समाधिः, अथवा-व्रतानि मूलगुणाः, शीलमुत्तरगुणाः, तेषां विशेषेण वर्द्धनं वृद्धिकारणं व्रतशीलविवर्द्धन, भावस्नानं हि धर्मशुक्लध्यानरूपं, तचैतद्विवर्धनं भवत्येवेति // 7 // उपसहरन्नाहस्नात्वाऽनेन यथायोगं, निःशेषमलवर्जितः। भूयो न लिप्यते तेन, स्नातकः परमार्थतः ||8|| स्नात्वा शौचं विधाय, अनेन भावहे तुद्रव्यस्नानेन, भावस्नाने
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________________ ण्हाण 2166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ण्हुसा न च यथायोग यथासंबन्धं द्रव्यस्नानेन मलिनाऽऽरम्भी, भावस्ना-नेन इह च क्त्वाप्रत्ययो रूढिवशादिति ||6|| अष्ट०२ अष्ट०। वर्षातः चेतरः निःशेषमलवर्जितः, पारम्पर्येण साक्षाच सकलकर्ममल-मुक्तो प्रतिनियत-दिवसभाविनि भगवत्प्रतिमायाः स्नाने पर्वविशेषे, बृ०१उ०। भवतीति शेषः। शेषकरणं विना एककर्तृकत्वाभावात् क्त्वा-प्रत्ययो। न पहाणमल्लिया स्त्री०(स्नानमल्लिका) स्नानयोग्ये मल्लिकाविशेषे, स्यादिति, शेषः-कृत इति / एवंभूतश्च सन् भूयः पुनरपि, न लिप्यते जी०३ प्रतिका जं नोपदिह्यते, तेन कर्ममलेन, एवं चस्नातकः स्नातः, परमार्थतो वस्तुवृत्त्या ण्हारु न०(स्नायु) अस्थिबन्धनशिरायाम्, तं०। आचा०। भवति, स्नानान्तरस्नातस्तु परमार्थस्नातो न भवति, विवक्षितमल पहाविअ पुं०(नापित) "निम्बनापिते लण्हं वा" ||811230 / / इति विगमाभावात्, पुनर्मलोपलेपनाचेति ततो हे कुतीर्थिकाः ! यदि यूयमक्षेपेण परमार्थतः पारमार्थिकस्नातका भवितुमिच्छथ, तदा नस्य ग्रहः। 'पहाविओ,''नाविओ। क्षुरोपजीविनि,प्रा० १पादा भावस्नानेनैव स्नात, मा द्रव्यस्नानेन मलिनाऽऽरम्भाणामेव तस्योक्त हाविअपसेवय पुं०(नापितप्रसेवक) नखशोधकक्षुराऽऽदिभाजने, त्वादिति हृदयम् / अथ चैवं व्याख्यास्नात्या अनेनेत्यनन्तरोक्तभाव- उत्त०२ अ०। स्नानेन, यथायोग यथायुक्ति, निःशेषमलवर्जितः सन् भूयो न लिप्यते, | ण्हुसा स्त्री०(स्नुषा) पुत्रवध्वाम्, 'आणंदपुरे महओ, ण्हुसाए समं संवासं तेन, कोऽसावित्याह-स्नातकः परमार्थतः पारमार्थिकस्नातक इत्यर्थः। / काऊण।''आ०म०१ अ०२खण्ड। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय–कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु__ श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' ण (न) काराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् /
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________________ २१६७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तंत तका DODI पाय्यमाना आर्ततरं रारटन्ति / सूत्र०१ श्रु०५ अ०२उ०। 'त्रपुक' शब्दोऽप्यत्र / प्रश्न 5 संव० द्वार। सूत्रका प्रज्ञा०। औ०। *त्वत्तव पञ्च०प०"ङसिङस्म्यांतउ-तुज्झ-तुध्र" ||841372 / / अपभ्रंशे युष्मदो ङसिङसो रूपे। प्रा०४ पाद। त पुं०(त) 'तक हसने, सहने वा डप्रत्ययः, डित्त्वाट्टिलोपः। चौरे, अमृते, तउआगर पुं०(पुकाकर) यत्र त्रपुकं ध्यायते। त्रपुकध्मापनस्थाने, पुच्छे, क्रोडे, म्लेच्छे, रत्ने, सृगालपुच्छे च / तरुणे, पुण्ये, स्त्री०। न०। स्था०८ ठा०। नि०चू०। वाचा "तकारः पुंसि संभोगे, निश्चये वि स्तरे समे। (41) धातुवादे / तउस न०(त्रपुष) त्रपतेः क्विप् / उप-उष दाहे, क-क०। कर्कटीवक्षे विधौ क्रोधे, ता कृपायां स्त्रियां मता // " माधव०- एका "तः प्रेते गौराऽऽदित्वात् डीए / 'खीरा' इतिख्याते वृक्षे, वाच०। वल्लीविशेषे, निष्फले शान्ते, पौनः पुन्ये चये च तः।" इति विश्वदेव०-एक०। आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। व्य०। प्रज्ञा०। पत्राणि एतेषामेकजीवाधिष्ठातच्छब्दनिर्देशे, नि००। यथा-"से गामंसि वा' इत्यादि / नि० नानि, पुष्पाण्यनेकजीवाऽऽत्मकानि। प्रज्ञा० 1 पद। चू०२० उ०। तउसमिंजिया स्त्री०(त्रपुषमिञ्जिका) त्रीन्द्रियजीवविशेष, जी०१ प्रति०) तअण्णवत्थुअपुं०(तदन्यवस्तुक) तयण्णवत्थुअ' शब्दार्थे, स्था०४ तए अव्य०(ततस्) तस्मादित्यर्थे , उत्त० 10 // ठा०३उन तओ अव्य०(ततस्) शौरसेनीमागधीविषये एव दः, प्राकृतेतुन दः। प्रा० तआणिं अव्य०(तदानीम्) तस्मिन् काले तदानीम् ।"पानीयाss- १पाद। तस्मादित्यर्थे , वाचा दिष्वित्।।१।१०१॥ इति इकारस्येत्। प्रा०१ पाद। तदेत्यर्थे, वाचा | | तं अट्य०(तत्) बहुलाधिकारादन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारः। तइय त्रि०(तृतीय) त्रयाणां पूरणः / त्रि-तीयः-संप्रसारणम् / वाचा "मोऽनुस्वारः" / / 1 / 23 / / इति मकारस्यानुस्वारः। प्रा०१ पाद। "पानीयाऽऽदिष्वित्"||१1१०१। इतीकारस्येकारः। प्रा०१पाद। "तं वाक्यो पन्यासे" ||21176 / / तं इति वाक्यो पन्यासे त्रयाणां पूरणे, येन त्रित्वसंख्या पूर्यते तस्मिन् पदार्थे, वाच०। आ०म०। प्रयोक्तव्यम्। 'तं तिअसबंदिमोक्खं।' प्रा०२ पाद। तस्मादित्यर्थे, भ० नि००। 15 श० / विपा० तदितिनिर्देशे, आव०४ अ०। प्रक्रान्तपरामर्शिनि, तइयंग न०(तृतीयाङ्ग) स्थानाङ्गे,प्रति०। त्रि०ा आचा०१ श्रु०२ अ०२उ०। अनु०। "तं जहा-सासमसाओ तिविहा तइया स्त्री०(तृतीया) चन्द्रमण्डलस्य तृतीयाकलायाः सूर्यमण्ड- | पण्णत्ता / तं जहा--जाणिया, अजाणिया, दुयिअढा जाणिया।'' लप्रवेशनिर्गमान्यतररूपाक्रियाऽऽत्मिकायां तिथौ, वाच०। स्वनाम तद्यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थे , नं०। आचा०। अनु०। स्था०। तद्यथेति ख्यातायां विभक्तौ, "विवक्षितक्रियासाधकतमं करणं,तस्मिंस्तृतीया। वाक्योपन्यासार्थे, आचा०१ श्रु०५ अ०५उ० आव०। सूत्र०। अनु०। "तइया करणम्मि कया, भणियं च कयं च तेण व मए वा।'' तंट (देशी) पृष्ठे,दे०ना०५ वर्ग 1 गाथा। तृतीया करणे, व? यथेत्याह-भणितं वा कृतं वा, केनेत्याह-तेन वा तंड (देशी) कविकालालके, शिरोविहीने, स्वराधिके च। दे॰ना०५ वर्ग मया वेति / अत्र यद्यपि कर्तरि तृतीया प्रतीयते, तथाऽपि विवक्षाऽधी- 16 गाथा। नत्वात् कारकप्रवृत्तेः, तेन मया वा कृत्वा भणितं कृतं वा , देवदत्तेनेति | तंडव न०(ताण्डव) नृत्ये, जी०३ प्रति०५ उ०। 'अप्पेगइया तंडवेंति''। गम्यत इति / एवं करणविवक्षाऽपि न दुःष्यतीति लक्षयामः / तत्त्वं तु | आ०म०१अ०१ खण्ड / ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वति, राधा बहुश्रुता विदन्तीति। अनु०॥ तंडुल पुं०(तण्डुल) तडि-डलच्। धान्याऽऽदिसारे, निस्तुषेधान्याऽऽदौ, तइलपत्तिधारगणायग त्रि०(तैलपात्रीधारकज्ञातग) तैलपात्री- तण्डुलीयशाके च / विडङ्गे, पुं०। स्त्रीला टाप् / वाच०। 50 / आ०म०। धारकस्य तद्रूपं वा यद् ज्ञातमुदाहरणं तद्गतः प्राप्तोऽपायावगम- वृक्षविशेषे, 'टीवरू' इति गुर्जरभाषा। स०ा “आसीय पाणिधंसी, तिम्मिजनिताप्रमत्तातिरेकसाधाद्यः स तथा / तैलपात्रीधारकवदप्रमत्ते, यतंडुलपवालपुमभोई।" तण्डुलशब्देन औषध्य उच्यन्ते। आव०१ अ०। पञ्चा० 14 विव०। तंतन०(तन्त्र) आ०म०१अ०१खण्ड।शास्त्रे, पञ्चा०६ विव०ा आ०चू०। तइस त्रि०(तादृश) तस्येव दर्शनमस्य / वाच० "अतां डइसः" | आ०म०। विद्यायाम, स्था०८ ठा०सिद्धान्ते, पं०व०४ द्वार / षष्ठायां ||4|403 / / इति अपभ्रंशे तादृशशब्दस्य दादेरवपवस्य डित्संज्ञकः स्वीकलायाम्, कल्प०७ क्षण / 'सुत्तं भणियं तंतं, भणिज्जए तम्मि व 'अइस' इत्यादेशः / प्रा०४ पाद। तथाविधेऽर्थे , वाचा जमत्थो।''तनु' विस्तारे तन्यते विस्तार्यते यद्यस्मादनेनास्मादस्मिन् तउन०(त्रपु) अग्निं दृष्ट्वा त्रपतेलज्जते इव लज्जया द्रवीभवतीति वा / सोसके वार्य इति तन्त्रम् / अथवा तन्यते विशिष्टरचनया तदेव विस्तार्यते इति वङ्गे, वाचा प्रश्न०५ सम्ब० द्वार / साउत्त० तप्तत्रपु पाय्यन्ते, तन्त्रं सूत्रमेवोच्यते। विशेष
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________________ तंत 2168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तंब *तान्त नि कायेन खेदवति, ज्ञा०१ श्रु० 8 अ०। "संता तंता परितंता।" तंदुलपिट्ठ न०(तन्दुलपिष्ट) अमाशस्त्रोपहततन्दुलकुक्कुशे, नि० चू०४ उ०/ खेदवाचका एते। नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। तंदुलमच्छ पुं०(तन्दुलमत्स्य) मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। तंतंतर न०(तन्त्रान्तर) दर्शनान्तरे, पञ्चा० 10 विवा तंदुलवेयालिय न०(तन्दुलवैचारिक) तन्दुलानां वर्षशताऽऽयुष्कतंतजुत्ति स्त्री०(तन्त्रयुक्ति) आगमाऽऽश्चितोपपत्तौ, पञ्चा०४ विव०॥ पुरुषप्रतिदिनभोग्यानां सङ्ख्याविचारेणोपलक्षितं तन्दुलवैचारिकम् / शास्त्रीयोपयुक्तौ, पञ्चा०६ विव०। श्रीवीरहस्तदीक्षितमुनिविरचिते नन्दीसूत्रोक्तग्रन्थविशेषे, तं० तंतडी (देशी) करम्बे, देवना०५ वर्ग 4 गाथा। निजरियजरामरणं, वंदित्ता जिणवरं महावीरं। तंतय त्रि०(तन्त्रज) तन्त्रं वेमविलेख्यन्यञ्छनिकाऽऽदि, तस्माजातं वुच्छं पयण्णगमिणं, तंदुलवेयालियं नाम ||1|| तन्त्रजम् / वस्त्रे, कम्बले च। उत्त०२ अ०। ननु कियन्ति प्रकीर्णकानि, कथं तेषां चोत्पत्तिः? उच्यते-"नंदी 1, तंतव पुं०(तन्तव) चतुरिन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। अणुओगदाराइं 2, देविंदत्थओ 3, तंदुलवेवालियं 4, चंदाविजयं / ' तंताणुसार पुं०(तन्त्रानुसार) शास्त्रानुसारे, षो० 12 विव०। इत्यादीनि श्रीनन्दिसूत्रोक्तानि कालिकोत्कालिकभेदभिन्नानि चतुरशीतंतिय त्रि०(तान्त्रिक) तन्त्रीवादनं शिल्पमस्येति तान्त्रिकः। तन्त्री तिसहस्रसंख्यानि प्रकीर्णकान्यभवन् श्रीऋषभस्वामिनः। कथम्? वादनशिल्पोपजीविनि, अनुश ऋषभस्य चतुरशतिसहस्रप्रमाणाः श्रमणा आसीरन्, तैरेकैकस्य विरचितत्वात् 1 / एवं संख्ये यानि प्रकीर्णकसहस्त्राणि आसीरन् तंती स्त्री०(तन्त्री) वीणायाम, जी०३ प्रति०४ उ०। आ० म०। कल्प० जिनाऽऽदीनां मध्यमजिनानां यस्य यावन्ति भवन्ति तस्य तावन्ति आचा०। औ०। रा० ज०। सू०प्र०। 'तंती' तान्यो भण्यन्ते। अनु०॥ प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि 2 / चतुर्दशप्रकीर्णकसहस्राणि आसीरन् वीणाविशेषे, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार / "तंतीतलतालतुमिय।" तन्त्री वर्द्धमानस्वामिनः 3 / इति तेषां मध्ये श्रीवर्द्धमानस्वामिस्वहस्तदीवीणा, तलतालो हस्ततालः, तालः कंसिका त्रुटितानि वादित्राणि / क्षितेनैकेन साधुना विरचितमिदं तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णक, तस्य व्याख्या जी०३ प्रति०४ उ०। "तंतीतलतालगीयवाइयरवेणं।" तन्त्री वीणा, क्रियते इति। (निजरिय त्ति) निर्जरितं सर्वथा क्षयं नीतं जरा च वृद्धत्वं, तला हस्ततालाः, कंसिकास्तलताला वा हस्तताला, गीतवादिते मरणं च पञ्चत्वं जरामरणम् / यद्वा-जरया वृद्धभावेन, जरायां वृद्धभावे प्रतीते, तेषां यो रवः स तथा तेन / भ०६ श०३३ उ०। गुडूच्याम्, वा मरणं येन सं निर्जरितजरामरणः,तं वन्दित्वा कायवाग्मनोभिः स्तुति देहशिरायाम्, रज्ज्वाम्, नदीभेदे, युवतीभेदे च / वाचा विधाय जिना रागद्वेषाऽऽदिजयनशीलाः सामान्यकेवलिनस्तेषु तेभ्यो तंतीसम त्रि०(तन्त्रीसम) वीणाऽऽदितन्त्रीशब्देन तुल्ये, स्था०७ ठा०। वा वरः प्रधानातिशयापेक्षया श्रेष्ठो जिनवरस्तं जिनवरम् / (तं०) तंतु पुं०(तन्तु) तन्यते भवोऽनेनेति तन्तुः / भवतृष्णायाम, उत्त 23 अ०। महाँश्वासौ वीरश्व कर्मविदारण सहिष्णुर्महावीरस्तम्, (बुच्छं ति) वक्ष्ये तुरीवेमाऽऽदौ,भ०६ श०३उ०। भणिष्यामि, प्रकीर्णकं श्रीवीरहस्तदीक्षितमुनिविरचितं नन्दीसूत्रोक्तं तंतुक्खोडी (देशी) वायकतन्त्रोपकरणे, देवना०५ वर्ग 7 गाथा। ग्रन्थविशेषमिदं प्रत्यक्षं तन्दुलानां वर्षशताऽऽयुष्कपुरुषप्रतिदिनतंतुगय त्रि०(तन्तुगत) तन्तोस्तुरीबेमाऽऽदेरपनीतमात्रे, भ०६ श०३उ० भोग्यानां संख्याविचारेणोपलक्षितं तन्दुलवैचारिकं नामेति।।१।। (तं०) तंतुग्गय त्रि०(तन्त्रोद्गत) तुरीवेमाऽऽदेरुत्तीर्णे भ०८ श०३उ०। अथात्रोक्तं निरूपयन्तितंतुय त्रि०(तन्तुज) तन्तुभ्यो जातं तन्तुजम, वस्त्रे, कम्बले च / आहारो उस्सासो,संधिसिराओ य रोमकूवाई। उत्त०२अग पित्तं रुहिरं सुक्कं, गणियं गणियप्पहाणेहिं / / 16 / / तंतुवम पुं०(तन्तुवट) गन्धप्रधानवनस्पतिविशेषे, ल०प्र०। अत्र प्रकीर्णक जीवानां गर्भ आहारस्वरूपम्, गर्भ उच्छ्रासपरिमाणम्, तंतुवाय पुं०(तन्तुवाय) कुविन्दे, प्रव०२ द्वार / आ०म०। कल्प० / शरीरे सन्धिस्वरूपम्, शरीरे शिराप्रमाणम्, वपुषि रोमकूपाणि, पित्तम्, प्रज्ञा० अनु० रुधिरम्, शुक्रम् / चशब्दान्मुहूर्ताऽऽदिकन् / एतत्पूर्वोक्तं गणितं तंतुवायसाला स्त्री०(तन्तुवायशाला) कुविन्दशालायाम्, भ०१५ श०। संख्याप्रमाणतो निरूपितं,कैः? गणितप्रधानैस्तीर्थकरगणधराऽऽतंतोयार पुं०(तन्त्रावतार) तन्त्रे आगमे अवतारः प्रवेशः। आगमप्रवेशे, दिभिः / / 16 / / तका ध० १अधि०। तंदुलिञ्ज (तन्दुलीय) शाकविशेषे, है०। वाचा तंदुगुजाण न०(तन्दुकोद्यान) श्रावस्त्या नगर्या बहिरुद्याने, यत्र कोष्ठकं | तंदुलेज्जग पुं०(तण्दुलीयक) हरितवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। आचा० चैत्यम्। आ०चू०१० *तन्दुलेयक पुं० हरितवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। तंदुल पुं०(तन्दुल) धान्ये, तन्दुलवाहान् भुनक्ति। तं०। तंब न०(ताम) तम्-रक् - दीर्घश्च / प्राकृते-"हस्वः संयोगे" तंदुलच्छिण्णग त्रि०(तन्दुलच्छिनक)तन्दुलप्रमाणखण्डैः खण्डिते, औ० | // 8 / 1 / 84 / / इति सूत्रेणाऽऽदे ह स्वः / प्रा० १पाद / 'स्तस्य
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________________ तंब 2166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तक्क थोऽसमस्त-स्तम्बे" ||812145 / / अत्रासमस्तस्तम्बे इत्युक्तेस्त-स्य | तंस त्रि०(त्र्यस्र) “एगे तंसे।" तिस्रोऽत्रयो यस्मिन् तत् त्र्यसम्। स्था०१ थः। "ताम्राऽऽमे" |/256 / / इति संयुक्तस्य मयुक्तो यकारः। प्रा०२ ठा० "वक्राऽऽदावन्तः" / / 1 / 26 // इत्यनुस्वारः। प्रा०१ पाद।"न पाद / धातुविशेषे, प्रज्ञा०१ पद / उत्त०। सूत्र०ा "तंबपायाणि वा, दीर्घानुस्वारात्" / / 8 / 26 / / इत्यनुस्वारात्परस्य सस्य द्वित्वनिषेधः / तउपायाणि वा, सुवण्णपायाणि वा।'' ग०२ अधि०। अरुणे, पुं०। औ०।। प्रा०२ पाद / शृङ्गाटकफलवत् त्रिकोणे, अनु०। "रहस्से वट्टे तसे तद्वति, त्रि०। वाचाशुल्वे, प्रश्न०४ सम्ब० द्वार। चउरंसे।" अनु०॥ तंबकिमी (देशी) इन्द्रगोपे, देना०५ वर्ग 6 गाथा। तकार पुं०(तकार) 'त' इत्येवंरूपे वर्णे, आव०४ अ०। तंबकुसुम (देशी) कुरवके, देना० 5 वर्ग 6 गाथा / तक्क न०(तक्र) दध्यवयवरूपे, बृ०१ उ० "तक्ककुंडेणाहरणं / ' तंबचूल पुं०(ताम्रचूड) ताम्रा चूडा यस्य / कुक्कुटे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। नि०चू०१उ०॥ "सोन्वेऽत्यगादाद्ययामो रात्रेस्तावदतः परम् / तामचूडरुतादक- *तत्क त्रि०। ईदृशे, अनुन याचिद्विद्यया यदि" ||18|| ती०७ कल्प। *तर्क पुंगा तर्कण तर्कः। स्था० 1 ठा० / संशयादूर्ध्वं भवितव्वताप्रत्यये, तंबटक्करी (देशी) शेफालिकायाम्, दे०ना० 5 वर्ग 4 गाथा। सदर्थपर्यालोचनाऽऽत्मके भवितव्यमत्र स्थाणुना पुरुषेण वेत्येवंरूपे तंबणह त्रि०(ताम्रनख) ताम्रा इव रक्ता नखाः कररुहा यासांतास्ताम्र- | ज्ञानविशेष, सूत्र०१ श्रु० 12 अ०। संभवत्पदार्थास्तित्वाध्यवसायरूपे नखाः। ताम्रसदृशलोहितनखवति, जी०३ प्रति०४ उम ऊहे, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ० विमर्श, स्था०६ ठा०। विचारे, तंबणिद्धणह त्रि०(ताम्रस्निग्धनख) ताम्रा अरुणाः स्निग्धाः कान्तिमन्तो दश०१ अ०ा पर्यालोचने, आचा०१ श्रु०८अ०२०। नखा येषां ते तथा / कान्तिमदरुणनखे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। तर्कमपि कारणगोचरस्वरूपैः प्ररूपयन्तितंबरत्ति (देशी) गोधूमेषु, कुडकुमच्छायायां च। देखना०५ वर्ग 5 गाथा / उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसंबतंबलित्त पुं०(ताम्रलिप्त) देशभेदे,क्वचित्सिन्धुताम्रलिप्तकोङ्कणाऽऽदिके न्धाऽऽद्यालम्बनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकार संवेददेशेऽधिका दंशमशका भवन्ति। सूत्र०१ श्रु०२ अ०१उ०। मूहाऽपरनामा तर्कः // 7 // तंबा (देशी) गवि, देवना०५ वर्ग 1 गाथा। उपलम्भानुपलम्भाभ्यांप्रमाणमात्रेण ग्रहणाग्रहणाभ्यां संभव उत्पत्तिर्यतंबागर पुं०(ताम्राकर) ताम्रध्मापनस्थाने, यत्र तामं ध्मायते। स्था०८ स्येति कारणकीर्तनम्। त्रिकालीकलितयोः कालत्रयीवर्तिनो साध्यसाटा०। यत्र ताम्रमुत्पद्यते। ताम्रोत्पत्तिस्थाने, नि०चू०५ उ०। धनयोर्गम्यगमकयोः संबन्धोऽविनाभावो व्याप्तिरित्यर्थः। स आदिर्यस्यातंबाय पुं०(ताम्राक) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र भद्रिकापुर्या आगते शेषदेशकालवर्तिवाच्यवाचकसम्बन्धस्याऽऽलम्बनं गोचरः यस्य तत्तथेति वीरभगवति नन्दिषेणः पावपित्यीयो भल्लाहतः स्वर्जगाम / आ०क०। विषयाऽऽविष्करणम् / इदमस्मिन् सत्येव भवतीत्यादिशब्दादिदमआ०चून स्मिन्नसति न भवत्येवेत्याकारं, साध्यसाधनसंबन्धाऽऽलम्बनम्, एवंजातीयः शब्द एवंजातीयस्यार्थस्य वाचकः सोऽपि तथाभूतस्तथातंबिरा (देशी) गोधूमेषु, कुकुमच्छायायां च / दे०ना०५ वर्ग 5 गाथा। भूतस्य वाच्य इत्याकारं वाच्यवाचकभावाऽऽलम्बनं च संवेदनमिहोपातंबूलीदल न०(ताम्बूलीदल) नागवल्लिपत्रे,अनेकशकलीकृत दीयत इति स्वरूपप्रतिपादनम्। एवंभूतं यद्वेदनं सतर्कः कीर्त्यते, ऊह करमर्दितप्रहरमात्रधृतताम्बूलीदलं सचित्तमचित्तं वेति प्रश्ने, उत्तरम् इति च संज्ञान्तरं लभते / ये तुताथागताः प्रामाण्यमूहस्य नोहाचक्रिरे। एतादृशपत्रस्याचित्तीभवने व्यवहारो नास्तीति / 1666 प्र०। सेन० 2 तेषामशेषशून्यत्वपातकाऽऽपत्तिः। आः ! किमिदमकाण्डकूष्माण्डाडम्बउल्ला रोड्डामरमभिधीयते / कथं हि तर्कप्रामाण्यानुपगममात्रेणेदृशमसमजतंबेरी (देशी) शेफालिकायाम्, दे०ना०५ वर्ग 4 गाथा। समापनीपद्येत? शृणुश्रावयामिकिल / तर्काप्रामाण्ये तावन्नानुमानस्य तंबोल न०(ताम्बूल)"ओत् कूष्माण्डी-तूणीर-कूर्पर-स्थूल-ता प्राणाः; प्रतिबन्धप्रतिपत्त्युपायापायात् / तदभावे न प्रत्यक्षस्याऽपि / म्बूल-गुडूची-मूल्ये" ||811 / 124 // इति ऊत ओत्। प्रा०१ पाद। प्रत्यक्षेण हि पदार्थान् प्रतिपद्य प्रमाता प्रवर्तमानः वचन संवादादिदं नागवल्लीदले, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। पञ्चा०ा पत्रपूगखदिर प्रमाणमिति, अन्यत्र तु विसंवादादिदमप्रमाणमिति व्यवस्थाग्रन्थिमावटिकाकत्थकाऽऽदिस्वादिमे, ध०२ अधि०। प्रयका अनु०॥ बध्नीयात्। न खलु उत्पत्तिमात्रेणैव प्रमाणाप्रमाणविवेकः कर्तुं शक्यः, तंबोली स्त्री०(ताम्बूली) नागवल्ल्याम्, जी०३ प्रति०४ उ० ज० कन् तद्दशायामुभयोः सौसदृश्यात् / संवादविसंवादापेक्षायां च तन्निश्चये प्रत्ययोऽप्यत्र, लोमसिका त्रपुसिका ताम्बूलिका इत्यवमादिका वल्ल्यः / निश्चित एवानुमानोपनिपातः। न चेदं प्रतिबन्धप्रतिपत्तौ तर्कस्वरूपोपाव्य०६ उ०। यापाये। अनुमानाध्यक्षप्रमाणाभावे च प्रामाणिकमानिनस्ते कौतस्कुती तंबोलीमंडवग पुं०(ताम्बूलीमण्डपक) ताम्बूली नागवल्ली तन्मया | प्रमेयव्यवस्थाऽपीत्यायाता त्वदीयहृदयस्येव सर्वस्य शून्यता / मण्डपकाः। नागवल्लीमयमण्डपे, रा० जी०। साऽपि वा न प्राप्नोति / प्रमाणमन्तरेण तस्या अपि प्रतिपत्तुमश
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________________ तक्क 2170 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तक्खण क्यत्वादिति। अहो! महति प्रकटकष्टसंकटे प्रविष्टोऽयं तपस्वी किं नाम आ०चू०। दमनकवृक्षे, पृकाशाके च। स्त्रियां डीए। वाचा कुर्यात्? अथ-"धूमाधीर्वहिविज्ञानं, धूमज्ञानमधीन्तयोः / प्रत्यक्षानु- तक्करट्ठाण न०(तस्करस्थान) शून्यदेवकुलाऽगाराऽऽदौ, ज्ञा०१ पलम्भयामिति पञ्चभिरन्वयः ||1|| निर्णेष्यते / अनुपलम्भोऽपि श्रु०२ अ०। प्रत्यक्षविशेष एवेति प्रत्यक्षमेव व्याप्तितात्पर्यपर्यालोचनचातुर्यवर्यम्, तत् तक्करत्तण न०(तस्करत्व) नवमे गौणेऽदत्ताऽऽदाने, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। किं तर्कोपक्रमेणेति चेत्, ननु प्रत्यक्ष तावन्नियतधूमाग्रिगोचरतया प्राक् तक्करपओग पुं०(तस्करप्रयोग) तस्कराश्चौराः, तेषां प्रयोगः संहरप्रावृतत् / तद्यदि व्याप्तिरपि तावन्मात्रैव स्यात्तदाऽनुमानमपि तत्रैव णक्रियायांप्रेरणमभ्यनुज्ञातं तस्करप्रयोगः, तान् प्रयुक्तहरत यूयमिति / प्रवर्ततेति कुतस्त्यं धूमान्महीथरकन्धराधिकरणाऽऽशुशुक्षणिलक्षणम् / स्थूलकादत्तादनिविरते द्वितीयेऽतिचारे, आव०६ अ० पञ्चा० / श्रा०) तबला बभूवान् विकल्पः सार्वत्रिकी व्याप्तिं पर्याप्नोति निर्णतुमिति ध०२०। चेत्; को नामैवं नामस्त तर्कविकल्पस्योपलम्मानुपलम्भसंभवत्वेन तक्कलि स्त्री०(तर्कारी) वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १पद / आचा०। भ०। स्वीकारात्, किन्तु व्याप्तिप्रतिपत्तावयमेय प्रमाणं कक्षीकरणीयः। अथ जयन्तीवृक्षे, वाचा तथा प्रवर्तमानोऽयं प्राक् प्रवृत्तप्रत्यक्षव्यापारमेवाभिमुखयतीति तदेव तक्कली स्त्री०(तर्कारी)'तक्कलि' शब्दार्थे , प्रज्ञा०१ पद। तत्र प्रमाणमिति चेत्, तहनुमानमपि लिङ्गग्राहिप्रत्यक्षस्यैव व्यापारमा तकलीमत्थय न०(तर्कारीमस्तक) तारीमध्यवर्तिनि गर्भ, आ०चा०२ मुखयतीति तदेव वैश्वानरवेदने प्रमाणम् , नानुमानमिति किं न स्यात्? अथ कथमेवं वक्तुं शक्यम्। लिङ्गप्रत्यक्षं हि लिङ्गगोचरमेव, अनुमानं तु श्रु०१चू०१ अ०८301 साध्यगोचरमिति कथं तत्तद्व्यापारमामुखयेत्, तर्हि प्रत्यक्ष पुरोवर्तिस्व तकलीसीसय न०(तर्कारीशीर्षक) तर्कारीस्तवके, आचा०२ श्रु०१ लक्षणेक्षणक्षुण्णमेव। तर्क-विकल्पस्तु साध्यसाधनसामान्यावमर्शम चू०१ अ०८301 नीयीति कथं सोऽपि तद्व्यापारमुद्दीषयेत् / अथ सामान्यममान्यमेव, तका स्त्री०(तर्का) स्वकीयविकल्पनायाम, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२३०। असत्त्वादिति कथं तत्र प्रवर्तमानस्तर्कः प्रमाणं स्यादिति चेत्: वितर्के, स्वमतिपर्यालोचने, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० "एगा तझा।" तर्को अनुमानमपि कथं स्यात्? तस्यापि सामान्यगोचरत्वाव्यभिचारात् / विमर्शः / अपायात्पूर्वाईहाया उत्तराः प्रायः शिरः कण्डूयनाऽऽदयः पुरुषधर्मा "अन्यत् सामान्यलक्षणं सोऽनुमानस्य विषयः" इति धर्मकीर्तिना इह घटन्त इति सम्प्रत्ययरूपाः, इहैकत्वं तु प्रागिव / स्था०१ ठा०। कीर्तनात्। तत्त्वतोऽप्रमाणमेवैतद्, व्यवहारेणैवास्य प्रामाण्यात्, सर्व एवा- तक्काभास पुं०(तर्काभास) तर्कलक्षणरहिते तर्कवदाभासमाने, रत्ना०। यमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्मधर्मिन्याथेनेति वचनादिति तर्काऽऽभासमादर्शयन्तिचेत्, तर्कोऽपि तथाऽस्तु।अथनायं तर्कः व्यवहारेणापि प्रमाणम्, सर्वथा असत्यामपि व्याप्तौ तदवभासस्ताभासः॥३५।। वस्तुसंस्पर्शपराङ्मुखत्वादिति चेत्, अनुमानमपि तथाऽस्तु / व्याप्तिरविनाभावः // 35 // अवस्तुनिर्भासमपि परम्परया पदार्थ प्रतिबन्धात् प्रमाणमनुमानमिति उदाहरन्तिचेत्, किं न तर्कोऽपि? अवस्तुत्वं च सामान्यस्याद्याऽपि केशरिकिशोर सश्यामो मैत्रातनयत्वादित्यत्र यावान्मैत्रातनयः सश्याम इति वक्त्रक्रोडदंष्ट्राऽडुराऽऽकर्षायमाणमस्ति / सदृशपरिणामरूपस्यास्य यथा॥३६॥ प्रत्यक्षाऽऽदिपरिच्छेद्यत्वादिति तत्त्वत एवानुमानम्,तर्कश्व प्रमाण न हि मैत्रातनयत्वहेतोः श्यामत्वेन व्याप्तिरस्ति, शाकाऽऽद्याहाप्रत्यक्षवदिति पाषाणरेखा !|7|| रपरिणतिपूर्वकत्वात् श्यामतायाः / यो हि जनन्युपभुक्तशाकाअत्रोदाहरन्ति ऽऽद्याहारपरिणतिपूर्वकस्तनयः स एव श्याम इति सर्वाक्षेपेण यः प्रत्ययः यथा यावान्कश्चिद्भूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति तस्मि स तर्क इति॥३६॥ रत्ना०६ परि०। नसत्यसौ न भवत्येव // // तक्कु पुं०(तर्कु) कृत-उ-निका 'तेकू' इतिख्याते यन्त्रे, वाच०। अत्राऽऽद्यमुदाहरणमन्वयव्याप्तौ, द्वितीयं तुव्यतिरेकव्याप्ताविति // 8 // "कौसुम्भस्तन्तुभिस्तकुं-संपर्किभिरथापराः।" आ०क०। रत्ना०३ परिक्षा तक्ख धा०(तक्ष) तनूकरणे, भ्वादिका पक्षे स्वादि०-पर०-सक०-वेट्। तक्कणवित्ति न०(तर्कणवृत्ति) नटननाऽऽचार्याऽऽदीनां कृपणकुले, | "तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रप-रम्फाः " ||8/4/164 / तक्षेरेते चत्वार स्था०८ ठा० आदेशा वा भवन्ति / तच्छइ,' 'चच्छइ,' 'रम्पइ,' 'रम्फई। पक्षेतक्कणा (देशी) इच्छायाम्, दे०ना०५ वर्ग 4 गाथा। 'तक्खई। प्रा०४ पाद। भर्त्सने तु-संतक्षति / वाचा तक्कम्मसेवि (ण) पुं०(तत्कर्मसेविन्) मैथुनमासेव्य वीर्यनिसर्ग सति *तक्षन् पुंज तक्ष-कनिन्। त्वष्टरि, विश्वकर्मणि च / वाचा यः श्वान इव वेदोत्कटतया जिह्वालेहनाऽऽदिनिन्द्यकर्मणा सुखहमात्मनो तक्खण न०(तत्क्षण) तस्मिन्नेव क्षणे, "तक्खणओलुग्गदुब्बलमन्यते स तथा / गलितश्वसदृशस्वलिङ्ग लेड् नकर्तरि, ध०३ अधि०। सरीरलावण्णसुण्णनिच्छाप।"तत्क्षणमेव प्रव्रजामीतिवचनश्रवणक्षण एव बृा पं०भा०ा पं०चू० अवरुग्णं ग्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा तथा 1 लावण्येन शून्या तकर पुं०(तस्कर) तदेव चौर्य कुर्वन्तीत्येवं शीलाः / कृ-अच् / नि०। लावण्यशून्या, निश्छाया निष्प्रभा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः / औ०। परद्रव्यहारे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। आवा ज्ञा०। रा०ा नि० चू० भ०६श०३३उन
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________________ तक्खमाण 2171 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तज्जिय तक्खमाण त्रि०(तक्षत्) तनूकुर्वति, अनु०॥ बाहुबलिविनर्मित धर्मचक्रम् / ती०४३ कल्प० प्रतिका तक्खय पुं०(तक्षक) तक्ष-तुल् / कश्यपस्य सुते, नागभेदे, वाचा / तच्छिंड (देशी) कराले, देना०५ वर्ग 3 गाथा। आव०। विश्वकर्मणि वर्द्धकौ, वाच०। तच्छिय अव्य०(तक्षयित्या) वास्यादिना तक्षणं कृत्वेत्यर्थे सूत्र०१ श्रु० तक्खसिला स्त्री०(तक्षशिला) वहलीदेशे बाहुबले गर्याम, आ०म० .४अ०१०) १अ०१ खण्डा कल्पका आचा०। आ०चू०।। तज्ज त्रि०(तज्ज) तस्माजातं तज्जम्। तच्छब्दविवक्षितादुत्पन्ने, षो०७ विव०। तगर पुं०(तगर) ग-अच, तस्य क्रोडस्य गरः। 'टगर' इति ख्याते वृक्ष, *तर्ज धा०ा भर्त्सने, भ्वादि०-पर०-सक०-सेट् / तर्जति। अतीत्। वाच०। गन्धद्रव्यविशेषे, प्रश्न० 5 संब० द्वार। सूत्र०। ज्ञा०। रा०ा जंक। चुरादि०-आत्म०-सक०-सेट्। तर्जयते। अततर्जत। वाचा जी० "अगरतगरचोआकुंकुमेण।" अनु०।। तजण न०(तर्जन) शिरोऽङ्गुल्यादिस्कोरणतो ज्ञास्यसि रेजाल्म! तगारपुं०(तकार) तच्छब्दघटकरयानुकरणं 'त' इति।ततः कारप्रत्ययः / __ इत्यादिभणने, औला तं०। प्रश्न०। ज्ञा०। आचा०। निर्देशे, नि०चू० 130 तज्जमाण त्रि०(तर्जत) ज्ञास्यथ रे यन्मम इदं वचनं दत्स्वेत्येवं भीषतगुण पुं०(तद्गुण) "अन्त्यव्यञ्जनस्य' / / 8 / 1 / 11 / / इति दकारलोपः। यति, विपा०१ श्रु० 10 // समासे तु वाक्यविभक्त्यपेक्षायामन्त्यत्वमनन्त्यत्यं च तेनोभयमपि तज्जाइय त्रि०(तजातिक) तस्माजातिरुत्पत्तिर्यस्य सः। तदुत्थे, सूत्र०१ भवति / प्रा०१ पाद। अलङ्कारोक्ते अर्थालङ्कारभेदे, वाचा श्रु०४ अ०२ उ०। तग्ग (देशी) सूत्रे, कङ्कणके, दे०ना०५ वर्ग 1 गाथा। तज्जाईय त्रि०(तज्जातीय) अभिन्नजातीये, आव०४ अ०। आचा० तग्गुण पुं० 'तगुण' शब्दार्थे , प्रा०१ पाद। तज्जाय त्रि०(तजात)तस्माद् विवक्षितात् सकाशाज्जातंतजातम्। तदुत्पन्ने, तच्च न०(तथ्य) तथा व साधु यत् / वाचा "हस्वात् थ्य-श्चत्स- दशा०३ अास्थान प्सामनिश्चले" ||8 / 21 / / तथ्ये चोऽपि भवति / इति थकारस्य तज्जायदोसे मइभंगदोसे, पसथारदोसे परिहारदोसे। चकारः / प्रा०२ पाद / चकारस्य द्वित्वम् / अवितये, सत्ये, तत्त्वरूपे, सलक्खणकारण हेउदोसे, संकामणं निग्गहवत्थुदोसे / / 1 / / उत्त० 28 अ० जी० आचा०॥ तद्वति, त्रि०ा वाचा "तजाय" इत्यादि वृत्तम् / एते हि गुरुशिष्ययोर्वादिप्रतिवादिनोर्वा तच्चकम्मसंपउत्त त्रि०(तथ्यकर्मसंप्रयुक्त) तथ्यानि सत्यफलान्य वादाश्रया इव लक्ष्यन्ते तत्र तस्य गुर्वादेर्जात जातिः प्रकारो वा व्यभिचारितया कर्माणि क्रियास्तत्संपदा तत्समृद्ध्या यः प्रयुक्तः स तथा। जन्मकर्माऽऽदिलक्षणं तज्जातं, तदेव दूषणमिति कृत्वा दोषस्तजाततस्मिन् लब्धफले, उत्त०३० दोषस्तथाविधकुलाऽऽदिना दूषणमित्यर्थः / अथवा-तस्मातच्चावाइ(ण) पुं०(तथ्यवादिन) कौशाम्बीराजस्य शतानीकस्य धर्मपा- त्प्रतिवाद्यादेः सकाशाज्जातः क्षोभान्मुखस्तम्भाऽऽदिलक्षणो दोषठके, आ०का आ०चून आ०म०| स्तज्जातदोषः / (शेषोऽन्यत्र) दशविधदोषाणांमध्ये प्रथमे दोषभेदे, स्था० तच्चावाय पुं०(तत्त्ववाद) तत्त्वानि वस्तूनामैदम्पर्याणि तेषां वाद- 10 ठा। स्तत्त्ववादः। दृष्टिवादे, स्था० 10 ठा०। तज्जायसंसट्टचरग त्रि०(तज्जातसंसृष्टचरक) तज्जातेन देयद्रव्या*तथ्यवाद पुं० तथ्यो वादस्तथ्यवादः। दृष्टिवादे, स्था० 10 ठा० विरोधिना यत्संसृष्ट हस्ताऽऽदि तेन दीयमानं यश्चरति तस्मिन्, स्था०३ तचित्त त्रि०(तचित्त) तस्मिन् भगवद्वचने चित्तं भावो मनो येषां ते तचित्ताः, | ठा०१ उ० सामान्योपयोगापेक्षया वा तचित्ताः / औ० तास्मन्नेव आवश्यके चित्तं | तज्जाया स्त्री०(तजाता) तुल्यजातीयक्रियमाणायां परिष्ठापनायाम, सामान्योपयोगरूपं यस्येतितस्मिन् विवक्षिते भावमनोयुक्ते. सामान्योप- आव०४ अ० युक्ते च / ग०२ अधि०ा अनु०॥ विपा०। तजिय न०(तज्जित) एकोनविंशतितमे वन्दनदोषे, वृक्षा तच्छ धा०(तक्ष) तनूकरणे, भ्वादिगण पक्षे-स्वादि०पर०-सकo-वेट्। एकोनविंशतिदोषमाह"तक्षेस्तच्छ-चच्छ रम्प-रम्फाः " ||4|19|| इति तच्छाऽऽदेशः। ण विकुप्पसिण पसीयसि, कट्ठसियो चेव तजितं एयं / 'तच्छइ।' प्रा०४ पाद। “कप्पेंति करकरएहि, तच्छिति परोप्परं सुएहिं सीसंगुलिमादीहिँ व, तज्जेति गुरुं पणिवयंते / / ति।' तक्षयन्ति सर्वशो देहावयवापनयनेन तनून् कारयन्ति। सूत्र०१ काष्ठघटितशिवदेवताविशेष इवाऽवन्द्यमानोन कुप्यसि, तथावन्धश्रु०५ अ०१उन मानोऽप्यविशेषज्ञतया न प्रसीदसीत्येवं तर्जयन् निर्भर्त्सयन् यत्र वन्दते तच्छण न०(तक्षण) क्षुराऽऽदिना त्वचस्तनूकरणे, विपा०१ श्रु०१०॥ तत्तर्जितम्। यदि च मेलापकमध्ये वन्दनकं मां दापयाँस्तष्ठस्याचार्य ! परं सूत्र०ा वास्या काष्ठस्येव देहकर्तनरूपे शारीरदण्डे, प्रश्न० 3 आश्र० ज्ञास्यते तवैकाकिन इत्यभिप्रायवान् यदा शीर्षणामु ल्या वा द्वार। ज्ञान प्रदेशिनीलक्षणया गुरुं प्रणिपतन् वन्दमानस्तर्जयति, तद्वा तर्जितम्। तच्छसिला स्त्री०(तक्षशिला) वहलीदेशे बाहुवले गर्याम्, यत्र | बृ०३उन
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________________ तज्जीवतच्छरीर 2172 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) तज्जीवतच्छरीर न०(तज्जीवतच्छरीर) स चाऽसौ जीवश्च तज्जीवः कायाऽऽकारो भूतपरिणामस्तदेव शरीरम् / जीवशरीरयोरैक्ये, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ०। तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) त्रि०(तज्जीवतच्छरीरवादिन्) नास्तिकविशेषे, सूत्र साम्प्रतंतज्जीवतच्छरीरवादिमतं पूर्वपक्षयन्नाहपत्ते कसिणे आया, जे बाला जे अपंडिआ। संति पिच्चा न ते संति, नऽत्थि सत्तोववाइया / / 11 / / तजीवतच्छरीरवादिनामयमभ्युपगमः यथा पञ्चभ्यो भूतेभ्यः कायाऽऽकारपरिणतेभ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते, अभिव्यज्यते च, एकैकं शरीरं प्रति प्रत्येकमात्मनः कृत्स्नाः सर्वेऽप्यात्मान एवमवस्थितोः। ये बाला अज्ञाः, ये च पण्डिताः सदसद्विवेकज्ञाः, ते सर्वे पृथग् व्यवस्थिताः। न ह्येक एवाऽऽत्मा सर्वव्यापित्वेनाभ्युपगन्तव्यः बालपण्डिताऽऽद्यावभागप्रसङ्गात् / ननु प्रत्येकशरीराऽऽश्रयत्वेनाऽऽत्मबहुत्वमार्हतानामपीष्ट - मेवेत्याशङ्कयाऽऽहसन्ति विद्यन्ते यावच्छरीरं विद्यन्ते, तदभावे तु न विद्यन्ते / तथाहि-कायाऽऽकारपरिणतेषु भूतेषु चैतन्याऽऽविर्भावो भवति, भूतसमुदायविघट्टने च चैतन्यापगमो, न पुनरन्यत्र गच्छचैतन्यमुपलक्ष्यते। तदेव दर्श-यति-(पिचा न ते संतीति) प्रेत्य परलोकेन ते आत्मानः सन्ति विद्यन्ते, परलोकानुयायी त्वात्मा शरीरागिनः स्वकर्मफलभोक्ता न कश्चिदात्माऽऽख्यः पदार्थोऽस्तीति भावः / किमित्येवमत आह(नऽस्थि सत्तोववाझ्या) अस्तिशब्दस्तिङन्तप्रतिरूपको निपातो बहुवचने द्रष्टव्यः / तदयमर्थ:-न सन्ति न विद्यन्ते, तदभावे तु न विद्यन्ते सत्त्वाः प्राणिन उपपातेन निर्वृत्ता औपपातिका भवद्भिवान्तरगामिनो न भवन्तीतितात्पर्यार्थः। तथाहि तदागमः-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यतीति, न प्रेत्य संज्ञा अस्तीति / " ननु प्रागुपन्यस्तभूतवादिनोऽस्य च तज्जीवतच्छरीरवादिनः को विशेषः? इत्यत्रोच्यतेभूतवादिनो भूतान्येव कायाऽऽकारपरिणतानि धावनवल्गनाऽऽदिकां क्रियां कुर्वन्त्यस्य तुकायाऽऽकारपरिणतेभ्यो भूतेभ्यश्चैतन्याऽऽख्य आत्मोत्पद्यतेभिव्यज्यतेच, तेभ्यश्चाभिन्न इत्ययं विशेषः।।११।। एवं च धर्मिणोऽभावाद्धर्मस्याप्यभाव इति दर्शयितुमाहनऽत्थि पुण्णे च पावे वा, नऽत्थि लोए इतो परे। सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो।।१२।। पुण्यमभ्युदयप्राप्तिलक्षणं, तद्विपरीत पापम्, एतदुभयमपि न विद्यते, आत्मनो धर्मिणोऽभावात्। तदभावाच नास्तोतोऽस्माल्लोकात परोऽन्यो लोको यत्र पुण्यपापानुभव इति। अत्रार्थे सूत्रकारः कारणमाहशरीरस्य कायस्य विनाशेन भूतविघटनेन, देहिन आत्मनोऽप्यभावो भवति, यतो न पुनः शरीरे विनष्टे तस्मादात्मा परलोकं गत्वा पुण्यं पापं वाऽनुभवतीत्यतो यर्मिण आत्मनोऽभावात्तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरप्यभाव इति / अरिंमश्चार्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्ति / तद्यथा-यथा जलबुदबुदो जलातिरेकेण नाऽपरः कश्चिद्विद्यते, तथा भूतव्यतिरेकेण नाऽपरः कश्चिदात्मेति / तथा च यथा कदलीस्तम्भस्य बहिस्त्वगपनयने क्रियमाणे त्वङ्मात्रमिव सर्व नाऽन्तः कश्चित्सारोऽस्त्येवंभूतसमुदाये विघटति सति तावन्मानं विहाय नान्तः सारभूतः कश्चिदात्माऽऽख्यः पदार्थ उपलभ्यते। यथा वा अलातं भ्राम्यमाणमतद्रूपमपि चक्रबुद्धिमुत्पा- | दयति, एवं भूतसमुदायोऽपि विशिष्टक्रियोपेतो जीवभ्रान्तिमुत्पादयतीति / यथा च स्वप्ने बहिर्मुखाऽऽकारतया विज्ञानमनुभूयते, आन्तरेणैव बाह्यमर्थम्, एवमात्मानमन्तरेण तद्विज्ञानं भूतसमुदाये प्रादुर्भवतीति / तथा यथाऽऽदर्श स्वच्छत्वात्प्रतिबिम्बतो बहिः स्थितोऽप्यर्थोऽन्तर्गतो लक्ष्यते, न चाऽसौ तथा 1 च ग्रीष्मे भौमेनोष्मणापरिस्पन्दमाना मरीचयो जलाऽऽकारं विज्ञानमुत्पादयन्ति, एवमन्येऽपि गन्धर्वनगराऽऽदयः स्वस्वरूपेणाऽतथाभूता अपि तथा प्रतिभासन्ते, तथाऽऽत्माऽपि भूतसमुदायाऽऽकारपरिणतौ सत्या पृथगसन्नेव तथा भ्रान्ति समुत्पादयतीति / अमीषां च दृष्टान्तानां प्रतिपादकानि केचित्सूत्राणि व्याचक्षते / अस्माभिस्तु सूत्राऽदर्श चिरन्तनटीकायां चादृष्टत्वान्नालिड़िता नीति / / ननु च यदि भूतव्यतिरिक्तः कश्चिदात्मा न विद्यते, तत्कृते च पुण्यापुण्ये न, तत्कथमेतद्यद्वेचित्र्यंघटते? तद्यथा-कश्चिदीश्वरोऽपरोदरिद्रोऽन्यः सुभगोऽपरो दुर्गभः सुखी दुःखी सुरूपो मन्दरूपो व्याधितो नीरोगीत्येवंप्रकारा विमित्रता किंनिबन्धनेति? अत्रोच्यते, स्वभावात्। तथाहि-कुत्रचिच्छिलाशकले प्रतिमारूपं विद्यते, तच कुङमागरुचन्दनाऽऽदिविलेपनानुभोगमनुभवति, धूपाऽऽद्यामोदं च, अन्यस्मिस्तु पाषाणखण्डे पादक्षालनाऽऽदि क्रियते, न च तयोः पाषाणखण्डयोः शुभाशुभे स्तः, यदुदयात्स तादृगवस्थाविशेष इत्येवंस्वभावाञ्जगद्वैचित्र्यम् / तथाचोक्तम्- "कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता / वर्णाश्व तामचूडानां, स्वभावेन भवन्ति हि।।१।।" इति। तद्यावत्तच्छरीवादिमत गतम् / / 12 / / सूत्र०१ श्रु०१अ०१उ०) साम्प्रतं तज्जीवतच्छरीरवादिनो मतं निराचिकीर्षुराहजे ते उ वाइणो एवं,लोए तेसिं कओ सिया ? तमाओ ते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सिया // 14|| ये तावच्छरीराऽव्यतिरिक्ताऽऽत्मवादिनः एवं पूर्वोक्तयुक्त्या भूताव्यतिरिक्तमात्मानमभ्युपगतवन्तस्ते निराक्रियन्तेतेषां लोकश्चतुर्गतिभवरूपः सुभगदुर्भगसुरूपकुरूपेश्वरदारिद्रयादिगत्या जगद्वैचित्र्यरूपः कुतः स्यात्? आत्माऽनङ्गीकारे पुण्य पापाभावे कथं विश्ववैचित्र्यमित्यर्थः? ते च नास्तिकास्तमसोऽज्ञानरूपात्तमो यान्ति ज्ञानाऽऽवरणाऽऽवृताः पुनर्ज्ञानाऽऽवरणरूपं तमः प्रविशन्ति। अथवा-सद्विवेकप्रध्वंसित्वात्तमो दुःखं, तस्मात्तमो महादुःखं यान्ति, यतस्ते मन्दा जडाः परलोकनिरपेक्षत्वाचाऽऽरम्भनिः श्रिताः (सूत्र०दी०१श्रु०१अ०१3०1) तत्र यत्तैस्तावदुक्तम् / यथा-न शरीरादिन्नोऽस्त्यात्मेति / तदसंगतम्। यतस्तत्प्रसाधकं प्रमाणमस्ति / तचेदम्-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम्, आदिमत्प्रतिनियताऽऽकारकत्वात्, इह यद्यदादिमत्प्रतिनियताऽऽकार तत्तद् विद्यमानकर्तृकं दृष्टम् / यथा घटः, यचाविद्यमानकर्तृकं तदादिमत्- प्रतिनियताऽऽकारमपि न भवति, यथाऽऽकाशम् / आदिमत्प्रतिनियताऽऽकारस्य च सकर्तृत्वेन व्याप्तेः व्यापकनिवृत्तौ व्याप्यस्य विनिवृत्तिरिति सर्वत्र योजनीयम् / तथा विद्यमानाधिछातृकाणीन्द्रियाणि, करणत्वात्, यद्यदिह करणं तत्तद् विद्यमानाधिष्ठातृकं दृष्टम्, यथा-दण्डाऽऽदिकमिति / अधिष्ठातारमन्तरेण करणत्वानुपपत्तिः, यथाऽऽकाशस्य / हृषीकाणां चाधिष्ठाताऽऽत्मा, स च तेभ्योऽन्य इति। तथा विद्यमानाधिष्ठातृकमिदमिन्द्रियविषय
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________________ तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) 2173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) कदम्बकम्, आदानाऽऽदेयसद्भावात् / इह यत्र यत्राऽऽदानाऽऽदेयसद्भावरतत्र तत्र विद्यमान आदाता ग्राहको दृष्टः / यथा संदंशकाऽयः पिण्डयोस्तभिन्नोऽयस्कार इति। यश्चात्रेन्द्रियैः करणैर्विषयाणामादाता ग्राहकः, स तद्भिन्न आत्मेति / तथा विद्यमानभोक्तृकमिदं शरीरं, भोग्यत्वात्, ओदनाऽऽदिवत्। अत्र च कुलालाऽऽदीनां मूर्तत्वानित्यत्वसंहतत्वदर्शनादात्माऽपि तथैव स्यादति धर्मविशेषविपरीतसाधनत्वेन विरुद्धा शड्का न विधेया। संसारिण आत्मनः कर्मणा सहान्योन्यानुबन्धतः कथञ्चिन्मूर्तत्वाऽऽद्यभ्युपगमादिति / तथा यदुक्तम्-'नास्ति सत्त्व औपपातिकः" इति। तदप्ययुक्तम्। यतस्तदहर्जातबालकस्य यः स्तनाभिलाषः सोऽन्याभिलाषपूर्वकः, अभिलाषत्वात्, कुमाराभिलाषवत् ।तथा बालविज्ञानमन्यविज्ञानपूर्वकं, विज्ञानत्वात् कुमारविज्ञानवत् / तथाहि-यदहर्जातबालकोऽपि यावत्स एवायं स्तन इत्येवं नावधारयति, तावन्नोपरतरुदितो मुखमर्पयति स्तने इत्यतोऽस्ति बालके विज्ञानलेशः, स चान्यविज्ञानपूर्वकः / तथाऽन्यद् विज्ञानं भवान्तरविज्ञानं, तस्मादस्ति सत्त्व औपपातिक इति / तथा यदभिहितम्- "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यतीति। तत्राप्ययमर्थः-विज्ञानघनो विज्ञानपिण्ड आत्मा भूतेभ्य उत्थायेति प्राक्तनकर्मवशात्तथाविधकायाऽऽकारपरिणते भूतसमुदाये तवारेण स्वकर्मफलमनुभूय पुनस्तद्विनाशे आत्माऽपि तदनु तेनाऽऽकारेण विनश्यापरपर्यायान्तरेणोत्पद्यते, नपुनस्तैरेव सह विनश्यतीति। तथा यदुक्तम्-धर्मिणोऽभावात्तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरभाव इति / तदप्यसमीचीनम् / यतो धर्मी तावदनन्तरोक्तिकदम्बकेन साधितः, तत्सिद्धौ च तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरपि सिद्धिरवसेया, जगद्वैचित्र्यदर्शनाच। यत्तु स्वभावमाश्रित्योपलशकलं दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तं,तदपि तद्भोक्तृकर्मवशादेव तथा तथा संवृत्त इति दुर्निवारः पुण्यापुण्यसद्भाव इति / येऽपि बहवः कदलीस्तम्भाऽऽदयो दृष्टान्ता आत्मनोऽभावसाधनायोपन्यस्ताः, तेऽप्यभिहितनीत्याऽऽत्मनो भूतव्यतिरिक्तस्य परलोकयायिनः सारभूतस्य साधितत्वात् केवलं भवतो वाचालतां प्रख्यापयन्ति / इत्यलमतिप्रसङ्गेन / शेषं सूत्रं विव्रियतेऽधुनेति तदेवं तेषां भूतव्यतिरिक्ताऽऽत्मनिहववादिनां योऽयं लोकश्चतुर्गतिकसंसारो भवाद् भवान्तरगतिलक्षणः प्राक् प्रसाधितः सुभगदुर्भगसुरूपमन्दरूपेश्वरदारिद्रयाऽऽदिगत्या जगद्वैचित्र्यलक्षणश्च, स एवंभूतो लोकस्तेषां कुतो भवेत् ? कयोपपत्त्या घटेत्? आत्मनोऽनभ्युपगमान्न किञ्चिदित्यर्थः / ते च नास्तिकाः परलोकयायिजीवाऽनभ्युपगमेन पुण्यपापयोश्वाभावमाश्रित्य यतकिञ्चनकारिणोऽज्ञानरूपात्तमसः सकाशादन्यत्तमो यान्तिभूयोऽपि ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिरूपं महत्तरं तमः संचिन्वन्तीत्युक्तं भवति। यदि वा तम इव तमो दुःखसमुद्धातेन सदसद्विवेकप्रध्वं सित्वाद यातनास्थानम्, तस्मादेवंभूतात्तमसः परतरं तमो यान्ति। सप्तमनरकपृथिव्यां रौरवमहारौरवका-लमहाकालाप्रतिष्ठानाऽऽख्यं नरकाऽऽवास यान्तीत्यर्थः / किमिति? यतस्ते मन्दा जडा मूर्खाः सत्यपि युक्त्युपपन्ने आत्मन्यसदभिनिवेशात् तदभावमाश्रित्य प्राण्युपमर्दकारिणि विवेकिजननिन्दिते आरम्भे व्यापारे निश्चयेन नितरां चाश्रिताः संबद्धाः पुण्यपापयोरभाव इत्याश्रित्य परलोकनिरपेक्षयाऽऽरम्भनिः श्रिता इति।। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ०1 तं जहा-उड्डे पादतला, अहे के सग्गमत्थया, तिरियं तयपरियंते जीवे, एस आयापज्जवे कसिणे, एस जीवे जीवति, एस मए णो जीवइ, सरीरे धरमाणे धरइ, विणट्ठम्मिय णो धरइ, एयं तं जीवियं भवति, आदहणाए परेहिं निजइ, अगणिज्झामिए सरीरे कवोतवन्नाणि अट्ठीणि भवंति, आसंदीपंचमा पुरिसा गामं पञ्चागच्छंति, एवं असंते असंविजमाणे, जेसिं (तं असंते असंविजमाणे) तेसिं तं सुयक्खायं भवति / अन्नो भवति जीवो, अन्नं सरीरं, तम्हा ते एवं नो विपडिवेर्देति-अयमाउसो ! आया दीहे तिवा, हस्से तिवा, परिमंडले तिवा, धट्टे तिवा, तसे ति वा, चउरंसे ति वा, आयते तिवा, छलंसिए ति वा, अटुंसे ति वा, किण्हे ति वा, णीले ति वा, लोहियहालिद्दसुकिले ति वा, सुब्भिगंधे ति वा, दुब्भिगंधे ति वा, तित्ते ति वा,कडुए ति वा, कसाए तिवा, अंबिले तिवा,महुरे तिवा,कक्खडे ति वा,मउए ति वा, गुरुए ति वा, लहुए ति वा, सीए ति वा, उसिणे ति वा, निद्धे ति वा, लुक्खे ति वा, एवं असंते असंविज्जमाणे जेसिं तं सुयक्खायं भवतिअन्नो जीवो, अन्नं सरीरं, तम्हा ते णो एवं उवलब्भंति॥१५॥ तद्यथा-ऊर्ध्वमुपरि पादतलात्, अधश्च केशाग्रमस्तकात्, तिर्यक् च त्वपर्यन्तो जीवः। एतदुक्तं भवति-यदेवैतच्छरीरं, स एव जीवो, नैतस्माच्छरीराद्वयतिरिक्तोऽस्त्वात्मेत्यतस्तत्प्रमाण एव भवत्यसावित्येवं च कृत्वैष आत्मायोऽयंकायोऽवमेव च तस्याऽऽत्मनः पर्यवः, कृत्स्नः सम्पूर्णः पर्यायोऽवस्थाविशेषः, तस्मिश्च कायात्मन्यवाप्ते तदव्यतिरेकात् जीवोऽप्यवाप्त एव भवति / एष च कायो यावन्तं कालं जीवेदविकृत आस्ते, तावन्तमेव कालं जीवोऽपि जीवतीत्युच्यते, तदव्यतिरेकात्। तथैव कायो यदा मृतो विकारभाग्भवति, तदाजीवोऽपि नजीवति, जीवशरीरयोरेकाऽऽत्मकत्वात्। यावदिदं शरीरं पञ्चभूताऽऽत्मकमव्यङ्ग धरति, तावदेव जीवोऽपीति। तस्मिश्च विनष्टे सत्येकस्यापि भूतस्यान्यथाभावे विकारे सति जीवस्याऽपि तदात्मनो विनाशः, तदेव यावदेतच्छरीरं वातपित्तश्लेष्माऽऽधारं पूर्वस्वभावादप्रच्युतं तावदे तज्जीवस्य जीवितं भवति। तस्मिश्च विनष्टे तदात्मा जीवोऽपि विनष्ट इति कृत्वा आ दहनायाऽऽसमन्ताद्दहनार्थं श्मशानाऽऽदौ नीयते, यतोऽसौ तस्मिश्च शरीरेऽग्निध्मापिते कपोतवर्णान्यस्थीनि केवलमुपलभ्यन्ते, न तदतिरिक्तोऽपरः कश्चिद्विकारः समुपलभ्यते, यत आत्मास्तित्वशङ्का स्यात्।ते च तद्बान्धवा जघन्यतोऽपि चत्वारः। आसन्दी मञ्चकः, स पञ्चमो येषा ते असिन्दीपञ्चमाः पुरुषाः, तं कायमग्निना ध्मापयित्वा पुनः स्वग्रामं प्रत्यागच्छन्ति। यदिपुनस्तत्राऽऽत्मा निजशरीरागिन्नः स्यात्ततः शरीरान्निर्गच्छन् दृश्येत। न चोपलभ्यते, तस्माजीवस्तदेव शरीरमिति स्थितम् / तदेवमुक्तनीत्याऽसौ जीवोऽसन्नविद्यमानस्तत्र तिष्ठन गच्छंश्वासवेद्यमानो येषामयं पक्षस्तेषां तत्स्वाख्यातं भवति, येषां पुनरन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमेवंभूतोऽप्रमाणक एवाभ्युपगमस्तस्मात्ते स्वयमूह्याः प्रवर्त्तमाना एवमिति वक्ष्यमाणं तेनैव विप्रतिवेदयन्ति जानन्ति /
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________________ तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) 2174 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) तद्यथा-आयुष्मन् ! शरीराबहिरभ्युपगम्यमानः किंप्रमाणकः स्यादिति वाच्यम् / तत्र किं दीर्घः शरीरात्प्रांशुतरः, उत ह्रस्वोऽङ्गुष्ठश्यामाकतण्डुलाऽऽदिपरिमाणो वा? तथा संस्थानानां परिमण्डलाऽऽदीनां मध्ये किंसस्थानः, तथा कृष्णाऽऽदीनां वर्णाना मध्ये कतमवर्णवर्ती , तथा किंगन्धः, षण्णां रसानां मध्ये कतमरसवर्ती ? तथाऽष्टानां स्पर्शानां मध्ये कतमो यः स्पर्शो वर्त्तते ? तदेवं संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शान्यरूपतया कथमप्वसावगृह्यमाणोऽसन्नसौ तथाऽपि केनाऽपि प्रकारेणासवेद्यमानोऽपि येषां तत्स्वाख्यातं भवति। यथाऽन्यो जीवोऽन्यच्छरीरकमित्यय पक्षस्तस्मात्पृथगविद्यमानत्वात्ते शरीरात्पृथगात्मवादिनो नैवं वक्ष्यमाणनीत्याऽऽत्मानमुपलभन्ते // 15 // से जहाणामए केइ पुरिसे कोसीओ असिं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेजा-अयमाउसो! असी, अयं कोसी, एवमेव णत्थि केइ पुरिसे अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेत्तारोअयमाउसो! आया, इयं सरीरं / से जहाणामए केइ पुरिसे मुंजाओ इसियं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेजा-अयमाउसो ! मुंजे इयं इसियं, एवमेव नत्थि केइ पुरिसे उवदंसेत्तारोअयमाउसो ! आया, इयं सरीरं। से जहाणामए केइ पुरिसे मंसाओ अट्ठि अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेजा-अयमाउसो ! मंसे, अयमट्टी,एवमेव नत्थि के इ पुरिसे उवदंसेत्तारो अयमाउसो ! आया, इयं सरीरं। से जहाणामए केइ पुरिसे करयलाओ आमलक अभिणिध्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा-अयमाउसो ! करतले, अयं आमलए, एवमेव णत्थि | केइ पुरिसे उवदंसेत्तारो-अयमाउसो ! आया, इयं सरीरं / से जहाणामए केइ पुरिसे दहिओ नवनीयं अभिनिव्वट्टित्ता ण उवदंसेज्जा अयमाउसो ! नवनीयं, अयं तु दही, एवमेव णत्थि केइ पुरिसे०जाव सरीरं / से जहाणामए केइ पुरिसे तिलेहिंतो तिल्लं अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा-अयमाउसो ! तेल्लं, अयं पिन्नाए,एवमेव०जाव सरीरं। से जहाणामए केइ पुरिसे इक्खुत्तो खोतरसं अभिनिव्वट्टित्ताणं उवदंसेज्जा-अयमाउसो! खोतरसे, अयं खोए, एवमेव०जाव सरीरं / से जहा णामइ केइ पुरिसे अरणीतो अग्गिं अभिनिव्वट्टित्ता णं उवदंसेज्जा-अय-माउसो! अरणी, अयं अग्गी, एवमेव०जाव सरीरं / एवं असंते असंविजमाणे जेसिंतं सुयक्खायं भवति-तं जहा- अन्नो जीवो, अन्नं सरीरं, तम्हा ते मिच्छा।।१६|| तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः कोशतः परिवारादसिं खड्ग मभिनिर्व-र्त्य समाकृष्यान्येषामुपदर्शयेत् / तद्यथा-अयमायुष्मन् ! असिः खड्गोऽयं च कोशः परिवारः,एवमेव जीवशरीरयोरपि नास्त्युपदर्शयिता / तद्यथा-- अयं जीवः,इदं च शरीरमिति, न चास्त्येवमुपदर्शयिता कश्चिदतः कायान्न भिन्नो जीव इति। अस्मि श्वार्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्तीत्यतो दर्शयितुमाह। तद्यथा-वा-कश्चित्पुरुषो मुजात् तृणविशेषात् (इसियं ति) तदर्भभूता शलाकां पृथक् कृत्य दर्शयेत् / तथा मांसादस्थि; तथा करतलादामलकम, तथादध्नो नवनीतम्; तिलेम्यस्तैलमिति; तथेज्ञो रस, तथाऽरणी तोऽग्निमभिनिवर्त्य दर्शयेत्। एवमेव शरीराद् जीवमिति न चाऽरत्येवमुपद शयिताऽतोऽसन्नात्मा, शरीरात्पृथगसंवेद्यमानश्चेति / प्रयोगश्चात्रसुखदु खभाक् परलोकयायी नास्त्यात्मा, तिलशश्छिद्यमानेऽपि शरीरके पृथगनुपलब्धेः, घटाऽऽत्मवत्, व्यतिरेकेण च कोशखगवत् / तदेवं युक्तिभिः प्रतिपादितोऽप्यात्मा भवेत्, येषां पृथगात्मादिना स्वदर्शनानुरागादेतत्स्वाख्यातं भवति / तद्यथा-अन्यो जीवः परलोकानुयायी अमूर्तोऽन्यच्च तद्भववृत्ति मूर्तिमच्छरीरमेतच पृथङ् नोपलभ्यते / तस्मात्तन्मिथ्यायैः कैश्चिदुच्यते यथाऽस्त्यात्मा परलोकानुयायीति॥१६|| से हंता तं हणह, खणह, थणह, डहह, पयह, आलुपइ, विलुपह, सहासकारेह, विपरामुसह, एतावं ताव जीवे, णत्थि परलोए वा,ते णो एवं विप्पडिवेदंति-तं जहा-किरियाइ वा अकिरियाइ वा सुक्कडेइ वा दुक्कडेइ वा कल्लाणेइ वा पावएइ वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धाइ वा असिद्धाइ वा निरएइ वा अनिरएइवा, एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए / / 17 / / एतदध्यवसायी च स लोकायतिकः स्वतः प्राणिनामेकेन्द्रियाऽऽदीनां हन्ता व्यापादको भवति, प्राणातिपाते दोषाभावमभ्युपगम्याऽन्येषामपि प्राण्युपघातकारिणामुपदेश ददाति / तद्यथा-प्राणिनः खङ्गाऽऽदिना घातयेत, पृथिव्यादिकं खनतेत्यादिसुगमम्। यावदेतावानेव शरीरमात्र एव जीवस्ततः परलोकिनोऽभावान्नास्ति परलोकोऽतस्तदभावाच यथेष्टमासत / तथा चोक्तम्-"पिव खाद च साधु शोभने ! यदतीते वरगात्रि! तत्रते। न हि भीरु! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम्' // 1 // तदेव परलोकयायिनो जीवस्याऽभावान्न पुण्यपाये स्तः, नापि परलोक इत्येवं येषां पक्षस्ते लोकायतिकास्तजीवतच्छरीरवादिनो, नैवैतद्वक्ष्यमाणं प्रतिवेदयन्ति अभ्युपगच्छन्ति / तद्यथा-क्रियां वा सदनुष्ठानाऽऽत्मिकाम्, अ क्रियां वा असदनुष्ठानरूपाम् / एवं नैव ते विप्रतिवेदयन्ति--यदि हि आत्मा तक्रियावान्न कर्मणो भोक्ता स्यात्ततः पापभयात्सदभुष्ठानचिन्ता स्यात्, तदभावाच सत्क्रियादिचिन्ताऽपि दूरोत्सारितैवा तथा सुकृतं दुष्कृतं वा कल्याणमिति पापमिति वा साधुकृतमसाधुकृतमित्यादिका चिन्तै व नास्ति / तथाहि- सृकृतानां कल्याणविपाकिना साधुतयाऽवस्थानं, दुष्कृतानां च पापविपाकिनामसाधुत्वेनावस्थानमेतदुभयमपि सत्वात्मनि तत्फलभुजिसंभवति, तदभावाच कुतोऽनर्थकौ हिताहितप्राप्ति परिहारौ स्याताम्? तथा सुकृतेन कल्याणेन साध्वनुष्ठानेनाशेषकर्मक्षयरूपा सिद्धिः, तथा दुष्कृतेन पापानुबन्धिना असाध्वनुष्ठानेन नरको, नरके वा तिर्यक्नरामरगतिलक्षणं स्यादित्येववमात्मिका चिन्तैवन भवेत्, तदाधारस्याऽऽत्मसद्भावस्यानभ्युपगमादिति भावः। पुनरपि लोकायतिकानुष्ठानदर्शनायाऽऽह-(एवं ते इत्यादि) एव-मनन्तरोक्तेन प्रकारेण ते नास्तिका आत्माभाव प्रतिपाद्य विरूपं नानाप्रकारं रूपं स्वरूपं येषां ते, तथा कर्मसमारम्भाः सावद्यानुष्ठानरूपाः पशुघातमांसभक्षणसुरापाननिलाञ्छनाऽऽदिकाः, तैरेवंभूतैर्नानाविधैः कर्मसमारम्भैः कृषीवलानुष्ठामाऽऽदिभिर्विरूपकान कामभोगान् समारभन्ते समाददति तदुपभोगार्थमिति // 17 //
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________________ तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) 2175 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) साम्प्रतं तज्जीवतच्छरीरवादिमतमुफ्संजिघृक्षुः प्रस्ता वमारचयन्नाह-- एवं चेगे पागव्भिया णिक्खम्म मामगं धम्मं पन्नवें ति, तं सहहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोयमाणा साहु सुयक्खाए समणे ति वा माहणे ति वा कामं खलु आउसो ! तुमं पूययामि / तं जहाअसणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा, तत्थेगे पूयणाए समाउर्टिसु, तत्थेगे पूयणाए निकाइंसु // 18|| मूर्तिमतः शरीरादन्यदमूर्त ज्ञानमात्मन्यनुभूयते, तस्य चामूर्तेनैव गुणिना भाव्यमतः शरीरात्पृथग्भूत आत्माऽमूर्तो ज्ञानवत्तदाधारभूतोऽस्तीति। न चात्माऽभ्युपगममन्तरेण तज्जीवतच्छरीरवादिनः किञ्चिद्विचार्यमाणं मरणमुपपद्यते / दृश्यन्ते च तथा भूत एव शरीरे म्रियमाण मृताश्च / कुतः समागतोऽहं, कुत्र चेदं शरीरं परित्यज्य यास्यामि? तथेवं मे शरीरं पुराणं कर्मेत्यधमाधिकाः शरीरात्पृथग्भावेनाऽऽत्मनि संप्रत्यया अनुभूयन्ते। तदेवमपि स्वानुभवसिद्धेऽप्यात्मनि एके केचन नास्तिकाः पृथक् जीवास्तित्वमश्रद्दधानाः प्रागल्भिकाः प्रागल्भ्येन चरन्ति, धृष्टतामापन्ना अभिदधति। तद्यथा-अवमात्मा शरीरत्पृथग्भूतः स्यात्ततः संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शान्यतमगुणोपेतः स्यात् / न च ते वराकाः स्वदर्शनानुरागान्धतमसाऽऽवृतदृष्टय एतद्विदन्ति / तथामूर्तस्यायें धर्मों, नामूर्तस्य, न हि ज्ञानस्य संस्थानाऽऽदयो गुणाः संभाव्यन्ते। न च तत्तदभावेऽपि नास्तीत्येवमात्माऽपि संस्थानाऽऽदिगुणरहि-तोऽपि विद्यत इति। एवं युक्तियुक्तमप्यात्मानं धाष्टान्नाभ्युपगच्छन्ति / तथा निष्क्रम्य च स्वदर्शनविहितां प्रव्रज्यां गृहीत्वा नाऽन्यो जीवः शरीराद्विद्यत इत्येवं यो धर्मो मदीयोऽयमित्येवमभ्युपगम्य स्वतोऽपरेषां च तं तथाभूतं धर्म प्रतिपादयन्ति; यद्यपि लोकायतिकानां नास्ति दीक्षाऽऽदिकं, तथाऽप्यपरेण शाक्याऽऽदिना प्रव्रज्याविधानेन प्रव्रज्य पश्चाल्लोकायतिकमधीयानस्य तथावि-धपरिणतेस्तदेवाभिरुचितमतोमामकोऽयं धर्मः स्वयमभ्युपगच्छन्त्यन्येषां च प्रज्ञामयन्ति / यदि वा-नीलपटाऽऽद्यभ्युपगन्तुः कश्चिदस्त्येव प्रवल्याविशेष इत्यदोष इति। साम्प्रतं तत्प्रतिज्ञापितशिष्यव्यापारमधिकृत्याऽऽह-(तं सद्दहमाणे इत्यादि) तं नास्तिकवाद्युपन्यस्तं धर्म विषयिणामनुकूलं श्रद्दधानाः स्वमतावतिशयेन रोचयन्तस्तथा प्रतिपादयन्तोऽवितथभावेन गृह्णन्तस्त था तत्र रुचि कुर्वन्तस्तथा साधुशोभनमेसद्यथा स्वाख्यातं यथाऽवस्थितो भवतो धर्मोऽन्यथा सति हिंसाऽऽदिष्वप्रवर्तमानः परलोकभवात्सुखसाधनेषु मांसमद्याऽऽदिष्वप्रवृत्तिं कुर्वन्तो मनुष्यजन्मफलवर्जिता भवेयुः / ततः शोभनमकारि भवता हे श्रमण ! ब्राह्मण ! इति वा यदयं तज्जीवतच्छरीरधर्मोऽस्माकमावेदितः, काममिष्ट तदस्माकं धर्मकथनम्। खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे। हे आयुष्मन् ! त्वया वयमभ्युद्रताः कार्पटिकैस्तीर्थिकैर्वञ्चिताः स्युरिति / तस्मादुपकारिण त्वां भवन्तं पूजयाम्यहमपि कश्चिदायुष्मतो भगवतः प्रत्युपकारं करोमि / तदेव दर्शयति / तद्यथा-(असणेत्यादि) सुगमम् / यावत्पादपुञ्छनकमिति। तत्रैके पूर्वोक्तया पूजया पूजायां वा (समाउ टिंसु त्ति) समावृताः प्रह्लीभूतास्ते राजानः पूजां प्रति प्रवृत्तास्तदुपदेष्टारो वा पूजामध्युपपन्नाः सन्तस्तं राजादिक स्वदर्शनप्रतिपन्नमेके केचन स्वदर्शनस्थित्वा हिताहि-तप्राप्तपरिहारेषु निकाचितवन्तो नियमितवन्तः। तथाहिभवतेदं तच्छरीरमित्यभ्युपगन्तव्यमन्यो जीवोऽन्यच्च शरीरमित्येतत् परित्याज्यम्, अनुष्ठानमपि एतदनुरूपमेतद्विधेयमित्येवं निकाचितवन्त इति // 18 // पुव्वमेव ते सिं णायं भवति-समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो पावं कम्म णो करिस्सामि समुट्ठिए ते अप्पणो अप्पडिविरया भवंति, सयमाइयंति, अन्ने वि आदिया ति, अन्नं पि आयंतं तं समणुजाणंति, एवमेव ते इत्थिकामभोगेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना लुद्धा रागद्दोसवसट्टाते णो अप्पाणं समुच्छेदें ति, ते णो परं समुच्छेदेति, णो अण्णाई पाणाई भूताई जीवाई सत्ताईसमुच्छेदें ति, पहीणा पुव्वसंजोगं आयरियं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हचाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसन्ना इति पढमे पुरिसजाए तज्जीवतच्छरीरए ति आहिए // 19 // तत्र ये भागवताऽऽदिकं लिङ्गमभ्युपगताः पश्चाल्लोकायतग्रन्थश्रवणेन लोकायताः संवृत्ताः, तेषामादौ प्रव्रज्याग्रहणकाल एवैतत्परिज्ञातं भवति / तद्यथा-परित्यक्तपुत्रकलत्राः श्रमणा यतयो भविष्यामः, अनगारा गृहरहिताः, तथा निष्किञ्चनाः किञ्चन द्रव्यं तद्रहिताः, तथाऽपशवो गोमहिष्यादिरहिताः, परदत्तभोजिनः स्वतः पचनपाचनाऽऽदिक्रियारहितत्वात्, भिक्षणशीला भिक्षवः, कियद्वक्ष्यते-अन्यदपि यत्किञ्चित्पापं सावध कर्मानुष्ठानं तत्सर्व न करिष्यामीत्येवं सम्यगुत्थानेनोत्थाय पूर्व पश्चाल्लोकायतिकमुपगता आत्मनः स्वतःकर्मभ्योऽप्रतिविरता भवन्ति / विरत्यभावेऽपि यत्कुर्वन्ति तदर्शयति। पूर्व सावद्याऽऽरम्भान्निवृत्तिं विधाय नीलपटाऽऽदिकं च लिङ्गमास्थाय च स्वयमात्मना सावद्यमनु-ठानमाददते स्वीकुर्वन्ति, अन्यान्यप्यादापयन्ति ग्राहयन्ति, अन्यमप्यादानं परिग्रहं स्वीकुर्वन्तं समनुजानन्ति। एवमेव पूर्वोक्तप्रकारेण स्त्रीप्रधानाः स्त्रियोपलक्षिता वा, काभ्यन्त इति कामाः, भुज्यन्त इति भोगास्तेषां सातबहुलतयाऽजितेन्द्रियाः सन्तः, तेषु कामभोगेषु मूर्छिता एकीभावतामापन्ना गृद्धाः काङ्क्षावन्तो ग्रथिता अवबद्धा अध्युपपन्ना आधिक्येन भोगेषु, लुब्धा रागद्वेषार्ता रागद्वेषवशगाः कामभोगान्धा वा, त एवं कामभोगेषु आश्रवबद्धाः सन्तो नात्मानं संसारात्कर्मपाशाद्वा समुच्छेदयन्ति मोचयन्ति, नाऽपि परं सदुपदेशदानतः कर्मपाशावपाशितं समुच्छेदयन्ति कर्मबन्धात् त्रोटयन्ति, नाप्यन्यान् दशविधप्राणवर्तिनःप्राणान् प्राणिनः, तथा चाऽभूवन भवन्ति भविष्यन्ति च भूतानि, तथा वा आयुष्कधारणाज्जीवास्तान्, तथा सत्त्वांस्तधाविधवीर्यान्तरायक्षयोपशमाऽऽपादितवीर्यगुणोपेतोस्तान् समुच्छेदयन्ति, असदभिप्रायप्रवृत्तत्वात्। ते चैवंविधारतज्जीवतच्छरीरवादिनो लोकायतिका अजितेन्द्रियतमा कामभोगावसक्ताः पूर्वसंयोगात्पुत्रदाराऽऽदिकात्प्रहीणाः प्रभ्रष्टाः, आराद् याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्थार्यो मार्गः सदनुष्ठानरूपः तमसंप्राप्ता इत्येवं पूर्वोक्तया नीत्या ऐहिकाऽऽमुष्मिकलोकद्वयसदनुष्ठानम्रण
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________________ मण तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) 2176- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तणपणग अन्तराल एव भोगेषु विषण्णास्तिष्ठन्ति / न विवक्षितं पाण्डरीको- | तडितडिय स्त्री०(तडित्तडित्) विस्तारितविद्युति, औ०। तक्षेपणोऽऽदिकं कार्य प्रसाधयन्तीति / अयं च प्रथमः पुरुषस्तज्जी- तडिय स्त्री०(तडित्) ताडयत्यभ्रम्। चुरा०-तड-नि०-हस्वः। वाचा वतच्छरीरवादी परिसमाप्त इति।।१६।। सूत्र० १श्रु० ४१०२उ०। विद्युति, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। तज्जेमाण त्रि०(तर्जयत्) ज्ञास्यथ रे! यन्ममेदं वचनं दत्स्वेत्येवं भीषयति, | तडी स्त्री०(तटी) "डो लः" ||8/1 / 202 / / इति क्वचिन्न विपा०१ श्रु०१अ०। भवत्येवैत्युक्तेर्डस्य लोन भवति। प्रा०१ पाद। नद्यादीनां तटेषु, नि०चू०१ तटाग पुं०(तडाग) तड-नि। "चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययो उ०ा विच्छिन्नटङ्कायाम्, “आउत्ते रीयाती, तडिसकमउवहिसंथारे।" रद्यद्वितीयौ" ||14|325 / / इति चूलिकापैशाचिके भाषायां डकारस्य नि०चू०१ उ०। टकारः। औ०। तण न०(तृण) तरन्तीति तृणाति औणादिको नक्, ह्रस्वत्वंच। उत्त०२अ० *तटाक पुंगा तटमकति। 'अक' वक्रगतो, अण् / तडागे, जलाशय "ऋतोऽत्" / / 8 / 1 / 126 / / इति आदेब्रकारस्याऽत्वम्। प्रा०१ पाद। भेदे, वाचा कुशाऽऽदौ, आचा०१ श्रु०६अ०३ उ०1 सूत्र०। जंग। उत्त०। *तमाक पुंगा ताड्यते आहन्यते तटोऽनेन / 'तड'-आकन् / नि०। से किं तं तणा? तणा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहाजलाऽऽशयभेदे, तडागे च। वाचा "सेमिय गंतिय होत्तिय, दब्भकुसे पव्वए य पोडइला। तट्टिया स्त्री०(तट्टिका) वोट्टिकानां धर्मोपकरणभेदे, आचा०१ श्रु०२ अजुण असाढए रोहियंसि सुयवे, खीरभुसे // 1 // अ०५उ०। एरंडे कुरुविंदे, करकएँ सुंठे तहा विमंगू य। तट्टी (देशी) वृतौ,दे०ना०५ वर्ग 1 गाथा। महुरतण छुरय सिप्पव,बोधव्वे सुंकलितणे य // 2 // " तट्ठ त्रि०(तत्स्थ) तस्मिन् तिष्ठतीति तत्स्थः। तस्मिन् स्थिते, आचा०१ जे यावण्णे तहप्पगारा। सेत्तं तणा / प्रज्ञा०१पद। श्रु०१अ०३उ०। दर्भवीरणाऽऽदौ, दश०८ अ० भ०। आचा०। कुशवर्चकाऽऽदौ, सूत्र० *तष्ट नका घट्टिते, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। १श्रु०६ अ० कुशज कार्जुनाऽऽदौ, जी०१ प्रति०। दूर्वाऽऽदौ, प्रज्ञा०१ पद। दर्भकुशाऽऽदौ, भ०१५ श०। "कुसं च जूणं तणकट्ठमग्गिं।" उत्त० तट्ठा पुं०(त्वष्ट) चित्रानक्षत्राधिष्ठातरि देवे, अनुका 'दो तट्ठा।'' स्था०२ 12 अ०। कुशदर्भवर्चकार्जुनसुरभिकुरु-विन्दाऽऽदौ, आचा०१ श्रु० ठा०३उ०। जं०। पा०। त्वष्टुरपत्ये, वृत्रासुरे, पुं०। संज्ञानाम्न्यां १अ०५उ०। ''तृण' भक्षणे,धाला वाच०। उत्पले, देवना०५ वर्ग 1 सूर्य्यपन्थाम, स्त्रीयां डीए। त्वष्टादेवताऽधिष्ठातृचित्रानक्षत्रे, वाचा गाथा। तड त्रि०(तट) तट-अच् / वाच०। कूवे, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। तन धा० विस्तृतौ, तना०। उपकारे, वाच०। निचू०। समीपवर्तिनोऽत्युन्नतप्रदेशे, रा०ा नद्यास्तीरे च / अमरमते तणग न०(तृणक) तृणविशेषे, सूत्र०२ श्रु०२अ01 स्त्रियां डीप। वाचा तणगहण न०(तृणग्रहण) तृणानां ब्रीहिपलालाऽऽदीनां ग्रहणं तृणग्रहणम् / *तट धा० उच्छाये, भ्यादि०। वाचा ब्रीहिपलालाऽऽदेरादाने, प्रव०६१ द्वार। *तड धा०। आहितौ, वाचा तणग्ग न०(तृणाग्र) तृणस्योपरितने पूलिते भागे, नि०चू०१उ०। *तन धा० विस्तृतौ, तना०-उभ०-सक० सेट्। वाचा "तनेस्तड तणघर न०(तृणगृह) दर्भाऽऽदितृणमये, गृहे, व्य०४ उ०। तडु-तडुव-विरल्लाः " ||4|137 // इतितन धातोस्तड इत्या तणच्छाह स्त्री०(तृणच्छाया) संकुच्छायायाम, अनु०॥ देशः / तडइ। पक्षे-तणइ। प्रा०४ पाद। तणट्ठाण न०(तृणस्थान) दर्भाऽऽदितृणशालायाम्, यत्र दर्भाऽऽदीनि तडउमा स्त्री०(तडउडा) आउल्याम्,ज०१ वक्ष०ाआउलिवृक्षे, दे०ना० स्थाप्यन्ते। नि०चू०१उ०। 5 वर्ग 5 गाथा। तणपणग न०(तृणपञ्चक) तृणानि च पञ्चोपयोगीनि। ध०२अधि| तहउमाकुसुम न०(तहउडाकुसुम) आउलीपुष्पे,जी०३ प्रति०४ उ०। तणपणगं पुण भणियं, जिणेहिं जियरागदोसमोहेहिं। आ०म०। सालीवीहीकोद्दव-रालयऽरन्नेतणाहिं च // 652 / / तडतडण न०(स्फुट) स्फुटने, 'तडवडस्स भजति भज्जणे कलं--बुवालगा तृणपञ्चकं पुनर्भणितं जिनैर्जितरागद्वेषमो हैर्यथा शालिब्रीहिकपट्टे।" (तडमतडि ति) स्फुटतः। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। कोद्रयरालकसंबन्धीनि तृणानि पलालप्रायाणि अरण्ये अरण्यवितडतमंत त्रि०(तडतडत्) तडतडेत्येवंध्वनि विदधाने, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० षयाणि च / तत्र शालयः कलमशालिप्रभृतयः,ब्रीहयः षष्ठिकाऽऽ-- तडफडिअ (देशी) परितश्वलिते, दे०ना०५ वर्ग गाथा। दयः,कोद्रवो धान्यविशेषः प्रतीतः, रालकः कङविशेषः, आरण्यतृणानि तडमड (देशी) क्षुभिते, दे०ना० 5 वर्ग 7 गाथा। श्यामाकप्रमुखाणि॥६८२शा प्रव०५२द्वार। जीतकादश०। पा०। आव०॥ तडागमह पुं०(तडागमख) तडागयज्ञे, "अगडमहेसु वा तडागमहेसुवा नि०चू० बृ०। (तृणपञ्चकाऽऽदिषु दोषाः, तथा प्रायश्चित्तं च 'झुसिर' दहमहेसुवा।" आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०२ उ०। शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1675 पृष्ठे गतम्)
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________________ तणफास 2177 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तणवणस्सइकाइय गा तणफास पुं०(तृणस्पर्श) तृणानां कुशाऽऽदीनां स्पर्शः आचा० १श्रु०६ "प्रदीप्ताङ्गारकल्पेषु, वज्रकुण्डेष्वसन्धिषु। अ०२ उ०। सप्तदशतमे परीषहे, प्रश्न०५ संब० द्वार। आचाला उत्त०। कूजन्तः करुणं केचित्, दह्यन्ते नरकाग्निना।।१।। तणफासपरीसह पुं०(तृणस्पर्शपरीषह) तरन्तीति तृणाति वा अग्निभीताः प्रधावन्तो, गत्वा वैतरणी नदीम्। औणादिकी नक्प्रत्ययो, ह्रस्वत्वं च / तेषां स्पर्शस्तृणस्पर्शः, स एव शीततोयामिडां ज्ञात्वा, क्षाराम्भसि पतन्ति ते॥२॥ परीषहस्तृणस्पर्शपरीषहः / उत्त०२अ०। अशुषिरतृणस्य दर्भाऽऽदेः क्षारदग्धशरीराश्च, मृगवेगोत्थिताः पुनः। परिभोगोऽनुज्ञातो हि गच्छनिर्गताना, गच्छवासिनां यतीनां च, तत्र येषां असिपत्रवनं यान्ति, छायायां कृतबुद्धयः।।३।। शयनमनुज्ञातं ते तान् दर्भान् भूमावीषदाताऽऽदियुक्तायामास्तीर्य शक्त्यसिप्रासकुन्तैश्च, खातोमरपट्टिशैः। संस्तारोत्तरपट्टकौ च दर्भाणामुपरि विधाय शेरते। चौरापहृतोपकरणो विध्यन्ते कृपणास्तत्र, पतद्भितिकम्पितैः / / 4 / / वाऽत्यन्तजीर्णत्वात्प्रतनुसंस्तारकपट्टो वा तदुपरि शेते, तत्र च शयानस्य इत्यादिका इतराश्च नरकेषु परवशेन मयाऽनुभूता वेदनाः, तत्कियतीयम्? यद्यपि कठिनतीक्ष्णाग्रभागैस्तृणैरत्यन्तपीडा समुपजायते, तथापि भूयाश्व लाभः स्ववशस्य सम्यक् सहन इति परिभावनातोनतत्परिजिपरुषदर्भाऽऽदितृणस्पर्श सम्यक् सहेतेति। प्रव० 86 द्वार / आव०। हीर्षया वस्त्रं कम्बलाऽऽदिकमुपाददते / जिनकल्पिकापेक्षं चैतत्, कादाचित्कतृणग्रहणे तत्संस्पर्शजन्यदुः खाधिसहने, भ०८ श०८ उ०। स्थविरकल्पिकाश्च सापेक्षसंयमत्वात् सेवन्तेऽपीति सूत्रार्थः / उत्त० प्रव०। तथा चोक्तम्-"अहताल्पाणुचेलत्वे, कादाचित्कं तृणाऽऽदिषु / २अ०। तत्संस्पर्शोद्भवं दुःखं, सहेदिच्छेद् न तान्मृदून्॥१॥" आ०म०१ अ०२ अत्र संस्तारद्वारमनुसरन् "विउला भवति वेयणा'' इति खण्ड। "अभूताल्पाणुचेलत्वे, संस्तृतेषु तृणाऽऽदिषु / सहेत दुःखं सूत्रसूचितमुदाहरणमाहतत्स्पर्श-भवमिच्छेन्न तान्मृदून" // 3 // ध०३अधि०। सावत्थी' कुमारो, भद्दो सो चारिओ त्ति वेरजे। एतदेव सूत्रकृदप्याह खारेण तच्छियंगो, तणफासपरीसहं विसहे।५२उत्त०नि०। नचा उप्पइयं दुक्खं,वेयणाए दुहाहिए। श्रावस्त्यां कुमारो भद्रः, स चारिकश्वर इति वैराज्ये क्षारेण तक्षिताङ्गः अदीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्थऽहियासए॥३२।। तृणस्पर्शपरीषह (विसह त्ति) विषहते, स्मेति शेषः। इति गाथार्थः / / 52 / / तेगिच्छं नाभिनंदेजा, संचिक्खऽत्तगवेसए। भावार्थस्तु संप्रदायादवसेयः। स चायम्- "सावत्थीए नयरीए एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे / / 33 / / जियसत्तुरन्नो पुत्तो भद्दो नाम, सो निविण्णकामभोगो तहारूवाणं अचेलगस्स लूइस्स, संजयस्स तवस्सिणो। थेराणमंतिएपव्वतितो, कालेण एगल्लविहारपडिमपडिवन्नो, सो विहरंतो तणेसु सयमाणस्स, होज्जा गायविराहणा।।३४|| वइरजे चारिओ त्ति काऊण गहितो, सोय पंतोवेऊण खारेण तच्छिओ, सो दबभेहिं वेढिऊण मुक्को, सो दबभेहिं लोहियसंमीलिएहिंदुक्खा तिजंतो अचेलकस्य रूक्षस्य संयतस्य तपस्विन इति प्राग्वत्। तरन्ति तृणाति सम्मं सहति।" एवं शेषसाधुभिरपि सम्यक् सोढव्यस्तृणस्पर्शपरीषहः। दर्भाऽऽदीनि तेषु, शयानस्य, उपलक्षणत्वादासीनस्य वा भवेत्, गात्रस्य उत्त०२ अ० शरीरस्य विराधना विदारणा गात्रविराधना, अचेलकत्याऽऽदीनि त तणफासपरीसविजय पुं०(तृणस्पर्शपरीषहविजय) तृणस्पर्शपतपस्विविशेषणानि, मा भूत्सचेलस्य तृणस्पर्शासंभवेनारूक्षस्य, रीषहविजये, पं०सं०ास चैवम्-गच्छयासिनां गच्छनिर्गतानांवा शुषिरस्य तत्संभवेऽपि स्निग्धत्वेनासंयतस्य चशुषिरहरिततृणोपादानेन तथाविध दर्भाऽऽदेस्तृणस्य परिभोगः समनुज्ञातो भगवता, तत्र येषां दर्भाऽऽदिगात्रविराधनाया असंभव इति। तृणानामुपरि शयनमनुज्ञातं स्वगुरुभिः, तेषां दर्भाऽऽदितृणानामुपरि ततः किमित्याह संस्तारकोत्तरपट्टौ निधाय शेरते / अथवा-चौरापहृतोपकरणो यदि आयवस्स निवाएणं, तिउला हवइ वेयणा। वाऽतिजीर्णतया व्यपगतसंस्तारकोत्तरपटोदर्भाऽऽदितृणान्यास्तीर्य शेते, एतं नच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया / / 3 / / तत्र यत्तृणस्पर्शसम्यगधिसहनं सतृणस्पर्शपरीषहविजयः। पं०सं०२द्वार। आतपस्य धर्मस्य नितरां पातो निपातः, तेन (तिउल त्ति) | तणभार पुं०(तृणभार) तृणभारके, भ०८ श०६ उ०। बध्यमानसूत्रत्वात्तोदिका। यतात्रीन् प्रस्तावाद् मनोवाक्कायान् विभाषितत्वा- | तृणसमूहे, वाचा च्छुराऽऽदीनां दलन्तीव स्वरूपचलनेन त्रिदुला। पाठान्तरतस्तु-अतुला तणमुद्दिआ (देशी) अङ्गुलीयके, देखना०५ वर्ग 6 गाथा। विपुला वा, भवति वेदना। एवं च किमित्याह-एतदनन्तरोक्तं, पाठान्तरत तणय पुं०(तनय) तनोति कुलम् / तन्-कयन् / पुत्रे, दुहितरि, एवं, ज्ञात्वा न सेवन्ते न भजन्ते, आस्तरणायेति गम्यते। तन्तुभ्यो जातं वक्रकुल्यायाम, लतायाम्, घृतकुमार्या च। स्त्री०-टापा वाचला आ०म० तन्तुजम्, पठ्यते च-(तंतयं ति) तत्रतन्त्रवेमविलेख्यन्यञ्छनिकाऽऽदि, तणरासी (देशी) प्रसारिते, दे०ना०५ वर्ग 6 गाथा। तस्माज्जातं तन्त्रजम्, उभयत्र वस्त्रं, कम्बलो वा, तृणैस्तर्जिता तणवणस्सइ पुं०(तृणवनस्पति) बादरवनस्पतिभेदे, भ०७ श०६ उ० निर्भर्त्सतास्तृणतर्जिताः। किमुक्तं भवति-यद्यपि तृणैरत्यन्तविलिखित तणवणस्सइकाइय पुं०(तृणवनस्पतिकायिक) तृणवद्वनस्पतयशरीरस्य रविकिरणसंपर्कसमुत्पन्नखेदवशतः क्षतक्षारनिक्षेपरूपेव स्तृणवनस्पतयः / स्था०१० ठा०। बादरवनस्पतिकायिकभेदे, भ०७ पीडोपजायते, तथाऽपि श०६ उ०॥
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________________ तणवणस्सइकाइय 2178 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तणग दसविहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता / तं जहा-मूले,कंदे, (तणवणरसइ त्ति) तृणवनस्पतयो बादरवनस्पतयोऽग्रबीजाऽऽदयः जाव पुप्फे, फले, बीए।। क्रमेण कोरण्टका उत्पलकन्दा वंशाः शल्लक्यो जटा एवमादयः / (दसेत्यादि) तृणवद्धनस्पतयस्तृणवनस्पतयः, तृणसाधर्म्य च व्याख्यात चैतत्प्रागिवेति। स्था० 5 ठा०२उ०। बादरत्वेन, तेन सूक्ष्माणां न दशविधत्यमिति / मूलं जटाः कन्दः छव्विहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता / तं जहा-अग्गबीया, स्कन्धाऽधोवर्ती / यावत्करणात्- "खंधे'' इत्यादीनि पञ्च द्रष्टव्यानि। मूलबीया, पारेबीया,खंधबीया, बीयरुहा, संमुच्छिमा। तत्र स्कन्धः स्थुडमिति यत्प्रतीतं, त्वक् वल्कः, शाला शाखा, तृणवनस्पतिकायिका बादरा इत्यर्थः / मूलयीजा उत्पलकन्दाऽऽदय प्रवालमङ्करः, पत्रं पर्ण, पुष्पं कुसुमं, फलं प्रतीतं, बीज मिजेति इत्यादि व्याख्यातमेव, नवरं संमूर्छिमा दग्धभूमौ बीजासत्त्वेऽपि ये दशस्थानकाधिकार एव। स्था०१० ठा०। तृणाऽऽदय उत्पद्यन्ते, यथाऽधिकृताध्ययनावतारं प्ररूपिता जीवाः। इदमपरमाह स्था०६ ठा तिविहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता / तं जहा–संखेज्जजी- तणवरंडी (देशी) उड्डपे,देना०५ वर्ग 7 गाथा। विया, असंखेज्जजीविया, अणंतजीविया / / तणविंटय पुं०(तृणवृन्तक) त्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा०१पद। जी० (तिविहेत्यादि) तणवनस्पतयो, बादरा इत्यर्थः / संख्यातजीविकाः | तणवेटय पं० तणवन्तक) 'तणविंटय' शब्दार्थ प्रज्ञा०१पट / जी0। सङ्ख्यातजीवाः, यथा नालिकाबद्धकुसुमानि, जात्यादीनीत्यर्थः / तणसूअपुगन०(तृणशूक) तृणाग्रे,भ०८ श०६उ०। असङ्ख्यातजीविकाः यथा निम्बाम्नाऽऽदीनां मूलकन्दस्कन्दत्वक् तणसोल्लिया स्त्री०(तृणसोल्लिका) मल्लिकायाम, ज्ञा०१ श्रु०१६ शाखाप्रवालाः, अनन्तजीविकाः पनकाऽऽदय इति। इह प्रज्ञापनासूत्रा अजंग ण्यपीत्थम् तणसोल्ली (देशी) मल्लिकायाम, दे०ना०५ वर्ग 6 गाथा। "जे केइ नालियाबद्धा, पुप्फा संखेजजीविया। तणहार पुं०(तृणहार) त्रीन्द्रियजीवविशेषे, जी०१ प्रति०। उत्त०। प्रज्ञा०। णिहुया अणंतजीवा, जे यावन्ने तहाविहा / / 1 / / तणु स्त्री०(तनु) "स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ||8||326 / / इति पउमुप्पलनलिणाणं, सुभगसोगंधियाण य। अपभ्रंशे स्वरस्य स्वर एव / प्रा०४ पाद / देहे, आव०४ अ० कर्मा अरबिंदकोंकणाणं, सयवत्तसहस्सवत्ताणं / / 2 / / प्रव० सं०आ०म०। मूर्ती, वाच०। सूक्ष्मे, त्रि०ा कल्प०२ क्षण। प्रश्न०। विंट बाहिरपत्ता, य कन्निया चेव एगजीवरस। तं०। औ० स० अल्पे, विरले, कृशे च। स्त्रियां वा डीए। तन्थी। तनुः। अभिंतरगा पत्ता, पत्तेयं केसरं मिजा''।।३।। वाच०। लघुपरिमाणे, न० जी०३प्रतिका तथा तणुअ त्रि०(तनुक)तनुरेव तनुकः / कृशे, आव०५ अ० स्वरूपेण कृशे, "लिंबं वजंबु कोसं बसालअकोल्लपीलुसल्लूया। पञ्चा०१६ विव०। स्तोके, जीत०। सुजरे, भ०१५ श०। लघुसुजरे, सल्लइमोथइमालुय-वउलपलासे करंजे य॥४॥ इत्यादि। ज्ञा०१ श्रु०१२ अग "एएसिंणं मूला वि असंखिज्जजीविया, कंदा, वि, खंदा वि, तया वि, *तनुज त्रि०। तनुः शरीरं, तस्माजातस्तनुजः / उत्त० 14 अ०॥ साला वि, पवाला वि, पत्ता पत्तेयजीविया, पुप्फा अणेगजीविया, फला शरीरादुत्पन्ने, उत्त०१४ अ०। एगट्टिय ति।" अनन्तरं वनस्पतय उक्ताः,ते च जलाऽऽश्रया बहवो तणुअंत न०(तन्वन्त्र) सूक्ष्मान्त्रे, "तणुयंते तेण पासवणे परिणमइ।" भवन्तीति। स्था०३ ठा०१उ० तेन प्रस्रवणं मूत्रं परिणमति। तं०। वनस्पतिमेव प्ररूपयन्नाह तणुअट्ठ न०(तन्वष्ट) तनुशब्देनोपलक्षितमष्टकम्- "तणुवंगागिचउव्विहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता। तं जहा-अग्गबीया, इसंघयणजाइगइखगइपुग्वी' इति गाथाऽवयवेन प्रतिपादिते अष्टके, मूलबीया, पोरबीया, खंधबीया / / कर्मा"तणुअट्ठ०-"(१६) तनुशब्देनोपलक्षितमष्टकम् 'तणुवंगागिइ (चउबिहेत्यादि) वनस्पतिः प्रतीतः, स एव कायः शरीरं येषां ते संघयण जाइ गइ खगइ पुव्वी "(3) इति गाथाऽवयवेन प्रतिपादितं वन्स्पतिकायाः, त एव वनस्पतिकायिकाः, तृणप्रकारा वनस्पति- तन्वष्टकम् / तत्र तनंवस्तैजसकार्मणयोरपरावर्तमानासु प्रतिपादिकायिकास्तृणवनस्पतिकायिकाः, बादरा इत्यर्थः / अगं बीज येषां ते तत्वात् शेषा औदारिकवैक्रियाऽऽहारकरूपास्तिस्रः। उपाङ्गानि त्रीणि, अग्रबीजाः कोरण्टकाऽऽदयः, अग्रे वा बीजं येषां ते अग्रबीजा व्रीह्यादयो, आकृतयः षट्, संहननानि षट्, जातयः पञ्च, चतस्रोगतयः, खगतिद्वयम्, मूलमेव बीजं येषां ते मूलबीजा उत्पलकन्दाऽऽदयः, एवं पर्वबीजा आनुपूर्वी चतुष्कमिति। तन्वष्टकशब्देन च त्रयस्त्रिंशत्प्रकृतयो गृह्यन्ते। इक्ष्वादयः, स्कन्धबीजाः शल्लक्यादयः, स्कन्धः थुडमिति। एतानि च (16) कर्म०५ कर्म० सूत्राणि नान्यव्यवच्छेदनपराणि, तेन बीजरुहसम्मूर्छनजाऽऽदीनां तणुई स्त्री०(तन्वी) ईषत्प्रारभारायास्तृतीये नाम्नि, स्था० ८ठा०। नाभावो मन्तव्यः,सूत्रान्तरविरोधादिति / अनन्तरं वनस्पतिजीवानां तणुकायकिरिय त्रि०(तनुकायक्रिय) तन्वी उच्छासनिःश्वासाऽऽदिचतुःस्थानकमुक्तम्। स्था०४ ठा०१उ०। लक्षणाः कायक्रियायस्य स तथा। सूक्ष्मोच्छासनिः श्वासाऽऽदिलक्षणपंचविहा तणवणस्सइकाइया पण्णत्ता / तं जहा-अग्गबीया, व्यापारवति, आव०४ अग मूलबीया, पोरबीया,खंधबीया, बीयरुहा। तणुग न०(तनुक) शरीरे, जं०३वक्ष०ा सूक्ष्मे, जं०२ वक्ष०।
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________________ तणुजोग 2176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तण्हा कर्म०। तणुजोग पुं०(तनुयोग) तनोति विस्तारयस्मिप्रदेशानस्यामिति | यामेकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः। पङ्कप्रभायां द्वाषष्टिधषि द्वौ हस्तौ। तनुरौदारिकाऽऽदिशरीरं, तया सहकारिकरणभूतया योगस्तनुयोगः। धूमप्रभायां पञ्चविंशं धनुःशतम् / तमः प्रभायां साढ़े द्वे धनुः शते / तनुविषयो वा योगस्तनुयोगः। कर्म०४ कर्मा कायिके योगे, न मनोवा- तमस्तमः प्रभायां पञ्चैव धनुःशतानीति। प्रव० 176 द्वार। ग्द्रव्याणामुपादानं करोति स कायिको योगः। "किं पुण तणुसरंभेण तेण | तणुय त्रि०(तनुक) अग्रभागे,श्लक्ष्णे। (विशे०) प्रतरे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। मुंचइ स वाइओ जोगो। मण्णइस माणसीओ, तणुजोगो चेव य विभत्तो सूक्ष्मे, वाचा // 1 // " विशे। *तनुज पुं०। तनुःशरीरं तस्माज्जातस्तनुजः / उत्त० 14 अ०। पुत्रे, तणुणमिय त्रि०(तनुनमित) तनु कृशं नतं नम्नं तनुनतम् / ईषन्नने, दुहितरि, स्त्री०। देहजातमात्रे, त्रिला वाचा जं०२ वक्षण तणुयर त्रि०(तनुतर) अतिशयेन तनुस्तनुतरः। अतिसूक्ष्मे, मक्षितणुणाम न०(तनुनाम) तनोति जन्तुरात्मप्रदेशान् विस्तारयति यस्यां | कापत्रादपि तनुतरः। आ०म०११०२खण्ड। सातनुः, तजनकं कर्मापि तनुः, सैवनाम तनुनाम। शरीरनाम्नि, कर्म०१ तणुरागंत पुं०(तनुरागान्त) सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकान्ते, क०प्र०१० प्रक० तणुणिद्द त्रि०(तनुनिद्र) तन्वी स्तोका निद्रा यस्येति। अल्पनिद्रणशीले, तणुल त्रि०(तनुल) तनुं शरीरं सुखस्पर्शतया लाति अनुगृह्णातीति बृ०१उ०। तनुलम् / तनुसुखाऽऽदौ, जं०२ वक्षा तणुतणुइ स्त्री०(तनुतन्वी) अतितनुत्वात्तनुतनुः / ईषत्प्रागभारायाश्चतुर्थे तणुवाय पुं०(तनुवात) तनुश्चासौ वातश्च तनुवातः। स्था०३ ठा०४ उ०| नाम्नि, स्था०८ ठा। घनवातस्याधःस्थायिनि विरलपरिणामोपेते बादरवायुकायिकभेदे, तणुपणग न०(तनुपञ्चक) औदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्म- जी०१ प्रति० प्रज्ञा०ा पिं० स्था०। णलक्षणे, प्रव० 116 द्वार। तणुवायवलय न०(तनुवातवलय) तनुवातः स एव वलयमिव वलयं तणुवग्गणा स्त्री०(तनुवर्गणा) तनूनामौदारिकाऽऽदिशरीराणां भेदाभेद- कटकम् / स्था० 3 ठा०४उ० बादरवायुकायिकभेदे, प्रज्ञा०२ पदा परिणामाभ्यां योग्यत्वाभिमुखास्तनुवर्गणाः / अथवा-पक्ष्यमाणमिश्र- | तणुवी स्त्री०(तन्वी) तन-उ-स्त्रियां वा डीप्। वाचा "तन्वीतुल्येषु" स्कन्धाचित्तरकन्धद्वयस्य तनुदेहः शरीरं मूर्तिरिति यावत्, तद्योग्यत्वा- // 12 / 113 / / इति अन्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उकारः। प्रा०२ पाद। कृशायाम्, भिमुखा वर्गणा तनुवर्गणा / द्रव्यवर्गणाभेदे, आ० म० अ०१ खण्ड। वाच (तद्वक्तव्यता वग्गणा' शब्दे) तणुसरीर न०(तनुशरीर) सूक्ष्मशरीरे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तणुभू पुं०(तनुभू) शरीरादुत्पन्ने पुत्रे, आ०क० / दुहितरि, स्वी० तणूय पुं०(तनूज) पुत्रे, आ०क०। दुहितरि, स्त्री०। देहजातमात्रे, देहजातमात्रे, त्रि०। वाचा त्रि०ा वाचा तणुमाण न०(तनुमान) शरीरप्रमाणे, प्रव०१ द्वार। तणेण अव्य०(तणेण) "तादर्थ्य के हिं-तेहिं-रेसि-रेसिंपढमाए पुढवीए,नेरइयाणं तु होइ उच्चत्तं / तणेणाः" ||6/1425 / / इत्यपभ्रंशं तादर्थ्य द्योत्ये 'तणेण' इति सत्तधणु तिन्नि रयणी, छच्चेव य अंगुला पुन्ना / / 61|| निपातः / प्रा०४ पाद। सत्तमपुढवीए पुण, पंचेव धणुस्सयाइ तणुमाणं / तणेणी (देशी) तृणप्रकारे,दे०ना०५ वर्ग 3 गाथा। मज्झिमपुढवीसु पुणो, अणेगहा मज्झिमं नेयं / / 2 / / तण्ण पुं०(तर्ण) वत्से, जी०१ प्रति०) अवगाहते जीवोऽस्यामवगाहना, तनुः, शरीरमित्येकोऽर्थः। सा द्विधा *तार्ण्य पुंगण तृणसंबन्धिनि, "किंची सकायसत्थं,किंची परकाय तदुभयं भवधारणीया, उत्तरवैक्रिया च / भवे नारकाऽऽदावायुः समाप्तिं यावदन किंची। (24)" किश्चिच्छस्त्र स्वकाय एव अग्निकाय एव अनिकायस्य। वरतं धार्यतेऽसाविति भवधारणीया। स्वाभाविकशरीरग्रहणोत्तरकालं तद्यथा-तार्णोऽग्निः पार्णाग्निशस्त्रम्। आचा०१ श्रु०१ अ०४उ० कार्यविशेषमाश्रित्य विविधा क्रियत इत्युत्तरवैक्रिया / एकैकाऽपि च तण्णय (देशी) आर्द्र, दे०ना०५ वर्ग 2 गाथा। द्विधाजघन्या ,उत्कृष्टा च। तत्र प्रथमं तावत् प्रतिपृथिव्युत्कृष्टा भवधार- तण्णिट्ठ त्रि०(तन्निष्ठ) तदाश्रिते, आचा०१ श्रु०१ चू०२ अ०१ उ०। णीयाऽवगाहना प्रोच्यतेप्रथमायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारकाणा- तण्णिवेसण त्रि०(तन्निवेशन) सदा तन्निवासिनि, 'तप्परक्कारे मुत्कर्षतो भवधारणीयावगाहनोच्चत्वं सप्तधनूंषि, तिस्रो रत्नयः, त्रयो तस्सण्णी तण्णिवेसणे।" तन्निवेशनः सदा गुरुकुलनिवासी। आचा०१ हस्ता इत्यर्थः / षडेव चाङ्गुलानि पूर्णानि ,उत्सेधाङ्गुलेन सपादैकत्रिंश- श्रु०५ अ०६उ०। दस्ता इति भावः। सप्तमपृथिव्यां पुनः पञ्चैव धनुः शतान्युत्कर्षतो | तण्हज्झाण न०(तृष्णाध्यान) तृष्णा तृषापरीषहोदयस्तस्या ध्यानम्। नारकाणांतनुमानं शरीरोच्छ्रयः,मध्यमपृथिवीषु शर्कराप्रभाऽऽद्यासु तमः तृषार्तस्य मार्ग गच्छतो जनकसाधुसहितस्य क्षुल्लकस्येव तृषाध्याने, प्रभापर्यन्तासु पुनर्मध्यमं प्रथमसप्तमपृथिवीनारकतनुमानयोर्मध्यवर्ति आतुन अनेकधा पूर्वपूर्वपृथिवीषु उत्तरोत्तरपृथिवीषु द्विगुण 2 तनुमानमु-त्कर्षतो तण्हा स्त्री०(तृष्णा)तर्षस्तृष्णा / अभिलाषे, स्था०२ ठा०३उ०) उत्त। ज्ञातव्यम् / तथाहि-रत्नप्रभानारकतनुमानात् द्विगुणं शर्कराप्रभायां प्रश्नाधा पुद्गलभोगपिपासायाम्,अष्ट०१ अष्टा औ०। आव०। उत्त०। पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादशाङ्गुलानि देहमानम् / एवं बालुकाप्रभा- | सूत्र०। अनुचितवाञ्छायाम् प्रश्न०३आश्र० द्वार। तृषापरीषहोदये, आतु
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________________ तण्हागेही 2180 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तत्त तण्हागेही स्त्री०(तृष्णागृद्धि) तृष्णा च प्राप्तद्रव्यस्याव्यग्रेच्छागृद्धिश्वाप्राप्तस्य प्राप्तिवाञ्छा, तद्धेतुकं चादत्ताऽऽदानमिति तृष्णा गृद्धिरुच्यते / गौणे अदत्ताऽऽदाने, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। तण्हातिअत्रि०(तृष्णार्दित) पिपासिते, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। तण्हाऽमिहय त्रि०(तृष्णाऽभिहत) तृषाऽभिहते, जी०३प्रतिका तत न०(तत) वीणाऽऽदिके, स्था० 4 ठा०४ उ०। प्रश्रा जं० जी०। आचाof "ततं वीणाऽऽदिक ज्ञेयं, विततं पटहाऽऽदिकम्” भ०५ श०४उ०। मृदङ्गपटहाऽऽदिके , जी०३ प्रति०४ उ०। राof आ०म० वीणापटहाऽऽदिजनिते शब्दे,धनः शुषिरश्चेतिव्यपदिश्यते। "तते दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-घणे चैव सुसिरे चेव।" स्था०२ ठा०३उ० आ०चू! ततगइ स्त्री०(ततगति) ततस्य ग्रामनगराऽऽदिकं गन्तुं प्रवृत्तत्वेन तच्चाप्राप्तत्वेन तदन्तरालपथे वर्तमानतया प्रसारितक्रमतया च विस्तार गतस्य, गतिस्ततगति / गतिप्रवादभूते, भ० 8 श०७ उ०। *तदति स्त्री०। ततो वा अवविभूतग्रमाऽऽदेनगराऽऽदौ गतिः। प्राकृतत्वेन 'ततगई। गतिप्रवादभेदे, भ०८ श०७उ०) "से किं तं ततगति? ततगति जेणं जंगामं वाजाव सन्निवसंवा संपट्टिए असंपत्ते अंतरापहे य वट्टइ। से तं ततगति।" प्रज्ञा०१६ पद। ततगति स्त्री०(ततगति) ततगइ शब्दार्थे, भ०८ श०७ उ०। तत्त न०(तत्त्व) परमार्थ, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ०।उत्त०। पं० वं०। परमार्थजाते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ० / यथाऽवस्थितलोकस्वभावे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३उ०। यथाऽवस्थितवस्तुस्वरूपपरिच्छेदे, स्या०। परस्परनिरपेक्षसामान्यविशेषाऽऽत्मके (आचा०१ श्रु० 4 अ०२७०) जीवाजीवपुण्यपापाऽऽश्रवबन्धसंवरनिर्जरा-मोक्षाऽऽत्मके, तथा धर्माधर्माऽऽकाशपुद्गलजीवकालाऽऽत्मके द्रव्ये, नित्यानित्यस्वभावे सामान्यविशेषाऽऽत्मकेऽनाद्यपर्यवसानचतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके च / सूत्र०२ श्रु०५० अमूनि नव तत्त्वानिजियअजियपुनपावा-ऽऽसवसंबरबंधमुक्खनिज्जरणा (15) जीवश्च, अजीवश्च, पुण्यं च, पापं च,आश्रवश्व, संवरश्च, बन्धश्च, मोक्षश्च,निर्जरणं च निर्जरा, एतानि नव तत्त्वानि / (कर्म०) जीवाजीवतत्त्वे"जीवाऽजीवा पुन्नं, पावाऽऽसवसंबरो य निजरणा। बंधो मुक्खो य तहा, णव तत्ता हुंति नायव्वा / / 1 / / एगविहदुविहतिविहा, चउविहा पंचछव्विहा जीवा। चेयणतसइयरेहिं, वेयगईकरणकाएहिंसा एगिदिय सुहुमियरा, बितिचउसन्नीअसन्निपंचिंदी। अपजत्ता पज्जत्ता, चउदसभेया अहव जीवा // 3 // पणथावर सुहुमियरा, परितवणसन्निअसन्निविगलतिग। इय सोलस अपजत्ता, पजत्ता जीववत्तीसा।।४।। धम्माधम्मागासा, य दव्वदेसप्पएसओ तिविहा। गइठाणऽवगाहगुणा, कालो य अरूविणो दसहा / / 5 / / खंधा देसपएसा, परमाणू युग्गला चउह रूवी। जीवं विणा अचेयण, अधिकरिया सव्वगय बेमि।।६।। कालो माणुसुलोए, जियधम्माधम्म लोयपरिमाणा। सव्वे दव्वं इट्टा, कालविणा अत्थिकाया य॥७॥ धम्माधम्मागासा, कालो परिणामिए इहं भावे। उदयपरिणामिए पुग्गला उसवेसु पुण जीवा // 8 // " पुण्यतत्त्वम्"तिरिनरसुराउ उच्चं, सायं परघायआयवुजोयं / जिणऊसासनिमाणं, पणिदिवइरुसभचउरंस / / 6 / / तसदस चउवन्नाई,सुरमणुदुगपंचतणु उवंगतिगं। अगुरुलहु पढमखगई, यायालं पुन्नपगईओ॥१०॥" पापतत्त्वम्"नाणंतराय पण पण, नव वीए नियअसायमिच्छत्तं / थावरदस नरयतिग, कसायपणवीस तिरियदुर्ग / / 11 / / चउजाई उवघायं, अपढमसंघयणखगइसंठाणा। वण्णाइअसुभचउरो, वासीई पावपगडीओ॥१२॥" आश्रवतत्त्वम्"इंदिय कसाय अव्वय,किरिया पण चउर पंच पणवीसा। जोगतिगं वायाला, आसवभेया इमा किरिया / / 13 / / काईय अहियरणीया, पाउसिया पारितावणी किरिया। पाणाइबायरंभिय, परिगहिया मायवत्ती य॥१४॥ मिच्छादसणवित्ती, अप्पचक्खाण दिट्टि पुट्ठीय। पाइच्चिय सामंता-वणीय नेसत्थि साहत्थी॥१५॥ आणवणि वियारणिया, अणभोगा अणवकखपञ्चइया। अन्ना पओग समुदाण पिजदोसेरियाबहिया।।१६।।" संवरतत्त्वम्"भावण चरित्त परिसह, समिई जइधम्म गुत्ति वारस उ। पंच दुवीसा पण दस, तिय संवरभेयसगवन्ना" // 17 // निर्जराबन्धतत्त्वम्"वारसविहं तवो निजरा उ अहवा अकामसक्कामा। पयइ ठिई अणुभागप्पएसभेया चउहबंधो॥१८॥ संतपयपरूवणथा, दव्वपमाणं च खित्त फुसणाय। कालो अंतरभागा,भावऽप्पबहू नवह मुक्खो / / 16 / / जिण अजिण तित्थ तित्था, गिहिअनसलिंगत्थीनरनपुंसा। पत्तेयसयंबुद्धा, विबुद्धबोहिक्कणिक्का य // 20 // " इति मोक्षतत्त्वम्। इत्युक्तं संक्षेपतो नव तत्त्वस्वरूपम्। कर्म०१ कर्म०। दर्श० श्रा०। आचाग (विशेषतो व्याख्यानं स्वस्वशब्दे) (साङ्ख्यमते तु तत्त्वानि पञ्चविंशतिस्तानि "संख'शब्दे दर्शयि-ष्यन्ते) नव सब्भावपयत्था पण्णत्ता / तं जहा-जीवा, अजीवा, पुण्णं, पावं, आसवो, संवरो, निजरा, बंधो, मुक्खो। (नव सद्भावेत्यादि) सद्भावेन परमार्थेन, अनुपचारेणेत्यर्थः / पदार्था वस्तूनि सद्भावपदार्थाः। तद्यथा-जीवाः सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणाः / अजीवास्तद्विपरीताः, पुण्यं प्रकृतिरूपं कर्म, पापं तद्विपरीतं कर्मैव, आश्रूयते गृह्यतेऽने नेत्याश्रयः, शुभाशुभकर्माऽऽदानहेतुरिति भावः / संवर आश्रवनिरोधो गुप्त्यादिभिः, निर्जरा विपाकात्तपसो वा कर्मणां देशतः क्षपणाद्, बन्ध आश्रवैरात्तस्य कर्मण आत्मना संयोगो मोक्षः, कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यवस्थानमिति। ननु जीवजीवव्यतिरिक्ताः पुण्याऽऽदयो न सन्ति, तथा युज्यमानत्वात्। तथाहि-पुण्यपापे कर्मणी, बन्धोऽपि तदात्मक एव, कर्म च पुद्गल
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________________ तत्त 2181 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तत्ततव परिणामः, पुद्गलाश्चाजीवा इति; आश्रवस्तु मिथ्यादर्शनाऽऽदिरूपःपरिणामो जीवस्य, स चाऽऽत्मानं, पुद्गलाँश्च विरहय्य कोऽन्यः? संवरोऽप्याश्रवनिरोधलक्षणो देशसर्वभेद आत्मनः परिणामो निवृत्तिरूपः, निर्जरा तु कर्मपरिशाटौ जीवः कर्मणा यत्पार्थक्यमापादयति स्वशक्त्या, मोक्षोऽप्यात्मा समस्तकर्मविरहित इति / तस्माजीवाजीवौ सद्भावपदार्थाविति वक्तव्यम् / अत एवोक्तमिहै-ब"उदत्थिं च णं लोएतं सव्वंदुप्पडियारं। तंजहा–जीव चेव, अजीव चेव त्ति?" अत्रोच्यतेसत्यमेतत्किन्तु यावेव जीवाजीवपदार्थो सामान्येनोक्ती, तावेवेह विशेषतो नवधोक्तौ, सामान्यविशेषाऽऽत्मकत्वाद् वस्तुनः, तथेह मोक्षमार्गे शिष्यः प्रवर्तनीयो, न संग्रहाभिधानमात्रमेव कर्त्तव्यम् / स च यदैवमाख्यायते-यदुताऽऽश्रवो, बन्धो वा, बन्धद्वाराऽऽयाते च पुण्यपापे मुख्यानि तत्त्वानि संसारकारणानि, संवरनिर्जरे च मोक्षस्य, तदा संसारकारणत्यागेनेतरत्र प्रवर्तते, नाऽन्यथेत्यतः षट्कोपन्यासः, मुख्यसाध्यख्यापनार्थं च मोक्षस्येति। स्था०६ ठा। *तप्त त्रि०। अनुष्ठिते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। उष्णे, स्था०८ ठा०। तं०। संतापे, औ०। संतप्ते, "तत्ततवणिज्जकणगवण्णा।" औला तत्तओ अव्य०(तत्त्वतस्) परमार्थवृत्तौ, अने०१ अधि०। तत्तंत न०(तत्त्यान्त) आत्माऽऽदितत्त्वप्रसिद्धिरूपे, द्वा० 23 द्वा० तत्तगोयर त्रि०(तत्त्वगोचर) तत्त्वविषये, द्वा०२१ द्वा०) तत्तचिंता स्त्री०(तत्त्वचिन्ता) परमार्थचिन्तायाम्, पञ्चा०१ विव०। तत्तजला स्त्री०(नप्तजला) जम्बूद्वीपे मेरोः पूर्वस्यां दिशि शीताया महानद्या दक्षिणभागास्थितायां स्वनामख्यातायामन्तनीद्याम्, स्था०३ डा०४उ०। "दो तत्तजलाओ।' स्था०२ ठा०३उ० जना तत्तजिण्णासास्त्री०(तत्त्वजिज्ञासा) ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा, तत्त्व-विषया ज्ञानेच्छा तत्त्वजिज्ञासा / तत्त्वविषयकज्ञानेच्छायाम्, षो०१६ विव०॥ तत्तणाण न०(तत्वज्ञान) ऊहाऽपोहविशुद्धमिदमित्थमेवेति निश्चये, ध०१अधिo तत्तणिपिणणीसु पुं०(तत्त्वनिर्णिनीषु) तत्त्वं प्रतिष्ठापयिषौ, स्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्थ साधनदूषणाभ्यां शब्दाऽऽदेः कथश्चिन्नि-- त्यत्वाऽऽदिरूपं तत्त्वं प्रतिष्ठापयितुमिच्छौ तत्त्वनिर्णिनीषौ, रत्ना० अथ तत्त्वनिर्णिनीषोः स्वरूपं निरूपयन्तितथैव तत्वं प्रतितिष्ठापयिषुस्तत्त्वनिर्णिनीषुः।।४।। तथैव स्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्थं साधनदूषणाभ्याम्, शब्दाऽऽदेः / कथञ्चिद् नित्यत्वाऽऽदिरूपं तत्त्वम्, प्रतिष्ठापयितुमिच्छुस्तत्त्वनिर्णिनीषुरित्यर्थः / / 4 / / अस्यैवाङ्गेयत्तावैचित्र्यहेतवे भेदावुपदर्शयन्तिअयं च द्वेधा-स्वात्मनि परत्र चेति||५|| (अयमिति) तत्त्वनिर्णिनीषुः कश्चित्खलु संदेहाऽऽधुपहतचेतोवृत्तिःस्वाऽऽत्मनि तत्त्वं निर्णेतुमिच्छति, अपरस्तु परानुग्रहैकरसिकतया परत्र तथा; इति द्वेधाऽसौ तत्त्वनिर्णिनीषुः / सर्वोऽपि च धात्वर्थः करोत्यर्थेन व्याप्त इति स्वाऽऽत्मनि परस्त्र च तत्त्वनिर्णयं चिकीर्षुरित्यर्थः / अथ परं प्रति तत्वनिर्णिनीषोरप्यस्य तन्निर्णयोपजनने जयघोषणामुद्धोषयन्त्येव सभ्या इति चेत् ; ततः किम् ? जिगीषुता स्यात् इति चेत्, कथं यो यदनिच्छुः स तदिच्छुः परोक्तिमात्राद् भवेत्? तत्किं नाऽसौ जयमश्नुते? वा ढमश्नुते। नच तमिच्छतिच, अश्नुते चेति किमपि कैतवं तवेति चेत्, स्यादेवं,यद्यनिष्ट मपि न प्राप्येत / अवलोक्यन्ते चानिष्टान्यप्यनुकूलप्रतिकूलदैवोपकल्पितानि जनैरुपभुज्यमानानि शतशः फलानि। तदिदमिह रहस्यम-परोपकारैकपरायणस्य कस्यचिद्वादिवृन्दारकस्य परत्र तत्वनिर्णिनीषोरानुषङ्गिकं फलं जयः, मुख्यं तु परतत्त्वावबोधनम्। जिगीषोस्तु विपर्यय इति।। स्वाऽऽत्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुमुदाहरन्ति आद्यः शिष्याऽऽदिः||६|| (आद्य इति) स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुरित्यर्थः। आदिग्रहणा-दिहोत्तस्त्र चस ब्रह्मचारिसुहृदादिरादीयते॥६॥ परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुमुदाहरन्ति द्वितीयो गुर्वाऽऽदिः॥७॥ (द्वितीय इति) परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः / / 7 / / द्वितीयस्य भेदावभिदधतिअयं द्विविधः-क्षायोपशमिकज्ञानशाली, केवलीच // 8 // (अयमिति) परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुर्गुर्वादिः, ज्ञानाऽऽवरणीयस्य कर्मणः क्षयोपशमेन निर्वृत्तं ज्ञान मतिश्रुतावधिमनः पर्यायरूपं व्यस्तं समस्तं वा यस्यास्ति स तावदेकः; द्वितीयस्तु तस्यैव क्षयेण यजनितं केवलज्ञानं तद्वान्। तदेवं चत्वारः प्रारम्भकाः-जिगीषुः, स्वात्मनितत्त्वनिर्णिनीषुः, परत्र तत्वनिर्णिनीषुश्च क्षायोपशमिक-ज्ञानशालिकेवलिनाविति / तत्त्वनिर्णिनीषोर्हि ये भेदप्रभेदाः प्रदर्शिताः, न ते जिगीषोः सर्वेऽपि संभवन्ति / तथाहि-न कश्चिद्वि-पश्चिदात्मानं जेतुमिच्छति / न च केवली परं पराजेतुमिच्छति, वीतरागत्वात् / गौडद्राविडाऽऽदिभेदस्तु नाङ्गनियमभेदोपयोगी; प्रसञ्जयति चानन्त्यम् / इति पारिशेष्यात् क्षायोपशमिकज्ञानशाली परत्र जिगीषुर्भवतीत्येक रूप एवाऽसौ न भेदप्रदर्शनमर्हति / यौ च परत्र तत्त्वनिर्णिनीषो दावुक्तौ, न तौ द्वावपि स्वाऽऽत्मनि तत्त्वनिर्णिनीषोः संभवतः, निर्णीतसमस्ततत्त्वज्ञानशालिन केवलिनः स्वाऽऽत्मनितत्त्वनिर्णयेच्छाऽनुपपत्तेः, इति पारिशेष्यात् क्षायोपशमिकज्ञानवानेव स्वाऽऽत्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुर्भवतीत्यसावप्येकरूप एवेति। रत्ना०८ परि०।। तत्तण्णु त्रि०(तत्त्वज्ञ) तत्त्वं सकलपर्यायोपेतसकलवस्तुस्वरूपं जानातीति तत्त्वज्ञः। वस्तुतत्त्ववेदिनि, पञ्चा०१ विव० सर्वज्ञ, आव०१ अ०॥ तत्तण्णुपुट्ठि स्त्री०(तत्त्वज्ञपुष्टि) तत्त्वस्याविसंवादस्थाने हितोपदेशे, षो० 8 विव० तत्ततव त्रि०(तप्ततपस्) तापिततपस्के, आर्यसुधर्माणमुपक्रम्य "उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे।" तप्तं तापितं तपो येन स तप्ततपाः। तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि सन्ताप्यन्ते, तेन न च तपसा स्वात्मा तपोरूपः संतापितो, यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातम्। ओघा नि० भ० ज०। रा०सू०प्र०। ज्ञा०।
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________________ तत्ततवणिज्ज 2182 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तत्तसमजोइय तत्ततवणिज न०(तप्ततपनीय) तप्तसुवर्णे, "तत्ततवणिजसंकासो।" प्रज्ञा०१ पद। तत्ततवोधण त्रि०(तप्ततपोधन) तप्तमनुष्ठितं तप एव धनं यस्य स तप्ततपोधनः / पञ्चाग्न्यादितपोविशेषेण निष्प्तदेहे, सूत्र०१श्रु०३ अ०४उन तत्ततेल्लन०(तप्ततैल) तप्तं च तत्तैलं च / उष्णतैले, स०११ अङ्ग। तत्तत्ति स्त्री०(तत्त्वाप्ति) जीवाऽऽदीनां स्वरूपोपलम्भे, षो० (?) तत्तत्थ पुं०(तत्त्वार्थ) युक्तिसिद्धेऽर्थे, द्रव्या०८ अध्या०। तत्तत्थसद्दहाण न०(तत्त्वार्थश्रद्धान) तत्त्वार्थानां सर्वविदुपदिष्टतया पारमार्थिकानां जीवाऽऽदिपदार्थानां श्रद्धानमेवमेतदेवेति प्रत्ययः, तत्त्वेन वा भावतोऽर्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानम् / “तत्तत्थ-सदृहाणं, सम्मत्तसमग्गहो ण एयम्मि'। पश्चा० 1 विव०। (एतद्बहुवक्तव्यता "सम्मत्त" शब्दे वक्ष्यते) तत्तदंसण न०(तत्त्वदर्शन) परमार्थावलोकने, द्वा० 25 द्वा०। तत्तदंसि(ण) त्रि०(तत्त्वदर्शिन्) मेधाविनि, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। तत्त्वावलोकनकर्तरि,सूत्र०१ श्रु०१५ अ०) तत्तदिट्ठि स्त्री०(तत्त्वदृष्टि) तत्त्वं वस्तुरूपं जीवे जीवत्वमनन्तचैतन्यरूपम्, अजीवे अचैतन्यस्वरूपं, तत्र यथार्थावबोधयुक्ती, अष्ट०) रूपे रूपवती दृष्टिदृष्ट्वा रूपं विमुह्यति। मज्जत्यात्मनि नीरूपे, तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी / / 1 / / भ्रमवाटी बहिदृष्टि-भ्रमच्छाया तदीक्षणम्। अभ्रान्तस्तत्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाशया॥२॥ ग्रामाऽऽरामाऽऽदि मोहाय, यद् दृष्टं बाह्यया दृशा। तत्त्वदृष्ट्या तदेवान्तीं तं वैराग्यसंपदे // 3 // बाह्यदृष्टेः सुधासार-घटिता भाति सुन्दरी। तत्त्वदृष्टस्तु सा साक्षात्, विणमूत्रपिठरोदरी॥४॥ लावण्यलहरीपूर्ण , वपुः पश्यति बाह्यदृग् / तत्त्वदृष्टिः, श्वकाकानां, भक्ष्यं कृमिकुलाऽऽकुलम् // 5 // गजाश्वर्भूपभवनं, विस्मयाय बहिर्दृशः। तत्राश्वेभवनात् कोऽपि, भेदस्तत्त्वदृशस्तु न॥६॥ भस्मना केशलोचेन, वपु तमलेन वा। महान्तं बाह्यदृग् वेत्ति, चित्साम्राज्येन तत्त्ववित्।।७।। न विकाराय विश्वस्योपकारायैव निर्मिताः। स्फुरत्कारुण्यपीयूष-दृष्टयस्तत्त्वदृष्टयः ||5|| अष्ट०१६ अष्ट तत्तदेहा पुं०(तत्त्वदेष्ट) तत्त्वं सकलपर्यायोपेतसकलवस्तुस्वरूपं तद्विशतीति तत्त्वदेष्ठा। तत्त्वोपदेष्टरि, ध०१ अधिक तत्तधम्मजोणी स्त्री०(तत्त्वधर्मयोनि) धृत्यादिके, धृतिः श्रद्धा सुखाविविदिषा विज्ञप्तिरिति तत्त्वधर्मयोनयः / "घिइसड्ढासुहविविदिसभेया जं पायसो उ जोणि ति।' पञ्चा०४ विव०। तत्तपवित्ति त्रि०(तत्त्वप्रवृत्ति) तत्त्वानुष्ठाने, षो०। कस्मात्पुनस्तत्राद्वेषः क्रियत इत्याहअद्वेषो जिज्ञासा, शुश्रूषा श्रवणबोधमीमांसाः। परिशुद्धा प्रतिपत्तिः, प्रवृत्तिरष्टाङ्गकी तत्त्वे // 14 // अद्वेषोऽप्रीतिपरिहारः तत्त्वविषयस्तत्पूर्विका ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा तत्त्वविषया ज्ञानेच्छा तत्वजिज्ञासा तत्पूर्विका बोधाम्भः श्रोतसः सिराकल्पा, श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा तत्त्वविषयैव / तत्त्वशुश्रूषानिबन्धनं श्रवणमाकर्णनं तत्त्वविषयमेव / बोधोऽवगमः परिच्छेदो विवक्षितार्थस्य श्रवणनिबन्धनस्तत्त्वविषय एव, मीमांसा सद्विचाररूपा बोधानन्तरभाविनी तत्त्वविषयैव। श्रवणं च बोधश्च मीमांसाच श्रवणबोधमीमांसाः। परिशुद्धा सर्वतो भावविशुद्धा, प्रतिपत्तिर्मीमांसोत्तरकालभाविनी निश्चयाऽऽकारा परिच्छित्तिरिदमित्थमेवेति तत्त्वविषयैव / प्रवर्त्तनं प्रवृत्तिरनुष्ठानरूपा परिशुद्धप्रतिपत्त्यनन्तरभाविनी तत्त्वविषयैव, प्रवृत्तिशब्दो द्विरावय॑ते, तेनायमर्थो भवतितत्त्वे प्रवृत्तिरष्टभिरडैनिवृत्ताऽष्टाङ्गिकी, एभिरद्वेषाऽऽदिभिरष्टभिरङ्गैस्तत्त्वप्रवृत्तिः संपद्यते, तेनाऽऽगमान्तरे मूलागमैकदेशभूतेन द्वेषः कार्यइति॥१४॥षो०१६ विव०। तत्तफासुअ त्रि०(तप्तप्राशुक) तप्तं सत्प्राशुकं त्रिदण्डोद्धृतं तप्तप्राशुकम्। त्रिदण्डोद्धृते तप्ते जलाऽऽदौ, "उसिणोदगं तत्तफासुयं, पडिगाहिज संजए।"दश०८० तत्तवि(द) त्रि०(तत्त्वविद्) तत्त्वं वेत्तीति तत्त्वविद् / जीवाजीवाऽऽदि वस्तुविज्ञातरि, ध०३ अधिका परमार्थविदि, नि०१ श्रु०१ वर्ग१ अ०। तत्तवेइ(ण) पुं०(तत्त्ववे दिन्) तत्त्वज्ञानिनि, आचा०। सारो हि विषयगणस्य तत्प्राप्तौ तृप्तिः, तदभावान्निः सारः, तं दृष्ट्वा ज्ञानी तत्त्ववेदी न विषयाभिलाषं विदध्याद्, न केवलं मनुष्याणां, देवानामपि विषयसुखाऽऽस्पदमानैत्यं जीवितमिति दर्शयति- "उववायं चवर्ण णचा।" उपपातं जन्म, च्यवनं पातः,तच ज्ञात्वा न विषयसगोन्मुखो भवेदिति / यतो निःसारो विषयग्रामः, समस्तः संसारो वा, सर्वाणि च स्थानान्यशाश्वतानि / सारासार--वेत्तरि, आचा०१ श्रु०३ अ०२उ01 तत्तबोहविहाइणी स्त्री०(तत्त्वबोधविधायिनी) अभयदेवविरचि-तायां स्वनामख्यातायां सम्मतिटीकायाम्, “प्रद्युम्नसूरेः शिष्येण, तत्त्वबोधविधायिनी / एषा चाभयदेवेन, सम्मतेर्विवृतिः कृता' // 1 // सम्म० ३काण्ड। तत्तरसासाय पुं०(तत्त्वरसाऽऽस्वाद) तत्त्वे परमार्थे रस आसक्तिहेतुस्तस्याऽऽस्वादस्तत्त्वरसाऽऽस्वादः / परमार्थाऽऽसक्तिहेत्वास्वादे, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०॥ तत्तलोहपहपुं०(तप्तलोहपथ) तप्ते लोहमयमार्गे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तत्तसंदिट्टि स्त्री०(तत्त्वसंदृष्टि) तत्त्वसंदर्शने, षो०१५ विव० तत्तसंवेयण न०(तत्त्वसंवेदन) तत्त्वं परमार्थः, तत्सम्यक् प्रवृत्या धुपहतत्वेन विद्यते यस्मिस्तत् / ज्ञानभेदे, द्वा०६ द्वा० सम्यग्ज्ञाने, पं०सू०४ सूत्र०ा हा तत्तसमजोइभूय त्रि०(तप्तसमज्योतिर्भूत) तप्तेन तापेन समातुल्या ज्योतिषा बहिना भूता जाता या सा तप्तसमज्योतिर्भूता ! तापसदृशवह्रिजाते, भ०१० श०५उ०।
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________________ तत्तसुइ 2153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तद् तत्तसुइ स्त्री०(तत्त्वश्रुति) तत्त्वश्रवणे, द्वाका तप्तिः सारा, तया विप्रमुक्ताः। व्य०१ उ०। चिन्तायाम् प्रतिका ततः किमित्याह तत्तिय पुंगन०(तात्त्विक) वास्तवे, द्वा० 16 द्वाआ०म० "महाव्रतिपुण्यबीजं नयत्येवं, तत्त्वश्रुत्या सदाशयः। सहस्रेषु, वरमेको हि तात्त्विकः। तात्त्विकस्य समं पात्रं, न भूतो न भविष्यति भवक्षाराम्भसस्त्यागाद्, वृद्धिं मधुरवारिणा / / 21 / / // 1 // ' अतस्तात्त्विकाय पात्राऽऽदिकं देयम्। ध०२ अधि०। एवं धर्मस्य प्राणेभ्योऽप्यधिकत्वप्रतिपत्त्या, तत्रोत्सर्गप्रवृत्त्या, *तावत् त्रिका "जत्तियं गहियं तत्तियं ठियं, सेसं नट्ट. ततो गतो सिं तत्त्वश्रुत्या तथा तत्त्वश्रवणेन, मधुरवारिणा, सदाशयः शोभनपरिणामः, घरं / " आ०म०१ अ०२ खण्ड। तत्तियं तावन्मात्रमेव कार्यम्। व्यवहारे, भवलक्षणस्य क्षाराम्भसस्त्यागात्, पुण्यबीजं वृद्धिं नयति / यथा हि नि०चू०११उन मधुरोदकयोगतस्तन्माधुर्यानवगमेऽपि बीजं प्ररोहमादत्ते, तथा तत्तियजोग पुं०(तात्त्विकयोग) केनापि नयेन मोक्षयोजनफले, द्वा० तत्त्वश्रुतेरचिन्त्यसामर्थ्यात्तत्त्वविषयस्पष्टसंवित्त्यभावेऽपि अतत्त्वश्रवण- 16 द्वा० त्यागेन तद्योगात् पुण्यवृद्धिः स्यादेवेति भावः // 21 // तत्तियधम्मत्ति स्त्री०(तात्विकधर्माप्ति) तात्त्विकस्याभ्यासशुद्धस्य तत्त्वश्रवणतस्तीव्रा, गुरुभक्तिः सुखाऽऽवहा। तत्त्वाभ्यासिकमात्रस्य धर्मस्याहिंसाऽऽदेराप्तिरुपलब्धिः। अभ्यासमापत्त्यादिभेदेन, तीर्थकृदृर्शनं ततः॥२२॥ सशुद्धस्याहिंसाऽऽदेरुपलब्धौ, द्वा०१० द्वा० (तत्त्वेति) तत्त्वश्रवणतः, तीव्रा उत्कटा, गुरौ तत्त्वश्रावयितरि, / तत्तिल्ल त्रि०(तृप्तिमत्) तृप्तिर्विद्यते यस्य स तदस्यास्त्यस्मिन्नितिमतुप् / भक्तिराराध्यत्वेन प्रतिपत्तिः, सुखावहोभयलोकसुखकरी, ततो गुरुभक्ते, "आल्विल्लोल्लालवन्त-मन्तेत्तेर-मणा-मतोः" ||4|215 / / समापत्यादिभेदेन तीर्थकृद्दर्शनं भगवत्साक्षात्कारलक्षणं भवति। तदुक्तम्- इति मतुपः स्थाने इल्लाऽऽदेशः / प्रा० ढुण्ढि०२ पाद / तृप्ते, कल्प०६ "गुरुभक्तिप्रभावेण, तीर्थकृद्दर्शनं मतम् / समापत्त्यादिभेदेन, निर्वाणक- क्षण। तत्परे, देना०५ वर्ग 3 गाथा। निबन्धनम" ||1 // समापत्तिस्त्रध्यानजस्पर्शना भण्यते, आदिना | तत्तिव्वऽज्झवसाण त्रि०(तत्तीव्राध्यवसान) तस्मिन्नेवाऽऽवश्यके तीव्र तन्नामकर्मबन्धविपाकतद्भावापत्त्युपपत्तिपरिग्रहः।।२२।। द्वा० 22 द्वा०। प्रारम्भकालादारभ्य प्रतिक्षणं प्रहर्षयायि प्रयत्नविशेषलक्षणमध्यवसानं तत्तसुस्सूसा स्त्री०(तत्त्वशुश्रूषा) तत्त्वश्रवणेच्छायाम्, द्वा०२२ द्वा०। / यस्य स तथा। तस्मिन्, ग०२ अधि०। तत्ताणिव्वुडभोइत्त न०(तप्तानिवृत्तभोजित्व) तप्तं च तदनिर्वृत्तं | तत्तो (देशी) तत्परतायाम्, आदेशे च। देखना०५ वर्ग 20 गाथा। चात्रिदण्डोद्धृतं च उदकमिति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते तत्तीइग त्रि०(तार्तीयिक)तृतीयमेव तार्तीयिकम्। स्वार्थे टीकण् प्रत्ययः / तदोजित्वमिति। असचित्तोदकभोजित्वे, ग०२ अधि०। ध०२ अधिक त्रयाणां पूरणे, येन त्रित्वसंख्यापूर्यते तस्मिन्पदार्थे, वाचला तत्ताणुरूवत्त न०(तत्त्वानुरूपत्व) पञ्चदशतमे सत्यवचनातिशेष- तत्तु अव्य०(तत्र)"यत्रतत्रयोस्वस्य डिदेत्थ्वत्तु" ||8/4/404|| इति सम्प्राप्ते, तत्त्वानुभोजित्वं विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता / रा० / तत्रशब्दस्य डित्संज्ञकोऽत्तु इत्यादेशः / प्रा०४ पाद। तस्मिन्नित्यर्थे, वाचा तत्तातत्तवइगरकराल त्रि०(तत्त्वातत्त्वव्यतिकरकराल) तत्त्वं चातत्त्वं च | तत्तुडिल्ल (देशी) सुरते, देवना०५ वर्ग 6 गाथा। तत्त्वातत्त्वे, तयोर्व्यतिकरो व्यतिकीर्णता मिश्रता स्वभावविनिमयः | तत्थ अव्य०(तत्र) तस्मिन् कालाऽऽदौ, तत्र तस्मिन्नित्यर्थे, वाच०। तत्त्वातत्त्वव्यतिकरः, तेन करालो भयङ्करः। तत्त्वेऽतत्त्वाभिनिवेशोऽ- स्था०। अनु०ा प्रश्ना वाक्योपन्यासार्थे, सूत्र०२ श्रु०अ० निर्धारणार्थे तत्त्वे तत्त्वाभिनिवेश इत्येवंरूपेण संजायमानव्यतिकरण भयङ्करे, स्या च। दश०१ अ०। 'तहि शब्दार्थे च / प्रा०१ पाद। तत्तान्भास पुं०(तत्त्वाभ्यास) परमार्थाभ्यासे, षो०१३ विव०। *तध्य न०। तत्र साधुः यत्। सत्ये, वाचा विशेष ज्ञा०ा निरुपचरिते, तत्ताभिणिवेस पुं०(तत्त्वाभिनिवेश) तत्त्वज्ञाने, षो० "गुरुभक्तिः मुख्ये च / विशेष परमाऽस्यां, विधौ प्रयत्नस्तथा धृतिः करणे / तद्ग्रहन्थाऽऽप्तिश्रवणं, स्तब्ध त्रि०ा परमाधार्मिकदेवपरस्परोदीरितदुःखसंपातभयात् त्रासतत्त्वाभिनिवेशपरमफलम्॥१॥" षो०१० विवावस्तुस्वरूपनिर्णया- मुपपन्ने, जी०१ प्रति० स्था| तिशये, पञ्चा०विवा *त्रस्त त्रि०ा भीते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। तत्तायगोलकप्प त्रि०(तप्तायोगोलकल्प) तप्तलोहपिण्डसदृशे, तत्थावाइ(ण) पुं०(तथ्यवादिन्) तच्चावाइ(ण)' शब्दार्थे, आ०क०। "तत्तायगोलकप्पो, पमत्तजीवो निवारियप्पसरो। (281)" श्रा०। तत्थून अव्य०(दृष्ट्वा) "ऋतोऽत्" ।।१।१२६|दृदेत्तदोस्तः। दस्य तत्तालोग पुं०(तत्त्वालोक) परमार्थप्रकाशे, द्वा०२४ द्वा०। तः / "थूनत्थूनौ वः" ||811313 // इति ष्ट्रस्थाने खूनत्थूनतत्ति स्त्री०(तृप्ति) घ्राणी, स्था०१ ठा०। सन्तोषे, आतु०। बुभुक्षा- इत्यादेशौ / विलोक्येत्यर्थे, प्रा०दु०४ पाद।। ऽऽद्युपशमलक्षणायाम्, विशेष तद् त्रि०(तत्) लोकत्रयव्यापिनि, क्विवन्तत्वेन प्रायशो हलन्तत्वादेता*तप्ति स्त्री०। सारायाम्, "गणतत्तिविप्पमुक्का।" गणस्य गच्छस्य या | दृशाः प्राकृतेन प्रयुज्यन्ते। जै०गा।
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________________ तदक्ख 2184 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तद्धियए तदक्ख त्रि०(तदाख्य) तेन अर्थेन आख्या येषां ते तदाख्याः अहिंसके, | उदाहरणदोषे, दश०१ अ०। नि०चू०२०७० *त्वग्दोष त्रिका कुष्ठिनि, औ० श्वेतकुष्ठिनि, पिं०। सचत्वग्दोषो द्वाभ्यां तदज्झवसाण त्रि०(तदध्यवसान) तस्यामेवाध्यवसानं भोगक्रिया प्रकाराभ्यां भवति। तद्यथा--"संदंतमसंदंते, अस्संदिण-सित्तममलप्रयत्नविशेषरूपं यस्य स तस्मिन् / तदध्यवसिते, विपा०१ श्रु०२ पसुत्ती / किमिपूयं रसिगा वा, पस्संदति तस्थिमा जयणा'' ||1|| अ०। अनु०॥ व्य०६उ०। (इयं गाथा 'धगडा' शब्दे एगवगमावसरे व्याख्यास्यते) तदज्झवसिय त्रि०(तदद्ध्यवसित) तस्मिन्नेव विवक्षिते आवश्यके | तद्धिय त्रि०(तद्धित) तस्मै हितं तद्धितमित्यन्वर्थाभिधायका ये प्रत्ययास्ते अध्यवसितं क्रियासंपादनविषयमस्येति तदध्यवसितः। तद्विषय- / तद्धिताः / यथा गोभ्यो हितो गव्यो देश इत्यादि। प्रश्न०२ सम्ब० द्वार। काध्यवसाययुक्ते, ग०२अधिकाअनु०॥ आ०चूला तेभ्यो विग्रहस्थतत्तत्प्रकृतीनां स्वविशिष्टतया प्रयोगेभ्यो हितः / तदट्ठपुं०(तदर्थ) तस्मै अर्थस्तदर्थः। आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०ा तत्प्राप्ती, व्याकरणोक्ते प्रत्ययभेदे, वाचा विपा०१ श्रु०२० तद्धियए न०(तद्धितज) तद्धिताजातं तद्धितजम् / इह तद्धितशब्देन तदट्ठोवउत्त त्रि०(तदर्थोपयुक्त) तस्य (विवक्षितस्य) आवश्य- तद्धितप्राप्तिहेतुभूतोऽर्थो गृह्यते, तत्रायम्, यत्रापि "तुनाए तंतुवाए।" कस्यार्थस्तदर्थः, तस्मिन्नुपयुक्तस्तदर्थोपयुक्तः / अनु०। तत्प्राप्तये तद्धितप्रत्ययो न दृश्यते, तत्रापि तद्धेतुभूतार्थस्य विद्यमानत्वात्तद्धितजं उपयोगवति, विपा०१ श्रु०१अ० गतदभिधेयोपयुक्ते, औ०। सिद्धं भवति / अनु०। भावप्रमाणभेदे, अनु०॥ तदण्णवयण न०(तदन्यवचन) वचनभेदे, स्था०। तस्माद्विवक्षित- से किं तं तद्धियए? तद्धियए अट्ठविहे पण्णत्ते / तं जहाघटाऽऽदेरन्यः पटाऽऽदिः, तस्यवचनं तदन्यवचन, घटापेक्षया पटवच- "कम्मे सिप्पे सिलोए, संजोगें समीवए अ संजूहे। नवत्, नोअवचनमभणननिवृत्तिर्वचनमात्रं डित्थाऽऽदिवदिति / अथव इस्सरिऍ अवचेण य,तद्धितणामं तु अट्ठविहं" ||1|| अथवा स शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थोऽने-नोच्यते इति तद्वचनं, (से किंतंतद्धियए इत्यादि) तद्धिताज्जातं तद्धितजम्। इह तद्धितशब्देन यथार्थनामेत्यर्थः / ज्वलनतफ्नाऽऽदिवत्। तथा तस्माच्छब्दव्युत्पत्ति तद्धितप्राप्तिहेतुभूतोऽर्थो गृह्यते / तत्रायम्, यत्रापि-"तुम्नाए तंतुवाए" निमित्तधर्मविशिष्टादन्यः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थः, उच्यतेऽ तद्धितप्रत्ययो न दृश्यते, तत्रापि तद्धेतुभूतार्थस्य विद्यमानत्वात्तद्धितर्ज नेनेति तदन्यवचनमयथार्थमित्यर्थः / स्था०३ ठा०३उ०। सिद्धं भवति। 'कम्मे गाहा" पाठसिद्धः,नवरं श्लोकः श्लाघा, संयूथो तदप्पियकरण त्रि०(तदर्पितकरण) तस्मिन् भगवत्यर्पितानि ग्रन्थरचना, एते च कर्मशिल्पाऽऽदयोऽस्तिद्धितप्रत्ययस्योप्तित्सोकरणानीन्द्रियाणि शब्दरूपाऽऽदिषु श्रोत्रचक्षुरादीनि यैस्ते तदर्पित निमित्तीभवन्तीत्येतद्भेदात्तद्धितजं नामाष्टविधमुच्यत इति भावः / करणाः / औ०। ग०। तस्मिन्नेवाऽऽवश्यके यथोचितव्यापारनि से किं तं कम्मनामे? कम्मनामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहायोगेनार्पितानि नियुक्तानि येन स तदर्पितकरणः / सम्यग्यथास्था तणहारए, कट्ठहारए, पत्तहारए, दोसिए, सोत्तिए, कप्पासिए, नन्यस्तोपकरणे, ध० तस्यामेवार्पितानि ढौकितानि करणानि भंडवे आलिए, कोलालिए। सेत्तं कम्मनामे। इन्द्रियाणि येन स तथा तस्मिन् / ढोकितेन्द्रिये, ध०२ अधिol तत्र कर्मतद्धितजं (दोसिए, सोत्तिए इत्यादि) दूष्यं पण्यमस्येति तदाभास पुं०(तदाभास) तत्सदृशे, पञ्चा४ विव०। दोषिकः / सूत्रं पण्यमस्येति सौत्रिकः। शेष प्रतीतम्।नवरं भाण्डविचारः तदाहार त्रि०(तदाघार) ते पृथिव्यादय आधारो येषां ते तदाधाराः। कर्मास्येति भाण्डवैचारिकः, कौलालानि मृद्भाण्डानि पण्यमस्येति तत्राऽऽहितेषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। कौलालिकः। अत्र क्वापि "तणहारिए" इत्यादिपाठो दृश्यते / / तत्र *तदाहार पुं०गतानेव पृथिव्यादीन् आहारयन्तीति तदाहारः। तद्भक्षके, कश्चिदाहनन्वत्र तद्धितप्रत्ययो न कश्चिदुपलभ्यते, तथा वक्ष्यमाणेष्वपि प्रश्न०१ आश्र० द्वार। "तुन्नाए तंतुवाए'' इत्यादिषु नायं दृश्यते, तत्किमित्येवंभूतनाम्नामिहोतदुभयहिय त्रि०(तदुभयहित) इहपरलोकहिते, पं०भा० पन्यासः? अत्रोच्यते-अस्मादेव सूत्रोपन्यासात्तृणानि हरति ततो अव्य०(ततस्) तस्मादित्यर्थे , प्रा०१ पाद। वहतीत्यादिकः कश्चिदाद्यव्याकरणदृष्टस्तद्धितोत्पत्ति हेतुभूतोऽर्थो तदो अव्य०(ततस्) "तो दो तसो वा" ||82 / 160 // इति तसः द्रष्टव्यः, ततो यद्यपि साक्षात् तद्धितप्रत्ययो नास्ति, तथाऽपि प्रत्ययस्य वा तो दो इत्यादेशौ / तस्मादित्यर्थे, प्रा०१ पाद। तदुत्पत्तिनिबन्धनभूतमर्थमाश्रित्येह तन्निर्देशो न विरुध्यते / यदि तद्दिअचय (देशी) नृत्ये, देवना०५ वर्ग 8 गाथा। तद्धितोत्पत्तिहेतुरर्थोऽस्ति, तर्हि तद्धितोऽपि कस्मानोत्पद्यत इति चेत? तद्दिअस (देशी) अनुदिवसे, दे०ना०५ वर्ग 8 गाथा। लोके इत्थमेव रूढत्वादिति ब्रूमः / अथवा-अरमादेवाऽऽद्यमुनिप्रणीततद्दिअसिअ (देशी) अनुदिवसे, दे०ना०५वर्ग गाथा। सूत्रज्ञापकादेवं जानीयास्तद्धितप्रत्यय एवामी केचित्प्रतिपत्तव्या इति। तद्दिअह (देशी) अनुदिवसे, देवना० 5 वर्ग 8 गाथा। अथ शिल्पतद्धितनामोच्यतेतद्देस पुं०(तद्देस) तस्य देशस्तद्देशः। उदाहरणदेशे, दश०१ अ०) से कि तं सिप्पणाम? सिप्पणामे अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा वत्थिए, तहोस पुं०(तदोष) तस्योदाहरणस्यैव दोषो यस्मिन् तत्तद्दोषः। तंतिए, तुण्णाए, तंतुवाए, पट्टकारे, उपट्टे वरुडे, मुंजकारे, कटुकारे, छत
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________________ तद्धियए 2185 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तपोरिह कारे, बंभकारे, पोत्थकारे, चित्तकारे, दंतकारे, लेप्पकारे / अरिहंतमाया, चकवट्टिमाया, बलदेवमाया, वासुदेवमाया, सेत्तं सिप्पनामे। रायमाया, मुणिमाया, वायगमाया / सेत्तं अवचनामे / / वस्त्रं शिल्पमस्येति वारित्रकः, तन्त्रीवादनं शिल्पमस्येति तान्त्रिकः। (तित्थयरमाया इत्यादि) तीर्थकरोऽपत्यं यस्याः सा तीर्थकरमाता। "तुन्नाए तंतुवाए'' इत्यादि प्रतीतम् / आक्षेपपरिहारौ तूक्तावेव / यदिह एवमन्यत्रापि सुप्रसिद्धनाऽप्रसिद्ध विशिष्यते। अतः तीर्थकराऽऽदिभिपूर्वं चक्रभिवाचनाविशेषे प्रतीतं नाम दृश्यते, तद्देशान्तररूढितोऽवसेयम्। तिरो विशेषिताः। तद्धितनामत्वभावना तथैव / गतं तद्धितनाम। अनु०। अथ श्लाघातद्धितनामोच्यते-- तद्धियय न०(तद्धितज) तद्धियए' इतिशब्दार्थे , अनु०॥ से किं तं सिलोअणाम? सिलोअणामे अणेगविडे पण्णत्ते। तं तथून अव्य०(दृष्ट्वा) "ढूनत्थनौ ट्वः" ||8|313 / / इति ष्ट्वास्थाजहा-समणे, माहणे, सव्वातिही। सेत्तं सिलोगणामे। नेथून इत्यादेशः। "ऋतोऽत्"||१।१२६ा ऋदतो दोस्तः दस्यतः। (समणे इत्यादि) श्रमणाऽऽदीनि नामानि श्लाध्याऽर्थेषु सावादिषु प्रा०४ पाद / विलोक्येत्यर्थे, वाच०। रूढान्यतोऽस्मादेव सूत्रनिबन्धात् श्लाध्यार्थास्तद्धिताः, तदुत्पत्ति- तपागच्छ पुं०(तपागच्छ) घोरतपःकारित्वेन तपाविरुदप्राप्तागचन्द्रसूरेः हेतुभूतमर्थमात्रं वाऽत्रापि प्रतिपत्तव्यम्। प्रतिष्ठिते गच्छे, तपा इतिशब्दस्तप्तार्थको देशीप्रसिद्धः। यथा तत्काले संयोगतद्धितनाम विरुदतया प्राप्तस्तथैव सर्वैरेव विद्वाद्भिर्व्यवहियते / केचित्तु 'तपोगच्छ' से किं तं संजोगनामे? संजोगनामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं | इति शुद्धसस्कृतमपि व्यवहरन्ति / जै०इ०। जहा-रण्णो ससुरए,रपणो जमाउए,रण्णो साले, रण्णो दूते, | तपोरिह न०(तपोऽर्ह) प्रायश्चित्तभेदे, जीता रण्णो भगिणीवई। सेत्तं संजोगनामे। साम्प्रतं भावाऽऽदिविषयं तपोऽहं प्रायश्चित्तमाहराज्ञः श्वशुर इत्यादि। अत्र संबन्धरूपः संयोगो गम्यते। अत्रापि चारमादेव हट्ठगिलाणा भावम्मि दिज हट्ठस्स न उ गिलाणस्स। ज्ञापकात्तद्धितनामता, चित्रं च पूर्वगतं शब्दप्रामृत अप्रत्यक्षं च, अतः जावइयं वा विसहइ, तं दिज सहिज्ज वा कालं // 68|| कथमिह भावनास्वरूपमस्मादृशैः सम्यगवगम्यते। भावे भावतः, कश्चिदालोचनाग्राही हृष्टो नीरोगः समर्थः / कश्चिद् ग्लानो समीपतद्धितनाम रोगी शक्तिविकल इत्येतद्विचार्य (दिज हट्टस्स न उ गिलाणस्स) से किं तं समीवणामे? समीवणामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा- तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् हृष्टस्य जीतोक्तादधिकमपि दद्यात् , ग्लानस्य गिरिसमीवे णगरं गिरिणगर, विदिसिसमीवे णगरं विदिसिणगरं, तुन दद्यात्, जीतोक्तादूनं वा दद्यात्।यावन्मात्रं वा विषहते कर्तुं शक्नोति, वेनायसमीवे णगरं वेनायणगरं, णगरायसमीवे नगरं गगराय- तत्प्रायश्चित्त तावन्मानं दद्यात्, कालं वा सहेतयावता प्रगुणो भवति णगरं / सेत्तं समीवणामे। तावत्प्रतीक्ष्य रोगनिवृत्तौ समर्थस्य दद्यादित्यर्थः, उक्तो भावः।।६८|| गिरिसमीपे नगरं गिरिनगरम् / अत्र "अदूरभवश्व'' ||4 / 2 / 7 / / संप्रति सप्रपञ्च पुरुषद्वारमाह-- (पाणि) इति अण् न भवति, गिरिनगरमित्येव प्रतीतत्वात, विदिशाया पुरिसा गीयाऽगीया, सहाऽसहा तह सढाऽसढा केइ। अदूरभयं नगरं वैदिशम् / अत्र तु "अदूरभवश्व" / / 4 / 2 / / 70 / इति परिणामाऽपरिणामा, अइपरिणामाइवत्थूणं // 66 // (पाणि०) अण भवत्येव, इत्थं रूढत्वादिति। इहाऽऽलोचनाग्राहिणः पुरुषाः किंस्वरूपाः? इति प्रथममेवाऽsसंयूथतद्धितनाम चार्यर्विचार्याः, ततस्तदपेक्षया प्रायश्चित्तं दातव्यम्, ते च बहुप्रकाराः। से किं तं संजूहनाम? संजूहनामे अणेगविहे पण्णत्ते।तं जहा- तद्यथा--गीतार्था अधिगताऽऽचारप्रकल्पाऽऽदिनिशीथान्तश्रुताः। तदितरे तरंगवइक्कारे, मलयवइक्कारे, अत्ताणसट्ठिकारे, बिंदुकारे। सेत्तं त्वगीता अगीतार्थाः / सहाः सर्वप्रकारैः समर्थाः, असहा असमर्थाः / संजूहनामे। तथा केचित्-शठा मायाविनः, अशठाः सरलाऽऽत्मानः, परिणामका (तरंगवइक्कारे इत्यादि) तद्धितनामता चेहोत्तरत्र च पूर्ववद्भावनीया। अपरिणामका अतिपरिणामकाच वस्तुषूत्सर्गापवादरूपेषु विषये। एते च ऐश्वर्यतद्धितनाम परिणामकाऽऽदयस्त्रयोऽपि पूर्वमदूरे "छेयाइमसद्दहओ।" इति गाथाया से किं तं ईसरिअनामे? ईसरिअनामे अणेगविहे पण्णत्ते / तं विवरणे व्याख्याताः, अतो नात्र पुनः प्रतन्यन्त इति / / 66 / / जहा-ईसरे, तलवरे, मडंबिए, कोथुविए, इन्भे, सेट्ठी, सत्थ- तह धिइसंघयणोभय-संपन्ना तदुभएण हीणा य। वाहे, सेणावई। सेत्तं ईसरिअनामे। आयपरोभयनोभय-तरगा तह अण्णतरगा य / / 70|| (राईसरे इत्यादि) इह राजाऽऽदिशब्दनिबन्धनमैश्वर्यमेव गन्तव्यं, तथा धृतिसंहननोभयसंपन्नाः, तदुभयेन हीनाश्च / इह भङ्ग चतुराजेश्वराऽऽदिशब्दार्थस्त्विहैव पूर्व व्याख्यात एव / ष्टयं संभवति-तत्र धृत्या संपन्ना इत्येकः। संहननेन संपन्ना इति अपत्यतद्धितनाम द्वितीयः। उभयेन धृतिसंहननाऽऽख्येन संपन्ना इति तृतीयः। से किं तं अवचनामे? अवचनामे अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा- तदुभयेन हीनाश्चेति चतुर्थः / तथा-आत्मपरोभयानुभयतरका
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________________ तपोरिह 2156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तपोरिह इति। अत्रापि चतुर्भङ्गाः- आत्मानुग्राहकं तपः, परोपष्टम्भकारे वैयावृत्य, तयोर्द्वयोरपि समर्थाः, परं ये तप एव कुर्वन्ति, न वैयावृत्यं, तेआत्मतरकाः, (स्वार्थेऽत्र कः प्रत्ययः) न परतरका इत्याद्यो भङ्गः।येतु वैयावृत्यमेव कुर्वन्ति, नतपः ते अन्यतरकाः, नात्मतरका इति द्वितीयः। ये तूभयमपि कुर्वन्ति, तेतु उभयतर-का इति तृतीयाऽपिये पुनरुभयं तु कुर्वन्ति ते नोभयतरका इति चतुर्थः। तथा (अण्णतरगति) अन्यतरकाःये तपोवैयावृत्ययोरन्यतरदेकमेव कर्तुं शक्नुवन्ति, नोभयकरणक्षमा इत्यर्थः // 7 // कप्पट्ठियादओ विय, चउरो जे चेयरा समक्खाया। सावेक्खेयरभेया-दओ य जे ताण पुरिसाण / / 71|| कल्पः सततासेवनीयः समाचारः। सचायं दशधा"आचेलुक्कोट्टेसिय-सिज्जायररायपिंडकिइकम्मे। वयजेट्टपडिक्कमणे, मासे पजोसवणकप्पो'" // 6 // (पञ्चा० 17 विव०) अस्या व्याख्या-न विद्यते चेलं वस्वं यस्याऽसावचेलकः, तस्य भाव आचेलक्यं, सचेलत्वे चायमचेलकव्यपदेशः। तथा चान्यत्रापि दृश्यते"जह जलमवगाहंतो, बहुचेलो वि सिरवेट्ठियकडिल्लो। भन्नइ नरो अचेलो, तह मुणओ संतचेला वि।।२६००।। तह थोवजुन्नकुच्छिय-चेलेहि वि भन्नए अचेलु त्ति। जह तुर सेलिय ! अप्पय, मे पोत्तिं नग्गिया वत्तो // 2601 / / (विशे०) उद्देशेन साधुसंकल्पेन वृत्तमौदेशिकम् आधाकर्म, शय्यया वसत्या तरति भवाम्भोधिमिति शय्यातरः, राजा नृप, तयोः पिण्डो भक्ताऽऽदिरूपः-शय्यातरपिण्डो, राजपिण्डश्चं / इहौदेशिकाऽऽदीनां त्रयाणामपि परिहारोऽवसेयः। कृतिकर्म ज्येष्टानुक्रमेण वन्दनकदानम्, व्रतानि पञ्च महाव्रतानि, ज्येष्ठः-वर्षशतदीक्षिताया अपि सध्य्या अद्यतनदीक्षितोऽपि साधुगरीयान्। प्रतिक्रमणं प्रतीतम्, मासः मासकल्पः, परि सर्वथाऽवसानमेकत्र निवासो निरुक्तिवशात्पर्दूषणा, इति। एतस्मिन् दशविधे कल्पे स्थिताः कल्पस्थिताः प्रथमचरमजिनसाधवः, ते आदावयवभूता येषां ते कल्पस्थिताऽऽदयः / कल्पस्थिताऽऽदयः-'कल्पस्थितपरिणतकृतयोगितरमाणाख्याः।' तत्र कल्पस्थिताः कथिताएव, परिणताः परिणतं परिपाकमापन्नं जीवेन सह प्राप्तैकीभावं चारित्रं येषां ते, कृतयोगिनः चतुर्थषष्ठाष्टमाऽऽदितपोभिःपरिकर्मितशरीराः "तरमाण ति"। "शकेश्वय-तर-तीरपाराः" / / 8/486|| इत्यनेन प्राकृतलक्षणसूत्रेण शक्धातोः तराऽऽदेशे कृते शक्नुयानाः, शक्तिसुलभां कुर्वाणा इत्यर्थः / ये एते चत्वारः सप्रतिपक्षाः समाख्याताः कथिताः कल्पस्थितादिभ्य इतरे-अकल्पस्थितापरिणताकृतयोग्यतरमाणाऽऽख्याः, अकल्पस्थिता मध्यमद्वाविंशतिजिनसाधवो, महाविदेहजाश्च, एते हि दशावेधस्थितकल्पमध्यात् शय्यातर पिण्डादानचतुर्यामपुरुषज्येष्ठत्वकृतिकर्मकरणाऽऽख्येषु चतुर्यु स्थिताः, शेषेसुषट्सुपुनरस्थिताः। ते ह्येतनि षट् स्थानानि गुणानुलोम्यमालोच्य कदाचित्कानिचित् कुर्वन्ति वा, नवेति / अपरिणताऽऽदयस्तु परिणताऽऽदिविपरीताः (सावेक्खेयरभेयादओ य जे इति) जे इतिपादपूरणे / कल्पस्थिताःकल्पस्थिताऽऽदयोऽष्टायपि द्विविधाः-सापेक्षा गच्छवासिनो, निरपेक्षा जिनकल्पिकाऽऽदयः। (ताण पुरिसाणं) इत्यग्रेतनगाथायां सम्बध्यते। __ सा चेयं गाथाजो जह सत्तो बहुतर-गुणो व तस्साहियं पि दिजाहि। हीणस्स हीणतरगं, हासिज्ज व सय्वहीणस्स // 72 // तेषां पुरुषाणां कल्पस्थिताऽऽदीनां सापेक्षनिरपेक्षभेदानां प्राग्गाथाद्वयोक्तगीतार्थाऽऽदीनां च मध्याद् यो यथा शक्तः तपः कर्तुं क्षमः, बहुतरगुणो वा धृतिसंहननसंपन्नः परिणतः कृतयोगी आत्मपरतरो वा भवेत्, तस्याधिकमपि जीतोक्तादतिरिक्तमपि दद्यात् / हीनस्य धृतिसंहननाऽऽदिरहितस्य हीनतरं जीतोक्तादल्पतरं दद्यात्, सर्वहीनस्य सामस्त्येनाक्षमस्य, सर्वमपि तपः क्षपणात् हासयेत्, न किमपि तस्य दद्यात्, मिथ्यादुष्कृतेनैव तस्य शुद्धिरादेश्येत्यर्थः। पुनः पुरुषविशेषानेवाऽऽहइत्थं पुण बहुतरगा, भिक्खु त्ति अकयकरणाऽणभिगया य। जं-तेण जीयमट्ठम-भत्तं तं निव्विगाईयं // 73|| अत्र पुनर्बहुतरा बहुभेदाः, आचार्यो पाध्यायकृतकरणगीतार्थस्थिराऽऽद्याः भिक्षवः साधव इति, अकृतकरणास्तपोभिरपरि-- कर्मितशरीराः, अनभिगताश्चाऽगीतार्थाः / चशब्दादस्थिराः / एतेषां च सर्वेषां यथाऽहं सक्ष्मबादरातिचाराऽऽदिना यजीत जीतदानवनिर्विकृत्याद्यष्टमभक्तान्तं, ज्ञेयमिति शेषः। यद्वा-यन्त्रेणैतद्ज्ञेयमित्यर्थः / इदं चात्र गाथान्ते यन्त्रकस्य पञ्चम्या दीर्घपङ्क्तेः पश्चिमानुपूा तपो गृहीतम्, एतदीयश्च तपो विशेषः सर्वोऽपि यन्त्रकेण स्पष्टीभवति / ततस्तस्यायं लेखनविधिः कथ्यते-इह दीर्घेण पडितरचनायां त्रयोदश गृहाणि स्थाप्यन्ते। पुथुत्वेन वाच्यपङ्क्तौ पञ्चदशगृहाणि / द्वितीयतृतीयपङ्क्त्योश्चतुर्दश, चतुर्थपञ्चमपङ्क्त्योस्त्रयोदश, षष्ठसप्तमपक्त्यो दश, अष्टमनवमपङ्क्त्योरेकादश / दशमैकादशपङ् कयोर्दश, द्वादशत्रयोदशपङ्क्तयोर्नवगृ-हाणीति। अत्र चाऽऽद्यायाः पृथुपक्तरुपरि निरपेक्षः स्थाप्यते, द्वितीयाया आचार्यः कृतकरणः,तृतीयाया आचार्योऽकृतकरणः, चतुर्थ्या उपाध्यायः कृतकरणः, पञ्चम्या उपाध्यायोऽकृतकरणः, षष्ट्या गीतार्थः स्थिरः कृतकरणो भिक्षुः, सप्तम्या गीतार्थः स्थिरोऽकृतकरणो भिक्षुः, अष्टम्या गीतार्थोऽस्थिरः कृतकरणो भिक्षुः, नवम्या गीतार्थोऽस्थिरोऽकृतकरणो भिक्षुः, दशम्या अगीतार्थः स्थिरः कृतकरणः, एकादश्या अगीतार्थः स्थिरोऽकृतकरणः, द्वादश्या अगीतार्थोऽस्थिरः कृतकरणः, त्रयोदश्या उपरि अगीतार्थोऽस्थिरोऽकृतकरणो भिक्षुरिति स्थापयित्वा पृथुत्वेन प्रथमायां पङ्क्तौ निरपेक्षस्याधो गृहद्वये शून्यं स्थाप्यम्, यतस्तयोः पाराशिकानवस्थाप्येन भवतः। तेच जिनकल्पिकस्य न सम्भवतः, तस्य हि स्वभावेन निरपेक्षत्वात्। अथतयोः शून्योरधस्त्रयोदशसु गृहेषु मूलच्छेदषड्गुरुषट् लघुचतुर्गुरुचतुर्लघुमासगुरुमासलघुभिन्नमासर्विशतिकपञ्चदशकदशकपञ्चकानि स्थाप्यन्ते, द्वितीयायां पङ्क्तौ पाराञ्चिकाऽऽदीनि दशकान्तानि, तृतीयायामनवस्थाप्याऽऽदीनि पञ्चकान्तानि, चतुामनवस्थाप्याऽऽदीनि दशकान्तानि, अष्टम्यां छेदाऽऽदीनि दशकान्तानि, नवम्यां षड् गुर्वादीनि पञ्चकान्तानि, दशम्यां षड्गुर्वादीनि दशकान्तानि, एकादश्यां षड् लघ्वादीनि पञ्चकान्तानि, द्वादश्यां षड् लघ्वादीनि दशकान्तानि, त्रयोदश्यां चतुर्गुादीनि पञ्चकान्तानि स्थाप्यन्ते।
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________________ // एतेन पुरुषविभागेन श्रुतव्यवहारतो जीतकल्पयन्त्रम् / " इत्थं पुण'' (73) गाथा / / तपोरिह / 10 11 | 12 | 13 निरपेक्षः। आचार्यः कृतकरण आचार्यो 5- उपाध्यायः / उपाध्यायोकृतकरणः | कृतकरणः कृतकरण: गीतार्थः / गीतार्थः | गीतार्थो 5 | गीतार्थों- अगीतार्थः | अगीतार्थः | अगीतार्थो | अगीतार्थों स्थिरः स्थिरोऽकृ- | स्थिर:कृ- | स्थिरोऽकृ- | स्थिरः कृ- स्थिरोऽक- | ऽस्थिरः | ऽस्थिरोकृतकरणो तकरणो / तकरणो | तकरणो | तकरणो / तकरणो | कृतकरणो |ऽकृतकरणो भिक्षुः / भिक्षुः | भिक्षुः / भिक्षुः / भिक्षुः | भिक्षुः | भिक्षुः | भिक्षुः 1 0 पाराश्चिक अनवस्थाप्य | अनवस्थाप्य, 2 | 0 / अनवस्थाप्य | मूल / मूल | 3 | मूल 2157 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 15 2015 10 10 * 11 25 10 10 / 5 12 20 | 10 13, 15 10 10 तपोरिह
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________________ तपोरिह 2188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तप्पडिबद्ध अत्रैवं भावना-यत्राऽपराधे कृतकरणाऽऽचार्यस्य पाराचिके, तत्रैवा- तत्तत्र स्वस्थानं, तदेवाऽऽकुट्टिकाप्रतिसेविनो दद्यादित्यर्थः / / कल्पेन पराध अकृतकरणाऽऽचार्याऽऽदीनां दीर्घपङ्क्तिक्रमेणानवस्थाप्या- कल्पप्रतिसेवनया प्रतिसेवितो प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चित्तम् / ऽऽदीनि प्रायश्चित्तानि भवन्ति। तथा यत्रापराधे कृतकरणाऽऽचार्यस्या- अथवा तदुभयं आलोचनामिथ्यादुष्कृतोभयरूपं प्रायश्चित्तं विनिर्दिष्टम् / ऽनवस्थाप्य, तत्रैवाऽपराधे शेषाणां तथैव क्रमेण प्रायश्चित्तानीत्येवं इदं चोक्तस्वरूप प्रायश्चित्तं परिणामानुरूपेणैव दद्यादित्याहसर्वदीर्घपक्तिषु भावना कार्या। उक्त सप्रपञ्च पुरुषद्वारम्। आलोयणकालम्मि वि, संकेसविसोहिभावओ नाउं। सम्प्रति सेवनामाह हीणं वा अहियं वा, तम्मेत्तं वा वि दिजाहि ||77 // आउट्टियाइ दप्पप्पमायकप्पेहिँ वा निसेविज्जा। आलोचनाकालेऽपि कमप्यपराधविशेष यः सर्वथा न प्रकाशयति दव्वं खित्तं कालं, भावं चाऽऽसेवए पुरिसो।।७४।। कथयति, कथयन्नप्यर्द्ध कथितं वा करोति, स संक्लिष्टपरिणाम इति आकुट्टिकया-उपेत्य सावधकरणोत्साहाऽऽत्मिकया, दर्पप्रमाद- ज्ञात्वा तस्याधिकमपि दद्यात्, यः पुनः संवेगमुपगतो निन्दाकल्पैर्वा,दो धावनडेपनवल्गनाऽऽदिकः हास्यजनकवचनाऽऽदिर्वा गर्हाऽऽदिभिर्विशुद्धपरिणामः, तस्य हीनमपि दद्यात्, यः पुनर्मध्यस्थदर्परूपो वा प्रमादोरात्रौ चाप्रतिलेखनाप्रमार्जनाऽऽद्यनुपयुक्तता, कल्पः परिणामः, तस्य तन्मात्रमेव दद्यात्। करणे दर्शनाऽऽदिचतुर्विशतिरूपे सति गीतार्थस्य कृतयोगिन उपयुक्तस्य उक्तमेवार्थद्रढयन्नाहयतनयाऽऽधाकर्माऽऽधानरूपः, तैरतैश्चतुर्भिःप्रतिसेवनारूपैरासेवकः इय दव्वाई बहुए, गुरुसेवाए य बहुतरं दिज्जा। पुरुषो निषेवेत प्रतिसेवेत, द्रव्यमाहारादिकं किञ्चिदशुद्धमायाददीत, क्षेत्र हीणतरे हीणतरं, हीणतरे वा वि झोसु त्ति / / 78|| छिन्नमडम्बाऽऽदिक स्तोकलोकाऽऽश्रय सार्द्धयोजनद्वयं यावदविद्यमा- इत्यमुना प्रकारेण द्रव्याऽऽदौ द्रव्यक्षेत्रकालभायाऽऽख्ये प्रतिसेविते नवसतिप्रदेशं यत्र सम्पूर्णा भिक्षा न लभ्यते, कालो दुर्भिक्षाऽऽदिर्यत्र बहुगुणिते प्रधुरदोषवक्ष्येन सर्वथा वा विपरीतलक्षणया वा बहुदोषे सर्वथाऽन्नाऽऽदिन प्राप्यते, तं प्रतिसेवेत / अयमाशयः-साधुना महति गुरुसेवायां गुरुतरायां प्रतिसेवायां कृतायां बहुतरं प्रायश्चित्तं दद्यात्। क्षेत्रे काले च गत्वा स्थेयम्, आकुट्टिकाऽऽदिभिर्हि सर्व छिन्नमडम्बाऽऽदिक हीनतरेऽल्पदोषे द्रव्याऽऽदिके प्रतिसेविते हीनतरमल्पतरं वा प्रायश्चित्तं क्षेत्र दुष्कालं च प्रतिसेवमानः संयमाऽऽत्मविराधने प्राप्नुयात्। भावं च दद्यात्। ततोऽपि हीनतरे हीनतराद् हीनतरं यावत् सर्वहीने इत्यल्पदोषे हष्ग्लानत्वाऽऽदिक प्रतिसेवेत, आकुट्टिकाऽऽदिभिरहितान्नौषधाऽऽदिकं द्रव्याऽऽदी अत्यल्पीयस्या सेवायाम्। (झोसु त्ति) क्षेपणात हासः कार्यः, भुक्त्वा ग्लानत्वाऽऽदिकं भावमुत्पादयेदित्यर्थः / उक्ताः स्वरूपतः सर्वस्तोक तपो देय-मित्यर्थः। प्रतिसेवनाः। कुत्राऽपि च सर्वथाऽपि हासः क्रियते, इति प्रतिपादतासा प्रायश्चित्तमाह यन्नाहजंजीयदाणमुत्तं, एयं सव्वं पमायसहियस्स। झोसिजइ सुबहुं पिहु, जीएणंऽन्नं तवारिहं बहओ। इत्तु चिय ठाणंतरमेगं वड्डित्तु दप्पवओ॥७॥ वेयावच्चगरस्स उ, दिज्जइ साणुग्गहतरं वा ||7 यजीतदान जीतव्यवहारे तपोदानमुक्तम्, एतत्सर्व प्रायः प्रमाद- इह जीतेनाऽऽद्यक गुरुभिर्वितीर्ण षण्मासाऽऽदिक तपो बहतः सहितस्य, प्रमादप्रतिसेवना प्राग्गाथाविवरणव्याख्यातद्रव्या- पक्षकेष्वपि दिवसेषु गतेष्वन्यचातुर्मासिकं पाण्मासिक वा तपोर्ह च sऽदिसेवना भणिता। इत एव प्रमादप्रतिसेवकप्रायश्चित्तादेकं स्था- समापन्न, ततस्तत् क्षिप्यते सुबहुकमपि हास्यते, सर्वथाऽपि तत्तस्य न नान्तरं वर्द्धयद् दर्पवतः / अयमर्थः-प्रमादप्रतिसेवनया भिन्नमास- दीयते इत्यर्थः / वैयावृत्यकरस्य च सानुग्रहतरं वा दीयते / कोऽर्थःलघुमासगुरुमासचतुर्लघुचतुर्गुरुषट्लघुषट्गुरूणामापत्तौ निर्विकृ- यावन्मानंतपस्तप्यमानः सवैयावृत्यं कर्तुं शक्नोति, तस्य तावन्मात्रमेव तिक पुरिमा कासनाऽऽचामाम्ल चतुर्थषष्ठाऽऽख्यं तपो दीयते, तपो दीयते, नाधिकम्। एष सप्रपञ्चस्तपोऽर्हप्रायश्चित्तविधिः / जीतः। दर्पप्रतिसेवाकारिणस्तु भिन्नमासाऽऽदीनामापत्तौ सत्यां स्थानान्तरवृद्धिः / तप्प पुं०(तप्र) नदीप्रवाहेण प्लाव्यमाने दूरादानीयमाने, काष्ठसमुदाये, कार्या, निर्विकृतिकं मुक्त्वा पुरिमार्द्धाऽऽदीनि दशमान्तानि तपांसि आ०म०१ अ०१खण्ड। प्रज्ञा०उडुपके, भ०११श०१० उ०। विशे०। देयानीति॥ नं०। आ००। आउट्टियाइ ठाण-तरं व सट्ठाणमेव वा दिजा। तप्पक्खिय त्रि०(तत्पाक्षिक) तेषां विवक्षितानां संविग्नानां पक्षकप्पेण पडिक्कमणं, तदुभयमहवा विणिहिट्ठ 76|| स्तत्पक्षः, तत्र भवस्तत्पाक्षिकः / व्य०१ उ०। तस्य प्रयोजनेषु सहाये, आकुट्टिकाप्रतिसेवायां साधोः स्थानान्तरं वा दद्यात, दर्पप्रति भ०३ श०७ उ०1 सेवाकारिणः सकाशात् स्थानवृद्ध्यादिकतपःस्थानं वितरेत. दाराविनो | तप्पज न०(तात्पर्य) तत्परस्य भावः, ष्यञ्। वकुरिच्छायाम्, अभिप्राये, हि भिन्नमासाऽऽद्यापत्तौ पुरिमार्दाऽऽदीनि दशमान्तानि दीयन्ते। अस्य तत्परतायां च / आचा०१ श्रु० ३अ०१ उ०। त्वेकासनाऽऽदीनि द्वादशान्तानि देयानि / स्वस्थानमेव वा दद्यात् / तप्पहिवक्ख पुं०(तत्प्रतिपक्ष) तद्विरुद्ध, यथा-परिणतप्रतिपक्षा इहाऽऽपत्तिरूप प्रायश्चित्तं स्वस्थानमुच्यते, यथाऽऽकुट्टिकया पञ्चेन्द्रियवधे ___ अपरिणताः नि०चू० 130 मूलम्, अन्यत्रापि चाऽऽकुट्टिकया यत्रापराधे यद्भिन्नमासाऽऽदिकभुक्त, | तप्पडिबद्ध त्रि०(तत्प्रतिबद्ध) तदभाविनि, षो०१ विव०
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________________ तप्पडिरूवगववहार 2186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तमतमप्पभा तप्पडिरूवगववहार पुं०(तत्प्रतिरूपकव्यवहार) तेन प्रतिरूपकं सदृशं तथा सुरगणांश्च सुरनिकायान्। किमुक्तं भवति? चतुर्निकायवर्तिनोऽपि तत्प्रतिरूपकं, तस्य विविधमवहरण व्यवहारः प्रक्षेपः तत्प्रतिरूपकव्य- देवान, निरयो नरकः ,तस्मिन् भवा नैरयिकाः / इहाऽपि चशब्दानुवृत्तेवहारो यद्यत्र घटते ब्रीहिघृताऽऽदिषु पलजीवशाऽऽदेः प्रक्षेपे, तत्प्रति- स्ताश्च, मुक्त्वेति संबन्धः। तेषां देवानां च तद्भवानन्तरं तिर्यङ्मनुष्येरूपेण वशाऽऽदिना व्यवहरणे तत्प्रतिरूपकव्यवहारः / स्थूलादत्ताऽऽ- ब्वेवोत्पत्तेः / शेषाणामेतदुद्वरितानां कर्मभूमिजनरतिरश्चा, जीवानां दानविरतेश्चतुर्थेऽतिचारे, श्रा०। पञ्चा०। ध01 आव०। त्राणिनां तद्भवमरणं, तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेस्तद्धि यस्मिन् भवे वर्तते तप्पढमया स्त्री०(तत्प्रथमता) तेषां विवक्षितानाम् (भ०६श०३३ उ०) / जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवाऽऽर्युबद्धा पुनस्तत्क्षयेण म्रियमाणस्य भवति, अणुव्रताऽऽदीना प्रथम तत्प्रथम, तद्भावस्तत्प्रथमता। तस्याम्, उत्त०१ तुशब्दस्तेषामपि संख्येयवर्षाऽऽयुषामेवेति विशेषव्यापकः, असंख्येयअ०। प्रथमे कल्पे, कल्प०२क्षण। वर्षाऽऽयुषां हि युगलधार्मिकत्वादकर्मभूमिजानामिव देवेष्वेव उत्पादः, तप्पणन०(तर्पण) उपकरणे,स०३० सम०। शक्ती, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार / तेषामपि न सर्वेषां, किं तु केषाञ्चिद् तद्भवोत्पादानुरूपमेवाऽऽयुः स्नेहाऽऽदौ शरीरबृंहणे, विपा०१ श्रु०१ अगस्नेहद्रव्यविशेषैर्वृहणे, ज्ञा०१ कर्मापचिन्वतामिति गाथार्थः / श्रु०१३ अ०। मोत्तूण ओहिमरणं,आवी वीआइअं तु तं चेव। तप्पणालोडिय न०(तर्पणाऽऽलोडित) सक्त्वालोडने, जलाऽऽ- सेसा मरणा सव्वे,तब्भवमरणे य णायव्वे ||16|| द्यालोडितसक्ती, स्था० 4 ठा०३उ०) अत्रान्तरे प्रत्यन्तरेषु (मोत्तूण ओहिमरणं) इत्यादि गाथा दृश्यते, न तप्पमाण त्रि०(तर्पमाण) क्षरति, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१3०। सका चास्या भावार्थः सम्यगवबुध्यते, नापि चूर्णीकृताऽसौ व्याख्याता। तप्पर त्रि०(तत्पर) तद्रूपतया वर्तमानेऽन्यस्मिन्, यथा परमाणोरपरः / उत्त०पाई०५ अ० परमाणुः / आचा०२ श्रु०२ चू०६अ०। आसक्ते, आचा०१ श्रु०१ | तब्भारिय त्रि०(तद्भार्य) तस्य सोमस्य भार्या इव भार्या अत्यन्त वश्यत्वात्पोषणीयत्वाचेति तद्भार्यः / दासे, भ०३श०७उ०। तप्पागारसंठिय त्रि०(तप्राकारसंस्थित) अधोमुखसरावाऽऽकार- | तद्वारिक त्रि०ा तद्धारो येषां वोढव्यतयाऽस्तितेतद्वारिकाः।दासे, भ०३ संस्थिते, भ०११ श०१० उ०। आ०चू०। | 200 / तप्पुरक्खार पुं०(तत्पुरस्कार) तस्याऽऽचार्यस्य पुरस्करणं पुरस्कारः। / तब्भावणाभाविय त्रि०(तद्भावनाभावित) तस्याऽऽवश्यकस्य भावना सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापने, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०ा तमाचार्य सर्वकार्येषु अव्यवच्छिन्नपूर्वपूर्वतरसंस्कारस्य तदनुष्ठानरूपतया भावितः पुरस्करोतीति तत्पुरस्कारः / आचार्यानुमत्या क्रियाऽनुष्ठायिनि, त्रि०। उदाढभावेन परिणताऽऽवश्यकानुष्ठानपरिणामे, अनु०। विपा०। ग०। आचा०१ श्रु०५ अ०६उ० तब्भूम त्रि०(तद्भौम) तस्यामेव भूमौ भवस्तगौमः / तद्भूमिवास्ततप्पुरिस पुं०(तत्पुरुष) द्वितीयाऽऽदिविभक्त्यन्तपदानां स्वनामख्याते __ व्यलोकपरिचिते,बृ०१उ०) समासे, यथा तीर्थे काक इवाऽऽस्ते तीर्थकाकः / "ध्वाक्षेणाऽऽक्षेपे तम पुं०(तमस्) तमयति खेदयति जनलोचनानीति तमः। औणाऽऽ॥२।१।४२।। इति (पाणि०) सप्तमीतत्पुरुषः / अनु०॥ दिकोऽसुन्। उत्त०१०॥"स्नमदामशिरोऽनमः" ||1 / 32 / / इति से किं तं तत्पुरिसे? तप्पुरिसे अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा- प्राकृते पुस्त्वम् / प्रा०१ पाद / अन्धकारे, औ०। आचा०। तित्थे कागो तित्थकागो, वणे हत्थी वणहत्थी, वणे वराहो कृष्णचतुर्दश्यां रजन्यां वा तेजोद्रव्याभावे, बृ०१ उ०। नि०चू०। मोहे, वणवराहो, वणे महिसो वणमहिसो, वणे मयूरो वणमयूरो। सेत्तं औ०। अज्ञाने, ध०२अधिo! स्था०ा मिथ्याज्ञाने, स्था०४ ठा०२उ०। तप्पुरिसे।। बद्धस्पृष्टनिधत्ते ज्ञानाऽऽवरणीये निकाचिते,आव०५ अ० अप्कायतीर्थे काक इवाऽऽस्ते तीर्थकाकः। "ध्वासेणाऽऽक्षेपे" / / 2 / 1 / 42 / / परिणामस्वरूपेऽन्धकारे, स्था०४ ठा०२० तमिस्र, स०। आत्मनो इति (पाणि०) सप्तमीतत्पुरुषः। शेष स्पष्टम्। अनु०॥ वैरपीडाऽऽदौ; प्रव०७२ द्वार। द्रव्याभावरूपान्धकारे,षो० 15 विव०॥ तब्भत्तिय त्रि०(तद्भक्तिक) तत्र भक्तिः सेवा बहुमानो वा येषां ते सम्म०। शोके, देखना०५ वर्ग 1 गाथा। तद्भक्तिकाः / तत्सेवके, भ०५ श०७उ०॥ तमण (देशी) धुल्लौ. देवना०५ वर्ग 2 गाथा। तब्भवमरण न०(तद्गवमरण) तस्मै भवाय मनुष्याऽऽदेः सतो मनु- तमतम पुं०(तमस्तम)तमस्तमा सप्तमनरकपृथ्वी, तस्यामुत्पन्नां नारका ष्याऽऽदावेव बद्धाऽऽयुषो यन्मरणं तत्तद्भवमरणम्। इदं च नरतिरश्चामेव __ अपितमस्तमाः, उपचारात्।यद्वा-तमस्तमा विद्यते येषां ते तमस्तमाः / भवति / बालमरणभेदे, भ०२१ श०१ उ०। स०। स्था०। प्रव०॥ "अभाऽऽदिभ्यः" // 7 / 2 / 46aa इत्यप्रत्ययः। सप्तमनरकपृथिवीनारकेषु, तत्स्वरूपम् कर्म०५ कर्म मोत्तुं अकम्मभूमगणरतिरिए सुरगणे य णेरइए। तमतमग पुं०(तमस्तमाग) सप्तमपृथ्वीनारके, "तमतमगो अइखिप्प, सेसाणं जीवाणं, तब्भवमरणं तु केसिं च // 15|| संमत्तं लभिय तम्मि बहुगद्ध / मणुयदुगस्सुक्कोसं, सवजरिसभस्स बंधत्ते (मोत्तुं गाहा) मुक्त्वा अपहाय, कान्? (अकम्मभूमगणरतिरिए त्ति) // 160 // " पं०सं०५ द्वार / प्रश्न सूत्रत्वादकर्मभूमिजाश्च ते देवकुरूत्तरकुर्वादिषूत्पन्नतया नरतिर्यञ्चश्च | तमतमप्पभा स्त्री०(तमस्तमप्रभा) तमसः प्रभा यस्याः सा / सप्तअकर्मभूमिजनरतिर्यशः, तान्, तेषां हि तद्भवानन्तरं देवेष्वेवोत्पादः, | मनारकपृथिव्याम्, अनु०। प्रज्ञा०।
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________________ तमतमा २१६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तमिसंधयार तमतमा स्त्री०(तमस्तमा) अतिशयवत्तमस्तद्रूपद्रव्ययोगात्तमस्तमा / अन्धकारबलेन वा दृप्ते, स्था०४ ठा०३उ०। सप्तमनरकपृथिव्याम्, अनु०॥ स्था। तमपडल न०(तमःपटल) ज्ञानाऽऽवरणे, भ०६ श०४उ०। अन्धतमतिमिर न०(तमस्तिमिर) अन्धकारे, रात्रौ यदा रजो धूमधूमिका कारसमूहे. उत्त०४ अ०। भवति तदा तमतिमिरं भण्यते / बृ०४ उ०। विज्ञानमन्दताऽल्पत्वे, तमपडलमोहजालपलिच्छअत्रि०(तमःपटलमोहजाल-प्रतिच्छन्न) आ०चू०अ०नि०चू। तमः पटलमिव तमः पटलं ज्ञानाऽऽवरणं, मोहा मोहनीय, तदेव जालं, तमतिमिरपडल न०(तमस्तिमिरपटल) तमो विज्ञानमन्दता, यथा / मोहजालं, ताभ्यां प्रतिच्छन्ना आच्छादिता येते तथा। ज्ञानाऽऽवरणी पृथ्वीकायाऽऽदीनां तिमिरविज्ञानाल्पता, तथा शेषाणां तमस्तिमिर- यमोहनीयकम--भ्यामाच्छादितेषु, भ०६श०४ उ०। निमित्तभूत पटलं तमस्तिमिरपटलम् / ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिकर्म तमप्पभा स्त्री०(तमःप्रभा) तमसः प्रभा बाहुल्यं यत्र सा तमःप्रभा। सनाले, आ०चू०। यद्वा-तमोऽपरिज्ञानं तस्य हेतुभूतं तिमिरपटलं प्रव०१७२ द्वार। तमोमय्यां षष्ट्यां नरकपृथिव्याम्, प्रज्ञा०१ पद। तमस्तिमिरपटलम् / ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मबन्धे, आ०चूला अथवा भ०। अनु०। तमोऽनवबोधः, स एव तिमिर तमस्तिमिरं, तस्य कारणं पटलं तमप्पविट्ठ त्रि०(तमःप्रविष्ट) तमः प्रविष्ट इव तमः प्रविष्टः / तमः तमस्तिमिरपटलम् / अथवा तमोऽपरिज्ञानहेतुः स एव बहलस्तिमिर, कर्मप्रवेशकर्तरि, भ०६श०४ उ० तस्य पटलं वर्गः समूहः / अन्ये पुनर्भणन्तितमो बद्धं स्पृष्टं निधत्तं तमबल पुं०(तमोबल) तमोऽज्ञानं बलं सामर्थ्य यस्य सः, तमोऽन्धकार ज्ञानाऽऽवरणीय निकाचितं तिमिर, तस्य पटल वृन्दं तमस्तिमिरपटलम्। वा तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा। असदाचारवति, अज्ञानिनि, रात्रिश्चरे, ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मसंघाते, आ०चू०५ अ०ा यदा तस्यामेव रजन्या चौराऽऽदौ पुरुषजाते, स्था०४ ग०३उ०। रजःप्रभृतयो मेघदुर्दिनं च भवति, तदा तमस्तिमिरपटलमभिधीयते / तमबलपलज्जण पुं०(तमोबलप्ररजन) तमो मिथ्याज्ञानमन्धकारं वा तदेव यथा तत्रैवान्धकारे पुरुषः किश्चिदपि न पश्यति / अन्धकार बलं यत्र / अथवा-तमस्युक्तरूपे बले च सामर्थ्य प्ररज्यते रतिं करोतीति समूहे.बृ०४उ०। तमोबलप्ररजनः / तमोबलरक्ते पुरुषजाते, स्था० 4 ग०३उ०/ तमतिमिरपडलभूय त्रि०(तमस्तिमिरपटलभूत) दर्शनाऽऽवरणी *तमोबलप्रलज्जन पुं०। तमोबलेनान्धकारबलेन सञ्चरन् प्रलज्जते इति योदयादकिञ्चित्पश्यति, नि०चू०। तमोबलप्रलज्जनः। प्रकाशचारिणि पुरुषजाते, स्था०४ ठा०३उ० तमतिमिरपडलभूओ, पावं चिंतेति दीहसंसारी। तमरयविद्धंसणाण न०(तमोरजोविध्वंसज्ञान) तमोरजसी अज्ञानकण्हाएँ चउद्दसिए, राओ भासइ................. || पातके, विध्वंसयति नाशयतीति यत्तत्तमोरजोविध्वंसं, तच तद्ज्ञानं च दव्याभावो यतम भण्णति, तम्भिचेव रातो जदा रयरेणुधूमिगा भवति तमोरजोविध्वंसज्ञानम् / अज्ञानपातकनाशके ज्ञाने, स०५ अङ्ग। तदा तमतिमिरं भण्णति, जदा पुण ता चेव रातीए रयादिया मेहदुद्दिणं च तमस्सई स्त्री०(तमस्वती) तमोऽन्धकारमस्यास्तीति तमस्वती। व्य०५ भवति, तदा तमतिमिरपडलं भण्णति,सुट्ठु अन्धकारं, णऽत्थ पुरिसो किंचि पासति, एवं उदएण तिव्वतरतिव्वमेण पुरिसोतमतिभिरपडलभूतो उ०। बहलतमःपटलकलितायां रात्रौ, बृ०१उ०। भण्णति,भूतशब्दः सादृश्योपमार्थे द्रष्टव्यः / अहवा-तम एव तिमिरमेव तमा स्त्री०(तमा) तमोरूपद्रव्ययुक्तत्वात् तमा इति / अनु०। षष्ठ्यां पडलं तममिमिरपडलं, अन्धकारविशेष इत्यर्थः / एतेण उवमा नरकपृथिव्याम्, स्था०७ ग०। अन्धकारयुक्तत्वेन रात्रितुल्यत्वाकाति,तेण तमतिमिरपडलभूतो, इहापि भूतशब्द उपमार्थः / दधोदिशि, स्था०१० ठा०। प्रज्ञा०। 'सोमा ईसाणा चिय, विमला य यथाऽन्धकारेण न किञ्चिदुपलभ्यते, एवं तीव्रकषायोदयान्न चारित्रगुणः तमा य बोधव्वा।" विशे०आ०म० कश्चिदुपलभ्यते। अहवा पि उदयविकारेण यदव्यचविखदियस्संऽतः करणं तमाड धा०(भ्रामि) मन-णिच् / "भूमेस्तालिअण्टतमाडो" पडलं भण्णति, तब्भावे य चक्खुदसणावरणोदयओ व तिमिरपडलेहि // 430 // इति भ्रमतेर्ण्यन्तस्य वा 'तमाड' इत्यादेशः। 'तमाडइ'। पुरिसस्स तमोभवति, न किञ्चित्पश्यतीत्यर्थः / तेण उवमा जस्स कजति, पक्षे–'भमाडइ। भ्रमणे, प्रा०४पाद / सो तमतिमिरपडलभूतो, इहापि भूतशब्द उपमार्थे। नि०चू०१० 301 तमाल पुं०(तमाल) संख्येयजीवके वलयाऽऽख्यवनस्पतिभेदे, आचा०१ तमतिमिरपडलविद्धंसण त्रि०(तमस्तिमिरपटलविध्वंसन) तमोऽज्ञान | श्रु०१अ०५ उ० प्रज्ञा० भ०ा औला रा०ा तदेव तिमिरं तमस्तिमिरम् / अथवा-तमो बद्धस्पृष्ट निधत्तं तमाललया स्त्री०(तमाललता) सुतालनन्दनामनगरवास्तव्यस्य ज्ञानाऽऽवरणीय, निकाचित तिमिरं, तस्य पटलं वृन्दं तमस्तिमिरपटलं, तालध्वजनाम्नों राज्ञो भार्यायाम्, दर्श०१ तत्त्व / पुष्करद्वीपार्धे द्वीपे तद्विध्वंसयति विनाशयतीति तमस्तिमिरपट लविध्वंसनः / अज्ञान- मङ्गलावतीदिजये अमरकेतुपितृसमरनन्दपालिताथां पुरि, दर्श० 3 तत्त्व। निराशकर्तरि, ला आवाधा तडिसंधयार पुं०(तमिस्रान्धकार) बहुलतमोऽन्धकारे, यत्राऽऽत्माऽपि तमपज्जलण त्रि०(तमःप्रज्वलन) तमोबलेनाऽज्ञानबले नाऽन्धका- नोपलभ्यते चक्षुषा केवलमवधिनाऽपि मन्दं मन्दमुलूका इवाह्नि पश्यन्ति / रबलेन वा प्रज्वलति दर्पितो भवतीति तमःप्रज्वलनम्। अज्ञानबलेन | सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। पिंग
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________________ तमिस्स 2191 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तमुक्काय तमिस्स न०(तमिस्र) अन्धकारे, स्था०४ ठा०३उ०॥ तमुक्काय पुं०(तमस्काय)तमसोऽप्कायपरिणामस्वरूपस्यान्धका-रस्य / कायः प्रचयस्तमस्कायः। अप्कायपरिणामरूपतमःप्रचये, प्रव० 255 द्वार। स्थागतमस्कायस्य द्रव्यत्वम्जंबुद्दीवाउ असं-खेज्ज इमा अरुणवरसमुद्दाओ। वायालीससहस्से, जगईउ जलं विलंघेउं॥४१२।। समसेणीऍ सत्तरस, एकवीसाइं जोअणसयाई। उल्लसिओ तमरूवो, बलयागारो अबुक्काओ॥४१३|| तिरिअं वित्थरमाणो, आवरयंतो सुरालयचउक्कं / पंचमकप्पेऽरिट्ठम्मि पत्थडे चउदिसिं मिलिओ।।४१४|| जम्बूद्वीपादसंख्येयतमोयोऽसावरुणवरसमुद्रः, तमाश्रित्यद्वि-चत्वारिशयोजनसहस्राणि जगत्या जलं विलव्य, समश्रेण्या समभितितया एकविंशत्यधिकानि सप्तदश शतानि यावद्वलयाकारस्तमोरूपो, देवानामपि तत्रोद्घोताभावेन महान्धकाराऽऽत्मकत्वात् अप्काय उल्लसितः। अयमर्थः-एतस्माजम्बूद्वीपात्तिर्यगसंख्यातान द्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रम्याऽरुणवरनामा द्वीपः समस्ति, तद्वेदिकापर्यन्ता द्विचत्वारिंशधोजनसहस्राण्यरुणवरं समुद्रमवगाह्याऽत्रान्तरे जलोपरितनतस्मादूर्द्धमेकविंशत्युत्तराणि सप्तदशयोजनशतानि यावत्समभित्त्वाकारतया गत्वा वलयाऽऽकृतिरप्कायमयो महान्धकाररूपस्तमस्कायः समुल्लसित इति / अयं तिर्यक् विस्तरन्सुरालयचतुष्कं सौधर्मेशानसनत्कुमा रमाहेन्द्ररूपदेवलोकचतुष्टयमावृण्वन्नाच्छादयन्नूर्द्ध तावद् गतो यावत्पञ्चमे ब्रह्मलोकनामके कल्पे तृतीयेऽरिष्टविमानप्रस्तटे चतसृष्वपि दिक्षु मिलित इति। अथ तमस्कायस्य संस्थानमाहहेट्ठा मल्लयमूल-ट्ठिइट्ठिओ उवरि बंडलोयं जा। कुक्कुमपंजरगाऽऽगारसंठिओ सो तमुक्काओ॥४१५।। अधस्तादधोभागेन मल्लकमूलस्थितिस्थितोमल्लकं सरावं, तस्य मूलं बुध्नस्तस्य स्थितिः संस्थानंतया स्थितो व्यवस्थितः, शरावबुध्नाऽऽकार इति भावः / उपरिष्टाच्च यावत् कुक्कुटपञ्जराऽऽकारसंस्थितः, स पूर्वोक्तस्वरूपः तमस्कायो भवति तमसां तमिस्रपुद्गलानां कायो राशिस्वमस्काय इति / स्थापना-88 अथाऽस्य तमस्कायस्य विष्कम्भं परिधिं च प्राऽऽहदुविहो से विक्खंभो, संखेजो अत्थि तह असंखेजो। पढमम्मिय विक्खंभे,संखेजा जोयणसहस्सा // 416|| परिहीऍ ते असंखा, वीए विक्खंभपरिहिजोएहिं। हुति असंखसहस्सा,नवरमिमं होइ वित्थारो॥४१७|| द्विविधो द्विप्रकारः (से त्ति) तस्य तमस्कायस्य विष्कम्भो विस्तरो | भवति-संख्यातः, तथा असंख्यातश्च / तत्र प्रथमे विष्कम्भे आदित आरभ्य ऊर्द्ध संख्येययोजनानि यावत्संख्येययोजनसहस्राः प्रमाणतो भवन्ति / परिधौ परिक्षेपे पुनस्त एव योजनसहस्रा असंख्याताः, | अधस्तमस्कायस्य संख्यातयोजनविस्तृतत्वेऽप्यसंख्यातद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात्परिक्षेपस्यासंख्यातयोजनसहस्रः प्रमाणत्वम विरुद्धम् / आन्तरबहिः परिक्षेपविभागस्तु नोक्तः, उभयस्याप्यसंख्याततया तुल्यत्वादिति / तथा द्विविधे विष्कम्भपरिधियोगाभ्यां विष्कम्भेन परिधिना च प्रत्येकमसंख्यातयोजनसहस्रा भवनित, नवर केवलमिदमसंख्यातयोजनसहस्ररूपं च प्रमाणं विस्तारे भवति / वलयाऽऽकारार्द्ध यदसौ तमस्कायक्रमेण विस्तरति, तदानीमिदं प्रमाणमवसेयमिति भावः। अस्य च तमस्कायस्य महत्वमित्थमागम विदः प्रवेदयन्ति-यथा यो देवो महर्द्धिको यया गत्या तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरेकविंशति-वारान् सकलं जम्बूद्वीपमनुपरिवृत्याऽऽगच्छेत, स एव देवः तयैव गत्या षभिरपि मासैः संख्यातयोजनविस्तारमेव तमस्कायं व्यतिव्रजेन्नेतरमिति / यदा च कश्विदेवः परदेव्याः सेवाहेवाकपरस्त्वाहाराऽऽदिभिरपराधमाधन्ने, तदा बलवदेवभयात्प्रपलाय्य देवानामपि भूरितयाऽऽयिर्भावकत्वेन गमनविघातहेतौ तरिंमस्तमस्काये निलीयत इति / प्रव० 255 द्वार। किमियं भंते ! तमुक्काए त्ति पवुचइ-किं पुढवितमुक्काए त्ति पवुचइ, आउतमुक्काए त्ति पवुच्चइ? गोयमा ! नो पुढवितमुक्काए त्ति पवुचइ, आउतमुक्काए त्ति पवुच्चइ / से केणद्वेणं? गोयमा! पुढविकाएणं अत्थेगइए सुभेए संपकासेइ, अत्थेगइए देसं नो पकासेइ, से तेणढेणं // (किमियमित्यादि) (तमुक्काए त्ति) तमसा तमिस्रपुद्गलानां कायो राशिस्तमस्कायः / स च नियत एवेह स्कन्धः कश्चिद्विवक्षितः, स च तादृशः पृथ्वीरजःस्कन्धो वा स्यादुदकरजःस्कन्धो वा; न त्वन्यः, तदन्यस्यातादृशत्यादि ति / पृथिव्यविषयसन्देहादाह-(किं पुढवीत्यादि) व्यक्तम्। (पुढविकाए णमित्यादि) पृथ्वीकायोऽस्त्येकः कश्चिच्छुभो भास्वरो; यः किविध इत्याह-देशं विवक्षितक्षेत्रस्यअकाशयति, भास्वरत्वाद् मण्यादिवत् तथाऽस्त्येकः पृथिवीकायो देशं पृथिवीकायान्तरं प्रकाश्यमपि न प्रकाशयति, अभास्वरत्वादन्धोपलवद्, नैवं पुनरप्कायः, तस्य सर्वस्याप्यप्रकाशकत्वात्, ततश्च तमस्कायस्य सर्वथैवाप्रकाशकत्वादप्कायपरिणामतैव। भ०६ श०५उ०। अत्र न्यायमार्गानुयायिनः सङ्गिरन्तेननु पृथिव्यादीनां चतुर्णा सकर्णा वर्णयन्तु द्रव्यताम्, तिमिरच्छाययोस्तु द्रव्यतावाचोयुक्तियुक्तिरिक्तव, भासामभाव एव हि तमश्वाये गदतां सच्छाये / तथाहि-शशधरदिनकरकरनिकरनिरन्तरप्रसरासंभवे सर्वतोऽपि सति तम इति प्रतीयते, यदातुप्रतिनियतप्रदेशेनाऽऽतपत्राऽऽदिना प्रतिबद्धस्तेजःपुञ्जो यत्र यत्र न संयुज्यते, तदा तत्र तत्र च्छायेतिप्रतीयते, प्रतिबन्धकाभावेतु स्वरूपेणाऽऽलोकः समालोक्यत इत्यालोकाभाव एव तमश्छाये / यदि च-तमो द्रव्यं भवेत्, तदारूपिद्रव्यसंस्पर्शाव्यभिचारात्स्पर्शवद्रव्यस्य च महतः प्रतिघात-हेतुत्वात्तरलतरतुङ्गत्तरङ्गपरम्परोपेतपारावारावतार इव, प्रथमजलधरधाराधोरणीधौताञ्जनगिरिगरीयः शृङ्गा प्रतिवादिनीव, निर्यन्निर्झरझात्कारिवारिदुर्वारशीकराऽऽसारसिव्यमानाsभिरामाराममहीरुहसमूहप्रतिच्छन्द इव च प्रवृत्ते तिमिरभरे सञ्चरतः पुंसः प्रतिबन्धः स्यात् / भूगोलकस्येव चाऽस्यावयवभूतानि खण्डावयविद्रव्याणि प्रतीयेरन्, एवं छायायामपि,इति कथं ते द्रव्ये भवेताम्? अत्राभिदध्यमहे-तमसस्तावदभावस्वभावतास्वीकृतिरानुभविकी, आनुमानिकी वा? न तावदानुभविकी, यतोऽनावानुभवो
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________________ तमुक्काय 2162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तमुक्काय भावान्तरोपलम्भे सत्येव संभवी, कुम्भाभावोपलम्भवत्। नच प्रचुरतरतिमिरनिकरपरिकरितापवरकोदरे स्वकरतलाऽऽदिमात्रस्याप्युपलम्भः संभवति, तत्कथं तदनुभूतिर्भवेत्? कथंवा प्रदीपाऽऽदिप्रभाप्राग्भारप्रोज्जृम्भणमन्तरेणास्योपलम्भः? कुम्भाऽऽद्यभावो हि तदभाव एवानुभूयमानो दृष्टः, तत्कथमेष न्यायमुद्राऽतिक्रमो न कृतः स्यात्? अथ यो भावो यावता सामग्रयेण गृह्यते तदभावोऽपि तावतैव तेन तदिहाऽऽलोकस्य स्वातन्त्र्येणाऽऽलोकान्तरमन्तरेणैव ग्रहणमालोकिम्, इति तदभावस्याऽपि तत्कि न स्यात्? इति चेत्। अहो ! पीतविषस्याप्यमृतोद्गारः, एवं वदता त्ववैव तमसि द्रव्यताव्याहारात् / किमिदमीदृशमिन्द्रजालमिति चेत् ? इदमीदृशमेवेन्द्रजालमालोक्यताम्-आलोकः किल चक्षुषा संयोनात् गृह्यते,यदि च तदभावस्याऽपि तत्सामग्रयेणैव ग्रहणं स्वात, तदा तस्याऽपि ग्रहणे चक्षुः संयोगसद्धावादायाता द्रव्यताऽऽपत्तिः, संयोगस्य गुणत्वेन तवृत्तित्वात्। अथासंयुक्तोऽप्ययं प्रेक्ष्यते, तदा कर्थ यो भावो यावतेत्याद्यं मृषोद्यं न स्यात्? कथं वा चक्षुषः प्राप्यकारिताप्रवादः सूपपादः स्याद्? विशेषणविशेष्यभावसंबन्धबन्धुरस्यान्धकारस्य ग्रहणादयमदोष इति चेत्, कतमस्यैष इति चेत्, कतमस्यैष विशेषणम्? न शरीरस्य, तदन्यत्राऽपि प्रतिभासनात् / नाऽपि भूतलकलशकुड्याऽऽदेः, तत एव / तर्हि भवतु नभस इति चेत् / तदशस्यम; एतस्य तद्विशेषणविशेष्यीभावेन कदाचिदप्रतिभासनात्। तन्नैतदभावतास्वीकृतिरानुभविकी भव्या। नाऽप्यानुमानिकी, यतः कतमोऽत्र हेतुराख्यायते संख्यावता? किं भाववैलक्षण्येन लक्ष्यमाणत्वं, भावविलक्षणसामग्रीसमुत्पाद्यत्वम्, असत्येवाऽऽलोके तत्प्रतिभासनम्, आलोकग्रहणसामग्र्या गृह्यमाणत्वम्, तिमिरद्रव्योत्पादककारणाभावः, द्रव्यगुणकर्मातिरिक्तकार्यत्वम्, आलोकविरोधित्वं, भावरूपतामसाधकप्रमाणाभावो वा? इत्यष्टपक्षी राक्षसीव त्वत्पक्षभक्ष्यभक्षणविचक्षणोपतिष्ठते / तत्र न तावदाद्यः पक्षः क्षेम करः, 'कुम्भोऽयं स्तम्भोऽयम्' इति हि यथा कुम्भाऽऽदयो भावा विधिमुखेन प्रत्यक्षेण प्रेक्ष्यन्ते, तथेद तम इति तमोऽपि, अभावरूपताया तस्य प्रतिषेधमुखेन प्रत्ययः प्रादुःष्यात्। यथा कुम्भोऽत्र नास्तीति। ननु नाशप्रध्वंसाऽऽदिप्रत्यया विधिमुखेनाऽपि प्रवर्तमाना दृश्यन्ते / नैवम्, नाशाऽऽदिशब्दानामेव भावप्रतिषेधाभिधायकत्वात्, अत एव हि कुम्भ-- स्य प्रध्वंस इति सोपपदानामेषां प्रयोगोपपत्ति। यदि तुतमः प्रभृतिशब्दा अपि तत्समानार्थतामाबिधीरन्, तदानीं कुम्भस्याभाव इतिवदालोकस्य तम इत्यपि प्रोच्येत,न चैवं कश्चिद्विपश्चिदपि प्रवक्ति। अथाऽऽलोकाभावे संकेतितस्तमः शब्दो, नाभावमात्रे, ततो न तथाव्यपदेश इति चेत् / नैवम्, यदि ह्यन्धकाररूपोऽभावेऽपि विधिमुखेन वीक्ष्येत, तदानीं किमन्यदेतस्य भाववैलक्षण्येन लक्ष्यमाणत्वं स्यात्? यतो हेतुसिद्धिर्भवेत्। अथ भावविलक्षणसामग्रीसमुत्पाद्यत्व हेतुः, तथाहि-समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणकलापव्यापाररूपाभावोत्पादिका सामग्री, नैव तमसीयं समगस्त / तदशस्तम्, यतः किमिदं समवायिकारणनाम्ना त्वमाग्नासीः? यत्र कार्य समवेतमुत्पद्यते तदिति चेत् / तदसम्यक्, समवायस्य निरन्तरसुहृद्गोष्ठीषु गौरवार्हत्वात्; तत्प्रसाधकत्वाभिमतस्य 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादिप्रत्ययस्याप्रसिद्धेः, 'पटे तन्तवः | इत्यादिरूपस्यास्याऽऽबालगोपालं प्रतीतत्वात्, सिद्धौ वा इह भूतले घटाभाव इत्यभावप्रत्ययेन व्यभिचारात् / संबन्धमात्रपूर्वताप्रसाधने सिद्धसाधनात्, अविष्वग्भावमात्रनिमित्ततया तदङ्गीकारात्। एकान्तैकस्वरूपत्वेन चाऽस्यैकवस्तुसमवायसम्भवे समस्तवस्तुसमवायस्य, विनश्यदेकवस्तुसमवायाभावे समस्तवस्तुसमवायाभावस्य वा प्रसङ्गात्। तत्तदवच्छेदकभेदात् तदुपपत्तौ तस्याऽपि कथशिनेदाऽऽपत्तेः, अनेकपुरुषावच्छिन्नपर्षदादेरपि तावत्स्वभावभावेन कथञ्चिद्भेदात्। अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपतया चाऽस्याऽऽकाशसामान्यादेतादृग्वस्तुसमाश्रितत्वमेव भवेत्, न तु कार्यवस्तुसमाश्रितत्वम् / तत्तत्सहकारिकारणकलापोपनिपातप्रभावात् कार्यसमवायस्वीकारोऽपि सनिकारः, तत्स्वभावप्रभावप्रतिबद्धानां तेषामपि सदा सन्निधानप्रधानत्वात्, तथा चास्तमिता समवायिकारणकिंवदन्ती। तदसत्त्वे किमसमवायिकारण? समवायिकारणप्रत्यासन्नत्वं हि तल्लक्षणम्, तदसत्त्वे कथमेतत् स्यात्? तथा च तच्छेषभूतस्य निमित्तकारणस्याऽपि का व्यवस्था? सस्तु वा कारणान्यमूनि, तथाऽपि यथाकथञ्चिदालोककलापस्योत्पादः, तथा तमसोऽपि भविष्यति, किमरुचिविरचनाभिर्व्यपासितुं शक्यते? किमस्योत्पादकमिति चेत् / आलोकस्य किमिति वाच्यम्? तेजोऽणव इति चेत् / अस्याऽपि तमोऽणव एव सन्तु। सिद्धास्तावत् तेजसास्तेऽविवादेन वादिप्रतिवादिनोरिति चेत् / तामसा अपि तद्वदेव किं न सेत्स्यन्ति? इति त्यज्यतामाग्रहः। असत्येवाऽऽलोके तत्प्रतिमासनमप्यसम्यक, न हि यस्मिन्नसत्येव यत् प्रतिभासते तत् तदभावमात्रमेव भवति, असत्येव व्यवधाने प्रतिभासमानैर्घटाऽऽदिभिर्व्यभिचारात्। कथं च नैवं प्रतिबन्धकेऽसत्येव समुत्पद्यमानस्य स्फोटस्याऽपि तदभावमात्रता स्यात्? अथ स्फोटो दाहकाऽऽत्मकतया स्पार्शनप्रत्यक्षेणाऽनुभूयते, अभावमात्रतायां हि तस्य नेयमोपपत्तिकी स्यात्, तर्हि तमोऽपि शैत्येन तेनैव प्रत्यक्षेण प्रेक्ष्यमाणं कथमभावस्वभावं भवेत्? अथाऽऽलोकग्रहणसामग्या गृह्यमाणत्वं हेतुः, तथा च शङ्करन्यायभूषणौ- 'योहि भावो यावत्या सामग्र्या गृह्यते, तदभावोऽपितावत्थैव, इत्यालोकग्रहणसामग्र्या गृह्यमाणं तमस्तदभाव एवेति / " तदपि न किञ्चित्, तमोग्रहणसामग्र्या गृह्यमाणस्याऽऽलोकस्यैव तदभावताप्रसड्रेनाऽनैकान्तिकत्वात्, घटपटयोर्वा समानग्रहणसामग्रीकतया परस्पराभावत्वप्रसङ्गात्॥ अथ तिमिरद्रव्योत्पादककारणाभावो हेतुः,तथा च श्रीधरः तमः परणवः स्पर्शवन्तः, तद्रहिता वा? न तावत् स्पर्शवन्तः, स्पर्शवतस्तत्कार्यद्रव्यस्य क्वचिदप्यनुपलम्भात्। अदृष्टव्यापाराभावात् स्पर्शवत्कार्यद्रव्याइनारम्भका इति चेत् / रूपवन्तो वायुपरमाणवोऽदृष्टव्यापारवैगुण्याद् रूपवत कार्य नारभन्ते इति किं न कल्प्येत? किंवान कल्पितमेकजातीयादेव परमाणोरदृष्टोपग्रहाचतुर्धा कार्याणि जायन्त इति? कार्यकसमधिगम्याः परमाणवो यथा कार्यमुन्नीयन्ते, नतद्विलक्षणाः, प्रमाणाभावादिति चेत्। एवं तर्हि तामसाः परमाणवोऽप्यस्पर्शवन्तः कल्पनीयाः, तादृशाश्व कथं तमोद्रव्यमारभेरन् ? अस्पर्शवत्वस्य कार्यद्रव्यानारम्भकत्वेनाऽव्यभिचारोपलम्भात् / कार्यदर्शनात् तदनुगुणं कारणं कल्प्यते, न तु कारणवैकल्येन दृष्टकार्यविपर्यासो युज्यत इति चेत् / न वयमन्धकारस्य प्रत्यर्थिनः, किन्त्वारम्भानुपपत्तेः, नीलिममात्रप्रतीतेश्च द्रव्यमिदं न
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________________ तमुक्काय 2163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तमुक्काय भवतीति ब्रूम इति / नैतदुपपत्तिपदवी प्रतिपद्यते, यतः स्पर्शवन्त एव तामसाः परमाणवः प्रोच्यन्ते / यत्पुनस्तत्रोपादेशिस्पर्शवतस्तत्कार्यद्रव्यस्य वचिदप्यनुपलम्भादिति / तदसत्यम्, शीतस्पर्शवतस्तमोद्रव्वस्यैव तत्कार्यस्य दर्शनात्। तत्र स्पर्शसद्भावे किं प्रमाणम्? इति चेत् / तदभावे किं प्रमाणम् ? इति वाच्यम्, न हि तत्प्रतिषेधकप्रमाणमन्तरेणाऽस्पर्शवत्त्वात् कार्यद्रव्यानारम्भस्त्वया प्रसाधयितुं शक्यते, अस्माकं तु तत्सद्भावे प्रमाणाभावेऽपि तावदनकाचित क्षतिः। न च नास्त्येव तत, प्रत्यक्षस्यैव सद्भावात्। तथाहि-दिवा दिवाकरकरालाऽऽतपप्रपातोपतप्तवपुषः पथिकास्तमिस्रासन्तमसशैत्यसंपर्कात् प्रमोदन्ते; न च तापाभावमात्रसूत्रित एव तेषां प्रमोदः, प्रतीतिबाधात, तन्मात्रनिमित्तो हि घटोऽत्र नास्तीतिवत् तापः संप्रति नास्तीति प्रतिषेधमुख एव प्रत्ययः प्रादुः ष्यात्, न तु संप्रति शीतलीभूतं मे शरीरमिति विधिमुखः, तथात्वे हि तमोऽभावमात्रसूत्रित एवायमालोकप्रत्यय इत्यपि वावदूकस्य वदतो वदनं न वक्रीभवेत्। अथान्धकारनिबन्धनत्वे शैत्यस्पर्शप्रत्ययस्य निविडतरघटितकपाटसंपुटे गवलकुवलयकलकण्ठीकण्ठकाण्डकृष्णान्धकारैकार्णवीभूते कारागारे क्षिप्तस्य पुंसः सुतरां तत्प्रत्ययो भवेत्, इति चेत्।तापाभावनिमित्ततायामपि सुतरा स किं तत्र न स्यात्? तत्रात्यन्तं तापाभावसम्भवात् / तस्माद् मन्द-- मन्दसमीरलहरिपरिचय एव जलस्पर्शस्येव तत्स्पर्शस्याऽप्यभिव्यक्ती हेतुः, न चासौ तत्रास्तीतिन तत्र तत्प्रतीतिः प्रादुर्भवति। अनुमानतोऽपि तत्र स्पर्शप्रतीतिः, तथाहि-तमः स्पर्शवद्, रूपवत्त्वात्, पृथ्वीवत्। नच रूपवत्त्वमसिद्धम्, अन्धकारः कृष्णोऽयमिति कृष्णाऽऽकारप्रतिभासात् / ननु यदि तिमिरं श्यामरूपपरिकलितकले वरं स्यात् तदाऽवश्य स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षेत, कुवलयकोकिलतमालाऽऽदिकृष्णवस्तूनामालोकापेक्षवीक्षणत्वादिति चेत् / तद् नाऽकलङ्कम, उलूकाऽऽदीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासात् / यथाऽस्मदादिप्रतिभासमपेक्ष्यैतदुच्यते। तदपि न पेशलम्, यतोयद्यपि कुवलयाऽऽदिकमालोकमन्तरेणाऽऽलोकयितुं न शक्यतेऽस्मदादिभिः, तथाऽपि तिमिरमालोकयिष्यते, विचित्रत्वाद् भावानाम्, इतरथा पीतावदाताऽऽदयोऽपि तपनीय-- मुक्ताफलप्रमुखानालोकनिरपेक्षवीक्षणा इति प्रदीपचन्द्राऽऽदयोऽपि प्रकाशान्तरमपेक्षेरन् / इति सिद्धं तमो रूपवत् / तथा तमो रूपवत्, कार्यवत्त्वेन प्रतीयमानत्वात्, कुवलयवत्, इत्यतोऽपि तत्र रूपवत्त्वसिद्धिः, न खल्वरूपं कुम्भाभावाऽऽदिकृष्णाऽऽद्याकारेण कदाचित प्रतीयमानमालोकितम्, इति रूपवत्त्वसिद्धौ च सिद्ध स्पर्शवत्वम् / तथा च तामसपरमाणूनां कार्यद्रव्याऽऽरम्भप्रतिषेधोपन्यस्तमस्पर्शवत्त्वं स्वरूपासिद्धम्, परस्य तामसपरमाणूनामप्रसिद्धेराश्रयासिद्धं चेति स्थितम्। द्रव्यगुणकर्मातिरिक्तकार्यत्वमपि न हेतुः, द्रव्यातिरिक्तकार्यत्तस्य तस्मिन्नसिद्धत्वेनैकदेशासिद्धताऽऽपत्तेः। तत्प्रसिद्धिर्हि तस्याभावरूपतया. अन्यतोवाकतोऽप्यभिधीयते? नाऽऽद्यः पक्षः परस्पराssश्रवप्रसङ्गात्-अभावरूपतासिद्धौ हि तस्य द्रव्यातिरिक्तकार्यत्वसिद्धिः, ततोऽपि सेति। अन्यहेतुतस्तत्सिद्धौ तु स एवास्तु, किमनेन सिद्धोपस्थायिना कृतकभक्तिभृत्येनेव कर्तव्यम् ? | आलोकविरोधित्वमपि न साधीयः, न हि यो यद्विरोधी स तदभावस्वभाव एव, वारिवैश्वानरयोः परस्पराभावमात्रताऽऽपत्तेः। अथ सहानव स्थानलक्षणो विरोधस्तिमिरस्याऽभावस्वभावतासिद्धौ साधनत्वेनाइभिप्रेतः, न वध्यघातकभावः स च भावाभावयोरेव संभवी, न पुनर्द्वयोरपि भावयोः, तदिहाऽऽलोकानवकाशे सत्येव समुज्जृम्भमाणस्यान्धकारस्याऽभावरूपतैवश्रेयसी, कुम्भाभाववदिति चेत्। तदपवित्रम्। अत्राऽपि वध्यघातकभावस्यैव भावात् , घनतरतिमिरपूरितेपथि प्रसर्पता प्रदीपप्रभाप्राग्भारेण तिमिरनिकुरम्बाऽऽडम्बरबिडम्बनात्। भावरूपताप्रसाधकप्रमाणाभावोऽप्यसिद्धः, तत्प्रसाधकानुमानसद्भावात् / तथाहि भावरूपं तमः, घनतरनिकरलहरिप्रमुखशब्दैर्व्यपदिश्यमानत्वात्, आलोकवत्। न चाऽसिद्धिः साधनस्य। तथाहि"रहः सङ्केतस्थो घनतरतमःपुञ्जपिहिते, वृथोन्मेषं चक्षुर्मुहुरुपदधानः पथि पथि। षटकारादल्पादपि निभृतसंप्राप्तरमणीभ्रमभ्राम्यबाहुर्दमदमिकयोत्ताम्यति युवा / / 1 / / पर्यस्तो दिवसस्तटीमयमटत्यस्ताचलस्यांशुमान्, संप्रत्यकरितान्धकारनिकरैर्लम्बालका द्यौरभूत्। एह्यन्तर्विश वेश्मनः प्रियसखि ! द्वारस्थलीतोरणस्तम्भाऽऽलम्बितबाहुवल्लि ! रुदती किं त्वं पथः पश्यसि?||२|| तिमिरलहरीगुर्वीमुवीं करोतु विकस्वरा, हरतु नितरां निद्रामुद्रा क्षणाद् गुणिनां गणात्। तदपि तरणे ! तेजःपुञ्जः प्रियो न ममैष ते, किमपि तिरयन् ज्योतिश्चक्रं स्वजातिविराजितम् // 3 // " औपचारिक एवाऽयं तत्र तद्व्यपदेश इति चेत् / नैवम्, एतदभावरूपताप्रसिद्धि विना धनतराऽऽदिव्यपदेशस्य भावरूपमुख्यार्थ-- बाधाविरहेण तस्यौपचारिकत्वायोगात्; तथात्वेऽपि वा तस्य तमसो भावरूपतैव प्रसिध्यति, न खलु कुम्भाऽऽद्यभावस्तथाप्रकारोपचारगोचरचारितामास्तिघ्नुते। तत्र सादृश्याऽऽद्युपचारकारणाभावात् / तथा-नाभावरूपं तमः,प्रागभावाऽऽद्यस्वभावत्वात्; व्योमवत् / न चाऽयमपि हेतुरसिद्धः / तथा हि-आलोकस्य प्रागभावः, प्रध्वंसाभावः, इतरेतराभावः, अत्यन्ताभावो वा तमो भवेत् ? आद्ये-एकस्य, अनेकस्य वाऽयं तत्स्यात् ? न तावदेकस्याऽऽलोकस्य प्रागभावस्तमः, प्रदीपाऽऽलोकेनेव प्रभाकराऽऽलोकेनाऽपि तस्य निवर्त्यमानत्वात्, यस्य हि यः प्रागभावः स तेनैव निवर्त्यते, यथा पटनागभावः पटेनैव। नाप्यनेकस्य, एकेन निवर्त्यमानत्वात्, पटप्रागभाववदेव / न च वाच्यं प्रत्यालोकं स्वस्वनिवर्तिनीयस्य तमसो भेदात् प्रदीपाऽऽदिना निवर्तितेऽपि तमोविशेषे पूषाऽऽदिनिवर्तनीयं तमोऽन्तरं तदा तदभावान्न निवर्तते, इत्येकेन निवर्त्यमानत्वादिति हेतुरसिद्ध इति, प्रदीपाऽऽदिनिवर्तिततमसि प्रदेशे दिनकराऽऽदिनिवर्तनीयस्य तमोऽन्तरस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः, सम्प्रतिपन्नवत् / यदि चेदं प्रागमावस्वभावं स्यात् / तदा प्रदीपप्रभाप्रबन्धप्रध्वंसेऽस्योत्पत्तिर्न स्यात, अनादित्वात् प्रागभावस्य / नाप्यालोकस्य प्रध्वंसाभावस्तमः, निवर्त्यमानत्वात्, तस्यैव प्रागभाववत् / नापीतरेतराभावः, तस्य प्रसूतेऽपि प्रचण्डे मार्तण्डीये तेजसि सद्भावेन तमिस्रायामिव वासरेऽपि तमः प्रतीतिप्रसङ्गात् / नाऽप्यालोकस्यात्यन्ताभावदस्तमः
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________________ तमुक्काय 2164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तमुक्काय तस्य स्वकारणकलापोपनिपातकाले समुत्पद्यमानत्वात्। इति पक्षाटकेनाऽप्यघटमानत्वान्नानुमानिक्यपि तमसोऽभावरूपतास्वीकृतिः।। एतत्सकलमपि प्रायेण छायायामपि समानमिति यथासंभवं योज्यम् / विशेषतश्चैतव्यताप्रसिद्धिः परिपाटिप्राप्तस्याद्वादरत्नाऽऽकरादवधारणीया। यत्पुनरवाचितमसि संचरतः पुंसः प्रतिबन्धः स्यादित्यादि, तदखिलमालोकेऽपि समानमिति स एव प्रतिविधास्यतीति किमतिप्रयलेन तत्राऽस्माकम्? इति सिद्धे तमस्छाये द्रव्ये। (21) रत्ना०२ परि। अथ तमस्कायानां संस्थानम्तमुक्काए णं भंते ! कहिं समुट्ठिए, कहिं संनिट्ठिए? गोयमा ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहिया तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयं ताओ अरुणोदयं समुदं वायालीसजोयणसहस्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एगपएसियाए सेढीए सत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए सत्तरस एकवीसे जोयणसए उद्धं उप्पइत्ता तओ पच्छा तिरियं पवित्थरमाणे पवित्थरमाणे सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदे चत्तारि वि कप्पे आवरेत्ता णं उड्ड पि य f0 जाव बंभलोए कप्पेऽरिट्ठविमाणपत्थमं संपण्णे, एत्थणं तमुक्काए संनिहिए।। (एगपएसियाए त्ति) एक एव, नद्यादय औत्तराधर्य प्रति प्रदेशो यस्या सा तथा, तया, समभित्तितयेत्यर्थः / न च वाच्यम्-एकप्रदेशप्रमाणयेति असंख्यातप्रदेशावगाहस्वभावत्वेन जीवानां तस्यां जीवावगाहाभावप्रसङ्गात् तमस्कायस्य च स्तिवुफाऽऽकाराप्कायिकजीवाऽऽल्मकत्वाद् बाहल्यमानस्य च प्रतिपादयिष्यमाणत्वादिति। (एत्थणं ति) प्रज्ञापकाऽऽलेख्यालिखितस्यारुणोदसमुद्राऽऽदेरधिकरणतोपदर्शनार्थमुक्तवान् / तमुक्काए णं भंते ! किं संहिए? गोयमा ! अहे मल्लग मूलसंठिए, उप्पिं कुक्कुडगपंजरगसंठिए पण्णत्ते॥ अभ्रः अधस्तान्मल्लकमूलसंस्थितः शरावबुध्नसंस्थानः समजलान्तस्योपरि सप्तदशयोजनशतान्येकविंशत्यधिकानि यावद्गलयसंस्थानत्वात्। अथ तमस्कायस्य नामान्याहतमुक्काए णं भंते ! केवइयं विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-संखेज्जवित्थडे य, असंखेजवित्थडे य / तत्थ णं जे से संखेजवित्थडे, से णं संखेजाइं जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते / तत्थ णं जे से असंखेजवित्थडे, से णं असंखेजाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते / तमुक्काए णं मंते ! के महालए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वभंतराएजाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते, देवे णं महिड्डिएन्जाव महाणुभावे इणामेव 2 त्ति कट्ट केवलकप्पं जम्बुद्दीवं / दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, से णं देवत्ताए व उनिहाए तुरियाए०जाव देवगईए वीईवयमाणे०जाव एकाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे वीईएजा, अत्थेगइए तमुक्कायं वीईवएज्जा, अत्थेगइए तमुक्कायं नो वीईवएज्जा, ए महालए णं गोयमा ! तमुक्काए पण्णत्ते / अत्थि णं भंते ! तमुक्काए गेहाइवा, गेहवणाइ वा? णो इणढे समढे / अत्थि णं भंते ! तमुक्काए गामाइ वा० जाव सन्निवेसाइवा? णो इणढे समढे / अत्थिणं भंते ! तमुक्काए उराला बलाहया संसेयं तिवा, संमुच्छंति वा, संवासं ति वा। हंता अस्थि / तं भंते ! किं देवो पकरेइ, असुरो पकरेइ, नागो पकरेइ ? गोयमा ! देवो विपकरेइ, असुरो वि पकरेइ, नागो विपकरेइ। अत्थिणं भंते ! तमुक्काए बादरे थणियसद्दे बादरविजुयाए? हंता अस्थि / तं भंते ! किं देवो पकरेइ०? तिण्णि वि पकरेइ / अस्थि णं भंते ! तमुक्काए बादरे पुढवीकाए बादरे अगणिकाए? णो इणढे, णडण्णत्थविग्गहगइसमावन्नेणं / अस्थि णं भंते ! तमुक्काए चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवा? णो इणढे समढे, पलिपस्सओ पुण अत्थि। अत्थि णं भंते ! तमुक्काए चंदाभाइ वा, सूराभाइ वा? णो इणढे समढे, कादूस-णिया पुण सा / तमुक्काए णं भंते ! केरिसए वण्णेणं पण्णते? गोयमा ! काले कालोभासे गंभीरलोमहरिसजणणे भीमे उत्ता-सणए परमकिण्हे वण्णेणं पण्णत्ते, देवे वि णं अत्थेपइए जेणं तप्पढमयाए पासित्ता णं खुब्भाएजा, अहे णं अभिसमागच्छेजा, तओ पच्छा सीहं सीहं तुरियं तुरियं खिप्पामेव वीईवएज्जा! (केवइयं विक्खंभेणं ति) विस्तारेण / क्वचिद्-"आयामविक्खमेणं" इति दृश्यते। तत्र चाऽऽयाम उच्चत्वमिति / (संखेजवित्थडे इत्यादि) संख्यातयोजनविस्तृतः, आदितआरभ्य ऊर्द्ध संख्येययोजनानि यावत्, ततोऽसंख्यातयोजनविस्तृत उपरितस्य विस्तारगामित्वेनोक्तत्वात् / (असंखेज्जाइजोयणसहस्साइंपरिक्खेवेणं ति) संख्यातयोजनविस्तृतत्वेऽपि तमस्कायस्यासंख्याततमद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात्परिक्षेपस्यासंख्यातयोजनसहस्रप्रमाणत्वम्, आन्तरबहिःपरिक्षेपविभागस्तुनोक्तः, उभयस्याप्य-संख्याततया तुल्यत्वादिति / (देवे णमित्यादि) अथ किमैदंपर्यमिदं देवस्य महादिकं विशेषणमित्याह-(०जाव इणामेवेत्यादि) इह यावच्छब्द ऐदम्पर्यार्थः, यतो देवस्य महादिविशेषणानि गमनसामर्थ्यप्रकर्षप्रतिपादनाभिप्रायेणैव प्रतिपादितानि / (इणामेव 2 त्ति कटु त्ति) इदं गमनमेवमतिशीघ्रत्वाऽऽवेदकचप्पुटिकारूपहस्तव्यापारोपदर्शनपरम्, अनुस्वाराऽश्रवणं च प्राकृतत्वाद्, द्विवचनं च शीघ्रत्यातिशयोपदर्शनपर इति रूपप्रदर्शनार्थः / कृत्वा विधायेति / (केवलकप्पं ति) केवलज्ञानकल्पं, परिपूर्णमित्यर्थः / वृद्धव्याख्या तु-केवलः संपूर्णः कल्पत इति कल्पः, स्वकार्यकरणसमर्थो वस्तुरूप इति यावत्। केवलश्वाऽसौ कल्पश्चेति केवलकल्प
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________________ तमुक्काय 2165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तमुक्काय स्तम् / (तिहिं अच्छरानिवाएहिं ति) तिसृभिश्चप्युटिकाभिरित्यर्थः। (तिसत्तखुत्तो ति) त्रिगुणाः सप्त त्रिसप्त, त्रिसप्तवारान् त्रिसप्तकृत्व :, एकविंशतिवारानित्यर्थः / (हव्वं ति) शीघ्रम् (अत्थेगइयमित्यादि) संख्यातयोजनमानं व्यतिव्रजेत्, इतरं तु नेति। (उराला बलाहय त्ति) महान्तो मेघाः (संसेयं ति त्ति) संस्वेदनं, संमूर्छन, वर्षणं च (वायरविजुयाए त्ति) इह न बादरतेजस्कायिका मन्तव्याः, इहैव तेषां निपत्स्यमाणत्वात्, किं तु देवप्रभावजनिता भाग्वराः पुद्गलास्त इति / (णण्णत्थ विग्गहगइसमावण्णेण ति) नइति योऽयं निषेधो बादरपृथिवीतेजसोः सोऽन्यत्र विग्रहगतिसमापन्नान् विग्रहगत्यैव बादरे ते भवतः। पृथिवी हि बादर रत्नप्रभऽऽद्यास्वष्टासु पृथिवीषु गिरिविमानेषु च, तेजस्तु मनुजक्षेत्र एवेति, तृतीया चेह पञ्चम्यर्थे प्राकृतत्वादिति। (पलिपरसओ पुण अस्थि ति) परिपार्श्वतः पुनः सन्ति तमस्कायस्य चन्द्राऽऽदय इत्यर्थः / (कादूतणिया पुण सा इति) ननु तत्पार्श्वतश्चन्द्राऽऽदीनां सद्भावात्तत्प्रभापि तवाऽस्ति? सत्यम्, केवलं कमात्मानं दूषयति तमस्काय-परिणामेन परिणमनात्कदूषणा, सैव कदूषणिका। दीर्घता च प्राकृतत्वात्, अतः सत्यप्यसावसतीति। (काले त्ति) कृष्णः (कालोभासे त्ति) कालोऽपि कश्चित् कुतोऽपि कालो नावभासत इत्यत आह-- कालावभासः। कालदीप्तिर्वा, (गंभीरलोमहरिसजणणे त्ति) गम्भीरश्वासौ भीषणत्वाद्रोमहर्षजननश्वेति गम्भीररोमहर्षजननः / रोमहर्षजनकत्वे हेतुमाह-(भीमे ति) भीष्मः (उत्तासणएत्ति) उत्कम्पहेतुः। निगमयन्नाह(परमेत्यादि) यत एवमत एवाऽऽह-(देवे विणमित्यादि)(तप्पढमयाए त्ति दर्शनप्रथमतायाम् (खुभाएज ति) स्कम्नीयात् क्षुभ्येत्, (अहे णमित्यादि) अथैन तमस्कायमभिसमागच्छेत् प्रविशेत्ततो भयात् (सीहं सीहं ति) कायगतेरतिवेगेन (तुरियं तुरियं ति) मनोगतेरतिवेगात्। किमुक्तं भवति? क्षिप्रमेव (बीईवएज त्ति) व्यतिवभेदिति। भ०६ श०५उ० तमुक्कायस्सणं चत्तारिणामधेजा पण्णत्तातं जहा-तमेइवा, तमुक्कायेइ वा, अंधकारेइ वा, महंधकारेइ वा / तमुक्काय-स्स णं चत्तारि णामधेजा पण्णत्ता / तं जहा-लोगंधयारेइ वा, लोगतमसेइ वा, देवंधयारेइ वा, देवतमसेइ वा / तमुक्काय-- स्स णं चत्तारि णामघेज्जा पण्णत्ता / तं जहा-वायफलिहेइ वा, वायफलिहखोभेइ वा,देवारणेइ वा, देववूहेइ वा / तमुक्काए णं चत्तारि कप्पे आवरित्ता चिट्ठइ / तं जहा-सोहम्मीसाणं सणंकुमारमाहिंदं। (तमुक्कायेत्यादि) सूत्रत्रयं सुगमम् / नवरं तमसोऽप्कायपरिणामस्वरूपस्याऽन्धकारस्य कायः प्रचयस्तमस्कायो, यो ह्यसंख्याततमस्यारुणवराभिधानद्वीपस्य बाह्यवेदिकान्तादरुणोदाख्यं समुद्र द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यवगाह्योपरितनात जलान्तादेकप्रदेशिकया श्रेण्या समुत्थितः सप्तददशैकविंशत्यधिकानियोजनशतानि ऊर्द्धमुत्पत्त्य ततस्तिर्यग्विस्तृणन् सौधर्माऽऽदीन् चतुरो देवलोकानावृत्योर्द्धमपि ब्रह्मलोकस्य रिष्टविमानप्रस्तट संप्राप्तः,तस्य नामान्येव नामधेयानि तम इति तमोरूपत्वाद्, इति रूपप्रदर्शने, वा विकल्पे, तमोमात्ररूपताऽभिधायकान्याद्यानि चत्वारि नामानि / तथा पराणि चत्वार्येवात्यन्तिकतमोरूपताऽभिधायकानीति लोके अयमेवान्धकारो नान्योऽस्तीदृश इति लोकान्धकारः, देवानामप्यन्धकारोऽसौ, तच्छरीरप्रभाया अपि तत्राप्रभासनादिति देवान्धकारः / अत एव ते बलवतो भयेन तत्र नश्यन्तीति श्रुतिरिति / तथाऽन्यानि चत्वारि कार्याऽऽश्रयाणिवातस्य परिहननात परिघोऽर्गला, परिघ इव परिघो, वातस्य परिघो वातपरिघः, तथा वातं परिघवत क्षोभयति हतमार्ग करोतीति वातपरिक्षोभः, वात एव वा परिघस्तं क्षोभयति यस्य तथा / पाठान्तरेणवातपरिक्षोभ इति / क्वचिद्देवपरिधो देवपरिक्षोभ इति चाऽऽद्यपदद्वयस्थाने पठ्यते / देवानामरण्यमिय बलवद्भयेन नाशनस्थानत्वाद्यः स देवारण्यामिति / देवानां व्यूहः सागराऽऽदिः साङ् ग्रामिकव्यूह इव यो दुरधिगमत्वात्स देवव्यूह इति / तमस्कायस्वरूपप्रतिपादनायैव (तमुक्काए णमित्यादि) सूत्रं गतार्थम्। किंतु सौधर्माऽऽदीनाऽऽवृणोत्यसौ कुक्कुटपञ्जरसंस्थानसंस्थितस्य तस्य प्रतिपादनात्। उक्तं च-'तमुक्काएणं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते / गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिए, उप्पिं कुक्कुडपंजरसंठिए पण्णत्ते।" इति। स्था०४ ठा०२उ०। अथ पृथिव्यप्कायपर्यायतां पृथिव्यवायौ जीवपुद्गल रूपाविति तत्पर्यायता प्रश्रयन्नाहतमुक्कायस्स णं भंते ! कइनामधेज्जा पण्णत्ता? गोयमा ! तेरस नामधेजा पण्णत्ता / तं जहा-तमेइवा, तमुक्काएइवा, अंधकारेइ वा, महंधकारेइ वा, लोगंधकारे वा, लोगतमिस्सेइ वा, देवंधकारेइ वा, देवतमिस्सेइवा, देवारण्णेइवा, देववूहेइ वा, देवफलिहेइ वा, देवपडिक्खोभेइ वा, अरुणोदएइ वा समुद्दे / तमुक्काए णं भंते ! किं पुढविपरिणामे, जीवपरिणामे, आउपरिणामे, पोग्गलपरिणामे? गोयमा! नो पुढविपरिणामे, आउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि। तमुक्काए णं भंते ! सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता पुढविकाइयत्ताए०जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुव्वा? हंता / गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो, णो चेव णं बादरपुढविकाइयत्ताए, बादरअगणिकाइयत्ताए। (तमेइ वा इत्यादि) तमः, अन्धकाररूपत्वात इति एतद्, वा विकल्पार्थः, तमस्काय इति वा; अन्धकारराशिरूपत्वात्, अन्धकारमिति वा; तमोरूपत्वात्, महान्धकारमिति वा; महातमोरूपत्वात्, लोकान्धकारमिति वा, लोकमध्ये तथाविधस्यान्यस्यान्धकारस्याऽभावात, एवं लोकतमिस्रमिति वा; देवान्धकारमिति वा; देवानामपि तत्रोद्योताभावेनान्धकाराऽऽत्मभावात् / एवं देवतमिस्रमिति वा; देवाऽरण्यमिति वा,बलवदेवभयान्नश्यतां देवानां तथाविधारण्यमिव शरणभूतत्वात, देवव्यूह इति वा, देवानां दुर्भद्यत्वाद् व्यूह इव चक्राऽऽदिव्यूह इव देवव्यूहः, देवपरिध इति वा; देवानां भयोत्पादकत्वेन गमनविघातहेतुत्वात्, देवप्रतिक्षोभ इतिवा; तत्क्षोभहेतुत्वात् अरुणोदक इति वा समुद्रः अरुणोदकसमुद्रः,जलविकारत्वादिति / पूर्व पृथिव्यादेस्तमस्कायशब्दवाच्यता पृष्टा, अथ पृथिव्यप्कायपर्यायतां पृथिव्यप्कायो जीवपुद्गलरूपाविति तत्पर्यायतां प्रश्नयन्नाह-(तमुक्काए णमिति) बादरवायुवनस्पतयः त्रसाश्च तत्रोत्पद्यन्ते, अप्काये तदुत्पत्तिसम्भवाद्, न वितरेऽस्वस्थानत्वात् / अत उक्तम्-(नो चेव णं इत्यादि) भ०६ श०५उन
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________________ तमुक्काय 2166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तयप्पमाणमित्त देवास्तमस्कायं कुर्वन्ति तम्मियय न०(तन्मात्रज) शब्दाऽऽदीनि यानि पञ्च तन्मात्राणि सूक्ष्मजाहे णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुकायं काउंकामे | संज्ञानि, तेभ्यो जातमुत्पन्नं तन्मात्रजम् / अम्बराऽऽदिषु, स्था०२ भवइ, से कहमिदाणिं पकरेति? गोयमा ! ताहे चेव णं ईसाणे ठा०१3०। देविंदे देवराया अभिंतरपरिसाए देवे सद्दावेइ, तए णं ते | तम्मुत्ति स्त्री०(तन्मुक्ति) तेन विवक्षितेन उक्ता सर्वसङ्गेभ्यो विरतिअभितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा, एवं जहेव सक्कस्स० मुक्तिस्तन्मुक्तिः। तदुक्तसर्वसङ्गेन विरतौ, आचा०१ श्रु० 5 अ०४ उ०। जाव तए णं ते आमिओगिया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्का- | तम्मेत्त त्रि०(तन्मात्र) 'तम्मित्त' शब्दार्थे, सूत्र०१ श्रु०१अ० १उ०। यिए देवे सद्दावेंति। तए णं ते तमुक्कायिया देवा सद्दाविया समाणा तम्मेयय न०(तन्मात्रज) 'तम्मियय' शब्दार्थे, स्था०२ ठा०१उ०। तमुक्कायं पकरेंति, एवं खलु गोयमा ! ईसाणे देविंदे देवराया | तम्मोत्ति स्त्री०(तन्मुक्ति) 'तम्मुत्ति' शब्दार्थे, आचा०१ श्रु०५ अ०४उ०। तमुक्कायं पकरेइ / अत्थि णं भंते ! असुरकुमारा देवा तमुक्कायं तम्बिर न०(देशी) ताम्रस्यार्थे, प्रा०२ पाद। पकरेंति? हंता अस्थि / किंपत्तियं णं भंते ! असुर-कुमारा तय न०(तत) 'तत' शब्दार्थे, स्था०४ ठा०४उ०। देवा तमुकार्य पकरेंति? गोयमा ! किड्डार तिपात्तियं वा तयक्खाय पुं०(त्वक्खाद) त्वचं बाह्यवल्कं खादतीति त्वक्खादः। पडिणीयविमोहणट्ठयाए गुत्तीसंरक्खणहेओ वा अप्पणो वा त्वरभक्षके धुणाऽऽदौ, स्था०४ ठा०१३०॥ त्वक्कल्पाऽसारभो-तरि, सरीरपच्छायणट्ठयाए एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा साधौ चादश०१ अ०। तमुक्कायं पकरेंति, एवं०जाव वेमाणिया। तयण्णवत्थुक पुं०(तदन्यवस्तुक) तस्मात्परोपन्यासाद्वस्तुनो(जाहे णं इत्यादि) (तमुक्काए त्ति) तमस्कायकारिणः / (किड्डार- ऽन्यदुत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुकः। उपतिपत्तियं ति) क्रिडारूपा रतिः। अथवा-क्रीडा च खेलनं, रतिश्च निधुवनं न्यासोपनयोदाहरणभेदे, (स्था०) तस्मात्परोपन्यस्ताद्वस्तुनोऽक्रीडारतिः, सैव, त एव वा प्रत्ययः कारणं यत्र तत्क्रीडारतिप्रत्ययम् / न्यदुत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुकः / यथा जले (गुतीसंरक्खणहेओत्ति) गोपनीयद्रव्यसंरक्षणहेतोर्वेति। भ०१४ श०२ उ० पतितानि जलचरा इत्युक्ते, एतद्विघटनाय पतनादन्यदुत्तरमाह--यानि तमुयत्त न०(तमस्त्व) जात्यन्धतायाम्, अत्यन्ताज्ञानाऽऽवृततायाम्, पुनः पातयित्वा खादति नयति वा तानि किं भवन्ति, न किञ्चिदित्यर्थः, सूत्र०२ श्रु०२अ०। अयमपि ज्ञापकतया ज्ञातमुक्तः, अथवा यथा-रूढमेव ज्ञातमेव। तथाहितमोकसिय त्रि०(तमःकाषिक)तमसि कषितुं शीलं येषां तेतमःकाषिणः, न जलस्थलपतितानि पत्राणि जलचराऽऽदिसत्त्वाः संभवन्ति, तएव तमःकाषिकाः। पराविज्ञाताः क्रिया : कुर्वत्सु, सूत्र०२ श्रु०२अ०। मनुष्याऽऽद्याश्रितानीव। अयमभिप्रायः यथा जलाऽऽद्याश्रितत्वाजलतम्ब न०(ताम्र) तंब' शब्दार्थे , प्रा०१पाद। चराऽऽदितया तानि सम्पद्यन्ते, तथा मनुष्याऽऽद्याश्रिततया मनुष्याऽऽदितम्मण त्रि०(तन्मनस्) तस्य देवदत्ताऽदेस्तस्मिन् घटाऽऽऽदौ मन भवयूकाऽऽदितयाऽपि सम्पद्यन्ताम्, आश्रितत्वस्याविशेषात्, न च तानि स्तन्मनः। मनोविशेषे, स्था०३ ठा०३ उ०। तस्मिन्नेव मनोविशे तथाऽभ्युपगम्यन्त इति जलाऽऽदिगतानामपि जलचरत्वाऽऽद्यसंभव इति। स्था०५ ग०३उ०। कश्चिदाहयस्य वादिनोऽन्यो जीवः, अन्यच षोपयोगरूपं यस्य स तथा / तस्मिन् विशेषोपयुक्ते, अनु०॥ ग०। शरीरमिति तस्यान्यशब्दस्याविशिष्टत्वात्तयोरपि तद्वाच्याविशितद्विषयकद्रव्यमनोयुक्ते, विपा०१ श्रु०२ अ० ष्टत्वेनैकत्वप्रसङ्ग इति तस्य जीवशरीरापेक्षया तदन्यवस्तूपन्यासेन तम्मय त्रि०(तन्मय) तेषां विवक्षितानामनलानिलतणवनस्पतिगणानां परिहारः कर्तव्यः / कथम्? नन्वेवं सति सर्वभावानां परमाणुद्व्यविकारास्तन्मयाः / तद्विकारेषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। गुकघटपटाऽऽदीनामेकत्वप्रसङ्गः। अन्यः परमाणुरन्यो द्विप्रदेशिक तम्मयता स्त्री०(तन्मयता) तत्परतायाम्, षो० 12 विव०॥ इत्यादिना प्रकारेणाऽन्यशब्दस्याऽविशिष्टत्वात्तेषां तद्वाच्यत्वेनातम्मित्त न०(तन्मात्र) तदेव तन्मात्रम्। मयूरव्यसकाऽऽदित्वात् समासः। विशिष्टत्वादिति / तस्मादन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमित्येतदेव शोभतदात्मके, सा मात्रा यस्मिन्। "तस्मिस्तस्मिंश्च तन्मात्रा, तेनतन्मात्रता नमित्येतद् द्रव्यानुयोगे, अनेन चैतयोरप्याक्षेपः, तत्र चरणकरणास्मृता / तन्मात्राण्यविशेषाणि, अविशेषास्ततो हि ते / / 1 / / न शान्ता नुयोगेन मांसभक्षण इत्यादावेव कुग्राहे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः / नापि घोरास्ते, न मूढाश्चाविशेषिणः।" इत्युक्तेषु साङ्ख्योक्तेषु पञ्चसु कथम्? "न हिंस्यात्सर्वाणि भूतानि'' इत्येतदेवं विरुद्ध्यत इति / शब्दाऽऽदिकरणीभूतेषु भूतेषु, वाचा पश्च तन्मात्राणि / तद्यथा- लौकिकं तु तस्मिन्नेवोदाहरणे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः / “जहा गन्धरसरूपस्पर्शशब्दतन्मात्राऽऽख्यानि, तत्र गन्धतन्मात्राद् पृथिवी जाणि पुण पडिऊण पाडिऊण कोइ खाइ वा णेइ वा ताणि किं हवंति गन्धरसरूपस्पर्शवती, रसतन्मात्रादापो रसरूपस्पर्शवत्यः, रूपतन्मात्रा- | त्ति / ' दश०१ अ०६उ०। तेजो रूपस्पर्शवत्, स्पर्शतन्मात्राद्वायुः स्पर्शवान्। शब्दतन्मात्रादाकाशं | तयप्पमाणमित्त न०(त्वप्रमाणमात्र) तिलतुषत्रिभागमात्रे, तच्चाशनस्य गन्धरसरूपस्पर्शवर्जितमुत्पद्यत इति। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ० घटते। बृ०६उ०।
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________________ तयप्पमाणमेत्त 2167- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तरुण तयप्पमाणमेत्त न०(त्वक प्रमाणमात्र) 'तयप्पमाणमित्त' शब्दार्थे , (चत्तारितरगेत्यादि) व्यक्तम्, नवरंत्स्यतीति नरास्तुएवतरकाः, समुद्र बृ०६उ०। समुद्रवत् दुस्तर सर्वविरत्यादिकं कार्य तरामि करोमीत्येवमभ्युपगम्य तया स्त्री०(त्वक्) तृणवनस्पतिकायिकभेदे, स्था०८ठा०। छल्ल्याम्, तत्र समर्थत्वादेकः समुद्रं तरति, तदेव समर्थयतीत्येकः। अन्यस्तु जी०३ प्रति०४ उ०। रा०ा बाह्यवल्के, स्था०४ ठा० 130 / "तणुओ तदभ्युपगम्यासमर्थत्वाद्गोपदं तत्कल्पं देशविरत्यादिकमल्पतमंतरति, तिक्खत्तुओ, असोणिओ केवलं तयालग्गो।" आव०५ अगत्वगिवासारं निर्वाहयतीति / अन्यस्तु गोपदप्रायमभ्युपगम्य वीर्यातिरेकात्समुद्र भोक्तव्यमित्यर्थसूचकत्वात् त्वग् उच्यते, दशवैकालिकस्य द्रुमपुष्पि प्रायमपि साधयतीति। चतुर्थः प्रतीतः। समुद्रप्रायं कार्येतरित्वा निर्बाह्य काऽध्ययने, दश०। उक्तं च परममुनिभिः- "चत्तारि घुणा पन्नत्ता / तं समुद्रप्राये प्रयोजनान्तरे विषीदति, न तं निवाहयति, विचित्रत्वात् जहा-तयक्खाए, छल्लिक्खाए, कठक्खए, सरिक्खाए। एवमेव चत्तारि क्षयोपशमस्येति। एवमन्ये त्रय इति। स्था०४ ठा०४उ० भिक्खुगा पण्णत्ता।तं जहा-तयक्खाए०" इत्यादि। कल्पाऽसारभोक्तुः तरच्छ पुं०(तरक्ष) व्याघ्रविशेषे, प्रतिकाप्रश्रा प्रज्ञा० भ०ा स्त्रियां तरक्षी। कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो भवति। दश०१अ० प्रज्ञा० 11 पद। तयाणंतर न०(तदनन्तर) तम्मादव्यवहितोत्तरे, रा०॥ तरण न०(तरण) लङ्घने, सूत्र०१श्रु०११अा निस्तारणे, नि०यू० 130 / तयाणुग त्रि०(तदनुग) तदनुगन्तरि, "विवरीयपन्नसंभूय, अन्नं उत्तं पारगमने प्लवने च। आ०चूला तरणं चउद्धाणामादिएहिं / णामट्टवणाओ तयाणुगे।" सूत्र०१ श्रु०१ अ०४उ० गताओ। दव्वतरणे तिन्नि तरिजंति / तं जहा-दव्व-तरओ, दव्वतरणं, तयामुह पुं०(त्वचामुख) सुखकारिणि, कल्प०३क्षण / दव्वतरियव्वयं / तत्थ दव्वतरओ पुरिसाऽऽदी, दव्वतरणं उडुवादि, दव्वतरियव्वं णदीसमुद्दसराऽऽदि। एवं भावतरणे विणिवरं भावतरओ तयामंत त्रि०(त्वग्वत्) त्वग्विद्यते यस्याऽसौ। विशिष्टत्वक्शालिनि, रा०) जीवो, भावतरणं णाणाऽऽदि, भावतरिय-व्वयं संसारो चउविहो / एवं तयाविस पुं०(त्वग्विष) त्वचि विषं यस्य स त्वग्विषः / प्राकृतत्वात् प्लवनमपि तरति। आ०चू०१अ०। 'तयाविसो'। दर्वीकरसर्पभेदे, जी०१ प्रतिका तरमट्ट (देशी) प्रपुन्नाटे, दे०ना०५ वर्ग 5 गाथा। तयाहार पुं०(त्वगाहार) त्वहमात्राऽऽहारकवानप्रस्थविशेषे, औ०। तरतम त्रि०(तरतम)न्यूनाधिकभावान्वितेऽर्थे, तारतम्येन वर्तमान इति तर पुं०(तर) तरतीति तरः। स्था०५ ठा०१उ०। "ऋवर्णस्यारः" शारीरकभाष्यम्।वाच० "तरतमजोगजुत्तेहिं जालयपरेहिं अण्पुण्णमिव / / 4 / 23 / / इति ऋधातोरन्त्यस्य ऋवर्णस्यार इत्यादेशः। प्रा०४ अणुप्पइत्तं पिच्छइ।' कल्प० ३क्षण। पाद / संतरणकर्तरि, तरशब्दो महादोषप्रदर्शन, यथा कृष्णः, कृष्णतर तरमल्लिद्दायण त्रि०(तरमल्लिदायन) तरो वेगो, बलं वा। तथा 'मल-- इत्यादि। नि०चू०१ उ० मल्ल' धारणे / ततश्च तरो मल्ली धारको वेगाऽऽदिधारको, हायनः *शक धाo। 'शक' सामर्थ्य , "शके श्चय-तर-तीर--पाराः" संवत्सरो वर्तते येषां ते तरमल्लिहायनाः। यौवनवत्सु, औ०। (?) |||4|16|| इति शक्नोतेर्वा 'तर' इत्यादेशः। 'तरइ। प्रा०४ पाद। तरमाण त्रि०(तरत्) समर्थे, नि०चू०१ उ० जी०। *तरस् न। वेगे, बले च। औ०। तरलियमइ स्त्री०(तरलितमति) विसंस्थुलबुद्धौ, जी०१ प्रतिका तरंग पुं०(तरङ्ग) तृ-अङ्ग-अच् / वायुना जलस्य संचालनेन तिर्य तरस (देशी) मांसे, दे०ना०५ वर्ग 4 गाथा। गूर्वाऽऽदिप्लवने, वाचा कल्लोले, प्रश्न०३ आश्रद्वार। अष्टा कल्प०। तरिअव्व त्रि०(तरितव्य) निचोंढव्ये, "तरिअव्वं व पइन्निअ, मरिमव्वंवा वीचिषु, जं०२ वक्ष०ा औ०। ह्रस्वकल्लीले,ज्ञ०१ श्रु०८ अ०। औ०) समरे समत्थेणं।" आव०४ अ० उडुपे, दे०ना०५ वर्ग 7 गाथा। तरंगणंदण पुं०(तरङ्ग नन्दन) स्वनामख्याते राज्ञि, यस्य गति तरित्तए अव्य०(तरीतुम्) लड्घयितुमित्यर्थे, प्रति०। तरङ्गानामा भार्या, रतितरङ्गिणीनामा दुहिता / दर्श०३ तत्व। तरिया स्त्री०(तरिका) घृतदध्यादेविकृतेऽवयये, 'पक्क गयं तरंगमालि(ण) पुं०(तरङ्गमालिन) समुद्रे, को। घयकिट्टी,पक्कोसहि उवरितरियसप्पिं च।" ध०२अधिका तरगवई स्त्री०(तरडवती) स्वनामख्यातायां नायिकायाम्, तरङ्ग- | तरुofतरुत-उ-गणः। तरु पुं०(तरु)तृ--उ-गुणः।वाचा क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो वतीवक्तव्यताप्रतिबद्धे कथ ग्रन्थे, दश०३अ आ०म०॥ लुक"।८।१।१७७।। इह स्वरादसंयुक्तस्थाना-देरित्यतोऽनादेरित्यतरग त्रि०(तस्क) तरन्तीति तरस्तिएव तरकाः। पारगन्तृषु, (स्था०) धिकाराल्लुग्न०प्रा०१ पाद / वृक्षे दश०१०। चत्तारितरगा पण्णत्ता। तं जहा-समुदं तरामी एगे समुई तरह, तरुण त्रि०(तरुण) जन्मपर्यायेण षोडशवर्षाण्यारभ्य याश्चत्थासमुदं तरामी एगे गोपयं तरइ, गोपयं तरामी एगे गोपय तरइ, रिंशद्वर्षाणि तावत्तरुणः / व्य०३३०॥ इत्युक्तलक्षणे प्रवर्द्धमा, नवयसि, गोपयं तरामी एगे समुदं तरइ 4 / चत्तारि तरगा पण्णत्ता / तं भ०१४ श०१उ०। सूत्र०। ग०। उत्त०। नूतने, कल्प०३ क्षण / औ०। जहा-समुदं तरित्ता णाममेगे समुद्दे विसीयइ,समुदं तरित्ता 'तरुणदिवाकरकरेहि।' औ०। विशिष्टवर्णाऽऽदिगुगोपेतेऽभिनवे वस्तुनि, णाममेगे गोपए विसीयइ, गोपयं तरित्ता एगे०४ / / जी०३प्रति०२उ०। जाण
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________________ तरुणग 2118 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तलिम तरुणग त्रि०(तरुणक) स्तनन्धये, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४उ० अभिनवे, आ०म०। तालो वृक्षस्तत्र भवं तालम् / तालवृ-क्षफले, व्य०१ उ०। भ०१५ श० ग्रामेशे, शय्यायां च। देवना०५ वर्ग 16 गाथा। तरुणदिवाकर पुं०(तरुणदिवाकर) अभिनवोदिताऽऽदित्वे, आव०४ तलअण्ट धा०(भ्रम) "भमेष्टिरिटिल्लः-दुण्ढुल्ल-ढण्ढल्लअ०। अन्ता चकम्म-मम्मड-ममड-भमाड-तलअण्ट-झण्ट-झम्प-भुम-गुमतरुणधम्म त्रि०(तरुणधर्म) अविपक्वपर्याय, नि०चू०१६ उ०। तारुण्ये फुम-फुस-दुम-दुस-परी-पराः" 84|161 / / इति भ्रम-धातोः वर्तमाने, आ०म०१ अ०२खण्ड। 'तलअण्ट' इत्यादेशः / 'तलअण्टइ। प्रा०४ पाद / चलने, दिवा०तिहाऽऽरेण समाणं, होइ पकप्पम्मि तरुणधम्मा उ। पर०-सक०-सेट् / भ्राम्यति, अभ्रमीत्। वाचा पंचण्ह दसाकप्पे,जस्स व जो जत्तिओ कालो।। तलआगत्ती (देशी) कूपे, दे०ना०५ वर्ग 8 गाथा। व्रतपर्यायमधिकृत्य तिसृणां समानां वर्षाणामारेणार्वाक् वर्तमानः प्रकल्पे तलओडा स्त्री०। गुच्छभेदे, 'तेलेडा' इति गुर्जरदेशे प्रसिद्धम्। प्रज्ञा०१ पद। निशीथाऽध्ययने तरुणधर्मा अविपक्कपर्यायो भवति, पञ्चानां वर्षाणा तलजमलजुगलबाहु त्रि०(तलयमलयुगलबाहु) तलौ तालवृक्षौ मर्वाक् वर्तमानस्तु (दसाकप्पे ति) उपलक्षणत्वाद्दशाकल्पव्यवहाराणां तयोर्यमलं युगलं श्रेणिकयुगलं तलयमलयुगलं, तद्वत् अतिसरलौ पीवरी बाहू यस्य सः / तालवृक्षसदृशातिसरलपीवरबाही, रा०ा जी०। तरुणधर्मा ज्ञातव्यो, यस्य वा सूत्रकृताङ्गाऽऽदेः श्रुतस्य, यो यावान् कालो तलयमलयुगलपरिघनिभबाहुः। तलौ तालवृक्षौ तयोर्यमलं समश्रेणिकं व्यवहाराध्ययने दशमोद्देशके भणितः, तस्य तावन्तं कालमसमापयन् यद्युगलं द्वयं परिघश्चार्गला, तन्निमौ तत्सदृशौ दीर्घसरलपीनत्वाऽऽदिना तरुणधर्मा भवति। यथा-"कप्पइचउवासपरियायसमणस्स निगंथस्स बाहू यस्य सः! भ० 14 श०१उ०। सूअगडं नाम अंग उद्दिसित्तए।" इत्यादि। बृ०१उ०। तलण न०(तलन) सुकुमारिकाऽऽदेरिव भ्राष्ट्रभर्जन, प्रश०१आश्र० द्वार / तरुणपरिकम्म न०(तरुणपरिकर्म) रोगग्रस्तस्य सतस्तरुणस्य अग्नौ स्नेहेन भर्जने, विपा०१ श्रु० ३अ०। बलविवृद्धिकरणे, व्य०४उ०। तलताल पुं०(तलताल) हस्तताले, कल्प०१ क्षण। सू०प्र०ा चं०प्र०। तरुणप्पभ पुं०(तरुणप्रभ) खरतरगच्छीये जिनकुशलसुरिशिष्ये, अनेन कल्प०। ज्ञा० भ०ा हस्तकंशिकयोः, कल्प०४ क्षण1 चं०प्र०) विक्रमसंवत् 1411 मिते श्रावकप्रतिक्रमणविवरणं नाम ग्रन्थो रचितः। तलपत्त न०(तालपत्र) तालाभिधानवृक्षपणे , शा०१ श्रु०१७अ01 जै० इ०॥ तलप्फल (देशी) शाल्याम्, देना० 5 वर्ग 7 गाथा। तरुणिया स्त्री०(तरुणिका) अपरिपक्वायाम, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ० तलभंगय पुं०(तलभङ् गक) बाह्वाभरणविशेषे, जी०३ प्रति०४ तरुणीपडिकम्मन०(तरुणीप्रतिकर्म) एतदेकत्रिंशत्तमकलाभेदे, युवतीनां उ०। औला वर्णाऽऽदिवृद्धरूपायां सङ्गसत्क्रियायाम, जं०२ वक्ष०। ज्ञा०। औ०। तलवत्त (देशी) करणाऽऽभरणविशेषे,वराहे च / देवना०५ वर्ग 21 गाथा। तरुणीपरिकम्म (तरुणीपरिकर्म) 'तरुणीपडिकम्म' शब्दार्थे , तलवर त्रि०(तलवर) परितुष्टनरपतिप्रदतपट्टबन्धविभूषिते राजजं०२ वक्ष। स्थानीये, स्था०६ठा०ा औला पञ्चा०प्रज्ञा० भ० जी०। कल्पाजंग। तरुतिगिच्छा स्त्री०(तरुचिकित्सा) वृक्षाणां रोगप्रतीकारलक्षणे रा०ा अन्त०। ज्ञा० अनु०। बृ०॥ एकोनपञ्चाशत्पुरुषकलाभेदे, कल्प०७ क्षण। तलविंट न०(तालवृन्त)"वाऽव्ययोत्खातादावदातः" ||8/1167|| तरुपक्खंदोलय त्रि०(तरुपक्षान्दोलक) तरुपक्षे तरुपायें आत्मा- | इत्याकारस्यात्वम्। पक्षे-तालविण्टम्।प्रा०१ पादाताले करतले वृन्तं नमान्दोलयन्ति ये ते तथा। तरुपक्षान्दोलनात्पातेन मृतेषु, औ०। बन्धनमस्य, तालस्येव वृन्तमस्य वा / व्यजने, वाचा तरुपडण न०(तरुपतन) पिष्पलवटाऽऽदितरुनारुह्य उत्पत्य पतने, | तलबेट न०(तालवृन्त) 'तलविंट' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। नि०यू०११ उ० भ० तलसारिअ (देशी) गालिते, देवना०५ वर्ग 6 गाथा। नालिके, दे०ना० तरुपतणट्ठाण न०(तरुपतनस्थान) यत्र मुमूर्षव एवानशनेन तरु- 5 वर्ग गाथा। वत्पतितास्तिष्ठन्ति, तरुभ्यो वा यत्र पतन्तिा तथाभूतेस्थाने, आचा०२ तलाअ पुं०(तडाग) "डो लः" ||1202 / / इति डस्य लः। प्रा०१ श्रु०२ चू०३अ01 पाद / पुरुषाऽऽदिकृते जलाऽऽश्रयविशेषे, प्रश्न०४ संब० द्वारा प्रज्ञा०। तल पुं०(तल) हस्ततले, जं०१ वक्ष नि०चूल आ०म० जी०। औ०। अनु० आ०म०। आचा० आव०। रा० पाणिपादानामधोभागे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० तं०ा हस्ते, स्था०८ ठा०। | तलाग पुं०(तडाग) 'तलाअ' शब्दार्थे , प्रश्न०४ संवन्द्वार। चं०प्र०। ज्ञा०1 औ०। कन्प्रत्ययोऽप्यत्र / आ० म०१ अ०१ खण्ड। | तलार (देशी) नगररक्षके, दे०ना०५ वर्ग 3 गाथा। मध्यखण्डे, स्था०८ ठा०। अधोभागे, ज्ञा०१ श्रु०१ उ०। प्रतिष्ठाने, तलिण न०(तलिन) प्रतले, औ०। "उम्मग्गनिमग्गदुल्लहतलं।" प्रश्र०३ आश्र० द्वार। हस्तताले, रा०1 | तलिड न०(तल्प) शयनीये, ज्ञा०१ श्रु० १६अ। कुट्टिमे, शय्यायाम्, ज्ञा०ा दशा०। अतिदीर्घ तालाभिधाने वृक्षो ज्ञा०१ श्रु० ८अ० जी० / गृहोर्ध्वभूम्याम्, वासभवने च / दे०ना०५ वर्ग 20 गाथा।
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________________ तलिमा 2166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तव तलिमा स्त्री०(तलिमा) तूर्यवाद्यभेदे, नं०। आ०म०। तलिय त्रि०(तलित)स्नेहपक्वे,नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ० नि०चूला तलिया स्त्री०(तलिका) उपानहि, बृ०॥ तलियाउ रत्तिगमणे, कप्पइ तेणे य सावए असहू। पुडगा विचच्चरीए, बद्धी पुण चिन्धसंघट्ठा।। तलिकाः क्रमणिकाः, ताश्च रात्रौ गमने कण्टकरक्षणार्थ पदेषु बध्यन्ते, सार्थवशाद्वा पन्थानं मुक्त्वा तत्पथेन गच्छतां स्तेनभयेन, श्वापदभयेन च त्वरितं गम्यमाने दिवाऽपि बध्यन्ते, असहिष्णुः सुकुमारपादः, स कण्टकसंरक्षणार्थं क्रमणिकाः पादयोर्बध्नाति।ताश्च प्रथममेकतलिकाः, तदप्राप्तौ यावच्चतुस्तलिका अपि गृह्यन्ते। पुटकानि खल्लकानि,तानि शीतेन पादयोर्विचर्चिकासु विपादिकासु स्फुटतीषु बध्यन्ते / वध्री पुनस्तलिकाऽऽदीनां चिह्नानां त्रुटितानानां सङ्घटनं तदर्थ गृह्यते। बृ०१ उ01 धाव्या नि०चूला ओघ०। तलुण त्रि०(तरुण) प्रत्यग्रे, ज्ञा०१ श्रु० 16 अ०। प्रवर्द्धमानवयसि, आ०म०१ अ०२ खण्ड। राण तल्ल (देशी) पल्ल्वले, वरुणाऽऽख्ये तृणे, शय्यायां च / दे०ना०५ वर्ग 16 गाथा। तल्लअ पुं०(तल्लज) तृणविशेषे, प्रश्न०३ सम्ब०द्वार। तल्लक पुं०। सुराविशेषे, जं०२ वक्षा तल्लड (देशी) शय्याम, देखना०५ वर्ग 2 गाथा। तल्लिच्छ (देशी) तत्परे, दे०ना०५ वर्ग 3 गाथा। तल्लेस्स त्रि०(तल्लेश्य) तत्रैव लेश्या शुभपरिणामरूपा यस्य सः। ग०२ अधि० अनु० लेश्या हि कृष्णाऽऽदिद्रव्यसाचिव्यजनित आत्मपरिणामः / तद्विषयलेश्यायुक्ते, विपा०१ श्रु०२अ०॥ तव पुंगा (तपस्) "स्नमदामशिरोऽनभः" ||8/1:32 / / इति प्राकृते पुंस्त्वम् / प्रा०१ पाद / तप्यतेऽनेनेति तपः। तापयति अष्टप्रकारं कर्मेति तपतेरौणाऽऽदिकोऽसुप्रत्ययः। आ०म०१अ० 2 खण्ड / तापयति कर्म दहतीति तपः। पञ्चा०१६ विव० साताप्यन्तेरसाऽऽदिधातवः कर्माणि वा अनेनेति तपः। ध० ३अधि०आ०म०। रसरुधिरमासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राण्यनेन तप्यन्ते, कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपोनामनिरुक्तम्। स्था०५ ठा०१उ०। चतुर्थाऽऽदिषण्डासान्ते (स्था० ६ठा०) अनशनाऽऽदौ, प्रश्न०४ संब० द्वार / आव०। उत्त०। सूत्र०। नं०। रा०ा संथा०। दश०। प्रव० भद्रमहाभद्रप्रतिमासु, उत्त०३० अ०) ___ तपोनिक्षेपःनिक्खेवो उ तवम्मी, चउव्विहो दुविहो उ होइ दव्वम्मि। आगम-नोआगमओ, नोआगमतो य सो तिविहो // 43|| जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते य पंचतवमाई। भावम्मि होइ दुविहो, बज्झो अभितरो चेव॥४४|| मग्गगईणं दुण्ह वि, पुबुदिह्रो चउक्कनिक्खेवो। पगयं तु भावमग्गे, सिद्धिगईए उ नायव्वं / / 4 / / दुविहतवो मग्गइ वा, निजइ वा जम्ह एत्थ अज्झयणे। तम्हा एयऽज्झयणं, तवमग्गगइत्ति नायध्वं // 46|| गाथाचतुष्टयं प्राग्यन्नवरं (पंचतवमाइ त्ति) पञ्चतपः पञ्चाग्नितपो यत्र चतसृष्वपि दिक्षु चत्वारोऽग्नयः; पञ्चमश्च तपनः। तल्लो के प्रसिद्धमादिशब्दाल्लोकप्रतीतमन्यदपि बृहत्तपः प्रभृति तपो गृह्यते, द्रव्यत्वं चास्याज्ञानमलमलिनत्वेन तथा-विधशुद्धानङ्गत्वात् तथाभावे प्रक्रमात्तपो बाह्यमाभ्यन्तरं चात्रैव वक्ष्यमाणस्वरूपं,तथा (पुव्वुद्दिट्टो त्ति) पूर्वत्र मोक्षमार्गगतिनामकेऽध्ययने उद्दिष्टः कथितः पूर्वोद्दिष्टः (भावमग्ग त्ति) सुष्व्यत्ययागावमार्गेण मुक्तिपथेन तपोरूपेण ज्ञानदर्शनचारित्राविनाभावित्वाद्धावतपसः। उत्त० पाई० 30 अ०॥ नामनिरुक्तिमाहजहा उ पावयं कम्मं, रागदोससमज्जियं / खवेइ तवसा मिक्खू, तमेगग्गमणो सुण ||1|| यथा येन प्रकारेण भिक्षुस्तपसा रागद्वेषसमर्जितं रागद्वेषाभ्यामुपार्जित कर्म क्षपयति, तुशब्दः पादपूरणे / तं तपोमार्गम्, एकाग्रमनाः सावधानचित्तः सन्त्वं शृणु-हे जम्बूस्वामिन्। अहं वदामीति सम्बन्धः, अनाश्रवेण किल कर्मक्षयः क्रियते // 1 // पाणिवहमुसावए-अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ। राईभोयणविरओ,जीवो होइ अणासओ // 2 // हे शिष्य ! ईदृशो जीवो निराश्रवो भवति,कीदृशः? प्राणिवध-- मृषावाददत्तमैथुनपरिग्रहाद्विरतो रहितः, पुत्रा रात्रिभोजनविरतः, एतादृशोऽनाश्रवो भवति / / 2 / / पुनरनाश्रयो यथा भवति तमाहपंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। अगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो // 3 // कीदृशो? जीवः पञ्चभिः समितिभिः समितः सहितः पञ्चसमितः, पुनस्तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तः, पुनरकषायः कषायरहितः पुनर्जितेन्द्रियः वशीकृतेन्द्रियः, पुनरगारव ऋद्धिरससाताऽऽदिगर्वरहितः, पुनर्निःशल्यः मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यै स्त्रिभी रहितः एतादृशोऽनाश्रवो भवति ||3|| एवंविधोऽनाश्रवश्व यथा क्षपयति, तथा वदतिएएसिं तु विवचासे, रागदोससमज्जियं। खवेइ जं जहा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण / / 4 / / हे शिष्य ! यथा येन प्रकारेण भिक्षुः साधुरेतेषां पूर्वोक्तानां प्राणातिपादमृषावादादत्तमैथुनपरिग्रहरात्रिभोजनविरतिलक्षणानां व्रतानां तथा समितिगुप्त्यादिलक्षणानामनाश्रवकारणाना विपर्यास वैपरीत्ये प्राणिवधमृषावादादत्तमैथुनपरिग्रहरात्रिभोजनसमित्यभावगुप्त्यभावसेवने सति रागद्वेषाभ्यां समर्जितं सञ्चितं पापकर्म क्षपयति, तं प्रकारमेकाग्रमना एकचित्तः सन् त्वं शृणु // 4 // अत्र दृष्टान्तमाहजहा महातलागस्स, सन्निरुद्धे जलागमे। उस्सिचणाऐं तवणाए, कमेणं सोसणा भवे // 5|| यथा महातटाकस्य महाजलाऽऽश्रयस्य जलाऽऽगमे पानीयाऽऽगमनमार्गे सन्निरुद्ध सम्यक् प्रकारेण संवृते सति (उस्सि
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________________ तव 2200 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तव चणाए त्ति) उत्सिञ्चनया ऊर्द्ध अग्धट्टाऽऽदिना ऊर्ध्वाऽऽकर्षणया, तपनेन रविकिरणाऽऽदिना संतापेन क्रमेण शोषणा जलस्य शोषणं भवेद, नवीनजलाऽऽगमनमार्गो निरुध्यते, पूर्वस्थजलं च निष्कास्यत, जलहृदो रिक्तः स्यात्, इति भावः // 5 // अथदान्तिकमाहएवं तु संजयस्साऽवि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडिसचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ / / 6 / / एवममुना प्रकारेण, पापकर्मनिराश्रवे सति पापकर्मणां प्राणिबधाऽऽद्यानां निरोधे सति, सयतस्यापि साधोरपि, तपसा द्वादशविधेन, भवकोटिसंचितं कर्म निजीर्यते, आधिक्येन क्षयं नीयते। अत्र कोटाग्रहण बहुत्वोपलक्षणं,कोटानियमस्य असंभवात्॥६|| उत्त०३० अ०। तप६ आभ्यन्तरं,६ बाह्यम-"दुविहे तवे पण्णत्ते। तं जहा-बाहिरिए य, अभिंतरिएयासे किं तं बाहिरिएतवे? बाहिरिए तवे छविहे पण्णत्ते। तं जहा-" अणसणं, ऊणोयरिया, भिक्खायरिया सपरिचाओ। कायकिलेसो,पडिसलीणया।" भ०२५ श०७ उ०। धा औला दशा स०। आ०म०। स्था०। पञ्चा०ा आ०चू०आचा० नं०। उत्त०ा जीता कूडाहचं।" तपोजन्यं तेजस्तप एव, तेन तेजोलेश्यया। भ०१५ शन दुःखहेतुत्वात्तपोन कायेमिति केषाञ्चिन्मतनिरासः। वैराग्ययुक्तेन तपो विधेयमतो वैराग्याष्टकानन्तरं तपोऽष्टकमारभ्यते; तत्रापि परमतमाशङ्कमान आहदुःखाऽऽत्मकं तपः केचिन्मन्यन्ते तन्न युक्तिमत्। कर्मोदयस्वरूपत्वावलीवाऽऽदिदुःखवत्।।१।। दुःखमसुखमात्मा स्वभावो यस्य तद् दुःखाऽऽत्मकं, किं तत्? तपोऽनशनाऽऽदिरूपमिति कृत्वा,के चिदनधिगतपरिगताऽऽगमगर्भाथीः, मन्यन्ते अभ्युपगच्छन्ति तदिति तपो, न नैव,युक्तिमत् उपपत्त्या सङ्गतंन,मोक्षाङ्गं तप एव न संभवती त यावत्। अथ दुःखाऽऽत्मकमपि सत्कस्मान्न मोक्षाङ्गमित्याह-कर्मोदयस्वरूपत्वादिति / कर्मोदयोsसातवेदनीयाऽऽदिकर्मविपाकः स्वरूपं स्वभावो यस्य तत्तथा तद्भावस्तत्त्वं तस्मात् / तथाहि-भवन्त्यनशनाऽऽदिषु क्षुत्पिपासाऽऽदयः परिषहः ते च वेदनीय कर्मोदिय सपाद्या आगमे श्रूयन्ते,इति वेदनीयकमोदयाऽऽत्मकमनदानाऽऽदिकर्मोदयस्वरूपत्वाचन मोक्षाङ्ग त त्किञ्चिदित्याह-व गीवाऽऽविदुःखवत्-गवादिभतासातमिव / प्रयोगश्चैवम्यत्कर्मादयस्वरूप, नतन्मोक्षाङ्ग, यथा गवादिदुःख, कर्मोदयस्वरूपंच तपः, तस्मात् मोक्षाङ्गमिति स्थितम्। अयं च श्लोकार्थ इमां पञ्चवस्तुकगाथामुपजीव्य मयाऽभिहित:--''एएण जंपि केई. णोऽणसणाई दुहं ति मोक्खंग। कम्मविवागत्तणओ, भणंति एवं पिपडिसुद्धं / / 1 / / '' इति 11 / अथ दुःखस्वरूपस्यापितपसो मुक्तिमत्त्वाभ्युपगमे पर एव प्रसङ्गमाहसर्व एव च दुःख्येवं, तपस्वी संप्रसज्यते। विशिष्टस्तद्विशेषेण, सुधनेन धनी यथा / / 2 / / सर्व एव निरवशेष एव यः कश्चिद् दुःखी दुःखवान्, चशब्दो दूषणान्तर समुचये, एवं दुःखाऽऽत्मकस्याऽपि तपसो युक्तिमत्वाभ्युपगमे सात, स तपस्वी तपोयुक्तः, संप्रसज्यते प्राप्नोति, अनशनाऽऽदिदुःखस्यः व्याध्यादिदुःखस्यचदुःखत्वावशेषात्, दुःखाऽऽत्मकरयतपसोऽभ्युपगमे / च दुःखन्यैव तपस्त्वेनाभ्युपगमादिति भावः। तथा विशिष्टः प्रधानतरः तपस्वी प्रसज्यते इति प्रक्रमः। केनेत्याह-ताद्वशेषेण हेतुना / क इव कनेत्याह-सुधनेन प्रचुरधनेन, धनी महाधना, यथा येन प्रकारेणेति।।२।। अथ सर्व एव दुःखी तपस्वी प्रसज्यतां, को दोषः? आहमहातपस्विनश्चैवं, त्वन्नीत्या नारकाऽऽदयः। शमसौख्यप्रधानत्वाद्, योगिनस्त्यतपस्विनः।।३।। महातपस्विनः विशिष्टतपोधनाः, प्रसज्यन्ते इति गम्यते, चकारो दोषन्तरसमुच्चये, एवमुक्तप्रकारया. त्वन्नोत्या भवन्न्यायेन, दुःखो तपस्वी अभ्युपगमलक्षणेनेति भावः / नारकाऽऽदयो नैरयिकाऽऽदयः, तेषां महादुःखितत्वात्, तदिशब्दान्महावेदनाऽभिभूततियगादेः परिग्रह / शमः स एव सौख्यं शमसौख्यम् / यदाह-"तणसंथारनिसण्णो, वि मुणिवरो भट्टरागगयमोहो / ज पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो तं चक्कयट्टी वि?"||१|| शरसौख्यं प्रधानं येषां ते, तेन वा प्रधाना ये ते तथा, तद्भावस्तत्त्वं, तन्माच्छमसौख्यप्रधानत्वाद्, दुःखितत्वादित्यर्थः / योगिनः समाधिमन्तः, तुशब्दः पुनरर्थः, अतपस्विनः अतपोधनाः, दुःखाऽऽत्मकतपसोऽभावादिति भावना त्वन्नीत्या प्रसज्यन्त इति प्रकृतमेवेति / / 3 / / पर एव स्वपक्षं निगमयन्नाहयुक्त्यागमवहिर्भूतमतस्त्याज्यमिदं बुधैः। अशसाध्यानजननात्, प्राय आत्माऽयकारकम् // 4 // युक्तिश्चोपपत्तिः, आगमश्चाऽऽत्तवचनं, ताभ्या बहिर्भुतं नदनमुपाति तद्बाधित युक्त्यागमबहिर्भूतं तत्र युक्तिवहिभूतता प्रागुपदर्शिता। आगमबहिर्भूतता चैवमवगन्तव्या-''भावियजिणवयणाणं, ममतगहियाण नऽत्थि उ विसेसो, अप्पाणम्मि परम्मिय, तो यजे पीडमुभओ वि।१।। अनशनाऽऽदौ तु स्वकायपीडा प्रतीतैवेति / अत इति, यस्मादनन्तरोदितदूषणोपेतमत एतस्माद्धेतोस्त्याज्यं त्यागद्देमिढ मनशनाऽऽदि दुःखाऽऽत्मकं तपः। कैरित्याह-बुधैर्युक्त्यागमहृदयज्ञैः न तैर्लोकळ्या प्रवर्तितव्यं भवति बुवत्वाभावप्रसङ्गादिति हृदयम्। तथाऽऽत्माऽपकारकं स्वत्यानर्थनवन्धनामदं कुतः? अशस्तध्यानजननात् अप्रशस्ताध्यवसायोत्पादकत्वात्, प्रयो बाहुल्येन, उत्पद्यते हि भोजनाऽऽद्यभावे अप्रशस्तं ध्यानम्। यदाह- "आहारवर्जिते देहे, धातुक्षोभ प्रजायते। तत्र चाऽधिकसत्त्वोऽपि, चित्तभ्रंशं समश्नुते॥१॥" इह च प्रायोग्रहणात् थीमन्महाराऽऽदिभिर्व्यभिवारपरिहारो दर्शित इति, अतोऽपि त्याज्यमेवेद बुधैरिति प्रक्रम इति पूर्वपक्षः ||4|| अत्र सूरिरुत्तरमाहमनइन्द्रिययोगानामहानिश्चेदिता जिनैः। यतोऽत्र तत्कथं न्वस्य,युक्ता स्याद् दुःखरूपता? / / 5 / / पूर्वपक्षवादिना यदुक्तम् दुःखाऽऽत्मकं तपो न युक्तिमत, कर्मोदयस्वरूपत्वात्, तत्र दुःखाऽऽत्मकमिति विशेषणं तपसो न सिद्धागति तावदोक्दयति-कथम्? मनश्च चित्तमिन्द्रियाणि च करणानि, योगाश्च प्रत्युपेक्षणाऽऽदयः संयमव्यापारा मनइन्द्रिययोगाः, तेषामहानिनाबाधता, चोदिता अभिहिता / अथवा-वशब्दः समुचये, तेनानुप्लुतता च, उदिता उक्ता, जिनैस्तीर्थकरैः, यतो यस्मात्कारणात, अत्र तपसि। यदाह“सो हु तवो कायव्वो,जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ। जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति॥१॥
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________________ तव 2201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तव तथा"ता जह न देहपीला, न यावि चुयमससोणियत्तं तु। जह धम्मझाणवुड्डी, तहा इमं होइ कायव्वं // 2 / / " तदिति तस्मात्कारणात्, कथं केन प्रकारेण? न कथञ्चिदित्यर्थः। नु इति वितर्के, अस्य तपसः,युक्ता उपपन्ना, स्याद्भवेत्, दुःखरूपता असुखस्वभावता / तदेवं दुःखाऽऽत्मकत्वं तपसोऽसिद्ध, तदसिद्धावयुक्तिमत्त्वमप्यसिद्धमित्युक्तमिति // 5|| ननु देहपीडाकरत्वेनाऽनशनाऽऽदीनां दुःखस्वरूपत्वमनुभूयमानमपि कथमसिद्धमिति व्यपदिश्य त इत्याहयाऽपि चानशनाऽऽदिभ्यः, कायपीडा मनाक् क्वचित्। व्याधिक्रियासमा साऽपि, नेष्टसिद्धयाऽत्र बाधिनी॥६॥ (याऽपीति) अनशनाऽऽदिभ्य उक्तन्यायेन तावद् देहपीडा न भवत्येव, याऽपि चानशनाऽऽदिभ्य उपवासाऽऽदिभ्यः, आदिशब्दादूनोदरताऽऽदेः सकाशात्, कायपीडा शरीरबाधना, नतुमनःपीडा, मनाक् स्वल्पा, क्वचिद्देशे कालेवा, न पुनः सर्वत्र सर्वदा सासंभवति। उक्तन्यायप्रवृत्तस्य साऽपीति इह दृश्यते नासावपि न बाधनी, न वा बाधिका, न मनसो दुःखदा। किमित्यत आह-इष्टसिद्ध्या वाञ्छितार्थसाधनात्, अत्र प्रवचने, किंविधाऽसावित्याह-व्याधिक्रियासमा रोगचिकित्सातुल्या / यथा हि रोगचिकित्सायां मनाक् देहस्य पीडा सत्यपिनबाधिका, आरोग्यसिद्धेः, एवं तपस्यपि देहपीडाभावाऽऽरोग्यसंसिद्धेर्न भावतो बाधिकेति भावनेति / / 6 / / इष्टार्थसिद्धौ देहपीडाया अदुःखरूपतां दृष्टान्तेन समर्थयन्नाहदृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ, कायपीडा ह्यदुःखदा। रत्नाऽऽदिवणिमादीनां, तद्वदत्रापि भाव्यताम्॥७|| न केवलमरमाभिरेवेहोपन्यस्ता, दृष्टा च लोके अवलोकिता, इष्टार्थसंसिद्धावभिप्रेतप्रयोजनप्राप्तौ सत्यां, कायपीडा देहबाधा, हिशब्दः स्फुटार्थः, अदुःखदान पीडाकारिणी, केवामित्याह-रत्नानि मरकताऽऽदीनि आदिर्येषां वस्त्रसुवर्णाऽऽदीनां तानि तथा तेषां, वणिव वाणिजको रत्नाऽऽदिर्वाणक् स आदिर्येषां कृषीबलाऽऽदीनां ते तथा तेषां, रत्नाऽऽदिवणिगादीनाम् / ततः किमित्याह तेषामिव वणिगादीनामिव तद्वत्, अत्रापि अनशनाऽऽदितपोविषयेऽपि, भाव्यता निपुणधिया पर्यालोच्यताम्। तथाहि-रत्नसुवर्णवसनाऽऽदिवणिक्कृषीवलाऽऽदीनां समीहितार्थसंसिद्धिबद्धनिश्चयानाम् अपारपारावारावतारकान्तारनिस्तरणधरणीकर्षणाऽऽदिविविधव्यापारपरायणानां क्षुत्पिपासाश्रमाऽऽदिजनितदेहपीडा न मनोविधुरताऽऽधायिनी; एवं साधूनामपारसंसारसागरमचिरादुत्तितीषूणामनशनोनोदरताऽऽदितपोजनितदेहपीडा न मनोबाधाविधायिनीति // इह पुनर्विशेषसम्प्रदाय केचिदेवमूचुःकिल कोऽपि दरिद्रवणिजको दूरदेशान्तरं गत्वा कथं कथमपि रत्नान्युपार्जितवान्, चिन्तितवाश्वकथमहमेतानि महामूल्यानि सर्वाऽऽशासम्पादकानि महारत्नानि चौरव्याकुलमरण्यं निस्तीर्य स्वनगर गत्वोपभोग नेष्यामि? ततस्तेनोत्पन्नबुद्धिना तान्येकत्र स्थाने निहितानि, काचाऽऽदिसकलानिच पोट्टलिकायां बद्धानि। सा च दण्डाग्रे निबद्धा / ततश्चोरपल्लिमध्येनाऽहो! रत्नवणिजको गच्छतीत्येवं महता शब्देन व्याहरन्नरण्यमतिक्रामति स्म। ततो मार्गे पल्लीषु च ये जनाः, ते तं वीक्ष्य ससंभ्रममागत्य निभालयन्ति स्म / अपश्यश्च काचाऽऽदिशकलानि, अवधीरितवन्तश्च ग्रहगृहीतोऽयमिति विभावयन्तः। ततः पुनरपि तथैव निवृत्तः, तत्रापि यैः पूर्वन वीक्षित आसीत्, ते तथैववीक्षितवन्तोऽथावधीरितवन्तश्च / एवं पुनरपि असावरण्यमध्येन गतवान्। ततस्तृतीयवेलायामतिपरिचितत्वादवधीरितस्तस्करजनेन। ततोऽसौ निश्चितवानन मां कोऽपि अत्राऽरण्यमार्गे स्खलयिष्यति / इति निश्चित्य रत्नानि गृहीत्वा शीघ्र तदुपयोगाय वाञ्छितपुरप्राप्तावरण्यात्तन्निर्वाहणे चातीवौत्सुक्येनाऽनवरते महाप्रयाणकैः क्षुत्पिपासाश्रमाऽऽदीन् भवतो भूयसोऽप्यवगणयन् गन्तुं प्रवृत्तः / बहुतरमार्गमतिलजितः सन् पिपासाऽभिभूतो भावयामास-अहो ! अहमद्य जलं विना निये, न च रत्नोपभोगभाजनं भवामीत्येवं भावयता मरणभयभीतेन रत्नोपभोगाऽऽकाङ्गिणा दृष्ट सरः पङ्कप्रायपानीयं पङ्कमग्नमृगाऽऽदिकडेवरपूयकृमिजालव्याकुलं विलीनमतिदुर्गन्धं विरसतुच्छजलम् / दृष्ट्वा च गन्धमजिघ्रता रसमनास्वादयता दुष्करकरणं कुर्वता अक्षिणी निमील्याजलिभिस्तत्पीतवान्, पर स्वास्थ्य नागमत्, तदुपष्टम्भितश्च क्षीणपिपासादुःखोत्क्षेपणेष्टपुरं प्राप्तः, रत्नोपयोगसुखं चेति / उपनयस्तु प्रागुक्त एवेति // 7 // तदेवं दुःखाऽऽत्मकतां तपसो व्युदस्य कर्मोदय स्वरूपतांव्युदस्यन्नाहविशिष्टज्ञानसंवेग-शमसारमतस्तपः। क्षायोपशमिकं ज्ञेयमव्याबाधसूखाऽऽत्मकम् // 8|| विशिष्टाः प्रधानाः सम्यग्दर्शनविशेषितत्वात्-ज्ञानं च तत्त्वसंवेदन, संवेगश्च संसारभयं, मुक्तिमार्गाभिलाषिता वा, शमश्च कषायेन्द्रियमनसा निरोधः ज्ञानसंवेगतमाः, विशिष्टाश्च ते चेति कर्मधारयः / त एव सारोऽन्तर्गर्भो यस्य, तेर्वा सारं यत्तत्तथा / ज्ञानाऽऽदिसारमेव तपस्तपो भवति, नेतरदल्पफलत्वात् / यदाह-सर्व्हि वाससहस्सा'' गाहा। "छञ्जीवकायवहगा' गाहा। अत इति। यस्मादुक्तयुक्तरदुःखाऽऽत्मकमत एतस्माद्धेतोस्तपोऽनशनादि। किमित्याह-क्षयेण उदीर्णचारित्रमोहनीयकर्मणश्छेदेन सह उपशमस्तस्यैव विपाकापेक्षया विष्कम्भितोदयत्वं क्षयोपशमः, तत्र भवं क्षायोपशमिकम, ज्ञेयं ज्ञातव्यम्। न पुनः कर्मोदयस्वरूपम् / तथा अविद्यमाना व्यावाधा अविरतिजनिता अनन्तराः पारम्पर्यकृता वा ऐहिक्यः पारत्रिका वा यस्मिस्तदव्याबाधं,तच तत्सुखं च तदेवाऽऽत्मा स्वभावो यस्य तदव्याबाधसूखाऽऽत्मक प्रशमसुखाऽऽत्मकसिद्धसुखानुकारीत्यर्थः / अनेन च श्लोकेन तपसोऽकर्मोदयस्वरूपत्वमसुखत्वरूपत्वं वाऽऽवेदितम्। उक्त चैतदन्यत्रापि-- "जं इय इमं न दुक्खं, कम्मविवागो वि सव्वहा नेवं / खाउवसमिए भावे, एयं ति जिणागमे भणियं / / 1 / / खंताइसाहुधम्मे, तवगहणं सो खओवसनियम्मि। भावम्मि विणिहिट्ठो, दुक्खं चोएइ भे सव्वं // 2 / / " एतेन चतपसोदुःखरूपत्वकर्मोदयस्वरूपत्वपरिहारेण सर्व एव हि दुःख्येवमित्यादिश्लोकद्वयाभिहितं तपोदूषणं सर्वपरिहतमवगन्तव्यम्, दुःखस्वरूपत्वाऽऽश्रयत्वात्तस्येति / अन्ये त्विदमष्टकमेवं व्याचक्षतेदुःखाऽऽत्मकं, दुःखमेवेत्यर्थः / तपः केचिन्मन्यन्ते, तदेव दुःखाऽऽत्मकतपोमननं न युक्तिमत्। कुत इत्याह-कर्मोदयस्वरूपत्वाद् दुःखस्य। किंवदित्याहबलीवदीऽऽदिदुःखवत्, तपसश्च क्षायोपशमिकत्वादिति। इहैव दूषणा
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________________ तव 2202 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तव न्तराभिधानायाऽऽह-सर्व एव चेत्यादि श्लोकद्वयम्। अथवा दुःखाऽऽत्मकं तपः केचिन्मन्यन्ते कर्मोदयस्वरूपत्वाद् बलीवाऽऽदिशब्देन विशेषितत्वाद् दृष्टान्तस्येति सद्धेतुरेवायं वृक्षोऽयं, शाखाऽऽदिमत्त्वात्, ग्रामवृक्षवदित्यादिवदिति। अत्राऽऽचार्य आह-तनयुक्तिमदिति। कुत इत्याहसर्व एव चेत्यादि श्लोकद्वयम् / इह चशब्दो यरमादर्थे द्रष्टव्यः / आचार्य एवोभयत्र परस्थोपदेशमाह-युक्त्यागमेत्यादि / इदमिति तपसो दुःखाऽऽत्मकत्वमननं, शेषं तु श्लोक चतुष्टयं पूर्ववदेव, नवरं "मनइन्द्रिययोगानामहानिश्चोदिता जिनैः," इत्यत्र चशब्दः पूर्वोक्तयुक्त्यपेक्षया युक्त्यन्तरसमुच्चयार्थो द्रष्टव्य इति॥८॥ हा०११ अष्ट। तपश्चान्द्रायणं कृच्छ्रे , मृत्यघ्नं पापसूदनम् / आदिधार्मिकयोग्यं स्यादपि लौकिकमुत्तमम् / / 17 / / तप इति / लौकिकमपि लोकसिद्धमपि, अपिर्लोकोत्तरं समुचिनोति, उत्तम स्वभूमिकोचितशुभाध्यवसायपोषकम्। द्वा० 12 द्वा०। यो० वि०। ज्ञानसारीयं तपोऽष्टकम्ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात्तपः। तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् / / 1 / / आनुस्रोतसिकी वृत्तिर्बालानां सुखशीलता। प्रातिस्रोतसिकी वृत्ति निनां परमं तपः / / 2 / / धनार्थिनां यथा नास्ति, शीततापाऽऽदिदुःसहम्। तथा भवविरक्तानां, तत्त्वज्ञानार्थिनामपि // 3 // सदुपायप्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः। ज्ञानिनां नित्यमानन्द-वृद्धिरेव तपस्विनाम् ||4|| इत्थं च दुःखरूपत्वात्तपो व्यर्थमितीच्छताम् / बौद्धानां निहता बुद्धि-बौद्धाऽऽनन्दाऽपरिक्षयात्।।५।। यत्र ब्रह्मजिनार्चा च, कषायाणां तथा हतिः। सानुबन्धा जिनाऽऽज्ञा च, तत्तपः शुद्धमिष्यते // 6 // तदेव हि तपः कार्य, दुनिं यत्र नो भवेत्। येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि वा // 7 / / मूलोत्तरगुणश्रेणि-प्राज्यसाम्राज्यसिद्धये। बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं, तपः कुर्यान्महामुनिः ||8|| अष्ट०३१ अष्ट ('भिक्खाग' शब्दे तेषां चतुर्विध तपो वक्ष्यते) (कियताऽनशनेन कियती निर्जरा भवतीति 'अण्णइलाय' शब्दे प्रथमभागे 444 पृष्ठे द्रष्टव्या) प्रकीर्णकतपांसिएसो वारसभेओ, सुत्तनिबद्धो तवो मुणेयव्वो। एयविसेसो उ इमो, पइण्णगोऽणेगभेउ त्ति ||4|| इह तपः शब्दस्य प्राकृतत्वेन पुल्लिङ्गनिर्देशः। एतदनन्तरोक्तं द्वादशभेदमुभयेषां मेदानां मीलनत्वात्। सूत्रनिबद्धं शासनोक्तम्, तपस्तपस्या (मुणेयव्वो त्ति) ज्ञातव्यम्। एतद्विशेषस्तु अनन्तरोक्ततपोभेद एव (इमो त्ति) इदं वक्ष्यमाणं तपः प्रकीर्णकं व्यक्तितः सूत्रनिबद्धम्, न भिक्षुप्रतिमाऽऽदिवत्सूत्रे निबद्धमित्यर्थः / न चोत्सूत्रत्वमस्य, द्वादशभेदतपस्यन्तर्भावात् / तचाऽनेकभेदमनेकविधाऽऽलम्बनत्वात्। इतिशब्दः समाप्तौ। इति गाथाऽर्थः / / 4 / / प्रकीर्णकमेव तपो दर्शयन्नाहतित्थयरणिग्गमाई, सव्वगुणपसाहणं तवो होइ। भव्वाण हिओ णियमा, दिसेसओ पढमठाणीणं / / 5 / / तीर्थकरनिर्गमाऽऽदि येन तपसा तीर्थकरा निक्रान्ताः; आदिशब्दात्तीर्थकरज्ञाननिर्वाणाऽऽदिग्रहः / किंभूतमिदमित्याह--सर्वगुणसाधक तीर्थकरनिर्गमनाऽऽद्यालम्बनस्य शुभभावप्रकर्षरूपत्वेन ऐहलौकिकाऽऽद्युपकारकारित्वात् / लपो भवतीति व्यक्तम् / अत एव भव्यानां हितं नियमादिति व्यक्तम् / विशेषतः पुनः प्रथमस्थानिनामव्युत्पन्नबुद्धीनां हितत्वादेव निरालम्बनतयाऽपि शुभभावप्रकर्षसंभवात् सर्वमपि हितमेवेति गाथाऽर्थः // 5 / / पञ्चा० 16 विव०॥ चान्द्रायणाऽऽदितपःचंदायणाइ य तहा, अणुलोमविलोमओ तवो अवरो। भिक्खाकवलाण पुढो, विण्णेओ वुड्डिहाणीहिं / / 18 / / चन्द्रायणमिव चन्द्रायणं, तदादि च, आदिशब्दाद्भद्रामहाभद्रासर्वतोभद्रारत्नावलीकनकावल्येकावलीसिंहनिष्क्रीमितद्वयाऽऽचाम्लवर्द्धमानुगुणरत्नसंवत्सरसप्तसप्तमिकाऽऽदिचतुष्टयकल्याणकाऽऽदितपसामागमप्रसिद्धानां ग्रहः। तथेति वाक्यान्तरोपक्षेपार्थो गाथाऽऽदौ दृश्यः / अनुलोमविलोमतो गतप्रत्यागत्या, तपोऽपरमन्यत् / कथम् ? भिक्षाकवलाना प्रतीतानां पृथग्भेदेन, विज्ञेयो ज्ञेयो वृद्धिहानिभ्यामिति गाथाऽऽर्थः // 18 // पञ्चा०१६ विव० रोहिण्यादितपःअण्णो वि अस्थि चित्तो,तहा तहा देवयाणिओएण। मुद्धजणाण हिओ खलु,रोहिणिमाई मुणेयव्वो / / 23 / / अन्यदपि, अस्ति विद्यते, चित्रम्, तप इति गम्यते। तथा तथा तेन तेन प्रकारेण लोकरूढेन, देवतानियोगेन देवतोद्देशेन मुग्धजनानामध्युत्पन्नबुद्धिलोकानां, हितं खलुपथ्यमेव, विषयाभ्यासरूपत्वात्। रोहिण्यादिदेवतोद्देशेन यत्तद्रोहिण्यादि। (मुणेयव्वो त्ति) ज्ञातव्यम् / पुँल्लिङ्गता च सर्वत्र प्राकृतत्वादिति गाथाऽर्थः // 23 // देवता एव दर्शयन्नाहरोहिणि अंबा य तहा, मंदउणिया सव्वसंपयासोक्खा। सुयसंतिसुरा काली, सिद्धाईया तहा चेव।।२४।। रोहिणी 1 अम्बा 2, तथा-मन्दपुण्यिका 3, (सव्वसंपयासोक्ख त्ति) सर्वसंपत् 4, सर्वसौख्या चेत्यर्थः 5 / (सुयसंतिसुर त्ति) श्रुतदेवता 6, शान्तिदेवता चेत्यर्थः 7 / “सुयदेवयसंतिसुरा'' इति वा पाठान्तरम्, व्यक्तं च / काली 8, सिद्धायिका 6, इत्येता नव देवताः / तथा चैवेति समुचयार्थः। "संवाइया चेव'' ति पाठान्तर-मिति गाथाऽर्थः // 24 // ततः किमित्याहएमाइदेवयाओ, पडुच्च अवऊसगा उजे चित्ता।
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________________ तव 2203 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तव णाणादेसपसिद्धा, ते सव्वे चेव होइ तवो // 25 // एवमादिदेवताः प्रतीत्यैतदाराधनयेत्यर्थः। (अवऊसग त्ति) अपवसनानि अवजोषणानिवा। तुः पूरणे। ये चित्रा नानादेशप्रसिद्धास्ते सर्वे चैव भवन्ति तप इति स्फुटमिति। तत्र रोहिणीतपो रोहिणीनक्षत्रदिनोपवासः सप्तमासाधिकसप्तवर्षाणि यावत् / तत्र च वासुपूज्यजिनप्रतिमाप्रतिष्ठा पूजा च विधेयेति।तथा बाह्य (अम्बा) तपः पञ्चसु पञ्चमीष्वेकाशनाऽऽदि विधेयम्। नेमिनाथाम्बिकापूजा चेति। तथा श्रुतदेवतातप एकादशस्वेकादशीषूपवासो मौनव्रत श्रुतदेवतापूजा चेति / शेषाणि तु रूढितोऽवसेयानीति गाथाऽर्थः // 25 // अथ कथं देवतोद्देशेन विधीयमानं यथोक्तं तपः स्यादि त्याशझ्याऽऽहजत्थ कसायणिरोहो, बंभंजिणपूयणं अणसणं च / सो सव्वो चेव तवो,विसेसओ मुद्धलोयम्मि॥२६।। यत्र तपसि कषायनिरोधो ब्रह्म जिनपूजनमिति व्यक्तम् / अनशनं च भोजनत्यागः / (सो ति) तत्सर्वं भवति तपो विशेषतः मुग्धलोके। मुग्धलोको हि तथा प्रथमतया प्रवृत्तः सन्नभ्यासात्कर्मक्षयोद्देशेनाऽपि प्रवर्तते, न पुनरादिति एव तदर्थं प्रवर्तितुं शक्नोति, मुग्धत्वादेवेति। सद् बुद्धयस्तु मोक्षार्थमेव विहितमिदमिति बुद्ध्यैव वा तपस्यन्ति / यदाह-- ''मोक्षायैव तु घटते, विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुषः। " इति / मोक्षार्थघटना चाऽऽगमविधिनैव। आलम्बनान्तरस्यानाभोगहेतुत्वादिति गाथाऽर्थः // 26|| न चेदं देवतोद्देशेन तपः सर्वथा निष्फलमैहिकफलमेव वा, चरणहेतुत्वादपीति चरणहेतुत्वमस्य दर्शयन्नाहएवं पडिवत्तीए, एत्तो मग्गाणुसारिभावाओ। चरणं विहियं बहओ, पत्ता जीवा महाभागा / / 27 // एवमित्युक्तानां साधर्मिकदेवतानां कुशलानुष्ठानेषु निरुपसर्गत्वा- / ऽऽदिहेतुना, प्रतिपत्त्या तपोरूपोपचारेण; तथा इत उक्तरूपात्कपायाऽऽदिनिरोधप्रधानात्तपसः। पाठान्तरेणएवमुक्तकरणेन मार्गानुसारिभावात् सिद्धिपथानुकूलाध्यवसायाचरणं चारित्रम, विहितमाप्तोपदिष्ट, बहवः प्रभूताः, प्राप्ता अधिनताः, जीवाः सत्त्वाः, महाभागाः इति गाथाऽर्थः // 27 // पठितोऽधीतस्तपोविशेषस्तपोभेदः, अन्यैरपि ग्रन्थकारैः,तेषु तेषु शास्त्रेषु, नानाग्रन्थेष्वित्यर्थः। नन्वयं पठितोऽपि साभिष्वङ्गत्वान्न मुत्तिमार्ग इत्याशझ्याऽऽहमार्गप्रतिपत्तिहेतुः शिवपथाऽऽश्रयणकारणम् / यश्च तत्प्रतिपत्तिहेतुः स मार्ग एवोपचारात् कथमिदमिति चेदुच्यते-हन्दीत्युपप्रदर्शन। विनेयानुगुण्येन शिक्षणीयसत्त्वानुरूप्येण भवन्ति हि के चित्ते विनेया ये साभिष्वङ्गानुष्ठानप्रवृत्ताः सन्तो निरभिष्वङ्ग मनुष्ठानं लभन्ते इति गाथाद्वयार्थः / / 26 / / पञ्चा०१६ विव०। अथैत्ते तपोविशेषा आगमे नोपलभ्यन्त इत्याशङ्कां परिहरन्नाहचित्तं चित्तपयजुयं, जिणिंदवयणं असेससत्तहियं / परिसुद्धमेत्थ किं तं, जंजीवाणं हिणं णऽस्थि / / 3 / / चित्रमुद्भुतमनेकातिशयाभिधानत्वादङ्गानङ्गाऽऽदिभेदत्वादा चित्रमनेकविधम् / तथा चित्रपदयुतं नानाविधार्थप्रतिपादकाभिधानयुक्तम्, जिनेन्द्रवचनं जिनेश्वराऽऽगमः, अशेषसत्त्वहितं समस्तप्राण्युपकारकं, भव्यानुसारेण मार्गप्रतिपत्त्युपायप्रतिपादनपरत्वात्। परिशुद्धं कषच्छेदतापविशुद्धं सुवर्णमिव निर्दोषम् / एवं चात्रास्मिन् जिनवचने किं तद्व्वजीवानां हितं नास्ति? सर्वमपि जीवानां हितमस्तीत्यत इदं तपः परिदृश्यमानाऽऽगमेऽनुपलभ्यमानमप्युपलब्धमिवावगन्तव्यं, तथाविधजनहितत्वादिति गाथाऽर्थः // 36 // तथासव्वगुणपसाहण मो, णेओ तिहिँ अट्ठमे हि परिसुद्धो। दंसणणाणचरित्ताण एस रेसिम्मिसुपसत्थो / // 40 // सर्वगुणप्रसाधनः सकलगुणाऽऽवह इति पर्यायस्तपोविशेषः / मो' निपातः पूरणार्थः / ज्ञेयोऽवसेयः, त्रिभिरष्टमैरुपयासत्रयलक्षणैः, परिशुद्धोऽनवद्यः, दर्शनज्ञानचरित्राणां प्रतीतानाम्, एषोऽयम्। (रेसिम्मि त्ति) निमित्तं, सुप्रशस्तोऽतिशयशुभः / तत्रैकमष्टमं दर्शनगुणशुद्धये, एवमपरद्वयं द्वयपरिशुद्धये इति गाथाऽर्थः / / 40 // अथ सर्वाङ्गसुन्दराऽऽदितपरसु सनिदान एव प्राणी प्रवर्त्तते, ततो न न्याय्यान्येतानीत्याशङ्कापरिहारार्थमनिदानतामेषु प्रवृत्तस्य दर्शयन्नाहएएसु वट्टमाणो, भावपवित्तीऍ वीयभावाओ। सुद्धाऽऽसयजोगेणं, अणियाणो भवविरागाओ॥४१|| एतेष्वनन्तरोक्ततपस्सु प्रवर्तमानो व्याप्रियमाणो जीवः / "एतेसु बहुभाणा" इति पाठान्तर, व्यक्तं च / कया? भावप्रवृत्त्या बहुमान-- सारक्रियया, अनिदान इति योगः / कु त इत्याह-बीजभावात् बोधिबीजविकलस्य देहिनो बोधिबीजभवनेन / एतदेव कथमित्याह-- शुद्धाऽऽशययोगेन शुभाध्यवसायसंबन्धेन। शुभाध्यवसायाद्धि बोधिबीज स्यात् / अनिदानो निदानरहितः स्यात् / तथा-भवविरागा-त्संसारनिर्वेदाद्यत्किल भवविरागाऽऽदिनिमित्तं तन्निदानं न भवति बोद्ध्यादिप्रार्थनमिव, भवविरागाऽऽदिहेतवश्वोक्ततपांसि केषाञ्चिदतो निर्निदानानि, इति गाथाऽर्थः / / 41|| निर्निदानत्वादेवतेषां निर्वाणाङ्गतामाचार्यान्तरमतेनाऽपि दर्शयन्नाहविसयसरूवऽणुबंधेहि तह य सुद्धं जओ अणुट्ठाणं / णिव्वाणगं भणियं, अण्णेहि वि जोगमग्गम्मि॥४२॥ तथा सव्वंगसुंदरो तह, णिरुजसिहो परमभूसणो चेव / आयइजणगो सोहग्गकप्परुक्खो तहऽण्णो वि॥२८॥ पढिओ तवो विसेसो, अण्णेहिँ वि तेहि तेहिं सत्थेहिं।। मग्गपडिवत्तिहेउं, इंदि विणेयाणुगुण्णेणं // 26 // सर्वाङ्गानि सुन्दराणि यतस्तपोवशेषात्स सर्वाङ्गसुन्दरः / तथेति समुचये / रुजाना रोगाणामभावो निरुज, तदेव शिखेव शिखा प्रधानं फलतया यत्राऽसौ निरुजशिखः। तथा परमाण्युत्तमानि भूषणान्याभरणानि यतोऽसौ परमभूषणः / चैवेति समुचये। तथा आयतौ आगामिकालेऽभीष्टफलं जनयति करोतियोऽसावायतिजनकः / तथा-सौभाग्यस्य सुभगतायाः संपादने कल्पवृक्ष इव यः स सौभाग्यकल्पवृक्षः / तथेति समुच्चये / अन्योऽप्यपरोऽपि उक्ततपोविशेषात् / / 28! किमित्याह
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________________ तव 2204 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तव एयं च विसयसुद्ध, एगंतेणेव जे तओ जुत्तं / आरोग्गबोहिलाभाइपत्थणाचित्ततुल्लं ति॥४३|| विषयोगोचर उक्ततपसामालम्बनीयस्तीर्थकरनिर्गमाऽऽदिः, स्वरूपमुक्ततपसामेव स्वभाव आहारत्यागब्रह्मचर्यजिनपूजासाधुदानाऽऽदिलक्षणः, अनुबन्धश्च तत्परिणामाव्यवच्छेदतः प्रकर्षयायिता, अतस्तेषु विषयस्वरूपानुबन्धेषु / तथा चेति समुच्चये। शुद्ध निरवा, यतो यस्मात्कारणाद्, अनुष्ठानं क्रिया, निर्वाणाङ्ग मुक्तिकारणम्, भणितमुक्तम्, अन्यैरपि तन्त्रान्तरीयैः, किं पुनर्जिनः, योगमार्गेऽध्यात्मशारत्रपथे। अतो विषयाऽऽदिशुद्धतयैतेषां निर्वाणाङ्गत्वान्नित्वान्निनिंदानतेति हृदयमिति॥४२।। एतच्च एतत्पुनरनन्तरोक्त तपः, विषयशुद्धं निर्दोषगोचर, सकलदोषमोषिजिनपतिविषयत्वात्। एकान्तेनैव सर्वथैव, यद्यस्मात्ततः तस्माद्धेतोर्युक्तं सङ्गतम्, प्रार्थनागर्भमपीदं तपः / कुतः? इत्याह-आरोग्यबोधिलाभाऽऽदीनाम्- 'आरोग्गबोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दितु' इति / एवरूपा या प्रार्थना याञ्चा, तत्प्रधानं यचित्तं मनस्तेन तुल्यं समानं यत्तदारोग्यबोधिलाभाऽऽदिप्रार्थनाचित्ततुल्यम्, इति कृत्वा। इति गाथाद्वयार्थः // 43 // एवमनन्तरोक्तं तपो निर्निदानमिति व्यवस्थापितमथोपदिशन्नाहजम्हा एसो सुद्धो, अणियाणो होइ भावियमईणं। तम्हा करेह सम्म,जह विरहो होइ कम्माणं // 44|| यस्मात्कारणात्, (एसो त्ति) इदमनन्तरोक्तं तपः, शुद्ध निर्दोषम्, भवति स्यात् / किंभूतं सदित्याह-अनिदानं प्रागुक्तयुक्त्या निदानवर्जितम्। केषामिदमेवंविधमित्याह-भावितमतीनां सदागमवासितमानसानाम्, तस्मात्कारणात, कुरुत विधत्त। एतदेवेति गम्यम्, सम्यग् भावशुद्ध्या। एतदेव व्यक्ततरमाह-यथा येन प्रकारेण, विरहो विनाशो, भवति जायते, कर्मणां ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनाम् / (44) पञ्चा०१६ विव०। प्रव०। सांवत्सरिकपाक्षिकाष्टमीज्ञानपशमीरोहिणीतपांसि येन यावज्जीवमुचारितानि भवन्ति, स रोहिण्या अग्रतः पृष्ठतो वा आगमने षष्ठकरणशक्त्यभावे किं करोतीति प्रश्ने, उत्तरम् -अत्र सर्वथा षष्ठकरणशक्त्यभावे यत्तपः प्रथममागच्छतितत्तपः प्रथमं करोति, स्थितं तु पश्चात्कृत्वा प्रापयतीति ।३४प्र०। ही०४ प्रका०। रोहिणीदिनाऽऽराधकानां काचिद् मिथ्यामतिर्न वेति प्रश्रे,उत्तरम्-रोहिणीदिनाऽऽराधकानां मिथ्यामतिर्शाता नास्ति। 6 प्र०ा ही०१ प्रका०॥ ___ तपस्तथा कर्त्तव्यं यथा शरीरहानिर्न स्यात्तवसो अपिवासाई, संतो वि न दुक्खरूवगाणेआ। जं ते खयस्स हेऊ, निविट्ठा कम्मवाहिस्स।।१०।। तपसश्च पिपासाऽऽदयः सन्तोऽपि भिक्षाऽटनाऽऽदौ न दुःखरूपा ज्ञेयाः। किमित्यत्राऽऽह-यद् यस्मात्ते पिपासाऽऽदयः क्षयस्य हेतवो निर्दिष्टा भगवद्भिः कर्मव्याधेरितिगाथाऽर्थः / / 10 / / तथाहिबाहिस्स य खयहेऊ, सेविजंता कुणंति धिइमेव / कडुगाई विजणस्सा, ईसिं दंसिंतगाऽऽरोग्गं / / 11 / / व्याधेरपि कुष्ठाऽऽदेः क्षयहेतवः सेव्यमानाः कुर्वन्ति धृतिमेवकटु- काऽऽदयोऽपि जनस्य ईषदर्शयन्त आरोग्यम्, अनुभवसिद्धमेतदिति गाथाऽर्थः // 11 // किमेष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयःइअ एए चिअ मुणिणो, कुणंति धिइमेव सुद्धभावस्स / गुरुआणासंपाडण-चरणाइ सयं निदंसंता।।१२।। (इय) एवमेवैव क्षुदादयो मुनेः कुर्वति धृतिमेव, नतुदुःखं, शुद्धभावस्य रागाऽऽदिविरहितस्य, किं दर्शयन्तः सन्तः? गुर्वाज्ञासंपादनचरणादि स्वयं निदर्शयन्त इति गाथार्थः / / 12 / / ण य ते वि होंति पायं, अविअप्पं धम्मसाहणमइस्स। न य एगतेणं चिय, ते कायव्वा जओ भणियं // 13 // न च तेऽपि भवन्ति प्रायः क्षुदादयः, अविकल्पं मातृस्थानविरहेण धर्मसाधनमतेः प्रव्रजितस्य धर्मप्रभावादेव, न चैकान्तेनैव ते क्षुदादयः कर्तव्या मोहोपशमाऽऽदिव्यतिरेकेण यतो भणितमिति गाथाऽर्थः / / 13 / / किं तदित्याहसो हु तवो कायव्वो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ। जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा ण हायंति // 14 // तद्धितपः कर्त्तव्यमनशनाऽऽदि, येन मनोऽमङ्गलमसुन्दरं न चिन्तयति, शुभाध्यवसायनिमित्तात्कर्मक्षयस्य / तथा येनेन्द्रिय-हानिः, तदभावे प्रत्युपेक्षणाऽऽद्यभावात, येन च योगाश्चक्रवाल-सामाचार्यन्तर्गताः व्यापारा न हीयन्त इति गाथाऽर्थः // 14 // देहे वि अपिडबद्धो, जो सो गहणं करेइ अन्नस्स। विहिआणुट्ठाणमिणं, ति कह तओ पावविसओ ति? ||15|| देहेऽप्यप्रतिबद्धो यः विवेकात्स ग्रहणं करोत्यन्नस्यौदनाऽऽदेविंहितानुष्ठानमिति, नतुलोभायतश्चैवमतः कथमसौ पापविषय इति? नैव पापविषयः, एतेन कथं न पापविषय इत्येतत्प्रयुक्तमिति गाथाऽर्थः // 15 / / किंचतत्थ वि अधम्मझाणं, न य आसंसा तओ अ सुहमेव। सव्वमियमणुट्ठाणं, सुहाऽऽवहं होइ विन्नेअं॥१६|| तत्रापि चान्नग्रहणादधर्मध्यानं सूत्राऽऽज्ञासंपादनात्, न चाशंसा, सर्ववाभिष्वा निवृत्तेः। यतश्चैवं ततश्च सुखमेव, तत्राऽपि सर्व वस्त्रपात्राऽऽदि(इयं) एवमुक्तेन न्यायेन सूत्राऽऽज्ञासंपादनाऽऽदिना अनुष्ठान साधुसंबन्धि सुखाऽऽवह, भवति विज्ञेयमिति गाथाऽर्थः / / 16 / / पं०व०१ द्वार। "जहेव पायच्छित्ता ण पविसंति, तहा ससत्तीए तवो कम्मणाणुढेइ, तओ चउगुणं चउगुणं पायच्छित्तं!" मा०१ चूल पर्वसु तपो न करोतिसंते वलवीरियपुरिसयारपरक्कमें अट्ठभिचाउद्दसीनाणपंचमीपजोसवणचाउम्मासिए चउत्थऽट्ठमछट्टे ण करेजा खवणं कप्पं णायरइ चउत्थं कप्पं परिचविजा दुवालसं। महा०१ चू०। ''णो पूयणं तवसा आवहेजा।"(२७) नापि तपसा पूजनसत्का रमावहे त्, न पूजनसत्कारनिमित्तं तपः कुर्यादित्यर्थः / यदि वा पूजासत्कारनिमित्तत्वेन तथाविधार्थत्वेन वा महताऽपि के नचित्तपो मुक्ति हेतुकं न निःसारं कुर्यात् / तदुक्तम्-‘परलो
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________________ तव 2205 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तवचरण काधिकं धाम, तपः श्रुतमिति द्वयम् / तदेवार्थित्वनिलुप्तसारं तृण- निरयाऽऽदिसु संसारमणुसंसरजा; तहा य दुग्गंधामिज्झविलवायते / / 1 / / (27) सूत्र०१ श्रु०७ अ० त्रीणखारपित्तेज्झिसिंप्तपढच्छे वजल्लसपदुडणिचिलिव्विले चतुर्विधमाजीविकानां तपः रुहिरचिक्खिल्ल दुद्धस्सणिज्जवीभत्यतिमिसंधयारगंतुव्वियआजीवियाणं चउव्विहेतवे पण्णत्ते। तंजहा-उग्गतवे, घोरतवे, णिज्जगब्भपावसजम्मजरामरणाइ अणेगसारीरमाणसे मुच्छसुरसनिजहणया, जिभिंदियपडिसंलीणया। घोरदारुणदुक्खाणमेव भायणं भवंति, ण उण संजमजयणाए (आजीवियाणं इत्यादि) आजीविकानां गोशालकशिष्याणाम, उग्र विणा जम्मजरामरणाऽऽइएहिं घोरपयंडमहारुद्ददारुणदुक्खाणं णिट्ठवणमेगंतियमचंतियं भवेजा, एतेणं संजमजयणा-वियले तपोऽष्टमाऽऽदि, वचन-"उरमिति" पाठः। तत्र उरं शोभनमा इहलोकाऽऽद्य शंसारहितत्वेनेति घौरमात्मनिरपेक्ष (रसनिजहणया) सुमहंते वि उ कायकेसे पकम्मय गोयमा ! निरत्थगे भवेज्जा / घृताऽऽदिरसपरित्यागः जिह्वेन्द्रियप्रतिसंलीनता मनोज्ञामनोशेष्वा-हारेषु महा०२चू०। रागद्वेषपरिहार इति; आर्हतानां तु द्वादशधेति / स्था०४ ठा०२उ०॥ ''इमेण वा सुचरियतवनियमबंभचेरवासेण'' इत्याशंसारहितेन तपः पर्युषणायामष्टमाऽऽदि तपोऽवश्यं कर्तव्यमिति / कल्प०१ क्षण / कर्तव्यमिति। सूत्र०१ श्रु०१अ०। यस्मिन् प्रतिसेविते निर्वि-कृताऽऽदिबालतपसि, आ०क०। कथाऽन्यत्र) शारीराऽऽदि त्रिविधं तपः। कैश्चित्तु पण्मासपर्यवसानं तपो दीयते तत्तपोऽर्हत्वात्तप इति / व्य०१ उ०। शारीराऽऽदिभेदं त्रिविधमप्युच्यते / यदुक्तं गुरुगुणषट्त्रिंशिकावृत्तौ निर्विकृतिकाऽऽदिके तपसि, आ०। अश्विन्यस्वाध्यायमध्ये कृततपसो कैश्चित्तपस्त्रिविधं शारीराऽऽदिभेदमप्युच्यते। दिनत्रयम,अथवा द्वादशदिनान्युपधानालोचनायामन्यालोचनायां या न यथा समायान्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-सप्तम्या-दिदिनत्रयगणनाया नायान्तीति 12270 / सेन० 2 उल्ला०ा पक्षोपवासरोहिणोपञ्चम्यादितपस्सु "देवातिथिगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। बहुवर्षाऽऽचरितेषु कदाचिद्विस्मृत्या महाकारणाऽऽदिना वा पक्षोपवासाब्रहाचर्यमहिंसा च, शारीरं तप उच्यते।।१।। ऽऽदिदिने उपवासाभवने पक्षोपवासाऽऽदि तपो मूलतो याति, किं वा अनुद्वेगकर वाक्य, सत्यं प्रियहितं च यत्। यथोक्तवर्षमासभवनानन्तरं तत्तपः करणाऽऽदिना निष्ठां नीयत इति प्रश्रे, स्वाध्यायाभ्यसनं चैव, वाङमयं तप उच्यते / / 2 / / उत्तरम्- विस्मृत्यादिना तपोदिन ज्ञाने तत्रोपवासाभवने द्वितीयदिने मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। दण्ड-निमित्तं तत्तपः कार्यम्, समाप्तो च वर्द्धमानं विधेयमित्यक्षराणि भावसंशुद्धिरित्येतद्, मानसं तप उच्यते॥३॥ श्राद्धविधौ सन्ति, महाकारणे तु तपोदिने तपः करणं महत्तराऽऽशारीराद्वाङमयं सारं, वाड्मयान्मानसं शुभम्। द्याकरणान्तर्भवतीति / 167 प्र०। सेन०२ उल्ला०ा तपउपधानेजघन्यमध्यमोत्कृष्ट-निजराकरणं तपः / / 4 / / " षूह्यमानेषु विंशतिस्थानकाऽऽदि तपः कर्तुं शुद्ध्यति, न वेति प्रश्ने, सात्विक, राजसं, तामसमिति वा त्रिविधन्। उत्तरम्-तत्तपः प्रायः कर्तुं न शुद्ध्यतीति, 185 प्र०। सेन०२ उल्ला०। यथा अथ पं० विद्या विजयगणिकृतप्रश्नस्तदुत्तरं च / यथा चैत्रा"तपश्च त्रिविधं ज्ञेयमफलाऽऽकातिभिर्नरः। ऽऽश्विनास्याध्यायदिनेषु यत्तपः कृतं स्यात्तत्तपो रोहिण्यालोचनाऽऽदिषु समेति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् सप्तम्यादिदिनत्रयकृतं तत्तप आलोचनायां श्रद्धया परया तप्त, सात्त्विकं तप उच्यते / / 1 / / न गण्यते, रोहिण्यादि तथाविधसंबद्धतपसि तु गण्यते, न तु सर्ववति, सत्कारमानपूजाऽर्थं , तपो दम्भेन चैव यत्। 200 प्र०ा सेन०३ उल्ला०ा तपसा निकाचितकर्मणां क्षयो भवति, न क्रियते तदिह प्रोक्तं, राजसं चलमधूवम्॥२।। वेति प्रश्ने, उत्तरम्-निकाचितानामपि कर्मणां तपसा क्षयो भवतीति मूढग्रहेण यचाऽऽत्म-पीडया क्रियते तपः। श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्त्यादावुक्तमस्तीति। ४६प्र० सेन०४ उल्ला०। परस्योच्छेदनार्थ वा, तत्तामसमुदाहृतम्॥३॥" (101 गाथा) ग०२ तवअ (देशी) व्यापते, दे०ना० 5 वर्ग 2 गाथा। अधिा तपःफलं व्यवदानम्- "तवे वोदाणफले।" स्था०३ ठा०३उ०। तवआयार पुं०(तपआचार) आचारभेदे, तप आचारो द्वादशविधः। उक्तं संयमवान् साधुस्तपो निरतः स्यात्, अतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाह-- च- 'वारसविहम्मि वि तवे. अभिंतरबाहिरे कुसलदिहे / अगिलाएँ तवेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? तवेणं वोयाणं जणयइ॥२७।। अणाजीवी, नायव्यो सो तवाऽऽयारो"||१|| इति / स्था०२ ठा०३उ०। हे भगवन्! तपसा कृत्वा जीवः किं फलं जनयति? गुरुराह-हे शिष्य ! | तवकरण न०(तपःकरण) तपसोऽनशनाऽऽदिबाह्याभ्यन्तरभेद-भिन्नस्य तपसा जीवा व्यवदान जनयति, पूर्वबद्धकोपगमनेन विशेषण शुद्धि / करण कृतिस्तपःकरणम्। अनशनाऽदेबर्बाह्याभ्यन्तरभेद-भिन्नस्य तपसः जनयति ॥२७॥उत्त० 26 अ०। कृतौ, आ०म०११०२खण्ड। से भयवं ! किं छट्ठट्ठमदसमदुवालसऽदमासमासे०जाव णं / तवगुण पुं०(तपोगुण) अनशनाऽऽदौ, स्था०६ठा०) छम्मासखवणाई णं अचंतघोरवीरुग्गकट्ठसुदुक्करे संजमजयणे | तवग्ग पुं०(तवर्ग) तकाराऽऽदिवर्णपञ्चके, रा०। विपुले सुमहंते विउ कायकेसे कए णिरत्थगे हवेजा? गोयमा! | तवग्गपविभत्ति न०(तवर्गप्रविभक्ति) तकारथकारदकारधकाण णिरत्थगे हवेजा। से भयवं ! केणं अद्वेणं? गोयमा ! जओ रनकारइत्येवंरूपे प्रविभक्तिनामकेऽष्टादशे नाट्यविधौ, रागा णं खरुट्ठमहिसगोणादओ वि संजमजणा विउले अकामनिजराए तवचरण न०(तपश्चरण) तपो विधाने तपसि च कृते धृति सोहम्मकप्पाइसु चयंति,तओ विभागखएणं चुए समाणे | करोति नार्तध्यान। अनु०। संयमानुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०।
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________________ तवचरण 2206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तवसमाहि १उ०। तपश्चरणं ब्रह्मचर्याऽऽदि, तत्फलमप्युपचारात्तपश्चरणम्। स्वर्गसंभवे स्था०१० ठा०स० भोगजाते, ज्ञा०१ श्रु०६अ तवय न०(तवक) सुकुमारिकाऽऽदितलनभाजने, विपा०१ श्रु०३अ०। तवचरणचरियणिबद्ध न०(तपश्चरणचरितनिबद्ध) दिव्ये नाट्यविधौ, राका / तवविणय पुं०(तपोविनय) विनयभेदे, दश०। तवचरणि(ण) त्रि०(तपश्चरणिन) तपस्विनि, 'नाणादीओजीवइ, अह तपोविनयमाहसुहुमो अह इमो मुणेयव्वो। साइज्जतो एग, वच्चइ एसो तवचरणी // 1 // " अवणेइ तवेण तमं, उवणेइ असम्ग मोक्खमप्पाणं / स्था०५ ठा०३उ०॥ तवविणयनिच्छियमई, तवोविणीओ हवइ तम्हा॥८॥ तवण पुं०(तपन) तपतीति तपनः। रवौ, अनु० पिं० रुचकशिखरतले अपनयति तपसातमोऽज्ञानम्, उपनयति च स्वर्ग मोक्षमात्मानं जीवम, पूर्वस्यां दक्षिणस्यां च दिशि तृतीये कूटे, द्वी०। तपोविनयनिश्चितमतिर्यस्मादेवंविधस्तपोविनीतो भवति तस्मादिति तवणबंधु न०। पुं०(तपनबन्धु) बुद्धे, रत्ना०६ परि०। गाथाऽर्थः / / 85 // दश०६अ। तवणिज न०(तपनीय) आरक्तसुवर्णे, जी०३ प्रति०४ उ० त० भ०। / तवसंजम पुं०(तपःसंयम) तापयतीति तपस्तत्प्रधानः संयमस्तपः औ० ज०। सुवर्णविशेषे, जी०३ प्रति०४ उ०॥ तं० औ०। स०। रा० संयमः। चारित्रसामायिके, विशेला तप अशनोदरताऽऽदि तत्प्रधानः जंगसु०प्र०ा ज्ञा०1"तवणिज्ज बालुयापत्थडे।" तपनीयमय्यः बालुकाः संयमस्तपः संयमः। अशनोदरताऽऽदिप्रधाने संयमे, आ०म०१ अ०२ सिकताः, तासां प्रस्तटः प्रस्तारो यस्मिँस्तत्तथा। जी०३ प्रति०४ उ०) खण्ड। रा०ा "तवणिज्जलंबूसगा।"तपनीयस्तपनीयमयो 'लंबूसगो दाम्नाम तवसंजमप्पहाण पुं०(तपःसंयमप्रधान) तपः बाह्याभ्यन्तरं द्वादशप्रकारं, निमभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मण्डनविशेषो गोलकाऽऽकृतिर्येषां तानि। तथा संयमः सप्तदशभेदः / पञ्चाऽऽश्रवविरमणाऽऽदिलक्षणः, ताभ्यां जी०३ प्रति०४उ०। राका "तवणिज्जाभरणभूसणविराइअंगुवंगं / ' प्रधानास्तपःसंयमप्रधानाः / तपःसंयमाभ्यां प्रधाने, "तपसंजमप्पकल्प०२क्षण। हाणा, गुणधारी जे वयंति सब्भावं।'' सूत्र०१ श्रु०११ अ०॥ तवणिज्जकूड पुं०(तपनीयकूट) जम्बूद्वीपे रुचकपर्वतस्य द्वितीयस्मिन् | तवसंजममुज्जय पुं०(तपःसंजमोद्यत्) तपोऽनशनाऽऽदि संयमकूटे, स्था०८ ठान स्सप्तविधः, मकारोऽलाक्षणिकः, ततस्तपःसंयमयोरुद्यतस्तपःतवणियमणाणरुक्ख पुं०(तपोनियमज्ञानवृक्ष) भाववृक्षे, आ० म०१ / संयमोद्यतः तपःसंयमाभ्यामुद्यते, दर्श०३ तत्त्व। अ०१खण्ड। (अस्योदाहरणम् 'सुय' शब्दे वक्ष्यते) तवसंजमरय पुं०(तपःसंयमरत) भावसाधौ, औ० तवणी (देशी) भक्षणयोग्ये, देना०५ वर्ग 1 गाथा। तवसमाहि पुं०(तपःसमाधि) तपसि बाह्याऽऽभ्यन्तरभेदभिन्ने यथाशक्ति तवतेण पुं०(तपःस्तेन) क्षपकरूपकल्पे, कश्चित्केनचित् पृष्टस्त्व मसौ | निरन्तरं प्रवृत्तिस्तपःसमाधिस्तस्मिन्, प्रव०१० द्वार। दशा क्षपक इति? तदा स पूजाऽऽद्यर्थमाह-अहम् / अथवा वक्तिसाधव एव तपःसमाधिमाहक्षपकाः / अथवा-तूष्णीमास्ते। दश०५ अ०२उ०। चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ / तं जहा-नो इहलोगट्ठयाए तवधण त्रि०(तपोधन)तप एवधनं यस्य सः।तपोधनवति, उत्त०१८अ०। / तवमहिद्विजा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्तिवन्नतवप्पडिमा स्त्री०(तपःप्रतिमा) तपसाऽऽत्मतुलनायाम्, वृ०१ उ०। सद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिजा, नऽनत्थ निजग्ट्ठयाए तवम('जिणकप्पिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1466 पृष्ठे एतत्स्यरूपम्) हिद्विजा चदुत्थं पयं भवइ / भवइ अ इत्थ सिलोगोतवप्पहाण त्रि०(तपःप्रधान) तपसा प्रधाने उत्तमे, शेषमुनिजना-पेक्षया, चतुर्विधः खलु तपः समाधिर्भवति। तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। नेह तपो वा प्रधानं यस्य तस्मिन्,ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। नि०। रा०।। लोकार्थमिहलोकनिमित्तं लब्ध्यादिवाञ्छया तपोऽनशनाऽऽदिरूपमतवबल त्रि०(तपोबल) यदनेकभवार्जितमनेकदुःखकारणं निका- | धितिष्ठत् कुर्याद्धमिलवत्। तथा न परलोकार्थं जन्मान्तरभोगनिमित्तं चितकर्मग्रन्थि क्षपयति तस्मिन्, स्था०१० ठा० / तपोऽधितिष्ठेद्ब्रह्मदत्तवत् / एवं न कीर्तिवर्णशब्दश्लाघाऽर्थमिति / तवबलिय पुं०(तपोबलिक) तपसा बलिकस्तपोवलिकः तपसा बलिष्ठे, सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः। एकदिग्व्यापी वर्णः। अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः। महताऽपि तपसा यो न क्लाम्यति, यत्र तत्र वा स्वल्पे प्रयोजने तपः ततस्थान एव श्लाघा, नैतदर्थं तपोऽधितिष्ठेत् / अपि तु नान्यत्र करिष्यामि इति विचिन्त्य प्रतिसेवते। यदि वा-पाण्मासिके तपसि दत्ते निर्जराऽर्थमिति न कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधितिष्ठेत् / अकामः वदति-समर्थोऽहमन्यदपि तपः कर्तुतदपि मे देहीति।तस्मिन् तपोबलिके सन् यथा कर्मनिर्जरैव फलं भवति तथाऽधितिष्ठेदित्यर्थः / चतुर्थ पदं मूलपर्याये, व्य० 130 भवति। चात्र श्लोक इति पूर्ववत्। तवभावणा स्त्री०(तपोभावना) प्रशस्तभावनाभेदे, बृ०१ उ०॥ सचायम्तवमय पुं०(तपोमद) तपः प्रधानो मदस्तपोमदः। मदस्थानभेदे / विविहगुणतवोरए य निचं, भवइ निरासएँ निज्जरट्ठिए।
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________________ तवसमाहि 2207 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तवायार तवसा धुणइ पुराणपावगं,जुत्तो सया तवसमाहिए॥४॥ विविधगुणतपोरतो हि नित्यमनशनाऽऽद्यपेक्षयाऽनेकगुणं यत्तपस्तद्रत एव सदा भवति, निराशो निःप्रत्याश इहलोकाऽऽदिषु निर्जरार्थिकः कर्मनिर्जरार्थी, स एवं भूतस्तपसा विशुद्धेन धुनोत्यपनयति, पुराणपापं चिरन्तनं कर्म, नवं च न बघ्नात्येवं युक्तः सदा तपःसमाधाविते सूत्रार्थः / दश०६ अ०४ उ० तवसामायारि(ण पुं०(तपःसामाचारिन्) पाक्षिकाऽऽदिषु तपःकर्म स्वयं करोति, परं च कारयति,भिक्षाचर्या स्वयमनुतिष्ठति, परं च तस्यां नियुङ्क्ते, इति तपः सामाचारी। तस्मिन्, प्रव०६५ द्वार। तपःसामाचारीमाहपक्खिऍ पोसहिएसुं, कारेति तवं सयं करेति य वा। भिक्खायग्यिाएँ तहा, निजंजति परं सयं वा वि / / पाक्षिके अर्द्धमासे सर्वाणि, पौषधिकेषु च अष्टम्यादिषु पर्वसु परं तपः कारयति, स्वयमपि च करोति, तथा भिक्षाचर्यायां परं नियुङ्क्ते, प्रयोजनमपेक्ष्य स्वयमपि भिक्षाचर्या गच्छति। सव्वम्मि वारसविहे, निझुंजइ परं सयं च उज्जुत्तो। गणसामाचारीए, गणं पिसीयंत चोएति।। सर्वस्मिन् द्वादशविधे तपसि यथायोगं परं नियुङ्क्ते, स्वयं सर्वत्र यथाशक्ति उद्युक्तः। व्य० 10 उ०) तवसिद्ध पुं०(तपःसिद्ध) तपसा सिद्धे सिद्धभेदे, (आ०म०) संप्रति तपासिद्धप्रतिपादनार्थमाहन किलिम्मइ जो तवसा, सो तवसिद्धो दढप्पहारि व्व। सो कम्मक्खयसिद्धो,जो सव्वक्खीणकम्मंसो।। न क्लाम्यति न क्लमं गच्छति यः सत्त्वस्तपसा बाह्याभ्यन्तरेण स एवंभूतस्तपःसिद्धः, अग्लानित्वाद् दृढप्रहारिवदिति गाथाऽक्षरार्थः। आ०म०१अ०रखण्ड। भावार्थः कथानकादवसेयः। तच्चेदम्"धिगजातिरेको दुर्दान्तो,दुर्बिनीतः पुरे क्वचित्। स्थानान्निःसारितो दुष्टश्चौरपल्ली भ्रमन् ययौ / / 1 / / चौरसेनापतिस्तंच, पुत्रबुद्ध्या प्रपन्नवान्। मृतेतस्मिन् स एवाऽभूत्, चौरसेनापतिस्ततः / / 2 / / दृढप्रहारी नाम्नाऽभूद, दृढप्रहारकः स यत्। ससेनः सोऽन्यदाऽऽयासीद्, ग्राममेकं विलुण्ठितुम् // 3 // तत्रैको निःस्वविप्रोऽभूड्डिम्मरूपैः मार्गितः। याचित्वाऽङ्गतदुग्धाऽऽदि,परमानमपाचयत् / / 4 / / स्वयं स्नानकृते सोऽगाचौर एकस्तुतद्गृहे। प्रविष्टः पायसस्थालिमपहृत्य जगाम सः / / 5 / / रुदन्ति डिम्मिरूपाण्याख्यन् पितुः पायसं हृतम्। दधावे सोऽथ रोषेण,चौराणां निजिवृक्षया / / 6 / / अनेकाँस्तस्करांस्तत्र, परिघेण जघान सः। चौरसेनापतिम-मध्येऽभूत्तेन चिन्तितम् // 7 // हन्ति कोऽप्येव मच्चौरान्, खड्गमा कृष्य धावितः। तत्रागादन्तरे धेनुस्तामहन्नय तं द्विजम् / / 8 / / तद्ब्राह्मणी तमूचेऽथ, किं कृतं निष्कृप! त्वया? साऽपि व्यापादिता तेन, तद्गर्भोऽपि द्विधा कृतः / / 6 / / प्रस्फुरन्तं तमालोक्य, करुणाऽत्याभवत्तदा। हा हा चक्रे मया पापं, का भविष्यति मे गतिः ? ||10|| डिम्भरूपाण्यथोचुस्तं, पापास्मानपि मारय। पित्रोरभावतो भावी, मृत्युरिन्द्यतोऽपि नः // 11|| तदाकर्ण्य विशेषेण, स निर्वेदं परं गतः। इतः पापात्कथं मुक्तिः? स्यान्मे साधूनथैक्षत / / 12|| दृष्टास्ते धर्ममाचख्युः, सर्वपापापहारकम्। प्रतिबुद्धः परिव्रज्य, जगृहे क्षान्त्यभिग्रहम् / / 13 / / यावत्कर्म स्मरत्येतत्तावद्भोज्यं मया न च / हील्यमानो हन्यमानस्तत्रैव विजहार सः / / 14 / / तत्कृतानुपसर्गाश्चाँधिसेहे स्वकृतं स्मरन्। दृढप्रहारी भूत्वा स, कर्मशत्रूनपि प्रति॥५॥ षभिर्मासैस्तपः शस्त्रैस्तत्कर्मोन्मूल्य सर्वथा। "उत्पाद्य केवलज्ञानं, तपःसिद्धो बभूव सः"॥१६॥ आ०क०। तवसूर पुं०(तपःशूर) तपोधीरे, स्था० 4 ठा० 330 / 'तवसूरा अणगारा।''संथा। तवसोसिय त्रि०(तपःशोषित) तपसा शोषमुपगते, व्य०२उ०। तवस्सि(ण) पुं०। त्रि०(तपस्विन्) तपोऽस्यास्तीति तपस्वी / तपः संयमतपस्तस्मिन् विद्यमाने, व्य०१ उ० तपोऽस्यास्तीति तपस्वी, तपो विकृष्टाविकृष्टरूपं विद्यते येषां ते तपस्विनः / प्रव०६६ द्वार। विकृष्टमष्टमप्रकृतिकं तपा विद्यते येषां ते तपस्विनः। प्रव० 148 द्वार। धानि०चूला विकृष्टाऽऽदितपश्चरणकारिषु, प्रव०४ द्वार। क्षपके, भ०८ श०६उ०। बृ०। स्था०। मासक्षपकाऽऽदिषु, आ०का स्था०। चतुर्थभक्ताऽऽदिकारिणि, प्रश्न०३ सम्ब०द्वार। प्रशस्ततपोयुक्ते, प्रश्र०५ सम्ब० द्वार। अनशनाऽऽदितपोविचित्रयुक्तेषु सामान्यसाधुषु, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० साधौ, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१उ०। उत्त०। क्षीणदेहे, बृ०१ उ०। अष्टमाऽऽदिक्षपके, भ०२५ श०७उ०ा निष्टप्तदेहे, सूत्र०१ श्रु०२अ०१उ०। प्रशस्यतपोऽन्विते भिक्षी, उत्त०२ अ०। जितेन्द्रिये, औ०। तपो बाह्याऽऽभ्यन्तरकर्मेन्धनदहनज्वलनकल्पमनवरतशुभध्यानलक्षणमस्ति यस्य स तपस्वी। स्था०२ ठा०४उ०॥ तवायार पुं०(तपआचार) द्वादशविधतपोविशेषानुष्ठिते (स०१ अङ्ग) आचारभेदे, "बारसविहम्मि वि तवे, सभिंतरबाहिरे कुसलदिउ / अगिलाएँ अणाजीवी, नायव्यो सो तवायारो // 1 // " ध०२ अधिक तपआचारस्तु द्वादशविधः, बाह्याभ्यन्तरतपःषट्क--द्वयभेदात् / तत्र "अनशनमूनोदरता, वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः / कायक्लेशः संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम्॥१॥" ध०१ अधि०। इयाणिं तवायारो भण्णतिदुविध तवपरूवणया, संठाणाऽऽरोवणा तमकरेंते। सव्वत्थ होति लहुगो, (सं)लीणविणयऽ(स)ज्झाय मोत्तूणं४१ बारसविधम्मि वि तवे, सभिंतरबाहिरे कुसलदिखे। अगिलाएँ अणाजीवी,णायव्वो सो तवायारो॥४२|| दुविहत त्ति-बाहिरो, अभितरो य / बाहिरो छविहोअणसणं, ओमोयरिया, भिक्खापरिसंखाण, रसपरिचाओ,
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________________ तवायार 2208 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तवारिह कायकिलेसो, पडिसलीणता य / अभितरो छव्विहो-पायच्छित्तं, | तवारिह न०(तपोऽह) निर्विकृतिकाऽऽदितपःशोध्ये (स्था० 10 ठा०) विणओ, वेयावचं सज्झाओ, विउस्सग्गो, झाणं चेति। दुविहातवस्सय षष्ठे प्रायश्चितभेदे, स्था०८ ठा० प्रव०ा अथतपोऽहं-प्रायश्चितविषयःपरूवणा कायव्वा / परूवणा णाम पण्णवणा। सा य जहा दुमपुफिय- तत्र तपोऽहं वक्तव्यम्-ततश्च रात्रिन्दिवपञ्चकादारभ्य रात्रिदिवपञ्चकापढमसुत्ते, तहा दट्टव्वा। इह तु पच्छित्तेणऽहिकारो,तं भणति-सगं ठाणं ऽऽदिबृद्ध्या तावन्नेय,यावत् षण्मासाः, तत्र येषु स्थानेषु रात्रिन्दिवपञ्चक सट्ठाण, सट्ठाणस्स आरोवणा सट्टाणारोवणा, तमिति तवो संबज्झति, तपः तान्युपदर्शयतिअकारो पडिसेहे, करति आचरतेत्यर्थः। अकारेण यपडिसिद्धे, अणाचरणं दंडगगहनिक्खेवे, आवसियाए निसीहियाए य। अणाचारं, तस्स य सट्टाणं, तं च इम-"सव्वत्थ होइ, लहुगो।" गुरुणं च अप्पणामे, वा चउराइंदिया हुंति // 126 / / सव्वत्थेति / सवेसु पढेसु अणसणाऽऽदिसु सत्तिपुरिसक्कारपरकमे दण्डं गृह्णन्यत्यपेक्षते न प्रमार्जयतीत्येको भङ्गः,न प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयविजमाणे तवमकरेंतस्स मासलहू, अइपसत्तं लक्खणमिति काउं उढाणं तीति द्वितीयः, न प्रत्युपेक्षतेन प्रमार्जयतीति तृतीयः, प्रत्युपेक्षतेप्रमार्जकरेइ, संलीणविण-यसज्झ यपया तिण्णि, मोत्तुणं / पडिसंलीणया यतीति चतुर्थः / तत्राऽऽद्येषु त्रिषु भनकेषुपश्चादनुपूर्व्या यथोत्तरं तपःकालदुविहा-दव्वपडि-संलीणया, भावपडिसलीणया य / इत्थिपसुपंडग- विशेषतो लघुर्मासः प्रत्येक प्रायश्चित्तम्। चतुर्थे चत्वारो भङ्गाः। तद्यथापुडसंसत्ता होति दव्वम्मि / भावपडिसंलीणता दुविहा-इंदियपडि- दुष्प्रत्युपेक्षतेदुःप्रमार्जयति१, दुष्पत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति 2, सुप्रत्युपेक्षते संलीणया, णो इंदियपडिसलीणया / इंदियपडिसंलीणया पंचविहा- दुष्प्रमार्जयति 3. सुप्रत्युप्रेक्षते सुवमार्जवति 4 / अत्रार्थेषु त्रिषु भङ्ग केषु सोइंदियाऽऽदि / नोइंदियपडिसलीणया चउव्विहा-कोहाऽऽदि / एतेसु पश्चादनुपूा यथोत्तरं तपः कालविशेषितानि पञ्चरामिन्दिवानि पडिलीणण भवियव्वं / ओण भवति, तस्सपच्छित्तं भण्णति। इत्थिसं- प्रायश्चित्तम, चतुर्थे भङ्गे शुद्धोविधिना प्रवृत्तः। इहाऽऽद्यास्त्रयो भङ्गका सत्ताए चउगुरुं. तिरिच्छिपुरिसेसु चरित्तविराह-णाणिप्फण्णं चउगुरुग। मासलघु-प्रायश्चित्तविषयाः प्रस्तावादुक्ताः, यतो वक्ष्यमाणेषु प्रायश्चित्तेषु पुरिसेसुचउलहूग। सोयचक्खुरसफासेसुरागे चउगुरुगं। एतेसुचेव दोसे द्रष्टव्याः। यथा दण्डकग्रहणेऽभिहितं तथा दण्डकनिक्षेपेऽपि वक्तव्यं, नवरं चउलघुगं / घाणेदियरागण गुरुगो, दोसेण लहुगो।कोहे माणे य हु, मायाए निक्षेपे अघस्ता मेरुपरिचदण्डमसिसंपर्कविषया भित्तिप्रदेशे प्रमार्जना मासगुरुगो, लोहे हु / पडिसंलीणया गता। अथ विणओ भण्णति कर्त्तव्या। तथा वसतेर्निर्गच्छन् यद्यावश्यकीं न करोति, वसतौ प्रविश्य आयरियम्म विणयं ण करेति चउगुरुयं, उवज्झायस्स हु, भिक्खुस्स नैषेधिकीम्, तत आवश्यकाकरणान्नैषेधिक्या अकरणे च प्रत्येकं प्रायश्चित्तं मासगुरु, खुड्डगस्स मासलहुं / विणओ गओ। सज्झाओ भण्णति रात्रिन्दिवपञ्चकं, तथा (गुरुगं च अप्पणामे इति) अत्र प्रमाणग्रहण सुतयोरिसिंण करेति मासलहु, अत्थपोरिसिण करेंति मासगुरु। सीसो हस्तोत्सेधाऽऽदेशपलक्षणं, ततोऽयमर्थः-अवश्यकरणीयप्रयोजनवशतः पुच्छति-तवस्स कहं आयारो, कहं वा अणायारो भवति? आयरिओ स्वोपाश्रयाद् बहिर्विनिर्गतो भूयः प्रतिश्रये प्रविशन् 'नमो खमासमणाणं' भणति-(वारसविहम्मिावि तवे गाहा)) कुसलो दव्वे य, भावे य। दवे इति न ब्रूते प्रणामं वा न करोति, नापि हस्तस्यानाक्षणिकत्वेऽपि दवला, भावे कम्मला वा / तेहिं भावकुसलेहि दिट्टे तवे अगिलाए त्ति हस्तोत्वेधम्, तदा प्रायश्चित्तं रात्रिन्दिवपञ्चकम् // 126|| अगिलाणमाणो मनोवाकाएहिं अज्झरणमाणेत्यर्थः / अणालीवित्तिण बेंटियगहनिक्खेवे, निट्ठीवण आयावाउ छायं व। आजीवी अणाजीवी, अणासंसीत्यर्थः। आसंसणं इहपरलोगेसु। इहलोगे थंडिल्लकण्हमोमे, णमो राइंदिया पंच / / 127 / / वरं से सिलाघा भविस्सति। लोगो य आउट्टो वत्थपत्तअसणादिभेसज़ संस्तारकवेण्टलिकाया ग्रहणे, निक्षेपे च प्रत्येक दण्ड इव सप्तभड्गक, दाहिति। परलोगे इन्दसामाणिगाऽऽदि, रायाऽऽदिवा भविस्सामि। सेसं तत्रापि, दण्डक इवाऽऽद्येषु त्रिषु भगकेषु पश्चादनुपूर्व्या यथोत्तरं तपः कंट। नि०चू०१उ०। कालविशेषतः प्रत्येक लघुमासः, उत्तरेषु त्रिषु भगकेषु प्रत्येक अथ तपआचारदर्शनायाऽऽह रात्रिन्दिवपञ्चकं, सप्तमे तु भने शुद्धः। (निट्टीवणा इति) निष्ठीवनाऽऽदौ / इह साधवो द्विधा-गच्छगताः, गच्छनिर्गताश्च / तत्र थेगच्छनिर्गतास्ते बारसविहम्मि वि तवे, सभिंतरबाहिरे कुसलदिखे। नियमादनिष्ठीवकाः, औपग्रहिकमल्लकाऽऽद्युपकरणासंभवात् / अगिलाएँ अणाजीवी, णायव्वो सो तवायारो // 26 // गच्छगता अपि ये विधिना निष्ठीट्यन्ति, ते अनिष्ठीवका एव, न द्वादशविधेऽपि द्वादशभेदेऽप्यास्तां तदेकदेशे, तपसि तपस्याणां, प्रायश्चित्तविषयाः / आवधिना खेल्लमल्लके निष्ठीवने दण्डक इव कार्मणलक्षणाभ्यन्तरदेहस्यैव तापनात्प्रायः सम्यग्दृष्टिभिरेव वा तपस्तया सप्तभङ्गाः,दण्डक इवैव चाऽऽद्येषु प्रत्येकं लघुमासः, उत्तरेषु त्रिषु प्रत्येक प्रतीयमानत्वादाभ्यन्तरं प्रायश्चित्ताऽऽदि पोढः। तथा बाह्यदेहस्याऽपि रात्रिन्दिवपशकं, सप्तमभङ्ग वर्तिनस्त्वनिष्ठीवका एव, विधिना तापनान्मिथ्यादृष्टिभिरपि वा तपस्तया प्रतीयमानत्वात् बामनशना निष्ठीवनात् / उपरितनेष्वपि च त्रिषु भङ्गेषु यदि भूमौ निष्ठीय्यति तदा ऽऽदि पौदैव / सहाभ्यन्तरेण बाह्य साभ्यन्तरवाह्य तत्र, कुशलदृष्टे मासलघु। यच्च निष्ठीवने प्राणिनां परितापनाऽऽद्युपजायते,तन्निष्पन्नं च निपुणोपलब्धे, सर्वज्ञ प्ररूपित इत्यर्थः / अग्लान्या अखेदेन, अनाजीवी तस्य प्रायश्चित्तम्। आदिशब्दात्कण्डूयनपरिग्रहः। कण्डूयनेऽपि हि दण्डक तस्यैव तपसोऽनुपजीवकः सन, योः जीवः, प्रवर्तत इति शेषः। ज्ञातव्यो इव सप्तभड़कं, तथैव च प्रायश्चित्तविधिा तथा वस्त्राऽऽदिकमातपात्छायां, ज्ञेयः स जीवः तपआचारः तपसि तपोरूपो वाऽऽचारो व्यवहारस्तप- छायाया वा आतपं संक्रामयत् न प्रत्युपेक्षते, न प्रमार्जयतीत्यादयः आचारः, आचारतद्वतोर-भेदादितिगाथाऽर्थः // 26 // पञ्चा०१५ विव०। / पूर्ववत्सप्त भड् गाः / पूर्ववदेव वाऽऽद्येषु षट्षु भङ्ग केषु प्रायश्चित्त
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________________ 5191RE 2209 - अन्धिानराजे - भाग - सवारिक विधिः, सप्तमे तु भङ्गे शुद्धः। (थंडिल्लेत्यादि) मार्गे व्रजन् अस्थण्डिलात् सप्तमी, षष्ठीसप्तम्योरथं प्रत्यभेदात् (?) अकरणे सामान्यतो मासनिष्पन्नं स्थण्डिले, स्थण्डिलात् अस्थण्डिले, तथा कृष्णभूमात् प्रदेशात प्रायश्चित्तमिति सर्वत्रापि योजनीयम् / भावना त्वत्रापोयम्- आवश्यके नीलभूमी, नीलभूमेर्वा कृष्णभूमप्रदेशे / एवं शेषवर्णेष्वपि प्रत्येक एकं कायोत्सर्ग न करोति मासलघु। द्वौ न करोति द्विमासलघु / त्रीन् योजनीयम् / अथ अध्वनो ग्रामे ग्रामप्रवेशे, ग्रामाद्वा अध्वनि संक्रामन् कायोत्सर्गान् न करोति त्रिमासलघु / सकलमेवाऽऽवश्यकं न करोति, पादौन प्रत्युपेक्षते, न प्रमार्जयतीत्यादयो दण्डक इव प्रत्येकं सप्तभङ्गाः, प्रावरणप्रावृतो वा वन्दनकानि आवश्यके न ददाति, दोषैरुपेतानि वा षट्षु भङ्ग केषु प्रायश्चित्तविधानं, सप्तभङ्ग के तु शुद्धः। ददाति प्रायश्चित्तं मासलघु / नवरं यत्र माया तत्र मासगुरु / तथासम्प्रति लाघवमपेक्ष्यमाणश्छेदार्हमपि प्रायश्चित्तमत्रैव विषये प्रति- (अपडिलेहा इति) विभक्तरत्र लोपः प्राकृतत्वात्। अप्रत्युपेक्षायाः, अकरणे पादयति सामदिवसीयते / तत्रोपधिद्धिधा-औधिकः, औपग्रहिकश्च / एएसिं अण्णयरं, निरंतरं अतिचरेज तिक्खुत्तो। औधिकरिखधा-जघन्यो, मध्यम, उत्कृष्टश्च / तत्रजघन्यश्चतुर्दा। तद्यथानिक्कारणमगिलाणे, पंच उराइंदिया छेदो।।१२८|| मुखपोत्तिका, पात्रकेसरिका, गोच्छकः, पात्रस्थापनं च / उक्तं चएतेषामनन्तरोदितानां रात्रिन्दिवपशकप्रायश्चित्तविषयाणां स्था "मुहपोत्ती, पायकेसरिया, गोच्छगो, पायट्ठवणं च / एस चउव्विहो नानामन्यतरत् स्थानमग्लानो निष्कारण यो निरन्तरमतिचरेत् जहन्नो'" इति। मध्यमः षड्विधः, तद्यथा-पटलानि, रजस्त्राणं, पात्रबन्धः, त्रिःकृत्वस्वीन वारान् तदा तत्पर्यायस्यच्छेदः क्रियते, पश्चरात्रिन्दिवानि / चोलपट्टः, मात्रकं, रजोहरणं च। आह च-'पटलाइँ रयत्ताणं, पत्ताबंधो उपलक्षण मे तत्-येष्वनन्तरोदितेषु स्थानेषु मासलघु-कानि य चोलपट्टो य / मत्तग रयहरणं वि य, मज्झिमगो छव्विहो नेओ'||१|| प्रायश्चित्तान्युक्तानि, तेषामन्यतरत्स्थानमग्लानो निष्कारणं यदि निरन्तरं उत्कृष्टश्चतुर्विधः, तद्यथा-पतद्ग्रहस्त्रयः कल्पाः। उक्तं च-" उक्कोसो त्रीन वारानतिचरति, तदा तत्पर्यायस्य छेदो मासिक इति द्रष्टव्यम्। चउविहो, पडिग्गहो तिन्नि पच्छागा" इति / आर्यिकाणामप्युपधिसम्प्रति मासिकानि प्रायश्चित्तानि विभणिषुराह रौधिकस्त्रिविधः, तद्यथा-जघन्यो, मध्यमः, उत्कृष्टश्च। तत्र जघन्य श्वतुर्विधो मुखपोत्तिकाऽऽदिरूपः प्रागुक्तः / मध्यमस्त्रयोदशविधः / हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे य लोणे य। तद्यथा-पात्रबन्धः 1 रजोहरणं 2 पटलानि 3 रजस्त्राणं 4 मात्रकं 5 मीसगपुढविकाए, जह उदउल्ले तहा मासो।।१२६।। कमठकः 6 अवग्रहानन्तकं७पोट्टः ८अ रुकः / वलनिका 10 कञ्चुकः यथा उदकार्दै तथेति वचनादेवमत्र प्रतिपत्तव्यम्-यथा उदका 11 अवकक्षी 12 वैकक्षी 13 // उदकम्रक्षिते करे मात्रके वा भिक्षां गृह्णतः प्रायश्चित्तं लघुर्मासः, तथा उक्तं चहरितालहिङ्गुलकमनःशिलाः प्रतीताः। अञ्जनं सौवीराजनाऽऽदि, लवणं समुद्राऽऽदि, एते सचित्तपृथिवीकायभेदाः। उपलक्षणमेतत्-तेन ''पत्ताबंधाईया, चउरो ते चेव पुत्वनिद्दिवा। शुद्धपृथिव्यूषगेरुकवर्णिकासेटिकासौराष्ट्रिक्यादयोऽपि सचित्तपृथिवी मत्तो य कमढकं वा, तह ओग्गहऽणंतगं चेव / / 1 / / कायभेदाः प्रतिपत्तव्याः। तथा मिश्रकः सचित्ताऽचित्तरूपः कर्दमाऽऽदि- पट्टो अरोरु चिय, वलणिय तह कंचुगे य ओगच्छी। हरितालाऽऽदिर्वा पृथिवीकायः; एतेष्वपि किमुक्तं भवति? एतैरपि प्रत्येक वेगच्छी तेरसमा, अजाण होइ नायव्वा // 2 // " मक्षिते करे मात्रके वा भिक्षामाददानस्य लघुर्मासः / एतत्पुनः सम्प्रदाया- उत्कृष्टोऽष्टविधः, तद्यथा-पतद्ग्रहस्त्रयःकल्पाः, अभ्यन्तरनिव-सनी, दवसातव्यम्- सचित्तमिश्रपृथिवीरजोगुण्ठिते सचित्तमिश्रोदकस्निग्धे वा बहिर्निवसनी, संघाटी, स्कन्धकरणी च।"उक्कोसो अट्टविहो, चउरो ते करे मात्रके वा भिक्षामुपाददानस्य पञ्च रात्रिन्दिवानि / उक्तं च-- चेव पुवदिट्ठा जे साहूर्ण, अन्ने य इमे चउरो अभितरनियंसणी, "ससणिद्धे ससरक्खे पणगमिति / " तथा वनस्पतिकायो द्विविधः- बाहिनियसणी, संघाडी, खंधकरणी य' इति / औपना हिकोऽपि परीत्तोऽनन्तकायश्च / एकैकस्य त्रयो भेदाःपिष्ट, कुक्कुसा, उत्कुट्टितश्च / साधूनामार्यिकाणां च त्रिविधः / तद्यथा-जघन्यो, मध्यमः, उत्कृष्टश्च / पिष्ट, कुक्कुसाश्च प्रतीताः। उत्कुट्टितश्चिञ्जनकाऽऽदिः / तत्र त्रिविधैरपि तत्र पीठनिषद्यादण्डकप्रमार्जनीडगलकपिप्पलकसूचीनखरदनिकासचित्तमिश्रपरीत्तवनस्पतिकायैः संसृष्ट करे मात्रके वा भिक्षां गृह्णतो वा ऽऽदिर्जघन्यः,मध्यमो दण्डकपञ्चकोचारप्रस्रवणखेलमल्लकाऽऽदिरूप लघुमासः। अनन्तसचित्तमिश्रवनस्पतिकायैस्त्रिविधैरपि संसृष्टगुरुमासः, आर्यिकाणामधिको वारकः, उत्कृष्टोऽक्षाः संस्तारक एकाड् गिक इतरो पुरः कर्मणि पश्चात्कर्मणि च केचिदाहुलघुमास इति, परे चत्वारो लघव वा, द्वितीयपदे पुस्तकपञ्चकं, फलकं च।' 'अक्खा संथारो वा, दुविहो इति / उक्तं च कल्पचूर्णी - 'पुरकम्मपच्छकम्मेहिं चउलहु।" इति // 126 / / एगंगिओ व इयरो वा। विइयपयं पोत्थपणगं, फलगं तह होइ उक्कोसो सज्झायस्स अकरणे, कायस्सग्गे तहा अपडिलेहा। // 1 // " तत्रोत्कृष्टमुपछि यदि यथाकालं न प्रत्युपेक्षते चतुर्मासलघु, पोसहियतवे य तहा, अवंदणे चेइयाणं च / / 130|| मध्यमं यदि न प्रत्युपेक्षते तदा मासगुरु / जघन्यं न प्रत्युपेक्षते पञ्चरात्रिस्वाध्यायस्य वाचनाऽऽदेरकरणे, सामान्यतो मासनिष्पन्नं प्रायश्चित्त- न्दिवानि, दोषैः प्रत्युपेक्षते मासलघु। (पोसहियतवे यतहा इति) पोषं मिति योगः।थवेयं भावनासूत्रपौरुषीं न करोतिमासलघु। द्वे सूत्रपोरुष्या- दधातीति पोषधम्- अष्टमीपाक्षिकाऽऽदि। पोषधे भवं पौष-धिकं, वकुर्वतो द्वौ लघुमासौ। तिसृणां सूत्रपौरुषीणामकरणे त्रयो लघुमासाः। तञ्च तत् तपश्च पौषधिकतपः, तस्मिन, क्रियमाणे इति साचतसृणामपि सूत्रपौरुषीणामकरणे चतुर्मासलघु / (काउस्सग्गे इति) मदिम्यते / सामान्यतो मासनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमिति योजना / अकरणे इति अत्राप्यनुवर्तते, आवश्यक इतिवत् कायोत्सर्गस्य सूत्रे / तद्यथा- अष्टम्यां चतुर्थं न करोति मासलघु, पाक्षिके चतुर्थ न करोति
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________________ तवारिह 2210- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तवारिह मासगुरु, चतुर्मासके अष्टमाकरणे चतुर्मासलघु, सांवत्सरिके अष्टमं न करोति चतुर्मासगुरु / तथा एतेष्वेवाष्टमीपाक्षिकाऽऽदिषु चैत्याना जिनबिम्बानां, चशब्दाद् ये अन्यस्यां वसतौ सुसाधवस्तेषामप्यवन्दने मासलघु। तथा ये चैत्यभवनस्थिता वैकालिकं कालं प्रतिक्रम्य अकृते आवश्यके प्रभाते च कृते आवश्यके यदि चैत्यानि न वन्दन्ते, तेषामपि मासलघु / उक्तं चास्यैव व्यवहारस्य चूर्णी-"एएसु चेव अट्टमिमादीसु / चेइयाइं साहुणो साहुणीवा जहन्नाए वसहीए ठिया, तेन वंदति मासलघु / जइ चेइयघरे ठिया वेयालिकं कालं पडिक्कता अकए आवस्सए गोसे य कए आवस्सए चेइए न वंदंति मासलहु।" इति। साम्प्रतमेनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतो 'सज्झायस्स अकरणे" इत्येतद्व्याख्यानयतिसुत्तत्थपोरिसीणं, अकरणे मासो उ होइ गुरुलधुगो। चाउक्कालं पोरिसि-उवायणं तस्स चउलहुगा।।१३१।। सूत्रार्थपौरुष्योः-सूत्रपौरुष्याः, अर्थपौरुष्या इत्यर्थः। अकरणे यथाक्रम गुरुमासो, लघुमासः / अर्थपौरुषी हि प्रज्ञाऽऽदिविशिष्टसामग्यपेक्षा सूत्रायत्ता च / सूत्रपौरुषी त्वभिनवदीक्षितेनाऽपि जडमतिनाऽपि च यथाशक्ति अवश्यं कर्त्तव्या। सूत्राभावे सर्वस्याप्यभावादतः सूत्रपौरुष्या अकरणे मासगुरु।अर्थपौरुष्या अकरणे मासलघु। द्वयोः सूत्रपौरुष्योरकरणे द्वौ लघुमासो। तिसृणां पौरुषीणामकरणे त्रयो लघुमासा इति सामर्थ्यात्प्रतिपत्तव्यम्। (चाउक्कालमित्यादि) चतुःकालं दिवारात्रिगतप्रथमचरमप्रहररूपेषु चतुर्युकालेषु सूत्रपौरुषीरवपातयतो भ्रंशयतोऽकुर्वत इत्यर्थः। चतुर्यु लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः। सम्प्रति 'काउस्सग्गे' इति व्याख्यानयतिजइ उस्सग्गे न कुणइ, तइमासा निसण्णए निवण्णे य। सव्वं चेवावस्सं, न कुणइ तहियं चउलहुं ति // 132 / / आवश्यके प्रभाते वैकालिके वा यावतः कायोत्सर्गान्न करोति तावन्तो मासास्तस्य प्रायश्चित्तम्। एकं चेन्न करोति,एको लघुमासः। द्वौ न करोति द्वौ लघुमासो / त्रीन्न करोति त्रयो लघुमासाः। तथा निषण्ण उपविष्टो, निपन्नः पतितः,सुप्त इत्यर्थः / चशब्दात् प्रावरणप्रावृतो वा यद्यावश्यक करोति तदा सर्वत्र मासलघु। यदि पुनः सर्वमेवाऽऽवश्यकं न करोति तदा चतुर्लघु-चत्वारो लघुमासाः प्रायश्चित्तम्। अधुना "अपडिलेहाइ त्ति"व्याचष्टेचाउम्मासुक्कोसे, मासे मज्झे य पंच उ जहन्ने। उवहिस्स अपेहाए, एसा खलु होइ आरुवणा // 133 / / उत्कृष्ट उत्कृष्टस्य प्रागुक्तस्वरूपस्य उपधेरप्रेक्षायामप्रत्युपेक्षयां चत्वारो लघुमासाः / मध्ये मध्यमस्योपधेरप्रत्युपेक्षायां लघुमासः। जघन्ये जघन्यस्य पञ्चरात्रिन्दिवानि / एषा खलु भवति आरोपणा प्रायश्चित्त प्रत्युपेक्षायामिति / संप्रति "पोसहियतवे य" इति व्याख्यानयतिचउछट्ठऽहमकरणे, अट्ठमिपक्खचउमासवरिसे य। लहुगुरु लहुगा गुरुगा, अवंदणे चेइ-साहूणं / / 134 // अत्र यथासंख्येन पदयोजना। सा चैवम्- अष्टम्यां चतुर्थस्याऽकरणे ) मासलघु। पक्षे पाक्षिके चतुर्थस्याऽकरणे मासगुरु।चतुर्मास अष्टमस्याऽकरणे चत्वारो लघुमासा : / सांवत्सरिके षष्ठस्याऽकरणे चत्वारो गुरुमासाः / तथा एतेषु चाऽष्टम्यादिषु दिवसेषु चैत्यानाम्, अन्यवसतिगतस्तु साधूनां वाऽवन्दने प्रत्येकं मासलघु। सम्प्रति लाघवार्थमत्रैव छेदाह प्रायश्चित्तमाहएतेसु तिठाणेसुं, भिक्खू जो वट्टएपमाएण। सो मासियं ति लग्गइ, उग्घायं वा अणुग्घायं / / 13 / / एतेष्वनन्तरोदितेषु स्थानेषु (ति त्ति) त्रीन् वारान् यो भिक्षु प्रमादेन वर्तते, प्रमादेनैषां स्थानानामन्यतरत् त्रीन्वारान् अतिचरति, समासिकं सामान्यतो मासनिष्पन्नं छेदमुद्घातं लघु, अनुदघातं गुरुकं लगति प्राप्नोति। यत्र यावन्तो मासा लघवो गुरवो वा तपः प्रायश्चित्तं, तत्र तावन्तो मासा लघवो गुरखो वा छेद इति यावत्। सम्प्रति शेषाणि यानि चातुर्मासिकानि षण्मासिकानि वा प्रायश्चित्तानि, ये वा भणिताः छेदाः, यानि च मूलानवस्थितपाराश्चितानि, तदेतत्सर्वमेकगाथया विवक्षुराहछक्काएँ चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। संघट्टाणपरितावण, लहुगुरुगऽतिवायणे मूलं / / 136 / / षट्कायाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायरूपाः। तेषां मध्ये चतुषु पृथिव्यप्तेजोवायुरूपेषु संघट्टनाऽऽदिभिर्लघुकाः प्रायश्चित्तं, परीत्ते प्रत्येकवनस्पतिकायेऽपि च लघुकाः, साधारे अनन्तवनस्पतिकायिके संघट्टनाऽऽदिषु गुरुकाः / तथा द्वीन्द्रियाऽऽदीनां संघट्टने परितापने च यथायोगलघुका गुरुकाश्च प्रायश्चित्तम्। अतिपातने विनाशे मूलम्। इयमत्र भावना-पृथिवीकार्य संघट्टयति मासलघु, परितापयति मासगुरु, अपद्रावयति जीविताद् व्यपरोपयतीत्यर्थः; चतुर्लघु / एवमप्काये तेजस्काये वायुकाये प्रत्येक-वनस्पतिकाये च द्रष्टव्यम् / उक्तं च"छकायाऽऽदिम चउसू,तह य परित्तम्मि होति वणकाए। लहु गुरु मासो चउलह, संघट्टणपरितावणुद्दवणे // 1 // " एतत्प्रायश्चित्तमेकैकस्मिन् दिवसे संघट्टनाऽऽदिकरणे, यदिपुनः द्वौ दिवसौ पृथिव्यादीन संघट्टयति तदा मासगुरु, परितापयति चतुर्लघु, जीविता व्यपरोपयति चतुर्गुरुकं, त्रीन् दिवसान् निरन्तरं पृथिव्यादि संघट्टयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, अपद्रावयतिषड्लघु, निरन्तरं परितापने षड्लघु, अपद्रावणे षड्गुरु, पञ्चदिवसान्निरन्तरं पृथिव्यादीनां संघट्टने षड् लघु, परितापने षड्गुरु, अपद्रावणे मासिकछेदः। षड् दिवसान्निरन्तरं संघट्टनेषड्गुरु, परितापने मासिकच्छेदः, अपद्रावणे चतुर्मासिकच्छेदः / सप्तदिवसान्निरन्तरं पृथिव्यादीनां संघट्टने मासिकच्छेदः / अपद्रावणे पाण्मासिकः। अष्टौ दिवसान्निरन्तरं पृथिव्यादीनां संघट्टने चातुर्मासिकच्छेदः। परितापने पाण्मासिकः। अपद्रावणे मूलम् / उक्तं च- "दोहिं दिवसेहिं मासगुरुए आढवेत्ता चउ-गुरुए ठातिजाव अट्टहिं संघट्टयति।" अनन्तवनस्पतिकायिक संघट्टयतिमासगुरु।परितापयति चतुर्गुरु। अपद्रावयति चतुर्गुरु। द्विदिवसाऽऽदिनिरन्तरसंघट्टनाऽऽदिषूत्तरोत्तरैकैकस्थाने वृद्धिः, ततः सप्तभिर्दिवसैर्मुलम्। द्वीन्द्रियं संघट्टयति चतुर्लघु,परितापयति चतुर्गुरु, अ
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________________ तवारिह 2211 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तवोमग्गगइ पद्रावयति षड्लघु। अत्र द्व्यादिदिवसं निरन्तरं संघटनाऽऽदिषु षड्भिर्दिवसैर्मूलम् / त्रीन्द्रियं संघट्टयति चतुर्गुरु, परितापयति षड्लघु, अपद्रावयति षड्गुरु। अत्र पञ्चभिर्दिवसैर्मूलम् / चतुरिन्द्रियं संघट्टयति षड्लघु, परितापयतः षड्गुरु, अपद्रावयतो मासिकच्छेदः / अत्र चतुर्भिर्दिवरीमूलम्। चतुरिन्द्रिय संघट्टयतिषड्लघु, परितापयतः षड्गुरु, अपद्रावयतो मासिकच्छेदः / अत्र चतुर्भिर्दिवसैर्मूलम् / पञ्चेन्द्रियं संघट्टयतः षड्गुरु, परितापयतश्छेदः, अपद्रावयतो मूलम्। अत्र द्वयोर्दिवसयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु दिवसेषु पाराञ्चितमिति। व्य०१3०। तपोऽहमभिधीयतेनिव्वीए पुरिमड्डे-गभत्तमायंबिलं चऽणागाढे। पुरिमाई खमणंतं, आगाढे एवमत्थे वि / / 23 / / इह तपोऽहं प्रायश्चित्ते ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याऽऽचारपञ्चकशतातिचारचक्रमालोच्यम्, तत्राऽऽद्यो ज्ञानाऽऽचारस्यातिचारे ज्ञानाचारातिचारः, सोऽष्टविधः / तद्यथा-अकाले स्वाध्यायकरणं कालातिचारः१ श्रुतमधिजिज्ञासोर्जातिमदावलेपेन गुरुषु, विनयो वन्दनाऽऽदिरुपचारः, तस्याप्रयोजनं, हीनं वा विनयातिचारः२। श्रुते गुरौ वा बहुमानो हार्दः प्रतिबन्धविशेषः, तस्याऽकरणं बहुमानातिचारः३ उपधानमाचामाम्लाऽऽदितपसा योगविधानं, तस्याकरणमुपधानातिचारः / यत्पावेश्रुतमधीतं तं निहतेऽपलपति अन्य वा युगप्रधानमात्मनोऽध्यापक निर्दिशति, स्वयं वाऽधीतमित्याचष्ट, एष निह्नवनाभिधानातिचारः 5 / व्यज्यते अर्थोऽनेनेति व्यञ्जनमागमसूत्रं, तन्मात्राक्षरविन्दुभिरूनमतिरिक्तं वा करोति, संस्कृतं वा विधत्ते, पर्यायैर्वा विदधाति / यथा"धम्मो मंगलमुक्किट्ट" इत्यादिस्थाने-'पुन्नं कल्लाणमुक्कोस, दया संवरनिजरेति" व्यञ्जनातिचारः६ / आगमपदार्थस्यान्यथापरिकल्पनमातिचारः। यथा आचारसूत्रेऽवन्त्यध्ययनमध्ये "आवंती केआ लोगसि विप्परामुसंतीति।" यावन्तः केचित् लोकेऽस्मिन् पाषण्डिलोके विपरामृशन्तीति प्रस्तुतेऽर्थेऽन्योऽर्थःपरिकल्प्यते-''आवंति होइ देसो, तत्थ उ अरहट्टकूवजा केया।घटिमासपडिहि-याहिं, तंलोगो विप्परामुसइ।" 7 / यत्र च सूत्राओं द्वावपि विनश्येते, स तदुभयातिचारो यथा"धम्मो मंगलमुक्किट्ठो, अहिंसा गिरिमत्थए। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मती।।१।। आहागडेसु रंधति, कडेसु रहकारओ। रत्तो भत्तसिणो जत्थ, गद्दभो जत्थ दीसइ / / 2 / / " अयं च महीयानतिचारो, यतः सूत्रार्थोभयनाशे मोक्षाभावः, तदभावे दीक्षावैयद्यमिति। एष चाष्टविधोऽपि ज्ञानाचारातिचारो द्विधा-ओघतो, विभागतश्च। तत्र विभागत उद्देशकाध्ययनश्रुतस्कन्धाङ्गेषु विषये प्रमादिनः प्रमादपरस्य कालातिक्रमणाऽऽदिष्वष्टसु ज्ञानाऽऽचारातिचारेषु जातेषु क्रमशः क्रमेण तपो निर्विकृतिक, पुरिमा कभक्त आचाम्लच, अनागाढे दशवैकालिकाऽऽदिके श्रुते उद्देशकातिचारे, अकालपाठाऽऽदिके निर्विकृतिकम्, अध्ययनातिचारे पुरिमार्द्धम, श्रुतस्कन्धातिचारे एकभक्तम्, अङ्गातिचारे आचामाम्लमित्यर्थः / आगाढे तूत्तराध्ययनभगवत्यादिके श्रुते,एतेषतिचारस्थानेषु पुरिमार्द्धाऽऽदि क्षपणान्तमेव तपो भवति, एतद्विभागतः प्रायश्चित्तमुक्तम्। जीता (एतच 'अइयार' शब्दे प्रथमभागे 8 पृष्ठेऽपि व्याख्यातम् ) छेयाइमसद्दहओ,मिउणो परियायगव्वियस्सऽविय। छेयाइयाण वितवो, जीएण गणाहिवइणो य / / 56 / / यच्छेद न श्रद्दधाति, भणति च व्रतपर्याये दिनपञ्चकाऽऽदौ छिन्ने किं मदीयं छिन्नं, सम्पूर्णकर्णनासिकाऽऽद्यवयव एव तावदहमस्मि, तस्य च्छेदाऽऽद्यश्रद्धानपरस्य (मिउणो त्ति) यश्छिद्यमाने व्रतपर्याये न संतप्यते, यथा-कष्ट ममपर्यायश्छिन्न इति। यद्वा अन्येषांलघूनामप्यहमतिलघीयान् जात इति तस्य मृदोः, यश्च पर्यायगर्वितो दीर्घपर्यायत्वात् छिन्नेऽपि पर्याये अन्येभ्योऽम्बधिकपर्याय एव; न न्यूने पर्याये, न च पर्यायच्छेदाद् बिभेति, तस्य पर्यायगर्वितस्य / अपि चेति समुचये / एतेषामुद्दिष्टानां छेदमापन्ना-नामपि, आदिशब्दान्मूलानवस्थाप्यपाराशिकान्यथोपपन्नानां, तथा गणाधिपतेराचार्यस्थ, चशब्दात्कुलगणसंघाधिपानां च, जीतेन जीतव्यवहारमतेन, तप एव दीयते। अत्राऽऽहदीयतां नाम छेदद्मऽऽद्य श्रद्धालुप्रभृतीनां छेदाऽऽद्यापत्तावपि तपः, आचार्याऽऽदीनां तु कथमिति? अत्रोच्यते-अनेकविधाः शिष्याः परिणामकापरिणामकाः, अतिपरिणामकाः,शैक्षा उच्चस लाश्चेति / तत्रोत्सर्गे उत्सर्गापवादे चापवादंयथा भणितं ये श्रद्दधत्याचरन्ति च ते परिणामकाः, ये पुनरुत्सर्गमेव श्रद्दधत्याचरन्ति, अपवादंतुन श्रद्दधति, नाचरन्ति वा, तेऽपरिणामकाः, ये चापवादमाचरन्ति नोत्सर्ग, तेऽतिपरिणामकाः, शैक्षा नवदीक्षिताः, उच्छृङ्खला उल्लुण्ठाः, एषामपरिणामिकाऽऽदीनामिमे मा निन्दनीया लाघवभाजोऽभवन्नित्याचार्याऽऽदीनामपित एव दीयन्ते, न छेदाऽऽदय इति। जीत०। ('जीयववहार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1513 पृष्ठे, 'तपोरिह' शब्दे 2185 पृष्ठे चावशिष्ट द्रष्टव्यम्) तविय त्रि०(तप्त) "शर्षतप्तवजे वा" ||6/2 / 105 / / इति तप्तस्य संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः / प्रा०२ पाद। उष्णे, स्था०८टा० "आइचतेयसा तविया खणलबदिवसाओ परिणमंति।" स्था०५ ठा०३उ०। तवोकम्म न०(तपःकर्म) तस्यैवाऽष्टप्रकारस्य कर्मणो बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थस्याऽपि निर्जराहेतुभूलं बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशप्रकारं तपःकर्मोच्यते / आचा०१ श्रु०२ अ० 130aa निर्विकृतिकाऽऽदिनि (स्था० 2 ठा०१उ०। सन औ०) महालयाऽऽदिनि (अन्त०८वर्ग०३७०)तपःक्रियायाम, स्था०४ ठा०३उका तवोकम्मगंडिया स्त्री०(तपःकर्मगण्डिका) तपः कर्मवक्तव्यतार्थाधिकारानुगतायां ग्रन्थपद्धतौ, सण तवोगुणपहाण त्रि०(तपोगुणप्रधान) षष्ठाटमाऽऽदितपोधनवति, दश०४ अ०। तवोमग्गगइ स्त्री०(तपोमार्गगति) उत्तराध्ययनानां त्रिंशत्तमेऽध्ययने, उत्त०२६ अ० स० दुविहतवोमग्गई, वन्निज्जइ जम्ह एत्थ अज्झयणे। तम्हा एयऽज्झयणं, तवमग्गइ त्ति नायव्वं // 46|| द्विविधं तपो बाह्यमाभ्यन्तरंच, तदेव मार्गो भावमार्गः, तत्फलभूता च गतिः सिद्धिगतिः द्विविधतपोमार्गगति ण्यते यस्मादत्राध्ययने तस्मादेतदध्ययनं तपोमार्गगतिरिति ज्ञातव्यम्, अभिधानोपचारादिति भावः / उत्त० पाई०३० अ०॥
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________________ तवोमय 2212- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तत तवोमय पुं०(तपोमद) अहमेव विकृष्टतपो विधायी नापि तपसा नऽस्थि, तो साहेमि / तओ सेसेहिं भणियंणत्थिऽत्थ समणोवासओ। ग्लानिमुपगच्छामीत्येवंरूपे मदे, सूत्र०१ श्रु० 13 अ०) 'पन्नामय चेय पच्छा सो भणति- मए हिंमतेणं पुत्ववेतालीए समुहस्स तमे रुक्खो तवोमयं च, णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू।" सूत्र०१ श्रु०१३अ०। महतिमहंतो दिट्ठो। तस्सेगा साहा समुद्दे पइट्ठिया, एगा य थले। तत्थ तवोवहाण न०(तपउपधान) विशिष्टतपोविशेषे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। जाणि पत्ताणि जले पडति, ताणि जलचराणि सत्ताणि हवंति, जाणि तपःकर्मणि, "दाणं तवोवहाणं, सरीरसक्कारमो जहा–सत्ति / 'पञ्चा०६ थले, ताणि थलचराणि हवंति। ते कप्पडिया भणंति--अहो ! अच्छेरियं विव०। अनियन्त्रिते तपसि, श्रुतोपचारतपसि च। स० 6 अङ्ग। देवेण भट्टारएण णिम्मियं ति। तत्थेगो सावगो कप्पडिओ।सो भणतितवोवहाणादिय त्रि०(तपउपधानादिक) तपःकर्मशरीरसत् कार- जाणि अद्धमज्झे पडति, ताणि किं हवंति? ताहे सो खुद्दो भणतिमया प्रभृतिकाऽऽदौ, "कयमत्थ पसंगणं, तवोवहाणादिया विणियसमए। पुव्वं चेव भणितं / जइ सावओ नऽत्थि तो कहेमि / एतेणं तं चेव अणुरूवं कायव्वा, जिणाण कल्लाणदियहेसु।" // 26 / / पञ्चा०६ विव०॥ पडणवत्थुमहिकियोदाहरियं / " एवं तावल्लोकिकमिदं चोक्ततवोसमायारिसमाहिसंवुड पुं०(तपःसामाचारिसमाधिसंवृत) न्यायाल्लोकोत्तरस्यापि सूचकम्। तत्र चरणकरणानुयोगे यः कश्चिद्विनेयः तपसोऽनशनाऽऽद्यात्मकस्य सामाचारी समाचरणम् / यद्वा-तपश्च कञ्चनासद्ग्राहं गृहीत्वा न सम्यग्वर्त्तते, स खलु तद्वस्तूपन्यासेनैव सामाचारी च तत्कृतो वक्ष्यमाणस्वरूपः समाधिश्च चेतसः स्वास्थ्य, तैः प्रज्ञापनीयः / यथा कश्चिदाह-"न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने। संवृतोनिरुद्धाऽऽश्रवः तपः सामाचारिसमाधिसंवृतः / यद्वा तपःसामा- प्रवृत्तिरेषा भूताना, निवृत्तिस्तु महाफला ||1||" इदं च किलैवमेव चारिसमाधिभिः संवृतं संवरणं यस्य स तथा 1 तपसः समाचरणेन प्रयुज्यते, प्रवृत्तिमन्तरेण निवृत्तेः फलाभावान्निर्विषयत्वेनासंभवाच, समाधिना च निरुवाऽऽश्रवे, उत्त० १उ०। तस्मात्फलनिबन्धननिवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रवृत्तिरप्यदुष्टवेति। अत्रोच्यतेतव्वइरित्तमिच्छादसणवत्तिया स्त्री०(तद्व्यतिरिक्तमिथ्यादर्शन- इह निवृत्तेर्महाफलत्वं किं दुष्टप्रवृत्तिपरिहाराऽऽत्मकत्वेन, आहोस्विदप्रत्यया) तस्मात् ऊनातिरिक्त मिथ्यादर्शनाव्यतिरिक्तं मिथ्यादर्शनं दुष्टप्रवृत्तिपरिहाराऽऽत्मकत्वेनेति? यद्याद्यः पक्ष:-कथं प्रवृत्तेरदुष्टत्वम्? नास्त्येवाऽऽत्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथा, तस्याम्, स्था०२ अथापरस्ततो निवृत्तेरप्यदुष्टत्वात्तन्निवृत्तेरपि प्रवृत्तिरूपाया महाफलत्वठा०१उ प्रसङ्गः, तथा च मति पूर्वापरविरोध इति भावना / द्रव्यानुयोगे तु य तव्वत्थुय पुं०(तद्वस्तुक) तदेव परोपन्यस्तसाधनं वस्त्विति उत्तर-भूतं एवमाह-एकान्तनित्योजीवः, अमूर्त्तत्वादाकाशवदिति / स खलु वस्तु यस्मिन् उपन्यासोपनये स तद्वस्तुकः। अथवा तदेव परोपन्यस्तं तदेवामूर्तत्वमाश्रित्य तस्योत्क्षेपणाऽऽदावनित्ये कर्मण्यपि तावद्वक्तव्यः / वस्तु तद्वस्तु, तदेव तद्वस्तुकं, तद्युक्त उपन्यासोपनयोऽपि तद्वस्तुकः / कर्मामूर्तमनित्यं चेत्ययं वृद्धदर्शनेनोदाहरणदोष एव, यथाऽन्येषां उपन्यासभेदे, स्था०। यथा कश्चिदाह-समुद्रतटे महान् वृक्षोऽस्ति, साधर्म्यसमा जातिरिति। दश० 10 तच्छाखा जलस्थलयोरुपरिस्थिता, तत्पत्राणि च यानि जले निपतन्ति तव्वयण न०(तद्वचन) तस्य विवक्षितार्थस्य घटाऽऽदेवचन भणनं तद्वचनं, तानि जलचरा जीवा भवन्ति; यानि च स्थले तानि स्थलचरा इति। | घटार्थापेक्षया घटवचनवत्। वचनभेदे, स्था० ३ठा० ३उ०/ अन्यस्तदुपन्यस्तमेव तरुपत्रपतनवस्तु गृहीत्वा तदुक्तं विघटयति-यदुत | तस पुं०(स) सन्ति उष्णाऽऽद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितास्थायानि पुनर्मध्ये, तेषां का वार्तेत्येतदुपपत्तिमात्रमुत्तरभूतं तद्वस्तुक नादुद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाऽऽद्यासेवनार्थं स्थानान्तरमिति त्रसाः, उपन्यासोपनयः, ज्ञातत्वं चास्यज्ञाननिमित्तत्वात्। अथवा-यथारूढमेव अनया च व्युत्पत्त्या त्रसास्त्रसनामकर्मोदयवर्तिन एव परिगृह्यन्ते, न शेषाः। ज्ञातमेतत्। तथा ह्येव प्रयोगोऽस्यजलस्थलपतितपत्राणि न जलचरा- अथ च शेषैरपीह प्रयोजन, तत एवं व्युत्पत्तिः- त्रसन्ति अभिसन्धिपूर्वकऽऽदिसत्त्वाः संभवन्ति, जलस्थलमध्यपतितपत्रवत्। तन्मध्यपतितप- मनभिसन्धिपूर्वकं वाऊर्ध्वमस्तिर्यक्षु चलन्तीति त्रसाः। तेजोवायुषु, त्राणां हि जलस्थलपतितपत्रजलचरत्वाऽऽदिप्राप्तिवदुभयरूपप्रसङ्गः, न द्वीन्द्रियाऽऽदिषु च। जी०१ प्रतिकात्रसन्तीति साः। द्वीन्द्रियाऽऽदिषु, चोभयरूपाः सत्त्या अभ्युपगता इति। अथवा-नित्यो जीवोऽमूर्तत्वादा- सूत्र०२ श्रु०१ अ० जं०। सू०प्र०। स्था०। पं०सं०। आचा०। आव०| काशवदित्युक्ते आह--अनित्य एवास्तु मूर्तत्वात्कर्मवदिति / स्था०४ सा द्वीन्द्रियाऽऽदिकृम्यादिषु, आचा०१ श्रु०६अ०१उ०। द्वित्रिचतुःठा०३उ० पञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तापर्याप्तभेदभिन्नेषु, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०त्रसनामतव्वत्थूवण्णास पुं०(तद्वस्तूपन्यास) उपन्यासभेदे, दश०१अ०। कर्मोदयतस्त्रस्यन्तीति त्रसाः। द्वीन्द्रियाऽऽदिषु, स्था०२ ठा०१ उ०। तव्वत्थुयम्मि पुरिसो, सव्वं भमिऊण साहइ अपुव्वं / (84) सूत्र०। तेजोवायुद्वीन्द्रियाऽऽदिषु, नि०चू०१२ उ०। सूत्र०ा द्वित्रिचतुःतद्द्वस्तुके, तद्वस्तूपन्यासे इत्यर्थः। पुरि शयनात्पुरुषः। सर्वं भ्रान्त्वा पञ्चेन्द्रियेषु, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। त्रस्यन्ति तापाऽऽद्युपतप्ताश्छायासर्वमाहिण्ड्य, किम् ? कथयति, अपूर्व, दर्तमाननिर्देशः पूर्ववदिति ऽऽदिक प्रत्यभिसर्पन्तीति त्रसाः। वीन्द्रियाऽऽदिषु, उत्त०५अ०। गाथादलार्थः / भावार्थः कथानकादवसेयः। तच्चेदम्-"एगम्मि देवकुले कुन्थ्वादिषु, पा०ा दर्दुरप्रभृतिषु, सूत्र०२श्रु०३अ० ससंभारकृतेन कप्पमिया मिलिता भणंति-केण भे भमंतेहिं किंचि अच्छेरियं दिट्ट ? कर्मणा समुत्पन्नाः सन्तः सामान्यसंज्ञया प्राणा अप्युच्यन्ते, तथा विशेषतः तत्थ एगो कप्पडिगो भणइ-मए दिटुं ति। जइ पुण एत्थ समणोवासओ 'त्रस' भयचलनयोरितिधात्वर्थानुगमाद, भयचलनाभ्यामुपेतेषु, सूत्र०२ श्रु०
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________________ तस 2213 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तस 7 अ० त्रस्यन्तीति त्रसाः तेजोवायुरूपा विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात्रिधा। सूत्र०१ श्रु०६अ। तिविहा तसा पण्णत्ता / तं जहा-तेउकाइया, वाउकाइया, उराला तसा पाणा। त्रस्यन्तीति त्रसाः संचलनधर्माणः तत्र तेजोवायवो गतियोमात्नसाः उदाराः स्थूलास्त्रसा इति त्रसनामकर्मोदयवर्तित्वात् प्राणा इति व्यक्तोच्छ्वासाऽऽदिप्राणयोगाद्वीन्द्रियाऽऽदयस्तेऽपि गतियोगात् त्रसा इति। स्था०३ ठा०२ उ०। सम्प्रति औदारिकत्रासानाहसे किं तं उराला तसा पाणा? उराला तसा पाणा चउविहा पन्नत्ता। तं जहा-वेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया। (से किं तमित्यादि) अथ के ते औदारिकास्त्रसाः? सूरिराहऔदारिकास्त्रसाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः / तथा द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाः / चतुरिन्द्रियाः पश्शेन्द्रियाः। तत्र द्वे स्पर्शरसनरूपे इन्द्रिये येषां तेद्वीन्द्रियाः। त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणरूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः / चत्वारि स्पर्शनरसनध्राणचक्षुरूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः / पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्ररूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः / जी०१ प्रति ___ इदानीं त्रसाधिकारे एतदाहसे जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा / तं जहा-अंडया, पोयया, जराउया, रसया, संसेइमा, संमुच्छिमा, उब्भिया, उववाइया॥ (से जे पुण इमे इति) से' शब्दोऽथशब्दार्थः / असावप्युपन्यासार्थः। "अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्ग लोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु" इति वचनात् / अथ ये पुनरमी बालाऽऽदीनामपि प्रसिद्धाः, अनेके द्वीन्द्रियाऽऽदिभेदेन बहव एकैकस्यांजातौ त्रसाः प्राणिनः-त्रस्यन्तीति बसाः प्राणा उच्छ्वासाऽऽदय एषां विद्यन्त इति / तद्यथा-(अंडया इत्यादि) एष खलु षष्ठो जीवनिकायः त्रसकायः प्रोच्यत इति योगः / तत्राण्डाजाता अण्डजाः, पक्षिगृहकोकिलाऽऽदयः / पोता एव जायन्त इति पोतजाः / "अन्येष्वपि दृश्यते // 3121 101 / इति डप्रत्ययो जनेरिति वचनात्; ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलूकाप्रभृतयः / जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः / गोमहि--ष्यजाऽविकमनुष्याऽऽदयः। अत्रापि पूर्ववड्डप्रत्ययः / रसाजाता रसजा; तक्राऽऽरनालदधितीमनाऽऽदिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति / संस्वेदाजाता इति संस्वेदजाः मत्कुणयूकाशतपादिकाऽऽदयः संमूर्च्छनाजाताः संमूर्च्छनजाः, शलभपिपीलिकामक्षिकाशालूकाऽऽदयः / उद्भेदाज्जन्म येषां ते उद्भेदाः / अथवाउद्भेदनमुद्भित्, उद्भिज्जन्म येषां ते उद्विजाः, पतङ्ग खञ्जरीटपारि प्लवाऽऽदयः / उपपाताजाता उपपातजाः / अथवा-उपपाते भवा औपपातिकाः; देवा नारकाव / एतेषामेव लक्षणमाहजेसिं केसिंचि पाणाणं अभिकंतं पडिकंतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइविण्णाया। येषां केषाचित्सामान्येनैव प्राणिनां जीवानामभिक्रान्त भवतीति | वाक्यशेषः / अभिक्रमणममिक्रान्तं, भावे निष्ठाप्रत्ययः / प्रज्ञापक प्रत्यभिमुखं क्रमणमित्यर्थः / एवं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रान्तं, प्रज्ञापकात्प्रतीपं क्रमणमिति भावः। संकोचन संकुचित, गात्रसंकोच-करणम् / प्रसारणं प्रसारित, गात्रविततकरणम्। रवणं रुत, शब्दकरणम्। भ्रमणं भ्रान्तम्, इतश्चेतश्च गमनम् / वसनं त्रस्त, दुःखादुद्वेजनम् / पलायनं पलायितं, कुतश्चिन्नाशनम् / तथा आगतेः कुतश्चित् क्वचित्, गतेश्व कुतश्चित्क्वचिदेव च, (विण्णाया इति) विज्ञातारः / आह–अभिक्रान्तप्रतिक्रान्ताभ्यां नाऽऽगतिगत्योः क्वचिद्भेद इति। किमर्थ भेदेनाभिधानम्? उच्यते-विज्ञानविशेषख्यापनार्थम् / एतदुक्तं भवति य एव विजानन्ति, यथा-वयमभिक्रमामः, प्रतिक्रमामो वा, तएव त्रसाः; न तु वृत्तिं प्रत्यभिक्रमणवन्तोऽपि वल्ल्यादय इति / आह-एवमपि द्वीन्द्रियाऽऽदीनामक्र सत्त्वप्रसङ्गः, अभिक्रमणप्रतिक्रमणभावेऽप्येवं विज्ञानाभावात् / नैतदेवम् / हेतुसंज्ञाया अवगतेबुद्धिपूर्वकमिव छायात उष्णमुष्णाद्वा छायां प्रति तेषामभिक्रमणाऽऽदिभावात् / न चैवं वल्ल्यादीनामभिक्रमणाद्योघसंज्ञायाः प्रवृत्तेरिति कृते प्रसङ्गेन। अधिकृतत्रसभेदानाहजे य कीडपअंगा, जाय कुंथुपिपीलिया, सव्वे वेइंदिया, सव्वे तेइंदिया, सव्वे चउरिदिया, सव्वे पंचिंदिया, सव्वे तिरिक्खजोणिया, सव्वे नेरइया, सव्वे मणुया, सव्वे देवा, सव्वे पाणा परमहम्मिया! (जे य इत्यादि) ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटाः कृमयः, "एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणम्" इति द्वीन्द्रियाः शङ्खाऽऽदयोऽपि गृह्यन्ते / पतङ्गाः शलभाः / अत्राऽपि पूर्ववचतुरिन्द्रिया भ्रमराऽऽदयोऽपि गृह्यन्त इति / तथा याश्च कुन्थुपिपीलिका इति; अनेन त्रीन्द्रियाः सर्व एव गृह्यन्ते। अत एवाऽऽह--सर्वे द्वीन्द्रियाः कृम्यादयः, सर्वे त्रीन्द्रियाः कुन्थ्वादयः, सर्वे चतुरिन्द्रियाः पतङ्गाऽऽदयः। आह-येच कीटपतङ्गा इत्यादायुद्देशव्यत्ययः किमर्थम् ? उच्यते-विचित्रा सूत्रगतिः, अतन्त्रः क्रम इति ज्ञापनार्थम् / सर्वे पञ्चेन्द्रियाः सामान्यतः। विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो गवादयः; सर्वे नारका रत्नप्रभानारकाऽऽदिभेदभिन्नाः; सर्वे मनुजाः कर्मभूमिजाऽऽदयः; सर्वे देवा भवनवास्यादयः / सर्वशब्दश्चात्र परिशेषभेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः / सर्व एवैते त्रसाः; न त्वेकेन्द्रिया इव त्रसाः, स्थावराश्व इति। उक्तंच- "पृथिव्यम्चुवनस्पतयः स्थावराः , तेजोवायुद्वीन्द्रियाऽऽदयश्च त्रसाः।" इति। सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इति। सर्वे एते प्राणिनो द्वीन्द्रियाऽऽदयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माण इति। अत्र परमं सुखं तद्धर्माणःसुखधर्माणः, सुखाभिलाषिण इत्यर्थः / यतश्चैवमित्यतो दुःखोत्पादपरिजिहीर्षया एतेषां षण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्ड समारंभेतेति योगः। षष्ठं जीवनिकायं निगमयन्नाहएसो खलु छट्ठो जीवनिकाओ तसकाओ त्ति पवुचइ। एष खल्वनन्तरोदितः कीटाऽऽदिः षष्ठो जीवनिकायः, पृथिव्या दिपशकापेक्षया षष्ठत्वमस्य / त्रसकाय इति प्रोच्यते-प्रकर्षणोच्यते, सर्वरे व तीर्थक रगणधरैरिति प्रयोगार्थः / प्रयोगश्वविद्यमानकर्तृक मिदं शरीरम्, आदिमत्प्रतिनियताऽऽकारत्वात,
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________________ तस 2214 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तसकाय घटवत् / आह--इदं त्रसकायनिगमनमनभिधायास्थाने सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनन्तरसूत्रसंबन्धिसूत्राभिधानं किमर्थम्? उच्यतेनिगमनसूत्रव्यवधानवदर्थान्तरेण व्यवधानख्यापनार्थम् / तथाहित्रसकायनिगमनसूत्रावसानो जीवाभिगमः, अत्रान्तरेऽजीवाभिगमाधिकारः, तदर्थमभिधाय चारित्रधर्मोवक्तव्यः / दश० ४अ01 *त्रसधा० गतौ, ग्रहे, निषेधेच। चुरा०-उभ०-सक०-सेट्। उसयति। त्रसयते। अतित्रसत्। वाचला भये, भ्वादि०-फणा०-पर०-अक०सेट्। वाचा "त्रसेर्डर-वोज्ज-वजाः"||४|१६|| सेरेतेत्रय आदेशा वा भवन्ति। 'डरइ.' 'वोज्जइ,' 'वज्जई। पक्षे-'तसई' / प्रा०४ पाद। तसकाइय पुं०(त्रसकायिक) वसनशीलास्त्रसाः, त्रसाः कायाः शरीराणि येषां ते त्रसकायाः, उसकाया एव त्रसकायिकाः / दश०४ अ०॥ जङ्गमप्राणिनि, स०३ सम०। तसकाय पुं०(त्रसकाय) त्रसनामकर्मोदयात्त्रस्यन्तीति त्रसाः, तेषां कायो राशिस्वसकायः / स्था०२ ठा०१ उ०॥ त्रसनशीलास्त्रसाः, साः कायाः शरीराणि येषां ते त्रसकायाः। जगमजीवभेदे, स०१० समला "तसकाए दुविहे पण्णत्ते। तं जहा भवसिद्धिए चेव, अभवसिद्धिए चेव।" स्था०२ ठा०१ उ०। (व्याख्या स्वस्वस्थाने) अथ त्रसकायोद्देशमाहतसकाए दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए। नाणत्तओ विहाणे, परिमाणुवभोगसत्थे य॥५१।। बसन्तीति त्रसाः, तेषां कायः, तस्मिन्, तान्येव द्वाराणि भवन्ति, यानि पृथिव्याः प्रतिपादितानि / नानात्वं विधानपरिमाणोपभोगशस्वद्वारेषु, चशब्दाल्लक्षणे च प्रतिपत्तव्यमिति। तत्र विधानद्वारमाहदुविहा खलु तसजीवा, लद्धितसा चेव गतितसा चेव / लद्धी य तेउवाऊ, तेणऽहिगारो इहं नत्थि / / 5 / / (दुविहेत्यादि) द्विविधा द्विभेदाः, ख नुरवधारणे, सत्वं प्रति द्विभेदत्वमेवत्रसनात् स्पन्दनात् त्रसाः, जीवनात् प्राणधारणाजीवाः / त्रसा एव जीवास्त्रसजीवाः-लब्धित्रसाः, गतित्रसाश्च / लब्धी तेजोवायू त्रसौ, लब्धिस्तच्छक्तिधात्रम् / लब्धित्रसाभ्यामिहाधिकारो नास्ति, तेजसोऽभिहितत्वाद, वायोश्चाभिधास्यमानत्वात्, अतः सामर्थ्याद् गतित्रसा एवाधिक्रियन्ते। के पुनस्ते कियझेदा इत्याहनेरइयतिरियमणुया, सुरा गइतसा चउव्विहा एए। पज्जत्ताऽपज्जत्ता, नेरझ्याई उनायव्वा / / 53|| (नेरइयेत्यादि) नारकाः-रत्नशर्कराऽऽदिमहातमःपृथ्वीपर्यन्तनरकलासिनः सप्तभेदाः,तिर्यचोऽपि-द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियाः, मनुष्याःसंमूर्छनजाः, गर्भव्युत्क्रान्तयश्च; सुराः-भवनपतिव्यन्त-रज्योतिष्कवैमानिकाः, एते गतित्रसाश्चतुर्विधाः, नामकर्मोदयाभिनिर्वृत्तगतिलाभादतित्रसत्वम् / एते च नारकाऽऽदयः पर्याप्ता-पर्याप्तभेदेन द्विविधा भवन्ति; तत्र पर्याप्तिः पूर्वोक्तव षोढा, तेषा यथासंभवं निष्पन्नाः पर्याप्ताः, तद्विपरीतास्त्वपर्याप्तका अन्तर्मुहूर्त्तकालमिति / इदानीमुत्तरभेदानाह तिविहा तिविहा जोणी, अंडा पोया जराउया चेव। वेइंदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिया चेव / / 5 / / (तिविहत्यादि) अत्र हि शीतोष्णमिश्रभेदात्, तथा-सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, तथा-संवृतविवृततदुभयभेदात्, तथा-स्त्रीपुन्नपुंसकभेदाचेत्यादीनि बहूनि योनीनां त्रिकाणि संभवत्ति, तेषां सर्वेषा संग्रहार्थ त्रिविधा त्रिविधेति वाचा निर्देशः, तत्र नारकाणामाद्यासु तिसृषु भूमिषु शीतैव योनिः, चतुर्णामुपरितननरकेषु शीता, अधस्तननरकेषूष्णा, पञ्चमीषष्ठीसप्तमीषूष्णैव, नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यड्मनुष्याणामशेषदेवानां च शीतोष्णा योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियसम्मूछेनजतिर्यड् मनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः- शीता, उष्णा, शीतोष्णाचेति तथा-नारकदेवानामचित्ता, नेतरे, द्वीन्द्रियाऽऽदिसंमूछजपञ्चेन्द्रियतिर्यड् मनुष्याणां सचित्ताचित्त-मिश्रयोनिर्नेतरे.....(?) तथा-देवनारकाणां संवृता योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुरिन्द्रियसम्मूर्च्छनजपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां विवृता योनिर्नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यड्मनुष्याणां संवृतविवृता योनिर्नेतरे। तथा-नारकानपुंसकजपञ्चेन्द्रियतिर्यड्मनुष्याणां विवृता योनिनेंतरे। गर्भयोनय एव तिर्यश्च स्वविधाः स्त्री-पुनपुंसकयोनयः, मनुष्या अप्येवं त्रैविध्यभाजः, देवाः स्त्रीपुंयोनय एव, तथा परं मनुष्ययोनेस्वैविध्यम् / तद्यथा-कूर्मोन्नता। तस्यां चाहत् चक्रपया॑दिसत्पुरुषाणामुत्पत्तिः / तथा-शङ्खाऽऽवर्ता / सा च स्त्रीरत्नस्यैव, तस्यां च प्राणिनां संभवो नास्तीति न निष्पत्तिः। तथा–वंशीपत्रा। सा च प्राकृतजनस्येति। तथा परं त्रैविध्यं नियुक्तिकृदर्शयति / तद्यथा-- अण्डजाः, पोतजाः, जरायुजाश्चेति / तत्राण्डजाः पक्ष्यादयः, पोतजाः वल्गुलींगजकलभाऽऽदयः, जरायुजा गोमहिषीमनुष्याऽऽदयः / तथा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदाच भिद्यन्ते। एवमेते त्रिविधास्त्रसा योग्यादिभेदेन प्ररूपिताः। एतद्योनिसंग्राहिण्यो गाथाः"पुढविदगअगणिमारुय-पत्तेयनिओयजीवजोणीणं / सराग सत्तग सत्तग, सत्तग दस चोइस य लक्खा / / 1 / / विगलिंदिएसु दो दो, चउरो चउरो यनारयसुरेसु। तिरिया सत्तऽट्टनव य, पणवीसा एगिदिया ...... ||2|| ....... हों ति चउरो, चोद्दस मणुयाण लक्खाई॥" एवमेत चतुरशीतियोनिलक्षा भवन्ति / तथा कुलपरिमाणम्"कुलकोडिसयसहस्सा, वत्तीसऽऽट्ट नव य पणवीसा। एगिहिय वितिइदिय, चउरिदिय हरियकायाणं / अट्ठत्तेरस बारस, दस नव चेव कोडिलक्खाई॥१॥ जलयरपक्खिचउप्पय-उरभुयपरिसप्पजीवाणं / पणवीसं छथ्वीसं, च सयसहस्सा' नारयसुराणं // 2 // वारस य सयसहस्सा, कुलकोडीणं मणुस्साणं / / 3 / / एगा कोडाकोडी, सत्ताणउई च सयसहस्साई। पन्नासं च सहस्सा, कुलकोडीणं मुणेयव्वा / / 4 / / अङ्कतः-१६७५००००००००००००० सकलकुलसंग्रहोऽये बोद्धव्यः / आचा०२ श्रु०१ अ०६उ,
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________________ तसकाय 2215 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तसकाय से किं तं तसकाइया? तसकाइया चउव्विहा पण्णत्ता / तं / जहा-वेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया। से किं तं बेइंदिया? बेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता / एवं जहेव पण्णव-- णाए तहेव निरवसेसंभाणियव्वंजाव सव्वट्ठसिद्धगादेवा सेत्तं अणुत्तरोववाइया, सेत्तं पंचिंदिया, सेत्तं तसकाइया।। उक्ता प्ररूपणा / जी०३ प्रति०४३० तदनन्तरं लक्षणद्वारमाहदसणनाणचरित्ते, चरियाचरिए य दाणलाभे य। उवभोगभोगवीरिए, इंदियविसए य लद्धीए॥५५।। उवओगजोग अज्झव-साणे वीसुं च लद्धिउदई य। अट्ठविहोदय लेसा, सण्णा उस्सासें कसाए य / / 56 / / (दंसणेत्यादि) दर्शन सामान्योपलब्धिरूपं, चक्षुरचक्षुरवधिकेवलाऽऽण्यं, मत्यादीनि ज्ञानानि स्वपरपरिच्छेदिनो जीवस्य परिणामाः ज्ञानाऽऽवरणविगमव्यक्तास्तत्त्वार्थपरिच्छेदाः साकायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातानि, चारित्रं चारित्राचारित्रं देशविरतिस्थूलप्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्तिलक्षणं श्रावकाणाम्, तथा दानलाभभोगोपभोगवीर्याः श्रोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनाऽऽख्याः देशलब्धयः जीवद्रय्यव्यभिचारिण्यो लक्षणं भवन्ति। तथोपयोगः साकारोऽनाकारवाऽष्टचतुर्भेदः, योगो मनोवाकायाऽऽख्यस्त्रिधा. अध्यवसायाश्चानेकविधाः सूक्ष्माः मनःपरिणामसमुत्थाः, विष्वग् पृथग्लब्धीनामुदयाः प्रादुर्भावाः क्षीरमध्वास्रवाऽऽदयः, ज्ञानाऽऽवरणाऽऽद्यन्तरायावसानकर्माष्टकस्य स्वशक्तिपरिणाम उदयः, लेश्याः कृष्णाऽऽदिभेदा अशुभाः शुभाश्व कषाययोगपरिणामविशेषसमुत्थाः , संज्ञास्त्वाहारभयपरि-- ग्रहमैथुनाऽऽख्याः / अथवा-दशभेदा अनन्तरोक्ताश्चतस्त्रः, क्रोधाऽऽद्याश्चतस्त्रः, तथौघ संज्ञा, लोकसंज्ञाचा उच्छ्रासनिःश्वासौ प्राणापानौ, कषायाः-कषं संसारः, तस्यायाः क्रोधादयोऽनन्तानुबन्ध्यादि भेदात षोडशविधाः। एतानि गाथाद्वयोपन्यस्तानि द्वीन्द्रियाऽऽदीना लक्षणानि यथासंभवमवगन्तव्यानीति, नैवंविधलक्षणकलासमुचयो घटाऽऽदिष्वस्ति, तस्मात्तत्राचैतन्यमध्यवस्थन्ति विद्वांसः। अभिहितलक्षणकलापोपसंजिहीर्षया तथा परिमाणप्रति पादनार्थ गाथामाहलक्खणमेयं चेव उ, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते / निक्खमणे य पवेसो, एगा वीया वि एमेव // 57 / / (लक्खणमित्यादि) तुशब्दः पर्याप्तिवचनः, द्वीन्द्रियाऽऽहिजीवाना लक्षणं लिङ्ग मेतावदेव दर्शनाऽऽदिपरिपूर्ण, नान्यदधिकमस्तीति / परिमाणं पुनः क्षेत्रतः संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणावसकायपर्याप्तकाः / एते च बादरतेजस्कायपर्याप्तकेभ्योऽसंख्येयगुणाः, त्रसकायपर्याप्तकेभ्यस्त्रसकायिकापर्याप्तकाः असंख्येयगुणाः, तथा कालतः प्रत्युत्पन्नत्रसकायिकाः सागरोपमलक्षपृथक्त्वसमयराशिपरिमाणा जघन्यपदे, उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमलक्षपृथक्त्वपरिमाणा एवेति। तथा चागमः- "पडुप्पन्ना तसकाइया केवतिकालस्स निल्लेवा सिया? गोयमा ! जहन्नपए सागरोपमसयसहस्सपुहत्तस्स, उक्कोसपदे वि सागरोवमसयसहस्सपुहत्तस्स / " उद्वर्तनोपपातौ गाथाशकलेनाभिदधातिनिष्क्रमणमुद्वर्तन, प्रवेश उपपातः, जघन्येनैको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टतस्त्येवमेवेति--प्रेतरस्यासंख्येयभागप्रदेशपरिमाणा एवेत्यर्थः। साम्प्रतमविरहितप्रवेशनिर्गमाभ्यां परिमाणविशेषमाहनिक्खमपवेसकाले, समयाई एत्थ आवलियभागो। अंतोमुहुत्त विरहो, उदहिसहस्साइँ जे दोणि // 58|| निक्खमेत्यादि) जघन्येन अविरहिताः सन्ततास्त्रसेषु उत्पत्तिनिष्क्रमो वा जीवानामेकं समयं द्वित्रित्वेत्यादि(?) उत्कृष्ट नात्रावलिका असंख्येयभागमात्र कालं, संततमेव निष्क्रमः प्रवेशो वा एकजीवाङ्गीकरणेनाविरहश्चिन्त्यते गाथापश्चिमार्द्धन-विरहः सातत्येनावस्थानम्, एकजीवो हि त्रसभावेन जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमासित्वा पुनः पृथिव्यायेकेन्द्रियेषूत्पद्यते, प्रकर्षणाधिकं सागरोपमसहस्रद्वयं त्रसभावेनावतिष्ठते सन्तमिति / उक्तं प्रमाणद्वारम्॥ साम्प्रतमुपभोगशस्त्रवेदनाद्वारत्रयप्रतिपादनायाऽऽहमंसादी परिभोगो, सत्थं सत्थाइयं अणेगविहं। सारीरभाणसावेयणाय दुविहा बहुविहा य॥५६॥ मांसचर्मकेशरोमनखपिच्छदन्तस्नाय्वस्थिविषाणाऽऽदिभिस्त्रसकायसंबन्धिभिरुपभोगो भवति, शस्त्रं पुनः शस्त्राऽऽदिकमिति खङ्ग तोमरक्षुरिकाऽऽदि तदादिर्यस्य जलानलाऽऽदेस्तच्छवाऽ5दिकमने कविध स्वकायपरकायोभयद्रव्यभावभेदभिन्नमनेकप्रकार त्रसकायस्येति / वेदना चात्र प्रसङ्गेनोच्यते सा च शरीरसमुत्था, मनः समुत्था च द्विविधा यथासंभवम् / तत्राऽऽद्याशल्यशलाकाऽऽदिभेदजनितेतरप्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगाऽऽदिकृता। बहुविधा च ज्वरातीसारकासश्वासभगन्दरशिरोरोगशूलगुदाकीलकाऽऽदिसमुत्था तीव्रति। पुनरप्युपभोगप्रपञ्चाभिधित्सयाऽऽहमंसस्स केइ अट्ठा, केई चम्मस्स केइ रोमाणं / पिच्छाणं पुच्छाणं,दंताणऽट्ठा वहिजंति॥६०॥ केई वहंति अट्ठा, केइ अणट्ठा पसंगदोसेणं। कम्मपसंगपसत्ता, बंधंति हणंतिमारंति॥६१।। मांसाथ मृगशूकशऽऽदयो बध्यन्ते, चर्मार्थ चित्रकाऽऽदयः, रोमार्थ मूषिकाऽऽदयः, पिच्छार्थं मयूरगृद्धकपिवुरुकाऽऽदयः, पुच्छार्थ चमर्यादयः, दन्तार्थ वारणवराहाऽऽदयः। वध्यन्त इति सर्वत्र संबध्यते। तत्र केचन पूर्वोक्तप्रयोजनमुद्दिश्य हन्यन्ते, केचित्तु प्रयोजनमन्तरेणाऽपि क्रीडया हन्यन्ते / तथा परे प्रसङ्ग दोषाद् मृगलक्ष्यक्षिप्तेषुलेलुकाऽऽदिना तदन्तरालव्यवस्थितानेककपोतकपिजलशुकसारिकाऽऽदयो हन्यन्ते। तथा कर्मकृष्याद्यनेकप्रकारं, तस्य प्रसङ्गोऽनुष्ठानम्, तत्र प्रसक्तास्तन्निष्ठाः सस्तस्त्रसकायिकान् बहून घ्नन्ति, रज्वादिना बघ्नन्ति, कशलकुटाऽऽदिभिस्ताडयन्ति, मारयन्ति प्राणैर्वियोजयन्तीति। एवंविधानाऽऽदिद्वारकलापमुपवर्ण्य सकल निर्युक्त्यर्थोपसंहारायाऽऽहसेसाई दाराई, ताइं जाहं हवंति पुढवीए। एवं तसकायम्मी, निञ्जुत्ती कित्तिया एसा॥६२।। (सेसा इत्यादि) उक्त व्यतिरिक्तानि शेषाणि द्वाराणि, तान्येव यानि पृथ्वीस्वरूपसमधिगमे निरूपितानि, अत एवमशेषद्वय
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________________ तसकाय 2216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तसकाय राभिधानात्त्रसकाये नियुक्तिः कीर्तितैषा सकला भवतीत्यवगन्तव्येति। साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलिताऽऽदिगुणपेतं सूत्र मुचारणीयम् / तत्रेदम्संतिमे तसा पाणा। तं जहा-अंडया, पोयया, जराउया, रसया, संसेयया, संमुच्छिमा, उन्भियया, उववाइया / / 63 / / सन्ति विद्यन्ते त्रस्यन्तीति उसाः प्राणिनो द्वीन्द्रियाऽऽदयः / ते च कियद्भेदाः किंप्रकाराश्चेति दर्शयति-तद्यथेति वाक्योपन्यासार्थः / यदि वा-तत्प्रकारान्तरमर्थतो यथा भगवत्प्रऽभिहितं तथाऽहं भणामीति / (आचा०) एवमेतस्मिन्नष्टविधे जन्मनि सर्वे त्रसजन्तवः संसारिणो निपतन्ति, नैतद् व्यतिरेकेणान्ये सन्ति / एते चाष्टविधयोनिभाजोऽपि सर्वलोकप्रतीता बालाङ्गनाऽऽदिजनप्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्याः, सन्ति चानेन शब्देन त्रैकालिकमस्तित्वं प्रतिपाद्यते सानाम्। नकदाचिदेतैर्विरहितः संसारः संभवतीत्येतदपि दर्शयतिएस संसार त्ति पवुचइ, मंदस्स अवियाणओ निजाइत्ता, पडिले हित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिंजीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं महन्भयं दुक्खं ति बेमि // 2 // एष अण्डजाऽऽदिप्राणिकलापः संसारः प्रोच्यते, नाऽतोऽन्यस्त्रसानामुत्पत्तिप्रकारोऽस्तीत्युक्तं भवति / कस्य पुनरत्राष्टविधभूतग्रामे उत्पत्तिर्भवतीत्याह-(मंदस्सावियाणओ) मन्दो द्विधाद्रव्यभावभेदात्। तत्र द्रव्यमन्दोऽतिस्थूलोऽतिकृशो वा, भावमन्दोऽप्यनुपचितबुद्धिलः, कुशास्त्रवासितबुद्धिर्वा। अयमपि सदबुद्धेरभावाबालएव। इह भावमन्देनाधिकारःमन्दस्येति बालस्याविशिष्ट बुद्धः, अत एवाविजानतो हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यमनस इत्येषोऽनन्तरोक्तः संसारो भवतीति। यद्येवं ततः किमित्याह- (निजाइत्तेत्यादि) एवमिमं त्रसकायमार्ग बालाङ्ग नाऽऽदिप्रसिद्धं निश्चयेन ध्यात्वा निर्व्याय, चिन्तयित्वेत्यर्थः / क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियापेक्षया ब्रवीमीत्युत्तरक्रिया सर्वत्र योजनीयेति पूर्ववत्। मनसाऽऽलोच्य ततः प्रत्युपेक्षणं भवतीति दर्शयति-(पडिलेहित्त त्ति) प्रत्युपेक्ष्य दृष्ट्वा यथावदुपलभ्येत्यर्थः / किं तदिति दर्शयतिप्रत्येकमित्येकमेकं त्रसकायं प्रति परिनिर्वाणं सुखं, प्रत्येकसुखभाजः सर्वेऽपि प्राणिनो नान्यदीयमन्य उपभुङ्क्ते सुखमित्यर्थः / एष च सर्वप्राणिधर्म इति दर्शयतिसर्वेषां प्राणिनां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणा, तथा सर्वेषां भूतानां प्रत्येकसाधारणसूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकतरूणामिति, तथा सर्वेषां जीवानां गर्भव्युत्क्रान्तिकसंमूर्छनजौपपातिकपशेन्द्रियाणां, तथा सर्वेषां सत्त्वानां पृथिव्यायेकेन्द्रियाणामिति / इह च प्राणाऽऽदिशब्दानां यद्यपि परमार्थतोऽभेदः, तथापि उक्तन्यायेन भेदो द्रष्टव्यः / उक्तं च- ''प्राणा द्वित्रिचतुश्चोक्तः, भूतास्तुतरवः स्मृतः। जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्वा उदीरिताः" // 1 / / इति / यदि वाशब्दव्युत्पात्तद्वारेणं समभिरूढनयमतेन भेदो द्रष्टव्यः। तथा-सततप्राणधारणात्प्राणाः, कालत्रयभावनाद् भूताः, त्रिकालजीवनात् जीवाः, सदाऽस्तित्वात्सत्त्वा इति / तदेवं विचिन्त्य प्रत्युपेक्ष्य च यथा सर्वेषां जीवानां प्रत्येक परिनिर्वाणं सुखं, तथा प्रत्येकमसातमपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखमहं ब्रवीमि / तत्र दुःखयतीति दुःखम, तद्विशेष्यतेकिंविशिष्टमसातमसातवेद्यं कर्म, संविपाकजमित्यर्थः। तथा--अपरिनिर्वाणमितिपरिनिर्वाणं समन्तात् सुखं, न परिनिर्वाणमपरिनिर्वाणं. समन्तात् शरीरमनः पीडाकरमित्यर्थः / तथा-महाभयमितिमहच तद्भय च महाभयं, नाऽतः परमन्यदस्तीति महाभयम् / तथाहि-सर्वेऽपि शारीरान्मानसाच दुःखादुद्विजन्ते प्राणिन इति इतिशब्द एवमथें। एवमह ब्रवीमि सम्यगुपलब्धतत्वो यत्प्रामुक्तमिति। एतच्च ब्रवीमीत्याहतसंति पाणा पदिसो दिसासु य, तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावंति संति पाणा पुढो सिया।। (संतीत्यादि) एवंविधन चासाताऽऽदिविशेषणविशिष्ट न दुःखेनाभिभूतास्त्रस्यन्त्युद्विजन्ति, प्राणा इति प्राणिनः, कुतः पुनरुद्विजन्तीति दर्शयतिप्रगता दिक् प्रदिग्विादिश इत्यर्थः / ततः प्रदिशः सकाशादुद्विजन्ति। तथाहि-प्राच्यादिषु च दिक्षु व्यवस्थितास्त्रस्यन्ति, एताश्च प्रज्ञापकविधिभक्ता दिशोऽनुदिशश्च गृह्यन्ते, जीवव्यवस्थानश्रवणात् / ततश्चायमर्थः प्रतिपादितो भवति काक्वा, न काचिद्दिगनुदिग्वा, यस्यां न सन्ति त्रसाः, त्रस्यन्ति वा यस्यां स्थिताः, कोशिकारकीटवत् / कोशिकारकीटो हि दिग्भ्योऽनुदिग्भ्यश्च बिभ्यदात्मसंरक्षणार्थ वेष्टनं करोति शरीरस्येति / भावदिगपि न काचित्तादृश्यस्ति, यस्यां वर्तमानो जन्तुर्न त्रस्येत्, शारीरमानसाभ्यां दुःखाभ्यां सर्वत्र नरकाऽऽदिषु जयन्यन्ते प्राणिनोऽतस्त्रासपरिगतमनसः सर्वदाऽवगन्तव्याः। एवं सर्वत्र दिक्ष्वनुदिक्षु च त्रसाः सन्तीति गृह्णीमः। दिग्विदिव्यवस्थितास्त्रसास्त्रस्यन्तीत्युक्तम्। कुतःपुनस्वस्यन्ति? यस्मात्तदारम्भवदिस्ते व्यापाद्यन्ते, किं पुनः कारणं ते तानारभन्त इत्याह-(तत्थ तत्थेत्यादि) तत्र तत्र तेषु तेषुकारणेघूत्पन्नेषु वक्ष्यमाणेष्वजितशोणिताऽऽदिषु च पृथग्विभिन्नेषु प्रयोजनेषु, पश्येति / शिष्यचोदना कि तत्पश्येति दर्शयति-मांसभक्षणाऽऽदिगृद्धा आतुराः अस्वस्थमनसः परि समन्तात्तापयन्ति पीडयन्ति नानाविधवेदनोत्पादनेन प्राणिव्यापादनेन वा तदारम्भिणस्त्रसानिति, येन केनचिदारम्भेण प्राणिनां संतापनं भवतीति दर्शयन्नाह-(संतीत्यादि) सन्ति विद्यन्ते प्रायः सर्वत्रैव प्राणाः प्राणिनः पृथक् विभिन्नाः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाऽऽश्रिताः पृथिव्याद्याश्रिता। एतच ज्ञात्वा निरवद्यानुष्ठायिना भवितव्यमित्यभिप्रायः। अन्ये पुनरन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयन्नाहलज्जमाणा पुढो पास अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरू वेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समारभमाणा अण्णे अणे गरूवे पाणे विहिंसति, तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्ख पडिघायहेउं, से सयमेव तसकायसत्थं समारभति, अण्णे हिं वा तसकायसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा तसकायसत्थं समार
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________________ तसकाय 2217 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तसदसग भमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए , से तं एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिणाया संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोचा भगवओ अणगाराणं भवंति, तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं तसकायसत्थं समारंभेजा, अंतिए, इहमेगेसिंणायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, णेवऽण्णेहिं तसकायसत्थं समारंभावेजा, णेवण्णे तसकायणत्थं एस खलु मारे, एस खलु णरए इच्चत्थं गढिए लोए जम्मि णं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते तसकायसमारंभा परिण्णाया विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समा- भवंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि // 6 // रंभमाणे अण्णे अणेगरूवेण पाणे विहिंसति। (एत्थ सत्थमित्यादि) प्राग्वद्वाच्यम् / यावत्स एव मुनिस्त्रसकायपूर्ववव्याख्येयं, यावत् "अन्ने अणेगरूवेण पाणे विहिंसइ त्ति।" समारम्भविरतत्वात् परिज्ञातकर्मत्वात् प्रत्याख्यातपापकर्मत्वादिति यानि कानिचित्कारणान्युदिश्य च स बन्धः क्रियते, ब्रवीमि। भगवतः त्रिलोकबन्धोः परमकेवलाऽऽलोकसाक्षात्कृतसकलतानि दर्शयितुमाह भुवनप्रपञ्चस्योपदेशादिति / आचा०१ श्रु०१अ०६उ०। (सकायस्य से बेमि अप्पेगे अच्चाए हणंति, अप्पेगे अजिणाए वहति, अप्पेगे प्रतिसेवना पडिसेवणा' शब्दे वक्ष्यते) मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, एवं हिययाए, पित्ताए, | तसचउक्क न०(सचतुष्क) त्रसप्रवृत्त्योपलक्षितं चतुष्कं त्रसचतुष्कम्। वसाए, पिच्छाए, पुच्छाए, बालाए, सिंगाए, विसाणाए, दंताए, उसबादरपर्याप्तप्रत्येकमिति प्रकृत्योपलक्षिते चतुष्के, कर्म०१ कर्म। दाढाए, णहाए, आहाउणीए, अट्ठीए, अद्विमिंजाए; अट्ठाए, तसण न०(सन) पलायने, सूत्र०१ श्रु०७अ०। स्पन्दने आचा०१ श्रु०१ अणट्ठाए, अप्पेगे हिंसिंसु मे त्तिवा वहंति, अप्पेगे हिंसंति मे त्ति अ०६उ० वा वहंति, अप्पेगे हिंसिस्संति मे त्ति वा वहंति, एत्थ सत्थं तसणवग न०(त्रसनवक) त्रसप्रकृत्या उपलक्षितं नवकं त्रसनवकम् / समारभमाणस्स इचेते आरंभा परिणाया भवंति। त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसुभगसुस्वराऽऽदेयलक्षणे, कर्म०२ कर्म०। (से बेभीत्यादि) तदहं ब्रवीमि--यदर्थ प्राणिनस्तदारम्भप्रवृत्तौ व्यापा- तसणाम(ण) न०(सनामन्) त्रसन्ति उष्णाऽऽद्यभितप्ताः सन्तो द्यन्त इति। अप्येकेऽर्चाय घ्नन्ति, अपिरुत्तरापेक्षया समुचयार्थः / एके विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते, गच्छन्ति च छायाऽऽद्यासेवनार्थ स्थाकेचन तदर्थित्वेनाऽऽतुराः, अय॑तऽसावाहारालङ्काररित्यर्चा देहः, तदर्थ नान्तरमिति त्रसाः, तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्म त्रसनाम। त्रसगतनिबन्धने व्यापादयन्ति। तथाहि-लक्षणवत्पुरुषम-क्षतमव्यङ्ग व्यापाद्य तच्छरीरेण नामकर्मणि, कर्म०१ कर्मा पं०सं०। प्रक०। यदुदयाचलनं स्पन्दनं भवति / विद्यामन्त्रसाधनानि कुर्वन्ति, उपयाचितं वा यच्छन्ति दुर्गाऽऽदीनामग्रतः / आता कर्मा अथवाविषं येन भक्षितं, स हस्तिनं मारयित्वा तच्छरीरे प्रक्षिप्यते, वितिचउपणिंदियतमा, बायरओ बायरा जिया थूला। पश्चाद्विषं जीर्यति / तथा अजिनार्थ चित्रकव्याघ्राऽऽदीन व्यापादयन्ति। नियनियपज्जत्तिजुया, पज्जत्ता लद्धिकरणे हिं।।४०|| एवं मासशोणि तहृदयपित्तवसापिच्छपुच्छबालशृङ्गविषाणदन्तदंष्ट्रा त्रस्यन्ति उष्णाऽऽद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते, गच्छन्ति नखस्नाय्वस्थ्यस्थिमिजाऽऽदिष्वपि वाच्यम्,मांसार्थ शूकराऽऽदयः, च छायाऽऽद्यारसेवनार्थ स्थानान्तरमिति साः, तत्पर्यायविपाकवेधी त्रिशू-लाऽऽलेख्यार्थ शोणितं गृह्णन्ति, हृदयानि साधका गृहीत्वाऽश्रन्ति, कर्मापि त्रसनाम। ततस्त्रसात् त्रसनामोदया-जीवाः-(वितिचउपणिंदिय पित्तार्थ मयूराऽऽदयः, वसार्थ व्याघ्रमकरवराहाऽऽदयः, पिच्छार्थ त्ति)इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् द्वे इन्द्रिये स्पर्शनरसनलक्षणे येषां ते मयूरगृध्राऽऽदयः, पुच्छार्थ रोज्झाऽऽदयः, बालार्थ चमर्यादयः, शृङ्गार्थ द्वीन्द्रियाः, शङ्खचन्दनककपर्दकजलूकाकृमिगण्डोलकपूतरकाऽऽरुरुखम्ग्यादयः, तत्किल शृङ्ग पवित्रमिति याज्ञिका गृह्णन्ति, विषाणार्थं दयो भवन्ति / त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते हस्त्यादयः, दन्तार्थ शृङ्गालाऽऽदयः, तिमिरापहत्वात्तद्दन्तानां, दंष्ट्राऽर्थं वराहाऽऽदयः, नखार्थ व्याघ्राऽऽदयः, स्नाय्वर्थ गोमहिष्यादयः, अस्थ्यर्थ त्रीन्द्रियाः, यूकामत्कुणगर्दभेन्द्रगोपककुन्थुमत्कोटकाऽऽदयः / चत्वारि शवशक्त्यादयः, अस्थिमिजार्थ महिषवराहाऽऽयदयः। एवमेके यथोप स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्लक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः, मक्षिकादिष्टप्रयोजनकलापापेक्षया घ्नन्ति। अपरेतु कृकलासगृहकोकिलाऽऽदी भ्रमरमशकवृश्चिकाऽऽदयः / पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्ररूपाणीन्द्रिन्विना प्रयोजनेन व्यापादयन्ति / अन्ये पुनः-(हिंसिंसु मे ति) याणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः मत्स्यमकरहरिहरिणसारसराजहंसनरसुरहिसितवानेषोऽस्मत्स्वजनान् सिंहः सर्पोऽवा, अतो घ्नन्ति, मम वा पीडा नारकाऽऽदयो भवन्तीति / यदुदयाजीवास्त्रसा द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रिया कृत-वानित्यतो घ्नन्ति। तथा चान्ये वर्तमानकाल एव हिनस्ति अस्मान् भवन्ति तत्त्रसनामेत्यर्थः। (48) कर्म०१ कर्म०। सिंहोऽन्यो वेति घ्नन्ति / तथाल्ये--अस्मानयं हिंसिष्यतीत्यनागतमेव तसतिग न०(वसत्रिक) त्रसबादरपर्याप्ताऽऽख्ये त्रिके, कर्म०२ कर्म०। साऽऽदिकं व्यापादयन्ति। तसदसगन०(सदशक) सनामाऽऽदिनामकर्मोत्तरप्रकृतिदशके, (कर्म) एवमनेकप्रयोजनोपन्यासेन हननं त्रसविषयं प्रदर्श्य, उद्देश तसबायरपञ्जत्तं, पत्तेयथिरं सुभं च सुभगं च / कार्थमुपसंजिहींपुराह सुसराऽऽइज्जजसं तस-दसगं थावरदसं तु इमं / / 26 / /
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________________ तसदसग 2218 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तहकार नामशब्दस्येहापि संबन्धात्-त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, पुनयोंयस्य सचित्ताऽऽदेः स्वभावो, द्रव्यप्राधान्याद्यद्यस्य स्वरूपम्। प्रत्येकनाम, स्थिरनाम, शुभनाम, शुभगनाम / चशब्दौ समुचये / तद्यथा-उपयोगलक्षणो जीवः, कठिनलक्षणा पृथिवी, द्रवलक्षणा अपि सुस्वरनाम, आदेयनाम (जसं ति) यशःकीर्तिनाम इत्येवं त्रसश- इत्यादि। मनुष्या-ऽऽदेर्वा यो यस्यमार्दवाऽऽदिस्वभावः, अचित्तद्रव्याणां ब्देनोपलक्षितं प्रकृतिदशकम, सदशकमुच्यत इति शेषः / कर्म०१ कर्म०। च गोशीर्षचन्दनकम्बलरत्नाऽऽदीनां द्रव्याणां स्वभावः / तद्यथा-"उण्हे तसरेणु पुं०(त्रसरेणु) त्रस्यति पूर्वाऽऽदिवातप्रेरितो गच्छति योरेणुः स करेइ सीयं, सीए उण्हत्तणं पुण भवेइ / कंबलरयणाऽऽदीणं, एस सहावो त्रसरेणुः / रेणुभिः परिमिते प्रमाणविशेषे, प्रव० 254 द्वार। ज्यो। भा मुणेयव्वो" ||1|| जंग स्था०। अनु० कियद्भिः परमाणुभिस्त्रसरेणुर्भवतीति प्रश्ने, उत्तरम भावतथ्यमधिकृत्याऽऽहअनन्तसूक्ष्मपरमाणुभिरेको व्यवहारपरमाणुर्जायते, अष्टव्यवहार- भावतहं पुण नियमा,णायव्वं छव्विहम्मि भावम्मि। परमाणुभिरेका उत् लक्ष्णिका जायते, ताभिरष्टाभिरेका लक्ष्णश्लक्षिणका अहवा विनाणदंसण-चरित्तविणएण अज्झप्पे / / 2 / / जायते, ताभिरष्टाभिरेक ऊर्ध्वरेणुर्जायते, एभिरष्टभिरेकस्त्रसरेणु (भावतहमित्यादि) भावतथ्यं पुनर्नियमतोऽवश्यंभावतया षड्डिधे र्जायते, एतावताकोऽर्थः चतुः सहनैः षण्णवत्यधिकैर्व्यवहारपरमाणु औदायिके भावे ज्ञातव्यम् / तत्र कर्मणामुदयेन निर्वृत्त औदयिकः भिरेकखसरेणुर्जायते इत्यर्थः। 482 प्र०। सेन०३ उल्ला०) कर्मोदयाऽऽपादितो गत्याद्यनुभवलक्षणः, तथा कर्मोपशमेन निवृत्त तसवाइया स्त्री०(त्रसपादिका) त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रतिका औपशमिकः कर्मानुदयलक्षण इत्यर्थः। तथा क्षयाजातः क्षायिकोऽप्रतितसवीसइ स्त्री०(सविंशति) त्रसेनोपलक्षिता विंशतिस्त्रसविंशतिः। पातिज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणः। तथा-क्षयादुपशमाच जातः क्षायोपशमिसदशकस्थावरदशकद्वये, कर्म०१ कर्म०। को देशोदयोपशमलक्षणः / परिणामेननिर्वृत्तः पारिणामिको जीवाजीवतसासि(ण) त्रि०(वसासिन्) पिपीलिकाऽऽदिसहितोदनभक्षके, भव्यत्वाऽऽदिलक्षणः / पञ्चानामपि भावानां द्विकाऽऽदिसंयोगाग्निष्पन्नः नि०चू० 130 सान्निपातिक इति। यदि वा-अध्यात्मन्यान्तर चतुर्धा भावतथ्यं द्रष्टव्यम्। तसिअ त्रि०(त्रस्त) त्रसनं त्रस्तम् / दुःखोद्वेजने, दश०४ अ०। परमा- तद्यथा-ज्ञानदर्शनचारित्रविनयतथ्यमिति। तत्र ज्ञानतथ्यं मत्यादिकेन धार्मिकदेवपरस्परोदीरितदुःखसंपातभयात् त्रासमुपपन्ने, जी०३ प्रति०२ ज्ञानपञ्चके न यथास्ववितथो विषयो पलम्भः / दर्शनतथ्य उ० भ०। शुष्के, दे०ना०५ वर्ग 2 गाथा। शङ्काऽऽद्यतिचाररहितं जीवाऽऽदितत्त्वश्रद्धानम् / चारित्र तथ्यं तु तपसि तस्सण्णि(ण) त्रि०(तत्संज्ञिन्) तस्य संज्ञा तत्संज्ञातज्ज्ञानम्, तद्वान् द्वादशविधे संयमे सप्तदशविधे सम्यगनुष्ठानम्। विनयतथ्यं, द्विचत्वारितत्संज्ञी। आचा०१ श्रु०५ अ०४उ०। विवक्षितज्ञानोपयुक्ते, आचा०१ / शद्भेदभिन्ने विनये ज्ञानदर्शनचारित्रतप उपचारिकरुपे यथायोगमनुष्ठान, श्रु०५अ०६उ०। ज्ञानाऽऽदीनां तु वितथाऽसेवनेनाऽतथ्यमिति। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। तस्सेवि(ण) पुं०(तत्सेविन्) ये दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी यो / तहकार पुं०(तथाकार) तथाशब्देन तथेत्येवंभूतं पदमभिधीयते, गुरुस्तस्य पुरतो यदालोचनम् / तत्से विलक्षणे आलोचनादोषे, ततश्चैतस्य कारः करणम्। पञ्चा०१२ विव०। गुरोः पार्वे वाक्यं श्रुत्वा गुरु स्था०१०ठा। प्रति इदं कथनंयद्भवद्भिरुक्तं तत्तथैवतथाऽस्तु, इति करणं तथाकारः / तह अव्य०(तथा) तेन प्रकारेण तथा प्रकारे थाच् / वाचा "वाऽव्ययो उत्त०२६ अ०। गुर्वादिषु बुवाणेषु यथाऽऽदिशत यूयं, तथैवेति भणनरूपे त्खातादावदातः" ||1 / 67|| इत्यत्वं विकल्पेन / प्रा०१ पाद / सामाचारीभेदे, बृ०१ उ०ा तथाकरण तथाकारः, सच सूत्रप्रश्नगोचरः। उक्तपरामर्श , कल्प०१क्षण। पादपूरणे, नि०चू०१ उ०। यथा भवद्भिरुक्तं तथेदमित्येवंस्वरूपे सामाचारीभेदे, आ०म०१ अ०२ *तथ्य न० / तथा तत्र साधु यत्। सत्ये, वाचला सदर्थाभिधायित्वे, खण्ड। आ०चूला जीत० उत्त०। स्था। त्रि०ा (सूत्र०) साम्प्रतं तथाकारो यस्य दीयते, तत्प्रतिपादनार्थमाहणामतहं ठवणतह, दव्वतह चेव होइ भावतह। कप्पाकप्पे परिणिट्ठियस्स ठाणेसु पंचसु ठियस्स। दव्वतहं पुण जो जस्स सभावो होति दध्वस्स / / 24 / / / संजमतवड्डगस्स उ, अविगप्पेणं तहक्कारो।।१४।। (णामतहमित्यादि) अस्याध्ययनस्य याथातथ्यमिति नाम / तच कल्पो विधिः, आचार इत्यर्थः / अकल्पश्च अविधिः। अथवा-कल्पो यथाशब्दस्य भावप्रत्ययान्तस्य भवति / तत्र यथाशब्दोल्लङ्घनेन जिनकल्पस्थविरकल्पाऽऽदिः, अकल्पस्तु चरकाऽऽदिदीक्षा / अथवातथाशब्दस्य निक्षेप कर्तु नियुक्तिकारस्यायमभिप्रायः इह यथा- कल्प्यं ग्राह्यम्, अकल्प्यमितरत् / ततः समाहारद्वन्द्वात्कल्पाकल्पं, शब्दोऽयमनुवादे वर्तत, तथाशब्दश्च विधेयार्थे / तद्यथा-यथेदं तथैवेद कल्प्याकल्प्यं वा / तत्र परिनिष्ठितस्य ज्ञाननिष्ठा प्राप्तस्य, अनेन च भवता विधेयमित्यनुवादविधेययोश्च विधेयांश एव प्रधानभावमनुभव- ज्ञानसंपदुक्ता / तथा तिष्ठन्ति मुमुक्षवो येषु तानि स्थानानि महाव्रतानि तीति / यदि वा याथातथ्यमिति तथ्यमतस्तदेव निरूप्यत इति / तत्र तेषु, पञ्चस्विति स्वरूपविशेषणम्। यतोन तान्येकादीनि भवन्ति, यत्राऽपि यथाभावस्तथ्यं यथाऽवस्थितवस्तुता / तन्नामाऽऽदिभिश्चतुर्धा / तत्र चत्वारितान्युच्यते तत्रापि वस्तुतः पञ्चैवेति। स्थितस्याऽऽश्रितस्य, अनेन नामस्थापने सुगमे। द्रव्यतथ्यं गाथापञ्चार्धन प्रतिपादयति-तत्र द्रव्यतथ्यं / च मूलगुणसंपत्तिरुक्ता। तथा-संयमः प्रत्युपेक्षोपेक्षाऽऽदिः, तथा-तपश्चा
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________________ सहकार 2216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तहाकार नशनाऽऽदि, ताभ्यामाढ्यः परिपूर्णः, स एव संयमतपआढ्यकः, तस्य, गीतार्थे , संविग्नपाक्षिके च प्रज्ञापयति सति, तथेति निर्विकल्पम्, अनेन चोत्तरपुणसंपत्तिरुक्ता। तुशब्द एवकारार्थः / तस्य किमित्याह- अतथाकारस्तथाकारस्याप्रयोगः / तुशब्द एवकारार्थः / तस्य चैवं अविकल्पेन निर्विकल्पं तदीयवचनेऽवितथत्वाच्छङ्कामकुर्वाणनेत्यर्थः / प्रयोगः-मिथ्यात्वमेवासम्यग्दर्शनमेव, मिथ्यात्वहेतुकत्वात्तस्य, न हि तथाकारो-यथा यूयं वदथ, तथैवैतदित्यर्थसंसूचकस्तथेतिशब्द- मिथ्यात्वं विना निश्चितशुद्धप्ररूपकत्वेऽपि प्रज्ञापके तथाकारं न प्रयुक्त प्रयोगः, कार्य इति गम्यमिति गाथाऽर्थः // 14 // इति गाथाऽर्थः / / 17 / / पञ्चा०१२ विव० अथ तथाकारस्यैव विषयाभिधानायाऽऽह तहच त्रि०(तथार्च) अवस्थितचित्तवृत्तिके, "दुल्लहाओ तहचाओ, जे वायणपडिसुणणाए,उवएसे सुत्तअट्ठकहणाए। धम्मटुं वियागरे / " तथाभूता सम्यकदर्शनप्राप्तियोग्यार्चालेश्यान्तःअवितहमेयं ति तहा, अविगप्पेणं तहक्कारो ||15|| परिणतिरकृतधर्माणामिति / यदि वा-अर्चा मनुष्यशरीरं, तदप्यकृतवाचनायाः सुत्रदानस्य प्रतिश्रवणा श्रवणं वाचनाप्रति श्रवणा, तस्या, धर्मबीजानामार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिसकलेन्द्रियसामग्र्याटिरूपं दुर्लभ तथाकारः प्रयोक्तव्य इति योगः / इदमुक्तं भवति- वाचनां प्रयच्छति भवति, जन्तूनां धर्मरूपमर्थ व्याकुर्वन्ति ये,धर्मप्रतिपत्तियोग्या इत्यर्थः। सति गुरौ सूत्रग्राहिणा तथाकारः कार्यः / तथोपदेशे सामान्येन तेषां तथाभूताऽर्चा सुदुर्लभा भवति। सूत्र०१ श्रु०१५ अ०॥ सामाचारीप्रतिबद्धे। तथा सूत्रार्थकथनायां, व्याख्यान इत्यर्थः। अवितथ तहणाण न०(तथाज्ञान) यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथाज्ञानम्। सत्यम्, एतद्द्यद्यूयं ब्रूथेति ख्यापनपरः, तथेति समुच्चयार्थः; सूत्रार्थकथ सम्यग्दृष्टिजीवद्रव्ये, तस्यैवावितथज्ञानत्वात् / यथैव यद् वस्तु तथैव नापदस्याऽऽदौ द्रष्टव्यः। अविकल्पेन निःसंदेहेन सता लथाकारस्तथेति- ज्ञानमवबोधः प्रतीतिर्यस्मिंस्तत्तथाज्ञानम् / घटाऽऽदिद्रव्ये, स्था०१० शब्दप्रयोगः कार्यों भवतीति शेष इति गाथाऽर्थः / / 15 / / ठा०। यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव पृच्छकस्यापि ज्ञानं यत्र यः पुनरेवंविधो गुरुर्न भवति, तत्र को विधिरित्याह प्रवेस तथाज्ञानः / जानत्प्रने, स च गौतमाऽऽदेर्यथा ''केवइयकाले णं इयरम्मि विगप्पेणं, जं जुत्तिखमं तहिं ण सेसम्मि। भंते ! चमरचचारायहाणीविरहिया उववाएणमित्यादिरिति।'' स्था०६ ठा० संविग्गपक्खिए वा, गीए सव्वत्थ इयरे-णं // 16|| तहप्पओग पुं०(तथाप्रयोग) तथाशब्दस्य प्रयोगे, "तह त्ति पओगो नाम इतरस्मिन् कल्पाकल्पपरिनिष्ठिताऽऽदिविशेषणविशिष्टादन्यस्मिन गुरी ज-एवमेतं अवितहमेत जाहेतं तुज्झेवदह, इच्चेतस्स अत्थस्स संपच्चयत्थं सविसए तह ति सदं पउंजति।" आ०चू०१ अ०1 प्रज्ञापयति सति विकल्पेन भजनया, तथाकारः कार्य इति प्रक्रमः / तामेव भजनां दर्शयति-यवस्तु युक्तिक्षमम् उपपत्तिसहं तेन प्रज्ञापित, तहप्पगार पुं०(तथाप्रकार) पूर्वोक्तप्रकारे, आचा०१ श्रु०१ चू०१ तस्मिन् वस्तुनि तथाकारो विधेयः, न शेषे अयुक्तिक्षमे / इहैव अ०१उ०। नि०चू०। एवंप्रकारे, जी०१ प्रति०। भ०। पूर्वोक्तस्वरूपे, प्रकारान्तरमाह-संविग्नाः संवेगवन्तः सुसाधवः, तेषां पाक्षिकः पक्षग्राही कल्प०१क्षण। संविग्नपाक्षिकः / “सुद्धं सुसाहुधम्म, कहेइ निंदइ य निययमायारं / तहय अव्य०(तथाच) तथेति चिनोति च चिञ् चयने / पूर्वोक्तार्थ-- सुतवस्सियाण पुरओ, हवइ य सच्चोमरायणिओ।।१।।" इत्यादिलक्षण - दृढीकरणे, वाच०। समुच्चये, पञ्चा० रविव०। लक्षितः पार्श्वस्थाऽऽदिस्तस्मिन्। वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतनार्थः / गीते- तहरी (देशी) पड्किलायां सुरायाम, दे०ना० 5 वर्ग 2 गाथा। - पदेऽपिप समुदायोपचाराद् गीतार्थे विषयभूते, तदन्यस्य त्वज्ञातत्वेन | तहल्लिया (देशी) गोवाट, देवना०५ वर्ग 8 गाथा। वचनवैतथ्यसंभवात् / सर्वत्र वस्तुनि युक्तिक्षमे तदक्षमे वा तेनोच्यमाने तहा अव्य०(तथा) तेन प्रकारेण, पं०व०४ द्वार / कल्प०। विशे०॥ इतरेणोत्सपिक्षयाऽन्येनापवादेनेत्यर्थः। अथवा-(इयरे) इतरस्मिन्न- तथाप्रकारे, वाच॥ साम्ये, अभ्युपगमे, पृष्टप्रतिवाक्ये, समुच्चये, निश्चये गीतार्थे, न नैव, तथाकारः कार्य इति प्रक्रम इति गाथाऽर्थः / / 16 / / / च / वाच० न० आनन्तर्य, नं०। आ०म०। अवधिज्ञानेन सहास्य अथ कल्पाकल्पपरिनिष्टिताऽऽदिगुणे गुरावक्षीणरागाऽऽदित्वेन संविग्न- छद्मस्थत्वाऽऽदिभिः सारूप्यप्रदर्शने, आ०म० 1101 खण्ड / पाक्षिके चासत्क्रियत्वेन वितथोपदेशसंभवान्न तथाकारः कार्य इत्येतद समुच्चयनिर्देशावधारणसादृश्यप्रैष्येषु, दश०१अ०। वाक्योपक्षेपे, सच दूषयन्नाह वाक्यस्याऽऽदो दृश्यः / पञ्चा०६ विव० ग्रहणानन्तरे, विशे० संविग्गोऽणुवएस, ण देइ दुब्भासियं कडुविवागं / यथाशब्देनानूद्यमानस्य विधेयस्यार्थे, तद्यथा-यथेदं तथैवेदम्। सूत्र०१ जाणतो तम्मि तहा, अतहक्कारो उ मिच्छत्तं / / 17 / / श्रु० 13 अ०। पूर्वोक्तार्थे, सूत्र०२ श्रु०६ अ० दृढाध्यवसानप्रकारसंविग्नो भवभीरुर्गुरुः, अनुपदेशम्, नत्रः कुत्सार्थत्वेन कुत्सि- | सादृश्योपदर्शनार्थे, आव०४ अगदर्श० तोपदेशमागमबाधितार्थानुशासनम्, न ददाति परस्मै न करोति, तद्दाने | तहां (तस्मात्) "सर्वाऽऽदेई से हाँ" 84355 / / इति अपभ्रंशे संविग्नत्वहानिप्रसङ्गात्। किंभूतः सन्नित्याह -दुर्भाषितमनागमिकार्थो- सर्वाऽऽदेरकारान्तात्परस्य डसेही इत्यादेशः। प्रा०४ पाद। पदेशं, कटुविपाकं दारुणफलं दुरन्तसंसाराऽऽवह, मरीचिभवे महावीर- तहाकप्प त्रि०(तथाकल्प) तथाऽऽचारे, द्वा० ३द्वा०। स्येव जानन्नवबुद्धयमानः,को हि पश्यन्नेवात्मानं कूपे प्रक्षिपतीति, तहाकार पुं०(तथाकार) तीर्थकरत्वं केवलज्ञानं न नते, सूत्र०१ श्रु० यस्मादेवं ततस्तस्मिन् संविग्ने कल्पाकल्पपरिनिष्ठिताऽऽदिगुणे सद्गुरी 12 अन
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________________ तहागय 2220 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ताण तहागय पुं०(तथामत) तथा तेन यथावस्थितपदार्थापलम्भाऽऽत्मकेन | ताअ पुं०(तात) तन-क्त-दीर्घत्वं च / वाच०। मागध्या दत्वं, प्राकृते प्रकारेण गतं ज्ञानमेषामिति तथागताः / वृ०३ उ०। तथा-ऽपुनरावृत्त्या तकारलोपः / प्रा०१ पाद / जनके, उत्त० 14 अ०। पुत्रे सूत्र०१ श्रु० गतारतथागताः / सूत्र०१ श्रु० १५अ०। अथवा-तथैवापुनरावृत्या गतं ३अ०२उ०। प्रश्न अनुकम्प्ये, पूज्ये च / त्रि०ा वाच० गमनं येषां ते तथागताः / यदि वा-यथैव ज्ञेयं तथैव गतं ज्ञानं येषां ते ताइ(ण)त्रि० तापि(पि)न 'तप' गतौ णिनिप्रत्ययः / मोक्ष प्रति तथागताः / आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। अथवा-तथागतानि गमनशीले, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। तायते रक्षति दुर्गतरात्मानपको.... यथावस्थितानि तथैवावितथं जानन्ति, न विभत ज्ञानिन इव विपरीत न्द्रियाऽऽदिप्राणिनो वाऽवश्यमिति तायी(?) उत्त० अ० तापः पश्यन्ति / तेषु, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०देवत्वाऽऽदिप्रकारमापन्नेषु, 10 स्वदृष्टमार्गोक्तिः तद्वान्तापी। सुपरिज्ञातदेशतया विनेयपालपितरि द्वा० 17 श०२ उ०। यथोक्तानुष्टायिपु (सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०) सिदेपु. 23 द्वा० दशा तपने तापः, स विद्यते यस्यासौ तापी। तस्मिन्, सूत्र०१ सर्वज्ञेषु च। आचा०१ श्रु०३ अ०३उन श्रु०१५ अ०। आव०। तहाजुत्त त्रि०(तथायुक्त) सेवकगुणांपततया उचित, जी०३ प्रतिक *त्रायिन् त्रि०ा मनोवाकायगुप्तिभिः कृतकारितानुमतिभिर्वाऽऽत्मानं त्रातुं 4 उ01 शीलमस्येति त्रायी, जन्तूनां सदुपदेशदान-तस्त्राणकरणशीले, सूत्र०१ तहाभूय त्रि०(तथाभूत) एवंप्रकार प्राप्ते, "अहण स होई उबलसी तो श्रु०१४ अ०। आसन्नभव्याना त्राणकारणे, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। आत्मनः संतितहाभूएहिं।" सूत्र०१ श्रु०४ अ०२उ०। परेषां च वाणशीले, सूत्र०२ (06 अ०। विशिष्टोपदेशदानादपरेषा तहारूव त्रि०(तथारूप) तथा तत्प्रकारं रूपं स्वभावो नेपथ्याऽऽदिर्या त्राणभूते. (सूत्र०१ श्रु०१अ०) संसारसागरात्प्राणिपूगपालके, (पञ्चा० यस्य स तथारूपः। दानोचिते, स्था०३ ठा०१उ०। उचितस्वभावे, भ०२ 16 विव०।) धर्मकार्याऽऽदिना संसारदुःखेभ्यस्त्राणकर्तरि दश०२ अ०। श०५उ०। भक्तिदानोचितपात्रे, भ०५ श०५ उ० अविज्ञातव्रतविशेष, ताठा स्त्री०(दंष्ट्रा) 'चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्यद्वितीयौ' न। भ०१५ श० ||8 / 4 / 325 / / इह क्वचिल्लाक्षणिकस्वापीत्युक्तेर्दाढा इत्यस्य स्थान ताटा तहाविय पुं०(तथाविद्) तथारूपमनुष्टानं विदन्तीति तथाविदः / इहिता इत्यादेशः / प्रा०४ पाद / दन्तभेदे, दन्तपङ्क्तिदर प्रान्तस्थाया ऽऽचारकुशले, निपुणे, तद्विदि सर्वज्ञ, पु०। सूत्र०१ श्रु०४अ० 130 / द्विगुणाकृताया दन्तावलौ च / वाच०। तहाविह त्रि०(तथाविध)तत्प्रकारे, 'तंतहाविहं पेच्छइ।" आ०म०१ ताडण न०(ताडन) उर:शिरःकुट्टनकेशलुञ्चनाऽऽदिषु, आव० 4 अ०| अ०२ खण्ड। नि००। गुणने, स्था०१ ठा०। तहाहि अव्य०(तथाहि) निपातसमुदायः / ध०३ अधि०। तथा च हि च ताडत्थ न०(लाटस्थ्य) तटस्थत्वे, पार्श्ववर्तित्वे, अष्ट० 32 अष्ट। द्वन्द्वः / निदर्शन, प्रसिद्धमेवेत्यर्थे , वाच०। उक्तस्योपदर्शने, ध०३ ताडिअ अव्य०(ताडयित्वा) ताडनं कृत्वेत्यर्थे , उत्त० 16 अ०॥ अधि०। अनेन तहि अव्य०(तत्र) "त्रपो हिहत्थाः " / / 8 / 2 / 161 / / इति बप्प्र-राय ताडिव्यय (देशी) रोदने, दे०ना०४ वर्ग 10 गाथा। स्यैते जय आदेशाः / प्रा०२ पाद। तस्मिन्नित्यर्थे, वाच०। जला प्रश्नका ताडि जमाण त्रि० (ताङ्यमान) कुड्याऽऽद्यभिधाताऽऽदिना ताडना तहिय अव्य०(तथाच) तथेति चिनोति-चिङ् चयने पूर्वोक्तार्थदृढीकरणे. प्राप्यमाणे, सूत्र०२ श्रु०१अ०। वाचा उक्तप्रकारमापन्ने, मात्रयाऽप्यन्यूनाधिके, उत्त०६ अ०। प्रश्नका ताण त्रि०(आण) शरणे, आचा०१ श्रु०२ अ०१उ० सूत्र०। अष्टा विशे०| *तथ्य त्रि० / परमार्थभूते सत्ये, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०| स्था०। अनर्थप्रतिघातहेतौ, कल्प०२ क्षण / अन प्रति हनने, तहोववत्ति स्वी०(तथोपपति) तथेव साध्यसंभवप्रकारेण इवोप अर्थसंपादनं च। नातं पत्तिस्तथोपपत्तिः / अर्थात् सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिः / वित्तं पसवो य नाइओ, तं बाले सरणं ति मन्नइ। यथा कृशानुमानयं पाकप्रदेशः, सत्येव कृशानुमखे धूमवत्त्वस्योपपत्तेः ! एते मम तेसु वी अहं, नो ताणं सरणं न विजइ / / 16 / / हेतुप्रयोगभेदे, रत्ना०६ परि०। (वित्तमित्यादि) वित्तं-धनधान्य हिरण्याऽऽदि, पश्वःकरितुरता अव्य० (तस्मात्) "तस्मात्ताः" ||14 / 278|| इति शौरसेन्यां गगोमहिष्यादयः, ज्ञातवः-स्वजना मातापितृपुत्रकलत्राऽऽदयः, तदेव तस्माच्छब्दस्य ता इत्यादेशः / प्रा०४ पाद। पञ्चा०। विताऽऽदिक बालोऽज्ञः शरणं मन्यते / तदेव दर्शयतिममैते तावत् अव्य०। तत्परिमाणमस्य / नि० "यावत्तावञ्जीवितावर्त- वित्तपशुजातयः परिभोगे उपयोक्ष्यन्ते / तेषु चार्जनपालन्संरमानावटप्रावारकदेवकुलैवमेवे वः" ||8/1 / 271 / / इति सस्थरस्य क्षणाऽऽदिना शेषोपद्रव-निराकरणेन परिहारेणाऽहं भवामीत्येवं बालो वकारस्य लोपः / प्रा०१ पाद / प्रस्तुतार्थप्रदर्शक, आ०म०१ अ०२ मन्यते / न पुनर्जानीयदर्थ धनमिच्छति तच्छरीरमशाश्वतमिति / खण्ड / सूत्र०ा तच्छब्दस्य प्रथमैकवचनेऽपि स्त्रियां 'ता' इति / अपि च-"रिती सहावतरला, रोगजराभंगुर हयसरी / "तथा'' अस्यमामीत्युक्ते : "किं यत्तदोस्यमामि'' / / 8 / 3 / 33 / / इति डीन मातापितृसहरवाणि पुत्रदारशतानि च। प्रतिजन्मनि वर्तन्ते, कस्य माता भवति / प्रा०३ पाद। पिताऽपि वा? / / 1 / / एतदेवाऽऽह-नो नैव, वित्ताऽऽदिवं संसार क
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________________ ताण 2221 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तामली थमपि त्राणं भवति, नरकाऽऽदौ पततो नाऽपि रागाऽऽदिनोपद्रुत-स्य | पोराणाणं सुचिण्णाणं०जाव कडाणं कम्माणं एगंतसो क्खयं क्वचिच्छरणं विद्यते इति।।१६।। सूत्र०१श्रु०२ अ०३उ०। उवेहमाणे विहरामि, तंजाव अहं हिरण्णेणं वड्वामि०जाव अईव *तान पुं० ततायांतन्त्र्याम्, "ताणा एगूणपणासं।" तत्र षड्जाऽऽदयः अईव अभिवड्डामि०जाव च मे मित्तनाइनियगसंबंधिप-रियणो स्वराः प्रत्येक सप्तभिस्तानैर्गीयन्त इत्येवमेकोनपञ्चाशत्तानाः सप्ततन्त्रि आढाइ, परियाणाइ, सकारेइ, सम्माणेइ, कल्लाणं मंगलं देवयं कायां वीणाया भवन्ति। अनु०॥ विणएणं चेइयं पञ्जुवासेइ, ताव ता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए ताद पुं०(तात) 'ताअ' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। रयणीए०जाव जलंते सयमेव दारुमयं पडिग्गहं करेत्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता मित्त-णाइनियतादत्तिय त्रि०(तादात्विक) यः किमप्यसंचिन्त्य उत्पन्नमर्थ व्येति स गसयणसंबंधिपरियणं आमंतेत्ता तं मित्तणाइनियग-सयणतादात्विकः / अविचारेणार्थनाशके, ध०१ अधिन संबंधिपरियणं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमतादत्थ न०(तादर्थ्य) तदर्थभावे, श्रा०। ल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइनियगताम् अव्य०(तावत्) "यावत्तावतोर्वाऽऽदेः मउं महिं" // 1 // 406 // | संबंधिपरियणस्स पुरओ जेट्टपुत्तं कुडुंबे ठावित्ता तं मित्तनाइइत्येतेत्रय आदेशाः। ताम-ताउं-तामहिं। प्रा०४ पाद) साकल्ये अती चिनतंबधिपत्थिान जेष्ठत्तपआपुच्छित्ता सयमवदारामय माने, अवधारणे, प्रशंसायाम्, पक्षान्तरे, वाक्यभूषणे, तदेत्यर्थे च / पडिग्गहं गहाय मुंडे भवित्ता पाणामाए पवज्जाए पव्वइ-तए। तत्परिमाणवति, त्रि०ा स्त्रिया डीप / तावती / वाचा पव्वइए धि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगितामर (देशी) रम्ये, दे०ना०५ वर्ग 10 गाथा। हिस्सामि-कप्पइ मे जावज्जीवाए छटुं छट्टेणं अणिक्खित्तेणं तामरसन०(तामरस) पद्म, प्रज्ञा०१ पदास्था० कल्पा तामे, स्वणे, तवोकम्मेणं उड्डे बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स धुस्तूरे, द्वादशाक्षरपादके छन्दोभेदे च / वाच०। मुहूर्ते, दे० ना०५ वर्ग आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं 10 गाथा। पारणयंसि आयावणभूमीओ पचोरुभित्ता सयमेव दारुमयं तामलित्ति स्त्री०(ताम्रलिप्ति) जम्बूद्वीपे भारतवर्षे स्वनामख्यातायां पडिग्गह गहाय ताडलित्तीए नयरीए उचनीयमज्झिमाई कुलाई नगर्याम, यत्र मौर्यपुत्र ईशानदेवेन्द्रजीवो गृहपतिरासीत् / भ०३ श०१ घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडेता सुद्धोदणं पडिगहेत्तातं उ०। बङ्गानां आर्यजनपदानां राजधान्याम, प्रज्ञा०१पाद। प्रव०। सूत्रका तिसत्तखुत्तो उदएणं पक्खालेत्ता तओपच्छा आहारं आहा-रित्तए आचा त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता कल्लं पाउप्पभायाए० जाव तामलित्तिया स्त्री०(ताम्रलिप्तिका) स्थविरागोदासानिर्गतस्यव्यो जलंते सयमेव दारुमयं पडिग्गहंकारेइ, कारेइत्ता विउलं असणं दासगणस्य प्रथमशाखायाम्, कल्प०८ क्षण। पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खमावेइत्ता तओ पच्छा ण्हीए कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पा येसाई तामलीपुं०(तामली)ताम्रलिप्तिनगरीवास्तव्ये ईशानदेवेन्द्रजीवे मौर्यपुत्रे मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकि यसरीरे गृहपतौ, भ०। भोयणवे लाए भोयणमंडवं सि सुहासणवरगए, तए णं तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सद्धिं तं विउलं असणं ताडलित्ती नामं नयरी होत्था / वण्णओ। तत्थ णं ताडलित्तीए पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे बीसाएमाणे परिसाएमाणे नयरीए ताडली नाम मोरियपुत्ते गाहार्वई होत्था। अड्ढे दित्ते० परिभुजेमाणे विहरइ जेमियभुत्तुत्तरागए वियणं समाणे आयते जाव बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था / तए णं तस्स मोरि चोक्खे परमसुइभूए तं मित्त०जाव परियणं विउलेणं वत्थगंधयपुत्तस्स ताडलिस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ पुव्यरत्ताव मल्लालंकारेण य०सक्कारेइ, सक्कारेइत्ता तस्सेव मित्तणाइ०जाव रत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमे एयारूवे परियणस्स पुरओ जेट्ठ पुत्तं कुडुंबे ठावेइ, ठावे इत्ता अब्भत्थिए०जाव समुप्पण्णे-अस्थि ता मे पुरा पोराणाणं तं मित्तणाइ० जाव परियणं जेट्टपुत्तं च आपुच्छइ, आपुच्छइत्ता सुचिण्णाणं सुपरिकताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं मुंडे भवित्ता पाणामाए पव्वजाए पव्वइत्तए / पटवइए वि कल्लाणफलवित्तिविसेसो,जेणाहं हिरण्णेणं वड्डामि, सुवण्णेणं य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहें अभिगिण्हइ-कप्पइ मे वड्ढामि, घणेणं वड्डामि, धण्णेणं पुत्तेहिं च पसूहिं वड्ढामि, विउ- जाव-जीवाए छ8 छटेण०जाव आहारित्तए त्ति कट्ट इम लघणकणकरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंत- एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हइत्ता जावजीवाए सारसावएजेणं अईव अईव अभिवड्डामि, तं किं णं अहं पुरा छटुं छटेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उद्धं बाहाओ पगिज्झिय
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________________ तामली 2222- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तामली पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ, छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि आयावणभूमीए पच्चोरुहइ, पचोरुहइत्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय ताडलित्तीए नयरीए उच्चतीयमज्झिमाइं कुलाइं घरसमुयाणस्स मिक्खायरियाए | अडइ, अडइत्तासुद्धोयणं पडिग्गहेइ, पडिग्गहेइत्ता विसत्त-खुत्तो उदएणं पक्खालेइ, पक्खालेइत्ता तओपच्छा आहारं आहारेइ। से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ-पाणामाए पव्वज्जा? गोयमा ! पाणामाए णं पव्वजाए पव्वइए समाणे जं जत्थ पासइ, तं इंदं वा खंदं वा रुदं वा सिवं वा वेसमणं वा अज्जं वा कोट्टकि-रियं वा रायं वाजाय सत्थवाहं वा काकं वा साणं वा पाणं वा उच्चं पासइ, उच्न पणामं करेइ, नीयं पासइ, नीयं पणामं करेइ, जं जहा पासइ, तस्स तहा पणामं करेइ, से तेणतुणं०जाव पव्वजा। तए णं से ताडली मोरियपुत्ते तेणं उरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं सुक्के भुक्खे०जाव धमणि--सत्तए जाए यावि होत्था। तएणं तस्स वामलिस्स बालतवस्सि-स्स अण्णया कयाई पुटवरत्तावरत्तकालसमयं सि अणिचजाग-रियं जागरमाणस्स इमेयारू वे अब्भत्थिए चिंतिए०जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं विपुलेणं०जाव उदत्तेणं उत्तमेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के भुक्खे०जाव धमणिसंतए जाए, तं अत्थि जामे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे ताव ता मे सेयं कल्लं०जाय जलते ताडलित्तीए नगरीए दिट्ठाभट्टे य पासंडत्थे य गिहत्थे य पुवसंगतिए य पच्छासंगतिए य परियायसंगतिएय आपुच्छित्ता ताडलित्तीए नथरीए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छित्ता पाओगकुंडियमादीयं उवगरणं दारुमयं च पडिग्गहयं एगंते एडेचा ताडलित्तीए नगरीए उत्तर-पुरच्छिमे दिसीभाए नियत्तणियमंडलं आलिहिता संलेहणा-- झूसणाझूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकं खमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता कल्लं०जाव जलंतेजाव आपुच्छइ, आपुच्छइत्ता तामली एगते एडेइ०जाव भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे / तेणं कालेणं तेणं समएणं बलिचंचा रायहाणी अणिंदा अपुरोहिया यावि होत्था। तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थ-- व्वयाबहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवस्सि ओ हिणा आहोवंति, आहोयंतित्ता अण्णमण्णं सद्दावें ति, सद्दावेंतित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अजिंदा अपुरोहिया, अम्हे णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, अयं च णं देवाणुप्पिया ! तामली बालतवस्सी तामलित्तीए नयरीए बहिया उत्तरपुर-च्छिमे दिसीभाए नियत्तनियमंडलं आलिहित्ता संलेहणाझूस-णाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तामलिं बालतवस्सि बलिचंचाए रायहाणीए ठिइप्पकप्पं पकरावेत्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिसुणे ति, पडिसुणे तित्ता बलिचंचाए रायहा–णीए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छंति, जेणेव रुयइंदे उप्पायपव्वए, तेणेव उवागच्छंति, वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणंति०जाव उत्तरवेउवियाई रुवाइं विकु व्वंति त्ति विकुव्वंतित्ता ताए उकिट्ठाए तुरियाए चवलाएछंडाए जयणाए छेयाए सीहाए सिग्घाए दिव्वाए उद्धयाए देवगईए तिरियं असंखेजाणं दीव-समुद्दाणं मज्झं मज्झेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्तीए णगरीए जेणेव तामली मोरियपुत्ते, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता ताडलिस्स बालतवस्सिस्स उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं ठिचा दिव्वं देविड्डि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसइविहं नट्टविहिं उवदंसंति, उवदंसंतित्ता ताम लिं बालतवस्सि तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करंति, वंदंति, नमंसंति, नमसंतित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पिया ! वंदामो, नमसामो० जाव पज्जुवासामो, अम्हा णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिं आढह, परियाणह, सुमरह, अटुं बंधेह, निहाणं पकरेह, ठिइप्पकप्पं पकरेह / तए णं तुज्झे कालमासे कालं किया बलिचंचारायहाणीए उववज्जिस्सह, तए णं तुब्भे अम्हं इंदा भविस्सह, तए णं तुम्भे अम्हेहिं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरिस्सह / तए णं से तामली बालतवस्सी तेहिं बलिचंचारायहाणिवत्थव्वेहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य एवं वुत्ते समाणे एयमद्वं नो आढाइ, नो परियाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ यतामलिं मोरियपुत्तं दोचं पितचं पि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेइत्ता० जाव अम्हं च णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अजिंदाजाव ठिइप्पकप्पं पकरेह०,जाव दोच्चं पित
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________________ तामली 2223 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तामली चं पि एवं वुत्ते समाणे०जाव तुसिणीए संचिट्ठइ / तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ताम लिणा बालतवस्सिणा अणाढाइजमाणा अपरियाइज्जमाणा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया / तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे कप्पे अणिंदे अपुरोहिए यावि होत्था। तए णं से ताम ली बालतवस्सी बहुपडि पुण्णाई सर्टि वाससहस्साई परियागं पाउणित्ता दो मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किचा ईसाणे कप्पे ईसाणवडिं सए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्ज॑सि देवदूसंतरियं अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए ईसाणे देविंदे विरहियकालसमयंसि ईसाणदेविंदत्ताए उववण्णे / तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया अहुणोववन्ने पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ। तं जहा-आहारपज्जत्तीएन्जाव भासामणपज्जत्तीए। तएणं बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवस्सि कालगयं जाणित्ता ईसाणे य कप्पे देविंदत्ताए उववण्णं पासित्ता आसुरुत्ता कुविआ चंडिकिया मिसिमिसेमाणा बलिचंचाए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छंतित्ता ताए उक्किट्ठाए०जाव जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्तीनयरी जेणेव तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता बामे पाए सुंवेणं बधंति, बंधंतित्ता तिक्खुत्तो मुहे उठुहंति, उठुहंतित्ता तामलित्तीए नयरीए सिंघाडगतियचउक्कचचरचउम्मुहमहापहपहेसु आकड्डविकड्डि करेमाणा महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयासी-से केणं भो तामाली बालतवस्सी सयंगहियलिंगे पाणामाए पव्वञ्जाए पव्वइए, केस णं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविंदे देवराया ति कटु ताम लिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलें ति, निंदति, खिंसंति, गरहंति, अवमण्णंति, तजिंति, तालिंति, परिवहेंति, पव्वहंति, आकड्डा विकड्ढेि करें ति, हीलेत्ता०जाव आकड्डविकyि करेत्ता एगते एडति, एडतित्ता जामेव दिसिंपाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तए णं ते ईसाणकप्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य देवीओय बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य तामलिस्स बालतव-स्सिस्स सरीरयं हीलिजमाणं निंदिज्जमाणं खिंसिज्जमाणं०जाव आकड्डविकड्ढेि कीरमाणं पासंति,पासंतित्ता आसुरुत्ताजाव मिसिमिसे माणा जेणे व ईसाणे देविंदे देवराया तेणे व उवागच्छंति, उवागच्छंतिता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं बद्धावें ति, बद्धावेंतित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पिये कालगए जाणेत्ता ईसाणे य कप्पे इंदत्ताए उववण्णे पासेत्ता आसुरुत्ता०जाव एगते एडति, एडंतित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगए। तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया तेसिं ईसाणकप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य अंतिए एयमढे सोचा निसम्म आसुरुतेजाव मिसिमिसेमाणे तत्थेव सयणिज्जवरगए तिवलियं भिउडिं णिडाले साहट्ट बलिचंचारा- यहाणिं अहे सपक्खिं सपडिदिसिं समभिलोएइ, तए णं सा बलिचंचा रायहाणी ईसाणेणं देविंदेण्णं देवरण्णा अहे सपक्खिं सपडिदिसिं समभिलोइया समाणा तेणं दिव्वप्पभावेणं इंगालभूया मुम्मुरभूया छारिभूया तत्तकवेल्लयभूया तत्तासमजोइभूया जाया याचि होत्था। तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तं बलिचंचारायहाणिं इंगालभूयं०जाव समजोइभूयं पासंति, पासंतित्ता भीया उत्तत्था तसिया उविवग्गा संजायभया सव्वओ समंता आधावंति, परिधावंति, परिधावतित्ता अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा चिट्ठति / तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया वहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविदं देवरायं परिकुवियं जाणित्ता ईसाणस्स देविंदस्स देवरपणो तं दिव्यं देविड्डिं दिव्वं देवजुत्तिं दिव्यं देवाणुभावं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा सव्वे सपक्खिं सपडिदिसिं ठिच्चा करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावंति, वद्धावंतित्ता एवं वयासी-अहो णं देवाणुप्पिएहिं दिव्या देविड्डी०जाव अभिसमण्णागया, तं दिट्ठा णं देवाणुप्पियाणं दिव्या देविड्डी० जाव लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया खोमेमो णं देवाणुप्पिया ! खमंतु मं देवाणुप्पिया ! खमंतुमरिहंतु णं देवाणुप्पिया ! नाइभुजो भुञ्जो एवं करणयाए त्ति कट्ट एयमद्वं सम्म विणएणं भुजो भुजो खामंति; तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया तेहिं बलिचंचो--- रायहाणिवत्थव्वेहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य एयमढे सम्मं विणएणं भुजो भुजो खामिए समाणे तं दिवं देविड्वजाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ, तप्पभिई च णं गोयमा ! ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंदं देवरायं आढ़तिजाव पञ्जुवासंति; ईसाणस्स य देविंदस्स देवराणो आणाउववायवयणनिद्देसे चिट्ठति /
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________________ तामली 2224 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तायत्तीसग एवं खलु गोयमा! ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सा दिव्या देविड्डी० वायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा परिवसंति अड्डा०जाव जाव अभिसमण्णागए। ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा, वग्णओ० केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! साइरेगाई दोसागरोव- जाव विहरंति। तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावइ-समणोवासगा माणि ठिई पण्णत्ता ईसाणे णं भंते ! देविंदे देवराया ताओ पुटिवं उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी भवित्ता तओ देवलो गाओ आउक्खएणंजाव कहिं गच्छहिंति कहिं पच्छा पासत्था पासत्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी उववजिहिंति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिंतिजाव कुसीला कुसीलविहारी अहाच्छंदा अहाच्छंदविहारी बहूई अंतं काहिंति / भ०३ श०१उ० वासाई समणो वासगपरियागं पाउणं ति, पाउणं तित्ता तामस पु०(तामस) नमसि अन्धकारे अविद्यागुणे वा रतः अण। सर्प, अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसंति, झूसंतित्ता तीसं भत्ताई उलूक, खले च। तमसा गुणभेदेन निवृत्तम. अण। साड ख्योक्त समाजय अणसणाए छे दें ति, छेदें तित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअहङ्काराऽऽन्दौ, त्रिका तमसः राहोरपत्यम्, अण। राहुसुतंषु ज्या पिाए पडिकं ता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिंदस्स कंतुषु, तमसा व्याप्ता, अण / डीप / रात्री, जटामास्थां, तमोऽधिकार असुररण्णो तायत्तीसगा देवत्ताए उववण्णा / जप्पभिइंच णं भंते ! स्त्रियां च / वावा अज्ञानपरिणामे, प्रश्न०४ आश्रद्वार। कायंदगा तायत्तीसं सहाया समणोवासगा चमरस्स असुरिंदस्स तामिस्स न०(तामिस) तभिसमस्त्यस्मिन्, अण। साउख्योऽटा- असुररण्णो तायत्तीमगदेवत्ताए उववण्णा, तप्पभिई च णं भंते ! दशविध विपर्ययरुपाज्ञानभंदे, वाचला स्या०ा भोगेच्छाप्रतिघात क्री एवं वुचइ-चमरस्स असुरिंदस्स असुर-कुमाररण्णो तायत्तीसगा तभिसा चारिणि राक्षसे च। अन्धकारमये नरकभेदे, नावाचा देवा 2? तत्थ णं भगवं गोयमे साम-हत्थिणा अणगारेणं एवं तामोतर पुं०(दामोदर) "चूलिकापैशाचिके तृतीयचतुर्ययोराद्य- वुत्ते समाणे संकिए कंखिए वितिगिंछिए उट्ठाए उट्टेइ, उद्वेइत्ता द्वितीयौ" ||14325 / / इति चुलिकाया पैशाच्या चदकारस्य कारः / सामहत्थिणा अणगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव प्रा०४ पाद / 'तदोस्तः॥८१४।३०७॥ इति पैशाच्या दरातः / उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, प्रा०४पाद। विष्णौ, वाचा नमंसइत्ता एवं वयासी-अत्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स ताय पुं०(तात) पितरि, भ०३३ श०६ उ08 असुररण्णो तायत्तीसगा देवा? हंता अत्थि। से केणतुणं भंते ! तायत्तीसग स्त्री०(त्रयस्त्रिंशत) व्यधिकाया त्रिंशति, भ०३ एवं वुच्चइ-एवं तं चेव सव्वं भाणियव्वं०जाव तप्पभिई च णं एवं श०१301 प्रज्ञान वुच्चइ-चमरस्स असुरिंद-स्स असुररण्णो तायत्तीसगा देवा? *त्रायस्त्रिंश पुं। इन्द्राणां पूज्ये महत्ता र कल्पे, उपा०२ अ०। नो इणढे समढे / एवं खलु गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स स्था०। कल्पा असुरकुमाररण्णो तायत्तीस-गाणं देवाणं सासए नामधेजे तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे णामं णयरे होत्था / पण्णत्ते; जं न कदाइ नासी, न कदाइ न भवइ० जाव णिचे वण्णओ-दूइपलासए चेइए सामी समोसढे जाव परिसा अव्वोच्छित्तिनयट्ठयाए अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जंति। अत्थि पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महा णं भंते ! बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो तायत्तीसगा वीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे०जाव उड्डजाणू० देवा? हंता अस्थि / से के णटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-बलिस्स जाव विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ वइरोयणिंदस्स०जाव तायत्तीसगा देवा? एवं खलु गोयमा ! महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थीणामं अणगारे पगइभद्दए जहा तेणं कालेण तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीये भारहे वासे रोहे०जाव उर्बुजाणूजाव विहरइ।तएणं से सामहत्थी अणगारे विभेले णामे सन्निवेसे होत्था / वण्णओ / तत्थ णं विभेले जायसड्डेजाव उट्ठाए उढे इत्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव सन्निवेसे जहा चमरस्स जाव उववण्णा / तप्पभिई च णं उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता भगवं गोयमं तिक्खुत्तो० जाव भंते ! ते विभे लगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा पज्जुवासेमाणे एवं वयासी-अत्थि णं भंते ! चमरस्स णं असुरिं- बलिस्स वइरोयणिंदस्स सेसं तं चेव० जाव णिचे अव्वोच्छित्तिदस्स असुरकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा? एवं खलु सामहत्थी! णयट्ठयाए अण्णे चयंति, अण्णे उववजं ति। अस्थि णं भंते ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदी धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा? णाम णयरी होत्था / वण्णओ। तत्थ णं कायंदीए णयरीए | हंता अस्थि / से केणटेणं०जार तायत्तीसगा देवा? गोय
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________________ तायत्तीसग 2225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तारा मा ! धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो तायत्तीसगाणं तार पुं०(तार) स्वाथें णिच्-अच् / प्रेरणे णिच् / करणाऽऽदौ वा घञ्। देवाणं सासए नामधेज्जे पण्णत्ते / जंन कदाइ नासी० जाव अण्णे वानरभदे, शुद्धमुक्तायां प्रणवे, देवीप्रणवे. हीङ्करणे, वाचा ज्ञा०ा गीयता चयंति, अण्णे उववजंति / एवं भूयाणंदस्स वि, एवं० जाव मुर्धानमभिनन् स्वर उच्चस्तरो भवतिस्थानकं च द्वितीयं तृतीयं वा महाघोसस्स वि। अस्थि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो समधिरोहलि-इत्येवंरूपे शिरोजातध्वनी, रा०। नक्षत्रे, नेत्रमध्यस्थकपुच्छा? हंता अस्थि / से केण?णं भंते ! ०जाव तायत्तीसगा नीनिकायां च / न०। स्त्री०। रूप्ये, न०। अत्युचनादे, अत्युचे, निर्मले देवा? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे च / त्रि०ा महाविद्याभेदे, बालिपल्या बृहस्पतिभार्यायाचा स्त्रीला वाचा दीवे भारहे वासे बालाए णामं सन्निवेसे होत्था / वण्णाओ। तारग न०(तारक) तारयत्यगाधात संसारपयोधेर्योगिनमित्यन्वर्थिक्या तत्थ णं बालाए सन्निवे से तायत्तीसं सहाया गाहावई संज्ञया तारकमुच्यते। विवेकजे ज्ञाने, द्वा० 26 द्वा०॥ कल्प०। रा० स० समणोवासगा, जहा चमरस्सजाव विहरंति। तएणं ते तायत्तीसं द्वितीये प्रतिवासुदेवे, पुं० प्रव०२११ द्वारा तिका सहाया गाहावई समणोवासगा पुट्विं पिपच्छा वि उग्गा उग्गविहारी तारगग्गह पुं०(तारकग्रह) तारकाऽऽकारा ग्रहास्तारक ग्रहाः / नवग्रहे, संविग्गा संविग्गविहारी बहूई वासाइं समणो-वासगपरियागं तत्र व चन्द्राऽऽदित्यराहूणां तारकाऽऽकारत्वादन्ये षट् तथोक्ताः। 'छ पाउणंति, पाउणंतित्तामासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सर्व्हि तारगग्गहा पण्णत्ता। तं जहा-सुक्के, बुधे, बहस्सई, अंगारए, सणिचरे, भत्ताई अणसणाए छे दें ति, छेदें तित्ता आलोइयपडिकंता केऊ' (सुधे त्ति) शुक्रः, (बहस्सइत्ति) बृहस्पतिः। अङ्गारको मङ्गलः, समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा०जाव उववण्णा। जप्पभिई (सनिचरे त्ति) शनैश्चर इति / स्था०६ ठा०। च णं भंते ! ते बालाए तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा, तारगा स्त्री०(तारका) पुण्यभद्रस्य यक्षेन्द्रस्य यक्षराजस्य तुर्यायासेसं जहा चमरस्स जाव अण्णे उववज्जति / अत्थि णं भंते ! मग महिष्याम, स्था०४ ठा०१ उ०। (अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो एवं जहा सक्कस्स, णवरं चंपाए 'अग्गमहिषी' शब्दे प्र०भा० 171 पृष्ठे उक्ता) अष्टाशीतिग्रहाणा, णयरीए०जाव उववणा।जप्पभिइंच णं भंते! ते चंपिच्चा तायत्तीसं सर्वतारकाणां च मण्डलानि कति सन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-यथा सहाया, सेसं तं चेव जाव अण्णे उववजंति / अस्थि णं भंते ! सणंकुमारस्स देछिंदस्स देवरण्णो पुच्छा? हंता अस्थि / से चन्द्रसूर्ययोमण्डलाना संख्याऽऽदिविचारः शास्त्रे उपलभ्यते, न तथा परग्रहाणां, तथा तारकाणा मण्डलान्यवस्थितान्येव भवन्ति, न तु केणद्वेणं? जहा धरणस्स तहेव, एवं०जाव पाणयस्स, एवं चन्द्रसूर्यमण्डलवदनियतानीति। 223 प्र० सेन०३उल्ला०ा ज्योतिषि अचुयस्सजाव अण्णे उववजंति। नक्षत्रे, अणु०३ वर्ग 1 अ०। सूत्रका अश्चिन्यादिनक्षत्रेषु, सूत्र०२ श्रु० 6 अ०। (तेणमित्यादि) (तायत्तीसग त्ति) त्रयस्त्रिंशा मन्त्रिकल्पाः। (तायतीस तारग्ग न०(ताराग्र) तारापरिमाणे, च०प्र०१ पाहु / सू०प्र०) पं०सं० सहाराा गाहावइ त्ति) त्रयस्त्रिंशत् परिमाणाः सहायाः परस्परेण (तय णक्खत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1771 पृष्ठे उक्तम्) साहाय्यकारि गो गृहपतयः कुटुम्बनायकाः (उग्ग त्ति) उग्रा उदात्ता भावतः (उग्गविहारित्ति) उदात्ताऽऽचाराः सदनुष्ठानत्वात् (संविग्ग त्ति) संविग्ना तारण पुं०(तारण) तारयत्यनेन ल्युट्। मेलके, 60 वर्षमध्ये 'शस्त्रं भवति मोक्ष प्रति प्रचलिताः, संसारभीरवो वा (संविग्गविहारित्ति) संविग्नविहारः सामान्य, तारणे सुरवन्दिते'' इत्युक्ते वत्सरभेदे च / तारयितरि, त्रिका संविग्नानुष्ठान्नमस्ति येषां ते तथा। (पासत्थ त्ति) ज्ञानाऽऽदिबहिर्वर्तिनः वाचा तीर्थभेदे, तारणे विश्वकोटिशिलायां श्रीअजितः / ती० 43 (पासन्थविहरि त्ति) आकालं पार्श्वस्थसमाचाराः / (ओसन्नि त्ति) कल्प अवसन्ना इव श्रान्ता इवावसन्ना आलस्यादनुष्टानासम्यझरणात् तारत्तर (देशी) मुहूर्ते, दे०ना०५ वर्ग 10 गाथा। (ओसन्नविहारि ति) आजन्मशिथिलाचारा इत्यर्थः / (कुसील त्ति) तारय त्रि०(तारक) तारगशब्दार्थे, द्वा० 26 द्वा०। ज्ञानाऽऽद्याचाराविराधनात्। (कुसीलविहारित्ति) आजन्माऽपि ज्ञानाऽ- | तारवई स्त्री०(तारवती) संमारपुरराजबन्धुमारस्य अङ्गारवतीभार्यायां ऽद्याचारविराधनात्। (आहाच्छंद त्ति) यथाकथञ्चिन्नाऽऽगमपरतन्त्रतया जातायां दुहितरि, आ०चू०४ अ०] छन्दोऽभिप्राया बोधः प्रवचनार्थेषु येषां ते यथाच्छन्दाः / ते चैकदाऽपि तारा स्त्री०(तारा) स्वनामख्यातायां सुग्रीवभार्यायाम, तस्याश्च कृते भवन्तीत्यत आह- (अहाच्छदविहारि त्ति) आजन्मापि यथाच्छन्दा संग्रामोऽभूत् / (प्रश्न०) तथाहि-किष्किन्धापुरे बालिसुग्रीवाभि एवेति / (तप्पभिई च णं ति) यत्प्रभृति त्रयस्त्रिंशत्- संख्योपेतास्ते धानावादित्यारथाभिधानस्य विद्याधरस्य सुतौ वानरविद्यावन्तो श्रावकारतत्रो पन्नास्त प्रभृति च पूर्वमिति। भ० 10 श०४ उ०॥ विद्याघरी बभूयतुः / तत्र- "अहि माणेण य बाली, दाऊणिवरस्य तं ताय पुं०(तात, 'ताअ' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। नियं रन / सिद्धो कयपव्वज्जो, सुग्गीवो कुणइ पुण रज्जं / / 1 / / '' तस्य तायय पुं०(तातक) स्वार्थे कन्। पितरि, उत्त०२ अ०। भार्या ताराऽभिधाना च। ततः कश्चित्खेवराधिपः साहसगत्पनिधानस्तः--
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________________ तारा 2226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तारा रापरिभोगलालसः सुग्रीवरूपं विधायान्तःपुरं प्रविवेश / तया च विह्नः प्रत्यभिज्ञाय निवेदितो जम्बुवदादिमन्त्रिमण्डलस्य / तत्र सुग्रीवद्वयमुपलभ्य किमिदमाश्चर्यमिति विस्मयं जगाम / ततश्च- "निराडिया य दोन्नि वि. पुरओ ते मंतिवग्गवयणेण / जुज्झाति मच्छरण य, वलिता एस अलियसुग्गीवो / / 1 / / " ततश्चासौ सत्य-सुग्रीवो हनुमदभिधानस्य महाविद्याधरराजस्य नत्वा निवेदयति स्म। स त्वागत्य तयार्विशेषमजानन्नकृतोपकारः स्वपुरमगमत् / ततश्च लक्ष्मणविनाशितखरपणसंबन्धिनि पाताललवापुरे राज्यावस्थं राममेवमालोक्य शरणं प्रपन्नः / मनग्न सह गतः सलक्ष्मणो रामः किष्किन्धापुरे स्थितो बहिः। कृतश्व सुग्रीवेल बाहुशब्दः, तमुपश्रुत्य समागतोऽसावलीकसुग्रीवा रथाधिरूढो रणरसिकः सन्। तयोर्विशेषमजानन् तरलं च रामश्च स्थित उदारीनः / कदर्थितः सुग्रीव इतरेण / रामस्य गत्वा निवेदितं सुग्रीवेणदेव ! तरा पश्यतोऽप्यह कदर्थितः। तेन रामेणोक्ता-कृतचिह्नः पुनर्युदयस्व / ततोऽसौ पुनर्युङ्ग्यमानो रामेण शरप्रहारेण पशत्वमाणदितः सुग्रीवश्व सारवा सह भोगान् बुभुजे: प्रश्न०४ आश्रद्वार। दर्शा ज्योतिष्क दे, स्था०५ ठा०१उ०। सा ज्योतिर्विमानरूपे. कृत्तिकाऽदिषु च नक्षत्रेषु, (ताराप्रमाणं णक्खतं' शब्दे चाऽरिमन्नेव भागे 1771 पृष्ठ, 'चर' शब्द तृतीय भागे 1064 पृष्ठ उक्तम् ) "छप्पंच तिन्नि एगं, घउ तिग रस वेय जुयल जुयल च। इंदिय एग एणं, विसवग्गि उ समुद्द वारसग / / 1 / / चउरा तिय तिय पंच य, सत्त ये वे भवे तिया तिन्नि / रिक्खे तारपमाण, जइ तिहितुल्लं हयं कर्ज / / 2 / / " इति। इह चैकरथानकानुरोधान्नक्षत्रत्रयस्य ताराप्रमाणमुक्तं, शेषनक्षत्राणां तु प्रायोऽग्रेतनाध्ययनेषु तद्वक्ष्यति, यस्तु छचिद्विसंवादस्ताराप्रमाणस्य तथाविधप्रयोजनेपु तिथिविशेषस्य नक्षत्रविशेषयुक्त--स्याशुभत्वसूचनाथत्वेनोक्तगाथयोर्मतान्तरभूतत्वान्न वाधक इति ! स्था०१ ठा०। "तारारुवे चलेजा।'' स्था०३ ठा०१३०। अश्वि-यादिनक्षत्रेषु, (सत्र०) नक्षत्रे,सूत्र०१श्रु०६अ। तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेजा-विकुव्वमाणे वा, परियारेमाणे वा, ठाणाओ वा ठाणं संकममाणे तारारूवे चलेजा / / (तिहिं इत्यादि) (तारारूवे त्ति) तारकमात्रम, (चलेआ) स्व-स्थान त्यजेत्, वैक्रियं कुर्वद्वा (परिचारेमाणे धा) मैथुनार्थ संरम्भयुक्तमित्यर्थः / स्थानकाद्वैकस्मात् स्थानान्तरं संक्रामद् गच्छदित्यर्थः / यथा धातकीखण्डाऽऽदि गेरुं परिहरदित्यर्थः / अथवा क्वचिन्महर्दिक देवाऽऽदी चमरवद्वैकियाऽऽदि कुर्धति सति तन्मार्गदानार्थ चलेदिति / उक्तश"तत्थ णं जे से वाघाइए अंतरे से जहण्णेणं दोन्नि छावट्ठिजोयणसए, उकोसेण वारसजोयण-सहस्साइं / '' इति / तत्र व्याधातिकमन्तरं महर्द्धिकदेवस्य मार्गदानादिति। स्था०३ ठा०१३०। परशुराममारितस्य कार्तवीर्यस्य भार्यायामष्टमचक्रवर्तिनः सुभूमस्य मातरि, आ०म०१ अ०२ खण्ड। स०! आव०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे रक्तानदीसड़तायां महानद्याम्, स्था०१० ठा०ा योगदृष्टिभदे. द्वा०। तारायां तु मनाक् स्पृष्टं, दर्शनं नियमाः शुभाः। अनुद्वेगो हिताऽऽरम्भे, जिज्ञासा तत्त्वगोचरा / / 1 / / (तारायाभिति) तारायां पुनर्दृष्टौ मनागीषत् स्पृष्ट मित्रापेक्षया दर्शन शुभाः प्रशस्ता नियमा वक्ष्यमाणा इच्छाऽऽदिरूपाः। तथा-हिताऽऽरम्भे पारलौकिकप्रशस्तानुष्ठानप्रवृत्तिलक्षणेऽनुद्वेगः / ता-तत्त्वगोचरा तत्त्वविषया, जिज्ञासा ज्ञातुमिच्छा। अद्वेषत एव तत्प्रतिपत्त्यानुगुण्यात्॥१॥ नियमाः शौचसन्तोषी, स्वाध्यायतपसी अपि। देवताप्रणिधानंच, योगाऽऽचार्य रुदाहृताः।।२।। (नियमा इति) शौच शुचित्वं, तद् द्विविधम्-बाहाम्, आभ्यन्तरं च / वाहां मृजलाऽऽदिभिः कायप्रक्षालनम्, आभ्यन्तरं मैत्राःऽदि-भिश्चित्त - गलप्रक्षालनम्। सन्तोषः सन्तुष्टिः, स्वाध्यायः प्रणवपूर्वाणां मन्त्राणां जपः, तपः कृच्छ्चान्द्रायणाऽऽदि, देवताप्रणिधानमीश्वरप्रणिधानमसर्वक्रियाणां फलनिरपेक्षतयेश्वरसमर्पणलक्षणम् / एते योगाऽऽचार्य : पतञ्जल्यादिभिर्नियमा उदाहृताः / यदुक्तम्-'"शौचसन्तोपतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।" (2-32) इति // 2 / शौचभावनया स्वाङ्ग-जुगुप्साऽन्यैरसङ्गमः। सत्त्वशुद्धिः सौमनस्यैकाण्याऽक्षजययोग्यताः / / 3 / / (शौथेति) शौचस्य भावनया स्वाङ्गस्य स्वकायस्य कारणरूपपर्यालोयनद्वारेण जुगुप्सा घृणा भवति, "अशुचिरय कयो नात्राऽऽग्रहः कर्तव्यः / '' इति / तथा चान्यैः कायवद्भिरसङ्गमस्तत्सपर्कपरिवर्जनमित्यर्थः / यः किल स्वयमेव कायं जुगुप्सते, दरोंदवद्यदर्शनात्, स कथं परकीयस्तथाभूतः कार्यः ससर्गमनुभवति? तदुतम्-'शौचात स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।" (2-40) इति। तथा स्त्वस्य प्रकाशसुखाऽऽत्मकस्य ,शुद्धीरजस्तमोभ्यामनभिभवः। सौमनस्यं रखेदानन्भयेन मानसी प्रीतिरैकाग्य नियते विषये चेतसः स्थैर्यम्, अक्षाण मिन्द्रियाणां जयो विषयपराङ्मुखानां स्वात्मन्यवस्थान, योग्यता चान्मदर्शने विवेकख्यातिरूपे समर्थत्वम्। एतावन्ति फलानि शौचभा धनयव भवन्ति / तदुक्तम- 'सुसत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्येन्द्रियजयाऽऽत्मदर्शन-योग्यस्वानि चेति।" (2-41) ||3|| संतोषादुत्तमं सौख्यं, स्वाध्यायादिष्टदर्शनम्। तपसोङ् गाक्षयोः सिद्धिः, समाधिः प्रणिधानतः॥४|| (संतोषादिति) संतोषात् स्वभ्यस्ताद्द्योगिन उत्तममतेशयितं सौख्य भवति, यस्य बाह्येन्द्रियप्रभवं सुखं शतांशेनापि न लमम् / तदाह"संतोषादनुत्तमः सुखलाभः" (2-42) स्वाध्यायात् स्वभ्यस्तादिष्टदर्शनं जप्यमानमन्त्राभिप्रेतदेवतादर्शनं भवतितदाह-"स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः (2-44) तपसः स्वभ्यस्तात् क्लेशाऽऽद्यशुचिक्षयद्वाराऽङ्गाक्षयोः कायेन्द्रिययोः सिद्धिः, यथेत्थमणुत्वमहत्त्वाऽऽदिप्राप्तिसूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टदर्शनसामर्थ्यलक्षणोत्कर्षः स्यत् / यथोक्तम्''कायेन्द्रियसिद्धिरशुचिक्षयात् तपसः / " (2-43) / प्रणिधानात् ईश्वरप्रणिधानात् समाधिः स्याद, ईश्वरभक्त्या प्रसन्नो हीश्वरोऽन्तरायरूपान क्लेशान परिहत्य समाधिमुद्बोधयतीति। यथोक्तम्- "समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानादिति / " (2-45) तपः स्वाध्याये श्वरप्रणिधानानां त्रयाणामपि च शोभनाध्यवसायलक्षणत्वेन क्लेशकार्यप्रतिवन्धद्वारा समाध्यनुकूलत्वमेव श्रूयते / यधोक्तम् -- 'तपः
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________________ तारा 2227 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ताराचंद स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः "(2-1) ''समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्चति।" (2-2) // 4 / / विज्ञाय नियमानेतानेवं योगोपकारिणः। अत्रैतेषु रतो दृष्टौ, भवेदिच्छाऽऽदिकेषु हि / / 5 / / (विज्ञायेति) एतान् शौचाऽऽदीन्नियमान् एवं स्वाग जुगुप्साऽऽदिसाधनत्वेन योगोपकारिणः समाधिनिमित्तान् विज्ञाय / अत्र तारायां दृष्टावेतेषु इच्छाऽऽदिकेषु हि नियमेषु रतो भवेत्. तथा-ज्ञानस्य तथारुचिहेतुत्वात्। तदत्र काचित् प्रतिपत्तिः प्रदर्शिता / / 5 / / भवत्यस्यामविच्छिन्ना, प्रीतिर्योगकथासु च। यथाशक्त्युपचारश्च, बहुमानश्च योगिषु // 6|| (भवतीति) अस्या दृष्टावविच्छिन्ना भावप्रतिबन्धसारतया बिच्छेदनहिता, योगकथासु प्रीतिर्भवति, योगिषु भावयोगिषु, यथाशक्ति स्वशवल्यौचित्येनोपचारश्च ग्रासाऽऽदिसंपादनेन, बहुमानश्वाभ्युत्थानगुणगानाऽऽदिना / अयं च शुद्धपक्षपातपुण्यविपाकाद् योगवृद्धिलाभान्तरशिष्टसंमतत्वक्षुद्रोपद्रवहान्यादिफल इति ध्येयम्॥६।। भयं न भवजं तीवं, हीयते नोचिता क्रिया। न चानाभोगतोऽपि स्यादत्यन्तानुचितक्रिया।।७|| (भयगिति) भवज संसारोत्पन्न तीव्र भयं न भवति, तथा-अशुभाऽप्रवृतरुचिता क्रिया क्वचिदपि कार्ये नहीयते, सर्वत्रैव धर्माऽऽदरात्। मचानाभोगतोऽप्यज्ञानादप्यत्यन्तानुचितक्रिया साधुजननिन्दाऽऽदिका स्यात् / / 7 / / स्वकृत्ये विकले त्रासो, जिज्ञासा सस्पृहाऽधिके / दुःखोच्छेदार्थिनां चित्रे, कथंताधीः परिश्रमे ||8|| (स्वक्रय इति) स्वकृत्ये स्वाचारे कायोत्सर्गकरणाऽऽदी, विकले विधिहीने, त्रासो 'हा ! विराधकोऽहम्' इत्याशयलक्षणः, अधिके स्वभूमिकापेक्षयोत्कृष्ट आचार्याऽऽदिकृत्ये, जिज्ञासाकथमेतदेवं स्यात् ? इति सरगृहाऽभिलाषसहिता। दुःखोच्छेदार्थिनां संसार क्लेशजिहासुनाम, चित्रे नानाविधे, परिश्रमे तत्तन्नीतिप्रसिद्धक्रियायोगे, कथंताधीः कथाद्धिः / कथं नानाविधा मुमुक्षुप्रवृत्तिः कात्यंन ज्ञातुं शक्यत इति। तदाह-"दुःखरूपो भवः सर्व, उच्छेदोऽस्य कुतः कथम्? चित्रा स्तां प्रवृत्तेश्च, सा शेषा ज्ञायते कथम्? // 1 // " ||8|| नास्माकं महती प्रज्ञा, सुमहान शास्त्रविस्तरः। शिष्टाः प्रमाणामिह त-दित्यस्यां मन्यते सदा / / 6 / / (नेति) नास्माकं महती प्रज्ञाऽविसंवादिनी बुद्धिः, स्वप्रज्ञाकल्पिते विसंवाददर्शनात् / तथा-सुमहानपारः शास्त्रस्य विस्तरः, तत्तस्मात् शिष्टाः साधुजनसंमताः प्रमाणमिह प्रस्तुतव्यतिकरे, यत्तराचरितं तदेव यथाशति सामान्येन कर्तुं युज्यत इत्यर्थः / इत्येतदस्यां दृष्टी, मन्यते सदा निरन्तरम् / / 6 / / द्वा० 22 द्वा०। ताराचंद पुं०(ताराचन्द्र) श्रावस्तीराजराजकुमारे, ध०२०। तत्कथा चैवम्अत्थि पुरी सावत्थी,नेवऽस्थि इह पुरी मम सरिच्छा। जिणगिहाठियधयचलनच्छलेण इय कहइ जा निच्च / / 1 / / तत्थ य रणमिरनरवर-वररयणपहापहासिकमकमला। आइवराहो नामेण पत्थिवो अस्थि सुपसिद्धो / / 2 / / ताराचंदा तस्सासि नंदणो नंदणो गुणतरुण। वररायलक्खणधरो, रुवेण विजियरइनाहो / / 3 / / सो बालकालओ विहु, पव्वजागहणबद्धपरिणामो। हयगयधणसयणाऽऽइसु. चिट्टइ पडिबंधपडिमुक्को / / 4 / / न कुणइ जलाइकेलिं, न य दूसइ कं पि फरुसभासाए। न हसइ न घेव विलवइ, न य वाहइ पवरकरितुरगे।।५।। सह पंसुकीलिएहि वि, मित्तेहि समं रमेइ न कया वि। मल्लालंकारविलेवणाऽऽइववहार णो कुणइ॥६॥ अइसयविसयविरतं, कया वि कुमरं निएवि नरनाहो। तम्मणवामोहकए, जुवरायपए तयं ठवइ॥७॥ नियपुत्तरजविग्धं, चिंततीए सवत्तिजणगीए। हणणत्थं तस्स रहे, भक्खजुय कम्मणं दिन्नं / / 8 / / तो तरस जायमगं, विहुरमसारं दुगुंछणिज्ज च। तयणु घणसोगभरिओ, कुमरो इय चिंतए चित्ते / / 6 / / रोगभरविहुरियाणं, अधणाण सयणपरिभवहयाण / जुअइ मरणं देस–तरे व गमण सुपुरिसाणं / / 10 / / ता मह खणं पिन खड, विणट्ठदेहस्स निवसिउं इत्थ। निचं दुञ्जणकर अंगुलीहि दंसिज्जमाणस्स // 11 // इय चितिऊण सणियं, अवगणिउं परियणं स रयणीए। नीहरिऊ गेहाओ, पावदिसाभिमुहमुहो चलिओ॥१२॥ मंदु व्व मंदमंद, सो गच्छंतो कमेण विमणमणो। संमेयगिरिसमीवे, पत्तो एगम्मि नयरम्मि॥१३॥ गयणऽग्गलग्गअइचं-गसिंगपब्भाररूद्धादिसिपसरं। तत्तो संडेयगिरि, सणियं सणियं स आरूढो॥१४॥ विहियकरचरणसुद्धी, सरसाओ गहिय सरससरसिरहे। अजियाइजिणिंदे पू-इऊण भत्तीइ इय थुणइ // 15 // जय अजियनाह ! अइसयसणाह! जय रांभव ! समियभवऽग्निदाह ! अभिनंदण ! नंदियभवियनियर ! मह सुमई सुमइजिणेस ! वियर // 16 // जय पहु ! पउमप्पह ! अरुणकति! जय देव! सुपास ! पयासकित्ति! चंदप्पह! चंदसुकतदंत! देवाहिदेव ! जय पुप्फदंत! / / 17 / / जय सीयल ! सीलियसुद्धचरण! सिज्जस! सुरासुरपणयचरण ! जय विमल ! चिहियवच्छरियदाण ! जय देव ! अणत ! अणंतनाण! |18|| जय धम्म ! पयारिसयसुद्धधम्म ! सिरिसंति ! चिहियजयसंतिकम्म! जय कुंथु ! पमथियमोहमल्ल! अरनाह ! पणासियसयलसल्ल !! // 16 // जय मल्लि ! मलियरागारिवार ! मुणिसुव्वय ! सुव्वयधरणसार! जय जय नमि ! नमियसुरिंदवग्ग ! सिरिपास ! पयासियमुक्खभग्ग ! / / 20 / / इय थुणिय जिर्णसर नमिरसुरेसर, भत्तिभरनिटभरमणेण। तुट्टउ निवनंदणु बहुपुलइयतणु.
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________________ ताराचंद 2228 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ताराचंद जा पिच्छइ टसदिसि खणिण // 21 // ताससहरकरसुंदरपसरंतमहंतकंतिदिप्पंत। ईसिं ओणमियतणु, चरणभरेणं व अक्कतं / / 22 / / हिट्टामुहलंबियसुप्पलंबकरनहमऊहरजूहि। नरयाऽवडनिवडियजंतुजायमागरिसयंत व / / 23 / / कणयाचलनिचलचलणअंगुलीविमलपहनहडिसेण। फूडपथमंत पिवखंतिपमुदसविहसमणधम्म / / 24 / / गिरिकंदरगयमुरसम्गसंठियं सो निए वि मुणिमेगं / परमप्पमोयकलिओ, पत्तो मुणिवरसमीवम्मि / / 25 / / तो लद्धिनीरनिहिणो, जियसुरतराकामधेणुमाहप्पं / मुणिणो से पयजुयलं, सिरसा तुट्ठो परामुसइ / / 26 / / अह मुणिमाहप्पेण, तकाल चिय पणट्ट विव रोगो। ताराचंदो जाओ, अब्भहियसुरूवावधरो।।२७।। तं मुणिणो माहप्पं, जा चिट्ठइ दट्टु विम्हिओ कुमरो। ता विजाहरजुयलं गयणतलाओ समोसरियं // 28 // हरिसवसवियसियऽच्छं, पणमिय चलणुप्पलं च से मुणिणो। अगणियगुणगणममलं, थोउ निसन्नं महीपीढे / / 26 / / कुमरेण तओ भणिय, कत्तो तुम्हाण इह समागमण ? केण य कजेण तओ, वुत्त विज्जाहरेण इमं // 30 // वेयड्डगिरिवराओ, मुणिमय नंतु वयमिहं पत्ता। कुमरेणुत्तं को एस मुणिवरो आह इय खयरो॥३१॥ आसी इह वेयड्डे, राया वरखयरविसरनमियकमो। घणवाहणु शि नामेण नामियासेसरिउचक्को // 32 // अन्नदिणे जम्ममरण-रोगकारणयभीमभवभीमो। सो सुचिरप्पदढो मोह वल्लिमुल्लूरिय खणेण / / 33 / / जरचीवरं व चइउं, रजं सज्जो गहेवि पव्वज्ज। अणवरय मासखमणे, करेइ सो एस मुणिवसहो।।३।। इय पभणिय ते खयरा, मुणिं च नमिउं गया सठाणम्मि। हरिसियहियओ कुमरो, भत्तीए इय मुणिं थुणइ / / 35 / / जय जय मुणिंद! खयरिंदविंदवदियपयारविंदजुग! भवदुहहुयवहसंतत्तसत्तपीऊसवरिससम!॥३६॥ निजियतिहुयणजणमयण-सुहमभडवायभंजणपवीर ! अइउग्गरोगभरसप्पदप्पनिट्टवणवरगरुमा||३७।। एवं थुणिय मुणिद, जा किंचि वि विन्नविससए कुमरो। ता उस्सग्ग पारे-वि मुणिवरो गयणमुप्पइओ।।३८।। तो विम्हइओ कुमरो, नमिय जिणे गिरिवराउ ओयरिओ। गच्छतो य कमेणं, रयणउरं नयरमणुपत्तो।।३६।। तत्थ य चिरकालपरूढ-गाढपणएण बालमित्तेण। कुरुचंदेण स दिट्टो, झडि त्ति तह पञ्चभिन्नाओ / / 4 / / आलिगिऊण गाद, ससंभमं पुच्छिओ इमो तेण। अच्छरियमिणं कत्तो, वयंस ! तुह इत्थ आगमणं? // 41 / / कत्थ व इत्तियकालं, सावत्थीओ विणिक्खभित्ता " / भसिओ सि कह व संपई, पुणो नवंगो तुम जाओ।।४२|| ताराचंदेण तओ, सावत्थीनिग्गमाउ आरब्भ। तप्पुरओ परिकहिओ, सव्वो विहु निययवुत्ततो।।४३|| कुमरेण वि तो पुट्ट, कहेसु कुरुचंद ! मित्त ! नियवत्तं / किं इत्थ तुहाऽऽगमणं, गमणं च पुणो कहिं होहि ! / / 4 / / कह वा ताओ निवसइ, अवि कुसलं सयलरायचक्कस्स। सावत्थी सुत्था सा, सगामपुरजणवया धणियं? ||45 / / कुरुचंदेणं भणियं, रायाऽऽएसेण इत्थ रयणपुरे। अहमागओऽम्हि संपइ, सावत्थीए गमिस्सामि / / 46 / / कुसल चरायचक्कस्स तह य नयरीइजणवयजुयाए। तुह दुसहविरहदुहियं, इक्वं मुत्तु नवरि निवई॥४७।। जप्पभिइ तं न दिट्टो, तप्पमिइ निवेण पेसिया पुरिसा। तुज्झ पउत्तिनिमित्त, सव्वत्थन चेव तलद्धो।।४८|| तो रयणपुरागमण, जायं मे बहुफलं महाभाग ! जं लद्धो तुममिहि, पुण्णेहि अतक्कियागमणो / / 46 / / तो पसिय लहु नरवर-नंदण ! नियदसणामयरसेण। निव्वावसु पिउहिययं, दुस्सहविरहदवतवतवियं / / 50 / / इय सप्पणयं मिलेण पत्थिओ निवसुओ सम तेण। पिउकारियरहसोह, सावत्थिं नयरिमणुवत्तो / / 51 / / पणओ य जणयचलणे, समयम्मि निवेण पुच्छिओ कुमरो। मूला आरब्भ नियं, वुत्तंते जाव साहेइ 52 / / ता विजयसेणसूरी, समोसढो तत्थ भूरिपरिवारो। तव्वदणवडियाए, कुमारजत्तो निधो पत्तो / / 53|| नमिय मणिदं उचिय-ट्राणासीणे निवम्मि कहइ गुरू। मंथिजमाणजलनिहि-उद्दामसरेण धम्मकह / / 54 / / इह जरजमणसलिल,बहमच्छरमच्छकच्छभाऽऽइन्न। उल्लसिरकोववडवा-हुयवहजालोलिदुप्पिच्छ।।५५।। माणगिरिदुग्गमतरं, मायावल्लीवियाणअइगुविलं / अक्खोहलोहपायालपरिगयं मोहआवत्तं / / 5 / / अन्नाणपवणपिल्लियसंजोगविओगरंगितरंग। जइ भवजलनिहिमेयं, तरिउ इच्छेह भवियजणा !!57 / / ता सदसणदढगाढबंधणं सुद्धभावगुरुफलहं। उद्धरसंवरसंरुद्धसयलछिदं अशणग्छ / 58 / / वेरग्गमग्गलग्गं. दुत्तवतवपवणजणियगुरुवेग। सन्नाणकन्नधार, सरेह चारित्तवरपोयं / / 5 / / इय सुणिय निवो निरवजचरणगहणुज्जुओ भणइ सूरि। काऊण रजसुत्थं, पहु ! तुह पासे गहेमि वयं / / 60 / / मा पडिबंधं खणमपि, काही नरनाह ! इय मुर्णिदेण। वुत्तम्मि महीनाहो, पमुइयहियओ गओ सगिहं // 61 / / नीसेसमंतिसाम-तमंडलं पुच्छिऊण सच्छमई। ताराचंदकुमार, रज्जे अहिसिंचिही जाव // 62|| तो विणओणयतणुणा, कयअंजलिणा पयंपियं तेण। वयगहणानुन्नाए, ताय ! पसायं कुण ममावि / / 63 / / जं संसारसमुद्दो, रुद्दो उद्दामदुक्खकल्लोलो। न विणा चरणतरंग, तीरइ तरिउ अइदुरंतो।।६४।। तो रम्ना पडिभणियं, जुत्तमिणं वच्छ ! नायत्तताण। किं तु कमागयमेयं, रज पालेसु कइ वि दिणे॥६५॥ न य विक्कमसंजुत्ते,पुत्ते पच्छा ठवित्तु रज्जभरं / कल्लाणवल्लिजलकुल्लतुल्लदिक्खं गहिज तुम // 66 / / इय भणिय बला वि इम, राया रज्जे ठवित्तु गिण्हेउं / सिरिविजयसेणपासे, दिक्खं वेमाणिएसु गओ // 67 / / अह ताराचंदनिवो, निचं क्यगहणसुद्धपरिणामो। पइसमयमुत्तरुत्तरमणोरहसए विचिंतंतो॥६८|| कारंतो जिणभवणे, सया विजिणपवयणं पभावंतो। अणुकपादाणाऽऽइसु, जहाविहाणेण वट्टतो // 66 // नियगिहसगीवकारिय-पोसहसालाइ पासहुजुत्तो। सचरिएसु पयट्ट, अणुमोयतो य धम्भिजणं / / 7 / /
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________________ तराचंद 2226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तालसंवुड बहुनयापमाणगमभंगसंगयं गुरुविचारभारसहं। भावे भावविषयस्तालो ये जीवास्तस्य तालस्य परिग्रहे मूलकनिसुणता पुव्वावर-अविरुद्धं सारसिद्धत // 71 / / न्दाऽऽदिगतास्ते सर्वेऽपि समुदिताः सन्तो भावताल इति समाख्याताः; रजवर अभावाओ, रज्जमणाहं विमुत्तुमधयंतो। नोआगमत इति भावः / द्वितीयोऽप्यत्राऽऽदेशोऽस्ति यस्तस्य तालस्य अप्पजल मीणो इव, दुहेण गेहम्मि निवसंतो॥७२।। विज्ञायकरत्वभियुक्तः पुरुषः सोऽपि भावताल उच्यते, आगमत इत्यर्थः / वाहिरविनीइ चिय, चिंततो रजरट्टवावारं। अत्र च नोआगमतो भावतालेनाधिकारः, तस्य संबन्धि यत्फलं तदिह झालेण मरिउजाओ, अचुयकप्पे पवरदेवो // 73 // तालशब्देन प्रत्येतव्यभाबृ०१ उ० स०। आ०म०। प्रज्ञा स्था०1 भ०| रसो चविय विदेहे. निवपुत्तो होउ गहियसामन्नं। ओ०। प्रश्नला ज्ञा०ा वलयाऽऽख्यवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०।१ पद। आचा०। कसिकापरपर्याय वाद्यविशेषे, औ०। आचा० आ०म० ज० ज्ञा०। स्व्वत्थ वि होऊणं, अरत्तदुट्टो सिवं गमिही॥७४॥ स्था०। हस्तताले. दश०२ अ० स्था०। कंसिकाऽऽदिशब्दविशेषे, इति ज्ञात्वा ताराऽधिपतिरुचिरोचिष्णुयशसो, स्था०७ ठा०। वादिनसमुदाये, नि०चू०१२उ०ा आजीवकोपासाकभेदे, मुदा ताराचन्द्रक्षितिपतिलकस्याऽस्य चरितम्। भ०८ श०५उ०॥ अरक्तद्विष्टस्तत्स्वजनधनदेहप्रभृतिषु, तालउड न०(तालपुट) तालमात्रव्यापत्तिकरे उपविषे, उत्त०१६ अ०॥ रफुट धरा स्वान्तं शिवसुखकरे शुद्धचरणे // 75 / / ध०र०७२ गाथा। दश० आ०म० तारापह पुं०(तारापथ) नभसि, अनु०॥ तालजंघ पुं०(तालजन) तालो वृक्षविशेषः, सच दीर्घस्कन्धो भवति, तारिम त्रि०(तारिम) तरणयोग्ये, सूत्र०१ श्रु०३अ०२उ०ा दशम ततस्तालवजड़े यस्य स तथा / ज्ञा०१ श्रु०८ अ० स्वनामख्याते तारिस त्रि० तादृश) "दृशेः विपटक्सकः" ||911142 / / इति राजनि, यो हि ब्राहाणेषु विक्रान्तः सन् विननाश 1 घ०१ अधिका दृशेर्धातोलो रिरादेशः / प्रा०१ पाद / तथाविधेऽर्थे वाच०। उत्त। तालज्झय पुं०(तालध्वज) तालनन्दनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते प्रश्न०) आमा पाण्डवचरित्रे षोडशसर्गे, ऽष्टादशश्लोके-'छेके राजनि,तस्य तमाललता भार्याऽऽसीत्। दर्श०१ तत्त्व। शत्रुञ्जयपर्वत, भ्यन्तादृशाः स्त्रियः।(१८)" इत्यत्र तादृशा इति शब्दे आप्प्रत्ययः ती०१ कल्प / तालो वृक्षविशेषो ध्वजा यस्य सः। बलदेवे, आ०म०१ कशमानीतः? टक्प्रत्ययस्यात्राऽऽगमने ईपप्रत्ययस्यैवोक्तत्वादिति अ०१खण्ड। प्रश्ने, उत्तरम्-टक् प्रत्ययान्तात्तादृशशब्दादीप प्रत्ययसद् भावेऽपि तादृश इति निबन्ताद्भागुर्याचार्यमते नाऽऽप् प्रत्ययाऽऽगमने रूपसिद्धि तालण न०(ताडन) वपेटाऽऽदिना निश्छोटने, उपा०७ अ०। चपेटारिति न कोऽपि दोषः। 64 प्र०। सेन०१ उल्ला०। ऽऽदिदाने, औ०। कुट्टने, प्रश्न०१ आश्रद्वार। अन्तका औलाआ०म०। तारुण्ण न०(तारुण्य) यौवने, उत्त०३२ अ०। पशान ताल पु०(ताल) तलनं तालः। नि०चू०१२ उ०। वृक्षविशेषे, आचा०१ तालपलंब पुं०(तालप्रलम्ब) आजीवकोपासकभेदे, भ०८ श०५ उ०। श्रु०१ अ०५301 तालपिसाय पुं०(तालपिशाच) तालो वृक्षविशेषः, तदाकारो दीर्घअथ तालपदं विवृणोति त्वाऽऽदिसाधयात्पिशाचो राक्षसः तालपिशाचः। दीर्घतरे पिशाचे, स्था० नाम ठवणा दविए, तालो भावे य होइ नायव्वो। 10 ठा०। भ०आ०म० व्या ज्ञा०ा आ०का पिशाचभेदे, प्रज्ञा०।१पद। जो भविओ सो तालो, दव्वे मूलुत्तरगुणेसु॥ तालपुड न०(तालपुट) 'तालउड' शब्दार्थे , उत्त०१६अ०। नाम नालः, स्थापनातालः, द्रव्यतालः, भावतालश्च भवति ज्ञातव्यः। तालफली (देशी) दास्याम्, दे०ना०५ वर्ग 11 गाथा। तत्र नामस्थापने क्षुण्णे। द्रव्यतालः पुनरयम्-(जो भविओ त्ति) यः खलु तालमत्थय न०(तालमस्तक) तालमध्यवर्तिनि गर्भे, आचा०२ श्रु०१ भव्यो भावतालपर्यायः, स च त्रिधाएकभविको, बद्धाऽऽयुष्कः, अभिमु- चू०१ अ०८उ०। खनामगोत्रश्च। तत्रैकभविको नामयो विवक्षितभवानन्तरं तालत्वेनोत्प- तालमाण स्त्री०(तालमान) तालमानपरिज्ञानाऽऽत्मके कालभेदे, त्स्यते / बद्धाऽऽयुष्को-येन तालोत्पत्तिप्रायोग्यमायुःकर्म बद्धम् / / कल्प०७क्षण। अभिमुखनामगात्रः पुनः-विपाकोदयाभिमुखतालसंबन्धिनामगोत्रकर्मा तालमूलय न०(तालमूलक) तालमूलाऽऽकारे अधः पृथुनि उपरिच सूक्ष्म तालत्वेनोत्पित्सया विवक्षितजीवप्रदेशः / यदा-द्रव्यतालो द्विविधः- लयन, कल्प०६क्षण। मूलगुणनिवर्तितः, उत्तरगुणनिवर्तितश्च / तत्र स्वायुषः परिक्षयादपगत- | तालविण्ट न०(तालवृन्त) "वृन्ते ण्टः" |च/२२३१।। इति न्तस्य ण्टः। जीवो यः स्कन्धाऽऽदिरूपस्तालः स मूलगुणनिवर्त्तितः। यस्तु काष्ठचित्र- प्रा०२ पाद। व्यजने, आचा०१ श्रु०१अ०७ उ० अणुवादशा द्विपुटाऽऽकर्माऽऽदिष्वालिखितः, स उत्तरगुणनिवर्तितः / एष द्रव्यतालः दिव्यजने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / दश०। ज्ञा०। मयूरपिच्छकृतव्यजने, सम्प्रति भावतालमाह आचा०२ श्रु० १५०१अ०७०) भावम्मि होति जीवा, जे तस्स परिग्गहे समक्खाया। तालसंवुड पु०(तालसंपुट) पवनेरितशुष्कतालपत्रसंचये, सूत्र०१ श्रु० बीओ विय आदेसो, जो तस्स वि जाणओ पुरिसो!! २अ०१उ०!
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________________ तालसम 2230 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तावक्खेत तालसम न०(तालसम) यत्परस्पराऽऽहतहस्ततालस्वरानुवृत्तिर्भवति / त्रि०ा स्त्रिया डीप / तावती। वाच०। तत्तालसमम् / स्वरभेदे, स्था०७ढा०। *ताप पुंग तप-घञ्। संतापे, वाचणदुःखे, आव०४ अ०। सूर्याणा मेव तालहल (देशी) शाल्याम्, देवना० 5 वर्ग 7 गाथा। तापः, चन्द्रस्य तु प्रभासः / 'चत्तारि सूरिया तविसु वा, तवंति वा, ताला अव्य०(तदा) "ङ हे-डाला-इआ काले" ||83 / 65 / / इति / तविस्संति वा। चत्तारि चंदा पभासिंसुवा, पभासिति वा, पभासिस्संति तच्छब्दात्कालेऽभिधेये डेः स्थाने आहे आला इति डितो, इआ इति च वा" इत्यवभासस्य पार्थक्येनोक्तेः / स्था०४ ठा०२ 30 आदेशा वा भवन्ति। तस्मिन् काले, प्रा०३ पादालाजेषु, देना०५ वर्ग तावइय त्रि० (तावत्क) तत्परिमाणवति, भ०१८श०४ उ०। आ०म०। 10 गाथा। तावंचण पुं०(तावचण) तावति काले, भ० 15 श०) तालायर त्रि०(तालाचर) तालैर्वाद्यविशेषैश्चरन्तीति तालाचराः। (दीर्घत्व तावक्खेत्त न०(तापक्षेत्र) तपन तापः सूर्यकिरणस्पर्शजनितः प्रकाप्राकृतत्वात) नि०चू० १५उ० तालाऽऽदानेन प्रेक्षाकारिणि, औ०। शाऽऽत्मकः परितापः, तदुपलक्षित क्षेत्र तापक्षेत्रम्। धर्मोपलक्षित क्षेत्रे, प्रश्न० / ज०। विपा०। ज्ञा०। प्रज्ञा०। नटनर्तकाऽऽदिषु, बृ०३उ०। आ०म०१अ०२खण्ड। मण्डा तालायरकम्मन०(तालाचरकर्म) प्रेक्षककर्मविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०। / सम्प्रति तावक्षेत्रसंस्थितिमभिधातुकामः प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहतालिअण्ट धा०(भ्रामि) भ्रम्-णिच् / 'भ्रमेस्तालिअण्टत-मामौ" ता कहं ते तावक्खेत्तसंठिती आहिता ति वदेजा? तत्थ खलु |||||30|| इति भ्रमतेपर्यन्तस्य 'तालिअण्ट' इत्यादेशः / भ्रमता प्रेरणे, इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ। तत्थ णंएगे एवमाहंसु-- प्रा०४ पाद। ता गेहसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / 1 / *तालवृन्त पुं०। व्यजने, आचा०१ श्रु०१अ०७उ०। एवं०जाव बालग्गपोत्तियासंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता / एगे तालिंत त्रि०(ताड्यमान) चपेटाऽऽदिभिः पीड्यमाने, ज्ञा०१ श्रु०१६अ० पुण एवमाहंसुजस्संठिते जंबुद्दीचे दीवे तस्संठिते तावक्खेत्ततालिजंत त्रि०(ताड्यमान) चपेटाऽऽदिभिः पीड्यमाने, आ० चू० 130 / संठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु I एगे पुण एवमाहंसुता तालिय पुं०(तालिक) तालेन करतलेन निर्वृतःठक् / चपेटे, वाच०। जस्संठिए भारहे वासे तस्संठिता तावखेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे *ताडित त्रि०ा आहते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। एवमाहंसु / 10 / एवं उजाणसंठिया।११। निजाणसंठिता / 12 / एगतो णिसहसं ठिता / 13 / दुहतो णिसहसं ठिता / 14 ताली स्त्री०(ताली) वाद्यभेदे, आ०५० 10 // तालेन तन्निर्यासेन सेणगसंठिता, एगे एवमाहंसु / 15 / एगे पुण एवमाहंसु-ता निर्वृत्ता--अण। (ताडी) तालजातसुरायाम, तलण्यन्तात् अच। गौरा० सेणगपिट्ठसंठितातावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु।१६। डीप / वृक्षभेदे, तालमूल्याम, आढक्याम्, तालीशपत्राऽऽख्ये वृक्षे, वयं पुण एवं वदामोता उद्धीमुहक लंबु-आपुप्फ संठिता तालकोद्घाटनयन्त्रे, कुञ्चिकायां च। ताम्रवल्ल्याम्, त्र्यक्षरपादक छन्दो तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता / अंतो संकुडा वाहिं वित्थडा, अंतो भेदे च / वाचा वट्टा बाहिं पिहुला, अंतो अंकमुहसंठिता बाहिं सत्थिमुहसंठिता। तालु न०(तालु) तरन्त्यनेन वर्णाः / तृ-जुण, रस्य लः। जिह्वे न्द्रि उभतो पासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवहिताओ भवंति / याधिष्ठाने स्थानभेदे, वाच० प्रज्ञा०। ज्ञा०) पणतालीसं पणतालीसं जोयणसहस्साइं आयामेणं / दुवे य णं तालुग्घाडणी स्त्री०(तालोद्धाटनी)तालोद्घाटनकारियां विद्यायाम्, तीसे बाहाओ अणवट्ठिताओ भवंति / तं जहा-सव्वब्भंतरिया सूत्र०२ श्रु०२ अ०। चेव बाहा, सव्वबाहिरिया चेव बाहा। तत्थ को हेतू ति वदेज्जा ? तालुजिब्भ पुं०(तालुजिह) तालु एव जिहा यस्य / कुम्भीर, तस्य ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवेजाव परिक्खेवेणं; ता जया णं सूरिए जिहाशून्यत्वेऽपि तालुनैव रसाऽऽस्वादनात् / वाचा प्रश्न०। सव्वन्भंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तयाणं उद्धीमुहकतालूर (देशी) फेने, कपित्थतरो, देवना० 5 वर्ग 21 गाथा। लंबुआपुप्फसंठिता तावक्खेत्तसंठिती आहिता ति वदेजा। अंतो ताव अव्य०(तावत्) तत्परिमाणमस्य। त्रि०ा "अन्त्यव्यञ्जन-स्य" संकुडा बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा बाहिं पिधुला, अंतो ||8/1 / 11 / / इत्यन्त्यव्यञ्जनस्य तकारस्य लोपः। प्रा०१ पाद। अंकमुहसं ठिता बाहिं सस्थिमुहसंठिया / दुहतो पासेणं तीसे प्रस्तुतार्थप्रदर्शक, आ०म०१ अ०२ खण्ड। आ०चू०। सूत्र०ा साकल्ये, तहेव०जाव सव्वबाहिरिया चेव बाहा। तीसे णं सव्यभंतरिया अवधौ, माने, अवधारणे, प्रशंसायाम, पक्षान्तरे, वाक्यभूषणे, तदेत्यर्थे बाहा मंदरपव्वयंते णं णव जोयणसहस्साइं चत्तारिय छलसीते च / 'भर्ताऽपि तावत् क्रयकैशिकान्तम्" इति रघुः। तत्परिमाणवति, | जोयणसता णव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आ
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________________ तावक्खेत्त 2231 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तावक्खेत्त हिता ति वदेजा। ता से णं परिक्खेवविसेसे कुतो आहिता ति वदेजा? ताजे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे णं तं परिक्खेवं तिहि गुणित्ता दसहिं छत्ता दसहिं भागे हिं हीरमाणे, एस णं परिक्खेवविसेसे आहिता ति वदेजा। तीसे णं सव्वबाहिरिया बाहा लवणसमुदंतेणं चउणउतिं जोयणसहस्साई अट्ठ य अट्ठसटे जोयणसते चत्तारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिता ति वदेज्जा। ता एस णं परिक्खेवविसेसे कुतो आहिता ति वदेजा? ता जे णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिखेवे, तं परि- | क्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागेहिं हीरमाणे, एस णं परिक्खेवविसेसे आहिता ति वदेजा। तीसे गं तावक्खेत्ते कतियं आयामेणं आहितेति वदेजा? ता अट्ठत्तरि जोयणसहस्साई तिण्णि य जोयणसए तेत्तीसे जोयणतिभागे च आयामेणं आहितेति वदेजा। (ता कह ते इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् / कथं भगवन् ! त्वया नापक्षेत्र स्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् ? एवमुक्त भगवानेतद्विषये यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपत्तयः, तावतीरुपदर्शयति-(तत्शेत्यादि) तत्र लरय लापक्षेत्रसंस्थिती विपये खल्विमाः पोडश प्रतिपतयः परतीर्थगाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-तत्र तेषां षोडशानां परतीथिकाना मध्य एके एवमाहुः-(गेहसंठिय त्ति) गेहस्येव वास्तुविधाप्रसिद्धगृहरयेव सस्थित संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षे त्रसं स्थितिः प्रज्ञप्तः / अत्रेयोपसहारमाह-(एगे एवमासु 1 / एवं०जाव बालग्गपोत्तियासंठिया तावक्खेत संठिई पन्नत्ता इति) एवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण, चन्द्रसूर्यरस्थितिग्तेन प्रकारेणेत्यर्थः / गृहसंस्थिताया ऊर्द्ध तावद्द्वक्तव्यं यावद् बलाग्रपोतिकासंस्थिता प्रज्ञप्ता इति / तथैवम्- 'एगे पुण एवमाहरागेहावणसंठिया तावक्खित्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु / 2 / एगे पुण एटमाहसुप्पसायसंठिया ताववखेत्तसंठिई पन्नत्ता,एगे एवमाहसु / 3 / एगे पुण एव-माहंसुगोपुरसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु।४। एगे पुण एवनाहंसुपिच्छाघरसंठिया तावक्खेत्तसटिई पन्नता, एगे एवमाहंसु 15: एगे पुण एवमाहंसुवलभीसंठिया ताववखेत्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु 6 / एगे पुण एवमाहंसुहम्मियतलसंठिया ताववखेत्तसंठिई पन्नता,एगे एवमाहंसु / 17 / एगे पुण एवमाहसुबालग्गपोत्तियासंठिया ताववखेत्तसठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु / 8 / ' अत्र सर्वेष्वपि पदेषु विग्रहभावनाप्रागिव कर्तव्या।(एगे पुण इत्यादि) एके पुनरेवमाहुः-(जस्सलिए ति) यत्संस्थित संस्थानं यस्य स यत्संस्थितो जम्बूद्वीपी द्वीपस्तत्संस्थिता तदेव | जम्बूद्वीपगतसंस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता। अत्रोपसंहारः-(एगे एवमाहंशु)(एगे पुण एवमाहंसु) एके पुनरेवमाहुःयत्सरिथतं भारतं वर्ष तत्संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञाता। अत्र विग्रहभावना प्रागिव वेदितव्या / अत्रोपसंहारः- (एगे एवगाहंसु 10) एवमुक्तेन प्रकारेण उद्यानसंस्थिता तापक्षेत्रसस्थितिरपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या। सा चैवम्- ''एगे पुण एवमाहसुउजाणसंठिया तावक्खित्तराठिई पण्णत्ता, एगण्वमाहेसु 11 / " अत्र उद्यानस्येव संस्थितं संस्थान यस्याः सा तथेति विग्रहः 11 (निजाणसंठिय त्ति) निर्याणं पुरस्य निर्गमनमार्गः तस्येव संस्थित संस्थानं यस्याः सा तथा। अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या। सा चैवम्... 'एगे पुण एवमाहंसु-निजाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता, एग एवमासु १२।''(एगतो निसहसंठिय त्ति) एकतो रथस्य एकस्मिन् पाचे यो नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठ वा समारोपितं भारमिति निषहो वलीवर्दः, तस्येव संस्थित संस्थानं यस्याः सा एकतो निषहसंस्थिता। अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या / सा चेवम्-'एगे पुण एवमाहंसु-एगतो निसहसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 13 / " (दुहतो निसहराठिय ति) अपरेषामभिप्रायेणोभयतो निषहसंस्थिता वक्तव्या, उभयतो रथस्योभयोः पार्श्वे यौ निषहौ बलीवर्दी, तयोरिव संस्थित संस्थान यस्याः सा तथा। सा चैवं वक्तव्या-"एगे पुण एवमाहंसुदुहओ निसहसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पन्नत्ता. एगे एवमासु 14 / " (सेणगसंठिय शि) श्यनकस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, अपरेषामभिप्रायणाभिधातव्या / सा चैवम्-''एगे पुण एवमाहंसु-सेणगसंठिया तावक्खेतसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु 15 // " (एणे पुण इत्यादि) एके पुनरेवमाहुः- श्येनकपृष्ठस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्र स्थितिः प्रज्ञाता / अत्रोपसंहारमाह-(एगे एवमाहसु 16) / तदेवमुक्ताः षोडशाऽपि प्रतिपत्तयः, एताश्व सर्वा अपि मिथ्यारूपाः, अत एता व्युदस्य भगवान् स्वमतं भिन्नमुपदर्शयति-(वयं पुण इत्यादि) वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथाऽवस्थितं वस्तूपलभ्य, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः / तमेव प्रकारमाह-(उद्धीमुहेत्यादि) ऊर्द्धभुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता ऊर्द्धमुखस्य कलम्बुकापुष्पस्येव नालिकापुष्परराव सस्थित संस्थान यस्याः सा तथा, तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, मया शश्व तीर्थकृद्धिः। सा कथं भूतेत्यत आह–अन्तमरुदिशि संकुचा संकुचिता, बहिर्लवणसमुद्रदिशि विस्तृता तथा अन्तर्मेरुदिशि वृत्ता वृत्तार्द्धवलयाऽऽकारा, सर्वतो वृत्तमेरुगतान् बीन् द्वौ वा दशभागानभिव्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात्, बहिर्लवणदिशि पृथुला मुत्कलभावेन विस्तारमुपगता / एतदेव संस्थानकथनेन स्पष्ट स्पष्टयति-(अंतो अकमुहसं ठिया वाहिं सत्थिमुहसंठिय ति) अन्तर्मे रुदिशि अङ्कः पासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूप आसनबन्धः, तस्य मुखमग्रभागोऽर्द्धवलयाऽऽकारस्तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा। बहिर्लवणदिशि स्वस्तिकमुखसंस्थिता / स्वस्तिकः सुप्रतीतः, तस्य मुखमग्रभागः, तस्येवातिविस्तीर्णतया संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा / (उभओ पासेणं ति) उभयपान मेरुपर्वतस्योभयोः पार्श्वयोस्तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभदेन द्विधा व्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकैकभावेन ये द्वे बाहे. ते आयामेन जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः / सा चैकैका आयामतः किं प्रमाणा? इत्याह-पञ्चचत्वारिंशत् पञ्चचत्वारिंशत् योजनसहस्राणि 45000 तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेरेकैकस्या द्वे च बाहे अनवस्थिते भवतः। तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरा, सर्वबाह्या च। तत्रया मेरासमीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा, या तुलवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्ते विष्कम्भमधिकृत्य याहा सा सर्वबाह्या। आयामश्च दक्षिणोत्तराऽऽयततया प्रतिपत्तव्यो, विष्कम्भः पूर्वापराऽऽयततया। एवमुक्ते सति भगवान गौतमः
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________________ तावक्खेत्त 2232 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तावक्खेत्त स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधनार्थ भूयः पृच्छति-(तत्थेत्यादि) तत्र तस्यामेवंविधायामनन्तरोदितायां वस्तुव्यवस्थायां को हेतुः का उपपत्तिरिति भगवान् वदेत्? एवमुक्ते भगवानाह- (ता अयं णमित्यादि) इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं परिभावनीयन / (ता जया णमित्यादि) तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति, तदा "उद्धीमुहकलंबुयापुप्फ' इत्यादि प्राग्वव्याख्येयम्। यावत्सर्वाभ्यन्तरा बाहा, सर्वबाह्या च बाहा। (तीसे णमित्यादि) तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा बाहा मेरुपर्वतसमीपे, साचपरिक्षेपेण मन्दरपरिक्षेपगततया नव योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि पडशीतानि षडशीत्यधिकानि नव च दश भागा योजनस्य 6486 -6/10, आख्याता मया इति वदेत्। एवमुक्ते भगवान् गौतमः प्रश्नयति-(ता से णमित्यादि) 'ता' इति प्राग्वत् / स तापक्षेत्रसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपेण विशेषः कुतः कस्मात्कारणादेवंप्रमाण आख्यातः, नोनोऽधिको वेति वदेत्? भगवानाह-(ता जे णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत / यो, णमिति वाक्यालड़कारे / मन्दरस्य मेरोः पर्वतस्य परिक्षेपपरिरयो गणितप्रसिद्धः, तंपरिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा तदनन्तरं च दशभिश्छित्त्वा विभज्य / अथ कस्मादेवं क्रियत इति चेदुच्यते-इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानः सूर्यो जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तच्चक्रवालक्षेत्रप्रमाणानुसारेण त्रीन् दशभागान प्रकाशयति / एतच प्रागेवोक्तम / सम्प्रति च मन्दरसमीपे तापक्षेत्रे चिन्ता क्रियमाणा वर्तते, ततो मन्दरपरिरथसुखावबोधार्थ प्रथमतस्विभिर्गुण्यते. गुणयित्वा च दशभिर्विभज्यत इति, दशभिश्च भागैर्हियमाणे यथोक्तं मन्दरसमीपे तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति / तथाहि-मन्दरपर्वतस्य विष्कम्भो दशसहस्राणि 10000 / तेषां वर्गो दश कोट्यः 100000000 / तासां दशभिर्गुणने कोटिशतम्- 1000000000 / अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि एकत्रिंशत्सहस्राणि षट्शतानि किञ्चिन्न्यूनत्रयोविंशत्यधिकानि,परं व्यवहारतः परिपूर्णानि विवक्ष्यन्ते 31623 / एष राशिरि भिगुण्यते, जातानि चतुर्नवतिसहस्राणि अष्टौ शतानिएकोनसप्तत्यधिकानि 14866 / एतेषां दशभिर्भागहारे लब्धानि नव योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दश भागा योजनस्य, तत एप एतावाननन्तरो दितप्रमाणः परिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेराख्यात इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः / अयं चार्थो ऽन्यत्राप्युक्तः-''मन्दरपरिरयरासी, तिगुणो दसभाइयम्मि ज लद्धं / तं होइ तावखेत्तं, अभिंतरमंडले रविणो // 1 // तदेयं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये मन्दरसमीपेतापक्षेत्रसंस्थितिः सर्वाभ्यन्तरवाहाविष्कम्भपरिमाणमुक्तम् / इदानी लवणसमुद्रदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्त या सर्वबाह्या बाहा, तस्या विष्कम्भपरिमाणमाह-(तीसे णमित्यादि) तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेलवणसमुद्रान्ते लवणसमुद्रसमीधे सर्ववाह्या बाहा सा परिक्षेपेण जम्बूद्वीपपरिरय-परिक्षेपेण चतुर्नवतियोजनसहस्राणि अष्टो च अष्टषष्ट्यधिकानि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान योजनस्य 64868-4/10 यावदाख्याता इति वदेत्। अत्रैव स्पशवोधनाय प्रश्न करोति-(ता एस णमित्यादि) ता' इति पूर्ववत / स एतावान परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेः कुतः कस्मात् कारणादाख्यातः, नोनोऽधि.. | को वेति वदेत्? भगवानाह-(ता जे णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्। योजम्बूद्वीपस्य परिक्षेपपरिरयो गणितप्रसिद्धः, तंपरिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा तदनन्तरं दशभिश्छित्त्वा दशभिर्विभज्य, अत्रार्थे कारणं प्रागुक्तमेवानुसरणीयम्। दशभिर्भाग ह्रियमाणे यथोक्तं जम्बूद्वीपपर्यन्ते तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति / तथाहि-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपस्त्रीणि लक्षाणि. पोडश सहस्राणि, द्वे शते, सप्तविंशत्यधिके 316227, त्रीणि गव्यूतानि 3 अष्टाविंशं धनुःशतं 128, त्रयोदश अडलानि 13 एकम ङ्गुलम्? एतावता च योजनमेकं किल किञ्चिन् न्यूनमिति व्यवहारः, तत् परिपूर्ण विवक्ष्यते, ततो वे शते अष्टाविंशत्यधिके वेदितव्ये 316228, एतत् त्रिभिर्गुण्यते, जातानि नव लक्षाणि, अष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि, षट शतानि चतुरशीत्यधिकानि६४८६८४। एतेषां दशभिर्भागा हियते. लब्धं यथोक्तं जम्बूद्वीपपर्यन्ते सर्वबाह्याया बाहाया विष्कम्भपरिमाणम् / तत (एस णमित्यादि) एष एतावाननन्तरोदितप्रमाणः परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेराख्यात इति वदेत् / उक्त चैतदन्यत्रापि-''जंबूदीवपरिरए, तिगुणे दसभाइयम्मि ज लद्धं / त होइ तावखितं, अभिंतर मंडले रविणो" ||1|| तदेवं जम्बूद्वीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरायाः सर्वबाह्यायाश्च बाहाया विष्कम्भपरिमाणगुक्तम्। सम्प्रति सामस्त्येनाऽऽयामतस्तापक्षेत्रपरिमाण जिज्ञासुस्तद्विषय प्रश्नसूत्रमाह-(ता से णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्। तापक्षेत्रमायामतः सामस्त्येन दक्षिणोत्तराऽऽयततया कियत्किप्रमाणमाख्यातम, इति वदेत्? भगवानाह-(ता अट्टत्तरिमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, अष्टसप्ततिर्योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशानि त्रयस्त्रिशदधिकानि योजनविभागं च यावत् आयामेन दक्षिणोत्तराऽऽयततया आख्यातमिति वदेत्। तथाहि-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य तापक्षेत्र दक्षिणोतराऽऽयततया मेरोरारभ्य तावद्वर्द्धत यावल्लवणसमुद्रस्य षष्ठो भागः। उक्तं च - "मेरुस्स मज्झभागा, जाव लवणसमुदस्स छन्भागो। तावाऽऽयागो एसो, सगडुद्धीसंठिओ नियमा / / 1 / / " अत्र-(एसो इत्यादि) एष तापो नियमात शकटोरांस्थितन, शेष सुगमम् / तत्र मेरोरारभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्ते यावत् पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि लवणस्य विस्तारो द्वे योजनलक्षे तयोः षष्ठो भागस्त्रयस्त्रिंशद्योजनसहखाणि त्रीणि योजनशतानि, त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनस्य च त्रिभागः, तत उभयमीलने यथोक्तमायामप्रमाणं भवति। इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य लेश्या अभ्यन्तरं प्रविशति, मेरुणा प्रतिस्खल्यते, यदि पुनर्न प्रतिस्खल्यते, ततो मेरोः सर्वमध्यभागगतं प्रदेशमवधीकृत्याऽऽयामतो जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशत योजनसहस्राणि प्रकाशयेत् / अत एवेत्थं जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशतं योजनसहस्राणि प्रकाश्यानि संभाव्यन्ते, सर्वाभ्यन्तरेऽपि मण्डले वर्तमाने सूर्य तापक्षेत्रस्याऽऽयामप्रमाणं ज्योतिष्फरण्डकडूलटीकायां श्रीपादलिप्तसूरिभिः त्र्यशीतियोजनसहसाणि त्रीणिशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानियोजनस्य च त्रिभाग इत्युक्तम् / युक्तं चैतत्संभावनया तापक्षेत्राऽऽयामपरिमाणम्, अन्यथा जम्बूद्वीपमध्ये तापक्षेत्रस्य पञ्चचत्वारिंशत्सहस्रपरिमाणाभ्युपगमे यथा सूर्यो बहिर्निष्कामति तथा तत्प्रतिबद्धं तापक्षेत्रमपि, ततो यदा सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति, तदा सर्वथा मन्दरसमीपे प्रकाशोनप्राप्नोति। अथथ
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________________ तावक्खेत्त 2233 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तावसुद्धि तदाऽपि तत्र मन्दरपरिरयपरिक्षेपेण विशेषपरिमाणम वक्ष्यते, तस्मात्पादलितसूरिव्याख्यानमप्यभ्युपगन्तव्यमिति। तदेवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्य तापक्षेत्रसंस्थितिरुक्ता। सू०प्र०४ पाहु०। चं०प्र०। (अत्र 'अंधकार' शब्दःप्रथम भागे 105 पृष्ठ वीक्ष्यः) जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया केवतिअं खेत्तं उर्दू तवंति, केवतिअं खेत्तं अहे तवंति, केवतिअंखेत्तं तिरिअं तवंति? ता जंबुद्दीवे णं दीये सूरिया एग जोयणसतं उडुं तवंति, अट्ठारस जोयणसताई अधे य तवंति, सीतालीसं जोयणसहस्साई दुन्नि य जोयणसते तिसटे एगवीसंच सट्ठिभागे जोयणस्स तिरियं तवंति। (ता जंबुद्दीवे णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् / जम्बूद्वीपे कियत्प्रमाण क्षेत्रं सूर्यावूर्द्ध तापयतः प्रकाशयतः। कियत्क्षेत्रमधः, कियत्क्षेत्र तिर्थग, पूर्वभागे अपरभागे चेत्यर्थः / भगवानाह-(ता इत्यादि) ता' इति पूर्ववत् / जम्बूदीपे द्वीपे सूर्यों प्रत्येक स्वविमानादूर्द्धमेक योजनशतं तापयतः प्रकाशयतः / अधस्तापयतोऽष्टादशयोजनशतानि / एतचाधो लौकिक ग्रागापेक्षया द्रष्टव्यम्। तथाहि-अधोलौकिकग्रामाः समतलभूभागावधीकृत्याधो योजनसहस्रेण व्यवस्थिताः, तत्राऽपि सूर्यप्रकाशः प्रसरति, ततः समतलभूभागस्याधो योजनसहस्र, तदूर्द्ध चाष्टौ योजनशतानीत्युभयमीलने अष्टादश योजनशतानि / तिर्यक् रवविमानात्पूर्वभागे अपरभागे च प्रत्येक तापयतः सप्तचत्वारिंशद्योजनसहपाणि, द्वे योजनशते, त्रिषष्टे त्रिषष्ट्यधिके, एवविंशतिच षष्टिभागान योजनस्य 57263 21 / सू०प्र० 4 पाहु० तावक्खेत्तदिसा स्त्री०(तापक्षेत्रदिशा) तपनं तापः सूर्यकिरण-- स्पर्शलनितः प्रकाशाऽऽत्मकः परितापः, तदुपलक्षितं क्षेत्रं तापक्षे तदेव दिक् / अथवा-तापयतीति तापः राविता,तदनुसारेण / क्षत्राऽऽत्मिका दिक् तापक्षेत्रदिक् / आ०म०१अ०२ खण्ड। विशे। तापः सविता, तदुपलक्षिता दिक् तापक्षेत्रदिक् / पूर्वाभिधानाया दिशि, सा चाऽनियता। यत उक्तम्-''जेसिं जत्तो सूरो, उदेइ तेसिं तई हवइ पुव्वा / तावक्खेत्तदिसाओ, पयाहिण सेसयाओ सा'' ||1|| इति / स्था०३ ठा०२० तावण न०(तापन) अग्निना हस्तपादाऽऽदीनामुष्णीकरणे, नि०चू०१ उ०। तावणिज त्रि०(तापनीय) तापसहे, भ०१५ श०। तावदिसा स्त्री०(तापदिशा) तापयतीति ताप आदित्यः, तदाश्रिता दिक् | तापदिक् / सूर्यतापितायां दिशि, मण्ड० आचा०) तावस पु०(तापस) तापोऽरयास्तीति तापस: / दश०२ अ० तापप्रधानस्तापसः। दश०१० अ०। सतपस्के वनवासिनिपाखण्डिवि-शेष, दर्श०१ तत्व। बृता पिं० अनु० आचा०श्रमणभेदे, स्था०५ टा०३उ०। माठरगांत्रस्थाऽऽर्यशान्ति श्रेणिकरय शिष्ये, कल्प० 8 क्षण। तावसावसह पुं०(तापसावसथ) तापसमटे, भ०११ 206 उ०| तावसुद्धि स्त्री०(तापशुद्धि) विधिप्रतिषेधतद्विषयाणां जीवाऽऽदिपदार्थानां च स्याद्वादपरीक्षया याथात्म्येन समर्थन तापशुद्धिभेदे, ध०) "उभयनिबन्धनभाववादस्तापः" इति। उभयोः कपच्छेदयोरनन्तरमेवोक्तरूपयोर्निबन्धन परिणामि / किमित्याह-तापोऽत्र श्रुतधर्मपरीक्षाऽधिकारे. इदमुक्तं भवति यत्र शास्त्रे द्रव्यरूपतयाऽप्रच्युतानुत्पन्नः, पर्यायाऽऽत्मकतया च प्रतिक्षणमपसपरस्वभावाऽऽस्कन्दनेनाऽनित्य स्वभावो जीवाऽऽदिरवस्थाप्यते स्यात्तत्र तापशुद्धिः। यतः परिणामिन्येवाऽऽत्माऽऽदौ तथाविधाशुद्धपर्यायनिरोधेन ध्यानाध्ययनाऽऽद्यपरशुद्धपर्यायप्रादुर्भावादुक्तलक्षणः कषो, बाह्यचेष्टाशुद्धिलक्षणश्व छेद उपपद्यते, न पुनरन्यथेति / 501 अधि०। इहैव तापविधिमाहजीवाऽऽइभाववाओ, जो दिट्टेट्टाहि णो खलु विरुद्धो। बंधाऽऽइसाहगो तह, एत्थ इमो होइ तावो त्ति ||8|| जीवाऽऽदिभाववादो जीवाजीवाऽऽदिपदार्थवादः, यः कश्चिद् दृदृष्टाभ्यां वक्ष्यमाणाभ्या, न खलु विरुद्धः , अपितुयुक्त एव बन्धाऽऽदिसाधकरतथा निरुपचरितबन्धमोक्षव्यञ्जकः, अत्र श्रुतधर्मे एष भवति ताप इति गाथाऽर्थः / / 8 / / एएण जो विसुद्धो, सो खलु तावेण होइ सुद्धो त्ति। एएणं चासुद्धो, सेसेहि वि तारिसो नेओ / / 81 / / एतेन जीवाऽऽदिभाववादेन यो विशुद्धः स खलु तापेन भवति शुद्धः, स एव नान्य इति। एतेन चाशुद्धः सन् शेषयोरपि कषच्छेदयोस्तादृशो ज्ञेयः, न तत्त्वतः शुद्ध इति गाथाऽर्थः ||81 / / इहैवोदाहरणमाहसंतासंते जीवे,णिचाणिचायणेगधम्मे अ। जह सुहबंधाईया, जुजंति न अण्णहा नियमा।।२।। सदरापे जीवे स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यामित्याऽऽद्यनेकर्मिणि घ द्रव्यपर्यायाभिधेयपरिणामाऽऽद्यपेक्षया यथा सुखबन्धाऽऽदयः सुखाऽऽदयोऽनुभूयमानरूपा बन्धाऽऽदयोऽभ्युपगताः युज्यन्ते घटन्तेनान्यथाऽन्येन प्रकारेण नियमाद् युज्यन्त इति गाथाऽर्थः ||8|| एतदेवाऽऽहसंतस्स सख्वेणं, पररूवेणं तह असंतस्स। हंदि विसिद्वित्तणओ, हों ति विसिट्ठा सुहाईआ।१८३|| सतो विद्यमानस्य स्वरूपेणाऽऽत्मनियतेन,पररूपेणान्यान्यसंबन्धिना तथा असतः स्वरूपेणैवाविद्यमानस्य , न च स्वत्वमेवान्यासत्त्वम्, अभिन्ननिमित्तत्वे सदसत्त्वयोर्विरोधात् / तथाहि-सत्त्वमेवासत्त्वमिति व्याहतम्। न च तत्तत्रास्ति, स्वसत्चासत्त्ववदसत्त्वे तत्सत्त्वप्रसङ्गादिति पररूपासत्त्वधर्मकं स्वरूपसत्त्वं विशिष्ट भवति, अन्यथा वैशिष्ट्यायोगात्, तदा हन्दि विशिष्टत्वात्तदुक्तेन प्रकारेण भवन्ति विशिष्टाः स्वयं वेद्याः सुखाऽऽदयः, आदिशब्दाद् दुःखबन्धाऽऽदिपरिग्रह इति गाथाऽर्थः / / 83 / / विक्षेप बाधामाहइहरा सत्तामित्ताइभावओ कह विसिट्टया तेसिं। तयभावम्मि तयत्थे, हंत पयत्तो महामोहो॥८४|| इतरथा यथा स्वरूपेण सत्तथा पररूपेणाऽपि भावे, सत्तामात्राssदिभावात्, आदिशब्दादसत्त्वमात्रग्रह इति / कथं विशिष्टता प्रत्यत्मवेद्यतया तेषां सुखाऽऽदीना, तदभावे विशिष्टसुखाऽऽद्यभावे, तदर्थो विशिष्टसुखाऽऽद्यर्थो, हन्त प्रयत्नः क्रियाविशेषो, महामोहोऽसंभवप्रवृत्त्येति गाथाऽर्थः / / 84|| निच्चो वेगसहावो, सहावभूयम्मि कह णु सो दुक्खो। तस्सुच्छेयनिमित्तं, असंभवाओ पयट्टिज्जा / / 8 / /
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________________ तावसुद्धि 2234 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तावसुद्धि न च नानन्यः किंत्वतन्योऽपि(?) कथमित्याह-सोऽहं किं प्राप्तो बन्धनाऽऽदि पापपरिणतिवशेन चौर्यप्रभवेण अनुभवसन्धानात्सोऽहमित्यनेन प्रकारेण, लोकाऽऽगमसिद्धितश्चैवसोऽयमिति लोकसिद्धिः, तत्पापफलमित्यागमसिद्धिरिति गाथाऽर्थः / / 12 / / इय मणुआइभवकयं, वेअइ देवाइभवगओ अप्पा। तस्सेव तहाभावा, सव्वमिणं होइ उववण्णं / / 63 / / एवं वृद्धवन्मनुष्याऽऽदिभवकृत पुण्याऽऽदि वेदयते अनुभवति देवाऽऽदिभवगतः सन्नात्मा जीव इति, तस्यैव मनुष्याऽऽदेस्तथाभावाद् देवाऽऽदित्वेन भावात्, सर्वमिदं निरुपचरित स्वकृतभोगाऽऽदि भवत्युपपन्नं, नान्यथेति गाथाऽर्थः / / 63|| एगतेण उ निचो-ऽणिचो वा कह णु वेअई सकडं / एगसहावत्तणओ, तयणंतरनासओ चेव !|64|| नित्योऽप्येकस्वभावः स्थिरतया, स्वभावभूते आत्मभूते, कथं त्वसो नित्यः सनदुःखे। किमित्याह-तस्यदुःखस्योच्छेदनिमित्तं विनाशाय, असंभवाद्धेतोः प्रवर्त्तत, कथं नैवेति गाथाऽर्थः / / 8 / / एगंतनिचओ वि अ, संभवसमणंतरं अभावाओ। परिणामहेउविरहा, असंभवाओ उतस्स त्ति।।८६|| एकान्तनित्योऽपि च निरन्वयोऽनश्वरः संभवसभनन्तरमुत्पत्त्यनन्तरमभावादविद्यमानत्वात्, परिणानिकहेतुविरहात्, तथाभाविकारणाभावेनासंभवाच कारणात, तस्येत्येकान्तानित्यस्य स कथं प्रवर्त्तत? नैवेति गाथाऽर्थः / / 86 // एतदेव समर्थयन्नाहण विसिट्ठकज भावो, अणईअविसिट्ठकारणत्ताओ। एगंतऽभयपक्खे, निअमा तह भेयपक्खे अ।।७।। न विशिष्टकार्यभावो न घटाऽऽदिकार्योत्पादोन्याय्योऽनतीतविशिष्टकारणत्वात्, अनतिक्रान्तनियतकारणत्वादित्यर्थः / एकान्ताऽभेदपक्षे, कार्यकारणयोर्नित्यत्वपक्ष इत्यर्थः / नियमादवश्यमेव नेति, तथा भेदपक्षे च कार्यकारणयोरेकान्तानित्यत्वपक्षेचेति गाथाऽर्थः / / 87|| उभयत्र निदर्शनमाहपिंडो पडो व्व ण घडो, तप्फलमणईअपिंडभावाओ। तयईअत्ते तस्स उ, तहभावा अन्नयाइत्तं // 88|| पिण्डवत्पटवदिति च दृष्टान्तौ न घटस्तत्फलं पिण्डकमेति प्रतिज्ञा, अनतीतपिण्डभावत्वादसमानत्वाद् भेदपक्षे पटवत्, तदतीतत्व घटस्य पिण्डातीतताया,तस्यैव तथाभावात् पिण्डस्यैव घटरूपेण भावात्, अन्वयाऽऽदित्वमन्वयव्यतिरेकत्व वस्तुन इति गाथाऽर्थः / / 8 / / अतः सदसन्नित्यानित्याऽऽदिरूपमेव वस्तु, तथा चाऽऽहएवंविहो उ अप्पा, मिच्छत्ताईहिँ बंधई कम्मं / सम्मत्ताऽऽईएहि उ, मुचइ परिणामभावाओ / / 86|| एवंविध एव सन्नात्मा सदसन्नित्यानित्याऽऽदिरूपः मिथ्यात्वाऽऽदिभिः करणभूतेर्बध्नाति कर्म ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदि, सम्यक्त्वाऽऽदिभिस्तु करणभूतैर्मुच्यते / कुत इत्याह-परिणामभावात्परिणामत्वादिति गाथाऽर्थः ||86 // सकडुवभोगो चेवं, कहं चि एगाहिकरणभावाओ / इहरा कत्ता भोत्ता, उभयं वा पावइ सया वि|१०|| स्वकृतोपभोगोऽप्येवं परिणामिन्यात्मनि कथशिदेकाधिकरणभावाचित्रस्वभावतया युज्यते। इतरथा नित्याऽऽद्यकस्वभावतायां कर्ता, भोक्ता, उभयं वा। वाशब्दादनुभयं वा, प्राप्नोति सदाऽपि, कर्ताऽऽधेकस्वभावत्वादिति गाथाऽर्थः ||6|| एतदेव भावयतिवेएइ जुधाणकयं, वुड ढो चोराइफलमिहं कोई। ण य सो तओ ण अन्नो, पचक्खाईपसिद्धीओ।।११।। वेदयते अनुभवति युवकृतं, तरुणकृतमित्यर्थः, वृद्धवीर्याऽऽदिफलं बन्धनाऽऽदि, इह, कश्चित्,लोकसिद्धमेतत् / न चाऽसौ वृद्धस्ततो यूना नाऽन्यः, किंत्वन्यः, प्रत्यक्षाऽऽदिप्रसिद्धेः कारणादिति गाथाऽर्थः / / 11 // ण य णाऽणण्णो सोहं,किं पत्तो पावपरिणइवसेण / अणुहवसंधाणाओ, लोगाऽऽगमसिद्धिओ चेव // 2 // ..............||64|| जीवसरीराणं वि हु, भेआऽभेओ तहोवलंभाओ। मुत्तामुत्तत्तणओ, पिक्कम्मि पवअणाओ अ||६|| जीवशरीरयोरपि भेदाभेदः, कथञ्चिद् भेदः, कथञ्चिदभेद इत्यर्थः। तथोपलम्भात्कारणान्मूर्तामूर्तत्वात्तयोरन्यथायोगाभावात् स्पृष्टे शरीरे प्रवेदनाच, न चामूर्तस्यैव स्पर्श इति गाथाऽर्थः // 65 // उभयकडोभयभोगा, तयभावाओ अ होइ नायव्यो। बंधाऽइविसयभावा, इहरा तयसंभवाओ अ॥६६|| उभयकृतोभयभोगात्कारणात्, तदभावाच्च भोगाभावाच, भवति ज्ञातव्यः जीवशरीरयोर्भेदः, बन्धाऽऽदिविषयभाषात्कारणदितरथैकान्तभेदाऽऽदौ तदसंभवाच बन्धाऽऽद्यसभवाचेति गाथाऽर्थः // 66 // एतदेव प्रकटयन्नाहएत्थ सरीरेण कडं, पाणवहासेवणाए जं कम्मं / तं खलु चित्तविवागं, वेएइ भवंतरे जीवो ||7|| अत्र शरीरेण कृतं, कथमित्याह-प्राणवधाऽऽसेवनया हेतुभूतया यत् कर्म तत् खलु चित्रविपाकं सद्वेदयते भवान्तरेऽन्यजन्मान्तर जीव इति गाथाऽर्थः / / 67 // न उतं चेव सरीरं, णरगाऽऽइसु तस्स तह अभावाओ। भिन्नकडवेअणम्मी, अइप्पसंगो वला होइ।।८।। न तु तदेव शरीरं येन कृतमिति / कुतः? इत्याह-नरकाऽऽदिषु तस्य शरीरस्य तथाऽभावादिति। भिन्नकृतवेदनाऽभ्युपगम्यमानेऽतिप्रसङ्गोइनवस्थारूपः बलाद्भवतीति गाथाऽर्थः / / 68|| एवं जीवेण कडं, कूरमणपयट्टएण जं कम्मं / तं पइ रोद्दविवागं, वेएइ भवंतरसरीरं // 66| एवं जीवन कृतं, तत्प्राधान्यं, क्रूरमनः प्रवृत्तेन यत्कर्म पापाssदितत्प्रति तन्निप्रित्तं रौद्रविपाक तीव्रवेदनाकारित्वेन वेदयते भवान्तरशरीरं, तथाऽनुभवादिति गाथाऽर्थः / / 6.6 ण उ केवलओ जीवो, तेण विमुक्कस्स वेयणाऽभावा। ण य सो चेव तयं खलु,लोगाऽऽइविरोहभावओ।।१००॥ न तु केवलो जीवो वेदयते, तेन शरीरेण विमुक्तस्य सतः वेदनाऽभावात्कारणात, न च स एव जीवस्तच्छरीरमिति लोकाऽऽदिविरोधभावात, आदिशब्दात्समयग्रह इति गाथाऽर्थः।१००।
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________________ तावसुद्धि 2235 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिओय एवं चिअ देहवहे, उवयारे वा वि पुण्णपावाई। दृश्यते कमपिचयः कार्यद्वारेण, संभवति तेन कारणेन तरय कर्मणो इहरा घडाइभंगाइनायओ नेव जुजंति / / 101 / / विगमोऽपि, रार्थथा कनकमलस्येति निदर्शन, तेन कर्मणा मुक्तः सर्वथा एवमेव जीवशरीरयोर्भेदाभेद एव, देहवधात्सत्कारावा देहरय पुण्यपापे / युक्तो ज्ञातव्य इति गाथाऽर्थः / 108|| भवतः, इतरथैकान्तभेदाद् घटाऽऽदिभङ्गाऽदिज्ञाततः घटाऽऽदिवि- | एमाइ भाववादो, जत्थ तओ होइ तावसुद्धो त्ति। नाशकरणोदाहरणेन,नैव युज्यते पुण्यपापे इति गाथाऽर्थः / / 101 / / एस उवाएओ खलु, बुद्धिमया धीरपुरिसेणं / / 106 / / अभ्युच्चयमाह एवमादि भाववादः पदार्थवादों यत्राऽऽगमेऽसौ भवति तापशुद्धः तयभेअम्मि अ नियमा, तन्नासे तस्स पावई नासो। तृतीयस्थानसुन्दर इति, एष उपादेयः खल्वेष एव नान्यः, बुद्धिमता प्राज्ञेन इय परलोआभावा, बंधाईणं अभावो य / / 10 / / धीरपुरुषेण स्थिरणेति गाथाऽर्थः / / 106 / / १०व०४ द्वार। तदभेट च जीवशरीराभेदे च नियभात्तन्नाशे देहनाशे तस्य जीवस्य | ताविया स्त्री०(तापिका) कटाहिकायाम, आ०म०१ अ०२ खण्डा प्राप्नोति नाशः। (इय) एवं परलोकाभावात्कारणात् बन्धाऽऽदिनामपि तास पुं०(बारा) उद्वेगे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / ज्ञा०। प्रस्तुतानामभाव एवेति गाथाऽर्थः / / 102 / / तासन त्रि०(वासन) क्षोभाऽऽदिलिङ्ग कारकत्वात्वासनः। प्रश्न० देहेणं देहम्मि अ,उवघायाणुग्गहेहिँ बंधाई। १आश्र०द्वार / वासजनके, प्रश्न०३आश्र० द्वार / नि०चूला आम्मका ण पुण अमुत्तो मुत्तस्स अप्पणो कुणइ किंची वि।।१०३।।। तासी त्रि०(त्रासी) स्वयं त्रस्तः परानपि त्रासयतीति त्रासी / बस्ते, ....... किश्चिदपि,मुक्तकल्पत्वादिति गाथाऽर्थः / / 103 / / अन्यत्राराकरे च / स्था०४ ठा०२उ०॥ अकरितो अ ण वज्झइ, अइप्पसंगा सदेव बंधाओ। ताहं अव्य०(ताह) आमन्त्रणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तम्हा भेआभए, जीवसरीराण बंधाई।।१०४।। ताहे अव्य०(तदा) तस्मिन् काले डाच्। तस्मिन् काले इत्यर्थ , वाच०। अकुर्दश्च न बध्यते न्यायत इत्याह-अतिप्रसङ्गान्मुक्त: सदेव भावा- | भ०। प्रा०॥ द्वन्धस्य अकर्तृत्वाविशेषाद, यत एवं तस्मा दाभदजात्यन्तरात्मक ति अध्य० (इति) पदात्परस्य इतिशब्दस्य ति इत्यादेशो भवति / जीवशरीरयाईन्धाऽऽदयो, नान्यथेति गाथाऽर्थः / / 104 / / उपमाभूतवस्तुना परिसमाप्ती, जी०३ प्रति०४ उ० प्रश्न०। एवार्थे, तथा उत्त०१० मोक्खो वि अ बद्धस्स य,तयभावे स कह कीस वाण सया। / *त्रि त्रि०व० -डि। त्रित्वसंख्याविशिष्टे, स्त्रियां तिस्रादेशः / तिस्त्र किं वा हेऊहिं तहा, कहं च सो होइ पुरिसत्थो / / 105|| इत्यादि / वाचा मोक्षोऽ पे च बद्धस्य सतो भवति, तदभावे बन्धाभावे स कथं मोक्षः, | तिअसीस पुं०(त्रिदशेश) "लुक्"||१।१०।। इति स्वरस्य स्वरे परे नेव, किामेति वा न सदाऽसौ, बन्धाभावाविशेषात्, किंवा हेतुभिस्तथा बहुलं लुक। प्रा०१पाद / देवराजे, वाच०। यथाऽऽदिभिः,कथंच स भवति पुरुषार्थोऽयत्नसिद्धत्वादिति गाथाऽर्थ: तिउडण न०(त्रित्रुटन) त्रिभ्यो मनोवाकायेभ्योऽशुभेभ्यो मुक्तौ, सूत्र०१ / 105 / श्रु०१५ अग यत एवम् तिउडय पुं०(त्रिपुटक) मालवकप्रसिद्धेधान्यविशेषे, ध०२ अधि०। प्रव०॥ तम्हा बद्धस्स तओ, बंधो वि अणाइमं पवाहेणं। तिउल त्रि०(त्रितुल) त्रीन् मनोवाक्कायाँ स्तुलयत्यभिभवति या सा इहरा तयभावम्मी, पुव्वं चिअ मोक्खसंसिद्धी / / 106 / / त्रितुला / मनोवाक्कायतोदके दु:खहेतौ, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। भ०। तस्माद बद्धस्येवासी मोक्षो, बन्धोऽप्यनादिमान प्रवाहेण सन्तत्या, ज्ञा०। स्थान इतरथैवमनङ्गीकरणेन, तदभावे बन्धाभावे सति, पूर्वमेवाऽऽदावेव मोक्ष *तोदक त्रि०। सूत्रत्वात्तोदकः / मनोवाकायतोदके दुःखहेती, उत्त०२ अ०। सांसद्धिः, तद्रूपत्वात्तस्येति गाथाऽर्थः / / 106|| *त्रिदल त्रि०ा त्रीन प्रस्तावान्मनोवाकायान् विभाषितण्यन्तत्वाचुअत्राऽऽह राऽऽदीनां दलतीव स्वरूपचलनेन त्रिदलः। मनोवाक्कायतोदके दुःखहेती, अणुभूअवत्तमाणो, बंधो कयगो त्ति णाइमं कह णु। उत०२ अग जह य अईओ कालो, तहाविहो तह पवाहेण / / 107 / / तिऊम पुं०(त्रिकूट) तिकूड' शब्दार्थे , स्था०४ ठा०२उ०। अनुभूतवर्त्तमानो भावो बन्धः कृतक इति कृत्वा स एवंभूतोऽनादिमान् तिओय न०(व्योजस्) त्रिभिरादित एव कृतयुग्माद्बोपरिवर्तिभिरोजो कथं नु? प्रवाहतोऽपीति भावः / अत्रोत्तरम्- यथैवातीतः कालस्तथा विषमराशिविशेषस्त्र्योजः / भ० 18 श०४ उ०ा विषमराशिविशेषे, यो हि विधः-अनुभूतवर्तमानभावोऽप्यनादिमान्, तथा प्रवाहेण बन्धोऽप्यना राशिचतुष्कापहारेणापहियमाणस्त्रिपर्यवसितो भवति स त्र्योज इति / दिमानिति गाथाऽर्थः / / 107 / / स्था०४ठा०३उ० मितप्रदेशासु दिक्षु, स्त्रीला सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये उपपत्तिमाह प्रदेशास्तेचतुष्केणापहियमाणास्विकावशेषा भवन्तीति कृत्वा तत्प्रदेशादीसइ कम्मावचओ, संभवई तेण तस्स विगमो वि। ऽऽत्मिकाच दिश आगमसंज्ञया योजःशब्देनाभिधीयते / आचा०१ कणगमलस्स व तेण उ,मुक्को मुक्को त्ति नायव्यो / / 108|| श्रु०१अ०१उन
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________________ तिंतिण 2236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिको मि तिंतिण पुं०(तिन्तिण) तिन्तिणो नाम यः स्वल्पोऽपि केनचित्साधुना- कपाटाभ्यां संयोजयति / अन्तःसंयोजनाशोभनार्थ प्रतिश्रयं गोमयऽपराद्धोऽनवरतं पुनस्तं झपन्नास्ते स तिन्तिणः / तस्मिन्, व्य०१ उ०। मृदादिना लिम्पति, सेटिकया वा धवलयति / अथवा-शय्याशब्देन प्रव० कन्प्रत्ययोऽप्यत्र / अलाभे सति खेदाद्यत्किञ्चनाभिधायी, सच संस्तारक उच्यते, ततश्च सुन्दरतरं संस्तारकं लब्ध्वा यदुत्तरपट्टमपि खेदप्रधानत्वात्तिन्तिणिको भवति। स्था०६ठा। "तितिणिए एसणास- तदनुरूपमुत्पाद्य परिभुङ्क्ते, सा बहिःसंयोजना / यत्पुनः सुकुमारमिइस्स परिमथू।" तिन्तिणिको हि सुन्दरमाहाराऽऽदिकं गवषयनेप- स्पर्शार्थ विभूषार्थ वा सुन्दरया भङ्गया संस्तारकं प्रस्तृणाति सा णासमितेः परिमन्थुर्भवतीति। बृ०६ उ०। अन्तःसयोजना। तदेवं यदुपध्यादिकं यस्य साधोगुणोपकारि विभूषाऽऽव्यासार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुः प्रथमतस्तिन्तिणिकदार व्याचष्टे दिगुणोपयोगि भवति, स तेन विवक्षितन वस्तुना सार्द्ध तदेव वस्तुयोजयन् डज्झंतं र्टिवरुदारुयं व दिवसं पि जो तिडितिडेइ। मीलयन, तदभावे विवक्षितवस्तुयोगाभावे तिन्तिणिको भवति-'हा ! नारत्यमुकं वस्तु अत्र स्थण्डिलप्राये संनिवेशे'' इत्यादि अल्पतीत्यर्थः। अह दव्वतिंतिणो भावओ उ आहारुवहिसिज्जाए।। वृ०१ उ०। नि००। (अपवादे तिन्तिणिकत्वं 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे तिम्बुरुकदारुक तिम्बुरुकवृक्षकाष्ठमग्नी प्रक्षिप्तं, तद्दह्यमानं सद्यथा 230 पृष्ठे गतम्) टत्त्रटिति कुर्वदास्ते; एवं यो गुर्वादिभिः खरण्टितः संपूर्णभपि दिवस तिंतिणी स्त्री०(तिन्तिणी) यत्र तत्र वा स्तोकेऽपि कारणे करकरायणं, "तिडितिडेइ त्ति" अनुकरणशब्दत्वावटत्-टयते, मम संमुखमिंद व्य०३उन मिदं च जल्पितमेभिरिति झपन्नास्ते इति भावः / अथैप द्रव्यतिन्तिणिकः / तिंदुक पुं०(तिन्दुक) बहुबीजकफलप्रधाने वृक्षविशेषे, प्रज्ञा०१ पद / भावतस्तु तिन्तिणिकः त्रिविधः / तद्यथा-आहारे, उपधी, शय्यायां आचा०। प्रव०। वाराणस्यां तिन्दुकवृक्षप्रधाने उद्याने, आ० म०१ अ०२ चेति / पुनरेकैको द्विविधः-अन्तः संयोजनया, बहिःसंयोजनया च। खण्ड / तत्र गण्डीतिन्दुकनामा यक्षो वसति / उत्त० 12 अ० ती०| तत्रोभयथाऽप्याहारतिन्तिणिकं तावदाह स्था०। श्रावस्त्यां नगरमण्डले पुरपरिसरे तिन्दुकवृक्षप्रधाने उद्याने, उत्त० अंतो बहि संजोअणॉ, आहारे बाहि खीरदधिमाई। 23 अ०। आ०क०। विशे०। चैत्यविशेषे, तिला श्रावस्तीनगरीचेत्ये, अंतो उ होति तिविहा, भायणे हत्थे मुहे चेव।। स्था०७ टा०ात्रीन्द्रियजीवविशेषे, उत्त०३६ अग आहारविषया संयोजना द्विविधा-अन्तः, बहिश्च / तत्र यहिस्ता- | तिंदूस पुं०(तिन्दूस) बहुबीजकफलप्रधाने वृक्षविशेषे, प्रज्ञा० १पद। बद्भाव्यते-कश्चित्साधुर्भिक्षामटन क्षीरं वा दधि वा लब्ध्वा रसगृध्नुतया | स्वार्थे कनप्रत्ययोऽप्यत्र / आ०क०। कलमशालिप्रभृतिकमोदनं चिरगोचरचयकरणेनाप्युत्पाद्य यत्तेनैव / तिंदूसय पुं०(तिन्दुसक) कन्दुके, ज्ञा०१ श्रु०१८अ०। क्रीडाविशेषे, क्षीराऽऽदिना सार्धमुपाश्रया बहिः संयोजयति. आदिशब्दात् परमान्ना- | "सप्पं व तरुवरम्भी. काउंतिदूसएयडिंभव।" आ०म०१अ०रखण्ड। ऽऽदिकं वा लब्ध्वा घृतखण्डाऽऽदिना बहिरेव स्थितः सन यद्योजयति, | तिकंडग त्रि०(त्रिकण्डक) कण्डत्रययुक्त, "सयं सहस्साण उ जोयणाण, एषा बहिः संयोजना। अन्तस्तुप्रतिश्रयाभ्यन्तर पुनः संयोजना त्रिविधा तिकंडगे पंडगवेजयते / ' मेरु:-त्रीणि कण्डान्यस्येति त्रिकण्डकः, भवति। तद्यथा-भाजने, हस्ते, मुखे चैवातत्र भाजनविषयायत्रभाजने तद्यथा-भीम, जाम्बूनदं, वैडूर्यमिति। सूत्र०१ श्रु० 6 अ०। कलमशाल्योदनस्तत्र दुग्धदध्यादि प्रक्षिपति / हस्तविषयामण्डक- तिकट्ट अव्य०(त्रिकृत्वम्) त्रीन् कृत्वेत्यर्थे , भ०२ श०१3०। पुचूलिकाऽऽदिना गुडशर्कराऽऽदि हस्तस्थितं वेष्टयित्वा मुखे प्रक्षिपति। तिकडुय न० (त्रिकटुक) त्रयाणां कटूनां समाहारस्त्रिकटु, त्रिकटु एव मुखविषयापूर्व मण्डकाऽऽदि मुखे प्रक्षिप्य ततः शर्कराखण्डाऽऽदि विकटुकम् / शुण्ठीमरिचपिप्पल्यात्मके कटुवयसमाहारे, उत्त० 34 प्रक्षिपति। एवंविधा द्विविधामप्याहारसयोजना लोभाभिभूततया कुर्वन् अ० अनुग यदा यदा संयोजनीयवस्तुयोगं न लभते, तदा तदा तिन्तिणिकत्वं तिकरणभावसुद्ध त्रि०(त्रिकरणभावशुद्ध) त्रिविधेन त्रिप्रकारेण करणेन करोतीत्याहारतिन्तिणिक उच्यते। मनोवाकायलक्षणेन सुविशुद्धे, मनसाऽप्यसंयमानभिलाषाद् भावेन च अथोपधिशय्यातिन्तिणिकावतिदिशति परिणामेन विशुद्ध इहलोकाऽऽद्याशंसाविप्रमुक्तत्वात् त्रिकरणभावविशुद्धः / एमेव उवहिसिज्जा, गुणोवगारी उ जस्स जं होइ। तस्मिन, व्य०३ उ०। सो तेण जोजयंतो,तदभावे तिंतिणो होइ। तिक रणसुद्ध न०(त्रिकरणशुद्ध) मनोवाकायलक्षणकरणत्रयस्य एवमेवोपधिशय्ययोरपि संयोजनायां भावना कार्या / सा धेयमउपधि- | दायकसंबन्धिनो विशुद्धतायाम, विपा०२ श्रु०१अ०। संयोजनाऽपि द्विविधा-बहिः, अन्तश्च / तत्र वहिः संयोजनाउत्कृष्ट कल्पं तिकूड पुं०(त्रिकूट) त्रीणि कूटान्यस्य / लङ्कापुरसन्निहिते सुवेलाऽऽख्ये लब्ध्वा चोलपट्टवमप्युत्कृष्टमुत्पादयति: और्णिकंवा कल्पंशुन्दरं लब्ध्वा पर्वत, स्था०४ ठा०२ उ01 "दो तिकूडा।" स्था०२ ठा०३ उ०। ती०। तदनुरूपमेव सौत्रिकमुत्पादयति; उत्पाद्य च तदुभयपरिभोगेण जम्बूद्वीपे मेरुपर्वतस्य पूर्वस्मिन् भागेशीताया महानद्या दक्षिणस्यां दिशि संयोजयति। अन्तःसयोजना पुनः- विभूपार्थ श्वेतकम्बल्या कृष्णदवर- आधे वक्षस्कारपर्वते, स्था०। कसीवनिकां ददातीत्यादि / शय्या प्रतिश्रयः, तस्य संयोजनाऽपि तिको डि स्वी०(त्रिकोटि) त्रिकोट्याम्, वन्दारुवृत्तौ-"सिद्धे द्विविधा-बहिः, अन्तश्च। ततः बहिः संघोजना-अकपाटमुपाश्रय लब्ध्वा / भोपयआ'' इत्यादिवृत्तव्याख्याने त्रिकोटिपरिशुद्धत्वेन प्रख्याता
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________________ तिकोडि 2237 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिगिच्छा ये, तत्र कोटिशब्दस्य कोऽर्थः? इति प्रश्रे, उत्तरम्-सूत्रार्थतदुभयरूपाः, | सचित्तानि, सूत्रमचित्तमिति कृत्वा / आदिग्रहणेन सालङ्कारपुरुषत्रयमिकर छेदतापलक्षणपरीक्षात्रयरूपा वा तिसः कोट्यः संभाव्यन्ते। / त्यादि गृह्यते। क्षेपत्रयम्-त्रय आकाशप्रदेशाः (तदोगाढं ति) तेषु वा त्रिषु 26070 / सेन०३ उल्ला प्राकाशप्रदेशेषु अवगाढं द्रव्यं क्षेत्रत्रयम्, त्रयो वा लोका अधोलोकतिर्यग् तिको डिपरिसुद्ध त्रि०(त्रिकोटिपरिशुद्ध) रागद्वेषभोहत्यपरिशुद्धे, पो०! लोको ईलोकलक्षणाः क्षेत्रत्रयमुच्यते। मध्यमबुद्धेस्त्वीयर्यासमितिप्रभृति त्रिकोटिपरिशुद्धम् (7) तिसमय तट्ठितिगं वा कालतिगं तीयमातिणो चेव / त्रिकाटिपरिशुद्धम-रागद्वेषमोहत्रयपरिशुद्धम् / अथवा-तिसः कोट्यो भावे पसत्थमितरं, एक्के कं तत्थ तिवितं तु / / 13 / / हनन- पचन-क्रयणरूपाः कृतकारितानुमतिभेदेन श्रूयन्ते, ताभिः कालत्रयं प्रत्यग्रसमयं (?)(तट्टितिगं व त्ति) त्रिसप्पयस्थितिकं वा द्रव्यं परिशुद्धम्। अथवा--कषच्छेदतापकोटित्रयपरिशुद्धम् / पो० २विवा कालत्रयम् / अथवा अतीतानागतवर्तमानकाला एव कालत्रयम्, भावत्रय तिकोण त्रि०(त्रिकोण) त्रयः कोणा यस्य। त्रिकांटियुक्त पदार्थे स्था० प्रशस्तमप्रशस्तं चेति। द्विधा / पुनरेकैकं त्रिविधम्-तत्र ज्ञानग, दर्शनम्, १ठा० ज्योतिषोक्ते लग्नात्पञ्चमनवमस्थाने, न० "त्रिकोणगान् गुरुः चारित्रं चेतिप्रशस्तम्। मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिश्चेत्यप्रशस्तम्। अविरतिपश्यन् / " वाचा शृङ्गाटके, स्था०५ ठा०१ उ०।। रपि हस्तकर्ममैथुनरात्रिभक्तप्रतिसेवाभेदादिह प्रस्तावे विविधा / तिक्ख / (तीक्ष्ण) तिज्- करन-दीर्घश्च / गुरुके, अतिपातिनि च / व्याख्यातं त्रय इति पदम। बृ०४उ०) व्य०१ उ०। परधे, भ०१६ श०३उ०। वेगवति,जं०२ वक्षामरणे, युद्ध, / तिगतिगभेद त्रि०(त्रिकविकभेद) त्रिकं त्रिकं भेदानां यस्य स विषे, लोहे शस्त्रे, शीधे, सामुद्रलवणे, मुष्कके, चषके, उग्रे रसे च। न०। त्रिकत्रिकभेदः। प्रत्येकं त्रिविधे, दर्श०५ तत्त्व / तद्वति. त्रिका यवक्षारे, श्वेतकुशे, कुन्दुरके, ज्योतिपोक्ते आश्लिोपा- तिगरणसुद्ध त्रि०(त्रिकरणशुद्ध) त्रीणि च तानि करणानि च मनः प्रभृतीनि ज्येष्ठानूलनक्षत्रे च / पुं०। तीवे, आत्मत्यागिनि, निरालस्ये, मुमुक्षी, त्रिकरानि, तैः शुद्धो निर्दोषस्त्रिकरणानि वा शुद्धानि सर्वदोषरहितानि यागिनि च। पुंगधाचा यस्य स त्रिकरणशुद्धः / निरवद्ययोगप्रवृत्ते, अथवा-करणकारणानुमतितिक्खतुंडा स्त्री०(तीक्ष्णतुण्डा) घृतेल्लिकायाम्, कल्प०६ क्षण। रूपसावद्ययोगविरते, पा० तिक्खालिअ (देशी) तीक्ष्णीकृते, दे०ना०५ वर्ग 13 गाथा। तिगारवगुरुया रत्री०(त्रिगोरवगुरुला) ऋद्धिरससातगौरवे, ध०३अधि०। तिक्खुत्त अव्य०(त्रिःकृत्वस्) त्रीन् वारान् कृत्वत्यर्थे , विषा०१ श्रु०१ तिगिच्छ पुं०(चिकित्स) किञ्जल्के, स्था०१० ठा०। वैद्यो, व्य०५ उ०। अगदशा०। स्था०ा निचूला रा०ा प्रति०। कल्प०। आ०म०नि०। ओ०। दशमकल्प देवानां विमानविशेषे, स०२० सम०। तिग न०(त्रिक) रथ्यात्रयमीलकस्थाने,०१ उ० जी०। भला कल्प० | तिगिच्छग त्रि०(चिकित्सक) रोगप्रतीकारकर्तरि, स्था०। ऑ०। जा०ा अनु० आ०म०। पा०। सूत्रा अथाऽऽत्मचिकित्सकान् भेदतः सूत्रत्रयेणाऽऽहत्रिकनिक्षेपज्ञापनार्थमिदमाह चत्तारि तिगिच्छगा पण्णत्ता। तं जहा-आयतिगिच्छिए णामनाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य गणण भावे य / मेगे, णो परतिगिच्छिए। परतिगिच्छिए णाममेगे णो आयतिएसो उ खलु तिगस्सय, निक्खेवो होइ सत्तविहो // 10|| गिच्छिए। एवं चउभंगो।। नामत्रिकम्, स्थापनात्रिकम्, द्रव्यत्रिकम, क्षेत्रत्रिकम, कालत्रिकम्, "वत्तारि" इत्यादि कण्ठ्यम् / नवरं व्रणं देहे क्षतं स्वयं करोति गणनाधिकम, भावत्रिकं चेति, एष खलु त्रिकरय निक्षेपः सप्तविधो भवति। रुधिराऽऽदिनिर्गलनार्थमितिव्रणकरो'नो' नैव व्रणं परिमशतीत्येवं शीला नामस्थापनात्रिक गतार्थे। व्रणपरिमीत्येकः, अन्यस्त्वन्यकृतं व्रण परिमृशतिनच तत्करोतीति! द्रव्यत्रिकं ज्ञभव्यशरीरव्यतिरिक्तं ज्ञापयति एवं भावणमतिचारलक्षणं करोति, कायेन च तदेव परिमृशति पुनः पुनः दव्वे सचित्तादी, सच्चित्तं तत्थ होइ तिविहं तु / संस्मरणेन रपृशति / अन्यस्तु तत्परिमृशतीत्यभिलाषान्न च करोति कायतः संसारभयाऽऽदिभिरिति। व्रणं करोति, न च तत्पट्टबन्धाऽऽदिना दुपद चतुप्पद अपदं, परूवणा तस्स कायव्वा / / 11 / / संरक्षति। अन्यस्तु कृतं संरक्षति, न च करोति। भावव्रण त्वाश्रित्यातिचार द्रव्यत्रिकं सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा / तत्र सवित्तत्रिकं भूयस्विविध करोति, न च त सानुबन्धं भवन्तं कुशीलाऽऽदिसंसर्गतन्निदानपरिहारतो भवति / तद्यथा-द्विपदत्रिकम्, चतुष्पद त्रिकम्, अपदविकम् / तस्य च रक्षक, अन्यस्तुपूर्वकतानिचारं निदानपरिहारतो रक्षति, नवं चन साभेदर याऽपि प्ररूपणा कर्त्तव्या। सा च यथा सचित्तकै-कस्य कृता करोति / (नो) नैव व्रणं सरोहयत्यौषधदानाऽऽदिनेति व्रणसरोही। तथैवाकान्तव्यम्। भावद्रणापेक्षयातुनो व्रणसंरोही प्रायश्चित्ताप्रतिपत्तेः, व्रणरोही पूर्वकृतापरमाणुमादियं खलु, अचित्तं मीसगं च मालादी। तिचारप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या नो व्रणकरोऽपूर्वा तिचाराकारित्वादिति / तिपदेस तदोगाढं, तिणि विलोगा उ खेत्तम्मि।।१२।। स्था०४ ठा०४ उ०। (परमाणु त्ति) आदिशब्दाद् द्विप्रदेशिकत्रयं यावदनन्तप्रदेशिकत्रयम्, तिगिच्छा स्त्री०(चिकित्सा) चिकित्सनं चिकित्सा / रोगप्रतीकारे, एतदचित्तत्रिकं द्रष्टव्यम. मिश्रत्रिकं तुमालात्रय गन्तव्यमा तत्र हि पुष्पाणि रोगप्रतीकारोपदेशे च / प्रव०। सा द्विविधा-सूक्ष्मा, बादरा च /
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________________ तिगिच्छा 2238 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिगिच्छा तत्र सूक्ष्मा औषधविधिवैद्यज्ञापनेन / बादरा स्वयं चिकित्साकरणेन, अन्यस्मात्कारणेन च। तत्र कश्विज्जराऽऽदिरोगाऽऽक्रान्तो गृही भिक्षाऽऽद्ययं गृहे साधुं प्रविष्ट दृष्ट्वा पृच्छति-भगवन् ! एतस्य मदीयव्याधेर्जानीषे कमपि प्रतीकारमिति। स प्राऽऽह-भोः श्रावक! यादृशस्तवाऽयं रोगस्तादृशो ममाऽप्येकदा संजात आसीत् / स चामुकेनौषधेन ममोपशमं गत इति / एवं चाज्ञस्य गृहस्थस्य रोगिणो भैषज्यकरणाभिप्रायोत्पादनादौषधसूचनं कृतम् / अथवा रोगिणा चिकित्सां पृष्टो वदति- 'किमह वैद्यो, येन रोगप्रतीकारं जाने?" इति। एवं चोक्ते रोगिणोऽनभिज्ञस्य सतोऽस्मिन् विषये वैद्य पृच्छेति सूचनं कृतमिति सूक्ष्मचिकित्सा / यदा तु स्वयं वैद्यभूय साक्षादेव वमनविरेचनक्वाथाऽऽदिकं करांति, कारयति वा अन्यस्मात्तदा बादरा चिकित्सेति / एवमुपकृतो हि प्रमुदितो गृही मम भिक्षां प्रकृष्टां दास्यतीति यतिरिमा द्विविधामपि कुरुते, न चैव तुच्छपिण्डकृते व्रतिनां कर्तुमुचितम्, अनेकदोषसंभवात् / तथाहिचिकित्साकरणकाले कन्दफलमूलाऽऽदिजीववधेन वाथकथनाऽऽदिपापव्यापारकरणादरायमो भवेत् / तथा-नीरुक कृतो गृहस्थः तप्तायो-गोलकसमानः प्रगुणीकृतदुर्वलान्धव्याघ्रवदनेकजीवघात कुर्यात् / तथा यदि देवदुर्योगात्साधुना चिकित्स्यमानस्थाऽपि रोगिणो व्याधेराधिक्य जायते, तदा कुपितस्तत्पुत्राऽऽदिराकृप्य राजकुला-- ऽऽदौ ग्राहयेत / तथाऽऽहाराऽऽदिलुब्धा एते इत्थमित्थं च वैद्यकाऽऽदि कुर्वन्ति, इति प्रवचनमालिन्यं स्यादिति / / 6 / / प्रव०६७ द्वार / पिं०। पञ्चा०। विशे०। द्रव्योषधाऽऽधुपयोगतः पीडापशमे, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ० ग०। चिकित्सया पिण्डोत्पादनम् / उत्पादनादोषभेदे, स्था०३टा०४उ०। पञ्चा०। चउव्यिहा तिगिच्छा पण्णत्ता। तं जहा-विझा, ओसहाई, आउरे, परियारए / ''चउव्विहा'' इत्यादि कण्ठ्यम् / नवरं चिकित्सा रोगप्रतीकारस्तस्याश्चातुर्विध्यं कारणभेदादिति। ___एतत् सूत्रसम्वादकमुक्तमपरैरपि"भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता, रोभी पादचतुष्टयम्। चिकित्सितस्य निर्दिष्टं, प्रत्येक तचतुर्गुणम् / / 1 / / दक्षो विज्ञातशास्त्रार्थो दृष्टकर्मा शुचिभिषक। बहुकल्पं बहुगुणं, सम्पन्न योग्यमोषधम् / / अनुरक्तः शुचिर्दक्षो. बुद्धिमान परिचारकः / आढ्यो रोगी भिषग्वश्यो, ज्ञापकः सत्त्ववानपि // 3 / / इति / इयं / द्रव्यरोगचिकित्सा। भावरोगचिकित्सा त्वेवम्"निव्विगइ निब्बलोमे, तवउव्वट्ठाणमेव उभामे। वेयावच्चाहिंडण-मंडलिकप्पट्टियाऽऽहरणं / / 1 / / " इति। निलं बल्लाऽऽदि, अवममूनम्, उद्धामो भिक्षाप्रमणम्, आहिण्डन देशेषु, मण्डलो सूत्रार्थयोः (कप्पट्टिया) श्रेष्ठियधूरिति। स्था० 4 04 उ०। जे भिक्खू तिगिच्छापिंडं भुंजइ, भुजंतं वा साइजइ // 64 / / रोगावणयणं तिगिच्छा, तं जोगं करेति गिहिस्स / तरस आणादिणी दोसा, चउलहु च पच्छित्तं। जे भिक्खु तिगिच्छपिंडं, भुंजेज सयं तु अहव सातिज्जे / सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे / / 170 / / नि०चू० 13 उ०। चिकित्साद्वारमाहभणइ य नाहं विद्धो, अहवा वि कहेइ अप्पणो किरियं / अहवा वि वेज्जयाए, तिविह तिगिच्छा मुणेयव्वा / / इह चिकित्सा रोगप्रतीकारो, रोगप्रतीकारोपदेशो वा विवक्षिता / ततः साधूनधिकृत्य त्रिविधा त्रिप्रकारा चिकित्सा ज्ञातव्या। तद्यथा-केनापि रोगिणा रोगप्रतीकारे साधुः पृष्टः सन्नाह-किमहं वैद्यः? एतावताच किमुक्तं भवति? वैद्यस्य समीपे गत्वा चिकित्सा प्रष्टव्या, इत्यबुधबोधनादेका चिकित्सा। अथवा रोगिणा पृष्टः सन्नेवमाह-ममाप्येवंविधोव्याधिरासीत्, स चामुकेन भेपजेनोपशान्तिमगमत्, एषा द्वितीया चिकित्सा / अथवावैद्यतया वैद्यीभूय साक्षात चिकित्सां करोति, एषा तृतीया। इहाऽऽद्ये द्वे चिकित्से सूक्ष्मे, तृतीया तु बादरा। तत्राऽऽद्यां व्याचिख्यासुराहभिक्खाइगओ रोगी, किं विजोऽहं ति पुच्छिओ भणइ। अत्थावत्तीऍ कया, अबुहाणं बोहणा एवं / / भिक्षाऽऽदो भिक्षाऽऽदिनिमित्त गतः सन् (रोगी इति) अत्र तृतीयार्थ प्रथमा, रोगिणा पृष्टः सन्नाह-किमहं वैद्यो येन कथयामि? एवं चोक्ते सति अर्यापत्त्या सामर्थ्यात, अबुधानां वैद्यस्य पार्श्वे गत्वा चिकित्सा कार्यत' इत्यजानता, बोधना अनन्तरोक्तस्यार्थस्य ज्ञापना कृता भवति। द्वितीयां व्याख्यानयतिएरिसयं चिय दुक्खं, भेसज्जेण अमुगेण पउणं मे / सहसुप्पन्नं व रुयं, वारेमो अट्ठमाईहिं। एतादृशमेव दुःखं दुःखकारणभूतं गण्डाऽऽदि, अगुकेन भेषजेन प्रगुणं नष्टवेदनमभूत्। तथा वयं सहसोत्पन्नामकस्मादुत्पन्नां रुजमष्टमाऽऽदिभिरियामः। "तत्थोप्पन्न रोग, अट्टण निवारए'' इत्यादिपरममुनिवचनप्रामाण्यात् / तस्मात् भवताऽपि तथा कर्तव्यमिति भावः / तृतीयां चिकित्सा प्रपञ्चयितुमाहसंसोधण संसमणं, नियाणपरिवजणं च जं तत्थ। आगंतु-धाउखोभे, य आमए कुणइ किरियं तु / / आगन्तुके धातुक्षोभे च सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा धातुक्षोभजे च आमये रोगे समुत्पन्ने सतितत्र यत्क्रियां करोति। तद्यथा-संशोधन हरीतक्यादिदानेन, पित्ताऽऽद्युपशमनं संशमनं, तथा निदानपरिवर्जन रोगकरेण परिवर्जन च। एषा तृतीया चिकित्सा। अत्र दोषानाहअस्संजमजोगाणं, पसाधणं कायघाओं अयगोलो। दुब्बलवग्घाऽऽहरणं, अब्भुदए गेण्हणुड्डाहो / / असंयमयोगानां सावद्यव्यापाराणां प्रसाधन सातत्येन प्रवर्तनम्दिं चिकित्साकरण, ततो गृहस्थस्तप्तायोगोलकसमानः, ततस्तेन नीरोगीभूतेन ये कायघाता यावज्जीव प्रवत्यन्ते, ते सर्वेऽपि साधुचिकित्साप्रवर्तिता इति / चिकित्साकरणंसातत्यनासंयमयोगानां निवन्धनम्। तथा चात्रदुर्वलव्याभदृष्टा
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________________ तिगिच्छा 2236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिगिच्छि न्तः / यथा-अटव्यामन्धो भक्ष्यमप्राप्नुवन दुर्वलो व्याघ्रः केनाप्या- दुच्छेन / एवं वाही वि अणागतं सुच्छेजो पेच्छा दुच्छेजो। जो सुत्तत्थेसु न्ध्यापनयनाय चिकित्स्यते, चिकित्सितः सन् प्रगुणीभूतः प्रथम- / गहियत्थो, गहणसमत्थो य जो गच्छोवग्गहकारी, कुलगणसंघकजेसु य तस्तस्यैव वैद्यस्य विघातं करोति / ततः शेषाणां बहूना जीवानाम् / पमाणं, तस्स एसा विधी। एवमेषोऽपि गृहस्थः साधुना चिकित्स्यमानः साधोः संयमप्राणान् जो पुण अण्णा पुरिसो तस्स इमा विधीहन्ति,शेषांश्च पृथिवीकायाऽऽदीनिति / यदि पुनः कथमपि चिकि जो पुण अपुष्वगहणे,उवग्गहे वा अपच्चलो एसिं। स्यमानस्यापि तस्यातिशयेन रोगस्योदयः प्रादुर्भावो भवति, अरहू उत्तरकरणे, तस्स जहिच्छाण उ णियोगो !|80 // ततोऽहमनेनातिशयेन रोगीकृत इति संजातकोपो राजकुलाऽऽदी अगिणवाणं सुत्तत्थाण गहणे असमत्थो, साधुवग्गस्स वा वत्थग्राहयति: तथा च सति उड्डाहः प्रवचनस्य मालिन्यमिति / पिं०। पायभत्तपाणओसदभेसज्जादि, एतेहिं उवग्गहं काउं असमत्थो / इमं वितियपदं उत्तरकरण-तवो, पायच्छित्तं वा, तत्थ वि असहू / एरिसस्स पुरिसस्स असिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे। इच्छाण णिओगो अवस्समणागय कायव्वं ति। नि०चू०१३ उ०। अद्धाणरोहए वा,जयणाए कारए भिक्खू / / 176 / / नचा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्ठिए। नि०चू०१३उ०। अदीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्थऽहियासए!|३२|| जे भिक्खू आरोगियपडिकम्मं करेइ, करतं वा साइजइ।४०। तेगिच्छ नाभिनंदेजा, संचिक्खऽत्त-गवेसए। आरोग्गो णिरुवहयसरीरो, मा मे रागो भविस्सति त्ति अणागय चेव एयं खु तस्स सामण्णं,जं न कुज्जा न कारवे / / 33 / / रोगपरिकम्मं करेति, तस्स चउलहुं आणाऽऽदिया य दोसा / / 40 / / चिकित्सां रोगप्रतीकाररूपां नाभिनन्देन्नानुमन्येत, अनुमतिनि-षेधाच जे भिक्खू आरोग्गे, कुजा हि अणागयं तु तेगिच्छं। दूरापास्ते करणकारणे, समीक्ष्यस्वकर्मफलमेव तद्रुज्यत इति सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 76 / / पर्यालोच्य / यद्वा-(संचिक्ख ति) "अचां संधिलोपौ बहुलम्" गतार्था। इत्येकारलोपे 'सचिक्खे' समाधिना तिष्ठेत, न कूजनकर्करायिइमेहि कारणेहिं अववादेण कुजा ताऽऽदि कुर्यात्, आत्मानं चरित्राऽऽत्मानं, गवेषयति मार्गयतिकथमय विहरणवायणआवा-सगाण मा मे वयाण वा पीला। मम स्यादित्यात्मगवेषकः / किमित्येवमत आह-एतदनन्तरमभिधाहोजाहि अकीरते, कप्पति हु अणागतं काउं॥७७।। स्यमान, (खु त्ति) खलु, सच यस्मादर्थः, ततो यस्मादेतत्तस्य श्रमणस्य, विहरणं जाव मासकप्पो ण पूरति ताव करेमि, मा मासकप्पे पुण्ण श्रामण्यं श्रमणभावो, यन्न कुर्यान्न कारयेत् / उपलक्षणत्वान्नानुमन्येत, विहरणस्स वाघातो भविस्सति, रोगे वा उत्पन्ने मा वायणाए वाघाओ प्रक्रमाचिकित्साम, जिनकल्पिकाऽऽद्यपेक्ष चैतत् / स्थविरकल्पिभविस्सइ, विविधाण वा आवासगजोगाणं रोगमुप्पण्णे कर्म असहमाणेहि कापेक्षया तु 'जन्न कुज्जा' इत्यादौ सावद्यमिति गम्यते। अयमत्र भावःहरितादिच्छेदणं अण्णं वा किं वि गिलणट्ठा वताइयारं करेजा,तो अणागयं यस्मात्करणाऽऽदिभिः सावद्यपरिहार एव श्रामण्य, सावद्याच रोगकाम कजति। प्रायशश्चिकित्सा, ततस्तान् च अभिनन्देत्, एतदप्यौत्सर्गिकम, अपवाद तस्तु सावद्याऽऽप्येषामियमनुमतैव / यदुक्तम्-"काहं अछित्तिं अदुवा जतो भण्णति अहीहं, तवोविहाणेण व उजमिस्सं / गणं व णीती य विसारइस्सं, असुओ असुगं कालं, कप्पति वाही ममं ति णं णातुं / सालंबसेवी समुवेति मोक्खं / / 1 / " इति सूत्रार्थः / उत्त० पाई० 210 / तप्पसमणी उ किरिया, कप्पति इहरा बहू हाणी॥७॥ ('गिहितिगिच्छा' शब्दे तृ० भागे 868 पृष्ठ गृहिचिकित्सानिषेधो द्रष्टव्यः) ममं जप्पसरीरस्स अमुगो वाही अमुगे काले अवस्समुप्पजति, तस्स चिकित्सा श्रीभगवत ऋपभस्योपदेशात्प्रवृत्ता। आ०म० अ०१ खण्ड। रोगस्स अणागयं चेव किरिया कजति, (इहर त्ति) उप्पण्ण-रोग किरियाए | तिगिच्छापिंड पुं०(चिकित्सापिण्ड) चिकित्सा वमनविरेचनवकन्जमाणीए बहू दोसा, दोसबहुत्ताओ य संजमहाणी भवति। स्तिकाऽऽदि कारयतो वैद्यभैषज्याऽऽदि सूचयतो वा पिण्डार्थ अणागयं कज्जमाणे इमे गुणाः चिकित्सापिण्डः / चिकित्सया पिण्डोत्पादनम् / उत्पादनादोषभेदे, अप्पपरअणायासो, न य कायवहो न यावि परिहाणी। ध०३अधि०। आचा। न य चमढणा गिहीणं, णहछेज्जरिणेण दिट्टतो // 76 / तिगिच्छासंहिया स्त्री०(चिकित्सासंहिता) चिकित्साशास्त्रे श्लोकस्थाअणागते रोगपरिकम्मे कज्जमाणे अप्पणो परस्सय अणायासे भवति। ननिदानशारीरचिकित्सितकल्पसंज्ञकायां मूलसंहितायाम्, सूत्र०२ कमेण फासुएण कजमाणे कायबधोण भवति। णय सुत्तत्थे आवस्सगाण श्रु०२० परिहाणी भवति। अणागतं जहालाभेण सणियं कज्जमाणे गिहीणं चमढणा | तिगिच्छासत्थ न०(चिकित्साशास्त्र) आयुर्वेद, स्था०८ठा०। ण भवति / किं चउविक्खितो वाही दुच्छेलो भवति / जहा रुक्खो तिगिच्छि न०(पुष्परजस्) ''गोणाऽऽदयः / / 8 / 2 / 174 / / इति अंकुरावत्थाए णहच्छेजो भवति, विवड्डितो पुण जायमूलो महाखंधो पुष्परजःशब्दस्य तिगिच्छ' इति निपातः। प्रा०२पाद। देशीशब्दो वा। कुहामेण विदुच्छेजो। रिणं पि अप्पमत्तओ सुच्छेजं, ववट्टियं दुगुणचउग्गुणं | पुष्परजसि, ज०४ वक्षः। द्वी०।
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________________ तिगिच्छिकूड 2240 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिणय तिगिच्छकूड पुं०(तिगिच्छकूट) चमरस्य उत्पातपर्वत, भ०२१०४ उ०। धृतिश्चात्राधिपत्यं परिपालयति। "से तेणट्टेणं'' इत्यादि प्राग्वत / जं०४ स्था०। (तद्वक्तव्यता ‘चमर' शब्दे तृतीयभागे 1113 पृष्ठ उक्ता) "दो वक्ष। तिगिच्छिकूडा।'' स्था०२ठा०३उ०। तिगिच्छिय पुं०(चिकित्सक) कित' रोगापनयने, स्वार्थे सन, ण्वुल। तिगिच्छिदह पुं०(तिगिच्छिहद) तिगिच्छिः पोष्परजः, तत्प्रधाना रोगापनयनकर्तरि वैद्ये, वाचा स्था०६ ठा०। ह्रदस्तिगिच्छिहृदः। निषधवर्षधरपर्वतमध्ये हदे, जम्बूगन्दरस्य दक्षिण | तिगिच्छी (देशी) कमलरजसि. दे०ना०५ वर्ग 12 गाथा। तृतीयहूदे, जा तिगुण न०(त्रिगुण) त्रयाणां समाहारः / साङ्ख्योक्ते प्रधाने, त्रिमिर्गुण्यते तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए 'गुम' संख्याने, घञ्। त्रिभिर्गुणिते, त्रिशवाच०॥ अनु०॥ ज० एत्थ णं महं एगे तिगिच्छिदहे णामं दहे पण्णत्ते / पाइणपडीणा- | तिगुणवंड त्रि०(त्रिगुणोत्कण्ड) त्रिगुण त्रीन् वारान यावदुत्पाब-ल्येन यए, उदीणदाहिणवित्थिपणे, चत्तारि जोअणसहस्साइं आया- ___कण्उन छण्टन येषां ते त्रिगुणोत्कण्डाः / त्रीन् वारान् कण्डिते, पिं०। मेणं, दो जोअणसहस्साइं विक्खंभेणं,दस जोअणाइं उव्वेहेणं, तिगुत्त त्रि०(त्रिगुप्त) तिसृभिरट्टालकोच्छूलकशतघ्नीसं स्थानीयाअच्छे सण्हे रययमयकूले। तस्स णं तिगिच्छिदहस्स चउद्दिसिं ऽऽदिभिर्मनीगुप्पयादिगुप्तिभिगुप्तम्, मयूरव्यसकाऽऽदित्वात् समासः। चतारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता / एवं०जाव आयामवि उत्त०६ अ०मनोवाकायकर्मभिर्गुप्त, ध०२ अधि०। दश०) पं०सूका क्खं भविहूणा जा चेव महापउमदहस्स वत्तव्वया, सा चेव आव० स०। गुप्ताऽऽत्मनि, स्था०६ टा०॥ त्रिस्रो गुप्तयो यत्र तत् त्रिगुप्तम्तिगिच्छदहस्स वि यत्तव्वा तं चेव पउमदहप्पमाणं अट्ठो जाव मनसा सम्यक प्रणिहितो , वाचाऽस्खलितान्यक्षराण्युचरन, तिगिच्छिवण्णाइंधिइअइच्छदेवी पलिओवमट्ठिई अ परिवसइ। कायेनाऽऽवत्तानविराधयन वन्दनकं करोति। प्रव०२ द्वार। दशा से एयटेणं गोयमा ! तिगिच्छिदहे / तस्स णं तिगिच्छिदहस्स मनोवाकायगुप्ते, अर्थात् अकुशलमनोवाक्कायप्रवृत्तिनिरोधिनि, एकग्रहाणे दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पवढा समाणी सत्त तजातीयग्रहणमिति न्यायात् कुशलमनोवाक्कायोद्दीपके, आ०म०१ जोअणसहस्साई चत्तारि अ एकवीसे जोअणसए एगं च अ०२ खण्ड। एगूणवीसई भागं जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंतामहया तिगोण त्रि०(त्रिकोण) त्रयः कोणा यस्य। त्रिकोटियुक्त पदार्थे वाचः। घडमुहपवित्तिएणं०जाव साइरेगं चउजोअणसइएणं पवारणं आ०म० पवडइ। एवं जा चेव हरिकंताए वत्तव्वया, सा चेव हरिए वि तिग्ग न० (तिग्म) 'तिज' -मग्। जस्य गः। तीक्ष्णे, तद्वति, त्रि०। वाचका णेयव्वा / जिभियाए कुंडस्स दीवस्स भवणस्स तं चेव पमाणं, पं०सं० अट्ठो वि भाणिअव्वो,०जाव अहे जगई दालइत्ता छप्पण्णाए तिग्ध न०(त्रिघ्न) त्रिगुणिते, ध०२अधिन सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरच्छिमं लवणसमुदं समप्पेइ, तं चेव पवहे अमुहमूले अपमाणं उव्वेहो अजो हरिकंताए०जाव तिघरंतरिय पुं०(त्रिगुहान्तरिक) त्रीणि गृहाणि अन्तरं भिक्षाग्रहणे येणं वणसंडसंपरिक्खित्ता॥ ते त्रिगृहान्तरिकाः। एकत्र गृहे भिक्षा गृहीत्वाऽप्यभिग्रहविशेषाद गृहत्य(तस्स णमित्यादि) तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहु मतिकम्य पुनर्भिक्षां गृह्णन्ति, न निरन्तरं, दिनद्रयान्तरं वा। तेषु, औ० मध्यदेशभागे अत्रान्तरे महानेकः तिगिच्छिः पौष्परजः, तत्प्रधानो तिचक्खु पुं०(त्रिचक्षुष) उत्पन्नज्ञानदर्शनधरे श्रमणे माहने, स्था०३ टा०४ उ०। ह्रदस्तिगिरिछहदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः। प्राकृते पुष्परजःशब्दस्य तिगिच्छि' इति निपातः। देशीशब्दो वा। अन्यत्सर्वं प्रागनुसारे-णेति। अथास्थाति तिच्छडिय त्रि०(त्रिच्छटित) त्रीन् वारान् छटिते, रा०। जी०। प्रदेश सूत्रेण सोपानाऽऽदिवर्णनायाऽऽह-(तस्रा णमित्यादि) तस्य तिट्ठाणकरणसुद्ध त्रि०(त्रिस्थानकरणशुद्ध) त्रीणि स्थानानि उरः तिगिच्छिहदस्य चतुर्दिक्षु चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञापानि / प्रभृतीनि, तेषु करणेषु क्रियायां शुद्धं त्रिस्थानकरणशुद्धम् / तस्मिन, एवमित्थं प्रकारेण हृदवर्णके क्रियमाणे यावच्छब्दोऽत्र कार्यवाच्य- तद्यथा- "उरःशुद्धं,कण्ठशुद्ध, शिरोविशुद्धं च। तत्र यदि उरसि स्वरः व्ययम, तेन यावत्परिपूर्णयव महापद्महृदस्य वक्तव्यता आयामविष्क स्वभूमिकानुसारेण विशालो भवति, तत उरोविशुद्धम्। स एव यदि कण्टे भविहीना, सैव तिगिच्छिदस्य वक्तव्या। एतदेव व्यक्त्या आचष्टे (तं वर्तितो भवति अस्फुटितश्व, ततः कण्ठविशुद्धम्। यदि पुनः शिरः प्रातः चेव इत्यादि) तदेव महापदादगतमेव पद्माना धृतिदेवीकमलाना सन् सानुनासिको भवति, ततः शिरोविशुद्धम् / यदि वा यत् उरःप्रमाणम् - एककोटीविशतिलक्षपञ्चाशत्सहसैकशतविंशतिरूपम्, कण्ठशिरोभिः श्लेष्मणाऽव्याकुलितैर्विशुद्धिर्गीयते, तत उरः - अन्यथाऽत्र पानामायामविष्कम्भरूपप्रमाणस्य महापद्महदगाप-बेभ्यो कण्ठशिरोविशुद्धत्वात् त्रिस्थानकरणविशुद्धम्। रा०ाजा जी०। द्विगुणत्वेन विरोधापातात्, हृदस्य च प्रमाणमुद्वैधरूपं योध्यम, आयाम- | तिणइय न० (त्रिनयिक) त्रिनयोपेते सूत्रे, यानि त्रैराशिकमतमवलम्ब्य विष्कम्भयोः पृथगत्तत्वादिति / अर्थस्तिमिच्छिहृदस्य वाच्यः। स चैवम् / द्रव्यास्तिकाऽऽदिनयत्रिकेण चिन्त्यन्ते। नं०। -- "से केणडेणं भंते ! एवं वुचइतिगिच्छिदहेतिगिच्छिदहे?" इत्यादि- तिणय त्रि०(त्रिनत) मध्यपार्श्वद्वयलक्षणस्थानत्रयेऽवनते. भ०३ श०६ प्राक सूत्रानुसारेण वाच्य, यावत्तिगिच्छिहदवाभानि उत्पलाऽऽदीनि | उ० जी०।
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________________ तिणसूय 2241 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्ति तिणसूय पुं० न०(तृणशूक) तृणाग्रे, भ० 15 श०। उत्त०१ अ०। ज्ञा०। आचा०ा क्षुदादिपरीषहोपनिपातसहिष्णुतायाम, तिणहत्थय न०(तृणहस्तक) तृणपूलके, भ०३ श०३उ०। द्वा०२७ द्वा०ा परीषहोपसर्गसहनरूपायां क्षान्ती, सूत्र०१ श्रु० अ०। लिणाम न०(त्रिनाम) त्रिभेदे नाम्नि, तत-"से किं तं तिणामे? लिणामे परीषहोपसर्गाऽऽदिदुःखविशेषसहने, आचा०१ श्रु० ८अ० 8 उ०) तितिहे पण्णते / तं जहा-दव्वणामे, गुणणामे, पज्जवणामे / " अनुग परीपहभदे, परीषहाऽऽदिजये तितिक्षा कार्या / आव०४ अ०) क्षमा, 'त पुण णामं तिविह, इत्थी पुरिसे णपुंसगे चेव।'' अनु०। (एषां त्रयाणां तितिक्षा, क्रोधनिरोध इत्येकार्थाः आ० चू०४ अ० उपा०ा परीषहाऽऽप्ररूपणा 'लिंगतिय' शब्दे द्रष्टव्या) दिजये, स०३४ समन तिणिस पुं०(तिनिश) वृक्षविशेषे, दश०६ अ० जी०। नि०चू०। औ०। तितिक्षाद्वारमाहस्था०। ज्ञा०। मधुपटले, दे०ना०५ वर्ग 11 गाथा। "इंदपुरिमिंददत्ते, बावीससुआ सुरिददत्ते / तिणु न०(तृण) "स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ||4|32|| इति महुराए जिअसत्तू, सयंवरो निव्वुईए उ।।१।। ऋकारस्थाने इकारोऽकारश्च भवति। तणु। तिणु। प्रा०१ पाद। नडाऽऽदी, अग्गिअए पव्वयए, वहली तह सागरे अबोधव्वे। खटे च / वाचा एगहिवसेण जाया, तत्थेव सुरिंददत्ते अ" ||2|| तिण्ण त्रि०(तीर्ण) अतिक्रान्ते, सूत्र०१ श्रु० 12 अ०। पारं गते, सूत्र०१ (कथा मनुष्यजन्मदृष्टान्तेषु द्रष्टव्या) श्रु०१० अ०। तीर्थकृत्सु, "तिण्णाणं तारयाणं।" रा०ातीर्ण इव तीर्णः, सुरेन्द्रदत्तकुमारस्य द्रव्यतितिक्षाभावे उपनयःसंसारसागरमिति गम्यते / औला तीर्णवत्तीर्णः विशुद्धसम्यग्दर्शनाऽऽदिलाभाद्भवार्णवमिति गम्यते। दश० 10 अ० विशेला उत्त०। कल्प०| "साधुकल्पः कुमारोऽत्र, कषायाश्चाग्निकाऽऽदयः / द्वारा ज्ञानदर्शनचारित्रपोतेन भवार्णवं तीर्णवन्तस्तीर्णा / ल०। सर्वभाव द्वाविंशतिकुमारास्तु. सुदुर्दान्ताः परीषहाः॥१॥ ज्ञास्तीर्णाः परमदुस्तरम् (आ०म० 1 अ०१ खण्ड / स० जी०) रागद्वेषौ पदाती तो, वेध्या राधाऽक्षितारका। संसारसागर, भाविनि भूतवदुपचारात्तीर्णाः। आचा०१ श्रु० 8 अ०६उ०। विशिष्टाऽऽराधना ज्ञेया, सिद्धिर्निर्वृतिदारिका'' // 2 // आ० का सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रपोतेन भवार्णवं तीर्णवन्तस्तीर्णाः, न चैषां तीर्णानां | आव०। आ०चू०। ( 'इंददत्त' शब्दे द्वितीयभागे 538 पृष्ठे वृत्तम्) पारगतानामावर्तः संभवति, तदभावे मुक्त्यसिद्धेः, एवं चन मुक्तः पुनर्भवे तित्त पुं०(तिक्त) श्लेष्माऽऽदिदोषहन्तरि निम्बाऽऽद्याश्रिते रसविशेषे, तथा भवतीति तीर्णत्वसिद्धिः / ध०२ अधि०। एते चाऽऽवर्तकालकारण- च भिषकशास्त्रम्- "श्लेष्माणमरुचिं पित्तं, तृषं कुष्ट विष ज्वरम् / वादिभिरनन्तशिष्यैक्तिोऽतीर्णाऽऽदय एवेष्यन्ते, 'काल एव कृत् स्नं हन्यातितो रसो बुद्धेः, कर्ता मात्रोपसेवितः||१अनु० ज०। कर्म। जगदावर्त्तयतीति वचनात् / एतन्निरासायाऽऽह-"तीर्ण भ्यः "एगे तित्ते।' स्था०१ ठा०। निम्बाऽऽदिवत्तिक्तरसोपेते, त्रि०ा प्रश्न०३ तारकेभ्यः।" ज्ञानदर्शनचारित्रपोतेन भवार्णवं तीर्णवन्तस्तीर्णाः, नैतेषां आश्रद्वार। ताज्ञा०उत्त०। प्रज्ञा० भ० वरुणगुने कुटजे, पुं०। वाचा लोविताऽऽवविभावावर्तः, निबन्धनाभावात्, न हास्याऽऽ तित्तग पुं०(तितक) तिक्त-संज्ञायां कन्। भूनिम्बे, (चिराता) चिरतिक्ते, युष्कान्तरवद्भावाधिकारान्तरं, तद्भावेऽत्यन्तमरणवद् भुक्त्यसिद्धेः, कृष्णखदिरे, निम्वे, इगुदीवृक्षे, तितार्थे, वाचा दशा नि०चूना पटोले, तत्सिद्धौ च तद्भावेन भवनाभावः, हेत्वभावात्, न हि मृतस्तद्-भावेन कटुतुम्ब्याम्, स्त्रीला टाप् / वाच०। भवति, मरणभावविरोधात्, एतेन ऋत्वावर्तनिदर्शनं प्रत्युक्तं, तित्तणाम(ण) न०(तिक्तनामन्) रसनामभेदे, यदुदयाजीवशरीरं निम्बान्यायानुपपत्तेः, तदावृत्तौ तदवस्थाभावेन परिणामान्तरायोगात, अन्यथा 5ऽदिवत्तिक्तं भवति / कर्म० १कर्मा तस्याऽऽवृत्तिरित्ययुक्तम्, तस्य तदवस्थानिबन्धनत्वात् / अन्यथा तदहेतुकत्चोपपत्तेः, एवं न मुक्तःपुनर्भव भवति, मुक्तत्वविरोधात्, सर्वथा तित्तरसणाम न०(तिक्तरसनाम) रसनाभेदे, यदुदयवशाजन्तुशरीरेषु तिक्तो भयाधिकारनिवृत्तिरेव मुक्तिरिति, तद्भावेन भावतस्तीर्णाऽऽदिसिद्धिः / रसो भवति / यथा निम्बाऽऽदीनां तत्तिक्तरसनामा पं० सं०३द्वार / कर्म०। (२८)ल तित्तऽलाउय स्त्री०(तिक्तालाबुक) कटुकतुम्बके, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। तिण्णसंसार त्रि०(तीर्णसंसार) लड्डितभवोदधौ, पो० तित्तविसारण न०(तिक्तविसारण) उज्जयन्तपर्वताऽऽसन्ने स्थलविशेष, तिण्हा स्त्री०(तृष्णा) "सूक्ष्म-श्न-ठण-स्न-द-दू-क्षणां पहः" ___ "गिरिवरमासन्नटिअं, अणीयं तित्तविसारण नाम। सिलबद्धगाढपीठे, वे // 8275 / इतिणकाराऽऽक्रान्तो हकारः। प्रा०१पाद। पिपा-सायाम, लक्खा तत्थ दम्माणं / 1 / " ती०३ कल्पना सं०५२ समन तित्ति स्त्री०(तृप्ति) घ्राणौ, विशे० प्रश्न०। अष्ट०। तितिक्ख त्रि० (तितिक्ष) तितिक्षते सह्यते इति तितिक्षम् / परीष- पीत्वा ज्ञानामृतं भुक्त्वा, क्रियासुरलताफलम्। हाऽऽदीनि, स्था०५ ठा०१उ०। साम्यताम्बूलमासाद्य, तृप्तिं याति परां मुनिः।।१।। तितिक्खण न०(तितिक्षण) अधिसहने, स्था०६ ठा०। स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी। तितिक्खमाण त्रि०(तितिक्षमाण) अधिसहति, सूत्र०१ श्रु०७अ०। ज्ञानिनो विषयैः किं तैयैर्भवेत् तृप्तिरित्वरी।।२।। तितिक्खा स्त्री०(तितिक्षा) सहने, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। क्षमायाम्, | या शान्तैकरसाऽऽस्वादाद्वेत्तृप्तिरतीन्द्रिया।
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________________ तित्ति 2242 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थ सा न जिह्वे न्द्रियद्वारा, षड् रसाऽऽस्वादनादपि / / 3 / / संसारे स्वप्नवन्मिथ्या,तृप्तिः स्यादाभिमानिकी। तथ्या तु भ्रान्तिशून्यस्य, साऽऽत्मवीर्यविपाककृत् / / 4 / / पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्ति, यान्त्यात्मा पुनरात्मना। परतृप्तिसमारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते / / 5 / / मधुराऽऽज्यमहाशाकाग्राह्येऽबाह्ये च गोरसात्। परब्रह्मणि तृप्तिर्या, जनास्तां जानतेऽपि न / / 6 / / विषयोर्मिविषोद् गारः, स्यादतृप्तस्य पुद्गलैः। ज्ञानतृप्तस्य तु ध्यान-सुधोद्गारपरम्परा / / 7 / / सुखिनो विषयाऽतृप्ताः, नेन्द्रोपेन्द्राऽऽदयोऽप्यहो! भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरञ्जनः / / 8 / / अष्ट०१० अष्टा तित्तिअ अव्य०(तावत्) तत्परिमाणमस्या त्रिका वाचला "यत्तदेतदोतोरित्तिअएतल्लुक्च" ||8/2 / 156|| इतितच्छब्दात् पररा डावादेरतोः परिमाणार्थस्य 'इत्तिअ' इत्यादेशो भवति / प्रा०२ पाद / साकल्ये, अवधौ, तत्परिमाणवति, त्रिका तित्तिकं खि(ण) त्रि०(तृप्तिकाङ्गिण) तृप्तिवाञ्छके, अष्ट०६ अष्ट। तित्तिर पुं०(तित्तिरि) "तित्तिरौ रः" ||8 / 1 / 10 / / इति तित्तिरशब्दे रस्येतोऽद्भवति। प्रा०१ पाद। पक्षिविशेषे,सूत्र०२ श्रु०२ अ०। प्रश्नः। उपा०। प्रज्ञा०। तित्तिरकरण न०(तित्तिरिकरण) तित्तिरिमुद्दिश्य यत्र किञ्चित्क्रियते तथा यत्र स्थाप्यते एवंभूते स्थाने, आचा०। तित्तिरलक्खण न०(तित्तिरिलक्षण) तित्तिरिस्वरूपप्रतिपादके ग्रन्थविशेषे, सूत्र०२ श्रु०२अ०) तित्ती (देशी) सारे, देखना०५ वर्ग 11 गाथा। तित्थ न०(तीर्थ) तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम्। द्रव्यतो नद्यादीनां रामोऽनपायश्च भूभागो, भौताऽऽदिप्रवचनं वा / भावतीर्थ तु सङ्घः / स्था०१ ढा०। आ०म०। श्रा०। अथ तीर्थशब्दार्थमाहतित्थं ति पुटवभणियं, संघो जो नाणचरणसंघाओ। इह पवयणं पि तित्थं, तत्तोऽणत्थंतरं जेण / / 1300 / तीर्यतऽनेनेति तीर्थ पूर्वमेवात्राप्युक्तम् / किमित्याह-सङ्कः / किं विशिष्टः? ज्ञानदर्शनचारित्रगुणसङ्घातः। इह तु प्रवचनमपि तीर्थमुच्यते यस्मात, ततः सङ्घातात्तदपि श्रुतज्ञानरूपत्वादनान्तरमेवेति।।१३८०।। विशेष संप्रति तीर्थनिरूपणायाऽऽहनाम ठवणा-तित्थं, दव्वतित्थं चेव भावतित्थं च / एक्के के पि य एत्तो- ऽणेगविहं होइ नायव्वं / (नाम ति) नामतीर्थ , स्थापनातीर्थ, द्रव्यतीर्थ, भवतीर्थं च / (एत्तो | ति) नामाऽऽदिनिक्षेपमात्रकरणादनन्तरमेकेकं नामतीर्थाऽऽदि अनेकविधं भवति ज्ञातव्यम् / तत्र नामतीर्थमनेकविधं, जीवाजीवविध याऽऽदिभेदात् / स्थापनातीर्थ साकारानाकारभेदात / द्रव्यतीर्थमागमाऽऽदिभेदात्। तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरतीर्थप्रतिपादनार्थमाहदाहोवसमं तण्हा-वुच्छेयण मलपवाहणं चेव / तिहिँ अत्थेहिँ निजुत्तं, तम्हा तं दव्वतो तित्थं / / इह ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्त आगमतो नोआगमतो वा द्रव्यतीर्थ मागधवरदामाऽऽदि परिगृह्यते, बाहादाहाऽऽदेरेवतत उपशमसद्भावात्। तथा चाऽऽह-दाहोपशममिति / दाहो बाह्यः संपातः, तस्य उपशमा यस्मिन तद्दाहोपशमम्। (तण्हावुच्छेयणं ति) तृषः पिपासायाः छेदनं, जलसंघातेन तदपनयात्, तथा मलो बाह्योऽङ्गसमुत्थः, तस्य प्रवाहणंप्रवाह्यतेऽनेनेति प्रवाहणं, जलेन तरय प्रक्षालनत्वात्। एवं त्रिभिरर्थः करणभूतैर्नियुक्तं निश्चयेन युक्तं प्ररूपितम् / यदि वा-प्राकृतत्वात सप्तम्यर्थे तृतीया। त्रिष्वर्थेषु नियोजन यरमा बाह्यदाहाऽऽदिविषयमेव तस्मात् मागधाऽऽदि द्रव्यतस्तीर्थ, मोक्षसाधकत्वाभावात्। संप्रति भावतीर्थमधिकृत्याऽऽहकोहम्मि उ निग्गहिए, दाहस्सोवसमणं हवइ तत्थं / लोहम्मि उ निग्गहिते, तहाए छेयणं होइ।। अट्ठविहं कम्मरयं, बहुएहिं भवेहि संचियं जम्हा। तवसंजमेण बज्झइ, तम्हा तं भावतो तित्थं / / इह भावतीर्थमपि आगमनोआगमभेदतोऽनेकप्रकार, तत्र नो आगमतो भावतीर्थ क्रोधाऽऽदिनिग्रहसमर्थ प्रवचनमेव गृह्यते। तथा धाऽऽहक्रोधे एव निगृहीत दाहस्य द्वेषानलजातस्यान्तः प्रशमनं भवति तथ्य निरुपचरितं, नान्यथा। तथा लोभ एव निगृहीते (तण्हार छयण होति त्ति) तृपोऽभिष्वा लक्षणस्य छेदन व्यपगमो भवति। तथाऽविधमष्टप्रकार कमेवजीवाना रञ्जनात् कर्मरजः, बहुभिर्भवैः संचितं तपःरायमेन बाध्यते शोध्यते यस्मात्तस्मात्तत्प्रवचनं भावतीर्थम्। दसणनाणचरित्तम्मि निउत्तं जिणवरेहिँ सव्वेहिँ। एएण होइ तित्थं, एसो अण्णो वि पजाओ। दर्शनज्ञानचारित्रेषु नियुक्तं नियोजितं सर्वैः ऋषभाऽऽदिभिः. जिनवरैस्तीर्थकृद्भिर्यस्मादित्यर्थभूतेषु त्रिष्वर्थेषु नियुक्तं तस्मात्तत्प्रवचनं भावतीर्थम् / अथवा-येन कारणेनेत्थंभूतेसु त्रिष्वर्थेषु नियुक्तमेतेन कारणेन प्रवचनं भावतरित्रस्थम्, एष त्रिस्थलक्षणस्तीर्थशब्दापेक्षयाऽन्यः पर्यायः। आ०म०वि०२अ०। अथ तीर्थशब्दार्थमाहतिज्जइ जं तेण तहिं, तओ व तित्थं तयं च दव्वम्मि। सरियाईणं भागो, निरवायो तम्मिय पसिद्धे / / 1026|| तरिया तरणं तरियव्वं च सिद्धाणि तारओ पुरिसो। बाहोडुवाइ तरणं, तरणिज्जं निन्नयाईयं / / 1027 / / यद् यस्मात्तीर्यते दुस्तर वस्तु तेन तस्मिँस्ततो सत्यतस्त:र्थमुच्यते / तच नामस्थापनाद्रव्य भावभेदाचतुर्विधम् / तत्र नामस्थापन सुगमे / द्रव्ये द्रव्यभूतमप्रधानभूतं सरित्समुद्राऽऽदीना निरपायः कोऽपि नियतो भागः प्रदेशस्तीर्थमुच्यते। तम्मिश्व प्रसिद्धे सिद्धे सत्यस्याऽऽपेक्षिकशब्दत्वादे तानि नियमात्सिध्यन्ति /
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________________ तित्थ 2243 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थ कानि? इत्याह-तरिता पुरुषः, तरणं बाहूडपाऽऽदि, तरणीय तु निम्नगाऽऽदिकमिति // 1027 / / कथं पुनरिदं द्रव्यतीर्थमित्याहदेहाइतारयं जं, बज्झमलावणयणाइमत्तं च। णेगंताऽणचंतियफलं च तो दव्वतित्थं तं / / 1028 / / यस्मादिदं देहाऽऽदिकमेव द्रव्यमानं तारयति-नद्यादिपरकूलमात्र नयति, न पुनर्जीव संसारसमुद्रस्य मोक्षलक्षण परकूल प्रापयति, अतोऽप्रधानत्वाद् द्रव्यतीर्थम् / तथा बाह्यमेव मलाऽऽदिद्रव्यमात्रमपनयति, न त्वन्तरङ्ग प्राणातिपाताऽऽदिजन्यकर्ममलम् / तथाअनैकान्तिकफलमेवेदं नद्यादितीर्थ, कदाचिदनेन नद्यादेस्तरणात्, कदाचितु तत्रैव मज्जनात् / तथाऽनात्यन्तिकफलं चेदम् / तथाहिएकदाऽनेन तीर्णमपि नद्यादिकं पुनरपि व तीर्यत इत्यनात्यन्तिकफलत्वन्। आत्मनो चाऽस्य नद्यादितीर्थस्य द्रव्यमात्रत्वेनाप्रधानत्वात् सर्वत्र द्रव्यतीर्थत्वं भावनीयमिति॥१०२८|| इह केषाञ्चिन्मतमाशङ्कय परिहरन्नाहइह तारणाऽऽइफलयं, ति पहाणपाणाऽवगाहणाऽऽईहिं। भवतारयं ति केई, तं नो जीवोवघायाओ / / 1026 / / सूणंगं पि व तमुदूहलं व न य पुण्हकारणं ण्हाणं / ण य जइजोग्गं तं ममणं व कामंगभावाओ / / 1030 // इह केचित्तीर्थका मन्यन्ते-नद्यादेः संबन्धि द्रव्यतीर्थ किल स्नानपानावगाहनाऽऽदिभिर्विधिवदा सेव्यमानं भवतारकं संसारमहामकराऽऽलयमापकं भवत्येव। कुतः? तारणाऽऽदिफलमिति कृत्वाशरीरसंतारणमलक्षालन-तृड्व्यवच्छेददाहोपशमाऽऽदिफलत्वादित्यर्थः / अनेन चाध्यक्षसमीक्षितदेहतारणाऽऽदिफलेन परोक्षस्यापि संसारतारणफलस्यानुमीयमानत्वादिति भावः / तदेतन्नोपपद्यते, स्नानाऽऽदेर्जी वोपघातहेतुत्वात, षड्ग सिधेनुशूलाऽऽदिवदिति। एतदुक्तं भवति-जीवोपधातहेतुत्वाद् दुर्गतिफला एव स्नानाऽऽदयः, कथं नु भवतारकास्ते भवेयुः, सूनावध्यभूम्यादीनामपि भवतारकत्वप्रसझादिति? इतश्वनद्यादि तीर्थ भवतारक न भवति, सूनाङ्गत्वात्सूनाप्रकारत्वात्, उदूपलाऽऽदिवदिति। न च पुण्यकारणं स्नानं, नापि यतिजनयोग्यं तत्, कामाङ्गत्वात्, मण्डनवत् अन्यथा ताम्बूलभक्षणपुष्पबन्धनदेहाऽऽदिधूपनाभ्यञ्जनाऽऽदयोऽपि च भुजङ्गाऽऽदीनां पुण्यहेतवः स्युः। न च देहतारणाऽऽदिमात्रफलदर्शनेन विशिष्टं भवतारणाऽऽदिकं फलमुपपद्यते, नियमिकाभावात्, प्रत्यक्षवीक्षितप्राण्युपमर्द - वाधितत्वाच, इत्याद्यभ्यूह्य स्वधियाऽत्र दोषजालमभिधानीयमिति || 1026 / / 1030 / / अथ परो ब्रूयात्किमित्याहदेहोवगारि वा तेण तित्थमिह दाइनासणाऽऽईहिं। महुमज्जमंसवेस्साऽऽदओ वि तो तित्थमावन्नं / / 1031 / / यदि प्ररको मन्येत-जाह्नवीजलाऽऽदिकं तीर्थमेव, दाहनाशपिपासोपशमाऽऽदिभिर्देहोपकारित्वात् / अत्रोच्यते-एवं सति ततो / मधुमद्यमांसवेश्याऽऽदयोऽपि तीर्थमापद्यन्ते, तेषामपि देहोपकारित्वाविशेषादिति। उक्तं द्रव्यतीर्थम्।।१०३१॥ अथ भावतीर्थमाह भावे तित्थं संघो, सुयविहियं तारओ तहिं साहू। नाणाऽऽइतियं तरणं, तरियव्वं भवसमुद्दोऽयं / / 1032 / / भावे भावविषयं, श्रुतविहितं श्रुतप्रतिपादितं, संघस्तीर्थ, तथा च भगवत्यमुक्तम्-'तित्थं भंते ! तित्थं, तित्थयरे तित्थं? गोयमा ! अरहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्थ पुण चाउय्वन्नो समणसंघो।" इति। इह च तीर्थसिद्धी तारकाऽऽदयो नियमादाक्षिप्यन्त एव / तत्रेह संघे तीर्थे तद्विशेषभूल एव तारकः साधुः, ज्ञानदर्शनचारित्रा-त्रकं पुनस्तरणं, तरणीयं तु भवसमुद्रः / इह च तीर्थतारकाऽऽदीनां परस्परतो अन्यता, अनन्यता च विवक्षावशतो बोद्धव्या। तत्र सम्यग्दर्शनाऽऽदिपरिणामाऽऽत्मकत्वात् संघः तीर्थ , तत्रावतीर्णानामवश्यं भवोदधितरणात् / तद्विशेषभूतत्वात् तदन्तर्गत एव साधुस्तर।ता, सम्यग्दर्शनाऽऽद्यनुष्ठानात् साधकतमत्वेन तत्करणरूपतामापन्नं ज्ञानाऽऽदित्रयं तु तरणम्।तरणीय त्वोदयिकाऽऽदिभावपरिणामाऽऽत्मकः संसारसमुद्र इति / / 10321 // कस्मात् पुनः संघो भावतीर्थमित्याहजंनाणदंसणचरित्तभावओ तविवक्खभावाओ। भवभावओ य तारेइ तेण तं भावओ तित्थं // 1033 // यद् यस्मात्तारयति पारं प्रापयति तेन तत् संघलक्षणं भावतस्तीर्थमिति संबन्धः / कुतस्तारयतीत्याह-तद्विपक्षभावादिति-तेषा ज्ञानदर्शनचारित्राणां विपक्षो-अज्ञानमिथ्यात्वाऽविरमणानि तद्विपक्षः, तल्लक्षणो भावो जीवपरिणामः तद्विपक्षभावः, तस्मात्तारयति / कुतः? इत्याह-ज्ञानदर्शनचारित्रभावतः ज्ञानाऽऽद्यात्मकत्वादित्यर्थः / यो हि ज्ञानाऽऽद्यात्मको भवति सोऽज्ञानाऽऽदिभावात्परं तारयत्येवेति भावः / न केवलमज्ञानाऽदिभावात्तारयति / तथा भवभावतश्च तारयति, भवः संसारस्तत्र भवनं भावस्तस्मादित्यर्थः / यस्मात्स्वयं ज्ञानाऽऽदिभावाऽऽत्मकः, तथा-ऽज्ञानाऽऽदिभावाद्भवभावाच भव्यांस्तारयति, तस्भादसौ संघो भावतीर्थमितीह तात्पर्यम्। उक्तंच"रागाऽऽद्यम्भाः प्रमादव्यसनशतचलद्दीर्घकल्लोलमालः, क्रोधेष्यावाडवाग्निर्मृतिजननमहानक्रचक्रोघरौद्रः। तृष्णापातालकुम्भो भवजलधिरयं तीर्यते येन तूर्ण, तद् ज्ञानाऽऽदिस्वभाव कथितमिह सुरेन्द्रार्चितैर्भावतीर्थम् / / 1 / / " इति // 1033 // उपपत्त्यन्तरमाहतह कोहलोहकम्मम-यदाहतण्हामलावणयणाई / एगतेणऽच्चंतं, च कुणइ सुद्धिं भवोघाओ।।१०३४॥ तथा क्रोधश्च, लोभश्व, कर्म च, तन्मयास्तत्स्वरूपा यथासंख्यं ये दाहतृष्णामला: / क्रोधो हि जीवाना मनःशरीरसंसारसन्तापजनकत्वाद्दाहः, लोभस्तु विभवविषयपिपासाऽऽविर्भावकत्वात् तृष्णा, कर्म पुनः पवनोद्भूतश्लक्ष्णरजोवत्सर्वतोऽवगुण्ठनेन मालिन्यहेतुत्वाद् मलः अतस्तेषां क्रोधलोभकर्ममयानां दाहतृष्णामलानां यदेकान्तेनात्यन्तं चापनयनानि करोति / तथा कर्मकचवरमलिनाद्भवौघात् संसारापारनीरप्रवाहात् परकूलं नीत्वा शुद्धि कर्ममलापनयनलक्षणां यतः करोति, तेन तत्सडलक्षणं भावतस्तीर्थमिति पूर्वसम्बन्धः / अपरमपि नद्यादितीर्थं तुच्छानैकान्तिकानात्यन्तिकदाहतृष्णामलाप
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________________ तित्थ 2244 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थ नयनं विदधाति / एतत्तु संघतीर्थमनादिकालालीनत्वेनानन्तानां दाहतृष्णामलानामैकान्तिकमात्यन्तिकं चापनयनं करोति, अत: प्रधानत्वाद्भावतीर्थमुच्यते, नद्यादितीर्थं त्वप्रधानत्वाद् द्रव्यतीर्थमिति भावः // 1034 / / अथवा प्राकृते 'तित्थं'' इत्युक्ते त्रिस्थमित्येतदपिलभ्यते, इत्येतदाहदाहोवसमाऽऽइसुवा, जतिसु थियमहव दंसणाऽऽईसु। तो तित्थं संघो चिय, उभयं व विसेसणविसेस्सं / / 1035 / / अथवा यद्यस्माद्यथोक्तदाहोपशमतृष्णाच्छेदमलक्षालनरूपेषु, यदि वा सम्यग्दर्शनज्ञानचारिखलक्षणेषु त्रिष्वर्थेषु स्थितंततस्त्रिरथं संघ एव, उभयं या संघत्रिस्थितिलक्षणविशेषणविशेष्यरूपं द्वयं त्रिस्थम्। इदमुक्तं भवतिकिं त्रिस्थं? संघः, कश्च संघः? त्रिस्थं, नान्यः, इत्येवं विशेषणविशेष्ययोरुभयं संलुलित त्रिस्थमुच्यत इति / / 1035 / / अथवा प्राकृते 'तित्थं' इत्युक्ते त्र्यर्थमित्यपि लभ्यते,इत्येतदर्श यन्नाहकोहग्गिदाहसमणादओ व ते चेव जस्स तिण्णऽत्था। होइ तियत्थं तित्थं, तमत्थसद्दो फलत्योऽयं / / 1036 / / क्रोधाग्निदाहोपशमलोभतृष्णाव्यवच्छेदकर्म मलक्षालनलक्षणारत एवानन्तरोक्तस्त्रयोऽर्थाः फलरूपा यस्य तथ्यर्थ ,तच संघ एव, तदव्यतिरिक्त ज्ञानाऽऽदित्रयं वा त्र्यर्थं प्राकृते तित्थमुच्यते। अर्थशब्दश्चाय कलार्थो मन्तव्यः / इदमुक्तं भवति-भगवान् संघः, तदव्यतिरिक्तज्ञानाऽऽदित्रयं वा महातरुरिव भव्यनिपेव्यमाणं क्रोधाग्निदाहशमनाऽऽदिकारवीनान् फलत्यतस्त्यर्थमुच्यत इति / / 1036 / / अथवा वस्तुपर्यायोऽत्रार्थशब्द इत्याहअहवा सम्मईसण-नाणचरित्ताइ तिण्णि जस्सऽत्था। तं तित्थं पुव्वोइयमिह अत्थो वत्थुपज्जाओ / / 1037 / / अथवा सम्यग्दर्शनाऽऽदयस्त्रयोऽर्था यस्य तल्यर्थम, अर्थशब्दश्चात्र वस्तुपर्यायः, त्रिवस्तुकमित्यर्थः / तच्च संघ एव, तदव्यतिरिक्तत्वात्, त एव वा सम्यग्दर्शनाऽऽदयस्त्रयोऽर्थाः समाहृताः व्यर्थ , संख्यापूर्वत्वात्. स्वार्थत्वाच्च द्विगोरिति / / 1037 / / तदेवं संघो भावतस्तीर्थ त्रिस्थं, व्यर्थ वेति प्रतिपाद्य साम्प्रतमिदमेव जैन तीर्थमभिप्रेतार्थसाधकं, नान्यदिति प्रमाणतः प्रतिपादयन्नाहइह सम्मंसद्धाणो-बलद्धिकिरियासभावओ जइणं। तित्थमभिप्पेयफलं, सम्मपरिच्छेयकिरिय व्य / / 1038|| इह जैनमेव तीर्थमभिप्रेतार्थसाधकमिति प्रतिज्ञा, सम्यग्श्रद्धानोपलब्धिक्रियास्वभावत्वात्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राऽऽत्मकत्वादित्यर्थः / इह यत् सम्यश्रद्धानोपलब्धिक्रियाऽऽत्मक तदिष्टार्थसाधक दृष्ट, यथा सम्यगपरिच्छेदवती रोगापनयनक्रिया, यच्चेष्टार्थसाधक न भवति, तत् सम्यग् श्रद्धानोपलब्धिक्रियाऽऽत्मकमपि न भवति, यथोन्मत्तप्रयुक्तक्रिया, तथा च शेषतीर्थानि / इदमुक्तं भवति-यथा करयचिन्निपुणवैद्यस्य सम्यग् रोगाऽऽदिस्वरूप विज्ञाय विशुद्धश्रद्धानवत आतुरस्य सम्यगौषधप्रयोगाऽऽदिक्रियां कुर्वतोऽभिप्रेतार्थसिद्धिर्जायते, एवं जैनतीर्थादपीति / / 1038|| अन्यतीर्थान्यप्येवंविधानि भविष्यन्ति? नेत्याह-- नाभिप्पेयफलाई, तयंगवियलत्तओ कुतित्थाई। वियलनयत्तणओ चिय, वियलाई वियलकिरिय व्य।।१०३६।। सुगताऽऽदिप्रणीतानि कुतीर्थानि नाभिप्रेतफलानि / कुत? इत्याह-- (तयंगेत्यादि) तस्याभिप्रेतार्थस्याङ्गानि तदङ्गानि सम्यग्ज्ञानाऽऽदीनि कारणानि, तद्विकलत्वात्तद्रहितत्वात्, नयविकलत्याच विकलानि तानि / सर्वेरेव ह्येकैकांशग्राहिभिर्नयैर्मिलितैः संपूर्णमनन्तधर्माऽऽत्मक वस्तु निश्चीयते; शेषतीर्थानि त्वेकव्यादिनयमात्रमतावलम्बित्वेन समानयर्थिकलान्येवेति तानि नयविकलानि, ततो न सम्पूर्णाभिप्रेतफलस्य साधकानीत्यर्थ: विकलक्रियावदिति; यथा भिषक्प्रतीचारकाऽऽतुरीषधाऽऽद्यन्यतरागविकला क्रिया न संपूर्णाऽभिप्रेतफलसाधनी, तथा कुतीर्थान्यपीति। तदेवं यथोक्तप्रकारेण द्रव्यभावतीर्थप्ररूपणा कृता // 1036 / / अथ प्रकारान्तरेण तत्प्ररूपणां कर्तुमाहअहव सुहोतारुत्तारणाइ दव्वे चउव्विहं तित्थं। एवं चिय भावम्मि वि, तत्थाऽऽइमयं सरक्खाणं / / 1040 / / तव्वणियाणं बीयं, विसयसुहकुसत्थभावणाधणियं / तइयं च बोडियाणं, चरिमं जइणं सिवफलं तु / / 1041 // इह द्रव्यतीर्थ चत्वारो भङ्गाः / तद्यथा-सुखावतारं सुखोत्तारम, सुखावतारं दुरुत्तारम्, दुःखावतारं सुखोत्तारम्, दुःखावतारं दुरुत्तारम् / 4 / एवं भावतीर्थेऽपीयं चतुर्भङ्गी द्रष्टव्या / इह च यत्र सुखेनैवावतरन्ति प्रविशन्ति प्राणिनस्तत्सुखावतारम्, सुखेनैव यत उत्तरन्ति-सुखेनैव यद् मुशन्तीत्यर्थः, तत्सुखोत्तारम्, इत्याद्य-भङ्ग वर्तितीभावार्थः / एवमन्यत्रापि। एतच सरजस्कानां शैलानां सम्बन्धि वेदितव्यम्। तथाहिरागद्वेषकषायेन्द्रियपरीष होपसर्गमनोवाक्कायजयाऽऽदिलक्षणस्य तथाविधदुष्करकष्टानुष्ठानस्य तैः क्रियमाणस्यादर्शनात, यथा कथञ्चिस्वरूपतयाऽपि च तैव्रतपरिपालनस्याभिधानात्सुखेनैव प्राणिनस्तदीक्षा प्रतिपद्यन्ते, इति तत्तीर्थस्य सुखावतारता / तच्छाखेषु च न तथाविधाऽऽवासकस्वभावा काचिन्निपुणा युक्तिरस्ति, यद्वासितान्तरात्मा पुमास्तद्दीक्षा न परित्यजेत्। किं च- "शैवो द्वादश वर्षाणि, व्रतं कृत्वा ततः परम् / यद्यशक्तस्त्यजेद्वापि, याग कृत्वा व्रतेश्वरे / / 1 / / ' इत्यादिना दीक्षात्यागस्य तैर्निर्दोषतयाऽप्यभिधानात्सुखेनैव तद्दीक्षा जन्तवः परित्यजन्ति, इति उत्तीर्थस्य सुखोत्तारतेति 1 / द्वितीयभङ्गवर्ति तीर्थ (तव्यणियाणं ति) सुगताना संबन्धि मन्तव्यम्। तथाहि'मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानकं चाऽपराहे। द्राक्षाखण्डे शर्करा चार्द्धरात्रे. मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः॥१॥" ''मणुन्नं भोयण भोचा, मणुण्णं सयणाऽऽसणं। मणुण्णंसि अगारंसि, मणुन्नं झायए मुणी।।१॥" इत्यादेस्तैरभिधानतो विषयसुखसिद्धेस्तत्तीर्थस्य सुखावतारताः तथा-कुशास्त्रोक्तनिपुणयुक्तिभिस्तीव्रवासनोत्पादाद, वतत्यागे च तैर्महतः संसारदण्डाऽऽदेः प्रतिपादनात्, तत्समीपगृहीतव्रतस्य दुष्परित्याज्यत्वात्तत्तीर्थस्य दुरुत्तारता / इमा च युक्ति भाष्यकार: स्वयमेव किशिदाह- "विसयसुह'' इत्यादि रतार्थम् /
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________________ तित्थ 2245 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थ दुःखावतरं सुखोत्तारमिति तृतीयं वोटिकानां दिगम्बराणाम् / तत्र नाग्न्यायादेर्लजाऽऽदिहेतुत्वेन दुरध्यवसेयत्वात्तत्तीर्थस्य दुःखावतारता / अनेषणीयपरिभोगकपायबाहुल्याऽऽदेस्तदसमञ्जसदर्शनात, नाग्न्याप्रदेश्वातिमजनीयत्वेन तत्पराभग्नानां तत्तीर्थस्य सुरखोतारतेति 3 / दुःखावतार दुरुत्तारमिति चरमं चतुर्थ मोक्षफलम् / जनानां साधूना रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गाऽऽदिजयस्य, तथाऽप्रमत्ततया समितिगुप्तिशिरोलशनाऽऽदिकाष्टाऽनुष्ठानस्य दर्शनात् तत्तीर्थराय दुःखावतारता। सुशास्त्रोक्तनिपुणयुक्तिभिस्तीव्रतरवासनोत्पादनात, व्रतत्यागे चातिमहतः संसाराऽऽदि-दण्डस्याभिधानात्तत्तीर्थरय दुरुत्तारता।४।अन्ये तु सुग्योत्तारता दुरुत्तारतां च सर्वत्र मुक्तिप्राप्तिमाश्रित्य व्याचक्षते, तत्र सरजस्कानां स्वल्पेनैवेश्वरोक्तानुष्ठानेन किल मुक्तिप्राप्त्यभ्युपगमात्रादत्तारं तीर्थ, सुखेनैवास्माद्भवार्णवमुत्तरन्तीति व्युत्पत्तेः / शाक्यानां तु दुरवापविशिष्टध्यानमार्गाद्योगिज्ञानोत्पत्त्यादिक्रमेण मुक्ति-प्राप्त्यभ्युपम्माद् दुःखोत्तारता / दुःखेनारतात्संसारमुत्तरन्ति इति कृत्वा / दो टेकान तु भित्ताशुद्धयादीना गौणत्वेनाभ्युपगमान्नाग्न्यलक्षणनिन्थित्वमात्रादेव मुक्त्यभ्युपगमात्सुखोत्तारता। साधूनां तु पूर्वोक्तकष्टानुष्ठानाद् मुक्त्याश्रयणाद् दुरुत्तारता। अवतारपक्षे तु सर्वत्र पूर्वोक्तव भावना; इत्यल विस्तरेणेति / / 1040 / / 1041 / / अत्र प्रेरकः प्राऽऽहनणु जं दुहावयारं, दुक्खोत्तारं च तं दुरहिगम्म / लोयम्मि पूइयं जं, सुहावयारं सुहुत्तारं // 1042|| ननु यद् दुःखावतारं च दुरुत्तार च तीर्थ तद् दुरधिगम्यम्, एवंभूतं च जनतीर्थ नवद्भिः प्रतिपादितम् / एतचायुक्तम्, एवं भूततीर्थस्य तरपक्रिया विधानित्वेनानिष्टार्थप्रसाधकत्वात, लोकप्रतीतिया-- धितत्वाच। तथा चाऽऽह-लोके हि यत्सुखावतारं सुखोत्तारं च तीर्थ, तत्पूजितं तदेवोपादेयम्, तरणक्रियाऽनुकूल्येनेष्टार्थप्रसाधकत्वात् / तस्मात् प्रथम एव भङ्गः श्रेयान इति प्रेरकाऽभिप्राय इति ॥१०४२सा अनोत्तरमाहएवं तु दव्वतित्थं, भावे दुक्खं हियं लभइ जीवो। मिच्छत्तऽणाणऽविरई-विसयसुहभावणाणुगओ।१०४३|| पडिवण्णो पुण कम्मा-णुभावओ भावओ परमसुद्धं / किह मोच्छिइ जाणतो,परमहियं दुल्लहं च पुणो / / 1044|| सत्यम्, द्रव्यतीर्थमवमेवेष्यते यर्थव त्वं बूधे, तस्य सुखप्राप्यत्वात्, सुखेनैव च नुच्यमानत्वादिति / भावतीर्थ तु नैवम्, तरय मोक्षहेतुत्वेन जीवाना परमहितत्वात्। यच मोक्षहेतुत्वेन हितं तद् दुःखं लभते जीवःमहता कष्टन तजीवः प्राप्नोतीत्यर्थः / कथंभूतो यस्मादेष जीवः? इत्याह(मिच्छत्त इत्यादि) यस्मादनादिकालालीनमिथ्यात्वाज्ञानाविरतिविषयसुखभावनाऽनुगतो जीवः, तस्मादित्थंभूतस्य जीवस्यानन्तसंसारदुःख व्यवच्छेदहेतुत्वान्निः सीमनिःश्रेयसापाप्तिनिवन्धनत्वाच परमहितं भावतीर्थमतिदुरवापत्वात् पूर्वोक्तकष्टानुष्ठानयुक्तत्वाच दुःखावतार", तथा दुरुत्तारं च। कुतः ? इत्याह-(पडिवण्णो इत्यादि) शुभकर्मपरिणत्यनुभावतः पुनः कथमपि परमशुद्धं भावतीर्थ भावतः परमार्थतः प्रतिपन्नो जीवः ‘परमहितं दुर्लभं च पुनरपि' एतजानन्नपि कथं नु नाम तन्गोक्ष्यति? कथं तत उत्तरिष्यति? न कथचिदित्यर्थः / अतो दुरुतारता तस्येति / किच-सद्वैद्यप्रयुक्तकर्कशक्रियोदाहरणतश्च भावतीर्थस्य दुःखावतारोत्तारता भावनीया / / 1043 / / 1044 / / कथम् ? इत्याहअइकक्खडं व किरियं, रोगी दुक्खं पवजए पढमं / पडिवन्नो रोगक्खयमिच्छंतो मुंचए दुक्खं / / 1045 / / इय कम्मवाहिगहिओ, संजमकिरियं पवज्जए दुक्खं / पडिवण्णो कम्मक्खयमिच्छंतो मुंचए दुक्खं / / 1046|| गाथाद्वयमपि सुबोधम् / / 1045 // 1046 // विशे०। (जम्बूद्वीपतीर्थवाच्यता 'जंबूदीव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1374 पृष्ठे गता) तित्थं भंते ! तित्थं, तित्थगरे तित्थं? गोयमा ! अरहा ताव णियमा तित्थगरे, तित्थं पुण चाउव्वण्णाइण्णे समणसंघे / तं जहा-समणा, सभणीओ, सावया, सावियाओय। (तित्थं भते ! इत्यादि) तीर्थ सङ्घ रूपं भदन्त ! (तित्थं ति) तीर्थशब्दवाच्यम, उत तीर्थकरस्तीर्थ तीर्थशब्दवाच्यम् ? इति प्रश्नः। अत्रोत्तरम-अर्हन् तीर्थकरस्तावत्तीर्थप्रवर्तयिला, न तु तीर्थमा तीर्थपुनः (बाउच्चपणाइण्णे समणसंघे त्ति) चत्वारो वर्णा यत्र स चतुर्वर्णः, स चासाबाकीर्णश्च क्षामाऽदिगुणातचतुर्वर्णाऽऽकीर्णः / क्वचित'चउताण समणसंधे' इति पठ्यते,तच व्यक्त-मेवेति / भ०२० श०८301 ('आणा' शब्दे द्वितीयभागे 116 पृष्ठे तीर्थविचारो द्रष्टव्यः) "भूर्भुवःस्वरवयीतार्थ, यत्किञ्चिन्नाम विद्यते। तत्सर्वमेव दृष्ट स्यात्, पुण्डरीकऽभिवन्दिते // 1 // ' ती०१ कल्प। तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थम् / रा०ा पशावालाआ०म० स०। आ०चू०संसारसागरं तरन्ति यन ततीर्थमाना "द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पूर्वः" ||8/260 // इति द्वितीयस्योपरि प्रथमः / प्रा०२ पाद। "हस्वः संयोगे" 18184 // इति दीर्घस्य ह्रस्वः। प्रा०१पाद। प्रवचने, आ०म०१ अ०१खण्ड। आ० चू। संसारसागरतारणकारणत्वाज्ज्ञानाऽऽदौ, स०३० सम०। तडागाऽऽदाववतारमार्गे ,स्था०१० ठा० श्रीवीरतीर्थ कियत्कालं यावद् भवतीति प्रश्ने, उत्तरम्-'जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुधिआ ! केथतिअंतित्थं अणुसज्जिस्सइ?" इति भगवतीसूत्रस्थपिशतितमशतकाप्टमोद्देशकानुसारेणैकविंशतिसहस्रवर्षाणियाचा श्रीवीरतीर्थ प्रवर्तिष्यते। किञ्च-"तित्थं भंते !तित्थं, तित्थयरे लिथ? गायमा ! अरहा ताव नियमा तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णाइण्णे समणसधे / लं जहा-समणा, समणीओ, सावगा, सातिआओ य।" इति भगवत्या 'दुप्पसहले चरणं, भणिअजं भगवया इह खेते। आणाजुत्ते-णमिणं, ण हाइ अाण तिवामाहो' // 1 // इत्युपदेशपदवचनाद्दुःप्रसहान्तयावचात्र भविष्यतीति / १०प्र० सेन०३ उल्ला अश्रुत्वाकेवलिनरतीर्थे भवन्ति, तीर्थविज्छदे वा भवन्ति? तथा पाक्षिकसूत्रवृत्तावतीर्थेऽन्तकृत्केवलिनो भून्या सिद्ध्यन्ति, भगवत्यां च नवमशतके तदाश्रित्य "तप्पक्खियसवयस्सतप्यक्खियसावियाएवा'' इत्यत्रधर्मोपदेशनदत्तेएकंप्रश्न ज्ञात
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________________ तित्थ 2246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थणिगार मेकं च मुक्त्वेत्यभिप्रायेणाऽश्रुत्वाके वलिनस्तीर्थ एव भवन्ति ? परिभोज्य परिधाप्य च दुकूलाऽऽदिभिर्विधापयति सुप्रतिष्ठधर्मिष्ठपूज्यअन्यचाश्रुत्वाकेवलिनः पञ्चदशभेदभिन्नानां सिद्धानां मध्ये कस्मिन भेदे भागवत्तरनरेभ्यः साधिपत्यतिलकम्, विदधाति सङ्गपूजामहम्, मार्ग समायान्ति? तेनैतद्विषये सर्व सविस्तरं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्-- च सम्यक सङ्घ संभालनां कुर्वन् प्रतिग्राम प्रतिपुरं च चैत्येषु अश्रुत्वाकेवलिनः श्रीभगवतीसूत्रवृत्त्यनुसारेण तीर्थ एव भवन्ति, नातीर्थे / स्नात्रपूजाध्वजप्रदानचैत् परिपाट्यद्यतुच्छोत्सवं जीर्णोद्धाराऽऽदिचिन्ता पाक्षिकसूत्रवृत्तौ तु अतीर्थसिद्धाधिकारे एते उक्ता (न) सन्तीति तथा च विदधन तीर्थ प्राप्नोति। तदर्शने चरत्नमौक्तिकाऽऽदिवर्धापनलपनेतीर्थसिद्धाऽऽदिमध्ये यथासंभवमवतरन्तीति। ३८२प्र०। सेन०३ प्सितमोदकाऽऽदिलम्भनिकाऽऽदि कुरुते / तीर्थ चाष्टप्रकाराऽऽदिमहाउल्ला०। तीर्थे यन्नालिकेराऽऽदि द्रव्यं मानितं, तदेव मुच्यतेऽन्यद्वेति पूजाविधिस्नात्रमालोद् घाटनघृतधाराप्रदाननवाङ्ग जिनपूजनदुकूलाप्रश्ने, उत्तरम्-श्रीशङ्केश्वराऽऽदितीर्थे मूलविधिना यदेव मानितमभूत्त- sऽदिमयमहाध्वजप्रदानरात्रिजागरणगीतनृत्याऽऽद्युत्सवकरणतीर्थोपवादेवमुच्यते, कारणे तु यथाऽऽदेयं न भवति तथा कर्त्तव्यमिति ! 442 सषष्ठाऽऽदितपोविधानविविधफलभोज्याऽऽदिवस्तुढौकनपरिधापनिप्रवासेन०३ उल्ला जला(तीर्थस्य प्रभावकाः पभावग' शब्दे वक्ष्यन्ते) कामोचनविचित्रचन्द्रोदयबन्धनदीपतेलघृतधौतिकेसरचन्दनागुरा(ऊर्ध्वलोकाऽऽदिषु शाश्वताशाश्वततीर्थानि 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे पुष्पचड़ेरिकाऽऽदिसमस्तपूजापकरणप्रदाननवदेवकु लिकाऽऽ१२४२ पृष्ठे उक्तानि) (भरतस्य राज्ञो वरदातीर्थगमनं भरह' शब्दे वक्ष्यते) दिविधापनसूत्रधाराऽऽदिसत्करणतीर्थाशातकनिवारणतीर्थरक्षकत्रिस्थ न०। त्रिषु वा क्रोधाग्निदाहोपशमलोभतृष्णानिरासकर्ममलापन संमाननतीर्थदायप्रवर्तनसाधर्मिकवात्सल्यगुरुसंघपरिधापनायनलक्षणेषु ज्ञानाऽऽदिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठन्तीति त्रिस्थम् / संघे, ऽऽदिभक्तिमार्गणदीनाऽऽधुचितदानाऽऽदिसत्कृत्यानि कुरुते। एवं यात्रां प्राकृतत्वात् 'तित्थं' स्था०१टा०। कृत्वा प्रौढप्रवेशोत्सवैः स्वगृहमागतो देवाऽऽह्वानाऽऽदिमह विधाय सर्वसंघ भोजनाऽऽदिसत्कारपूर्वकं विसय॑ वर्षाऽऽदि यावत्तीर्योपवाव्यर्थ न०। यो वा क्रोधाग्निदाहोपशमाऽऽदयोऽर्थाः फलानि यस्य साऽऽदिकरणाऽऽदिना दिनमाराधयति / इति तीर्थयात्राविधिः / यात्रा च तत्यर्थम् / अथवा-त्रयो ज्ञानाऽऽदयोऽर्था वस्तूनि यस्य तत्त्यर्थम् / कल्याणकदिवसेषु विशेषलाभकारी। यतः पञ्चाशके नवमविवरणेसंघे,स्था०१ ठाम "ता रहणिक्खमाणाइ वि, एते उ दिणे पमुच्च कायव्वं / तित्थअर पुं०(तीर्थकर) तित्थयर' शब्दार्थे , विशे। जं एसो चिय विसओ,पहाणमो तीऍ किरियाए / / 1 / " तित्थंकर पुं०तीर्थ(इ) कर तीर्थमुक्तलक्षणं तत् कुर्वन्त्यानुलोभ्येन तथाहेतुत्वेन तच्छीलतया वेति तीर्थकराः। अत्रानुखारः प्राकृतत्वात्। पा०। 'तीचिके'' इति वचनात् खप्रत्यये तीर्थशब्दाद् मुम्। नं० / शास्तृषु, "संवच्छरचाउम्मा-सिएसु अट्ठाहियासु अतिहीसु। पा(तीर्थकरस्य सर्वा वक्तव्यता 'तित्थयर' शब्दे 2247 पृष्ठतो वक्ष्यते) सव्वायरेण लग्गइ, जिणवरपूआतवगुणेसुं' / / 1 / / तित्थकरणाय न०(तीर्थकरज्ञात) जिनोदाहरणे, पञ्चा०६ विव० इत्यागमप्रामाण्यादेष्वपि दिवसेषु विशेषलाभकारी ज्ञेया। तित्थगर पुं०(तीर्थकर) 'तित्थयङ्क' शब्दार्थे , विशे० यात्रायाश्च दर्शनशुद्ध्यङ्गत्वात्प्रयत्नः श्रेयानेव। यतः-- तित्थजत्ता स्त्री०(तीर्थयात्रा) तीर्थगमने, ध०| "दसणमिह मोक्खंग, परमं एयस्स अट्ठहाऽऽयारो। अथ तीर्थयात्रास्वसूत्रम् निस्संकादी भणिओ, पभावणं तो जिणिंदेहिं / / 1 / / तत्र तीर्थानि श्रीशत्रुञ्जयोज्जयन्ताऽऽदीनि / तथा तीर्थकृजन्म पवरा पभावणा इह, असेसभावम्मि तीऍ सब्भावा। दीक्षाज्ञाननिर्वाणविहारभूमयोऽपि प्रभूतभव्यस्य शुभभावसंपादकत्वेन जिणजत्ता य तयंग, जं पवरं तप्पयासोऽयं ||2|| भवाम्भोनिधितारणातीर्थान्युच्यन्ते। तेषु सद्दर्शनविशु-द्ध्यर्थ विधि ध०२ अधि०(तीर्थयात्रायां पापकर्मयोगो भवति न वेति विचारः वजिनानुद्दिश्य महोत्सवः तीर्थयात्रा / तत्राऽयं विधिः-प्रथम मुख्यवृत्त्या 'आणा' शब्दे द्वितीयभागे 120 पृष्ठे कृतः) ब्रह्मव्रत काऽऽहारपादचाराऽऽद्यभिग्रहान् प्रतिपद्यते, सत्यामपि तित्थणिगार पुं०(तीर्थनिकार) शासनसंकोचे, स्या०। वाहनसामग्यां पादचारणाऽऽद्युचितमेव / यतः-''एकाहारी दर्शनधारी तथा चाहुराजीविकनयानुसारिण:यात्रासु भूशयनकारी। सञ्चित्त-परीहारी, पदचारी ब्रह्मचारी च // 1 // " "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम्। ततो राजानमनुज्ञापयति, प्रगुणीकरोति च यथाशक्ति युक्तिविशिष्टान गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः / / 1 / / " स्या०। यात्रार्थ देवाऽऽलयान् कारयति च विविधपटमण्डपप्रौढकटाहाऽ- केषाञ्चित्सत्यामपि कर्मक्षयानन्तरं मोक्षावाप्तौ तथाऽपि स्वतीऽदिचलत्कूपसरोवराऽऽदीन,सज्जयति शकटाऽऽद्यनेकविधिवाहनानि, र्थनिकारदर्शनतः पुनरपि संसाराऽभिगमनं भवतीदमाश क्याऽऽहनिमन्त्रवते च स बहुमानं श्रीगुरून् सङ्घ स्वजनवर्ग च,प्रवर्तयत्यमारिम्, अकुव्वओ णवं णत्थि, कम्मं नाम विजाणइ। करोति चैत्याऽऽदौ महापूजाऽऽदिमहोत्सवम्, ददाति दीनाऽऽदिभ्यो (अकुव्व ओ इत्यादि) तस्य अशेषक्रि यारहितस्य योगप्रत्यया दानम्, प्रोत्साहयति निराधारेभ्यो विभववाहनाऽऽदिदानविषयोद्धोषणा- भावास्किमप्यकुर्वतोऽपि, नवं प्रत्यग्रं, कर्म ज्ञानाऽऽवरणीयापूर्वम, आह्व यति कवचाङ्ग काऽऽद्युपस्कारार्पणाऽऽदिसमानपूर्वमने- ऽऽदिकं , नास्ति न भवति, कारणाभावात्कार्याभाव इति कृत्वा, कोद्भटभटान्, प्रगुणयति च गतिनृत्यवाद्याऽऽदि, ततः करोति शुभेऽह्नि कर्माभावे च कुतः संसाराभिगमनम्, कर्मकार्यत्वात्संसारस्य, प्रस्थानमङ्गलम् , तत्र सकलसमुदायं विशिष्टभोज्यताम्बूलाऽऽदिभिः / तस्य चोपरताशेषद्वन्द्वस्य स्वपरकल्पनाऽभावाद रागद्वेषर--
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________________ तित्थणिगार 2247 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर हिततया स्वदर्शननिकाराभिनिवेशोऽपि न भवत्येव। सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। तित्थपवत्तण न०(तीर्थप्रवर्तन) तीर्थप्रवर्तन, उत्सर्पिणीकाले चरमतीर्थकृतस्तीर्थ कियत्कालं प्रवर्तिष्यतीति प्रश्ने, उत्तरम्-पञ्चमाड़े विशतितमशतकेऽष्टमोद्देशे श्रीऋषभजिनकेवलपर्यायं यावदुत्सर्पिणीकाल चरमतीर्थकृतस्तार्थ प्रवर्तिष्यतीत्युक्तमस्तीति / 50 प्र०) सेन० 1 उल्लाग तित्थपवत्तणचम्यिणिबद्ध न०(तीर्थप्रवर्तनचरित्रनिबद्ध) नाट्यभेदे, राण श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य चरमपूर्वमनुष्यभवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणचरमभरतक्षेत्रावसर्पिणीतीर्थङ्करजन्माऽभिषेकचरमबालभाव-चरमयौवन-चरमकामभोग-चरमनिष्क्रमण-चरमतपश्चरण-चरमज्ञानोत्पाद-चरमतीर्थ-प्रवर्तन-चरमपरिनिर्वाणनिबद्ध चरमचरमनिबद्धं नाम द्वात्रिंशत्तम नाट्यविधिमुपदर्शयति राण तित्थपवित्तिहेउत्त न०(तीर्थप्रवृत्तिहेतुत्व) तीर्थ चतुर्विधश्रमणसङ्घः प्रवचनं वा, तस्य प्रवृत्तिरविच्छेदेन स्थितिः,तस्या हेतुत्वं कारणत्वम्। तीर्थप्रवर्तकतायाम्, ध०३ अधि०। तित्थभेय त्रि०(तीर्थभेद) तीर्थानि तीर्थभूतदेवद्रोण्यादीनि भिनत्ति द्विधा करोति तद् द्रव्यमोषणाय तत्परिकरभेदनेनेति तीर्थभेदः / ज्ञा०१ श्रु० २अ०। तीर्थमोषके तस्करे, तीर्थ (भेद)मोचके, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। तित्थमाहिया स्त्री० (तीर्थमृत्तिका) तीर्थमृत्तिकायाम, रा०| तित्थयर पुं०(तीर्थकर) तीर्यते भवोदधिरनेन अस्मात् अस्मिन्निति दा तीर्थ वक्ष्यमाणस्वरूपम्, तत्करणशीलः "कृञो हेतुताच्छील्या०-'' / / 3 / 2 / 20 / / इत्यादिना (पाणि०) टप्रत्यये तीर्थकरः। अर्हति, विशेला (1) तीर्थकरशब्दसिद्धिमाहअणुलोमहेउतच्छी-लया य जे भावतित्थमेयं तु / कुवंति पगासंति य, ते तित्थयरा हियत्थकरा / / 1047 / / हेतुताच्छील्यानुलोम्यतो ये भावतीर्थमेतत्कुर्वन्ति, गुणतः प्रकाशयन्ति च, ते तीर्थकराः / तत्र हेती-सद्धर्मतीर्थकरणहेतवः "कृञो हेतुताच्छील्याऽऽनुलोम्येषु'" ||3 / 2 / 20 / / इत्यादिना (पाणि०) टप्रत्ययविधानात्तीर्थकराः / यथा यशस्करी विद्येत्यादि / ताच्छील्येकृतार्थाऽपि तीर्थकरनामकर्मोदयतः समग्रप्राणिगणानुकम्पापरतया च सद्धर्मतीर्थदशकत्वात्तीर्थकराः, भरताऽऽदिक्षेत्रे प्रथमनरनाथकुलकराऽऽदिवदिति / आनुलोम्ये-स्त्रीपुरुषबालवृद्धस्थविरकल्पिकजिनकल्पिकाऽऽदीनामनुरूपोत्सर्गापवाददेशनया अनुलोमसद्धर्मतीर्थकरणात् तीर्थकराः, यथा-वचनकर इत्यादि। एवंभूतास्तीर्थकराः, अत एव सर्वासुमतां हितस्य मोक्षार्थस्य करणाद्धितार्थकराः / (1047) विशे। तीर्यते संसारसमुद्रोऽने-नेति तीर्थम्-द्वादशाङ्ग प्रवचनं, तदाधारः संघो वा, तत्करणशीलास्तीर्थकराः / वृ०२ उ०ा तीर्थमुक्तलक्षणं, तत्कुर्वन्त्यानुलोम्येन हेतुत्वेन तच्छीलतया चेति तीर्थकराः। आह च-''अणुलोमहेउ-तच्छी-लया यजे भावतित्थमेय तु / कुव्वति पगासंति य, ते तित्थयरा हियत्थकरा'" / / 1047 / / (विशे०) इति / स्था०१ ठा०। तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ, तच प्रवचनाऽऽधारः चतुर्विधः सड्डः, प्रथमगणधरो वा, तत्करणश लास्तीर्थकराः। ध०२ अधि०। रा०ा जी01 तीर्थमेव धर्मः, तस्याऽऽदिकर्तारस्तीर्थकराः, अथवा तीर्थानामादिकरिस्तीर्थकरः / तथा च प्रत्येकशः सुतीर्थानामादिकरिस्तीर्थकराः। आ०चू०५अ०। सङ्घकरणशीलत्वाद्दुःखा-- वतारदुःखोत्ताररूपपरा तीर्थकरणशीलाः तीर्थकारः। आ०म०१ अ०१ खण्ड। (2) तत्र च तीर्थकरणशीलास्तीर्थकरा अचिन्त्यप्रभावमहापुण्यसज्ञिततन्नामकर्मविपाकतः, तस्याऽन्यथा वेदनायोगात्, तत्र येनेह जीवा जन्मजरामरणसलिल मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीर महाभीषणकषायपाताल सुदुर्लइचमोहाऽऽवर्तरौद्रं विचित्रदुःखैरघदुष्ट श्वापदं रागद्वेषपवनविक्षोभितं संयोगवियोगवीचीयुक्तं प्रबलमनोरथवेलाऽऽकुलं सुदीर्घ संसारसागरं तरन्ति तत्तीणमिति, एतच यथावस्थितसकलजीवाऽऽदिपदार्थप्ररूपकम्, अत्यन्तानवद्यान्याविज्ञातचरणकरणक्रियाधार त्रैलोक्यगतशुद्धधर्मसंपद्युक्तमहासत्त्वाऽऽश्रयम्, अचिन्त्यशक्तिसमन्विताविसंवादिर्परमबोहित्थकल्पं प्रवचन, सहघो वा, निराधारस्य प्रवचनस्य असंभवात् / उक्तं च-"तित्थं भंते ! तित्थं, तित्थगरे तित्थं ?गोयमा ! अरहा ताव नियमा तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णो समणसंघो।" ततश्चैतदुक्तं भवति-घातिकर्मक्षये ज्ञानकैवल्ययोगात् तीर्थकरनामकर्मोदयतस्तत्स्वभावतया आदित्याऽऽदिप्रकाशनिदर्शनतः शास्त्रार्थप्रणयनाद्, मुक्तकैवल्ये तदसंभवेनाऽऽगमानुपपत्तेः, भव्यजनधर्मप्रवर्तकत्वेन परम्परानुग्रहकरास्तीर्थकरा इति तीर्थकरत्वसिद्धिः / (4) ल०। तरन्ति येन संसारसागरमिति तीर्थ प्रवचनं, तदव्यतिरेकाचेह संघस्तीर्थन, तत्करणशीलत्वात्तीर्थकराः। भ०१श० १उ० स०। नं० "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्" // 8 / 1 / 177 / / इति कलोपः / प्रा०१ पाद। "अवर्णो यश्रुतिः" ||8/1:180 / इत्यकारस्थाने यकारः / क्वचित्कस्य गः। प्रा०१ पाद। द्वादशाङ्ग प्रणायकेषु जिनेषु, प्रश्न०४ संव०द्वार / तीर्थमेव धर्मः, तस्याऽऽदिकाररतीर्थकराः, स्वतीर्थानामादिकर्तारः तीर्थकराः / आ०५०१ अ०। सत्त०। दर्श०। (तीर्थकृतामतिशयाः 'अइसेस' शब्द प्रथमभागे 31 पृष्ठे द्रष्टव्याः) (जिनानां परस्परं मोक्षान्मोक्षस्यान्तराणि प्रथमभागे 'अतर' शब्दे 66 पृष्ठे निरूपितानि) (3) तीर्थकृतामचेलवे संयमविराधनाऽऽदयो दोषाः कथं न भवन्ति? इत्यत्राऽऽहनिरुपमधिइसंघयणा, चउनाणाऽइसयसत्तसंपन्ना। अच्छिद्दपाणिपत्ता, जिणा जियपरीसहा सव्वे // 2581 // तम्हा जहुत्तदोसे, पावंतिन वत्थपत्तरहिया वि। तदसाहणं ति तेसिं,तो तग्गहणं न कुव्वंति // 2582 / / तह वि गहिएगवत्था, सवत्थतित्थोवएसणत्थं ति। अभिनिक्खमंति सव्वे, तम्मि चुएऽचेलया होंति // 2583|| यस्माजिनास्तीर्थकराः सर्वेऽपि निरुपमधृतिसंहननाश्छद्मस्थावस्थाया चतुर्मानाः, अतिशयसत्त्वसंपन्ना, तथा-अच्छिद्रः पाणिरेव पात्रं येषां ते अच्छिद्रपाणिपात्राः, जितसमस्तपरीषहाश्च। (तम्ह त्ति) तस्माद्वस्त्राभावे ये संयमविराधनाऽऽदयो दोषाः प्रोक्तारतान्यथोक्तान्दोषान्ते वस्त्रपानरहिता अपिन प्राप्नुवन्ति, इत्यतरतद्वस्त्राऽऽदिकंन साधनम्-न साधकं संयमस्य तेषा लीर्थकरा--णाम् / (तो त्ति)तस्मादकिश्चित्करत्वात् तस्याऽऽत्मगतसं
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________________ तित्थयर 2248 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर यमस्यानुपकारिणो वस्त्राऽऽदेहणं न कुर्वन्ति तीर्थकरा इति। ननु यदि तेवस्वाऽऽदेहणं न कुर्वन्तीत्युच्यते, तर्हि "सव्वे वि एगदूसेण णिगया।" (1022) इत्यादि विरुध्यते, इत्याशक्याऽऽह-(तह वीत्यादि) यदापि तत्संयमस्यानुपकारि वस्त्रम्, तथाऽपि सवस्त्रमेव तीर्थ "सवस्त्र एवं साधवस्तीर्थे चिरं भविष्यन्ति' इत्यस्यार्थस्योपदेशनं ज्ञापनं तदर्थ गृहीतैकवस्त्राः सर्वेऽपि तीर्थकृतोऽभिनिष्क्रामन्तीति। तम्मिश्च वस्त्रेच्युते कापि पतिते अचेलका वस्त्ररहितास्ते भवन्ति, न पुनः सर्वदा। ततः "अचेलकाश्च जिनेन्द्राः" इत्यैकान्तिक यदुक्तम, तद्भवतोऽनभिज्ञत्वसूचकमेवेति भावः / / 2581 // 2582||2583|| विशे०। (एतदन्यत् 'अचेलग' शब्दे प्रथमभागे 188 पृष्ठे गतम्) (तीर्थवरविषयकमाश्चर्यम 'अच्छेर' शब्दे प्रथमभागे 200 पृष्ठ गतम्) (तीर्थकृतामनवस्थितसमाचारत्वम् 'अट्टियकप्प' शब्दे प्रथमभागे 255 पृष्ठे गतम्) (4) अनुत्तरोपपातिकमुनयःवाविससहस्स नवसय, उसहस्स अणुत्तरोववाइमुणी। नेमिस्स सोल पासस्स वार वीरस्स अट्ठसया // 266 / / ते सेसाणमणाया, (270) // ऋषभस्य जिनस्य द्वाविंशतिसहस्राणि, तदुपरि नवशतानि 22600 / नेमिनाथस्य पोडशशतानि 1600 / पार्श्वजिनस्य द्वादशशतानि 1200 / ज्ञातनन्दनस्य वीरस्य अष्टौर्शतानि 800 ज्ञेयाः। निश्शेषजिनानां ते च सिद्धान्ताऽऽदिष्ववद्धत्वान्नोक्ताः॥ सत्त० 123 द्वार। (5) तीर्थपानामष्टादश दोषा इमे न भवन्ति पंचेव अंतराया, मिच्छत्तमनाणमविरई कामो। हासछग रागदोसा, निद्दाऽट्ठारस इमे दोसा / / 19 / / पञ्चान्तरायाः-दान 1 लाभ२ वीर्य 3 भोगो-४पभोगविषयाः 5; मिथ्यात्वमा 6 अज्ञानम 7 अविरतिः 8 कामो भोगेच्छाह, हास्यम 10 रतिः११ अरतिः१२शोकः 13 भयं 14 जुगुप्सा 15, रागः 16 द्वेषः 17 निद्रा 18 चैते दोषाः।। सत्त०६५ द्वार। प्रकारान्तरेणाप्यादश दोपानाहहिंसाऽऽइतिगं कीला, हासाऽऽइपंचगं च चउकसाया। मयमच्छरअन्नाणा, निद्दा पिम्मं इअव दोसा / / 163 / / हिंसा 1 मृषावादः२ अदत्तादानं 3: क्रीडा 4, हास्य 5 रतिः 6 अरतिः 7 शोकः८ भयंह, क्रोधः १०मानः 11 माया 12 लोभः 13. नद:१४ मत्सरः 15 अज्ञानम् 16, निद्रा 17 प्रेम 18 इति या दोषाः, एभी रहितास्तीर्थकराः / / सत्त०६६ द्वार। (6) अभिग्रहाःतेसिं अभिग्गहा दव्वमाइ वीरस्सिमे अहिया।। (170) अचियत्तगिहाऽवसणं, निच्चं वोसट्ठकाएँ मोणेणं। पाणीपत्तं गिहिऽवं-दणं अभिग्गहयणगमेयं / / 171 / / तेषां चतुर्विशतिजिनाना बहवोऽभिग्रहा द्रव्यक्षेत्रकालभावभेद-भिन्ना ज्ञेयाः / दीरजिनस्य इमे वक्ष्यमाणा अधिका भवन्ति / तानाहअप्रीतिभद् गृहे मया वासो न कार्यः 1, नित्यं मया व्युत्सृष्टकायन विहर्तव्यम् 2, मौनेन स्थयम् 3, करषारोण मया भोक्तव्यग 4, गृहिवन्दनं गृहस्थविनयोऽभ्युत्थानाऽऽदिर्न कार्यः 5 / एते पश्च वीरस्याधिका अभिग्रहाः / / सत्त०८२द्वार। आ०म०। कल्प। (7) आदेशसंख्याअंगाइसू अबद्धा, नाणीहिँ पयासिया य जे ते य। आएसा वीरस्स य, पंचसयाउणेगहऽन्नेसिं // 271 / / कुरुडकुरुडाण नरओ, वीरंगुट्टेण चालिओ मेरू / तह मरुदेवी सिद्धा, अञ्चतं थावरा होउं॥२७२।। बलयागारं मोत्तुं, सयंभुरमणम्मि सव्वआगारो। मीणपउमाण एवं,बहुहाऽऽएसा सुअअबद्धा॥२७३|| अङ्गोपाङ्गाऽऽदिसूत्रेष्ववद्धा न ग्रथिता ये भावाः पदार्शः, ज्ञानिभिः प्रकाशिताश्च ते हादेशा उच्यन्ते, ते च श्रीवीरस्य पशशतानि भवन्ति। अन्येपा जिनानां त्रयोविंशतिमितानामनेकधा। के ते आदेशा इत्याशड्कायां कांश्चिदादेशान् दर्शयति / यथा-कुरुटाकुरुटयोर्नरकगतिः 11 तथा वीरेण अगुप्ठेन मेरुपर्वतश्चालितः / तथा मरुदेव ऋषभजननी अनादिवनस्पतिभ्य उद्धृत्य मोक्षं गता, सा हि अनन्तकायादागत्य प्रत्येकभवे कदलीवनस्पतित्वेन समुत्पद्य ततो मृत्वा मरुदेवी जाता। ततश्चान्तकृत्केवलीभूय सिद्धा३ तथा वलयाऽऽकार मुक्त्वा स्वयंभूरमणसमुद्रे मत्स्यानां कमलानां च सर्वेऽप्याकारा भवन्ति 4 / इत्याद्यादेशाः सूत्रेऽबद्धाः। एवमन्येऽपि विज्ञेयाः।। सत्त०१२६ द्वार। आव० आ०चु० / आ०म०। (8) षडावश्यकम्सामइयचउविसत्थय-वंदणपडिकडणकाउसग्गाय। पचक्खाणं भणियं, जिणेहिँ आवस्सयं बद्धा / / 262 / / तं दुण्ह सइ दुकालं, इयराणं कारणे इओ मुणिणो। पढमियरवीरतित्थे, रिउजमरिउपन्न-वक्कजमा।।२६३|| सामायिकचतुर्विशतिस्तववन्दनकप्रतिक्रमणकायोत्सर्गरूपंषडावश्यक प्रथमान्तिमजिनयोस्तीर्थ सन्ध्यासमये प्रातःसमये च प्रतिदिनं द्विवारं भवति, ऋजुजडवक्रजडत्वान्मुनीनाम्, इतरेषां द्वाविंशतिजिनां तीर्थे - कारणे प्रतिक्रगणं भवति, मुनीनामृजुप्राज्ञत्वात् / / सत्तः 138 द्वार : वृका कल्पा (8) आहार:सव्वे सिसुणो अडयं, उत्तरकुरुफले गिहे उसहो। सेसाउ ओयणाई, भुंजिंसु विसिट्ठमाहारं / / 134|| सर्वे जिना बाल्यावस्थायां वर्तमाना अमृतमड् गुष्ठन्यस्तं बुभुजिरे, अपभ उत्तरकुरुद्भवानि फलानि गृहवासे बुभुजे, ज्योविंशतिजिना गृहवासे शाल्यादिमनोज्ञाऽऽहारं बुभुजिरे, व्रतग्रहणे कृते सति सर्वे तीर्थपा उद्गभाऽऽदिदोषरहितमाहारं कृतवन्तः।। सत्त० 52 द्वार / आचून आव०। बृन (10) जन्मावसरे इन्द्रकृत्यान्याह तत्र शक्रस्याऽऽसनचलनातए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणं चलइ। तए णं से सक्के जाव आसणं चलिअं पासइ, पासइत्ता ओहिपउंजइ, पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ, आभोएइत्ता हट्ठतुट्ठचित्ते आणं दिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहिअए धाराहयकयंबकुसुमचंधमाल इ
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________________ तित्थयर 2246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर व ऊससि अरोमकूवे विअसिअवरकमलनयणवयणे पचलि- "गच्छइ णं भो ! सके देविंदे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवओ यवरकडगतुडिअकेऊरमउडकुंडलहारविराइयवत्थे पालंब- तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करित्तए; तं तुब्भे वि णं देवाणुपलंबमाणघोलंतभृसणधरे ससंभडं तुरिअंचवलं सुरिंदे सीहा- प्पिआ ! सव्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं समुदएणं सव्वायरेणं सणाओ अब्भुढेइ,अब्भुट्टेइत्ता पायपीढाओ पचोरुहइ, पयो- सव्व-विभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वणाडएहिं रुहइत्ता वेरुलिअवरिट्ठरिट्ठअंजणनिउणोचिअमिसिमिसिंत- सव्वारोहेहिं सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारविभासाए सव्वदिव्यमाणिरयणमंडियाओ पाउयाओ उम्मुअइ, उम्मुअइत्ता एगसा तुटिअसद्दसण्णिणाएणं महया इड्डीए०जाव रवेणं णिययपरिडिअं उत्तरासंगं करेइ, करेइत्ता अंजलिपउलिअग्गहत्थे तित्थ- वारसंपरिवुडा सगाई 2 जाणविमाणवाहणाई दुरूढा समाणा यराभिमुहे सत्तठ्ठपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं | अकालपरिहीणं चेव सक्कस्स०जाव अंतिअंपाउन्भवह"। अंचेइ, अंचेइत्ता दाहिणजाणुं धरणितलंसि साहट्टु तिक्खुत्तो (11) आदेशानन्तरं 'हरिनैगमेषी' यत्करोति तदाहमुद्धाणं धरणितलंसि निवेसइ,निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, तएणं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहिवई सक्केणं देविदेणं पचुण्णमइत्ता कडगतुडिअथंभिआओ भुआओ साहरइ, साह- देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ०जाव एवं देवो ! त्ति आणाए रइत्ता करयलपरिग्गहि सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेइत्ता सकस्स अंतियाओ बयासी-णमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थ- पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव सभाए सुहम्माए यराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंड- मेघोघरसिअगंभीरमहुरयरसदा जोअणपरिमंडला सुघोसा घंटा, रीआणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोउत्तमाणं लोगणाहाणं लोग- तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तं मेघोघरसिअगंभीरहिआणं लोगपईवाणं लोगपज्जोअगराणं अभयदयाणं चक्खु- महुरयरसदं जोअणपरिमंडलं सुघोसं घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेइ। दयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं धम्म-- (12) घण्टास्वरेण यदभूतदाहदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचा- तए णं तीसे मेघोघरसिअगंभीरमहरयरसदाए जोअणपरिमंउरंतचक्कवट्टीणं दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा अप्पडिहयवरणा- डलाए सुघोसाए घंटाए तिक्खुत्तो उल्लालिआए समाणीए सोहम्मे णदंसणधराणं विअट्टछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं कप्पे अण्णेहिं एगणेहिं बत्तीसविमाणवाससयसहस्सेहिं अण्णाई तारयाण बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं सव्वन्नूणं सव्वद- एगूणाई बत्तीसं घंटासयसहस्साई जमगसमर्ग कणकणारावं रिसीणं सिवमयलमरुअमणंतमक्खयपदावाहमपुणरावित्ति काउं पयत्ताई पि हुत्था। सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं जिअभयाणं उल्लालनानन्तरं यदजायत तदाह-(तएणंतीसे मेघोघरसि-अगंभीरणमोऽत्थु णं भगवओ तित्थगरस्स आइगरस्स०जाव संपावि- महुर इत्यादि) तत उल्लालनानन्तरं तस्यां मेघोघरसितगम्भीरउकामस्स वदामि णं भगवं ! तं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भयवं! गधुरतरशब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुघोषायां घण्टायां त्रिःकृत्व तत्थगए इहगयं ति कट्ट वंदइ, वंदित्ता सीहासणवरंसि पुरत्था- उल्लालितायां सत्यां सौधर्मे कल्पे अन्येषु एकोनेषु द्वात्रिंशद् विमानरूपा भिमुहे सण्णिसण्णे / तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो ये आवासा देवावासस्थानानि तेषां शतसहस्रेषु। अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया। अयमेयारूवेजाव संकप्पे समुप्पज्जित्था-उप्पण्णे खलु भो ! अन्यान्यकोनानि द्वात्रिंशद् घण्टाशतसहस्राणि (जमगसमर्ग) युगपत् जंबुद्दीवे दीवे भगवं तित्थयरे, तंजीयमेयं तीअपचुप्पण्णमणा- कणकणारावं कर्तुं प्रवृत्तान्यप्यभवन् / अत्रापिशब्दो भिन्नक्रमत्वात गयाणं सकाणं देविंदाणं देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिम घण्टाशतसहस्राण्यपि इत्येव योजनीयः। करेत्तए, तं गच्छामि णं अहं पि भगवओ तित्थगरस्स जम्मण (13) अथ घण्टानादतो यत् प्रवृत्तं तदाहमहिमं करेमि त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता हरिणेगमेसिं पाय-- तए णं सोहम्मे कप्पे पासायविमाणनिक्खुडाऽऽवडिअसद्दताणीयाहियइं देवं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव ___घंटापडिसुआसयसहस्ससंकुले जाए यावि होत्था / / भो देवाणुप्पिआ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसिअगंभीरमहूरय- (तएणमित्यादि) ततो घण्टानां कणकणारावप्रवृत्तेरनन्तरं सौधर्मः कल्पः रसदं जो अणपरिमंडलं सुघोसं सुस्सरं घंटं तिक्खुत्तो प्रासादानां विमानानां वा ये निष्कुटा गम्भीरप्रदेशाः, तेषु ये आपतिताः उल्लालेमाणा उल्लालेमाणा महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणे संप्राप्ताः शब्दाः शब्दवर्गणापुद्गलाः,तेभ्यः समुत्थितानि यानि घण्टाप्रतिउग्धोसेमाणे एवं वयाहि-आणावइणं भो ! सक्के देविंदे देवराया- श्रुतानांघण्टासंबन्धिप्रतिशब्दानां शतसहस्राणि तैः संकुलो जातश्चाप्यभूत्।
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________________ तित्थयर 2250 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर किमुक्तं भवति? घण्टायां महता प्रयत्नेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलाः, तत्प्रतियातवशतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षुच दिव्यानुभावतः समुच्छलितैः प्रतिशब्दैः सकलोऽपि सौधर्मः कल्पो बधिर उपजायत इति। एतेन द्वादशयोजनेभ्यः समागतशब्दः श्रोत्रग्राह्यो भवति, न परतः, ततः कथमेकत्र तामितायां घण्टायां सर्वत्र तच्छब्दश्रुतिरूपजायत इति यदुच्यते तदप्राकृतमेवावसेयम्, सर्वत्र दिव्यानुभावतस्तथारूपशब्दोच्छलने यथोक्तदोषासंभवात्। (15) देवाश्चिन्तयन्ति-एवं शब्दमये सौधर्म कल्पे संजाते पदातिपतिर्यदकरोत्तदाहतए णं तेसिं सोहम्मकप्पवासीणं बहूणं देवाण य देवीण य एगंतरइपसत्तणिचपमत्तविसयसुहमुच्छियाणं सुस्सरघंटारसिअविउलबोलतुरिअचवलपडिबोहए कए समाणे घोसणकोऊहलदिण्णकण्णएगग्गचित्तउवउत्तभाणसाणं से पायत्ताणीआहिवई देवे तंसि घंटारवंसि निसंतपसंतंसि समंसि तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे महया महया सद्देणं उग्रोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं बयासी-हंत ! सुणंतु णं भवंतो बहवो सोहम्मकप्पवासी वेमाणिआ देवा देवीओ अ सोहम्मकप्पवइणो इमो वयण, हिअसुहत्थं आणवेइ णं भो ! सक्के, तं चेव० जाव अंतिअं पाउब्भवह।। (तएणमित्यादि) ततः शब्दव्याप्त्यनन्तरं तेषां सौधर्मकल्पवा-सिना बहूना वैमानिकां देवानां देवीनांच, एकान्ते रतौ रमणे प्रसक्ता आसक्ताः, अत एव नित्यप्रमत्ता विषयसुखेषु मूर्छिता अध्युपपन्नाः। ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः / तेषां सुस्वराया पङ्क्तिरथन्यायेन' सुघोषा घण्टा, तस्या रसितं, तस्माद्विपुलः सकलसौधर्मदेवलोककुक्षिम्भरि:यो बोलः कोलाहलः, तेन / अत्र तृतीयालोपः प्राकृतत्वात्। त्वरित शीघ्र चपले ससंभ्रमे प्रतिबोधने कृते सति आगामिकालसंभाव्यमाने घोषणे कुतूहलेन-किमिदानीमुद्घोषणं भविष्यतीत्यात्मकेन, दत्तौ कर्णो येस्तस्तथा। एकाग्र घोषणश्रवणकविषय चित्तं येषाते तथा / एकाग्रचित्तत्वेऽपि कदा-चिन्नोपयोगः स्याच्छाद्मस्थावस्थावशादत आह-उपयुक्तमानसाः शुश्रुषितवस्तुग्रहणपटुमनसः। ततो विशेषणसमासः / तेषाम्। स पदात्यनीकाधिपतिर्देवस्तस्मिन् घण्टारवे नितरां शान्तोऽत्यन्तं मन्दभूतः, ततः प्रकर्षेण सर्वात्मना शान्तः प्रशान्तः / ततश्छिन्नप्ररूढ इत्यादाविय विशेषणसमासः / तस्मिन् सति तत्र तत्र तस्मिन् 2 देशे महता महता शब्देन तारस्वरेण उद्घोषयन् उद्घोषयन एवमवादीत् / किमवादीदिल्याह-(हंत! सुणतुणमित्यादि) हन्त ! इतिहर्ष, स च स्वस्वामिनाऽऽदिष्टत्वाद् जगद् गुरुजन्ममहकरणार्थकप्रस्थाने समारम्भाच शृण्वन्तु भवन्तो बहवः सौधर्मकल्पवासिनो वैमानिका देवा देव्यश्च सौधर्मकल्पपतेरिद वचनं, हित जन्मान्तरकल्याणाऽऽवह, सुख तद्भवसंबन्धि तदर्थमाज्ञापयति भो देवाः ! शक्रः, तदेव ज्ञेयं यत् प्राकसूत्रे शक्रेण हरिनैगमेषिपुर उद्घोषयितव्यमादिष्ट, यावत् प्रादुर्भवत। (15) अथ शक्राऽऽदेशानन्तरं यदेव जातं तदाह-- तए णं ते देवा य देवीओ य एअमटुं सोचा हट्टतुट्ठ०जाव हिअया | अप्पेगइआ वंदणवत्तिअं, एवं पूअणवत्ति, सकारवत्तिअं, सम्माणवत्तिअं, दसणवत्तिअं, कोऊहलवत्तिअं,अप्पेगइया सकस्स वयणमनुवट्टमाणा, अप्पेगइआ अण्णमण्णं मित्तमणु-वट्टमाणा अप्पेगइया जीअमेयं एवमादि त्ति कट्ट०जावपाउन्भवति / / (तएणमित्यादि) ततस्ते देवा देव्यश्च एतमनन्तरोदितमर्थं श्रुत्वा हृष्टतुष्टा यावद्धर्षवशविसर्पद् धृदयाः / अपिः संभावनायाम्, एककाः केचन वन्दनमभिवादनं प्रशस्तकायवाहमनः प्रवृत्तिरूपं तत्प्रत्ययं तदस्माभिस्त्रिभुवनभट्टारकरय कर्तवयमित्येवं निमित्तम् / एवं पूजनप्रत्ययंपूजन गन्धमाल्याऽऽदिभिः समभ्यर्चनम्। एवं सत्कारप्रत्ययंसत्कारः स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरणम्। संमानो मानसप्रीतिविशेषः, तत्प्रत्यय दर्शनमदृष्टपूर्वस्य जिनस्य विलोकनं तत् प्रत्ययं, कुतूहलं तत्र यत्तेनास्तत्प्रभुणा किं कर्तव्य-मित्यात्मकम्, तत्प्रत्ययम्, अप्येककाः शक्रस्य वचनमनुवर्तमानाः, न हि प्रभुवचनमुपेक्षणीयमिति भृत्यधर्ममनुश्रयन्तः। अप्येकका अन्यमन्यं मित्रमनुवर्तमानाः, मित्रगमनानुप्रवृत्ता इत्यर्थः। अप्येकका जीतमेतद् यत् सम्यग्दृष्टिदेवैर्जिनजन्ममहे वतनीयम् / एवमादीत्यादिकमागमननिमित्तमिति कृत्वा चित्तेष्वधार्य, यावच्छब्दात् "अकालपरिहीणं चेव सक्कस्स देविंदस्स देवरणो'' इति ग्रह्यम्। अन्तिकं प्रार्दुभवन्ति। (16) इन्द्रः पालकमादिशति-अथ शक्रस्येतिकर्तव्यमाह-- तए णं से सक्के देविंदे देवराया ते वेमाणिए देवे अ देवीओ अ अकालपरिहीणं चेव अंतिअंपाउब्भवमाणे पासइ, पासइत्ता हटे पालयं णामं आभिओगिअंदेवं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसण्णिविट्ठ लीलट्ठिअसालभंजिआकलिअं ईहामिअउसभतुरगणरममरविहगबालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं खंभुग्गयवइरवेइआपरिगयाभिरामं विजाहरजमलजुअलजंतजुत्तं पि व अच्चीसहस्समालिणीरूवगसहस्सकलिअंभिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोअणलेसं सुहफासं सस्सिरीअरूवं चलचलिअमहुरमणहरसरंसुहकं तं सुहकं तं दरिसणिज्ज णिउणोचिआमिसिमिसिंतमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्तं जोयणसहस्सवित्थिण्णं पंचजोअणसयमुव्विद्धं सिग्घतुरिअजइणं णिव्वाहिं दिव्वं जाणविमाणं विउव्वाहि, विउव्वाहित्ता एअमाणत्तिअं पचप्पिणाहि।। (तएणं इत्यादि) ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा तान बहून वैमानिकान देवान देव्यश्च (अकालपरिहीण चेवेति) पूर्ववत् / अन्तिकं प्रादुर्भवत उपतिष्ठमानान् पश्यति / दृष्ट्वा च-'हट्ट'' इत्येकदेशेन सर्वोऽपि हर्षाऽऽलापको ग्राह्यः / पालकं नाम विमानविकुर्वणाधिकारिणमाभियोगिकं देवं शब्दयति, शब्दयित्वा च एवमवादीत् / यदवादीत्तदाह (खिप्पामेव त्ति) इदं यानं विमानवर्णकं प्राग्वत् / नवरं योजनशतसहसविस्तीर्णमित्यत्र प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नं योजनलक्षं ज्ञेयम् / ननु वैक्रियप्रयोगजनितत्वेनोत्सेधाइ गुलनिष्पन्नत्वमप्यस्य कुतो नेति चेत् ? 'नगपुढविविमाणाइसु पमाणगुलेप तु" इति वचनादर प्रमाणाड् गुलनिष्पन्नत्वं युक्तिमद् 'पुढविविमाणाइ' इति वचनं
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________________ तित्थयर 2251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर शाश्वतदिमानापेक्षयेति वाच्यम् / अस्योत्सेधाङ्गुलप्रमाणनिष्पन्न चेद जम्बूद्वीपान्तःसुखप्रवेशनीयत्वेन नन्दीश्वरविमानसंकोधनस्य वैया - ऽपत्तेः / तथा श्रीस्थानाङ्गे चतुर्थाध्ययने "चत्तारि लोगे समा पण्णत्ता। त जहा-अपइट्टाणा णरए जंबुद्दीवे दीवे पालए जाणविमाणे सव्वदृसिद्धे महाविमाणे / " इत्यत्राऽपि पालक विमानस्य जम्बूद्वीपाऽऽदिभिः प्रभाणतः समत्वं प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नत्वेनैव संभवतीति दिक् / तथापाशतयो जनोचंशीघ्रत्वरितजवनम्, अतिशयेन वेगवदित्यर्थः। निर्वाहि प्रस्तुतकार्यनिर्वहणशीलम्। पश्चात् पूर्वपदेन कर्मधारयः / एवंविधं दिव्यं यानविमान विकुर्वस्व, विकुर्व्य च एतामाज्ञप्ति प्रत्यर्पयकृतकृत्यो निवेदय इत्यर्थः। (17) पालकस्तथैव करोति वर्णकयुक्त विमानम् तदनु यदनुतिष्ठति स्म पालकस्तदाहतएणं से पालए देवे सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठ०जाव वेउव्विअसमुग्घाएणं समोहणित्ता तहेव करेइ / तस्स णं दिव्यस्स जाणविमाणस्स तदंतिओ तिसोवाणपडि-- रूवगा वण्णओ / तेसि णं पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं पत्ते तोरणावण्णओ०जाव पडिरूवा। तस्स णं जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे, से जहा-णामए आलिंगपुक्खरेइ वा०जाव दीविअचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलकसहस्सवितते आवडपव्वावडसेढी सुत्थिअसोवत्थिअबद्धमाणदूस-माणवमच्छंढमगरंडजारमारफुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवसंतलयपउमलयभक्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीई-एहिं सउज्जोएहिं णाणाविहपंचवण्णेहि मणीहिं उवसोभिए। तेसिंणं मणीणं वण्णे गंधे फासे अभाणिअव्वे, जहा रायप्पसेणइमे।। (तए णं से पालए देवे सक्केणमित्यादि) ततः स पालको देवः शक्रेण देवराज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्टो यावद्वक्रियसमुद्घातेन समवहत्य तथैव करोति, विमानं रचयतीत्यर्थः / अथ विमानस्वरूपवर्णनायाऽऽह-(तस्स गमित्यादि) इति सूत्रद्वयी व्यक्ता। अथ तभूमिभाग वर्णयन्नाह-(तस्स णं इत्यादि) इदं प्राग्वद्ज्ञेयम्, नवर मणीनां वर्णो गन्धः स्पर्शश्व भणितव्यो, यथा राजप्रश्नीये द्वितीयोपा) / अत्राऽपि जगतीपद्मवरवेदिकावर्णन मणिवर्णाऽऽदयो व्याख्याताः, ततोऽपि वा बोधव्याः। (18) भूमिभागवर्णनम्-अथ प्रेक्षागृहमण्डपवर्णनायाऽऽहतस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पिच्छाघरमंडवे अणेगखंभसयसण्णिविट्ठवण्णओ०जाव पडिरूवे, तस्स उल्लोए पउमलयाभत्तिचित्तेजाव सव्वतवणिजमए०जाव पडिरूवे। (तस्स णमित्यादि) यावच्छब्दग्राहां, व्याख्या च यमकराजधानीगतसुधरिभाऽधिकारतो ज्ञेया। उपरिभागवर्णनायाऽऽह-( तस्स | उल्लोए इत्यादि) तस्योल्लोच उपरिभागपद्मलताभक्तिचित्रः, यावत् / सर्वात्मना तपनीयमयम्, प्रथमयावच्छब्देन अशोकलताभक्तिचित्र इत्यादि परिगहः / द्वितीययावच्छब्दात् 'दसण्हं'' इत्यादिविशेषणग्रहः / अत्र राजप्रश्नीये सूर्याभयानविमानवर्णकऽक्षपाटकसूत्रं दृश्यते, परं यहुष्येतत्सूत्राऽऽदर्शषु अदृष्टत्वान्न लिखितम्। (16) अथात्र मण्डपमणिपीठिकावर्णनायाऽऽहतस्स णं मंडवस्स बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेशभागंसि महं एगा मणिपीढिया अट्ठजोअणाई आयामविक्खं भेणं, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, सध्वमणिमयी / वण्णओ / तीए उवरि महं एगे सिंहासणे / वण्णओ / तस्सुवरि महं एगे विजयदूसे सव्वरयणामए। वण्णओ / तस्स मज्झदेसभागे एगे वइरामए अंकुसे, एत्थणं महं एगे कुंभिमुत्तादामे, से णं तदद्भुच्चत्तप्पमाणमित्तेहिं चउहिं अट्ठकुंभिक्के हिं मुत्तादामेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते / ते णंदामा तवणिजलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिआ णाणामणिरयणविविहहारऽद्धहारउवसोभिआ समुदया ईसिं अण्णमण्णं संपत्ता पुटवाएहिं वाएहिं मंदं मंदं एइज्जमाणा एइज्जमाणा०जाव निव्वुइकरेणं ते पएसे आपूरेमाणा आपूरेमाणा०जाव अईव उवसोभेमाणा अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति। (तस्स णमित्यादि) व्यक्तम् / (तीए उवरि इत्यादि) एतद् व्याख्या विजयद्वारस्थप्रकटकप्रासादगतसिंहासनसूत्रबदवसेया / (तेणमि-- त्यादि) इदं सूत्र प्राक् पावरवेदिकाजालवर्णके व्याख्यातमिति ततो वाध्यम / अत्र प्रथमयावत्पदात्-''वेइज्जमाणा 2 पलंबमाणा 2 पजलमाणा 2 उरालणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमण्ण'' इति संग्रहः / द्वितीययावत्पदात्-सिरीए इति ग्राह्यम्। (20) संप्रत्यत्राऽऽस्थाननिवेशनप्रक्रियामाहतस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं; एत्थ णं सक्कस्स चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणं चउरासीइभद्दासणसाहस्सीओ, पुरच्छिमेणं अट्ठण्हं अग्गमाहिसीणं, एवं दाहिणपुरच्छिमेणं अब्भंतरपरिसाए दुवालसण्हं देवसाहस्सीणं दाहिणेणं मज्झिमाए परिसाए चउदसण्हं देवसाहस्सीणं, दाहिणपञ्चच्छिमबाहिरपरिसाए सोलसण्हं देवसाहस्सीणं, पचच्छिमेणं सत्तण्हं अणीआहिवईणं; तए णं तस्स सीहासणस्सा चउदिसिं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, एवमाइ विभासिअव्वं, सूरिआभगमेणं०जाव पचप्पिणंति।। (तस्रा ण इत्यादि) तस्य सिंहासनस्य पालकविमानमध्यभागवर्तिनोऽपरोत्तरायां वायव्यामुत्तरस्याम्, उत्तरपूर्वायामशान्याम, अत्रान्तरे शक्रस्य चतुरशीतेः सामानिकसहस्राणां चतुरशीतिभद्रासनसहरत्राणि, उक्तदिनये चतुरशीतिभद्रासनसहस्राणीत्यर्थः / पूर्वस्यां दिश्यष्टानामग्रमहिषीणामष्टभद्रासनानि / एवं दक्षिणपूर्वायामग्निकोणेऽभ्यन्तरपर्षदः संबन्धिना द्वादशानां देवसहरयाणा द्वादश भद्रासनसहस्राणि, दक्षिणस्यां मध्यमा
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________________ तित्थयर 2252 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर पस वाः पर्षदश्चतुर्दशानां देवसहस्राणां चतुर्दश भद्रासनसहस्राणि, दक्षिणपश्चिमाया नैर्ऋतकोणे बाह्यपर्षदः षोडशाना देवसहस्राणां षोडश भद्रासनसहस्राणि, पश्चिमायां सतानामनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानीति। (लए णमित्यादि) ततः प्रथमवलयस्थापनानन्तरं द्वितीय वलये तस्य सिंहासनस्य चतुर्दिशि चतसृणां चतुरशीतानां चतुर्गुणीकृतचतुरशीतिराख्याकानाम, आत्मरक्षकदेवराहसाणा षट्त्रिंशत्सहयाधिकालक्षत्रयमितानामात्मरक्षकदेवानामित्यर्थ / तावन्ति भद्रासनानि विकुर्वितानीत्यर्थः / एवमादिविभाषितव्यमित्यादि वक्तव्यं, सूर्याभगमन यावत्प्रत्ययति / यावत्पदात् सड् ग्रहश्चायग-"तस्स ण दिव्यस्स जाणविमागरस इमेयारूवे वण्णावासे पण ते / से जहाणामए अइरुपयरस वा हेमतिअवालसूरिअस्स वा खाइरइंगिलाण वा रत्ति पञ्जुलिखाण था जवावणास वा केसुअवणरस वा पारिजायवणररा वा सध्यओ सभंता संकुसुमि अ-. स्स भव एयारूवे सिआ? णो इण? सम? / तरस णं दिव्यरस जाणविमाणस्स इत्तो इट्टतराए चेव०४ वण्णे पण्णत्ते, गंधो कारणे अ, जहा मणीणं / तओ ण से पालए देवे तं दिव्वं जाणविमाण विउदिवत्ता जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता राक देविंदे देवराय करगलपरिगहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएण विजएण बद्भावेइ, बद्धावइत्ता तमाणनि।" इति। अत्र व्याख्यातस्य दिव्यस्य यानविमानस्यायमेतदूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः / स यथानामकोऽचिरोद्गतस्य तत्कालमुदितस्य हैमन्तिकस्य शिशिरकालसंवन्धिनो वालसूर्यस्य खादिराङ्गाराणां वा (रतिमिति) सप्तम्यर्थे द्वितीया / रात्रौ प्रज्यालितानां जपावनस्य किंशुकवनर य था, पारिजाताः कल्पद्रुमाः, तेषां वनस्य या सर्वतः रामम्साल सम्यक कुसुमितस्य / अत्र शिष्यः पृच्छतिभवेदेतद्रूप:-स्यात कथशिल? सूरिराहनायमर्थः समर्थः / तस्य दिव्यस्थ यानदिमानस्थ इस इसारख एव, किं तत इष्टतरक इत्यादि प्राग्वत्। गन्धः, स्पर्शश्व यथा प्रागमणीना - मुक्तस्तथेति। (21) शक्रक्रिया-- तए णं से सक्के०जाव हिट्ठहिआए दिव्यं जिणिंदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारभूसिअं उत्तरवेउव्विरुवं विउव्वइ, विउव्वइत्ता / अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं णट्टाणीएणं गंधव्वाणीएण य सद्धिं तं विमाणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुव्विल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहइ, दुरूहइत्ता० जाव सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे // (तएणमित्यादि) ततः स शक्र इत्यादि व्यक्तं, दिव्यं प्रधानं जिनन्द्ररय भगवतोऽभिगमनायाभिमुखगमनाय, योग्यमुचितयादृशेन वपुषा सुरसमुदायसर्वातिशायिश्रीर्भवति, तादृशेनेत्यर्थः / सर्वालङ्कारभूषितम--सर्वः शिरःश्रवणाऽऽद्यलकारविभूषितम्, उत्तरवैक्रियशरीरत्वात्। स्वाभाविकवैक्रियशरीरस्य तु आगमन निरलडकारतयवात्पादश्रवणात / उत्तरभवधारणीयशरीरपेक्षया चोरारकालभाविव क्रियरूप विकुर्वते, विकुळ चाऽष्टाभिरामहिषीभिः सपरिवाराभिः प्रत्येक प्रत्यक षोडशदेवीसहस्रपरिवारपरिवृताभिर्नाट्यानीकेन गन्धर्वानीकेन च सार्द्ध तं विमानमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् अनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वदिक्स्थेन त्रिसोपान्नाऽऽरोहति, आरुह्य च / यावच्छब्दात-"जेणेव सीह सणे तणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता'' इति ग्राह्यम् / सिंहासने चूर्वाभिमुखः सन्निपण्ण इति। (22) अथाऽऽस्थान सामानिकाऽऽदिभिः यथा पूर्यते तथाऽऽहएवं चेव सामाणिया वि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरूहित्ता पत्तेअं पत्तेअं पुटवणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीअंति, अवसेसा य देवा देवीओ अ दाहिणेल्लेणं तिसोवाणेणं दुहित्ता तहेव०जाव णिसीयंति॥ "एवं चेय इत्यादि" व्यक्तम्। नवरम् अवशेषाश्चाभ्यन्तरपर्षदादयः। (23) प्रस्थापनाक्रमः-अथ प्रतिष्ठासोः शक्रस्य पुरः प्रस्थायिना क्रममाहतए णं तस्स सक्कस्स तंसि दुरूढस्स इमेऽ8 मंगलगा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिआ। तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारदिव्वा य च्छत्तपडागा सचामरा दंसणरइअआलोअदरिसणि-जा वाउ«अविजयवेजयंती अ समूसिआ गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुव्वीए संपत्थिआ / तयणंतरं च णं छत्तभिंगारं, तयणंतरं च णं वइरामयवट्टलट्ठसंठिअसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्ठसुपइट्ठिए विसिटे अणेगवरपंचवण्णकु डभीसहस्सपरिमंडिआभिरामवाउद्भूअविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिएणं तुंगे गयणयलमणुलिहंतसिहरे जोअणसहस्समूसिए महइ महालए महिंदज्झए पुरओ अहाणुपुवीए संपत्थिए / तयणंतरं च णं सरूवनेवत्थपरिकथिअसुसज्जा सव्वालंकारविभूसिआ पंचअणीआ पंचअणीआहिवइणोन्जाव संपट्ठिआ। तयणंतरं च णं बहवे आभिओगिआ देवाय देवीओ असएहिं सएहिं विभ-वेहिं० जाव णिओगेहिं सक्कं देविंदं देवरायं पुरओ अमग्गओ अपासओ अ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिआ। तयणंतरं च णं बहवे सोहम्मकप्पवासी देवाय देवीओ अ सव्विड्डीए०जावदुरूढा सभाणा मग्गओ अ०जाव संपट्ठिआ।तएणं से सक्के ते पंचाणी-अपरिक्खित्तेणं० जाव महिंदज्झएणं पुरओ पक ड्डिजमाणेणं चउरासीए सामाणिअ०जाव परिवुडे सव्विड्डीए०जाव रवेणं सोहम्मकप्पस्स मज्झं मज्झेणं तं दिव्वं देवड्डि०जाव उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे जेणेव सोहम्मकप्पस्स उत्तरिल्ले निजाणमग्गे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जोअणसयसाहस्सीएहिं विग्गहेहिं उवयमाणे उवयमाणे ताए उकिट्ठाए जाव देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे तिरियमसंखिजाणं दीवसमुद्दाणं मज्झंमज्झेणं जेणेवणंदीसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरच्छिमिल्ले रइकरपव्वए तेणेव उवागच्छइ, एवं० जा चेव सूरिआभस्स वत्तव्वया, णवरं सकाहिगारो वत्तव्वो,
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________________ तित्थयर 2253 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर जावतं दिव्वं देवड्डेिजाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे पडिसाहरमाणे०जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे, तेणे व उवागच्छति, उवागच्छतित्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणं दिव्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेइत्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे चउरंगुलमसंपत्तंधरणिअले तं दिव्वं जाणविमाणं ठवेइ, वेइत्ता अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं अणीएहिं गंधव्वाणीएण य नट्टाणीएण य सद्धिं ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ पुरच्छिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवरणं पचोरुहइ। तए णं ससस्स देविंदस्स देवरण्णो चउरासीई सामाणि असाहस्सीओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहंति, अवसेसा देवाय देवीओ अताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूव-एणं पच्चोरुहंति॥ (तए णं तस्स इत्यादि) एतद् व्याख्या भरतचक्रिणोऽयोध्याप्रवेशाधिकारतो ज्ञेया। (तयणमित्यादि) तदनन्तरं छत्रभृङ्गारमा समाहाराथकवायः ! छत्रं च 'येरुलिअभिसंतविमलदड" इत्यादिवगंकयुक्त भरतस्यायोधप्रवेशाधिकारतो शेयम्। भृङ्गारश्च विशिष्टवर्णकचित्रोपेतः। पूर्व च वारस्य जलपूर्णत्वेन कथनाल, अयं च जलरिक्तत्वेन विपक्षित इति = पानरुक्त्यम् / तदनन्तरं वज़मयो रत्नमयः / तथा वृत्तवलं, लष्ट मनो, संस्थितं संस्थानमाकारो यस्य स तथा। तथा-सुश्लेपाऽऽपनावयधो. मसृण इत्यर्थः / परिघृष्टः खरशाणया पापाणप्रतिमावत / गृष्टइव मृष्टः सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव, सुप्रतिष्ठितो, न तु तिर्यकपतिततया वक्रः / तत एतेषां पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्मधारयः / अत एव शेषध्दजेभ्यी विशिष्टोऽतिशायी, तथाऽनेकानि वराणि पावणानि कुडर्भना लघुपताकानां सहस्राणि लैः परिमण्डितोऽलड् कृतः, स चासापभिरामश्चेति / वातोद्भूतेत्यादिविशेषणद्वयं व्यक्त म्। तथा गगनतलमम्बरतलगनुल्लिखत् संस्पृशत् शिखरमग्रभागो यस्य स तथा। योजनसहरसमुत्सृतोऽत एवाह-(महइ महालए इति) अतिशयेन महान्, महेन्द्र वजः,पुरतो यथाऽनुपूर्व्या संप्रस्थित इति / (जयणमित्यादि) तदनन्तरं स्वरूपं स्वकर्मानुसारि नेपथ्यं वेपः परिकथितः परिगृहीतो यैस्तानि। तथा (सुसज्जानि) पूर्णसामग्रीकतया प्रगुणानि सर्यालङ्कारविभूषितानि पञ्चानीकानि, पक्षानीकाधिपतयश्च पुरतो यथानुपूत् संप्रस्चितानि (तयणतरं च णमित्यादि) तदनन्तरं बहव आभियोगिका देवाश्च देव्यश्च स्वकः 2 विभवर्यथास्वकर्मोपस्थितैर्विभवःसंपत्तिभिः, यावच्छब्दात्स्वकैः 2 रुपैर्यथा स्वकर्मोपचितरुत्तरक्रियस्वरूपः स्वकः स्वकैः नियोगैरुपकरणैः शक्रदेवेन्द्र देवराज पुरतश्व मार्गतश्च पृष्टतः पार्श्वतश्च उभयोर्यथानुपूर्व्या यथावृद्धक्रमेण संस्थिताः। (तयणंतरं च णमित्यादि) तदनन्तर बहवः सौधर्मकल्पवासिनो देवाश्च देव्यश्च सर्वद्ध र्या, यावत् करणादिन्द्रस्य हरिनगमेषिणं पुरः स्वाज्ञप्तिविषयकः प्रागुक्त आलापको ग्राह्यः तेन स्वानि 2 यानविमालवाहनानि आरूढाः सन्तो मार्गतश्च।। यावच्छन्दात् पुरतः पार्श्वतश्व शक्रस्य संस्थिताः / अथ यथा शक्रः साधर्मकल्पान्निति, तथा चाऽऽह-(तए णमित्यादि) ततः स शक्रस्तेन प्रागुरुस्वरूपण पक्षभिः सग्रामिकरनीकैः परिक्षिप्लेन सर्वतः परिवृतेन, यावत्पूर्वोक्तः सर्वो महेन्द्रध्वजवर्णको ग्राह्यः / महेन्द्रध्वजेन पुरतः प्रकृप्यमाणेन निर्गम्यमाणेन चतुरशीत्या सामानिकसहस्रः. यावत् करणात-"चउरासीहिं चउरासीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि" इत्यादि ग्रानामा परिवृतः सर्वा , यावद्रवेण। यावत् करणात्- "सध्वजुईए'' इत्यादि प्रागुरु ग्राह्यम् / सौधर्मस्य कल्पस्य मध्यं मध्येन तां दिव्यां दवाई, यावच्छब्दात 'दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं'' इति ग्रहः / सौधर्मकल्पवासिनां देवानामुपदर्शयन् श्यत्रैव सौधर्मस्य कल्पस्योत्तराहो निर्याणमार्गा निर्गमनसंबन्धी पथस्तत्रैवोपागच्छति / यथा-वरयिता नामराणां विवाहोत्सवस्फातिदर्शनार्थ राजपथे याति, न तु रथ्यादौ , तथाऽयमपि / एतेन समग्रदेवलोकाऽऽधारभूतपृथिवीप्रतिष्ठितविमाननिरुद्धमार्गत्वेनतरततः संघरणाभावेन मध्य मध्येनेति 'उनरिल्लेणि वाणगं" इत्युक्तमिति ये आहुः, ते आगमसांमत्यं युक्तिसाडगत्यं च प्रष्टव्याः / उपागत्य च योजनशतसाहरित्रकर्याजनलक्षप्रमाणविग्रहः क्रमरिक गन्तव्यक्षेत्रातिक्रमरूपैः / एतेन स्थावरस्वरूपस्य विमानस्य पदन्यासपाः क्रमाः कथं भवेयुरिति शङ्का निरस्ता। अवपतन् अवपतन तया चोत्कृष्टया / यावत् करणात् 'तुरिआए'' इत्यादिग्रहः। देवमयाव्यतिव्रजन रतिर्यगराख्येयाना द्वीपसमुद्राणां मध्यं मध्येन यत्रव नन्दीश्वरवरद्वीपो यत्रय तस्रोध पृथुत्वमध्यभागे दक्षिणपूर्व आग्नेयकोणवती रसिकरपर्वतस्तत्रैवोपागच्छति। इदं च स्थानाङ्गाऽऽद्याशयेनोक्तम। अन्यथा प्रवचनारोद्धाराऽऽदिषु षठ्यमानानांपूर्वाऽऽद्यजनगिरिविदिव्यवरिश्तवापीद्वयद्वयान्तराले बहिः कोणयोः प्रत्यासत्तौ प्रत्येक द्वयद्वयभावेन तिष्ठतामष्टानां रतिकरपर्वतानां मध्ये विनिगमनाविरहात् कारितिकरपर्वतोदक्षिणपूर्वः स्यादिति। ननु सौधर्मादवतरतः शक्रस्य नन्दीश्वरद्वीप एवाऽवतरणं युक्तिमत्, नपुनरसंख्येयद्वीप समुद्रातिक्रमण तत्रागमनमित्युच्यते, निर्याणमार्गस्याऽसंख्याततमस्थ द्वीपस्य वा समुद्रस्य वा उपरिस्थितत्वेन सम्भाव्यमानत्वात्तथाऽवतरणम् / ततश्च नन्दीश्वराभिगमनेऽसंख्यातद्वीपसमुद्रातिक्रमणं युक्तिमदेवेति / अत्र दृष्टान्तसूत्रम् (एवं०जा चेव त्ति) एवमुक्तरीत्या यैव सूर्याभस्य वक्तव्यता, यथा सूर्याभः सौधर्मकल्पादवतीर्णस्तथाऽयमपीत्यर्थः / नवरमयं भेदः शक्राधिकारी वक्तव्यः, सौधर्मन्द्रनाम्ना सर्व वाच्यम्। (जावत दिव्यं) इत्यादि प्रायो व्यक्तं, नवरात्र प्रथमयावच्छब्दो दृष्टान्तविषयीकृतसूर्यानगाधिकारस्यावधिसूचनार्थः / स चावधिवर्विमानप्रतिसंहरणपर्यन्ता वाच्यः / द्वितीययावच्छब्दो-"दिव्वं देवजुइं दिव्व देवाणुभावं' इति पदयग्राही। अस्य चायमर्थः-दिव्यां देवर्द्धि परिवारसंपदं स्वविमानवर्जसौधर्मकल्पवासिदेवविमानानां मेरी प्रेषणात्, तथा दिव्या देवद्युति शरीराऽऽभरणाऽऽदिहासेन, तथा दिव्यं देवानुभाव देवगतिहस्वताऽऽ-- पादनेन, तथा दिव्य यानविमानं पालकनामक जम्बूद्वीपपरिमाणन्यूनविस्तराऽऽयामकरणेन, प्रतिसंहरन् प्रतिसंहरन् संक्षिपन् संक्षिपन्निति / तृतीययावच्छब्दात् 'जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे'' इति ग्राहकः / ननु पूर्व त्रिसोपानप्रतिरूपकेणोत्तारः शक्रस्योक्तोऽपराभ्यां केपा...
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________________ तित्थयर 2254 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर मुत्तार इत्याह-"तएणं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो'' इत्यादि व्यक्तम्। (24) अथ शक्रः किमकार्षीदित्याहतए णं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणिअ साहस्सीएहिं०जाव सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए०जाव दुंदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता आलोए चेव पणामं करेइ, करेइत्ता भगवं तित्थयरमायरं च आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेइत्ता करयल०जाव एवं बयासीणमोऽत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! एवं जहा दिसाकुमारीओ०जाव धण्णा सि पुण्णा सि तं कयत्था सि अहं देवाणु प्पिए ! सक्के णामं देविंदे देवराया भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामि, तेण तुम्भेहिं ण भीइव्वं ति कटु ओसोवणिं दलयइ, दलइत्ता तित्थयरपडिरूवगं / विउव्वइ, विउव्वइत्ता तित्थयरमाउआए पासे ठवेइ, ठवेइत्ता पंचसक्के विउव्वइ, विउव्वित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सके पिट्टओ आयवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चमरुक्खेवं करें ति, एगे सक्के पुरओ वजपाणी पकड्डइ। 'तए ण से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए" इत्यादि कण्ठ्यम्। यावत्पदसंग्राह्य तुपूर्वसूत्रानुसारेण बोध्यम् / यदवादीत्तदाह-(णमोऽत्थु ते इत्यादि) नमोऽस्तु तुभ्यं रत्नकुक्षिधारिके ! एवप्रकारं सूत्र, यथा दिक्कुमार्य आहुः, तथाऽवादीदित्यर्थः / यावच्छब्दादिदं ग्राह्यम्"जगप्पईवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्स सव्वजगजीववच्छलस्स हिअकरमग्गदेसियरस वागिदिविभुप्पभुस्स जिणरस णाणिस्स नायगरस बुद्धरस बोहगस्स सव्वलोगणाहसस सव्वलोगमंगलस्स णिम्ममस्स पवरकुलसमुप्पभवस्स जाइखत्तिअस्स जं सिलोगुत्तमस्स जणणी ति।'' कियत्पर्यन्तमित्याह-धन्याऽसि पुण्याऽसि त्वं कृतार्थाऽसि, अहं देवानुप्रिये ! शक्रो नाम देवेन्द्रो देवराजा भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमा करिष्यामि। तेन युष्माभिर्न भेतव्यमितिकृत्वा अवस्वापिर्नी ददाति, सुते मेरुं नीते सुतविरहाऽऽर्ता मा दुःखभागभूदिति दिव्यनिद्रया निद्राणां करोतीत्यर्थः। दत्त्वा च तीर्थकरस्य मेरुनेतव्यभगवतः प्रतिरूपक जिनसदृशं रूपं विकुर्वति, अस्मासु मेरुगतेषु जन्ममहध्यापृतिव्य-गेषु आसन्नदुष्टदेवतया कुतूहलाऽऽदिना हृतनिद्रा सती मा इयं वस्ता भवरिवति भगवद्रूपान्निर्विशेष रूपं विकुर्वतीत्यर्थः / विकुळचतीर्थकरमातुः पार्श्व स्थापयति, स्थापयित्वा च पक्ष शक्रान विकुर्वति, आत्मना पञ्चरूपो भवतीत्यर्थः / विकुर्य च तेषां पशानां मध्ये एकः शक्रो भगवन्त तीर्थकरं परमशुचिना सरसगोशीर्षचन्दनलिप्तेन, धूपवासितेनेति शेषः। करतलयोरुद्धयोर्व्यवस्थितयोः पुट संपुट, शुक्तिकासंपुटमिवेत्यर्थः, तेन गृह्णाति / एकः शक्रः पृष्ठत आतपत्रं छत्र धरति / द्वौ शक्रावुभयोः पार्श्वयोश्चमोत्क्षेपं कुरुतः। एकः शक्रः पुरतो वज्रपाणिः सन् प्रकर्षतिनिर्गमयति, आत्मानमिति शेषः / अग्रतःप्रवर्तत इत्यर्थः / अत्र च सप्तापि सामानिकाऽऽदिदेवपरिवार यदिन्द्रस्य स्वयमेव पञ्चरुपविकुर्वणं, तत् त्रिजगद्गुरोः परिपूर्णसेवालिप्सुत्वेनेति। (25) मेरुगमनम्अत्र यथा शक्रो विवक्षितस्थानमाप्नोति तथाऽऽहतए णं से सक्के देविंदे देवराया अण्णेहिं बहूहिं भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीएन्जाव ताए उक्किट्ठाएन्जाव वीईवयमाणे वीईवयमाणे जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेअसिला जेणेव अभिसेअसीहासणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे / (तए ण से सक्के इत्यादि) ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा अन्यैर्वहुभिर्भवनपतिवाणमन्तरज्योतिष्कवैमानिकैर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृतः सर्वक्या, यावत् करणात्-"सव्वजुईए'' इत्यादिपदसंग्रहः पूर्वोक्ता ज्ञेयः / तयोत्कृष्टया / यावत् करणात्-"तुरिआए'' इत्यादिग्रहः। व्यतिव्रजन व्यतिव्रजन यत्रैव मन्दरपर्वतो यत्रैव च पण्डकवनं यत्रैव चाभिषेकशिला यत्रैव चाऽभि षेकसिहासनं, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः (सण्णिसण्ण इति) पालकविमानं च गृहीतस्वामिकस्य स्वस्वामिनः पादचारित्वेन तमनुव्रजता देवानामप्यनुपयोगित्वादभिषेकशिलायां यावदनुव्रजदभूदिति संभाव्यते। (26) ईशानेन्द्रावसरःतेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे सुरिंदे उत्तरउड्डलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई अरयंवरवत्थधरे एवं जहा सके , इमं णाणत्तमहाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो पायत्ताणीयाहिवई, पुप्फओ विमाणकारी, दाहिणिल्ले णिज्जाणभूमी, उत्तरपुरच्छिमिल्लो रइकरपव्वओ, मंदरे समोसरिओ०जाव पञ्जुवासइ।। (तेण कालेणमित्यादि) तस्मिन् काले सम्भवज्जिनजन्मके, तस्मिन् समये दिक्कुमारिकृत्यानन्तरीये, न तु शक्राऽऽगमनानन्तरीये, सर्वषामिन्द्राणां जिनकल्याणकेषु युगपदेव समागमनाऽऽरम्भस्य जायमानत्वात्। यत्तु सूत्रे शक्राऽऽगमनानन्तरीयमीशानेन्द्राऽऽगमनमुक्तं, तत् क्रमेणैव सूत्रवन्धस्य सम्भवात्। ईशानो देवेन्द्रो देवराजा शूलपाणिवृषभवाहनः सुरेन्द्र उत्तरार्द्धलोकाधिपतिः, मेरोरुत्तरतोऽस्येवाधिपत्यात्। अष्टाविंशतिविमानावासशतसहस्राधिपतिः, अरजांसि निर्मलानि अम्बराणि वखाणि, स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पानि वसनानि धरति यः स तथा / एवं यथा शक्रः सौधर्मेन्द्रस्तथाऽयमपि / इदमत्र नानात्वं विशेष: महाघोषा घण्टा, लघुपराक्रमनामा पदात्यनीकाधिपतिः,पुष्पकनाभा विमानकारी, दक्षिणा निर्याणभूमिः, उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः,मन्दरे समवसृतः समागतः / यावत्पदात्- "भगवत तित्थयरं तित्थयरमायर तिवखुत्तो आयाहिणफ्याहिणकरेइ. करिता वंदइ, णमंसइ,वंदिता णमंसित्ताणचासण्णेणाइदूरे सुस्सूरामाणे णमसमाणे अभिमुहं विणएणं पंजलिउडे ।।इति पर्युपास्ते।
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________________ तित्थयर 2255 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थय अथातिदेशेनावशिष्टानां सनत्कुमाराऽऽदीन्द्राणां वक्तव्यमाहएवं अवसिट्ठा वि इंदा भाणियव्वाजाव अचुओ। इमं णाणत्तं"चउरासीइ असीई, वायत्तरि सत्तरी असट्ठी अ। पण्णा चत्तालीसा, तीसा वीसा दससहस्सा।।१।" एए सामाणिआणं। "वत्तीसऽट्ठावीसा, वारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा, छच्च सहस्सा सहस्सारे||१|| आणयपाणयकप्पे, चत्तारि सयाऽऽरणऽधुए तिण्णि / / " एए वेमाणियाणं। इमे जाणविमाणकारी देवा / तं जहा"पाल' पुप्फे सोमणसे सिरिवच्छे अणंदिआवत्ते। कामगमे पीइगमे, मणोरमे विमले सव्वओभद्दे" ||1|| सोहम्मगाणं सणंकुमारगाणं बंभलोगाणं महासुक्कयाणं पाणयगाणं इंदाणं सुघोसा घंटा, हरिणेगमेसी पायत्ताणी आहिवई, उत्तरिल्ला णिजाणभूमी, दाहिणपुरच्छिमिल्ले रइकरपव्वए; ईसाणगाणं माहिंदलंतगसहस्सारअचुअगाण य इंदाणं महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो पायत्ताणीआहिवई, दक्खिणिल्ले णिज्जाणमग्गे, उत्तरच्छिमिल्ले रइकरपव्वए, परिसाओ णं जहा जीवाभिगमे आयरक्खा सामाणिअचउग्गुणा सव्वेसिं जाणविमाणा सव्वेसिं जोयणसयसहस्सवित्थिण्णा उच्चत्तेणं सविमाणप्पमाणमहिंदज्झया सव्वे सिं जोअणसाहस्सिआ सक्कवजा मंदरं समोअरंति०जाव पज्जुवासंति। (एवं अवसिट्ठा वि इत्यादि) एवं सौधर्मेशानेन्द्ररीत्या अवशिष्टा अपि इन्द्रा वैमानिकानां भणितव्याः, यावदच्युतेन्द्र एकादशद्वादशकल्पाधिपतिरिति / (विमानाऽऽदिसंख्या सामानिकाऽऽदिसंख्या च तत्तच्छब्द) (27) चमराऽऽदीनामागमनम्तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्ठीए सामाणिअसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसेहिं चउहिं लोगपालेहिं पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अणीआहिवईहिं चउहिं चउसट्टीहिं आयरक्खसाहस्सीहिं अण्णेहि अजहा सक्के, णवरं इमं णाणत्तंदुमो पायताणीआहिवई, ओघस्सरा घंटा वि णं पण्णासं जोअणसहस्साई महिंदज्झओ पंच जोअणसयाई, विमाणकारी आभिओगिओ देवो, अवसिटुं तं चेव० जाव मंदरे समोसरइ, पज्जुवासइ।। बलीतेणं कालेणं तेणं समएणं बली असुरिंदे असुरराया एवमेव, | णवरं सट्ठी सामाणिअसाहस्सीओ, चउगुणा आयरक्खा, महादुमो पायत्ताणीआहिवई,महाओहस्सरा घंटा, सेसं तं चेव परिसाओ जहा जीवाभिगमे। धरण:तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेव णाणत्तं, छ सामाणिअसाहस्सीओ, छ अग्गमहिसीओ, चउगुणा आयरक्खा, मेघ-- स्सरा घंटा, भद्दसेणो पायत्ताणीआहिवई, विमाणं पण्णवीसं जोअणसहस्साहिं, महिंदज्झओ अड्डाइजाइंजोअणसयाई। भवनवासिनःएवमसुरिंदवजिआणं भवणवासिइंदाणं, णवरं असुराणं ओघस्सरा घंटा, णागाणं मेघस्सरा, सुवण्णाणं हंसस्सरा, विजणं को चस्सरा, अग्गीणं मंजुस्सरा, दिसाणं मंजुघोसा, उदहीणं सुस्सरा, दीवाणं महुरस्सरा, वाऊणं गंदिस्सरा, थणियाणं णंदिघोसा, चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्साओ असुरवजाणं सामाणिआओ, एए चउगुणा आयरक्खाओ, दाहिणिल्लाणं पायत्ताणीआहिवई भद्दसेणो, उत्तरिल्लाणं दक्खो। वाणमन्तराःवाणमंतरजोइसिआणं अञ्जो ! एवं चेव, णवरं चत्तारि अ सामाणिअसाहस्सीओ, चत्तारि अग्गमहिसीओ, सोलस आयरक्खसहस्सा विमाणा, जोअणसहस्सं महिदज्झया, पणवीसं जोअणसयं घंटा, दाहिणाणं मंजुस्सरा, उत्तराणं मंजुधोसा, पायत्ताणीआहिवई विमाणकारी अ आभिओगा देवा। ज्योतिष्काःजोइसिआणं सुस्सरा सुस्सरणिग्घोसाओ घंटाओ, मंदरे समोसरणं०जाव पजुवासंति। घण्टासु चायं विशेषः-चन्द्राणां सुस्वरा, सूर्याणां सुस्वरनिर्घोषा, सर्वेषां च मन्दरे समवसरणं वाच्यम्, यावत् पर्युपासते / यावच्छन्दग्राह्य तु प्राग्दर्शितं ततो ज्ञेयम् / एतदुल्लेखस्त्वयम्-'तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदा जोइसिदा जोइसरायाणी पत्तेअं२ चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं तिहिं परिसाहिं सत्ताहिं अणीएहिं सत्ताहि अणीआहिवई हिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं एवं. जहा वाणमतरा, एवं सूरा वि।" नन्वत्रोल्लेखे चन्द्राः सूर्या इत्यत्र बहुवचनं किमर्थम्? प्रस्तुतकर्मणि एकस्यैव सूर्यस्य चन्द्रस्य चाधिकृतत्वात्; अन्यथेन्द्राणां चतुःषष्टिसङ्ख्याकत्वव्याघतात? उच्यते-जिनकल्याणकाऽऽदिषु दश कल्पेन्द्रा विंशतिर्भवनवासीन्द्रा द्वात्रिंशद् व्यन्तरेन्द्राः, एते व्यक्तितः; चन्द्रसूर्यो तु जात्यपेक्षया, तेन चन्द्राः सूर्या असङ्ख याता अपि सामायान्ति, के नाम न कामयन्ते भुवनभट्टारकाणां दर्शनम्। यदुक्तं शान्तिचरित्रे श्रीमुनिदेवसूरिकृतश्रीशान्तिदेवजन्ममहवर्णन-ज्योतिकनायकौ पुष्पदन्तौ सङ्ग्यातिगाविति। हेमाद्रिमाद्रियन्ते स्म, चतुःषष्टिः सुरेश्वराः" // 1 //
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________________ तित्थयर 2256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर तए णं से अचुए देविंदे देवगया महं देवाहिवे आभिओगे देवे सद्दावेइ,महावेइत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! महत्थं महग्धं महारिहं विउलं तित्थयराभिसेअं उवट्ठवेह / तए णं ते हट्ठतुट्ठाजाव पडिसुणित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमंतित्ता वेउव्वियसमुग्धाएणं०जाव समोहणित्ता अट्ठसहस्सं सोवण्णिअकलसाणं, एवं रुप्पमयाणं मणिमयाणं सुवण्णरुप्पमयाणं सुवण्णमणिमयाणं रुप्पमणिमयाणं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं अट्ठसहस्यं भोमिज्जाणं अट्ठसहस्सं बंदणकलसाणं,एवं सिंगाराणं आयंसाणं थालाणं पाईणे सुपइढगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं बायकरगोणं पुप्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआभस्स सव्ववंगेरीओ सव्वपडलगाई विसेसिअंतराई भाणिअटवाई सीहासणछत्तवामरतेल्लसमुग्ग०जाव सरिसवसमुग्गतालिअंटा0जाव अट्ठसहस्सं कडुच्छु आणं विउव्वंति, विउव्वित्ता साहाविए विउव्विए अ कलसे०जाव कडुच्छुए अ गिछिहत्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हति,गिण्हंतित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं पउमाइं० जाव सहस्सपत्ताई ताई गिण्हं ति, एवं पुक्खरोदाओ०जाव भरहेरवयाणं मागहाईणं तित्थाणं उदगं मट्टिअंच गिण्हंति, गिण्हं तित्ता, एवं गंगाईणं महाणईणं०जाव चुल्लहिमवंताओ सव्वतुअरे सव्वपुप्फे सव्वगंधे सव्वमल्ले०जाव सव्वोसहीओ सिद्धत्थएहिं गिण्हंति,गिण्हंतित्ता पउमद्दहो.दहोदगं उम्पलादीणि अ / एवं सव्वकुलपव्वएसु वट्टवेअड्डेसु सव्वमहद्दहेसु सव्ववासेसु सव्वचक्कवट्टिविजएसु वक्खारपव्वएस अंतरणईसु विभासिज्जा०जाव उत्तरकुरुसुजाव सुदंसणभद्दसालवणे सव्वतुअरे०जाव सिद्धत्थए अगिण्हंति / एवं णंदणवणाओ सव्वतुअरेजाव सिद्धत्थए असरसं च गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणदामं गेण्हंति / एवं सोमणसपंडगवणाओ अ सव्वतुअरे० जाव सुमणदामं दद्दरमलयसुगंधिए गंधे अगिण्हंति, गिण्हंतित्ता एगओ मिलंति, मिलंतित्ता जेणेव सामी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता तं महत्थंजाव तित्थपराभिसेअंउवट्ठवें ति।। यावल्लोमहस्तकपटलकानामिभानि च वस्तूनि सुर्याभाभिषेकोपयोगवस्तुभिः सङ्ख्ययेव तुल्यानि, न तु गुणेनेत्याह विशेविततराणि / (जं०) ननु मरुतोऽभिषेकाङ्गभूतवस्तुग्रहणाय च लम्बस्ते देवारतदग्रहणोपयोगिवस्तुजातं कलशभृङ्गाराऽऽदिक गृह्णन्तु, परं तदनुपयोगियावच्छब्दोदरप्रविष्ट सिंहासनचामराऽऽदिकं तैलसमुद्रकाऽऽदिक चकथं गृह्णन्तीति चेत् ? उच्यते--विकुवेणासूत्रस्यातिदेशेन ग्रहणसूत्रस्यातिदिष्टत्वादेतत्सूत्रपाठ-स्यान्तगतत्वेऽपि ये ग्रहणोचितास्त एव गृहीता इति / बोध्यम, योग्यतावशादेवार्थप्रतिपत्तेः / यच धूपकाडच्छुकानां तत्र ग्रहण तत कलशभृङ्गाराऽऽदिदेवहस्तधूपनार्थमिति / अन्यथा सूत्रे साक्षादुपदर्शितस्य धूपकडुच्छुकानां गर्हणस्य नरर्थक्याऽऽप: / अथ प्रस्तुतं / सूत्रं गृहीत्वः च यानि तत्र क्षीरोद उत्पचानि पाानि यावत्सहसपत्राणि निगृह्णन्ति / यावत् पदात् कुमुद्राऽऽदिग्रहः। एवमनया रीत्या पुष्करोदात् तृतीयरामुद्रात उदकाऽऽदिकं गृह्णन्ति यत्तु क्षीरोदाद्विनिवृत्नेर्वारुणीवरमन्तरा मुक्तापुष्करोदे जलं गृहीतं, तद्वारुणीवरवारिणोऽग्राह्यत्वादिति संभाव्यमिति।यावच्छब्दात्--"समयखिते" इति ग्राह्यम्।तेन समयक्षत्रे मनुप्यक्षेत्रे भरतैरावतयोः प्रस्तावात् पुष्करवरद्वीपार्द्धसत्कयोगांगधाऽऽदीनां तीर्थानामुदक मृत्तिकां च गृह्णन्ति / एवमिति समये क्षेत्ररथपुष्करवरद्वीपार्द्धसत्कानां गङ्गाऽऽदीनां महानदीनाम / आदिशब्दात्-सर्वमहानदीग्रहः। यावत्पदात् उदकपुसयतटमृतिकां च गृह्णन्ति / क्षुद्रहिमवतः सर्वान् तुबरान् (?) कषायद्रव्याणि आमलकाऽऽदीनि, सर्याणि जातिभेदेन पुष्पाणि, सर्वान् गन्धान वासाऽऽदीन, सर्वाणि माल्यानि गथिताऽऽदिभेदभिन्नानि.सर्वा महौषधी राजहंसी-प्रमुखाः, सिद्धार्थकाश्च सर्पपान गृह्णन्ति. गृहीत्वा च पाहदाद हशेदकमुत्पलानि च गृह्णन्ति / एवं क्षुद्रहिमवन्न्यायेन सर्वक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वेन कुलकराः पर्वताः / मध्यपदलोपे कुलपर्वता हिमाचलाऽऽदयः, तेषु वृत्तवेताढ्येषु, सर्थमहाह्रदेषु पद्मदाऽऽदिषु, सर्ववर्षेषु सर्वचक्रवर्तिविजयेषु कर छाऽऽदिषु वक्षस्कारपर्वतषु गजदन्ताऽऽकृतिषु माल्पचदादिषु सरलाऽऽकृतिषु च चित्रकूटाऽऽदिपु. तथाऽऽन्तरनदीषु ग्राहावत्यादिषु, विभाषेत वटेत,पर्वतीषु तुतुद--रादीनां,द्रहेषुत्पलाऽऽदीनां कर्मक्षेत्रेषु मागधाऽऽदितीथोंदकमृदां, नदीषदकोभयतटमृदांग्रहणं वक्तव्यमित्यर्थः / यावत्पदादेव कुरुपरिग्रहः / तेन कुरुद्वये / चित्रविचित्रगिरियमकगिरिकाञ्चनगिरिहददशवेषु यथासंभवं वस्तुजातं गृह्णन्ति / यावत्पदात्-पुष्करवरद्वीपार्द्धस्य पूर्वार्द्धमरौ भद्रशालवने नन्दने सौमनसवने पण्डकवने च सर्वतुवराऽऽदीन गृह्णन्ति। तथा तस्येवापराई अनेनैव क्रमेण वस्तुजातं गृह्णन्ति / ततो धातकीखण्डपूर्वापराईयोर्भरताऽऽदिस्थानेषु वस्तुग्रहो वाच्यः। ततो जम्बूद्रीपेऽपि तद ग्रहस्तथैव वाच्यः। कियत्पर्यन्तमित्याह-सुदर्शनो जम्बद्वीपगतो भेरारतस्य भद्रशालवने सर्वतुबरान्, यावत् सिद्धार्थकांश्च सरसं च गोशी चन्दनं दिव्यं च सुमनोदामग्रथितपुष्पाणि गृह्णन्ति / एवं सौमनसवनात्। सूत्रपाठे पञ्चमीलोपः प्राकृतत्वात् / पण्डकवनाच सर्वतुबरान. यावत सुम-नोदामदर्दरमलयसुगन्धिकान गन्धान, दर्दरमलयौ चन्दनोत्पत्तिखानिभूतो, तेन तदुद्भवं चन्दनमपि "तात् स्थ्यात्तद् व्यपदे':' इति न्यायेन दर्दरमलयशब्दाभ्यामभिधीयते। ततो दर्दरमलयनामक चन्दन तयोः सुगन्धः परमगन्धो यत्र तान् दर्दरमलयसुगन्धिकान् गन्धान वासान गृह्णन्ति। गृहीत्वा च इतस्ततो विप्रकीर्णा आभियोग्यदेवा एकत्र मिलन्ति / मिलित्वा च य व स्वामी तत्रैवोपागच्छन्ति / उपागत्य च त महाथ, यावच्छब्दात- महाघ महार्ह विपुलमिति पदत्रयम् / तीर्थकराभिषेक तीर्थकराभिषकयोग्यं क्षीरोदकाऽऽधुपस्करमुपस्थापयन्ति उपनयन्ति, अच्युतेन्द्रस्य समीपस्थितिं कुर्वन्तीत्यर्थः / (28) अच्युतेन्द्रो यदकरोत्तदाहतए णं से अचुए देविंदे देवराया दसहिं सामाणिअ
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________________ तित्थयर 2257 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर साहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं चउहिं लोगपालेहिं तिहिं तिवई छिंदं ति, पायदद्दरयं करेंति, भूमिचवेडं दलयंति / परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अणीयाहिवईहिं चत्तालीसाए अप्पेगइआ महया सद्देणं रवेंति; एवं संजोगा वि भासिअव्वा / आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे तेहिं साभाविएहिं अप्पेगइआ हकारेंति; एवं पुक्कारेंति, थक्कारेति, ओवयंति, विउविएहि अ वरकमलपइट्ठाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहिं उप्पयंति, परिवयंति, जलंति, तवंति, पयवंति, गजंति, चंदणकयवचाएहिं आविद्धकं ठगुणे हिं पउमप्पलपिहाणे हिं विजुआयंति, वासें ति / अप्पेगइआ देवुक्कं लिअं करेंति / एवं करयलसुकुमारपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवणिआणं देवा कहकहगं करेंति / अप्पेगइआदुहुदुहुगं करेंति। अप्पेगइआ कलसाणं०जाव अट्ठसहस्सेणं भोमेजाणंजाव सव्वोदएहिं विकि अभूयाई रूवाइं विउवित्ता पणचंति, एवमाइ विभाएज्जा, सव्वमट्टिआहिं सव्वतुअरेहिं०जाव सव्वोसहीहिं सिद्धत्थएहिं जह विजयस्स०जाव सव्वओ समंता आहार्वेति, परिधावेंति।। सव्विड्डीए०जाव रवेणं महया महया तित्थयराभिसेएणं अभि अथाऽभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादसूत्रमाहसिंचति। तए णं से अचुइंदे सपरिवारे सामिं महया अभिसे एणं अभि-- यावच्छब्दात -- "सव्वजुईए" इत्यारभ्य 'दुंदुहिनिम्घोसनाइअं' सिंचइ, अभिसिंचइत्ता करयलपरिग्गहिअंजाव मत्थए अंजलिं इत्यन्तं गानाम् / महता महता तीर्थकराभिषेकेण, अत्र करणे तृतीया। कटु जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता ताहिं इट्ठाहिं०जाव गोऽर्थः येनाभिषेकेण तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते, ते नेत्यर्थः / जयजयसदं पउंजति, पउंजित्ता०जाव पम्हलसुकु मालाए उ-त्राभिषेकशब्देनाभिपेकोपयोगिक्षीरोदादिजलं ज्ञेयम, अभिपित्य सुरभीए गंधकासाइए गायाई लूहेइत्ता एवं०जाव कप्परुक्खगं पि व अलंकियविभूसिअं करेइ, करेइत्ताजाव णट्टविहिं भिषेक करोतीत्यर्थः। उवदंसेइ, उवदंसेइत्ता अच्छेहि सण्हेहिं रययमएहिं अच्छरस(२६) इन्द्राऽऽदया यत्कुर्वन्ति तदाह तंडुलेहिं भगवओ सामिस्स पुरओ अट्ठट्ठमंगलगे आलिहइ। तं तए णं सामिस्स महया महया अभिसे अंसि वट्टमाणं सि जहाइंदाइआ देवा छत्तचामरकलसधूवकडुच्छु अपुप्फगंध० जाव "दप्पेण भद्दासणयं, वद्धमाण वरकलस मच्छ सिरिवच्छा। हत्थगया हद्वतुट्ठ०जाव वज्जसूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलि सोत्थिअणंदावत्ता, लिहिआ अट्ठऽट्ठमंगलगा" / / 1 / / उमा / एवं विजयाणुसारेण०जाव अप्पेगइआ देवा आसित्त-- लिहिऊण करेइ उवयारं,किं ते पाडलमल्लिअचंपगअसोगसंमजिओवलित्तसित्तसुइसम्मट्ठरत्यंतराऽऽवणवीहि करें ति० पुन्नागचूअमंजरिणवमालिअवउलतिलयकणवीरकुंदकुञ्जगकोजाव गंधवट्टिभूअं / अप्पेगइआ हिरण्णवासं वासंति / एवं रंटपत्तदमणगवरसुरमिगंधगंधिअस्स कयग्गहगहिअकरयलसुवण्णरयणवइर आभरणपत्तपुप्फ फलबीअमल्लगंध पभट्ठविप्पमुक्कस्स दसद्धवण्णस्स कुसुमणिअरस्स, तत्थ चित्तं वण्णजाव चुण्णवासं वासंति / अप्पेगइया हिरण्णविहिं जाणुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहनिकरं करेइ,करेइत्ता चंदप्पभरयभाइंति,एवं जाव चुण्णविहिं भाइंति। अप्पेगइआ चउव्विहं वज्जं णवइरवेरुलिअविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुवाएंति / तं जहा-ततं१, विततं२, घणं३, झुसिरं 4 / अप्पे-- रुपवरकंदुरुक्कतुरुकधूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवट्टि विणिम्मुगइआ चउव्विहं गेअं गायति ।तं जहा-उक्खितं 1, पायत्तं 2, अंतं वेरुलिअमयं कडुच्छुअं पगाहित्तु पयए णं धूवं दाऊण मंदाइयं 3, रोइआवसाणं 4 / अप्पेगइआ चउट्विहं पढ़ें जिणवरिंदस्स सत्तऽट्ठपयाई ओसरित्ता दसंगुलिअं अंजलिं णचंति / तं जहा-अंचिअं 1, दुअं२,आरभडं 3, भसोलं 4 / करिअ मत्थयंसि पयओ अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं महावित्तेहिं अप्पेगइआ चउव्विहं अभिणयं अभिणयंति / तं जहा-दिटुं अपुणरुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं संथुणइ, संथुणइत्ता वामं जाणुं तिअं१, पडिस्सुइअं२, सामण्णोवणिवाइअं३, लोगमज्झव- अचेइ,अंचेइत्ता०जाव करयलपरिग्गहिअंमत्थए अंजलिं कट्ट साणिअं४। अप्पेगइआ वत्तीसइविहं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसें ति। एवं बयासी-णमोऽत्थु ते सिद्ध! बुद्ध! णीरय ! समण ! समाहिआ! अप्पेगइआ ओप्पायं निवायं, निवाओप्पायं, संकुचिअप- समत्त ! समजोगि ! सल्लगत्तण ! णिब्भय ! णीराग-दोस ! सारिअंजाव भंतसंभंतणामं दिव्वं नट्टविहिं उपदंसंतीति / णिम्ममाणिस्संग ! णीसल्ल ! माणमूरण ! गुणरयणअप्पेगइआ तंडवें ति, अप्पेगइआलासेंति, अप्पेगइआपीणेति। सीलसागर ! अणंत ! अप्पमेय! भवि! धम्मवरचाउरंतचक्कएवं बुक्कारेंति, अप्फोडेंति, वग्गेति,सीहणायं णयंति। अप्पेगइया वट्टी! णमोऽत्थु ते अरहओ त्ति कट्ट वंदइ, णमंसइ, णमंसइत्ता सव्वाइं करेंति / अप्पे गइआ हयद्दे सिअं करेंति / एवं णचासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे०जाव पञ्जुवासइ। हत्थिगुलुगुलाइअं, रहघणघणाइअं / अप्पेगइया तिण्णि वि। (तए णमित्यादि) ततः सोऽच्युतेन्द्रः सपरिवारः स्वामिनमनन्त अप्पेगइआ उच्छोलेंति, अप्पेगइया पच्छालेंति, अप्पेगइया / रोतस्वरूपेण महत। महता अतिशयेन महता अभिषेकेणा
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________________ तित्थयर 2258 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर ऽभिषिशति, निगमनसूत्रत्वान्न पौनरुक्त्यम् / अभिषिच्य च करतलपरिगृहीत, यावत्पदसंग्राह्यं प्राग्वत्। मस्तके अजलि कृत्वा जयेन विजयेन प्रागुक्तस्वरूपेण वर्द्धयत्याशिषं प्रयुड् क्ते, पद्धयित्वा च ताभिर्विशिष्टगुणोपेताभिरिष्टाभिः श्रोतृणां वल्लभाभिर्यावत् करणात्"कंताहिं पिआहिं मणुण्णाहिं वगूहि" इति ग्राह्यम् / अत्र व्याख्या च प्राग्वत् / वाग्भिर्जयजयशब्दं प्रयुड़क्ते, संभ्रमे द्विर्वचन जयशब्दस्य। अत्र जयेन विजयेन वर्द्धयित्वा पुनर्जयविजयशब्दप्रयोगो, मड़ लवचने पुनरुक्तिर्न दोयायेत्यभिहितः / अथाभिषेकोत्तरकालीनं कर्त्तव्यमाह-- (पउंजित्ता इत्यादि) प्रयुज्य च / यावच्छब्दात- 'तप्पढमयाए'' इति ग्राह्यम् / अत्र व्याख्यातेष्वभिषेकोत्तरकालीनकर्तव्येषु प्रथमतया आद्यत्वेन पक्ष्मलसुकुमारया सुरभ्या गन्धकाषायिक्या गन्धकषायद्रव्यपरिकर्मितया, लघुशाटिकयेति गम्यम् / गात्राणि रूक्षयति. एवमुक्तप्रकारेण, यावत् कल्पवृक्षमिवालड्कृत वस्त्रालङ्कारेण आभरणालङ्कारण विभूषितं करोति / यावत्करणात- "लूहित्ता सरसेण गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपइत्ता नासानीसासवायबोज्झं चक्खुहरं वाण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेगं धवल कणगखचि अंतकम्म देवदूसजुअलं निअंसावेइ, निसावेइत्ता'' इति ग्राह्यम् / अत्र व्याख्या प्राग्वत्। नवरं देवदूष्ययुगलं परिधानोत्तरीयरूपं निवासयति, परिधावयतीति कृत्वा चायावत्करणात-''सुमिणदामं पिनद्धावेइ" इति ग्राह्यम्। नाट्यविधिमुपदर्शयति। उपदर्थ्य च अच्छ: लक्ष्णः रजतमयैरच्छरसतण्डुलैः भगवतः स्वामिनः पुरतोऽष्टाष्टमङ्गलकान्यालिखति। तद्यथा"दप्पणे" इति पद्यं सुगमम् / मङ्गलोल्लेखनोत्तरकृत्यमाह--(लिहिऊण त्ति) अनन्तरोक्तान्यष्टमङ्गलानि लिखित्वा करोत्युपचारमित्याद्यारभ्य कडुच्छुकग्रहणपर्यन्त सूत्रं चक्ररत्नपूजाधिकारलिखितव्याख्यातो व्याख्येयम्। ततः प्रयतः सन् यथा बालभट्टारकस्य धूपधूमाकुले अक्षिणी नभवतस्तथा प्रयत्नवान् धूपं दत्वा जिनवरेन्द्राय। सूत्रे षष्ठी आपत्वात् / अङ्गपूजार्थ प्रत्यासेदुषा मया निरुद्धो भगवद्दर्शनमार्गोऽतोऽहं मां परेषां दर्शनामृतपानविघ्नकारी स्यामिति सप्ताष्टानि पदान्यपसृत्य दशाङ् गुलिक मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा प्रयतो यथास्थानमुदात्ताऽऽदिस्वरोच्चारेषु प्रयत्नवानष्टशतैरष्टोत्तरशतप्रमाणेर्विशुद्धेन ग्रन्थेन पाठेन युक्तैर्महावृत्तैमहाकाव्यैर्यथा महाचरित्रैरपुनरुक्तैरर्थयुक्त श्चमत्कारिव्यङ्गययुक्तः संस्तौति। संस्तुत्य च वामं जानुम् अञ्चति उत्पाटयति, अश्चित्वा च यावत् पदात्-"दाहिणं जाणुं धरणिअलंसि निवाडेइ'' इति ग्राहाम्। अत्र व्याख्या प्राग्वत् / करतलपरिगृहीत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणमवादीत्। यदवादीत्तदाह(णमोऽत्थुते सिद्ध ! बुद्धा०इत्यादि) नमोऽस्तु ते तुभ्यं हे सिद्ध! एवं बुद्धत्यादिपदानि संबन्धनीयानि। तत्र हे बुद्ध / ज्ञाततत्त्व ! हे नीरजः कर्मरजोरहित ! हे श्रमण ! तपस्विन् ! हे समाहित ! अनाकुलितचित्त ! हे समाप्त ! कृतकृत्यत्वात्। अथवा-सम्यक प्रकारेणाऽऽप्त ! अविसंवादविचनत्वात् / हे समयोगिन ! कुशलमनोवाकाययोगित्वात्। शल्यकर्तन! निर्भय ! नीरागद्वेष ! निर्मम ! निस्सड ग ! निर्लेप ! निःशल्य ! (मानमूरण !) मानमर्दन ! गुणेषु रत्नमुत्कृष्ट यच्छीलं ब्रह्मचर्य तस्य सागर ! अनन्तज्ञानाऽऽत्मकत्वात् / अप्रमेय ! | प्राकृतज्ञानापरिच्छेद्य ! अशरीरजीवस्वरूपस्य छदास्थैः परिछेत्तुमशक्यत्वात् इति। अथवाऽप्रमेय ! भगवद् गुणानामनन्तत्वेन संख्यातुमशक्यत्वात्। भव्य ! मुक्तिगमनयोग्य ! अत्यासवभवसिद्धत्वात्। धर्मेणधर्मरूपेण वरेण प्रधानेन भाषप कत्वात् चतुरन्तेन चतुर्गत्यन्तकारिणा चक्रेण वर्तत इत्येवंशीलः, तस्य सम्बोधन हे धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिन् ! नमोऽस्तु तुभ्यम् अर्हते जगत्पूज्याय, इति कृत्वेति संस्तुत्य, वन्दते, नमस्यतीत्यादि सूत्रं प्राग्वत्। यचात्र विशेषणवर्णकस्याऽऽदौ नमोऽस्तुते' इत्युक्त्वा पुनरपि 'नमोऽस्तु ते' इत्युक्तं, तन्न पुनरुक्तये, प्रत्युत लाघवाय, यतो जगत्त्रयप्रतिस्रोतश्चारित्रिणो जगत्त्रयपतेस्तत्तदसाधारणैकैकविशेषणविभावनात् समुदभूतप्रणामपरिणामेन हरिणा प्रतिविशेषणं 'नमोऽस्तु ते' इति न प्रयुक्तमिति / इमानि च सर्वाणि विशेषणानि भव्यपदवर्जानि 'भाविनि भूतवदुपचारात्। अन्यथाऽभिषेकसमये जिनानामेतादृशविशेपणमयुक्तम्, असंभवादिति। (30) अथावशिष्टानामिन्द्राणां वक्तव्यं लाघवादाहएवं जहा अचुअस्स तहा०जाव ईसाणस्स भाणिअव्वं / एवं भवणवइवाणमंतरजोइसिआ य सूरपज्जवसाणा सएणं सएणं परिवारेणं पत्ते पत्तेअं अभिसिंचंति / तए णं ईसाणे देविंदे देवराया पंच ईसाणे विउव्वइ, विउव्वइत्ता एगे ईसाणे भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हइ, गिण्हइत्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसपणे; एगे ईसाणे पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ; दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुक्खेवं करें ति; एगे ईसाणे पुरओ मूलपाणी चिट्ठइ। (एवं जहा इत्यादि) एवमुक्तविधिना यथाऽच्युतेन्द्रस्याऽभिषेककृत्य तथा प्राणतेन्द्रस्य यावदीशानेन्द्रस्यापि भणितव्यं, शक्राभिषेकस्य सर्वतश्वरमत्वात्। एवं भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्काश्चन्द्राः सूर्यपर्यवसानाः स्वकेन 2 परिवारेण सह प्रत्येक प्रत्येकमभिषिञ्चन्ति। (तएणमित्यादि) ततरित्रषष्टीन्द्राभिषेकानन्तरमीशानो देवेन्द्रो देवराजा पोशानान् विकुर्वति, एक ईशानः पञ्चधा भवति। एतदेव विभजतितत्र एक ईशानो भगवन्तं तीर्थकर करतलसम्पुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः। एक ईशानः पृष्ठतः आतपत्रं धरति / द्वावीशानावुभयोः पार्श्वयोः चमोत्क्षेपं कुरुताः / एक ईशानः पुरतः शूलपाणिस्तिष्ठत्यूर्द्धस्थो भवति। (31) अथावशिष्टशक्रस्याभिषेकावसरः-- तएणं से सक्के देविंदे देवराया आभिओगे देवे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एसो वि तह चेव अभिसेआणमादिसइ, ते वि तह चेव उवणेति / तए णं से सक्के देविंदे देवराया भगवओ तित्थयरस्स चउद्दिसिं चत्तारि धवलवसभे विउव्वइ, सेए संखदलविमल निम्मलदघिघणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासे पासाइए दरसणिजे अभिरूवे पडिरूवे / तए णं तेसिं चउण्हं धवलवसभाणं अट्ठहिं सिंगेहिं तो अट्टतोयधाराओ णिग्गच्छंति। तएणं ताओ अट्ठ तोयधाराओ उड्ढे वेहासं समुप्पयंति, समुप्पयंतित्ता एगओ मिलायंति, मिलायंतित्ता भगवओ तित्थयरस्स मुद्धाणंसि निवयंति / तए णं से सक्के
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________________ तित्थयर 2256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर देविंदे देवराया चउरासीईए सामाणिअसाहस्सीहि,०एअस्स वि हिअसमुदयं भगवओ तित्थयरस्स उल्लोअंसि निक्खिवइ, तं तहेव अभिसेओ भाणिअव्वो०जाव 'णमोऽत्थु ते अरहो' तिकडु णं भगवंतित्थयरं अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणे पेहमाणे सुहं वंदइ, णमंसइ०जाव पज्जुवासइ। सुहेणं अभिरममाणे चिट्ठइ। सम्प्रत्यव्यग्रणणिः शक्रो यदकरोत्तदाह-(तए णमित्यादि) तत (तए णमित्यादि) प्राग्वत् / अथ जन्मनगरप्रापणाय सूत्रम्- (तए ईशानेन्द्रेण भगवतः करसंपुटग्रहणानन्तरं स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा णमिति) ततः स शक्रः पञ्चरूपत्रिकुर्वणानन्तरं चतुरशीत्या सामाआभियोग्यान् देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा च एषोऽपि तथैवाऽच्यु- निकसहस्रर्यावत् संपरिवृतः सर्वद्ध्या यावन्नादितरवेण तयोत्कृष्टया तेन्द्रवदभिषेकविषयिकामाज्ञप्तिं ददाति, तेऽप्याभियोग्यास्तथैवा- दिव्यया देवगत्या व्यतिव्रजन व्यतिव्रजन् यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य ऽच्युतेन्द्राभियोग्यदेवा इवाभिषेकस्तून्युपनयन्ति / अथ शक्रः किं किं जन्मनगर, यत्रैव च जन्मभवन, यत्रैव तीर्थकरमाता, तत्रैवोपगच्छति। चकारेत्याह-(तएणमित्यादि) ततोऽभिषेकसामग्युपनयनानन्तरं सशक्रो उपागत्य च भगवन्त तीर्थकरं मातुः पार्थे स्थापयति। स्थापयित्वा च देवेन्द्रो देवराजा भगवतस्तीर्थकरस्य चतुर्दिशि चतुरो धवलवृषभान् तीर्थकरप्रतिबिम्ब प्रतिसहरति। प्रतिसंहृत्य चावस्वापिनी प्रतिसंहरति / विकुर्वति, श्वेतान्। श्वेतत्वमेव द्रढयतिशङ्खस्यदलं चूर्ण विमलनिर्म- प्रतिसंहत्य चैकं महत् क्षौमयोर्दुकूलयोर्युगलं कुण्डलयुगलं भगवतस्तीर्थलोऽत्यन्तनिर्मलो यो दधिघनो दधिपिण्डो, बद्धदधीत्यर्थः / गोक्षीरफेनः करस्योच्छीर्षकडूले स्थापयति। स्थापयित्या च एक महान्तं श्रीदाम्ना प्रतीतः, रजतनिकरोऽपि / एतेषामिव प्रकाशो येषां ते तथा, तान् शोभावद्विचित्ररत्नमालानां गण्डं गोलं वृत्ताऽऽकारत्वात् / काण्डं अ (पासाइए इत्यादि) प्राग्वत् / तदनन्तरं किमित्याह-(तए णमिति) समूहः, श्रीदामगण्ड श्रीदामकाण्ड वा, भगवतस्ती ती निक्षिपत्यवलम्बततस्तेष चतुर्णा धवलवृषभानामष्टभ्यः शृङ्गे भ्योऽष्टोतोयधारा यतीति क्रियायोगः / तपनीयेत्यादि सूत्र प्राग्वत् / नानामणिरत्नानां ये निर्गच्छन्ति / ततस्ता अष्टौ तोयधारा ऊर्द्ध विहायसि उत्पतन्ति ऊर्द्ध विविधहारार्द्धहारास्तैरुपशोभितः समुदायः परिकरो यस्य तत् तथा। चलन्ति, उत्पत्य च एकतो मिलन्ति, मिलित्वा च भगवतस्तीर्थकरस्य अथमर्थः-श्रीमत्यो रत्नमालास्तथा गृथयित्वा गोलाकारेण कृताः यथा भूछिर्न निपतन्ति। अथ शक्रः किं कृतवानित्याह-(तएणमिति) ततः स चन्द्रगोपके मध्यकुम्बनकतां प्रापिताः, हारार्द्धहाराश्च परिकरझुम्बनशक्रो देवेन्द्रो देवराजा चतुरशीत्या सामानिकसहस्त्रयस्त्रिंशता कताम। उक्तस्वरूपझुम्बनकविधाने प्रयोजनमाह-(तंणमिति प्राग्वत) वयस्त्रिंशकैर्यावत् संपरिवृतस्तैः स्वाभाविकवैकुर्विककलशैर्महता भगवारतीर्थकरो निर्निमेषया दृष्ट्याऽत्यादरेण प्रेक्ष्यमाणः प्रेक्ष्यमाणः सुखं तीर्थकराभिषेकेणाभिषिञ्चति, इत्यादिसूत्रोक्ताभिषेकविधिः शक्रस्याऽ- सुखेनाभिरममाणो रतिं कुर्वस्तिष्ठति। च्युतेन्द्रवदस्तीति। लाघवमाह-एतस्याऽपि तथैवाभिषेको भणित-व्यः / (33) अथ वैश्रवणद्वारा शक्रस्य कृत्यमाहकियदन्त इत्याह-यावन्नमोऽस्तु तेऽहत इति कृत्वा वन्दते, नमस्यति, तएणं से सकें देविंदे देवराया वेसमणं देवं सहावेइ, सद्दावेइत्ता नन्त्वा यावत् पर्युपास्ते इति। एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बत्तीसं हिरण्णको(३२) अथ कृतकृत्यः शक्रो भगवतो जन्मपुरप्रापणायोपक्रमते- डीओ बत्तीसं सुवण्णकोडीओ वत्तीसं रयणकोडीओ वत्तीसं तएणं से सक्के देविंदे देवराया पंच सक्के विउव्वइ, विउव्वइत्ता गंदाइंबत्तीसं भद्दाइंसुभगे सुभगरूवजोव्वणलावण्णे अभगवओ एगे सके भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिट्ठओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि, साहराहित्ता एअमाणआयवत्तं घरेइ,दुवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेवं करें ति, त्ति पचप्पिणाहि। तएणं से वेसमणे देवे सक्केणं 0 जाव विणएणं एगे सक्के पज्जपाणी पुरओ पकड्डइ / तए णं से सक्के चउरासीईए वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेइत्ता जंभए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता सामाणिअसाहस्सीहिं०जाव अण्णेहि अ भवणवइवाणमंतर- एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वत्तीसं हिरण्णकोडीओ० जोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि असद्धिं संपरिबुडे सव्विड्डीए जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरह, एअमाण जाव णाइअरवेणं ताए उक्किट्ठाए०जाव जेणेव भगवओ त्ति पचप्पिणह / तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं तित्थयरस्स जम्मणणयरे, जेणेव जम्मणभवणे,जेणेव तित्थय- वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ०जाव खिप्पामेव बत्तीसं हिरण्णकोडीओ० रमाया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता भगवं तित्थयरं माउए जाव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणंसिसाहरंति, साहरंतित्ता पासे ठवेइ, ठवे इत्ता तित्थयरपडि रू वगं पडि साहरइ, जेणेव वेसमणे देवे तेणेव०जाव पच्चप्पिणंति। तए णं से वेसमणे पडिसाहरइत्ता ओसोवणिं पडिसाहरइ, पडिसाहरइत्ता एग महं | - देवे जेणेव देविंदे देवराया० जाव पचप्पिणइ / खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवओ तित्थयरस्स उस्सीस- (तए णमित्यादि) ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा वै श्रवणमुत्तगमूले ठवेइ, ठवेइत्ता एगं महं सिरिदामगंडं तवणिज्जलंबूसगं रदिक पाल देव शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो सुवण्णपयरगअंडिणाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसो- देवानुप्रियाऽऽद्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी, द्वात्रिंशतं सुवर्णकोटीः,
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________________ तित्थयर 2260- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर द्वात्रिंशतं नन्दानि वृत्तलो हाऽऽसनानि, द्वात्रिंशतं भद्राणि भद्राऽऽ- महामहिमाओ करें ति, करेंतित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूआ तामेव सनानि, सुभगानि शोभनानि, सुभगयौवनलावण्यानि रूपकाणि यत्र दिसिं पडिगया। तानि तथा। सूत्रे पदध्यत्यय आर्षत्वात्। चः समुच्चये। भगवतस्तीर्थकरस्य अथ निगमनसूत्रमाह-(तए णमिति) ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवा जन्मभवने संहराऽऽनयेत्यर्थः / संहृत्य च एनामाज्ञप्ति प्रत्यर्पय। ततः स भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं कुर्वन्ति, कृत्वा च सिद्धसमीहितकार्ये वैश्रमणो देवः शक्रेण, यावत्- "देविंदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे मङ्गलार्थ यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्याष्टाहिहट्टतुट्ठचित्तमाणदिए एवं देवो! तह त्ति आणाए।'' इति ग्राह्यम्। विनयेन कामहामहिमा अष्टदिननिर्वर्तनीयोत्सवविशेषान् कुर्वन्ति, बहुवचनं चात्र वचनं प्रतिशृणोति, प्रतिभुल्य च जृम्भकान् तिर्यग् लोके वैताढ्यद्वितीय- सौधर्मेन्द्राऽऽदिभिः प्रत्येक क्रियमाणत्वात् / अथ यस्येन्द्रस्य यस्मिन् श्रेणिवासित्वेन तिर्यग् लोकगतनिधानाऽऽदिवेदिनः शब्दयति, शब्द- अञ्जनगिरौ येषु च दधिमुखगिरिषु तल्लोकपालानामष्टाहिकाधिकारः यित्वा चैवमवादीत्। शेषमनुवाद-सूत्रत्वात् सुबोधम्।। स ऋषभदेवनिर्वाणाधिकारे उक्त इति नात्र लिख्यते। जं०५ वक्ष०। (34) अथास्मासु स्वस्थानं प्राप्तेषु निःसोदर्यसौन्र्दयाधिके (36) इन्द्रसंख्याभगवति मा दुष्टां दुर्दृष्टि निक्षिपन्त्वित्युद्घोषणा भवणिंद वीस वंतरपहु दुत्तीसं च चंदसूरा दो। तए णं से सक्के देविंदे देवराया आभिओगे देवे सद्दावेइ, कप्पसुरिंदा दस इय, हरि चउसर्टिति जिणजम्मे / / 104|| सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! भगवओ भवनपतीनां विंशतिरिन्द्राः२० / व्यन्तराणा प्रभव इन्द्राः द्वात्रिंशच 32 / तित्थयरस्स जम्मणणयरंसि सिंहासणं महापहेसु महया महया द्वौ चन्द्रसूर्यो 2 / द्वादशकल्पानां देवलोकानां दश सुरेन्द्राः 10 / इति सद्देणं उग्रोसेमाणे उग्रोसेमाणे एवं वदहहंद ! सुणंतु भवंतो इन्द्राः चतुष्पष्टिश्चतुः संयुक्ता षष्टियन्तिआगच्छन्ति जिनजन्मनि / इति बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसबेमाणिआ देवाय देवीओ अ, जे गाथाऽर्थः / / 104 / / सत्त०३५ द्वार। आ०चूला जंग। णं देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्स तित्थयरमाउए वा असुभं मणे (37) उपदेशःपधारेइ, अजगमंजरिआ इव सयधा मुद्धाणं फुट्टतु त्ति कट्ट से बेमि जे य अतीता,जे य पद्धप्पन्ना, जे य आगमिस्सा घोसणं घोसेह, घोसेइत्ता एअमाणत्तिअं पचप्पिणह / तए णं ते अरिहंता भगवंता सव्वे ते एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं आभिओगा देवा०जाव एवं देवो ! त्ति आणाए पडिसुणंति, पण्णवेंति, एवं परूवेंतिसव्ये पाणाजाव सत्ता ण हंतव्वा, ण पडिसुणं तित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतिआओ अज्जावेयव्वा,ण परिघेतव्वा,ण परितावेयव्वा,ण ओद्दवेयव्वा, पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमंतित्ता खिप्पामेव भगवओ एस धम्मे धुवे णितिए सासए समिच लोगं खेयन्नेहिं पवेइए, तित्थयरस्स जम्मणणगरंसि सिघामग०जाव एवं क्यासी-हद ! इति एवं से भिक्खू विरते पाणातिवायतो०जाव परिग्गहातो णो सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ०जाव जे णं देवाणुप्पिओ ! दंतपक्खालणेणं दंतं पक्खालेज्जा, णो अंजणं, णो वमणं, णो तित्थयरस्स० जाव फुट्टिहि त्ति कट्ट घोसणगं घोसंति, घोसंतित्ता धूवणे, णो तं परिआविएज्जा / / 4 / / एअमाणत्तिअंपचप्पिणंति॥ सोऽहं ब्रवीम्येतन्न स्वमनीषिकतया, किं तु सर्वतीर्थकराऽऽज्ञयेति तदुपायार्थमाह-(तए णमित्यादि) ततो वैश्रवणेनाऽऽज्ञाप्रत्यर्प दर्शयति-(जे अतीता इत्यादि) ये केचन तीर्थकृत ऋषभा-ऽऽदयोऽणानन्तरं स शक्रः देवेन्द्रो देवराजा आभियोग्यान् देवान् शब्दयति, तीताः, ये च विदेहेषु वर्तमानाः सीमन्धराऽऽदयो, ये चागामिन्यामुत्सशब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! भगवतस्तीर्थकरस्य पिण्यां भविष्यन्ति ब्रह्मनाभाऽऽदयोऽर्हन्तोऽमरासुरनरेश्वराणं पूजाहाः, जन्मनगरे शृङ्गाटकण्यावन्महापथेषु महता महता शब्देन उद्घोषयन्त भगवन्त ऐश्वर्याऽऽदिगुणकलापोपेताः, सर्वेऽप्येवं ते व्यक्तवाचा उद्घोषयन्त एवं वदत- 'हंत' इति प्राग्वत् / शृण्वन्तु भवन्तो बहवो आख्यान्ति प्रतिपादयन्ति। एवं सदेवमनुजायां पर्षदि भाषन्ते स्वतएव, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाश्च देव्यश्व, योऽनिर्दिष्टनामा न यथा बौद्धानां बोधिसत्त्वप्रभावात् कुड्यादिदेशनत इत्येवं प्रकर्षण देवानां प्रिय ! इति संबोधनं, भवतां मध्ये तीर्थकरस्य तीर्थकरमा ज्ञापयन्ति हेतूदाहरणाऽऽदिभिः, एवं प्ररूपयन्ति नामाऽऽदिभिः, यथा तुर्वोपर्यशुभं मनः प्रधारयति दुष्ट संकल्पयति, तस्य आर्यकमञ्जरिकेव सर्वे प्राणा न हन्तव्या इत्यादि। एष धर्मः प्राणिरक्षणलक्षणः प्राग्व्यावआर्यको वनस्पतिविशेषो,यो लोके "आजउ'' इति प्रसिद्धः, तस्य र्णितस्वरूपो ध्रुवोऽवश्यंभावी, नित्यः क्षान्त्यादिरूपेण शाश्वत इत्येवं मञ्जरिका इव मूर्द्धा शतधा स्फुटत्विति कृत्वेत्युक्त्वा धोषण घोषयत, चाभिसमेत्य, केवलज्ञानेनावलोक्य लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं, घोषयित्वा चैतामाज्ञ-प्तिका प्रत्यर्पयत इति / / खेदहस्तीर्थकृद्धिः प्रवेदितः कथित इत्येवं सर्व ज्ञात्वा स भिक्षुर्विदितवेद्यो (35) अष्टाहिका विरतः प्राणातिपाताद्, यावत्परिग्रहादिति / एतदेव दर्शयितुमाह-(णो तएणं ते बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा भगवओ दंत इत्यादि) इह पूर्वोक्तमहाव्रतपालनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपाद्यन्ते। तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेंति, करेंतित्ता जेणेव णंदीसरवर- तत्रापरिग्रहो निष्किञ्चनः स साधु। दन्तप्रक्षालनेन कदम्बाऽऽदिकाष्ठेन दीवे तेणेव उवागच्छंति , उवागच्छं तित्ता अट्ठाहियाओ | दन्तान् प्रक्षालयेत्, तथा नो अञ्जनं सौवीराऽऽदिकं विभूषार्थमक्ष्णो
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________________ तित्थयर 2261 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर दद्यात्, तथा नो वमनविरेचनाऽऽदिकाः क्रियाः कुर्यात्, तथा नो शरीरस्य, स्वीयवस्वाणां वा धूपनं कुर्यात, नापिकासाऽऽद्यपनयनार्थ तं धूमं योगवर्तिनिष्पादितमापिवेदिति।४६। सूत्र०२ श्रु०१अ०। आचा० आ०म०। धर्मोपायस्य देशका इत्येतद् व्याचिख्यासुराहधम्मोवाओ पवयणमहवा पुव्वाइँ देसया तस्स। सव्वजिणाण गणहरा, चोद्दसपुव्वी उजे जस्स / / धर्मोपायो नाम प्रवचनं, तदन्तरेण धर्मस्यासम्भवात् अथवा-पूर्वाणि। तस्य धर्मोपायस्य देशकाः सर्वजिनानां गणधराः, तेषां मूलसूत्रकर्तृत्वात्। अथवा-ये यस्य तीर्थकृतश्चतुर्दशपूर्विणस्ते धर्मोपायदेशकाः, परिपूर्णश्रुततया तेषा यथाऽवस्थितवस्तुदेशकत्वात्। सामाइयाऽऽइया वा, वयजीवनिकायभावणा पढमं / एसो धम्मोधाओ, जिणे हिँ सव्वेहिँ उवइट्ठो।। याशब्दःप्रकारान्तरताद्योतनार्थः / अथवा-या प्रथमं व्रतजीवनिकायभावना महाव्रतविषयषड़जीवनिकाययथावस्थितपरिज्ञानसम्यक्श्रद्धानसंरक्षणाध्यवसायरूपा भावना, सामायिकाऽऽदिका रागद्वेषपरिहारेण समभावाऽऽदिका, एष धर्मोपायः, तमन्तरेण सम्यक चारित्ररूपधर्मासम्भवात्। इत्थम्भूतश्च धर्मोपायो जिनैः सर्वैरप्युपदिष्टः, ततो धर्मोपायस्य देशकास्त एव जिना इति आ०म० 1 अ०१ खण्ड। (38) उपकरणसंख्यापत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया। पडलाइँ रयत्ताणं, च गोच्छओ पायनिज्जोगो / / 178|| तिन्नेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होइ मुहपुत्ती। वार जिणकप्पियाणं, थेराण समत्तकडिपट्टो।।१७६।। साध्वीनां पञ्चविंशत्युपकरणानिओग्गहऽणंतगपट्टो, अद्धोरुय चलणिया य बोधव्वा / अभिंतरबाहिनियं-सणी अतह कुंचए चेव / / 180 / / उक्कच्छिय वेकच्छिय-संघाडी खंधगरणि उवगरणा। पुव्विल्ल तेर कमढग-सहिया अजाण पणवीसं / / 181 / / (गाथार्थः द्वि०भागे 'उवगरण' शब्दे 1061 पृष्ठ प्ररूपितः) सप्त यात्रोपकरणानि, सप्त देहोपकरणानि, एतानि साधूनां स्थविरकल्पिकानाम। द्वादश जिनकल्पिकानां, साध्वीनां पञ्चविंशत्युपकरणानि / सत्त०१२६ द्वार। (36) उपरनर्गःउवसग्गा पासस्स य, वीरस्सयन उण सेसाणं। (166) उपसर्गाः देवमनुजाऽऽदिकृताः श्रीपार्श्वनाथस्य, वीरजिनस्य च संजाताः, नपुनः शेषाणां द्वाविंशतिजिनानाम्। अयं भावार्थःश्रीऋषभवीरवर्जानां द्वाविंशतिजिनानां प्रमादो नाभूत, श्रीपार्श्ववीरवर्जाना द्वाविंशतिजिनानामुपसर्गा नाभूवन्। सत्त०८६ द्वार। आ०चू०। कल्प०| आव०। बृ० (40) उत्सेधाड् गुलेनात्माङ्गुलेन च देहमानं जिनानां कथ्यतेपण धणुसय पन्नऽट्ठसु, दस पणसु पणऽद्वसु य धणुहहाणी। नवकर सत्तुस्सेहो, आयंगुलि वीससय सव्वे / / 131 / / चउ धणु वारस्स दुगं, उसहायंगुलपमाणअंगुलयं / तेणुसहो विंससयं, बारंगुलहाणि जा सुविही // 13 // वीसंसदुअंगुलहाणि जावऽणंतो तयऽद्ध जा नेमी। सगवीसंसा पासे, वीरें गवीसं सपन्नासा।।१३३|| तत्रोत्सेधाङ् गुलेन ऋषभजिनः पञ्चशत् (500) धनुर्देहमानः 1 / (पन्नऽसु त्ति) ततः पञ्चाशद्धनुर्हानिः क्रियते अष्टसु जितेषु / यथाअजितः सार्द्धचत्वारिधनुः शतानि (450) देहमानः 2 / सम्भवः चतुःशत (400) धनुर्देहमानः 3 / अभिनन्दनः (350) सार्द्धत्रिंशच्छतधनुर्देहमानः 4 / सुमतिः (300) त्रिंशच्छतधनुर्देहमानः 5 / पद्मप्रभः (250) सार्द्धद्विशतधनुर्देहमानः 6 / सुपार्श्वः (200) द्विशतधनुर्देहमानः 7 / चन्द्रप्रभः (150) सार्द्धशतधनु-र्देहमानः 8 / सुविधिः (100) शतधनुर्देहमानः।। (दस पणसुति) दशधनुर्हानिः पञ्चसु जिनेषु क्रियते / यथा-शीतलः (60) नवतिधनुर्देहमानः 10 / श्रेयांसः (80) अशीतिधनुर्देहमानः११ / वासुपूज्यः (70) सप्ततिधनुर्देहमानः 12 / विमलः(६०) क्लष्टिधनुर्देहमानः 13 // अनन्तः (50) पञ्चाशद्धनुर्देहमानः 14 / (पणऽट्टसु यत्ति) अष्टसु जिनेषु पञ्चधनुर्हानिः क्रियते / यथा-धर्मः (45) पञ्चचत्वारिंशद्धनुर्देहमानः१५। शान्तिः (40) चत्वारिंशद्धनुर्देहमानः 16 / कुन्थुजिनः (35) पञ्चत्रिंशद्धनुर्देह-मानः 17 / अरः (30) त्रिंशद्धनुर्देहमानः 18 / मल्लिः (25) पञ्चविंशतिधनुर्देहमानः 16 / मुनिसुव्रतः (20) विंशतिधनुर्देहमानः 20 / नमिः (15) पशदशधनुर्देहमानः 21 / नेमिः (10) दशधनुर्देहमानः 22 / (नवकर त्ति) नवकरदेहमानः पार्श्वजिनः२३। (सत्तुस्सेहोत्ति)सप्तोत्सेधः सप्तहस्तोन्नतो वीरः 24 / सत्त० 46 द्वार / पासे णं अरहा पुरिसादाणीयस्स वज़रिसहसमचउरंस० नवरयणिओ उड्ड उच्चत्तेण होत्था। स्था०६ ठा० (आयंगुलवीस सय सव्वे त्ति) आत्मामुलैः सर्वे जिनाश्चतुर्विशतिरपि विंशत्यधिकशतागुलप्रमाणदेहा ज्ञेयाः / इति गाथाऽर्थः / सत्त०५० द्वार / प्रमाणाङ् गुलैर्जिनानां देहमानमाह-तत्र उत्सेधा -गुलघटितानि चत्वारि धनूषि, तथा एकधनुषो द्वादशांशाः क्रियन्ते, तादृशां शाधिकमृषभदेवस्याऽऽत्माङ्गलं तथा प्रमाणानुलमपि भवति / तेनाडु लेन ऋषभो विंशत्यधिक शतं भवति / एतावता ऋषभदेहमानम् (120) अङ्गुलम् 1 / (वारंगुलहानि जा सुविहि त्ति) ततो द्वादशाड्गुलहानिः क्रियते, यावत् सुविधिर्नवमजिनो भवति / यथा अजितस्याष्टोत्तरशतम् (108) अड्डलं देहमानम् 2 / सम्भवस्य (66) षण्णवत्यगुलानि 3 आभनन्दनस्य (84) चतुरशीत्यङ्गुलम् ४।सुमतेः (72) द्विसप्ततिः 5 / पद्मप्रभस्य (60) षष्टिः 6 / अष्टचत्वारिंशत् (48) सुपार्श्वस्य 7 / चन्द्रप्रभस्य (36) षट् त्रिंशत् 8 / सुविधेः (24) चतुविशत्यड्डलम् / / (वीसंसदुअं-गुलहाणि जावऽणतो त्ति) विशत्यंशयुक्ताडगुलद्विकहानिः क्रियते यावदनन्तः / शीतलजिनादारभ्यानन्तं यावत् प्रमाणा गुलद्विकेन तथैकस्य प्रमाणाडगुलस्य पञ्चाशद्भागाः क्रियन्ते, तत्र तादृशैः विंशतिभागैश्च हानिः क्रियते, यथा-शीतलस्य 21 एकविंशतिरकुलानि, तथा एकस्य प्रमाणाङ्गु लस्य पञ्चाशद्भागाः क्रियन्ते, तादृशविंशतिहीने तादृशाः त्रिंशदागा देहमानम् 10 / श्रेयांसस्य 16 एकोनविंशत्यड गुलानि दशांशाः पञ्चाशाः 50 देहमानम् 11 // वासुपूज्यरयाड गुलाः 16 षोडश 40 अंशाः पञ्चाशा 50/122 विमलस्याङ्गुलाः 14 चतुर्दश 20 विंशत्यशाः 13 / अनन्तस्याङ्गुला 12 द्वादश
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________________ तित्थयर 2262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर 14 / (तयऽद्ध जा नेमि त्ति) तदर्द्धहानिर्यावन्नेमिः। धर्मस्य 10 दशाड् गुलाः 40 चत्वारिंशत्यंशाः 15 / शान्तेः नवाङ्गुलाः 30 त्रिंशदशाः 16 / कुन्थुनाथस्याङ्गुला 8 अष्टौ 20 विंशदंशाः 50 पञ्चाशाः 17 / अरनाथस्य 7 सप्ताडगुलाः 10 दशांशाः 50 पञ्चाशाः 18 / मल्लिनाथस्य षडडुलाः 16 / मुनिसुव्रतस्य 4 चत्वार्यडगुलाः 40 चत्वारिंशदंशाः 50 पञ्चाशाः 20 / नमः 3 व्यङ् गुलाः 30 त्रिंशदंशाः 21 / नेमेः 2 द्वयड गुलं विंशदेशाः 50 पश्चाशाः 22 (सगवीसंसा पासे त्ति) पार्श्वस्य 27 सप्तविंशत्यंशाः 50 पञ्चाशाः 23 / (विरेगवीसं ति) वीरस्यैकविंशत्यंशाः 24 / (सपन्नास त्ति) एकाङ्कुलस्य पञ्चाशदंशाः क्रियन्ते तादृशा एकविंशत्यंशाः श्रीवीरस्य देहमानम्। एष पञ्चाशशब्दः शीतलजिनादारभ्य वीरजिनं यावद् ज्ञेयः। सत्त०५१ द्वार। (41) चतुर्विशतिजिनानामवधिज्ञानिमुनिसंख्या-- अह ओहिनाणि नवई, चउनवई छण्णवइ अट्ठणवई। एयाइसयाइ तओ, इगार दस नव अडसहस्सा / 255 / चुलसी बिसयरि सट्ठी, चउपन्नऽमयाल तह य तेयाला। छत्तीसं तीससया, पणवी छव्वीस बावीसा / / 256 / / अट्ठार सोल पनरस, चउरसा तेरस सया अवधिनाणी। लक्खेक तित्तिससह-स्स चतारि सयाइँ सव्वंके // 257|| ऋषभस्यावधिज्ञानिमुनयो नवतिशतानि१, एवं सर्वत्र क्रमेण जिनानामवधिज्ञानिमुनिसंख्या ज्ञेया / तथाहि-चतुर्नवतिशतानि 2, षण्णवतिशतानि 3, अष्टनवतिशतानि 4 / (तउ ति) एकादशसहस्त्राणि५, दशसहस्राणि 6, नवसहस्राणि 7, अष्टौ सहस्राणि 8 / (चुलसी ति) चतुरशीतिशतानि ६द्विसप्ततिशतानि 10, पष्टिशतानि 11, चतुःपञ्चाशच्छतानि 12, अष्टचत्वारिंशच्छतानि 13 तथा च त्रित्वारिंशच्छतानि 14, षट् त्रिंशच्छतानि 15, त्रिंशच्छतानि १६,पक्षविंशतिशतानि 17, षड्दिशतिशतानि 18, द्वाविंशतिशतानि 16 / अष्टादशशतानि 20, षोडशशतानि 21, पञ्चदशशतानि 22, चतुर्दशशतानि 23, त्रयोदशशतानि 24 / एते चतुर्विशतिजिनानामवधिज्ञानिमुनयः / सर्वेषामङ्कानांपरिगणनमीलने 133400 एक लक्ष त्रयस्त्रिंशत् सहस्राणि चत्वारि शतानि भवन्ति / सत्त० 118 द्वार। (42) कल्पशोधिमाहपुरिमस्स दुव्विसुज्झो, चरमस्स य दुरणुपालगो कप्पो। मज्झिमगाण जिणाणं, सुविसुज्झो सुहणुपालणओ // 261|| प्रथमतीर्थकृद्यतीनां कल्प आचारो दुर्विशोध्यः दुर्बोध्यः, दुःखेन बोध्यते इति दुर्बोध्यः / चरमजिनस्य दुःखेन पाल्यते / मध्यमकानां जिनाना द्वाविंशतिजिनानां सुखेनावबोयः, सुखेन अनुपाल्यः। सत्त०१३७ द्वार आ०म०। कल्पका स्थान पंचहिं ठाणेहिं पुरिमपच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवइ / तं जहा-दुआइक्खं, दुविभजं, दुप्पस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं। पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गर्म भवइ / तं जहासुआइक्खं, सुविभजं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरणुचरं। सुगमश्वायं, नवरं पञ्चसु स्थानकेषु आख्याताऽऽदिक्रियाविशेषलक्षणेषु पुरिमा भरतैरावतेषु चतुर्विशतिरादिमाः, ते च पश्चिमकावरमाः पुरिमपश्चिमकाः, तेषां जिनानामर्हता (दुग्गम ति) दुःखेन गम्यत इति दुर्गम, भावसाधनोऽयम्, कृच्छ्रवृत्तिरित्यर्थः। तद्वति, विनेयानामृजुजडत्वेन, वक्रजडत्वेन च। तानि चेमानि-तद्यथेत्यादि / इह चाख्यान, विभजन, दर्शन, तितिक्षणमनुचरणं चेत्येवं वक्तव्येऽपि येषु स्थानेषु कृच्छ्रवृत्तिर्भवति, तानि तद्योगात कृच्छ्रवृत्तीन्येवोदयन्त इति कृच्छ्रवृत्तिद्योतकदुःशब्दविशेषितानि कर्मसाधनशब्दाभिधेयान्याख्यानाऽऽदीनि। विचित्रत्वात् शब्दप्रवृत्तेराह-(दुआइक्खमित्यादि) तत्र दुराख्येयं कृच्छ्राख्येयं वस्तुतत्त्वं विनेयानां महावचनाऽऽटोपप्रबोध्यत्वेन भगवतामायासोत्पत्तेरिति। एवमाख्याने कृच्छ्रवृत्तिरुक्ता। एवं विभजनाऽऽदिष्वपि भावनीया / तथा-आख्यातेऽपि तत्र दुर्विभज कष्टविभजनीयम्, ऋजुजडत्वाऽऽदेरेव तद्भवतीति, दुःशकं शिष्याणां वस्तुतत्त्वस्य विभागेनावस्थापनमित्यर्थः ; दुर्विभावमित्यत्र पाठान्तरेदुर्विभाव्यं, दुःशका विभाहना कर्तुं तस्येत्यर्थः / तथा-(दुप्पस्सं ति) दुःखेनदीत इति दुर्दर्शमुपपत्तिभिर्दुःशक शिष्याणां प्रतीतावारोपयितुं तत्त्वमिति भावः / (दुतितिक्खं तिग) दुःखेन तितिक्षते सह्यत इति ट्रस्तितिक्षं परीषहाऽऽदि दुःशकं परीषहाऽऽदिकमुत्पन्नं तितिक्षयितुं शिष्यं तत्प्रति क्षमा कारयितुमिति भाव इति। (दुरणुचरं ति) दुःखेनानुचर्यतेऽनुष्ठीयत इति दुरनुचरमन्तभूतकारितार्थत्वेन दुःशकमनुष्ठापयितुमित्यर्थः / अथवा-तेषां तीर्थे दुराख्येयं दुर्विभजमाचार्याऽऽदीनां वस्तुतत्त्वं स्वशिष्यान प्रति आत्मनाऽपि दुर्दर्श दुस्तितिक्ष दुरनुचरमित्येवंकारितार्थ विमुच्य व्याख्येयम्, तेषामपि ऋजुजडाऽऽदित्वादिति / मध्यमानां तु सुगगमकृच्छ्रवृत्ति, तद्विनेयानामृजुप्राज्ञत्वेनाल्पप्रयत्नेनैव बोधनीयत्वाद्विहितानुष्ठाने सुखप्रवर्तनीयत्वाचेति / शेषं पूर्ववन्नवरमकृच्छ्रार्थविशिष्टता आख्यानाऽऽदीनां वाच्या। स्था०५ ठा०१उ०। (43) कर्मव्यावर्णनं, वेदनं वानो जइया तित्थयरो, सो तइया अप्पणम्मि तित्थम्मि। वन्नेइतवोकम्म, उवहाणसुयम्मि अज्झयणे||१|| आचा०नि०॥ यो यदा तीर्थकृदुपपद्यते स तदाऽऽत्मीये तीर्थे आचारार्थप्रणयनावसानाध्ययने स्वतपः कर्मव्यावर्णयति, इत्ययं सच तीर्थकृतां कल्पः / इह पुनरुपधानश्रुताख्यं चरममध्ययनमभूत्, अत उपधानश्रुतमित्युक्तमिति। आचा०१ श्रु०६ अ०१3०1 उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठोगऽहियासए से पुटवं पेयं पच्छा पेयं भिउरधम्मं विद्धसणधम्म अधुवं अणितिअं असासयं चयोवचइयं विपरिणामधम्म पासह, एवंरूवं संधिं समुवेहमाणस्स एकायतणरयस्स इहविप्पमुक्कस्सणत्थि मग्गे विरतस्स त्ति बेमि। तीर्थकरैरप्येतद् बद्धस्पृष्ट निधत्तनिकाचनावस्थाऽऽयातं कर्मावश्यछेद्यं, नान्यथा तन्मोक्षः, अतोऽन्येनाप्यसातवेदनीयोदये सनत्कुमारदृष्टान्तेन मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य नोद्विजितव्यम्। आचा०१ श्रु०५ अ०२उन (44) कुमारवासकालमानं जिनानाम्वीसऽद्वारस पनरस, सड्ढदुवालस दसेव सढसगा। पण अड्डाई लक्खा, पुव्वसहस्स पण्ण पणवीसां / / 136 / / समलक्खा इगवीसं, ठार पनर सङ्घसत्त सडदुर्ग।
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________________ तित्थयर 2263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर तो सहसा पणवीसा, पाउणचउवीस इगयीसं / / 137 / / वाससयं मल्लिजिणे, पणसयरी पंचवीस तिन्नि सया। वासाइँ तीस तीसं, कुमरतं...................... ||138|| लक्षशब्दः पूर्वशब्दश्चाष्टमजिनं यावत्प्रत्येकमभिसंबध्यते। विंशतिलक्षपूर्वाणि 1 / अष्टादशलक्षपूर्वाणि रा पञ्चदशलक्षपूर्वाणि 3 / सार्द्धद्वादशलक्षपूर्वाणि 4 / दशैव लक्षपूर्वाणि 5 / सार्द्धसप्तपूर्वलक्षाणि 6 / पञ्चलक्षपूर्वाभि७। साईद्विलक्षपूर्वाणि 8 / पञ्चाशत् सहस्रपूर्वाणि 6 / पञ्चविंशतिसहरसपूर्वाणि 10 / (समलक्खा इगवीस ति) एकविंशतिलक्षवर्षाणि 11 / अष्टादशवर्षलक्षाणि १२पञ्चदशलक्षवर्षाणि 13 // सार्द्धसप्तवर्षलक्षाणि 14. सार्द्धद्विवर्षलक्षाणि 15 / (तो ति) ततः पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि 16 / पादोनचतुर्विशतिवर्षसहस्राणि 17 / एकविंशतिवर्षसहस्राणि 15 // (वाससय ति) मल्लिजिने वर्षशतम् 16 / पशसप्ततिवर्षशतानि 20 / पञ्चदिशतिवर्षशतानि 21 / त्रीणि वर्षशतानि 22 / वर्षाणि त्रिंशत 23 / पुनवर्षाणि त्रिंशत् 24 / एवं क्रमेण सर्वेषां जिनानां कुमारत्वे ज्ञेयम् / सत० 54 द्वार / आ०म०। 'पञ्चतित्थयरा कुमारवासमझे वसित्ता मुंडजाव पव्वइया। तं जहा-वासुपुजे, मल्ली, अरिहनेमी, पासे, वीरे।' स्था०५ ठा०३उ०। केवलज्ञाननक्षत्राणि च्यवननक्षत्रवद्भावनीयानि, च्यवन नक्षत्राण्यग्रे वक्ष्यन्ते / सत्त०८८द्वार। (45) केवलोत्पत्तिस्थानानिवीरोसहनेमीणं, जंभियबहिपुरिमतालउजिते। केवलणाणुप्पत्ती, सेसाणं जम्मठाणेसु / / 185 / / वीरस्य जृम्भिकाग्रामाद् बहिः केवलोत्पत्तिः 1 / ऋषभस्य पुरिमतालनगर 2 / नेमिजिनस्य उज्जयन्ते रैवतकाचले 3 / शेषाणां जिनानां जन्मस्थानेषु जन्मनगरीषु केवलज्ञानोत्पत्तिर्जाता / सत्त०६० द्वार। आ०म० (46) केवलतपः-- अट्ठमभत्तम्मि कए, नाणमुसहमल्लिनेमिपासाणं। वसुपुजस्स चउत्थे, सेसाणं छट्ठभत्ततवे / / 16 / / ऋषभ१ मल्लि१६ नेमिरपार्श्व२३जिनाना अष्टमभक्ते तपसि कृते सति केवलज्ञानमुत्पन्नम्। वासुपूज्यस्य 12 चतुर्थतपसि / शेषाणामेकोनविंशतिजिनानां षष्टभक्ततपसि केवलमुत्पन्नम् / सत्त०६४ द्वार / आ०म (47) केवलमासास्तिथयश्वफग्गुणिगारसि किण्हा,सुद्धा एगारसी य पोसस्स। कत्तियबहुला पंचमि, पोसस्स चउद्दसी धवला / / 10 / / चित्तेगारसिपुन्निम, तह फग्गुणकिण्हछट्टि सत्त मिया। सुद्धा कत्तियतइया, पोसम्मि चउद्दसी बहुला।।१८१।। माहेऽमावसि सियविय, पोसे मासम्मि धवलछट्ठी य।। वेसाहसामचउदसि, पोसे पुन्निमनवमि सुद्धा।।१२।। सियचित्ततइय कत्तिय, वारसि एगारसी य मग्गसिरे। फग्गुणवारसि सामा, मग्गम्मि इगारसी अमला / / 183 / / आसोअमावसी चित्तबहुलचउथी विसाहसियदसमी। केवलमासा य इमे, भणिया पुव्वं व उडुरासी।।१५४।। श्रीऋषभाऽऽदीनां क्र मेण केवलज्ञानोत्पत्तिमासतिथयः / तथाहिफाल्गुनगासस्य कृष्णकादश्यां केवलज्ञानं ऋषभस्य जातम्।। पौषस्य शुद्धकादश्यामजितस्यारा कार्तिकमासस्य कृष्णपञ्चम्यां सं०३। पौषस्य शुक्लचतुर्दश्यामभिनन्दनस्य 4 / चैत्रशुक्लैकादश्यां सुम०५ / चैत्रस्य पूर्णमास्यां पद्म 6 / फाल्गुनकृष्णषष्ठ्या सुपा०७ / फाल्गुनकृष्णसप्तम्या चन्द्र०८ / कार्तिकमासस्य शुक्लतृतीयायां सुवि०६ / पौष कृष्णचतुर्दश्या शीत०१०। माघे अमावास्यायां श्रेयां०११। माघश्वेतद्वितीयायां वासु० 12 / पौष मासे धवलषष्ट्यां विम०१३। वैशाखस्य श्यामचर्तुद्दश्याममनन्त०१४ / पौष पूर्णिमाया ध०१५ / पौष शुद्धनवम्यां शान्ति०१६ / चैत्रस्य श्वेततृतीयायां कुन्थु०१७। कार्तिकस्य श्वेतद्वादश्यामर०१८ / मार्गशीर्षे श्वेतैकादश्यां मल्लि०१६ | फाल्गुनस्य श्यामद्वादश्यां मुनिसुव्र०२०। मार्गशीर्षविमलेकादश्यां नमि० 21 / आश्विनमासश्यामावास्थायां नेमि०२२। चैत्रमासस्य श्यामचतुर्थ्या पार्श्व०२३। वैशाखश्वेतदशम्या वीर० 24 / एते चतुर्विशतिजिनानां केवलमासाऽऽदयो भणिताः / सत्त० 87 द्वार। आ०म०ा केवलनक्षत्रराशयः च्यवनकल्याणकवत्। सत्त० 86 द्वार। (42) केवलवृक्षा:णग्गोह सत्तवण्णो, साल पियालो पियंगु छत्ताहो। सिरिसो नागो मल्ली, पिलंखु-तिंदुयग--पाडलया॥१८७।। जंबू असत्थ दहिवन्न नंदि तिलगा य अंबग असोगो। चंपग बउसो वेतस, धायइ सालो य णाणतरू / / 185|| न्यग्रोधवृक्षस्याध ऋषभजिनस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम्। 1 / एवं प्रतिजिनं प्रतिवृक्ष क्रमेण योजना वाच्या / सप्तपर्णः 2 / (साल पिआलो पिअंगु छत्ताही) शालः 3 / प्रियालः 4 / प्रियङ्गुः 5 / छत्राभवृक्षः 6 / (सिरिसो नागी मल्ली) सिरीषः 7 / नागनामा 8 / मल्लीवृक्षः। (पिलंखुतिंदुअगपाडलया) पिलड् खुवृक्षः 10 / तिन्दुकः 11 / पाटलिका 12 / इति गाथार्थः / / 187 / (जबू असत्थ दहिवन्न) जम्बूः 13 / अश्वत्थः 14 / दधिपर्णः 15 / (नदी तिलगा य अंबग असोगी) नन्दिवृक्षः 16 / तिलकः 17 / आम्रकः 18 / अशोकः 16 / (चंपग वउसो वेतस) चम्पकः 20 / वकुशः 21 / वेतसः 22 / (धायइ सालो अणाणतरू) धातकीवृक्षः२३ / शालश्व 24 / एते चतुर्विंशतिर्ज्ञानतरवः / इति गाथाऽर्थः / / 188 / / सत्त० 62 द्वार। सूत्र० स० केवलज्ञानवृक्षप्रमाणम्ते जिणतणुवारगुणा, चेइयतरुणो वि नवरि वीरस्स। चेइयतरुवरि सालो, एगारसधणुहपरिमाणो।।१८६|| (ते जिणतणुवारगुणा) ते वृक्षाः भगवतः शरीरात् द्वादश गुणा भवन्ति। (चेइअतरुणो वित्ति) च्यैत्यवृक्षा अपि एतावत्प्रमाणा भवन्ति। (नवरि वीरस्स। चेइअतरुवरि सालो त्ति) एतावान् विशेषःयद्वीरस्य चैत्यवृक्षोपरि शालवृक्षो भवति, स कथम्भूतः? (एगारसधणुहपरिमाणो ति) एकादशधनुः परिमाणः / चैत्यतरूणां प्रमाणमत्र प्रसङ्गादुक्तमिति गाथाऽर्थः / 186 / सत्त०६३ द्वार।
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________________ तित्थयर 2264 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर चैत्यतरूणां विशेषतः प्रमाणम्वत्तीसाई धणुइं (मतान्तरेणैतत् संभाव्यते / ), चेइयरुक्खो य वड्डमाणस्स। णिच्चोउगो असोगो, ओच्छण्णो सालरुक्खेणं // 36 / / तिण्णेव गाउआई, चेइयरुक्खो जिणस्स उसभस्स। सेसाणं पुण रुक्खा, सरीरओ बारसगुणा उ॥३७॥ सच्छत्ता सपडागा, सवेइया तोरणेहिँ उववेया। सुरअसुरगरुलमहिया, चेइयरुक्खा जिणवराणं // 38|| (निचोउगो त्ति) नित्यं सर्वदा ऋतुरेव पुष्पाऽऽदिकालो यस्य स नित्यर्तुकः (असोगो त्ति) अशोकाभिधानो यः समवसरणभूमिमन्ये भवति / (ओच्छण्णो सालरुक्खेणं ति) अवच्छन्नः शालवृक्षेणेति। अत एव वचनादशोकस्योपरि शालवृक्षोऽपि कथञ्चिदस्तीत्यवसीयत इति // 36 / / (तिण्णेव गाउयाई गाहा) ऋपभस्वामिनो, द्वादशगुणा इत्यर्थः // 37 / / (सवेइय त्ति) वेदिकायुक्ताः / एते चाशोकाः समवसरणसम्बन्धिनः सम्भाव्यन्त इति // 38 // स० (46) अथ ज्ञानवनान्याहउसहस्स य सगडमुहे, उजुवालुयनइतडम्मि वीरस्स। सेसजिणाणं गाणं, उप्पण्णं पुण वयवणेसु / / 186|| (उसहरस य सगडमुहे त्ति) ऋषभस्य केवलज्ञानं शकटमुखोद्याने उत्पन्नम् / (उजुवालुअनइतडम्मि वीरस्स त्ति) ऋजुवालुकानदीतटे श्रीवीरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् 2 / (सेसजिणाणं नाणं, उप्पण्णं पुण वयवणेसु ति) पुनःशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् शेषजिनानां पुनर्वतवनेषु केवलज्ञानमुत्पन्नमिति // 186 / / सत्त०६१ द्वार। (50) केवलवेलानाणं उसहाईण्णं, पुव्वण्हे पच्छिमण्हि वीरस्स / / (191) (पुव्वण्हे) ऋषभाऽऽदीनां त्रयोविंशतिजिनानां केवलज्ञान पूर्ति प्रथमप्रहरे समुत्पन्नम् / (पच्छिमण्हि वीरस्स) पश्चिमप्रहरे वीरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम्। सत्त०६५ द्वार। (51) अथ जिनानां गृहस्थकाल-केवलिकालमानमाहजहजुग्गं कुमरनिवइ-चक्कीकाले हिँ होइ गिहिकालो। वयकालाओ केवलि-कालो छउमत्थकालूणो // 268|| यथायोग्य कुमारकालनृपतिकालचक्रिकालैरेकीकृतैः गृहस्थकालो भवति। व्रतकालात् छदास्थकाल ऊनः क्रियते, यावानवशिष्यते तावान केवलिकालो भवति / इति गाथाऽर्थः // 268|| सत्त०१४३। 144 द्वार। सम्प्रति केवलिपर्यायो वक्तव्यः, स च श्रामण्यपर्यायात् छद्मस्थपर्यायापगमे स्वयमेव ज्ञेय इति पूर्वोक्तमेव श्रामण्यपर्याय स्मारयतिउसभस्स पुव्वलक्खं, पुव्वंगूणमज्जियस्स तं चेव / चउरंगूणं लक्खं,पुणो पुणो जाव सुविहि त्ति / / ऋषभस्य भगवतः श्रामण्यपर्यायमेकं पूर्वलक्षम / अजितस्यामिनस्तदेव एक पूर्वलक्षमेकेन पूर्वाङ्गन न्यूनम् / पूर्वाङ्ग नाम चतुरशीतिवर्षलक्षाणि / अत ऊर्द्ध चतुरङ्गोनं पूर्वलक्षं पुनः पुनस्तावद्वक्तव्य यावत्सुविधिः / तद्यथा-संभवनाथस्य व्रतपर्याय एकं पूर्वलक्षं चतुर्भिरडै- | रूनम्। अभिनन्दनस्य एक पूर्वलक्षमष्टभिः पूर्वाङ्ग नम्। सुमतिनाथस्य एकं पूर्वलक्ष द्वादशभिः पूर्वा नम्। पद्मप्रभस्य एक पूर्वलक्ष षोडशभिः पूर्वाइँ ही नम्। सुपार्श्वस्यैकं पूर्वलक्षं विंशत्या पूर्वाने हीनम्। चन्द्रप्रभस्यैकं पूर्वलक्षं चतुर्विशत्या पूर्वाङ्ग हीनम्। सुविधिनाथस्यैक पूर्वलक्षमष्टाविंशत्या पूर्वाङ्ग ही नम्। सेसाणं परियाओ, कुमारवासेण सहियओ भणितो। पत्तेयं पि य पुव्वं, सीसाणमणुग्गहवाए। शेषाणां शीतलस्वामिप्रभृतीनां पर्यायः पूर्व कुमारवासेन सह भणितः, प्रत्येकमपिच, किमर्थमुभयथाऽपि भणित इति चेदत आह-शिष्याणामनुग्रहाय मन्दमतीनामपि शिष्याणां बुद्धौ सम्यक् प्रतिस्फुरतु। आ०म०१ अ०१ खण्ड। सत्ता केवलिमानमाहवीससहस्सा उसहे, वीसं बावीस अहव अजियस्स। पनरस चउदस तेरस, वारस इक्कारस दसेव // 353 / / अद्धऽहम सत्तेव य, छ स्सड्ढा छच्च पंच सड्ढा य। पंचेव अद्धपंचम, चउ सहसा तिन्नि य सया य॥३५४|| बत्तीस सया अहवा, बावीससयाई हुंति कुंथुस्स। अट्ठावीसं बावीस तह य अट्ठारस सयाई॥३५५।। सोलस पन्नर दस सय, सत्तेव सया हवंति वीरस्स। एवं केवलिनाणं, ....................... / / 356 / / केवलिनां विंशतिराहना ऋषभे वृषभजिनस्य / विंशतिः सहस्रा अजितजिनस्य। अथवा मतान्तरेण द्वाविंशतिः सहस्रा अजितनाथस्य। श्रीसम्भवस्य पञ्चदश सहस्राः / श्रीअभिनन्दनस्य चतुर्दश सहस्राः / श्रीसुमतेस्त्रयोदशसहस्राः। श्रीपद्मप्रभस्य द्वादश सहस्राः। श्रीसुपार्श्वस्य एकादश सहस्राः / श्रीचन्द्रप्रभस्य दशैव सहस्राः / श्रीसुविधिजिनस्य अर्द्धाष्टमाः सहस्राः, सप्त सहस्राः पञ्चशताधिका इत्यर्थः / श्रीशीतलजिनस्य सप्त सहस्राः / श्रीश्रेयांसस्य षट् सहस्राः सार्धाः सपञ्चशता इत्यर्थः / श्रीवासुपूज्यस्य षट् सहस्राः / श्रीविमलजिनस्य पञ्च सहस्राः, सार्द्धाः सपञ्चशता इत्यर्थः / श्रीअनन्तजिनस्य पञ्चैव सहस्राः। श्रीधर्मजिनस्य अर्द्धपञ्चमाः सहस्राः, चत्वारः सहस्राः सपञ्चशता इत्यर्थः / श्रीशान्तिनाथस्य चत्वारः सहस्राः शतत्रयाधिकाः। श्रीकुन्थुजिनस्य द्वात्रिंशच्छतानि, सहसत्रयं शतद्वयाधिकमित्यर्थः / अथवा मतान्तरेण द्वाविंशतिशतानि, सहस्रद्वयं शतद्वयाधिकमित्यर्थः / श्रीअरजिनस्य अष्टाविंशतिशतानि, सहस्रद्वयं शताष्टकाधिकमित्यर्थः। श्रीमल्लिजिनस्य द्वाविंशतिशतानि, सहस्रद्वयं शतद्वयाधिकमित्यर्थः / श्रीमुनिसुव्रतस्य अष्टादश शतानि, सहस्रमेकमष्टशताधिकमित्यर्थः / श्रीनमिजिनस्य षोडश शतानि, सहस्रमेकं षड्भिः शतैरधिकमित्यर्थः / श्रीनेमिजिनस्य पञ्चदश शतानि, सहस्रमेकं पञ्चशताधिकमित्यर्थः। श्रीपार्श्वजिनस्य दश शतानि, सहसमित्यर्थः / श्रीवीरजिनस्य च सप्तशतानि / एतत्पूर्वोक्तं यथाक्रम सर्वतीर्थकृतां केवलिमानम् / प्रव० 21 द्वार। सर्वेषामेव तीर्थकृता सिद्धगतिः सर्वात एकं लक्षं षट्सप्ततिसहस्राणि शतमेकम् / 176100 / आव०१०॥
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________________ तित्थयर 2265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर (52) अधुना गणद्वारमाहचुलसीह पण्णणवई, विउत्तरं सोलसुत्तर सयं च। सत्तऽहियं पणनउई, तेणउई अट्ठसीई य।। एक्क सीईछावत्तरी य छावट्ठि सत्तवन्ना य। पन्ना तेयालीसा,छत्तीसा चेव पणतीसा।। तेत्तीसऽट्ठावीसा, अट्ठारस चेव तह य सत्तरसा। एकारस दस नवगं, गणाण माणं जिणिंदाणं / / भगवत आदितीर्थकरस्य चतुरशीतिर्गणाः / गणो नामेह एकवाचनाऽऽचारक्रियास्थानां समुदायो, न कुलसमुदाय इति पूर्वसूरयः / अजितस्वामिनः पञ्चनवतिर्गणाः / सम्भवनाथस्य व्युत्तरं शतम् / अभिनन्दनस्य षोडशोत्तरं शतम्। सुमतिनाथस्य परिपूर्ण शतम् / पद्मप्रभस्य सप्ताधिक शतम् / सुपार्श्वस्य पञ्चनवतिः। चन्द्रप्रभस्य त्रिनवतिः / सुविधिस्वामिनोऽष्टाशीतिः शीतलसय एका-शीतिः / श्रेयांसस्य षट्सप्ततिः / वासुपूज्यस्य षट्षष्टिः / विमलस्य सप्तपक्षाशत् / अनन्तजिनस्य पञ्चाशत् / धर्मस्य त्रिचत्वारिंशत् / शान्तिनाथस्य षट् त्रिंशत। कुन्थुनाथस्य पञ्चत्रिंशत्। अरजिनस्य त्रयस्त्रिंशत्। मल्लिस्वामिनोऽष्टविंशतिः / मुनिसुव्रतस्वामिनोऽष्टादश / नमिनाथस्य सप्तदश / अरिष्टनेमेरेकादशा पार्श्वनाथस्य दशा वर्द्धमानस्वामिनो नव। आ०म०१ अ० 1 खण्ड। “समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा होत्था। त / जहागादासगणे, उत्तरवलियरस य गणे, उद्देहगणे, चारणगणे, उड्डवाइयगणे, विस्सवाइगणे, कामिड्ढयगणे, माणवगणे, कोडियगणे।" | (स्था०६ठा०) एतजिनेन्द्राणामृषभाऽऽदीनां जिनानां यथाक्रम गणानां | मानं परिमाणम्। आ०म०१ अ०१ खण्ड। सत्ता (53) संप्रति गणधरप्रतिपादनार्थमाहएक्कारस उ गणहरा, वीरजिणिंदस्स सेसयाणं तु / जावइया जस्स गणा, तावइया गणधरा तस्स / / गणधरा नाम मूलसूत्रकरिः , ते च वीरजिनस्य एकादश, गणारत नव, द्वयोर्युगलयोरेकैकवाचनाऽऽचारक्रियास्यत्वात् / शेषाणां तु जिनवरेन्द्राणां यस्य यावन्तो गणास्तस्य तावन्तो गणधराः, प्रतिगणधर भिन्नभिन्नवाचनाऽऽचार क्रियास्थत्वात्। आ०म०१अ०१ खण्ड। प्रव० / 'पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणा अट्ट गणहरा होत्था। तं जहा-सुभे, अजघोसे, वसिट्टे, बंभयारी, सोमे, सिरिधरे, बीरिए, भद्दजसे।" यत्त्वावश्यके तूभयेऽपि दश श्रूयन्ते, "जावइया जस्स गणा, तावइया गणहरा तस्स" इति वचनात्, तदिहाल्पत्वाऽऽदिकारणमपेक्ष्य द्वयोरविवक्षणमिति संभाव्यते। स्था०८ ठाण (54) अथ सर्वेषां जिनानां गर्भस्थितिमाहदुचउत्थ नवम बारस, तेरस पन्नरस सेस गब्भठिई। मासा अड नव तदुवरि, उसहाइकमेणिमे दिवसा / / 7 / / चउ पणवीसं छद्दिण, अडवीसं छच छञ्चिगुणवीसं। सन छव्वीसं छ च्छ य, वीसिगवीसं छ छव्वीसं // 76 / / छ पण अड सत्त अट्ठय, अट्ठऽढ छ सत्त हुंति गढभदिणा (77) | (दुचउत्थ नवम बारस तेरस पन्नरस सेस गब्भठिइत्ति) द्वितीयर चतुर्थ नवम् द्वादश १२त्रयोदश 13 पञ्चदश 15 शेषजितेषुगर्भस्थितिः (मासा अड नव त्ति) द्वितीयाऽऽदिषु जिनेषु मासा अष्टौ। शेषजिनेषु नव मासाः। (तदुवरि ति) तेषां मासानामुपरि (उसहा-इकमेणिमे दिवसा) ऋषभाऽऽदिषु क्रमेण इमे वक्ष्यमाणा दिवसा ज्ञेयाः। इति गाथार्थः / / 7 / / (चउ पणबीसं छद्दिण) दिनानीति सर्वत्र गम्यम्। चत्वारि१पञ्चविंशतिः 2 षट् 3 (अडवीसं छच्च छचिगुणवीसं) अष्टविंशतिः 4 षट् च 5 षट् 6 एकोनविंशतिः 7 (सग छव्वीस छच्छय) सप्तपदिशतिः 6 षट् 10 षट् च ११(वीसिगवीसंछ छव्वीसंग) विंशतिः 12 एकविंशतिः 13 षट् 14 षट विंशतिः 15 / इति गाथार्थः // 76 / / (छ पण अडसत्त अट्टय) षट् 16 पश्च 17 अष्टौ 18 सप्त 16 अष्ट च 20 (अट्ठट्ठ छसत्त हुतिगढभदिणा) अष्टौ 21 अष्ट 22 षट् 23 सप्त 24 भवन्ति गर्भदिनानि जिनाना गर्भस्थितयः / सत्त०२० द्वार। (55) गृहवासे ज्ञानानिमइसुयओहितिनाणा, जाव गिहे पच्छिमभवाओ। (223) मतिश्रुतावधिज्ञानलक्षणानि त्रीणि ज्ञानानि सर्वेषां जिनानां भवन्ति, पश्चिमभवादारभ्य यावन्तं कालं गृहे गृहवासे तिष्ठन्ति / सत्त० 45 द्वार। (56) तीर्थकरगोत्राणि वंशाश्च-- गोयमगुत्ता हरिवं-ससंभवा नेमिसुव्वया दो वि। कासवगुत्ता इक्खा-गुवंसजा सेस चावीसा।।१०६।। श्रीनेमिमुनिसुव्रतौ द्वौ गौतमगोत्रौ हरिवंशसंभवौ च / शेषाः तीर्थपाः द्वाविंशतिः काश्यपगोत्रा इक्ष्वाकुवंशजाश्च / सत्त० 37 द्वार / कल्प० / आवा (57) चतुर्दशपूर्विणःचउदसपुस्वि-सहस्सा, चउरो अद्धट्ठमाणि य सयाणि। वीसहिय सत्ततीसा, इगवीससया य पन्नासा // 362 / / पनरस चउवीससया, तेवीससयां य वीससय तीसा। दो सहस पनरस सया, सयचउदसतेरससयाई॥३६३।। सय बारस इक्कारस, दस नव अद्वैव छच्च सय सयरा। दसहिय छच्चेव सया, छच सया अट्ठसठ्ठऽहिया।।३६४|| सयपंच अद्धपंचम, चउरो अद्धऽहिय तिन्नि य सयाई।। उसभाइजिणिंदाणं, चउदसपुव्वीण परिमाणं // 365 / / तत्राऽऽदिजिनस्य चतुर्दशपूर्विणां चत्वारः सहस्त्राः, अर्द्धाष्टमानि च शतानि, पञ्चाशदधिकानि सप्तशतानीत्यर्थः / श्रीअजितजिनस्य विंशत्यधिकसप्तत्रिंशच्छतानि। श्रीसंभवजिनस्य एकविंशतिशतानि पञ्चाशदधिकानि। श्रीअभिनन्दनस्य पञ्चदशशतानि / श्रीसुमतेश्चतुर्विंशतिशतानि। श्रीपद्मप्रभस्य त्रयोविंशतिशतानि। श्रीसुपार्श्वस्य विंशतिशतानि त्रिंशदधिकानि। श्रीचन्द्रप्रभस्यद्वौ सहस्रौ / श्रीसुविधेः पञ्चदशशतानि। श्रीशीतलस्य शतानि चतुर्दश ।श्रीश्रेयासस्य त्रयोदशशतानि। श्रीवासुपूज्यस्य द्वादशशतानि / श्रीविमलजिनस्य एकादशशतानि। श्रीअनन्तजिनस्य दशशतानि। श्रीधर्मस्य नवशतानि / श्रीशान्तरष्टव शतानि / श्रीकु
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________________ तित्थयर 2266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर न्थोः षट् शतानि सप्तत्यधिकानि / श्रीअरजिनस्य दशाधिकानि पड़व शतानि श्रीमल्लिजिनस्य षट्शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि। श्रीमुनिसुव्रतस्य शतानि पश्चा श्रीनमेश्चत्वारि शतानि पञ्चाशदधिकानि। श्रीनेमेश्चत्वारि शतानि। श्रीपार्वजिनस्य त्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि। श्रीवीरजिनस्य च त्रीणि शतानि / इदं पूर्वोक्तमृषभाऽऽदिजिनेन्द्राणां क्रमेण चतुर्दशपूर्विपरिमाणम् / प्रव० 23 द्वार। "समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तिनिसया चोदसपुदीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईण जिणो इव अवितह वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुविसंध्या होत्था।" स्था०३ ठा०४उ०। (58) श्रावकसंख्या चतुर्विशतितीर्थकराणाम्पढमस्स तिन्नि लक्खा, पंच सहस्सा दुलक्ख जा संती। लक्खोवरि अडनउई, तेणउई अट्ठसीई य॥३६६।। एगासी छावत्तरि, सत्तावन्ना य तह य पन्नासा। एगुणतीस नवासी, इगुणासी पन्नरसऽठेव॥३६७।। छ चिय सहस्स चउरो, सहस्स नउई सहस्स संतिस्स। तत्तो एगो लक्खो , उवरि गुणसीय चुलसी य / / 368 / / तेयासी वावत्तरि, सत्तरि इगुणत्तरी य चउसट्ठी। एगुणसट्ठिसहस्सा, य सावगाणं जिणवराणं // 366 / / तत्र प्रथमजिनस्य श्रावकाणा तिस्रो लक्षाः पशसहस्राऽधिकाः / श्रीअजिताऽऽदिजिनानां, यावत् शान्तिजिनस्तावल्लक्षद्वयं श्राद्धानां, द्विलक्षोपरि च यदधिकं भवति तनिवेद्यते। तत्र तृतीयगाथावर्ति सहस्स त्ति' पदस्य सर्वाभिसंबन्धात् अष्टनवतिः-सहस्राः, कोऽर्थ:-अजितजिनस्य लक्षद्वयमष्टनवतिसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीसंभवस्य लक्षद्वय त्रिनवतिसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीअभिनन्दनस्य लक्षद्वयमष्टाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः। श्रीसुमतेः लक्षद्वयमेकाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीपद्मप्रभस्य लक्षद्वयं षट् सप्ततिसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीसुपार्श्वस्य लक्षद्वयं सप्तपञ्चाशत् सहस्राधिकमित्यर्थः / चन्द्रप्रभस्य लक्षद्वय पञ्चाशत्- सहस्राधिकमित्यर्थः / सुविधेर्लक्षद्वयमेकोनत्रिंशत्सहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीशीतलस्य लक्षद्वयं नवाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीश्रेयांसस्य लक्षद्वयमेकोनाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीवासुपूज्यस्य लक्षद्वयं पञ्चदशसहस्त्राधिकमित्यर्थः / श्रीविमलजिनरय लक्षद्वयमष्टसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीअनन्तजिनस्य लक्षद्वयं षट्सहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीधर्मस्य लक्षद्वयं चतुर्भिः सहस्रैरधिकमित्यर्थः / श्रीशान्तेः लक्षद्वयं नवतिसहयाधिकमित्यर्थः। ततः श्रीशान्तिनाथादनन्तरं कुन्थुप्रभृतितीर्थकृता महावीरपर्यन्तानामेकं लक्षं श्राद्धाना, लक्षोपरि च यत्संख्यास्थानं तदुच्यते, यथा-एकोनाशीतिः श्रीकुन्थोः. लक्षमेकोनाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीअरजिनस्य लक्षमेकं चतुरशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः। श्रीमल्लेर्लक्षमेकं त्र्यशीतिसहयाधिकमित्यर्थः / श्रीमुनिसुव्रतस्य लक्षमेकं द्विसप्ततिसहस्राधिकमित्यर्थः / नमेर्लक्षमेकं सप्ततिसहस्राधिकमित्यर्थः। श्रीनेमेर्लक्षमेकोनसप्ततिसहखाधिकमित्यर्थः / श्रीपार्श्वस्य लक्षमेकं चतुःषष्टिसहस्राधिकमित्यर्थः / श्रीवीरजिनस्य च लक्षमेकोनषष्टिसहसाधिकमित्यर्थः / इति जिनवरेन्द्रचतुर्विशतेः संवन्धिनां श्रावकाणां मानं क्रमेण ज्ञातव्यम्। प्रव० 24 द्वार। (56) अथ चक्रित्वकालःतओ तित्थगरा चक्कवट्टी होत्था। तं जहा-संती, कुंथू, अरो। अत्रोक्तम-''संती कुंथू अ अरो, अरिहंता चेव चक्कवट्टी या अवसेसा तित्थयरा, मंडलिआ आसि रायाणो' / / 1 / / इति शान्तिकुन्थ्यरजिनाना चक्रित्वं, शेपजिनानां नास्ति चक्रित्वम् / स्था०३ ठा०४उ०। सत्ता (60) अथ चारित्रम्सामाइयचारित्तं, छेओवट्ठावणं च परिहारं। तह सुहुमसंपरायं, अहखाई पंच चरणाई॥२८२॥ दुण्हं पण इअराणं, तिन्नि उ सामाइयसुहुमऽहक्खाया। (283) तत्र प्रथमं सामायिकचारित्रम् 11 द्वितीयं छेदोपस्थापनीयम् / तृतीय परिहारविशुद्धिकम् 3 / चतुर्थ सूक्ष्मसंपरायम् 41 पञ्चमं यथाख्यातम् 5 / एतानि पञ्च चारित्राणि भवन्तीति गाथार्थः / 282 ऋषभवीरयोस्तीर्थे पञ्च चारित्राणि पूर्वोक्तानि भवन्ति / इतरेषां मध्यमद्वाविंशतिजिनानां त्रीणि चारित्राणि भवन्ति / तन्नामानि-सामायिक 1 सूक्ष्मसंपराय 2 यथाख्यातानि३ / सत्त० 130 द्वारा (61) च्यवननक्षत्रमृषभाऽऽदीनाम्उत्तरसाढा रोहिणि, मियसीस पुणव्वसू महा चित्ता। वइसाहऽणुराहा मूल पुव्व सवणो सयभिसा य / / 6 / / उत्तरभद्दव रेवइ, पुस्स भरणि कत्तिया य रेवइय। अस्सिणि सवणो अस्सिणि, चित्त विसाहुत्तरा रिक्खा॥६६।। ऋषभजिने उत्तराषाढा नक्षत्रम् 1 / एवं सर्वत्र जिननामानि क्रमण योज्यानि। रोहिणी 2 मृगशीर्षम् 3 पुनर्वसु 4 मघा 5 चित्रा६ विशाखा 7. अनुराधा 8 मूलम् 6 पूर्वाषाढा 10 श्रवणः 11 शतभिषक् 12 उत्तराभाद्रपत् 13 रेवत 14 पुष्यः 15 भरणी 16 कृत्तिका 17 रेवली 18 अश्विनी 16 श्रवणः 20 अश्विनी 21 चित्रा 22 विशाखा 23 उत्तराषाढा 24 एतानि नक्षत्राणि। सत्त०१५ द्वार। (62) अथ च्यवनकल्याणकतिथयो मासाश्चबहुलाऽसाढचउत्थी, सुद्धा वइसाहतेरसी कमसो। फग्गुणअट्ठमि वइसा-हचउत्थि सावणियबीया य॥५६॥ माहस्स कसिणछट्ठी, भट्ठमि चित्तमासपंचमिया। फग्गुणनवमी वइसाहछट्ठि तह जिट्टछट्ठी य / / 6 / / जिट्ठम्मि सुद्धनवमी, तत्तो वइसाहबारसी सुद्धा। सावणकसिणा सत्तमि, विसाहसिय भद्दकिण्हा य॥६१|| सावणकसिणा नवमी, फग्गुणसियबीय फग्गुणचउत्थी। सावणअस्सिणि पुन्निम, कत्तियबहुला दुबालसिया।।६।। असिया चित्तचउत्थी, असाढसियछट्ठि चवणमासाई। इत्थऽन्नत्थ वि पयर्ड, अभणियमहिगारओ नेयं // 63 / /
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________________ तित्थयर 2267 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर भूयभविस्सजिणाणं, पुव्वणुपुव्वीऍ वट्टमाणाणं / पच्छाणुपुट्वियाए, कल्लाणतिथीय अन्नुन्नं / / 64 / / ऋषभस्य च्यवनकल्याणके आषाढकृष्णचतुर्थी / 1 / अजितजिनरय शाखशुद्धत्रयोदशी 2 / फाल्गुनशुद्धाष्टमी संभवस्य 3 / वैशाखयतुर्थी अभिनन्दनस्य 4 / श्रावणशुक्लद्वितीया सुम०५ / माघस्य कृष्णषष्ठी गदा० 6 / भाद्रपदकृष्णाष्टमी सुपा०७ / चैत्रकृष्णपशमी चन्द्र०८ / फाल्गुनकृष्णा नवमी सुवि०६ / वैशाखकृष्णषष्ठी शीत०१०। ज्येष्ठ कृष्ाषष्ठी श्रेयां० 11 / ज्येष्ठ शुद्धनवमी वासु० 12 / वैशखशुद्धद्वादशी विमल० 13 / श्रावणकृष्णसप्तमी अनन्त० 14 / शाखण्येतसप्तमी धर्म० 15 / भाद्रपदकृष्णसप्तमी शान्ति०१६ / श्रावणकृष्णनवमी कुन्थु० 17 / फाल्गुनसितद्वितीयाऽरजि० 18 / काल्गुनरीितचतुर्थी मल्लि० 16 / श्रावणपूर्णिमा मुनिसु०२० / अश्विन पूर्णिमा नमि० 21 / कार्तिक कृष्ण द्वादशी नेमि० 22 // चैत्र कृष्ण चतुर्थी पार्श्व० 23 / आषाढ श्वेतषष्ठी वीरजिनस्य 24 / अत्रान्यत्रापि प्रकट साक्षादित्यर्थः / यदभणितं तदधिकारतो ज्ञेयमिति। मूनतीर्थयाः केवलज्ञानिप्रभृतयः, भविष्यजिनाः पद्मनाभाऽऽदयः, नेपामन्योन्य कल्याणकतिथयः पूर्वानुपूर्व्या भवेयुः / यथा हि याः कल्याण कतिथयः भूतकाले प्रथमजिनस्य केवलज्ञानिनः, ता एव नविष्यजिनकाले पद्मनाभस्येति / प्रकारान्तरमाहवर्तमानजिना पापभाऽऽदयस्तेषां भूतजिनापेक्षया भविष्यजिनापेक्षया च तिथयः पश्चनुपूा भवेयुः / सत्त०१४ द्वार। आवा (63) ऋषभाऽऽदीना क्रमतो च्युतिराशयःघणु वसह मिहुण मिहुणो, सीहो कन्ना तुला अली चेव / धणु धणु मयरो कुंभो, दुसु मीणो कक्कडो मेसो // 67 / / विस मीण मेस मयरो, मेसो कन्ना तुला य कन्ना य। इय चवणरिक्खरासी, जम्मे दिक्खाएँ नाणे वि।।६।। धनु: 1 / वृषः 2 / मिथुनम 3 / मिथुनम् 4 5 सिंहः 5 / कन्या 6 / तुला 7 / वृश्चिकः / धनुः / / धनुः 10 / मकरः 11 / कुम्भः 12 / मीनः 13 / मीनः 14 / कर्कटः 15 / मेषः 16 / वृषः 17 मीनः 18 / मेषः 16 / मकरः 20 / मेर: 21 / कन्या 22 / तुला 23 / कन्या 24 ऋषभाऽऽदीना क्रमतश्चयुतिराशयः / जन्मकल्याणके, दीक्षाकल्याणके, केवलज्ञानकल्याणकेऽप्येत एव नक्षत्रराशयो भवन्ति / सत्त०१६ द्वार / (64) च्यवनवेलाचुइवेला निसिअद्धं,जिणाण एमेव एगसमयम्मि। चुइमासाइवियारो, भरहेरवएसुस चेव / / 66 / / (चुइवेला निसिअद्धं जिणाण त्ति) च्यवनवेला अर्द्धरात्रो जिनानाम् / (एमेव एगसमय म्मि ति) एवमेव उक्तरीत्या एकस्मिन् समये (चुइमासाइविआरो त्ति) च्यवनमासाऽऽदिविचारः (भरहेरवएसु स ग्रेव त्ति) भरतैरवतेषु स एव, यत् च्यवनमासाऽऽदि ऋषभाऽऽदीनामुक्तं तदेव सर्वभरतरवतेषु जिनानां समयोऽपि स एव भवति यथा भरतक्षेत्रे, तथैव तस्मिन् समये तस्मिन्नक्षत्रे तस्यां वेलायाम् ऐरवतक्षेत्रेऽपि सैव बेला भवलि / इति गाथाऽर्थः / / 66 / / इति सर्वेषां जिनानां च्यवनवेला / सत्त० / 17 द्वार! (65) छद्मस्थकालमानं सर्वजिनानां कथ्यतेवाससहस्सं बारस, चउदस अट्ठार वीसवरिसाय। मासा छन्नव तिन्नि य, चउ तिग दुगमिक्कग दुगं च // 173 / / तिय दुगइक्कग सोलस, वासा तिन्नि य तहेवऽहोरत्तं / मासिक्कारस नवगं चउपण्णदिणाइँ चुलसीइं॥१७४।। पक्खऽहिय सङ्घवारस, वासा छउमत्थकालपरिमाणं / (175) अषभस्य छदास्थकालमानं वर्षसहस्रम् 1 / एवं क्रमेण द्वादश वर्षाणि 2 / चतुर्दशवाणि 3 / अष्टादशवर्षाणि 4 / विंशतिवर्षाण 5 / पड़ मासाः६ / (''चंदप्पभे णं अरहा छम्मासा छउभत्थे होत्था।' स्था०) नवमासाः 7 / त्रयो मासाः 8 / चत्वारो मासाः / / त्रयो मासाः 10 / द्वी मासी 11 / एको मासः 12 / द्वौ मासौ 13: त्रीणि वर्षाणि 14 / द्वे वर्षे 15 / एक वर्षम् 16 / षोडश वर्षाणि 17 / त्रीणि च वर्षाणि 18 / एकमहोरात्र 16 / एकादश मासाः 20 / नव मासाः 21 / चतु: पशाशद्दिनानि 22 1 चतुरशीतिदिनानि 23 / पक्षाधिकसार्द्धद्वादशवर्षाणि 24 / इति क्रमात् छद्मस्थकालमानं तीर्थपानाम् / सत्त०८४ द्वार। त्रीण्यहोरात्राणि 18 / द्वादश वर्षा-णि 24 / इति मतभेदः / आ०म०१ अ०१खण्ड। (66) छद्मस्थतपोमानम्उग्गं च तवोकम्म, विसेसओ वद्धमाणस्स। (175) वयदिणमेगं पुन्नं, छमासियं वीययं पणदिणणं / नव चउमासिय दु तिमासिया अढाइज्जमासिया दुन्नि / / 176 छ दुमासिय दु दिवढयमासिय बारस तहेगमासीया। वावत्तरऽद्धमासिय, पडिमा बारऽट्ठमेहिं च / / 177 / / दो चउ दस खमणेहिं, निरंतरं भद्दमाइपडिमतिगं। दुसयगुणतीस छट्ठा, पारणया तिसयगुणवन्ना।।१७।। (उग्गं च तवोकम्मति) उग्रं च तपःकर्म सर्वेषां जिनवराणाम् (विसेसओ वद्धमाणस ति) विशेषतो वर्द्धमानस्य, वीरजिनस्य सर्वेभ्योऽपि जिनेभ्योऽधिकतरमुग्रं तपः, तेषां कर्माभावादिति भावः। श्रीवीरतपःप्रमाणमाह-(वयदिणं ति) व्रतदिनं, यस्मिन् दिने व्रतं गृहीतं तद्दिनमुपोषितवानित्यर्थः / (एग पुन्नं छमासिय ति) एकं पूर्ण पाण्मासिक कृतम् 1 / (वीययं पणदिणूणं ति) द्वितीयषाण्मासिकं पञ्चदिनैरून विहितम् 2 / (नव चउमासिय दु तिमासिय त्ति) स्वामिना नव चातुर्मासिकानि कृतानि, द्वे त्रैमासिके कृते, (अढा-इज्जमासिआ दुन्नि त्ति) द्वे सार्द्धद्विमासिके कृते / / 176 / / (छ दुमासिय दुदिवढ्यमासिय त्ति) षड् द्विमासिकानिदै सार्द्धमासिके कृते। (बारस तहेगमारसीया) तथैकमासिकानि मासक्षपणानि द्वादश / (बावत्तरऽद्धमारिसय त्ति) द्विसप्ततिरद्धमासक्षपणानि / (पडिमा बारऽट्टमेहिं च) प्रतिमा द्वादश विहिता अष्टमभक्तैः, चः पादपूरणे / / 177 / / (दो चउ दस खमणेहिं) द्वाभ्यां चतुर्भिर्दशभिश्वोपवासैः (निरंतरं भद्दमाइपडिमतिग) अन्तररहितंपारणकरहित भद्रपमहाभद्ररसर्वतोभद्र३प्रतिमात्रिक कृतमिति। (दुसयगुणतीस छट्ठा) द्वेशते एकोनत्रिंशदधिके षष्ठभक्तानि विहितानि / (पारणया ति
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________________ तित्थयर 2268 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर सयगुणवन्ना) 'पक्षाधिकसार्द्धद्वादशवर्षः' त्रीणि शतान्येकोनपञ्चाशत् 346 पारणकानि विहितानि। इति गाथाऽर्थः।।१७८।। सत्त० 64 द्वार। (67) तीर्थकरयक्षाःजक्खा गोमुह महजक्ख तिमुह ईसर सतुंबुरू कुसुमो। मायंगो विजयाऽजिय, बंभो मणुओ सुरकुमारो // 375 / / छम्मुह पायाल किन्नर, गरुडो गंधव्व तह य जक्खिदो। कूबर वरुणो भिउडी, गोमेहो वामण मयंगो // 376|| यक्षा भक्तिदक्षास्तीर्थकृतामिमे यथा प्रथमजिनस्य गोमुखो यक्षः सुवर्णवर्णो गजवाहनश्चतुर्भुजो वरदाक्षमालिकायुक्तदक्षिणपाणिद्वयो, मातुलिङ्गपाशकान्वितवामपाणिद्वयश्च / अजितनाथस्य महायक्षाभिधो यक्षश्चतुर्मुखः श्यामवर्णः करीन्द्रवाहनोऽष्टपाणिर्वरदमुद्राक्षसुत्रपाशकान्वितदक्षिपाणिचतुष्टयो, बीजपूरकाभयाङ्कुशशक्तियुक्तवामपाणिचतुष्कश्व / श्रीसम्भवजिनस्य त्रिमुखो नाम यक्षरित्रवदनस्विनेत्रः श्यामवर्णो मयूरवाहनः षड् भुजो नकुलगदाभययुक्तदक्षिणकरकमलत्रयो, मातुलिङ्गछागाक्षसूत्रवामपाणिपात्रयश्च / श्रीअभिनन्दनस्य ईश्वरो यक्षः श्यामकान्तिर्गजवाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरकमलद्वयो, नकुलाङ कुशान्वितवामपाणिद्वयश्च / श्रीसुमतेस्तुम्बुरुर्यक्षः श्वेतवर्णो गरुडवाहनश्चतुर्भुजो वरदशक्तियुक्तदक्षिणपाणिग्रयो, गदानागपाशयुक्तवामपाणिद्वयश्च 1 श्रीपद्मप्रभस्य कुसुमो यक्षो नीलवर्णः कुरङ्गवाहनश्चतुर्भुजः फलाभययुक्तदक्षिणपाणिद्वयो, नकुलाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिद्वयश्च / सुपार्श्वस्य मातङ्गो यक्षो नीलवर्णो गजवाहनश्चतुर्भुजो विल्वपाशयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो, नकुलाशयुक्तवामपाणिद्वयश्च / श्रीचन्द्रप्रभस्य विजयो यक्षो हरितवर्णस्त्रिलोचनो हंसवाहनो द्विभुजः कृतदक्षिणहस्तचक्रो, वामहस्तधृतमुद्रश्च / श्रीसुविधिजिनस्याऽजितो यक्षः श्वेतवर्णः कूर्मवाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो, नकुलकुन्तकलितवामपाणिद्वयश्च। श्रीशीतलस्य ब्रहा यक्षश्चतुमुखरित्रनेत्रः श्वेतवर्णः पद्मासनोऽष्टभुजो मातुलिङ्ग मुद्रपाशकाभययुक्तदक्षिणपाणिचतुष्टयो, नकुलगदाङ्कुशाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिचतुष्टयश्च / श्रीश्रेयांसस्य मनुजो यक्षो, मतान्तरेण ईश्वरो, धवलवर्णस्त्रिनेत्रो वृषभवाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गगदायुक्तदक्षिणपाणिगयो, नकुलकाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिद्वययश्च / श्रीवासुपूज्यस्य सुरकुमारो यक्षः श्वेतवर्णो हंसवाहनश्चतुर्भुजो बीजपूरकबाणान्वितदक्षिणकरद्वयो, नकुलकधनुर्युक्तवामपाणिद्वयश्च / श्रीविमलस्यषण्मुखो यक्षः श्वेतवर्णः शिखिवाहनो द्वादशभुजः फलचक्रबाणखङ्गपाशकाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणपाणिषट् को, नकुलचक्रधनुः फलका कुशाभययुक्तवामपाणिषट् कश्च / श्रीअनन्तस्य पातालो यक्षस्त्रिमुखो रक्तवर्णो मकरवाहनः षड्भुजः पद्मखड्गपाशयुक्तदक्षिणपाणित्रयो, नकुलफलकाक्षसूत्रयुक्तवामपाणित्रयश्च / श्रीधर्मास्य किन्नरो यक्षस्त्रिमुखो रक्तवर्णः कूर्डवाहनः षड् भुजो बीजपूरकगदाभययुक्तदक्षिणपाणित्रयो, नकुलपद्माक्षमालायुक्तवामपाणिवयश्च। श्रीशान्तिनाथस्य गरुडो यक्षो वराहवाहनः क्रोडवदनः श्यामरुचिश्चतुर्भुजो बीजपूरकपद्यान्वितदक्षिणकरद्वयो, नकुलाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिद्वयश्च / श्रीकुन्थोर्गन्धर्वयक्षः श्यामवर्णो हंसवाहनश्चतुर्भुजो वरदपाशकान्वितदक्षिणपाणिद्वयो, मातुलिङ्गाङ्कुशाधिष्ठितवामकरद्वयश्वा श्रीअरजिनस्य यक्षेन्द्रो यक्षः षण्मुखस्त्रिनेत्रः श्यामवर्णः(शङ्क)शिखिवाहनो द्वादशभुजो बीजपूरकबाणखड्गमुद्रपाशकाभययुक्तदक्षिणकरषट् को, नकुलधनुः फलकशूला कुशाक्षसूत्रयुक्तवामपाणिषट् कश्च / श्रीमल्लिजिनस्य कूयरो यक्षश्चतुर्मुख इन्द्रायुधवर्णो गजवाहनोऽष्टभुजो वरदपरशुशूलाभययुक्तदक्षिणपाणिचतुष्टयो, बीजपूरकशक्तिमुद्गराक्षसूत्रयुक्तवामपाणिचतुष्टयश्च / अन्ये कूबरस्थाने कुबेरमाहुः। श्रीमुनिसुव्रतस्य वरुणो यक्षश्चतुर्मुखस्विनेत्रः सितवर्णो वृषवाहनो जटामुकुटभूषितोऽष्टभुजो बीजपूरकगदाबाणशक्तियुक्तदक्षिणकरकमलचतुष्को, नकुलपद्मधनुःपरशुयुतवामपाणिचतुष्टयश्च / श्रीनमिजिनस्य भृकु टिर्यक्षश्चतुर्मुखस्त्रिनेत्रः सुवर्णवर्णो वृषभवाहनोऽष्टभुजो बीजपूरकशक्तिमुद्गराभययुक्तदक्षिणकरचतुष्टयो, नकुलपरशुवजाक्षसूत्रयुक्तवामकरचतुष्टयश्च / श्रीनेमिजिनस्य गोमेधो यक्षरित्रमुखः श्यामकान्तिः पुरुषवाहनः षड् भुजो मातुलिङ्ग परशुचकान्वितदक्षिणकरत्रयो, नकुलशूलशक्तियुक्तवामपाणित्रयश्च। श्रीपार्श्वजिनस्य वामनो यक्षो, मतान्तरेण पार्श्वनामा, गजमुख उरगफणामण्डितशिराः श्यामवर्णः कूर्मवाहनश्चतुर्भुजो बीजपूरकोरगयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो, नकुलभुजगयुक्तवामपाणियुगश्च / श्रीवीरजिनस्य मतङ्गो यक्षः श्यामवर्णो गजवाहनो द्विभुजो नकुलयुतदक्षिणभुजो, वामकरधृतबीजपूरकश्च ! प्रव० 26 द्वार। (68) तीर्थकरदेव्यःदेवीओ चक्केसरि, अजिआ दुरितारि कालि महकाली। अचुय संता जाला, सुतारयाऽसोय सिरिवच्छा।।३७७॥ पवर विजयंऽकुसा पन्नग त्ति निव्वाण अञ्चुया धरणी। वइरुट्टाछुत्त गंधारि अंब पउमावई सिद्धा॥३७८।। तत्राऽऽद्यजिनस्य चक्रेश्वरी देवी, मतान्तरेणाऽप्रतिचक्रा, सुवर्णवर्णा गरुडवाहनाऽष्टकरावरदबाणचक्रपाशयुक्तदक्षिणपाणिचतुष्टया, धनुर्वजचक्राड कुशयुक्तवामपाणिचतुष्टया चेति / श्रीअजितस्याजिता देवी गौरवर्णा लोहासनाधिरूढा चतुर्भुजा वरदपाशकाधिष्ठितदक्षिणकरद्रया, बीजपूरकाङ्कुशालड् कृतवामपाणिद्वया च / श्रीसम्भवस्य दुरितारिदेवी गौरवण्र्णा मेघवाहना चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रभूषितदक्षिणभुजद्वया, फलाभयान्वितवामकरद्वया च। श्रीअभिनन्दनस्य काली नाम देवी श्यामकान्तिः पद्मासना चतुर्भुजा वरदपाशाधिष्ठितदक्षिणकरद्वया, नागाङ् कुशालड् कृतवामपाणिद्वया च / श्रीसुमतेमहाकाली देवी सुवर्णवण्णा पद्मासना चतुर्भुजा वरदपाशाधिष्ठितदक्षिणकरद्वया, मातुलिङ्गाकुशयुक्तवामपाणिद्वया चेति / श्रीपद्मप्रभस्याऽच्युता, मतान्तरेण श्यामा, देवी श्यामवर्णा नरवाहना चतुर्भुजा वरदबाणान्वितदक्षिणकरद्वया, कार्मुकाभययुक्तवामपाणिद्वयाच। श्रीसुपार्श्वस्य शान्ता देवी सुवर्णवर्णा गजवाहना चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरद्वया, शूलाभययुक्तवामहस्तद्वया च। श्रीचन्द्रप्रभस्य ज्वाला; मतान्तरेण भृकुटिः, देवी पीतवर्णा वरालकाख्यजीवविशेषवाहना चतुर्भुजा खङ्गभूषितदक्षिणकरद्वया, फलकपरशुयुतवामपाणिद्वया च। श्रीसुविधेः सुतारा देवी गौरवर्णा वृषभवाहना चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणभुजद्वया, कलशाड्कुशाश्चितवामपाणिद्वया च। श्रीशीतलस्य अशोका देवी नीलवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा वरदपाशयुक्तदक्षिणपाणिद्वया, फलाकुशयुक्तवामपाणिद्वया च। श्रीश्रेयांसस्य श्रीवत्सा देकी, मतान्तरेण मानवी, गौरवर्णा सिंहवाहना चतु
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________________ तित्थयर 2266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर भुंजा वरदमुद्रान्वितदक्षिणकरद्वया, कलशाङ्कुशयुक्तवामक-रद्वया च / श्रीवासुपूज्यस्य प्रवरा देवी, मतान्तरेण चण्डा, श्यामवर्णा तुरगवाहना चतुर्भुजा वरदशक्तियुक्तदक्षिणकरयुगा, पुष्पगदायुतवामकरद्वया च / श्रीविमलस्य विजया, मतान्तरेण विदिप्ता, देवी हरितालवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा बाणपाशयुक्तदक्षिणकरद्वया, धनुर्नागयुतवामपाणिद्वया च / श्रीअनन्तजिनस्य अंकुशा देवी गौरवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा पाशयुक्तदक्षिणपाणिद्वया, फलकाङ्कुशयुक्तवामकरद्वया च / श्रीधर्मस्य पन्नगा देवी, मतान्तरेण कन्दर्पा, गौरवर्णा मत्स्यवाहना चतुर्भुजा उत्पलाकुशयुक्तदक्षिणपाणिद्वया, पद्माभययुतवामपाणिद्वया च / श्रीशान्तिनाथस्य निर्वाणा देवी कनकरुचिः पद्मासना चतुर्भुजा पुस्तकोत्प्लयुक्त-दक्षिणपाणिद्वया,कमण्डलुकमलकलितवामकरद्वया च, श्रीकुन्थोरच्युता देवी, मतान्तरेण बलाभिधाना, कनकच्छविर्मयूरवाहना चतुर्भुजा बीजपूरकशूलान्वितदक्षिणपाणिद्वया, भुशुण्डिपद्मान्दितवामपाणिद्वया च / श्रीअरजिनस्य धारणी देवी नीलवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा मातुलिङ्गोत्पलयुक्तदक्षिणपाणिद्वया, पद्माक्षसूत्रान्वितवामपाणिद्वया च / श्रीमल्लिजिनस्य वैरोट्या देवी कृष्णवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणपाणिद्वया,बीजपूरकशक्तियुक्तवामपाणिद्वया चेति / श्रीमुनिसुव्रतस्य अक्षुप्ता देवी, मतान्तरेण नरदत्ता, कनकरुचिर्भद्रासनारूढा चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणभुजदया, बीजपूरकशूलयुक्तवामकरद्वया च। श्रीनमिजिनस्य गन्धारी देवी श्वेतवर्णा हंसवाहना चतुर्भुजा वरदखड्गयुक्तदक्षिणकरद्वया, बीजपूरककुन्तकलितवामकरद्वया च। श्रीनेमिजिनस्य अम्बा देवी कान्तरुचिः सिंहवाहना चतुर्भुजा आमलुम्बिपाशयुतदक्षिणकरद्वया, चक्राकुशाऽऽसक्तवामकरद्वया च / श्रीपार्श्वजिनस्य पद्मावती देवी कनकवर्णा कुक्कुटसर्पवाहना चतुर्भुजा पद्मपाशान्वितदक्षिणकरद्वया, फलाकुशाधिष्ठितवामकरद्वया च : श्रीवीरजिनस्य सिद्धार्यिका देवी हरितवर्णा सिंहवाहन चतुर्भुजा पुस्तकाभययुक्तदक्षिणकरद्वया, बीजपूरकवीणाभिरामकरद्वया चेति / अत्र सूत्रकारेण यक्षाणां देवीनां च केवलानि नामान्येवाभिहितानि, न पुनर्नयनवदनवर्णाऽऽदिस्वरूपं निरूपितमः अरमाभिस्तुशिष्यहिताय निर्वाणक लिकाऽऽदिशास्त्रानुसारेण किश्चित्तदीयमुखवर्णप्रहरणाऽऽदिस्वरूप निरूपितमिति। प्रव०२७ द्वार। (जन्मवेला 22 / जन्मनक्षत्राणि 23 / जन्मराशयः 24 इति द्वारत्रिक च्यवनवत्) (66) तीर्थकरजन्मनगर्यः......................,जम्मस्स इमा उ नयरीओ। इक्खागभूमऽउज्झा, सावत्थी दो अउज्झ कोसंबी। वाणारसि चंदपुरी, कायंदी भद्दिलपुरं च / / 3 / / सीहपुर चंप कंपिल्लऽउज्झरयणपुर तिगयपुर मिहिला। रायगिह मिहिल सूरियपुरवाणारसि य कुंडपुरं / / 64|| इक्ष्वाकुभूमिः 1 / अयोध्या नगरी 2 / श्रावस्ती३ / द्वयोरयोध्याअयोध्या नगरी 4 / अयोध्या नगरी 5 / कौशाम्बी 6 / वाराणसी 7 / चन्द्रपुरी 8 / काकन्दी 6 / भद्रिलपुरम् 10 / / सिंहपुरम् 11 / चम्पा 12 / काम्पिल्यपुरम् 13 / अयोध्या 14 / रत्नपुरम् 15 / त्रिषु गजपुरम् गजपुरम् 16 / गजपुरम 17 गजपुरम् 18 / मिथिला 16 / राजगृहम् 20 / मिथिला 21 / सौर्यपुरम् 22 / वाराणसी 23 / कुण्डपुरम् 24 जिनाना क्रमेण जन्मनगराणि / सत्त०२८ द्वार। आ०म० (70) अथ तीर्थकरजन्मदेशाः कथ्यन्तेदुसु कोमला कुणाला, दुसु कोसल वच्छ कासि पुव्वो य। सुन्न मलय सुन्नंडगा, पंचाला कोसला सुन्न / / 61|| तिसु कुरु विदेहमगहा, विदेह कोसट्ट कासि तह पुव्यो। देसाइमे जिणाणं,जम्मस्स....................IIE२|| (दुसु कोसला कुणाल ति) द्वयोः जिनवरयोः कोशलादेशः 112 / कुणालदेशः 3 / (दुसु कोसल वच्छ कासि पुष्यो य त्ति) द्रयोः पुनःकोशला 4 / 5 / वच्छदेशः६ / काशीदेशः 7 / पूर्वदेशश्च 8 / (सुन्न मलय सुन्नंऽग त्ति) पुरातनग्रन्थेष्वप्राप्यमाणत्वेनाप्रसिद्धत्वात् शून्यमित्यर्थः 6 / मलयदेश : 10 / शून्य प्राग्वत् 11 / अङ्ग देशः 12 (पंचाला कोसला सुन्नं ति) पश्चालाः 13 / कोशलाः 14 / शून्यं प्राग्वत् 15 / इति गाथार्थः 61 / / (तिसुकुरुविदेहमगह त्ति) त्रिषु कुरुदेशः 16 / 17 / 18 / विदेहदेशः 16 / मगधदेशः 20 / (विदेह कोसट्ट कासि तह पुचो ति) विदेहदेशः 21 / कुशा (व)देिशः 22 / काशीदेशः 23 / तथा पूर्वदेशः 24 / (देसा इमे जिणाणं ति) इमेऽनन्तरोक्ता देशाः क्रमेण चतुर्विशतिजिनानाम् नाश सत्त०२७ द्वार। (71) तीर्थकरजन्मामासाऽऽदिइत्तो उसहाऽऽइ जिणाण जम्ममासाइ वुच्छामि (77) चित्तबहुलट्ठमी सियमाहऽहमिमग्गचउदसी माहे। सियबिय वेसाहऽट्ठमि, कत्तियगे कसिणबारसिया।७८ जिट्ठसिय पोसकसिणा, य वारसी मग्गपंचमी चेव। कसिणा य माहफग्गुणबारसि फग्गुण चउद्दसिया 76/ माहस्स सुद्धतइया, तह वइसाहम्मि तेरसी कसिणा। माहसियतइय जिट्टे, कसिणा तेरसि विसाहचउदसिया।८०। सियमग्गदसमिगारसि, बहुलऽट्ठमि जिट्ठसावणे मासे। सावणसियपंचमि पोसकसिणदसमि सिअचित्ततेरसिया।। इतो गर्भस्थितिकथनानन्तरम्, ऋषभाऽऽदीनां जन्ममासाऽऽदि वक्ष्ये / तद्यथा-चैत्रबहुलाष्टमी ऋषभजिनस्य जन्म 1 / श्वेतमाघाष्टमी 2 / मार्गशीर्षसितचतुर्दशी 3 / माघसितद्वितीया 4 / वैशाखसिताष्टमी 5 / कार्तिककृष्णद्वादशिका 6 / ज्येष्ठस्य सितद्वादशी 7 / पौषस्य कृष्णा द्वादशी 8 / मार्गशीर्षकृष्णपञ्चमी 6 / माघकृष्णा द्वादशी 10 / फाल्गुनकृष्णा द्वादशी 111 फाल्गुनकृष्णचतुर्दशी 12 / भाघसिततृतीया 13 / वैशाखकृष्णत्रयोदशी 14 / माघसिततृतीया 15 / ज्येष्ठकृष्णत्रयोदशी 16 / वैशाखकृष्णचतुर्दशी 17 / मार्गशीर्षसितदशमी 18 | मार्गशीर्षकादशी कृष्णा 16 / ज्येष्ठमासबहुलाष्टमी 20 / श्रावणबहुलाष्टमी 21 / श्रावणश्वेतपञ्चमी 22 पौषकृष्णा दशमी 23 / चैत्रश्वेतत्रयोदशी 24 / इति क्रमेण जन्म-मासपक्षतिथयः / सत्त०२८ द्वार। (72) अथ जन्मारकानाहसंखिञ्जकालरूवे, तइयऽरयंते उसहजम्मो। (82)
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________________ तित्थयर 2270 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर अजियस्स चउत्थारयमज्झे पच्छखें संभवाऽऽईणं / तस्संऽतें अराईणं, जिणाण जम्मो तहा मुक्खो / / 3 / / (संखिजकालरूवे. तइयऽरयंते उसहजम्मो त्ति) संख्यातकालरूपे तृतीयारकपर्यन्त ऋषभजिनजन्म, मोक्षश्च ज्ञेय इति गाथार्थः / (अजियस्स चउत्थारयमज्झे ति) अजितजिनस्य चतुर्थारकमध्ये जन्म, मोक्षश्चाभूत् / (पच्छखें संभवाऽऽईणं ति) पश्चिमार्द्ध सम्भवाऽऽदीनां सप्तदशजिनपर्यन्तानां जन्म, मोक्षश्चाभूत्। (तस्संऽतें अराईण) तस्य तुरकस्यान्ते अराऽऽदिजिनानां वीरपर्यन्तानां सप्तजिनानां जन्म, मोक्षश्चाभूत् / (जिणाण जम्मो तहा मुक्खो ) एवं सर्वजिनानां जन्म, मोक्षश्च / सत्त०२५ द्वार। अथ जन्मारकाणां शेषकालमाहजम्माउ इगुणनउई-पक्खनिजाउअमियमरयसेसं / पुरिमंतिमाण नेअं, तेणऽहियमिमं तु सेसाणं // 16 // अजियस्स अयरकोडी, लक्खा पन्नास, वीस दस एगो। कोडिसहस दस एगो, कोडिसयं कोडि दस एगा।।७।। बायालसहस्सूणं, इय नवगे अट्ठगे पुणो इत्तो। पणसविलक्खचुलसी-सहसऽहियं होइ वरिसाणं / / 88|| अयरसयं छायाला, सोलससगतिन्नि पलियभागतिगं। पलियस्स एगपाओ, वरिसाणं कोडिसहसो य / / 6 / / तिसु चुलसिसहस्सऽहिया, पणसट्ठिइगारपंचलक्खा य। चुलसि सहस्सा तो सड दुसय पासस्स अरसेसं / / 60|| (जम्माउ इगुणनउई.-पक्खनिजाउअभियमरयसेसं ति) जन्मत एकोननवति (86) पक्षनिजायुर्मितमरकशेषम् (पुरिमंतिभाण नेअंति) प्रथमान्तिमयोर्जिनयोज्ञेयम्। अयं भावः एकोननवतिपक्षाः चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि च श्रीऋषभदेवस्य तृतीयारकशेषं ज्ञेयम् / कोऽर्थः? श्रीऋषभदेवस्य जन्मतः तृतीयारकमध्ये एतावान् कालोऽवशिष्यत इति / तथा-एकोननवतिपक्षाः द्वासप्ततिवर्षाणि च श्रीवीरस्य जन्मतोऽरकस्य शेष ज्ञेयम्। श्रीवीरस्य जन्मतः चतुर्थारकमध्ये एतावान् कालोऽवशिष्यत इत्यर्थः / (तेणऽहिय-मिमं तु सेसाणं ति) तोभिन्नक्रमत्वात शेषाणां मध्यद्वाविंशतिजिनानां तु, तेन निजायुषा अधिकमिदं वक्ष्यमाणमरकशेष ज्ञेयमिति गाथाऽर्थः / / 86 / / (अजियस्स अयरकोडी लक्खा पन्नास त्ति) अजितस्य जन्मतः द्वासप्तति (72) लक्षपूर्वैरधिकाः "वायालसहस्सूर्ण इय नवगे' इत्यग्रे वक्ष्यमाणत्वात् द्विचत्वारिंशशतवर्षसहरीरुनाश्च पञ्चाशल्लक्षाः सागरकोट्यः चतुर्थारकशेष ज्ञेयम्। एवं शीतलजिनं यावद् निजायुःप्रक्षेपपूर्वक द्विचत्वारिंशद् वर्षसहस्रा-ऽपनयनपूर्वकं च चतुर्थारकशेषं वाच्यम् / 2 (वीस दस एगो त्ति) विंशतिकोटिलक्षाः६० लक्षपूर्वाधिक०३। दशकाटिलक्षाः 50 लक्षपूर्वाधिकः 4 / एककोटिलक्षाः 40 लक्ष०५ / (कोडिसहस दस इक्को त्ति) दशकोटिसहस्राः 30 लक्षपू० 6 / एककोटिसहस्रः 20 लक्षपू०७ 1 (कोडिसयं कोडि दस एग त्ति) कोटीशतं 10 लक्ष०८1दशकोट्यः२ल०६॥ एका कोटी 1 लक्ष०१०। सागराणामिति सर्वत्र गम्यम् / इति गाथार्थः ||87 / / "वायालसहस्सूण, इय नवगे" इत्यनन्तरोक्ते नवके अजितजिनादारभ्य शीतलजिन यावद् द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रैरेतदरकशेषमूनं क्रियते। (अट्ठगे पुणो इत्तो त्ति) इतोऽनन्तरमष्टके पुनः(पणसहिलक्खचुलसीसहसऽहिय होइ वरिसाणं ति) पञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिवर्षसहस्राधिकं भवति, अग्रे वक्ष्यमाणमिति शेष इति गाथार्थः / / 88 / / (अयरसयं ति) अतरशतं सागरशतम्। भावना चैवम्-श्रेयांसस्य जन्मतः निजायुरधिकं पञ्चषष्टिलक्ष(६५) चतुरशीति (84) सहस्रवर्षादधिक चैक सागरशतं चतुर्थारकशेषं ज्ञेयम् / एवमरजिनं यावन्निजायुः प्रत्यय-पूर्वकं. पञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रवर्षप्रक्षेपपूर्वक च भावनीयम् / (छायाल त्ति) षट् चत्वारिंशत् सागराणि 72 लक्षा० 12 / (सोलस सग तिन्नि पलियभागतिगं ति) षोडशसागराणि 60 लक्षा० 13 / सप्तसागराणि 10 लक्षा०१४ / त्रीणि सागराणि (?) लक्ष० 15 / पल्यभागत्रिक पादोनपल्यम् 1 लक्ष०१६ / (पलियरस एगपाउ त्ति) पल्यस्यैकपादः चतुर्थांशः निजायुः (65) सहस्राधिक० 17 / (वरिमाणं कोडिसहसो यत्ति) वाणां कोटिसहस्र (85) सहस्रश्चति 18 गाथार्थः ||86 // (तिसु चुलसिसहस्सऽहिय त्ति) त्रिषु जिनेष्वनन्तरं भणिष्यमाणेषु चतुरशीतिसहस्राधिकाः (पणसट्टि-इगारपंचलक्खा यति) लक्षशब्दस्य प्रत्येक योगात् पञ्चषष्टिलक्षाः श्रीमल्लिजिनस्य जन्मतः चतुरशीतिसहस्रवर्षाधिका 55000 निजायुरधिकाश्च पञ्चषष्टिलक्षाः 65 वर्षाणि चतुर्थारकशेषगिति नमिजिनं यावद्भावना कार्या 16 / एकादशलक्षाः 30 सहस्र०२०। पञ्चलक्षाश्च 10 सह० 21 / (चुलसिसहस्स त्ति) चतुरशीतिसहस्राणि वर्षाणि 1 सह० 22 / (तो सड्ड दुसय त्ति) ततः सार्द्ध द्वे शते (पासस्स अरसेस ति) श्रीपार्श्वनाथस्य अरकशेषं ज्ञेयं वर्षशता-धिकम 23 // इति गाथाऽर्थः / / 60 // चतुर्विशतिजिनानां जन्मारकाणां शेषकालः। सत्त०२६ द्वार / / - (73) अथ तीर्थप्रसिद्धजिनजीवानाहउसहे मरीइपमुहा 1, सिरिवम्मनिवाइया सुपासजिणे 7 / हरिसेणविस्सभूई,सीयलतित्थम्मि१० जिणजीवा।।३।। सेयंसे सिरिकेऊ, तिविट्ठमरुभूइअमियतेयधणा। वसुपुज्जे 11 नंदणनं-दसंखसिद्धत्थसिरिवम्मा!।३५।। सुवर्ते ऍरावणनारय-नामा२० नेमिम्मि कण्हपमुहा य // 22 // पासे अंबडसचइ-आणंदा 23 वीरें सेणियाई य॥३६|| सेणिय सुपास पोट्टिल, उदाइ संखे दढाउ सयगे य / रवेइ सुलसा वीरस्स बद्धतित्थत्तणा नव उ॥३७|| (उसहे मरीइपमुहा) ऋषभे मरीचिप्रमुखाः 13 (सिरिवम्मनिवाइआ सुपासजिणे) श्रीवर्मनृपाऽऽदिकाः सुपार्श्वजिने७। (हरिसेणविस्सभूइ ति) श्रीशीतलनाथतीर्थे हरिषेणविश्वभूती जिनजीवौ ज्ञेयौ इति गाथार्थः // 34 / / (सेयंसे सिरिकेऊ) श्रेयांसतीर्थे श्रीकेतुनामा (तिविट्टमरुभूइअमियतेयधणा) त्रिविष्टमरुभूत्यमिततेजोधननामानः११ (वसुपुज्जे नंदणनंदसखसिद्धत्थसिरिवच्छा) वासुपूज्यजिनतीर्थे नन्दनन्दसङ्घ सिद्धार्थ श्रीवर्माभिधा 12 इति गाथार्थः // 35 / / (सुवते ऍरावणनारयनामा) मुनिसुव्रते ऐरावणनारदनामानौ 20 / (नेमिम्मि कण्हपमुहाय) नैमितीर्थे कृष्णप्रमुखाश्च 22 / (पासे अंबडसचाइआणंदा) पार्श्वतीर्थे अम्बडसत्यक्यानन्दनामानः 23 / (वीरें सेणिआई य)
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________________ तित्थयर 2271 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर श्रीवीरतीर्थे श्रेणिकाऽऽदयो जिनजीवा ज्ञेयाः / इति गाथार्थः / 36 / (सेणियसुपासपोट्टिलउदाइसंखे ति) श्रेणिकः 1 सुपार्श्वः २पोट्टिलः 3 उदायिनामा 4 संखनामा 5 / (दढाउसवगे) दृढायुः 6 शतको च७ (रेवइ सुलसा) रेवती 8 सुखसानाम्न्यौ 6 (वीरस्स बद्धतित्थत्तणा नव उ) श्रीवीरस्य तीर्थे एते नव जीवा बद्धतीर्थङ्करपदा इति गाथार्थः / / 37|| सत्त०१६६ द्वार। (74) भविष्यतीर्थकराःजंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए / चउवीसं तित्थगरा भविस्संति। तं जहा'महापउमे सूरदेवे, सुपासे य सयंपों। सव्वाणुभूई अरहा, देवगुत्ते य होक्खइ / / 1 / / उदए पेढालपुत्ते य, पोट्टिले सतकित्तिए। मुणिसुव्वए य अरहा, सव्वभावविऊ जिणो / / 2 / / अममे णिकसाए य, निप्पुलाए य निम्ममे। चित्तउत्ते समाहीय,आगमिस्सेण होक्खइ।।३।। संवरे अणियट्टी य, विवाए विमले तहा। देवोववाए अरहा, अणंतविजए इय / / 4 / / (प्रवचनसारोद्धाराऽऽदी यन्नामभेद उपलभ्यते. तन्मतान्तरेण।) एए वुत्ता चउव्वीसं, भरहे वासम्मि केवली। आगमिस्सेण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा'"||५|| स०। महाविदेहविजयेषु विहरत्सु केवलिजिनेषु छद्मस्थेष्वन्येषां जिनाना जन्माऽऽदि स्यात्, किं वा तन्मोक्षगमनानन्तरमिति प्रश्ने, उत्तरम्महाविदेहविजयेषु विहरत्सु केवलिजिनेषु छद्मस्थेषु वाऽन्येषां जिनानां जन्माऽऽदि न स्यादिति / प्र०२। ही०२ प्रका०। (75) अथ युगान्तकृद् भूमिकामाहसाहूण सिद्धिगमणं,असंखअडचउतिसंखपुरिसं जा। संजायमुसहनेमी-पासंऽतिमसेसमुक्खाओ // 323 / / (साहूण सिद्धिगमणं) साधूना मुनीनां सिद्धिगमन मोक्षगमनम् (असंखअडचउतिसंखपुरिसं जा.संजायं ति) असंख्याष्टचतुस्त्रिसंख्यपुरुष यावत् संजातम् / कस्मादित्याह-(उसहनेमिपासंतिमसेसमुक्खाओ) ऋषभनेमिपावन्तिमशेषाणां मोक्षात् / इयमत्र योजना-श्रीऋषभस्य मोक्षात् असंख्यपुरुषान् यावत् साधूना सिद्धिगमन संजातम् 1 / श्रीनमेरष्टौ पुरुषान् यावत् साधूनां सिद्धिगमनं संजातम 22 / ('अरहओ णं अरिष्टनेमिस्स जाव अट्ठमाओ पुरिसजुगाओ जुगतगडभूमी दुवासपरियाए अंतमकारसी।'' स्था०८ठा० "उसभेणं अरहा कोसलिएणं इमीसे उस्सप्पिणीए नवहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं वीइकताहि तित्थे पवत्तिए।' स्था०६ ठा०) श्रीपार्श्वस्य मोक्षात् चतुरः पुरुषान् यावत् साधूनां सिद्धिगमनं संजातम्।२३। शेषाणामजिताऽऽदीनां नमि (21) पर्यन्तानां जिनानां मोक्षात् (त्रि)?..संख्यातपुरुषान् यावत्साधूना सिद्धिगमनं संजातमिति गाथार्थः / / 24 // 323 / / सत्त० 158 द्वार। “समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जाव तचाओ पुरिसजुगाओ जुगतगडभूमी।" स्था०३ ठा०३उ०। (76) स्थितिकल्पः दसहा दुण्हं भणिओ, चउहा अन्नेसि ठिइकप्पो (287) दशधा दशप्रकारेण स्थितिकल्पः प्रथम१चरम२४जिनयोस्तीर्थे भणितः / अन्येषां द्वाविंशतिजिनाना चतुःप्रकारो भणितः / सत्त० 135 द्वार। (विशेषार्थिना 'कप्प' शब्दस्तृतीयभागे 225 पृष्ठे विलोकनीयः) (77) तत्त्वसंख्याजीवाऽऽई नव तत्ता, तिन्निऽहवा देव-गुरु-धम्मा (283) सव्वे सिं जिय-अजिया, पुन्नं पावं च आसवो बंधो। संवर निज्जर मुक्खो , पत्तेयमणेगहा तत्ता / / 284|| सर्वेषां जिनानां शाराने जीवाऽऽदीनि नव तत्त्वानि / अथवा-त्रीणि तत्त्वानि देवगुरुधर्मरूपाणि भवन्ति। (283 ) सर्वेषां जिनाना तीर्थ जीवाऽजीवी, पुण्य, पापंच , आश्रवः, बन्धः, संवरः, निर्जरा, मोक्षः। एतानि नव तत्त्वानि प्रत्येकमनेकधा भवन्ति / / सत्त० 131 द्वार / आ०म० (78) अथ तीर्थप्रवृत्तिकालः प्रोच्यतेइगतित्था जा तित्थं, बीयस्सुप्पज्जए य ता नेओ। पुटिवल्लतित्थकालो, दुसमंतं पुण चरिमतित्थं / / 210 / / केवलिकालेण जुओ, इगस्स बीयस्स तेण पुण हीणो। अंतरकालो नेओ, जिणाण तित्थस्स कालो वि।।२११।। उसहस्सय तित्थाओ, तित्थं वीरस्स पुव्वलक्खऽहियं / अयरेगकोडिकोडी, वावीससहस्सवासूणा / / 212 / / (इगतित्था जा तित्थ, बीयस्सुप्पज्जए अता नेओ। पुव्विल्लतित्थकालो) एकस्य तिर्थकृतस्तीर्थात् यावद् द्वितीयतीर्थकृतस्तीर्थमुत्पद्यते तावत्कालं पूर्वतीर्थकृतस्तीर्थकालो ज्ञेयः / (दुसमंत पुण चरिमतित्थं ति) दुःषमान्तं पुनश्चरमतीर्थम् पञ्चमाऽऽरकपर्यन्त यावत् श्रीवीरजिनस्य तीर्थमिति गाथाऽर्थः // 210 / / (केवलिकालेण जुओ इगरस ति) एकस्य विवक्षितजिनस्य केवलिकालेन युतः (बीयरस तेण पुण हीणो) द्वितीयस्य तदग्रेतनस्य जिनस्य पुनस्तेन केवलिकालेन हीनो रहितः (अंतरकालो त्ति)एतादृशोऽन्तरकाल एव (नेओ जिणाण तित्थस्स कालो वित्ति) जिनाना तीर्थस्यापि कालो ज्ञेयः। तथाहि-श्रीऋषभाजि - तयोरन्तरकालः पञ्चाशद् लक्षकोटिसागराणि / स च श्रीऋषभस्य केवलिकालेन वर्षसहस्रोनपूर्वलक्षमानेन युतः श्रीअजितस्य केवलिकालेन द्वादशवर्षोनपूर्वाङ्गोनैकपूर्वलक्षमानेन हीनश्च क्रियते। तथा च द्वादशवर्षानपूर्वाङ्गोनैव पूर्वलक्षोनानि वर्षसहस्त्रोनैकपूर्वलक्षाधिकानि च पञ्चाशल्लक्षकोटिसागराणि जातानि। एतावतां कालं 50 लक्ष-कोटिसागर 8366012 वर्षाधिकं श्रीऋषभस्य तीर्थ प्रवृत्तमित्यर्थः / एवं पार्श्वजिनं यावद्भावना कार्या। इति गाथार्थः / / 211 / / (उसहस्सय तित्थओ तित्थं वीरस्रा ति) ऋषभस्य च तीर्थात् वीरस्य तीर्थ (पुव्वलक्खऽहियं ति) पूर्वलक्षाधिकमधिकं ( अयरेगकोडिकोडी) सागरैककोटाकोटी (बावीससहस्सवासूणा) द्वाविंशतिसहस्रवर्षोना भवति। तथाहि-ऋषभस्य केवलिपर्यायः वर्षसहस्रोनमेकं पूर्वलक्ष, ततो नवाशीतिपक्षेषु व्यतीतेषु तृतीयारकः परिसमाप्तः / ततो द्विचत्वारिंशत् सहस्रवर्षोनेकः सागरकोटाकोटिप्रमाणः चतुर्थारको व्यतीतः। तदनु च एकविंशतिसहस्रवर्षप्रमाणः पञ्चमारकः / सर्वेषां पिण्डीकरणे च नवाशीतिपक्षाधिकेन पूर्वलक्षणाधिका
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________________ तित्थयर 2272 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर द्वाविंशतिवर्षसहश्च न्यूना सागराणाम् एका कोटाकोटिर्भवति। श्रीऋषभस्य तीर्थात् श्रीवीरस्य तीर्थम् एतावता कालेन परिसमाप्तमितितात्पर्यमिति गाथाऽर्थः / / 21 / / इति तीर्थप्रवृत्तिकालः। सत्त० 101 द्वार। (76) तीर्थकरकल्याणतपः"इअऽतीअवट्टमाणा-ऽणागयचउवीसजिणवरिंदाणं। ओसप्पिणिउस्सप्पिणि-भवा णु अणुलोमपडिलोमा / / 1 / / सग्गाइअमहिवलया.पंचसु भरहेसुएरववपणगे। कल्लाणयमासतिहीउ सासया न य विदेहेसु / / 2 / / इगभत्तिनिविअआमा-खमणमिगदुतिचउपचकल्लाणे ? इअ सखेवतवेणं, आराहह पंचकल्लाणे / / 3 / / वित्थरओ उवउत्तं, चुइजम्मेसु करिज पत्तेअं। जिणवण्णेणं तवसा, दिक्खाइतिगंसु आराहे / / 4 / / सुमइऽत्थ निघभत्ते-ण णिग्गओ वासुपुज्ज चउथेण। पासो मल्ली विअ अ-ट्टमेण सेसा उछट्टेणं / / 5 / / अट्ठमभत्ततम्मी, नाणमुसभमल्लिनेमिपासाणं / वसुयुञ्जस्स चउत्थेण छहभत्तेण सेसाणं / / 6 / / चउदसमेण उसभो, वीरो छ8ण मासिए पत्ते। सिद्धवयम्मी सुमई--सुववासो निच्चभत्ते वि? / / 7 / / काउंकल्लाणतवं, उज्जमणं जो करिज विहिपुव्वं / जिणपहआराहणओ, परमपयं पावए स कमा।।८|| चुइजम्मदिक्खकेवल–सिवाइँ कल्लाणवाइँ पंचेव। सव्वजिणाण छ पुणो, वीररस सगब्भहरणाई।।६।। इहखित्तभवजिणाणं, जो आराहेइ पंचकल्लाणं / तेइसखित्ततिकालिअ-अरिहाण उवासिणा तेण? / / 10 / / पणकल्लाणयकप्पं,भवीण पूरियमणिट्ठसंकप्पं। जो पढइ सुणइ भव्वो, सयंवरा तस्स सिद्धिसिरी'' // 11 // ती०५० कल्प। प्रव०॥ (80) तीर्थकरणप्रयोजनम्ननु सर्वोऽपि प्रेक्षावान् फलार्थी प्रवर्तते, अन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षतिप्रसङ्गः / ततोऽसौ तीर्थ कुर्वन्नवश्यं फलमपेक्षते / फलं चापेक्षमाणोऽस्मादृश इव घ्यक्तमवीतरागः / तदयुक्तम्। यतः तीर्थकरः स एव भवति, यस्तीर्थकरनामकर्मोदयसमन्वितः, न हि सर्वेऽपि भगवन्तो वीतरागास्तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तन्ते / तीर्थकरनामकर्मव तीर्थप्रवर्तनफलम्। ततो भगवान् वीतरागोऽपि तीर्थकरनामकर्मोदयतः तीर्थप्रवर्तनस्वभावः सवितेव प्रकाशमुपकार्योपकारानपेक्ष तीर्थ प्रवर्तयतीति न कश्चिद्घोषः। उक्तंच"तीर्थप्रवर्तनफलं, यत्प्रोक्तं कर्म तीर्थकरनाम। तस्योदयात् कृतार्थोऽप्यर्हस्तीर्थं प्रवर्तयति / / 1 / / तत्स्वाभाव्यादेव, प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम्। तीर्थप्रवर्तनाय, प्रवर्तते तीर्थकर एवम् / / 2 / / " ननु तीर्थप्रवर्तनं नाम प्रवचनार्थप्रतिपादनं, प्रवचनार्थ चेद् भगवान प्रतिपादयति, तर्हि नियमादसर्वज्ञः, सर्वस्यापि वक्तुरसर्वज्ञतयोपलम्भात् / तथा चात्र प्रयोगः-विवक्षितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति, वक्तृत्वात्, रथ्यापुरुषवदिति / तदसत् / सन्दिग्धव्यतिरेकतया हेतोरनैकान्तिकत्वात् / तथाहि-वचनं न सर्ववेदनेन सह विरुद्भ्यते, अतीन्द्रियेण सह विरोधानिश्चयात् / द्विविधो हि विरोध:परस्परपरिहारलक्षणः, सहानवस्थानलक्षणश्च / तत्र परस्परपरिहार - लक्षणः तादात्म्यप्रतिषेधे, यथा घटपटयोः। न खलु घट: पटाऽऽत्मको भवति, नापि पटो घटाऽऽत्मको भवति। "न सत्ता सत्तान्तरमुपैति" इति वचनात् / ततो (ना)ऽनयोः परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः / एवं सर्वेषामपि वस्तूनां भावनीयम्, अन्यथा वस्तुसार्य प्रसक्तेः / यस्तु सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, स परस्परबाध्यबाधक भावसिद्धी सिद्ध्यति, नान्यथा / यथा-वहिशीतयोः। तथाहि-विवक्षिते प्रदेश मन्दमन्दमभिज्वलनवति वह्नौ शीतस्यापि मन्दमन्दभावः / यदा पुनरत्यर्थज्वालामतिविमुञ्चति वहिस्तदा सर्वथा शीतस्याभाव इति भवत्यनयोर्विरोधः। उक्तं च"अविकलकारणमेकं, तदपरभावे यदाऽऽभवन्न भवेत्। भवति विरोधः स तयोः, शीतहुताशाऽऽत्मनोदृष्टः / / 1 / / " न चैव वचनसंवेदनयोः परस्परं बाध्यबाधकभावः, न हि संवेदने तारतम्येनोत्कर्षमासादयति वचस्वितायाः तारतम्येनापकर्ष उपलभ्यते, तत्कथमनयोः सहानवस्थानलक्षणो विरोधः / अथ सर्ववेदी वक्ता नोपलब्ध इति विरोध उघुष्यते / तदयुक्तम् / अत्यन्तपरोक्षो हि भगवान, ततः कथमनुपलम्भमात्रेण तस्याभावनिश्चयः, अदृश्यविषयस्यानुपलम्भस्याभावनिश्चायकत्वायोगात्। आह च प्रज्ञाकरगुप्तः"बाध्यबाधकभावः कः, स्यातां तर्जुक्तिसंविदौ? तादृशाऽनुपलब्धेश्चंदुच्यतां सैव साधनम्।।१।। अनिश्चयकर प्रोक्तमीदृक्षानुपलम्भनम्। तत्रात्यन्तपरोक्षेषु, सदसत्ताविनिश्चयैः ।।२।।'नं० (81) तीर्थोच्छेदकाल:पुरिमंऽतिमअट्ठऽटुं-तेरसु तित्थस्स नत्थि वुच्छेओ। मज्झिल्लएसु सत्तसु, एत्तिकालं तु वुच्छेओ।।४३२।। चउभागो चउभागो, तिन्नि य चउभाग पलिय-चउभागो। तिन्नेव य चउभागा, चउत्थभागो य चउभागो।।४३३।। इह हि चतुर्विशतेस्तीर्थकृतां त्रयोविंशतिरेवान्तराणि भवन्ति / यथाचतसृणामङ्गुलीनां त्रीण्ये वान्तराणि, तत्र पूर्वेषु श्रीऋषभाऽऽदिजिनाऽऽदीनां सुविधिपर्यन्तानां नवानां तीर्थकृतां संबन्धिषु अष्टसु. अन्तिमेषु च शान्तिनाथाऽऽदीनां महावीरान्तानां नवानां जिनानां संबन्धिषु अष्टस्वन्तरेषु तीर्थस्य चतुर्वर्णस्य श्रमणसङ्घस्स नास्ति व्यवच्छेदः / (मज्झिल्लएसु ति) मध्यवर्तिषु पुनः सुविधिप्रभृतीनां शान्तिनाथपर्यन्तानां तीर्थकृतामन्तरेषु सप्तसुएतावन्मानं वक्ष्यमाणं काल यावत्तीर्थस्य व्यवच्छेदः / तदेवाऽऽह-(चउभागेत्यादि) सुविधिशीतलयोरन्तरे पल्योपमस्य चतुर्भागीकृतस्य एकश्चतुर्भागस्तीर्थव्यवच्छेदोऽर्हद धर्मवार्ताऽपि तत्र नष्टत्यर्थः / तथा-शीतलश्रेयांसयोरन्तरे पल्योपमस्यचतुर्भागस्तीर्थव्यवच्छेदः / तथा श्रेयांसवासुपूज्ययोरन्तरे पल्योपमसंबन्धिनस्त्रयश्चतुर्भागास्तीर्थव्यवच्छेदः। तथा बासुपूज्यविमलजिनयोरन्तरे पल्योपमस्य चतुर्भागस्तीर्थव्यवच्छेदः। तथा विमलानन्तजिनयोरन्तरे पल्योपमसंबन्धिनस्वयश्चतुर्भागास्तीर्थव्यवच्छेदः / तथाऽनन्तधर्मयोरन्तरे पल्योपमस्य चतुर्भागस्तीर्थव्यवच्छेदः। तथा धर्मशान्ति
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________________ तित्थयर 2273 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर नाथयोरन्तरे पल्योपमचतुर्भागरतीर्थव्यवच्छेदः। इति सर्वाग्रेण भागमीलने त्रीणि पल्योपमानि एकचतुर्भागहीनानि जातानि / प्रव० 36 द्वार। एएसु णं भंते ! तेवीसाए जिणंतरे कस्स कहिं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णत्ते ? गोयमा ! एएसु णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिमपच्छिमएसु अट्ठसु अट्ठसु जिणंतरेसु एत्थणं कालियसुयस्स अवोच्छेदे पण्णत्ते / मज्झिमएसु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णत्ते / सव्वत्थ विणं वोच्छिण्णे दिट्ठिवाए॥ कस्य जिनस्य सम्बन्धिनः कस्मिन् जिनान्तरे, कयोर्जिनयोर-न्तरे, कालिकश्रुतस्यैकादशाङ्गीरूपस्य व्यवच्छेदः प्रज्ञप्तः? इति प्रश्नः / उत्तरं तु-(एएसुणमित्यादि) इह च कालिकस्य व्यवच्छेदेऽपि पृष्ट यदपृष्टस्याव्यवच्छेदस्थाभिधानं तद्विपक्षज्ञापने सति विवक्षितार्थबोधनं सुकर भवतीतिकृत्वा कृतमिति। (मज्झिमएसु सत्तसुत्ति) अनेन 'करस कर्हि' इत्यस्योत्तरमवसेयम् / तथाहि-मध्यमेषु सप्तस्वित्युक्ते सुविधिजिनतीर्थस्य सुविधिशीतलजिनयोरन्तरे व्यवच्छेदो बभूव, तद् व्यवच्छेदकालश्च पल्योपमचतुर्भागः। एवमन्ये षड् जिनाः, षट् च जिनान्तराणि वाच्यानि। केवलं व्यवच्छेदकालः सप्तस्वप्येवमवसेयः "चउभागो चउभागो,तिणि य चउभाग पलियमेगं च। तिण्णेव व चउभागा, चउत्थभागो य चउभागो।।१।।" इति। (एल्थणं ति) एतेषु प्रज्ञापकेनोपदयमानेषु जिनान्तरेषु कालिकश्रुतस्य | व्यवच्छेदः प्रज्ञाप्तः / दृष्टिवादापेक्षया त्वाह-(सव्वत्थ विणं वोच्छिण्णे दिट्ठिवाए त्ति) सर्वत्रापि सर्वेष्वपि जिनान्तरेषु, न केवलं सप्तस्येव क्वचित्, कियन्तमपि कालं व्यवच्छिन्नो दृष्टिवाद इति। भ० 20 श०८ उ०।। (82) अथ प्रसङ्गात् द्वादशचक्रिनामान्याहचक्की भरहो सगरो, मघव-सणंकुमार-संति-कुंथु-अरा। सुभूम-महपउम-हरिसेण-जयनिवा वंभदत्तो य॥३४७।। चक्री-भरतः१, सगरनामा२ / चक्रिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते / मधवा३, सनत्कुमारः४,शान्तिः५, कुन्थुः६, अरनामा 7, (सुभूममहपउमहरिसेण त्ति) सुभूमनामा८, महापद्मः६, हरिषेणः १०(जयनिवा बंभदत्तो य) जयनृपः 11, ब्रादत्तश्च 12 / इति गाथार्थः // 347 / / अथ नववासुदेवनामान्याहविण्हु तिविट्स दुविढू, सयंभु पुरिसुत्तमं पुरिससीहे। तह पुरिसपुंडरीए, दत्ते लक्खमण कण्हे य // 348|| (विण्हु तिविटु दुविठू सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे) विष्णुः त्रिपृष्टः 1, द्विपृष्टः२, स्वयंभूः३, पुरुषोत्तमः४, पुरुषसिंहः 5, तथा पुरुषपुण्डरीकः 6, दत्तनामा 7., लक्ष्मणनामा 8, कृष्णश्च 6 / इति गाथार्थः / / 348|| अथ बलदेवनामान्याहहरिजिट्ठभायरो नव, बलदेवा अयल-विजय-भद्दा य। सुप्पहसुदंसणाऽऽणंदनंदणा रामवलभद्दा / / 346 / / (हरिजिट्टभायरो) विष्णुना जेष्ठभ्रातरः (नव बलदेवा) नवसंख्या बलदेवा भवन्ति / अचलनामा प्रथमः 1, विजयनामा द्वितीयः 2, | भद्रनामा तृतीयः 3, चः पादपूरणे / (सुप्पहसुदसणाऽऽणंदनंदण त्ति) सुप्रभनामा चतुर्थः 4, सुदर्शननामा पञ्चमः 5, आनन्दनामा षष्ठः 6, नन्दननामा सप्तमः 7 / (रामवलभद्दत्ति) रामनामाऽष्टमः 8, बलभद्रनामा नवमः / इति गाथार्थः॥३४६॥ पद्मः 8 / प्रव०॥ त्रिषष्टिशलाकापुरुषमानमाहचउपन्नुत्तमपुरिसा, इह एए हों ति जीवपन्नासं। नवपडिविण्हूहिँ जुआ, तेसट्ठिसलागपुरिस भवे // 350 / / (चउपन्नुत्तमपुरिसा, इह एए होति जीवपन्नासं ति) एते चतुर्विशतिजिनाः 24, द्वादश चक्रिणः 12, नव वासुदेवाः, नव बलदेवा : श्वेति चतुःपञ्चाशत् 54 उत्तमपुरुषा इह जगति भवेयुः / एते सर्वेऽप्युत्तमपुरुषाः संभूय पञ्चाशजीवाः। यतः शान्तिकुन्थुअराः जिनाश्चक्रिणोऽपि जाताः, तथा श्रीवीरजीवस्तु त्रिपृष्टनामा वासुदेवोऽपि जात इति / (नव पडिविण्हूहिँ जुय त्ति) ते चतुःपञ्चाशदुत्तमपुरुषा नवप्रतिविष्णुभिर्युताः। (तेसहिसलागपुरिस भवे) त्रिषष्टिः शलाकापुरुषा भवन्ति। शलाकापुरुषा इति कोऽर्थः?-शलाका इव रेखा इव पुरुषाः शलाकापुरुषाः, न कोऽप्यन्यपुरुष ईदृशः चतुःषष्टितमः / इति गाथार्थः // 350 / / अथ प्रतिवासुदेवनामान्याहते आसगीवें तारएँ, मेरऍ महुकेढवे निसुभे य। बलि पहलाए तह रावणे य नवमे जरासंधो // 351 / / अश्वग्रीवः 1. तारकः२, मेरकः 3, मधुकैटभः 5, निशुम्भकः 5, (बलि पहलाएतह रावणे अनवमे जरासंधो) बलिः 6, प्रह्लादः 7, तथा रावणश्व 8, नवमो जरासन्धः / इति गाथार्थः॥३५१।। अथ कस्य तीर्थ के चक्रिवासुदेवबलदेवा जातास्तानाहकालम्मि जे जस्स जिणस्स जाया, ते तस्स तित्थम्मि, जिणंतरे जे। नेया उतेऽतीअजिणस्स तित्थे, निएहिँ नामेहि कमेण एवं // 352|| (कालम्मि जे जस्स जिणस्स जाया ते तस्स तित्थम्मि त्ति) यस्य जिनस्य काले जिनतीर्थे वर्तमाने ये जाताः ते चक्रिवासुदेवाऽऽदयः तस्य तीर्थे कथ्यन्ते, (जिणंतरेजे, नेयाउ तेऽतीअजिणस्स तित्थे) जिनान्तरे ये जाताऽतेऽतीतजिनस्य तीर्थे ज्ञेयाः / (निएहिं नामेहिं कमेण एवं) निजैर्नामभिः क्रमेण एवं वक्ष्यमाणरीत्या / इति गाथार्थः / / 352 / / इदमुपजातिच्छन्दः। दो तित्थेस स चक्कि, अट्ठय जिणा,तो पंच केसीजुया, दो चक्काहिव, तिन्नि चक्किअजिणा, तो केसि चक्की हरी। तित्थेसो इग,तो सचक्कि-अजिणो केसीसचक्की जिणो, चक्की, केसवसंजुओ जिणवरो, चक्की अ,तो दो जिणा।।३५३ (दो तित्थेस सचक्कि अट्ट य जिणा तो पंच के सीजुआ) द्वी तीर्थे शौ सचक्रिणौ चक्र वर्तिसहितौ, ततोऽष्ट जिनाः, ततः पशवासुदेवयुताः पश जिनाः / (दो चक्काहिव तिन्नि चकि अ जिणा, तो के सि चक्की हरी) द्वौ ततश्चक्राधिपौ, ततस्त्रयः चक्रि
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________________ तित्थयर 2274 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर णो जिनाश्च / ततो वासुदेवः, ततश्चक्री, ततो वासुदेवः / (तित्थेसो इगु तो सचकिअ जिणो केसि त्ति) तीर्थेश एकः, ततः सचक्री जिनः, ततो वासुदेवः, सचक्री जिनः। (चक्री, केसवसंजुओ जिणवरो, चक्की अ, तो दो जिणा) चक्री, केशवसंयुतो जिनवरः, ततश्चक्री, ततो द्वौ जिनौ / इति गाथार्थः // 353 / / सत्त० 170 द्वार। जिनचक्रवर्तिकेशवानां विवरणयन्त्रम् - तीर्थकरः चक्रवर्ती वासुदेवः भरतचक्रवर्ती सगरचक्रवर्ती अपभस्वामी अजितस्वामी संभवस्वामी अभिनन्दनः सुमतिनाथः पद्मप्रभः सुपार्श्वनाथः चन्द्रप्रभः सुविधिनाथ: शीतलनाथः श्रेयांसनाथः वासुपूज्यः विमलनाथः अनन्तनाथः धर्मनाथः |0000000000000 10000000001 त्रिपृष्टः द्विपृष्टः स्वयंभूः पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः मघवा चक्रवर्ती | सनत्कुमारश्चक्री शान्तिरेव कुन्थुरेव अर एव पुरुषपुण्डरीकः सुभूमचक्री (83) तीर्थकरनामान्याहजंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चउवीसं तित्थगरा होत्था। तं जहाउसभ अजिअसंभव अभिणंदण सुमइपउमप्पभ सुपास चंदप्पभ सुविहि (पुप्फदंत "कपभी वृषभः, श्रेयान् श्रेयांसः, स्यादनन्तजिदनन्तः। सुविधिस्तु पुष्पदन्तः, मुनिसुव्रतसुव्रतौ तुल्यौ / / 26 / / अरिष्टनेनिरतु नेभिः, वीरश्वरमतीर्थकृत। महावीरा वर्द्धनाना, देवार्या ज्ञातनन्दनः // 30 // " इत्यभिधानचिन्तामणौ पर्यायवाचकाः।) सीयल सिजंस वासुपूज्ज विमल अणंत धम्म संति कुंथु अर मल्लि मुणिसुव्वय णमिणेमि पास बड्डमाणो य ।स० (तीर्थकृतां मातृपितृविचारोऽग्रे करिष्यते) (चक्रवर्तिनां सर्वा वक्तव्यता 'चकवट्टि' शब्दे तृतीयभागे 1066 पृष्ठतो द्रष्टव्या) बलदेववासुदेवपितरःजंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे नवबलदेवनववासुदेवपितरो होत्था। तं जहा"पयावई य बंभो, सोमो रुद्दो सिवो महिसरो य। अग्गिसीहो य दसरहो, नवमो भणिओ य वसुदेवो"।४६। वासुदेवमातरःजंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे णव वासुदेवमायरो होत्था / तं जहा-- "मियावई उमा चेव, पुहवी सीया य अंबिया। लच्छिमई सेसमई, केकई देवई तहा / / 50 // " बलदेवमातरः-- जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे णव बलदेवमायरो होत्था / तं जहा 'भद्दा तह सुभद्दा य, सुप्पभा य सुदंसणा। विजया वेजयंती य, जयंती अपराजिया // 51 / / णवमीया रोहिणी य, बलदेवाण मायरो"। दशारमण्डलानिजंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे णव दसारमंडला होत्था / तं जहा- उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी। तेयंसी वच्चंसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदंसणा सुरूआ सुहसीला सुहाभिगम्मसव्वजणणयणकंता ओहबला अतिबला महाबला अनिहता अपराइया सत्तुमद्दणारिपुसहस्समाणमहणा साणु कोसा अमच्छरा अचपला अचंडा मियमंजुलपलावहसियगंभीरमधुरपडि पुण्णसचवयणा अब्भु वगयवच्छला सरण्णा लक्खणवंजणगुणो ववे आ माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगा ससिसोम्मागारकं तपियदंसणा अमरिसणा पयंडदंडप्पयारा गंभीरदरिसणिज्जा तालद्धओ विद्धगरुलके ऊ महाधणु विक ड्डया महासत्तसागरा दुद्धरा धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्धकित्ति शान्तिनाथः कुन्थुनाथः अरनाथः |0000 मल्लिनाथः मुनिसुव्रतः महापद्मचक्री |01 लक्ष्मणः नमिनाथ: हरिषेणचक्री जयचक्री 0 नेमिनाथः बहादत्तचक्री 1015-000 पार्श्वनाथः वर्द्धमानः
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________________ तित्थयर 2275 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर पुरिसा विउलकुलसमुब्भवा महारयणविहाडगा अद्धभरहसामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजियरहाहलमुसलकणकपाणी संखचक्कगयसत्तिनंदगधरा पवरुज्जलसुकंतविमलगोत्थुभतिरीडधारी कुंडलउज्जोइयाणणा पुंडरीयणयणा एकावलिकंठलगियवच्छा सिरिवच्छसुलंछणा वरजसा सव्वोउयसुरभिकुसुमरचितपलंबसोभंतकंतविकसंतचित्तवरमालरइयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविरइयंगमेगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगई सारयनवत्थणियमहुरगंभीरकुंचनिग्धोसदुंदुभिस्सरा कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया नरसीहा नरवई नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियरायतेयलच्छीपदिप्पमाणा नीलगपीयगवसणा दुवे दुवे रामके सवा भायरो होत्था। तं जहा-तिविट्टु य०जाव कण्हे / अयलोजाव रामे य अपच्छिमे। बलदेववासुदेवानां पूर्वभवनामानिएएसिणं णवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुव्वभविया नव नामधेजा होत्था। तं जहा "विसभूई पव्वयए, धणदत्त समुद्ददत्त इसिवाले। पियमित्त ललियमित्ते, पुणव्वसू गंगदत्ते य / / 52|| एयाइं नामाइं, पुव्वभवे आसि वासुदेवाणं।" "एत्तो बलदेवाणं, जहक्कम कित्तइस्सामि / / 53 / / विसनंदी य सुबंधू, सागरदत्ते असोग ललिए य। वाराह धम्मसेणे, अपराइऍ रायललिए य / / 54 / / " एतेषां पूर्वभवधर्माऽऽचार्याःएएसि णं नवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुव्वभविया नव धम्मायरिया होत्था / तं जहा"संभूए य सुभद्दे, सुदंसणे सेय कण्हें गंगदत्ते आ सागर समुद्दनामे, दुमसेणे णवमिए होइ / / 5 / / धम्माऽऽयरिया कित्ती-पुरिसाणं वासुदेवाणं / पुव्वभवे एआसिं, जत्थ नियाणाइँ कासी य॥५६॥" एतेषां निदानभूमयःएएसि णं नवण्हं वासुदेवाणं पुव्वभवे नव नियाणभूमीओ होत्था / तं जहा-महुराजाव हत्थिणाउरं च / निदानकारणानिएतेसि णं नवण्हं वासुदेवाणं नव नियाणकारणा होत्था / तं जहा-गावी जूए०जाव माउआ। एतेषां प्रतिशत्रवःएएसि णं नवण्हं वासुदेवाणं नव पडिसत्तू होत्था / तं जहाआसग्गीवे०जाव जरासंधे०जाव सचक्के हिं। के क्व यान्तीत्याह"एको य सत्तमीए, पंच य छट्ठीऍ पंचमीएको। एक्को य चउत्थीए, कण्हो पुण तचपुढवीए।।५७।। अणिदाणकडा रामा, सव्वे विय केसवा नियाणकडा। उद्धंगामी रामा, केसव सव्वे अहोगामी / / 5 / / अढतकडा रामा, एगो पुण बंभलोयकप्पम्मि। एको से गम्भवसही, सिज्झिस्सइ आगमिस्सेणं / / 56 / / " (जंबुद्दीवेत्यादि) दशाराणां वासुदेवानां मण्डलानि बलदेववा–सुदेवदयद्वयलक्षणाः समुदाया दशारमण्डलानि, अत एव "दुवे दुवे रामकेस्रव त्ति" वक्ष्यति / दशारमण्डलाव्यतिरिक्तत्वाच बलदेव-वासुदेवाना दशारमण्डलानीति पूर्वमुद्दिश्यापि दशारमण्डलव्यक्तिभूतानां तेषां विशेषणार्थमाह-तद्यथेत्यादि। तद्यथेति बलदेववा-सुदेवस्वरूपोपन्यासाऽऽरम्भार्थः / केचित्तु दशारमण्डना इति। तत्र दशाराणां वासुदेवकुलीनप्रजानां मण्डनाः शोभाकारिणो दशारमण्डनाः / उत्तमपुरुषा इति / तीर्थकराऽऽदीनां चतुःपञ्चाशत्, उत्तमपुरुषाणां मध्यवर्तित्वाद् मध्यमपुरुषाः, तीर्थकरचक्रिणां प्रतिवासुदेवानां च बलाऽऽद्यपेक्षया मध्यवर्तित्वात / प्रधानपुरुषास्तात्कालिकपुरुषाणां शौर्याऽऽदिभिः प्रधानत्वात्, ओजस्विनो मानसबलोपेतत्वात, तेजस्विनो दीप्तशरीरत्वात. वर्चस्विनः शारीरबलोपेतत्वात्, यशस्विनः पराक्रम प्राप्य प्रसिद्धिप्राप्तत्वात्। (छायंसि त्ति) प्राकृतत्वात् छायावन्तः शोभायमानशरीराः, अत एव कान्ताः क्रान्तियोगात्, सौम्या अरौद्राऽऽकारत्वात्, सुभगा जनवल्लभत्वात्, प्रियदर्शनाःचक्षुष्यरूपत्वात्, सुरूपा समचतुरससंस्थानत्वात, शुभं सुखं वा सुखकरत्वात् शीलं स्वभावो येषां ते शुभशीलाः सुखशीला वा,सुखेनाभिगम्यन्ते सेव्यन्ते ये शुभशीलत्वादेव ते सुखाभिगम्याः, सर्वजननयनानां कान्ता अभिलाष्या ये ते तथा / ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः / ओघबलाः प्रवाहबलाः, अव्यवच्छिन्नबलत्वात्। अतिबलाः, शेषपुरुषबलानामतिक्रमात्। महाबलाः प्रशस्तबलाः, अनिहता निरुपक्रमाऽऽयुष्कत्वात्, युद्धे भूम्यामपातित्वात् अपराजिताः, तैरव शत्रूणां पराजितत्वात्। एतदेवाऽऽह- शत्रुमर्दनाः, तच्छरीरतत्सैन्यकदर्थनात्। रिपुसहस्रमानमथनाः, तद्वाञ्छितकार्यविघटनात्। सानुक्रोशाः, प्रणतेष्वद्रोहकत्वात्। अमत्सराः, परगुणलवस्याऽपि ग्राहकत्वात्। अचपला मनोवाकायस्थैर्यात्। अचण्डा निष्कारणप्रबलकोपरहितत्वात् / मिते परिमिते मञ्जुलः कोमलः प्रलापश्चाssलापोहसितं च येषां ते मितमञ्जुलप्रलापहसिताः, गम्भीरमदर्शितरोषतोषशोकाऽऽदिविकारं मेघनादवद्वामधुरं श्रवणसुखकर प्रतिपूर्णमर्थप्रतीतिजनक सत्यमवितथं वचनं वाक्यं येषां ते तथा। ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। अभ्युपगतवत्सलाः, तत्समर्थनशीलत्वात्। शरण्यास्त्राणकरणे साधुत्वात् / लक्षणानि मानाऽऽदीनि, वज्रस्वस्तिकचक्राऽऽदीनि वा, व्याजनानि तिलकमषाऽऽदीनि, तेषां गुणा महर्द्धिप्राप्त्यादयः, तैरुपेताः (शर्कराऽऽदिगणस्थत्वात्।) शर्कराऽऽदिदर्शनादुपपेता युक्ता लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेताः। मानमुदकद्रोणपरिमाणशरीरताः, कथम्? उदकपूर्णायां द्रोण्यां निविष्ट पुरुषे यजलं ततो निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं स्यात्तदा स पुरुषो मानप्राप्त इत्यभिधीयते / उन्मानमर्द्धभारपरिमाणता, कथम्? तुलाऽऽरो पितस्य पुरुषस्य यद्यर्द्धभारशस्तील्यं भवति तदाऽसावुन्मानप्राप्त उच्यते / प्रमाणमटोत्तरशतमड गुलानामुच्छ्रयः / मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णमन्यून, सुजातमागर्भाधानात् पालनविधिना, सर्वाङ्गसुन्दरं निखिलावयवप्रधानमहं शरीर येषां ते तथा। शशिवत् सौम्याऽऽकारमरौद्रमबीभत्सं
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________________ तित्थयर 2276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर वा कान्तं दीप्तं प्रियं जनानां प्रमोदोत्पादक दर्शनं रूपं येषा ते तथा। (अमरिसण ति) अमसृणाः प्रयोजनेष्वनलसाः, अमर्षणा वा अपराधिष्वपिकृतक्षमाः। प्रकाण्ड उत्कटो दण्डप्रकार आज्ञाविशेषो वा येषां ते-तथा / अथवा-प्रचण्डो दुःसाध्यसाधकत्वाद्दण्डप्रचार: सैन्यविंचरणं येषां ते तथा। गम्मीरा अलक्ष्यमाणन्तर्वृत्तित्वेन दृश्यन्ते ये ते गम्भीरदर्शनीयाः / ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। प्रचण्डदण्डप्रचारेण ये गम्मीरा दृश्यन्ते / तथा तालो वृक्षविशेषो ध्वजा येषा ते तालध्वजाः बलदेवाः। उद्विद्ध उच्छ्रितो गरुडलक्षितः केतुर्ध्वजो येषां ते उद्विद्धगरुडकेतवो वासुदेवाः। तालध्वजाश्च उद्विद्धगरुडकेतवश्व तालध्वजोद्वितगरुडकेतवः। महाधनुर्विकर्षकाः, महाप्राणत्वाद् महासत्त्वलक्षणजलस्य सागरा इव सागरा आश्रयत्वान्महासत्त्वसागराः / दुर्द्धरा रणाङ्गणेतेषां प्रहरतां केनाऽपि धन्विनाधारयितुमशक्यत्वात्। धनुर्धराः कोदण्डप्रहरणाः / धीरेष्वेवैते पुरुषाःपुरुषकारवन्तो, न कातरेष्विति धीरपुरुषाः। युद्धजनिता या कीर्तिस्तत्प्रधानाः पुरुषा युद्धकीर्तिपुरुषाः। विपुलकुलसमुद्भावा इति प्रतीतम् / महारत्नं वजं तस्य महाप्राणतया विघटका अडगुष्टतर्जनीभ्यां चूर्णका महारत्नविघटकाः, वज्रं हि अधिकरण्यां धृत्वा अयोधनेनाऽऽस्फोट्यते, नच भिद्यते, तदेव भिन्दन्तीति दुर्भेद तदिति। अथवा महनीया आरचना सागरशटकट्यूहाऽऽदिना प्रकारेण सिसंग्रामविषोर्महासैन्यस्य, तां रणरङ्गरसिकतया महाबलतया च विघटयन्ति वियोजयन्ति येते महारचनाविघटकाः। पाटान्तरेण तु–महारणविघटकाः / अर्द्ध-भरतस्वामिनः। सौम्या नीरुजः। राजकुलवंशतिलकाः। अजिताः / अजितरथाः / हलमुशलकणकपाणयः / तत्र हलमुशले प्रतीते, ते प्रहरणतया पाणौ हस्ते येषां ते बलदेवाः / येषां तु कणका बाणाः पाणौ ते शाङ्ग धन्वानो वासुदेवाः / शङ्खश्च पाञ्चजन्याभिधानः, चक्रं तु सुदर्शननामकं, गदा च कौमोदकीसंज्ञा लकुटविशेषः, शक्तिश्च त्रिशूलविशेषः, नन्दकश्च नन्दकाभिधानः खङ्गः, तान्धारयन्तीति शङ्खचक्रगदाशक्तिनन्दकधराः वासुदेवाः / प्रवरो वरप्रभावयोगात्, उज्ज्वलः शुक्लत्वात् स्वच्छतथा वा, मुकान्तः कान्तियोगात्। पाठान्तरेसुकृतः सुपरिकर्मित्वात्। विमलो मलवर्जितत्वात्, (गोत्थुभत्ति) कौस्तुभाभिधानो यो मणिविशेषस्तं, (तिरीगं ति) किरीटं च मुकुट धारयन्ति ये ते।तथा कुण्डलोद्द्योतिठाननाः / पुण्डरीकवन्नयने येषां ते तथा / एकावली आभरणविशेषः, सा कण्ठे ग्रीवायां लगिता विलम्बिता सती वक्षसि उरसि वर्तते येषां ते एकावलीकण्ठलगितवक्षसः / श्रीवत्साभिधानं सुष्टु लाञ्छनं महापुरुषत्वसूचक वक्षसि येषा ते श्रीवत्सलाच्छनाः / वरयशसः, सर्वत्र विख्यातत्वात्। सर्वर्तुकानि सर्वर्तुसम्भवानि सुरभीणि सुगन्धीनि यानि कुसुमानि तैः सुरचिता कृता या प्रलम्बा आप्रपदीना (सोभंत त्ति) शोभमाना कान्ता कमनीया विकसन्ती फुल्लीन्ती चित्रा पञ्चवर्णा वरा प्रधाना माला स्रक् रचिता निहिता, रतिदा वा सुखकारिका, वक्षसि येषां ते सर्वर्तुकसुरमिकुसुमरचितप्रलम्बशोभमानकान्तविकसचित्रवरमालारचितवक्षसः। तथा अष्टशतसंख्यानि विभक्तानि विविक्तरूपाणि यानि लक्षणानि चक्राऽऽदीनि तैः प्रशस्तानि मङ्गल्यानि सुन्दराणि च मनोहराणि विरचितानि विहितानि (अंगमंग त्ति) अङ्गोपाङ्गानि शिरोऽड् गुल्यादीनियेषां तेऽष्टशतविभक्तलक्षणप्रशस्तसुन्दरविरचिताङ्गोपाङ्गाः / तथा गत्तगजवरेन्द्रस्ययो ललितो मनोहरो विक्रमःसञ्चरणं तद्वद्विलसिता संजातविलासा गतिर्गमनं येषां ते मत्तगजवरेन्द्रललितविक्रमविल सितगतयः / तथा शरदि भवः शारदः, स चासौ नवं स्तनितं रसित यस्मिन्नि?षे स नवस्तनितः स चेति समासः। स चासौ मधुरो गम्भीरश्च यः क्रौञ्चनिर्घोषः पक्षिविशेषनिनादः, तद्वद् दुन्दुभिस्वरवच स्वरो नादो येषां ते शारदनवस्तनितमधुरगम्भीरक्रौञ्चनिर्घोषदुन्दुभिस्वराः / इह च शरत्काले हि क्रोचा माद्यन्ति, मधुरध्वनयश्च भवन्तीति शारदग्रहणम् / तथा पीतपानीयेन शब्दप्रवृत्तौ तद्भङ्गादमनोज्ञता तस्य स्यादिति नवस्तनितग्रहणम्, स्वरूपोपदर्शनार्थ मधुरगम्भीरग्रहणमिति / तथा कटीसूत्रमाभरणविशेषः, तत्प्रधानानि नीलानि बलदेवानां, पीतानि वासुदेवानां कौशेयकानि वस्त्रविशेषभूतानि दासांसि वसनानि येषां ते कटी-सूत्रकनीलपीतकौशेयवाससः / प्रवरदीप्ततेजसो वरप्रभावतया वरदीप्तितया च / नरसिंहा विक्रमयोगात् / नरपतयः तन्नायकत्वात्। नरेन्द्राः परमैश्वर्ययोगात्। नरवृषभा उत्क्षिप्तकार्ये भारनिर्वाहकत्वात्। मरुद्वृषभकल्पाः देवराजोपमाः, अभ्यधिक शेषराजेभ्यः राजतेजोलक्ष्म्या दीप्यमानाः / नीलकपीतकवसना इति पुनर्भणनं निगमनार्थम् / कथं ते नवेत्याह-(दुवे दुवे इत्यादि)एवं च नववासुदेवनवबलदेवा इति। (तिविठ्ठ यत्ति) यावत्करणात"विण्हु तिविटु दुविट्ट य, सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे। तह पुरिसपुंडरीए, दत्ते नारायणे कण्हे / / 1 / / अयले विजए भद्दे, सुप्पभे य सुदसणे। आनंदे णंदणे पउमे, रामे यावि अपच्छिमे" || इति। (कित्तीपुरिसाणं ति) कीर्तिप्रधानपुरुषाणामिति / 'महुरा य कणगवत्थू, सावत्थी पोयणं च रायगिह / कायंदी कोसंबी, मिहिलपुरी हत्थिणपुरं च / / 1 / / " तथा''गावि जुए संगामे, तह इत्थिपराहओ रंगे। भजाणुराग गोट्ठी, परइड्ढी माउयाई य" // 1 // इति। तथा"अस्सग्गीवे तारऍ, मेरऍ मेहुकेढमे निसुंडे-1 बलि पहलाए तह रावणे य नवमे जरासंधो / / 1 // " "एए खलु पडिसत्तू, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं / सव्वे वि चक्कजोही, सव्वे विहया सचक्केहिं / / 2 / / अणियाणकडा रामा, सव्वे विय केसवा नियाणकडा। उड्डगामी रामा, केसव सव्वे अहोगामी // 3 // " इति। (आगमिस्सेणं ति) आगमिष्यता कालेन / 'आगमिस्साणं ति" पाठान्तरम्। आगमिष्यतां भविष्यता मध्ये सेत्स्यन्तीति। स०। (84) तीर्थोत्पत्तिःतेवीसाए पढमे, वीए वीरस्स पुण समोसरणे। संघो१पढमगणहरो२,सुयं च३तित्थं समुत्पन्नं / / 206 / / त्रयोविंशतिजिनानां प्रथमसमवसरणे तीर्थ समुत्पन्नम्, वीरस्य पुनर्द्वितीये समवसरणे तीर्थसमुत्पन्नम्। तीर्थनाम प्रवचनं, तच्च निराधार न भवति, तेन साधुसाध्वीश्रावकश्राविकारूपः चतुर्वर्णः संघः / तथा प्रथमगणधर आद्यगणभृत्, श्रुतं द्वादशानीरूपम्, एतत्वयरूपं तीर्थं __ समुत्पन्नम् ! सत्त० 100 द्वार। आ०म०|
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________________ तित्थयर 2277 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर (85) निर्गमनकालं प्रतिपादयन्नाहपासो अरिट्ठनेमी, सेजंसो सुमति मल्लिनाथो य। पुटवण्हे निक्खंता, सेसा पुण पच्छिमण्हम्मि // 210 / / पार्श्वनाथोऽरिष्टनेमिः, श्रेयासः, सुमतिमल्लिनामा: एते पञ्च तीर्थकृतः पूर्वाह्न निष्क्रान्ताः / शेषाः पुनः श्रीऋषभस्वामिप्रभृतयः पश्चिमाझे निष्क्रान्ताः / आ०म०१अ०१खण्ड। (86) दर्शननामानि, तदुत्पत्तिं चाऽऽहजइणं सइवं संखं, वेअंतिअनाहिआण बुद्धाणं / वइसेसिआण वि मयं, इमाइँ सग दरिसणाइँ कमा॥३३६।। तिन्नि उसहस्स तित्थे, जायाई सीयलस्स ते दुन्नि। दरिसणमेगं पासस्स सत्तमं वीरतित्थम्मि॥३४०।। (जइणं सइव संख) जैनं 1 शैवं 2 साख्यम् 3 (वेअतिअनाहि-आण दुद्धाणं ति) वेदान्तिकानां मतं 4 नास्तिकानां मतं 5 बौद्धानां म्तम(यइससिआण वि मयं) वैशेषिकानामपि मत्रम् 7, (इमाई सग तरिसणाई कडा) इमानि सप्त दर्शनानि क्रमादनुक्रमेण भवन्तीति गाथाऽर्थः // 336 / / (तिन्नि उसहस्स तित्थे जायाई ति) पूर्वगाथान्यवर्त्तिक्रमशब्दस्येहसंबन्धादाद्यानि त्रीणि दर्शनानि ऋषभतीर्थे - जातानि 3 / (सीयलरस ते दुन्नि) शीतलस्य तीर्थे ते द्वे दर्शन, तदने चतुर्थपञ्चमे जाते 5, (दरिसणमेगं पासस्स) एकं तदनेतनं षष्ठं दर्शन पवस्य तीर्थे 6, (सत्तमं वीरतित्थम्मि) सप्तम दर्शनं वीरतीर्थ संजातमित गाथाऽर्थः / / 340 / / सत्त०१६८ द्वार। दीक्षानक्षत्राणि च्यवनवत्। सत्त०६० द्वार। (87) व्रतपर्यायःउसभस्स पुटवलक्खं, पुवंगूणमज्जियस्स तं चेव / चउरंगूर्ण लक्खं, पुणो पुणो जाय सुविहि ति / / (अस्मिन्नेव शब्दे 2264 पृष्ठे पूर्व केवलिपर्याय व्याख्यातैषा) पणवीसं तु सहस्सा, पुव्वाणं सीयलस्स परियायो। लक्खाइँ एकवीस, सिजंसजिणस्स वासाणं / / चउपन्नं पन्नारस, तत्तो अद्धट्ठमाई लक्खाई। अडाइजाइँ ततो, वाससहस्साइँ पणवीसं / / तेवीसं च सहस्सा, सयाणि अद्धट्टमाणि य हवंति। इगवीसं च सहस्सा, वाससऊणा य पणपन्नं / / अट्ठमा सहस्सा, अड्डाइजाइँ सत्तय सयाई। सयरी विचत्तवासा, दिक्खाकालो जिणिंदाणं / / पशविंशतिः पूर्वाणां सहस्राणि शीतलस्य पर्यायो व्रतपर्यायः / श्रेयांसजिनस्य वर्षाणां लक्षाण्येक विंशतिः / वासुपूज्यस्य चतुपक्षाशदर्पलक्षाणि / विमलनाथस्य पञ्चदशवर्षलक्षाणि / ततोऽनन्तरमनन्तजितोऽष्टिमानि, सार्द्धानि सप्तवर्षलक्षाणि व्रतपर्यायः / धर्मनाथस्यार्द्धतृतीयानिवर्षशतसहस्राणि। शान्तिनाथस्य पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि / कुन्थुनाथस्य त्रयोविंशर्वर्षसहस्राणि शतानि चार्ड्सष्टमानि अरस्वामिन एकविंशतिर्वर्षसहस्राणि / मल्लिनाथस्य वर्षशतोनानि पक्षपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि / मुनिसुव्रतस्वामिनोऽष्टिमानि वर्षसहस्राणि। नमिनाथस्यार्द्धतृतीयानि वर्षशतानि / अरिष्टने मेः सप्त शतानि / पार्श्वनाथस्य सप्ततिवर्षाणाम्। वर्द्धमानस्वामिनो द्वाचत्वारिंशत् / एष यथाक्रमं जिनेन्द्राणामृषभाऽऽटीनां दीक्षाकालो व्रतपर्यायः। आ० म०१ अ०१ खण्ड। दीक्षातरु:...............,णिक्खंताऽसोगतरुतले सव्वे। (157) सर्वे 24 जिना अशोकतरोरधो निष्क्रान्ताः। सत्त०६८ द्वार। (88) संप्रति यो येन तपसा निष्क्रान्तस्तदभिधित्सुराहसुमइऽत्थ निचभत्तेण निग्गतो वासुपुज्ज(जिणो) चोत्थेण / पासो मल्ली वि य अट्ठमेण सेसा उछट्टेणं // 387|| सुमतिरत्र-अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विशतितीर्थकृत्सु मध्ये नित्यभक्तेनानवरतभक्तेन निष्क्रान्तः / वासुपूज्यो जिनश्चतुर्थन, एकेनोपवासेनेत्यर्थः / पार्श्वनाथो मल्लिरपिचाष्टमेन त्रिभिरुपवासैः / शेषास्तु ऋषभस्वामिप्रभृतयः षष्ठेन द्वाभ्यामुपवासाभ्यां निष्क्रान्ताः। आ०म०१ अ०१खण्ड। ती० स० (86) दीक्षापरिवार:-- एगो भगवं वीरो, पासो मल्ली य तिहिँ तिहिँ सएहिं / भगवं पि वासुपुज्जो, छहिँ पुरिससएहिँ निक्खंतो॥३८५।। उग्गाणं भोगाणं,रायण्णाणं च खत्तियाणं च। चउहिँ सहसेहिँ उसहो, सेसा उ सहस्सपरिवारा // 386|| तत्र एको भगवान् वीरो वर्द्धमानस्वामी प्रव्रजितः, न केनाऽपि सह तेन व्रत गृहीतमित्यर्थः / पार्श्वनाथो, भगवांश्च मल्लिस्त्रिभि-स्विभिः शतैः सह व्रतमग्रहीत् / अत्र च मल्लिस्वामी स्त्रीणां पुरुषाणां च प्रत्येक त्रिभिस्विभिः शतैः सह प्रवृजितः, ततो मिलितानि षट् शतानि भवन्ति / यत्सूत्रे त्रिभिः शतैरित्युक्तं तत्र केवलाः स्त्रियः पुरुषा वा गृहीताः, द्वितीयः पुनः पक्षः सन्नपि न विवक्षित इति सम्प्रदायः / स्थानाङ्गटीकायामप्युक्तम्-मल्लिजिनः स्त्रीशतैरपि त्रिभिरिति / भगवानपि वासुपूज्यः षड्भिः पुरुषशतैः सह निष्क्रान्तः, संसारकान्तारान्निर्गतः, प्रव्रजित इति यावत् // 385 / / ("वासुपुज्जे णं अरहा छहिं पुरिससएहिं मुंडे भवित्ता।' स्था०६ ठा०) उग्राणामारक्षकस्थानीयानां, भोगानां गुरुप्रायाणां, राजन्यानां मित्रप्रायाणां, क्षत्रियाणां सामन्ताऽऽदीना सर्वसङ्ख्यया चतुर्भिः सहस्रैः सहऋषभजिनः प्रथमो जिनो निष्क्रान्तः, व्रतं जग्राहेत्यर्थः। शेषास्तु वीरपार्श्वमल्लिवासुपूज्यनाभेवव्यतिरिक्ता जिना अजिताऽऽदय एकोनविंशतिः, सहसपरिवारा पुरुषसहस्रसहिताः प्राब्राजिषुरिति / / 386|| प्रव०३१ द्वार। आ०म० स०) सत्ता (60) दीक्षापुरम्उसभो अ विणीयाए, वारवईए अरिट्ठवरणेमी। अवसेसा तित्थयरा, निक्खंता जम्मभूमीसु।। ऋषभस्वामी भगवान् विनीतायां नगा निष्क्रान्तः; द्वारवत्यामरिष्टनेमिः, अवशेषा अजितस्वामिप्रभृतयस्तीर्थकरा निष्क्रान्ता जन्मभूमिषु, यत्र जातास्तत्र निष्क्रान्ता इति भावः / आ०म०१ अ०१ खण्डासन सत्ता दीक्षासमये मनःपर्यवज्ञानम्........., जायंच चउत्थ मणनाणं!। (158)
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________________ तित्थयर 2278 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर 98TI दीक्षायां गृहीतायां तस्मिन् समये सर्वेषां जिनानां चतुर्थ मनः पर्यवज्ञान जालम् / सत्त०७१ द्वार। (61) दीक्षामासादयःजम्मं व मासपक्खा,नवरं सुवयस्स सुद्धफग्गुणिओ। नमिवीराण वयम्मी, कसिणा आसाढमग्गसिरा॥२४६।। अट्ठमि नवमी पुन्निम, दुदसि नवमि तेरसीतिगं छट्ठी। बारसि तेरसि पनरसि, चउत्थि चउदसि य तेरसिया।।२४७।। चउदसि पंचमिगारसि, एगारसि बारसिय नवमि छट्ठीय। एगारसि दसमितिही, वयम्मि उड़रासि पुव्वं व // 24 // व्रतमासाऽऽदिनक्षत्राणि राशयश्च कथ्यन्ते। (जम्मं व मासपक्रा ति) | जन्मवद मासपक्षाः-जन्मकल्याणके ये मासाः पक्षाश्च कथिताः, दीक्षाकल्याणकेऽपि त एव ज्ञेया इत्यर्थः / (नवरं ति) एतावान् विशेषो ज्ञेयः-(सुवयस्स सुद्धफग्गुणिओ त्ति) सुव्रतस्य मुनिसुव्रतस्य व्रते फाल्गुनिको मासः / (नमिवीराण वयम्मि त्ति) नमिजिनवीरजिनयोति (कसिणा आसाढमग्गसिर त्ति) कृष्णावाषाढमार्गशीर्षा, तत्र नमिजिनस्य व्रते कृष्ण आषाढमासः। श्रीवीरजिनस्य व्रते कृष्णो मार्गशीर्षमासः। इति गाथार्थः॥२४६॥ (अट्ठमि नवमी पुन्निम)अष्टमी, नवमी, पूर्णिमा (दुदसि नवमि तेरसी तिगं छट्ठी) द्वादशी, नवमी, त्रयोदशी त्रिकम, पष्ठी (बारसि तेरसि पनरसि) द्वादशी 10 त्रयोदशी 11 अमावास्या 12 (चउत्थि चउदसि अतेरसिया) चतुर्थी 13 चतुर्दशी च 14 त्रयोदशिका 15 // इति गाथार्थः // 247 / / (चउदसि पंचमिगारसि) चतुर्दशी 16 पञ्चमी 17 एकादशी 18 (एगारसि बारसि नवमि छट्टी) एकादशी 16 द्वादशी 20 नवमी २१षष्ठी च 22 (एगारसि दसमितिही) एकादशी 23 दशमी 24 तिथिः। (वयम्मि उडुरासि पुव्वं व ति) व्रते नक्षत्रराशयः पूर्ववत्। 'इय चवणरिक्खरासी, जम्मे दिक्खा वि णाणे वि" इति पूर्वमुक्तत्वात ये च्यवनसमये नक्षत्रराशयो, व्रतेऽपित एव ज्ञेयाः। इति गाथार्थः / / 248 / / सत्त०५६ द्वार / दीक्षाराशिश्चयवनवत्। सत्त०६१ द्वार। दीक्षालिङ्गम्न उ नाम अन्नलिंगे, न य गिहिलिंगे कुलिंगे वा / / सर्व एव तीर्थकृतस्तीर्थकरलिङ्ग एव निष्क्रान्ताः, नतु नाम अन्यलिङ्गे, गृहिलिङ्गे,कुलिङ्गे वा / आ०म०१ अ०१ खण्ड। (अन्यलिङ्गाऽऽद्यर्थोऽन्यत्र) दीक्षालोचमुष्टिःकयपंचमुट्ठिलो आ, उसहो चउमुट्ठिकयलोओ। (250) कृतपञ्चमुष्टिलोचास्त्रयोविंशतिर्जिनाः, ऋषभः चतुर्मुष्टिकृतलोचो जातः / सत्त०६६ द्वार। दीक्षावनानिउसभो सिद्धत्थवणम्मि वासुपूज्जो विहारगिहगम्मि। धम्मो य वप्पगाए, नीलगुहाए मुणी नाम / / आसमपयम्मि पासो, वीरजिणिंदो य नायसंडम्मि। अवसेसा पध्वइया, सहसंक्वणम्मि उजाणे / / ऋषभः-ऋषभस्वामी सिद्धार्थवने उद्याने निष्क्रान्तः, वासुपूज्यो विहारगृहके विहारगृहकाभिधाने उद्याने; धर्मो धर्मस्वामी भगवान् / वप्रगायां वप्रगाभिधाने उद्याने। तथा च वक्ष्यति '' से साण के वलाइं, जे सुजाणेसु पव्वइया / " एवं नीलगुहायां नीलगुहाभिधाने उद्याने मुनिनामा मुनिसुव्रतनामा तीर्थकरो निष्क्रान्तः ! तथा आश्रमपदे आश्रमपदाभिधाने उद्याने पार्श्वनाथो निष्क्रान्तः, वीरजिनेन्द्रो ज्ञातखण्डे ज्ञातखण्डाभिने उद्याने। अवशेषा अजितस्वामिप्रभूतयस्तीर्थकराः सहस्रामवणे निष्क्रान्ताः / आ० म० १अ०१खण्ड। यस्मिन्वयसि निष्क्रान्तास्तदभिधित्सुराह-- वीरो अरिट्ठनेमी, पासो मल्ली य वासुपुञ्जो अ। पढमवए पव्वइया, सेसा पुण मज्झिमवयम्मि।। वीरो महावीरः, अरिष्टनेमिः, पार्श्वनाथो, मल्लिासुपूज्य इत्येते पञ्च तीर्थकृतः प्रथमवयसि कुमारत्वलक्षणे प्रवजिताः / शेषाः पुनः ऋषभस्वामिप्रभृतयो मध्यमे वयसि यौवनलक्षणे वर्तमानाः प्रद्रजिताः। आ०म०१अ०२खण्ड। (12) दीक्षाशिबिकाएएसिं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं सीयाओ होत्था। तं जहा"सीया सुदंसणा सुप्पभा य सिद्धत्थ सुप्पसिद्धाय / विजया य वेजयंती, जयंति अपराजिया चेव / / 14 / / अरुणप्पभ चंदप्पभ, सूरप्पभ अग्गिसप्पभाव। विमला य पंचवण्णा, सागरदत्ताय णागदत्ता य।।१५।। अभयकरा निव्वुइकरि, मणोरमा तह मणोहरा चेव। देवकुर उत्तरकुरा, विसाल चंदप्पभाई य॥१६|| एआओ सीआओ, सव्वेसिं चेव जिणवरिंदाणं। सव्वजगवच्छलाणं, सव्वोउयसुखयछायाए।।१७|| पुट्विं ओखित्ता मणुजेहिं सा हट्ठरोमकूवेहिं / पच्छा वहंति सीयं, असुरिंदसुरिंदनागिंदा॥१८|| चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविकुब्वियाभरणधारी। सुरअसुरवंदिआणं, वहति सीअंजिणिंदाणं / / 16 / / पुरओ हवंति देवा, नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि। पञ्चच्छिमेण असुरा, गरुला पुण उत्तरे पासे" // 20 // (सव्वोउयसुखयछायाए त्ति) सर्वर्तुकया सर्वेषु शरदादिषु ऋतुषु सुखदया छायया प्रभया आतपाभावलक्षणया वा, युक्ता इति शेषः / तथा-(सा हट्ठरोमकूवेहिं ति) सा शिबिका यस्यां जिनोऽध्यारूढः, हृष्टरोमकूपैरुधुषितरोमभिरित्यर्थः / तथा (चलचवलकुंडलधर ति) चलाश्च ते चपलकुण्डलधराश्चेति वाक्यम् / तथा स्वच्छन्देन स्वरुच्या विकुर्वितानि यान्याभरणानि मुकुटाऽऽदीनि तानि धारयन्ति येते तथा। असुरेन्द्राऽऽदय इति योगः / (गरुल त्ति) गरुडध्वजाः सुपर्णकुमारा इत्यर्थः / रा०। सत्ता (६३)अथ षट् पञ्चाशद्धिक कुमारीस्थानान्याह / दिकुमारिका नाम-दिक्कुमारभवनपतिविशेषजातिजा देव्यःमेरुअहउडलोया, चउदिसि रुयगाउ अट्ठ पत्ते। चउ विदिसिमज्झरुयगा, इंती छप्पन्न दिसिकुमरी।।१०१।। (मे रु अहउडलोय ति) मेरो रधोलो कात् 1, ऊर्द्धलोका
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________________ तित्थयर 2276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर त 2 / तत्र अधोलोके गजदन्तगिरिचतुष्टयस्याधस्तादष्टानां दिक् - कुमारीणां भवनानि सन्ति। एतच्च सामान्यमात्रेणैव स्थानमुक्तम्। विशेषण तु संप्रदायगम्यम्। तथा-ऊर्द्धलोके मेरोरुपरिनन्दनवने अष्टौ कूटानि सन्ति / तेषामुपरि अष्टानां दिक्कुमारीणां भवनानि सन्ति / (चउदिसि रुयगाउत्ति) चतुर्दिवर्तिरुचकात्रुचकानेर्दिक्चतुष्टयादित्यर्थः। (अट्ठ पत्तेयं ति) एतेभ्यः षट्स्थानकेभ्यः प्रत्येकमष्टावष्टौ समागच्छन्ति / एवमष्टचत्वारिंशद् दिक्कुमार्यो जाताः। (चउ विदिसिभज्झरुयग त्ति) / चतखो विदिक सचकात, रुचकगिरिविदिग्भ्य इत्यर्थः / चतस्रो मध्यरुचकान्तात्रुचकद्वीपमध्यादित्यर्थः / (इंती छप्पन्न दिसिकुमरी) आगच्छन्ति एवं षट् पञ्चाशद् दिक् कुमार्यः / इति गाथार्थः / / 101 / / सत्त०३३ द्वार। अधोलोकवासिन्योऽष्टकुमार्य:जयाणं एकमेक्के चक्कवट्टिविजए भगवंतो तित्थयरा समुप्पजंति, तेणं कालेणं तेणं समएणं अहोलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरिआओसएहिं सएहिं कूडे हिंसएहिं सएहिं भवणेहिं सएहिं सएहिं पासायवर्डसएहिं पत्ते पत्तेअं चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरिआहिंसपरिवाराहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अणीआहिवईहिं सोलसएहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहि अबहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहि असद्धिं संपरिवुडाओ महयाहयणट्टगीअवाइअ०जाव भोगभोगाई भुंजमाणीओ विहरंति / तं जहा "भोगकरा 1 भोगवई 2, सुभोगा 3 भोगमालिनी / / तोयधारा५ विचित्ताय 6, पुप्फमाला 7 अणिंदिया"||१|| (तेणं कालेणं इत्यादि) तस्मिन् काले संभवजिनजन्मके भरतैरावतेषु तृतीयचतुर्थारकलक्षणे, महाविदेहेषु चतुर्थारकप्रविभागलक्षणे, तत्र सर्वदाऽपि तदाद्यसमयसदृशकालस्य विद्यमानत्वात् / तस्मिन् समये सर्वत्राप्यर्द्धरात्रलक्षणे, तीर्थकराणां हि मध्यरात्र एव जन्मसंभवात्। अधोलोकवास्तव्याः, चतुर्णा गजदन्तानामधः समभूतलाद् नवशतयोजनरूपां तिर्यग लोकव्यवस्था विमुच्य प्रतिगजदन्तं द्विद्विभावेन तत्र भवनेषु वसनशीलाः / यत्तु गजदन्ताना षष्ठपञ्चमकूटेषु पूर्व गजदन्तसूत्रे आसा वासः प्ररूपितः, तत्र क्रीडार्थमागमनं हेतुरिति, आसामपि चतुःशतयोजनाऽऽदिपञ्चशतयोजनाऽऽदिपञ्चशतयोजनपर्यन्तोचत्वगजदन्तगिरिगतं पशशतिककूटगतप्रासादावतंसकवासित्वेन नन्दनवनकूटगतमेघराऽऽदिदिकुमारीणामिवोर्द्धलोकवासित्वाऽऽपतिः / अथ प्रकृतं प्रस्तुमः-अष्टौ दिक् कुमार्यो दिक् कुमारा भवनपतिजातीयाः, महत्तरिकाः स्ववर्गेषु प्रधानतरिकाः, स्वकेषु स्वकेषु कूटेषु गजदन्ताऽऽदिगिरिवर्तिषु, स्वकेषु स्वकेषु भवनेषु भवनपतिदेवाऽऽवासेषु, स्वकेषु स्वकेषु प्रासादावतंसकेषु स्वस्वकूटवर्त्तिक्रीडाऽऽवासेषु / सूत्रेषु च सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात्। प्रत्येक प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकानां दिक्कु मारिसदृशद्युतिविभवाऽऽदिकदेवानां सहस्रः, चतसृभिश्च महत्तरिकाभिर्दिकुमारिकातुल्यविभवाऽऽदिभिस्ताभिरन- | तिक्रमणीयवचनाभिश्च स्वस्वपरिवारसहिताभिः, सप्तभिरनीकैर्हस्त्यश्वस्थपदातिमहिषगन्धर्वनाट्यरूपैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, षोडशभिरात्मरक्षक देवसहस्ररित्यादिकं सर्व विजयदेवाधिकार इव व्याख्येयम् / ननु कासाश्चिद्दिकुमारीणां युक्त्या स्थानाङ्गे पल्योयमस्थितेर्भणनात समानजातीयत्वेनासामपि तथाभूतायुषः संभाव्यमानत्वाद भवन पतिजातीयत्वं सिद्धम्, तेन भवनपतिजातीयाना वानमन्तरजातीयपरिकरः कथ संगच्छते? उच्यते-एतासामहर्द्धिकत्वेन ये आज्ञाकारिणो व्यन्तरास्ते ग्राह्या इति। अथवा वानमन्तरशब्देनाऽत्र वनानामन्तरेषु चरन्तीति यौगिकार्य संश्रयणाद् भवनपतयोऽपि वानमन्तरा इत्युच्यते। उभयेषामपि प्रायो वनकूटाऽऽदिषु विहरणशीलत्वादिति सम्भाव्यते। तत्त्व तु बहुश्रुतगम्यमिति सर्व सुस्थम्। अथैतासा नामान्याह-(तं जहा इत्यादि) तद्यथा-''भोगंकरा'' इत्यादि / रूपकमेतत् कण्ठ्यम्। एतासामासनानि चलन्तितए णं तासिं अहोलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीणं महत्तरिआणं पत्ते पत्ते आसणाइं चलंति / तए णं ताओ अहोलोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ पत्ते पत्तेअं आसणाई चलिआई पासंति, पासित्ता ओहिं पउंति, पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएंति, आभोएत्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं बयासीउप्पण्णे खलु भो ! जंबुद्दीवे भयवं तित्थयरे, तंजीयमेअंतीअपचुप्पण्णमणागयाणं अहोलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्ह दिसाकुमारीमहत्तरिआणं भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करित्तए, तं गच्छामो णं अम्हे वि भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करेमो त्ति कट्ट एवं वयंति, वइत्ता पत्तेअंपत्ते आभिओगिए देवे सद्दावें ति, सद्दावेत्ता एवं बयासी। अर्थतास्येव विहरन्तीषु सतीषु किं जातमित्याह-(तए णमित्यादि) ततस्तासामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिकुमारीणां महत्तरिकाणां प्रत्येकं प्रत्येकमासनानि चलन्तीति / अथैताः किं किमकार्षुरित्याह(तए णमित्यादि) तत आसनप्रकम्पानन्तरं ता अधोवास्तव्या अष्टी दिकुमार्यो महत्तरिकाः प्रत्येक प्रत्येकमासनानि चलितानि पश्यन्ति, दृष्ट्वा चाऽवधि प्रयुञ्जन्ति,प्रयुज्य भगवन्तं तीर्थकरमवधिना आभोगयन्ति, आभोग्य च अन्यमन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा च एवमवादिषुः / यदवादिषुस्तदाह-(उष्पण्णे इत्यादि) उत्पन्नः खलु भो :! जम्बूद्वीपे भगवास्तीर्थङ्करः, तज्जीतमेतत्कल्प एषोऽतीतप्रत्युत्पन्नानागतानामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिक्कुमारीमहत्तरिकाणा भगवतो जन्ममहिमा कर्तुं . तद्रच्छामो वयमपि भगवतो जन्ममहिमा कुर्म इति कृत्वा, धातूनामनेकार्थत्वान्निश्चित्य मनसा एवमनन्तरोक्तं वदन्ति, उदित्वा च प्रत्येक प्रत्येकमाभियोगिकान् देवान् शब्दयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुः। किमवादिषुरित्याहखिप्पामेव भो देवाणु प्पिआ ! अणेगखं भसयसण्णिविटे
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________________ तित्थयर 2280 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर लीलट्ठिअ०एवं विमाणवण्णओ भाणिअव्वोजाव जोअणविस्थिपणे दिव्वे जाणविमाणे विउव्वेह, विउव्वित्ता एअमाणत्तिअं पञ्चप्पिणह / तए णं ते आमिओगा देवा अणेगखंभसयजाव पञ्चप्पिणंति। (खिप्पामेव इत्यादि) भो देवानुप्रियाः ! क्षिप्रमेवाऽनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानि लीलास्थितशालभजिकानीत्येवमनेन क्रमेण विमानवर्णको भणितव्यः / स चायम्- 'ईहामिगउसभतुरगणरमगरविहगबालकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गय - वरवइरवेइआपरिगयाभिरामे विजाहरजमलजुअल-जंतजुत्ते विव अचीसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भिडिभसमाणे चक्खुल्लोअणलेसे सुहफासे सस्सिरीअरूवे घंटाचलियमहुरमणहरसर सुभे कते दरिसणिज्जे प्पिउणोचियमिसिमिसंतमणिरयणघटिआजालपरिक्खित्ते / " कियत्पर्यन्तमित्याह- यावद्योजनविस्तीर्णानि दिव्यानि यानायेष्ट स्थाने गमनाय विमानानि, अथवा यानरूपाणि वाहनरूपाणि विमानानि यानविमानानि, विकुर्वतर्व क्रियशक्त्या संपादयत, विकुर्वित्वा एतामाज्ञप्ति प्रत्यर्पयत। अथ यानवर्णकव्याख्या प्राग्वद ज्ञेया, तोरणाऽऽदिवर्णकषु एतद्विशेषणस्य व्याख्यातत्वात्। ततस्तं किं चकु रित्याह-(तए णमित्यादि) ततस्ते आभियोगिका देवा अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टानि यावदाज्ञा प्रत्यर्पयन्ति। अर्थताः किं कुर्वन्तीत्याहतए णं ताओ अहोलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरिआओ पत्तेअं पत्तेअं चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरिआहिं०जाव अण्णेहिं बहूहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडाओ ते दिव्वे जाणविमाणे दुरूहंति, दुरू हित्ता सविड्डीए सव्वजुईए घणमुइंगपणवपवाइअरवेणं ताए उकिट्ठाए०जाव देवगईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणगरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मणभवणे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मण्णभवणं तेहिं दिव्येहि जाणविमाणेहिं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करें ति, करित्ता उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए ईसिं चउरंगुलमसंपत्ते धरणिअले ते दिव्वे जाणविमाणे ठविंति, ठवित्ता पत्तेअंपत्तेअंचउहिं सामाणिअसाहस्सेहिं०जाव सद्धिं संपरिबुडाओ दिव्येहिंतो जाणविमाणेहिंतो पचोरुहंति, पचोरुहित्ता सव्विड्डीए०जाव गाइएणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवाग-च्छंति, उवागच्छं तित्ता भगवं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करें ति, करित्ता पत्ते पत्तेअं करयलपरि-- ग्गहि सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं बयासी। "तएणं ताओ' इत्यादि। ततस्ता अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिककुमारमहत्तरिकाः; हट्टतुट्टेत्याद्येकदेशदर्शनेन संपूर्ण आलापको ग्राह्यः। स चायम्-'हट्टतुट्टचित्तमाणंदिआ पीअमणा परमसोमणस्सिआ | हरिसवसविसप्पमाणहिअया विअसिअवरकमलनय गपचलिअवरकडगतुडिअकेऊरमउडकुंडलहारविरायंतरइअवच्छा पालंवपलबमाणघोलतभूसणधरा ससंभमं तुरिअं चवलं सीहासणाओ अब्भुट्टे ति, अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पचोरुहंति, पच्चोरुहित्ता'' इति / प्रत्येक प्रत्येक चतुर्भिः सामानिकसहौः चतसृभिश्च महत्तरिकाभिर्यावदन्यैर्बहुभिर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृताः, तानि दिव्यानि यानविमानान्यारोहन्ति / आरोहेणोत्तरकालं येन प्रकारेण सूतिकागृहमुपतिष्ठन्ते तथाऽऽह(दुरूहित्ता इत्यादि) आरुह्य च सर्वर्या सर्वद्युत्या धनमृदङ्ग मेघवद् गम्भीर-ध्वनिकं मृदङ्ग, पणवो मृत्पटहः, उपलक्षणमेतत्तेनान्येषामपि तूर्याणां संग्रहः / एतेषां प्रवादितानां यो रवस्तेन तया उत्कृष्टया, यावत्करणात्- "तुरिआए चवलाए'' इत्यादि पदसंग्रहः प्राग्वत्। देवगन्या यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगर यत्रैव च तीर्थकरस्य जन्मभवन तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनं तैर्दिव्यैर्यानविमानैस्त्रिः कृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणां कुर्वन्ति, त्रीन वारान् प्रदक्षिणयन्तीत्यर्थः / त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य च उत्तरपा रस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे ईषचतुरङ्गुलमसंप्राप्तानि धरणितले तानि दिव्यानि यानविमानानि स्थापयन्तीति / अथ यचकुस्तदाह-स्थापयित्वा च प्रत्येक प्रत्येकम्, अष्टावपीत्यर्थः। चतुर्भिः सामानिकसहस्रर्यावत् सार्द्ध सपरिवृता दिव्येभ्यो यानविमानेभ्यः प्रत्यवरोहन्ति, प्रत्यवरुह्य च सर्वा, यावच्छब्दात् सर्वद्युत्यादिपरिग्रहः / कियत्पर्यन्तमित्याह"संखपणवभेरिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुरजमुंइगदुंदुहिनिग्थोसनाइएणं ति।" यत्रैव भगवास्तीर्थकरस्तीर्थकरमाता च तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च त्रिः प्रदक्षिणयन्ति, त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य च प्रत्येक प्रत्येकं करतलपरिगृहीतं शिरस्यावर्त मस्तक अञ्जलिं कृत्वा, एवं वक्ष्यमाणमवादिषुः / तदाहणमोऽत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! जगप्पईवदीविए ! सव्वज-- गमंगलस्स चक्खुणो अ मुत्तस्स सव्वजगजीववच्छलस्स हिअकारगमग्गदेसिअवागिड्डिविमुप्पभुस्स जिणस्स णाणिस्स नायगस्स बुद्धस्स बोहगस्स सव्वलोगनाहस्स निम्ममस्स पवरकुलसमुब्भवस्स जाईए खत्तिअस्स जं सि लोगुत्तमस्स जणणी, धण्णा सि, तं कयत्था सि, अम्हे णं देवाणुप्पिए ! अहोलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तेणं तुब्भेहिंण भइअव्वं ति कट्ठ उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमंति। (नमोऽत्थु ते इत्यादि) नमोऽस्तु ते तुभ्य, रत्नं भगवल्लक्षणं कुक्षो धरतीति रत्नकुक्षिधारिके ! अथवा-रत्नगर्भावगर्भधारकत्येनाऽपरस्त्रकुक्षिभ्योऽतिशायित्वेन रत्नरूपा कुक्षि धरतीति: शेषं तथैव / तथा जगदर्तिजनानां सर्वभावाना प्रकाशकत्वेन प्रदीप इव प्रदीपो भगवान, तस्य दीपके ! सर्वजगन्मङ्गलभूतस्य चक्षुखि चक्षुः सकलजगद्भावदर्शकत्वेन तरय, चः समुच्चये। चक्षुश्च द्रव्यभावभेदाभ्यां द्विधा, तत्राऽऽद्य भाव
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________________ तित्थयर 2281- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर चक्षुरसहकृतं नार्थप्रकाशकं, तेन भावचक्षुषा भगवानुपमीयते, तचामूर्तमिति। ततो विशेषमाह--मूर्तसय मूर्तिमतः, चक्षुर्गाह्यस्येत्यर्थः / सर्वजगजीवानां वत्सलस्योपकारकस्य / उक्तार्थ विशेषणद्वारेण हेतुमाहहितकारको मार्गो मुक्तिमार्गः सम्यग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः, तस्य देशिका उपदेशिका, दर्शिकेत्यर्थः। तथा विभ्वी सर्वभाषाऽनुगमनेन परिणमनात् सर्वव्यापिनी, सकल श्रोतृजनहृदयसंक्रान्ततात्पर्यार्था, एवं विधा वागृद्धिक संपत, तस्याः प्रभुः स्वामी. सातिशयवचनलब्धिक इत्यर्थः / तस्य। तथाऽत्र विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्। जिनस्य रागद्वेषजेतुः, ज्ञानिनः सातिशयज्ञानयुक्तस्य, नायकस्य धर्मवरचक्रवर्तिनः, बुद्धस्य विदिततत्त्वस्य, बोधकस्य परेषामावेदिततत्त्वस्य, सकललोकनाथस्य सर्वप्राणिवर्गस्य बोधिबीजाऽऽधानसंरक्षणाभ्यां योगक्षेम-- कारित्वात् / निर्ममस्य ममत्वरहितस्य, प्रबरकुलसमुद्रवस्य, जात्या अत्रियस्य, एवविधविख्यातगुणस्य लोकोत्तमस्य, यत्त्वमसि जननी, तत्त्वं धन्याऽसि पुण्यवत्यसि, कृतार्थाऽसि, वयं हे देवानुप्रिये ! अधोलोकवास्तव्या अष्टो दिक् कुमारीमहत्तरिकाः भगवतो जन्ममहिमां करिष्यामः, तेन युष्मामिर्न भेतव्यम्-असम्भाव्यमानपरजनाऽऽपातेऽस्मिन् रहःस्थाने इमा विसदृशजातीयाः किमिति शङ्काऽऽकुलं चेतो न कार्यमित्यर्थः / (ति कट्ट उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागमित्यादि) इतिकृत्वा प्रस्तावादिदमुक्त्वा, ता एवोत्तरपौरस्त्यं दिगभागमपक्रामन्ति। अर्थतासामितिकर्त्तव्यमाहअवक्कमित्ता वेउटिवयसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संखिजाइं जोअणाई दंडं निसिरंति, निसिरित्ता तं जहा रयणाणं०जाव संवट्टगवाए विउव्यिति, विउव्वित्ता तेणं सिवेणं मउएणं अणुभूएणं भूमितलविमलकरणेणं मणहरेणं सव्वोउअसुरहिकुसुमगंधाणुवासिएणं पिंडिमनीहारिमगंधुद्धरेणं तिरि पवाइएणं भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समंता जोअणपरिमंडलं, से जहाणामए कम्मयरदारए सिआ०जाव तहेव जंतत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुइमचोक्खं पूइअं दुडिभगंधं, तं सव्वं आहुणिअ आहुणिअएगते एडेंति, एडित्ता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए अ अदूरसामंते आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति। अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति, समवहत्य च संख्यातानि योजनानि दण्डं निसृजन्ति, निसृज्य च किं ताः कुर्वन्ति ? तदेवाऽऽहतद्यथा रत्नानाम् / यावत्पदात्-"वइराण वेरुलिआणं लोहिअवखाणं मसारगल्ल णं हंसगब्भाणं पुलयाणं सोगंधिआण जोईरसाणं अंजणाणं पुलयाण रयणाणं जायरूवाणं अंकाणं फलिहाणं रिद्वाणं अहावायरे पुग्गले परिसाडेइ, अहासुहुमे पुग्गले परिआएइ, दुचं वि वेउब्वियसमुग्धारण समोहणंति, समोहणित्ता।" इति पदसंग्रहः। एततसविस्तरव्याख्या पूर्व भरताभियोगिकदेवानां वैक्रियकरणाधिकारे कृता, तेन ततो ग्रह्या / वाक्ययोजनार्थ तु किश्चिलिख्यते-तेषां रत्नानां बादरान् पुद्गलान् परिशाट्य सूक्ष्मान् पुगलान गृह्णन्ति, पुनर्वे क्रियसमुद्घातपूर्वक संवर्त्तकवातान् विकुर्वन्ति। बहुवचनं चात्र चिकीर्षितकार्यरय सम्यक् - सिध्यर्थ पुनः पुनर्वातविकुर्वणाज्ञापनार्थम्। विकुर्व्य च तेन तत्कालविकुर्वितेन, शिवेनोपद्रवरहितेन, मृदुकेन भूमिसर्पिणा मारुतेन अनुभूतेन अनूर्द्धचारिणा, भूमितलविमलकरणेन मनोहरेण सर्वर्तुकानां षड ऋतुसम्भवानां सुरभिकुसुमानां गन्धेनानुवासितेन, पिण्डिमः पिण्डितः सन निर्हारो नातिदूरं विनिर्गमनशीलो यो गन्धः, तेन उद्धरण, बलिष्ठेनेत्यर्थः / तिर्यक् प्रवातेन तिर्यक् वातुमारब्धेन, भगवतस्तीर्थकरस्यजन्मभवनस्य सर्वतो दिक्षु समन्ताद्विदिक्षुयोजनपरिमण्डलम्, "स जहाणामएकम्मयरदारए सिआ०जाव'' इत्येतत् सूत्रैकदेशसूचितदृष्टान्तिकसूत्रान्तर्गतन "तहेव'' इति दार्शन्तिकसूत्र बलादायातेन संमार्जयतीतिपदेन सहान्वययोजना कार्या। तचेदं दृष्टान्तसूत्रम्"से जहाणाभए कम्मयरदारए सिआ तरुणे बलवंजुगवजुवाणे अप्पायंक थिरऽग्गहत्थो दढपाणिपाए पिटुंतरोरुपरिणए घणनिचिअवलिअवट्टखंधे चम्मेट्ठगदुहणमुढिअसमाहयनिचिअगत्ते उरस्सबलसमण्णागए तलजमलजुअलपरिघबाहू लंघणपवणजइणपमद्दणसमत्थे छेए दक्खे पट्ट कुसले मेहावी निउण सिप्पोवगए एगं महंतं सलागहत्थगं वा दंडसंपुच्छणिं वा वेणुसिलगिगं वा गहाय रायंगणं वा रायतेउरं वा देवकुलं वा सभवा पवंवा आरामं वा उजाणं वा अतुरिअमचवलमसंभंतं निरंतरं सुनिऊण सव्वा समंता संपडजिज त्ति।" स यथानामको यत् प्रकारनामकः कर्मकरदारकः स्याद् भवत। आसन्नमृत्युहिं दारको न विशिष्ट सामर्थ्यभाग भवतीत्याह--तरुणः प्रवर्द्धमानवयाः / स च बलहीनोऽपि स्यादित्यत आह-बलवान् / कालोपद्रवोऽपि विशिष्ट सामर्थ्य विघ्नहेतुरित्यत आह-युगं सुषमदुःषमाऽऽदिकालः, सोऽदुष्टो निरुपद्रवो विशिष्टबलहेतुर्यस्यास्त्यसो युगवान्। एवंविधश्च को भवति? युवा यौवनवयस्थः ईदृशोऽपि ग्लानः सन् निर्बलो भवत्यतः-अल्पातङ्कः, अल्पशब्दोऽवाभाववचनः, तेन निरातङ्क इत्यर्थः। तथा स्थिरः प्रस्तुतकार्यकरणेऽकम्पोऽग्रहस्तो हस्ताग्रं यस्यासौ तथा / दृढं निविडतरचयमापन्नं पाणिपादं यस्य स तथा। पृष्ठ प्रतीतम्, अन्तरे पार्श्वरूपे, उरू सक्थिनी, एतानि परिणतानि परिनिटितता गतानि यस्य स तथा, सुखाऽऽदिदर्शनात् पाक्षिकः क्तान्तस्य परनिपातः, अहीनाङ्ग इत्यर्थः / धननिचितौ निविडतरचयमापन्नी वलिताविव वलितो, हृदयाभिमुखौ जातावित्यर्थः / वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स तथा। तथा चर्मेष्टकेन चर्मपरिणद्धकुट्टनोपकरणविशेषण द्रुघनेन घनन, मुष्टिक्या च मुष्ट्या समाहताः सन्तस्ताडिताःसन्तोये निचिता निविडीवृत्ताः प्रवहणप्रेष्यमाणवस्त्रग्रन्थिकाऽऽदयः, तद्वद् गात्रं यस्य तथा। उरसि भवमुरस्यमीदृशेनबलेन समन्वागतःअन्तरोत्साहवीर्ययुक्तः तलौ तालवृक्षी, तयोर्यमल समश्रेणिक ययुगल द्वयं, परिघश्चार्गला, तन्निभे तत् सदृश दीर्घसरलपीनत्वाऽऽदिना बाहू यस्य स तथा। लड् घने गर्ताऽऽदेरतिक्रमे, प्लवने मनाक विक्रमवति गमने, जवनेऽतिशीघ्रगमने, प्रमर्दने कठिनस्याऽपि वस्तुनश्चूर्णने समर्थः / छेकः कलापण्डिलः दक्षः कार्याणामविलम्बितकारी, प्रष्ठो वाग्मी, कुशलः सम्यक्रियापरिज्ञानवान्, मेधावी सवृत्त श्रुतदृष्टकर्मक्षः, निपुणशिल्पोपगतःनिपुणयथा भवत्येवं शिल्पक्रियासुकौशलमुपगतः
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________________ तित्थयर 2282 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर प्राप्तः, एक महान्तं शलाकहस्तकं सरित्पर्णाऽऽदिशलाकासमुदाय, सरित्पर्णाऽऽदिशलाकामया सम्मार्जनीमित्यर्थः / वाशब्दो विकल्पार्थः / दण्डसपुंसनी दण्डयुक्तां सम्मार्जनी, वेणुशलाकिका वंशशलाकानिवृत्ता संमार्जनी गृहीत्वा राजाऽङ्गणं वा, राजाऽन्तः पुरं वा, देवकुलं वा, सभां वा-पुरप्रधानानां सुखं निवेशनहेतुमण्डपिकामित्यर्थः / प्रपा वा पानीयशालाम्, आरामं वा दम्पत्योर्नगराऽऽसन्नरतिस्थानम्, उद्यान वा क्रीडार्थाऽऽगतजनानां प्रयोजनाभावेनोवलम्बितयानवाहनाऽऽद्याश्रयभूतं तरुखण्डम्, अत्वरितमचपलमसंभ्रान्तम्, त्वरायां चापल्ये संभ्रमे वा सम्यक्कचवराऽऽद्यपगमासंभवात्। तत्र त्वरा मानसौत्सुक्य,चापल्य कायोत्सुक्यम्, संभ्रमश्च गतिस्खलनमिति / निरन्तरं, न तु अपान्तरालमोचनेन, सुनिपुणमल्पस्याप्यचोक्षस्यापसारणेन संप्रमाजयेदिति। अथोक्तदृष्टान्तस्य दान्तिकयोजनायाऽऽह-तथैवैता अपि योजनपरिमण्डलं योजनप्रमाणं वृत्तक्षेत्रं संप्रमार्जयन्तीति। यत्तत्र योजनपरिमण्डले, तृणं वा पत्र वा काष्ठ वा कचवरं वा अशुचि अपवित्रम्, अचोक्ष मलिन, पूतिकं दुरभिगन्धं, तत्सर्वमाधूय आधूय संचाल्य संचाल्य, एकान्ते योजनपरिमण्डलादन्यत्र एम-यन्त्यपनयन्ति, अपनीय-अर्थात् संवतकवातोपशमं विधाय च, यत्रैव भगवांस्तीर्थकरः, तीर्थकरमाता च तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवतस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च नातिदूरासन्ने आगायन्त्यः-आ ईषत स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले मन्द्रस्वरेण गायमानत्वात्, परिगायन्त्यो गीतप्रवृत्तिकालानन्तरं तारस्वरेण गायन्त्यस्तिष्ठन्ति। अथोर्ध्वलोकवासिनीनामवसरःतेणं कालेणं तेणं समएणं उड्डलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ सएहिं सएहिं कूडे हिं सएहिं सएहिं भवणेहिं सएहिं सरहिं पासायवर्डसएहिं पत्ते पत्तेअं चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं तं चेव पुव्ववण्णिअ०जाव विहरति। "तेण कालेण' इत्यादि व्यक्तं, नवरम् ऊर्द्धलोकवासित्वं चासां समभूतलात् पशशतयोजनोचनन्दनवनगतपश्चशतिकाऽष्टकूटवासित्वेन ज्ञेयम्। नन्वधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरिगतकूटाष्टके यथा कीडानिमित्तको वासः, तथैतासामप्यत्र भविष्यतीति चेद्, मैवम्, यथाऽधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरीणां गन्धभवनेषु वासः श्रूयते. तथैतासामश्रूयमाणत्वेन तत्र निरन्तरं वासः, ततश्चोर्द्धलोकवासित्वम्।। ताश्चेडा नामतः पद्मबन्धेनाऽऽह तं जहा"मेहंकरा मेहवई, सुमेहा मेहमालिणी। सुवच्छा यच्छमित्ता य, वारिसेणा बलाहगा" ||1|| मेघड्बारा, मेघवती, सुमेधा, मेघमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, चः समुच्चये। वारिषेणा, वलाहका। अथ तासां यद् वक्तव्यं तदाह / आसनानि चलन्तितए णं तासिं उद्धृलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरिआणं पत्तेअंपत्तेअं आसणाइंचलंति। एवं तं चेव पुव्ववण्णिअं भाणिअव्वं०जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए !उड्डलोगवत्थव्वाओ अट्ठ | दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मण-महिमं करिस्सामो, तेणं तुडभेहिं ण भाइअव्वं ति कटु उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं अवक्रमति, अवक्कमित्ता०जाव अब्भवद्दलए विउव्वंति, विउव्वित्ता०जावतं निहयरयं णट्ठरयं भट्ठरयं पसंतरयं उवसंतरयं करें ति, करेत्ता खिप्पामेव पचुवसमंति, एवं पुप्फवद्दलंसि पुप्फवासं वासंति, वासित्ताजाव कालागुरुपवर०जाव सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति, करेत्ता जेणेव भयवं तित्थयरे, तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्छंति, उवाग-च्छित्ता जाव०आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति।। "तएणतासिं उड्डलोगवत्थव्याणं'' इत्यादिव्यक्तम्, नवरंतदेव पूर्ववर्णित भणितव्य, कियत्पर्यन्तमित्याह-(०जाव अम्हे णमित्यादि) अत्र यावच्छब्दोऽवधिवाचको, न तु संग्राहकः। (अवक्कमित्ता०जाव त्ति) अत्र यावत्पदात् "वेउव्विअसमुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता०जाव दोचं पि वेउव्वियसमुग्धारण समो-हणति, समोहणित्ता / " इति बोध्यम् / अभ्रवादलकानि विकुर्वन्ति, अभ्र आकाशे वाः पानीयं तस्य दलकानि अभ्रवादलकानि, मेघानीत्यर्थः / (विउव्वित्ता०जाव ति) अत्र यावत्करणादिदं दृश्यम"से जहाणामए कम्मयरदारएजाव सिप्पोवगए एणं महंत दगबारगं या दगकुंभय वा दगथालगं वा दणकलसं वा दगभिंगार वा गहाय रायंगणं वाजाव उज्जाणं वा समता आवरिसिजा, एवमेवता अवि उड्डलोगवत्थव्याओ अट्ठदिसाकुमारीमहत्तरिआओ अब्भवद्दलए विउवित्ता खिप्पामेय पतणतणायंति, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविजुआयंति, पविजुआइत्ता भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समंता जोअणपरिमंडल णचोअर्गनाइमट्टिअंपविरलपफुसिरयरेणुविणासण दिव्वं सुरभिगंधोदयवासं वासंति।" अत्र व्याख्या-स यथा कर्मदारक इत्यादि प्राग्वद् व्याख्येयम्, एक महान्तं दकवारकं वा मृत्तिकामयजल भाजनविशेष, दककुम्भकं वा जलघट, दकस्थालक वा कांस्यादिमयं जलपात्रं, दककलशं वा, दकभृङ्गार वा गृहीत्वा राजाङ्गणं वा यावदुद्यानं वा आवर्षेत् समन्तात् सिञ्चेत् / "एवमेव ता अवि उड्डलोगवत्थव्वाओ' इत्यादि प्राग्वत् / क्षिप्रमेव (पतणतणायंति त्ति) अत्यन्तं गर्जन्तीत्यर्थः / गर्जित्वा च (पविजुआयति त्ति) प्रकर्षेण विद्युतं कुर्वन्तिः कृत्वा च भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः समन्ताद्योजनपरिमण्डलं क्षेत्र यावत् अत्र नैरन्तर्ये द्वितीया, निरन्तरं योजनपरिमण्डले क्षेत्रे इत्यर्थः / नात्युदके नातिमृत्तिक यथा स्यात्तथा प्रकर्षण यावन्तो रेणवः स्थगिता भान्ति, तावन्मात्रेणोत्कर्षणेति भावः / उक्तप्रकारेण विरलानि घनेतराणि, घनभावेन कर्दमसम्भवात्, प्रस्पृष्टानि प्रकर्षवन्ति स्पर्शनानि, मन्दरपर्शनसंभवे रेणुस्थगनासम्भवात् , यस्मिन् वर्षे तत्प्रविरलप्रस्पृष्टम, अतएव रजसा श्लक्ष्णरेणुपुद्गलानां च स्थूलतममेतत्- पुद्गलानां विनाशनं, दिव्यमतिमनोहरं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षन्ति, वर्षिया च / अथ प्रस्तुतसूत्रमनुश्रियते, तद्योजनपरिमण्डलक्षेत्र, निहतरजः, कुर्वन्तीति योगः / निहतं भूय उत्थानाभावेन मन्दीकृत रजो यत्र तत्तथा ! तत्र निहतत्वं रजसा क्षणमात्रमुत्थानाभावेनाऽपि संभवति तत अहनष्टरजः नष्ट सर्वथा अदृश्यीभूतं रजो यत्र तत्तथा। तथा भ्रष्ट पातोद्भूततया
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________________ तित्थयर 2283 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर धाजनमाबाद दूरतः क्षिप्त रजो यत्र तत्तथा। अत एव प्रशान्तं सर्वथाऽसदिव रजो यत्र तथा। अस्यैवाऽऽत्यन्तिकतः ख्यापनार्थमाह-उपशान्तं रजो यत्र तत्तथा कुर्वन्ति, कृत्वा च क्षिप्रमेव प्रत्युपशाम्यन्ति, गन्धोदकवर्षसान्निवर्तन्त इत्यर्थः / अथासां तृतीयकर्त्तव्यकरणावसर:-एवं / गन्धोदकवर्षणानुसारेण पुष्पवादलकेन पुष्पवर्षकवादलकेन, प्रकृत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी। पुष्पवर्ष वर्षन्तीति।। अत्रैवमित्यादिवाक्यसूचितमिदं सूत्र ज्ञेयम् 'तचं पि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता पुप्फवद्धलए विउव्वंति से जहाणामए मालागारदारए०जाव सिप्पोवगए एगं महं पुष्कवजिअंवा पुप्फपडलगं वा पुप्फचंगेरिअंवा गहाय रायगणं वा०जाव समता कयग्गहगहिअकरयलपब्भट्टविप्पमुक्केणं दसद्धवण्णेणं कुसुमणं चुप्फपुंजोवयारकलिअं करेजा, एवमेव ता अवि उड्डलोगवत्थव्याओ० जाव पुप्फवद्दलए विउवित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति०, जाव जोअणपरि मंडल जलयथलयभासुरप्पभूयस्स विंटठाइरस दसद्धवण्णरस कुसुमस्स जाणुरसेहपमाणमित्तं वासं वासंति" / / 3 / / अब व्याघ्या-तृतीयवारं बैंक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति / कोऽर्थः? संवर्तकवातविकुर्वणार्थ हि यद् वेलाद्वयमपि वैक्रिय समुद् घातेन समवहनन, ततिकलैकम, एवमभ्रवादलकविकुर्वणार्थ द्वितीयम, इदं तु पुष्पवादलकविकुर्वणार्थ तृतीयम् / समवहत्य च पुष्पवादलकानि विकुर्वन्ति. स यथानामको मालाकारपुत्रः, अस्यैव प्रस्तुतकायें - च्यत्पन्नत्वात् / स्याद्यावनिपुणशिल्पोपगतः एका महतीं पुष्पछाधिका वा, छाद्यते उपरि स्थग्यते इति छाद्येव छाधिका, पुष्पै ता छाधिका पुष्पछाधिका तां, पुष्पपटलकं वा पुष्पाऽऽधारभाजनविशेषः पुष्पाचाङ्गेरिका वा प्रतीताम् / यावत् समन्तात् रतकलहे या परामुखी, तस्याः सुमुखीकरणायकेशेषु गृहणं कचग्रहणं, तत्प्रकारेण गृहीत, तथा करतलाद्विप्रमुक्तं सत् प्रभ्रष्ट करतलप्रभृष्ट विप्रभुक्तं, प्राकृतत्वात पदव्यत्ययः, ततो विशेषणसमासः / तेन कचग्रहगृहीतकरतलप्रभ्रष्टविप्रमुक्तेन दशार्द्धवर्णकेन पञ्चवर्णन कुसुमेन, जात्यपेक्षया एकवचनम, कुसुमजातेन, पुष्पपुजोपचारो वलिप्रकारः, तेन कलितं कुर्यात्. एवमेता अपि ऊर्द्धलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः "पुप्फवद्धलए विउव्वित्ता" इत्यादिक योजनपरिमण्डलान्तं प्राग्वद् व्याख्येयम् / वाल्ययोजना तु-योजनपरिमण्डलं यावत् दशार्द्धवर्णस्य कुसुमस्य वर्ष वर्षन्तीति / कथंभूतस्य कुसुमस्य? जलजस्थलजभासुरप्रभुतस्यजलज पद्माऽऽदि, स्थलजं विचकिलाऽऽदि, भास्वरं दीप्यमानं प्रभूतमतिप्रचुरम् / ततः कर्मधारयः / भास्वरं च तत् प्रभूतं च भास्वरप्रभूतम्, जलजस्थलजं च तद्भास्वरप्रभूतं च तत्तथा। तथा वृन्तस्थायिनः-- वृन्तेनाधो भागवर्तिना तिष्ठतीत्येवंशीलस्य, तथा वृन्तमधो भागे पत्राण्युपरीत्येवं स्थानशीलस्येत्यर्थः / कथम्भूतं वर्षम? जान्ववधिक उच्चायो जानत्सेधः, तस्य प्रमाणं द्वात्रिंशदङ्गुललक्षणं, तेन सदृशी मात्रा यस्य स तथा तं, द्वाविंशदङ्गुलानि चैवम्-चरणस्य चत्वारि, जड्डायाश्चतुर्विंशतिः, जानुतश्चत्वारीति / एवमेव सामुद्रिके चरणावसानस्य लक्षणत्वात। वर्षित्वा च कियत्पर्यन्तोऽयमेवमित्यादिवाक्यसूचितसूत्रसंग्रह इत्याहयावत् 'कालागुरुपवर ति / अत्र यावच्छब्दोऽवधिवाची1 (०जाव सुरवराभिगमणजोगं ति) अत्र यावत्करणात्-"कुंदुरुक्कतुरुछाडज्झतधूवमधमधलगुंधुगु आभिरामं सुगंधवरगंधिअं गंधवट्टिभूअं दिव्वं / ' इतिपर्यन्तन्तसूत्रं ज्ञेयम्। तत् कालागुरुप्रभृतिधूपधूपितम्; धूपालापकव्याख्या प्राग्वत्। अत एव सुरवराभिगमनयोग्यम्-सुरवर इन्द्रस्तस्याभिगमनायाऽवतरणाय योग्य, कुर्वन्ति, कृत्वा च यत्रैव भगवांस्तीर्थकरस्त्तीर्थकर-माता च, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च, यावच्छब्दात्''भगवओ तित्थयरमायाए य अदूरसामते' इति ग्राहाम् / आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति। अथ रुचकवासिनीदिक कुमारीवक्तव्ये प्रथम पूर्वरुचकस्थानामष्टानां वक्तव्यतामाहतेणं कालेणं तेणं समएणं पुरच्छिमरुअगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सएहिं सएहिं कूडे हिं तहेव०जाव विहरंति / तं जहा "णंदुत्तरायणंदा, आणंदा णंदिवद्धणा। विजया य वेजयंती, जयंती अपराजिआ॥१॥" सेसं तं चेव०जाव तुब्भेहिं ण भाइअव्वं ति कट्ट भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए अपुरच्छिमेणं आयंसहत्थगाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति। (तेण कालेणं तेण समएणं इत्यादि) तस्मिन् काले तरिमन् समये पोरस्त्यरुचकवास्तव्याः पूर्वदिग्भागवर्तिरुचककूटवासिन्योऽष्टी दिक् कुमारीमहत्तरिकाः स्वकषु स्वकेषु कूटेषु तथैव यावद्विहरन्ति। तद्यथानन्दोत्तरा, चः समुचये / नन्दा, आनन्दा, नन्दिवर्द्धना, विजया / चः पूर्ववत् / वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, इत्येता नामतः कथिताः ! शेषमासनप्रकम्पावधिप्रयोगभगवद्दर्शनपरस्पराह्वानस्वस्वाभियोगिककृतयानविमानविकुर्वणाऽऽदिक तथैव, यावद्युष्माभिर्न भेतव्यमिति कृत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च पूर्वरुचकसमागतत्वात् पूर्वतोहस्तगत आदर्शो दर्पणो जिनजनन्योः शृङ्गाराऽऽदिविलोकनाऽऽधुपयोगी यासा तास्तथा, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् / आगायल्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति / / अत्र रुचकाऽऽदिस्वरूपप्ररूपणेयम्एकादेशेन एकादशे, द्वितीयादेशेन त्रयोदशे, तृतीयादेशेन एकविंशे रुचकद्वीपे बहुमध्ये वलयाऽऽकारो रुचकशैलश्चतुरशीतियोजनसहखाण्युच्चः, मूले 10022, मध्ये 7023, शिखरे 4024 योजनानि विस्तीर्ण :, तस्य शिरसि चतुर्थ सहसे पूर्वदिशि मध्ये सिद्धायतनकूटः, उभयोः पार्श्वयोश्चत्वारि चत्वारि दिक्कुमारीणां कूटानि, नन्दोत्तराssधास्तेषु वसन्तीति। अथ दक्षिणरुचकवासिनीनां कर्त्तव्यम्तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणरुअगवत्थव्याओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ तहेव०जाव विहरंति। तं जहा-- "समाहारा सुप्पइण्णा, सुप्पबुद्धा जसोहरा। लच्छीमई सेसवई, चित्तगुत्ता वसुंधरा / / 1 / / " तहेव० जाव तुब्भाहिं न भाइअव्वं ति कट्ट भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाउए अ दाहिणेणं भिंगारहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति। सम्प्रति दक्षिणरुचक वास्तव्या इति पूर्ववद्, रुचक शिररिस दक्षिण दिशि मध्ये सिद्धायतनकूटम्, तदुभयतश्चत्वारि चत्वारि कूटानि, तत्र वासिन्य इत्यर्थः / अष्टौ दिक्कु मारीमहसारिका: तथैव यावद्विहरन्ति / तद्यथा-समाहारा, सुप्रदरता, सुप्रयुद्धा,
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________________ तित्थयर 2284 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर यशोधरा, लक्ष्मीवती, शेषवती, चित्तगुप्ता, वसुन्धरा / तथैव चित्रा, चः समुच्चये। चित्रकनका, शतेरा, सौदामिनी। तथैव यावन्न भेतव्ययावद्युष्माभिर्न भेतव्यमिति कृत्वा जिनजनन्योर्दक्षिणदिगागत- मिति कृत्वा विदिगागतत्वात् भगवतस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च चतसृषु त्वादक्षिणदिग्भागे जिनजननीस्नपनोपयो गिजलपूर्णकलशहस्ता विदिक्षु दीपिकाहस्त-गता आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति। आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति / / अथ मध्यरुचकवासिन्य आगमयितव्याःसाम्प्रतं पश्चिमरुचकस्थानां वक्तव्यमाह तेणं कालेणं तेणं समएणं मज्झिमरुअगवत्थव्वाओ चत्तारि तेणं कालेणं तेणं समएणं पच्चच्छिमरुअगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सएहिं सएहिं कूडे हिं तहेव० जाव दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सएहिं सएहिं०जाव विहरंति।तं जहा- विहरंति। तं जहा- "रूआ रूआसिआ, सुरूवा रूवगावई।" "इलादेवी सुरादेवी, पुढवी पउमावई। तहेव०जाव तुब्भाहिं ण भाइअव्वं ति कट्ट भगवओ तित्थयएगणासा णवमिआ, भद्दा सीआय अट्ठमी // 1 // " रस्स चउरंगुलवजणाभिणालं कप्पंति, कप्पेत्ता विअरगं खणंति, तहेव०जाव तुब्भाहिं ण भाइअव्वं ति कट्ट०जाय भगवओ खणित्ता विअरगे णाभिं णिहणंति, निहणित्ता रयणाण य वइराण तित्थयरस्स तित्थयरमाउए अ पञ्चच्छिमेणं तालिअंटहत्थ य पूरे ति, पूरेत्ता हरिआलिआए पेढं बंधंति, बंधित्ता तिदिसिं मयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति। तओ कयलीहरए विउव्वंति / तए णं तेसिं कयलीह-रगाणं "तेणं कालेणं' इत्यादि सर्वं तथैव, नवरं पश्चिमरुचकवास्तव्याः बहुमज्झदेसभाए तओ चउस्सालए विउध्वंति, तए णं तेसिं पश्चिमदिग्भागवर्तिरुचकवासिन्य इति / नामान्यासा पदोनाऽऽह चउस्सालगाणं बहुमज्झदेसभाएतओ सीहासणे विउव्वंति; तेसि इलादेवी, सुरादेवी, पृथिवी, पद्मावती. एकनासा, नवमिका, भद्रा, णं सीहासणाणं अयमेआरूवे वण्णावासे पण्णत्ते, सव्वो वण्णगो सीता / चः समुच्चये। अष्टमी चेति। कूटव्यवस्था तथैव, पश्चिमरुचकाग भाणिअव्यो। तत्वाजिनजनन्योः पश्चिमदिग्भागे तालवृन्त व्यजन तद्धस्तगता (तेणं कालेण इत्यादि) तस्मिन् काले तस्मिन् समये मध्यरुचकस्तिष्ठन्तीति। वास्तव्या मध्यभागवर्तिरुचकवासिन्यः / कोऽर्थः?-चतुर्विशत्यउदीच्यां रुचकवासिनीना कृत्यानि धिकचतुःसहराप्रमाणे रुचकशिरोविस्तारे, द्वितीयसहस्रं चतुर्दिग्वर्तिषु तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्लरुअगवत्थव्वाओ जाव चतुर्षु कूटेषु पूर्वाऽऽदिक्रमेण चतस्रस्ता वसन्तीत्यर्थः / श्रीअभयदेवविहरंति / तं जहा सूरयस्तु षष्ठाङ्ग वृत्तौ मल्ल्यध्ययने-''मज्झिमरुअगवत्थ'या'' इत्यत्र रुचकद्वीपस्याभ्यन्तरार्द्धवासिन्य इत्याहुः / अत्र तत्त्वं बहुश्रुतगम्यम् / "अलंबुसा मिस्सकेसी, पुंडरीआ य वारुणी। चतस्रो दिक् कुमारिका यावद्विहरन्ति / तद्यथा-रूपा, रूपासिका, हासा सव्वप्पभा चेव, सिरि हिरिचेव उत्तरओ" ||1|| सुरूपा, रूपकावती / तथैव युष्माभिर्नभेतव्यमिति कृत्वा भगवततहेव०जाव तित्थयरस्स तित्थयरमाउए अ उत्तरेणं चामर स्तीर्थकरस्य चतुरङ् गुलवर्जनाभिनालं कल्पयन्ति, कल्पयित्वा च हत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति। विदरकं गर्ता खनन्ति, खनित्वा च विदरके कल्पितां नाभिं निधानयन्ति, उदीच्यामप्येवमेवेति। तत् सूत्रमाह-"तेणं कालेणं" इत्यादि व्यक्तम् / निधानयित्वा च रत्नश्च वजैश्च, प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययः / पूरयन्ति, नवरमुत्तररुचकवास्तव्या उत्तरदिग् भागवर्तिरुचकवासिन्यः / पूरयित्वा च हरितालिकाभिर्दूर्वाभिः पीट बध्नन्तिा कोऽर्थः? पीठं बद्धवा नामान्यासां पद्मनाऽऽह-अलम्बुषा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका, चः प्राग्वत्। तदुपरि-हारितालिकां वपन्तीत्यर्थः / विवरकवचनाऽऽदिकं च सर्व वारुणी, हासा, सर्वप्रभा,चैवेति प्राग्वत्। श्रीः, हीश्वोत्तरतः। कूटव्यवस्था भगवदवयवस्याऽऽशातनानिवृत्यर्थम् / पीठ बध्वा च त्रिदिशि पश्चितथैव, उत्तररुचकाऽऽगतत्वाजिनजनन्योरुत्तरदिग भागे चामरहस्तगता मावर्जदिक् त्रये त्रीणि कदलीगृहाणि विकुर्वन्ति / ततस्तेषां कदलीआगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तिा गृहाणां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि चतुःशालकानि भवनविशेषान विकुर्वन्ति। अथ विदिगुचकवासिनीनामागमनाऽवसरः ततस्तेषां चतुःशालकाना बहुमध्यदेशभागे त्रीणि सिंहासनानि विकुर्वन्ति, तेणं कालेणं तेणं समएणं विदिसिरुअगवत्थव्याओ चत्तारि तेषां सिंहासनाना मप्येवदृशो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः, सिंहासनानां दिसाकुमारीमहत्तरिआओ०जाव विहरंति। तं जहा-"चित्ता य सर्वो वर्णकः पूर्ववणितव्यः। चित्तकणगा, सतेरा सोदामणी।" तहेव०जाव ण भाइअव्वं ति सम्प्रति सिंहासनविकुर्वणानन्तरीयकृत्यमाह-- कट्ट भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाउए अचउसु विदिसासु तए णं ताओ रुअगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ दीविआहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायभाणीओ चिटुंति। जेणेव भयवं तित्थयरे तिथयरमाया य तेणेव उवागच्छंति, 'तेणं कालेण' इत्यादि व्यक्तम् / नवरं विदिग्रुचकवास्तव्यास्तस्येव उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं तित्थयरमायरं च रुचकपर्वतस्य शिरसि चतुर्थे सहस्रे चतसृषु विदिक्षु एकैकं कूट, तत्र बाहाहिं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव दाहिणिल्ले कयलीहरए जेणेव वासिन्यश्चतस्रो विदिक कुमार्यो यावद्विहरन्ति। इमाश्च स्थानाने विद्युत् चाउस्सालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुमारीमहत्तरिका इत्युक्ता इति। एतासां चैशान्यादिक्रमेणनामान्येयम्- | भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीआवें ति, णि
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________________ तित्थयर 2285 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर सीआवेत्ता सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं अब्भंगेति, अब्भंगेत्ता भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च सिंहासने निषादयन्ति-उपवे.सुरभिणा गंधुव्वट्टएणं उव्वटुंति, उव्वट्टित्ता भगवं तित्थयरं शयन्ति; निषाद्य च शतपाकैः सहस्रपाकैः शतकृत्वोऽपरापरौषधीरसेन, करयलसंपुडेणं, तित्थयरमायरं च बाहासु गिण्हंति, गिण्हित्ता कार्षापणानां शतेन वा यत्पर्क तच्छतपाकम्, एवं सहरापाकमपि। बहुवचन जेणेव पुरच्छिमिल्ले कयलीहरए जेणेव चाउस्सालए जेणेव तथाविधसुरभितैलसंग्रहार्थम्। तैलैरभ्यङ्गयन्ति, तैलमभ्यञ्जयन्तीत्यर्थः / सीहासणा तेणेव उवागच्छंति,उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं अभ्यङग्य च सुरभिणा गन्धद्रव्याणामुत्पलपिष्टाऽऽदीनामुर्तितधूर्णतित्थयरमायरंच सीहासणे णिसीआवें ति, णिसी-आवेत्तातिहिं पिण्डेन गन्धयुक्तगोधूमचूर्णपिण्डेन वा उद्वर्तयन्ति, प्रक्षिततेलापनयने उदएहिं मजाति। तं जहा-गंधोदएणं, पुप्फोदएणं, सुद्धोदएणं / / कुर्वन्ति, उद्वर्यं च भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च मजावेत्ता सव्वालंकारविभूसिअंकाति, करेत्ता भगवं तित्थयरं बाहागुलन्ति, गृहीत्वा च यत्रैव पौरस्त्यं कदलीगृह, यत्रेव चतुःशालं, करयलपुद्धेणं, तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हंति, गिण्हित्ता यत्रैव च सिंहासन, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्त तीर्थकर तीर्थ.. जेणेव उत्तरिल्ले कयलीहरए जेणेव चउस्सालए जेणेव सीहासणे करमातरं च सिंहासने निषादयन्ति, निषाद्य च त्रिभिरुदकर्मजयन्ति तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं स्नपयन्ति / तान्येव त्रीणि दर्शयति तद्यथेत्यादिना, गन्धोदकेन च सीहासणे णिसीआवेंति, णिसीआवेत्ता आमिओगे देवे कुमाऽऽदिभिश्रितन, पुष्पोदके न जात्यादिमिश्रितेन, शुद्धोदकेन सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं बयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! केवलोदकेन, मञ्जयित्वा सर्वालङ्कारभूषितौ कुर्वन्ति, मातृपुत्राविति चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ गोसीसचंदणकट्टाई शेषः / कृत्वा च भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च साहरह / तए णं ते अभिओगा देवा ताहिं रुअगमज्झवत्थव्वाहिं बाहुभिहान्ति, गृहीत्वा च यत्रैवोत्तराह कदलीगृह, यत्रैव च चतुःशालक, चउहिं दिसाकुमारीमहत्तरिआहिं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा०जाव यत्रैव च सिहासन, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर विणएणं वयणं पडि च्छंति, पडिच्छित्ता खिप्पामे व तीर्थकरमातरं च सिंहासने निषादयन्ति, निषाद्य च आभियोगान् देवान् चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ सरसाइंगोसीसचंदणकट्ठाई शब्दयन्ति, शब्दयित्वा च एवमवादिषुः-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! साहरंति / तए णं ताओ मज्झिमरुअगवत्थवाओ चत्तारि क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतादोशीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरतसमानयत / ततस्ते दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सरगं करेंति, करेता अरणिं घडेंति, आभियांगा देवास्ताभी रुचकमध्यवास्तव्याभिश्चतसृभिर्दिकुमारीअरणिं घडेत्ता सरएणं अरणिं महिंति, महित्ता अग्गिं पाडिंति, महत्तरिकाभिरेवमनन्तरोक्तमुक्ता आज्ञप्ताः सन्तो हृष्टतुष्टा इत्यादि पाडित्ता अग्गिं संधुक्खें ति, संधुक्खेत्ता गोसीसचंदणकट्टे यावद्विनयेन वचनं प्रतीच्छन्त्यङ्गीकुर्वन्ति, प्रतीष्य च क्षिप्रमेव पक्खिवंति, पक्खिवित्ता अग्गिं उज्जालिंति, उज्जालित्ता क्षुद्रहिमयतो वर्षधरपर्वतात सरसानि गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरन्ति / समिहाकट्ठाई पक्खिविंति, पक्खिवित्ता अग्गिहोमं करेंति, करेत्ता ततस्ता मध्यरुचकवास्तव्याश्चतस्रो दिक् कुमारीमहत्तरिकाः शरक-. भूमिकम्मं करेंति, करेत्ता रक्खापोट्टलिअं बंधंति, बंधेत्ता शर-प्रतिकृतितीक्ष्णमुखमन्युत्पादकं काष्ठविशेषं कुर्वन्ति, कृत्वा च तेनैव णाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुवे पाहाणवट्टगोलगे गहाय भगवओ शरकन सह अरणिं लोकप्रसिद्ध काष्ठविशेष घटयन्ति–संयोजयन्ति, तित्थयरस्स कण्णमूले टिट्टिआविंति, भवउ भयवं पव्ययाउए। घटयित्वा च शरकेनाग्नि मथ्नन्ति, मथित्वा च अग्नि पातयन्ति, तए णं ताओ रुअगमज्झवत्थव्याओ चत्तारि दिसाकुमारी- पातयित्वा च अग्निं सन्धुक्षन्तिसन्दीपयन्ति, सन्धुक्ष्य च गोशीर्षचन्दनमहत्तरिआओ भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च काष्ठानि, प्रस्तावात् खण्डशः कृतानीति बोध्यम् यादृशैश्चन्दनकाष्टरबाहाहिं गिण्हं ति, गिण्हित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स ग्निरुद्दीपितः स्यात् तादृशानीति भावः। प्रक्षिपन्ति, प्रक्षिप्य च जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तित्थयरमायरं अग्निमुज्ज्वालरान्ति उद्दीपयन्ति, उज्ज्वाल्य च प्रदेशप्रमाणानि हवनोप-- सयणिजंसि णिसीआविंति, णिसीआवित्ता भयवं तित्थयरं माउए योगीनीन्धनानि समिधः, तद्रूपाणि काष्ठानि प्रक्षिपन्ति / पूर्वो हि पासे ठविंति, ठवित्ता अदूरसामंते आगायमाणीओ परिगाय- काष्ठप्रक्षेपोऽग्न्युद्दीपनाय, अयं च रक्षाकरणायेति विशेषः / प्रक्षिप्य च माणीओ चिट्ठति।। अग्निहोमं कुर्वन्ति, कृत्वा च भूतेभस्मनः कर्म क्रिया, तां कुर्वन्ति, येन (तएणनाओरुअगमज्झदत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ इत्यादि) प्रयोगणेन्धनानि भस्मरूपाणि भवन्ति तथा कुर्वन्तीत्यर्थः / कृत्वा च ततस्ता चकमध्यवास्तव्याश्चतस्रो दिक् कुमारीमहत्तरिकाः, यत्रेव जिनजनन्याः शाकिन्यादिदुष्टदेवताभ्यो दृग्दोषाऽऽदिभ्यश्व रक्षाकरी पोट्टभगर्वोस्तीर्थकरस्तीर्थकरमाता च, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च लिका बध्नन्ति, बध्वा च नानामणिरत्नानां भक्तिरचनायौ विचित्रो द्वी भगवन्त तीर्थकर करतलसंपुटेन, तीर्थकरमातरं च बाहुभिर्गृह्णन्ति, पाषाणवृत्तगोलको, पाषाणगोलकावित्यर्थः / गृहीत्वा भगवतस्तीगृहीत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्य कदलीगृहं, यत्रैव च चतुःशालकं, यत्रय र्थकरस्य कर्णमूले 'टिट्टिआवें ति" इत्यनुकरणशब्दोऽयम्। तेन टिट्टि सिहासन, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकरं करतलसंपुटन आति' परस्परप्रताडनेन दिद्दीतिशब्दोत्पादनपूर्वक वादयन्तीत्यर्थः / तीर्थकरमातरं च बाहुभिर्गृहन्ति,गृहीत्वा च यव दाक्षिणात्यं कदलीगृहं, अनेन हि बाललीलावशादन्यत्र व्यासक्तं भगवन्तं वक्ष्यमाणाऽऽ - यत्रैव च चतुःशालक, यत्रैव सिंहासने, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च / शीर्वचनश्रवणं पटु कुर्वन्तीति भावः / तथा कृत्वा च भवतु भगवा
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________________ तित्थयर 2286 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर न पर्वताऽऽयुः, इत्याशीर्वचनं ददतीति / तत उक्तसकलकार्यकरणानन्तरं तारुचकमध्यवास्तव्याश्चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिका भगवन्तं तीर्थकर करतलपुटेनतीर्थकरमातरं चबाहुभिर्गृहन्ति, गृहीत्वा च यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवन, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च तीर्थकरमातृशय्यायां निषादयन्ति, निषाद्य च भगवन्तं तीर्थकर मातुः पार्श्वे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा च नातिदूराऽऽसन्ने आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति। एतासां च मध्येऽष्टावधोलोकवासिन्यो गजदन्तगिरीणामधोभवनवासिन्यः। यत्त्वेतदधिकारसूत्रे "सएहिं सएहिं कूडेहिं" इति पदम् तदपरसकलदिकुमार्यधिकारसूत्रपाठसंरक्षणार्थम्, साधारणरात्रपाठे हि यथासम्भवं विधिनिषेधौ समाश्रयणीयाविति ऊर्द्धलोकवासिन्योऽष्टौ नन्दनवने योजनपक्षशतिककूटवासिन्यः, अन्याश्च सर्वा अपि रुचकसत्ककूटेषु योजनसहस्रोचेषु मूले सहस्रयोजनविस्तारेषु शिरसि पञ्चशतविस्तारेषुवसन्ति। उक्त षट्पञ्चाशद् दिक् कुमारी-कृत्यमिति। जं०५ वक्षा (64) देवदूष्याणिसव्वे वि एगदूसे-ण णिग्गया जिणवरा चउव्वीसं। सर्वेऽपि भगवन्तोऽतीता अपि जिनवराः चतुर्विशतिसंख्याः, चतुविशतिरित्यनेन सर्वास्वप्यवसर्पिणीपूत्सर्पिणीषु च प्रत्येकं भरतक्षेत्रे चतुर्विशतिरेव तीर्थकरा अभूवन्निति ख्यापितम्। एकदुष्येण--एकेन वस्त्रेण, निर्गता अभिनिष्क्रान्ताः / तद्यदि भगवन्तोऽप्येकदृष्येण निर्गता इति सोपधयोऽभवन, कि पुनस्तन्मतानुवर्तिनः शिष्या न सोपधयः? तत्रय उपधिरासे वितो भवद्भिः स साक्षादेवोक्तः। यः पुनर्विने येभ्यः स्थविरकल्पिकाऽऽदिभेदभिन्नेभ्योऽनुज्ञातः, स खलु ग्रन्थान्तरादवसेयः। आ० म०१ अ०१ खण्ड देवदूष्यवस्त्रस्थितिमाहसक्को य लक्खमुल्लं, सुरसं ठवइ सव्वजिणखंधे। वीरस्स वरिसमहियं, सया वि सेसाण तस्स ठिई 1156) शक्रश्च लक्षमूल्यं देवदूष्यं वस्त्रं सर्वजिनस्कन्धे स्थापयति / तत् श्रीवीररस साधिक वर्ष स्थितम्। उक्तं च कल्पसूत्रे-"संवच्छरं साहि मासं जाव चीवरधारी होत्थ त्ति / " मासेकेनाधिकं वर्ष श्रीवीरेण वस्त्र धृतम। शेषजिनानां त्रयोविंशतेरपि तीर्थकृता, सदाऽपि यावजीवमपि, तस्य वस्त्रस्य, स्थिति येति / सत्त०७३ द्वार। (देहमानमुत्सेधाङ्गुलविचारे 2261 पृष्ठे पूर्वमुक्तम्) (65) अथ प्रसङ्गतः तीर्थकरप्रतिपादितत्वेन धर्मभेदानाहदाणं सीलं च तवो, भावो एवं चउव्विहो धम्भो। सव्वजिणेहिं भणिओ, तहा दुहा सुयचरित्तेहिं / / 266|| सुपात्रे दान देयम्, त्रिकरणशुझ्या शीलं पालनीयम्, यथाशक्ति तपो विधिवद्विधेयम्, साधुपुरुषेण शुभभावना भावनीया। एवं चतुर्विधो धर्मः (सव्वजिणेहि भणिओ) सर्वजिनैश्चतुर्विशतिजिनेर्भणितः कथितः। तथा द्विधा धर्मः श्रुतचारित्राभ्याम्, एकः श्रुतधर्मः, द्वितीयश्चारित्रधर्मः / इति गाथाऽर्थः / / 266 // सत्त०४१ द्वार। अथ धर्मप्रसङ्गात्पुण्यमौचित्ये प्रवर्तत इत्यौचित्याष्टकम् / पुण्यानुबन्धिपुण्यं प्रधानफलतो दर्शयन्नाह अतः प्रकर्षसंप्राप्ता-द्विज्ञेयं फलमुत्तमम्। तीर्थकृत्त्वं सदौचित्य-प्रवृत्त्या मोक्षसाधकम्।।१।। अत अरमात पुण्यानुबन्धिपुण्यात प्रकर्षसंप्राप्तादतिप्रकृष्टतां गताद्विशेय ज्ञातव्यं फलं कार्यमुत्तमं प्रधानं तीर्थकृत्त्वं तीर्थकरत्वम् / किस्वरूप तदित्याह-सदा सर्वकालमागर्भावस्थाया औचित्यप्रवृत्त्या यथार्हप्रवर्त्तनन मोक्षसाधकं निर्वाणप्रापकमिति // 1 // औचित्यप्रवृत्तिमेवाऽऽप्तस्य सार्वदिकी दर्शयितुमाहसदौचित्यप्रवृत्तिश्च, गर्भादारभ्य तस्य यत्। तत्राऽप्यभिग्रहो न्याय्यः, श्रूयते हि जगदुरोः / / 2 / / सदा सर्वकालमांचित्यप्रवृत्ति संगतभावनम्, चशब्दः पुनः शब्दार्थः / गर्भादारभ्य गर्भावस्थामवधीकृत्य, तस्येति यः प्रकृष्टपुण्यानुबन्धिपुण्यफलभूतस्तस्य तीर्थकरस्य, भवतीति शेषः / कुत एतदेवं सिद्धमित्याह-यद्यस्मात्कारणात, तत्राऽऽदिगर्भेऽप्यास्तां प्रव्रज्याप्रतिपत्ती, अभिग्रहः प्रतिज्ञाविशेषो वक्ष्यमाणस्वरूपो, न्याय्यो न्यायादनपेतः, श्रूयते आकर्यत, हिशब्दो वाक्यालङ्कारे,जगद्गुरोत्रिलोकगौरवार्हस्य महावीरस्येति भावना / / 2 / / किमर्थमसावभिग्रह इत्याहपित्रुद्वेगनिरासाय, महतां स्थितिसिद्धये। इष्टकार्यसमृद्ध्यर्थमेवंभूतो जिनाऽऽगमे / / 3 / / माता च पिता च पितरौ, तयोरुद्वेगश्चित्तसंतापः तस्य निरासोऽभावः पित्रुद्वेगनिरासः, तस्मै पित्रुद्वेगनिरासाय। यतन्ते च महान्तो विश्वस्याऽपि उद्वेगनिरासार्थम्, तेषां तथा- स्वभावत्वाद, विशेषतः पुनः पित्रोरतिदुःखप्रतीकारित्वात्तयोरिति / तथा महतां महापुरुषाणां स्थितिसिद्धये व्यवस्थासाधनाय। अन्येऽपि महान्तो मातापित्रुद्वेगनिरासेन प्रवर्तन्तामित्येतदर्थमित्यर्थः, प्रधानमार्गानुसारित्वाज्जनस्येति / तथा इष्टकार्य वाञ्छितप्रयोजनं मोक्षार्थिनां मोक्षोपायभूता प्रव्रज्या, तस्य समृद्धिनिष्पत्तिरिष्टकार्यसमृद्धिः, तस्यै। इदनिष्टकार्यसमृद्ध्यर्थमिदं चाभिग्रहः, कृत इति गम्यमानक्रियाविशेषणम् मोक्षसिद्धिहेतोरित्यर्थः / सिद्ध्यति हि मोक्ष उचितप्रवृत्त्या, अनुचितप्रवृत्तिस्तु तद्विघ्न इति / एवम्भूतो वक्ष्यमाणस्वरूपः, अभिग्रह इति योगः। जिनाऽऽगमे आप्तवचने, श्रूयते इति संबन्धः / उच्यते चाऽऽवश्यनियुक्तौ-"अह सत्तमम्मि मासे, गम्भत्थो चेवऽभिग्गहं गहिओ। नाहं समणो होहं, अम्मापियरम्मि जीवते" ||1|| इति // 3 // ___अथवा यथाभूतोऽभिग्रहः श्रूयते, तथाभूतमेवाऽऽहजीवतो गृहवासेऽस्मिन्, यावन्मे पितराविमौ। तावदेवाधिवत्स्यामि, गृहानहमपीष्टतः॥४॥ किल भगवान् श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामी देवभवाच्च्युत्वा पूर्वभवोपात्तनीचैर्गोत्राभिधानकर्मशेषवशाद् ब्राह्मणकुण्डग्रामाभिधाननगरनिवासिऋषभदत्ताभिधानद्विजातिजायाया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षावुत्पन्नः। अथ व्यशीतितमादिवसे सिंहासनचलनजनितावधिप्रयोगपुरन्दरप्रयुक्तहरिनेगमेषिनाम्नादेवेन क्षत्रियकुण्डाभिधाननगरनायकरिसद्वार्थाभिधाननरपतिप्रधानपल्यास्त्रिशलाभिधानाया गर्भे संक्रमितः / ततो देवानन्दामुपलब्धचतुर्दशमहास्वप्नापहारा सम्भावितगर्भसहारां हृतसर्वस्वमिवाऽतिशोकसागरनिमग्नामवधिनाऽवबुद्धयाऽहो ! अस्म
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________________ तित्थयर 2287 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर निमित्तमेषाऽनाख्येयदुःखमवाप्तवत्येवमेषाऽपि त्रिशला मदगचलनचेष्टानिमित्तमसुखमथ मा प्रापदित्यालोच्य निश्चलोऽवतस्थे / ततोऽसौ निस्पन्दतां गर्भस्यावगम्य गलितो गर्भो ममेति भावनया गाढतरं दुःखसमुदयमगमत् / ततो भगवास्तद् दुखवितोदाय स्फुरति स्म / पालोचयाञ्चकार च-यदुताऽदृष्टेऽपि मयि मातापितोरहो गाढः स्नेहः, दृष्ट पुनः परिचयादवगतगुणग्रामे गाढतरोऽसौ भावी, ततः प्रव्रजनतो वियुज्यमाने शोकातिशयान्महाननन्तस्तापो भविष्यति, ततोऽनयोर्जी - बतोस्तत्संतापपरिहारार्थमप्रव्रजितेन मया भाव्यमिति सप्तममासाऽभिग्रहं जग्राहेति श्लोकसमुदायार्थः / / अक्षरार्थस्त्वयम्-जीवतः प्राणान्धारयतः, पितराविति योगः। गृहवासे गृहस्थतायामस्मिन्नधुनातने, न पुनर्देवाऽऽदिभवसम्भवेऽपि, यावद् यत्परिमाणमिति पितृजीवनक्रियाविशेषणम् / मे मम संबन्धिनाविडी प्रत्यक्षाऽऽसन्नौ त्रिशलासिद्धार्थलक्षणी, न पुनर्ऋषभदत्तदेवानन्दास्वरूपौ' तावदेव तत्परिमाणमेव, न पुनरधिकं विरतावभिष्वङ्गाचेत्थमुक्तमवधारणम्, एतच्चाधिवत्स्यामीति क्रियाविशेषणम्। अधिवत्स्यामि अध्यासिष्ये, गृहान् गेहम् 'गृहशब्दो हि पुंल्लिङ्गो बहुवचनान्तोऽप्यस्तीति।" अथवा-राजत्वाद् बहुगृहाधिपतित्वमनेनदर्शितम्। अहमपि न केवल पितरौ गृहानधिवत्स्येत इत्यपिशब्दार्थः / इष्टमिच्छा, तदाश्रित्याऽधिष्ठितः, इच्छया स्वच्छन्दतया, न पुनः पारवश्येनेति भावः / ननुतावन्तं कालं चारित्रमोहनीयकर्मविशेषोदये सति तस्य गृहावस्थानम्, अन्यथा वा? तत्र यद्याद्यः पक्षः, तदा कर्मविशेषोदय एव तत्रावस्थानकारणं, नाभिग्रहग्रहणं, तत् किं तद् ग्रहणेन? अथवाचारित्रमोहनीयविशेषोदयाभाव इति पक्षः / तदप्यसङ्गतम् / मोहकर्मविशेषोदयाभावे विरतेरेव भावेन गृहावस्थानासम्भवात् व्यर्थमेवाभिग्रहकरणम् ? अत्रोच्यते-मोहनीयविशेषोदय एव तत्र तस्यावस्थानं, किं तु तत्कर्मणः सोपक्रमत्वेन पित्रुद्वेगनिरासाऽऽद्यवलम्बनाभिग्रहानङ्गीकरणे विरतेरेव भावान्न गृहावस्थानहेत्वभिग्रहकरणमसङ्गतम्। उच्यते च सोपक्रमता कर्मणाम / यदाह--"उदयक्खयखउवसमो-वसमा ज चेह कम्मुणो भणिया। दव्वं खित्तं कालं, भवं च भावं च तं पप्प // 1 // " इति / इहोक्तविशेषणाभिग्रहलक्षणं भावमाश्रित्य चारित्रमोहोदयः, तदभावलक्षणं च भावमाश्रित्य तत्क्षयोपशम इति न व्यर्थमभिग्रहकरणमिति। ननूक्तभिग्रहकरणात् पित्रु गनिरासो महतां च स्थितिसिद्धिरिति सङ्गतम्. यत्पुनरिष्टकार्यसमृद्धिरिति, तदसाम्प्रतम्, गृहावस्थान-स्य प्रव्रज्याविरोधित्वादित्यस्यामाशङ्कायामाहइमौ शुश्रूषमाणस्य, गृहानावसतो गुरू। प्रव्रज्याऽप्यानुपूर्ये ण, न्याय्याऽन्ते मे भविष्यति / / 5 / / इमो प्रत्यक्षाऽऽसन्नी, गुरू इति संबन्धः / शुश्रूषमाणस्य परिचरतो, मे इतियोगः / तथा-तच्छुश्रूषणार्थमेव गृहान गेहमावसतोऽधितिष्ठतः सतः, गुरू मातापितरौ, प्रव्रज्याऽपि चिकीर्षितानगारिताऽपि, आस्तां पित्रु गनिरासाऽऽदि, आनुपूर्वेण परिपाट्या, न्याय्यान्यायोपपन्ना, युक्तेत्यर्थः / अन्ते गुरुशुश्रूषावसाने एव, मे मम, भविष्यति संपत्स्यते // 5 // कुत एतदेवमित्याह सर्वपापनिवृत्तिर्यत्,सर्वथैषा सतां मता। गुरूद्वेगकृतोऽत्यन्तं, नेयं न्याय्योपपद्यते // 6 // सर्वपापनिवृत्तिरशेषसावधानुष्ठानव्युपरतिः, यद्यस्मात्सर्वथा सर्व : प्रकारनिमित्ताभविनापीत्यर्थः, एषा प्रव्रज्या, सतां विदुषां, मता इष्टा. इह तस्मादिति शेषो दृश्यः / तस्माद्गुरूद्वेगकृतो मातापितृचित्तसन्तापकारिणः, अत्यन्तमतिशयेन, तत्संबोधनपूर्वकं शास्त्रोक्ततत्संबोधनोपायाप्रयोगपूर्वकं वा प्रवृत्तस्य, न नैव, इयं प्रव्रज्या, न्याय्या युक्ता, उपपद्यते घटते, पितृसंतापरक्षयो पायाप्रवृत्तत्वेन निमित्तभावेन तचित्तसंतापलक्षणपापकारित्वात्तस्येति। परिहर्तव्यश्च तचित्तसंतापः / यदाह- "अपडिबुज्झमाणे कहिं वि पडिबोहिज्जा अम्मापियरो।" प्रव्रज्याऽभिमुखीकुर्वीतत्यर्थः / “अपडिबुज्झमाणेसु य कम्मपरिणईए विहएजा जहासत्ति तदुवगरणं, तओ अणुन्नाए पडिवजिज्ज धम्म।" अथ नानुजानीतस्तदा''अणुवहे चेव उवहिजुत्ते सिया।" अल्पायुरहमित्यादिकां मायां कुर्यादित्यर्थः / एवमुपायप्रवृत्तमपि यदा न मुत्कलयतः, तदा तौ त्यजेत्। नच तो त्यजतस्तचित्तसंपातेऽपि तस्य दोषः, विशुद्धभावत्वात् / यदाह-सव्वहा अपडिवुज्झमाणे वएजा अदाणे गिलाणओ सव्वत्थ चागनाएण।" यथाऽध्वनिग्लानीभूतयोः पित्रोरौषधार्थ गच्छतः तत्त्यागोऽत्याग एवभावतः, एवं तयोः स्वस्यान्येषां चोपकाराय प्रव्रजत इति ज्ञातभावना / अत एव–'सोयणमचंदण बिलवण च तं दुक्खिओ तओ कुणइ / सेवइ जं च अकजं, तेण विणा तस्स सो दोसो।।१।।' इत्यादिकमाक्षिष्यैवं परिहृतम्-"अब्भुवगमेण भणिय, न उ विहिचागो पि तस्स हेउत्ति। सोगाइम्मि वितेसिं, मरणे व्य विसुद्धचित्तस्स / / 1 / / " क्वचित् पठ्यते-"सर्वपापनिवृत्तिा।" इति। तत्र व्याख्येयम् सर्वथा सर्वपापनिवृत्तिरेषां सतां मता, गुरूद्वेगकारिणश्चात्यन्तं नेयं सर्वपापनिवृत्तिाय्योपपद्यत इति।। कस्मादेवमित्याहप्रारम्भमङ्गलं ह्यस्याः , गुरुशुश्रूषणं परम्। एतौ धर्मप्रवृत्तानां, नृणां पूजाऽऽस्पदं महत्।।७।। प्रारम्भमङ्गलमादिमङ्गलं, हिर्यस्मात्, अस्याः प्रव्रज्यायाः, गुरुशुश्रूषणं मातापितृपरिचरण परं प्रकृष्ट, भावमङ्गलमित्यर्थः / प्रारम्भमङ्गलतैवास्य कुतः? इत्याह-एतौ गुरू धर्मप्रवृत्तानां मोक्षहेतुसदनुष्ठानसमुपस्थिताना, नृणां पुंसां, नृग्रहणं च प्रधानतया तेषां, न तु तदन्यव्यवच्छेदार्थम् / पूजाऽऽस्पदमर्हणापदम्, महद् गुरुकम्।यदाह-"इह मातापितृपूजा, आमुष्मिकयोगकारणं ज्ञेया। तदनुज्ञया प्रवृत्तिः, प्रधानदीक्षाविधानार्थम् // 1 // " पूजाऽऽस्पदत्वमेव समर्थयन्नाहस कृतज्ञः पुमान् लोके, स धर्मगुरुपूजकः। स शुद्धधर्मभाक् चैव, य एतौ प्रतिपद्यते // 8|| स इति। य एतौ प्रतिपद्यते स एव कृतज्ञः पितृकृतोपकारज्ञाता, पुमान्नरः, लोके लौकिकमार्गे , तथा स एव धर्मगुरोर्दीक्षाचार्यस्य, पूजकः पूजयिता धर्मगुरुपूजकः, भविष्यतीति गम्यते / नान्यः / यदाह-''उपकारीति पूज्यः स्याद, गुरू चाऽऽद्योपकारिणौ। तावप्यर्चयते यो न, स हि धर्मगुरु कथम्? / 1 / " तथा स इति / स एव शुद्धधर्मभाक् निर्दोषकुशलधर्मभाजनं भवति। चशब्दः समुचये। एवशब्दोऽवधारणे। तस्य च दर्शितः प्रयोगः / यः पुमान् एतौ मातापितरौ प्रतिपद्यते सेवनतोऽङ्गीकरोति।
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________________ तित्थयर 2288 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर - - दुष्प्रतिकारित्वात्तयोः / आह च--''दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् / तत्र गुरुरिहामुत्र च, सुदुष्करतरप्रतीकारः।।१।।" / / 8 / / हा०२५ अष्ट। (66) अथ जिनानामसामान्यार्थो , विशेषार्थश्च कथ्यते-- वयधुरवहणा उसहो, उसहाऽऽइमसुविणलंछणाओ य। रागाइजिओ अजिओ, न जिया अक्खेसु पिउणंऽबा |6| (वयधुरवहणा उसहो) व्रतरूपा धुरा व्रतधुरा, तद वहनाद वृषभः पलीवर्दः, तर्हि ईदृशाः सर्वजिना वर्तन्ते, भगवति वृषभे को विशेषः? इत्याशङ्कायां विशेषार्थमाह-(उसहाइमसुविणलंछणाओ यत्ति) जनन्या मरुदेव्या स्वामिन्या चतुर्दशस्वप्नेषु प्रथमं वृषभदर्शनात्, च पुनः, वृषभलाञ्छनाद्वा वृषभः१ / (रागाइजिओ अजिओ त्ति) रागाऽऽदिभिरजितो न पराजित इति अजितः 2 / एवंविधाः सर्वेऽपि,अजितजिन को विशेषः? (न जिया अवखेसु पिउणऽबा) भगवति गर्भस्थिते न जिता अक्षेषु पाशयग्रीडासु जिनजनकेन अम्बा जिनमाता। इति गाथार्थः / / 6 / / सुहअइसयसंभवओ, तइओ भुवि पउरसस्ससंभवओ। अभिमंजिइ तुरिओ, हरीहिँ हरिणा सया गब्भे / / 10 / / (सुहअइसयसंभवओ तइओ) शुभाऽतिशयसंभवतस्तृतीयः 3 / ईदृशाः सर्वे,संभवे को विशेषः?-(भुवि पउरसस्ससंभवओ) भुवि पृथिव्यां प्रचुरसस्यस्य बहुधान्यस्य संभवतः संभवजिनः३ / (अभिनंदिजइ तुरिओ हरीहिं ति) अभि सामस्त्येन नन्द्यते चतुष्षष्टिदेवेन्द्रैः स्तूयते इति तुर्योऽभिनन्दनः 4 / एवंविधाः सर्वे जिनाः, ततोऽस्य विशेषार्थमाह(हरिणा सया गब्भे ति) देवेन्द्रेण सदा गर्भे गर्भस्थे सति, अभिनन्द्यते इति पूर्वोक्तमेवानुवर्तनीयमिति गाथाऽर्थः / / 10|| सयमवि सुहमइभावा, अंबाइ विवायभंगओ सुमई। अमलत्तापउमपहो, पउमप्पहअंकसेजमोहलओ।।११।।। (सयमवि सुहमइभावा) स्वयमपि शुभमतेर्भावात्सद्भावात् सुमति 5 (अंबाइ विवायभंगओ सुमइ त्ति) अम्बाया विवादभङ्गतः सुमतिरभूदिति जिनस्य सुमतिरिति नाम / अत्रैकः सामान्यार्थे, सर्वजिनसाधारणत्वात्,द्वितीयो विशेषार्थश्चेति सर्वत्रापि ज्ञेयम्।। (अमलत्ता पउमपहो त्ति) अमलत्वात् निर्मलत्वात् पद्मप्रभः६(पउमप्पहअंकसेज्जमोहलओ त्ति) पद्मस्येव प्रभा यस्यासौ पद्मप्रभः, रक्तवर्णत्वात्, पद्माङ्कत्वात्पडाप्रभः, तथा स्वामिनि गर्भस्थेजनन्याः पद्मशय्याया दोहदः समुत्पन्नः, देवतया पूरितः, अतः पद्मप्रभः६। इति गाथार्थः / / 11 / / सुहपासो य सुपासो, गब्भे माऊइ तणुसुपासत्ता। सियलेस्सो चंदपहो, ससिप्पहापाणमोहलओ।।१२।। (सुहपासोय सुपासो) शोभनानिपार्वाणि यस्यासौ सुपार्श्वः 7 / (गब्भे माऊइ तणुसुपासत्ता) स्वामिनि गर्भस्थे मातुस्तनुः सुपार्धा जाता, अतः सुपार्चः 7 / (सियलेस्सो चंदपहो त्ति) सितलेश्यः शुक्ललेश्यस्तेन चन्द्रप्रभः 8 / (ससिप्पहापाणमोहलओ त्ति) भगवन्मातुः चन्द्रप्रभा शशिद्युतिस्तत्पानदोहदतो वा चन्द्रप्रभः। इति गाथार्थः // 12 // सुहकिरियाए सुविही, सयं पि जणणी वि गब्भकालम्मि। जयतावहरो सियलो, अंबाकरफाससमियपिउदाहो।१३। (सुहकिरियार सुविही सयं पित्ति) स्वयमपि शुभक्रियाः करोति यस्मात् कारणात् सुविधिः / (जणणी वि गब्भकालम्मि) जिन-जनन्यपि गर्भकाले गर्भसमये सुविधिः-सा सम्यगाचारे रता जाता अतः सुविधिरिति जिनस्य नाम दत्तमह / (जयतावहरो सिअलो त्ति) जगत्तापहरः, अत: शीतलः१०। (अंबाकरफाससमिअपि-उदाहो त्ति) अम्बायाः जनन्याः करस्पति गमितः जनकदाधज्वरो येन स तथा इति शीतल्: 10 / इति गाथार्थः / / 13 / / सेयकरो सिजंसो, जणणीए देविसिज्जअक्कमणा। सुरहरिवसुहिं पुज्जो, पिउसमनामेण वसुपुज्जो // 14|| (सेयकरो सिजंसो) श्रेयस्करः कल्याणकारी, तेन श्रेयांसः 11 / (जणणीए देविसिज्ज अक्कमणा) भगवति गर्भस्थे जनन्या देव्यधिष्ठितशय्याया आक्रमणात् / श्रेयासदेवताऽधिष्ठिता शय्यः पूर्वमभूत् केनाप्याक्रमितुमशक्या, तया जिनजनन्या गर्भानुभावतः सा शय्याऽऽक्रान्ता, श्रेयश्च जातमिति श्रेयांसः 11 (सुरहरिवसु हिं पुजो) सुरैर्देवैर्हरिभिरिन्द्रैर्वसुभिर्देवविशेषैः पूज्यः, स एव वासुपूज्यः 12, (पिउसमनामेण वसुपुजो त्ति) पितृसमाननाम्ना वा वासुपूज्य:१२। इति गाथार्थः // 14 // विमलो दुहा गयमलो, गब्भे माया वि विमलबुद्धितणू। नाणाइअणंतत्ता-उणंतोऽणंतमणिदामसुविणओ॥१५॥ (विमलो दुहा गयमलो त्ति) विमलो द्विधा गतमलो बाह्यान्तरमलरहितः तेन विमलः 13, (गब्भे माया वि विमलबुद्धितणु ति) स्वामिनि गर्भस्थिते माता जनन्यपिनिर्मलबुद्धिशरीरा जाता इति हेतोविमल: 13 / (नाणाइअणंतत्ताऽणतो त्ति) ज्ञानदर्शनचारित्राणामानन्त्यतः-अनन्तः 14 (अणंतमणिदामसुविणओ त्ति) अनन्तं महत्प्रमाण यन्मणिदाम तत्स्वप्नतो वा अनन्तः 14 / इति गाथार्थाः / / 15 / / धम्मसहावा धम्मो, गब्भे माया वि धम्मिया अहियं / संतिकरणा उसंती, देसे असिवोवसमकरणा।।१६।। (धम्मसहावा धम्मो) धर्मस्वभावाद् धर्मजिनः / (गब्भमाया वि धम्मिया अहिय ति) भगवति गर्भस्थिते माताऽपि धार्मिकाऽधिकं जाता इति हेतोः धर्मजिनः 15 // (सतिकरणा उसंती) शान्तिकरणात् शान्तिः 16 / (देसे असिवोवसमकरणा) तस्मिन् देशे अशिवस्योपद्रवस्योपशान्तिकरणाद्वा शान्तिः 16 / इति गाथार्थः / / 16 / / कुंथु त्ति महीइ ठिओ, भूमिठिअरयणथूभसुविणाओ। वंसाइबुड्डिकरणा, अरो महारयणअरसुविणा।।१७।। (कुथु त्ति महीइ ठिओ त्ति) कौ पृथिव्यां स्थितवानिति निरुक्तात् कुन्थुः / (भूमिटिअरयणथूभसुविणाओ) भूमिकास्थितरत्नस्तूपस्वप्नात् कुन्थुः 17 (वसाइबुड्डिकरणा अरो त्ति) वंशाऽऽदिवृद्धिकरणात् अरः 18 / (महारयणअरसुविणा) महारत्नाऽरकस्वप्नादरोऽरजिनः 18 / इति गाथार्थः // 17 // मोहाईमल्लजया, मल्ली वरमल्लसिज्जमोहलओ। मुणिसुव्वओ जहत्था-मिहो तहंऽबा वि तारिसी गब्भे / 18 / (मोहाईमल्लजया मल्लि ति) मोहाऽऽदिमल्लजयाद् गल्लिः, अवार्पत्यादिकार: 16 / (वरमल्लसिजमोहलओ त्ति) कमाल्यशय्यायाः
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________________ तित्थयर 2286 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर प्रधानपुष्पशय्याया दोहदाद्वा मल्लिः 16 / (मुणिसुव्वओ जहत्थाऽ- | मिहोत्ते) मुनिसुव्रतः यथार्थाभिधो यथार्थनामामन्यते जगतस्विकालावस्थामिति मुनिः, सुष्ठ व्रतान्यस्येति सुव्रतः, ततो मुनिश्चासौ सुव्रतश्चेति, मुनिवत् सुव्रतो मुनिसुव्रत इति वा 20 (तहऽबा वि तारिसी गब्भे त्ति) तथाऽभ्याऽपि माताऽपि, भगवति गर्भस्थे सति मुनिवत् सुव्रता जातेति मुनिसुव्रतः 20 / इति गाथार्थः।१८।। रागाऽऽइनामणेणं, गब्भे पुररोहिनामणा उ नमी। दुरियतरुचक्कनेमी-ऽरिट्ठमणिनेमिसुविणाओ।।१६।। (रागाऽऽइनामणेणं) रागद्वेषाऽऽदिशत्रूणां नामनेन नम्रीभूतत्वकरणेन नमिः “गम्भे पुररोहिनामणा उ नमि त्ति) गर्भे पुररोधिनामनान्नमिः / अयमर्थ:-भगवति गर्भस्थे प्रत्यन्तनृपैरवरुद्ध नगरे भगवत्सुपुण्यशक्तिप्ररितां प्राकारोपरि स्थितां भगवन्मातरमवलोक्य ते वैरिणो नृपाः प्रणता इति नमिः 21 / (दुरियतरुचक्कनेमि त्ति) दुरितानि पापानि तद्रूपास्तरवस्तद्विषय चक्रनेमिः चक्रधारा, अतो नेमिः / (ऽरिट्टमणिनेमिसुविणाओ त्ति) भगवन्मात्रा स्वप्नेऽरिष्टरत्नमयो नेमिदृष्टरस्तेन ‘‘पदैकदेशे पदसमुदायात्" अरिष्टनेमिः 22 // इति गाथार्थः / / 16 / / भावाण पासणेणं, निसि जणणीसप्पपासणा पासो। नाणाइधणकुलाऽऽईण वद्धणा वद्धमाणो णं / / 20 / / (भावाण पासणेणं) सकलसंसारवर्तिनां भावानां पदार्थानां दर्शनेनाऽवलोकनेन पार्श्वः / (निसि जणणीसप्पपासणा पासो त्ति) निशि रात्रौ जनन्या शय्यासमीपे व्रजन् सर्पोऽवलोकित इति पार्श्वः 23 / (नाणाइधणकुलाईण वद्धणा बद्धमाणो त्ति) ज्ञानदर्शनचारित्राणां वर्द्धनाद् धनकुलाऽऽदीनां च वर्द्धनतो वर्द्धमानः / अत्र ज्ञानाऽऽदीनां वर्द्धनाद् वर्द्धमान इति सामान्यार्थः। कुलधनाऽऽदीनां वर्द्धनाद्वर्द्धमान इति विशेषार्थश्च 24 / इति गाथार्थः / 20 / अथ वीर इति नामापेक्षया सामान्यविशेषार्थमाहअहवा भावारिजया, वीरो दुट्ठसुरवामणीकरणा। सामन्नविसेसे हिं, कमेण नामत्थदारदुर्ग / / 21 / / (अहवा भावारिजया वीरो त्ति) अथवा भावारीणामन्तरङ्गाऽऽरीणा जयाद् वीरः 24 / (दुट्ठसुरवामनीकरण त्ति) आमलकीक्रीडाया दुष्टसुरवामनीकरणाद्वीरः 24 / (सामनविसेसेहिं ति) सामान्यविशेषाभ्यां क्रमेणानुक्रमेण (नामत्थदारदुर्ग) नामार्थेन नाम्नोऽर्थद्विकेन द्वारद्विकं ज्ञेयमिति गाथार्थः / / 21 / / सत्त०४०-४१ द्वार। चतुर्विशन्तिः "एतस्यामवसर्पिण्यामृषभोऽजितशंभवौ। अभिनन्दनः सुमतिस्ततः पद्मप्रभाभिधः // 26 // सुपार्श्वश्चन्द्रप्रभश्च, सुविधिश्चाऽथ शीतलः। श्रेयांसो वासुपूज्यश्व, विमलोऽनन्ततीर्थकृत्॥२७॥ धर्मः शान्तिः कुन्थुररो, मल्लिश्च मुनिसुव्रतः। नमिर्नेमिः पाॉ वीरश्चतुर्विशतिरर्हताम् // 28 // पुनरपिगाथार्थराहएतस्यामिति वर्तमानायामवसर्पिण्या दशसागरोपमकोटीकोटिप्रमाणाया कालविशेषे, ऋषति गच्छति परमपदमिति 'ऋषिवृषिलुसिभ्यः कित्" ।।(उणा० 331) इत्यभे ऋषभः / यदा-ऊर्वोवृषभलाञ्छनमभूदगवतो जनन्या च चतुर्दशानां स्वप्नानामादा-वृषभो दृष्टस्तेन ऋषभः / / 1 / / परीषहाऽऽदिभिर्न जित इति अजितः। यद्वा गर्भस्थेऽस्मिन् द्यूते राज्ञा जननी न जितेत्यजितः / / 2 / / शं सुख भवत्यस्मिन् स्तुते शंभवः / यदा-गर्भगतेऽप्यस्मिन्नभ्यधिकसस्यसंभवात् संभवोऽपि / / 3 / / अभिनन्द्यते देवेन्द्राऽऽदिभिरित्यभिनन्दनः / भुज्यादित्वादनट् / यद्वा-गर्भात्प्रभृत्ये व अभीक्षण शक्रेणाऽभिनन्दनादभिनन्दनः // 4 // शोभना मतिरस्य सुमतिः / यद्वागर्भस्थे जनन्याः सुनिश्चिता मतिरभूदिति सुमतिः // 5 // निष्पकतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभाऽस्य पद्मप्रभः। यद्वा-पद्मशयनदोहदो मातुर्देवतया पूरित इति, पद्मवर्णश्च भगवानिति वा पद्मप्रभः // 6 // 26 // शोभनौ पावविस्य सुपार्श्वः / यद्वा-गर्भस्थे भगवति जनन्यपि सुपाश्वाऽभूदिति सुपार्श्वः // 7 // चन्द्रस्येव प्रभा ज्योत्स्ना सौम्यलेश्याविशेषोऽस्य चन्द्रप्रभः / तथा गर्भस्थे देव्याः चन्द्रपानदोहदोऽभूदिति चन्द्रप्रभः ||8|| शोभनो विधिविधानमस्य सुविधिः / राद्वा- गर्भस्थे भगवति जनन्यप्येवमिति सुविधिः / / 6 / / सकलसत्त्वसन्तापहरणात् शीतलः / तथा गर्भस्थे भगवति पितुः पूर्वोत्पन्नाऽचिकित्स्यपित्तदाहो जननीकरस्पर्शादुपशान्त इति शीतलः / / 10 / / श्रेयांसावंसावस्य श्रेयांसः, पृषोदराऽऽदित्वात् / यथा-- गर्भस्थेऽस्मिन् केनाप्यनाक्रान्तपूर्वा देवताऽधिष्ठितशय्या जनन्याऽऽक्रान्तेति श्रेयो जातमिति श्रेयांसः / / 11 / / वसुपूज्यनुपतेरयं वासुपूज्यः / यद्वा-गर्भस्थेऽस्मिन् वसु हिरण्य, तेन वासवो राजकुलं पूजितवानिति / वसवो देवविशेषाः / तेषां पूज्यो वा वसुपूज्यः, प्रज्ञाऽऽद्याणि वासुपूज्यः / / 12 / / विगतो मलोऽस्य, विमलज्ञानाऽऽदियोगाद्वा विमलः / यद्वा-गर्भस्थे मातुर्मतिस्तनुश्च विमला जातेति विमलः / / 13 / / न विद्यते गुणानामन्तोऽस्यानन्तः, अनन्तजिदेकदेशो वा अनन्तः, "भीमो भीमसेनः" इति न्यायात्। स चासौ तीर्थकृच अनन्ततीर्थकृत् / / 14 / 27 / / दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्त्वसङ्घातं धारयतीति धर्मः / तथा गर्भस्थे जननी दानाऽऽदि-धर्मपरा जातेति धर्मः // 15 // शान्तियोगात्तदात्मकत्वात्तत्कर्तृकत्वाचाऽयं शान्तिः। तथा गर्भस्थे पूर्वोत्पन्नाऽशिवशान्ति-रभूदिति शान्तिः // 16|| कुः पृथ्वी तस्यां स्थितवानिति कुन्थुः, पृषोदराऽऽदित्वात्।तथा गर्भस्थे भगवति जननी रत्नानां कुन्थुराशिं दृष्टवतीति कुन्थुः / / 17|| "सर्वो नाम महासत्त्वः, कुले य उपजायते / तस्याऽभिवृद्वये वृद्ध-रसावर उदाहृतः।।१।।" इति वचनादरः / तथा गर्भस्थे भगवति जनन्या स्वप्ने सर्वरत्नमयोऽरो दृष्ट इत्यरः / / 18 / / परीषहाऽऽदिमल्लजयान्निरुक्तान्मल्लिः / तथा-गर्भस्थे भगवति मातुःसुरभिकुड्कुममाल्यशयनीय दोहदो देवतया पूरित इति मल्लिः // 16 // मन्यते जगतस्विकाला-वस्थामिति मुनिः, "मनेरुदेतौ चास्य वा" / / (उणा०६१२) इति इप्रत्यये उपान्त्यस्योत्यं, शोभनानि व्रतान्यस्य सुव्रतः, मुनिश्वासौ सुव्रतश्च मुनिसुव्रतः। तथा गर्भस्थेजननी मुनिवत् सुव्रता जातेति मुनिसुव्रतः॥२०॥ परीषहोपसर्गाऽऽदिनामनात् "नमेस्तुवा" ॥(उणा०६१३) इति विकल्पेनोपान्त्यस्येकाराभावपक्षे नमिः। यद्वा-गर्भस्थेभगवति परचक्रनृपैरपि प्रणतिः कृतेति नमिः // 21 // धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः; नेमीतीन्नन्तोऽपि दृश्यते / यथा- ''वन्दे सुव्रतनेमिनौ / " इति // 22 // स्पृशति ज्ञानेन सर्वभावानिति पार्श्वः। तथा-गर्भस्थे जनन्या निशि शयनीयस्थयाऽन्धकारे सर्पो दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयमिति मत्वा पश्यतीति निरुक्तात् पार्श्वः, पायो-ऽस्य वैयावृत्त्यकरो यक्षः, तस्य नाथः पार्श्वनाथः, "भीमो भीमसेनः" इति न्यायाद् वा पार्श्वः // 23 // विशेषेण ईरयति प्रेरयति कर्माणीति वीरः |24|| इत्यभिधानचिन्तामणौ श्रीहेमचन्द्रसूरयः।
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________________ तित्थयर 2260 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर निशिभक्तम्मूलगुणेसुं दुण्हं, सेसाणुत्तरगुणेसु निसि भुत्तं (287) द्वयोर्जिनयोः ऋषभ१वीरयोः२४ शासने, मूलगुणेषु निशि भोजनप्रत्याख्यानम्, (सेसाणुत्तरगुणेसु निसि भुत्त) शेषाणां द्वाविंशतिमितानां जिनानामुत्तरगुणेषु निशि भोजनप्रत्याख्यानम् / सत्त० 134 द्वार। प्रकीर्णकानि.................. सव्वेसि पइन्नगा ससीसकया। नियनियसीसपमाणा, नेया................)२७०) सर्वेण जिनानां प्रकीर्णकानि स्वशिष्यकृतानि भवन्ति निजनिजशिष्यप्रमाणानि, येषां जिनानां यावन्तः शिष्यास्तेषां तावत्प्रमाणानि प्रकीर्णकानि ग्रन्थविशेषा ज्ञेयाः / सत्त० 124 द्वार ! (67) पञ्चकल्याणकम्पउमप्पभेणं अरहा पंच चित्ते होत्था। तं जहा-चित्ताहिं चुए, चइत्ता गम्भं वकते, चित्ताहिं जाए, चित्ताहि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, चित्ताहिं अणंते अणुत्तरे णिव्वा-घाए निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, चित्ताहिं परिनिव्वए।।१।। पुप्फदंते णं अरहा पंच मूले होत्था। मूलेणं चुए, चइत्ता गब्भं वकते एवं चेव। एएणं अभिलावेणं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ"पउमप्पभस्स चित्ता, मूले पुण होइ पुप्फदंतस्स / पुव्वाऽसाढा सीयल-स्स उत्तरा विमलस्स भद्दवया।।१।। रेवइ य अणंतजिणो, पूसो धम्मस्स संतिणो भरणी। कुंथुस्स कत्तियाओ, अरस्स तह रेवईओ य / / 2 / / मुणिसुव्वयस्स सवणो, आसिणि नमिणो य नेमिणो चित्ता। पासस्स विसाहाओ, पंच य हत्थुत्तरे वीरो॥३॥" समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था। तं जहा-हत्थुत्तराहिं चुए, चइत्ता गब्भं वकंते, हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गभं साहरइ, हत्थुत्तराहिं जाए, हत्थुत्तराहिं मुंडे भवित्ता०जाव पव्वइए, हत्थुत्तराहिं अणंते अणुत्तरे०जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने। पद्मप्रभ ऋषभाऽऽदिषु षष्ठः, पञ्चसु च्यवनाऽऽदिदिनेषु चित्रानक्षत्रविशेषो यस्य स पश्चचित्रः, चित्राभिरिति रूढ्या बहुवचनम् / च्युतोऽवतीर्ण उपरिमोपरिमग्रैवेयकादेकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकात, च्युत्वा च (गल्भं ति) गर्भ कुक्षौ व्युत्क्रान्त उत्पन्नः कौशाम्ब्यां धराभिधानमहाराजभार्यायाः सुसीमानामिकायाः माघमासबहुलषष्ठ्या, जातो गर्भनिमिन कार्तिकबहुलद्वादश्या, तथा मुण्डो भूत्वा केशकषायाऽऽद्यपेक्षया, अगारान्निष्क्रम्यानगारितां श्रमणतां प्रव्रजितो गतोऽनगारतया च प्रव्रजितः कार्तिकशुद्धत्रयोदश्या, तथाऽनन्तं पर्यायानन्तत्वात्, अनुत्तर सर्वज्ञानोत्तमत्वात्, नियाघातमप्रतिपातित्वात्, निरावरण सर्वथा स्वावरणक्षयात्, कटकुड्याऽऽद्यावरणाभावाद्वा, कृत्स्नं सकलप दार्थविषयत्वात्, परिपूर्ण स्वावयवापेक्षयाऽखण्ड पौर्णमासचिन्द्रविम्बवत्। किमित्याह- केवलं ज्ञानान्तरासहायत्वात्, संशुद्धत्वाद्वा। अत एव वरं प्रधानं केवलवर, ज्ञानं च विशेषावभासं दर्शनं च सामान्यावभास ज्ञानदर्शनं, तच तचेति केवलवरज्ञानदर्शनं,समुत्पन्नं जातम, चैत्रशुद्धपञ्चदश्याम् / तथा परिनिर्वृतो निर्वाणं गतः, मार्गशीर्षबहुलैकादश्यान्। आदेशान्तरेण फाल्गुनबहुलचतुर्थ्यामिति। (एवं चेव त्ति पद्मप्रभसूत्रमिद पुष्पदन्तसूत्रमप्ययेतव्यम्, एव-मनन्तरोक्तस्वरूपेण। एतेनानन्तरत्वात्प्रत्यक्षेणाभिलापेन सूत्रपाठेनेमास्तिस्रः सूत्रसंग्रहणिगाथा अनुगन्तव्या अनुसतव्याः शेषसूत्राभिलापनिष्पादनार्थम्। (पउमप्पगरसेत्यादि) तत्र पद्मप्रभस्य चित्रानक्षत्रं च्यवनाऽऽदिषु पञ्चसु स्थानकेषु भवतीत्यादिगाथाक्षरार्थो वक्तवयः, सूत्राभिलापस्त्वाद्यसूत्रद्वयस्य साक्षाद्दर्शित एव। इतरेषां त्वेवम्-"सीयले णं अरहा पंच पुव्वासाढे हो था / तं जहापुव्वासाढाहिं चुए.चइत्ता गम्भं वळते, पुव्वासाढाहिं जाए।' इत्यादि। एवं सर्वाण्यपीति। व्याख्या त्वेवम्-पुष्पदन्तो नवमतीर्थकर आनतकल्पादेकोनविंशतिसागरोपमस्थितिकात् फाल्गुनबहुल-नवम्यां मूलनक्षत्रे च्युतः, च्युत्वा काकन्दीनगर्या सुग्रीवराजभार्यायाः रसमाभिधानायाः गर्भत्वेन व्युत्क्रान्तो मूलनक्षत्रे मार्गशीर्ष-बहुलपञ्चम्यां जातः, तथा मूल एव ज्येष्ठशुद्धप्रतिपदि, मतान्तरेण-मार्गशीर्षबहुलषष्ट्या, निष्क्रान्तः। तथा मूल एव कार्तिकशुद्धतृतीयायां केवलज्ञानमुत्पन्नम्। तथाऽश्वयुजः शुद्धनवम्याम, आदेशान्तरेण-वैशाखबहुलषष्ठ्यां, निवृत इति / तथा शीतलो दशमजिनः प्राणतकल्पाविंशतिसागरोपमस्थितिकाद्वैशाखबहुलषष्ठयां पूर्वाषाढानक्षत्रे च्युतः, च्युक्त्वा च भविलपुरे दृढरथनृपति-- भाया नन्दायाः गर्भतया ब्युत्क्रान्तः, तथा पूर्वापाढास्वेव माघ-बहुलद्वादश्यां जातः, तथा पूवाषाढास्वेव माघबहुलद्वादश्यां निष्क्रान्तः, तथा पूर्वाषाढास्वेव पौपस्य शुद्धे, मतान्तरेणबहुलपक्षे, चतुर्दश्या ज्ञानभुत्पन्नम, तथा तत्रैव नक्षत्रे श्रावणशुद्धपञ्चम्या, मतान्तरणे-श्रावणबहुलद्वितीयायां, निर्वृत इति / एवं गाथात्रयोक्तानां शेषाणामपि सूत्राणां प्रथमानुयोगपदानुसारेणोपयुज्य व्याख्या कार्या। नवरं चतुर्दशसूत्रेऽभिलापविशेषोऽस्तीति तद्दर्शनार्थमाह-(समणे इत्यादि) हस्तोपलक्षिता उत्तरा हस्तोत्तरा, हस्तो वोत्तरो यासां ता हस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः, पञ्चसु च्यवनगर्भहरणाऽऽदिषु हस्तोत्तरा यस्य स तथा, गर्भात गर्भस्थानात्। (गभ ति) गर्भे गर्भस्यानान्तरे संहृतो नीतो, निर्वृतस्तु स्वातिनक्षत्रे कार्तिकामावास्यायामिति / स्था०५ ठा०१उ०। (68) पर्यायान्तकृद भूमिःतेसिं चिय नाणाओ, मुणीण गयकम्मयाण सिद्धिगमो। अंतमुहुत्ते दुतिचउ-वरिसेसुं इगदिणाईसु॥३२४॥ तेषामृपभनेमिपावन्तिमशेषाणां केवलज्ञानाद् मुनीनां गतकर्मकाणां सिद्धिगमो मोक्षगमनं संजातम्। ऋषभजिनस्य केवलोत्पत्त्यनन्तरमन्तमुहूर्तेन मोक्षमार्गश्चलितः, प्रथमभगवति मरुदेवी स्वामिनी मोक्षं गता१। नेमिजिनस्य केवलज्ञानाद्वर्षद्वयादनन्तरं मोक्षमार्गश्चलितः। पाजिनस्य केवलोत्पत्त्यनन्तरं वर्षत्रयेण मोक्षमार्गश्चलितः 3 / वीरजिनस्य केवलज्ञानादनन्तरं वर्षचतुष्टयादनन्तरं मोक्षमार्गश्चलितः 4 : उक्तव्यति
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________________ तित्थयर 2261 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर रिक्त जिनानां विंशतिपारगतानामेकदिनाऽऽदिषु मोक्षमार्गश्वलितः 5 / | इति गाथार्थः / / 324 / / सत्त० 156 द्वार।। अथ प्रतिक्रमणसंख्यादेसिय-राइय-पक्खिय-चउमासिय-वच्छरीयनामाओ। दुण्हं पण पडिकमणा, मज्झिमगाणं तु दो पढमा / / 386|| दैवतिक-रात्रिक-पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिकनामतः (दुण्ह पण पांडकमणा) द्वयोर्जिनयोः प्रथमचरमजिनयोः पञ्चाऽपि प्रतिक्रमणानि भवन्ति / (मज्झिमगाण तु दो पढम त्ति) मध्यवर्त्तिनां द्वाविंशतिजिनान शासने द्वे प्रथम प्रतिक्रमणे दैवसिकरात्रिकलक्षणे भवतः,नान्य इति गाथार्थः / 386 / सत्त० 133 द्वार। प्रथमगणधरनामानिएएसिंचउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पढमसीसा होत्था। तं जहा"पढमेऽत्थ उसभसेणे,बीए पुण होइ सीहसेणे य। चारूरु वनणाभे, चमरे तह सुव्वए विदब्भे य / / 36 / / दिण्णे वाराहे पुण, आणंदे गोथुभे सुभूमे य / मंदरें जसे अरिठे, चक्काउहसंवकुंभअभिणए य / / 4 / / इंदकुंभे य सुंभे,वरदत्ते अज्जदिण्ण इंदभूई य। उदितोदितकुलवंसा, विसुद्धवंसा गुणेहिँ उववेया। तित्थप्पवत्तयाणं, पढमा सिस्सा जिणवराणं / / 41 / / " पुण्डरीको वृषभसेनाऽपरनामा 1, सिंहसेनः२, चारूरु: 3, वजनाभः 4. चमरगणिः५, सुव्रतः (मतान्तरेण प्रद्योतनः) 6, विदर्भः७, दन०८ वाराहः६, आनन्दः (मतान्तरेण पद्मनन्दः)१०, कौस्तुभः (कृतार्थः) 11, सुभूमः(सुधर्मा)१२, मन्दर: 13, यशोधरः 14, अरिष्ट : 15, चक्रायुधः 16, साम्ब: 17. कुम्भः 18, अभिनयः (भिषजः 16, इन्द्रकुम्भः(मल्ली)२०,शुभ:२१, वरदत्तः 22, आर्यदत्तः२३, इन्द्रभूतिः 24 / एतानि प्रथमगणधराणां नामानि। *स०) प्रथमप्रवर्तिन्यःएएसि णं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पढमसिस्सणी होत्था। तं जहा"बंभी फग्गू सामा, अजिया तह कासवी रई सोमा। सुमणा वारुणि सुजसा, धारणि धरणी धरा पउमा।४२। अज्जा सिवा सुई दामणी य रक्खी य बंधुवई। पुप्फवई अनिला जक्खदिन्न तह पुप्फचूला य 1 // 43|| चंदणसहिअपवत्तणि, चउवीसाणं जिणवरिंदाणं / / " तत्र ब्राही. फल्गुः, श्यामा, अजिता, काश्यपी, रतिः, सोमा, सुमना, वारुणी, सुलसा (सुयशाः) धारिणी, धरणी, धरा, पद्मा, *"सिरिउसहसेण पहुसीहसेण चारूरु वजनाहऽवखा। चमरो पज्जोयवियम्भदिन्नपहुणो वराहो य॥३०६।। पउनंद कयत्थो विय, सुहम्ममंदरजसा अरिहोय। चक्काउह संबो कुंभ भिसह मल्ली य सुभो य॥३०७।। वरदत्त अजदिन्ना, तहिदभूई य गणहरा पढमा।" प्रक०८ द्वार। इति प्रवचनसारोद्वाराऽऽदौ नामभेदोऽपि / इति प्रथमगाथया चतुदेशप्रवर्तिनीनामानि। आर्या, शिवा, श्रुतिः (शुभा) दामिनी (अञ्जुका) रक्षौ (भावितारमा) बन्धुमतिनामा, पुष्पवती, अनिला (अमिला) यक्षदत्ता (यक्षिणी) तथा पुष्फचूला, चः समुच्चये, चन्दनासहितास्तु एताः प्रवर्तिन्यः। प्रव०६द्वार। प्रथमश्रावकाःसेयंस नंद सुनो, संखो उसहस्स नेमिमाईणं / (218) श्रीऋषभस्य प्रथमः श्रावकः श्रेयांसनामा: / नेमिजिनस्य नन्दः 2 / पार्श्वस्य सुद्योतः३ / शङ् खो वीरस्स 4 / शेषाणां विंशतिजिनानामप्रसिद्धाः, पुरातनग्रन्थेष्वनिबन्धनात् / सत्त० 105 द्वार। प्रथमश्राविकाःसड्डि सुभद्दा महसु-व्वया सुनंदा य सुलसा य / / (218) ऋषभस्य सुभद्रा 1 / नेमेः महासुव्रता 2 / पार्श्वस्य सुनन्दा 3 / वीरस्य सुलसा 4 / अन्येषामप्रसिद्धाः, ग्रन्थेष्वनिबन्धनात्। सत्त० 106 द्वार। प्रत्येकबुद्धमुनिसंख्यानियनियसीसपमाणा, नेया पत्तेअबुद्धा वि। (270) प्रत्येकबुद्धा अपि मुनयो निजनिजशिष्यप्रमाणा ज्ञेयाः। सत्त० 125 द्वार। ('मुणि' 'साहु शब्दे विशेषः) (प्रमाणाकुलम अंगुल' शब्दे प्रथमभागे 44 पृष्ठे निरूपितम्) प्रमादःवीरुसहाण पमाओ, अंतमुहुत्तं तहेवऽहोरत्तं / (176) वीरस्यान्तर्मुहूर्त्तमात्र प्रमादो जातः। ऋषभस्याऽहोरात्रं जातः / अन्येषां प्रमादो नास्ति / सत्त० 85 द्वार ! परीषहाःउदिता परीसहा सिं, पराइया ते य जिणवरिंदेहिं। उदिताः परीषहाः शीतोष्णाऽऽदय एषां भगवतां तीर्थकृता, परं ते परीषहाः सर्वैरपि जिनवरेन्द्रैः पराजिता: / गतं परीषहद्वारम् / आ०म०१ अ०१खण्ड। (66) अथ जिनप्रतिहार्याण्याह-- कंके ल्लि कुसुमवुट्ठी, दिव्वज्झुणिचामरासणाइं च / भावलयभेरि(दुंदुहि) छत्तं, जिणाण इय पाडिहेराई / 205 / (कंकेल्लिकुसुमबुद्दि त्ति) जिनशरीराद् द्वादशगुणः कङ्केल्लिपादपः, अशोकाऽपरपर्यायः 1 / पञ्चवर्णकुसुमानां वृष्टिः 2 / (दिव्वज्झुणि चामरासणाईच) दिराध्वनिः३, श्वेतचामराणि 4, स्वर्ण-रत्नाऽऽदिमथ सिंहासनम 5 / (भावलयभेरिदुंदुहि त्ति) भावलय मौलिपृष्ठे भामण्डलम् 6, भेरिदुन्दुभिनामा वाद्यविशेषः 7 / (छत्त) छत्रमातपत्रं जिनमस्तकोपरि 8 / (जिणाण इय पाडिहेराइ) जिनानामेतानि प्रातिहार्याण्युक्तानीति गाथार्थः // 208 / / सत्त०६६ द्वार। (तीर्थकराणा पारणकालो, पारणद्रव्याणि च 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे 1133 पृष्ठे निरूपितानि) (100) पारणदायकाःएएसि णं चउव्वीसाए तित्थगराणं च उव्वीसं पढ मभिक्खा दायारो होत्था / तं जहा
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________________ तित्थयर 2262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर "सिज्जंस बंभदत्ते, सुरिंददत्ते य इंददत्ते य। पउमे य सोमदेवे, माहिंदे सोमदत्ते य॥२६।। पुस्से पुणव्वसू पुण, णंद सुणंदे जए य विजए य। तत्तो य धम्मसीहे, सुमित्त तह वग्घसीहे अ॥२७।। अपराजिऍ दिससेणे, वीसइमो होइ उसभसेणो य। दिपणे वरदत्त धणे, बहुलो तह आणुपुव्वीए॥२८॥ एए वि सुद्धलेसा, जिणवरभत्तीइ पंजलिउडाओ। तं कालं तं समयं, पडिलाभेई जिणवरिंदे" // 26|| श्रेयासः 1, ब्रह्मदत्त२, सुरेन्द्रदत्तः 3, इन्द्रदत्तः 4, पद्मः 5, सोमदेवः 6, माहेन्द्रः 7, सोमदत्तः 8, पुष्यः६, पुनर्वसुः 10, नन्दः 11, सुनन्दः 12, जयः 13, विजयः 14, धर्मसिंहः 15, सुमित्रः 16, व्याघ्रसिंहः 17, अपराजितः 18, विश्वसेनाः 16, ऋषभसेनः 20 (पाठान्तरेब्रह्मदत्तः२०) दिन्नः 21, वरदत्तः 22 (पाठान्तरे वरदिन्नः२२) धन्यः 23. बहुलब्राह्मणः 24 / एते आनुपूर्व्या जिनानां प्रथमभिक्षादातारो ज्ञेयाः। स० पारणदायकगतिःअट्ठ य तब्भवसिद्धा, सेसा तम्मि उ भवे व तइए वा। सिज्झिस्संति सगासे, जिणाण पडिवन्नपव्वजा।।१६७।। अष्टो प्रथमदातारः तस्मिन्नेव भवे मोक्षं गताः, शेषाः षोडशजिनप्रथमदातारः तरिमन्नेव भवे तृतीये वा भवे जिनानां समीपे प्रतिपन्नप्रवाः सन्तः सेत्स्यन्ति मोक्षं यास्यन्तीति। सत्त०७८ द्वार। पारणदायकदिव्यपञ्चकम्पण दिव्वा जलकुसुमाण वुड्डि वसुहार चेलउक्खेवो / दुंदुहिझुणी सुराणं, अहो सुदाणं ति घोसणया / / 16 / / (विवरणंतु उसह' शब्दे द्वितीयभागे 1133 पृष्ठे गतम्) तत्र पारणदायकवसुधारावृष्टिःसव्वेसिं पि जिणाणं, जहियं लद्धा उ पढममिक्खा उ / तहियं वसुधाराओ, सरीरमेत्ता उ वुट्ठाओ // 32 // सर्वेषामपि जिनानां यत्र प्रथमभिक्षा लब्धा, तत्र वसुधारा (सरीरमेत्ता उत्ति) पुरुषमात्रा उच्चत्वेन देवैदृष्टा / स०। सत्ता सङ्घदुवालसकोडी, सुवन्नवुट्ठीइ होइ उक्कोसा। लक्खा सङ्घदुवालस,जहन्निया होइ वसुहारा / / 166 / / सार्द्धद्वादशकोटिस्वर्णवृष्टिश्च भवति उत्कृष्टा, सार्द्धद्वादशलक्षाणि जघन्यका भवति वसुधारा॥१६६॥ सत्त०८० द्वार। जिनानां पारणकपुराण्याहहत्थिणपुरं अउज्झा, सावत्थो तह अउज्झ विजयपुरं। बंभत्थलं च पाडलिसंडं तह पउमसंडं च / / 1611 सेयपुरं रिट्ठपुरं,सिद्धत्थ महापुरं च धन्नकडं। तह वद्धमाण सोमणस मंदिरं चेव चक्कपुरं / / 162 / / रायपुरं तह मिहिला, रायगिहं तह य होइ वीरपुरं / बारवई कोवकडं, कुल्लागं पारणपुराई / / 163 / / हस्तिनापुरम् / पाठान्तरे--गजपुरम् 1 / अयोध्या 21 श्रावस्ती 3 / / अयोध्या 4 / विजयपुरम् 5 / ब्रह्मस्थलम् 6 / पाटलिखाण्डम् / तथा पद्मखण्ड नगरम् 8 / / श्वेतपुरम् / / रिष्टपुरम् 10 / सिद्धार्थपुरम 11 / | महापुरम् 12 / धान्यकडम् 13 / वर्द्धमानपुरम् 14 / सौमनस्यम् 15 / मन्दिरपुरम् 16 / चक्रपुरम् 17 // राजपुरम् 18 / मिथिला 16 / राजगृहम् 20 / वीरपुरम् 21 / द्वारवती 22 / कोपकडं नगरम् 23 / कुल्लागः सन्निवेशः 24 / एतानि जिनानां पारणकपुराणीत्यर्थः / सत्त०७६ द्वार। (101) तीर्थकरपितृनामजंबुद्दीवेणं दीवे भारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगराणं पियरो होत्था / तं जहा-- "णाभी य जियसत्तू य, जियारी संवरे विय। मेहे धरे पइटे य, महसेणे य खत्तिए / / 5 / / सुग्गीवे दढरहे विण्हू, वसुपुजे य खत्तिए। कयवम्मा सीहसेणे, भाणूय विस्ससेण य॥६॥ सूरे सुदंसणे कुंभे, सुमिते विजए समुद्दविजए य। राया य आससेणे, सिद्धत्थे चिय खत्तिए।।७।। उदितोदितकुलवंसा, विसुद्धवंसा गुणेहिँ उववेया। तित्थप्पवत्तयाणं, एए पियरो जिणवराणं // 8 // " नाभिः१, जितशत्रुः२, जितारिः३. संवरः४. मेघः५, धरः६, प्रतिष्ठ:७, महासेनः८, सुग्रीवः 6, दृढरथः१०, विष्णुः११, वसुपूज्यः 12, कृतवर्मा 13. सिंहसेनः 14, भानुः 15. विश्वसेनः 16, सूरः 17, सुदर्शनः 18, कुम्भः 16, सुमित्रः२०, विजयः 21, समुद्रविजयः२२, अश्वसेनो राजा 23. सिद्धार्थ:२४। एते क्रमेण चतुर्विशतिरर्हता पितरः क्षत्रिया राजानः / स०। तीर्थकरपितृणां गतिःनागेसुं उसभपिआ, सेसाणं सत्त हुंति ईसाणे। अट्ठ य सणंकुमारे, माहिंदे अट्ठ बोधव्वा / / 328 // नागेषु नागकुमारेषु भवनपतिद्वितीयनिकायवर्तिषु सुरेषु श्रीऋषभनाथपिता नाभिनामा,गत इति शेषः / तथा शेषाणामजितनाथप्रभृतीनां चद्रप्रभान्ताना सप्तानां पितरो भवन्ति गता ईशाने द्वितीयदेवलोके / सैद्धान्तिकास्तु-श्रीअजितस्वामिपितुर्जितशत्रोमुक्तिगमनमाचक्षते, अनुयोगद्वाराऽऽदौ तथैव भणनात्। यदाह श्रीहेमसूरिः"राजा बाहुबलिः सूर्य-यशाः सोमयशा अपि। अन्येऽप्यनेकशः केऽपि, शिवं केऽपि दिवं ययुः / / 1 / / जितशत्रुः शिवं प्राप, सुमित्रस्त्रिदिवं गतः॥" इति योगशास्त्रे, त्रिषष्टिचरितेऽपि च। तथा सुविधिप्रभृतीनामष्टौ च पितरः सनत्कुमारे तृतीयदेवलोके / तथा कुन्थुप्रमुखाणामष्टौ पितरो माहेन्द्रे चतुर्थदेवलोके गता बोद्धव्याः। प्रव० 12 द्वार। (102) पूर्वप्रवृत्तिकाल:पुव्वपवित्ति जिणाणं, असंखकालो इहासि जा कुंथ। पासं जा संखिञ्जो, वरिससहस्सं तु वीरस्स // 327|| ऋषभाऽऽदीना पूर्वप्रवृत्तिकाल एवम्-ऋषभादारभ्य कुन्थुजिनं यावत् असंख्यातकालमासीत् पूर्वप्रवृत्तिः / अरजिनादारभ्य पार्श्वनाथपर्यन्तं संख्यातकालः पूर्वप्रवृत्तिः / वीरस्य सहस्रवर्षपर्यन्तं पूर्वप्रवृत्तिरासीत्। सत्त० 162 द्वार। पुर्वविच्छेदकालकथनम्एमेव छेयकालो, नवरं वीरस्स वीससमसहसा।
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________________ तित्थयर 2263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर पासस्स नत्थि सो वा, सेससुयपवित्ति जा तित्थं / / 328|| एवमेव पूर्वरीत्या छेदकालोऽपि ज्ञेयः / श्रीऋषभस्यासंख्यातकाल यावत्पूर्वव्युच्छेदः / एवं कुन्थुजिनं यावद् ज्ञेयम् / ततोऽरजिनस्य संख्यातकालं यावत् पूर्वव्युच्छेदः / एवं पार्श्वनाथ यावद् ज्ञेयम् / नवरं वीरस्य विशतिवर्षसहस्राणि पूर्वविच्छेदः / श्रीपार्श्वनाथस्य स पूर्वविच्छेदकालो वा नास्ति। अत्र विकल्पः केषाञ्चिदाचार्याणां मतमाश्रित्यावसेयः / शेषश्रुतप्रवृत्तिः यावत्तीर्थम् / अयमर्थः-यावद् यस्य तीर्थड्करस्य तीर्थ तावत् काल पूर्वव्यतिरिक्ता श्रुतप्रवृतिरिति गाथार्थः / सत्त०१६३ द्वार। (103) पूर्वभवनिरूपणम्(ऋषभस्याष्टी पूर्वभवाः ‘उसह' शब्दे द्वितीयभागे 1133 पृष्ठ कथिताः) चन्द्रप्रभस्य सप्त भवाःसिरिवम्मनिवो सोहम्मसुरवरो अजियसेणचक्की य। अचुयपहु पउमनिवो, य वेजयंते य चंदपहो // 23 // प्रथमे भवे श्रीवर्मनामा राजा१ / द्वितीयभवे सौधर्मदेवलोके देवः 2 / / तृतीयभवेऽजितसेननामा चक्रवर्ती ३।तुर्यभवे अच्युतेन्द्रः 4 / पञ्चमभवे पद्मनामा नृपः 5 / षष्ठभवे द्वितीयानुत्तरविमाने वैजयन्ते देवो जातः 6 / सप्तमभवे वन्द्रप्रभनाम्नाऽष्टमतीर्थपः७। शान्तिनाथस्य द्वादश भवाःसिरिसेणो अभिनंदिय, जुयल सुरा अमियतेयसिरिविजया। | पाणय बल हरि तो हरि, नरए खयरऽधुए दो वि / / 24 / / वजाउह सहसाउह, पिउसुय गेविज्ज तइऍ नवमे वा।। मेहरहदढरहा तो, सव्वड्डे संति गणहारी।।२५।। प्रथमभवे-श्रीषेणो राजाऽभूत, तस्याभिनन्दिता राज्ञी 1 / (जुयल त्ति) द्वितीयभवे उत्तरकुरुक्षेत्रे द्वावपि युगलिनी जातौ 2 / (सुर त्ति) तृतीये सौधर्मकल्पे देवः 3 / (अमियतेय सिरिविजय त्ति) तुर्यभवे जिनजीवोऽमिततेजोनामा विद्याधरो जातः, प्रियाजीवः श्रीविजयो राजा जातः४ / (पाणय त्ति) पञ्चमे प्राणतनाम्नि दशमे देवलोके द्वावपि देवी जातौ 5 / (बलहरि त्ति) षष्ठभवेऽस्मिन् जम्बूद्वीपपूर्व विदेहमध्यस्थे रमणीयाख्ये विजये सुभगायां नगर्या जिनजीवो बलभद्रो जातः / प्रियाजीवो वासुदेवो जातः६। (तो इति) ततः हरिनरके गतः / ततो नरकादुद्वृत्य (खयर ति) खचरौ द्वावपि विद्याधरौ, संजमंलात्वा सप्तमे भवे अच्युते गतौ 7 // 24 / / (वजाउह त्ति) ततोऽष्टमभवे जिनजीवो वज्रायुधराजा जातः, स्त्री-जीवः तस्य सहस्रायुधनामा पुत्रो जातः 8 / (गेविज त्ति) ततो नवमे ग्रैवेयके द्वावपि देवौ जातौ / मतान्तरे-तृतीये ग्रेवयके देवी जातौह / (मेहरह त्ति) दशमभवे ततश्चयुतौ तस्मिन्जम्बूदीपे प्राग्विदेहविभूषणे पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिण्यां नगर्या जिन-जीवो मेघरथः, प्रियाजीवो दृढरथः, एवं द्वावपि भ्रातरौ जातो 10 / (सव्वड्डे त्ति) एकादशभवे ततो द्वावपि भ्रातरौ संयमंलात्वा सम्यक्-संयम प्रपाल्य सर्वार्थसिद्धे विमाने देवौ सम्भूतौ 11 (संतिगण-हारित्ति) द्वादशे भवे भगवान शान्तिनाथः, पूर्वभवप्रियाजीवो सर्वार्थसिद्धविमानात् च्युवा भगवतः पुत्रत्वेन जातः, भगवतः चक्रवर्तित्वे सेनानीरभूत, ततः पश्चात् संजम लात्वाऽऽद्यगणधरो जातः 12 / मुनिसुव्रतस्य नव भवाः सिवकेउ सुहम्मसुरे, कुवेरदत्त तियकप्पि वजकुंडलओ। बंभे सिरिवम्मनिवो, अवराई सुव्वओ नवमे / / 26 / / प्रथमभवे शिवकतुनामा राजा 1 / द्वितीयभवे सौधर्मे देवः / तृतीयभवे कुबेरदत्तनामा नृपः३।तुर्यभवे तृतीयकल्पे सनत्कुमारे देवः 4 // पञ्चमभवे वजकुण्डलनामा राजा५ / षष्ठे भवे ब्रह्मनाम्नि पञ्चमदेवलोके देवो जातः 6 / सप्तमभवे श्रीवर्मराजा जातः 7 / अष्टमेऽपराजितनाम्नि तुर्यानुत्तरे विमाने देवः 8 / नवमे भवे मुनि-सुव्रतजिनः / नेमिनाथस्य नव भवाःधणधणवइ सोहम्मे, चित्तगई खेयरो य रयणवई। माहिंदे अवराइय, पीइमई आरणे तत्तो // 27 // सुपइट्ठो संखो वा, जसमइ भज्जाऽवराइयविमाणे / नेमिजिणो राईमइ, नवमभवे दो वि सिद्धा य॥२८॥ प्रथमभवे-धननामा राजाऽभूत, तस्य धनवती राज्ञी 1 / द्वितीये भवे सौधर्म कल्पे द्वावपि देवौ जातौ 2 तृतीयभवे चित्रगतिनामा विद्याधरो, राज्ञीजीवो रत्नवती प्रिया ३।तुर्यभवे वावपि माहेन्द्र देवलोके देवौ जातो 4 / पञ्चमभवे अपराजितो राजा, प्रीतिमती राज्ञी 5 / षष्ठे भवे आरणदेवलोके द्वावपि देवी जातौ 6 // 27 // सप्तमभवे सुप्रतिष्ठः; मतान्तरेशड खनामा राजा बभूव, धनवतीजीवो यशोमती भार्या जाता 7 / अष्टमभवे अपराजितनाम्नि तुर्यानुत्तरविमाने देवी जातौ 8 / नवमभवे भगवान् श्रीनेमिजिनः, पत्नीजीवः राजीमती जाता है / तदनन्तरं द्वावपि सिद्धी मोक्षं गतौ // 28 // पार्श्वस्य दश भवाःकमढमरुभू इभाया, कुक्कुडअहि हत्थि नरऍ सहसारे। सप्प खयरिंद नारऍ, अच्चुयसुर सवर नरनाहो // 26 नार, गेविजसुरो, सीहो निवई य नरय पाणयगे। कंठो विप्पो पासो, संजाया दो विदसमभवे // 30 // प्रथमे भवे--कमठमरुभूतिनामानौ भ्रातरौ जातौ, तत्र मरुभूति-नामा भगवजीवः 1 / द्वितीयभवे कमठजीवः कुर्कुटाहिर्जातः, जिनजीवो हस्तितिः / तृतीयभवे कमठो नरके गतः, जिनजीवः सहस्रारेऽष्टमदेवलोके गतः३। चतुर्थभवे कमठजीवः सो जातः, जिनजीवो विद्याधरेन्द्रोऽभूत् 4 / पञ्चमभवे कमठजीवो नैरयिको जातः, जिनजीवोऽच्युते देवो जातः 5 / षष्ठभवे कमठजीवः शबरः भिल्लोऽजनि, जिनजीवो नरनाथो बभूव 6 // 26| सप्तमभवे कमठजीवो नरके गतः, जिनजीवो गैवेयके सुरो जातः 7 / अष्टमभवे कमठजीवः सिंहो जातः, पार्श्वजीवो नृपतिर्जातः 8 / नवमे भवे कमठजीवो नरके नारको जातः, पार्श्वजीवः प्राणतनाम्नि दशमे देवलोके देवो जातः६ / दशमे भवे कमठजीवः कण्ठनामा विप्रोऽभूत, मरुभूतिजीवः पार्श्वनाथनामा त्रयोविंशतितमो जिनो जातः 10 / एवं सन्तौ द्वावपि दशमभवे / / 30 / / सत्त०१ द्वार / (वीरस्य सप्तविंशतिभवाः "वीर" शब्दे वक्ष्यन्ते) सप्ततिशतस्थाने वीरस्याष्टाविंशतिभवा निरूपिताः, तत्र देवानन्दोदरात 27 सप्तविंशतिः, त्रिशलोदरादष्टाविंशतितमः। शेषजिनानां भवाःसत्तण्हमिडे भणिया, पयडभवा तेसि सेसयाणं च /
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________________ तित्थयर 2264 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर तइयभवदीवपमुहं, नायव्वं वक्खमाणाओ।।३।। ससजिनानामिमे भणिताः प्रकटभवाः, तेभ्यः सप्तजिनेभ्यः शेषाणामनुक्तभवानां सप्तदशजिनानां तृतीयभवद्वीपप्रभृति ज्ञेयं वक्ष्यमाणाद् ग्रन्थात् / अयं भवः-शेषजिनानां त्रयो भवा अधिकाराद् ज्ञेयाः / तथा पूर्वभवद्वीपक्षेत्रविजयाऽऽदिकथनेन, पूर्वभवनामकथनेन च प्रथमभवो ज्ञेयः 1, पूर्वभवदेवलोककथनेन च द्वितीयो भवो ज्ञेयः 2, तृतीयस्तु जिनभवः ३,इति सर्वेषां जिनानां पूर्वभवा उक्ताः / सत्त० 2 द्वार / ('मल्ली' शब्दे मल्लिनाथस्य त्रयो भवा वक्ष्यन्ते) (104) अथ पूर्वभवगुरवः सर्वेषां जिनानां प्रतिपाद्यन्तेवयसेणो अरिदमणो, संभंतो विमलवाहणो य तहा। सीमंधर पिहियासव,अरिदमण जुगंधर गुरू य॥४७।। सव्वजगाणंदगुरू, संथाहो वजदत्त वयनाहो। तह सव्वगुत्तनामे, चित्तरहो विमलवाहणओ / / 48|| घणरह संवर तह साहुसंवरो तह य होइ वरधम्मो। तह य सुनंदो नंदो, अइजस दामोदरो य पुट्टिलओ / / 4 / / वज्रसेनः 1 / अरिदमनः 2 / संभ्रान्तः३। विमलवाहनः 4 / सीभन्धरः 5 / पिहिताश्रवः 6 / अरिदमनः 7 / युगन्धरः 8 / सर्वजगदानन्दः / संस्ताघः 10 / वज्रदत्तः 11 / वज्रनाभः 12 / सर्वगुप्तः 13 / चित्ररथः 14 / विमलवाहनकः 15 घनरथः१६। संवरः 17 / साहुसंवरः 18 / तथा च भवति वरधर्मः 16 / सुनन्दः 20 // नन्दः२१ / अतियशाः 22 // दामोदरः 23 / पोट्टिलकः 24 / सत्त०६ द्वार। पूर्वभवायु:धम्मस्स मज्झिमाऊ, सेसाणुकोसयं तमिमं / (56) तित्तीसं तित्ती, गुणतीसं दुसु तितीस इगतीसं। अडवीसं तित्तीसं, गुणवीसं वीस बावीसं / / 57 / / वीसट्ठारस वीसं, बत्तीस कमेण पंचसु तितीसं। वीस तितीसं वीसं, वीसऽयरा पुव्वभवआऊ॥५८|| धर्मनाथस्यमध्यमाऽऽयुः। शेषजिनानामुत्कृष्टकमेव तदिदं वक्ष्यमाणम् // 56 // त्रयस्त्रिंशत् सागराणि 1 / त्रयस्त्रिंशत् सागराणि 2 / एकोनत्रिंशत् साग०३ / द्वयोः त्रयस्त्रिंशत् साग०४ / त्रयस्त्रिंशत् साग०५ / एकत्रिशत् साग०६ / अशविंशतिः साग०७। त्रयस्त्रिंशत् साग०८ / एकोनविंशतिः साग०६ / विंशतिःसाग०१०। द्वाविंशतिः साग०११ // 57 / / विंशतिः साग० 12 / अष्टादश सागर०१३। विंशतिः साग० 14 / द्वात्रिंशत् साग० 15 / क्रमेण पञ्चसु-त्रयस्त्रिंशत् साग०१६ / त्रयस्त्रिंशत् साग० 17 / त्रयस्त्रिंशत् साग०१८। त्रयस्त्रिंशत् साग०१६ / त्रयस्त्रिंशत्साग० 20 / विशतिः साग०२१ / त्रयस्त्रिंशत् साग०२२ / विंशति० साग० 23 / विंशतिः सागराणि 24 / इति जिनानां पूर्वभवायुः। सत्त० 13 द्वार। पूर्वभवक्षेत्राणिबारस पुव्वविदेहे, तिन्नि कमा भरह एरवऍ भरहे। पुव्वविदेहे तिन्नि य, मल्लिऽवरविदेहे पण भरहे / / 36 / / मज्झिमसेरुनगाओ, धायइपुक्खरगयाइँ भरहाई। खित्ताइँ पुव्वखंडे, खंडवियारो न जंबुम्मि!|३७।। ऋषभाऽऽद्याः द्वादश जिनाः पूर्वमहाविदेहे जाताः 12 त्रीणि क्रमातभरते 13, ऐरवते 14, पुनः भरते 15 ज्ञेयाः / शान्तिः 16, कुन्थुः 17, अरः 18, एते त्रयोऽपि जिना पूर्वमहाविदेहे ज्ञेयाः। मल्लिः पश्चिममहाविदेहे 16 / मुनिसुव्रतः 20, नमिः 21, नेमिः 22. पार्श्वः 23, बर्द्धमानः 24, एते पश्चापि भरते ज्ञेयाः / मध्यममेरुः सुदर्शननामा, तस्मात् धातकीखण्डभरताऽऽदीनि पुष्कराईभरताऽऽदीनि च क्षेत्राणि पूर्वखण्डे / अत्रायं भावःधातकीखण्डः, पुष्करार्द्धद्वीपश्च इषुकारगिरिभ्या विभक्ती स्तः तेनोभयोरपि द्वौ द्वौ खण्डौ भवतः, एकः पूर्वखण्डोऽपरः पश्चिमखण्डश्च / ततोऽत्रयानि तीर्थकृता पूर्वभवक्षेत्राणि भरताऽऽदीनि तानि सर्वा-ण्यपि पूर्वखण्डसंबन्धीनि, न तु पश्चिमखण्डसम्बन्धीनीति / ननु तर्हि जम्बूद्वीपगतक्षेत्राणि किंखण्डसंबन्धीनीत्याह-खण्डविचारो जम्बूद्वीपे नास्ति,तत्र कस्यापि भाजकस्याभावादिति / सत्त० 3 द्वार। पूर्वभवक्षेत्रदिशाविमलो धम्मो मुणिसु-व्वयाइ पण आसि मेरुदाहिणओ। मेरुत्तरओऽणतो, सीओयादाहिणे मल्ली||३५|| सीयाए उत्तरओ, उसहसुमइसुविहिसंतिकुंथुजिणा। सेसा दस दाहिणओ,इय पुव्वभवम्मि खित्तदिसा // 36 // विमलः, धर्मश्चैतौ द्वौ; मुनिसुव्रतः, नमिः, नेमिः, पावः, वर्द्धमानः, एवं च पञ्च जिनाः, एते सर्वे सप्त जिना मेरुतो दक्षिणत आसन / अनन्तोऽनन्तजिजिनः८ मेरोरुत्तरत आसीत्। सीतोदानद्या दक्षिणपात्रे श्रीमल्लिजिनः 6 / सीतानद्या उत्तरतः ऋषभः 10. सुमतिः 11, सुविधिः 12, शान्तिः 13, कुन्थुः 14, एते जिनाः समुत्पन्नाः पूर्वभवे। शेषाः स्थिता ये दश जिनास्ते दक्षिणस्यां दिशि जाताः / इति सर्वेषां जिनानां पूर्वभवक्षेत्रदिशः / सत्त०४ द्वार। पूर्वभवजिनहेतुःपढमचरिमे हिँ पुट्ठा, जिणहेऊ वीस ते य इमे / / (50) प्रथमः-ऋषभः,चरमो-वीरः, ताभ्यां स्पृष्टा जिनहेतवो विंशतिः, येर्हेतुभिः जिनो भवति। ते च इमे वक्ष्यमाणा भवेयुः / सत्त० 10 द्वार / आ० का तानेव हेतूनाह-- अरिहंतसिद्धपवयण-गुरुथेरबहुस्सुए तवस्सीसु। वच्छल्लया य एसिं, अभिक्खनाणोवओगे अ॥३१२।। अत्र तिस्रो गाथाः तत्र प्रथमगाथायामष्टौ कारणान्युक्तानि, द्वितीयायां नव, तृतीयायां त्रीणि / तत्र प्रथमगाथाव्याख्या-अशोकाऽऽद्यष्ट - महाप्रातिहार्याऽऽदिरूपा पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तीर्थकराः, अपगतसकलकर्माशाः परमसुखिन एकान्तं कृतकृत्याः सिद्धाः, प्रवचनं द्वादशाङ्ग, तदुपयोगानन्यत्वात् संघो वा प्रवचनम्, गृणन्ति यथावस्थितशास्वार्थमिति गुरवो धर्मोपदेशाऽऽदिदातारः, स्थविरा जातिश्रुतपर्यायभेदभिन्नाः / तत्र जातिस्थविरा:-वर्षषष्टिप्रमाणाः। श्रुतस्थविराःसमवायाङ्गधारिणः / पर्यायस्थविराः-विंशतिवर्ष व्रतपर्यायाः। बहु प्रभूतं श्रुतं येषां ते बहुश्रुताः, बहुश्रुतत्वमापेक्षिक प्रतिपत्तव्यम्। श्रुतं च त्रिधा-- सूत्रतः, अर्थतः, उभयतश्च / तर सूत्रधरेभ्योऽर्थधराः प्रधानाः, तेभ्योऽप्युभयधराः प्रधाना इति / विचित्रमनशनाऽऽदिभेदभिन्नं तपों विद्यते येषां ते तपस्विनः सामान्यसाधवः / अर्हन्तश्च सिद्धाश्च प्रवचनं च
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________________ तित्थयर 2265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर गुरवः च स्थविराश्च बहुश्रुताश्च तपस्विनश्च अर्हत्सिद्धप्रवचनगुरास्थविरबहुश्रुततपस्विनः / सूत्रे च "बहुस्सुए' इत्यत्र एकारः प्राकृटत्वादलाक्षणिकः / तेषु / (एसिं ति) प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे षष्ठी / तत एतेषु सप्तसु स्थानेषु वत्सलभावो वत्सलता अनुरागः 7, स्थाऽवस्थितगुणोत्कीर्तनं तदनुरूपोपचारलक्षणात्तीर्थकरनामकर्मबन्धकारण मिति शेषः / तथा अभीक्ष्णमनवरत ज्ञानोपयोगो ज्ञाने व्याप्रियमाणतः 8 / इदमष्टमं कारणम् // 312|| दसणविणए आवस्सए असीलव्वए निरइयारो। खणलवतवचियाए, वेयावच्चे समाही य॥३१३।। द्वितीयगाथाव्याख्या-दर्शनं सम्यक्त्व, विनयो ज्ञानाऽऽदिविनयः। स च प्रागुक्तो वक्ष्यमाणो वा, दर्शन च विनयश्च दर्शनविनयम, समाहारद्वन्द्वः, तरिमन् / आवश्यकमवश्यकर्त्तव्यं प्रतिक्रमणाऽऽदि ; तस्मिन्। शीलनि च व्रतानि च शीलव्रतम्, अत्रापि समहारद्वन्द्वः / तस्मिन् / तत्र शीलान्युत्तरगुणाः, व्रतानि मूलगुणाः। एतेषु निरतिचारः सन्, तीर्थकरनामकर्म बध्नातीति क्रियायोगः / एतावता पञ्च कारणान्युक्तानि / तथाक्षणलवे तपसि त्यागे वैयावृत्ये च समाधिस्तीर्थकरनामकर्मबन्धकारणम्।तत्र क्षणलवग्रहणमशेषकालविशेषोपलक्षणम, क्षणलवाऽऽदिषु कालविशेषेषु निरन्तर संवेगभावनातो ध्यानाऽऽसेवनतश्च समाधिः क्षणलवसमाधिः / तथा- तपसि बाह्याऽऽभ्यन्तरभेदभिन्ने यथाशक्ति निरन्तर प्रवृत्तिस्तपः समाधिः। त्यागो द्विधा-द्रव्यत्यागः, भावत्यागश्च / द्रव्यत्यागो नाम- आहारोपधिशय्याऽऽदीनामप्रायोग्याणां परित्यागः, प्रायोग्याणां च यतिजनेभ्यो दानम्। भावत्यागः-क्रोधाऽऽदीनां विवेकः, ज्ञानाऽऽदीना च यतिजनेभ्यो वितरणम् / एतस्मिन् द्विविधेऽपि त्यागे सूत्रानतिक्रमेण यथाशक्ति निरन्तरं प्रवृत्तिस्त्यागसमाधिः / वैयावृत्त्य दशविधम् / तद्यथा-आचार्यवैया-वृत्त्यम्१, उपाध्यायवैयावृत्त्यम् 2, स्थविरवैयावृध्यम् 3, तपस्विवैयावृत्त्यम् 4, ग्लानवैयावृत्त्यम्५, शैक्षकंधेयावृत्यम् 6, साधर्मिकवैयावृत्त्यन्७, कुलधयावृत्त्यम् 8, गणवैयावृत्त्यम 6, सङ्घ वैयावृत्त्यं चेति 10 / एकैक त्रयोदशविधम् / तद्यथाभक्तदानम् 1, पानदानम् 2, आसनप्रदानम्३. उपकरणप्रत्युप्रेक्षा 4, पादप्रमाजनम् 5, वस्त्र प्रदानम् 6, भेषजप्रदानम् 7, अध्वनि साहाय्यम् 8, दुष्टरतेनाऽऽदिभ्यो रक्षणम् 6, वशतौ प्रविशतां दण्डकग्रहणम् 10, कायिकामात्रकसमर्पणम ११.संज्ञामात्रकसमर्पणम् 12, श्लेष्ममात्रकसमर्पण चेति 13 / एतेषु वैयावृत्त्यभेदेषु यथाशक्ति निरन्तर प्रवृत्तियावृत्त्यसनाधिः। अप्पुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पहावणया। एएहिँ कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो // 314|| तृतीयगाथाव्याख्या-अपूर्वस्या पूर्वस्य ज्ञानस्य निरन्तर ग्रहणमपूर्वज्ञानग्रहणमष्टादशं तीर्थकरनामकर्मबन्धकारणम् ।एकोनविंशतितम श्रुतभक्तिः श्रुतविषयं बहुमानम्। विंशतितमं प्रवचने प्रभावना यथाशक्ति प्रवचनार्थोपदेशदानाऽऽदिरूपा / एभिरनन्तरोक्तेः कारणस्तीर्थकरत्त्रं लभते जीवः। एतानि च कानिचित् कारणानि सूत्रकार एव स्वयं व्याचष्टसंघो पवयणमित्थं, गुरुणो धम्मोवएसघाईया। सुत्तत्थोभयधारी, बहुस्सुया हुंति विक्खाया॥३१५।। जाईसुयपरियाए, पडुच्च थेरो तिहा जहकमेणं / सट्ठीयरिसो समवायधारओ वीसवरिसोय॥३१६।। भत्ती पूआ वण्णप्पयडण वज्जणमवण्णवायस्स। आसायणपरिहारो, अरिहंताईण वच्छल्लं॥३१७।। नाणुवओगो भिक्खं, दंसणसुद्धी अ विणयसुद्धी अ। आवस्सयजोएसुं, सीलवएसुं निरइयारो // 318 / / संवेगभावणााण सेवणं खणलवाइकालेसु / तवकरणं जइजणसंविभागकरसंजहसमाही // 316 / / वेयावच्चं दसहा, गुरुमाईणं समाहिजणणं च / किरियादारेण तहा, अपुव्वनाणस्स गहणं तु // 320 / / आगमबहुमाणो वि य, तित्थस्स पभावणं जहासत्ती। एएहिँ कारणेहिं, तित्थयरत्तं समजिणई // 321 / / "संघो पवयण'' इत्यादि गाथासप्तकं, व्याख्यातार्थ चैतत् ; नवरं स्थविरबहुश्रुतयोर्गाथा ऽनुलोम्याद्व्यतिक्रमनिर्देशः / तथा-तृतीय (317) गाथायां भक्तिरान्तरो बहुमानविशेषः, पूजा यथौ-चित्येन पुष्पफलाऽऽहारवस्त्राऽऽदिभिरुपचारः, वर्णस्य श्लाघायाः प्रकटनं प्रकाशनं, वर्जन परिहरणमवर्णवादस्य अश्लाघायाः, आशातनाया वक्ष्यमाणायाः परिहारो वर्जनम् / एतदर्हदादीनां सप्तानां वात्सल्यं वत्सलता। तथा षष्ठ (320) गाथायां वैयावृत्त्यं भक्तदानाऽऽदिक्रियाद्वारेण गुर्वादीनां समाधिजननम् / तत्पुनर्दशधा पूर्वोक्त प्रकारेण / यता शीलवताभ्यामेकमेव कारणं कृत्वा समाधिरिति भिन्नमेव तीर्थकरगोत्रबन्धस्थान विवक्ष्यते। ततो वैयावृत्त्यं दशधा गुर्वादीनां, तथा तेषामेव क्रियाद्वारेण समाधिजननं कार्यकरणद्वारेण स्वस्थताऽऽपादनमिति / तथा-- ऋषभनायेन वर्द्धमानस्वामिना चपूर्वभवे एतान्यनन्तरोक्तानि सर्वाण्यपि स्थानान्यासेवितानि, मध्यमेषु पुनरजितस्वामिप्रभृतिषु द्वाविंशतितीर्थकरेषु केनाप्येक, केनापि त्रीणि, यावत्केनाऽपि सर्वाण्यपि स्थानानि स्पृष्टानीति। एतच तीर्थकरनामकर्म मनुष्यगतावेव वर्तमानः पुरुषः स्त्री नपुंसको वा तीर्थकरभवात् पृष्ठतस्तृतीयभवं प्राप्य बद्भुमारभते। आहतीर्थकरनामकर्मणो जघन्यत उत्कर्षतश्च बन्धस्थितिरन्तः सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणा, ततः कथमुक्तं तीर्थकरभवात् प्राक् तृतीयभवे बध्यत इति? नैप दोषः। द्विविधो हि बन्धः-निकाचनारूपः, अनिकाचनारूपश्च / तत्र अनिकाचनारूपस्तृतीयभवात् प्राक् सुतरामपि भवति, जघन्योऽप्यन्तः सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणत्वात्। निकाचनारूपस्तु तीर्थकरभवात् प्राक् तृतीयभव एव, "तं च कह वेइज्जइ, अगिलाए धम्म-- देसणाऽऽदीहिं / बज्झइ तं तु भयवओ, इय भव्यो सक्कइत्ता णं' ||1|| इति वचनप्रामाण्यात् / तत्र निकाचितमबन्ध्यफलम्, इतरत्तु उभयथाऽपि, निकाचनारूपश्च बन्धस्तृतीयभवादारभ्य तावत्प्रवर्त्तते यावतीर्थकरभर्व अपूर्वकरणस्य संख्येयभागा, तत ऊर्द्ध, व्यवच्छेदः, केवलज्ञानोत्पत्तौ च अष्टमहाप्रातिहार्याऽऽदिरूपे सुरेन्द्रकृते पूजोपचारे सति सदेवमनुजासुरायां परिषदि ग्लानिपरिहारेण धर्मदेशनया श्रुतचारित्ररूप धर्मप्ररूपणलक्षणया चतुस्त्रिंशता देहसौगन्ध्यादिभिरतिशयैः, पञ्चत्रिंशता बुद्धवचनातिशयैस्तद्वेद्यत इति। प्रव०१० द्वार।
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________________ तित्थयर 2266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर पूर्वभवद्वीपाःजंबूधायइपुक्खर-दीवा चउ चउ जिणाण पुटवभवे / धायइ विमलाइ तिगे,जंबू संतिप्पमुहनवगे।॥३५॥ ऋषभाऽऽदिचतुर्णा जिनाना पूर्वभवे जम्बूद्वीप आसीत् / सुभत्यादीना चतुर्णा जिनाना पूर्वभवे धातकीखण्ड आसीत् / सुविध्यादिचतुण जिनाना पूर्वभवे पुष्करद्वीप आसीत् 12 / विमलाऽऽदीनां त्रयाणां जिनानां पूर्वभवे धातकीखण्डद्वीप आसीत् 15 / शान्त्या--दिनवजिनानां पूर्वभते जम्बूद्वीप आसीत् 24 / इति पूर्वभवद्वीपाः। सत्त०२ द्वार। पूर्वभवनामानिएएसिं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पुव्वभवया णामधेया होत्था / तं जहा "पढमेऽत्थ यइरणाभे, विमले तह विमलवाहणे चेव / तत्तो य धम्मसीहे,सुमित्त तह धम्ममित्ते य / / 11 / / सुंदरबाहू तह दीहवाहु जुगबाहु लद्धबाहू य / दिण्णे य इंददत्ते, सुंदर माहिदए चेव / / 12 / / सीहरहे मेहरहे, रुप्पी असुदंसणे य बोधव्वा / तत्तो य नंदणे खलु, सीहगिरी चेव वीस इमे / / 13 / / अद्दीणसत्तु संखे, सुदंसणे नंदणे य बोधव्वे / इमिसे ओसप्पिणिए, तित्थकराणं तु पुटवभवा" / 14 / जिनानां पूर्वभवनामानि क्रमेण यथा-वजनाभः 1 / विमलः / / विमलवाहनः 31 धर्मसिंहः 4 / सुमित्रः 5 / धर्ममित्रः 6 / सुन्दरबाहुः७। दीर्घबाहुः / युगबाहुः / लब्धबाहुः 10 / दिन्नः 11 / इन्द्रदत्तः 12. सुन्दरः 13 / माहेन्द्रः 14 / सिंह रथः 15 / मेघरथः 16 / रूपी 17 / सुदर्शनः 18 / नन्दनः 16 ! सिंहगिरिः२० / अदीनशत्रुः 21 / शङ्खः 22 / सुदर्शन 23 / नन्दनः 24 / पूर्वभवे जिनानामेतानि नामानि बभूवुरिति / स०। सत्ता पाठान्तरे-वज्रनाभः 1 / विमलवाहनः 2 / विपुलबलः 3 / महा–बलः 4 / अतिबलः 5 / अपराजितः६। नन्दिषेणः 7 / पद्मः८ / महापद्मः। पुनरपि पद्मः१० / नलनीगुल्मः 11 / पद्मोत्तरः 12 / पद्मसेनः 13 / पद्मरथः 14 / अतिदृढरथः 15 मेघरथः 16 / सिंहावहः 17 / धनपतिः 18 / वैश्रवणः 16 / श्रीवर्मा 20 / सिद्धार्थः 21 / सुप्रतिष्ठः 22 / आनन्दः 23 / नन्दनः२४ पूर्वभवनगर्य:पुंडरिगिणी सुसीमा, सुभापुरी रयणसंचया नेया। चउगतिगम्मि महापुरि, रिट्ठा तह भदिलपुरं च / / 42 / / पुंडरिगिणि खग्गिपुरी,तहासुसीमा य वीयसोगा य / चंपा तह कोसंबी, रायगिहाऽउज्झ अहिछत्ता / / 43 / / चतुष्कत्रिके एतानि नगरीनामानि ज्ञेयाति। तथा च ऋषभः१, सुमतिः 5, सुविधिः 6, एते त्रयो जिनाः पुण्डरीकिण्यां पूर्वभवे जाताः / अजितः 2. पद्मप्रभः 6, शीतलः 10, एते त्रयो जिनाः सुसीमायां जाताः। संभवः 3. सुपार्श्व:७, श्रेयांसः 11, एते त्रयो जिनाः शुभापुर्या जाताः। | अभिनन्दनः 4, चन्द्रप्रभः८, वासुपूज्यः 12, एते जिनास्त्रयो रत्नसंचयाया जाताः / विमलः 13 महापुर्याम / अनन्तजिनः 14 रिष्टनगर्याम् / धर्मः 15 भद्दिलपुरेजातः / शान्तिः 16 पुण्डरीकिण्यां जातः / कुन्थुजिनः 17 खनि पुर्याम् / अरजिनः 18 सुसीमायां पुर्याम् / मल्लिजिनः 16 वीतशोकायाम्। मुनिसुव्रतः 20 चम्पायाम् / नमिः 21 कौशाम्ब्याम। नेमिजिनः 22 राजगृहे। पार्श्वजिनः 23 अयोध्यायाम्। वीरः 24 अहिच्छत्रानगर्या पूर्वभवे जातः / सत्त०६ द्वार। पूर्वभवराज्यम्जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थंकरा पुटवे मंडलिरायाणो होत्था / तं जहा-अजित संभव अभिणंदण० जाव पासो वद्धमाणो य / उसमे णं अरहा कोसलिए पुव्वभवे चक्कवट्टी होत्था / स०२३ सम० पूर्वभवविजयाःपुक्खलवइ य वच्छा, रमणिज्जा मंगलावई कमसो। नेआ जिणचउगतिगे, जिणतियगे खित्तनामाओ।।४।। पुक्खलवइ आवत्तो, बच्छा सलिलावई जिणचउक्के / मुणिसुव्वयाइपणगे, विजया खित्ताण नामेणं // 41 // जिनानां चतुष्कत्रिके क्रमश एते विजया ज्ञेयाः। यथा पुष्कलावतीविजयः-प्रथमे, पञ्चमे, नवमे। वच्छाविजयो-द्वितीये, षष्ठे, दशमे। रमणीयाख्यविजयः-तृतीये, सप्तमे, एकादशे / मङ्गला वतीविजयःचतुर्थे , अष्टमे, द्वादशे। एवंद्वादशजिनानां विजयाः कथिताः। (जिणतियगे खित्तनामाओ त्ति) जिनत्रिके-विमलः 13 अनन्तः 14 धम्मश्चेति 15 त्रिके क्षेत्रनामतो विजया ज्ञेयाः / तेषां विजयाभावात्तत्स्थाने भरतैरावतभरतरूपाणि पूर्वोक्तानि क्षेत्रा-ण्येव ज्ञेयानीति भाव इति गाथार्थः / / 40 / / ततः शान्तिः कुन्थुररो मल्लिश्चेतिरूपे जिनचतुष्के क्रमेण पुष्कलावत्याद्या विजयाः। यथा-पुष्कलावतीविजयः षोडशजिने 16 / आवर्तविजयः सप्त-दशे जिने 17 / वच्छाविजयोऽष्टादशे जिने 18 / सलिलावतीवि-जय एकोनविंशतितमे जिने 16 / (मुणिसुव्वयाइपणगे त्ति) मुनिसुव्रताऽऽदिपञ्चके-मुनिसुव्रतो नमिर्नेमिः पावो वीरश्चेतिरूपे (विजया खित्ताण नामेणं ति) क्षेत्रनाम्ना विजया ज्ञेयाः। एतेषां पञ्चानामपि भरतक्षेत्रसम्भवेन विजयाभावात्तत्स्थाने क्षेत्राणामेव नामानि ज्ञेयानीति भावः / / 41 / / सत्त०५ द्वार। ऋषभः१,सुमतिः 5, सुविधिः ६,एतेषां पूर्वभवे पुष्कलावतीवि-जयः / अजितः 2, पद्मप्रभः६, शीतलः 10, एतेषां वच्छाविजयः। संभवः 3, सुपार्श्वः 7, श्रेयांसः 11, एतेषां रमणीयाख्यविजयः। अभिनन्दनः४, चन्द्रप्रभः 8, वासुपूज्यः 12. एतेषां पूर्वभवे मङ्गलावतीविजयः ।विमल: 13, अनन्तः 14, धर्मः १५.एतेषां क्षेत्रनामतो विजया ज्ञेयाः, तेषा विजयाभावात्, तत्स्थाने भरतै-रावतरूपाणि पूर्वोक्तानि क्षेत्राण्येव ज्ञेयानि। शान्तिजिनः 16 पुष्कलावतीविजये। आवर्तविजये कुन्थुजिनः 17 / अरजिनः 18 वच्छाविजये। मल्लिजिनः सलिलावतीविजये 16 / मुनिसुव्रतः 20, नमिः 21. नेमिः२२, पार्श्वः 23, वीरः 24, एतेषः क्षेत्रनाम्ना विजया ज्ञेयाः, भरतक्षेत्रे विजयाभावात् तत्स्थाने क्षेत्राणामेव नामानीति।
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________________ तित्थयर 2267- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर पूर्वभवस्वर्गाःसव्वटुं तह विजयं,सत्तमगेविजयं दुसु जयंतं / नवमं छ8 गेविजयं तओ वेजयंतं च / / 54|| आणय पाणय अच्चुय, पाणय सहसार पाणयं विजयं / तिसु सव्वट्ठ जयंतं, अवराइय पाणयं चेव / / 5 / / अवराइय पाणयगं, पाणयगमिमे य पुव्वभवसग्गा (56) सर्वार्थसिद्धनामकं विमानमृषभजिने 1 / एवं सर्वत्र जिननामपूर्वक योज्या तथा विजयं विमानम् 2 / सप्तमवेयकम 3 / द्वयोः-जयन्तम् 4, जयन्तम् 5 / नवमवेयकम् 6 / षष्टवियकम् 7 / वैजयन्तम्। 8 // 54 // आनतः 6 / प्राणतः१०। अच्युतः 11 / प्राणतः 12 / सहरवारः 13 / पुनः प्राणतः 14 / विजयमनुत्तरविमानम् 15 / त्रिषु जिनेषु सर्वार्थसिद्धम् 16, सर्वार्थसिद्धम् 17, सर्वार्थसिद्धम् 18 / जयन्तं विमानम् 16 / अपराजितविमानम् 20 / प्राणतदेवलोकः 21 / / 55 / / अपराजितविमानम 22 / प्राणतनामा दशमदेवलोकः 23 / प्राणतकः 24 / एते जिनाना पूर्वभवस्वर्गा ज्ञेयाः / / सत्त०१२ द्वार। पूर्वभवसूत्राणिजंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे णं उस्सप्पिणीए तेवीसं तित्थगरा पुव्वभवे एक्कारसंगिणो होत्था / तं जहा-अजित संभव अभिणंदण सुमई०जावपासो वद्धमाणो य। उसभेणं अरहा कोसलिए चोद्दसपुव्वी होत्था / स०२३ सम०। तत्र श्रुतलाभद्वारमाहपढमस्स वारसंग,सेसाणिक्कारसंगसुयलंभो / / प्रथमस्य भगवत ऋषभस्वामिनः पूर्वभवे श्रुतलाभः परिपूर्ण द्वादशाङ्गम्। अवशेषाणामजितस्वामिप्रभृतीनामेकादशाङ्गानि / यस्य च यावान् पूर्वभवे श्रुतलाभः, तस्य तावान् तीर्थकरजन्मन्यपि अनुवर्तते। आ०म०१ अ०१ खण्ड। (105) फणकारणानि, फणानप्याहइग पण नव य सुपासे, पासे फण तिन्नि सग इगार कमा। फणिसिज्जासुविणाओ, फणिंदभत्तीऍनऽन्नेसु।।१२७।। (इग पण नव य सुपासे त्ति) एकः, पञ्च, नव च फणाः सुपाचे सप्तमजिन,(पासे फण तिणि सग इगार ति) पार्श्वनाथे फणास्त्रयः 3, सप्त 7. एकादश च (कम त्ति) क्रमात् / (फणिसिज्जासुविणाउ ति) फणिशय्यास्वप्नात् श्रीसुपाचे जिने फणाः, यतो गर्भस्थे भगवति जननी एकफणे पञ्चफणे नवफणेऽपि च नागतल्पे स्वप्नमध्ये स्वा सुप्तां ददर्श। यत उक्तं श्रीहेमाऽऽचार्यकृतसुपार्श्वचरित्रे'सुप्तामेकफणे पञ्चफणे नवफणेगऽपि च। नागतल्पे ददर्श स्वां, देवी गर्ने प्रवर्द्धिनि / / 1 / / पृथ्व्या देव्या तदा स्वप्ने दृष्ट तादृग महोरगम्। शक्रोऽपि चक्रे भगवन्मूर्द्धिनच्छत्रमिवापरम्।।२।। तदादि चाभूत्समवसरणेष्वपरेष्वपि / नाग एकफणः पञ्चफणो नवफणोऽथवा // 3 // " इत्यादि। (फणिदभत्तीऍ इति) फणीन्द्रभक्त्या श्रीपार्श्वनाथे। यतः फणीन्द्रोधरणः श्रीपार्वे पूर्वभवोपकारित्वादतीव भक्तिमानिति कारणात् फणा भवन्ति / (नन्नेसिं ति) अन्येषां द्वाविंशतिजिनानां न भवन्ति / इति गाथार्थः ||127 // सत्त० 43 द्वार। फलदायकाःआरुग्गं बोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं च मे दिंतु / किं णु हुणिदाणमेतं, .......... णु इति वितर्के, किमिदं निदाणं कीरति? उच्चति-भासा एत्थ भवति / तं जधा-(भासा असच्चमोसा गाधा) सा असच्चामोसा दुवालसविहा। तत्थ जा जायणी सा एसा साहुणो संसारविमोक्ख-त्थं भन्नति। ''ण हु खीणपेजदोसा, देति समाधिं व बोधिं वा।" आह-जदिन पसीदति, न वा देति, तो किं नमस्कारो कीरति? उच्यते-जधा अग्गी न तूसति, न वा देति, तह विजो सीतपरि-गतो सो अतियति, सो यसकजं निप्फाएति, एवं ते वि खीणराग-दोसमोहा न किंचि वि देंति, न या तूसंति, जो पुण पणमति, सो अत्थितमत्थं लभति। उक्तं च - "चन्द्रं दृष्ट्वा यथा तोयं,' इति श्लोकः। अत्थियजंतेहिं ते वि आरोग्गादीया लाभा लभंति, जम्हा एतेसिं एते गुणा, तेण परमा भत्ती कातव्या आ०चू० २अ०॥ (बद्धस्पृष्टकम् 'लोगसार' शब्दे वक्ष्यते) (106) अथ बलवर्णनम्निवईहिँ बला बलिणो, कोडिसिलुक्खेवसत्तिणो हरिणो। तहगुणला चक्की, जिणा अपरिमियबला सव्वे / / 12 / / हरिसंसयछेयत्थं, वीरेणं पयडियं बलं निययं / मेरुगिरिकपणेणं, हेउअभावा न सेसेहिं / / 130 / / (निवईहिं बला बलिणो ति) नपतिभ्यो 1 बला बलदेवा वलिनो बलिष्ठाः 2 / ' निवईहिं'' इत्यत्र प्राकृतत्वात्पञ्चम्यर्थे तृतीया। (कोडिसिलुक्खेवसत्तिणो हरिणो ति) कोटिशिलोत्पाटनशक्तिमन्तो हरयो वासुदेवाः 3 / (तद् दुगुणबला चक्कि त्ति) तत्तस्माद्वा-सुदेवबलाद् द्विगुणबलाश्चक्रिण३ चक्रवर्तिनः।। (जिणा अपरिमिअबला सव्वे त्ति) जिनाः सर्वेऽपि अपरिमितबलाः, अनन्तबला इत्यर्थः / अत्र चक्रयादीनां बलप्रमाणं प्रसङ्गात कथितमिति गाथार्थः / 126 / (हरिसंसयच्छेयत्थं ति) इन्द्रसंशयच्छेदनार्थम्। (वीरेणं पयडिअंबलं निययं ति) श्रीवीरेण प्रकटितं बलं निजकम्। केन प्रकटितम्? मेरुपर्वतकम्पनेन। (हेउअभावा न सेसेहिं ति) हेत्वभावाद् न शेषैः शेषजिनैः प्रकटितं, यतः किमपि बलप्रकटने हेतु भूत्, अतो न प्रकाशितमिति गाथार्थः / / 130 / / सत्त० 48 द्वार। प्रथमान्तिमयोस्तीर्थकरयोः शरीरमाने भिन्नत्वं, बले च भिन्नत्वं नास्ति, तत्कथम्? इति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रथमान्तिमजिनयोः शरीरमानभेदऽपि नबले भेदः। "अपरिमियबला जिणवरिंदा" इत्यागमप्रामाण्यादविशेषेणाऽनन्तबलवत्त्वभवसीयते। 1 प्र० ही०२ प्रका०। (107) अथ जिनभक्ताना राज्ञा नामान्याहभरहसगरमियसेणा, य मित्तविरिओ य सच्चविरिओ य / तह अजियसेणराया,दाणविरिय मघवराया य॥२२०|| जुद्धविरिय सीमंधर, तिविट्ठविण्हू दुविट्ठ अ सयंभू /
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________________ तित्थयर 2268 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर पुरिसुत्तमविण्हू पुरिसीह कोणालयनिवो य॥२२१।। निवइकुबेर सुभूमाऽजिय विजयमहो य चक्किहरिसेणो। कण्हो पसेण सेणिय, जिणाण जिणभत्तरायाणो / / 222 // वित्तीइ सङ्घबारस, लक्खे पीईऍ दिति कोडीओ। चक्की कणयं हरिणो,रययं निवई सहसलक्खे // 223 // भत्तिविहवाणुरूवं, अन्ने वि य दिति इन्भमाईया। सोऊण जिणाऽऽगमणं, निउत्तमनिउत्तएसुं वा / / 224 / / (भरहसगरमियरोणा य) ऋषभशासने भक्तनृपो भरतः 1 / एवं सर्वत्र जिननामपूर्वक भक्तनृपनामानि वाच्यानि / सगरः 2 / मृगसेनश्च 3 / (मित्तविरिओ य सच्चविरिओ य) मित्र वीर्यश्च 4 / सत्यवीर्यश्च 5 / (तह अजियसेणराया) तथा-अजितसेनो राजा 6 / (दाणविरिअ मघवराया य) दानवीर्यः 71 मघवराजा 8 चेति गाथार्थः / / 220 / / (जुद्धविरि अ सीमंधर ति) युद्धवीर्यः 6 / सीमन्धरः 10 / (तिविट्टविण्हू दुविट्ट अ संयभू) त्रिपृष्ठविष्णुः 11 / द्विपृष्ठश्च 12 / स्वयंभूः वासुदेवः 13 / (पुरिसुत्तमविण्हू पुरिससीह त्ति) पुरुषोत्तमः वासुदेवः 14 / पुरुषसिंहः वासुदेवः 15 // (कोणा-लयनिवोय) कोणालकनृपश्च 16 / इति गाथार्थः // 221 / / (निवइकुबेरसुभूमा) कुबेरनामा नृपतिः 17 / सुभूमनामा 18 / (अजियविजयमहो य चक्किहरिसेणो) अजितः 16 / विजयमहश्च 20 / चक्रिहरिषेणः 21 / (कण्हो पसेण सेणिय त्ति) कृष्णः 22 / प्रसेनजित् 23 / प्रसेनजित 23 / श्रेणिकः 24 / (जिणाण जिण-भत्तरायाणो) जिनानामतिजिनभक्ता राजानो भवन्तीति गाथार्थः // 222 / / (वित्तीइ सववारस लक्खे पीईइ दिति कोडीओ) सार्द्धद्वादशलक्षाणि वृत्त्या ददति,प्रीत्यासार्द्धद्वादशकोटीर्ददति। (चक्की कणय) चक्रिण एनावत्कनक ददति / (हरिणो रययं) वासुदेवा एतावत् रजतं ददति / (निवई सहसलक्खे) नृपतयः सामान्यराजानः सहस्राणि लक्षाणि च क्रमेण वृत्या प्रीत्या च ददतीति गाथार्थः // 223 // (भत्तिविहवाणुरुव) भक्तिविभवानुरूपम् / (अन्ने वि अदिति इब्भमाईया) अन्येऽपि ददति इभ्यश्रेष्ठिसेनापत्यादयः। (सोऊण जिणाऽऽगमणं) श्रुत्वा जिनागमनं जिनानामागमन (निउत्तमणिउत्तएसुवा) मकारस्यालाक्षणिकत्वाद् नियुक्तपुरुषेषु वा, अनियुक्तपुरुषेषु वा / इति गाथार्थः / / 224 / / सत्त० 107 द्वार। (108) मनःपर्यवज्ञानिनः..............., सव्वे मणणाणि एगलक्खा य। पणयालीससहस्सा, पंचसया इगनवइअहिया।।२५४।। सर्वेषां तीर्थकृतामेकीकृताः सन्तः मनःपर्यवज्ञानिन एकलक्षाश्च (पणयालीससहरसा) पञ्चचत्वारिंशत् सहसाणि (पंथ राया इगनवइअहिया) एकनवत्यधिकपञ्चशतानि 145561, सर्वेषां जिनाना मनःपर्यवज्ञानिसंख्या। सत्त० 17 द्वार।। वारससहस्स तिण्हं,सयसड्ढा सत्त पंच य दिवढं। एगदस सडछस्सय, दस सहसा चउसया सड्ढा / / 357 / / दससहसा तिन्नि सया, नव दिवढ सया य अट्ठसहसाय। पंचसय सत्तसहसा, सुविहिजिणे सीयले चेव।।३५८| छसहस्स दोण्हमित्तो, पंच सहस्साय पंच य सयाई। पंचसहस्सा चउरो, सहस्स सय पंच यऽभहिया।।३५६।। चउरो सहस्स तिन्नि य, तिन्नेव सया हवंति चालीसा। सहसदुगं पंचसया, इगवन्ना अरजिणिंदस्स॥३६०।। सत्तरसयाइ पन्ना, पंच दस सया य बार सय सट्ठी। सहसो सय अद्धट्ठम, पंचेव सया उ वीरस्स।।३६१।। "वारससहस्स'' इत्यादिगाथापचकम् / त्रयाणामृषभाजितसंभवनाम्नां तीर्थकृ तां द्वादश द्वादश मनःपर्यवज्ञानिसहस्राणि, परमाऽऽदिजिनस्य सार्द्ध सप्तशताधिकानि; अजितस्य पहाशताधिकानि, शंभवजिनस्य सार्द्धशताधिकानि / तथा श्री अभिनन्दनस्य मनःपर्यवज्ञानिनामेकादश सहस्राणि सार्द्धपट् शताधिकानि। श्रीसुमतेर्दशसहस्राणि सार्द्धचतुःशताधिकानि / श्रीपा--प्रभस्य दशसहस्राणि शतत्रयाधिकानि / श्रीसुपार्श्वस्य नव सहस्राणि सार्द्धकशताधिकानि / श्रीचन्द्रप्रभस्य अष्टौ सहस्राणि / श्रीसुविधिजिनस्य सप्तसहस्राणि पश्चशताधिकानि / शीतलेऽप्येतावन्त एव / श्रेयांसजिनस्य, श्रीवासुपूज्यजिनस्य च षट्षट् सहस्राणि। (इत्तो त्ति) इतोऽनन्तरं विमलाजिनस्य पञ्च सहस्राणि पञ्चशताधिकानि। अनन्तजिनस्य पञ्चसहस्राणि। श्रीधर्मस्य चत्वारि सहस्राणि पञ्चशताधिकानि। श्रीशान्तिजिनस्य चत्वारि सहस्राणि / श्रीकुन्थोस्त्रीणि सहस्राणि चत्वारिंशदधिकशतत्रयाधिकानि। श्रीअरजिनस्य सहस्रद्विकमेकपञ्चशदधिकपञ्चशताऽभ्यधिकम् / श्रीमल्लेः सप्तदशशतानि पञ्चाशदधिकानि। श्रीमुनिसुव्रतस्य पञ्चदशशतानि। श्रीनमिजिनस्य द्वादशशतानि षष्ट्यधिकानि। श्रीनेमेरेकं सहस्रम्। श्रीपार्श्वजिनस्य शतान्यष्टिमानि, सार्दानि सप्त शतानीत्यर्थः / श्रीवीरजिनस्य च पश्चैव शतानीति। प्रव० 22 द्वार। (महाव्रतानि पश्श प्रथमान्तिमतीर्थकृतोः, चत्वारि मध्यमाना द्वाविंशतेरिति गोयमकेसिज्ज' शब्दे तृतीयभागे 660 पृष्ठे स्पष्टीकृतम्) (106) तीर्थकरमातृनामानिजम्बुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगराणं मायरो होत्था। तं जहा "मरुदेवि विजय सेणा, सिद्धत्था मंगला सुसीमा य। पुहवी लक्खण रामा, नंदा विण्हू जया सामा।।३२२|| सुजसा सुव्वय अइरा, सिरिया देवी पभावई पउमा। वप्पा सिवाय वामा, तिसला देवीय जिणमाया।।३२३स०।" भगवत ऋषभस्वामिनो माता मरुदेवी / अजितस्वामिनो विजया। शंभवनाथस्य सेना। अभिनन्दनस्य सिद्धार्था ।सुमतिनाथस्य मङ्गला। पद्मप्रभस्य सुसीमा। सुपार्श्वस्य पृथिवी / चन्द्रप्रभस्य लक्षणा / सुविधिस्वामिनो रामा। शीतलस्य नन्दा / श्रेयांसस्य विष्णुः / वासुपूज्यस्य जया / विमलस्य श्यामा / अनन्तजिनस्य सुयशाः / धर्मनाथस्य सुव्रता / शान्तिनाथस्य अचिरा / कुन्थुनाथस्य श्रीः / अरस्वामिनो देवी / मल्लिजिनस्य प्रभावती / मुनिसुव्रतस्य पद्मा / नमिनाथस्य वप्रा / अरिटनेमेः शिवा / पार्श्वनाथस्य वामा। वर्द्धमानस्वामिनस्त्रिशला। प्रव०११ द्वार।
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________________ तित्थयर 2266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर तीर्थकरमातृगतिःअहण्हं जणणीओ, तित्थयराणं तु हुंति सिद्धाओ। अट्ठ य सणकुमारे, माहिंदे अट्ठ बोधव्वा / / 327 / / अष्टानां तीर्थकृतामृषभाऽऽदीनां चन्द्रप्रभान्तानां जनन्यो मातरी भवन्ति सिद्धाः, तदनुसुविध्यादीनां शान्तिनाथपर्यन्तानामष्टी जनन्यः सनत्कुमारे तृतीये देवलोके गताः, तथा कुन्थुप्रभृतीनां श्रीमहावीरातानाभष्टौ जनन्यो माहेन्द्रचतुर्थदवलोके गता बोद्धव्या इति / प्रय० 12 द्वार। (110) मोक्षाऽऽसनम्वीरोसहनेमीणं, पलियंक सेसयाण उस्सग्गो। पलियंकासणमाणं, सदेहमाणा तिभागूणं / / 316 / / वीरः१, ऋषभः२, नमिः 3, एतेषां जिनानां पर्याऽऽसनम् / शेपजिनानामुत्सर्ग आसनम्, मोक्षगमने इति शेषः / पर्याऽऽसनमान तुरवदेहमानात तृतीयभागोनं यदा क्रियते, तदा पर्यड्डाऽऽसनमानं भवतीति / सन०१५१ द्वार। मोक्षस्थानानिअट्ठावयचंपुजय--पावासम्मेयसेलसिहरेसु। उसभ वसुपुज्ज नेमी, वीरो सेसाय सिद्धिगया / / अष्टापदचम्पोजयन्तपापासम्मेतशैलशिखरेषु यथाक्रममृषभो वासुपूज्योऽरिष्टनेभिर्वीरो भगवान्, शेषाश्च तीर्थकृतः सिद्धि गताः / अष्टापदे ऋषभस्वामी सिद्धिमगमत् / चम्पायां वासुपूज्यः / उजयन्तेऽरिएनेमिः / भगवान्महावीरः पापायाम् / शेषा अजितस्वामिप्रभृतयः सम्मेतशैलशिखरे इति। आ०म० 101 खण्ड / प्रव० / पञ्चा०। (मोक्षतपः) अधुनाऽन्तक्रियाद्वारावसरः। सा चान्तक्रिया निर्माणलक्षणा, सा कस्य केन तपसा क्व जाता कि यत्परिवृतस्य चेत्येतदभिधित्सुराह-- निव्वाणमंतकिरिया, सा चोद्दसमेण पढमनाहस्स। सेसाण मासिएणं, वीरजिणिंदस्स छटेणं / / सा च निर्वाणलक्षणा अन्तक्रिया प्रथमनाथस्याऽऽदितीर्थकृतचतुर्दशके न पद्धि रुपवासैरभूत् / शेषाणामजितस्वामिप्रभृतीनां पार्श्वनाथपर्थन्तानां द्वाविंशतेस्तीर्थकृता मासिकेन तपसा, मासोपवासेनेत्यर्थः अन्तक्रियाऽभवत्। भगवतो वीरजिनेन्द्रस्य पुनः पष्ठेनद्वाभ्यामुपवासाभ्याम्। आ०म०१अ०१खण्ड। मोक्षनक्षत्राण्याहअभिई मिगसिर अद्दा, पुस्स पुणव्वसु य चित्त अणुराहा। जिट्ठा मूलं पुव्वासाढा धणिठत्तराभद्दा / / 311 / / रेवइ रेवइ पुस्सो, भरणी कत्तिय य रेवई भरणी। सवणऽस्सिणि चित्त विसाह साइ जिणमोक्खणक्खत्ता 312 ऋषभस्याभिजिन्नक्षत्रे निर्वाणम् 1 / एवं सर्वत्र। मृगशिरः 2 / आर्द्रा 3 / पुष्यः 4 / पुनर्वसु 5 / चित्रा 6 / अनुराधा 7 / ज्येष्ठा 8 / मूलम् / / पूर्वाषाढा 10 / धनिष्ठा 11 / उत्तराभाद्रपदा 12 // ३११॥रेवती 13 / / रेवती 14 / पुष्यः 15 / भरणी 16 / कृत्तिका 17 / रेवती 18 / भरणी 16 / श्रवणः 20 / अश्विनी 21 / चित्रा 22 / विशाखा 23 / स्वातिः 24 / एतानि जिनानां क्रमेण मोक्षनक्षत्राणि / सत्त०१४८ द्वार। मोक्षपरिवार:एगो भयवं वीरो, तेत्तीसाएँ सह निव्वुओ पासो। छत्तीसेहिं पंचहिँ ,सएहिँ नेमी उ सिद्धिगतो।। पंचहिँ समणसएहिं, मल्ली संती उ नवसएहिं तु / अट्ठसएणं धम्मो, सएहिँ छहिँ वासुपूजजिणो / / सत्तसहस्साऽणंतइ--जिणस्स विमलस्स छस्सहस्साई। पंचसयाइँ सुपासे, पउमाभे तिण्णि अट्ठ सया।। दसहिँ सहस्सेहुसभो, सेसाउ सहस्सपरिवुडा सिद्धा। वीरो भगवानेक एकाकी सन निर्वृतः। त्रयस्त्रिंशता साधुभिः सह निर्वृतः पार्श्वनाथः / पानिः शतैः षट्त्रिंशः-षट् त्रिंशदधिकैः सह सिद्धिं गतो नेमिररिष्टनेमिः / पञ्चभिः श्रमणशतैः सह परिनिर्वृतो मल्लिस्वामी। नवभिः शतैः परिवृतः शान्तिनाथः / अष्टभिः शतधर्मः / षभिः शतर्वासुपूज्यजिनः सिद्धिं गतः। अनन्तजितो जिनस्य निर्वाणं गच्छतः सप्तसहस्राणि परिवारः / विमलनाथस्य षट् सहस्राणि / पञ्चशतानि सुपार्श्वनाथस्या पद्मप्रभस्य त्रीणि अष्टोत्तराणि शतानि। दशभिः सहस्त्रैः परिवृत ऋषभस्वामी निर्वाणमगच्छत् / शेषास्त्वजितस्वामिप्रभृतय उक्तव्यतिरिक्ताः प्रत्येकं सहस्रपरिवृताः सिद्धाः / आ०म०१ अ०१ खण्ड / प्रव०॥ मोक्षपथ:सुमुणिसुप्तावगरूवो, मुक्खपहो रयणतिगसरूवो वा। सव्यजिणेहिं भणिओ,.......................(३२५) सुमुनयः सुश्रावकास्तद्रूपो मोक्षपथः, रत्नत्रयस्वरूपो वा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपो वा माक्षपथः सर्वजिनैः कथितः। सत्त० 160 द्वार। अथ जिनानां मोक्षमासाऽऽदयः कथ्यन्तेमाहस्स किण्हतेरसि, दोसुंसियचित्तपंचमी नेया। वइसाहसुद्धअट्ठमि, तह चित्ते सुद्धनवमीय // 306|| कसिणा मग्गइगारसि, फग्गुणभद्दवयसत्तमी किण्हा। भद्दवयसुद्धनवमी, वइसाहे बहुलबीया य / / 307 / / कसिणा सावणतइया, आसाढे तहय चउदसी सुद्धा। आसाढकसिणसत्तमि, सियपंचमि चित्तजिट्टेसु॥३०८।। जिटे कसिणा तेरसि, वइसाहे पडिव मग्गसियदसमी। फग्गुणसुद्धदुवालसि, किण्हा नवमीय जिट्ठस्स // 306 / / वइसाहअसियदसमी, आसढे सावणेऽट्ठमी सुद्धा। कत्तियऽमावसि सिवमासमाइभणिया जिणिंदाणी॥३१०।। (माहस्स किण्हतेरसि) माघस्य कृष्णत्रयोदशी ऋषभस्य निर्वाणे 1 / एवं सर्वजिनानां नामपूर्वकं मोक्षगमनमासाऽऽदि वाच्यम् / (दोसु सियचित्तपंचमी नेय त्ति) द्वयोरजितशंभव जिनयोः चैत्रस्य श्वेतपञ्चमी शेया 2 / 3 / (वइसाहसुद्धअहमि) वैशाखमासस्य शुद्धाऽष्टमी 4 / (तह चित्ते सुद्धनवमी य ) तथा चैत्रे शुद्ध-नवमी 5 चेति गाथार्थः / / 306 / / (कसिणा मग्गइगारसि) कृष्णा मार्गशीर्षमासस्यैकादशी 6 / (फगुणभ--
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________________ तित्थयर 2300- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर हवयसत्तमी किण्हा) फाल्गुनमासस्य कृष्णा सप्तमी 7 / भाद्रपदमासस्य कृष्णा सप्तमी 8 / (भद्दवयसुद्धनवमी) भाद्रपदशुद्धनवमी 6 / (वइसाहे बहुलबीया य) वैशाखे कृष्णद्वितीया 10 चेति गाथार्थः 307 / / (कसिणा सावणतइया) कृष्णाश्रावणस्य तृतीया 11 / (आसाढे तह य चउदसी सुद्धा) आषाढे तथा चतुर्दशी शुद्धा श्वेता 12 (आसाढकसिणसत्तमि) आषाढस्य कृष्णा सप्तमी 13 / (सियपंचमि चित्तजिडेसु) श्वेतपञ्चमी चैत्र 14 / जेष्टेऽपि श्वेतपञ्चमी 15 / इति गाथार्थः // 308 // (जिट्टे कसिणा तेरसि) ज्येष्ठे कृष्णा त्रयोदशी 16 / (वइसाहे पडिव मग्गसियदसमी) वैशाखे कृष्णा प्रतिपत् 17 / मार्गशीर्षस्य श्वेतदशमी 18 / (फग्गुणसुद्ध-दुवालसि) फाल्गुनशुद्धद्वादशी 16 / (किण्हा नवमी य जिट्ठरस) ज्येष्ठस्य कृष्णा नवमी 20 चेति गाथार्थः // 306 / / (वइसाहअसि-यदसमी) वैशाखस्य कृष्णदशमी 21 / (आसाढे सावणेऽद्यमी सुद्धा) आषाढे शुद्धाऽष्टमी 22 / श्रावणेऽपि शुद्धाऽष्टमी 23 / (कत्तियऽमावसि) कार्तिकस्याऽभावास्या श्रीवीरस्य निर्वाणे 24 / (सिवमासमा इभणिआ जिणिंदाणं ति) एवं सर्वजिनेन्द्राणां मोक्षमासाऽऽदयो भणिताः। इति गाथार्थः // 310 / / सत्त०१४७ द्वार। मोक्षराशयःमयरो वसहो मिहुणो, दुसु कक्कड कन्न दुसु अली य धणू। धणु कुंभो तिसु मीणो,कक्कड मेसो वसह मीणो / / 313 / / मेसो मयरो मेसो, तिसु तुल एए उ मुक्खरासीओ। (314) ऋषभजिनस्य मोक्षे मकरराशिः 1 / एवं सर्वजिनानां नामपूर्व मोक्षराशयो वाच्याः / वृषः 2 / मिथुनम् ३शद्वयोः-कर्कटः 4, कर्कटः 5 / कन्या 6 / द्वयोः जिनवरयोः-अली च वृश्चिकः 7, वृश्चिकः 81 धनुः / धनुः 10 / कुम्भ:११ / त्रिषु पुनर्जिनेषु-मीनः 12, मीनः 13, मीनः 14 / कर्कटः 15 / मेषः 16 / वृषभः 17, मीनः१८॥३१३|| मेषः 16 / मकरः 20 / मेषः 21 / त्रिषु जिनेषु-तुला 22. तुला 23. तुला 24 / एते तु जिनानां मोक्षराशयः। सत्त०१४६ द्वार। मोक्षविनयः.............,पंचविहो मोक्खविणओ वि। दंसणनाणचरित्ते,तवे य तह ऊवयारिया चेव / एसो हु मोक्खविणओ, दुहा व गिहिमुणिकिरियरूवो 326 दर्शनम्, ज्ञानम्, चारित्राणि, तपः, उपकारिता च / एष पञ्चविधो मोक्षविनयः / द्विविधो वा मोक्षविनयः-गृहस्थक्रियारूपः, मुनिक्रियारूपश्च। सत्त०१६१ द्वार। मोक्षवेलाअवरण्हे सिद्धि गया, संभवपउमाभसुविहिवसुपुज्जा। सेसा उसहाईया,सेयंसंता उ पुव्वण्हे // 321|| धम्मअरनमीवीराऽवररत्ते पुव्वरत्तए सेसा (322) अपराहे पश्चिमप्रहरे सिद्धि गता मोक्ष प्राप्ताः शंभवपद्मप्रभसुवि- | धिवासुपूज्याः / शेषाः ऋषभादिश्रेयांसान्ता अष्टौ जिनाः पूर्वाह सिद्धि गताः / धर्मारनमिवीरा अपररात्रे मोक्षं गताः / शेषा अष्टौ जिनाः पूर्वरात्रे / मोक्षं गताः। सत्त०१५५ द्वार। मोक्षारकशेषकाल:..............ऽरसेसमवि तंतु नियनियाउ विणा / (322) मोक्षारकशेषमपि पूर्ववद् जन्मारकशेषवत्। परन्तु निजनिजायु-विना अरकशेषमानं भवति / तथाहि--ऋषभस्य जन्मारकशेष चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि नवाशीतिपक्षाधिकानि तन्निजायुर्वा निष्कृयते, तदा नवाशीतिपक्षा अवशिष्यन्ते / तत एतावत् श्रीऋषभस्य मोक्षारकशेष भवति। एवं सर्वत्र भावना कार्या / सत्त० 157 द्वार। मोक्षारका:पुव्वं व मोक्खअरया,................... / (322) मोक्षारकः पूर्ववत्। ''अरका संखिज्जकालरूवे'' इत्यादिना प्रोक्त इत्यर्थः / ऋषभस्य तृतीयारके मोक्षः, शेषाणां चतुर्थारके / सत्त० 156 द्वार। मोक्षावगाहनामानम्सव्वेसि सिवोगाहण-तिभागऊणा नियासणपमाणा।। (327) सर्वेषां शिवगतानामवगाहना शरीरमानं तृतीयभागोना निजाऽऽसनप्रमाणात् भवति। सत्त 152 द्वार। (वीराऽऽद्यासनानि 'आसण' शब्दे द्वितीयभागे 470 पृष्ठे निरूपितानि) (अवगाहना'ओगाहणा' शब्दे तृतीयभागे 76 पृष्ठे निरूपिता) (111) अथ राज्यकालमभिधित्सुराहतेसहि पुव्वलक्खा, तिपन्न चउचत्त सडछत्तीसा। गुणतीस सड इगविस, चउदस सङ्घच्छ अद्धद्धं / / 136 / / अजिआओ जा सुविही,पुव्वंगा ताविमेऽहिया नेया। इग चउ अड बारस सोल वीस चउवीस अडवीसा / / 140 / / तो सयलक्ख दु चत्तो, तो सुन्ने तीस पनर पंच तओ। सहस पणवीस तत्तो, पाउणचउवीस इगवीसं // 141 / / सुन्न पनर पण तत्तो, तिसुन्न रजं च चक्किकालो वि। (142) (तेसट्टि पुटवलक्ख त्ति) पूर्वलक्षशब्दस्य दशसु योगात् त्रिषष्टिपूर्वलक्षाणि राज्यकाल ऋषभस्य 1 / एवं नामग्राहं सर्वत्र वाच्यम्। (तिपन्न चउ चत्त सड्ड छत्तीसा) त्रिपञ्चाशल्लक्षपूर्वाणि "अजिआऊ जा सुविहीत्यादिना'' वक्ष्यमाणत्वात् पूर्वाङ्गण एकेन सहितानि 2 / चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वलक्षाणि चतुःपूर्वाङ्ग सहितानि 3 / सार्द्धषट्-त्रिंशत् पूर्वलक्षाणि अष्टपूर्वाङ्गाधिकानि 4 / (गुणतीससड्डइगविस) एकोनत्रिंशत् पूर्वलक्षाणि द्वादशपूर्वधिकानि 51 सार्द्धकविंशतिपूर्वलक्षाणि षोडशपूर्वाधिकानि 6 / (चउदस सङ्कच्छ अद्धऽद्धं) चतुर्दशपूर्वलक्षाणि विंशतिपूर्वाइसहितानि 7 / सार्द्धषट् पूर्वलक्षाणि चतुर्विंशतिपूर्वाङ्ग सहितानि 8 / अर्द्ध पूर्वलक्षम्। कोऽर्थः? पञ्चाशत्पूर्वसहस्राण्यष्टाविंशतिपूर्वाङ्ग सहितानि 6 / केवलमर्द्धपूर्वलक्षं पञ्चाशत् पूर्वसहस्राणीत्यर्थः 10 इति गाथार्थः // 136 / / अथ पूक्तिषु पूर्वेषु पूर्वाङ्ग प्रक्षेप्यमाह-(अजिआओ जा सुविही पुव्वंगा ताविमेऽहिया नेय त्ति) अजितजिनादारभ्य यावत् सुविधिजिनो नवम-जिनो भवति,तावदिमानि वक्ष्यमाणानि पूर्वाङ्गान्यधिकानि ज्ञेयानि / तानि दर्शयति-(इग चउ अड वारस सोल वीस चउवीन
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________________ तित्थयर 2301 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर अडवीस ति) एकं 1, चत्वारि 2, अष्टी 3, द्वादश 4, षोडश 5. विशतिः 6. चतुर्विशतिः 7, अष्टाविंशतिः 8 / योजना तु प्रागेव दर्शितेति गाथार्थः / / / 140 / / (तो सयलक्ख दुचत्त त्ति) ......(? ततः शून्यं राज्याभावः 12 / लक्षशब्दोऽग्रेऽपि योज्यते / त्रिंशल्लक्षवर्षाणि 13 / पञ्चदशवर्षलक्षाणि 14 / ततः पशलक्षवर्षाणि 15 / (सहसपणवीस तत्तो त्ति) सहस्रशब्दस्य नमिजिनं यावद्योगः कृतः पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि 16 / (पाउणचउवीसइगवीसं ति) पादोनचतुर्विशवर्षसहस्राणि 17 एकविंशतिवर्षसहस्राणि 18 / इतिगाथार्थः / / 141 / / (सुन्न पनर पण तत्तो) शून्य राज्याभावः 16, पञ्चदशसहस्राणि वर्षाणाम् 20 / पञ्चवर्षसहस्राणि 21 / ततः (तिसुन्न रज्जं च चक्षिकालो थि) त्रिस्थानेषु शून्यं राज्याभावः 22 / 23 / 24 / राज्य च एतावन्तं कालं जिनानाम् / सत्त० 55 द्वार! (112) अथरुद्रनामान्याहभीमाबलि जियसत्तू, रुद्दे विस्सानलो य सुपइट्ठो। अयलो य पुंडरीओ, अजियधरो अजियनाभो य॥३३८|| पेढालो तह सच्चइ, एए रुद्दा इगारसंगधरा। उसहाजिअ सुविहाई-अडजिण सिरिवीरतित्थभवा / 336 / भीमावलिनामा रुद्रः 1 / जितशत्रुः 2 / रुद्रः 3 / विश्वानलः 4 / सुप्रतिष्ठः 5 / अचलः 6 / पुण्डरीकः 7 / अजितधरः 8 / अजितनाभः 6 // 338 / / पढालः 10 / सत्यकिः 11 / एते रुद्रा रुद्रतपः कारका महामुनय एकादशाङ्गधरा एकादशाङ्गीपाठकाः / (उसहा-जिअ सुविहाईअडजिण सिरिवीरतित्थभव त्ति) ऋषभाजितयोः सुविध्याधष्टजिनानां श्रीवीरस्य च तीर्थे भवाः / एवमेकादशानामपि तीर्थकृती तीर्थेष्वेका- | दशापि रुद्राः। ते च ऋषभशासने भीमावलिनामा जातः 11 अजितशासने जितशत्रुनामा जातः 2 / सुविधिशासने रुद्रनामा 3 : शीतलशासने विश्वानलनामा 4 / श्रेयांसशासने सुप्रतिष्ठनामा 5 / वासुपूज्यशासने अचलनामा 6 / विमल-शासने पुण्डरीकः 7 / अनन्तशासने अजितधरः 8 | धर्मशासने अजितनामः 6 / श्रीशान्तिशासने पेढालः 10 / वीरतीर्थ सत्यकिः 11 // एते एकादश रुद्रा जाताः / सत्त०१६७ द्वार। अथ जिनवराणां प्रसङ्गाद् गणधराऽऽदिमाण्डलिकान्तानामुतमपुरुषाणां देवानां च रूपवर्णनमाहसव्वसुरा जइरूवं, अंगुट्ठपमाणयं विउव्विञ्जा। जिणपायंगुटुं पइ, न सोहए तं जहिंगालो / / 120|| गणहरआहारअणु-त्तरा य जाव णं चक्किवासुबला। मंडलिया जा हीणा, छट्ठाणगया भवे सेसा / / 121 / / (सव्वसुरा जइ रूवं अंगुट्टपमाणयं विउविज त्ति) सर्वे देवाः सम्भूय यद्येक रूपमङ्गुष्टप्रमाणकमङ्गुष्ठमात्रं विकुर्वेयुः (जिणपायं-गुट्ठ पइत्ति) / जिनपादाड् गुष्ठं प्रतिजिनस्य पादौ जिनपादौ तयोर-ड् गुष्ठः जिनपादाङ्गुष्टः, तं प्रति (न सोहए तं जहिंगालो) न शोभते तद्रूपं, यथा अङ्गारो, भगवद्रूपातदङ्गारसदृशं दृश्यते / इति गाथाऽर्थः // 120 / / (गणहर आहारअणुत्तरा यत्ति) गणधराहारकानुत्तराश्च (जावणंचकिवासुबल त्ति) यावद् व्यन्तरचक्रिवासु-देवबलदेवाः (मंडलिआ जा हीण त्ति) माण्डलिका यावत क्रमेण रूपेण हीना भवन्ति / यथा जिनेभ्यो गणधरा रुपेण हीनाः 1 / ततश्चाऽऽहारक शरीरम् शततश्चानुत्तरवासिनः सुरा 3. तता नवमाद्युत्क्रमेण गैवेयकसुराः, ततो द्वादशाद्युत्क्रमेण कल्पवासिनः सुराः, ततो ज्योतिष्कदेवाः, ततो भवनपतिदेवाः, ततो व्यन्तरदेवा रूपेण हीनाः 4 / तेभ्योऽपि चक्रिणो रूपेण हीनाः 5 / ततो वासुदेवा रुपेण हीनाः 6 / ततो बला बलभद्रा रूपेण हीनाः 7 / ततो माण्डलिका रूपेण हीनाः 8 / छट्ठाणगया भवे सेसा)लोकाः षट् स्थानगता भवेयुः। इति गाथार्थः ।।१२१॥सत्त 47 द्वार। (113) साम्प्रतंलाञ्छनान्याहवसह गय तुरय वानर कुंचो कमलं च सत्थिओ चंदो। मयर सिरिवच्छ गंडय, महिस वराहो य सेणो य॥३८१।। वजं हरिणो छगलो, नंदावत्तो य कलस कुम्मो य। नीलुप्पल संख फणी, सीहो अजिणाण चिण्हाई॥३८॥ वृषभः 1 / गजः 2 / तुरगः 3 / वानरः 4 / क्रौञ्चः 5 / कमलं च 6 / स्वस्तिकः 7 / चन्द्रः 8 / मकरः।।श्रीवत्सः 10 गण्डकः 111 महिषः १२शवराहश्च 13 / श्येनश्च 14 // 381 / / वजम् 10 हरिणः 16 / छगलकः 17 / नन्द्यावर्तश्च 18 / कलश: 16 / कूर्मः 20 / नीलोत्पलम् 21 / शड़खः 22 / कणी 23. सिंहश्व 24 जिनानां नाभेयाऽऽदीनां चिह्नानि क्रमेण ज्ञातस्त्यानीति। प्रव०२६ द्वार। लक्षणद्वारम्अट्टत्तरो सहस्सो, सव्वेसिं लक्खणाई देहेसु / (123) अष्टोत्तरसहस्रः-अनाधिकः सहस्रः 1008, सर्वेषां तीर्थपानां शरीरेषु लक्षणानि भवन्ति / सत्त० 44 द्वार। लोकान्तिकदेवैर्बोधनम्सव्वे वि सयंबुद्धा, लोगंतियबोहिया य जीयं ति। (सव्वेसि परिचाओ, संवच्छरियं महादाणं।) सर्व एव तीर्थकृतः स्वयंबुद्धा वर्तन्ते, तथापि लोकान्तिकदेवा-नामियं स्थितिः-यदुत स्वयंबुद्धानपि भगवतो बोधयन्ति, ततो जीतमिति कल्प इति कृत्या लोकान्तिकदेवैबोंधिताः सन्तो निष्क्रामन्ति / आ०म०१ अ०१ खण्ड। आ०चू०। अथवखवर्णानाहपुरिमंतिमतित्थेसु, ओहनिजुत्तीभणियपरिमाणं। सियवत्थं इयराणं, वण्णपमाणेहिँ जहलद्धं // 267|! (पुरिमतिभतित्थेसु) प्रथमजिनतीर्थे अन्तिमजिनतीर्थे च (ओहनिजुत्ती-णियपरिमाणं) ओघनियुक्तिसूत्रोक्तपरिमाणम् (सियवत्थं ति) सित तं वस्त्र ज्ञेयम्। (इअराणं वन्नपमाणेहिं जहलद्ध ति) इतरेषां द्वाविंशलिजिनानां वर्णप्रमाणे : वस्त्रवर्णर्य थालब्धं यथा-प्राप्तम्, अनियतवर्णमनियतप्रमाणं चेत्यर्थः / / 267 / सत्त० 142 द्वार। ___ वर्णं जिनानाम्पउमाभवासुपुजा, रत्ता ससिपुप्फदंत ससिगोरा। सुव्वयनेमी काला, पासो मल्ली पियंगाभा॥३८३।। वरतवियकणयगोरा, सोलस तित्थंकरा मुणेयव्वा / एसो वण्णविभागो, चउवीसए जिणिंदाणं॥३५४।।
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________________ तित्थयर 2302 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर पद्मप्रभवासुपूज्यौ जपायुष्पवद्रता शशिपुष्पदन्तो-चन्द्रप्रभसुविधी शशिगौरी चन्द्रचारुरुची / सुव्रतनेमिनी इन्द्रनीलमणिव कालो। पार्श्वमल्लिजिनो प्रियङ्ग्वाभा, प्रियङ्गुः फलिनीतरुः, तदाभो, नीलावित्यर्थः / वरमकृत्रिम तापितं यत्कनकं तद्वद गीराः शेषाः पोडश तीर्थङ्करा ज्ञातव्याः। एष वर्णविभागश्चतुविंशतेस्तीर्थकराणामिति। प्रव० 30 द्वार। दो तित्थयरा नीलुप्पलसमा वन्नेणं पण्णत्ता / तं जहा- मुणिसुव्वए चेव, अरिट्ठणेमी चेव / दो तित्थयरा पियंगुसमा वन्नेणं पण्णत्ता। तं जहा-मल्ली चेव, पासे चेव / दो तित्थयरा पउमगोरा वण्णेणं पण्णत्ता / तं जहा-पउमप्पहे चेव, वासुपुजे चेव। दो तित्थयरा चंदगोरा वण्णेणं पण्णत्ता। तं जहा-चंदप्पभे चेव, पुप्फदंते चेव। पदा रक्तोत्पलं तद्वद्गौरी, रक्तावित्यर्थः / तथा चन्द्रगोरी चन्द्र-- शुभावित्यर्थः। शेष सुगमम् / स्था०२ ठा०४उ०। (114) अथ तीर्थकृतां पञ्चत्रिंशद्वाग् गुणानाह-- वयणगुणा सग सद्दे, अत्थे अडवीस मिलिय पणतीसं। तेहँ गुणेहिँ मणुण्णं, जिणाण वयणं कमेण इमं / / 202 / / वयणं सक्कयगंभी-रघोसउवयारुदत्तयाजुत्तं / पडिनायकरं दक्खिन्नसहियमुवणीयरागं च / / 203 / / सुमहत्थं अव्वाहयमसंसयं तत्तनिट्ठियं सिटुं। पत्थावुचियं पडिहय-परुत्तरं हिययपीइकरं / / 204 / / अण्णुण्णसाभिकंखं, अभिजायं अइसिणिद्धमजरं च / ससलाहापरनिंदा-वज्जियमपइन्नपसरजुयं / / 205 / / पयमक्खरपयवक्कं , सत्तपहाणं च कारगाइजुयं / ठवियविसेसमुयारं, अणेगजाईविचित्तं च॥२०६।। परमम्मविन्भमाई-विलंबवुच्छेयखेयरहियं च / अदुयं धम्मत्थजुयं, सलाहणिज्जं च चित्तकरं / / 207 / / (वयणगुणा सग सद्दे) भगवद्वचनगुणा एते वक्ष्यमाणा भवन्ति-तत्र शब्दे गुणाः सग। (अत्थे अडवीस) अर्थेऽष्टाविंशतिः / (मिलिअ पणतीसं) उभयेऽपि मिलिताः पशस्त्रिंशत वचनगुणा भवन्ति / (तहि गुणेहि मणुण्णं) तर्गुणमनोज्ञम् (जिणाण वयाणं कमेण इम) जिनानां वचनं क्रमेणे वक्ष्यमाणं ज्ञेयम्। कोऽर्थः? अत्र स्फुटं गुणा न वक्ष्यन्ते, किंतु तैर्विशिष्ट क्रमण वचनं वक्ष्यतीति गाथार्थः ॥२०२सा (वयणं सक्कयगंभीरघोसउवयारुदत्तयाजुत्तं) भगवद्वचनं संस्कृताऽऽदिलक्षणयुक्तम् 1, गम्भीरघोषयुक्तं गम्भीरशब्दोपेतं मेघस्येव 2, उपचारयुक्तमगाम्यमित्यर्थः 3 / उदात्ततायुक्तमुथैर्वृत्तितायुक्तम् 4 ! (पडिनायकर दविखन्नसहिथ प्रतिनादकरं प्रतिरवोपेतम् 5, दाक्षिण्यसहितम, सरलत्वयुक्तं न तु किचिदपि वक्रम 6 / (उवणीअरागं च) उपनीतरागं च मालबकैशिक्यादिग्रामरागयुक्तम् 7 / एते सप्ताऽपि शब्दापेक्षया गुणाः / इतिगाथार्थः // 203 // अथार्थविवक्षया कथ्यन्ते-(सुमहत्थ) सुष्टुमहार्थ बृहृदभिधेयम् 8 / (अव्याहयं) अव्याहतं पूर्वापरवाक्यार्थाविरुद्धम् 6. (असंसय) संशयरहितमसंदिग्धम् 10 / (तत्तनिटिअं) तत्त्वनिष्ठित विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारि 11, (सिह) शिष्टमभिमतसिद्धान्तोक्तार्थ , वक्तुः / शिष्टता सूचक वा 12 // (पत्थावुचिअं) प्रस्तावोचित्त देशकालानुगुणम् 13 / (पडिहयपरुत्तरं) निराकृतान्योत्तर परदूषण--विषयम् 14 (हिअयपीइकर) हृदयप्रीतिकरमिति गाथार्थः 15 // 204: / (अन्नन्नसाभिकखं) मिशः साभिकास मन्योन्यगृहीतं परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षतायुक्तम् 16 / (अभिजायं) अभिजात वक्तुः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकाऽनुसारि 17 / (अइसिणि-द्धमहुरं च ) अतिरिनग्धमधुर च, घृतगुडाऽऽदिवत् सुखकारि 18 (ससलाहापरनिंदावञ्जिअं स्वश्लाघापरनिन्दार्जितमात्मोत्कर्षपरनिन्दाविप्रमुक्तम् 16 / (अपइन्नपसरजुयं) अप्रकीर्णप्रसरयुक्तं सुसंबद्ध सत् प्रसरणयुक्तम्। असंबद्धाधिकारत्यानिविस्तरयोरभावयुक्तमिति गाथार्थः 20 // 2053 / (पयडक्खरपयवक्क) प्रकटाक्षरपदवाक्यं वर्णाऽऽदीनां विच्छिन्नत्वयुक्तम् 21 / (सत्तप्पहाणं च) सत्त्वप्रधानं च साहसोपेतम् 22 / (कारगाइजुअं) कारकाऽऽदियुतम, कारकवचनलिङ्गाऽऽदियुतं तद्विपर्यासरहितम् 23 / (टविअविरलेस) स्थापितविशेषमारोपितविशेष वचनान्तरापेक्षयाऽऽहितविशेषम् 24 // (उआरं) उदारमभिधेयस्याऽर्थस्यातुच्छत्व-युतम् 25 / (अणेगजाईविचित्तं च ) अनेकजातिविचित्र जात्या वर्णनीयं वस्तुस्वरूपवर्णनानि तत्संश्रयाद्विचित्रं 26 , चः पुनरर्थे इति गाथार्थः // 206 // (परमम्मविन्भमाईविलंबवुच्छेअखेअरहिअंच) परमर्मरहित परमर्भानुवघटनस्वरूपम् 27 / विभ्रमाऽऽदिर-हितं विभ्रमो वक्रमनसोभ्रान्तता, स आदिर्येषां विक्षेपाऽऽदीनां ते विभ्रमाऽऽदिमनोदोषास्तैर्विप्रमुक्तम् 28 / विलम्बरहितम् 26 पदवाक्यवर्णाऽऽदीनां व्युच्छेदरहित विवक्षार्थसिद्धिं यावदव्यव-च्छिन्नवचनप्रमेयम् 30 / खेदरहितं च अनायास संभवम् 31 / (अदुयं) अदुतमत्योत्सुक्यरहितम् 32 : (धम्मत्थजुय) धर्मार्थ-युतं धर्माभ्यामनपेतम् 331 (सलाहणिज्जं च श्लाघनीयं च उक्तगुणयोगात् प्रशसनीयम् 34 / (चित्तकर) चित्रकरम उत्पादिताविच्छिन्नकौतूहलम् 35 इति गाथार्थः // 207 // सत्त०६८ द्वार (जिनवण्यतिशयाः ‘अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 32 पृष्ठेदर्शिताः) (115) तीर्थकराणां वादिमुनिसंख्याप्रतिपादनार्थमाहसडछसया दुवालस, सहस्स वारस य चउसयऽन्भहिया। वारेकारससहसा, दससहसा छसय पन्नासा।।३४६|| छन्नउई चुलसीई, बहत्तरी सट्ठि अट्ठपन्ना य। पन्नासा य सयाणं, सीयाला अहव वायाला॥३४७।। बत्तीसा बत्तीसा, अट्ठावीसा सयाण चउवीसा। विसहस्सा सोलसया, चउदस वारस दस सयाइँ / / 348 // अट्ठसया छच सया, चत्तारि सयाइँ हुंति वीरम्भि। वाइमुणीण पमाणं, चउवीसाए जिनवराणं // 346 / / "सच सया'' इत्यादिगाथाचतुष्टयम् / प्रथमजिनस्य वादियतीनां द्वादशसहसाणि सार्द्धपट्शतानि, पञ्चाशदधिकैः षद्धि शतैरधिकानीत्यर्थः। श्रीअजितजिनस्य द्वादशसहस्राणि चतुःशताधिकानि / श्रीशंभवस्य द्वादशसहसाणि / श्रीअभिनन्दनस्य एकादशसहस्राणि। श्रीसुमतिजिनस्य दशसहरमाणि पशाशदधिकषट् शताभ्यधिकानि "छन्नउई" इत्यादिगाथायागुवरावर्ति शतानामिति पदं सर्वत्र संबध्यते। ततः श्रीपद्मप्रभस्य वादिना पम्गवतिः शतानाम्, कोऽर्थः? नवसहस्राणि षट्शतैरधिकानीत
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________________ तित्थयर 2303 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर श्रीसुपार्श्वजिनस्य चतुरशीतिः चतुर्भिः शतैरधिका अष्टौ सहपाणि . चन्द्रप्रभस्य षट् सप्ततिः शतानाम्, षड्डिः शतैरधिकानि सप्त सहरनापीत्यर्थः। श्रीसुविधिजिनस्य पष्टिः शताना, षट् सहसाणीत्यर्थः / श्रीशीतलजिनस्य अष्टपञ्चाशच्छताना, पशसहस्राण्यष्टशताधिकानीत्यर्थः / श्रीश्रेयांसस्य पञ्चाशत् शताना, पञ्च सहस्राणीत्यर्थः / श्रीवासुपूज्यस्य सप्तचत्वा-रिंशच्छतानि, चत्वारि सहसाणि सप्तशताधिकानीत्यर्थः / (अहव वायाल ति) अथवा मतान्तरेणश्रीवासुपूज्यस्य द्विचत्वारिंशच्छतानि, चत्वारि सहस्राणि शतद्वयाधिकानीत्यर्थः / श्रीविमलजिनस्थ द्वात्रिंशच्छतानि, त्रीणि रहखाणि शतद्वयाधिकानीत्यर्थः / श्रीअनन्तजिनस्य द्वात्रिंशच्छतानि। श्रीधर्मजिनस्य अष्टाविंशतिः शताना, सहसद्वयमष्ट-शताधिकमित्यर्थः / श्रीशान्तिनाथस्य शतानां चतुर्विशतिः, द्वेसहस्रेशतचतुथ्याधिके इत्यर्थः / श्रीकुन्थुजिनस्य द्वे सहस्रे। श्रीअरनाथस्य षोडश शतानि, षट् शताधिक सहस्रमित्यर्थः / श्रीमल्लिजिनस्य चतुर्दश शतानि, शतचतुष्टयाधिक सहसमित्यर्थः। श्रीमुनिसुव्रतस्य द्वादशशतानि, सहस्रमेकं शतद्वयाधितमित्यर्थः / श्रीनिमिजिनस्य दश शतानि, सहरसमित्यर्थः / श्रीनेमिलिनस्य अष्टौ शतानि। श्रीपार्श्वजिनस्य षट् शतानि / श्रीवीरजिनस्य चत्वारि शतानि भवन्ति / इति वादिमुनीनां वादसभरेषु सुरासुरैरप्यजेयानां प्रमाण चतुर्विशतेर्जिनवराणामिति / / प्रव० 16 द्वार / स्था०। तीर्थकरविवाहविषयःमल्लिं नेमिं मुत्तुं, तेसि विवाहो य भोगफला। (135) मल्लिजिनं ने मिजिनं च मुक्त्वा, तेषां द्वाविंशतिजिनानामुक्तव्यतिरिक्तानां विवाहश्च जातो भोग्यफलाद्, भोग्यफलकर्मोदयादित्यर्थः / सत्त०५३ द्वार। तीर्थकृतां येषु ग्रामनगराऽदिषु विहार आसीत्तदेवाऽऽहमगहारायगिहाइसु, मुणओ खेत्तारिएसु विहरिंसु / उसभो य नेमि पासो, वीरो य अणारिएसुं पि।। मन्यन्ते स्म जगतः समस्तस्यापि त्रिकालावस्थामिति मुनयो भगवतस्तीर्थकृतः, ते सर्वेऽपि मगधाऽऽदिषु जनपदेषु राजगृहाऽऽदिपु नगरेषु, क्षेत्रार्येषु आर्यक्षेत्रेषु, विहृतवन्तः / इह आर्यक्षेत्रचिन्तायां शारत्रान्तरेषु मगधाऽऽदयो जनपदाः, राजगृहाऽऽदीनि च नगराण्युक्तानीत्यत्रापि "मगहारायगिहाइसु" इत्युक्तम्, अन्यथा ऋषभस्वामिन आदितीर्थकरत्वात्तदनुरोधेन नगरचिन्तायां विनीताऽऽदिष्वित्युच्येतेति / ऋपभस्वामी, अरिष्टनेमिः, पार्श्वनाथो, वीरश्च भगवानित्येते चत्वारस्तीर्थकृतोऽनार्थेष्वपि क्षेत्रेषु विहृतवन्तः। आ०म०१ अ०१ खण्ड। (116) वैक्रियकमुनयःवेउव्वियलद्धीणं, वीससहस्सा य सयछगऽभहिया। वीससहस्सा चउसय, इगुणीससहस्स अट्ठसया // 342 / / इगुणिससहस्स अट्ठार चउसया सोलसहस अट्ठ सया। सतिसय पनरस चउदस,तेरस वारस सहस दसमे // 343 / / इक्कारस दस नव अट्ठ सत्त छ सहस्स एगवन्न सया। सत्त सहस्स सतिसया, दुन्नि य सहसा नवसयाई॥३४४।। दुन्नि सहस्सा पंच य, सहस्स पनरस सयाइ नेमिम्मि। इक्कारससय पासे, सयाइँ सत्तेव वीरजिणे // 345|| ''वेउटिवयलद्धीण'' इत्यादिगाथाचतुष्टयम् / वैक्रि यलब्धिमतां नानाविध क्रियरूपकरणशक्तानां मुनीनामादिजिनेन्द्रस्यविंशतिः सहस्राणि, पट् शताभ्यधिकानि। श्रीअजितजिनस्य विंशतिसहस्राणि सवतुःशतानि, शतचतुएयाधिकानि / श्रीशंभवजिनस्यैकोनविंशतिः सहस्राणि शताष्टकाधिकानि। श्रीअभिनन्दनस्यैकोनविंशतिः सहस्राणि / श्रीसुमतिजिनस्य चतुःशताधिकानि अष्टादश सहस्राणि। श्रीषद्मप्रभस्य पोडश सहस्राणि अष्टोत्तरशताधि-कानि / श्रीसुपाश्वजिनस्य शतत्रयाधिकानि पञ्चदश सहस्राणि। श्रीचन्द्रप्रभस्य चतुर्दश सहस्त्राणि। श्रीसुविधे खयोदश राहसाणि / श्रीशीतलस्य द्वादश सहस्राणि / श्री श्रेयांसस्थकादश सहस्राणि / श्रीवासुपूज्यस्य दश सहस्राणि / श्रीविमलस्य नवसहसाणि / श्रीअनन्तजिनस्याष्टौ सहस्राणि / श्रीधर्मजिनस्य सप्त सहस्राणि। श्रीशान्तिनाथस्य षट् सहस्राणि / श्रीकुन्थुजिनस्थकपशाशत् शतानि, पञ्चसहस्राण्येकशताधिकानीत्यर्थः / श्रीअरजिनस्य सप्त राहस्राणि त्रिभिः शतैरधिकानि। श्रीमल्लिजिनस्य द्वे सहरो नव--शताधिके / श्रीमुनिसुव्रतस्य द्वे सहस्रे / श्रीनमिजिनस्य पञ्चसह-त्राणि / श्रीनेमिजिनस्य पञ्चदशशतानि / श्रीपार्श्वजिनस्य एकादश शतानि / श्रीवीरजिनस्य शतानि सप्तैवेति॥ प्रव०१८ द्वार / आर्यासंग्रहप्रमाणमृषभाऽऽदिजिनानाम्तिणेव य लक्खाई, तिण्णि य तीसाइँ तिन्नि छत्तीसा। तीसा य छच पंच य, तीसा चउरो य वीसाइं। चत्तारि यतीसाइं, तिण्णि असीया य तिण्णि मित्तो य। वीसुत्तरं बलहियं, तिसहस्सऽहियं च लक्खं च / / लक्खं अट्ठ सयाणि य, वासट्ठिसहस्स चउसयसमग्गा। एगट्ठी छच सया, सद्विसहस्सा सया छच्च / / सट्ठि पणपन्न पन्ने-गचत्त चत्तातहऽद्वतीसं च / छत्तीसं च सहस्सा, अज्जाणं संगहो एसो।। भगवत आदितीर्थकरस्थाऽऽर्यिकाणां त्रीणि लक्षाणि / अजितस्वामिनरसीणि लक्षाणि, त्रिशानि-त्रिंशत्सहस्राभ्यधिकानि / शंभवनाथस्य त्रीणि लक्षाणि षट् त्रिंशत्सहस्राभ्यधिकानि। अभिनन्दनस्य षट् लक्षाणि, त्रिंशानि-त्रिंशत् हसाभ्यधिकानि / सुमतिनाथस्य पञ्च लक्षाणि विशत्सहस्राधिक नि। पद्मप्रभस्य चत्वारि लक्षाणि विंशतिसहस्राधिक.नि / सुपार्श्वस्य चत्वारि लक्षाणि त्रिंशत्सहस्राभ्यधिकानि। चन्द्रप्रभस्वामिनस्त्रीणि लक्षाण्यशीतिसहस्रोत्तराणि / सुविधिस्वामिन-स्त्रीणि परिपूर्णानि लक्षाणि / (तिन्नि मित्तो य इति) त्रिलक्षमात्रमायसिंग्रह इति गम्यते इत्यर्थः / शीतलनाथस्य विंशत्युत्तरं विंशतिसहस्राधिक लक्षम् / श्रेयांसस्य षट् सहस्राधिकं लक्षम् / वासुपूज्यस्य त्रिसहरसाधिकं लक्षम्। विमलनाथस्य परिपूर्ण लक्षम्। अनन्तजितो लक्षमेकमही च शतानि / धर्मनाथस्य द्वाषष्टिसहस्राणि चतुःशतसमग्राणिवतुः शताभ्यधिकानि। शान्तिनाथस्य एकषष्टिः सहस्राणि पट्शतानि / कुन्थुनाथस्य षष्टिः सहस्राणि षट्शतानि। अरनाथस्य षष्टिः राहगाणि / मल्लिस्वामिनः पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि / मुनिसुव्रतस्वामिनः पक्षाशत्सहस्राणि / नभिनाथस्यैकचत्वारिंशत्सहस्राणि / अरिहने मश्वत्वारिंशतसहसाणि / पार्श्वनाथस्याऽष्टात्रिंशत्सरमाणि /
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________________ तित्थयर 2304 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः षट् त्रिंशत्सहस्राणि / एवमृषभाऽऽदीनां जिनाना यथाक्रममार्थिकासंग्रहः। आ०म०१ अ०१ खण्ड। सर्वसंयतीना संख्याचोआलीसं लक्खा, वायालसहस्स चोसयसमग्गा। अज्जाछक्कं एसो, अजाणं संगहो कमसो॥३४१।। चतुश्चत्वारिंशल्लक्षाणि षट् चत्वारिंशत्सहरीश्चतुःशताधिकः समग्राणि पूर्णाणि आर्याषट्कं च, एष आर्यिकाणां संग्रह इति / प्रव० 16 द्वार। अथ मुनिस्वरूपम्पढमियरवीरतित्थे, रिउजड-रिउपन्न-वक्कजडा (263) प्रथमजिनतीर्थे मुनयः ऋजुजडाः, इतरस्मिन् मध्यमजिनतीर्थे ऋजुप्राज्ञाः , वीरतीर्थे मुनयो वक्रजडाः / सत्त० 136 द्वार / संयतप्रमाणम्चुलसीइंच सहस्सा, एगं च दुवे य तिणि लक्खाई। तिण्णि य वीसहियाई,तीसऽहियाइंच तिन्नेव / / तिन्नि य अड्डाइजा, दुवे य एगं च सयसहस्साइं। चुलसीइं च सहस्सा, विसत्तरं अट्ठसर्व्हि च / / छावडिं चोवडिं, बावहिँ सद्विमेव पन्नासा। चत्तातीसा वीसा, अट्ठारस सोलस सहस्सा / / चोद्दस य सहस्साइं, जिणाण जइसीससंगहपमाणं / भगवत ऋषभस्वामिनश्चतुरशीतिसहस्राणि श्रमणानाम / एकं लक्षमअजितस्य / द्वे लक्षे शम्भवनाथस्य / त्रीणि लक्षाणि अभिनन्दनरय / सुमतेः त्रीणि लक्षाणि विंशतिसहस्राभ्यधिकानि / पद्मप्रभस्य त्रीणि लक्षाणि त्रिशत्सहस्राधिकानि। सुपार्श्वस्य त्रीणि लक्षाणि। चन्द्रप्रभस्य अतृतीयानिलक्षाणि / सुविधलक्षे। शीतलस्य एक लक्षम्। श्रेयांसस्य चतुरशीतिः श्रमणानां सहस्राणि। वासुपज्यस्य द्वासप्ततिः सहस्राणि / विमलस्य अष्टषष्टिः सहस्राणि। अनन्तजिनरय षट्षष्टिः सहस्राणि / धर्मनाथस्य चतुःषष्टिः सहस्राणि / शान्तिनाथस्य द्वाषष्टिः सहस्त्राणि / कुन्थुनाथस्य षष्टिः सहस्राणि / अरनाथस्य पञ्चाशत्सहस्राणि / मल्लिनाथस्य चत्वारिंशत्सहस्राणि / मुनिसुव्रतस्वामिनस्त्रिंशत्सहस्राणि / नमिस्वामिनो विंशतिः सहस्राणि / अरिष्टनेमेरष्टादश सहस्राणि / पार्श्वनाथस्य षोडश सहस्राणि / भगवतो महावीरस्य चतुर्दश सहस्राणि / एतद्यतिशिष्यसंग्रहप्रमाणं जिनानामृषभाऽऽदीनां यथाक्रममवसातव्यम्। आ०म०१ अ०१खण्ड। एतेषां सर्वसङ्ख्यामीलनेन यद् भवति तदाहअट्ठावीसं लक्खा, अडयालीसं च तह सहस्साई। सव्वेसिं पिजिणाणं, जईणं माणं विणिघि8 / / 336 / / / (अट्ठावीसमित्यादि) अष्टाविंशतिर्लक्षाणि अष्टचत्वारिंशच तथा सहस्राणि सर्वेषामपि जिनानां संबन्धिनां यतीनां मानं परिमाणं विनिर्दिष्ट विनिश्चितमेतच ये श्रीजिनेन्द्रर्निजकरकमलेन दीक्षितास्तेषामेवैकत्र पिण्डिततापरिमाणं, न पुनर्गणधराऽऽदिभिरपि ये दीक्षिताः, तेषामतिबहुत्वादिति। प्रव०१७ द्वार। तीर्थकृतां संयमनिरूपणम्..............सं-जमो य पढमंतिमाण दुविगप्पो। सेसाणं सामइओं, सत्तरसंगो य सव्वेसिं / / संयमोऽपि सामायिकाऽऽदिरूपः प्रथमान्तिमजिनयोद्धिविकल्पः। इत्वर | सामायिक, छंदोपस्थापनीयं चेत्यर्थः / शेषाणां मध्यमानां द्वाविंशतितीर्थकृतां यावत्कथिकमेवेक सामायिक, न शेष छेदोपस्थापनाऽऽदि, तथाकल्पत्वात् / सप्तदशाङ्गः सप्तदशभेदः, चः पुनरर्थे / सर्वेषां तीर्थकृतामभूत् / ते च सप्तदश भेदा अमी- 'पञ्चास्रवाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः / दण्डत्रयविरतिश्चेतिसंयमः सप्तदशभेदः ||1||" आ०म०१अ०१ खण्ड। (117) इदानी परित्यागद्वारमाहसंवच्छरेण होही, अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदाणं / तो अत्थसंपयाणं, पवत्तए पुव्वसूरम्मि।। संवत्सरेण जिनवरेन्द्राणामभिनिष्क्रमण भविष्यति, ततोऽर्थ-संप्रदानमर्थस्य सम्यक् तीर्थप्रभावनाबुद्ध्या, अनुकम्पाबुद्ध्या च. न तु कीर्तिबुद्ध्या , प्रदान जनेभ्यः प्रवर्तत पूर्वसूर्ये ,पूर्वाह्न इत्यर्थः। कियत्प्रतिदिवसं दीयते? इत्याहएगा हिरण्णकोडी, अद्वैव अणूणगा सयसहस्सा। सूरोदयमाईयं, दिजइ जा पायरासाओ / / एका हिरण्णस्य कोटी अष्टौ चाऽन्यूनानि परिपूर्णानि शतसहस्राणि लक्षाणि इति प्रतिदिवस दीयते / कथं दीयते? इत्याह-सूर्योदय आदौ यस्यदानस्य तत्सूर्योदयाऽऽदि, क्रियाविशेषणभेतत्। सूर्योदयादारभ्य दीयते इति भावः / कियन्त कालं यावदित्याह-प्रातराशात्-प्रातः प्रभाते अशनमाशः, प्रातराशः, तस्मात्तमभिव्याप्य, प्रातर्भोजनकालं यावदिति भावः। यथा दीयते तथा प्रतिपादयन्नाहसिंघामगतिगचउक्क-चच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु। दारेसु पुरवराणं, रत्थामुहमज्झकारेसु / / शृङ्गाटक नाम-शृङ्गाटकाऽऽकृतिपथयुक्तं त्रिकोणं स्थानम्, त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति, चतुष्कं चतुष्पथसमाहारः, चत्वरं बहुरथ्यापातस्थानम्, चतुर्मुखं यस्माचतसृष्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति, महापथो राजपथः, शेषः सामान्यः पन्थाः पथः। ततएतेषां द्वन्द्वः। तथा पुरवराणां द्वारेषु, प्रतोलीष्वित्यर्थः / तथा-रथ्याना मुखानि-प्रवेशाः, मध्यकारा मध्य एव, काराशब्दस्य स्वार्थिकत्वात्, रथ्यामुखमध्यकाराः तेषु। किमित्याहवरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिजए बहुविहीए। सुरअसुरदेवदाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे / वरं याचध्व वर याचध्वमित्येवं घोषणा समयपरिभाषया वरवरिकोच्यते / सा वरवरिका पूर्व शृङ्गाटकाऽऽदिषु घोष्यते / ततः कः किमिच्छति?-यो यदिच्छति तस्य तदान समयपरिभाषयैव किमिच्छिकमुच्यते, किमिच्छिकं यथा भवति एवं दीयते। व? इत्याहसुरैर्वैमानिकज्योतिष्कैरसुरैर्भवनपतिव्यन्तरैः, देवदान-वनरेन्ट्रैरिति। इन्द्रग्रहणं प्रत्येकमभिसंबध्यते-देवेन्द्रैः शक्राऽऽदिभिः, दानवेन्द्रैश्चमरेन्द्राऽऽदिभिः, नरेन्द्रैश्चक्रवर्तिप्रभृतिभिर्महितानां भगवतां तीर्थकृता निष्क्रमणे इति। साम्प्रतमेकैकेन तीर्थकृता कियद्दव्यजातं संवत्सरेण दत्त मित्येतत्प्रतिपादयन्नाहतिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीयं ति हों ति कोडीओ।
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________________ तित्थयर 2305 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर असिइंच सयसहस्सा,एवं संवच्छरे दिण्णं / / त्रीण्येव कोटिशतानि, अष्टाशीतिश्च भवन्ति कोटयः, अशीतिश्व शतसहस्राणि 3888000000, एतावत्प्रमाणमेकैकेन तीर्थकृता संवत्सरे दत्तम् / एतश्च प्रतिदिनदेयं त्रिभिः षष्ट्यधिकैर्वासरशतैर्गुणयित्वा परिभावनीयम्। आ०म०१अ०१ खण्ड। ('दाण'- 'महादाण' शब्देऽस्य महादानत्वं वक्ष्यते, हारिभद्राष्टके, पत्रचाशकेचाऽस्य प्रयोजनं फलं च) (118) श्राविकाभानमाहपढमस्स पंच लक्खा, चउपन्न सहस्स तयणु पण लक्खा। पणयालीस सहस्सा, छ लक्ख छत्तीस सहसा य॥३७०।। सत्तावीस सहस्सा-ऽहिय लक्खा पंच पंच लक्खा य। सोलससहस्सअहिया, पण लक्खा पंच उ सहस्सा // 371 / / उदरिं चउरो लक्खा, धम्मो जा उवरि सहस तेणवई। इगनवई इगहत्तरि, अडवन अडयाल छत्तीसा॥३७२।। चउवीसा चउदस ते-रसेव तत्तो तिलक्ख जा वीरो। तदुवरि तिनवइ इगासी, विसत्तरी सयरि पन्नासा // 373 / / अडयाला बत्तीसा, इगुणचतऽट्ठारसेव य सहस्सा। सढीण माणमेयं, चउवीसाए जिणवराणं // 374 / / तत्र प्रथमस्याऽऽदिजिनस्य श्राविकाणां पञ्च लक्षाणि चतुः पञ्चाशत्सहयाधिकानि / तदन् प्रथमतीर्थकरादनन्तरम् अजितस्य श्राविकाणां पञ्च लक्षाणि पञ्च चत्वारिंशत्सहस्राधिकानि / श्रीशंभवस्य षट् लक्षाणि षट् त्रिंशत्सहस्राणि च / अभिनन्दनस्य सप्तविंशतिसहस्राधिकानि लक्षाणि पञ्च / सुमतिजिनस्य लक्षाणि पञ्चषोडशसहस्राधिकानि / श्रीपद्मप्रभस्य लक्षाणि पञ्च पशसहरत्राधिकानि / इत उपरि पद्मप्रभादारभ्य धर्मजिनं यावत् श्राविकाणां चत्वारि लक्षाणि / प्रत्येकमुपरि च त्रिनवत्यादीनि सहस्राणि / कोऽर्थः?-सुपार्श्वस्य श्राविकाणां लक्षचतुष्टयं त्रिनवतिसहस्राधिकम्। चन्द्रप्रभस्य लक्षचतुष्टयमेकनवतिसहस्राधिकम्।सुविधेर्लक्षचतुष्टयमेकसप्ततिसहस्राधिकम्। शीतलस्य लक्षचतुष्टयमष्ट-पञ्चाशतसहस्राधिकम्। श्रेयांसस्यलक्षचतु यमष्टचत्वारिंशत्सहस्राधिकम् / वासुपूज्यस्य लक्षचतुष्टयं षट् त्रिंशत्सहस्राधिकम्। विमलस्य लक्षचतुष्टयं चतुर्विशतिसहस्राधिकम्। अनन्तस्य लक्ष--चतुष्टयं चतुर्दशसहस्राधिकम् / धर्मस्य लक्षचतुष्टय त्रयोदशसहस्राधिकम् / ततः श्रीशान्तिनाथादारभ्य प्रत्येक लक्षत्रयं श्राविकाणां यावन्महावीरम्, तदुपरि च त्रिनवत्यादीनि सहस्राणि / तत्र श्रीशान्तेलक्षत्रयं त्रिनवतिसहस्राधिकम्। कुन्थोर्लक्षत्रयमेकाशीतिसहसाधिकम्। अरजिनस्य लक्षत्रयं द्विसप्ततिसहस्राधिकम् / मल्लेर्लक्षत्रयं सप्ततिसहस्राधिकम् / मुनिसुव्रतस्य लक्षत्रयं पञ्चाशत्सहस्राधिकम् / श्रीनमेर्लक्षत्रयमष्टचत्वारिंशत्सहस्राधिकम्। श्रीनेमेर्लक्षत्रयं षट्त्रिंशत्सहस्राधिकम् / श्रीपार्श्वस्य लक्षत्रयमेकोनचत्वारिंशत्सहस्राधिकम् / वीरजिनस्य च लक्षत्रयमष्टादशसहसैरधिकम् / श्राविकाणां मानमेतत् चतुर्विशतिजिनानाम्। प्रव० 25 द्वार। सर्वसंख्याइगकोडी पणलक्खा, अडतीससहस्स सडीओ।।३४६।। सर्वेषां जिनानां पिण्डीकृता एका कोटिः, पञ्च लक्षाणि, अष्टत्रिं- शतसहस्राणि श्राविकाः 10538000 / सत्त० 115 द्वार। (116) उत्कृष्टजघन्याभ्यां विचरतां तीर्थकृता संख्या, तथा त्कृएजन्याभ्या तेषां जन्मसंख्या चाऽऽहसचरिसयमुक्कोसं, जहन्न वीसा य दस य विहरंति। जन्म पइ उकोसं, वीस दस य हुतिहु जहन्ना / / 326 / / सात्यधिकं शतमुत्कृष्टत एककालं तीर्थकृतः समयक्षेत्रे विहरन्ति, पञ्चसु भरतष्येकेकस्य भावात, ऐरवतेष्वपि पञ्चसु तावतां भावात्, पञ्चसु महाविदहेषु प्रत्येक द्वात्रिशता विजयैः कलितेषु तीर्थकृतां षष्ट्यधिकशतस्य सद्भावादेतत्संख्यायाः सम्भव इति / तथा-जधन्यतो विंशतिस्तीर्थकृत एककालं विहरमाणाः प्राप्यन्ते / तथाहि-जम्बूद्वीपस्य पूर्व विदेहे शीतामहानद्या द्विभागीकृते दक्षिणोत्तरदिग्भागेनैकैकस्य सद्भावाद् द्वौ, अपरविदेहे शीतोदाया महानद्या द्विभागीकृते तथैव द्वौ जिनेन्द्रौ, मिलिताश्चत्वारः; एवमपरद्वीपद्वयसंबन्धिमहाविदेहचतुष्टयेडपि चत्वारश्वत्यार इति पञ्चचतुष्कका विंशतिः, भरतैरावतयोस्तु एकान्तसुषमाऽऽदावभाव एव / अन्ये तुसूरयोदशैव जघन्यतो विहरन्तीति मन्यन्ते, पञ्चानां महाविदेहाना पूर्वापरविदेहयोः प्रत्येकमेकैकस्य विहरतः सद्भावेन दशानामेव तीर्थकृता प्राप्यमाणत्वात् / तथा-जन्म प्रति जन्माऽऽश्रितोत्कृष्टत एक कालं विहरवमाणजिनविंशतिवद् विंशतिस्तीर्थकृतो भवन्ति / यतः सर्वेषामपि तीर्थकृतामर्द्धरात्रसमय एव जन्म, ततो महाविदेहेषु तीर्थकृज्जन्मसमये भरतैरावतक्षेत्रेषु दिवससद्भावेन तीर्थकृदुत्पन्नत्वादेतावन्त एव प्राप्यन्ते। ननु महाविदेहवर्त्तिषु विजयेषु चतुभ्योऽधिकानामपि तीर्थकृतामुत्पत्तेः संभवात् कथमुत्कृष्टपदे विंशतिरेवेति? उच्यते-इह हि मेरौ पण्डकवने चूलिकायाश्चतसृषु पूर्वाऽऽदिषु दिक्षु प्रत्येक चतुर्योजनप्रमाणबाहल्याः पचयोजनशतप्रमाणाऽऽयामा मध्यभागेऽद्धतृतीययोजनशतप्रमाणविष्कम्भा अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताः सर्वश्वेतसुवर्णमय्यश्चतस्रोऽभिषेकशिलाः, तत्र चूलिकायाः पूर्वदिग्भाविन्यां पाण्डुकम्बलशिलाया द्वे तीर्थकराभिषेकसिंहासने / तद्यथा-एकमुत्तरतः, एकं दक्षिणतः / तत्र ये शीताया महानद्या उत्तरतः कच्छाऽऽदिषु विजयेषु तीर्थकरा उपजायन्ते, ते औत्तराहे सिंहासने सुरेन्द्रैरभिषिच्यन्ते / ये पुनः शीताया महानद्या दक्षिणतो मङ्गलावतीप्रमुखेषु विजयेषूत्पद्यन्ते, ते दाक्षिणात्ये सिंहासनेऽभिषिच्यन्ते / तथा चूलिकायाः पश्चिमदिग्भाविन्यां रक्तकम्बलशिलाया द्वे सिंहासने / तद्यथा-एकमुत्तरतः, एकं दक्षिणतः / तत्र शीतोदाया महानद्या दक्षिणतः पद्माऽऽदिषु विजयेषु तीर्थकरा उत्पद्यन्ते, ते दाक्षिणात्ये सिंहासनेऽभिषिच्यन्ते। ये तु शीतोदाया महानद्या उत्तरतो गन्धिलावतीप्रमुखेषु विजयेषु जायन्ते, ते उत्तराहे सिंहासने / तथा चूलिकाया दक्षिणदिग्भाविन्यामतिपाण्डुकम्बलशिलायां ये भरतक्षेत्रसमुद्भवास्तीर्थकरास्तेऽभिषिच्यन्ते / उत्तरदिग्भाविन्यां त्वतिरक्तकम्बलशिलायाभैरवतक्षेत्रसमुद्भवास्तीर्थकरास्तेऽभिषिच्यन्ते। सिंहासनानि च सर्वरत्नमयानि सर्वाण्यपीत्येवं पञ्चधनुः शताऽऽयामविष्कम्भान्यर्द्धतृतीयधनुः शतबाहल्यानीति। ततः समधिकाभिषेकसिंहासनाभावादेव विदेहेषु चतुभ्यो ऽधिकानां तीर्थकृतामेककालमुत्पत्त्यभावइति।। जघन्यतः पुनर्दशैव एककालमुत्पद्यन्ते, पञ्चसु भरतेषु पञ्चसु चैरवतेपु प्रत्येकमेकैकस्य सद्भावात्। भरतैरवतेषु हि जिनजन्मसमये महाविदेहेपु दिनसद्भावान्नाधिकानामुत्पत्तिरिति / प्रव० 13-14 द्वार /
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________________ तित्थयर 2306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर (120) सर्वायु:चउरासीइ विसत्तरि, सट्ठी षण्णासमेव लक्खाई। चत्ता तीसा वीसा, दस दो एगं च पुव्वाणं / / चउरासीइं वाव-त्तरी य सट्ठी य होइ वासाणं / तीसा य दस य एगं, च एवमेए सयसहस्सा / / पंचाणउइसहस्सा, चउरासीई य पंचपण्णा य। तीसा य दस य एग, सयं च बावत्तरी चेव।। भगवत आदितीर्थकरस्य सर्वायुश्चतुरशीतिपूर्वाणा लक्षाणि / अजितस्वामिन्नों द्वासप्ततिः पूर्वलक्षाणि / शंभवनाथस्य षष्टिः पूर्वलक्षाणि / अभिनन्दनस्य पञ्चाशत्पूर्वलक्षाणि / सुमतेश्चत्वारिंशत / पद्मप्रभस्य त्रिंशत् / सुपार्श्वस्य विशतिः / चन्द्रप्रभस्य दश पूर्वलक्षाणि / सुविधेट्टै पूर्वलक्षे। शीतलस्यक पूर्वलक्षम्॥ श्रेयासस्य चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि / वासुपज्यस्य द्विसप्ततिवर्षलक्षाणि। विमलस्य षष्टिवर्षलक्षाणि / अनन्त - जितस्त्रिंशद् वर्पलक्षाणि / धर्मस्य दशवर्षलक्षाणि / शान्तिनाथस्यक वर्षलक्षम् / कुन्थुनाथस्य पञ्चनवतिवर्षसहस्त्राणि / अरनाथस्य चतुरशीतिवर्षसहस्राणि / मल्लिस्वामिनः पञ्चपञ्चाशद्वर्पसहस्राणि / मुनिसुव्रतस्य त्रिंशद्वर्षसहस्राणि / नमिनाथस्य दशवर्पसहखाणि / अरिष्टनेमेरेक वर्ष-सहसभा पार्श्वनाथरयैक वर्षशतम। बर्द्धमानस्वामिनो द्वासप्तति-वर्षाणि / आ०म०१ अ०१खण्ड। सामान्यमुनिसंख्यागणहरकेवलिमणओ-हिपुद्विवेउव्विवाइणं संखं / मुणिसंखाए सोहिय, नेया सामन्नमुणिसंखा / / 267 / / गाणधराः 1, केवलिनः 2, मनःपर्यवज्ञानिनः 3, अवधिज्ञानिनः 4, पूर्वधराः५, वैक्रियलब्धयो 6. वादिनश्च 7, एलेपा संख्या (मुणि-संखाए सो हिय ने आ सामन्नमुणिसं खा) मुनिसंख्याया: 'चुलसिराहसतेलक्खा'' इत्याधुक्तायाः शोधयित्वा निष्कास्य सामान्यमुनिसंख्या ज्ञेया। कोऽर्थः?-यस्य यावन्तो मुनयो भवन्ति, तेभ्यस्तगणधराऽऽदयः पृथक क्रियन्ते,यावन्तोऽवशिष्यन्ते, तावन्त-स्तस्य सामान्यमुनयो भवन्तीति गाथार्थः / / 267 // एगुणवीस य लक्खा, तह छासीई हवंति सहसाई। इगवन्नाअहियाई, सामन्नमुणीण सव्वग्गं / / 268|| एकोनविंशतिलक्षाणि (तह छासीई हवंति सहसाई) तथा लक्षोपरि / पडशीतिसहस्राणि (इगवन्नाअहिआई) एकपञ्चाशदधिकानि (सामन्नमुणीण सव्वगं) एतत् सामान्यमुनीनां सर्वाग सर्वसंख्या ज्ञेया। अङ्कतो यथा-१९८६०५१॥ इति गाथार्थः / 268|| सत्त० 122 द्वार। पण्डितहर्षगणिकृतप्रश्नो यथा-तीर्थकराणां चतुर्दशसहस्राऽऽदिका साधुसंख्योक्ता, चतुर्दशपूर्यादयः किं तत्संख्यामध्ये गण्यन्ते, यदि वा ते भिन्नाः? इति प्रश्ने, उत्तरम्-तीर्थकराणां चतुर्दशपूर्यादयश्वतुर्दशसहस्राऽऽदिपरिवारसंख्यामध्ये गण्यन्ते, न वेति प्रश्नमाश्रित्य''गणहरकेवलिमणओ-हिपुविवेउव्विवाइणं संखं / गुणिसखाए सोहिअ, नेया सामन्नमुणिसंखा / / 1 / / एगुणवीस य लक्खा, तह छासीई हवंति सहसाई। इगवन्नाअहियाई. सामन्नभुणीण सव्वग्ग'' ||2|| तथाअट्ठावीस लक्खा, अडयालीसं च तह सहस्साई। सवेसि पि जिणाणं, जईण माणं विणिद्दिट्ट // 3 // " इति ववनयोरनुसारेण यथोक्तसंख्यामध्ये गण्यन्ते चतुर्दशपूर्यादय इति सम्भाव्यते। तथा"पञ्चाशीतिसहस्राणि, लक्षं सार्द्धशतानि षट्। परिवारेऽभवन् सर्वे, मुनयरित्रजगद्गुरोः॥१॥" एतदनुसारेण च श्रीऋषभदेवस्य चतुरशीतिसहस्रसंख्यातो भिन्ना एव ते इति। यतः सामान्यसाधुविशेषसाधुसंख्यामीलनेन यथो-क्तसंख्या संभावनया पर्यभाणाऽस्तीति / तत्त्वं तु सर्वविद्वेद्यमिति / / 7 प्र०ा ही०२ प्रका० सामायिकम्वावीसं तित्थयरा, सामाइयसंजमं उवइसंति। छेओवट्ठावणिअं, वयंति उसभो अ वीरो अ॥२०॥ द्वाविंशतिस्तीर्थकरा मध्यमाः सामायिकसंयमम् (उवइ) उपदिशन्ति। यदेव सागायिकमुच्चार्यते तदैव व्रतेषु स्थाप्यते / छेदोपस्थापनिक पुनर्वदतः-ऋषभश्च, वीरश्च। एतदुक्तं भवति-प्रथम-तीर्थकरचरमतीर्थकरतीर्थ हि प्रव्रजितमात्रः सामायिकसंयतो भवति तावद्यावच्छस्त्रपरिज्ञाऽवगमः, एवं हि पूर्वमासीत् / अधुना तु पड् जीवनिकायावगम यावत्, तया पुनः सूत्रतोऽर्थतश्वावगतया सम्यगपराधस्थानानि परिहरन्द्रतेषु स्थाप्यत इत्येवं निरतिचारः, साऽतिचारः पुनर्मूलस्थानं प्राप्त उपस्थाप्यत इति।।२०।। आव०४ अ० (विशेषस्तु 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे 234 पृष्ठे गतः) अथ सामायिकसंख्यामाहसव्वेहि चउसमइआ, सम्मसुयदेससव्वविरईहिं। भणिया सागरकोडा-कोडीसेसेसु कम्मेसु / / 285 / / (भणिय ति) सर्वर्जिनः चत्वारि सामायिकानि भणितानि / ह्र-- स्वत्वपुंस्त्वनिर्देशरन्तु प्राकृतत्वात् / तानि काभिरित्याह- (सम्मसुघदेससध्यविरईहि) सम्यक्त्वश्रुतदेशसर्वविरतिभिः-सम्यक्त्वसामायिकम्, श्रुतसामायिकम् , देशविरतिसामायिकम्, सर्वविरतिराामायिक चेति / एतानि कदा भवन्तीत्याह-(सागरकोडाकोडीससेसु कम्मेसु) सागरकोटाकोटीशेषेषु कर्मसु, जीवानामि-- त्याहार्यम्। ततश्वायं समुदायार्थः-जीवानामेककोटाकोटीस्थि-तिकेषु सप्तरवपि कर्मसु, आयुषस्तु स्वभावत एककोटिकमध्य-स्थितिकत्वात् चत्वारि सामायिकानि भवन्तीति सर्जिनैर्भणित-मिति गाथार्थः // 285 / / सत्त० 132 द्वार। (अस्य स्वरूपं विशेषतः 'सामाइय' शब्दे वक्ष्यते) (121) श्रावकव्रतसख्यासड्डाणं हिंसालिय-अदत्तमेहुणपरिग्गहणिवित्ती। इय पण अणुव्वयाई, साहूण महव्वया एए॥२७५|| दिसिविरई भोगुवभो-गमाण तहऽणत्थदंडविरई य। समइय देसऽवगासिय, पोसह तिहिँ संविभागवया // 276|| प्रथम श्राद्धानां सम्यक्त्वपूर्वक हिंसाऽऽलीकादत्तमै थुनपरिग्रहाणा निवृत्तिः प्रत्याख्यानम् 5 / (इय पण अणुव्वयाई ति) एतानि पशाणुव्रतानि, हिंसाऽऽदिभ्यो देशतो निवृतिरूपत्वात् / (साहूण महत्वया एए ति) एतानेव पशापि साधना महाव
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________________ तित्थयर 2307 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर तानि, हिंसाऽऽदिभ्यः सर्वतो निवृत्तिरूपत्वात्। इति गाथार्थः / / / 275 / / अथ श्राद्धानां त्रीणि गुणव्रतान्याह-(दिसिविरई भोगु-वभो-गमाण तहऽणत्थदंडविरई यत्ति) दिग् विरतिः६, भोगोप-भोगमानं 7, तथाऽनर्थदण्डविरतिश्चेति त्रीणि गुणव्रतानि / अथ चत्वारि शिष्यव्रतान्याह-(समइय देसऽवगासिअ पोसह तिहि संविभागक्या) सामायिकम् 6, देशावकाशिकम् 10, पौषधः 11, अतिथिसंविभागः 12 / एतानि व्रतानि गृहमेधिनां ज्ञेयानीति गाथार्थः / / 276 / / सत्त० 127 द्वार। साधुव्रतसंख्यासाहुगिहीण वयाई, कमेण पण वार पढमचरिमाणं / अन्नेसिंचउ बारस, चउत्थपंचमवएगत्ता / / 274 / / श्रीऋषभतीर्थे, श्रीवीरस्य तीर्थे च साधूनां पञ्च महाव्रतानि, श्राद्धानां द्वादश व्रतानि, (अन्नेसिं चउ बारस चउत्थपंचमवएगत्ता) अन्येषा द्वाविंशतिजिनाना तीर्थे चत्वारि व्रतानि साधूनां, श्राद्धाना द्वादश व्रतानि / कस्मात्? चतुर्थपञ्चमव्रतेकत्वात् चतुर्थपञ्चमव्रतयोरेकत्वाद् भेदात्, परिग्रहप्रत्याख्याने कृते स्त्रीप्रत्याख्यानं कृतमेव, स्त्रीणामपि परिग्रहरूपत्वात, परिग्रहमन्तरेणाऽसंभवाच / / इति गाथार्थः / / 274 / / सत्त०१२७ द्वार। (122) अथ तीर्थकरमातुः चतुर्दश स्वप्नानाहगय वसह सीह अभिसे-य दाम ससि दिणयरं झयं कुंभ। पउमसर सागर विमाण भवण रयणऽग्गि सुविणाई 70 / / गजः 1, वृशभः 2, सिंह 3. लक्ष्म्या अभिषेकः ४.(दाम ससि दिणयरं झयं कुंभ) पुष्परस्त्रक् 5, चन्द्र 6, दिन करोतीति दिनकरः सूर्यः७,ध्वजः, 8 कुम्भः पूर्णकलशः 6, (पउमसरसागरविमाण) पद्मसरः 10, सागरः समुद्रः 11, विमानम् 12 // (भवणरयणऽगि सुविणाई ति) भवनम 12, रत्नोपचयः 13. निधूमाग्निश्चेति 14 स्वप्ना ज्ञेयाः। इति गाथार्थः / / 70 / / स्वप्नाकारणान्याहनरयउवट्टाण इह, भवणं सग्गचुयाण उ विमाणं। वीरुसहसेसजणणी, नियंसु ते हरिविसहगयाइँ / 71 / / नरकोट्टताना नरकादागताना जिनाना जननी अत्र भवनं पश्यति, (सग्गचुआण उ विमाणं) स्वर्गाच्च्युतानां तु जननी स्वप्ने विमान पश्यति। (वीरुसहसेसजणणी) जननीशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। वीरजननी 1, ऋषभजननी 2, शेषजिनानां च जनन्यः 22, (निअंसुते हरिवसहगयाइं) ददृशुस्तान् स्वप्नान् सिंह 1 वृषभ२ गजा२२दीनवीरजननी पूर्व सिंह ददर्श, ऋषभवेदस्य जननी पूर्व वृषभं ददर्श, शेषजिनानां जनन्यः पूर्व गजं ददृशुः / इति गाथार्थः / / 71 / / दुनरयकप्पगिविजा, हरी अनिरमविमाणएहिं जिणा। पढमा चक्कि दुनरया, बला चउसुरेहि चकिबला॥७२।।। द्विनरकादागताः-द्वादशकल्पादागताः ग्रैवेयकादागताच हरयो वासुदेवा भवन्तीति / (निरयविमाणएहि जिणा) प्रथमद्वितीयतृतीयनरकादागताश्व तीर्थड्रा भवन्ति। प्रथमनरकादागताश्चक्रिणो भवन्ति। (दुनरया बला) द्विनरकादागताश्च बलदेवा भवन्ति / (चउसुरेहिं चक्किबला) भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका-सुरेभ्यः समागताश्चक्रिबलभद्रा भवन्तीति गाथार्थः / / 72|| जिणचक्कीण य जणणी, नियंति चउदस गयाइँ वरसुविणे। सगचउतिइगाइ हरी-बलपडिहरिमंडलियमाया।।७३।। (जिणचक्कीण य जणणि ति) जिनानां चक्रवर्तिनां च जनन्यः (नियंति चउदसगयाइ वरसुविणे) पश्यन्ति चतुर्दश गजाऽऽदीन् प्रधानस्वभान् (सगचउतिइगाइ हरी बलपडिहरिमंडलिअमाया) मातृशब्दस्य प्रत्येक योगात् सप्त हरिमातरः, चतुरो बलदेवमातरः, त्रीन् प्रतिवासुदेवमातरः, एकाऽऽदीन मण्डलिकमातरः, स्वप्नान् पश्यन्तीति गाथार्थः / / 73 / / सत्त०१८ द्वार। स्वप्नविचारकाःपढमस्स पिया इंदा, सेसाणं जयण-सुविणसत्थविऊ। अट्ठ वियारिंसु सुहे, सुविणे चउदस जणणिदिखे // 74 / / प्रथमस्य ऋपभजिनस्य पिता, तथा इन्द्राः स्वप्नान विचारयन्ति स्म। शेषजिनानां जनकाः, तथा स्वप्नशास्त्रविदो विप्राः, (अट्ट वियारिंसु त्ति) प्राकृतत्वाद् विभक्तिलोपाद् अर्थेन विचारयन्ति स्म। कान्? (सुहे सुविणे ति) शुभान् स्वप्नान् चतुर्दशसंख्याकान् / पुनः कथंभूतान् ? (जणणिदिट्ठ त्ति) जननिदृष्टान् मातृभिर्विलोकितान्। सत्त० 16 द्वार / ('वीर' शब्दोऽत्र विलोकनीयः) शेषश्रुतप्रवृत्तिकालः..............., सेससुअपवित्तिजा तित्थं / / 328 / / शेष इति पूर्वव्यतिरिक्तः श्रुतप्रवृत्तिः यावत् यस्य तीर्थङ्करस्य तीर्थ तावत्कालं स्थास्यति / सत्त०१६३ द्वार। तीर्थकरजीवानां नरके परमाधार्मिककृता पीडा भवति, नवेति? प्रश्ने, उत्तरम् अत्राप्येकान्तो ज्ञातो नास्ति ।६प्र०ाही०३प्रका० (123) जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपए चोत्तीसं तित्थयरा समुप्पज्जंति। (उको सपए चोत्तीसं तित्थगरा समुप्पाजंति त्ति) समुत्पद्यन्ते, सम्भवन्तीत्यर्थः; न त्वेकसमये जायन्ते, चतुमिवैकदा जन्मसंभ-वात्। तथाहि मेरी पूर्वापरशिलातलयोढ़े द्वे सिंहासने भवतोऽतो द्वावेव द्वावेवाभिषिच्यत, अतो द्वयोर्द्वयोरेव जन्मेति। दक्षिणोत्तरयोः क्षेत्रयोस्तदानी दिवससद्रावान्न भरतैरावतयोर्जिनोत्पत्तिः, अर्द्धरात्र एव जिनोत्पतेरिति / स०३४ सम० भरतक्षेत्रेऽतीतोत्सर्पिण्यां जिनेश्वराःकेवलनाणी निव्वाणि सागरो जिण महाजसो विमलो। सव्वाणुभूइ सिरिहर, दत्तो दामोयर सुतेओ।॥२६॥ सामिजिणो य सिवासी, सुमई सिवगइ जिणो य अत्थाहो। नाह नमीसर अनिलो, जसोहरो जिण कयग्यो य / / 261 / / धम्मीसर सुद्धमई सिवकर जिण संदणो य संपइय। ऽतीउस्सप्पिणिभरहे, जिणेसरे नामओ वंदे // 26 // केवलज्ञानी, निर्वाणी, सागरो जिनो, महायशाः, विमलो, नाथसुतेजाः / अन्ये सर्वानुभूतिमाहुः। श्रीधरो, दत्तः, दामोदरः, सुतेजाः, इति प्रथमगाथायां दश / स्वामिजिनः, चः समुचये। शिवासी। अन्ये मुनिसुव्रतमाहुः / सुमतिः 13, शिवगतिः 14, जिनः अस्ताघः१५, नाथः नमीश्वरः, अनिलो, यशोधरो जिनः कृतार्थश्च / द्वितीयगाथायामस्या नव // धर्मीश्वरः / केचिन्जिनेश्वरमाहुः / शुद्धमतिः, शिवकरजिनः, स्यन्दनश्च, सम्प्रतिजिनश्च। अतीतोत्सर्पिण्यां भारते जिनेश्वरानेतानामता वन्देऽमिति तृतीयगाथायां पञ्च जिनाः। प्रव०७ द्वार।
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________________ तित्थयर 2308 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर ऐरवते तीर्थकराःजंबुद्दीवे दीवे एरवए वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउव्वीसं तित्थगरा होत्था / तं जहा "चंदाणणं सुचंदं, अग्गीसेणं च नंदिसेणं च / इसिदिण्णं वयहारि, वंदामो सामचंदं च / / 60 / / वंदामि जुत्तिसेणं, अजियसेणं तहेव सिवसेणं। बुद्धं च देवसम्म, सययं निक्खित्तसत्थं च // 61 / / अस्संजलं जिणवसह, वंदे य अणंतयं अमियणाणिं। उवसंतं च धुवरयं, वंदे खलु गुत्तिसेणं च / / 62 / / अतिपासं च सुपासं, देवेसरवंदियं च मरुदेवं / निव्वाणगयं च धरं, खीणदुहं सामकोट्टं च / / 63 / / जियरागमगिसेणं, वंदे खीणरयमग्गिउत्तं च / वोक्कसियपिज्जदोसं, वारिसेणं गयं सिद्धं // 64 // " जम्बूद्वीपैरवते अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतिस्तीर्थकरा अभूवन, तांश्व स्तुतिद्वारेणाऽऽह। तद्यथा-(चंदाणणं सुचंद, अग्गीसेणं च नंदिसेणं च) कचिदात्मसेनोऽप्ययं दृश्यते ऋषिदिन्नं, व्रतधारिणं च वन्दामहे श्यामचन्द्र च।।६०॥ वन्दे युक्तिसेन, क्वचिदयं दीर्घबाहुर्दीर्घसेनोवोच्यते। अजितसेन, वचिदयं शताऽऽयुरुच्यते। तथैव शिवसेनं, क्वचिदयं सत्यसेनोऽभिधीयते, सत्यकिश्चेति / बुद्धं चावगततत्त्वं च देवशर्माण देवसेनापरनामकं, सततं सदा, वन्दे इति प्रकृतम्। निक्षिप्तशस्त्रं च, नामान्तरतः श्रेयासम्।६१। (अस्सजलं ति) असंज्वलं जिनवृषभं, पाठान्तरणस्वयंजलं, वन्दे अनन्त-जिनममितज्ञानिन, सर्वज्ञमित्यर्थः / नामान्तरेणाऽयं सिंहसेन इति। उपशान्तं च उपशान्तसंज्ञ, धूतरजसं वन्दे खलु गुप्तिसेनं च॥६२।। (अइपासं ति) अतिपार्श्व चसुपाईवं देवेश्वरवन्दितं च मरुदेवं निर्वाणगत च धरं धरसंज्ञ, क्षीणदुःख श्यामकोष्टम् / 63 / (जिय ति) जितरागमग्निषेणं, महासेनापरनामकं वन्दे क्षीणरजसमग्नि-पुत्र च, व्यवकृष्टप्रेमद्वेष च वारिषेणं, गत सिद्धमिति / स्थानान्तरे किशिदन्यथाऽप्यानुपूर्वी नाम्नामुपलभ्यते। सा (भविष्यत्तीर्थकरा अस्मिन्नेव शब्दे 2271 पृष्ठे व्याख्याताः) अथ तेषां पूर्वभवानाहएएसिणं चउव्वीसाए तित्थगराणं पुव्वभविया चउव्वीसं नामधेजा भविस्संति / तं जहा"सेणिय सुपास उदए, पोट्टिल्ल अणगार तह दडाऊ य। कत्तिय संखेय तहा, नंद सुनंदे य सतए य।।१।। बोधव्वा देवई य, सचइ तह वासुदेव बलदेवे। रोहिणि सुलसा चेवं, तत्तो खलु रेवई चेव / / 2 / / तत्तो हवइ सयाली, बोधव्वे खलु तहा भयाली य। दीवायणे य कण्हे, तत्तो खलु नारए चेव / / 3 / / अंबड दारुमडे वा, साई बुद्धे य होइ बोधव्वे / भावीतित्थगराणं, णामाई पुव्वभवियाइं" ||4|| एतेषां यावत् संख्याक यद्भविष्यति तदाह एएसिणं चउव्वीसाए तित्थगराणं पियरो मायरो भविस्संति। चउव्वीसं पढमसीसा भविस्संति। चउव्वीसं पढमसिस्सणीओ भविस्संति / चउव्वीसं पढमभिक्खादायगा भविस्संति। चउव्वीसं चेइयरुक्खा भविस्संति। स०! ऐवतवर्षभाविनस्तीर्थकरा:जंबुद्दीवे एरवए वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउव्वीसं तित्थगरा भविस्संति। तं जहा "सुमंगले अ सिद्धत्थे, णिव्वाणे य महाजसे। धम्मज्झए य अरहा, आगमिस्सेण होक्खइ।।१।। सिरिचंदे पुप्फकेऊ, महाचंदे य केवली। सुयसागरे य अरहा, आगमिस्सेण होक्खइ / / 2 / / सिद्धत्थे पुण्णघोसे य, महाघोसे य के वली। सच्चसेणे य अरहा, आगमिस्सेण होक्खइ॥३।। सूरसेणे य अरहा, महासेणे य केवली। सव्वाणंदे य अरहा, देवउत्ते य होक्खइ॥४॥ सुपासे सुव्वए अरिहा, अरहे य सुकोसले। अरहा अणंतविजए, आगमिस्सेण होक्खइ॥५।। विमले उत्तरे अरहा, अरहा य महाबले। देवाणंदे य अरहा, आगमिस्सेण होक्खइ।।६।। एए वुत्ता चउव्वीसं, एरवयम्मि केवली। आगमिस्सेण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा" ||7|| स०। (तीर्थकृता जन्मभूम्यादौ गमनफलं 'दसणभावणा' शब्दे वक्ष्यते) (तीर्थकृतामाशातना आसावणा' शब्दे द्वितीयभागे 480 पृष्ठे निरूपिता) (केवलज्ञानेन ज्ञात्वा स्वयमेव तीर्थ करोतीति उवहाासुय' शब्दे द्वितीयभागे 1056 पृष्ठे उक्तम्) (124) तीर्थकरा यद्यपि कृतकृत्याः, तथापि तपःकर्म, उपधा नश्रुतमुपसर्गसहनं च कुर्वन्तिजो जइया तित्थयरो, सो तइया अप्पणम्मि तित्थम्मि। वण्णेइ तवोकम्म, उवहाणसुयम्मि अज्झयणे / / 63|| सव्वेसि तवोकम्मं, नीरुवसगं तु वण्णिय जिणाणं / नवरं तु बद्धमाणस्स सोवसग्गं मुणेयव्यं / / 14 / / तित्थगरो चउनाणी, सुरमहिओ सिज्झियव्वऍ धुवम्मि। अणगूहियबलविरिओ, तवोविहाणम्मि उज्जमइ / / 15 / / किं पुण अवसेसेहिं, दुक्खक्खयकारणेसु विहिएहिं। होइ परक्कमियव्वं, सपच्चवायम्मि माणुस्से // 66|| आचा०नि०१श्रु०६ अ०१ उ०। सर्वेषां तीर्थकृतां सदृशानि सूत्राणि अत्र शिष्यः प्राऽऽहनिक्खेवा य निरुत्ता-णि जा य कहणा भवे पगासस्स। जह रिसभाईयाऽऽहं-सु किमेवं बद्धमाणो वि? ||205|| ये निक्षपाश्चतुष्कसप्तकाऽऽदयो, यानि च निरुक्तानि सुत्रार्थदो
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________________ तित्थयर 2306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर रनन्तरमुकानि, या च चतुर्भिरनुयोगद्वारः प्रकाशस्यार्थस्य कथना, चदादेकाथिकानामपि या कथना / एतानि यथा ऋषभाऽऽदयस्त्रयोविंशतिस्तीर्थकरा आख्यातवन्तः, तथा किमेवं भगवान् वर्द्धमानस्याग्यप्याख्याति, किं वाऽन्यथेति? उच्यते-तथैव। ननु ते उच्चतराः, भगवान् वर्द्धमानस्वामी पुनः सप्तरत्निप्रमाणः, ततः कथं तथैवाऽऽख्यानम् ? अत आहधिइसंघयणे तुल्ला, केवलभावे य विसमदेहा वि। केवलनाणं तं चिय, पण्णवणिज्जा य चरमे वि।।२०६।। यथा विषमदेहा अपि तीर्थकृतः धृतिसंहनने केवलभावे च तुल्याः, तथा गरपणायानपितुल्याः। यतश्चरभेऽपि भगवति वर्द्धमानज्ञस्वामिनि तदेव केवलज्ञानं त एव च प्रज्ञापनीया भावाः,ये ऋषभाऽऽदीना, ततः कथंन तुल्ला प्ररूपणा? तत्र यो विशेषस्तमुपदर्शयतिणायऽज्झयणाऽऽहरणा, इसिभासियमो पइन्नगसुया य। एए हुंति अणियया, निययं पुण सेसमुप्पण्णं / / 207 / / ज्ञाताध्ययनेषु यान्याहरणानि दृष्टान्ताः, ते हि केचित्त एव भवेयुर्ये ऋपभाऽऽदिभिरुपन्यस्ताः, केचिदन्यथा, ये प्रत्युत्पन्ना इति। तथा यानि ऋपिभाषितानि, प्रकीर्णकश्रुतानि च, एतान्यनियतानि-कदाचिद् भवन्ति, कदाचिन्न भवन्ति / यानि च भवन्ति तान्यपि कदाचित्तथार्थयुक्तानि, कदाचिदन्यथाऽर्थोपेतानि / शेषं पुनरुत्पन्नं प्रायेण नियतम्। आह-कः पुनरत्र दृष्टान्तः, यथा वर्द्धमानस्वाम्बपि तथैवाऽऽख्यातीति? दृष्टान्तमाहजह सव्वजणवएसुं, एक चिय सगडवत्तिणिपमाणं। विसमाणि य वत्थूणी, सगडाईणं तह णिरुत्ता॥२०८।। यथा शकटाऽऽदीनाम्, आदिशब्दाद गन्त्र्यादिपरिग्रहः / यद्यपि विषमाणि वस्तूनि केषाचिन्महान्ति, केषाञ्चित् क्षुल्लकानि, तथाऽपि सर्वेष्वपि जनपदेषु एकमेव तदा शकटवर्तिन्याः प्रमाणं, सर्वत्राक्षाणां चतुर्हस्तप्रमाणत्वात्। तथा निरुक्तानि, उपलक्षणभेतत्, निक्षेपाऽऽदीनि च प्ररूपणामधिकृत्य तुल्यानि। आह-नन्ववश्य पूर्वरथाना, संप्रतिस्थानां च विस्तरस्यास्ति विशेष एव, महाप्रमाणानां पूर्वमनुष्याणामल्पप्रमाणानामधुना-तनमनुष्याणां विशेपो भवति। तत आहजइ वि य वत्थू हीणा, पुदिवल्लरहेहिं संपयरहाणं / तह वि जुगम्मि जुगम्भी, सहत्थचउहत्थगा अक्खा // 206 / / यद्यपि पूर्वतनरथेभ्यः साम्प्रतरथानां वस्तूनि हीनानि, तथा-ऽपि युगे युगे सर्वत्राऽऽत्महस्तेन चतुर्हस्तका अक्षाः, ततः सर्वेष्वपि जनपदेप्चेक शकटवर्तिन्याः प्रमाणम्। तथा यद्यपि पूर्वकाले महा-प्रमाणा मनुष्याः, संप्रतिकाले त्वल्पप्रमाणाः, तथाऽपि सर्वेषां तदेव केवलज्ञानं, तदेव सहननं, त एव च प्रज्ञापनीया भावा इति तुल्या प्ररूपणा। ननु पञ्चधनुःशतिकप्रनृतीना महान्तीन्द्रियाणि, तेन तेषां प्रभूततरक्षेत्र विषयोपलम्भविशेषोऽपि स्यात्। अत आहपरिमेहँ जइवि हीणा, इंदियमाणाउ संपयनराणं। तह वि य सिं उवलद्धी, खित्तविभागेण तुल्ला उ॥२१०।। पूर्वेभ्यः पूर्वकालभाविभ्यः पुरुषेभ्यो यद्यपि साम्प्रतनराणां सम्प्रतिमनुष्याणामिन्द्रियमानानि हीनानि, तथाप्यात्माङ्गुलमधिकृत्य क्षेत्रविभागे तेषां तुल्या उपलब्धिः / तथाहि-श्रोत्राऽऽदीन्द्रियप्रमा-- जश्रोत्राऽऽदीन्द्रियविषयप्रमाणं चात्माङ्कलतः, तच यथा पूर्वमनुष्याणां द्वादशयोजनाऽऽदिक क्षेत्रप्रमाणम्, तथाऽधुनातनमनुष्याणामपि / तथा चोक्तम्-'सोइदियस्स णं भंते ! केवइए विसए पन्नत्ते? गोयमा! जहन्नेण अंगुलरस असखिजइभागाओ, उक्कोसेण वारसेहितो जोयणेहिं / ' इत्यादि। एवं हीनाधिकशरीरप्रमाणत्वेऽपि केवलेनोपलम्भस्तुल्य एवेति न कश्चिद्दोषः / अन्यच -शरीराऽऽश्रितानीन्द्रियाणि, ततः शरीरप्रमाणविषय, तदाश्रितानामिन्द्रियाणामपि प्रमाणविशेषभावात्तद्विषयक्षेत्रोपलम्भविशेषः / वृ०१ उ०।। (125) प्रकीर्णकवार्ताःतित्थयरे भगवंते, अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी। तिन्ने सुगइगइगए, सिद्धिपहपदेसए वंदे / / 1025 / / तीर्थकरान भगवतोऽनुत्तरपराक्रमानमितज्ञानिनस्तीर्णान् सुगतिगतिगतान सिद्धिपथप्रदेशकान् वन्दे / (आ०म०) ननु तीर्थकरानित्यनेनेव भगवत इति गतं, तीर्थकृतामुक्तलक्षणभङ्गाव्यभिधारात्, ततः किमनेन विशेषणेन? तदयुक्तम् / अस्य नयमतान्तरावलम्बिपरिकल्पिबुद्धाऽऽदितीर्थकरतिरस्कारपरत्वात् / तथाहिनते बुद्धाऽऽदयः स्वस्वदर्शनरूपतीर्थकारिणोऽपि तत्त्ववृत्त्या भगवन्तः, यथोक्त समग्रेश्वर्याऽऽदिगुणकलापायोगा-दिति / (आ०म०) ननु येऽनुत्तरपराक्रमास्तेऽमितज्ञानिन एव, क्रोधाऽऽदिपरिक्षयोत्तरकालमवश्यममितज्ञानस्य भावात्। सत्यमेतत्। केवलं ये क्लेशक्षयेऽप्यमितज्ञानं नाभ्युपगच्छन्ति। तथा च तद् ग्रन्थः- "सर्व पश्यतु वा मा वा, तत्त्वमिष्ट तु पश्यतु / कीटस ख्यापरिज्ञानं, तस्य नः क्वोपयुज्यते ? ||1 / / '' इत्यादि / तन्म-तव्यवच्छेदफलमिदं विशेषणमित्यदोषः / तद् व्यवच्छेदश्वेवम्-- सर्वभावपरिज्ञानाभावे तत्त्ववृत्त्येकस्याऽपि वस्तुनः परिज्ञानायोगात्, सर्वस्याऽपि यथायोगमनुवृत्तव्यावृत्तधर्मतया सर्वः सह सव्यपेक्षत्वात् / आह च- "एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः / सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः / / 1 / / " आचारानेऽप्युत्तम्- "जे एण जाणइ.से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एग जाणइ।" इति / अथवा-ये स्वसिद्धान्ते छदास्थवीतरागारते अनुत्तरपराक्रमा भवन्ति, कषायाऽऽदिशत्रूणामाक्रमणात, न त्वमितज्ञानिनः, केवलज्ञानाभावात् / ततस्तद्वयवच्छेदार्थमिदं विशेषणमिति। (आ०म०) अनेन ये प्राप्ताऽणिमाऽऽद्यष्टविधैश्वर्य स्वच्छाविलसनशीलं पुरुष तीर्ण प्रतिपादयन्ति / तथा च तद ग्रन्थः"अणिमाऽऽद्यष्टविध प्राप्यैश्वर्य कृतिनः सदा / मोदन्ते सर्वभावज्ञास्तीणाः परमदुस्तरम।।१।।'' इत्यादि। तद्व्यवच्छेदमाह। (आ०म०) सिद्धिपथप्रदेशकान, अनेनाने कभव्यसत्त्वोपकारितीर्थकरनामकर्मविपाकोदयसमन्वित भगवता स्वरूपमाह। आ०म०१ अ०१ खण्ड। प्रश्रोत्तराणितीर्थकरा एकस्मिन् समये कति सिद्ध्यन्ति? इति प्रश्ने, उत्तरम् एकस्मिन्समये उत्कर्पतः चत्वारस्तीर्थकराः सिद्धयन्तीति सिद्धपशाशिकाऽऽदावुक्त मस्तीति।८६ प्र०ा सेन०१उल्लाका यथाऽत्र भरते श्रीवीरजन्मः भस्मग्रहः, तथाऽन्य क्षेत्र तीर्थकृतां जन्मः
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________________ तित्थयर 2310- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर स आगतोऽस्ति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् दशस्वपि क्षेत्रेशु तीर्थकृता त्वा यथास्थाने निषीदन्तीति हारिभद्र्या, पर तद्वन्दनरीतिः कापि च्यवनाऽऽदीनि कल्याणकान्येकस्मिन्नेव नक्षत्रे भवन्तीत्यागमोक्तत्वा- लिखिता नास्ति, तस्मादाधुनिकवन्दनरीतिरेव संभाव्यत इति / 436 द्भरमग्रहाऽऽदिसंक्रमणं सर्व समानमेवेति / / 3 / प्र०। सेन०२ उल्ला प्र०ा सेन०३ उल्ला०। तीर्थकृतां जन्मभवनानन्तर देवाः कियत्प्रमाणा "वीरस्यायंगुलं दुगुणं ति" कथं सर्वे जिनाः विशत्य-धिकशताङ्गुला: रत्नाऽऽदिवृष्टि कुर्वन्तीतिप्रश्रे, उत्तरम्-"उसभेणं अरहा कोसलिए०जाव कथिताः, प्रमाणाड् गुलसय पञ्चाशद्भागसत्कै कविंशतिभागदेहमान चिट्टइ, ततो वेसमणो सक्कवयणेणं बत्तीस हिरण्णकोडीओ, वत्तीसं वीरस्य कथितमस्ति, तेन चोत्सेधाजुलैकशताष्टषष्टिमानं जायते, नंदासणाई, बत्तीसं भद्दासणाई भगवतो तित्थगरस्स जम्मणभवणम्मि विंशतिशतद्विगुणीकरणे चत्वारिंशदधिकद्विशतागुलानि स्युः, सार्द्ध- साहरइ।" इत्यावश्यकबृहद् वृत्ति 76 पत्रे, एतदनुसारेण, तथात्रयहस्तमाने तु पाश्चात्यमानं विसंवदतीति प्रश्रे, उत्तरम-वीरस्सायंगुल "कुण्डले क्षौमयुग्मं चोच्छीर्षे मुक्त्वा हरिर्व्यधात्। दुगुणं'' इत्येतद्गाथावृत्ती मतत्रयमस्ति, तत्रानुयोगद्वारचूर्ण्यभिप्रायेण श्रीदामरत्नदामाढ्यमूल्लोचे स्वर्णकन्दुकम् / / 4 21 // श्रीवीर आत्माङ्गु लेन चतुरशीत्यड्गुलप्रमाणश्चतुरशीतिद्विगुणी- द्वात्रिंशदुत्तरै रूप्य-कोटिवृष्टि विरच्य सः / करणेऽष्टषष्ट्यधिकशतमुत्सेधागुलानां भवतीति न किशिदनुपपन्नम्, वाढमाघोषयामासेति सुरैराभियोगिकैः // 43 // " एतदा-श्रित्य विस्तरस्तु संग्रहणीवृत्तावस्ति। 115 प्र०ा सेन०२ उल्लाका इतिकल्पकिरणावल्यनुसारेण च,तीर्थकृतां जन्मभवनानन्तरं तीर्थकृतां त्रयोदशाऽऽदिभवाः प्रथमसम्यक्त्वलाभापेक्षयाऽप्रति देवविहिता वृष्टिः द्वात्रिंशद्धिरण्यकोटिप्रमाणा भवतीति।४४४ प्र०। सेन० पत्तिसम्यक्त्वलाभपेक्षया वा, प्रसिद्धमहद्भवापेक्षया वा, किं वा ३उल्ला प्रकारान्तरेणेति प्रश्ने, उत्तरम्- आवश्यकाऽऽद्यभिप्रायेण श्रीऋष 'तित्थयर' शब्दस्थविषयसूचीभाऽऽदितीर्थकृतां त्रयोदशाऽऽदिभवाः प्रथमसम्यक्त्वलाभापेक्षया (1) तीर्थकरशब्दसिद्धिः। गण्यन्ते, न त्वन्यापेक्षयेति।१६५ प्र०ा सेन०२ उल्ला०। सार्द्ध-दीपदये (2) तीर्थकृतां तीर्थकरणशीलत्वम्। जघन्योत्कृष्टत एकस्मिन् समये तीर्थकृता कत्यभिषेकाः? तथा तत्र कत्यरका भवन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-सार्द्धद्वीपद्वये जघन्यत एकसमये दश (3) तीर्थकृतामचेलत्वेऽपि संयमविराधनाऽऽदयो दोषा न भवन्तीति निरूपणम्। तीर्थकरा मेरुपञ्चके शत्रैरभिषिच्यन्ते, उत्कृष्टतस्तु विंशतिः, तथा तत्र जघन्यतश्चत्वारोऽरकाः, उत्कृष्टतस्तु पञ्च भवन्तीति ज्ञायते / 65 प्र०। (4) तीर्थकृतामनुत्तरोपपातिकमुनिसंख्या। से न०३ उल्ला०ा तीर्थकृ जननी चतुर्दश स्वप्नान् स्फुटान्, (5) ये तीर्थकरेषु अष्टादश दोषा न भवन्ति तेषां प्ररूपणम्। चक्रवर्तिजननी त्वस्फुटान् इत्यक्षराणि सन्ति, प्रघोषो वेति प्रश्ने, उत्तरम् (6) तीर्थकराणामभिग्रहाः। चक्रवर्तिमाताऽस्फुटान् पश्यति / तदुक्तम्-'"चतुर्दशाप्यमून् स्वप्नान, (7) अङ्गोपाङ्गाऽऽदिष्वबद्धा अपि ये आदेशपदाभिधेयाः पदार्था साऽपश्यत् किञ्चिदरफुटान्। सा प्रभोः प्रमदा सूते, नन्दनं चक्रवर्तिनम् ज्ञानिभिः प्रकाशिताः तेषां सख्यानिरूपणा। / / 1 / / 'इति वासुपूज्य-चरित्रे / 105 प्र०ा सेन० ३उल्ला०। जनन्या (8) तीर्थकराणां तीर्थे षडावश्यक यस्मिन् समये क्रियतेतन्निरूपणम्। द्विश्चतुर्दशस्वप्ना दृष्टाः, उत्त एकवारम् ? इति प्रश्ने, उत्तरम्शान्तिनाथजनन्या द्विश्चतुर्दश स्वप्ना दृष्टाः। यदुक्तं शत्रुञ्जयमाहात्म्येऽ- (10) तीर्थकृज्जन्मावसरे शक्रस्याऽऽसनचलनानन्तरमवधिना तीर्थकरएमपवर्णि "द्विः स्वप्नदर्शनादर्हचक्रिजन्मसुनिश्चया। रत्नगर्भव सा गर्ने, जन्मावबुध्य हरिनैगमेष्याज्ञाप्रतिपादनम्। बभार शुभदोहदा // 76 / / '' इति / एवमन्यत्रापीति। १०७प्र०। सेन०३ , (11) आदेशानन्तरं हरिनैगमेषी यत्कृतवान् तद्वर्णनम् / उल्ला०। भरतैरवततीर्थकृव्यतिरिक्तानां तीर्थकृतां कीदृग वर्ण- (12) हरिनैगमेषिकृतघण्टानादेन यदभूत्तन्निरूपणम्। विभाग:? इति प्रश्रे, उत्तरम्--पञ्चवर्णान्यतरवर्ण रूपो वर्णविभागो (13) ततश्च घण्टानादतो यद् प्रवृत्तं तत्प्रतिपादनम्। ज्ञयाऽत्रापि पूर्वोक्त एव हेतुरिति / 350 प्र०। सेन०३ उल्ला०) (14) सौधर्मे कल्पे पदातिपतिकर्तव्यनिरूपणम्। (देवानां चिन्तानम्) बलदेवकर्णद्वैपायनशङ्गाऽऽद्याख्या आगमिष्यचतुर्विशती तीर्थकृतो (15) सौधर्मे शक्राऽऽदेशानन्तरं यज्जातं तन्निरूपणम्। भविष्यन्ति, ते किं नवमराम्१ कौन्तेय 2 द्वारकादाहकाः 3 (16) इन्द्रो यत् पालकमादिष्टवान् तदुक्तिवर्णनम्। श्रीवीरप्रथमश्रावका एव? अथवा किमन्ये वेति प्रश्रे, उत्तरम्-शङ्खः (17) तदनु यदनुतिष्ठति स्म पालकस्तन्निरूपणम्। श्रीवीरप्रथमश्रावकादन्यस्तीर्थकृत् श्रीस्थानाङ्ग वृत्तावुक्तोऽस्ति / (18) तत्कृतप्रेक्षागृहमण्डपवर्णनम्। द्वैपायनो द्वारिकादाहकोऽन्यो वेति निर्णयः केवलिगम्यः / कृष्ण-भाता (16) मण्डपमणिपीठिकावर्णनम्। . बलदेव आवश्यकनियुक्त्यादावागमिष्यचतुर्विशतिकायां कृष्णतीर्थ सेत्स्यत्युक्तोऽस्ति. तेन बलदेवः कश्चिन्नामान्तरेणावगन्तव्यः। कर्णस्थाने (20) आस्थाननिवेशनप्रक्रियाप्रतिपादनम् / तुशास्त्रे कृष्णः प्रोक्तोऽस्ति, सोऽपिनामान्तरेण बोध्योऽत एव शास्त्रान्तरः (21) तदनन्तरं शक्रक्रियाप्ररूपणम्। सह विसंवादं संभाव्य प्रवचनसारोद्धारवृत्तिकारणाऽपि द्वित्रा एव (22) सामानिकाऽऽदिभिरास्थानस्य पूर्ते : प्ररूपणम्। भावितीर्थकृजीवा व्यक्ता विवृताः सन्ति, न शेषा इति। 360 प्र०। सेन० (23) प्रतिष्ठासोः शक्रस्य पुरः प्रस्थायिनां क्रमवर्णनम् / 3 उल्ला०। समवसरणस्थस्य तीर्थङ्करस्य श्राद्धा यतयश्च कथं वन्दन्ते? (24) ततो यदकार्षीत् शक्रस्तन्निरूपणम्। इति प्रश्ने, उत्तरम्-समवरारणस्थस्य तीर्थकृतः श्राद्धा यतयश्च वन्दि- (25) गेरुगमनवर्णनम्।
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________________ तित्थयर 2311 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयर 26) तत ईशानेन्द्राऽऽगमनावसरः। (63) ऋषभाऽऽदीनां क्रमतश्चयुतिराशयः / (27) वमरबलिधरणभवनवासिवाणमन्तरज्योतिष्काऽऽदीनामागम- (64) जिनानां च्यवनवेला। ननिरूपणम्। (65) सर्वजिनानां छद्मस्थकालमानम्। (28) ततोऽच्युतेन्द्रोयदकात्तिन्निरूपणम्। (66) तीर्थकृतां छद्मस्थतपोमानम्। (26) तत्रेन्द्राऽऽदयो यत्कुर्वन्ति तत्प्रतिपादनम्, ततस्तत्रैवाभिषेकनिग- | (67) तीर्थकरयक्षाणां नामानि / मनपूर्वकमाशीर्वादकरणम्। (68) तीर्थकरदेवीनां नामानि। (30) अवशिष्ानामिन्द्राणां वक्तव्यता। (66) तीर्थकरजन्मनगर्यः। (31) तत्रावशिष्टशककृताभिषेकावसरः। (70) तीर्थकरजन्मदेशाः। (32) ततः कृतकृत्येन शक्रेण भगवतो जन्मपुरप्रापणम्। (71) तीर्थकरजन्ममासाऽऽदिप्ररूपणम्। (33: वैश्रवणद्वारा शक्रकृत्यप्ररूपणम्। (72) तीर्थकरजन्मारकप्ररूपणानन्तरं जन्मारकाणां शेषकालविचारः / (34) अस्मासुस्वस्थान प्राप्तेषु भगवति मा दुर्दृष्टिं केऽपि निक्षि-पन्विति (73) तीर्थप्रसिद्धजिनजीवप्रतिपादनम्। शक्राऽऽज्ञोद्घोषणा। (74) भविष्यत्तीर्थकरवर्णनम्। (35) अष्टाहिकामहोत्सवः। (75) युगान्तकृद भूमिप्ररूपणम्। (36) भवनपत्यादीनामिन्द्रसंख्याप्रतिपादनम्। (76) तीर्थकृता स्थितिकल्पः। (37) तीर्थकरकृतोपदेश प्ररूप्य ये धर्मोपायस्य देशकास्तेषां प्ररूपणम्। | (77) सर्वेषां जिनानां शासने तत्त्वसंख्या। (38) तीर्थकरप्रसङ्गात् साधूनां द्वादशोपकरणसख्यायाः, साध्वीना (78) तीर्थप्रवृत्तिकालप्रतिपादनम् / पञ्चविंशत्युपकरणसंख्यायाश्व व्यावर्णनम्। (76) तीर्थकरकल्याणकतपोविधानम्। (36) श्रीपार्श्ववीरतीर्थकरयोरुपसर्गप्ररूपणम्। (80) तीर्थकरणप्रयोजनवर्णनम् / (40) उत्सेधाङ्गुलेनाऽऽत्मागुलेन च जिनानां देहमानम्। (81) तीर्थोच्छेदकालः। (41) चतुर्विशतिजिनानामवधिज्ञानिमुनिसंख्यावर्णनम्। (82) तीर्थकरप्रसङ्गात् द्वादशचक्रि नववासुदेवनवबलदेवनामानि, (42) तीर्थकृतां कल्पशोधिः / त्रिपष्टिशलाकापुरुषमानम्, प्रतिवासुदेवनामानि, यस्य तीर्थे ये (43) तीर्थकृद्भिः कर्मव्यावर्णनं, तैरपि कर्मवेदनं च। चक्रिवासुदेवबलदेवा जातास्तेषां च निरूपणम्। 54) जिनानां कुमारवासकालमानम् / (83) वर्तमानकालीनचतुर्विशतितीर्थकरनामानि, बलदेववासुदेवपितृ(४५) केवलोत्पत्तिस्थानानि / मातृनामानि, दशारमण्डलानि, वासुदेवबलदेवानां पूर्वभवना मानि, तेषां पूर्वभवधर्माऽऽचार्यनामानि, तन्निदानभूमयः, तन्नि(४६) जिनानां केवलोत्पादकं तपः। दानकारणानि, तेषां प्रतिशत्रुनामानि, तेषा मध्ये ये यत्र यान्ति (47) तीर्थकृता केवलोत्पत्तिमासतिथीनां प्ररूपणम्। तन्निरूपणम्। () यस्य वक्षस्याधो यस्य तीर्थकृतः केवलज्ञानमुत्पन्नं तन्निरूप्य | Le तीर्थात्पत्तिणरूपणम / केवलवृक्षप्रमाणनिरूपणम् / तत्राऽपि चैत्यतरूणां विशेषतः (85) तीर्थकराणां निर्गमनकालस्य प्रतिपादनम्। प्रमाणकथनम्। (86) दर्शननामनिरूपणानन्तरं यस्य तीर्थकरस्य समये यदर्शनमुत्पन्नं (46) यस्मिन् वने यस्य केवलज्ञानमुत्पन्नं तन्नामनिर्देशः। तन्निरूपणम्। (50) यस्यां वेलायां केवलज्ञानमुत्पन्नं तन्निरूपणम्। (87) ऋषभाऽऽदितीर्थकृतां व्रतपर्यायः, दीक्षातरूणां च नामप्रति(५१) जिनानां गृहस्थकाल-केवलिकालमानं निरूप्य श्रामण्यपर्यायात् पादनम्। छद्मस्थपयायापगमे केवलिपर्यायः स्वयमेव ज्ञेय इति श्रामण्यप (88) यस्तीर्थकरो येन तपसा निष्क्रान्तस्तदभिधानम्। यनिरूपणम् / तथा तीर्थकृतां केवलिमानविमर्शः। (86) यावत्परिवारेण भगवन्तो दीक्षामशिश्रियन, तन्निरूपणम्। (52) तीर्थकृद् गणसंख्याप्रतिपादनम्। (10) तीर्थकृता दीक्षापुरम्, दीक्षासमये मनःपर्यवज्ञानोत्पहत्तेः प्ररूपणम्। (53) तीर्थकृतां गणधराणां संख्याप्ररूपणम्। (61) तीर्थकराणा दीक्षामासपक्षतिथिप्रतिपादनम्. दीक्षालिङ्गम्, (55) जिनाना गर्भस्थितिमानम्। दीक्षासमये लोचमुष्टिः,दीक्षावनानि, यस्मिन् वयसि ते निष्क्रान्ता(५५) गृहवासे यावन्ति ज्ञानानि तीर्थकृता भवन्ति तन्निरूपणम्। स्तन्निरूपणं च। (56) तीर्थकरगोत्राणां, तीर्थकरवंशानां च वर्णनम्। (62) दीक्षाशिविकाऽऽदिप्रतिपादनम् / (57) तीर्थकृतां चतुर्दशपूर्विणः / (63) पट्पञ्चाशद् दिकुमारीनामानि, तासां करणीयनिरूपणं च / (58) श्रावकसंख्या चतुर्विशतितीर्थकृताम्। (64) देवदूष्यप्ररूपणम्, देवदूष्यवस्त्रस्थितिमानाऽऽदिनिर्देशः। (56) जिनानां चक्रित्वकालः / (65) प्रसङ्गतस्तीर्थकरप्रतिपादितत्वेन धर्मभेदप्ररूपणं, तथौचि(६०) जिनाना सामायिकाऽऽदिचारित्रस्य प्रतिपादनम् / त्याष्टकं च। (61) च्यवननक्षत्रमृषभाऽऽदिजिनानाम्। (66) चतुर्विशतिजिननामसामान्यार्थस्तद् विशेषार्थश्च / (62) च्यवनकल्याणकतिथयश्च्यवनमासाश्च / (17) तीर्थकृता पञ्चकल्याणके नक्षत्रैक्यप्ररूपणम्।
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________________ तित्थयर 2312 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयरणाम (68) तीर्थकृतां केवलज्ञानानन्तरं मुनीना मोक्षगमनमानम्, प्रतिक्रमण- I (121) श्रावकव्रतसंख्या, साधुव्रतसंख्या च। संख्या, प्रथमगणधरनामानि, प्रथमप्रवर्तिन्यः, प्रथमश्रावकाः, (122) तीर्थकरमातुश्चतुर्दश स्वप्नाः, स्वप्नकारणानि, स्वप्नविचाप्रथमश्राविकाः, प्रत्येकबुद्धमुनिसंख्या, तीर्थकृता प्रमादविचारः, रकाः, शेषश्रुतप्रवृत्तिकालः।। तीर्थकृतां परीषहसहनविमर्शश्च / (123) भरतक्षेत्रेऽतीतोत्सर्पिण्या जिनेश्वरनामानि, ऐरवते तीर्थकराः, (EL) जिनानामष्टमहाप्रातिहार्याणि / भविष्यत्तीर्थकराणां पूर्वभवनामानि, तेषां पितृमातृप्रथमशिष्य(१००)जिनानां प्रथमपारणदायकनामानि, तेषां गतिश्च, पारणदाय- प्रथमशिष्याप्रथमभिक्षादायकसंख्या, ऐरवतक्षेत्रभाविनस्ती कार्थं देवकृतदिव्यपञ्चकनामानि, तत्र वसुधाराप्रमाण-प्ररूपणम्, र्थकराः। जिनानां पारणकपुरनामानि। (124) कृतकृत्या अपि तीर्थकरास्तपःकर्मोपधानश्रुतमुपसर्गसह(१०१) तीर्थकराणां पितृनामानि, पितृणां गतिश्च / नाऽऽदिकं कुर्वन्तीति निरूप्य, सर्वेषां तीर्थकराणां सदृशानि (102) पूर्वप्रवृत्तिकालः, पूर्वविच्छेदकालमानं च। सूत्राणीत्यत्र गुरुशिष्ययोः प्रश्नोत्तराणि / (103) सर्वतीर्थकराणा यावन्तः पूर्वभवास्तेषु तेषां नामानि। (125) प्रकीर्णकवार्ताः। (104) तीर्थकृतां पूर्वभवगुरवः, तथा तेषां पूर्वभवायुः, पूर्वभवक्षेत्राणि, तित्थयरगंडिया स्त्री०(तीर्थकरगण्डिका) तीर्थकरैकवक्तव्यतापूर्वभवक्षेत्रदिशा, पूर्वभवजिनहेतवो विंशतिविधाः, पूर्वभवद्वीपाः, ाधिकारानुगताया वाक्यपद्धतौ, स०॥ पूर्वभवनामानि, पूर्वभवनगर्यः, पूर्वभवराज्यम्, पूर्वभवविजयाः, तित्थयरणाणुप्पत्तितव न०(तीर्थकरज्ञानोत्पत्तितपस्) स्वनाम-ख्याते पूर्वभवस्वर्गाः पूर्वभवसूत्राणि, तत्र श्रुतला--भद्वारम्।। चित्रतपसि, पञ्चा०। (105) पार्श्वसुपार्श्वयोः फणकारणानि, तेषां फणसंख्या च, जिना तत्स्वरूपमाहनामारोग्याऽऽदिफलदायकत्वविचारः। तित्थंकरणाणुप्प-त्तिसण्णिओ तहऽवरो तवो होइ। (106) नृपतिबलदेववासुदेवचक्रितीर्थकृतांबलतारतम्यप्रति-पादनम्। पुव्वोइएण विहिणा कायव्वो सो पुण इमो त्ति // 12 // (107) जिनभक्तानां राज्ञां नामानि / तीर्थकरज्ञानोत्पत्तिरिति संज्ञा संजाता यस्य तत्तीर्थकरज्ञानो(१०८) तीर्थकरमनः पर्यवज्ञानिसंख्याकथनम्। त्पत्तिसंज्ञितम्, पुंस्त्वं तु सर्वत्र प्राकृतत्वात् / तथेति समुच्चये, अप रमन्यत, तपो भवति स्यात् / पूर्वोदितेन विधिना ऋषभाऽऽदिक्रमेण (106) तीर्थकरमातृनामानि, तासां गतिश्च / गुर्वाज्ञया विशुद्धक्रियया, मतान्तरणे तन्मासदिनेष्वित्यवं लक्षणेन, (110) तीर्थकराणा मोक्षाऽऽसनं, मोक्षस्थानानि, यावता तपसा तीर्थक्- | (कायव्यो ति) कार्यम् (सो पुण त्ति) तत्पुनः प्रस्तुततपः, (इमो ति) इदं न्मोक्षसिद्धिस्तन्निरूपणम्, मोक्षनक्षत्राणि, मोक्षपरिवारः, वक्ष्यमाणम्, इतिः समाप्तौ / इति गाथाऽर्थः / / 12 / / मोक्षपथः, मोक्षमासपक्षतिथयः मोक्षराशयः, मोक्षविनयः, तदेवाऽऽहमोक्षवेला, मोक्षारकशेषकालः, मोक्षारकप्रतिपादनम, मोक्षगताना अट्ठमभत्तंतम्मि य, पासोसहमल्लिऽरिट्ठनेमीणं / शरीरमानम्। वसुपुज्जस्स चउत्थेण छट्ठभत्तेण से साणं / / 13 / / (111) तीर्थकृतां राज्यकालमानम् / (अस्यार्थोऽनुपदमेव 'तित्थयर' शब्दे 2263 पृष्ठे केवलतपो(११२) तीर्थकृता रुद्रतपःकारकमुनिसंख्या, तत्र प्रसङ्गात् गणधराऽऽदि नामकेऽधिकारा२ गतः) माण्डमलिकान्ताना, देवानां च रूपवर्णनम्। उसभाऽऽइयाणमेत्थं, जायाइं केवलाई णाणाई। (113) तीर्थकृतां लाञ्छनानि, तेषां लक्षणद्वारम्, तीर्थकृत्सु लोका एवं कुणमाणो खलु, अचिरेणं केवलमुवेइ॥१४॥ न्तिकदेवबोधनम्, जिनवस्त्रवर्णानि, जिनानां च वर्णनिरूपणम्। ऋषभाऽऽदिकानां जिनानान्, अत्र तपसि कृते, जातान्युत्प-नानि, (114) तीर्थकृतां पञ्चत्रिंशद्वागगुणाः / के वलानि के वलसंज्ञितानि, ज्ञानानि सवेदनानि / अत एतत् (115) तीर्थकराणां वादिमुनिसंख्या, तीर्थकृता विवाहविषयश्च, येषु तीर्थरज्ञानोत्पत्तिसंज्ञित तपः, कुर्वाणः, खल्वचिरेण केवलं लभत इति ग्रामनगरेषु तेषां विहार आसीत् तन्निरूपणम्। व्यक्तम् / उपैतीति पाठान्तरं चेति // 14 // पञ्चा०१६ विव० (116) तीर्थकृतां वैक्रियक मुनयः, तेषामेवाऽऽर्यिकासंग्रहप्रमाणम्, तित्थयरणाम न०(तीर्थकरनामन) नामकर्मभेदे, यदुदयवशामुनिस्वरूपम्, संयतसंयतीप्रमाणम्, तीर्थकृता संयमप्रतिपादनम्। दष्टमहाप्रातिहार्यप्रमुखाश्चतुस्त्रिंशदतिशयाः प्रादुर्भवन्ति। कर्म०६ कर्म०। (117) परित्यागद्वारे जिनेन्द्राणामभिनिष्क्रमणसमये दानविचारः। श्रा०। पं० सं० (118) जिनश्राविकामानम् / तित्थेण तिहुयणस्स वि, पुज्जो से उदओ के वलिणो (46) (116) उत्कृष्टजघन्याभ्यां विचरतां तीर्थकृता संख्या, तथोत्कृष्ट जघन्या तीर्थेन तीर्थकरनामकर्मवशात्, त्रिभुवनस्याऽपि देवभानवदान-- भ्यां तेषां जन्मसंख्या च। वलक्षणत्रिलोकस्याऽपि, पूज्योऽभ्यर्चनीयो भवति / 'से' तस्य (120) सर्वेषां तीर्थकृतां सर्वायुः, तथा तेषां सामान्यमुनिसंख्या, तीर्थकरनामकर्मण उदयो विपाकः के वलिन उत्पन्न के वलज्ञानतीर्थकृत्सामायिकोपदेशविचारः, सामायिकसंख्या च / स्यैव, यदुदयाजीवः सदेवमनुजासुरलोकपूज्यमुत्तमोत्तमं तीर्थे
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________________ तित्थयरणाम 2313 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थयरत्त प्रवर्तयति / यदागमः... "तित्थं भंते! तित्थं, तित्थयरे तित्थं ? गोयमा ! अरिहा ताव नियमा तित्थकरे, तित्थे पुण चाउवन्ने समणसंघे पढमगणहरे था।'' इति परममुनिप्रणीतधर्मतीर्थस्य प्रवर्त्तयितृपदमवाप्नोति, तत्तीर्थकरनाम इत्यर्थः / (46) कर्म०१ कर्म०। ननु केवलज्ञानावाप्ती कृतकृत्यो भवान् किमिति धर्मदेशनायां प्रवर्तत इत्याशकायामाहवीतरागोऽपि सद्वेद्यतीर्थकृन्नामकर्मणः। उदयेन तथा धर्मदेशनायां प्रवर्त्तते / / 1 / / वीतरागोऽपि विगताभिष्वङ्गोऽपि, सरागः किल प्रवर्तत इति शब्दार्थः / सद्वद्य च सातवेदनीयं, तीर्थकृन्नाम च सद्वेद्यतीर्थकृन्नाम्नी, ते एव कर्म सद्वेद्यतीर्थकृन्नाभकर्म / अथवा-सता शोभनेन धर्मदेशनाऽऽदिना प्रकारेण यद्वेद्यते तत्सद्वेद्यं, तच तीर्थकृन्नामकर्म च, तस्य, उदयेन विपाकेन्न तथा तेन प्रकारेण समवसर–णाऽऽदिश्रीसमनुभवलक्षणेन, धर्मदेशनाया कुशलानुष्ठानप्रज्ञापनायां, प्रवर्तते व्याप्रियते इति // 1 // हा०३१ अष्ट०। सम्म०। जी०। ननु सूत्रकर्तुः परमाऽपवर्गप्राप्तिः, अपरं सत्त्वानुग्रहः, तदर्थ-प्रतिपादकस्याऽर्हतः किं प्रयोजनमिति चेत्? उच्यते-न किशित, कृतकृत्यत्वाद्भगवतः / प्रयोजनमन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासो निरर्थक इति चेत्? न / तस्य तीर्थकरनामकर्मविपाकोदयप्रभवत्वात्। उक्तं च- 'तं च कहं वेइज्जइ, अगिलाए धम्मदेसणाए उ।" इति। श्रोतृणामनन्तरं प्रयोजनं विवक्षिताऽध्ययनार्थपरिज्ञानं, परं निःश्रेयसं पदं, विवक्षिताध्ययनसम्यगावगमतः संयमः, संयम-प्रवृत्त्या सकलकर्मक्षयोपपत्तेः / जी०१ प्रति० "ज्ञानिनो धर्म-तीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् / गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः" ||1|| (इत्यन्यदीयमतम्) स्था०१ ठा०। आ० म० / पं०सं०। उत्ता (तीर्थकृन्नामबन्धहेतवः 'तित्थयर' शब्दे 2264 पृष्ठे निरूपिताः) तित्थयरणामगोयकम्म न०(तीर्थकरनामगोत्रकर्म) तीर्थकरत्व-- निबन्धनं नाम तीर्थकरनाम, तच गोत्रं च कर्मविशेष एवेत्येक-बद्भावात् तीर्थकरनामगोत्रम् / अथवा-तीर्थकर इति नामगोत्रम-भिधानं यस्य तत्तीर्थकरनामगोत्रम्। तीर्थकरनामाऽऽख्ये नामक-भेदे, स्था०। समणस्स भगवओ महावीरस्स तित्थंसि नवहिं जीवे हिं तित्थकरनामगोयकम्मे निव्वत्तिए / तं जहा-(श्रेणिका राजा 1, सुपाश्चो वर्द्धमानस्वामिपितृव्यः 2, उदायी कूणि-कपुत्रः श्रेणिकपात्रः 3) सेणिएणं, सुपासेणं, उदाइणा, पुट्टलेणं अणगारेणं, दढाउणा, संखेणं, सयएणं, सुलसाए सावियाए, रेवईए। एसणं अञ्जो कण्हे वासुदेवे रामे बलदेवे उदए पेढालपुत्ते पुट्टिले सयए गाहावई दारुए नियंठे सचई य णियंठीपुत्ते सावियबुद्धे अम्मडे परिवाए, अज्जा विणं सुपासा पासावचेज्जा आगमेस्साए उस्सप्पिणीए चाउज्जामं धम्मं पन्नवित्ता सिज्झिहिंति०जाव अंतं काहिति / स्था०६ ठा०। तित्थयरणिग्गमतव न०(तीर्थकरनिर्गमतपस) स्वनामख्यात चित्रतपसि, पञ्चा०। तत्र तीर्थकरनिर्गमतपः प्रतिपादयंस्तदाहतित्थयरणिग्गमो खलु, ते जेण तवेण णिग्गया सव्वे / ओसप्पिणीऍ सो पुण, इमीऍ एसो विणिद्दिट्ठो।।६।। तीर्थकरैर्निर्गमे गृहवासाद्यत्कृतं तपस्तत्तीर्थकरनिर्गमं तपः / खलुरलङ्कार। तन कीदृशमित्याह-तेतीर्थकरा येन तपसा निर्गता गृहवासात्सर्वेऽवसर्पिण्याम् (सो पुण त्ति) तत्पुनस्तपोऽस्यां वर्तमानायाम् (एसो त्ति) एतद् वक्ष्यमाणम्। (विणिद्दिट्ठो त्ति) उक्तमिति गाथार्थः / / 6 / / एतदेवाऽऽहसुमइ त्थ णिचभत्तेण णिग्गओ वासुपुज्जों (जिणों) चउथेणं। पासो मल्ली वि य अट्ठमेण सेसा उछठेणं / / 7 / / सुमतिः पञ्चमजिनः। "त्थ" इति पादपूरणे निपातः। नित्यभक्तेनानवरतभोजनेन, अविहितोपवास इत्यर्थः। निर्गतो गृहवासान्निष्क्रान्तः / तथा वासुपूज्यो द्वादशो जिनोऽर्हन् चतुर्थेनैकोपवासरूपेण। पार्श्वस्त्रयोविशतितमः, मल्लिरेकोनविंशतितमः, अष्टमेनोपचासत्रयरूपेण। शेषास्तु विंशतिः पुनः षष्ठेनोपवासद्वयरूपेणेति गाथाऽर्थः / / 7 / / (एतदेव 'तित्थयर' शब्दे 2277 पृष्टे निष्क्र मणतपःप्ररूपणावसरे व्याख्यातम्) एतद्विधानविधिमाह-- उसभाइकमेणेसो, कायव्वो ओहओ सइ बलम्मि। गुरुआणापरिसुद्धो, विसुद्धकिरियाएँ धीरेहिं / / 6 / / ऋषभाऽऽदिक्रमेण नाभयनिर्गमाऽऽद्यानुपूर्व्या, एष तीर्थकरनिर्गमः, कर्तव्यो विधेयः, ओघतः सामान्येनोत्सर्गेणेत्यर्थः / सति विद्यमाने, बले शक्ती, तथा विधवलाभावे पुनर्व्यतिक्रमणकरणेऽपि न दोष इति भावः। गुज्ञिया परिशुद्धो निर्दोषस्तत्संपादनाद् गुर्वाज्ञापरिशुद्धः / तथाविशुद्धक्रिययाऽनवद्यानुष्टानेन, धीरैः सात्त्विकैरिति गाथार्थः / / 8 / / इहेव मतान्तरमाहअण्णे तम्मासदिणेसु वेंति लिंगं इमस्स भावम्मि। तप्पारणसंपत्ती, तं पुण एवं इमेसिं तु || अन्ये अपरे सूरयः, तेषामृषभाऽऽदिजिननिर्गमतपसां ये मासाः प्रतीताः, दिनानि च तिथयः, तानि तन्मासदिनानि, तेषु, न मासान्तरतिथ्यन्तरेपु, बुदते तीर्थकरनिर्गमतपः। तथाहि ऋषभस्वामिनो निष्क्रमणतपोऽङ्गीकृत्य चैत्रमासबहुलाष्टमीदिनएव षष्ठ कार्य, वर्द्धमानस्वामिनश्च मार्गशीर्षबहुलदशमीदिन एवेति / एव-मन्येषामपीति / तथा लिङ्ग लक्षणम, अस्य ऋषभाऽऽदिनिर्गमतपसः, भावे संसिद्धी, तेषामृषभाऽऽदीनां यस्य यत्पारणं भोजनमासीत्तस्य संपत्तिः प्राप्तिस्तत्पारणसंपत्तिः, तत्पुनः पारणकमेतद्वक्ष्यमाणमेषामृषभाऽऽदीनाम् / तुशब्दः पूरणे। इति गाथार्थः / / 6 / / पशा०१६ विव01 ('उसह' शब्दे द्वितीयभागे 1133 पृष्ठ यावता कालेन भिक्षा लब्धा, यच पारणकमासीत तन्निरूपितम्) तित्थयरत्त न०(तीर्थकरत्य) अर्हत्त्वे, यो०वि० / आ०म०। (तीर्थकरत्वहेतवः 'तित्थयर' शब्देऽनुपदमेव 2264 पृष्ठे व्याख्याताः)
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________________ तित्थयरदाण 2314 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थाणुसज्जणा तित्थयरदाण न०(तीर्थकरदान) तीर्थकृद्दीयमाने, वरघोषणायां सत्या भयव ! कि तित्थयरस-तिअं आणं नाइक्कमिज्जा, उदाहु आयरियसंतिअं? श्रावको, योषिच तद्वानं गृहीतः,नवेति प्रश्ने, उत्तरम्-तीर्थकृडानसमये गोयमा ! चउट्विहा आयरिया भवंति / तं जहा-नामायरिया, ज्ञाताधर्मकथाऽऽदिषु सनाथानाथपथिककार्पटिकाऽऽदीनां याचकाना ठवणायरिया, दव्यायरिया, भावायरिया / तत्थ णं जे अवायरिया ते ग्रहणाधिकारो दृश्यते, न तु व्यवहारिणाम, तेन श्रावकोऽपि कश्चिद्यदि तित्थयरसमा चेव दट्टव्वा, तेसिं संति आणं नाइक्कमेज ति।" सः कः याचकीभूय गृह्णाति तदा गृहातु, योषितस्तु प्रायस्तत्राधिकारी न दृश्यत यः सम्यक् यथास्थितं, जिनमतं जगत्प्रभुदर्शन नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुइति।३८६प्र०। सेन०३ उल्ला सूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतरूपनयसप्तकाऽऽत्मक, प्रकाशयति भव्यानां तित्थयरभत्ति स्वी०(तीर्थकरभक्ति) परमगुरुविनये, पशा०१ विव०। / दर्शयतीत्यर्थः / 27 / ग०१ अधि०। तित्थयरमाइतव न०(तीर्थकरमाततपस्) तीर्थकरमातृपूजायुक्त | तित्थयरसिद्ध-पुं०(तीर्थकरसिद्ध) तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धा ऋषभातपस्तीर्थकरमातृतपः / भाद्रपदे सप्तभिरेकाशनकैर्निष्पाद्ये चित्र- ___ऽऽदिवत्ते तीर्थकरसिद्धाः। सिद्धभेदेषु, पा०। ल० नं०। आ० चूल। तपोभेदे, पञ्चा० 16 विवा तित्थयराऽऽणा-स्त्री०(तीर्थकराऽऽज्ञा) जिनोपदेशे, पञ्चा० 16 विव० तित्थयरमोक्खगमणतव न०(तीर्थकरमोक्षगमनतपस्) स्वनाम- "तित्थगराणा मूलं, नियमा धम्मस्सतीऍवायाए। किंधम्मो किमहम्मो, ख्याते चित्रतपसि, पञ्चा०। मूढा ने वि पारिति॥१।।" दर्श० 1 तत्त्व। तत्स्वरूपमाह तित्थयराभिमुह-त्रि०(तीर्थकराभिमुख) तीर्थकरसम्मुखे, बृ० तित्थयरमोक्खगमणं, अहावरो एत्थ होइ विन्नेओ। 10 // जेण परिनिव्वुया ते, महाणुभावा तओ य इमो।।१५।। तित्थयरी-स्त्री०(तीर्थकरी) स्त्रीत्वविशिष्टे तीर्थकरे, यथा बुद्धीतीर्थकरमोक्षगमनं नाम, अथानन्तरम्, (अवरो त्ति) अपरम्, अत्र | मल्लिस्वामिनीप्रभृतिका तीर्थकरी, सामान्यसाध्व्यादिका वा वेतपोऽधिकारे, भवति स्यात्, (विन्नेउ त्ति) विज्ञेयम् / येन तपसा, दितव्या / यतः सिद्धप्राभृतटीकायामेवोक्तम्- "बुद्धीओ वि मल्लीपपरिनिर्वृता निर्वाण गताः, ते तीर्थकराः, महानुभावा अचिन्त्यशक्तयः, __मुहाओ अन्नाओ य सामन्नसाहुणीपमुहाओ व हुंति त्ति।"नंग (तओ य इमो त्ति) तच तीर्थकरनिर्वाणगमनाऽऽख्यं तपः, इदं वक्ष्यगाण तित्थराय-पुं०(तीर्थराज) शत्रुञ्जयपर्वते, ती०१ कल्प। मिति गाथाऽर्थः / / 15 // तित्थसिद्ध-पुं०(तीर्थसिद्ध) तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थम्, तदेवाऽऽह यथाऽवस्थितसकलजीवाजीवाऽऽदिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीत निव्वाणमंतकिरिया, सा चोद्दसमेण पढमनाहस्स। प्रवचन, तच निराधारं न भवतीति सधः, प्रथम-गणधरो वा ; सेसाण मासिएणं, वीरजिणिंदस्स छठेणं // 16 // तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः / प्रज्ञा०१ पद / नं० / धol आ०००। तीर्थ उक्तलक्षणे सति सिद्धा निर्वृता जम्बूस्वाभ्यादिवदिति निर्वाणं निर्वृतिः, अन्तक्रियेति अन्तक्रियाशब्देनोच्यते, साऽन्तक्रिया तीर्थसिद्धाः। पा०। तीर्थेसति सिद्धा निर्वता ऋषभसेनगणधराऽऽदिव(चोद्दसमेण त्ति) चतुर्दशभक्तेनोपवासषट् करूपेण, प्रथमनाथस्य दिति तीर्थसिद्धाः। सिद्धभेदेषु, स्था०१ ठा०। ऋषभजिनस्य, शेषाणामजिताऽऽदीनां मासिकेन मासोपवासरूपेण, वीरजिनेन्द्रस्य षष्टेनेति व्यक्तमिति गाथाऽर्थः / / 16 / / पञ्चा० 16 विव०। तित्थसेवण-न०(तीर्थ सेवन) तीर्थम् उक्तलक्षणं, तस्य सेवन तीर्थ सेवनम् / द्रव्यभावतीर्थसेवायाम, धा तीर्थकरनामकर्मनि('तित्थयर' शब्देऽपि 2266 पृष्ठे गतेयं गाथा) ''समणरस ण भगवओ बन्धनत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थम् / तथा-तीर्थं द्रव्यतो जिनदीमहावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं गइकल्लाणाणाव आगमेरि क्षाज्ञाननिर्वाणस्थानम् / यदाह-'"जम्मं दिक्खा नाणं, तित्थय-राणं भद्दाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइ-संपया होत्था।'' स्था०८ ठा०। (एते महाणुभावाणं / जत्थय किर निव्वाणं, आगाढ दंसणं होइ।।१।।" इति / 'तित्थयर' शब्दे 2248 पृष्ठे सर्वेषां तीर्थकृतां न्यक्षेण प्रतिपादिताः) भावतस्तु ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽधारः श्रमणसंघः, प्रथमगणधरो वा / तित्थयरसम पुं०(तीर्थकरसम) सर्वाऽऽचार्यगुणयुक्ततया सुधर्मा यदाह- "तित्थं भंते ! तित्थं, तित्थयरे तित्थं? गोयमा ! अरिहा ताव ऽऽदिवत्तीर्थकरकल्पे, ग०। नियमा तित्थयरे, तित्थे पुण चाउव्वर्ण समणसंघे, पढमगणहरे वा।" तित्थयरसमो सूरी, सम्मं जो जिणमयं पयासेइ। इति। तस्य सेवनम् / ध०२अधि०| आणं अइक्कमंतो, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो॥२७|| तित्थाणुसजणा-रत्री०(तीर्थानुषजना) जिनशास्त्रज्ञनुषज्जनायाम्, स सूरिस्तीर्थकरसमः सर्वाऽऽचार्यगुणयुक्ततया सुधाऽऽदि- कल्प। वत्तीर्थकरकल्पो विज्ञेयः / न च वाच्यं चतुस्त्रिंशदतिशयाऽऽदिगु- जप्पमिइं च णं से खुदाए भासरासी महागहे दोवाससहस्सणविराजमानस्य तीर्थकरस्योपमा सूरेस्तद्रिकलास्याऽनुचिता / यथा द्विई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकंते, तीर्थकरोऽर्थ भाषते, एवमाचार्योऽप्यर्थमेव भाषते। तथा यथा तीर्थकर तप्पमिदं च णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो उदिओउत्पन्नकेवलज्ञानो भिक्षार्थन हिण्डते.एवमाचार्योऽपि भिक्षार्थन हिण्डते, दिए पूआसक्कारे पवत्तइ / / 130|| जया णं से खुदाए भासरासी इत्याद्यनेकप्रकारैस्तीर्थकरानुकारित्वस्य सर्वाऽतिशयित्वस्य परमोप- महागहे दोवाससहस्सट्ठिई०जाव जम्मनक्खत्ताओ विइक्कं ते कारित्वाऽऽदेव ख्यापनार्थन, तस्यन्याय्यतरत्वात्। किं च -श्रीमहानि- भविस्सइ, तया णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य उदिओदिए शीथपञ्चमाध्ययनेऽपि भावाऽऽचार्यस्य तीर्थकरसाग्यमुक्तम्। यथा- "से | पूआसक्कारे भविस्सइ / / 131 / /
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________________ तित्थाणुसज्जणा 2315 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थाणुसज्जणा यतः प्रभुमि स क्षुद्राऽऽत्मा भस्मराशिनामा ग्रहो द्विवर्पसहस्रस्थि-तिः / जंबुद्दीवे णं दीवे मारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए ममं एग श्रमागस्य भगवतो महावीरस्य जन्मनक्षत्रं संक्रान्तः, ततः प्रभृति श्रमणाना वाससहस्सं पुव्वगए अणुसिजिस्सइ / जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे तपस्विना, निर्ग्रन्थानां साधूनां, निर्ग्रन्थीनां साध्वीनां च उदितोदित / दीवे भारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एगं उत्तरोत्तर वृद्धिमान् ईदृशः यः पूजा वन्दनाऽऽदिसत्कारो वरदाना- वाससहस्सं पुव्वगए अणुसिज्जिस्सइ, तहा णं भंते ! जंबुद्दीवे ऽदिबहुमानः, स न प्रवर्तते / अत एव शक्रेण स्वामी विज्ञप्तः--यत् दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए अवसेसाणं तित्थगराणं क्षमनायुबर्दयत, येन भवत्सु जीवत्सु भवजन्मनक्षत्र संक्रान्तो केवइयं कालं पुव्वगए अणुसिज्जित्था? गोयमा ! अत्थेगइयाणं भस्मराशिग्रहो भवच्छासन पीडयितुं न शक्ष्यति / ततः प्रभुणोक्तम्-न संखेनं कालं, अत्थेगइयाणं असंखेनं कालं जंबुद्धीवे गंदीवे खलु शक्र ! कदाचिदपि इदं भूत--पूर्व , प्रक्षीणमायुर्जिनेन्ट्रैरपि न वर्द्धयितुं भारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवइयं कालं शक्यते, ततोऽवश्यंभाविनो तीर्थबाधा भविष्यत्येव, किं तु षडशीति- तित्थे अणुसिजिस्सइ ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वर्षायुपि कल्किनि कुनृपतौ त्वया निगृहीते सति वर्षसहस्रद्ये पूर्णे इमीसे उस्सप्पिणीए ममं एगवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुमजन्मनक्षत्राद्भस्मग्रहे व्यतिक्रान्ते च त्वत्स्थापितकल्किपुत्रधर्म - सिजिस्सइ / जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे दत्तासज्यादारभ्य साधुसाध्वीनाम् उदितोदितः पूजासत्कारो उस्सप्पिणीए देवाणुप्पियाणं, एकवीसं वाससहस्साई तित्थे भविष्यतीति / / 130 // सूत्रकारा अपि तदेवाऽऽहु:-(जया णमित्यादि) अणुसिज्जिस्सइ, तहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगयदा च क्षुद्रात्मा भरभराशिमहाग्रहः द्विवर्षसहसस्थितिकः यावद भगवद् मेस्साणं चरमतित्थगरस्स केवइयं कालं तित्थे अणुसिज्जिजन्मन–क्षत्राद व्यतिक्रान्तो भविष्यति, तदा श्रमणानां निर्ग्रन्थानां निर्ग- स्सइ? गोयमा ! जावइएणं उसभस्स अरहओ कोसलियस्स न्थीनां च उदितोदितः पूजासत्कारो भविष्यति। कल्प०६ क्षण। जिणपरियाए तावइयाए संखेजाइं आगमेस्साणं चरमतित्थ से भयवं ! केवइएणं कालेणं पहे कुगुरुभावी होति? गोयमा ! गरस्स तित्थे अणुसिज्जिस्सइ। इओ य अद्धतेरसण्हं वाससयागं साइरेगाणं समइक्कंताणं परओ (जंबुद्दीवे णमित्यादि) (देवाणु प्पियाणं ति) युष्माकं संबन्धि भविंसु / से भयवं ! केणं अटेणं ? गोयमा ! तझालं इड्डीरस- (अत्यंगइयाणं संखेज कालं ति) पश्चानुपूर्व्या पार्श्वनाथाऽऽदीनां संख्यात सायगारवसंगए ममीकारअहंकारऽग्गीए अंतो संपज्जलंतबोदी कालम् / (अत्थेगइयाणं असंखेज कालं ति) ऋषभाऽऽदीनाम् अहमहं ति कयमाणसे अमुणियसमयसब्भावे गणी भविंसु, एएणं (आगमेस्साण ति) आगमिष्यतां भविष्यता महापद्माऽऽदीनां जिनानाम् / अटेणं / से भयवं ! किं सव्वे वि एवंविहे तक्कालगणी भविंसु? (कोसलियरस ति) कोशलदेशे जातस्य / (जिणपरियाए त्ति) गोयमा ! एंगतेणं नो सव्वे, के य पुण दुरंतपंतलक्खणे अदट्ठ- केवलिपर्यायः, स च वर्षसहस्त्रन्यूनं पूर्वलक्षमिति। भ०२० श०८उ०॥ व्वे णं एगाए जणणीए जमगसमगं पसूए निम्मेरे पावसीले अधुना.........''अणुसज्जणा य दस चोद्दस अट्ट दुप्पसहे' दुजायजम्मे सुरोद्दपयंडाभिग्गहियदूरमहामिच्छदिट्ठी भविंसु / (334) इत्यस्य व्याख्यानमाहसे भयवं ! कहं ते समुवलक्खेज्जा? गोयमा ! उस्सुत्तउम्भग्गा- दस ता अणुसजंती, जा चोद्दसपुट्वि-पढमसंघयणं / पवत्तणुदिस्सए, अणुमईपचएण वा। महा०७ अ०१चू०। तेण परेणऽट्ठविहं, जा तित्थं ताव बोधव्वं / / 341 / / उत्सर्पिण्यामन्तिमजिनस्य तीर्थानुषजना यावत्प्रथमसंहननं चतुर्दशपूर्वी च, तावद्दश प्रायश्चित्तानि अनुष–जन्ति उस्सप्पिणि अंतिमजिण--तित्थं सिरिरिसहनाणपज्जाया। स्म। एतौ च प्रथमसंहननचतुर्दशपूर्विणौ समक व्यवच्छिन्नौ, तयोश्च संखेजा जावइआ, ताव पमाणं धुवं भविही / / 452 / / व्यवच्छिन्नयो रनवस्थाप्यं, पाराशितं च व्यवच्छिन्नम् / ततः इह श्रीऋषभस्वामिनः केवलज्ञानपर्यायो वर्षसहस्रोन एकपूर्वलक्षः, तत परेणानवस्थाप्यपाराशितव्यवच्छे दादक, अष्ट विधं प्रायश्चित्तं एवंस्वरूपा ज्ञानपर्यायाः संख्येया यावन्तो भवन्ति तावत्प्रमाणमुत्स- तावदनुपजते, अनुवर्तमानं बोद्धव्यं, यावत्तीर्थव्यवच्छेदकाले चतुःप्रसभो पिण्यामन्तिमजिनस्य चतुर्विंशतितमस्य भद्रकृन्नाम्नस्तीर्थकृतस्तीर्थ नाम सूरिभविष्यति, तस्मिन् कालगते तीर्थ, चरित्रं च व्यवच्छेदमयते। ध्रुवं निश्चितं भविष्यति। सख्येयपूर्व-लक्षणं तत्तीर्थमित्यर्थः। प्रव०२६६ यदप्युक्तं "देता विन दीसंति' (330) इत्यादि। तत्राऽऽहद्वार। दर्श० / ति० (कदा कस्य श्रुतस्य व्यवच्छेद इति तु 'तित्थयर' दोसु उ वोच्छिन्नेसुं, अट्ठविहं देंतया करेंता य / शब्दे 2273 पृष्ठे निरूपितः) न वि केई दीसंती, वयमाणे भारिया चउरो॥३४२।। व्यवच्छेदाधिकारादेवेदमाह द्वयोरनवस्थाप्यपाराञ्चितयोः, अथवा-प्रथमसंहननचतुर्दशपूजंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए र्विणोः, व्यवच्छिन्नयोरष्टविध प्रायश्चित्तं ददतः, कुर्वन्तो वा केचिन्न देवाणुप्पियाणं केवइयं कालं पुटवगए अणुसिज्जिस्सइ? गोयमा! दृश्यन्ते, इति वदति परस्मिन्प्रायश्चित्तं चत्वारो भारिता गुरुका मासाः /
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________________ तित्थाणुसज्जणा 2316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तित्थुग्गालिय दोसु वि वोच्छिन्नेसु, अट्ठविहं देंतया करेंता य। आलोयणा विवेगो य,तइयं तु न विज्जती। पञ्चक्खं दीसंती, जहा तहा मे निसामेहि // 343 / / सुहुमे य संपराए य, अहक्खाए तहेव य / / 352 / / द्वयोरन्तिमयोः प्रायश्चित्तयोः प्रथमसंहननचतुर्दशपूर्विणो व्य- सूक्ष्मसम्पराये, यथाख्याते च संयने वर्तमानानामालोचना, विवेक वच्छिन्योरष्टविध प्रायश्चित्तं ददतः, कुर्वन्तश्च प्रत्यक्षं दृश्यन्ते यथा, तथा इत्येवरूपे द्वे प्रायश्चित्ते भवतः, तृतीयं तु न विद्यते। मम कथयतो निशमय। ततः प्रस्तुते किमायातमिति चेदत आहपंचेव नियंठा खलु, पुलागवकुसा कुसीलनिगंथा। वउसपडिसेवया खलु, इत्तरिछेया य संजया दोणि / तह य सिणाया तेसिं, पच्छित्तं जहकडं वोच्छं॥३४४|| जा तित्थऽणुसजंती, अत्थि हु तेणं तु पच्छित्तं // 353 / / पञ्चैव खलु निर्गन्धा भवन्ति / तद्यथा-पुलाको, वकुशः, कुशीलः, निर्गन्थचिन्तायां वकुशः, प्रतिसेवकः प्रतिसेवनाकुशीलः, इत्येतौ द्वौ निर्गन्धः, स्नातकश्च / एतेषां च स्वरूपं व्याख्याप्रज्ञप्तरवसेयम् / एतेषा निग्रन्थी; संयतचिन्तायाम् इत्वरी-इत्वरसामायिकवान्, छेदश्छेदोपप्रायश्चित्तं यथाक्रमं वक्ष्ये। स्थाप्यश्चेतिद्वौ संयतो. यावत्तीर्थ तावदनुषजतोऽनु-वर्तेत, तेन ज्ञायते प्रतिज्ञा पूरयति अस्ति संप्रत्यपि प्रायश्चित्तम् / व्य० 10 उ०। (विशेषविस्तरस्तु 'वोच्छेय' शब्दे वक्ष्यते) (कल्किराज्ये तीर्थ नष्टप्रायमासीदिति 'कक्कि' आलोयणपडिकमणे, मीसविवेगे तवे विउस्सगे। शब्दे तृतीयभागे 181 पृष्ठे समुक्तम्) एएछ पच्छित्ता, पुलागनियंठस्स बोधव्वा / / 345 / / तित्थाभिसेअ पुं०(तीर्थाभिषेक) लौकिकतीर्थस्नाने, अं०। आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेकः, तपः, व्युत्सर्गः, एतानि पट् | लिशिय बितातीर्थक अगमलीये सम्मतपाये तित्थिय त्रि०(तीर्थिक) अन्यमतीये सम्मतपापे, आचा०१ श्रु०८ प्रायश्चित्तानि पुलाकनिन्थस्य बोधव्यानि। अ०१ उ० वउसपडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि। तित्थुग्गालिय न०(तीर्थोदालिक) स्वनामख्याते प्रकीर्णक, तित्थु०। थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे अट्ठहा होति।।३४६|| "जयइ ससिपायनिम्मल--तिहुअणवित्थिपणपुण्णजसकुसुमो। वकुशप्रतिसेवकयोर्वकुशस्य, प्रतिसेवनाकुशीलस्य च सर्वाण्यपि उसभी केवलदसण-दिवायरो दिट्ठिदट्टव्यो।।१।। दशाऽपिप्रायश्चित्तानि भवन्ति। तौ च वकुशकुशीली स्थविराणां कल्प वावीसइंच निज्जिय-परीसहकसायबिग्घसंघाया। भवतः, जिनकल्पे, उपलक्षण मेतत-यथालन्दकल्पे च, तयोः अजिआईया भविया-ऽरविंदरविणो जयंति जिणा // 2 // प्रायश्चित्तमष्टधा भवति, अनवस्थाप्यपाराशितयोरभावात् / जयई सिद्धत्थनरिंदविमलकुलविपुलनहलियमयंको। आलोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे। महिपालससिमहोरग-महिंदमहिओ महावीरो // 3 // विवेगो य सिणायस्स, एमेया पडिवत्तिओ॥३४७।। नमिऊण समणसंघ, सुनायपरमत्थपायड वियर्ड। आलोचनाप्रायश्चित्तविवेकप्रायश्चित निर्ग्रन्थस्य भवतः, स्नातस्य वोच्छं निच्छययत्थं, तित्थुग्गालीऍ संखेवं / / 4 / / केवल एको विवेकः / एवमेताः पुलाकाऽऽदिषु प्रतिपतयः। रायगिहे गुणसिलए, भणिया वीरेण गणहराण तु। पंचेव संजया खलु, नायसुएण कहिया जिणवरेणं। पयसयसहस्समेय, वित्थरओ लोगनाहेणं / / 5 / / तेसिं पायच्छित्तं, अहक्कम कित्तइस्सामि / / 348 // अइसखवं मोत्तुं. मोत्तूण पवित्थरं अहं भणिमो। ज्ञातस्तेन जिनवरेण वर्द्धमानस्वामिना पञ्चैव खलु संयताः कथिताः, अप्पक्खरं महत्थं, जह भणियं लोगनाहेणं / / 6 / / तेषां यथाक्रमं प्रायश्चित्तं कीर्तयिष्यामि। कालो उ अणाईओ, पवाहरूवेण होइ नायव्यो। तदेव कीर्तयति निहणविहूणो सो चिय, वारसअंगेहिं निहिट्ठो।।७।। "तित्थु०। सामइयसंजयाणं, पायच्छित्तानि छेदमूलरहियऽट्ठा। "एसा य पयसहस्सेण वनिया समणगंधहत्थीणं / थेराण जिणाणं पुण, तवमंतं छव्विहं होइ॥३४६।। पुट्टण य रायगिहे, तित्थुग्गाली उ वीरेण / / 1245 // सामायिकसंयतानां स्थविराणां स्थविरकल्पिकाना छेदमूलरहितानि सोउं तित्थुम्गालिं, जिणवरवसहस्स वद्धमाणरस। शेषाण्यष्टो प्रायश्चित्तानि भवन्ति ।जिनानां जिनकल्पिकानां पुनः पणमह सुगइगयाणं, सिद्धाणं निहितट्ठाणं // 1246 / / सामायिकसंयतानां तपःपर्यन्तं षनिध, प्रायश्चित्त भवति। भई सव्वजगुजो-यगस्स भद जिणस्स वीरस्स। छेदोवट्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि। भई सुरासुरनमंसियस्स भई धुयरयस्स // 1247 / / थेराण जिणाणं पुण, मूलंतं अट्ठहा होइ।।३५०।। गुणभवणगहण ! सुयरयण ! भरियर्दसण ! विसुद्धरत्थागा ! छेदोपस्थापनीये संयमे वर्तमानानां स्थविराणां सर्वाण्यपि प्राय- संघनगर ! भदंते, अक्खडचरित्तपागारा ! / / 1248 / / श्चित्तानि भवन्ति, जिनकल्पिकानां पुनर्मूलपर्यन्तमष्टधा भवति / जं उहितं सुयाओ, अहव गतीए जथोवदेसेणं। परिहारविसुद्धीए, मूलंता अट्ट हों ति पच्छित्ता। तं च विरुद्ध नाउं, सोहेयव्वं सुयधरहिं!।१२४६।। थेराण जिणाणं पुण, छव्विह छेयादिवजं च / / 351 / / मणपरमोहिपुलाए, आहारगखवगउवसमे कप्पे। परिहारविशुद्धिक संयमे वर्तमानाना स्थविराणां मुलान्तान्यष्टी संजमतियकेवलिसिज्झणा उ जंबुम्मि विच्छिन्ना / / 1250 / / प्रायश्चित्तानि भवन्ति / जिनानां पुनश्छदाऽऽदिवर्ज पनिधन / पुव्वाणं अणुओगो, संघयणं पढमं च संहाणं।
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________________ तित्थुग्गालिय 2317 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिमहुर सुहममहापाणाणि य, वोच्छिन्ना थूलभद्दम्मि।।१२५१।। कायवचसोरे-वेति / यद्वा-त्रयाणा देहाऽऽयुरिन्द्रियरूपाणां पातनं दसधुव्वा वाच्छिन्ना, संपुन्ना सुरभवम्मि संपत्ते / विनाशनं त्रिपातनम् / इदं च सर्वेषामपि तिर्यग्मनुष्याणां परिपूर्ण घटते, वयर म महाभागे, संघयणं अद्धनाराय / / 1252 / / केवलं यथा येपा सम्भवति तथा तेषां वक्तव्यम्, यथा एकेन्द्रियाणां देहयोसदिकहिं कप्पे, पंच गहाणी उ कप्पठवणा य। स्यौदारिकस्य आयुषस्तिर्यगायूरूपस्येन्द्रियस्य स्पर्शनेन्द्रियस्य, द्वीन्द्रियाणां देहस्यो दारिकरूपस्य आयुषस्तिर्यगायुष इन्द्रिययोश्च नवसथतियणउहि, वोच्छिन्ना संघआणाए।।१२५३।। स्पर्शनरसनलक्षणयोरित्यादि। पञ्चमीतत्पुरुषस्त्वयम-त्रिभ्यः कायवाड़ तीर्थोद्गालिकासिद्धान्तः। मनोभ्या, देहाऽऽयुरिन्द्रियेभ्यो वा पातनं च्यावनमिति त्रिपातनम् / देतोस गाहाओ, दोन्नि सयाऊ सहस्समेग च। अत्राऽपि त्रिभ्यः परिपूर्णेभ्यः कायवाङ् मनोभ्यः पातन गर्भजपञ्चेन्द्रियतित्शुग्नालियसंखा, एसा भणिया उ अंकेणं" // 1244 // तित्थु०॥ तिर्यड मनुष्याणाम, एकेन्द्रियाणां तु कायादेव केवलात्, विकलेन्द्रियतित्थुपणतिकारग त्रि०(तीर्थोन्नतिकारक) प्रवचनप्रभावनाकारिणि, संमूर्छिमतिर्यग्मनुष्याणां तु कायवाग्भ्यामिति, देहाऽऽयुरिन्द्रियरूपेभ्यः फञ्चालविव० पातनं सर्वेषामपि परिपूर्ण सम्भवति। तथा तेषां प्रागिव वक्तव्यम् / तित्थुदय पुं०(तीर्थोदय) तीर्थकरनामोदय, यतः सयोग्यादी तीर्थ- तृतीयातत्पुरुषः पुनरयम्-त्रिभिः कायवाड्म नो भिविनाशके न कारनामादयो भवति यदुक्तम्--"उदग जरस सुरासुरनरवइनि-उहहिं स्वसम्बन्धिभिः पातनं विनाशनं त्रिपातनम्।।१२।। ('आधाकम्म' शब्द इआ होइ। तं तित्थयरं नाम, तस्स विवागो हु केवलियो / / 1 / / ' ततः द्वि०भा० 220 पृष्ठऽपि व्याख्यैषा) पिं०। प्रश्न०। सूत्रा पूर्वोक्तकचत्वारिंशति तीर्थकरनाम क्षिप्यते, जाता द्विचत्वारिंशत, सा तिपुंज न०(त्रिपुञ्ज) शुद्धाशुद्धमिश्रपुञ्जत्रये, विशे०। 'आलंवणच सयो गेनि भवतीति / (21) कर्म०२ कर्म०। मलहंती, जह सढाणं न मुंचए इलिआ। एवं अकयतिपुंजी, मिच्छं चिअ तित्थेस पुं०(तीर्थश) तीर्थस्य प्रागुक्तस्य, तदाऽऽधेयस्याऽऽगम-स्य वा, उपसमी एइ ।।१॥'ध०२ अधि०। . ई लक्ष्मी महिमान,श्यति तत्तदसद् भूतदूषणोद्घोषणः स्वाभिप्रायेण तिपुक्खर न०(त्रिपुष्कर) त्रीणि पुष्कराणि त्रिपुष्करम् / “संख्यापूर्वी तनूकरोति यः सः तीर्थेशः। तीर्थान्तरीये बहिरङ्गापकारिणि, (रत्ना०) द्विगुः" / / 2 / 11521 इति समासः / अनु० / 'वाराः क्रूरास्तिथिर्भद्रा, तीर्थस्य चतुर्वर्णस्य श्रीश्रमणसङ्घस्येशः स्वामी तीर्थे शः / तीर्थकरे, नक्षत्रं भग्नपादकम। जातेऽत्र जारजो योगो, मरणेऽत्र त्रिपुष्करम् / / 1 / / " रत्ना० 1 परि० इति ज्योतिषोक्त योगभेदे, पुं०। वाचा तिदंड न० (त्रिदण्ड) त्रयाणां दण्डानां समाहारस्त्रिदण्डम्। त्रयाणा दण्डानां तिपुड पुं०(त्रिपुट) त्रयः पुटा यस्य। खेसारीकलापभेदे, शरे, तालकयन्त्रे, समाहारे, औ०। भग गोक्षुर, हस्तभेदे च / सूक्ष्मैलायाम्, मल्लिकायाम्, त्रिवृदोषधी, तिदंडि (ण) पुं०(त्रिदण्डिन ) मनोवाकायदण्डत्रयपरिज्ञानार्थ कर्णस्फोटायां, देवीभेद च / स्त्री० / टाप्। वाचला जं०५ वक्षः / दण्डवयधारके वेदान्तावलम्बिश्रमणभेदे, आ०म० 1 02 खण्ड / तिपुर पुं०(त्रिपुर) त्रीणि स्वर्गाऽऽदिस्थानानि पुराण्यस्य / असु-रभेदे, सूत्र० / ( नमस्कारफले त्रिदण्ड्युदाहरणं णमोक्कार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वाचा त्रीणि पुराणि त्रिपुरम् / “संख्यापूर्वो द्विगुः" / / 2 / 1 / 52 / / इति समासः / अनु०। पुरत्रयभात्रे, नावाचा 1844 पष्ठ गतम्) तिप्प त्रि०(तृप्त) 'इत्कृपाऽऽदौ' / / 81128 / इति ऋत इत्वम्। प्रा०१ तिदसावास पुं० (त्रिदशावास) देवलोके, प्रा० ढुढी० 4 पाद। पाद / अतिशयोपभांगेन निवृत्तेच्छे, आचा०१ श्रु०२अ०५३०। तिदिस न०(त्रिदिश्) त्रिस्रो दिशः समाहृतास्त्रिदिक / दिक् त्रये, रा०। *तृप धा०। भ्या-आत्म० / क्षरणे, आचा०१ श्रु०२अ०५ उ० तिध अव्य०(तथा) "कथं यथा-तथां थाऽऽदेरेमे मेहेधा डितः" "तिप्पाडि वा पीडामिवा।" (तिप्याडि त्ति) शरीरबलं क्षरामि। सूत्र०२ / / 6 / 4 / 401 / / इत्यपभ्रंशे थादेरवयवस्य डित्संज्ञकः 'इध' इत्यादेशः। श्रु०१ अ०। “तिप्पंति।'' सुखाचयावयन्त्यात्मानं, पराँश्च / सूत्र०२ प्रा०४ पाद / साम्ये, अभ्युपगमे, पृष्टप्रतिवाक्ये, समुच्चये, निश्चये च। श्रु०२अ०॥ वाचा तिप्पणया रत्री०(तेपनता) तिपेः क्षरणार्थत्वादश्रुमोचने, भ०२५ तिपरिवत्त त्रि०(त्रिपरिवर्त्त) त्रिभिवारवेष्टनीये, बृ०३उ०। श०७उन स्था० शोकातिरेकादेव अश्रुलालाऽऽदिक्षरणप्रापणायाम, तिपह न०/ त्रिपथ) त्रयाणां पथां समाहारे, वाच०। अनु०॥ भ०३१०३उ०। आर्तध्यानलक्षणे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१3०। परिदेवने, तिपायण न० (त्रिपातन) 'कायवयमणा तिन्नि उ, अहवा देहा उ इंदिया राब०२ श्रु०४ अ०। त्रिभिर्योगैः परितापे, आ०चू० 4 अ०। पाणा। सामित्ता वायाण, होयऽतियाओ य करणसुं।१६४! इत्युक्तलक्षणे *त्रिपातनता स्त्री० / त्रिभ्यो मनोवाक्कायेभ्यः पातनं त्रिपातन, तद्भाप्राणिविनाशे, पिं०। त्रीणि कायवामनांसि, यद्वा-त्रीणि देहाऽऽयुरि-- वरित्रपातनता। त्रिपातनभावे, सूत्र०२ श्रु०४ अ०) न्द्रियलक्षणानि / पातनं चातिपातो, विनाश इत्यर्थः। अत्र च विधा तिभाग पुं०(त्रिभाग) तृतीयो भागस्त्रिभागः / मयूरव्यसकाऽऽदिरामासविवक्षा। तद्यथा-षष्ठीतत्पुरुषः, पक्षमीतत्पुरुपः,तृतीयातत्पुरुषश्च। त्वात्समासः। तृतीयेऽशे, कर्म० 2 कर्म०। तत्र षष्ठीतत्पुरुषोऽयम्-त्रयाणा कायवाग्मनसा पातनं विनाशनं त्रिपातनम्। | तिमहुर न० (त्रिमधुर) त्रीणि मधुराणि समाहृतानि त्रिमधुरम् / एलच्च परिपूर्णगर्भजपक्षेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणामवसेयग, एकन्द्रियाणां तु "संख्यापूर्वो द्विगुः' / / 2 / 1152 / / इति समासः। अनु०ा घृतसितामाकन्यस्या केवलस्य, विकलेन्द्रियस मूर्छि मतिर्यग्मनुष्याणां तु | क्षिकरूप मधुरक्ये, वाचन
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________________ तिमि 2318- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिरिक्खसामण्ण तिमि पुं०(तिभि) मत्स्यभेदे, प्रज्ञा०१ पद / जी०। कल्प०। "अस्ति | मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानरूपे, कर्म० 4 कर्म०। मत्स्यस्तिमिर्नाम, शतयोजनविस्तरः / तिमिङ्गि लगिलोऽप्यस्ति, | तियस पुं०(त्रिदश) तिस्रो दशा जन्मसत्ताविनाशाऽऽख्याः, न तु तगिलोऽप्यस्ति राघवः / / 1 / / " सूत्र 2 श्रु०३अ०। समुद्रे,वाच०। वृद्धिपरिणामक्षया मानामिव दशा येषां ते त्रिदशाः / देवेषु, वाच० / महामत्स्ये, प्रश्न०१आश्र० द्वार। आ०म० तिमि गिल पुं०(तिमिङ् गिल) तिमि मत्स्य गिरति। 'गृ' निगरणे। खश, / तियसलोग पुं०(त्रिदशलोक) स्वर्गे, वाचला आ०म०। मुम्च।"अस्ति मत्स्यस्तिमिनाम, तथा चास्ति तिमिङ्गिलः।" वाचा तियसिंदणमंसिय त्रि०(त्रिदशेन्द्रनमस्थित) त्रिदशाः सुमनसमत्स्यभेदे, प्रज्ञा०१ पद / मीने, देना० 5 वर्ग 13 गाथा / कल्प०। स्तेषामिन्द्रास्त्रिदशेन्द्रास्तैर्नमस्थितः / देवेन्द्रनते, ग०१ अधिक। सूत्र० / जी०। महामत्स्यतमे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। तिरयणमाला स्त्री०(त्रिरत्नमाला) ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्नत्रयतिमि गिलगिल पुं०(तिमिङ्गिलगिल) महामत्स्ये, सूत्र०२ श्रु०६अ। मालायाम्, संथा०। "चारित्तसुद्धसाला, तिरयणमाला तुमे भव्वा / " तिमिच्छाओ (देशी) कश्चिदित्यर्थे , पथिके च। देवना०५ वर्ग 13 गाथा। संथा। तिमिण (देशी) आईदारुणि, देखना०५ वर्ग 11 गाथा। तिरासि न०(त्रिराशि) जीवाजीवनो जीवभेदात्रयो राशयः तिमिर न० (तिमिर) अन्धकारे, कल्प०३ क्षण। "जदा कण्हचउ-वसीए | समाहृतास्त्रिराशि / राशित्रये, स्था०७ ठा० रातीए रयरेणुधूमिगा भवति, तदा तम्मि तिमिरं भण्णति / अहवा- / तिरिअजोणि पुं०(तिर्यग्योनि) तिरश्वामुत्यत्तिस्थाने, प्रज्ञा०१ पद। पित्तुदएण दव्यचक्खिदियस्संतरकरणं भवति / " नि०चू० ४उ०। तिरिअंच त्रि०(तिर्यक) चतुर्थगतिके तिरश्वा वैक्रियशरीरकरणं मूलशरीरेण निकाचिते कर्मणि, ध०२ अधि०। विज्ञानाल्पतायाम्, बहलापरिज्ञाने, सह संबद्धमसंबद्ध वा स्यादिति प्रश्ने, उत्तरम्-संबद्धमसंबद्धं च भवतीति आ००५ अ०। पर्वतकवनरपतिभेदे, प्रज्ञा० १पद। 183 प्र०। सेन०२ उल्ला०। युगलिक क्षेत्रतिर्यञ्चः कल्पवृक्षाऽऽहारं तिमिरिच्छ (देशी) करञ्जद्रुमे, देवना०५ वर्ग 13 गाथा। कुर्वन्त्यन्यद्वेति प्रश्ने, उत्तरम्-गोप्रभृतयः कल्पवृक्षाऽऽहारं कुर्वन्ति, तिमिला स्त्री०(त्रिमिला) तूर्यभेदे, औ०। तथाऽन्यद धान्यतृणाऽऽदिकमपि कुर्वन्तीति संभाव्यत इति / 56 प्र०। तिमिसगुहा स्त्री० (तिमिस्रगुहा) वैताढ्यगुहायाम, यया स्वक्षेत्रा- सेन०४ उल्ला०। चक्रवर्ती चिलातक्षेत्रं याति / स्था०टा०। ताश्च भरतैरवतवर्षयो- | तिरिक्ख त्रि०(तिर्यक् ) अचु' गतौ / तिरोऽऽञ्चतीति तिर्यङ्, दीर्घवताढ्ययोद्धे, कच्छाऽऽदिद्वात्रिंशद्विजयेषु द्वात्रिंशदित्येवं चतु- | तिसरस्तियदिशः। प्रज्ञा०१पद। चतसृणा गताना चतुर्थतिमापन्ने, प्रश्न० स्त्रिंशज्जम्बूद्वीपे / (स्था० 8 ठा०) एवं धातकीखण्डे, पुष्करार्द्ध च १आश्र० द्वार। प्रत्येकमष्टषष्टिस्तासांप्रमाणम्। स्था०२ ठा० ३उ०। तत्र कृतमा-लको तिरिक्खजोणिय पुं०(तिर्यग्यो निक) तिर्यग्लोके योनय उत्पत्तिदेवः / स्था०२ ठा०३ उ० स० ज० आ००। (तत्र भरत-चक्रिगमनं | स्थानानि येषां ते तिर्यग्यो निकाः / जी०१ प्रति०। स्था० / 'भरह' शब्दे वक्ष्यते) "तिमिसगुहा अट्ट जोयणाई उड्डू उच्चत्तणेणं / ' "तिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-इत्थी, पुरिसा, स्था०८ ठा नपुंसगा।" स्था०३ टा०१उ०। तिमिसगुहाकूड पुं० न०(तिमिस्रगुहाकूट) तिमिसगुहाऽधिपदेवस्य *तिर्यग्योनिज पुं० / तिर्यग्लोके योनयस्तिर्यग्योनयः, तत्र जास्तिनिवासभूतं कूट तिमिस्रगुहाकूटम्। वैताढ्यपर्वतस्य तृतीये कूटे, जं०१ र्यग्योनिजाः / जी०१ प्रतिक जीवभेदे, स्था०८ ठा०। जी०। "तिविहा वक्ष। स्था० तिरिक्खजोणिया पण्णत्ता / तं जहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा।'' स्था०३ तिमुह त्रि०(त्रिमुख) त्रिभिर्मुखैर्युक्ते, प्रव०२६ द्वार। ठा०१उ०। तिर्यक् त्वकारणानि-'चउहि ठाणे हिं जीवा तिम्म न० (तिग्म) तिज-मक्,जस्य गः। "ग्मो वा" |2062 / / इति तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पगरेंति / तं जहा-माइल्लयाए, नियडि ग्मस्य विकल्पेन मकारः / प्रा०२ पाद / तीक्ष्णे, तद्वति, त्रिका वाचा ल्लयाए, अलियवयणेण, कूडतुलाकूडमाणेणं / ' स्था०४ ठा०४उ०। तिय न० (त्रिक) त्रित्वसंख्यायाम्, रा०। आ०म०। त्रिपथयुक्ते स्थाने, *तैर्यग्योनिक त्रिका तैरिश्चे तिर्यग्योनिकृते, स्था०४ ठा०४ उ०) ज्ञा०१ श्रु० 10 // तिरिक्खपयइ(ण) त्रि०(तिर्यक्प्रचयिन्) परस्परसमानाधिकरणत्वे *त्रिज त्रि०) त्रिभ्यो धातुमूलजीवलक्षणेभ्यो जातं त्रिजम् / सर्व-स्मिन् / सति परस्परसमानकालीने, यथा रूपरसाऽऽदयः, अणुत्वस्थौल्यावस्तुनि, विशे। ऽऽदयश्च / नयोग तियंकर पुं०(त्रिकङ्कर) स्वनामख्याते क्षपके, पिं०। (तदुदाहरणं / तिरिक्खभूय त्रि०(तिर्यग्भूत) पशुकल्पे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। 'सुद्धपरिणाम' शब्दे वक्ष्यते) तिरिक्खसामण्ण न०(तिर्यक्सामान्य) तिर्यगुल्लेखिनाऽनुवृत्तातियणाण न०(त्र्यज्ञान) त्रयाणामज्ञानानां समाहारज्ञस्यज्ञानम्। कारप्रत्ययेन गृह्यमाणे, रत्ना०।
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________________ तिरिक्खसामण्ण 2316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिरियगइ तिर्यक्सामान्यस्य स्वरूपं सोदाहरणमुपदर्शयन्ति यद् भिन्नव्यक्तिषु भिन्नप्रदेशविशेषेषु, तुल्या समाना एकरूपा एकाकारा प्रतिव्यक्ति तुल्या परिणतिस्तिर्यक्सामान्यं, शबलशाबले- परिणतिः द्रव्यशक्तिः, तत्तिर्यक्सामान्यमुच्यते / यथा-घटेषु घटत्वम्, याऽऽदिपिण्डेषु गोत्वं यथा ||4|| गोषु शावलेयाऽऽदिषु गोत्वम्, अश्वेषु अश्वत्वं तिष्ठति सामान्यभूतम्, व्यक्ति व्यक्तिमधिश्रित्य समाना परिणतिस्तिर्यक् सामान्य विज्ञेयम् / तथा अनेकाऽऽकारघटसहसेष्वपि घटत्वमेवेति तिर्यक्सामान्यमिति। अत्र सौगताः संगिरन्तेगौगौरित्याद्यनुगताऽऽकारप्रतिपत्तेरन्यव्या - अत्र कश्चिदाह-यद् घटाऽऽदिभिन्न व्यक्तिषु यथा घटत्वाऽऽदिक वृत्तिमात्रेणैव व्यक्तिषु प्रसिद्धेश्नवसर एव सदृशपरिणामस्वरूपसामा सामान्यमेकमेवास्ति, तथा पिण्डकुशुलाऽऽदिभिन्नय्यक्तिषु मृदादिसान्यस्वीकारः। सर्वतो व्यावृत्तानि हि स्वलक्षणानिन मनागप्यात्मानमन्येन मान्यमेकमेवास्ति तर्हि तिर्यवसामान्योर्द्धतासामान्ययोः को विशेषः? मिश्रयन्तीति / तदेतन्मरुमरीचिकाचक्रोदकाचान्तयेऽञ्जलिपुट- तत्राऽऽह-यत्र देशभेदेन या एकाऽऽकारा प्रतीतिरुत्पद्यते, तत्र तिर्यक्साप्रसारणम्। यत इयमन्यव्यावृत्तिर्बहिः, अन्तर्वा भवेत्। तत्र खण्डमुण्डा- मान्यमभिधीयते। यत्र पुनः कालभेदेन अनुगताऽऽकारा प्रतीतिरुत्पद्यते, ऽऽदिविशेषप्रतिष्ठकान्यव्यावृत्तेर्बहिः सद्भावे सामान्यरूपता दुर्निवारा। तत्र ऊर्द्धता-सामान्यमभिधीयत इति / एवं सति दिगम्बरानुसारी आन्तरत्वे तु तस्याः कथं बहिराभिमुख्येनोल्लेखः स्यात? नान्तः, कश्चिदक्ति-षण्णा द्रव्याणां कालपर्यायरूप ऊर्द्धताप्रचयः, कालं विना बहिर्वा सेत्यपि स्वाभिप्रायप्रकटनमात्रम्। तथाभूतं ह्यन्यव्यावृत्तिस्वरूप पञ्चद्रव्याणामवयवरांघातरूपस्तिर्यक्प्रचयश्चास्ति। एवं वदतां तेषां मते किश्चित्, न किञ्चिद्वा / किञ्चिचेत्,नूनमन्तर्बहिर्वा तेन भाव्य, तत्र च तिर्यक् प्रचयस्याऽऽधारो घटाऽऽदिस्तिर्यसामान्य भवति / तथा प्रतिपादि-तदोषानतिक्रमः / न किञ्चिचेत्, कथं तथाभूतप्रत्ययहेतुः? परमाणुरूपप्रचयपर्यायाणामाधारो भिन्न एव युज्यते, तस्मात्पञ्चवासनामात्रनिर्मित एवायमिति चेत, तर्हि बहिरापेक्षा न भवेत् / न द्रव्याणा स्कन्धदेशप्रदेशभावेन एकानेकव्यवहार उत्पादनीयः; परं तु ह्यन्यकारणको भावोऽन्यदपेक्षते, धूमाऽऽदेः सलिलाऽऽद्यपेक्षाप्रसङ्गात्। तिर्थकप्रचय इति नामान्तरमप्रयोजकं,वालुकापेषवत्, इति नियमः / / 5 / / किंच-दासनाऽप्यनुभूतार्थविषयैवोपजायते। न चात्यन्तासत्त्वेन त्वन्मते द्रव्या०२अध्या०। सामान्यानुभवसम्भवः / अपि च-वासना तथाभूत प्रत्यय विषयतयो- तिरिच्छ त्रि०(तिरश्वीन) तिर्यक्-स्वार्थे खः। तिर्यगते, “गतं तिरश्चीनत्पादयेत्, कारणमात्रतया वा? प्राचि पक्षे सकलविशेषानुयायिनी मनूरुसारथेः" इति माघः। वाचला आचाला नि०चू०।। पारमार्थिकी परिच्छेद्यस्वभावा वासनेति पर्यायान्तरेण सामान्यमेवाऽ- तिरिच्छसंतारिमा स्त्री०(तिरश्चीनसन्तारिमा) लाडूलवदृजुगामिन्यां भिहितं भवेत् / कारणमात्रतया तु वासनायाः सदृशप्रत्ययजनने ___ नौकायाम्, नि०चू०१ उ०। विषयोऽस्य वक्तव्यः, निर्विषयस्य प्रत्ययस्यैवासंभवात / न च तिरिच्छसंपातिम त्रि०(तिरश्चीनसंपातिम) तिर्यग्गामिनि, आचा०२ सदृशपरिणाम विमुच्यापरस्त-द्विषयः संगच्छते, प्रागुदीरितदोषानुपङ्गात श्रु०१चू०१ अ०३उ०। / किंच-इयमन्यव्या-वृत्तिः स्वयमसमानाऽऽकारस्य, समानाऽऽकारस्य तिरिच्छि त्रि०(तिर्यच) "तिर्यचस्तिरिच्छिः" बा२।१४३।। इति वा वस्तुनः स्यात्। प्राक्तनविकल्पकल्पनायामतिप्रसङ्गः, कुरग तुरङ्ग तिर्यच्छब्दस्य तिरिच्छि' इत्यादेशः / प्रा०२ पाद / वक्रे, वाच०। तरङ्गाऽऽदिष्वपि तत्संभवाऽऽपत्तेः, तथा च तेष्वनुगताऽऽकारेकप्रत्यया तिरिड पुं०(देशी) तिमिरवृक्षे, दे०ना०५ वर्ग 11 गाथा। नुषङ्गः / स्वयं समानाऽऽकारस्य तु वस्तुनोऽभ्युपगमे समुपस्थित तिरिमिअ (देशी) तिमिरयुक्ते, विचिते च। दे०ना०५ वर्ग 21 गाथा। एवायमतिथिः सदृशपरिणामः कथं पराणुद्यताम् ? ननु यया प्रत्यासत्त्या केचन भावाः स्वयं सदृशपरिणामं बिभ्रति, तयैव स्वयमत-दात्मका तिरिड्डी (देशी) उष्णवाते,दे०ना०५ वर्ग 12 गाथा। अपि सन्तस्तथा किं नावभासे रन्निति चेत्? तदनुचितम्। तिरिदुग न०(तिर्यग्द्विक) तिर्यगतितिर्यगानुपूर्वीरूपे, कर्म०५ कर्म०। चेतनेतरभेदाभावप्रसङ्गात्। ययैव हि प्रत्यासत्या चेतनेतरस्वभा-वान् तिरिय त्रि०(तिर्यक) चतसृषु गतिषु चतुर्थगतिमापन्ने, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ भावाः स्वीकुर्वन्ति, तयैव स्वयमतदात्मका अपि सन्तस्तथा किं उ०। स्था० कर्मा आचा० औ०। संथा। तिर्यग्लोके, स्था०३ नावभासेरन्नित्यपि बुवाणस्य ब्रह्माद्वैतवादिनो न वक्त्रं वक्रीभवेत् / ठा०४3०। मध्ये, अनु०॥ चेतनेतरव्यतिरिक्तस्य ब्रह्मणोऽसत्त्वात्कथमस्य तथावभासनम् ? *तीरित त्रि०। पारं प्रापिते, प्रश्न०१ सम्ब० द्वार। अन्तं प्रापिते, व्य०६ इत्यन्यत्राऽपि तुल्यम्। न खलु सदृशपरिणामशून्यं स्वलक्षणमप्यस्ति, उ०। 'पडिमा तीरिया किट्टिया।" तीरं पारं नीता पूर्णेऽपि कलाऽवधी यत्तथाऽवभासेत / ननु स्वलक्षणस्य विसदृशाऽऽकाराऽऽत्मनः किक्षित्कालावस्थानेन / स्था०७ ठा०॥ सदृशपरिणामाऽऽत्मकत्व विरुध्यते। नैवम् / ज्ञानस्य चित्राऽऽकारता- | तिरियंकट्ट अध्य० (तिर्यक्कृत्वा) अपहस्तयित्वेत्यर्थे सूत्र०१ श्रु०३ वद्विकल्पतराऽऽकारतावचैकस्योभयाऽऽत्मकत्वाविरोधात् / ततो अ०३उला व्यावृत्तप्रत्ययहेतुविसदृशाऽऽकारतावद् वस्तुनः सदृशपरिणामाऽऽ- तिरियंगोरवपरिणाम पुं०(तिर्यग् गौरवपरिणाम) आयुःपरिणामभेदे, येन त्मकत्वमप्यनुयायिप्रत्ययहेतुः स्वीकार्यम् / / 4 / / रत्ना० 5 परि०। आयुःस्वभावेन जीवस्य तिर्यग् दिशिगमनशक्तिलक्षणपरिणामो भवति। तिर्यक्सामान्यलक्षणमाह प्राकृतत्वादनुस्वारः / स्था०६ ठा०। तुल्या परिणतिर्भिन्न-व्यक्तिषु यत्तदुच्यते। तिरियगइ स्त्री०(तिर्यग्गति) तिर्यक्षु तिरश्च तिर्यक्त्व प्रसाधिका तिर्यक्सामान्यमित्येव, घटत्वं तु घटेष्विव / / 5 / गतिस्तिर्य गतिः / स्था०५ ठा०३उ०। तिरोऽडान्ति गच्छ
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________________ तिरियगइ 2320 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिरियगइ न्तीति तिर्यशः / ध्युत्पत्तिनिमित्तं चैतत्, प्रवृत्तिनिमित्तं तिर्थग्गति-नाम। एते चैकेन्द्रियाऽऽदयः, ततस्तिर्यक्षु विषये गतिस्तिर्यग्गतिः। कर्म०४ कर्म०। तिर्यङ्नामकर्मोदयसंपाद्ये तिर्यक्त्वलक्षणे पर्याय विशेष, स्था० 10 ठा०। तिर्यकपरिभमणे, चं०प्र०। कथं सूर्यस्तिर्यक् परिभ्रमतीति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह - ता कहं ते तिरियगती आहिया ति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ता / तं जहा-तत्थेगे एवमाहंसुता पुरच्छिमिल्लातो लोयंताओ पातो मरीइसंघाए आगासंसि उत्तिट्ठति, से णं इमं लोगं तिरितं करेति, तिरितं करेत्ता पच्चच्छिमिल्लसि लोगंसि सायं मरीइसंघाए आगासंसि विद्धंसति, एगे एवमाहंसु / / 1 / / एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरच्छिमिल्लातो लोगतातो पातो सूरिए आगासातो उत्तिट्ठति, सेणं इमं लोगं तिरितं करेति, करेतित्ता पचच्छिमिल्लंसि लोगंतंसि साय सूरिए आगासंसि विद्धंसति, एगे एवमाहसु // 2 // एगे पुण एवमासुता पुरच्छिमिल्लातो लोगंतातो पातो सूरिए सयावट्ठाई आगासातो उत्तिट्ठति, से णं इमं लोगं तिरितं करेति, करेत्ता सायं अहे आगासमणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता अहे पडिआगच्छइ, अहे पडिआगच्छित्ता पुणरविअवरभुओ पुरच्छि. मिल्लाओ लोयंताओ पातो सूरिए आगासाओ उत्तिट्ठति, एगे एवमाहंसु॥३॥ एगे पुण एवमाहंसुता पुरच्छिमिल्लाओ लोगंतातो पातो सूरिए पुढवियातो उत्तिट्ठति, से णं इमं लोगं तिरितं करेति, करेत्ता पञ्चच्छिमिल्लसि लोगंसि सायं सूरिए पुढविकायंसि विद्धंसति, एगे एवमाहंसु // 4 // एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरच्छिमिल्लातो लोगंतातो पातो सूरिए पुढवियातो उत्तिट्ठति, से णं इमं लोगं तिरितं करेति, करेत्ता / पञ्चच्छिमिल्लं सि लोगंसि सायं सूरिए पुढ विकायं अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता पुढविअहे पडिआगच्छति, अहे आगच्छित्ता पुणरवि अवरभुओ पुरच्छिमिल्लातो लोयंतातो पातो सूरिए पुढवियातो उत्तिट्ठति, एगे एवमाहंसु॥५॥ एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरच्छिमिल्लातो लोगंतातो पातो सूरिए आउकायंसि उत्तिट्ठति, से णं इमं लोगं तिरितं करेति, करेत्ता पञ्चच्छिमिल्लसि लोगंसि सायं सूरिए आउक्काए विद्धंसति, एगे एवमाहंसु / 6 / एगे पुण एवमाहंसुता पुरच्छिमिल्लातो लोगंतातो पातो सूरिए आउक्वायंसि उत्तिट्ठति, सेणं इमं लोग तिरितं करेति, करेत्ता पचच्छिमिल्लं सि सायं सूरिए आउकायं अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता अहे पडिआगच्छति, अहे पडिआगच्छित्ता पुणरवि अवरभुओ पुरच्छिमिल्लातो लोगतातो पातो सूरिए आउक्कायंसि उत्तिट्ठति, एगे एवमाहंसु 7 / एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरच्छिमिल्लातो लोगंतातो बहूई जोयणाई, बहूई जोयणसयाई, बहूइंजोयणसहस्साइंदूरं उर्ल्ड उप्पतित्ता एत्थ णं पातो सूरिए आगासातो उत्तिट्ठति, से णं इमं दाहिणालोगं तिरियं करेति, करेत्ता उत्तरहूं लोगं तमेव रातो, से णं इमं उत्तरड़े लोगं तिरितं करेति, करेत्ता दाहिणढं लोगं तमेव रातो, सेणं इमाइंदाहिणुत्तरलोगाइं तिरितं करेति, करेत्ता पुरच्छिमिल्लातो लोगंतातो बहूई जोयणाई तं चेव जाव दूर उर्ल्ड उप्पतित्ता, एत्थ णं पातो सूरिए आगासातो उत्तिट्ठति, एगे एवमाहंसु वयं पुण एवं वयामो-ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणा-- यताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सत्तेणं छेत्ता दाहिणपुरच्छिमंसि उत्तरपञ्चच्छिमंसि य चउब्भाग-मंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए बहुसमरमणिज्जातो भूमि-भागातो अट्ट जोयणसताई उट्ठे उप्पतित्ता एत्थ णं पातो दुवे सूरिया आगासातो उत्तिट्ठति, ते णं इमाइंदाहिणुत्तराइं जंबु-द्दीवभागाइं तिरितं करें ति, करेत्ता पुरच्छिमपञ्चच्छिमाइं जंबु-द्दीवभागाई तामेव रातो, ते णं इमाइं पुरच्छिमपञ्चच्छिमाइं जंबुद्दीवभागाई तिरितं करेंति, करेत्ता दाहिणुत्तराई जंबुद्दीव-भागाइं तमेव रातो, ते णं इमाई दाहिणुत्तराई पुरच्छिमपचच्छि-माणि य जंबुद्दीवभागाइं तिरितं करेंति, करेत्ता पुरच्छिमपच्च-च्छिमाई जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणायता०जाव एत्थ णं पातो दुवे सूरिया आगासातो उत्तिटुंति / (ता कह ते तिरियगई इत्यादि) अस्त्यन्यदपि प्रभूतं प्रष्टव्यं, परमेतावदेव तावत् पृच्छामि--कथं 'ते' त्वया भगवन् ! सूर्यस्य तिर्यगतिस्तिर्यक् परिभ्रमणमाख्यातमिति वदेत्? एवमुक्तो भगवाने-तद्विषये परतीर्थिक प्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव प्रतिपत्तीरुपन्यस्यति (तत्थ खलु इत्यादि) तत्र तस्यां सूर्यस्य तिर्यग्गती तिर्यग्गतिविषये,खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः परतीर्थकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ता / ता एव क्रमेणाऽऽह-(तत्थेगे इत्यादि) तत्र तेषां परतीथिकानामष्टानां मध्ये एके परती-र्थिका एवमाहुः। 'ता' इति पूर्ववत, पौरस्त्याल्लोकान्तात, ऊर्द्धमिति गम्यते. पूर्वस्यां दिशीति भावार्थः / प्रातः प्रभातसमये मरीचिसंघातः, विकाशसंघात इत्यर्थः / आकाशे उत्तिष्ठति उत्पद्यते। एतेन एतदुक्तं भवति-नैतद्विमानं, नाऽपि स्थो, नापि देवतारूपः सूर्यः, यथाऽपरे वदन्ति, किंतु किरणसंघात एवैष वर्तुलगोलाऽऽकारो लोकस्वाभाव्यात्प्रतिदिवस पूर्वस्यां दिशि प्रातराकाशे समु-त्पद्यते, यतः सर्वत्र प्रकाशः प्रसरमधिरोहति। स इत्थम्भूतो मरी-चिराघातः, उपर्युद्यतः सन्, णमिति वाक्यालङ्कारे। इमं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं तिर्यग्लोकं तिर्यक् करोति / किमुक्त भवति?-तिर्यक्परिभ्रमन् इम तिर्यगलोकं प्रकाशयतीति, तिर्यक्कृत्वा पश्चिम लोकान्ते सायं सान्ध्ये समये तथाजगत् स्वाभाव्यात्स मरीचिसंघात आकाशे विध्वसले ध्वंसमुपयाति / एवं सकलकालमपि अत्रैवोपसंहारः-(एगे एवमाहंसु) 11 एके पुनरेवमाहुः-पोरस्त्याल्लो
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________________ तिरियगई 2321 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिरियगइ कान्तादूई , प्रातः सूर्यो लोकप्रसिद्धो देवतारूपो भास्करः, तथा जगतस्वभाव्यादाकाशे उत्तिष्ठति उत्पद्यते, स चोत्पन्नः सन् इमं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं मनुष्यलोकं तिर्यकरोति तिर्यक्परिभ्रमति, लोक प्रकाश्यतीत्यर्थः / तिर्यक्कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं सान्ध्ये समये आकाशे विध्वंसते। अत्रोपसंहारः-(एगे एवमाहंसु)२।एके पुनरेवमाहुःपौरस्त्याल्लोकान्तादूर्द्ध , प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदाऽवस्थायी तथाविधपुराणशास्त्रप्रसिद्ध आकाशे उत्तिष्ठति उद्गच्छति, स चोद्गतः सन् इमं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं मनुष्यलोकं तिर्यक्कृत्या सायं सान्ध्ये समये अधः आकाशमनुप्रविशति, प्रविश्य च अधः प्रत्यागच्छति, अधोलोक प्रका- शयन् प्रतिनिवर्तते इत्यर्थः / तन्मतेन हि भूरियं गोलाऽऽकारा, लोकोऽपि च गोलाऽऽकारतया व्यवस्थितः। इदं च सम्प्रति तीर्थान्तरीयेषु विजृम्भते, ततस्तद्गतपुराणशास्त्रादेतत् सम्यगवसेयम्। अस्य च त्रयो भेदाः / एके एवमाहुः-प्रातः सूत्र आकाशे उद्गच्छति। अपरे आहुः / पर्वतशिरसि / अन्ये आहुः-समुद्रे इति / तत्र प्रथमानामिदं नतमुपन्यस्तम्। अधः प्रत्यागत्य च पुनरप्यवरभुवोऽधो भुवः, पृथिव्या अधोभागेन विनिर्गत्येत्यर्थः / पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्ध्वमाकाशे प्रातः सूर्य उद्गच्छति। एवं सर्वदाऽपिद्रष्टव्यम्। अत्रोपसंहारः-(एगे एवमासु) 3 / एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्द्ध प्रातः सूर्यो देवरूपः तथाविधः पुराणप्रसिद्धः पृथिवीकायमध्ये उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठत्युद्गच्छति। सचोत्पन्नः सन्निम मनुष्यलोक तिर्यकरोति, प्रकाशयतीत्यर्थः / तिर्यक कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं सान्ध्ये समये सूर्यः पृथिवीकाये अस्तमयभूधरशिरसि (विद्धंसति) विध्वंसमुपयाति / एवं प्रतिदिवसं सकलकाल जगतः / स्थितिः परिभावनीया / अत्रोपसंहारः- (एगे एदमाहसु) 4 / एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यात् लोकान्तादूर्द्ध प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदाऽवस्थायी पृथिवीकाये उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति उद्गच्छति, स चोद्गतः सन् इमं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं मनुष्यलोकं तिर्यग् करोति, तिर्यक्कृत्वा पश्चिमलोकान्ते सायं सान्ध्ये समये पृथिवीकायमस्तमयभूधरमनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति, अधोभागवर्तिनं लोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्तते। ततः पुनरप्यवरभुवोऽधो भुवः, पृथिव्या अधोभागाद्विनिर्गत इत्यर्थः / पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्द्ध प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये उदय भूधरशिरसि उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, भूतभूगोलवादिनः परं पूर्व आकाशे उत्तिष्ठतीति प्रतिपन्नाः, एते तु पर्वतशिरसीत विशेषः / अत्रैवोपसंहारः-(एगे एवमाहंसु) 5 / एके पुनरेवमाहुः-- पौरस्त्या -- ल्लोकान्तादूर्द्ध प्रातः सूर्योऽप्काये पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति उत्पद्यते, स चोत्पन्नः सन्निमं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं लोकं तिर्यकरोति, तिर्यग कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं सान्ध्ये समये सूर्योऽप्काये पश्चिमस-मुद्रे विध्वंसते, विध्वंसमायाति। एवं सर्वदाऽपि। अत्रोपसंहारः-(एगे एवमाहंसु) 6 / एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्द्ध प्रातः सूर्यः सदाऽवस्थायी पुराणशास्त्रप्रसिद्धोऽप्काये पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति उद्गच्छति, स चोद्रतः सन्निम लोकं तिर्यक् करोति, तिर्यक् परिभ्रमन्निमं लोकं प्रकाशयतीत्यर्थः / तिर्यक् कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं सान्ध्ये समये सूर्योऽप्कायं पश्चिमसमुद्रमनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति, अधोभागवर्तिनं लोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्तते इति भावः / अधः प्रत्यागत्य चावरभुवोऽधः पृथिव्यधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः / पौरस्त्या ल्लोकान्तादूर्द्ध , प्रातः सूर्योऽप्काये पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति उद्गच्छति। एवं सकलकालमपि। अत्रैवोपसंहारः-(एगे एवमाहंसु)७ / एके पुनरेवमाहुः-- पौरस्त्या-ल्लोकान्तादूर्द्ध प्रथमतो बहूनि योजनानि, ततः क्रमेण यहूनि योजनशतानि, तदनन्तरं क्रमेण बहूनि योजनसहस्राणि दूरमूर्द्धमुत्प्लुप्य बुद्ध्या गत्वा, अत्रास्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदाऽवस्थायी उत्तिष्ठति उद्गच्छति, स चोद्गतः सन् इमं दक्षिणा लोक दक्षिणदिग्भाविनमर्द्धलोकं, दक्षिणलोकस्यार्द्धमित्यर्थः। तिर्यक् करोति, तिर्यक्परिभ्रमन्निम दक्षिणलोकार्द्ध प्रकाशयतीत्यर्थः / दक्षिणं चार्द्धलोकं तिर्यक् कुर्वन् तदेवोत्तरमर्द्धलोकं रात्रौ करोति, ततः स सूर्यः क्रमेणे ममर्द्धलोकम् उत्तरमधलोकं तिर्यक् करोति, तत्रापि तिर्यक्परिभ्रमन् उत्तरमर्द्धलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः। उत्तरं चा लोकं तिर्यक्परिभ्रमणेन प्रकाशयन् तदेव दक्षिणमर्द्ध-लोकं रात्रौ करोति, ततः स सूर्य इमौ दक्षिणोत्तरार्द्धलोकौ तिर्यक् कृत्वा भूयाऽपि पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्द्ध प्रथमतो बहूनि योजनानि गत्वा, ततः क्रमेण बहूनि योजनशतानि, तदनन्तरं बहूनि योजन-सहस्राणि दूरमूर्द्धमुत्प्लुत्य बुद्ध्या गत्वाऽवास्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्य आकाशे उत्तिष्ठति उद्रच्छति। एवं सकलकालम् / अत्रोपसंहारमाह- (एगे एवमाहंसु) 8 / तदेवं परप्रतिपत्तीरुपदश्यं सम्प्रति स्वमतभुप-दर्शयति-(वयं पुण इत्यादि) वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानाः केवलज्ञा-नेन यथावस्थितं वस्तूपलभ्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः / तमेव प्रकारमाह-(ता इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् / जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि यद्वा तद्वा मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा, चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यान् मण्डलान् परिकल्प्येत्यर्थः / भूयश्च प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतया उदीच्यदक्षिणाऽऽयतया जीवया प्रत्यशया, दवरिकया इत्यर्थः / तत्तन्मण्डलं चतुर्विशतिभागैविभज्य दक्षिणपौरस्त्ये उत्तरपश्चिमे च चतुर्भागमण्डले चतुर्भागे एकत्रिंशदागप्रमाणे एतावति किल चतुरशीत्यधिकमपि मण्डलशतं सूर्य-स्योदये प्राप्यते इति।"चउव्वीसेणं सएणं छित्ता चउब्भागमंडलंसि'' इत्युक्तम्। अस्याः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागादूर्ध्वम् , अष्टौ योजनशता-न्युत्प्लुत्य बुद्ध्या गत्वा, अत्रान्तरे प्राती सूर्यो उत्तिष्ठत उद्गच्छतः, दक्षिणपौरस्त्ये मण्डलचतुर्भाग भारतः सूर्य उद्गच्छति, अपरोत्तर-स्मिन् मण्डलचतुगि ऐरावतः सूर्यः / तौ चेवमुद्गतौ भारतैरावतौ सूर्यो यथाक्रममिमौ दक्षिणोत्तरौजम्बूद्वीपभागौ तिर्यक् कुरुतः। किमुक्तं भवति? भारतः सूर्यो दक्षिण पौरस्त्यमण्डलचतुर्भाग उद्गतः सन् तिर्यक् परिभ्रमति, तिर्यक्परिभ्रमन् मेरोदक्षिणभाग प्रकाश-यति। ऐरावतः पुनः सूर्योऽपरोत्तरदिग्विभागे उद्गच्छति, सचोद्रतः सन् तिर्यक्परिभ्रमति, तिर्यक्परिभ्रमन् मेरोरुत्तरभाग प्रकाशयतीति / इत्थं च भारतैरावतौ सूर्यो यदा मेरोदक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागी तिर्यक् कुरुतः, तदैव तौ पूर्वपश्चिमौ जम्बूद्वीपभागी रात्रौ कुरुतः। एकोऽपि सूर्यस्तदा पूर्वभागं पश्चिमभागं वा न प्रकाशयतीत्यर्थः / दक्षिणोत्तरौ च भागौ तिर्यक् कृत्वा ताविमौ पूर्वपश्चिमौ जम्बूद्वीपभागौ तिर्यकुरुतः। इयमत्र भावना-ऐरावतः सूर्यो मेरोरुत्तरभागे तिर्यक्परिभ्रम्य तदनन्तरं मेरोरेव पूर्वस्यां दिशि तिर्यक्परिभ्रमति / भारतः सूर्यो मेरोदक्षिणतस्तिर्यक्परिभ्रम्य तदनन्तरं मेरोरेव पश्चिमे भागे तिर्यक्परिभ्रमतीति। इत्थं च यदा ऐरावतभारतसूयौं यथाक्रमं पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कुरुतः, तदेव दक्षिणोत्तरी जम्बूद्वीपभागौ रात्री कुरुतः / एकोऽपि सूर्यस्तदा दक्षिणभागमु
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________________ तिरियगइ 2322 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिल - तरभागं वा न प्रकाशयतीति / तत इत्थं यथाक्रममैरावतभारतसूर्यो / अथवा-स्वकीयोधिोभागात्तिर्यग्भागः एवातिविशालतयाऽत्र प्रधानम्, पूर्वपश्चिमभागो तिर्यक् कृत्वा यो भारतः सूर्यः, स उत्तरपश्चिमे | अतरसन व्यपदेशः कृतः, तिर्यग् भागप्रधानो लोकस्तिर्थग्लोकः / मण्डलचतुर्भाग उदयमासादयति / यश्चैरावतः, स दक्षिणपोरस्त्ये उक्तंचमण्डलचतुर्भागे इति / एतदेवोपदर्शयन्नुपसंहारमाह-( ते णमित्यादि) ''मज्जणुभावं खेत, जंतं तिरिय ति वयणपज्जवओ। भारतैरावतौ सूर्या प्रथमतो यथाक्रममिडी दक्षिणोत्तरी जा बूद्वीपभागी, भन्नइ तिरियं विसालं, अतो व तं तिरियलोगो ति / / 1 / / " ततो यथायोगं पूर्वपश्चिमौ जम्बूद्वीपभागो, भारतः पश्चिम भाग. ऐरावतः (वयणपज्जवउ ति) मध्यानुभाववचनस्य तिर्यग्ध्वनेः पर्यायतापूर्वभागमित्यर्थः / तिर्यग् कृत्वा जम्बूद्वीप-स्योपरि यद्वा तद्वा मण्डल माश्रित्येत्यर्थः / अनु० तिर्यग्लोकविभक्तिस्तु जम्बूद्वीपलवणसमुचतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतया द्रधातकीखण्डकालोदसमुद्रेत्यादिद्विगुणद्विगुणवृद्ध्या द्वीपसागरउदीच्यदक्षिणाऽऽयतया च जीवया प्रत्यञ्चया, दवरिकया इत्यर्थः / स्वयम्भूरमाणपर्यन्तस्वरूपनिरूपणम्। सूत्र०१ श्रु०४अ०१उ०। आव०। चतुर्भिविभज्य यथायोग दक्षिण-पौरस्त्ये उत्तरपश्चिमे वा मण्डलचतुर्भाग तिरियलोगचूला स्त्री०(तिर्यग्लोकचूडा) तिर्यग्लोकस्य चूडा तिर्यग्लोकअस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागार्ध्वम अष्टौ चूडा, तिर्यग्लोकातिकान्तत्वात् / अथवा-तिर्यग्लोक-प्रतिष्ठितस्य योजनशतानिउत्प्लुत्यास्मिन्नवकाशे प्राता सूर्यावाकाशे उत्तिष्ठत मेरोरुपरि चत्वारिंशद्योजना चूडा तिर्यग्लोकचूडा। तिर्यग्लोकोपरिभागे, उद्गच्छतः, य उत्तरभागं पूर्वस्मिन्नहोरात्रे प्रकाशितवान, सदक्षिणपोरस्त्ये नि०चू०१उ० मण्डलचतुर्भागे उद्गच्छति / यस्तु दक्षिणभाग प्रकाशयति स्म, स तिरियवसइ स्त्री(तिर्यग्वसति) तिर्यग्योनौ, प्रश्न० १आश्र० द्वार। उत्तरपश्विमे मण्डले चतुर्भागे / एवं सकलकालं जगतः स्थितिः तिरियवाय पुं०(तिर्यग्वात) तिर्यग्गच्छन् यो वाति वातः स तिर्यग्वातः / परिभावनीया / चं०प्र०२ पाहुन तिर्यड निमज्जति वायुभेदे, प्रज्ञा०१ पद। तिरियतिग न०(तिर्यक् त्रिक) तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीतिर्यगा- तिरियविग्गहगइ स्त्री०(तिर्यग् विग्रहगति) मतिभेदे, स्था० 10 ठा० ऽऽयुर्लक्षणे, कर्म०२ कर्मा तिरियसंसारविउस्सयपुं०(तिर्थक्संसारख्युत्सर्ग) संसारव्युत्सर्गभेदे, औ०। तिरियदिसा स्त्री०(तिर्यग् दिशा) पूर्वाऽऽदिकासु दिक्षु, आव०६ अ०।। तिरियसत्तन० (तिर्यक् सत्त्व) तिर्यग्योनिजन्तुषु, पञ्चा०२ विव०॥ एताश्चाष्टापि रुचकात्तिर्यक् प्रव्यूढत्वात्तिर्यग्दिश इतिव्यवहियन्ते। आ०म० तिरिश्च त्रि०(तिरश्चीन) प्राकृतलक्षणेन निष्पन्ने 'तिरिच्छ' शब्दे "छस्य १अ०२खण्ड। श्वोऽनादौ" |84265 / / इति मागध्यामनादौ वर्तमानरय छस्य तिरियदिसिप्पमाणाइक्कम पुं०(तिर्यग्दिक प्रमाणातिक्रम) तिर्यग्दिशि तालव्यशकाराऽऽक्रान्तश्चकारो भवति / प्रा०४ पाद / तिर्यग्भवे, वाचा यावत्प्रमाणं परिगृहीत तस्यातिलकने, आव०६ अ०। उपा०। तिरीड पुंगान० (किरीट) शेखरत्राणयुक्ते, औ०। प्रज्ञा० मुकुटे, स०) तिरियदिसिव्वय न०(तिर्यग्दिगव्रत) तिर्यग्दिशः पूर्वाऽऽदिकास्ता-सा | शिरोवेष्टने, वाचा संबन्धि तासु वा व्रतं तिर्यग्दिन्वतम् / एतावती दिक् पूर्वेणावगाहनीया, *तिरीट पुंग वृक्षविशेषे, बृ०२उ०। एतावती दक्षिणेनेत्यादि, न परत इत्येवंभूते दिग्व्रते. आव०६ अ०॥ तिरीडपट्टग न०(तिरीटपट्टक) तिरीटो वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो तिरियदुगन०(तिर्यर्ग द्विक) तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीद्विके, कर्म०५ कर्म०/ वल्कललक्षणं, तन्निष्पन्न वा तिरीटपट्टकम् / बृ० २उ० वृक्षत्वङ्मये तिरियपव्यय पुं०(तिरश्चीनपर्वत) तिरश्चीनं पर्वतं तिरश्चीनपर्वतम। गच्छतो वस्त्रे, स्था०५ ठा०३301 मार्गावरोधके पर्वते, भ०१४ श०५ उ०॥ तिरोभाव पुं०(तिरोभाव) अन्तर्धाने, विशे०| तिरियभित्ति स्त्री०(तिर्य भित्ति) तिरश्वीनाया प्राकारवरण्डका- तिरोवई (देशी) वृत्त्यन्तरिते, देवना० 5 वर्ग 13 गाथा / ऽऽदिभित्तौ, भ०१४ श०५ उ०। आचाo! तिरोहिअ त्रि०(तिरोहित) अन्तर्हिते, आच्छादिते, वाच०। आचा०। तिरियलोग पुं०(तिर्यग्लोक) सातिरेकः / सप्तरजुप्रमाणोऽधोलो- | तिल धा०(तिल) गतौ, भ्यादि०-पर-सक० सेट् / तेलति, अतेलीत्। कोर्ध्वलोकयोमध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागावस्थि- | वाचा तत्वात्तिर्यग् लोकः। स्था०३ ठा०२३०। लोकभेदे, अनु०। *तिल धा० / रनेहे, तुदाल-पर०-अक०-सेट्। तिलति, अतेलीता वाच०। पुव्वाणुपुव्वी अहोलीए, तिरियलोए, उड्डलोए। * तिल पुं० / स्वनामख्याते धान्यभेदे, "साली बीही गोहुमजवा तयोश्चाधोलोकोर्द्धलोकयोर्मध्ये अष्टादश योजनशतानि तिर्यग्लोकः, | कलमसूरितिलमुग्गा।'' प्रज्ञा०१ पद। आचा०। प्रव०॥ ज०ा आ०क० समयपरिभाषया तिर्यड़ मध्ये व्यवस्थितो लोकस्तिर्यग्लोकः। अथवा- विपा० स्था०। तत्फले च / न०। वाच०। वर्णेन तिलसदृशकाले, तिर्यक् शब्दो मध्यगपर्यायः, तत्र च क्षेत्रानुभावात्प्रायो मध्यमपरिणाम- "जंपियतिलकीडगा यति / " यापिताः कालान्तरं प्राप्ता ये तिला धन्त्येय द्रव्याणि संभवन्त्यतस्तद्योगात्तिर्यड् मध्यमो लोकस्तिर्यग्लोकः। / धान्यविशेषास्तद्वद् ये वर्णसाधयात्ते तथा / ज्ञा०१ श्रु० 17 अ०।
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________________ तिल 2323 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिलोदग botol एकत्रिंशे महाग्रहे, सू०प्र०२० पाहु०। कल्प०। "दो तिलया।" स्था०२ वादाँ श्व प्रतिवादाँश्च, वदन्तो निश्चितं तथा। ठा०३उन तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीडकवगतौ // 5 // तिलकुट्टी स्त्री०(तिलकुट्टी) तैलविकृतौ विकृतिभेदे, प्रव० 4 द्वार / तिलपीडकवत् तिलपीडक इव निरुद्धाक्षिसंचारस्तिलयन्त्रवा-हनपरो, "तिलमल्ली तिलकुट्टी, दद्धतिलं तहोसहुवरियं / लक्खाइदव्वपक, यथा हायं नित्यं भ्राम्यन्नपि निरुद्धाक्षितया न तत्परिमाणमवबुध्यते, तिल्लं तिल्लम्मि पंचेव / / 1 / / " ध०२अधिo एवमेते ऽपि वादिनः स्वपक्षाभिनिवेशान्धा विचित्रं वदन्तोऽपि तिलग पुं०(तिलक) वृक्षविशेषे, भ०१ श०१उ० स० औ०। कल्प०। नोच्यमानतत्त्वं प्रतिपद्यन्ते इति / द्वा०२३ द्वा०। राम जंक यः स्वीकटाक्षनिरीक्षितो विकसति तत्पुष्पे, ज०३ वक्ष०| | तिलपुप्फवण्ण पुं०(तिलपुष्पवर्ण) चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपे ग्रहभेदे, विशेषकापरपर्याये ललाटाऽऽभरणविशेषे, औ०। ज०। ज्ञा०। सूत्रका तं०। सू०प्र०२० पाहुका चं०प्र०। द्वात्रिंशत्तमे महाग्रहे, "दो तिलपुप्फवण्णा / " पुण्ड्रे, स०७ सम०। तं०। ज्ञा०ा सू०प्र०ा चं०प्र०ा प्रथमवासु-देवस्य स्था०१ टा०। कल्प। त्रिपृष्ठस्य प्रतिशत्रौ, स०६समला तिला स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च / तिलभट्ट पुं०(तिलभट्ट) अन्तर्दुष्टव्रणवत्कुथितहृदयाया उन्मत्तरामायाः प्रज्ञा०१ पद / वसन्तपुरनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, यस्य पत्यौ, तं०। सुदर्शना नाम भार्या / पिं०। (अस्य 'पटवय' शब्दे कथा वक्ष्यते) तिलमल्ली स्त्री०(तिलमल्ली) तैलविकृतौ विकृतिभेदे, प्रव०४ द्वार। ध० देवपूजनावसरे तिलकं क्रियते, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्- देवपूजावेलायां तिलयसीह पुं०(तिलकसिंह) तालनन्दनामनगरवास्तव्यस्य तालध्वजतिलककरणनिषेधो ज्ञातो नास्त्यात्मीयगच्छे इति / 76 प्र०। सेन०४ __ नामराजस्य स्वनामख्याते युवराजे, दर्श०१ तत्त्व। उल्ला० तिलविगइ स्त्री०(तिलविकृति) तैलविकारे, "तिलमल्ली 1 तिलकुट्टी तिलगकरणी स्त्री०(तिलक करणी) तिलकः क्रियते यया सा 2. दद्धतिलं ३,तहोसहव्वरियं ४ालक्खाइदव्वपक, तेल्लं 5 तिल्लम्मि तिलककरणी। दन्तमय्यां सुवर्णाऽऽत्मिकायां वा शलाकायाम, सूत्रका पंचेव // 1 // " ध०२ अधिक यया गोरोचयनाऽऽदियुक्तया तिलकः क्रियते। यदिवा गोरोचनया तिलकः तिलसंगलिया स्त्री०(तिलसंगलिका) तिलफलिकायाम्, भ० 15 उ०। क्रियते, सा च तिलककरणीत्युच्यते। गोरोचनायाम्, अथवा-तिलकाः तिलसकुलिया स्त्री०(तिलशष्कुलिका) तिलप्रधानायां पिष्टमयक्रियन्ते पिष्यन्ते वा यत्र सा तिलककरणी। तिलकपेषणोपकरणे, सूत्र०१ पोट्टलिकायाम, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। जी०। श्रु०४ अ०१७०। तिलागणि पुं०(तिलाग्नि) तिला धान्यविशेषाः, तेषामवयवा अपि तिलाः, तिलगरयण न०(तिलकरत्न) पुण्ड्रविशेषे, ज०१ वक्ष०ा "तिलगरयणऽ तेषामग्निस्तद्दहनप्रवृत्तो वहिस्तिलाग्निः / तिलावयवदहनप्रवृत्ते वह्नौ, दचंदचित्ते / " तिलकरत्नानि पुण्डूकविशेषास्तैरर्द्धचन्द्रेश्च चित्राणि स्था०८ठा० नानारूपाणि तिलकार्द्धचन्द्रचित्राणि / जी०१ प्रति०। तिलिविलिय पु० (तिलिविलिक) जलचरजीवविशेषे, कल्प०३ क्षण। तिलगसूरि पुं०(तिलकसूरि) वैक्रमीये संवत्सरे 1360 मिते विद्यमाने तिलोग पुं०(त्रिलोक) त्रयो लोकाः समाहृतास्त्रिलोकाः / समावृतेषु त्रिषु लोकेषु, नं० हर्षपुरीयगच्छीये राजशेखरसूरिशिष्ये, जै०३०। तिलोगचूडामणि पुं०(त्रिलोकचूडामणि) त्रिभुवनशिरोरत्नकल्पे, पञ्चा० तिलगायरिय पुं०(तिलकाचार्य) स्वनामख्याते आचार्य, येन भद्र 8 विवा बाहुविरचितस्य यतिजीतकल्पस्योपरि टीका कृता / जीत०। अयमाचार्यः तिलोगदंसि(ण) पुं०(त्रिलोकदर्शिन) त्रिलोकमूर्ध्वाधस्तियग्लक्षणं द्रष्टु शिवप्रभसू रिशिष्यः, तेन च वैक्रमीये संवत्सरे 1366 मिते शीलं येषां ते त्रिलोकदर्शिनः। तीर्थकृत्सुसर्वज्ञेषु, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२उ०। आवश्यकलघुवृत्ति मग्रन्थो विरचितः; दशवैकालिकसूत्रटीका, प्रत्ये तिलोगपुज्ज पुं०(त्रिलोकपूज्य) सुरनराऽऽदिलक्षणभुवनत्रितयपूकबुद्धचरित्रं, प्रतिक्रमणसूत्रलघुवृत्तिश्चेत्यादयो ग्रन्था अप्यनेन कृताः। जनीये,पक्षा०६ विव०। जै०० तिलोगमहिय पुं०(त्रिलोकमहित) त्रिलोकमहिते तीर्थकृति, वृ०॥ त्रयो तिलचुन्न न०(तिलचूर्ण) चूर्णिकाभेदे, “से किं तं चुन्नियाभेदे? चुन्नियाभेदे लोकाः समाहृताः समवसरणे त्रयाणामपि संभवात् / तथाहिजणं तिलचुन्नाण वा, मुग्गचुन्नाण वा।'' प्रज्ञा०१पदा समागच्छन्ति भगवता तीर्थकृतां समवसरणेष्वधोलोकवासिनो तिलथंभ पुं०(तिलस्तम्ब) तिलवृक्षगुल्मे, कुम्भग्रामे तिलस्तम्बं दृष्ट्वा भवनपतयः,तिर्यग् लोकवासिनो वाणमन्तरतिर्यग् पदोन्द्रियगोशालकस्य वीरस्वामिनं प्रति तज्जीवपृच्छा / भ०१५श०। आ०म० ज्योतिष्काः, ऊर्द्धलोकवासिनः कल्पोपपन्नका देवाः, त्रिलोकेन महिताः (एतच 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1015 पृष्ठे उक्तम्) पूजिताः, त्रिभिर्वा लोकैर्महितास्त्रिलोकमहिताः / बृ०१उ०। तिलपिट्ठ न०(तिलपिष्ट) कुट्टिततिलचये, आचा० 2 श्रु०१ चू०१ | तिलोदग न०(तिलोदक) निस्त्वचिततिलधावनजले, कल्प० 3 अ०८उन अधि०६ क्षण। तिलः केनचित्प्रकारेण प्राशुकीकृते उदके, ग०२ अधि०| तिलपीलग त्रि०(तिलपीडक) तिलयन्त्रवाहनपरे,द्वा०। स्था० आचा
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________________ तिल्ल 2324 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिविट्ठ तिल्ल न०(तैल) तिलस्य विकारः, अण। "तिलाऽऽदिस्निग्धवस्तूनां, | कर्तुमनुचितेति प्रतिपादितम् / यदा तु दैववशाद्वाधा संभवति, स्नेहस्तैलमुदाहृतम् / " इत्युक्ते तिलसर्षपातसीकुसुम्भानां स्निग्ध- तदोत्तरोत्तरवाधाया पूर्वस्य पूर्वस्यबाधा रक्षणीया। तथाहि कामबाधायां वस्तूनां स्नेहरूपे विकारे, वाचा प्रश्न। तैलं चतुर्धा, तिलातसी- धर्थियो-वाधा रक्षणीया, तयोः सतोः कामस्य सुकरोत्पादत्वात् / कुसुम्भसर्षपभेदात्। स्था०६ठा०। कामार्थयोस्तु वाधायां धर्मो रक्षणीयः, धर्ममूलत्वादर्थकामयोः / उक्तं तिल्लग त्रि०(तैलक) तैलविक्रयकारके, बृ०१ उ०। प्रव०। च-"धर्मश्चन्नावसीदेत, कपालेनाऽपि जीवतः / आन्योऽस्मीत्यवगतिल्लोदा स्त्री०(तैलोदा) शशकाऽऽख्येन धूर्तेन परिकल्पिते वृष्टि न्तव्यं, धर्मचित्ता हि साधवः / / 1 / / ' ध०१ अधि० तिलसमुद्भूते नदीभेदे, नि०चू०१उ०। तिवणी स्त्री०(त्रिवनी) औषधिविशेषे, ती०६ कल्प० तिवें अव्य०(तथा) प्राकृते तथेत्यस्य तिमादेशे, "मोऽनुनासिको वो / तिवरिस पुंस्त्री०(त्रिवर्ष) प्रवज्यापर्यायेण यस्य त्रीणि वर्षाणि वा" ||84367 / / इत्यपभ्रंशेऽनादौ वर्तमानस्यासंयुक्त स्य नाधिक मित्येष त्रिवर्षों भवति / प्रव्रज्यापर्यायेण त्रिवर्षजाते नवे, मकारस्यानुनासिको वकारः। प्रा०४ पाद / तेन प्रकारेणेन्यर्थे, वाचा व्य०३० तिवई स्त्री०(त्रिपदी) मल्लस्येव रङ्गभूम्यां गतिविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१६ तिवरिसपरियाय पुंस्त्री०(त्रिवर्षपर्याय) त्रीणि वर्षाणि पर्यायः अ०। भूमौ पदत्रयन्यासे, औ०। मल्ल इव रङ्गभूमौ त्रिपदी-च्छेदं करोति। प्रव्रज्यापर्यायो यस्य स त्रिवर्षपर्यायः / प्रव्रज्यापर्यायेण त्रिवर्षजाते भ०३श०२उ० हस्तिनां पादबन्धनार्थ रज्जुभेदे, वाचा नवे,व्य०३उ०। तिवग्ग पुं०(त्रिवर्ग) त्रयो वर्गास्त्रिवर्गाः / धर्मार्थकामत्रये, लोक तिवलिय त्रि०(त्रिवलिक) रेखात्रयोपेते, रा०ा औ०। ज्ञा०। भO! वेदसमयत्रये, सूत्रार्थतदुभयत्रये च। आ०चू०१अ०। आ०म०। आचा०ा तिवली स्त्री०(त्रिवली) वलित्रये, प्रश्न०३ आश्र0 द्वार। विपाo तिवग्गसाहण न०(त्रिवर्गसाधन) त्रिवर्गस्य वक्ष्यमाणस्वरूपस्य, न | तिवलीविणीय त्रि०(त्रिवलीविनीत) तिस्रो वलयो विनीता विशेषतः त्वेकैकस्य, साधनं सेवनं त्रिवर्गसाधनम्। त्रिवर्गसेवने, धा प्रापिता यत्र तत् त्रिवलीविनीतम् / वलित्रययुक्ते, जी०३ प्रति०४ उ०। अन्योन्यानुपघातेन, त्रिवर्गस्यापि साधनम्। (23) तिवस्सजाय त्रि०(त्रिवर्षजात) त्रीणि वर्षाणि जातायास्विवर्षजाता। त्रिवर्गो धर्मार्थकामाः, तत्र यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः, 1 यतः "कालो द्विगोपमेयैः" // 3 / 1 / 57 / / इति तत्पुरुषः / ज्यो०२ पाहु०। जन्मतो वर्षत्रयाणि जातानि यस्य स त्रिवर्षजातः / जन्मतः प्रव्रज्यातो सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः २,यत आभिमानिकरसानुविद्धा सर्वेन्द्रिय वा त्रिदर्पजाते, तंग प्रीतिः स कामः३। ततोऽन्योन्यस्य परस्परस्याऽनुपघातेनाऽऽपीडनेन त्रिवर्गस्याऽपि उक्तस्वरूपस्य, न त्वेकैकस्येत्यपिशब्दार्थः; साधनं तिवारखलणा स्त्री०(त्रिवारस्खलना) त्रीन् वारान् यावत्तत्प्रति-हतो, सेवनम् / त्रिवर्गसाधनविकलस्योभयभवभ्रष्टत्वेन जीवननैरर्थक्यात् / पञ्चा०१२ विवन यदाह-'यस्य त्रिवर्गशून्यानि, दिनान्यायान्ति यान्ति च / स लोहकार तिविंदु न०(त्रिविन्दु) बिन्दुत्रयसमाहारे, अनु०॥ भस्त्रेव, श्वसनपि न जीवति'' ||1|| तत्र धर्थियोरुपघातेन तिविटु पुं० (त्रिपृष्ठ) प्राकृतत्वादार्षत्वाच 'तिविटु' इति निर्देशः / तादात्विकविषयसुख-लुब्धो वनगज इव को नाम न भवत्यास्पदमा प्रव०२ द्वार / वर्तमानप्रथमवासुदेवे, तिला आ०म०। प्रश्न०। आ०का पदाम् ? न च तस्य धनंः, शरीर वा; यस्य कामेऽत्यन्ताऽऽसक्तिः / कल्प०। आव०। प्रव०। आ०चू० "तिविठ्ठणं वासुदेवे असीइंधणूइं उर्दू धर्मकामातिक्रमाद्वनमुपार्जितं परेऽनुभवन्ति, स्वयं तु परं पापस्य उच्चत्तेणं होत्था / " "तिविढे णं वासुदेवे असीइ-वाससयसहस्साई भाजनं, सिंह इव सिन्धुरवधात् / अर्थकामातिक्रमेण च धर्मसेवा महारायः होत्था।" स०८०सम०। त्रिपृष्ठवासुदेवस्य चतुरशीतिवर्षयतीनामेव धर्मो, न गृहस्थानाम् / न च धर्मबाधयाऽर्थकामौ सेवेत, लक्षाणि सर्वाऽऽयुरिति चत्वारि लक्षाणि कुमारत्वे, शेषं तु महाराज्ये बीजभोजिनः कुटुम्बिन इव नास्त्यधार्मिकस्याऽऽयत्या किमपि इत्यादि। रा०५० सम०। "तिविट्ठ णं वासुदेवे चउरासीइं वाससयसकल्याणम्। स खलु सुखी योऽमुत्र सुखाविरोधेनेहलोकसुखमनुभवति। हस्साई परमाउयं पालइत्ता अप्पइ-ट्ठाणे तरए नेरइयत्ताए उववन्ने।" (तिविटु त्ति) प्रथमवासुदेवः श्रेयांसजिनकालभावीति, अप्रतिष्ठानो तस्माद्धर्माबाधनेन कामार्थयोर्मतिमता यतितव्यम् / एवमर्थबाधया धर्मकामौ सेवमानस्य ऋणाधिकत्वम्। कामबाधया धर्मार्थी सेवमानस्य नरकः सप्तमपृथिव्यां पञ्चानां मध्यम इति। स०८४ सम०। गार्हस्थ्याभावः स्यात्। एवं च तादात्विकमूलहरकदर्येषु धर्मार्थकामा पुत्तो पयावइस्सा, मिआवईकुच्छिसंभवो भयवं। नामन्योऽन्यबाधा सुलभैव / तथाहि-यः किमप्यसंचित्योत्पन्न नामेण तिविछत्ती, आई आसी दसाराणं / / 1 / / मर्थभपव्येति स तादात्विकः 1, यः पितृपैतामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स ' अत्र कथामूलहरः 2, यो भूत्याऽऽत्मपीडाभ्यामर्थ संचिनोति, न तु क्वचिदपि व्ययते "इहास्ति पोतनपुर, नगरं जितसागरम्। स कदर्यः३ / तत्र तादात्विकमूलहस्योरर्थभंशेन धर्मकामयोर्विना- भूरिश्रीजिनसंशोभि,आवृताखिलजन्तुकम् / / 1 / / शान्नास्ति कल्याणम् / कदर्यस्य त्वर्थसंग्रहो राजदायादतस्कराणां राजा रितुप्रतिशत्रुर्यत्प्रतापमहाग्निना। निधिः, न तु धर्मकामयोहे तुरिति / अनेन त्रिवर्गबाधा गृहस्थस्य आलीढा:शत्रवः सर्वे, ज्वलदूर्णायुतां ययुः / / 2 / /
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________________ तिविद्द्व 2325 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिविट्ठ देव्यास्तस्रा च भद्रायाः, बलदेवः सुतोऽभवत्। चतुर्भिः सूचितः स्पप्रचलोऽचलसौष्ठवः / / 3 / / मृगावती च पुत्र्यासीद्, रूपातिशयशालिनी। जगाम जनक नन्तु, सोगिन्ननवयौवना // 4 // दृष्टा तामनुरागेण, स्वाङ्गपर्यड्डुगां व्यधात्। विवोढुं तामथोपायं, चिकीर्षुर्विससर्ज च // 5 / / पुरप्रधानान्याहूयाऽप्राक्षीदेतत्ततो नृपः / इह यजायते रत्नं, स्यात्तत्कस्येति कथ्यताम्? ||6|| अवोर्चस्ते तवैवेति, त्रिरुपादाय तद्वचः। आनाययत्ततस्तत्रोद्वोढुं राजा मृगावतीम् // 7 // ययुस्ते ब्रीडया सर्वे, पुत्रीमपि मृगावतीम्। मान्धर्वेण विवाहेन, राजा स्वयमुपायत।।८।। भद्रा विरक्ता भोगेभ्यस्त्यक्त्वाऽनाचारिणं नृपम्। सुतमादाय निर्गत्य, प्रययौ दक्षिणापथम् / / 6 / / विरचय्याचलस्तत्र, पुरी माहेश्वरी नवाम्। संस्थाप्य जननीं तत्र, तातोपान्तं ययौ स्वयम्॥१०॥ अग्रे च तत्पितु कौलं नाम व्यलोप्यत। स्वप्रजायाः पतित्वेन, प्रजापतिरितीरितम् / / 1 / / विश्वभूतिश्च्युतः शुक्रान्मृगावत्या अथोदरे। कथितः सप्तभिः स्वप्नैर्विष्णुरित्यवतीर्णवान् / / 12 / / पुण्येष्वहःसु संजज्ञे, तनुभूर्विष्णुरादिमः। त्रिकरण्डकप(ष्ट)ष्ठत्वात्, त्रिपृ(ष्ट) ष्ठ इति संज्ञितः।।१३।। अशीतिधनुरुचाङ्गः, खेलन् भ्रात्रा बलेन सः। द्विसप्ततिकलाऽभिज्ञः, क्रमाद्यौवनमासदत् / / 14 / / विशाखभूतिजीवश्च, भवं भ्रान्त्वाऽथ केसरी। जज्ञे तुङ्ग गिरौ शङ्ख-पुरदेशनिषूदकः ||15|| प्रतिविष्णुः पृच्छति स्मा-श्वग्रीवो मे कुतो मृतिः ? भाविनीति निमित्तज्ञ, सोऽप्याचख्याविदं तदा / / 16 // दृप्तस्तेऽभीश्चण्डवेगं, यो दूतं धर्षयिष्यति। यस्तुङ्ग गिरिसिंह च, हेलयैव हनिष्यति।।१७।। ततः शत पुरे शालीनश्वग्रीवोऽध्यवापयत्। वारकेण महीपालान्, तत्त्राणार्थमथाऽऽदिशत्॥१८|| राज्ञः प्रजापतेः पुत्री, सशुश्राव महौजसौ। ततोऽप्यर्थाचण्डवेग, दूतं तस्मै प्रयुक्तवान् / / 16 / / तदा प्रजापतेरगे, संगीतिरङ्गमागते। अकस्मादागतश्चण्डवेगस्तद्रङ्गभङ्गदः // 20 // अभ्युत्तस्थे भूभुजाऽसौ,तदीयस्वामिशङ्कया। मन्त्री पृष्टः कुमाराभ्यामहंयुः कोऽयमाह सः।।२१।। अश्वग्रीवस्य दूतोऽयं, राजराजस्य दुर्दमः / गच्छन्नयं निवेद्यो नाविति तावूचतुर्निजान्॥२२॥ प्रजापतिस्तमन्येधुर्व्यसृजत्कृतगौरवम्। स्वभटैापितौ तौ च, कुमारावन्वधावताम्॥२३।। तमर्द्धमार्ग प्राप्य स्व-हस्तयोश्चक्रतुः सुखम्। काकवद् लगुडाऽऽपाते, तत्सहायाश्च नेशिरे॥२४॥ (?) ज्ञात्वा प्रजापतिस्तच, दूतमानीय तं गृहे। सत्कृत्योचे दुर्विनयं, माऽऽख्यः कौमारमीशितुः // 25 // आर्मत्युक्त्वा ययौ दूतः, क्ष्माषतेः परमग्रतः। पलाय्य यातैः कथितं, सर्व दूतस्य धर्षणम्॥२६।। तद् दूतोऽपि तथैवाऽऽख्यदलीकान्मा कुपन्नृपः। अश्वग्रीवोऽनुशिष्यान्यं, दूतं प्रेषीत्प्रजापतेः / / 27 / / गत्वोचे रक्ष शालींस्त्वं, सिंहाद्राजाऽऽज्ञयैष सः। राजोवाच सुतावेतत्फलं दूतखलीकृते // 28 // अवारकेऽपि यदभू-दादेशः शालिरक्षणे। इत्युक्त्या प्रस्थितं भूपं, प्रतिबोध्य गतौ सुतौ // 26 // कियकालं कथं सिंहमन्येऽरक्षन्नृपा इति। त्रिपृष्ठ ष्टः शिष्ट तैः, शालीनां परिचारकैः॥३०॥ पत्त्यवभरथैर्वप्र. कृत्वाऽरक्षन् क्षितीश्वराः। कर्षणग्रहणं यावदागता वारकक्रमात् // 31 // स्थास्यतीयच्चिरं कोऽत्र, त्रिपृष्ठः स्माऽऽह तान् प्रति। दर्शाता मम सिंहः स, यैनैकोऽपि निहन्मि तम् // 32 // तुङ्गाऽऽचलगुहायां तैर्दर्शितः केशरी ततः। रथाऽऽरुढी कुमारी तावयासिष्टामुभौ गुहाम्॥३३|| तां गुहामभितो लोकाश्चक्रुः कलकलाऽऽरवम्। तं च पक्षाननः श्रुत्वाऽभ्यागाङ्गम्भापराऽऽननः // 34 // अहं स्थी पत्तिरसौ, युक्तो नौ नैष संगरः। रथात्ततोऽवततारः, त्रिपृष्टः फलकासिभृत् / / 3 / / फलकासी मम करे, एष दाढानखाऽऽयुधः। तदप्यनुचित भाति, तत्तावपि मुमोच सः॥३६॥ दध्या तं प्रेक्ष्य सिंहोऽथ, धाट्यदिको यदागमत्। यद्यानशस्त्रमुक्तिश्वायुर्हन्मि तदेणवत्॥३७॥ विचिन्त्येवं महाकोपादजानानो हरि हरिः। दत्त्वा फालां कराला स, त्रिपृष्ठोपान्तमापतत्॥३८॥ एकेनैव करेणोष्ठाधरौ धृत्वा हरि हरिः। पाटयामास तं जीर्णपट्टांशुकमिव क्षणात्।।३६॥ पुष्पाऽऽभरणवस्वैश्व, वृष्टं देवतया हरौ। शौर्येण विस्मितैर्लो कैस्तुष्टुवे स स्फुटन्मुखैः // 40 // एकाकिना मारितोऽहमिति सिंहः स्फुरस्तदा। गौतमजीवस्तत्सुत-स्तमूचे मा स्म खिद्यथाः / / 41 / / पशुसिंहो नृसिंहेन, मारितोऽसीति का व्यथा ? प्रीतस्तद्वचराा मृत्वा, तुर्याा नारकोऽभवत्।।४२।। कुमारावात्ततत्कृत्ती, वलितौ नगर निजम्। ग्राम्यैरूचे हयग्रीव, स्वैरं तिष्ठ रिपोर्वधात्॥४३॥ तत् श्रुत्वा सोऽथ साशड् कः,प्रैषीद् दूतं प्रजापतेः। सुती प्रेषय मत्पावें, कुर्वेऽमू यत्पृथग नृपौ।।४४।। प्रजापतिर्बभाषेऽहमेष्यामि न सुतौ तु मे। दूतोऽवादीद् न चेदेवं, सजो युद्धाय तद्भव / / 45|| इत्युक्ते धर्षयित्वा तं, कुमारी दूतमूचतुः। यत् शिक्षितभरे ! कुर्याः, दुर्दान्तोऽद्यापि ते प्रभुः / / 46 / / दूताऽऽख्यातो हयग्रीवः, सर्वोघेणाऽचलद्युधि। त्रिपृष्ठः साचलश्चाद्रौ, रथावर्तेऽमिलत्स्वयम्॥४७|| उभयोः सैन्ययोयुद्धे, जायमानेऽतिनिष्टुरे। दोलारुढेव तत्कालं, जयलक्ष्मीः समाभवत्।।४८।। ऊचे त्रिपृष्ठोऽश्वग्रीवं, वीक्ष्यानेकजनक्षयम्। युद्धमस्त्वाश्योरेव, वराकैः किं हतैर्जनैः ? ||46 // आड़ाङ्गियुद्धेऽश्वग्रीवः, खिन्नश्चक्र विमुक्तवान्। त्रिपृष्टोरसि तुम्बेन, चक्रं निपतति स्म तत्॥५०॥ त्रिपृष्ठस्तच्छिरस्तेनैवाच्छिनत्तत्क्षणात्तयोः / पुष्पवृष्टिः कृता देवैराधी विष्णुबलाविति // 51 // तदैव प्रणतातोच, समस्तैरपि राजभिः। भरतक्षेत्रयाभ्याई, चक्रतुर्लीलया वशे / / 5 / /
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________________ तिविट्ठ 2326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिव्वाभिलास मौलौ छत्रमिवाधार्षीत्, शिला कोटिशिलाभिधाम्। आचा०१ श्रु०३ अ०१उ०। दुर्विषहे, देना०५ वर्ग 11 गाथा। प्रकृष्टे, उत्पाट्य दोष्णैकेनाऽपि, लीलया विष्णुरादिमः / / 53|| स०११ अङ्ग / निम्बाऽऽदिवत् तिक्ते, त्रि० भ०६ श०३४ उ०। 'तिब्वे सोऽथागात्पोतनपुरं, जगजित्वरविक्रमः / रोगायके पाउभृए।" सामान्यस्य झगिति मरणहेतौ, भ० 15 श०) अभिषिक्तो नृपैर्देवैरर्द्धचक्रिपदे ततः।।५४।। तिव्वअणुराग पुं०(तीव्रानुराग) अत्यन्ताध्यवसाये, ध०२ अधि०| एकदा गायनाः केऽप्य-गायन्निशि हरेः पुरः / तिव्वकसायपरिणइ स्त्री०(तीव्रकषायपरिणति) उत्कृष्टानां दीर्घताल्पिकं स्माऽऽह मय्येते, विसाः शयिते त्वया / / 55 / / कालान्तरावस्थायिनां वा क्रोधाऽऽदिकषायाणां परिणामे, पं०चून आमित्यूचे विसृष्टास्तेऽनेन सुप्तेऽपि न प्रभौ। तिव्वाखिंसण न०(तीव्रखिंसन) अत्यर्थनिन्दायाम् , औ०। प्रश्न। उत्थितः प्रभुरूचे तान्, श्रुत्वा तं किं न वारिताः? // 56 // तिव्वगिद्ध त्रि०(तीव्रगृद्ध) अत्यर्थमनुपपन्ने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। सोऽवदगीतलोभेन, तदाकाऽकुपनृपः। तिव्वगिलाण त्रि०(तीव्रग्लान) आत्यन्तिकव्याधिमति, पञ्चा०४ विव० तत्कर्णयोः प्रगेऽक्षेप्सी-तप्तं त्रपु मृतश्च सः / / 57 / / तिव्वचरितमोहणीय न०(तीव्रचारित्रमोहनीय) कषायव्यतिरिक्त वेद्य न्यकाचयत्कर्मा-ऽसातं तेन हरिस्तदा। नोकषायलक्षणे मोहनीये कर्मणि, भ०८ श०६ उ० निस्त्रिंशः क्रियया स्वात्म्याद, दुष्कर्म प्राज्यमार्जयत् / / 58|| तिव्वतरग न०(तीव्रतरक) अतिशयोत्कटे, पञ्चा०१५ विव० महापरिग्रहाऽऽरम्भ--हिंसाऽऽद्यैः कलुषाऽऽत्मकः। तिवदंसणमोहणिज्ज न०(तीव्रदर्शनमोहनीय) मिथ्यात्वतया चतुरशीत्यब्दलक्षं, राज्यं कृत्वाऽऽद्यकेशवः / / 56 / / दर्शनमोहनीये, भ०५ श०६ उ०। तिथ्वपरिणाम त्रि०(तीव्रपरिणाम) तीवो दुःसहः परिणामः परिण-तिर्येषां मृत्वा सप्तमनरक-पृथ्व्यां नैरयिकोऽभवत्। ते तीव्रपरिणामाः। दुःसहपरिणतिकेषु, आचा०१ श्रु०५ अ०१३०। अचलस्तनियोगाऽऽत्तव्रतो मृत्वा शिवं ययौ' ||60 // आवक तिव्वपावाभिभूय त्रि०(तीव्रपापाभिभूत) तीव्रेणातिदारुणेन पापेन भविष्यदष्टमवासुदेवे, ती०२० कल्प। सका मिथ्यात्वाऽऽदिनाऽभिभूतः परतन्त्रीकृतस्तीव्रपापाभिभूतः / तिविडी (देशी) पुटिकायाम्, देखना०५ वर्ग 12 गाथा। अतिदाराणेन मिथ्यात्वाऽऽदिना परतन्त्रीकृते, यो०बि०। तिविह त्रि०(त्रिविध) तिस्रो विधा यस्य स त्रिविधः / आ०म० 1 अ० | तिव्वभाव पुं०(तीव्रभाव) गाढसंश्लिष्टपरिणामे, पश्चा०३ विव०। रखण्ड / त्रिप्रकारे, व्य०१ उ० प्रश्न०। ध०। पा० आव०। तिव्वरागा स्त्री०(तीव्ररागा) उत्कटविषयानुबन्धायां भाषायाम, ध०३ मनोवाकायलक्षणे, कृतकारितानुमतिलक्षणे च / सूत्र०१ श्रु०२ अ०६ अधि। उ० ('तिविहं तिविहेणं पञ्चक्खामि' इति 'सामाइय' शब्दे व्याख्यास्यते) तिव्ववेर त्रि०(तीव्रवैर) अविच्छिन्नोत्कटवैरे, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। ज्ञा० तिविहाऽऽहार पुं०(त्रिविधाऽऽहार) आहारत्रये, त्रिविधाऽऽहार तिवसंकिलेस पुं०(तीव्रसंक्लेश) उत्कृष्टदुष्टपरिणामे, उत्कृष्टदुद्विविधाऽऽहारप्रत्याख्याने श्राद्धानां पानीयतुर्याऽऽहारौ किं भक्ष्यो, न रध्यवसाये, पञ्चा०१६ विव०। वेति प्रश्ने, उत्तरम्-श्राद्धानां त्रिविधाऽऽहारद्विविधाऽऽहारप्रत्याख्या तिव्वसंवेग पुं०(तीवसंवेग) भृशं दुःखलक्षाऽऽकुलभवभये, ल०। नेऽपि पानीयतुर्याऽऽहारौ भक्ष्यौ ज्ञेयौ, परमयं विशेषः येन प्रातस्त्रि 'तीव्रसंवेगसंजातश्रद्धः'-तीव्रसंवेगेन भृशं दुःखलक्षाऽऽकुलभवभयेन विधाऽऽहारप्रत्याख्यानं कृतं स्यात्तस्यैकाशनाऽऽदिकरणसमये तुर्याऽ5 संजाता सम्यगुत्पन्ना श्रद्धा श्रद्धानं धर्माऽऽदिषु यस्य स तथा। तं०। हारं कल्पते, नतुस्थानानन्तरमिति, पानीयं तु उभयत्राप्यचित्तं कल्पते। तिव्वसढ त्रि०(तीव्रशठ) तीव्ररुपसर्गरभिद्रुते शठानुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०३ द्विविधाऽऽहारप्रत्याख्याने तु द्वयोरपि भक्ष्यतया संभवोऽस्ति, संध्याया अ०१उ०॥ आत्यन्तिकसदनुष्ठानकरणरुचौ, पञ्चा०४ विवा तु त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्याने पानकाऽऽकारानुचारणात् सचित्तमपि तिव्वाभिताव त्रि०(तीव्राभिताप) दुःसहसन्तापवति, "तिव्या-भितावे पानीयं कल्पते, न तुतुर्याऽऽहारः। द्विविधाऽऽहारप्रत्याख्याने तूभावपि नरए पण्णत्ते / " तीव्रो दुःसहः खदिराङ्गार महाराशितापादनन्तगुणोभक्तौ संभ-वत इति। 51 प्र० सेन० 2 उल्लाम ऽभितापः संतापो यस्मिन् स तथा / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०! तिव्व न०(तीव्र) रौद्रे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। उत्कटे, आ०म० अ०। / तीव्रकर्मबन्धरूपे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३उ०॥ आव०। दुःसहे, सूत्र०१ श्रु० 5 अ०१ उ०। अत्यर्थे , सूत्र०१ तिव्वाभितावि(ण) त्रि०(तीव्राभितापिन्) तीव्रोऽसह्यो योऽभितापः श्रु०२अ०१उ०। औ०। असो, सूत्र०२ श्रु०६अ०॥"कक्सा , पगाढा, क्रकचपाटनकुम्भीपाकतप्तत्रपुपानशाल्मल्यालिङ्गनाऽऽदिरूपः, स चंडा, दुहा, तिव्वा, दुरहियास ति" एकार्थाः / विपा०१ श्रु०१ अ०) विद्यतेयस्याऽसौ तीवाभितापी। तीव्रवेदनाऽभिभूते, सूत्र०२ श्रु०६ अ० गाढे, प्रव०६ द्वार / तीव्रानुभवगन्धजनिते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / तिव्याभिलास पुं०(तीव्राभिलाष) अत्यन्ताध्यवसायित्वे, आव०६ अ० नि०चूल प्रबले, द्वा०२१ द्वा०ा रौद्रे, आ०म०१ अ०२ खण्ड। उत्कटे, / __उपा०
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________________ तिव्वुह 2327 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिहि तिव्वुण्ह त्रि०(तीव्रोष्ण) अत्युष्णे, आव०५ अ०। तिसुगंध त्रि०(त्रिसुगन्ध) त्वगेलाकेसरैस्तुल्ये त्रिजातके, "त्वगेलातिसंकु पुं०(त्रिशङ्क) श्रीमदयोध्यानिवासीक्ष्वाकुवंश्यस्य श्रीहरि- | केसरस्तुल्यं, त्रिसुगन्धं त्रिजातकम्।" जी०३ प्रति०४ उ०। श्रन्द्रमहानरेन्द्रस्य स्वनामख्याते पितरि, ती० 37 कल्प। तिसूल न०(त्रिशूल) त्रीणि शूलानि शिखाऽग्राणि यत्र / स्वनामख्याते तिसंधि त्रि०(त्रिसन्धि) आदिमध्यावसानेषु सन्धिभावात (जी०३ | अस्वभेदे, वाचा सूत्र प्रति०४ उ०) त्रिषु स्थानेषु सन्धियुक्ते, भ०३ श०६उ०। तिसूलिया स्त्री०(त्रिशूलिका) लघुत्रिशूले, सूत्र०१ श्रु० 5 अ०१ उ०। तिसट्ठिसलागा स्त्री०(त्रिषष्टिशलाका) अर्हचक्रवर्तिबलदेववासु- तिसोवाण न०(त्रिसोपान) त्रयाणां सोपानानां समाहाररित्रसोपा-नम्। देवप्रतिवासुदेवानां त्रिषष्टः पुरुषाणां शलाकारूपे चक्रे, ही०३ प्रका०। सोपानत्रये, रा० तिसण्ण त्रि०(त्रिसंज्ञ) तिरस आहारभयपरिग्रहरूपाः संज्ञा येषां ते तथा। | तिसोवाणपडिरूवग न०(त्रिसोपानप्रतिरूपक) त्रयाणा सोपानानां आहारभयपरिग्रहसंज्ञायुक्त, यो०बि० समाहारस्त्रिसोपानम् / त्रिसोपानानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति तिसत्तखुत्त अन्य०(त्रिसप्तकृत्वस्) एकविंशतिवारेषु, पिं० जी०। भा विशेषणसमासः / विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्। सुन्दरे सोपातिसमइय त्रि०(त्रिसमयिक) त्रयः समयास्त्रिसमय, तद्यत्रास्ति स नत्रये, जी०। त्रिसमयिकः / समयत्रयभाविनि, स्था०३ ठा०४ उ०। तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णवासे तिसमय न०(त्रिसमय) त्रयः समयाः समाहृतास्त्रिसमयम् / स- पण्णत्ते / तं जहा-वयरामया निम्मा, रिठ्ठामया पतिट्ठाणा, मयत्रयसमाहारे, आ०म०१ अ० १खण्ड। वेरुलियामया खंभा, सुवन्नरुप्पमया फलगा, वइरामया संधी, तिसमयसिद्ध पुं०(त्रिसमयसिद्ध) सिद्धत्वसमयात्तृतीयसमय-वर्तिनि लोहितरुक्खमईओ सूईओ, नाणामणिमया अवलंबणा अवसिद्धे, प्रज्ञा०१ पद। लंवणबाहाओ। जी०३ प्रति०४ उ०। (टीका सुगमा) तिसमयाऽऽहारग पुं०(त्रिसमयाऽऽहारक) आहारं गृह्णातीत्याहारकः / तिस्सगुत्त पुं०(तिष्यगुप्त) द्वितीयनिह्नवे वसुनामाऽऽचार्यशिष्ये, विशे० त्रयः समयाः समाहृतास्त्रिसमय, त्रिसमयमाहारकरित्रसमयाऽऽहारकः / (अस्य वृत्त 'जीवप्पएस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1554 पृष्ठे गतम्) "व्याप्तौ" // 3161 / / इति समासः / "नाम नाम्नेकार्थ्ये समासो तिहा अव्य०(त्रिधा) त्रिप्रकारे, अनु०॥ बहुलम् // 3 / 1 / 18|| इति वा समासः / त्रीन् समयान् यावदाहारके. | तिहि पुं०(तिथि) चन्द्रनिष्पादिते अहोरात्रे, चं०प्र० 10 पाहु०। आ०म०१ अ०१ खण्ड / विशे० नं०। पर्वणि, आतु०॥ तिसमुट्ठाण त्रि०(त्रिसमुत्थान) त्रिभ्यो धर्मार्थकामेभ्यः समुत्थानं अथ तिथिस्वरूप, तिथिमानं चाऽऽहतद्विषयत्वनोत्पत्तिरस्येति त्रिसमुत्थानम्। धर्मार्थकामजाते, दश०२ अ०। कम्मो निरंसयाए, मासो ववहारकारगो लोए। तिसमुद्दक्खायकित्ति त्रि०(त्रिसमुद्रख्यातकीर्ति) पूर्वदक्षिणापर- सेसा उ संसयाए, ववहारे दुक्करा चित्तुं / / (सू०प्र०१०पाहु०) दिग्विभागव्यवस्थितत्वात् पूर्वापरदक्षिणास्त्रयः समुद्रारित्रसमुद्रम् / आदित्यकर्म (ऋतुमासस्य कर्ममास इति नामान्तरम् / उक्तं च-"एस उत्तरतस्तु हिमवान्, वैतान्यो वा / त्रिसमुद्रे ख्याता कीर्तिर्यस्याऽसौ चेव उउमासो कम्ममासो ....... भण्णइ / " व्य०१ उ०।) चन्द्रनक्षत्रात्रिसमुद्रख्यातकीर्तिः / दक्षिणार्द्धभरतव्यापिकीर्ती, नं०। भिवर्द्धितमासानां मध्ये कर्मसंवत्सरसंबन्धी (कर्म लौकिको व्यवहारः, तिसर न०(त्रिशरस्) त्रीणि शरांसि त्रिशरः / वाच० / शरत्रये, अनु०। / तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मसंवत्सरः / ऋतुसंवत्सरे / अत्र 'कम्मसंवविपा० राक्षसभेदे, ज्वरे, कुबेरे, वाचन च्छर' शब्दस्तृतीयभागे 345 पृष्ठे द्रष्ट व्यः।) मासो निरंशतया तिसरग न०(त्रिसरक) हारविशेषे, औ०। ज्ञा०। तं० ज० परिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणतया लोके सुखेन व्यवहारको भवति / तिसला स्त्री०(त्रिशला) सिद्धार्थनरेन्द्रभार्यायां महावीरस्वामिनो मातरि, तथाहि हलधराऽऽदयोऽपि बालिशास्त्रिंशदहोरात्रान् परिगणय्य मासं स्था०१० ठा०। प्रव०। आचा० स०ा आव०। ('वीर' शब्देऽस्याः सर्वा परिकल्पयन्ति / शेषास्तुमासाः सूर्यमासचन्द्रमासाऽऽदयः सांशतया वक्तव्यता) सावयवतया व्यवहारे लोकवयवहारप्रवर्त्तनविषये लौकिकैर्ग्रहीतुं तिसलोगान०(त्रिश्लोका) त्रयः श्लोकाश्छन्दोविशेषरूपा आधिक्येन यासु दुष्कराः, दुःखेन स्वयं ज्ञातुं शक्यन्ते इत्यर्थः / तथाहि-सूर्यमासः तास्तथा। यथा-''सिद्धाणं बुद्धाणं' इत्याद्येकः श्लोकः। "जो देवाण' सार्धानि त्रिंशदिनानि। चन्द्रमास एकोनत्रिंशदिनानि, द्वात्रिंशद्वाषष्टिइत्यादिको द्वितीयः / "एको वि नमोक्कारो'' इत्यादिकस्तृतीयः / भागा दिनस्य (तृतीयभागे 'चंदमास' शब्दः 1060 पृष्ठे द्रष्टव्यः।) इत्येवंरूपश्लोकत्रयाऽऽत्मिकायां स्तुती, प्रव० 36 द्वार। नक्षत्रमासः सप्तविंशतिदिनानि, एक-विशतिश्च सप्तषष्टिभागा दिनस्य तिसीस पुं०(त्रिशीर्ष) शिखरिपर्वतस्य प्रथमकूटाधिपतौ देवे, द्वी०। (चतुर्थभागे ‘णक्खत्त' शब्दः 1761 पृष्ठे द्रष्टव्यः।) अभिवर्द्धितमास
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________________ तिहि 2328 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिहि एकत्रिंशदिनानि, एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानां दिनस्य (प्रथमभागे 'अभिवड्डिय' शब्दः 727 पृष्ठे द्रष्टव्या।) न चैतद्वालिशा जानते, केवलं चान्द्रो मासोऽस्ति, तदपेक्षया चिन्त्यमाने परिपूर्णत्रिंशत्तिथ्यात्मकत्वात् लोके व्यवहारपथं चरतीति। तिथिपरिमाणज्ञापनार्थमिदमुपक्रम्यते, तत्र तिथिरवरूपज्ञानार्थ यन्निमित्ता अहोरात्राः, यन्निमित्ताश्च तिथयस्तदेतत्प्ररूपयतिसूरस्स गमणमंडलविभागनिप्फाइया अहोरत्ता। चंदस्स हाणिवुड्डी-कएण निप्फञ्जए उ तिही। सूर्यस्याऽऽदित्यस्य गमनयोग्यानि यानि मण्डलानि तेषां प्रत्येकं यो विभागो, विशिष्टः समभागतया भाग इत्यर्थः / तेन निष्पादिता अहोरात्राः / किमुक्तं भवति?-एकैकस्मिन् मण्डले यावता कालेन मण्डलार्द्ध गमनेन पूरयति तावत् कालप्रमाणेनाहोरात्राः / / चन्द्रस्य चन्द्रमण्डलस्य पुनः हानिवृद्धिकृतेन कालपरिमाणेन निष्पद्यते तिथिः / अत्राय भावार्थ:-चन्द्रमण्डलस्य कृष्णपक्षे यावता कालेनैकै कः षोडशभागो द्वाषष्टिभाग-चतुष्टयप्रमाणो हानिमुपपद्यते, यावता च कालेन शुक्लपक्षे एकः षोडशभागः प्रागुक्तप्रमाणः परिवर्द्धते, तावत्कालप्रमाणास्तिथयः / एतावांश्वाहोरात्राणां तिथीनां च परस्पर कालविशेषःअहोरात्रो द्वाषष्टिभागपरिच्छिन्नो विधीयते / तस्य सत्का ये एकषष्टिभागाः, तावत्प्रमाणा विथिः / इहेदमुक्तम्-चन्द्रस्य वृद्धिहानिकृतेन निष्पद्यते तिथिः / तत्र शिष्याणामुपपादि संमोह:--कथं चन्द्रस्य शाश्वतिकतयोपवर्ण्यमानस्य, वृद्धिहानी घटे ते इति? ततः शिष्याणां संमोहमपनेतुकामो यथोक्तस्वरूपप्ररूपणार्थमाहचंदस्स नेव हाणी, न वि वुड्डी वा अवढिओ चंदो। सुक्किलभावस्स पुणो, दीसइ वुड्डी य हाणी य / / चन्द्रस्य चन्द्रमण्डलस्य स्वरूपतो नैव हानिर्नाऽपि वृद्धिः, कि त्ववस्थित एव सदा चन्द्रः, चन्द्राऽऽदिविमानानां शाश्वतिकत्वात्। यद्येवं कथं साक्षात् प्रत्यक्षत उपलभ्येते वृद्धिहानी? ततआह-(सुक्किलेत्यादि) शुक्लभावस्य शुक्लतायाः, दर्शनपथप्राप्तस्यैव कृता दृश्यते वृद्धिानिर्वा, न तु स्वरूपतश्चन्द्रमण्डलम्। किमत्र कारणम्? अत आहकिण्हं राहुविमाणं, हेट्ठा चउरंगुलं च चंदस्स। तेणोवड्डइचंदो, परिवड्डइ वा विनायव्वो।। इह द्विविधो राहुः / तद्यथा-पर्वराहुः, ध्रुवराहुश्च। तत्र यः पर्वराहु-स्तद्गता | चिन्ता क्षेत्रसमासटीकायां कृता / यस्तु ध्रुवराहुस्तस्य विमान कृष्ण, तच चन्द्रमण्डलस्याधस्तात् चतुरड्गुलमसंप्राप्तं सत् चारं चरति। तच कृष्णपक्षे आत्मीयेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवस मेकै कं भाग द्वाषष्टिभागीकृतस्य चन्द्रमण्डलस्य सत्का ये चत्वारो भागास्तावत् प्रमाणमातृणोति। शुक्लपक्षे च प्रतिदिवसं तावन्तमेकैकं भागमात्मीयेन | पञ्चदशेन (पञ्चदशेन) भागेनापसरत् प्रकटीकरोति। तेन कारणेन चन्द्रः कृष्णपक्षे अपवर्द्धत हीयते, शुक्लपक्षे परिवर्द्धत इति ज्ञातव्यः / किमुक्तं भवति?-तेन कारणेन चन्द्रमण्डलस्य वृद्धिहानी प्रतिभासेते, न तु ते / तात्त्विक्यौ स्त इति एतदेव स्पष्ट भावयति तं रययकुडुयसरिसप्पहस्स चंदस्स राइसुभगस्स। लोए तिहि त्ति निययं, भण्णइ हाणीऍ वुड्डीए।। यत एवं चन्द्रमण्डलस्य राहुविमानकृताऽऽवरणानावरणजनिते वृद्धिहानी, तत् तस्मात् कारणात् चन्द्रस्य रजतकुमुदपुष्पतुल्यप्रभस्य रात्रिसुभगस्य रजन्यामतिमनोहारितया प्रतिभासनशीलस्य, हानौ वृद्धी यथोदितस्वरूपायां, यथोदितभागप्रमाणायां च लोके तिथिरिति नियत निश्चितं भण्यते। सम्प्रति भागप्रमाणमेव निर्दिदिक्षुराहसोलसभागे काऊण उडुवई हायतेऽत्थ पन्नरसे। तत्तियमेत्ते भागे, पुणो वि परिवड्डई जोण्हे / / उडुपतिं चन्द्रमण्डलमित्यर्थः, षोडशभागोनं राहुदेवः कृत्वा बुद्ध्या परिकल्प्य, तथाजगत्स्वाभाव्यात् कृष्णपक्षे, अत्र एषु षोडशसु भागेषु मध्ये प्रतिदिवसमेकैकभागहानिकरणेन सकले कृष्णपक्षे पञ्चदश भागान् हापयति / ज्योत्स्न्ये ज्योत्स्नासमन्विते, शुक्लपक्षे इत्यर्थः, प्रतिदिवसमेकैकभागपरिवर्द्धनेन परिपूर्णपक्षेतावन्मात्रान्, पञ्चदशसंख्यानित्यर्थः / भागान,पुनरपि परिवर्द्धयति। इयमत्र भावना-इह चन्द्रविमान द्वाषष्टिसंख्यैर्भागः परिकल्प्यते, परिकल्प्य च तेषां भागानां पञ्चदशभिभर्भागो ह्रियते, हृते च भागे लब्धाश्वत्वारो द्वाषष्टिभागाः, शेषौ द्वौ भागी तिष्ठतः, तौ च सदाऽनावृतौ / एषा किलचन्द्रमसः षोडशीकलाप्रसिद्धिः / तत्र कृष्णपक्षे प्रतिपदि धुवराहुविमानं चन्द्रमण्डलस्याधो भागेन चतुरङलगसंप्राप्तं सत् चारं चरदात्मीयेन पञ्चदशेन भागेन द्वौ द्वाषष्टिभागी सदाऽनावरणस्वभावो मुक्त्वा शेषद्वाषष्टि सत्क भागाऽऽत्कस्य चन्द्रमण्डलस्य सत्कं चतुर्भागाऽऽत्मकं पञ्चदशभागमावृणोति। द्वितीयायामात्मीयाभ्यां(?) पञ्चदशभागानावृणोति / ततःशुक्लपक्षे प्रतिपदि पञ्चदशभागान् अनावृतान् करोति, तदा च सर्वाऽऽत्मना परिपूर्ण चन्द्रमण्डल लोके प्रकटं भवति। उक्तं च-"कइविहेणं भंते ! राहू पन्नते? गोयमा ! दुविहे राहू पन्नत्ते / तं जहा-धुवराहू य, पव्यराहू य। तत्थ णं जे से धुवराहू, सेणं बहुलस्स पक्खस्स पाडिवए पन्नरसतिभागेण पन्नरसभागं चंदलोगमावरमाणे आवरमाणे चिट्ठइ / तं जहा-पढमाए पढम भाग, विइयाए विइयं भागंजाव पन्नरसेसु पन्नरसं भागं / चरमसमए चंदे रत्ते भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते वा विरत्ते वा भवइ, तं चेव सुझपक्खस्स उवदं सेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठा। तं जहा-पढमाए पढम भाग, विड्याए विइयभार्ग० जाव पन्नरसेसु पन्नरसं भाग।" इति। (भ० 12006 उ०) तत्रकालेण जेण हायइ, सोलसभागो य सा तिही होइ। तं चेव य वुड्डीए, एवं तिहिणो समुप्पत्ती।। यावता कालेन कृष्णपक्षे षोडशो भागो द्वाषष्टिभागः सचतुर्भागाऽऽत्मको हीयते हानिमुपगच्छति, स एतावान् कालविशेषस्तिथिर्भवति / तथा चैवं वृद्धयाऽपि तिथिर्भवति / किमुक्तं भवति?-यावता कालेन शुक्लपक्षे षोडशभाग प्रागुक्तक्रमेण परिवर्द्धते, तावत्प्रमाणः कालविशेष-- स्तिथिरिति अहोरात्रस्य द्वाषष्टिभागाः, तावत्प्रमाणा तिथिरित्यर्थः / एवंविधैर्भगवद्भिस्तीर्थकरगणधरैः समुत्पत्तिराख्याता। कियत्संख्याकास्तास्तिथय इति तत्सङ्घयानिरूपणार्थमुपप तिमाहजावइए परिहायइ, भागे बड्ड य आणुपुवीए।
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________________ तिहि 2326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिहि तावइया होति तिही,तेसिं नामाणि वोच्छामि। इह यावता कालेनैकश्चन्द्रमण्डलस्य षोडशो भागो द्वाषष्टिभागसत्कचतुर्भागाऽऽत्मकः परिहीयते, वर्द्धते वा, तावत् कालप्रमाणा एका तिथिरिति प्रागुपपादितम् / ततो यावतो भागान् चन्द्रमसो राहुविमानं कृष्णपक्षे हापयति, यावतश्च भागानानुक्रि मे ण शुक्लपक्षे परिवर्द्धयति, तावत् प्रमाणाः शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे च तिथयो भवन्ति। तत्र पञ्चदश भागान् कृष्णपक्षे हापयति, पञ्चदशैव भागान् शुक्लपक्षे परिवर्द्धयति; ततः पञ्चदश कृष्णपक्षे तिथयः, पञ्चदश शुक्लपक्षे च / सम्प्रति तासां तिथीनां नामानि वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपाडविग बिइय तइया, य चउत्थी पंचमी य छट्ठीय। सत्तमि अट्ठमि नवमी, दसमी एगारसी चेव / / बारसि तेरसि चाउद्दसीय निट्ठवणिगा य पन्नरसी। किण्हम्मि य जोण्हम्मि य, एसेव विही मुणेयव्वा / / कृष्णपक्षे प्रथमा तिथिः प्रतिपद्, द्वितीया द्वितीया, एवं यावन्निष्ठापनिका परिसमाप्तिकारिका पञ्चदशी, अमावस्या इत्यर्थः / ज्योत्स्न्येऽपि, पक्षे इत्यर्थः / एष एवानन्तरोदितो नाम्ना विधितियः। तद्यथा-प्रथमा प्रतिपत, द्वितीया द्वितीया, तृतीया तृतीया। एवं यावत् परिसमाप्तिकारिका पञ्चदशी, पौर्णमासी इत्यर्थः / इह विचित्रो विधिर्नाम्नामागर्म मासाऽऽदीनां तिथिपर्यन्तानामुक्तः, ततस्तिथिनाम्नां प्रस्तावाद् मासोऽपि विनेयजनानुग्रहार्थमुपवर्ण्यते-इह च एकैकस्मिन् संवत्सरे द्वादश मासाः, तेषां च नामधेयानि द्विविधानि / तद्यथालौकिकानि, लोकोत्तराणि च। तत्र लौकिकान्यमूनिः। तद्यथा-श्रावणः, भाद्रपदः, आश्वयुजः, कार्तिकः, मार्गशीर्षः,पौषः, माघः, फाल्गुनः, चैत्रः, वैशाखः,ज्येष्ठः, आषाढ इति। लोकोत्तराण्यमूनि / तद्यथा-प्रथमः श्रावणे अभिनन्दितः द्वितीयः प्रतिष्ठितः प्रतिपत्तव्यः, तृतीयो विजयः, चतुर्थः प्रीतिवर्द्धनः, पञ्चमः श्रेयान्, षष्ठः शिवः, सप्तमः शिशिरः, अष्टमो हेमवान्, नवमो वसन्तमासः, दशमः कुसुमसंभवः एकादशो निदाघः, द्वादशो वर्णविरोहः / तथा चोक्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौः-''एगमेगस्स णं भंते ! संवच्छरस्स कति मासा पन्नत्ता? गोयमा ! दुवालस मासा पन्नत्ता। तेसि णं दुविहा नामधिज्जा पन्नत्ता / तं जहा-लोइया, लोउत्तरिया य / तत्थ लोइया नामा इमे। तं जहा--सावणे, भद्दवएजाव आसाढे। लोगुत्तरिया नामा इमे। तं जहा"अभिणंदिते पइवे य, विजए पीइवड्णे। सेयंसे य सिवे चेव, सिसिरे य सहेमयं / / 1 / / नवमे वसंतमासे, दसमे कुसुमसंभवे। एकारसे निदाहे य, वण्णविरोहे य वारसमे।।२।।" (ज०७वक्ष०) एकैकस्मिश्च मासे द्वौ पक्षौ, तयोश्च नामधेये गुणनिष्पन्ने इमे। तद्यथाबहुलः पक्षः, शुक्लपक्षश्च / तत्र योऽन्धकारबहुलः पक्षः स बहुलपक्षः / यस्तु ज्योत्स्नाधवलिततया शुक्लः पक्षः स शुक्ल-पक्षः / उक्त च"एगमेगस्स ण भंते ! मासस्स कइ पक्खा पन्नत्ता? गोयमा ! दो पक्खा पण्णत्ता / तं जहा- बहुलपक्खेय, सुक्कपक्खेयं ।"(ज० ७वक्ष०) एकैकस्मिश्च पक्षे पञ्चदश दिवसाः / तद्यथा-प्रथमः पूर्वाङ्गो, द्वितीयः सिद्धमनोरमः, तृतीयो मनोहरः, चतुर्थो यथोभद्रः, पञ्चमो यशोधरः, षष्ठः सर्वकामसमृद्धः, सप्तम इन्द्रमूर्द्धाभिषक्तः, अष्टमः सौमनसः, नवमो धनञ्जयः दशमोऽर्थसिद्धः, एकादशोऽभिजातः, द्वादशोऽव्यसनः, त्रयोदशः शतञ्जयः, चतुर्दशोऽग्निवेश्म, पञ्चदश उपशमः / तथा चोक्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ-"एगमेगस्सणं भंते ! पक्खस्स कइ दिवसा पन्नत्ता? गोयमा ! पन्नरस दिवसा पन्नत्ता / तं जहा-पडिवादिवसे, विइयादिवसे० जाव पन्नरसीदिवसे। एएसिणं भंते ! पन्नरसण्हं दिवसाणं कइ नामधिज्जा पन्नत्ता? गोयमा !पण्णरस नामधेजा पण्णत्ता। तं जहा"पुव्वंगे 1 सिद्धमणो-रमे अ२ तत्तो मणोहरे चेव 3 / जसभढे य 4 जसहरे 5, छठे सव्यकामसमिद्धेय 6 // 1 // इंदमुद्धाभिसित्ते य 7, सोमणस पधणंजए य बोधव्वे / अत्था सिद्धे 10 अभिजाए 11, अव्वसणे 12 सयंजए चेव 13 / 2 / अग्गिवसे 14 उवसमे 15, दिवसाणं नामधिज्जाई।" (जं०७ वक्ष०) एकैकस्मिश्च पक्षे पञ्चदश रात्रयः / तद्यथा-प्रतिपत् रात्रिः,द्वितीयारात्रिः, यावत्पञ्चदशीरात्रिः / तासां च रात्रीणां क्रमेणामूनि नामानि / तद्यथा-प्रथमा उत्तमा, द्वितीया सुनक्षत्रा, तृतीया ऐलापत्या, चतुर्थी यशोधरा, पञ्चमी सौमनसा, षष्ठी श्रीसम्भूता, सप्तमी विजया, अष्टमी वैजयन्ती, नवमी जयन्ती,दशमी अपराजिता,एकादशी इच्छा,द्वादशी समाहारा, त्रयोदशी तेजाः,चतुर्दशी अतितेजाः, पञ्चदशी देवानन्दा / तथा चोक्तम्-''एगमेगस्स णं भंते ! पक्खस्स कइ राईओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! पण्णरसराईओपण्णत्ताओ। तं जहा-पडिवाराई, वीयाराई-जाव पण्णरसीराई। एएसि णं भंते ! पण्णरसण्हं राईणं कइ नामधेजा पण्णत्ता? गोयमा ! पन्नरस नामधेजा पण्णत्ता। तं जहा"उत्तमा य सुनक्खत्ता, एलावच्चा जसोधरा। सोमणसा चेव तहा, सिरिसंभूया य बोधव्वा / / 1 / / विजया य वेजयंती. जयंति अपराजिया य इच्छा य। समाहारा चेव तहा, तेआ य तहाऽइतेया य॥२॥ देवाणंदा राई, रयणीए नामधिलाई।"(जं०७वक्ष०) एकैकस्मिश्च पक्षे पञ्चदश तिथयः / ताश्च द्विधा / तद्यथा-दिवसतिथयः, रात्रितिथयश्च। तत्र दिवसतिथीनाममूनि नामानि। तद्यथा-प्रथमा नन्दा, द्वितीया भद्रा, तृतीया जया, चतुर्थी तृच्छा, पञ्चमी पूर्णा / ततः पुनरपिषष्टी नन्दा, सप्तमी भद्रा,अष्टमी जया, नवमी तुच्छा, दशमी पूर्णा / ततः पुनरप्येकादशी नन्दा, द्वादशी भद्रा, त्रयोदशी जया, चतुर्दशी तुच्छा, पञ्चदशी पूर्णा / तथा चोक्तं चन्द्रप्रज्ञप्तौ- ''ता कहं ते तिहीओ आहिया ति वएजा? तत्थ खलु इमा दुविहा तिही पण्णत्ता / तं जहादिवसतिही, राइतिही य / ता कहते दिवसतिही आहिया ति वएज्जा? ता एगमेगस्स पक्खस्स पन्नरस दिवसतिही पण्णत्ता। तं जहा-"नंदे भद्दे जए तुच्छे, पुण्णे पक्खस्स पंचमी। पुणरवि नंदे भद्दे जए तुच्छे, पुण्णे पक्खस्स दस्समी।।१।। पुणरविनंदे भद्दे जए तुच्छे, पुण्णे पक्खस्स पण्णरसी। एवं तिगुणा तिगुणा, तिहीउ सव्वेसि दिवसाणं // 2 // " (च०प्र०१०पाहु०) यास्तु रात्रितिथयस्तासामेतानि नामानि / तद्यथा-प्रथमा उगवती, द्वितीया भोगवती, तृतीया यशोमती, चतुर्थी सर्वसिद्धा, पशमी शुभनामा / पुनरपि षष्ठी उग्रवती,सप्तमी भोगवती,
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________________ तिहि 2330 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तिहि अष्टमी यशोमती, नवमी सर्वसिद्धा, दशमी शुभनामा / ततः अथ पञ्चदशतिथिफलमाह-- पुनरप्येकादशी उग्रवती, द्वादशी भोगवती, त्रयोदशी यशोमती, चतुर्दशी पडिवाए पडिवत्ती, नत्थि विवत्ती भणंति वीआए। सर्वसिद्धा, पञ्चदशी शुभनामेति / उक्तं च चन्द्रप्रज्ञप्तावेव-- "ता कह ते तइयाएँ अत्थसिद्धी, विजयग्गी पंचमी भणिया // 4 // राइतिही आहियत्ति वएजा? ता एगमेगस्सणं पक्खस्स पन्नरस राइतिही जा एस सत्तमी सा, उ बहुगुणा इत्थ संसओ नत्थि। पण्णत्ता / तं जहा-''उग्गवई भोगवई, जसोवई सव्वसिद्ध सुहनामा " दसमी' पत्थियाणं, भवंति निक्कंटया पंथा // 5 // पुणरवि-''उग्गवई भोगवई, जसोवई सव्वसिद्ध सुहनामा।"पुणरवि आरुग्गमविग्धं खे-मयं च इक्कारसिं वियाणाहि। "उग्गवई भोगवई, जसोवई सव्वसिद्धसुहनामा। एवं तिगुणा एया, तिहीउ सव्वासि राईणं'' ||1|| इति। (चं०प्र०१पाहु०) तदेवमुक्तानि तिथीनां जे विहु हंति अमित्ता, ते तेरसिपट्ठिओ जिणइ॥६॥ नामानि, प्रसङ्गतो मासदिवसरात्रीणामपि। चाउसि पन्नरसिं, वजिज्जा अट्ठमिं च नवमिं च / संप्रति यावद् मुहूर्तप्रमाणा तिथिस्तावत्प्रमाणां तिथि छद्धिं च चउत्थिं वारसिं च दुन्हें पिपक्खाणं / / 7 / / प्रतिपादयति पढमी पंचमि दसमी-पन्नरसिकारसी वि य तहेव। एउणतीसं पुण्णा, उ मुहुत्ता सोमतो तिही होइ। एएसु य दिवसेसुं, सेहस्स निफेडणं कुज्जा / / 8 / / भागा वि य बत्तीस, वासढिकरण छेएणं / / नंदा भद्दा विजया, तुच्छा पुन्ना य पंचमी होइ। सोमतश्चन्द्रमस उपजायते तिथिः, सा च तत उपजायमाना एको मासेण य छच्चारे, इक्किक्का वत्तए नियए|६|| नत्रिंशत्परिपूर्णमुहूर्ता, एकस्य मुहूर्तस्य द्वाषष्टिकृतेन छेदेन प्रविभक्तस्य नंदे जए य पुन्ने य, सेहनिक्खमणं करे। भक्त्वा द्वात्रिंशद् भागाः। तथाहि-अहोरात्रस्य द्वाषष्टिभागीकृतस्य सत्का नंदे भद्दे सुभद्दाए, पुन्ने अणसणं करे / / 10 / / द०प०। ये एकषष्टिभागाः, तावत्प्रमाणा तिथिरित्युक्तम् / तत्रैकषष्टिरित्रंशता धर्मकर्माऽऽदिषु तिथिरुदया तिथिरेव ग्राह्यागुण्यते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि 1830 / एते च किल तिथि प्रातः प्रत्याख्यानवेलाया या स्यात्सा प्रमाणम, सूर्यों - द्वाषष्टिभागीकृतसकलतिथिगतमुहूर्तसत्का अंशाः, ततो मुहूर्ताऽऽन दयानुसारेणव लोकेऽपि दिवसाऽऽदिव्यवहारात्। आहुरपियनार्थं तेषु द्वाषष्ट्या भागो हियते, हृते च भागे लब्धा एकोनत्रिशन्मुहूर्ताः, "चाउम्मासिअवरिसे, पक्खिअपंचऽट्टमीसु नायव्या। द्वात्रिंशच द्वाषष्टि-भागा मुहूर्तस्य। एतावन्मुहूर्तप्रमाणां तिथिः। एतावता ताओ तिहिओ जासिं, उदेइ सूरो न अण्णाओ / / 1 / / हि कालेन चन्द्रमण्डलगतः पूर्वोदितप्रमाणः षोडशो भागो हानि पूआ पणवखाणं, पडिकमणं तह य निअमगहणं च। चोपगच्छति, वर्द्धतेवा,तत एतावानेव तिथेः परिमाणकालः। (चं०प्र०१० पाहु०) जीर उदेइ सूरो, तीऐं तिहीए उ कायव्वं // 2 // साम्प्रतमीप्सितदिने तिथिपरिमाणज्ञापनार्थ करणमाह उदयाम्न जा तिही सा, पमाणमिअराएँ कीरमाणीए। तिहिरासिमेव वाव-ट्ठीभइयं सेसमेगसद्विगुणं / आणाभंगडणवत्था, मिच्छत्तविराहणं पावे" / 3 / / पारासरस्मत्यादावपिबावट्ठीए भइए, सेसे अंसा तिहिसमत्ती।। 'त्योदयवेलाया, या स्तोकाऽपि तिथिर्भवेत्। ईप्सिततिथिराशिद्वाषष्ट्या भागैः परिपूर्णरहोरात्रा भवन्ति, ततः परिपूर्णाहोरात्रपातनाथ द्वाषष्ट्या विभागः क्रियते , विभागे च कृते सा संपणे ति मन्तव्या, प्रभूता नोदयं विना" ||1|| यच्छेषमुपलभ्यते तदेकषष्टिगुणं क्रियते, एकैकस्यास्तिथेषष्टि उमास्वातिवाचकप्रघोषश्चैवं श्रूयते-- भागीकृताहोरात्रसप्तैकषष्टिभागप्रमाणत्वात्। कृत्वा चैकषष्टिगुणं द्वाषष्ट्या "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या, वृद्धौ कार्या तथोत्तरा। विभज्यते, द्वाषष्ट्या भागैः परिपूर्णस्याहोरात्रस्य पतनाद्वाषष्ट्या च भागे श्रीवीरमोक्षकल्याणं, कार्य लोकानुगैरिह" / / 1 / / इति। कृते ये अंशाः राशेः पञ्चादवतिष्ठन्ते, सा तिथि-परिसमाप्तिः, तावदश- एवं पांपधाऽऽदिना पर्वदिवसा आराध्या इति पर्वकृत्यानि धि०२ प्रमाणे तस्मिन् दिने तिथिरित्यर्थः / यथा-वा कोऽपि पृच्छति-द्वाषष्ट्या अधि०ा द्वितीयाऽऽदिपञ्चपर्वी श्राद्धविध्यादिस्वीयग्रन्थातिरिक्तग्रन्थे च भागे कृतेऽपि युगे प्रथमे चान्द्रे संवत्सरे आश्वयुजमासे, शुक्लपक्षे कास्ति? इति प्रश्ने, उत्तरम्-द्वितीयाऽऽदिपश्चपा उपादेयत्वं पञ्चमी कियत्प्रमाणेति? तत्र किल तिथिः तावदेशप्रमाणा, तस्मिन् दिने सविनय तार्थाऽऽचीर्णतया संभाव्यते, अक्षराणि तु श्राद्धविधेरन्यत्र दृष्टानि तिथिरित्यर्थः / राशि-रादित आरभ्य पञ्चमीपर्यवसानोऽशीतिसंख्या न स्मरन्तिा१५प्र०ा "मासम्मि पव्वछक्क, तिनि अपध्वाइँ पक्खम्मि।" इत्यशीतिधियते, तस्या द्वाषष्ट्या भागो हिहयते, स्थिताः पश्चादष्टादश, इतिगायशक्ता चतुः पर्वी सर्वश्राद्धानां, किं वा लेपश्राद्धाधिकारवर्णिता? ते एकषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि दश शतानि अष्टानवत्यधिकानि 1065 / इति प्रश्ने, उत्तरम-"मासम्मि पव्वछक्क, तिन्निय पव्वाइँ पक्खम्मि।" तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, स्थिताः पश्चात् चतुश्चत्वारिंशदंशाः, आग-. इति गावातैव चतुःपर्वी सर्वश्राद्धानां सम्भाव्यते, न तु लेपश्राद्धाधितमेतावदेव षष्टिभागप्रमाणा तस्मिन दिने पञ्चमी तिथिः / एवमन्यत्रापि कारोक्ता / 16 प्र०ा ही०२ प्रका०। यदा पञ्चमी तिथिस्त्रुटिता भवति भावनीयम् / (?) ज्यो०४पाहु०। चं०प्र०। सू०प्र०ाव्य०। आ० म०। तदा तपः कस्यां तिथौ क्रियते? पूर्णिमायां च त्रुटितायां कुत्र? इति आ००। (कालतो ये दिवसा वर्जनीयास्ते 'आलोयणा' शब्दे प्रश्रे, उरम्-यदाऽत्र पञ्चमी तिथिस्त्रुटिता भवति, तदा तत्तपः पूर्वस्यां द्वितीयभागे 420 पृष्ठे दर्शिताः) दिवसेभ्यस्तिथयो बलिष्ठाः तिथौ क्रियते, पूर्णिमाया च त्रुटितायां त्रयोदशीचतुर्दश्योः क्रियते, "दिवसा उ तिही बलिओ, तिहिओवलियं तु सुचई रिक्खें।" द०५०।। त्रयोदश्यां विस्मृतौ प्रतिपद्यपीति / 5 प्र०ा ही०४ प्रका०। महा
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________________ तिहि 2331 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तीसल्लनिस्सल्ल विहेषु कल्याणकतिथ्यादिकमिदमेव, अन्यद्वा? इति प्रश्ने, उत्त-रम- | स्था०४ ठा०१उ०। प्रवाहात्परकूले, विशे०"दकतीरम्मि चिट्ठित्तए।" महाविदेहेषु कल्याणकतिथ्यादिकमिदमेवेति न सम्भाव्यते, यदाऽवत्य- उदकतीरं उदकोष्कण्टम्। बृ०१ उ०। तीर्थकृतां च्यवनाऽऽदिकल्याणक, तदा तत्र दिवससद्भावात. तत् *शक् धा० / सामथ्र्ये / स्वादि०-पर०-अकo-अनिट्। "शकेश्चयप्रतिपादकान्यक्षराण्यपि नोपलभ्यन्तो। १७प्र०ा ही०१ प्रका०। तिस्र तर--तीर-पाराः" |4|16|| इति शक्नोतेस्तीर इत्यादेशः / एव पूर्णिमाः पर्वत्वेन संगीर्यते, सर्वा अपि वेत्यत्र प्रश्रे, उत्तरम्.--''छन्नं | 'तीरइ।' शक्नोति / प्रा०४ पाद। तिहीण मज्झम्मि, का तिही अज्ज वासरे?" इत्याद्यागमानुसारेणाऽवि- त धा० / तरणे, प्लवने, अभिभवे च / भ्वादि०-पर०-सकल- सेट् / च्छिन्नवृद्धपरम्परया च सर्वा अपि पूर्णिमाः पर्वत्वेन मान्या एवेति। 2 प्र० "हृ-कृ-तृ-जामीरः" ||250 / 1 इति तृधातोरन्त्यस्य ईर ही०१ प्रका०। पूर्णिमाऽमावास्ययोवृद्धी पूर्वमौदयिकी तिथिराराध्यत्वेन इत्यादेशः। 'तीरइ'1 तरति। प्रा०४ पाद। व्यवह्यिमाणाऽस्तीति केनचिदुक्तम् श्रीतातपादाः पूर्वतनीमाराध्यत्वेन तीरंगम त्रि०(तीरङ्गम) तीरं गच्छन्तीति तीरङ्गमाः, खच, मुमा-गमाश्च / प्रसादयन्ति, तत्किमिति प्रश्रे, उत्तरम्-पूर्णिमाऽमावास्ययोवृद्धौ पारगामिनि, आचा०१ श्रु०२ अ०३उ०। औदयिक्येव तिथिराराध्यत्वेन विज्ञेया। 5 प्र०ा ही०३ प्रका०। 'छन्नं तीरट्ठ त्रि०(तिरस्थ) सम्यक्त्वाऽऽदिप्राप्तेः संसारपरिमाणात् तटस्थे, तिहीण मज्झम्मि, का तिही अज्ज वासरे?" इत्याद्यागमवाक्यम्, तत्कु दश०२ अ०॥ वाऽऽममेऽस्ति, स नामग्राहं प्रसाद्यः, यतोऽत्र स्तनिकाः राजसमक्षमेव तीरट्ठि(ण) त्रि०(तिरार्थिन्) तीरं पारं भवार्णवस्यार्थयत इत्येवंवदन्ति, यजैनजीर्णग्रन्थमध्ये द्वितीयैकादशीप्रमुखतिथीना चतुःपींना शीलरतीरार्थी, तीरस्थायी वा,तीरस्थितिरितिवा प्राकृतत्वात् 'तीरट्टी' मानमाराध्यत्येन नास्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-"छन्नं तिहीण मज्झम्मि, | इति। स्था४ ठा०१ उ०। सूत्र०ा भवार्णवतेतीर्षों, दश० 10 अ०॥ का तिही अज्ज वासरे?" इत्यादि गाथा श्राद्धदिनकृत्यसूत्रेऽस्ति, तीरहुत्त पुं०(तीरभुक्त) विदेहजनपदेषु, "इहेब भारहे वासे पुव्वदेसे विदेहो तद्व्याख्यानं च 8-14-15 एताः सितेतरभेदात् षट् तिथय इति / नाम जणवओ, संपइकाले तिरहुत्तदेसो त्ति भण्णति।" ती०१ कल्प। द्वितीयकादशीप्रमुखतिथीनामक्षराणि तु श्राद्धविधेरन्यत्र न सन्ति, तथा तीरित्ता अव्य०(तारयित्वा) यावज्जीवमाराध्येत्यर्थे, कल्प०६ क्षण। ज्ञानपञ्चम्यक्षराणि महानिशीथे सन्तीति। 180 प्र० सेन०३ उल्ला०। "बहुसु य तिहीसु य पव्वणीसु य।' मदनाऽऽदित्रयोदश्यादितिथिषु, तीरिय त्रि०(तारित) पूर्णेऽपि प्रत्याख्यानकालावधौ किञ्चिदधिभ०६ श०३३ उ०। ककालावस्थानेन तीरं नीते, प्रव०५ द्वार। आचा०। 'एता भिक्खुपडिमा तिहिड्डि स्त्री०(तिथिवृद्धि) अष्टम्यादितिथिवृद्धी अग्रेतन्या आराधनं तीरिया भवइ।'' पूर्णेऽपि तदवधौ स्तोककालावस्थानात्तीरिता भवति / क्रियते, यतस्तहिने प्रत्याख्यानवेलायां घटिकाद्विका सा भवति, तावत्या दर्श०१ तत्त्व। आoचू० / समाप्ते, व्य०१ उ०। एवाऽऽराधनं भवति, तदुपरि नवम्यादीनां भवनात्, संपूर्णायास्तु विराधनं तीसइमुहुत्त त्रि०(त्रिंशन्मुहूर्त) त्रिंशतं मुहूर्ताश्चन्द्रभागो येषां तानि तथा जातं. पूर्वदिने भवनात्। अथ यदि प्रत्याख्यानवेलायां विलोक्यते, तदा / त्रिंशन्भुहूर्तानि यावचन्द्रेण सह युज्यमाननक्षत्रे, स्था०६ ठा०। तु पूर्वदिने द्वितयमप्यस्ति, प्रत्याख्यानवेलायां समग्रदिनेऽपीति तीसगुत्त पुं०(तिष्यगुप्त) राजगृहनगरवास्तव्यस्य वसुनामाऽऽचार्यस्य स्पष्टमाराधनं भवतीति प्रश्रे, उत्तरम्-"क्षये पूर्वा तिथिः कार्या, वृद्धौ स्वनामख्याते शिष्ये, स च जीवप्रादेशिकानां निवानां धर्माऽऽचार्यः। कार्या तथोत्तरा।" इति उमास्वातिवाचकवचनप्रामाण्याद् वृद्धौ सत्या विशे०। आ०क०। उत्ता स्था०ा आ०म०ा आ० चूना (तद्वक्तव्यता लेशतो स्वल्पाऽप्यग्रेतना तिथिः प्रमाणमिति। 185 प्र०। सेन०३ उल्ला 'जीवपएसिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1554 पृष्ठे उक्ता) तिही स्त्री० (तिथी) 'तिहि शब्दार्थ , चं०प्र० 10 पाहुन तीसभद्द पुं०(तिष्यभद्र) माठरसगोत्रस्याऽऽर्यसंभूतविजयस्थविरस्य स्वनामख्याते शिष्ये, कल्प०८ क्षण। तिहु अव्य०(कुतस्) "कुतसः कउ कहं तिहु" ||84416|| इत्यपभ्रंशे तीसल्लनिस्सल्ल त्रि०(त्रिशल्यनिःशल्य) मायानिदानमिथ्यादकुतःशब्दस्य तिहु' इत्यादेशः / करमादित्यर्थे , प्रा०४ पाद। निरूपशल्यत्रयरहिते, पाग तिहुयण न०(त्रिभुवन) अधस्तिर्यगूर्ध्वलोकभेदे, आव०४ अ०1 ...........तीसल्लनिस्सल्लो (23) तिहुयणतिलग पुं०(त्रिभुवनतिलक) श्रीनासिक्यपुरे श्रीजीवित शल्यते बाध्यते प्राणी एभिरिति शल्यानि। द्रव्यतस्तोमराऽऽ-दीनि, चन्द्रप्रभस्वामिप्रतिमायाम्, ती०४३ कल्प। भावतस्तु मायाऽऽदीनि / निर्गतानि शल्यानि यस्य स निःशल्यः / स तिहुयणभाणु पुं०(त्रिभुवनभानु) अहिच्छत्रापूजितायां स्वनाम चैकशल्यापेक्षयाऽपि स्यादित्याह-त्रीणि च तानि शल्यानि च ख्यातायां पार्श्वजिनप्रतिमायाम, ती० 43 कल्प। त्रिशल्यानि, तेषु विषये निःशल्यः त्रिशल्यनिः शल्यः। तत्र मायाशल्यम्तीय त्रि०(अतीत) अतिशयेन इतो गतोऽतीतः, पिधानवदकारलोपः / माया निकृतिः, सेव शल्यं मायाशल्यम्। नितरादायतेलूयतेमोक्षफलमवर्तमानत्वमतिक्रान्ते, स्था०३ ठा०४ उ०। षो०। आव०। निन्धब्रह्मचर्याऽऽदिसाध्यकुशलकर्मकल्पतरावनमनेन देवादिप्रातीयवयण न०(अतीतवचन) कृतवानित्येवंख्येषोडशवचनेषुद्वादशेवचने, र्थनपरिणामनिशितासिनेति निदानं, तदेव शल्यं निदानशल्यम् / आचा० 2 श्रु०१ चू०१ अ०१ उ०। मिथ्यादर्शनशल्यम्-मिथ्या विपरीतं, दर्शनं तत्त्वानवबोधलक्षणं तीर पुं०(तीर) पर्यन्ते, नि०यू० 1 उ०ा तटे, सूत्र०१ श्रु० 1 अ० पारे, | मिथ्यादर्शन, तदेव शल्यं मिथ्यादर्शन–शल्यमिति। (23) पा०
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________________ तीसा 2332 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तुंगिया तीसा स्त्री०(त्रिंशत) "विंशत्यादेर्लुक्" / 1 / 28 // इत्यनुस्वा-रस्य लुक् / प्रा०१ पाद। "ईर्जिहासिंहत्रिंशदिशती त्या" ||12|| इति इकारस्येकारः। त्रिरावृत्तदशसंख्यायाम, प्रा०१ पाद। तीसिया स्त्री० (त्रिंशिका) त्रिंशद्वर्षपर्यायायां स्त्रियाम्, व्य०७ उ०। तु अव्य०(तु) समुद्यये, विशे०नि०चू०। दर्श०। अवधारणे, विशे० उत्त०। सूत्रा दश प्रव० आ०म०नि०चूला पञ्चा०ा विशेषणे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२०। आचा०ा वितर्के, सूत्र०२ श्रु०४अ०। आवा पञ्चा०। पूरणे, स्था०४ ठा०२ उ०ा नि०चू०। पञ्चा०। पादपूरणे, पञ्चा०४ विव०ा नि०चूत। पुनःशब्दार्थे, आचा०१ श्रु०५ अ०१उ०। दशा पूर्वस्माद्विशेषदर्शने, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२०ा एवकारार्थे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२301 70 / अने०। दर्शा दशा नंगा आ०म० स्था०। अप्यर्थे, दर्श०१ तत्त्व। यस्मादर्थे, नि०चू०१ उ०। चशब्दार्थे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। शब्दार्थप्रदर्शने, नि० चू० 15 उ०। भेद, "तुः स्याद्भदेऽवधारणे।'' स्या०। आ०म०। भिन्नक्रमे , प्रव०४ द्वार / अव्ययत्वेनाऽनेकार्थत्वाद् हेती, व्य० 1 उ०। कारणापेक्षायाम, नि०चू०१ उ० तुशब्दो यच्छब्दार्थ द्रष्टव्यः। "तेणं तु चित्तमचित्तं / '' तेणं जं तं चित्तमचित्तेत्यर्थः / नि० चू०१ उ०। विकल्पदर्शनि, नि०चू०१ उ०ा परिग्रहे, नि०चू०१ उ०। सादृश्ये, स्या०। अप्रतिषेधे, स्तोकप्रायश्चित्तप्रदानविशेषे, नि० चू० १उ०। अनेकप्रकारविशेषणे, दश०४ अ० पर्याप्तिवचने, आचा०१ श्रु० ११०६उ०। तुअर पुं०(तुवर) धान्यविशेषे, जं०१ वक्ष०ा कषायरसे च। तद्वति, त्रिका आढक्यां, सौराष्ट्रमृत्तिकायां च / स्त्रीला षित्वान् डीए / स्वार्थे कन्। तुवरिकाऽप्यत्रैव। वाचा तुं त्रि०(त्वाम्) "तं-तुं-तुम-तुवं-०||८३६२।। इत्यादिनाऽ मासहितस्य युष्मदः 'तु' इत्यादेशः। प्रा०३ पाद। तव त्रि० / "तइ-तुं-ते-तुम्हं०-" ||366|| इत्यादिना षष्ट्येकवचनेन डसा सहितस्य 'तुं' इत्यादेशः। प्रा०३ पाद! त्वम् त्रिका "युष्मदस्तं तुं०-"||८|३।६०| इत्यादिना सिसहि-तस्य युष्मदः 'तुं' इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। तुंग त्रि०(तुड़) उचैस्त्वगुणयुक्ते, साजा औ०जी० कल्प०। सू०प्र०) उन्नते, औ०। अत्युचे, राम तुंगार पुं०(तुङ्गार) दक्षिणपूर्वस्या दिग्वाते, आ०म०१ अ०१ खण्ड! आ००। तुंडिय पुं०(तुङ्गिक) वत्सदेशान्तर्गत स्वनामख्याते ग्रामे, आ० म०१ अ०२ खण्ड। आ०चूला "जसभई तुगियं चेव।" तुङ्गिकगणे तुङ्गिकापत्यगोत्रे, नंग तुंगिया स्त्री०(तुङ्गि का) स्वनामख्यातायां नगर्याम्, भ०। तुङ्गिकानगरीश्रावकसमुदायवान् दृष्टान्तश्चैवम्तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे | पुप्फवईए नाम चेइए होत्था।वण्णओ। तत्थणं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति, अवा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवणसयणाऽऽसणजाणवाहणाऽऽइण्णा बहुधणबहुजायरू वरयया आओगपओगसंपत्ता विच्छड्डियविउल भत्तपाणा बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसवसंवरनिज्जरकिरियाहिगरणबंधप्पमोक्खकुसला असहेजदेवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिण्णरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगादीएहिं देवगणे हिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिञ्जा निग्गंथे पावयणे निस्संकिया निक्कं खिया निटिवतिगिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा अद्विमिंजपेम्माणुरायरत्ता अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अडे, अयं परमढे, से से अणटे, ऊसियफ लिहा अवंगुयदुवारा चियत्तंतेउरपरघरप्पवेसा बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहोववासेहिं चाउद्दसट्ठमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्ममणुपालेमाणा समणे णिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपरिग्गहकंबलपायपुंछणेणं पीठफलगसेज्जासंथारएणं ओसहभेसजेणं पडिलाभेमाणा अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणा विहरंति / तेणं कालेणं तेणं समएणं पासवचिज्जाथेरा भगवंतोजाइसंपण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रू वसंपण्णा विणयसंपण्णा णाणसं-पण्णा दंसणसंपण्णा चरित्तसंपण्णा लजालाघवसंपण्णा ओयं-सी तेयंसी वचंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा जियइंदिया जियपरीसहा जीवियासामरणभयसोगविप्पमुक्का बहुस्सुया बहुपरिवारा पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा अहाणुपुट्विं चरमाणा गामाणुग्गाम दूइज्जमाणां सुहं सुहेणं विहरमाणा जेणेव तुंगिया नयरी, जेणेव पुप्फवईए चेइए, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हेत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति॥ (अड्डत्ति) आन्या धनधान्याऽऽदिभिः परिपूर्णाः, (दित्त त्ति) दीप्ताः प्रसिद्धाः, दृप्ता वा दर्पिताः (वित्थिण्णविपुलभवणसयणाऽऽसणजाणवाहणाऽऽइण्णा) विस्तीर्णानि विस्तारवन्ति विपुलानि प्रचुराणि भवनानि गृहाणि शयनाऽऽसनयानवाहनैराकीर्णानि येषां ते तथा। अथवा विस्तीर्णानि विपुलानि भवनानि येषां, शयनाऽऽसनयानवाहनानि वाऽऽकीण्णानि गुणवन्ति येषां ते तथा। तत्र यानं गन्त्र्यादि, वाहनत्वश्वाऽऽदि। (बहुधणबहुजायरूवरयया) बहु प्रभूतं धनं गणिमाऽऽदिक, तथा बहेवजातरूपसुवर्ण रजतंचरूप्यं येषां तेतथा।(आओगप-ओगसंपउत्ता) आयोगो द्विगुणाऽऽदिवृद्धयाऽर्थप्रदानं, प्रयोगश्च कलान्तरं, तौ संप्रयुक्ती व्यापारितौ यैस्ते तथा / (विच्छडियविउलभत्तपाणा)विच्छदित विविधमुज्झितं, बहुलोकभेःजनत उच्छिष्टो-वशेषसंभवात, विच्छर्दितं वा विविधविच्छित्तिमद्, विपुलं भक्तं च पानकंच येषांतेतथा। (बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूया)बहवो दासीदासा येषा, गोमहिषगवेलकाश्च प्रभूता येषां ते तथा / गवेलका उरभ्राः (बहु-जणस्स अपरिभूया) बहोर्लोकस्यापरिभवनीयाः, "आसव' इत्यादौ क्रिया : कायिक्यादिका अधि
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________________ तुंगिया 2333 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग! तुंगिया करणं गन्त्रीयन्त्रकाऽऽदि / (कुसल त्ति) आश्रवाऽऽदीनां हेयोपा-- | (पडि पुन्नं पोसह ति) आहाराऽऽदिभेदाच्चतुर्विधमपि सर्वतः। देयतास्वरूपवेदिनः (असहेजेत्यादि) अविद्यमान साहाय्यं परसा- (वत्थपरिग्गहकंबलपायपुंछणेणं ति)। इह पतद्ग्रहः पात्रं, पाद-प्रोञ्छनं, हायिकमत्यन्तसमर्थत्वाद्येषां ते असाहाय्याः, ते च ते देवाऽऽदयश्चेति रजोहरणं, पीठमासनं, फलकमवष्टम्भनफलकं, शय्या वसतिबृहत्संकर्मधारयः / अथवा-व्यस्तमेवेदं, तेन असाहाय्या आपद्यपि स्तारको वा,संस्तारको लघुतरः / एषां समाहारद्वन्द्वोऽतस्तेन / देवाऽऽदिसाहाय्यकानपेक्षाः, स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यदीन- (अहापरिग्गहिएहिं ति) यथाप्रतिपन्नैर्न पुनर्वास नीतैः (थेरे त्ति) मनोवृत्तय इत्यर्थः / अथवा पाखण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यक्त्वविचलनं श्रुतवृद्धाः / (रूवसंपन्न त्ति) इह रूपं सुविहितनेपथ्यं, शरीरसुन्दरता प्रति न परसाहायकमपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रति-घातसमर्थत्वाजिन- वा, तेन सम्पन्ना युक्ता रूपसम्पन्नाः / (लज्जालाघवसंपन्न त्ति) लज्जा शासनात्यन्तभावितत्वाचे ति, तत्र देवा वैमानिकाः (असुरत्ति प्रसिद्धा, संयमो वा, लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं, भावतो गौरवत्यागः। असुरकुमाराः (नाग त्ति) नागकुमाराः, उभयेऽप्यमी भवनपतिविशेषाः (ओयंसी ति) ओजस्विनो मानसावष्टम्भयुक्ताः। (तेयसी ति) तेजस्विनः (सुवण्ण ति) सद्वर्णा ज्योतिष्काः, यक्षराक्षस--किन्नर किंपुरुषा शरीरप्रभायुक्ताः / (वचंसी ति) वर्चस्विनो विशिष्ट प्रभावोपेताः, व्यन्तरविशेषाः (गरुल त्ति) गरुडवजाः सुपर्ण--कुमारा भवनपतिविशेषाः, वचःस्विनो वा विशिष्टवचनयुक्ताः। (जसंसी ति) ख्यातिमन्तः / गन्धर्वा महोरगाश्च व्यन्तरविशेषाः / (अणतिक्कमणिज ति) अनति- अनुस्वारश्चैतेषु प्राकृतत्वात्। (जीवि-यासामरणभयसोगविप्पमुक्कत्ति) क्रमणीया अचालनीयाः (लट्ट ति) अर्थश्रवणात् / (गहियट्ट त्ति ) जीविताऽऽशया, मरणभयेन च विप्रभुक्ता ये ते तथा / इह (?) अर्थावधारणात्। (पुच्छियह त्ति) सांशयिकार्थप्रश्नकरणात्। (अभिगयट्ठ यावत्करणादिदं दृश्यम्- "तवप्पहाणा गुणप्पहाणा।'' गुणाश्च संयमत्ति) प्रश्नितार्थस्याभिगमनात्। (विणिच्छियह त्ति) ऐदम्पर्यार्थस्योप- गुणाः, तपःसंयमग्रहण चेह तपःसंयमयोः प्रधानमोक्षाङ्गताऽभिधानार्थम्। लम्भात्। अत एव-(अडिमिंजपेम्माणुरागरत्ता) अस्थीनि च कीकसानि, तथा-''करणप्पहाणा चरणप्पहाणा' तत्र करणं पिण्डविशुद्धयादि, चरणं मिजा च तन्मध्यवर्ती धातुरस्थिमिज्जास्ताःप्रेमानुरागेण सार्वज्ञ- व्रतश्रमणधर्माऽऽदि / चरणं व्रतश्रमणधर्माऽऽदि / (निग्गहप्पहाणा ) प्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भाऽऽदिरागेण रक्ता इव रक्ता येषां ते तथा। अथवा- निग्रहोऽन्यायकारिणां दण्डः, (निच्छयप्पहाणा) निश्चयोऽवश्यङ्करणाअस्थिमिजासु जिनशासनगतप्रेमानुरागेण रक्ता ये ते तथा / भ्युपगमः, तत्त्वनिर्णयो वा। (मद्दवप्पहाणा अजवप्पहाणा) ननु जितकेनोल्लेखेनेत्याह-(अयमाउसो! इत्यादि) अयमिति प्राकृतत्वादिदम् / क्रोधाऽऽदित्वान्मार्दवाऽऽदिप्रधानत्वमवगम्यत एव तत्कि मार्दवे(आउसो ! त्ति) आयुष्मन्निति पुत्राऽऽदेशमन्त्रणम् / (सेसे त्ति) त्यादिना? उच्यते-तत्रोदयविफलतोक्ता, मार्दवाऽदिप्रधानत्वे तूदयाभाव शेषनिर्ग्रन्थप्रवचनव्यतिरिक्त धनधान्यपुत्रकलत्रमित्रकुप्रवचनाऽऽदि- एवेति / (लाघवप्पहाणा) लाघवं क्रियासु दक्षत्वम् / (खंतिप्पहाणा कमिति। (ऊसियफलिह त्ति) उच्छ्रितमुन्नतं स्फटिकमिव स्फटिक चित्तं मुत्तिप्पहाणा) (एवं विजामंत वेयबंभनयनियमस–चसोयप्पहाणा येषां ते उच्छ्रितस्फटिकाः, मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमानसा चारुप्पन्ना) सत्प्रज्ञाः (सोही) शुद्धिहेतुत्वेन शोधयः, सुहृदो वा मित्राणि, इत्यर्थः / इति वृद्धव्याख्या। अन्ये त्वाहुः-उत्थितोऽर्गलास्थानादप- जीवानामिति गम्यम्। (अणियाणा अप्पुस्सुया अवहिलेस्सा सुसामन्नरया नीयोर्कीकृतोऽतिरश्चीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः / परिघोऽर्गला अच्छिदपसिणवागरण ति) अच्छिद्राण्यविरलानि निर्दूषणानि वा येषां ते उच्छ्रितपरिघाः। अथवा-उच्छ्रितोगृहद्वारादपगतः परिधो येषां ते प्रश्नव्याकरणानि येषां ते तथा। (कुत्तियावणभूय ति) कुत्रिक उच्छ्रितपरिधाः / औदार्यातिशयादतिशयदानदायित्वने भिक्षुकाणां स्वर्गमर्त्यपाताललक्षण भूमित्रयं, तत्सम्भवं वस्त्वपि कुत्रिकं, तत्सम्पादक गृहप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वारा इत्यर्थः / / (अवंगुयदुवारे त्ति) अप्रावृत- आपणो हट्टः कुत्रिकाऽऽपणः, तद्भूताः समीहितार्थसम्पादनलब्धिद्वाराः, कपाटाऽऽदिभिरस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः / सद्दर्शनलाभेन न युक्तत्वेन सकलगुणोपेतत्वेन वा तदुपमाः। (सद्धिं ति) सार्द्ध सहेत्यर्थः / कुतोऽपि पाखण्डिकाद्विभ्यति, शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्धाटितशिरस- सम्परिवृताः सम्यक् परिवारिताः, परिकरभावेन परिकरिता इत्यर्थः / स्तिष्ठन्तीति भावः / इति वृद्धव्याख्या। अन्ये त्वाहुः-भिक्षुकप्रवेशार्थ- पञ्चभिः श्रमणशतैरेव। मौदार्यादस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः / / (चियत्तंतेउरपरघरप्पवेसा) (चियत्तो तए णं तुंगियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्कचचरचउम्मुहत्ति) लोकानां प्रीतिकर एवान्तःपुरे वा परगृहे वा प्रवेशो येषां ते तथा, महापहपहेसु०जाव एगदिसाभिमुहा णिज्जायंति, तए णं ते अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयास्त इत्यर्थः / अन्येत्याहुः-(चियत्तो समणोवासया इमीसे कहाए लट्ठा समाणा हट्ठतुट्ठा०जाव त्ति) नाऽप्रीतिकरोऽन्तः पुरपर गृहयोः प्रवेशः शिष्टजनप्रवेशनं येषां ते सद्दावें ति, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! तथा। अनीालुताप्रतिपादनपरं चेत्थं विशेषणमिति। अथवा-(चियत्तो पासावचेज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपण्णाजाव अहापडिरूवं त्ति) त्यक्ताऽन्तःपुरपरगृहयोः परकीययोर्यथाकथञ्चित्प्रवेशो यैस्ते तथा / उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाण भावेमाणा विहरंति। (बहूहिँ इत्यादि) शीलव्रता न्यणुव्रतानि, गुणा गुणव्रतानि, विरमणानि (सिंघाडग त्ति) शृङ्गाटकफलाऽऽकारं स्थानं, त्रिकं रथ्यात्रयमी औचित्येन रागाऽऽदि-निवृत्तयः, प्रत्याख्यानानि पौरुष्यादीनि, षौषधं लनस्थानम्, चतुष्क रथ्याचतुष्कमीलनस्थानम्, चत्वरं बहुतरपर्वदिनानुष्ठानं तत्रोपवासोऽवस्थानं पौषधोपवासः। एतेषां द्वन्द्वोऽतस्तै- रथ्यामीलनस्थानम्, महापथो राजमार्गः, पन्था रथ्यामात्रम् / युक्ता इति गम्यम्। पौषधोपवास इत्युक्तम्, पौषधं च यदा यथाविधं च ते यावत्करणात्-''बहुजणसद्देहिं वा'' इत्यादिपूर्वव्याख्यातमत्र दृश्यम्। कुर्वन्तो विहरन्ति तदर्शयन्नाह-(चाउद्दसेत्यादि) इहोद्दिष्टा अमावस्याः तं तहाफलं खलु देवाणुपिपया ! तहारूवाणंथेराणं भगवंता
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________________ तुंगिया 2334 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तुंवा णं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग ! पुण अभिगमणवंदण-- दृष्टिपाते / (एणत्तीकरणेणं ति) अनेकत्वस्यानेकाऽऽलम्बनत्वस्यैनमंसणपडिपुच्छणपञ्जुवासणयाए०जाव गहणयाए; तं गच्छामो कत्वकरणमेकालम्बनत्वकरणमेकत्वीकरणं, तेना (तिविहाए पज्जुवासणं देवाणुप्पिया ! थेरे भगवंते वंदामो, णमंसामो० जाव णाए त्ति) इह पर्युपासनात्रैविध्यं मनोवाक्कायभेदादिति। (महइमहालियाए पज्जुवासामो, एयण्णं इहभवे परभवेजाव आणुगामियत्ताए | त्ति) आलप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद् महति महत्याः / भ०२ श०५ उ०। भविस्सइ त्ति कट् टु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पणि-- तुंगियायण पुं०(तुड् गिकायन) तुङ्ग पिगोत्रापत्ये ऋषौ, कल्प० 8 क्षण। सुणे ति,पडिसुणित्ता जेणेव सयाइं गेहाई, तेणेव उवागच्छंति, तुंगी (देशी) रात्रौ,दे०मा० 5 वर्ग 14 गाथा। उवागच्छइत्ता ण्हाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपाय तुंड न०(तुण्ड) मुखे, विशे०। आ०म०। पुरोभागे, नि०चू०। "सायं से च्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवराई परिहिया धूता सगडस्स तुडे ठिता'' नि०चू० 1 उ०। आस्ये, दे०ना०५ वर्ग अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरा सएहिं सएहिं गेहेहिंतो पडि 14 गाथा। निक्खमंति, पडिनिक्खमइत्ता एगयओ मेलायंति,पायविहार तुंडिक पुं०(तुण्डिक) वेलाकूलवास्तत्र्ये स्वनामख्याते वणिजि, चारेणं तुंगियाए नयरीए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छइत्ता आ०कला ('जत्तासिद्ध' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 136 पृष्ठे कथा) जेणेव पुप्फदईए नामं चेइए होत्था, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता थेरे भगवंते पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति।। तुंडीर (देशी) मधुरबिम्बे, देवना०५ वर्ग 14 गाथा। तं जहा-सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं तुंडूअ (देशी) जीर्णघटे, देवना०५ वर्ग 14 गाथा। अविउसरणयाए, एगसाडिएणं उत्तरासं-गकरणेणं चक्खुप्फासे तुंतुखडिअ (देशी) त्वरायुक्ते, देवना०५ वर्ग 36 गाथा। अंजलिपगहेणं मणसा एगत्तीकरणेणं जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव | तुंद (देशी) उदरे, दे०ना० 5 वर्ग 14 गाथा। उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं | तुंदपरिमिय त्रि०(तुन्दपरिमित) उदरभरणव्यग्रे, सूत्र० 10 श्रु०७ अ० करें तिजाव तिविहाए पज्जु-वासणाए पजुवासंति / तए णं ते / तुंदिल त्रि०(तुन्दिल) तुन्दमस्यास्तीति तुन्दिलः / यथेप्सितभोजनेन थेरा भगवंतो तेसिं समणो वासयाणं तीसे य महइ महालियाए | वर्द्धितोदरे, उत्त०७ अ० परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेंति / जहा केसिसामिस्स०जाव तुंव न०(तुम्ब) अलाव्याम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०रा०। नि०चू०। अष्टादशे समणोवासइत्ताए आणाए आराहए भवइ०जाव धम्मो कहिओ। ज्ञाताध्ययने, स०१८ सम०ा आव०ा शकटनाभ्याम् "जेण कुलं आयत्तं, (पडिसुणेति ति) अभ्युपगच्छन्ति / (सयाई ति) स्वकीयानि / तपुरिसं आयरेण रक्खेज्जा / न हि तुंबम्मि विणद्वै, अरया साहारया हों ति (कयबलिकम्म त्ति) स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते // 1 // " आ०म०१ अ०१खण्ड। कप्रत्ययो-ऽपि। अनु०। उत्ता स्था०। तथा। (कयकोउयमंगलपायच्छित्त त्ति) कृतानि कौतुकमाङ्गल्यान्येव तुंवणाय न०(तुम्बज्ञात) अलावूदृष्टान्तप्रतिपादके षष्ठेऽध्ययने, ज्ञा०१ प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नाऽऽदिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्यैस्ते तथा / श्रु०१ अ०। आ०चूला ('कम्म' शब्दे चैतत् तृतीयभागे 332 पृष्ठे उक्तम्) अन्ये त्वाहुः-(पायच्छुत्त ति) पादेन पादे वा, छुप्ताश्चक्षुर्दोषपरिहारार्थ तुंवर त्रि०(तुम्बर) कचे आमे, "जह तरुणअंबगरसो, कुँवरकव-ट्ठस्स पादच्छुप्ताः, कृतकौतुकमङ्गलाश्च ते पादच्छुप्ताश्चेति विग्रहः / तत्र वा वि जारिसओ। (12)" उत्त०३४ अ०। कौतुकानि मषीतिलकाऽऽदीनि, मङ्गलानि तु सिद्धार्थकदध्यक्षत तुंवरफल न०(तुम्बरफल) हरीतकीप्रभृतिषु, वृ०१ उ०। दूर्वाऽड्डराऽऽदीनि। (सुद्धप्पावेसाई ति) शुद्धाऽऽत्मानो वेष्याणि वेषोचितानि। अथवा-शुद्धानि च तानि प्रविश्यानि च राजाऽऽदिसभाप्रवेशोचि तुंववणग्गाम पुं०(तुम्बवनग्राम) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र सुनन्दा भिधानां साधाना भार्या मुक्त्वा धनगिरिणा दीक्षा गृहीता / कल्प०१ तानि शुद्धप्रावेश्यानि। (वत्थाई पवराई परिहिय त्ति) क्वचित् दृश्यते / कचिच-(वत्थाई पवरपरिहिय त्ति) तत्र प्रथमपाठो व्यक्तः, द्वितीयस्तु क्षण। आ०चूना आ०म०। प्रवरं यथा भवतीत्येवं परिहिताः प्रवरपरिहिताः। (पायविहारचारेण ति) तुंववीण त्रि०(तुम्बवीण) तुम्बयुक्ता वीणा येषां ते तुम्बवीणाः / पादविहारण, नयानविहारेण, यश्चारो गमनं सतथा तेन। (अभि-गमेणं तुम्बवीणावादकेषु, जीव०३ प्रति०४ उ०। ति) प्रतिपत्त्या अभिगच्छन्ति समीपं गच्छन्ति / (सचित्ताण ति) तुंववीणिय त्रि०(तुम्बवीणिक) तुम्बयुक्ताया वीणाया वादके, रा०। पुष्पताम्बूलाऽऽदीनाम् (विउसरणयाए ति) व्यवसर्जनया त्यागेन / __ आचा०। प्रश्नः / ज्ञा०। अनु०॥ (अचित्ताणं ति) वस्त्रमुद्रिकानाम् (अविउसरणाए ति) अत्यागेन। तुंवसाग पुं०(तुम्बशाक) स्वनामख्याते शाकविशेषे, उत्त० २अग (एगसामिएणं ति) अनेकोत्तरीयशाटकानां निषेधार्थमुक्तम्। (उत्तरासंग- तुं वा स्त्री०(तुम्वा) चमरस्य बलस्य च लोकपालानामग्रमकरणेणं ति) उत्तरासड्ग उत्तरीयस्य देहे न्यासविशेषः / चक्षुः स्पर्श | हिषीणां चाभ्यन्तरपरिषदि, स्था०३ ठा०२उ०। चन्द्रस्य सू
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________________ तुंवा 2335 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तुण्णग यस्य च सामानिकाग्रमहिषीणां चाभ्यन्तरपरिषदि, स्था० 3 ठा०२ उ०। तुज-न०(तूर्य) वाद्यभेदे, सू०प्र० 10 पाहु०। तुंवाग-न०(तुम्बाक) त्वड मिजाऽन्तर्वतिनि, आर्द्रायां तुलस्यां च।। तुज्झ-त्रि०(तव-त्वद्) "ङसिङस्भ्यां तउ-तुज्झ-तुध्राः" स्त्री०। दश० 5 अ०१ उ०। 841372 / / इति डसिडस्भ्यां सह युष्मदस्तुज्झ इत्यादेशः / प्रा०४ तुंविणी-स्वी०(तुम्बिनी) वल्लीविशेषे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। पाद। तुंविल्ली(देशी) मधुपटले, उदखले च। दे०ना०५ वर्ग 23 गाथा। तुट्ट-धा०(त्रुट) छेदने, दिवा० / तुदा०-पर०-सक०-सेट् / तुंवी-(देशी) अलाव्याम्, दे०ना० 5 वर्ग 14 गाथा। "शकाऽऽदीनां द्वित्वम्" / / 8 / 4 / 230 / / इति द्वित्वम्। प्रा० 4 पाद। तुंदुरु-पुं०(तुम्बुरु) श्रीसुमतेर्यक्षे, स च श्वेतवर्णो गरुड़वाहनश्चतुर्भुजो त्रुट्यति व्यवच्छिद्यते जीवानां जीवितमिति शेषः / सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ वादशक्तियुक्तदक्षिणपाणिद्वयो, गदानागपाशयुक्तवामपाणिन्द्रयश्च / प्रव० उातुट्यति च्यवते। सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ० जीविताच्च्यवने, सूत्र०१ 26 द्वार। शक्रस्य देवेन्द्रस्यगन्धर्वानीकाधिपतौ, स्था०७ ठा०। तृतीये श्रु०१ अ०१उ०ा त्रोटयेदपनयेत् आत्मनः पृथक्कुर्यात्परित्यजेगा। सूत्र०१ गन्धर्व, प्रज्ञा०१ पद। वृक्षविशेषे, स०८ सम०। श्रु०१ अ०१३० तुंवेअ-न०(तुम्बेक) ज्ञाताऽध्ययनभेदे, आव०४ अ०। *तुष्ट-त्रि० / संतुष्टे, उत्त 18 अ० तोषं कृतवति, आ०म०१ अ०१ खण्ड। औ०। जी० / भ०। रा०ा आचा। ज्ञा० उत्त०। सन्तोष प्राप्ते, तुच्छ-त्रि०(तुच्छ) असारे,आव०६ अ०। पं०व०। अल्पे, भ०६ श०३३ कल्प०१क्षण। उ०ा प्रश्न० / उन्मत्ते, न तुच्छो भवेन्नोन्मादं गच्छेत् / सूत्र० 1 श्रु०१४ अ०। चतुर्थी नवमीचतुर्दशीरूपासु तिथिषु, चं० प्र०१० पाहु०। द०प०। तुट्टि-स्त्री०(तुष्टि) संतोषे, कल्प०१ क्षण / मनःप्रसत्तौ, कल्प०६ क्षण। सू०प्र०ा रिक्ते, स च द्रव्यतो निर्धनो जलाऽऽदिरहितोघटाऽऽदिर्वा, भावतो नवधा तुष्टि:-प्रकृत्युपादानकालभोगाऽऽख्याः, अम्भः सलिलौघवृष्ट्यज्ञानाऽऽदिरहितः। आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०ा द्रमके, काष्ठहारकाऽऽदौ, परपर्यायवाच्याश्चतस आध्यात्मिकाः; शब्दाऽऽदिविषयोपरतयश्चार्जअथवा-"ज्ञानेश्वर्यधनोपेतो. जात्यन्वयबलान्वितः। तेजस्वी मतिमान् नरक्षणक्षयभोगहिंसादोषदर्शनहेतुजन्मानः पञ्च बाह्यास्तुष्टयः; ताश्च ख्यातः, पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात्॥१॥" इत्युक्तलक्षणे अपूर्णे , आचा० पारसुपारपारापारानुत्तमाम्भउत्तमाम्भः शब्दव्यपदेश्या इति। स्या०१५ श्लोक। उत्सवे, नि०१ श्रु०१ वर्ग १अ० 1 श्रु०२ अ० 6 उ०। अवशुष्के, देवना०५ वर्ग 14 गाथा। तुच्छइअ-(देशी) रञ्जिते,दे०ना० 5 वर्ग 15 गाथा। तुड-धा०(तुड्) भेदे, तुदा०–पर०-सकo-सेट्। "तुडे-स्तोड-तुट्ट खुट्ट-खुडोक्खुमोल्लुक्क-णिलुक-लुक्कोल्लूराः" ||4|116|| इति तुच्छकहणा-स्त्री०(तुच्छकथना) अपरिणतदेशनायाम, पं० व०४ द्वार। 'तुड' धातोरेते नवाऽऽदेशाः। प्रा०४ पाद। तुच्छकुल-त्रि०(तुच्छकुल) अल्पकुटुम्बे, कल्प०२क्षण / चाण्डाला तुडिय-न०(त्रुटित) तूर्ये, जं०३ वक्ष०ा औ०। स्था०। दिव्यतूर्ये, आ०म० ऽऽदीनां कुले, न०। स्था०८ ठा० / आ०म०। 1 अ०१ खण्डा वेणुवीणामृदङ्गाऽऽदिषु आतोद्येषु, रा०ा पटहाऽदौ, स्था० तुच्छग-त्रि०(तुच्छक) अगम्भीरे, पञ्चा०७ विव०। आ० चूला आ० म०॥ 8 ठा० आतोये, रा०ा आ०म० जी०। प्रज्ञा०ा वादित्रे, ज्ञा०१ श्रु०१ आचा उ०। कल्प०। ततविततन्त्रीतलतालभिन्नवादित्रे, कल्प०१क्षण / जंग। तुच्छत्त-न०(तुच्छत्व निःसारतायाम्, भ०१८श०३ उ०। दशा०। भला औवारा चतुरशीत्या लक्षैर्गुणिते त्रुटिताओं, कर्म०४ कर्म०| तुच्छय-(देशी) रञ्जिते, देना०५ वर्ग 15 गाथा। जाकल्प० स्था०ाअनु० ज्योाजी०। भला बाहुरक्षिकायाम्, स्त्री०। तुच्छरूव-त्रि०(तुच्छरूप) तुच्छं हीनं रूपमाकरो यस्य स तुच्छरूपः। रा०। ज्ञा०। स्था०। आचा०॥ तं औ० स० उत्त०। प्रज्ञा०। जं० भ०। हीनाऽऽकारे, स्था०४ ठा०४उ०। चमरस्य सामानिकानाप्तभ्यन्तरपरिषदि, स्था०३ ठा०२उ०ा "तुडियं तुच्छुत्ति-स्त्री०(तुच्छोक्ति) तुच्छबुद्धिप्रणीतवचने, द्रव्या०१४ अध्या०। घिग्गलं / '' इति देशीभाषा। नि०चू०२ उ०। तुच्छोभासि(ण )-त्रि०(तुच्छावभासिन्) तुच्छो धनश्रुताऽऽदि- तुडियंग-न०(त्रुटिताङ्ग) चतुरशीत्या लक्षगुणितपूर्वे, स्था०२ ठा०४उ०। रहितोऽत एव तद् विनियोजकत्वात् तुच्छावभासी। द्रष्ट्रणामपूर्णा- "चउरासीई पुव्वसयसहस्साई से एगे तुडिअंगे।" अनु० ज०। कर्म०। वभासिनि, स्था०४ ठा०४उ०। भ०। सुषमसुषमायां भरतैरवतयोरकर्मभूमिषु च भाविनि कल्पवृक्षे, तं०। तुच्छोसहिभक्खणया-स्त्री०(तुच्छौषधिभक्षणता) असाराणा- आव० जी०। ति० स०। त्रुटितानि तूर्याणि तत्करणत्वात् त्रुटिताङ्गः। मौषधीनां भक्षणरूपे उपभोगपरिभोगविरतिव्रतस्यातिचारे, उत्त०१ तूर्यदायिनि, उक्तं च-''मत्तंगेसुयमज्जं 1, सुहपेज्जं भायणाणि भिंगेसु 2 / अ०। उदाहरणम्- "एगो खेत्तरक्खगो, से गाओ खाइ, राया निग्गओ, तुडियंगेसु य संगत-तुडियाइँ बहुप्पंगाराई।।१।।" स्था०१० ठा०। खार्यतं पेच्छइ, ततो वारिए इतो खायइ, रनाकोउगेण पोट्टं फालियं, तुण्णओ-(देशी) झुड्खाऽऽख्यतूर्यविशेषे, दे०ना०५ वर्ग 16 गाथा केत्तियाओ खाइयाओ होज ति? नवरि फेणं, अन्नं न किंचि अत्थि।" | तुण्णग-त्रि०(तन्नाक) सीवनकर्मकर्तरि नं० आचााआ० चूल प्रज्ञा आव०६ अध०र०॥ ___ अनु०ा आ०म०
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________________ तुण्णाग 2336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तुयट्टियव्व तुण्णाग त्रि०(तुन्नाक) 'तुण्णग' शब्दार्थे, नं०। तुमाइ त्रि०(त्वया)"दे-दि-दे-ते-तइ-तए-तुम-तुमइ-तुमए-तुमे तुण्णिय त्रि०(तुन्नित) तुत्रकारणेस्वकलाकौशलतः पूरिते छिद्रे, वृ०१उ०। / तुमाइ०-" ||8|364|| इत्यादिना टासहितस्य युष्मदः 'तुमाइ' तुहिक त्रि०(तृष्णीक) "सेवाऽऽदौ वा" ||6|| इति ककारस्य इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। विकल्पेन द्वित्वम् / पक्षे- 'तुण्हिअ' / प्रा० 2 पाद / मौनावलम्बिनि, *तव त्रि०।"तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं-तुव-तुम-तुमे-तुमोआ०म०१ अ०२ खण्ड। नि०चूला तूष्णीभावं भजमाने, नि०यू०।"जह तुमाइo--" ||8|3|66|| इत्यादिना षष्ट्येकवचनेन सह युष्मदस्तु-माइ णाविए गंडूसं कोती घेत्तूण नाम तुण्हिक्को।' नि०यू०१ उ० मृदौ, निश्चले इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। च। दे०ना०५ वर्ग 15 गाथा। तुमाण त्रि०(युष्माकम्) "तु-दो-भे-तुब्म-तुब्म-तुब्माण-तुवाणतुण्ही (देशी) सूकरे, दे०ना०५ वर्ग 14 गाथा। तुमाण०-" ||8 / 3 / 100 / / इत्यादिना आमा सहितस्य युष्मदस्तुमाण तुद पुं०(तोद) प्रतोदाऽऽदिषु, "रहंसि जुत्तं सरयति बालं, आरुस्स इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। विज्झंति तुदेण पिढे।" कोपं कृत्वा प्रतोदाऽऽदिना पृष्टदेशे तं नारकं | तुमातो त्रि०(त्वत्तः) "अतो ङसेर्डातोडात्" 8/4:321 / / इति परवशं नयन्ति। सूत्र० 1 श्रु० 5 अ०२उ०। पैशाच्यामकारात्परस्य डसेर्डितो 'आतो-आत्' इत्यादेशौ / प्रा० 4 तुप्प पुं०(तुप्र) मृतककलेवरं वशाघृताऽऽदिभिः परिणामिते, बृ०१ उ०। पाद। नि०चू०। कौतुके, विवाहे, सर्षपे, मक्षिते , स्निग्धे, कुतुपे च / देवना०५ तुमे त्रि०(त्वया)"दे-दि-दे-ते-तइ-तए-तुम-तुमइ-तुमए-तुमेवर्ग 22 गाथा। 0" ||8364|| इत्यादिना टासहितस्य युष्मदस्तुमे इत्या-देशः / प्रा०३ पाद। तुप्पग्ग न०(तुप्राग्र) म्रक्षिताग्रे, कल्प०२ क्षण। तुप्पोट्ठ त्रि०(तुप्रोष्ठ) तुप्रा म्रक्षिता मदनेन वा वेष्टिताः शीतर *तव त्रि०। "तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं-तुव०-"||३६६|| इत्यादिना डसा सहितस्य युष्मदस्तुमे इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। क्षाऽदिनिमित्तमोष्ठा येषां ते तुप्रोष्ठाः / म्रक्षितोष्टेषु ग०२ अधि०। अनु०। तुम्हं त्रि०(त्वया)"तइ-तुं-ते-तुम्हं०-" ||8| | इत्यादिना तुवरी स्त्री०(तुबरी) मालवकाऽऽदिप्रसिद्ध धान्यविशेषे, ध०२ अधिol टासहितस्य युष्मदस्तुम्हमित्यादेशः। प्रा०३ पाद। तुभ त्रि०(त्वत्) "तुरह-तुम०-"||८|३।६७। इत्यादिना कसिना तुम्हकरे त्रि०(युष्मदीय) युष्माकमिदम्।वाचवा" इदमर्थस्य केरः" सह युष्मदस्तुब्भ इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। / / 2 / 147 / / इति इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केर इत्यादेशः। प्रा०२ पाद। तुन्मतो त्रि०(त्वत्तः)"तइ-तुव-तुम-तुह-तुब्भा ङसौ / / 8 / 3 / 66|| "युष्मद्यर्थपरे तः" / / 8 / 1 / 246|| इति युष्मच्छब्दे--ऽर्थपरे यकारस्य इति डसि परतो युष्मदस्तुब्भ इत्यादेशः। एवं' 'तुम्हतो' इत्यपि। प्रा० तकारः। प्रा०१पाद। युष्मत्संबन्धिनि, वाचा 3 पाद। तुम्हाण त्रि०(युष्माकम्)"तु-वो-मे-तुब्भ-तुभं-तुब्माण-तुवाण तुब्भाण त्रि०(युष्माकम्)"तु-बो-भे--तुब्भ-तुम्भं-तुब्भाण०-"|| तुमाण-तुहाण-तुम्हाण०-||८।३।१००॥ इत्यादिना आमासहितस्य 31100 // इत्यादिना आमासहितस्ययुष्मदस्तुब्भाण इत्यादेशः। प्रा० युष्मदस्तुम्हाण इत्यादेशः। "क्त्वास्यादेर्णस्वोर्वा" ||8/1 / 27 / / इति ३पाद। पक्षेऽनुस्वारोऽपि। प्रा०३ पाद। . तुब्भे त्रि०(यूयम्) "भे-तुब्भे-तुज्झे०-" |||361|| इत्यादिना जसा तुम्हारिस त्रि०(त्वादृश) "युष्मद्यर्थपरे तः" ||8/1 / 246 / / इति सहितस्य युष्मदस्तुब्भे इत्यादेशः। प्रा०३ पाद। तकारः / "दृशः क्किप् टक्सकः" ||81142 / / इति क्विप् टक्तुम त्रि०(तव) "तइ-तुं-ते-तुम्ह-तुह-तुहं-तुव-तुम०..'' सक् एतदन्तस्य दृशेर्धातोऋतो रिरादेशः। त्वत्सदृशे, प्रा०१ पाद। ||3| इत्यादिना षष्ठ्येकवचनेन सहितस्य युष्मदस्तुम इत्यादेशः।। तुम्हे त्रि०(यूयम्) "भे-तुब्भे-तुज्झे०-"||८|३१|इत्यादिना जसा प्रा०३ पाद। बहुवचनोचारणयोभ्ये तिरस्कारप्रधान-कवचनान्ते. सूत्र०१ सहितस्य युष्मदस्तुम्हे इत्यादेशे "डमो-म्ह-ज्झो वा" // 83:1041 // श्रु०६ अ०। "तुमं ति वत्ता भणइ।" आव०१ अ०स्था०। इति वचनात् हकारः / प्रा०३ पाद। तुमइ त्रि०(त्वया) "दे-दि-दे-ते-तइ-तए-तुम-तुमइ०-" | तुम्हेचय त्रि०(यौष्माकम्) "युष्मदस्मदोऽञ एचयः" ||8/2 / 146 / / // / 3 / 64|| इत्यादिना टासहितस्य युष्मदस्तुमइ इत्यादेशः / प्रा०३ | इति युष्मदः परस्येदमर्थस्यात्र एचय इत्यादेशः / प्रा०२ पाद। पाद। तुयट्टण न०(त्वग्वर्तन) शयने, निचू०१० उ०ातं०। पिं०व्या दश तुमए त्रि०(त्वया)"दे-दि-दे-ते-तइ-तए- तुम-तुमइ-तुमए..." उत्ता स्था।बृलासंस्तारकं प्रस्तीर्य शयने, बृ०३ उ०ा निषण्णाऽऽसीने, ||३६४|इत्यादिना टासहितस्य युष्मदस्तुमए इत्यादेशः / एवं 'तुम' 'तुयट्टति' निषण्णा आसते। भ०१३ श०६ उ०। इत्यपि। प्रा०३ पाद। तुयट्टिय त्रि०(त्वग्वर्तित) वामपार्श्वतः परावृत्त्य दक्षिणपाान, तुमतो त्रि०(त्वत्तः) "तइ तुव-तुम०-" ||83 / 16 / / इत्यादिना डसि दक्षिणपार्श्वतः परावृत्त्य वामपार्श्वन वा अवतिष्टमाने, रा०। परतो युष्मदस्तुम इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। तुयट्टियटव न०(त्वग्वर्तितव्य) कर्त्तव्ये शयने, भ०२ श०१उ०।
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________________ तुयावइत्ता 2337 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तुला तुयावइत्ता अव्य०(तोदयित्वा) तोदं कृत्वा 'व्यथामुत्पाद्य' या प्रव्रज्या तुरियगइ स्त्री०(त्वरितगति) मानसौत्सुक्यप्रवर्तितवेगवद्गतौ, भ०३ दीयते मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथा। प्रव्रज्या-भेदे, स्था०३ श०२उ०। "तुरियगई खिप्पगई।'' दिकुमारेन्द्रयोरमितगत्यमि-- ठा०२० तवाहनयोः पौरस्त्ये लोकपाले, स्था०४ ठा०१ उ० भ०। तुम्ह त्रि०(युष्माकम्) "तु-वो-मे-तुरह-तुम्भं-" ||8 / 3 / 100 / / | तुरियभासि(ण) त्रि०(त्वरितभाषिण) अविवेकभाषिणि, आचा०२श्रु० इत्यादिना आमा सहितस्य युष्मदस्तुरह इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। १चू० 4 अ०२ उम तुम्हे त्रि०(यूयम्) "भे-तुब्भे-तुज्झ-तुम्ह०-" !!8361 / / | तुरिया स्त्री०(त्रुटिता) बाहुरक्षिकायाम्, औ०। इत्यादिना जसा सहितस्य युष्मदस्तुरहे इत्यादेशः / प्रा०३ पाद / तुरी (देशी) पीने, तूलिकानामुपकरणे, दे०ना०५ वर्ग 22 गाथा। तुम्हेहिं त्रि०(युष्माभिः) "भे-तुब्भेहिं-उज्झेहि-उम्हे हिं-तुय्हे- तुरुक्क न०(तुरुष्क) सिहके, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० जी०। आ०म० भ०। हिं०--"||८।३।१५।। इत्यादिना भिसा सहितस्य युष्मदस्तुरहेहिं तुरुक्कधूव पुं०(तुरुष्कधूप) सेह्नकलक्षणे धूपे, उत्त०१ अ०। इत्यादेशः / प्रा० 3 पाद। तुरुक्ख न०(तुरुष्क) सिहकाभिधाने गन्धद्रव्ये, स०३४ सम०ा औ०। तुरंत त्रि०(त्वरमाण) "तुरोऽत्यादौ" ||4|172 / / इति अत्यादौ प्रज्ञा०ा जं०रा०। परतस्त्वरशब्दस्य तुर इत्यादेशः / संभ्राम्यति, प्रा०४ पाद / शीघ्र, तं० तुल धा०(तुल) उन्माने। चुरा०-उभ० / पक्षे-भ्वादि०-पर०-सक०तुरगपुं०(तुरग) अश्वे, अनु०॥ कल्प०। औ०। प्रव०। रा|तुरगा आटव्या सेट् / वाचा "तुलेरोहामः" ||4|25|| इति ण्यन्तस्य तुलेरोहाम महाकायाः पशवः परसरेति पर्यायाः। भ०११ श० 11 उ०। इत्यादेशः। 'ओहामइ' / पक्षे-'तुलइ।' प्रा०४ पाद। तुरगमुह पुं०(तुरगमुख) अनार्यदेशविशेषे, प्रव०२७ द्वार।"कैकयकि- | तलग्ग (देशी) काकतालीये, देना०५ वर्ग 15 गाथा। रीयहयमुहखरमुह तह तुरगमेंढयमुहा य।" सूत्र० 2 श्रु०१ अ०। तुलणा स्त्री०(तुलना) परिच्छेदे, "जहा इमेहिं दसहिं अंगेहिं पडलेहिं तुरगमेंढग पुं०(तुरगमेद्रक) धर्मसंज्ञारहिते अनार्यदेशविशेषे, सूत्र०१ सूरिओ उद्देति, तहा तं कालं तुलेति।" नि०चू०२ उ०। पञ्च तुलना श्रु० 5 अ० 130 जिनकल्पे उक्ताः, 'तवेण इत्यादि / तुलना, भावना, परिकर्म चैकार्थाः / तुरगारोहणसिक्खा स्वी०(तुरगारोहणशिक्षा) तुरगारोहणविषय- विशेला व्यका नि०चू०। पं०चूधास्था०। उत्त० (द्रव्याऽऽदितुलनया कशिक्षाभेदे, कल्प०७ क्षण। तोलयित्वैव प्रव्राजनीयःशिष्य इति पव्वाजणा' शब्दे वक्ष्यते) तुरतुंगव पुं०(तुरतुङ्गव) मीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। तुलसी स्त्री०(तुलसी) पत्रिकाविशेषे, प्रव०४ द्वार। "रूढी आढइ णीली, तुरय पुं०(तुरग) तुरग' शब्दार्थे, अनु०। तुलसी तह माउलिंगा य।" प्रज्ञा०१ पद / स्था०। पञ्चा० / सरसलतुरा स्त्री०(त्वरा) वेगे, अभीष्टलाभार्थ विलम्बासहने च। वाचवा'अत्वरा तायाम्, देना०५ वर्ग 14 गाथा।गुच्छविशेषे, आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०। सर्वकार्येषु, त्वरा कार्यविनाशिनी / त्वरमाणेन मूर्खेण, मयूरो / तुला स्त्री०(तुला) औपम्ये, सूत्र०२ श्रु०२ अ० "एतं तुलमण्णेसिं इह वायसीकृतः / / 1 / / " आ०चू०१अ०। संतिगया दविया णावकंखंति।" का पुनरसौ तुला? यथाऽऽत्मानं सर्वथा तुरिमिणी स्त्री०(तुरिमिणी) भारतवर्षे स्वनामख्यातायां नगर्याम्, दर्शक सुखाभिलाषितया रक्षसि, तथा परमपि रक्ष, यथा परं तथाऽऽत्मान३ तत्त्व / 'पुरी तुरिमिणी तत्र, जितशत्रुर्नराधिपः / भद्राङ्ग जो द्विजो मिति / आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ० तोलनदण्डे, वाचा दत्तः, कालिकाऽऽचार्यजामिजः // 1 // " आ०क०। तुरिमिणीनग संप्रति तुलामानमाहर्यामुपसर्गकारी तरुणजनो भूपात् हतमथितविप्रारब्धः। बृ०४ उ०।। पणतीस लोहपलिया, वट्टा वावत्तरंऽगुला दीहा। तुरिय न०(त्वरित) "तुरोऽत्यादौ" ||8111172 / / इति त्वरशब्दस्य पंचपल धरणगस्स य, समायकरणे तुला होइ / / 'तुर' इत्यादेशः / प्रा०४ पाद / शीघ्र, रा० / आ० म०। प्रश्न० भ०। सुगालितानां पञ्चत्रिंशत्संख्यानां लोहपलानामतयर्थ धनैः कुट्टनेन अनु०। ज्ञा०। त्वरा संजाता अस्य। त्वरायुक्ते, भ०३ श०२ उ०। झO! निर्मापिता, वृत्ता सुवृत्ता, विषमोचत्वहीना इत्यर्थः / द्वा-सप्तत्यङ्गुला रा० जी०। औत्सुक्यवत्याम्, कल्प०२ क्षण। आकुले चः / वाचला दीर्घा (पंचपल धरणगस्स य त्ति) ध्रियते येन तद् धरणं, धरणमेव *तूर्य त्रि० / भेरीमृदङ्गपटहकरतालतालाऽऽदिषु, उत्त० 22 अ०) धरणक, येन धृत्वा तोल्यते तदित्यर्थः / तस्य प्रमाणं पञ्च पलानि द्वादशप्रकारस्तूर्यसनातः / स चायम्-''भभामकुंदमद्दल-कड- कर्त्तव्यानि / ततः समायकरणे धरणके तुलायां संयोजिते सति यत्र बझल्लरिहुडक्वकंसाला। काहलतलिमा वंसो, संखो पणवो य वारसमो प्रदेशे तुला ध्रियमाणा समा भवति, नैकस्मिन्नपि पक्षे अग्रतः पृष्ठतो वा ||1||" आ०म०१ अ० 1 खण्ड। नता उन्नता वा भवति, तत्र प्रदेशे समायकरणेसमतासमागमपरिज्ञान
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________________ तुला 2338 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तुल्लय - निमित्तरेखाकरणे, तुला परिपूर्णा भवति / तस्यां चैवंभूतायां तुलायां समकरणीरेखामपहाय शेषा रेखाः पञ्चविंशतिर्भवन्ति! तथा चाऽऽहसव्वग्गेण तुलाए, लेहाओ पंचवीसई होति। चत्तारि य लेहाओ, जाओ नंदीपिणद्धाओ / / तुलायां तौल्यपरिमाणसूचिकाः सर्वाग्रेण सर्वसङ्ख्यया, रेखाः पञ्चविंशतिर्भवन्ति / तासां च पञ्चविंशतिसङ्ख्यानां रेखाणां मध्ये या रेखाः नन्दीपिनद्धाः फुल्लिकायुक्ताः, ताश्चतस्रो वेदितव्याः। तत्र पञ्चविंशतिमेव रेखाः प्ररूपयतिसमकरणि अद्धकरिसा, तत्तो करिसुत्तरा य चत्तारि। तत्तो पलुत्तराओ, जाव य दसग त्ति लेहाओ।। वारसिया पन्नरसी, वीसग एत्तो दसुत्तरा अट्ठ। एवं सव्वसमासो, लेहाणं पन्नवीसं तु / / तुलायां प्रथमा रेखा तावत् समकरणी भवति, यत्र प्रदेशे धरणकसहिता तुला ध्रियमाणा समा भवति तत्र प्रदेशे समतापरिज्ञानार्थमेका रेखा भवतीत्यर्थः / सा पञ्चविंशतिसङ्ख्यागणनेन गण्यते, तस्थाः समतापरिज्ञाननिमित्ततया तौल्यवस्तुपरिमाणेऽनुपयोगात्। ततः प्रथमा रेखा अर्द्धकर्षा अर्द्धकर्षरूपपरिमाणसूचिका भवति / ततः कर्णोत्तरा कर्षाऽऽद्योकैककर्षवृद्धिसूचिकाश्चतस्रो रेखा भवन्ति / तद्यथा-द्वितीया कर्षरूपपरिमाणसूचिकाः, तृतीया द्विकर्षसूचिका, चतुर्थी त्रिकर्षाचिका, पशमी चतुःकर्षसूचिका, पलसूचिकेत्यर्थः / (तत्तो इत्यादि) ततः पञ्चमरेखात ऊर्द्ध रेखाः पल्योत्तराः, एकैकपलवृद्धिसूचिकारतावदवसेया यावद्दशकमिति दशपलसूचिका रेखा / तद्यथा-षष्ठी रेखा द्विपलसूचिका, सप्तमी त्रिपलसूचिका, अष्टमी चतुःपलसूचिका, नवमी पञ्चपलसूचिका, एकादशी सप्तपल सूचिका, द्वादशी अष्टपलसूचिका, त्रयोदशी नवपलसूचिका, चतुर्दशी दशपलसूचिका। (वारसेत्यादि) ततः पञ्चदशी रेखा द्वादशपलसूचिका, षोडशी पञ्चदशपलसूचिका, सप्तदशी विंशतिपलसूचिका / (एत्तो दसुत्तरा अट्ट ति) अत ऊर्द्धमष्टी रेखा दशोत्तराः, दशकवृद्ध्या पलपरिमाणसूचिकाः / तद्यथा- अष्टादशी रेखा त्रिंशत् पलसूचिका, एकोनविंशतितमा चत्वारिंशत्- पलसूचिका, विंशतितमा पञ्चाशत्पलसूचिका, एकविंशतितमा षष्टिपलसूचिका, द्वाविंशतितमा सप्ततिपलसूचिका त्रयोविंशतित-मा अशीतिपलसूचिका, चतुर्विशतितमा नवलिपलसूचिका, पञ्चविंशतितमा पलशतसूचिका, शतिके काण्डे पञ्चविंशतितमा रेखा भवतीत्यर्थः / एवमुक्तेन प्रकारेण रेखाणां सर्वसमासः सर्वसंक्षेपः, सर्वसंखेत्यर्थः। पञ्चविंशतिरिति। यदुक्तम्--पञ्चविंशतिरेखाणां मध्ये चतस्रो रेखा नन्दीपिनद्धिका इति, तद्व्याचिख्यासुराहपंचसु य पन्नरसगे, तीसग पन्नासगे य लेहाओ। नंदीपिणद्धिकाओ, सेसाओ उज्जुलेहाओ।। पञ्चसु पशदशसु त्रिंशति पञ्चाशति च या रेखास्ता नन्दीपिनद्धिकाः। किमुक्तं भवति?-पक्षपलपरिमाणसूचिका, पञ्चदशपलपरिमाणसूचिका, त्रिंशत्पलपरिमाणसूचिका, पञ्चाशत्पलपरिमाणसूचिका, एताश्चतस्रो रेखाः फुल्लडिकायुक्ताः, शेषा एकविंशतिसङ्ख्या ऋजवः / तदेवमुक्तं तुलास्वरूपम्।ज्यो०१पाहु०। गृहाणां दारुबन्धकाठे, पलशले भाण्डे, मेषावधितः सप्तमे राशी, वाच०। तुलासम पुं०(तुलासम) अरक्तद्विष्ट, यथा तुला समस्थिता न चाग्रतो न वा पुरतो नमति, सा इवाऽयं रागद्वेषविमुक्तो मानापमानसुखदुःखाऽऽदिषु रामः / बृ०६ उ०नि०चू०। तुलिय त्रि०(तुलित) गुणिते, तं०। उत्त०। तुलेऊण अव्य०(तोलयित्वा) सम्यड् निश्चित्येत्यर्थे , बृ०१ उ०। तुल्ल न०(तुल्य) सदृशे, औ०। समाने, विशेला एककाले. नं० प्रज्ञा तुल्लचरित्त त्रि०(तुल्यचरित्र) समानसामायिकाऽऽदिसंयमे, बृ०६ उ०। तुल्लट्ठिय त्रि०(तुल्यस्थित) परस्परापेक्षया समानाऽऽयुष्के, भ० 34 श०१उ०॥ तुल्लय त्रि०(तुल्यक) तुल्यमेव तुल्यकम्। समे, भ० 10 श० 7 उ०। अथ तुल्यताऽभिधानार्थमाहरायगिहे०जाव परिसा पडिगया, गोयमाऽऽदि ! समणे भगवं महावीरे भगतं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी-चिरसंसिट्ठो सि मे गोयमा ! चिरसंथुतो सि मे गोयमा! चिरपरिचितो सि मे गोयमा! चिरजुसिओ सि मे गोयमा ! चिराणुगओ सि मे गोयमा ! चिरागुवत्ती सि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए, अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा इतो चुता दो वि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ताभविस्सामो। जहाणं भंते ! एयमटुं वयं जाणामो पासामो तहाणं अणुत्तरोववाइया देवा एयमह जाणंति पासंति ? हंता ! गोयमा ! जहा णं वयं एयमढे जाणामो पासामो तहा णं अणुत्तरोववाइया देवा एयमढे जाणंति पासंति।से केणटेणंजाव पासंति? गोयमा ! अणुत्तरोववाझ्या णं अणंतामणोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ भवंति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ०जाव पासंति / कइविहे णं मंते ! तुल्लए पण्णत्ते? गोयमा ! छविहे तुल्लए पण्णत्ते / तं जहा-दव्वतु-ल्लए, खेत्ततुल्लए, कालतुल्लए, भवतुल्लए, भावतुल्लए, संठाणतुल्लए। से केणटेणं भंते ! एवं वुधइ-दव्वतुल्लए, दव्वतुल्लए? गोयमा ! परमाणुपोग्गले परमाणु-पोग्गलस्स दव्वओ तुल्ले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलवइरित्तस्स दव्वओ णो तुल्ले / दुपदेसिए खंधे दुपदेसियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, दुपदेसिए खंधे दुपदेसियवइरित्तस्स खंधस्स दव्यओ णो तुल्ले एवं०जाव दसपएसिए। तुल्लसंखेजपएसिएखंधे संखेजपएसियस्सखंधस्स
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________________ तुल्लय 2336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तुल्लय | दव्वओ तुल्ले / संखेज्जपएसिए खंधे संखेजपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ णो तुल्ले / एवं तुल्लअसंखेजपएसिए वि; एवं तुल्लअणंतपएसिए वि; से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-दव्वतुल्लए दव्वतुल्लए। सेकेणटेणं भंते ! एवं वुचइ-खेत्ततुल्लए खेत्ततुल्लए? गोयमा ! एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढस्स पोग्गलसस खेत्तओ तुल्ले, एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढवइरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ णो तुल्ले ! एवं जाव दसपएसोगाढे; तुल्लसंखेज्जपएसोगाढे वि; एवं तुल्ल असंखेअपएसोगाढे वि; से तेण?णं०जाव खेत्ततुल्लए। से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-कालतुल्लए कालतुल्लए? गोयमा ! एगसमयट्ठिईए पोग्गले एगसमयस्स ठिइयस्स पोग्गलसस कालओ तुल्ले, एगसमयट्ठिईए पोग्गले एगसमयट्ठिइयवइरित्तस्स काल ओ णो तुल्ले। एवं०जाव दससमयट्ठिईए; तुल्लसंखेजसमय--- द्विईए एवं चेव; तुल्लअसंखेजसमयट्ठिईए वि एवं चेव, से तेणटेणंजाव कालतुल्लए ।से केणटेणं भंते ! एवं वुचइभवतुल्ले भवतुल्ले? गोयमा ! णेरइए णेरइयस्स भवट्ठयाए तुल्ले, णेरइएणेरइयवइरित्तस्स भवट्ठयाए णो तुल्ले तिरिक्खजोणिए एवं चेव; एवं मणुस्से वि; एवं देवे वि; से तेणढेणं०जाव भवतुल्ले भवतुल्ले / से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ-भावतुल्ले भावतुल्ले? गोयमा ! एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालयस्स भावतुल्ले, एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालवइरित्तस्स पोग्गलस्स भावओ णो तुल्ले, एवं०जाव दसगुणकालए तुल्लसंखेज्ज-गुणकालपोग्गले तुल्ल असंखेज्जगुणकालए वि, एवं तुल्लअणं-तगुणकालए वि, जहाकालए एवं णीलए लोहियए हालिद्दए सुकिल्लए; एवं सुडिभगंधे, एवं दुढिभगंधे, एवं तित्तेजाव महुरे; एव कक्खडे० जाव लुक्खे, उदइए भावे उदइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, उदइयभाववइरित्तस्स भावओ णो तुल्ले,एवं उवसमिए वि / खइए खओवसमिए परिणामिए सण्णिवाइए भावे सण्णिवाइयस्स भावस्स, से तेणतुणं गोयमा ! एवं वुचइ-भावतुल्लए भावतुल्लए / से केणटेणं भंते ! एवं दुचइ-संठाण-तुल्लए संठाणतुल्लए? गोयमा ! परिमंडलसंठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, परिमंडलसंठाणे परिमंडलस्स संठाणवइरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ णो तुल्ले / एवं वट्टे तंसे चउरंसे आयए, समचउरंससंठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, समचउरंससंठाणे समचउरंसस्स संठाणव-इरित्तस्स संठाणओ णो तुल्ले; एवं परिमंडले वि; एवं जाव हुंडे। से तेणद्वेणं०जाव संठाणतुल्लए संठाणतुल्लए। (रायगिहे इत्यादि) तत्र किल भगवान् श्रीमन्महावीरः केवलं- | झानाप्राप्त्या सखेदस्य गौतमस्वामिनः समाश्वासनायाऽऽत्मनस्तस्य च भाविनी तुल्यता प्रतिपादयितुमाह-(गोयमेत्यादि) (चिरसंसिट्टो सि त्ति) चिरं बहुकालं यावत्, चिरे वाऽतीते प्रभूते काले संश्लिष्टः स्नेहात्सम्बद्धश्विरसंश्लिष्टोऽसि भवसि, मे मया मम वा त्वं हे गौतम ! (चिरसंथुतो सि) चिरं बहुकालमतीतं यावत्संस्तुतः स्नेहात्प्रशंसितविरसंस्तुतः / (एवं चिरपरिचिए त्ति) पुनः पुनदर्शनतः परिचितश्विरपरिचितः (चिरजुसिएत्ति) चिरसेवितश्विरप्रीतो वा। 'जुषी' प्रीतिसेवनयोरिति वचनात्। (चिराणुगओत्ति) चिरमनुगतो, ममानुगतिकारित्वात्। (चिराणुवत्ती सि त्ति) चिरमनुवृत्तिरनुकूलवर्तिता यस्यासौ चिरानुवृत्तिः / इदं च चिरसंश्लिष्टत्वाऽऽदिकं काऽऽसीदित्याह-(अणंतरं देवलोए त्ति) अनन्तरं निर्व्यवधानं यथा भवत्येवं देवलोके, अनन्तरे देवभवे इत्यर्थः। ततोऽपि अनन्तरं मनुष्यभवे, जात्यर्थत्वादेकवचनस्य देवभवेषु मनुष्यभवेषु चेति द्रष्टव्यम् / तत्र किल त्रिपृष्ठभवे भगवतो गौतमः सारथित्वेन चिरसंश्लिष्टत्वाऽऽदिधर्मयुक्त आसीत्। एवमन्येष्वपि भवेषु संभवतीति। एवं च मयि तव गाढत्वेन स्नेहस्य न केवलज्ञानमुत्पद्यते, भविष्यति च तवाऽपि स्नेहक्षये तदित्यधृति मा कृथा इति गम्यमिति) (किं परं मरण त्ति) किंबहुना (परं त्ति) परतो मरणान्मृत्योः? किमुक्तं भवति? कायस्य भेदाढेतोः (इओ चुय त्ति) इतः प्रत्यक्षाद् मनुष्यभवात् च्युतौ (दो वि त्ति) द्वावप्यावा तुल्यौ, भविष्याव इति योगः। तत्र तुल्यौ समानजीवद्रव्यौ, (एगट्टत्ति) एकाविकप्रयोजनौ अनन्तसुखप्रयोजनत्वात्। एकस्थौ वा एकक्षेत्राऽऽश्रितौ सिद्धिक्षेत्रापेक्षयेति। (अविसेसमणाणत्त ति) अविशेष निर्विशेष यथा भवत्येवमनानात्वौ तुल्यज्ञानदर्शनाऽऽदिपर्यायाविति। इद च किल भगवता गौतमेन चैत्यवन्दनायाष्टापदं गत्वा प्रत्यागच्छता पञ्चदश तापसशतानि प्रव्राजितानि समुत्पन्नकेवलानि च श्रीमन्महावीरसमवसरणमानीतानि तीर्थप्रणामकरणसमनन्तरं च केवलिपर्षदि समुपविष्टानि गौतमेन चाविदिततत्केवलोत्पादव्यतिकरेणाभिहितानियथा आगच्छत भोः साधवः ! भगवन्तं वन्दध्वमिति / जिननायकेन च गौतमोऽभिहितः-यथा गौतम ! मा केवलिनामा-शातनां कार्षी : / ततो गौतमो मिथ्यादुष्कृतमदात्। तथा यानहं प्रव्राजयामि तेषां केवलमुत्पद्यते, न पुनर्मम, ततः किं तन्मे नोत्पत्स्यतएवेति विकल्पादधृतिं चकार। ततो जगद्गुरुणा गदितोऽसौ मनः समाधानाय। यथा-गौतम ! चत्वारः कटा भवन्ति-सुम्बकटो, विदलकटः, चर्मकटः, कम्बलकटकश्चेति। एवं शिष्या अपि गुरौ प्रतिबन्धसाधम्र्येण सुम्बकटसमाऽऽदयश्चत्वार एव भवन्ति। ('अजवइर' शब्दे प्रथमभागे 216 पृष्ठे प्रसङ्गादुक्कैषा कथा) तत्र त्वं मयि कम्बलकटसमान इत्येतस्यार्थस्य समर्थनाय भगवता तदाऽभिहितमिति। एवं भाविन्यामात्मतुल्यताया भगवताऽभिहितायामतिप्रियमश्रद्धेय-मिलि कृत्वा यद्यन्याऽप्येनमर्थ जानाति तदा साधुभवतीत्यनेनाभि-प्रायेण गौतम एवाऽऽह- (जहा णं इत्यादि) (एयमढें ति) एतमर्थमावयोर्भावितुल्यतालक्षणम्। (वयं जाणामो त्ति) यूयं च वयं चेत्येकशेषाद्वयम्। तत्रयूयं केवलज्ञानेनजानीथ, वयतुभवदुपदेशात्। तथाऽनुत्तरोपपातिका अपि देवा एनमर्थं जानन्तीति प्रश्नः? अत्रोत्तरम्-(हंता ! गोयमा ! इत्यादि) (मणोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ त्ति) मनोद्रव्यवर्गणा लब्धास्तद्विषयावधिज्ञानल
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________________ तुल्लय 2340- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तुवाण ब्धिमात्रापेक्षया (पत्ताओ त्ति) प्राप्तास्तद्रव्यपरिच्छेदतः। (अभि- एवं व्यसं, चतुरस्रं च, नवरं त्र्यन त्रिकोणं शृङ्गाटकस्यैव, चतुरसं तु समणागयाओ त्ति) अभिसमन्यागतास्तद्गुणपर्यायपरिच्छेदतः। अयमत्र चतुष्कोणं,यथा कुम्भिकायाः, आयतं दीर्घ यथा दण्डस्य / तच त्रेधा, गर्भार्थः-अनुत्तरोपपातिकदेवा विशिष्टावधिना मनोद्रव्यवर्गणा जानन्ति, श्रेण्यायतप्रतराऽऽयतघनाऽऽयतभेदात्। पुनरेकैकं द्विधा, समसङ्ख्यपश्यन्ति च तासां चावयोरयोग्यवस्थायामदर्शनेन निर्वाणगमनं प्रदेशासमस ख्यप्रदेशभेदात्। इदञ्च पञ्चविधमपि विस्त्रासाप्रयोगाभ्यां निश्चिन्वन्ति / ततश्वाऽऽवयोर्भावितुल्यतालक्षणमर्थ जानन्ति पश्यन्ति भवति / जीवसंस्थानं तु संस्थानाभिधाननामकर्मोत्तरप्रकृत्युदयचेति व्यपदिश्यत इति। तुल्यताप्रक्रमादेवेदमाह-(कइविहेत्यादि) तुल्यं सम्पाद्यो जीवानामाकारः, तच्च षोढा / तत्राऽऽद्यम्-(समचउरंसे त्ति) सम, तदेव तुल्यकम्। (दव्वतु-ल्लए त्ति) द्रव्यत एकाणुकाऽऽद्यपेक्षया तुल्याऽऽरोहपरिणाहं सम्पूर्णाङ्गाव-यवस्वाडलाष्टशतोच्छ्रयं समचतुरस्त्रं, तुल्यकं द्रव्यतुल्यकम् / अथवा-द्रव्यं च तत्तुल्यक च द्रव्यान्तरेणेति तुल्याऽऽरोहपरिणाहत्वेन समत्वात्पूर्णावयवत्वेन च चतुरस्रत्वात्तस्य द्रव्यतुल्यकं, विशेषणव्यत्ययात्। (खेत्ततुल्लए त्ति) क्षेत्रत एकप्रदेशाव- चतुरसत्व सङ्गतमिति पर्यायौ। (एवं परिमंडले वित्ति) यथा समचतुरगाढत्वाऽऽदिना तुल्यकं क्षेत्रतुल्यकम् / एवं शेषाण्यपि, नवरं भवो समुक्तं तथा न्यग्रोधपरिमण्डलमपीत्यर्थः / न्यग्रोधो वटवृक्षस्तद्वत्परिनारकाऽऽदिः, भावो वर्णाऽऽदिः, औदयिकाऽऽदिर्वा, संस्थान मण्डलं नाभीत उपरि चतुरसलक्षणयुक्तमधश्च तदनुरूपं न भवति परिमण्डलाऽऽदि। इह च तुल्यव्यतिरिक्तमतुल्यं भवतीति तदपीह तस्मात्प्रमाणा-द्धीनतरमिति। (एवं०जाव हुंडे त्ति) इह यावत्करणात्व्याख्यास्यते / (तुल्लसंखेजपएसिए त्ति) तुल्याः समानाः संख्येयाः "साइखुजे वामणे त्ति" दृश्यम् / तत्र (साइत्ति) सादीनोऽभितोऽधश्चप्रदेशा यत्र स तथा, तुल्यग्रहणमिह सङ्ख्यातत्वस्य संख्यातभेदत्वान्न तुररत्र-लक्षणयुक्तमुपरि च तदनुरूपं न भवति। (खुज त्ति) कुब्जं ग्रीवासङ्-ख्यातमात्रेण तुल्यताऽस्य स्यात्, अपितु समानसंख्यत्वेनेत्य-- ऽऽदौ हस्तपादयोश्चतुरस्रलक्षणयुक्तं संक्षिप्तविकृतमध्यम्। (वामणे त्ति) स्यार्थस्य प्रतिपादनार्थम् / एवमन्यत्रापीति / यचेह-अनन्तक्षेत्र- वामनं लक्षणयुक्तमध्यंग्रीवाऽऽदौ हस्तपादयोरप्यादिलक्षणन्यूनम्। (दुंडे प्रदेशावगाढत्वमनन्तसमयस्थायित्वं च नोक्तं, तदवगाहप्रदेशानां त्ति) दुण्डं प्रायः सर्वावयवेषु आदिलक्षणविसंवादोपेतमिति / भ०१४ स्थितिसमयानां च पुद्गलानाश्रित्याऽनन्तानामभावादिति। (भव-ट्टयाए श०७ उ० त्ति) भव एवार्थों भवार्थः, तद्भावस्तत्ता, तया भवार्थतया। (उदइए चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता / तं जहा-धम्मस्थिकाए, भावे त्ति) उदयः कर्मणां विधाकः, स एवौदयिकः क्रिया-मात्रम्। अथवा अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे। उदयेन निष्पन्न औदयिको भावो नारकत्वाऽऽदि-पर्यायविशेषः, 'चत्तारि' इत्यादि कण्ठ्यम, नवरं प्रदेशाग्रेण प्रदेशप्रमाणेनेति तुल्याः औदयिकस्य भावस्य नारकत्वाऽऽदेर्भावतो भाव-सामान्यमाश्रित्य समानाः, सर्वेषामेषामसंख्यातप्रदेशत्वात्। (लोगागासे त्ति) आकाशतुल्यः समः। (एवं उवसमिए त्ति) औपशमिको–ऽप्येवं वाच्यः। तथाहि स्यानन्तप्रदेशत्वेन धर्मास्तिकायाऽऽदिभिः सहातुल्यताप्रसक्तेर्लोक"उवसमिए भावे उवसमियस्स भावस्स भावओ तुल्ले, उवसमिए भावे ग्रहणम् / (एमजीवत्ति) सर्वजीवानामनन्तप्रदेशत्वाद् विवक्षिततुल्यताउवसभियवइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले त्ति / " एवं शेषेष्वपि भावप्रसङ्गादेकग्रहणमिति। स्था० 4 ठा०३उ०। वाच्यम् / तत्र उपशम उदीर्णस्य कर्मणः , क्षयोऽनुदीर्णस्य विष्कम्भि तुव त्रि०(तव) "तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं-तुव०-"||८३६६| तोदयत्वं, स एव औपशमिकः क्रियामात्रम् / उपशमेन वा निवृत्त __ इत्यादिना डसा सहितस्य युष्मस्तुव इत्यादेशः। प्रा०३ पाद। औपशमिकः सम्य-दर्शनाऽऽदिः / (खइए त्ति) क्षयः कर्माभावः, स एव क्षायिकः, क्षयेण वा निवृत्तः क्षायिकः केवलज्ञानाऽऽदिः। (खओवसमिए तुवं त्रि०(त्वाम्) "तं-तु-तुमं-तुवं०-" ||3 / 12 / / इत्यादिना अडा त्ति) क्षयेणोदयप्राप्तकर्मणो विनाशेन सहोपशमो विष्कम्भितोदयत्वं सहितस्य युष्मदस्तुव इत्यादेशः / प्रा०२ पाद। क्षयोपशमः, स एव क्षायोपशमिकः क्रियामात्रमेव / क्षयोपशमेन वा निवृत्तः तुवतो त्रि०(त्वतः) "तइ-तुव०-"||८३६६||डसेः परतो युष्मदस्तुव क्षायोपशमिको मतिज्ञानाऽऽदिः पर्यायविशेषः / नन्वौपशमिकस्य इत्यादेशः / प्रा०३ पादा क्षायोपशमिकस्य च कः प्रति विशेषः, उभयत्रापि उदीर्णस्य क्षयस्यानु तुवर धा०(त्वर) वेगे, भ्वादि०-आत्म०-अक०-सेट् / "त्वरस्तुदीर्णस्य चोपशमभावात ? उच्यते-क्षायोपशमिके विपाकवेदनमेव वरजअडौ" ||8/4/170 // इति त्वरधातोः 'तुवर' इत्यादेशः। प्रा०४ नास्ति, प्रदेशवेदकं पुनरस्त्येव, औपशमिके तु प्रदेशछेदनमपि पाद / कुसुम्भोदकाऽऽदिके, बृ०३ उ० वृक्षविशेषे, औ०। नि००। नाऽस्तीति / (परिणामिए त्ति) परिणमनं परिणामः, सएव पारिणामिकः / श्रीमल्लिजिनस्य यक्षे, स च चतुर्मुख इन्द्रायुधवर्णो गजवाहनोऽष्टभुजो (सण्णिवाइए त्ति) सन्निपात औद-यिकाऽऽदिभावाना व्यादिमं योगः, वरदपरशुशूलाभययुक्तदक्षिणपाणिचतुष्टयो, बीजपूरकशक्तिमुद्राक्षतेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः। (संठाणतुल्लए त्ति) संस्थानमाकृतिविशेषः / सूत्रयुतवामपाणिचतुष्टयश्च / प्रव०२६ द्वारा तच द्वेधा, जीवाजीवभेदात् / तत्र अजीवसंस्थान पक्षधा / तत्र तुवरपत्त न०(तुवरपत्र) पलाशपत्राऽऽदिषु, नि०चू०१ उ०। (परिमंडलसंठाणे ति) परिमण्डलं संस्थानं बहिस्ताद् वृत्ताऽऽकारं मध्ये तुवरफल न०(तुवरफल) हरीतक्यादिषु, नि०यू० 130 / शुषिरं यथा वलयस्य / तच्च द्वेधा, घनप्रतरभेदात् / (वट्टे त्ति) वृत्तं तुवाण त्रि०(युष्माकम्) "तु-वो-मे-तुब्म-तुमं तुम्माण-तुवाणपरिमण्डलमेवान्तः शुषिररहितं यथा कुलालचक्रस्य / इदमपि द्वेधा, / " |8|3.100 / / इत्यादिना आमा सहितसय युष्मदः 'तुवाण' घनप्रतरभेदात्। पुनरेकैक द्विधा, समसङ्ग्यविषमसङ्ख्यप्रदेशभेदात्।। इत्यादेशः / प्रा०३ पाद।
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________________ तुस 2341 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेअव तुस पुं०(तुष) कोद्रवाऽऽदिषु, स्था०८ठा०। आचाला धान्यत्वचि, वाच०। / इति र्यस्य रः / प्रा०२ पाद / वादित्रभेदे, उत्त०२ अ०। झा०। तुसमूल न०(तुषमूल) बीजस्य तुषमूलकणिकायाम्, स्था०८ ठा० तुरंत त्रि०(त्वरमाण) प्राकृतत्वाच शतृप्रत्ययः। "त्यादिशत्रोस्तूरः" तुसागणि पुं०(तुषाग्नि) तुषाः कोद्रवाऽऽदयस्तेषामनिस्तद्दहनप्रवृत्तो 18/4171 / / इति त्वरधातोः शतृत्रत्यये परतस्तूर इत्यादेशः / वहिस्तुषाग्निः / कोद्रवाऽऽदिदहनप्रवृत्ते वहौ, स्था० 8 ठा०। जी०। संभ्राम्यति, प्रा०४ पाद। तुसार पुं०(तुषार) हिमे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० औला तूरवइ पुं०(तूर्यपति) नटमहत्तरे, बृ०१ उ०। तुसिणीय त्रि०(तूष्णीक) मौनिनि, उत्त०२ अ० वचनरहिते, ज्ञा०१ | तूरसद्द पुं०(तूर्यशब्द) तूर्यशब्देनाधिश्रिते संनिनादे, विशे०। Q02 अावाचंयमे, उपेक्षके, स्था०३ ठा०३ उ०ा तूष्णीं शीले, उत्त०१ | तूल न०(तूल) अर्कतूले, सू०प्र०२० पाहु०॥ आचा० भाआ० म०। अ आचा० कल्प तुसिय पुल(तुषित) षष्ठकृष्णराजिमध्यवर्तिसुराभनामलोकान्ति- | तूलकड त्रि०(तूलकृत) अर्काऽऽदितूलनिष्पन्ने, आचा०२ श्रु०१ चू०५ कविमानदेये, भ०६।०५उ०। स्था०। ज्ञा०स०। असौ संज्ञाऽन्तरतो अ०१उ०। मारुतोऽप्यभिधीयते / प्रव०२६७ द्वार। आ० म० तूलिणी (देशी) शाल्मल्याम,देना० 5 वर्ग 17 गाथा। तुसे अजंभ (देशी) दारुणि देना०५ वर्ग 16 गाथा। तूलिया स्त्री०(तूलिका) संस्कृतरुताऽऽदिभृते शयनोपकरणे, ग०३ तुसोदगन०(तुषोदक) ब्रीह्यादिधावनजले, कल्प०६ क्षण / गास्था०। ___ अधि। बालमय्यां, चित्रलेखनकूर्चिकायां च / ज्ञा०१ श्रु०८ अ०॥ तुह त्रि०(तव) "तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह०-" ||83 / 66 // इत्यादिना तूली स्त्री०(तूली) अप्रतिलेख्यदूष्यविशेषे, जीतका जं०। संस्कृतडला सहितस्य युष्मदस्तुह इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। रुताऽऽदिभृते अर्कतूलाऽऽदिभृते वा शयनोपकरणे, बृ०३उ०। / *त्वाम् त्रि०।"तं-तु-तुम-तुवं-तुह०-" ||3|| इत्यादिना | तूवर पु०(तूवर) कषाये, रा०। काले अजातशृङ्गे गवि, अजातश्मश्रुके अमा सहितस्य युष्मदस्तुह इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। पुरुष, कषायरसवति, त्रि०ा आढक्यां, सौराष्ट्रमृत्तिकायां च / स्त्री०। तुहं त्रि०(तव) "तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं०-" ||IIEI डीप्। वाचा इत्यादिना ङसा सहितस्य युष्मदः 'तुहं' इत्यादेशः। प्रा०३ पाद। तूस धा०(तूष) तोषे, दिवा०-पर-अक०-अनिट् / "रुषाऽऽदीनां तुहग पुं०(तुहक) कन्दवनस्पतिविशेषे, उत्त०१ अ०॥ दीर्घः" / / 8 / 4 / 236 / / इति दीर्घः। 'तूसइ।' तुष्यति। प्रा०४ पाद। तूह न०(तीर्थ) "दुःखदक्षिणतीर्थे वा" |8/272 // इति संयुक्तस्य तुहतो त्रि०(त्वत्तः) "तइ-तुव-तुम-तुह-तुमा डसौ" / / 3 / 66|| तीर्थशब्दस्य र्थस्य हः / ग्रा०४ पाद। "तीर्थे हे" |||1 / 104 / / इति इति पञ्चम्येकवचने परतो युष्मदस्तुह इत्यादेशः / इसेस्तु 'तो' तीर्थशब्दे हे सति ईत ऊत्वम्। प्रा०४ पाद / शास्त्रे, यज्ञे, क्षेत्रे, उपाये, इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। स्त्रीरजसि, नद्यादेरवतरणे, घट्टाऽ ऽदौ, विद्याऽऽदिगुणयु-तपात्रे, तुहाण त्रि०(युष्माकम्) "तु-वो-भे-तुटभ-तुभं-तुब्भाण-- उपाध्याये, मन्त्रिणि, योनौ,दर्शने, ब्राह्मणे, आगमे, निदाने, अग्नौ, तुवाणतुमाण-तुहाण-"||३।१००।। इत्यादिना आमा सहितस्य उपकूपजलाऽऽशये, दैहिके मानसिके भौमिके त्रिविधे पवित्रस्थाने, वाचा युष्मदस्तुहाण इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। तूहण (देशी) पुरुषे, देवना० 5 वर्ग 17 गाथा। तुहार त्रि०(युष्मदीय) "युष्मदादेरीयस्य डारः" ||841434|| तृणु स्त्री०(तनु) "स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ||8||326 / / इत्यपभ्रंशे युष्मदादिभ्यः परस्य ईयप्रत्ययस्य डार इत्यादेशः। प्रा०४ इत्यपभ्रंशे स्वरस्थाने स्वरः। तणु।तिणु। तृणु। प्रा०४ पाद। देहे, अल्पे, विरले, कृशे च। त्रि०ा वाचन तुहिणाचल पुं०(तुहिनाचल) हिमालयपर्वते, "बभार शिरसा स्वर्ग ते त्रि०(त्वया) "दे-दि-दे-ते०-" ||34|| इत्यादिना टासवाहिनीं तुहिनाचलः।" आ०क०। हितस्य युष्मदस्ते इत्यादेशः प्रा०३पाद। तूअ (देशी) इक्षुकर्मकरे,देना०५ वर्ग 16 गाथा। तव त्रि०ा"तइ-तु-ते०-" ||3|6|| इत्यादिना डसा सहितस्य तूणइल्ल त्रि०(तृणावत्) तूणाभिधानवाद्यवति, जी०३ प्रति०४ उ०। / युष्मदस्ते इत्यादेशः / प्रा०३ पाद / दश०। कल्प०। औ०। रा० प्रश्न०। अनु०। ज्ञा०। *तस्मिन् पुं०। प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन्नित्यस्य स्थाने 'ते' इत्यादेशः। तूणा स्त्री०(तूणा) शराऽऽश्रये, जं०३ वक्ष०ा तूणाभिधानवाद्यविशेष, "ते ण काले णं ते ण समए ण' / रा० जंगा कल्पका ('काल' शब्दे औला रा०ा अनु०। ज्ञान व्याख्यातम्) तच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचने इति। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तूर धा०(त्वर) वेगे, भ्वादि०-अक०-आत्म-सेट् / "त्यादिशत्रो- | तेअव धा० (प्रदीप) प्रकर्षेण दीप्तौ, दिवा०-आत्म०--अकo--सेट् / स्तूरः" ||8141171 / / इति त्वरधातोस्त्यादिशतृ-प्रत्यये परतस्तूर "प्रदीपेस्तेअव-संदुम-सन्धुकान्भुत्ताः" ||8 / 4 / 152 / / इति इत्यादेशः। 'तूरइ।' त्वरते। प्रा०४ पाद। प्रोपसर्गसहितस्य दीपधातोः 'तेअव' इत्यादेशः / 'अवइ / ' पक्षेतूर्य न०। "ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये यो रः" ||82063 / / / 'पलीवइ / ' प्रदीप्यते / प्रा०४ पाद।
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________________ ते आ 2342 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेइच्छ तेआ स्त्री०(तेजस्) त्रयोदश्याम, जं०७ वक्षा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः / स चैवम्-"उवाइया, रोहिणिया, कुंथू, तेइंदिय पुं०(त्रीन्द्रिय) त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणरूपाणि इन्द्रियाणि येषां पिपीलिया, उद्देसगा, उद्देहिया, उक्कलिया, उप्पाया, उप्पमा, तणहारा, ते त्रीन्द्रियाः / कर्म०४ कर्म०। जी०। यूकामत्कुणगर्दभेन्द्रगोप- कट्ठहारा, पत्तहारा, मालुया, तणवेंटका, पत्तवेंटका, पुष्फवेटया, कुन्थुमत्कोटपिपीलिकोपदेहिकाकर्पासास्थिकत्रपुसबीजकतुस्थु- फलवेंटया, बीयबेटया, तेंबुमिंजिया, तउसमिजिया, कप्पासट्ठिमिजिया, रूकाऽऽदिषु, पं०सं०१ द्वार। उत्त० / आव०। आ०म०। हिल्लिया, झिल्लिया, झिंगिरा, झिंगिरडा, बाहुया, लहुया, मुरुगा, सम्प्रति त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनाऽर्थमाह सोवस्थिया, सुयवेंटा, इंदकाइया. इंदगोवया, तुरतुंगवा, कोत्थलवाहगा, से किं तं तेइंदियसंसारसमावन्नजीवपण्णवणा? तेइंदियसं- जूया, हालाहला, पिसुया, सतवाइया, गोम्ही, हत्थिसोंडा।'' इति / सारसमावन्नजीवपण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा- एते च केचिदतिप्रतीताः, केचिद्देशविशेषतोऽवगन्तव्याः / नवरम्उवाइया, रोहिणिया, कुंथू, पिपीलिया, उद्देसगा, उद्देहिया, (गोम्हीकण्हसियाली जे यावण्णे तहप्पगारा इति) येऽपि चान्ये उक्कलिया, उप्पाया, उप्पमा, तणहारा, कट्ठहारा, पत्तहारा, तथाप्रकारा एवंप्रकारास्ते सर्वे त्रीन्द्रिया ज्ञातव्याः / (ते समासतो माल्या, तणबिंटिया, पत्तबिंटिया, पुप्फबिंटिया, फलबिंटिया, इत्यादि) समस्तमपि सूत्रं द्वीन्द्रियवत् परिभावनीयं, नवरमवगाहनाद्वारे बीयविंटिया, तेदुरुमिंजिया, तउसमिंजिया, कप्पासट्टिमिं- उत्कर्षतो अवगाहना त्रीणि गव्यूतानि, इन्द्रियद्वारे त्रीणि इन्द्रियाणि, जिया, हिल्लिया, झिल्लिया, झिंगिरा, डिंगिरिमा, बाहुया, स्थिति धन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत एकोनपञ्चाशद् रात्रिन्दिवानि / शेषं लहुया, मुरुगा, सोवत्थिया, सुयबेंटा, इंदकाइया, इंदगोवया, | तथैवाउपसंहारमाह-(सेत्तं तेइंदिया) उक्तास्त्रीन्द्रियाः / जी०१प्रतिका तुरतुंवगा, कोत्थलवाहगा, जूया, हालाहला, पिसुया, सत जीन्द्रियवक्तव्यतामाहवाइया, गोम्ही, कण्णसियालिया (हत्थिसोंडा), जे यावण्णे तेइंदिया उजे जीवा, दुविहाते पकित्तिया। तहप्पगारा सवे ते संमुच्छिमणपुंसगा। ते समासओ दुविहा पज्जत्तमपञ्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे // 137 / / पण्णत्ता। तं जहा-पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य / एएसि णं एव कुंथू पिवीलिया दंसा, उक्कुलुद्देहिया तहा। माइयाणं तेइंदियाणं पज्जत्ताऽपजत्ताणं अट्ठ जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / सेत्तं तेइंदियसंसा-- तणहार कट्ठहारा य, मालुंगा पत्तहारगा / / 138|| रसमावन्नजीवपण्णवणा। कप्पासट्ठिमिंजा य, तिंदुगा तउसमिंजगा। (से किं तमित्यादि) अथ का सा त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीव सतावरी य गुम्मी य, बोधव्वा इंदकाइया / / 136 / / प्रज्ञापना? भगवानाह--त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना अनेकविधा इंदगोवगमाईयाउणेगहा एवमाइआ। प्रज्ञप्ता / तानेव तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति / एते च औपचयिकप्रभृत- लोगेगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया।।१४०।। यस्वीन्द्रिया देशविशेषतो लोकतश्वावगन्तव्याः। नवरं (गोम्ही कण्णसि- संतई पप्प नाईया, अपज्जवसिया विय। यालिया जे यावन्ने तहप्पगारा) येऽपि चान्ये तथाप्रकारास्ते सर्वे त्रीन्द्रिया ठिई पडुच साईया, सपज्जवसिया वि य / / 141 / / ज्ञातव्या इति शेषः। (ते सव्वे समुच्छिमनपुरसगा) इत्यादि पूर्ववत्। (एतेसि एगूणवणऽहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया। णमित्यादि) एतेषां त्रीन्द्रियाणामेवमादिकानामौपचयिकप्रभृतीनां तेइंदिअआउठिई, अंतोमुहुत्तं जहणिया।।१४२॥ पर्याप्ताऽपर्याप्तानां सर्वसङ्ख्यया अष्टौ जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि संखेज्जकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णगं / योनिप्रवा-हाणि शतसहस्त्राणि भवन्ति, अष्टौ कुलकोटिलक्षा भवन्तीति तेइंदियकायठिई,तं कायं तु अमुंचओ / / 153 / / भावः। इत्याख्यात तीर्थकृद्रिउपसंहारमाह-(सेत्तमित्यादि)तदेवमुक्ता त्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना / प्रज्ञा०१ पद। जी० स्था०। अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं / अथ त्रीन्द्रियानाह तेइंदियजीवाणं, अंतोमुहत्तं जहन्निया / / 144|| से किं तं तेइंदिया? तेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। भेओ जहा पण्णवणाए। उवइया, रोहिणिया, हत्थिसोंडा, जे संठाणदेसओ वावि, विहाणाइंसहस्ससो॥१४५|| यावण्णे तहप्पगारा, ते समासतो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा- एतदपि पूर्ववन्नवरं त्रीन्द्रियोचारण विशेषः, तथा कुन्थवोऽनुद्धपज्जत्ता य, अपज्जत्ताय / तहेव जहा बेइंदियाणं,णवरं सरीरो- रिप्रभृतयः, पिपीलिकाः कीटिकाः, गुम्मी शतपदी / एवमन्येऽपि गाहणा, उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाइं ठिती, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, यथासंप्रदाय वाच्याः / एकोनपञ्चाशदहोरात्राण्यायुःस्थितिरिति। उत्त० उकोसेणं एगूणपण्णराइंदियाणं, सेसं तहेव दुगतिया दुआग- 36 अ०। पिं० ओ०। भ०। (त्रीन्द्रियाणां परिभोगः 'परिभोग' शब्दे तिआ परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता / सेत्तं तेइंदिया। वक्ष्यते) (से कि तमित्यादि) अथ के ते त्रीन्द्रिया:? सूरिराह-त्रीन्द्रिया तेइच्छ न० (चैकित्स्य) चिकित्साया भावश्चैकित्स्यम् / व्याधिप्रतिअनेकविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-(भेओ जहा पण्णवणाए) भेदो यथा / क्रियारूपे, दश०३अ०। आचा०।
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________________ तेइच्छिय 2343 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेउकाइय तेइच्छिय त्रि०(चैकित्स्यिक) वैद्ये, बृ०१०। ते समासतो इत्यादि प्राग्वत् / नवरमत्रापि सङ्घयेयानि योनिप्रमुखाणि तेउ न०(तेजस्) उष्णोद्योतलक्षणे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। उष्ण- | शतसहस्राणि सप्त वेदितव्यानि। प्रज्ञा०१पद। रूपे,सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०ा पक्तृगुणे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। अथ तेजस्कायिकप्रतिपादक उद्देशकः समारभ्यते / तस्य चोपअग्रिकुमारेन्द्रयोरग्निसिंहाग्निमानवयोः पूर्वदिग्लोकपाले, पुं०। स्था०४ | क्रमाऽऽदीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि तावद्यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे ठा०१ उभा तेजउद्देशक इति नाम, तत्र तेजसो निक्षेपाऽऽदीनि द्वाराणि वाच्यानि, तेउकंत पु०(तेजस्कान्त) अग्निकुमारेन्द्रयोरप्रिसिंहाग्निमानवयो- अत्र च पृथिवीविकल्पतुल्यत्वात् केषाञ्चिदतिदेशो द्वाराणामपरेषा रुत्तरदिग्लोकपाले, स्था०४ ठा०१उ०। भ०।। तद्विलक्षणत्वात् अपोद्धार इत्येतद्वयमुररीकृत्य नियुक्तिकृद् गाथामाहतेउक्काइय पुं०(तेसस्कायिक) तेजो वह्निः, तदेव कायः शरीर येषां ते तेउस्स वि दाराई, ताई जाइंहवंति पुढवीए। तेजस्कायाः, तेजस्काया एव स्वार्थि के क प्रत्ययविधानात्तेज- नाणत्तं तु विहाणे, परिमाणुवभोगसत्थे य / / 116|| स्कायिकाः। जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०ा एकेन्द्रियजीवभेदे, दशा (तेउरस वीत्यादि) तेजसोऽप्यग्नेरपि द्वाराणि निक्षेपाऽऽदीनि, यानि अथ तेजसो जीवत्वसिद्धिमाह पृथिव्याः समधिगमेऽभिहितानि, तान्येव वाच्यानि ।अपवादे दर्शयितेउ चित्तमंत-मक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्थ तुमाहनानात्वं भेदो विधानपरिमाणोपभोगशस्थेषु, तुरवधारणे। विधानासत्थपरिणएण // 3 // ऽऽदिष्वेव च नानात्वं , नान्यत्रेति। चशब्दाल्लक्षणद्वारपरिग्रहः।।११६।। सात्मकोऽग्निः, आहारेण वृद्धिदर्शनात्, बालकवत्।दश० ४अ तेजः यथाप्रतिज्ञातनिर्वहणार्थमादिद्वारव्याचिख्यासयाऽऽहसात्मकमाहारोपादानात् तदृद्धिविशेषोपलब्धः, तद्विकारदर्शनाच, दुविहा य तेउजीवा, सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि। पुरुषवत्। आह च-"अपरप्पेरियतिरियानियमियदिग्गमणओ निलोगो सुहुमा य सव्वलोए,पंचेव य बायरविहाणा / / 117 / / व्वाअनलो आहाराओ, विद्धिविगारोव-लंभाओ' // 1 // इति। स्था०१ (दुविहेत्यादि) स्पष्टा / / 117 / / टा०।सूत्रका व्या विशे बादरपञ्चभेदप्रतिपादनायाऽऽहसम्प्रति तेजस्कायिकानाह इंगाल अगणि अच्ची, जाला तह मुम्मुरे य बोधव्वे / से किं तं तेउक्काइया? तेउक्काइया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा बायरतेउविहाणा, पंचविहा वन्निया एए॥११८|| सुहुमतेउकाइया य, बादरेतउक्काइया य / से किं तं सुहुमतेउ (इंगालेत्यादि) दाधेन्धनो विगतधूमज्वालोऽङ्गार:इन्धनस्थः क्काइया? सुहुमतेउक्काइया दुविहा पणत्ता ! तं जहा-पजत्तगा प्लोषक्रियाविशिष्ट रूपः, तथा विधुदुल्काऽशनिसंघर्षसमुत्थितः य, अपजत्तगा य। सेत्तं सुहुमतेउक्काइया। से किं तं बादरतेउक्काइया? बादरतेउकाइया अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा-- सूर्यमणिसंसृताऽऽदिरूपश्चाग्निः, दाह्यप्रतिबद्धो ज्वालाविशेषोऽर्चिः, इंगाले, जाला,मुम्मुरे, अच्ची, अलाए, सुद्धगणी, उक्का, विज्जू, ज्वाला छिन्नमूलाऽनङ्गारप्रतिबद्धा, प्रविरलाग्निकणानुविद्धं भस्म असणी, णिग्याए, संघरिससमुट्ठिए, सूरकंतमणिणिस्सिए, जे मुर्मुरः / एतेबादरा अग्निभेदाः पञ्च भवन्तीति। एते चबादरामयः स्वस्थायावण्णे तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पणत्ता / तं जहा नाङ्गीकरणान्मनुष्यक्षेत्रेऽर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेष्वव्याघातेन पञ्चदशसु पज्जत्तमा य, अपज्जत्तगा य / तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा, ते णं कर्मभूमिषु व्याघाते सति पञ्चसु विदेहेषु, नान्यत्र, उपपाताङ्गीकरणेन असंपत्ता। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एएसिं वण्णदेसेणं गंधादेसेणं लोकासंख्येयभागवर्तिनः। तथा चाऽऽगमः-"उववाएणं दोसु उड्डकयाडेसु रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सऽग्गसो विहाणाई संखिज्जाई तिरियलोयतट्टे य।" अस्यायमर्थः-अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रबाहल्ये जोणिप्पमुहसयसहस्साइं पञ्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्क पूर्वापरदक्षिणोत्तरस्वयम्भूरमणपर्यन्ताऽऽयते ऊर्धाधोलोकप्रमाणे कपाटे मंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखेज्जा / सेत्तं बादरतेउ- तयोः प्रविष्टा बादराग्निषूत्पद्यभानकास्तद् व्यपदेशं लभन्ते / तथाकाइया, सेत्तं तेउक्काइया। (तिरियलोयतट्टे य त्ति) तिर्यग्लोकस्थालके च व्यवस्थितो बादराग्नि(से कि तमित्यादि) सुगम, नवरमगारो विगतधूमः, ज्वाला घुत्पद्यमानो बादरग्रिव्यपदेशभाग् भवति / / अन्ये तु व्याचक्षते-तयोस्तिजाज्वल्यमानः, सादिराऽऽदिज्वालाऽनलसम्बद्धा दीपशिखेत्यन्ये / छतीति तत् स्थः, तिर्यग्लोकश्चासौ तत् स्थश्च तिर्यग्लोकतत्स्थः / तत्र च मुर्मुरः फुम्फुकाऽऽदौ भस्ममिश्रिताग्निकणरूपः, अर्चिरनला–प्रतिबद्धा स्थित उत्पित्सुर्बादराग्निव्यपदेशमासादयति / अस्मिश्च व्याख्याने कपाज्वाला, आलातमुल्मुकं, शुद्धाऽग्निरयः पिण्डाऽऽदौ, उल्का चुहुल्ली, टान्तर्गत एव गृह्यते, स च द्वयोरूर्द्धकपाटयोरित्यनेनैवोपात्त इति तद् विद्युत्प्रतीता, अशनिराकाशे पतदग्निमयः कणः, निर्घातो वैक्रिया व्याख्यानाभिप्रायं न विद्मः / कपाटस्थापना चेयम्समुद्धातेन सर्वलोकशनिप्रपातः, सङ्घर्षसमुत्थितोऽरण्याऽऽदिकाष्टनिर्मथनसमुद भूतः, वर्तिनः,लेच पृथिव्यादयोमारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता बादराग्निषत्पसूर्यकान्तमणिनिस्सृतःसूर्य खरकिरणसम्पर्के सूर्यकान्तमणेर्यः द्यमानास्तद् व्यपदेशभाजः सर्वलोकव्यापिनो भवन्ति / यत्र च बादराः समुपजायते, (जे यावण्णे तहप्पगारा इति) येऽपि चान्ये तथाप्रकारा | पर्याप्तकास्तत्रैव बादरा अपर्याप्तकाः, तन्निश्रया तेषामुत्पद्यमानत्वात्। तदेव एवंप्रकारास्तेजस्कायिकाः, तेऽपि बादरतेजस्कायिकतया वेदितव्याः, | सूक्ष्मा बादराश्च पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन प्रत्येकं द्विधा भवन्ति। एतेचवर्णगन्ध
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________________ तेउक्काइय 2344 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेउक्काइय रसस्पर्शाऽऽदेशैःसहस्राग्रशो भिद्यमानाः सङ्ख्येययोनिप्रमुखशतसहस्रभेदपरिमाणा भवन्ति / तत्रैषां संवृता योनिरूषण। च सचित्ताऽचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा। सप्त चैषां योनिलक्षाभवन्ति / / 11 / / साम्प्रतं चशब्दसमुचित लक्षणद्वारमाहजह देहप्परिणामो, रत्तिं खज्जोयगस्स सा उवमा। जरियस्स य जह उम्हा, तह उवमा तेउजीवाणं / / 116 // (जहेत्यादि) यथेतिदृष्टान्तोपन्यासार्थः / देहपरिणामः प्रतिविशिष्टा शरीरशक्तिः, रात्राविति विशिष्टकालनिर्देशः / खद्योतक इति प्राणिविशेषपरिग्रहः / यथा तस्याऽसौ देहपरिणामो जीवप्रयोगनिवृत्तशक्तिराविश्वकास्ति, एवमङ्गाराऽऽदीनामपिप्रतिविशिष्टा प्रकाशाऽऽदिशक्तिरनुमीयते जीवप्रयोगविशेषाऽऽविर्भावितेति / यथा वाज्वरोष्मा जीवप्रयोग नातिवर्त्तते, जीवधिष्ठितशरीरकानुपात्येव भवति, एषेवोपमाऽ5यजन्तुनाम्, न च मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते, एवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामग्नेः सचित्तता मुक्तकग्रन्थोपपत्तिमुखेन प्रतिपादिता / संप्रति प्रयोगमारोप्यतेऽयमेवाऽर्थः-जीवशरीराण्यङ्गाराऽऽदयः, छेद्यत्वाऽऽदिहेतुगणान्वितत्वात्, सास्नाविषाणाऽऽदिसघातवत्, तथा आत्मसंयोगाऽऽविर्भूतोऽङ्गाराऽऽदीनां प्रकाशपरिणामः, शरीरस्थत्वात्, खद्योतकदेहपरिणामवत्, तथा-आत्मसंप्रयोगपूर्वकोऽङ्गाराऽऽदीनामूष्मा, शरीरस्थत्वात्, ज्वरोष्मवत् / न चाऽऽदित्याऽऽदिभिरनेकान्तः / सर्वेषामात्मप्रयोगपूर्वक यत उष्णपरिणामभाक्त्वं तस्मान्नानेकान्तः, तथा सचेतनं तेजो, यथायोग्याऽऽहारोपादानेन वृद्धिविशेषतद्विकारवचात, पुरुषवत्। एवमादिना लक्षणेनाऽऽग्नेया जन्तवोऽवसेयाः।।११६।। इत्युक्तं लक्षणद्वारम्। अथ परिमाणद्वारमाहजे बायरपज्जत्ता, पलियस्स असंखभागमेत्ता उ। सेसा तिण्णि वि रासी, वीसुं लोगा असंखेज्जा / / 120 / / (जे बायरेत्यादि) ये बादरपर्याप्ताऽनलजीवाः क्षेत्रपल्योपमारा - ख्येयभागमात्रवर्त्तिप्रदेशराशिपरिमाणा भवन्ति, ते पुनर्बादरपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्योऽसंख्येयगुणहीनाः, शेषास्त्रयोऽपिराशयः पृथ्वीकायद्भावनीयाः। किंतु बादरपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यो बादराऽऽग्रेयपर्याप्तका असंख्येयगुणहीनाः सूक्ष्मपृथिवीकायापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माऽऽग्रेयापर्याप्तका विशेषहीनाः, सूक्ष्मपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माऽऽग्नेयपर्याप्तका विशेषहीना इति / / 120|| साम्प्रतमुपभोगद्वारमाहदहणे पयावणपगा-सणे य सेए य भत्तकरणे य। बायरतेउक्काए, उवभोगगुणा मणुस्साणं / / 121 / / (दहणेत्यादि) दहनं-शरीराऽऽद्यवयवस्य वाताऽऽद्यपनयनार्थ प्रकृष्ट तापन प्रतापनशीतापनोदाय, प्रकाशकरणमुद्द्योतकरणंप्रदीयाऽऽदिना, भक्तकरणमोदनाऽऽदिरन्धनम्, स्वेदोज्वरविशूचिकाऽऽदीनाम्। इत्येवमादिष्वनेकप्रयोजनेषूपस्थितेषु मनुष्याणां बादरतेजस्कायविषया उपभोगरूपा गुणा उपभोगगुणा भवन्तीति।।१२१|| तदेवमेवमादिभिः कारणैः समुपस्थितैः सततमारम्भप्रवृत्ता गृहिणो | यत्याभासा वा सुखैषिणस्तेजसकायजन्तून हिंसन्तीति दर्शयितुमाह एएहिं कारणेहिं, हिंसति उ तेउकाइए जीवे। सायं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति॥१२२|| (एएहि इत्यादि) एतैर्दहमाऽऽदिभिः कारणैस्तेजस्कायिकान् जीवान् हिंसन्तीति संघटनप रितापनाऽपद्रावणानि कुर्वन्ति, सात सुख तदात्मनोऽन्विष्यन्तः परस्य बादराग्निकायस्य, दुःखमुदीरयन्त्युत्पादयन्तीति / / 12 / / साम्प्रतं शस्त्रद्वारम्, तब द्रव्यभावशस्त्रभेदात् द्विधा, द्रव्यशस्वमपि समासविभागभेदात् द्विधैव, तत्र समासतो द्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाऽऽहपुढवी आउक्काए, उल्ला य वणस्सई तसा पाणा। बायरतेउकाए, एयं तु समासओ सत्थं // 123 / / पृथिवी धूलिः, अप कायश्च आर्द्रश्च वनस्पतिः त्रसाश्च प्राणिनः, एतद् बादरतेजस्कायजन्तूनां समासतः सामान्येन शस्त्रमिति॥१२३।। विभागतो द्रव्यशस्त्रमाहकिंची सकायसत्थं, किंची परकाएँ तदुभयं किंची। एयं तु दव्वसत्थं , भावे य असंजमो सत्थं // 124|| (किंचीत्यादि) किश्चिच्छस्त्रं स्वकाय एव अनिकाय एवाग्निकायस्य। तद्यथा-तार्णोऽग्निः पारणाग्नेः शस्त्रमिति / किञ्चिच्चपरकायशस्त्रमुदकाऽऽदि। उभयशस्त्र पुनस्तुपकरीषाऽऽदिव्यतिमिश्रोऽग्निरपराग्नेः / तुशब्दो भावशरस्त्रापेक्षया विशेषणार्थ: / एतत्तु पूर्वोक्त समास विभागरूप पृथवीस्वकायाऽऽदिद्रव्यशस्वनिति। भावशस्त्रं दर्शयतिभावे शस्त्रमसंयमो दुःप्रणिहितमनोवाकायलक्षण इति // 124 / / अथोपसंहारमाहसेसाई दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए। एवं तेउद्देसे, निजुत्ती कित्तिया एसा।।१२५।। (रोसाणीत्यादि) उक्तशेषाणि द्वाराणि तान्येव, यानि पृथिव्युद्देशकेऽभिहितानि / एवमुक्तप्रकारेण, तेजस्कायाभिधानोद्देशके नियुक्तिः कीर्तिता व्यावर्णिता भवतीति / / 125 / / साम्प्रतं सूत्रानुगमे स्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चार ___णीयम्। तचेदम्से बेमि णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्माइक्खेज्जा, जे लोयं अब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइक्खइ / / 31 / / (से बेमीत्यादि) अस्य च संबन्धः प्राग्यद्वाच्य इति। येन मया सामान्याऽऽत्मपदार्थपृथिव्यप्कायजीवप्रविभागव्यावर्णनमकारि स एवाहमव्यवच्छिन्नज्ञानप्रवाहस्तेजोजीवस्वरूपोपलम्भसमुपजनितजिनवचनसमदो ब्रवीमि। किं पुनस्तदिति दर्शयति-(नैवेत्यादि) इह हि प्रकरणसंबन्धाल्लोकशब्देनाग्निकायलोकोऽभिधित्सितः, अतस्तमग्निलोकं जीवत्वेन नैव स्वयमात्मनाऽभ्याचक्षीत, नैवापहनुवीतेत्यर्थः / एतदभ्याख्याने ह्यात्मनोऽपि ज्ञानाऽऽदिगुणकलापानुमितस्याभ्याख्यानमवाप्नोति। अथ च प्राक् साधितत्वादभ्याख्यानं नैवाऽऽत्मनो न्याय्यम, एवं तेजस्कायस्थापि प्रसाधित्वात् अभ्याख्यानं क्रियमाणं न युक्तिपथम
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________________ तेउक्काइय 2345 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेउक्काइय वतरति / एवं चास्य युक्त्यागमबलप्रसिद्धस्याभ्याख्याने क्रिय-माणे सत्यात्मनोऽप्यहप्रत्ययसिद्धस्याभ्याख्यानं भवतः प्राप्तम् / एवमस्त्विति चेत्,तन्नेति दर्शयति-(नव अत्ताणं अन्भाइक्खेज्जा) नैवाऽऽत्मानंशरीराधिष्ठातारं ज्ञानगुणं प्रत्यात्मसंवेद्यं प्रत्याचक्षीत, तस्य शरीराधिष्ठातृत्वेनाऽऽहृतमिदं शरीर के नचिदभिसन्धिमता, तथा त्यक्तमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमतैवेत्येवमादिभिर्हेतुभिः प्रसाधितत्वात्।नच प्रसाधितप्रसाधनं पिष्टपेषणवद् विद्वज्जनमनासि रञ्जयति। एवञ्च सत्यात्मवत्प्रसाधितमग्निलोकं य : प्रत्याचक्षीत सोऽतिसाहसिक आत्मानमभ्याख्याति निराकरोति, यश्वाऽऽत्माभ्याख्यानप्रवृत्तः स सदैवाग्निलोकमभ्याख्याति, सामान्यपूर्वकत्वाद्विशेषाणाम्, सति / ह्यात्म्सामान्ये पृथिव्याद्यात्मविभागः सिद्ध्यति. नान्यथा, सामान्यस्य विशेषव्यापकत्वात् : व्यापकविनिवृत्तौ च व्याप्यस्याप्यवश्यंभाविनी विनिवृत्तिरिति कृत्वा / एवमयमग्निलोकः सामान्याऽऽत्मवन्नाभ्याख्यातव्य इति प्रदर्शितम्। अधुनाऽग्निजीवप्रतिपत्तौ सत्यां तद्विषयसमारम्भकटुकफलपरिहारोपन्यासाय सूत्रमाहजे दीहलोगसत्थस्सखेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे। (जे दीहेत्यादि) य इति मुमुक्षुर्दी घेलोको-वनस्पतिर्यस्तदसौ कायस्थित्या परिमाणेन शरीरोच्छ्रयेण च शेषैकेन्द्रियेभ्यो दीर्घो वर्तते। तथाहि कायस्थित्या तावत् "वणस्सइकाइएणं भंते ! वणस्सइकाए त्ति कालओ के वचिरं होइ? गोयमा ! अणेतं कालं अणताओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणीओ, खेत्तओ अणंता लोया असंखे झा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागे।'' परिमाणतस्तु-''पडुप्पन्नवणस्सइकाइयाणं भंते ! केवतिकालस्स निल्लेवणा सिया ? गोयमा ! पमुप्पन्नवणस्सइकाइयाण नत्थि निल्लेवणा।" तथा शरीरोच्छ्याच दीर्घा वनस्पतिः। "वणस्सइकाइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! साइरेग जोयणसहस्सं सरीरोगाहणा।"न तथाऽन्येषां एकेन्द्रियाणाम्, अत:स्थितमेतत्सर्वथा दीर्घलोको वनस्पतिरिति / अस्य च शस्त्रमग्निः, यस्मात्स हि प्रवृद्धज्वालाकलापाऽऽकुलः सकलतरुगणप्रध्वंसनाय प्रभवति, अतोऽसौ तदुत्सादकत्वाच्छस्त्रम्। ननु च सर्वलोकप्रसिद्ध्या करमादग्निरेव नोक्तः? किं वा प्रयोजनमुररीकृत्योक्तं दीर्घलोकशस्वमिति? अत्रोच्यते-प्रेक्षापूर्वकारितया, न निरभिप्रायमेतत्कृतमिति। यस्मादयमुत्पाद्यमानो ज्वाल्यमानो वाहव्यवाहः समस्तभूतग्रामघाताय प्रवर्तत, वनस्पतिदाहप्रवृत्तस्तु बहुविधसत्त्वसंहतिविनाशकारी विशेषतः स्यात्, यतो वनस्पती कृमिपिपीलिकाभ्रमरकपोतश्वापदाऽऽदयः संभवन्ति, तथा पृथिव्यपि तरुकोटरव्यवस्थिता स्यात्, आपोऽप्यवश्यायरूपाः, वायुरपीषचञ्चलस्वभावकोमलकिशलयानुसारी संभाव्यते / तदेवमग्निसमारम्भप्रवृत्त एतावतो जीवान्नाशयति, अस्यार्थस्य सूचनाय दीर्घलोकशस्त्रग्रहणमकरोत् सूत्रकार इति। तथा चोक्तम्"जायतेयं न इच्छंति, पावगं जलइत्तए। तिक्खमन्नयरं सत्थं, सव्वओ विदुरासयं / / 33 / / पाईणं पडिणं वा वि, उट्ठे अणुदिसामवि। अहे दाहिणओ वा वि, दहे उत्तरओ वि य॥३४॥ भूयाण-मेस–माघाओ, हव्ववाहो न संसओ। तं पईवपयावट्ठा, संजया किंचि नारभे॥३५॥"(दश०६अ०) अथवा बादरतेजस्कायाः पर्याप्तकाःस्तोकाः, शेषाः पृथिव्यादयो जीवकाया बहवः, भवस्थितिरपि त्रीण्यहोरात्राणि स्वल्पा, इतरेषां पृथिव्यप्वायुवनस्पतीनां यथाक्रमं द्वाविंशतिसप्तत्रिदशवर्षसहसपरिमाणा दीर्घा अवसेया इति / अतो दीर्घलोकः-पृथिव्यादिः, तस्य शस्त्रमग्निकायः, तस्य क्षेत्रज्ञो निपुणोऽनिकाये वर्णाऽऽदितो जानातीत्यर्थः / खेदज्ञो वा, खेदः-तद् व्यापारः सर्वसत्त्वानां दहनाऽऽत्मकः पाकाऽऽधनेकशक्तिकलापोपचितः प्रवरमणिरिव जाज्वल्यमानो लब्धाग्निव्यपदेशः यतीनामनारम्भणीयः, तमेवंविधं खेदमग्रिव्यापारंजानातीति खेदज्ञः, अतो य एव दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः स एवाशस्त्रस्य सप्तदशभेदस्य संयमस्य खेदज्ञः / संयमो हि न कञ्चिजीवं व्यापादयति, अतोऽशरवम् / एवमनेन संयमेन सर्वसत्त्वाभयप्रदायिनाऽनुष्ठीयमानेनाग्निजीवविषयः समारम्भः शक्यः परिहर्तु पृथिव्यादिकायसमारम्भश्चेत्येवमसौ संयभे निपुणमतिर्भवति, ततश्च निपुणमतित्वाद्विदितपरमार्थोऽग्निसमारम्भाव्यावृत्य संयमानुष्ठाने प्रवर्तते। इदानीं गतप्रत्यागतलक्षणेनाविनाभावित्वप्रदर्शनार्थ विप र्ययेण सूत्रावयवपरामर्श करोतिजे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोगसत्थस्स खेयपणे / / 32 / / (जे असत्थस्स इत्यादि) यश्चाशस्त्रे संयमे निपुणः, स खलु दीर्घलोकशस्वस्याग्नेः, क्षेत्रज्ञः खेदज्ञो वा, संयमपूर्वकं ह्यग्निविषयखेदज्ञत्वम् / अग्निविषयखेदज्ञतापूर्वकं च संयमानुष्ठानम्, अन्यथा तदसंभव एवेत्येतदतप्रत्यागतफलमाविर्भावितं भवति। ___कैः पुनरिदमेवमुपलब्धमित्यत आहवीरेहिं एवं अभिभूय दिहूँ, (वीरेहीत्यादि) अथवा सद्भक्तृप्रसिद्धौ सत्यां वाक्यप्रसिद्धिर्भवति, इत्यत उपदिश्यते-(वीरेहीत्यादि) घनघातिकर्मसंघातविदारणानन्तरप्राप्तातुलकेवलश्रिया विराजन्त इति वीराः-तीर्थकराः, तैर्वीररर्थतो दृष्टमेतद्गणधरैश्च सूत्रतोऽग्निशस्त्रं दृष्टम् , अशस्त्र संयमस्वरूपं चेति। किं पुनरनुष्ठायेदं तैरुपलब्धमिति? अत्रोच्यते-(अभिभूयेति) अभिभयो नामाऽऽदिश्चतुर्दा, द्रव्याभिभवो रिपुसेनाऽऽदिपराजयः, आदित्यतेजसा वा चन्द्रग्रहनक्षत्राऽऽदितेजोऽभिभवः, भावाभिभवस्तुपरीषहोपसर्गानीकज्ञानदर्शनाऽऽवरणमोहान्तरायकर्मनिर्दलनं, परीषहोपसर्गाऽऽदिसेनाविजयाद्विमलं चरणं, चरणशुद्धेर्शानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्षयः, तत् क्षयान्निरावरणमप्रतिहतमशेषज्ञेयग्राहि के वलज्ञानमुपजायते / इदमुक्तम्भवति परीषहोपसर्गज्ञानदर्शनाऽऽवरणीयमोहान्तरायाण्यभिभूय केवलमुत्पाद्य तैरुपलब्धमिति। यथाभूतैस्तैरिदमुपलब्धं तद्दर्शयतिसंजएहिं सया जत्तेहिं सया अप्पमत्तेहिं / / 33 / / सम्यग्यताः संयताः प्राणातिपाताऽऽदिभ्यस्तैः, तथा सदासर्वकालं चरणप्रतिपत्तौमूलोत्तरगुणभेदायां निरतिधारत्वाद्यत्नवन्तस्तैः, तथा सदा सर्वकालं न विद्यते प्रमादो मद्यविषयकषायविकथानिद्राऽऽख्यो येषां ते प्रमत्ताः, तैरवभूतैर्महावीरैः केवलज्ञानचक्षुषेदं दीर्घलोकशस्त्रम्, अशस्त्रं च संयमो दृष्ट
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________________ तेउक्काइय 2346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेउक्काइय मुपलब्धमिति / अत्र च यत्नग्रहणादीर्यासमित्थादयो गुणा गृह्यन्ते। अप्रमादग्रहणात्तु मद्याऽऽदिनिवृत्तिरिति। तदेवमेतत्प्रधानपुरुषप्रतिपादितमग्निशस्त्रमपायदर्शनादप्रमत्तैः साधुभिः परिहार्यमिति / / एवं प्रत्यक्षीकृतानेकदोषजालमप्यग्निशस्त्रमुपभोगलोभात्प्रमादवशगाये न परिहरन्ति, तानुद्दिश्य विपाकदर्शनायाऽऽहजे पमत्ते गुणट्ठीए से हु दंडे त्ति पवुच्चइ / / 34 / / यो हि प्रमत्तो भवति मद्यविषयाऽऽदिप्रमादैरसंयतो 'गुणार्थी रन्धनपचनप्रकाशाऽऽतापनाऽऽद्यग्निगुणप्रयोजनवान् स दुष्प्रणिहितमनो - वाक्कायोऽग्निशस्त्रसमारम्भकतया प्राणिनां दण्डहेतुत्वाद्दण्डः, प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यते,आयुर्घताऽऽदिव्यपदेशवदिति। यतश्चैवं ततः किं कर्त्तव्यमित्यत आहतं परिण्णाय मेहावी, इयाणिं णो जमहं पुख्यमकासी पमाएणं // 35 / / (त परिण्णाय मेहावी) तमग्निकायसमारम्भं दण्डफलं परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभ्यां मेधावी मर्यादाव्यवस्थितो वक्ष्यमाणप्रकारेण व्यवच्छेदमात्मन्याचिनोतीति। तमेव प्रकार दर्शयितुमाह(इयाणीत्यादि) यमहमग्निसमारम्भं विषयप्रमादेनाऽऽकुलीकृतान्त:करणः सन् पूर्वमकार्ष, तमिदानी जिनवचनोप-लब्धाग्निसमारम्भदण्डतत्त्वः नो करोमीति॥ अन्ये त्वन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाहलज्जमाणा पुढो पास-अणगारा मो त्ति एगे पवदमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थे हिं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति, तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव अगणिसत्थं समारंभइ, अण्णे हिंवा अगणि सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा अगणिसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए तं से अबोहियाए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिंणायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए, इचत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ॥३६।। (लज्जमाणेत्यादि) यावत्-(अन्ने अणेगरूवे पाणे विहिंसइत्ति) अस्य ग्रन्थस्योक्तार्थस्याऽयमर्थों लेशतः प्रदर्श्यतेलज्जमानाः स्वाऽऽगमोक्तानुष्ठानं कुर्वाणाः सावद्यानुष्ठानेन वा लज्जां कुर्वाणाः, पृथग्विभिन्नाः शाक्याऽऽदयः, पश्येति संयमानुष्ठाने स्थिरीकरणार्थं शिष्यस्य चोदना, अनगारा वयमित्येके प्रवदमानाः, किं तैर्विरूपमाचरितं येनैव प्रदान्त इति दर्शयति-यदिदं विरुपरूपैः शस्त्रैरग्निकर्मसमारम्भेण अग्निशस्त्रं समारंभमाणः सन्नन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्ति, तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता,यथाऽस्यैव परिफल्गुजीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थं दुःखप्रतिघातहेतुं यत्करोति तदर्शयति स परिवन्दनाऽऽद्यार्थी स्वत एवाग्निशस्त्रं समारंभंते, तथा अन्यैश्चाग्निशस्त्र समारम्भयति, तथाऽन्याँश्च अग्निशस्त्रं समारंभमाणान् समनुजानीते। तचाग्नेः समारम्भणं से' तस्स सुखलिप्सोरमुत्रान्यत्र चाहिताय भवति। तथा-तदेव च तस्याबोधिलाभाय भवति / स इति यस्यैतदसदाचरणं प्रदर्शितं स तु शिष्यस्तदनिसमारम्भणपापायेत्येवं संबुध्यमान आदानीय ग्राह्य सम्यग्दर्शनाऽऽदिसम्यगुत्थायाभ्युपगम्य श्रुत्वा भगवदन्तिकेऽनगाराणा वा इहैकेषा साधूनां ज्ञातं भवति। किं तद्दर्शयति? एषोऽग्निसमारम्भः ग्रन्थः कर्महेतुत्वात्. एष एव मोह एष एव मार एष एव नरकस्तद् हेतुत्वादिति भावः / इत्येवमर्थं च गृद्धो लोको यत्करोति तदर्शयति-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैरग्निकर्म समारंभते, तदारम्भेण चाग्निशस्त्रं समारंभते तचाऽऽरभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्तीति / / कथं पुनरग्निसमारम्भप्रवृत्ता नानाविधान प्राणिनो विहिंसन्तीति दर्शयितुमाहसे बेमि-संति पाणा पुढविणिस्सिया तणणिस्सिया पत्तणिस्सिया कट्ठणिस्सिया गोमयणिस्सिया कयवरणिस्सिया, संति संपातिमा पाणा आहच संपयंति, अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जंति, जे तत्थ संघायमावजंति ते तत्थ परियावजंति, जे तत्थ परियावजंति ते तत्व उद्दायंति // 37 / / (से बेमीत्यादि) तदहं ब्रवीमि यथा नानाविधजीवहिंसनमग्निकायसमारम्भेण भवतीति। यथाप्रतिज्ञातार्थ दर्शयतिसन्ति विद्यन्तेप्राणा जन्तवः, पृथिवीकायनिश्रिताः पृथिवीकायत्वेन परिणता इत्यर्थः / तदाश्रिता वा कृमिकुन्थुपिपीलिकागण्डूपदाहिमण्डूकवृश्चिकर्कटकाऽऽदयः / तथा-वृक्षगुल्मलतावितानाऽऽदयः / तथा तृणपत्रनिश्रिताः पतड़े लिकाऽऽदयः / तथा-काष्टनिश्रिता घुणोद्देहिकापिपीलिकाइण्डाऽऽदयः / गोमयनिश्रिताः-कुन्थुपनकाऽऽदयः। कचवरः पत्रतृणधूलिसमुदायः, तनिश्रिताः कृमिकीटपतङ्गाऽऽदयः / तथा सन्ति विद्यन्ते संपतितुमुत्प्लुत्योत् प्लुत्य गन्तुमागन्तुं वा शीलं येषां ते संपातिनः प्राणिनोजीवा मक्षिकाभ्रमरपतङ्गमशकपक्षिवाताऽऽदयः, एते च संपातिन आहत्योपेत्य स्वतएव।यदिवा अत्यर्थ कदाचिद्रा अनिशिखाया संपतन्ति च। तदेवं पृथिव्यादिनिश्रिताना जीवानां यद्भवति तदर्शयितुमाह-(अगणि चेत्यादि) रन्धनपचनतापनाऽऽद्यग्निगुणार्थिभिरवश्यमग्निसमारम्भो विधेयः; तत्समारम्भे च पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानामेता वक्ष्यमाणा अवस्था भवन्ति, छान्दसत्वात् तृतीयाऽर्थे द्वितीया। ततश्चायमर्थः-अग्रिना स्पृष्टाः छुप्ता एके केचन संघातमधिकं गात्रसंकोचनं मयूरपिच्छवदापद्यन्ते. चशब्दस्याऽऽधिक्यार्थत्वात्, खलुशब्दोऽवधारणे, अग्नेरेवाय प्रतापो नापरस्येति / यदि वा सप्तम्यर्थे द्वितीया / स्पृष्टशब्दश्च पतितवचनः / ततश्चायमर्थो भवति–अग्रावेव स्पृष्टाः पतिता एके शलभाऽऽदयः, संधात समेकीभावेनाधिकं गात्रसंकोचनमापद्यन्ते प्राप्नुवन्ति, ये च तत्राग्नी पतिताः संघातमापद्यन्ते ते प्राणिनः, तत्राग्नौ पर्यापद्यन्ते। पर्यापत्तिःसंमूर्छनम्, ऊष्माभिभूता मूर्छामापद्यन्ते इत्यर्थः / अथ किमर्थ सूत्रकृता विभक्ति परिणामोऽकारीति? उच्यते-मागधदेशीसमनुवृत्तेः, व्याख्याविकल्पप्रदर्शनार्थ वा / अध्याहाराऽऽदयोऽपि व्याख्याङ्गानीत्यनेन
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________________ तेउक्काइय 2347 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेउक्काइय शिप्याज्ञापितो भवति। अथ के पुनस्तेऽध्याहाराऽऽदय इति? उच्यतेअध्याहारो, विपरिणमो, व्यवहितकल्पना, गुणकल्पना, लक्षणा, वाक्यभेदश्चेति। इह च द्वितीयाविभक्तेः सप्तमीपरिणामः कृत इति / ये च तत्राग्नी पर्यापद्यन्ते ते प्राणिनः कृमिपिपीलिकाभ्रमरनकुलाऽऽदयः, तत्रानावपदावन्ति प्राणान् मुञ्चन्तीत्यर्थः / तदेवमग्रिसमारम्भे सति न केवलमग्रिजन्तूनां विनाशः, किं त्वन्येषामपि पृथिवीतृणपत्रकायोमयकचवराऽऽश्रितानां सम्पातिनां च व्यापत्तिरवश्यम्भाविनीति / अत एव च भगवत्यां भगवतोक्तम्-"दो पुरिसा सरिसवया अन्नमन्नेहिं सद्धि अगणिकायं समारंभंति, तत्थ ण एगे पुरिसे अगणिकाय समुज्जालेति, एणे विज्झवेति। तत्थ णं के पुरिसे महाकम्मयराए? के पुरिसे अप्पकम्मयराए? गोयमा ! जे उज्जालेति से महाकम्मयवराए, जे विज्झवेति से अप्पकम्मयराए।" तदेवं प्रभूतसत्त्वोपमईनकरमग्न्यारम्भ विज्ञाय मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिश्च तत्परिहारः कार्य इति दर्शयितुमाह एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इचेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिण्णाय मेहावीणेव सयं अगणिसत्थं समारंभे, नेवऽण्णेहिं अगणिसत्थं समारंभावेजा, अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणुजाणेजा, जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे // 38|| त्ति बेमि।। (एत्थ सत्थेत्यादि) अनाग्निकाये शस्त्र स्वकायपरकायभेदभिन्नं समारभमाणस्य व्यापारयत इत्येते आरम्भाः पचनपाचनाऽऽदयो बन्ध- / हेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति। तथाऽत्रैवाग्रिकाये शस्त्रमसमारंभमाणस्यते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति / यस्यैते अग्निकायसमारम्भा ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाता भवन्ति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति, स एव मुनिः परमार्थतः परिज्ञातकर्मेति / ब्रवीमीति पूर्ववदिति / आचा०१ श्रु०१ अ०४उन सम्प्रति तेजस्कायपिण्डमाहतिविहो तेउकाओ, सच्चित्तो मीसओ य अचित्तो। सच्चित्तो पुण दुविहो, निच्छय-ववहारओ चेव / / 41 / / त्रिविधः तेजस्कायः / तद्यथा-सचित्तो, मिश्रोऽचित्तश्च / सचित्तः पुनर्द्विविधः-निश्चयतः, व्यवहारतश्च। निश्चयव्यवहाराभ्यामेव सचित्तस्य द्वैविध्यमाहइट्ठगपागाईणं, बहुमज्झे विजुमाइ निच्छयओ। इंगालाई इयरो, मुम्मुरमाई य मिस्सो उ॥४२॥ इष्टकापाकः प्रतीतः। आदिशब्दात् कुम्भकारपाकेक्षुरसक्वथनचुल्ल्यादिपरिग्रहः / तेषां च बहुमध्यभागे विद्युदादिश्च विधुदुल्काप्रमुखस्तेजस्कायो निश्चयतः सचित्तः, शेषस्तु अङ्गाराऽऽदिकः, अङ्गारोज्वालारहितोऽग्निः , आदिशब्दाद् ज्वालाऽऽदि परिग्रहः। व्यवहारतः सचित्तः। सम्प्रति मिश्र तेजस्कायमाह-(मुम्मुरमाई य मिस्सो उ) मुर्मुरः कारीषोऽग्निः, आदिशब्दादविद्ध्याताऽऽदिपरिग्रहः / इत्थंभूतो मिश्र इति। साम्प्रतमचित्त तेजस्कायपिण्डमाहओयणवंजणपाणग-आयामुसिणोदगं च कुम्मासा। डगलगसरक्खसूई, पिप्पलमाई उ उवओगो।।४३।। ओदनः-शाल्याऽऽदिभक्त, व्यञ्जनं–पत्रशाकतीमनाऽऽदि। पा-नककाजिकम्। तत्र ह्यवश्रावण प्रक्षिप्यते, ततस्तदुपेक्षया काञ्जिकस्यानिकायता। आयामम्-अवश्रावण,उष्णोदकम्-उद्धृतत्रिदण्डम् / एतेषां च पदानां समाहारद्वन्द्वः / चकारो मण्डकाऽऽदिसमुच्चयार्थः / कुल्माषाः पक्वा माषाः। एते च ओदनाऽऽदयोऽग्निनिष्पन्नत्वेनाग्रिकार्यत्वादग्नयो व्यपदिश्यन्ते। भवति च तत्कार्यत्वात्तच्छब्देन व्यपदेशः / यथा-द्रम्मो भक्षितोऽनेनेत्यादौ ओदनाऽऽदयश्चाचित्ताः, तत एतेषामचित्तानिकायत्वेनाभिधानं न विरुध्यते / तथा डगलका:-पक्वेष्टकाखण्डानि, सरजस्कोभस्म, सूची लोहमयी वस्त्रसीवनिका / अथवा(सरक्खसूइ त्ति) रक्षा भस्म, सह रक्षया वर्तते इति सरक्षा सूची। किमुक्तं भवति?रक्षा च, सूची चेति। पिप्पलर्क:-किश्चिद्वक्र: क्षुरविशेषः / आदिशब्दानखरदनिकाऽऽदिपरिग्रहः / एतानि च डगलकाऽऽदीनि पूर्वमग्निरूपतया परिणतान्यासीरन्, ततो भूतपूर्वगत्या संप्रत्यपि अग्निकायत्वेन व्यपदिश्यन्ते, अचित्तानि च / न चैतेषामचित्ताग्निकायस्वाभिधाने विरोधः-...(?) संप्रत्यचित्ताग्निकायस्य प्रयोजनमाह-(उवओगो त्ति) एतेषामोदनाऽऽदीनां य उपयोगो भोजनाऽऽदावुपयुज्यमानता, तदचितानिकायेन साधूनां प्रयोजनम: द्रव्याऽऽदिभेदाच्चतुर्विधत्वमचित्ताग्निकायस्य प्रागिव यथायोग भावनीयम् / उक्तस्तेजस्कायपिण्डः / पिं० ओघा आ०म० कल्पका बृ०। (प्रथमं तेजस्कायोद्दीपनम् ऋषभदेवेन शिक्षितमिति 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे 1126 पृष्ठउक्तम्) ('सदीयवसइ' प्रस्तावे साधूनामग्निसेवना प्रदर्शयिष्यते) (विकाले विहरतामग्नि-सेवना 'विहार' शब्दे वक्ष्यते) अथ तेजस्कायहिंसानिषेधमाहजायतेयं न इच्छंति, पावगं जलइत्तए। तिक्खमन्नयरं सत्थं, सव्वओ वि दुरासयं // 33 // जाततेजा अग्निः तं जाततेजसं, नेच्छन्ति मनःप्रभृतिभिरपि पापकं पाप एव पापकस्तं, प्रभूतसत्त्वापकारित्वेनाशुभमित्यर्थः / किं नेच्छन्तीत्याह-ज्वलयितुमुत्पादयितुं, वृद्धिं वा नेतुम्। किंविशिष्टमित्याह-तीक्ष्णं च्छेदकरणाऽऽत्मकम्, अन्यतरत् शस्त्रं सर्वशस्त्रम् / एकधाराऽऽदिशस्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्पमिति भावः / अत एव सर्वतोऽपि दुराश्रयं सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयमिति सूत्रार्थः / / 33 / / एतदेव स्पष्टयन्नाहपाईणं पडिणं वा वि, उड्डे अणुदिसामवि। अहे दाहिणओ वा वि, दहे उत्तरओ वि य॥३४|| अग्निरिति शेषः / प्राच्या प्रतीच्यां वाऽपि, पूर्वाया पश्चिमायां चेत्यर्थः / ऊर्ध्वमनुदिक्ष्वपि, सुपांसुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी। विदिक्ष्वपीत्यर्थः / अधो दक्षिणतश्चापि दहति दाह्यं भस्मीकरोति, उत्तरतोऽपि च सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दहतीति सूत्रार्थः // 34 // यतश्चैवमतःभूयाण-मेस-माघाओ, हव्ववाहोन संसओ। तं पईवपयावट्ठा, संजया किं चि नारभे / / 3 / /
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________________ तेउक्काइय 2348 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेउक्काइय भूतानां स्थावराऽऽदीनामेष आघातः, आघातहेतुत्वादाघातः।। हव्यवाहोऽग्निर्न संशय इत्येवमेवैतदाघात एवेति भावः / येनैवं तेन तं / हव्यवाह प्रदीपप्रतापनार्थमालोकशीतापनोदार्थ , संयताः साधवः किश्चित्साहनाऽऽदिनाऽपि नारभन्ते, संयतत्वापगमनप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः // 35 // यस्मादेवम्तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्ढणं / तेउकायसमारंभ, जावजीवाई वजए।।३६।। व्याख्या पूर्ववत्॥३६॥ दश०६ अ०। अथ तेजस्कायविधिमाहइंगालं अगणिं अचिं, अलायं वा सजोइयं / न उंजिज्जा ण घट्टिजा, नो णं निव्वावर मुणी / / 8 / / अङ्गार ज्वालारहितम्, अग्निमयः पिण्डानुगतम, अर्चिः छिन्नज्वालम्, आलातमुल्मुकं वा; सज्योतिः साग्निकमित्यर्थः / किमित्याह-नोत्सिचेत नघट्टयेत्, तत्रोञ्चनमुत्सेचनं प्रदीपाऽऽदेः, घट्टनं मिथश्चालन, तथा नैनमग्निं निर्वापयेत् अभावमापादयेन्मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः / दश०८अ०। अग्निकायस्य मध्येन नैरयिकाऽऽदयो व्यतिब्रजन्ति-- णेरइयाणं भंते ! अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं वीईवएज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए वीईवएज्जा, अत्थेगइए णो वीईवएज्जा / से केणट्टेणं भंते ! एवं वुचइ-अत्थेगइए वीईवएजा, अत्थेगइए णो वीईवएज्जा? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहाविग्गहगइसमावण्णगा य, अविग्गहगइसमावण्णगा य / तत्थ णं जे से विग्गहगइसमावण्णए णेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं वीईवएजा, से णं तत्थ झियाएजा? णो इणद्वे समढे। णो खलु तत्थ सत्थं कमइ ! तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावण्णए णेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं णो वीईवएजा, से तेणटेणं णो वीईवएज्जा / असुरकुमारे णं भंते ! अगणिकायपुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए वीईवएज्जा, अत्थेगइए णो वीईवएज्जा / से केणढेण०जाव णो वीईवएज्जा? गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा--विग्गहगइसमावण्णगा य, अविग्गहगइसमावण्णगा य / तत्थ णं जे से विग्गहगइसमावण्णए असुरकुमारे, से णं जहेव णेरइए०जाव कमइ, तत्थ गंजे से अविग्गहगइसमावण्णए असुरकुमारे, से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं वीईवएज्जा, अत्थे गइए णो वीईवएज्जा, जे णं वीईवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा? णो इणढे समढे / णो खलु तत्थ सत्थं कमइ / से तेणट्टेणं एवं०जाव थणियकुमारा एगिदिया जहा णेरइया / बेइंदिया णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिए वि,णवरं जे णं वीईवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? हंता! | झियाएजा। सेसं तं चेव०जाव चउरिंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकायपुच्छा? गोयमा ! अत्थेगइए वीईवएज्जा, अत्थेगइए णो वीईवएज्जा / से के णटेणं भंते? गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-- विग्गह-गइसमावण्णगा य, अविग्गहगइसमावण्णगा य / विग्गहगइस-मावण्णए जहवे णेरइए०जाव णो खलु तत्थ सत्थं कमइ, अविग्गहगइसमावण्णगा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-इड्डिपत्ता य, अणिड्डिपत्ताय / तत्थ णं जे से इडिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं से णं अत्थेगइए अग-णिकायस्स मज्झं मज्झेणं वीईवएज्जा, अत्थेगइए णो वीईवएजा। जे णं वीईवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा? णो इणढे समढे / णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। तत्थ णं जे से अणिडिपत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए,से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं वीईवएज्जा, अत्थेगइए णो वीईवएज्जा,जेणं वीईवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा? हंता ! झियाएजा ! से तेणटेणं०जाव णो झियाएजा। एवं मणुस्से वि, वाणमंतरजो--इसिवेमाणिएजहा असुरकुमारे। (नेरइयाणमित्यादि) इह च क्वचिदुद्देशकार्थसंग्रहगाथा दृश्यते / सा चेयम्-'नेरझ्य अगणिमज्झे, दस ठाणा तिरियपोग्गले देवे। पव्वयभित्तीउल्लंघणा य पल्लंघणा चेव / / 1 / / " इति / अर्थश्वास्या उद्देशकाविगमगम्य इति। (णो खलु तत्थ सत्थं कमइ ति) विग्रहगतिसमापन्नो हि कार्मणशरीरत्वेन सूक्ष्मः, सूक्ष्मत्वाच्च तत्र शस्त्रमान्यादिकं न क्रामति / (तत्थ ण जे से इत्यादि ) अविग्रह-गतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते, नतु ऋजुगति समापन्नः, तस्येह प्रकरणेऽनधिकृतत्वात्। स चाग्निकायस्य मध्येन व्यतिव्रजति, नारकक्षेत्रे बादराग्निकायस्याभावान्मनुष्यक्षेत्र एव तद्भावात् / यच्चोत्तराध्ययनाऽऽदिषु श्रूयते-'हुयासणे जलंतम्मि, दड्डूपुव्वो अणेगसो।" इत्यादि। तदग्निसदृशद्रव्यान्तरापेक्षयाऽवसेयम् / संभवन्ति च तथाविधशक्तिमन्ति द्रव्याणि तेजोलेश्याद्रव्यवदिति। असुरकुमारसूत्रे विग्रहगतिको नारकवत्, अविग्रहगति-कस्तु कोऽप्यनेमध्येन व्यतिव्रजेत् यो मनुष्यलोकमागच्छति, यस्तु न तत्रागच्छत्यसौनव्यतिव्रजेत्, व्यतिव्रजन्नपि चनध्मायतेया,ध्मायतेऽतो न खलुतत्र शस्त्र क्रमते, सूक्ष्मत्वाद्वैक्रियशरीरस्य, शीघ्रत्वाच तद्रतेरिति / (एगिदिया जहा नेरइय त्ति) कथम्? यतो विग्रहे तेऽप्यग्निमध्येन व्यतिव्रजन्ति, सूक्ष्मत्वान्न दह्यन्ते च, अविग्रहगतिसमापनकाश्च तेऽपि नागेमध्येन व्यतिव्रजन्ति, स्थावरत्वात्,यच तेजोवायूनां गतित्रसतयाऽग्निमध्येन व्रतिव्रजनं दृश्यते, तदिह न विवक्षितमिति संभाव्यते, स्थावरत्वमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् / स्थावरत्वे ह्यस्ति कश्चित्तेषां गत्यभावो, यदपेक्षया स्थावरास्ते व्यपदिश्यन्ते, अन्यथाऽधिकृतव्य पदेशस्य निर्निबन्धनता स्यात्तथा। यद्वा-व्यादिपारतन्त्र्येण पृथिवयादीनामग्निमध्येन व्यतिव्रजनं दृश्यते, तदपि न विवक्षितम्, स्वातन्त्र्यकृतस्यैव तस्य विवक्षणात्। चूर्णिकारः पुनरेवमाह-एगिदियाणं गई नत्थि त्ति।"
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________________ तेउक्काइय 2346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेउलेस्सा ते न गच्छन्ति। “एगे वाउमायाइपरपेरणेसु गच्छति, विराहिजंति य' इति / / पञ्चेन्द्रियतिर्यक् सूत्रे-(इड्डिपत्ता यत्ति) वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः (अत्थेगइए अगणिकायस्सेत्यादि) अस्त्येककः कश्चित्पश्चेन्द्रियतिर्यग् यो मनुष्यलोकवर्ती स तत्राग्निकायसम्भवात्तन्मध्ये न व्यतिव्रजेत् / यस्तु मनुष्यक्षेत्राद् बहिन सावग्नेमध्येन व्यतिव्रजेत्, अग्नेरेव तत्राभावात्, तदन्यो वा; तथाविधसामग्यभावात्। (णो खलु तत्थ सत्थं कमइ त्ति) बैंक्रियाऽऽदिलब्धिमतिपञ्चेन्द्रिय-तिरश्चिनाग्न्यादिकं शस्त्र क्रमत इति / भ० 14205 उ01 (अने–रुज्ज्वालकः प्रज्वालको वा महाकर्मेति कालो दायिप्रश्नेन 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 447 पृष्ठे विचारितम् अथ अङ्गारकारिकासु तेजस्कायस्थितिः-- इंगालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवइयं कालं संचिट्ठइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाई अण्णे वित्थवाउयाए वुक्कमइ, ण विणा वाउयाएणं अगणिकाए उज्जलइ। पुरिसे णं भंते ! अयं अयकोटुंसि अयोमएणं संडासएणं उविहमाणे वा पविहमाणे वा कइकिरिए? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोटुंसि अयोमएणं संमासएणं उव्विहिंति वा, पविहिंति वा, तावं च णं से पुरिसे काइयाए०जाव पाणाइवायकि रिया पंचहिं किरियाहिं पुढे, जेसिं पिणं जीवाणं सरीरेहितो अयणिव्वत्तिए अयकोटे णिव्वत्तिए संभासए णिव्वत्तिए इंगाला णिव्वत्तिया इंगालकड्डिणी णिव्यत्तिया भंछा णिव्वत्तिया, ते विणं जीवा काइयाए०जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा॥ (इंगालकारियाए त्ति) अङ्गारान् करोतीति अङ्गारकारिका अग्निशकटिका, तस्याम्, न केवलं तरनामग्रिनकायो भवति (अन्ने वित्थ त्ति) अन्योऽप्यत्र वायुकायो व्युत्क्रामति / यत्रानिस्तत्र वायुरिति कृत्वा / कस्मादेवमित्याह (ण वि णेत्यादि) भ०१६ 16 श०१उ०। सूत्र०। नि०चू०। (तेजस्कायस्य आहारः 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 466 पृष्ठे उक्तः) (तेजस्कायस्य प्रतिसेवना 'पडिसेवणा' शब्दे वक्ष्यते) (ओदनाऽऽदयः किशरीरा इति अगणिजीवरसरीर' शब्दे प्रथमभागे 156 पृष्ठे उक्ताः ) तेउपुट्ट त्रि०(तेजःस्पृष्ट) तेजसा अग्निना स्पृष्टो दह्यमानः / अग्निना दह्यमाने,सूत्र०१ श्रु०३ अ०१उ०॥ ते उप्पभ पुं०(तेजःप्रभ) अग्निकु मारेन्द्रयोरग्निसिं हाग्निमानवयोः पश्चिमदिग्लोकपाले, स्था०४ ठा०१ उ०। अग्निकुमारेन्द्रयोरग्निसिंहाग्निमानवयोरुत्तरदिग्लोकपाले, भ०३श०८ उ०। तेउप्फास पुं०(तेजःस्पर्श) उष्णस्पर्श , आचा०१ श्रु०६अ०३उ०। उष्णस्पर्शश्च आतापनाऽऽदिकाले। आचा०१ श्रु० अ०२उ०। तेउलेस्सा स्त्री०(तेजोलेश्या) तेजोऽग्निज्वाला, तद्वर्णानि यानि द्रव्याणि, लोहितानीत्यर्थः / तत्साचिव्याजाता तेजोलेश्या / स्था०१ठा०। विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवायां तेजोज्वालायां लेश्याया सुखासिकायाम, विपा०१ श्रु०१ अ० रा०। चं०प्र०ाजा निर्ग्रन्थानामेव लब्धिविशेषस्य कारणत्रयमाहतिहिं ठाणे हिं समणे णिग्गंथे संखित्तविउलतेउलेस्से भवइ। तं जहा-आयावणयाए, खंतिखमाए, अपाणगेणं तवोकम्मेणं / (तिहिमित्यादि) संक्षिप्ता लघूकृता विपुलाऽपि विस्तीर्णाऽपि सती, अन्यथाऽऽदित्यबिम्बवद् दुर्दर्शा स्यादिति / तेजोलेश्या तपोविभूतिज तेजस्वित्वं तैजसशरीरपरिणतिरूपं महाज्वालाकल्पं येन स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः, आतापनाना शीताऽऽदिभिः शरीरस्य सन्तापनानां भाव आतापनता, शीताऽऽतपाऽऽदेः सहनमित्यर्थः / तया; क्षान्त्या क्रोधनिग्रहेण क्षमा मर्षण, न त्वशक्ततयेतिक्षान्तिक्षमा, तया; आपानकेन पारणककालादन्यत्रतपः कर्मणा षष्ठाऽऽदिनेति / अभिधीयते च भगवत्याम्-"जे णं गोसालो एगाए सनहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडामएणं छटुंछद्रेणं अणिक्खित्तेण तवोकम्मेणं उड्डेबाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सुराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ, से णं अंतो छह मासाणं संखित्तविउलतेउलेस्से भवइ।" इति। स्था०३ ठा०३उ०। आत्मज्ञानमनस्य वाचयमस्य तेजोलेश्या युज्यत इत्याहतेजोलेश्याविवृद्धिर्या, साधोः पर्यायवृद्धितः। भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थंभूतस्य युज्यते // 5 / / टीका सुगमा। अष्ट० २अष्टा जे इमे अज्जत्ताए समणा णिग्गंथा विहरंति, एएणं कस्स तेउलेस्सं वीईवयइ? गोयमा ! मासपरियाए समणे णिग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेउलेस्सं वीईवयइ। दुमासपरियाए समणे णिग्गंथे असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं तेउलेस्सं वीईवयइ / एवं एएणं अभिलावेणं तिमासपरियाए समणे णिग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेउलेस्सं वीईवयइ / चउमासपरियाए समणे णिग्गंथे गहगणणक्खत्ततारारूदाणं जोइसियाणं देवाणं तेउलेस्सं वीईवयइ / पंचमासपरियाए समणे णिग्गंथे चंदिमसूरियाणं जोइसियाणं जोइसिरायाणं तेउलेस्सं वीईवयइ / छम्मासपरियाए समणे णिग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं / सत्तमासपरियाए सणंकुमारमाहिंदाणं देवाणं / अट्ठमासपरि-याए समणे णिग्गंथे बंभलोगलंतगाणं देवाणं तेउलेस्सं वीईवय।। णवमासपरियाए समणे णिग्गंथे महासुक्कसहस्साराणं देवाणं तेउलेस्सं वीईवयइ / दसमासपरियाए समणे णिग्गंथे आणयपाणयआरणऽचुयाणं देवाणं / एक्कारसमासपरियाए समणे णिग्गंथे गेवेज्जगदेवाणं / वारसमासपरियाए समणे जिग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेउलेस्सं वीईवयइ। तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भवित्ता, तओ पच्छा सिज्झइ० जाव अंतं करेइ। (जे इमे इत्यादि) य इमे प्रत्यक्षाः (अज्जताए त्ति) आर्यतया पापकर्म बहिर्भूततया, अद्यतया वा अधुनातनतया, वर्तमानकाले इत्यर्थः / (ते उले स्सं तिग) ते जो लेश्यां सुखासिकां,
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________________ तेउलेस्सा 2350 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेण तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं, सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे ___अतीतानागतवर्तमानरूपे काले, दर्श०५ तत्त्व। कार्योपचारात् तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्षितेति। (वीईवयंति) तेगारपव्वय पुं०(त्र्याकारपर्वत) स्वनामख्याते पर्वते, यत्र सह-सफणी व्यतिव्रजन्ति व्यतिक्रामन्ति। (असुरिंदवजियाणं ति) चमरबलिवर्जिला- पार्श्वनाथः पूज्यते। ती०४ कल्प। नाम, (तेण परं ति) ततः संवत्सरात्परतः। (सुक्के त्ति) शुक्लो नामाऽभि- तेगिच्छ न०(चैकित्स्य) चिकित्साकर्मणि, बृ०१ उ०। व्य०। कल्प०। नवृत्तोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति, निरतिचारचरण "तिविहे तेगिच्छम्मि उ,उजुय वाउलणसाहणा चेव। पण्णवणमणिच्छेले, इत्यन्ये / (सुक्काभिजाय त्ति) शुक्लाभिजात्यः, परमशुक्ल इत्यर्थः / दिलुतो भडिपोएहिं।।१॥" इति। व्य०१ उ०ा नि०चूला (आचार्याऽऽदीनां अत एवोक्तम्-'आकिञ्चन्यं मुख्य, ब्रह्मापि पर सदागमविशुद्धम् / सर्व चिकित्सा 'पच्छित्त' शब्दे व्याख्यास्यते) शुक्लमिदं खलु, नियमात्संवत्सरादुर्द्धम् / / 1 / / '' एतच्च श्रमणविशेष तेगिच्छायण त्रि०(चैकित्सायन) चिकित्सगोत्रापत्ये, जं०४ वक्ष। मेवाऽऽश्रित्योच्यते, न पुनः सर्व एवैवंविधो भवतीति। भ०१४ श०६ उ०| तेगिच्छिदह पुं० (चैकित्स्यह्रद) निषधपर्वतस्थे धृतिदेवताके स्वनामअथ गोशालः प्रभुमागत्याप्राक्षीत्-तेजोलेश्या कथं भवति? स्वाम्याह ख्याते हृदे,स्था०२ ठा०३उण नैरन्तर्येण षष्ठपारणके मुष्टिमध्यगतकुल्माषपिण्डिकया एकेन च पा तेजलपुर न०(तेजलपुर) सुराष्ट्रदेशस्थिते स्वनामख्याते पुरे, ती०। यत्र नीयचुलुकेन यापयतः षड्भिर्मासैर्भवति / आ०का वर्णतोवह्नि श्रीपार्श्वप्रतिमा पूज्यते / "तेजपासमंतिणो गिरिनारतले निअनाज्वालाशुकमुखकिंशुक तरुणार्क हिड्डुलकाऽऽदिलोहितद्रव्यसमा मंकि अतेजलपुरस्स पुष्वदिसाए उग्गसेणगढ नाम दुग्ग जुगाइनाहप्पनवणः, रसतः-परिणताऽऽम्रसुपक्वकपित्थाऽऽदिसमधिकरसैः, गन्धतः मुहजिणमंदिररहिल्लं विजइ, तस्स य तिणि नाम विलाई पसिद्धाई। विचिकिलपाटलाऽऽदिसमधिकगन्धैः, स्पर्शतः-शाल्म-जीफलतूला तं जहा-उग्गसेणगढ ति वा, खंगारगढ़ तिवा, जुण्णदुर्ग तिया। गढस्स ऽऽदिसमधिकस्पर्श : तेजोवर्णद्रव्यैर्निष्पन्नत्वात्तैजसी संज्ञा / (5 गा०) बाहिं दाहिणदिसाए चउरिअविइलढय-उवरिआए सुवामयाइं ठाणाई तेजोवर्णद्रव्यैर्निष्पन्ने लेश्याभेदे, पा०। पं०व०। उत्त०स०तेजोले चिट्ठति।" ती०४ कल्प] श्यायाः पुद्गलाः सचित्ताः, अचित्ता वेति प्रश्ने, उत्तरम्-लब्धिः पुद्गलरूपा तेजस्सिया स्त्री०(तेजस्विता) प्रतिवादिक्षोभाऽऽपादिकायां शरीरस्य न भवति, शक्तिरूपा भवति, परं तेजोलेश्यापुद्रला जीवेन मुखाजीवप्रदेशसहिता निष्कासिताः, तस्माजीवप्रयोगनिष्कासितत्वात्सचित्ता स्फूर्तिमत्यां देदीप्यमानतायाम्, व्य०१ उ०) ज्ञायन्त इति।७४ प्र० सेन०३उल्ला तेज पुं०(देशी) शलभे, पिशाचे च / दे०मा० 5 वर्ग 23 गाथा। तेउलेस्सालद्धि स्त्री०(तेजोलेश्यालब्धि) क्रोधाऽऽधिक्यात्प्रतिपन्थिन तेण त्रि०(स्तेन) चौरे, स्था०५ ठा०३ उ०। आचा०। सूत्र०ा आव०ा तं०। प्रति सुखेनानेकयोजनप्रमाणक्षेत्राऽऽश्रितवस्तुदहनदक्षतीव्रतरते ध। दश० व्य०! "तेणा दुविहा तिविहा वा ।"व्य०२ उ०। जोलेश्यानिसर्जनशक्ती, प्रव०२७० द्वार। ''णाणातिकारणेहिं गममाणे अंतरा तेणा भवंति / " नि०चू० 5 उ०। बृज पं०भा०ा पं०चू०। गा तेउसमुग्घाय पुं०(तैजससमुद्धात) तेजसि विषये भवस्तैजसः, स चासो समुद्घातश्च तैजससमुद्घातः 1 प्रव० 231 द्वार 1 तेजोलेश्यावि इयाणिं तेण्णोनिर्गमकालभाविनि तैजसनामकर्मपुद्गलपरिज्ञातहेतौ समुद्धातविशेष, अक्कं तितो य तेणो, पागतितो गामदेसअद्धाणो। प्रज्ञा० 34 पद। तेजोलेश्याविनिर्गमकालभाविनि तैजसशरीरनामकर्मा- तक्करख, णगतेणो, परूवणा होति कायव्वा / / 361 / / ऽऽश्रये समुद्घातभेदे, प्रव० 232 द्वार। तथाहि-तेजोनिसर्गलब्धिमान् अडाडाए बला हरतो अवंतितो, राते हरंतो पागतितो, अधवाक्रुद्धः साध्वादिः सप्ताष्टौ पदानि अवष्वष्क्य विष्कम्भबाहल्याभ्यां राउलवग्गस्स अकंतितो पागयजणस्स हरति। उपागतिउमागतो हरतो शरीरमानमायामतस्तु संख्येययोजनप्रमाणं जीवप्रदेशदण्डं शरीराद् गामतेणो / सदेसे परदेसे व हरतो देसतेणो / गामदेसंतरेसु हरतो बहिः प्रक्षिप्य क्रोधविषयीकृतं मनुष्याऽऽदि निर्दहति, तत्र च अंतरतेणो / पंथेसु हरंतो अद्धाणतेणो / तदेविक्कं करोतीति तक्करो, नो प्रभूतांस्तैसशरीरनामकर्मपुगलान् शातयति। प्रव०२३१ द्वार। स्था०। अन्नं किंचि किसिमादि करोतीति। खत्तं खणंतो खाणगतेणो। आचाका ('गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1016 पृष्ठे वैश्यायनबालतप सो समासेण चउव्विहो तेणोस्विना तेजोलेश्या गोशालकोपरि प्रयुक्ता, भगवता वीरेण वारितेति दव्ये खेत्ते काले, भावे वा तेणगस्स निक्खेवो। निदर्शितम्) एएसिं तु चउण्हं, पत्तेअपरूवणं वोच्छं॥३६२|| तेउसीह पुं०(तेजःसिंह) अग्निकुमारेन्द्रयोरग्निसिंहाग्निमानवयोर्दक्षिणदिग्लोकपाले, स्था०४ ठा०१उ०। भ०| इमो दव्वतेणोतेउसोय न०(तेजःशौच) तेजसा अग्निना तद्विकारेण वा भस्मना शौचं सचित्ते अचित्ते, य मीसए होंति दव्वतेणा उ। तेजः शौचम्। शौचभेदे, स्था०५ ठा०२ उ०। साहम्मिअण्णधम्मियगारत्थीहिं च नायव्वा // 363 / / तेंडुअन०(देशी) तुम्बुरुणि, दे०ना०५ वर्ग 17 गाथा / सचित्तं दुपदचउप्पदापदं, अञ्चित्तं-हिरनाऽऽदि, मिस्संसभंडवमत्तोतेंदुसय पुं०(तेन्दुसक) कन्दुके, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०॥ वगरणं अस्साऽऽदि फलादि व देसो व सचित्ताचित्तं, तं पुण सचित्ताऽऽदि तेंदुरु पुं०(तेम्बुरु) त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। दव्वं साहम्मियाण अण्णधम्मियाण गारत्थियाण वा अवहरंतो दव्वतो तेकल्ल न०(त्रैकाल्य) त्रयश्च ते कालाः, तेषा भावस्त्रैकाल्यम् / तेणो / सो तिविहो-उक्कोसो, मज्झिमो, जहण्णो। कंटा।
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________________ तेण 2351 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेणप्पओग इयाणि खेत्तकालभावतेणो तिन्नि वि जुगवं भन्नति इमंव से पच्छित्तंसगदेसपरविदेसग–अंतरतेणा य हों ति खेत्तम्मि। सग्गामे परगामे, सदेसें परदेसें अंतों बाहिं च। राई दिवा व काले, भावम्मि य नाणतेणा तु // 364 / / दिट्ठाऽदिट्ठा सोही, मासलहू अंतें मूलाई // 371 / / हयगयराईलच्छी-माणिक्काइंतु तेणों उक्कोसो। सग्गामे, परग्गामे, सदेसे परदेसे, एतेसिं अधो उन्कोसमज्झिमजहगोमहिसखेत्तखणखारियाणि तेणो य मज्झिमओ॥३६५।। ण्णा ठविचंति। एतेसिं अहो अतो बाहिं ठविजति। एतेसिं अहो दिट्ठाऽऽदि। गंठीछेदगपथिजण-दव्वहरो वा जहण्णतेणो उ। एतस्सऽधो मूलं। एकेको वि य एत्तो, पडिगपडिच्छग्गतेणो उ॥३६६॥ मूलं छेदो छग्गुरु, छल्लहु चत्तारि गुरुग लहुगा य। सदेसतो,परदेसतो, एतसिमंतरे वा हरंतो खेत्ततेणगो। रातो वा दिया गुरुया लहुया मासो, रायविमुक्कस्स जा ताव // 372 / / वा हरंतो कालतेणो / भावतेणो-णाणसणचरित्ते हरंतो। हयगयरायि- मूलाइ जाव मासलहुं ताव ठविञ्जति / इमा वारणा-सग्गामे उक्कोसं च्छिमाणिक्के हरंतो उक्कोसो / गोमहिसखेत्तखणखारियाऽऽदि वा हरंतो अंतो दिटुं जो अवहरति, तं जो पव्वावेति तस्स मूल; अदिट्टे छेदो, बाहिं मज्झिमो। पहियजणमोसगो, गंठिभेदगो, असणाऽऽदिवा हरंतो जहन्नो। दिटे छेदो, अदिट्टे छग्गुरु, मज्झिमे छेदो अंतो छल्लहुए ठायति, जहन्ने एकेक चउप्पगारा इमे तेणो, तेणतेणो, पडिच्छगो, पडिच्छगपडिच्छगो। छग्गुरुया अंतो चउगुरुगेठायति। एवं परगामे अदिट्टेकंतिवारणाएछेदाढत्तं इमे उदाहरणा तिसु वि चउलहुए ठायति। सदेसे छमगुरु, आढत्तंमासगुरुए ठायति। परदेसे छल्लहु, गोविंदजाणाणे,दंसणे सत्थट्ट हेतुगट्ठाय। आढतं मासलहुए ठायति, अन्नधा वि वारिखते एतदेव भवति। जम्हा एते एवं विगआ चरगा, उदायिवहगादिया चरणे // 367 / / दोसा तम्हा ण पवावेयव्वा तेणा। सचित्तं अचित्तं, च मीसगं तेणियं कुणति जो उ। कारणतोपव्वावेसमणाण व समणीण व, न कप्पती तारिसे दिक्खा // 368|| मुक्को व मोइओ वा, अहवा वीसज्जितो नरिंदेणं। गोविंदो णाम भिक्खू, सो एगेणाऽऽयरिएण वादे जितो अट्ठारस वारा। अद्धाणे परदेसे, दिक्खाए उत्तिमढे वा॥३७३।! ततो तेण चिंतियं-सिद्धतसरूवं जाव एतेसिंणो लब्भति, तावेते जेतुन बंधणागारसोधणे मुक्को सयमणेण, अण्णेणं वा दंडेण मोइओ, रण्णावा सक्किता / ताहे सो णाणदंसणचरणहरणट्ठा तस्सेवाऽऽयरियस्स अंते विसज्जितो। जहा पभयो। अहवा मेयजऋषिघातवत्। अद्धाणे परदेसेवा णिक्खंतस्स य सामाइयाऽऽदिपढंतस्स लद्धं संमत्तं / ततो गुरु वंदित्ता उत्तिमट्ट वा पडिवजंतो दिक्खिज्जति / तेण त्ति गतं / नि०चू०११ उ०। भणति-देहि मे बते। णणु दत्ताणि ते णाणाणि / तेण सब्भावो कहितो। वन्दनदोषविशेषे, प्रव०॥ ताहे गुरुणा दत्ताणि से वयाणि / पच्छा तेण एगिंदियजीवसाहणा हाउं परस्स दिहि, वंदंतं तेणियं हवइ एअं। गोविंदणिज्जुत्ती कया। एस णाण-तणो। (एष चैवार्थो 'गोविंदणिज्जत्ति' तेणो विय अप्पाणं, गूहइ ओभावणा मा मे // 162|| शब्दे तृतीयभागे 1012 पृष्ठे प्रदर्शितः) एवं दसणपभावगसत्थट्ठा, (हाउं परस्स त्ति) परस्याऽऽत्मव्यतिरिक्तस्य साधुश्रावकाऽऽदेदृष्टि ककड़गमादिहेतुगट्ठावा जो णिक्खमति, सो दसणतेणो। जो एवं करणट्ठा हित्वा वञ्चयित्वा वन्दमाने सति शिष्यैः स्तैन्यवन्दनकं भवति। एतदेवोचरण गेण्हति, भंडिउवा गंतुकामो, जहावा रणो वहणट्ठा उदायिमारगेण त्तरार्द्धन स्पष्टतरं व्याचष्टे स्तेन इव तस्कर इवान्यसाध्वाद्यन्तचरणं गहियं। आदिसद्दातो मधुरकों डइला, एते सव्वे चरित्ततेणा। एते (नेनाऽऽत्मानं गृहयति स्थगयति / कस्मादित्याह-(ओभावणा मा मे दव्याऽऽ-दितेणा समणसमणीणंण कप्पंति पव्वावेउं। त्ति) नन्वसावप्यतिविद्वान् किमन्येषां वन्दनकं प्रयच्छतीत्येवंभूताsपव्वाविते इभे दोसा पभ्राजनामममा भूदित्यर्थः / प्रव०२ द्वार। धाबृाआ००। (साधर्मिवह बंधण उद्दवणं, व खिसणं आसियावणं चेव / काणामन्यधार्मिकाणां च स्तैन्यं कुर्वन् अनवस्थाप्यो भवतीति णिव्विसयं वणरिंदो, करेज संघं व से भट्ठो॥३६६।। 'अणवठ्ठप्प' शब्दे प्रथमभागे 263 पृष्ठे उक्तम्) तस्स च,पव्वायगाऽऽयरियस्स वा, सव्वस्स वा गच्छस्स लत्त- | तेणउइस्त्री०(त्रिनवति) त्र्यधिकायां नवतिसंख्यायाम, "तेणउइगणा, कसाऽऽदिएहिं वह करेज, बंधणं णियलाऽऽदिएहिं, उद्दवणं मारणं, खिंसा- तेणउइगणधरा।" स०६२ समा धिरत्थु ते पव्वजाए त्ति / आसियावण-पव्वजातो, गामनगरातो वा तेणग त्रि०(स्तेनक) चौरे, स्तेनकाश्चौरा विघ्नकरा भवन्ति ग०३ अधि० धाडेज / अहवा–णरेंदो रुट्ठो णिव्विसए करेज, कुलगणसंघ वा णिव्विसय तेणणाय न०(स्तेनज्ञात) चौरोदाहरणे, पञ्चा०६ विव० करेज / कुलगणसंधाण वा वहाऽऽदिए वीए पगारे करेज। तेणप्पओग पुं०(स्तनप्रयोग) स्तेनानां प्रयोगोऽभ्यनुज्ञानम्-हरत किंचान्यत् यूयमिति हरणक्रियायां प्रेरणेति यावत् / अथवा-स्तेनोपकरणानि अयसो य अकित्ती वा, उड्डाहं वा तहिं पवयणस्स। कुशिकाकतरिकाधघरिकाऽऽदीनि, तेषामर्पणं विक्रयणं या स्तेनतेसिं पि होइ एवं, सव्वे एयारिसा समणा // 370 / / प्रयोगः / तस्करप्रयोगे स्थूलाऽऽदत्तादानविरते द्वितीयेऽतिचारे, पूर्ववत्, णवरितेणत्थेवत्तव्वा, तेणं जो पव्यावेति,तस्स आणाऽऽदिया / ध०। अत्र च यद्यपि चौर्य न करोमि न कारयामीत्येवं, दोसा। प्रतिपन्नव्रतस्य स्तेनप्रयोगे व्रतभङ्ग एव, तथापि किमधुना यूयं
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________________ तेणप्पओग 2352 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेतलिसुय निर्यापारास्तिष्ठत? यदि वो भक्ताऽऽदि नास्ति, तदाऽऽहं तबदा-मि; भवदानीतमोषधस्य वा यदि विक्रायको न विद्यते, तदाऽहं विक्रेष्ये इत्येवंविधवचनैश्चौरान व्यापारयतः स्वकल्पनया तव्यापारण परिहरतो व्रतसापेक्षस्यासावतिचारः / इति द्वितीयोऽतिचारः / ( 45 गाग) ध०२अधि। तेणाणुबंधि(ण) पुं०(स्तेनानुबन्धिन्) 'रुद्दज्झाण' शब्देऽर्थोऽस्य द्रष्टव्यः। ध०२ अधिन तेणाहड पुं०(स्तेनाऽऽहत) चौराऽऽनीते स्थूलादत्ताऽऽदानविरते प्रथमेऽतिचारे, तत्सामर्थ्यमतिलोभात्काणक्रयेण गृह्णतोऽतिचरति तृतीयव्रतमित्यतिचारहेतुत्वात्स्तेनाऽऽहृतम् / अतिचारता चाऽस्य साक्षाचौर्यप्रवृत्तेः / उपा०१ अ०। बृ०। पञ्चा०। श्रा०। स्तेनाश्चौराः तैर्वर्धमानाऽऽनीत किञ्चित्कुडकुमाऽऽदि देशान्तरात्स्तेनाऽऽहृतम् / आव०६ अन तेणिक न० (स्तैनिक्य) स्तेये, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। तेणिकहरणबुद्धि त्रि०(स्तैनिक्यहरणबुद्धि) स्तेयेन हरणे बुद्धिर्येषा ते तथा / स्तेयहरणमतियुक्तेषु, प्रश्न०३ आश्र0 द्वार। तेणिस त्रि०(तैनिस) तिनसाभिधानवृक्षसंबन्धिनि, भ०७ श०६ उ०) तेण्ण न०(स्तैन्य) चौर्ये, नि०चू० १उ० तेतल पुं०(तेतल) धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य गन्धर्वानीकाधिपतौ, स्था०७ ठा०। तेतलि(ण) पुं०(तेतलिन्) तेतलिपुरराजस्य कनकरथस्यामा त्यपितरि, आ०म०१ अ०२ खण्ड। दर्श०। मनुष्यजातिभेदे, ज०१ वक्षा तेतलिसुय पुं०(तेतलिसुत) तेतलिपुरराजस्य कनकरथस्यामात्ये, ज्ञा०। तत्कथा चैवम्तेणं कालेणं तेणं समएणं तेतलिपुरे नामं नगरे होत्था। तस्स णं तेतलिपुरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं पमयवणे णामं उजाणे होत्था / तत्थ णं तेतलिपुरे णयरे कणगरहे णामं राया होत्था / तस्स णं कणगरहस्स रण्णो पउमावती णामं देवी होत्था ! तस्स णं कणगरहस्स रण्णो तेतलिपुत्ते णामं अमचे होत्था सामदामभेयदंडे / तत्थ णं तेतलिपुरे कलाए नामं मूसियारदारए होत्था, अड्डे०जाव अपरिभूए / तस्स णं भद्दा नाम भारिया होत्था / तस्स णं कलायस्स मूसियारदारगस्स धूया भद्दाए अत्तया पोट्टिला णाम दारिया होत्था, रूवेण य जोव्वणेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा।। तए णं पोट्टिला दारिया अण्णया कयाइ ण्हाया सव्वालंकारविभूसिय चेडियाचक्कवालसद्धिं संपरिखुडा उप्पिं पासायवर-गया आगासतलगंसि कणगमयेणं तिंदूसएणं कीलमाणी विहरति / इमं च णं तेतलिपुत्ते अमच्चे बहाए आसखंधवरगए महया भड चडगरहआसवाहणियाए णिजायमाणे कलायस्स मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीतीवयति / तते णं से तेतलिपुत्ते मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीतीवयमाणे वीतीवयमाणे पोट्टिलं दारियं उप्पिं आगासतलगंसि कणगमएणं तिंदूसएणं कीलमाणी पासति; पासित्ता पोट्टिलाए दारियाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य०जाव अज्झोववण्णे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया, किंणामधेज्जा य? तए णं ते को 9 बियपुरिसे तेतलिपुत्तं एवं बयासी-एस णं सामी ! कलायस्स मूसियारस्स धूया भद्दाए अत्तिया पोट्टिला णामं दारिया रूवेण य जाव सरीरा। तए णं से तेतलिपुत्ते आसवाहणियाओपडिनियत्ते समाणे अभिंतरट्ठाणिज्जे पुरिसे सहावेति, सद्दावे तित्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! कलायस्स मूसियारदारगस्स धूयं भवाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं मम भारियत्ताए वरेह / तए णं ते अभिंतरट्ठाणि-जा पुरिसा तेतलिणा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल०तह त्ति जेणेव कलायस्स मूसियारस्स गिहे, तेणेव उवागया। तए णं से कलाए मूसियारए तेतलिपुत्ते पुरिसे एजमाणे पासति, पासित्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टेइत्ता सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छति, अणुगच्छित्ता आसणेणं उवनिमंतेति / आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए अभिंतरट्ठाणिज्जे पुरिसे एवं बयासी-संदिसह णं देवाणु प्पिया ! कि मागमणप्पओयणं? तते णं ते अभिंतरट्ठाणिज्जा कलायं मूसियं एवं बयासी-अम्हंणं देवाणुप्पिया ! तव धूयं भवाए अत्तयं पोटिलं दारियं तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स भारियत्ताए वरेमो / तं जति णं जाणसि देवाणुप्पिया! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो संजोगो वा, ता दिजउ णं पोट्टिला दारिया तेतलिपुत्तस्स, ता भण देवाणुप्पिया ! किं दलामो सुक्कं ? तते णं कलाए मूसियारदारए ते अभिंतरट्ठाणिज्जे पुरिसे एवं बयासी-एस चेव देवाणुप्पिया ! मम सुक्के, जंणं तेतलिपुत्ते मम दारियानिमित्तेणं अणुग्गहं करिति / ते अभिंतरट्ठाणिज्जे पुरिसे विउलेणं असणपाणखाइमसाइमपुप्फवत्थ० जाव मल्लालंकारेणं सक्कारेति, संमाणेति, पडिविसज्जेति। तएणं कलायस्स मूसियारदारयस्स गिहातो पडिनिक्खमति, जेणेव तेतलिपुत्ते अमचे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तेतलिपुत्तं अमचं एयमढे निवेदेति / तए णं कलाए म् सियारए अण्णया कयाई सोहणं सि तिहिक रणणक्खत्तमुहुत्तंसि पोट्टिल्लं दारियं ण्हायं सव्वालंकार
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________________ तेतलिसुय 2353 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेतलिसुय विभूसियं सीयं दुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तणातिसद्धिं संपरिवुडे साओ गिहाओ पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ता सव्विड्डीए० / जाव रवेणं तेतलिपुरं णयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव तेतलिस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोट्टिलं दारियं तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स सयमेव भारियत्ताए दलयति / तए णं तेतलि-- पुत्ते पोट्टिलं दारियं भारियत्ताए उवणीयं पासति, पासित्ता हट्टतुट्टे पोट्टिलाए सद्धिं पट्टयं दुरूहति, दुरूहित्ता सेयपीएहि कलसेहिं अप्पाणं मज्जावेति, मज्जावेत्ता अग्गिहोम कारेति, पाणिग्गहणं करेति, पोट्टिलाए भारियाए सद्धिं मित्तनाइ०जाव परियणं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पुप्फवत्थ०जाव | पडिविसज्जति।तते णं से तेतलिपुत्ते पोट्टिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरालाई भोगभोगाई जाव विहरति / तते णं से कणगरहे राया रजेय रटे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य अंतेउरे यमुच्छिए गिद्धिए अभिसमण्णागए जाए पुत्ते वियंगेति, अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाई छिंदति, अप्पेगइयाणं हत्थे अंगुट्ठए छिंदति, अप्पेगइयाणं पायंगुलियाओ छिंदति, एवं पायंगुट्ठए वि, एवं कण्णसक्कुलीए वि, एवं नासापुडाई फालेति, एवं अंगमंगाइं वियंगेति / तए णं तीसे पउमावतीए देवीए अण्णया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेया-रूवे अब्भत्थिए चिंतिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगेति जाव अंगमंगाई वियंगेति, तं जइ णं अहं दारयं पयायामि तं सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स | रहस्सियं चेव संरक्खमाणीए संगोवेमाणीए विहरित्तए त्ति कट्ट | एवं संपेहेति, संपेहेत्ता तेतलिपुत्तं अमचं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे यजाव वियंगेति, तं जइणं अहं देवाणु-प्पिया ! दारगं पयायामि, तए णं तुमं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुटवेणं संरक्खमाणे संगोवेमाणे संबड्डेहिं / तते णं से दारए उम्मुक्कबालभावे०जाव जोव्वणगमणुप्पत्ते तव मम भिक्खाभायणे भविस्सति / तते णं से तेतलिपुत्ते पउमावतीए देवीए एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता पडिगए / तए णं पउमा-वती देवी पोट्टिला य अमची सममेव ! गन्मं परिवहंति , सममेव गब्म परिवर्ल्डति। तएणं सा पउमावती देवी नवण्हं मासाणं जाव मियदंसणं सुरूवं दारगं पयाया, जं रयणिं चणं पउमावती देवी दारगं पयाया तं चेवरयणिं पोट्टिला अमची नवण्ह मासाणं विणिहायमावणियं दारियं पयाया। तए णं सा पउमावती देवी अम्मधाइंसद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! अम्मो ! तेतलिपुत्तं रहस्सियं चेव सद्दावेहि। तए णं सा अम्मधाती तह त्ति एयमटुं पडिसुणेति, अंतेउरस्स अवद्दारेणं णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता जेणेव तेतलिस्स गिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल०जाव एवं वयासी-एवं खलु भो देवाणुप्पिया ! पउमावई देवी सद्दावेति / तए णं तेतलिपुत्ते अम्मधाईए अंतिए एयमढे सोचा हट्ठतुढे अम्मधाईए सद्धिं साओ गिहाओ णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता अंतेउरस्स अवबारेणं रहस्सियं चेव अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल०एवं वयासी-संदिसह णं देवाणुप्पिए ! जं मए कायव्वं ? तए णं सा पउमावती देवी तेतलिपुत्तं अमचं एवं वयासी-एवं खलु कणगरहे रायाजाव वियंगेति, अहं च णं देवाणुप्पिया ! दारगं पयाया, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! तं दारगं गेण्हाहि जाव तव मम समए भिक्खाभायणे भविस्सति त्ति कट्ट तेतलिपुत्तस्स हत्थे दलयति / तते णं तेतलिपुत्ते पउमावतीए देवीए हत्थाओ दारगं गेण्हति, उत्तरिजेणं पिहेइ, अंतेउरस्स रहस्सियं अवद्दारेणं णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव पोट्टिला भारिया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पोट्टिलं च एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रजे य०जाव वियंगेति, अयं च णं दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए तं णं तुम देवाणुप्पिए ! इमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुव्वेणं संरक्खाहि य, संगोवाहि य, संवड्डेहि य, तए णं एस दारए उम्मुक्कबालभावे तव य मम य पउमावईए य आहारे भविस्सइ त्ति कट्ट पोट्टिलाए पासे णिक्खिवति, णिक्खिवित्ता पोट्टिलाओ पासाओ तं विणिहायमावणियं दारियं गेण्हति, उत्तरिओणं पिहेइ, पिहेइत्ता अंतेउरस्स अवदारेणं अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमावतीए देवीए पासे ठावेति०जाव पडिनिग्गते। तए णं तीसे पउमावतीए देवीए अंगपडियारियाओ पउमावतिं देविं विणिहायमावणियं च दारियं पासंति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया करयल०एवं वयासी-एवं खलु सामी ! पउमावतीए मतल्लियं दारियं पयाया। तए णं कणगरहे राया तीसे मतल्लियाए दारियाए नीहरणं करेति, बहूइं लोइयाई मयकिच्चाई करेति, करेइत्ता कालेणं विगयसोए जाए। तए णं से तेतलिपुत्ते कल्लं कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं व
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________________ तेतलिसुय 2354 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेतलिसुय यासी--खिप्पामेव चारगसालाए सोहणं करेहरुजाव ठिती वडिया, जम्हा णं अम्हे एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए, तं होऊण दारए णामेणं कणगज्झए०जाव अलं भोगसमत्थे जाए। तए णं सा पोट्टिला अण्णया कयाई तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स अणिट्ठा अममुण्णा अर्कता अप्पिया जाया यावि होत्था / णेच्छइ णं तेतलिपुत्ते अमचे पोट्टिलाए नामगोत्तमवि सवणयाए,किं पुण दरिसणं वा परिभोगं वा / तए णं तीसे पोट्टिलाए अण्णया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं तेतलि-पुत्तस्स अमचस्स पुट्विं इट्ठा कंता मणुण्णा पिया आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अमणुण्णा अप्पिया जाया०जाव नेच्छइ तेतलिपुत्ते अमचे मम नामंजाव परिभोगं वा ओहयमणसं-कप्पा०जाव झियायइ / तते णं तेतलिपुत्ते अमचे पोट्टिलं ओहयमणसंकप्पं० जाव झियायमाणं पासति, पासइत्ता पोट्टिलं एवं वयासी-माणं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पे, तुमं मम महाणसंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्ख-डावेहि, उवक्खडावेइत्ता बहूणं समणमाहणाणंजाव वणी-वगाणं देयमाणी य देवावेमाणी य विहरह / तए णं सा पोट्टिला तेतलिपुत्तेणं अमच्चेणं एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स एयमढे सम्म पडिसुणेति, पडिसुणेइत्ता कल्लाकल्लिं महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं० जाव देवावे-माणी विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ णामं अज्जियाओ इरियासमियाओ०जाव गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुट्विं जेणेव तेतलिपुरे णयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उवग्गहं ओगि-ण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरंति / तए णं तासिं सुव्वयाणं अजाणं एगे संघाडए पढमाए पो रिसीए सज्झाइयं करे तिजाव अडमाणीओ तेतलिस्स गिह अणुपविट्ठाओ। तएणं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एन्जमाणीओ पासति, पासइत्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भुढे ति, अन्भुद्वित्ता वंदइ, णमंसति, वंदित्ता णमंसित्ता विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभेइ० पडिलाभित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अज्जाओ ! तेतलिपुत्तस्स अमचस्स पुट्विं इट्टा कंता पिया मणुण्णा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा० जाव दंसणं वा परिभोगं वा / तं तुन्भे गं अजाओ ! बहुणायाओ बहुसिक्खियाओ बहुपडियाओ, तुब्भे बहूणि गामागर०जाव आहिंडेह, बहूणं राईसर०जाव गेहाई अणुप्पविस्सह, तं अस्थि याई भे अजाओ ! केइ कहिं वि चुण्णजोए वा मंतजोए वा कम्मणजोए वा कम्मजोए वा हियउड्डावणे वा कायउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूइकम्मे वा कंदे मूले छल्ली वल्ली मूलिया वा गुलिया वा ओसहे वा भेसजे वा उवलद्धपुव्वे, जेणाहं तेतलिपुत्तस्स अमचस्स पुणरवि इट्ठा कंता पिया मणुण्णा भवेज्जामि? तए णं ताओ अजाओ पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दो वि कण्णे ठायंति, पोट्टिलं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओजाव गुत्तबंभयारिणीओ, नो खलु कप्पति अम्हं देवाणुप्पिए ! एयप्पयारं कण्णे वि निसामेत्तए, किमंग ! पुण उवदिसित्तए वा,आयरियतए वा। अम्हे णं तव देवाणुप्पिए! विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेजामो। तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी-इच्छामि णं अजाओ ! तुम अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं णिसामित्तए / तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए विचित्तं धम्म परिकहें ति / तए णं सा पोट्टिला धम्मं सोचा णिसम्म हहतुट्ठा एवं वयासी-सद्दाहामि णं अजओ ! निग्गंथं पावयणं पत्तिए०जाव से जहेयं तुब्भे वदह, इच्छामि णं अहं तुब्मं अंतिए पंचाणुव्वइयंजाव गिहिधम्म पडिवजित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / तए णं सा पोट्टिला तासिं अज्जाणं अंतिए पंचाणुव्वयं०जाव गिहिधम्म पडिवज्जति, ताओ अज्जाओ वंदइ, नमसति, नमसइत्ता पडिविसजेति। तए णं सा पोट्टिला समणोवासिया जाया०जाव पडिलाभेमाणा 2 विहरइ। तएणं तीसे पोट्टिलाए अण्णया कयाई पुव्वरत्ताव-रत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणो गए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं तेतलिपुत्तस्स पुट्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकं ता अप्पिया अमणुण्णाजाव परिभोगं वा / तं सेयं खलु मडं सुव्वयाणं अजाणं अंतिए पव्वइत्तए, एवं संपेहेति, संपेहेइत्ता कल्लं पाओ जेणेव तेतलिपुत्ते अमचे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करयलपरिग्गहियं एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुटवयाणं अजाणं अंतिए धम्मे निसंतेजाव अब्भणुण्णाए पव्वइत्तए। तए णं तेतलिपुत्ते पोट्टिलं एवं वयासी-एवं खलु तुम देवाणुप्पिए ! मुंमे भवित्ता पव्वइया समाणी कालमासे कालं किचा अण्णयरेसुं देवलोएसु देवत्ताए उववजिहि त्ति, तं जइ णं तुम देवाणुप्पिए ! ममं ताओ देवलोगाओ आगम्म केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहेहि, तो अहं विसज्जेमि, अह णं तुमं मम ण संबोहेसि, तो ण विसजेमि। तएणं सा पोट्टिला तेतलिपुत्तस्स एयमढे पडिसुणेति / तए णं तेतलिपुत्ते विउलं असणं पा
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________________ तेतलिसुय 2355 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेतलिसुय णं खाइमं साइमं उवक्खडाविति मित्तनाइ०जाव आमंतेति, आमंतेत्ता०जाव संमाणेति, पोट्टिलं ण्हायं०जाव पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहइ, दुरूहइत्ता मित्तणाति० जाव परिवुडे सव्वड्डीए०जाव रवेणं तेतलिपुरस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं अजाणं उवस्सए, तेणेव उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता सीयाओ पचोरुहति, पचोरुहइत्ता पोट्टिलं पुरओ कट्ट जेणेव सुव्वया अजा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता वंदति, णमंसति, नमसइत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पोट्टिला भारिया इट्ठा पिया कंता मणुण्णा एस णं संसारभयउव्विग्गा०जाव पव्वइत्तए, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सि--- णिभिक्खं दलयामि। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह। तए णं सा पोट्टिला सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ठ--- तुट्ठा उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए सयमेव आभरणमल्लालंकारं मुयइ, मुयइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेइत्ता जेणेव सुव्वयाओ अजाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमसइत्ता एवं वयासी-आलित्तेणं एवं जहा देवाणंदाजाव इक्कारस अंगाई बहूणि वासाणि सामन्नपरियायं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता सर्हि भत्ताई अणसणाई आलोइय पडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अणुत्तरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा / तए णं से कणगरहे राया अण्णया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था। तते णं ते ईसरपभिइओ०जावणीहरणं करेति, करेतित्ता अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणमरहे राया रज्जे य०जाव पुत्ते वियंगं छित्ता अम्हे णं देवाणुप्पिया ! राया-- हीणा रायाहिट्ठिया रायाहीणकज्जा, अयं च णं तेतलिअमचे कणगरहस्स रण्णो सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्ध पचए दिण्णवियारे सव्वकज्जवड्डावए यावि होत्था, तं सेयं खलु अम्हं तेतलिपुत्तं अमचं कुमारं जाइत्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स एयमहूं पडिसुणे ति, पडिसुणेइत्ता जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तेतलिपुत्तं अमचं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य रटे य०जाव वियंगेति, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! रायाहीणाजाव रायाहीणकज्जा, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रण्णो सव्वट्ठाणेसु० जाव रज्जधुराचिंतए / तं जइ णं देवाणुप्पिया ! अत्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपण्णे रायाभिसेयारिहे, तए णं तुमं दलाहि, जा णं अम्हे महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचामो / तए णं तेतलिपुत्ते अमचे तेसिं ईसरपभिए एयमढें पडिसुणेति, पडि सुणेइत्ता कणगज्झयं कुमारंण्हायं सव्वालंकारविभूसियजाव सस्सिरीयं करेत्ता तेसिं ईसर०जाव उवणेति, उवणेइत्ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रण्णो पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए कणगज्झए णामं कुमारे अमिसेयारिहे रायलक्खणसंपण्णे मए कणगरहस्स रण्णो रहस्सियं संवडिए, तं एयं तुब्भे महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचह, सव्वं च से उहाणपारियावणिय परिकहेइ / तए णं ते ईसरकणगज्झयं कुमार महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचति ।तए णं कणगज्झए कुमारे राया जाए महया हिमवंतजाए०जाव रज्जं पालेमाणे विहरइ / तए णं सा पउमावती देवी कणगज्झयं रायं सद्दावेति / सद्दावेइत्ता एवं वयासी-एस णं पुत्ता ! तव रज्जे०जाव अंतेउरे य, तुमंच तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्सपहावेणं, तेतलिपुत्तं अमचं आढाहि, परियाणाहि, सकारेहि, सम्माणेहितं अब्भुद्वेहि, पजुवासेहि य, वयंतं पडिसंसाहेहि, अद्धासणेणं उवनिमंतेहि, भोगं च से अणुवढेहि / तए णं से कणगज्झए पउमावतीए देवीए तह त्ति पडिसुणइ० जाव भोगं च संबड्वेइ / तए णं से पोट्टिले देवे तेतलिपुत्तं अमचं अभिक्खणं अभिक्खणं के वलिपण्णत्तं धम्म संबोहेति, नो चेव णं से तेतलिपुत्ते संबुज्झइ / तते णं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारूवे अब्भत्थिए पत्थिए चिंतिए मणोगयसंकप्पे समुप्पञ्जित्था-एवं खलु कणगज्झए राया तेतलिपुत्तं आढाति०जाव भोगं च संवड्वेति, तए णं से तेतलिपुत्ते अभिक्खणं अमिक्खणं संबोहेमाणे वि धम्मे णो संबुज्झति, तं सेयं खलु मम कणगज्झयं रायं तेतलिपुत्ताओ विप्परिणामित्तए त्ति कट् टु एवं संपेहेति, संपेहेइत्ता कणगज्झयं तेतलिपुत्तातो विप्परिणामेति / तए णं तेतलिपुत्ते कल्लंण्हाएजाव पायच्छित्ते आसखंधवरगए बहूहिं पुरिसे हिं सद्धिं संपरिवुडे साओ गिहाओ णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्थगमणाए। तए णं तेतलिपुत्तं अमचं जहा बहवे राईसरतलवर०जाव पभिइओ पासंति, ते तहेव आढायंति, परियाणंति, अन्मुटुंति सक्कारेंति, सम्माणेति, अंजलिपरिग्गहियं करेंति। इहाहि कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगलाहिं सस्सिरियाहिं वग्गहिं आलवमाणा य संलवमाणा य पुरओ य पिट्ठओ य पासओ य मग्गओ य समणुगच्छंति / तएणं से तेतलिपुत्ते जेणेव कणगज्झए राया तेणेव उवागच्छइ। तएणं से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तं अमचं एजमाणं पासति, पासेत्ता गोआढाति,णोपरियाणइ,णोअब्भुतुति, अणाढा
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________________ तेतलिसुय 2356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेतलिसुय यमाणे अपरियाणमाणे परंमुहे णं चिट्ठति / तते णं से तेतलिपुत्ते अमचे कणगज्झयस्स रण्णो अंजलिं करेति / तते णं से कणगज्झए राया अणादिज्जमाणो तुसिणीए परंमुहे संचिट्ठति। तए णं तेतलिपुत्ते अमञ्चे कणगज्झयं विप्परिणयं जाणित्ता भीए० जाव संजायभए एवं बयासी-रुटेणं मम कणगज्झए राया, हीणे णं मम कणगज्झए राया, अवज्झाए णं मम कण-गज्झए राया, तं ण णज्जइ णं मम केणइ कुमारेणं मारेहेति त्ति कट्ट भीए तत्थे०जाव सणियं सणियं पचोसक्केइ, पच्चोसक्के इत्ता तमेव आसखंध दुरूहेति, दुरूहइत्ता तेतलिपुरं णयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थगमणाए; तेतलिपुत्तं जे जहा ईसर०जाव पासंति ते तहा नो आढायंति, नो परिया-णंति, नो अन्मुटुंति, नो अंजलिं करिति, इट्ठाहिं०जाव नो संलवंति, नो पुरओ य पिट्ठओ य पासओ य समणुगच्छंति / तते णं तेतलिपुत्ते अमचे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ / जा वि य से तत्थ बाहिरिया परिसा भवति। तं जहा-दासेइवा,पेसेइ वा, भाइल्लएइ वा,सा वि य णं णो आढाइ०३ / जा विय से अभिंतरिया परिसा भवति / तं जहा-पियाइ वा, मायाइ वा, भजाइ वा, सुण्हाइवा, सा विय णं च नो आढाति०३। तए ण से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता सयणिज्जंसि निसीयति, णिसीयइत्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ णिग्गच्छामि,तं चैव० जाव अभितरिया परिसा नो आढाति, नो अब्भुढेइ, तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवियाओ ववरोवित्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेइत्ता तालउडं विसंआसगंसि पक्खिवति, से य विसे णो संकम्मति। तएणं से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल०जाव असिं खंधंसि ओहरति, तत्थ वि य से धारा ओपल्ला / तए णं से तेतलिपुत्ते अमचे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पासगं गीवाए बंधेति, बंध-इत्ता रुक्खं दुरूहइ, दुरूहइत्ता पासे रुक्खे बंधइ, बंधइत्ता अप्पाणं मुयति, तत्थ वि य से रज्जू / छिण्णा। तए णं से तेतलि-पुत्ते महइमहालियं सिलं गीवाए बंधेति, बंधइत्ता अत्थाहमता-रमपोरिसीयंसि उदगंसि अप्पाणं मुयति, तत्थ वि से थाहे जाते। तए णं से तेतलिपुत्ते अमच्चे सुक्कं सि तणकूडं सि अगणिकायं पक्खिवति, पक्खिवइत्ता अप्पाणं मुयति, तत्थ वि य से अगणिकाये विज्झाए / तए णं तेतलिपुत्ते अमच्चे एवं वयासी-सद्धेयं खलु भो समणा वयंति, सद्धेयं खलु भो माहणा वयंति, सद्धेयं खलु समणा माहणा वयंति, अहं एगो अस्सद्धेयं वयामि, एवं खलु अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते, को भेदं सद्दहिस्सति? सह मित्तेहिं अमित्ते, को मेदं सद्दहिस्सति? एवं अत्थेणं दारेणं दासेहिं पेसेहिं परिजणेणं / एवं खलु (तेतलिपुत्ते णं अमचे) कणगज्झएणं रण्णा अवज्झाएणं समाणेणं तेतलिपुत्तेणं अमचेणं तालउडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते, से वि य णं णो सिंकमइ, को मेदं सदहिस्सति? तेतलिपुत्तेणं अमचेणं नीलुप्पल०जाव खंधंसि असिं ओहरिए, तत्थ विय से धारा ओपल्ला, को मेदं सद्दहिस्सति? तेतलिपुत्ते अमचे पासगं गीवाए बंधित्ताजाव रज्जू छिण्णा, को मेदं सद्दहस्सितिए? ते-तलिपुत्ते अमचे महालियं सिलं०जाव बंधेत्ता अत्थाह०जाव उदगंसि अप्पा मुक्के, तत्थ वि य णं थाहे जाते, को मेदं सद्दहिस्सति? तेतलिपुत्ते अमचे सुक्कंसि तणकूडे०अग्गी विज्झाए, को मेदं सद्दहिस्सति? ओहयमणसंकप्पे०जाव झियायइ / तए णं से पोट्टिले देवे पोट्टिलारूवं विउव्वति, विउव्वइत्ता तेतलि-पुत्तस्स अमच्चस्स अदूरसामते ठिच्चा एवं वयासी-हं भो तेतलिपुत्ता ! पुरओ पवाए, पिट्ठओ हत्थिभयं, दुहओ अचक्खुपासे , मज्झे सराणि वरिसंति, गामे पलित्ते अरण्णे झियाइ, अरण्णे पलित्ते गामे झियाइ, आउसे ! तेतलिपुत्ता ! कओ वयामो? तएणं से तेतलिपुत्ते अमचे पोट्टिलं एवं वयासी- भीयस्स खलु भो पव्वज्जा सरणं, उक्कं ठियस्स सदेसगमणं, छुहियस्स (छाय-स्स) अन्नं, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसजं, माइयस्स (माइजस्स) रहस्सं, अमिजुत्तस्स पञ्चयकरणं, अद्धाणं परिस्संतस्स (तस्स) वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणकि चं, परं अभिउंजिउकामस्स सहायकिच्चं / खंतस्स दंतस्स जियिंदियस्स एत्तो एगमवि ण भवति / तए णं से पोट्टिले देवे तेतलिपुत्तं अमचं एवं वयासीसुदणं तुमे तेतलि पुत्ता! एयमहूं आयाणाहि त्ति कट्ट दोचं पि तचं पि एवं वयइ, वयइत्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तएणं तस्स तेतलिपुत्तस्स अमचस्स सुभेणं परिणामेणं जाईसरणे समुप्पण्णे / तए णं तस्स तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स अयमेया-रूवे अन्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था- एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे पुक्खलावई विजए पोंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे नाम राया होत्था।तएणं अहं थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता०जावचउद्दस पुटवाई बहूणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुके कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तएणं अहं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं इहेव तेतलि-पुरणयरेतेतलिस्स अमचस्स मद्दाए भारियाए दारगत्ताए पयायाएत सेयं खलु मम पुव्वदिट्ठाइं पंच महव्वयाइं सयमेव उवसंपज्जित्ता
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________________ तेतलिसुय 2357- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेतलिसुय णं विहरित्तए एवं संपेहेति, संपेहित्ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुहति, आरुहइत्ता जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहनिसण्णस्स अणुचिंतेमाणस्स पुव्वाहियाई सामाइयाई इक्कारस अंगाई / चोद्दस पुव्वाइं सयमेव अमिसमण्णागयाई / तते णं तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं०जाव तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरयविकरणकरं अपुव्दकरणं पविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे णिव्वाघाए णिरावरणे कसिर्ण पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने ।तए णं तेत-लिपुरे णगरे अहासन्निहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहि य देव-दुंदुभीओ समाहयाओ, दसद्धवण्णे कुसमे निवाइए, दिवे गीयं, गंधव्वणिणादे कयाए यावि होत्था तए णं से कणगज्झए राया इमीसे कहाए लद्धटे समाणे एवं वयासी-एवं खलु तेत-लिपुत्ते अमचे मए अवज्झाए० जाव मुंडे भवित्ता पदवइए, तं गच्छामि णं तेतलिपुत्तं अणगारं वदामि, णमंसामि, पञ्जुवा-सामि, एयमढें विणएणं भुजो भुजो खामेमि एवं संपेहेइ, संपे-हित्ता पहाएजाव चाउरंगिणीए सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे, जेणेव तेतलिपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छद, उवा-गच्छइत्ता तेतलिपुत्तं अणगारं वंदइ, णमंसइ, एयमटुं च विणएणं भुजो भुजो खामेति, णचासण्णे०जाव पजुवासेइ / तते णं से तेतलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रण्णो तीसे य धम्म परिकहेइ। तएणं से कणगज्झए राया तेतलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खाइयं सावगधम्म पडिवजाते, समणोवासए जाए अहिरायजीवाजीवे। तए णं तेतलिपुत्ते केवली बहूणि वासाणि के वलिपरियागं पाउणित्ताजाव सिद्धे। अथ चतुर्दशज्ञातं बिवियते-अस्य चायं पूर्वेण सहाभिसंबन्धः / पूर्वस्मिन् सता गुणानां सामग्यभावे हानिरुक्ता, इह तु तथाविध-सामग्रीसद्भावे गुणसंपदुपजायत इत्यभिधीयते, इत्येवं संबन्धमिदं सर्वं सुगम, नवरम् (कलाए त्ति) कलादो नाम्ना, मूषिकारदारक इति पितृव्यपदेशेनेति / (अभिंतरहाणिज्जे त्ति) आभ्यन्तरस्था-नीयनाम्ना इत्यर्थः (?) (वियंगेइ ति) व्यङ्गयति, विगतकर्णना-साहस्ताऽऽद्यङ्गान् करोतीत्यर्थः। / अथवा-(वियंगेइ त्ति) विकृन्तति, छिनत्तीत्यर्थः। (संरक्खमाणीए त्ति) संरक्षन्त्या आपदः, संगोपयन्त्याः प्रच्छादनतः (भिक्खाभायणे त्ति) भिक्षा-भाजनमिव भिक्षाभाजनं, तदस्माकं भिक्षोरिव निर्वाहकारणमित्यर्थः / 'पढमाए पोरिसीए सज्झाइयं'' इत्यादौ यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्- "बीयाए पोरिसीए झाणं झियायइ, तइयाए पो रिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ भायणवत्थाणि पडिलेहेइ, भायणाणि पमजइ, भायणाणि उग्गाहेइ, जेणेव सुव्वयाओ अजाओ, तेणेव उवागच्छइ, सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ, नमसइ, वंकित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामो णं तुब्भेहिं अब्भणुनाए तेयलिपुरे नयरे उच्चतीयगरिमा का TITTEE शिनागरिमा आदिनाा। देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेइ।लए णं ताओ अजाओ सुव्वयाहिं अजाहिं अब्भणुण्णाओ समाणीओ सुव्वयाणं अजाणं अंतिआओ उवस्सयाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमइत्ता अतुरिअमचवलमसंभताए गईए जुगंतरपलोयणाए दिट्टीए पुरओ इरिअं सोहेमाणीओ तेयलिपुरे णयरे उच्चणीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडमाणीओ।" इति / तत्र गृहेषु समुदानं भिक्षा गृहसमुदानं, तस्मै गृहसमुदानाय, भिक्षाचर्य भिक्षानिमित्तं विचरणम्, अटन्त्यः कुर्वाणाः। (अत्थि याई भे त्ति) ''याई ति'' देशभाषायां, 'भे त्ति' भवतीनाम् / (चुण्णजोए त्ति) द्रव्यचूर्णानां योगः, स्तम्भनाऽऽदिकर्मकारी (कम्मणजोए त्ति) कुष्ठाssदिरोगहेतुः (कम्मजोए त्ति) काम्ययोगः कमनीयताहेतुः, (हियउड्डावणे त्ति) हृदयोड्डापनं चित्ताऽऽकर्षणहेतुः (कायउड्डावणे त्ति)कायाऽऽकर्षणहेतुः / (आभिओगए त्ति) पराभिभवनहेतुः (वसीकरणे त्ति) वइयताहेतुः (कोउय-कम्मे त्ति) सौभाग्यनिमित्तं स्नपनाऽऽदि (भूईकामे त्ति) मन्त्राभिसंस्कृतभूतिदानम् / (रायाहीणा इत्यादि) राजाधीनाः, राज्ञो दूरेऽपि वर्तमाना राजवशवर्तिन इत्यर्थः / राजाधिष्ठिताः, तेन स्वयमध्यासिता राजाधिष्ठिताः, राजाधीनानि राजाऽऽयत्तानि कार्याणि येषां ते वयं राजाधीनकार्याः / (सव्वं च से उट्ठाणपारि-यावणियं ति) सर्व च 'से' तस्य उत्थानं चोत्पत्तिः, पारितापनिका च कालान्तरं यावस्थिरतरेत्युत्थानपारितापनकं तत्परिकथयतीति / (वयंतंपडिसंसाहहि त्ति) विनयप्रस्तावाद् व्रजन्तं प्रति-ससाधयाऽनुव्रज / अथवा वाचा तं प्रतिसंश्लाघय- साधूक्तं साध्वित्येवं प्रशंसां कुर्वित्यर्थः / भोग वर्तनम्। “रुटे णमित्यादौ" हीनोऽयं मम प्रीत्येति गम्यते। अपध्यातो दुष्टचिन्तावान्। ममेति ममोपरि कनकध्वजः। पाठान्तरेण-दुातोऽहं दुष्टचिन्ताविषयीकृतोऽहं कनकध्वजेन राज्ञा, तत् तस्मान्न ज्ञायते केनाऽपि कुमारेण विरूपमारणप्रकारेण मारयिष्यतीति / (खंधंसि उवहरइ त्ति) स्कन्धे उपहरति विनिवेशयतीति / धारा (ओपल्ल त्ति) अवदीर्णा, कुण्ठीभूतेत्यर्थः। (अत्थाहं ति) अस्तं निरस्तमविद्यमानमधस्तल प्रतिष्ठानं यस्य तदस्ताधः, स्ताघो वा प्रतिष्ठानं, तदभावादस्ताधम्। अतारं यस्य तरणं नास्ति, पुरुषः परिमाणं यस्य तत्पौरुषेयं, तन्निषेधादपौरुषेयम्। ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। मकारौ च प्राकृतत्वात्। अतस्तत्र "सद्धेयं" इत्यादि / श्रद्धेयं श्रमणा वदन्ति आत्मपरलोकपुण्यपापाऽऽदिकमर्थजातम्, अतीन्द्रियस्याऽपि तस्य प्रमाणावाधितत्वेन श्रद्धानगोचरात् / अहं पुनरेकोऽश्रद्धेयं वदामिपुत्राऽऽदिपरिवारयुक्तस्यात्यर्थं राजसंमतस्य च अपुत्राऽऽदित्वमराजसंमतत्वं च, विषखगपासकजलाग्निभिरहिंस्यत्वं चाऽऽत्मनः प्रतिपादयतो मम युक्तिबाधितत्वेन जन्प्रतीतेरविषयत्वेनाश्रद्धेयत्वादिति प्रस्तुतसूत्रभावना-"तए णमित्यादि / " हं भोः! इत्यामन्त्रणे / पुरतोऽग्रतः प्रपातो गर्तः, पृष्ठतो हस्तिभयं (दुहओ त्ति) उभयतः / अचक्षुः स्पर्शो ऽन्धकारः, मध्ये मध्यभागे यत्र वयमास्महे, तत्र शरा बाणा निपतन्ति, ततश्च सर्वतो भयं वर्तते इत्यर्थः / तथा ग्रामः प्रदीप्तोऽग्निना ज्वलति, अरण्यं च ध्मायतेऽनुपशान्तदाहं वर्तते। अथवा-ध्यायतीव गायति योनिध्यानेन नागना अशता-अगारा पटी गामो
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________________ तेतलिसुय 2358 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेयपाल धमायते न विध्यापयति, एवं सर्वस्यापि भयानकत्वात् स्थानान्तरस्य चाभावात्, आयुष्मस्तेतलिपुत्र ! (कउ ति) व व्रजामः? क भीतैर्गन्तव्यमस्माभिरिवान्येनापि भवतीति प्रश्नः / उत्तरं च भीतस्य प्रव्रज्या शरणं, भवतीति गम्यते / अथ कथं भीतस्य प्रव्रज्या शरण भवति? अत्रोच्यते-यथोत्कण्ठिताऽऽदीनां स्वदेशगमनाऽऽदीन / तत्र (छुहियस्स त्ति) बुभुक्षितस्य / मायिनो वञ्चकस्य, रहस्य गुप्तत्वं, शरणमिति सर्वत्र गमनीयम् / अभियुक्तस्य सम्पादितदूषणस्य, प्रत्ययकरणं दूषणापोहेन प्रतीत्युत्पादनम्, अध्वानं मार्ग गच्छतः परिश्रान्तस्य गन्तुमशक्तस्य (वाहणगमणं) शकटाऽऽद्यारोहणं शरणभिति योज्यम् / तरीतुकामस्य नद्यादिकं प्लवनं तरणं कृत्यं कार्य यस्य तत्प्लवनकृत्यं तरकाण्डम् / परमभियोक्तुकामस्याभिभवितुकामस्य (सहायकम्मे त्ति) सहायकृत्यं मित्राऽऽदिकृत्यं (खतेत्यादि) क्षान्तस्य क्रोधनिग्रहेण, दान्तस्येन्द्रियनोइन्द्रियदमेन, जितेन्द्रियस्य विषयेषु रागाऽऽदिनिषेद्धः, (एतो ति) एतेभ्योऽनन्तरोदितेभ्योऽग्रतः प्रपाताऽऽदिभ्यो भयेभ्यः एकमपि भयं न भवति, प्रव्रजितस्य सामायिकपरित्या शरीराऽऽदिषु निरभिष्वङ्गत्वाद् मरणाऽऽदिभयाभावादिति / एवं देवेनामात्यः स्ववाचा भीतस्य प्रव्रज्या श्रेयसीत्यभ्युपगमं कारयित्वा एवमुक्तः-(सुट् टु इत्यादि) अयमों भीतस्य प्रव्रज्या शरणमिति यदि प्रतिज्ञायते, तदा सुष्ठु ते मतं, भयाभिभूतस्त्वमिदानीमसीति एनमर्थमाजानीहि-अनुष्ठानद्वारेणावबुध्यस्व, प्रव्रज्यां विधेहीति यावत्। इह च यद्यपि सूत्रे उपनयो नोक्तस्तथाऽप्येवं द्रष्टव्यः-"जाव न दुक्खं पत्ता, माणभंसं च पाणिणो पायं। ताव न धम्मं गेण्हति भावओ तेयलिसुउव्व // 1 // " इति / ज्ञा० 1 श्रु०१४ अ०। आ०म०। आ०क०। विशे०। तेतलिसुतप्रतिबद्ध-वक्तव्यताके चतुर्दशेज्ञाताध्ययने, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। ज्ञा० आ००। तेतिल पुं०(तैतिल) गण्डकपशौ, वाच०। स्त्रीविलोचनापरपर्याये ववाऽऽदितश्चतुर्थे करणे, ज०७ वक्ष, तेतिलिपुर न०(तेतलिपुर) स्वनामख्याते पुरे, यत्र कनकरथस्यामात्यस्तेतलिसुत आसीत् / ज्ञा०१ श्रु० 13 अ० आ०म०ा दर्श०। आ०चू०। तेतीस स्त्री०(त्रयस्त्रिंशत्) "एत् त्रयोदशाऽऽदौ स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन" ||1|16|| इत्यादेः स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन सह एद्भवति। त्र्यधिकायां त्रिंशत् संख्यायाम, प्रा०१ पाद। तेत्तिअ त्रि०(तावत्) "इदंकिमश्च डेत्तिअ-डे त्तिल-डे दहाः" ||2 / 157 / / इति तच्छब्दात् 'डेत्तिअ' प्रत्ययः। तत्परिमाणवति, प्रा०२ पाद। तेत्तिर पुं०(तित्तिर) लोमपक्षिभेदे, जी०१ प्रति तेत्तुल्ल त्रि०(तावत्) "अतो डेत्तुल्लः" ||4|435 / / इत्यपभ्रंशे तच्छब्दात्परस्यातोः प्रत्ययस्य 'डेत्तुल्ल' इत्यादेशः / मित्वाहिलोपः / प्रा०४ पाद। तत्परिमाणवति, वाचा तेय पुं०(तेजस) " स्नमदामशिरोऽनभः" ||81:32 / / इति सान्तत्वात्तेजः शब्दस्य पुंस्त्वम्। प्रा०१ पाद। अभितापे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। प्रभावे, अन्त०१ श्रु०६ वर्ग 3 अ०। वहौ, प्रज्ञा०१ पाद। स्था०। कान्तौ, उपा०२ अ०। शरीरस्य कान्तौ, स्था०८ ठा०। नि०। शरीरसंबन्धिनि रोचिषि, प्रभावे च / औ०। "अह तेओ पुण देहे अणोतप्पया चेव / ' तेजः पुनर्दहे शरीरेऽनवत्रप्यता अलज्जनयिता दीप्तियुक्तत्वेनापरिभूतत्वम् / बृ०१ उ०। दीप्तौ, उपा०२ अ०। आचा०। तेजोलेश्यायाम, स्था०१ ठा०। शरीरप्रभायाम, ज्ञा०१ श्रु०१०। आहारपाककारणभूतेशु तेजोनिसर्गहेतुषु चोष्णपुंगलेषु, कर्म०५ कर्म०। रसाऽऽद्याहारपाकजनने तेजोनिसर्गलब्धिनिबन्धने च। अनु०॥ वृक्षभेदे, तिला स्तेये, नं० चौर्ये, विशे०। पञ्चा०। तेयंसी त्रि०(तेजस्विन्) तेजः शरीरप्रभा, तद्वांस्तेजस्वी। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० शरीरप्रभायुक्ते, भ०२ श०५उ०। स० नि०। आचा०। दीप्तिमति, आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१उ०।०। तेयग न०(तेजस) तेजःपुद्गलानां विकारस्तैजसम् / “विकारे'' // 6 / 2 / 30 / / इत्यण। ऊष्मलिङ्गे, भुक्ताऽऽहारपरिणमनकारणे शरीरभेदे, यद्वशाच विशिष्टतपःसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः। उक्तं च-"सव्वस्स उम्हसिद्धं, रसाऽऽइआहारपाकजणगं च / तेयगलद्धिनिमित्तं, च तेयगं होइ नायव्वं // 1 // " जी०१ प्रति० स्था०। प्रज्ञा०। (तैजसशरीरव्याख्या सर्वा सरीर' शब्दे वक्ष्यते) वैश्वानरे, पुं०। स०३० सम० तेयगणाम न० तैजसनाम(न) तेजोनिबन्धनं नाम तैजसनाम, तेज सशरीरनिबन्धने नामकर्मणि, यदुदयवशात्तैजसशरीरप्रायोग्यान् पुद्रलानादाय तैजसशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया संबन्धयतीति। कर्म०१ कर्म। तेयगलद्धि स्त्री०(तैजसलब्धि) क्रोधाऽऽधिक्यात्प्रतिपन्थिनं प्रति सुखेन विशिष्टतपोजन्यानेकयोजनप्रमाणक्षेत्राऽऽश्रितवस्तुदहनसामर्थ्यतो जाज्वल्यमानज्वालामोचनशक्तौ, न०ा सातु, यो यमी नित्यं षष्ट तपः करोति पारणके कुल्माषमुष्ट्या जलचुलुकेन चाऽऽस्ते, तस्य षण्मासान्ते सिद्ध्यतीति / ग०२अधि०) तेयगसमुग्धाय पुं०(तैजससमुद्धात) तेजसि विषये भवस्तैजसः, स चासौ समुद् घातश्च तैजससमुद् घातः / तेजोलेश्याविनिर्गमकालभाविनि तैजसशरीरनामकर्माऽऽश्रये समुदघातविशेषे, पं० सं०२ द्वार। प्रज्ञा०। सला प्रव०। (किञ्चिद्वक्तव्यता 'तेउसमुग्घाय' शब्देऽत्रैव भागे 2350 पृष्ठे गता) (अस्य सर्वा वक्तव्यता तु समुग्घाय' शब्दे वक्ष्यते) तेयजणण न०(तेजोजनन) माहात्म्योत्पादने, बृ०३ उ०। तेयपाल पुं०(तेजःपाल) पोरवाडकुलजाते अणहिल्लपाटणनगरराजस्य श्रीवीरधवलस्य मन्त्रिणि, ती०। तेजः पालवस्तुपालकल्पः-- "श्रीवस्तुपालतेजःपालौ मन्त्रीश्वरावुभावास्ताम्। यौ भ्रातरौ प्रसिद्धौ, कीर्तनसंख्यां तयो—मः''||१|| पूर्व गूर्जरधरित्रिमण्डनाया मण्डलीमहानगर्या श्रीवस्तुपालतेजः पालाऽऽद्या वसन्ति स्म / अन्यदा श्रीमत् पत्तनवास्तव्यप्राग्वाटान्वयाङ्कर श्रीचन्द्रपालाऽऽत्मजठक्कुरश्रीचन्द्रप्रासादाङ्ग जमन्त्रिश्रीसोमकुलावतंसठकुर श्रीआसराजनन्दनौ कुमारदेवीकुक्षिसरोवरराजहंसौ श्रीवस्तुपालतेजः पालौ श्रीशत्रुञ्जयगिरिनाराss--
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________________ तेयपाल 2356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेयाणुबंधि (ण) दितीर्थयात्रायै प्रस्थितौ हडालाग्रामं गत्वा यावत् स्वां विभूति श्रीवीरघवलनृपः कालधर्ममवापत्। ततस्तत् पट्टे तदीयस्तनयः श्रीमान् चिन्तयतस्तावल्लक्षत्रयं सर्वस्वं जातम् / ततः सुराष्ट्रस्यासौस्थ्य- वीसलदेवस्ताभ्यां मन्त्रिप्रवराभ्यां राज्येऽभिषिक्तः / सोऽपि समर्थः सन् माकलय्य लक्षमेकमवन्यां निधातुं निशीथे महास्वच्छतलं खातं | क्रमेण दुर्मदः सचिवान्तरं विधाय मन्त्रितेजःपालमपाचकार। तदेतदवखानयामासतुः / तयोः खानयतोः कस्यापि प्राक्तनःकनकपूर्णः लोक्य पुरोधाः सोमेश्वरनामा महाकविर्नुपमुद्दिश्य साक्षेपं नव्यं काव्यशौल्वकलशौ निरगात्, तमादाय श्रीवस्तुपालः तेजःपालजाया- मपठत्। यथामनुपमादेवीं मान्यतयाऽपृच्छत्-कैतनिधीयत इति? तयोक्तम्- 'मासोन्मांसलपाटलापरिमलव्यालोलरोलम्बितः (?) गिरिशिखर एवैतदुचैः स्थाप्यते, यथा प्रस्तुतनिधिवन्नान्यसाद्भवेत्। प्राप्य प्रौढिमिमां समीर ! महतीं पश्य त्वया यत् कृताम्। तच्छुत्वा श्रीवस्तुपालस्तद् द्रव्यं श्रीशत्रुञ्जयोजयन्तादावव्ययत् / सूर्याचन्द्रमसौ निरस्ततमसौ दूरं तिरस्कृत्य यत्, कृतयात्रो व्यावृत्तो धवलकपुरमगात् / अत्रान्तरे माहणदेवी नाम पादस्पर्शसहं विहायसि रजः स्थाने तयोः स्थापितम् // 1 // कान्यकुब्जेश्वरसुता जनका (कु)ञ्चलिकापदे (?) गुर्जरधरित्रीमवाप्य इत्यादि तयोः पुरुषरत्नयोवृत्तशेषमादित उत्पत्तिस्वरूपं तु लोकप्रसितदाधिपत्यं मुक्त्वा मृता सती तत्रैव देशाधिष्ठात्री देवता समजनि। सैकदा द्धित एवावगन्तव्यम्। स्वप्ने वीरधवलनृपस्याचीकथत्-यद्वस्तुपालतेजःपाली राज्यचिन्त- 'गीतादायनवर्येण, सूमाद्विज्ञाय कीर्तिता। कप्राग्रहरौ विधाय सुखेन राज्य शाधि / इत्थं कृते राज्यराष्ट्रवृद्धिस्तव कीर्तनानामियं संख्या, श्रीमतोमन्त्रिमुख्ययोः / / 1 / / " भवित्रीत्यादिश्य स्वं च प्रकाश्य तिरोदधे देवी। प्रातरुत्थाय नृपतिर्वस्तु श्रीमहामात्यवस्तुपालतेजःपालकीर्तनसंख्याकल्पः / पालतेजः पालावाहूय सत् कृत्य च ज्यायसः स्तम्भतीर्थधयलक्क "यदध्यासितमर्हद्भिः, तद्वत्तीर्थं प्रचक्षते। योराधिपत्यमेवादात् / तेजः पालस्य तु सर्वराज्यव्यापारमुद्रा ददौ / अर्हन्तश्च तयोश्चित्तमध्यवात्सुरहर्निशम्।।१।। ततस्तो षड् दर्शनदाननानाविधधर्मस्थानविधापनाऽऽदिभिः सुकृतशतानि चिनुतः स्म नित्यमनुसमयम् / तथाहि-लक्षमेकं सपाद तत्तीर्थरूपयोर्युक्त्या, पुरुष श्रेष्ठयोस्तयोः / जिनबिम्बानां कारितम्, अष्टादश कोटयः षण्णवतिर्लक्षाः श्रीशत्रुञ्जय कीर्तनोत्कीर्तनेनापि, न्याय्या कल्पकृतिर्न किम्? ||2|| तीथें द्रविण व्ययितम्, द्वादश कोट्योऽशीतिर्लक्षाः श्रीउज्जयन्ते, द्वादश इत्यालोच्य हृदा कल्प-लेशं मन्त्रीशयोस्तयोः / कोट्यरित्रपञ्चाशद् लक्षा अर्बुदशिखरे, लूणिगवसत्यां नव शतानि एतं विरचयाशाः, श्रीजिनप्रभसूरयः // 3 // " ती०४१ कल्प। चतुरशीतिश्च पौषधशालाः कारिताः, पञ्चशतानि दन्तमयसिंहासनाना, तेयमंडल न०(तेजोमण्डल) प्रभापटले, स०६ सम०) पञ्चशतानि पञ्चोत्तराणि समवसरणानां जादरमयानां (?) ब्रह्मशालाः / तेयमाहप्पकं तिजुत्त त्रि०(तेजोमाहात्म्यकान्तियुक्त) तेजोदीसप्त शतानि, सप्त शतानि सत्रागाराणाम्, सप्तशती तपस्विका- तिर्माहात्म्यं महानुभावता, कान्तिः काम्यता, तैर्युक्त, उपा० अ०। पालिकमठानाम्, सर्वेषां भोजननिर्वापाऽऽदिदानं कृतं , रिशच्छतानि तेयलिपुर (तेतलिपुर) तेतिलिपुर' शब्दार्थे , ज्ञा०१ श्रु०१०। व्युत्तराणि माहेश्वराऽऽयतनानां, त्रयोदश शतानि चतुरुत्तराणि तेयलेस्सा स्त्री० (तेजोलेश्या) विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवायां शिखरबद्धजैनप्रासादानां, त्रयोविंशतिशतानि जीर्णचैत्योद्धाराणाम्, तेजोज्वालायाम, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। (सा कथं भवतीति 'तेउलेस्सा' अष्टादशकोटिसुवर्णव्ययेन सरस्वतीभाण्डागाराणां स्थानत्रये भरणं कृतं, शब्देऽनुपदमेव 2346 पृष्ठे द्रष्टव्या) पञ्चशती ब्राह्मणानां वेदपाठं करोति स्म, वर्षमध्ये सद्यपूजात्रितयं, तेयवंत त्रि०(तेजस्विन) प्रभावति, प्रश्न०४ सम्ब० द्वार। पञ्चाशच्छती श्रमणानां गृहे नित्यं विहरति स्म, तटिककार्पटिकानां सहस्रं तेयवीरिय पुं०(तेजोवीर्य) भरतराजस्य पुत्रपरम्परायां भरतात्पञ्चमे साधिकं प्रत्यहं भुङ्क्ते स्म, त्रयोदश तीर्थयात्राः सधपतीभूय कृताः। / __ महाबलस्य पुत्रे, स्था०८ ठा० तत्र प्रथमयात्राया चत्वारि सहस्राणि च पञ्चशतानिशकटानां सशय्यापा- तेया स्त्री०(तेजस्) त्रयोदश्याम्, ज्यो०४ पाहु०। चं० प्र०ा लोकोलकानां, सप्तशती सुखासिकानाम्, अष्टादशशती बाहिनीनाम्, तररीत्या त्रयोदश्यां रात्रौं, कल्प०६ क्षण। एकान्नविंशतिः शतानि श्रीकरिणाम्, एकविंशतिः शतानि श्वेताम्यराणां, *त्रेता स्त्री०। सत्ययुगानन्तरवर्तिनि युगभेदे, वाच०। "तेयाजुगे य एकादश शतानि दिगम्बराणां, चत्वारि शतानि सार्दानि जैनगा-यनाना, दासरही रामो सीयालक्खणसंजुओ वि।"ती०२७ कल्प। दक्षिणाग्नित्रयस्त्रिंशच्छती वन्दिजनानाम् / चतुरशीतिस्तडागाः सुबद्धाः , चतुःशती गार्हपत्याऽऽहवनीयाऽऽत्मके समुदिते अग्नित्रये, द्यूतक्रीडासाधनचतुःषष्ट्यधिका वापीनां, पाषाणमयानि द्वा–त्रिंशद् दुर्गाणि, दन्तमय- स्याक्षस्य यस्मिन् पार्श्वे त्रयोऽङ्कास्तस्य पार्श्वस्य उत्तानतया पतने द्यूतजैनरथाना चतुर्विंशतिः विंशं शतं शाकघटिताना, सरस्वतीकण्ठाऽऽ- विशेषे, वराटकानांमध्ये त्रयाणामुत्तानतया पतने च। 'त्रेताहृतसर्वस्वम् / भरणाऽऽदीनि चतुर्विशतिर्विरुदानि श्रीवस्तुपालस्य चतुःषष्टिर्मसीतयः इति मृच्छकटिकटीका / वाचा कारिताः। दक्षिणस्या श्रीपर्वत यावत्, पश्चिमायां प्रभासंयावत्, उत्तरस्यां तेयाणुबंधि (ण) न०(स्तेयानुबन्धिन्) स्तेनस्य चौरस्य कर्म स्तेयं, केदारं यावत्, पूर्वस्यां वाराणसी यावत्तयोः कीर्तनानि, सर्वाग्रण त्रीणि तीव्रक्रोधाऽऽद्याकुलतया तदनुबन्धवत्स्तेयानुबन्धिनि, भ० 25 श०७ कोटिशतानि चतुर्दश लक्षा अष्टादश सहस्राणि अष्टशतानि लोष्टिकत्रि- उला रौद्रध्यानभेदे, दर्शका अतितीव्रक्रोधलोभाऽऽकुलमानसस्य श्रमणातयोनानि द्रव्यव्ययतः त्रिषष्टिवारान् संग्रामे जैत्रपत्रं गृहीतम् / अष्टादश न्धबधिराजङ्गमाऽऽदिष्वपि प्राणप्रहाणबुद्ध्याऽपि परद्रव्यापहरणेच्छा वर्षाणि तयोर्व्यापृतिः। एवं तयोः पुण्यकृत्यानि कुर्वतोः कियताऽपि कालेन परलोकापाया भीरोः। अतएवाऽऽह-श्रीभगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः
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________________ तेयाणुबंधि(ण) 2360 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेरासिय "तह तिव्वकोहलोहा-उलस्स भूओवघायणमणज्न / परदव्व हरणचित्त, परलोगावायनिरवेक्खं" ||1|| दर्श०४ तत्त्व। तेयाली पुं०(तेयालिन्) वृक्षभेदे, ''ताले तमाले तक्कलितेयाली- | सालिसारकल्लोणे।" प्रज्ञा०१ पाद। तेरसी स्त्री०(त्रयोदशी) चन्द्रस्य त्रयोदशकलाक्रियारूपे तिथौ, वाच०। त्रयोदश्यां यात्रा शुभकरी। तदुक्तम्-"जे वि हु हुंति अमित्ता, ते तेरसिपट्ठिओ जिणइ।"द०प०। ज्यो। तेरह पुं०त्रयोदश(न) "एत्त्रयोदशाऽऽदौ स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन" // 8/1 / 165 / त्रयोदशन्नित्येवप्रकारेषु संख्याशब्देष्वादेः स्वरस्य परेण सस्वरय्यञ्जनेन सहकारः / प्रा०१ पाद / "संख्यागद्दे रः" ||8/1 / 216 / / इति दस्य रः / प्रा०१ पादत्र्यधिक्दशसंख्याऽन्विते, वाचा तेरासिय पुं०(त्रैराशिक) जीवाजीवनोजीवभेदास्वयो राशयः समाहृतास्त्रिराशि, तत्प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिकाः / स्था०७ ठा०आ०म०। त्रीन् राशीन् जीवाजीवनोजीवरूपान् वदन्ति ये ते त्रैराशिकाः। औ०। जीवोऽजीवो जीवाजीवश्व, लोकोऽलोको लोकालोकश्च, सत् असत् सदसत् / नयचिन्तायामपि त्रिविधं नयमिच्छन्ति / तद्यथा-द्रव्यास्तिकम, पर्यायास्तिकम्, उभयास्तिकं च / उक्तं च–त्रिभी राशिभिश्वरन्तीति त्रैराशिकाः / नं०। त्रिराशिभिर्दीव्यन्ति जिगीषन्तीति त्रैराशिकाः / उत्त०३अ० जीवाजीवनोजीवराशित्रयवादिरोहगुप्तमतानुसारिषु षष्ठेषु निहवेषु, आ०क०। अथषष्ठवक्तव्यतामभिधित्सुराहपंच सया चोयाला, तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। पुरिमंतरंजियाए, तेरासियदिट्ठि उप्पन्ना // 2451 / / पञ्चवर्षशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि तदा सिद्धिं गतस्यश्रीमन्महावीरस्य, अत्रान्तरे अन्तरञ्जिकायां पुर्या त्रैराशिकदृष्टिरुत्पन्नेति ||2451 / / __ कथमुत्पन्ना ? इत्याहपुरिमंतरंजि भुयगिह, बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य। परिवायपोट्टसाले, घोसणा पडिसेहणा वाए॥२४५२।। संग्रहगाथेयम्। अस्याश्च कथानकादर्थोऽवसेयः / तचेदम्- अन्तरजिका नाम नगरी,तस्याश्च बहिर्भूतगृहं नाम चैत्यम्। तत्र च श्रीगुप्तनामाऽऽचार्यः स्थितः। तस्यांच नगर्या बलश्री म राजा। श्रीगुप्ताऽऽचार्याणां च रोहगुप्तो नाम शिष्योऽन्यत्र ग्रामे स्थित आसीत्। अतोऽसौ गुरुवन्दनार्थमन्तरञ्जिकायामागतः / तत्र चैकः परिव्राजको लोहपट्टकेनोदर बद्धा, जम्बूवृक्षशाखया च हस्ते गृहीतया नगर्या भ्राम्यति। किमेतदिति च लोकेन पृष्टो वदति-मदीयोरदमतीव ज्ञानेन पूरितत्वात-स्फुटतीति लोहपट्टेन बद्धम्। जम्बूद्वीपमध्ये च मम प्रतिवादी नास्ति इत्यस्यार्थस्य सूचनार्थ जम्बूवृक्षशाखा हस्ते गृहीता। ततस्तेन परिव्राजकेन सर्वस्यामपि नगर्यां ''शून्याः सर्वेऽपि परप्रवादाः, नास्ति कश्चिन्मम प्रतिवादी।" इत्युद्धोषणापूर्वकः पटहको दापितः / लोहपट्टबद्धपोइजम्बूवृक्षशाखायोगाच तस्य लोके ''पोट्टशाल'' इति नाम जातम्। ततस्तत्पटहको नगरी प्रविशता रोहगुप्तेन दृष्टः, उद्घोषणा च श्रुता। ततोऽहं तेन | सार्द्ध वादंदास्यामीत्यभिधाय गुरूनपृष्वाऽपि निषिद्धस्तेनाऽसौ पटहकः / गुरुसमीपं चाऽऽगत्याऽऽलोचयता कथितोऽयं व्यतिकरस्तेषाम्। आचार्य: प्रोक्तम्- न युक्तं त्वयाऽनुष्ठितम्, स हि परिव्राजको वादे निर्जितोऽपि विद्यास्वतिकुशलत्वात्ताभिरुपतिष्ठते, तस्य चैताः सप्त विद्या वाढं स्फुरन्ति // 2452 // काः पुनस्ताः? इत्याहविच्छु य सप्पे मूसग, मिगी वराही य काग पोयाई। एयाहिं विजाहिं, सो य परिव्वायगो कुसलो / / 2453 / / (विच्छु य त्ति) वृश्चिकप्रधाना विद्या गृह्यते / (सप्पे त्ति) सर्पप्रधाना विद्या (मूसग त्ति) मूषकप्रधाना / तथा मृगी नाम विद्या मृगीरूपेणोपघातकारिणी। एवं वराही च। (काग पोयाइ त्ति ) काकविद्या, पोताकीविद्या च। पोताक्यः शकुनिकाः / एतासु विद्यासु, एताभिर्वा विद्याभिः स परिव्राजकः कुशल इति। ततो रोहगुप्तेनोक्तम्-यद्येवं, तत्किमिदानीं नष्ट क्वापि शक्यते? निषिद्धस्ततपटहकः, यद्भवति तद्भवतु / ततः सुरिभिः प्रोक्तम्-यद्येव, तर्हि पठितसिद्धा एवैताः सप्त तत्प्रतिपक्षविद्या गृहाण // 2454|| काः पुनस्ताः? इत्याहमोरी नउलि विराली, वग्घी सीही य उलुगि चोलावी। एयाओ विजाओ, गिण्ह परिव्वायमहणीओ|२४५४।। वृश्चिकानां प्रतिपक्षभूता मयूरी विद्या, सर्पाणां तु प्रतिपक्षभूता नकुली। मूषकाणां बिमाली। एवं व्याघ्री, सिंही, उलूकी। (उलावि त्ति) पोताकीप्रतिपक्षभूता उवावकप्रधाना विद्येत्यर्थः / एताः परिव्राजकमथनीविद्या गृहाण त्वम्, इति सूरिणा प्रोक्ते गृह्णाति रोहगुप्तः / तथा रजोहरण चाभिमन्त्र्य सूरिभिस्तस्य समर्पितम् / अभिहितश्च यथा-यद्यन्यदपि किश्चित्तत्प्रणीतक्षुद्रविद्याकृतमुपसर्गजातमुपतिष्ठते तदा तन्निवारणाथमतन्मस्तकस्योपरि भ्रमणीयम् / ततश्चेन्द्राणामप्यजेयो भविष्यसि, किमुत मनुष्यमात्रस्य तस्येति? ततश्च गतो राजसभां रोहगुप्तः। प्रोक्तं च तत्र तेन–किमेष द्रमकः परिव्राजको जानाति? करोत्वयमेव यदृच्छया पूर्वपक्षम, येनाहं निराकरोमि / ततः परिव्राजकेन चिन्तितम्-निपुणाः खल्वमी भवन्ति, तदमीषामेव सम्मतं पक्षं परिगृह्णामि, येन निराकर्तुं न शक्नोति। विचिन्त्य चेदमभ्यध्रायि-इह जीवाश्चाजीवाश्वेति द्वावेव राशी, तथैवोपलभ्यमानत्वात्, शुभाशुभाऽऽदिराशिद्वयवत् इत्यादि / ततो रोहगुप्तेन तद्बुद्धिपरिभवनार्थ स्वसंमतोऽप्ययं पक्षो निराकृतः / कथम्? इति चेत्? उच्यते-असिद्धोऽयं हेतुः, अन्यथोपलम्भात्, जीवा अजीवा नोजीवाश्चेति राशित्रयदर्शनात्। तत्र जीवा नरकतिर्यगादयः, अजीवास्तु परमाणुघटाऽऽदयः, नोजीवास्तु गृहकोकिलापुच्छाऽऽदयः। ततो जीवाऽजीवनोजीवरूपास्त्रयो राशयः, तथैवोपलभ्यमानत्वाद्, अधममध्यमोत्तमाऽऽदिराशित्रयवद्, इत्यादियुक्तिभिः निष्प्रश्रव्याकरणः कृत्वा जितः परिवाजको रोहगुप्तेन / ततोऽसौ क्रुद्धो वृश्चिकविद्यया रोहगुप्तविनाशार्थ वृश्चिकान मुञ्चति / ततो रोहगुप्तस्तत्प्रतिपक्षभूतमतयूरीविद्यया मयूरान्मुञ्चति। तैश्च वृश्चिकेषु हतेशु परिव्राजकः सन्मुिञ्चति। इतरः तत्-प्रतिघातार्थं नकुलान्विसृजति। एवं मूषिकाणां विडालान्, मृगीणा व्याघ्रान्, शूकराणां सिंहान्, काकानामुलूकान् पोतकी
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________________ तेरासिय 2361 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेरासिय नामुलाबकान् मुञ्चति। ततो गर्दभी मुक्ता, तां चाऽऽगच्छन्तीं दृष्ट्वा रोहगुप्तेन रजोहरणं मस्तकस्योपरि भ्रमयित्वा तेनैव रजोहरणेन ताडिता सती परिव्राजकस्योपरि मूत्रपुरीषोत्सर्ग कृत्वा गताऽसौ / ततः सभापतिना, सभ्यः,समस्तलोकेन च निन्द्यमानो नगरान्निर्वासितः परिव्राजकः॥२४५४।। इतः परं यदभूत्तद्भाष्यकारः प्राऽऽहजेऊण पोट्टसालं, छलूओं भणइ गुरुमूलमागंतुं। वायम्मि मए विजिओ, सुणह जहा सो सहामज्झे / / 2455 / / रासिद्गगहियपक्खो, तइयं नोजीवरासिमादाय। गिहकोकिलाइपुच्छच्छेओदाहरणओऽभिहिए।।२४५६|| भणइ गुरू सुद्ध कयं, किं पुण जेऊण कीस नाभिहियं ? अयमवसिद्धंतो णे, तइओ नोजीवरासि त्ति॥२४५७।। एवं गए वि गंतुं, परिसामज्झम्मि भणसु नायं णे। सिद्धंतो किं तु मए, बुद्धिं परिभूय सो समिओ / / 2458|| बहुसो स भण्णमाणो, गुरुणा पडिभणइ किमवसिद्धंतो? जइ नाम जीवदेसो, नोजीवो हुन्ज को दोसो? ||2456 / / पोट्टशालं परिव्राजकं जित्वा गुरुचरणमूलमागत्य रोहगुप्तोऽपरनाम्ना तुखडुलूको भणति-स परिव्राजकाधमः समस्तनृपसभामध्ये यथा वादे मया विजितस्तथा शृणुत यूयम्, कथयामीति / तदेवाऽऽहराशिद्वयगृहीतपक्षः स परिव्राजको नया वादे विजित इति प्राक्तनेन संबन्धः। किं कृत्वा? इत्याह-तृतीयं नोजीवराशिमादाय पक्षीकृत्य, कुतो दृष्टान्तादसौ पक्षीकृत्य? इत्याह- गृहकोकिलाऽऽदीनां पुच्छमेव छिन्नत्वाच्छेदः, तदुदाहरणतस्तद् दृष्टान्तादित्यर्थः / एवं रोहगुप्तनाभिहिते गुरुर्भणतिसुष्ठ कृतं त्वया यदसौ जितः, किंतुतत्रोत्तिष्ठता त्वया किमेतन्नाभिहितम्? किम्? इत्याह-तृतीयो नोजीवराशिरित्ययं (णे त्ति) नोऽस्माकमपसिद्धान्तः, जीवाजीवलक्षणराशिद्वयस्यैवाऽस्मत्सिद्धान्तेऽभिहितत्वादिति। तस्मादेवं गतेऽपि, एतावत्यपि गते इत्यर्थः,तत्र परिष-न्मध्ये गत्वा भण प्रतिपादय, (नायं णे त्ति) नोऽस्माकं नायं सिद्धान्तः, किंतुस परिव्राजकस्तद् बुद्धिं परिभूय तिरस्कृत्य शमित उपशमं नीतो, दर्प त्याजित इत्यर्थः / एवं बहुशोऽनेकधा गुरुणा भण्यमानः स रोहगुप्तः प्रतिभणति प्रत्युत्तरयति-आचार्य! किमयमपसिद्धान्तः? यदि हि नोजीवलक्षणतृतीयराश्यभ्युपगमे कोऽपि दोषः स्यात्तदा स्यादयमपसिद्धान्तः, न चैतदस्ति। कुतः? इत्याह यदि नाम गृहकोकिलापुच्छाऽऽदिजीवदेशो नोजीवो भवेन्नोजीवत्वेनाऽभ्युपगम्येत, तर्हि को दोषः स्यात्? न कमपि दोषमत्र पश्याम इत्यर्थः। ततः किमित्यपसिद्धान्तत्वे दोषपरिहारार्थं पुनर्मां तत्र प्रेषयसीति भावः। कस्मान्न दोषः? इत्याहजं देसनिसेहपरो, नोसद्दो जीवदव्वदेसो य। गिहकोइलाइपुच्छं, विलक्खणं तेण नोजीवो // 2460 // यद्यस्मान्नोजीव इत्यत्र नोशब्दो देशनिषेधपरो, न तु सर्वनिषेधपरः, नोजीवो-जीवैकदेशो, न तु सर्वस्यापि जीवस्याऽभाव इत्यर्थः / भवत्वेवं देशनिषेधको नोशब्दः, परं गृहकोकिलाऽऽदिपुच्छं जीवदेशो न भविष्य तीत्याशड्क्याऽऽह-जीवद्रव्यैकदेशश्च गृह-कोकिलाऽऽदिपुच्छम्, आदिशब्दाच्छिन्नपुरुषाऽऽदिहस्ताऽऽदयः परिगृह्यन्ते / कथंभूतं तद् गृहकोकिलाऽऽदिपुच्छम्? इत्याह-विलक्षणम्, जीवाऽजीयेभ्य इति गम्यते। तथाहि न तावद् गृह-कोकिलाऽऽदिपुच्छं जीवत्वेन व्यपदेष्टु शक्यते, तत्कायैकदेशत्वेन तद्विलक्षणत्वात् / नाप्यजीव इत्यभिधातुं पार्यते, स्फुरणाऽऽदिभिस्तेभ्योऽपि विलक्षणत्वात्। येनैवं, तेन कारणेन पारिशेष्यान्नोजीव एतदुच्यत इति // 2460 / / सिद्धान्तेऽपि धर्मास्तिकायाऽऽदिदेशवचनादुक्त एव नोजीवः / कथम्? इत्याहधम्माइदसविहाऽऽदेसओ य देसो विजं पिहुं वत्थु / अपिहुभूओ किं पुण, छिन्नं गिहकोलियापुच्छं? // 2461 / / इच्छइ जीवपएस, नोजीवं जं च समभिरूढो वि। तेणऽत्थि तओ समए, घडदेसो नोघडो जह वा / / 2462 / / चकारस्य भिन्नक्रमत्वाद्यद्यस्मात्कारणाद्देशोऽपीत्यपिशब्दस्या-पि भिन्नक्रमत्वाद्धर्मास्तिकायाऽऽदिदेशिनः (अपिहुन्भूओ त्ति) अपृथग भूतोऽप्येकत्वमापन्नोऽपि देशः (पिहुं वत्थु त्ति) सिद्धान्ते पृथग वस्तु भणित इति शेषः, पृथग् वस्तुत्वेन निर्दिष्ट इत्यर्थः / किं पुनर्याच्छिन्नमात्मनः पृथग्भूतं कृतं, तद् गृहकोकिलाऽऽदिपुच्छं पृथग् वस्तु न भविष्यति? भविष्यत्येवेति / तच्च जीवच्छिन्नत्वेन पृथग्भूतत्वात्. स्फुरणाऽऽदिना चाजीवविलक्षणत्वात्सामर्थ्यान्नोजीव एवेति भावः। कुतः पुनर्वचनाऽऽदेशसिद्धान्तेपृथग वस्तु भणितः? इत्याह-(धम्माइदसविहाऽऽदेसउत्ति) धर्मास्तिकायाऽऽदीनाममूर्ताजीवानां दशविधाऽऽदेशतो दशविधत्वभणनात् / एतदुक्तं भवति-अजीवप्ररूपणां कुर्वद्विरुक्तं परममुनिभिः "अजीवा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-रूविअजीवा य, अरूविअजीवा य / रूविअजीवा चउव्विहा पण्णत्ता / तं जहा-खंधा, देसा, पएसा, परमाणुपोग्गला। अरूविअजीवा दसवि पन्नत्ता। तं जहाधम्म-त्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्सपएसे, एवं अधम्मत्थिकाए वि, आगासत्थिकाए वि,अद्धासमए।" तदेवंधर्मा-स्तिकायाऽऽदीनां दशविधत्वभणनेन तद्देशस्य पृथग्वस्तुत्वमुक्त-मेव, अन्यथा दशविधत्वानुपपत्तेः / यदा च धर्मास्तिकायाऽऽदीनां देशस्तेभ्योऽपि पृथग्भूतोऽपि पृथग्वस्तूच्यते, तदा गृहकोकिला-पुच्छाऽऽदिकं छिन्नत्वेन जीवात् पृथग्भूतं सुतरां वस्तु भवति; तच्च जीवाजीवविलक्षणत्वान्नोजीव इत्युक्तमेवेति। अपि च यद्यस्मात्कारणाजीवप्रदेशं नोजीवं समभिरूढनयोऽपीच्छति, तेन तस्मात्तकोऽसौ नोजीवः समये सिद्धान्तेऽप्यस्ति, न पुनर्मयैव केवलेनोच्यते, तथा चानुयोगद्वारेषु प्रमाणद्वारान्तर्गतं नयप्रमाणं विचारयता प्रोक्तम्- "समभिरूढो सद्दतयं भणइ-जइ कम्मधारएण भणसि तो एवं भणाहि-जीवे य से पएसे य, से सपएसे नोजीवे" इति / तदनेन प्रदेशलक्षणो जीवैकदेशो नोजीव उक्तः, यथा घटैकदेशो नोघट इति / तस्मादस्ति नोजीवलक्षणस्तृतीयराशिः, युक्त्याऽऽगमसिद्धत्वात्, जीवाजीवाऽऽदितत्त्ववदिति॥२४६१।।२४६२।। तदेवं षडुलूकेनोक्त आचार्यः प्रतिविधानमाह-- जइ ते सुयं पमाणं,तो रासी तेसु तेसु सुत्तेसु।
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________________ तेरासिय 2362 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेरासिय दो जीवाजीवाणं, नसुए नोजीवरासि ति।।२४६३।। 'धम्माइदसविहाऽऽदेसओ य'' इत्याधुपन्यासात्सूत्रप्रामाण्यवादी किल लक्ष्यते भवान्तद्यदि सत्यमेव तव सूत्रं प्रमाणम्, ततस्तर्हि तेषु तेषु सूत्रेषु जीवाजीवरूपौ द्वावेव राशी प्रोक्तौ। तथा च स्थानाङ्ग स्त्रम- 'दुवे रासी पण्णत्ता / तं जहा-जीवा चेव, अजीवा चेव।" तथाऽनुयोगद्वारसूत्रेऽप्युक्तम्-'कइविहा णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता? गोबमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-जीयदव्वा य, अजीवदव्वा या" तथोत्तराध्ययनरात्र चाभिहितम्-"जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए।'' इत्यालान्येष्वपि सूत्रेषु द्रष्टव्यम्। नोजीवराशिस्तु तृतीयः श्रुतेन क्वचिदा शाभिहितः, तत्कथं तत्सत्वप्ररूपणा न श्रुताऽऽशातनेति? न च धम्मास्तिकायाऽऽदीनां देशस्तेभ्यो भिन्नः कोऽप्यस्ति, विवक्षामात्रेण तरगजिन्नास्तत्वकल्पनात् // 2463 // एवं पुच्छाऽऽदिकमपि गृहकोकिलाऽऽदिजीवेभ्योऽभिन्नमेव, तबद्धत्वाद्, अतो जीव एव तत्, नतु नोजीव इति दर्शयन्नाहगिहकोलियाइपुच्छे, छिन्नम्मि तदंतरालसंबंधो। सुत्तेऽभिहिओ सुहुमा-ऽमुत्ततणओ तदग्गहणं / 2464 / / गृहकोकिलाऽऽदीनां पुच्छाऽऽदिकेऽवयवे छुरिकाऽऽदिना छिन्नेऽपि तयोर्मुहकोकिलापुच्छाऽऽदिवस्तुनोर्थदन्तरालं विचालं तत्र जीवपदेशानां संबन्धः संयोगस्तदन्तरालसंबन्धः सूत्रेऽभिहित एव। तथा च भगवतीसूत्रम्- "अह भंते ! कुम्मा कुम्मावलिया, गोहा गोहावलिया, गोणे गोणावलिया, मणुस्से मणुस्सावलिया, महिसे महिसावलिया, एएसि दुहा वा, तिहा वा, असंखेजहा वा छिन्नाणं जे अंतरा, ते विण तहि जीवपएसेहिं फुडा? हंता फुडा। पुरिसे णं भंते ! अंतरे हत्थेण वा, पाएण वा, अंगुलियाएवा, कट्टेण वा, किलिचेण वा, आमुसमाणे वा, संमुसमाणे वा, आलिहमाणे वा, विलिहमाणे वा, अण्णयरेण वा तिक्खेण सत्थजाएणं आच्छि–दमाणे वा, विच्छिंदमाणे वा, अगणिकाएणं समोदुहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाहं वा विवाह वा उप्पाएइ, विच्छेयं वा करेइ? नो इणढे समढे। नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ।" इति। यदि नामैव सूत्रे जीवप्रदेशानां तदन्तरालसंबन्धोऽभिहितः, तर्हि तदन्तराले ते जीवप्रदेशाः किमिति नोपलभ्यनते? इत्याह-(सुहमेत्यादि) कार्मणशरीरस्य सूक्ष्मत्वात्, जीवप्रदेशानां चामूर्त्तत्वादन्तराले तेषां जीवप्रदेशाना सतामप्यग्रहण तदग्रहणमिति / / 2464 / / ननु यथा देहे पुच्छाऽऽदौ च स्फुरणाऽऽदिभिर्लिङ्गैर्जीवप्रदेशा गृह्यन्ते, तथा सन्तोऽप्यन्तराले किमि तिते न गृह्यन्ते? इत्याहगज्झा मुत्तिगयाओ,नाऽऽगासे जह पईवरस्सीओ। तह जीवलक्खणाई, देहे न तदंतरालम्मि // 2465 / / इह भूकुड्यवरण्डकान्धकाराऽऽदीनि वस्तुन्येव मूर्तियोगान्मू- | तिरुच्यन्ते। ततश्च यथा मूर्त्तिगता यथोक्तवस्तुगता एवेत्यर्थः, प्रदीपरश्मयो ग्राह्या भवन्ति, नतु केवल आकाशे प्रसृताः, तथा तेनैव प्रकारेण जीवो लक्ष्यते यैस्तानि जीवलक्षणानि भावणोच्छासनिःश्वासधावनवल्गनस्फुरणाऽऽदीनि देह एव गृह्यन्ते, न तु तदन्तराल इति / / 2465 / / यतश्चैवं ततः किम्? इत्याहदेहरहियं न गिण्हइ, निरतिसओ नातिसुहुमदेहं च। नय से होइ विवाहा, जीवस्स भवंतराले व्व / / 2466 / / देहाभावे जीवलक्षणानामभावाद्देहरहितं मुक्ताऽऽत्मानं छिन्नपुच्छाऽऽद्यन्तरालवर्त्तिन वा जीवं निरतिशयः केवलज्ञानाऽऽद्यतिशयरहितो जन्तुर्न गृह्णाति। तथा अतिसूक्ष्मो देहो यस्य तम--तिसूक्ष्मदेह निगोदाऽऽदिजीवं कार्मगकाययोगिन वा जन्तुंनाऽसौ गृह्णाति। न च से तस्यजीवस्यान्तसलवर्तिषु प्रदेशेष्वनन्तरदर्शितसिद्धान्तसूत्रोक्तयुक्त्या कुन्तासिसेल्लाऽऽदिशस्त्रैरग्निजलाऽऽदिभिर्वा विबाधा पीडा काचिद्भवति, भवान्तराले कामणशरीरवर्तिजीवप्रदेशवदिति // 2466 / / ननु गृहकोकिलाऽऽदिजीवस्य छिन्नत्वात्पुच्छाऽऽदिकं खण्डं नष्ट, ततश्च तारमात्पृथग्भूतत्वान्नोजीवः कस्मानोच्यते? यथा घटच्छिन्नत्वात्पथग्भूतं रथ्यापतितं घटखण्डं घटकदेशत्वान्नोघटः? तदयुक्तम्। कुतः? पाहदव्वामुत्तत्ताऽकयभावादविकारदरिसणाओ य! अविणासकारणाहि य, नभसो व्व नखंडसो नासो / / 2467 / खण्डशो जीवस्य नाशो न भवतीति प्रतिज्ञा, अमूर्त्तद्रव्यत्वाद्, अकृतकभावात्-अकृतकत्वादित्यर्थः / तथा घटाऽऽदेः कपाला दिवद्विकारदर्शनाभावाद, अविनाशकारणत्वाचविनाशकारणानामग्निशस्त्राऽऽदीनामभावाचेत्यर्थः इत्येते हेतवः / सर्वेषु नभस इव इति दृष्टान्त इति।।२४६७|| खण्डशी नाशे च जीवस्य दोषानाह-- नासे य सव्वनासो, जीवस्स नासो य जिणमयचाओ। तत्तो य अणिम्मोक्खो, दिक्खावेफल्लदोसाय / / 2468|| शस्वच्छेदाऽऽदिना जीवप्रदेशस्य नाशे चेष्यमाणे क्रमशः सर्वनाशोऽपि कदाचित्तस्य भवेत्। तथाहि-यत् खण्डशो नश्यति तस्य सर्वनाशो दृष्टः, यथा घटाऽऽदः, तथा च त्वयेष्यते जीवः, ततः सर्वनाशस्तस्य प्राप्नोति। भवत्येतदपि, किं नः सूयते? इति चेत् / तदयुक्तम्। कुतः? इत्याह(नासो येत्यादि) स च जीवस्य सर्वनाशो न युक्तः, यस्माजिनमतत्यागहेतुत्वाजिनमतत्यागोऽसौ / जिनमते हि जीवस्य सतः सर्वथा विनाशोऽसतश्च सर्वथोत्पादः सर्वत्र निषिद्ध एव। यदाह-"जीवा णं भते ! किं वमृति, हायंति, अवडिया? गोयमा ! नो वड्डति, नो हायंति, अवडिया।' इत्यादि। अतो जीवस्य सर्वथा नाशेऽभ्युपगम्यमाने जिनमतत्याग एव स्यात् / तथा ततस्तत्सर्वनाशादनिर्मोक्षो मोक्षाभावः प्राप्नोति, मुमुक्षोः सर्वथा नाशात्। मोक्षाभावे च दीक्षाऽऽदिकष्टानुष्ठानवैफल्य, क्रमेण च सर्वेषामपि जीवानां सर्वनाशे संसारस्य शून्यताप्राप्तिः, कृतस्य च शुभाशुभकर्मणो जीवस्य सर्वनाश एवमेव नाशात्कृतनाशप्रसङ्ग इत्यादि वाच्यमिति न जीवस्य खण्डशो नाशः / गृहकोकिलाऽऽदीना पुच्छाऽऽदिखण्डस्य पृथग्भूतत्वेन प्रत्यक्षत एव नाशो दृश्यत इति चेत्। तदयुक्तम् / औदारिकशरीरस्यैव हि तत्खण्डमध्यक्षतो वीक्ष्यते, न तु जीवस्य, तस्यामूर्तत्वेन केनाऽपि खण्डयितुमशक्यत्वादिति। अथात्रैव पराभिप्रायमाशङ्कय दूषयतिअह खंधो इव संघायभेयधम्मा स तो वि सव्वेसिं।
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________________ तेरासिय 2363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेरासिय अवरोप्परसंकरओ, सुहाइगुणसंकरो पत्तो // 2466 / / अथ पुगलस्कन्ध इव सावयवत्वात्स जीवः सङ्घातभेधर्माऽभ्युपगम्यते, यथा कृचिद्विवक्षितपुद्गलस्कन्धेऽन्यस्कन्धगतं खण्ड समागत्य संहन्यते संबध्यते, तदतं च खण्ड भित्त्वाऽन्यत्र गच्छति, एवं जीवस्याप्यन्यजीवखण्डं संहन्यते, तद्गतं तु भिद्यत इत्येवं सङ्घातभेदधा जीव इष्यत इति। अतः खण्डशो नाशेऽपि संघातस्यापि सद्भावान्न तस्य सर्वनाश इति परस्याभिप्रायः। अत्र दूषणमाह-(तो वि सव्वेसिं इत्यादि) एवमपि च सति सर्वेषामपि सर्वलोकवर्तिनां जीवाना परस्परसङ्करतः सुखाऽऽदिगुणसङ्करः प्राप्तः / इदमुक्तम्भवतियदैक जीवसंबन्धि शुभाशुभकर्मान्चितं खण्डमन्यजीवस्य संबध्यते, अन्यसंबन्धि तु खण्ड तस्य संबध्यते, तदा तत्सुखाऽऽदयोऽन्यस्य प्रसजन्ति, अन्यसुखाऽऽदयस्तु तस्य, इत्येवं सर्वजीवानां परस्परं सुखाऽऽदिगुणसाङ्कर्य स्यात् / तथैकस्य कृतनाशः,अन्यस्ताकृताभ्यागम इत्यादि वाच्यमिति // 2466 // अन्यमपि पराभिप्रायमाशङ्कयं दूषणान्तरमाहअह अविमुक्को वितओ, नोजीवो तो पइप्पएसं ते। जीवम्मि असंखेज्जा, नोजीवा नस्थि जीवो ते॥२४७०।। अथैतद्दोषभयान्न जीवस्य छेदोऽभ्युपगम्यते, किं त्वविमुक्तोऽप्यच्छिन्नोऽपि जीवसंबद्धोऽपि तकोऽसौजीवदेशो नोजीवस्त्वयेष्यते, यथा धर्मास्तिकायाऽऽद्येकदेशोनोधर्मास्तिकायाऽऽदिः ततस्तर्हि प्रतिप्रदेश ते तव नोजीवसद्भावादेकैकस्मिन्नात्मन्यसंख्येया नोजीवाः प्राप्ताः, ततस्ते तव नास्ति क्वाऽपि जीवसंभवः, सर्वेषामपि जीवानां प्रत्येकमसंख्येयनोजीवत्वप्राप्तेरिति / / 2470 / / दूषणान्तरमपि प्रसञ्जयन्नाहएवमजीवा वि पइप्पएसभेएण नोअजीव त्ति। नत्थि अजीवा केई, कयरे ते तिन्नि रासि त्ति? / / 2471 / / एवमजीवा अपि धर्मास्तिकायाऽऽदयो व्यणुकस्कन्धाऽऽदयो घटाऽऽदयश्च प्रतिप्रदेशभेदतोऽजीवैकदेशत्वाद् नोऽजीवाः, घटैकदेशनोघटवदिति, अतोऽजीवाः केचनाऽपि न सन्ति, परमाणूनामपि पुदलास्तिकायलक्षणाजीवैकदेशत्वेन नोऽजीवत्वात्सर्वत्र नोअजीवानामेवा-पपद्यमानत्वात्। ततश्च कतरे ते त्रयो राशयः त्वया ये राजसभायां प्रतिष्ठिताः, उक्तन्यायेन नोजीवनोअजीवलक्षणराशिद्वयस्यैव सद्भावात्, इति। तस्माद् बहुदोषप्रसङ्गान्न जीवश्छिद्यत इति स्थितम्॥२४७१॥ छिद्यता वाऽसौ तथापि न नोजीवसिद्धिरिति दर्शयन्नाहछिन्नो व होउ जीवो, कह सो तल्लक्खणो वि नोजीवो? अह एवमजीवस्स वि, देसो तो नोअजीवो त्ति।।२४७२।। एवं पिरासओ ते, न तिन्नि चत्तारि संपसज्जंति। जीवा तहा अजीवा, नोजीवा नोअजीवा य॥२४७३।। पुच्छाऽऽद्यवयवच्छेदेन च्छिन्नोऽपि भवतु गृहकोकिलाऽऽदिजीवः, केवलं तस्य जीवस्य लक्षणानि स्फुरणाऽऽदीनि यस्याऽसौ तल्लक्षणोऽपि सन्नसौ पुच्छाऽऽदिदेशः कथं केन हेतुना नोजीवो भण्यते ? इदमुक्त भवति-सम्पूर्णोऽपि गृहकोकिलाजीवः स्फुरणाऽऽदिलक्षणैरेव जीवो भण्यते, स्फुरणाऽऽदीनि च लक्षणानि छिन्ने तदवयवेऽपि पुच्छाऽऽदिके दृश्यन्ते, अतस्तल्लक्षणयुक्तोऽप्यसौ किमिति जीवो न भण्यते, येन नोजीवकल्पनाऽत्र विधीयते? इति। (अह एवमिति) अथैवं जीवलक्षणैः सद्भिऽपि पुच्छाऽऽदिकस्तदवयवो नोजीव एवेष्यते, न पुनः स्वाग्रहस्त्यज्यत इत्यर्थः / अत्र सूरिराह-(तो ति) ततस्तर्हि अजीवस्यापि घटाऽऽदेहॅशो नोअजीवः प्राप्नोति, जीवैकदेशनोजीववदिति। अस्त्वेवं, न किञ्चिद्मम विनश्यतीति चेत्। नैवम्। कुतः ? इत्याह-(एवं पीत्यादि) एवमप्यभ्युपगम्यमाने ये भवता त्रय एव राशय इष्यन्ते, ते नघटन्ते, किं तु चत्वारो राशयः संप्रसजन्ति / तद्यथा-जीवाः, तथा अजीवाः, नोजीवाः, नोअजीवाश्चेति / / 2472 // 2473|| अत्र यः परस्य परिहारस्तस्य स्वपक्षेऽपि समानता दिदर्शयिषुः सूरिराहअह ते अजीवदेसो, अजीवसामण्णजाइलिंगो त्ति। मिन्नो वि अजीवो चिय, नजीवदेसो वि किं जीवो? ||2474 / अथ ते तवाऽजीवस्य जीवस्कन्धाऽऽदेर्देश एकदेशो भिन्नोऽपि स्कन्धात्पृथग्भूतोऽप्यजीव एव,न तु नो अजीवः / कुतः ? इत्याह- अजीवेन सामान्ये जातिलिङ्गे यस्यासावजीवसामान्यजातिलिङ्ग इति कृत्वा / तत्राजीवत्वं जातिः, पुंल्लिङ्गलक्षणं च लिङ्गम्। एतच द्वयमप्यजीवतद्देशयोः सामान्यमेव, ततस्तद्देशोऽप्यजीवएव। हन्त ! यद्येवं, तर्हिजीवदेशोऽपि किमिति जीवो नेष्यते, तस्याऽपि जीवेन समानजातिलिङ्ग-- त्वादिति // 2474 // गाथाचतुर्थपादोक्तमेवार्थ प्रमाणेन द्रढयन्नाहछिन्नगिहकोलिया वि हु, जीवो तल्लक्खणेहिँ सयलो व्व। अह देसो तिन जीवो, अजीवदेसो त्ति नोऽजीवो? ||2475 / छिन्नगृहकोकिलाऽपि-छिन्नः पुच्छाऽऽदिको गृहकोकिलाऽऽदिजीववयवोऽपीत्यर्थः। किम्? इत्याह-जीवः, इति प्रतिज्ञा। हे-तुमाह(तल्लक्खणेहिं ति) तल्लखणैर्हेतुभूतैः-स्फुरणाऽऽदितल्लक्षणयुक्तत्वादित्यर्थः। (सयलो व्व त्ति) यथा सकलः परिपूर्णोऽछिन्नो गृहकोकिलाऽऽदिजीव इत्यर्थः / एष दृष्टान्तः। अथ गृहकोकिलाऽऽदेर्जीवस्य पुच्छाऽऽदिकस्तदवयवो देश एवेति कृत्वा न जीव इष्यते, संपूर्णस्यैव जीवत्वात्, यद्येवमजीवस्यापि घटाऽऽदेर्देशो 'नो' नैवाऽजीवः प्राप्नोति, सम्पूर्णस्यैवाजीवत्वात्। ततोऽयमजीवदेशोऽपि नोअजीव एव स्यात, न त्वजीवः / तथा च सति स एव राशिचतुष्टयप्रसङ्ग इति // 2475 / / यदुक्तम्- "इच्छइ जीवपएसं, नो जीवं जं च समभिरूढो वि।'' (2462) इत्यादि। तत्राऽऽहनोजीवं ति न जीवादण्णं देसमिह समभिरूढो वि। इच्छइ बेइ समासं, जेण समाणाहिगरणं सो // 2476|| जीवे य से पएसे, जीवपएसे एव नोजीवो। इच्छइ न य जीवदलं, तुमं व गिहकोलियापुच्छं // 2477 / / न य रासिभेयमिच्छइ, तुमं व नोजीवमिच्छमाणो वि। अन्नो वि नओ नेच्छइ, जीवाजीवाहियं किं पि // 2478|| इह-"जीवे य से पएसे य से सपएसे नोजीवे / '' इत्यत्रानुयोग द्वारोक्त सूत्राऽऽलापके समभिरूढनयोऽपि नो जीवमिति ने च्छ
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________________ तेरासिय 2364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेरासिय तीति संबन्धः-नोजीवत्वेन नेच्छतीत्यर्थः। कं कर्माताऽऽपन्नम्? देशम् / जइ सि न सत्तो सोउं,तो निग्गिण्हामि णं कल्लं / / 2485 / / कथंभूतम्? जीवादन्यं जीवाव्यतिरिक्तदेशं नोजीवं समभिरूढनयोऽपि प्रकटार्था एवैताः नवरम्- (बहुजणनाओऽवसिओ त्ति) बहुजनस्य नेच्छति-किं त्वव्यतिरिक्तमेव तं तस्मादिच्छतीत्यर्थः / कुत ज्ञातो विदितोऽवसितो मया जितः सन्नग्राह्यवचनः सर्वस्याऽपि एतद्विज्ञायते? इत्याह-येन कारणेन देशदेशिनोः कर्मधारयलक्षणं भविष्यति / (तो बलसिरिनिवपुरओ त्ति) ततो बलश्रीनाम्नो राज्ञः पुरत समानाधिकरणमेव समासमसौ समभिरूढनयो ब्रवीत्यभ्युपगच्छति, न इत्यर्थः / (नाओवणीयमग्गाणं ति) नीयते संवित्तिं प्राप्यते वस्त्वनेनेति पुनर्नंगमाऽऽदिरिय तत्पुरुषमित्यर्थः / समानाधिकरणसमासश्च नीलोत्प- न्यायः प्रस्तुतार्थसाधकं प्रमाणं, येनोपन्यस्तेन सतोपनीतो ढौकितः लाऽऽदीनामिव विशेषणविशेष्याणामभेद एव भवति / अतो ज्ञायते- प्रसङ्गे नाऽऽगतः सकलस्याऽपि तर्कस्य मार्गो येषां ते तथा, तेषां जीवादनन्यरूपमेव देश नोजीवमिच्छति समभिरूढ इति, एवं कथं न्यायोपनीतमार्गाणां रोहगुप्तश्रीगुप्तसूरीणामिति। तृतीयराशिः स्याद्? इति / तदेव समभिरूढाभिमतं समानाधिकरण ततो द्वितीयदिने किमभूदित्याहसमासं दर्शयति-(जीवे य से इत्यादि) जीवश्चासौ प्रदेशश्व जीवप्रदेशः, बीयदिणे बेइ गुरू, नरिंद! जं मेइणीऍ सब्भूयं / स एव(नोजीवो ति) स एव जीवादव्यतिरिक्तो जीवप्रदेशो नोजीव तं कुत्तियावणे सव्वमत्थि सव्वप्पतीयमियं // 2486|| इत्येवमिच्छति समभिरूढनयः, न पुनर्जीवदलं जीवात्पृथग्भूतं तत्खण्ड तं कुत्तियावणसुरो, नोजीवं देह जइन सो नस्थि। नो जीवमिच्छत्यसौ, यथा गृहकोकिलाऽऽदीनां पुच्छाऽऽदिखण्ड नोजीवं अह भणइ नत्थि तो नत्थि किं व हेउप्पबंधेणं // 2487 / / त्वमिच्छसीति / अपि च नोजीवमिच्छन्नपि समभिरूढनयो यथा त्वं तथा तं मग्गिजउ मुल्लेण सव्ववत्थूणि किं त्थ कालेणं / नोजीवराशेर्जीवाजीवराशिद्वयानेदं नेच्छति, किं तु जीवा-जीयलक्षणं इय होउ त्ति पवन्ने, नरिंदपइवाइपरिसाहिं।।२४८८|| राशिद्वयमेवेच्छति, नोजीवस्थात्रैवान्तर्भावात्। तथाऽन्योऽपि नैगमाऽऽदिर्नयो जीवाऽजीवेभ्योऽधिकं किमपि नोजीववस्तु नेच्छत्येव / सिरिगुत्तेणं छलुगो, छम्मासा विकड्डिऊण वाएँ जिओ। ततस्त्वदीय एवायं नूतनः कश्चिन्मार्ग इति। अहरण कुत्तियावण, चोयालसएण पुच्छाणं / / 2486 / / तथाऽभ्युपगम्यापि सूरिराह द्वितीयदिने ब्रवीति गुरुः श्रीगुप्तसूरिः-नरेन्द्र ! पृथ्वीपते! इह मेदिन्यां इच्छउ व समभिरूढो, देसं नोजीवमेगनइयं तु / पृथिव्यां यत्किमपि सद् भूत विद्यमानं वस्तु तत्सर्वमपि कुत्रिकाऽऽपणेऽस्तीति सर्वजनस्य भवतां च प्रतीतमेवेदम् / तत्र कूनां मिच्छत्तं सम्मत्तं,सव्वनयमयावरोहेणं // 2576|| स्वर्गपातालमर्त्यभूमीना त्रिक कुत्रिकम्, तात्स्थ्यात्तद्वयप-देश इति तंजइ सव्वनयमयं, जिणमयमिच्छसि पवज्ज दो रासी। कृत्या, तत्स्थलोका अपि कुत्रिकमुच्यते, कुत्रिकमापण यति व्यवहरति पयविप्पडिवत्तीए, वि मिच्छत्तं किं नु रासीसु? // 2480) यत्र हटेऽसौ कुत्रिकाऽऽपणः / अथवा-धातुजीवमूललक्षणेभ्यस्त्रिभ्योइच्छतु वा समभिरूढनयस्त्वमिव जीवाद्भिन्नमपि तद्देशं नोजीवं, जातं विजं, सर्वमपि वसित्वत्यर्थः। को पृथिव्यां त्रिजमापणयति व्यवहरति तथाऽप्येकनयस्येदं मतमैकनयिक, मिथ्यात्वं चैतच्छाक्यमतवत्, यत्र हट्टेऽसौ कुत्रिजाऽऽपणः, अस्मिंश्च कुत्रिकाऽऽपणे वणिजः कस्याऽपि इत्यतो नतत्प्रमाणीकर्तव्यम्। सम्यक्त्वंतुसर्वनयमतावरोधेन समस्तन- मन्त्राऽऽद्याराधितः सिद्धो व्यन्तरसुरः क्रायकजनसमीहितं सर्वमपि वस्तु यमतसंग्रहेणैव भवति। ततो यदि सर्वनयमयं जिनमतं प्रमाणमिच्छसि, कुतोऽप्यानीय संपादयति / तन्मूल्यद्रव्यं तु वणिगेव गृह्णाति / अन्ये तु तदा प्रतिपद्यस्व जीवाजीवलक्षणौ द्वावेवराशी। अन्यथा-''पयमक्खरं वदन्तिवणिग- रहिताः सुराधिष्ठिता एव ते आपणा भवन्ति / ततो पि एकं, पिजो न रोएइ सुत्तनिहि। सेसं रोयंतो विहु, मिच्छट्टिी मुणेयव्वो मूल्यद्रव्यमपि स एव व्यन्तरसुरः स्वीकरोति / एते च कुत्रिकाऽऽपणाः // 1 // " इत्यादिवचनात्पदविप्रतिपत्त्याऽपि मिथ्यात्यमापद्यते, किमुत प्रतिनियतेष्वेवोजयिनीभृगुकच्छनगराऽऽदिस्थानेषु क्वापि कियन्तोऽसकलेषु राशिषु विप्रतिपत्त्या तन्न भविष्यति? इति // 2480 / / प्यासन्नित्यागमेऽभिहितम्। ततस्तस्मात् कुत्रिकाऽऽपणसुरो यदि मूल्येन तदेवं युक्तिभिर्गुरुणा संबोध्यमाने रोहगुप्तेऽग्रतः किं याचितः सन् नोजीव जीवाजीवव्यतिरिक्तं वस्तुरूपं कमपि ददाति, संजातम्? इत्याह तदाऽसौ न नास्ति, अपितु निर्विवादमस्त्येव / अथायमेव वदति-नास्ति एवं पि भण्णमाणो, न पवजइ सो जओ तओ गुरुणा। तद्व्यतिरिक्तः कोऽपि नोजीवः, तदा नास्त्येवाऽसौ, किं तन्नास्तित्वचिंतियमयं पणट्ठो, नासिहई मा बहुं लोगं // 2481 / / साधनाय युष्मद्राज्यप्रयोजनक्षतिकारिणा क्लेशफलेन हेतुप्रबन्धोपतो णं रायसभाए, निग्गिण्हामि बहुलोगपचक्खं / न्यासेन? इति। तत्तस्माद्याच्यन्तां मूल्येन सर्ववस्तूनि कुत्रिकाऽऽप णसुरः, किमत्र कालेन कालविलम्बेन? इत्यर्थः / एवं गुरुभिरक्ते बहुजणनाओऽवसिओ, होही अग्गेऽझपक्खो त्ति।।२४८२|| बलश्रीनरेन्द्रेण. प्रतिवादिना रोहगुप्तेन, सभ्यपर्षदा च युक्तियुक्तत्वादेवं तो बलसिरिनिवपुरओ, वायं नाओवणीयमग्गाणं / भवतु इति प्रतिपन्ने श्रीगुप्ताऽऽचार्ये ण षडु लू को रोहगुप्तः पूर्व कुणमाणाणमईया, सीसाऽऽयरियाण छम्मासा।।२४८३॥ षण्डासान्विकृष्यातिबाह्य वादे जितो निगृहीतः / केन? इत्याहएक्को विनावसिज्जइ, जाहे तो भणइ नरवई नाऽहं। कुत्रिकाऽऽपणे यानि वक्ष्यमाणभूजलज्वलनाऽऽद्याहरणानि उदाहरणानि सत्तो सोउं सीयंति रज्जकजाणि मे भगवं ! / / 2484|| तद्विषयपृच्छानां चतुश्चत्वारिंशेन शतेन,प्राकृतशैल्या छन्दोबन्धाऽऽनुगुरुणाऽभिहिओ भवओ, सुणावणथमियमेत्तियं भणियं / लोम्यादार्षत्वादत्र व्यत्ययेन निर्देश इति॥२४८६।२४८८।२४८६।।
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________________ तेरासिय 2365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेरासिय कथं पुनरिदं चतुश्चात्वारिंशं शतं पृच्छानां भवतीत्याहभूजलजलणानिलनह-कालदिसाऽऽया मणो य दव्वाई। भन्नंति नवेयाई, सत्तरस गुणा इमे अन्ने // 2460 // रूवरस-गंधफासा, संखा परिमाणमहमह पुहुत्तं च / संजोगविभागपरा-परत्तबुद्धी सुहं दुक्खं // 2411|| इच्छा दोसपयत्ता, एत्तो कम्मं तयं च पंचविहं / उक्खेवणऽवक्खेवण-पसारणाऽऽकुंचणं गमणं / / 2462 / / सत्ता सामण्णं पिय, सामण्णविसेसया विसेसोय। समवाओ य पयत्था, छच्छत्तीसप्पभेया य॥२४६३।। पगईऍ अगारेण य, नोगारोभयनिसेहओ सव्वे / गुणिया ओयालसयं, पुच्छाणं पुच्छिओ देवो / / 2464|| इह द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायलक्षणाः षड् मूलपदार्थास्तेन षडुलूकेन कल्पिताः। तत्र द्रव्यं नवधा / कथम्? इत्याह-(भूजलेत्यादि) भूमिः, जलं, ज्वलनः, अनिलः, नभः, कालः, दिक्. आत्मा, मनश्चेत्येतानि नव द्रव्याणि भण्यन्ते। गुणाः सप्तदश भवन्ति। तद्यथा-रूप, रसः, गन्धः, स्पर्शः, संख्या, परिमाणं, महत्त्वं, पृथक्त्वं, संयोगः, विभागः, परापरत्वे, बुद्धिः, सुखं, दुःखम्, इच्छा, द्वेषः, प्रयत्नश्चेति। इतः कर्म। तत्पुनः पञ्चविधम् / तद् यथा-उत्क्षेपणम्, अवक्षेपणम्, आकुञ्चनं, प्रसारणं, गमनमिति / सामान्यं त्रिविधम् / तद्यथा-सत्ता, सामान्य, सामान्यविशेषश्चेति। तत्र द्रव्यगुणकर्मलक्षणेषु त्रिषु पदार्थेषु सद्बुद्धिहेतुः सत्ता / सामान्यं द्रव्यत्वगुणत्वाऽऽदि / सामान्यविशेषस्तु-पृथ्वीत्वजलत्वकृष्णत्वनीलत्वाऽऽद्यवान्तरसामान्यरूप इति / अन्ये त्वित्थं सामान्यस्य त्रैविध्यमुपवर्णयन्तिअविकल्पं महासामान्यं, त्रिपदार्थहतुसद् बुद्धिभूता सत्ता, सामान्यविशेषो द्रव्यत्वाऽऽदि / महासामान्यसत्तयोविशेषणव्यत्यय इत्यन्ये। द्रव्यगुणकर्मपदार्थत्रयसबुद्धिहेतुः सामान्यम्, अविकल्पा सत्तेत्यर्थः / सामान्यविशेषस्तु द्रव्यत्वाऽऽदिरूप एव / इत्यलं प्रसनेनेति। विशेषश्चान्त्यः / समवायपदार्थश्चेति। तदेवमेते द्रव्याऽऽदयः षट् पदार्थाः षड् त्रिंशत्प्रभेदाः नवानां द्रव्याणां, सप्तदशानां गुणानां, पञ्चानां कर्मणां, त्रयाणां सामान्यानां, विशेषसमवाययोश्च मीलने, षट्त्रिंशद्विकल्पा भवन्तीत्यर्थः / एतेच सर्वे प्रकृत्या, अकारेण नोकारेण, उभयनिषेधतश्चेत्येतैश्चतुर्भिः प्रकारैर्गुणिताः सन्तो यचतुश्चत्वारिंशं शतं पृच्छानां भवति तत्पृष्टः कुत्रिकाऽऽपणदेवः / इदमत्र हृदयम्-न रहितं शुद्धं पदमिह प्रकृतिरुच्यते, तया शुद्धपद-रूपया प्रकृत्या पृथिव्यादयः पदार्थाः पृच्छ्यन्ते / तद्यथा-"पृथिवीं देहि" इत्यादि / तथा लुप्तस्य नञः स्थाने योऽकारस्तेन चाकारेण संयुक्तया प्रकृत्या पृच्छा विधीयते। यथा-'अपृथिवीं देहि' इत्यादि / तथा नोकारेण संयुक्तया प्रकृत्या पृच्छा / यथा-'नोपृथ्वीं देहि' इत्यादि। तथा नोकाराकारलक्षणं यदुभय तेन योऽसौ प्रकृत्या निषेधः तस्माच्च पृष्टः सुरः / यथा-"नोअपृथ्वीं देहि' इत्यादि। एवं जलाऽऽदिष्वपि प्रत्येकमेते प्रकृत्यकारनोकारोभयनिषेधलक्षणाश्चत्वारः पृच्छाप्रकारा वक्तव्या इति। एतदभिप्रायवता प्रोक्तम्- (सव्वे गुणिय त्ति) आहननु ''पृथ्वीं देहि'' इत्यादिका याचना एव कथं पृच्छाः प्रोच्यन्ते? सत्यं, किंतु 'पृथ्वी देहि' इत्यादियाचनाद्वारेण पृथिव्याद्यस्तित्वमेवासौ देवः पृच्छ्यते, नोजीवं याचितोयद्यसौ जीवाजीवव्यतिरिक्तं तं दास्यति तदाऽयमस्ति, नान्यथा इत्येवमेव प्रतिज्ञातत्वात्। ततो याचना अददतास्तत्त्वतः पृच्छा एवेत्यदोषः। कथं पुनरेताः कुत्रिकाऽऽपणसुरस्य पृच्छाः कृताः? इत्याशङ्कय दिग्मात्रोपदर्शनार्थमाद्य पृथ्वीलक्षणं भेदमधिकृत्याऽऽहपुढवि त्ति देह लेटुं, देसो वि समाणजाइलिंगो त्ति। पुढवि त्ति सो अपुढविं, देहि ति य देइ तोयाऽऽइ // 2465|| पृथ्वी याचितः कुत्रिकाऽऽपणसुरो लेष्टुं ददाति। आह-अप्रस्तुतमिदम्, अन्यस्मिन्याचिते अन्यस्य प्रदानात् / नैवम् / कुतः? इत्याह-(देसो वीत्यादि) देशोऽपि लेष्टुलक्षणः (पुढवि त्ति) पृथिव्येव मन्तव्या, पृथिवीत्वलक्षणाया जातेः स्त्रीलिङ्गलक्षणस्य लिङ्गस्य च समानत्वात्। इह यत्र पृथ्वीत्वजातिः स्त्रीलिङ्गं च वर्तते तत् पृथिवीति व्यवहर्त्तव्यं, यथा-रत्नप्रभाऽऽदि,तथा च लेष्टुः, तस्मात्पृथ्वीति / अपृथिवीं देहीत्येवंयाचितोऽसौ देवस्तोयाऽऽदि प्रयच्छति।।२४६५|| नोपृथ्वीं याचितस्तर्हि किं ददातीत्याहदेसपडिसेहपक्खे, नोपुढविं देइ लेडदेसं सो। लेहदव्वावेक्खो, कीरइ देसोवयारो से / / 2466 / / इहरा पुढवि चिय सो,लेट व्व समाणजाइलक्खणओ। लेखदलं ति व देसो, जइ तो ले वि भूदेसो / / 2467 / / नोशब्दस्य देशप्रतिषेधपक्षे नोपृथ्वीं याचितोऽनन्तरमेव समस्तपृथ्वीत्वेनोपचरितस्य लेष्टोरेव देशं तत्खण्डरूपं ददात्यसौ देवः / आहननु देशनिषेधपक्षे नोपृथ्वी तद्देश एव गृह्यते, यस्तु लेष्टुदेशः स पृथिवीदेशस्याऽपि देश एव, न तु पृथ्वीदेशः, तत्कथं नोपृथिवीं याचितस्तं ददाति? इत्याह-(लेटुदव्वेत्यादि) लेष्टुद्रव्यापेक्षः 'से' तस्य लेष्टुदेशस्य देशोपचारः क्रियते। इदमुक्तं भवतिलेष्टौ तावदनन्तरोक्तयुक्तेः सम्पूर्णपृथ्वीद्रव्यत्वमारोपितं, ततो लेष्टुलक्षणपृथ्वीद्रव्यापेक्षया तद्देशस्याऽपि पृथ्वीदेशत्वमुपचर्यते, इतरथा अन्यथा पुनः परमार्थतो लेष्टुवत्समानजात्यादिलक्षणत्वादितिपूर्वोक्तहेतोः सोऽपि लेष्टुदेशः पृथिव्येवमन्तव्या। अथ पराभिप्रायमाविष्कृत्य परिहारार्थमाह-(लेट्ठदलं ति व देसो जइ त्ति) यदितुभोः पर! त्वं मन्यसेयोऽयं लेप्टोर्देशः सदलंलेष्टोरेव खण्डमात्रं, ततः समानजातिलक्षणत्वेऽपि नाऽसौ पृथ्वीति। अत्र परिहारमाह-(तो लेदविभूदेसो त्ति) ततस्तर्हि "पुढवि त्ति देइ लेटुं देसो वि'' इत्यादौ यः पूर्व लेष्टुः पृथ्वीत्वेनोक्तः सोऽपि भुवः पृथिव्या देश एव। ततस्त्वदभिप्रायेण सोऽपि पृथ्वीदलरूपत्वाद् न पृथ्वी, लेष्टुदेशवदिति।।२४६६॥२४६७। अस्त्वेवमिति चेत्, तदयुक्तम् / कृतः? इत्याहदेहि भुवं तो भणिए, सव्वाऽऽणेया न यावि सा सव्वा। सक्का सक्केण वि याणेउं किमुयावसेसेणं ? // 2468 / / यदि लेष्टुर्न पृथ्वी, ततस्तर्हि भुवं देहीत्युक्ते सर्वाऽपि संपूर्णा साऽऽनेया प्रसज्यते, न च सा सर्वा शक्रेणाप्यानेतुं शक्या, किमुतावशेषेण कुत्रिकाऽऽपणदेवाऽऽदिमात्रेण? इति / तर्हि किमत्र तत्त्वम् ? इति भवन्त एव कथयन्तु इति // 2468 / /
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________________ तेरासिय 2366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग तेरासिय इत्थं प्रेरके उपसन्ने दृष्टान्तोपन्यासद्वारेण सूरिः प्रस्तुता र्थनिर्णयमाहजह घडमाणय मणिए, न हि सव्वाऽऽणयणसंभवो किं तु / देसाइविसिटुं चिय, तमत्थवसओ समप्पेइ॥२४६६ पुढवि त्ति तहा भणिए, तदेगदेसे वि पगरणवसाओ। लेद्वम्मि जायइ मई,जहा तहा लेटदेसे वि // 2500 / / यथा सामान्येन घटमानय(पटमानय) इत्युक्तेऽपि न खलु सर्वस्याऽपि घटस्य सामान्यतयैवाऽऽनयनसंभवोऽस्ति, किं तु सर्वस्याऽऽनेतुमशक्यत्वात्, प्रायः सर्वेण प्रयोजनाभावाच, अर्थवशात्सामर्थ्यत एव नियतदेशकालाऽऽद्यवच्छिन्नं विशिष्टमेव कश्चिद् घटमानीय समर्पयति, तथाऽत्रापि पृथ्वी देहीति भणिते सर्वस्या आनेतुमशक्यत्वात्, प्रायस्तया प्रयोजनाभावाच, यथा तदेक-देशेऽपि पृथिव्येकांशेऽपि लेष्टी देवस्य समर्पणमतिर्जायते / कुतः? इत्याह-प्रकरणवशाद्, 'अनेनाऽपि तदेकदेशेन लेष्टुना प्रस्तुतार्थः सेत्स्यति' इत्येवं प्रस्ताववशादित्यर्थः / प्रकृतमाह-(तहा लेट्छदेसे वित्ति) यथा पृथिवी देहीत्युक्ते सति प्रतिपादितन्यायेन तदेकदेशेऽपि लेष्टौ समर्पणमतिर्जायते। तथा तेनैव प्रकारेण नोपृथ्वी देहीत्युक्ते तत्खण्डरूपे तदेकदेशेऽपि समर्पणबुद्धिरुत्पद्यत इति।।२४६६।२५००।। आह-ननु "इहरा पुढवि चिय सो, लेटुव्व समाणजाइलक्खणओ।" (2467) इति वचनाल्लेष्ट्रकदेशः पूर्वं भवद्भिः पृथिवीत्वेनोक्तः स कथमिदानीं नोपृथिवी स्याद्? इत्याशक्याऽऽहलेट्दव्वावेक्खाए, तह वी तद्देसभावओ तम्मि। उवयारो नो पुढवी, पुढवि चिय जाइलक्खणओ।।२५०१।। यद्यपिलेष्टुकदेशः पृथिव्येव, तथाऽपि (उवयारो ति) तस्मिन् लेष्टकदेशे नोपृथिवीत्वस्योपचारः क्रियत इत्यर्थः / कया? इत्याह-लेष्टुद्रव्यापेक्षया लेटोः प्रागुक्तन्यायेन यत्पृथिवीद्रव्यत्वमारोपितं, तदपेक्षयेत्यर्थः / कुतः? इत्याह-तद्देशभावतो लेष्टुद्रव्यैकदेशत्वादित्यर्थः / प्रागुक्तन्यायेन तावल्लेष्टुरेवेह पृथ्वीद्रव्यं, तदपेक्षया च तदेकदेशे नोपृथ्वीत्युपर्यत इति भावः / परमार्थतस्त्वियं लेष्टुकदेशलक्षणं नोपृथिव्येव मन्तव्यम्, समानजातिलक्षणत्वादिति को वैन मन्यते, अस्माभिरेव प्रागुक्तत्वात्, इदानीमपि च स्मर्यमाणत्वादिति? / / 2501 / / नोअकारोभयनिषेधपक्षमधिकृत्याऽऽहपडिसेहदुगं पगई, गमेइजतेण नोअपुढवि त्ति। भणिए पुढवित्ति गई, देसनिसेहे वि तद्देसो / / 2502 / / "द्वौ नौ प्रकृतमर्थं गमयतः" इति वचनाद् नोकराकारलक्षण प्रतिषेधद्वयं यस्मात्प्रकृतिं गमयति-प्रकृतमेवार्थं प्रतिपादयतीत्यर्थः / तेन कारणेन 'नोअपृथ्वी' इति भणिते नोशब्दस्य सर्वनिषेधपरत्वात् पृथिवीगतिर्भवतिपृथिव्याः प्रतिपत्तिर्भवतीत्यर्थः। (देसनिसेहे वि तद्देसो त्ति) देशनिषेधवाचके तु नोशब्दे तस्या जलाऽऽदिरूपाया अपृथिव्या एवोत्तरपदे श्रूयमाणाया देशस्तद्देशो गम्यते, देशनिषेधके नोशब्दे नोअपृथ्वी ति याचिते जलाऽऽदिरूपा पृथिव्येकदेशं देवो ददातीत्यर्थः // 2502 / / अथ प्रस्तुतार्थतात्पर्यमाहउवयाराओ तिविहं, भुवमभुवं नोभुवं च सो देइ। निच्छयओ भुवयभुवं, तह सावयवाई सव्वाइं // 2503 / / स कुत्रिकाऽऽपणदेवो याचितः सन् वस्तु ददाति। कतिविधम्? किंवा तत्? इत्याह-त्रिविधं त्रिप्रकार, चतुर्थस्य नोअभूपक्षस्य प्रथमपक्ष एवान्तर्भावात्। तत्र भुवं लेष्टुम्, अभुवं जलाऽऽदि, नोभुवं भूभ्येकदेशं ददाति / कुतः? इत्याह-उपचाराद्- व्यवहारनयमताऽऽश्रयणादित्यर्थः,सएव हि देशदेशिव्यवहारं मन्यते, नतुनिश्चय इति भावः / अत एवाऽऽह-(निच्छओ इत्यादि) निश्चयतस्तु भुवमभुवं चेत्येवं द्विविधमेव वस्तु ददाति, तृतीयस्य नोभूपक्षस्य देश-देशिव्यवहार एवोपपद्यमानत्वात्. तस्य च निश्चयनयेनानभ्युपगमादिति / तदेवं ''भूजलजलण'(२४६०) इत्यादौ पृथिव्याः प्रथमं निर्दिष्टत्वात्तामधिकृत्योक्तम्। अथ शेषाणि जलाऽऽदिवस्तून्यधिकृत्याऽऽहह-(तह सावयवाई ति) न केवलमित्थं भुवं ददाति, तथा शेषाण्यपि जलाऽऽदिवस्तूनि "पगईए अगारेणं" (2464) इत्यादिप्रकारेण विशेष्य याचितः सन् व्यवहारनयमतेन यथोक्त-विधिना त्रिप्रकाराणि ददाति / कुतः? इति चेत् / उच्यते यतः सावयवानिसदेशान्येतानि सर्वाण्यपि जलाऽऽदिवस्तूनि, अतस्तृतीयोऽपि देशविषयो दानप्रकार एतेषु संभवतीतिभावः / निश्चयनयमतेन तु देशदेशिव्यवहाराभावादेतान्यपि जलाऽऽदीनि द्विप्रकाराण्येव ददातीति। तदेवं सावयवे वस्तुनि प्रकारत्रयेण प्रकारद्वयेन च यथोक्तरीत्या दानं संभवति / / 2503 // अथ निरवयवे वस्तुनि प्रकारद्वयेनैव दानसंभव इति दर्शयन्नाहजीवमजीवं दाउं, नोजीवं जाइओ पुणरजीवं / देइ चरिमम्मि जीवं, न तु नोजीवं सजीवदलं / / 2504 / / जीवं देहीति याचितः सुरो जीवं शुकसारिकाऽऽदिकं दत्त्वा, 'अजीव देहि' इति याचितस्त्वजीवमुपलखण्डाऽऽदिकं दत्त्वा कृतार्थो जायते, नोजीवं याचितः पुनरजीवमुपलखण्डाऽऽदिकमेव ददाति, नोशब्दस्य सर्वनिषेधपरत्वात्। चरमे तुनोअजीवलक्षणे विकल्पे जीवमेव शुकाऽऽदिकं ददाति, द्वयोर्नोः प्रकृतार्थगमकत्वात्, नोशब्दस्य च सर्वनिषेधकत्वादिति , न तु स कुत्रिकाऽऽपणदेवो जीवं जीवदलं जीवखण्डरूपं वापि विकल्पे ददाति / इति जीवाजीवलक्षणौ द्वावेव राशी, न तु तृतीयः, असत्त्वात्, खरविषाणवदिति // 2504 / / ततः किमभूदित्याहतो निग्गहिओ छलुओ, गुरू वि सक्कारमुत्तमं पत्तो। घिद्धिक्कारोवहओ, छलुओ वि सभाहिँ निच्छूढो / / 2505 / / ततो यदा कुत्रिकाऽऽपणसुरेण जीवव्यतिरिक्तो नोजीवो न दत्तः, असत्त्वात्, तदा निगृहीतो निर्जितः षडुलूकः / गुरुरपि श्रीगुप्ताऽऽचार्यो - नरनाथाद् लोकाच सत्कारमुत्तमं प्राप्तः / षडुलूकोऽपि गुरुप्रत्यनीकत्वाजनप्रयुक्तधिक्कारोपहतो राजसभातो निष्काशित इति / / 2505 / / ततः किम्? इत्याहवाए पराजिओ सो, निव्विसओ कारिओ नरिंदेण।
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________________ तेरासिय 2367- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तेल्लसुरभियाकरण घोसावियं च नयरे, जयइ जिणो वद्धमाणो त्ति // 2506!! प्राणिगणे। ग०१ अधिव। भुवनत्रये, प्रश्न०५ सम्ब०द्वार। "तेलुक्कणमितेणाभिनिवेसाओ, समयविगिप्पियपयत्थमादाय। यकमजुयला / ' त्रैलोक्येन स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणेन, तन्निवासिप्रावइसेसियं पणीयं, फाईकयमन्नमन्नेहिं / / 2507 / / णिगणेनेत्यर्थः / नमितं क्रमयुगलं येषां ते त्रैलोक्यनमितकमयुगलाः। सरोहगुप्तो गुरुणा वादे पराजितः सन् नरपतिना निर्विषयः समाज्ञातः, ग०१ अधिo "तेलुक्करंगमज्झे।' त्रैलोक्यमेव यो रङ्गः / मल्लयुद्धपटहके न च वाद्यमानेन घोषापितं समस्तनगरे-'जयति जिनः मण्डपे, कल्प०५ क्षण। श्रीमान्वर्द्धमानः" इति। रोहगुप्तस्य च वादे निर्जितस्याऽपि प्रत्यनीकतो तेलुकगुरु पुं०(त्रैलोक्यगुरु) त्रैलोक्यवासिसत्त्वेभ्यो गृण्हाति द्वेजितेन गुरुणा खेलमल्लकः शिरसि स्फोटितः। ततो भस्मखरण्टित- शास्त्रार्थमिति त्रैलोक्यगुरवः, तद् गुणाधिकत्वान्माननीयत्वाद्वा / वपुषा तेनाभिनिवेशात्स्वमतिकल्पितान् द्रव्याऽऽदिपदार्थानाश्रित्य तीर्थकरेषु, पं०सू० १सूत्रा वैशेषिकमतं प्रणीतं, तथान्यान्यैस्तच्छिष्याऽऽदिभिरियनतं काल | तेलुकदंसि(ण) पुं०( त्रैलोक्यदर्शिन) सर्वज्ञ, ज्ञा०। यावत्स्फातिमानीतमिति / / 2506 / 2507 // तेलुक्कनिरिक्खियमहियपूइय पुं०(त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजित) ननु रोहगुप्त इत्येवास्य नाम, तत्कथं षडुलूक इत्य निरीक्षिताश्च महिताश्च पूजिताश्चेति निरीक्षितमहितपूजिताः। त्रैलोक्येन सकृत्प्रागुक्तोऽसौ? इत्याह निरीक्षितमहितपूजिताश्च येते तथा। सर्वज्ञे, नं० नामेण रोहगुत्तो, गुत्तेण य लप्पए स चोलूओ। तेलुक्क मत्थयत्थ पुं०(त्रैलोक्यमस्तकस्थ) त्रैलोक्यस्य मस्तकं दव्वाऽऽइछप्पयत्थो-वएसणाओ छलूओ त्ति।।२५०८) सर्वोपरिवर्ती सिद्धिक्षेत्रविभागस्तस्मिस्तिष्ठतीति त्रैलोक्यमस्तकस्थः / षो०१५ विवा रस्कललोकचूडामणिभूते, पं०व०४ द्वार। नाम्नाऽसौ रोहगुप्तो गोत्रेण च पुनरुलूकगोत्रसम्भूतत्वादसावुलूक इत्यालप्यते-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायलक्षणषट् पदार्थ तेलुक्कसुंदर पुं०(त्रैलोक्यसुन्दर) त्रिषु लोकेषु प्रधाने, षो०१५ विव०। प्ररूपणेन षट्पदार्थप्रधान उलूकः षडुलूक इत्ययं व्यपदिश्यते।।२५०८।। त्रैलोक्यसुन्दरतायाम्. त्रैलोक्ये सर्वस्मिन्नपि जगति शेषवस्तुभ्यः विशे०। सूत्र०। कल्प० स०। आ०म०। आ०चू०। नपुंसके, पिं० सुन्दरता शोभनता ता तथोक्ताम्। षो०१५ विवा तेरिच्छिय त्रि०(तैरश्चिक,तैर्यग्योन) तिर्यग्योनिभ्यो भवस्तैर्यग्योनः / तेलोकदेवमहिय पुं०(त्रैलोक्यदेवमहित) भुवनत्रयवासिभिः सुरातिर्यग्योनिकृते, विशे० सुरैरभ्यर्चितेषु, बृ०३उला त्रिभुवनवासिभिर्भवनपत्यादिभिर्देवैर्महितेषु, तेल पुंगान०(तैल) प्राकृतत्वात्पुंस्त्वम् / तिलस्य विकारः, अण् / व्य०२उन "तैलाऽऽदौ वा" ||बाराह|| इत्यनादौ वर्तमानस्य व्यञ्जनस्य वा तेल्ल पुं०(तैल) 'तेल' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद। द्वित्वम्। प्रा०२ पाद। "तिलाऽऽदिस्निग्धवस्तूना, स्नेहस्तैलमुदाहृतम्।" तेल्लकेला स्त्री०(तैलकेला) तेलकेला' शब्दार्थे ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। इत्युक्ते तिलसर्षपातसीप्रभृतीनां स्निग्धवस्तूनां स्नेहरूपे विकारे, वाच०। / तेल्लग पुं०(तैलक) सुराविशेष, जी०३प्रति०४उ०। "चत्तारि होति तेल्ला, तिलअयसिकुसुभसरिसवाणं च। विगईओ सेसाई, तेल्लचम्म न०(तैलचर्म) तेलचम्म' शब्दार्थे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०| डोलाईणं न वि गईओ।।१॥" पं०व०२ द्वार। स्था०। उत्तरत्र स्थितस्य तेल्लपल्लन०(तैलपल्य) तैलपेढाऽऽख्ये सौराष्ट्रप्रसिद्ध मृन्मये तैलस्य चात्र संबन्धात् तैलानि चत्वारि भवन्ति। केषां संबन्धीनि? तत्राऽऽह- भाजनविशेष, स च भङ्ग भयात्सुष्ठु सङ्गोप्यते। दशा० 10 अध्या०) तिलातसौकुसुम्भसर्षपाणां, शेषाणां डोलाऽऽदीना मधूकफला- | तेल्लपाइया स्त्री०(तैलपायिका) जीवभेदे, "तेल्लपाइयातो तातो ऽऽदीनाम, आदिशब्दान्नालिकेरएरण्डशिंशपाऽऽदीनां संबन्धीनि तैलानि तिक्खेहिं तुंडेहिं अतीव दंसंति।" आ०म०१ अ०२ खण्ड। न विकृतयः। प्रव०४ द्वार। ध०। अनु०। सूत्र०ा ज्ञा०। आ०चू०। नि०चू० तेल्लपूय पुं०(तैलपूप) तैलप्रधाने पूपे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ निका आवा उ० जी० तेलकेला स्त्री०(तैलकेला) सौराष्ट्रप्रसिद्धे मृन्मये तैलभाजनविशेषे, स | तेल्लपयसंठाणसंठिय पुं०(तैलपूपसंस्थानसंस्थित) तैलेन पक्वः च भङ्ग भयात् सुष्टु संगोप्यते। ज्ञा०१ श्रु०१अ० भ०। तं०। निका पूपस्तैलपूपः। तैलेन हि पक्तोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतपक्व तेलचम्म न०(तैलचर्म) तैलाभ्यक्तस्य यत्र स्थितस्य संवाधना क्रियते इति तैलविशेषसाम्यम्,तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितः। तस्मिन्, अत्र तत्तैलचर्म / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। तैलाभ्यक्तस्य संवाधनाकरणसाधने तैलाऽऽदित्वाल्लकारस्य द्वित्वम्। जं० १वक्ष०ा जी०। चर्मणि, औo तेल्लसमुग्गय पुं०(तैलसमुद्गक) सुगन्धितैलाऽऽधारविशेषे, उक्तं च तेलुक्क न०(त्रैलोक्य) त्रयो लोकास्त्रिलोकाः,त्रिलोका एव त्रैलोक्यम्। जीवाभिगममूलटीकायाम्-'"तैलसमुद्रकः सुगन्धितैलाऽधारः।'' जी०३ भेषजाऽऽदित्वात्स्वार्थे ट्यण् प्रत्ययः। नं०। ''ऐत एत्' / / 8 / 1 / 148 // प्रति०४ उ०। रा० इत्यादौ वर्तमानस्यैकारस्य एत्वम् / प्रा०१ पाद / भुवनपतिव्यन्तर- तेल्लसुरमियाकरण न०(तैलसुरभिकाकरण) स्त्रीणां षट् त्रिंशत्कायां विद्याधरज्योतिष्कवैमानिकेषु, न०। स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणे तन्निवासि- कलायाम्, कल्प०७क्षण।
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________________ तेल्लिय 2368 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तोरामदा तेल्लिय त्रि०(तैलिक) तैलविक्रयकारिणि,व्य०६ उ०ा आव०॥ ||84116 / / इत्यादिना 'तोड' इत्यादेशः। 'तोडइ' / तुडति। प्रा०४ तेल्लोक्कविहियमहियपूइय पुं०(त्रैलोक्यविहितमहितपूजित) त्रैलो- पाद। आचा क्येन त्रिलोकवासिना जनेन (विहिय त्ति) समग्रैश्वर्याऽऽद्यतिशयसंदोह- तोडन न०(तोदन) व्यथने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। असहने, देवना० दर्शनसमाकुलचेतसा हर्षभरनिभरण प्रबलकुतूहल-बलादनिमिषलोच- 5 वर्ग 18 गाथा। नेनावलोकितः। (महिय त्ति) सेव्यतया वाञ्छितः पूजितश्च पुष्पाऽऽदि- तोडहिया स्त्री०(तोडहिका) 'खरमुही' इत्याख्ये वाद्यविशेषे, आचा०२ भिर्यः स तथा। तस्मिन्, उपा०७ अ०| श्रु०२ चू०४उ०। तेल्लोकसक्कय पुं०(त्रैलोक्यसत्कृत) लोकत्रयपूजिते, पा०ा तोडु पुं०(तोडु) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। तेवें अव्य०(तथा) प्राकृतलक्षणेन निष्पन्नस्य तेम इत्यस्य"मोऽनुना- तोण पुं०(तूण) "स्थूणा तूणेवा" // 811 / 125|| इति तूणस्योतओत्वम्। सिको वो वा" ||4|367|| इत्यपभ्रंशेऽनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य प्रा०१ पाद। शरभस्वायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० शरधीत्यपरनामधेये मकारस्यानुनासिको विकल्पेन बँकारः / कृचिल्लाक्षणिकस्याऽपि। तेन | वाणाऽऽश्रये, विपा०१श्रु०३ अ० जी०। इषौ, नि०१ श्रु०१ वर्ग१ अ०| प्रकारेणेत्यर्थे, प्रा०४ पाद। तोणीर पुं०(तूणीर) "ओत्कूष्माडी-तूणीर-कूर्पर-स्थूल-ताम्बूल-- तेवग्ग पुं०(त्रिवर्ग) त्रयो वर्गास्त्रिवर्गाः। लोकरूढ्या धर्मार्थिकामेषु, नं0 | गुडूची-मूल्ये" ||1 / 124|| इत्यत ओत्वम्। प्रा०१ पाद। इषुधौ, वाचा तेवड्डि स्त्री०(त्रिषष्टि) त्र्यधिकायां षष्टिसंख्यायाम्, "तेवड्डीएराइंदिएहि।" | तोण्ड न०(तुण्ड)"ओत्संयोगे"||१|११६॥ इति संयोगे परे आदेरुत स०६३ सम०। ओत्वम्। मुखे, प्रा०१ पाद। तेवड त्रि०(तावत्) "वा यत्तदेतोडेंवडः" ||4|407 / / इत्यपभ्रंशे | तोतडी (देशी) करम्बे, देवना०५ वर्ग 4 गाथा। तावतो वकारस्य मित्संज्ञकः ‘एवड' इत्यादेशः। प्रा०४ पाद। तत्परिमा तोतातिग पुं०(तौतातिक) मीमांसकभेदे, नित्यमुत्कृष्टं च निरतिशयं णवति, वाच०। यत्सुखं तद् व्यक्तिर्मुक्तिरिति तौतातिकाः। द्वा० 31 द्वा०। तेवण्ण (त्रिचत्वारिंशत्) "गोणाऽऽदयः" / / 8 / 2 / 174|| इति तोदग त्रि०(तोदक) व्यथके, उत्त० 20 अ०॥ निपातनात् त्रिचत्वारिंशदित्यस्य 'तेवण्ण' इत्यादेशः / व्यधिकायां तोमर पुं०(तोमर) वाणविशेषे, जं०३ वक्ष०ा प्रश्न०। आचा०। “असिचत्वारिंशत्संख्यायाम, प्रा०२ पाद। सत्तिकोततोमरसूलतिसलेसुसूइवियगासु।" सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उा औ०। तेवत्तरि स्त्री०(त्रिसप्तति) त्र्यधिकायां सप्ततिसंख्यायाम्, स०७२ सम०। तोमरिअ (देशी) शस्त्रप्रमार्जके, दे०ना०५ वर्ग 4 गाथा। तेवीस स्त्री०(त्रयोविंशति) "एत्त्रयोदशाऽऽदौ स्वरस्य सस्वरव्य तोमरी (देशी) वल्ल्याम्, दे०ना० 5 वर्ग 17 गाथा। जनेन" ||8/1165|| इत्यादेः स्वरस्य परेण सस्वरय्यञ्जनेन सह तोय न०(तोय) जले, व्य०२ उ० आवाव्यथायाम्, स्था० 4 ठा०४३०॥ एकारः / इयधिकायां विंशतिसंख्यायाम, प्रा०१ पाद / तोयधारा स्त्री०(तोयधारा) ऊर्ध्वलोकवास्तव्यायां पञ्चम्यां दिक्कु*त्रयोविंश त्रिका व्यधिकविंशतिसंख्यापूरके, प्रा०१ पाद। मारिकायाम, आ०म१अ०१खण्ड / आव०। ति|आ० चूला जंग तेवीसइम त्रि०(त्रयोविंशतितम)त्र्यधिकविंशतिसंख्यापूरके, स्था०६ठा। "अष्टोवंलोकादेत्यैताः, नत्वाऽर्हन्तं समातृकम्।तत्र गन्धाम्बुपुष्पौधतेहिं अव्य०(तेहिं) "तादर्थ्य केहि-तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणाः" वर्ष हर्षाद्वितेनिरे // 1 // " आ०क०। ||14|425 / / इत्यपभ्रंशे तादर्से द्योत्ये 'तेहि इति निपातः। प्रा०४ पाद। तोयपिट्ठ न०(तोयपृष्ठ) जलोपरितनभागे, औ०। तेहु त्रि०(तादृश) "यादृक्-तादृक्-कीदृगीदृशां दादेई हुः" तोरण न०(तोरण) द्वारावयवविशेषे, पञ्चा०२ विव०ा स्था०। आचा० ||84402 / / इत्यपभ्रंशदादेरवयवस्य मित्संज्ञक 'एहु' इत्यादेशः। रा०ा प्रश्रा जी०। प्रज्ञा०ा औ०। स०ा बहिरि स्तम्भोपरिस्थे सिंहाऽऽतथाविधेऽर्थे, प्रा०४ पाद। कारे काष्टे, द्वारबाह्यभागे च, कन्धरायाम्, न०। वाचला स्था०। तो पुं०(तस्मात्) "तदो डोः" / / 8 / 3 / 67 / / इतितच्छब्दात्परस्य डसे? | तोरणमादि न०(तोरणाऽऽदि) इह मकारः प्राकृतत्वात् / द्वाराइत्यादेशः / प्रा०३ पाद / मं०। वयवविशेषप्रभृतिषु, आदिशब्दात्पीठदेवच्छन्दकपुष्पकरिण्यातोअअ (देशी) चातके, दे०ना० 5 वर्ग 18 गाथा। दिपरिग्रहो भवति। पञ्चा०२ विव०। तोक्कअ (देशी) अनिमित्ततत्परे, दे०ना०५ वर्ग 18 गाथा। तोरामदा न०(त्वरामत्) नेत्ररोगभेदे, "सब्भूकडक्खा तोरामदा महालसा तोड धा०(तड) भेदे. तड-पर०-सक०-सेट / "तडेस्तोड०-" [ लंका विवंका कसीला अटरिया काणविवा।" महा03.10
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________________ तोल 2366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तोसिय तोल पुं०(तोल) मगधदेशप्रसिद्ध पले, तं०। गुञ्जाऽशीतिपरिमाणे कर्षे, खण्ड। आ०चू० तोसलिदेशस्थे स्वनामख्याते आचार्य आचा०। अत्र वाचा स्वार्थ कन्, ण्वुल वा / तोलकमप्यत्र / वाच०। कथनकमिदम्- "तोसली नामाऽऽचार्योऽरण्यमहिषीभिः प्रारब्धः तोलणन०(तोलन) माने, आचा०१ श्रु०४ चू०१ अ० पुरुष, दे०ना०५ तोसलिदेशे वा बढयो महिष्यः सम्भवन्ति, ताभिश्च कदाचिदेकः वर्ग 17 गाथा। साधुरटव्यन्तर्वारब्धः / स च ताभिः क्षुद्यमानोऽनिर्वाहमवगम्य चतुर्विधाऽऽहारं प्रत्याख्यातवानिति। आचा०१ श्रु०८ अ०१उ०। तोवड (देशी) कर्णाऽऽभरणभेदे, कमलकर्णिकायां च / देवना०५ वर्ग तोसलिपुत्त पुं०(तोसलिपुत्र) दशपुरनगरस्थे स्वनामख्याते आचार्ये, 23 गाथा। यत्र सोमदेवब्राह्मणस्य रुद्रसेनायां भार्यायामुत्पन्नश्चतुर्दशविद्यापारतोस पुं०(तोष) प्रमोदे, पञ्चा०२ विव०॥धने, देवना०५ वर्ग 17 गाथा। | गोरक्षितो नाम पुत्रो बभूव / तेन च मातृप्रेरितेन तोसलिपुत्राऽऽचार्यणां तोसम पुं०(तोसक) स्वनामख्यातेऽवन्तिराजे, ति०। समीपे दीक्षा प्रतिपन्ना। विशे० आ०म० आ०चू०आ०क०। *तोषक त्रि०। परितोषकारके, वाच०। तोसलिय पु०(तोसलिक) तोसलिग्रामाधिपे क्षत्रिये, आ०म० 110 तोसलि(ण) पुं०(तोसलिन) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र गच्छन् वीरः सप्त १खण्ड। आ०चू। वारान रज्ज्वा बद्धः ततस्तोसलिकक्षत्रियेण मोचितः। आ०म०१अ०२ तोसिय त्रि०(तोषित) संतोष प्रापिते, आ०म०१अ०१ खण्ड। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' तकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्।
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________________ 2370- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल थकारः थपुं०(थ) दन्तस्थानोऽयं स्पर्शसंज्ञको वर्णः। एका०। थुडङः / भयवारके, व्याधिभेदे, भयचिह्न, भक्षणे चा रक्षणे, मङ्गले, भये च / न०। वाचा "थः पुमानिन्दुकल्लोल-विरामेषु महीधरे (45) स्यादास्फालनशब्दे च, ज्वाले था तु स्त्रियां नदी / / थं नपुंसकलिङ्ग तु, भवेद्भयनिवारणे॥४६॥ त्रिलिड्ग्यांतुथकारोऽसौ, सितासितपृथुष्वपि।'' इति माधवः। एका०) "थो मिथ्यावाचके श्रान्ते, शोके थाऽऽरब्धवस्तुनि। निमने चातिगम्भीरे, थं स्तोकार्थे नपुंसकम् // 64 / / मरुदेशप्रदेशेऽपि, थाऽऽवन्तः स्थलयोषिति। देवकूटे कषाये स्वी, दृढे परिवृढेऽपिथा।॥६५॥ थुः पुंसि पर्वते द्रोणे, व्रणे थुर्निर्दले पुमान्। निष्ठीवने बले भूते, थीवन्तो भाजने भुवि / / 66 / / '' इति विश्वदेवशंभुमुनिः / एका०ा वाक्यालङ्कारे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। पादपूरणे च। अव्य० / पञ्चा०११ विव० थउडु (देशी) भल्लातके,देना०५ वर्ग 26 गाथा। थंडिलन०(स्थण्डिल) परानुपरोधात्प्रासुके भूभागे, ग०२ अधिoा आव० अथ स्थण्डिलवक्तव्यता-तत्र गमनविधिरुच्चारप्रश्रवणव्युत्सर्जनं च। तत्रच स्थण्डिले वक्तव्ये येऽर्थाधिकारास्तानभिधित्सुद्वार-गाथामाहभेया सोवि अवाया, वजणया खलु तहा अणुण्णा य / कारणविही य जयणा, थंडिल्ले हों ति अहिगारा / / 421 / / प्रथमतो भेदाः स्थण्डिलस्य वक्तव्याः, तदनन्तरं स्थण्डिले व्युत्सृजतः शोधिः प्रायश्चित्तम्, ततोऽपायाः, तदनन्तरं वर्जनद्वारम्, ततः परमनुज्ञा, ततः कारणविधिः, तदनन्तरं यतना। एते वक्ष्यमाणाः स्थण्डिले अधिकाराः। तत्र प्रथमतो भेदद्वारप्रतिपादनार्थमाहअचित्तेण अचित्तं, मीसेण अचित्त छक्कमीसेणं। सचित्त छक्कएणं, अचित्त चउमंग एक्के के // 422|| अचित्ते स्थण्डिले पन्थानमधिकृत्य त्रयो भेदाः-अचित्तं स्थण्डिलमचित्तेनपथा गम्यते१। अचित्तं मिश्रण पथार, केन मिश्रेण? इत्यत आह-षट्कायमिश्रेण 2 / तथा-अचित्तं सचित्तेन पथा 3 / स पन्थाः सचित्तः कथम्? इत्याह-षट्केन षड्भिर्जीवनिकायैः 3 / एवमचित्ते स्थण्डिले त्रयो भेदाः / एवं मिश्रे३। सचित्ते च / एतेषामचित्तमिश्रसचित्तानामेकैकस्मिन् भने चतुर्भङ्गी। तामेवोपदर्शयतिअणवायमसंलोए, अणवाए चेव होति संलोए। आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए।।४२३।। अनापातमसंलोकमिति प्रथमो भङ्गः / अनापात संलोकयदिति द्वितीयः / आपातवदसलोकमिति तृतीयः। आपातवत् संलोकवदिति चतुर्थः / गाथायां मत्वर्थीयप्रत्ययस्य लोपः प्राकृतत्वाद, अभ्राऽऽदित्वाद्वा अकारप्रत्ययः / अमीषां चतुर्णा भड़ानां प्रथमो भङ्गोऽनुज्ञातः। शेषाः प्रतिक्रुष्टाः / निर्ग्रन्थीनां तृतीयोऽनुज्ञातः। चतुर्थ स्थण्डिलं व्याख्यानयतितत्थाऽऽवायं दुविहं, सपक्ख-परपक्खतो उणायव्वं / दुविहं होइ सपक्खे, संजय तह संजतीणं च / / 424|| संविग्गमसंविग्गा, संविग्गमणुण्ण-एतरा चेव। असंविग्गा वि य दुविहा, तप्पक्खिऍ एयरा चेव // 425 / / तत्राऽऽपातवत्सलोकवतोर्मध्ये आपातमापातवद् द्विविधं ज्ञातव्यम्। तद्यथा-स्वपक्षतः, परपक्षतश्च, स्वपक्षाऽऽपातयत्, परपक्षाऽऽपातवच्चेत्यर्थः / तत्र स्वपक्षे स्वपक्षविषये द्विविधमापातवत्। तद्यथा-संयताना, संयतीनां च–संयताऽऽपातवत्-संयत्यापातश्चेति भावः / संयता अपि द्विविधाः-संविनाः-उद्यतविहारिणः असंविनाः-शिथिलाः पार्श्वस्थाऽऽदयः। संविग्ना अप द्विविधाः-मनोज्ञाः सांभोगिकाः, इतरे अमनोज्ञा असांभोगिकाः / असंविना अपि द्विविधाः-तत्पाक्षिकाः संविग्नपाक्षिकाः, इतरे असंविग्नपाक्षिकाः। उक्तं स्वपक्षाऽऽपातवत्॥४२५।। सम्प्रति परपक्षाऽऽपातवत्प्राऽऽहपरपक्खे वि य दुविहं, माणुस तेरिच्छगं च नायव्वं / एक्कक्कं पि य तिविहं, पुरिसित्थिनपुंसगं चेव / / 426|| परपक्षेऽपि-परपक्षविषयेऽप्यापातवद् द्विविधं ज्ञातव्यम्-मानुष्यं तैरश्व च--मनुष्याऽऽपातवत्, तिर्यगापातवचेत्यर्थः / एकैकमपि मानुषं, तैरवंच त्रिविधम् / तद्यथा-पुरुषवत् , स्त्रीवत्, नपुंसक-वच। पुरिसाऽऽवातं तिविधं, दंडिऍ कोडुं विए य पागतिए। ते सोयऽसोयवाई, एमेव णपुंसइत्थीसु / / 427 / / पुरुषाऽऽपातवत् त्रिविधम्। तद्यथा-दण्डिके, कौटुम्बिके, प्राकृते चदण्डिकपुरुषाऽऽपातवत्, कौटुम्बिकपुरुषाऽऽपातवत्, प्राकृतपुरुषाऽऽपातवचेत्यर्थः दण्डिकाः-राजकुलानुगताः, कौटुम्यिकाःशेषा महर्द्धिकाः, इतरे प्राकृताः। ते च त्रयोऽपि प्रत्येक द्विधाशौचवादिनः, अशौचवादिनश्च / एवमेव अनेनैव प्रकारेण नपुंसक-स्त्रियोरपि वक्तव्यम्। किमुक्तं भवति? नपुंसकाऽऽपातवच प्रत्येक प्रथमतो दण्डिकाऽऽदिभेदतस्त्रिविधं, ततः शौचवाद्यशौचवादिभेदतः पुनरेकैक द्विविधम् / उक्तं मनुष्याऽऽपातवत्। अधुना तिर्यगापातवदाहदित्तमदित्ता तिरिया, जहण्णमुक्कोसमज्झिमा तिविहा।
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________________ थंडिल 2371 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल एमेवित्थिनपुंसा, दुगुंछिअदुगुंछिया नवरं / / 428| तिर्यञ्चो द्विविधाः-दृप्ताः, अदृप्ताश्च / दृप्ता दर्पवन्तः, अदृप्ताः शान्ताः। ते प्रत्येकं त्रिविधाः-जघन्याः,उत्कृष्टाः, मध्यमाश्च / जघन्या एडकाऽऽदयः, मध्यमा महिषाऽऽदयः, उत्कृष्टा हस्त्यादयः / एते किल पुरुषा उक्ताः / एवमेव स्त्रीनपुंसका अपि वक्तव्याः, नवरं ते दृप्ताः, अदृप्ताश्च प्रत्येक द्विविधा विज्ञेयाः / तद्यथा- जुगुप्सिताः, अजुगुप्सिताश्च / जुगुप्सिता गर्दभ्यादयः / इतरे अजुगुप्सिताः। उक्तमापातवत्। संलोकवद् मनुष्येष्वेव द्रष्टव्यम्। ते च मनुष्या-स्त्रिविधाः। तद्यथा--पुरुषाः, स्वियो, नपुंसकाश्च / एकैके प्रत्येकं त्रिविधाः -प्राकृताः, कौटुम्बिकाः, दण्डिकाश्च / पुनरेकैके द्विविधाः-शौचवादिनः, अशीचवादिनच। उक्त च"आलोगो मणुएसु, पुरिसित्थिनपुंसगाण बोधव्वो। पाययकुडुबिदडिय-असोय तह सोयवादीण''||१|| तत्रैव चाऽऽपातसंलोको चरमभङ्गे, द्वितीये आपातः, तृतीये संलोकः। उक्ता भेदप्रभेदयुक्ता एते स्थण्डिलभेदाः / गतं भेदद्वारम्। अधुना शोधिद्वारमाहमणुयतिरिएसु लहुगा, चउरो गुरुगाय दित्ततिरिएसु। तिरियनपुंसित्थीसु य, मणुसित्थिनपुंसगे गुरुगा॥४२६।। मनुष्याणां शौचवादिना पुरुषाणां, तिरश्चां च पुरुषाणामदृप्तानामापाते (गाथायां सप्तमी षष्ठ्यये) संज्ञा व्युत्सृजतः प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / (गुरुगा य दित्ततिरिएसु त्ति) दृप्तानां तिरश्चामापाते चत्वारो गुरुकाः / तथा-तिर्यग्नपुसकस्त्रीषु तिर्यग्योनीनां नपुंसकस्त्रीणां दृप्तानामापाते (मणुसित्थिनपुंसगे इति) मनुष्याणां स्त्रीनपुंसकानां शौचवादिनामापाते प्रत्येक प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। मणुयतिरियपुरिसेसुं,दोसु वि लहुगा तवेण कालेण। कालगुरू तवगुरुगा, दोहिं गुरू अद्भुकंती वा / / 430 / / मनुष्याणामशौचवादिनां पुरुषाणां, तिरश्वां सदृप्ताना पुरुषाणामापाते द्वयानामपि पृथक् पृथक् प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, तपसा कालेन च लघवः / मनुष्यस्त्रीनपुंसकानामशौचवादिनामापाते चत्वारो गुरुकाः / द्वाभ्यां गुरुकाः / तद्यथा-कालगुरुकाः, तपोगुरुकाः / अर्धापक्रान्तिर्वा द्रष्टव्या। सा चैवम्-तिरश्चा दृप्तानां पुरुषाणामापाते, न (?) मनुष्याणां गृहिणां पाषण्डिनां वा पुरुषाणामशौचवादिनामापाते चत्वारो लघुकाः, तिर्यक् स्त्रीनपुंसकानामदृप्तानामजुगुप्सितानां वाऽऽपाते कालगुरुकाश्चत्वारो लघुकाः। तेषामेव तिर्यक् स्त्रीनपुंसकानां दृप्तानां जुगुप्सितानां चाऽऽपाते चत्वारो गुरुलघुकाः, तपोगुरवः / मनुष्यस्त्रीनपुंसकानामशौचवादिनामपि तएव तपोगुरवः, चत्वारो लघुकाः। इयमेकेषामाचार्याणां मतेनापिक्रान्तिरुपदर्शिता। सम्प्रति भाष्यकारोऽन्यथाऽर्धापक्रान्तिमाह-- पागऍ कोडुवीए, दंडिएँ अस्सोयसोयवादीसु / चउगुरुगा जमलपया, अहवा चउ छच्च गुरु-लहुगा॥४३१।। प्राकृते, कौटुम्बिके, दण्डिनिच प्रत्येकमशौचवादिनि चापिक्रान्तिरवसेया। सा चैवम्-प्राकृतानामशौचवादिनां पुरुषाणामापाते चत्वारो लघुकाः, तपसा कालेन च लघवः / तेषामेव शौचवादिना प्राकृतपुरषाणामापाते तएव चत्वारो लघवः, कालगुरुकाः। कौटुम्बिकानामशौच वादिनां पुरुषाणामापाते कालगुरुकाः, चत्वारो लघवः / तेषामेव कौटुम्बिकपुरुषाणां शौचवादिनामापाते चत्वारो लघवः, तपोगुरुकाः / दण्डिकपुरुषाणामशौचवादिनामापाते तपोगुरुवश्चतुर्लघवः / तेषामेव शौचवादिनामापाते चतुर्लघवो, द्वाभ्यां गुरुकास्तपसा कालेन च। उक्तंच"पाणाइयसोयवादी-पुरिसाणं लहुग दोहि वी लहुगा। ते चेव य कालगुरू, तेसिं चिय सोयवादीणं / / 1 / / ते चिय लहु कालगुरू, कोडुंबीणं असोयवादीणं। तेसि चिय ते चेव उ, तवगुरुगा सोयवादीणं / / 2 / / दंडिऍ असोयमि चिय, सोयम्मि य दोहि गुरुग चउलहुगा। पुस पुरिसाण भणिओ,इत्थिनपुंसाण वी एवं / / 3 / / " (चउगुरुगा जमलपया इति) यमलपदानि स्त्रीनपुंसकलक्षणानि चतुर्गुरुकानि वक्तव्यानि / तानि चैवम्-प्राकृतस्त्रीणामशौचवादिनीनामापाते चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्यां लघवः। तद्यथा-तपसा, कालेन च। तासामेव शौचवादिनीना चत्वारो गुरुकाः / कौटुम्बिकस्त्रीणामशौचवादिनीनामापाते कालगुरवश्चत्वारो गुरुकाः / तासामेव शौचवादिनीनामापाते तपोगुरुकाश्चत्वारो गुरवः / एवमेव दण्डिक-स्त्रीणामशौचवादिनीनामपि, शौचवादिनीनां चचत्वारो गुरुकाः; द्वाभ्यां गुरवः तपसा, कालेन च। एवमेव नपुंसकानामप्यापातेवक्तव्यमाअत्रच मतान्तरमाहअथवा स्त्रीणामापाते चतुर्गुरुकाः, उक्तप्रकारेण तपसा कालेन च विशेषिताः, नपुंसकानामापाते षड् लघवो यथोक्तक्रमेण तपःकालविशेषिताः। सम्प्रति तिर्यगापातमधिकृत्या पक्रान्तिमाहतिरिएसु वि एवं चिअ, अदुगुंछदुगुंछदित्तऽदित्तेसु। अमणुण्णेयर लहुगो, संजतिवग्गम्मि चउगुरुगा / / 432 / / एवमेवाऽनेनैव प्रकारेण तिर्यग्जुगुप्सिताजुगुप्सितदृप्तादृप्तेष्वपिक्रान्तिरवसेया। तद्यथा-प्राकृतपुरुषगृहीतानामदृप्तानां तिर्यक्पुरुषाणामापाते चत्वारो लघवः, द्वाभ्यां लघुकाः, तपसा कालेन च / तेषामेव च दृप्तानां त एव चत्वारो लघवः कालगुरुकाः। कौटुम्बिकपरिगृहीतानामपि तिर्यक्पुरुषाणामदृप्तानामापाते च त एव कालगुरुकाश्चत्वारो लघवः / तेषामेव दृप्तानां तपो गुरवश्चत्वारो लघुकाः / दण्डिकपरिगृहीतानां तिर्यक्पुरुषाणामदृप्तानामापाते त एव चत्वारो लघवः, तपोगुरुकाः / तेषामेव दृप्तानाभापाते चतुर्लघुकाः, द्वाभ्यां गुरवः-तपसा, कालेन च / तथा प्राकृतपरिगृहीताना स्त्रीणां नपुंसकानां च तिरश्चामजुगुप्सितानामापाते चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्या लघवः-तपसा, कालेन च / तेषामेव जुगुप्सितानामापाते चत्वारो गुरुकाः कालगुरवः। कौटुम्बिकपरिगृहीतानां तिर्यस्त्रीनपुसकानामापाते त एव कालगुरुकाश्चत्वारो गुरवः / तेषामेव च जुगुप्सितानामापाते चत्वारो गुरुकास्तपोगुरवः / एवमेव दण्डिकपरिगृहीतानामपि तिर्यक्स्त्रीनपुंसकानामदृप्तानामापाते द्रष्टव्याः / दृप्तानामापाते चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्यां गुरवः-कालेन, तपसा च / उक्तास्तिर्यश्वप्यपिक्रान्तिः / सम्प्रति स्वपक्षाऽऽपाते शोधिमाहअमनोज्ञानामसाभोगिकानां सांभोगिकानां संविग्नानामितरेषां वाऽसंविग्रानामापाते प्रायश्चित्तं लघुको मासः। संयतीवर्गे समापतति संयमीनामापाते चत्वारो गुरुकाः।
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________________ थंडिल 2372 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल आहणणादी दित्ते, गरहियतिरिएसु संकमादी य। एमेव य संलोए, तिरिए वज्जित्तु मणुएसुं॥४३७।। दृप्ते दृप्ततिर्यगापाते आहननाऽऽदयो दोषाः, आहननं शृङ्गाऽऽदिभिस्तामनम, आदिशब्दान्मूछागमनमारणाऽऽदिपरिग्रहः / गर्हितेषु तिर्यक्षु गर्हिततिर्यक् स्त्रीनपुंसकाऽऽपाते शङ्का मैथुने, आदि-शब्दात् प्रतिसेवेतापीत्यादयो दोषाः / यथा-आपाते दोषा उक्ताः एवमेव संलोकेऽपि तिर्यग्योनिकान् वर्जयित्वा मनुष्येषु द्रष्टव्याः। किमुक्त भवति?-एषां संलोके नास्ति कश्चिदनन्तरोदितो दोषः, मनुष्याणां तु स्त्रीपुरुषनपुंसकानां संलोके ये आपाते दोषास्ते वेदितव्याः। यदि कदाचिदात्मपरोभयसमुत्था मैथुनदोषा न भवेयुः, तथाऽप्यमी संभाव्यन्तेजत्थऽम्हे पासामो, जत्थ य आयरइ नातिवग्गो णे। परिमवकामेमाणो, संकेयगदित्तको वा वि।।४३८|| यत्र वयममुमागच्छन्तं पश्यामो, यत्र वाऽस्माकं ज्ञातिवर्गो निरन्तरं संचरति विचारार्थ गच्छति, तत्रास्माकं परिभवं कामयमानो, दत्तसंकेतो वा समागच्छति। किंच सम्प्रति प्रागुक्तमेवार्थमुपदिदर्शयिषुराहभद्दतिरियपासंडे मणुयासोएहिँ दोहिं लहुलहुगा। कालगुरू तवगुरुगा, दोहिँ गुरू अद्भुकंति दुगे / / 433 / / / भद्रेष्वदृष्तेषु तिर्यक्षुपुरुषेषु, मनुष्येषु गृहस्थेषु पाखण्डिषु चाशौचवादिषु आपतत्सु चत्वारो लघुकाः, द्वाभ्यां लघवः / मनुष्यस्त्रीनपुंसकानां शौचवादिनामापाते चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्यां गुरवः / तद्यथा-तपोगुरुकाः कालगुरुकाश्च / शेषेषु तु तिर्यङ् मनुष्यभेदेषु द्विके तपःकाललक्षणेऽपिक्रान्तिः, क्वचित्तपोगुरुका, वचित्कालगुरुकेत्येवंरूपाऽवसातव्या। सा च प्राक् दर्शिता / गतं शोधिद्वारम्। इदानीमपायद्वारमाहअमणुण्णेतरगमणे, वितहाऽऽयरणम्मि होइ अहिगरणं। पउरदवकरण दटुं, कुसीलें सेहाऽऽदिगमणं च ! // 434 / / अमनोज्ञानामसांभोगिकानां संविग्नानामितरेषां चासंविनानामागमने आपाते सति वितथाऽऽचरणे दृश्यमाने भवति परस्परमधिकरणम्। इयमत्र भावना आचार्याणां परस्परमन्यथा सामाचार्यः, ततोऽसांभोगिकानां सामाचारी वितथाऽऽचरणदर्शन नैषा सामाचारीति परस्परमधिकरणं तु वर्त्तते। इतरे कुशीलाः पार्श्वस्थाऽऽदयः, ते प्रचुरेण वारिणा पुतप्रक्षालनं कुर्वन्ति, ततस्तेषां कुशीलानां प्रचुरद्रवेण पुतनिर्लेपकरणं दृष्ट्वा शैक्षकाणाम, आदिशब्दात् शौचवादिनां मन्दधर्मिणां च गमनं तेषां समीपे भवति। निग्गंथाणं पढम, सेसा खलु होंति तेसिँ पडिकुट्ठा। दव अप्प कलुस असती, अवण्ण पुरिसेसुपडिसेहो।।४३५।। यत एवमापाते दोषास्तस्मान्निर्गन्थानां प्रथम स्थण्डिलमनापातमसलोकमित्येवंरूपं, शेषाणि त्रीणि खलु तेषां निन्थानां प्रतिक्रुष्टानि प्रतिषिद्धानि / अथ परपक्षापाते, तत्रापि पुरुषाऽऽपातं व्रजति तदा नियमतो द्रवमकलुषं परिपूर्ण च नेतव्यम् / अन्यथा द्रवे पानीये अल्पे कलुषे वा , यदि वा-असति-विना पानीयेन गतो भवेत्, ततस्ते दृष्ट्वाऽवर्णमश्लाघां कुर्युः, यथा-अशुचयोऽमी, न केवलमवर्ण कुर्युः किंतु प्रतिषेधोऽपि तैः क्रियते, यथा-माऽकोष्यमीषामशुचीनां भक्तं, पानं वा दद्यात् एष पुरुषेषु पुरुषाऽऽपाते दोषः। सम्प्रति स्त्रीनपुंसकाऽऽपाते दोषानाहआय-पर-तदुभए वा, संकाईया हवंति दोसा उ। पंडित्थिसंगें गहिते, उड्डाहो पडिगमणमादी।।४३६।। स्त्रीणां नपुंसकानां वाऽऽपाते आत्मनि,परे; तदुभयस्मिन् शङ्काऽऽदयो दोषा भवन्ति / तत्राऽऽत्मनि साधुःशङ्काविषयः क्रियते, यथा-एषा किमप्युभ्रामयति। परैः स्त्री, नपुंसको वा शक्यते-यथैते पापकर्माण एन साधु कामयन्त इति / तदुभयस्मिन्, यथा-द्वावप्येतौ परस्परमत्र मैथुनार्थमागतौ / तदेवमुक्ताऽऽशङ्का / आदि-शब्दादवर्णाऽऽदिदोषपरिग्रहः / तथास्त्र्यापाते नपुंसकाऽऽपाते वा स साधुरात्मपरोभयसमुत्थेन दोषेण स्त्रिया पण्डकेन वा सार्द्ध सङ्ग मैथुनं कुर्यात्। तत्र केनचिद् रागेण दृष्ट्वा गृहीतः स्यात्, ततः प्रवचनस्योड्डाहः, तथा स उड्डाहित इति कृत्वा प्रतिगमनाऽऽदीनि कुर्यात् / अस्मिन्नेव चतुर्थे स्थण्डिले तिर्यगापाते दोषानाह कलुस दवे असतीए, पुरिसाऽऽलोए हवंति दोसा उ। पंडित्थीसु वि य तहा, खुद्धे वेउव्विए मुच्छा / / 436 / / द्रवे पानीये कलुषे, असति अविद्यमाने च पुरुषाऽऽलोके दोषाः प्रागुक्ता अवर्णाऽऽदयो भवन्ति / तथा-पण्डा नपुंसकाः, पण्डेषु स्त्रीषु च संलोकमानेषु क्षुद्धे, वैकुर्विके वा सागारिके दृष्ट मूर्छा भवेत् / इयमत्र भावनानपुंसकः स्त्री वा सागारिकं स्वभावत एवाति स्थूलं लम्बं च, यदि वा-कषायितम्, अथवा-तद्दोषेण वैकुर्विकं दृष्ट्वा तद्विषयाभिलाषमूर्छामापन्नास्तं साधुमुपसर्गयेत्,तस्मात् त्रयाणामपि संलोको वर्जनीयः। गतं चतुर्थं स्थण्डिलम्। इदानीं तृतीयमापातवदसंलोकमधिकृत्य दोषामाहआयसमुत्था तिरिए, पुरुसे दवकलुस असति उड्डाहो। आयोभय इत्थीसु अ, आगच्छंते य आसंका।।४४०।। तिर्यगापाते आत्मसमुत्था दोषाः। तद्यथा-स्त्रीणां नपुंसकानां चाऽऽपाते मैथुनाऽऽशङ्काऽऽदयो दोषाः, दृप्तानां तिर्यग्पुरुषाणामापाते आत्मन उपघातः / तथा-पुरुष मनुष्यपुरुषाऽऽपाते द्रवे कलुषे, असति वा प्रवचनस्योड्डाहः। तथा-स्त्रीषु, चशब्दान्नपुंसकेषु आगच्छत्सुच आत्मोभयविषया, आत्मोभयग्रहणं परस्योपलक्षणम्, आत्मरोभयविषया आशड्का / सा च प्रागेव भाविता। आवायदोस तइए, विइए संलोयतो भवे दोसा। ते दो वि नत्थि पढमे, तहि गमणं तत्थिमा मेरा // 441 / / तृतीये स्थण्डिले आपातदोषाः, द्वितीये च संलोकतो दोषा भवन्ति वेदितव्याः। ते च द्वेऽपि-आपातदोषाः, संलोकदोषान प्रथम स्थण्डिले न सन्ति, ततस्तत्र गमनं विधेयम्। तत्रेयं मर्यादा। तामेवाऽऽहकालमकाले सन्ना, कालो तइयाएँ सेसगमकालो।
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________________ थंडिल 2373 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल पढमापोरिसि आपुच्छपाणगमपुप्फि अन्नदिसिं॥४४२।। द्विविधा संज्ञा / तद्यथा-काले, अकाले च / तत्र कालस्तृतीयस्या पौरुष्या, शेषकं सर्वमपि प्रातः प्रभृतिकमकालः। तत्र तावदकाले संज्ञायां विधिरुच्यते-कथं गन्तव्यम्? तत्र यदि प्रथमायां पौरुष्यां भवेत् तदा पात्रमुदग्राह्य पानकनिमित्तं व्रजति, अथनोद्-ग्राहयति पात्रं, ततो लोको जानीयात्, यथा-एष बहिर्गमननिमि-तं पानीयं गृह्णाति, ततश्चतुर्थ रसिकं न दद्यात्। अपि चोद्ग्राहिते पात्रेऽयमधिको गुण:--कोऽपि श्राद्धो ग्रामान्तरं, नगरान्तरं वा गन्तुकामः प्रधावितः, अद्धन्युत्पन्नायां संज्ञायां तं प्रतिलाभयंत्, सोऽपि लाभयेत्, सोऽपि लाभो भवति, शङ्काऽपि च नोपजायते, यथा-एष बहिर्गमनाय पानकनिमित्तं हिण्डते। स पुनः कीदृशं पानीयं गृह्णीयात्? अत आह- अपुष्पितमच्छ सुगन्धं चतुर्थरसिकं न भवति, तादृश तत उष्णोदकाऽऽदि गृह्णीयात्। (अन्नदिसिमिति) यस्यां दिशि संज्ञाभूमिस्तस्यां पानकस्य नगन्तव्यम्। यदि पुनस्तस्यां गच्छति, लतोऽतिरिक्तं ग्रहीतव्यं, यदि द्वौ जनौ तदा, यथा तृतीयस्याप्युदरति / किं बहुना? यावन्तो व्रजन्ति तावतां योग्यमतिरिक्तं तथा गृह्णाति यथा एकस्योदरति / एवं पानीयं गृहीत्वा समागतो बहिः प्रतिश्रयस्य पादौ प्रमाय॑ दण्डकं स्थापयित्वा ऐर्यापथिकी प्रतिक्रम्य आलोच्य गुरोः पानक दर्शयित्वा आपृच्छति, गुरुमापृच्छय संज्ञाभूमिं व्रजामीति गच्छति। तत्र जघन्योऽपि कश्चित् व्रजति, तर्हि यथा एकस्योद्वरति तावत्प्रमाणमात्रके पानक गृह्णाति, तचोद्ग्राहितं पात्रमन्यन्य समर्प्य दण्डक प्रमाद्य आवश्यकीं कृत्वा व्रजति / यथोक्तविधेरकरणे सर्वत्र प्रायश्चित्तं मासलघु। उक्तमेवार्थ स्पष्टतरमुपदर्शयतिअतिरेगगहणमुग्गाहियम्मि आलोय पुच्छियं गच्छे। एसा उ अकालम्मी, अहिंडिए हिंडिए काले // 443|| पात्रे उद्ग्राहिते एकजनातिरेकेण पानीयस्य ग्रहणं कर्त्तव्यं, कृत्वा च / गुरोः पुरत आलोच्य गुरुमापृच्छ्य संज्ञाभूमिं गच्छेत् / एषा अकाले संज्ञा उक्ता। संप्रति कालसंज्ञा वक्तव्या। काले कालसंज्ञा (अहिंडिते हिंडिते त्ति) इयमत्र भावनातृतीयस्यां पौरुष्यां कालस्य प्रतिक्रमणे यावन्नाद्यापि भिक्षावेला भवति तावत् संज्ञाभूमि व्रजति / अथाहिण्डिते समुद्दिष्टे भाजनेषु च प्रदत्तकल्पेषु यावन्नावगाहते चतुर्थपौरुषीकालः, तावद्गच्छति, अथोत्सूरे भिक्षावेला, चिरं वा हिण्डितः, ततोऽवमाढायामपि चरमपौरुष्यां गच्छति। तत्र को विधिरित्याहकप्पेतूणं पाए, एकेकस्स उ दुवे पडिग्गहगे। दाउं दो दो गच्छे, तिण्हट्ठ दवं च घेत्तूर्ण // 44 // पात्राणि कल्पयित्वा विशोध्य त्रीन् कल्पान् पात्राणां निर्लेपनाय दरवा एकैकस्याऽऽत्मीयाऽऽत्मीयसंघाटकस्य द्वौ द्वौ पतद्ग्रहको दत्त्वा द्वौ द्वौ संज्ञाभूमि गच्छयाताम्। कथमित्याह-त्रयाणामर्थाय द्रयं गृहीत्वा, पानक हि तावत्प्रमाणं ग्रहीतव्यं यावत्पश्चादेकस्योद्वरति / इयमत्र भावनाये ये संघाटवन्तस्तेषां तेषामेको द्वौ पतद्-ग्रहौ धारयति, द्वितीयश्चान्येन समं याति, तेषु चाऽऽगतेषु ये प्रागितरे स्थितास्ते व्रजन्ति, इतरे चाऽऽगताः पात्राणि धारयन्ति, यावन्तश्च गच्छन्ति तावतां योग्यमेकातिरिक्त पानक मात्रके गृह्णन्ति। कथं पुनस्ते गच्छन्तीत्यत आहअजुगलिया अतुरंता, विगहारहिया वयंति पढमं तु। निसिइत्तु डगलगहणं, आवडणं वचमासज्ज / / 445 / / अयुगलिता न समश्रेणिकयुगलरूपतया स्थिताः, अत्वरिताः, विकथारहिताः स्त्रीभक्ताऽऽदिकथा अकुर्वाणाः प्रथममनापातासंलोकलक्षण स्थण्डिलं व्रजन्ति। तत्र निषध उपविश्य, नोर्द्धस्थिता इत्यर्थः / उर्द्धस्थितानां सम्यक् प्रक्षेपण / संभवात्। डगलग्रहणं कुर्वन्ति-ये भूमावसंबद्धाः पुनर्निर्लपनाय लेष्टुकास्ते डगलकाः, तानाददते / आदाय चैतेषां भूमावापातनं कुर्वन्ति येन वृश्चिकाऽऽदिस्ततोऽपसरति / उक्तं च- "ते डगले टिट्टियावेइ, ततो जो तत्थ विच्छुगादी, सो अवसरति।" इति / तेषां च डगलकानां प्रमाणं वर्चः पुरीषमासाद्य प्रतिपत्तव्यं, यो भिन्नवर्चाः स त्रीन् डगलकान् गृह्णाति, अन्यो द्वावेकं वा / आलोएऊण दिसा, संडासगमेव संपडजित्ता। पेहियपमजिएसु य, जयणाए थंडिले णिसिरे॥४६॥ स्थण्डिलं गत्वा तत्र दिशामापातसंलोकवर्जनार्थमालोकनं कुर्यात्, दिश आलोक्य तदनन्तरं समासकं संप्रमाय प्रेक्षितेषु प्रमार्जितेषु च तत्र प्रदेशेषु स्थण्डिलेषु पुरीषं निसृजेत् व्युत्सृजेत् / कथमित्याह यतनया "दिसिपवणगामसूरिय।" इत्यादिवक्ष्यमाणलक्षणया तत्पुनरनापातासंलोकं स्थाण्डलमेभिर्वक्ष्यमाणैर्दशभिः स्थाने विशुद्ध ज्ञातव्यम्। तान्येवाऽऽहअणावायमसंलोए, परस्सऽणुवघातिए। समे अज्झुसिरे याविऽचिरकालकयम्मि य॥४४७|| वित्थिपणे दूरमोगाढेऽनासन्ने बिलवजिए। तसपाणबीयरहितए, उच्चाराऽऽदीणि वोसिरे।।४४७|| अनापातमसंलोक, परस्यानुपघातिक, समम, अशुषिरम्, अचिरकालकृतं, विस्तीर्ण दूरमवगाढम्, अनासन्नं, बिलवर्जितं, त्रसप्राणबीजरहितं यत् स्थण्डिलं तत्र उचाराऽऽदीनि उच्चारप्रश्रवणप्रभृतीनि व्युत्सृजेत्। एष एककः संयोगो दर्शितः। सप्रति द्विकाऽऽदिसंयोगानुपदर्शयतिइगदुगतिगचउपंचगछगसत्तगअट्ठनवगदसहिं। संजोगा कायव्वा, भंगसहस्संचउव्वीसं 1146|| अमीषामनन्तरो दितानां दशानां पादानामेकद्वित्रिचतुः पशषट्सप्ताष्टनवदशकैः संयोगाः कर्त्तव्याः,तेषु च भङ्गाः सर्वसंख्यया चतुर्विशत्यधिकं सहस्रम् / अथ कस्मिन् संयोगे कियन्तो भङ्गकाः? उच्यते-इह भगतामानयनकरणमिदम्-दशाऽऽदयोऽङ्का एकैकेन हीनास्तावत् स्थाप्यन्ते यावत् पर्यन्ते एकः, ततस्ते यथाक्रममेभी राशिभिर्गुणयितव्याः। तद्यथा-दशक एककेन, नवकः पञ्चभिः, अष्टकः पञ्चदशभिः, सप्तकरित्रंशता, षट् को द्वाचत्वारिंशता, पञ्चकोऽपि द्वाचत्वारिंशता, चतुष्कस्त्रिशता, त्रिकः पञ्चदशभिः, द्विकः पञ्चकेन, एकक एककेन / स्थापना| 10|| 8 |76 [54 ३श अमीषां 15 15/30424230 155 | 1 | चामीभिगुणाकारैर्गुणने जाता एक काऽऽदिसंयोगे ब्वियं भङ्गसंख्या। तद्यथा एककसंयोगे दश। द्विक संयोगे पशचत्वारिंशत् / त्रिक
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________________ थंडिल 2374 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल संयोगे विंशत्युत्तरं शतम् / चतुष्कसंयोगे द्वशते दशोत्तरे / पञ्चसंयोगे देशते द्विपञ्चाशदधिके / षट्कसंयोगेद्वेशते दशोत्तरे। सप्तक-संयोगे विश शतम् / अष्टकसंयोगे पञ्चचत्वारिंशत् / नवकसंयोगे दश / दशकसंयोगे एकः / एकं च वसत्यादिषु विविक्ते प्रदेशे स्थण्डिलमिति सर्वभङ्गसंख्या एकत्र मीलयित्वा रूपाधिका क्रियते, ततश्चतुर्विशं भङ्ग सहसं भवति। "समभंगणयणे करणं, दसगाऽऽति ओसरंति जावेको। एए उ गुणेयव्या, इमेहिँ रासीहिँ जहकमसो॥१॥ एक्कग पंचग पन्नर, तीसा वायाल पंच जा ठाणा। परतो बायालीसा, पडिलोममवेहि जावेको / / 2 / / एक्कगसंजोगादी, गुणिया लद्धा हवंति एमेते। मिलिया रूवाहिकया, भंगसहस्सं चउव्वीसं // 3 // " संप्रत्येतानि दश शुद्धानि पदानि व्याख्यातव्यानि, यत्र यत्र दोषास्ते तत्र तत्र कथनीयाः, तत्राऽऽपातवत् संलोकवच पूर्वव्याख्यातम्। इदानीं परस्यौपघातिकमाहआया पवयण संजम, तिविहं उवघातियं मुणेयव्यं / आराम वच्च अगणी, घायाऽऽदसुई य अन्नत्थ / / 450 / / इह पूर्वार्द्धपदानां पश्चाद्धपदानां च यथाक्रम योजना / सा चैवम्औपपातिकमुपघातप्रयोजनकं स्थण्डिलं त्रिविधं ज्ञातव्यम् / तद्यथाआत्मोपधाति, प्रवचनोपघाति, संयमोपघाति च / तत्राऽऽत्मोपघाति आरामः, तत्र हि संज्ञां व्युत्सृजतो घाताऽऽदि पिट्टनाऽऽदि। प्रवचनोपघातिव!गुह, तद्धिजुगुप्सितमशुच्यात्मकत्वात्, ततस्तत्र संज्ञाव्युत्सर्ग ईदृशा एते इति प्रवचनोपघातः / संयमोपघाति-अग्निरग्निस्थानं, तत्र हि संज्ञाव्युत्सर्गे ते अग्न्यारम्भिणोऽन्यत्रास्थण्डिले अग्निस्थानं कुर्वन्ति, त्यजन्ति वा ता संज्ञामस्थण्डिले। संप्रति विषमस्थण्डिले दोषानाहविसमपलोट्टणि आया, इयरस्स पलोट्टणम्मि छक्काया। झुसिरम्मि विच्छुगादी, उभयक्कमणे तसादीया।।४५१।। विषमे स्थण्डिले साधुः प्रलोटेत्, पतेदिति भावः / तत्र चाऽऽत्मा विराध्येत / इतरस्य पुरीषस्य, प्रस्रवणस्य च प्रलोटने षट् काया विराध्यन्ते / तथाहि-प्रतीतमेवैतत्-पुरीषं, प्रसवणं वा प्रलोटेन षट्कायान् विराधयति। एषा संयमविराधना। शुषिरे संज्ञाऽऽदिव्युत्सृजनो वृश्चिकाऽऽदिभिरात्मनो विराधना आदिशब्देन सर्पाऽऽदिपरिग्रहः / उभयं संज्ञाप्रस्रवणं, तेनाऽऽक्रमणे उसाऽऽदयः त्रसस्थावरप्राणा विराध्यन्ते। एषां सयमविराधना। अथ कीदृशं चिरकालकृतं स्थण्डिलमत आहजे जम्मि उउम्भि कया, पयावणादीहिँ थंडिला ते उ। होंति इयरे चिरकया, वासावासे य वारसगं / / 452|| यानि स्थण्डिलानि यस्मिन् ऋतौ प्रतापनाऽऽदिभिः कृतानि तानि तस्मिन्नचिरकालकृतानि भवन्ति। यथा-हेमन्तकृतानि हेमन्त एवाचिरकालकृतानि / इतराणि तु ऋत्वन्तरव्यवहितानि चिरकालकृतानि, अरथण्डिलानि तानीति भावः / यत्र पुनरेक वर्षारानं सगोधने ग्राम उषितस्तत्र द्वादशकं द्वादश संवत्सराणि स्थण्डिलं, परमस्थण्डिलं भवति। सम्प्रति विस्तीर्णमाह हत्थाऽऽयामं चउरस, जहण्ण उक्कोस जोयण विछक्छ / चउरंगुलप्पमाणं, जहन्नयं दूरमोगाढं / / 453 / / जघन्यं विस्तीर्ण चतुरस्रं चतसृष्यपि दिक्षु हस्ताऽऽयामम्, उत्कृष्ट द्वादशयोजनानि, तच चक्रवर्तिस्कन्धावारनिवेशे प्रतिपत्तव्यम्। दूरावगाढमाह-यत्राधस्ताचतुरड्डलप्रमाणमचित्तम्- चत्वारि अङ्गुलान्यचित्ता भूमिः, तजघन्यं दूरमवगाढम्, अर्थात्पश्चादड गुलप्रभृतिकमचित्तं यस्याधस्तात्तदुत्कृष्ट दूरमवगाढम्। साम्प्रतमासन्नमाहदव्वाऽऽसन्नं भवणा-दियाण तहियं तु संजमाऽऽयाए। आयापवयणसंजम–दोसा पुण भावआसण्णो / / 454|| आसन्नं द्विविधम्-द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र द्रव्याऽऽसन्नं भवनाऽऽदीनां निकटम्। आदिग्रहणादेवकुलाना, ग्रामस्य, पथो, वृक्षस्य च परिग्रहः / यस्य हि वृक्षस्य हस्तिपादप्रमाणस्कन्धः, तस्य समन्ततो हस्तोवर्जयितव्यः / तत्र यदि द्रव्याऽऽसन्ने व्युत्सृजति, ततः संयमे, आत्मनि च विराधना / तत्र यद् गृहाऽऽदीनामासन्नं तत् स्थण्डिल परित्यज्यान्यत्र स्थण्डिलं कुर्युः, अथवा पानीयेन तत्प्रक्षालयेयुः। ततः संयमविराधना। आत्मविराधना पिट्टनाऽऽदिभावात् / भावाऽऽसन्नं नाम तावत्तिष्ठति, यावत्संज्ञा मनाग नागच्छति, ततोऽनधिसहा स्थण्डिलं गन्तुमशक्नुवन् अस्थण्डिले, भवनाऽऽदीनां वा प्रत्यासन्ने व्युत्सृजेत् / तत्र चाऽऽत्मविराधना, संयमविराधना च प्राग्वत् / अत्रास्थण्डिलमिति कृत्वा सागारिको वा तिष्ठतीति संज्ञां धारयति आत्मविराधना, मरणस्य ग्लानत्वस्य चावश्यं भावात्। अनधिसहेन च सता तेन लोकपुरतोऽस्थाने संज्ञाव्युत्सर्गे पुनर्जनाऽऽदिलेपने वा प्रवचनोपघातः। सविले, उसप्राणबीजोपेते दोषानाहहों ति विले दो दोसा, तसेसु बीएसु वा वि ते चेव। संजोगतो य दोसा, मूलगमा होंति सविसेसा / / 455 / / विले संज्ञा व्युत्सृजतो द्वौ दोषौ / तद्यथा-आत्मविराधना, संयमविराधना च। तत्र यदा विले प्रविशन्त्यां संज्ञया प्रस्रवणेन तद्रता जीवा बाध्यन्ते तदा संयमविराधना। साऽऽदिभक्षणे आत्मविराधना। त्रसेषु, बीजेषु च तावेव द्वौ दोषौ संयमाऽऽत्मविराधनालक्षणौ। तत्र त्रसेषु बीजेषु प्राणव्यपरोपणात्संयमविराधनां सुप्रतीता। त्रसेष्वात्मविराधना, तेभ्य उपद्रवसंभवात् / बीजेष्वात्मविराधनाबीजशूकाऽवयवानामतितीक्ष्णानां पदेषु लग्नतः पादप्रलोटनतः पतनतो वा / तदेवमतेकैकस्मिन् वर्जनीये स्थण्डिले दोषा उक्ताः / अस्माच मूलगमदिकैकसंयोगरूपात् द्विकत्रिकाऽऽदिपदानां संयोगतः सविशेषा बहुबहुतरका भवन्ति ज्ञातव्याः। द्विकसंयोगे द्विगुणारित्रकसंयोगे त्रिगुणा यावद्दशसंयोगे दशगुणा इति। सम्प्रति प्रागुक्तमपि प्रायश्चित्तमन्याऽऽचार्यपरिपाट्या, मनाक विशेषप्रदर्शनार्थतया च पुनराहपंथम्मि य आलोए, झुसिरम्मि तसेसु चेव चउलहुगा। पुरिसावाए य तहा, तिरियावाए य ते चेव / / 456|| पथ आसन्ने पुरुषाणामालोके, शुषिरे, ससंकुले च संज्ञा व्युत्सृजतः प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / तथा सर्वमनुष्यपुरुषाऽऽपाते, सर्वतिर्यक पुरुषाऽऽपाते च प्रत्येकं त एव चत्वारो लघवः / सर्वग्रहणं मनुष्येषु कौटुम्बिकाऽऽदिभेदपरिग्रहार्थम्।
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________________ थंडिल 2375 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल तिर्यसूत्कृष्टाऽऽदिभेदसंग्रहार्थमाहइत्थिनपुंसाऽऽवाए, भावासन्ने विले य चउगुरुगा। पणगं लहुयं गुरुगं, बीए सेसेसु मासलहुं // 457|| सर्वासां प्राकृताऽऽदिभेदाभिन्नानां स्त्रीणामापाते च, तथा भावसन्ने विलसहिते च स्थण्डिले व्युत्सृजतः प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः, प्रत्येकबीजसंकुले स्थण्डिले लघूनि पञ्चारात्रिन्दिवानि, अनन्तबीजसंकुले गुरुकानि, शेषेष्वशुद्धेषु स्थण्डिलेषु मासलघु। यचान्यदा पर्यन्ते तदपि सर्वमाप्नोति / यत्रासामाचारीकरणं तत्रापि मासलघु। अपमञ्जणा अपडिलेहणा य दुपमज्जणा दुपडिलेहा। ति, मासिय पणगं लहु,कालतवे वा चरिमसुद्धो // 458|| संज्ञा व्युत्स्रष्टकामो न प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति मासलघु, कालगुरु, तपोलघु। न प्रमार्जयति प्रत्युपेक्षते मासलघु, द्वाभ्यां लघु / एवं त्रिकेषु स्थानेषु मासिक लघु, कालेन तपसा चोक्तप्रकारेण विशेषितम् / अथ प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति, तत्र दुष्प्रत्युपेक्षिते दुष्प्रमार्जिते रात्रिन्दिवपञ्चकं लघु, दुष्प्रत्युपेक्षिते प्रमार्जित रात्रिन्दिवपञ्चकं लघु.तपोलघु, कालगुरु / प्रत्युपेक्षिते दुष्प्रमार्जिते रात्रिन्दिवपञ्चकं लघु, द्वाभ्यां लघुकम्। एवं त्रिकेषु त्रिस्थानेषु पञ्चकं, कालेन तपसा चोक्तप्रकारेण विशेषितं, चरमेषु प्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितमित्येवंरूपे भङ्गे शुद्धो न प्रायश्चित्तभाक्। खुड्डो धावणे झुसिरे, तह खुत्तो अपडिलेहणा लहुगो। घरवाविवचगोवयठिअमल्लगछड्डणे लहुगा / / 456 / / इयमपि गाथाऽन्याऽऽचार्यपरिपाटिशूचिका, ततो न पुनरुक्तता, नापि | विरोधो, मतान्तरत्वात्। क्षुल्लकं स्तोकं यदिधावनं प्रलोटनमित्यर्थः। तत्र तथा शुषिरेस्थण्डिले तथाकृत्वोऽप्रत्युपेक्षणायां प्रत्येक प्रायश्चित्तं लघुको मासः। तथा-गृहे यदि संज्ञा व्युत्सृजति वाप्या वर्चसि गृहे वर्चस उपरिवा गोप्पदे वा ऊर्द्धस्थितो वा तथा मल्लके व्युत्सृज्य यदि परिष्ठापयति तदा सर्वेष्वेतेषु स्थानेषु प्रायश्चित्तं प्रत्येकं चत्वारो लघवः / गतमपायद्वारम्। इदानीं वर्जनाद्वारमाहदिसिपवणगामसूरिय-छायाएँ पमजिऊण तिक्खुत्तो। जस्सुग्गहो ति काऊण वोसिरे आयमे वा वि।।४६०।। उत्तरादिक्,पूर्वदिक्च लोके पूज्या, ततस्तस्याः पृष्ठप्रदानेलोकमध्ये अवर्णवादो भवति, वानमन्तरं वा किञ्चित् मिथ्यादृष्टिः कुप्येत्। तथा च सति जीवितव्यस्य विनाशः, तस्मात् दिवा रात्रौ च पृष्ठ पूर्वस्याम्, उत्तरस्यां तु दिवा / दक्षिणस्यां दिशि रात्रौ निशाचराः संचरन्ति / ततस्तस्यां पृष्ठ रात्रौ वर्जयेत् / उक्तं च- "उभे मूत्रपुरीषे तु, दिवा कुर्य्यादुदङ्मुखः / रात्रौ दक्षिणतश्चैव, तथा चाऽऽयुर्न हीयते।।१।।" तथा यतः पवनस्ततः पृष्ठं न कुर्यात्, मा लोको ब्रूयात्-अर्घयन्त्येतदेते इति, नासिकायां चासि मा भूवन्। तथा ग्रामस्य, सूर्यस्य च पृष्ठ न दातव्यं, लोकेऽवर्णवादसं-भवात्। तथाहि-सूर्यस्य, ग्रामस्य वा पृष्ठदाने लोको ब्रूते-न किश्चित् जानन्त्येते यल्लोकोद्योतकरस्यापि सूर्यस्य, यस्मिन् ग्रामे स्थीयते तस्याऽपि च पृष्ठं ददतीति / तथा संसक्तग्रहणिछायायां व्युत्सृजेत्, येन द्वीन्द्रियविनाशो न भवति। तथा त्रिःकृत्वस्त्रीन् वारान् | प्रमाणं / उपलक्षणमेतत्-प्रत्युपेक्ष्य च व्युत्सृजेत् / तत्रा-प्रत्युपेक्षणे अप्रमार्जने, दुष्प्रत्युपेक्षणे दुष्प्रमार्जने च प्रायश्चित्तं प्रागुक्तम् / तथा यस्यावग्रहः सोऽनुजानीयादिति अनुज्ञाय व्युत्सृजेत्, आचमेद्वा / एष गाथार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराहउत्तर पुव्वा पुज्जा,जम्माए निसियरा अभिवडंति। घाणारसा य पवणे, सूरियगामे अवन्नो उ॥४६१।। उत्तरा, पूर्वा च लोके पूज्यते, ततो दिवा रात्रौ च पूर्वस्यामुत्तरस्यां वा पृष्ठं न दद्यात्, तथा न याम्या दक्षिण, तस्यां रात्रौ निशाचरा देवा अभिपतन्ति समागच्छन्ति, ततस्तस्यां रात्रौ पृष्ठ न दद्यात्, तथा यतः पवनस्ततः पृष्ठकरणे अशुभगन्धघ्राणि सिकायां चास्युपजायन्ते। तस्मात्पवनस्यापि पृष्ठं न कर्त्तव्यम्। सूर्यस्य, ग्रामस्यच पृष्ठकरणे अवर्णो लोकमध्ये यथाऽभिहितः प्राक्, ततस्तयोरपि न दातव्यं पृष्ठमिति। "छायाए' इति व्याख्यानार्थमाहसंसत्तग्गहणी पुण, छायाए निग्गयाई वोसिरई। छायासति उण्हम्मि वि, वोसिरिय मुहुत्तगं चिढे / / 462 / / संसक्ता द्वीद्रियैर्ग्रहणिः पांशुर्यस्यासौ संसक्तग्रहणिः, स द्वीन्द्रियरक्षणार्थ छायायां वृक्षाऽऽदिनिर्गतायां व्युत्सृजति अथ छायाऽद्याऽपि न निर्गच्छति, मध्याह्ने एव संज्ञा प्रवृत्ता, ततः छायाया 'असति' अभावे उष्णेऽपि स्वशरीरच्छायायां पुरीषस्य कृत्वा व्युत्सृजति, व्युत्सृज्य च मुहूर्त तथैव तिष्ठति, येनैतावता कालेन स्वयोगतः परिणमन्ति, अन्यथोष्णेन महती परितापना स्यात्। अथव्युत्सृजन् स्वोपकरणं कथं धरतीत्यत आहउवगरणं वामगऊ-रुगम्मि मत्तो य दाहिणे हत्थे। तत्थऽण्णत्थ व पुंछे, तिहिँ आयमणं अदूरम्मि // 463|| उपकरणं दण्डक रजोहरणं च वामे ऊरौ स्थापयति, मात्रकं दक्षिणहस्ते क्रियते, डगलकानि च वामहस्तेन धारणीयानि, ततः संज्ञां व्युत्सृज्य तत्रान्यत्र वा प्रदेशे डगलकैः पुतं पुंसयति रूक्षयति, पुंसयित्वा त्रिभि वापूरकैश्चुलुकैरित्यर्थः / आचमनं निर्लेपनं करोति / तथा चोक्तम्- "तिहि नावाए पूरएहिं आयमइ, निल्लेवेति वा / नावा पूरओ नामपसती।" इति। तदपि चाऽऽचमनमदूरे करोति यदिपुनद्र आचमति तत उड्डाहः, कश्चित् दृष्ट्वा चिन्तयेत्-अनिर्लेप्यपुतो गत एष इति। संप्रत्यालोके प्रायश्चित्तविधिमाहआलोगं पिय तिविहं, पुरिसित्थिनपुंसकं च बोधव्वं / लहुगा पुरिसाऽऽलोए, गुरुगाय नपुंसइत्थीसु॥४६४।। आवातं पि य दुविहं, माणुसतेरिच्छयं च नायव्वं / एकेकं पि य तिविहं, पुरिसित्थिनपुंसगे चेव // 46 // आलोकमपि च त्रिविधं त्रिप्रकारम्। तद्यथा-पुरुषाऽऽलोकं, स्त्रयालोकं, नपुंसकाऽऽलोकम् / गाथायां पदैकदेशे पदसमुदायोपलक्षणानि / तत्र पुरुषाऽऽलोके प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / स्त्र्यालोके नपुंसकाऽऽलोके च चत्वारो गुरुकाः। तदेवमचित्तं स्थण्डिलमचित्तेन पथा भणितम्। अथ सचित्तेन मिश्रेण वा यदा तद् गच्छति तदा तदेव प्रायश्चित्तम्।
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________________ थंडिल 2376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल छक्काय-चउसु लहुगा, परित्ते लहुगा य गुरुग साहारे। संघट्टेण परियावणे, लहु गुरुग निवायणे मूलं / / 466 / / षट् कायाः-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाः, तेषां मध्ये चतुधूपृथिव्यतेजोवायुरूपेषु संघट्टनाऽऽदिषु लघुकाः प्रायश्चित्तम् / परितकवनस्पतिकायेऽपि च लघुकाः / साधारणे अनन्तवनस्पतिकायिके संघटनाऽऽदिषु गुरुकाः / तथा द्वीन्द्रियाऽऽदीनां संघट्टने परितापने च यथायोग लघुका गुरुकाश्च प्रायश्चित्तम्। अर्पितनिपातने विनाशे मूलम्। इयं तत्र भावनापृथिवीकायं संघट्टयतिमासलघु, परितापयति, जीविताद् व्यपरोपयतीत्यर्थः, चतुर्लघु / एवमपका-ये, तेजस्काये, वायुकाये, प्रत्येकवनस्पतिकाये च द्रष्टव्यम्। उक्तं च- 'छक्कायाऽऽदिमचउसू, तह य परित्तम्मि होति वणकाए। लहु गुरु मासो चउलहु, घट्टणपरितावउद्दवणे / / 1 / " एतत् प्रायश्चित्त-मेकैकस्मिन् दिवसे संघट्टनाऽऽदिकरणे, यदि पुनः दिवसौ पृथिव्यादि संघट्टयति तदा मासगुरु, परितापयति चतुर्लधु, जीविताच व्यपरोपयति चतुर्गुरु, त्रीन् दिवसान् निरन्तरं पृथिव्यादीन संघ-दृयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, अपद्रावयति षड् लघु, निरन्तर चतुर्लघु, निरन्तरं चतुरो दिवसान संघट्टने चतुर्गुरु, परितापने षड् लघु, अपद्रावणे षड्गुरु. पञ्चदिवसान् निरन्तरं पृथिव्यादीनां संघट्टने षड् लघु, परिताने षड् गुरु, अपद्रावणे मासिकच्छेदः, षड् दिवसान निरन्तरं संघट्टने षड् गुरु, परितापने मासिकच्छेदः, अपद्रावणे चतुर्मासच्छेदः, परितापने षण्मासिकः, अपद्रावणे मूलम् / उक्तं च"दोहि दिवसेहि मासगुरुए आढवेत्ता चउगुरुए ठाति०जाय अट्टहिं संपयंति।" अनन्तवनस्पतिक यदि संघट्टयति तदा मासगुरु, परितापयति चतुर्लधु, अपद्रावयति चतुर्गुरु, द्विदिवसाऽऽदि निरन्तरं संघट्टनाऽऽदिषूत्तरोत्तरैकैकस्थानवृद्धितः सप्तभिर्दिनैर्मूलं, द्वीन्द्रियं संघट्टयति चर्तुलधु, परितापयति चतुर्गुरु, जीविताद् व्यपरोपयति षड़ लघु। अत्र त्र्यादिदिवसं निरन्तरं संघट्टनाऽऽदिषु षड भिर्दिवसैमूल, त्रीन्द्रिय संघट्टयतश्चतुर्गुरु, परितापयतः षड्लघु, जीविताद्वयपरोपयतः षड् गुरु। अत्र पञ्चभिर्दिवसैमूलं, चतुरिन्द्रियं संघट्टयतः षड् लघु, परितापयतः षड् गुरु, जीविताद् व्यपरोपयतो मासिकश्छेदः / अत्र चतुर्भिर्दिवसैमूल, पञ्चेन्द्रियं संघट्टयतः षड् गुरु, परितापयतश्छेदः, अपद्रावयतो मूलम्, अत्र द्वयोर्द्धिवसयोरनवस्थाप्य, त्रिषु दिवसेषु पाराश्चितम्। गतवर्जनाद्वारम्। अधुनाऽनुज्ञाद्वारमाहपढमिल्लुगस्स असती, वाघातो वा इमेहिँ ठाणेहिं। पडिणीऐं तेणें वाले, खेत्तुदयनिविट्ठथीअपुमं // 467 / / प्रथममेव 'पढमिल्लुक' प्राकृतत्वात् स्वार्थे इल्लुक प्रत्ययः / प्रथममनापातासंलोकलक्षणं स्थण्डिलं तद् नास्ति, ततस्तस्य प्रथमस्याभावे, अथवा स्वतोऽप्येभिः स्थानैाघातो भवेत् / तान्येव स्थानान्याह-"पडिणीए" इत्यादि। प्रत्यनीकस्तत्र तिष्ठति, स्तेना वा / पथि द्विविधाः / तद्यथा-उपकरणस्तेनोः,शरीरस्तेना वा। व्याला वा तत्र सर्पाऽऽदयो विद्यन्ते, क्षेत्र वा तत्र ज्ञातम्, उदकेन वा तत् स्थण्डिलमास्तृतम्। ग्रामो जिका स्कन्धावारो वा तत्र निविष्टः, स्त्री,नपुंसको वा तत्र मैथुनाथ संयतानागच्छतः प्रतीक्षते। पढमासति वाघाए, पुरिसाऽऽलोयम्मि होति जयणाए। मत्तगअपमजणडगल, कुरुकुअ तिविहे दुविह भेदो // 468 / / एवं प्रथमस्य स्थण्डिलस्याभावे, व्याघाते वा द्वितीय स्थण्डिलमनापातं संलोकवद् गन्तव्यम्। तत्र संयतानां सांभोगिकानां संविग्नानामालोके गन्तव्यं, तदभावे असांभोगिकानामपि / तत्रापरिणताः पूर्वमेव ग्राहयितव्याः। यथा-केषाश्चिदाचार्याणां विसदृशमाचर्यम्, ततो यूयं मा तान् वितथसामाचारीकान् दृष्ट्वा प्रतिनोदयेत, तेऽपि यदि नोदयन्ति तर्हि उदासीनास्तिष्ठथ / एवमसंखडाऽऽदयो दोषाः परिहृता भवन्ति / असांभोगिकानामप्यापातस्यासंभवे यत्र पार्श्वस्थाऽऽदीनामालोकस्तत्र गच्छन्ति, तस्याप्यभावे यत्र पार्श्वस्थाऽऽदीनामापातस्तत्र व्रजन्ति। तत्र क्षुल्लकाऽऽदयोऽपरिणताः पूर्वं ग्राहयितव्याः-यथा एते निर्धर्माणो जिनाऽऽज्ञाप्रकोपिनो वितथमाचरन्ति, तन्मायूयमेतेषां चेष्टितं चित्ते कुरुत, यथैतत् सुन्दरमिति / संयत्यापातवच सर्वप्रयत्नेन परिहरेत् / अन्यथा कृतसङ्केतका अत्र समागच्छन्तीतिशङ्काऽऽदयः, आत्मपरोभयं समुत्थाश्च दोषाः संभवन्ति / एषा स्वपक्षे यतना। संप्रति परपक्षेऽभिधीयते-तत्र चानापातवतोऽसंभवे (पुरिसालोयम्मि होति जयणाए इति) पुरुषाऽऽलोके पुरुषाऽऽलोकवति गन्तव्यं, तत्र यतनया भवति कर्तव्यमाचमनाऽऽदि / तामेव यतनामाह-(मत्तगअपमञ्जणडगलकुरुकुअ त्ति) प्रत्येक च प्रचुरं द्रवं, मगलकानां चाप्रमार्जन, न तानि मगलकानि प्रमार्जन्ते, हीनानां दोषसंभवाद्, कुरुकुचाश्वाऽऽचमनानन्तरं कर्तव्याः (कुरुकुचा-बहुना जलेन पादप्रक्षालनाऽऽदि।)। (तिविहे दुविहभेओ इति) त्रिविधे प्रत्येक द्विविधो भेदो द्रष्टव्यः। इयमत्र भावना-त्रिविधः परपक्षः। तद्यथा-पुरुषस्त्रीनपुंसकः / एकैकः पुनर्द्विविधः-शौचवादी, अशौचवादी च। अथवाऽन्यथा प्रत्येक द्विभेदः श्रावकोऽश्रावकश्च। अथवा-त्रिविधो भेदो नामस्थविरो, मध्यमः, तरुणश्च / यदि वा-प्राकृतः, कौटुम्बिको, दण्डिकश्च / एते च त्रयो भेदा यथा पुरुषस्य, तथा स्त्रीनपुंसकयोरपि द्रष्टव्याः। तेषु यतनया गन्तव्यम्। कथमित्यत आहतेण परं पुरिसाणं,असोयवादीण वचे आवायं / इत्थिनपुंसाऽऽलोए, परंमुहो कुरुकुया सा य // 466 / / ततः पुरुषाऽऽलोकवतः स्थण्डिलात्परतः, पुरुषाऽऽलोकवतः रथण्डिलस्याऽसति पुरुषाणामशौचवादिनामापातमापातवत् स्थण्डिलं व्रजेत्, तत्र च यतना प्रागुक्ता द्रष्टव्या। तस्याऽप्यसंभवे शौचवादिनामप्यापातवद् गन्तव्यम् / तस्यासंभवे स्त्र्यालोके, नपुंसकाऽऽलोके वा गन्तव्यम् / इयमत्र भावना--प्रथमतोऽशौचवादिनीनां स्त्रीणामालोके गन्तव्यम्, तत्र गतः सन् तासां पराङ्मुख उपविशेत्, यतना च सा कुरुकुचाऽऽदिका कर्तव्या / तस्याऽप्यसंभवे शौचवादिनीनामप्यालोके गन्तव्य, तदभावे नपुंसकानामशौचवादिनामालोके, तस्याऽसंभवे शौचवादिनामप्यालोके / यतना सर्वत्र सैव। तेण परं आवायं, पुरिसेयरइत्थियाण तिरियाणं। तत्थ विय परिहरेजा, दुगुंछिए दित्तऽदित्ते य॥४७०॥ ततः परं शौचवादिनामपि न सकानामालोक स्यास भवे पुरुषेत रस्त्रीणां तिरश्चामापाते व्रजेत्, तत्रापि हप्तानदृप्ताश्च जुगुसितान परिहरेत, अपरिहारे यतनां कुर्यात् / अयमत्र भावा
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________________ थंडिल 2377 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल र्थः-शौचवादिनां नपुंसकानामालोकासंभवे तिर्यक्पुरुषाणाम दुष्टाना- | मापाते व्रजेत्।तत्रेयं यतना-दण्डहस्ता वारंवारेण व्युत्सृजन्ति। उक्तंच"तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वचे आवायं। अत्थित्थिनपुंसाणं, आलोयपरम्मुहा कुरुया / / 1 / / पच्छा तिरिपुरिसाणं, अदुट्ठदुट्ठाण छचे आवायं / / दुद्देसु दंडहत्था, वारंवारेण वोसिरणं॥" तस्याप्यभावे तिर्यस्त्रीणामजुगुप्सितानामापातं व्रजेत्, तदसंभवे जुगुप्सितानामप्यापातं, तदभावे तिर्यड्नपुंसकानामजुगुसितानामापात, तदभावे जुगुप्सितानामप्यापातम्, केवलं तत्र तथोपविशन्ति, यथा परस्पर सर्व प्रेक्षन्ते। तत्तो इत्थिनपुंसा, तिविहा तत्थ वि असोपवाईणं / तहियं च सद्दकरणं, आउलगमणं कुरुकुया य / / 471 / / ततः स्त्रीनपुंसकानामापाते गन्तव्यं, ते च स्त्रीनपुंसकास्विविधाः। तद्यथा-प्राकृताः, कौटुम्बिकाः, दाण्डिकाश्च। तेच प्रत्येक विधाशौचवादिनः, अशौचवादिनश्च। तत्र प्रथमतोऽशौचवादिनामापाते व्रजनीयम्. तत्रच शब्दकरणम्, आकुलगमनं, कुरुकुचा च कार्या। इयमत्र भावनाजुगुप्सितानामपि नपुंसकानामापातवतोऽसंभवे मनुष्यस्त्रीणामशौचवादिनीनामापाते गन्तवयम्, केवलं स्थविरसहितैः प्रविशद्भिश्च परस्परं महान्तः शब्दा उच्चारणीयाः, येन तास्तान् श्रुत्वा निर्गच्छन्ति, आकुलीभूताश्च तत्र प्रविशन्ति, येन 'व्याकुला अमी' इति ता दृष्टिविक्षेपाऽऽदिक न कुर्वन्ति, अगर्ताऽऽदिषु च स्थानेषु संज्ञा व्युत्सृजन्ति, यथा शेषोऽपि लोको दूरस्थः प्रेक्षते, तेऽपि च साधवस्तथा उपविशति यथा परस्पर प्रेक्षन्ते, ततः एवमात्मपरोभयदोषा न संभवन्ति। उक्तंच"तत्थ पुण थेरसहिया, आउलसदं करिति पविसंता। जह सद्देणं ताओ, निति ततो अगत्तमादीसु // ठाणेसु वोसिरिती, पेच्छतिय जह परोप्परं सव्वे। आयपरोभयदोसा, ते एवं वज्जिया होंति" ||2|| आचमनानन्तरं च कुरुकुचा कर्त्तव्या,चशब्दाद् मृत्तिकया हस्तपुतप्रक्षालनं, बहित्रिकस्य कल्प इति परिग्रहः / तदसंभवे शौचवादिनीनामपि मनुष्यस्वीणामापाते, तस्याभावे नपुंसकाकानामशौचवादिनामप्यापाते, तदसंभवेशौचवादिनामप्यापाते गन्तव्यम्। सर्वत्रापि यतनाऽनन्तरोक्तैव। इत्थिनपुंसाऽऽवाते,जा उण जयणा उ मत्तगादीया। पुरिसाऽऽवाए जयणा, सव्वे च उमत्तगादीया।।४७२।। स्त्र्यापाते, नपुंसकाऽऽपाते च या पुनर्यतना मात्रकाऽऽदिका अनन्तरमुक्ता, सैव पुरुषाऽऽपातेऽपि प्राक् मात्राऽऽदिका यतना द्रष्टव्या / एवं तावदचित्तं स्थण्डिलं चतुःप्रकारमचित्तेन पथा गम्यमुक्तम् / तदभावे मिश्रेणाऽपि पथा तदपवादेन गच्छेत् / तदभावे सचित्तेनाऽपि / तत्राऽपि यतना सैव प्रागुक्ता / उक्तं च-"एवमचित्तेण पहेण, जयणा उ भणिया चउन्भंगे। मीससचित्तपहेसु य, एस चिय भंगजयणा उ'' |1|| संप्रति मिश्र वक्तव्यं,यतोऽचित्तस्थण्डिलासंभवेऽपवादतो मिश्रमपि गम्यते, तदपि चानापातासंलोकाऽऽदिभेदतश्चतुःप्रकारम्, तस्यापि च त्रयः पन्थानः। तद्यथा-अचित्तः, मिश्रः, सचित्तश्च। तानेवाऽऽहअचित्तेणं मीसं,मीसं मीसेण छक्कमीसेणं। सचित्तछक्कएणं, मीसे चउभंगियपदेसे||४७३|| मिश्रस्थण्डिलमचित्तेन पथा गम्यं, तदभावे मिश्रेणेत्यत आहषट्कमिश्रेण षड् जीवनिकायमिश्रेण, तदभावे मिश्रे स्थण्डिले षट्कायसचित्तेन पथा गन्तव्यम्। उक्तंच-"पढममचित्तपहेणं, मीसं मीसेणं छक्कमीसेणं / सचित्तछक्कएणं, मीसं तू थंडिलं गच्छे॥१॥ तच मिश्र स्थण्डिलमध्वनि ग्रामात् ग्राम प्रति व्रजतो द्रष्टव्यम् / तत्र मात्रकैर्यतना कर्तव्या। अथ मात्रकाणि न विद्यन्ते व्युत्सृजता परिष्ठापयतां च सागारिकसंपातः, तदा धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशान् निश्राकृत्य व्युत्स्रष्टव्यम्। उक्तं च- "जहियं पुण सागारियधम्मादिपएस तहिऐं निस्साए। वोसिरइ एय मीसं, भणिय समासेणं थंडिल्लं / / 1 / / " उक्तं मिश्र स्थण्डिलम्। तदभावेऽपवादतः सचित्तमपि गन्तव्यं, तदप्यनापातासंलोकाऽऽदिभेदतश्चतुःप्रकारं, तस्याऽपि च त्रयः पन्थानः। तद्यथा-अचित्तः, मिश्रः, सचित्तश्च। तत्र येन क्रमेण गन्तव्यं, तं क्रममाहअचित्तेण सच्चित्तं, मीसेण सचित्त छक्कमीसेण / सचित्तछक्कएणं, सचित्तचउभंगियपदेसे // 474 / / सचित्तमपि स्थण्डिलं चतुर्भगिकम्, तत्र प्रथमतोऽनापातासंलोकं गन्तव्यम्, तदभावे द्वितीय, तदभावे तृतीयं, तदभावे चतुर्थमपि / तत्र यतना प्रागेवोक्ता / तत्र च प्रथमतोऽचित्तेन पथा गन्तव्यं, तदभावे तत् सचित्तं मिश्रेण पथा गम्यम् / केन मिश्रणेत्यत आह षट्कमिश्रेण षट्जीवनिकायमिश्रेण, तस्याऽसंभवे सचित्तेन पथा सचित्तं गन्तव्यम्, केन? सचित्तेन षट् केन षट् जीवनिकायैः, / अत्रापि मात्रकैर्यतना कर्तव्या / मात्रकाणामभावे व्युत्सर्गे परिष्ठापने वा सागारिकसंभवे धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशानां निश्रा कर्तव्या। उक्तं च- "ज चिय मीसे जयणा, सेव सचित्ते वि होइ कायव्वा / मत्तादिअपरिसेसा, जा धम्मादीपएसा उ॥१॥" तदेवमुक्तं स्थण्डिलमिदानीमेतसय यः कल्पिकः तमभि धित्सुराहपढियसुयगुणियमगुणिय-धारमधार उवउत्तों परिहरति / आलोणाऽऽयरियाऽऽदी, आयरिउ विसोहिकारो से।।४७५|| यस्मादजानतः प्रायश्चित्तं, तस्माद् येन सप्तसप्तकाऽऽदि सूत्रं पठितं पाठतः, श्रुतमर्थतः, तच गुणितमभ्यस्तं वाऽऽस्पदेऽगुणितं वा धारित वाऽऽस्पपदेऽनवधारितं वा, तथापि य उपयुक्तः सन् स्थडिल परिहरतिउक्तप्रकारेणोपयुक्तः परिभोगयति, स विचारकल्पिकः / तथा तेन स्थण्डिलसूत्रेण पठितेन वाऽपठितेन वा अगुणितेन था धारितेन वा अधारितेन वा उपयुक्तो वाऽनुपयुक्तो वायां विराधनां करोति, तामाचार्याऽऽदेरालोचयति, तदभावेऽन्यस्याप्युपाध्यायाऽऽदेः, आलोचिते 'से' तस्य विशोधिकारः प्रायश्चित्तप्रदानेन शुद्धिकर्ता आचार्यः / किमुक्तं भवति?-यदा आचार्यः प्रायश्चित्तं ददाति, ततः स शुद्धिमापद्यते / गतं विचारद्वारम्। बृ०१ उ०। प्रति०। पञ्चा० श्रावधानि००। ('णिग्गंथी' शब्दे 2048 पृष्ठेऽत्रैव भागे तासां स्थण्डिलं प्रतिपादितम् )
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________________ थंडिल 2378 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल स्थण्डिलगमनविधिःसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा उच्चारपासवणकिरियाए उव्वाहिजमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असतीए तओ पच्छा साहम्मियं जाएजा। "से" इत्यादि। स भिक्षुः कदाचिदुचारप्रस्रवणकर्त्तव्यतपोत्प्राबल्येन बाध्यमानः स्वकीयपादपुञ्छनसमाध्यादावुचाराऽऽदिकं कुर्यात्. स्वकीयस्याभावेऽन्यसाधम्मिकं साधुयाचेत,पूर्वप्रत्युपेक्षितं पादपुञ्छनकं समाध्यादिकमिति। तदनेनैतत्प्रतिपादितं भवतिवेगधारणं न कर्तव्यमिति। अपिचसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिल्लं जाणेज्जासअंडं सपाणं०जाव मक्कडासंताणयंसि तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उचारपासवणं वोसिरेज्जा। "से" इत्यादि। स भिक्षुरुचारप्रस्रवणाऽऽशड्कायां पूर्वमेव स्थण्डिलं गच्छेत्तस्मिश्च साण्डाऽऽदिके अप्रासुकत्वादुचाराऽऽदिन कुर्यात्। किञ्चसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिलं जाणेज्जा--अप्पपाणं अप्पवीयं०जाव मक्कडासंताणयंसि तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं वोसिरेजा।। "से" इत्यादि। अल्पाण्डकाऽऽदिके प्रासुके कार्यमिति। औद्देशिकं स्थण्डिलम्से मिक्खू वा मिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेजा-अस्सिं पडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स, अस्सिंपडियाए बहवे साहम्मिया समुद्दिस्स, अस्सिं पडियाए एगं साहम्मिणिं समुहिस्स, अस्सिं पडियाए बहवे साहम्मिणीओ समुहिस्स, अस्सिं पडियाए बहवे समणमाहणवणीवगेपगणिय 2 समुदिस्स पाणाई ४०जाव उद्देसियं चेतेति, तहप्पगारं थंडिलं पुरिसंतरकडं वाजाव बहिया णीहडं वा अण्णयरंसि वा तप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेजा। "से" इत्यादि। स भिक्षुर्यत् पुनरेवंभूतं स्थण्डिल जानीयात् / तद्यथाएक बहून् वा साधर्मिकान् समुद्दिश्य, तत्प्रतिज्ञया कदाचित् कश्चित् स्थण्डिलं कुर्यात् / तथा-श्रमणाऽऽदीन् प्रगणय्य वा कुर्यात्, तचैवंभूतं पुरुषान्तरस्वीकृतमस्वीकृतं वा मूलगुणदुष्टमुद्देशिकं स्थण्डिलमाश्रित्योचाराऽऽदिन कुर्यादिति। किञ्च-अपुरुषान्तरकृते स्थण्डिले उच्चाराऽऽदि न कुर्यात्से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा-बहवे समणमाहणकिवणवणीवगअतिही समुद्दिस्सपाणाई ४०जाव उद्देसियं चैतेति, तहप्पगारं थंडिलं अपुरिसंतरकडं०जाव बहिया अणीहडं वा अण्णयरंसि वा तहपगारास णा उच्चार--- पासवणं वोसिरेजा, अह पुण एवं जाणेजा-पुरिसंतरकडं० जाव / बहिया णीहडं वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं वोसिरेजा। "से'' इत्यादि / स भिक्षुर्या वदन्तिके स्थण्डिले पुरुषान्तरस्वीकृते उच्चाराऽऽदि न कुर्यात, पुरुषान्तरस्वीकृते कुर्यादिति। अपि च-क्रीतकृताऽऽदिस्थण्डिलम्से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिलं जाणेज्जाअस्सिं पडियाए कयं वा कारियं वा पाडिच्चियं वा छण्णं वा घटुं वा मट्ठ वा लित्तं वा समटुं वा संपधूवितं वा अण्णयरंसि तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उचारपासवणं वोसिरेज्जा। "से'' इत्यादि / स भिक्षुः साधुमुद्दिश्य क्रीताऽऽदावुत्तरगुणाशुद्धे स्थण्डिले उचाराऽऽदि न कुर्यादिति। किञ्च-यत्र गृहपतिपुत्राऽऽदय आगच्छन्तिसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिलं जाणेज्जा-इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा मूलाणि वा० जाय हरियाणि वा अंतातो वा बाहिं गीहरिति,वाहीओ वा अंतो साहरंति, अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेजा। "से'' इत्यादि / स भिक्षुहपत्यादिना कन्दाऽऽदिके स्थण्डिलानिष्कारयमाने तत्र वा निक्षिप्यमाणे नोचाराऽऽदि कुर्यादिति / तथासे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिलं जाणेज्जा-खंधंसि वा पीढ़सि वा मंचंसि वा मालंसि वा अट्टसि वा पासायंसि वा अण्णयरंसि वा थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेजा। "से" इत्यादि / स भिक्षुः स्कन्धाऽऽदौ स्थण्डिले नोच्चाराऽऽदि कुर्यादिति। किञ्चसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेजाअणंतरहियाए पुढवीए ससणिद्धाए पुढवीए ससरक्खाए पुढवीए मट्टियाए मक्कडाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुए चित्तमंताए कोलावासंसि वा दारुयंसि वा जीवपइट्टियंसि वा०जाव मक्कडासंताणयंसि अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेजा। "से" इत्यादि। स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात् / तद्यथाअनन्तरिताया सचित्तायां पृथिव्यां तत्रोच्चाराऽऽदिनकुर्यात्, शेष सुगमम्। नवरं / (कोलावासंसि त्ति) घुणवासम्।। अपिच-यत्र गृहकन्दाऽऽदीनि परिशाटयन्तिसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा-इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा० जाव वीयाणि वा परिसा.सु वा, परिसाउँति वा, परिसाडिस्संति वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसिणो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा /
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________________ थंडिल 2376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल 'से'' इत्यादि। स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिल जानीयात्। तद्यथायत्र गृहपत्यादयः कन्दबीजाऽऽदिपरिक्षेपणाऽऽदिकाः क्रियाः कालत्रयवर्त्तिन्यः कुर्युः, तहिकाऽऽमुष्मिकापायभयादुचाराऽऽदिन कुर्यादिति। तथा यत्र गृहपतिपुत्राः शाल्याऽऽदीनि वपन्तिसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिल जाणेजा-इह खलु गाहावई वा गाहावतीपुत्ता वा सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा पइरिंसु वा, पइरिति वा, पइरिस्संति वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। "से" इत्यादि। यत्र च गृहपत्यादयः शल्याऽऽदीन्युप्तवन्तो, वपन्ति, वप्रस्यन्ति वा तत्राप्युचाराऽऽदि न विदध्यादिति। किंच-यत्र कचवराऽऽदिपुजाःसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिल जाणेज्जाओमायाणि वा घसाणि वा भिलुहाणि वा विज्जुलाणिवा खाणुयाणि वा कडयाणि वा पगड्ढाणि वा दरीणि वा पदुग्गाणि वा समाणि वा विसमाणि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि णो उचारपासवर्ण वोसिरेजा। "से'' इत्यादि। स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्। तद्यथाआमोकानि कचवरपुजाः, घसा बृहत्यो भूमिराजयः, भिलुहाणि श्लक्ष्णभूमिराजयः, विजुलं पिच्छलं, स्थाणुः प्रतीतः, "कडयाणि'' इक्षपोतलिकाऽऽदिदण्डकः, प्रगत महागrः, दरी प्रतीता, प्रदुर्गाणि कुड्यप्राकाराऽऽदीनि / एतानि च समानि वा विषमाणि वा भवेयुः, तदेतेष्वात्मसंयमविराधनासंभवान्नोचारा-ऽऽदि कुर्यादिति / किंच मानुषरन्धनाऽऽदिस्थण्डिलानिसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिल जाणेजा-माणुसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा वसभकरणाणि वा अस्सकरणाणि वा कुकुडकरणाणि वा मक्कडकरणाणि वा लावयकरणाणि वा वट्टयकरणाणि वा तित्तिरकरणाणि वा कवोयकरणाणि वा कपिंजलकरणाणि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेजा। "से'' इत्यादि। स भिक्षुर्यत्पुनरेवभूतं स्थण्डिलं जानीयात्। तद्यथामानुषरन्धनानि चुढ्यादीनि, तथा महिष्यादीनुदिश्य यत्र किञ्चिस्क्रियते, तथा तत्र स्थाप्यन्ते, तत्र लोकविरुद्धप्रवचनोपघाताऽऽदियाद् नोच्चाराऽऽदि कुर्यादिति। __ तथा–वैहानसस्थानाऽऽदि आरामाऽऽदि परिहरेत्से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिल जाणेज्जा--वेहाणसहाणेसु वा गिद्धपिट्ठट्ठाणेसु वा तरुपतणट्ठाणेसु वा मेरुपवडणट्ठाणेसु वा विसभक्खणट्ठाणेसु वा अगणिकंडयट्ठाणेसु वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिल जाणेज्जाआरा माणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंमाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेजा।। "से'' इत्यादि। स भिक्षुर्विहानसस्थानानिमानुषोल्लम्बनस्थानानि, गृध्रस्पृष्टस्थानानि यत्र मुमूर्षवो गृध्राऽऽदिभक्षणार्थ रुधिराऽऽदिलितदेहा निपत्याऽऽसते, तरुपतनस्थानानि यत्र मुमूर्षव एवानशनेन तरुवत्पतितास्तिष्ठन्ति, तरुभ्यो वा यत्र पतन्ति, एवं मेरुपतनस्थानान्यपि। मेरुश्चात्र पर्वतोऽभिधीयत इति / एव विषभ-क्षणाग्निप्रवेशस्थानाऽऽदिषु नोचाराऽऽदि कुर्यादिति। अपिच-"से" इत्यादि। आरामदेवकुलाऽऽदौ नोचाराऽऽदि विदध्यादितिः तथा अट्टालकाऽऽदिषुसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिल जाणेज्जा-अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अण्णयरंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। "से'' इत्यादि / प्राकारसम्बन्धिन्यट्टालकाऽऽदौ नोचाराऽऽदि कुर्यादिति। किञ्चसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिल जाणेजा-तियाणि वा चउक्काणि वा चच्चराणि वा चउम्मुहाणि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। त्रिकचत्वराऽऽदौ च नोचाराऽऽदि व्युत्सृजेदिति। किञ्चसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिल जाणेज्जा-इंगालडाहेसु वा खारडाहेसु वा मडयडाहेसु वा मडयथूभियासु वा मडयचेइएसु वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। 'से' इत्यादि। स भिक्षुरङ्गारदाहस्थाने श्मशानाऽऽदौ नोचाऽऽरादि विदध्यादिति। अपिच-पङ्काऽऽद्यापतनेषुसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिल जाणेजाणदियाययणेसु वा पंकाययणेसु वा उग्घाययणेसु वा सेयणवहंसि वा अण्णयरंसितहप्पगारंसिथंडिलंसिणो उच्चारपासवणं दोसिरेज्जा। "से' इत्यादि / नद्यायतनानि यत्र तीर्थस्थानेषु लोकाः पुण्यार्थ स्नानाऽऽदि कुर्वन्ति / पङ्कायतनानि यत्र पङ्किलप्रदेशे लोका धर्मार्थ लोटनाऽऽदिक्रियां कुर्वन्ति, उद्घायतनानि यानि प्रवाहत एव पूज्यस्थानानि,तडागजलप्रवेशोऽथ मार्गो वा सेचनपथेऽवनिकाऽऽदौ नोचाराऽऽदि विधेयमिति। तथा मृत्खन्यादिषुसे मिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण थंडिल जाणेजाणवि-- यासु वा मट्टियखाणियासु णवियासु गोप्पयलेहियासु गवायणीसु वा खाणीसु वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
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________________ थंडिल 2380- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंडिल "से'' इत्यादि। स भिक्षुरभिनवासु मृत्खनिषु, तथा नवासु गोप्रलेह्यासु गवादनीषु, सामान्येन वा गवादनीषु वा खनिषु नोच्चाराऽऽदि विदध्यादिति। किञ्चसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिल जाणेज्जाडागवचंसि वा सागवचंसि वा मूलगवचंसि वा हत्थकरवचंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसिथंडिलेणो उच्चारपासवणं वोसिरेजा। "से'' इत्यादि / 'मागे त्ति' मागप्रधानं शाकं पत्रप्रधान तु शाकमेव, तद्वति स्थाने मूलगाऽऽविति च नोचाराऽऽदि कुर्यादिति। तथासे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिल जाणेजा-असणवणंसि वा सणवणंसि वा धायइवणंसि वा केयइवणंसि वा अंबवणंसिवा असोगवणंसि वा णागवणंसि वा पुण्णागवणंसि वा चुण्णगवणंसि वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु वा पत्तोवएसु वा पुप्फोवएसु वा फलोवएसु वा वीओवएसु वा हरिओवएसु वा णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। "से'' इत्यादि। अशनो वीयकः, तद्वनाऽऽदौ च नोच्चाराऽऽदि कुर्यादिति। तथा पत्रपुष्पफलाऽऽद्युपवेष्टिते कथं वोचाराऽऽदि कुर्यादिति दर्शयति स्वपात्रं गृहीत्वा यथा ___कर्त्तव्यमुचारप्रस्रवणम्से भिक्खु वा भिक्खुणी वा सयपाययं वा पारपाययं वा गहाय से तमायाए एगंतमवक्क मेजा, अणावायं सि असंलोइयं सि अप्पपाणंसिजाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा उवसायंसि ततो संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरेजा, वोसिरित्ता से तमादाय एगतमवक्कमेजा,अणावायंसि० जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा झामथंडिलंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि अचित्तंसि ततो संजयामेव उचारपासवर्ण परिट्ठवेजा, इयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामरिगयं०जाव जएज्जा सि त्ति बेमि। "से" इत्यादि / स भिक्षुः स्वकीय परकीयं वा पात्रकं समाधिस्थान गृहीत्वा स्थण्डिलमनापातमसंलोकं गत्वोच्चार, प्रस्रवणं वा कुर्यात्प्रतिठापयेदिति। शेषमध्ययनसमाप्ति यावत पूर्ववदिति। आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ० वृका (स्थविरकल्पिकाः स्थण्डिले गुदप्रमार्जनं कुर्वन्ति, न तु जिनकल्पिका इति लेव' शब्दे वक्ष्यते) (सार्थेन सह गमने रात्रिविहारे सर्वथैव स्थण्डिल न प्रार्थयन्ते, धर्माधर्माऽऽकाशास्तिकायप्रदेशेषु अपि व्युत्सृजन्ति 'विहार' शब्दे वक्ष्यन्ते) (निर्ग्रन्थानां निर्गन्धीनां च मिथ उपाश्रयगमने स्थण्डिलदोषा 'वसहि शब्द वक्ष्यन्ते (रात्रौ विचारभूमी नगन्तव्यमिति 'विहार' शब्दे वक्ष्यते) (स्थण्डिलयतना नगरोपरोधे ‘उवरोह' शब्दे द्वितीयभागे 610 पृष्ठे उक्ता) ('पञ्जुसणा' शब्दे तात् कालिक्यो भूमयो ग्राह्याः) (स्थण्डिले उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापना परिट्ठवणा' शब्दे दर्शयिष्यते) (स्थण्डिलविषये शिष्यपरीक्षा 'आलोयणा' शब्दे द्वितीयभागे 410 पृष्टे गता) संज्ञा व्युत्सृज्याऽऽचायें ण वसती रक्षणीयेति 'वसहि' शब्दे एकाकिना वसतिरक्षणप्रस्तावे वक्ष्यते) ___गोचरचर्याविषयःगोअरग्गपविट्ठो य, वच्चं मुत्तं न धारए। ओगासं फासुअंनच्चा, अणुन्नविअवोसिरे / / 16 / / गोचराग प्रविष्टस्तु वर्षों मूत्रं वा न धारयेत्, अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वाऽनुज्ञाप्य व्युत्सृजेदिति। अस्य विषयो वृद्धसंप्रदायादवसेयः। स चाऽयम्-पुव्यमेव साहुणा सन्नाकाइओवयोग काऊण गोयरे पविसिअव्वं / कहंचि ण कओ, कए वा पुणो होज्जा, ताहे वच्च मुत्तं न धारेयव्वं, जओ मुत्तनिरोहे चक्खुवधाओ भवति। वचनिरोहे जीविओवघाओ असोहणा अ आयविराहणा। तओ भणिअं-"सव्वत्थ संजममित्यादि। अओ संघाडयस्स सयभाणाणि समप्पिअपडिस्सए पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा वोसिरिजा। वित्थरओ जहा ओहणिज्जुत्तीए।" इति सूत्रार्थः ||16|| दश०५ अ०॥ आचार्येणानेकवारं स्थण्डिलभूमौ न गन्तव्यमिति 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 15 पृष्ठे उक्तम्) (ग्लानार्थ गच्छतो मध्ये व्युत्सर्गो 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 666 पृष्ठे उक्तः) श्रावकस्य मलोत्सर्गःतत्र च मलोत्सर्गो मौनेन निरवद्यार्हस्थानाऽऽदिविधिनैवोचितः। यतः"मूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजनम्। सन्ध्याऽऽदिकर्म पूजा च, कुर्यात् पञ्च च मौनवान' / / 1 // विवेकविलासेऽपि-"मौनी वस्त्राऽऽवृतः कुर्याद्, दिनसन्ध्याद्वयेऽपि च / उदड्मुखः शकृन्मूत्रे, रात्रौ याम्याननः पुनः / / 1 / / इति / ध०२अधिन अत्राऽऽहजे भिक्खू उच्चारपासवणं परिढवित्ता ण पुंछति, ण पुंछतं वा साइजइ।।१४२।। ण पुंछतिण णिदुगलेति। जे मिक्खू उद्यारपासवणं परिट्ठवित्ता कट्टेण वा कलिंवेण वा अंगुलियाए वा सिलागएण वापुंछइ, पुंछतं वा साइजइ // 143 / / कलिंबो-वंसकप्परी अण्णतरकदृघडिया सलागा, तस्स मासलहुँ। गाहाउच्चारमायरित्ता, जे भिक्खू ण पुंछती अहिट्ठाणं / पुंछिज्ज व अविहीए,सो पावति आणमादीणि // 303 / / आयरित्ता बोसिरित्ता, अविधी कट्टातिया विदियसुत्ते। गाहाःपच्छालणं दवेणं, जुत्तमजुत्तेण भावणादोसा। संजम आयविराहण , अविधीए पुंछणे दोसा / / 304||
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________________ थंडिल 2381 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंभणय अणडगलिते अतीव लच्छारियं, दवेण जुत्तेण थोवेणेति भणियं होति, तेण ए सुज्झति / असुद्धे दिट्ट उड्डाहो, सेहो वा विप्परिणमेञ्ज / अह अजुत्तेण बहुणा दवेण धोवति तोप्लावनादिदोसा,एते अपुंछिजते दोसा। अविधीए पुछिते इम पच्छद्धं, अविधिपुछिएहिं आयविराहणा / अह जीरकाओ ति संजमविराहणा य ! इमा अविधीकट्ठण कलिंवेण व, पत्तसलागाएँ अंगुलीए वा। एसा अविधी मणिता, डगलगमादी विधी चेव / / 305 / / पतं पलासपत्ताऽऽदि, डगलेण वा, चीरेण वा, अंगुलिए वा एसा तिविधा विधी। डगला पुण दुविधा-संबद्धा भूमीए हुज, असंबद्धा वा होज / जे असंबद्धा ते तिविधा-उक्कोसा तिउवला लेटू मसिणा मज्झिमा, इट्टालं जहाण। जम्हा एते दोसातम्हा पुंछाऽऽदाणं, काऊणं डगलगाण छड्डेजा। उत्थाणोसहपाणे, असतीव सण कुज्ज आदाणं / / 306 / / आयाण डगलगादीण छडेज उच्चार वोसिरिजा / वितियपद गाहा पच्छद्ध-उत्थाणं अतिसारो, ओसहपीतो वा ण गेण्हति, असती वा ण गेण्हति। जे भिक्खू उचारपासवणं परिट्ठवित्ता णायभइ, णायमंतं वा साइजइ।।१४४|| जे भिक्खू उचारपासवणं परिट्ठवित्ता तत्थेव आयमति, आयमंतं वा साइज्जइ॥१४५|| जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिट्ठवित्ता अइदूरे आयमति, आयमंतं वा साइज्जइ॥१४६॥ तिण्णि सुत्ता-उचारे वोसिरिजमाणे अवस्सं पासवणं भवति त्ति तेण गहितं पासवणं पुंछाओ अणगारिए णायमंति, जहा-उच्चारे तत्थेव त्ति, थंडिले जत्थ सण्णा ओसरिया, अतिदूरे हत्थसयपमाणमेत्ते। गाहाउच्चारं वोसिरित्ता,जे भिक्खू णेव आयमेजा वि। दूरे अचासण्णे, सो पावति आणमादीणि / / 307 / / आयमणं पिल्लेवणं, आसएणं तत्थेव थंडिले। अणायमंते इमे दोसाअयसो पवयणहाणी, विप्परिणामे व सेहएँ दुगुंछा। दोसा अणायमंते, दूराऽऽसण्णाऽऽयमंते य॥३०८।। अयसा-इमे असोइणो त्ति ण एते पिल्लेवें ति, ण पव्वयंति, अण्णे वि पब्वयते वारेति। पवयणहाणी-हंसणे चरिते वा अभुवगमे काउंकामस्स विप्परिणामो भवति, सेहाण वा मा एतेहिं विट्टलेहि सह संफास करेह, एसा कुच्छा। दूरे वि एते दोसा, आसपणे वि एते चेव दोसा / कह? सागारिओ पासति, संजओ आसपणे वोसिरिउं दूरं गतो, सागारिओ वि जोविउंपराभग्गो, ण णिल्लेवंति लोगस्स कहेति। आसण्णे तत्थेव संजतो णिल्लेवेउं गतो, सागारिए आगंतुं पलोइयं०जाव मुत्तियं पेक्खति, एत संकातिअंण णिल्लेवति, पच्छा लोगस्स कहेति। गाहाउत्थाणोसहपाणे, दवे असतीए व णायमेजाहि / थंडिल्लस्स व असती, आसण्णे वा वि दूरे वा // 306 / / अन्नरस थंडिलस्स असति तत्थेव निल्लेवेति, थडिलाओ वा दूरं गंतुं निल्लेवेति, सागारिओ पुणो वा लेवावेति / जे चिक्खू उच्चारपासवणं परिट्ठवित्ता परं तिण्हं णावापूराणं आयमइ, आयमंतं वा साइजइ / / 147 / / णाव त्ति पसती, ताहि तिहिं आयमियव्वं / अण्णे भणंति-अंजली पढमणावापूर तिहा करेति, अवयवे वि किंचित् वितियं णाणपूरं तिहा करेत्ता सव्वावयव विसोहिति, ततियं णावापूरं तिहा करेत्ता तिणि कप्पे करेति सुद्धं, अतो परं जति तो मासलहु। गाहाउच्चारमायरित्ता, परेण तिण्हं तु णावपूराणं / जे भिक्खू आयामति, सो पावति आणमादीणि / / 310 / / इमे दोसाउच्छोलणुप्पिलावण-पडणं तसपाणतरुगणादीणं। कुरुवयदोसा य पुणो, परेण तण्हाऽऽयमंतस्स // 311 / / उच्छोलणा पधोविस्स दुलभा, सोवि तारिसयस्स उच्छोलणा दोसा भवति, पिपीलिगाऽऽदीणं वा पासणाण उप्पिलावणा हवति, खिल्लगंधे तसा पडति, तरुगणपत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा पति, आतिग्गहणेणं पुढविआउतेउवाऊणय, यत्राग्निस्तत्र वायुना भवितव्यमिति कृत्वा ऊरुवयकरणे य पाउसत्तं भवति। __कारणे अतिरित्ते ण आयमेवितियपद मसहरो-गअरिसा सागारसोयवादीसु। उत्थाणोसहपाणे, परेण तिण्हाऽऽयमेजासि॥३१२।। जेण वा णिल्लेव णिग्गंध भवतीत्यर्थः / नि०चू० ४उ०। यदुदयेनाऽऽत्मा सदसद् विवेकविकलत्वात् स्थण्डिलवद् भवति स स्थण्डिलः। क्रोधे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०) थंडिल्ल (देशी) मण्डले, दे०ना०५ वर्ग 25 गाथा। थंव (देशी) विषमे, देवना०५ वर्ग 24 गाथा। थंभ पुं०(स्तम्भ) "थठावस्यन्दे" ||८/राह|| इति स्यन्दाभाव-वृत्ती स्तम्भेस्तस्य थकारठकारौ। 'थंभो' "ठभो / प्रा०२पाद / उत्तमजातीयोऽह कथमेतेषा भिक्षाचराणा हीनजातीयानां पार्वे गच्छामीत्यादिलक्षणे जात्याद्यभिमाने, आ०म०१अ०२खण्ड। उत्त०। आव०।दश अहड् कारे, उत्त०११ अ०। अवमाननायाम्, भ०१२ श०५ उ०। गर्वे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० शैलदारुमयाऽऽदौ, आचा०२ १०१चू०१अ०७उ01 स्थाणौ, स्था०४ठा०२उ०॥ थंभण न०(स्तम्भन) ऊर्धीकरणे, औ०। थंभणय न०(स्तम्भनक) भवभयहराऽऽख्यपार्श्वनाथस्थाने पुरभेदे, ती०४३ कल्प। 'थंभणयकप्पमज्झे, जं संगहियं न वित्थरभएणं / तं सिरिजिणपहसूरी, सिलुछमिव किं पि जपेइ॥१॥"
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________________ थंभणय 2382- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थंभणया ववखारपव्वए रयणसीहराया, तस्स भोपालनामिअंधूअं रूवला- भणिअ-एआओ नव सुत्तकुकुडीओ उम्मोहेसु। पहुणा भणिअन सक्कमि / वण्णसंपन्नं दखूण ताए सयाणुरायस्स तं सेवमाणस्स वा सुमिणो दिट्ठो, तीए भणिअं-कह न सक्केसि? अज्ज वि वीरतित्थं वीर ! पभावेसि, पुत्तो नागऽजुणो नाम जाओ। सो अ जगएण पुत्तसिणेहमो-हिअमणेण नवंगवित्तीओ अकाहिसिा भय वया भणियं-अहमेवंविहसरीरे काहामि / सव्वासि महो महीणं फलाई मूलाई दलाई कंदाइं च भुजाविओ। देवया वुत्थंभणवपुरे सेढीनइउवकंठे खंखरपलासमज्झे सयं सयंभूसितप्पभावेणं सो महासिद्धिहिं अलंकिओ सिद्धपुरिस त्ति विक्खाओ पुहविं रिपासनाहो अत्थइ, तत्थ पुरे देवे वंदेह, जेण सुत्थसरीरा होह। तओ विअरंतो सालवाहणे रन्नो कलागुरू जाओ। सो अगयणगामिणिविजाअ- गोसे साहू असावयसंघेण वंदिया पहुणा भणियं-थंभणए पासनाह ज्झयणत्थं पालित्तयपुरसिरिपालआ-यरिए सेवेइ। अन्नया भोअणावसरे वंदिस्सामो। संघेण विनायंनूणं कोइ उवएसो पहू,णं, तो एवं आइसति। पायप्पलेवबलेण गयणे उप्पइए पासइ, अट्ठावयाई तित्थाणि नमंसिआ तओ भणि-संघेण अम्हे वि वंदिस्सामो / तओ बाहणेण गच्छंतरस सट्ठाणमुवागयाण तेसिं पाए पक्खालिऊण सत्तुत्तरसयमहासहाणं पहुणो थणयं सरीरं सुत्थं जायं। अओ धवलक्कयाओ परओ चरणचारेण आसायणवन्नगंधाईहि नामाई निच्छइऊण गुरूवएसं विणा वि पायं लेवं विहरता पत्ता थभणपुरंगुरू, सावया सव्वत्थपासनाहमवलोइंति। गुरुणा काउंकुकुडपोउव्व उप्पयंतो अवडतमे निवडिओ। वणजजरिअंगो गुरूहिं भणिआखंखरपलासमज्झे पलोएहि, तेहिं तहा कए दिट्ट सिरिपासनापुट्ठो-किमयं ति? तेण जहट्टिए वुत्ते तस्स कोसल्लबमक्कमित्ता आयरिआ हपडिमामुह। तत्थ य पइदिणं एगा धेणू आगम्म पडिमामत्थर खीरं झरइ तस्स सिरे पउमहत्थं दाउं भणंति-सट्टिअंतदुलोदगेण ताणि ओसहाणि तओ पहिहिं, सावएहिं जहा दिट्ट निवेइअंगुरुणो। अभयदेवसूरी वि वडित्ता पायपलेवं काउंगयणे चक्किआसि त्ति / तओ तं सिद्धिं पाविअ तत्थ गंतुं मुहदसणमेत्तेण थोउमाढत्तो-"जय तिहुयणवरकप्परुक्ख' परितुट्टो पुणो कया वि गुरुमुहाओ सुणेइ-जहा सिरिपासनाहपुराओ इचाइतक्कालिअवत्तेहिं / तओ सोलससु वित्तेसु कएसु पश्चक्खी हूआ साहिज्जतो सव्वइच्छीलक्खणोवलविखजंतो अ महासई वि लयाए सव्वंगपडिमा / अओ चेव-"जय पचक्खजिणेसर त्ति" सत्तरसमे वित्ते अमद्दिजंतो रसो को डिवेही हवइ / तं सोऊण सो पासनाहपडिम पढि। तओ वत्तीसाए पुण्णाए अंतिमवित्तदुगं अईव देवयाइड्डिकर ति अन्नेसिउमारखो। इओ अबारबईसमुद्दविजय-दसारेण सिरिनेमिनाह- नाऊण देवयाए विन्नत्तं न य क्त्तीसाए वि वित्तेहिं सन्निज्झं करिस्सामि मुहाओ महाऽइसय नाऊण रयणमई सिरिपासनाहपडिमा पासायम्मि ति, अंतिमवित्तदुर्ग उरसारेह, मा अम्हं कलियुगे आगमणं दुक्खाय होति। ठवित्ता पूइआ / वारवईदाहाणंतरं समुद्देण पाविया सा पडिमा तहेव पहुणा तहा कयं। संघेण सह चिइवंदणा कया। तत्थ संघण उत्तुंगं देवहरयं समुद्दमझे ठिआ। कालेण कंतीवासिणो धणवइनामस्स संजतिअस्स कारिअं / तओ उवसंतरोगेण पहुणा तोसिओ सिरिपाससामी, तं च जाणवत्तं देवयाइ-सयाओ खलिअंजत्थ जिणबिंबं चिट्टइत्ति दिव्वबायाए महासिद्ध पसिद्ध। कालाइक्कमेण क्या ठाणाईणं नवंगाणं वित्ती, आयारंगनिच्छियं नाविए तत्थ परिक्खिविअ सत्तहिं आमतंतूहिं संदाणिअ सुअडंगाणं तु पुट्विं पि सीलंगाऽऽयरिएण कया आसि। तओ परं चिर उद्धरिआ पडिमा, निअनयरीए नेऊण पासायम्मि ठाविआ चिंताइरित्त- वीरतित्थ पभाविअ पहुण त्ति।" इति स्तम्भनकल्पशीलोञ्छः / ती० लाभपहिडेण पूइज्जइ पइदिणं / तओ सव्वाइसाइ तं बिंब नाऊण नाग- 52 कल्प। जुणो सिद्धरससिद्धिनिमित्त अवहरिऊण सेढीनईए तडे ठाविसु / तस्स "दढवाहिविहुरिअंगा, अणसणगहणत्थमाहविअसंघा! पुरओ रससाहणत्थं सिरिसालवाहणरन्नो चंदलेहाभिहाणं महासईदविं नवसुत्तकुक्कुडिविडो-क्खणाय भणिया निसि सुरीए / / 1 / / सिद्धवंतरसनिषेण तत्थ आणाविअपइनिसं रसमद्दणं कारेइ। एवं तत्थ दो वि अ हत्थअसत्थी, नवंगविवरणकहावमुक्तरिया। भुजो भुञ्जो गयागएणं तीए बुद्ध ति पडिवन्नो / सा तेसि ओसहाणं थंभणयपासवंदण, उवइट्ठाऽऽरोग्गविहुणो य॥२॥ मद्दणकारणं पुच्छेइ। सोअकोडीरसवेहे वुत्ततं जहिट्ठिअंकहेइ। अण्णया थंभणयाओ वलिया, धवलक्कपुराउ पयचरणचारी। दुण्ह निअपुत्ताणं तीए निवेइअं-जहा एअस्स रससिद्धी होहि त्ति / ते थभणपुरम्मि पत्ता, सेढीतडजरयलाभवणे // 3 // रसलुद्धा निअरज्जं मुत्तुं नागज्जुण-पासमागया कइअवेण त रसं घित्तुमणा गोपयवरणुवलक्खिय-भुवि 'जय तिहुअण' थयद्धपचक्खे। पच्छन्नवेसा जत्थ नागजुणो भुंजइ तत्थ रससिद्धिवत्तं पुच्छंति। सा य पासे पूरिअथवणा, गोविअ सकलं च बित्तदुडा / / 4 / / तज्जाणणत्थं तद्दट्टुं सलूणं रसवई साहेइ, छम्मासे अइकंते खारि त्ति संघ कराविअ भवणे, गयरोगा ठविअ पासपहुपडिमा। दूसिया तेण रसवई, तओ इंगिएहिं रसं सिद्ध नाऊण पुत्ताणं निवेइअ तीए / तेहिं च परंपराए नायं, जहा-वासुगिणाए अस्स दज्झंकुराओ मचू सिरिअभयदेवसूरी, वि जयंतु नवंगवित्तिकरा / / 5 / / कहिओ त्ति, तेण च सत्थेण नागजुणो निहओ। जत्थ य रसो, थभिओ यन्मार्गेऽपि चतुःसहस्रसरदो देवाऽऽलये, योऽर्चितः, तत्थ थभणयं नाम नयरं संजायं। तओ कालंतरेण तं बिंब वयण-मित्तविज स्वामी वासववासुदेववरुणः स्वर्वाधिमध्ये ततः। भूमिअंतरिअंग संवुतं / / इओ अ चंदकुले सिरिवद्धमा-णसूरिसीसजि कान्त्यामिभ्यधनेश्वरेण महता नागार्जुनेनार्चितः , णेसरसूरीणं सीसो सिरिअभयदेवसूरी गुज्जररन्नाए संभाणयाणे विहरिओ। पायात् स्तम्भनके पुरे स भवतः श्रीपार्श्वनाथो जिनः / / 1 / / " तत्थ महावाहिवसेण अईसाररोगे, जाए, पचाऽऽसन्ननगरगामे हितो ती०६ कल्प। पविखपडिक्कमणत्थमागंतुकामो विसेसेण आहूओ, मिच्छादुमडदाणत्थं थंभणपुर न०(स्तम्भनक) भवभयहराऽऽख्यपार्श्वनाथस्थाने पुरभेदे, सव्यो विसावयसंघो। तेरसीअद्धरत्ते अभणिअं-पहुणो सासणदेवयाए / ती०६ कल्प। भयवं ! जग्गहसु / अह तओ मंदसरेणं वुत्तं पहुणा-के तुमे ? निद्यादेवीए | थंभणया स्त्री०(स्तम्भनता) ग्रीवायां धमन्यादीनां तिष्ठ तो
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________________ थंभणया 2383 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थय वाऽऽत्मनो न प्रदेशानामवरोधे, प्रज्ञा०१६ पद / आ०म०। सूत्रका भवनपतिनिकाय, प्रज्ञा०२ पद। स्था०। 'छावत्तरि थणियकुमारावासथंभणी स्त्री०(स्तम्भनी) स्तम्भनकारिणि विद्याभेदे, सूत्र०२ श्रु०२ | सयसहस्सा पण्णत्ता।" भ०१६ श० १३उ०। अ० ज्ञा०। थणियसह पुं०(स्तनितशब्द) मेघगर्जित, स्था०३ टा०१ उ०। थंमिय त्रि०(स्तम्भित) स्तब्धीकृते, स्था०८ठा०। 'कडगतुडि- थत्तिअ (देशी) विश्रामे, देना०५ वर्ग 26 गाथा। यथभियभुया।" प्रज्ञा०२२ पद। औ० स०। प्रज्ञा०। आ०म०। थद्ध त्रि०(स्तब्ध) मानवति, स०३० सम०। अहङ् कारिणि, उत्त०१७ थक्क धा०(फक्व) गतौ, "फक्कस्थक्कः" / / 17 / / इति फक्कते- अ० ग०। यत्किञ्चनकारिणि मानिनि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। स्तब्धकृते स्थक्काऽऽदेशः / प्रा०४ पादा अवसरे, दे०ना०५ वर्ग 24 गाथा। थक्कइ द्वितीयदोषदुष्ट वन्दने, बृ०३उ०। आव०। प्रव०। स्तब्ध-स्तावत्-द्रव्यतो, फछति। "धातवोऽऽर्थान्तरेऽपि / / 8 / 4 / 25 / / इति नीचां गतिं करोति भावतश्च / भवत्यत्र चतुर्भड्किा / तद्यथा- द्रव्यतः स्तब्धो न भावतः, विलम्बयति वा तदर्थे बोद्धव्याः। प्रा०४ पाद। भावतः स्तब्धो न द्रव्यतः। अपरो द्रव्यतो भावतश्च / अन्यः पुनर्न द्रव्यतो *स्था धा०। गतिनिवृत्तौ, "स्थष्ठा-थक्कं -चिट्ठ-निरप्पाः" नाऽपि भावत इति / अत्र चरमो भङ्गः शुद्धः / शेषभङ्ग केष्वपि ||4|16|| इतितिष्ठतेस्थक्काऽऽदेशः। "थकई" तिष्ठति। प्रा०४ पाद। भावतस्तब्धोऽशुद्ध एव / द्रव्यतस्तु भक्तो विकल्पितः उदरपृष्ठस्थूलप्रस्तावे, पुंगा 'थक्ने आतो ति नाऊण' व्य०६उ०। देशोऽवसरः विवादिवाधितोऽवनामं कर्तुमशक्तः कारणिकः स्यादपि स्तब्धो न तु स्थक्कमिति पर्यायाः। विशे० निष्कारणिक इति भावः / बृ०३उ० थक्कारेंत त्रि०(थक्कारयत्) 'थक्का' इत्येवं महान्तं शब्दं कुर्वति, आ०म० थभरदह पुं०(स्तब्धरहद) अयोध्यायां स्वर्गद्वारस्थाने हृदे, "गोमुह१अ०१खण्ड। जक्खो जत्थ थब्भरदहो सरऊनईए समं मिलितो सग्गदुवारं ति थगण न०(स्थगन) पिधाने, स्था०४ठा०४उ०। संवरणे, आव०६अ०) पसिद्धिमावन्नो।" ती० 12 कल्प। थगिय नि०(स्थगित) पिहिते, दश०५ अ०१3०1 संवृते, परित्यक्ते, / थमिय (देशी) विस्मृते, देवना०५ वर्ग 25 गाथा। आ०म०१ अ०रखण्ड। आव० थय पुं०(स्तव) 'ष्टुम् स्तुतावित्यस्मादच्। आ०चू०३अ० गुणकीर्तने, व्या थग्गया (देशी) चञ्चौ, दे०ना० 5 वर्ग 26 गाथा। अथ स्तुतिस्तवयोर्विशेषमभिधित्सुराहथग्घ पु०(देशी) गाधे, दे०ना०५ वर्ग 24 गाथा। एगदुगे तिसलोका, थुतीसु अन्नेसि होइ जा सत्त। थट्टी (देशी) पशौ,दे०ना०५ वर्ग 24 गाथा। देविंदत्थयमादी, तेणं तु परं थया होइ / / थण पुं०(स्तन) वक्षोजे, पयोधरे, मांसगोले, ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। एकश्लोका, द्विश्लोका त्रिश्लोका वा स्तुतिर्भवति। परतश्चतुः श्लोकाऽऽअनु०। कुचे, है०। आव०। दिकः स्तवः / अन्येषामाचार्याणां मतेन एकश्लोकाऽऽदिकः यावत् सप्त थणगच्छीर न०(स्तनकक्षीर) पयोधरदुग्धे, त०। स्तवः, यथा देवेन्द्रस्तवाऽऽदयः / आदिशब्दात्कर्मस्तवाऽऽदिपरिग्रहः / थणण न०(स्तनन) रारटने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२उ०ा आक्रन्दने, सूत्र०१ व्य०७ उ०। 'संथा। थओ चउविहो, णामठवणाओ गताओ" / श्रु०५ अ०१3०। आक्रोशे, आचा०१ श्रु०६ अ०१3०1 सूत्रा आ०चू०१अ०आ०म०। सूत्रा पञ्चा०। सशब्दनिःश्वोरसे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३उ०। अधुना स्तवनिक्षेपप्रतिपादनार्थमाहथणदोस पुं०(स्तनदोष) कायोत्सर्गदोषभेदे, "ओच्छाइऊण य थणे, नाम ठवणा दविए, भावे य थयस्स होइ निक्खेवो। चोलगपट्टेण ठाइ उस्सग्गं / ' अवच्छाद्य स्थगयित्वा स्तनौ चोलपट्टन दव्वथओ पुप्फादी, संतगुणुक्कित्तणा भावे // 3 // देशाऽऽदीना रक्षणार्थम् / अथवा-अनाभोगदोषेण वा अज्ञानदोषेण (नामं ति) नामस्तवः, स्थापनास्तवः, द्रव्यविषयो द्रव्यस्तवः। (भावे करोत्युत्सर्गमिति स्तनदोषः / / प्रव०५ द्वार। त्ति) भावविषयो भावस्तवः / इत्थं स्तवस्य निक्षेपो न्यासो भवति, थणपीलण न०(स्थनपीडन) पयोधरचम्पने, त० चतुष्प्रकार इति शेषः / तत्र क्षुण्णत्वान्नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यस्तथणहर पुं०(स्तनभर) "ख-घ-थ-ध-भाम्"|८११८७।। इति भस्य वस्वरूपमाह-द्रव्यस्तवः पुष्पाऽऽदिः, आदिशब्दाद् गन्धरूपाऽऽदिहः। वक्षोजगौरवे, प्रा०१ पाद। परिग्रहः / कारणे कार्योपचाराच्चैवमाह-अन्यथा द्रव्यस्तवः पुष्पाऽऽदिभिः थणिय न०(स्तनित) मेघगर्जिते, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। अनु०। प्रव०। समभ्यर्चनमिति द्रष्टव्यम्। तथा सद्गुणोत्कीर्तना भावे इति। सन्तश्च ते दीर्घविस्वराऽऽक्रन्दने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। रसिते, सका भोगसमये गुणाश्च सद् गुणाः / अनेन असत्सु गुणेषु कीर्तनानिषेधमाह, करणे दूरतरधनगर्जितानुकारिशब्दे, उत्त० 1610 / कृतमन्दध्वनौ, त्रिका मृषावाददोषसङ्गात् / सद् गुणानामुत्कीर्तनात् प्राबल्येन परया भक्त्या ज्ञा०१श्रु०१अास्तनितकुमारे भवनपतिभेदे, तं०। कीर्तना संस्तवना / यथाथणियकुमार पुं०(स्तनितकुमार) भूषणनियुक्तहयवररूपचिह्नधरे दशमे "प्रकाशितं तथैकेन, त्वया सम्यक् जगत् त्रयम्।
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________________ थय 2384 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थय समग्रैरपि नो नाथ ! परतीर्थाधिपैस्तथा // 1 // विद्योतयति वा लोक, यथैकोऽपि निशाकरः। समुद्गतसमग्रोऽपि, किं तथा तारकागणः?'' // 2 // इत्यादि लक्षणा भावे इति द्वारपरामर्शो भावस्तव इत्यर्थः / इति चालितप्रतिष्टितोऽर्थः सम्यग्ज्ञानाय प्रभवतीति चालना कदाचित विनेयः करोति, कदाचित् स्वयमेव गुरुरपि / तथा चोक्तम्- "कत्थइ पुच्छइ सीखो, कहिं च पुट्टा कहति आयरिया।" इत्यादि। तत्र वित्तपरित्यागाऽऽदिना द्रव्यस्तव एव ज्यायानित्यल्पबुद्धीनामाशङ्कासंभवः, तदुदासार्थं तदनुवादपुरः सरमाहदव्वत्थओ य भावत्थओ य दव्वत्थओ बहुगुणे त्ति / बुद्धि सिया अनिउण-मइवयणमिणं छजीविहिअं|४|| द्रव्यस्तवो, भावस्तव इत्यनयोर्मध्ये द्रव्यस्तवो बहुगुणः / प्रभूततरगुण इत्येवंबुद्धिः स्यादेवं चेन्मन्यसे इति भावः / तथाहि-किलाऽस्मिन् क्रियमाणे वित्तपरित्यागात् शुभ एव व्यवसायः, तीर्थसय चोन्नतिकरण दृष्ट्वा च तं क्रियमाणमन्येऽपि प्रतिबुध्यन्ते इति स्वपरानुग्रहः, सर्वमिदं संप्रति पक्षं चेतसि निधाय द्रव्यस्तवो बहुगुण इत्यस्यासारताख्यापनायाऽऽह-(अनिउणमइवयणमिति) अनिपुणमतेर्वचनमिदम्-यद् द्रव्यस्तवो बहुगुण इति / किमित्यत आह-षड् जीवहितं षण्णा पृथिवीकायाऽऽदीनां जीवहितं जिनास्तीर्थकृतो बुवते। किं षट् जीवहितमित्यत आहछज्जीवकायसंजमों, दव्वथए सो विरुज्झई कसिणो। तो कसिणसंजमविऊ, पुप्फाईयं न इच्छंति / / 5 / / षण्णां जीवनिकायानां पृथिव्यादिलक्षणानां संयमः संघट्टना परित्यागः पट् जीवकायसंयमः / एष हितम्। यदि वा-मैव, ततः किमित्यत आहदव्यस्तवे पुष्पाऽऽदिसमभ्यर्चनलक्षणे घट् जीवनिकायसंयमः कृत्स्नः संपूर्णो विरुध्यते, न सम्यक् संपद्यते. पुष्पाऽऽदिसंलुवनसंघटनाऽऽदिना कृत्स्नसंयमव्याघातभावात्, यतश्चैवं (तो त्ति) तस्मात्कृत्स्नसंयमप्रधान विद्वांसस्ते तत्त्वतः-साधव उच्यन्ते कृत्स्रसंयमग्रहणमकृत्स्नसंयमविदुषां श्रावकाणां व्यपोहार्थम्-पुष्पाऽऽदिकं द्रव्यस्तवं नेच्छति-न बहु मन्यन्ते। यचोक्तम्-द्रव्यस्तवे क्रियमाणे वित्तपरित्यागात शुभ एवाध्यवसाय इत्यादि। तदपि यत् किश्चित्।व्यभिचारात्, कस्यचिदल्पसत्त्वस्य अविवेकिनो वा शुभाध्यवसायानुपपत्तेः / दृश्यते च कीाद्यर्थमपि सत्त्वानां द्रव्यस्तवे प्रवृत्तिः। शुभाध्यवसायभावे तु-स एव भावस्तवः। इतरस्तु तत्कारणत्वेनाप्रधानमिति / तथा भावस्तव एव सति तत्त्वतस्तीर्थस्योन्नतिकारण भावस्तवमतःसम्यगमराऽऽदिभिरपि पूज्यत्वात्तमेव च दृष्टा क्रियमाणमन्येऽपि सुतरां प्रतिबुध्यन्ते / शिष्टा इति स्वपरानुग्रहोऽपोहेवेति गाथाभावार्थः। आह-यद्येव किमय द्रव्यस्तव एकान्ततो हेय एव वर्तते, आहो-- | स्विदुपादेयोऽपीति? उच्यते-साधूनां हेय एव, श्रावकाणामुपादेयोऽपि। तथा चाऽऽह भाष्यकार:अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणे, दव्वत्थऐं कूवदितॄतो // 6 // अकृत्स्नं, संयममिति सामर्थ्यागम्यते,प्रवर्तयन्तीत्वकृत्स्नप्रवर्तकाः, तेषां विरताविरतानां श्रावकाणामेष द्रव्यस्तवः खलु युक्त एव। / खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्। किंकृतोऽयमित्याह-संसा-रपतनुकरणः संसारक्षयकारक इति भावः / आह-यः प्रकृत्यैवा-सुन्दर स कथं श्रावकाणामपि युक्तः ? उच्यते-अत्र कूपदृष्टान्तः-''जहा नवनगराइसन्निवेसे कइ पभूयजलाभावतो तण्हादिपरिगया तदपनोदार्थ कूपं खणति, तेसिं च जइ वि तण्हाऽऽइया वट्टति, मट्टियाकद्दमादीहि य मलिणिज्जति, तहा वि तदुभएणं तेसिं तिण्हाइयसोयमलो पुव्वगो य फिट्टइ, सेराकाल च ते तदन्ने य लोगा सुहभायणा भवंति, एवं दव्वथए जइ वि असंजमो, तहा वि तत्तो चेव सा परिणामबुद्धी भवति जा असंजमवज्जियं अन्नं च निरवसेसं खवें ति-तहा ऽविरता विही एस दव्वत्थाओ कायव्वो सुभाणुबंधी,पभूवनिजराफलो य त्ति / ' उक्तः स्तवः / आ०म०२ अ०। सूत्र०पञ्चा०। (द्रव्यस्तवो व्यासेन चेइय' शब्दे तृतीयभागे 2445 पृष्ठे प्रत्यपादि) कयमत्थ पसंगणं,जहोचिआ चेव दव्वभावथया। अण्णोण्णसमणुविद्धा, नियमेणं हों ति नायव्वा / / 1 / / कृतमत्र प्रसङ्गेन द्रव्यस्तवाऽऽदिविचारे एवं यथोदितभावे च प्रधानगुणभावतः द्रव्यभावस्तवादिति अन्योऽन्यसमनुविद्धौ नियमेन भवतः ज्ञातव्यो अन्यथा स्वरूपाभावः। इति गाथार्थः / अनयोवृद्धिमाहअप्पविरिअस्स पढमो, सहकारिविसेसमूअओ सेओ। इअरस्स बज्झचाया, इअरो त्रिअ एस परमत्थो / / 2 / / अल्पवीर्यस्य प्राणिनः प्रथमो द्रव्यस्तवः सहकारिविशेषभूतो वीर्यस्य श्रेयानिति / इतरस्य बहुवीर्यस्य साधोर्बाह्यत्यागादिति। बाह्यद्रव्यस्तवत्यागेन इतर एव श्रेयान् भावस्तव इत्येष परमार्थोऽत्र द्रष्टव्यः / इति गाथार्थः। विपर्यये दोषमाहदव्वत्थयं पिकाउं, ण तरइ जो अप्पवीरिअत्तेणं / परिसुद्धं भावथयं,काही सो संभवो एस।।३।। द्रव्यस्तक्मपि कर्तुमौचित्येन न शक्नोति यः स सत्त्वोऽल्पवीर्यत्वेन हि नापरिशुद्ध भावस्तवं यथोक्तमित्यर्थः / करिष्यत्यसावसंभव एषः, बलाभावात् / इति गाथार्थः। एतदेवाऽऽहजं सो उक्किट्ठयरं, अवेक्खई वीरिअं इहं णिअमा। ण हि पलसयं पि वोढुं,असमत्थो सव्व यं वहइ / / 4 / / यदसौ भावस्तव उत्कृष्टतरमपेक्षते वीर्य शुभाऽऽत्मपरिणामरूपमिह नियमात् अतोऽल्पवीर्यः कथं करोत्येनमिति / न हि पलशतमपि वोढुमसमर्थः मन्दवीर्यः सत्त्वः सर्वं तं वहति पलशततुल्यो द्रव्यस्तवः, सर्वतस्तुल्यश्च भावस्तवः / इति गाथार्थः / एतदेव स्पष्टयतिजो बज्झचएणं, णो इत्तिरिअंपिणिग्गहं कुणइ / इह अप्पणो सयासे, सव्वचाएण कह कुज्जा? ||5|| यो बाह्मात्यागेन बाह्य वित्तं नेत्वरमपि निग्रहं करोति / बन्दनाऽऽदौ इहाऽऽत्मनः क्षुद्रः सदाऽऽसौ यावज्जीव सर्वत्यागेन बाह्याऽऽभ्यन्तरत्यागेन कथं कुर्यादात्मनो निग्रहम् / इति गाथार्थः /
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________________ थय 2385 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थयविहि अनयोरेव तु गुरुलाघवविधिमाह प्रश्रे, उत्तरम्-परपाक्षिकसंपादितस्तोत्राऽऽदीनां मातङ्गतुरुष्काऽऽदिआरंभच्चाएणं, णाणाऽऽइगुणेसु वड्डमाणेसु / सपादितरसवत्युपमान सतां वक्तुमेवानुचितमिति किं प्रतिवचनेन? दव्वत्थयहाणी वि हु, न होइ दोसाय परिसुद्धा / / 6 / / १३प्र०ा ही०१ प्रका० शक्रस्तवपाठे. उत्त० २६अ०। श्रीआदिनाथवारके आरम्भत्यागेन हेतुना ज्ञानाऽऽदिगुणेषु वर्द्धमानेषु सत्सु द्रव्य- | यं चतुर्दिशति स्तवं पठितवन्तः, तमेवार्थतः श्रीमहावीरवारकेऽपि, परं स्स्तवहानिरपि कर्तुर्न भवति दोषाय परिशुद्धा सानुबन्धा / इति सूत्रपाठनियमो नास्तीति परम्पराऽस्तीति युक्तिरपि च तथैव दृश्यते। गाथाऽर्थः // 6 // 17 प्र० सेन०४ उल्ला) इहैव तन्त्रयुक्तिमाह थयण न०(स्त्वन) स्तुती, "थुइथयणवंदणनम-सणाणि एगट्टियाणि एत्तो वि य णिहिट्ठो, धम्मम्मि चउव्विहम्मि विकमो अ। एआणि।'' आव०२ अन इह दाणसीलतवभावणामए अन्नहाजोगा|७|| थयथुइमंगल न० (स्तवस्तुतिमङ्गल) स्तवः शक्रस्तवपाठः, स्तुअत एव द्रव्यस्तवाऽसदिभावाद् निर्दिष्टो भगवद्भिर्धर्म चतुर्विधेऽपि तिस्तूीभूय कथनम् / स्तवाश्च स्तुतयश्च स्तवस्तुतयः, ताएव मङ्गलं क्रमोऽयं वक्ष्यमाणः, इह प्रवचने दानशीलतपोभावनामये धर्मेऽन्यथा स्तवस्तुतिमङ्गलम् / स्तवस्तुतिरूपे भावमङ्गले, उत्त०२६ अ०। योगादस्य धर्मस्येति गाथाऽर्थः / / 7 / / स्तवफलप्रतिपादनम्तदेवाऽऽह थयथुइमंगलेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? थयथुइमंगलेणं संतं बज्झमणिचं, ठाणे दाणं पि जो ण विअरेइ। नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ / नाणदसणचरित्तबोहि लाभसंपन्ने य जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तियं आराहणं इय खुडगो कहं सो, सीलं अइदुद्धरं धरइ ? ||5|| आराहेइ।।१४|| सद्विद्यमानं, बाह्यमात्मनो भिन्नम्, अनित्यमशाश्वतं, स्थाने हे भदन्त ! स्तवः शक्रस्तवरूपः, स्तुतिर्या उर्धीभूय कथनरूपा। पात्राऽऽदौ, दानं पिण्डाऽऽदियो न वितरति न ददाति क्षौद्र्यात् (इय) एवं अथवा एकाऽऽदिसप्तश्लोकान्ता यावदष्टोत्तरशतश्लोका वाच्याः। स्तुतिश्च क्षुद्रको वराकः कथमसौ शीलं महापुरुषसेवितमतिदुर्द्धर धारयति? नैवेति गाथाऽर्थः // 8 // स्तवश्व स्तुतिस्तवौ, तौ एव मङ्गलं भावमङ्गलरूपं स्तुतिस्तवमङ्गलं, तेन स्तुतिस्तवमङ्ग लेन जीवः किं जनयति? स्तवस्तुतिमङ्ग लेनेति अस्सीलो अण जायइ, सुद्धस्स तवस्स हंदि विसओ वि। पाठस्तु आर्षत्वात् / गुरुः प्रश्नोत्तरमाह-हे शिष्य ! स्तवस्तुतिमङ्गलेन जहसत्तीऍ तवस्सी, भावइ कह भावणाजालं ? III जीवो ज्ञानदर्शनचारित्रबोधिलाभं जनयति / तत्र ज्ञान मतिश्रुताऽऽदि, 'अशीलश्च न जायते' नियम एष शुद्धस्य तपसो मोक्षाङ्ग भूतस्य, हन्दि दर्शनं क्षायिकसम्यव त्वं, चारित्रं विरतिरूपं, तद्रूप एव बोधिलाभा विषयोऽपि यथाशक्त्या तपस्वी मोहपरं तत्र भावयति कथं भावना जैनधर्मप्राप्तिानदर्शनचारित्रबोधिलाभस्तं जनयति, ज्ञानदर्शनचारित्रजालम्? तत्त्वतो नैव / इति गाथाऽर्थः / / 6 / / बोधिलाभसम्पन्नश्च जीव आराधना ज्ञानाऽऽदीनामासेवनामाराधयति एत्थं च दाणधम्मो, दव्वत्थयरूवमो गहेअव्वो। साधयति / कीदृशीमाराधनाम्?-कल्पविमानोत्पत्तिका, कल्पाश्च सेसा उसुपरिसुद्धा, णेया भावत्थसयरूवा / / 10 / / विमानानि च तेषु उत्पत्तिर्यस्याः सा कल्पविमानोत्पत्तिका, ताम्। पुनः अत्रच प्रक्रमे दानधर्मो द्रव्यस्तवरूप एव ग्राह्योऽप्रधानत्वात, शेषास्तु कीदृशीमाराधनाम्? अन्तक्रियाम्-अन्तस्य संसारस्य, कर्मणा वा सुपरिशुद्धाः शीलधर्माऽऽदयो ज्ञेया भावस्तवस्वरूपाः प्रधानत्वादिति अवसानस्य क्रिया अन्तक्रिया, तामेवंभूतां ज्ञानाऽऽद्याराधनां साधयति, गाथाऽर्थः / / 10 / / कल्पाः सौधर्माऽऽदयो देवलोकाः, विमानानि नवग्रैवेयकपञ्चानुत्तरविइहैवातिदेशमाह मानानि ज्ञानाऽऽद्याराधनया कश्चिद्भरताऽऽदिवत् दीर्घकालेन मुक्तिं इय आगमजुत्तीहि, तं तं सुत्तमहिगिच्च घीरेहिं। प्राप्नोति / कश्चिद् गजसुकुमालवत् स्वल्पकालेनैव मुक्तिं प्राप्नोतीति दव्वत्थयाऽऽदिरूवं, विवेइयव्वं सबुद्धीए॥११।। भावः / / 14 / / उत्त० 26 अ०। (तद्वक्तव्यता 'गयसुकुमाल' शब्दे (इय) एवमागमयुक्तिभिस्तत्तत्सूत्रमधिकृत्य धीरैर्बुद्धिमदिव्य- | तृतीयभागे 843 पृष्ठे द्रष्टव्या) स्तवाऽऽदिरूपं विवेक्तव्यं सम्यगालोच्येति वक्तव्यं स्वबुद्ध्या / इति / थयपरिण्णा स्त्री०(स्तवपरिज्ञा) 'वणिज्जइ जीए इव, दुविहो वि गाथाऽर्थः / / 11 / / गुणाऽऽइभावेण / ' वर्ण्यते यस्यां ग्रन्थपद्धतौ स्तवः द्विविधोऽपि उपसंहरन्नाह द्रव्यभावरूपो गुणाऽऽदिभावेन गुणप्रधानरूपतया / प्राभृतविशेषे, एसेह थयपरिण्णा, समासओ वण्णिआ मए तुब्भं / पं०व०४ द्वार / प्रति०। (सा च सूत्ररूपा इदानीमनतिप्रसिद्धा, वित्थरओ भावत्थो, इमीऍ सुत्ताउणायव्वो / / 12 / / गाथारूपपशवस्तुकप्रकरणे प्रतिपादिता, अस्माभिः 'चेइय' शब्दे एषेह स्तवपरिज्ञा स्तवपद्धतिः समासतो वर्णिता मया युष्माकं विस्तरता | तृतीयभागे 1220 पृष्ठे विन्यस्ता) भावार्थोऽस्याः स्ववपरिज्ञायाः सूत्राज्झातव्यः / इति गाथाऽर्थः / / 12 / / थयपाठ पुं०(स्तवपाठ) शक्रस्तवाऽऽदिस्तवपटने, पञ्चा०३ विव०। पं०००४ द्वार। प्रतिका दर्श०। ध०। परपाक्षिक-संपादितस्तोराऽऽदिक थयविहि पुं०(स्तव विधि) स्तवःपूजा तस्य विधिविधानं मातङ्गतुरुष्कसंपादितरसवतीवदनास्वाद्यमेव, कश्चिद्विशेषो वा? इति | प्रकार: स्तवविधिः / स्तवपरिज्ञायाम् , '' नमिऊण जिणं वीरं,
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________________ थयविहि 2386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविर तिलोगपुज्ज समासओ वोच्छ। थयविहिमागमसुद्ध,सपरेसिमणुग्गहट्ठाए / / 1 / / ' पञ्चा०६ विव० थयसरण न०(स्तवस्मरण) चतुर्विशतिस्तवानुचिन्तने, पञ्चा० 8 विव०। थर पुं०(देशी) दधिसरे, देना० 5 वर्ग 24 गाथा / थरहरिअ न०(देशी) कम्पिते. देना०५ वर्ग 27 गाथा। थरू पुं०(देशी) त्सरौ,देना०५ वर्ग 24 गाथा। थल न०(स्थल) अटव्याम. दशा०७ अ०ा उच्चभूमिभागे, उत्त०२ अ०। भूमिप्रदेशविशेषे, स्था०५ ठा०३उ०। ध०। ''थलेसु बीयाई।' यदा प्रचुरा वर्षा भवति तदा स्थलेषु फलावाप्तिः / उत्त० 12 अ०। आकाशे, नि०चू०१3०। (स्थलव्याख्या णईसंतार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1740 पृष्ठे द्रष्टव्या) थलअ पुं०(देशी) मण्डपे, देना०५ वर्ग 25 गाथा। थलकुक कुडियंड न०(स्थलकुक्कुट्यण्ड) इह कवलप्रक्षेपणाय मुखे विडम्बिते यदाकाशं भवति तत्स्थल भण्यते, स्थलमेव कुक कुट्यण्डक स्थलकुक्कुट्यण्डकम्। कवलप्रक्षेपार्थ विकाशिते मुखे, व्य०७७०। थलकुक् कुडियंडप्पमाण न०(स्थलकुक कुट्यण्डप्रमाण) मुखविवरप्रमाणे कवले, यावत्प्रमाणमात्रेण कवलेन मुख प्रक्षिप्यमाणेन मुखं न विकृतं भवति। व्य०७ उ०। थलचार पुं०(स्थलचार) स्थले रथाऽऽदिना देशान्तरावाप्ती, आचा०१ श्रु०५ अ०१उ०। थलयपुप्फ न०(स्थलजपुष्प) विचकिलकोरण्टकाऽऽदिक स्थल एव जायमाने कुसुमे, आ०म०१ अ०१खण्ड। प्रज्ञा०। थलयर पुं०(स्थलचर) स्थले चरतीति स्थलचरः / स्था०१० ठा०। स्थलजेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु, स्था०१० ठा०। स० स्थलचरभेदाःसे किं तं थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया? थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-चउप्पयथ--- लयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया / से किं तं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-समुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिकखजोणिया, गब्भवक्कं तियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया। जहेव जलयराणं तहेव चउक्कओ भेदो। सेत्तं चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया / से किं तं परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? परिसप्पथलयरपंचिंदिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियति-- रिक्खजोणिया। से किं तं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरि-- क्खजोणिया? उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणि-या दुविहा पण्णत्ता / जहेवजयराणं तहेव चउक्कओ भेओ। एवं भुयगपरिसप्पाण वि भाणियव्वा / सेत्त भुयगपरिसप्पथलवरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया / सेत्त थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया। अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग् योनिकाः? पञ्चेन्द्रियतिर्यग् योनिकास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-जलचराः, स्थलचराः, खचराच। अथ के ते जलचराः? जलचरा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-समूछिमाश्व, गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च / अथ के ते संमूर्छिमाः? समूछिमा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-पर्याप्तकाश्व, अपर्याप्तकाश्च / अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः? गर्भव्युत्क्रान्तिका द्विविधाः / तद्यथा पर्याप्तकाः, अपर्याप्त काश्च / एवं चतुष्पदा उरःपरिसर्पा भुजपरिसर्पाः पक्षिणश्च प्रत्येक चतुष्प्रकारा वक्तव्याः / जी०३प्रति०४उ०। प्रज्ञा०। थली स्त्री०(स्थली) देवद्रोण्याम्, नि०चू० १उ० थलीघोडय पुं०(स्थलीघोटक) देवडङ्गरापरपर्याय पशुविशेषे, व्य०७ उ०। थव पुं०(स्तव) 'थय' शब्दार्थे , आ०चू०३अ०। थवइय त्रि०(स्तवकित) संजातपुष्पस्तवके, भ०१श०१उ०। जी०। औ०। ज्ञा०। जं०। राग थवइल्ल पुं०(देशी) प्रसारितोरुद्वयोपविष्ट, देवना०५ वर्ग 26 गाथा। थवण न०(स्तवन) 'थयण' शब्दार्थे , आव०२ अ०। थवथुइमंगल न०(स्तवस्तुतिमङ्गल) थयथुइमंगल' शब्दार्थे , उत्त० 26 अग थवपरिण्णा सी०(स्तवपरिज्ञा) थयपरिणा' शब्दार्थे, पञ्चा०६ विव० थवपाठ पुं०(स्तवपाठ) 'थयपाठ' शब्दार्थे, पञ्चा०३ विव०॥ थवय पुं०(स्तवक) पुष्पगुच्छे, जी०३ प्रति०४३०। थवविहि पुं०(स्तवविधि) 'थयविहि' शब्दार्थे, पञ्चा०६ विव०। थवसरण न०(स्तवस्मरण) 'थयसरण' शब्दार्थे, पञ्चा० 8 विव० थविर पुं०(स्थविर) प्रवर्तितव्यापारान् संयमयोगेषु सीदतः साधून ज्ञानाऽऽदिषु ऐहिकाऽऽमुष्मिकापायदर्शनतः स्थिरीकरोतीति स्थविरः। प्रव०२ द्वार। प्रति०। स्था०। ध०। उत्त०। आचाo"स्थविरविचकिलायस्कारे" ||1 / 166|| इति आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सहैत् 'थेरो' / आर्षे 'थविरो' इत्यपि / प्रा०१ पाद / "अनादौ शेषाऽऽदेशयोर्द्रित्वम्" ||८इतिथद्वित्वनिषेधः / प्रा०२ पाद / सीदतां स्थिरीकरणहेतौ, दश०६ अ०। १उ०। द्वा०। व्याध अधुना स्थविरस्वरूपमाहसंविग्गो मद्दविओ, पियधम्मो नाणदंसणचरित्ते। जे अढे परिहायइ, सारेंतो ते हवइ थेरो / / यः संविग्रो मोक्षाभिलाषी, मार्दवितः सं ज्ञातमाविक : (?) प्रियधर्मा एकान्तवल्लभः, संयमानुष्ठाने यो ज्ञानदर्शनचारित्रेषु मध्ये यानर्थानुपादेयानुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानि नयति
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________________ थविर 2387 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरकप्प तान ते स्मारयन् भवति स्थविरः, सीदमानान्साधून ऐहिकाऽऽमुष्मि- (दसेत्यादि) स्थापयन्ति दुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्ग स्थिरीकुर्वन्तीति कापायप्रदर्शनतो मोक्षमार्गे स्थिरीकरोतीति स्थविर इति व्युत्पत्तेः / स्थविराः, तत्र ये ग्रामनगरराष्ट्रेषु व्यवस्थाकारिणो बुद्धिमन्त आदेयाः तथा चाऽऽह प्रभविष्णवस्ते तत्तत् स्थविरा इति 3 / प्रशासति शिक्षयन्ति ये ते थिरकरणा पुण थेरो, पवत्तिवावारिएसु अत्थेसु। प्रशास्तारो धर्मोपदेशकः,ते च ते स्थिरीकरणास्थविराश्चेति प्रशास्तृजो जत्थ जई सीयइ, तं सवलो तं पचोदेति॥ स्थविराः 4 / ये कुलस्य गणस्य सङ्घस्य च लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकारिणस्तद्भश्च निग्राहकास्ते तथोच्यन्ते७।जातिस्थविराः प्रवृत्तिव्यापारितेष्वर्थेषु यो, यत्र यतिः सीदति, सद् विद्यमानं बलं यस्य षष्टिवर्षप्रमाणजन्मपर्यायाः 8 | श्रुतस्थविराः समवायाऽऽद्यङ्गधारिणः स सदलः तथाभूतः स प्रचोदयति प्रकर्षण शिक्षयति स स्थिरकरणात्। 6 / पर्यायस्थविरा विंशतिवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्यायवन्त इति 10 / स्था० स्थविर इति। उक्तं स्थविरस्य स्वरूपम्। व्य०१ उ०। 10 ठाग तपस्तेजः स्थविरेन्यः क्षान्तिक्षमास्थंविराः अनन्तगुणविशिष्टा अथ स्थविरपदयोग्यगुणानाह इति गोशाले भगवदुक्तिः / भ० 15 श०) पं०भा०। (स्थविरो गोचरचतेन व्यापारितेष्वर्थेष्वनगाराँश्च सीदतः। याय उपकरणान्यपि नयेदिति 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1078 पृष्ठे स्थिरीकरोति सच्छक्तिः, स्थविरो भवतीह सः॥७३।। गतम्) कन व्यापरितेषु नियोजितेष्वथेषु तपःसयमाऽऽदिकायषु | थविरकंचुइज्ज पुं०(स्थविरकञ्चुकीय) अन्तःपुरप्रयोजननि-वेदके सीदतः प्रमादाऽऽदिनाऽप्रवर्तमानानगारान् साधून यः स्थिरीकरोति | व्यतीहारे, भ०६।०३३ उ०। तत्तदुपार्यनदृढीकरोति। कीदृशः? सच्छक्तिः-सत्सामर्थ्यः, स साधुहि / थविरकप्प पु०(स्थविरकल्प) 6 तला आचार्याऽऽदीनां गच्छातिजिनमते स्थविरो भवति नान्य इति भावः / / 73 / / ध०३अधि०। बद्धाना सामाचार्याम्, स्था०३ठा०४उ०। सप्ततिवर्षाणां षष्टिवर्षाणा वोपरिवर्ति-नि(ध०३अधि०। कल्प०। व्य०) कः पुनरसौ स्थविरकल्पक्रमः? इत्याहश्रुतवृद्ध, भ०२श०५ उ०। ज्ञा०ा चतुर्दशपूर्वविदि (आचा०१श्रु०१ चू०१ पव्वजा सिक्खावयमऽत्थग्गहणंच अनियओ वासो। अ०१उ०) भद्रबाहुस्वाम्यादौ, विशे०। आचार्याऽऽदिगुरौ, स०२ सम०। निप्फत्तीय विहारो, सामायारी ठिई चेव / / 7 / / गच्छप्रतिबद्धे, स्था०३ ठा०४उ० गच्छमहति, व्य०३ उ०। प्रव०।जरसा इह स्थविराणामय क्रमः-यदुत प्रथमं तावद्योग्याय विनीतशिष्याय जीर्णे, स्थविरभूमिप्राप्ते सूत्रार्थतदुभयोपेते,व्य०२उ०। धर्मपरिणत्या विधिवद्यापिताऽऽलोच्नाय प्रशस्तेषु द्रव्याऽऽदिषु स्वयगुणसुस्थितेन निवृत्त्या समञ्जसक्रियामतौ, जी०१ प्रति० भ०ा आ०क०। आ० म०। गुरुणा विधिनैव प्रव्रज्या प्रदातव्या। ततः शिक्षापदमिति शिक्षायाः पदं धाज्ञा० (स्थविराणां जातिश्रुतपर्यायाः 'थविरभूमि' शब्दे वक्ष्यन्ते) स्थान शिक्षापदम्, शिक्षैव वा पदं स्थानं शिक्षापदम्; विधिना प्रव्रजितस्य तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-जाइथेरे, सुयथेरे, शिष्यस्य ततः शिक्षाधिकारी भवतीत्यर्थः। सा च शिक्षा द्विविधा-- परियायथेरे। सट्ठिवासजाए समणे निगंथे जाइथेरे,ठाणसम ग्रहणशिक्षा, आसेवनाशिक्षा च / तत्र द्वादश वर्षाणि यावत्सूत्रं त्वयाऽवायधरेणं निग्गंथे सुयथेरे, वीसबासपरियाए णं समणे निग्गंथे ध्येतव्यमित्युपदेशो ग्रहणशिक्षा। आसेवनाशिक्षा तु-प्रत्युपेक्षणाऽऽदिपरियायथेरे॥ क्रियोपदेशः / आह च-सा पुण दुविहा सिक्खा, गहणे आसेवणे य "तओथेरे' इत्यादि कण्ठ्यम्। नवरं स्थविरो वृद्धस्तस्य भूमयः पदव्यः णायव्वा / गहणे सुत्ताहिजण, आसेवणे पञ्चुवेक्खाई॥१॥" अन्ये तुस्थविरभूमय इति। जातिर्जन्म, श्रुतमागमः,पर्यायः प्रव्रज्या, तैः स्थविरा शिक्षाशब्दाव्रतमिति पदं पृथक् कृत्वा व्रतमिति कोऽर्थः? शिक्षाऽनन्तरं वृद्धा येते तथोक्ता इति / इह च भूमिका भूमिवतोरभेदादेवमुपन्यासः, रात्रिभोजन--विरमणषष्ठेषु पञ्चसुमहाव्रतेषूपस्थाप्यते शिष्यः, इत्येतदपि अन्यथा भूमिका उद्दिष्टा इति ता एव वाच्याः स्युरिति / एतेषां त्रयाणां द्वितीयं व्याख्यानं कुर्वन्ति, एतच्च कल्पचूा चिरन्तनटीकायां च न क्रमेणानुकम्पापूजनवन्दनानि विधेयानि। यत उक्तं व्यवहारे दृष्टमित्यस्माभिरुपेक्षितम् / ततः सूत्रेऽधीते यद्विनेयः कार्यते, तदाह'आहारे उवहिसेज्जा-संथारे खेत्तसंकमे। (अत्थग्रहणं च त्ति) द्वादश वर्षाण्यधीतसूत्रः सन्नसावर्थग्रहणं कार्यते, किइछदाणुवत्तीहिं, अणुकंपइ थेरगं / / 1 / / तस्य पूर्वाधीतसूत्रस्य द्वादश वर्षाणि यावदेषोऽर्थंग्राह्यत इत्यर्थः / यथाहि-- उडाणाऽऽसणदाणाई, जोगाहारप्पसंसणा। हलारघट्टगन्हयादिमुक्तो बुभुक्षितो बलीबर्दः प्रथमंतावच्छोभनमशोभनं वा नीयसेज्जाणिद्देस-वत्तिए पूयए सुयं / / 2 / / तृणाऽऽदिकमास्वादमनवगच्छन्नपि सर्वमभ्यवहरति, पश्चाच्च रोमन्थाव स्थायां तदास्वादमवगच्छति, एवं विनेयोऽर्थमनवबुद्ध्यमानोऽपि द्वादश उहाणं बंदण चेव, गहणं दंडगस्सय। वर्षाणि सर्व सूत्रमधीते, अर्थावगमाभावे च तत्तस्यानास्वादं भवति, अगुरुणो वि य णिडेसे, तइयाए पवत्तए।३।।" इति। अर्थग्रहणावस्थाया तु तदवगमात्सुस्वादमाप्यायकं च जायते, अतोऽस्थविरा इति / स्था०३ ठा०२३०। धीतसूत्रेण द्वादश वर्षाण्यवश्यमर्थः श्रोतव्यः / यथा वा-कृषीबलः दस थेरा पण्णत्ता / तं जहा-गामथेरा नगरथेरा.रट्ठथेरा F शाल्यादिधान्यं प्रथमं वपति, ततः पालयति, लुनाति, मलति, पुनीते, पसत्थारथेरा कुलथेरा गणथेरा संघर्थरा जाइथेरा सुयथेरा गृहमानयति, पश्चात्तु निराकुलचित्तस्तदुपभोगं करोति, तदभावे वपनाऽऽपरियायथेरा॥ दिपरिश्रमस्य निष्फलत्वप्रसङ्गात्, एवंशिष्योऽपिसूत्रमधीत्य यदितदर्थ नोय
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________________ थविरकप्प 2388 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरकप्प णुयात, तदा तदध्ययनप्रयासो विफल एव स्यात्, तस्मात्सूत्राध्ययनानन्तरमवश्यमेव द्वादश वर्षाणि तदर्थः श्रोतव्यः / तस्माद्यत एवं स्थिविरकल्पक्रमोयदुत प्रथम प्रव्रज्या, ततः सूत्राध्ययनं, ततोऽप्यर्थग्रहणमिति। अतोऽनुयोगप्रदानक्रमेणेवेहाधिकार इत्येव प्रस्तुतमभिसंबध्यते / सूत्राध्ययनान्तरभावी हि तदर्थव्याख्यानरूपः स्थविरकल्पक्रमदृष्टोऽनुयोग एवाऽऽवश्यकस्य शास्त्रकृता वक्तुमारब्धः, अतः सूत्राध्ययनकालस्यातिक्रान्तत्वेनेह विवक्षितत्वादनुयोगस्यैवाऽभिधित्सितत्वात् तत्प्रधानक्रमेणैवाधिकार इति भावः / एतावच्चास्या गाथायां प्रकृतोपयोगि / यत् पुनरन्य-व्याख्यास्यते-"अनियओ वासो। निष्फत्ती य विहारो" इत्यादि, तत्प्रासङ्गिकमित्यवगन्तव्यम्। तत्र (अनियओवासो त्ति) ततोऽस्य गृहीतसूत्रार्थस्य शिष्यस्याऽनियतो वासः क्रियते, ग्राम-नगरसन्निवेशाऽऽदिष्वनियतनिवासेनैष गृहीतसूत्रार्थः शिष्यो यद्याचार्यपदयोग्यः, तदा जघन्यतोऽपि सहायद्वयं दत्त्वाऽऽत्मतृतीयो द्वादश वर्षाणि यावन्नानादेशदर्शन नियमेन कार्यत इत्यर्थः, आचार्यपदाऽनहस्य त्वनियमः / आचार्यपदार्होऽपि किमिति देशदर्शन कार्यत इति ? चेत् / उच्यते स हि नानादेशेषु पर्यटस्तीर्थकराणा जन्माऽऽदिभूमीः पश्यति; ताश्च दृष्ट्वा अत्र जाताः, इह दीक्षा प्रतिपन्नाः, अस्मिंश्च देशे निर्वृता भगवन्तः, इत्याद्यध्यवसा-यतो हर्षातिरेकात्तस्य सम्यक्त्वस्थैर्य भवति; अन्येषां च स पश्चात् तस्थिरतामुत्पादयति, श्रुताऽऽद्यतिशायिनश्वाऽऽचार्याऽऽदीन्ना-नास्थानेषु पश्यतः सूत्रार्थेषु सामाचार्या चाऽस्य विशेषोपलम्भो भवति, नानादेशभाषासमाचारांश्चैष बुद्ध्यते, ततश्च तत्तद्देशजानामपि विनेयानां तत्तद्भाषया धर्म कथयति, ततः प्रतिबोध्य तान् प्रव्राजयति, पूर्वप्रव्रजितास्तु तदुपसंपदं प्रतिपद्यन्ते, निःशेषास्मद्भाषासमाचारकुशलोऽयमिति शिष्याणां तदुपरि प्रीतियोगश्च जायते, इत्यादिगुणदर्शनादनियतवासः। (निप्फत्ती य ति) एवं चाऽनियतवासेन द्वादश वर्षाणि पर्यटतस्तस्याऽऽचार्यपदार्हस्य शिष्यत्वेनाsऽत्मनो निष्पत्तिर्भवति, अन्येषां च प्रभूतशिष्याणां तदन्तिके निष्पत्तिजायत इति / (विहारो त्ति) एवं शिष्यत्वेन निष्पत्तौ, सूरिपदे च प्राप्ते, स्वपरोकारकरणेन दीर्घ च पर्याये परिपालिते, अन्यस्मिश्च योग्यशिष्ये आचार्यपदे व्यवस्थापिते ततोऽनन्तरं विहरणं विशेषेण भगवदभिहितमार्ग पराक्रमणं विहारो विशेषानुष्ठानरूपोऽनेन कर्तव्यः / स च द्विविधः भक्तपरिक्षेङ्गिनीपादपोषगमनलक्षणमभ्युद्यतमरणं, जिनकल्पपरिहारविशुद्धिककल्प-यथालन्दिककल्पप्रतिपत्तिर्वा / अस्मिंश्च द्विविधेऽपि विहारे सामाचारी ज्ञात्वाऽनुष्ठेया। सा चाऽऽद्ये मरणलक्षणे विहारे"निप्फाइया य सीसा, सउणी जह अंडयं पयत्तेणं! बारस संवच्छरियं, सो संलेहं अह करेइ / 1 / / चत्तारि विचित्ताई, विगईनिजूहियाइँ चत्तारि। संवच्छरे उ दोन्नि उ, एगंतरियं च आयामं // 2 // नाइविगिट्टोय तवो, छम्मासे परिमिअंच आयामं। अन्ने वि य छम्मासे, होइ विगिट्ठ तवोकम्मं / / 3 / / वासं कोडीसहियं, आयामं कटु आणुपुव्वीए। गिरिकदरं तु गंतु, पायवगमणं अह करेइ // 4 // " इत्यादिका ज्ञातव्याः / द्वितीये तु विहारे जिनकल्पाऽऽदिप्रतिपत्ती सामाचारी निर्दिश्यते तत्र जिनकल्पाऽऽदिप्रतिपित्सुया आदावेव | पूर्वापररात्रकाले तावदिदं चिन्तनीयम्-विशुद्धचारित्राऽनुष्ठानेन कृतं मयाऽऽत्महितम्, शिष्याद्युपकारतः परहितं च, निष्पन्नाश्चेदानी मम गच्छपरिपालनक्षमाः शिष्याः, ततो विशेषेणैव साम्प्रतं ममाऽऽत्महितमनुष्ठातुमुचितमिति, विचिन्त्य चेदं सतिपरिज्ञाने आत्मीयमायुःशेष स्वयमेव पर्यालोचयति, तदभावेऽन्यमतिशयि-नमाचार्याऽऽदिकं पृच्छति, तत्र स्तोके स्वायुषि भक्तपरिज्ञाऽऽदी-नामन्यतरन्मरणं प्रतिपद्यते / अथ दीर्घमायुः, केवलं जवाबलपरिक्षीणः, तदा वृद्धवासं स्वीकुरुते, पुष्टायां तु शक्तौ जिनकल्पाऽऽदिप्रतिपत्तिमुररीकरोति / तत्र जिनकल्प प्रतिपित्सुना प्रथममेव तावत्पञ्चमिस्तुलनाभिराल्मा तोलनीयः। तद्यथा"तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेणय। तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवजओ' ||1|| तुलना, भावना, परिकर्म चेत्येकार्थानि / तत्राऽऽचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकलक्षणाः प्रायः पञ्चैव जनाः प्रशस्ताभिरेताभिः पञ्चभिर्भावनाभिर्जिनकल्पं प्रतिपित्सवः प्रथममेवाऽऽत्मानं भावयन्ति / अप्रशस्तास्तु कन्दर्पदवकिल्विषिकाऽऽभियोगिकासुरसंमोहस्वरूपाः पञ्च भावनाः सर्वथा दूरतः परित्यजन्ति। तत्र तपसाऽऽत्मानं भावयंस्तथा बुभुक्षां पराजयते यथा देवा-ऽऽद्युपसर्गाऽऽदिनाsनेषणाऽऽदिकरणतो यदि षण्मासान् यावदाहारं न लभते,तथाऽपि न बाध्यते / सत्त्वभावनया तु भयं पराजयते। तत्र भयजयार्थ रात्रौ सुप्तेषु शेषसाधुषूपाश्रय एव कायोत्सर्ग कुर्वतः प्रथमा सत्त्वभावना भवति / द्वितीयाऽऽदिकास्तूपाश्रयबाह्याऽऽदिप्रदेशेषु / आह च- ''पढमा उवरसयम्मी, बीया बाहिं तइयचउक्कम्मि / सुण्णहरम्मि चउत्थी, अह पंचमिया मसाणम्मि / / 1 / / " सूत्रभावनया तु स्वनामवत् सूत्रं परिचित तथा करोति यथा रात्रौ दिवा चोच्छ्रास-प्राण-स्तोकलवमुहूर्ताऽऽदिकं कालं सूत्रपरावर्त्तनानुसारेणैव सर्व सम्यगवबुद्ध्यते, एकत्वभावनया चाऽऽत्मानं भावयन् सङ्घाटकसाध्वादिना सह पूर्वप्रवृत्तानालापसूत्रार्थसुखदुःखाऽऽदिप्रश्रीमथःकथाऽऽदिव्यतिकरान् सर्वानपि परिहरति, ततो बाह्यममत्वे मूलत एव व्यवच्छेदिते पश्चाद्देहोपध्यादिभ्योऽपि भिन्नमात्मानं पश्यन् सर्वथा तेष्वपि निरभिष्यङ्गो भवति / (अत्रोदाहरणम्"एगत्त भावना ' शब्दे तृतीयभागे 12 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) बलभावनायां बल द्विविधम्-शारीरं, मानसधृतिबलं च। तत्र शारीरमपि बलं जिनकल्पाहस्य शेषजनाऽतिशयिकमेष्टव्यम्, तपः प्रभृतिभिस्त्वपकृष्यमाणस्य यद्यपि शारीरं बलं तथाविधं न भवति, तयाऽपि धृतिबलेनाऽऽत्मा तथा भावयितव्यो यथा महद्भिरपि परीषहोपसर्गर्न बाध्यते / एताभिः पञ्चभिर्भावनाभिर्भाविताऽऽत्मा जिनकल्पिकप्रतिरूपो गच्छेऽपि प्रतिवसन्नाहाराऽऽदिपरिकर्म प्रथममेव करोति, तत्राऽऽहारे तृतीयपौरुष्यामवगाढायांवल्लचणकाऽऽदिकमन्तं प्रान्तं रूक्षं च। 'संसट्ठमसंसट्ठा, उद्धम तह होइ अप्पलेवा या उग्गहिआ पगहिया, उज्झियधम्मा य सत्तमिया" एतासां सप्तानां पिण्डैषणानां मध्ये आद्यद्वयवर्ज शेषपञ्चानां मध्यादन्यतरैषणाद्वयाभिग्रहेणाऽऽहारं गृह्णाति, एकया भक्तम्, अपरया त्वेषणया पानकमिति / एवमाद्याऽऽगमोक्तविधिना गच्छान्तर्गतः पूर्वमेवाऽऽत्मानं परिकर्म्य ततो जिनकल्पं प्रतिपित्सुः सई मीलयति, तदभावे स्वगणं तावदवश्यामाह्वयते, ततस्तीर्थकर-समीपे, तदभावे गणधरसन्निधाने, तदसत्त्वे चतुर्दशपूर्वधरान्तिके, तदसंभवे दशपूर्वधराऽभ्यणे , तदलाभेतु
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________________ थविरकप्प 2386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरकप्प वटाश्वत्थाऽशोकवृक्षाऽऽदीनामासत्तौ जिनकल्पमभ्युपगच्छति, निजपदव्यवस्थापेतं सूरिम्, सबालवृद्धगच्छं, विशेषतः पूर्वविरुद्धाँश्च क्षमयति।। तद्यथा "जइ किंचि पमाएण, न सुट्ठु भे वट्टियं मए पुटियं / तंभे ! खामेमि अहं,निस्सलो निक्कसाओ य / / 1 / / आणंदमंसुपायं, कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा। खामति तं जहरिह, जहारिहं खामिया तेण ॥शा खामेंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लयविणयदीवणा मगे। लाघविएगत्तं, अप्पडिबधो य जिणकप्पे // 3 // " निजपदस्थापितसूरिप्रभृतीनामनुशास्ति प्रयच्छति। तद्यथा"पालिज सगणमेयं, अप्पडिबद्धो य होज सव्वत्था एसो हु परंपरओ, तुमं पि अंते कुणासु एवं / / 1 / / पुव्वपउत्तं विणयं, मा हुपमाएहि विणयजोग्गेसु। जो जेण पगारेणं, उवजुज्जइ तं च जाणाहि / / 2 / / ओमो समराइणिओ, अप्पतरसुओ य मा ऍणं तुभे। परिमवह एस तुम्ह वि,विसेसओ संपर्य पुज्जो // 3 // " इत्यादिशिक्षां दत्त्वा गच्छाद्विनिर्गत चक्षुर्गोचराऽतीतेतस्मिन्ना-नन्दिताः साधवः प्रतिनिवर्तन्ते। उक्तंच"पक्खी व पत्तसहिओ, संमडगो वच्चए निरवइक्खो। धीरो घणवदाओ, नीहरिओ विजुपुंजो व्व / / 1 / / सीहम्मि व मंदरकं-दराउ गच्छा विणिग्गए तम्मि। चक्खुविसयमइगए. अइंति आणंदिया साहू॥ आभोएउं खेत्तं, निव्वाघाएण मासनिव्वाहिं। गंतूण तत्थ विहरे, साहू पडिवन्नजिणकप्पो॥३॥" एवं च प्रतिपन्नजिनकल्पोयत्र ग्रामे मासकल्पं, चतुर्मासकंवा करिष्यति, तत्र षड्भागान् कल्पयति। ततश्च यत्र भागे एकस्मिन् दिने गोचरचर्यायां हिण्डितस्तत्र पुनरपि सप्तम एव दिवसे पर्यटति, भिक्षाचर्या ग्रामान्तरगमनं च तृतीयपौरुष्यामेव करोति, चतुर्थपौरुषी यत्रावगाहते, तत्र नियमादवतिष्ठते / भक्त पानकं च पूर्वोक्तैषणाद्वयाभिग्रहेणालेपकृपदेव गृह्णाति। एषणाऽऽदिविषयं मुक्त्वा न केनाऽपि सार्द्ध जल्पति। एकस्यां च वसतौ यद्यप्युत्कृष्टतः सप्त जिनकल्पिकाः प्रतिवसन्ति, तथाऽपि परस्परं न भाषन्ते। उपसर्ग-परीषहान् सर्वानपि सहत एव, रोगेषु विचिकित्सां न कारयत्येव, तद्वेदनां तुसम्यगेव विषहते, आपातसंलोकाऽऽदिदोषरहित एव स्थण्डिले उचाराऽऽदीन करोति, नाऽस्थण्डिले, अममत्त अपरिकम्मा, णियमा जिणकप्पियाण वसहीओ एमेव यथेराण, मोत्तूण पमजण एक्कं // 1 // " इति वचनात्परिकर्मरहितायां वसतौ तिष्ठति, यद्युपविशति तदा नियमादुत्कु डुक एव, न तु निषद्यायाम, औप-ग्रहिकोपकरणस्यैवाभावादिति। मत्तकरिव्याघ्रसिंहाऽऽदिके च संमुखे समापतत्युन्मागंगमनाऽऽदिना ईर्यासमिति न भिनत्ति, इत्याद्यन्याऽपि जिनकल्पिकानां सामाचारी समयसमुद्रादवगन्तव्या / (ठिई चेव त्ति) तथा पूर्वोक्त द्विविधेऽपि विहारे स्थितिः श्रुतसंहननाऽऽदिका ज्ञातव्या / तथाहिजिनकल्पिकस्य तावजघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु, उत्कर्षतरत्वसंपूर्णानि दशपूर्वाणि श्रुतं भवति। प्रथमसंहननो वज्रकुड्यसमानावष्टम्भश्चायं भवति / स्वरूपेण पश्चदशस्वपि कर्मभूमिषु, | संहृतस्त्यकर्मभूमिष्वपि भवति। उत्सर्पिण्यां व्रतस्थस्तृतीयचतुर्थारकयोरेव, जन्ममात्रेण तु द्वितीयारकेऽपि, अवसर्पिण्यांतुजन्मना तृतीयचतुर्थारकयोरेव, व्रतस्थस्तुपञ्चमारकेऽपि, संहरणेन तु सर्वस्मिन्नपि काले प्राप्यते / प्रतिपद्यमानकः सामायिकच्छेदोपस्थापनीयचारित्रयोः, पूर्वप्रतिपन्नस्तु सूक्ष्मसंपराययथाख्यातचारित्रयोरप्युपशमश्रेण्यामवाप्यते / प्रतिपद्यमानानामुत्कृष्टतः शतपृथक्त्वम्, पूर्वप्रतिपन्नानां तु सहस्रपृथक्त्वं जिनकल्पिकाना लभ्यते। जिनकल्पिकः प्रायोऽपवाद नासेवते, जवाबलपरिक्षीणस्त्वविहरमाणोऽप्याराधकः / आवश्यकीनैषधिकीमिथ्यादुष्कृतगृहिविषयपृच्छोपसंपल्लक्षणाः पञ्च सामाचार्योऽस्य भवन्ति, नत्यिच्छाऽऽदयः। अन्ये त्वाहुः-आवश्यकीनषेधिकीगृहस्थोपसंपल्लक्षणास्तिस्र एव भवन्ति, आरामाऽऽदिनिवासिन ओघतः पृच्छाऽऽदीनामप्यसंभवादिति / लोचं चाऽसौ नित्यमेव करोति, इत्येवमाद्यपराऽपि स्थितिर्जिनकल्पिकानामागमादवसेया / परिहारविशुद्धिककल्पसामाचार्यादिवक्तव्यताऽत्रैव ग्रन्थे पुरस्ताद्वक्ष्यते। यथालन्दिकानां तु- "तवेण सत्तेण सुत्तेण'' इत्यादिका भावनाऽऽदिवक्तव्यता यथा जिनकल्पिकानाम् / यस्तु विशेषः स लेशतः प्रोच्यते-तत्रोदकाः करो यावता शुष्यति, तत आरभ्योत्कृष्टतः पञ्चरात्रिन्दिवानि यावत्कालोऽत्र समयपरिभाषयालन्दमित्युच्यते। ततश्च पशरात्रिन्दिवलक्षणस्योत्कृष्टस्य लन्दस्याऽनतिक्रमेण चरन्तीति यथालन्दिकाः / पञ्चको हि गणोऽमुकं कल्पं प्रतिपद्यते। ग्रामं च गृहपडि क्तरूपाभिः षड् भिर्वी थीभिर्जिनकल्पिकवत्परिकल्पयन्ति, किं त्वेकैकस्यां वीथ्यां पञ्च पञ्च दिनानि पर्यटन्तीत्युत्कृष्टलन्दचारिणो यथालन्दिका उच्यन्ते। एतेच प्रतिपद्यमानका जघन्यतः पञ्चदश भवन्ति, उत्कृष्टतस्तुसहस्रपृथक्त्वम्। पूर्वप्रतिपन्नास्तुजघन्यतः कोटिपृथक्त्वम्, उत्कृष्टतोऽपि कोटिपृथक्त्वं भवन्ति ।एते च यथालन्दिको द्विविधा भवन्ति-गच्छे प्रतिबद्धाः, अप्रतिबद्धाश्च / गच्छे च प्रतिबन्धोऽमीषां कारणतः, किशिदश्रुतस्यार्थस्य श्रवणार्थमिति मन्तव्यमिति / पुनरेकैकशी द्विधा-जिनकल्पिकाः, स्थविरकल्पिकाश्च / ये जिनकल्प प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनकल्पिकाः, ये तु पुनरपि स्थविरकल्पं समाश्रयिष्यन्ते ते स्थविरकल्पिकाः / एतेषां च स्थविरकल्पिकजिनकल्पिकभेदभिन्नानां यथालन्दिकानां परस्परमयं विशेषः / यदाह'थेराणं नाणत्तं, अतरतं अप्पिणंति गच्छस्स। गच्छे निरवजेणं, करेंति सव्वं पिपडिकम्मं / / 1 / / एक्ककपडिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंतिथेराउ। जेसिं उण जिणकप्पे, न य तेसिं वत्थपायाणि // 2 // निप्पडिकम्मसरीरा, अवि अच्छिमलं पि नेव अवणिंति। विसहति जिणा रोग, कारेंति कयाइ न तिगिच्छ // 3 // " इत्यलं विस्तरेण / तदर्थिना तुकल्पग्रन्थोऽन्वेषणीय इति (7) विशेष (संक्षेपत एष स्थविरकल्पः) (विस्तरतस्तु अहालंद' शब्दे प्रथमभागे 566 पृष्ठ प्रतिपादितः) (शेषाणि तु सर्वाण्यपि जिन-कल्पतुल्यवक्तव्यान्येवेत्युक्तं शुद्धिपरिहारनानात्वम्) (विहारद्वार विहार' शब्दे वक्ष्यते) (स्थापनाकल्पविधिः 'ठवणाकुल' शब्दे तृतीयभागे 1686 पृष्ठे गतः) यदि ज्ञानाऽऽदिपुष्टालम्बनं भवति तदा चिकित्साऽऽदिविधानान्न सहन्ते.इतरथा न सम्यगदीनमनसः सहन्त इतिदुविहं पि वेयणं ते, निकारणओ सहति भइया वा।
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________________ थविरकप्प 2360 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरकप्प अममत्त अपरिकम्मा, वसही वि पमज्जणं मोत्तुं / / 763|| द्विविधामप्याभ्युपगमिकीमौपक्रमिकी च वेदनां निष्कारणतः सहन्ते, भाज्या वा असहिष्णुत्वाऽऽदिकारणवसतो न सहन्तेऽपीति भावः। तथा वसतिरपि तेषामममत्वा ममेयमित्यभिष्वङ्गरहिता। "अपरिकम्मा" उपलेपनाऽऽदिपरिकर्मवर्जिता। किं सर्वथैव? नेत्याह-प्रमार्जनामेका मुक त्वा, कारणे तु सममत्वा सपरिकर्माऽपि भवति, परिणतचारित्राणां शैक्षाऽऽदीनां ममेयमित्यभिष्वङ्ग विधानात् सममत्वा सपरिकर्मा त्वपरिकर्माया वसतरलाभे द्रष्टव्या। अथ विशेषमाहतिगमाईया गच्छा, सहस्स-वत्तीसई उसभसेणे। थंडिल्लं पिय पढम, वयंति सेसे वि आगाढे 764|| त्रिकाऽऽदयस्त्रिचतुःप्रभृतिपुरुषपरिमाणा गच्छा भवेयुः / किमुक्त भवति?-एकस्मिन् गच्छे जघन्यतस्त्रयो जना भवन्ति, गच्छस्य साधुसमुदायरूपत्वात्, तस्य च त्रयाणामधस्तादभावादिति। तत ऊर्ध्व ये चतुः पचप्रभृतिपुरुषसंख्याका गच्छास्ते मध्यमपरिमाणतः प्रतिपत्तव्यास्तावद्यावदुत्कृष्ट परिमाणं न प्राप्नोति / किं पुनस्तदिति चेत् ? अत आह-(सहस्सवत्तीसई उसभसेणे ति) द्वात्रिंशत्सहनाण्येकस्मिन् गच्छे उत्कृष्ट साधूनां परिमाणं, यथा श्रीऋषभस्वामिप्रथमगणधरस्य भगवत ऋषभसेनस्येति। तथा स्थण्डिलमपि प्रथमम्अनापातमसलोकमेतद् गच्छवासिनी व्रजन्ति / आगाढे तु भावासन्नताऽऽदौ कारणे शेषाण्यपि अनापातसंलोकप्रभृतीनि स्थण्डिलानि गच्छन्ति। कियचिरमिति द्वारं विशेषयन्नाहके चिर कालं वसिहिह, ण ठंति निकारणम्मि इह पुट्ठा। अन्नं वा मग्गंती, ठविंति साहारणमलंभे 765|| कियचिरं कालं यूयमस्यां वसतौ वत्स्यथेति पृष्टाः सन्तो निष्कारणे न तिष्ठन्ति, किंतु क्षेत्रानतरं गच्छन्ति। अथ बहिरशिवाऽऽदीनां कारणानि, ततस्तत्रैव क्षेत्रे अन्यां वसतिं मार्गयन्ति / अथ मृग्यमाणाऽप्यन्या न लभ्यते, ततः साधारणं वचनं स्थापयन्ति, यथा नियाघाते तावद् वयं मास यावद् तिष्ठामहे, व्याघाते तु हीनाधिकमलाघवार्थम् / शेषद्वाराणि तुल्यवक्तव्यत्वादतिदिशन्नाहएमेव सेसएसु वि, केवइया वसिहिह त्ति जाणेयं / निक्कारणे पडिसेहो, कारणे जयणं तु कुव्वंति // 766|| एवमेव कियचिरद्वारवत्, शेषेष्वपि उच्चारप्रस्रवणाऽऽदिषु कियद्-द्वारेषु, कियन्तो वत्स्यथेति द्वारं यावन्नेयम् / किमित्याह- एतेष्वपि निष्कारणे प्रतिषेधो, न वसन्तीति भावः / कारणे तु यतनां कुर्वन्तिः किमुक्त भवति? यदि तिष्ठतामुचारप्रस्रवणयोः परिष्ठापनमकाले फलिहकाभ्यन्तरतो नानुजानन्तीत्यतस्तत्र न तिष्ठन्ति / अथाशिवाऽऽदिभिः कारणस्तिष्ठन्ति तत उच्चारं प्रश्रवणं वा मात्रकेषु व्युत्सृज्य बहिः परिष्ठापयन्ति। एवमवकाशाऽऽदिष्वपि द्रष्टव्यं,नवरमवकाशे यत्र प्रदेशे उपवेशनभाजनधावनाऽऽदिनानुज्ञातं, तत्र नोपदिशन्ति। कमठकाऽऽदिषु च भाजनानि धावन्ति, तृणफलकान्यपि यानि नानुज्ञातानि, तानि न परिभुञ्जते। | संरक्षता नामयत्र तिष्ठतामगारिणो भणन्ति-गवादिभिर्भज्यमानां वसतिमन्यद्वा समीपवर्ति, गृहं संरक्षत, तत्राऽप्यशिवाऽऽदिभिः कारणैः तिष्ठन्तो भणन्ति-यदि वयं तदानीं द्रक्ष्यामस्ततो रक्षिष्याम इति / संस्था-पनता नाम-वसतेः संस्कारकरण, तस्यामपि नियुक्ता भणन्तिवयमकुशलाः संस्थापनाकमणि कर्तव्ये, सप्राभृतिकायामपि वसती कारणतः स्थिता देशतः सर्वतो वा क्रियमाणायां प्राभृतिकायां स्वकीयमुपकरण प्रयत्नेन संरक्षन्ति, यावत्प्राभृतिका क्रियते तावदेकस्मिन् पायें तिष्ठन्ति, सदीपायां सानिकायां वसतौ का-रणे स्थिता आवश्यकं बहिः कुर्वन्ति। अवधानं नाम यदि गृहस्थाः क्षेत्राऽऽदि गच्छन्तो भणन्ति-अस्माकमपि गृहेषूपयोगो दातव्यो, मा शुनस्तेनकाऽऽदयः प्रविश्योपद्रवं कार्षुरिति, तत्रापि कारणे स्थिताः स्वयमेवावधानं ददति, अनुपस्थापितशैक्षैर्वा दापयति। यत्र च कति जना वत्स्यथेति पुष्टे सति कारणतस्तिष्ठद्भिः परिमा-णनियमः कृतःयथैतावद्भिः स्थातव्यं नाधिकैः, ततो यद्यन्ये प्राघूर्णकाः समागच्छन्ति तदा तेषामेव स्थापनाय भूयोऽप्यनुज्ञापनीयः सागारिकः, यद्यनुजानाति, ततः सुन्दरमेव, अथ नानुजानाति, ततोऽन्यस्यां वसतौ स्थापनीयास्ते प्राघूर्णका इति। भिक्षाचर्याऽऽदीनामवशिष्यमाणद्वाराणां विशेषमाहनिययाऽनियया भिक्खायरिया पाणऽण्णलेवऽलेवाडं / अंबिलमणं बिलं वा, पडिमा सव्वा वि अविरुद्धा॥७६७।। भिक्षाचर्या नियता कदाचिदाभिग्रहिकी, अनियता कदाचिदनाभिग्रहिकी. पानमन्नं वा लेपकृतं च भवेदलेपकृतं वा, द्राक्षाचिञ्चापानकाऽऽदि तक्रतीमनाऽऽदिकं च लेपकृतं सौवीराऽऽदिकं, वल्लचणकाऽऽदिकं चालेपकृतमाचाम्लमनाचाम्लं वा द्वयमपि कुर्वन्ति, प्रतिमाश्च मासिक्यादिका भद्राऽऽदिका वा सर्वाश्चाप्यमी-षामविरुद्धा इति। उक्तं सामाचारीद्वारम्। अथ स्थितिद्वारमभिधित्सुरगाथाद्वयमाहखेत्ते काले चरित्ते, तित्थे परियाएँ आगमे वेए। कप्पे लिंगे लेसा, झाणे गणणा अभिगहा य // 798|| पव्वावण मुंडावण, मणसाऽऽवन्ने उनत्थि पच्छित्तं। कारणे पडिकम्मम्मि य, भत्तं पंथो य भयणाए / 76EI क्षेत्रे काले चरित्रे तीर्थे पर्याये आगमे वेदे कल्पे लिङ्गे लेश्यायां ध्याने गणनायाम्, एतेषु स्थितिर्वक्तव्या। अभिग्रहाश्वामीषामभिघातव्याः। एवं प्रव्राजना, मुण्डापना, मनसाऽऽपन्नेऽप्यपराधे नास्ति प्रायश्चित्तं, कारणे प्रतिकर्मणि च स्थितिः भक्तपन्थानश्च भजनया इतिगाथाद्वयसमुदायार्थः। अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं विभणिषुराहपन्नरस कम्मभूमिसु, खेत्तऽद्धोसप्पिणी य तिसु होजा। तिसु दोसु य उस्सप्पे, चउरो पलिभाग साहरणा / / 500 // क्षेत्रद्वारे जन्मतः, सद्भावतश्च स्थविरकल्पिकाः पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु भरतैरावतिवदेहपञ्चकलक्षणासुभवन्ति, संहरणतः पञ्चदशानां कर्मभूमीना त्रिंशतामकर्मभूमीनामन्यतरस्यां भूमौ भवेयुः, अद्धा कालः, तमड़ीकृत्यावसर्पिण्या जन्मतः, सद्भावतश्च त्रिषु तृतीयपञ्चमारकेषु भवेयुः। (तिस दोसु
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________________ थविरकप्प 2361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरकप्प य उस्सप्पं त्ति) उत्सर्पिण्या जन्मतस्त्रिषु द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु आरकेषु . सद्भावतस्तुद्वयोस्तृतीयचतुर्थारकयोर्भवन्ति, नोअव-सर्पिण्युत्सर्पिणीकाले जन्मतः, सद्भावतश्च दुःषमसुषमाप्रतिभागे भवन्ति। संहरणतस्तु चत्वारोऽपि प्रतिभागा अमीषां विषयतया प्रतिपत्तव्याः / तद्यथासुषमसुषमाप्रतिभागः, दुःषमदुःषमाप्रतिभागः, सुषमदुःषमाप्रतिभागः, दुषमसुषमाप्रतिभागश्चेति। पढमविइएसु पडिवजमाण इयरे उ सव्वचरणेसु / नियमा तित्थे जम्मऽट्ट जहन्ने कोडि उक्कोसे ||801 // पव्वजाएँ मुहुत्तो, जहन्नमुक्कोसिया उदेसूणा। आगमकरणे भइया, ठियकप्पे अहिए वा वि।।८०२|| प्रतिपद्यमानका अभी प्रथमेवा सामायिकाऽऽख्ये, द्वितीये वा छेदोपस्थापनीयाऽऽरख्ये चारित्रे भवेयुः / इतरे नाम-पूर्वप्रतिपन्नाः, ते सर्वेष्वपि चरणेषु भवन्ति, सामायिकाऽऽदिषु यथाख्यातपर्यन्तेष्विति भावः / तथा नियमादमी तीर्थे भवन्ति, नातीर्थे / पर्यायो द्विधा-गृहपर्यायः, प्रव्रज्यापर्यायश्च। तत्र गृहपर्यायो जघन्यतोजन्मन आरभ्याऽष्टौ वर्षाणि, उत्कर्षतः पूर्वकोटी। प्रव्रज्यापर्यायो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तः, तदनन्तरं मरणात्प्रतिपाताद्वा। उत्कर्षतस्तु देशोना पूर्वकोटी। आगमोऽपूर्वश्रुताध्ययन, तस्य करणे भाज्या-अमी कुर्वन्ति वा, न वा तमिति भावः / कल्पद्वारेस्थितिकल्पे वा अस्थितकल्पे वा भवेयुः / वेदद्वारं सुज्ञानत्वाद्भाष्यकृता न भावितम्। इत्थं तु द्रष्टव्यम्-वेदः स्त्रीपुंनपुंसक भेदात् त्रिविधोऽप्यमीषा प्रतिपत्तिकाले भवेत्। किमुक्तं भवति?-पूर्वप्रतिपन्नानां त्ववेदकत्वमपि भवतीति। भइया उ दव्वलिंगे, पडिवत्ती सुद्धलेसधम्मेहिं। पुव्वपडिवन्नगा पुण, लेसाझाणे य अन्नयरे / / 503 / / प्रतिपद्यमानकाः,पूर्वप्रतिपन्नकाश्च द्रव्यलिङ्ग भक्ता विकल्पिताःकचित्तन्न भवत्यपीति, भावलिङ्ग तु नियमात्सर्वदैव भवति / तथा प्रतिपत्तिः शुद्धलेश्याधर्मध्यानयोर्भवत् / किमुक्तं भवति?-प्रथमतः प्रतिपद्यमानकाः शुद्धास्वेव तिसृषु लेश्यासु आहाविषयाऽऽदौ च धर्मध्याने वर्तमानाः प्रतिपत्तव्याः / पूर्वप्रतिपन्नकाः पुनः षण्णा लेश्यानामन्यतरस्यां लेश्यायामार्ताऽऽदीनां च ध्यानानामन्यतरस्मिन् ध्याने भवेयुः। बृ०१उ०। अर्थताभिर्भावलेश्याभिरुपचितस्य कर्मणः कथमुदयो भवति? इत्याहजं चिज्जए उ कम्म, जलेसं परिणतस्स तस्सुदए / असुभो सुभो व गीतो, अपत्थपत्थन्नउदओ व्व / / 806 / / (ज लेसं ति) सप्तम्यर्थे द्वितीया / ततोऽयमर्थः यस्यां कृष्णाऽऽदीनामन्यतरस्यां लेश्यायां परिणतस्य जीवस्य यदशुभं शुभं वा कर्म ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदि चीयते। कर्मकर्तर्ययं प्रयोगः, चयंबन्ध मुपगच्छतीत्यर्थः / तस्यैवमशुभरूपतया, शुभरूपतया वा बद्धस्य कर्मण उदयाऽऽवलिकां प्राप्तस्याशुभः, शुभो वा तथाऽनुरूप एवोदयो गीतः संशब्दितस्तीर्थकरैः / दृष्टान्तमाह-अपथ्यपथ्यान्नउदय इव / यथा अपथ्यान्न भुक्तवतो ज्वराऽऽदिरोगद्वारेणापथ्य एवोदयो भवति, पथ्यान्नं तु भुक्तवतो मुखनासिकादिद्वारेण पथ्यः, एवं कर्मणोऽपि प्रशस्ताप्रशस्तलेश्यपरिणामबद्धस्य विपाकः शुभाशुभो भवतीति। अथ गणनाद्वारमाहपडिवजमाणभइया, एको व सहस्ससो व उक्कोसो। कोडिसहस्सपुहत्तं,जहन्न उक्कोसपडिवण्णा ||10|| स्थविरकल्पस्य प्रतिपद्यमानका भाज्या विवक्षितकाले भवेयुः, तत एको द्वौ वा त्रयो या उत्कर्षतो यावत् सहस्रपृथक्त्वं, पूर्वप्रतिपन्नाः जघन्यतोऽपि कोटिसहस्रपृथक् त्वं , नवरं जघन्यपदादुत् कृष्टपदे विशेषाधिकत्वम् / गत गणनाद्वारम् / बृ०१उ०। ('अभिग्गह' शब्दे प्रथमभागे 713 पृष्ठेऽभिग्रहा उक्ताः) एते च द्रव्याऽऽदयश्चतुर्विधा अप्यभिग्रहास्तीर्थकरैरपि यथायोगमाचीपर्णत्वाद, मोहमदापनयनप्रत्यलत्वाच गच्छवासिना तथाविधसहिष्णुपुरुषविशेषापेक्षया महान्तः कर्मनिबन्धने प्रतिपत्तव्या इति। अथ प्रव्राजनामुण्डापनाद्वारे भावयतिसञ्चित्तदवियकप्पं, छव्विहमवि आयरंतिथेरा उ। कारणओ असहू वा, उवएसं दिति अन्नत्थ।।८१७॥ प्रव्राजनामुण्डापनाभ्याम्, उपलक्षणत्वात् षट्टिधोऽपि सचित्तद्रव्यकल्पो गृहीतः / तद्यथा-प्रव्राजना, मुण्डापना, शिक्षापना, उपस्थापना, संभुञ्जना, संचायना चेति / तमेवंविधं षड्विधमपि सचित्तद्रद्रव्यकल्पमाचरन्ति स्थविरा गच्छवासिनः / (कारणओ त्ति) तथाविधैरनाभाव्यताऽऽदिभिः कारणैः, असहिष्णवो वा स्वयं वस्त्रपात्राऽऽदिभिर्ज्ञानाऽऽदिभिश्च शिष्याणां संग्रहोपग्रहो कर्तुमसमर्था उपदेशमन्यत्र गच्छान्तरे, ददति प्रयच्छन्ति-अमुकत्र गच्छे संविग्नगीतार्था आचार्याः सन्ति तेषां समीपे भवता दीक्षा प्रतिपत्त-व्येति। अथ मनसाऽऽपन्ने नास्ति प्रायश्चित्तम्। इदं व्याख्यानयतिजीवो पमायबहुलो, पडिवक्खे दुक्करं ठवेउं जे / कित्तियमेत्तं वोच्छिति, पच्छित्तं दुग्गतरिणी व? ||15|| अयं जीवः प्रमादबहुलोऽनादिभवाभ्यस्तप्रमादभावनाभावितः, ततः प्रतिपक्षेऽप्रमादे स्थापयितुं दुष्करं भवति, दुःखेनाप्रमाद् भावनायां स्थाप्यते इत्यर्थः / "जे" इति पादपूरणे / अतो दुर्गत ऋणिक इव अतिप्रभूतं ऋणं अतिचपलचित्तसंभवापराधवशादयं प्रमादबहुलो जीव उपदेशमापद्यमानं कियन्मात्रं प्रायश्चित्तं वक्ष्यति बोढुं शक्नोतीति मनसाऽऽपन्नेऽप्यपराधे नास्ति तपः प्रायश्चित्तं स्थविरकल्पिकानाम्, आलोचनाप्रतिक्रमणप्रायश्चित्तं तु तत्रापि भवत इति मन्तव्यम् / अथ 'कारणे पडिकम्मम्मि य ति (766)" पदं व्याख्यायते-कारणमशिवावमौदर्याऽऽदि, तत्रोत्पन्ने द्वितीय-पदमप्यासेवन्ते। तथा निष्कारणे निष्प्रतिकर्मशरीराः, कारणे तुग्लानमाचार्यवादिनंधर्मकथिकं च प्रतीत्य पादधावनमुखमार्जनशरीरसंबाधनाऽऽदिकरणात् सप्रतिकर्माण इति / "भत्तं पंथो य भयणाए त्ति (766)" भक्तं पन्थाश्च भजनया। किमुक्तं भवति?- उत्सर्गतस्तावत्तृतीयपौरुष्या भिक्षाटनं विहारं कुर्वन्ति / अपवाद-तस्तुतदानी भिक्षाया अलाभे काले वा पूर्यमाणे शेषास्वपि पौरुषीध्विति / गतं स्थितिद्वारम् / अथोपसंहरन्नाहगच्छम्मि य एस विही, नायव्वो होइ आणुपुटवीए। जं एत्थं णाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं // 16 //
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________________ थविरकप्प 2362- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरकप्प गच्छे गच्छवासिनामेषोऽनन्तरोक्तो विधितिव्य आनुपूर्व्या परिपाट्या, यदव नानात्वं विशेषस्तदहं वक्ष्ये समासेन। एतदेव सविशेषमाहसामायारी पुणरवि, तेसि इमा होइ गच्छवासीणं / पडिसेही व जिणाणं,जं जुञ्जइ वा तगं वोच्छं / / 20 / / सामाचारी पुनरपि तेषां गच्छवासिनां मासकल्पेन विहरतामेषा वक्ष्यमाणा भवति, जिनानां जिनकल्पिनामस्या एव सामाचार्याः प्रतिषेधो वा वक्तव्यः / यदा-प्रत्यपेक्षणाऽऽदिकं तेषामपि युज्यते तत् किमपि वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपडिलेहण निक्खमणे, पाहुडिया भिक्ख कप्पकरणे य। गच्छ सतिए अकप्पे, अंबिल भरिए अऊसित्ते // 821 / / परिहरणा अणुजाणे, पर कम्मे खलु तहेव गेलन्ने / गच्छपडिबंधऽहालं-दि उवरि दोसाय अववादे।८२२॥ प्रथमतः प्रत्युपेक्षणा वक्तव्या, ततो निष्क्रमणम्-कतिवारा उपाश्रयाद् निर्गन्तव्यमिति। प्राभृतिका सूक्ष्मबादरभेदाद् द्विविधा, भिक्षा गोचरचर्या, | कल्पकरणं च भाजनस्य धावनविधिलक्षण-मित्येतानि वक्तव्यानि / (गच्छ सइए त्ति) शतिकाः शतसंख्यपुरुषपरिमाणा ये गच्छास्तेषु प्रभूतेन पालकेन प्रयोजनं भवेत्। तच (कप्पे अंबिल त्ति) कल्प्यं कल्पनीयम्, अम्ल च सौवीरंग्रहीतव्यम्, अनेन संबन्धेन सौवीरिणीसप्तकमभिधानीयम्। (भरिए त्ति) तस्याः सौवीरिण्याः सप्तविधं भरणं वाच्यम्। (ऊसित्त त्ति) उत्से–चनमुत्सितं, सौवीरस्योत्सिञ्चनमित्यर्थः, तत्स्वरूपं च निरूपणीयम् / (परिहरण त्ति) नोदकः प्रश्रयिष्यति-यदि साम्प्रतं केष्वपि | गच्छेष्वित्थमाधाकर्माऽऽदयो दोषा उद्भवन्ति, तत् पूर्व सहस्त्रेषु गच्छेषु साधवः कथमाधाकर्माऽऽदीनां परिहरणं कृतवन्त इति? अत्राऽऽचार्यः प्रतिवक्ष्यति। अनुयानं रथयात्रा, उपलक्षणत्वात्स्नात्राऽऽदेरपि परिग्रहः / ततो यथा संप्रति रथयात्राऽऽदौ समवसरणे सहस्रसंख्याका अपि साधवो मिलिताः सन्तश्चाधाकर्माऽऽदिकं परिहरन्ति, तथा पूर्वमपि परिहृतवन्त इत्यनेन संबन्धेनानुयानविषयो विधिर्वक्तव्यः / ततः परं कर्मस्वरूपं निरूपयितव्यम्, खलुक्यालङ्कारे। तथैव ग्लानविधिः प्रतिपादनीयः। गच्छप्रतिबद्धानां यथालन्दिकानां सामाचारी दर्शनीया / तत उपरि मासकल्पादूर्द्ध तिष्ठतां स्थविरकल्पिकानां दोषा अभिधातव्याः। ततोऽपवादो द्वितीयपदभुपदर्शनीयमिति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः / बृ०१ उ०। (प्रत्युपेक्षणा 'पडिलेहणा' शब्दे वक्ष्यते) अथ निष्क्रमणद्वारमाहनिरवेक्खो तइयाए, गच्छे निकारणम्मि तह चेव / बहुविक्खेव दसविहे, साविक्खे निग्गमो भइओ।।८३३ निरपेक्षो जिनकल्पिकः प्रतिमाप्रतिपन्नकाऽऽदिर्गच्छसत्कापेक्षारहितः,स तृतीयस्यामेव पौरुष्यामुपाश्रयाद् निर्गच्छति, गच्छे गच्छयासिनोऽपि साधवो निष्कारणे तथैव निर्गच्छन्ति, तृतीयस्यां पौरुष्यामित्यर्थः / परं गच्छे यदाऽऽचार्योपाध्यायाऽऽदिविषयभेदाद् दशविध वैयावृत्त्य, तेन यो बहुविधो व्याक्षेपः, तेन सापेक्षे गच्छवासिनि निर्गमो भजनीयः, कदाचित्तृतीयस्यां, कदाचित्प्रथमद्वितीयचतुर्थीषु वा पौरुषीष्विति। अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्यानयतिगहिए भिक्खं भोत्तुं, सोहिय आवस्स आलयमुवेइ। जहिं णिग्गतो तहिं चिय, एमेव य खित्तसंकमणे ||834 / निरपेक्षो भगवान् तृतीयपौरुष्यामुपाश्रयान्निर्गत्य भिक्षामटित्वा गृहीते सति भक्ष्ये अनापाते असंलोके च स्थाने भुक्त्वा आवश्यकं चसंज्ञाकायिकीलक्षणं शोधयित्वा, यस्यामेव पौरुष्यां निर्गतस्तस्यामेव भूय आलयमुपाश्रयमुपैति, तृतीयस्यामित्यर्थः / एवमेव च क्षेत्रसंक्रमणेऽपि द्रष्टव्यम्, क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरगमनमपि तृतीस्यां करोतीति भावः / स्थविरकल्पिका अपि निष्कारणे तृतीयस्यामेव भिक्षामटित्वा प्रतिश्रयमनुद्दिश्य संज्ञाभूमिं गत्वा तस्यामेव प्रत्यागच्छन्ति, क्षेत्रसंक्रमणमप्येवमेव, कारणतस्तु न कोऽपि प्रतिनियमः। तथा चाहअतरंतबालवुड्डे, तवस्सिआएसमाइकज्जेसु। बहुसो वि होज्ज विसणं, कुलाइकज्जेसु य विभासा / / 835! उच्चारविहारादी, संभमभयचेइवंदणाऽऽईया। आयपरोभयहेउं, विणिग्गमा वणिया गच्छे / / 836 / / अतरन्तो ग्लानस्तस्य, तथा बालवृद्धयोः, तपस्विनः क्षपकस्य, आदेशस्य प्राघूर्णकस्य, आदिशब्दादाचार्योपाध्यायशैक्षकलब्धिभत्प्रभृतीना यानि कार्याणि तत्प्रायोग्यभक्तपानौषधाऽऽदिग्रहणरूपाणि, तेषु बहुशोऽपि बहूनपि वारान गृहपतिगृहेषु प्रवेशनं गच्छसाधूनां भावति / तथा कुलं नागेन्द्रचान्द्राऽऽदि, आदिशब्दाद् गणः कुलसमुदायो, गणसमुदायः सङ्घः, चतुर्वर्णरूपो वा, तत्कार्येषु च विभाषा कर्त्तव्या। सा चैषां कुले गणे सङ्के वा आभाव्याऽनाभा-व्यविषयः कोऽपि व्यवहारः समुपस्थितस्य यथावत्परिच्छेदनं कर्तव्यम्, प्रत्यनीको वा कोऽपि साधूनामुपस्थितस्तस्य शिक्षण विधेयम्, चैत्यद्रव्यं वा कश्चिन्निःशङ्क मुष्णाति स शासितव्यो वर्त्तत इत्यादि। तथा-उच्चारः पुरीषं, तस्योपलक्षणत्वात्प्रसवणाऽऽदेव्युत्सर्जनार्थ बहिर्गन्तव्यम्, विहारो नामवसतावस्वाध्यायिके समुत्पन्ने सति स्वाध्यायनिमित्तमन्यत्र गमनम्, आदिग्रहणात् पूर्वगृहीतपीठफलकप्रत्यर्पणप्रभृतिपरिग्रहः। संभ्रमोनामउदकाऽग्निहस्त्याद्यागमनसमुत्थ आकस्मिकः संत्रासः। भयं तु सामान्येन समुत्थं दुष्टस्तेनाऽऽधुपद्रवप्रभवसु, चैत्यानि जिनबिम्बानि, तेषां वन्दनम् / आदिशब्दादपूर्वबहुश्रुताऽऽचार्यवन्दनाऽऽदिपरिग्रहः / एवमादीनि यान्यात्मनः परेषामुभयस्य वा हेतोः कार्याणि तन्नि-मित्तं बहुशोऽपि प्रतिमाऽऽश्रयाद्विनिर्गमा वर्णिताः प्रतिपादिता इति / गतं निष्क्रमणद्वारम्। प्राभृतिका 'यसहि' शब्दे वक्ष्यते) (भिक्षा 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 667 पृष्ठे द्रष्टय्या) (कल्पकरण 'लेव' शब्द वक्ष्यते) (ग्लानाऽऽदिद्वाराणिग्लानाऽऽदिशब्देषु द्रष्टव्यानि) एत्तो उथेरकप्पं, समासओ मे निसामेहि। तिविहम्भि संजमम्मि उ, बोघव्वो होति थेरकप्पो तु॥ सामाइयछेदपरिहा-रिए य तिविहम्मि एअम्मि। ठिएँ अट्ठिए व कप्पे, सामाइयसंजमो मुणेयव्वो।। छेदपरिहारिया पुण, णियमाओ हवंति ठितकप्पे / एतेसु थेरकप्पो, जह जिणकप्पीण अग्गहो दोसु / / गहणं चऽभिग्गहाणं, पंचहि दोहिं च ण तह इत्तं /
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________________ थविरकप्प 2363 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरकप्पट्ठि - बाले वुड्डे सेहेऽगीतत्थ णाणदसणप्पेही।। दुब्बलसंघयणम्मि य, गच्छे य इहेसणा भणिता। जहसंभवं तु सेसा, खेत्ताऽऽदि विभासियव्व दारा तु। उवरिं तु मासकप्पे, वित्थरिओं विभासते तेसिं / पं०भा०। "इयाणिं थेरकप्पो। तत्थ, गाहा–(तिविहम्मि संजमम्भि) थेरकप्पो। सो तिविहो-सामाइओ, छेओवठ्ठावणिओ, परिहारविसुद्धिओ ति / सामाइओ ठियकप्पे, अट्ठियकप्पे वा / छेओवट्ठावणिओ, परिहारविसुद्धिओ ठियकप्पे चेव / तत्थ सामाइयसं-जमो-ठियकप्पे वा, अठियकप्पे वा। बिइओ नामछेओवट्ठावणिओ. सो ठियकप्पे नियमा। तइओ परिहारविसुद्धिओ, सो नियमा ठियकप्पे / परिहारविसुद्धिओ तप्पढमयाए जिणपायमूले पडिवजति, जहा मासकप्पे, नवरि उदीरणमेत्तं, गणप्पमाणेणं जहण्णेणं तिण्णि गणा, उक्कोसेण सयग्गसौ / पुरिसप्पमाणेण जहन्नेण सत्तावीसं, उक्कोसेण सयपुहुत्तं / छट्टे उद्देसे तेसिं सुत्तं विभासिज्जा ते दुविहाजिणकप्पिया, थेरकप्पिया य। जिणकप्पिया आवक-हिया, थेरकप्पिया अट्ठारसमासे अस्थिऊण कयाइ जिणकप्पं पडिवजंति, कयाइ तमेव कप्पं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, अहवा पुणो वि तमेव गच्छ एति। सेसं जहा मासकप्पे,पुटवपडिवन्नए पडुच्च जइ अस्थि जहन्नेण सयपुहत्तं, उक्कोसेण सहस्सग्गसो। अहालंदिया वि एमेय, नवरि दुविहा गच्छपडिबद्धा य, गच्छनिग्गया य, जहा मासकप्पे। जे अपडिबद्धा ते दुविहा-जिणकप्पिया य, थेरकप्पिया य / जिणकप्पिया किंचि पडिक्कम न करेंति / थेरकप्पिया गच्छमाणं ति नियमा पडिग्गहधारी। तत्थ वि गिलाणस्स पडिक्कम थेरकप्पिया फासुएण पडोयारेण अहालंदियरस करेंति। सेसं जहा मासकप्पे। नवरं गणप्पमाणेण जहण्णेण तओ गणा, उक्कोसेण सयग्गसो। एवं पडिवज्जमाणयं पुरिसप्पमाणे जहण्णेणं पण्णरस, उक्कोसेण सयग्गसो। पुव्वपडिबन्नए पडुच्च जहण्णेण सयग्गसो, उक्कोसेण सहस्सपुहुत्त। सेसाजहा जिणकप्पियाण ठिई, एत्थर्थरकप्पिया ते नेयव्वा जहा कप्पे, अजाण मासकप्पो व्व नेयव्वो, जहा कप्पो सिज्झइ।"जिनकल्पाऽऽद्या द्रव्यक्षेत्रकालभावाभिग्रहेषु अभिगृहीतैषणाया आहाराऽऽदि गृहन्ति, स्थविरकल्पिकाः किमर्थ प्रकीर्णषणाया आहाराऽऽदि गृह्णन्ति, प्रकीर्णा अनभिगृहीतैषणा इत्यर्थः / आचार्य आह"बालवुडथेराणं बाला वुड्डा य कारणे पव्वाविया, ते जइ अभिग्गहिया एसणाए गेण्हंति / अभिग्गहिए एसणाए य च दवावेज्जा सरिसो लाभो, सेहाईणं च अभावियाणं दुब्बलसंघयणाणं नाणदरिसणाऽऽइसु य पडिबद्धाणं दिवसं हिंडताणं चेव लभिस्सति। पच्छा संघयणदुब्बलत्तणेण, अभावित्तणेण य संजमंछड्डेति, पासत्थाईहि परतित्थएहिं वा गमिस्सति, पच्छा तित्थवोच्छेओ भविस्सइ / गच्छो य महिडिओ। स बालवुड्डाओ लोयणयणायरभूआ, जिणकप्पियाओ णं च गच्छाओ चेव प्रसूतिः, प्रवृत्तिरित्यर्थः / जम्हा गच्छेऽपि किं बहाए विसुद्धाए हिंडमाणा उग्गमाइसुद्धं आहाराइ गेण्हता, भुंजताय जहणणेण अट्ठपवयणमायाओ, उक्कोसेण चोद्दसपुव्वाणि अहिजंति, अव्वोच्छित्तिकरा यहुति, ओहिमणपज्जवकेवलाणं च उप्पाएंति, सोहम्माइकप्पोवएसु जाव सव्वड्डसिद्धे वि उववत्रंति। एएण कारणेण गच्छे पडिकिन्नेसणाजहासंभवं। घिरकप्पियाणं | खित्तकाला जहा मासकप्पे, पव्वावणाइ य जहा मासकप्पे।" पं०चू० अहुणा उ थेरकप्पे, वोच्छामि विहिं समासेणं / / गहणे चउव्विहम्मि वि, तीए गहणं तु परमजत्तेणं / जं पाणबीयरहियं, हवेज तरमाणए सोही। गहणं चउव्विहं ती, वत्थं पातं च सेज आहारो। एतेसिं असतीए, गहणं पढमं तु बीयस्स।। बितियं पातं भण्णति, किं कारणं तस्स गहण पढमं तु / तेण विणा वोहिपडिमा, गिहिभायणभोगों हाणी य / / अहवा चउव्विहं तु, असणादी तत्थ भोज्जगहणं तु / तत्थ तु वितियं पाणं, तस्स तु गहणं पढमताए / / असतीऍफासुयस्सा, तस्सहिए कंदबीयसहिए वा। किं कारण तेण विणा, आसुं पाणक्खतो होजा / / तरमाणे गिण्हति सुद्धं अतरो पेल्लेज तह संथारे। संथरतो गेण्हतो, पावति सट्ठाणपच्छित्तं / / सत्त दुए दसए वा, अणेगठाणेण वा भवग्गहणं। एत्तो तिगातिरित्तं, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं / / भइयं ति कप्पति त्ती, तस्सऽसतीए असुद्धं पि। एसो तुथेरकप्पो, ..........................||पं०भा० इयाणिं थेरकप्पो गाहा-(गहणे चउविहे ति) चउविहे-वत्थं, पायं, आहारो, सेजा। चउण्ह वि असइ पढमया य घेप्पइ / किं कारण? तेण विणापडिमाइहाणी चेव। अहवा-असणाइ पढम, तत्थ विइयं पायग्गहणं परमपयत्तेण नयमाणो पढम संथरमाणो तसपाणबीयरहिया कंदमूलरहिए गेण्हइ, अतरंतो पुण तसपाणस-हिए वा, बीयकंदमूलसहिए वा गेण्हइ। किं कारण? तेण विणा-आसु पाणक्खओ होज्जा / तरमाणो सुद्धं गेण्हेजा / अतरंतो पेल्लेजा। गाहा (सत्त दुए त्ति) पिंडेसणपाणेसणाओ। (दसएत्ति) दस एसणादोसा। (अणेगठाणे त्ति) उग्गमाइ पन्नरस सोलस। एतो तिगादिरित्तं नाम-उग्गमउप्पायणएसणासुद्धं / तट्विवरीयं जं एतेहिं चेव उग्गमाईहिं असुद्धं, तं गेण्हेजा गच्छसंरक्खणहेउं गच्छवासीहि। भइयं नाम कारणे कप्पइ, इयरहा न कप्पइ / एस थेरकप्पो / पं० चू०। (स्थविरकल्पिनामुपधिः 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1061 पृष्ठे उक्तः) (स्थविरकल्पोजिनकल्पश्च द्वावप्येतो महर्द्धिकाविति 'गच्छ' शब्दे तृतीयभागे 804 पृष्ठे उक्तम् ) थविरकप्पडिइ स्त्री०(स्थविरकल्पस्थिति) स्थविरा आचार्याऽऽदयो गच्छप्रतिबद्धास्तेषां कल्पस्थितिः स्थविरकल्पस्थितिः / बृ०४ उ०। कल्पस्थितिभेदे, बृ०५ उ०। स्था०। पं०चू०। पं० भा०। संप्रति स्थविरकल्पस्थितिमाहसंजमकरणुज्जोया, णिप्फातगणाणदंसणचरित्ते। दीहाउ वुड्डवासे, वसहीदोसेहिय विमुक्का / / 407 / / संयमः पञ्चाऽऽश्रवविरमणाऽऽदिरूपः, पृथिव्यादिरक्षारूपो वा सप्तदशविधः, तं कुर्वन्ति यथा तत्पालयन्तीति संयमकरणाः। न
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________________ थविरकप्पट्टि 2364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरावली न्धादिदर्शनात् कर्तर्यनट् प्रत्ययः / उद्द्योतकाः-तपसा प्रवचनस्योज नीयसेज्जाएँ निद्देस-वत्तित्तं पूयए सुयं / / ज्वालकाः / ततः संयमकरणाश्च ते उद् द्योतकाश्चेति विशेषणसमासः / उट्ठाणं वंदणं चेव, गहणं दंडगस्स य / यद्वा-पूर्वपौरुषीकरणेन संयमकरणमुद्द्योतयन्तीति संयमकरणोद्यो- परियायथेरगस्स,करें ति अगुरोरवि।। तकाः। तथा ज्ञानदर्शनचारित्रेषु शिष्याणां निष्पादकाः, तेषां चाज्ञाना- जातिस्थविरस्य कालस्वभावानुमत आहारो दातव्यः, उपधिर्यावता ऽऽदीनामव्यवस्थितिकारका भवन्तीति शेषः, यदा च ते दीर्धाऽऽयुषो संस्तरति तावत्प्रमाणः, शय्या वसतिः, सा ऋतुक्षमा दातव्या, जडाबलपरिक्षीणाश्च भवन्ति, तदा वृद्धाऽऽवासमध्यासते, तत्रैव क्षेत्रे संस्तारको मृदुकः क्षेत्रसंक्रमे क्षेत्रान्तरं संक्रामयितव्ये तस्योपधिमन्ये वसन्तोऽपि वसतिदोषैः कालातिक्रान्ताऽऽदिभिः, चशब्दादाहारोपधि- वहन्ति, पानीयेन वाऽनुकम्पना / उक्ता जातिस्थ-विरस्याऽनुकम्पा / दोषैश्च वियुक्ता वर्जिता भवन्ति, न तैर्लिप्यन्त इत्यर्थः / / 407 / / श्रुतस्थविरस्य पूजामाह-(किति इत्यादि) कृतिच्छन्दोऽनुवृत्तिभ्यां मोत्तुं जिणकप्पठिई,जा मेरा एस वन्निया हेट्ठा। स्थविरं श्रुतस्थविरमनुवर्तयन्ति / किमुक्तं भवति?-श्रुतस्थविरस्य एसाउदुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पस्स // 408 / / कृतिकर्म वन्दनकं दातव्यम्, छन्दतश्च तस्याऽनुवर्तनीयम्। तथा-(उट्ठाण जिनकल्पस्थितिग्रहणेन, उपलक्षणत्वात् सर्वेषामपि गच्छनिर्गतानां त्ति) आगतस्याऽभ्युत्थानं कर्तव्यम्, आसनप्रदानम् / आदिशब्दात स्थितिः परिगृह्यते। ततस्तां मुक्त्वा, या अधस्तादस्मिन्नेवाध्ययने मर्यादा पादप्रमार्जनाऽऽदिपरिग्रहः। तथा योग्याऽऽहारोपनयनम्, समक्षपरोक्षस्थितिरेषा अनन्तरमेव वर्णिता / यद्वा-सामायिकाध्ययनमादौ कृत्वा त्वाभ्यां प्रशंसना गुणकीर्तनम् / तथा-तत्समक्ष नीचशय्यायामवस्थायावदस्मिन्नेवाध्ययने इदं षद्धिधकल्पस्थितिसूत्रमत्रान्तरे गच्छनिर्गत तव्यं, निर्देशवर्तित्वम्, एवं श्रुतं श्रुतस्थविर पूजयेत् / तथा--पर्याय स्थविरस्याऽगुरोरप्यप्रव्राजकस्याप्यवाचनाऽऽचार्यस्याऽप्यागच्छत सामाचारी मुक्त्वा या शेषा सामाचारी वर्णिता सा द्विपदयुक्ता उत्सर्गाप उत्थानं कुर्वन्ति,वन्दनकं, वक्ष्यमाणतो दण्डकस्य च ग्रहणमिति सत्रम। वादपदद्वययुक्ता स्थविरकल्पसंस्थितिर्भवति।। 408 / / बृ०६उ०। ध्य०१०3०1 थविरकप्पिय पुं०(स्थविरकल्पिक) स्थविरकल्पमाश्रिते, प्रव० 70 थविरभूमिपत्त त्रि०(स्थविरभूमिप्राप्त) आचार्यपदप्राप्ते, व्य० 170 / द्वार / बृ० सूत्रार्थतदुभयोपेते, बृ०१3०। थविरभूमि स्त्री०(स्थविरभूमि) स्थविरो वृद्धस्तस्य भूमयः स्थविर थविरय पुं०(स्थविरक) जीणे , आचा०१ श्रु०१ अ०२उ०। सूत्र भूमयः। वृद्धपदवीषु, स्था०३ठा०२उ०। शतातीते वृद्धे, "पिया ते थेरओ तात ! ससा ते खुड्डिया इमा।" (3) स्थविरभूमय: सूत्र०१ श्रु०३अ०२301 तओ थेरभूमीओ पन्नत्ताओ / तं जहा-जातिथेरे, सुयथेरे, | थविरवेयावच न०(स्थविरवैयावृत्य) स्थविराणां भक्तपानाऽऽदिभिपरियायथेरे य / सद्विवरिसजाए जातिथेरे, ठाणसमवायधरे रापष्टम्भे, औ०। (स्थविरवैयावृत्य थविरभूमि' शब्देऽनुपदमेव संक्षेपतः सुयथेरे, वीसवासपरियाए परियायथेरे।। प्रोक्तम्) अस्य सूत्रस्य संबन्धमाह-- थविरावली स्त्री०(स्थविराऽऽवली) ऐदयुगीनसाधूनामुपकारार्थ प्रवचनथेराणमंतिए वासो, सो य थेरो इमो तिहा। नेतृणामावलिकायाम्, नं० भूमि त्ति य ठाणं ति य, एगट्ठा हों ति कालो य / / ___ सा च सुधर्मस्वामिनः प्रवृत्ताअनन्तरसूत्रे अन्तेवासिन उक्ताः। अन्तिके निवासः स्थविराणाम, सच सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं / स्थविरोऽयं वक्ष्यमाणस्त्रिधेत्यनेन क्रमेण सूत्रमिदं समापतितमित्येष पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छ सिजंभवं तहा // 25 / / सूत्रसंबन्धः / संप्रत्यस्य व्याख्यातिनः स्थविराणां भूमयः प्रज्ञप्ताः- वसभरूं तुंगियं वंदे, भूयं चेव य माढरं। भूमिरिति स्थानमिति अवस्थारूपः काल इति त्रयोऽपि शब्दा एकार्थाः। भद्दबाहुं च पाइन्नं, थूलभदं च गोयमं // 26|| "थेरभूमि त्ति वा, थेरठाणं ति वा, थेरकालो त्ति वा एगट्ठमिति।" एलावचसगोतं, वंदामि महागिरिं सुहत्थिं च / तिविहम्मि य थेरम्मी, परूवणा जा जहिं सए ठाणे। तत्तो कोसियगुत्तं, बहुलस्स सरिव्वयं ("सरिव्वयं सदृश्ववयसम्।) अणुकंप सुए पूआ, परियाए वंदणाऽऽदीणि / / वंदे // 27 // त्रिविधस्थविरे त्रिविधस्थविरविषये या यत्र स्वके स्थाने प्ररूपणा सा हारियगुत्तं साइं, वंदामो हारियं च सामजं / सूत्रतः कर्तव्या। तद्यथा-पश्विर्षजातोजातिस्थविरः,स्थानसमवायधरः वंदे कोसियगुत्तं, संडिल्लं अज्जजीयधरं / / 28|| श्रुतस्थविरः विंशतिवर्षपर्यायः पर्यायस्थविरः। तथा जातिस्थविरस्यानु- तिसमुद्दखायकित्तिं, दीवसमुद्देसु गहियपेयालं। कम्पा कर्तव्या, श्रुते श्रुतस्थविरस्य पूजा, पर्याय पर्यायस्थविरस्य वन्द- वंदे अजसमुई, अक्खुभियसमुद्दगंभीरं // 26 / / नाऽऽदीनि / भणगं करगं झरगं, पभावगं णाणदसणगुणाणं / ___ संप्रत्येतान्येव त्रीणि कर्तव्यानि विस्तरेणाऽऽह वंदामि अज्जमगुं, सुयसागरपारगं धीरं // 30 // आहारोवहिसेना-संथारे खेत्तसंकमे। वंदामि अजधम्म, तत्तो वंदे य भद्दगुत्तं च / कितिछंदाणुवत्तीहिं, अणुवत्तंति थेरगं / / तत्तो य अजवइरं, तवनियमगुणेहिं वइरसमं // 31 // उट्ठाणाऽऽसणदाणाऽऽदी,जोग्गाऽऽहारप्पसंसणा। वंदामि अजरक्खिय-खमणे रक्खियचरित्तसव्वस्सो।
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________________ थविरावली 2365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरावली रयणकरंडगभूआ, अणुओगा रक्खिआ जेहिं // 32 // नाणम्मि दंसणम्मि य, तवविणयणिचकालमुजुत्तं / अजयनंदिलखमणं, सिरसा वंदे पसंतमां // 33 / / ववतु वायगवंसो, जसवंसो अज्जनागहत्थीणं। वागरणकरणभंगिय-कम्मप्पयडीपहाणाणं // 34 // जचंजणधाऊसम-प्पहाणमुद्दियगवलयनिहाणं / वडतु वायगवंसो, रेवइनक्खत्तनामाणं // 35 / / अयलपुरा णिक्खंते, कालियसुयआणुओगिए धीरे / बंभद्दीवगसीहे, वायगपयमुत्तमं पत्ते / / 36 / / जेसु इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अद्धभरहम्मि। बहुनयरनिग्गयजसे, तं वंदे खंदिलायरिए / / 37 / / तत्तो हिमवंतमहं-तविक्कमे धिइपरक्कममहंते / सज्झायमणंतधरे, हिमवंते वंदिमो सिरसा // 38 / / कालियभुय अणुओ-गधारए धारए य पुव्वाणं / हिमवंतखमासमणे, वंदे णागजुणायरिए // 36 / / मिउमद्दवसंपन्ने, अणुपुट्विं वायगत्तणं पत्ते। ओहसुयसमायारे, नागज्जुणवायए वंदे / / 4 / / गोविंदाणं पि नमतो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं / निचं खंतिदयाणं, परूवणे दुल्लभे दाणं / / 41 / / तत्तो य भूयदिन्नं, निच्चं तवसंजमे अनिच्चित्तं / पंडियजणसामन्नं, वंदामी संजमविहिन्नू // 42 / / वरकणगतवियचंपग-विउलवरकमलगब्भसरिवन्ने / भवियजणहिययदइए, दयागुणविसारए धीरे / / 43 / / अड्डभरहप्पहाणे, बहुविहसज्झायसुमुणियपहाणे। अणुओगियवरवसते, नाइलकुलवंसनंदिकरे॥४४॥ भूयहियकरपगब्भे, वंदेऽहं भूयदिनमायरिए। भवभयवुच्छेयकरे,सीसे नागजुणरिसीणं // 45 / / सुमुणियनिचानिचं, सुमुणियसुत्तत्थधारयं निचं / वंदेऽहं लोहिचं, सब्भावुब्भावणातचं // 46|| अत्थमहत्थयखाणिं, सुसमणवक्खाणकहणनिव्वाणिं / पयईऍ महुरवाणिं, पयओ पणमाडि दूसगणिं / / 47 // तवनियमसचसंजम-विणयऽजवखंतिमद्दवरयाणं / सीलगुणग्गहियाणं, अणुओगजुगप्पहाणाणं / / 48} / सुकुमालेकोमलतले, तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे। पाए पावयणीणं, पडिच्छगसएहिं पणिवइए ||4|| जे अन्ने भगवंते, कालियसुयअणुओगिए धीरे। ते णमिऊणं सिरसा, नाणस्स परूवणं वोच्छं // 50 // इह स्थविराऽऽवलिका सुधर्मस्वामिनः प्रवृत्ता, शेषगणधराणां सन्तानप्रवृत्तेरभावात् / नं० तदाहअवसेसा गणहरा निरवच्चा वुच्छिन्ना 4 / समणे भगवंमहावीरे कासवगुत्ते / समणस्स णं भगवओ महावीरस्स कासवगुत्तस्स अजसुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणगोत्ते / थेरस्स णं अन्जसुहम्मस्स अग्गिवेसायणसगोत्तस्स अजजंबूनामे णं थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते। थेरस्सणं अज्जजंबूनामस्स कासवगोत्तस्स अज्जप्पमवे थेरअंतेवासी कच्चायणसगोत्ते / थेरस्सणं अज्जप्पभवस्स कच्चायणसगोत्तस्स अज्जसिजंभवे थेरे अंतेवासी मणगपिया वच्छसगोत्ते / थेरस्स णं अजसिजंभवस्स मणगपिउणो वच्छसगोत्तस्स अज्जजसभद्दे थेरे अंतेवासी तुंगियायणसगोत्ते 5 / संखित्तवायणाए अज्जजसभद्दाओ अग्गओ एवं थेरावली भणिया। तं जहा-थेरस्स णं अञ्जजसभहस्स तुंगियायणसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेराथेरे अज्जसंभूइविजए माढ रसगुत्ते,थेरे अञ्जभद्दबाहू पाईणसगुत्ते / थे रस्स णं अज्जसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जथूलभहे गोयमसगोत्ते / थेरस्स णं अज्जथूलभद्दस्स गोयमसगोतस्स अंतेवासी दुवे थेरा थेरे अजमहागिरी एलावञ्चसगोत्ते, थेरे अज्जसुहत्थी वासिट्ठसगोत्ते / थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिट्ठसगुत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरासुट्टियसुप्पडिबुद्धा, कोडियकाकंदगा वग्घावच्चसगोत्ता / थेराणं सुट्ठियसुप्पडिबुद्धाणं कोडियकाकंदगाणं वग्धावचसगुत्ताणं अंतेवासी थेरे अजइंददिण्णे कोसियगुत्ते / थेरस्स णं अज्जइंददिण्णस्स कोसियगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजदिण्णे गोअमसगुत्ते / थेरस्स णं अञ्जदिण्णस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अजसीहगिरी जाईसरे कोसियसगोत्ते / थेरस्स णं अजसीहगिरिस्स जाईसरस्स कोसियसगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरे गोयमसगोत्ते। थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरसेणे उक्कोसियगोत्ते / थेरस्स णं अजवइरसेणस्स उक्कोसियगोत्तस्स अंतेवासी चत्तारि थेरा-थेरे अज्जनाइले, थेरे अज्जपोमिले, थेरे अजजयंते, थेरे अज्जतावसे। थेराओ अज्जनाइलाओ अजनाइला साहा निग्गया। थेराओ अजपोमिला-ओ अज्जपोमिला साहा निग्गया। थेराओ अजजयंताओ अजजयंती साहा निग्गया। थेराओ अज्जतावसाओ अज्जता-वसी साहा निग्गया इति॥६॥ वित्थरवायणाए पुण अज्जजस-भद्दाओ पुरओथेरावली एवं पलोइज्जइ / तं जहा-थेरस्स णं अज्जजसभद्दस्स तुंगियायणसगोत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था। तं जहा-थेरे अञ्जभद्दबाहू पाईणसगोत्ते, थेरे अजसंभूइविजए माढरसगुत्ते / थेरस्स णं अज्जभद्दबाहुस्स पाईणसगोत्तस्स इमे
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________________ थविरावली 2366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरावली चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था / तं जहाथेरे गोदासे, थेरे अग्गिदत्ते, थेरे जण्णदत्ते, थेरे सोमदत्ते कास--- वगोत्ते ण्णं / थेरेहिंतो गोदासेहिंतो कासवगुत्तेहिंतो इत्थ णं गोदासे गणे नामंगणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जति / तं जहा-तामलित्तिआ, कोडिवरिसिया, पोडवद्धणिया, दासीखव्वडिया। थेरस्सणं अजसंभूइविजयस्स माढरसगोत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था / तं जहा"नंदणभद्दे थेरे, उवणंदे तीसभड़े जसभद्दे / थेरे असुमणभद्दे, मणिभद्दे पुन्नभद्दे य // 1 // थेरे अ थूलभद्दे, उज्जुमई जंबुनामधिज्जे य / थेरे य दीहभद्दे, थेरे तह पंडुभद्दे यासा" थेरस्स णं अजसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स इमाओ सत्त अंतेवासिणीओ अहावचाओ अभिन्नायाओ होत्था। तं जहा"जक्खा य जक्खदिन्ना, भूया तह चेव भूयदिन्ना य। सेणा वेणा रेणा, भइणीओ थूलभहस्स / / 1 / / " थेरस्सणं अज्जथूलभद्दस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंते-- वासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था / तं जहा-थेरे अज्जमहागिरी एलावचसगोत्ते, थेरे अजसुहत्थी वासिट्ठसगोत्ते। थेरस्स णं अज्जमहागिरिस्स एलावबसगोत्तस्स इमे अट्ठ थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था / तं जहा-थेरे उत्तरे, थेरे बलिस्सहे, थेरे धणड्डे, थेरे सिरिभद्दे ,थेरे कोडिन्ने, थेरे नागे, थेरे नागमित्ते, थेरे छडुलूए रोहगुत्ते कोसियगुत्ते णं / थेरेहिंतो णं छडुलूएहितो रोहगुत्तेहिंतो कोसियगुत्तेहिंतो तत्थ णं तेरासिया साहा णिग्गया / थेरेहिंतो णं उत्तरबलिस्सहेहिंतो तत्थ णं उत्तरबलिस्सहे नामं गणे णिग्गए / तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ एवमाहिज्जंति / तं जहा-कोसंपिया, सोइत्तिया, कोडवाणी, चंदनागरी। थेरस्सणं अजसुहत्थिस्स वासिट्ठसगोत्तस्स इमे दुवालस्स थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था / तं जहा"थेरे अ अज्जरोहणे, भद्दजसे मेहगणिअ कामिड्डी। सुट्ठिय सुप्पडिबुद्धे, रक्खिय तह रोहगुत्ते य / / 1 / / इसिगुत्ते सिरिगुत्ते, गणी य बंभे गणी य तह सोमे / दस दो अ गणहरा खलु, एए सीमा सुहत्थिस्स / / 2 / / " थेरेहिंतो णं अज्जरोहणेहिंतो कासवगुत्तेहिंतो तत्थ णं उद्देहगणे णामं गणे निग्गए। तस्सिमाओ चत्तारिसाहाओ निग्गयाओ, छच्च कुलाई एवमाहिजंति। से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिजंति / तूं जहा-उदुंवरिजिया, मासपूरिया, मइंपत्तिया, | पुन्नपत्तिया। सेत्तं साहाओ। से किं तं कुलाइं ? कुलाई एवमाहिअंति। तं जहा"पढमं च नागभूयं, बीअं पुण सोमभूइअंहोइ। अह उल्लगच्छ तइयं, चउत्थयं हत्थलिज्जं तु / / 1 / / पंचमगं नंदिजं, छटुं पुण पारिहासियं होइ। उद्देहगणस्सेए, छच्च कुला हुंति नायव्वा / / 2 / / " थेरेहिंतो णं सिरिगुत्तेहिंतो हारियसगोत्तेहिंतो इत्थ णं चारणगणे नामंगणे णिग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, सत्त य कुलाइं एवमाहिचंति / से किं तं साहाओ ? साहाओ एवमाहिचंतितं जहा-हारिअमालागारी, संकासिआ, गवेधुआ, वजनागरी / से त्तं साहाओ / से किं तं कुलाइं? कुलाई एवमाहिजंति / तं जहा "पढमित्थ वत्थलिजें, वीयं पुण पीइधम्मिअं होइ। तइअं पुण हालिज, चउत्थयं पूसमित्तिज्जं / / 1 / / पंचमगं मालिजं, छटुं पुण अज्जवेडयं होइ। सत्तमगं कण्हसह, सत्त कुला चारणगणस्स // 2 // " थेरेहिंतो णं भवजसे हिंतो भारद्दायसगोत्तेहिंतो एत्थ णं उड्डधाडिगणे नामं गणे णिग्गए / तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, तिन्नि कुलाई एवमाहिजंति / से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिज्जति / तं जहा-चंपिज्जिया, भद्दिजिया, काकंदिआ, मेहलिज्जिया / सेत्तं साहाओ। से किं तं कुलाई? कुलाइं एवमाहिऑति / तं जहा"भद्दजसिअ तह भद्दगु-त्तिअंतइअंच होइ जसमदं / एयाई उडुवाडिय-गणस्स तिन्नेवं य कुलाई // 1 // " थेरेहिंतो ण कामिड्डीहिंतो इत्थ णं वेसवाडियगणे णामं गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, चत्तारि कुलाई एवमाहिज्जंति / से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिजंति / तं जहा-सावत्थिया, रजपालिया, अंतरिज्जिया,खेमलिज्जिया। सेत्तं साहाओ / से किं तं कुलाइं? कुलाई एवमाहिज्जंति / तं जहा"गणिअं मेहिय काम-डिअंच तह होइ इंदपुरगं च / एयाइं वेसवाडिय-गणस्स चत्तारि उकुलाई // 1 // " थेरोहिंतो णं इसिगुत्तेहिंतो कार्कदिएहिंतो वासिट्ठसगोत्तेहिंतो एत्थ णं माणवगणे णामं गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, तिन्नि य कुलाई एवमाहिजंति ! से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिज्जंति। तं जहा-कासविजिया, गोअभिजिया, वासिटिआ, सोरहिआ। सेत्तं साहाओ। से किं तं कुलाई? कुलाई एवमाहिजंति तं जहा"इसिगुत्तियऽत्थ पढम,बीयं इसिदत्ति मुणेअव्वं / तइयं च अभिजयंतं, तिन्नि कुला माणवगणस्स / / 1 / / "
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________________ थविरावली २३६७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थविरावली थेरेहिंतो णं सुट्टियसुप्पडिबुद्धेहिंतो कोडियकाकंदएहिंतो वग्धावच्चसगोत्तेहिंतो इत्थ णं कोडियगणे णामं गणे निग्गए। तस्स णं इमाओ चत्तारि साहाओ, चत्तारि कुलाई च एवमाहि-- जंति / से किं तं साहाओ? साहाओ एवमाहिखंति / तं जहा"उच्चानागरि विज्ञाहरी य वइरी य मज्झिमिल्ला य / कोडियगणस्स एया, हवंति चत्तारि साहाओ ||1||" सेत्तं साहा / स किं तं कुलाई कुलाई एवमाहिज्जति / तं जहा"पढमित्थ बंभलिज्जं, बिइयं नामेण वत्थलिजं तु / तइयं पुण वाणिज्जं, चउत्थयं पण्हवाहणयं / / 1 / / " थेराणं सुट्टियसुप्पडिबुद्धाणं कोडियकाकंदगाणं वग्धावचसगोत्ताणं इमे पंच थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था / तं जहा-थेरे अजईददिन्ने पियगंथे,थेरे विजाहरगोवाले कासवगुत्ते णं,थेरे इसिदत्ते, थेरे अरिहदत्ते / थेरेहिंतो णं पियगंथेहिंतो एत्थं णं मज्झिमा साहा निग्गया, थेरेहिंतो णं विजाहरगोवाले हिंतो कासवगोत्तेहिंतो एत्थ णं विजाहरी साहा निग्गया / थेरस्स णं अज्जइंददिण्णस्स कासवगुत्तस्स अज्जदिन्ने थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते। थेरस्स णं अजदिणस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था / तं जहा-थेरे अज्जसंतिसेणिए माढरसगुत्ते, थेरे अज्जसीहगिरीजाईसरे कोसियगोत्ते / थेरेहिंतो णं अज्जसंतिसेणिएहिंतो माढरसगोत्तेहिंतो एत्थ णं उच्चना-- गरी साहा निग्गया। थेरस्सणं अजसंतिसेणियस्स माढरसगो--- तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था / तं जहा-थेरे अज्जसेणिए, थेरे अज्जतावसे, थेरे अजकुबेरे, थेरे अज्जइसिपालिए! थेरेहिंतो णं अज्जसेणिएहिंतो एत्थ णं अज्जसेणियो साहा निग्गया।थेरेहिंतो णं अज्जतावसेहिंतो एत्थ णं अज्जतावसी साहा निग्गया। थेरेहिंतो णं अजकुवेरेहिंतो णं इत्थ णं अज्जकुबेरा साहा निग्गया। थेरेहिंतो अजइसिमालिए-हिंतो इत्थ णं अजइसिपालिया साहा निग्गया। थेरस्स णं अजसीहगिरिस्स जाईसरस्स कोसियगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था / तं जहा-थेरे धणगिरी, थेरे अज्जवइरे,थेरे अज्जसमिए, थेरे अरिहदिन्ने / थेरेहिंतो णं अज्ञसमिएहिंतो गोयमसगुत्तेहिंतो इत्थ णं बंभदीविया साहा निग्गया / थेरेहिंतो णं अजवइरेहिंतो गोयमसगोत्तेहिंतो इत्थ णं अज्जवइरी साहा निग्गया ।थेरस्स णं अज्जवइरस्स गोयम-- सगुत्तस्स इमे तिन्निथेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था। तं जहा-थेरे अज्जवइरसेणे, थेरे अजपउमे, थेरे अञ्जरहे। थेरेहिंतो णं अजवइरसेणे हिंतो इत्थ णं अज्जनाइली साहा निग्गया। थेरेहिंतो णं अज्जपउमेहिंतो अज्जपउमा साहा निग्गया, थेरेहिंतो णं अजरहेहिंतो इत्थ णं अजजयंती साहा निग्गया। थेरस्सणं अज्जरहस्स वच्छसगुत्तस्स अज्जपूसगिरी थेरे अंतेवासी कोसियगुत्ते / थेरस्स णं अज्जपूसगिरिस्स कोसियगुत्तस्स अजफग्गुमिते थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते। थेरस्सणं अजफग्गुमित्तस्स गोयमसगुत्तस्स अजधणगिरी थेरे अंतेवासी वासिट्ठसगोत्ते / थेरस्स णं अजधणगिरिस्स वासिट्ठसगोत्तस्स अज्जसिवभूई थेरे अंतेवासी कुच्छसगुत्ते / थेरस्सणं अञ्जसिवभूइस्स कुच्छसगोत्तस्स अज्जभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते / थेरस्सणं अज्जभवस्स कासवगुत्तस्स अज्जनक्खत्ते थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते / थेरस्सणं अजनक्खत्तस्स कासवगुत्तस्स अजरक्खे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते / थेरस्स णं अजरक्खस्स कासवगोत्तस्स अज्जनागे थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते / थेरस्स णं अज्जनागस्स गोयमसगोत्तस्स अजजे हिले थेरे अंतेवासी वासिट्ठसगुत्ते / थेरस्स णं अज्जजेहिलस्स वासिट्ठसगोत्तस्स अज्जविण्हू थेरे अंतेवासीमाढरसगोत्ते / थेरस्सणं अजविण्हुस्स माढरसगोत्तस्स अज्जकालए थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते। थेरस्स णं अञ्जकालियस्स गोयमसगोत्तस्स इमे दुवे थेरा अंतेवासी गोयमसगोत्ता-थेरे अजसंपलिए, थेरे अज्जभद्दे / एएसिणं दुण्हं थेराणं गोयमसगुत्ताणं अञ्जवुड्ड थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते / थेरस्स णं अज्जवुड्डस्स गोयमसगोत्तस्स अजसंघपालिए थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते! थेरस्सणं अजसंघपालियस्स गोयमसगोत्तस्स अज्जहत्थी थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते / थेरस्स णं अजहत्थिस्स कासवगोत्तस्स अजधम्मे थेरे अंतेवासी सुव्वयगोत्ते / थेरस्स णं अजधम्मस्स सुव्वयगोत्तस्स अज्जसीहे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते / थेरस्स णं अजसीहस्स कासवगुत्तस्स अजधम्मे थेरे अंतवासी कासवगुत्ते / थेरस्स णं अजधम्मस्स कासवगोत्तस्स अजसंडिल्ले थेरे अंतेवासी। "वंदामि फग्गुमित्तं, च गोयमंधणगिरिं च वासिहूं। कुच्छं सिवभूई पि य, कोसिय दुजंत कण्हे य / / 1 / / तं वंदिऊण सिरसा, भदं वंदामि कासवसगुत्तं / नक्खं कासवगुत्तं, रक्खं पि य कासवं वंदे // 2 // वंदामि अज्जनाग, च गोयमं जेहिलं च वासिहूं। विण्हुं माढरगुत्तं, कालगमवि गोयमं वंदे / / 3 / /
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________________ थविरावली 2368 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावबापुत्त गोयमगुत्तकुमारं, संपलियं तह य भद्दयं वंदे। थाणविसेस पुं०(स्थानविशेष) आसनविशेष, विशे०। थेरं च अजवुद्धं, गोयमगुत्तं नमसामि !|4|| थाणाणिउत्त त्रि०(स्थानानियुक्त) सामान्यसाधुषु, बृ०१ उ०। तं वंदिऊण सिरसा, थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्नं / थाणु पुं०(स्थाणु) "स्थाणावहरे" ||8|27 // इति हरेऽर्थे स्थस्य न थेरं च संघवालिय-कासवगुत्तं पणिवयामि / / 5 / / खः / प्रा०२ पाद / हरे, शिवे, को। स्तम्भे, स्था०४ ठा०२उ०। वंदामि अज्जहत्थिं, च कासवं खंतिसागरं धीरं / कीलके, विशेष गिम्हाण पढममासे, कालगयं चेव सुद्धस्स / / 6 / / थामन०(स्थामन्) वीर्ये, बृ०१उ० "जोगो धीरियंथाम' इत्ये-कार्थाः / वंदामि अजधम्म, च सुव्वयं सीललद्धिसंपन्नं / आ०म०१ अ०२खण्ड। आ०चूल। नि०चूला पं०सं०। क्रियायाम, (ग०) जस्स (स) निक्खमणे देवो, छत्तं वरमुत्तमं वहइ / / 7 / / सामर्थ्य, ग०१ अधि०। सूत्र०ा प्राणे, शारीरबलयुक्ते, ओघ०। ज्ञा०। हत्थं कासवगुत्तं, धम्मं सिवसाहगं पणिवयामि। पिं०। स्था०। बलवति, त्रि०ा नि०चू०११ उ०। विस्तीर्णार्थेषु, देवना०५ वर्ग 25 गाथा। सीह कासवगुत्तं, धम्म पि अ कासवं वंदे ||8|| तं वंदिऊण सिरसा, थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्नं / थामवं त्रि०(स्थामवत्) स्थान बलं,तदस्य संयमविषयमस्तीति स्थामवान् / उत्त०२ अ०। शीताऽऽतपाऽऽदिसहनं प्रति सामर्थ्यवति, थेरं च अजजंबु, गोयमगुत्तं नमसामि ||6|| उत्त०२ अ०। मनोबलयुक्ते, (उत्त०) धैर्ययुक्ते, उत्त०२अ०। मिउमद्दवसंपन्नं, उवउत्तं नाणदंसणचरित्ते। थामावहारविजढ त्रि०(स्थामापहारविमुक्त) अनिगृहीतबलवीर्ये , थेरं च नंदिअंपि य, कासवगुत्तं पणिवयामि / / 10 / / बृ०१301 तत्तो अ थिरचरित्तं, उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्तं / थार पुं०(देशी) घने, दे०ना०५ वर्ग 27 गाथा। देवड्डिगणिखमासमणं, माढरगुत्तं नमसामि / / 1 / / थाल न०(स्थाल)बट्टे, भ०१५ शापाकपात्रेच आचा०२ श्रु०१ चू०१ तत्तो अणुओगधरं, धीरं मइसागरं महासत्तं / * अ०१उ०। रा०ा जा थिरगुत्तखमासमणं, वच्छसगुत्तं पणिवयामि।।१२।। थालइ पुं०(स्थालकिन्) गृहीतभाण्डे वानप्रस्थभेदे, नि०१ श्रु०१ वर्ग० तत्तो अनाणदंसण-चरित्ततवसुट्ठिअंगुणमहंतं / 7 अ०। औ०। भ०। थेरं कुमारधम्म, वंदामि गणिं गुणोवेयं / / 13 / / थालपाणय न०(स्थालपानक) स्थालं त्रट्ट तत्पानकमिव दाहोसुत्तत्थरयणभरिए, खमदममवगुणेहिं संपन्ने / पशमहेतुत्वात् स्थालपानकम् / आजीविकानामकल्पनीये स्थालके, देविड्डिखमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि / / 14 / / भ०१५ शा कल्प० 4 क्षण। थाली स्त्री०(स्थाली) उखायाम्, जी०३ प्रति०२ उ०। पिठाम, स्थाने थविरोवघाइय पुं०(स्थविरोपघातिक) स्थविरा आचार्याऽऽदिगुरव ३ठा०१उ०। सू०प्र०ा आ०म० स्तान् आचारदोषेण शीलदोषेणावज्ञाऽऽदिभिर्वोपहन्तीत्येवंशीलः, स एव थालीपाग त्रि०(स्थालीपाक) स्थाल्यामुखायां पाको यस्य तत्स्थालीवा स्थविरोपघातिकः / दशा०२ अ० स्था०। षष्ठा-समाधिस्थे, पाकम् / स्थाल्या पक्के, स्था०। ''थालीपागसुद्धं मणुण्णं भोयणं / " आ०क०४अ०। दशा०आ०चू०। स्थाली पिठरी, तस्यां पाको यस्य तत्तथा / अन्यत्र हि पक्कमपक्वं वा न थवी स्त्री०(देशी) प्रसेविकायाम्, दे०ना०५ वर्ग 25 गाथा। तथाविधं स्यादितीद विशेषामिति / शुद्धं भक्तदोषवर्जित, स्थालीपाकं थस पुं०(देशी) विस्तीर्णार्थषु, देवना०५ वर्ग 25 गाथा। च तच्छुद्धं स्थालीपाकेन वा शुद्धमिति विग्रहः। स्था०३ ठा०१उ०। थह पुं०(देशी) निलये, देना०५ वर्ग 24 गाथा। थावचा स्त्री०(स्थापत्या) द्वारवतीवासिन्यां स्वनामख्यातायां थाइणी स्त्री०(स्थायिनी) प्रतिवर्षविजननशीलायाम्, स्थायिन्यो नाम गृहपतिकश्याम, ज्ञा०१ श्रु०५ अ० वडवास्ता उच्यन्ते वर्षे वर्षे विजायन्ते याः। बृ०३३०। थावचापुत्त पुं०(स्थापत्यापुत्र) स्थापत्याया गृहपतिकायाः सुते, ज्ञा०१ थाऊण अव्य०(स्थित्वा) गतेर्निवृत्त्येत्यर्थ, प्रा०४ पाद। श्रु०४ अ० थाण न०(स्थान) "स्थः ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः" ||8|4|16|| इति तद्वक्तव्यतास्थाधातोष्टादेशो बाहुलकत्वान्न / प्रा०४ पाद। जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवई णामं नयरी होत्था; थाणणिउत्त त्रि०(स्थाननियुक्त) स्थाने पदे नियुक्ताः स्थाननियुक्ताः। / पाईणपडीणायामा उदीणदाहिणवित्थिण्णा नवजोयणवि प्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकाऽऽख्येषु पदस्थ गीतार्थेषु, बृ०१उ०। त्थिण्णा दुवालसजोयणाऽऽयामा धणवइमइणिम्माया थाणय नं० (देशी) आलवाले, देना०५ वर्ग 27 गाथा। चामीयरपवरपागारा णाणामणिपंचवण्णक (वि) सीसग
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________________ थावचापुत्त 2366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावचापुत्त सोहिया अलयापुरीसंकासा पमुइयपक्कीलिया पञ्चक्खं देवलोगभूया। तीसे णं वारवईए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए रेवतगे णामं पव्वए होत्था; तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे णाणाविहगुच्छगुम्मलयावल्लिपरिगते हंसमिगमयूरकोंचस-- रिसचक्कवायमयणसारकोइलकुलोववेए अणेगतडकडगविवरउज्झरपावयपब्भारसिहरपउरे अच्छरगणदेवसंघचारणविजाहरमिहुणसंकिण्णे निच्चत्थणए दसारवरवीरपुरिसतेलोकबलवगाणं, सोमेसुभगे पियदंसणे सुरूवे पासादीए दरिसणीए अभिरूवे पडिरूवे / तस्स णं रेवयगस्स पव्वयस्स अदूरसामंते एत्थ णं नंदणवणे णामं उजाणे होत्था; सव्वओ य पुप्फफलसमिद्धे रम्मे गंदणवणप्पगासे पासादीए / तस्स णं उज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए सुरप्पिए णामं जक्खाययणे होत्था, दिव्वे वण्णओ / तत्थ णं वारवईए णगरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसति। से णं तत्थ समुद्दविजयपाडोक्खाणं दसण्हं दसाराणं बलदेवपाडोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं उग्गसेणपा-मोक्खाणं सोलसण्हं राईसहस्साणं पज्जुण्णपामोक्खाणं अद्भुट्ठाणं कुमारकोडीणं संबपामोक्खाणं सट्ठीणं दुदंतसाहस्सीणं वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसहस्सीणं महा-सेणपाडोक्खाणं छप्पणाए बलवगासाहस्सीणं रुप्पिणिपा-मोक्खाणं वत्तीसाए महिलासाहस्सीणं अणंगसेणपामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं राईसरतलवर० जाव सत्थवाहप्पभिईणं वेयड्डगिरिसागरपेरंतस्स दाहिणड्डभरहस्सय वारवईए णगरीए आहेवचं०जाव पालेमाणे विहरति। तत्थणं वारवतीए णयरीए थावच्चा णामं गाहावतिणी परिवसति। अड्डा जाव अपरिभूया। तीसे णं थावच्चाए गाहावतिणीए पुत्ते 'थावचापुत्ते' णामं सत्थवाहदारए होत्था, सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे / तए णं सा थावचा गाहावइणी तं दारगं साइरेगअट्ठवाससयं जाणित्ता सोहणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुत्तंसि कलाऽऽयरियस्स उवणे ति०जाव भोगसमत्थं जाणेत्ता बत्तीसाए बालियाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हावेइ, बत्तीसाओ दाओ जाव बत्तीसाए इब्भकुलबालियाहिं सद्धिं विपुले सहफरिसरासरूवगंधे जाव भुंजमाणे विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहाअरिट्ठनेमी सो चेव बण्णओ-दसधणुस्सेहे नीलुप्पलगवलगुलियअयसीकु सुमप्पगासे अट्ठारसएहिं समणसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे०जाव जेणेव वारवती गगरी जेणेव रेवयगे पव्वए जेणेव णंदणवणउज्जाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खायतणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अहापडिरूवं उग्गह उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ। तए णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लद्धटे समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सहम्माए समाए मेघो-घरसियं गंभीरं महुरसबं कोडुईयं भेरिं तालेह / तए णं ते कोडंबियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा०जाव मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासीसामी! तह त्तिजाव पडिसुणे ति, पडिसुणेत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडि निक्खम इत्ता जेणेव सुहम्मा सभा जेणेव भेरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता तं मेघोघरसियगंभीरं महुरसद कोडुईयं भेरिं ताले ति / ततो णिद्धमहुरगंभीरपडिस्सुएणं पि वसारइएणं बलाहएणमणुरसियं भेरीए। तए णं तीसे कोडुईयाए भेरीए तालियाए समाणीए वारवईए नयरीए नव-जोयणवित्थिण्णाए दुवालसजोअणाऽऽयागाए संघाडगति-गचउक्कचच्चरकंदरदरीयविवरकुहरगिरिसिहरणगरगोपुरपासा-यदुवारभवणदेवउलपडिस्सुयासयसहस्ससंकुलं सह करेमाणा वारवई नयरिं सभिंतरियवाहिरियं सव्वओ समंता से सद्दे विप्पसरित्था। तए णं तीसे वारवतीए नयरीए नवजो अणवित्थिण्णाए दुवालसजोअणाऽऽयामाए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा० जाव गणियासहस्साए कोडुईयाए भेरीए सई सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठा०जाव ण्हाया आविद्धवग्घारियमल्लदामकलावाअहयवत्थचंदणोक्किण्णगायसरीरा अप्पेगइया हयगयर-हसीयासंदमाणी अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरा परिक्खित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउन्भवित्था / तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दसदसारे०जाव अंतियं पाउब्भवमाणे पासित्ता हट्ठतुढे०जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउरंगिणिं सेणं सजेह, विजयं च गंधहत्थिं च उवट्ठवेह / ते वि तहेव उवट्ठवें तिजाव पजुवासंति / थावचापुत्ते विणिग्गए, जहा मेहो तहेव धम्म सोचा निलम्म जेणेव थावचा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पायग्गहणं करेति, जहा मेहस्स तहा चेव णिवेयणा, जाहे नो संचाएति विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य विण्णवणाहि य सण्णवणाहिय आघवित्तए वा४, ताहे अकाडिया चेवथावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणमणुणित्था / तए णं सा थावचा गाहावइणी आसणाओ अब्भुट्टे ति, अब्भुट्टेइत्ता महत्थ महाघं महरिहं
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________________ थावचापुत्त 2400 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावचापुत्त रायारिहं पाहुडं गेण्हति, गेण्हित्ता मित्तणाइजाव संपरिवुडा उग्घोसणं करेह / एवं खलु देवाणु प्पिया! थावच्चापुत्ते जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवरपडिदुवारदेसभाए तेणेव संसारभयउव्विग्गे भीएजम्मणजरामरणाणं इच्छति अरहओ उवागच्छति, उवागच्छित्ता पडिहारदेसिएणं डग्गेणं जेणेव कण्हे अरिहने मिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए / जो खलु वासुदेवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयलं वद्धावेति, देवाणुप्पिया! राया वा जुवराया वा देवीवा कुमारे वा ईसरे वा वद्धावेत्तातं महग्घं महरिहं रायारिहं पाहुडं च उवणेति, उवणेइत्ता तलवरे वा कोडुंबियपुरिसा माडंबियइब्भसेडिसेणावइसत्थएवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते वाहे वाथावच्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयति, तस्सणं कण्हे वासुदेवे णामं दारए इ8 कंतेजाव से णं संसारभवउव्विग्गे इच्छति अणुभाणति, पच्छाऽऽतुरस्स वि य से मित्तणाइजो-गक्खेमं अरहओ णं अरडिनेमिस्स०जाव पव्वइत्तए, अहं णं णिक्खम- वट्टमाणी पडिवहति त्ति कट्ट घोसेणं घोसेह० जाव घोसंति / णसक्कारं करेमि, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्तस्स तएणंथावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं निक्खमणाभिमुहं निक्खममाणस्स छत्तमउडचामराओ वि दिण्णाओ। तए णं से पहायं सव्वालंकारविभूसियं पत्तेयं पत्तेयं पुरिससहस्सवाहिणीसु कण्हे वासुदेवे थावचागाहावइणिं एवं वयासी-अत्थाहिणं तुम सिवियासु दुरूढं समाणं मित्तणाति--परिवुडं थावचापुत्तस्स देवाणुप्पिया! सुणिव्वुया वीसत्था, अहंणं सयमेव थावचापुत्तस्स अंतियं पाउब्मवित्था / तए णं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्सं दारगस्स निक्खमणसकारं करिस्सामिातए णं से कण्हे वासुदेवे अंतिअं पाउब्भवमाणं पासइ, पासइत्ता कोडं बियपुरिसे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिर-यणं दुरूढे समाणे जेणेव सहावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-जहा मेहस्स निक्खमणाथावचाए गाहावतिणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता भिसेओ तहेवसीयपीएहिं कलसेहिं ण्हावेति, ण्हावेइत्ता तए णं थावच्चापुत्तं एवं वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया ! मुंडे भवित्ता से थावचापुत्ते सहस्सपुरिसे हिं सद्धिं सिवियाए दुरू ढे पव्वाहि, मुंजाहि णं देवाणुप्पिया! विपुले माणुस्सए कामभोगे समाणे०जाव रवेणं वारवईणयरिं मज्झं मज्झेणं जेणेव अरहओ ममं वाहुच्छायापरिग्गहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स अहं नो अरिहने मिसस छत्तातिछत्तं पडागाइपडागं पासंति, पासंतित्ता संचाएमि वाउकायं उवरि, से णं गच्छमिणं निवारेत्तए, अण्णोण्णं विज्ञाहरचारणजाव पासेत्ता सिवियाओ पचोरुहति। तएणं से देवाणुप्पियाणं जं किंचि वि आबाहं वा पवाह वा उप्पाएइ, तं , कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ कट्ट जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी सव्वं निवारेमि / तए णं थावयापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते सव्वं तं चेव आभरणं / तएणं थावचा गाहावइणी हंसलक्खणेणं समाणे किण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! पडसाडएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छइ, हारवारिधारममं जीवियंतकरणं मचू एजमाणं निवारेसि, जरं वा सरीररूपं च्छिन्नमुत्तावलिप्पगासाई अंसूणि विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयविणासिणिं सरीरं अ-वइयमाणिं णिवारेसि, तए णं अहं तव माणी एवं वयासी-जइ अव्वं जाया! घडिअव्वं जाया! परिमियव्वं बाहुच्छायापरिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे जीया ! अस्सिं च णं अढे णो पमादेअव्वं, जामेव दिसिं विहरामि। तए णं से कण्हे वासुदेवे थावचापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया / तए णं से थावापुत्ते थावचापुत्तं एवं बयासी-एएणं देवाणुप्पिया ! दुरतिक्कमणिज्जा पुरिससहस्सेणं सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति०जाव णो खलु सका सुबलि-एणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारेत्तए, | पव्वइए / तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे जाए इरियासमिए णण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं / तए णं से थावचापुत्ते कण्हं भासासमिए एसणासमिए आयाणभंममत्तणिक्खेवणासमिए वासुदेवं एवं वयासी-जइ णं एए दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु उच्चारपासवणखेलजल्लसंघाणपारिट्ठावणियासमिए। तएणं से सक्काजाव णण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं, तं इच्छामि णं थावंचापुत्ते अणगारे अरिहओ अरिष्टनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं देवाणुप्पिया ! अण्णाण-मिच्छत्त अविरइकसायसंचियस्स अंतिए सामाइयमाइयाइं चउद्दस-पुव्वाइं अहिजइ, बहूहिं०जाव अप्पणो कम्मक्खयं करेत्तए / तए णं से कण्हे वासुदेवे चउत्थं विहरेइ / तए णं अरिहा अरिट्ठनेमी थावयापुत्तस्स थावयापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे कोडं-बियपुरिसे सद्दावेति, अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयति / सद्दावेइत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया ! वारवईए तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे अणया कयाइं अरहं अरिट्ठनेमिं णयरीए सिंघाड गतिगचउक्क चचर० जाव महापहे सु वंदति, णमंसइ, णमंसइत्ता एवं बयासी-इच्छामि णं भंते ! हत्थिखंपवरगया महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्घोसेमाणा | तुडभेहिं अब्भणुण्णाए समाणे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं बहिया
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________________ थावचापुत्त 2401 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावचापुत्त जणवयविहारं विहरित्तए / अहासुहं देवाणुप्पिया ! तए णं से थावचापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं तेणं उरालेणं उदग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बहिया जणवयविहारं विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे णाम णगरे होत्था / वण्णओ। तस्स णं सेलगपुरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभागे णामं उज्जाणे होत्था। तस्सणं सेलगपुरस्स सेलए णामं राया होत्था, पउमावती देवी, भद्दए कुमारे जुवराया। तस्स णं सेलगस्स पंथगपामोक्खा णं पंच मंतिसया होत्था; चउबिहाए बुद्धीए उववेए रजधुरचिंतए यावि होत्था / तए णं थावच्चापुत्ते णाम अणगारे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं जेणेव सेलगपुरे जेणेव सुभूमिभागे णाम उज्जाणे तेणेव समोसढे / सेलए वि राया णिगए। धम्मो कहिओ। धम्मं सोचा जहाणं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा०जाव चइत्ता हिरण्णं विहरंति० जाव पव्वइए, तहा णं नो संचाएमि पव्वइत्तए / तओ णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वयं०जाव समणोवासए०जाव अभिगयजीवाजीवेजाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति / पंथगपामोक्खाणं पंच मंतिसया समणोवासगा जाया / थावच्चापुत्ते बहिया जणवयविहारं विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया णामं णगरी होत्था! वण्णओ। नीलासोए उज्जाणे / वण्णओ। तत्थ णं सोगंधियाए णयरीए सुदंसणे णाम णगरसेट्ठी परिवसइ, अड्डे० जाव अपरिभूए / तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए णाम परिव्वायए होत्था, रिउव्वेय-जजुव्वेय-सामवेय-अथव्व-णवेयसद्वितंतकुसले संखसमए लद्धढे पंचजमपंचणियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायगधम्मंदाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवे माणे पण्णवेमाणे धाउरत्तवत्थपरिहियए तिदंडकुंडियच्छत्तच्छण्णालियाअंकुसपवित्तियकेसरि-हत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिखुडे जेणेव सोगंधिया णयरी जेणेव परिव्वायगाऽऽवसहे तेणेव उवागच्छइ, उवाग-च्छइत्ता परिव्वायगाऽऽवसहंसि भंडणिक्खेवणं करेइ, करेइत्ता संखसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ / तए णं सोगंधियाए सिंघाडगबहुजणो अण्णमण्णस्स एवं खलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागतेजाव विहरति। परिसा णिग्गया। सुदंसणे वि णिग्गए। तएणं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अण्णेसिं च बहूणं संखाणं परिकहेइ। एवं खलु सुदंसणा! अम्हं सोयमूलए धम्मे पण्णत्ते / से विय सोए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-दव्वसोए य, भावसोए य / दव्वसोए य उदएणं, मट्टियाए य। भावसोए य दन्भेहि य, मंतेहि य। जं णं अम्हं देवाणुप्पिया ! किंचि असुई भवति, तं सव्वं सज्जपुढवीए आलिंपति, तओ पच्छा सुद्धण वारिणा पक्खालिज्जइ, तओ तं असुई सुईभवइ; एवं खलु जीवा जलामिसेयपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गच्छंति। तए णं सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्मं सोचा हद्वतुढे सुयस्स अंतियं सोयमूलं धम्मं गिण्हेइ, गिण्हेइत्ता परिव्वायए सुविउले णं असणपाणखाइमसाइमवत्थे पडिलाभेमाणे०जाव विहरइ / तए णं से सुए परिव्वायए सोगंधियाओ णयरीओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं थावच्चापुत्ते णामं अणगारे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं पुव्याणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहर-माणे जेणेव सोगंधिया णयरी जेणेव णीलासोए उज्जाणे तेणेव समोसढे / परिसा णिग्गया। सुदंसणं विणिग्गए थावचापुत्तं णाम अणगारं आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेइत्ता वंदइ, णमंसइ, णमंसइत्ता एवं वयासी-तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पण्णत्ते? तते णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं वयासीसुदंसणा ! विणयमूले धम्मे पण्णत्ते / से वि य णं विणए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-आगारविणए य, अणगारविणए य / तत्थ णं जे से आगारविणए, से णं पंच अणुव्वयाई, सत्त सिक्खावयाई, एगारस उवासगपडिमयाओ। तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं पंच महव्वयाइं पण्णत्ताइं / तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिनादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओवेरमणं, सव्वाओ परिगहाओ वेरमणं, सव्वाओ राईभोयणाओ वेरमणं०जाव मिच्छादंसणसल्लाओ / दसविहे पच्चक्खाणे, वारस भिक्खूपडिमाओ / इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलेणं धम्मेणं आणुपुवेणं अट्ठ कम्मपहीओ खवेत्ता लोयग्गपइट्ठाणे भवइ / तएणं थावचापुत्ते सुंदसणं एवं वयासी-तुब्भ णं सुदंसणा! किंमूलए धम्मे पण्णत्ते? अम्हाणं देवाणुप्पिया ! सोयमूले धम्मे पण्णत्ते०जाव सग्गं गच्छति। तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी-सुदंसणा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेणं चेव धोएज्जा, तए णं सुदंसणा! तस्सरुहिरकयस्स वत्थस्सरुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स अत्थि सोही, नो इणढे समठे, एवामेव सुदंसणा! तुभ पिपाणातिवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं णत्थि सोही, जहा तस्स रुहिरकयवत्थस्स रुहिरेणंचेवपक्खालि-जमाणस्स णत्थि सोही / सुदंसणा ! से जहाणामए केइ पुरिसे एगं महंरुहिरकयवत्थं सज्जियक्खारेणं अणुलिंपइ, अणुलिंपइत्ता पय
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________________ थावचापुत्त 2402 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावचापुत्त णं (चुल्ल्युपरि) आरुहेति, उण्हं गाहेति, उण्हं गाहेत्ता तओ पच्छा सुद्धेणं वारिणा धोवेज्जा, से गूणं सुदंसणा ! तस्स रुहिरक यवत्थस्स सज्जियाखारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स सोही भवइ? हंता भवइ / एवामेव सुदंसणा ! अम्हं पि पाणाइवायवेरमणेणंजाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अस्थि सोही, जहा वि तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स०जाव सुद्धेणं वारिणा पक्खालिजमाणस्स अस्थि सोही। तत्थ णं सुदंसणे संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदति, णमंसति, णमंसित्ता एवं वयासीइच्छामिणं भंते! धम्म सोचा जाणित्तए०जाव समणोवासए० जाव अहिगय-जीवाजीवेजाव पडिलाभेमाणे विहरति। तए णं तस्स सुयस्स परिवायगस्स इमीसे कहाए लद्धहस्स समाणस्स अयमेयारूवे०जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु सुदंसणेणं सोयमूलं धम्मं विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवण्णे, तं सेयं खलु ममं सुदंसणस्स दिहि वामेत्तए, पुणरवि सोयमूले धम्मे आघवित्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेतित्ता परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं जेणेव सोगंधिया णयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता परिव्वायगाऽऽवसहंसि भंडगनिक्खेवणं करेति, करेइत्ता धाउरत्तवत्थ-- परिहिए पविरलपरिव्वायगसद्धिं संपरिवुडे परिव्वायगाऽऽवसहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता सोगंधियाए णयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सुदंसणस्सा गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ / तए णं से सुदंसणे तं सुयं एजमाणं पासति, पासइत्ता नो अब्भुतुति, नो पच्चुग्गच्छति, नो आढाति, नो परियाणाइ, नो वंदति, तुसिणीए संचिट्ठति / तए णं से सुए परिव्वायगे सुदंसणं अणुब्भुट्टियं पासेत्ता एवं बयासी-तुमे ण सुदंसणा ! अण्णया ममं एन्जमाणं पासेत्ता अब्भुट्टेसिजाय वंदसि, इयाणिं सुंदसणा! तुम मम एजमाणं पासेत्ता०जाव नो वंदइ, तं कस्स णं तुमे सुदंसणा ! इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिवण्णे ? तए णं सुदंसणे सुएणं परिव्वायएणं एवं वुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुट्टेइ, करयल०सुयं परिव्वायगं एवं वयासी-- एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी थावचापुत्ते णामं अणगारे०जाव इहमागए, इह चेव नीलासोए उजाणे विहरइ, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवण्णे / तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं एवं वयासीतं गच्छामो णं सुदंसणा ! तव धम्मायरियस्स थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउन्भवामो, इमं च णं एयारूवाई अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छामो, तं जइ णं मे से एयाइं अट्ठाइं० जाव वागरेति, ततोणं अहं वंदामि, णमंसामि, अह मे से इमाई अदाइं०जाव नो वागरेइ, तते णं अहं एएहिं चेव अद्वेहिं हेऊहिं निप्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामि। तए णं से सुए परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्ठिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उज्जाणे जेणेव थावच्यापुत्ते अणगारे तेणेव उवाग-च्छति, उवागच्छइत्ता थावचापुत्तं एवं बयासी-जत्ता भे भंते ! जवणिज्जं, अव्वावाहं, फासुयं विहारं? तए णं थावचापुत्ते सुएणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्वायं एवं बयासी-सुया ! जत्ता वि मे, जवणिज्जं वि मे, अव्वावाहं पि मे, फासुयं विहारं पि मे। तए णं से सुए थावच्चापुत्तं एवं वयासी-से किं तं भंते ! जत्ता? सुया ! जंणं मम णाणदंसणचरित्ततवसंजममाइएहिं जोएहिं जोयणा सेयं जत्ता / से किं तं भंते ! जवणिजं? सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-इंदियजवणिज्जे य, नोइं-दियजवणिजे य / से किं तं इंदियजवणिज्जं? सुया ! जं णं मम सोइंदियचक्खिंदियघाणिंदियजिभिंदियफासिंदियाइं निरुवहयाई वसे वटुंति से तं इंदियजवणिज्जे / से किं तं णोइंदियजवणिज्जे? सुया ! जं णं कोहमाणमायालोभखीणा उवसंता नो उदयंति से तं नोइंदियजवणिजे / से किं तं भंते! अव्वावाहं? सुया ! जंणं मम वाइयपित्तियसिंभियसण्णिवा-इयविविहरोगायंका णो उदीरेंति से तं अव्वावाहं / से किं तं मंते ! फासुयविहारं? सुया ! जं णं आरामेसु उजाणेसु देवउलेसु सभासु पवासु इत्थीपसुपंडगविवजियासु वसहीसु पाडिहारियं पीढफलगसिजासंथारगं ओगिण्हित्ता णं विहरामि से तं फासुयं विहारं / / सरिसवया ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? सुया ! सरिसवया भक्खेया वि, अभक्खेया वि। से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ-सरिसवया भक्खेया वि, अभक्खेया वि? सुया ! सरिसवया दुविहापण्णत्ता। तं जहा-मित्तसरिसवया, धन्नसरिसवया। तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-सहजाया, सहवड्डिया, सहपंसुकीलिया य, ते णं समणाणं निग्गंथाणं णिग्गंथीणं अभक्खेया / तत्थ णं जे ते घण्णसरिसवया ते दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-सत्थपरिणया य, असत्थपरिणया य / तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते समणाणं णिग्गथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-फासुया य, अफासुया या तत्थ णं जे अफासुया ते सुया! नो भक्खेया / तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-जाइया य, अजाइया य / तत्थ णं जे ते अजाइया ते अभक्खेया / तत्थ णं जे ते जा-इया ते दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-एसणिज्जा य, अणेसणिज्जाय। तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-लद्धा य,
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________________ थावच्चापुत्त 2403 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावचापुत्त अलद्धा य / तत्थ णं जे अलद्धा ते अभक्खेया / तत्थ णं जे लद्धा ते निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अटेणं सुया ! एवं वुचइसरिसवया भक्खेया वि, अभक्खेया वि / एवं कुलत्था वि भणियव्वा / नवरं इमं णाणत्तं-इत्थिकुलत्था य,धण्णकुलत्था य / इत्थिकुलत्था तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-कुलबधूया य, कुलमाउया य, कुलधूया य / धण्णकुलत्था तहेव / एवं मासा वि। नवरं इमणाणत्तंमासा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-कालमासा य, अत्थमासा य, धण्णमासा य / तत्थ णं जं ते कालमासा ते णं दुवालसविहा पण्णत्ता / तं जहा-सावणे०जाव आसाढे / ते णं अभक्खेया। अत्थमासा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-हिरण्णमासाय, सुवण्णमासाय। तेणं अभक्खेया। धण्णमासा तहेव // एगे भवं, दुवे भवं अणेगे भवं, अक्खए भवं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं, अणेगभूयभावभविए भवं? सुया ! एगे वि अहं दुवे वि अहं०जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं / से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-एगे वि अहं० जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं? सुया! दवट्ठयाए एगे अहं, णाणदंसणट्ठयाए दुवे अहं, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं / एत्थ णं से सुए संबुद्धे / तए णं थावच्चापुत्तं अणगारं वंदइ, णमंसइ, णमंसइत्ता एवं वयासीइच्छामिणं भंते ! तुम्भ अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं निसामित्तए। धम्मकहाभाणियव्वा / तएणं से सुए परिव्वायए थावचापुत्तस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म एवं बयासी-इच्छामि गं भंते ! | परिव्वायगसहस्सेण सद्धिं संपरिखुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! तओ उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तिदंडयाओ०जाव धाउरत्ताओय एगंते एडेति, एमेइत्ता सयमेव सिहं उप्पाडेति, उपाडेइत्ता जेणेव थावच्चापुत्ते ०जाव मुंडे भवित्तान्जाव पव्वइए, सामाइयमाइ-याइंचउद्दस पुव्वाई अहिज्जति। तएणं थावचापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए विहरति / तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नीलासोयाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणि-क्खमइत्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तए णं से थावच्चा-पुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पुंडरीयं पध्वयं सणियं सणियं दुरूहति, दुरूहतित्ता सेयधणसन्निगासं देवसण्णिवायपुढवीसिलापट्टयं जाव पाओवगमणं समणुपपणे / तएणं से थाव-चापुत्ते णामं अणगारे बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्हि भत्ताई अणसणाएकजाव केवलवर-नाणदसणं समुप्पाडित्तातओ पच्छा सिद्धे बुद्धे०जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / तए णं से सुए अण्णया कयाइ जेणेव सेलगपुरे णगरे जेणेव सुभूभिभागे उज्जाणे तेणेव समोसरिए / परिसा णिग्गया / सेलओ वि णिग्गओ, धम्म सोचा०जाव देवाणुप्पिया! पंथगपामोक्खाई पंचमंतिसयाई आपुच्छामि, मंडुअंकुमारं रज्जे ठावेमि, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि? अहासुहं देवाणुप्पिया ! तए णं से सेलए राया सेलगपुरं णगरं मज्झं मज्झेणं अणुप्पविसइ, जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सोहासणे सण्णिसन्ने / तए णं से सेलए राया पंथयपामोक्खे पंचमंतिसए सद्दादेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए सुयस्स अंतिए धम्मे निसण्णे, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, अहंणं देवाणुप्पिया! संसारभयउव्विग्गे० जाव पव्वयामि, तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! किं करेह, किं वसह, किं वा ते हिययइच्छिए सामत्थे? तए णं ते पंथगपामोक्खा पंचमंतिसया सेलयं रायं एवं बयासी-जइणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! संसार०जाव पव्वयह, अम्हाणं देवाणुप्पिया! किं अण्णे आहारे वा, आलंवे वा / अम्हे वियणं देवाणुप्पिया ! संसारभयउद्विग्गा० जाव पव्वयामो / जहा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं बहुसु कन्जेसु य कारणेसु य जाव तहा णं पव्वइयाण वि समणाणं बहुसु०जाव चक्खू / तए णं से सेलए राया पंथयपामुक्खे पंच मंतिसए एवं वयासी-जइ णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे संसारभयउव्विग्गाजाव पव्वयह, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! सएसु सएसु कोडंबेसु जेट्ठपुत्ते कुडुंब-मज्झे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउडभवह / ते वि तहेव पाउन्भवंति ! तए णं से सेलए राया पंचमंतिसयाई पाउब्भवमाणाई पासति, पासइत्ता हट्ठतुट्टे कोडं बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मंडुयस्स कुमारस्स महत्थंजाव रायाभिसे यं उवट्ठवेह, जाव अभिसिंचंति०जाव राया जाए विहरइ / तए णं से सेलए राया मंडुयं आपुच्छति / तए णं से मंडुए राया कोडं बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासीखिप्पामेव सेलगपुरं नगरं आसियं०जाव गंधवदृिभूयं करेह, कारवेह य, एवमाणत्तिअं पञ्चप्पिणह / तए णं से मंडए राया दोचं पि कोडं बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासीखिप्पामेव सेलयस्स रन्नो महत्थं जाव निक्खमणामिसेयं, जहा मेहस्स तहेव, नवरं पउमावती
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________________ थावचापुत्त 2404 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावचापुत्त देवी अग्गकेसे पडिच्छइ सव्वे विपडिग्गहंगहाय सीयं दुरूहंति, / तस्स सेलयस्स अहापवत्तेहिं० जाव मञ्जपाणएण य से रोगायंके अवसेसं तहेव०जाव सामाइयमाइयाइं इक्कारस अंगाई अहिजइ, उवसंते यावि होत्था, हतु० जाव बलियसरीरे जाए ववगयरोबहुहिं चउत्थ०जाव विहरइ। तए णं से सुए सेलगस्स अणगारस्स | गायंके / तएणं से सेलए तम्मि रोगायंकंसि उवसंतंसि समाणंसि ताई पंथगपामुक्खाइं पंच अणगारसयाइं सीसत्ताए वियरइ / तए तेसि विउले असणं पाणं खाइमं साइमं मज्जपाणए य मुच्छिए णं से सुए अणगारे अण्णया कयाइं सेलगपुराओ सुभूमिभागाओ गढिए गिद्धे अज्झोववेन पासत्थे पासत्थविहारी ओसण्णे उजाणाओ पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमइत्ता बहिया जणवय- ओसण्णविहारी कुसीले कुसीलविहारी पमत्ते पमत्तविहारी संसत्ते विहारं विहरइ / तए णं से सुए अणगारे अण्णया कयाइ तेणं संसत्तविहारी उउ-बद्धपीढफलगसेज्जासंथारए पमत्ते यावि अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुटिवं चरमाणे होत्था,नो संचाएति फासुयं एसणिज्जं पीढफलगं पचप्पिणित्ता गामाणुगाम विहरमाणे जेणेव पुंडरीए पव्वए०जाव सिद्धा बुद्धा मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। तए मुत्ता अंतगडा। तए णं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहिं अंतेहि णं तेसिं पंथग-वजाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अण्णया कयाई य पंतेहि य तुच्छेहि य लूहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि एगओ सहियाणं० जाव पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं य उण्हे हि य कालाइ-कं ते हि य पमाणाइक्क तेहि य णिचं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अब्भत्थिए०जाव समुप्पज्जित्था। एवं पाणभोयणेहि य पयइसुकुमालस्स य सुहोचियस्स सरीरगंसि खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रजंजाव पव्वइए, विउलेणं असणं वेयणा पाउन्भूया उज्जला० जाव दुरहियासा, कंडूदाहपित्त पाणं खाइमं साइमं मजपाणए मुच्छिए नो संचाएति० जाव जरपरिगयसरीरे०जाव विहरहा तए णं से सेलए रायरिसीएएणं विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणाणं०जाव रोगायंकेणं सुक्के किसे जाए यावि होत्था / तए णं से सेलए पमत्ताणं विहरित्तए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं कल्लं रायरिसी अण्णया कयाई पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे०जाव जेणेव सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलगसिज्जासंसुभूमिभागे उजाणे तेणेव विहरइ / परिसा णिग्गया। मंडुओ वि थारयं पचप्पिणित्ता सेलयस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं राया णिग्गओ, सेलयं अणगारं वहति , नमसति, पजुवासति / वेयावचकरं ठवित्ता बहिया अब्भुजाणंजाव विहरित्तए, एवं तएणं से मंडुए राया सेलयस्स अणगारस्स सरीरयं सुक्क भुक्खं संपेहइ, कल्लं जेणेव सेलए रायरिसी तेणेव उवागच्छित्ता सेलयं लुक्खं०जाव सव्वावाहं सरोगं पासइ, पासइत्ता एवं वयासी आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलग०जाव पञ्चप्पिणंति, पंथयं अह णं भंते ! तुब्भं अहापवत्तेहिं तिगिच्छिएहिं अहापवत्तेणं अणगारं वेयावचकरं ठावेति, बहिया०जाव विहरंति। तए णं से ओसहभेसज्जभत्तपाणेणं तिगिच्छं आउंटाबेमि, तुब्भे णं भंते ! मम जाणसालासु समोसरह, फासुयं एसाणिज्जं पीढफलगसि पंथए अणगारे सेलयस्स रायरिसिस्स सेज्जासंथारउच्चारपाजासंथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरह / तए णं से सेलए अणगारे सवणखेलमल्लओसहभेसज्जभत्तपाणए णं अगिलाणविणएणं मंडुयस्स रण्णो एयमढें 'तह' त्ति पडिसुणेइ / तए णं से मंडुए वेयावडियं करेति / तए णं से सेलए रायरिसी अण्णया कयाई राया सेलयं रायरिसिं वंदति, णमंसति, णमंसइत्ता जामेव दिसिं कत्तियचाउम्मासियंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइम पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए / तए णं से लए रायरिसी आहारमाहरिए सुबहुं च मज्जपाणयं पीए पुव्वावरण्हकालमयंसि कल्लंजाव जलते सभंडमत्तोवगरणमायाए पंथगपामोक्खेहि सुहपसुत्ते / तएणं से पंथए कत्तियचाउम्मासियंसि कयकाउ-- पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुरमणुपविसति, जेणेव स्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिकं ते चाउम्मासियं पडिक्कमणं मंडुयस्स रण्णो जाणसालाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता काउंकामे सेलयं रायरिसिं खामणट्ठयाए सीसे णं पाएसु संघफासुयं पीढंजाव विहरइ / तए णं से मंडुए राया तिगिच्छिए / टेति / तए णं से सेलए रायरिसी पंथएणं सीसे णं पाएसु संघसद्दावेति, सद्दावेतित्ता एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! ट्टिए समाणे आसुरुत्ते०जाव मिसिमिसेमाणे उद्देइ, उट्टेइत्ता सेलयस्स रायरिसिस्स फासुयं एसणिज्जंजाव तिगिच्छं एवं बयासी- से केणटेणं भो ! एस अपत्थियपत्थिए०जाव आउंटेह। तए णं ते तिगिच्छिया मंडुएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा परिवजिए, जेणं मम सुहपसुत्तं पाए संघट्टेति? तए णं पंथए हट्टतुट्ठा सेलयस्स रायरिसिस्स अहापवत्तेहिं ओसहभेसज्जभत्त- अणगारे सेलएणं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए करयल पाणेहिं तिगिच्छं आउंटेंति, मज्जपाणयं च उवदिसंति / तए णं ] जाव कट्ट एवं बयासी-अहं णं भंते ! पंथए सिस्से कयकाउ
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________________ थावच्चापुत्त 2405 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावयापुत्त स्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसे णं पाएसु संघट्टेमि, तं खमंतु मं देवाणुप्पिया ! णाइ भुजो भुञ्जो एवं करणयाए त्ति कट्ट सेलयं अणगारं एयम४ सम्म विणएणं भुजो भुजो खामेति / तए णं तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएणं अणगारेणं एवं वुत्तस्स अयमेयारूवेजाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं रजं च०जाव ओसण्णजाव उउवद्धपीठ० विहरामि, तं खलु णो कप्पइ समणाणं पासत्थाणं० जाव विहरित्तए, तं सेयं खलु कल्लंडंडुअं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारिअं पीढफलमसेज्जासंथारयं पञ्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुज्जएणं०जाव जणवयविहारं विहरित्तए, एवं संपेहेति, संपेहेइत्ता कल्लं जाव विहरइ। एवामेव समणाउसो !०जाव णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा ओसण्णो०जाव संथारए पमत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूर्ण समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं / हीलणिज्जे संसारो भाणियव्वो। तए णं ते पंथगवजा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठा समाणा अण्णमण्णं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-सेलए रायरिसी पंथएणं वहिया०जाव विहरइ / तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सेलयं रायरिसिं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, एयं संपेहें ति, संपेहेइत्ता सेलयं रायरिसिं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति। तए णं ते सेलयपामोक्खा पंच अणगारसया वहूणि वासाणि सामन्नपरियायं पाउणित्ता जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जहेव थावच्चापुत्ते तहेव सिद्धा / एवामेव समणाउसो ! जो निग्गंथो वा णिग्गंथी वाजाव विहरइ / ज्ञा०१ श्रु०५ अ०] (धणवइमइनिम्माय ति) धनपतिवैश्रवणः, तन्मत्वा निर्मापिता निरूपिताः, अलकापुरी वैश्रवणयज्ञपुरी, प्रमुदितप्रक्रीडिता, तद्वासिजनानां प्रमुदितप्रकीडितत्वात् / रैवतक उज्जयन्तः (चक्कवाय त्ति) चक्रवाकः (मयणसार त्ति) मदनसारिका, अनेकानि तटानि कटकाश्च गण्डशैला यत्र स तथा / (विवर त्ति) विवराणि च, अव-झराश्च निर्झरविशेषाः, प्रपाताश्च भृगवः, प्राग्भाराश्व ईषदवनता गिरिदेशाः, | शिखराणि च कूटानि प्रचुराणि यत्र स तथा; ततः कर्मधारयः / अप्सरोगणैर्देवसईः, चारणैर्जड्डाचारणाऽऽदिभिः साधुविशेषैर्विद्याधरमिथुनैश्व (संकिण्ण त्ति) संकीर्ण आसेवितो यः स तथा। नित्यं सर्वदा क्षणा उत्सवा यत्राऽसौ नित्यक्षणिकः / केषामित्याह-दशाराः समुद्रविजयाऽऽदयः, तेषु मध्ये वरास्त एव वीरा धीरपुरुषा ये ते तथा / (तेलोक्कबलवगाणं) त्रैलोक्यादपि बलवन्तोऽतुलबलिनेमिनाथयुक्तत्वाद् ये ते तथा, ते च ते च तेषाम् / (बत्तीसाओ दाओ) द्वात्रिंसत्प्रासादाः, द्वात्रिंशत्सुवर्णकोट्यः, द्वात्रिंशद्धिरण्यकोट्य इत्यादिको दायो दानं वाच्यः, यथा मेघकुमारस्य / (सो चेव वण्णउ त्ति) 'आइगरे तित्थगरे" इत्यादि- महावीरस्य अभिहितः (गवल त्ति) महिषशृङ्गं, गुलिका नीली, गवलस्य वा गुलिका गवलगुलिका / अतसी मालवकप्रसिद्धो धान्यविशेषः। (कोभुईयं ति) उत्सववाद्यम्। वचित्सामुदायिकीमिति पाठः। तत्र सामुदायिकी जनमीलकप्रयोजना। (णिद्धमहुरगंभीरपमिस्सुएणं पि वदि) स्निग्धमधुरगम्भीरं प्रतिश्रुतं प्रतिशब्दो यस्य स तथा, तेनैव / वन माह... शारदिकेन शरत्कालजातेन, बलाहकेन मेघेन रसितं शब्दायितं मया / शृङ्गाटकाऽऽदीनि प्राग्वत्। गोपुरं नगर-द्वारं, प्रासादो राजगृह, द्वाराणि प्रतीतानि, भवनानि गृहाणि, देवकुलानि प्रतीतानि, तेषु याः (पडिसुय ति) प्रतिश्रुतः प्रतिशब्दः, तासांयानि शतसहस्राणि लक्षाः, तैः संकुला या सा तथा, तां कुर्वन्। कामित्याह-द्वारकां द्वारवती नगरी, कथंभूतामित्याह-(सम्भितरबाहिरियं ति) सहाभ्यन्तरेण मध्यभागेन, बाहिरिकया च, प्राकाराद्वहिर्नगरद्देशेन या साभ्यन्तरबाहिरिका, ताम। (से इति) स भेरीसंबन्धी शब्दः (विप्पसरित्थ त्ति) विप्रासरत् / (पा-मोक्खा इति) प्रमुखाः (आविद्धवग्धारियमल्लदामकलाव त्ति) परिहितप्रलम्बपुष्पमालासमूहा इत्यादिवर्णकः प्राग्वत् / (पुरिससवग्गुरा परिक्खित्ता)वागुरा मृगबन्धनं वागुरेव वागुरासमुदायः। (नन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं ति) न इति यदेतन्मरणाऽऽदिवारणशक्तनिषेधनं, तदन्यत्राऽऽत्मनः कृतात् / आत्मनो वा संबन्धिनः कर्मक्षयात्, आत्मना क्रियमाणमात्मीयं वा कर्मक्षयं, वर्जयित्वेत्यर्थः / आत्मनेत्यादौ (अत्ताणे अप्पणो वा कम्मक्खयं करित्तए त्ति) कर्मण इह षष्ठी द्रष्टव्या। (पच्छाऽऽउरस्स इत्यादि) पश्चादस्मिन् राजाऽऽदौ प्रव्रजिते सति आतुरस्यापि च द्रव्याऽऽद्यभावाद् दुःस्थस्य 'से' तस्य, तदीयस्येत्यर्थः / मित्रज्ञातिनिजकसंबन्धिपरिजनस्य, योगक्षेमवार्तमानी प्रतिवहति / तत्रालब्धस्येप्सितस्यैव वस्तुनो लाभो योगः, लब्धस्य परिपालनं क्षेमः, ताभ्यां वर्तमानकालभवा वार्तमाना योगक्षेमवार्तमानी, ता-निर्वाहं, राजा करोतीति तात्पर्यम् / (इति कटु) इति कृत्वा इतिहेतोरेवरूपामेव घोषणां घोषयत कुरुत। (पुरिससहस्समित्यादि) इह पुरुषसहसं स्नानाऽऽदिविशेषणम्। स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके प्रादुर्भूतमिति संबन्धः / (विजाहरचारणे त्ति) "इह जंभए य देवे उवयमाणे" इत्यादि द्रष्टव्यम् / एवमन्यदपि मेघकुमारचरितानुसारेण पूर्ववदेतदध्येतव्यमिति / (इरियासमिए इत्यादि) (एसणासमिए आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिए) आदानेन ग्रहणेन सह भाण्डमात्राया उपकरणलक्षणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा मोचनं तस्यां समितः सम्यक् प्रवृत्तिमान् (उच्चारपासवणखेलजल्लसंघाणपारिट्ठावणियासमिए) उच्चारः पुरीषं, प्रस्रवणं मूत्रं, खेलो निष्ठीवनं, सिंघानो नासामलः, जल्लः शरीरमत्रः / इह यायत्करणादिद दृश्यम्-''मणसमिए वयसमिए कायसमिए।'' चित्ताऽऽदीनां कुशलानां प्रवर्तक इत्यर्थः। 'मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते "चित्ताऽऽदीनामशुभानां निषेधकः / एतदेवाऽऽह' 'गुत्ते।'' योगापेक्षया ‘‘गुत्तिदिए।" इन्द्रियाणां विषयेष्वसत्प्रवृत्तिनिरोधात्। 'गुत्तबंभचारी।" वसत्यादिनवब्रह्मचर्यगुप्तियोगात्। "अकोहे 4 / ' कथमित्यत आह"संत, "सौम्यमूर्तित्वात्। “पसंते।" कषायोदयस्य विफलीकरणात्।
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________________ थावच्चापुत्त 2406 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावचापुत्त "उवसंते।" कषायोदयाभावात्। “परिनिव्वुडे।" स्वास्थ्यातिरेकात् / इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-"सत्त सिक्खावइयं दुवालविहं गिहिधम्म "अणासवे / " हिंसाऽऽदिनिवृत्तेः / "अममे / " ममेत्युल्लेखस्या- पडिवञ्जित्तए अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध काहिसिं / तए णं से भिष्वङ्गतोऽसद्भावात्। "अकिंचणे।' निर्द्रव्यत्यात् / “छिन्नग्गथे।" सेलए राया थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए पंचाणुव्व इयं०जाव मिथ्यात्वाऽऽदिभावग्रन्थिच्छेदात्। "निरुवलेवे।'' तथाविधबन्धहेत्व- उपसंपञ्जइ। तएणं से सेलए राया समणोवासए जाए" (अभिगयजीवा भावेन तथाविधकर्मानुपादानात् / एतदेवोपमानरुच्यते- "कंसपाई व जीवे) इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'"उवलद्धपुण्णपावे आसवसंवरनिजमुक्कतोए।" बन्धहेतुत्वेन तोयाऽऽकारस्य स्नेहस्याभावात् / "संखो रकिरियाहिगरणबंधपामोक्खकुसले।" क्रिया कायिक्यादि, अधिकरणं इव निरंजणे / ' रञ्जनस्य रागस्य कर्तुमशक्यत्वात् / "जीवो विव खड्गनिर्वर्त्तनाऽऽदि। एतेन च ज्ञानितोक्ता।"असाहज्जो'' अविद्यमान अप्पडिहयगई।" सर्वत्रौचित्येनास्खलितविहारित्वात् / 'गगणमिव सहायः, कुतीर्थिकप्रेरितः सम्यक्त्वाऽऽद्यविचलनं प्रति न परसानिरालंबणे / " देशग्रामकुलाऽऽदीनामनालम्बकत्वात्। "वायुरिव हाय्यमपेक्षते इति भावः / अत एयाऽऽह-"देवासुरनागजक्खरअप्पडिबद्धे।" क्षेत्राऽऽदौ प्रतिबन्धाभावेनौचित्येन सततविहारित्वात्। क्खसकिं पुरिसगरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ "सारयसलिलं वसुद्धहियए।" कषायलक्षणगडुलत्ववर्जनात्। "पुक्ख- पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जे" देवा वैमानिका ज्योतिष्काः, शेषा रपत्तं पिव निरुवलेवे।"पद्मपत्रमिव भोगाभिलाषलेपाभावात्। "कुम्मो भवनपतिव्यन्तरविशेषाः, गरुडाः सुपर्णकुमाराः / एवं चैतत्, यतःइव गुत्तिदिए।" कूर्मः कच्छपः। "खग्गविसाणं व एगजाए।' खड्ग "निम्नथे पावयणे निस्संकिए निखिए।" मुक्तदर्शनान्तरपक्षपातः / आरण्यः पशुविशेषः, तस्य विषाणं शृङ्ग, तदेकं भवति, तद्वदेको जातो "निध्वितिगिच्छे' फलं प्रति निःशङ्क: "लघटे।" अर्थश्रवणतः / योऽसड़ गत्वतः सहायत्यागेन स तथा / "विहग इव विप्पमुळे।" "गहियतु।" अर्थावधारणेन।"पुच्छियटे।" संशये सति "अभिगयटे।" आलयाप्रतिबन्धेन।''भारंडपक्खी व अपमत्तो।"भारण्डपक्षिणो हि- बोधात्। 'विणिच्छियट्टे'' ऐदम्पर्योपलम्भात्। अत एव ''अद्विमिंजपे"एकोदराः पृथग् ग्रीवाः, अन्योऽन्यफलभक्षिणः / प्रमत्ता इव नश्यन्ति, म्माणुरागरत्ते।" अस्थीनि च प्रसिद्धानि, मिञ्जा च तन्मध्यवर्ती धातुः, यथा भारण्डपक्षिणः // 1 // " जीवद्वयरूपा भवन्ति, ते च सर्वदा अस्थिमिजाः, ताः प्रेमानुरागेण सार्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्भाचकितचित्ता भवन्ति इति / "कुंजरो इव सोंडीरे।" कर्मशत्रुसैन्य ऽऽदिरागेण रक्ता इव रक्ता यस्य स तथा। केनोल्लेखेनेत्याह-"अयमाप्रतिशूर इत्यर्थः। “वसभो इव जायथामे।" आरोपितमहातभारवहनं उसो ! निग्गंथे पावयणे अटे, अय परमटे. सेसे अणटे।" (आउसो त्ति) प्रति जातबलो, निर्वाहकत्वात् / "सीहो इव दुद्धरिसो।' दुर्द्धर्षणीय आयुष्मन्निति पुत्राऽऽदेशमन्त्रणम् / शेषं धनधान्यपुत्रदारराज्यकुप्रउपसर्गमृगैः / "मंदरो इव निप्पकंपे" परीषहपवनैः / "सागरो इव वचनाऽऽदि। "ऊसियफलिहे" उच्छ्रितं स्फटिकमिव स्फटिकमन्तः गंभीरे।" अतुच्छीचित्तत्वात्।"चंदो इव सोमलेस्से।'' शुभपरिणामि- करण यस्य स तथा। मौनीद्र प्रवचनावाप्त्या परितुष्टमना इत्यर्थः / इति त्वात् / "सूरो इव दित्ततेए।" परेषां क्षोभकत्वात् / "जचकंचणं व बृद्ध-व्याख्या। केचित्त्वाहुः-उच्छ्रित अर्गलास्थानादपनीय ऊर्धीकृतो, जायरूवे।" अपगतदोषलक्षणकुद्रव्यत्वेनोत्पन्नस्वस्वभावः। "वसुंधर न तिरश्चीनकपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः / उत्सृतो वा अपगतः व्व सब्बफाससहे" पृथ्वीवत् शीताऽऽतपाऽऽद्यनेकवि-धस्पर्शक्षमः / परिघोऽर्गला गृहद्वारे यस्याऽसौ उत्सृतपरिघः, उच्छृतपरिघो वा / "सुहुयहुयासणो व्व तेयसा जलते"घृताऽऽदितर्पितवैश्वानरवत्प्रभया औदार्यातिरेकादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुकप्रवेशार्थम्-नर्गलित गृहद्वार दीप्यमानः / "नस्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधो भवइ'' इत्यर्थः। "अवंगुयदुवारे' अपावृतद्वारः कपाटाऽऽदिभिः भिक्षुकप्रवेशानास्त्ययं पक्षो यदुत तस्य कुत्रापि प्रतिबन्धो भवति। "से य पडिबंधे थमेवास्थगितगृहद्वार इत्यर्थः / इत्येकीयं व्याख्यानम्। वृद्धानां तु चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। भावनावाक्यमेवम्, यदुत सद्दर्शनलाभे, न कस्माचित्पाषण्डिकादव्वओ-सचित्ताचित्तमीसेसु / खित्तओ गामे वा नगरे वाऽरण्णे वा खले द्विभति, शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्धाटशिरास्तिष्ठतीति भावः।"चियत्तंतेउवाघरे वा अंगणे वा।" खलं धान्यमलनाऽऽदिस्थण्डिलम् / "कालओ रघरदारप्पवेसे!" (चियत्तं त्ति) नाप्रीतिकरः अन्तः पुरगृहे द्वारेण समए वा आवलियाए वा।" असंख्यातसमयरूपायाम्।'आणापाणूए नापद्वारेण प्रवेशः शिष्टजनोचितप्रवेशनं यस्य स तथा। अनीर्ष्यालुत्वं वा।" उच्छ्रासनिःश्वासकाले "थोवे वा" सप्तोष्ठासरूपे "खणे वा" चास्यानेनोक्तम्। अथवा-(चियत्तोत्ति) लोकानां प्रीतिकर एव अन्तःपुरे बहुतरोठासरूपे वा "लवे" सप्तस्तोकरूपेया। 'मुहुत्ते वा" लवसप्त- वा गृहे वा गृहद्वारे वा प्रवेशो यस्य स तथा। अतिधार्मिकतया सप्ततिरूपे "अहोरत्ते वा पक्खेवा मासेवा अयणेवा।" दक्षिणायनेतररूपे सर्वत्रानाशङ्कनीयत्वादिति। "चाउद्दसट्टसुट्ठिपुण्णमासिणीसुपडिपुण्णं प्रत्येकं षण्मासप्रमाणे, संवत् सरे वा "अन्नतरे वा दीहकालसंजोए'' पोसह सम्म अणुपालेमाणे।" उद्दिष्टा अमावास्यापौषधमाहारं पौषधायुगाऽऽदौ "भावओ कोहे वा माणे वा माएवा लोहे वा भएवा हासे वा।" ऽऽदिव्रतचतूरूपम्। “समणे निगथेफासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइहास्ये हर्षे वा। "एवं तस्स न भवइ।" एवमनेकधा तस्य प्रतिबन्धो न मसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं।' पतद्ग्रहं पात्रं, पादप्रोञ्छनं भवति / "से णं भगवं वासीचदणकप्पे।" वास्यां चन्दनकल्पो यः स रजोहरणम् / 'ओसहभे सज्जेणं' भेषजं पथ्यम् “पाडिहारिएणं तथा। अपकारिणेऽप्युपकारकारीत्यर्थः / वासीवाङ्गच्छेदनप्रवृत्तं चन्दन पीठफलगसेजासंथारएणं पडिलाभेमाणे / ' प्रातिहारिकेण पुनः कल्पयति यः स तथा। "समतिणमणिलेटुकंचणे समसुहदुक्खे' समानि समर्पणीयेन, पीठमासनं, फलकमवष्टम्भार्थ, शय्या वसतिः, शयनं या उपक्षेपणीयतया तृणाऽऽदीनि यस्य स तथा। "इहलोयपरलोयप्पडिबद्ध यत्र प्रसारितपादैः स्वप्यते, संस्तारको लघुतरः "अहापरिण-हिएहिं जीवियमरणनिरवकंखे संसारपारगामी कम्मसत्तुनिग्धायणढाए अन्भुटिए तवोकम्मेहि अप्पाण भावेमाणे विहरइ।" (सुए परिव्वायगे त्ति) शुको एवं चणं विहरइ त्ति।" एवमीसिमित्यादिगुणयोगेनेति। (पंचाणुव्वइय) / व्यासपुत्रः ऋग्वंदाऽऽदयश्रुत्वारो वेदाः, षष्टितन्त्रं सा ख्यमतं, साड्
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________________ थावचापुत्त 2407 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावचापुत्त ख्यसमये साड् ख्यसमाचारे लब्धार्थः / वाचनान्तरे तु यावत्करणादेवमिदभवगन्तव्यम् - ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदार्थवणवेदानामितिहासपञ्चमानामितिहासः पुराणं, निघण्टुषष्टानां निघण्टुर्नामकोशः, साङ्गोपाङ्गानामङ्गानि शिक्षाऽऽदीनि, उपाङ्गानि तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः / सरहस्यानामैदंपर्ययुक्तानां, सारक:-अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः, स्मारको वाऽन्येषां विस्मृतस्य स्मारणात्। वारकोऽशुद्धपाठनिषेधकः, पारगः पारगामी षडङ्ग वित् / षष्टितन्त्रविशारदः षष्टितन्त्र कापिलीयकशास्त्र, षडङ्ग वेदकत्वमेव व्यनक्तिसंख्याने गणितस्कन्धे, शिक्षाकल्पे शिक्षायामक्षरस्वरूपनिरूपके शारत्रे, कल्पे तथाविधसामाचारीप्रतिपादके, व्याकरणे शब्दलक्षणे छन्दसि पद्यवचनलक्षणनिरूपके, निरुक्ते शब्दनिरुक्तप्रतिपादके,ज्योतिषामयने ज्योतिःशास्त्रे / अन्येषु च ब्राह्मणकेषु शास्त्रेषु च परिनिष्ठित इति वाचनान्तरम्। पञ्चयमपञ्चनियम-युक्तम्।तत्रपञ्च यमाः-प्राणातिपातविरमणाऽऽदयः, नियमास्तुः शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि / शौचमूलकं यमनियममीलनाद्दशप्रकारम् / धातुरक्तानि वस्त्राणि प्रवराणि परिहितो यः स तथा। त्रिदण्डाऽऽदीनि सप्त हस्ते गतानि यस्य स तथा। तत्र कुण्डिका कमण्डलुः, क्वचित् काञ्चनिका करोटिका वाऽधीयते, ते च क्रमेण रुद्राक्षकृतमाला मृद्धाजनं चोच्यते / षण्णालिकं त्रिका-ष्ठिका, अडशो वृक्षपल्लवच्छेदार्थः, पवित्रक ताममयमङ्गलीयकं, केसरी चीवरखण्ड प्रमार्जनार्थम्। (संखाणं ति) साङ्ख्यमतम्। (सज्जपुढवित्ति) कुमारपृथिवी (पययणं आरुहेइ) पाकस्थाने चुल्ल्यादावारोपयति, ऊष्माणमुष्णत्वं ग्राहय ति, (दिदि वामेत्तए त्ति) मतं वमयितुंत्याजयितुमित्यर्थः। (अट्ठाई ति) अर्थान् अर्यमानत्वादधिगम्यमानत्वादित्यर्थः / प्रार्थ्यमानत्वाद्वा याच्यमानत्वादित्यर्थः / वक्ष्यमाणयात्रायापनीयाऽऽदीन् / तथा तानेव (हेऊइंत्ति) हेतून, अन्तर्वर्त्तिन्यास्तदीयज्ञानसंपदो गमकात्। (पसिणाई ति) प्रश्नान, पृच्छ्यमानत्वात् / (कारणाई ति) कारणानि, विवक्षितार्थनिश्चयस्य जनकानि / (वागरणाई ति) व्याकरणानि, प्रत्युतरतया व्याक्रियमाणत्वादेषामिति / (निप्पट्ठपसिणवागरेणं ति) निर्गतानि स्पष्टानि स्फुटानि प्रश्रव्याकरणानि प्रश्रोत्तराणि यस्य स तथा तम् / (खीणाउवसंत त्ति) क्षयोपशममुपगता इत्यर्थः / एतेषां च यात्राऽऽदिपदानामागमिकगम्भीरार्थत्वेनाऽऽचार्यस्य तदर्थपरिज्ञानमसंभावयताऽपभ्राजनार्थ प्रश्नः कृत इति। (सरिसवय त्ति) एकत्र सवयसः सदृशवयसः, अन्यत्र सर्षपाः सिद्धार्थकाः। (कुलत्थ त्ति) एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलस्थाः, अन्यत्र कुलत्थाधान्यविशेषाः / सरिसवयाऽऽदिपदप्रश्रश्च छलग्रहणेनोपहासार्थ कृत इति। (एगे भवं ति) एको भवान् इतिएकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते सूरिणा श्रोत्राऽऽदिविज्ञानानामवयवानां चात्मनोऽनेकतोपलब्ध्या एकत्वं दूषयिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोगः शुक्रेन कृतः (दुवे भवंति) द्वौ भवानिति च द्वित्वाभ्युपगमे अहमित्येकत्वविशिष्ट स्यार्थसय द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दूषयिष्यामीतिबुद्ध्या पर्यनुयोगो विहितः / अक्षयः अव्ययः; अवस्थितो भवान्, अनेन नित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः। अनेके भूता अतीता भावाः सत्त्वाः परिणामा वा भाव्याश्च भाविनो यस्य सत्तथा। अनेन चातिकान्तमाविसत्तामधेन अनित्याऽऽत्मपक्षः पर्यनयुक्तः। एकतरपरिग्रहे अन्यतरस्य दूषणायेति / तत्राऽऽचार्येण स्याद्वादस्य निखिलदोषगोचरातिक्रान्तत्वात्तमवलम्ब्योत्तरमदायिएकोऽप्यहम्, | कथम्? द्रव्यार्थतया, जीवद्रव्यस्यैकत्वात्, न तु प्रदेशार्थतया / तथा हानेकत्वान्ममेत्यवयवाऽऽदीनामनेकत्वोपलम्भो न बाधकः / तथा कश्चित्स्वभावमाश्रित्यैकत्व-संख्याविशिष्टस्याऽपिपदार्थस्य स्वभावान्तरद्वयापेक्षया द्वित्वमपि न विरुद्धम्, इत्यत उक्तम्-द्वावप्यह ज्ञानदर्शनार्थतया, न चैकस्य स्वभावभेदो दृश्यते। एको हि देवदत्ताऽऽदिपुरुषः एकदैव तत्तदपेक्षतया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वभ्रातृव्यत्वपितृव्यत्वमातुलत्वभागिनेयत्वादीननेकान् स्वभावाँल्लभत इति / तथा प्रदेशार्थतया असंख्येयप्रदेशतामाश्रित्याक्षयः, सर्वथा प्रदेशानां क्षयाभावात् / अव्ययः कियतामपि च व्ययाभावात् / किमुक्तं भवति? अवस्थितो नित्यः / असंख्येयप्रदेशो हि न कदाचनापि व्यपैति, अतो नित्य-ताऽभ्युपगमेऽपिनदोषः। उपयोगार्थतया विविधविषयानुपयोगानाश्रित्य अनेकभूतभावभविकोऽपि अतीतानागतयोहि कालयोरनेकविषयबाधानामात्मनः कथञ्चिदभिन्नानामुत्पादाद्विगमाद्वा नित्यपक्षो न दोषायेति। पुण्डरीकेण आदिदेवगणधरेण निर्वाणत उपलक्षितः पर्वतः, तस्यतत्र प्रथमं निर्वृतत्वात्पुण्डरीकपर्वतः शत्रुञ्जयः। (अंतेहि येत्यादि) अन्तर्वल्लचणकाऽऽदिभिः प्रान्तै-स्तैरेव भुक्तावशेषैः पर्युषितै, रूक्षैर्निस्नेहै:, तुच्छरल्पैः, अरसैः हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतैः, विरसैः पुराणत्वाद्विगतरसैः, शीतैः शीतलैः, उष्णैः प्रतीतैः, कालातिक्रान्तैः तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्तैः; प्रमाणातिक्रान्तैः बुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः। चकाराः समुच्चयार्थाः / एवंविधविशेषणान्यपि पानाऽऽदीनि निष्ठुरशरीरस्य न भवन्ति बाधायै। अत आह-प्रकृतिसुकुमारकस्येत्यादि। "वेयणा पाउन्भूया'' इत्यस्य स्थाने 'रोगायंके" इति क्वचिद् दृश्यते। तत्र रोगश्वासावातश्च कृच्छ्रजीवितकारीति समासः। कण्डूः कण्डूतिः, दाहः प्रतीतः, तत्प्रधानेन पित्तज्वरेण परिगतं शरीरं यस्य स तथा / ते इच्छन्ति चिकित्साम् / (आउंटावेमि त्ति) आवर्त्तयामि कारयामि / (सभंडमत्तोवगरणमायाएत्ति) भाण्डमात्रा पतद्ग्रहपरिच्छदश्व, उपकरणं च वर्षाकल्पाऽदि भाण्डमात्रोपकरणं, स्वं च तदात्मीयं भाण्डमात्रोपकरणं चस्वभाण्डमात्रोपकरणं,तदादाय गृहीत्वा, अभ्युद्यतेन सोद्यमेन, प्रदत्तेन गुरुणो-पदिष्टन, प्रगृहीतेन गुरुसकाशादगीकृतेन, विहारेण साधुवर्त्तनेन, विहर्तु वर्तितुं, पार्वे ज्ञानाऽऽदीनां बहिस्तिष्ठतीतिपार्श्वस्थः। गाढग्लानत्वाऽऽदिकारणं विना शय्यातराभ्याहताऽऽदिपिण्डभोजकत्वादागमोक्तविशेषणः / स च सकृदनुचितकरणेनाल्पकालमपि भवति, तत उच्यते-पार्श्वस्थानां यो विहारो बहूनि दिनानि यावत्तथावर्त्तनं स पार्श्वस्थविहारः, सोऽस्यास्तीतिपार्श्वस्थविहारी। एवमवसन्नाऽऽदिविशेषणान्यपि, नवरमवसन्नो विवक्षितानुष्ठानालसः, आवश्यकस्वाध्यायप्रत्युपेक्षणाध्यानाऽऽदीनामसम्यकरीत्यर्थः / कुत्सितः शीलः कुशीलः, कालविनयाऽऽदिभेदभिन्नानां ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽचाराणां विराधक इत्यर्थः / प्रमत्तः पञ्चविधप्रमादयोगात्, संसक्तः कदाचित्संविग्नगुणानां कदाचित्पावस्थाऽऽदिदोषाणां संबन्धागौरवत्रयसंसज्जनाचेति / ऋतुबद्धेऽपि अवर्षाकालेऽपि पीठफलकाऽऽदिशय्यासंस्तारकं यस्य स तथा / (नाइ भुजो एवं करणयाए त्ति) नैव भूयः पुनरपि (एवं) इत्थं करणाय, प्रवर्तिष्ये इति शेषः / एवमेवेत्यादिरूपनयः / इह गाथा"सिढिलियसंजमकज्जा, वि होइउ उज्जमंतिजइपच्छा। संवेगाओ ते से -लओ व्व आराहया होंति॥१॥" ज्ञा०१ श्रु०५ अ०॥ध० 20 / अणु०।
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________________ थावय 2408 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थावरदसग थावय पुं०(स्थापक) स्थापयति पक्षमक्षेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात् भूमिः गृहाणि, तरुगणश्च, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, त्रिविधं समर्थयति यः स तथा / हेतुभेदे, (स्था०) यथा परिव्राजकधूतों- पुनरोधतः स्थावर मन्तव्यम् / पुनःशब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि? लोकमध्यभागे दत्तं बहुफलं भवति तत्राहमेव जानाभीति मायया स्वगतान भेदान्। तद्यथा-भूमिः क्षेत्रं, तच्च त्रिधासेतु केतु, असेसुकेतुच, प्रतिग्राममन्यान्यलोकमध्यं प्ररूपयति सति तन्निग्रहाय कश्चित आवका गृहाणि प्रासादाः / तेऽपि त्रिविधाः / खातोच्छ्तोभयरूपाः / तरुगणा लोकमध्यस्यैकत्वात्कथं बहुषुग्रामाऽऽदिषु तत्सम्भव इत्येवंविधोपपत्त्या नालिकांद्यारामा इति। चक्रारबद्धमानुषमिति / चक्रारबद्धं गन्त्र्यादि, त्वद्दर्शितो लोकमध्यभागो न भवतीति पक्ष स्थापितवानिति स्थापका मानुषं दासाऽऽदि। एवं द्विपदं पुनर्भवति द्विविधम्। इति गाथार्थः / / 22 / / हेतुः / उक्त च - "लोगस्स मज्झजा--णण, थावयहऊ उदाहरण / दश० 6 अ०। राजगृहजाते वीरजिनस्य चतुर्दशपूर्वभवजीवे स्वनाम(८७)" (दश० १अ०) इति / स चायम्- अग्निरत्र धूमाल, तथा ख्याते विप्रे, कल्प०२ क्षण / आ०चू०। आ०म०। तिष्ठन्तीत्येवंशीला नित्यानित्यं वस्तु, द्रव्यपर्यायतस्तथैव प्रतीयमानत्वादिति / अनाथ उष्णाऽऽद्यमितापेऽपि तत्परिहारासमर्थाः स्थावराः। 'स्थेशभासपिप्रतीतिव्याप्तिकतया कालक्षेपेण साध्यस्थापनात स्थापक इति। स्था०४ सकसो वरः ||82|| (हेम०) इति वरप्रत्ययः / पृथिवीकायिकाः, ठा०३उ० अप- कायिकाः, तेजस्कायिकाः, वायुकायिकाः, वनस्पतिकायिका साम्प्रतं स्थापकहेतुमधिकृत्याऽऽह एकेन्द्रियाः / तद्विपाकवेद्य काऽपि स्थावरनाम / तेजोवायूनां तु स्थावरनामोदयेऽपि चलनं स्वाभाविकमेव, न पुनरुष्णाऽऽद्यभितापेन लोगस्स मज्झजाणण, थावयहेऊउदाहरणं / (87) दीन्द्रियाऽऽदीनानिव विशिष्टमिति / कर्म०१ कर्म०। लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्यज्ञानं, किम्? स्थापकहे थावरकाय पुं०(स्थावरकाय) स्थावरनामकर्मोदयात् स्थावराः ताबुदाहरणमित्यक्षरार्थः / भावार्थः कथानकादवलेयः। तचंदम-"एगो पृथिव्यादया, तेषां काया राशयः / स्थावरो वा काराः शरीरं येषां ते परिव्वायगो हिंडति। सोयपरूवेइखेत्ते दाणाऽऽदि सफलं ति कटु समरखेत स्थावरकायाः / पृथिवीकायाऽऽदिषु, स्था। कायव्वं / अहं लोयस्स मज्झंजाणामि,ण पुण अन्नो। तो लोगो तमाढाति ! थावरकाए दुविहे वण्णत्ते / तं जहा-भवसिद्धिए चेव, अभव-- पुच्छिओ य संतो चउसु वि दिसासु खीलए णिहणिऊण रजुए पमाणं सिद्धिए चेव। स्था०२ ठा०१उ०। काऊण माइहाणिओ भणति-एयं लोयमज्झं ति। तओ लोआ विम्हयं (एतदव्याख्या तु स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या) गच्छति-अहो ! भट्टारएण जाणियं ति। एगो य सावओ, तेण नाय। यह धुत्तो लोयं पयारेइ त्ति? तो अहं पि वंचामि त्ति कलिऊण भणियाण पर; पंच थावरकाया पण्णत्ता / तं जहा-इंदे थावरकाये, बंभे लोयमज्झो, भुल्लो तुमं ति। तओ सावएण पुणो भावेऊण अण्णो दरसा थावरकाये, सिप्पे थावरकाये, समई थावरकाये, पयावए थावरकाये। पंच थावरकायाहिवई पण्णत्ता / तं जहा- इंदे कहिओ-जहेस लोयमज्झो त्ति। लोगो तुट्ठो। अण्णे भणति-अागठाणेसु अन्नं अन्नं मज्झं परूवंतयं दळूण विरोधो चोइयति, एवं सो तेण थावरकायाहिवई०जाव पयावए थावरकायाहिवई। परिवायगो णिप्पिट्टपसिणवागरणो कओ। एसो लोइओ थावगहेऊ (पंचेत्यादि) स्थावरनामकर्मोदयात् स्थावराः पृथिव्यादयः, तेषां काया राशयः, स्थावरो वा कायः शरीरं येषां ते स्थावरकायाः / इन्द्रसंबन्धिलोउत्तरे वि चरणकरणानुओगे कुस्सुतीसु असंभावणिजसग्गाहर आ सीस एवं चेव पण्णवेयव्यो / दव्वाणुओगेण वि साहुणा तारिसं भापियव्यं / वादिन्द्रः स्थावरकायः पृथिवीकायः, एवं ब्रह्मशिल्प-संमतिप्राजापत्या तारिसो य पक्खो गेण्हियव्वो / जस्स पुरो उत्तर चेव दाउं न तीरइ। अपि अप कायाऽऽदित्येन वाच्या इति / एतन्ना-यकानाह- (पंचेत्यादि) स्थावरकावानां पृथिव्यादीनामिति संभाव्यन्ते, अधिपतयो नायका पुव्वावरविरुद्धो दोसो यण हवति।" दश० 1 अ०। दिशामिवेन्द्राग्न्यायादयो नक्षत्राणमिवाश्वियमदहनाऽऽदयो, दक्षिणोत्तरथावर पुं०(स्थावर) तिष्ठतीत्येवंशीलः स्थावरः / जी०१ प्रतिका लोकार्द्धयोरिव शक्रेशानाविति स्थावरकायाधिपतय इति / स्था०५ शीताऽऽतपाऽऽद्युपेतत्वेऽपि स्थानान्तरं प्रत्यनभिसर्पितया स्थानशीले. 10 / उत्त०५ अ०। स्थावरनामकर्मोदयात् पृथिव्यादिके, सूत्र०१ श्रु०११०४ थावरचउक न०(स्थावरचतुष्क) स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणलक्षणे उ०। आ०चूला स्था०ा नं०। स्थावराः पृथिव्यप्तेजो-वायुवनस्पतयः / स्थावरोपलक्षित चतुष्के. कर्म०२ कर्म आचा०१ श्रु० अ० 130 / सूत्रका द्विविधः स्थावरः, सूक्ष्मबादरभेदात्। सूक्ष्मस्थावरोवनस्पत्यादिः। बादर-स्थावरः पृथिव्यादिः। पा०। सूत्र०। थावरजाइ स्त्री०(स्थावरजाति) एकेन्द्रियजाती, क०प्र०२ प्रक०। तिविहाथावरापण्णत्ता। तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया, थावरणाम(ण) न०(स्थावरनामन्) अस्पन्दनत्वनिबन्धने नाम कर्मभदे, श्रा०। यदुदयवशादुष्णाऽऽद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहा-- वणस्सइकाइया! रासमर्थाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा जायन्ते। प० सं०३ द्वार / स्थानशीलत्वात, स्थावरनामकर्मोदयाद वा स्थावराः / शेष / कर्मका प्रवा व्यक्तमेवेति / स्था०३ठा०२उ०। थावरतिग न०(स्थावरत्रिक) स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तलक्षणे स्थाव-- स्थावराऽऽदिविभागमाह रोपलक्षिते त्रिके, कर्म०५ कर्म०। भूमी घरा य तरुगण, तिविहं पुण थावरं मुणेयव्वं / थावरदसग न० (स्थावरदशक ) स्थावरोपलक्षिते दशके , चक्कारवद्धमाणुस, दुविहं पुण होइ दुपयं तु // 22 // कमण इतस्त्र सदशकात स्थावर दशकं विपर्यस्त विपरीतार्थ
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________________ थावरदसग 2406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थिरणाम भवति / तथाहि-तिष्ठन्तीत्येवंशीला उष्णाऽऽद्यमितापेऽपि तत्प- | थिमिओदय न०(स्तिमितोदक) यस्याधः कर्दमो नास्ति तादूशे रिहारासमर्थाः स्थावराः / "स्थेशभासपिसकसो वरः" / / 5 / 2 / 82 // | जले. औला (हेम०) इति वरप्रत्ययः / पृथिवीकायिका अप्कायिकाः तेजस्कायिका थिमिय त्रि०(स्तिमित) स्वचक्रपरचक्रतस्करडमराऽऽदिसमुत्थभयकवायुकायिका वनस्पतिकायिका एकेन्द्रियाः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि ल्लोलमालाविवर्जिते, सू०प्र०१ पाहु०। रा०ा प्रश्ना भ०। भयवर्जितत्वेन स्थावरनाम, तेजोवायूनां तु स्थावरनामोदयेऽपि चलनं स्वाभाविकमेव, स्थिरे, औ०। विपा०। ज्ञाo। निभृते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। न पुनरुष्णाऽऽद्यभितापेन द्वीन्द्रियाऽऽदीनामिव विशिष्टमिति / / 1 / / कर्मक दशारपुरुषाणां तृतीये पुरुष, अन्त० 1 श्रु०१ वर्ग १अ०। स च 1 कर्म०। अन्धकवृष्णेर्धारण्यामुत्पद्यारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इति थावरसुहुमअपजं, साहारणअथिरअसुभदुभगाणि। अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्ग चतुर्थेऽध्ययने चिन्तितम्। अन्त०१ श्रु०१ वर्ग दुस्सरणाइज्जाऽजसं,........................ // 27 // 1 अगस्था इहापि नामशब्दस्य संबन्धात् स्थावरनाम सूक्ष्मनाम अपर्याप्तनाम | थिमियमज्झ त्रि०(स्तिमितमध्य) स्तिमितं स्थिरं मध्यं देहिनोसाधारणनाम अस्थिरनाम अशुभनाम दुर्भगनाम दुःखरनाम अनादेयनाम ऽन्तःकरण यस्मिन् सति तत्तथा। निश्चलमनस्के, प्रश्न०४ संब० द्वार। (अजस त्ति) अयशः कीर्तिनाम / (27) कर्म०१ कर्म०। थिमियमेइणी स्त्री०(स्तिमितमेदिनी) निर्भरजनपदे, प्रति०। थावरदुगन०(स्थावरद्विक) स्थावरसूक्ष्मलक्षणे स्थावरोपलक्षिते द्विके, थिर त्रि०(स्थिर) संहननधृतिभ्यां बलवति, आव०४ अ० आचा० सूत्र०। कर्म०२ कर्म निश्चले, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० व्या प्रश्न उत्त०। अप्रकम्पे, भ०११ 2011 थावरविस न०(स्थावरविष) विषभेदे, यद्वि भुक्तं सत्पीडयति। स्था० उ०। आव०। अनतिश्लथे, जी०३ प्रति०४ उ०। दृढे, आचा०२ श्रु० 6 ठा० १चू०५अ० २उ०। नंगा आ०म०। बृल। नि० चू० स्थायिनि, पञ्चा०१७ थासग पुं०(स्थासक) दर्पणाऽऽकारे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० ज०। विपा०। विव०। असंख्येयकालावस्थायिनि, सूत्र० 1 श्रु० 1101 उ०। आदर्शकाऽऽकारे, भ०११ श०११ उ०ा औ०। हस्तबिम्बे, ज्ञा०१ श्रु०१ तत्रावस्थाया धुवकर्मिके, व्य०६ उ०ा स्थिरा नाम येषां तत्रैव गृहाणि / अग अश्वाऽऽभरणविशेषे, पुं० अनु०॥ बृ०१ उ०। ध्रुवे, नि०चू०५ उ०। प्रारब्धकार्यस्यापान्तराल एवापरिथासगावली स्त्री०(स्थासकाऽऽवली) 6 तलादर्पणाऽऽकृतीनां स्थास त्यागकारिणि, ध०३अधिवा स्थिरो नाम उद्योगं कुर्वन्नपिन परिताम्यति। कानां स्फूरकाऽऽदिषु उपर्युपरि स्थितानां पद्वतौ, अणु०१ वर्ग 2 अ०। व्य०३ उ०। रूढा बहुसंभूया, थिरावा ओसढा वि / (35)" स्थिरा थाह न०(स्ताघ) यावति जले नासिका न बुमति तावति जले. बृ०४ निष्पन्ना। दश०७ अ० उ०ा गाधे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०) दीर्घ , देना०५ वर्ग 30 गाथा। थिरगहत्थ त्रि०(स्थिराग्रहस्त) स्थिरोऽग्रहस्तो यस्य स स्थिराग्रहस्तः / थिग्गल न०(स्थिग्गल) प्रदेशपतितसंस्कृते, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ जी०३ प्रति०२उ०। सुलेखवत् तथाविधहस्ते, उत्त०४ अ०। भ०। उका प्रज्ञा०। चित्ते, "आलोय थिग्गलंदारं, संधि दगभवणाणिय। चरतो थिरचित्त त्रि०(स्थिरचित्त) अविचलमानसे, जीवा०६ अधि०। नविनिज्झाए, संकट्ठाणविवज्जए"||१५।। दश०५ अ०१ उ०। साधुर्वस्त्रे थिरछक्क न०(स्थिरषट्क) स्थिरशुभशुभगसुस्वराऽऽदेययशः कीर्तिरूपे थिग्गलकं ददाति, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्-यो भिक्षुर्वस्त्रस्यैक थिग्गलं स्थिरोपलक्षिते, कर्म०१ कर्मा ददाति, ददन्त वा अनुमोदयति, तस्य दोषाः, यः कारणे त्रयाणां थिरजम पुं०(स्थिरयम) यमभेदे, द्वा० थिग्गलाना परतश्चतुर्थ थिग्गलं ददाति, तस्य प्रायश्चित्तं निशीथसूत्र सचप्रथमोद्देशके, एतदनुसारेण साधूना थिग्गलदानं न कल्पत इति। 435 सत्क्षयोपशमोत्कर्षादतिचाराऽऽदिचिन्तया। प्र०ासेन०३ उल्ला रहिता यमसेवा तु, तृतीयो यम उच्यते // 27 // थिण्ण त्रि०(स्त्यान) "ई: स्त्यानखल्वाटे" 1181174|| इति (सदिति) सतो विशिष्टस्य क्षयोपशमस्योत्कर्षादुद्रेकादतिचास्त्यास्थाने स्त्यी थलुक्, स्त्यानेव स्ती थी, नो णः / प्रा० 2 पाद / राऽऽदीनां चिन्तया रहिता, तदभावस्यैव विनिश्चयात्, यमसेवा तु तृतीयो सेवाऽऽदित्वाद् णद्वित्वम् / प्रा०२ पाद / कठिने, ज्ञा० 1 श्रु० अ०। यमः स्थिरयम उच्यते // 27|| द्वा० 16 द्वा०। निःस्नेहे, दृप्ते च / देवना०५ वर्ग 30 गाथा। थिरजस त्रि०(स्थिरयशस्) अनश्वरकीर्ती, 'समणगणपयरगंधहत्थीणं थिप्प धा०(तृप) तृप्तौ, "तृपः यिप्पः" / / 138|| इति तृप्यतेः थिरजसाणं।" स०७ अङ्ग। थिप्पेत्यादेशः। 'थिप्पइ।' तृप्यति / प्रा०४ पाद। थिरजाय पुं०(स्थिरजात) स्थिरेण निर्विघ्नेन जात उत्पन्नो गर्भ *विगल धा०। विक्षरणे, "विगलेः थिप्प-णिदुहौ" |4|175 / / इति स्थिरजातः / चिरेण जाते, तं०। विगलतेः स्थिप्पाऽऽदेशः / 'थिप्पइ' विगलति / प्रा०३ पाद / थिरणाम(ण) न०(स्थिरनामन्) नामकर्मभेदे, यदुदयात् थिमिअ न०(देशी) स्थिरे, देना०५ वर्ग 27 गाथा। शरीरावयवानां शिरोऽस्थिदन्तानां स्थिरता भवति। "दंतअद्विमाइ थिमिउं अव्य०(स्तिमितुम्) आीकर्तुमित्यर्थे, ल०प्र०। थिरं / (46)' स्थिर स्थिरनामोदयेन दन्तास्थ्यादि निश्चलं
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________________ थिरणाम 2410- अभिधानराजेन्द्रः - भाग : थिरा भवति, यदुदयाद् शिरोऽस्थिग्रीवाऽऽदीनामवयवानां स्थिरता भवति तत् | गाथा। स्थिरनाम (46) / कर्म०१ कर्मा पं०सं०। थिरसुह न०(स्थिरसुख) निःप्रकम्पानुद् वेजनीय, ''स्थिरसुखथिरतरय पुं०(स्थिरतरक) अतिशयस्थिरे, पञ्चा० 11 विव०॥ मासनम्," इति पतञ्जलिः। द्वा० 22 द्वा०। थिरता स्त्री०(स्थिरता) उत्कर्षकाष्ठाप्राप्तौ, द्वा०१८ द्वा०। महाव्रतेषु एव | थिरा स्त्री०(स्थिरा) योगदृष्टिभेदे, द्वा०ा स्थिरा च भिन्नग्रन्थेरेव, सा च धर्मे वा स्थैर्यहेतौ निश्चलत्वे, पा० धा स्थैर्ये, बृ०४उ०। स्थिरता- रत्नाभा, तद् बोधो हि रत्नभास्समानः, तद्भावोऽप्रतिपाती प्रवर्द्धमानो जिनधर्म प्रति परस्य स्थिरताऽऽपादनं, स्वस्य वा परतीर्थिकसमृद्धि- निरपायो नापरपरितापकृत् परितोषहेतुः प्रायेण प्रणिधानाऽऽदियोदर्शनऽपि जिनप्रवचनं प्रति निष्प्रकम्पता। ध०२ अधिन निरिति। (26) द्वा०२० द्वा० वत्स ! किं चञ्चलवान्तो, भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसि / प्रत्याहारः स्थिरायां स्या-दर्शनं नित्यमभूमम्। निधिं स्वसन्निधावेव, स्थिरता दर्शयिष्यति॥१|| तथा निरतिचारायां, सूक्ष्मबोधसमन्वितम्।।१।। ज्ञानदुग्धं विनश्येत, लोमविक्षोभकूर्चकैः / (प्रत्याहार इति) स्थिरायां दृष्टौ प्रत्याहारः स्याद्वक्ष्यमाणलक्षणः। तथाअम्लद्रव्यादिवास्थैर्यादिति मत्वा स्थिरो भव / / 2 / / निरतिचारायां दर्शनं नित्यमप्रतिपाति, सातिचारायां तु प्रक्षीणनयनअस्थिरे हृदये चित्रा, वानेत्राऽऽकारगोपना। पटलोपद्रवस्य तदुत्कोपाऽऽद्यनवबोधकल्पमपि भवति, तथाऽतिचारभापुंश्चल्या इव कल्याणकारिणी न प्रकीर्तिता // 3 // वाद्, रत्नप्रभायामिव धूल्यादेरुपद्रवः, अभ्रमं भ्रमरहितम्, तथा सूक्ष्मअन्तर्गतं महाशल्यमस्थैर्य यदि नोद्धृतम् / बोधेन समन्वितम् / / 1 / / क्रियौषधस्य को दोषस्तदा गुणमयच्छतः? ||4|| विषयासंप्रयोगेऽन्तः-स्वरूपानुकृतिः किल / स्थिरता वाङ्मनः कायैर्येषामङ्गाङ्गितां गता। प्रत्याहारो हृषीकाणामेतदायत्तताफलः / / 2 / / योगिनः समशीलास्ते,ग्रामेऽरण्ये दिवा निशि।।५।। (विषयेति) विषयाणां चक्षुरादिग्राह्याणां रूपाऽऽदीनामसंप्रयोगे तद् स्थैर्यरत्नप्रदीपश्चेद्दीप्रः संकल्पदीपजैः। ग्रहणाभिमुख्यत्यागेन स्वरूपमात्रावस्थाने सति अन्तःस्वरूपानुकृति श्चित्तनिरोधनिरोध्यतासंपत्तिः किल हृषीकाणां चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां तद्विकल्पैरलं धूमैरलं धूमैस्तथाऽऽश्रयैः / / 6 / / प्रत्याहारः / यत उक्तम्- "स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार उदीरयिष्यसि स्वान्तादस्थैर्यपवनं यदि। इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।" इति। (2-54) कीदृशोऽयमित्याह-एतदायसमाधैर्धर्ममेघस्य, घटां विघटयिष्यसि // 7 / / त्तताफल इन्द्रियवशीकरणैकफलः। अभ्यस्यमाने हि प्रत्याहारे तथायचारित्रं स्थिरतारूपमतः सिद्धेष्वपीष्यते। तानीन्द्रियाणि भवन्ति यथा बाह्यविषयाभिमुखतां नीयमानान्यपि न यतन्तां यतयोऽवश्यमस्या एव प्रसिद्धये // 8 // यान्तीति। तदुक्तम्-"ततः परमावश्यतेन्द्रियाणामिति।" (2-55) ||2|| अष्ट०३ अष्टा अतो ग्रन्थिविभेदेन, विवेकोपेतचेतसाम्। थिरपइण्ण त्रि०(स्थिरप्रतिज्ञ) भाषितस्यानन्यथाकारके, आव०६ अ०॥ पायै भवचेष्टा स्याद्वालक्रीडोपमाऽखिला।।३।। थिरपरिवाडि पुं०(स्थिरपरिपाटि) स्थिरा अतिशयेन निरन्तरा (अत इति) अतः प्रत्याहाराद, ग्रन्थिविभेदेन विवेकोपेतचेतसा भवचेष्टाऽभ्यासतः स्थैर्यमापन्ना अनुयोगपरिपाट्यो यस्य स स्थिरपरिपाटिः। ऽखिला चक्रवादिसुखरूपाऽपि बालक्रीडोपमा बालधूलीगृहक्रीडाप्रव० 65 द्वार / व्य०। अनु०। ग०। परिचितसूत्रार्थे , आचा०१ श्रु०१ तुल्या, प्रकृत्यसुन्दरत्वास्थिरत्वाभ्यां त्रपायै स्यात् / / 3 / / अ०१ उ०। तत्त्वमत्र परं ज्योतिस्विभावैकमूर्तिकम्। थिरव्वय पुं०(स्थिरखत) व्रतेषु स्थिरे, आ०म०१ अ०२ खण्ड। विकल्पतल्पमारूढः, शेषः पुनरुपप्लवः॥४|| थिरसंघयण पुं०(स्थिरसंहनन) स्थिरं दृढं (प्रथममित्यर्थः) संहननं यस्य (तत्त्वमिति) अत्र स्थिरायां ज्ञस्वभाव एका मूर्तिर्यस्य तत्तथा, ज्ञानाऽऽसः। आ०म०१ अ०१ खण्ड। बलवत्तरशरीरे, दशा०४ अ० अविघट दिगुणभेदस्याऽपि व्यावहारिकत्वात् / पर ज्योतिरात्मरूपं तत्त्वं मानसंहनने, भ०१५ श०। परमार्थसत्। शेषः पुनर्भवप्रपञ्चो विकल्पलक्षण तल्पमारूढ उपप्लवो थिरसंघयणया खी०(स्थिरसंहननता) तपःप्रभृतिषु शक्तियुक्त–तायाम्, भ्रमविषयः, परिदृश्यमानरूपस्याभावात् / / 4 / / उत्त०१ अशरीरसंपद् भेदे, स्था०८ ठा०। प्रव०॥ भवभोगिफणाऽऽभोगो, भोगोऽस्थामवभासते। थिरसत्त पुं०(स्थिरसत्त्व) स्थिरं परीषहाऽऽदिसंपातेऽप्यध्वंसात्स त्वं फलं ह्यनात्मधर्मत्वात्तुल्यं यत्पुण्यपापयोः |5|| यस्य स स्थिरसत्त्वः / तस्मिन, स्था०४ ठा०३उ०। निश्चल (भवेति) अस्यां स्थिरायाम्, भोग इन्द्रियार्थ सुखसंबन्धः, मानसावष्टम्भे, बृ०१ उ01 भवभोगिफणाऽऽभोगः संसारसर्पफणाऽऽटोपोऽवभासते, बहुदु:थिरसरीर पुं०(स्थिरशरीर) शारीरबलोपेते, बृ०१उ०। खहेतुत्वात् / नानुपहत्य भूतानि भोगः संभवति, ततश्च पापम्, थिरसीसपुं०(देशी) निर्भी के निर्भर, बद्धशिरस्त्राणे, दे०ना०५ वर्ग 31 / ततो दारुणदुःखपरम्परेति / धर्मप्रभवत्वाद्धोगो न दुःखदो भ
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________________ थिरा 2411- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थिरीकरण विष्यतीत्यत्राऽऽह-यद् यस्मात् पुण्यपापयोxयोहिं फलमनात्मधर्मत्वात्तुल्यम्। व्यवहारतः सुशीलत्वकुशीलत्वाभ्यां द्वयोविभेदेऽपि निश्चयतः संसारप्रवेशकत्वेन कुशीलत्वाविशेषात् / / 5 / / धर्मादपि भवन भोगः, प्रायोऽनर्थाय देहिनाम् / चन्दनादपि संभूतो, वहत्येव हुताशनः / / 6 / / (धर्मादिति) धर्मादपि भवन भोगो देवलोकाऽऽदौ, प्रायो बाहुल्येन, अनर्थाय देहिनां, तथा प्रमादविधानात्। प्रायोग्रहणं शुद्धधर्माक्षपिभोगनिरासार्थम्, तस्य प्रमादबीजत्वायोगात्। अत्यन्तानवद्यतीर्थकराऽऽदिफलशुद्धेः पुण्यशुद्ध्यादावागमाभिनिवेशाद्धर्मसारचित्तोपपत्तेरिति / सामान्यतो दृष्टान्तमाह-चन्दनादपि तथा शीतप्रकृतेः संभूतो दहत्येव हुताशनः, दहनस्य दाहस्वभावापरावृत्तेः / प्राय एलदेव नदहत्यपि कश्चित्, सत्यमन्त्राभिसंस्कृताहाहासिद्धेः सकललोकसिद्धत्वादिति वदति। युक्तं चैतत्, निश्वयतो येनाशेन ज्ञानाऽऽदिकं तेनाशेनाऽबन्धनमेव,येन च प्रमादाऽऽदिकं तेन बन्धनमेव / सम्यक्त्वाऽऽदीनां तीर्थकरनामकर्माऽदिबन्धकत्वस्याऽऽपि तदविनाभूतयोगकषायगतस्योपचारेणैव संभवाद्, इन्द्रियार्थसंबन्धाऽऽदिकं तूदासीनमेवेत्यन्यत्र विस्तरः।।६।। स्कन्धात्स्कन्धान्तराऽऽरोपे, भारस्येव न तात्त्विकी। इच्छाया विरति गात्तत्संस्कारानतिक्रमात्।।७।। (स्कन्धादिति) स्कन्धात् स्कन्धान्तराऽऽरोपे भारस्येव भोगादिच्छाया विरतिर्न तात्त्विकी, तत्संस्कारस्य कर्मबन्धजनितानिष्टभोगसंस्कारस्याऽनतिक्रमात् / तदतिक्रमो हि प्रतिपक्षभावनया तत्तनूकरणेन स्यात्, नतुविच्छेदेन प्रसुप्ततामात्रेण वेति। इत्थंभोगासारताविभावनेन स्थिरायां स्थैर्यमुपजायते, सत्यामस्यामपरैरपियोगाऽऽचार्य रलौल्याऽऽदयो गुणाः प्रोच्यन्ते। यथोक्तम्-- "अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं, गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्यम्। कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च, योगप्रवृत्तेः प्रथम हि चिहम्॥१॥ मैत्र्यादियुक्तं विषयेषु चेतः, प्रभाववद्धैर्यसमन्वितं च। द्वन्द्वैरधृष्यत्वमभीष्टलाभो, जनप्रियत्वं च तथा परं स्यात्।।२।। दोषव्यपायः परमा च तृप्तिरौचित्ययोगः समता च गुर्वी / वैराऽऽदिनाशोऽथ ऋतम्भरा धीनिष्पन्नयोगस्य तु चिहमेतत्' ||3|| इति। इहाप्येतदकृत्रिमं गुणजातमित एवाऽऽरभ्य विज्ञेयम्।।७।। द्वा०२४ द्वा०। थिरावलिया स्त्री०(स्थिराऽऽवलिका) भुजपरिसर्पिणीभेदे, जी०२ प्रति थिरासयत्त (स्थिराऽऽशयत्व) चित्तस्थैर्य ,पं० सू०४ सूत्र०। थिरीकरण न० (स्थिरीकरण) सीदता चारित्राऽऽदिषु स्थैर्यहती, जीता धर्माद् विषीदता तत्र चारुवचनचातुर्यादवस्थापने, प्रव०६द्वार। पञ्चा०) दश०। धा स्वगतपरगतधर्मव्यापाराणां स्थिरत्वाऽऽधाने, पञ्चा०४ विव०नि०चून एतेसुं चिअखमणाऽऽदिएसु सीदति चोयणा जा तु / बहुदोसे माणुस्से, मा सीद थिरीकरणमेयं // 28|| सीदतो णाम जो थिरसंघयणो धितिसंपण्णो हट्ठो य ण उज्जमति खमणाऽऽदिएसु, एसा सीयणा / चोयणा प्रेरणा, नियोजनेत्यर्थः, तंपुण चोयणं करेति अवाय दंसेउं। जओ भण्णति-(बहुदोसे माणुस्से) दोसा अवाया / ते य "दंडकसंसत्थगाहा।" अहवा-जरसा-सकासस्रयकुट्ठाऽऽदओ संपओगविप्पओगदोसेहि य जुत्तं / मा इति पडिसेहे। एवं बयणकिरियासहायत्तेणं संजमे थिरं करेति त्ति थिरीकरणं / सेसं कंठं / नि०चू०१उ०। "जहा उज्जेणीए अजाऽऽसाढो कालं करेंते संजए अप्पाहेइ / मम दरिसावं दिजह, जहा उत्तरज्झयणे सुए,तं अक्खाणयं सव्वं तहेव। तम्हा सो जहा अज्जा-साढो थिरोकओ, एवं जेऽभविया तेथिरीकरेयव्या।" दश०३ अ० दृढीकरणे, नि०चू० ४उ०॥ थिरीकरणे आसाढो उदाहरणं-"उज्जेणीए आसाढो आयरिओ कालं करिते साहू समाहीए णिजवेति, अप्पाहेति य जहा ममं दरिसायं देजह, ते य ण देति / सो य उव्वेयं गतो पव्वज्जाए, तओ हाविओ य, सलिंगेण सिस्सेण य से ओही पउत्ता, दिट्ठो ओहावंतो आगतो, अंतरा य गामविउव्वणं णट्टियाकरणं, पच्छण्णयं सरयकालउवसंथारोपधावणं, अंतरा य अण्णगाममज्झा स तलागछद्दारगविउव्वणं जलमज्झे खेलणं आयरिओ पासित्ता ठितो। तेहिं समाणं वाणमंतरवसहिमुवागतो, पच्छा कालिया ते एगमेगस्स आभरणाणि हरिउमारद्धो, पच्छा तेसिं दिट्टतो कहयंति परिवाडीए। पढमो भणति"जेण भिक्खं बलिं देमि, जेण पोसेमि णायए। सा मे मही अक्कमति, जायं सरणतो भयं / / 124 // " सो भणति-अतिपंडितो सि, मुंच आभरणाणि। वितिओ वि आरद्धो, सो भणति"बहुस्सुयं चित्तकह, गंगा वहइ पाडलं। बुज्झमाणग ! भई ते, लप ता किंचि सुहासियं / / 125 // " ततिओ भणति, सुणेहि अक्खाणयं"जेण रोहति वीयाणि, जेण जीयंति कासगा। तस्स मज्झे विवजामि, जायं सरणतो भयं / / 126 / / जमहं दिया य राओ य, तप्पेमि महुसप्पिसा। तेण मे उडओ दड्डो, जायं सरणतो भयं // 127 // " अहवा-- "वग्धस्स मरे भीतेणं, पावओ सरणं कतो। तेण दड्ड मम अंग, जायं सरणओ भयं / / 128 // " चउत्थो भणति"लघणपवणसमत्थो, पुव्वं होऊण संपई कीस? दंडयगहियग्गहत्थो, वयंस ! को णामओ वाही? ||126 / / " सो भणइ"जेट्टासाढेसुमासेसु, मारुओ सुहसीयलो। तेण मे भजते अंग, जायं सरणतो भयं // 130 / / जेण जीवति सत्ताणि, निरोहम्मि अणंतए। तेण मे भज्जए अंगं, जायं सरणओ भयं / / 131 // " पंचमो भणइ"जाव वुच्छं सुहं वुच्छ, पादये निरुवहवे। मूलाओ उद्दिता वल्ली, जातं सरणतो भयं / / 132 // "
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________________ थिरीकरण 2412 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थीणद्धि छट्टो भणति"अभिंतरया खुभिया, पेल्लंति बाहिरा जणा। दिसं भयह मायंगा ! जायं सरणतो भयं' / / 133 / / अहवा"जत्थ राया सयं चोरो, भंडिओ य पुरोहिओ। दिसं भयह णायरिया ! जायं सरणओ भयं // 134 // अहवा"अइरुग्गयए य सूरिए, चेइयथूभगए य वायसे। भित्तीगयए य आयवे, सहि ! सुहिओ हुजणो न बुज्झइ॥१३५।। तुम एव य अम्म हे ! लवे, मा हु विमाणय जक्खमागयं। जक्खाहडए हु तायए, अण्णिं दाणि विमग्ग ताययं / / 136|| नवमासय कुच्छिधालिया, पासवणे पुलिसे य महिए। धूया मे गेहिए हडे, सलणए असलणए य मे जायए'' ||137 / / एवं सव्वाभरणाणि घेत्तूण पयाओ, अंतरा य संजतीविउव्वणं तं दट्टण भणति"सयमेव य लुक्ख लोविया, अप्पणिआ य वियड्डि खाणिया। ओवाइयलद्धओ य सि, किं छेला ! बेबेति वाससी?" // 13 // "कडए ते कुंडले य ते, अजिअक्खि ! तिलयते यते। पवयणस्स उड्डाहकारिए! दुट्ठा सेहि ! कतोऽसि आगता ? ||136 // " 'राईसरिसवमित्ताणि, परछिद्दाणि पाससि / अप्पणो विल्लमित्ताणि, पासतो वि ण पाससि / / 140 // साय पडिभणति"समणोऽसि संजतो असि, बंभयारी समलोट्ठकंचणे। वेहारियवायओय ते, जिट्ठज्ज ! किं ते पडिग्गहे? // 141 // " (उत्त० नि०२०) (एतासां गाथानामर्थः "दसणपरीसह' शब्देऽग्रे वक्ष्यते) पुणरवि य पयाओ रायरूवखंधावार विउव्वणं, पडिबुद्धो य। जहा तेण देवेण तस्स आसाढभूतिस्स थिरीकरण कतं, एवं जहासत्तिओ थिरीकरण कायव्वं / ' नि०चू०१ उ०। थिल्लि स्त्री०(थिल्लि) वेगसराऽऽदिद्वयविनिर्मिते यानीविशेषे, दशा० ६अ। सूत्र०ा जला रा०ा लाटानां यत् 'अडपल्लाणं' रूढं, तदन्यविषयेषु थिल्लिरित्युच्यते। जी०३ प्रति०४ उ०ा औ०। ज्ञा० भ०| थिवथिवतं त्रि०(स्तिवस्तिवत्) द्रिग् द्विगायमाने, तं०। 'थिविथिवियं वीभच्छ।' थिविथिवायमानैरन्त्रैर्वीभत्सं, रौद्रमित्यर्थः / त०। थिवुग पुं०(स्तिवुक) पानीयविन्दौ, आ०चू०१ अ०! आ०म०। प्रज्ञा०। दर्श०। विशेष थिवुगसंकम पुं०(स्तिवुकसंक्रम) "पिंडपगईण जा उदयसंगया तीए | अणुदयगयाउ / संकामिऊण वेयइ जं एसो थियुगसंकामो // 79 // " इत्युक्तलक्षणे संक्रमभेदे, पं०सं०५ द्वार। क०प्र०) थिहु स्त्री०(स्तिभु) साधारणबादरवनस्पतिकायभेदे, जी०१ प्रति०। थीण त्रि०(स्त्थान) संघातमापन्ने, स्था०६ ठा०) थीणगिद्धि स्त्री०(स्त्यानगृद्धि)स्त्याना बहुत्वेन सडातमापन्ना गृद्धिरभिकाला जाग्रदवस्थाऽध्यसवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः, तस्यां हि सत्यां जाग्रदवस्थाऽध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति, स्त्याना वा पिण्डीभूताऋद्धिरात्मशक्तिरूपा यस्यामिति स्त्यानद्धिरित्यप्युच्यते / तमावे हि स्वप्नुः केशवार्द्धबलसदृशी शक्तिर्भवति / अथवा-स्त्याना जडी--भूता चैतन्यर्द्धिरस्यामिति स्त्यानद्धिरिति, तादृशविपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपिस्त्यानद्धिः, स्त्यानगृद्धिरिति वा। स्था०६ टा०। प्रव०ा उत्ता"गोणाऽऽदयः" ||8|2 / 174 // इति प्राकृतसूत्रेण थीणद्धीतिनिपातः / कर्म 1 कर्म०। निद्राविशेषे, कर्म०६ कर्म। थीणद्धि स्त्री०(स्त्यानद्धि) स्त्याना पिण्डीभूता ऋद्धिरात्मशक्तिरूपा यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानद्धिः / तद्भावे हि उत्कर्षतः प्रथमसंहननस्य केशवार्द्धबलसदृशी शक्तिर्भवति, श्रूयते चैवं कथानक आगमेवचित्प्रदेशे कोऽपि क्षुल्लको विपाकप्राप्तस्त्यानद्धिनिद्रासहितो द्विरदेन दिवा स्खलीकृतः, ततः स तस्मिन् बद्धाऽभिनिवेशो रजन्यां स्त्यान युदये वर्तमानः समुत्थाय तद्दन्तयुगलमुत्पाट्य स्वोपाश्रयद्वारि च प्रक्षिप्य पुनः सुप्तवान् इत्यादि। तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपिस्त्यानर्द्धिः / (6 गा०) कर्म०६ कर्म०। गा पं०सं०। जीता स्त्यानर्द्धिदृष्टान्तानाहपोग्गलमोयगफरुसग-दंते बडसालभंजणे सूत्ते। एतेहि पुणो तस्सा, विगिंचणा होति जयणए।।१४०।। पुद्गलं पिशित, मोदको लडूमुकः, फरुसकः कुम्भकारो, दन्ताः प्रतीताः वटशालाभञ्जनम्, एतानि पञ्चोदाहरणानि सुप्ते स्त्यानर्द्धिनिद्रायां भवन्ति। एतैरतद् दृष्टान्तोक्तैश्चिहैः स्त्यानद्धि परिज्ञाय, तस्य स्त्थानद्धिमतः साधोर्यतनया विवेचनं परित्यागः कर्तव्यो भवति। तत्र पुद्गलदृष्टान्तमाहपिसियासि पुव्व महिसं, विगिंचियं दिस्स तत्थ निसि गंतुं। अण्णं हंतुं खायति, उवस्सयं सेसगं णेति / / 1411 // "एगम्मि गामे एगो कुडुंबी पक्काणि य तलियाणि य निम्मणेसु अणेगसो मंसप्पगारे भक्खेइ। सो अतहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्म सोउं पव्वाइओ गामाइसु विहरइ। तेण य एगस्थ गामे महिसो विगिंचमाणो दिहो। तस्स मसे अभिलासो जातो। तेण अभिलासेण अव्वोच्छितेणेव भिक्खू हिंडित्ता अव्वुच्छिऊण बियारभूमिं गतो। चरिमा सुत्तपोरिसी कया। आवस्सयं काउं पातोसिया पोरिसी विहिता। तदभिलासी चेव सुत्तो / सुत्तस्सेव थीणद्धी जाया / सो उडिओ अणाभोगनिव्वत्तिएण कारणेणं गतो महिसमंडलं। अन्नं महिसं हतुं भक्खित्ता सेसं आनेतुं उवस्सयस्स उवरि ठवित। पचूसे गुरूणं आलोएइ-एरिसो सुविणो दिट्ठो। साहूहिं दिसावलोकं करेंतेहिं दिट्ठ कुणिम, जाणियं-जहा एस थीणद्धी, ताहे लिंगपारं-चियं पच्छित्तं से दिन्न / अथ गाथाऽक्षरार्थःपिशिताशी कश्चित्पूर्व गृहवासे आसीत् / स च महिषं विकर्तितं दृष्ट्वा संजाततद्भक्षणाभिलाषस्तत्र महिषमण्डले निशि रात्रौ गत्वा अन्ये महिषं हत्वा खादति, शेषमुद्दरितमुपाश्रये नयति।
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________________ थीणद्धि 2413 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थुइ मोहकदृष्टान्तमाह शाखामानीयोपाश्रयोपरि स्थापितवान् / उत्सर्गे च आवश्यककायोमोयगभत्तमलद्ध, भंतु कवाडे घरस्स निसि खाति। त्सर्गत्रिके कृते, तथैव गुरूणामालोचयति, ततो दिगवलोके कृते तथैव भाणं च भरेऊणं, आगतों आवस्सए विगडे / / 142 / / ज्ञातम, लिङ्गपाराञ्चिकश्च कृतः केचिदाचार्या बुवते-सप्तमभवे वनहस्ती एकः साधुर्भिक्षां हिण्डमानो मोदकभक्तं पश्यति / तच सुचिरम- बभूव, ततो मनुजभवमागतस्य प्रव्रजितस्योदीर्णस्त्यानढ़ें : पूर्वभवावलोकितमवभाषित च, परं न लब्ध, ततस्तदलब्ध्वा तद् व्यवसा- भ्यासाबटशालाभञ्जनमभवत्। शेष प्रागृत। यपरिणत एव प्रसुप्तः / रात्रौ तत्र गत्वा गृहस्य कपाटौ भक्त्वा मोदकान् कथं पुनरसौ परित्यजनीय इत्याहभक्षयति / शेषेर्मोदकैर्भाजन भृत्वा समागतः / प्राभातिके आवश्यक केसवअद्धबलं पण्णवेंति मुय लिंग गत्थि तुह चरणं / विकटयति-ईदृशः स्वप्नो मया दृष्ट इति। ततः प्रभाते मोदकभृतभाजनं णेच्छस्स हरइ संघो, ण वि एक्को मा पदोसं तु / / 146 / / दृष्ट्वा ज्ञातम् यथा स्त्यानद्धिरिति, तस्यापि लिङ्गपाराञ्चिकं दत्तम् / शेष केशवो वासुदेवस्तस्य बलादर्द्धबलं स्त्यानर्द्धिमतो भवतीति तीर्थकपुद्गलाऽऽख्यानकवद्वक्तव्यम्। दादयः प्रज्ञापयन्ति / एतच प्रथमसंहनिनामङ्गीकृत्योक्तम् / इत्यादि। अथफरुसकदृष्टान्तमाह बृ०४ उ०। अवरो फरुसगमुंडो, मट्टियपिंडे व छिंदिउं सीसे। थिणद्धितिग न०(स्त्यानद्धित्रिक) निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्याएगते अवयज्झइ, पासुत्ता णं विगडणा य ||143 / / नर्द्धिलक्षणे स्त्यानद्धयुपलक्षिते त्रिके, कर्म०३ कर्म। "स्तस्य अपरः कश्चित् फरुसकः कुम्भकारः क्वापि गच्छे मुण्डो जातः, प्रव्रजित थोऽसमस्तस्तम्बे" ||4|| इति स्तस्य थः। प्रा०२ पाद। इत्यर्थः / तस्य रात्रौ प्रसुप्तस्य स्त्यानर्द्धिरुदीर्णा / स च पूर्व मृत्तिका धुंडूकिअ न०(देशी) दरकुपितवदनसंकोचने, मौने च / देवना० 5 वर्ग च्छेदाभ्यासी, ततो मृत्तिकापिण्डानीव समीपप्रसुप्तानां साधूनां शिरांसि 31 गाथा। छेत्तुमारब्धः। तानि च शिरांसि, कडेवराणि चैकान्ते अपोज्झति। शेषाः थुइ स्त्री०(स्तुति) स्तवने, आव०२ अ०। सूत्र०। स्तुतिर्द्विधाप्रणामरूपा, साधवोऽपभृताः / स च भूयोऽपि प्रसुप्तः ततः प्रभाते ईदृशः स्वप्नो मया असाधारण गुणोत्कीर्त्तनरूपा च / नंग लोकोत्तरसद् भूततीर्थकृद् दृष्ट इति विकटना कृता। प्रभाते च साधूना शिरांसि, कडेवराणि च पृथक् गुणवर्णनपरायां (प्रव० 1 द्वार ) एकश्लोके प्रमाणायां (पञ्चा०४ विव०) भूतानि दृष्ट्वा ज्ञातम्-यथा स्त्यानद्धिरिति लिङ्गपाराञ्चिकं दत्तम्। ऊद्धीभूय जघन्येन चतुष्टयस्तुतिप्रकथने, मध्यमेनाष्टस्तुतिकथने, अथ दन्तदृष्टान्तमाह उत्कृष्टेन 108 स्तुतिकथने, उत्त०१४ अ०॥धानि०चू०। अनुशिष्टी, अवरो वि धाडिओ मत्तहत्थिणा पुरकवाडे भंतूण / व्य०१ उ०। संघा०। (स्तुतिस्तवयोर्विशेषः 'थय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे तस्सुक्खणित्तु दंते, वसहीबाहिं विगडणाय।।१४४॥ 2383 पृष्ठे उक्तः) चैत्यवन्दनायां यत्कायोत्सर्गानन्तर भण्यते तत्स्तुतय अपरः कोऽपि साधुहस्थभावे मत्तहस्तिना शुण्डामुत्क्षिप्य धावता इति रूढाः। (तास्तिस्रश्चतस्रो वा दीयन्ते इति 'चेइयवंदण' शब्दे धाटितः पलायमानो महता कष्टेन उज्झितः, एष चूर्ण्यभिप्रायः / तृतीयभागे 1312 पृष्ठ स्तुतिप्रस्ताव प्रत्यपादि) तिसः स्तुतीराहनिशीथचूर्णिकृता तु–“एगो साहू गोयरनिग्गतो हत्थिणा पक्खित्तो।" तीव्याख्यायाऽऽह हरिभद्रसूरि तिस्रः स्तुतयो नियमेनोच्यन्ते, केचित्तु इति लिखितम्। एवमुभयथाऽपि हस्तिकृतं पराभव स्मृत्वा स साधुस्त- अन्या अपि पठन्ति; न च तत्र नियम इति न तव्याख्यानक्रिया। एवमे-- स्योपरि प्रद्वेषमापन्नः प्रसुप्तः / उदीर्णस्त्यानर्द्धिश्वोत्थाय पुरकपाटौ भड् तत्पठितोपचितपुण्यसंभारा उचितेषूपयोगफलमेतदिति ज्ञापनार्थ क्त्वा हस्तिशालां गत्वा तस्य हस्तिनो व्यापादन कृत्वा दन्तानुत्खन्य पठन्ति-"वेयावचगराणं संतिगराणं सम्मद्दिट्ठि समाहिगराणं करेमि वसतेर्बहिः स्थापयित्वा भूयोऽपि सुप्तः। प्रभाते च विकटना- स्वप्रमा काउस्सग्ग।" इत्यादि यावद् "वोसिरामि।" व्याख्यापूर्ववत्, नवरं लोचयति / साधुमिश्च दिगवलोकनं कुर्वाणैर्गजदन्तावीक्षिप्तौ / ततः वैयावृत्त्यकराणां प्रवचनार्थ व्यापृतभावानां यथाऽम्बाकूष्मांड्यादीनां स्त्यानर्द्धिमान् असाविति कृत्वा लिङ्गपाराञ्चिकः कृतः / शान्तिकराणां क्षुद्रोपद्रवेषु सम्यग्दृष्टीनां सामान्येनाऽन्येषां समाधिकराणां वटशाखाभञ्जनदृष्टान्तमाह स्वपरयोस्तेषामेव स्वरूपमेतदेवैषामिति वृद्धसंप्रदायः / एतेषां संबन्धिनं, उन्भामग वडसालेण घट्टितो केइ पुचवणहत्थी। सप्तम्यर्थे वा षष्ठी, एतद्विषयम्-एतानाश्रित्य, करोमि कायोत्सर्गमिति। वडसालभंजणाऽऽणण, उस्सगाऽऽलोयणा गोसे!।१४५।। कायोत्सर्गविस्तरः पूर्ववत्, स्तुतिश्च, नवरमेषां वैयावृत्यकराणां तथा एकः साधुरुद् भ्रामकः भिक्षाचर्या गतः, तत्र ग्रामद्वयस्यापान्तराले , तद्भाववृद्धरित्युक्तप्रायं, तदपरिज्ञानेऽप्यस्मात्तच्छुभसिद्धाविदमेव वचनं वटवृक्षो महान् विद्यते, स च साधुर्गाढतरमुष्णाभिहतो भरितभाजन- ज्ञापकं, न चासिद्धमेतद्, अभिचारुकाऽऽदौ तथेक्षणात्, सदौचित्यस्तृषितबुभुक्षित ईर्योपयुक्तो वेगेनाऽऽगच्छत् / (वडसालेण त्ति) | प्रवृत्या सर्वत्र प्रवर्त्तितव्यमित्यै दम्पर्यमस्य, तदेत् सकलयोगबीजं लिङ्गव्यत्ययावटपादपस्य शाखया शिरसिघट्टितः सुष्टुतरं परितापितः, वन्दनाऽऽदिप्रत्ययमित्यादि न पठ्यते, अपि त्वन्यत्रोच्छसितेनेत्यादि, ततो वटस्योपरि प्रद्वेषमुपगतः, तदध्यवसायपरिणतश्च प्रसुप्तः / तेषामविरतत्वात्, सामान्यप्रवृत्तेरित्थमेवोपकारदर्शनात्, वचनप्रामाउदीर्णस्त्यानर्द्धिश्चोत्थाय तत्र गत्वा वटपादपं भक्त्वा तन्मूलतटीयां | ण्यादिति व्याख्यातम् "सिद्धेभ्यः'' इत्यादिसूत्रम् / ला आव० ध।
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________________ थुइ 2414 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थूण "ता उस्सगं किया, वितीयविसिलोगिया य इह थुत्ति / निश्राकृते गच्छप्रतिबद्धे, अनिश्राकृते च तद्विपरीते, चैत्यै सर्वत्र तिस्रः भण्णइ अहवा वड्डमाणाइसव्वजिणिंदाण / / 26 / / स्तुतयो दीयन्ते, अथ प्रतिचैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने वेलाया अतिक्रमो पुव्युत्तकयं विहिणा, कढुति सुत्तत्थवं च संविग्गा। भवति, भूयासि वा तत्र चैत्यानि, ततो वेला, चैत्यानि वा ज्ञात्वा, सुअरस भगवं नाणं, उस्सग्गठिओ थुणइ संथुत्तिं / / 27 / / प्रतिचैत्यमेकैकाऽपि स्तुतिर्दातव्येति। बृ०१ उ०। ( 'वंदण' शब्दे विशेषो वक्ष्यते)"तं काउं आवस्सगं अण्णे तिण्णि थुतीओ करेंति। अहवा-एगा तत्तिया अहवा वट्ट माणा तिसिलोगिया य सुहवण्णा। एकसिलोगा, बितिया विसिलोगा, ततिया तिसिलोगा।" आ०चू०४ कम्मस्स निजरट्ट, महया सद्देण घोसंति॥२८|| अ० आव०। सम्पूर्णचैत्यवन्दना स्तुतित्रयेण संपूर्णा भवति / पञ्चा०३ ठिया तुपुव्वविहिणा, सक्कथयं कहइजार पणिहाण। '(२८)वन्द०प०। विव०। (चतुर्थस्तु तिस्तु किलाऽर्वाचनेंति 'चेइयवंदण' शब्दे 1312 पृष्ठे "तिन्नि वा कट्टई जाव, थुईओ तिसिलोइआ। द्रष्टव्यम्) (स्तुति-विषये विशेषः 'चेइयवंदण' शब्दे 1320 पृष्ठेतृतीयभागे ताव तत्थ अणुण्णायं, कारणेण परेण वि॥१॥" द्रष्टव्यः) "सुयस्स भगवओ करेमिकाउस्सग्ग वंदणवत्तियाए।'' इत्यादि तिस्रः स्तुतयः कायोत्सर्गानन्तर या दीयन्ते ता यावत्कर्षति, प्राग्वत्यावद् ''वोसिरामि, एयं सुत्तं पठित्ता पण्णवीसुस्सासमेव काउभणतीत्यर्थः / किंविशिष्टाः? तत्राऽऽह-त्रिश्लोकिकाः त्रयः श्लोकाः स्सग करेंति।" आह च-"सुयनाणस्स चउत्थो त्ति ततो नमोक्कारेण छन्दोविशेषरूपा आधिक्येन यासु तास्तथा / "सिद्धाण बुद्धाण" पारिता। विसुद्धचरणदंसणसुयातियारा मंगलनिमित्तं चरणदसणसुयइत्येकः श्लोकः / "जो देवाण वि०" इति द्वितीयः / “एक्को वि देसगाणं सिद्धाणंथुति कढति, भणियं च सिद्धाणं थुईए।" इति।सा चेयं नमोक्कारो०" इति तृतीय इति। ध०२ अधि०। बृ०। ओघ०प्रति०। | स्तुतिः-"सिद्धाण बुद्धाणं०" इत्यादि। आव०५ अ०। एतैयाघातकारणैः समुपस्थितैः देशतः सर्वतो वाऽऽवश्यकमकृत्वा थुइजुयलन०(स्तुतियुगल) समयपरिभाषया स्तुतिचतुष्टये, पञ्चा० 3 विव०। गच्छन्ति / तत्र देशतः कथमकृत्वेत्यत आह थुइमंगल न०(स्तुतिमङ् गल) प्रतिक्रमणस्यान्ते स्तुतित्रयभणने, थुतिमंगलकितिकम्मे, काउस्सग्गे य तिविहकिइकम्मे। ओघा तत्तो य पडिक्कमणे, आलोयणयाएँ कितिकम्मे॥ थुइवुड्डि स्त्री०(स्तुतिवृद्धि) प्रवर्द्धमानस्तुतिपरिपाठे, पञ्चा० 8 विव०। स्तुतिमङ्गलमकृत्वा, स्तुतिमङ्गलाकरणे चाऽयं विधिः-आवश्यके थुक्कार पुं०(थूत्कार) महता शब्देन थुगितिकरणे,रा०। समाप्ते द्वेस्तुती उच्चार्य तृतीयां स्तुतिमकृत्वा अभिशय्यां गच्छन्ति। तत्र | थुक्किअन०(देशी) उन्नते, देना० 5 वर्ग 28 गाथा। च गत्वा ऐपिथिकी प्रतिक्रम्य तृतीयां स्तुतिं ददति / अथवा आवश्यके थुड न०(स्थुड) वनस्पतीनां स्कन्धभागे, स्था० 10 ठा०। समाप्ते एकां स्तुतिं कृत्वा द्वे स्तुती अभिशय्यां गत्वा पूर्वविधिनोचरन्ति। थुड्डहीर न०(देशी) चामरे, दे०ना०५ वर्ग 28 गाथा। अथवा-समाप्ते आवश्यकेऽभिशय्यां गत्वा तत्र तिस्रः स्तुतीर्ददति / थुणण न०(स्तवन) स्तोत्रैर्गुणकीर्तन, आचा०२ श्रु०३ चू० १अ०। दशा०। अथवा-स्तुतिभ्यो यद् वक्ति तत् कृतिकर्म, तस्मिन्नकृते तेऽभिशय्यां थुण्ण पुं०(देशी) दृप्ते, दे०ना०५ वर्ग 27 गाथा। गत्वा तत्रैर्यापथिकी प्रतिक्रम्य मुखवस्त्रिकांच प्रत्युपेक्ष्य कृतिकर्मकृत्वा | थुरुणुल्लणय न०(देशी) शय्यायाम, देवना०५ वर्ग 28 गाथा। स्तुतीर्ददति। व्य०३उ०। (इत्यादि प्र० भागे 724 पृष्ठे विस्तरः) थुलम पुं०(देशी) पटकुट्याम, दे०ना०५ वर्ग 28 गाथा। आवस्सय काऊणं, जिणोवइटुं गुरूवएसेणं / थुल्ल त्रि०(थोर) रस्य लः / "सेवाऽऽदौ वा" ||MIRIEEII इति तिन्नि थुती पडिलेहा, कालस्स विही इमो तत्थ / / लद्वित्वम् / प्रा०२ पाद। परिवर्तने, दे०ना०५ वर्ग 27 गाथा। आवश्यकं जिनोपदिष्ट गुरूपदेशेन कृत्वा पर्यन्ते तिस्रः स्तुतयः *स्थूल त्रि०ा मोट्टे, आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०२उ०। प्रवर्त्तमाना वक्तव्याः / तद्यथा-प्रथमा एक श्लोकिका, द्वितीया / थुवअत्रि०(स्तावक) "उः सास्नास्तावके" ||8175 / / इति आदेरात द्विश्लोकिका. तृतीया त्रिश्लोकिका। इत्यादि। व्य०७ उ०। पं०व०। पञ्चा०। उत्वम्। स्तोतरि, प्रा०१ पाद। सुकयं आणत्तिं पिव, लोए काऊण सुकयकिइकिम्मा। थुव्वंत त्रि०(स्तूयमान) "न वा कर्मभावे व्वः क्यस्य च लुक्" बढ्तीओ थुइओ, गुरुथुइगहणे कए तिण्णि II ||84242 / / इति भावे कर्मणि वा वर्तमानस्य टुधातोरन्ते द्विरुक्तो सुकृतामाज्ञामिय लोके कृत्वा कश्चिद्विनीतः सुकृतकृतिका | वकाराऽऽगमो वा / प्रा०४ पाद। अभिनन्द्यमाने, भ० 15 श०) सन्निवेदयत्येवमेतदपि द्रष्टव्यम्। तदनुकायप्रमार्जनोत्तरकालं वर्द्धमानाः | थू अव्य०(थू) "थू कुत्सायाम्" ||2 / 200 / 'थू' इति कुल्सायां स्तुतयो रूपतः शब्दतश्च गुरुस्तुतिग्रहणे कृते सति तिस-स्तिस्त्रो / प्रयोक्तव्यम् / कुत्सायाम्, 'थू निल्लजो लोओ।' प्रा० 2 पाद। भवन्ति / इति गाथाऽर्थः / / पं०व०२ द्वार। थूण पुं०(स्तेन) 'ऊः स्तेने वा" |||1 / 147 / / इति स्तेनशब्दस्यतो निस्सकडमनिस्सकडे, वि चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि। वा ऊत्वम्। 'थूणो।' पक्षे–'थेणो।' चौरे, प्रा०१ पाद। स्तेने, दे०ना०५ वेलं च चेइयाणि य, नाउं एकिकिया वा वि॥ वर्ग 26 गाथा।
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________________ थूणा 2415 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थूलभद्द थूणा स्त्री०(स्थूणा) छादनाऽऽदिस्तम्भनार्थछल्लीकाष्ठे,नि०चू० 13 उ०। 'थूणा णभंते ! उड्ढेऊसिया समाणी जावइयं खेत्तं ओगाहित्ताणं चिट्ठति, तिरिय पिय णं आयता समाणी तावइय चेव खेत्तं ओगाहित्ताणं चिट्ठइ? हंता गोयमा ! थूणा णं उ8 ऊसिया तं चेव चिट्ठइ।" प्रज्ञा०१५ पद / पूर्वजनपदभेदे, पूर्वस्यां दिशि स्थूणाविषयं यावद् विहरेत् / बृ०१3०1 अश्वे, दे०ना०५ वर्ग 26 गाथा। थूणाग पुं०(स्थूणाक) स्वनामख्याते सन्निवेशे, यत्र एकः सामुद्रिकः छद्मस्थविहरतो वीरजिनस्य लक्षणानि दृष्ट्वा विस्मितः शक्रेण प्रत्युक्तः। आ०म०१ अ०१खण्ड। थूणामंडव पुं०(स्थूणामण्डप) स्थूणाप्रधान वस्त्राऽऽच्छादिते मण्डपे, ज्ञा०१ श्रु०३अ०॥ थूभ पुं०(स्तूप) संघातावयविनि, सूत्र०१श्रु०१ अ०१ उ०। पीठे, जं०२ वक्षारा० ऋषभभगवदेहाऽऽदिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तूपाः प्रावर्तन्त। आचा०(?)। रा०ा आ०काव्यof ('आयारपकप्प' शब्दे द्वितीयभागे 355 पृष्ठे देवताविकुर्वितस्तूपैरनुपटैर्विवादो दर्शितः) समूहे, विशे०। "थूभा पुण विचगा होति।" "इट्टगा दि-वियावचा थूभो भण्णति।" नि०चू०३उ०। थूभकरंड न०(स्तूपकरण्ड) ऋषभपुराऽऽसन्ने धन्ययक्षाऽऽवासे उद्याने, विपा०२ श्रु०२अ०। थूभमह पुं०(स्तूपमह) स्तूपस्य विशिष्ट काले पूजायाम्, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०२उ०। थूभिया स्त्री०(स्तूपिका) लघुशिखरे, ज०१ वक्ष०ा जी०। रा०। ज्ञा०। थूरी स्त्री०(देशी) तन्तुवायोपकरणे, देवना०५ वर्ग 28 गाथा। थूल वि०(स्थूल) प्रमाणतः मौल्यतश्च (आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। प्रश्र०) महति, प्रश्र०५ संब० द्वार। बृहति, सूत्र० 1 श्रु०१अ०१उ०। बृहत्काये उपचितमांसशोणिते, सूत्र०८ श्रु०६अ० उत्त०ा अनिपुणे, उत्त०१अ०) थूलगअदिण्णादाण न०(स्थूलादत्ताऽऽदान) स्थूलं परिस्थूलबिषयत्वेन प्रसिद्धमिदं चौर्याऽऽरोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमदत्ताऽऽदानम्। आव०६ अ० तृतीयेऽणुव्रते, आव०ा परिस्थूलविषयं चौर्याऽऽरोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमिति दुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूलं, विपरीतमितरत्, स्थूलमेव स्थूलकं, स्थूलकं च तत् अदत्तादानं चेति समासः। आव०६ अ०/ थूलगअदिण्णादाणवेरमण न०(स्थूलकादत्ताऽऽदानविरमण) श्रावकस्य तृतीयेऽणुव्रते, आव०६ अ०। ('अदिण्णादाणवेरमण' शब्दे प्रथमभागे 540 पृष्ठे व्याख्यातमिदम्) थूलघोण पुं०(देशी) शूकरे, देखना०५ वर्ग 26 गाथा। थूलत्थंतरणासता स्त्री०(स्थूलार्थान्तरनाशता) स्थूलार्थान्तरघटाऽऽदिनाशतायाम्, विशेषस्य सामान्यरूपादनित्यत्वे, द्रव्या० 11 अध्या। थूलगपाण पुं०(स्थूलकप्राण) द्वीन्द्रियाऽऽदिजीवे, आ०चू०६ अ०। थूलगपाणवहविरयाइ पुं०(स्थूलकप्राणवधविरत्यादि) असूक्ष्म सत्त्वहिंसाविरमणप्रभृतौ, पञ्चा०६ विव०॥ थूलगपाणवहवेरमण न०(स्थूलकप्राणवधविरमण) प्रथमाणुव्रते, पञ्चा। स्थूला असूक्ष्माः कुदृष्टिभिरपि प्राणित्वेन प्रायः प्रतीयमानत्वाद् | द्वीन्द्रियाऽऽदयः, त एव स्थूलकाः। एतेनैकेन्द्रियाणां ट्युदासः। सम्यग्दृष्टिभिरेव प्रायः प्रतीयमानत्वेन तेषां सूक्ष्मत्वात्। प्राणा उच्छासाऽऽदयः, तद्योगात्प्राणाः प्राणिनः, अनेनाचेतनानां व्युदासः, तद्धस्येहाप्रत्याख्येयत्वात् / तेषा वधो हिंसा, तस्य विरमण विरतिः स्थूलकप्राणवधविरमणम् / पञ्चा०१ विव०। थूलगपाणाइवाय पुं०(स्थूलकप्राणातिपात) स्थूला एव स्थूलकाः, प्राणा इन्द्रियाऽऽदयः, तेषामतिपातः स्थूलक प्राणातिपातः / द्वीन्द्रियाऽऽदिजीववधे, आव०६ अ० थूलगपाणाइवायवेरमण न०(स्थूलकप्राणातिपातविरमण) प्रथमा णुव्रते, आव०६ अ०। आ०चू०। ('पाणाइवायवेरमण' शब्दे व्याख्यास्यते) थूलगमुसावाय पुं०(स्थूलकमृषावाद) परिस्थूलवस्तुविषयेऽतिपुष्टविवक्षासमुद्भवः स्थूलः, स्थूल एव स्थूलकः, स्थूलकश्चाऽसौ मृषावादश्चेति समासः / आव०६ अ०। आ० स्थूलानृतवादे, पञ्चा०१ विवा थूलगमुसावायवेरमण न०(स्थूलकमृषावादविरमण) द्वितीयाणुव्रते, आव०६ अ०। ('मुसावाय' शब्दे व्याख्यास्यते) थूलभद्द पुं०(स्थूलभद्र) शकटालपुत्रे आर्यसंभूतविजयस्य शिष्ये, कल्प०८ क्षण। "अथाभून्नवमे नन्दे, मन्त्रिराट्कल्पवंशजः। (56) शकटालः सुतौ तस्य, स्थूलभद्रसिरीयकौ। यक्षा च यक्षदिन्ना च, भूताऽथ भूतदिन्नका // 57 / / सेणा वेणा तथा रेणा, तत्पुत्र्यः सप्त चाभवन्। द्विजो वररुचिस्त्वासीन्नवनन्दं स शंसति / / 58 / / अष्टोत्तरशतश्लोकैर्नन्दो मन्त्रिणमीक्षते। मन्त्री न किञ्चिदप्यूचे, तद्भार्यामथ सोऽस्तवीत्॥५६।। पृष्टस्तयोचे त्वद्गर्ता, मत्काव्यानि प्रशंसतु। उक्तस्तदर्थ मन्त्र्यूचे, न मिथ्यात्वं स्तवीम्यहम् // 60 / / मुहुस्तयोपरुद्धोऽवक्, स तदुक्तं सुभाषितम्। दीनाराष्शत नन्दस्तस्यादात्प्रत्यहं ततः॥६१॥ मन्त्र्यूचेऽस्येश! किं दत्त, सोऽवदत् त्वत्प्रशंसया। मन्त्र्यूचे न प्रशंसामि, लौकिकानि पठत्यसौ // 62 / / मत्पुत्र्योऽपि पठन्त्यूचे, राज्ञा स्वः पाठयेः सुताः। एकश्रुताऽऽदिपाठास्ताः, मन्त्रिणाऽन्तर्हिता धृताः॥६३।। राजसौधे द्विजोऽथाऽऽगात्तास्तत्पाठेऽपठन् क्रमात्। राज्ञा वररुचेर, वारितं स ततो निशि // 6 // मुक्त्वाऽम्बुयन्त्रे दीनारान्, गङ्गान्तः स्तौति सोऽह्रि ताम्। हत्वाऽहिणा तदादाय, दत्ते गङ्गेति सोऽवदत्॥६५॥ तच्छुत्वा पार्थिवाऽमात्यमूचे दत्तेऽस्य जाह्नवी। मन्त्र्यूचे मयि तत्रस्थे, चेद्दास्यति ददाति तत्॥६६।। छन्नमादापयन्मन्त्री, तद् द्विजस्थापितं जले। प्रातर्नन्दोऽगमत्तत्राऽश्रौषीन्मन्त्रियुतः स्तवम् // 67|| स्तवान्तेऽन्तर्जलं मग्नः, किञ्चिन्न प्राप स द्विजः।
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________________ थूलभद्द 2416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थूलभद्द मन्त्री पोट्टलिकां राज्ञः, प्रदादत्त तस्य ताम्॥६॥ स्थूलभद्रश्चतुर्मासी , कर्तु कोशागृहे पुनः। मायीत्युद्भावितोऽयासीन्मन्त्रिच्छिद्राणि वीक्षते। सिंहसपशिमं यातो, तष्टा कोशा प्रियाऽऽगमात्सा श्रीयकस्याथ वीवाहे, माङ्गलिक्याय भूभुजः // 66 // उत्थायोचे विधेयं किं, चतुर्मास्याश्रयोऽस्त्विह। सामग्री क्रियमाणां सोऽज्ञासीहासीमुखात्ततः। सैव वश्चित्रशालाऽस्ति, स्थितस्तस्यां प्रभुस्ततः / / 63|| क्रीडन्ति डिम्भरूपाणि, दायं दायं सुखाऽऽदिकाम्॥७०|| रात्रौ शृङ्गारमाधाय, प्रभुक्षोभार्थमागता। अपाठ्यद्वररुचिः, सर्वेष्वपि पथेष्विदम्। न पारितः क्षोभयितुं, प्रभुर्मन्दरसोदरः ||4|| "तं न विजाणइ लोओ, जं सगडालो करेसिइ। धर्म श्रुत्वा ततो जज्ञे, श्राविका धर्मतत्त्ववित्। नंदराउं मारेवि करि, सिरियउं रज्जे ठवेसइ / / 71 / / राजादिष्ट नरं मुक्त्वा , सा ब्रह्मव्रतमग्रहीत् / / 6 / / राजपाट्यां नृपः श्रुत्वा, तच्चरैर्वीक्ष्य चाकुपत् / चतुर्मासाऽऽगमे सिंह-गुहाऽऽदेरागतान मुनीन् / नमतो मन्त्रिणःक्ष्माभुत्ततो जज्ञे पराङ्मुखः / / 72 / / गुरुः स्माऽऽह स्वागतं वो, हहो ! दुष्करकारकाः ! // 66 // मन्त्री गृहं गतः पुत्रमूचे भोः! मम मृत्युना। आयाते स्थूभद्रे तु, गुरुरुत्थाय सम्भ्रमात्। कुटुम्बं जीवतादेतन्नो चेत्सर्वं बिन क्ष्यति॥७३॥ ऊचे ते स्वागतं साधो ! कृतदुष्करदुष्कर ! / / 67|| ततो नृपंनमन्तं मां, वत्स! खङ्गेन घातयः। त्रयोऽपि तेऽथ सासूयाः, मिथः स्माऽऽहुस्तपस्विनः। आः पापमित्यवादीत्स, मन्त्र्यूचे मां विषान्मृतम् / / 74 अमात्यपुत्र इत्येवं, बहमन्यन्त सूरयः।।६८|| घ्नतः पापं न ते सोऽथ, तदादिष्ट तथाऽकरोत्। अथ सिंहगुहासाधुरन्यप्रावृषि मत्सरात्। हा हा अकार्यमित्यूचे, राज्ञाऽथ श्रीयकोऽवदत् 175 / / कोशागृहे चतुर्मासी-कृतेऽभिग्रहमग्रहीत् / / 66|| यो वो नेष्टः स नोऽप्येवं. ततः संस्कार्य तं नृपः। आचार्यरुपयुज्याऽथ, वारितोऽपि जगाम सः। श्रीयकं स्माऽऽह मन्त्री स्याः, सोऽवग् भ्राताऽस्ति मे बृहत् // 76 / / वसतिमार्गिता दत्ता, तया ता स निरीक्ष्य च // 100|| कोशागृहे स्थूलभद्रस्तमथाजूहवन्नृपः। अनुरक्तोऽर्थयामास,सा नैच्छद्भणति स्मतम्। निर्ययो द्वादशाब्दान्ते, राज्ञोक्तः स्माऽऽह चिन्तये / / 77 // राजोचे शोकवन्यन्तश्चिन्तयान्यत्रमा गमः। आनय द्रवयलक्षं मे, सोऽवदन्ने कुतो धनम्? // 101 / / सोचे नेपालभूपालः, साधूनां रक्तकम्बलम्। सोऽथ तत्र गतो दध्यौ, क्व भोगा राज्यचिन्तने? ||7|| ददाति लक्षमूल्यं स, तत्रागाल्लब्धवाँश्च तत्॥१०२।। "मुद्रेयं खलु पारवश्यजननी सौख्यच्छिदे देहिनां, नित्य कर्कशकर्मबन्धनकरी धर्मान्तरायाऽऽवहा। आगच्छतश्च चौराणां,लक्षयातीत्यवक् शुकः। स्तेनसेनापतिर्वीक्ष्याऽऽयातं भिक्षुमुपैक्षत / / 103 / / राजार्थंकपरैव संप्रति पुनः स्वार्थप्रजार्थापहृत, तद् ब्रूमः किमतः परं मतिमतां लोकद्वयापायकृत् ? // 76 // " गते तत्र पुनः कीरोऽवादील्लक्षं गतं गतम्। गतिश्च नरकाऽन्ता स्यात्कृत्वा लोचं ततस्तदा। ततस्तमनुगत्योचे, सोऽवग्दण्डेऽस्ति कम्बलम्॥१०४।। रत्नकम्बलदशाभीरजोहरणमप्यथा नये वेश्याकृते मुक्तो,ययौ तस्या ददौ च तम्। नृपमेत्यावदद्धर्मलाभस्तेऽस्त्विति चिन्तितम्। तया चन्दनिकायां स, क्षिप्तो वारयतो मुनेः / / 105 / / राजोचे निर्वहः सुष्टु, यातोऽसौ दध्यिवान्नृपः / / 1 / / सोचे शोचस्यमुन स्वं, त्वमपीदृग भविष्यसि। मिषात् कोशागृहे यास्यतीत्यैक्षिष्टोपरि स्थितः। मनो विषयपकान्तः, स प्रबुद्धोऽथ तद्राि / / 106|| मृतकेभ्यो जनोऽपैति, मुखानि पिदधाति च // 8 // मिथ्यादुष्कृतमुक्त्वाऽगाद्, गुरोरालोचयत्ततः। निर्विकारः स भगवान्, ययौ दृष्ट्वाऽथ भूभृता। उपालब्धोऽथ गुरुणा, ज्ञातमात्मपरान्तरम्।।१०७|| श्रीयकः स्थापितो मन्त्री, स्थूलभद्रः पुनर्मुनिः ||83|| स्थूलभद्रोऽधिसेहे ता, चिरं परिचितामपि। संभूतसूरेः शिष्योऽभूत, श्रीयको भ्रातुरञ्जसा। भवाँस्तु प्रार्थयामास, विगुप्तोऽर्थार्जनेन च / / 108 / / मिलितुं याति कोशायाः, स्थूलभद्ररता च सा / / 8 / / गुरुमक्षमयन्नमः, स्थूलभद्रंचसोऽथ तम्। मनुष्यमीहते नान्यमुपकोशा तु तत्स्वसा। रथिकस्यान्यदा कोशां, ददौ राजा पुरोऽस्य सा / / 106 / / तत्संभोक्ता वररुचिस्तत्कोशां श्रीयकोऽवदत्।।८।। स्थूलभद्रगुणानाख्यन्न तथोपाचरच तम्। इतो मृतः पिताऽस्माकं, भ्रातुश्च विरहोऽभवत्। (इतः कथाखण्ड वैनयिक्यामुक्तम्) तव प्रियवियोगोऽभूत्तदेतं पाययाऽऽसवम् // 86 // तस्मिंश्च काले संजज्ञे, दुष्कालो द्वादशाब्दकः / स्वस्रा तदुक्तया चन्द्रप्रभास पायितः सुराम्। इतस्ततोऽम्बुधेस्तीरे, तमतिक्रम्य साधुभिः / / 110 // श्रीयकस्येति कोशाऽऽख्यत्सोऽथ भावितमम्बुजम् / / 7 / / विस्मृति याति सिद्धान्ते, गुणनाऽभावतस्तदा। नृपाऽऽस्थाने वररुचेरार्पयत्कस्यचित्करात्। पाटलीपत्तने स्थित्वा, यास्याऽऽयाति तच्छुतम्॥१११|| तेनाऽऽघातं तदैव द्राक्, तत्रैवाऽवमदासवम् // 88|| मेलयद्भिः समस्तं तैर्मिलितैकादशाऽऽत्मिका। निःसारितोऽथ हीलित्वा, प्रायश्चित्तं द्विजा ददुः। भद्रबाहुदिशाङ्ग भृन्नेपालेषु तिष्ठति।११।। तप्तस्य जपणः पानं तेनाऽसौ पञ्चतां गतः / / 16 / / सङ्घः सघाटकेनोचे, पूर्वाण्यध्यापयेति तम्। स्थूलभद्रस्तपः कुर्वन्, विहरन् गुरुभिः सह। गुरुरूचे महाप्राणं, प्रविष्टोऽस्मि ततोऽधुना / / 113|| आगमत्पाटलीपुत्रं, वर्षाकालमुखेऽन्यदा 180|| नक्षमो वाचनां दातुं, संघस्याऽऽख्यनिवृत्त्य सः। जग्राहाभिग्रहं साधुरेकः सिंहगुहास्थितौ। पुनः संघाटकेनोचे, सङ्घाऽऽज्ञा यो विलइते॥११४|| अन्यः सर्पबिले चान्यः, कूपकाऽञ्चनदारुणि / / 61 // को दण्डस्तस्य सोऽवोच-त्तदैवोद्धाट्यते हि सः।
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________________ थूलभद्द 2417 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थूलभद्द ततोऽधुना किं क्रियते, सोऽवग्मोद्धाटनं कुरु॥११५॥ शिष्यान् प्रेषयतां प्राज्ञान्, दास्ये सप्ताहि वाचनाः। भिक्षाचर्याः समायातः, कालवेलाविकालयोः / / 116 // संज्ञाभूम्यागतश्चैव, तिस्रश्चाऽऽवश्यके पुनः। सिद्धे ध्याने महाप्राणे, स परावर्त्तते श्रुतम्॥११७॥ आदेरन्तं ततोऽप्यादि,यावदन्तर्मुहूर्ततः।। स्थूलभद्राऽऽदिकाऽऽयासी-च्छिष्यपञ्चशती ततः |11|| निरन्तरं वाचनानामभावेऽध्येतुमक्षमाः। स्थूलभद्रं विना सर्वे , पराभज्याऽपरे ययुः॥११६।। ध्याने स्तोकावशेषे स, पृष्टः श्रीभद्रबाहुना। किं खिद्यसे न खिद्येऽहं, कञ्चित्कालं क्षमस्व तत्।।१२०।। सिद्धध्यानः सदा सर्व-दिनं दास्यामि वाचनाम्। सोऽप्राक्षीत्किं मयाऽधीतं, शेष वा सूरयोऽभ्यधुः / / 121 / / अष्टाशीतिर्हि सूत्राण्यौपम्यं सिद्धार्थमन्दरौ। इतो न्युनेनाऽपिपरं, समयेन पठिष्यसि / / 12 / / दशपूर्वी द्विवस्तूना-ऽध्यापिध्याने समर्थिते। अत्रान्तरे विहारण, प्रययुः पाटलीपुरे॥१२३।। सप्ताप्यात्तव्रतास्तत्र, स्थूलभद्रस्य जामयः / उद्यानस्थान् गुरून् स्थूलभद्रं चाऽऽनन्तुमाययुः / / 124|| गुरुन्नत्वाऽवदन् कुत्र, ज्येष्ठाऽऽर्यः सूरयोऽभ्यधुः। परत्र गुणयन्नस्ति, वीक्ष्याऽऽयान्तीः सहोदराः / / 125|| ऋद्धि दर्शयितुं सिंह-रूपमाधाय तस्थिवान्। ताः सिंह वीक्ष्य पूच्चक्रुरायः सिंहेन भक्षितः / / 126 / / गुरुरूचे न सिंहः स, भाता वो लब्धिमैक्षयत्। हृष्टास्तास्तमथाऽऽनेमुरप्राक्षीत्सोऽपि कौशलम् // 127 / / यक्षोवाच परिव्रज्य, श्रीयको वर्षपर्वणि। अभक्तार्थ मयाऽकारि, निशीथे मृत्युमाप्तवान्।।१२८|| ततश्च मामभुजाना, विदेहे देवताऽनयत्। तत्र पृष्टः प्रभुः प्राऽऽह, ऋषिहत्याऽत्र ते न तत्॥१२६।। मया निन्येऽध्ययने, स्वाम्युक्ते मुक्तिभावने (?) / वन्दित्वा तास्ततो याताः, द्वितीयेऽयुपतस्थुषः / / 130 // न गुरुचिनां दत्ते, स ज्ञात्वा ह्यः कृतंततः। नैतत्पुनः करिष्यामीत्येवं कष्टन भूयसा।।१३१।। क्षामितोऽध्यापयच्छेषमुक्तो माऽन्यं हृदेः पुनः। व्युच्छिन्नाऽथ चतुःपूर्वी, दशमाऽन्त्यद्विवस्तुयुक्॥१३२|| योगसंग्राहिता चैवं, शिक्षायां स्थूलभद्रवत्।" आ०क०। थेरस्सणं अज्जसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अजथूलभद्दे गोयमसगुत्ते। स्थविरस्याऽऽर्यसभूतिविजयस्य माठरगोत्रस्य शिष्यः स्थविर आर्यः स्थूलभद्रो गौतमगोत्रोऽभूत्। तत्संबन्धश्चाऽयम् - पाटलिपुरे शकटालमन्त्रिपुत्रः श्रीस्थूलभद्रो द्वादश वर्षाणि कोशागृहे स्थितो वरस्वविद्विजप्रयोगात्पितरि मृते नन्दराजेनाऽऽकार्य मन्त्रिमुद्रादानायाभ्यर्थितः सन् पितृमृत्यं स्वचित्ते विचिन्त्य दीक्षामादत्त, पश्चाच संभूतविजयान्तिके व्रतानि प्रतिपद्य तदादेशपूर्वकं कोशागृहे चतुर्मासीमस्थात्, तदन्ते च बहुहावभावविधायिनीमपि तां प्रतिबोद्धय गुरुसमीपमागतः सन् तैर्दुष्करदुष्करकारक इति संघसमक्षं प्रोचे, तद्वचसा पूर्वाऽऽयाताः सिंहगुहासर्पबिलकूपकाष्ठस्थायिनस्त्रयो मुनयो दूनाःतेषु सिंहगुहास्थायी मुनिर्गुरुणा निवार्यमाणोऽपि द्वितीयचतुर्मास्यां कोशागृहे गतो, दृष्ट्वा च तां दिव्यरूपा चलचित्तोऽजनि, तदनु तया नेपालदेशाऽऽनायितरत्नकम्बलं खाते क्षिप्त्वा प्रतिबोधितः सन्नागत्योवाच"स्थूलभद्रः स्थूलभद्रः, स एकोऽखिलसाधुषु / युक्त दुष्करदुष्कर-कारको गुरुणा जगे" ||1|| "पुप्फफलाण च रस, सुराण मंसाण महिलियाणं च। जाणता जे विरया, ते दुक्करकारए वंदे" // 2 // कोशाऽपि तत् प्रतिबोधिता सती स्वकामिनं पुडार्पितवाणैदूरस्थानलुम्ब्यानयनगर्वित रथकारं सर्षपराशिस्थसूच्यग्रस्थपुष्पोपरि नृत्यन्ती प्राऽऽह"न दुक्करं अम्बयलुंबितोडण, न दुक्करं सरिसवनचियाई। तंदुकरं तं च महाणुभावं, जं सो मुणी पमयवणम्मि वुच्छो // 3 // " कवयोऽपि"गिरौ गुहायां विजने वनान्तरे, वासंश्रयन्तो वशिनः सहस्रशः। हयेऽतिरम्ये युवतीजनान्तिके, वशी स एकः शकटालनन्दनः // 4|| योऽनौ प्रविष्टोऽपि हि नैव दग्धश्छिन्नो न खड्गाग्रकृतप्रचारः। कृष्णाहिरन्ध्रेऽप्युषितो न दष्टो, नाक्तोऽञ्जनागारनिवास्यहो यः // 5 // वेश्या रागवती सदा तदनुगा षड्भि रसैर्भोजनं, शुभ्रं धाम मनोहरं वपुरहो नव्यो वयः सङ्गमः। कालोऽयं जलदाऽऽविलस्तदपि यः काम जिगायाऽऽदरात्, तं वन्दे युवतिप्रबोधकुशल श्रीस्थूलभद्रं मुनिम्।।६।। रेकाम! वामनयना तव मुख्यमस्त्र, वीरा वसन्तपिकपञ्चमचन्द्रमुख्याः। त्वत्सेवका हरिविरचिमहेश्वराऽऽद्याः हा हा हताश ! मुनिनाऽपि कथं हतस्त्वम् ? |7|| श्रीनन्दिषेणरथनेमिमुनीश्वराऽऽर्द्रबुद्ध्या त्वया मदन रे ! मुनिरेष दृष्टः / ज्ञातं न नेमिमुनिजम्बुसुदर्शनानां, तुर्यो भविष्यति निहत्य रणाङ्गणे माम्॥८॥ श्रीनेमितोऽपि शकटालसुतं विचार्य मन्यामहे वयमडु भटमेकमेव। देवाऽद्रिदुर्गमधिरुह्य जिगाय मोहं यन्मोहनाऽऽलयमयं तु वशी प्रविश्य / / 6 / / " अन्यदा द्वादशवर्षदुर्भिक्षप्रान्ते संघाऽऽग्रहेण श्रीभद्रबाहुभिः साधुपवशत्याः प्रत्यहं वाचनासप्तकेन दृष्टिवादे पाठ्यमाने सप्तभिर्वाचनाभिरन्येषु साधुषु उद्विग्रेषु श्रीस्थूलभद्रो वस्तुद्वयोनांदशपूर्वी पपाठ। अथैकदा यक्षसाध्वीप्रभृतीनां वन्दनार्थमागतानां स्वभगिनीनां सिंहरूपदर्शनेन दूनाः श्रीभद्रबाहवो वाचनायामयोग्यस्त्वम्' इति श्रीस्थूलभद्रभूचिवांसः। पुनः संघाऽऽग्रहात्। 'अथाऽन्यस्मै वाचना न देया' इत्युक्त्वा सूत्रतो वाचनां ददुः। तथा चाऽऽहुः''केवली चरमो जम्बूस्वाम्यथ प्रभवप्रभुः।
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________________ थूलभद्द 2418 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थोअ शय्यंभवो यशोभद्रः, संभूतविजयस्तथा।।१।। स्थाल्यां पक्वः स्थूलीति मालवप्रसिद्धा ! ध०२ अधि०। भद्रबाहुः स्थूलभद्रः, श्रुतकेवलिनो हि षट् // '' कल्प० 8 क्षण / तिला | थूह पुं०(देशी) प्रासादशिखरे, चातके, वल्मीके च / दे०ना० 5 वर्ग आ०क०। तं०। आ०चू० नं०। आव०। स्था०1 उत्त०। 32 गाथा। "थेरस्सणं अजसंभूइविजयस्स माढरसगुत्तरस इमाओ सत्त अंतेवा- | | थेअत्रि०(स्थित)"क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स०-" ||2277 / / सिणीओ अहावचाओ अभिन्नायाओ होत्था। तं जहा इत्यादिना सलुक। "युवर्णस्य गुणः" ||8/45237 // "क-ग-च-ज-- "जक्खा य जक्खदिन्ना, भूया तह चेव भूयदिन्ना य। त०-८/१।१७७।। इत्यादिना तलुक् / गतेर्निवृत्ते, प्रा० ढुं० 4 पाद / सेणा वेणा रेणा, भइणीओ थूलभद्दस्स / / 1 / / " कल्प०८ क्षण। थेग पुं०(थेग) कन्दविशेषे, ध०२ अधि०। प्रव०। जसभहं तुंगियं वंदे, भूयं चेव य माढरं / थेज न०(स्थैर्य) स्थिरतायाम, औ०। अष्ट।। स्थेये, त्रि०1 प्रीतिकरतया गच्छचिन्तायाः प्रमाणभूते, अनेकशी वा प्रोतिकरीकृते, व्य०३ उ०। भद्दबाहुं च पाइन्नं, थूलभदं च गोयमं // 26|| थेजकरण न० (स्थैर्यकरण) चित्तस्थिरतासंपादने, पञ्चा०१ विव०| स्थूलभद्रं, चः समुच्चये। गौतम गौतमस्यापत्यम् गौतमः।''ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च // 4 / 1 / 144 / / इत्यण प्रत्ययः / तं, वन्दे इति थेण पुं०(देशी) स्तेने, देवना०५ वर्ग 26 गाथा / क्रियायोगः / नं०। थेणिल्लिअन०(देशी) हृते, भीते च / देखना०५ वर्ग 32 गाथा ! श्रीस्थूलभद्रो कोशागृहावस्थितावाहारमपि गृहीतवानिति जनप्रवादः, थेमिच्च न०(स्थैमित्य) निश्चलत्वे, द्वा० 18 द्वा०। परं शय्यातरपण्डित्वेन कथं न जनप्रवादनिबन्धनमिति प्रश्रे, उत्तरम् थेय न०(स्तेय) परस्वापहरणे, द्वा०२० द्वा०। श्रीस्थूलभद्रस्य कोशागृहेऽवस्थितिरागमव्यवहार्यनुज्ञातत्वेन यथा थेर पुं०(स्थविर) 'थविर' शब्दार्थे , प्रव०२ द्वार / चतुर्मुखे ब्रह्मणि, नानुचिता, तथा शय्यातरपिण्डग्रहणमपि ज्ञेयम् / ते हि सातिशयज्ञान देना०५ वर्ग 26 गाथा। वत्तया त्रैकालिकविहितं विमृश्यैव सर्वमप्यनुजानन्त इति। ११०प्र०। थेरकंचुइन पुं०(स्थविरकञ्चुकिन्) 'थविरकंचुइज्ज' शब्दार्थे , भ०६ सेन०१ उल्ला०। श्रीस्थूलभद्रस्य यतित्वे वेश्यागृहस्थितिः, सा श०३३ उ० . सिद्धान्तोक्ता, न वा? यदि सिद्धान्तोक्ता, स सिद्धान्तो नामग्राहं प्रसाद्य थेरकप्प पुं०(स्थविरकल्प) थविरकप्प' शब्दार्थे, स्था०३ ठा०४उ०। इति प्रश्ने, उत्तरम्-नन्दीसूत्रे पारिणामिक्यां बुद्धौ स्थूलभद्रः, कार्मिक्या थेरकप्पट्ठिइ स्त्री०(स्थविरकल्पस्थिति) 'थविरकप्पट्टिई' शब्दार्थे, तु वेश्या, सारथिश्च उदाहरणतयोक्ताः सन्ति, एतदर्थप्रतिपादने बृ०४ उ०) स्थूलभद्रस्य यतित्वेऽपि वेश्यागृहेऽवस्थानमुक्तमस्तीति। प्र०२२६ प्र! / थेरकप्पिय पुं०(स्थविरकल्पिक) थविरकप्पिय' शब्दार्थे, प्रव०७० द्वार। सेन०३ उल्ला०। श्रीस्थूलभद्रस्य नाम चतुरशीतिचतुर्विंशति / थेरभूमि (स्थविरभूमि) जातिश्रुतपर्यायस्थविरेषु, स्थविरभूमिस्त्रिधा। यावत्तिष्ठति, तत्कुत्र ग्रन्थेऽस्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-श्रीस्थूलभद्रस्य नाम | स्था० 3 ठा०२ उ०। ('थविरभूमि' शब्दे 2364 पृष्ठे व्याख्याता) चतुरशीति-चतुर्विशति यावत्तिष्ठति, तच्चारित्राऽऽदिष्वस्तीति बोध्यम्। / थेरभूमिपत्त त्रि०(स्थविरभूमिप्राप्त) 'थविरभूमिपत्त' शब्दार्थे, व्य०१ 21 प्र०। सेन०४ उल्ला०) उ०। बृ०। थूलरोट्टग पुं०(स्थूलरोट्टक) बृहदरोट्टके 'वाटी' इति प्रसिद्धे, ध०२ अधिol | थेरय पुं०(स्थविरक) 'थविरय' शब्दार्थे, आचा० 1 श्रु०१ अ०२ उ०! थूलवय पुं०(स्थूलवचस्) स्थूलमनिपुणं वचो येषां ते स्थूलवचसः। थेरवेयावच्च न०(स्थविरवैयावृत्य) 'थविरवेयावच्च' शब्दार्थे, व्य०१७० अविचार्यभाषिषु, ध०२ अधि०। उत्त०। थेरावली स्त्री०(स्थविरावली) 'थविरावली' शब्दार्थ, नका थूलादत्तादाण न०(स्थूलादत्ताऽऽदान) स्थूलं च तददत्तस्याऽवि- थेरासण न०(देशी) पद्धे, देखना०५ वर्ग 26 गाथा। तीर्णस्य द्रव्यस्याऽऽदानं ग्रहण स्थूलादत्ताऽऽदानम् / पञ्चा०१ विव०। / थेरोवघाइय पुं०(स्थविरोपघातिक) थविरोवघाइय' शब्दार्थ, परिस्थूलवस्तुविषये चौर्याऽऽरोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धे अतिदुष्टाध्य- दशा० अन वसायपूर्वके चौर्ये , स्था०५ ठा०१उ०। थेव त्रि०(स्तोक) स्तोके, ''थेवं पि हु तं बहू होइ।" (120) आव० थूलि स्त्री०(धूलि) "चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्यद्वितीयो" नि०१ अ०। आ०म०। विशेला देशी-विन्दौ, देना०५ वर्ग 26 गाथा। 1184325 / / इति धकारस्य थकारः / रेणौ, प्रा०४ पाद। थेवरिअ (देशी) जन्मनि, तूर्ये च। दे०ना०५ वर्ग 26 गाथा। थूली स्त्री०(स्थूली) गोधूमस्थूलचूर्णे , गोधूमानांस्थूलचूर्णः सर्पिषा सिक्तः | थोअ पुं०(देशी) रजके, मूलके च / देवना०५ वर्ग 32 गाथा।
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________________ थोक 2416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 थोहरी थोक त्रि०(स्तोक)"स्तोकस्य थोक-थोव-थेवाः" ||82 / 125 / / | इति स्तोकस्य थोकाऽऽदेशः / प्रा०२ पाद। अपर्याप्ते, आचा०१ श्रु०२ अ०४ उ० को "अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं चान हुभे वीससियव्यं, थेवं पिहुतं बहुं होइ" ||120 / / आव०१ अ० आ०म०। विशे० थोगुचय पुं०(स्तोकोचय) स्तोकस्योद्धरणे, ज्यो०१ पाहु०॥ थोणा स्त्री०(स्थूणा)"स्थूणातूणे वा"11१1१२५॥ इति उत ओत्वम्। छादनस्तम्भे, प्रा०१ पाद। थोत्तन०(स्तोत्र)"स्तस्यथोऽसमस्तस्तम्बे" ||2 / 45|| इतिस्तस्य थः। प्रा०२ पाद। बहुश्लोकप्रमाणे स्तवे, पञ्चा०४ विव०॥ षो०। स्तोत्राणि तु जिनानाम् (आहानाम्) एव। षो०६ विव० थोत्तगरुई स्त्री०(स्तोत्रगुर्वी ) स्तोत्रमहत्यां पूजायाम्, पञ्चा० 4 विव०। थोत्तरयणकोस पुं०(स्तोत्ररत्नकोश) भूतिसुन्दरसूरिविरचिते जिनस्तवनग्रन्थे, कल्प। तथोक्तं श्रीमुनिसुन्दरसूरिभिः स्वकृतस्तोत्ररत्नकोशे"वीरात्विनन्दाङ्क (663) शरद्यचीकरत्, त्वचैत्यपूते ध्रुवसेनभूपतिः। यस्मिन्महै: संसदि कल्पवाचनामाद्यां तदानन्दपुरं न कः स्तुते? // 1 // " कल्प०७ क्षण। थो भग पुं०(स्तोभक) चकारहिकारतुशब्दवाशब्दाऽऽदिषु निपातेषु, विशे०। आ०म०। थोयव्व त्रि०(स्तोतव्य) पूजनीये, पञ्चा०। चरणपडिवत्तिरूवो, थोयव्वोचियपवित्तिओ गुरुओ। (25) चरणप्रतिपत्तिरूपश्चारित्राभ्युपगमस्वभावः, भावस्तव इति प्रकृतम्। स्तोतव्ये पूजनीये भगवति वीतरागे विषयभूते या उचिता संगता प्रवृत्तिः प्रवर्तन, सा स्तोतव्योचितप्रवृत्तिः, तस्याः स्तोतव्योचितप्रवृत्तेर्हेतोगुरुको गरीयान् द्रव्यस्तवापेक्षया। पञ्चा०६ विव०। थोर त्रि०(स्थूल) "स्थूले लो रः" ||8|1 / 255 / / इति लस्य रः / प्रा०१ पाद / "ओत्कूष्माण्डी-तूणीर-कूपर-स्थूल०-" // 1 / 124 / / इत्यादिना उत ओत्वम् / पृथुले, प्रा०१ पाद / क्रमपृथुलपरिवर्तुले, देखना०५ वर्ग 30 गाथा! थोल पुं०(देशी) वस्त्रैकदेशे, दे०ना०५ वर्ग 30 गाथा। थोव पुं०(स्तोक) सप्तप्राणाऽऽत्मके कालविशेषे, "सत्त पाणाणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे।" भ०१ श०१उ०॥ ते च प्राणाः सप्त सप्तसंख्याका एकः स्तोकः।ज्यो०१पाहु०तं०। कल्पना कर्म०। ज्ञा०। अनु०। स्था०| प्रव०। अल्पे, प्रश्न०२ आश्र०द्वार / स्था०। विशे०) स्वल्पे, आव०४ अा गणनाप्रमाणहीने, त्रि०ा विशेा दर्शा 'थोवाऽऽहारो थोवभणिओ श्र, जो होई थोवणिद्दो आथोवोवहिउवगरणे, तस्स हु देवा विपरिणमंति // 1 // " सूत्र०१ श्रु०८ अ थोवअ पुं०(स्तोकक) वातकपक्षिणि, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। थोह न०(देशी) बले. देवना०५ वर्ग 30 गाथा। थोहरी स्त्री०(थोहरी) स्नुहीतरौ, ध०३ अधि०ा प्रव०। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' थकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् /
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________________ 2420 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंड दकारः दइवयप्पभाव पुं०(दैवकप्रभाव) विधिसामर्थ्य, प्रश्न०२ आश्र0 द्वार। दइव्व न०(देव) देवादागतम्। देवो देवताऽस्य देवस्येदं वा अण् / वाचा "सेवाऽऽदौ वा" ||MIREE|| इति अन्त्यस्य वा द्वित्वम्। 'दइव्वं / ' 'दइवं। प्रा०२ पाद। भाग्ये, फलोन्मुखेशुभाशुभकर्मणि, "प्राग्जन्मनि द पुं०(द) दा--दैप-वा कः / पर्वते, दत्ते, खण्डने, वाचका दाने, पूजने, कृतं कर्म, शुभं वा यदि वा शुभम्। दैवशब्देन निर्दिष्टमिहजन्मनि तदुधैः ||1 // " वाचा क्षीणे, दानशौण्डे, पालके, देवे, दीप्ती, दुराधर्षे , दयायाम, दमने, दीने, दन्दशूके, बद्धे, बन्धने, बोधे, बाले, बीजे, बलोदिते, विदोषे, चालने, दउलतावाद (दौलताऽऽवाद) पारसीकः शब्दः 1 प्रान्तदेशीये स्वचीवरे, वरे, प्राणे च / क्षान्ती, दिवि, गङ्गायाम, कुले, कालकृते, नामख्याते नगरे, यत्र जिनप्रभसूरिविहृतः / ती०४८ कल्प। उपदायाम्, नैवेद्य, निर्नाथवनितायाम, भार्यायां च / स्वी०। छेदे / दआभास पुं०(दकाभास) शिवकस्य वेलन्धरनागराजस्य आवासंबोधने, पाने, वैराग्ये, अपलोचने, दातरि च। त्रि० ए०को०] सपर्वते, जी०३ प्रति०४ उ० स्था० "दः पुमान् दातरि प्राणे, दा स्त्रियां क्षान्तिदानयोः / / 47 // दओदर न०(दकोदर) जलोदरे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। छेदे संबोधने पाने, वैराग्ये चापलोचने।। दओह पुं०(दकौघ) पानीयप्रवाहे, बृ०१ उ०। स्था०। दस्त्रिलिङ्गग्यां भवेद मूके, ग्राहकेन्द्रवकेशशि (?) // 48 // '' इति दंड पुं०(दण्ड) दण्ड्यते-व्यापाद्यते प्राणिनो येन स दण्डः / आचा०१ माधवः / एका श्रु०२ अ०३उ०। प्राणिन आत्मानं वा दण्डयतीति दण्डः / आचा०१ "दो दाने पूजने क्षीणे, दानशौण्डे च पालके। श्रु०४ अ०१ उ० स्था०। दण्ड्यते पापकर्मणा लुप्यते येन स दण्डः। ध०२ अधि०। दुष्प्रयुक्तमनोवाकायलक्षणैर्हिसामात्रे, 'एगे दंडे।" एकत्वं देवे दीप्तौ दुराधर्षे , दोर्भुजे दीर्घदेशके // 67 / / चाऽस्य सामान्यतयोद्देशात् / स०२ सम०। आतुoा भूतोपमर्दे, ध०२ दयायां दमने दीने, दंदशूकेऽपि दः स्मृतः। अधि०। आचा०। सूत्रका प्राणव्यपरोपणविधौ, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०॥ बद्धे च बन्धने बोधे, बाले बीजे बलोदिते // 68 / / वधाऽऽदिरूपे परनिग्रहे, स्था०३ ठा०३ उ०ा दण्ड्यति पीडामुत्पादयतीति विदोषेऽपि पुमानेष, चालने चीवरे वरे।। दण्डः। दुःखविशेषे, सूत्र०१ श्रु०५अ०१उ० परितापकारिणि, आचा०१ दाऽऽवन्तो दिवि गङ्गायां, कुले कालकृते च दा।।६६।। श्रु०८ अ०३उ०। पापोपादानसङ्कल्पे, सूत्र०२ श्रु०२ अाउपतापे, सूत्र०२ उपदायां च नैवेद्ये, निथिवनिता च दा।" श्रु०६ अ०। मनोवाकायानामसद् व्यापारे, उत्त० 16 अ० आचा०। इति विश्वदेवशंभुमुनिः। एका०। प्राणिपीडाकारके, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०१3०। दण्ड्यन्ते दअरी स्त्री०(देशी) सुरायाम्, दे०ना०५ वर्ग 34 गाथा / धनापहारेण प्राणी यैस्ते दण्डाः / ध०२ अधि०। चारित्रैश्वर्यापहादआलु त्रि०(दयालु) दय-आलुच्। वाचा "क-ख-च-ज-त-द- रतोऽसारीक्रियते एभिरात्मा इति दण्डाः / दुष्प्रयुक्तमनोवाकायेषु, ध०३ प-य-वां प्रायो लुक्" 18111177|| इति स्वरात्परस्याना-1 अधिo। आचा०। स्था०ादुरध्यवसाये, उत्त०३१ अ०। दिभूतस्यासंयुक्तस्य यस्य प्रायिको लुक्। प्रा०१ पादा कृपायुक्ते, वाचा दण्ड निरूपयन्नाहदइअन०(देशी) रक्षिते, दे०ना० 5 वर्ग 35 गाथा। दो दंडा पण्णत्ता। तं जहा-अट्ठादंडे चेव, अणट्ठादंडे चेव / दइच पुं०(दैत्य) दितेरपत्यम्। दिति-प्रयः / वाचला "अइदैत्याऽऽदौ णेरइयाणं दो दंडापण्णत्ता। तं जहा-अट्ठादंडे चेव, अणट्ठादंडे च" ||1/151 // इति दैत्यशब्दे ऐतो अइइत्यादेशः। 'दइचो।' असुरे, चेव। एवं चउवीसदंडओ०जाव वेमाणियाणं। प्रा०१ पाद। (दो दंडा इत्यादि) दण्डः प्राणातिपाताऽऽदिः, स चार्थायेन्द्रियाऽऽदिदइण न०(दैन्य) दीनस्य भावः ष्यञ् / वाचा "अइदैत्याऽऽदौ च" प्रयोजनाय यः सोऽर्थदण्डः, निष्प्रयोजनस्त्वनर्थदण्ड इति। उक्तरूपमेव ||8/1/151 / / इति दैन्यशब्दे ऐती अइ इत्यादेशः / 'दइन्नं / ' प्रा०१ दण्ड सर्वजीवेषु चतुर्विशतिदण्डकेन निरूपयन्नाह-(नेरइयाणं इत्यादि) पाद / दीनत्वे, कार्पण्ये च। वाचा एवमिति नारकवदर्थदण्डानर्थदण्डाभिलापेन चतुर्विशतिदण्डको नेयो, दइय पुं०(दयित) दय–क्तः / पत्यौ, रल्लभे, रक्षिते, नं०ा आचा०ा ज्ञा०/ नवरं नारकस्य स्वशरीररक्षार्थ परस्योपहननमर्थदण्डः, प्रद्वेषमात्रादआ०म०। प्रियमात्रे च / त्रिका भार्यायाम, स्त्री० वाचा नर्थदण्डः / पृथिव्यादीनामनाभोगेनाप्याहारग्रहणे जीववधभावादर्थदइवज्ज पुं०(दैवज्ञ) दैवं पूर्वजन्मार्जितं शुभं जनानां जन्मलग्नाऽऽदिना दण्डः, अन्यथा तु अनर्थदण्डः / अथवा--उभयमपि भवान्तरार्थदण्डाजानाति। ज्ञकः। वाचा "ज्ञोञः"बाश८३॥ज्ञसम्बन्धिनो अस्य ऽऽदिपरिणतेरिति सम्यगदर्शनाऽऽदित्रयवतामेव त्वनर्थदण्डो नास्तीति। लुग्वा भवति। 'दइवजो।' प्रा०२ पाद। गणके, ज्योतिर्विदिचा वाच०। / स्था०२ ठा०१ उ०॥ त्रयो दण्डाः मन आदयः। स्था०३ ठा०१उ०।
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________________ दंड 2421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंड मीसवणस्सति त्ति जीवोवघातो भवति, सार्द्रत्वाच्च गुरुः, गुरुत्वादात्मसंयमोपघातः। गाहासुत्तणिवातो एत्थं, परछिण्णे होति दंडए तिविधे। सो चेव मीसओ खलु, सेसे लहुगा य गुरुगा य |||| तिविधो-वंसवेत्तदारुमयो य, सो चेव परच्छिण्णो मीसो भवति, एत्थ सुत्तणिवातो (सेस त्ति) सचित्तो, परिचित्ते चउलहुअं अणंते चउगुरुअं। गाहा तओ दंडा पण्णत्ता / तं जहा-मणदंडे, वयदंडे, कायदंडे / नेरइयाणं तओ दंडा पण्णत्ता / तं जहा-मणदंडे, वयदंडे, | कायदंडे / विगलिंदियवजंजाव वेमाणियाणं / कण्ट्यम, नवरं मनसा दण्डनमात्मनः परेषा वेति मनोदण्डः। अथवादण्ड्यतेऽनेनेति दण्डो, मन एव दण्डो मनोदण्ड इति / एवमितरावपि / विशेषचिन्तायां चतुर्विं शतिदण्डके-(नेरइयाणं तओ दंडेत्यादि) यावद्वैमानिकानामिति सूत्रं वाच्यम् / नवरं (विगलिंदियवज ति) एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियान् वर्जयित्वेत्यर्थः / तेषां हि दण्डत्रयं न सम्भवति, यथायोगं वाङ्मयनसोरभावादिति / स्था० ३ठा०३ उ०। स०। (''कायदंड' शब्दे तृ०भागे 462 पृष्ठे, तथा वचोदण्डाऽऽदिशब्देषु उदाहरणानि द्रष्टव्यानि) राजनीतिभेदे, स्था०। स च-''वधश्चैव परिक्लेशो, धनस्य हरणं तथा। इति दण्डविधानज्ञैर्दण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः॥१॥" स्था०३ ठा०३उ०। ज्ञा०Jआ०म०। मिथ्यादर्शनमायानिदानशल्येषु, ध०२ अधि०। शरीरधनयोरपहारे, विपा०१ श्रु०४ अ०। निग्रहे, आव०। दण्डो, निग्रहो, यातना, विनाश इति पर्यायाः। आव०६६ अ०। विपा०। पञ्चा०। अपराधानुसारेण राजग्राह्ये द्रव्ये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। राजाऽऽज्ञायाम्, अपराधिदण्डने, स्था०५ ठा०३उ०। सैन्ये, प्रायश्चित्तदानावसरे राजस्थापितदण्डपुरुषाणां स्वेच्छाचारिणे दण्डः / व्य०१ उ०। स्वपरदण्डहेतौ च, सूत्र०२ श्रु०४ अ०। प्राणिनां दण्डहतो, आयुर्वं घृतमित्यादिवत्कार्ये कारणत्वोपचारात् / आचा०१ श्रु०१ अ०४३०। दण्डनं दण्डः परिधीनामनुशासनम्। स्था०७ ठा०नि०चू०। दण्डयतीति दण्डः / यष्टिविशेषे, जं०२ वक्ष०। सूत्र०। उत्त० लट्ठी आयपमाणा, विलडिओ चउरंगुलेन परिहीणा। दंडो बाहुपमाणो, विदंडओ कक्खमित्तो य॥१॥" इति दण्डयष्ट्योर्भेदः / जीत। पं०भा०। उत्त०। नि०चू। सचित्तदारुदण्डाऽऽदीनि करोतिजे भिक्खू सचित्ताइंदारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ, करतं वा साइज्जइ॥२७॥ जे भिक्खू सचित्ताइंदारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ / / 28|| जे भिक्खू सचित्ताइंदारुदंडाणिवा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा परिभुंजइ, परिभुजंतं वा साइजइ / / 29 / / दौ सुत्ता उच्चारेयव्वा / सच्चित्ता जीवसहिता, वेणू वंसो, वेत्तो विबंधसा, तेउचेवदारू सीसवादिकरणं, परहस्ताद् ग्रहणमित्यर्थः / ग्रहणादुत्तरकालं अपरिभोगेन धरणमित्यर्थः। गाहासचित्त मीसगे वा, जे भिक्खू दंडए करे व धारे वा। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे / / 7 / / सयमेव छेदणम्मी, जीवा दिट्टे परेण उड्डाहो! परछिण्णमीसदोसा, भारेण विराहणा दुविधा ||8|| सयं छेयणे जीवोवघातो, परेण दिट्टे उड्डाहो भवति, परिच्छिण्णे वि वितियपदमणप्पज्झे, गेलण्णऽद्धाणसंजमभए वा। उवहीसरीरतेणगें,पडिणीए साणमादीसु // 100|| अणप्पज्झो करेति। गिलाणअद्धाणेसु इमं वक्खाणं / गाहावहणं तु गिलाणस्सा, बालादुवही पलंब अद्धाणे। अचित्ते मीसेतर, सेसेसु वि गहण जतणाए / / 101 / / गिलाणो, बालो, उवही, पलंबाणि वा अद्धाणे उज्झति, साक्य–भएण वारणट्टाघेप्पति, उवहिसरीराणां वहणट्टा, तेणगपडिणीय-साणमादीण णिवारणहा, पुव्वं अचित्तं, पच्छा मीसं, सेसा परित्ताणता, पुव्वं परित्ता, पच्छा अणता। सूत्रम्जे भिक्खू चित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा कारेइ, कारंतं वा साइजइ // 30|| जे मिक्खू चित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा धारेइ, धारंतं वा साइजइ // 31 // जे भिक्खू चित्ताइं दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा परिभुंजइ, परिभुंजंतं वा साइजइ॥३२॥ जे मिक्खू विचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा करेइ, करंतं वा साइजइ // 33 / / जे भिक्खू विचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा धारेइ, धारंतं वा साइजइ॥३४|| जे भिक्खू विचित्ताइंदारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा वेत्तदंडाणि वा परिभुंजइ, परि जंतं वा साइज्जइ॥३५।। एवं विचित्ते वि दो आलावगा। चित्रक एकवर्णः, विचित्रो नानावर्णः, करेति धरेति वा, तस्स मासलहुँ। गाहाचित्ते व विचित्ते वा,जे भिक्खू दंडए कए य धारे वा। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे / / 102 / / चित्तो णाम एगतरेण वण्णेण उज्जलो, विचित्तो दोहिं वण्णेहिं, चित्तविचित्तो पंचवण्णेहिं। गाहासहजेणाऽऽगंतूण व, अण्णतरजुओ विचित्तवण्णेणं / दुप्पमिति संजओ पुण, विचित्त अविभूसिते सुत्तं / / 103 // सहजो णाम–तद्र्व्योत्थितः, कल्माषिकावंशदण्डकवत्, आगन्तु
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________________ दंड 2422 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंडपणग कः-चित्रकराऽऽदिचित्रितः, सूत्रस्याभिप्रायोऽविभूषाभूषिते प्रायश्चित्तं | दंडतयविरइ स्त्री०(दण्डत्रयविरति) दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यापहाभवति। रतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डादुर्युक्तमनोवाकायाः, तेषां त्रयं तस्य गाहा विरतिरशुभप्रवृत्तिनिरोधः / दुर्युक्तमनोवाक्कायत्रयाऽशुभप्रवृत्तिनिरोधे, वितियपदं गेलण्णे, असती अद्धाणसंजमभए वा। ध०३ अधिन उवहीसरीरतेणगें, पडिणीए आणमादीणि।।१०।। दंडदारु न०(दण्डदारु) ब्रह्मचारिणामनेर्दक्षिणतः स्थाप्ये सप्ताङ्गा-- अण्णेसिं डंडगाणं अभावे चित्तविचित्ताऽऽदि गेण्हंति। 'नि०चू० 5 उ०। | नामन्यतमेऽङ्गे, भ०११श०३उ०। सूत्र०। प्रव०। (दण्डपञ्चकं 'दंडपणग' शब्देऽनुपदमेव वक्ष्यते) चतुर्हस्ते दंडपणग न०(दण्डपञ्चक) यष्ट्यादिदण्डपञ्चके, प्रव०। (स० 4 सम०) धनु :पर्याये मानभेदे, अनु० भ०। ज्यो। लट्ठी तहा विलट्ठी, दंडो अविदंडओ अनाली अ। कुक्षिद्वयनिष्पन्नो दण्डः / अनु०॥ दण्ड इव दण्डः / ऊवधि आयते भणि दंडयपणगं, वक्खाणमिणं भवे तस्स // 676 / / शरीरबाहल्ये जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूह, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। आ०चू० यष्टिः, तथा-वियष्टिः, तथा-दण्डः, तथा-विदण्डः, तथा नालिका, ("पढमे समये दंड करेइ।" इति 'केवलिसमुग्घाय' शब्दे तृतीयभागे / एतद्दण्डपञ्चकं भणितं तीर्थकरगणधरैः, तस्य च दण्ड-पञ्चकस्येदं 663 पृष्ठे व्याख्यातम्) वक्ष्यमाणरूप व्याख्यानं भवेत्। दंडकिरिया स्त्री०(दण्डक्रिया) सर्वविषनिवारिण्यां विद्यायाम, एतदेवाऽऽहआव०४ अ०॥ लट्ठी आयपमाणा, विलट्ठि चउरंगुलेण परिहीणा। दंडखाय न०(दण्डखात) वाराणसीस्थे तीर्थभेदे, यत्र भव्यपुष्क- दंडो बाहुपमाणो, विदंडओ कक्खमेत्ताओ॥६७७।। राऽऽवर्तकः पूज्यते। ती०४३ कल्प। "लट्टी" इत्यादि। यष्टिरात्मप्रमाणः, सार्द्धहस्तत्रयमानो वियष्टिर्यष्टः दंडग पुं०(दण्डक) साधूपकरणे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। पादप्रोञ्छनके, सकाशाचतुर्भिरड्डलैः परिहीनोन्यूनो भवति, दण्डो बाहुप्रमाणः स्कन्धजीता धाम "अरिहंतचेइआणं' इत्यादौ चैत्यवन्दनस्तवे, ध०२ | प्रदेशप्रमाणः, विदण्डः कक्षामात्रः कक्षाप्रमाणः। अधिवा वाक्यपद्धतौ, स्था०१ ठा०। (''चउवीसदंडय' शब्दे तृतीयभागे लट्ठीए चउरंगुल-समूसिया दंडपंचगे नाली। 1058 पृष्ठे व्याख्यातम्) वेत्रलतायाम्, ओघ०। चतुर्विंशतिदण्डकमध्ये नइपमुहजलुत्तारे, तीए थग्गिजए सलिलं / / 678|| भवनदीपानांदण्डकदशकप्रोक्तमपरेषां व्यन्तराऽऽदिकानां दण्डक एकैकः यष्टेः सकाशात् चतुरङ् गुलसमुच्छ्रिता आत्मप्रमाणाचतुर्भिरड्गुलैः प्रोक्तस्तत्र किं कारणमिति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र सूत्रकृतां विवव अतिरिक्ता, षोडशाङ् गुलाधिकहस्तत्रयमानेत्यर्थः। दण्डपञ्चके दण्डप्रमाणमिति। 70 प्र०ा सेन०१ उल्ला०/ पञ्चकमध्ये नाली नाम दण्डपञ्चमक इति / इदानीमेतेषां पञ्चानामपि दंडगथुइजुगल न०(दण्डकस्तुतियुगल) दण्डकश्च "अरहंतचेइ-आणं" दण्डानां प्रयोजन प्रतिपिपादयिषुरनानुपूर्व्या अपिव्याख्याऽङ्गत्वात्प्रथम इत्यादि, स्तुतिश्च प्रतीता, तयोर्युगलं युग्मम्, एते एव वा युगलं, नालिकायाः प्रयोजनमाह-नदीप्रमुखजलोत्तारे नदीहृदाऽऽदिकमुत्तरीदण्डकस्तुतियुगलम्। स्वनामख्याते स्तुतियुगले. पञ्चा०२ विव०) तुमनोभिमुनिभिस्तया नालिकया स्ताध्यते सलिलमिदं गाधमगाधं वा दंडगमई स्त्री०(दण्डकमयी) दण्डको वंशवेत्राऽऽदिमयी यष्टिस्तै- इति परिमीयते। निर्वृत्तायां चिलिमिलिकायाम्, बृ०१ उ०नि०चू० अथ यष्ट्यादीनां प्रयोजनमाहदंडगराय पुं०(दण्डकराज) जनस्थानराजे, यो हि शुक्रस्य दुहितुर्देव- बज्झइ लट्ठीए जव-णिआ विलट्ठीऍ कत्थइ दुवारं। जान्याः शीलं भञ्जयन् शप्तः सन् सराज्यः क्षारतां प्राप्तः। ती०२७ कल्प। घट्टिजए उवस्सय-तयणं तेणाइरक्खट्ठा॥६७६।। दंडगुरुय पुं०(दण्डगुरुक) दण्डेन गुरुको दण्डगुरुकः यस्य महान्दण्डो "बज्झइ'' इत्यादि / यष्ट्या यष्टिदण्डकेन उपाश्रये भोजनाऽ5भवति असौ दण्डेन गुरु भवति। तस्मिन, सूत्र०२ श्रु०२अ० दिवेलायां सागारिकाऽऽदिरक्षणार्थ यवनिका तिरस्करिणी बध्यते, दंडणायग पुं०(दण्डनायक) तन्त्रपालके, राष्ट्ररक्षके, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ तथा-वियष्ट्या वियष्टिदण्डकेन कुत्राऽपि प्रत्यन्तग्रामाऽऽदौ तस्क रा० औ० भ० भूपाले, स्वदेशचिन्ताकर्तरि च / कल्प०३ क्षण। राऽऽदिरक्षणार्थमुपाश्रयसत्कं द्वारं धट्यते आहन्यते, येन स्वाट् कादंडणिक्खेव पुं०(दण्डनिक्षेप) दण्डः प्राणिपीडालक्षणः, तस्य निक्षेपः रश्रवणात् तस्करशुनकाऽऽदयो नश्यन्तीति। परित्यागः। संयमे, आचा०२ श्रु०१ चू०१अ०१उ० उउबद्धम्मि उदंओ, विदंडओ धिप्पए वरिसकाले। दंडणीइस्त्री०(दण्डनीति) दण्डनं दण्डः परिधीनामनुशासनं, तत्र तस्य जं सो लहुओ निजइ, कप्पंतरिओ जलभएणं // 680 / / वा स एव नीतिर्नयो दण्डनीतिः / स्था०७ ठा०ा दण्डेनोपलक्षितायां तथा ऋतुबद्धे काले भिक्षाभ्रमणाऽऽदिवेलायां दण्डको गृह्यते, तेन हि नीती, स्था० 6 ठा०। ति०। आ०म०। कल्प०। आ०चू०। (कस्य प्रद्विष्टानां द्विपदानां मनुष्याऽऽदीनां, चतुष्पदानां गया श्वाऽऽदीना, कुलकरस्य कीदृशी दण्डनीतिरिति 'कुलगर' शब्दे तृतीयभागे 563 बहुपदानां शरभाऽऽदीनां निवारणं क्रियते, दुर्गस्थानेषु च व्याघ्रचौराऽऽ-- पृष्टे उक्तम्) दिभये प्रहरणं भवति, वृद्धस्य च अवष्टम्भनहेतुर्भवतीत्यादिप्रयोजनम्।
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________________ दंडपणग 2423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंरुवइ तथा वर्षाकाले विदण्डको गृह्यते, यद् यस्मात् लघुको भवति, ततः कल्पान्तरितः कल्पस्याभ्यन्तरे कृतः सुखेनैतन्नीयते जलभयेन, यथाऽप्कायेन न स्पृश्यत इति / / 680 / / इदानीमेतेषां दण्डानां शुभाशुभस्वरूपप्रतिपादनायाऽऽहविसमाइ बद्धमाई, दस य पव्वाइ एगवन्नाइ। दंडेसु अपोल्लाई, सुहाइँ सेसाइँ असुहाई॥६८१॥ पूर्वोक्तेषु पञ्चसु दण्डकेषु, पर्वाणि ग्रन्थिमध्यानि एवंविधानि शुभानि भवन्तीति सम्बन्धः / तत्र विषमाणि एकत्रिपञ्चसप्तनवरूपाणि, तथा दश च दशसंख्यानि / तथा बर्द्धमानानि उपर्युपरि प्रबर्द्धमानानि / तथा एकवर्णानि न पुनश्चित्रलकानि / तथा-(अपोल्लाइ त्ति) अशुषिराणि, निविडानीत्यर्थः, एवंविधविशेषणविशिष्टपर्वोपेताः स्निग्धवर्णा मसृणा वर्तुलावर्तुलाश्च दण्डका यतिजनस्य प्रशस्ता इति भावः / (सेसाई असुहाई ति) शेषाणि पूर्वोक्तविपरीतस्वरूपाणि, पर्वाणि अशुभान्यप्रशस्तानीति / एकाऽऽदिपर्वणां च शुभाशुभफलमित्थमोघनिर्युक्तायुक्तम्। यथा "एगपव्वं पसंसंति, दुपटवा कलहकारिका। तिपय्वा लाभसंपन्ना, चउपव्वा मारणंतिया / / 1 / / पंचपव्वा उ जा लट्ठी, पंथे कलहनिवारिणी। छपवाए य आयंको, सत्तपव्वा निरोगिया // 2 // अट्टपव्या असंपत्तो, नवपव्वा जसकारिया। दसपव्वा उजा लट्ठी, तहियं सव्वसंपई॥३॥" इति। प्रव०८१ द्वार। पं०भा०। जे भिक्खू दंडगं वा लट्ठियाअबहेलणयं वा वेणुसइयं वा सयमेव परिघट्टइवा, संठवेइवा, जम्माइवेएइवा, परिघट्टतं वा संठवंतं वा जम्माइवेयंतं वा साइजइ // 25 // इदमपि प्रथमोद्देशकवद्वक्तव्यम्। गाहादंडग विदंडए वा, लट्ठि विलट्ठीय तिविध तिविधा तु। वेणुमय वेत्त दारुय, बहु अप्प अहाकडे चेव // 170 / / नि०चू०२ उ० दंडपरिहार पुं०(दण्डपरिहार) महत्या जीर्णकम्बलिकायाम् बृ०१ उ०। दंडपह पुं०(दण्डपथ) गोदण्डमार्गे, सूत्रका अंधे व से दंडपहं गहाय, अविओसिए घासति पावकम्मी। (5) यथा ह्यन्धश्चक्षुर्विकलो दण्डपथं गोदण्डमार्ग प्रमुखोज्ज्वलं गृहीत्वाऽऽश्रित्य व्रजन् सम्यगकोविदतया घृष्यते कण्टकश्वापदाऽऽदिभिः पीड्यते, एवं केवललिङ्गधार्यनुपशान्तक्रोधः कर्कशभाष्यधिकरणोदीपकस्तथा। (अविओसिए त्ति) अनुपशान्तद्वन्द्वः पापमनार्य कर्मानुष्ठान यस्याऽसौ पापकर्मा, घृष्यते चतुर्गतिके संसारे यातनास्थानगतः पौनःपुन्येन पीड्यत इति / / 5 / / सूत्र०१ श्रु०१३ अ०॥ दंडपासि(ण) पुं०(दण्डपाश्विन्) दण्डस्य पावं दण्डपार्श्व, तद्विद्यते यस्याऽसौ दण्डपा: / स्वल्पतया स्तोकापराधेऽपि कुप्यति दण्डं च पातयति यः तस्मिन्, दशाा०६ अ०। सूत्र०।। दंडपुंछणय न०(दण्डपुञ्छनक) दण्डयुक्तायां संमार्जन्याम्, जं०५ वक्षः। सणकहस्तकेशरपर्णाऽऽदिशलाकासमुदाये च, आ०म०१ अ०१ खण्ड। दंडपुरकड पुं०(दण्डपुरस्कृत) सदा पुरस्कृतदण्डे, दशा०६ अ० सूत्रा दंडप्पयार पुं०(दण्डप्रकार) आज्ञाविशेषे, स० *दण्डप्रचार पुं०। सैन्यविचरणे, सा दंडभी स्त्री०(दण्डभी) दण्डं जीवकर्मसमारम्भं मृषावादाऽऽदिकं, दण्डाद्विभेतीति दण्डभीः। दण्डभीते, आचा०१ श्रु० अ०१ उ०। दंडमाइ पुं०(दण्डाऽऽदि) डल्लानां धरणिपाताऽऽद्युभयाङ्कयुद्धप्र भृतिषु, पि। दंडय पुं०(दण्डक) 'दंडग' शब्दार्थे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। दंडरयण न०(दण्डरत्न) रत्नविशेषे, आ०चू०१ अ० "... दंडरयणं परामुसइ / तए णं भवे दंडरयणं रयणपंचसइयं वइरसारमइयं विणासणं सव्वसत्तूसेन्नाणं खंघावारेण खइयस्सगुहादरीविसमपन्भारगिरिपवाताणं समीकरणं संतिकरणं सुभकरणं रन्नो हिदयइच्छितमणोरह पूरगं दिव्वमपडिहतं दंडरयणं गहाय सत्तद्रुपदे पचोसक्कइ।" आ०चू०१ अ०। स्था०। प्रज्ञा०। दंडरुइ पुं०(दण्डरूचि) “एगंतदंडरुइणो।" हिंसनश्रद्धे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दंडलक्खण न०(दण्डलक्षण) दण्डस्वरूपनिरूपणे, जं० ___ दण्डलक्षणम्"यद्यातपत्राङ्कुशवेत्रचापवितानकुन्तध्वजचामराणाम्। व्यापाततन्त्रीमधुकृष्णवर्णकलाक्रमेणैव हिताय दण्डाः (?)||1 // मन्त्रि१ भूरधन३कुल४क्षयावहा रोग५मृत्युधजननाश्च पर्वभिः। द्वयादिभिर्द्विकविवर्द्धितः क्रमाद्वारशान्तविरतैः समैः फलम् / / 2 / / यात्राप्रसिद्धिपर्द्विषतां विनाशोर, लाभाःप्रभूताः३ वसुधा४ऽऽगमश्च / वृद्धिः५ पशूनामभिवाञ्छितार्थ:६, त्र्यादिष्वयुग्मेषु तदीश्वराणाम्॥३॥" जं०२ वक्ष०। ज्ञा०। सूत्र०ा औ०) स०। (अत्र विशेषो 'लट्टि' शब्दे वीक्ष्यः) दंडलत्तिय पुं०(दण्डलातिक) दण्डो गृहीतो येन स दण्डलातः, सुखाऽऽदिदर्शनाद् निष्ठान्तस्य परनिपातः। दण्डलात एव दण्डलातिकः (प्राकृतत्वात्) स्वार्थिक इप्रत्ययः / यथा-पृथिवीकायिक इत्यत्र / गृहीतदण्डे राज्ञि, व्य०१ उ०। दंडवइ पुं०(दण्डपति) यः पुनस्तं दण्डमुद्गमयति तस्मिन, बृ०२ उ०।
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________________ दंडविजा 2424 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंतवाणिज्ज दंडविज्जा स्त्री०(दण्डविद्या) वंशदण्डाऽऽदिपर्वसंख्याफलकथने, उत्तः | उन०। व्य०। आचालन ग० क्रोधाऽऽदिरहिते, उत्त०२ अ० भ०। १५अ०॥ उपशान्ते, सूत्र०१७०६ अ०। आ०म० इन्द्रियजयसम्पन्ने, व्य०१ उ०॥ दंडवीरिय पुं०(दण्डवीर्य) भरतचक्रवर्तिवंशोद्भवे भरतात्सप्तमे रामर्थ, स्था०७ ठा०। वश्येन्द्रिये, धर्मभयायिनि च / सूत्र०१ श्रु०११ स्वनामख्याते नृपे, स्था०८ ठा०। आव०ा आ०चू०। अ०। पर्वतकदेशे, देखना०५ वर्ग 33 गाथा। दंडसत्थपरिजुण्ण पुं०(दण्डशस्त्रपरिजीर्ण) दण्डा वेत्रदण्डाऽऽदयः, | दंतकम्म न०(दन्तकर्म) दन्तपुत्तलिकाऽऽदिषु, आचा०२ श्रु०२ शस्त्राणि खङ्गाऽऽदीनि, ताभ्यां परिजीणे समन्ततो दुर्बलभावमापादिते, | चू० 4 अ०1 दश०६ अ०२० दंतकलह पुं०(दन्तकलह) वाग्युद्धे, "अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक्र ! दंडसमायाणन०(दण्डसमादान) समादीयते कर्म एभिरितिसमादानानि वसाम्यहम्।" सूत्र०१श्रु०३ अ०२उ०॥ कर्मोपादानहेतवः,दण्डा एव मनोदण्डाऽऽदयः प्राणव्यपरोपणाध्यवसा- दंतकुंडी स्त्री०(दन्तकुण्डी) हडभाजने, नकारोऽलाक्षणिकः / तं०। यरूपाः समादानानि दण्डसमादानानि / कर्मोपादानहेतुषु प्राणव्य दंडकुडी स्त्री०(दन्तकुटी) दंष्ट्रासु, तंग परोपणाध्यवसायरूपेषु मनोदण्डाऽऽदिषु, जी०३ प्रति०२ उ०। दंतणिवाय पुं०(दन्तनिपात) दशनच्छेद्यरूपेऽसंप्राप्तकामे, दश०६ अ०! दण्डयतीति दण्डः पापोपादानसंकल्पः, तस्य समादाने ग्रहणे, सूत्र०२ दंतधावण न०(दन्तधावन) दन्तकाष्ठे, नि०चू०३उ०। (दन्तधाश्रु०२ अ०। प्रति०ा आचा० आ०५०। वनविधिः 'हाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2163 पृष्टे गतः) दंडायइय पुं०(दण्डाऽऽयतिक) दण्डस्येवाऽऽयतिर्दीर्घत्वं पादप्रसारणेन दंतप्पक्खालण न०(दन्तप्रक्षालन) दन्ताः प्रक्षाल्यनते अपगतमलाः यस्यास्तिस दण्डाऽऽयतिकः / स्था०५ ठा०१ उ० प्रसारितदेहे, स्था०७ क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रक्षालनम् / दन्तकाष्ठे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। ठा०। औ०। सूत्र। आचा०। अनु०॥ दंडायत पुं०(दण्डाऽऽयत) दण्डवद्यष्टिवदायतो दी? दण्डाऽऽयतः। भून्यस्ताऽऽयतशरीरे, पञ्चा० 18 विव०। सूत्र०। प्रव०। दंतप्पहावण न०(दन्तप्रधावन) अड्गुल्यादिना क्षालने, दश०३ अ०/ दंतपाय न०(दन्तपात्र) दन्तनिर्मितेपात्रे, आचा०२ श्रु०१चू०६ अ०१ उ०। दंडारक्खिग पुं०(दण्डाऽऽरक्षिक) दण्डधरे, नि०चू०। "दंडधरो दंडाऽऽरक्खिगो दंडगहियग्गहत्थो सव्वतो अंतेउर रक्खइ, रण्णो वयणेण इस्थि / दंतपुर (दन्तपुर) स्वनामख्याते दन्तवक्रस्य राज्ञो नगरे, व्य० १उ०। पुरिसंवा अंतेपुरं णीणेति, पवेसेति वा / एस दंडाऽऽरक्खिगो।" उत्त०। आव०। आ०का नि०चूला आ०चू० नि०चू०६ उ० दंतमणि पुं०(दन्तमणि) प्रधानदन्ते, हस्तिप्रभृतीनां दन्तजेमणौ च / दंडासणियपुं०(दण्डाऽऽसनिक) दण्डस्येवाऽऽयतंपादप्रसारणेन तद्दीर्घ , प्रश्न०५ संव० द्वार। यदासनं तद्दण्डाऽऽसनं, तदस्यास्तीति दण्डाऽऽसनिकः। आसनविशेषा- दंतमल पुं०(दन्तमल) दन्तकिट्टे, नि०चू०३ उ०। भिग्रहवति, बृ०५ उ०। दंतमलमइल न०(दन्तमलमलिन) दन्तमलमलीमसे, ता दंडि(ण) पुं०(दण्डिन) दण्डधारिणि, जं०३ वक्ष०ा औ० दशा०। दंतमाल पुं०(दन्तमाल) द्रुमजातिविशेषे, जं०२ वक्ष०। सूत्रकनके, दे०ना०५ वर्ग 33 गाथा। दंतवक्क पुं०(दन्तवक्र) दन्तपुरराजे, यद्भार्यायाः सत्यवत्याः दन्तदंडिय पुं०(दण्डिक) राजनि, व्य०४ उ०। ध01 करणपतौ च / व्य०१ मयसाँधकरणे दोहदो जातः, तन्नगर एव धनमित्रवणिग्भार्यायाः उ०। स्थान धनश्रियास्तथैव दोहदं पूरयितुकामस्य दृढमित्रस्य बन्धमाप्तस्य मुमोचदंडिया स्त्री०(दण्डिका) लेखोपरि राजमुद्रायाम, बृ०१ उ०॥ यिषुर्धनमित्रो यथातथं वदन् मुक्तो राजकुलात् / व्य०१ उ०। नि०चू०। दंडुक्कल पुं०(दण्डोत्कट) दण्ड आज्ञा, अपराधिदण्डनं का, सैन्यं वा / आव०। उत्त०। आ०चू०। (इति आलोचनायां ‘पच्छित्त' शब्दे उत्कटः प्रकृष्टो यस्य, तेन वोत्कटो यः स दण्डोत्कटः / उत्कटभेदे, व्याख्यास्यते) स्था०५ ठा०३उन दंत(पा)वण न०(दन्तपावन) दन्ताः पूयन्ते पवित्रीक्रियन्ते येन काष्ठदण्डोत्कल पुं० / दण्डेन उत्कलति वृद्धिं याति यः स दण्डोत्कलः।। खण्डेन तद्दन्तपावनम्। प्रव०४ द्वार।दन्तमलापकर्षणकाष्ठे, उपा०१ उत्कटभेदे, स्था० 5 ठा०३उ०॥ अादशा दशननिर्लेपनकाष्ठयष्टिमध्वादी, पञ्चा०५ विया स्था०ा दर्शक दंत पुं०(दन्त) दशने, “दशनानि च कुन्दकलिकाः स्युः।'' है। आचा०। दंत(पा)वणविधि पुं०(दन्तपावनविधि) दन्तमलापकर्षणविधौ, उपा० (साधोदन्तघर्षणाऽऽचारनिषेधः 'अणायार' शब्दे प्रथमभागे 312 10 / ('आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 106 पृष्ट विस्तर) पृष्ठे उक्तः ) दंतवाणिज न०(दन्तवाणिज्य) दन्ताऽऽश्रितं दन्त विषय दान्त पुं० / दाम्यतीन्द्रियाऽऽदिदड़ करोतीत दान्तः / दश० 10 अ०) वाणिज्यम् / दन्तक्रयविक्रययोः, ध०२ अधि०। यत्र प्रथमत एव पापेभ्य उपरते, व्य०१० उ०। इन्द्रियनोइन्द्रियदमने, नाज्ञा०१ श्रु०१४ पुलिन्दानां दन्ताऽऽनयननिमित्तं मूल्यं ददाति, आकरे वा गत्वा स्वयं अ०। सूत्र०ा जितेन्द्रिये, ज्ञा०१ श्रु० 14 अ०। सूत्र०ा दश०। प्रश्न०। | क्रीणाति, ततस्ते वनाऽऽदौ गत्वा तदर्थ घ्नन्ति, तद्विक्रयपूर्व यदा
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________________ दंतवाणिज्ज 2425 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसण जीवनंतरिमन, प्रव०६ द्वार। ध०र०। आव०॥ आ०चूला श्रा०। पञ्चा० / भ०। तत्र समुच्चयप्रधानो द्वन्द्वः / दन्ताश्चोष्ठौ च दन्तोष्ठम्, स्तनौ च उदरं च दंतवेयणा स्त्री० (दन्तवेदना) दन्तपीडायाम, जी०३ प्रति० 4 उ०। स्तनोदरमिति प्राण्यङ्गत्वात् समाहारः / वस्त्रपात्रमित्यादौ त्वप्राणिदंतसेढी स्त्री०(दन्तश्रेणी) दशनपङ्क्ती , जं०२ वक्ष०ा औ० जातित्वाद, अश्वमहिषमित्यादौ पुनः शाश्वतिकवैरित्वात्। एवमन्यान्यदंतसेणी स्त्री०(दन्तश्रेणी) 'दंतसेढी' शब्दार्थे , ज०२ वक्षा प्युदाहरणानि भावनीयानि। अनु०। दंतसोहणग न०(दन्तशोधनक) दन्तानां मलनिःसारणसाधने उप दंभ पुं०(दम्भ) मायया परवञ्चने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। स०। स्त्री कलाभेदे, कल्प०७क्षण। करणभेदे, पं० भा०। पविरलदंतो थेरो, सेच्छाऽऽदीणं तु दंतलग्गाणं / दंभग न० (दम्भक) यैरग्निप्रतापितैर्लो हशलाकाभिः परशरीरे अङ्का उत्पाद्यन्ते तेषु, विपा०१ श्रु०६ अ०। वञ्चने च / प्रव०२ द्वार। लेवाडअरतिसारिय-रक्खट्ठारोहसोहणयं / / दंभबहुल त्रि०(दम्भबहुल) दम्भो मायया परवञ्चनं तदुत्कटे, सूत्र०२ अद्धाणमादिसुं चिय, पिप्पलतो विकरणट्ठ कंदाणं। श्रु०२ अ० माणाहिगवत्थादी-पगासमुहभाणकरणट्ठा।पं०भा०। दंभुन्भवपुं०(दम्भोद्भव) स्वनामख्याते राजनि, यो हि मदाद्विननाश / "दंतसोहणमाइस्स ति।"(२७)मकारोऽलाक्षणिकः / अपिशब्दस्य ध०१ अधि० गम्यमानत्वाद् दन्तशोधनाऽऽदेरप्यतितुच्छस्य, आस्तामन्यस्य / दंभोलि पुं०(दम्भोलि) दभ्नोति खेदयति / दन् भ-ओलिः / वाचा (२७)उत्त०१६ अग क्जे, अस्त्रे, प्रतिका अष्टा दंतामय पुं०(दन्ताऽऽमय) दन्तरोगे, नि०चू० ३उ०॥ दंस धा०(दृश्) चाक्षुषज्ञानप्रवर्तने, "दृशेर्दाव-दंसदक्खवाः" दंतार पुं०(दन्तकार) दन्तशिल्पिनि, प्रज्ञा०१ पद। // 4 // 32 // इति दृशर्ण्यन्तस्य एते त्रय आदेशाः स्युः। "दावइ। दसइ। दंति(ण) पुं०(दन्तिन्) हस्तिनि, आ०चू०१ अ०। अनन्तजीववनस्पति- दक्खवइ। दरिसइ।"दर्शयति / प्रा०४ पाद। भेदे, प्रज्ञा०१ पद। *दंश पुं०। दन् श-अच् / “शषोः सः" ||1 / 260 / / इति शकारस्य दंतिअ पुं०(देशी) शासके,दे०ना०५ वर्ग 34 गाथा। सकारः / दशः। प्रा०१ पाद / वनमक्षिकायाम्, आचा०१ श्रु०६ अ०३ दंतिंदिय त्रि०(दान्तेन्द्रिय) जिताक्षे, पञ्चा०१७ विव०॥ उ०। आव०। उत्त०। दन श करणाऽऽदौ घञ् / कर्मणि, मर्मणि, दोषे, दंतिक न०(दन्तिक) मोदकमण्डिकाशौकत्र्यादिकं यद्हुविधं दन्त खण्डने, सर्पाऽऽघाते, दन्ते च / वाच०। खाद्यकं तस्मिन्, बृ०१उ०। तन्दुलचूर्णे , बृ०१ उ०। नि०५०। दर्शा | *दर्श पुं०।दर्शनं दर्शः। सम्यक्त्वे, आ०म०१ अ०१खण्ड। "मंसनिवित्तिं काउं, सेवइदंतिक्कयं ति।" पं०व०१ द्वार। दसण न०(दर्शन) दृश्यन्ते श्रद्धीयन्ते ज्ञायन्ते वा जीवाऽऽदयः पदार्था दंतिक्कचुण्ण पुं०(दन्तिकचूर्ण) तन्दुललोट्टे, तन्दुलचूर्णमोद अनेनास्मादस्मिन्वेति दर्शनम्। दृश्-ल्युट्।"श-प्र-तप्त वजे वा" काऽऽदिखाद्यकद्वन्द्वे, “दंतिकचुण्णं वा।” दन्तिकचूर्णस्तन्दुललोट्टः / // 82 / 105|| इति शस्य संयुक्तास्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्वमिकारो वा। यद्वा-दन्तिकं तन्दुलचूर्ण , चूर्ण तु मोदकाऽऽदिखाद्यकचूर्णम्।बृ०१ उ०) "दरिसणादसणं"। प्रा०२पादा दृष्टिा दर्शनम्। सम्यक्त्वाऽपरपर्याये, दंतिया स्त्री०(दन्तिका) गुल्मभेदे, प्रज्ञा०१ पद। दर्शनमोहनीयक्षयाऽऽद्याविर्भूत तत्त्वश्रद्धानरूपे आत्मपरिणामे, "एगे देसणे।" स्था०१ ठा। तचोपाधिभेदादनेकविधमपि श्रद्धानसाम्यादंतिल्लिया स्त्री०(दन्तवती) पत्रकाऽऽलयग्रामवास्तव्यस्य देकम्, एकजीवस्य चैकदा एकस्यैव भावादिति। नन्ववबोधसामान्याद् स्कन्दकनाम्नो ग्रामकूरपुत्रस्य दास्याम्, आ०यू०१अ०। आ०म०। ज्ञानसम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः? उच्यते रुचिः सम्यक्त्वं, रुचिकारणं दंतुक्खलिय पुं०(दन्तोत्खलिक) फलभोजिषु, नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अ० तु ज्ञानम् / यथोक्तम्- 'नाणमवायधिईओ, दंसणमिट्ठ जहोग्गहेऔ० भ० हाओ (?) तह तत्तरुई सम्म, रोइजइ जेण तं नाणं // 1 // " स्था०१ दंतुट्ठ पुं०(दन्तोष्ठ) दन्तानामोष्ठयोश्व समाहारे, स्था०७ ठा। ठा०ा दर्शo आवा० सूत्र०। उत्त०। ज्ञा०ा औ०। ध०र०। आव०। ध०। दंतुर त्रि०(दन्तुर) उन्नता दन्ताः सन्त्यस्य, दन्त-उरच्। उन्नतद-न्तयुक्ते, रा०ा संथा०॥ द्वा० भ०। प्रय०। आ०म० स०। आतु० ओघानं० उन्नताऽऽनते विषमस्थाने च। वाचला आ०म०। सम्यड् मिथ्याभेदाद् द्विविधं दर्शनम्दंदपुं०(द्वन्द्व) शीतोष्णाऽऽदिषु, द्वा०२२ द्वा०। समुच्चयप्रधाने समासभेदे, दुविहे दंसणे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मईसणे चेव, मिच्छादसणे चेव। से किं तं दंदे? दंदे-दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तोष्ठम्, स्तनौ च "दुविहे दंसणे" इत्यादि सप्त सूत्राणि सुगमान्येव / नवरं दृष्टिदर्शनं उदरं च स्तनोदरम्, वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्, अश्वश्च महिषश्च तत्त्वेषु रुचिः, तच सम्यगविपरीतं जिनोक्तानुसारि, तथा मिथ्या अश्वमहिषम्, अहिश्च नकुलश्च अहिनकुलम् / सेत्तं दंदे। विपरीतमिति। अनु०॥
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________________ दंसण 2426- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसण सम्यग्दर्शनभेदमाहसम्मइंसणे दुविहे पन्नत्ते / तं जहा-णिसग्गसम्मइंसणे चेव, अभिगमसम्मइंसणे चेव। णिसग्गसम्मइंसणे दुविहे पन्नत्ते / तं जहा-पडिवाई चेव, अपडिवाई चेव / अभिगमसम्मइंसणे दुविहे पन्नत्ते / तं जहापडिवाईचेव, अपडिवाई चेव। (सम्मइंसणे इत्यादि) निसर्गः स्वभावोऽनुपदेश इत्यनान्तरम्। अभिगमो गुरूपदेशाऽऽदिरिति, ताभ्यां यत्तत्तथा, क्रमेण मरुदेवीभरतवदिति / (निसग्गेत्यादि) प्रतिपतनशील प्रतिपाति सम्यग्द-- र्शनमौपशमिकं क्षायोपशमिक वा प्रतिपाति क्षायिकं, तत्रैषां क्रमेण लक्षणम्-इहोपशमिकी श्रेणिमनुप्रविष्टस्यानन्तानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयत्रयस्य चोपशमादौपशमिकं भवति, यो वाऽनादिमिथ्यादृष्टिरकृतसम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्राभिधानशुद्धाशुद्धोभयरूपमिथ्यात्वपुद्गलत्रिपुजीक एवाऽक्षीणमिथ्यादर्शनोऽक्षपक इत्यर्थः, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, तस्यौपशमिक भवतीति / कथम्? इह यदस्य मिथ्यादर्शनमोहनीयमुदीर्ण तदनुभवेनैवोपक्षीणम्, अन्यच मन्दपरिणामतया नोदितम्, अतस्तदन्तर्मुहूर्त्तमात्रमुपशान्तमास्ते, विष्टम्भितोदयमित्यर्थः / तावन्तं कालमस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभ इति। आह च"उवसामगसैढिगयस्स होति उवसामियं तु सम्मत्तं / जो वा अकयतिपुंजे, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं / / 1 / / खीणम्मि उदिन्नम्मी, अणुदिजते य सेसमिच्छत्ते। अंतोमुहुत्तकालं, उवसमसम्म लहइ जीवो ॥२॥इति। अन्तर्मुहूर्तमात्रकालत्वादेवास्य प्रतिपातित्वम्। यच्चानन्तानुबन्ध्युदये औपशमिकसम्यक्त्यात्प्रतिपततः सास्वादनमुच्यते तदौपशमिकमेव, तदपि च प्रतिपात्यैव , जघन्यतः समयमात्रत्वात्, उत्कृष्टतस्तुषडावलिकमानत्यादस्येति / तथा इह यदस्य मिथ्यादर्शनदलिकमुदीर्ण तदुपक्षीणं, यचानुदीर्ण तदुपशान्तम्, उपशान्तं नामविष्टम्भितोदयमुपनीत मिथ्यास्वभावं च, तदिह क्षयोपशमस्वभावमनुभूयमानं क्षायोपशमिकमित्युच्यते / नन्वौपशमिकेऽपि यथा क्षयोपशमश्च, तथेहापीति कोऽनयोर्विशेषः? उच्यते-अयमेव हि विशेषो यदिह वेद्यते दलिकं, न तत्र, इह हि क्षायोपशमिके पूर्वशमितमनुसमयमुदेति वेद्यते क्षीयते च, औपशमिके तूदयविष्टम्भनमात्रमेव / आह च- "मिच्छत्ते जमुदिण्णं, तं खीण अणुदियं च उवसंतं / मीसीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं / / 1 / / " इति / एतदपि जघन्यतोऽन्तमुहूर्त्तस्थितिकत्वात्, उत्कर्षतः षट् षष्टि-सागरोपमस्थितिकत्वाच प्रतिपातीति / यदपि च क्षपकस्य सम्यग्दर्शनदलिकचरमपुद्गलानुभवनरूपं वेदकमित्युच्यते, तदपि क्षायोपशमिकभेदत्वात् प्रतिपात्येवेति। तथा मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमोहनीयक्षयात् क्षायिकमिति / आह च-''खीणे दंसणमोहे, तिविहम्मि वि नवनियाणभूयम्मि। निप्पच्चवायमउलं, सम्मत्तं खाइयं होइ / / 1 / / " इति / इदं तु क्षायिकत्वादेवाप्रतिपाति / अत एव सिद्धत्वेऽप्यनुवर्तते। मिच्छादसणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-अभिग्गहियमिच्छादंसणे चेव, अणभिग्गहियमिच्छादसणे चेव / अभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सपज्जवसिए चेव, अप-- जवसिए चेव / एवमणभिग्गहियमिच्छादसणे वि।। (मिच्छादसणे इत्यादि) अभिग्रहः कुमतपरिग्रहः, स यत्राऽस्ति तदाभिग्रहिक, तद्वीपरीतमनभिग्रहिकमिति। (अभिग्गहियेत्यादि) आभिग्रहिकमिथ्यादर्शन सपर्यवसितं सपर्यवानं सम्यक्त्वप्राप्तौ, अपर्यवसितमभव्यस्य सम्यक्त्वाप्राप्तेः, तच्च मिथ्यात्वमात्रमप्यतीतकालतयाऽनुवृत्त्याऽऽभिग्रहिकमिति व्यपदिश्यते // 6 / / अनाभिग्रहिकं भव्यस्य सपर्यवसितम्, इतरस्याऽपर्यवसितमिति / स्था०२ ठा०१ उ०। आ०म०ा दर्शनं त्रिविधम्। तद्यथा-मिथ्यादर्शन, सम्यमिथ्यादर्शनम्, सम्यग्दर्शनं च। आ०म०१ अ०१खण्ड। दर्शनं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वभेदात्त्रिविधम्। विशे०क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकभेदाद्दर्शन त्रिविधम् / चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनभेदाद्दर्शनं चतुर्धा / विशे० औपशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकक्षायिकभेदात्पञ्चविधम् / सूत्र०१ श्रु०६ अ०। पं०भा०। दर्शनस्य सप्तविधत्वमाहसत्तविहे दंसणे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मइंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छादंसणे, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलदसणे। "दसणे' इत्यादि सुगमम् / नवरं सम्यग्दर्शनं सम्यक्त्वम्, मिथ्यादर्शन मिथ्यात्व, सम्यग् मिथ्यादर्शन मिश्रमिति। एतच त्रिविधमपि दर्शनमोहनीयभेदानां क्षयक्षयोपशमोदयेभ्यो जायते, तथाविधरुचिस्वभावं चेति। चक्षुर्दर्शनाऽऽदितुदर्शनाऽऽवरणीयभेदचतुष्टयस्य यथासंभव क्षयोपशमत्तयाभ्यां जायते, सामान्यग्रहणस्वभावं चेति। तदेवं श्रद्धानसामान्यग्रहणयोर्दर्शनशब्दवाच्यत्वाद्दर्शन सप्तधोक्तमिति। अनन्तरं केवलदर्शनमुक्तं, तच छद्मस्थावस्थायां अनन्तरं भवतीति। स्था०७ ठा०। अष्टविधत्वम्अट्ठविहे दंसणे पण्णत्ते / तं जहा–सम्मइंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदसणे०जाव केवलदसणे, सुविणदंसणे। ''अट्टविहे दसणे" इत्यादि कण्ठ्यम् / केवलं स्वप्रदर्शनस्याचक्षुर्दर्शनान्तविऽपि सुप्तावस्थोपाधितो भेदो विवक्षित इति। स्था०८ ठा। पं०भा०। कारकरोचकदीपकभेदादा दर्शनं त्रिविधम्। आतु०। (एते भेदीः 'सम्मत्त' शब्दे स्फुटीभविष्यन्ति, सम्यक्त्वपर्यायत्वाद, दर्शनस्य, नवरमिह दर्शनाऽऽदिशब्दे छद्मस्थदर्शनवीतरागदर्शनभेदाः प्रदर्शयिष्यन्ते) श्रद्धानलक्षणे व्यवसाये, व्यवसायांशत्वात्तस्य। स्था०३ ठा०३उ०। 'दृशिर्' प्रेक्षणे, दृश्यते सम्यक्परिज्ञायते सावद्यमनेनेति दर्शनम्। चारित्रे, अनेकार्थत्वाद्वातूनाम् / संथा०। सम्यक्त्वप्रभावकशास्त्रे, आव०४अ० स्था०। शास्त्रमात्रे, विशेष दर्शनविशोधके सूत्रे, व्य०१उ०। बृ०। उत्त०। ''गोविंद निजुत्तिमादी दसण।" नि०चू०११ उ०। अभिप्राये, उपदेशे, आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ०। दय॑ते सामान्यरूपेण वस्त्विपि दर्शनम्। उत्त०८ अ० दृश्यते विलोक्यते वस्त्वनेनेतिदर्शनम् / यद् वा-दृष्टि
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________________ दसण 2427 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणकप्प दर्शनम् / कर्म०४ कर्म०। दर्शनाऽऽवरणकर्मक्षयोपशमाऽऽदिजे सामान्यमात्रग्रहणे, अनु० स्था०। दसणावरणिज्जे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-देसदसणावरणिज्जे, सव्वदंसणावरणिज्जे। दर्शनं सामान्यार्थबोधरूपमावृणोतीति दर्शनाऽऽवरणीयम्। उक्तं च - | "दंसणसीले जीये, दंसणघायं करेइ जं कम्मं / तं पडिहारसमाणं, दंसणवरणं भवे जीवे ।।१।।"(देस त्ति) देशदर्शनाऽऽवरणीय, चक्षुरवधिदर्शनाऽऽवरणीयम्। सर्वदर्शनाऽऽवरणीयं तु निद्रापञ्चकं, केवलदर्शनाऽऽवरणीयं चेत्यर्थः / स्था०२ ठा०४ उ०॥ सूत्र०। सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि, सामान्याऽऽत्मके बोधे, कर्म०४ कर्म०। औ०। आचा०। नं०। निर्विशेषविशेषाणां ग्रहणे, आ०म०२ अ० नं0"पासइ त्ति दंसणं, जं सामन्नग्गहण तंदसण, अणागारमित्यर्थः।" ना विशेग("ज सामण्णग्गहण, दसणमेयं विसेसियं नाणे।" (सम्म०१ गा०२ काण्ड) इति द्रव्यपर्यायास्तिकनययोर्मर्तन 'उवओग' शब्दे द्वितीयभागे 860 पृष्ठे चिन्तितम्) चक्खु अचक्खू ओही, केवलदंसण अणागारा। (12) चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि चत्वारि दर्शनानि / तत्र चक्षुषा दर्शनं वस्तुसामान्यांशाऽऽत्मकं ग्रहणं चक्षुर्दर्शनम्, अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च यदर्शन सामान्यांशाऽऽत्मक ग्रहणं तदचक्षुर्दर्शनम्, अवधिना रूपिद्रव्यमर्यादया दर्शनं सामान्यांशग्रहणमवधिदर्शनम्, केवलेन संपूर्णवस्तुतत्त्वग्राहकबोधविशेषरूपेण यद्दर्शनं सामान्यांशग्रहणं तत्केवलदर्शनमिति। किंरूपाण्येतानिदर्शनानि? अत आह-अनाकाराणि सामान्याऽऽकारयुक्तत्वे सत्यपि न विद्यते विशिष्टो व्यक्त आकारो येषु तान्यनाकाराणि / कर्म०४ कर्म०। अष्ट०। पं०चू०। प्रव०। अवलोकने, पिं०। पञ्चा०ा आत्मनः प्रकटने, व्य०१उ०) दंसणकप्प पुं०(दर्शनकल्प) कल्पभेदे, पं०भा०। .., एत्तो वोच्छामि दंसणे कप्पं / सद्दहणलक्खणं तू, जिणोवदिहेसु भावे तु। उवगतछक्कायस्सा, आयरियपरंपरागते अत्थे। आगाढकारणेसु, सद्दहसु णिवेसणं तत्थ / छक्काए सद्दहितं इण-मण्ण पुणो वि सहयवं / आगाढमणागाढे, आयरियव्वं तु जंतत्थ। दव्वे खेत्ते काले, भावे पुरिसे तिगिच्छ असहाए। एतेहि कारणेहिं, सत्तविहं होइ आगाढं / एगादीया वुड्डी, एगुत्तरिया य होति दव्वाणं / ओमत्थगपरिहाणी, दव्वागाढं वियाणाहि। जंपेति पुणो वेजो, सच्चित्तं दुल्लभं च दव्वं च / अपडिहणंतो अत्थति, उद्दिसिउंजाव सो ठाति। जाहे उद्दिवाणी, ताहे ओमत्थहाणिए भणति। अम्ह करेमो जोग्गं, अलंमें एयस्स किं कुणिमो? एवं तु हावयंता, खेत्तं कालं च भावमासज्ज / ता जूहंती जाव तु, लंभे जेसिं तु दव्वाणं / अह पुण भणेज एवं, अवस्समेत्तेहिँ कज्जदव्वेहिं / एतं दव्वागाद, तहिं जए पणगहाणीए। खेत्तागाढं इणमो, असती खेत्ताण मासजोग्गाणं / असिवं वा अन्नत्था, णदीवया होज रुद्धा तु / आयरियादिअहारग, अहवा अन्नत्थ सावया होज्ज / अंतर जहिं च गम्मति, वाला तह तेण खुत्तियं वा वि। एतेहि कारणेहिं,खेत्तागादम्मि एरिसे पत्तो। अत्थंति असढभावा, एगक्खेत्ते विजयणाए। कालस्स वा वि असती, वासावासे वियारणा णत्थि। एतेहि कारणेहिं, कालागाढं वियाणाहि। वासाजोग्गं खेत्तं, पडिलेहित्ता तु कालओ बहुए। वचंताण य अंतर-वासं तू णिवडितु पवत्तं / डहरं चंऽतरखेत्तं, ताहे तं चेव पुव्वखेत्तं तु / गंतू वसती वाम, समतीते वीतिदसरातं / अतिउकडं व दुक्खं, अप्पा वा वेदणामए आसु / एतेहि कारणेहिं, भावागाढं वियाणाहि। अब्भुक्कडमूलाऽऽदी, अहिडक्काई तु वेदण अप्पा। तत्थऽग्गितावणाऽऽदी, दाहच्छेदोवगाढाऽऽदी। जम्मि विणढे गच्छस्स विणासो तह य णाणचरणाणं / एतेहि कारणेहिं, पुरिसागाढं वियाणाहि। तस्स तु सुद्धालंभे, जावजीवं पि होति सुद्धेणं / कायव्वं तू णियमा,पुरिसागाढं भवे एतं / जेण कुलं आयत्तं, तं पुरिसं आदरेण रक्खाहि। ण हु तुंबम्मि विणटे, अरया साहारगा हो ति / संजोगदिट्ठपाठी, फासुगउवदेसणासु जो कुसलो। एतारिसस्स असती, णायव्य तिगिच्छमागाद / / मजणतूलिविभासा, अरणे पाउरणए य पाणे य। केवडियाण पदाणे, अन्नध वत्तो गिलाणो तु॥ उज्जवसहावरहितो, अव्वत्ता वावि अहव असमत्था। एयऽसहायागाढं, तम्हा णु मुणी ण विहरेज / / जावंति पवयणम्मी, पडिसेवा मूलमुत्तरगुणेसु / ता सत्तसु सुद्धेसु, सुद्धमसुद्धा असुद्धेसु / / आगाढमणागाढे, एवं जं जत्थ होति करणिज्जं / तं तह सद्दहमाणे, दंसणकप्पो भवति एसो। पं०भा०। इयाणिं दंसणकप्पो। तत्थ गाहा-(छकाए) छक्काएसु विसुवगएसु इममन्नं सद्दहियव्वं, जो आयरियपरंपराए आगओ अत्थो, आगाढे अणागाढे य आयरिजइ त सद्दहियव्वं,तत्थिमाणि सत्त आगाढाणि / गाहा-(दव्वे खेत्ते) दव्ये ताव वेजो पुच्छियव्यो जाव इयाणिं दव्वाणि उवइसइ, तावइयाणि न पडिसेविजंति / जहा-एवं अम्ह न कप्पइ / जाहे उवइहाणि ताहे उ मंथइपरिहाणीए भण्णइ। गाहा (एगादीया) एगाईए वुड्डीए अम्हे करेसु, जो
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________________ दंसणकप्प 2428 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणट्ठ गं मग्गसु. तं चैव जाव कलमसाली (खेत्तं कालं गाहा) तहेव य जहिं भावाणं नेव कट्टुमागारं। अविसेसिऊण अत्थे, दंसणमिइ बुचए समए लाभो तहिं ठायति / अहवा भणेजा-आवस्सियाणि दव्वाणि जाणिय- 11 / " तदेवाऽऽत्मनो गुणः, स एव प्रमाण दर्शनगुणप्रमाणम् / इदं च व्वाणि, दुल्लहाणि परिजाणह, स तेल्लमाईणि ववइसइ,ताहे तं दध्यागाद चक्षुर्दर्शनाऽऽदिभेदाचतुर्विधम् / तत्र भावचक्षुरिन्द्रियाऽऽवरणक्षयोपणगपरिहाणीए जयंति, जाव चउगुरुएण विगेण्हति। (खेत्तागाढं गाहा) पशमाद, द्रव्येन्द्रियानुपधाताच, चक्षुर्दशनिनश्चक्षुर्दर्शनलब्धिमतो जीवस्य खेत्तस्स वा अलभे असइमासपाउग्गाणं खेत्ताणं एगत्थ अच्छति, असिवं घटाऽऽदिषु द्रव्येषु चक्षुषो दर्शन चक्षुर्दर्शन, भवतीति क्रियाऽध्याहारः / वा, अण्णत्थ नईतीरं तिगंतूण अकारग वा आयरियाणं अण्णत्थ सावया सामान्यविषयत्वेऽपि चास्य यद् घटाऽऽदिविशेषाभिधानं तत्सामान्यवा, तत्थ अंतरा वा दिग्घजाईया वा अण्णम्मि देसे अंतरा वा ताहे एगत्थ विशेषयोः कथञ्चिदभेदादेकान्तेन विशेषेभ्यो व्यतिरिक्तस्य सामान्यअत्थंति / अहवा खेत्तागाढं अद्धाणे अद्धाणकप्पभिक्खवसहिसण्णा- स्याऽग्रहणख्यापनार्थम् / उक्तं च- "निर्विशेषं विशेषाणां, ग्रहो भूमिपालगपलंवाऽऽइसुजयणा, सा सद्दहियव्वा / एवं खेत्तागाढा कालओ दर्शनमुच्यते।" इत्यादि। चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयं, मनश्वाचक्षुरुच्यते, कालेण बहुतो वासावासपाउग्गं खेत्तं वच्चंताणं अंतरा वासं पडियं, तं च तस्य दर्शने न चक्षुर्दर्शनं तदपि भावचक्षुरिन्द्रियाऽऽवरणक्षयोपशमाद् अंतरा खेत्तं सन्निसद्धगं, ताहे तं चेव पुव्वपडिलेहियं खेत्तं जंति, उल्लता द्रव्येन्द्रियानुपधाताच, अचक्षुर्दर्शनिनोऽचक्षुर्दर्शनलब्धिमतो जीयवि अइच्छिए वा वासावासे जइ वासइ मग्गसिरेदस राया तिण्णि हो ति, स्याऽऽत्मभावे भवति, आत्मनि आत्मनिजीवे भावः संश्लिष्टतया संबन्धो, उक्नोसेण ओमोयरियाए वा, जा जयणा आहाराऽऽइसु। एयं कालागाढं। विषयस्य घटाऽऽदेरिति गम्यते, तस्मिन् सति इदं प्रादुर्भवति रूपम् / इयाणि भावागाढ। (गाहा अइउक्कडंच) अइउक्कडं ति विसूइयाइ, अहिद- इदमुक्त भवतिचक्षुरप्राप्यकारि, ततो दूरस्थमपि स्वविषय परिच्छिनत्तीदृविसअप्पा वा वेयणाहि य पसूलाइ, तत्थ अग्गी कंदाइ वा परित्ताणंताइ त्यस्याऽर्थस्य ख्यापनार्थं घटाऽऽदिषु चक्षुर्दर्शनं भवतीति पूर्व विषयस्य दायव्यं / एयं भावागाढ / पुरिसागा जम्मि विणष्टुं गच्छरस विणासो भेदेनाभिधानम् / श्रोत्राऽऽदीनितु प्राप्यकारीणि, ततो द्रव्येन्द्रियसंश्लेषनाणदरिसणचरित्ताऽऽईण विणासो। (न हु तुंबम्मि विणढे गाहा) ताहे द्वारेण जीवेन सह संबद्धमेव विषयं परिच्छिन्दन्तीत्येतदर्शनार्थमात्मभावि तस्स असुद्धेणावि कीरइ, जाव जीवइ / एवं पुरिसाऽऽगाढं। (गाहा- भवतीत्येवमिह विषयस्याभेदेन प्रतिपादनमकारीति। उक्तं च- "पुढे संजोगदिट्टपाठी) वेजस्स वा संजोगदिट्ठपाठिस्स असइ गीयत्थसं- सुणेइसई, रूवंपुण पासई अपुढेतु।" इत्यादि। अवधेर्दर्शनमवधिदर्शनम्। विग्गस्स, ताहे गीयत्थवेजस्स जा पाहुडिया कीरइण्हाणभोयणचोयणाइ, अवधिदर्शनिनोऽवधिदर्शनाऽऽवरणक्षयोपशमसमुद् भूताऽवधिदर्शनतंसदहइ। एयं ति तिगिच्छिागाद। (गाहा-होज वऽसहाय) सहाया वा से लब्धिमतो जीवस्य सर्वरूपिद्रव्येषु भवति, न पुनः सर्वपर्यायेषु, यतोऽवनत्थि अवत्तव्वया सुत्तेण वा दोसा य हिंडमाणस्स वा एगागियस्स ताहे धेऽरत कृष्टतोऽप्येकवस्तुगताः संख्येया असंख्येया वा पर्याया विषयत्वेएमत्थ अत्थई.एणत्थ अत्यंतोअपायच्छितोजाव सहाए नलभइपाउगे। नोक्ताः, जघन्यतस्तु द्वौ पर्यायौ द्विगुणितौ, रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणाश्च(एयऽसहायागाढं गाहा) जाति एवमाइयाओ, जावंति पडिसेवणाओ त्वारः पर्याया इत्यर्थः / उक्तं च-"दव्वाओ असंखेजे, संखेओओ विपज्जवे मूलुत्तरगुणेसु, ताओ एएसु सत्तसु कारणेसुसु सु सुद्धाओ , एएसु सत्तसु लहइ। दो पजवे दुगुणिए, लहूइ य एगाउ दवाओ॥१॥' अत्राऽऽहननु कारणेसु अ अप्पत्तेसु करेइ असुद्धाओ। एस दंसणकप्पो।'' पं०चू०। पर्याया विशेषा उच्यन्ते, नचदर्शनं विशेषविषयं भवितुमर्हति, ज्ञानस्यैव दसणकुसील पुं०(दर्शनकुशील) कुशीलशब्दप्रदर्शितस्वरूपे कुशील- तद्विषयत्वात्कथमिहावधिदर्शनविषयत्वेन पर्याया निर्दिष्टाः, साधूक्त भेदे, महा०३ अ० केवलं पर्यायैरपि घटशरावोदश्चनाऽऽदिभिर्मुदादिसामान्यमेव तथा तथा दंसणखवग पुं०(दर्शनक्षपक) पदैकदेशे पद प्रयोगात् दर्शनमोहनीयस्य विशिष्यते, न पुनस्तेन एकान्तेनव्यतिरिच्यन्ते, अतो मुख्यतः सामान्य, क्षपके, कर्म०५ कर्मादर्शनमोहनीयक्षये, क्षयोपशमे च। स्था०१ ठार | गुणीभूतास्तु विशेषा अप्यस्य विषयी भवन्तीतिख्यापनार्थोऽत्र तदुपदंसणगुणप्पमाण न०(दर्शनगुणप्रमाण) गुणप्रमाणभेदे, अनु०। न्यासः, केवलं सकलदृश्यविषयत्वेन परिपूर्ण दर्शनं, केवलदर्शनिनस्तअथदर्शनगुणप्रमाणमाह दावरणक्षयाऽऽविर्भूततल्लब्धिमतो जीवस्य सर्वद्रव्येषु मूर्तामूर्तेषु से किं तं दंसणगुणप्पमाणे? दंसणगुणप्पमाणे चउविहे सर्वपर्यायेषु च भवतीति। मनः पर्यायज्ञानं तु तथाविधक्षयोपशमपाटवात् पण्णत्ते / तं जहा-चक्खुदंसणगुणप्पमाणो, अचक्खुदंसणगुण सर्वदा विशेषानेव गृह्णदुत्पद्यते, नसामान्यम्, अतस्तद्दर्शन नोक्तमिति। प्पमाणे, ओहिदंसणगुणप्पमाणे, केवलदंसणगुणप्पमाणे / / तदेतद्दर्शनगुणप्रमाणम् / अनु०। चक्खुदंसणं चक्खुदंसणस्स घडपडकडरहाऽऽइएसु दव्वेसु, दंसणग्गह पुं०(दर्शनग्रह) मताऽऽग्रहे, षो०११ विव०। अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणस्स आयभावे, ओ हिदंसणं ('णाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1681 पृष्ठे गतमस्य विवेचनम्) ओहिदसणस्स सव्वरूविदव्वेहिं, न पुण सव्वपज्जवेहिं, केवल- दसणचरित्तमोह पुं०(दर्शनचारित्रमोह) द्विरूपमोहनीये कर्मणि, प्रश्रा दसणं केवलदसणस्स सव्वदव्वेहि अ, सव्वपज्जवेहि सेतं ननु चारित्रमोहस्य हेतुमैथुनमिति प्रतीतम् / तदाह- "तिव्वकसाओ दसणगुणप्पमाणे। बहुमो-हपरिणओ रागदोससंजुत्तो।" प्रश्र०४ आश्र० द्वार। (से किं तं दंसणगुणप्पमाणे इत्यादि) दर्शनाऽऽवरणकर्मक्षयोपशमा- | दंसणट्ठ त्रि०(दर्शनार्थ) दर्शनं तत्त्वानां श्रद्धानं, तदर्थे वस्तुनि, स्था०५ ऽऽदिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शनमिति। उक्तं च- "सज्ज सामन्नग्गहणं, | ठा०३उ०।
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________________ दंसणट्ठया 2426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणणय दंसणट्ठया स्त्री(दर्शनार्थता) दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थिकत्ये, स्था० 5 ठा०२301 दसणणय पुं०(दर्शननय) दर्शनिन एव सम्यक्त्वमित्येवंभूते नये, आव०। 'णाणणय' शब्दे 1686 पृष्ठे ज्ञानप्राधान्यं चारित्रप्राधान्यं च वर्णयित्वाऽऽह; तत्र दर्शननयमतावलम्बी अधिगतज्ञाननये इदमाहजह नाणेणं न विणा, चरणं नादंसणिस्स इअनाणं / न य दंसणं न भावो, तेन य दिट्टि पणिवयामो ||4|| यथा ज्ञानेन विना न चरणं, किंतु सहेव, नादर्शनिन एवं ज्ञानं, किंतु दर्शनिन एव / “सम्यग्दृष्टज्ञनि, मिथ्यादृष्टर्विपर्यासः।" इति वचनात्। तथा न च दर्शन न भावः, किं तु भाव एव; भावलिङ्गान्तर्गतमित्यर्थः / तेन कारणेन ज्ञानस्य तद्भावभावित्वाद्दर्शनस्य ज्ञानोपकारकत्वात् प्राग्वद् (दिहिति) प्राकृलशैल्या दर्शनमस्यास्तीति दर्शनी, तंदर्शनिनं प्रणमामः पूजयामः / इति गाथाऽर्थः / / 8 / / स्यादेतत् सम्यक् त्वज्ञानयोर्युगपदावादुपकार्योपका रकभावानुपपत्तिरित्येतच्चासत्; यतःजुगवं पि समुप्पन्नं, सम्मत्तं अहिगमं विसोहेइ। जह कयगमंजणाई,जलदिट्ठीओ विसोहंति / / 8 / / युगपदपि तुल्यकालमपि समुत्पन्नं संजातं सम्यक्त्वं ज्ञानेन सह अधिगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते पदार्था येन सोऽधिगमः, ज्ञानमेवोच्यते, तमधिगम विशोधयति, ज्ञानं विगलीकरोतीत्यर्थः / अत्रार्थे दृष्टान्तमाह-- यथा कातकाञ्जने जलदृष्टी विशोधयत इति। कतको वृक्षस्तस्येदं कातकं फलम् , अज्जनं सौवीराऽऽदि, कातकं चाञ्जनं च कातकाञ्जने, अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिको, जलमुदकं, दृष्टिः स्वविषये लोचनप्रसरलक्षणा, जलं च दृष्टिश्च जलदृष्टी, ते शोधयतः। इति गाथाऽर्थः / साम्प्रतमुपन्यस्तदृष्टान्तस्य दान्तिकेनांशतो भा वनिका प्रतिपादयन्नाहजह जह सुज्झइ सलिलं, तह तह रूवाइँ पासई दट्ठा। इय जह जह तत्तरुई, तह तह तत्तागमो होइ॥८६|| यथा यथा शुद्धयति सलिलं कातकफलसंयोगात्तथा तथा रूपाणि तद्गतानि पश्यति द्रष्टा / (इय) एवं यथायथा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वलक्षणा, संजायत इति क्रिया। तथा तथा तत्त्वाऽऽगमः तत्त्वपरिच्छे दो भवतीति। एवमुपकारकं सम्यक्त्वं ज्ञानस्येति गाथाऽर्थः।८६५ स्यादेतन्निश्चयतः कार्यकारणभाव एवोपकार्योपकारकभावः, स चासम्भवी युगपद् भाविनोरित्यत्रोच्यतेकारणकजविभागो, दीवपगासाण जुगवजम्मे वि। जुगवुप्पन्नं पि तहा, हेऊ नाणस्स संमत्तं / / 87 / / यथेह कारणकार्यविभागो दीपप्रकाशयोर्युगपजन्मनि युगपदुत्पादेऽपीत्यर्थः, युगपदुत्पन्नमपि तथा हेतुः कारणं ज्ञानस्य सम्यक्त्वम्। यस्मादेवं तस्मात्सकलगुणमूलत्वाद् दर्शनस्य दर्शनिन एव कृतिकर्म कार्यमात्मनाऽपि तत्रैव यत्नः कार्यः, सकलगुणमूलत्वादेवेति। उक्तं च"द्वारं मूलं प्रतिस्थानमाधारो भाजन निधिः। धर्महतोषिट् कस्य, सम्यग् दर्शनमिष्यते / / 1 / / " अयं गाथाऽभिप्रायः। इत्थं चोदकेनोक्ते सत्याहाऽऽचार्यःनाणस्स जइ वि हेऊ, सविसयनिअयं तहा वि संमत्तं / तम्हा फलसंपत्ती, न जुज्जई नाणपक्खे व्व ||5|| जह तिक्खरुई वि नरो, गंतुं देसंतरं नयविहूणो। पावेइ न तं देसं, नयजुत्तो चेव पाउणइ // 86 इय नाणचरणरहिओ, सम्मदिट्ठी वि मुक्खदेसं तु / पाउणइनेव नाणाऽ5-इसंजुओ चेव पाउणइ / / 60|| इदमन्यकर्तृकंगाथात्रयं सोपयोगमितिकृत्वा व्याख्यायतेज्ञानस्य यद्यपि हेतुः कारणं, सम्यक् त्वमिति योगः। अपिशब्दोऽभ्युपगमवादसंसूचकः / अभ्युपगम्याऽपि ब्रूमः / तत्त्वतस्तुकारणमेव न भवति, उभयोरपि विशिष्टयोरुपशमकार्यत्वात्स्वविषयनियतमिति कृत्वा। स्वविषयश्चास्य तत्त्वेषु रुचिरेव। तथाऽपि तस्मात् सम्यक्त्वात् (फलसंपत्ती न जुञ्जई) फलसंप्राप्तिर्न युज्यते, मोक्षसुखप्राप्तिन घटत इत्यर्थः। स्वविषयनियतत्वादेव, असहायत्वादित्यर्थः / ज्ञानपक्ष इव। अनेन तत् प्रतिपादितसकलदृष्टान्तसंग्रहमाह-यथा ज्ञानपक्षो मार्गज्ञाऽऽदिभिर्दृष्टान्तैरसहायस्य ज्ञानस्यैहिकाऽऽमुष्मिकफलासाधकत्वमुक्तम्, एवमत्रापि दर्शना-भिलापेन द्रष्टव्यम् / दिड्मात्रंतु प्रदर्श्यते-यथा तीक्ष्णरुचिरपि नरः तीव्रश्रद्धोऽपि पुरुषः, गन्तुं देशान्तरं, देशान्तरगमन इत्यर्थः / नयविहीनः, ज्ञानाऽऽगमक्रियालक्षणनयशून्य इत्यर्थः / प्राप्नोति न तं देशं गन्तुमिष्ट तद्विषयश्रद्धायुक्तोऽपि, नययुक्त एव प्राप्नोति। (इय)एवं ज्ञानधरणरहितः सम्यग्दृष्टिरपि तत्त्वश्रद्धानयुक्तोऽपि मोक्षदेशं तु प्राप्नोति नैव सम्यक्त्वप्रभावादेव, किं तु ज्ञानाऽऽदिसंयुक्त एव प्राप्नोति / तस्मात् तत् त्रितयं प्रधानम्, एतत् त्रितययुक्तस्यैव कृतिकर्म कार्य , त्रितयं चाऽऽत्मना सेवनीयम्, "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इति वचनात्। अयं गाथात्रितयार्थः। एवमपि तत्त्वे समाख्याते ये खल्वधर्मभूयिष्ठाः, यानि चासदालम्बनानि प्रतिपायन्ति, तदेतदभिधित्सुराहधम्मनियत्तमईआ, परलोयपरम्मुहा विसयगिद्धा। चरणकरणे असत्ता, सेणिअरज्जं ववइसंति ||1|| धर्मश्चारित्रधर्मः परिगृह्यते, तस्मान्निवृत्ता मतिर्येषां ते धर्मनिवृत्तमतयः,परः प्रधानो लोकः परलोकः मोक्षः, तस्मात् पराङ्मुखाः, विषयगृद्धाः शब्दाऽऽदिविषयानुरक्ताः; ते एवंभूताश्चरणकरणे अशक्ता असमर्थाः सन्तः श्रेणिकराज्य व्यपदिशन्त्यालम्बनमिति गाथाऽर्थः / / 11 / / न सेणिओ आसि तया बहुस्सुओ, न यावि पन्नत्तिधरो न वायगो। सो आगमिस्साइजिणो भविस्सई, समिक्ख पन्नाइ, वरं खुदंसणं ||2|| (न सेणिओ इत्यादि) न श्रेणिको नरपतिः आसीत्तदा तस्मिन्काले बहुश्रुतो बागमः, महाकल्पाऽऽदिश्रुतधर इत्यर्थः / नचाऽपि प्रज्ञप्तिधरो नचापि भगवतीवेत्ता, न वाचकः-नपूर्वधरः, तथाऽपि सोऽसहायो दर्शनप्रभावादेव (आगमिस्साइ त्ति) आयत्यामागामिनि काले, जिनो भविष्यति तीर्थकरो भविष्यति / यतश्चैवमतः समीक्ष्य दृष्ट्वा प्रज्ञया बुद्ध्या दर्शनवि
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________________ दंसणणय 2430- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणपरीसह पाकं तीर्थकराऽऽरख्यफलप्रसाधकम् (वरं खु दंसणं ति) 'खु' शब्दस्यावधारणार्थत्वात् वरं दर्शनमेव, अङ्गीकृतमिति वाक्यशेषः / अयं वृत्तार्थः / किं च शक्य एवोपाये प्रेक्षावतः प्रवृत्तियुज्यते, न पुनरशक्ये शिरःशूलशमनाय तक्षकफणाऽलङ्कारग्रहणकल्पे चारित्रे, चारित्रं च तत्त्वतः मोक्षोपायत्वे सत्यप्यशक्याऽऽसेवनं, सूक्ष्मापराधैरपि अनुपयुक्तगमनाऽऽदिभिर्विराध्यमानत्वादायासरूपत्वाच नियमेन छद्मस्थस्य तद् भ्रंश उपजायते सर्वस्यैव / / 6 / / अत:भट्ठण चरित्ताओ, सुटुअरं दंसणं गहे अव्वं / सिज्झंति चरणरहिआ, दंसणरहिआ न सिज्झंति // 63|| भ्रष्टेन च्युतेन, कृतः? चारित्रात्, सुतरां दर्शनं ग्रहीतव्यं, पुनर्योधिलाभानुबन्धि, स्वर्गाऽऽदेर्वा ग्रहीतव्येऽशक्यमोक्षोपायत्वात्। तथा च सिद्ध्यन्ति चरणरहिताः प्राणिनः दीक्षाप्रवृत्त्यनन्तरमृतान्तकृत्केवलिनः, दर्शनरहितास्तु न सिद्ध्यन्ति, अतो दर्शनमेव प्रधानं सिद्धिकारणं, तद् भावभावित्वादित्ययं गाथाऽर्थः // 63|| आव० 3 अ०॥ दंसणतह (दर्शनतथ्य) शङ्काऽऽद्यतिचाररहिते जीवाऽऽदितत्त्वश्रद्धाने, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। दंसणपडिमा स्त्री०(दर्शनप्रतिमा) उपासकानां प्रथमप्रतिमायाम्, ध०२ अधि०। प्रव०। पञ्चा०। ('उवासगपडिमा' शब्दे द्वितीयभागे 1065 पृष्ठे व्याख्यातेयम्) दंसणपभावग पुं०(दर्शनप्रभावक) सर्वज्ञशासनप्रकाशके, जीवा 13 अधिश दंसणपरिणामपुं०(दर्शनपरिणाम) सम्यग्दर्शनपरिणामे, प्रज्ञा०१३ पद। दसणपरीसह पुं०(दर्शनपरीषह) दर्शनं सम्यग्दर्शनं तदेव क्रियाऽऽदिवादिनां विचित्रमतश्रवणेऽपि सम्यक् परिषह्यमाणं निश्चलचित्ततया धार्यमाणं परीषहः / यदा-दर्शनशब्देन दर्शनव्यामोहहेतुरैहिकाऽऽमुष्मिकफलानुपलम्भाऽऽदिरिह गृह्यते, ततः स एव परीषहः दर्शनपरीषहः / दर्शनपरीषहे, उत्त०२ अ० स०। प्रव०। जिनानां जिनोक्तभावाना चाश्रद्धानवर्जनरूपे परीषहे, भ०८ श०८ उ०। "जिनास्तदुक्तजीवावा, धमधिमा भवान्तरम्। परोक्षत्वान्मृषा नैव, चिन्तयेत्प्राप्तदर्शनः / / 1 / / " ध०३ अधि। एतदेव सूत्रकृदाहनत्थि Yणं परे लोए, इड्डी वा वि तवस्सिणो। अदुवा वंचिओ मि त्ति, इइ भिक्खू ण चिंतए॥४४॥ नास्ति न विद्यते, (णूणं) निश्चितं परलोको, जन्मान्तरमित्यर्थः। भूतचतुष्टयाऽऽत्मकत्वाच्छरीरस्य, तस्य चेहैव पातात्, चैतन्यस्य च भूत धर्मभूतत्वात्। तदतिरिक्तस्य चाऽऽत्मनः प्रत्यक्षतोऽनुपलभ्यमान-त्वात्, ऋद्धिर्वा तपोमाहात्म्यरूपा / अपिः पूरणे / कस्य ? तपस्विनः, सा चाऽऽमर्पोषध्यादिः "पादरजसा प्रशमनं, सर्वरुजां साधवः क्षणात् कुर्यु:। त्रिभुवनविस्मयजननान, दधुः कामॉस्तृणानाद्वा / / 1 / / धर्माद्रत्नोन्मिश्रित-काञ्चनवर्षाऽऽदिसर्गसामर्थ्यम्। अद्भुतभीमोरुशिला--सहस्रसंपातशक्तिश्च / / 2 / / " __ इत्यादिका च, तस्या अप्यनुपलभ्यमानत्वादिति भावः। (अ-दुव त्ति) अथवा किंबहुना? वञ्चितोऽस्मि, भोगानामिति गम्यते। (इति) इत्यमुना शिरस्तुण्डमुण्डनोपवासाऽऽदिना यातनाऽऽत्मकेन धर्मानुष्ठानेन / उक्तं च- "तपासि यातनाश्चित्राः, संयमो भोगवञ्चना।" इत्यादि। (इति) इत्यनन्तरमुपदर्शितं भिक्षुर्न चिन्तयेत्नध्यायेत्, परिफल्गुरूपत्वादस्य। तथाहि यत्तावदुक्तम्-"भूतचतुष्टयाऽऽत्मकत्वाच्छरीरस्य जन्मान्तराऽभाव इति।" तदसत् / न हि शरीरस्य जन्मान्तरानुयायित्वमस्माभिरुच्यते, किं त्वात्मनः, न च भूतधर्म एव चैतन्ये आत्मव्यपदेशः, तस्य तद्धर्मत्वेनोत्तरत्र निषेत्स्यमानत्वात्। यदपि ऋद्धिर्वा तपस्विनो नास्ति, तदपि वचनमात्रमेव / अथाऽऽत्मन ऋद्धीनां चाऽऽभावे अनुपलम्भो हेतुरुक्तः, सोऽपि स्वसंबन्धी, सर्वसम्बन्धी वा? तत्र न तावदात्मनोऽभावे स्वसम्बन्ध्यनुपलम्भो हेतुः, स्वयं तस्य घटाऽऽदिवदुपभ्यमानत्वात्, यथैव हि घटाऽऽदिगता रूपाऽऽदय उपलभ्यन्ते. तथा आत्मगता अपि ज्ञानसुखाऽऽदय इतिनात्र महदन्तरमुत्पश्यामः। उक्तं चाऽश्वसेनवाचकेन-"आत्मप्रत्यक्ष आत्माऽयम्।" इत्यादि। अथाऽयं न दृग्गोचर इति नास्तीत्युच्यते, नाऽयमप्येकान्तः / यतस्तेनैवोक्तम्- "न च नास्तीह तत्सर्वं , चक्षुषा यन्न गृह्यते।" अन्यथा-चैतन्यमपि न दृग्गोचर इति तस्याऽप्यसत्त्वं स्यात्, अथ तत् स्वसंविदितमिति सदुच्यते, अयमपितथाभूत एवेति सन्नस्तु। उक्तं हि-"अस्त्येव चाऽऽत्मा प्रत्यक्षो, जीवो ह्यात्मानमात्मना। अहमस्मीति संवेत्ति, रूपाऽऽदीनि यथेन्द्रियैः / / 1 / / " इति। किं बहुना? यथा चैतन्यमस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथाऽऽत्माऽप्यभ्युपगन्तव्यः, तथा चाऽऽह-''ज्ञानं स्वस्थं परस्थं वा, यथा ज्ञानेन गृह्यते। ज्ञाता स्वस्थः परस्थो वा, तथा ज्ञानेन गृह्यताम्'' // 1 / / इति। अथ सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भ आत्माभावे हेतुः, अयमप्यसिद्धः, अहमस्मीतिप्रत्ययेन प्रतिप्राणि स्वात्मनः केवलिनां च सर्वाऽऽत्मनामुपलम्भस्य प्रतिषेधुमशक्यत्वात् / एवमृद्धीनामप्यभावे सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भोऽसिद्धः / स्वसंबन्धी तु नियतदेशकालापेक्षोऽन्यथा वाए प्रथमपक्षे को वा किमाह? क्वचित्कदाचित्तासामनुपलम्भस्य (उपलम्भस्य) चास्माकमपि सम्प्रतत्वात्। द्वितीयपक्षे पुनरनैकान्तिकता, देशाऽऽदिविप्रकृष्टानामनुपलम्भेऽपि सत्त्वात, दृश्यते च क्वचित्कदाचिचरणरेणु स्पर्शनाऽऽदितो रोगोपशमाऽऽदिः; ततश्चैहापि कालान्तरे महाविदेहाऽऽदिषु च सर्वकालमृद्ध्यन्तराणामपि संभवस्यानुमीयमानत्वात् / यदपि वशितोऽस्मीति भोगसुखानामनेन शिरस्तुण्डमुण्डनोपवासाऽऽदिना यातनाऽऽत्मकेन धर्मानुष्ठानेनेति। तदप्यसमीक्षिताभिधानम्। भोगसुखानां दुःखानुषतत्वेन तत्त्ववेदिनामनादेयत्वात्। तथा च वात्स्यायनोऽप्याह। तद्यथा"विषसंपृक्तमन्नमनादेयम्, एवं दुःखानुषक्तं सुखमनादेयमिति / " प्रयोगश्चयद्विपक्षानुविद्धं न तत्तत्त्वतस्तदेव, यथा विषव्यामिश्रमन्नम्, अतृप्तिकाशाशोकाऽऽदिनिमित्तं च वैषयिकं सुखम् / न चास्यासिद्धता, कालत्रये यथा-योगमतृप्त्यादीनां प्रतिप्राणि स्वसंविदितत्वात्, नाऽपि तपसो यातनाऽऽत्मकत्वम्, मनइन्द्रिययोगानामहान्यैव तत्प्रतिपादनात्। उक्तं हि-'मनइन्द्रिययोगानामहानिश्चोदिता जिनैः / यतोऽत्र तत्कथं तस्य, युक्ता स्यात् दुःखरूपता? ||1 // '' शिरस्तुण्डमुण्डनाऽऽदेश्व किश्चित्पीडाऽऽत्मकत्वेऽपि समीहितार्थसम्पादकत्वेन न दुःखदायकता / यदुक्तम्-"दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ, कायपीडाऽप्यदुःखदा / रत्नाऽऽदिवणिगादीनां, तद्वदत्रापि भाव्यताम् / / 1 / / " प्रयोगश्चयदिष्टार्थप्रसाधकं न तत् कायपीडाऽऽत्मकत्वेऽपि दुःख
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________________ दंसणपरीसह 2431 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणपरीसह दायि, यथा रत्नवणिजामध्यश्रमाऽऽदि, इष्टार्थप्रसाधकं च तपः, न चास्याप्यसिद्धता, प्रशमहेतुत्वेन तपसस्तत्परिपक्तितारतम्यात्परमाऽऽनन्दतारतम्यस्यानुभूयमानत्वेन तत् प्रकर्षे तस्याऽपि प्रकर्षानुमानात्। प्रयोगश्च यत्तारतम्येन यस्य तारतम्यं तस्य प्रकर्षे तत् प्रकर्षः, यथाऽग्नितापप्रकर्षे तपनीयविशुद्धिप्रकर्षः, अनुभूयतेच प्रशमतारतम्येन परमाऽऽनन्दतारतम्यम्, लोकप्रतीतत्वाचेति सूत्रार्थः / / 44 // तथाअभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवाऽवि भविस्सइ। मुसं ते एवमाहंसु, इति भिक्खू न चिंतए।।४५|| अभूवन्नासन जिनाः रागाऽऽदिजेतारः, अस्तीति विभक्तिप्रतिरूपको निपातः-ततश्च विद्यन्ते जिनाः, अस्य कर्मप्रवादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्भुततया वस्तुतः सुधर्मस्वामि व जम्बूस्वामिन प्रति प्रणीतत्वात, तत्काले च जिनसंभवादित्थमुक्तम्, विदेहाऽऽदिक्षेत्रान्तरापेक्षया वेति भावनीयम्। (अदुवेति) अथवा अपिर्भिन्नक्रमः / (भविस्सइ त्ति) वचनव्यत्ययादविष्यन्ति, जिनाः, इत्यपि मृषा अलीकम्, ते जिनास्तित्ववादिनः, (एवं) अनन्तरोक्तन्यायेन (आहेसु त्ति) आहुः ब्रुवते, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्, जिनस्य सर्वज्ञाधिक्षेपप्रतिक्षेपाऽऽदिषु प्रमाणोपपन्नतया प्रतिपादनात्तदुपदेशमूलत्वाच्च सकलैहिकाऽऽमुष्मिकत्र्यवहाराणामिति सूत्रार्थः // 45 // इदानीं शिष्याऽऽगमनद्वारम् / तत्र च "नत्थि Yणं परे लोए (44)" इति सूत्रावयवसूचितमुदाहरणं नियुक्तिकृदाह-- ओहाविउकामोऽविय,अज्जासाढो उपणियभूमीए। काऊण रायरूवं, पच्छा सीसेण अणुसिट्ठो // 123 / / अवधावितुकामोऽपि उन्निष्क्रामितुकामोऽपि, चः पूरणे, आर्याषाढस्तु पणितभूमी व्यवहारभूमौ, हट्टमध्य इत्यर्थः / कृत्वा राजरूपं पश्चाच्छिष्येणानुशिष्टः / इति गाथाऽक्षरार्थः // 123 // भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवसेयः। स चायम्-"अत्थि वच्छाभूमीए अजासाढा नामाऽऽयरिया बहुस्सुया, बहुसीसपरिवारा यातत्थ य गच्छेजो कालं करेति तं णिजाति भत्तपञ्चक्खाणाऽऽइणा। तो बहवे णिज्जामिया। अण्णया एगो अप्पणतो सीसो आयरतरेण भणितो देवलोगाओ आगंतूण मम दरिसणं देजासु / ण य सो आगतो वक्खित्तचित्तत्तणओ। पच्छा सो चिंतेइ-सुबहुं कालं किलिट्ठोऽहं, सलिंगेण चेव ओहावति। पच्छा तेण सीसेण देवलोगगएण आभोइतो, पेच्छइ-ओहावेत,पच्छा तेण तस्स पहे गामो विउव्वि-तो, णमपेच्छा य। सो तत्थ छम्मासे पेक्खंतो अत्थितो, नछुह न तण्ह कालं वा दिव्वप्पभावेण वेएति, पच्छा तं संहरिउं गामस्स बहिं विजणे उज्जाणे छदारए सव्वालंकारविभूसिए विउव्वति संजमपरिक्खत्थं, दिट्ठा तेण ते, गिण्हामि एसिमाहरणगाणि, वरं सुहं जीवंतो ति। सो एग पुढविदारयं' भणति-आणेहिं आभरणगाणि।सो भणति-भगवं! एग ताव ते अक्खाणय सुणेहि, ततो पच्छा गेण्हि-जासि / भणति-सुणेमि / सो भणइ-एगो कुंभकारो, सो मट्टिय खणंतो तडीए अक्रतो / सो भणति''जेण भिक्खं बलिं देमि, जेण पोसेमि णायए। सा मे मही अक्कमइ, जायं सरणओ भयं // 124|| (जेण त्ति) प्राकृतशैल्या यया भिक्षा बलिं ददामि, यथा-क्रम भिक्षु- / देवेभ्य इति गम्यते। (जेण त्ति) यया पोषयामि (णायप्पत्ति) ज्ञातीन् सा (मे त्ति) मा मही आक्रामति अवष्टभ्नाति; जातम् उत्पन्नम्, शरणतो भयमिति श्लोकार्थः / / 124 // अयमिहोपनयः-चौरभयादहं भवन्तं शरणमागतः, त्वं चैवं विलुम्पसि, ततो ममाऽपि जातं शरणतो भयम्, एवमुत्तरत्राप्युपनया भावनीयाः / "तेण भण्णइ-अतिपंडियवाइतो सि त्ति घेतूण आभरणगाणि पडिग्गहे छूढाणि। गतो पुढविकाइओ।इयाणि आउकाओवीओ, सो वि अक्खाणयं कहेति-जहा एगो तालायरो कहाकहओ पाडलओणाम, सो अन्नया गंग उत्तरतो उपरि बुट्टोदएण हीरति, तं पासिऊण जणो भणति''बहुस्सुयं चित्तकह, गंगा वहति पाडलं / वुज्झमाणग ! भदं ते, लव ता किंचि सुभासियं / / 12 / / बहुश्रुतं बहुविद्यं, चित्रकथं नानाकथाकथकं, गङ्गा वहति पाटलं पाटलनामकम्, उामानक ! भद्रं ते, लप ब्रूहि (ता इति) ताव द्यावदद्यापि दूरं न नीयस इति भावः, किञ्चिदत्यल्पं सुभाषितं सूक्तमिति श्लोकार्थः / / 125 / / सोऽवादीत्जेण रोहंति वीयाणि, जेण जीवंति कासया। तस्स मज्झे विवजामि, जायं सरणतो मयं // 126|| येन जलेन रोहन्ति प्रादुर्भवन्ति बीजानि, येन जीवन्ति प्राणधारणं कुर्वन्ति कर्षकाः कृषीवलाः, तस्य मध्ये विवज्जामि त्ति) विपद्ये मिये, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः / / 126 / / "तस्स वि तहेव गेण्हति। एस आउक्काओ गतो / इयाणिं तेउक्काओ ततिओ, तहेव अक्खाणयं कहेति-एगस्सतावसस्स अग्गिणा उडओ दड्डो, पच्छा सो भणति'' जमहं दिया य राओ य, तप्पेमि महुसप्पिसा। तेण मे उडओ दड्डो, जायं सरणओ भयं // 127 / / यमहं दिवा चरात्रौ चतर्पयामि प्रीणयामि मधुसर्पिषा तेनार्थाद्-अग्निना, मे उटजस्तापसाऽऽश्रमोदग्धो, जातंशरणतो भयमिति श्लोकार्थः / / 127 / / अथवावग्घस्स मए भीएणं, पावगो सरणं कओ। तेण दढ ममं अंगं, जायं सरणओ भयं // 128 / / (वग्घस्स त्ति) सुब्ब्यत्ययाव्याघ्रात् पुण्डरीकाद् मया भीतेन पावकः अनिः शरणीकृतः, तेनाङ्गं शरीरं मम दग्धं, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः // 128|| "तस्स वि तहेव गिण्हति। एस तेउकाओ। इयाणि वाउक्काओ चउत्थो, तहेव अक्खाणयं कहेति-जहाएगो जुवाणो घणनिचियसरीरो, सो पच्छा वाएहि गहितो, अण्णेण भण्णति-"लंघणपवणसमत्थो, पुव्वं होऊण संपयं कीस? दंडगहियग्गहत्थो, वयंस ! किं नामओ वाही? ||129 / / (लघणेत्यादि) लवनम्-उत्प्लुत्य गमनं, प्लवगं धावन, तत्समर्थः पूर्व भूत्वा साम्प्रतम् (कीस त्ति) कस्माद् (दंडगहियग्गहत्थो त्ति) प्राकृतत्वाद् गृहीतदण्डाग्रहस्तो, गच्छसीति गम्यते। तदयं ते वयस्य ! किंनामको व्याधिरिति गाथाऽर्थः / / 126 //
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________________ दसणपरीसह 2432 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणपरीसह स प्राऽऽहजिट्ठाऽऽसाढेसु मासेसु, जो सुहो वाइ मारुओ। तेण मे भजए अंगं, जायं सरणओ भयं / / 130 // ज्येष्ठाऽऽषाढयोसियोर्यः शुभशैत्याऽऽदिगुणान्वितत्वेन शोभनो वाति मारुतो वायुः, तेन में मम भज्यतेऽङ्गम्, तस्य मेघोन्नतिसंभवत्वेन वातप्रकोपादिति भावः / एवं च जातं शरणतो भयम, घार्दिताना हि शरणमयमिति श्लोकार्थः / / 130 / / अथवाजेण जीवंति सत्ताणि, णिरोहम्मि अणंतए। तेण मे भज्जए अंगं, जायं सरणओ भयं // 131 // येन वातेन जीवन्ति सत्त्वानि, निरोधे प्रक्रमाद्वातस्य अनन्तके अपरिमिते, तेन में भज्यतेऽङ्गम्, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः / / 131 / / "तस्स वि तहेव गेण्हति / एसो वाउक्काओ गतो। इयाणि वणस्सइकाइओ पंचमो, तहेव अक्खाणय कहेति-जहा एगम्मि रुक्खे केसि पि सउणाणं आवासो, तहियं पिल्लगाणि जायाणि, पच्छा रुक्खऽब्भासाओ वल्ली उट्ठिया, रुक्खं वेदती उवरि विलगा, वेल्लीअणुसारेण सप्पेण विलग्गिऊण ते पिल्लगा खाइया। पच्छा सेसगा भणंति"जाव वुच्छं सुहं दुच्छं, पादवे निरुवद्दवे / मूलाओ उट्ठिया वल्ली, जायं सरणतो भयं // 132 // यावदुषित सुखमुषितं पादपे निरुपद्रवे, इदानीं मूलादुत्थिता वल्ली, ततो वृक्षादेव तत्त्वतो भयं, स चोक्तनीत्या शरणमिति जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः / / 132 // "तस्स वि तहेब गेण्हति। एस वणस्सतिकातो गतो। इयाणिं तसकाओ छट्ठो, तहेव अक्खाणयं कहेति--जहा एग नगरं परवक्केण रोहियं, तत्थ य बाहरियाए मायंगा, ते अभितरएहिं णिणिज्जति, बाहिं परचक्केण घेप्पति / पच्छा केण वि अण्णेण भण्णति" अभिंतरया खुभिया, पिल्लंति य बाहिरा जणा। दिसंभयह मायंगा ! जायं सरणओ भयं // 133 / / अभ्यन्तरकाः नगरमध्यवर्तिनः, क्षुभिताः परचक्रावस्ताः, प्रेरयन्ति निष्काशयन्ति, मा भूदन्नाऽऽदिक्षय एभ्यो वा भेदः, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततो बाह्याश्च परचक्रलोका उपद्रवन्ति, भवत इति गम्यते। नगरसत्का एत इति, अतो दिशं भजत मातङ्गाः ! यतो जातं शरणतो भयं, नगरं हि भवतां शरणं, तत एव भयमिति श्लोकार्थः / / 133 / / "अथवा-एगत्थनयरे सयमेव राया चोरो, पुरोहितो भंडिओ त्ति, ततो दो वि विहरति / पच्छा लोओ अण्णमण्यं भणति'' जत्थ राया सयं चोरो, भंडिओ य पुरोहितो। दिसं भयह नागरिया ! जायं सरणओ भयं / / 134 / / यत्र राजा स्वयं चौरः-स्वपुरं मुष्णाति, भण्डकश्च पुरोहितः, अतोदिश | भजत नागरकाः ! जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः / / 134 / / "अहवा एगस्स धिज्जातीयस्स धूया, सा य जोव्वणत्था, पडिरूवदंसणिज्जा, सोधिजातिओ तं पासिऊण अज्झोववण्णो. तीसे करण अतीव दुब्बलीभूओ, बंभणीए पुच्छितो निव्वधेकए कहिया ताए भण्णति मा अधिई करेसु, तहा करेमि जहा केणइ पओएण संपत्ती हवति। पच्छा धूयं भणति-अम्ह पुध्विं दारियं जक्खा भुंजंति, पच्छा वरस्स दिज्जति, तो तव कालपक्खचउद्दसीए जक्खो एहि, मा तं विमाणेसु, मा य तत्थ तुम उजोयं काहिसि। तीए विजक्खकोऊहल्लेण दीवओ सरावेण ठविओ णीओ, सो य आगतो, सो तं परिभुंजिऊण रत्तिं किलंतो पसुत्तो। इमाए कोउएण सरावं फेडियं, नवरं पेच्छति पियरं, ताए णायंज होइ त होउ, इच्छाए भुंजामि भोए, पच्छा ताईरतिकिलंताई उग्गए सूरेन पडिबुज्झति। पच्छा बंभणी मागहियं भणति"अइरुग्गयए य सूरिए, चेतियथूभगए य वायसे। मित्तीगयए य आयवे, सहि ! सुहिओ हु जणो ण बुज्झइ // 135 / / अचिरोद्गतके च सूर्ये, कोऽभिप्रायः? प्रथमोदिते रवौ, चैत्यस्तूपगते च वायसे, अनेनोचे विवस्वतीत्याह, भित्तिगते चाऽऽतपे, अनेन चोचतर इति। सखि ! सुखितो, हुर्वाक्यालङ्कारे, जनो न बुध्यतेन निद्रां जहाति / अनेनाऽऽत्मनो दुःखितत्वं प्रकटयति, सा हि भर्तृविरहदुःखिता रात्रौ न निद्रा लब्धवतीति मागधिकाऽर्थः / / 13 / / ''पच्छा सा तीसे धूया पडिसुणित्ता पडिभणति मागहिय'तुम एव य अम्म हे ! लवे, मा हु विमाणऍ जक्खमागयं / जक्खाहडए हुतायए, अपिणं दाणि विमग्ग ताययं / / 136 / / त्वमेव चाम्ब ! मातः हे ! इत्यामन्त्रणे. अलापी:-उक्तवती, शिक्षासमये, यथा-(मा हुत्ति) मेव (विमाणय त्ति) विमंस्था विमुखं कृथा यक्षमागतम्, यक्षाऽऽहृतको (हुत्ति) खलु तातकोऽन्य-मिदानी विमार्गय अन्वेषय, तातकमिति मागधिकाऽर्थः / / 136 / / "पच्छा सा धिज्जाइणी भणति'णवमासे कुच्छीऐं धालिया, पासवणे पुलिसे य महिए। धूया मे गेहिए हडे, सलणए असलणए य मे जायए।।१३७|| "नव मासान् कुक्षौ धारिता या, प्रस्रवण पुरीषं च मर्दितं, यस्या इति गम्यते / (धूय त्ति) दुहिता च, गम्यमानत्वात्तया मे मम गेहको भर्ता, हृत्तश्चारितोऽतो हेतोः, शरणकमशरणकम्, अपकारित्वान्मे जातमिति मागधिकाऽर्थः / / 137 // अहवा एगेण धिज्जाइएण तलायं खणावियं, तत्थेव पालीए देसे देउलमारामो कओ, तत्थ तेण जण्णो पवत्तिओ, छगलगा जत्थ मारिजंति / अण्णया कयाइ सो धिज्ञातिओ मरिऊण छगलगो चेव आयातो, सोय घेत्तूर्ण अप्पणिज्जेहिं पुत्तेहिं तस्स चेव तलाए जाणे मारिउ निजति, सो य जाईसरो णिजमाणो अप्पणिज्जियाए भासाए वुब्बुयति, अप्पणा चेव सोयमाणो जहा मम चेव पवत्तियं, एवं सो वेवमाणो साहुणा अतिसयणाणिणा एगेण दीसति। तेण भणियं'सयमेव य लुक्ख लोविया, अप्पणिया य वियड्डि खाणिया।
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________________ दंसणपरीसह 2433 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणबोहि(ण) ओवाइयलद्धओय सि,किं छेला ! वेतेति वाससी ? ||13|| स्वयमेव च आत्मनैव च (लुक्ख त्ति) सुब्लोपाद् वृक्षा रोपिताः, भवतेति गम्यते। आत्मीया च "वियड्डि" इति देशी वचनतः तडागिका खानिता। याचितस्य प्रार्थितस्य प्राप्तेरुपरि देवेभ्यो देयमुपयाचितं, तेनैव लब्धःअवसरः दुरापत्वेनोपयाचितलब्धः, स एवोपयाचितलब्धकोऽसि त्वमिति, किं छगलक ! (वेवेति वाससी) आरससीति मागधिकाऽर्थः / / 138 // "ततो सो छगलको तेण पढिएणं तुण्हिक्को ठितो, तेण धिज्जाइएण चिंतियं-कि पि पव्वायगेण पढियं, तेण एस तुण्डिको ठितो, ततो सोतं तवरिंस भणति-किं भगवं! एस छगलको तुभेहिं पढियमेत्ते चेव तुहिको ठिओ? तेण साहुणा तस्स कहियं-जहाएस तुब्भ पिया। किमभिण्णाणं? तेण भणियं-अहं जाणामि / किं पुण एसो कहिहि ति। तेण छगलगेण पुव्वभवे पुत्तेण समं निहाणगं निहियं, तं गंतूण पाएहिं खडखडेति, एयमभिण्णाणं। पच्छा तेण मुक्को, साहुसमीवेधम्म सोऊण भत्तं पचक्खाएऊण देवलोगं गतो। एवं तेण सरणमिति काउं तडागाऽऽरामे जण्णो य पवत्तिओ, तमेव असरणं जायं।" एवंविधोऽत्र समवतारः। "एवं तुम्हं अम्हे गया सरणं।" इह च पूर्व मनुष्यजातेस्त्रसस्य स्मरणार्थमुदाहरणत्रयमिदं तु तिर्यग् जातेरिति भावनीयम्। “सो तहेव तस्स आहरणगाणि घेत्तूण सिग्घं गंतु समाढत्तोपंथे, नवरि संजईपासति, मंडियं टिबिडिक्कियं / तेण सा भण्णति'कडए य ते कुंडले य ते अंजियक्खि ! तिलयए य ते। पवयणस्स उड्डाहकारिए!, दुट्ठाऽसेहि ! कतोऽसि आगया ? ||136 / / कटके च तेतव, कुण्डले चते, अजिताक्षि ! तिलकश्च ते त्वया कृतः, प्रवचनस्य उड्डाहकारिके ! दुष्टाशिक्षिते! कुतोऽस्यागतेति मागधिकाऽर्थः 1136 / / दर्शनपरीक्षाऽर्थं च साध्वीविकरणम्। सैवमुक्ता सतीदमाहराईसरिसवमित्ताणि, परछिद्दाणि पाससि। अप्पणो विल्लमत्ताणि, पासंतो विनपाससि / / 140 // राजिकासर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यस्यात्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसीति श्लोकार्थः॥१४०|| तथासमणो सि संजओ असि, बंभयारी समलेट्टकंचणे। वेहारियवाअओ य ते, जिट्ठज ! किं ते पडिग्गहे? 1141 / श्रमणोऽसि संयतोऽसि बहिर्वृत्त्या ब्रह्मचारी च समलोष्ठकाशनो विहारिकवातकश्च ते यथाऽहं वैहारिक इत्यादिरूपो ज्येष्ठार्य ! किं ते तव पतद्ग्रहक इति श्लोकार्थः / / 141 / / "एवं ताए उड्डाहितो समाणो पुणो वि गच्छति, नवरं पेच्छइ खंधावारमिंत, तस्स किर णिवट्टमाणो दंडियस्सेव सवडहुत्तो गतो, तेण हत्थिखंधा ओरुहिता यंदिओ, भणिओ य भयवं ! अहो परमं मंगलं निमित्तं च, ज साहू अजमए दिलो। भयवं! ममाणुग्गहत्थं फासुयएसणिज्ज इमं मोयगाऽऽदि संवलो घेप्पति, सो णेच्छात, भायणे आभरणगाणि छूढाणि मा दीसिहिंति, तेण दंडिएण बला मोडिऊण पडिग्गहो गहितो, जाव मोयगे छुहति, ताव पेच्छति आहरणयाणि, तेण सो खरंटितो, उवालद्धो या पुणो वि संबोहितो-जहा ण जुञ्जति तुम्ह एवं विपरिणामो, मज्झंच अणागमणकारण सुणेसु-"संकेतदिव्वपेम्मा, विसयपसत्ताऽसमत्तकत्तव्या / अणहीणमणुयकजा, गरभवमसुहं ण इति सुरा / / 1 // " पच्छा दिव्व देवरूवं काऊण पडिगतो, तेण पुट्विं दसणपरीसहोनाहियासिओ, पच्छा अहियासि तो।" एवं शेषसाधुभिरपि सहनीयो दर्शनपरीषहः। इहोदाहरणोपदर्शकत्वात्प्रकृतिनिर्युक्तेः कथं सूत्रस्पर्शकत्वमिति यत्कश्चिदुच्यते / तदयुक्तम् / सूत्रसूचितार्थाभिधायित्वात्तस्याः, तदभिधानस्य तत्त्वतः सूत्रव्याख्यानरूपत्वेन सूत्रस्पर्शकत्वादिति। किं च-"कालीपव्वंगसकोसे"(३ गा०) इत्यादिना क्षुदादिभिर-त्यन्तपीडितस्याऽपि यत्परीषहणमुक्तं, तत्र मन्दसत्त्वस्य कस्यचिदश्रद्धानात्सम्यक्त्वविचलितमपि संभवेदिति तद् दृढीकरणा) दृष्टान्ताभिधानमर्थतः सूत्रस्पर्शकमिति व्यक्तमेवैतत्, न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादाक्कालभावितत्यन्योक्तत्वमाशङ्कनीयम्. स हि भगवांश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्य कृतत्वाऽऽशङ्केति। उत्त०२ अ०। दंसणपरीसहविजय पुं०(दर्शनपरीषहविजय) दर्शनपरीषहसहने, पं०सं० / स चैवम्-"दंसण त्ति।" (22) दर्शनविषयपरीषहोऽपि दर्शनमित्युक्तम्, तत्र सर्वपापस्थानेभ्यो विरतः प्रकृष्टतपोऽनुष्ठायी निःसङ्गवाह, तथाऽपि न धर्माधर्मफलभूतान् देवनारकाऽऽदीन् पश्यामि, ततो महोपवासाऽऽधनुष्ठायिनां प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुरभूवन्निति प्रलापमात्रम्, इत्येवं यद् मिथ्यादर्शनमोहनीयस्य प्रदेशोदयतः कदध्यवसायस्योत्थानं स दर्शनपरीषहः / स चैवं सोढव्यः-देवा मनुष्यलोकानामपेक्षया परमसुखिनः, न च संप्रति दुःषमाऽनुभावतस्तीर्थकराऽऽदिरस्ति, ततः परमसुखाऽऽसक्तत्वान्मनुष्यलोके च कार्याभावान्न संप्रति मनुष्याणां दर्शनपथगोचरतामायान्ति। नारकास्तु निरन्तरं तीव्रतरवेदनाऽऽर्तत्वात् पूर्वकृतदुष्कर्मविपाकोदयनिगडानिगडितत्वाच्च गमनाऽऽगमनशक्तिविकलाः, ततस्तेऽपि नेहाऽऽगच्छन्ति / नापि दुःषमाऽनुभावत उत्तमसंहननासंभवे संप्रति तादृशीतपोविशेषशक्तिरस्ति भावनोल्लासो वा, येन ज्ञानातिशयोत्पादनतस्तत्स्थाने देवनारकान्पश्यति; चिरन्तनपुरुषाणां तूत्तमसहननवशादुत्तमा तपोविशेषशक्तिरुत्तमा च भावना समासीत्, ततः सर्वं तेषामुपपद्यत इति। (22) पं०सं०५ द्वार। दसणपायच्छित्तन०(दर्शनप्रायश्चित्त) प्रायश्चित्तभेदे, स्था०३ ठा०४ उ०। ('पच्छित्त' शब्दे चैतत् व्याख्यास्यते) दसणपुरिस पुं०(दर्शनपुरुष) सम्यक्त्वयुक्तपुरुषे, स्था०३ ठा०१ उ० दसणबल पुं०(दर्शनबल) दृढदर्शने, प्रश्न० 1 संब० द्वार / दर्शनबलं सर्ववेदिवचनप्रामाण्यादतीन्द्रियाऽऽदियुक्तिगम्यपदार्थरोचनलक्षणम् / स्था०१० ठा। दसणबुद्ध न०(दर्शनबुद्ध) बुद्धभेदे, "दुविहा बुद्धा पण्णत्ता / तं जहा णाणबुद्धा चेय, दसणबुद्धा चेव।" स्था०२ ठा०४उ०। दंसणबोहि(ण) पुं०(दर्शनबोधिन्) दर्शनमोहनीयक्षयोपशमाऽऽदि सम्पन्नश्रद्धानलाभे, स्था०२ ठा०४उ०।
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________________ दंसणभावणा 2434 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणरइय दसणभावणा स्त्री०(दर्शनभावना) सम्यक्त्वपर्यालोचने' आचा० / तित्थगराण भगवओ, पवयणपावयणिअइसइड्ढीणं / अहिगमणणमणदरिसण-कित्तणओ पूयणा थुणणा / / 4 / / तीर्थकृतां भगवता, प्रवचनस्य च द्वादशाङ्गस्य गणिपिटकस्य, तथा प्रावचनिनामाचार्याऽऽदीनां युगप्रधानानां, तथाऽतिशायिनामृद्धिमतां केवलिमनः पर्यायावधिमचतुर्दशपूर्वबिदा, तथाऽमर्पोषध्यादिप्राप्तऋद्धीनां यदभिगमनं, गत्वा च दर्शनम्, तथा नमनम्, गुणोत्कीर्तन, संपूजनं गन्धाऽऽदिना, स्तोत्रैः स्तवनम्, इत्यादिका दर्शनभावना। अनया हि दर्शनभावनयाऽनवरतं भाव्यमानया दर्शनशुद्धिर्भवतीति॥४॥ किंचजम्माभिसेयणिक्खमणचरणणाणुप्पतीय णिव्वाणी। दियलोयभवणमंदिर-णंदीसरभोमनगरेसुं // 5|| तीर्थकृतां जन्माभिषेकभूमिषु, तथा निष्क्रमणचरणज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणभूमिषु, तथा देवलोकभवनेषु, मन्दिरेषु, तथा नन्दीश्वरद्वीपाऽऽदौ, भौमेषु च पातालभवनेषु, यानि शाश्वतानि चैत्यानि, तानि वन्देऽहमिति द्वितीयगाथाऽन्ते क्रिया // 1 // अट्ठावयमुजंते, गयग्गपयए य धम्मचक्के य। पासरहावत्तणयं, चमरुप्पायं च वदामि // 6 // एवमष्टापदे, तथा श्रीमदुजयन्तगिरी, गजाग्रपदे दशार्णकूटवर्तिनि, तथा तक्षशिलायां धर्मचक्रे, तथा अहिच्छत्रायां पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिभास्थाने, एवं रथाऽऽवर्ते पर्वते वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतं, यत्र च श्रीवर्द्धमानमाश्रित्य चमरेन्द्रेणोत्पतनं कृतम्, एतेषु च स्थानेषु यथासम्भवमभिगमनवन्दनपूजनगुणोत्कीर्तना-ऽऽदिकाः क्रियाः कुर्वतो दर्शनशुद्धिर्भवतीति // 6 // किंचगणियं णिमित्त जुत्ती, संदिट्ठी अवितहं इमं गाणं / इय एगंतमुवगया, गुणपञ्चइया इमे अत्था // 7 // प्रवचनविदाममी गुणप्रत्ययिका अर्था भवन्ति / तद्यथा-गणितविषये बीजगणिताऽऽदौ परं पारमुपगतोऽयम् / तथा अष्टाङ्गस्य निमित्तस्य पारगोऽयम् / तथा-दृष्टिपातोक्ता नानाविधा युक्तिव्यसयोगाद्, हेतुत्वाद्वेति / तथा सम्यगविपरीता दृष्टिदर्शनमस्य त्रिदशैरपि चालयितुमशक्या। तथा अवितथमस्येदं ज्ञानं यथैवा-यमाह तत्तथैव प्रावचनिकस्याऽऽचार्याऽऽदेः प्रशंसां कुर्वतो दर्शनविशुद्धिर्भवति। एवमन्यदपिगुणमाहप्पं इसिणामकित्तणं सुरणरिंदपूया य / पोराणचेइयाणि य, इइएसा दंसणे होइ॥८|| गुणमाहात्म्यमाचार्याऽऽदेवर्णयतः, तथा पूर्वमहर्षीणां च नामोत्कीर्तनं कुर्वतः, तेषामेव च सुरनरेन्द्रपूजाऽऽदिकं कथयतः, तथा चिरन्तनचैत्यानि पूजयत इत्येवमादिकां क्रिया कुर्वतस्तद्वासनावासितस्य दर्शनविशुद्धिर्भवतीत्येषा प्रशस्ता दर्शनविषया भावनेति। आचा०२ श्रु०३ चू० 15 अ०! साम्प्रतं दर्शनभावनास्वरूपगुणदर्शनार्थमिदमाह-- संकाऽऽइदोसरहिओ, पसमत्थिन्जाऽऽइगुणगणोवेओ। होइ असंमूढमणा, दंसणसुद्धीइ झाणम्मि॥३२।। शङ्काऽऽदिदोषरहित इति-शङ्कन शङ्का / आदिशब्दात्काजाऽऽदिपरिग्रहः / उक्तं च-"शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसापरपाषण्डसंस्तयाः सम्यग्दृष्टरतीचाराः।" इति / एतेषां च स्वरूप प्रत्याख्यानाध्ययने न्यक्षेण वक्ष्यामः। तत्रशाऽऽदय एव सम्यक्त्वाऽऽख्यप्रशमगणातिचारत्वाद्दोषाः शङ्काऽऽदिदोषाः,तैरहितः त्यक्तः। उक्तदोषरहितत्वादेव किम्? प्रशमस्थैर्याऽऽदिगुणगणोपेतः ,तत्र प्रकर्षेण श्रमः प्रश्रमः खेदः, सच स्वपरसमयतत्त्वाधिगमरूपः, स्थैर्य तु जिनशासने निष्प्रकम्पिता। आदिशब्दात्प्रभावनाऽऽदिपरिग्रहः। उक्तं च - "सपरसमयकोसल्लं, थिरया जिणसासणे पभावणया। आययणसेवभत्ती, दंसणदीवा गुणा पंच" ||1|| प्रशमस्थैर्याऽऽदय एव गुणाः, तेषां गणः समूहः, तेनोपेतो युक्तो यः स तथाविधः। अथवा-प्रशमाऽऽदिना स्थैर्याऽऽदिगबुणगणेनोपेतः। तत्र प्रशमाऽऽदिगुणगणः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्याभि-व्यक्तिलक्षणः, स्थैर्याऽऽदिस्तु दर्शित एव / य इत्थंभूतः असौ भवत्यसमूढमनाः, तत्त्वान्तरेऽभ्रान्तचित्त इत्यर्थः / दर्शनशुद्ध्योक्तलक्षणया हेतुभूतया / त? ध्याने / इति गाथाऽऽर्थः // 32 / / आव० ४अ० दंसणभेइणी स्त्री०(दर्शनभेदिनी) ज्ञानाऽऽद्यतिशयतः कुतीर्थकप्रशंसारू पायां विकथायाम् तद्यथा-"सूक्ष्मयुक्तिशतोपेत सूक्ष्मबुद्धिकरं परम् / सूक्ष्मार्थदर्शिभिर्दृष्ट, श्रोतव्यं बुद्धशासनम्॥१॥" इत्यादि / एवं हि श्रोतॄणां तदनुरागात् सम्यग्दर्शन भेद इति / स्था०७ ठा०। ध० ग01 दंसणमत्त न०(दर्शनमात्र) दृष्टिमात्रे, पञ्चा०१२ विव०। दसणमूढ पुं०(दर्शनमूढ) मिथ्यात्विषु, दर्शनमूढा मिथ्यात्व्यादयः। स्था०३ ठा०१उ०॥ दंसणमोह पुं०(दर्शनमोह) दृष्टिदर्शन यथावस्थितवस्तुपरिच्छेदः, तन्मो हयतीति 'कर्मणोऽण" / / 5 / 1172 / / इत्यण प्रत्ययः / मोहनीयकर्मभेदे, कर्म। दंसणमोहं तिविहं, सम्मं मीसं तहेव मिच्छत्तं। सुद्धं अद्धविसुद्ध, अविसुद्धं तं हवइ कमसो ||14|| दर्शनमोह पूर्वोक्तशब्दार्थ, त्रिविधं त्रिकारं भवति। (सम्मति) सम्यक्त्वं, मिश्रं सम्यग् मिथ्यात्वं, तथैव मिथ्यात्वम् / एतदेव स्वरूपत आहशुद्धम विशुद्धमविशुद्धं तद्भवति क्रमशः क्रमेणे ति / अयमत्रार्थ:मिथ्यात्वपुद् गलकदम्बकं मदनकोद्रवन्यायेन शोधित सद् विकाराजनकत्वेन शुद्धं सम्यक्त्वं भवति, तदेव किञ्चिद्विकारजनकत्वेनार्द्धविशुद्ध मिश्रम्, तदेव सर्वथाऽप्यविशुद्ध मिथ्यात्वमिति। उक्तं हि "तद्यथेह प्रदीपस्य, स्वच्छाभ्रपटलैगुहम्। न करोत्यावृति काञ्चिदेवमेतद्रुचेरपि / / 1 / / एकपुजी द्विपुजी च, त्रिपुञ्जी वाऽननुक्रमात्। दर्शन्युभयवाश्चैव, मिथ्यादृष्टिः प्रकीर्तितः / / 2 / / " अत्राऽह-सम्यक्त्वं कथं दर्शनमोहनीयं स्यात्, न हि तद्दर्शनं मोहयति, तस्यैव दर्शनत्वात्? उच्यते-मिथ्यात्वप्रकृतित्वेनाति-वारसंभवादौपशमिकाऽऽदिमोहत्वाच दर्शनमोहनीयमिति / कर्म०१ कर्म०। स्था०। दंसणरइय त्रि० (दर्शनरचित) दर्शने दृष्टिमार्गे रचितो विहितो दर्शनरचितः। दृष्टिमार्गविहिते वस्तुनि, औ०।
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________________ दसणरइय 2435 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणसुद्धि *दर्शनरतिद त्रि०। दर्शने सति रतिदो सुखप्रदो दर्शनरतिदः / दर्शने / भावयरस्तेनाऽऽत्मानमात्मसान्नयन् विहरति भवस्थकेवलितया मुक्ततया सति सुखप्रदे वस्तुनि, औ०। चाऽऽस्ते / पठन्ति च-"अणुत्तरेणं णाणदंसणेणं विहरइ ति।" अत्र च *दर्शनरतिक त्रि०ा दिदृक्षणीये, रा०ा लक्षणे तृतीया। उत्त० पाई० 26 अ० दसणरय त्रि०(दर्शनरत) दर्शनानुरक्ते, वाच० "बहूसु अ समर- दंसणसमाहि पुं०(दर्शनसमाधि) भावसमाधिभेदे, सूत्रादर्शनसमाधी सुयसंपराएसु दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे।" व्यवस्थितो जिनवचनभावितान्तःकरणो निर्वातशरणप्रदीपवन्न ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ कुमतवायुभिर्धाम्यते। सूत्र०१ श्रु०१० अ०। दसणलद्धिय पुं०(दर्शनलब्धिक) श्रद्धानमात्रलब्धिके, भ०८ श०२उ०। / दंसणसावग पुं०(दर्शनश्रावक) दर्शनं सम्यक्त्वं तत्प्रतिपन्नः श्रावको दंसणलूसि(ण) पुं०(दर्शनलूषिन्) सम्यग्दर्शनविध्यंसिनि, असद- दर्शनश्रावकः। उपाशकानां प्रथमप्रतिमायाम्, स०१० सम०आ०चू० नुष्ठानेन स्वतोभ्रष्ट, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। तत्र दर्शन सम्यक्त्वं, तत्प्रतिपन्नः श्रावको दर्शनश्रावकः / इह च प्रतिमाना दसणवावन्नग पुं०(दर्शनव्यापन्नक) दर्शनं सम्यक्त्वं व्यापन्न भ्रष्टं येषां ते प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदोपचारात्प्रतिमावतो निर्देश: तथा। निहवेषु, प्रज्ञा०२३ द्वार! कृतः। एवमुत्तरपदेष्वपि / अयमत्र श्रावको दर्शनश्रावकः / इह च प्रतिमाना दसणविणय पुं०(दर्शनविनय) दर्शनं सम्यक् त्वं, तदेव विनयो दर्शन प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमाभावार्थः सम्यग्दर्शनस्य शङ्काऽऽदिशल्यरहितस्याविनयः, दर्शनस्य वा तदव्यतिरेकाद् दर्शनगुणाधिकानां सुश्रूषणाऽना ऽणुव्रताऽऽदिगुणविकल्पस्याऽयमभ्युपगमः सा प्रतिमा प्रथमति। स०१० शातनारूपो विनयो दर्शनविनयः / स्था०७ ठा० सम्यग्दर्शनगुणाधिकेषु समा सुश्रूषाऽऽदिरूपे विनये, भ०२५श०७ उ०। उक्तंच-"पवयणमसेससंघो, दसणसावय पुं०(दर्शनश्रावक) दंसणसावग' शब्दार्थे , स०१० सम०। दसणमिच्छति इत्थ सम्मत्तं / विणओ दंसणमेसिं, कायव्वा चेव एयं तु दसणसुद्धि स्त्री०(दर्शनशुद्धि) सम्यग्दर्शननिर्मलतायाम्, व्य०४ अ०॥ // 15 // " संथा। प्रति०। सम्यग्दर्शननिर्मलताप्रतिपादके श्रीचन्द्रप्रभसूरिविरचिते दंसणविराहणा स्त्री०(दर्शनविराधना) विराधना खण्डना, दर्शनं ! स्वनामख्याते ग्रन्थेच। दर्श०१ तत्त्व। सम्यग्दर्शनं क्षायिकाऽऽदि, तस्य विराधना दर्शनविराधना / दर्श संप्रति स्वयं सौम्यवस्तुगृहीतनामधेयो भगवान् ग्रन्थनप्रत्यनीकतानिवाऽऽदिरूपायां तपोविराधनायाम्, स०३ सम।। कार:स्वनामव्युत्पत्त्या प्रकटयन् ग्रन्थस्वरूप दसणविसोहि स्त्री०(दर्शनविशुद्धि) दर्शनाऽऽचारपरिपालनतो विशुद्धि प्रयोजनं च दर्शयन्निदं गाथाद्वयमाहदर्शनाविशुद्धिः / विशुद्धिभेदे, स्था० 10 ठा०ा दर्शनविशुद्धिकारकाणि चंददमपरहरिसूर-रिद्धिपयनिवहप्पडमवन्नेहिं। शास्त्राणि, तदर्थमध्वानं गच्छेत्। बृ०१उ०। जेसिं नाम तेहिं, परोवयारम्मि निरएहिं / / 57 / / दंसणसंकिलेस पु०(दर्शनसंक्लेश) दर्शनस्य संक्लेशोऽविशुद्ध्य- इय पायं पुव्वाऽऽयरि--यरइयगाहाण संगहो एसो। मानता स दर्शनसंक्लेशः। संक्लेशभेदे, स्था०१० ठा०। विहिओ अणुग्गहत्थं, कुमग्गलग्गाण जीवाणं // 58|| दंसणसंग पुं०(दर्शनसङ्ग) दर्शनेऽवलोकनेऽभिष्वङ्गो दर्शन सङ्ग / चन्द्राऽऽदीनां रिद्धिपर्यवसानानां पदनिवहानां प्रथमवर्ग :प्रथमाक्षरैः अवलोकनाभिष्वड़े, पश्चा०१७ विव०॥ येषां नामाऽभिधानं, तैः, चन्द्रप्रभसूरिभिरित्यर्थः / कथंभूतैः? परोपदसणसंपण्ण पुं०(दर्शनसम्पन्न) अविरतसम्यग्दृष्टौ, बृ०१ उ०। स्था०। कारनिरतैः / इति निगदितप्रकारेण प्रायः पूर्वाऽऽचार्यरचितगाथाभिरेष दर्शनसम्पन्नः शुद्धोऽहमित्येवं श्रद्धत्ते। स्था० 8 ठा०। संग्रहो विहितो निष्पादितोऽनुग्रहार्थं कुमार्गलग्नानां कुप्रवचनकुदेशनादंसणसंपण्णया स्त्री०(दर्शनसंपन्नता) दर्शनस्य क्षायोपशमिकस्य वासितान्तःकरणानां भव्यप्राणिनामिति गाथाद्यार्थः / / 57 / 158 // सम्पन्नता। तस्याः क्षायोपशमसम्यक्त्वसहितत्वे, उत्ता अस्य हि सकलशास्त्रगर्भार्थप्रतिपादकस्य सकलदसणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? दंसणसंपन्नयाए सुयतिसुश्रावकसमाचारप्रकाशकस्य णं भवमिच्छत्तच्छेयणं करेइ, परं न विज्झायइ, (परं अणुज्झा सकलसंदेहदावानलसुधाधारायमाणे) अणुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्म प्रपातसदृशस्य शास्त्रस्य को भावेमाणे विहरइ // 60il नामापि ग्रहीष्यतीत्याहदर्शनसम्पन्नतया क्षायोपशमिकसम्यक्त्वसमन्वितया भवहेतुभूतं मिथ्यात्वं, तस्य छेदनं क्षपणं करोति / कोऽर्थः? क्षायिकसम्य जे मज्झत्था धम्मत्थिणो य जेसिंच आगमे दिट्ठी। क्त्वमवाप्नोति / ततश्च परमित्युत्तरकालमुत्कृष्टतस्तस्मिन्नेव भवे तेसिं उवयारकरो, एसो न उ संकिलिट्ठाणं / / 16 / / मध्यमजघन्यापेक्षया तृतीये तुर्येवा जन्मन्युत्तर श्रेण्यारोहणेन केव ये के चनानिर्दिष्ट स्वभावाः प्राणिनः; किं भूताः? मध्यस्था लज्ञानावाप्तौ न विध्यापयति न ज्ञानदर्शनप्रकाशाभावरूपं विध्या- अत्युत्कटरागद्वेषविकलतया समचेतसः, धार्थिनश्व शिवसुखापनमवाप्नोति, किंत्वनुत्तरेण क्षायिकत्वात् प्रधानेन, ज्ञानं च दर्शनं च भिलाषितया पक्षपातपरिहारेण पूर्वापरपालोचकाः; येषां चाऽज्ञानदर्शनं, तेनाऽऽत्मा नं संयोजयन् प्रतिसमयमपरापरेणोप- ऽगमे दृष्टिहृदयलोचनं, तेषामुपकारकर एषोऽनन्तरोदितः, न चैव योगरूपतयोत्पद्यमानेन घटयन्। संयोजनं च भेदेऽपि स्यादत आह-- | संक्लिष्टानां मिथ्यात्वाभिनिये शवशवर्तिबुद्धिविभयानां, ते
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________________ दंसणसुद्धि 2436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणायारातियारपायच्छित्त हि धूकवत्प्रकृत्यैव विपरीतस्वभावाः, अतो वस्त्वपि अवस्तुबुद्ध्या तदभावो निष्कासितं, तथा विचिकित्सा मतिविभ्रमः युक्त्याऽऽगमोपगृह्णन्तीति गाथाऽर्थः // 56 // पन्नेऽप्यर्थे फल प्रति संमोहः, तदभावो निर्विचिकित्सम् / यद्वा-विद्वद् संप्रति ग्रन्थकार एवास्य यथावस्थितार्थावभासका.. जुगुप्सामलमलिना एते इत्यादि साधुजुगुप्सा, तदभावो निर्विद्वज्जुगुप्स, नि नामान्यभिधातुकाम आह तत एषां द्वन्द्वः, पुंल्लिङ्गनिर्देशश्च प्राकृतत्वात्। तथा--अमूढा तपोविद्याउवएसरयणकोसं, संदेहविसोसहिं व विउयजणा!। ऽतिशयाऽऽदिकुतीर्थिकर्द्धिदर्शनेऽप्यमोहस्वभावा अविचलिता, सा च अहवा वि पंचरयणं, दंसणसुद्धिं इमं भणह // 60 / / सा दृष्टिश्च सम्यग्दर्शनम्-अमूढदृष्टिः / अथवा-निर्गताः शङ्किताऽऽदिभ्यो उपदेशा हेयोपादेयोपेक्षणीयार्थेषु हानोपादानोपेक्षणीयभणनानि, त एव ये ते निःशङ्कितनिः कासितनिर्विचिकित्सा जीवाः, अमूढा दृष्टिरस्येरत्नानि, तेषां कोश इव भाण्डारवदुपदेशरत्नकोशः, तम्; संदेहो त्यमूढदृष्टिश्च जीव एव, तत एते धर्मधर्मिणोरभेदोपचाराद् दर्शनादोलायमानता. स एव विष तस्यैवौषधिः संदेहविषापहारित्वादस्याः ऽऽचारभेदा भवन्तीति / तथा-उपवूहणमुपवृंहासमानधार्मिकाणां संदेहविषौषधिः, ताम, वेति विकल्पनार्थः / विद्जना हि कृतिनः ! क्षमणावैयावृत्याऽऽदिसद्गुणप्रशंसनेन तत्तद्गुणवृद्धिकरणम्, स्थिरीकरणं अथवाऽपि पञ्चरत्नं, सकलसुखमूलहेतुपञ्चपदार्थप्रकाशकत्वादस्याः / तु-धर्माद्विषीदतां तत्रैव चारुवचनचातुर्यादवस्थापनम्, उपहा च दर्शनशुद्धिमिमा भणत प्रतिपादयत / इति गाथाऽर्थः / / 60 // स्थिरीकरणं च उपहास्थिरीकरणे। तथा तेषां वात्सल्यं च प्रभावना च सामान्यमभिधायेदानीमस्यैव माहात्म्योपदर्श वात्सल्यप्रभावने। तत्र वात्सल्यसमानदेवगुरुधर्माणां भोजनवसनदानोनायाऽऽह पकाराऽऽदिभिः संमाननं, प्रभावनाधर्मकथाप्रतिवादिनिर्जयदुष्करतमिच्छमहन्नवतारण-तरियं आगमसमुद्दबिंदुसमं / पश्चरणकरणाऽऽदिभिर्जिनवचन प्रकाशनमा यद्यपि च प्रवचनं शाश्वतत्वा तीर्थकरभाषितत्वाद्वासुरासुरनमस्कृतत्वाद्वा स्वयमेव दीप्यते, तथापि कुग्गाहग्गहमंतं, संदेहविसोसहिं परमं // 61 / / दर्शनशुद्धिमात्मनोऽभीप्सुर्यों येन गुणेनाधिकः स तेन तत्प्रवचनं मिथ्वाल्वमहार्णवतारणतरिकां कुचासनोदधिपरमयानपात्रम्, आगम प्रभावयति, यथा भगवदाचार्यवज्रस्वामिप्रभृतिक इति / एते अष्टौ समुद्रबिन्दुसमं सिद्धान्तोदधिनिस्यन्दिबिन्दुकल्पं, कुग्राहग्रहमन्त्रं, दर्शनाऽऽचाराः / / 266 / / प्रव० 6 द्वार / नि०चू०। ध०ा ति०। ग01 नं० निर्णाशकमित्यर्थः। संदेहविषौषधिं परमां प्रकृष्टामिति गाथाऽर्थः / / 61 / / आचाला दश०। (विशेषस्तु आयार' शब्दे द्वितीयभागे 340 पृष्ठे द्रष्टव्यः) संप्रति पुनरपिशास्त्रगतोपदेशमाह दंसणायाराइयार पुं०(दर्शनाऽऽचारातिचार) सम्यक्त्वव्यवहाएयं दंसणसोहिं, सव्वे भव्वा पदंतु निसुणंतु / रातिचरणे, जीता जाणंतु कुणंतु लहंतु सिवसुहं सासयं झ त्ति / / 62 / / दसणायारातियारपायच्छित्त न०(दर्शनाऽऽचारातिचारप्रायश्चित्त) एतां दर्शनशुद्धिं सर्वेऽपि भव्याः पठन्तु सूत्रतः, निशृण्वन्तु अर्थतः, प्रायश्चित्तभेदे, जीता जानन्तु पुनःपुनरभ्यासतः कुर्वन्तु एतदुक्तमनुतिष्ठन्तु, लभन्ता शिवसुर्ख अधुना दर्शनाऽऽचारातिचारप्रायश्चित्तमाहशाश्वतं झटितीति गाथाऽर्थः।६रा दर्श०५ तत्त्व। संकाऽऽइएसु दोसे, खमणं मिच्छोववूहणाऽऽईसु। "यावत्पाथोधयोऽयं सुरगिरिरखिलाऽऽलोकलोकोदरस्थो, पुरिमाऽऽई खमणंतं, भिक्खूपमिईण य चउण्हं ||28|| यावद् द्वीपोऽथ जम्बूस्त्रिभुवनतिलकः पूर्णचन्द्राऽऽकृतिश्च / एयं चिय पत्तेयं,उववूहाऽऽईणमकरणे जयणा। यावनोऽत्र धर्मः प्रभवति हि शशी भूतलं तावदेना, आयामंतं निव्वी यमाऽऽइपासत्थसड्डेसु // 26 // भव्याः शृण्वन्तु श्रव्यां विषयविमुखताऽऽपादिकां बोधिदां च'' ||1|| दर्श०५ तत्त्व इह दर्शनाऽऽचारातिचारोऽष्टधा / तद्यथा-शङ्का, आकाङ्क्षा, विचिचि कित्सा, मूढदृष्टिः, उपहा, स्थिरीकरणं, वात्सल्यं, प्रभावना चेति। दसणाभिगम पुं०(दर्शनाभिगम) दर्शनं सामान्यग्राही बोधः, तचेह तत्र संशयकरणं शङ्का। सा द्विधादेशतः, सर्वतश्च / तत्र देशतस्तुल्येऽपि गुणप्रत्ययाबध्यादिप्रत्यक्षरूपम्। तेनाभिगमे वस्तुनः परिच्छेदे, तत्प्राप्ती जीवल्वे कथमेके भव्याः, अपरेत्वभव्या इत्यादि। सर्वतस्तु प्राकृतभाषाच। स्था०६ ठा। निबद्धमिदं श्रुतं न ज्ञायते किं सर्वज्ञेन प्रणीतम्, आहोस्थित कुशलमतिदंसणाऽऽया स्त्री०(दर्शनाऽऽत्मन्) षष्टे आत्मनो भेदे, दर्शनाऽऽत्मा नाऽपि परिकल्पितमिति // 1 // आकाङ्क्षाऽपिदेशतः कुतीर्थिकमतमासर्वजीवानाम्। भ०। प्राकृतत्वाच सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः / भ०१२ 2010 उ०। काशति-अस्मिन्नपि खल्वहिसैवधर्मो, मोक्षश्च फलमुच्यत इति। सर्वतः दसणायार पुं०(दर्शनाऽऽचार) आचरणमाचारी व्यवहारो, दर्शनं सर्वकुमतान्याकाङ्क्षति कृषीवल इव सर्वधान्यान्युचावचानि कदाचित्किसम्यक्त्वं, तदाचारः। स्था०२ ठा०३उ०ा सम्यक्त्ववतां व्यवहारे, स०१ ञ्चित्फलतीतिधिया ||2|| विचिकित्साआत्मनः फलं प्रत्यनाश्वासः, अङ्ग / पञ्चा यथा आसीत्तादृशानुष्ठायिनां पुरातनानां महासत्त्वानां मोक्षः, अस्माअथ दर्शनाऽऽचारभेदानाह दृशानां त्वस्नानकेशलुञ्चनाऽऽदि कष्टमेव, मन्दसत्त्वत्वात् त मोक्षसंनिस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठीय। भवः? इति देशतः स्तोकोऽनाश्वासः। स सर्वतस्तु सर्वथाऽनाश्वासः / उववहू-थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ॥२६६।। यथा- "विदक' ज्ञाने (धातुपाठे) विदन्तीति विदः साधवः, तेषां शङ्कितं शङ्का संदेहः तस्याऽभावो निःशङ्कितम्, दर्शनस्य सम्यक्त्व- जुगुप्सा विजुगुप्सा / देशतोऽहो ! मलदुर्गन्धा इमे मनुजा यद्यदुकेन स्याऽऽचारः। इत्येवमन्यत्रापि।तथा कासितं काजा-अन्यान्यदशनग्रहः,। स्नायुस्तदा को दोषः स्यादिति ? सर्वतस्तु मण्डल्यादिनैकत्र देशे
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________________ दसणायारातियारपायच्छित्त 2437 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसणावरण मिथः संसृष्टभोजिनो गुप्तिगृहवासिन इव महामलीमसाङ्गवाससः ऽऽचार्याणां निर्विकृतिकपुरिमार्द्धकाशनाऽऽचामाम्लानि यथासंख्य प्राग्दत्तदानत्वेनाऽऽजन्म भिक्षाचरा इत्यादि / / 3 / / मूढदृष्टिःपरतीर्थिना भवन्ति। अथ पुनः साधर्मिक इति समानधार्मिकोऽसाविति, संयमंचासौ राजाऽऽदिकृतां पूजा,मन्त्राऽऽद्यतिशयान्वा दृष्ट्वा, तदागमान् वा श्रुत्वा मत्संसर्गात्करिष्यतीति हेतो, वाशब्दत्वात् कुलगणसङ्घग्लानाऽऽदिदेशतः स्तोको मतिव्यामोहः / सर्वतस्तु सर्वथा / / 4 / / उपहा-प्रशंसा कार्येषु सहायाऽऽदिकं करिष्यतीत्यादिबुद्ध्या सर्वस्मिन्ममत्वाऽऽदिके ज्ञानदर्शनतपः संयमवैयावृत्योद्यतानां साध्वादीनामुत्साहवृद्धिहेतुः वात्सल्ये कृतेऽपि शुद्धा / / 30 // इत्युक्तं दर्शनाचारातिचारप्रायश्चित्तम्। प्रशस्ता मिथ्याऽऽशंसा, शाक्यचरकाऽऽदीना त्वसावप्रशस्ता |5|| जीत। "इदाणिं एएसिं पच्छित्तं भण्णतितीसु वि संका, कंखा, स्थिरीकरणं-सीदतश्चारित्राऽऽदिषु स्थैर्यहेतुः प्रशस्ता, असंयमविषये वितिगिच्छा य, एताई तिन्नि / एतासु तिसु वि देसे पत्तेयं पत्तेयं गुरुगा पुनस्तदप्रशस्ता / / 6 / / वात्सल्यम्-आचार्यग्लानप्राघूर्णकबालवृद्धाऽऽ- मूलमिति, सव्वे छेदो, पुणसद्दो सव्वसंकाऽऽदिविसेसावधारे दट्ठव्वो। दीनामाहारोपध्यादिना समाधिसंपादनं प्रशस्तं, गृहस्थपार्श्वस्थाऽऽद्युप- सव्वेहिं ति सव्व संकाए सव्वकंखाए सव्ववितिगिंछाए य, होति म्भरूपं तदप्रशस्तम् / / 7 / / प्रभावना चतीर्थकरप्रवचनाऽऽदिविषया भवन्तीत्यर्थः / किं तत्? मूलमिति अनुकरिसणवकं दट्ठव्वं / " प्रशस्ता, कुतीर्थिकविषया त्वप्रशस्ता / / 8 // इह च प्रशस्ताऽऽदीनां नि०चू०१3०। प्रशस्तानामकरणेऽतिचारता, अप्रशस्तानां तु करणे देशसर्वभेदा इयाणि पच्छित्ता भण्णंतिचोपवृहाऽऽदीनामपि शङ्काऽऽदीनामिव ज्ञेय इति दर्शनाचारातिचा- दिट्ठीमोहे अपसंसणे य अथिरीकरणे य लहुआ तु। रस्याष्टौ भेदाः / तत्र शङ्काऽऽदिकेषु चतुर्यु भेदेषु देशतः क्षपणं मिथ्योप वच्छल्लपभावणाण य, अकरणेण सहाणपच्छित्तं // 34 / / वृहणाऽऽदिषु च सूचकत्वात् सूत्रस्य मिथ्याशब्देन मिथ्या-त्वाऽऽदयो "दिट्ठीमोहं करेति, अहवा उववूह न करेति, अहवा अणुववूहिते केवि गृह्यन्ते, तेषामुपवृंहणा मिथ्योपवृहणा, अप्रशस्तेत्यर्थः। तथा आदि आयरिया मासलहुँ भणंति। सम्मत्ताऽऽदीसु थिरीकरणं ण करेति, अहवा शब्दात् स्थिरीकरणवात्सल्यप्रभावना गृह्यन्ते, ततश्चाप्रशस्तेष्वपि केति मएण वा मासलहू, वच्छल्ले सामण्णेण विसेसेण य भणियंतं चेव चतुर्दशतः क्षपणमेव / एतचौघतः पुरुषानपेक्षया ज्ञेयम् / अत्राऽऽहननु सट्ठाण इमाएगाहाए भणियं, "आयरिए य गिलाणे गुरुगा गाहा।' एभावणं शङ्काऽऽदिकेष्वित्यनेनैव समानप्रायश्चित्तत्वादष्टापि भेदा गृहीष्यन्ते, अकरें तस्स सामण्णेण चउगुरुगा, विसेसेण सट्ठाणपच्छित्तं, तं च इमंकिं मिथ्योपवृंहणाऽऽदिषु चेति पृथगुक्तं, विशेषाभावात्? उच्यते अतिसेसिनिड्डिधम्मकहिवादिविजरायसम्मतो, गणसम्मतो अतीतणिउपहाऽऽदयो हि प्रशस्ताः , अप्रशस्ताश्च भवन्ति / तत्राप्रशसता एव मित्तेण य एते ससत्तीए पवयणपभावणं ण करेंति चउलहुगा, पडुप्पणऽसमानप्रायश्चित्ताः, न प्रशस्ताः, अतस्त व्यवच्छेदार्थ मिथ्योपवृंहणा णागतेण य पभावणं ण करेंति चउलहुगा, पडुपण्णणागतेण य पभावणं ण ऽऽदिषु विविच्य प्रोच्यते, अन्यथा प्रशस्तोपवृंहणाऽऽदीनामपि शङ्काऽऽ करेंति चउगुरुगा। एवं सहाणपच्छित्तं / अहवा-अतिसेसमादिणो पुरिसा दिवत् प्रायश्चित्तं स्यात्। न च तेषु प्रायश्चित्तं भवति, तेषां विशिष्टपुण्यानु इमेसिं पंचण्ह पुरिसाणं अंतरगता / तं जहा-आयरियउवज्झाय बन्धहेतुत्वात् / विभायतः पुनः शङ्काऽऽदिकेषु मिथ्योपवृंहणाऽऽदिषु भिक्खुथेरखुड्या, एएसु सट्ठाणपच्छित्ता भण्णंति, आयरिओ पभावणं चेत्यष्टस्वपि देशतः पुरिमार्द्धाऽऽदि क्षपणान्तं भिक्षुप्रभृतीनां चतुर्णाम, ण करेति चउगुरुगा, उवज्झाओ ण करेति, अहवा भिक्खू ण करेति तत्र भिक्षोः पुरिमार्द्धः, वृषभस्यैकाशनम्, उपाध्यायस्य आचामाम्लम्, मासगुरु, थेरोण करेतिमासलहु, खुड्डोण करेति भिण्णमासो। भणिओ आचार्यस्य क्षपणमिति / सर्वतस्त्वेतेष्वपि मूलं वक्ष्यति / प्रशस्तो- दसणायारो।' नि०चू० 10 पहाऽऽश्वकरणे प्रायश्चित्तमाह-प्रत्येकं भिक्षुप्रभृतीनां यतेरुपलक्ष दंसणाराहणा स्त्री०(दर्शनाऽऽराधना) सम्यक्त्वाऽऽराधने, “तिविहा णत्वात् प्रवचनाऽऽदश्चापवृहाऽऽद्यकरण, एतदवानन्तराद्दिष्ट पुरिमाद्धा- | दंसणाऽऽराहणा-उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा।" स्था०३ ठा०४ उ०। ऽऽदिप्रायश्चित्तम्। अयं भावार्थः यदि भिक्ष्वाऽऽदयो हि प्रवचनाऽऽदिरूपां / दसणारिय पुं०(दर्शनाऽऽर्य) अष्टमे अनृद्धिप्राप्ताऽऽर्य्यभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। वृंहामादिशब्दात् स्थिरीकरण वात्सल्यं प्रभावनां वा न कुर्वन्ति, तदा (दर्शनार्यभेदाऽऽदयस्तु आरिय' शब्दे द्वितीयभागे 336 पृष्ठे उक्ताः) भिक्षोः पुरिमार्दो , वृषभस्यैकाशनम्, उपाध्यायस्याऽऽचाम्लम्, आचा दसणावरण न०(दर्शनाऽऽवरण) दर्शनं सम्यक्त्वमावृणोतीति दर्शनाऽर्यस्य क्षपणमिति। उत्तरार्द्धस्तूत्तरगाथासंबद्धत्वात्तया सह व्याख्यास्यते। ऽवरणम् / उत्त०३३ अ० दृश्यतेऽनेनेति दृष्टिदर्शनम्। सामान्यविशेषासा चेयम् ऽऽत्मके वस्तुनिसामान्यग्रहणाऽऽत्मको बोधः। आवियते आच्छाद्यतेऽपरिवाराऽऽइनिमित्तं, ममत्तपरिपालणाऽऽइवच्छल्ले। नेनत्यावरणम् / यद्वा-आवृणोति आच्छादयति, रम्याऽऽदिभ्यः साहम्मिओ त्ति संजम-हेऊ वा सव्वहा सुद्धा॥३०॥ कर्त्तय॑नट् प्रत्यये आवरणं मिथ्यात्वाऽऽदि, स च जीवव्यापाराऽऽहृतपरिवारः सहायरूपः, आदिशब्दादाहारोपधिशय्याः, तेषां निमित्तम्। कर्मवर्गणान्तःपाती विशिष्टपुद्गलसमूहः, ततो दर्शनस्याऽऽवरणं अयमाशयः-पार्श्वस्थाऽऽद्यानुकूल्येन सहायाऽऽहारोमधिशय्या दर्शनाऽऽवरणम् / कर्म०१ कर्म० आवरणीयकर्मभदे, प्रव०७२ द्वार। लप्स्यन्त इति कृत्वा (पासत्थसड्ढेसु त्ति) उपलक्षणत्वात्पावास्था- स्था०। पं०सं०। कर्म०। (दर्शनाऽऽवरणस्य बन्धोदयसत्तास्थानानां वसन्नकुशीलसंसक्तयथाछन्दाऽऽदिषु, श्रावकस्वजनाऽऽदिषु च विषये संवेधः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 266 पृष्ठे द्रष्टव्यः) ममत्वपरिपालनाऽऽदिवात्सल्ये ममत्वं प्रतिबन्धरूपं,परिपालना नवविहे दंसणावरणे कम्मे पण्णत्ते / तं जहा-निद्दा, निद्दात्वौषधाऽऽद्यः, आदिशब्दात्संभोगसंवाससूत्रार्थदानानि, इत्यादिके निद्दा, पयला, पयलापयला,थीणगिद्धी, चक्खुदरिसणावरणे, वात्सल्ये कृते सति (आयामंतं निव्वीयगाइ त्ति) भिक्षुवृषभोपाध्याया- अचक्खुदंसणावरणे, ओहिदसणावरणे, केवलदसणावरणे //
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________________ दंसणावरण 2438 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसणावरण (नवेत्यादि) सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणाऽऽत्मको बोधो दर्शन, तस्याऽऽवरणस्वभावं कर्म दर्शनाऽऽवरण, तन्नवविधम् / तत्र निद्रापञ्चकं तावत्- 'द्राक्' कुत्सायां गतौ, नियतं द्राति कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा सुखप्रबोधा स्वापावस्था, नखच्छोटिकामात्रेणाऽपि यत्र प्रबोधो भवति। तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रेति कार्येण व्यपदिश्यते। तथा निद्राऽतिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा, शाकपार्थिवाऽऽदित्वान्मध्यपदलोपी समासः / सा पुनर्दुःखप्रबोधा स्वापावस्था, तस्यां हि अत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैतन्यत्वाद् दुःखेन बहुभिर्घोलनाऽऽदिभिः प्रबोधो भवत्यतः सुखप्रबोधनिद्राऽपेक्षया अस्याअतिशायिनीत्वम्, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि कार्यद्वारेण निद्रानिद्रेत्युच्यते। उपविष्ट ऊर्द्धस्थितो वा प्रचलात्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचला ! सा झुपविष्टस्योर्द्धस्थितस्य वा घूर्णमानस्य स्वतुर्भवति / तथाविध-विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचलेत्युच्यते। तथैव प्रचलाऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला। सा हि चड्क्रमणाऽऽदि कुर्वतः स्वातुर्भवति, अतः स्थानस्थितस्वतृभवां प्रचलामपेक्ष्यातिशायिनी। तद्विपाका कर्मप्रकृतिरपि प्रचलाप्रचला। स्त्याना बहुत्वेन संघातमापन्ना गृद्धिरभिकाङ्का जाग्रदवस्थाऽध्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापात्रस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः, तस्यां हि सत्यां जाग्रदवस्थाऽध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति, स्त्याना वा पिण्डीभूता ऋद्धिरात्मशक्तिरूपा यस्यामिति स्त्यामद्धिरित्यप्युच्यते, तद्भावे हि स्वप्नुः केशवाईबलसदृशी शक्तिर्भवति / अथवा स्त्याना जडीभूता चैतन्यर्द्धिरस्यामिति स्त्यानद्धिरिति / तादृशविपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि स्त्यानर्द्धिः, स्त्यानगृद्धिरितिवा। तदेवं निद्रापञ्चकं दर्शनाऽऽवरणक्षयोपशमाद् लब्धात्मलाभाना दर्शनलब्धीनामावारकमुत्तम्। अधुना यद्दर्शनलब्धीनां मूलत एव लाभमावृणोति तदिदं दर्शनाऽऽवरणचतुष्कमुच्यते। चक्षुषा दर्शन सामान्यग्राही बोधश्चक्षुर्दर्शनं, तस्याऽऽवरणं चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणम् / अचक्षुषा चक्षुर्वर्जेन्द्रियचतुष्टन मनसा वा दर्शनं यत् तदचक्षुर्दर्शन, तस्याऽऽ-- वरणमचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणम् / अवधिना रूपिमर्यादयाऽवधिरेव वा करणनिरपेक्षो बोधरूपो दर्शनं सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनम्, तस्याऽऽवरणमवधिदर्शनाऽऽवरणम् / तथा केवलमुक्तस्वरूपं, तच तदर्शनं च, तस्याऽऽवरणं केवलदर्शनाऽऽवरणमित्युक्तं नवविधं दर्शनाऽऽवरणम् / स्था०६ ठा० इदानीं नवविधं दर्शनाऽऽवरणं कर्म व्याख्यानयन्नाहदंसणचउ पण निद्दा, वेत्तिसमंदसणाऽऽवरणं / / (8) इह 'भीमो भीमसेनः' इति न्यायात, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादा "दंसणचउ' इतिशब्देन दर्शनाऽऽवरणचतुष्कं गृह्यते / तत्र दृष्टिदर्शनं, दृश्यते परिच्छिद्यते सामान्यरूपं वस्त्वनेनेति वा दर्शनं, तस्याऽऽवरणान्याच्छादनानि दर्शनाऽऽवरणानि, तेषां चतुष्कं दर्शनाऽऽवरणचतुष्कम् / तथा-"पण निद ति'' द्राक् कुत्सितगतौ (धातुपाठः) द्राति कुत्सितत्वमवि स्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यासुता निद्राः। "भिदादयः" // 5 // 3 / 108 // इति (सूत्रेण) अड् प्रत्ययः। पञ्चेति पञ्चसंख्याःनिद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्थानर्द्धिरूपाः निद्राः पञ्च, निद्रापञ्चकमित्यर्थः / ततो दर्शनाऽऽवरणचतुष्कं निद्रापञ्चकमिति नवधा दर्शनाऽऽवरणं भवति / किंविशिष्टमित्याह--(वेत्तिसम ति) वेत्रिणा प्रतीहारेण समतुल्यं वेत्रिसमम्। यथा राजानं द्रष्टुकामस्याप्यनभिप्रेतस्य | लोकस्य वेत्रिणा स्खलितस्य राज्ञो दर्शनं नोपजायते, तथा दर्शनस्वभावस्याप्यात्मनो येनाऽऽवृतस्य स्तम्भकुम्भाम्भोरुहाऽऽदिपदार्थसार्थस्य न दर्शनमुपजायते, तद्वेत्रिसमंदर्शनाऽऽवरणम्। उक्तं च"दंसणसीले जीवे, दंसणघायं करेइ जं कम्म। तं पडिहारसमाण, दंसणवरणं भवे कम्मं / / 1 / / जह रन्नो पडिहारो, अणभिप्पेयस्स सो उलोगस्स। रन्नो तह दरिसावं, न देइ दुटुं-पि कामस्स।।२।। जह राया तह जीवो, पडिहारसमं तु दसणाऽऽवरणं / तेण हि विबंधगेणं, न पेच्छई सो घडाईयं // 3 // इति / / अथ दर्शनाऽऽवरणचतुष्कं व्याचिख्यासुराहचक्खुद्दिट्ठिअचक्खू-सेसिंदियओहिकेवलेहिं च / / दंसणमिह सामन्नं, तस्साऽऽवरणं तयं चउहा।।१०।। इह चक्षुःशब्देन दृष्टिगुह्यते, अचक्षुःशब्देन 'सेसिंदिय त्ति'' चक्षु-- वर्जशेषेन्द्रियाणि गृह्यन्ते / ततश्च चक्षुश्चाचक्षुश्चावधिश्च केवलं च चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानि, तैः चक्षुरचक्षुरवधिकेवलैः / चशब्दोऽचक्षुःशेषेन्द्रिय इत्यत्र मनसः संसूचकः / दर्शनमिह प्रवचने सामान्य सामान्योपयोग उच्यते। यदुक्तम्-"जं सामन्नग्गहणं, भावाणं नेव कटु आगारं / अविसे सिऊण अत्थे, दंसणमिय वुचए समए // 1 // " तस्याऽऽवरणं दर्शनाऽऽवरणं, तचतुर्धा भवति-चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणमचक्षुर्दर्शनावरणमवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणमिति गाथाsक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-- इह चक्षुर्दर्शनं नाम यच्चक्षुषा रूपसामान्यग्रहणं, तस्याऽऽवरणं चक्षुदर्शनाऽऽवरणं, चक्षुःसामान्योपयोगाऽऽवरणमिति यावत्। अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसाच यदर्शनं स्वस्वविषयसामान्यपरिच्छेदोऽचक्षुर्दर्शनं, तस्याऽऽवरणमचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणम् / अवधिना रूपिद्रव्य मर्यादया दर्शनं सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनं, तस्याऽऽवरणमवधिदर्शनाऽऽवरणम्। केवलेन सम्पूर्णवस्तुतत्त्वग्राहकबोधविशेषरूपेण यद्दर्शनं वस्तुसामान्यांशग्रहणं तत् केवलदर्शनं, तस्थाऽऽवरणं केवलदर्शनाऽवरणम् / अत्राऽऽहननु यथाऽवधिदर्शनाऽऽवरणं कर्मोच्यते, तथा मनः पर्यायज्ञानस्यापि दर्शनाऽऽवरणं कर्म किमिति नोच्यते? उच्यते-मनःपर्यायज्ञानंतथाविधक्षयोपशमपाटवात् सर्वदा विशेषानेव गृह्णदुत्पद्यते, नसामान्यम्, अतस्तदर्शनाभावातदावरणं कर्माऽपि न भवति। अत्र च चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणोदय एकद्वित्रीन्द्रियाणां मूलत एव चक्षुर्न भवति, चतुःपञ्चेन्द्रियाणां तु भूतमपि चक्षुस्तथाविधे तदुदये विनश्यति, तिमिराऽऽदिना वाऽस्पष्ट भवति / चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनसा पुनर्यथासम्भवमभवनमस्पष्टभवनं वाऽचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणोदयादित्यभिहितं दर्शनाऽऽवरणचतुष्कम् // 10 // कर्म०१ कर्मा चक्षुषा दर्शनं चतुर्दर्शनं, तस्याऽऽवरणं चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणम्।६। अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं, तस्याऽऽ--- वरणमचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणम् 7 / अवधिरेव दर्शनं रूपिद्रव्यसामान्यग्रहणम् अवधिदर्शनं, तस्याऽऽवरणमवधिदर्शनाऽऽवरणम् / / केवलमे व सकलजगद्भाविवस्तुस्तोमसामान्यग्रहणरूपं दर्शन केवलदर्शनं, तस्याऽऽवरणं केवलदर्शनाऽऽवरणम् / अत्र निद्रापञ्चक प्राप्ताया दर्शनलब्धरुपघातकृत, चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणाऽऽदि-चतुष्टयं तु मूलत एव दर्शनलब्धिमुपहन्ति। आह च गन्धहस्ती-निद्राऽऽदयः सम
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________________ दंसणावरण 2436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दंसमसगपरीसह धिगताया एव दर्शनलब्धेरुपघाते वर्तन्ते, दर्शनाऽऽवरणचतुष्टयं तु / | उद्गमोच्छेदित्वात्समूलधातं हन्ति दर्शनलब्धिमिति। (6 गाथा) कर्म०६ कर्म०। दर्शनाऽऽवरणस्य नवोत्तरप्रकृतयः / तद्यथा-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानर्द्धिः / (एषां पूर्वोक्तानां व्याख्या स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या) चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणम्, अचक्षुदर्शनाऽऽवरणम्, अवधिदर्शनाऽऽवरणम्, केवलदर्शनाऽऽवरणं च / (6 गाथा) कर्म०६ कर्म० श्रा०पं०सं०। (अत्र विशेषः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 264 पृष्ठे, 256 पृष्ठे चद्रष्टव्यः) दंसणावरणिज न०(दर्शनाऽऽवरणीय) दर्शनाऽऽवरणप्रवृती, स०६ सम०। आचा प्रश्न दसणावरणिज्जवग्ग पुं०(दर्शनावरणीयवर्ग) दर्शनाऽऽवरणप्रकृति समुदाये, क०प्र०१ प्रका दंसणि (ण) पुं०(दर्शनिन्) दर्शनमस्यास्तीति दर्शनी / सम्य क्त्ववति, आव०३ अ०1 "दंसणेणं दंसणी।' अनु०। आव०। रा०| दंसणिज्ज पुं०(दर्शनीय) आदेयदर्शनो यः स तथा / झा०१ श्रु०१ अ०1 दर्शनयोग्ये,सूत्र०२ श्रु०७ अ० यानि पश्यतश्चक्षुषी श्रमं न गच्छतः। जी०३ प्रति०४ उ०। ज्ञा०ा स्था०। सू०प्र०) दंसणिड्डि स्त्री०(दर्शनर्द्धि) दर्शनाद्धः प्रथमाऽऽदिरूपा / तथा "सम्मद्दिट्ठी जीवो, विमाणवजं, न बंधए आउं / जति वि ण सम्मत्तजढो, अहव ण बद्धाउओ पुव्विं // 1 // " (दश०नि०२०६ गाथाटी०) इत्याधुक्तलक्षणायां प्रशमाऽऽदिरुपायां सम्यक्त्वसम्पत्तौ, दश०३ अ०/ दंसणिंद पुं०(दर्शनेन्द्र) इन्द्रभेदे, स्था०१० ठा०। (व्याख्याऽस्य 'इंद' शब्दे द्वितीयभागे 534 पृष्ठे गता) दसणोवघाय पुं०(दर्शनोपघात) शङ्काऽऽदिभिः सम्यक्त्वविराध नायाम्, स्था०१० ठा। दसणोवसंवया स्त्री० (दर्शनोपसम्पत्) सम्पन्दे, दर्शनप्रभावनी यसम्मत्यादिशास्त्रपरिभावनार्थमेव दर्शनोपसम्पदिति। ध०३ अधि०। दंसतिग न०(दर्शत्रिक) चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दशनावधिदर्शनलक्षणे, कर्म०४ कर्म दंसमसग पुं०(दंशमशक) दंशाश्च मशकाश्च दंशमशकाः उभये अप्येते चतुरिन्द्रियाः, महत्त्वामहत्त्वकृतश्चैषां विशेषः / अथवा-दंशो दशनं, भक्षणमित्यर्थः। तत्प्रधाना मशका दंशमशकाः / चतुरिन्द्रियजीवभेदेषु, स०२१ समा दंसमसगपरीसह पुं०(दंशमशकपरीषह) दशन्तीति दंशाः, पचाऽऽदित्वादच प्रत्ययः / मारयितुं शक्नुवन्तति मशकाः / दंशाश्व मशकाच दंशमशकाः। अथवा-दंशो दंशनं, भक्षणमित्यर्थः, तत्-प्रधाना मशका दंशमशकाः चतुरिन्द्रियविशेषाः, यूकाऽऽद्युपलक्षणं चैते एव परीषहो दंशमशकपरीषहः। उत्त०२ अ०ा प्रवासादंशमशकाऽऽदिभिर्दश्यमानोऽपिन ततः स्थानादपगच्छेन्न च तदपनयनाथ धूमाऽऽदिना यतेत, न च व्यजनाऽऽदिना निवारयेदित्यनुतिष्ठतः (आव१अ०) देहव्यथामुत्पा. दयत्स्वपितेष्वनिवारणभयद्वेषाभावकरणरूपेपरीषहे, भ०१श०३उ०। "दष्टोऽपि दशैर्मशकैः, सर्वाऽऽहारप्रियत्ववित् / त्रासं द्वेषं निरासं न, कुर्यात्कुर्यादुपेक्षणम् / / 1 // " ध०३ अधिक। उत्त०। सूत्र एतदेव सूत्रकृदाहपुट्ठो य दंसमसएहिं, समरेव महामुणी। णागो संगामसीसे व, सूरे अभिहवे परं / / 10 / / स्पृष्टः-अभिद्रुतः / चः पूरणे / दंशमशकैः, उपलक्षणत्वाद् यूका-- ऽऽदिभिश्च (समरे व ति) "एदोदुरलोपाविसर्जनीयस्य॥" इति रेफात्, ततः सम एव-तदगणनया स्पृष्टास्पृष्टावस्थयोस्तुल्य एव / यद्वासमन्तादरयः, शत्रवो यस्मिँस्तत्समर तस्मिन्नति संग्रामशिरोविशेषणम्। वेति पूरणे। महामुनिः प्रशस्तयतिः। किमित्याह-(णागो संगामसीसे वेति) इवार्थस्य वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वान्नाग इव हस्तीव संग्रामस्य शिर इव शिरः प्रकर्षावस्था संग्रामशिरस्तस्मिन् शूरः पराक्रमवान् / यद्वा-- शूरो योधः, ततोऽन्तर्भावितोपमार्थत्वाद् वाशब्दस्य च गम्यमानत्वात् शूरवद्वाऽभिहन्यात्, कोऽर्थः-? अभिभवेत्। परंशत्रुम्। अयमभिप्रायः-- यथा शूरः करी, यद्वा यथा वा योधः शरैस्तुद्यमानोऽपि तदगणनया रणशिरसि शब्द जयति, एवमयमपि दंशाऽऽदिभिरभिद्र्यमाणोऽपि भावशत्रु क्रोधाऽऽदिकं जयेदिति सूत्रार्थः / / 10 // यथा च भावशत्रुर्जेतव्यस्तथोपदेष्टुमाहण संतसे ण वारेजा, मणं पिन पओसए। उवेहे नो हणे पाणे, मुंजते मंससोणिए / / 11 / / न संत्रसेन्नोद्विजेत, दंशाऽऽदिभ्य इति गम्यते / यद्वा-अनेकार्थत्वाद्धातूनां न कम्पयेत्, तैस्तुद्यमानोऽपि, अङ्गानीति शेषः / न निवारयेद् न निषेधयेत्,प्रक्रमाद्दंशाऽऽदीनेव तुदतो, मा भूदन्तराय इति, मनश्चित्तं तदपि,आस्तां वचनाऽऽदि, न प्रदूषयेन्न प्रदुष्ट कुर्यात्, किंतु (उवेहे ति) उपेक्षेत औदासीन्येन पश्येत्, अत एव न हन्यात् प्राणान् प्राणिनो भुजानान् आहारयतो मांसशोणितम् / अयमिहाशयः-अत्यन्तवाधकेष्वपि दंशकाऽऽदिषु"शृगालवृकरूपैश्च. नदद्भिर्घोरनिष्ठुरम्। आक्षेपत्रोटितस्नायु, भक्षन्ते रुधिरोक्षिताः ||1|| स्वरूपैः श्यामसवलै-बलपुच्छर्भयान्वितैः। परस्पर विरुध्यद्भिर्वि-विलुप्यन्ते दिशोदिशम् // 2 // काकगृध्राऽऽदिरूपैश्च, लोहतुण्डलान्वितैः / विनिकृष्टाक्षिजिह्वान्त्राः, विचेष्टन्ते महीतले // 3 // प्राणोपक्रमणैोरैर्दुःखैरेवंविधैरपि। आयुष्यक्षपितेनैव, नियन्ते दुःखभागिनः॥४॥'' इत्यादि। तथा असंज्ञिन एते आहारार्थिनश्च भोज्यमेतेषां मच्छरीरं बहुसाधारण च यदि भक्षयन्ति किमत्र प्रद्वेषेणेति च विचिन्तयन तदुपेक्षणपरो न तदुपधातं विदध्यादिति सूत्रार्थः / / 11 / / इदानीं पथिद्वारं, तत्र स्पृष्टो दंशमशकैरित्यादिसूत्रसू चितमुदाहरणमाहचंपाए सुमणुभद्दो, जुवराया धम्मघोससीसोय। पंथम्मि मसगपरिपीयसोणितो सो वि कालगतो // 63|| चम्पायां सुमनु भद्रो युवराजो धर्म घोषशिष्यश्व पथि मशक
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________________ दंसमसगपरीसह 2440 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दक्खत्त परिपीतशोणितः, सोऽपि कालगतः। इति गाथाऽक्षरार्थः / / 63 / / भावार्थस्तुवृद्धसंप्रदायादवसेयः / स चायम्--' 'चंपाए नयरीएजियसत्तुस्स रन्नो पुत्तो सुमणुभद्रो जुवराया, धम्मघोसस्स अंतिए धम्म सोऊण निविण्णकामभोगो पव्वइतो, ताहे चेव एगल्लविहारपडिमं पडिवन्नो, पच्छज्ञ हेट्ठाभूमीए विहरंतो सरयकाले अडवीए पडिमागतो रत्तिं मसएहिं खजइ, सो ते ण पमजति, सम्म सहइ, रत्तीए पीयसोणितो कालगतो। एवं अहियासेव्वं / " इत्यवसितो दंशमशकपरीषहः। उत्त० पाई०२ अ० / दंसमसगपरीसहविजय पुं०(दंशमशकपरीषहविजय) दंशमश-- काऽऽदिव्यधपीडासहने, पं०स० तथा दंशपरीषह इत्यत्र दशग्रह- / णमशेषशरीरोपधातकसत्त्वोपलक्षणम्, यथा काकेभ्यो रक्षता सर्पिः, इत्यत्र काकग्रहणमुपघातकोपलक्षणम् / तेन दंशमशकमक्षिकामत्कुणकीटपिपीलिकावृश्चिकाऽऽदिभिर्वाध्यमानस्याऽपि ततः स्थानादनपगच्छतः, तेषां च दंशमशकाऽऽदीनां त्रिविधं त्रिविधेन वाधामकुर्वतो, व्यजनाऽऽदिनाऽपि तान् न निवारयतो यत्सम्यक् दंशमशकाऽऽदिव्यधपीडासहन स दंशपरीषहविजयः। पं०सं०४ द्वार। दंसमाण त्रि० (दशत्) भक्षणं कुर्वति, "अप्पे जणे णिवारेइ लूसणए सुणए दंसमाणे।" आचा०१ श्रु०६ अ०२उ०। दंसिय त्रि०(दर्शित) प्रकटिते, अनु०। प्रकाशिते च। उत्त०६ अ०। प्रज्ञा०/ दक्ख त्रि०(दक्ष) दक्ष-अच / निपुणे, कल्प० 5 क्षण / सूत्र०ा चतुरे, स्था०७ ठा०। उत्त०। सूत्र०। शीघ्रकारिणि, उत्त०५ अ०। बृता नि०चूल। ज्ञा०। अनु०। भ०। सकलकलाकुशले, कल्प०६ क्षण। कार्याणाविलम्बकारिणि, उपा०७ अ०। जी०। आ० म०। कल्प०। रा०ा उत्त०। भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य स्वनामख्यातेपदात्यानीकाधिपतौ च / स्था० 5 ठा०१उ०। दक्खज्ज पुं०(देशी) गधे, देवना० 5 वर्ग 34 गाथा। दक्खत्त न०(दक्षत्व) आश्रयकारित्वे, उत्त०३ अ०॥ साम्प्रतं दक्षत्वं, तत्सप्रसङ्गमाहसत्थाहसुओ दक्ख-तणेण सेट्ठीसुओ य रूवेण। बुद्धीऐं अमच्चसुओ, जीवइ पुन्नेहिं रायसुओ|१९६|| दक्खत्तणयं पुरिसस्स पंचगं सइगमाहु सुंदेरं / बुद्धी पुण साहस्सा, सयसाहस्साइँ पुन्नाई॥१६७।। दक्षत्वं पुरुषस्य सार्थवाहसुतस्य पञ्चकमिति। पञ्चपफलम्। शतिकं शतफलमाह सौन्दर्य श्रेष्ठिपुत्रस्य / बुद्धिः पुनः सहस्रवती सहस्रफला मन्त्रिपुत्रस्य शतसहस्राणि पुण्यानि शतसहस्रफलानि राजपुत्रस्येति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु कथानकादवसेयः। तच्चेदम्-"जहा बंभदत्तो कुमारो, कुमारामचपुत्तो, सेट्टिपुत्तो, सत्थवाहपुत्तो। एते चउरो वि परोप्परं उल्लावेइ--जहा को भे केण जीवति? तत्थ रायपुत्तेण भणियं-अहं पुग्नेहिं जीवामि। कुमारामच्चपुत्तेण भणियं-अहं बुद्धीए। सेट्टिपुत्तेण भणियं-अहं रूवस्सित्त–णेणं / सत्थवाहपुत्तो भणति-अहं दक्खत्तणेण / ते भणतिअण्णत्थ गंतुं विण्णाणेमो। ते गया अन्नं नयरं जत्थ ण णज्जति। उजाणे आवासिता। दक्खस्स आदेसो दिन्नो-सिग्छ भत्तपरिव्ययं आणेहि। सो वीहिं गंतु एगस्स्थैरवाणिययस्स आवणे ठिओ। तस्स बहुया कइया एंति। तदिवस को वि ऊसवो, सोण पहुप्पत्ति पुडए बंधेउ। ततो सत्थवाहपुत्तो दक्खत्तणेण जस्सजंउवउज्जति लवणतेल्लघयगुडसुंठिमिरिय एवमादि तस्स तं देति / अतिविसिट्ठो लाभो लद्धो / तुट्ठो भणति-तुम्हेऽत्थ आगंतुया, उयाहु वत्थव्वया? सो भणति-आगंतुया / तो अम्ह गिहे असणपरिग्गह करेजह / सो भणति-अन्ने मम सहाया उज्जाणे अत्थंति, तेहिं विणा णाह भुंजामि। तेण भणियं-सव्वे वि एंतु, आगया। तेण तेसिं भत्तसमालहणतंबो-लादि उवउत्तं, तं पंचण्हं रूवयाणं / वितीयदिवसे रूवस्सी वणिय-पुत्रो वुत्तोअज्ज तुमे दायट्यो भत्तपरिव्वओ। एवं भवउ त्ति सो उद्देऊण गणियापाडगं गओ अप्पयं मंडेउं / तत्थ य देवदत्ता नाम गणिया पुरिसवेसिणी बहूहिं रायपुत्तसेट्टिपुत्ताऽऽदीहिं मग्गिया णेच्छति। तस्स यतं रूवसमुदायं दवण खुभिया। पडिदासियाए गंतूण तीए माउए कहियं-जहा दारिया सुंदरजुवाणे दिट्टि देइ। तओ सा भणति-भय एवं मम गिहनणुवरोहण एजह। इहेव भत्तवेलं करेज्जहा तहेव आगता। सइओ दव्ववओ कओ। तइयदिवसे बुद्धिभतो अमद्यपुत्तो संदिट्ठो-अज्जतुमे भत्तपरिवओदायव्वो। एवं हवउत्ति सो गओ करणसालं। तत्थयतइओ दिवसो ववहारस्स छिज्जतस्स परिच्छेदं न गच्छद।दो सवत्तीओ। तासिं भत्ता उवरओ। एकाए पुत्तो अत्थि, इतरी अपुत्ता य। सा तं दारयं णेहेण उवचरति, भणति य-मम पुत्तो। पुत्तमाया भणइ य-मम पुत्तो।तासिं न परिच्छिनइ। तेण भणित--अहं छिंदामि ववहारं / दारओ दुहा कजतु, दव्वं पि दुहा एव / पुत्तमाया भणति-न मे दवेण कर्ज, दारगो वि तीए भवतु, जीवंत पासिहामि पुत्तं / इतरी तुसिणीया अत्थति / ताहे पुत्तो मायाए दिन्नो। तहेव सहस्सं उवओगो। चउत्थे दिवसे रायपुत्तो भणितोअज्ज रायपुत्त ! तुम्हेहिं पुण्णाहिएहि जोगवहणं वहियव्वं / एवं हवउ त्ति, तओ रायपुत्तो तेसिं अतियाओ णिग्गंतुं उज्जाणे ठिओ। तम्मि य नयरे अपुत्तो राया मओ। आसो अहिवासिओ, जम्मि रुक्खच्छाथाए रायपुत्तो निसण्णो साण उयत्त ति / तओ आसेण तस्सोवरि ठाइऊण हिसितं। राया य अभिसित्तो। अणेगाणि सयसहस्साणि जाताणि। एवं अत्थुप्पत्ती भवइ / दक्ख-तणं ति दारं गतं। इदाणिं सामभेयदंडुवप्पयाणेहिं चउहिं जहा अत्थो विढप्पति। एस्थिमं उदाहरणं-सीयालेण भमतेण हत्थी मओ दिट्ठो। सो चिंतेइ-लद्धो मए उवाएण ताव णिच्छएण खाइयव्वो जाव सीहो आगतो। तेण चिंतिय-सचिट्ठण ठाइयव्वं। एतस्स सीहेण भणियंकिं अरे ! भाइणज्ज ! अच्छिज ति? सीयालेण भणियं-आमं ति माम ! सीहो भणति-किमेयं मयं ति? सियालो भणति-हत्थी। केण मारिओ? वग्घेण / सीहो चिंतेइ-कहमहं ऊणजाति-एण मारियं भक्खामि? गओ सीहो। णवर वग्यो आगतो। तस्स कहियं-सीहेण मारिओ। सो पाणियं पाउंणिग्गतो। वग्यो नट्ठो। एस भेओ। जाव काओ आगतो। तेण चिंतियंजइ एयस्स न देमि तो काउ काउत्ति वासियसद्देणं अण्णे कागा एहिति। तेसिं कागरणसद्देणं सियालाइ अन्ने बहवे एहिति। कित्तिया वारेहामि / अओ एतरस उपप्पयाणं देमि, तेण तओ तस्स खंडं छित्ता दिण्णं / सो
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________________ दक्खत्त 2441- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दक्खुवाहिय तं चित्तूण गतो। जाव सियालो आगतो। तेण णायं-एयस्स हढेण वारणं म्यर्थे डा। प्रथमाऽऽद्यर्थविशेषिते दक्षिणदिग्देशार्थे भाम्यदिशि, यज्ञशेषे करेमि, भिउडि काऊण वेगो दिण्णो। णट्टो सियालो। उक्तं च- "उत्तम कर्मणः साङ्गताऽर्थ देये द्रव्ये च / वाच०। दाने, ज्ञा०१ श्रु० 16 अ०॥ प्रणिपातेन,शूरं भेदेन योजयेत्। नीचमल्पप्रदानेन, समं तुल्यपराक्रमः आ०म०। "दक्खिणाए पडिलम्भो, अस्थिवाणस्थिवा पुणो।" सूत्र०२ // 1 // '' इत्युक्तः कथागाथाया भावार्थः / / 166 / / 167 / / दश०३०॥ श्रु०५ अ०। स्था०1 यज्ञपल्याम्, “अध्वरस्येव दक्षिणा।" इति रघुः / दक्खत्तं भंते ! साहू, आलसियत्तं साहू? जयंती ! अत्थेगइ- | प्रतिष्ठायाम दक्षिणकालिकायां रुचिप्रजापतेः कन्यायाम, परिक्रय द्रव्ये, याणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं आलसि-1 नायिकाभेदे च / स्त्री०। वाचा यत्तं साहू / से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ-तं चेव०जाव साहू? | दक्खिणायण न०(दक्षिणाऽयन) दक्षिणस्यामयनं गमनम्। तत्यस्मिन् जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया०जाव विहरंति, एएसि णं काले, कर्कट वा रविसंक्रमणे तदादि षण्मासे काले च / वाच०। ज्यो० जीवाणं आलसियत्तं साहू / एएसिणं जीवा अलसाउमाणा णो (अत्राधिक तु 'अयण' शब्दे प्रथमभागे 750 पृष्ठे द्रष्टव्यम् ) बहूणं जहा सुत्ता तहा अलसा भाणियव्वा, जहा जागरा तहा दक्खिणावह पुं०(दक्षिणापथ) 7 त०। ऋक्षवदवन्तिनगरीमति-क्रम्य दक्खा भाणियव्वा०जाव संजोएत्तारो भवंति। एएणं जीवादक्खा दक्षिणदिग्वर्तिदेशभेदे, वाच० "इतो य वइरस्सामी दक्खिणावहे समाणा बहू हिं आयरियवेयावच्चे हिं उवज्झायवेयावच्चे हिं विहरइ।' आ०म०१अ०२ खण्ड। आ०चूला वाचा थेरवेयावचेहिं तवस्सिवेयावचेहिं गिलाणवेयावचेहिं सेहवेया दक्खिण्ण न०(दाक्षिण्य) दक्षिणस्य भावः ध्यज् / अनुकूलत्वे, दर्श०२ वचेहिं कुलवेयावचेहिं गणवेयावच्चेहिं संघवेयावच्चेहिं साहम्मि तत्त्व / दक्षिणार्हे क्रत्विजि, वाचन मार्दवे, द्वा०द्वा० यवेयावच्चेहि अत्ताणं संजोएत्तारो भवंति / एएसि णं जीवाणं दाक्षिण्यलक्षणमाहदक्खत्तं साहू, से तेणटेणं तं चेव० जाव साहू। भ०१२ श०२ उ०) दाक्षिण्यं परकृत्येष्वपि योगपरः शुभाऽऽशयो ज्ञेयः। दक्खपइण्ण पुं०(दक्षप्रतिज्ञ) दक्षा निपुणा प्रतिज्ञा यस्य स तथा / समीचीनमेव प्रतिज्ञा करोति, तां च सम्यड् निर्वाहयति / कृतायाः गाम्भीर्यधैर्यसचिवो, मात्सर्यविधातकृत् परमः / / 4 / / समीचीनप्रतिज्ञायाः सम्यनिर्वाहके, कल्प०५ क्षण। दाक्षिण्यं पूर्वोक्तस्वरूपं परकृत्येष्वपि परकार्येष्वपि योगपर उत्साहपरः दक्खा स्त्री०(द्राक्षा) मृद्वीकायाम्, स्था०४ ठा०३ उ०। प्रव०। शुभाऽऽशयः शुभाध्यवसायो ज्ञेयः, गाम्भीर्यधैर्यसचितः परैरलब्धमध्यो दक्खिण पुं०(दक्षिण) दक्ष-इनन्। सर्वनायिकासु समानुरागे नायकभेदे, गम्भीरस्तद्भावो गाम्भीर्य, धैर्य धीरता स्थिरत्वं ते गाम्भीर्यधैर्ये सचिवौ मध्यदेशाद्दक्षिणे देशे च / वाच० ज०। ज्यो। शरीरस्य दक्षिणे भागे, सहायावस्येति, मात्सर्यविघातकृत् परप्रशंसाऽसहिष्णुत्वविघातकृत्. अनुत्तरे, सरले, परच्छन्दानुवर्तिनि, अवामभागस्थे, औदार्यवति च। परमः प्रधानः शुभाऽऽशय इति // 4|| षो०४ विव०। त्रि०ा वाच०। आ०म०। कल्पा दक्खु त्रि०(दक्ष) निपुणे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३उ०। दक्खिणकूलग पुं०(दक्षिणकूलक) यैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव वस्तव्य *दृष्ट नका दर्शने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। तेषु, औ०। भला नि *पश्य पुं०। पश्यतीति पश्यः / दर्शके, सूत्र०१ श्रु०२ अ० ३उ०। दक्खिणत्त न०(दक्षिणत्व) षष्ठे सत्यवचनातिशये, रा०। दक्खुदंसण न०(दक्षदर्शन) सर्वज्ञदर्शने, सूत्र०१ श्रु०२ अ० ३उ०। *दाक्षिणात्य त्रि० / दक्षिणस्यां दिशि भवः / दक्षिणात्यक् / नारिकेले, सर्वज्ञोक्तशासनानुयायिनि च। सूत्र०१ श्रु०२ अ०३३०॥ दक्षिणदिग्भवमात्रे, त्रि०ा वाचल। दाक्षिणात्यानामसुरकुमाराऽऽदीनाम्। *दृष्टदर्शन नासर्वज्ञदर्शन, सर्वज्ञोक्तशासनानुवर्तिनि च। सूत्र०१ श्रु०२ प्रज्ञा०२पद। अ०३उ०। दक्खिणपच्छिमा स्त्री०(दक्षिणपश्चिमा) नैर्ऋत्यकोणे, आ०म०१ | *पश्यदर्शन न०। सर्वज्ञाभ्युपगमे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३उ०॥ अ०२ खण्ड। दक्खुवाहिय त्रि०(दक्षव्याहृत) सर्वज्ञोक्ते सर्वज्ञाऽऽगमे, सूत्र०१ श्रु० दक्खिणपुव्वा स्वी०(दक्षिणपूर्वा) दक्षिणपूर्वयोरन्तराला दिक् दक्षिणपूर्वा / | अ०३उ०। अग्निकोणे, वाचा चं०प्र० *दृष्टव्याहृत त्रि०ा दृष्टातीतानागतव्यवहितसूक्ष्मपदार्थदर्शिनाऽभिहिते दक्षिणमहुरा स्त्री०(दक्षिणमथुरा) उत्तरमथुरायाः सकाशादृक्षिणस्यां सर्वज्ञाऽऽगमे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३उ० दिशि स्थितायां मथुरायाम्, दर्श०१ तत्त्व *पश्यव्याहत त्रि० / पश्येन सर्वज्ञेन व्याहृतमुक्तं पश्यव्याहृतम्। सर्वज्ञोक्ते दक्खिणा अव्य०(दक्षिणा) दिग्देशवृत्तेर्दक्षिणशब्दात् प्रथमापञ्चमीसप्त- सर्वज्ञाऽऽगमे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३उ०।
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________________ दग 2442 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दगतीर दग न०(दक) पानीये, ग०३ अधि० स्था०। प्रश्न०। आ०म०। दश०। | प्रज्ञा०। नि०चू०। कल्प०। बृ०। अप्काये, आ०चू०४ अ० आव०/ अष्टाशीतिमहाग्रहान्तर्गते स्वनामख्याते ग्रहे, चं०प्र०२० पाहु०। "दो दगा।' स्था०२ ठा०३उ०। कल्प०। सू०प्र०) दगकलसग पुं०(दककलशक) उदकभृते भृङ्गारे, रा०। दगकुंभग पुं०(दककुम्भक) दकघटे. रा०। दगगब्भ पुं०(दकगर्भ) दकस्योदकस्य गर्भा इव गर्भादकगर्भाः। कालान्तरे जलवर्षणस्य हेतुषु तत्संसूचकेषु, स्था०४ ठा०४उ० (चतुर्दा दक्गर्भाः 'उदगगब्भ' शब्दे द्वितीयभागे 771 पृष्ठे द्रष्टव्याः) दगछड्डण न०(दकछर्दन) उदकप्रतिष्ठापने, उदकप्रक्षेपस्थाने च / आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६उ०। दगछड्डणमत्तय पुं०(दकछर्दनमात्रक) उदकप्रतिष्ठापनमात्रके, उपकरणधावनोदकप्रक्षेपस्थाने च। आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६उ०। दगणिग्गम पुं०(उदकनिर्गम) जलवीणिकायाम, नि०चू० 10 उ०।। दगतीर न०(उदकतीर) उदकाऽऽकराद्यतो नीयते उदकं तस्मिन्, नि०चू०१६ उ०॥ उदकोषकण्ठे, बृ०१ उ०। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दगतीरंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा णिद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिट्ठवित्तए, सज्झायं वा करित्तए,धम्मं जागरित्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए||१६|| न कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा दकतीरे उदकोपकण्ठे स्थातुं वा ऊर्द्धस्थितस्यासितुम्, निषत्तुं वा उपविष्टस्य स्थातुम्, त्वग्वतयितुं वा दीर्घ कार्य प्रसारयितुम्, निद्रायितुं वा सुखप्रतिबोधावस्थया निद्रया शयितुम्, प्रचलायितुं वा स्थितस्य स्वप्तुम्, अशनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिम वाऽऽहारमाहारयितुम, उच्चार वा प्रस्रवणं वा खेलं वा सिडाणं वा परिष्ठापयितुम, स्वाध्यायं वा वाचनाऽऽदिकं कर्तुम्, धर्म ध्यानलक्षणं जागरयितुम्, धातूनामनेकार्थत्वात् (झाणं वा झाइत्तए) ध्यानमनुस्मर्तुमिति, कायोत्सर्ग वा चेष्टाऽभिभवभेदाद् द्विविधकायोत्सर्गलक्षणं स्थानं स्थातुं, कर्तुमित्यर्थः / एष सूत्रार्थः / / 19 / / __ अथ नियुक्तिविस्तरःदगतीरें चिट्ठणाऽऽदी,जूवगें आयावणा य बोधव्वा। लहुओ लहुया लहुया,तत्थ वि आणाइणो दोसा / / 252 / / दकतीरे स्थानाऽऽदीनि कुर्वतः प्रत्येकं लघुको मासः, यूपके वक्ष्यमाणलक्षणे वसतिं गृह्णाति चतुर्लघुकाः, आतापना प्रतीता, तामपि दकतीरे कुर्वन् चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तं बोद्धव्यम्, तत्रापि प्रत्येकमाज्ञाऽऽदयो दोषाः। अत्र दकतीरस्य प्रमाणे च आदेशाः सन्ति, तानेव दर्शयतिनयणे पूरे दिटे, तडि सिंचण वीइमेव पुढे य। अत्यंते आरण्णय-गामपसुमणुस्सइत्थीओ।।२५३।। नोदक आह- उदकाऽऽकराद्यत्रोदकं नीयते तद्दकतीरम् / यावन्मात्रं नदीपूरेणाऽऽक्रम्यते तद्दकतीरम् / यद्वा-यत्र स्थितैर्जल दृश्यतेतद्दकतीरम्। अथवा-या नद्यास्तटी भवति / यदि वा-यत्र जले स्थिते जलस्थितेन शृङ्ग काऽऽदिना सिच्यते। अथ यावन्तं भूभागं वीचयः स्पृशन्ति। यदि वा यावान् प्रदेशो जलेन स्पृष्टः / एतदुदकतीरम् / सूरिराहयानि त्वया दकतीरलक्षणानि प्रतिपादितानि, तानि न भवन्तीति, किं तु आरण्यका ग्रामेयका वा पशवो मनुष्याः स्त्रियो वा जलार्थिन आगच्छन्तः साधु यत्र स्थितं दृष्ट्वा तिष्ठन्ति, निवर्तन्ते वा तद्दकतीरमुच्यते। एतदेव सविशेषमाहसिंचणवीईपुट्ठा, दगतीरं होइन पुण तम्मत्तं / ओतरिउत्तरिउमणा, जहिं दट्ट तसंति तं तीरं / / 254|| नयनपूरदृष्टप्रभृतीनां सप्तानामादेशानां मध्याचरमाणि त्रीणि सिञ्चनचीचिस्पृष्टलक्षणानि दकतीरं भवन्ति, न पुनस्तावन्मात्रमेव, किं तु आरण्यका ग्रामयेका वा तिर्यग्मनुष्या जलपानाऽऽद्यर्थमवतरीतुमुत्तरीतुमनसो जलचरा वा यत्र स्थितं साधं दृष्ट्वा त्रस्यन्ति, तदव्यभिचारि दकतीरमुच्यते। तत्र च स्थाननिषीदनाऽऽदिकरणे दोषान् दर्शयति-- अहिगरणमंतराए, छेदण ऊसास अणहियासे य / आहणण सिंच जलचर-खहथलपाणाण वित्तासो।।२५५।। दकतीरे तिष्ठतः साधोरधिकरणं वक्ष्यमाणलक्षणं, बहूनां च प्राणिनामन्तराय भवति तथा साधोः सम्बन्धिनीना पादरेणूनां छेदनकाः सूक्ष्मावयवरूपा उड्डीय पानीये निपतेयुः / यद्बा-छेदनं नाम ते प्राणिनः साधु दृष्ट्वा प्रतिनिवृत्ताः सन्तो हरिताऽऽदिच्छेदनं कुर्वते। (ऊसास त्ति) उच्छासविमुक्ताः पुद्गला जले निपतन्ति, ततोऽप्कायविराधना। यदि वा तेषां प्राणिनां तृषाऽऽत्तानामुच्छासोदञ्चनं भवेत्, मरणमित्यर्थः / (अणहियासे इति) अनधिसहा-स्तृषामसहिष्णवस्ते अतीर्थ जलमवतरेयुः, साधुर्वा कश्चिदनधि-सहस्तृषार्त्तः पानीयं पिबेत्, दुष्टगवाश्वाऽऽदिना वा तस्याऽऽहननं भवेत्, दकतीरस्थित वा अनुकम्पया प्रत्यनीकतया वा कश्चिद् दृष्ट्वा सिञ्चन कुर्यात्. जलचरखचरस्थलचरप्राणिना च वित्रासो भवेत्। तत्राधिकरणं व्याचिख्यासुराहदवण वा नियत्तण, अभिहणणं वा वि अन्नरूवेणं / गामाऽऽरण्णपसूणं, जा जहिं आरोवणा भणिया॥२५६।। साधुं दृष्ट्वा आरण्यकाऽऽदिप्राणिनां निवर्त्तनं भवति / अभिहननं वा परस्परं तेषां भवेत्। (अन्नरूवेणं ति) अन्यतीर्थन वा ते जलमवतरेथुः। तेषां च ग्रामाऽऽरण्यपशूनां निवर्तनाऽऽदौ षट् कायोपमर्दः संभवेत् / "छक्काय चउसुलहुगा" इत्यादिना या यत्राऽऽरोपणा सा तत्र द्रष्टव्या। एष नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतिपडिपथनियत्तमाणम्मि अंतरायं च तिमरणे चरिमं /
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________________ दगतीर 2443 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दगतीर सिग्घगइ तंनिमित्तं, अभिघातो काय आयाए।।२५७।। आरण्यकास्तिर्यश्चः तिर्यक् स्त्रियो वा पानीय पिवाम इत्याशया तीर्थाभिमुखमायान्तं साधु दृष्ट्वा, दकतीरस्थितं वा दृष्ट्वा प्रतिपथेन निवर्तन्ते, निवर्तमाने च तत्राऽऽरण्यकप्राणिगणे साधोरधिकरणं भवति / तेषां च तृषाऽऽर्तानामन्तराय, चशब्दात् परितापना च कृता भवति / तत्रैकस्मिन् परितापिते छेदः, द्वयोस्तु मूलं,त्रिष्वनवस्थाप्य, चतुर्ष परितापितेषु पाराशिकम्। एतेनान्तरायपदं व्याख्यातम्। (तिमरणे चरिमं ति) यद्येकस्तृषाऽऽर्तो नियते ततो मूलं, द्वयोमियमाणयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु म्रियमाणेषु साधोः पाराञ्चिकम् / एतेनोच्छ्रासपदं विवृतम् / साधु दृष्ट्वा ते तिर्यची भीताः शीघ्रगत्या पलायमाना अन्यमन्योऽन्यं वा अभिधातयेयुः, षट् का-याना वा तन्निमित्तमभिघातं विदध्युः / तत्र "छक्काय चउसु लहुगा'' इत्यादिकं कायविराधनानिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्, तृप्ता वा तिर्यञ्चस्तस्यैव साधोराहननाऽऽदिना आत्मविराधनां कुर्युः। अनेन हननपदं व्याख्यातम्। "अणहियासे अन्नरूवेणं (256)" इति पदद्वयं भावयतिअत. पवाते सो चेव मग्गों अपरिहुत्तहरियाऽऽदी। ओवगें कूडे मगरा, जइ घुटे तसे य दुहओ वि / / 258 // अथ तृषामसहिष्णवस्ते गवादय अतटेनादीर्घेण वाऽवतरेयुः, छिन्नटङ्के वाऽवपातं दद्युः, ततः परितापनाऽऽद्युत्था सैवाऽऽरोपणा / अथ वा स एवाऽऽभिर्नवा मार्गः प्रवर्तते, तत्र चापरिभुक्तेन वा काशेन गच्छन्तो हरिताऽऽदीनां छेदनं कुर्युः, तत्र तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / एतेन छेदनपद व्याख्यातम्। (ओवग त्ति) गर्ता, तत्र प्रपतेयुः, अतीर्थे वा केनचित् कूट स्थापितं भवेत् तेन कूटेन बद्धा विनाशमश्नुवते / एतोपि छेदनपदं व्याख्यातम् / उदकेन वा जलमवतीर्णा मकराऽऽदिभिः कवलीक्रियन्ते। अन्यतीर्थेनातीर्थेन वा साधुनिमित्तमवतीर्णास्तु समविरहिते अप्काये यावतः घुण्टान् कुर्वन्ति तावन्ति चतुर्लघूनि। (तसे यत्ति) अचित्ते अप्काये यदि द्वीन्द्रियमश्राति ततः षट् लघुकं, चतुरिन्द्रिये छेदः, पञ्चेन्द्रिये एकस्मिन् मूलं, द्वयोरनवस्थाप्यम्, त्रिषु पञ्चेन्द्रियेषु पाराञ्चिकम्। (दुहओ वि त्ति) यत्राप्कायोऽपि, सचित्तद्वीन्द्रियाऽऽदयश्च त्रसास्त-त्रद्वाभ्यामकायसविराधनाभ्यां निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / सर्वत्रापि च द्वीन्द्रियेषु षट् सुत्रीन्द्रियेषु.......(?) चतुरिन्द्रियेषु चतुर्षु पञ्चेन्द्रियेषु त्रिषु पाराश्चिकम्। एते तावदारण्यकतिर्यसमुत्था दोषा उक्ताः। अथ ग्रामेयकतिर्यक् समुत्थान् दोषानुपदर्शयतिगामेयकुच्छियाऽकुच्छिया य एकेक दुट्ठऽदुवा या दुट्ठा जह आरण्णा, दुगुंछियऽदुगुंछिया नेया॥२५६।। ते ग्रामेयकास्तिर्यञ्चो द्विविधाः-कुत्सिता जुगुप्सिताः, अकुत्सिता अजुगुप्सिताः, ते द्वयेऽपि यथा आरण्यकाः तथैव दोषानाश्रित्य ज्ञेयाः, जुगुप्सिताः साधुना गर्दभाऽऽदयः, अजुगुप्सिता गवाऽऽदयः / पुनरेकैके द्विविधाः-दुष्टा अदुष्टाश्च। तत्र ये जुगुप्सिता अजुगुप्सिता दुष्टाः ते द्वयेऽपि यथा आरण्यकास्तथैव दोषानाश्रित्य ज्ञेयाः। ये अजुगुप्सिता अदुष्टास्तेष्वपि यथासंभवं दोषा उपयुज्य वक्तव्याः। ययुत जुगुप्सिता अदुष्टास्तेषु दोषानाहभुत्तित्तरदोसे कुच्छियपडिणीयछोडे गिण्हणाऽऽदीया। आरण्णमणुयथीसु वि, ते चेव नियत्तणाऽऽईया।।२६०।। येन साधुना महाशब्दिका, या जुगुप्सिता तिरश्चीगृहस्थकाले भुक्ता, तस्य तां दृष्ट्वा स्मृतिः, इतरस्य कौतुकम्, एवं भुक्ताभुक्तसमुत्था दोषा भवन्ति / अथवा तासु जुगुप्सितासु तिरश्चीसु पार्श्ववर्तिनीषु प्रत्यनीकः कोऽपि (छोभत्ति) अभ्याख्यानं दद्यात्-"मयैष श्रमणको महाशब्दिका प्रतिसेवमानो दृष्टः / " इति / तत्र ग्रहणाऽऽकर्षणप्रभृतयो दोषाः / एवं ग्रामेयकाऽऽरण्यकेषु तिर्यक्षुदोषा उपदर्शिताः। अथ मनुष्येष्वभिधीयते(आरण्ण इत्यादि) मनुष्या द्विविधाः-आरण्यकाः, ग्रामेयकाश्च / तत्राऽऽरण्यकेषु पुरुषेषु त एव दोषाः, स्त्रीष्वप्यारण्यकासुत एव निवर्तनान्तरायाऽऽदयो दोषाः। एते चान्ये अभ्यधिका:-- पायं अपाउडाओ, सवराईआ तहेव निच्छेका। आरियपुरिसकुतूहल, आउभय पुलिंद आसु वहे / / 261 // प्रायो बाहुल्येन शबरीप्रभृतय आरण्यका अनार्यस्त्रियोऽपावृता वस्त्रविरहिता निश्छेका निर्लज्जाश्च भवन्ति, ततः साधुं दृष्ट्वा आर्योऽयं पुरुष इति कृत्वा कौतूहलेन तत्राऽऽगच्छेयुः, ताश्च दृष्ट्वा साधोरात्मपरोभयसमुत्था दोषा भावेयुः। तदीयपुलिन्दश्च तां साधुसमीपाऽऽयातां विलोक्य ईर्ष्याभरेण प्रेरितः साधोः, पुलिन्द्याः, उभयस्य वा आशुशीघ्रं वधं कुर्यात्। थीपुरिसअणायारे, खोभो सागारियं ति वा पहणे। गामित्थीपुरिसेहि वि, तच्चिय दोसा इमे अन्ने // 262|| अथवा स पुलिन्दः पुलिन्द्या सहानाचारमाचरेत्, ततः स्त्रीपुरुषानाचारे दृष्ट चित्तक्षोभो भवेत्, क्षुभिते च चित्ते प्रतिगमनाऽऽदयो दोषाः / यद्वा-स पुलिन्दस्ता प्रतिसेवितुकामः सागारिकमिति कृत्वा तं साधुं प्रहण्यात्। एते आरण्यकेषु स्त्रीपुरुषेषु दोषा उक्ताः / ग्रामेयकस्त्रीपुरुषेष्वपि त एव दोषाः / एतेचाऽन्येऽधिका भवन्तिचंकमणं निल्लेवण, चिट्टित्ता तम्मि चेवमहियं तु / अत्यंते संकापद, मन्नण दटुं सतीकरणं / / 263 / / चक्रमण, निर्लेपनं वा तत्र गृहस्थः कर्तुकामोऽपि साधुं दृष्ट्वा कश्चिदन्यत्र गत्वा करोति, कश्चित्तु तत्रैव तीर्थे साधुसमीपे गत्वा करोति, तथा (चिद्वित्त त्ति) कश्चिद् गृहस्थः साधुना सह गोष्ठीनिमित्तं तत्रैवं स्थित्वा पश्चादन्यत्र गच्छति, एवमधिक भवेत् / तथा दकतीरे तिष्ठति साधौ शड कापदं वक्ष्यमाणलक्षणमगारिणां जायते, मजनं च विधीयमानं दृष्ट्या स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनाम, उपलक्षणत्वात् अभुक्तभोगिनां कौतुकमुपजायते। अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवृणोतिअन्नत्थ व चंकम्मति, आयमणण्णत्थ वा वि वोसिरइ। कोनाली चंकमणे, परकूलातो वि तत्थेइ // 26 // कश्चिद्दकतीरे चक्र मणं करिष्यामीति भुक्तभोगिनामुपलक्षण त्वादभुक्तभोगिनां च कौतुकाभिप्रायेणाऽऽयातः साधुं दृष्ट्वा ततः स्थानादन्यत्र चक्र म्यते / वाशब्दात् कश्चिदन्यत्र चक्र -
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________________ दगतीर 2444 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दगतीर म्यमाणं साधुं विलोक्य तत्राऽऽगत्य चङ्क्रम्यते / एवमाचमनं निर्लेपनं तत्कर्तुकामः, संज्ञां वा व्युत्स्रष्टुकामः साधुं दृष्ट्वा अन्यत्र गत्वा, अन्यतो वा तत्राऽऽगत्य निर्लेपयति, व्युत्सृजति वा। तथा कश्चिदगारो गन्तुकामोऽपरकूले चक्रम्यमाणं साधु निरीक्ष्य (कोनालि त्ति) गोष्ठी, तां साधुना सह करिष्यामीति मत्वा तदर्थं च क्रमणं कर्तुं परकूलादपि तत्राऽऽगच्छति, सर्वत्र साधुनिमित्तमागच्छन्नागतस्तिष्ठति च षट्कायान् विराधयेत्। "अत्यंते संकापयं (263)" इत्यत्राऽऽहदगमेहुणसंकाए, लहुगा गुरुगा उ मूल निस्संके। दगतूरर्को चवीरग-पघंसकेसादलंकारे // 265 / / साधु दकतीरे तिष्ठन्तं दृष्ट्वा कश्चिदगारः शड्कां कुर्यात्-किमेष उदकपानार्थं तिष्ठति, उत मैथुने दत्तसंकेतां काश्चिदागच्छन्ती प्रतीक्षते / तत्रोदकपानशङ्कायां चतुर्लघु, मैथुनाऽऽशकायां चतुर्गुरु, निःश किते मूलम्। 'मजण ददु सतीकरणं (263)" इति पदं व्याख्यायते। कोऽपि मज्जनं कुर्वस्तथा कथञ्चिज्जलमास्फालयति यथा दकतूर्यमुदके मुखाऽऽदितूर्याणां शब्दो भवति / यद्वा-कोऽपि क्रौञ्चवीरकेण जलमाहिण्डते, क्रौञ्चवीरको नामपेट्टासदृशो जलयाननिवेशेः / (पघंस ति) स्नात्वा पटवासाऽऽदिभिः स्वशरीरं कोऽपि प्रघर्षति। यदा-(केसादलंकारे त्ति) केशवस्त्रमालाऽऽभरणालङ्कारैरात्मानमलङ्करोति, एतद् मजनाऽऽदिक दृष्ट्वा भुक्ताभुक्तसमुत्थाः समृत्यादयो दोषाः / एवं पुरुषेषु भणिताः। अथ स्त्रीदोषान् दर्शयतिमज्जणक्हणट्ठाणेसु अत्थते इत्थिणं ति गहणाऽऽदी। एमेव कुच्छितेतर-इत्थी सविसेस मिहुणेसु / / 266 / / सपरिग्रहस्त्रीणां वसन्ताऽऽदिपर्वणि, अन्यत्र वा या जलक्रीडा, यद्वा सामान्यतो मलदाहोपशमनार्थं स्नान, तन्मजनमुच्यते। तेषु जलवहनस्थानेषु स्त्रीणां संबन्धिषु तिष्ठन्तं तं दृष्ट्वा तदीयो ज्ञातिवर्गश्चिन्तयतिअस्मदीयस्त्रीणां मज्जनाऽऽदिस्थाने एष श्रमणः परिभवेन कामयमानो वा तिष्ठति, ततो दुष्टशील इतिकृत्वा ग्रहणाऽऽकषर्णाऽऽदीनि कुर्यात् / याः पुनरपि गृहस्त्रियस्ताः कुत्सिता रजक्यादयः, इतरा अकुत्सिता ब्राह्मण्यादयः, तत्राप्येवमेवाऽऽत्मपरोभयसमुत्थाऽऽदयो दोषाः। मिथुनेषु स्त्रीपुरुषेषु मैथुनक्रीडया रममाणेषु सविशेषतरा दोषा भवन्ति / ये च चक्रमणाऽऽदयो दोषाः पूर्वमुक्तास्तेऽप्यत्र तथैव द्रष्टव्याः। यत एते दोषा अतो दकतीरे अमूनि सूत्रोक्ताऽऽदीनि न कुर्यात्। चिट्ठणयनिसीयणया, तुयट्ट निद्दा य पयल सज्झाए। झाणाऽऽहारवियारे, काउस्सग्गे य मासलहुं // 267 / / स्थाने निषदने 2 त्वग्वर्तन३ निद्रायां 4 प्रचलायां 5 स्वाध्याये 6 ध्याने 7 आहारे 8 विचारे 6 कायोत्सर्ग चेति 10 दशसु पदेषु दकतीरे विधीयमानेषु प्रत्येक मासलघु; असमाचारीनिष्पन्नमिति भावः। (वृ०) (निद्रास्वरूपं 'णिद्दा' शब्दे तथानिद्रानिद्रास्वरूपं च 'णिहाणिवा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2072 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) (प्रचलास्वरूपं 'पयला' शब्दे वक्ष्यते, प्रचलाप्रचलास्वरूपंच 'पयलापयला' शब्दे वक्ष्यते) अथ विस्तरतः प्रायश्चित्तं वर्णयितुकाम आह. संपाइमे असंपाइमे य दिढे तहेव अद्दिद्वे / पणगं लहु गुरु लहुगा, गुरुग अहालंदपोरिसी अहिया 266 दकतीरे संपातिमे असंपातिमे वा उभयस्मिन्नपि वक्ष्यमाणलक्षणे दृष्टोऽदृष्टो वा तिष्ठति, कियन्त पुनः कालमित्याह यथा लन्दपौरुषीम्। तत्र यथालन्दं त्रिधाजघन्यं, मध्यमम्, उत्कृष्ट वा / तत्र तरुणस्त्रिया उदकाः करो यावता कालेन शुष्यति तज्जघन्यम्, उत्कृष्ट पूर्वकोटीप्रमाणम्। तयोरपान्तराले सर्वमपि मध्यमम्। तत्र जघन्येन यथालन्देनाधिकारः / एवं यथालन्दाऽऽदिभेदात्रिविधं कालं दकतीरे तिष्ठतः पञ्चक लघुको....(?) गुरुकाश्चत्वारोमासाः प्रायश्चित्तम् / एतदुपरिष्टा व्यक्तीकरिष्यते। अथ संपातिमासंपातिमपदे व्याख्यातिजलजा तु असंपाती, संपातिम सेसगा उपंचिंदी। अहवा मोत्तु विहंगे, होंति असंपातिमा सेसा // 270 / / जलजा मत्स्यमण्डूकाऽऽदयः, तेऽसंपातिमाः, तैर्युक्तं दकतीरमप्यसंपातिमम् / शेषाः पञ्चेन्द्रियस्थलचराः खेचरा वा येऽन्तरादागत्य संपतन्ति ते संपातिमाः, तैर्यधुक्तं तत्संपातिमम्। अथवा-विहङ्गाः पक्षिणो यत्राऽऽगत्य संपतन्ति तत्संपातिमम, तान् मुक् त्वा शेषाः स्थलचरा जलचरा वा सर्वेऽप्यसंपातिमाः, तद्युक्तं दकतीरमसंपातिमम्। अथ पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तं व्यक्तीकुर्वन्नाहअस्संपाइ अहालंदें अदिढे पंच दिट्ठि मासो उ। पोरिसि अदिहि दिठे, लहुगुरु अहिगुरुगलहुआओ / / 271 / / असंपातिमे दकतीरे जघन्यं यथालन्दमदृष्टस्तिष्ठति पञ्चरात्रिन्दिवानि. दृष्टस्तिष्ठति मासलधु, असंपातिमे पौरुषीमदृष्टस्तिष्ठति मासलघु, दृष्टस्तिष्ठति मासगुरु, अधिकां पौरुषीमदृष्टस्तिष्ठतिमासगुरु, दृष्टस्तिष्ठति चतुर्लघु / एवमसंपातिमे भणितम्। संपाइमे वि एवं,मासादी नवरिठाइ चउगुरुए। भिक्खूवसमायरिए, तवकालविसेसिवा अहवा।।२७२।। संपातिमेऽप्येवमेवा पक्रान्त्या प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम्, नवर लधुमासादारभ्य चतुर्गुरुके तिष्ठति एतद्दोषतः प्रायश्चित्तमुक्तम् / अथवा-एतान्येव भिक्षुवृषभाभिषेकाऽऽचार्याणां तपःकालविशेषितानि भवन्ति। तथाहिपूर्वोक्तं सर्वमपि प्रायश्चित्तं भिक्षोस्तपसा कालेन च लघुकम्, वृषभस्य कालगुरु तपोलघु, अभिषेकस्य तपोगुरु काललघु, आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकम्। अत्र चाभिषेकपदं गाथायामनुक्तमपि तन्मध्यपतितस्तद्ग्रहणेनह गृह्यते' इति न्यायात्प्रतिपत्तव्यम्। एष द्वितीय आदेशः। अहवा भिक्खुस्सोवं, वसभे लहुगाइ ठाइ छल्लहुए। अभिसेगे गुरुगादी, छग्गुरुलहुछेदों(?) आयरिए // 273 / / अथ यदेतत्प्रायश्चित्तमुक्तं तद्भिक्षोर्द्रष्टव्यम् / वृषभस्य तु मासलघुकादारभ्य षट् लघुके तिष्ठति, तत्रासंपातिमे यथालन्दपौरुषीसमधिकपौरुषीषु दृष्टादृष्टयोर्मासलघुकादारभ्य चतुर्गुरुके तिष्ठति, संपातिमे एतेष्वेव स्थानेषु मासगुरुकादारभ्य षट् लघुके पर्यवस्यति। अभिषेकस्योपाध्यायस्य असंपातिमे मासगुरुकादारभ्य षट् लधुके तिष्ठति, संपातिमे चतुर्लघुकादारभ्य षड् गुरुके तिष्ठति, आचार्यस्य च
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________________ दगतीर 2455 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दगतीर तुर्लघुकादारभ्य षड् गुरुके तिष्ठति, संपातिमे चतुर्गुरुकादारभ्य छेदे निष्ठामुपगच्छति। एष तृतीय आदेशः। अथ चतुर्थमादेशमाहअहवा पंचण्हं संजईण समणाण चेव पंचण्ह / पणगादी आरद्धं, नेयव्वं जाव चरिमपदं॥२७४।। अथवा क्षुल्लकाऽऽदिभेदात् पञ्चानां संयतीना, श्रमणानां चैवपञ्चानां पञ्चकाऽऽदेराब्धं प्रायश्चित्तं तावन्नेतव्यं यावच्चरमपदं पाराश्चिकम्। एतदेव सविशेषमाहसंजइ संजय तह संपऽसंप अहलंदपोरिसअहिया। चिट्ठाई अद्दिटे, दिट्टे पणगाइ जा चरिमं // 275 / / संयत्य:-क्षुल्लिका, स्थविरा, भिक्षुणी, अभिषेका, प्रवर्तिनी चेति पञ्चविधाः, संयता अपि क्षुल्लकस्थविरभिक्षुकोपाध्यायाऽऽचार्यभेदात् पञ्चधा / (संपऽसंप त्ति) सूचकत्वात् सूत्रस्य संपातिममसंपातिम वा दकतीरं यथालन्दपौरुष्यधिकपौरुषीलक्षणं कालत्रयं, स्थाननिषदनाऽऽदीनि च दशपदानि, अदृष्टे दृष्ट चेति पदद्वयम्, एतेषु पदेषु पञ्चकाऽऽदिकं चरमप्रायश्चित्तं यावन्नेतव्यम्।। कियन्ति पुनः प्रायश्चित्तस्थानानि भवन्तीति दर्शयतिपण दस पनरस वीसा, पणवीसा मास चउरों छच्चेव। लहु गुरुगा सव्वेते, छेदो मूलं दुगं चेव // 276|| पञ्चरात्रिन्दिवानि, दशरात्रिन्दिवानि, पञ्चदशरात्रिन्दिवानि, विंशतिरात्रिन्दिवानि, पञ्चविंशतिरात्रिन्दिवानि, मासिक, चत्वारो मासाः, षण्मासाश्च / एतानि सर्वाणि लघुकानि गुरुकाणि च / तद्यथालघुक पञ्चरात्रिन्दिवानि इत्यादि / एतानि षोडश संजा-तानि। छेदो, मूलं, द्विकं चैव-अनवस्थाप्यपाराश्चिक युगम् / एवं विंशतिरात्रिन्दिवानि प्रायश्चित्तस्थानानि भवन्ति / अथाऽमीषामेव पदानां चारणिकां कुर्वन्नाहपणगाइ असंपाइम, संपाइम दिट्ठमेवऽदिट्टे य। चउगुरुए ठाइ खुड्डी, सेसाणं वुड्डि एक्के कं // 277 / / असंपातिमे यथालन्दमदृष्टा क्षुल्लिका तिष्ठति लघुपञ्चकं, दृष्टा तिष्ठति गुरुपञ्चक पौरुषीमदृष्टा तिष्ठति गुरुपञ्चकं, दृष्टा तिष्ठति लघुदशकम्, अधिकपौरुषीमदृष्टा तिष्ठति लघुदशकम, दृष्टायां गुरु-दशकम्। संपातिमे यथालन्दमदृष्टा तिष्ठति गुरुपञ्चकं दृष्टा तिष्ठति लघुदशं, पौरुषीमदृष्टा तिष्ठति लघुदशकं, दृष्टायां गुरुदशकं, समधिकां पौरुषीमदृष्टायां तिष्ठन्त्या गुरुदशकम, दृष्टायां लघुपञ्चदशकम् / एवमूर्द्धस्थानमाश्रित्योक्तम् / निषीदन्त्यास्तु गुरुकं पञ्चरात्रिन्दिवेभ्यः प्रारभ्य गुरुपञ्चदशरात्रिन्दियेषु, त्वग वर्तन कुर्वत्या लघुदशरात्रिन्दिवादारभ्य लघुर्विशतिरात्रिन्दिवेषु, एवं निद्रायमाणाया गुरुविंशतिरात्रिन्दिवेषु, उच्चारप्रस्रवणे आचरन्त्या लघुमासे, स्वाध्याय विदधानाया मासगुरुके, धर्मजागरिकया जाग्रत्याश्चतुर्लधुके, कायोत्सर्ग कुर्वत्याश्चतुर्गुरुके इति / एवं क्षुल्लिकायाः प्रायश्चित्तमुक्तम् / शेषाणां तु स्थविराऽऽदीनामेकैकं स्थानमुपरि वर्द्धते, अधस्ताच एकैकं स्थानं हीयते। स्थविराया गुरुपञ्चकादारब्धं यल्लघुकं यावद् भिक्षुण्या लघुदशकादारब्धं षट् गुरुकान्तम् / अभिषेकाया गुरुदशकादारब्धं छेदपर्यन्तम् / प्रवर्त्तिन्या लघुपश्चदशकादारब्धं मूलान्तमवसातव्यम्। एतदेवाऽऽहछल्लहुऐं ठाइ थेरी,भिक्खुणि छग्गुरुऍ छेदें गणिणी तु। मूले पवत्तिणी पुण, जह मिक्खुणि खुड्डए एवं / / 278|| स्थविरा षट् लघुके, भिक्षुणी षट् गुरुके, गणिनी-अभिषेका, सा छेदे, प्रवर्तिनी पुनर्मूल तिष्ठतीति / यथा च भिक्षुण्यामेवं क्षुल्लकेऽपि द्रष्टव्यम्। दशभ्यो लघुरात्रिन्दिवेभ्यः षट् गुरुकान्तमसंपातिमाऽऽदिषु प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः। गणिणिसरिसो उथेरो, पवत्तिणि विभागसरिसओ भिक्खू / अद्भुकंती एवं,सपयं सपयं गणिगुरूणं / / 276 / / गणिनी अभिषेका, तस्याः सदृशः स्थविरो, यथा अभिषेकायाः गुरुदशकमादौ कृत्वा छेदान्त भणितं, तथा स्थविरस्यापि भणनी-यमिति भावः। प्रवर्त्तिन्याः प्रायश्चित्तविभागेन सदृशो भिक्षुर्भवति, लघुपञ्चदशकात्प्रभृति मूलान्तं प्रायश्चित्तं तस्याऽपि ज्ञेयमिति हृदयम् / एवमर्धापक्रान्ताधस्तनैकपदहासोपरितनपदैकवृद्ध्यात्मिकया गणी उपाध्यायो, गुरुराचार्यः, तयोरपि स्वपदं स्वपदं यावत्प्रायश्चित्तं नेतव्यम् / तत उपाध्यायस्य गुरुपञ्चदशकमादौ कृत्वा स्वपदमनवस्थाप्यम्, आचार्यस्य लघुविंशतिरात्रिन्दिवादारभ्य स्वपदं पाराश्चिकं यावद् द्रष्टव्यम्। एवं तु चिट्ठाणाऽऽदिसु, सव्वेसु पदेसु जाव उस्सग्गो। पच्छित्ते आदेसा, इकिकपयम्मि चत्तारि॥२०॥ एवममुना प्रकारेण स्थाननिषदनाऽऽदिषु सर्वेष्वपि पदेषु कायोत्सर्ग यावदेकैकस्मिन् पदे प्रायश्चित्तविषयाश्चत्वार आदेशा भवन्ति। तद्यथाएकं तावदौधिकं प्रायश्चित्तं, द्वितीयं तदेव तपः कालविशोषितं, तृतीयं छेदान्तम्, चतुर्थ चारणिकाप्रायश्चित्तम् / गतं दकतीरद्वारम्। अथ यूपकस्यावसरः, तमेवाभिधित्सुराहसंकमों जूवे अचलो, चलो य लहुगो य हुंति लहुगा य। तम्मि वि सो चेव गमो, णवरि गिलाणे इमं होइ॥२८१|| यूपकं नाम खेटाऽऽख्यं जलमध्यवर्ति तट, तत्र देवकुलिका गृहं वा भवेत्, तत्र वसतिगृह्णतश्वतुर्लघुकाः। तच यूपं संक्रमेण वा गम्येत, जलेन वा। संक्रमो द्विविधः-चलोऽचलश्च / अचलेन गच्छतो मासलघु। चलो द्विविध:-सप्रत्यपायः, निष्प्रत्यपायश्च। निष्प्रत्यपायेन गच्छतश्चतुर्गुरुकं भवति। सप्रत्यपायेन व्रजतश्चत्वारो लघुकाः / तस्मिन्नपि यूपके, स एव गमः सा वक्तव्यता या दकतीरे भणिता। “अहिगरणमंतराए" (255) इत्यारभ्य यावदेकैकस्मिन् पदे चत्वार आदेशा इति। नवरं ग्लानं प्रतीत्य इदमन्यदधिक दोषजालं भवतिदर्ण य सइकरणं, ओभासण विरहिए य आइयणं / परितावण चउलहुगा, अकप्प पडिसेव मूल दुगं // 282 / / ग्लानस्य तदुदकं दृष्ट्वा स्मृतिकरणमीदृशी स्मृतिरुत्पद्यतेपिवाम्यहमुदकम्। ततो सोऽवभाषणं करोति, यदि दीयते ततः संयमविराधना, अथ न दीयते, ततो ग्लानः परितापितः। विरहिते च कारणतः साधुभिः प्रतिश्रये उदक स्याऽऽपानं कुर्यात्, यदि स्वलिङ्गेनाऽऽपिबति ततश्चतुर्लघुकम्, अथ (दुगं ति) स्वलिङ्ग, गृहिलिङ्ग च, तेनाऽकल्प्यमप्कायं प्रतिसेवते ततो मूलं, तेन चापथ्ये नानागाढ परितापनाऽऽदयो दोषाः, तन्निष्पन्नमाचार्यस्य प्रायश्चित्तम् /
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________________ दगतीर 2446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 दगथालग अथवा-(अकप्प पडिसेव मूलदुर्ग ति) अकल्प्यं प्रतिसेव्य भग्नव- ददातीत्यर्थः; अयं प्रत्यक्षदेवः, किमस्माकमन्येषां मरुकाऽऽदीना दत्तेन, तोऽहमिति कृत्वा योको ग्लानोऽवधावते तत आचार्यस्य मूलं, द्वयोरन- एतस्य दत्तं बहुफल भवतीति कृत्वा / ततो मरुकाणामदीयमाने प्रद्वेषः वस्थाप्य, त्रिषु पाराञ्चिकम्। संजातः, ततस्ते व्यक्षरिकामहाशब्दिकाऽऽदिविषयमयशः प्रदधुः; अथैष आउक्काए लहुगा, पूतरगादीतसेसु जा चरिमं / संयतोऽस्माभिऱ्याक्षरिकां महाशब्दिका वा प्रतिसेवमानो दृष्ट इति। तत्र जे गेलम्ने दोसा, घिइदुब्बलें सेहें ते चेव // 283|| ये प्रत्यनीकास्तेषां शड्का भवति। तत्र च गुरुकाः। निःशङ्किते मूलम्। अपकाये प्रतिसेविते चतुर्लघुकाः, पूतरकाऽऽदिवसेषु चरम पाराश्चिकं अथवा ये प्रत्यनीकास्ते शङ्कन्ते-कस्मादेष तीर्थस्थाने आतापयति, किं यावन्नेतव्यमातत्र पूतरकाऽऽदिषु द्वीन्द्रियेषु षड्लघुकम्, त्रीन्द्रियेषु षड् स्तैन्यार्थीति / गतं वृत्तिद्वारम् / अथ "पच्चक्खदेव (286)" इत्यादि गुरुकम्, चतुरिन्द्रियेषु छेदः, पञ्चेन्द्रिये मत्स्याऽऽदौ उदकेन सह गिलिते पश्चार्ट्स भाव्यते यत्रासावातापयति तत्र प्रत्यासन्ना देवता वर्त्तते, तस्या एकस्मिन् मूलं, द्वयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु पाराञ्चिकम्, ये च ग्लान्ये ग्लानस्य लोकः सर्वोऽपि पूर्व पूजापर आसीत्, तं च साधु तत्राऽऽतापयन्तं दृष्ट्वा स्मृतिकरणाऽऽदयो दोषा उक्ताः, धृतिदुर्बल मन्दाऽऽश्रये शैक्षे त एव अयं प्रत्यक्षदैवतमिति कृत्वा लोकः संपूजयितुं लगः, ततः सा देवता द्रष्टव्याः गतं यूपकद्वारम्। अपूज्यमाना प्रद्विष्टा सती व्यक्षीरकाऽऽद्यभ्याख्यानं दद्यात् / अथवा साधुरूपमावृत्य तत्प्रतिरूपं कृत्वा व्यक्षरिकां तिरश्वी वा प्रतिसेवमानं अथ तापनाद्वारमाह नियुक्तिकारः दर्शयेत्, क्षिप्तचित्तं वा कुर्यात्, अपरां च अकल्प्यप्रतिसेवनाऽऽदिआयावण तह चेव य, नवरि इमं तत्थ होइ नाणत्तं / कामक्रियां दर्शयेत्, यस्मादियन्तो दोषास्तस्माद्दकतीरे यूपके वा न मजण सिंचण परिणा-म वित्ति तह देवया पंता / / 284|| स्थानाऽऽदीनि पदानि कुर्यात्। ये दकतीरे अधिकरणान्तरायाऽऽदयो दोषा उक्ताः, ते यथासंभवं दकतीरे अथ कुर्यादपि, कथमित्याहइव, पूरके इव वा आतापनां कुर्वतः तथैव भणितव्याः, नवरमिदं नानात्वं पढमे गिलाणकारणे, वीए वसहीए असइए वसई। विशेषो भवति-तत्राऽऽतापयतो मज्जनं वा सिञ्चनं वा कश्चित्कुर्यात्, राइणियकज्जकारणे, ततिए वितियपद जतणाए॥२८८|| परिणामो वातस्य स्नानाऽऽदिविषयो भवेत्, वृत्तिर्वा जीविका मण्डूकानां प्रथम दकतीर, तत्रग्लानकारणात् तिष्ठत्, द्वितीयं यूपकं, तत्र निर्दोषाया व्यवच्छिद्येत, प्रान्तावा देवता लोकेनाऽपूज्यमाना साधोरुपसर्ग कुर्यात्। वसतेरसत्यभावे वसति तिष्ठति, तृतीयमातापनापदं, तत्र रात्निको राजा, तत्र मज्जनसिञ्चनपरिणामद्वाराणि व्याख्यानयति तदायत्तं यत् कुलगणसङ्घ कार्य, तत्कारणं तिष्ठेत् / एवं त्रिष्वपि दकतीमजंति व सिंचंति व, पडिणीयऽणुकंपया व णं केइ। राऽऽदिषु यतनया वक्ष्यमाणलक्षणया द्वितीयपदंतत्रावस्थानलक्षणं सेवेत। तण्हुण्हपरिगयस्स, व परिणामो पहाणपियणेसु // 28 // अथैनामेव नियुक्तिगाथां भावयतिणमिति तमातापकं प्रत्यनीकलया, अनुकम्पया वा केचिन्मजयन्ति वा विजदवियऽट्ठयाए, निजतो गिलाणों असति वसहीए। स्नपयन्ति, सिञ्चन्ति वा शृङ्गाटीभिरञ्जलीभिर्वा निर्वापयन्ति / यदा जोग्गाए वा असती, चिट्ठे दगतीर णोतारे।।२८६।। तस्याऽऽतापकस्य तृषितोऽहमित्येवं तृष्णापरिगतस्य, धर्माभिभूतमा ग्लाने वैद्यस्य समीपं नीयमाने, द्रव्यमौषधं तदर्थ वा अन्यत्र त्रोऽहमित्येवमुष्णपरिगतस्य वा स्नानपानयोः परिणामः संजायते। नीयमानेऽन्यत्र वसतेरभावे दकतीरेऽपि तिष्ठेत्। अथवा विद्यते वसतिः वृत्तिद्वारं, प्रान्तदेवताद्वारं चाऽऽह परं नग्लानयोग्या, ग्लानयोग्यवसतेरसति तत्र वसेत्। अथवा-विश्रमणार्थ आउट्टजणो मरुगाण अदाणे खरितिरिक्ख छोभाऽऽदी। दकतीरे मुहूर्तमात्रं ग्लानस्तिष्ठेत् , तमपि मनुष्यतिरश्वामनवतारे पञ्चक्खदेवपूयण, खरियावरणं च खित्ताऽऽई॥२८६|| अप्रवेशमार्गेऽवतारयेत्। तस्य तापनया आवृतो जनो मरुकानां दानं ददाति, ततस्तेषामदाने, तत्रच स्थितानामियं यतनाखरी व्यक्षरिका, तिरश्ची महाशब्दिकाप्रभृतिका, तद्विषयं क्षोभाभ्या- उदगंतेण चिलिमिली, पडियरए मोत्तु सेस अण्णत्थ। ख्यानद्वन्द्वाऽऽदयो दोषा भवेयुः / तथा प्रत्यक्षदेवता इय-मिति कृत्वा पडियर पडिसल्लीणा, करिज्ज सव्वाणि वि पदाणि // 26 // तस्य साधोः पूजनं, देवतायाश्च अपूजनम्, ततः (खरियावरणं ति) उदकं येनान्तेन पार्श्वेन भवति ततश्चिलिमिली कोट्टको दा दीयते, ये च संयतवेषमावृत्य तत्प्रतिरूपं कृत्वा व्यक्षरिका प्रतिसेवमानां देवता ग्लानस्य प्रतिचरकास्तान् मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽप्यन्यत्र तिष्ठन्ति, दर्शयेत् / क्षिप्तचित्ताऽऽदिकं वा तं श्रमणं सा देवता कुर्यादिति। प्रतिचरका अपि प्रतिसलीनास्तथा तिष्ठन्ति यथा संपातिमसत्त्वानां अथैनामेव नियुक्तिगाथां स्पष्टयति संत्रासो न भवति, एवं सर्वाण्यपि स्थाननिषदनाऽऽदीनि पदानि कुर्यात्। आयावण साहुस्सा, अणुकंपं तस्स कुणइ गामो उ। गता दकतीरयतना। बृ०१३०। मरुयाणं च पओसो, पडणीयाणं च संका तु // 287|| दगतुंड पुं०(दकतुण्ड) पक्षिभेदे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तस्य साधोर्दकतीरे आतापनां कुर्वतो ग्रामजनः सर्वोऽप्यावृतः, | दगतूर न०(उदकतूर्य) उदके मुखाऽऽदितूर्याणां शब्दे, बृ०१ उ०। ततश्चानुकम्पा तस्य करोति, पारणदिवसे भक्ताऽऽदिकं सविशेष तस्य | दगथालग पुं०(दकस्थालक) कंसाऽऽदिमये उदकभृतभाजने, रा०।
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________________ दगपंचवण्ण 2447 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दगपंचवण्ण पुं०(दकपञ्चवर्ण) अष्टाशीतिमहाग्रहाणां चतुस्त्रिंशत्तमे | दगवीणिया (दकवीणिका) दकस्य वीणिका दकवीणिका / उदकवाहे, स्वनामख्याते ग्रहे, स्था०। 'दो दगपंचवण्णा।' स्था० 2 ठा०३ उ०। / नि०चू०१ उ०। कल्पना दगसंघट्ट न०(दकसह) अर्द्धजड्याप्रमाणं यावदुडुपतार्य जलं तादृशे दगपासाय पुं०(दकप्रासाद) स्फटिकप्रासादे, जं०१ वक्षः। क्षेत्रे, नि०चू० 10 उ०। कल्पा दगपिप्पली स्त्री०(उदकपिप्पली) हरितवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पद। / दगसंसट्ठहडा स्त्री०(उदकसंसृष्टाहृता) उदकसंबन्धाऽऽनीतायां दगफासिया स्त्री०(दकस्पर्शिका) अवश्याये, कल्प०६ क्षण। हस्तमात्रगतोदकसंसृष्टायां परिष्ठापनायाम्, आव०४ अ०। दगवाह पुं०(दकवाह) उदकमार्ग, नि०चू०८ उ०। दगसत्तघाइ(ण) पुं०(दकसत्त्वघातिन) जलप्राणिहिंसके, सूत्र० दीपि० दगभवण न०(उदकभवन) जलगृहे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०/ १श्रु०७ अ०) दगभास पुं०(दकाभास) शिवकस्य वेलन्धरनागराजस्य आवास-पर्वते, दगसीम पुं०(उदकसीमन्) मनःशिलाकस्य वेलन्धरनागराजस्याऽऽस०८७ सम०। वासपर्वते, स०८७ सम० जी०। दगमंचग पुं०(दकमञ्चक) स्फटिकमञ्चके, ज०१ वक्ष०। जी०। दगसोकरिंग पुं०(दगसौकरिक) परिव्राजके, बृ०१ उ०। दगमंडग पुं०(दकमण्डप) स्फटिके मण्डपे, रा०। दगाभास पुं०(दकाभास) 'दगभास' शब्दार्थे , स०८७ सम०। दगमंडव पुं०(उदकमण्डप) उदकक्षरणयुक्ते मण्डपे, प्रश्न०५ संब० द्वार। दगाहरण न०(उदकाऽऽहरण) उदकमाहियते येन तदुदकाऽऽहरणम्। दगमंडवग पुंगान०(दकमण्डपक) स्फटिकमण्डपके, जं०१ वक्ष०ा जी०। कुटवर्द्धनिकाऽऽदौ, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२उ०। उदकक्षरणयुक्ते मण्डपे, प्रश्न०५ संब० द्वार। दबा अव्य०(दत्त्वा) दानं कृत्वेत्यर्थे , स्था०३ ठा०२उ०। उत्तका दगमग्ग पुं०(उदकमार्ग) उदकवाहे, नि०चू०८ उ01 दच्छ त्रि०(दक्ष) अच् / "छोऽक्ष्यादौ" ||217 / / इति संयुक्तस्य दगमट्टिआस्वी०(उदकमृत्तिका) उदकप्रधानायां मृत्तिकायाम्, आचा०२ छः / प्रा०२ पाद / निपुणे, वाच०। तीक्ष्णे, देवना०५ वर्ग 33 गाथा। श्रु०१ चू० १७०।अचिरापकायाऽऽीकृतमृत्तिकायाम्, आचा०१ श्रु०८ (निरूपितमस्य सर्व दक्ख' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2440 पृष्ठे) अ०६ उ०। दशा०। अनुपहतभूमौ चिक्खिल्ले, ध० दकमप्कायो, दज्झ त्रि०(दग्ध) दह-क्तः। भस्मीकृते कतृणे, न०। प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। मृत्तिका पृथ्वीकायः, तयोर्द्वन्द्रे,ध०२ अधि०। आ०चू०। आव०। सचित्ते दह न०(दृष्ट) दृश-क्तः। "दृशस्तेनट्ठः" ||84213|| दृशोऽन्त्यमिश्रेच कर्दमे, बृ०४ उ०। दकसंयुक्ता मृत्तिका, विवेकद्रव्यप्रयोगपूर्विका स्य तकारेण सह द्विरुक्तष्ठकारो भवति / इति ठकाराऽऽदेशः / 'दट्ट / ' तद्विवेचनकलाऽप्युपचाराद्दकमृत्तिका। तस्यां द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गतायां प्रा०ढुं० 4 पाद। "दट्ठव्वं / " "दवण।" प्रा०४ पाद / स्वपरचक्रभये पञ्चदश्यां कलायाम्, जं०२ वक्ष०। ज्ञा० स०। वीक्षिते, लौकिके च / वाचा दगमट्टिआयाण न०(उदकमृत्तिकाऽऽदान) आदीयते अनेनेत्यादानो मार्गः / उदकमृत्तिकाऽऽदानमार्गे , दश०५ अ०१ उ०। दटुंतिय त्रि०(दान्तिक) दृष्टान्तपरिच्छेद्ये, आव०४ अ०) दगमट्टिया स्त्री०(उदकमृत्तिका) 'दगमट्टिआ' शब्दार्थे, आचा०२ श्रु०१ दहव्व त्रि०(द्रष्टव्य) अवगन्तव्ये, पञ्चा०४ विव०॥ चू०१ अ०१उ०। दखूण अव्य०(दृष्ट्वा) "क्त्वस्तुमतूणतुआणाः" ||2|146 / / इति दगमालग न०(दकमालक) स्फटिकमालके, जं०१ वक्ष०ा जी०। क्त्वाप्रत्ययस्य तूणाऽऽदेशः। प्रा०२ पाद। चक्षुषा उपलभ्येत्यर्थे, पञ्चा०२ दगरक्खस पुं०(उदकराक्षस) जलमानुषाऽऽकृतौ जलचरविशेषे, सूत्र०१ विव०। प्रश्न०। नि००। श्रु०७अ० दडवड धा०(अवस्कन्द) अवस्कन्द-आधारे घञ्। "शीघ्राऽऽ-दीनां दगरय न०(उदकरजस्) बिन्दुमात्रे, कल्प०६ क्षण / पानीयकणि बहिल्लाऽऽदयः" ||8|4|422|| इति अपभ्रंशे अवस्कन्दस्य कायाम, जी०३ प्रति०४ उ०। बृ०ा औ०। जं०रा० आ०म०। कल्पा दडवडाऽऽदेशः / धाट्याम्, (माका) इति प्रसिद्धायाम्, "तहिँ मयरद्धयप्रज्ञा०॥ उदकरेणौ, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दडवडउ, पडइ अपूरइ कालि।'' प्रा०४ पाद। "निदए गमिही रत्तडी, दडवड दगलेवपुं०(दकलेप) नाभिप्रमाणजलावतरणे, स्था०५ ठा०२उ०आव०॥ होइ विहाणु।" प्रा० ढुं०४ पाद। धाट्याम्, देना०५ वर्ग 35 गाथा। दगवण्ण पुं०(दकवर्ण) अष्टाशीतिमहाग्रहाणां चतुस्विंशत्तमे ग्रहे, सू०प्र० दड्ड त्रि०(दग्ध) भस्मीकृते, आव०४ अ०। प्रश्न०। "अग्गिदड्डाणं / " 20 पाहु०। पञ्चत्रिंशत्तमे च गृहे, चं०प्र०२० पाहु०॥ औ०। "दड्डमुड्डाई करेजा / ' नि०चू०१ उ०।'एवं दीहदड्डस्स दगवारग पुं०(उदकवारक) लघुपानीयघटे, बृ०१ उ०। रा०। किरियणिमित्तं जोइ घेप्पत्ति।" नि०चू०१उ००। संथा०। प्रश्नका गमुके, नि०चू०१२ उ०। जी० *दष्ट त्रि० / दशनाऽऽहते, प्रा०१ पाद।
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________________ दव 2448 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दत्त *दाय ना दृढत्वे, षो०१२ विव०। आचा पृष्ठान्तरोरुपरिणत) दृढं पाणिपादं यस्य, तथा पाश्वौ पृष्ठान्दरे चऊरू दवच्छवि त्रि०(दग्धच्छवि) शीताऽऽदिभिरुपहतत्वचि, प्रश्न०३ च परिणते परिनिष्ठितां गते यस्य स तथा। उत्तमसंहनने, 'भ०१४ श०१ आश्र० द्वार। उ० जी०। दतिल्ल न०(दग्धतैल) पक्वान्नोत्तीर्णतैले, ध०२ अधि०। दढप्पहारी त्रि०(दृढप्रहारी) गाढप्रहारे, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ० ती०। दढ न०(दृढ) दह क्तः। नि० इडभावः। लौहे, रूपककाव्यभेदे, नितान्ते, | सिद्धभेदे, पुं० आ०म०१ अ०२ खण्ड। आ०क०। (कथा तव-सिद्ध' वाचा अतिशये, पञ्चा०१ विव०। अत्यर्थे , पञ्चा०७ विव०। पं०व०॥ / शब्देऽत्रैव भागे 2207 पृष्ठे द्रष्टव्या) तद्वति, बलवति, औ०। ज्ञा०। निष्प्रकम्पे, नं० विस्रोतसिकारहिते, | दढभूमि त्रि०(दृढभूमि) स्थिरे, द्वा० 10 द्वा०। बहुम्लेच्छदेशे, यत्र आचा०१ श्रु०२ अ०१०। स्थिरे, उत्त०१८ अ० निश्चले, सूत्र०१ श्रु०४ श्रीभगवान् वीरः कोष्ठे चैत्ये एकरात्रिकया प्रतिमया स्थितः आ०म०१ अ०१उ०। समर्थे, सूत्र०१श्रु०३ अ०१ उ०। अतिनिविडे, रा०ा स्थूले, अ०२ खण्ड। आ०चूला दृढा भूमिरस्यायोगविशेषेण संस्कृतान्तःकरणे, प्रगाढे, शक्ते, कटिने च / त्रि०ा वाचा प्रश्न०। स्था०। "एवं तासिं दर्द विषयसुखरागाऽऽदिना चालयितुमशक्यचित्ते च / वाचा सोहियं जाय।' आ०म० अ०२खण्ड। दढमइ त्रि०(दृढमति) दृढा निश्चला मतिर्यस्य स तथा / निश्चलमतौ, दढकेउपुं०(दृढकेतु) ऐरवते जनिष्यमाणे चतुर्दशे जिने, प्रव०७ द्वार। ती०। सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०।। दढजत्तकय न०(दृढयत्नकृत) परमाऽऽदरविहिते, पञ्चा०४ विव० / | दढमित्त पुं०(दृढमित्र) दन्तपुरनगरवास्तव्यस्य धनमित्रनाम्नो वणिजः दढणे मि पुं०(दृढने मि) द्वारवत्यां समुद्रविजयस्य शिवानाम्न्यां स्वनाख्याते मित्रे, आव०४ अ०। (कथाऽन्यत्र) भार्यायामुत्पन्ने पुत्रे, अन्त० / स चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य षोडश- दढमित्तित्त न०(दृढमैत्रीत्व) निश्चलसौहृदे, बृ०१ उ०। वर्षपर्यायः शत्रुञ्जये सिद्ध इति अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य दशमे- दढरह पुं०(दृढरथ) जम्बूद्वीपे भारतवर्षे अतीतायामवसर्पिण्या जातेऽष्टमे ऽध्ययने सूचितम्। अन्त०३ वर्ग 8 अ० कुलकरे, स०। स्था०। अस्यामेवावसर्पिण्या जातस्य दशमतीर्थकरस्य दढधणु पुं०(दृढधनुष्) जम्बूद्वीपे द्वीपे भारत वर्षे आगमिष्यन्त्या- शीतलस्य पितरि, सका स्था०। आव०। ति० / प्रव०। नवनवतितमे मुत्सर्पिण्या भविष्यत्यष्टमे कुलकरे, स्था० 10 ठा०। जम्बूद्वीप ऋषभनन्दने, कल्प०७ क्षण। आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यामैरवतेवर्षे भविष्यति सप्तमे कुलकरे, साती। दढरहा स्त्री०(दृढरथा) व्यन्तरेन्द्राणां कालाऽऽदीनां तत्सामानिदढधम्म पुं०(दृढधर्मन्) श्रुतचारित्ररूपे धर्मे दृढो द्रव्यक्षेत्राऽऽद्या- काग्रमहिषीणां च बाह्यायां पर्षदि, धरणाऽऽदीनां भवनपतीन्द्राणां पदुदयेऽपि निश्चलः स दृढधर्मा / राजदन्ताऽऽदित्वाद् दृढशब्दस्य लोकपालाग्रमहिषीसत्कबाह्यपर्षदि च। स्था०३ ठा०१ उ०। जीवा०। पूर्वनिपातः / बृ०१ उ० स्था०। व्य०। आ०म०। उक्तञ्च- "दस-- दढवइर त्रि०(दृढवैर) अतिशयवैरशालिनि, दृढवैराः स्त्रियः, इहा-परत्र विहवेयावच्चे, अण्णतरे खिप्पमुज्जम कुणइ / अचंतमणे चाणिं, दारुणवैरकारणत्वात्, तं०।। थिइविरियकिसो पढमभंगो / / 1 / / " अङ्गीकृतापरित्यागे, स्था० 4 दढव्वय त्रि०(दृढव्रत) दृढानि निश्चलानि व्रतानि नियमा उत्तर-गुणा ठा०३उ०। दृढः स्थिरः निश्चलः धर्मो यस्य स तथा। ओघ०। आपद्यपि इत्यर्थो यस्याऽसौ दृढव्रतः / निश्चलनियमे,ग०२ अधिoा धo धर्मादविचले, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। कर्म० स्था०ा दृढे चारित्रे स्थिरे, बृ०३ आफलोदयं प्रारब्धकार्यात्यागिनि च / वाचा उ०। दृढः समर्थो धर्मः स्वभावः संग्रामाभङ्गरूपो यस्य स तथा। दढायु पुं०(दृढाऽऽयुष) पञ्चमतीर्थकरस्य पूर्वभवजीवे, ''सर्वानुभूतिसमर्थस्वभावे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। स्वनामख्याते देवेच, __ नामानं, दृढाऽऽयुषो जीवपञ्चमं वन्दे।' प्रव०४६ द्वार। स०। ती०जी० "ईसाणदेवसयसमीवातो दढधम्मो नाम देवो आगतो भणइ।" आ०म०१ दणुअवह पुं०(दनुजवध)"लुग्भाजनदनुजराजकुले जः सस्व-रस्य अ०१खण्डा न वा" |8/1 / 267 / इत्यनेन सस्वरजकारस्य वा लुक्। दानवमारणे, दढधम्मया स्त्री०(दृढधर्मता) दृढधर्मत्वे, स०३२ सभ०। आव० प्रा०१ पाद। आ०चूला आ०का स०। (आपत्सु दृढधर्मता सोदाहरणा 'आवई' शब्दे दणुयवह पुं०(दनुजवध) दणुअवह' शब्दार्थे , प्रा०१ पाद। द्वितीयभागे 245 पृष्ठे व्याख्याता) दण्णियावुड्डि स्त्री०(दर्णिकावृद्धि) द्वात्रिंशत्तमे स्वीकलाभेदे, कल्प० दढपइण्ण पुं०(दृढप्रतिज्ञ) सूर्याभस्य देवस्य देवलोकाच्च्युतस्य महा- 7 क्षण। विदेहे वर्षे कस्यचिदाढ्यस्य पुत्रत्वेनोत्पत्स्यमाने जीवे, तदुत्पत्तौ सत्यां दत्त त्रि०(दत्त) दा-क्तः / विसृष्ट, त्यक्ते, रचिते, वाच०। अनुज्ञाते, प्रश्न०३ तन्मातापित्रोदृढा प्रतिज्ञा भविष्यतीति तदन्वर्थनामकरणात् / रा | संब०द्वार / वितीर्णे, स्था० 5 ठा०१ उ०। न्यस्ते, जं०१ वक्ष०ा भारते अन्त०। ('सूरियाभ' शब्देऽन्तिमभागे तचरितं वक्ष्यते) वर्षऽस्यामेवोत्सर्पिण्याजाते सप्तमेवासुदेवे, स०३५ समाआवला मेतार्यदढपरक्कम पुं०(दृढपराक्रम) संयमे, स्थिरवीर्यभाजि, उत्त०१६ अ०॥ गणधरपितरि, आ०म०१ अ०२ खण्ड / आ००। जम्बूद्वीपे भारते वर्षे दढपाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणय त्रि० (दृढपाणिपादपार्श्व- | आगमिष्यन्त्यामुत्सपिण्यां भविष्यतिपञ्चमेकुलकरे, स०ातिका स्था०। ती०
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________________ दत्त 2446- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दत्ति भद्राऽङ्ग जे कालिकाऽऽचार्यजामिजे, आ०क०। दर्श०। आ०चू। आ०म०। (यो हि तुर्मिणीपुराधिपं मारयित्वा राजा भूत्वा अनेकान् यज्ञानिष्ट्वा कालिकाऽऽचार्य्यवचनानुसारेण मृत्वा नारको जात इति "सम्मावाय' शब्देऽन्तिसभागे कथा वक्ष्यते) भारते वर्षेऽतीतायामुत्सर्पिण्यामतीते सप्तमे जिने,प्रव०७ द्वार / सङ्ग प्रस्थविराणां जवाबलपरिक्षयेण नियतवासं प्रतिपन्नानां शिष्ये, आ०क०। आ० चू०। उत्सर्पिण्यादौ भविष्यति जिनधौद्धारके महाराजे, तिला विपाकश्रुते नवमेऽध्ययने उदाहृताया देवदत्तायाः पितरि, स्था० 10 ठा०। गन्धर्वनागदत्तस्य पितरि लक्ष्मीपुरवास्तव्ये श्रेष्ठिनि, आ०क०। पार्श्वस्वामिनन्दनकृत ईश्वरराजस्य पूर्वभवे वसन्तपुर-वास्तव्ये पुरोहितपुत्रजीवे, ती० 14 कल्प / समुद्रतटवर्तिविश्वपुरीवास्तव्ये स्वनामख्याते सांयात्रिके, ध०र०। स्वनामख्याते चम्पानगरीराजे महाचन्द्रस्य कुमारस्य पितरि, विपा०१ श्रु०१ अ०) वन्दनाऽऽगते रवनामख्याते गृहपतौ, स च वीरान्तिके प्रव्रज्य अनशनेन मृत्वा सुधर्मायां सभायां तप्ते सिंहासने गङ्गदत्तया देवतया द्विसागरोपमस्थितिक उपपन्न इति सप्तमे पुष्पिकाऽध्ययने सूचितम् / नि०१ श्रु०३ वर्ग 6 अ०॥ स्वनामख्याते कल्किराजपुत्रे, "पण्णरसउतिउत्तरे विक्कमवरिसे सत्तुंजे उद्धारं करित्ता जिणभव-णमेमिअंच वसुहं काउं अज्जियतित्थयरनामो सग्गं गतुं चित्तगुत्तो नाम जिणवरो होति।" ती०२० कल्प। स्वनामख्याते वेश्याया-मश्रद्दधाने पुरुष, पुं० सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०। दाने, न०। / उत्त०१अ *दात्र न० शस्त्रभेदे, आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०। दत्ति स्त्री० (दत्ति) अविच्छिन्नदाने, पञ्चा० 18 विव०। "दत्तीओ जत्तिए वारे, खिवई होति तत्तिया। अवोच्छिन्नानि वा पावो, दत्ती होइ दवंतरं ||1 // " इति / स्था०५ ठा०१ उ०। पञ्चा०। कल्प०। करस्थाल्यादिभ्यो अव्यवच्छिन्नधारया पतति भिक्षा या, सा दत्तिरभिधीयते। भिक्षाविच्छेदे च द्वितीया दत्तिः, एवं शिक् थमात्रेऽपि पतिते मिन्नैव दत्तिरिति / प्रव०४ द्वार। दत्तिसंख्यासूत्रम्संखा दत्तियस्सणं भिक्खुस्स पडिग्गहधारिस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स जावतियं जावतियं अंतो पडिग्गहस्स उविइत्ता दलएज्जा, तावइयाओ साओ दत्तीओ वत्तव्यं सिया। तत्थ से केइ छज्जएण वा दूसएणं वा बालएण वा अंतो पडिग्गहसि उविइत्ता दलएज्जा, सव्वा विणं सा एगा दत्तीति वसव्वं सिया। तत्थ से बहवे भुंजमाणा सब्वे ते सयं सगं पिंडं साहणिय अंतो पडिग्गहंसि उविइत्ता दलएज्जा, सव्वा विणं सा एगा दत्तीति वत्तव्यं सिया॥३६॥ संख्या परिमाणं दत्तिकायाः, सूत्रे पुंस्त्वमार्षत्वाद्, यावद् यावद् | कश्चिदन्तः पतद् गृहे (उविइत्ता) अवगम्य दद्यात्, तत्र तावत्यो दतय इति वक्तव्यं स्यात् / किमुक्तं भवति? एकस्यामपि भिक्षायामुत्पाटिताया यावतो यावतो वारान विच्छिद्य विच्छिद्य ददाति तावत्यस्तत्र दत्तय इति / तत्र 'से' तस्य साधोः कश्चित् छाद्यकेन वंशदलमयेन, दूष्येण ना वस्त्रेण,बालकेन वा गोमहिष्यादिबालकृतेन गालनाऽऽदिना अन्तः पतद् ग्रहे अवनम्य दद्यात्, साऽपि,णमिति वाक्यालङ्कारे,एका दत्तिरिति वक्तव्यं स्यात् / तत्र 'से' तस्य साधोर्बहवो भुञ्जाना भिक्षार्थं साधुमागतं दृष्ट्वा सर्वे ते स्वीयं स्वीयं पिण्ड संहृत्य एक पिण्डं कृत्वा अन्तः पतद् ग्रहे (उविइत्ता) अवनम्य दद्यात् सर्वाऽपि णमिति पूर्ववत्, एका दत्तिरिति वक्तव्यम्। एतत्सूत्रं पतद्ग्रहधारिण उक्तम्। सम्प्रति पाणिपतद्ग्रहविषयमाहसंखा दत्तियस्सणं भिक्खुस्स पाणिपडिग्गहस्स गाहावइ-कुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स जावतियं जावतियं अंतो पाणिंसि उविइत्ता दलएज्जा, तावइयाओ ताओ दत्तीओ वत्तव्वं सिया / तत्थ से केइ छज्जएण वा दूसरण वा बालएण वा अंतो पाणिंसि उविइत्ता दलएजा, सव्वा विणं सा एगा दत्तीति वत्तव्वं सिया। तत्थ से बहवे मुंजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिंडं साहणिय अंतो पाणिंसि उविइत्ता दलएज्जा, सव्वा विणं सा एगा दत्तीति वत्तव्वं सिया।।४०॥ (घाणीत्यादि) पाणिपतद् ग्रहस्यापि विषये एवमेव सूत्रं वक्तव्यमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। सम्प्रतिभाष्यविस्तरःहत्थेण व मत्तेण व, भिक्खा होई समुज्जया। दत्तिओ जत्तिए वारे, खिवती होंति तत्तिया॥१०६।। हस्तेन वा, मात्रण वा या समुद्यता उत्पादिता भिक्षा सा भिक्षुत्युच्यते। दत्तयः पुनस्तामेव भिक्षां यावतो वारान् विच्छिद्य क्षिपति तावत्यो भवन्ति। अव्वोच्छिन्ननिवायाओ, दत्ती होइ उतरा। एगाणेगासु चत्तारि, विभागा भिक्खदत्तिसु।।११०।। अव्यवच्छिन्ननिपाताद् दत्तिर्भवति, इतरा वा भिक्षा च भवति, भिक्षादत्तिषु च एकानेकासु विषये चत्वारो विभागा विकल्पाः / तानेवाऽऽहइग भिक्खा इग दत्ती,एगा भिक्खा यऽणेगदत्तीओ। णेगा वि य एगाओ, णेगाओ चेव णेगाओ।।१११।। एका भिक्षा एका दत्तिरिति प्रथमो विकल्पः / एका भिक्षा अनेका दत्तय इति द्वितीयः / अनेका भिक्षा एका दत्तिरिति तृती। अनेका भिक्षा अनेका दत्तय इति चतुर्थः / तत्र प्रथमभङ्ग एव दायकेन अव्यवच्छिन्ना भिक्षा दत्ता, सा एका भिक्षा एका च दत्तिः। द्वितीयभङ्गे व्यवच्छिन्ना दत्ता। तृतीयभङ्गे सूत्रमिदम्- "तत्थ से बहवे भुंजमाणा " इत्यादि "जाव सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया। (४०सू०)" अस्येयं भावनाकेचित्पथिकाः कर्मकरा वा एकत्रावकाशे पृथक् पृथक् उपस्कृत्य भुञ्जते, तेपामेकः साधुना तत्र च भिक्षार्थमागत्य धर्मलाभः समुद्दिष्टस्ततः स परिवेषक आत्मीयाद्ददामीतिव्यवसितः, ततस्तैरपि शेषकैः स भण्यतेप्रत्येक प्रत्येकमस्मदीयमध्यादपि साधवे भिक्षां देहि, ततस्तेन परिवेषकेण सर्वेषां सत्कान् गृहीत्वा एकत्र संमील्याव्यवच्छिन्नं दत्तम्, एवमेनका भिक्षा एका दत्तिरित्युपपद्यते। चतुर्थभङ्गोऽप्येवगेव, नकर व्यवच्छिन्नं दानमिति।
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________________ दत्ति 2450 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ददुर अत्र दत्तिष्वेकानेकदायकभिक्षाभेदतोऽष्टौ भङ्गाः, तिण्हं दत्तीणं परतो गहणे वि चउलहुं, (आदियणे त्ति) पिबतस्स वि तानुपदिदर्शयिषुः प्रथमत एकानेकदायकभि चउलहुँ। क्षाविषयां चतुर्भङ्गीमाह तिण्हं दत्तीणं परतो आहरणे, आदियणे वा इमे दोसाएमेव एगऽणेगे, दायगमिक्खासु हों ति चउभंगा। अप्पचओ य गरहा, मददोसो गहिवट्टणं चेव / एगो एगं देती, एगोऽणेणा उणेग एगं च // 112 / / तिण्ह परं गेण्हते, परेण खिंसाऽऽइयं चेव।।११।। णेगा य अणेगाओ, पाणीसु पडिग्गहधरेसु। (अप्पचओ त्ति) जहा एस पचइतो होउं वियर्ड गिण्हति, आपिवति वा, एवमेव अनेनैव प्रकारेण एकस्मिन् अनेकस्मिश्च दायके, एकानेक तहा एस अण्णं पि करेति मेहुणाऽऽदिय (गरह त्ति) एस गूणं नीयकुलभिक्षासु च चतुर्भङ्गी भवति / गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् / तामेव जातितो ति। मददोसो पिते पलवंतिवग्गइ वा / पुणो पुणो गहणे वा वियडे चतुर्भङ्गीमाह-एको दायक एकां भिक्षां ददाति१, एकोऽनेकाः२, अनेके गेही वट्टति। खिंसाधिरत्यु ते एरिसपवजाए त्ति। एकाम्,३, अनेके अनेकाः 4 / एते चत्वारो भङ्गाः पाणिषु पाणिभोजिषु, गाहापतद्ग्रहधरेषु च द्रष्टव्याः। दिटुं कारणगहणं, तस्स पमाणं तु तिण्णि दत्तीओ। अत्र यथा दत्तिष्वष्टौ भङ्गास्तथा दर्शयति णातुंव असागरिए, सेहादिअसंलवंतोय॥१२॥ एगो एग एक्कसि, एगो एगं चऽणेगसो वारे। तिण्णि दत्तीओ तिण्णि, पसतीओ, कारणाओ ताओ पाए असागारिगे एगोऽणेगा एक्कसि, एगोऽणेगा तु बहुसो तु॥११३॥ अत्थति, णिहुत्तो तिण्णि पसती णिज्जइवा, अभावियसेह-अपरिणामगेहि एको दायक एकां भिक्षागेकवारं ददाति / / 1 / / एको दायक एका भिक्षा सद्धि उल्लावणं करेति, गिहीहिं वा / नि०० 16 उ०। (द्वितीयपदं 'पसई' शब्दे वक्ष्यते) (भिक्षुप्रतिमासु दत्तिप्रमाणं 'भिक्खुपडिमा' शब्दे बहुशो वारान् विच्छिद्य विच्छिद्य ददाति॥२॥एको दायकोऽनेका भिक्षा वक्ष्यते) एकवारमव्यवच्छेदेन ददाति ॥३॥एको दायकोऽनेका भिक्षा बहुशो वारान् विच्छिद्य विच्छिद्य ददाति ||4|| एवमेकमधिकृत्य एकानेकभिक्षासु दत्तिय पुं०(दत्रिक) वातपूणे चर्मणि, नि०५०१ उ०। दत्तिविषया चतुर्भङ्गयभिहिता। दत्तिया स्त्री० (दात्रिका) छेदसाधने शस्त्रे, आचा०१ श्रु०१ अ०५उ०। साम्प्रतमनेकान् दायकानधिकृत्य एकानेकभिक्षासु दत्तेगाइग्गह पुं०(एकादिदत्तिग्रह) प्राकृते पूर्वापरनिपातोऽतन्त्रमिति पूर्वनिपातः। एकद्व्यादिभिक्षाविशेषग्रहणे, पञ्चा० 18 विव०। दत्तिविषयां चतुर्भङ्गीमाहणेगा एग एक्कसि,णेगा एगं चऽणेगसो वारे। दत्तेसणिज न०(दत्तेषणीय) उत्पादाऽऽोषणादोषरहिते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१उ णेगा णेगा एक्कसि, णेगा णेगा य बहुवारे / / 114 / / दत्थर पुं०(देशी) वस्त्रशाटके, देना०५ वर्ग 34 गाथा। अनेके दायका एका भिक्षामेकवारमव्यवच्छेदेन ददति // 5 // अनेके ददंत न०(ददत्) दायके, बृ०१ उ०॥ दायका एकां भिक्षामनेकशो वारान् विच्छिद्य विच्छिद्य ददति॥६।। अनेके दद्दर न०(दर्दर) बहले, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०रा०ा जं० जी०। आ०म० दायका अनेका भिक्षा एकत्र संपिण्ड्य एकवारं ददति॥७॥ अनेके दायका प्रज्ञा०ा औ०। चीरावनकुण्डिकाऽऽदिभाजनमुखे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० अनेका भिक्षा विच्छिद्य विच्छिद्य बहून वारान् ददति॥८॥ जी० आ०म०। राम यस्य चतुभिश्चरणैरवस्थानं भुवि तस्मिन् पाणिपडिग्गहियस्स वि, एसेव कमो भवे निरवसेसो। गोधाचर्मावन वाद्यविशेषे, जं०२ वक्ष०ा जी0 रा० चपेटाप्रकारे, प्रज्ञा० गणवासे निरवेक्खो, सो पुण सपडिग्गहो भइतो // 11 // 2 पद / आ०म०। जी०। ज्ञा० रा०। औ०। निरन्तरकाष्ठफलकमये पाणिगत ग्रहकस्यापि एष एवानन्तरोदितः क्रमो भवति निरवशेषो निःश्रेणिविशेष, पिंग सोपानवीथ्याम्,स० घने, पुं०। स०। .सच पाणिपतद्ग्रहभोजी गणवासे निरपेक्षः सपतद्ग्रही भाजितो | दद्दरपिहाण न०(दर्दरपिधान) वस्वमयबन्धने, बृ०१उ०। विकल्पितः कदाचित्स्यात् कदाचिन्नेति, ततस्तस्य पाणिपतद् दद्दरिया स्त्री०(दर्दरिका) उत्ताडनेन वाद्यमाने वाद्यविशेषे, आ० चू०१ ग्रहभोजिता / व्य०६ उ० अ०। 'चउचलणपइट्ठाणा गोहिया। चतुर्भिश्चरणैः प्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तथा गोधाचर्मणा अवनद्धेति गोधिका वाद्यविशेषः, दईरिकेति जे भिक्खू गिलाणस्सऽट्ठाए परं तिण्हं वियड्दत्तीणं पडिगाहेइ, यत्पर्यायः / स्था०७ ठा०। अनु०। रा०) पडिगाहतं वा साइजइ॥५॥ दद्दु मुं०(दद्रु) दद-डः। क्षुद्रकुष्ठभेदे, "दाद'' इति प्रसिद्धे, जं०२ वक्ष०। दत्ती पसमाणं पसती, तिण्हं पसतीणं परेण चउत्था पसती भ०। कल्छपे, वाचा "दडुकिडिभसिंभफुड़ियफरुसच्छविचित्तलंगा।'' गिलाणकजेण विण घेत्तव्वा, जो गिण्हति तस्स चउलहुँ। भ०७ श०६उ०। गाहा-- दद्दुर पुं०(दर्दुर) दुनाति कर्णी शब्दैः उरन् / वाच०। मण्डू के , जे मिक्खू गिलाणस्सा, परेण तिण्हं तु वियडदत्तीणं / व्य०१ उ०। प्रश्न०। भ०। ज्ञा०। औ०। स्वनामख्याते पर्वते, गिण्हेज आदिएज्जव,सो पावति आणमादीणि / / 10 / / ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। जंग। भ०। राहो, सू०प्र०१६ पाहु०॥ सुत्त
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________________ दडुर 2151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 चम्मविनद्धमुर्ख कलश, प्रश्न०५ सब०द्वार / मण्डूको भूत्वा दर्दुरा- / गंदे मणियारसेट्ठी अण्णया कयाइं गिम्हकालसमयसि जेट्ठामूवतसके जाते देवे, ज्ञान लंसि मासंसि अट्ठमभत्तं परिगिण्हति, पोसहसालाए०जाव जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णाम णगरे होत्था।। विहरति / तए णं णंदस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि तण्हाए तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए णामं राया होत्था / तस्स णं छुहाए अभिभूयस्स समाणस्स इमेयारूवे अब्भत्थिए एधण्णा रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं णं ते० जाव ईसरपमिइओ,जेसिंणं रायगिहस्स बहिया बहुओ गुणसिलए णामं चेइए होत्था / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे वावीओ पोक्खरणीओ०जाव सरपंतियाओ, जत्थ णं बहुजणो भगवं महावीरे चउद्दसहिं समणसाहस्सीहिं०जाव सद्धिं पुव्वा पहाइ अ, पियति य, पाणियं च संवहति, तं सेयं खलु ममं कल्लं णुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे पउब्भवाए सेणियं रायं आपुच्छित्ता रायगिहस्स णयरस्स बहिया जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव समोसढे उत्तरपुरच्छि मे दिसीभाए वब्भारपव्वयस्स अदूरसामंते अहापडिरूवं उवग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं वत्थुपाडगरोइयं सि भूमिभागंसि०जाव गंदं पोक्खरणिं भावेमाणे विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं सोहम्मे कप्पे खणावित्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेइत्ता कल्लं पाओ पोसहं दहरवळिसए विमाणे सभाए सुहम्माए दडुरंसि सीहासणंसि दद्दुरे पारेति, पारेइत्ता हाए कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव सद्धि संपरिवुड़े महत्थंजाव पाहुडं रायारिहं गिण्हति, गिण्हइत्ता देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं तिहिं परिसाहिं एवं जहा सूरियाभेजाव दिव्वाई भोगभोगाइं भुंजमाणे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता ०जाव विहरति / इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवे दीवं विउलेणं ओहिणा पाहुडं उवट्ठवेति, उवट्ठवेइत्ता एवं वयासी-इच्छामि णं सामी ! आभोएमाणे०जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगए, जहा सूरियाभे तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे रायगिहस्स णयरस्स बहिया०जाव खणावित्तए? अहासुहं देवाणुप्पिया ! तए णं णंदे सेणिएणं रण्णा भंते त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं आयाहिणं पयाहिणं अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठतुढे रायगिहं णयरं मझं मज्झेणं करेइ, वंदति, णमंसति, णमंसइत्ता एवं वयासी-अहो णं भंते ! णिग्गच्छति, णिग्गच्छतित्ता वत्थुपाडगरोइयंसि भूमिभागंसिणंदं दगुरे देवे महिड्डिए 6 / दडुरस्स णं भंते ! देवस्स सा दिव्वा पुक्खरिणिं खणावेउं पयत्ते यावि होत्था / तए णं सा गंदा देवड्डी 3 कहिं गता, कहिं अणुप्पविट्ठा? गोयमा ! सरीरं गया, पुक्खरिणी आणुपुव्वेणं खणमाणा खणमाणा पोक्खरिणी जाए सरीरं अणुप्पविठ्ठा, कूडागारदिटुंते / दद्दुरेणं भंते ! देवेणं सा यावि होत्था; चाउकोणा समतीरा अणुपुव्वं सुजायवप्पसीयदिव्वा देवड्डी किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता०जाव अभिसम लजला संछन्नपत्तभिसमुणाला बहुउप्पलपउमकुमुदनलिणीप्रणागया? एवं खलु गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तफुल्लरायगिहे णामं णयरे होत्था / गुणसिलए चेइए / तस्स णं केसरोववेया परिहत्थभमंतमत्तछप्पयअणेगसउणमणमिहुणरायगिहस्स णयरस्स सेणिए णामं राया होत्था। तत्थ णं रायगिहे विवियरियसहइमरसरणाइया पासादीआ दरिसणीया अभिरूवा णयरे णंदे णाम मणियारसेट्ठी परिवसइ, अड्डे दित्ते० जाव पडिरूवा / तए णं से गंदे मणियारसेट्ठी णंदाए पोक्खरिणीए अपरिभूए / तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! रायगिहे चउदिसिं चत्तारि वणसंडे रोवावेति / तए णं ते वणसंडा णयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव समोसढे ।परिसा णिग्गया। आणुपुव्वेण संरक्खिज्जमाणा संगोविन्जमाणा संवड्डि-जमाणा सेणिओ वि राया णिग्गतो। तए णं से णंदे मणियारसेट्ठी इमीसे वणसंडा जाया कि हा०जाव निकु रंबभूया पत्तिया कहाए लढे समाणे ण्हाए पायविहारचारेणं०जाव पज्जुवासति। पुफियाजाव उवसोभेमाणा उवसोमेमाणा चिट्ठति / तए तएणं णंदे मणियार सेट्ठी धम्मं सोचा समणोवासए जाते, जामेव णं णंदे मणियारसेट्ठी पुरच्छिमिल्ले वणसंडे एगं महं दिसिं पाउडभूए तामेव दिसिं पडिगए / तए णं अहं गोयमा ! चित्तसंभ करा-वेति, अणेगखंभसयसणि विट्ठ पासाईया रायगिहाओ णयराओ पडिणिक्खंतो बहिया जणवयविहारे-णं दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा। तत्थ णं बहूणि किण्हाणि विहरामि / तए णं से गंदे मणियारसेट्ठी अण्णया कयाई य०जाव सुकिल्लाणि य कट्ठकम्माणि य पोत्थकम्माणि य असाहुदंसणणे य अपजुवासणाए य अणाणुसासणाए य असु- चित्तलेपगंथिमवेढिमपूरिमसंधाइमाई उवदंसिजमाणा चिट्ठति। स्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं, मिच्छत्तपज्जवे हिं तत्थ णं बहूणि आसणाणि य सयणा य अच्छयपच्चया य पवनमाणेहिं मिच्छत्तं विप्पडिवण्णे जाते यावि होत्था। तए णं चिट्ठति / तत्थ णं बहवे णट्टा य०जाव दिण्णभत्तवेतणा
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________________ दहुर 2452 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ददुर तालायरकम्मं करेमाणा विहरंति। रायगिहविणिग्गओ य जत्थ बहुजणो तेसु पुव्वनत्थेसु आसणेसु य सयणेसु य संनिसण्णो य संतुट्ठोय सुहमाणो य सोहमाणो य सुहं सुहेणं विहरति / तए णं णंदे मणियारसेट्ठी दाहिणिल्ले वणसंडे एग महं महाणससालं कारावेति, अणेगखंभ० जाव रूवं / तत्थ णं बहवे पुरिसा | दिण्णभत्तवेतणा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडें ति, | बहूणं समणमाहणअतिहिकि विणवणीवगाणं परिभाएमाणा | परिभाएमाणा विहरंति।तए णं गंदे मणियारसेट्ठी पञ्चच्छिमिल्ले वणसंडे एगं महं तेगिच्छियसालं कारावेइ, अणेगखंभसय०। तत्थ णं बहवे वेज्जा य वेजपुत्ता य जाणुया य जाणुपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य दिण्णभत्तवेतणा बहूणं बाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुब्बलाण य तेगिच्छं कम्मं करेमाणा विहरंति / अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिण्णभत्तवेतणा तेसिं बहूणं वाहियाण य रोगियाण य गिलाणाण य दुब्बलाण य ओसहभेसजभत्तपाणेणं पडिचारं करेमाणा विहरंति / तए णं से णंदे मणियारसेट्ठी उत्तरिल्ले वणसंडे एगं महं अलंकारियसभं कारेइ अणेगखंभसयसण्णिविटुं०जाव पासाईया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा / तत्थ णं बहवे अलंकारियमणुस्सा दिन्नभत्तवेतणा बहूणं समणाण य अणाहाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुब्बलाण य अलंकारियकम करेमाणा विहरति / तए णं तीए णंदाए पोक्खरिणीए बहवे सणाहा य अणाहा य पंथिया य पथियकरोडिका य तणाहारा कट्ठाहारा पत्ताहारा अप्पेगइया ण्हायंति, अप्पे गइआ पाणियं पियंति, अप्पेगइया पाणियं सं वह ति, अप्पे गइया विसजियसे यजल्लमलपरिस्स-- मनिद्दखुप्पिवासा सुहं सुहेणं विहरंति / रायगिहविणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो, किं ते? जलरमणविविहमज्जणकयलिलयाहरयकुसुमपत्थरयअणेगसउणिगणरुयरिभियसंकुलेसु सुहं सुहेणं अभिरममाणा अमिरममाणा विहरति / तए णं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य पीयमाणो य पाणियं च संवहमाणो य अण्णमण्णं एवं क्यासीधण्णे णं देवाणुप्पिया! णंदे | मणियारसेट्ठी, कयत्थे०जाव जम्मजीवियफले / जस्स णं | इमेयारूवा फंदा पोक्खरिणी चाउकोणाजाव पडिरूया। जस्स णं पुरच्छिमिल्ले तं चेव सव्वं चउसु वि वणसंडे सु० जाव रायगिहणयरविणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सयणेसु य सण्णिसण्णे य संतुयट्टो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहं सुहेणं विहरति / तए णं धण्णे कयत्थे कयपुण्णे कयाणुलोया सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले गंदस्स मणियारस्स / तए णं रायगिहे णयरे सिंघाडग०जाव बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं परूवेइ, एवं विण्णवेइ-धण्णे णं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारसेट्ठी, सो चेव गमओ० जाव सुहं सुहेणं विहरति / तए णं से णंदे मणियारसेट्ठी बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्टतुट्टे धाराहयकलंछुगं पि व समुस्स-- सियरोमकूवे परं साया सोक्खमणुभवमाणो विहरति / तए णं तस्स गंदस्स मणियारसेट्ठिस्स अण्णया कयाइ सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउन्भूया / तं जहा- "सासे 1 कासे 2 जरे 3 दाहे, 4 कुच्छिसूले 5 भगंदरे 6 / अरिसा 7 अजीरए 8 दिट्ठी- मुद्धसूले 10 अकारए 11||1||" अच्छिवेयणा 12 कण्णवेयणा१३ कंडू य 14 उदरे १५कोडे 16 तए णं से णंदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोगायं के हिं अमिभूए समाणे कोडुंबिय-पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासीगच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! रायगिहे णयरे सिंघाडग०जाव महापहेसु महया महया सर्वेणं उग्धोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गंदस्स मणियारसेट्ठिस्स सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउन्भूया। तं जहा-सासे०जाव कोढे / तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया! विजो वा विजपुत्तो वा जाणुओ वा जाणु-- पुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा णंदस्स मणियारसेहिस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगाणं एगमवि रोगायक उवसामेत्तए, तस्स णं णंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं दलएति त्ति कट्ट दोचं पि तच्चं पि घोसेह०जाव पचप्पिणह / ते वि तहेव० जाव पचप्पिणंति / तए णं रायगिहे णयरे इमेयारूवे घोसणं सोचा णिसम्म बहवे वेजा य वेज्जपुत्ता य०जाव कुसलपुत्ता य सत्थकोसहत्थगता य सिलियाहत्थगता य गुलियाहत्थगता य ओसहभेसज्जहत्थगता य सएहिं सएहिं गिहेहिंतो णिक्खमंति, णिक्खमइत्ता रायगिहं णगरं मज्झं मज्झेणं जेणेव णंदस्स मणियारसेट्ठिस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्इत्ता णंदस्स मणियारसेविस्स सरीरं पासंति, तेसिं रोगायंकाणं नियाणं पुच्छति, पुच्छइत्ता णंदस्स मणियारस्स बहुहिं उध्वल-णेहि य उव्वट्टणेहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदहणेहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहि यवस्थिकम्मेहि य निरू हे हि य सिरावे हेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि सिरोवत्थाहि यतप्पणाहिय पुहपाएहि य छल्लीहि य वल्लीहि य डूले हि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फोहे य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगभवि रोगायंकं उवसामित्तए, नो चेव णं संचाएइ उवसामित्तए / तए णं ते बहवे वेज्जा य
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________________ ददुर 2453 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 ददुर जाव नो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोगाणं एगमवि रोगातंक उवसामित्तए, ताहे संता तंता परितंता०जाव पडिगया। तते णं णंदे मणियारसेट्ठी तेहिं सोलसेहिं रोगायके हिं अभिभूए समाणे णंदाए पुक्खरिणीए मुच्छिए तिरिक्खजोणिएहिं निबद्धाउए बद्धपएसिए अट्टदुहट्टवसट्टे कालमासे कालं किच्चा णंदाए पुक्खरिणीए दददुरीए कुच्छिंसि ददुरत्ताए उववण्णे / तते णं णंदे मणियारजीवे दद् दुरीए गब्भातो विणिम्मुक्के समाणे उम्मुक्काबालभावे विण्णायपरिणयमित्ते जोव्यणगमणुप्पत्ते णंदाए पोक्खरिणीए अमिरममाणे अमिरममाणे विहरति / तए णं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य पाणियं पियमाणो य पाणियं संवहमाणो य अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ-धन्ने णं देवाणुप्पिया ! णंदे मणियारसेट्ठी, जस्स णं इमेयारूवा गंदा पुक्खरिणी चाउकोणाoजाव पडिरूवा, जस्स णं पुरच्छिमिल्ले वणसंडे चित्तसभा अणेगखंभसय तहेव चत्तारि सभाओ०जाव जम्मजीवियफले / तए णं तस्स ददुरस्स तं अमिक्खणं अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म इमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगयसंकप्पे समुप्पज्जित्था-कहिं मण्णे मए इमेयारूवे सद्दे णिसंतपुवे त्ति कट्ट सुज्झेणं परिणामेणंजाव जाईसरणे समुप्पन्ने, पुटवजा-तिसमरणं समागच्छति / तते णं तस्स ददुरस्स इमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगयसंकप्पे समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं इहेव रायगिहे णगरे णंदे णामं मणियारसेट्ठी होत्था अड्डे०जाव अपरिभूए। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे०जाव समोसढे / तए णं मए समणस्स भगवओ महा-वीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं०जाव पडिवण्णे। तए णं अहं अण्णया कयाइ असाधुदंसणेण यजाव मिच्छत्तं विप्पडिवण्णे, तए णं अहं अण्णया कयाइ गिम्हकाल-समयंसि ०जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरामि, एवं जहेव चिंता, आपुच्छणं च,णंदा पुक्खरिणी, वणसंडा, सभाओ, सेसं तं चेव सव्वं०जाव णंदाए पुक्खरिणीए दद्दुरीए कुच्छिसि दद्-दुरत्ताए उववण्णे / तं अहो ! णं अहं अहण्णे अकयत्थे अकयपुण्णे णिग्गंथाओ पावयणाओ नटे भट्टे, परिभट्टे, तं सेयं खलु ममं सयमेव पुटवपडियन्नाई पंचाणुव्वयाई सत्त सिक्खा-वयाई उवसंपज्जित्ता प्यं विहरित्तए, एवं संपेहेति, संपेहित्ता पुष्वपडिवण्णाई पंचाणुव्वयाइं जाव आरुहति, आरुहइत्ता इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हति, कप्पइ मे जावजीवाए छटुं छटेणं अभिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स विहरित्तए। छट्ठस्स विय णं पारणगंसि कप्पइ मे णंदाए पुक्खरिणीए परिपेरंतेसु फासुएणमुण्होदएणं उम्मद्दणा लोडियाहि य वित्तिं कप्पेमाणस्स विहरित्तए, इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हति, अभिगिण्हइत्ता जावजीवाए छटुं छट्टेणं०जाव विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए समोसढे / परिसा णिग्गया। तए णं णंदाए पुक्खरिणीए बहुजणो ण्हायइ, पाणियं पियइ, पाणियं संवहइ, अण्णमण्णं आइक्खइ०जाव समणे भगवं महावीरे इहे व गुणसिलए चेइए समोसढे, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामो, णमंसामोजाव पञ्जुवासामो, इहभवे परभये हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए अणुगामियत्ताए भविस्सति / तते णं तस्स ददुरस्स बहुजणस्स अंतिए एयमद्वं सोचा णिसम्म अयमेयारूवे अब्भत्थिए समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे, तं गच्छामि णं वंदामि, णमंसामि, एवं संपेहेति, णंदाओ पुक्खरिणीओ सणियं सणियं उत्तरति, उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता ताए उक्किट्ठाए ददुरगईए वीईवयमाणे जेणेव मम अंतिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए, इमं च णं सेणिए राया भिंभसारे ण्हाए कयकोउय ०जाव सव्वालंकारविभूसिए हत्थिखंधवगते सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धारिजमाणेणं सेयवरचामराहिं महयाहयगयरहभडच-डगचाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिडे मम पायं वंदए हव्व-मागच्छति, तते णं से ददुरे सेणियस्स रण्णो एगेणं आसकि-सोरेणं वामपाएणं अक्कं ते समाणे अंतणिग्याइए कयावि होत्था। तए णं से ददुरे अथामे अबले अबीरिए अपु रिसकारपरक्कमे अधारिणिज्जम्मि त्ति कट्ट एगतमवकसति, अवक्कमइत्ता करत-लपरिग्गहियं तिक्खुत्तो सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं बयासी-नमोऽत्थु णं अरुहंताणं भगवंताणंजाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स मम धम्मायरियस्स०जाव संपाविउकामस्स, पुट्विं पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स० जाव संपत्तेणं अंतिए थूलगपाणातिवाए पञ्चक्खाए०जाव थूलए परिग्गहे पचक्खाए / तं इयाणिं पि तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामिजाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खाए जावजीवाए सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं पच्चक्खाए जावज्जीवाए, जंपि य इमं सरीरं इ8 कंतं० जाव सम्मं फुसंतं, एयं पि य णं चरिमेहिं ऊसासेहिं वोसिरामि त्ति कट्ट तए णं से दडुरे कालमासे कालं किच्चा०जाव सोहम्मे कप्पे ददुरवर्डिसए विमाणे उववायसभाए ददुरदेवत्ताए उववण्णे / एवं खलु गोयमा ! दडुरेणं देवेणं सा दिव्या देविड्डी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया ! दद्दरस्स
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________________ ददुर 2454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दडुर णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता / से णं दद्दरे देवे आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, वुज्झिहिति०जाव अंतं करेहिति। (एवं सूरियाभ ति) यथा राजप्रश्नकृते सूर्याभो देवो वर्णितः, एवमयमपि वर्णनीयः / कियता वर्णकनेत्याह-(०जाव दिव्वाई इत्यादि) स चाय वर्णकः -"तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अणीयाहिवईहिं।'' इत्यादि। (इमं च णं केवलकप्पं ति) इमं च-केवलः परिपूर्णः, स चासो कल्पश्व स्वकार्यकरणसमर्थ इति केवलकल्पः, केवल एवथा केवलकल्पः, तम् / (आभोएमाणे त्ति) इह यावत्करणादिद दृश्यम्-''पासइ समण भगवं महावीरं।'' इत्यादि। (कूडागारदिट्टते त्ति) एवं चाऽसौ-से केणट्टेणं भते! एवं वुचइ-सरीरंग गया, सरीरगं अणुप्पविहा? गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहओ।" बहिरन्तश्च ''गुत्ता लित्ता।" साऽऽवरणत्वेन, गोमयाऽऽद्युपलेपनेन च / उभयतो गुप्तत्वमेवाऽऽह- 'गुत्ता' बहिःप्राकारावृता: 'गुत्तदुवारा।' अन्तर्गुप्तेत्यर्थः / अथवा-गुप्ता गुप्तद्वाराणां केषाशिद् स्थगितत्वात्, केषाशिचास्थगितत्वादिति / "निवाया।" बायोरप्रवेशात्। "निवायगंभीरा।" किलमहद् गृहं निवातं प्रायो न भवतीत्यत आह-"निवातगंभीरा / " निर्वातविशालेत्यर्थः / "तीसे णं कूडागारसालाए अदूरसामते एत्थ णं महं एगे जणसमूह चिट्ठइ, तएणं से जणसमूहे एगं महं अभवद्दलयं वा वासवद्यलय वा महावायं वा एजमाणं पासइ, पासइत्ता तं कूडागारसालं अंतो अणुपविसित्ताणं चिट्ठइ। से तेण?ण गोयमा! एवं वचइसरीरंग गया, सरीरंग अणुपवित्र त्ति / ' असाधुदर्शननेति, साधूनामदर्शनेन, अत एवापर्युपासनया अनासेक्नया, अननुशासनया शिक्षाया अभावेन, अशुश्रूषणया श्रवणेच्छाया अभावेन, सम्यक्त्वपर्यवैः सम्यक्त्वरूपपरिणामविशेषैरेवं मिथ्यात्वं विशेषेण प्रतिपन्नः विप्रतिपन्नः, काष्ठकर्माणि दारुमयपुत्रिकाऽऽदिनिर्मापणानि / एवं सर्वत्र, नवरं पुस्तं वस्त्रं चित्रं लेप्य च प्रसिद्ध, गन्थिमानि यानि सूत्रेण गृथ्यन्ते, मालावत् / वेष्टिमानि वेष्टनतो निष्पाद्यन्ते, पुष्पमालालम्बूसकवत् / पूरिमाणि यानि पूरणतो भवन्ति, कनकाऽऽदि प्रतिमावत्। संघातिमानि संघातनिष्पाद्यानि, रथाऽऽदिवत् / उपदयमानानि लोकैरन्योऽन्यमित्यर्थः / (तालायरकम्मं ति) प्रेक्षणककर्मविशेषः / (तेगिच्छियसालं ति) चिकित्साशालामरोगशाला, वैद्या भिषग्वरा आयुर्वेदपाठकाः, वैद्यपुत्रास्तत्पुत्रा एव, (जाणुय त्ति) ज्ञायकाः, शास्त्रानध्यायिनोऽपि शास्त्रज्ञप्रवृत्तिदर्शनेन रोगस्वरूपतश्चिकित्सावेदिनः। / कुशलाः स्ववितकीचिकित्साऽऽदिप्रवीणाः। (वाहियाणं ति) व्याधितानां विशिष्टचित्तपीडावता, शोकाऽऽदिविप्लुतचित्तानामित्यर्थः / अथवा-- विशिष्टा आधिर्यस्मात्स व्याधिः स्थिररोगः कुष्टाऽऽदिः, तद्वता ग्लानानां क्षीणहर्षाणामशक्तानामित्यर्थः। रोगिताना संजातज्वरकुष्ठाऽऽदिरोगिणाम्, आशुघातिरोगाणां वा (ओसहमित्यादि) औषधमेकद्रव्यरूप, भेषजं द्रव्यसंयोगरूपम्। अथवा-औषधमेकानेकद्रव्यरूपम, भेषजं तु पथ्यम्। भक्तं तु भोजनमात्रम्, प्रतिचारककर्म प्रतिचारकत्वम्। (अलंकारियसभ ति) नापितकर्मशालाम् / (विसज्जिय इत्यादि) विसृष्टस्वदेजल्लमलपरिश्रमनिद्राक्षुत्पिपाशाः / तत्रजल्लः स्थिरोमालिन्यहेतुः, मलस्तु स एव कठिनीभूत इति / राजगृहविनिर्गतोऽपि च यत्र बहुजनः / (किं ते ति) किं तद्यत्करोति? उच्यते-जलरमणैर्जलक्रीडाभिः, विविधमज्जनः बहुप्रकाररनानैः, कदलीनां लतानां च गृहकैः, कुसुमस (प्र) स्तरैः, अनेकशकुनिगणरुतैश्च / कीदृशैः? रिभितैः स्वरघोलनावद्भिर्मधुरैरित्यर्थः / संकुलानि यानि तानि तथा तेषु, पुष्करिणीवनखण्डलक्षणेषु पञ्चसु वस्तुष्विति प्रक्रमः / (संतुयट्टो यत्ति) शयितः (साहेमाणो य ति) प्रतिपादयन् / (गमओ त्ति) पूर्वोक्तपाठः / (साया मोक्खं त्ति) सातात् सातवेदनीयोदयात् सौख्यं सुखम्। "सासे" इत्यादि श्लोकः प्रतीतार्थः, नवरम् (अजीरए त्ति) आहारापरिणतिः। (दिट्ठीमुद्धसूले ति) दृष्टि शूलं नेत्रशूलं, मूर्द्धशूलं मस्तकशूलम् / (अकारए त्ति) भक्त द्वेषः / "अच्छिवेयणा'' इत्यादि श्लोकातिरिक्तम् / (कडु ति) खर्जूः। (उदरे त्ति) उदरं, जलोदरमित्यर्थः। (सत्थकोसेत्यादि) शस्त्रकोशः क्षुरनखरदनाऽऽदिभाजन, स हस्ते गतः स्थितो येषां तेतथा। एवं सर्वत्र / नवरं शिलिकाः किराततिक्तकाऽऽदितणरूपाः, प्रतलपाषाणरूपा वा शस्त्रतीक्ष्णीकरणार्थीः / तथा-गुटिका द्रव्यसंयोगनिष्पादितगोलिकाः / औषधभेषजे तथैव। (उव्वलणेहीत्यादि) उदलनानि देहोपलेपनविशेषाः, यानि देहाद् हस्तामर्शनेनापनीयमानानि मलाऽऽदिकमादायोद्वलन्तीति। उद्वर्त्तनानि तान्येव / विशेषस्तु लोकरूढिसमवसेय इति / स्नेहपानानि द्रव्यविशेषपक्कघृताऽऽदिपानानि / वमनानि प्रसिद्धानि / विरेचनान्यधोविरेकाः / स्वेदनानि सप्तधान्येकादिभिः(?) अवदहनानि दम्भनानि। अपस्नानानि स्नेहापनयनहेतुद्रव्यसंस्कृतजलेन स्नानानि अनुवासनाश्चर्मयन्त्रप्रयोगेणापानेन जठरे तैलप्रवेशनानि / वस्तिकर्माणि चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरःप्रभृतीनां स्नेहपूर्णानि, गुदे वा वादिक्षेपणानि। निरू हा अनुवासना एव, केवलं द्रव्यकृतो विशेषः / शिरावेधा नाडीवेधनानि, रुधिरमोक्षणानीत्यर्थः / तक्षणानि त्वचः क्षुरप्राऽऽदिना तनूकरणानि। प्रक्षणानि ह्रस्वानित्वचो विदारणानि। शिरोवस्तयः शिरसि बद्धस्य चर्मकोशस्य संस्कृततेलापूरलक्षणः। प्रागुक्तानि वस्तिकर्माणि सामान्यानि, अनुवासनानिरूहशिरोव-स्तयस्तु तद्भेदाः / तर्पणानि स्नेहद्रव्यविशेषवृंहणानि / पुटपाकाः कुष्ठिकानां कणिकावेष्टितानामग्निना पचनानि / अथवा-पुटपाकाः पाकविशेषनिष्पन्ना औषधविशेषाः / छल्लयो रोहिणीप्रभृतयः, वल्लयो गुडूचीप्रभृतयः / कन्दाऽऽदीनि प्रसिद्धानि / एतैरिच्छन्ति एकमपि रोगमुपशमयितुमिति / (निवद्धाउए त्ति) प्रकृतिस्थित्यनुभागबन्धापेक्षया / (बद्धपएसिए त्ति) प्रदेशबन्धापेक्षयेति / (अंतनिग्घाइए ति) निर्घातितान्तः / (सध्वं पाणाइवाय पचक्खामि) इत्यनेन यद्यपि सर्वग्रहणम, तथाऽपि तिरश्वां देशविरतिरेव। इहार्थे गाथे"तिरियाणं चारित्त, निवारियं अह जतो पुणो तेसिं। सुव्वइ बहुयाण पिय, महव्वयारोहणं सभए।।१।। न महव्वयसब्भावे, विचरणपरिणामसंभवो तेसिं। न बहुगुणाणं पि जओ, केवलसंभूइपरिणामो // 2 // " इति / इह यद्यपि सूत्रे उपनयो नोक्तस्तथाऽप्येवं द्रष्टव्यः''सपन्नगुणो विजओ, सुसाहुसंसग्गिवजिओ पायं। पावइ गुणपरिहाणिं, दद्दरजीवो व्य मणियारो॥१॥" ति।
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________________ 2455 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दमदंत अथवा दब्भ पुं०(दर्भ) 'दृभ' ग्रन्थे। घञ् / वाच०। समूले कुशे, समूला दर्भाः, "तित्थयरवंदा, थं, चलिओ भावेण पावए सग्ग। अमूलाः कुशाः / भ०८ श०६ उ०। आ०म०। आचा० नि० विपा० भन जह ददुरदेवेणं, पत्तं वेमाणियसुरत्तं / / 2 / / " इति। अन्त०। प्रज्ञा०। दर्भराभूतैः कुशर्मूलभूतैर्जात्या दर्भकुशभेद इत्यन्ये / ज्ञा०१ श्रु० 13 असेडुकब्राह्मणस्य उत्तरभवजीवे, आ०क०। ('सेड्य' ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। 'कुशाः काशाः वल्वजाच, तथाऽन्ये तथाऽन्ये तृणरोमशाः / मौजाश्च शाद्वलाश्चैव, षड् दर्भाः परिकीर्तिताः / / 1 / / " सदाऽत्रद्रष्टव्यः) इत्युक्तेषु काशाऽऽदिषु षट् सुतृणेषु, वाचा दडुरवळिसग न०(दर्दुरावतंसक) दर्दुरदेवाधिष्ठिते विमाने, ज्ञा०१ श्रु० दमपुप्फ पुं०(दर्भपुष्प) दर्वीकरसर्पविशेषे, प्रज्ञा०१ पद / प्रश्नका 13 अग दब्भय पुं०(दर्भक) समूले कुशे , भ०१८ श०१उ०। दप्पपुं०(दर्प) दृप-घड, अच्वा! निष्कारणेऽनाचारे, व्य०४ उ०। अरुच्या दब्भवण न० (दर्भवन) दर्भकानेन, 'जातणाहिं किं ते असिवणं कामभोगे, नि०चू०१ उ०। माने, स०५१ सम०। धृष्टतायाम्, भ० 12 दभवणं ? दर्भवन प्रतीतं, दर्भपत्राणि छेदकानि, तदग्राणि च भेदकानि श०५ उ०। अष्टमे गौणाब्रह्मणि, दो देहदृप्तता, तज्जनकत्वादस्य दर्प भवन्तीति तद्धातनाहेतुत्वेनोक्तम् / प्रश्न०१ आश्रद्वार। इत्युच्यते। आह च- "रसा पगामं न निसेवियव्वा, परं रसा दित्तिकरा दव्भवत्तिय पुंगन० (दर्भवर्तित) दर्भिणः शरीरविकर्तने, दशा०६ अ०। हवंति। दित्तं च कामा सम-भिवंति, दुमं जहा साउफलं तु पक्खी दभविज्ञा स्त्री०(दर्भविद्या) रोगप्रतीकरणविद्याभेदे, अत्था दर्भे / / 1 / / ' अथवा--दर्पः सौभाग्याऽऽद्यभिमानः, तत्र भवं चेदं, न हि दर्भविषया भवति विद्या, यथा दभैरपमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति / प्रशमाद्देन्यादा पुरुषस्यात्र प्रवृत्तिः सम्भवतीति दर्प एवोच्यते। तदुक्तम्-- व्य०५ उ०। "प्रशान्तवाहिचित्तस्य, सम्भवन्त्यखिलाः क्रियाः / मैथुनव्यतिरो दभियायण पुं०(दाायण) दर्भर्षोत्रापत्ये, "चित्ता णक्खत्ते किंगोत्रे किण्यो, यदि रागो न मैथुने / / 1 / / ' प्रश्न०४ संव० द्वार / स्त्रीणां पण्णत्ते? दब्भियायणसगोत्ते पण्णत्ते।" सू०प्र०१०पाहु०। जला चं०प्र० मानमर्दनादुत्पन्ने गर्वे , उत्त०१ अ० धावनवल्गनमेघनाऽऽदौ, जीत०। दम पुं०(दम) दम-घञ् / इन्द्रियनिग्रहे, प्रश्र०४ संव० द्वार / स० पञ्चा०। ध०। 'दप्पो पुण होइ वग्गणाईओ।'' इति / स्था०१० ठा०। इन्द्रियोपशमे, नं०। आचा०। उत्ता दण्डे, बाह्येन्द्रियाणां ध्येय"जो अणेगवायामोग्ग वग्गणाऽऽदिकिरियं करेति णिकारणे सो विषयव्यतिरिक्तभ्यो निवर्त्तने, 'निग्रहो बाह्यवृत्तीना, दम इत्यभिधीदप्पो।'' नि०चू०१ उ०ा प्रमादे, नि०चूना यते।'' इत्युक्ते बाह्येन्द्रियव्यापाररोधे विकारहेतुसन्निधानेऽपि मनसः "दस दारा दप्पे' इत्यस्य व्याख्या स्थैर्य , "कुत्सितात्कर्मणो विप्र ! यच चित्तनिवारणम् / स कीर्तितो वायामवग्गणाऽऽदी,णिक्कारणधावणं तु तह चेव। दमः,' इत्युक्ते कुकर्मभ्यो मनसो निवारणे, कर्दमे, दमने च / वाच०। कायाऽपरिणयगहणं, अकप्पों जंवा अगीतेणं // 464|| दमअ पुं०(देशी) दरिद्रे, दे०ना० 5 वर्ग 34 गाथा। वायामो जहा-लगुडिभमाडणं, उवलयकट्ठाणं वग्गणं, मल्लवत् / दडग पुं०(दमक) हस्त्यश्वाऽऽदीनां प्रथमं विनयग्राहके, नि० चू०६ उ०) आदिसग्गहणा बाहुजुझकरणं, वीवराडवणं / णिक्कारणेण धावणं *द्रमक पुं०।दुर्भग, रङ्के, ध्य०३ उ०। दरिद्रे, नि०चू०१५ उ०। आ०म० ! खड्डयप्पयाण / दप्पो गतो। नि०चू०१ उ०। आक०। बृष झा०। विशे०। आव०। द्रमको नाम दरिद्रो भूत्वा यः दप्पण पुं०(दर्पण) पुरुषप्रतिबिम्बदर्शनाऽऽधारे, वाचा आदर्श, ज्ञा०१ प्रव्रजति / बृ०१ उ०॥ श्रु०१ अपं०व०॥ नि०चू० प्रश्नाजंगा आ०चूला रा०| दमगभत्त न०(द्रमकभक्त) रडेभ्यो दीयमाने भक्ते, नि००६ उ01 दप्पणिज त्रि०(दर्पणीय) बलकरे, उत्साहवृद्धिकरे च / स्था०६ ठा०॥ दमघोस पुं०(दमघोष) शिशुपालपितरि, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। वसुदेवकल्पका ज्ञा०। औ०। प्रज्ञा०ा जी०। स्वसुः पत्यौ, सूत्र०१ श्रु०३अ०१उ० दप्पपडिसेवणा स्त्री० (दर्पप्रतिसेवना) आगमप्रतिषिद्धप्राणाति- | दमण न०(दमन) उपतापे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / पशूनां शिक्षाग्रहणे, पाताऽऽद्यासेवायाम, स्था०१० ठा०ा नि००। (विस्तरस्तु पडिसेवणा' प्रश्न०३ आश्र० द्वार। शब्दे वक्ष्यते) दमणग पुं०(दमनक) पुष्पजातिविशेषे 'दवना' इतिख्याते, प्रश्न०५ दप्पिय त्रि०(दर्पित) दृप्ते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। दद्विराधका भवन्ति संवन्द्वार। राजगन्धद्रव्यविशेषे च / आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। प्रज्ञा ज्ञानाऽऽदीनाम्। नि०चू०१उ०। दर्पयति, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / ज्ञा०। आ०म०। "दमणगपुडाण वा।'' जं०१ वक्ष०ा रा० दप्पुल्ल त्रि०(दर्पवत्) "आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेर- | दमणा स्त्री०(दमना) गन्धद्रव्यविशेष, आ०म०१अ०१ खण्ड। मणा मतोः" / / 2 / 156 / / इति मतोः स्थाने उल्लाऽऽदेशः।। दमदंत पुं०(दमदन्त) स्वनामख्याते हस्तिशीर्षकपुराधिपतौ, येन दृप्ते, प्रा०२ पाद। हस्तिनागपुरं रुद्धम् / गा
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________________ दमदंत 2456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दया अथ दमदन्तसंबन्धो यथा-'अस्थि तिबुहपुरं पि व विबुहजण- दुजोहण एवं निभत्थेइ-अरे कुट्टार ! अंगीकयमायगायार ! समाइगणं उताण व पुन्नागपडिपुन्नपायारोवरि दिप्पंतस्यकविसीस इहभवपरभवदुगछणिज्ज मुणिवरावमाणणं किं तए कय? सइया किं तुम हस्थिसीस नाम नयरं।" "जत्थ धुवं वणियाणं, ववहारपराण अइस- कत्थ वि गओ आसि, किं वा तस्स परक्कम गीयमाणं न तए सुयं, जइया मिद्धाणं / वणियारयाण लीलं, धणओ विन पावए कह वि।।१।।'' तत्थ तेन वेढियं हुत्था हत्थिणाउरं? अणेण य रायरिसिणा पुटिव पंचावि वयं समरचत्तरवरिवारपरियदंतिभग्गदंतो दमदंतो नाम राया। "कित्ती जिया, संपइ पुण पंच वि इंदिया। धरिओ य दुद्धरो महव्ययभारो, अती रणहयरिउवय-संभूया जस्स चंदकरसरिसा / मज्झं करेइ दुजण- को तं निजिणिउं सम्झइ, तओ सो वि रायरिसी तंदुस्सह परिसह सहते जणमणदहण हुयासु च।।१॥ अन्नया सो दमदतराया तिखडभरहेसरं संवेगावेसेण झाणंतरिय पडिवज्जिय गुणसेणिमारुहिय संपत्तकेवलनाणो दुद्धरवैरिरायपडिवासुदेव सेवेउं रायगिहं नगरं गओ / तम्मि समए सिवपुरं गओ। "वुत्तंतमेयं दमदंतसाहुणो, चित्ते निसित्ता सममित्तसत्तुणो। हत्थिणाउराओ नीहरिऊण सपरियणेहि पंडवेहि तरस देसो छल लहिय संवेगरंगंगणनट्टसीलया, हवेह सिद्धिं परिणेह लीलया / / 1 / / ||7|| लूसिओ। इमं सरूवं दगदतरणा रायगि-हाओ वलिए सुणिय परम ग०२अधिका आ००। आ०चूला आ०म०। पओसमुव्वतण नासियदिनेणं निय-सिन्नेण सह हस्थिणाउरं समंतओ, दमदमाय धा०(दमदमाय) नाम / आडम्बरकरणे, अदमद् दमद्भवति! जंबूदीवं पियलवणसायरे, वढियं / तओ सो दूयमुहाग पंडवे विशाइ- "अव्यक्तानुकरणादनेकस्वरात् कृभूस्तिना अनितो द्विश्व" ||72 / अम्ह देसो तुम्हेहिं धीरजणगरहणिजेणछलेण उवडओ, नबलेण। जओ- १४५।।(हैम०) इति डाच् प्रत्ययः, दमवद् द्विर्वचनं च। "डाच्यादी'' "छलमुचियं कीवाणं, कीवाण वधं णियविरहिए ठाणे। बलवताण नराणं, 1:7421146 / / (हैम०) इति तलुक् / 'डित्यन्त्यस्वराऽऽदेः" नएस भग्गो सुवंसाम / / 1 / " ता जइ तुम्हाण पयर्ड भुयदंडवलमन्थि, तो ||2|11114 // (हैम०) इत्यलुक् / “माच लोहिताऽऽदिभ्यःषित्' पुराओ निगंतूण दमपरक्कमपईवसिहाए सलभलीलमुव्वहह / तआएवं विहं // 3 // 4 // 30 // (हेम०) इति क्यच् प्रत्ययः। 'क्यडोर्यलुक्॥८।३।१३८|| दएण तजिया अवि पंडवा भयभीया न नीहरिया सनयराओ जुज्झिउं। इतिक्यजन्तसम्बन्धिनो यस्य लुक् / 'दमदमाइ।' 'दमदमाअइ।' दमदतओबहुदिणरोहणनिविण्णो दमदंतो हत्थिसीसपुरं गओ एवं चिंतिऊण मायति। प्रा०३ पाद। "खत्तियकुलभवाणं, संमुहपत्ताण सिंहपोय व्व। जुज् काउं उचियं, दमय पुं०(द्रमक) कर्मकरे, बृ०१उ०। अन्नह अजसो कुरइ लोए / / 1 / / '' इओ य नाएक रलं पालयतो दमदंतो दमयंती रत्री०(दमयन्ती) भीमपुत्र्यां नलनृपमहिन्याम, ती०। कइबयदिजेहिं यइक तेहिं सिरिनेमिनाहसीससिरिधम्मधाससू रिव (कथाऽन्यव) यणपहसंभूयपभूयसंवेगरसरगततरणीए धम्मदेसणाए हाऊण विगयपा- | दमसायर पुं०(दमसागर) दम इन्द्रियदमोऽर्थात् चारित्रम् / दम एव वसंतावो रजमकर्ज, भमारे कारागार, पेयसीओ रक्खसीओ, विसए दुस्तरन्थात् सागर इव दमसागरः। तरितुमशक्यत्वात् सागरकल्पं दमे, विसे, चउरंगसाहणं दुग्गइसाहणं च मन्नतो संवेभ गओ संसारसुखमुज्झिय उत्त०१६ अग वज्जियसव्यसावजकजमणवज यध्वज पडिवाइ। तओ रायरिसी कमेण दमिड पुं०(द्रविड) देशभेदे, तद्देशस्थे च। वाचा न०1 प्रकला गीयत्थो होतु विहरतो पंडवपालिए हत्थिणाउरे गोउरदुआरे मेरु व्व | दडिल पुं०(दमिल) अनार्यक्षेत्रे, तज्जे मनुष्ये च। प्रज्ञा०१ पद। नि०चूठ निप्पकंपो पडिमं ठिओ तम्मि समए रायवाडियाए निग्गच्छतेहिं पंचहिं / सूत्र० प्र० पंडवेहिं पलोइय वाहणेहिं उत्तरिय नमसिओ भावसारं मुणीसरो। अहो! | दडिला स्त्री०(डिला) अनार्यदशोत्पन्नायां योषिति, भ०६ श०३३उ०। दुकरकारओ एस रायरिसी इय अभिनंदिय पुरओ पस्थिएउ तेसु तत्थ | दडी पुं०(दडिन) दडो विद्यते येषां ते दडिनः। उपशमवत्सुसाधुषु, उत्त० आगओ सपरियणो पयईए दुजणो दुनोहणो, से मुणिंदं पिविखय अणेण / 16 अ० जितेन्द्रिये, उत्त०२२ अ०॥ उद् वृत्तदमनशीले चा उत्त०१६ अ० अम्हाणं पुटवपुरिसागय कित्तिसव्वस्रामवहरियं, पुवाइरमणुसरंतो दडीसर पुं०(दडीश्वर) दडी विद्यते येषां ते दडिनो जितेन्द्रियाः, माउलिंगेण तामेइ, तब्भाव मुणतण तप्परियणेण पाहाणरवंडेहिं आहणि- | तेषामीश्वरोदनीश्वरः। उपशमवतां साधूनामश्चर्यधारिणि, उत्त०१६ अ० ऊण लिट् ठुरासी कओ, रायवाडीए बलिएण जुहिडिररन्ना तत्थ तं | दमेयव्व त्रि०(दमितव्य) वशीकर्तव्ये, उत्त०१ अ०। मुणिम-पिच्छतेण तट्टाणे लिट् ठरासि पलोयंतेण नियपरियणो पुट्टा- | दम्म त्रि०(दम्य) दमनयोग्ये, आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०२ उ०। दशा कहिं विहरिओ रा महप्पा धम्मकप्पद् दुकप्पो? तेणावि दुजोहणवुत्तो आका तपुरओ दुत्तो। तं सुणिय अईव अधिई कुणंतो पायकेहि लिट तुरासिंदूरे द्रम्म पुं०। पणषोडशके, वाचन काराविय अंगसंवाहगेहितो अंग सज्ज निम्माविय सयं तं मुणिवर खामिय दय न०(देशी) जले, शोके, देना०५ वर्ग 33 गाथा। पत्तो पासायं जुहिद्विरनरवरो। दमदंतो बिसंवेग-वेगेण एवं भावेइ-"एस दयपत्त त्रि०(दयाप्राप्त) प्राप्तकरुणागुणे, औ०। दयाकारिणि च। स्था०६ मे सासओ अप्पा, नाणदेसणसंजुओ। सेसा में बाहिरा भावा,सव्वे टाका राम संजोगलक्खणा / / 1 / / '' तओ स कोरवेसु अवकारका रसु. पंडवेसु य दया स्त्री० (दया) दय-भिदा०-अड्। 'यत्नादपिपरक्लेश, उत्क्यारपरेसु समचित्तवित्तिं धारेइ। अह जुहिहिरराओ सेवाऽवसराऽऽगयं / हत्तुं या हृदि जायते / इच्छा भूमिसुर श्रेष्ट ! सा दया परिकी
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________________ दया 2457 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दरिसणरइय र्तिता / / 1 / / '' इत्युक्तलक्षणे इच्छाभेदे, वाचा कृपायाम्, हा०२४ अष्टा | दरंदर पुं०(देशी) उल्लासे, देना०५ वर्ग 37 गाथा। आचा०। स०। सूत्र। अनुकम्पायाम्, दश०६अ०१उ०। आवळा प्रश्न०। दरजिमिअ त्रि०(दरजिमित) अर्द्धभुक्ते, वृ०३ उका जीवरक्षायाम, दश०१ अ०॥ द्रव्यभावस्वपर-प्राणरक्षणायाम, अष्ट०२८ दरदिण्ण त्रि०(दरदत्त) ईषद्वितीर्णे , पश्चा० 10 विव०। अष्ट। दुःखितजन्तुदुःखत्राणाभिलाषे, ध०१ अधि०। 'न तद्दानं न दरपट्ठावित त्रि०(दरप्रस्थापित) अर्द्धप्रस्थापिते, नि०चू०१६ उ०। तद्ध्यानं, न तज्ज्ञानं न तत्तपः। न सा दीक्षा न सा भिक्षा,दया यत्र दरमत्त पुं०(देशी) बलात्कारे, देना०५ वर्ग 37 गाथा। न विद्यते॥१॥" संथा / दरवंदिय न०(दरवन्दित) द्वाविंशद्वन्दनकदोषे, "देसीकहवित्तंते, कहेति दयाइअन०(देशी) रक्षिते. दे०ना०५ वर्ग 35 गाथा। दखदिए कुंची।'' देशीकथावृत्तान्तान् यत्र करोति तद्धि परिकुञ्चितम्। दयालु त्रि०(दयालु) दय-आलुच। कृपायुक्ते, वाचा बृ०३ उ० दयावत् त्रि० ।"आल्विल्लोल्लाल-वन्तमन्तेत्तेर-मणा मतोः" | दरविंदर पुं०(देशी) दीर्घ , विरले च। दे०ना०५ वर्ग 52 गाथा। / / 8 / 2 / 156 / / इति मतोः स्थाने आलु इत्यादेशः / प्रा०२ पाद। सघृणे, दरसण न०(दर्शन) मते, यथा-"आगारमावसंता वा, अरण्णे वा वि दर्श०२ लत्त्व / सत्त्वानुकम्पके, ध० 20 // दुःखितजन्तुत्राणाभिलाषुके, एव्वया / इमं दरसणमावन्ना, सव्वदुक्खा विमुचई / / 1 / / " अनु०॥ प्रव० 236 द्वार। दरसणिज्ज त्रि०(दर्शनीय) द्रष्टुं योग्ये, चं०प्र०१८ पाहु०। पश्यचक्षुर्न संप्रति दशमं गुणं प्रचिकटयिषुराह श्राम्यति तस्मिश्वा भ०२ श०५ उ०। मूलं धम्मस्स दया, तयणुगयं सव्यमेवऽणुट्ठाणं। दरहिंडिय त्रि०(दरहिण्डित) अर्द्धर्यटिते, बृ०४ उ०। सिद्धं जिणिंदसमए, मग्गिजइ तेणिह दयालू / / 17 / / दरिअ पुं०(देशी) दृष्रे, दे०ना०५ वर्ग 35 गाथा। मूलनाचं कारणं धर्मस्योक्तनिरुक्तस्य दया प्राणिरज्ञा / यदुक्तं दरिद्द त्रि०(दरिद्र) धनविहीने, स्था०४ ठा०३०। अनीश्वरे, दुस्थे च / श्रीआवारागसूत्रे-"से बेमि जे अईया, जे पडुप्पन्ना, जे य आगमिस्सा स्था०३ टा०१उ०। अरहंता भगवेता ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवें ति, एवं / दरिदृकुल न०(दरिद्रकुल) अनीश्वरे, स्था०८ ठा० निर्द्धनकुल च / परूवयंति-सव्ये पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सता न हंतव्वा, न कल्प० २क्षण। वज्झावेयव्वा, न परितावेयज्वा, न उवद्दवेयव्या, एस धम्मे सुद्धे निइए दरिद्दथेर पुं०(दरिद्रस्थविर) कृताङ्गलानगरीवास्तव्ये समहिले सासर समिव लोय खेयन्नेहि पवेइए।' इत्यादि। यतोऽस्या एव रक्षार्थ साऽऽरम्भे स्वनामख्याते स्थविरे, आ०म०१ अ०२ खण्ड। शेषव्रतानि। तथा चाऽवाचि-"अहिंसैव मता मुख्या, स्वर्गमाक्षप्रसाधनी। दरिद्दीहूय त्रि०(दरिद्रीभूत) अदरिद्रे दरिद्रतां गते, स्था०३ ठा०१उ०। अस्याः संरक्षणार्थच, न्याय्यं सत्याऽऽदिपालनम्।।१।।" इति। अत एव दरिय त्रिं०(दृप्त) दृप-तः। “अरिदृप्ते" ||1:144 // दृप्तशब्द तदनुगत जीवदयासहभावि, सर्वमव विहाराऽऽहारतपोवैयावृत्याऽऽदि ऋतोऽरिरादेशो भवति। 'दरिओ'! प्राह०१ पाद। "दृप्ते" ||8 / 2 / 96|| सदनुष्ठान, सिद्धं प्रतीतं, जिनेन्द्रसमये पारगतगदितसिद्धान्ते / तथा दृाशब्दे शेषरय द्वित्वं न भवति।"भम धम्मिय : वीसत्थो, सो सुणओ चोक्तं श्रीशय्यंभवसूरिपादैः-"जयं चरे जय चिट्टे, जयमासे जयं सए। अजमारिओ तेण / गोदाणईकच्छकुंजवासिणा दरियसीहेण ।।१।।"(इति जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्म न बंधइ / / 1 / / '' (दश०) इति / गाथासप्तशत्याम) प्रा०२ पाद / गर्चित, वाच०। औला दाऽऽध्माते, रा०॥ अन्यैरप्युक्तम्-"न सा दीक्षा न सा मिक्षा, न तद्दानं न तत्तपः। न प्रश्रवा "दरियनागदप्यमहणा।" दृप्तनागदर्पमथना / प्रभ०४ आश्र० द्वार। तद् ज्ञानं न तद् ध्यानं, दया यत्र न विद्यते / / 1 / / " इति / मृग्यते दरियमह पुं०(दृप्तमह) विशिष्ट काले दात्पूजायाम, आचा० 2 श्रु०१ अन्विध्यते तेन कारणेनेह धर्माधिकारे दयालुदेयाशीलः / स हि किल अ०१ 001 उ०। स्वल्पस्याऽपि जीवयधस्य यशोधरजीवसुरेन्द्रदत्त-महाराजस्येव दरिस धान्दश(ष) चाक्षुषज्ञाने, भ्या०–पर०-सक०-अनिट् / वाचot दारुणविपाकमवबुध्यमानो न जीववधे प्रवर्त्तते इति ॥१७॥ध००। "वृषाऽऽदीनामरिः" ||84235 / / इति दृपेररिः। दरिसई। प्रा०४ दयावण पुं०(देशी) दीने, देना०५ वर्ग 35 गाथा। पादा पश्यति। अदर्शत्, अद्राक्षीत् / वाचा "दर्श दर्श सुरूपा खीम्।" दयासूरि पुं०(दयासूरि) द्रव्यानुयोगार्थो पदेशके तपागच्छप्रधाने आ०का स्वनामख्याते सूरौ, द्रव्या०१५ अध्या०। दरिसण न०(दर्शन) "शर्षतप्तवजे वा" ||8 / 2 / 105 / / इति संयुक्तदर अव्य० (दर) ईषदर्थे , अर्थेि च। "दरार्धाऽल्पे" ||8/22215 / / स्यान्त्यव्यजनात्पूर्व इकारो वा भवति ! 'दरिसणं / ' 'दंसणं / ' प्रा०२ दर इत्यव्ययमर्धार्थ ईषदर्थे च प्रयोक्तव्यम्। "दरविअसिय।" अर्द्धनेषता पाद / सम्यक न्ये, आ०क०। आतुका आगमे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२30। विकसितमित्यर्थः / प्रा०२ पाद / प्रव०। विशे। न्यूनतायाम, दरा संवेदने, स०१० सम०। प्रकाशने, स०५ अङ्ग। आलोकने, रा०ा वाक्ये द्विविधाः / तद्यथा-पेट्टदराः, धान्यभाजनदराश्च / पेट्टभुदरं तद्रूपा दराः च। स०६ अङ्ग। पेट्टदराः। धान्यभाजनानि कटपल्यादयः, तान्येव दराधान्यभाजनदराः। दरिसणरइय त्रि०(दर्शनरतिक) दर्शने आलोकने रतिर्यस्मिन् स बृ०१उ०। नि०चू०। अर्द्ध, देखना०५ वर्ग 33 गाथा। दर्शनरतिकः / दिदृक्षणीये, राधा
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________________ दरिसणावरणिज्ज 2458 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दवदप्पसील दरिसणावरणिज न०(दर्शनाऽऽवरणीय) दर्शनं सामान्यार्थबोध- __ प्रवका उत्त०ा भावे-अप् / उपतापे, वाचा रूपमावृणोतीति दर्शनाऽऽवरणीयम् / दर्शनाऽऽवरणकर्मणि, स्था०। उक्तं | द्रव पुं०। दु-अप। रसे, वेगे, गतौ, पलायने, परिहासे, वाचा जले, पिं० च-"दसणसीले जीव, दंसणथायं करेइ जं कम्मं / तं पडिहारसमाणं, / विकृतिविशेषे, आव०६ अ०। सप्तदशविधे संयमे च, कर्मदंसणवरणं भवे जीवे // 1 // " इति। स्था०२ ठा० 4 उ०। (अस्य सर्वा काठिन्यद्रवणकारित्वाद् विलयहेतुत्वाच। आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ० वक्तव्यता 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 256 पृष्ठे द्रष्टटया) सूत्रका पानके, बृ०१ उ०। यच सौवीरं द्रवाऽऽदिकमलेपकृतं, यच दरिसणिज्ज त्रि०(दर्शनीय) दर्शनाय चक्षुर्व्यापाराय हित दर्शनीयम्। औ०। दुग्धतैलवसाद्रवघृताऽऽदिक लेपकृतं तदुभयमपि द्रवमित्युच्यते। बृ०५ यं पश्यश्चक्षुषा श्रम न गच्छति तस्मिन्, स०। ज्ञा०। नि0 विपा० उन नि००। गद्गद, देवना०५ वर्ग 33 गाथा। दर्शनयोग्ये, जं०१ वक्ष०। रा० प्रज्ञा०। रूपातिशये, आ० म० दवकर त्रि०(द्रवकर) परिहासकारिणि, भ०६ 2033 उ० ओ०। १अ०१खण्ड! आचा० रा०ा सू०प्र०ा औ०शोभने, सूत्र०२ श्रु०१अ० दवकारी स्त्री०(द्रवकारी) परिहासकारिण्याम, भ०११ 2011 उ० दरिसयंत त्रि०(दर्शयत) प्रकटयति, स०२ अङ्ग। दवगंधित्त न०(द्रवगन्धित्व) द्रवस्य गूथस्य कुथितनक्राऽऽदेरिव गन्धो दरिसावण न०(दर्शन) कृपाया प्रेरणे, आव० 1 अ०॥ यस्यास्ति / तस्मिन्, ध०१ अधि०। दरी स्त्री०(दरी) पर्वतकन्दराविशेषे, भ०३ श०२ उ०॥ ज्ञा०ा जा दवगुड पुं०(द्रवगुड) अपिण्डीकृते आर्द्रगुडे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। पं०व०| आचा० आवाशृगालाऽऽद्युत्कीर्णभूमिविशेषेषु, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। भ० दवग्गिद(दा)वाग्नि दवस्य वनस्य अग्निः दवाग्निः। वाचा "वाऽव्ययोमूषिकाऽऽदिकृतायां लघव्या खड्डायाम्, ज०२ वक्षः। त्खाताऽऽदावदातः" ||8/1 / 67 / / इति आदेराकारस्य अदा। 'दवगी। दरुम्मिल्ल न०(देशी) घने, दे०ना०५ वर्ग 37 गाथा। दावगी।" प्रा०१ पाद। वनोद्भवेऽनौ, औ०। प्रश्नका उत्त०। 'दवग्गिदल धा०(दद) दानं, "दस्यडः, डस्य लः।" 'दलइ।' सूत्र०१ जालाभिहए।'' जी० १प्रतिका "दवग्गिणा' दवाग्निना वहिज्वालनेन श्रु०३अ०३उ०। आचा०। अंग। निर्दयं यथा भवति। प्रश्न०१ आश्रद्वार। *दल न०। दल-अच् / पत्रे :शेला भागे, पं०सं०५ द्वार / उपादान- दवग्गिकम्म न०(दवाग्निकर्म) क्षेत्ररक्षानिमित्तं वने दवदाने, यथो-त्तरापथे करणे, पञ्चा०७ विव०। 101 जिनभवननिष्पत्त्यङ्ग के, दर्श० 1 तत्त्व। दग्धे हि तत्र तरुणं तृणमुत्तिष्ठति। पञ्चा०१ विव०। शस्त्रच्छेदे, अपकृष्टद्रव्ये, तमालपत्रे, उच्चतायाम, पड़े. अड़े चावाच०। दवग्गिदाण न०(दवाग्निदान) भूमिषु तरुणतृणरोहणार्थ वने क्रियमाणे अण्ड, विशे० उत्सेधववस्तुनिचा पुरावाचा दवकर्मणि , ध०२ अधि। दलयित्ता अव्य०(दत्त्वा) दानं कृत्वेत्यर्थे , आचा०२ श्रु०३ चूना दवग्गिदावणया स्त्री०(दवाग्निदापनता) दवाग्नेर्दवस्य दापनं दाने दलंती स्त्री०(दलयती) घरट्टेन गोधूमाऽऽदिचूर्णयन्त्याम्, पिं० प्रयोजकत्वमुपलक्षणत्वादानं च दवाग्रिदापनं, तदेव प्राकृतत्वात् दलयमाण त्रि०(ददत्) दानं कुर्वति, स्था०३ ठा०१ उ०। "हत्थतालं "दवगिदावणया।" कर्मत उपभोगपरिभोगव्रतातिचाररूपाणां पञ्चदशदलयमाणे / हस्तेन ताडन हस्ततालः, तं "दलयमाणे" ददद् कर्मादानानामन्यतमे, (भ०५०५ उ० श्रा०) क्षेत्राऽऽदिशोधनिमित्त यष्टिमुष्टिलकुटाऽऽदिभिर्मरणाऽऽदिनिरपेक्ष आत्मनः परस्य वा प्रहरन्निति वनाग्नेर्वितरणे, उत्त०१ अ आव०। भावः / स्था०३ ठा०४ उ०। "अत्थादाणं दलमाणो ति।" अर्थादानं दवण न०(दवन) याने, सूत्र०१ श्रु०१ अ० द्रव्योपादनकारण-मष्टाङ्ग निमित्तं ददत् प्रयुञ्जान इत्यर्थः / स्था०३ , दवणमग्ग पुं०(दवनमार्ग) दवनमिति यानं, तन्मार्गो दवनमार्गः / तस्मिन्, ठा०४ उo सूत्र०१ श्रु०१ अ० दलागणि पु०(दलाग्नि) दलानि पत्राणि तेषामग्निस्तदृहनप्रवृशो वह्निः | दवदप्पसील त्रि०(द्रुतदर्पशील) असमीक्ष्य कारिणि, पं०व० 4 द्वार। तस्मिन, स्था०८ ठा। भासइ दुअंदुअं गच्छए अ दरितो व गोविसो सरए। दलिअन०(देशी) निकूणिताक्षे, देवना० 5 वर्ग 52 गाथा / सव्वदुयदुयकारी, फुटुइ व ठिओ वि दप्पेणं / / 466 / / दलिद्द पुं०(दरिद्र) दरिद्रा-अच् आलोपः / वाच०। 'हरिद्राऽऽदौ लः' द्रतं द्रुतम् असमीक्ष्य संभ्रमाऽऽवेशवशाधो भाषते, यश्च द्रुतंद्रुत गच्छति / 18/11254|| इत्यसंयुक्तस्य रस्यलः। प्रा०१पाद। निर्द्धने, दीने च। / क इवेत्याह-शरदि दर्पित इव दर्पोक्षुर इव गोवृषो वलीवर्दविशेषः / शरदि वाचन हि प्रचुरचारिघ्राणतया, मक्षिकाऽऽधुपद्रवरहिततया च गोवृषो दलिय न०(दलिक) यां प्रकृति बध्नाति जीवस्तदनुभावन प्रकृ- मदोद्रेकादुच्छ्विलः पर्यटतीत्येवमसावपि निरड्कुशस्त्वरितं त्वरित त्यन्तरस्थं दलिकम / तस्मिन्. स्था०४ ठा०२3०पं०सं०। पर- गच्छति, यश्च सर्वदुतद्रुतकारी प्रत्युपेक्षणाऽऽदीनां सर्वासामपि क्रियामाण्यात्मके, पं०सं०५ द्वार / वस्तु दलिक द्रव्य, योग्यमहमित्य- णामतित्वरितकारी,यश्च दर्पण तीव्रोद्रेकवशात् स्फुटतीव स्थितोऽपि नर्थान्तरम्। आ०म०१ अ०२खण्ड। विशेष सन गमनाऽऽदिकां क्रियामकुर्वन्नपि इत्यर्थः / एष द्रुतदर्पशील उच्यते / दव पुं०(दव) दुनोति-दु-अच्। वने, वाचा वनानले च / दर्श०१ तत्त्व।। बृ०१ उ०।
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________________ दवदव 2456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दवियकप्प दवदव अव्य० (द्रुतद्रुतम्) त्वरिते, दश०१ अ०नि०५०। बृ०॥ दवदवचारि(ण) पुं०(द्रुतद्रुतचारिन्) द्रुतगमनशीले, दशा० 1 अ०॥ आव० स०। आ००। ('असमाहिट्ठाण' शब्दे प्रथमभागे 842 पृष्ठे प्रतिपादितमस्य स्वरूपम्) दवदाण न०(दवदान) दवस्य दवाग्नेस्तृणाऽऽदिदहननिमित्तं दानं वितरणं दवदानम् / प्रव०६ द्वार / अरण्ये अग्निप्रज्वालने, ध०२ अधि०। तच द्विधा भवति-व्यरानात् फलनिरपेक्षप्रवृत्तिरूपात, फलापेक्षप्रवृत्तिरूपाता। यथा वनेचरा एवमेव तृणाऽऽदावग्नि प्रज्वालयन्ति, पुण्यबुद्ध्यावा, यथा-- मे यदामरणसमयस्तदा इयन्तो मम श्रेयोऽर्थ धर्मदीपोत्सवाः करणीयाः। अथवा-जीर्णतृणदाहे सति नवतृणाकुरोद्भेदाद् गावश्चरन्तीति क्षेत्रे वा सस्यसंपत्ति-निमित्तमग्निं ज्वालयन्तीति। यदुक्तम्- "वणदवदाणमरने, दवग्गिवाणं तु जीवबहजणये।" प्रव०६ द्वार। ध० सूत्र दवर पुं०(देशी) तन्ता, देना०५ वर्ग 35 गाथा। दवरग पुं०(दवरक) रजौ, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। आ०म०। रा०। सूत्रका दोरके, आ०म०१ अ०रखण्ड। दवरिया स्त्री०(दवरिका) पलाशाऽऽदित्वग् जनितायां रजौ, वलनाऽऽदिसंस्कृतो विशिष्टावस्थां प्राप्तः सन् वल्कलो दवरिकेत्युच्यते। विशेष सू०प्र० दवविरोहे पुं०(द्रवविरोध) काञ्जिकेन सह विरोधे, ओघ०। दवसील त्रि० (द्रवशील) दर्पद्रुतगमनभाषणाऽऽदौ,स्था०४ ठा०४ उ०। वृ०। (अनुपदमेव दवदप्पसील' शब्दे 2458 पृष्ठे व्याख्यातं चैतत् ) दवहुत्त न०(देशी) ग्रीष्ममुखे, देवना०५ वर्ग 36 गाथा। दवावण न० (दापन) दानक्रियायां प्रेरणे, नि०चू०२उ०। दवावेमाण त्रि०(दापयत्) दानं कारयति, स्था०४ठा०२उ०। दविड पुं०(द्रविम) अनार्यदेशभेदे, तज्जे मनुष्ये च / प्रश्न०१ आश्र० द्वार / शत्रुज्ये दशभिः कोटिभिः साकं सिद्धि गते नृपे, ती०१ कल्प। द्रविडदेशोत्पन्नायां योषिति च। तत्र डीए। ज्ञा०१ श्रु०१ अ० दविण न०(द्रविण) दु-इनन् / घने, व्य०१ उ०) षो०। स्था०। काश्चने, पराक्रमे, बले च / वाचा दविणसंहरणाइ पुं०(द्रविणसंहरणाऽऽदि) पितुर्वेश्मनि निक्षेपाऽऽदौ, कल्प०७ क्षण। दविय पुं०(द्रविक) द्रवः संयमः सप्तदशविघानः कर्मकाटिन्यद्रव कारित्वात् विलयहेतुत्वात्। आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ०। कर्मग्रन्थि-- द्रावणो द्रवः संयमः, स विद्यते यस्याऽसौ द्रविकः / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। आचा०। सम्यक् संयमोत्थानेनोस्थिते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१उ०। तृणाऽऽदिद्रव्यसमुदाये, भ०१०८उ०। सूत्र *द्रव्य न०(द्रवति) गच्छति तांस्तान ज्ञानाऽऽदिप्रकारानिति द्रव्यम्।। दश०२ अ०। तत्तद् गुणानां भाजने, कल्प०५ क्षण / रागद्वेषरहिते, दश०१० अ०। आचा०। सूत्र०ा भव्ये मुक्ति गमनयोग्य, सूत्र०१ श्रु०२ | अ०१3०। आचा०। ''दविए बंधणं सुक्के, सव्वओ छिण्णबंधणे।" द्रव्य भव्यो मुक्तिगमनयोग्यः, "द्रव्यं च भव्यः" इति वचनात्। रागद्वेषविरहाना द्रव्यभूतोऽकषायीत्यर्थः / यदि वा-वीतराग इति, वीतरागोऽल्पकषाय इत्यर्थः / तथा चोक्तम्-"किं सक्का वो जुंजे, सरागधम्मम्मि कोइ अकसायी। संते वि जो कसाए,निगिण्हई सो वितत्तुल्लो।।१।।" सूत्र०१ श्रु० अ०। रागद्वेषकलिकोपद्रयरहि-तत्वाद्वा जातसुवर्णवच्छुद्धद्रव्यभूते, सूत्र०१ श्रु० 16 अ०। धर्माधर्माऽऽकाशपुगलजीवकालाऽऽत्मके गुणपर्यायाऽऽधारे, सूत्र०२ श्रु०५ अ०) दवियएकय पुं०(द्रव्यैकक) चतुर्विधैकान्यतमे, स्था०४ ठा० २उ०। (एककानां चातुर्विध्यं 'एक्क' शब्दे तृतीयभागे 2 पृष्ठे गतम्) दवियकप्प पुं०(द्रव्यकल्प) कल्पनीयद्रव्ये, पं०भा०। जेण परिग्गहिएणं, दव्वेणं कप्पो होति णोकप्पे। तं दव्वमेव कप्पो, कारणकञ्जोवयाराओ।। सो तिविहो बोधव्वो, जीवमजीवे यमीसओ चेव। एतेसिं तु विभागं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए / / पं०भा०। (जीवकल्पाऽऽदीनां तु व्याख्या स्वस्वस्थाने) प्रव्राजना १मुण्डापना२-शिक्षापना३-उपस्थापना४-संभोजना५-संवस-ना६रूपेषट्के, पं०चू०(एते कल्पाः 'उवट्टवणाकप्प' शब्दे 884 पृष्ठेद्रष्टव्याः) दवियकप्पो समहिगतो, ण भणिय जं हिट्ठ तं भणामि ति। सो भन्नती विसेसो, इणमो वोच्छं समासेणं / / / दव्वं तु गिण्हियव्वं, सुद्धंगविमुत्त गविसणा दुविहा। सविही अविही एया, अविहीऍ इमं मुणेयव्वं / / दव्वाणि जाणि काणि ति, गहणं लोए उवें ति साहूणं / तेसिं तु संभवं मग्गमाणे न तु साहते अत्थं / / अविहीऍ दोस पिंडुव-हिसेजसज्झायणिग्गमपवेसो। णवकहगदुयचउक्के, एते सव्वे ण पावंति।। साली तुंवीमादी, आहारे फलहिमादि उवहिम्मि। रुक्खा पुण सेजट्ठाए वा वि गमा हु साहूणं / / होज्जा एताइं पुच्छिऊण कत्थ एयाणि ताहें तहिँ गच्छे / अविहिगवेसण एसा, जह भणिता पिंडणिजुतीए। आहारोवहिसेजाण णाणदव्येहिँ होति निप्फत्ती। वेसण मिरिए पिप्पलि-अल्लगघततेल्लगुलमादी। हिमवंते पिप्पलिओ, मलए मिरिचाण होति उप्पत्ती। हिंगुस्स रमणुविसए, जीरगमादी य जो जत्थ / / मा अम्हं अट्ठाए, गावो कीयाह बद्धवच्छा वा। फलगादी मारुक्खोऽवरोवितो अम्ह अट्ठाए। एमादि विमग्गंतो, पभवं णाणादियाण परिहाणी। तह वत्थपायसेजाण मरति सो अंतरा चेव / / एवं सो हिंडतो, भत्तं पाणं च ठाणमुवहिं वा।
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________________ दवियकप्प 2460- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दवियकप्प कह उग्गमेउ कह वा, सज्झायं कुणतु हिंडतो?|| जो णिक्खमणपवेसे, कालो भणितो उ वासउदुबद्धे / दुचउक्कं उदुबद्धे, विहारों हेडंतगिम्हेसु / / णवमो वासावासे, एसो कप्पो जिणेहिँ पन्नत्तो। एयस्स संखमाणं, वोच्छामि अहं समासेणं / / दोहि सया चत्ताला, उदुबद्धे एत्तिओ विहारे तु। वासासू पण्णासा, पणगं पणगं हु सति सीयट्ठा / / पुरपच्छिममज्झाणं, सव्वेसिं एस कालछेदो तु। णिचं हिंडतेणं, विराहितो होति सो नियमा।। तम्हा खलु उप्पत्ती, ण एसियव्वा तु तेसि दव्वाणं / जस्सट्ठा निप्फन्नं, तं गंतुं एसते मतिमं / / अतिबहुयदुल्लभट्ठा, णातुं दव्वकुलदेसभावे य। पुच्छति सुद्धमसुद्धं, ताहे गहणं अगहणं वा / / अहवा पुट्ठो भणेजा, समप्पाहिकयं व अहव निक्खित्तं / पच्छित्तं वा वि भवे, तत्थ तु दारा इमे हों ति॥ समणे समणी सावय, साविय संबंधि इडिमामाए। रायातु णिक्खेये, वेया णिक्खेवयं कुजा।। दमए दूभग भटे, समणच्छण्हे वाय तेणे य। ण य णाम ण वत्तव्यं, पुढे रुटे जहा वयणं / / एतेसिं दाराणं, विभास भणिता जहा च कप्पम्मि। सव्वे च निरवसेसा, णायव्वा सव्वदव्वेसु।। जं पुण जत्था इण्हं, दव्वे खेत्ते य होज काले य। तेहिं का पुच्छा तू, जह उजेणीऍ मंडेसु / / एमेव माहमासे, किसराए संखडीऍ का पुच्छा? ठिइ तिण्हेव कुलम्मी, बहुए दव्वम्मि का पुच्छा?| तम्हा तु गहणकाले, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। सो होज्जा दव्वस्स तु, ण मूलओ तस्स उप्पत्ती।। कीते पाडिच्चे छिज्जए य णिप्फत्तिए य निप्फण्हे। कजं णिप्फत्तिमयं, समाणिते होति निप्फण्हं / / कंडिनकीताऽऽदीया, तंदुलमादी तु होञ्ज समट्ठा। णिप्फत्ती सा तु भवे, आयट्ठायासु निप्फन्नं / / तं होति कप्पणिजं, जं पुण समणट्ट होज णिप्फण्णं / तं तु न कप्पति एत्थं, च चोयए चोदओ इणमो।। णिप्फत्तिओ य णिप्फ-न्नओ य गहणं तु होज समणस्स। णिप्फत्तिओ य सुद्धे, कहं णु णिप्फण्णए सोही? एवं गवेसियव्वं, तं एगट्ठाणगं परिचत्तं। भण्णति अफासुदव्वेण चेव गहणं तु साहूणं / / तो तेणं साहूणं, किं कजं होति तु गविटेणं। अन्नं पि य एगकुले, ण हु आकरो सव्वदव्वाणं / / तित्तकडुयमादियाणं, सव्वदव्वाण संभवेगकुले। ताणि तु गवेसमाणे, हाणी सव्वेव णाणादी। तम्हा पप्पं परिहर, अपप्प चिय वज्जतो वि वञ्जति हु। अप्पप्पं सातो, विवजति ण तं च साहेति॥ णिप्फत्ती समणट्ठा, समणट्ठा चेव डातु णिप्फण्णं / गहितं होज जयंतेण तत्थ सोही कहं होति ? || एवमवि अप्पमत्तो, उवउत्तो उज्जयं गवसंतो। सुद्धो जइ चावण्णो, खमओ इव सो असढभावो / / जो पुण मुक्कधुराओ, णिरुज्जमो जइ वि सो उ णाऽऽवण्णो। तह वि य आवण्णो चिय, आहाकम्मं परिणाउ व्व / / एयस्स साहणटुं, अहवा अण्णं पि भण्णए एत्थ। कारगसुत्तं इणमो, तमहं वोच्छं समासेणं / / एगम्मि वितिय' तयम्मि जे अत्थकुसलजिणदिट्ठा। एतेसु जुत्तजोगी, विहरंतो अहाउयं सुज्झे / / अंगग्गहणं पढम, आयारो तस्स वितियसुयखंधे। तस्स वि वीयज्झयणे, उद्देसे तस्स ततियम्मि। जइ सुत्तं खलु सेयड-वस्सेणं होज्ज सुलभे उ। अहवा वी तइ एत्ती, अज्झयणम्मी तइजम्मी / / तस्स वि तइउद्देसे, आदीसुत्तम्मि जं समक्खायं / जदि संकमो असुद्धो, ताहे जयणाएँ जुत्तो उ।। देसूणं पि हु कोडिं, अत्यंतो सो वि सुज्झती णियमा। तम्हा विसुद्धभावो, सुज्झति णियमा जिणमयम्मि / / वाहिरकरणे जुत्तो, उवओग महिड्डिओ सुयधराणं / जं दोससमावण्णो, विण्णाणं जिणवयणतो सुद्धो।। दव्वेण य भावेण य,सुद्धासुद्धे य होति चउभंगो। ततिओ दोसु वि सुद्धो, चउत्थओ उभयह विसुद्धो / / वीओ भावविसुद्धो, दवविसुद्धो य पढमओ होति। अहवा वि दोसकरणं, दव्वे भावे य दुविहं तु / / भावविसुद्धा-राहगों, दव्वतों सुद्धो य होतऽसुद्धो य। जे जिणदिट्ठा दोसा, रागादी तेहिं न उ लिप्पे। एतेसामण्णतरं, कीयादी अणुवउत्त जो गिण्हे। तट्ठाणगावराहे, संवड्डियमोऽवराहाणं / / आवण्णे सट्ठाणं, दिञ्जति अह पुण बहुं तु आवण्णे / तहियं किं दायव्वं, भण्णति इणमो सुणह वोच्छं।। सुज्झइ तवेण दिजा, तवु छेदो वा तहेव मूलं वा। कत्थेदं भणयंती, भण्हति तु णिसीहमामम्मि / / वीसतिमे उद्देसे, मास चउमास तह य छम्मासं। उग्घातमणुग्धातं, भणितं सव्वं जहाकमसो।। एसो तु दवियकप्पो, जहक्कम वण्णितो समासेणं। 'अअ भए सुयं, माहा-(दवाणि) जाणि पुण साहुस्स आहाराईणि दव्वाणि गहणं एंति, ते सिं जहसंभवे मग्गइ, क ओ एस साली उप्पण्णादिघोसणपाहुडियाए(?) नीणियाए? आगारि
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________________ दवियकप्प 2461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दवियकप्प भणति-कओ एयाणि तंदुलाणि आणीयाणि? अत्थाहि ताव जाव एजामा, तो साहूण देजाह, संभोइयाणं घेप्पइ, असंभोइयाणं पासस्थाइए पुच्छामि / ताए सिढवणाओ। अत्थ साविए ! मा साहुनिमित्तं साली व संथरमाणो न गेण्हति, दमओ दूभगो रजभट्ठो वा आहाराइ पुच्छिओ वाविया होना / एवं फलहीओ पच्छे नीणिए फलहोण उप्पत्ति भणेजा-कस्सेय ति? भाणेजा-सामि! किं मम आहाराई वत्थपायाई वि गवेसति, तुवीओ वा गवेसइ तुंवीण उप्पत्तिं लाउए नीणिए, रुक्खा वा नत्शिा दूभओ-जइ अहं रन्नो अविरइयाए, अविरइया वा भोगियरस, सेनानिमित्त एवं सो पुच्छिऊण कत्थ एयाणि उप्पन्नाणि त्ति, ताहे तहिं तो मम वत्थाई णि वि नत्थि। भट्ठो भणेजा-जइ अहं रखाओ ईसरियाओ गच्छति, जहा पिंडनिजुत्तीए, एएसिं आहाराईणं मूलुप्पत्ती, तंदुला वि भट्टो, तोऽहं किमाहाराईण पिताहामि, सेसं जहा पेढियाए। गाहा-(न य गवेसमाणो अत्थं न सोहयइ।" आहाराऽऽदीनां निष्पत्तौ च ज्ञानदर्शन- नाम न वत्तव्वं. पुढे रुट्टे जहा वयणं।) अण्णया जत्थ पुण आइण्णं खेत्ते चारित्रार्थसिद्धिः / "भत्ते पाणे गाहा-(एवं सो हिंडतो, भत्तं पाण च काले वा भवइ, जं जस्स देसे पवत्तइ, पउरं च जहा उज्जेणीए मंडया। ठाणमुवहिं वा / कह उग्गमेउ कह वा, सज्झायं कुणउ हिंडतो) सञ्जोवहिं तत्थ का पुच्छा? जत्थ पुण दव्वकुलदेसभावे अपुव्वकरणं दसैंण पुच्छाबा साहेउ निचं हिडतो। जे य निक्खमणपवेसणकाला अट्टओ उवट्ठिया किं निमित्तं एयाणि आहाराईणि कयाणि / मूलगुणउत्तरगु-णेसु मासा निक्खमणकालो त्ति भणइ, पवेसकालो य वासावासो नवमो. ते आहारोवहिसेजाणं गहणं विसोहेयव्वं साहुणा / गाहा-(कीते पामिचे) तस्स न भवंति हिंडतस्स / (दुचउक त्ति) चत्तारि हेमंतिया, चत्तारि एवं कीयपामिचच्छेजा अणेसणाईणि निप्पजेति, तंदुला वा लाउया वा गम्हिया. ए.सु अणुण्णओ विहारो / गाहा-(दोहि सया चत्ताला) संजयट्ठाए कीयाणि वा कत्तियाणि वा सुत्ताणि, लाउयाणि वा संजयट्टाए हमंतगिम्हासु हो ति दिवसाणं मासकप्पेण, वासासु य पंचाला पंचधा रुत्ताणि, पच्छा आयट्ठा निप्फण्णाणि कप्पंति, संजयाणं सक्खो वा दसियट्ठा, तस्स न भवइ निचं हिंडतस्स संवच्छरेण तिणि सट्ठाई संजयट्टाएरुत्ता, पच्छा आगट्ठाए छिण्णाणिय घराणि यकयाणि, आयट्ठाए दिवससयाई विहारकाले दुपक्खे वि साहूण साहुणीण य / गाहा- निप्फाइयाणि ताहे कप्पति, जं तं निप्फत्तीतो आयट्ठानिप्फण्णं तं पुरपच्छिममज्झाणं) पुरच्छिमपच्चच्छिममज्झिमाणं तित्थयराण कप्पइ, कज्ज निप्फत्तिमयं ति / कज्ज नाम-आहाराइमयं ति। जहा सव्वेसिं / गाहः-(एस कालच्छेओ तु)तिविहम्मि वितिविहे विआहारोव- तंदुलमयं आहार, सुत्तमयाणि वत्थाणि समाणिए ति, तस्स कड-तस्स हिसज्जाणं अणेगेहिं दव्वेहिं संभवो भवइ, आहारे ताव पिप्पलिघय- निप्कण / गाहा--(णिप्फत्तिओ य) एवं अगवेसणानिप्फण्ण तो गवेसणं, वेसणेहि, ताहे कित्तियस्स हिंडस्सइ जत्थ ताणि निप्फण्णाणि / गहण वा / गाहा-पच्छद्धे,चोदग आह-णिप्फत्तिओ वि निप्फण्णओ व 'निष्पत्तिरुत्पत्तिरित्यर्थः / "पिप्पलीओ हिमवंते, मरियाणि मलए, साहुस्स आहाराइंगहणं होजा। निप्फत्तिओ असुद्धं कह निप्फन्नं गेण्हइ ? हिंगु रमणेसु, वच्छाणि तामलित्तीए पुंडबद्धण-सिंधुसोरट्ठासु वच्छाण उच्यते-एवं ताव गवेसियव्वं (एगमिति) निप्फण्णं गवेसिज्जइ, न तु उप्पत्तीओ, जाव ताणि हिंडइ, ताव णाणाइ परिहाणी, अंतरा चेव मरइ। मूलनिष्फत्ती दव्वाणं, मूलनिप्फात्तिए गविट्ठाए बहुदोसा। आह-जइएवं एवं पाए सेजाए या तम्हा नो निष्फत्ती मग्गियव्वा / निप्फत्ती णाम- गवेसिज्जइ.जं गेज्झइ निप्फण्णं किं एगट्ठाणं परिचयइ? एगहाणयं नाममूलसंभवो, णिप्फण्ण हि तस्स सयासाओकडे, तस्स निहिए चउभंगी। उम्पत्ती तंदुलाईण, वत्थाईणं च / उच्यते-नहु सव्वदव्या, न हुएगकुले एत्थ णिप्फण्णेणाहिगारो / पचुप्पण्णो नामतहेव दव्वकुलदेसभाये य नाणादव्वाणि तित्तकडुयाईणिं संभवंति। कि तु एवं गवेसमाणस्स तुज्झ मग्गइ, जहा पिंडनिजुत्तीए / नोमूलुग्गमं पुच्छइ दव्वाणं, एयं पुच्छइ- सव्वदव्वाणं मूलुप्पनी आहाराईण सुद्धी चेवन भविस्सइ। मज्झमाईणं किंनिमित्तमुवस्खमियं, एवं पुच्छिऊण गिण्हइ। गाहा-(समणे समणी) च जहा णिघोसा हिंडतस्स / गाहा–(एवमवि अप्पमत्तो) एवमित्यवभत्तपाणवत्यपाएसुवा नीणिएसु पुच्छइ-कस्सेयं? सो पुच्छिओ भणेञ्जा- धारणे। किमवधारणीयं? एवमप्पमत्तस्स गवेसमाणस्स जइ विनिप्फण्णं तुब्भं चेव निमित्तं उवक्खडियं, कीयं, पामिच्चयं परियट्टियइ ,वत्थं वा संजयट्ठाए न जाणेज्जइ, तओ तं च परिभुजेज्जा आहारो-वहिसेज्जा, ताहे तणावियं, कीयं, पामिचय परियट्टियइ, वच्छं वा वुणावियं, पामिचियं तम्मि परिभुत्ते विसुज्झइ, जहा सो खमओ सुद्धं गवेसमाणो, जो पुण परियष्ट्रियइ / इयाणिं तुब्भट्टाए मह कयं, वीयाणि वा अवणीयाणि, मुक्कधुराओ। मुक्कधुरो नामआहाराइ उग्गमा ईहिं मुक्को तत्तो सो लग्गइ कीयमाइवा, एवं साहेजा, समणेण वा समणीएवा सावरण वा सावियाए जहा सए। गाहा-(आहाकम परिणउ व्व) अन्नेसु आयारग्गेसु सेजाणं दाइड्डिमतेण वा मामएण वा दमएण वा दूभएण वा रजभट्टेण वा वायाए वा तइए उद्देसए आयाणाए। इह खलु नो सुलभे उवस्सए भवइ, जुत्तजोगी तणएण वा पक्खेवयाणि छूढाणि, समणं समणी वा लिंगत्था भणति- गवसंतो सुद्धो चैव भवइ, उग्गमाइआसुद्धे वि / अहवा-तइयम्मि अम्हं न गेण्हंति, ते य खंधगं करेज्जा, सावओ वा साविया वा, तेसिं अज्झयणे आरियाण जइ संकमे असुद्धो कओ। अहवा-संकमेण उज्झइ, शाहओ न गिण्हंति, आहाराइ ते पक्खेवणं कुज्जा, संबंधिओ संबंधिणी असिवाइकारणेसुतत्थ वितहेव देसूर्ण पिपुव्वकोडिं अत्थमाणो सुज्झइ। हा, रो तसिं न गेण्हइ, आहाराइ ते पखेवगं कुजा, इड्डिमंतो वा एएसु उग्गमाइस आहाराइसु जुत्तजोगी परिहरतो आहाउय पालेमाणो डंडभंडभोइयाइ, तेसिं साहवो न गेण्हति, ते आहाराइ पक्खेवग कुखा। सिज्झइ / गाहा-(बाहिरकरणे) एवं जइ बाहिरकरणेण संपउत्तो मामओ नाम-माम कोइ घरे ढुक्कउ, सा लुयत्तणेण भोइया सड्डी, सा उवओगो होइ तो महिड्डिओ सुयधराण / ' महर्द्धिक इति महारिपक्खेवयं कुज्जा / राया मम रायपिंडे न गेण्हति, तो पवखेवयं कुज्जा द्धित्वमावहति। "को दिटुंतो, गाहा-(जं दोससमावन्नो वि) खमओ आहाराइ। तेणयरस वा साहवो न गेण्हंति, सो आहाराइ पक्खेवयं कुञ्जा। सुद्धो / सुयणाणपमाणेण दोसकारणम्मि दव्वओ नाम एगो सुद्धो, नो निक्खेवं पुणवत्थं पत्तं वा संविग्गा असंविग्गा वा साहवो असिवाइसु भावआ। चउभंगो। तइओ दव्वं भावओ सुद्धो। चउत्थो दोहिं वि असुद्धो। कारणेसु अण्हदेसं गच्छमाणा निक्खेविजा। तेहिं भणिय-असुए काले | तस्स का कहा? जे पढमवितिया तेसु मग्गणा, विइए भंगे दव्यओ असुद्धो
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________________ दवियकप्प 2462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्व वि, भावओ सुद्धो। अहवा-दुविहं कारणे दव्वे, भावे य सुद्धो बा। भावओ न हि तद्वियुक्तो जीवः कदाचनापि संभवति, जीवत्वहानेः। तथा पर्याया सुद्धो आराहओ होइ, जे जिणदिट्टा भावा रागादयो, तेहिं न लेप्पइ अपि मानुषत्वबाल्याऽऽदयः कालकृतावस्थालक्षणाः तत्र सन्त्येवेत्यतो जम्हा / गाहा-(एतेसामन्नयरं) एएसिं कीयाईण आहारा-ईण वा जो भवत्यसौ गुणपर्याय-वत्वाद्रद्व्यमित्यादि द्रय्यानुयोगः / स्था० 10 ठा०। (अणुवउत्त जो गिण्हे) तस्साऽऽरोवणपच्छित्तं, जया पुण बहुइआ (मातृकानुयोगाऽऽदीनां शब्दार्थः पृथक् पृथक्) आलोयणा होजा / ' तत्र कथं दातव्यम्? उच्यते-''सव्वत्थ हेउ दवियाऽऽता स्त्री०(द्रव्याऽऽत्मन्) 'दवियत्ता' शब्दार्थे , भ०१२ समक्खिऊण जइ तवेण सुज्झइ तो तवो दिजइ, इहरहा छओवा, मूलं श०१० उ०। था। कह एवंपमाणं भणियं? उच्यते-तिसी-हस्स बीसइमे उद्देसए। एस दव्व न०(द्रव्य) द्रवति गच्छति ताँस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम्। 'कृद्वहुताव दवियकप्पो।' पं०चूना लम् / " इति वचनात्कर्तरि यः। आ०म०१अ०१ खण्ड नि०चूला जा पंचण्हं असणादी-ण पणवीस तिहा भवे विसोही उ। अनु०। अनादिमदुत्प्रेक्षितपर्यायशृङ्खलाऽऽधारेऽर्थे , विशेगल०। स्था०|| अहवा विउ छद्दसिया, एत्तो तिगवडिया सोही।। अथ द्रव्यलक्षणमाहअसणं पाणं वत्थं, पायं सेज्जा य पंच एतेसिं। दवए दुयए दोरवयवो विगारो गुणाण संदावो। सुद्धी पण वीसति वा, उग्गम तह एसणाए य।। दव्वं भव्वं भावस्स भअभावं च जं जोग्गं // 28|| सुयणाणपमाणेण तु, गहियमसुद्धे वि होति सुद्धो तु। 'दु' 'दु' गताविति धातुः, ततश्च द्रवति ताँस्तान् स्वपर्यायान् प्राप्नोति अहवा वितु छद्दसिया, सोलस उप्पायणादोसा।। मुञ्चति वेति तद् 'द्रव्यम्' इत्युत्तरार्धादानीव सर्वत्र सम्बध्यते। तथा दूयते एएसिं सव्वेसिं, हणपयणकिणादि णवहिँ कोडीहिं / स्वपर्यायेरेव प्राप्यतेमुच्यते चेति द्रव्यं, यान्किन् पर्यायान् द्रव्यं प्राप्नोति, कयकारिताणुमोदित, एसा तिगवड्डिता सोही।पं०भा०।। तैस्तदपि प्राप्यते, यांश्च मुञ्चति, तैस्तदपि मुच्यत इति भावः / तथा द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छति इतिद्रुः सत्ता, तस्या एवावयवो, विकारो तत्थ दव्वकप्पो ताव आहारमाइ। गाहा--(असणं पाणं वत्थं पाय वेति द्रव्यम् / अवान्तरसत्तारूपाणि हि द्रव्याणि महासत्ताया अवयवा सेन्जा) एएसिं पंचण्ह वि पंचपंचगविसोहि ति। पंचपचेगा नामपण्णरस विकारा वा भवन्त्येवेति भावः / तथा गुणा रूपरसाऽऽदयः, तेषां, संद्रवणं उग्गमदोसा, दसएसणादोसा। एए पंचपंचगा पंचवीसं आवेतो पणवीसाए संद्रावः समुदायो घटाऽऽदिरूपो द्रव्यम् / तथा-(भव्वं भावरस त्ति) सुयनाणमाणओ सुद्धा / अहवाछ इस य–सोलस उप्पायणा दोसा, एएसि भविष्यतीति भावः, तस्य भावस्य भाविनः पर्यायस्य यद्भव्यं योग्यं तदपि सव्वेसिं पि तियवडिया सोहि त्ति। 'न हणइ न हणावेइ, हणतं नाणुजाणइ। द्रव्यम्, राज्यपर्यायार्हकुमारवत् / तथा भूतभावं चेतिभूतः पश्चात्कृतो न पयइ न पयावेइ, पयतं नाणुजाणइ // 1 / / न किणइ न किणावेइ, भावः पर्यायो यस्य तद् भूतभावं, तदपि द्रव्यम्, अनुभूतघृताऽऽधारत्वकिणतं नाणुजाणइ।" एस दव्वकप्पो। पं००। पर्यायरिक्तघृतघटवत् / चशब्दाद् भूतभविष्यत्पर्यायं च द्रव्यमिति दवियत्ता स्त्री०,पुं०(द्रव्याऽऽत्मन्) द्रव्यं त्रिकालानुगामि उपसर्जनी ज्ञातव्यम् / भूतभविष्यद्धृताऽऽधारत्वपर्यायरिक्तघृतघटवदिति। एतदपि कृतकषायाऽऽदिपायं, तद्रूप आत्मा द्रव्याऽऽत्मा। आत्मभेदे, स च भूतभावम् / तथा भूतभविष्यगावं च / कथंभूतं सद्रव्यम् ? इत्याहसर्वेषा जीवानाम् / भ०१२श०१० उ०| यद्योग्यं भूतस्य भावस्य, भूतभविष्यतोश्च भावयोरिदानीमसत्त्वेऽपि दवियरस पुं०(द्रवितरस) द्रवयुक्तनियरिस, ओघ० यद्योग्यमह तदेव द्रव्यमुच्यते, नान्यत्। अन्यथा सर्वेषामपि पर्यायाणादवियाणुओग पुं०(द्रव्यानुयोग) अनुयोगभेदे, स्था०। मनुभूतत्वादनुभविष्यमाणत्वाच सर्वस्यापि पुद्गलाऽऽदेव्यत्वप्रसङ्गात् / तत्स्वरूपम् इति गाथार्थः // 28|| विशे०। स्था०। द्रव्या०। अनु० स०। नि००। दसविहे दवियाणुओगे पण्णत्ते / तं जहा-दवियाणुओगे, नं०। सूत्राआव०॥ माउयाणुओगे, एगट्ठियाणुओगे, करणाणुओगे, अप्पियाण गुणपर्यायाऽऽधारो द्रव्यम्प्पिए, भावियाभाविए, बाहिरावाहिरे, सासयासासए, तहणाणे, गुणपर्याययोः स्थानमेकरूपं सदाऽपि यत्। अतहणाणे॥ स्वजात्या द्रव्यमाख्यातं, मध्ये भेदो न तस्य वै / / 1 / / (दसविहे इत्यादि) अनुयोजन सूत्रस्यार्थेन संबन्धनम, अनु- गुणपर्याययोर्भाजनं कालत्रये एकरूपं द्रव्यं स्वजात्या निजत्वेन रूपोऽनुकूलो वा योगः सूत्रस्याभिधेयार्थ प्रति व्यापारोऽनुयोगः, एकस्वरूपं भवति, परं पर्यायवद् न परावृत्तिं लभते, तद् द्रव्यमुच्यते। व्याख्यानमिति भावः / स च चतुर्द्धा, व्याख्येयभेदात्। तद्यथा- चरण- यथा-ज्ञानाऽऽदिगुणपर्यायभाजनं जीवद्रव्यम्, रूपाऽऽदिगुणप करणानुयोगो, धर्मकथाऽनुयोगो, गणितानुयोगो, द्रव्यानुयोगश्च / तत्र र्यायभाजन पुद्गलद्रव्यम्-सर्वरक्तत्वाऽऽदिघटत्वाऽऽदिगुणपर्यायभाजनं द्रव्यस्य जीवाऽऽदेरनुयोगो विचारो द्रव्यानुयोगः / स च दशधा / तत्र मृददव्यम्। यथा वा तन्तवः पटापेक्षया द्रव्यम्, पुनस्तन्तवोऽवयवापेक्षया (दवियाणुओगे त्ति) यज्जीवाऽऽदेव्यत्वं विचार्यत स द्रव्यानुयोगः। यथा- पर्यायाः / कथम्? यतः पटविचाले पटावस्थाविचाले च तन्तूनां भेदो द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायान्, द्रूयते वा तैस्तैः पर्यायैरिति द्रव्यम्, नास्ति, तन्त्ववयवावस्थायामन्वयवरूपो भेदोऽस्ति, तस्मात् पुद्गलस्कगुणपर्यायवानर्थः, तत्र सति जीवे ज्ञानाऽऽदयः सहलायित्वलक्षणा गुणाः, | न्धमध्ये द्रव्यपर्यायत्वमापेक्षिकं बोध्यम्। अथ कश्चिदेवं कथयिष्यति
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________________ दव्व 2463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्व द्रव्यत्वं तु स्वाभाविकं न जातम्, आपेक्षिकं जातं, तदा तं समाधत्ते - भोः तार्किक ! शृणु। यत् सकलवस्तूनां व्यवहाराऽपेक्षयैव जायते, न तु स्वभावेन, तस्मादत्र न कश्चिद्दोषः / ये च समवायिकारणप्रमुखैर्द्रव्यलक्षणं मन्यते, तेषामप्यपेक्षामनुसर्तव्यैवेति / गुणपर्यायवद्द्रव्यमिति तत्त्वार्थे / विस्तरस्तु द्रव्याणामुद्देशलक्षणपरीक्षाभिस्त-- त्रैवास्ति, अतस्ततोऽवसेयः / / 1 / / द्रव्या० 2 अध्या० "सहभावी गुणो धर्मः, पर्यायः क्रममाव्यथ। भिन्ना अभिन्नास्त्रिविधास्त्रिलक्षणयुता इमे / / 2 / / मुक्ताभ्यः श्वेतताऽऽदिभ्यो, मुक्तादाम यथा पृथक्। गुणपर्याययोव्यक्ते-द्रव्यशक्तिस्तथाऽऽश्रिता।३।'' द्रव्या०२ अध्या०। गुणाऽऽश्रयो द्रव्यम्गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा। लक्खगं पजवाणं तु, दुहओ अस्सिया भवे // 6|| गुणानां वक्ष्यमाणानामाश्रय आधारो, यत्रस्थास्ते उत्पद्यन्ते, उत्पद्य चाऽवतिष्ठन्ते, प्रलीयन्ते च, तद्रव्यम्। अनेन रूपाऽऽदय एव वस्तु, न तव्यतिरिक्तमन्यदिति तथागतमतमपास्तम्। तथाहि-यदुत्पादविनाशयोन यस्योत्पादविनाशौ, न तत्ततोऽभिन्नम्, यथा घटात्पटः, न भवतः पर्यायोत्पादविनाशयोर्द्रव्यस्योत्पादविनाशौ। न चायमसिद्धो हेतुः, स्थासकोशकुशूलाऽऽद्यवस्थासुमृदादिद्रव्यस्याऽऽनुगामित्वेन दर्शनात्। नचास्य मिथ्यात्वं,कदाचिदन्यथादर्शनासिद्धेः। उक्तं हि"यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः, संख्येय्येतान्यथा पुनः। स मिथ्या न तु तेनैव, यो नित्यमवगम्यते // 1 // " तथैकस्मिन् द्रव्ये स्वाऽऽधारभूते आश्रिताः, के ते? गुणा रूपाऽऽदयः। एतेन च ये द्रव्यमेवेच्छन्ति, तद् व्यतिरिक्ताँश्च रूपाऽऽदीन् अविद्योपदर्शितानाहुः, तन्मतनिषेधः कृतः / संविन्निष्ठा हि विषयव्यवस्थितयः। न च रूपाऽऽद्युत्कलितरूपं कदाचित् केनचित् द्रव्यमवगतम्, अवगम्यते वा, अतस्तद्विवर्त एव रूपाऽऽदयो, न तु तात्त्विकाः केचनतद्रेदेन सन्ति / नन्वेवं रूपाऽऽदिविवर्तो द्रव्यमित्यपि किं न कल्पते? अथ तथैव प्रतीतिः / एवं सति प्रतीतिसभयत्र साधारणेत्युभयमुभयाऽऽत्मकमस्तु। लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्, पर्यायाणां वक्ष्यमाणरूपाणां तु, विशेषण उभयोर्द्वयोः प्राकृतत्वाद् द्रव्यगुणयोराश्रिताः (भवे त्ति) भवेयुः स्युः / अनेन च य एवमाहुः यदाद्यन्तयोरसद्, मध्येऽपि तत्तथैव, यथा मरीचिकाऽऽदौ जलाऽऽदि / न सन्ति च कुशूलकपालाऽऽद्यवस्थयोघंटाऽऽदिपर्यायाः, ततो द्रव्यमेवाऽऽदिमध्यान्तेषु सत्, पर्यायाः पुनरसन्तो यैराकाशके शाऽऽदिभिः सदृशा अपि भ्रान्तैः सत्यतया लक्ष्यन्ते / यथोक्तम्-"आदावन्ते च यन्नास्ति, मध्येऽपि हि न तत् तथा। वितर्थः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः।।१।।'' ते अपाकृताः / तथाहिआद्यन्तयोरसत्त्वेन मध्येऽप्यसत्त्वं साधयतामिदमाकूतम्-यद् क्वचिदसत्तत्सर्वस्मिन्नसदिति, ततश्च मृद्रव्ये अपद्रव्यस्यारात्त्वात्सर्वरिमन्नप्यसत्त्वप्रसङ्गः / अथेष्टमेवैतत्, सत्तामावस्यैव तत्त्वत इष्टत्वात्। उक्तं हि- "सर्वमेकं सदिविशेषात।" नन्येवमभावे भावाभावाद्भावस्यापि सर्वत्राभावप्रसङ्गः, तस्मादाधकप्रत्ययोदय एवासत्त्वेऽपि निबन्धनमिति न क्वचिदसत्वे तस्यावश्यं भावः, ततो द्रव्ययत्पर्यायाणामप्यबाधितबोधविषयत्वे सत्यमस्तु, तथा गुणेष्वपि नवपुराणाऽऽदिपर्यायाः प्रत्यक्ष प्रतीताः, एके कियत्कालभाविनः, प्रतिसमयभाविनस्तुपुराणत्वाऽऽद्यन्यथाऽनुपपत्तेरनुमानतोऽवसीयन्ते / ततश्च द्रव्यगुणपर्यायाऽऽत्मकमेक राबलमणिवचित्रपतङ्गाऽऽदिवगा वस्त्विति स्थितमिति सूत्रार्थः / उत्त० पाई०२० अ०। प्रज्ञा०। ('दव्वं पञ्जवविजुअं, दव्वविउत्ता य पञ्जवा नत्थि / उप्पायट्टिइभंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं // 12 // " इति द्रव्यलक्षिका प्रथमकाण्डस्था सम्मतितर्क ग्रन्थगाथा ‘णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1886 पृष्ठ द्रव्यपर्यायार्थिकप्रस्तावे व्याख्याता) (एष एवार्थो "दव्वणय' शब्दे उपपादयिष्यते) द्रव्यगुणपर्यायाश्च यथोत्तरं सूक्ष्माः / आ०म०१ अ०१ खण्ड। ("दव्वं जहा परिणयं, तहेव अस्थि त्ति तम्मि समयम्मि। विगयभविस्सेहि उ पजएहिं भयणा विभयणा वा ||4||" (सम्म०३ काण्ड) इत्यादिगाथोक्तं द्रव्यस्य नित्यत्वाऽऽद्यनेकधर्मान्वितत्वम् 'अणेगंतवाय' शब्दे प्र० भागे 426 पृष्ठे उक्तम्) (उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति लक्षणमपि अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे 426 पृष्ठे समुक्तम्) अथ गृह्णीमो गुणानामाश्रयो द्रव्यलक्षणं, तच्चैवलक्षणं द्रव्यं किमेकम्? उत तस्य भेदा अपि सन्तीति? आहधम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल-जंतवो। एस लोगो त्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं / / 7 / / धर्म इति धर्मास्तिकायः, अधर्म इति अधर्मास्तिकायः, आकाशमिति आकाशास्तिकायः, कालोऽद्धा समयाऽऽत्मकः, पुद्गलजन्तव इति--पुद्गलास्तिकायः, जीवास्तिकायः / एतानि द्रव्याणीति शेषः / प्रसङ्ग तो लोकस्वरूपमप्याह-एष इत्यादि सुगममेव / नवरभेष इति सामान्यतः प्रतीतो, लोक इत्येवस्वरूपः, कोऽर्थः? अनन्तरोक्तद्रव्यषट् काऽऽत्मकः / उक्तं हि-"धम्माऽऽदीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् / तद्रव्यः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाऽऽख्यम्" ||1|| इति सूत्रार्थः / / 7 / / आह-किमेतेऽपि धर्माऽऽदयो भेदवन्तः, उतान्यथा? उभ यथाऽपीति क्रमः / तथा चाऽऽहधम्मो अहम्मो आगासं, एगं दव्वं वियाहियं / अणंताणि उ दव्याई, कालो पोग्गल-जंतवो।।८।। धर्मोऽधर्म आकाशं, द्रव्यमिति धर्माऽऽदिभिः प्रत्येक योज्यते, एकैकमेकसंख्याया एव एतेषु भावादाख्यातं तीर्थकृद्भिरिति गम्यते। ततः कि कालाऽऽदिद्रव्याण्यप्येवमेवेत्याह-अनन्तान्यनन्तसंख्यानि, स्वगतभेदानन्त्यात् / चः पुनरर्थे उत्तरत्र योक्ष्यते / कानि द्रव्याणि कतमानि, कालः, पुद्गलं, जन्तवश्वोक्तरूपाः, कालस्य चानन्त्यमतीतानागतापेक्षयेति सूत्रार्थः / उत्त०२८ अ०ा आचा०ा सका षड् द्रव्यनिगमनम्एवं समासेन षडेव भेदान, द्रव्यस्य विस्तारतयाऽऽगमेभ्यः। श्रुत्वा समभ्यस्य च भव्यलोकाः! अर्हत्क्रमाम्भोजयुगं भजन्तु // 21 / / एवं पूर्वोक्त प्रकारेण समासेन संक्षेपेण च षडेव षट् संख्यावतो जीवधर्माऽधर्माऽऽकाशकालपुद्गलान् भेदान् द्रव्यस्य पदार्थस्य षण्णामपि द्रव्यशब्दः पृथग् युक्तः सन् षड् द्रव्यत्वमापादय
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________________ दव्व 2464 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव mom ति। अतो द्रव्यस्य षडेव भेदान सूत्रोक्तान् श्रुत्वा विस्तारतया विस्तारयुक्त्या, आगमेभ्यः स्याद्वादसमुद्दिष्टेभ्यः, आकर्ण्य, श्रवणविषयीकरणं श्रवणं, तत्र विस्तारेणैव श्रुतानामवगमो जायतेऽतो विस्तारतया श्रुत्वा, च पुनः, समभ्यस्य वाचा उद्घोषणद्वारा कण्टे कृत्वा, मनसि निदिध्यास्य, भो भव्यलोकाः ! सम्यक्त्वप्राणिनः ! अर्हत्क्रमाम्भोजयुगं श्रीजिनचरणभजनस्थैर्य भजन्तु, श्रुत्वा समभ्यस्य च श्रीप्रभुस्मृतिरेव साधीयसी, तत्कृत्वा तत्करणं श्रेयो निबन्धनमिति / तथा भोजेति संकेतेन संदर्भकर्तुर्नामनिदर्शनमिति। अत्राध्याये सम्यक्त्वदायि सर्वभेदाऽऽख्यानमिति प्रयोजनं चेति / / 21 / / द्रव्या०१०अध्या०। द्रव्यभदानाहकइविहा णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा दव्वा | पण्णत्ता। तं जहा-जीवदव्वा य, अजीवदव्वाय। अजीव-दव्वा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहारूबी अजीवदव्या य, अरूवी अजीवदवा य / एवं एएणं अभिलावेणं जहा अजीवपजवा० जाव से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ते ण णो संखेज्जा, णो असंखेज्जा, अणंता। जीवदव्वा णं भंते ! किं संखेज्जा, असंखेजा, अणंता? गोयमा ! णो संखेज्जा, णो असंखेज्जा, अणंता। से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चय--जीवदव्वा णं णो संखेज्जा, णो असंखेज्जा, अणंता? गोयमा ! असंखेजा रइया०जाव असंखेज्जा वाउकाइया, अणंता वणस्सकाइया, असंखेजा बेइंदिया, एवं०जाव वेमाणिया, अणंता सिद्धा / से तेणटेणं जाव अणंता। (अजीवपञ्जव ति) यथा प्रज्ञापनायां विशेषाभिधाने पामे पदेऽजीवपर्यवाः पठिताः, तथेहाजीवद्रव्यसूत्राण्यध्येयानि। तानि चैवम्"अरूविअजीवदव्वा णं भंते ! कइविहा पराणता? गायमा ! दसविहा पण्णता। तं जहा-धम्मस्थिकाए।" इत्यादि।तथा-"रूविअजीवदया गं भंते ! कइविहा पण्णता? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता / तं जहाखंधा।' इत्यादि / तथा "ते णं भंते ! कि संखज्जा, किं असंखेजा, अणता? गोयमा! गो संखेजा, णो असंखेजा, अणंता।से केणट्टेणं भते! एवं वुबइ? गोयमा ! अणंता परमाणू, अणंता दुपएसिया खंधा, अणंता तिपएसिया खंधा० जाव अणंता अणंतपएसिया खंध त्ति।" द्रव्याधिकारादेवेदमाहजीवदव्वा णं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंतिः अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति? गोयमा! जीवदव्वा णं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति / णो अजीवदव्वा णं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? से | केणटेणं भंते ! एवं बुचइ०जाव हव्वमागच्छंति / गोयमा ! | जीवदध्वा णं अजीवदध्वा परियादियं ति, अजीवदध्या परियादियत्ता ओरालियं वे उध्वियं आहारगं तेयगं कम्मगं सोइंदियंजाव फासिंदियं, मणजोगं वइजोगं कायजोगं आणापाणुत्तं च णिव्वत्तयंति,से तेणटेणं०जाव हव्वमागच्छंति। णेरइया णं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अजीवदव्वा णं णेरइया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा! णेरड्या णं अजीवदव्वा परिभोगत्ताएजाव हव्वमागच्छंति, णो अजीवदव्वा णं णेरइया०जाव हव्वमागच्छति / से केणद्वेणं? गोयमा ! णेरइया णं अजीवदव्ये परियादियंति, अजीवदव्वे परियादियं तित्ता वेउव्वियं तेयगं कम्मगं सोइंदियं० जाव फासिंदियं आणापाणुत्तं च णिव्वत्तयंति / से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-एवं०जाव वेमाणिया, गवरं सरीरइंदियजोगा जाणियव्वा जस्स जं अत्थि॥ (जीवदव्वा णं भंते ! अजीवदव्या इत्यादि) इह जीवद्रव्याणि परिभोजकानि, सचेतनत्वेन ग्राहकत्वात् / इतराणि तु परिभोग्यानि, अचेतनतया ग्राह्यत्वादिति। द्रव्याधिकारादेवेदमाहसे णूणं भंते ! असंखेने लोए अणंताई दव्वाइं आगासे भइयव्वाइं / हंता ! गोयमा ! असंखेल्जे लोएन्जाव भइयव्वाइं / लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कइदिसिं पोग्गला चिजंति? गोयमा ! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडच सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं / / (से गुणमित्यादि) (असखेज त्ति) असङ्ख्यातप्रदेशाऽऽत्मक इत्यर्थः / (अणताई दव्वाइ ति) जीवपरमाण्वादीनि। "आगासे भइयव्वाई ति" कावाऽस्य पाठः, सप्तम्याश्च षष्ठ्यर्थत्वादाकाशस्य भक्तव्यानि भर्त्तव्यानि, धारणीयानीत्यर्थः / पृच्छतोऽयमभिप्रायः-कथमसंख्यातप्रदेशाऽ5 - त्मके लोकाऽऽकाशेऽनन्ताना द्रव्याणामवस्थानम् ? हंता ! इत्यादिना तत्र तेषामनन्तानामप्यवस्थानमावेदितम्। आवेदियतश्चायभिप्रायःयथा प्रतिनियतेऽपवरकाऽऽकाशे प्रदीपप्रभापुद्गलपरिपूर्णेऽप्यपरापर - प्रदीपप्रभापुद्गला अवतिष्ठन्ते, तथाविधपुद्गलपरिणामसामथ्यात्, एवमसंख्यातेऽपि लोके तेष्वेव २प्रदेशेषु द्रव्याणां तथाविधपरिणामवशेनादस्थानात्, अनन्तानामपि तेषामवस्थानमविरुद्धमिति। असंख्याते लोकेऽनन्तद्रयाणामवस्थानमुक्तं, तच्चकैकस्मिन् प्रदेशे तेषां चयापचयाऽऽदिमद्भवतीत्यत आह-(लोगस्सेत्यादि) (कइ-दिसिं पोग्गला चिजंति) कतिभ्यो दिम्य आगत्य एकत्राऽऽकाशप्रदेशे चीयन्ते लीयन्तं / ____ आकाशप्रदेशे द्रव्याणिलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कइ दिसिं पोग्गला छिअंति? एवं चेव / एवं उवचिअंति, एवं अवचिजंति / / (छिज्जति त्ति) व्यतिरिक्ता भवन्ति (उवचिजति त्ति) स्कन्धरूपाः पुद्गलाः पुगलान्तरसपादुपचिता भवन्ति / (अवचिजति त्ति) स्कन्धरूपा एव प्रदेशविचटनेनापचीयन्ते। द्रव्याधिकारोदेवेदमाह। भाषाऽऽदिरूपेण द्रव्यग्रहणम्-- जीवे णं भंते ! जाई दवाइं ओरालियसरीरत्ताएगे--
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________________ दव्व 2465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्व पहइ, ताइं किं ठियाई गेण्हइ, अट्ठियाइं गेण्हइ? गोयमा ! ठियाई पि गेण्हइ, अट्ठियाई पि गेण्हइ / ताई भंते ! किं दव्वओ गण्हइ, खेत्तआ गण्हइ, कालओ गेण्हइ, भावओ गेण्हइ ? गोयमा ! दव्वओ वि गेण्हइ, खेत्तओ वि गेण्हइ, कालओ वि गेण्हइ, भावओ वि गेण्हइ / ताई दव्वओ अणंतपए सियाई दव्वाई, खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाइं, एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसएकजाव णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पड़च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं / जीवे णं भंते ! जाइंदव्वाई वेउव्वियसरीरत्ताए गेण्हति, ताई किं ठियाइं० एवं चेव, णवरं णियम छद्दिसिं, एवं आहारगसरीरत्ताए वि। जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं तेयगसरीरत्ताए गेण्हति पुच्छा? गोयमा ! ठियाई गेण्हति, णो अट्ठियाइं गेण्हति, सेसं जहा ओरालियसरीरस्स, कम्मगसरीरे एवं चेव, एवं०जाव भावओ गेण्हइ, ताई किं एगपएसियाई गेण्हइ, दुपएसियाई गेण्हइ, एवं जहा भासापदे० जाव आणुपुट्विं गेण्हइ, णो अणाणुपुट्विं गेण्हइ। ताई भंते ! कइ दिसिं गेण्हइ? गोयमा ! णिव्वाघाएणं जहा ओरालियस्स। जीवे णं भंते ! जाई दव्वाई सोइंदियत्ताए गेण्हइ, जहा वेउव्वियसरीरं, एवं०जाव जिभिंदियत्ताए, फासिंदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं, मणजोगत्ताएजहा कम्मगसरीरं,णवरं णियमा छद्दिसिं, एवं वइजोगत्ताए वि, कायजोगत्ताए वि जहा ओरालियसरीरस्स। जीवे णं भंते ! जाइंदव्वाई आणा-पाणुत्ताए / गेण्हति, जहेव ओरालियसरीरत्ताएजाव सिय पंचदिसिं / / / (ठियाईति) स्थितानि जीवप्रदेशावगाढक्षेत्रस्याभ्यन्तरवर्तीनि, अस्थितानि च तदनन्तरवर्तीनि / तानि पुनरीदारिकशरीरपरिणामविशेषादाकृष्य गृह्णाति। अन्ये त्वाहु:-स्थितानि तानि यानि नैजन्ते, तद्विपरीतानि त्वस्शितानि. (किं दव्वओ गिण्हइ त्ति) किं द्रव्यमाश्रित्य गृह्णाति, द्रव्यतः किंस्वरूपाणि गृह्णातीत्यर्थः / एवं क्षेत्रतः क्षेत्रमाश्रित्य कतिप्रदेशावगाढानीत्यर्थः / वैक्रियशरीराधि-कारे 'नियम छद्दिसिं ति" यदुक्त तत्रायमभिप्रायः-वैक्रियशरीरी पञ्चेन्द्रिय एव प्रायो भवति, सच वसनाड्या मध्य एव, तत्र च षण्णाभपि दिशामनावृतल्वमलोकेन विवक्षितलोकदेशस्येत्यत उच्यते-(नियम छहिसिं ति) यच्च वायुकायिकानां त्रसनाड्या बहिरपि वैक्रियकरणं भवति, तदिह न विवक्षितमप्रधानत्वात् तस्य च तथाविधलोकान्तनिष्कुटे वा वैक्रियशरीरी वायुर्न संभवतीति / तेजस्सूत्र--(ठियाई पिण्हइति) जीवावगाहक्षेत्राभयन्तरीभूतान्येव गृण्हाति। (नो अट्टियाइं गिण्हइ त्ति) न तदनन्तरवर्तीनि गृण्हाति, तस्याऽऽकर्षपरिणामाभावात् / अथवा-स्थितानि स्थिराणि गृह्णाति, नोऽस्थितान्यस्थिराणि, तथाविधस्वभावत्वात् / (जहा भासापदेत्ति। यथा, प्रज्ञापनाया एकादशे पदे तथा वाच्यम् / तच्च(तिपएसियाई गिण्हइ० जाव अणं तपएसियाई गिण्हइ इत्यादि) श्रोत्रेन्द्रियसूत्रे-(जहा वेउब्वियसरीरं ति) यथा वैक्रियशरीरद्रव्यग्रहण स्थितास्थितद्रव्यविषयं षड् दिवं च, एवमिदमपि, श्रोत्रेन्द्रियद्रव्यग्रहण हि नाडीमध्य एव, तत्र च (सिय तिदिसिमित्यादि) नास्ति व्याघाता भावादिति (फासिंदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं ति) अयमर्थ:स्पर्शनेन्द्रियतया तथा द्रव्याणि गृण्हाति यथौदारिकशरीरं स्थितास्थिलानिषदिगागतप्रभृतीनि चेति भावः। (मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीर, नवरं नियमा छद्दिसिं ति) मनोयोगतया तथा द्रव्याणि गृह्णाति यथा कार्मणस्थितान्येव गृह्णातीति भावः / केवलं तत्र व्याघातेनेत्याधुक्तमिह तु नियमात् षड़ दिशीत्येव वाच्यम्, नाडीमध्य एव मनोद्रव्यग्रहणभावात् / अत्रसानां हि तन्नास्ततीति। (एवं वइजोगनाए त्ति) मनोद्रव्यवद्वाग्द्रव्याणि गृह्णातीत्यर्थः / (कायजोगत्ताए जहा ओरालियसरीरस्स त्ति) काययोगद्रव्याणि स्थितास्थितानि षड्दिगागतप्रभृतीनि चेत्यर्थः। भ०२५ श०२उ०। दुविहा दव्वा पण्णत्ता / तं जहा-गइसमावन्नगा चेव, अगइसमावन्नगा चेव।। द्रव्यसूत्रे गतिर्गमनमात्रमेव, शेष तथैवेति पृथ्वीकायवत् / स्था०१ ठा०। (किं द्रव्यं गुरु, किं वा लध्विति 'अगुरुलहुय' शब्दे प्रथमभागे 157 पृष्ट चिन्तितम् / पुद्गलास्तिकायप्रदेशः किं द्रव्यमिति पोग्गलत्थिकाय' शब्दे वक्ष्यते) (द्रव्यक्षेत्रकालभावाना परस्परं समावेशः 'अणुओगे' शब्दे प्रथमभागे 343 पृष्ट चिन्तितः) (जीवास्तिकायाऽऽदीना द्रव्यप्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वम् अस्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे 514 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) संयमे, आचा०१ श्रु०८अ०८३०। वैशेपिकरीत्या द्रव्याणि, तत्र दोषश्चपृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति नव द्रव्याणि। तदत्र पृथिव्यतेजोवायूना पृथग्द्रव्यत्वमनुपपन्नम्। तथाहि-त एव परमाणवः प्रयोगविससाभ्यां पृथिव्यादित्वेन परिणमन्तोऽपि न स्वकीयं द्रव्यत्वं त्यजन्ति, न चावस्थाभेदेन द्रव्यभेदो युक्तः, अतिप्रसङ्गादिति। आकाशकालयोश्चारमाभिरपि द्रव्यत्वमभ्युपगतमेव। दिशस्त्वाकाशावयवभूताया अनुपपन्नं पृथग्द्रव्यत्वम्, अतिप्रसङ्ग दोषादेव। आत्मनश्च स्वशरीरमात्रव्यापिन उपयोगलक्षणस्याभ्युपगतद्रव्यत्वमिति। मनसश्च पुद्गलविशेषतया पुद्गलद्रव्येऽन्तर्भाव इति परमाणुवद्भावान्मनसश्च जीवगुणत्वादात्मन्यन्तर्भाव इति / यदपि तैरभिधीयते-यथा पृथिवीत्वयोगात्पृथिवीति, तदपि स्वप्रक्रियामात्रमेव ! यतो न हि पृथिव्याः पृथग्भूत पृथिवील्वमपि, येन तद्योगात्पृथिवी भवेत्,अपि तु सर्वमपि यदस्ति तत्सामान्यविशेषाऽऽत्मक नरसिंहाऽऽकारमुभयस्वभावमिति। तथा चोक्तम'नान्वयः सहभेदत्वान्न भेदोऽन्वयवृत्तितः। मृद्रेदद्वयसंसर्ग-वृत्ति जात्यन्तरं घटः / / 1 / / " तथा-- "नरस्य सिंहरूपत्वान्न सिंहो नररूपतः। शब्दविज्ञानकार्याणां, भेदाञ्जात्यन्तरं हि सः / / 1 / / '' इत्यादि। अथ रूपरसगन्धस्पर्शा रूपिद्रव्यवृत्तेविशेषगुणाः, तथा संख्या परिमाणानि पृथपत्वं स योगविभागा परत्वापरत्वे इत्येते सामान्य गुणाः, सर्व द्रव्यवृत्तित्वात / तथा-बुद्धिः सुखदु:खे
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________________ दव्व 2466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वट्ठिय च्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारा आत्मगुणाः / गुरुत्वं पृथिव्युद-कयोः, दितक्राणां चैकद्रव्यत्वमुत भिन्नद्रव्यत्वं वा? श्राद्धविधौ त्वित्थं प्रोक्तम्द्रव्यस्वभावत्वेन परोपाधिकत्वं पृथिव्युदकानिषु, स्नेहोऽम्भस्येव, यत्पृथक् पृथकनामाऽऽस्वादवत्त्वेन द्रव्यत्वम्, परं तेषु तक्राऽऽदिषु पृथक् वेगाऽऽख्यः संस्कारो मूर्तद्रव्येष्येव, आकाशगुणः शब्द इति / तत्र पृथक् आस्वादवत् त्वं, न तु नामत्वमतस्तत्र कया रीत्या द्रव्यसंख्या संख्याऽऽदयः सामान्यगुणा रूपाऽऽदिवद् द्रव्यस्वभावत्वेन परोपाधि- गण्यते? इति प्रश्ने, उत्तरम् गोमहिष्यजाप्रभृतीना सर्पिष, क्षारमिष्टाकत्वाद् गुणा एव न भवन्ति। अथापि स्युस्तथाऽपि न गुणानां पृथक्त्व- 5ऽदिपानीयानां च, गोमहिष्यादितक्राणां चैकद्रव्यत्व गण्यते, यत व्यवस्था, तत्पृथक्त्वभावे द्रव्यस्वरूपहानेः, गुणपर्यायवद् द्रव्यमिति उभयभिन्नत्वे सति भिन्नद्रव्यत्वं स्यादिति। २०२प्र०। सेन० 2 उल्ला कृत्वा नान्तरीयकतया द्रव्यग्रहणेनैव ग्रहणं न्याय्यमिति न पृथग्भाव। किं अहम्मदावादसंधकृतप्रश्नस्तदुत्तरं च। यथा-आम्लतक्रमधुरतक्रयोः, च-तस्स भावस्तत्वमित्युच्यते। भावप्रत्ययश्च यस्य गुणस्य हि भावाद् तथोष्णोदकशीतोदकयोः, तथा मेघजलकूपजलयोरेकद्रव्यत्वं गण्यते द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने त्वतलावित्यनेन भवति। तत्र घटो रक्त पृथग वेति प्रश्ने, उत्तरम्-आम्लतक्रमधुरतक्रप्रमुखाणामेकद्रव्यत्वं गण्यत उदकस्याऽऽहारको जलवान् सर्वरेव घट उच्यते। अत्र च घटस्य भावों इति। 124 प्र०ा सेन०४ उल्ला०। (भाषाद्रव्यस्य अनुतटिकादिभेदाः घटत्वं, रक्तस्य भावो रक्तत्वम्, आहारकस्य भाव आहारकत्वं, जलवता 'सरदव्यभेय' शब्दे वक्ष्यन्ते) भावो जलवत्त्वमित्यत्र घटसामान्यरक्तगुणक्रिया द्रव्यसंबन्धरूपाणां दव्वंतर न०(द्रव्यान्तर) एकद्रव्यादन्यस्मिन् द्रव्ये तद्रव्यसदृशे, सम्म०। गुणानां सद्भावात, द्रव्ये पृथुबुध्नाकार उदकाऽऽद्याहारणक्षमे कुटकाऽऽख्ये यथा-गोत्वसदृशपरिणतियुक्ताच्छावलेयद्रव्यात्तत्सदृशपरिणतियुक्तं, शब्दस्य घटाऽऽदेरभिनिवेशः, तत्र त्वतलौ, इह च रक्ताऽऽख्यको गुणो, बाहुलेयाऽऽदिद्रव्यन्तिरम्। सम्म०३ काण्ड।"पचुप्पन्नं भावं, विगयभयत्सद्भावात्कतरच तद्रव्यं यत्र शब्दनिवेशो येन भावप्रत्ययः स्यादिति / विस्सेहि जसमाणेइ। एवं पडुच्च वयण, दट्वंतरणिस्सियं जं च / / 3 / / " किमिदानी रक्तस्य भावो रक्तत्वमिति न भवितव्यम्? भवितव्यमुपचारेण। सम्म०३ काण्ड। तथाहि-रक्त इत्येतद् द्रव्यत्वेनोपचयं तस्य सामान्य भाव इति दव्यछक्क न०(द्रव्यषट्क) षडेव षट्कं, द्रव्याणां षट्कं द्रव्यषट्- कम। रक्तत्वमिति। न चोपचारस्तत्त्वचिन्तायामुपयुज्यते, शब्दसिद्धावेव तस्य पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकालस्वभावे षट् द्रव्यसमुदाये, दर्श०१ तत्त्व। कृतार्थत्वादिति। शब्दश्वाऽऽकाशस्य गुण एव न भवति, तस्य पौरालिक दव्वजाय न०(द्रव्यजात) तथाविधाशनाऽऽदिद्रव्यविशेषे, उत्त०२६ अ०॥ त्वादाकाशस्य चामूर्त्तत्वादिति। शेषं तु प्रक्रियामात्रं, न साधनदूषण द्रव्यप्रकारे,प्रश्न०३संवन्द्वार। योरङ्गम् / क्रियाऽपि द्रव्यसमवायिनी गुणवत्पृथगाश्रयितु न युक्तति / दव्वट्ठपएसट्ठया स्त्री०(द्रव्यार्थप्रदेशार्थता) द्रव्यार्थप्रदेशार्थो भसूत्र०१ श्रु०१२ अ० आ०चू०। आ०म०! स्या०। तत्र पृथिव्यप याऽऽश्रयणे, भ०२५ श०३उ० तेजोधारवाकाशकालदिगाऽऽत्ममनांसि नवैव द्रव्याणि / पृथिव्यप दव्वट्ठया स्त्री०(द्रव्यार्थता) द्रव्यमुपेक्षितपर्याय वस्तु, तदेवार्थो द्रव्यार्थः, तेजोवायुरित्येतचतुः संख्यं नित्यानित्यभेदाद् द्विप्रकारं द्रव्यम् / तत्र तद् भावरतत्ता / भ०१० श०४उका द्रव्यत्वे, अनु०द्रव्यं च तदर्थश्चेति परमाणुरूपं नित्यम्, सदकारणवन्नित्यमिति वचनात् / तदारब्ध तु द्रव्यार्थः, तस्य भावो द्रव्यार्थता / प्रदेशगुणपर्यायाऽऽधारतायामवयट्यणुकाऽऽदिकार्यद्रव्यमनित्यम्। आकाशाऽऽदिक तु नित्यमव, अनुत्प- विद्रव्यतायाम, स्था०१ ठा०ा द्रव्यास्तिकनयमते, "दव्वट्टयाए सासया, त्तिमत्त्वात्। एषां च द्रव्यत्वाभिसंबन्धाद् द्रव्यरूपता। द्रव्यत्वाभिसंबन्धाद् पजवट्टयाए असासया।" द्रव्यार्थतया द्रव्यास्सिकनयमतेन शाश्वती, यानि तु नैव, न च तानिद्रव्यत्वाभिसंबन्धवन्ति / यथा गुणाऽऽदिवस्तू द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव तात्त्विकमभिमन्यते, न पर्यायान्, द्रव्य नीति केवलय्यतिरेकिहेतुबलात् पृथिव्यादीनि द्रव्याऽऽदिगुणाऽऽदिभ्यो चान्वयपरिणामित्वात। अन्यथा द्रव्यत्वायोगात. अन्वयित्वाच सकलव्यावृत्तरूपाणि सिद्धानि, पृथिव्यादीनामपि भेदवतां पृथिवीत्वाभि कालभावीति भवति द्रव्यार्थतया शाश्वती। जी०३ प्रति०४ उ० संबन्धाऽऽदिक लक्षणमितरेभ्यो भेदव्यवहारे तच्छब्दवाच्यत्वे वा साध्ये दव्वट्ठाणाउय न०(द्रव्यस्थानाऽऽयुष) द्रव्य पुद्गलद्रव्य, तस्य स्थान भेदः केवलव्यतिरेकिरूपं द्रष्टव्यम्, अभेदवतां त्वाकाशकालदिग्द्रव्याणा परमाणुगिप्रदेशकाऽऽदि.तस्याऽऽयुः स्थितिः। अथवा-द्रव्यस्थाणुव्यामनादिसिद्धतच्छब्दवाच्यता द्रष्टव्या / सम्भ०३ काण्ड / (भिक्षायां ___ऽऽदिभावेन यत्स्थानमवस्थान तद्रूपमायुव्यस्थानाऽऽयुः / द्रव्यस्थिती, ग्राह्यद्रव्यविचारा 'गोयरचरिया' शब्दे तृ०भागे 686 पृष्ठे उक्तः। भ०५ श०७उ01 पानकसंसक्ताऽऽदिशब्देषु च वक्ष्यते) पित्तले, वित्ते, विलेपनद्रव्ये, भेषजे, दव्वद्विइ स्वी०(द्रव्यस्थिति) द्रव्याणां वर्तनाकाले, विशे० भ०। (साच भव्ये जन्तुनि, विनये, मो, व्याकरणोक्त लिङ्गसङ्ख्याऽन्वयिनि पदार्थे , चतुर्विधा 'काल' शब्दे तृतीयभागे 471 पृष्ठे गता) ('उवचय' शब्द द्रोवृक्षस्य विकारः, तस्येदं वा यत (वृक्षविकारे, तत्संबन्धिनि च। त्रिका द्वितीयभागे 881 पृष्ठे वस्त्रदृष्टान्तेन च) वाचाप० देवविजयगणिकृतप्रश्रे, उत्तरम्-कश्चित् श्राद्धः खदयेण | दवट्ठिय पुं०(द्रव्यार्थिक) द्रव्यमेवार्थो यस्य, नतुपर्यायः, स द्रव्यार्थिकः / प्रतिमा, कश्चित्पुस्तकं च कारयति, लिखति वा, तदा प्रतिमाकर्तुर्दैवद्रव्य, नयभेदे, आ०म०१अ०२खण्ड। पुस्तक-लेखकस्य ज्ञानद्रव्यं च लगति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्--उभयोरपि *द्रव्यस्थित पुं० / द्रव्ये च वस्तुतत्त्वबुद्ध्या स्थितो, न तु पर्याय इति यथाक्रम ते उभे न लगत इति संभाव्यते। १६७प्र० सेन०२ उल्ला०। द्रव्यस्थितः। नयभेदे, आ०म०११०२ खण्ड। गोमहिष्यजाप्रभृर्तानां सपिषः, एवं क्षारमिष्टाऽऽदिपयसा, गोमहिष्या- | *द्रव्यास्तिक पुं० / अस्तीति मतिरस्य आस्तिकः / "देष्टि
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________________ दव्वट्ठिय 2467- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वट्ठिय कास्तिकनास्तिक०-।।'' इति निपातनादिकण, द्रव्ये आस्तिको, नतु पर्याय इति द्रव्यास्तिकः / आ०म०१ अ०२ खण्ड। जला द्रव्यमात्रप्ररूपके मूलनयभेदे, रत्ना०७ परि। द्रव्यार्थिकमतम्द्रव्यार्थिकमते द्रव्यं, तत्त्वं नेष्टमतः पृथक् / (12) द्रव्यार्थिकस्य मते द्रव्यं परमार्थतः सत्, अतो द्रव्यात् पृथग भिन्न विकल्पसिद्धं गुणपर्यायस्वरूपं तत्त्वं नेष्टम्, सवृत्तिमतोऽपि तस्य परमार्थतोऽसत्त्वादिति भावः / नयो०। ("तित्थयरवणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वट्टिओ य," (3 गाथा) इत्यादि-गाथया ‘णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1876 पृष्ठे द्रव्यार्थिक नयो विवृतः) स च शुद्धाऽशुद्धभेदेन द्विधा / तत्र शुद्धो द्रव्यास्तिको नयग्रहनयाभिमतविषयप्ररूपकः / सर्वमेकं सदविशेषादिति शुद्धद्रव्यास्तिकाभिप्रायः। अशुद्धस्तु द्रव्याथिको व्यवहारनयमतावलम्बी एकान्तनित्यचेतनाचेतनवस्तुद्वयप्रतिपादकसाङ्ख्यदर्शनाऽऽश्रितः, अत एव तन्मतानुसारिणः साख्याः / सम्म०१ काण्ड। वक्ष्यति चाऽऽचार्यः-"जंकाविलं दरिसणं, एयंदव्वडियरसवत्तव्वं।" इति नैगमनयाभिप्रायः। द्रव्यास्तिकः शुद्धाशुद्धतया आचार्येण न प्रदर्शित एष / नैगमस्य सामान्यग्राहिणः संग्रहेऽन्तर्भूतत्वाद्विशेषग्राहिणश्चव्यवहारे इति नैगमाभावादिति द्रव्यप्रतिपादकनय प्रत्ययराशिमूलव्याकरणी द्रव्यास्तिकः शुद्धाऽशुद्धतया व्यवस्थितः, अत्र पर्यायास्तिक ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतन-यप्रत्ययराशिमूलव्याकरणी शुद्धाशुद्धतया व्यवस्थितः / सम्म०१ काण्ड / नयो। स्या। ''दव्वद्विअनयपयडी'(सम्म०१ काण्ड 4 गाथा) अस्याश्च गाथायाः सर्वमव शाास्त्रं विवरणम् / 'दव्वढिओ अ पज्जवनओं य' (3) इत्यादिपश्चा? कदेशस्य विवरणायाऽऽह सूरिःदव्वट्ठिअनयपयडी, सुद्धा संगहपरूवणाविसओ। पडिरूवे पुण वयणत्थनिच्छओ तस्स ववहारो॥४॥ इतिगाथासूत्रम्। अत्र च संग्रहनयप्रत्ययः शुद्धोद्रव्यास्तिको, व्यवहारनयप्रत्ययस्त्वशुद्ध इति तात्पर्यार्थः / / अवयवार्थस्तुद्रव्यास्तिकनयस्य व्यावर्णितस्वरूपस्य, प्रकृतिः स्वभावः, शुद्धत्यसंकीर्णा विशेषासस्पर्शवती, संग्रहस्याभेदतया(?) हि नयस्य प्ररूपणाप्ररूप्यते नयेनैव कृत्दोपवर्णना पदसंहतिः, तस्या विषयोऽभिधेयः, विषयाऽऽकारेण विषयिणो वृत्तस्य विषयव्यवस्थापकत्वात्. उपचारेण विषयेण विषयिप्रकथनमेतत् / अन्यथा कः प्रस्तावः शुद्धद्रव्यास्तिके विधातुं प्रक्रान्ते संग्रहप्ररूपणायाः। स च संग्रहप्ररूपणाभिप्रायेण भाव एव / तथाहिजातिद्रव्यगुणक्रियापरिभाषितरूपेण, स्वार्थद्रव्यालिङ्गकर्माऽऽदिप्रकारेण वा सुबन्तस्य योऽर्थः स भावाव्यतिरिक्तो वा भवेदव्यतिरिक्तो वा? यदि व्यतिरिक्तस्तदा निरुपाख्यत्वादत्पन्ताभाववत्तिडन्ताऽऽदिरूप इति कथं सुबन्तवाच्य? अव्यतिरिक्तश्चेत्कथं न भावमात्रता सुवन्तार्थस्य, तिङन्तार्थस्यापिक्रियाकालकारकपुरुषोपग्रहवचनाऽऽदिरूपेण परिभाष्यमाणस्य सत्तारूपतैव / तथाहि-पचतीत्यत्र क्रिया विक्लित्तिलक्षणा, काल आरम्भप्रभृतिरपवर्गपर्यन्तो वर्तमानस्वरूपः, कारकः कर्ता, पुरुषः परः, भावाऽऽत्मकरुपग्रहः परार्थता, वचनमेकत्वं यद्यपि प्रतिपत्तिविषयः, तथाऽपि सत्त्वमेवैतत्। यतः क्रिया ह्यसती चेत्कारकैर्न साध्येत, खपुष्पाऽऽदिवत्, सती चेदस्तित्वमात्रमेव, सा कारकैश्चाभिव्यज्यत इति। एवं कालाऽऽदयोऽप्यसन्तश्चेन्न शशश्रृङ्गाद्विधरन, सदात्मकाचेत्कथं नास्तिवादभिन्नाः(?) इति सत्तैव तिङन्तस्यार्थः, घटोऽस्तीत्यस्यार्थे यद्वाक्य प्रयुज्यते घटः सन्निति, तत्र भावाभिधायिता पदद्वयस्यापि / तथाहि घट इति विशेषणं, सन्निति विशेष्यम्। अत्र द्वयेनाऽपि वा भावविपरीतेन भाव्यम्। न ह्यन्यथा तद्विशेषणं, नापि तद्विशेष्यं स्याद, निरुपाख्यत्वात. अत्यन्ताभाववत्। यदि पुनरभावविपरीतं तदिष्यते, विशेषणविशेष्ययोः कथं न भावरूपता? तेन यदेव घटस्य भादो घटत्वं, तदेवघटः, यच्च सतो भावः, सत्त्वं, तदेव सन्निति सर्वत्र संग्रहाभिप्रायतः प्ररूपणाविषयो भाव एव। उक्तं चैतत् समयसद्भावमभिदधताऽन्येनापि'अस्त्यर्थः सर्वशब्दनामिति प्रत्याय्य लक्षणम्। अपूर्वदेवताशब्दैः समं प्राऽऽहुर्गवादिषु / / 1 / / घटाऽऽदीनां न चाऽऽकारा-त्प्रत्यापयति वाचकः / वस्तुमात्रनिवेशित्वात्तदतिर्नान्तरीयका // 2 // " इति / अत एव 'यत्र विशेषक्रिया नैव श्रूयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषे प्रयुज्यमानोऽप्यस्तीति गम्यते," इत्युक्तं शब्दसमयविद्भिरिति / अवगतिश्चैवं युक्ता-यदि सत्ता पदार्थो न व्यभिचरेत्, अव्यभिचरेत् / अव्यभिचारे च तदावेशात्तदात्मकतैव, आसन्नापरित्यागे वा स्वरूपहानमितिनसन्मात्रमेवाध्यक्षस्य, शब्दस्य वा विषयः, निःशेषमशेषपृथक् व्यवस्थापितमधुराऽऽदिरसपानकद्रव्यवत्। भेदप्रतिभासस्तु भेदप्रतिपादकाऽऽगमोपहतान्तःकरणानां तिमिरोपप्लुतदृशामेकशशलानमण्डलस्यानेकत्वावभासनवदसदिति सर्वमदानपन्हुवानः सर्व सन्मात्रतया संगृहन् संग्रहः, शुद्धा द्रव्यास्तिकप्रकृतिरिति स्थितम्। तामेव शुद्धा 'पडिरूवे पुण (4) इत्यादिगाथापश्चार्द्धन दर्शयत्याचार्यः-प्रतिरूपं प्रतिबिम्ब, प्रतिनिधिरिति यावत्। विशेषेण घटाऽऽदिना द्रव्येण संकीर्णा सत्ता, पुनरिति प्रकृति स्मारयति। तेनाऽयमर्थः-विशेषेण संकीर्णा सत्ता प्रकृतिःस्वभायो वचनार्थनिश्चय इति हेयोपादेयोपेक्षणीयवस्तुविषयनिवृत्तिप्रवृत्त्युपेक्षालक्षणव्यवहारसंपादनार्थम्, उच्यत इति वचनं, तस्य घट इति विभक्तरूपतयाऽस्तीत्यविभक्ताऽऽत्मतया प्रतीयमानो व्यवहारक्षमोऽर्थः, तस्य निश्चयो निर्गतः पृथग्भूतश्चयः परिच्छेदः, तस्येति द्रव्यास्तिकस्य, व्यवहार इति लोकप्रसिद्धव्यवहारप्रवर्तनपरो नयः सोऽभिमन्यते। यदि हि हेयोपादेयोपेक्षणीयस्वरूपाः परस्परतो विभिन्नस्वभावाः सद्रूषतया शब्दप्रभवे संवेदने भावाः प्रतिभान्ति, ततो निवृत्तिप्रवृत्त्युपेक्षणो व्यवहारस्तद्विषयः प्रवृत्तिमासादयति, नान्यथा / न चैकान्ततः सन्मात्राविशिष्टेषु संग्रहामिमतेषु प्रथक् स्वरूपतया परिच्छेदो बाधितरूपो व्यवहारनिबन्धन, संभवतीति / तथाहि-यदाद्याऽऽकारे निरपेक्ष-तया स्वग्राहिणो ज्ञाने प्रतिभासमाधत्ते, तत्तथैव सदिति व्यवहर्त्तव्यं, यथा प्रतिनियतं सत्ताऽऽदिरूपम्, सन्निवेशघटाद्याकारनिरपेक्ष च घटाऽऽदिकं स्वावभासिनि ज्ञाने स्वरूपं सन्निवेशयतीति स्वभावहेतुः। घटाऽऽदिनिरपेक्षत्वं च पटाऽऽदेः घटाऽऽद्यभावेऽपि भावादवभासमानाच सिद्धम् / यदा-प्रतिशब्दो वीप्सायाम, रूपशब्दश्च वस्तुन्यत्र प्रवर्तते। तेनायमर्थ:-रूपं रूपं प्रति प्रतिवस्तु, वस्तु प्रति यो वचनार्थनिश्चयः, तस्य प्रकृतिः स्वभावः स व्यवहार इति। तथाहि-प्रतिरूपमेव वचनार्थनिश्चयो व्यवहारहेतुः, न पुनरस्तित्वमात्रनिश्चयः, यतोऽस्तीत्युतेऽपि श्रोता शङ्कामुपगच्छन् लक्ष्यते, अतः किमिच्छन् लक्ष्यतेऽस्ती
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________________ दव्वट्टिय 2468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वट्ठिय त्याशइ कायां द्रव्यमित्युच्यते, तदपि किम्? पृथिवी, साऽपि का? वृक्षः, सोऽपि कः? चूतः, तत्राप्यर्थित्वे यावत्पुष्पितः फलितः, इत्यादि तावन्निश्चिनोति यावद् व्यवहारसिद्धिरिति / व्यवहारो हि नानारूपतया / सत्तां व्यवस्थापयति, तथैव संव्यवहारसंभवात् / अतो व्यवहरतीति व्यवहार इत्यन्वर्थसंज्ञां विभ्रदशुद्धा द्रव्यास्तिकप्रकृतिर्भवति। विशेषप्रस्तारस्य पर्यायतया मूलव्याकरणी, शब्दाऽऽदयश्च शेषाः पर्यायनयभेदा इति प्रागुक्तं, तत्समर्थनार्थम्मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उज्जुसुअवयणविच्छेदो। तस्स उ सद्दाईआ, साहपसाहा सुहमभेया।।५।। इति गाथासूत्रम् / अस्य तात्पर्यार्थ:-पर्यायनयस्य प्रकृतिराद्या ऋजुसूत्रः, सत्वशुद्धा, शब्दः शुद्धा, शुद्धतरा समभिरूढः, अत्यन्तशुद्धा त्वेवंभूत इति। अवयवार्थस्तु-मूलनिमेणमाधारः, पर्यायो विशेषः, तस्य नय उपपत्तिबलात्परिच्छेदः, तस्य, ऋजु वर्तमानसमयं वस्तु, स्वरूपावस्थितत्वात्, तदेव सूत्रयति परिच्छिनत्ति, नातीतानागतं, तस्यासत्त्वेन कुटिलत्वात्। तस्य वचनं पदं वाक्यं वा, तस्य विच्छेदोऽन्तः सीमेति यावत / ऋजुसत्रवचनस्येति कर्मणि षष्ठी। तेन ऋजसत्रस्यायमों नान्यस्येति प्ररूपयतो वचन विच्छिद्यमान यत्तन्मूलनिमेणमत्र गृह्यते। ननु कथं वचनविच्छेदः शब्दरूपः परिच्छेदस्यभावस्य नयस्याऽऽधारः। नैष दोषः, विषयेण विषयिकथनरूपत्वादस्यानच वचनार्थोऽरय विषयो, न शब्द इति वक्तव्यं, वचनार्थयोरभेदात् वचनमपि यतो विषयः। अथ विषय एव किन्नोक्त इति न प्रेरणीयम्, शब्दाभिहितस्यैव प्रमाणत्वमिति ज्ञापनार्थत्वादेवमभिधानम्, तस्य च पूर्वापरपर्यायविविक्त एकपर्याय एव प्ररूपयतो वचन विच्छिद्यते, एकपर्यायस्य परपर्यायासंस्पर्शात्। उक्तं च तन्मतमर्थ प्ररूपयद्भिः-''पलाल न दहत्यग्निर्दह्यते न गिरिः क्वचित्। नासंयतः प्रव्रजति, भव्यजीवो न सिद्ध्यति॥१॥' पलालपर्यायस्याग्निसाद्भावपर्यायादत्यन्तभिन्नत्वाद् यः पलालो नाऽसौ दह्यते, यश्च भरमभावमनुभवति, नासौ पलालपर्याय इति / सम्म०१ काण्ड। ('नाम ठवणा दविए, त्ति एसदव्ववियस्स णिक्खेवो।"(६ गाथा सम्म०१ काण्ड) इत्यादिगाथाया ‘णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1888 पृष्ठे व्याख्यातोऽर्थः) एतदेवाऽऽहतिर्यगूर्द्धप्रचयिनः, पर्यायाः खलु कल्पिताः। सत्यं तेष्वन्वयि द्रव्यं, कुण्डलाऽऽदिषु हेमवत् / / 13 / / (तिर्यगति) तिर्यक्प्रचयिनः परस्परसमानाधिकरणत्वे सति परस्परसमानकालीना रूपरसाऽऽदय अणुत्वस्थौल्याऽऽदयश्च, ऊर्द्धप्रचयिनः परस्परसमानाधिकरणत्वे सति परस्परभिन्नकालीना रक्तश्यामत्वाऽऽदयः, संयोगविभागाऽऽदयश्च, पर्यायाः खलु निश्चितं, कल्पिता वासनाविशेषप्रभवविकल्पसिद्धा अपारमार्थिका इति यावत्। तेषु कल्पनारूढेषु पर्यायेष्वन्वयि व्यापकतया प्रतीयमानं द्रव्यं सत्यं, कुण्डलाऽऽदिषु नानाकाश्चनपर्यायेष्वन्वीयमानं, हेमवत् / अयं भाव:-यथा शुक्ती रजतभ्रान्तो बाधाऽवतारानन्तरं रजताभावभानेऽपि शुक्तेर्भासमानत्वाद "शुक्तेः सत्यत्व, रजतस्य चासत्यत्व, तथा कुण्डलाऽऽधभावभानेऽपि हेम्नो भानात् कुण्डलाऽऽदिपर्यायाणामसत्यत्वं हेमद्रव्यस्य सत्यत्वम्। एवमन्यत्रापि भावनीयमिति / नन्वयं अमाधिष्ठानत्वमेव सत्यत्व, भ्रमविषयत्वं चासत्यत्वमित्वागतम्, न चासत्यत्वं प्रत्यक्षप्रमीयमानेषु पर्यायेष्वव्यापकम्, एवं तत्र तदसत्त्वरूपसत्यत्वमपि तेष्वव्यापकमिति चेद्, न, सत्यरजतस्याऽपि प्रतिभासकाले सत्ताभानेन कालत्रयसत एवैतन्नये सत्यत्वस्वीकारात्। अत एव कालवृत्त्यत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वमेव परमार्थसत्वत्वमित्यभिप्रेत्याऽऽहैतत्साम्प्रदायिकः // 13 // आदावन्ते च यन्नास्ति, मध्येऽपि हि न तत्तथा। वितथैः सदृशाः सन्तो-ऽवितथा इव लक्षिताः।।१४।। (आदाविति) आदावन्ते च यद्वस्तु नास्ति, तन्मध्येऽपि मध्यकालेऽपि न तथा, नास्ति इत्यर्थः / न हि प्रागभावध्वंसानवच्छिन्नकालसंबन्धः सत्य इत्यभ्युपगन्तुं शक्यम्, उत्पत्तिविनश्यत्तासमययोरुत्पत्तिविनाशव्यापारव्यग्रयोरन्वयिव्यवहारात् : न च तद्विवेके मध्यभागः कश्चिदवशिष्यते, इक्षुदण्डस्येव सकलमूलाग्रभागच्छेदे। किं च-पूर्व पश्वासासत्स्वगावस्य कथं मध्यमक्षणे सत्स्वभावत्वम्, स्वभावविरोधाद्, मध्यमक्षणे सन्नेव पर्यायः पूर्वापरकालयोरसद्-व्यवहारकारीति न स्वभावविरोध इति चेत्, तर्हि पूर्वापरकालयोरसत्स्वभाव एवायं मध्यमक्षणसंबन्धेन सद्व्यवहारकारीत्येव किं न स्वीक्रियते? तस्मान्न निरपेक्षपारमार्थिकसत्ताक (?) न पर्यायाः, किं तु वितथैः शशविषाणाऽऽदिभिः काल्पनिकत्वेन सदृशाः सन्तोऽनादिलौकिकव्यवहारवासनावशादवितथा इव लक्षिताः, लोकैरिति शेषः // 14 // नन्वेवं द्रव्यार्थिकनये पर्यायाणां शशविषाणप्रायत्वात्तदवगाहिज्ञानमलीकविषयत्वेन मिथ्या स्याद, न च घटाऽऽ-- दिज्ञानविनिर्मुक्तविषयको द्रव्योपयोगः कश्चिदवशिध्यते, इति नामशेषता च तस्य स्यादित्याशक्य शुद्धावान्तरद्रव्यार्थिकभेदेन तस्य वैविध्या नानुपपत्तिरित्यभिप्रायवानाहअयं द्रव्योपयोगः स्याद्रिकल्पेऽन्त्ये व्यवस्थितः। अन्तरा द्रव्यपर्याय-धीः सामान्यविशेषवत्॥१५॥ (अयमिति) अयं द्रव्योपयोगी द्रव्यार्थिकनयजन्यो बोधोऽन्त्ये विकल्प शुद्धसंग्रहाऽऽस्ये व्यवस्थितः पर्यायबुद्ध्या अविचलितः स्यात्, अन्तरा शुद्धसंग्रहशुद्धर्जुसूत्रविषयमध्ये द्रव्यपर्यायधीरेव स्यात्, सामान्यविशेष - बुद्धिवत् / यथा हि परेषां द्रव्यत्वाऽऽदिक द्रव्यापेक्षया सामान्य सद् गुणाऽऽद्यपेक्षया विशेषाऽऽख्या लभते, तथाऽस्माकं घटाऽऽदिक स्वपर्यायापेक्षया सामान्य सद्गुणाऽऽद्यपेक्षया पर्यायाऽऽख्यालभते, इति यद्यवगाही अवान्तरद्रव्यार्थिकः पर्यायोपसर्जनता, द्रव्यमुख्यतां चाऽवगाहमानोन विरुध्यते, असतोऽप्युपसर्जनतया आश्रयणं च कर्णशकुल्यवच्छिन्नाऽऽकाशस्य शब्दग्राहकतां वदतांतार्किकाणाम, आनुपूर्वीविशेषविशिष्टस्य शब्दस्य श्रोत्रग्राह्यतां वदतां मीमांसकाऽऽदीनां च दृश्यत एवेति भावः। यद्वा--घटाऽऽदेव्यार्थिकन पर्यायविनिर्मुक्तद्रव्या-5ऽकारेणैव ग्रहः, पर्यायनयेन तत्र पर्यायत्वाऽऽपादने च पर्यायविशिष्टतया ग्रहणमित्येव सूक्ष्मेक्षिकायां शुद्धसंग्रहादन्त्यविशेषं यावदव्यवस्थितिः, अन्त्यविशेषविकल्प च शुद्धर्जुसूत्रलक्षणे कारणाभावादेव द्रव्योपयोगो व्यवस्थितः स्याद्युपरतः स्यादिति व्याख्येयम् / न चानयाऽनवस्थयैवैकस्याऽपि बोधस्यानापत्तिः, तत्तदवान्तरभेदप्रवृत्ती वा विषयान्तरसंचारानुपपत्तिः, पर्यायान्तरजिज्ञासोपरमेतद्बोधविश्रान्तेरितिभावनीयम्। तदिदमुक्तसम्मतौ
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________________ दव्वट्ठिय 2466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वट्ठिय "पज्जवणयवुझंत, वत्थुदव्वट्टियस्स वएणिज्ज। जाव दविओवओगो अपच्छिमविअप्पणिव्वयणो॥८॥" (पूर्व ‘णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1886 पृष्ठे गाथेयं व्याख्याता) किं त्विहाप्युपयुक्तत्वेन किञ्चिद् विवियते न विद्यते पश्चिमे विकल्पनिर्व-चने सविल्पधीव्यवहारलक्षणे यत्र स तथा, संग्रहावसान इति यावत। ततः परं विकल्पवचनाप्रवृत्तेरीदृशो यावद्द्रव्योपयोगः प्रवर्तते तावद्रव्यार्यिकस्य वचनीयं वस्तु, तच पर्यायनयेन वि-विशेषेण उद्धं क्रान्तमेव विषयीकृतमेव पर्यायनयाऽऽक्रान्तं सत्तायां मानाभावादित्येकोऽर्थः / यद्वा-यद वस्तु सूक्ष्मतरसूक्ष्मतमाऽऽदिबुद्धिना पर्यायनयेन स्थूलरूपं त्यजता व्युत्क्रान्तंगृहीत्वा मुक्त, किमिदं मृत्सामान्यं, यद्घटाऽऽदिविशेषानुपरक्तविषयीभवदन्त्यमाकारेण(?) यावच्छुक्लरूपतमोऽन्त्यो विशेषस्तावत्तत्सर्वं द्रव्यार्थिकस्य वचनीयमतो यावदपश्चिमविकल्पनिवचनो योऽत्यो विशेषस्तावद् द्रव्योपयोगः प्रवर्तते इति द्वितीयोऽर्थः / अत एव द्रव्यपर्यायविषयतया, तदितराविषयतया वा न शुद्धजातीयद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक व्यवस्था, किं तूपसर्जनीकृतानर्थप्रधानीकृतस्वार्थविषयतया। तदुक्तम्"दव्वडिओ त्ति तम्हा, णत्थि णओ नियमसुद्धजाईओ। ण य पज्जवडिओ णाम को अभयणाय उ विसेसो // 6 // " भजनोपसर्जनप्रधानभावावगाहनादसामान्यसंग्रहेऽपि शुद्धद्रव्याथकान्तिको न स्यादिति चेन्न, स्थादेवं पर्यायनयविचारानवतारदशायामेव तस्य शुद्धत्वव्यवस्थितेः, तदवतारे तु पूर्वप्रवृत्तद्रव्यार्थिकाप्रामाण्यनिश्चयेन तदर्थाभावस्यैव निश्चयात्। तदुक्तम्"दव्वट्ठिअवत्तव्यं, अवत्थु णियमेण होइ पज्जाए। तह पज्जववत्थु अव-त्थुमेव दव्वट्टिअणयस्स॥१०॥" (सम्म०१ काण्ड) अवस्तु इतरनयप्राधान्योपस्थितिजनितं नयाप्रामाण्यनिश्चयकृताऽवस्तुत्वनिश्वयविषयः, तस्मात्पर्यायविनिर्मुक्तप्रकारताकस्य पर्यायनिष्टोपसर्जनत्वस्य विषयताकस्य वा द्रव्यार्थिकस्य तत्तत्तापनीतस्वार्थविचारदशायामेव शुद्धत्वं, पर्यायनयाऽऽयातभावाऽऽकालाया चाशुद्धत्वमिति विवेकः / नयो०। अथ नवसु नयेषु प्रथमो द्रव्यार्थिकनय उक्तः, अतस्तस्या भेदा दश, तेषु प्रथमं भेद विवरीषुराहद्रव्यार्थिकनयस्त्वाद्यो, दशधा समुदाहृतः। शुद्धद्रव्यार्थिकस्तत्र, ह्यकर्मोपाधितो भवेत् ||6|| (द्रव्यार्थिकति ) द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाऽऽदिक्रमेण नया नव वर्तन्ते, तेषु आद्यः प्रथमो द्रव्यार्थिको नयः दशधा दशप्रकारः समुदाहृतः, तत्र च प्रथमो द्रव्यार्थिकनयः शुद्धद्रव्यार्थिक इति अकर्मोपाधितः कर्मणामुपाधितो रहितः शुद्धद्रव्यार्थिकः कथ्यते। सद् द्रव्यम् / लक्षणं त्विदम्सीदति स्वकीयान गुणपर्यायान् व्याप्नोतीति सत्, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सद, अर्थक्रियाकारिच सत्। यदेवार्थक्रियाकारितदेव परमार्थसत्, यच नार्थक्रियाकारितदेव परतोऽप्यसत्, इति निजनिजप्रदेशसमूहैरखण्डवृत्तात्स्वभावविभावपर्यायाद् द्रवति, द्रोष्यति, अदुद्रुयत् इति द्रव्यम्। गुणपर्याय-बद् द्रव्यम, गुणाश्रयो द्रव्यं वा / यदुक्तं विशेषाऽऽवश्यकवृत्ती "दवए दुयए दोरवयवो विगारो गुणाण संदावो। दवं भव्वं भावस्स भूअभावं च जं जोग॥२८॥" ('दव्य' शब्देऽनुपदमेवास्याः 2462 पृष्ठे व्याख्या गता) द्रवति तो स्तान्पर्यायान प्राप्नोति मुञ्चति वा 1 / द्रूयते स्वपर्यायरेव प्राप्यते मुञ्चते वा 2 / द्रुः सत्ता.तस्या एवावयवो विकारो वेति द्रव्यम्। 34| अवान्तरसत्तारूपाणि द्रव्याणि महासत्ताया अवयवो विकारो भवत्येवेति भावः / गुणाः रूपरसाऽऽदयः, तेषां संद्रावः समूहो घटाऽऽदिरूपो द्रव्यम् 5 / तथा (भव्वं भविस्सति) भविष्यतीति भावः, तस्य भाविनः पर्यायस्य योग्यं यद्व्यं तदपि द्रव्यम्, राजपर्यायाहकुमारवत् 6 / तथा भूतं हि पश्चात्कृतो भावः पर्यायो यस्य तदपि द्रव्यम्। इति दिक् / तदेव द्रव्यमर्थः प्रयोजनं यस्यासौ द्रव्यार्थिकः, अस्त्यर्थे ठक् प्रत्ययः / शुद्धः कर्मोपाधिरहितश्वाऽसौ द्रव्यार्थिकश्व शुद्धद्रव्यार्थिक इति // अथ तस्य द्रव्यार्थिकस्य शुद्धताया विषय दर्शयन्नाहयथा संसारिणः सन्ति, प्राणिनः सिद्धसन्निभाः। शुद्धाऽऽत्मानं पुरस्कृत्य, भवपर्यायतां विना / / 10 / / उत्पादव्यययोर्गौणे, सत्तामुख्यतयाऽपरः। शुद्धद्रव्यार्थिको भेदो, ज्ञेयो द्रव्यस्य नित्यवत् // 11 // प्राणा द्रव्यभावभिन्नाः सन्ति येषां ते प्राणिनः / संसारो गतिचतुष्काऽऽविर्भावः, सोऽस्ति येषा ते संसारिणः / यथा येन प्रकारेण शुद्धाऽऽत्मत्वाऽऽदिलक्षणेन, सिद्धसन्निभाऽष्टकर्मनिर्मुक्तजीवनिभा विद्यन्ते। किं कृत्वा सन्ति? शुद्धाऽऽत्मानं मूलभावं, तथा सहजभावं शुद्धाऽऽत्मनः स्वरूप, पुरस्कृत्याग्रे कृत्वा, कथम्? विना केन विना? भवपर्यायता, भवः संसारस्तस्य पर्यायो भावस्तत्ता भवपर्यायता, ता विना। एतावता या चाऽनादिकालिकी जीवस्य संसारावस्था वर्तते, सा प्रस्तुताऽपि न गण्यते / अविद्यमानोऽपि बाह्याऽऽकारेण सिद्धाऽऽकारः, तथाऽपि गृह्यतेऽन्तर्विद्यमानत्वात्। तदायमात्मा शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सिद्धसम एवास्तीति भावः / अत्र भावमात्रपरा द्रव्यसंग्रहगाथा'मग्गणगुणठाणेहि, चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया / / 1 / / / / 10 / / (उत्पादेति) उत्पादस्य व्ययस्य च गौणतायां, तथा सत्ताया ध्रवात्मकतायाश्च मुख्यतायाम्, अपर इति द्वितीयो भेदः शुद्धद्र-वयार्थिकस्य ज्ञेयः। यतः उत्पादव्यययोर्गौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुद्धद्रव्यार्थिको नाम द्वितीयो भेदः२। अस्य मते द्रव्यं नित्यं गृह्यते, नित्यं तु कालत्रयेऽप्यविचलितस्वरूप, सत्तामादायैवेदं युज्यते, कथम्? पर्यायाणां प्रतिक्षणं ध्वंसिनां परिणामित्वेनान्त्यित्वोलब्धेः परं तु जीवपुद्गलाऽऽदिद्रव्याणां सत्ता अव्यभिचारिणी नित्यभावमवलम्ब्य त्रिकालाविचलितस्वरूपाऽवतिष्ठते, ततो द्रव्यस्य नित्यवदिति द्रव्यस्य नित्यत्वेन द्वितीयो भेदः / / 11 / / अथ तृतीयभेदमुपदिशन्नाहकल्पनारहितो भेदः, शुद्धद्रव्यार्थिकाऽभिधः। तृतीयो गुणपर्यायादभिन्नः कथ्यते ध्रुवम् / / 12 / / भेदः कल्पनया रहितः कल्पनारहितस्तृतीयो भेदः शुद्धद्रव्यार्थि कनामाऽस्ति 3 / यथा जीवद्रव्य, पुद्गलाऽऽदिद्रव्यं च निजनि
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________________ दव्वट्ठिय २४७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वट्ठिय ज गुणपर्यायभ्यश्चाभिन्नमस्ति, यद्यपि भेदो वर्तते द्रव्याऽऽदीनां गुणपयिभ्यः, तथाऽपि भिन्नविषविण्यर्पणा न कृता, अभेदाख्यैवार्पणा कृता, अतः कारणाद्यद्यद्रव्यं तत्तद्रव्यजन्यगुणपर्यायाभिन्नं तिष्ठति। यदेव द्रव्यं तदेव गुणो, यदेव द्रव्यं तदेव पर्यायो, महापटजन्यखण्डपटवत्तदात्मकत्वात्। अत्र हि विवक्षावशाद भिन्नाभिन्नत्वं शेयमिति / / 12 / / अथ चतुर्थ भेदमाहकर्मोपाधेरशुद्धाऽऽख्यश्चतुर्थो भेद ईरितः। कर्मभावमयस्त्वात्मा, क्रोधी मानी तदुद्भावात् / / 13 / / (कर्मेति) कर्मोपाधेः सकाशात् कर्ममिश्रजीवद्रव्यस्याशुद्धत्व जायते, ततः कर्मोपाधेरशुद्धद्रव्यार्थिकश्चतुर्थो भेदः कथितः / यतः कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिक इति भेदः / अस्य च लक्षणं कथयति-यथा कर्मभावमयः कर्मणां ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनां भावाः प्रकृतयस्ते प्रचुरा यत्रेति कर्मभावमयः, आत्मा तादृग्रुपो लक्ष्यते। येन येन कर्मणा आगत्य आत्मा निरुद्धयते, तदा तत्तत्कर्मस्वभावतुल्यपरिणतः सन व्यवयिते, यतः कोधोदयाद् जीवः क्रोधीति व्यपदिश्यते, मानकर्मोदयाजीवो मानीति व्यपदिश्यते / एवं यदा यद् द्रव्य येन भावेन परिणमति, तदा तद् द्रव्यं तन्मयं कृत्वा ज्ञेयम्। यथालोहोऽग्निना परिणतो यदा काले प्राप्यते तदा अग्निरूप एतोद्भाव्यते, न तु लोहरूपः / एवमात्माऽपि मोहनीयाऽऽदिकर्मोदयेन यदा क्रोधाऽऽदिपरिणतः स्यात् तदा क्रोधाऽऽदिरूप एव बोद्धव्यः। अत एवाष्टावात्मनो भेदाः सिद्धान्ते व्याख्याता इति। अथ पञ्चमं भेदमाहउत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिकोऽग्रिमः। एकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्ययुक् / / 14 / / उत्पादव्ययसापेक्षः पञ्चमो भेदोऽशुद्धद्रव्यार्थिको ज्ञेयः / यतःउत्पादव्ययसापेक्षः सत्ताग्राहकोऽशुद्धद्रव्यार्थिकःपञ्चम इति / / यथा एकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपं कथ्यते / कथं तद्? यः कटकाऽऽद्युत्पादसमयः स एव केयूराऽऽदिविनाशसमयः, परंतु कनकसत्ता कटककेयूरयोः परिणामिन्यावर्जनीयैव। एवं सति त्रैलक्षण्यग्राहकत्वेनेदं प्रमाणवचनमेव स्यान्न तु नयवचनमिति चेन्न / मुख्यगौणभावेनैवानेन नयेन लक्षण्यग्रहणान्मुख्यनयं स्वस्वार्थग्रहणेन नयाना सप्तभडीमुखेनैव व्यापारात् // 14 // अथषष्ठभेदमाहभेदस्य कल्पनां गृहन्नशुद्धः षष्ठ इष्यते / यथाऽऽत्मनो हि ज्ञानाऽऽदिगुणःशुद्धःप्रकल्पनात्।।१५।। (भेदेति) अशुद्धद्रव्यार्थिकः षष्ठो भेदो भेदस्य भेदभावस्य कल्पना गृह्णन् सन् जायते, यथाहि ज्ञानाऽऽदयो गुणाः शुद्धा आत्मनः कथ्यन्ते, इत्यत्र षष्ठी विभक्तिभेदं कथयति, भिक्षोः पात्रमितिवत् / परमार्थतस्तु गुणगुणिनोभेद एव नास्ति, तस्मात् कल्पितो भेदोऽत्र ज्ञेयो, न तु साहजिकः // 15 // अथ सप्तमं भेदं कथयतिअन्वयी सप्तमश्चैकस्वभावः समुदाहृतः। द्रव्यमेकं यथा प्रोक्तं, गुणपर्यायभावितम् / / 16 / / (अन्ययीति) अन्वयद्रव्यार्थिकः सप्तमो भेद एकस्वभाव उक्तः। यथाद्रव्यं चैक गुणैः पर्यायश्च भावितं वर्तते, द्रव्यमेक गुणपर्यायस्वभावमस्ति। | गुणेषु रूपाऽऽदिषु पर्यायषु कम्बुग्रीवाऽऽदिषु द्रव्यस्य घटस्यान्वयोऽस्ति। यतस्तत्सत्त्वे तत्सत्त्वमन्वयः / अथवा-सति सद्भावोऽन्वयः / यथा-सति दण्डे घटोत्पत्तिः / अत एव यदा द्रव्यं ज्ञायते तदा द्रव्यार्थाऽऽदेशेन तदनुगतसर्वगुणपर्याया अपि ज्ञायन्ते। यथा-सामान्यप्रत्यासत्त्या परस्य सर्वा व्यक्तिरपि अवगन्तव्या, तथा अत्राऽपि ज्ञेयमित्यन्वयद्यार्थिकः सप्तम इति / / 16 / / अथाष्टमभेदोत्कीर्तनमाहस्वद्रव्याऽऽदिकसंग्राही, ह्यष्टमो भेद आहितः। स्वद्रव्याऽऽदिचतुष्केभ्यः, सन्नों दृश्यते यथा।॥१७॥ (स्वेति) स्वद्रव्याऽऽदिग्राहको द्रव्यार्थिकोऽष्टमो भेदः कथितः। यथाअर्था घटाऽऽदिः स्वद्रव्यतः स्वक्षेत्रतः स्वकालतः स्वभावतः सन्नेव प्रवर्तते / स्वद्रव्याद घटः काञ्चनो, मृन्मयो वा / / 1|| स्वक्षेत्राद् घटः पाटलिपुत्रो, माथुरो वा / / 2 / / स्वकालाद् घटो वासन्तिको, गैष्मो वा / / 3 / / स्वभावात् घटः श्यामो, रक्तो वा / / 4 / / एवं चतुर्ध्वपि घटद्रव्यस्य सत्ता प्रमाणसिद्धेवाऽस्ति / स्वद्रव्यीऽऽदिग्राहको द्रव्यार्थिकोऽटमो भेद इति ज्ञेयम् // 17 // अथ नवम भेदमाह-- परद्रव्याऽऽदिकग्राही, नवमो भेद उच्यते / परद्रव्याऽऽदिकेभ्योऽसन्नर्थःसंभाव्यते यथा।|१८|| तेषु द्रव्यार्थाऽऽदिषु परद्रव्याऽऽदिग्राहको द्रव्यार्थिको नवमः / / 6 / / यथाऽर्थो घटाऽऽदिः परद्रव्याऽऽदिचतुष्टयेभ्योऽसन् वर्त्तते / घटापेक्षया परद्रव्यं पटः, अतस्तन्त्वादिभ्यो घटोऽसन्नस्ति॥१॥ परक्षेत्राद् यथाघटो माथुरो वर्त्तते, न काशीजः, किंतु घटक्षेत्रं मथुरा, तदपेक्षया काशी भिन्ना। अत एव परक्षेत्रात्काशीलक्षणादसन्घटः ।।सा परकालाद् यथाघटो वसन्ते निष्पन्नोऽतो वासन्तिको घटः, वसन्तापेक्षया ग्रेष्मो भिन्नस्ततो ग्रीष्मकालजाद्वासन्तिको घटोऽसन् / / 3 / / परभावाद्विवक्षितश्यामाऽऽदिभावापेक्षया रक्तो घटोऽसन् वर्तते / / 4 / / एवं परद्रव्याऽऽदिग्राहको द्रव्यार्थिको नवमः।।१८।। अथ दशमभेदोत्कीर्तनमाहपरमभावसंग्राही, दशमो भेद आप्यते / ज्ञानस्वरूपकस्त्वात्मा, ज्ञानं सर्वत्र सुन्दरम् / / 16 / / परमभावसंग्राही परमभावग्राहको दशमो भेदः कथितः / / 10 / / यथाज्ञानस्वरूपक आत्मा ज्ञानस्वरूपी कथितः, दर्शनचारित्र-वीर्यलेश्याऽऽदयो ह्यात्मनो गुणा अनन्ताः सन्ति , परं तु तेषु एकं ज्ञानं सारतर वर्तते / अन्यद्रव्येभ्य आत्मनो भेदो ज्ञानगुणेन दर्शयिष्यते। तस्मात्कारणाच्छीघ्रोपस्थितिकत्वेनाऽऽत्मनः परमस्वभावो ज्ञानमेवाऽऽस्ते / इत्थमन्येषामपि द्रव्याणा परमभावा असाधारणगुणा गृहीतव्याः / परमभावग्राहको द्रव्यार्थिको दशम इति / अत्रानेकस्वभावाना मध्ये ज्ञानाऽऽख्यः परमस्वभावो गृहीत इति द्रव्यार्थिकस्य दश भेदाः // 16 // द्रव्या०५ अध्या द्रव्यार्थिकभेदानाहुःआद्यो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदात् त्रिधा ||6|| आद्यो द्रव्यार्थिकः / रत्ना०७ परि०। (तत्र नैगमाऽऽदीनां व्याख्याऽन्यत्र)
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________________ दव्वणय 2471 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वत्थव दव्वणय पुं०(द्रव्यनय) द्रव्यार्थिकनये, उत्त०। द्रव्यनय आह-''यथा नामाऽऽदि नाऽऽकार, विना संवेद्यते तथा। नाऽऽकारोऽपि विना द्रव्यं, सर्व द्रव्याऽऽत्मकं ततः / / 1 / / " तथाहिद्रव्यमेव मृदादि निखिलस्थासकोशकुटकपालाऽऽद्याकारानुयायि वस्तु सत्, तस्यैव तत् तदाकारानुयायिनः सद्बोधविषयत्वात्, स्थासकोशाऽऽद्याकाराणां तु मृद्रव्यातिरेकिणा कदाचिदनुपलम्भात्, तच्चोत्पादाऽऽदिसकलविकारविरहितं तथातथाऽऽविर्भावतिरोभावमात्रान्वित संमूर्छितसर्वप्रभेदनिर्भेदबीजं द्रव्यमागृहीततरङ्गाऽऽदिप्रभेदस्तिमितसरः सलिलवत्। उत्त०१ अ०) आह चदव्वपरिणाममित्तं, मोत्तूणाऽऽगारदरिसणं किं तं? उप्पायव्वयरहियं, दव्वं चिय निव्वियारंतं॥६६|| को हि नाम स्थापनानयस्याऽऽकारग्रहः? यस्माद्द्रवतीति द्रव्यमनादिमदुत्प्रेक्षितपर्यायशृङ्खलाऽऽधारं मृदादिपूर्वपर्यायमात्रतिरोभावेऽग्रेतनपर्यायमात्राऽऽविर्भावः परिणामो द्रव्यस्य परिणामो द्रव्यपरिणामः, स एव तन्मात्र, तमुक्त्वा किमन्यदाकारदर्शनं, येनोच्यते "आगारो चिय मइसद्दवत्थु / " इत्यादि? ननु द्रव्यमेव तत्, किं विशिष्टम् ? उत्पादव्ययरहितं, निर्विकारमउत्फणविफणकुण्डलिताऽऽकारसमन्वितसर्पद्रव्यवद् विकाररहितं; किं हि नाम तत्राऽपूर्वमुत्पन्नं, विद्यमानं वा विनष्ट, येन विकारः स्यादिति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 66 / / ननु कथमुत्पादाऽऽदिरहितमुच्यते, यावता साऽऽदिके द्रव्ये उत्फणविफणाऽऽदयः पर्याया उत्पद्यमाना निवर्तमानाश्च प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते? इत्याह-- आविब्भावतिरोभावमेत्तपरिणामकारणमचिंतं। निचं बहुरूवं पिय, नडो व्व वेसंतराऽऽवन्नो // 67 / / आविर्भावश्च तिरोभावश्च, तायेव तन्मात्रं, तदेव परिणामः, तस्य कारणं द्रव्यं, यथासर्प उत्फणविफणाऽवस्थयोरिति, नह्यत्रापूर्व किश्चिदुत्पद्यते, किं तर्हि? छन्नरूपतया विद्यमानमेवाऽऽविर्भवति। नाप्याविर्भूतं सद्विनश्यति, किंतुछनरूपतया तिरोभावमेवाऽऽसादयति। एवं च सत्याविर्भावतिरोभावमात्र एव कार्योपचारात्कारणत्वमस्यौपचारिकमेव / तस्मादुत्पादाऽऽदिरहितं द्रव्यमुच्यत इति / आहननु यद्येकस्वभावं निर्विकारं द्रव्यं, तहनन्तकालभाविनामनन्तानामप्याविर्भावतिरोभावानामेकहेलयैव कारणं किमिति न भवति? इत्याह–अचिन्त्यमचिन्त्यस्वभाव द्रव्यं, तेनैकस्वभावस्याऽपि तस्य क्रमेणैवाऽऽविर्भावतिरोभावप्रवृत्तिः, सर्पाऽऽदिद्रव्येष्वेकस्वभावेष्वप्युत्फणविफणाऽऽदिपर्यायक्रमप्रवृत्तेः प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति। ननु यद्येवम्, उत्फणविफणाऽऽदिबहुरूपत्वात्पूविस्थापरित्यागेन चोत्तरावस्थाऽधिष्ठानादनित्यता द्रव्यस्य किमिति न भवति? इति चेत् इत्याह-वेषान्तराऽऽपन्ननटवद् बहुरूपमपि द्रव्यं नित्यमेव / इदमुक्तं भवति-यथा नायकविदूषककपिराक्षसाऽऽदिपात्रावसरेषुवेषान्तराण्यापन्नो वेषान्तराऽऽपन्नो नटो बहुरूपः, एवमुत्फणविफणाऽऽदिभावैर्यद्यपि द्रव्यमपि बहुरूपम्, तथाऽपि नित्यमेव, स्वयमविकारित्वात, आकाशवत्, यथाहि घटपटाऽऽदिसंबन्धेन बहुरूपमप्याकाशं स्वयमविकारित्वाद् नित्यम्, एवं द्रव्यमपीति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 67 // कारणमेव च सर्वत्र त्रिभुवन विद्यते, न क्वचित् कार्यम्, यच्च कारणं तत् सर्व द्रव्यमेव, इति दर्शयन्नाह-- पिंडो कारणमिटुं, पयं व परिणामओ तहा सव्वं / आगाराइ न वत्थु, निकारणओ खपुप्फ व॥६८|| मृदादिपिण्डः कारणमिष्टं कारणमात्रमेवाभ्युपगम्यते। कुतः? इत्याहपरिणामित्वात् परिणमनशीलत्वात्, पयोवद् दुग्धवत्। यथा च पिण्डः, तथाऽन्यदपि सर्व स्थासकोशकुशूलाऽऽदिकं त्रैलोकयान्तर्गतं वस्तु कारणमात्रमेव, परिणामित्वात्, पथोवत् यद्यत् कारणं तत्सर्वं द्रव्यमेव, इति द्रव्यनयस्य स्वपक्षसिद्धिः। ननु मृत्पिण्डाऽऽदीनां कार्यभूताः स्थासकोशकुशूलघटाऽऽदयः प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते, संबन्धिशब्दश्च कारणशब्दः सर्वदैव कार्यापेक्ष एव प्रवर्तते, तत्कथं कारणमात्रमेवाऽस्ति, नकार्यम्? इति चेत्। नैवम्, आविर्भावतिरोभावमात्र एव कार्योपचारात्, उपचारस्य चावस्तुत्वात्। इति स्वपक्षं व्यवस्थाप्य परपक्षं दूषयितुमाह-- (आगारेत्यादि) द्रव्यमात्र विहाय स्थापनाऽऽदिनवैर्यदाकाराऽऽदिकमभ्युपगम्यते. तत् सर्वमवस्तु / कुतः ? इत्याह-निष्कारणत्वात् कारणमात्ररूपतयाऽनभ्युपगमात्, तदभ्युपगमे त्वस्मत्पक्षवर्तित्वप्रसङ्गात्, इह यत् कारणं न भवति तद् न वस्तु, यथा गगनकुसुमम्, अकारणं च परैरभ्युपगम्यते सर्वमाकाराऽऽदिकम्, अतो वस्तु। इति गाथाऽर्थः // 68 // विशे० दव्वणाम न० (द्रव्यनामन्) द्रव्यलक्षणेऽर्थे , अनु०॥ तच्च "से किं तं दव्वणामे? दवणामे छविहे पण्णते / तं जहा-धम्मस्थिकाए० जाव अद्धासमए य। सेत्तं दवणामे।" अनु०॥ दव्वतो अव्य० (द्रव्यतस्) भावशून्यत्वेनाप्रधानतयाऽयथार्थमि-त्यर्थे , पञ्चा०१६ विव०। दव्वत्त न०(द्रव्यत्व) द्रवति ताँस्तान् पर्यायान् गच्छतीति द्रव्यं, तस्य भावस्तकम्। द्रव्यभावे, द्रव्या० द्रव्यत्वं द्रव्यभावत्वं, पर्यायाऽऽधारतोन्नयः। प्रमाणेन परिच्छेद्यं, प्रमेयं प्रणिगद्यते // 3 // द्रवतिताँस्तान्पर्यायान् गच्छतीतिद्रव्यं, तस्य भावस्तत्त्वम्। द्रव्यभावो हि पर्यायाऽऽधारताऽभिव्यङ्गचजातिविशेषः / "द्रव्यत्वं जातिरूपत्वाद् गुणो न भवति," ईदृक् नैयायिकाऽऽदिवासनया आशङ्का न कर्त्तव्या, यतः-"सहभाविनो गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः।" इदृश्येव जैनशासने व्यवस्थाऽस्तीति / द्रव्यत्वं चेद् गुणः स्याद्रूपाऽऽदिवदुत्कर्षापकर्षभागि स्यादिति तु कुचोद्यम्, एकत्वाऽऽदिसंख्यायाः परमतेऽपि व्यभिचारेण तथा व्याप्त्यभावादेव निरसनीयम्॥३॥ द्रव्या०११ अध्या०। दव्वत्थव पुं०(द्रव्यस्तव) द्रव्ये द्रव्यविषयः स्तवः पूजा द्रव्यस्तवः। भावस्तवकारणभूते स्तवभेदे, पञ्चा०। स चदव्वे भावे य थओ, दव्वे भावथयरागओ सम्म / जिणभवणाऽऽदिविहाणं, भावथओ चरणपडिवत्ती।।२।। द्रध्ये द्रव्यविषयः, भावस्तव कारणभूत इत्यर्थः / भावे भावविषयः पारमार्थिकः, परिणामविशेषरूपो वेत्यर्थः / चशब्दः समुथये / स्तवः स्तोतव्यपूजनं, भवतीति गम्यम् / तत्राऽऽद्यं तावदाह-द्रव्ये द्रव्य-विषयः स्तवः। क इत्याह-(जिणभवणाऽऽइ
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________________ दव्वत्थव 2472- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वत्थव विहाणं) अर्हद् गृहप्रतिमाऽऽदीनां करणम्, उपलक्षणत्वात्कारणं च / कथं? सम्यगागमनीत्या। कुतः?भावस्तवरागतः सर्वविरतिबहुमानात। चरणं हि निर्वाणैकहेतुत्वाचरणं, ततस्तत्प्राप्त्युपायश्च द्रव्यस्तव इति विधेयोऽसावित्येवंरूपादिति। अथ भावस्तवस्वरूपमाह-भावस्तवः परमार्थपूजनमध्यात्मपूजा वा। क इत्याह-चरणप्रतिपत्तिः-सर्वविरत्यभ्युपगमः। इतिगाथाऽर्थः / / 2 / / अथ द्रव्यस्तवलक्षणं प्रपञ्चयन्नाहजिणभवणविंबठावण-जत्तापूजाऽऽइ सुत्तओ विहिणा। दव्वत्थओ त्ति नेयं, भावत्थयकारणत्तेण // 3 // जिनस्याहतो भवनं च गृहं, बिम्बं च प्रतिमा, स्थापनं च प्रतिष्ठा, यात्रा चाष्टाहिका महिमा, पूजा च पुष्पाऽऽद्यर्चनम्, आदिर्यस्य / जिण्गुणगानाऽऽदेस्तज्जिनभवनबिम्वस्थापनयात्रापूजाऽऽदि / द्रव्यस्तव इति ज्ञेयमिति योगः। तच न यथा-कथञ्चिदित्याह-सूत्रत आगममाश्रित्य, तदपि विधिना। "जह रेहइ तह सम्म" इत्यादिना विधानेन द्रव्यस्तवो भावस्तवकारणभूतपूजा, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः / ज्ञेयं ज्ञातव्यम्। केन हेतुनेत्याह-भावस्तवकारणत्वेन चरणप्रतिपत्तिरूपभावस्तवहेतुत्वात / द्रव्यशब्दो ह्यात्र कारणपर्यायाः। इति गाथाऽर्थः / / 3 / / कथं पुनरिदं जिनभवनाऽऽदि भावस्तवहेतुतां प्रतिपद्यत इत्याहविहियाणुट्ठाणमिणं, ति एवमेयं सया करें ताणं / होइ चरणस्स हेऊ, णो इहलोगादवेक्खाए ||4|| विहितमाप्ताऽऽगमे विधेयतयाऽनुमतं यदनुष्ठान क्रिया तद्विहिता-- नुष्ठानम्, इदं जिनभवनाऽऽदिकरणलक्षणम्, इति अनेनोल्लेखेन, एवमनेन भावस्तवानुरागलक्षणेन स्तवविधिलक्षणेन वा प्रकारेण / एतन्जिनभवनाऽऽदिविधानम्, सदासर्वकालम्, कुर्वता विदधताम्, भवति जायते, चरणस्य सर्वविरतिरूपचारित्रस्य, हेतुर्निमितम् / एतदेव जिनभवनाऽऽदि। उक्तविपर्यये यद्भवति तदाह-(नो) नैव / इहलोकाऽऽद्यपेक्षया ऐहभविककीर्त्यादिपारभविकदेवत्वराज्याऽऽदिपदार्थावलम्बनेन चरणरय हेतुर्भवति। एतन्जिनभवनाऽऽदिविधानं निदानदूषितत्वात् / इति गाथाऽर्थः / / 4 / / भावस्तवकारणत्वं तदनुरागश्च द्रव्यस्तवनिबन्धनमुक्तम्, तत्राऽसो यथा भावस्तवहेतु: स्यात्तथा दर्शित, न पुनस्तदनुराग इत्याशयाऽऽह-- एवं चिय भावथए, आणाआराहणा उरागो वि। जं पुण इय विवरीयं, तं दव्वथओ वि णो होइ / / 5 / / (एव चिय) एवमेव विहितानुष्ठानमिदमित्यभिप्रायेणेव, भावस्तवे चरणप्रतिरूपे, रागोऽपि बहुमानोऽपि, न केवलं चरणहेतुत्वमित्यपिशब्दार्थः / कुत एतदेवमित्याह-आज्ञाऽऽराधनादाप्तापेदशोनुपालनात, निर्निदानतामेव हि जिनाः समनुमन्यन्ते। उक्तविपर्ययमाह- | यज्जिनभवनाऽऽदिविधानम्, पुनरिति पूर्वोक्तार्थविलक्षणताप्रतिपादनार्थः, इति विपरीतमनन्तरोक्तविधिविपर्ययः, तम, तजिनभवनाऽऽ दिविधानम, द्रव्यस्तवोऽप्युक्तनिर्वचनो न केवल भावस्तवः, उत्सूत्रत्वात्, न भवति न जायते / इति गाथाऽर्थः / / 5 / / उक्तविधिविपरीततायामपि तद् द्रव्यस्तवो भविष्यतीत्याशङ्कयाऽऽहभावे अइप्पसंगो, आणाविवरीयमेव जं किंचि। इह चित्ताणुट्ठाणं, तंदव्वथओ भवे सव्वं // 6 / / भावे च सत्तायां पुनर्द्रव्यस्तवस्योक्तविपरीतत्वेऽपि। किं स्यादित्याहअतिप्रसङ्गोऽतिव्यातिलक्षणानिष्टाऽऽपत्तिरित्यर्थः / अतिप्रसङ्ग मेव व्यनक्ति-आज्ञाविपरीतमेव आप्तवचनविपर्यस्तमपि। एवकारस्यापिशब्दार्थत्वाद, यदित्यनुष्टानम्, किञ्चिदनियतस्वरूपम् इह स्तवविचारे, चित्रानुष्ठानं नानाप्रकाराहिंसाऽऽदिक्रिया, तदनुष्ठानम्, द्रव्यस्तवो निर्णीतशब्दार्थों, भवेत् जायेत। सर्वे समस्तम्। आज्ञाविपरीत्त्वान्निर्विशेषेण जिनभवनाऽऽदिविधानवदिति गाथाऽर्थः / / 6 / / इहार्थे परमतमाशङ्कय परिहरन्नाहजं वीयरागगामी, अह तं णणु गरहितं पि हु स एवं / सिय उचियमेव जंतं, आणाआराहणा एवं / / 7 / / यदित्यनुष्ठानम्, वीतरागगामि जिनविषयम, अथेति परप्रश्रार्थः, तदनुधानमाज्ञाविपरीतमपिद्रव्यस्तवो भवति, नपुनर्यत्किञ्चन हिंसाऽऽदिकम्, अतः कथमतिप्रसङ्ग इति परमतम / एतत्परिहरन्नाह- नन्विति) परमताक्षमायाम्, गर्हितमपि निन्द्यमपि गालीप्रदानाऽऽदिकम, आस्तामगर्हितम्। हुशब्दो वाक्यालकृतौ, स इति द्रव्यस्तवः, भवेद / एवमनेन भवदभ्युपगतन्यायेनाऽऽज्ञाविपरीतमप्यनुष्ठानं वीतरागविषय द्रव्यस्तव इत्योवंलक्षागेन / पुनः परमतमाशङ्कमान आहस्याद्भवेत्, तब मतिरिति गम्यम् / यदुत उचितमेव सङ्गतमेव, यदित्याज्ञाविरीत वीतरागगामि, तदित्यनुष्ठानं द्रव्यस्तवो भवति, न पुनगेर्हितमपीति नातिप्रसङ्गः / इत्यत्रोत्तरमाह-आज्ञाऽऽराधनाऽऽप्ताऽऽदेशपालनैव / एवमनेनैव प्रकारेणाऽऽज्ञाविपरीतमपि यदुचितमनुष्ठानं तद्रव्यस्तव इत्येवंलक्षणेन द्रव्यस्तवाभ्युपगमे आज्ञाऽनुपालनारूपत्वादुचितस्य / नाह्याज्ञातीर्णमप्युचित भवितुमर्हति। इति गाथाऽर्थः // 7 // उचितानुष्ठानस्याऽऽज्ञाऽनुपालनारूपत्वमेव दर्शयन्नाहउचियं खलु कायव्वं, सव्वत्थ सया णरेण बुद्धिमता। इय फलसिद्धी णियमा, एस चिय होइ आणं ति॥८|| उचितमेव देशकालावस्थाऽऽद्यपेक्षया सङ्गतमेव, खलुरवधारणे, कर्त्तव्यं विधेयम्, सर्वत्र समस्ते देशे, पात्रे वा। सदा सर्वदा, नरेण पुषेण। नरग्रहण प्राणिमात्रोपलक्षणम्। धर्मोपदेशे नराणां प्राधान्यात्, बुद्धिमत मतिमता, बुद्धिविकलो हि न तत् कर्तुं क्षमते, बुद्धिवैकल्यादेव। अथ करनादेवमुपदिश्यत इत्याह-इत्यनेनोचितकरणेन, फलसिद्धिः साध्यनिष्पत्तिः, नियमान्निश्चयेन, साध्यश्च मुख्यवृत्त्या मोक्षार्थः, तत्कारणतया धर्मार्थः, प्रसङ्गतश्चेतराविति। प्रकृतार्थयोजनायाऽऽह-एषैवानन्तरोक्ता उचितक्रिया, भवति वर्तत, आज्ञा आप्तोपदेशः, तत उचितकरणमाज्ञाऽऽराधनेति स्थितम / इतिशब्दः समाप्तावुपप्रदर्शने वा। इति गाथाऽर्थः / / 8 / / उचितकरण द्रव्यस्तव इत्युक्तम्, अर्थतस्यैव विपर्ययनाहजं पुण एयविउत्तं, एगंतेणेव भावसुण्णं ति।
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________________ दव्वत्थव 2473 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वत्थव तं विसयम्मि वि ण तओ, भावथयाहेउतो णेयं / / 6 / / यदित्यनुष्टानम्, पुनःशब्दो विशेषद्योतनार्थः, एतद्वियुक्तमौचित्यरहितम् / तथा एकान्तेनैव सर्वथैव, भावशून्यं बहुमानशून्यम, एकातग्रहणाद भावलेशयुक्तस्य कथञ्चिदौचित्यवियुक्तस्यापि द्रष्य तवत्वनाह, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थी भिन्नक्रमश्च / तदित्यनुष्ठानम, विषयेऽपि वीतरागेऽपि, विधीयमानम्, आस्तामविषये / न तको न द्रव्यस्तयो, भवतीति ज्ञेयं ज्ञातव्यम्। कुतः? इत्याह-भावस्तवाहेतुतः, इह भावप्रत्ययस्य लुप्तस्य दर्शनाद्भावस्तवाहेतुत्वाद्धावस्तवाकारणत्वात् / इति गाथाऽर्थः ||6|| अथ कस्मादावस्तवाहेतुभूतमनुष्ठानं द्रव्यस्तवो न भवती त्यत्राऽऽशड्कायामाहसमयम्मि दव्वसद्दो, पायं जं जोग्गयाएँ रूढो त्ति। णिरुवचरितो उ बहुहा, पओगभेदोवलंभाओ।।१०।। समये सिद्धान्ते, द्रव्यशब्दो द्रव्यमित्येष ध्वनिः, प्रायो बाहुल्येन, प्रायोग्रहणात् क्वचिद् प्राधान्येऽपि, वर्तत इति सूचनार्थः / यदिति यस्मादर्भ , अयं च ‘‘भावत्थयहऊ(१२)" इत्यनेन व्यवहितगा-- थाऽवयतन संभत्स्यते। योग्यतायां योग्यतावाचित्वे, रूढः प्रसिद्ध इत्यव सक्ष्यमा गोदाहरणन्यायेन उपचरितादुपचारान्निष्क्रान्तो निरुपचरितोऽकाल्पनिकः, तुशब्द एवकारार्थः तेन निरुपचरित एव / कुत एतदेवमित्याह-बहुधा बहुभिः प्रकारैः, प्रयोगभेदोपलम्भात् प्रयुक्तविशेषदर्शनात् / इति गाथाऽर्थः // 10 // प्रयोगभेदानेव दर्शयन्नाह-- मिउपिंडो दव्वघडो, सुसावगो तह य दव्वसाहु त्ति। साहू य दव्वदेवो,एमाइ सुए जओ भणितं / / 11 / / मृत्पिण्डो मृत्तिकापिण्डो द्रव्यघटो द्रव्यतो योग्यतया घटो द्रव्यघटः, सुश्रावकः शोभनः श्रमणोपासकः, तथा चेति समुच्चये। द्रव्यतो योग्यतया साधुव्यसाधुः / इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः / साधुश्च संयतः पुनः, द्रव्यतो योग्यतया देवः सुरो द्रव्यदेवः / (एमाइति) इह चशब्दलोपः प्राकृतत्वात्, ततश्च एवमादि च इत्यादि प्रयोगजातम्। आदिशब्दाद् द्रव्यनारकाऽऽदिग्रहः / श्रुते प्रवचने, यतो घरमाणितमुक्तम्, ततः प्रयोगभेदोपलFभाद् द्रध्यशब्दो योग्यताया रूढः। इति गाथाऽर्थः / / 11 / / यतो योग्यताया द्रव्यशब्दःता भावत्थयहेऊ, जो सो दव्वत्थओ इह इट्ठो। जो उ ण एवंभूओ, स अप्पहाणो परं होति / / 12 / / तत्तस्माद्भावस्तवहेतुश्चरणप्रतिपत्तिकारण साक्षात्परम्परया वा यो जिनभवनविधानाऽऽद्यनुष्ठानविशेषः / (सो इति) असौ द्रव्यस्तवः पूर्वोक्तस्वरूपः / इह द्रव्यस्तवाधिकारे, अन्यत्र पुनः स्तवशब्दार्थज्ञः, तत्रानुपयुक्तपुरुषाऽऽदिलक्षणोऽपि, इष्टोऽभिमतो द्रव्यस्तवस्वरूपविदुषाम् / ननु भावस्तवाहेतुरपि द्रव्यस्तवोऽभव्याऽऽदीनामिष्यते, तत्कथमित्याह यः पुनद्रव्यस्तवविशेषः,(न) नैव, एवं-भूतोऽमुंप्रकारं भावस्तवकारणत्वलक्षण प्राप्तः, स द्रव्यस्तवः, अप्रधानोऽशोभनः, परं केवलम्, भवति जायते, द्रव्यस्तवस्याप्राधान्येऽपि प्रवृत्तः, अशोभनत्वं चास्य भावस्तवाहेतुत्वादेवेति गाथाऽर्थः / / 12 / अप्राधान्यार्थतामेव द्रव्यशब्दस्य दर्शयन्नाह अप्पाहण्णे वि इह, कत्थइ दिट्ठो उदव्वसद्दो त्ति। अंगारमहगो जह, दव्वायरिओ सयाऽभव्वो॥१३|| अप्राधान्येऽप्यप्रधानत्वेऽपि, न केवल योग्यतायामेव / इह प्रवचने, क्वचित् शब्दविषये, दृष्टस्तु उपलब्ध एव, द्रव्यशब्दो द्रव्य इति ध्वनिः, इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ। इहैव निदर्शनामाह-अङ्गारमर्दकः प्रवचनप्रतीतः / यथेति दृष्टान्तार्थः / द्रव्याऽऽचार्य आचार्यत्वयोग्यताया अभावादप्रधानाऽऽचार्यः / कियन्तं कालं यावदित्याह-सदा आजन्माऽपीत्यर्थः / अथवा-सच स पुनः, अभव्यो मुक्तेरयोग्यो यत इतिगाथाऽर्थः / / 13 / / (अङ्गारमर्दकस-विधानक तु 'अंगारमद्दग' शब्दे प्र०भागे 43 पृष्ठे गतम्) "जो उन एवंभूतो, स अप्पहाणो पर होइ। (12)" इत्येवं पूर्वोक्तमर्थ निगमयन्नाहअप्पाहण्णा एवं, इमस्स दव्वत्थवत्तमविरुद्धं / / आणावज्झत्तणओ,न होइ मोक्खंगया णवरं / / 14|| अत्राधान्याद्भावस्तवाहेतुत्वेनाशोभनत्वात, एवमुक्तेन न्यायेनाप्राधान्यार्थे द्रव्यशब्दप्रवृत्तिदर्शनलक्षणेन. (इमस्त त्ति) अस्य भावस्तवाहेतोव्यस्तवस्य, द्रव्यस्तवत्वं द्रव्यस्तक्ता, अविरुद्ध सङ्गतमेव / एवं तर्हि भावस्तवहेतोस्तदहेतोश्च द्रव्यस्तवत्वाविरुद्धतायां सत्यामविशेष एव तयोः / सत्यम / नवरं केवलम्, न भवति न जायते. मोक्षाङ्गता निर्वाणहेतुता। 'इमस्स' इति वर्त्तते / कुतः? आज्ञाबाह्यत्वादाप्लवचनबहिष्कृतत्वात् / यदाज्ञाबाह्यं तन्मोक्षाई न भवति, तथाविधहिंसाऽऽदिवत, आज्ञाबाह्यश्वायंभावस्तवाहेतुर्द्रव्यस्तवः। इतिगाथाऽर्थः // 14 // यथाऽस्गादप्रधानान्मोक्षो न भवति, तथा फलान्तरमपि किं नास्तीत्याशड्याऽऽहभोगाऽऽदिफलविसेसो, उ अत्थि एत्तो वि विसयभेदेण। तुच्छो उत्तगो जम्हा, हवति पगारंतरेणावि ||15|| भोगा मनोज्ञशब्दाऽऽदयः, आदिशब्दात्स्वर्गसुकुलप्रत्ययातिशुभशरीराऽऽदिपरिग्रहः / ते एव फलविशेषः साध्यभेदो भोगाऽऽदिकफलविशेषः, पुनरस्ति भवति, इतोऽपि अप्रधानद्रव्यस्तवादपि, न केवलं प्रधानद्रव्यस्तवादेव / अथ कथमाज्ञाबाह्यानुष्ठानस्यैवं फलतेत्याशङ्कयाऽऽहविषयभेदेन गोचरविशेषेण, निखिलातिशयमाणिक्यमकराऽऽकरभगद्वीतरागलक्षणेन हेतुना, न हि भगद्विषयमाज्ञाविकलमप्यनुष्ठानम-फलम, पात्रप्राधान्यादिति। ननु यद्येवं फलमाज्ञाबाह्यानुष्ठान, तदा कथमस्याप्रधानद्रव्यस्तवतेत्यत्राऽऽह-तुच्छस्त्वल्पः पुनः,तकोऽसौ भोगाऽऽदिफलविशेषो, नाऽसी विवेकिनां फलतयाऽवभासते। कस्मादेवमित्याहयरमात कारणात्, भवति जायते, तको भोगाऽऽदिफलविशेष ति प्रकृतम्। प्रकारान्तरेणाप्युपायान्तरेणाऽपि, जिनभवनाऽऽदिव्यतिरेकेणाऽपि, बालतपःप्रभृतिभिरपीत्यर्थः / "दोर्गत्यदोषविच्छेदिमणिप्राप्तिपटीयसः / पारावाराज्जरत्काचखण्डप्राप्तिःफल किमु? / / 1 / / '' इति गाथाऽर्थः / / 15 / / अथ द्रव्यस्तवस्याऽद्रव्यस्तवतामाशङ्कय परिहरन्नाहउचियाणुट्ठाणाओ, विचित्तजइजोगतुल्ल मो एस। जंता कह दव्वथओ,तदारेणऽप्पभावाओ॥१६|| (उचियाणुट्टाणाओ) इह भावप्रत्ययस्य लुप्तत्वे नो चितानुष्ठा
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________________ दव्वत्थव 2474 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वभावतदुभयकम्प नत्वादाप्तोपदिष्ट त्वेन विहितक्रियारूपत्वाद्विचित्रयतियोगतुल्यो ग्लानप्रतिचरणस्वाध्यायाऽऽदिरूपनानाविधसाधुव्यापारसदृशोऽतिशुभ इत्यर्थः / मकारोऽत्र प्राकृतशैलीप्रभवः / एषोऽनन्तरोतो. जिनभवनविधानाऽऽदिकोऽनुष्ठानविशेषः / (यदिति) यस्मादेवम्, तत्तस्मात्, कथं केन प्रकारेण, द्रव्यस्तवो भवति। न कथञ्चिदित्यर्थः / भावस्तव एवाऽयमिति हृदयम्। अत्रोत्तरमाह-तद् द्वारेण जिनभवनाऽऽदिविधानमुखेन अल्पः साधुयोगापेक्षया स्तोको, भावः शुभाध्यवसायो यस्मात्स तथा, तस्मात, इह च भावप्रत्ययो दृश्यः, अतोऽल्पभावत्वात्। इति गाथाऽर्थः / / 16 / / अमुमेव गाथार्थ भावयन्नाहजिणभवणाऽऽदिविहाण-दारेणं एस होति सुहजोगो। उचियाणुट्ठाणं पि य, तुच्छो जइजोगतो णवरं / / 17 / / जिनभवनाऽऽदिविधानद्वारेण अर्हदाश्रयबिम्बप्रभृतिकरणमुखेन, एष द्रव्यस्तवः भवति वर्तत, शुभयोगो यतियोगवत् प्रशवस्तव्यापारः। तथाउचितानुष्ठानमपि च विहितक्रियाऽपि च जिनभवनाऽऽदिविधानद्वारेणेव / अपि चेति समुचये। यद्यप्येवं तथाऽपितुच्छोऽसारः, अल्पभावरूपत्वाद्, यतियोगतः साधुव्यापारात्सकाशात्, नवर केवलम् / यतियोगो हि स्वरूपेणैव शुभः, उचितानु-ष्ठानरूपश्चाय पुनर्जिनभवनाऽऽदिद्वारेणैव, न तु स्वरूपतः, स्वरूपेण तस्य मनागवद्यरूपत्वात् / इति गाथाऽर्थः / / 17 / / पशा०६ विव०। दर्श०। आ०म०) पं०व० प्रति० त०। दर्श०('थय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2384 पृष्ठे विशेषोऽस्य वीक्ष्यः) (द्रव्यस्तवस्य करणे करणे च श्रावकोऽधिकारीति अनुमोदने च साधुरपीति च 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1222 पृष्ठे प्रत्यपादि) अयमिहापि द्रव्यस्तवस्य संक्षिप्तोऽर्थःश्रमणानामियं पूर्णा, सूत्रोक्ताऽऽचारपालनात्। द्रव्यस्तवाद् गृहस्थानां, देशतस्तद्विधिस्त्वयम् / / 1 / / न्यायार्जितधनो धीरः, सदाचारःशुभाऽऽशयः। भवनं कारयेनं, गृही गुर्वादिसंमतः / / 2 / / तत्र शुद्धां महीमादौ, गृह्णीयाच्छास्त्रनीतितः। परोपतापरहितां,भविष्यद्भद्रसन्ततिम्॥३॥ अप्रीति व कस्याऽपि, कार्या धर्मोद्यतेन वै। इत्थं शुभानुबन्धः स्यादत्रोदाहरणं प्रभुः / / 4 / / आसन्नोऽपि जनस्तत्र, मान्यो दानाऽऽदिना यतः। इत्थं शुभाऽऽशयस्फात्या, बोधिवृद्धिः शरीरिणाम् / / 5 / / इष्टकाऽऽदि दलं चारु, दारु वा सारवन्नवम्। गवाद्यपीडया ग्राह्य, मूल्यौचित्येन यत्नतः // 6|| भृतका अपि सन्तोष्याः, स्वयं प्रकृतिसाधवः / धर्मो भावेन न व्याज्याद्धर्ममित्रेषु तेषु तु // 7 // स्वाऽऽशयश्च विधेयोऽत्रानिदानो जिनरागतः। अन्याऽऽरम्भपरित्यागाजलाऽऽदियतनावता।।८।। इत्थं चैषोऽधिकत्यागात्सदारम्भः फलान्वितः। प्रत्यहं भाववृद्ध्याऽऽप्तैवियज्ञः प्रकीर्तितः / / 6 / / जिनगेहं विधायैवं, शुद्धमव्ययनीवि च / द्राक् तत्र कारयेद्विम्बं, साधिष्ठानं हि वृद्धिमत्।।१०।। विभवोचितमूल्येन, कर्तुः पूजापुरस्सरम् / देयं तदनघस्यैव, यथा चित्तं न नश्यति / / 11 / / दा० 5 द्वारा दव्वदेवत्त न० (द्रव्यदेवत्व) साध्ववस्थायाम्, भ०१४ श०७३०। दव्वधम्म पुंगान० (द्रव्यधर्म) दानधर्मे, यो दानधर्मः स द्रव्यधर्मोऽवगन्तव्य इति। तथा चोक्तम्-'अन्नं पानंच वस्व च, आलयः शयनाऽऽसनम् / शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नवविधं स्मृतम् ||1|| सूत्र०१ श्रु०६ अ०) दव्वपिय त्रि०(द्रव्यप्रिय) द्रव्यं परिहासः, तत् प्रिये, औ०। दव्यपुरिस पुं०(द्रव्यपुरुष) पुरुषत्वेन उत्पत्स्यते यस्तस्पिन, उत्पन्नपूर्वे च / स्था०। विशेषोऽत्रैन्द्रसूत्राद् द्रष्टव्यः / भवत्यत्र भाष्यगाथा"आगमओऽणुवउत्तो, इयरो दव्वपुरिसो तिहा तइओ / एगभवियाइ तिविहो, मूलुत्तरणिम्मिओ वा वि'" // 1 // मूलगुणनिर्मित: पुरुषप्रायोग्यानि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु तदाकारवन्ति तान्यवेति भावपुरुषभेदाः / स्था०३ ठा० उ०। दव्यपोग्गलपरियट्ट पुं०(द्रव्यपुद्गलपरिवर्त्त) 7 तथा व्यविषयके पुद्गलपरिवर्ते , कर्म०५ कर्म०। पं०सं०। प्रव०। (तद् व्याख्या 'पोग्गलपरिय' शब्दे वक्ष्यते) दव्वप्पमाण न०(द्रव्यप्रमाण) द्रव्याणां गणनायाम, यथा एतावन्तोऽबौदनभेदाः, एतावन्ति च शाकविधानानि, इयन्तश्च खाद्यविशेषाः, एतावन्ति च द्राक्षापानकाऽऽदीनि पानकानि। व्य०६ उ०। अनु०। दव्वभावतदुभयकप्प पुं०(द्रव्यभावतदुभयकल्प) द्रव्यभावसंमिलिते कल्प, पं०भा०। तदुभयकप्पो अहुणा, एते च्चिय दव्वभावकप्पा तु। दोण्हि वि मिलिया एते, तदुभयकप्पो इमो सो य / / आहारे अट्ठविहे, सेजोवहि पंचपंचगविसोही। दंसणचरित्तगुत्तो, तवसमितिगुणेहिं सोहेति / / असणाऽऽदीतो चउहा, उवकारिचउव्विहो य तस्सेव। एसऽढविहाऽऽहारो, परूवणा तस्सिमा होति / / असणं तु ओदणाऽऽदी, तदुवकारी उ खीरकुसणाऽऽदी। पाणं तु पाणमेव तु, कप्पूराऽऽदी तु उवकारी।। खाइम फलाइयं तू, सूताऽदी होति तदुवकारी तु / साइम तंबोलाऽऽदी, तुण्हाऽऽदी तदुवकारी तु॥ एतं आहाराऽऽदी, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं / उप्पाएँ दंसणाऽऽदीहि जुतो अहवा तदट्ठाए।पं०भा०। इयाणिं उभयकप्पा-एए चे व दो दव्वभावकरपे य मे लिया एगट्टा य उभयक प्पो भवइ, दविय कप्पर स पुरिमद्ध, भावकप्पस्स पच्छिमद्धं / गाहा--(आहारे अट्टविहं त्ति) अट्टविहे
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________________ दव्वभावतदुभयकप्प 2475 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दव्वाणुओगतक्कणा आहारे असणे मूलगुणसुद्धे, उत्तरगुणसुद्धे य / एवं पाणे, एवं खाइमे | जलादन्येषां प्राणिनामनुपरोधेनाऽव्यापादनेन द्रव्यस्नानं बाह्यस्नानमूलगुणउत्तरगुणसुद्धे, एवं सादिमे सेञ्जोवहीणं, एमेव पंचपंचगविसोही, मित्यर्थः / ध०२ अधिक। भावओय सणचरित्ततवाइगुणेहिं सोहेइ / एस उभयकप्पो पं०चू०। दवसील न० (द्रव्यशील) चेतनाचेतनाऽऽदेव्यस्य स्वभावे, सूत्र०१ दव्वभूय पुं० (द्रव्यभूत) अनुपयुक्ते, नि०चू०२उ०। श्रु०७अ०॥ दव्यरासि पुं०(द्रव्यराशि) पुरीषाऽऽदिद्रव्यसमूहे. प्रश्न०५ संव० द्वार। | दव्वसुद्धन०(द्रव्यशुद्ध) उद्गमाऽऽदिदोषरहिते द्रव्ये, भ०१५ श०। प्राशुके. दव्वलिंग न (द्रव्यलिङ्ग) भावविकलत्वेनाप्रधानप्रव्रजिताऽऽदिनेपथ्य- विपा०२ श्रु०१ अ०॥ चरणलक्षणे वेषे, पञ्चा०४ विवण जी। दव्वहलिया स्त्री०(द्रव्यहलिका) कुहडाऽऽख्यवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। दव्वलिंगधर पुं०(द्रव्यलिङ्गधर) विडम्बकप्राये, पं०व० 4 द्वार। दव्वहोमा स्त्री०(द्रव्यहोना) नानाविधैर्द्रव्यैः कणवीरपुष्पाऽऽदिद्रव्यलिङ्गी जानानो यदि स्वयं महाव्रतीभूय विहरति, तदाऽऽराधको भिर्मधुघृताऽऽदिभिर्वोच्चाटनाऽऽदिकैः कार्यैः होमो हवनं यस्यां सा भवति, न येति प्रश्रे, उत्तरम्-गुर्वादिसामग्यभावे यदि स्वयं महाव्रतीभूय द्रव्यहोमा तस्याम्, सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ विहरति, त्दाऽऽराधकः, अन्यथा नेति / 123 प्र०। सेन०१ उल्ला०। दव्याणंतय न०(द्रव्यानन्तक) जीवद्रव्याणां पुद्गलद्रव्याणां वायदनन्तक द्रव्यलिदिनो द्रव्यजिनप्रासादे वा प्रतिमायां वा जीवदयायां वा ज्ञानकोशे तस्मिन्, स्था०१० ठा०। वा कुत्र कुत्र व्यापार्यते? इति प्रश्ने, उत्तरम्-द्रव्यालिङ्गिनो द्रव्यजिनाना दव्वाणुओग पुं०(द्रव्यानुयोग) षड् द्रव्यविचारे, द्रव्या०१ अध्या०। प्रासादे प्रतिमायां च नोपयोगः, जीवदयायां ज्ञानकोशे चोपयोगीति आचा०। ('दवियाणुओग' शब्दे 2462 पृष्ठे व्याख्याऽस्य) ज्ञातमस्ति 163 प्र०ा सेन०३ उल्ला० दव्वाणुओगतकणा स्त्री०(द्रव्यानुयोगतर्कणा) द्रव्यगुणपर्यायविचारे, दव्यलेस्सा स्त्री०(द्रव्यलेश्या औदारिकशरीराऽऽदिवणे, भ०१श०६ उ० तत्प्रतिपादके ग्रन्थे च / द्रव्याला दव्वलोय पुं०(द्रव्यलोक) लोकभेदे, भ०११ श०१० उ०। ("लोग'' श्रीयुगाऽऽदिजिनं नत्वा, कृत्वा श्रीगुरुवन्दनम्। शब्द व्याख्यास्यते चैषः) आत्मोपकृतये कुर्वे , द्रव्यानुयोगतर्कणाम् / / 1 / / दव्ववणाऽऽहरण पुं०(द्रव्यव्रणोदाहरण) क्षतज्ञाते, पञ्चा० 16 विव०। विना द्रव्यानुयोगोहं, चरणकरणाऽऽख्ययोः। दव्ववय पुंक (द्रव्यव्यय) द्रव्यव्यये, सेन०। सप्तक्षेत्रमुक्तद्रव्यान्तः सारं नेति कृतिप्रेष्ठ, निर्दिष्टं सम्मत्तौ स्फुटम् / / 2 / / साधुसाध्वीद्रव्यस्य व्ययः साधुसाध्वीनां कस्मिन् स्थाने योज्यते (श्रीयुगाऽऽदीत्यादि) तत्र प्रथममिष्टदेवतानमस्करणेन सप्रयोश्राद्धेरिति प्रश्ने, उत्तरम्-सप्तक्षेत्रीमुक्तद्रव्यस्य व्ययः साधुसाध्वी जनाभिधेयो दर्शितः। आद्यपदद्वयेन मङ्गलाऽऽचरण, नमस्कारकरणं च क्षेत्रयोरापत त्राणवैद्याऽऽनयनमार्गसाहाय्यकरणाऽऽदिषु श्राद्धः कार्यत 1 / आत्मार्थिन इहाधिकारिणः२ / तेषामर्थबोधो भविष्यतीत्युपइति। 372 प्र०ा सेन०३ उल्ला०| काररूप प्रयोजनम् 3 / द्रव्याणामनुयोगेऽत्राधिकारः। अथ द्रव्यानुयोग दव्ववेयपुं०(द्रव्यवेद) स्त्रीपुंसोनपुंसकस्य च बाह्ये आकारे, कर्म०४ कर्म०। इति कः शब्दार्थः? अनुयोगो हि सूत्रार्थयोव्याख्यानम्, तस्य चत्वारो दव्वसंभारियन०(द्रव्यसंभारित) द्रव्यैः कर्पूरपाटलाऽऽदिभिः संभारित भेदाः। तत्र प्रथमश्वरणानुयोगः, आचाखचनमाचाराङ्गऽऽदिसूत्राणि 11 वासितं द्रव्य.संभारितम् / कर्पूरपाटलाऽऽदिवासिते जले, बृ०२उ०। द्वितीयो गणितानुयोगः संख्याशास्त्र, चन्द्रप्रज्ञप्त्यादिसूत्राणिशतृतीयो दव्वसंमत्त -०(द्रव्यसम्यक् त्व) अनाभोगवदुचितमात्रे सम्यक त्वे, धर्मकथानुयोगः-आख्यायिकावचनम्, ज्ञाताधर्मकथाऽङ्गाऽऽदिसूत्राणि "जिनवयण मेव तत्तं, एत्थ रुई होइ दव्वसम्मत्त / ' जिनवचनमेव तत्व 3 / चतुर्थो द्रव्यानुयोगः षड् द्रव्यविचारः, सूत्रकृताङ्गाऽऽदिसूत्राणि, नान्यदित्य रुचिर्भवतीति द्रव्यसम्यक् त्वम्। पं००४ द्वार। ध० / संमति-तत्त्वार्थप्रमुखप्रकरणानि चमहाशास्त्राणि, ततोऽन्त्यभेदविचारदव्वसमय पुं(द्रव्यसमय) द्रव्यस्य सम्यगयन द्रव्यचसमयः। द्रव्य णामहं कुर्वे / / 1 / / (विना द्रव्येति) द्रव्यानुयोगोहं द्रव्यगुणपर्यायवि-चार परिणतिविश्षे. सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ०। विना चरणकरणयोः सारं न, चरणसप्तत्याः करणसप्तत्याश्च सार केवलं दव्वसार पुं० द्रव्यसार) द्रव्यलक्षणसारे, प्रश्न०५आश्र० द्वार। द्रव्यानुयोग एव, इत्ययं निष्कर्षः / सम्मतिग्रन्थे स्फुटं प्रकट, कृतिप्रेष्ठ दव्वसिणाण न०(द्रव्यस्नान) बाह्यस्नाने,धा द्रव्यस्नानं वपुः बुधजनवल्लभं,निर्दिष्ट कथितं, बुधा एव जानते, न तु बाह्यदृष्टयः / यतःपावित्र्यसुख्करत्वाऽऽदिना भावशुद्धिहेतुः। उक्तं चाष्टके "चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं, "जलेन देहदेशस्य, क्षणं यच्छुद्धिकारणम्। णिचयसुद्धं न याणंति" // 67 / / (सम्म०३काण्ड) इतीयं गाथा सम्मती प्रायोऽन्यानुपराधेन, द्रव्यस्नानं तदुच्यते / / 1 / / " कथिता, अतश्चरणकरणानुयोगमूल इहोपायो द्रव्यानुयोग एव उक्तः / देहदेशस्य त्वङ्मात्रस्यैव, क्षणं न तु प्रभूतकालं, प्रायः शुद्धिहेतुर्न द्रव्या०१अध्यान त्वेकान्तेन, तादृग् रोगग्रस्तस्य क्षणमप्यशुद्धः, प्रक्षालनार्हमलादन्यस्य | गुणानां हि विकाराः स्युः, पर्याया द्रव्यपर्यवाः। मलग्य कनासाऽऽधन्तर्गतस्यानुपरोधेनाप्रतिषेधेन / यद्वा-प्रायो इत्यादि कथयन् देवसेनो जानाति किं हृदि?||१७||
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________________ दव्वाणुओगतक्कणा 2476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दस इत्थं पदार्थाः प्रणिधाय मूर्धिन, दव्वायरिय पुं०(द्रव्याऽऽचार्य) आचार्यत्वयोग्यताया अभावादपरीक्षिता ज्ञानगुरोः सदाज्ञाम्। प्रधानाऽऽचार्य , पञ्चा०६ विव०। तुच्छोक्तिमुत्सृज्य विमोहमूला दव्वालंकार पुं०(द्रव्यालङ्कार) स्वनामख्याते ग्रन्थे, यत्र चार्वाकम-- महत् क्रमाम्भोजरतेन सर्वे // 18 // तखण्डनं कृतम्। स्या०। गुणविकाराः पर्याया एवं कथयित्वा तेषां भेदाधिकारे पर्याया द्विविधाः- | दव्वावइ स्त्री०(द्रव्याऽऽपत्) कल्पनीयाऽशनाऽऽदिद्रव्यदुर्लभतापाम्, द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्चेति कथयंश्च देवसेनो दिगम्बराऽऽचार्यो नयचक्र- जीता ग्रन्थकर्ता हृदि चित्ते किं जानाति? अपि तु संभावितार्थ न किमपि दव्वावस्सय न०(द्रव्याऽऽवश्यक) द्रव्यरूपमावश्यकं प्रकृतं, तत्राऽऽवजानातीत्यर्थः / पूर्वापरविरुद्धभाषणादसत्प्रलापप्नाय एवेदमित्यभि- श्यकोपयोगाधिष्ठितः साध्वादिदेहाऽवन्दनकाऽऽदिसूत्रोच्चारणलक्षणप्रायः / किञ्चद्रव्यय-या एव कथनीयाः, परं तु गुणपर्याया इति पृथग् श्वाऽऽगम आवर्तकाऽऽदिका क्रिया चाऽऽवश्यकमुच्यते, आवश्यकोपभेदोत्कीतन न कर्त्तव्यं, द्रव्ये गुणत्वाधिरोपाद, गुणे च गुणत्वाभावादिति योगशून्यस्तुता एव देहाऽऽगमक्रिया द्रव्याऽऽवश्यकम्। तस्मिन्, अनु०॥ निष्कर्षः // 17|| इत्थमनया रीत्या पदार्था द्रव्यगुणपर्यायाः परीक्षिताः | दविंद पुं०(द्रव्येन्द्र) इन्द्रभेदे, स्था०३ ठा०१उ०(व्याख्या तु 'इंद' स्वरूपलक्षणभेदाऽऽदिकथनेन विशदीकृताः। किंकृत्वा? ज्ञानगुरोः शब्दे द्वितीयभागे 533 पृष्ठे गता) परम्पराऽऽगत श्रुताऽऽचार्यस्य, सदाज्ञां सत्यनिदेश, मूर्द्धि मस्तके, | दटिवय पुं०(दैविक) देवेन कृतोपद्रवे, व्य०२ उ०। निधाय संस्थाप्या पुनः किंकृत्वा? विमोहमूलां भ्रमनिबन्धना, तुच्छोक्तिं | दव्यी स्त्री०(दी) भाजनविशेषे, आचा०१श्रु०१चू०१अ०६उ०। आव०॥ तुच्छबुद्धिप्रणीतवचनम्, उत्सृज्यापाकृत्य / कीदृशेन मया? अर्हत् पिं०। प्रज्ञा क्रमाम्भोजरतेन वीतरागचरणकमलसेवनरसिकेन, सर्वे पदार्था मया दव्वीअर पुं०(देशी) सर्प, दे०ना०५ वर्ग 37 गाथा। परीक्षिता इत्यर्थः / भोजेति नामनिरूपण चेति / / 18|| द्रव्या०१४ दव्वीकर पुं०(दर्वीकर) दीव दर्वी फणा तत्करणशीलो दर्वी कराः। अध्या० अहिभेद, प्रज्ञा०। द्रव्याऽऽदिकानां तु विचारमेवं, दर्वीकरभेदानभिधित्सुराहविभावयिष्यन्ति सुमेधसो ये। से किं तं दव्वीकरा? दव्वीकरा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा प्राप्स्यन्ति ते सन्ति यशांसि लक्ष्म्यः, आसीविसा, दिट्ठीविसा, उग्गविसा, भोगविसा, तयाविसा, सौख्यानि सर्वाणि च वाञ्छितानि।।१।। लालाविसा, उस्सासविसा, णिस्सासविसा, कण्हसप्पा, गुरोः श्रुतेश्चानुभवात्प्रकाशितः, सेट्ठसप्या, कउदरा, दब्भपुप्फा, कोलाहा, मेलिमिंदा, सेसिंदा, परो हि द्रव्याऽऽद्यनुयोग आन्तरः। जे यावण्णे तहप्पगारा ! सेत्तं दव्वीकरा। जिनेशवाणीजलधौ सुधाकरः, आश्यो दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आशीविषाः / उक्तं च-"आसी दाढा सदा शिवश्रीपरिभोगनागरः / / 2 / / तग्गय-महाविसा आसीविसा मुणेयव्वा'' इति / दृष्टौ विषं येषां ते एवमनया रीत्या, द्रव्याऽऽदिकानां विचार ये सुबुद्धयो विभावयि-- दृष्टिविषाः, उग्र विषं येषां ते उग्रविषाः, भोगः शरीरं, तत्र विषं येषां ते ष्यन्ति, ते सुमेधसः, इह सन्ति शोभनानि यशासि। पुनः लक्ष्म्यः , परस्त्र भोगविषाः, त्वचि विषं येषा ते त्वग् विषाः, प्राकृतत्वाच्च तयाविसा' सर्वाणि वाञ्छितानि सुखानि प्रास्यन्तीति भावः / / 1 / / गुरोः ज्ञानगुरोः, इति पाठः। लाला मुखाऽऽस्रावः, तत्र विषं येषां ते लालाविषाः, निःश्वासे श्रुतेः सिद्धान्ताद, अनुभवात् स्वानुभूतेः, आन्तरोऽन्तज्ञानमयः, पर: विष येषां ते निःश्वासविषाः, कृष्णसर्पाऽऽदयो जातिभेदा लोकतः प्रकृष्टो द्रव्यानुयोगः प्रकाशितः / कीदृशः? वीतरागवचनसमुद्रे चन्द्र इव प्रतिपत्तव्याः / उपसंहारमाह-"से त्तं दव्वीकरा।'' प्रज्ञा०१ पद। चन्द्रः, निरन्तरं शिवलक्ष्मीविलासे नायक इव नागर इति / / 2 / / द्रव्या० दव्वोवओग पुं०(द्रव्योपयोग) द्रव्यार्थिकनयजन्यबोधे, नका 15 अध्या० दव्दोवगाहणा स्त्री०(द्रव्यावगाहना) द्रव्यस्य पर्यायैरवगाहना आश्रयणं दव्वादेस पुं०(द्रव्याऽऽदेश) आदेशः प्रकारो द्रव्यरूप आदेशो द्रव्या- द्रव्यावगाहना। अवगाहनाभेदे, स्था०४ ठा०। ('ओगाहणा' शब्दे तृ०भागे ऽऽदेशः / भ०१४ श०४ उ०। द्रव्यप्रकारेण द्रव्यत इत्यर्थे, परमाणुत्वा- 76 पृष्ठे व्याख्यातेयम्) ऽऽद्याश्रित्येति यावत् / स्था०५ ठा०१उन दव्वोसह न०(द्रव्यौषध) बहुद्रव्यसमुदायौषधे, नि०चू०२उ०। दव्वाभाव पुं०(द्रव्याभाव) निष्परिग्रहत्वेनासत्तायाम्, पञ्चा०६ विव०। / दस त्रि० (दश) सङ्ख्याभेदे, दश०। दव्वाभिग्गह पुं०(द्रव्याभिग्रह) लेपकृताऽऽदिद्रव्यविषये, ग०१ अधि०। णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य / दव्वाभिग्गहचरय पुं०(द्रव्याभिग्रहचरक) द्रव्याभिग्रहेण चरति भिक्षा- एसो खलु निक्खेवो, दसगस्स उ छविहो होइ।।६ मटति द्रव्याऽऽश्रिताभिग्रह वा चरत्यासेवते यः स द्रव्याभिग्रहचरकः। औ०। आह-किमिति द्वयादीन् विहाय दशशब्द उपन्यस्तः? उच्यते * भिक्षाचावति, भिक्षाचव्यास्तद्वतोश्चाभेदविवक्षणाद् भिक्षाया च / एतत्प्रतिपादनादेव यादीनां गम्यमानत्वात् / नत्र नामभ०२५ श०७ उ०। ग० स्थापने सुगमे / द्रव्यदशकं दश द्रव्याणिसचित्ताचित्त मिश्रा
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________________ दस 2477 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसउर 'ण मनुष्यरूपकटकाऽऽदिविभूषितानीति / क्षेत्रदशकं दश क्षेत्रप्रदेशाः, कालदशकदश काला वर्तनाऽऽदिरूपत्वात्कालस्य दशावस्थाविशेषा इत्यर्थः / वक्ष्यति च-- ''बाला किड्डा मंदा' इत्यादिना / भावदशकंदश भावाः, तेच सान्निपातिकभावे स्वरूपतो भावनीयाः। अथ चैत एव विवक्षय दशाध्ययनविशेषा इति / एष एवंभूतः खलु निक्षेपो न्यासः, दशशब्दस्य बहुवचनत्वाद्दशानां षड्डिधो भवति / तत्र खलुशब्दोऽवधारणार्थः / एष एव प्रक्रान्तोपयोगीति / तुशब्दो विशेषणार्थः / किं विशिनधि? नाऽयं दशशब्दमात्रस्य, कि तु तद्वाच्यस्याऽर्थस्याऽपीति गाथाऽर्थः / / 6 / / दश०१अ०। अनु०॥ कल्पना स्था दसउर न०(दशपुर) साम्प्रतं 'मन्दसोर' इति प्रसिद्वे स्वनामख्याते नगरे, आ०का "आस्ता तावद्रक्षिताऽऽयों , वक्ष्ये दशपुरोद्गमम् (2) अस्त्य कम्पा पुरी चम्पा, तत्राऽऽसीत्स्वर्णहारकः। कुमारनन्दिः स्वीलोलः, श्रीमान् श्रीद इवापरः / / 3 / / दर्श दर्श सुरूपां स्त्री.पञ्चस्वर्णशताऽऽहतेः। उद्वहन लम्पटः सोऽभूद्योषित्पशशतीपतिः / / 4 / / अतीालुस्ततः सौधमेकस्तम्भ विधाप्य सः। विललस समं ताभिर्देवीभिरव देवराट् // 5 // अथान्यदा पञ्चशैल-द्वीपगं व्यन्तरीयुगम्। गच्छन्नन्दीश्वरद्वीप-यात्राया वृत्रहाऽऽज्ञया॥६॥ विद्युन्मालीव तत्कान्तः, प्रच्युतः पञ्चशैलराट्र। ततो विरहदुःखार्त, शून्यं पश्यदितस्ततः।।७।। कुमारनन्दिं चम्पायां, दृष्ट्वोद्याने व्यचिन्तयत्। एषोऽस्मदल्लभो भावी, तत्तस्य स्वमदर्शयत|८ के युवामेति तेनोक्ते,ताभ्यां देव्यावितीरितम्। ऊचे च यावन्नागच्छेः, पञ्चशैलमथो गते / / 6 / / नृपमुक्त्व स तद्भक्तोऽवादयत पटह पुरे। कुमारनन्दिं यः पञ्च-शैले नयति तस्य सः / / 10 / / स्वर्णकटिं प्रदत्ते त, दधे वृद्धनियामकः / पुत्राणां तद्धनं दत्त्वा, तं पोते न्यस्य सोऽचलत्।।११।। दूर गत्या बभाषे तं, निर्यामः किञ्चिदीक्षसे। सोऽभ्यधात्किमपि श्याम, प्रेक्षे निर्याभकोऽब्रवीत् / / 12 / / नितम्ब द्रवटोऽस्त्येष,पोतोऽस्याऽधोऽयमेष्यति। तत्त्वमत्रायलम्बेथाः, पोतोऽस्याधः स्फुटिष्यति॥१३॥ गतस्य तव शैलोर्द्ध , भारुण्डाः पञ्चशैलतः। द्विज / वास् त्र्यंहयो दयास्या. एष्यन्त्येकोदराः खगाः ||14|| तन्मध्यपदलनस्त्वं, पञ्चशैले गमिष्यसि। इत्युक्तः स तथाऽकार्षीत, पञ्चशैलं जगाम च।।१॥ निर्यामळः पुनः पोत-स्फोटादये गतो मृतः। व्यन्तरीभ्यां तु ताभ्यां स, दृष्टः श्रीस्तस्य दर्शिता // 16 // उक्तश्वान्न देहेन, भोग्ये आवां न ते ततः। हासाप्रहासाकान्तःस्या, पञ्चशैलाऽधिपो मृतः।।१७।। इत्युक्त्वाऽग्निप्रवेशाऽऽद्यं, कुर्वीथा दानपूर्वकम्। तत्कथंयाम्यथोद्याने, नीत्वा ताभ्याममोटि सः॥१८|| अथाऽऽपत्य जनोऽप्राक्षीत्प्रोक्षितं तत्र किं त्वया? सोऽवदत्त मया दृष्ट. व्यन्तयौं मर्त्यदुर्लभे // 16 // श्रमणाप सको मित्र, नागिलस्तत्र तेन सः। टारितोऽप्यविशद्दही, दत्त्वा दानं निदानवान् / / 20 / / पञ्चशैलाधिपः सोऽभूदवात्खिन्नोऽथ नागिलः / परिव्रज्याऽच्युते जातः, शक्रसामानिकः सुरः।।२१।। अथान्यदाऽष्टमद्वीपे,यात्रायां पटहाऽग्रहे। पटहोऽक्षेपि शक्रेण, विद्युन्मालिगले बलात्।।२२।। वादयन्नथ भीतोऽगात्, ज्ञात्वा तं नागिलोऽवधेः। आगाद्र द्ष्टुं स तत्तेजोऽसहमानः पलायत॥२३॥ तेजः संहत्य मां वेत्सीत्युक्तोऽवग्वेत्ति को न वः? श्राद्धरूपमथाऽऽदय, ज्ञापितो धर्मवैभवम्।।२४।। सविनःसोऽवदन्मित्र ! कर्त्तव्यमधुना दिश। तेनोक्तं कुरु वीरार्चा ,सम्यक्त्वं भावि ते ततः॥२५|| महाहिमवतःसोऽथाऽऽदाय गोशीर्षचन्दनम्। कृत्वाऽर्चा तेन वरिस्य, न्यक्षिपत्काष्ठसंपुटे||२६|| प्रेक्ष्यान्तःसागरं पोतं, षण्मासोत्पातबाधितम्। निवर्त्य तेषामुत्पातमार्पयत्तं समुद् गकम् / / 27|| उक्तश्चास्तीह देवाधिदेवार्चा भूभुजेऽऽj ताम्। आगत्योऽन्तःपुरे वीत-भये वीतभयस्ततः।।२८|| उदायनो नृपस्तत्र, भौतभावितमानसः। तस्य प्रभावती देवी, प्रेयसी परमाऽऽर्हता // 26 // राज्ञः सर्मपितःपोत--वणिरभिः स समुद्गकः। देवाधिदेवप्रतिमा, मध्येऽस्त्यस्येत्यभाषत / / 30 / / पशुस्तस्येन्द्राऽऽद्यर्चाऽर्थं, वाहितोऽपि हि नाऽवहत्। प्रभावत्युक्तदेवाधिदेवश्रीवीरमूर्तये / / 31 / / स्पर्शेऽपि परशोः प्रादुरासाऽऽर्चा दवनिर्मिता। कृतमन्तःपुरे चैत्यं, सदाऽऽनर्च प्रभावती॥३२॥ देवी तत्रान्यदाऽनृत्यद्राजा वीणामवादयत्। देव्याः शीर्षमदृष्ट्वाऽस्य, भ्रष्टं तद्वादनं करात्॥३३॥ देवी रुष्टाऽवद दुष्ठ, नृत्तं किं मे, न सोऽवदत्। निर्बन्धात् कथिते देवी , स्माऽऽहाऽऽर्हत्या न मेऽस्ति भीः।।३४।। देवी स्नात्वाऽन्यदा चेटीमूचे वासांस्युपानय। साऽनयद(द)क्तवासासि, देव्यूचे किमिदं हले!।।३।। देवार्चाप्रगुणां मां किं, न जानासीति तां कुधा। करस्थदर्पणेनाहन्मर्माऽऽघाताच सा मृता।।३६।। मृतां तां वीक्ष्य देवीति, दध्यौ हा खण्डितं व्रतम्। ततो राजानमापृछ्याऽनशनं विदधाम्यहम्॥३७|| निर्बन्धेऽमस्त तद्राजा, बोध्योऽहमिति चाब्रवीत्। कृत्वाऽथाऽनशनं मृत्वा, देवी देवोऽभवद्दिवि॥३८|| प्रतिमा देवदत्तांच, कुब्जा देव्याज्ञयाऽऽर्चयत्। देवी देवेन स्वप्नाऽऽद्यैर्बोधिताऽप्यबुधन्न राट् // 36 // ततः प्रभावती देवी, भौतो भूत्वाऽगमत्सभाम् / द्युफलान्यार्पयद्राक्षे, राजा तान्याद सादरः।।४।। सन्ति क्वेतान्यपृच्छच, भौतं सोऽवग्मदाश्रमे। ततस्तेन सम राजा, तत्कृतेऽगात्तदाश्रमे // 41|| सोऽथ तैर्मोष्टमारेभे,नश्यंस्तेभ्यो ययौ वने। साधनालोक्य तत्राऽस्थात, श्रुत्या धर्ममबुद्ध च / / 4 / / ततः प्रभवतीदेवो, दर्शयित्वा स्वमूचिवान्। राजन्नितो मे देवर्द्धिस्तत् त्वमत्र दृढो भव // 43 // स्मरेः कार्ये च गाढे मामित्युक्त्वा तत्र जग्मुषी। वीक्ष्याऽऽस्थाने तथैव स्वं, सोऽर्हद् धर्मे दृढोऽभवत् / / 44 / / इतश्च श्राद्धो गान्धारो, नत्वा तीर्थभुवोऽखिलाः / नन्तुं वैताढ्यचैत्यानि, तन्मूलेऽस्थादुपोषितः।।४५।। तत्र शासनदेव्या स, नित्यचैत्यान्यवन्द्यत।
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________________ दसउर 2478 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसण्णकूड तोषाचास्मै सर्वकाम-गुटिकानां शतं ददौ / / 46 / / सोऽथ वीतभये दिव्य-प्रतिमां नन्तुमागमत। तत्राभूदतिसारोऽस्य, पालितो देवदत्तया // 47|| उल्लाघः सोऽथ तास्तस्यै, दत्त्वा प्रव्रजितः स्वयम्। वर्णः स्वर्णसमो मे ऽस्त्वित्याशैकां गुटिकामसौ॥४८|| तत्प्रभावात्तथाभूता, दध्यौ भोगार्थिनी पुनः। एष राजा पितृप्रायः, परे चास्य मुखेक्षकाः।।४६।। प्रद्योतार्थमथ प्राऽऽश, द्वितीयां गुटिकामसौ। सुवर्णगुटिकारूपं, तस्य तद्देव्यथाऽब्रवीत्॥५०।। तेन प्रेष्यत दूतोऽस्यै, प्रेक्ष्ये तं तावदाह सा। अनलगिरिणाऽथाऽऽगाद्रात्रौ दृष्टोऽरुदच सः॥५१॥ अहमेष्यामि यद्येतां,प्रतिमां सह नेष्यसि। स तत्प्रपद्य तत्पाा , निशां निर्गम्य जग्मिवान् // 52 / / तत्समा प्रतिमामन्या,कारयित्वाऽगमत्पुनः / मुक्त्वैतां तां गृहीत्वा च, सुवर्णगुटिकां च सः।।५३।। तत्रानलगिरद्त्रीच्चाररगन्धेन बाधिताः। उदायनगजाः सर्वेऽप्यभूवन्निर्मदास्तदा / / 54 / / राजपुंभिस्ततो राज्ञो, विज्ञप्तं देव ! दासिका। हृता प्रद्योतराजेन, रात्रावागत्य चोरवत्॥५५|| या त्वसौ प्रतिमा साऽस्ति, तेऽभ्यधुर्देव ! विद्यते। पूजाकालेऽथ पुष्पाणि, दृष्ट्वा म्लानान्यचिन्तयत् // 56 // प्रतिबिम्ब विमुच्याऽत्र, प्रतिमा सा हृताऽमुना। प्रतिमां मुञ्च चेट्यस्तु, दूतेनोचेऽथ तं नृपः / / 57 / / नार्पयत्ता स राजाऽथा-चालीज्ज्येष्ठऽपितं प्रति। दशापि गणराजानस्तस्य तेन सहाचलन्।५८|| तापात च मरौ सैन्य, जलाभावादबाध्यत। ततः प्रभावतीदेवः, स्मृतोऽकार्षीत्रिपुष्करीम् // 56 / / आदिमध्यान्तगां सैन्य-सुस्थोऽथोञ्जयिनीं ययौ। पुन तेन राजोचे, प्रद्योतं को जनक्षयः?||६०।। द्वयेऽपि सैनिकः सन्तु, पश्यन्तः पारिपार्श्वकाः। आरूढयोः पदात्योर्वा, तुल्यस्थित्यो रणोऽस्तु नौ / / 61 / / ऊचे प्रद्योतराजोऽपि. सावष्टम्भमिदं वचः। योत्स्यावहे रथेनाऽऽवां, प्रागभ्येत्य रणाङ्गणे // 6 // अथाऽऽरुह्यानलगिरि, प्रद्योतः प्रातरागतः। उदायनो रथेनाऽऽगादवन्तीश जगाद च // 63 // राजन्नसत्यसन्धोऽसि, नास्ति मोक्षस्तथापि ते। भावी प्रद्योत ! खद्योतस्त्वं मे वाणार्कसङ्गतः।।६४।। स्थंन्यस्याथ मण्डल्या, प्रद्योतेभमुदायनः। उत्क्षिप्तोत्क्षिप्तपादान्तः, क्षिप्त्वा वाणानपातयत् // 65|| प्रद्योतो निपतन्नागाद्, बडोदायनभूभुजा। भाले दासीपतिरिति, दत्त्वाऽड् कं धरणे कृतः // 66 / / गत्वा राजा ततोऽवन्त्यां, दचाऽऽज्ञां सर्वतो निजाम्। निषिद्धः प्रतिमां गृह्णन्नधिष्ठात्र्याऽचलत्ततः।।६७|| वर्षाकाले विचालेऽस्थादवरकन्दभयादथ। धूलीवप्र विधायाऽस्थुर्दशाऽपि परितो नृपाः।।६८|| प्रद्योतो धरणस्थोऽपि, बुभुजे भूभुजा सह। पृष्टः पर्युपणायां च, भोज्यं सूदेन तेऽस्तु किम्? // 66 / / चण्डोऽवादीद्यान्मृत्योः, का पृच्छा मेऽद्य सूदप!? सबभाषे पर्युवणा, राजेन्द्रोऽद्यास्त्युपोषितः / / 70 // सोऽभ्यधान्मेऽप्यभक्तार्थः, पर्वपर्युषणाऽद्य चेत्। ममाऽपि मातापितरौ, श्रावको यद् बभूवतुः।।७१।। सूदाध्यक्षो नृपस्याऽऽख्यद्राजोचे धूर्त एषकः। किं पुनर्मम बद्धेऽस्मिन्, प्रतिक्रान्तिन सेत्स्यति / / 72|| ततः स क्षामितो मुक्त्वा, दत्तास्तस्यैव मालवाः / ललाटे पट्टबन्धश्च, बद्धोऽड् कच्छादनाकृते।।७३|| नृपा मुकुटबद्धाः प्राक्, बद्धपट्टा इतोऽभवन् / वर्षाव्यतिक्रमेयासीन्निजं पुरमुदायनः // 74|| आगत्याऽऽगत्य यस्तत्र, वसति स्म वणिग्जनः। सोऽस्थात्तत्रैव तजझे, पुरं दशपुरं ततः॥७॥" आ०क०। दश०। विशे०। आ०चूला आ०म० उत्त० नं० दसकालियन०(दशकालिक) कालेन निवृत्त कालिकं.प्रमाणकालेनेति भावः / दशाध्ययनभेदाऽऽत्मकत्वाद्दशप्रकारं कालिकम, प्रकारशब्दलोपाद्दशकालिकम् / दशवैकालिकाऽऽख्ये ग्रन्थे, दश०१ अ०। दसगुण पुं०(दशगुण) एकगुणापेक्षया दशाभ्यस्ते, स्था०१० ठा०। दसगुणकालग पुं०(दशगुणकालक) दशगुण एकगुणकालापेक्षया दशाभ्यस्तः कालो वर्णविशेषो येषां तेषु, स्था० १०ठा०। दसजाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्स न० (दशजातिकुल-- कोटियोनिप्रमुखशतसहस्र) दशैव जातौ यानि कुलकोटीनां जातिविशेषलक्षणानां योनिप्रमुखाणि उत्पत्तिस्थानद्वारकाणि शतसहस्राणि लक्षाणि तेषु. स्था०१० ठा०। दसट्ठाण न०(दशस्थान) दशसु प्रकारेषु, दश स्थानानि नैरयिकाणामनिष्टानि, देवानां चेष्टानि शब्दाऽऽदीनीति / भ०१४ 205 उ०। ('वीईवयण' शब्दे प्रसंगाद्वक्ष्यन्ते) दसट्ठाणणिव्वत्तिय पुं०(दशस्थाननिर्वर्तित) दशभिः स्थानः प्रथमसमयकेन्द्रियत्वाऽऽदिभिः पर्यायहेतुभियैर्निर्वृत्ता बन्धयोग्यतया निष्पादितास्ताः तेषु, दशभिः स्थानैर्निर्वृत्तिा येषां तेषु च / स्था०१० ठा०। दसण पुं०(दशन) दशनानिचकुन्द कलिकाः स्युः। है। दश्यते अनेन / दन्ते, शिखरे च। करणे ल्युट्। कवचे, भावे ल्युट् / दशने, दन्ताऽऽदिना आघाते च / प्रव०३८ द्वार। वाच०। दसणाम न०(दशनामन्) दशविधपदार्थनामनि, अनुग अथ दशनामाभिधानार्थमाहसे किं तं दसनामे ? दसनामे दसविहे पण्णत्ते / तं जहागोणे, नोगोणे, आयाणपएणं, पडिवक्खपएणं, पहाणयाए, अणाइयसिद्धे, नामेणं अवयवेणं, संजोगेणं, पमाणेणं / अनु०॥ (टीका सुगमा) दसण्ण पुं०(दशाण) दश ऋणानि दुर्गाणि जलानि वा यत्र / ऋणशब्दे वृद्धिः / वाचा मृत्तिकावतीपुरीप्रतिबद्धे देशविशेष, प्रज्ञा०१ पद। सत्रा उत्त०। प्रव०ा आ०म०ा नदीभेदे, स्त्रीला वाच०। दसणकूड न०(दशार्णकूट) स्वनामख्याते कूटे, आ०का आ० म० आचा०। आ०चू०। प्रति०। (गयग्गपय' शब्दे तृतीयभागे 842 पृष्ठेऽस्य व्याख्या)
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________________ दसण्णपुर 2476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसद्धवण्ण दसण्णपुर न०(दशार्णपुर) स्वनामख्याते नगरे, यत्र दशार्णभद्रो नृपः "सट्टिकरिसहरस'' इति गाथाया व्याख्यानं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, श्रीभगवन्तं महावीरं दशार्णकूटनगरनिकटसमवसूतं ववन्दे। स्था०१० उत्तरम-चतुःषष्टिसंख्या हस्तिसहसाः, किंलक्षणाः? सहाष्टदन्तैर्यानि टा० आव०। आ०चूल आ०म०) तानि साष्टदन्तानि, अष्टसंख्यानि शिरांसि अष्टशिरांसि, साष्टदन्तानि च दसण्णभद्द पुं०(दशार्णभद्र) स्वनामख्याते दशाणपुरराजे, स्था। तानि अष्ट-शिरांसि च साष्टदन्ताष्टशिरांसि चतुःषष्टिगुणीकृतानि दशार्णभद्रो दशार्णपुरनगरनिवासी विश्वम्भराविभुर्यो भगवन्तं महावीर साष्ट दन्ताष्ट-शिरांसि येषां ते चतुःषष्टिसाष्टदन्ताष्टशिरसः / अत्र दशार्णकूटनगरनिकटसमवसृतमुद्यानपालवचनादुपलभ्य यथा न केनापि मध्यमपदलोपी समासो ज्ञेयः / अष्टानां च चतुःषष्ट्या गणनेद्वादशोत्तराणि वन्दितो भगवाँस्तथा मया वन्दनीय इति राज्यसंपदवलेपाद्भक्तितच पञ्चशतानि शिरांसि प्रतिगज स्युरिति, तथैकैकस्मिन्, दन्तेऽष्टाष्टपुष्क-- चिन्तयामासः ।ततः प्रातः सविशेषकृतस्नानविलेपनाऽऽभरणाऽऽदि रिण्य इति / ५३प्र०। सेन०२ उल्ला०। तथा दशाणभद्राधिकारे विभूषः प्रकल्पितप्रधानद्विपपतिपृष्टाऽऽरूढो वल्गनाऽऽदिविविधक्रिया हस्तिमुखाऽऽदिविकुर्वणा किमिन्द्रेण कृता, किमुतैरावणदेवेन वेति प्रश्ने, कारिसदर्पसर्पचतुरङ्ग सैन्यसमन्वितः पुष्यमाणवकसमुद् घुष्यमाणाऽ उत्तरम्-आवश्यकचूण्यद्यिनुसारेण हस्तिमुखाऽऽदि सर्वमिन्द्राऽऽदेशागणितगुणगणः सामन्तामात्यमन्त्रिराजदौवारिकदूताऽऽदिपरिवृतः दैरावणेन विचक्रे, आवश्यकवृत्त्याद्यनुसारेण तु तत्सर्व स्वयं विमौजसेति / सान्तःपुरपौरजनपरिवृत आनन्दमयमिव संपादयन्महीमण्डलमाखण्डल 117 प्र०। सेन०२ उल्ला इवामरावत्या नगरान्निर्जगाम / निर्गत्य च समवसरणमभिराम्य यथाविधि दसतिग न०(दशत्रिक) दशाभ्यस्ते त्र्यवयवे समुदाये, संघा० 1 अधि०१ भगवन्तं भव्यजननलिनवनविवोवनाभिनवभानुमन्तं महावीर वन्दि- प्रस्तान ('चे इयवंदण' शब्दे तृतीयभागे 1068 पृष्ठे दशत्रिकाणि त्वोपविदेश / अवगतदशार्णभद्रभूपाभिप्रायं च तन्मानविनोदनोधतं / प्रतिपादितानि) कृताष्टमुखे प्रतिमुखं विहिताष्टदन्ते प्रतिदन्तं कृताष्टपुष्करिणीके दसदसमिया स्त्री०(दशदशमिका) दश दशमानि दिनानि यस्यां सा प्रतिपुष्करिणि निरूपिताष्टपुष्करे प्रतिपुष्कर विरचिताष्टदले प्रतिदलं दशदशमिका / दशदशकनिष्पन्नायां भिक्षुप्रतिमायाम, स्था० विरचितद्वात्रिंशद् बद्धनाटके वारणेन्द्र सारूढ स्वश्रिया निखिल गगन- दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा णं राइंदियसएणं अद्धछट्टेहि य मण्डलमापूरयन्तममरपतिमवलोक्य कुतोऽस्मादृशामीदृशी विभूतिः? भिक्खासएहिं अहासुत्तंजाव आराहिया भवइ। कृतोऽनेन निरवद्यो धर्म इति, ततोऽहमपि तं करोमि, इति विभाव्य (दसेत्यादि) दश दशमानि दिनानि यस्यां सा दशदशमिका, दशदशप्रवव्राज, जितोऽहमधुना त्वयेति भणित्वा यमिन्द्रः प्रणिपपातेति। सोऽयं कनिष्पन्नेत्यर्थः / भिक्षणां प्रतिमा प्रतिज्ञा भिक्षुप्रतिमा एकेनेत्यादि दशार्णभद्रः संभाव्यते, परमनुत्तरोपपातिकाङ्गे नाधीतः क्वचित्सिद्धश्च दशदशकानि दिनानां शतं भवतीति प्रथमे दशदशभिक्षा / द्वितीये श्रूयत इति / तथा अतिमुक्तक एवं श्रूयते अन्तकृद्दशाङ्गेपलाशपुरे नगरे विंशतिः / एवं दशमे शतम् / सर्वमीलने पञ्चशतानि पञ्चाशदधिकानि विजयस्य राज्ञः श्रीनाम्न्या देव्या अतिमुक्तको नाम पुत्रः षड्डार्षिको गौतम भवन्तीति। (अहासुत्तेत्यादि) (अहासुत्त) सूत्रानतिक्रमेण, यावत्करगांचराऽऽगतं दृष्ट्वा एवमवादीत्-के यूयम्? किं पर्यटत? ततो गौतमोऽ- णात्-(अहाअत्थं) अर्थस्य नियुक्त्यादेरनतिक्रमेण(अहातचं) वादीत-श्रमणा क्य, भिक्षार्थ च पर्यटामः / तर्हि भदन्ताः ! आगच्छत शब्दार्थानतिक्र मेण (अहामग्गं) क्षायोपशमिकाभावानतिक्रमेण तुभ्यं भिक्षा दापयामीति भणित्वाऽगुल्या भगवन्त गृहीत्वा स्वगृहमानैषीत्। (अहाकप्प) तदाचारानतिक्रमेण, सम्यक्कायेन, न मनोरथमात्रेण, ततः श्रीदेवी हृष्टा भगवन्तं प्रतिलम्भयामास। अतिमुक्तकः पुनरवोचत्- (फासिया) विशुद्धपरिणामप्रतिपत्त्या (पालिया) सीमां यावत्तत्परिणायूयं क्व वसथ? भगवानुवाचभद्र ! मम धर्माऽऽचार्याः श्रीवर्द्धमानस्वामिन माहान्या, शोधिता, निरतिचारतया शोभिता वा तत्समाप्तावुचिताउद्याने वसन्ति, तत्र वयं परिवसामः। भदन्ताः ! गच्छाम्यहं भवद्भिः सार्द्ध नुष्ठानकरणतः, तारिता तीरं नीता प्रतिज्ञातकालोपर्यप्यनुष्ठानात्, भगवतो महावीरस्य पादान वन्दितुम् ? गौतमोऽवादीत-यथासुखं देवाना कीर्तिता नामत इद चेदं च कर्तव्यमस्यां तत्कृतं मयेत्येवमिति। आराधिता प्रिय ! ततो गौतमेन सह गत्वाऽतिमुक्तकः कुमारो भगवन्तं वन्दते स्म। सर्वपदमीलनात्, भवति जायत इति प्रतिमाऽभ्यासः। स्था०१० ठा०। धर्म श्रुत्वा प्रतिबुद्धो गृहमागत्य पितरावव्रषीत्-यथा संसारनिर्विष्णो प्रव०। स० अन्त। ऽहं प्रव्रजामीत्यनुजानीत युवाम् / तावूचतुः-बाल ! त्वं किं जानासि? दसदसय न० (दशदशक) शते, स्था०१० ठा० ततोऽतिमुक्तकोऽवादीत-अम्ब! तात ! यदेवाहं जानामि तदेव दसदिÉत पुं०(दशदृष्टान्त) मनुष्यलाभे दशसु दृष्टान्तेषु, आ० म०१ जानामीति / ततस्तौ तमवादिष्टाम्। कथमेतत्? सोऽब्रवीत-अम्ब! तात ! अ०१ खण्ड।(तेच 'मानुसत्त' शब्दे वक्ष्यन्ते) जानाम्यह यदुत-जातेनाऽऽवश्यं मर्तव्यं, न जानामि तु कदा वा कस्मिन् / दसदिवसिय त्रि०(दशदिवसिक) दशाहिके, "दसदिवसियं ठिइदवा कियच्चिराद्वा / तथा न जानामि कैः कर्मभिर्निरयाऽऽदिषु जीवा डियं / ' ज्ञा०१ श्रु०१० उत्पद्यन्ते / एतत्युनर्जानामि, यथा-स्वयं कृतः कर्मभिरिति / तदेव दसधणु पुं०(दशधनुष) जम्बूद्वीपे द्वीपे आगमिष्यन्त्यामुत्सपिण्यामैरमातापितरौ प्रतिबोध्य प्रवव्राज, तपः कृत्वा च सिद्ध इति / त्वयमनुत्त- वते वर्षे भविष्यति षष्ठे कुलकरे, स०। ति० जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे रोपपातिकेषु दशमाध्ययनतयोक्तस्तदपर एवाऽयं भविष्यतीति। | आगमिष्यन्त्यामुत्सपिण्यां दशमे कुलकरे च / स्था०१० ठा। स्था०१०ठा०। आव०ा उत्तवा आ०म०। आ०चू०। आ०का तथा च- | दसद्धवण्ण त्रि० (दशार्द्ध वर्ण) पावणे , स०३४ सम०। रा०।
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________________ दसद्धवण्ण 2480 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसवेयालिय औला जी० "दसद्धवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमेत्त / " रा०। दसपएसिय पुं०(दशप्रदेशिक) दशाणुके, स्था०१० ठा०। दसपएसोगाढ पुं०(दशप्रदेशावगाढ) दशप्रदेशेष्वाकाशस्यावगाढा आश्रिता दशप्रदेशावगाढाः / आकाशस्य दशसु प्रदेशेषु आश्रिते, स्था०१० ठा। दसपुवि(ण) पुं०(दशपूर्विन्) अधीतोत्पादाऽऽदिपूर्वदशके, कल्प०। "महागिरिःसुहस्ती च, सूरिः श्रीगुणसुन्दरः। श्यामाऽऽर्यः स्कन्दिलाऽऽचार्यो , रेवतीमित्रसूरिराट् / / 1 / / श्रीधम्मो भद्रगुप्तश्च, श्रीगुप्तो वज्रसूरिराट्। युगप्रधानप्रवराः, दशैते दशपूर्विणः / / 2 / / " कल्प०८क्षण। दसबल पुं०(दशबल)"दशपाषाणे हः" |8 / 1 / 262 / / इति शकारस्य वैकल्पिको हकारः / 'दसबलो। दहबलो।' प्रा०१ पाद / दश बलानि यस्य सः / बुद्धभगवति, कोला "दानशीलक्षमावीर्यध्यानप्रज्ञाबलानि च / उपायाः प्रणिधिनि, दश बुद्धबलानि वै'' ||1| वाच दसम त्रि०(दशम) दशानां पूर्णः, डटि मट् / येन दश सङ्ख्या पूथ्यते तस्मिन्, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। पञ्चा०। दसमभत्तिय पुं०(दशमभक्तिक) दिनचतुष्टयमुपोषिते. प्रश्न०३ संव०द्वार। दसमी स्त्री०(दशमी) डीप् / सा च ''शताऽऽयुर्वे पुरुषः" इति श्रुतेः पुरुषस्याऽऽयुःकालस्य शतसंख्यकतया दशभिर्विभागः / नवतेरुद्ध दशवर्षावच्छिन्ने काले पुरुषावस्थाऽऽदौ, वाचाद०प०ाज्योग ('तिहि शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2330 पृष्ठे दशमीफलान्युक्तानि) दसमुद्दामंडियग्गहत्थ पुं०(दशमुद्रामण्डिताग्रहस्त) दशभिर्मुद्रा- | भिर्मण्डितौ अग्रहस्तौ येषां तेषु, जी०३ प्रति०४उ०। दसमुद्दियाणंतय न०(दशमुद्रिकानन्तक) हस्ताङ्गुलीमुद्रिकादशके, भ०६ श०३३ उ०। दसरत्तट्ठिइवडिया स्त्री०(दशरात्रस्थितिपतिता) कुलक्रमादागते पुत्रजन्मानुष्ठाने, विपा०१ श्रु०३ अ०। दसरह पुं०(दशरथ) जम्बूद्वीपे भारते वर्षेऽस्यामेवोत्सप्पिण्यां जातेऽष्टमस्य वासुदेवस्य पितरि, स्था०६ ठा०। आव०ा तिला सा जम्बूद्वीपे भारते वर्षेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां जाते नवमे कुलकरे,स्था०१०टा०स० दसविह त्रि०(दशविध) दशप्रकारके, प्रश्न०३ संब० द्वार। दसविहकप्प पुं०(दशविधकल्प) कल्पविकल्पाऽऽदिके दशप्रकारे कल्पे, प०भा०। (दशविधकल्पाः 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे 226 पृष्ठे उक्ताः) दसवेयालिय न० (दशवैकालिक) विकालेनापराह्णलक्षणेन निर्वृत्त वैकालिकम, दशाध्ययननिर्माण च तद्वैकालिकं च मध्यपदलोपादृशवैकालिकम् / पा०। नं० शय्यम्भवसूरिकृते स्वनामख्याते श्रुतग्रन्थे, अस्य दशवकालिक स्यानुयोगः / तत्रानुयोगव्याख्या स्वस्थाने निरवशेषोक्ता। इह तु... एयाइँ परूवेठ, कप्पे वणियगुणेण गुरुणा उ। अणुओगो दसवेयालियस्स विहिणा कहेयव्वो।।६।। एतानि निक्षेपाऽऽदिद्वाराणि ('अणुओग' शब्दे) प्ररूप्य व्याख्याय कल्पे वर्णितगुणेन गुरुणा, षट् त्रिंशद् गुणसमन्वितेनेत्यर्थः / अनुयोगो दशवकालिकस्य, विधिना प्रवचनोक्तेन कथयितव्य आख्यातव्यः / इति गाथाऽर्थः / / 6 / / सम्प्रत्यजानानः शिष्यः पृच्छति-यदि दशकालिकस्यानुयोगः, ततस्तदशकलिकं भदन्त! किमङ्गमङ्गानि, श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः, अध्ययनम्, अध्ययनानि, उद्देशक उद्देशका इत्यष्टी प्रश्नाः। एतेषां मध्ये त्रयो विकल्पाः खलु प्रयुज्यन्ते, तद्यथा-दशकालिक, श्रुतस्कन्धः, अध्ययनानि, उद्देशकाश्चेति, यतश्चैवमतो दशाऽऽदीनां निक्षेपः कर्तव्यः / तद्यथा-दशानां कालस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्य, उद्देशकस्य चेति। तथा चाऽऽह नियुक्तिकार:दसकालियं ति नाम, संखाए कालओ य निद्देसो। दसकालिय सुअखंधं, अज्झयणुद्देस निक्खिविउं।।।। दशकालिकं प्राग्निरूपितशब्दार्थम्, इति एवंभूतं, यन्नाम अभिधानम्। इदं किम्? संख्यानं संख्या, तया, कालतश्च कालेन चायं निदेशः-निर्देशन निर्देशः, विशेषाभिधानमित्यर्थः / अस्य च निबन्धन विशेषेण वक्ष्यामः "मणग पडुच्च'' इत्यादिना ग्रन्थेन / यतश्चैवमतः-(दसकालियं ति) कालेन निवृत्त कालिकं. दशशब्दस्य कालशब्दस्य च निक्षेपः / निर्वृत्तार्थस्तु निक्षेपः / तथा श्रुतस्कन्धम्, तथाऽध्ययनमुद्देशं तदेकदेशभूतम् / किम्? निक्षेप्तुमनुयोगोऽस्य कर्त्तव्य इति गाथाऽर्थः / दश०१ अ० (दशशब्दस्य निक्षेपः 'दस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2476 पृष्ठे गतः) (कालशब्दस्य च 'काल' शब्द तृतीयभागे 470 पृष्टादारभ्य विशेषो द्रष्टव्यः) इह पुनर्दिवसप्रमाणकालेनाऽधिकारः, तत्राऽपि तृतीयपौरुष्या, तत्राऽपि बह्वतिक्रान्तयेति।आह-यदुक्तम्-"पगयं तु भावेणं ति'' तत्कथं न विरुध्यत इति? उच्यते-क्षायोपशमिकभावकाले शय्यंभवेन निर्दृढ, प्रमाणकाले चोक्तलक्षणमित्यविरोधः / अथवा-प्रमाण कालोऽपि भावकाल एव, तस्याऽद्धाकालस्वरूपत्वात्, तस्य च भावत्वादिति। तथा चाऽऽह नियुक्तिकारःसामाइयअणुकमओ, वन्नेउं विगयपोरसीए उ। निव्वूढं किर सिजं-भवेण दसकालियं तेणं / / 12 / / सामायिकमावश्यकप्रथमाध्ययनं, तस्यानुक्रमः परिपाटीविशेषः, सामायिके वाऽनुक्रमः सामायिकानुक्रमः, ततः सामायिकानुक्रमतः सामायिकानुक्रमेण, वर्णयितुम, अनन्तरोपन्यस्तगाथाद्वाराणीति प्रक्रमाद्गम्यते। विगतपौरुष्यामेव, तुशब्दस्याऽवधारणार्थत्वाद. नियूंढ पूर्वगतादुत्य विरचितम्। किलशब्दः परोक्षाऽऽप्ताऽऽगमवादसंसूचकः। शय्यभवेन चतुईशपूर्वविदा, दशकालिक प्राग्निरूपिताक्षरार्थं , तन कारणेनोच्यत इति गाथार्थः / / 12 / / श्रुतस्कन्धयोश्च निक्षेपश्चतुर्विधो द्रष्टव्यः, यथाऽनुयोगद्वारेषु, स्थानाशून्यार्थ किञ्चिदुच्यते-इह नोआगमतः ज्ञशरीर-भव्यशरीव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रन्यस्तम् अथवा
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________________ दसवेयालिय 2481 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसवेयालिय सूत्रमण्डलाऽऽदि / भाव श्रुतं त्वागमतो ज्ञाता उपयुक्तः / नो आगम- ताहे सो असिं कड्डिऊण भणतिसीस ते छिंदामि, जइ मे तुम तत्तं न तस्त्विदमेव दशकालिकं, नोशब्दस्य देशवचनत्वात्। एवं नोआ-गमतो कहेसि / तओ अज्झावओ भणतिपुत्ता ! मम समये भणियमेयं वेदत्थे, शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यश्रुतस्कन्धः सचेतनाऽऽदिः। तत्र | परं सीसच्छेदे कहियटव त्ति संपर्य कहयामिजं एत्थ तत्तं, एतस्स जूवस्स सचित्तो द्विपदाऽऽदिः / अचित्तो द्विप्रदेशिकाऽऽदिः / मिश्रः सेनाऽऽदि- हेट्टा सव्वरयणमई पडिमा अरहओ सा धुव्व त्ति आरिहओ धम्मो तत्तं / देशाऽऽदिरिति। तथा-भावस्कन्धस्त्वागमतस्तदर्थोपयोगपरिणाम एव / ताहे सोतस्स पाएसुपडितो। सो यजण्ण-वाडओ वक्खोविउं तस्सचेव नोआगमतस्तु दशकालिक श्रुतस्कन्धएवेति, नोशब्दस्य देशवचन- दिण्णो। ताहे सो गंतूण ते साहू गवेसमाणे गओ आयरियसगास। आयरियं त्वादिति। इदानीमध्ययनोद्देशकन्यासप्रस्तावः। तं चानुयोगद्वारप्रक्रमा- वंदित्ता साहुणो य भणति-मम धम्म कहेह। ताहे आयरिया उवउत्ताssयात प्रत्यध्ययनं यथासंभवमोघनिष्पन्न निक्षेपे लाघवार्थं वक्ष्याम जहा इमो सो त्ति, ताहे आयरिएहिं साहुधम्मो कहिओ। संबुद्धो पव्वइओ इति / ततश्च यदुक्तम्- ''दसकालियसुयखधं, अज्झयणु हे स सो चउद्दसपुव्वी जाओ। जवा य सो पव्वइओ तया य तस्स गुढिवणी णिविखविउं" (E) अनुयोगोऽस्य कर्त्तव्य इति तदंशतः संपादितमिति। महिला होत्था। तम्मि य पव्वइए लोगो णियल्लओत तमस्सति--जहा साम्प्रतं प्रस्तुतशास्त्रसमुत्थानवक्तव्यताऽभिधित्सयाऽऽह तरुणाए भत्ता पव्वइतो, अपुताए अवि अत्थितव किंवि पोट्टे त्ति पुच्छति? जेण व जंव पडुचा, जत्तो जावंति जह य ते ठविया। सा भणति-उवलक्खेमि मणगं / तओ समएण दारगो जाओ, ताहे सो तं च तओ ताणि य, तहा य कमसो कहेयव्वं / / 13 / / णिव्यत्तवारसाहस्स णियलग्गेहिं जम्हा पुच्छिजंतीए मायाए से भणिओ मणगं ति, तम्हा मणओ से णाम कय ति। जयासो अट्टवरिसो जाओ ताहे येन वाऽऽचार्येण, यद्वा वस्तु, प्रतीत्याङ्गीकृत्य , यतश्चाऽऽत्म सो मातरं पुच्छति-को मम पिया? सा भणइ-तव पिया पव्वइओ। ताहे प्रवादाऽऽदिपूर्वतो, यावन्ति वाऽध्ययनानि, यथा च येन प्रकारण, सो दारओ णासिऊणं पिउसगास पट्टिओ। आयरिया यतं, काले चपाए तान्यध्ययनानि, स्थापितानि न्यस्तानि, स चाऽऽचार्यः, तच्च वस्तु, विहरंति / सो वि य दारओ चंपामेवाऽऽगतो। आयरिएण य सण्णाभूमि ततस्तस्मात्पूर्वात, तानि चाध्ययनानि, तथा च तेनैव प्रकारेण, क्रमशः गएण सो दारओ दिट्टो / दारएण वंदिओ आयरिओ। आयरियस्स य तं क्रमेणानुपूा कथयितव्य इतिपादयितव्यमिति गाथासमासार्थः / दारगं पेच्छंतरस हो जाओ। तस्स वि दारगस्स तहेव। आयरिएहि अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव यथाऽवसर वक्ष्यति। पुच्छिय-भो दारग ! कुतो ते आगमणं? सो दारगो भणति-रायगिहातो। तत्राधिकृतशास्त्रकर्तुः स्तवद्वारेणाऽऽद्यद्वाराव आयरिएण भणियं रायगिहे तुम कस्स पुत्तो, नत्तुओवा? सो भणइ-सेज यवार्थप्रतिपादनायाऽऽह भवो नाम बभणो ति तस्साह पुत्तो, सोय किर पव्वइओ। तेहिं भणियंसेज्जभवं गणहरं, जिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं / तुम केण कजेण आगओऽसि? सो भणइ-अहं पि पव्वइस्स। पच्छा सो मणगपियरं दसकालियस्स निजूहगं वंदे // 14 // दारओ भणति-तो भणह, बंभं तुम्हे जा णह? आयरिया भणतिसज्जभवमिति नाम, गणधरमिति अनुत्तरज्ञानदर्शनाऽऽदि धर्मगणं जाणे मो। तेण भणियं--सो कहिं ति? ते भणंति-सो मम मित्तो धारयतीति गणधरस्तम्, जिनप्रतिमादर्शनेन प्रति बुद्धं, तत्र राग- एगसरीरभूतो, पव्वयाहि तुम मम सगासे। तेण भणियं-एवं करेमि। तओ द्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गाऽऽदिजेतृत्वाजिनः, तस्य प्रतिमा सद्भाव- आयरिया आगंतुंपडिस्सए आलोएति सचित्तोपड़प्पन्नो। सो पव्वइतो। स्थापनारूपा, तस्याः दर्शन मिति समासः / तेन हेतुभूतेन, प्रतिबुद्ध पच्छा आयरिया उवउत्ता केवत्तियं कालं एस जिवइ त्ति / णायं-जाव मिथ्यात्वाज्ञाननिद्राऽपगमेन सम्यक्त्वविकाशं प्राप्तम्। मनकपितरमिति छम्भासा / ताहे आयरियाणं बुद्धी समुप्पन्ना इमस्स थोवगं आउं, कि मनकाऽऽख्यापत्यजनकम्, दशकालिकस्य प्रानिरूपिताक्षरार्थस्य, कायव्वं ति? तं चोद्दसपुयी कम्हि वि कारणे समुप्पन्ने णिहति, दस निर्वृहक पूर्वगतोद्धृतार्थविरचनाकर्तार, वन्दे स्तौमि। इति गाथाऽक्षरार्थः / पुव्वी पुण अपच्छिमो अवस्समेव णिज्जूहति। मम पि इमं कारणं समुप्पन्न, भावार्थः कथानकादवसेयः। तचेदम-"एत्थबद्धमाणसामिस्सचरमति- तो अहमवि णिजूहामि / ताहे आढत्तो निजूहिउं / ते उ निजूहिजंतो त्थगरस्स सीसो तित्थसामी सुहम्मो नाम गणधरो आसि। तस्स वि जंबू वियाले निजूढा थोवावसेसे दिवसे / तेण तं दसवेयालिय भणिज्जति।' णामो, तस्स वि य पभवो त्ति / तस्सऽनया कयाइ पुटवरत्तावरत्तम्मि अनेन च कथानकेन न केवलं येन वेत्यस्यैव द्वारस्य भावार्थोऽभिहितः, चिंता समुप्पन्नाको मे गणधरो होज ति? अप्पणो गणे य संघे य सव्वओ किंतु यद्वा प्रतीत्यैतस्यापोति। उवओगो कतो, ण दीसइ कोइ अव्वोच्छित्तिकरो। ताहे गारत्थेसु उवउत्तो, तथा चाऽऽह नियुक्तिकारःउवओगे कए रायगिह सेजभवं माहणं जण्णं जयमाणं पासति / ताहे मणगं पडुच सेज्ज-भवेण निजूहिया दसऽज्झयणा। रायगिहं नगरं आगंतूण संघाडयं वावारेतिजण्णवाम गतु भिक्खडा धम्म वेयालियाइ ठविया, तम्हा दसकालियं नामं // 15 // लाहह, तत्थ तुब्भे अतित्था विजिहिह ताहे तुब्भे भणिज्जह-"अहो कष्ट मनकं प्रतीत्य मनकाऽऽख्यमपत्यमाश्रित्य, शय्यं भवेनाऽऽचार्येण, तत्वं न ज्ञायते इति।" तओ गया साह, अतित्था वियाय तेहिं भणितं- नियूँढानि पूर्वगतादुद् धृत्य विरचितानि, दशाध्ययनानि द्रुमपुष्पि"अहो कष्ट तत्त्वं न ज्ञायते।" तेण य सेजंभवेण दारमूले ठिएण तं वयण काऽऽदीनि / (वेयालियाइ ठविय त्ति) विगतः कालो विकालः, सुयं / ताहे सो विचिंतेइ-एते उवसंता तवस्सिणो, असचं ण णयंति त्ति विकलनं वा विकाल इति / विकालः शकलः खण्डश्चेत्यनाकाउं अज्झावगसगास गंतुं भणति-किं तत्तं? सो भणति-वेदा तत्त। / न्तरम् / तस्मिन् विकालेऽपराह्न स्थापितानि न्यस्तानि द्रुमपु--
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________________ दसवेयालिय 2482 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसवेयालिय ष्पिकाऽऽदीन्यध्ययनानि यतः, तस्माद्दशकालिकं नाम / व्युत्पत्तिः पूर्ववत्। | दशवकालिकं वा विकालेन निर्वृत्तम्, संकासाऽऽदिपाटाचातुरर्थिकष्ठक् / "तद्धितेष्वचामादेः" / / 7 / 2 / 117 // इत्यादिवृद्धकालिकम्। दशाध्ययननिर्माण च तद्वैकालिकं च दशवैकालिकमिति गाथार्थः / एवं येन वा यद्वा प्रतीत्येति व्याख्यातम् / इदानी __ यतो नियूढानीत्येतद्व्याचिख्यासुराहआयप्पवायपुव्वा, निजूढा होइ धम्मपन्नत्ती। कम्मप्पावायपुव्वा, पिंडस्स उ एसणा तिविहा।।१६।। सच्चप्पवायपुव्वा, निज्जूढा होइ वक्कसुद्धीउ। अवसेसा निजूढा, नवमस्स उतइयवत्थूओ।।१७।। वीओ वि य आएसो, गणिपिडगाओ दुवालसंगाओ। एयं किर निशूढं, मणगस्स अणुग्गहट्ठाए॥१८|| इहाऽऽत्मप्रवाद पूर्व यत्राऽऽत्मनः संसारिमुक्ताऽऽद्यनेभेदभिन्नस्य प्रवदनमिति, तस्मानियूंढा भवति धर्मप्रज्ञप्तिः, षड्जीवनिकेत्यर्थः। तथा कर्मप्रवादपूर्वात्। किम्? पिण्डस्य तु एषणा त्रिविधा नियूंढति वर्तते। कर्मप्रवादपूर्व नामयत्र ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिकर्मणो निदानाऽऽदिप्रवदनमिति / तस्मात् किम्? पिण्डस्यैषणा त्रिविधा गवेषणाग्रहणैषणा-ग्रासैषणाभेदभिन्ना / निर्मूढा सा पुनस्तत्राऽमुना संबन्धेन पतति / आधाकर्मोपभोक्ता ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिकर्मप्रकृतीबंधनानि / उक्तं च- "आहाकम्मं भुंजमाणे समणे अट्ट कम्मपगडीओ बंधइ।" इत्यादि। शुद्धपिण्डोपभोक्ता चाशुभान्न बध्नातीत्यलं प्रराड़े न / प्रकृतं प्रस्तुमः / सत्यप्रवादपूर्वाद् नि'ढा भवति वाक्यशुद्धिस्तु। तत्र सत्यप्रवाद नाम-यत्र जनपदसत्याऽऽदेः प्रवदनमिति / वाक्यशुद्धिर्नामसप्तममध्ययनम् / अव-शेषाणि प्रथमद्वितीयाऽऽदीनि नियूढानि नवमस्यैव प्रत्याख्यान-पूर्वस्यतृतीयवस्तुन इति। द्वितीयोऽपि चाऽऽदेशः। आदेशो विध्यन्तरम् गणिपिटकादाचार्यसर्वस्वाद् द्वादशाहादाचाराऽऽदिलक्षणात्, इदं दशकालिकं, किलेति पूर्ववत्, निढमिति च। किमर्थम् ? मनकस्योक्तस्वरूपस्य अनुग्रहार्थमिति गाथात्रयार्थः। एवं यत इति व्याख्यातम् // 18 // अधुना यावन्तीत्येतत्प्रतिपाद्यतेदुमपुफियाइया खलु, दस अज्झयणा समिक्खुयं जाव। अहिगारा वि य एत्तो, वोच्छं पत्तेयमेकेके ||16 तत्र द्रुमपुष्पिके ति प्रथमाध्ययननाम, तदादीनि दशाध्ययनानि / (सभिक्खुयं जाव त्ति) स भिश्वध्ययनं यावत्, खलुशब्दो विशेषणार्थः / किं विशिनष्टि? तदन्ये द्वे चूड़े। यावन्तीति व्याख्यातम्। यथा चेत्येतत् पुनरधिकाराभिधानद्वारेणैव च व्याचिख्यासुः संबन्धकत्वेनेद गाथादलमाह-अधिकारादपि चातो वक्ष्ये प्रत्येकमे-कै कस्मिन्नध्ययने / तत्राध्ययनपरिसमाप्तेोऽनुवर्तत सोऽधिकारः। ति गाथाऽर्थः / / 16 / / पहमे धम्मपसंसा, सो य इहेव जिणसासणम्मि त्ति। विइए धिइए सक्का, काउंजे एस धम्मो त्ति / / 20 / / तइए आयारकहा, उखुड्डिया आयसंजमोवाओ। तह जीवसंजमो विय, होइ चउत्थम्मि अज्झयणे // 21 // भिक्खविसोही तवसंजमस्स गुणकारिया उ पंचमए। छठे आयारकहा, महई जोग्गा महयणस्स // 22 // वयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि पणिहाणमट्ठमे भणियं / णवमे विणओ दसमे, समाणियं एस भिक्खु त्ति / / 23 / / प्रथमेऽध्ययने कोऽर्थाधिकारः? इत्यत आह-धर्मप्रशंसा / दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तस्य प्रशंसा स्तवः, सकलपुरुषा र्थानामेवधर्मः प्रधानमित्येवंरूपा। तथाऽन्यैरप्युक्तम्-"धनदोऽार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः / धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्यण साधकः // 1 // " इत्यादि। स चात्रैव जिनशासने धर्मो, नाऽन्यत्र, इहैव निववद्यवृत्तिसद्भावात्। एतयोत्तरत्रन्यक्षेण वक्ष्यामः / धर्माभ्युपगमेच सत्यपि मा भूदभिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतस्तन्निराकरणार्थाधिकारवदेव द्वितीयाध्ययनम् / आह च–द्वितीयेऽध्ययने अथमर्थाधिकारः। धृत्या हेतुभूतया शक्यते कर्तुम्। 'जे' इति पूरणार्थो निपातः, एष जैना धर्म इति / उक्तं च - "जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सा गती सुलभा / जे अधितिमतपुरिसा, तवो वि खलु दुल्लभो तेसिं / / 1 / / ' सा पुनतिराचारे कार्या, न त्वनाचारे, इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव तृतीयाध्ययनम् / आह च-तृतीयेऽध्ययने कोऽर्थाधिकारः? इत्यत आहआचारगोचरा कथा आचारकथा, सा चेहैवाणुविस्तरमेदाता यत आहक्षुल्लिका लध्वी, सा च आत्मसंजमोपायः / संयमनं संयमः, आत्मनः संयम आत्मसंयमस्तदुपायः / उक्तं च "तस्याऽऽत्मा संयमे यो हि, सदाचारे रतः सदा। स एव धृतिमान धर्मस्तस्यैवच जिनादितः।।१।।'' इति। स चाऽऽचारः षड् जीवनिकायगोचरः प्राय इत्यतश्चतुर्थमध्ययनम्। अथवाऽऽत्मसंयमस्तदन्यजीवपरिपालनमेव तत्त्वतः इत्यतस्तदाधिकारवदेव चतु-र्थमध्ययनम्। आह च-तथा जीवसंजमोऽपि भवति चतुर्थेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति / अपिशब्दादात्मसंयमोऽपि तद्भाव्येव वर्तते। उक्तं च - "छसु जीवनिकाएसुं, जे बुहे संजए सदा। से चेव होति विण्णये, परमत्थेण संजए / / 1 / / " इत्यादि / एवमेव धर्मः, स च देहे स्वस्थे सति पाल्यते, स चाऽऽहारमन्तरेण प्रायः स्वस्थोनभवति, सच सावद्येतर मेद इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्यतस्तदर्थाधिका-रवदेव पञ्चममध्ययनमिति। आह च-भिक्षाविशोधिस्तपःसंयमस्य गुणकारिकैव पञ्चमऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति / तत्र भिक्षण भिक्षा, तय विशोधिः सावधपरिहारेणेतरस्वरूपकथनमित्यर्थः,तपः प्रधानः संयमस्तपः संयमः, तस्य गुणकारिकैवेयं वर्त्तते इति। उक्तंच-"से संजतेसमक्खाते, निरवज्जाहार जे विऊ। धम्मकायद्विते सम्म, सुहजोगाण साहए।१॥" इत्यादि। गोचरप्रविष्टन च सता स्वाचारं पृष्टन तद्विदाऽपि न महाजनसमक्ष तत्रैवविस्तरतः कथयितव्यः, अपि तु आलये / गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यम् / अतस्तदर्थाधिकारवदेव षष्ठमध्ययनमिति / आह च-- षष्ठेऽध्ययनेऽर्थाधिकारः आचारकथा। साऽपि महती, नक्षुल्लिका, योग्या उचिता, महाजनस्य विशिष्टपरिषद इत्यर्थः। वक्ष्यति च--"गोयरग्गपविट्ठो उ, न निसिजइ कत्थइ। कहं च ण पबंधिजा, चिट्ठिजा णेव संजए।।१।।" इत्यादि। आलयगतेनापि तेन, गुरुणा वा वचनदोषगुणाभिज्ञेन निरवद्यवचसा कथयितव्यमिति। अतस्तदर्थाधिकारखदेव सप्तममध्ययनमिति। आह च-"वयणविभत्ती'' इत्यादि / वचनस्य विभक्तिर्वचनविभक्तिः, विभजन विभक्तिरेव भूतमनवद्यम्, इत्थं भूतं च सावद्यमित्यर्थः, पुनःशब्दः शेषाध्ययनार्थाधिकारेभ्य अस्याधिकृतार्थाधिकारस्य विशेषणार्थ
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________________ दसवेयालिय 2483 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसवेयालियणिजुत्ति इति सप्तमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति / उक्तं च-"सावजऽणवजाणं, वयणाणं जो न याणति विसेसं / वोत्तुं पितस्स नखम, किमंग ! पुण देसणं काउं / / 1 / / " इत्यादि / तच निरवद्यं वचः स्वाचारे प्रणिहितस्य भवतीत्यतस्तदर्थाधिकारवदेवाष्टममध्ययनमिति / आह चप्रणिधानमष्टमेऽध्ययनेऽर्थाधिकारत्वेन भणितमुक्तम्। प्रणिधानं नामविशिष्टश्वेतोधर्म इति / उक्तं च "पणिहाणरहियस्सेह, निरवज्जं पि भासिय। सावज्जतुल्लं विष्णेयं, मज्झत्थेणेह संबुड // 1 // '' इत्यादि। आचारप्रणिहितश्च यथोचितविनयसंपन्न एव भवतीत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव नवममध्ययनमिति। आह च-नवमेऽध्ययने विनयोऽर्थाधिकार इति। उक्तं च-"आयारपणि-हाणम्मि, से सम्मं वकृती बुहे। णाणादीणं विणीते जे, मोक्खट्ठा णिव्विर्गिछिए / / 1 / / " इत्यादि। एतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग्भिक्षुरित्यनेन संबन्धेन स भिक्ष्वध्ययनमिति / आह च-दशमेऽध्ययने समाप्ति नीतमिदं साधुक्रियाऽभिधायकं शास्त्रम् / एतक्रियासमन्वित एव भिक्षुर्भवति।अत आह-एष भिक्षुरिति गाथाचतुष्टयार्थः। स एवंगुणयुक्तोऽपि भिक्षुः कदाचित कर्मपरतन्त्रत्वात्कर्मणश्व बलवत्त्वात्सीदेत्, ततस्तस्य स्थिरीकरणं कर्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव चूडाद्वयमित्याहदो अज्झयणा चूलिय, विसीययंते थिरीकरणमेगं। विइए विवित्तचरिया, असीयणगुणाइरेगफला॥२४|| द्वे अध्ययने। किम्? चूडा चूडेव चूडा, तत्र प्रमादवशाद्विसीदति सति साधौ संजमे स्थिरीकरणमेकं प्रथमम, स्थिरीकरणफलमित्यर्थः / तथा च तत्रावधावप्रेक्षिणः साधोर्दुःप्रजीवित्वे नरकपाताऽऽदयो दोषा वर्ण्यन्ते इति। तथा च द्वितीयेऽध्ययने विविक्तचर्या वर्ण्यते। किंभूता? असीदनगुणातिरेकफला, तत्र विविक्तचर्यकान्तचर्या द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्व संबद्धता, उपलक्षणं चैषा नियतचर्याऽऽदीनामिति / असीदन गुणातिरेकः फलं यस्याः सा तथा-विधति गाथाऽर्थः // 24 // दसकालियसस एसो, पिंडत्थो वन्निओ समासेणं / एतो एकेक पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि / / 25 / / दशकालिकस्य प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, एषोऽनन्तरोदितः, पिण्डार्थः सामान्यार्थः, वर्णितः प्रतिपादितः, समासेन संक्षेपेण, अत ऊर्द्ध पुनरेकैकमध्ययनं कीर्तयिष्यामि प्रतिपादयिष्यामीति, पुनःशब्दस्यव्यवहित उपन्यासः।इतिगाथाऽर्थः।।२५|| दश०१ अ०॥ अथ शास्त्रकर्तुः स्तवमाहसिज्जंभवं गणहरं, जिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं / मणगपिअरं वि दसकालिअस्स निजूहगं वंदे / / 1 / / शय्यभवम्, अनुत्तरज्ञानाऽऽदिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्तं, जिनप्रतिमादर्शनेन प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वाविरत्यज्ञाननिद्राऽपगमेन सम्यक्त्वविकाशं प्राप्त, नि!हकं पूर्वगतोद्धतार्थविरचनाकतरिं, मनकपितरं दशवैकालिककृतं वन्दे स्तौमीति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु कथानकादवसेयः श्रीसुधर्मशिष्यो हि जम्बूः, तस्य श्रीप्रभवः, तस्य शय्यम्भवः / / 1 / / मणगं पडुच सिखं-भवेण निजूहिआ दसऽज्झयणा। वेआलिआइ ठविआ, तम्हा दसकालिअंनाम / / 2 / / मनकं प्रतीत्य मनकाऽऽख्यमपत्यमाश्रित्य शय्यंभवेन नि!ढानि पूर्वगतादुद्धृत्य विरचितानि, दश अध्ययनानि द्रुमपुष्पिकाऽऽदीनि सभिश्वध्ययनप्रान्तनि / विगतः कालो विकालः, विकलनं वा विकालः, शकलः खण्डश्चेति। तस्मिन् विकाले निर्वृत्तं दशाध्ययननिर्माणं च इदं वैकालिकम्॥२॥ यंप्रतीत्य कृतंतगतवक्तव्यतामाहछहिँ मासेहिँ अहीयं, अज्झयणमिणं तु अज्जमणगेण। छम्मासा परिआओ, अह कालगओ समाहीए।३।। षड्भिर्मासैरधीतं पठितमध्ययनमिदं तु अधीयत इत्यध्ययनम्। इदमेव दशवकालिकाऽऽख्यं शास्त्रम् / केनाऽधीतमित्याह-आर्यमणकेन भावाऽऽराधनयोगात् आरायातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यः, आर्यश्वासौ मणकश्चेति विग्रहः / तेन, षण्मासाः पर्याय इति / तस्याऽऽर्यमणकस्यषण्मासाएव प्रव्रज्याकालः, अल्पजीवितत्वात्। अत एवाऽऽह-अथ कालगतः समाधिनेति / यथोक्तशास्त्राध्ययनपर्यायानन्तरं कालगत आगमोक्तेन विधिना मृतः, समाधिना शुभलेश्याध्यानयोगेनेतिगाथाऽर्थः / / 3 / / अत्र चैव वृद्धवादः-यथा तेनैतावता श्रुतेनाऽऽराधितमेवमन्येऽप्येतदध्ययनानुष्टानत आराधका भवन्त्विति। आणंदअंसुपायं, कासी सिजंभवा तहिं थेरा। जसभद्दस्स य पुच्छा, कहणा य विआलणा संघे ||4|| आनन्दाश्रुपातम्-- अहो आराधितमनेनेति हर्षाश्रुमोक्षणमकार्षुः कृतवन्तः शय्यभवाः प्राख्यावर्णितस्वरूपाः, तत्र तस्मिन् काले स्थविराः श्रुतपर्यायवृद्धाः प्रवचनगुरवः, पूजार्थं बहुवचनमिति / यशोभद्रस्य च शय्यंभवप्रधानशिष्यस्य, गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्चर्यमिति विस्मितस्य सतः पृच्छा-भगवन् ! किमेतदकृतपूर्वमित्येवंभूता? कथना च भगवतः संसारस्नेह ईदृशः सुतो ममाऽयमित्येवंरूपा। चशब्दादनुतापश्च यशोभद्राऽऽदीनाम्। अहो ! गुराविव गुरुपुत्रके वर्तितव्यमिति, नतत् कृतमस्माभिरित्येवंभूतप्रतिबन्धदोषपरिहारार्थम् / न मया कथितं नात्र भवतां दोष इति गुरुपरिसंस्थापनं च / विचारणा सङ्घ इति।शय्यंभवेनाल्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्र नियूंढ किमत्र युक्तमिति निवेदिते विचारणा सङ्केकालह्रासदोषात् प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्वेदित्येवंभूता स्थापना चेति गाथाऽर्थः / दश०२ चूणवीरमोक्षात् "वासाएँ सहस्सेहि, वरिससहस्सेहिँ नवहिँ वोच्छेदो / दसवेयालियसुत्तरस दिण्णसाहम्मि बोद्धव्वो // 816 // " तिका दसवेयालियणिजृत्ति स्त्री०(दशवैकालिकनियुक्ति) दशवैकालिकरय भद्रबाहुस्वामिरचितनियुक्तिग्रन्थे, दश०। "जयति विजितान्यतेजाः, सुराऽसुराधीशसेवितः श्रीमान्। विमलस्त्रासविरहितस्त्रिलोकचिन्तामणिर्वीरः॥१॥" इहार्थतोऽर्हत्प्रणीतस्य सूत्रतो गणधरोपनिबद्धपूर्वगतोद्धतस्य शारीरमानसाऽऽदिकटुकदुःखसन्तानविनाशहेतोर्दशकालिकाभिधानस्य शास्त्रस्यातिसूक्ष्ममहार्थगोचरस्य व्याख्या प्रस्तूयते। तत्र प्रस्तुतार्थप्रचिकटयियवेष्टदेवतानमस्कारद्वारेणाऽशेषविघ्नविनायकाऽपोहसमर्था परममङ्गलाऽऽलयामिमां प्रतिज्ञागाथामाह नियुक्तिकारःसिद्धिगइमुवगयाणं, कम्मविसुद्धाण सव्वसिद्धाणं /
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________________ दसवेयालियणिजृत्ति 2484 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसा नमिऊणं दसकालिय-णिज्जुत्तिं कित्तइस्सामि / / 1 / / सिद्धिगतिमुपगतेभ्यो नत्वा दशकालिकनियुक्ति कीर्तयिष्यामीति क्रिया। तत्र सिद्ध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिर्लोकाग्रक्षेत्रलक्षणा / तथा चोक्तम्-'इह वोदिंचइत्ताण, तत्थ गंतूण सिज्झइ। (ऑ०२गा०)" गम्यत इति गतिः, कर्म साधनम् / सिद्धिरेव गम्यमानत्वादतिः सिद्धिगतिः, तामुपसामीप्येन गताः प्राप्तास्तेभ्यः सकललोकाग्रक्षेत्रप्राप्तेभ्य इत्यर्थः / प्राकृतशैल्या चतुर्थ्यर्थे षष्ठी। यथोक्तम्-'छट्ठीविभत्तीए भन्नइ चउत्थी।" तत्रैकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सकर्मका अपि तदुपगमनमात्रमधिकृत्य यथोक्तस्वरूपा भवन्त्यत आह कर्मविशुद्धेभ्यः / क्रियत इति कर्म ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिलक्षणं, तेन विशुद्धा वियुक्ताः कर्मविशुद्धाः, कर्मकलङ्करहिता इत्यर्थः / तेभ्यः कर्मविशुद्धभ्यः / आह-एवं तर्हि वक्तव्यं न सिद्धिगतिमुपगतेभ्योऽव्यभिचारात्। तथाहि कर्मविशुद्धाः सिद्धिगतिमुपगता एव भवन्ति / न। अवियतक्षेत्रविभागोपगतसिद्धप्रतिपादनपरदुर्नयनिरासार्थत्वादस्य / तथाचाहुरे के-"रागाऽऽदिवासनामुक्तं, चित्तमेव निरामयम् / सदा नियतदेशस्थ, सिद्ध इत्यभिधीयते" / 1 / / इत्यलं प्रसङ्गेन। दश०१ अ० दससण्णाविक्खंभण न०(दशसंज्ञाविष्कम्भणा) दश च ताः संज्ञाश्च तासां विष्कम्भणं निरोधस्तस्मिन्, षो०५ विव०) दससमयट्ठिइय त्रि०(दशसमयस्थितिक) दशसमयान् स्थितिर्येषां तेषु. स्था०१०टा० दससय न०(दशशत) सहस्रसङ्ख्यायाम, स्था०१० ठा०। दससयसहस्सन०(दशशतसहस्र)दशलक्षाऽऽत्मिकायां संख्यायाम, अनु० दससहस्स न०(दशसहस्र) सङ्ख्याभेदे, अनु०। दसहा अव्य०(दशधा) दशविधे, उत्त०२३ अ०। वाचा दसहासामायारी स्त्री०(दशधासामाचारी) दशधेत्याख्याऽभिधान यस्याः सा / दशप्रकारलक्षणायामिच्छाकाराऽऽदिसाभाचार्याम्, ध०३ अधि०। (ताश्च दश 'सामायारी' शब्दे वक्ष्यन्ते) दसा स्त्री०(दशा) दन्-श-अड, नि०नलोपः / चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणायामवस्थायाम्, नं०। अनुभागेन युक्तो विभागो दशा / नि०चू०११ उ०। वर्षशताऽऽयुष्कापेक्षया वर्षदशकप्रमाणायां कालकृताया जन्त्ववस्थायाम, दशा साम्प्रतं प्रस्तुतोपयोगित्वात्कालस्य कालदशकद्वारे विशेषार्थप्रतिपिपादयिषयेदमाहबाला किडा मंदा, बलाय पन्ना य हायणि पवंचा। पन्भार मम्मुही सायणी य दसमा उ कालदसा / / 10 / / वाला क्रीडा च मन्दा च बला च प्रज्ञा च हायिनी ईषत्प्रपञ्चा प्रारभारा मृन्मुखी शायिनी / तथाहि एता दश दशा जन्त्ववस्थाविशेषलक्षणा भवन्ति। __आसा चस्वरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभिः"जातमित्तरस जंतुस्स, जा सा पढमिया दसा। ण तत्थ सुहदुक्खाई, बहु जाणंति बालया।।१।। वितियं च दसंपत्तो, णाणाकिड्डाहि किड्डइ। न तत्थ कामभोगेहि, तिव्वा उप्पजई मई / / 2 / / ततियं च दसंपत्तो, पंचकामगुणे नरो। समत्थो भुजिउ भोए, जइ से अत्थि घरे बहू // 3 // चउत्थी उबला नाम,जं नरो दसमस्सिओ। समत्थो बलं दरिसिउं, जइ होइ निरुवद्दवो।।४।। पंचमि, उ दस पत्तो, आणुपुचीऍ जो नरो। इच्छियत्थं विचिंतेति, कुडुबं वाऽभिकखति // 5 // कूट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। विरजइ य कामेसु, इंदिएसु य हायति / / 6 / / सत्तमिं च दसं पत्तो, आणुपुवीइजो नरो। निढुहइ चिक्कण खेलं, खासतिय अभिक्खणं / / 7 / / संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्टमिंदसं। णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामितो / / 8 / / णवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो, जीवो वसई अकामओ ||6|| हीनभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ। दुब्बलो दुक्खिओ सुवइ, संपत्तो दसमि दसं // 10 // " दश०१ अ० स्था०ा नंगा नि०चूला दीपवाम्, "अपेक्षन्तेन च स्नेह, नपात्रं न दशाऽन्तरम् / परोपकारनिरताः, मणिदीपा इवोत्तमाः॥१॥" इत्युटः / चित्ते कामकृते विरहिणां नेत्ररागाऽऽद्यवस्थादशके, वाचन वस्वाञ्चले, वाचला दशैव दशसंख्या एव दशादशाधिकाराभिधायकत्वादशा इति बहुवचनान्तं स्त्रीलिङ्गम्।शास्त्रस्याभिधाने, षा० दशाध्ययनप्रतिबद्धप्रथमवर्गयोगाद्दशाग्रन्थविशेषे, अणु०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०॥ दस दसाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-कम्मविवागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ, पण्हावागरणदसाओ, बंधदसाओ, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ॥ (दस त्ति) दशसख्याः (दसाओ त्ति) दशाधिकाराभिधायकत्वाद्दशा इति बहुवचनान्तं स्त्रीलिङ्ग शास्त्रस्याभिधान इति / कर्मणोऽशुभस्य विपाकः फलं कर्मविपाकः, तत्प्रतिपादिका दशाध्ययनाऽऽत्मकत्वाद् दशाः कर्मविपाकदशाः विपाकश्रुताऽऽख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धो, द्वितीयश्रुतस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनाऽऽत्मक एव। न चासाविहाभिमतः, उत्तरत्र विवरिष्यमाणत्यादिति।तथा साधूनुपासते सेवन्त इत्युपासकाः श्रावकाः, तद्गतक्रियाकलापप्रतिबद्धा दशा दशाध्ययनोपलक्षिता उपाशकदशाः सप्तममङ्गमिति। तथा-अन्तो विनाशः, सच कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य कृतो यैस्तेऽन्तकृतः, ते च तीर्थकराऽऽदयः, तेषां दशा अन्तकृद्दशाः, इह चाऽष्टमाङ्गस्य प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्ययोपलक्षितत्वादन्तकृद्दशा इत्यभिधानेनाष्टममङ्गमभिहितम्। तथोत्तरः प्रधानो नारयोत्तरो विद्यत इत्यनुत्तर उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थोऽनुत्तरश्वासावुपपातश्चेत्यनुत्तरोपपातः, सोऽस्ति येषा तेऽनुत्तरोपपातिकाः सर्वार्थसिद्धाऽऽदिविमानपञ्चकोपपातिन इत्यर्थः, तद्वक्तव्यता प्रतिबद्भगा दशा दशाध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशा
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________________ दसा 2485 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दसासुयखंध नवममङ्ग मिति। तथा-चरणमाचारो ज्ञानाऽऽदिविषयः पञ्चधा आचारप्रतिपादनपरा दशा दशाध्ययनाऽऽत्मिका आचारदशा दशाश्रुतस्कन्ध इति या रूढाः, तथा प्रश्नश्च पृच्छा, व्याकरणानि च निर्वचनानि प्रश्नव्याकरणानि, तत्प्रतिपादिका दशा दशाध्ययनाऽऽत्मिका: प्रश्नव्याकरणदशा दशममङ्ग मिति / तथा-बन्धदशा द्विगृद्धिदशा दीर्घदशाः संक्षेपिकदशाश्वास्माकमप्रतीता इति। स्था०१० टा०। धo पा०। अष्ट। 'दस उद्देसणकाला, दसाण कप्परस हुति छकोव / दस चेव य ववहारस्म हुंति सव्वे वि छव्वीसं॥४८||" आ०चू०१अ01 'छब्बीसाए दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकालेहिं / " आव०४ अ०। ज्योतिषाक्त नक्षत्रानुसारेण सूर्याऽऽदिग्रहाणा स्वामित्वेन भोग्यकाले, वाच०। दसार पुं०(दशाह) "दशाहे " ||8 / 2 / 85 / / इति हस्य लुक् / प्रा०२ पाट / हरिवंशकुलोद्भवेषु, सूत्र०२ श्रु०१ अ० आ०म०। समुद्रविजटाऽऽदिवसुदेवान्ता दश दशाराः। स०अन्त०। समयभाषया वासुदेवे, स्था०२ टा०३उ०। वासुदेव कुलीन प्रजासु, ससा बन्धदशानां चतुर्थेऽध्ययने दशाराणां वक्तव्यता उक्ता, सा चेदानी नोपलभ्यते, बन्धदशान व्युच्छिन्नत्वात / स्था०१० ठा०। बलदेवे, आ०म०१ अ० रखण्ड। आ०चू०। 'दसण्ह दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं / " नि०१ श्रु०४ वर्ग अ०। दसारगंडिया स्त्री०(दशाहगण्डिका) दशाह कवक्तव्यतार्थाधिका-- रानुगतासुधाक्यपद्धतिषु,यत्र दशार्हाणा पूर्वजन्माऽऽद्यभिधीयते। स०। दसारचक्क न०(दशार्हचक्र) यादवसमूह, उत्त० ''दसारयकेण य सो, सबओ परिवारिओ।" उत्त०२२ अ०। दसारमंडण न० (दशाहमण्डन) दशार्हाणां वासुदेवकुलीनप्रजाना मण्डनाः शाभाकारिणो दशाहमण्डनाः / दशाहोत्तमपुरुषेषु, सका दसारमंडल न०(दशाहमण्डल) दशार्हाणां वासुदेवानां मण्डलानि दशाहमण्डलानि, बलदेववासुदेवद्वयलक्षणाः समुदाया दशाहमण्डलानि। बलदेववासुदेवद्वयलक्षणे समुदाये, स०। (बलदेववासुदेवयोः सर्वा वक्तव्यता 'तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2274 पृष्ठे उक्ता) ('बलदेववासुदेव' शब्दयोः भविष्य बलदेववासुदेवा वक्ष्यन्ते) दर्शाहप्रसङ्ग तः भरतवर्षे भविष्यद् बलदेववासुदेवपितृमातृप्रभृतिनामनिर्देश: जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए नव बलदेववासुदेवपियरो भविस्संति / नव वसुदेवमायरो भवि-- स्संति, नव बलदेवमायरो भविस्संति। नव दसारमंडला भविस्संति / तं जहा-उत्तमपुरिसा, मज्झिमपुरिसा, पहाणपुरिसा, तेयंसी०एवं सो चेव वण्णओ भाणियव्वोजाव नीलगपीतमवसणा / दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति / तं जहा-- "नंदे य नंदमित्ते, दीहबाहू य महबाहू। अइबले महाबले, बलभद्दे य सत्तमे ||1|| तिविढू य दुविठू य, आगमिस्सेण वण्हिणो। जयंते विजए भद्दे, सुप्पभे य सुदंसणे / / 2 / / आणंदे णंदणे पउमे, संकरिसण अपच्छिमे।" पूर्वभवनामाऽऽदीनिएएसि णं नवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुष्वभविया नवणामधेज्जा भविस्संति, नव धम्माऽऽयरिया भविस्संति, नवनियाणभूमीओ भविस्संति, नव नियाणकारणा भविस्संति, नव पडिसत्तू भविस्संति। तं जहा-तिलए य लोहजंधे वइरजंधे य के सरी पल्हाए अपराजिए, भीमसेणे महाभीमे सुग्गीवे य अपच्छिमे। "एए खलु पडिसत्तू, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं / सव्वे वि चक्कजोही, हम्मिं हंता सचक्के हिं।।१।।" ऐरवते वर्षे चैषां पितृमातृप्रभृतयःजंबुद्दीवे दीवे एरवए वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए नव बलदेववासुदेवपियरो भविस्संति, णव वासुदेवमायरो भविस्संति, णव बलदेवमायरो भविस्संति, णव दसारमंडलाभविस्संति। तं जहा-उत्तमपुरिसा, मज्झिमपुरिसा, पहाणपुरिसा० जाव दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति, णव पडिसत्तू भविस्संति, णव पुटवभवणामधेजा, णव धम्मायरिया, णव णियाणभूमीओ, णव णियाणकारणा, आयाए एरवए आगमि स्साए भाणियव्वा, एवं दोसु वि आगमिस्साए भाणियव्वा / स०। दसारवग्ग पुं०(दशाहवर्ग) दशार्हसमुदाये, दश०१ अ०। दसारवरवीरपुरिस पुं०(दशाहवरवीरपुरुष) दशार्हाणां समुद्रविजयाऽऽदीनां दशार्हस्य वा वासुदेवस्य येवराश्च पुरुषास्ते। ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। दशार्हाः समुद्रविजयाऽऽदयस्तेषु मध्ये वरास्त एव वा वरा वीरपुरुषास्ते दशाहवरवीरपुरुषाः। दशार्हश्रेष्ठपुरुषेषु, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। दसारवंस पुं०(दशाहवंश) बलदेववासुदेववंशे, "तीसे णं समाए तओ वसा समुप्पजित्था।" जं०श्वक्ष। तिनस० दसासुयखंध पुं०(दशाश्रुतस्कन्ध) दशाध्ययनप्रतिपादको ग्रन्थो दशा, स चाऽसौ श्रुतरकन्धश्च दशाश्रुतस्कन्धः / दशाकल्पापरप-येसमाधिस्थानाऽऽद्यर्थाभिधायकतयाऽर्थतो वर्द्धमानस्वाम्युक्ते सूत्रतो द्वादशस्वङ्गेषु गणधरैस्ततोऽपि मन्दमेधसामनुग्रहायातिशायिभिः प्रत्याख्यानपूर्वादुद्धृत्य पृथक् दशाध्ययनत्वेन व्यवस्थापित ग्रन्थे, दशान "यथास्थिताशेषपदार्थसार्थ-क्रमार्थसन्धानविधिप्रवीणम्। जिनं जनाऽऽनन्दकरं कृपाऽब्धिं, नमामि भव्याम्बुजबोधसूरम्।१। स्तुमे महावीरजिनस्य तेजो, भवाख्यनीराऽऽकरपारगस्य। अनादिदुष्कर्मगणस्य नित्यं, तृणायितं यत्र सुखापमेव(?)।२। श्रीवसुभूतितनूज, वन्दे श्रीगौतमाभिधं सदा साधुम् / सकललब्ध्येकनिलयं,मलयं गुणचन्दनौघस्य / / 3 / / यपा प्रसादमासाद्य, जायते शास्त्रकौशलम् / श्रीगुरुगामहं तेषा, वन्दे चरणपङ्कजम्॥४।। अध्ययनदशकमेतत्, चूर्णिकृता यदपि वर्णित सम्यक् / तदपि त्वरयति मामिह, वृत्तिविधौ वाक्यकृद्भक्तिः / / 5 / / " इह रागद्वेषाऽऽद्यभिभूतेनं संसारपारावारसारिजीवे नेन्द्रिया
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________________ दसासुयखंध 2486 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दह ऽऽयतनमानसानेकातिकटुकदुःखोपलिपातपीडितेन तत्परिहाराय हेयोपादेयपदार्थसार्थविज्ञानविधौ यत्नः कर्त्तव्यः, स च न विशिष्टविवेकमृते, विवेकोऽपि न प्राप्ताशेषातिशयकलापाऽऽतोपदेशं विना, स चाऽऽप्त आत्यन्तिकदोषप्रक्षयादेव भवितुमर्हति / स च वीतरागस्यैव, अत आरभ्यते अर्हद्वचनानुयोगः / अयं च दशाश्रुतस्कन्धोऽलिगम्मीरीऽल्पाक्षरैव्यावर्णितश्चूर्णिकृता, अत एवाऽल्पबुद्धीनामुपकारासमर्थः, तेन तेषामनुग्रहार्थं मया तस्य किञ्चिद्विस्तरतो व्याख्यानमातन्यते-अथ दशाश्रुतस्कन्ध इति कः शब्दार्थः? उच्यते- दशाध्ययनप्रतिपादको ग्रन्थो दशा, स चासौ श्रुतस्कन्धश्चेति दशाश्रुतस्कन्धः, दशाकल्प इति वा पर्यायनाम। अयञ्च ग्रन्थोऽसमाधिस्थानाऽऽदिपदार्थशासनाच्छारत्रम्। ननु दशाश्रुतस्कन्धप्रारम्भोऽयुक्तः, प्रयोजनाऽऽदिभी रहितत्वात्, कण्टकशास्त्रामर्दनाऽऽदिवदित्याशङ्काऽपनोदाय प्रयोजनाऽऽदिकमादावुपन्यसनीयम् / यदुक्तम्-''पूर्वमेवेह संबन्धः, साभिधेयं प्रयोजनम्। मङ्गलं चैव शास्त्रस्य, प्रयोक्तव्यं / / 1 / / " दशा०१ अ०। तत्र प्रथमेऽध्ययने विंशतिरसमाधिस्थानानि। द्वितीयेऽध्ययने एकविंशतिः शवलाः। तृतीये प्रयस्त्रिंशदाशातनाः। चतुर्थे ऽष्टौ गणिसम्पदः। पञ्चमे दश चित्तसमाधिस्थानानि / षष्टे एकादशोपासकप्रतिमा। सप्तमे द्वादश भिक्षुप्रतिमाः। अष्टममध्ययनं कल्पसूत्राऽऽख्यं पृथगस्ति, तत्र तीर्थकृचरितं, पर्युषणाकल्पः, स्थविराऽऽवली चेत्यधिकाराः। नवमे त्रिंशन्मोहनीयस्थानानि / दशमे नव निवातस्थानानि। दशा०१० अ०ाधा "भणितो दसाण छेदो, जत्थ सरस-एहिं होइ सरिसाणं / समणम्मि फरगुमित्ते, गोयमगोत्ते महासत्ते / / 1 // " तिला दसाहिया स्त्री०(दशाहिका) दशदिवसप्रमाणायां पुत्रजन्मक्रियायाम, भ०११ श०११उ० दसाहुस्सव पुं०(दशाहोत्सव) दशादिवसमहे, प्रति०। दसिया स्त्री० (दशिका) वस्त्राञ्चले, बृ०३ उ० वर्तिकायां च / दण्डस्याग्रभागे ऊर्णिकादशिका बध्यन्ते। बृ०७उ०। दसुत्तरा स्त्री० (दशोत्तरा) दशाधिके अष्टौ रेखा दशोत्तरा दशकवृद्ध्या पलपरिमाणसूचिकाः। ज्यो०२ पाहु०। दसू (देशी) शोके, दे०ना०५ वर्ग 34 गाथा। दसेर पुं०(देशी) सूत्रकनके, दे०ना०५ वर्ग 33 गाथा। दस्सु पुं०(दस्यु) चौरे, आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०१उ०। अदत्ताऽऽहरो वा दस्युर्वाऽपहरति। आचा०१ श्रु०५ अ०३३० दह त्रि०(दशन) दन-ञ-कनिन् / वाचा "दशपाषाणे हः" 18/1 / 262 / / इति दशन शब्दे शकारस्य हकारः। 'दह। दस।' प्रा०१ पादास ख्याविशेधे, वाच०। द्रह पुं०।"२ रोनवा" ||8||80 / / इति रेफस्य वालुक्। जलाऽऽशये, प्रा०२ पाद। हृद पुं०। "हदे हदोः" / / 2 / 120 / / इति हकारदकारयोर्व्यत्ययः। / प्रा०२ पाद। अगाधजलाऽऽशये, जंग। वक्ष आचा०। चं०प्र०) नं०। प्रज्ञाo जंबू ! मंदरस्स उत्तरदाहिणेणं चुल्लहिमवंतसिहरीसु वासहरपव्वएसु दो महदहा पन्नत्ता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णं नाइवटुंति आयामविक्खंभउव्वेहसंठाणपरिणाहेणं / तं जहा-पउमबहे चेव, पुंडरीयबहे चेव / तत्थ णं दो देवयाओ महिनियाजाव पलिओवमट्टिईयाओ परिवसंति। तं जहासिरि चेव, लच्छी चेव / एवं महाहिमवंत रुप्पिसु वासहरपव्वएसु दो महदहा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला० जाव महापउमद्दहे चेव, महापों डरीयबहे चेव / देवताओहिरि बेव, बुद्धि चेव / एवं निसहनीलवंतेसु तिगिच्छिद्दहे चेव, केसरिहहे चेव। देवताओधिई चेव, कित्ती चेव। (जंबू इत्यादि) इह च हिमवदादिषु षट् सुवर्षधरेषुक्रमेणैते पद्माऽऽदयः अडेव ह्रदाः / तद्यथा-"पउमे य महापउमे, तिगिच्छि केसरिदहे चेव। हरऍ महपुंडरीए, पुंडरीएचेव यदहाओ।।१।।' हिमवत उपरि बहुमध्यभागे पाहूद एव शिखरिणः पौण्डरीकाः, ते च पूर्वापराऽऽयती सहस्रपञ्चशतविस्तृतौ चतुष्कोणौ दशयोजनावगाढी रजतकूलौ वज़मयपाषाणी तपनीयतली सुवर्णमध्यरजतमणिवालुकौ चतुर्दशमणिसोपानी स्वभाषतारौ तोरणध्वजच्छत्राऽऽदिविभूषितौ नोलोत्पलपुण्डरीकाऽऽदिचितौ विचित्रशकुनिमत्स्यविरचितरवौषट् पदपटलोप भोग्याविति। (तत्थणं ति) तयोर्महाह्रदयोझै देवते परि वसतःपद्महदे श्रीः, पौण्डरीके लक्ष्मीः। ते च भवनपतिनिकायाभ्यन्तरभूते, पल्योपमस्थितिकत्वात्। व्यन्तरदेवीनां हि पल्योपमा मेवाऽऽयुरुत्कर्षतो भवति / भवनपतिदेवीनां तूत्कर्षतोऽर्द्धपञ्चपल्योषमान्यायुर्भवति। आह च-"अद्भुट्ठ-अद्धपंचमपलिओवमअसुरजुयलदेवीणं ।सेसभवणदेवयाण य, देसूण अद्धपलियमुक्कोसं // 1 // " इति। तयोश्च महाहृदयोर्मध्ये योजनमाने पद्मे अर्द्धयोजनबाहल्ये दशावगाहे जलान्ताद्। द्विक्रोशोच्छ्ये वज्राऽरिष्टवैडूर्यमूलकन्दनाले वैडूर्यजाम्बूनदमयबाह्याभ्यन्तरपत्रे कनककर्णिकते तपनीयकनककेशरे तयोः कर्णिकऽर्द्धयोजनमाने तदड़बाहल्ये तदुपरि देव्योर्भवने इति। (एवमित्यादि) महाहिमवति महापद्मो, रुविमणि तु महापौण्डरीकः, तौ च त्रिसहस्राऽऽयामौ तदर्द्धविष्कम्भौ द्वियोजनमानपद्मन्यासवन्तौ। तयोर्देवते परिवसतः।महापो हीः, पौण्डरीके बुद्धिरिति। (एवमित्यादि) निषधे तिगिच्छिदे धृतिर्देवता, नीलवति केशरिहदे कीर्तिर्देवता। तौ च हृदौ चतुर्द्विसहस्राऽऽयामविष्कम्भाविति / भवति चात्र गाथा- 'एएसु सुरवहूओ, वसंति पलिओवमद्वितीआओ। सिरिहिरिधीकित्तीओ, बुद्धीलच्छीसमाणाओ ||1||" इति / स्था०२ ठा०३उ०द्वारवत्यां बलदेवस्य राज्ञः रेवत्यां जाते स्वनामख्यातेपुत्रे, निकासच अरिष्टनेमितीर्थकरानगारस्य वरदत्ताभिधानस्यान्तिके प्रव्रज्य्यानशनेन मृत्वा देवलोके उत्पन्नः, ततश्च्युत्त्वा महाविदेहे वर्षे सेत्स्यतीति निरयावलिकाऽन्तर्गतवृष्णिदशानां तृतीयेऽध्ययने सूचितए। नि०१ श्रु०४ वर्ग 10 अ०। जंबू ! मंदरस्स दाहिणेणं तओ महादहा पण्णत्ता / तं जहा पउमदहे, महापउमदहे, तिगिच्छिदहे / तत्थ णं तओ देवयाओ महिड्डियाओ० जाव पलिओवमट्ठिईयाओ परिवति। तं जहा-सिरी, हिरी, धिई। एवं उत्तरेण वि, णवरं के सरि
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________________ दह 2487- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दहि दहे महापोंडरीयदहे पोंडरीयदहे देवयाओ-कित्ती, बुद्धी, तस्स णं दहावईकुंडस्स दाहिणेणं तोरणेणं, दहावई महाणई लच्छी। स्था०३ ठा०४० पवूढा समाणी कच्छावई आवत्ते विजए दुहा वि भयमाणी षष्ठे स्थाने भयमाणी दाहिणेणं सीआ महाणई समप्पेई / सेसं जहा जंबुद्दीवे दीवे छ महदहा पण्णत्ता। तं जहा-पउमद्दहे, महाप- गाहावईए / जं०४ वक्ष उमद्दहे, तिगिच्छिद्दहे, केसरिदहे, पुंडरीयदहे, महापुंडरीयदहे! | दहावईकुंड न०(हृदावतीकुण्ड) हृदावतीनाम्न्या अन्तर्णद्या उद्तत्थ णं छ देवयाओ महिड्डियाओ०जाव पलिओवमद्वितीया गमकुण्डे, जंग। परिवसति / तं जहा-सिरि, हिरि, धिइ, कित्ती, बुद्धी, लच्छी! कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे दहावईकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते? स्था०६ ठा०। गोयमा ! आवत्तस्स विजयस्स पञ्चच्छिमेणं कच्छगावईए सव्वे विणं महदहा दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता। स्था०। विजयस्स पुरच्छिमेणं णीलवंतस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं दहगलण न०(हृदगलन) हृदस्य मध्ये मत्स्वाऽऽदिग्रहणार्थ भ्रमणे, महाविदेहे वासे दहावईकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते / सेसं जहा जलनिःसारणे च। विपा०१ श्रु०८ अ० गाहावईकुंडस्स जाव अट्ठो। दहण पुं०(दहन) दह--ल्युट् / दहतीति दहनः / अग्नी, विशे० आ०चू०।। ह्रदीवतीकुण्ड प्रज्ञप्तम् / शेषं यथा ग्राहावतीकुण्डस्य रूपाख्यान ज्वालाभिर्भरमीकरणे, प्रश्न०१ आश्रद्वार / कृत्तिकानक्षत्रे, दहनः ग्राहावतीद्वीपपरिमाणभवनवर्षकनामार्थकथनप्रमुख तथा ज्ञेय, नवर कृतिकाया देवता / स्था०२ ठा०३उ० पाटलि पुत्रनगरवास्तव्यस्य हृदावतीद्वीपो हदायतीति नामार्थः समधिगम्यः हृदा अगाधजलाऽऽशयाः हुताशननाम्नः श्रावकस्य ज्वलनशिखायां भार्यायां जाते स्वनामख्याते सन्त्यस्यामिति हृदावती। साधनिका प्राग्वत् / जं० 4 वक्षः। पुत्रे, आ० क०। चित्रकवृक्षे, भल्लातके, दुष्टचेतसि च। भावे ल्युट्। / दहि न०(दधि) दध-इन। दुग्धविकृतिभेदे, प्रव०४ द्वार / औ०। उक्ष०| दाहे, वाचा प्रज्ञाला स्था०। प्रश्न०। दधिनवनीतघृतानियत्वार्यज गवादिसम्बन्धीनि, दहणसील पुं०(दहनशील) ज्वालनस्वभावे, तं०। "पुत्रश्च मूर्खा यस्मादुष्ट्रीणां तानि दध्यादीनि उ भवन्ति / पं०व०२ द्वार। आ०चूक विधवा च कन्या, शठं च मित्रं चपलं कलत्रम् / विलाशकालेऽपि आवळा स्था०। दिनद्वयातीते दण्यपि जीवसंसक्तिर्यथा-"जइ मुग्गदरिद्रता च, विनाऽग्रिना पञ्च दहन्ति देहम् / / 1 / / '' तं०। मासमाई, विहलं कचम्मि मोरसे पडइ। ता तसजीवुप्पत्ति, भणंति दहिए दहप्पवहणन०(हृदप्रवहण) हदजलस्य प्रकृष्ट वहने, विपा० 1 श्रु०८अ०/ विदुद्दिणुवरि / / 1 / / ' हारिप्रद्वदशवैकालिकवृत्तावपि-"रसजास्तक्रारदहफुल्लिया स्त्री०(हृदफुल्लिका) वल्लीभेदे, प्रज्ञा०१ पद। नालदधितीमनाऽऽदिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्तीति / " दहबल पु०(दशबल) 'दसबल' शब्दार्थे ,प्रा०१पाद / ''दध्यहतियातीतम्।" इति हैममपि वचः। ध०२ अधि०। आचा०। दहमद्दण (हृदमर्दन) हृदस्य मध्ये पौनःपुन्येन परिभ्रमणे, जले निःसारित वस्त्रे च, धा-कि-द्वित्वम् / धारणकर्तरि / वि० वाचा "पदयोः पकमर्दने च। विया०१ श्रु०८अ०। सन्धिर्ना"।।८।१५।। इति सन्धिविकल्पः। "दहि ईसरो। दहीसरो।" दहमद्दल न०(हृदमर्दल) 'दहमद्दण' शब्दार्थे , विपा०१ श्रु०८अ० प्रा०१ पाद। 'दहिदगरयसंदकुदवासंतियमुजलअच्छिद्दविमलदसणा।" दहमह हृदस्य(हृदमख) विशिष्ट काले पूजायाम, आचा०२ श्रु०१ जी०३ प्रति०४ उ०। निर्विकृतिकदुग्वजं दधि निर्विकृतिक, विकृतिति चू०१अ०२उ प्रश्ने, उत्तरम्-एवंविधदुग्धजंदध्यपि निर्विकृतिकं स्यात्, परं प्रसङ्गपदहमहण न०(हृदमथन) हृदजलस्य तरुशाखाभिर्विलोडने, विपा०१ रम्पराशैथिल्यान्न ग्राह्यमिति वृदसंप्रदायः।।१०६प्र०ासेन०२ उल्ला०) श्रु०८अ०। षोडशप्रहरानन्तरं दध्यभक्ष्यं स्यात्, द्वादशप्रहरानन्तरं वेति व्यक्त्या दहमुह पु०(दशमुख) "दशपाषाणे हः" ||8 / 1 / 2621 // इति शकारस्य प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्-''आनगोरससंपृक्त, द्विदलौ पुष्पितौ वैकल्पिको हकारः / 'दहमुहो। दसमुखो।' रावणे, प्रा०१ पाद। दनम् / दध्यहतियातीत, वथिताऽन्नं च वर्जयेत् // 1 // इति योगशादहवई स्त्री०(हृदवती) "दो दहवईओ।" स्था०२ ठा०३ उ०। 'दहावई' स्वतृतीयप्रकाशे / एत-व्याख्यालेयो यथा / इह हि इयं स्थितिःशब्दार्थे, स्था०६ ठा०। कश्चिद्भावो हेतुगम्येषु त्वामममायं प्रतिपादयन् आज्ञाविराधकः दहवहण न०(हृदवहन) स्वत एव ह्रदाम्बलनिर्गमे, विपा०२ श्रु०८ अ०॥ स्यादित्यायगोरससंपूक्तद्विदलाऽऽदौ य हेतुगम्यो जीवसद्भाव; किं दइवोल्ली स्त्री०(देशी) स्थाल्याम्, दे०ना०५ वर्ग 36 गाथा। त्वागमगम्य एव / तथाहि-"गामगोरससंपृक्ते, द्विदले," आदिशब्दात् दहावई स्त्री०(हृदावती) ह्रदा अगाधजलाऽऽशयाः सन्त्यस्यामिति पुष्पितौदने, अहतियातीते च दधिन, क्वश्चितान्ने च ये जन्तवस्ते हृदावतो। ज०४ वक्ष०ा जम्बूद्वीपे मेरोः पूर्वस्यां दिशिशीताया महानद्याः केवलज्ञानिभिर्दृष्टा इत्यामगोरश्चद्वि-इलाऽऽदिभोजन वर्जवेदिति, दक्षिणतः सङ्गतायामन्तर्णद्याम, स्था०६ ठा०। तद् भोजनाद् द्विप्राणातिपातलक्षणो दोषः स्यादिति / अहतिया
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________________ दहि 2488 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाढियालि तीतमिति कोऽर्थ? दिनद्वयातिक्रमेऽभक्ष्यम् / दिवर ग्रहणेन रात्रिग्रहण ती०। उत्त०।(इयं कथा 'करकंडु' शब्दे तृतीयभागे 357 पृष्ठे उक्ता) समागतमेव, यथा-त्रिंशदिनमांसः, पञ्चदशदिनः पक्ष हायर्थः। एतावना दहिव्वय पुं०(दधिवत) न दध्यत्ति दधिव्रतः / दधिप्रत्याख्यान वति, रात्रिद्वयातिक्रमे द्वादशाऽऽदिप्रहरातिक्रान्तं दध्यभक्ष्य,यदा प्रथमदिवसे आव०४ औ०। 'पर्याव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः रत्ना। प्रभाते मेलितं तदा षोडशप्रहरानन्तरमेवाभक्ष्यं भवतिः परं षोडशप्रहर- दा धा०(दा) जुहो०-उभ०-सक०-सेट्। दाने, वाच० "स्वराणां स्वराः मियमो नेति संभाव्यत इति / यतः पूर्वदिने संध्यायां मलित द्वादश- ||8 / 4 / 238 // " इति दाधातोराकारस्यैकारः। "देइ। दाई।" प्रा०४ पाद / प्रहरानन्तरमप्यभक्ष्यं भवतीति।६३ प्र० सेन०३उल्ला दाअ पुं०(देशी) प्रतिभुवि, देवना०५ वर्ग 38 गाथा। दहिउप्फ न०(देशी) नवनीते, देवना०५ वर्ग 35 गाथा! दाइ अव्य०(दाइ) अभिप्रायाभिदर्शने, नि०यू०२उ०। दहिघण पुं०(दधिधन) दधिपिण्डे, जं०१ वक्ष०ा प्रशा० जी०। रा! दाइज्जमाण पुं०(दीमाण) चक्षुषा प्रत्यक्ष कारयिष्यमाणे वस्तुनि, कल्प० दहिट्ठ पुं०(देशी) कपित्थे, देना०५ वर्ग 35 गाथा। ५क्षण। दहित्थार पुं०(देशी) दधिसरे, दे०ना०५ वर्ग 36 गाशा। दाइय पु०(दायाद) पुत्राऽऽदिषु, भ०६ श०३३३०॥ दहिमुहपव्वय पुं०(दधिमुखपर्वत) पर्वतभेदे, स्था०ा दधिवत श्वेतं भुखं | *दायिक पुं० / गोत्रिके, कल्प०५ क्षण। "दायिकसुतमाणिक्यः, प्रेरितशिरो रजतमयत्वाद् येषां ते दधिमुखाः / उक्तं व--''संसदल... वानरमदादिजनान्।" भ०४१ श०१६ उ०| विमलनिम्मलदहियणगोखीरहारसंकासा। गगणतलमणुलिहंता, सोहंते | दाइया स्त्री०(दारिका) वालिकायाम, आ०म०१ अ०२ खण्ड। "एवं दधिमुहा रम्मा'' ||1|| इति / स्था०। 4 ठा०३उ०। नन्दीश्वरद्वीपेड- | परिवाडीए सुंदरी दाइया।" आ०म०११०१ खण्ड। जनपर्वतानां प्रत्येकं चतुर्दिा पुष्करिणीनां मध्यभागस्थेषु स्वनाम- | दाउं अव्य०(दातुं) सकृद्दानं कर्तुमित्यर्थे , उपा०१ अ "दउं वा ख्यातेषु पर्वतेषु, स० अणुप्पदाणत्थं रायाभिओगेणं / ' प्रति०। सवे विणं दधिमुहा पव्वया पल्लासंठाणसंठिया सव्वत्थ समा / दाकलस पुं०(उदककलश) लघुतरे घटे, भ०१५ श०। विक्खंभुत्सेहेणं चउसढेि चउसट्टि जोयणसहस्साई पण्णत्ता। दकुंभ पुं०(उदककुम्भ) महद्धटे, भ०१५।०। (सव्वे विणमित्यादि) इतोऽष्टमे नन्दीश्वराऽऽख्ये द्वीप पूर्वाऽऽदिषु दिक्षु दाघ पुं०(दाह) 'दाह' शब्दार्थे , प्रा०१ पाद। चत्वारोऽऽजनकपर्वता भवन्ति, तेषां च प्रत्येक चतरपु दिक्षु चतस्रः / दाडिम न०(दाडिम) "डो लः // 8/1202 / / " स्वरात् परस्यासपुष्करिण्यो भवन्ति, तासांच मध्यभागेषु प्रत्येक दधिगुखपर्वता भवन्ति, युक्तस्यानादेर्मरय प्रायो लुग भवति। 'दालिम। दाडिम।' वाचला जी०। तेच षोडशपल्यड् कसंस्थानसस्थिताः समानाः सर्वत्र समा विष्कम्भेण औ०। आचा०। ज्ञा०। ओघ०। रा! मूलाऽऽदिषु दशसहस्रविष्कम्भत्वात्तेषाम्। कृचित्तु-"विक्खंभुस्सेहेण' दाडिमपुप्फप्पगासपीवराहरा स्त्री०(दाडिमपुष्पप्रकाशपीवरा-धरा) इति पाठः तत्र तृतीयैकवचनलोपदर्शनाद्विष्कम्भेणेति व्याख्येयम्। तथा- दाडिमपुष्पप्रकाशः पीवरः प्रवरः सुभगोऽधरो यासां ता दाडिमपुष्यउत्सेधेनोचत्वेन चतुष्षष्टिरिति / स०६४ समका(अस्य वर्णकस्तु / प्रकाशपीवराधराः। सुन्दराधरोष्ठासु योषित्सु, जी०३ प्रति० ४उ० 'अंजणग' शब्दे प्रथमभागे 48 पृष्ठे उक्तः) दाढा स्त्री० (दंष्ट्रा) "दंष्ट्राया दाढा" ||8 / 2 / 136 / / दंष्ट्राशस्य 'दाढा' दहिवण्ण पुं०(दधिपर्ण) वृक्षभेदे, स्था०१० ठा०। प्रज्ञा०। स० ओ०। इत्यादेशो भवति / प्रा०२ पाद / दशनविशेषे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / तिला राधा आवळा "वराह दाढाए।' अनु०। दंष्ट्रार्थं वराहाऽऽदयो व्यापाद्यन्ते। दहिवासुया स्त्री०(दधिवासुका) वनस्पतिविशेषे, जी0। 'दहिवासुधा- आचा०१ श्रु०१ अ०६उ० मंडवगे।" दधिवासुका नाम वनस्पतिविशेषः, तन्मया भण्डपका दधिवा- दाढिकालि स्त्री०(दंष्ट्रिकाऽऽवलि) यमलतन्तुद्वयव्यूतायां पट्याम्. सुकामण्डपकाः / जी०३प्रति०४उ०। जंकाराला जीतका यथा मुखमध्ये यमलितोभयदन्तपतिरूपा टाढिकाऽऽलिदहिवाहण पुं०(दधिवाहन) चेटकमहाराजदुहितुः पद्मावत्याः पत्या दष्ट्रिकावलिनिरीक्ष्यते, एवं धौतपोतिकाऽपि द्विजसत्कस्दृशवस्त्रपरिचम्पाराजे, आ०क०आ०चू०। स ज स्वभार्यया पद्मावत्या सह धानरूपा दृश्यमाना दाढिकालिरिव प्रतिभातीति कृत्व दाढिकालिपोददपूरणार्थमुद्यानभूमिकां गतः, तत्र मत्तेन हस्तिना उत्पथमानीतो रुच्यते। बृ०३ उ०। गृहं प्रत्यादूतः, पद्मावती तु वने हृता प्रव्रजिता च पुत्रमकं जनयित्वा दाढिगालि स्त्री० (दष्ट्रिकाऽऽवलि) दाढिकालि' शब्दार्थे, जीत०। मातङ्गेषु अक्षिपत्, सच कर्कण्युनामा क्रमेण राजा भूत्वा एकरमै ब्राह्मणाय दाढिया स्त्री०(दष्ट्रिका) उत्तरोष्टकेशगुच्छे दशनविशेष, ओष्ठस्याधोभागे ग्रामदानार्थ दधिवाहनं प्रचोद्य सुयुत्सुः स्वमात्रा पद्मावत्या निवारितः, च। ज्ञा०१ श्रु०२ अ० भ०। विशिष्टदंष्ट्राशालिनि, त्रिका अनु० क्रमेण प्रावाजीत्, दधिवाहनोऽपि प्रव्रजितः। आ००। आ०चू०। अव | दाढियालि स्त्री०(दंष्ट्रिकाऽऽवलि) 'दाढिकालि' शब्दार्थ, जीता
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________________ दाढुद्धिय 2486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण दाणफलं अप्पणा कहेति, गिहिअण्णतित्थिएहिं वा कहावेत्ता जो पाद उप्पादेति, एय लवंगविट्ठ भण्णति। तस्सिमे विहाणालोइय लोउत्तरियं, दाणफलं तु दुविधं समासेण / लोइयऽणेगविधं पुण, लोउत्तरियं इमं तत्थ / / 206 / समासतो दुविहं दाणफलं-लोइयं, लोउत्तरिय च / लोइयं अणेगविह.. गोदान, भूमिदान, हिरण्णदानं, भक्तप्रदानाऽऽदि / लोउत्तरिय इमं / गाहा दाद द्धिय त्रि०(दंष्ट्रोद्घृत) उत्खातदष्ट्र,दश०१ चू०। दाण न० (दान) दा-भावे ल्युट् / वितरणे, प्रव०६द्वार / पञ्चा०। प्रश्नका लब्धस्याऽन्नाऽऽदेग्लानाऽऽदिभ्यो वितरणे, प्रश्र०३ संब० द्वार / अशनाऽऽदिप्रदाने, आव०४ अ० स्वपरानुग्रहार्थमर्थिने दीयत इति दानम् / सूत्र०१ श्रु०११अ०। उत्त०। कल्प०। कर्मा याचकाभीप्सितार्थे धने, कल्प०५ क्षण / उत्तका 'दानेन महाभोगो, दैहिनां सुरगतिश्च शीलेन / भावनया च विमुक्तिस्तपसा सर्वाणि सिद्धयन्ति' ||1|| सूत्र०१ श्रु०१२ अग ''दागं च तत्थ तिविह, नाणपयाण च अभयदाणं च। धम्मावग्गहदाणं, च नाणदाणं इमं तत्थ / / 6 / " ''सरिसे वि मणुयजर्म, एयं सयलं पि केइ कयपुन्ना। जं जाणंति जए तं, सुनाणदाणप्पभावेण ||14|| दित य नाणदाण, भुवणे जिणसासण समुद्धरइ। सिरिपुंडरीयगणहर, इव पावइ परमपयमउल / / 65 / / ता वायव्वं नाणं, अणुसरियव्वा सुनाणिणो मुणिणो। नाणस्स सया भत्ती, कायव्या कुसलकामेहिं / / 66 / / वीयं तु अभयदाण, तं इह अभएण सयलजीवाणं / अभउ त्ति धम्ममूलं, दयाइधम्मो पसिद्धमिणं / / 67 / / इक्क चिय अभयपयाणमित्थ दाऊण सव्वसत्ताण। वजा उह व्व कमसो, सिज्झति पहीणजरमरणा।।६८|| नाऊण इमं भयभीरुयाण जीवाण सरणरहियाणं / साहीणं दायव्वं, भविएहिं अभयदाणमिणं / / 66 / / धम्मावग्गहदाण, तइयं पुण असणवसणमाईणि। आरंभनियत्ताण, साहूण हुति दयाणि / / 100 / / तित्थयरचक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवमंडलिया। जायति जगब्भहिया, सुपत्तदाणप्पभावेण / / 101 / / जय भयवं रिसहजिणो, घयदाणबलेण सयलजयनाहो। जाओ जह भरहवई, भरहो मुणिभत्तदाणेण / / 102 / / अवियदसणमित्तेण वि मुणि-वराण नासेइ दिणकयं पावं। जो देइ ताण दाणं, तेण जए किं न सुविढत्तं? / / 103 / / तं सुपवित्तं भवणं, मुणिणो विहरति जत्थ समभावा / न कया वि साहुरहिओ, जिणधम्मो पायडो होइ॥१०४।। ता तसि दायव्व, सुद्ध दाणं गिहीहिँ भत्तीए। अणुकंपाचियदाण, दायव्वं निययसत्तीए // 105 / / किंचन तवो सुद्द गिहीणं, विसयाऽऽसत्ताण होइ न हु सील / सारभाण न भावो, तो साहीण सया दाणं / / 106 / / इय तिविह पि हु दाण, नरवर ! संखेवओ तुहऽक्खाय / वियारयसिवसुहलीलं, सेपइ सीले निसामेसु।।१०७।। ध०र०(७०)। दाणफलं लवितूणं, लावावे तु गिहिअण्णतित्थीहिं। जो पादं उप्पाए, लवंगविट्ठ तु तं होति // 208 / / अण्णे पाणे भेसज्जपत्तवत्थे य सेजसंथारे। भोजविहि पाणऽरोगे, भायणभूसाविविहसयणा // 210 / / पाणाऽऽदियाण सत्तण्हं पच्छद्धेणं जहासंखफला। अण्णदाणे भाजविही भवति, पानकदाने द्राक्षापानकविधी, भेसज्जदाणेण आरोग्गो, पत्तदाणेण भायणविधी, वत्थदाणेण विभूसणविधी, सेज्जादाणेण विविहा, संथारंगदाणंण अणेगभोगगादिसेजाविहाणा भवंति। संखेवओ वा फलं इम-- अहवाऽवि समासेणं, साधूणं पीतिकारओ पुरिसो। इह य परत्थ य पावति, पीदीओ पीवरतराओ / / 211 / / अहवासद्दो विगप्पवायगो। समासो संखेवो, साधूण भत्तपाणेहिं पीतीतो उप्पाणतो इहलोए परलोए य पीवराओ पीतीओ पावति, पीवरं प्रधानं, तरशब्दः आधिक्यतरकर्मवाचकः, सर्वजनाधिक्यतराप्रीत्यः, प्राप्नातीत्यर्थः। शेषं पूर्ववत्, णवरंएसेव गमो णियमा, दुविधा उवहिम्मि होति णायव्वो। पुव्ये अवरे य पदे, सेजाऽऽहारे वि य तहेव / / 212 // दुविहे उवकरणे-ओहिए, उवग्गहिए य। उस्सग्गाववाएहिं एसेव गमा, सेजआहारेसु वि एसेव विही भाणियव्यो। नि०चू०२ उ०। दशविध दानम्दसविहे दाणे पण्णत्ते / तं जहा"अणुकंपा संगहे चेवाऽभया कालुणिए ति य। लज्जाए गारवेणं च, अधम्मे पुण सत्तमे / / 1 / / धम्मे य अट्ठमे वुत्ते, काहिई य कयंति य / " स्था०१०ठा०। (अनुकम्पादानव्याख्या 'अणुकंपादाण' शब्दे प्रथमभागे 360 पृष्ठे द्रष्टव्या) (संग्रहदानविस्तरः 'संगहदाण' शब्दे वक्ष्यते) (अभ-- यदानव्याख्या 'अभयदाण' शब्दे प्र०भागे 706 पृष्ठे प्रतिपादिता) (कारुणिकदानव्य ख्या'कालुणिय' शब्दे तृतीयभागे 502 पृष्ठे द्रष्टव्या) (लज्जादानविस्तरः 'लज्जादाण' शब्दे वक्ष्यते) (गौरवदान-व्याख्या 'गारवदाण' शब्दे तृतीयभागे 871 पृष्ठे द्रष्टव्या)(अधर्म-दानव्याख्या 'अधम्मदाण' शब्दे प्रथमभागे 568 पृष्ठे गता) (धर्मदानव्याख्यानम् 'धम्मदाण' शब्दे वक्ष्यते) (करिष्यतिदानविस्तरस्तु'काहीइदाण' शब्द तृतीयभागे 506 पृष्ठे द्रष्टव्यः) (कृतदानविषयः कयदाण' शब्दे तृतीयभागे 354 पृष्ठ समुक्तः)१०॥ शिष्येभ्यो विसर्जने, विशे०। (लोके दानप्रकारश्च प्रथममृषभस्वा मिना प्रवर्तित इति 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे 1127 पृष्ठे उक्तः) दाने लौकिका आहुः-'वारिदस्तृप्तिमाप्नोति, सुरखमक्षयमन्नदः। तिलप्रदः प्रजामिष्टामायुष्कमभयप्रदः" / 1 / / अत्र चेकमेव सुभाषितमभयप्रदानमिति, तुषमध्ये कणिकावत्।
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________________ दाण 2460- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण आचा०१ श्रु०१ अ०१3०। "दाणाणसेहूँ अभयप्पयाणं / '' (23) सूत्र०१ श्रु०६अ। मध्याहेऽर्चातुसत्पात्रदानपूर्वं तु भोजनम्।" (65) सत्पात्रं साध्वादि, तस्मिन् दानपूर्व दानं दत्त्वेत्यर्थः, भोजनमभ्यवहरणं, 'तुः एवकारार्थः। ततः सत्पात्रदानपूर्वमेव भोजनमिति निष्कर्षः / (65) ध०२अधि०। (साधुभ्यो दानप्रकारः 'अइहिसंविभाग' शब्दे प्रथमभाग 33 पृष्ठे उक्तम्) इह तत्रानुक्तं तत्स्वरूपम्आहारवस्त्रपात्राऽऽदेः, प्रदानमतिथेच्दा। उदीरितं तदतिथि-संविभागवतं जिनैः॥४०॥ अतिथेः साधोः, मुदा हर्षेण, गुरुत्वभक्त्यतिशयेन, न त्वनुकम्पाऽऽदिनेत्यर्थः / प्रदानम्-प्रकर्षण मनोवाक्कायशुद्ध्या दानं विश्राणनम् / कस्य? आहारवस्त्रपात्राऽऽदेः, तत्राऽऽहारोऽशनाऽऽदिः चतुर्विधः, वस्त्र प्रतीतम्, कम्बलो वा, पात्रं पतद्ग्रहाऽऽदि, आदिशब्दाद् वसतिपीठफलकशय्यासंस्तारकाऽऽदिग्रहणम्, अनेन हिरण्याऽऽदिदाननिषेधः, तेषां यतेरनधिकारित्वात्। तदतिथि–संविभागवतम्। जिनैः-अर्हद्भिः, उदीरितं प्रतिपादितम्। तत्र अतियेः उक्तलक्षणस्य, सङ्गतः-आधाकर्माऽऽदिद्विचत्वारिंशद्दोषरहितो, विशिष्टो भागो विभागः पश्चात्काऽऽदिदोषपरिहारायाशनदानरूपोऽतिथिसंविभागः, तद्रूपं व्रतम् / अतिथिसंविभागवतमाहाराऽऽदीनां च न्यायार्जितानां प्रासुकै षणीयाना कल्पनीयानां च देशकालश्रद्धासत्कारक्रमपूर्वकमात्मानुग्रहबुद्ध्या यतिभ्यो दानमित्यर्थः / तत्रशाल्यादिनिष्पत्तिभागो देशः१, सुभिक्षदुर्भिक्षाऽऽदिःकालः२, विशुद्धश्चित्तपरिणामः श्रद्धा३, अभ्युत्थानाऽऽसनदानवन्दनानुव्रजनाऽऽदिः सत्कार:४, यथासंभवं पाक स्य पेयाऽऽदिपरिपाट्या प्रदान क्रमः५. तत्पूर्वक देशकालाऽऽद्यौचित्येनेत्यर्थः / यदूचुः-"नायागयाणं कप्पणिजाणं अन्नपाणाईणं दव्वाणं देसकालसद्धासकारकमजुअं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं अतिहिसंविभागो।" ___ अनूदितं चैतत् श्रीहेमसूरिभिः"प्रायः शुद्धस्त्रिविधविधिना प्रासुकैरेषणीयैः, कल्पप्रायः स्वयमुपहितैर्वस्तुभिःपानकाऽऽद्यैः। काले प्राप्तान् सदनमसमश्रद्धया साधुवर्गान्, धन्याः केचित्परमविहिता हन्त ! समानयन्ति / / 1 / / अशनमखिलं खाद्यं स्वाध भवेदथ पानके, यतिजनहितं वस्त्रं पात्रं सकम्बलप्रोञ्छनम्। वसतिफलकप्रख्यं मुख्य चरित्रविवर्द्धन, निजकमनसः प्रीत्याधायि प्रदेयमुपासकैः / / 2 / / " तथा"साहूण कप्पणिजं, जं न वि दिन्न कहिंचि किंचि तहिं। धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न भुंजंति // 3 // वसहीसयणाऽऽसणभत्तपाणभेसजवत्थपायाई। जइ वि न पजत्तधणों, थोवा वि हु थोवयं दिजा / / 4 / / '' वाचकमुख्यस्त्वाह"किश्चित् शुद्ध कल्प्यमकल्प्यं, स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम्। पिण्डः शय्या वस्त्रं, पात्रं वा भेषजाऽऽद्यं वा / / 1 / / देशं काल पुरुषभवस्थामुपयोगशुद्धिपरिणामान्। प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं, नैकान्तात् कल्पते कल्प्यम् / / 2 / / " ननु यथा शास्त्रे आहारदातारः श्रूयन्ते, नतथा वस्त्राऽऽदिदातारः, नच वस्वाऽऽदिदानस्य फल श्रूयते, तन्न वस्त्राऽऽदिदानं युक्तम्। नैवम् / भगवत्यादौ वस्त्राऽऽदिदानस्य साक्षादुक्तत्वात्। यथा-"समणे निग्गंथे फासुयएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपाय - पूंछणेणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे विहरति।" इत्याहारवत्संयमाऽऽधारशरीरोपकारकत्वाद्वस्त्राऽऽदयोऽपि साधुभ्यो देयाः / ध०२अधि०। पञ्चा०। (पोषधं पारयता श्रावकेण नियमात्साधुभ्यो दत्त्वा भोक्तव्यमिति, तद्विधिश्च 'पोसहपारणगविहि' शब्दे वक्ष्यते) काले देशे कल्प्यं, श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च। सत् कृत्य च दातव्यं, दानं प्रयताऽऽत्मना सद्यः / / 1 / / " तथा"दाने सत्पुरुषेषु, स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन। वटकणिकेव महान्त, न्यग्रोधं सत्फलं कुरुते / / 2 / / इत्यादि। "दुःखसमुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति घात्रार्पितेन दानेन। लघुतेव मकरनिलयं, वणिजः सद्यानपात्रेण / / 1 / / " आचा०१ श्रु०८ अ०२उ०। यदाह"पठति पाटयते पठतामसौ, वसनभोजनपुस्तकवस्तुभिः / प्रतिदिनं कुरुते य उपग्रह, स इह सर्वविदेव भवेन्नरः / / 1 / / " लिखितानां च पुस्तकानां संविग्नगीतार्थेभ्यो बहुमानपूर्वकं व्याख्यापनं, व्याख्यापनार्थ दानं, व्याख्यायमानानां च प्रतिदिनं पूजापूर्वक श्रवणं चेति। साधूनां च जिनवचनानुसारेण सम्यक्त्वचारित्रमनुपालयता दुर्लभं मनुष्यजन्म सफलीकुर्वतां स्वयंतीर्णानां परं तारयितुमुद्यतानामा तीर्थकरगणधरेभ्यः, आ च तद्दिनदीक्षितेभ्यः सामायिकसेयतेभ्यो यथोचितमतिपत्त्या स्वधनवपनं, यथा उपयुज्यमानस्य चतुर्विधाऽऽहारभेषजवस्वाऽऽश्रयाऽऽदेर्दानम्, न हि तदस्ति यद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षयाऽनुपकारक नाम, तत्सर्वस्वस्याऽपि दानं साधुधर्मोद्यतस्य स्वपुत्रपुत्र्यादेरपि समर्पणं च / ध०२अधि०। भला स्था० दशा (श्रमणेभ्योऽप्रासुकदानेनाल्याऽऽयुः,प्रासुकदानेन दीर्घायुरिति 'आउ' शब्दे द्वितीयभागे 11 पृष्ठे प्रतिपातितम्) "दानात्कीर्तिः सुधाशुभ्रा, दानात्सौभाग्यमुत्तमम् / दानात्कामार्थमोक्षाः स्युर्दानधर्मो वरस्ततः / / 1 / / " पञ्चा०२ विव०। "दानेन सत्त्वानि वशभिवन्ति, दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम्। परोऽपि बन्धुत्वमुपैति दानातस्माद्धि दानं सततं प्रदेयम्॥१॥" ध००। न्यायाऽऽत्तं स्वल्पमपि हि, भृत्यानुपरायेतो महादानम्। दीनतपस्व्यादौ गुर्वनुज्ञया दानमन्यत्तु / / 13 / / न्यायाऽऽत्तं ब्राह्मण क्षत्रियविट् शूद्राणां स्वजातिविहितन्यायो पात्तम्, स्वल्पमपि हि स्तोकमपि हि, भृत्यानुपरोधतो भृत्यानुपरोधेन पोष्यवर्गाविघातेन, महादानं विशिष्ट दानम्, दीनत-पस्व्यादौविषये, गुर्वनुज्ञया पित्रादिकुलपुरुषानुज्ञया, यदेवंविशेषणं तन्ममहादानम् / दानमन्यत्तु न्यायाऽनुपात्तभृत्याधुप पण
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________________ दाण 2561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण रोधाऽऽदिना विपर्ययण दीयमानमन्यत पुननिमेव भवति / / 13 / / षो० 5 विव०॥ नाऽऽतुरापथ्यतुल्यं यद्दानं तदपि चेष्यते। पात्रे दीनाऽऽदिवर्गेच, पोष्यवर्गाऽविरोधतः / / 11 / / यत् आतुरापथ्यतुल्य ज्वराऽऽदिरोगविधुरस्य घृताऽऽदिदानसदृश मुशलाऽऽदिदानं दायकग्राहकयोरपकारिन भवति, तहानमपि चेष्यते। पात्रे दीनाऽऽदिवर्गे च, पोष्यवर्गस्य मातापित्रादिपोषणीयलोकस्याऽविरोधतो वृत्तेरनुच्छेदात्॥११॥ लिङ्गिकृपणाऽऽद्याः पात्रम्लिङ्गिनः पात्रमपचाः, विशिष्य स्वक्रियाकृताः। दीनान्धकृपणाऽऽदीनां, वर्गः कार्यान्तराक्षमः||१२|| (लिङ्गिन इति) लिङ्गि नो व्रतसूचकतथाविधनेपथ्यवन्तः सामान्यतः पात्रमादिधार्मिकस्थ। विशिष्य विशेषतोऽपचाः स्वयमपाचकाः, उपलक्षणात्परैरपाचयितारः, पच्यमानाननुमन्तारश्च। स्वक्रियाकृतः स्वशास्त्रोतान्ठानाप्रमताः / तदक्तम्-"व्रतस्था लिङ्गिनः पात्रमपचास्तु विशपतः / स्वसिद्धान्ताविरोधेन, वर्तन्ते ये सदैव हि।।१।।"दीनान्धकपणाऽऽदीना वर्गः समुदायः, कार्यान्तराक्षमो भिक्षाऽतिरिक्तनिर्वाहहेतुव्यापारासनर्थः / यत उक्तम्-"दीनान्धकपणा येत. व्याधिग्रस्ता विशेषतः। निःस्वाः क्रियाऽन्तराशक्ताः, एतद्वर्गो हि मीलकः / / 1 / / " इति / दीनाः क्षीणसकलपुरुषार्थशक्तयः, अन्धा नयनरहिताः, कृपणाः स्वभावत एव सतां कृपास्थानम, व्याधिग्रस्ताः कुष्ठाऽऽद्यभिभूताः, निस्वा निर्द्धनाः / / 12 / / द्वा०१२ द्वा०। यो०वि०॥ अथदाने कृतपुण्यकथा''शालिग्राम इति ग्रामस्तत्रेका स्थविराऽभवत्। तत्पुत्रो वसपालोऽभूत्, सोऽन्यदा पायसोत्सवे / / 1 / / दृष्ट्वा पायसमश्नन्ति, डिम्भरूपाणि सोऽपि च। ऊचे मातर्ममाप्यर्थमद्य राध्नुहि पायसम् / / 2 / / नास्ति वस्त्वित्यरोदीत्साऽपृच्छन्नुपगृह स्त्रियः। निर्बन्धेऽकथयत्ताश्च, कृपया सर्वमापयन् / / 3 / / तयाऽथ पायसं रखा, सुतस्य परिवेषितम्। स्थविराऽन्तर्गता साधुरागतो मासपारणे // 4 // तत्यशंस ददौ साधोर्दध्यौ स्तोकमिदं ततः। द्वितीयकं ददौ यश, पुनश्चिन्तयति स्म सः // 5 // क्षेप्स्यत्यत्रापरः किञ्चिच्चत्तदेतद्विनजयति। तृतीयमप्यदात्त्र्यशं, स्वर्गस्तेनार्जितस्तदा // 6 // ज्ञात्वाऽम्दा जेमितं भूयः, क्षैरेय्याऽभृत भाजनम्। आकण्ठ भुजे ! सोऽथ, विसूच्या मृतवान्निशि // 7 // गतः स्वर्ग ततश्च्युत्वाऽत्रैव राजगृहे पुरे। श्रेणिको यत्र राजेन्दुर-भयो मन्त्रिपुङ्गवः॥८|| महाजनस्य मुख्योऽभूत, तत्र श्रेष्ठी धनावहः / यद् द्रव्यसंख्या नाज्ञायि, विन्दुसंख्येव वारिधेः / / 6 / / नव्यनव्योल्लसद्भद्रा, भद्रा तस्याभवत्प्रिया। स तदीयोदरे जीवः, सुतत्वेनावतीर्णवान् / / 10 / / कृतपुण्योऽयमात्मेति, तत्रोचे गर्भगे जनः। कृतपुण्याभिधश्चक्रे, जन्मतो द्वादशाहि सः / / 11 / / वर्द्धमानः पाठयोग्यो, ग्राहितः सकलाः कलाः। विवाहितस्ततो मात्रा, क्षिप्तो दुर्ललितेशु सः / / 12 / / तैः प्रावेशिसवेश्यौकस्तत्रांऽस्थाद् द्वादशाब्दिकाम्। पिता मृत ऽपि नाज्ञायि, मात्रा मा भृत्सुतोऽसुखी / / 13 / / वित्तमानायितं नित्य, प्रेषयत्पुत्रवत्सला। मृत्यौ तस्याः स्नुषाऽप्येवं, स्वप्रियप्रीतये व्यधात् / / 14 / / नष्टितेऽथ धन कृत्स्ने, चटीहस्ते तदङ्गना। निजमाभरणं प्रेषीद्विवेदाऽकाऽथ निःस्वताम्॥१५।। सदीनारसहस्रं तत्तस्याः प्रत्यर्पित तया। अथाऽक्या सुताऽभाणि, निःस्वो निःसार्यतामयम् / / 16 / / स नैच्छदथ वञ्चित्वा, गृहमार्जनदम्भतः। उत्तारितोऽप्यधस्तिष्ठन्नूचे दास्या स्थितोऽसि किम्? // 17 / / अशृङ्गपशुरेवासि, निरस्तोऽपि न यासि यत्। सोऽथ दध्यौ क्षयायोक्तो, धिग्वेश्यावञ्चितोऽस्म्यहम्॥१८॥ गृहवाऽविदन् पृछन्नूचे तैःक्वास्ति तद् गृहम्? वेश्याऽऽसक्तस्तत्सुतोऽभूत्ततःसर्व क्षयं गतम्॥१६॥ ततः कथञ्चिद् ज्ञात्वाऽगाजीर्ण शीर्णे निजे गृहे। भार्या च सहसोत्थाय, कुलीना विनयं व्यधात्।।२०।। लजितो विनयात्तस्याः, मातापित्रोश्च शोकतः। सर्वस्वहरणाचाभूद, दुःखरत्नत्रयाधिपः॥२१।। तदेकजीविता साऽपि, गणिकाऽगात्तदन्तिके। तं शोकदुःखचिन्ताऽऽर्त , प्रिया प्राणेशमब्रवीत् / / 22 / / अक्काटकसहस्रं तं, निजान्याभरणानि च। पुरो विमुच्य हे भर्तः: नीवीयं तत्पणाय्यताम्॥२३॥(युग्मम्) मासमेकं स तत्रास्थात्प्रियाविनयरञ्जितः। ततःसाऽऽपन्नसत्त्वाऽभूत, शुक्तिवद् मौक्तिकोदरा // 24 / / सार्थेऽथ प्रस्थितेऽचालीद्, मुक्त्या तत्तत्कृते धनम्। कृतपुण्यः पुण्यधनो, धनोपार्जनहेतवे // 25 // उपदेवकुलं सार्थमध्ये पल्यङ्कगं निशि। प्रियं विमुच्य भार्ये ते, वपुषेव गृहं गते / / 26 / / श्रेष्ठिन्या चैकया तत्र, भिन्नः पीतः सुतो मृतः / श्रुत्वेत्यचिन्त्यपुत्रत्वान्मा गाद्राजकुले धनम्॥२७॥ नाऽऽरोदयन्न चाऽरोदीत्तां वामिप्यहारयत्। वार्ताकृतो धनं दत्त्वा, सोचे माऽऽख्य इदं क्वचित् / / 2 / / चतस्रोऽपि स्नुषाश्वोक्ताः, कश्चिदानीयते पुमान्। स्युर्युष्माकं यथा पुत्राः, गृहसर्वस्वरक्षकाः॥२६॥ ऊचुस्ताः किमिदं श्वश्रु! युज्यते सा जगाद ताः। अकार्यमपि कार्येण, क्रियते नास्ति दूषणम्॥३०|| साऽथागात् सस्नुषा सार्थे , कृतपुण्यं विलोक्य तम्। सर्वाः सतल्पमुत्पाट्य, सुप्ते स्वगृहमानयन्।।३१।। वृद्धा जागरिते तस्मिन्नभ्यधात्कपटे पटुः। कुलदेवतया नीतो, वत्स! त्वमसि मे सुतः।।३२|| एताश्चतस्रस्ते कान्ताः, कान्त्याऽपास्तसुराङ्गनाः / सौधं जितविमानश्रि, भुड्क्ष्व भोगान् यथासुखम् // 33 // कृतपुण्योऽखिलं वीक्ष्य, वृद्धोक्तं दध्यिवानिति। किमेतत्कुलचिन्ताऽऽद्यैर्भजे भोगानुपस्थितान् // 34 // तत्र द्वादशभिर्वर्षे :, क्रीडन् स्वे वेश्मनीव सः। सर्वासामपि पत्नीनां, पुत्रान् द्विवानजीजनत्।।३।। इतस्तत्परिणीतायाः, गुयाः पल्याः सुतोऽभवत्। सोऽप्येकादशवर्षो ऽस्ति. पठन् पण्डितसन्निधौ / / 36 / / द्वादशाब्द्या स एवाऽऽद्यात्सार्थस्तत्रैव चावसत्।
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________________ दाण 2462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण ऊचे स्नुषाः पुनः स्वश्रूर्नीत्वाऽसौ तत्र मुच्यताम्॥३७।। ऊचिरेऽथ स्नुषा नैतद्, युज्यते श्वश्रु ! साऽवदत्। यूयं जाताः सपुत्रिण्यः, कार्य किमधुनाऽमुना? ||38|| अकृत्यमपि कार्यात्कि, कृत्वा पश्चान्न मुच्यते? अभक्ष्यं भुक्तमत्याा , तत्कि भक्ष्यं सदैव तत?||३६।। दुग्धभ्रान्त्या चन्द्रकान्तां, पाययित्वा स शायितः। तत्कान्ताभिः शम्बलार्थं , मोदका रत्नगर्भिताः / / 4 / / तस्याक्रियन्त स्नेहेन, मुक्ता उच्छीर्षकेचते। अथोत्पाट्य यथा नीतो, मुक्तस्तत्र तथैव सः॥४१॥ प्रबुद्धोऽचिन्तयद्यावत्ततः कथमिहागमम्? तावत्तत्राऽऽगले पन्यो, तथैव तमपश्यताम् / / 421 ताभ्याम् चेऽथ किं नाथ! व्योम्नोऽकार्षीर्गताऽऽगतम् / मार्गच्छाया न काऽप्यत्र. दृश्यतेऽङ्गेषु येन वा (?) ||43 // ददौ शून्यान् स हुङ्कासन, धृष्टोऽहमिति चिन्तयन्। अथोत्थाय ययौ गेह, प्रियाऽऽत्ततल्पशम्बलः // 44 // आययो लेखशालायाः पितरि स्नाति चाऽऽत्मजः / तस्थादाद्रुदतो वेश्या, शम्बलान्मोदकं करे / / 4 / / सोऽश्रन्यया बहिस्तात्तं, तत्र रत्नं विलोक्य च। आर्पयत्कान्दविकस्य, प्रत्यहं मोदकाऽऽप्तये // 46|| जलान्तःक्षेपणादज्ञातं, जलकान्तं च तेन तत्। भुञ्जाना मोदके भने, दृष्ट्वा रत्नं प्रियाऽवदत् / / 47 / / रत्नीकृत्य लाघवार्थमर्जनां किं प्रियाऽऽनयः? हुमित्युक्त्वा प्रविष्टोऽन्तस्तत्प्रियाप्रेम भावयन् / / 48|| इतश्व सेचनाऽऽख्येभो, नद्यामग्राहि तन्तुना! मन्त्रिणा पटहोऽदायि, योऽधुना जलकान्तदः // 46|| तस्य राजा निजा पुत्री, राज्यार्द्ध च प्रयच्छति। तदाऽर्पयन्कान्दविकस्तं तु तेनामुचद्रजम् // 50 // पृष्टः कान्दविको राजाद्व कुतस्तेऽभूदिदं वद? चोर्यादाप्तं स भीत्याऽऽह, ददौ मे कृतपुण्यजः / / 51 / / राजाचे न चेद वेद यत्तत्त्वं व्रज निजे गृहे। अकार्षीत कृतपुण्यस्य, देश पुत्रीं च दत्तवान् / / 5 / / स त्रिभार्योऽभुनग् भोगानन्यदाऽभयमूचिवान्। प्रियाचतुष्टयोदन्तमप्यपूर्वं यथा तथा // 53 // अचीकरत्ततश्चैत्य, द्विद्वारमभयो बहिः। कृतपुण्यसमं तत्र, लेप्ययक्षन्यवेशयत्।।५४|| सापत्याभिः समस्ताभिः, स्त्रीभिर्यक्षोऽयमय॑ताम्। भादी रोगोऽन्यथाऽर्माणामिति चाऽघोषयत्पुरे // 15 // अभयः कृतपुण्यश्च, निविष्टी यक्षमण्डपे। आयान्तीः पश्यतः पौरीर्यावत्ताः समुपागताः॥५६|| राक्षं पतिमित प्रेक्ष्या--भूवस्ताः प्रेमसाश्रवः। यक्षोत्सड़े ऽपि नृधिया, तदपत्यान्युपाविशन् / / 57 / / उपलक्ष्याभयो बुद्ध्या, स्थविरा तामतर्जयत्। कृतपुण्यस्य ताः पत्नीः, सर्वस्वमपि चार्पयन्।।५८|| पत्नीभिः सप्तभिः सार्द्ध , संसारसुखमन्वभूत्। कृतपुण्यो यथार्थाऽऽख्यो, मर्त्यलोकेऽप्यमर्त्यवत् / / 5 / / अन्यदा समवासार्षीत्, श्रीवीरस्तत्र तीर्थकृत् / कृतपुण्यो नमस्कृत्य, स्वामिनं पृष्टयान् सुधीः / / 6 / / संपत्तिश्च विपत्तिश्च, कथमासीन्मम प्रभो! स्वाम्यूचे हन्त ! ते जो, लक्ष्मीः पायसदानतः॥६१॥ रेखाद्वयविधानाच, बभूवान्तरिकाद्वयम्। तच्छुत्वा तत्क्षणात्सर्व, सामायिकमुपाददे।।६२॥" आ००। "नो कप्पइ अजप्पभिइ" इत्यारभ्य तेसिं असणं वा दाउं अणुप्पदाउं इति सम्यक्त्वग्रहणममये प्रत्याख्यायते। अत्राऽऽह-इह पुनः को दोषः स्याद्येनेत्थ तेषामन्ययूथिकानामन्नाऽऽदिदाने प्रतिषेध इति? उच्यतेतेषां तद्भक्तानां च मिथ्यात्वस्थिरीकरणं, धर्मबुद्ध्या ददतः सम्यक त्वलाञ्छना, तथा आरम्भाऽऽदिदोषाश्च। पुनरायन्नानामनुकम्पया दद्यादपि। यत उक्तम्"सव्येहि पि जिणेहिं, दुब्जयजियरागदोसमोहेहि। सत्ताणुकपणहा, दाणं न कहिं विपडिसिद्ध" ||1|| तथा च भगवन्तस्तीर्थकरा अपि त्रिभुवनैकनाथाः प्रविव्रजिषवः सांवत्सरिकमनुकम्पया प्रयच्छन्ति दानमित्यलं विस्तरेण। आव०६ अग आचा०। उपा० से समणुण्णे असमणुण्णस्स असणं पाणं खाइमं साइमं वा णो पाएजा, णो णिमंतेजा, णो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणा ति बेमि। (से समणुणे इत्यादि) न केवलं गृहस्थेभ्यः कुशीलेभ्यो वाऽकल्प्यमिति कृत्वाऽऽहाराऽऽदिकं न गृहीयात्समनोज्ञः, असमनोज्ञाय तत्पूर्वोक्तम् अशनाऽऽदिक न प्रदद्याद्, नाऽपि परमत्यर्थमाद्रियमाणोऽशनाऽऽदिनिमन्त्रणतोऽन्यथा वा तेषां वैयावृत्त्यं कुर्यादिति / ब्रवीमीतिशब्दावधिकारपरिसमाप्त्यर्थी। किंभूतस्सर्हि किंभूताय दद्यादित्याहधम्ममायाणह पवेदियं वद्धमाणेण मइमया, समणुण्णे समणुण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पायं वा सेज्जं वा० पाएज्जा, णिमंतेजा, कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्ति वेमि। (धम्म इत्यादि) धर्म दानधर्म जानीत यूयं प्रवेदितं कथितं, केन श्रीवर्द्धमानस्वामिना? किंभूतेन? मतिमता केवलिना / किंभूतं धर्ममिति दर्शयति-यथा समनोज्ञः साधुरुधुक्तविहारी, अपरस्मै समनोज्ञाय चारित्रवते सविनाय सांभोगिकायैकसामाचारीप्रविष्टायाशनाऽऽदिकं चतुर्विध, तथा वस्त्राऽऽदिकमपि चतुर्की, प्रदद्यात्। प्रयच्छेत् / तथा तदर्थ च निमन्त्रयेत, पेशलमन्यद्वा वैयावृत्यमङ्गमर्दनाऽऽदिकं कुर्याद्, नैतद्विपर्यस्तेभ्यो गृहस्थेभ्यःकुतीर्थिकभ्यः पार्श्वस्थाऽऽदिभ्योऽसंविग्रेभ्योऽसमनोज्ञेभ्यो वेत्येतत्पूर्वोक्तं कुर्यादिति। किं तु समनोज्ञेभ्य एव, परमत्यर्थमाद्रियमाणस्तदर्थसीदने परमुत्तप्यमानःसम्यग् धैयावृत्त्यं कुर्यात्, तदेवं गृहस्याऽऽदयः कुशीलास्त्याज्या इति निदर्शितम्। अयं तु विशेषः-गृहस्थेभ्यो यावल्लभ्यते तावद् गृह्यते, केवलमकल्पनीय प्रतिषिध्यते, असमनोज्ञेभ्यस्तु दानग्रहणं प्रति सर्वनिषेधः / आचा०१ श्रु०८ अ०२उ०('अण्ण उस्थिय' शब्दे प्रथमभागे 463 पृष्ठे तेभ्योऽशनाऽऽदिदानप्रतिषेधपराणि सूत्राणि प्रतिपादितानि) पार्श्वस्थाऽऽदिभ्योऽशनाऽऽदिन देयम्जे भिक्खू पासत्थस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं
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________________ दाण 2463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण का देयइ, देयंतं वा साइजइ।।८०||जे भिक्खू पासत्थस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ / / 81 / / जे मिक्खू पासत्थं वत्थं वापरिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणं वा देयइ, देयंतं वा साइज्जइ॥२॥ जे भिक्खू पासत्थं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ॥८३|| गाहा-- जे भिक्खू पासत्थो-सण्णकुसीलाण नितियवासाणं / देज्जा अहव पडिच्छे, सो पावति आणमादीणि // 277 // पासस्थस्स असणं वा पडिच्छइ इत्यादि, एवं ओसण्णे वि दा सुत्ता, संसत्ते वि दो, णितिए वि दो / एतेसिं जो देति, तेसिं वा हत्थाओ पडिच्छति, तस्स आणाऽऽदी। अहवापासत्थादी पुरिसा, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते। जे णाणसुविहियाणं, ण हों ति करणेण समणुण्णा / / 278|| कंट। वि कारणं तेहिं समाणं दाणग्गहणं पडिसिज्झति? भण्णतिपासत्थमहाछंदे, कुसीलें ओसण्णमेव संसत्ते। उग्गमउप्पायणए-सणाय वातालमवराहा।।२७६।। जम्हा जयमाणाण साधूणं ते पासत्थादी करणेणं तिकिरिया समणुण्णा सदृशः न भवन्ति, तम्हा दाणग्गहणं पडिसिज्झति / अहवा-जन्हा ते करणेग तुल्ला ण भवति, तम्हा तेहिं सह समणुण्णया ण भवति, रांभोगी ण भवतीत्यर्थः / किं चान्यत्। पासत्थ-माहाते पासत्थादी उग्गमदोसेसु सोलससु उप्पायणादोसेसु य सोलससु दससु य एसणादोसेसु एतेसु पायालमवराहेसु णिचं वट्टति, अतो दें तेण तेसिं ते सातिजिता, अणुमादिता इत्यर्थः / तेसिंहत्था-ओ गेण्हतेण उगमदोसा पडिसेविता भवंति। गाहाउग्गमउप्पायणए-सणा य तिविहेण तिकरणविसोही। पासत्थे अहाछंदे, कुसीले नितिए वि एमेव / / 20 / / उग्गनाऽऽदियाणं तिण्हं पि तिकरणविसोहि त्ति सयंण करेति, अण्ण पि ण कारति, अण्णं च करेंत ण समणुजाणति / एक्कक्क मणवयणकाएहिं तिविह / एवं तिकरणविसोहि ण करेंति त्ति वक्कसेस / एवं ण करेति पासत्थादी चउरो अहाछदपंचमा। णितियवासी पुण किरियकलावं जति वि अनेस करेति, तहा वि णितिववासित्तणओ एवं चैव दहाव्यो। एयाणि गाहा (?)"एतहि असुइपडिसे-वया य अविसुद्धं चउ गुरुगा।'' एयाई सेहाएते पासत्थादी ठाणासोधिते से मग्गणं करेति त्ति वुत्तं भवति / सो गियचरित्त विसोहेइ / एएसु पुण असुद्धसु नियमा चरितभेदो, अशुद्धिरित्यर्थः। चरित्तेण असुद्धण मोक्खाभावो, तेण पडिकुलं दाणकरण एतेसु, जो पुण एतेसुतिकरणविसोहि करति सोणियमा चरित्नं विसोहति। उग्गमदोसा गाहा (?)जम्हा उग्गमाऽऽदिदोसा पासत्थादी ण वज्जति, तम्हा विसुद्धि त्ति / चारित्तविसुद्धौ, ते इच्छंतो ते पि पासत्थादी वजेजा, एस णियो। किंच सूइज्जइ गाहा (?)जोपासत्थादियाण देति तरस पासत्थादिसु रागो लक्खिज्जइ, जो पुण तेसि हत्था गण्हति तस्स तेसु मज्झेणं पीती लक्खिज्जति, तम्हा तेसु जा दाणग्गहण रागपीती, सा वजेयवा। कम्हा? जम्हा दुट्टसंगातो बहू दोसा, अदुदृसंसग्गातो य गुणा भवंति। तम्हा ते दुट्टसंसग्गिकते दोसे परिहरज्जा। ण वि रागो गाहा (?)सुहसीलजणो पासत्थादी, तेसुण वि रागो, ण वि दोसो। अत्थ चोदकः-एवं अत्थावत्तीओ णज्जति, तेसु संसग्निं पडुच्च णाणुण्णा, णाविपडिसहो। जति अहापवत्तीए संसग्गी भवति, भवतु णाम, ण दोसो? उच्यते-जति वि तेहिं ण रागो ण दोसो वा, तहा वि तेहिं जा संसग्गी सा बणिज्जा / कह? उच्यते- वणे सुको वणसुको, वणचरेण वा गहितो सुको वणसुको, तेण कय उवम उदाहरणं, तं दठूण जाणिऊण बुधा पंडिता वतिकरो संसग्गी, तणेच्छति। 'माताऽप्यका पिताऽप्येको, मम तस्य च पक्षिणः / अहं मुनिभिरानीतः, स च नीतो गवाशनैः / / 1 / / गवाशनाना स गिरःशृणोति, वयं च राजन ! मुनिपुङ्गवानाम्। प्रत्यक्षमेतद्भवताऽपि दृष्ट, संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति / / 2 / / " अण्णं च पडिसिद्ध तित्थकरेहि, जहा अकुसीलेण सदा भवियब्द, पुणा पडिसिज्झति-जा कुसीलो तेण सह संसग्गो ण कायवो. एस पडिसेहो। असविन्गरस पाहुणरस तिण्णि वारे देति माइट्ठाणविमुक्को / तस्स आउदृतस्स एक्कस्सि मासलहुँ, दो तिणि य वारे विमासलहु, ततियवाराआ पर नियमा माइस्स मासगुरूं, विसंभोगेयजीतं अविसुद्धं संभु जति, तस्स च चउगुरुगा,दूरे सोवारणं काउत्ति ओतिके अण्णदेसं संभोतिया गता, तन्थ अण्णे गंतुमणा पुच्छेज्जा-ते अम्ह किं संभोतिया? तत्थ आयरिओ जति एगतेण भणति संभोतिया, तो मासलहु / अह भणतिअसंभोइया, तो वि मासलहुं, असंखमादी दोसा / तम्हा आयरिएण साधारणं कायव्वं, भो सुण-संभोती होइया इदाणिं न णज्जति, तुब्भे णाउ भुजेजह। जम्हा एवमादी दोसगुणा भवंति तम्हा तेसिं दायव्वं, णावि तसिं हत्थाओ पडिच्छियव्व। इमो अववादोअसिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे। एएहि कारणेहिं, देज व गिण्हेज जयणाए // 281 // अद्धाणम्मि विवित्ता, हिमदेसे सिंधु एव ओमम्मि / गेलण्ण कोट्ठकंबल-अहिमाइ पमेण ओमज्जे // 28 // गाहा कंठा। ___ जइऊण गाहा(?)जइऊण मासिएहिं ति। जे उ उद्धेसियमादी ठाणा तेसु पुव्वं गिण्हति त्ति वुत्तं भवति, जता तेसु ण लब्भति तदा पासत्थादि उवदिडेसु गिहेसु गिण्हेति, तहा वि असतीए, ताहे पुबगतो पासत्थो परिचियघरेसु दवावेति, तहा वि असतीए पासत्थसंघाडण हिंडति, एसा तेसिं समीवातो गहाणे जयणा, तेसिं वा असंथरे देजा, ण देसो। जे भिक्खू ओसण्णस्स असणं वा पाणं वा खाइम वा साइम वा देयइ, देयंतं वा साइज्जइ / / 84|| जे भिक्खू ओसण्णस्स
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________________ दाण 2464 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण असणं वा 4 पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ / / 8 / / जे भिक्खू ओसण्णस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देयइ, देयंतं वा साइज्जइ॥८६|| जे भिक्खू ओसण्णस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज 87|| जे भिक्खू कुसीलस्स असणं वा 4 देयइ, देयंतं वा साइजइ॥८८|| जे भिक्खू कुसीलस्स असणं वा 4 पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ ||6|| जे भिक्खू कुसीलस्स वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देयइ, देयंतं वा साइजइ / / 60|| जे भिक्खू कुसीलस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पाय पुंछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छतं वा साइज्जइ 91|| जे भिक्खू णितियवासस्स असणं वा 4 देयइ, देयंतं वा साइजइ / / 12 / / जे भिक्खू णितियस्स असणं वा 4 पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ / / 63 जे भिक्खू णितियं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देयइ, देयंतं वा साइजइ ||4|| जे भिक्खू णितियं वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ / / | जे मिक्खू संसत्तस्स असणं वा 4 देयइ, देयंतं वा साइजइ।।६६|| जे भिक्खू संसत्तस्स असणं वा 4 पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइजइ / / 67il जे भिक्खू संसत्तस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देयइ, देयंतं वा साइज्जइ 184|| जे भिक्खू संसत्तस्स वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ IEET जे भिक्खू गाहा। पासत्थादी गाहा। पासत्थगाहा। उग्गमगाहा। एताणि गाहा। उग्गमदोसगाहा। सूइज्जइ गाहा।ण वि रागो गाहा। असिवे गाहा। जत्थ सुलभ वत्थ तम्मि विसए, अण्णतरे वा असिवादिकारणे होजा, एवमादिकारणेहिं तं विसयमेव गच्छंतो इह अलभंतो पासत्थादिवत्थ गेण्हेजा, देज वा तेसिं। अहवा-अद्धाणं गाहा 282 / अद्धाणे वा विवित्ता मुसिया अलभंता पासत्थादि तत्थ गेण्हेजा, हिमदेसे वा सीताभिभूता पाडिहारियं गेण्हेजा, एमेव सिंधुमादिविसए ओमम्मि उज्जलवत्थो भिक्ख लभति, अप्पणो तम्मि उज्जलवत्थे असंतेपासत्थादियाण गेण्हेज, गेलण्णे वा किमिकुट्ठादिए कंबलरयणं पासत्थादियाण देज, गिण्हेज वा, अहिमादिणा डक्के वा सगलवत्थेणं ओमज्झणं कायव्वं, अप्पणो असते पासत्थवत्थं गेण्हेज वा, देज वा तेसिं। नि०यू०१५ उ०। जे भिक्खू अइरेगपडिग्गहं खुड्डुगस्स वा खुड्डियाए वा थेरगस्स | वा थेरियाए वा अहत्थछिण्णस्स अपायछिण्णस्स अकण्णछिण्णस्स अनासछिण्णस्स अणोद्दछिण्णस्स सत्तस्स देयइ, देयंतं वा साइज्जइ // 6 // हत्था अच्छिपणा जेसिं ते अहत्थच्छिण्णां भाणियव्वा / एवं सव्ये पदा। सत्तो समर्थः / एतसिं दितस्स चउलहु। गाहाअब्बालवुड्डदाणे, इत्थीपुरिसाण जुंगिताणं वा / सुत्तत्थवीरिएण व, पज्जत्तसकोविताणं वा / / 136|| अबाला बालभाव अतिकता, अवुड्डा वुट्टभावं अप्राप्ता, सरीरेण जातीए वा अजुंगिता, सुत्तं च अधीय, जेहिं अत्थो वि सुतो, गीयत्था इत्यर्थः / वीर्य वा उप्पादणशक्तिः, गीयत्थत्तणातो चेव पज्जत्तो, पादकप्पितो त्ति वुत्तं भवति, सकोविता गमणागमणसचेट्टा, ते य सवीरियत्तणतो चेव सकोविता, एतेसिं जो इत्थीण वा पुरिसाण वा अतिरेगपडिग्गहं देति, अहवा। गाहा-- अभिणवपुराणगहितं, पातमछिण्णं तहेव छिण्णं च। निद्दिमणिघिट्ट, पाते दें ताण आणादी।।१३७।। अभिणवं पुराण वाजतं अच्छिण्ण छिण्णं वा गणिमादियाण णिहिटु वा अणिदिल वाजो देइ, तस्स आणादिया दोसा / चउलहुं च से पच्छित्त, जो सुत्तपडिसिद्धाण देति। ___ इमाण य अदेंतस्स दोसा। गाहाअद्धाणणिग्गयादीणऽदेंतों दोसा तु वन्निता पुट्विं / रोगभओभेसज्जं, णिरुयस्स कमोसहेहिं तु / / 138|| दिट्टतरस उवसंथारो, जो हत्थपादादिविगलो, तस्स जुत्तं दाण, समत्थरस कि दिजति? गंतु सयमेव आणेउत्ति, सेसं कंठं। इमेहिं पुण कारणेहिं समत्थस्स दिज्जतिअसिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलण्णे / सेहे चरित्तसावयभए व अद्धाण जयणाए।।१३६।। एते असिवादिकारणा दाणभायण भूमीए होजा, अंतरदेसे वा अद्धाणे बालवुड्डादियाण दाणं प्रति जयणा कायव्या, जत्थ बहुतरा णिज्जरा, जत्थ वा बहुतरा हाणी दीसइ, पुव्वं तस्स दायव्वं, जो वा पादच्छिण्णादिओ कमो भणितो, तेण दायव्वं। गाहाएएहिं कारणेहिं, सक्काण विदेतिऽसंसत्ती। जेसिं होज्जितरे वा, तेसिं पुण सञ्ज परिहाणी / / 140 / / अच्छिण्णहत्थादिया सक्का, तेसिंदेज, जेण तेसिं असंसत्ती। असंसत्ती णाम-भायणवोच्छेदो , अभाव इत्यर्थः / इतरे हत्थपाद-छिण्णादिया, तेसिं परिहाणी होज वा. ण वा. लेसिं पुण सक्काण भायणाभावे सजंति, वट्टते चेव परिहाणी, तम्हा तेसिं दायव्वं / गाहाजे चेव सक्कदाणे, असक्क असतीऍ दोस पावें ति। असतीए सक्काण वि,ते चेव अति पावेंति॥१४१।। जं ते असंथरता, अणेसणं जं च भाणभूमीए / पावेंति तहा सावय--तेणादिविराहणा जं च / / 142 / / सक्कारस देंतोजे दोसा भणिता, असक्कस्स य अदेंतो जे दोसा भणिया, ते चेव दोसा सक्काण वि असतीए अदेतो पावति, तम्हा असिवादिकारणे अवेक्खिउं सक्कस्स वि दायव्वं // 141 / / अहण देतितो इमेदोसाते अच्छि
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________________ दाण 2465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण ण्णहत्थादिया असंथरंता जं अणेसणं पेल्लिस्संति, जंच भायण-भूमीए अंतरा असिवादि वा पाविस्संति, भायणभूमीगयाण वा सयणेहिं सेहो उ णिक्खमाविवति, भायणाण वा गच्छंता सावरण खजति, तेणेहिं वा ओडज्झति, जं चण्णं किं वि सरीरसंजमविराहणं पावेति, तं सव्वं पायच्छित अदेंते पावति। अहवा इमाए जयणाए भायणा दायव्वा / गाहापुव्वं तु असंभोगी, दुगतिगबद्धं तहेव हुंडादी। तो पच्छा इतराण वि, तेसिं देंतो भवे सुद्धो / / 143 / / तेसि सक्काणं असिवादिकारणेहिं दिजंते पुव्वं जं असंतोइयं पादं, तं दिजति, दोसुवा तिसु वा ठाणेसुजं बद्धं, तं दिजति, हुंड वाताइद्याणि वा अलक्खणजुत्ताणि दिजति, जति तेणस्थि, तो पच्छा इयराण वि संभोइयाणि अभिण्णाणि समचउरंसाभिलक्खणजुत्ताणि य देतो सुद्धो भवति। अतिरेकप्रतिग्रहं ददातिजे भिक्खू अइरेगपडिग्गहगं खुड्डगस्स वा खुड्डियाएवाथेरगस्स वा थेरियाए वा हत्थछिण्णस्स पायछिण्णस्स कण्णछिण्णस्स णासछिण्णस्स असक्कं ण देइ, ण देयंतं वा साइजइ / / 7 / / पुटिवल्लसुत्तातो चेव इमं सुत्तं पडिपक्खभूतं, किं च-पूर्व एते अद्धाणादिया अत्थतो भणिता, इह पुण सुत्ततो चेव भणति। गाहाअद्धाण बालवुड्डाऽऽउराण दुविहाण जुंगिताणं च। सुत्तत्थवीरिएणं, अपजत्तऽविकोविताणं वा / / 144 / / दुविधा जुंगिता-जातीए, सरीरेण वा ।सेसं पूर्ववत् / गाहाअभिणवपुराणगहितं, पायमछिण्णं तहेव छिण्णं च / णिद्दिट्ठमणिघिद्वं, तेसिं अदेंताण आणादी॥१४५।। कंठा पूर्ववत्। गाहाअद्धाणओमअसिवे, उद्दिवासति अदेंतें जं पाये। पायअसन्मावाए, थेरस्स य झत्ति जं कुज्जा / / 146 / / पूर्ववत्। गाहादुविहभयआतुराणं, तप्पडिचरगाण विज्जहाणी य। जुंगितों पुव्वनिसिद्धो, भण्णति देसेतरो पच्छा॥१४७।। आसुकारी दीहरोगेण वा, अहवा-आगंतुओ तदुत्थेण वा भायणाणि विणा जा परिहाणी, तं अदेंतो पावति। णणु दुविहो जुंगितो-अणलसुत्तेण पुव्वं णिसिद्धो. ण पच्छद्घोण विज़ति? भण्णति-जातिनुंगितो वि देसो पवाविजति, इतरो त्ति सरीरजुगिओ पव्वज्जाए ठितो, पच्छा जाते तेसिं इमा विही अस्थियव्या। गाहाजातीयजुंगितो खलु, जत्थ ण णज्जति तहिं तु सो अत्थ / अमुगणिमित्तं वि गओ, इतरो जहि णज्जति तहिं तु / / 14 / / पूर्ववत्कंठा। गाहाजलचंता कारावेति य जंपिव करेंति उड्डाहं / किं णु हु गिहिसामण्णे, वि जुंगिता लोकमंका तु ||146 / / कंठा पूर्ववत्। सरीरविकले दाणं पडुच्च इमो कमो। गाहापादऽच्छिनासकरकेण जुंगिते जातिजुंगितो चेव / वोचत्थे चउ लहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं / / 150 / / पादादिविकलं भणियं कमातो जो वोचत्थं देति, तस्स चउलहुँ, साहुसाहुणीणं सरिसे विकलभावे दोण्ह वि दायव्वं / असति दोण्ह वि समणीसु पुव्वं दायव्वं। अदाणे इमो अववातो / गाहावितियपदमणप्पज्झे, देज व अविकोविते य अप्पज्झे। जाणंतो असतीए, उ मंदधम्मेसु वजेजा // 151 / / अणप्पज्झो खेत्तवित्तादिगे ण देज, सेहो वा अकोवितो गुणदोसेसु, सो वाण देज / अप्पज्झो वा जाणतो वि असतीए भायणस्सण देज,विजमा पि पासत्थादिसु वा मंद धम्मेसु ण देजा; एवमादिकारणेसु अतो हि सुद्धो। नि०चू०१४उ० "अमणुन्नमभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अणत्थाय। जह कडुयतुबदाणं, नागसिरिभवम्मि दोवइए // 1 // " ज्ञा०१ श्रु०१६अ०। (अत्र 'दुवई' शब्दे विशेषो द्रष्टव्यः) दाने जातिर्न निमित्तम्-"जे वा जाइनाइपक्खवाएण साहूणं दाणाइसु पयट्टति, न गुणाऽगुणचिंताए, ते वि विपज्जासभायणं / तम्हा गुणा पूयणिज्ञा, ते चेव दाणाइसु पयट्टतेण निमित्तं कजंतु, किं जाइनाइपभिईहिं, जओ स जाईए निद्धम्मा वि अत्थि, ता तेसु दाणं महाफलं होज्जा, अह तेसु य गुणा अस्थि, तहा वि ते चिय पवित्तिनिमित्तं दाणाइसु करितु, न किचिं जाइणाइणा।" दर्श०३ तत्त्व। तीर्थकृते भिक्षादानं महाफलं, तत्र पञ्च दिव्यानि जायन्तेतए णं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिग्गहसुद्धेणं तिविहं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउयणिबद्धं संसारपरित्तीकए गिहंसि य से इमाइं पंच दिव्वाई पाउन्भूयाई / तं जहा-वसुहारा छुट्ठा 1, दसद्धवणे कुसुमे णिवातिले२, चेलुक्खेवे कए३, आहायाओ देवदुंदुभीओ 4, अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे अहो दाणे त्ति घुढे 5 / भ०१५ शम (श्रमणभाजनेभ्यो दाने फलम् ‘आउ' शब्दे द्वितीयभागे 12 पृष्ठे दर्शितम्) यच तीर्थकृतो दानं तददुष्टम्। अनन्तरं जगद्गुरोर्महादानमुक्तम्। तच नयुक्तमिति परमतमावेदयन्नाहकश्चिदाहास्य दानेन, क इवार्यः प्रसिद्ध्यति। मोक्षगामी ध्रुवं ह्येष, यतस्तेनैव जन्मना / / 1 / / कश्चिद् दुर्विदग्धमतिः, आह ब्रूते, अस्य जगद् गुरोर्दानेन वितरणेन क इव? न कश्चिदित्यर्थः, अर्थः पुरुषार्थो , धर्मार्थकाममोक्षाणामन्य
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________________ दाण 2466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण तमः, फलं वा प्रसिद्ध्यति निष्पद्यते. अर्थाऽऽदिषु तस्य निरपेक्षत्वात्। संभवति, "आयरियऽणुकपाए, गच्छो अणुकपिओ महाभागो।'' इति दानधर्मस्य च तत्कारणत्वान्मोक्षार्थः सिद्ध्यतीति चेन्नेत्याह-मोक्षं निर्वाण वचनादिति // 3 // गमिष्यति यास्यतीति मोक्षगामी,ध्रुवं निश्चितं, हिशब्दो जिनदानस्य धर्माङ्ग मेव दानं यतःप्रयोजनाभावभावनार्थः / एष जगद् गुरुर्यता यस्मात्कारणात, तेनैवाऽ- शुभाऽऽशयकरं ह्येतदाग्रहच्छेदकारि च / कृतेन, यस्मिन जन्मनि दानं ददाति न जन्मपरम्परया, जन्मना भवेन, सदभ्युदयसाराङ्गमनुकम्पाप्रसूति च / / 4 / / दानं हि भवपरम्परया मोक्षफलं,येन च तद्भवेनेवावश्यं निर्वातव्य, तस्य शुभं प्रशस्तमाशयं चित्रा कर्तुं शीलमस्येति शुभाऽऽशयकर, हि इति दानेन न कश्चिदर्थ इति / / 1 / / यस्मादेवं लरमाद्धङ्गिता दानस्येति प्रकृतम्। एतदिति दानम् / तथाअथोत्तरमाह आग्रहच्छेदकारि च-वित्तं प्रति ममकारलक्षणाभिनिवेशनाशकर्तृ, उच्यते कल्प एवास्य, तीर्थकृन्नामकर्मणः / चशब्दः समुच्चय! तथा सन् शोभनोऽभ्युदयान्तरानुबन्धित्वेन योऽभ्युदयः उदयात् सर्वसत्त्वानां, हित एव प्रवर्तते / / 2 / / कल्याणावाप्तिः, तस्य साराङ्गं प्रधानकारणं सदभ्युदयसाराङ्गम्। आह उच्यते अनन्तरो दिताऽऽक्षेपस्य समाधिरभिधीयते, कल्पशब्दः च- "दानेन भोगानाप्नोति, यत्र यत्रोपपद्यते। शीलेन भोगान् स्वर्ग च. करणार्थः / यदाह- "सामर्थ्य वर्णनीयां च, छेदने करणे तथा 1 औपम्ये निर्वाणं चाधिगच्छति॥१॥" तथाऽनुकम्पाया दयायाः सकाशात् प्रसूतिः चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः // 1 // " करणं च क्रिया, समाचार | प्रभवो यस्य तदनुकम्पाप्रसूतिः / चशब्दः समुचय इति!! || हा०२ अष्ट। इत्यर्थः / ततश्च कल्प एव जीतमेव, वक्ष्यमाणे दानाऽऽदिना सर्वसत्त्व- पशाला कल्पका द्वा०। (प्रायश्चित्तदानविधिः पच्छित्त' शब्दे वक्ष्यते) हितवर्तनलक्षणेऽस्य जगद् गुरोर्न पुनः फलविशेष प्रति प्रत्याशा / अथ दानं प्रति विधिनिषेधविचारःकिंरूपोऽसौ कल्प इत्याह- तीर्थकृतस्तीर्थकरस्य संबन्धि तीर्थकरत्व से णाईए, णादियावए, ण समणुजाणति (87) / निवन्धनं यन्नामाऽऽख्यं कर्माऽदृष्ट तत्तथा, तस्य तीर्थकृनामकर्मण (से णाईए इत्यादि) स भिक्षुस्तद्वा कल्प्य नाददीत न गृह्णीयान्नप्यपरउदयाद्विपाकात् सर्वसत्त्वानां सकलशरीरिणाम्। इह च हितशब्दयोगेऽपि मादापयेद् गाहयेत्, नाप्यपरमनेषणीयमाददान समनुजानीयात् / न चतुर्थी , संबन्धस्यैव विवक्षितत्वात् / हित एवानुकूलविधावेव, इह अथवा-सइङ्गालं सधूमं वा नाद्यान्न भक्षयन्नापरमादयेददन्न वा न यदिति शेषो दृश्यः तेन यदेतत् प्रवर्तत व्याप्रियते भगवानिति ततश्वास्य समनुजानीयादिति। आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। दानात् कल्पपरिपालनं विना नान्यत् फलमस्तीति भावनेति ।।सा दाणट्ठया य जे पाणा, हणंति तसथावरा। परिहारान्तरमाह तेसिं संरक्खणट्ठाए, तम्हा अस्थि त्ति णो वए।॥१८॥ धगि ख्यापनार्थं च, दानस्याऽपि महामतिः। अन्नपानदानार्थमाहारमुदकं च पचनपाचनाऽऽदिकया क्रियया कूपखअवस्थौचित्ययोगेन, सर्वस्यैवानुकम्पया।।३।। ननाऽऽदिकया चोपकल्पयेत् / तत्र यस्माद्धन्यन्ते व्यापाद्यन्ते त्रसाः धर्मस्य कुशलाऽऽत्मपरिणामविशेषस्यागमक्यवः कारणे वा धर्माङ्ग, स्थावराश्व जन्तवस्तस्मात्तेषां रक्षानिमित्त साधुरात्मगुप्तो जितेन्द्रियोऽत्र तस्य ख्यापन प्रकाशनं धर्माङ्ग ख्यापन, तस्मै इदं धर्माङ्ग ख्यापनार्थ, भवदीयानुष्ठाने पुण्यमित्येवं नो वदेदिति // 18 // भावप्रत्ययगर्भवान्निर्देशस्य धर्माङ्गता ख्यापनार्थमिति द्रष्टव्यम् / यद्येवं नास्ति पुण्यमिति बूयातदेतदपिन ब्रूयादित्याहमहादानं दत्तवानिति प्रक्रमगम्यम्। धर्मानंदानं भगवता प्रवृत्तत्वाच्छील जेसिं तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं। वदिति भव्यजनसंप्रत्ययार्थमित्यर्थः / चशब्दः पूर्वोक्तपरिहारापेक्षया तेसिं लाभंतराय ति, तम्हा णत्थि त्ति णो वए|१६|| परिहारान्तरसमुच्चयार्थः। कस्येत्याह-दानस्याऽपि विश्राणनस्यापि, न केवलं शीलाऽऽदेर्धाङ्ग तेत्यपिशब्दार्थः / महामतिरव्याहतबोधो (जेसिमित्यादि) येषां जन्तूनां तदन्नपानाऽऽदिकं किल धर्मबुद्ध-- भगवान्, किं यथाकथञ्चिदस्य धर्माङ्गतायाः ख्यापनं, नेत्याह यापकल्पयन्ति, तथाविध प्राण्युपमर्ददोषदुष्ट निष्पादयन्ति, तन्निषेधे च अवस्थाया भूमिकाया औचित्ययोग आनुरूप्यलक्षणधर्मसंबन्धः यरमात्तेषामाहारपानार्थिनां तल्लाभान्तरायो विघ्नो भवेत्, तदभावेन अवस्थी-चित्ययोगः, तेन, स्वभूमिकोचितत्वेनेत्यर्थः / धर्माङ्गता घतस्य तुपीडयेरन, तरमात्कूपखननसत्राऽऽदिके कर्मणि नास्ति पुण्यमित्येतकिं गृहिणामेव, नेत्याह-सर्वस्यैव, एवशब्दस्याऽपिशब्दार्थत्वान्न कवलं दपि नो वदेदिति // 16 // गृहिण एव, निरवशेषस्यापि दातुर्यतर्गृहिणो वाऽनुकम्पया कृपया, न तु एनमेवार्थ पुनरपि समासतः स्पष्टतरं विभणिषुराहमृहिणामनुकम्पादानमुचितम्, “अणुकंपादाणं पुण, जिणेहिं न कयाइ जे य दानं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं / पडिसिद्ध / " इति वचनात् / यत् पुनः साधुः साधये ददाति जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करें ति ते // 20 // तदनुकम्पानिमित्तं न भवति, भक्तिनिमित्तत्वात्तस्य। यत् पुनरसंयताय (जे य दाणमित्यादि) से के चन प्रपासत्राऽऽदिकं दान बहूनां दानं तत् साधोर्न संभवति, "गिहिणो वेयावडियं, न कुजा अभिवाय- जन्तुनामुपकारीति कृत्वा प्रशसन्ति श्लाधन्ते, ते परमार्थानभिज्ञाः, प्रणवंदणपूयणं च / " इति वचनात् / ततः सर्वस्याऽपि गृहस्थस्येव प्रभूततरप्राणिनां तत्प्रशंसाद्वारेण बधं प्राणातिपातमिच्छन्ति, ध्याख्येयं, नैवम्,यतो विशिष्टपुष्टाऽऽलम्बनसद्भावे यतेरप्यनुकम्पादान- तदानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः / येऽपि च किल सूक्ष्मसंभव इति न दोषः / अमुं चार्थ ग्रन्थकार एव व्यक्तीकरिष्यति! श्रूयते धियो वरा मित्येवं मन्यमाना आगमसद्भावानभिज्ञाः प्रतिषेधन्ति चाऽऽगमे आर्यसुहस्त्याचार्यस्य रङ्कदानं, न चानुकम्पादानं साधुषु न / निषेधयन्ति, तेऽप्यगीतार्थाः, प्राणिनां वृत्तिच्छेदं वर्तनोपा
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________________ दाण 2467- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण यविध्नं कुर्वन्तीति / / 20 / / सूत्र०१ श्रु०११ अ०। आचा०। आव०। (कृतप्रत्याख्यानोऽशनाऽऽदिदानं न कुर्यादिति 'पचक्खाण' शब्दे वक्ष्यते) (भुञ्जानैः साधुभिर्द्रमकाऽऽदिभ्यो न देयमसंयतपोषणभयादिति 'भोयण' शब्दे विस्तरेण वक्ष्यते) "ऐन्द्रशर्मप्रदं दानमनुकम्पासमन्वितम्। भक्त्या सुपात्रदानंतु, मोक्षदं देशितं जिनैः / / 1 / / " द्वा०१ द्वा०। (अनुकम्पा०(२) इत्यादिगिर्दशभिः श्लोकैरनुकम्पादानम् अनुकंपादाण' शब्दे प्रथमभागे 360 पृष्ठे व्याख्यातम्) __नन्वेवं 'गिहिणो वेयावडियं न कुआ'' इत्याद्यागमवि रोधः? इत्यत आह-- वैयावृत्ये गृहस्थानां, निषेधः श्रूयते तु यः। स औत्सर्गिकतां बिभ्रद्, नैतस्यार्थस्य बाधकः / / 12 / / (वैयावृत्य इति) गृहस्थानां वैयावृत्ये तु साधोर्यो निषेधः श्रूयते, स औत्सर्गिकतां बिभन्नैतस्यापवादिकस्यार्थरय बाधकः / अपवादो ह्युत्सर्ग बाधते, न तूत्सर्गोऽपवादमिति / / 12 / / सूत्रान्तरं समाधत्तेये तु दानं प्रशंसन्तीत्यादिसूत्रेऽपि संगतः। विहाय विषयो मृग्यो, दशाभेदं विपश्चिता // 13 // (ये विति) ये तु दानं प्रशंसन्तीत्यादिसूत्रऽपि "जे उदाणं पसंसति, | वहमिच्छति पाणिणं। जे अण्णं पडिसेहति, वित्तिच्छेयं करति ते॥२०॥" इति सूत्रकृत् सूत्रेऽपि दशाभेदं विहाय संगतो युक्तो विषयो विपश्चिता मृग्य ऐदम्पर्यशुद्ध्या विचारणीयो, नतुपदार्थमात्रे मूढतया भाव्यम्, अपुष्टाऽऽलम्बनविषयतयैवास्योपपादनात। आह च-"ये तुदानं प्रशंसन्तीत्यादि सूत्रं तु यत् स्मृतम् / अवस्थाभेदविषयं, द्रष्टव्यं तन्महात्मभिः / / 1 // " इति // 13 // पुनःशङ्कतेनन्वेवं पुण्यबन्धःस्यात्, साधोन च स इष्यते। पुण्यबन्धान्यपीडाभ्यां, छन्नं भुङ्क्ते यतो यतिः // 14 // (नन्विति) नन्वेवमपवादतोऽपि साधोरनुकम्पादानेऽभ्युपगम्यमाने पुण्यबन्धः स्यात्, अनुकम्पायाः सातबन्धहेतुत्वात्।नचस पुण्यबन्ध इष्यते साधोः, यतो यस्माद् यतिः पुण्यबन्धान्यपीडाभ्यां हेतुभ्या छन्नं भुक्ते / / 14|| एतदेव स्पष्टयतिदीनाऽऽदिदाने पुण्यं स्यात्तददानं च पीडनम्। शक्तौ पीडाऽप्रतीकारे, शास्त्रार्थस्य च बाधनम्॥१५॥ (दीनाऽऽदीति) प्रकट भोजने दीनाऽऽदीना याचमानानां दाने पुण्यं स्याद, न चानुकम्पावॉस्तेषामदत्त्वा कदापि भोक्तुं शक्तः। अतिधार्श्वमवलम्ब्य कथञ्चित्तेषामदाने च पीडनं स्यात्तेषां तदानीमप्रीतिरूप, शासनद्वेषात्परत्र च कुगतिसङ् गतिरूपम् / तदप्रीतिदानपरिणामाभावान्न दोषो भविष्यतीत्याशङ् क्याऽऽहशक्ती सत्यां पीडायाः परदुःखस्याप्रतीकारेऽनुद्धारे च शास्त्रार्थस्य पराप्रीतिपरिहारप्रयत्नप्रतिपादनरूपस्य बाधनं, रागद्वेषयोरिव शक्तिनिगृहनस्यापि चारित्रप्रतिपक्षत्वात्। प्रसिद्धोऽयमर्थः सप्तमाष्टके / / 15 / / किञ्च दानेन भोगाऽऽप्तिस्ततो भवपरम्परा। धर्माधर्मक्षयान्मुक्तिर्मुमुक्षोर्नेष्टमित्यदः / / 16 / / किं च दानेन हेतुना भोगाऽऽप्तिर्भवति, ततो भवपरम्परा मोहधारावृद्धेः, तथा धर्माधर्मयोः पुण्यपापयोः क्षयान्मुक्तिः, इति हेतोरदोऽनुकम्पादानं मुमुक्षोर्नेष्टम् / / 16 / / सिद्धान्तयतिनैवं यत्पुण्यबन्धोऽपि, धर्महेतुःशुभोदयः। वह्वेर्दाह्यं विनाश्येव, नश्वरत्वात् स्वतो मतः // 17 // (नैवमिति) नैवं यथा प्रागुक्तम्, यत् यस्मात्पुण्यबन्धोऽपि शुभोदयः सद्विपाको धर्महेतुर्मतः, तद्धेतुभिरेव दशाविशेषेऽनुषङ्गः पुण्यानुबन्धिपुयबन्धसंभवात, प्राणातिपातविरमणाऽऽदौ तथाऽवधारणात् / न चाय मुक्तिपरिपन्थी, दाह्य विनाश्यवढेरिव तस्य पापं विनाश्य स्वतो नश्वरत्वान्नाशशीलत्वात् / शास्त्रार्थाबाधेन निर्जराप्रतिबन्धकपुण्यबन्धाभावान्नाव दोष इति गर्भाऽर्थः / / 17 / / भोगाऽऽप्तिरपि नैतस्मादभोगपरिणामतः। मन्त्रितं श्रद्धया पुंसां,जलमप्यमृतायते / / 18|| (भोगाऽऽप्तिरिति) भोगप्राप्तिरपि नैतस्मादापवादिकादनुकम्पादानात, अभोगपरिणामतो भोगानुभवोपनायकाध्यवसायाभावात्। दृष्टान्तमाह--मन्त्रितं जलमपि पुंसां श्रद्धया भक्तवाऽऽमृतायतेऽमृतकार्यकारि भवति / एवं हि भोगहेतोरप्यत्राध्यवसायविशेषाद्भो - गानुपनतिरुपपद्यत इति भावः // 18|| नन्विदं हरिभद्रसंमत्या भवद्भिर्व्यवस्थाप्यते, तेनैव ___ चाभिनिवेश्योक्तमित्याशक्याऽऽहन च स्वदानपोषार्थमुक्तमेतदपेशलम् / हरिभद्रो ह्यदोऽभाणीद, यतः संविग्नपाक्षिकः / / 16 / / (न चेति) न च स्वदानस्य स्वीयासंयतदानस्य पोषार्थ समर्थनार्थमुक्तमेतदपेशलमसुन्दरम्। यतो यस्मात्संविग्रपाक्षिको हरिभद्रोऽदः प्रागुक्त, हि निश्चितमभाणीत् / न हि संविनपाक्षिकोऽनृतं ब्रूते / तदुक्तं सप्तविंशतितमाष्टकविवरणे-"स्वकीयासंयतदान-समर्थनागर्भार्थकमिदं प्रकरणं सूरिणा कृतमिति केचित्कल्पयन्ति / हरिभद्राऽऽचार्यो हि भोजनकाले शङ्खवादनपूर्वकमर्थिभ्यो भोजनं दापितवानिति श्रूयते। न चैतत्संभाव्यते, सविनपाक्षिको ह्यसौ, न च संविग्रस्य तत्पाक्षिकस्य वाऽनागमिकार्थोपदेशः संभवति, तत्त्वहानिप्रसङ्गात् / आह च'सविग्गोऽणुवएसं, ण देइ दुभासिअं कडुविवागं 1 जाणतो तम्मि तहा, अतहकारो उ मिच्छत्तं' ||1 // इति // 16 // भक्तिस्तु भवनिस्तारवाञ्छा स्वस्य सुपात्रतः। तया दत्तं सुपात्राय, बहुकर्मक्षयक्षमम् / / 20 / / (भक्तिस्त्विति) भक्तिस्तु इवस्य सुपात्रतो भवनिस्तारवाञ्छा। आराध्यत्वेन ज्ञान भक्तिः, आराधना च गौरवितप्रीतिहेतुः, क्रिया गौरवितसेवा चेत्येतदपि फलतो नैतल्लक्षणमतिशेते / तया भक्त्या सुपात्राय दतं बहुकर्मक्षये क्षमं समर्थ भवति // 20 // तथाहिपात्रदानचतुर्भङ् ग्यामाद्यःसंशुद्ध इष्यते / द्वितीये भजना शेषावनिषफलदौ गतौ / / 21 / / (पाति) पात्रदानविषयिणी या चतुर्भङ्गी-संयताय शुद्ध
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________________ दाण 2468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दाण दानम्, संयतायाशुद्धदानम्, असंयताय शुद्धदानम. असंयताया- | इशुद्धदानमित्यभिलापा / तस्यामाद्यो भङ्ग : सम्यगतिशयेन शुद्ध इष्यते, निर्जराया एव जनकत्वात् / द्वितीये भङ्गे कालाऽऽदिभेदेन फलभावाऽभावाभ्यां भजना विकल्पाऽऽत्मिका / शेषौ तृतीयचतुर्थभङ्गौ अनिष्ट - फलदौ एकान्तकर्मबन्धहेतुत्वान्मतौ // 21 // शुद्ध दत्त्वा सुपात्राय, सानुबन्धशुभार्जनात्। सानुबन्धं न बध्नाति, पापं बद्धं च मुञ्चति // 22 // (शुद्धमिति) सुपात्राय प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मणे शुद्धभन्नाऽऽदिक दत्त्वा सानुबन्धस्य पुण्यानुबन्धिनः शुभस्य पुण्यस्यार्जनात् सानुबन्धमनुबन्धसहितं पापं न बध्नाति, बद्धं च पूर्व पापं मुञ्चति त्यजति / इत्थं च पापनिवृत्तौ प्रयाणभङ्गाप्रयोजकपुण्येन मोक्षसौलभ्यमावेदितं भवति / / 2 / / भवेत्पात्रविशेषे वा, कारणे वा तथाविधे। अशुद्धस्यापि दानं हि, दयोलाभाय नान्यथा / / 23 / / (भवेदिति) पात्रविशेषे वाऽऽगमाभिहितस्वरूपक्षपकाऽऽदिरूपे, कारणे वा तथाविधे दुर्भिक्षदीर्घाध्वग्लानत्वाऽऽदिरूपे आगाढे, अशुद्धरयाऽपि दान हि सुपात्राय द्वयोर्दातृगृहीत्रोलाभाय भवेत्. दातुर्विवेकशुद्धान्तःकरणत्वाद्, गृहीतुश्च गीतार्थाऽऽदिपदवत्त्वात्: नान्यथा पात्रविशेषस्य कारणविशेषस्य वा विरहे / / 23 / / नन्येवं संयतायाशुद्धदाने फले द्वयोर्भवतु भजना, दातुर्बहुतरनिर्जराऽल्पतरपापकर्मबन्धभागित्वं तु भगवत्युक्तं कथमपवादाऽऽदावपि भावशुझ्या फलाविशेषादित्यत आहअथवा यो गृही मुग्धो, लुब्धकज्ञातभावितः। तस्य तत् स्वल्पबन्धाय, बहुनिर्जरणाय च / / 24 / / (अथवेति) अथवा पक्षान्तरे, यो गृही मुग्धोऽसत्-शास्त्रार्थो लुब्धकज्ञातेन मृगेषु लुब्धकानामिव साधुषु श्राद्धानां यथाकथ-शिदन्नाऽऽधुपढौकनेनानुधावनमेव युक्तमिति पार्श्वस्थप्रदर्शितेन भावितो वासितः, तस्य तत्संयतायाऽशुद्धदानं तु मुग्धत्वादेव स्वल्पपापबन्धाय बहुकर्मनिर्जरणाय च भवति॥ अल्पाऽऽयुष्कत्वम्इत्थमाशयवैचित्र्यादत्राल्पाऽऽयुष्कहेतुता। युक्ता चाशुभदीर्घाऽऽयुर्हेतुता सूत्रदर्शिता / / 25 / / (इत्थमिति) इत्थममुना प्रकारेण, आशयवैचित्र्यानावभेदात्, अत्र संयताऽशुद्धदाने, अल्पाऽऽयुष्कहेतुताऽशुभदीर्घाऽऽयुर्हेतुता च, सूत्रदर्शिता स्थानाङ्गाऽऽद्युक्ता,युक्ता, मुग्धाभिनिविष्टयोरेतदुपपत्तेः। शुद्धदायकापेक्षयाऽशुद्धदायके मुग्धेऽल्पशुभाऽऽयुबन्धसंभवात् / क्षुल्लकभवग्रहणरूपाया अल्पतायाश्च सूत्रान्तरविरोधेनासंभवादिति / व्यक्तमदः स्थानाङ्गवृत्त्यादौ / / 25 / / यस्तूत्तरगुणाशुद्धं, प्रज्ञप्तिविषयं वदेत्। तेनात्र भजनासूत्रं, दृष्टं सूत्रकृते कथम् ?||26|| (यस्त्विति) वस्तु आधाकर्मिकस्यैकान्तदुष्टत्वं मन्यमानः प्रकृतेऽर्थ, प्रज्ञप्तिगोचरं भगवतीविषयम्, उत्तरगुणाशुद्ध वदेत्। शक्यपरित्यागबीजाऽऽदिसंसक्तानाऽऽदिस्थलेऽप्यप्रासुकानेषणीयपदप्रवृत्तिदर्शनात् / तेन चैवं यूकापरिभवभयात्परिधान परित्यजता, अत्र विषये, सूत्रकृते, भजनासूत्रम्, कथं दृष्टम् ? एवं हि तदनाचारश्रुते श्रूयते-"अहागडाई भुंजंति, अन्नमन्ने सकम्भुणा / उवलित्ते वियाणिज्जाऽणुवलित्ते ति वा पणो'' ||1|| अत्र ह्याधाकर्मिकस्य फले भजनैव व्यक्तीकृता, अन्योऽन्यपदग्रहणेनार्थान्तरस्य कर्तुमशक्यत्वात्, स्वरूपतोऽसावध भजनाव्युत्पादनस्यानतिप्रयोजनत्वाच्चेति संक्षेपः // 26 // शुद्धं वा यदशुद्धं वाऽसंयताय प्रदीयते / गुरुत्वबुद्ध्या तत्कर्म-बन्धकृन्नाऽनुकम्पया / / 27 / / (शुद्धं वेति) असंयताय यच्छुद्धं वाऽशुद्धं वा गुरुत्वबुद्ध्या प्रदीयते तदसाधुषु साधुसंज्ञया कर्मबन्धकृत्, न पुनरनुकम्पया। अनुकम्पादानस्य क्वाऽप्यनिषिद्धत्वात् / "अणुकंपादाणं पुण, जिणेहि न कयाइ पडिसिद्धं / " इति वचनात्।।२७।। दोषपोषकतां ज्ञात्वा, तामुपेक्ष्य ददज्जनः। प्रज्ज्वाल्य चन्दनं कुर्यात्, कष्टामङ्गारजीविकाम् // 28 // अतः पात्रं परीक्षेत, दानशौण्डः स्वयं धिया। तत् त्रिधा स्यान्मुनिः श्राद्धः सम्यग्दृष्टिस्तथाऽपरः॥२६| एतेषां दानमेतत्स्थ-गुणानामनुमोदनात् / औचित्यानतिवृत्त्या च, सर्वसंपत्करं मतम्।।३०।। दोषेति स्पष्टः / / 28 / / अत इति स्पष्टः / / 26 // (एतेषामिति) एतेषां मुनिश्राद्धसम्यग्दृशां दानम्, एतत्स्थानामेतद्- वृत्तीना गुणानामनुमोदनात्तदानस्य तद्भक्तिपूर्वकत्वात् / औचित्यानतिवृत्त्या स्वाचारानुल्लङ्गनेन च, सर्वसंपत्करं ज्ञानपूर्वकत्वेन परम्परया महानन्दप्रदं मतम् // 30 // शुभयोगेऽपि यो दोषो, द्रव्यतः कोऽपि जायते। कूपज्ञातेन स पुननिष्टो यतनावतः॥३१।। (शुभयोगेऽपीति) पात्रदानबद्धबुद्धीना साधर्मिकवात्सल्याऽऽदौ शुभयोगेऽपि प्रशस्तव्यापारेऽपि यः कोऽपि द्रव्यतो दोषो जायते, स कपज्ञातेन आगमप्रसिद्धकुपदृष्टान्तेन. यतनावतो यतनापरायणस्य नानिष्टः स्वरूपतः सावद्यत्वेऽप्यनुबन्धतो निरवद्यत्वातातदिदमुक्तम"जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स / सा होइ णिज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स / / 1 // ' अत्र हि अपवादपदप्रत्ययाया विराधनाया व्याख्यानात् फलभेदौपयिको ज्ञानपूर्वकत्वेन क्रियाभेद एव लभ्यते। यत्तु वर्जनाभिप्रायजन्या निर्जरांप्रति जीवघातपरिणामाजन्यत्वेन जीवविराधनायाः प्रतिबन्धकाभावत्वेनैवात्र हेतुत्वमिति कश्चिदाह साहसिकः, तस्यापूर्वमेव व्याख्यानमपूर्वमेव चाऽऽगमतर्ककौशलं, केवलायास्तस्याः प्रतिबन्धकत्वाभावाज्जीवधातपरिणामविशष्टत्वेन प्रतिबन्धकत्वे च विशेषणाभावप्रयुक्तस्य विशिष्टाभावस्य शुद्धविशेष्यस्वरूपत्वे विशेष्याभावप्रयुक्तस्य तस्य शुद्धविशेषणरूपस्यापि संभवाञ्जीवधातपरिणामोऽपि देवानां प्रियस्य निर्जराहेत: प्रसज्येत / अथ वर्जनाभिप्रायेण जीवघातपरिणामजन्यत्वलक्षण स्वरूपमेव विराधनायास्त्याज्यतेऽतो नेयमसती प्रतिबन्धिकेति चेत्, किमेतद्विराध-नापदं प्रवृत्तिनिमित्तं, विशेषणं वा? आद्ये प्रवृत्तिनिमित्तं नास्तिपदं चोच्यत इत्ययमुन्मत्तप्रलापः / अन्त्ये चोक्तदोषतादवस्थ्यमिति शिष्यद्वन्धनमात्रमेतत् / अथ यद्धर्मविशिष्ट यद्वस्तु निजस्वरूपं जहाति स धर्मस्तत्रोपाधिरिति नियमाद्वर्जना, अभिप्राय विशिष्टा हि जीवविराधना जीवघातपरिणामजन्यत्वं
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________________ दाण 2466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दामण्णग सयमन्मशहेतुं परित्यजतीति भावार्थपर्यालोचनादनुपहितविराधनात्वेन प्रतिबन्धकत्वं लभत इत्युपहितायास्तस्याः प्रतिबन्धकाभावत्वमक्षतमिति चेन्न, प्रकृतविरःधनाव्यक्ती जीवघातपरिणाम- जन्यत्वस्यासत्त्वेन त्याजयितुमशक्यत्वात् / अत एव तत्प्रकारक-- प्रमितिप्रतिबन्धरूपस्यापि तदानस्थानुपपत्तेः / स्यादेतत् / वर्जनाभिप्रायाभावविशिष्टविराधनात्वेन प्रतिबन्धकत्वे न कोऽपि दोषः, प्रत्युत यर्जनाभिप्रायस्य पृथक्कारणत्वाकल्पनाल्लाधवमिति / मैवम् / विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहाद्, अन्यथा दोषाभावविशिष्टवाधत्वेनेव दुष्टज्ञाने प्रतिबन्धकत्वप्रसङ्गाद्, विशेष्याभावस्थलेऽतिप्रसङ्गास / तस्माद् वर्जनाभिप्रायस्यैव फलविशेषे निश्चयतो हेतुत्थं, व्यवहारण च तत्तव्यक्तीनां भावानुगताना निमित्तत्वमिति साम्प्रतम् / विपश्चितं चेदमन्यत्रेति नेह विस्तरः / / 31 // इत्थं दानविधिज्ञाता, धीरः पुण्यप्रभावकः। यथाशक्ति ददद्दानं, परमाऽऽनन्दभाग् भवेत् / / 3 / / इत्थमिति स्पष्टः॥३२॥ द्वा०१ द्वा०। दक्षिणायाम्, सूत्र०२ श्रु०५ अ०। 'दो' अवखण्डने ल्युट् / खण्डने, विशे०। आव०। गजमदे, ज्ञा०१ श्रु०६अ। मदकारिणि, 'दाणवासि अकपोलमूलं / ' कल्प०२ क्षण / तीर्थकृद्दानमभव्याः प्राप्नुवन्ति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्, ते नाप्नुवन्तीति बृद्धवादः, अक्षराणि तु ग्रन्थे दृष्टानि न स्मरन्तीति। 168 प्र०ा सेन०२ उल्ला०। केनापि स्वगृह जिनगृहे मुक्तं, तत्र श्राद्धः कोऽपि भाटकं दत्त्या तिष्ठति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् यद्यपि साधिकभाटकप्रदानपूर्वकमवस्थाने दोषो न लगति, तथाऽपि तथाविधकारणमन्तरेदं युक्तिमन्न प्रतिभाति, दवद्रव्यभोगाऽऽदौ निःशूकताप्रसङ्गादिति। 417 प्र०। सेन०३ उल्ला०। पौषधमध्ये याचकाऽऽदेर्दानं दातुं कल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्मुख्यवृत्त्या पौषधमध्ये याचकाऽदेनं दातुन कल्पते, कस्मॅिश्चित्कारणविशेष तथा जिनशासनोन्नतिं ज्ञात्वा कदाचिद्यदि ददाति तदा निषेधो ज्ञातो नास्तीति। 433 प्र०। सेन० 3 उल्लाका दाणंतराय न०(दानान्तराय) दीयते इति दानं,तद्विषयमन्तरायं दानान्तरायम्। प्रथमायामन्तरायस्योत्तरप्रकृतौ यदुदयवशात सति विभवेऽपि समागते च गुणवति पात्रे दत्त्वाऽस्मै बहुफलमिति जानन्नपि दातुनोत्सहते, तदानान्तरायम्। तस्मिन्, कर्म०६ कर्मा पं०सं०। स०। दाणग्गहण न० (दानग्रहण) प्रदानाऽऽदानयोः, नि०चू०५ उ०। दाणजुय पुं०(दानयुत) दानरुची, कर्म०१ कर्म०। दाणट्ठ न०(दानार्थ) दानमर्थो यस्य तदानार्थम् / दाननिमित्ते. प्रश्न०५ / रांव०द्वार / सूत्र दाणधम्म पुं०(दानधर्म) दानधर्मकर्तव्यतायाम, "दानात्कीर्तिः सुधाशुभ्रा, दानात्सौभाग्यमुत्तमम् / दानात्कामार्थमोक्षाः स्युर्दानधर्मों वरस्ततः।।१।।" पञ्चा०२ विव० दाणव पुं०(दानव) दनोरपत्यम्, अण् / ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। "कगचजतदपयवां प्रायो लुक्" / / 8 / 1 / 177 / / इति प्रायग्रहणा-- स्वरात्परस्यानादिभूतस्यासंयुक्तस्यापि वकारस्यालुक् / 'दाणयो / ' प्रा०१ पाद / भवनपतिविशेषे, व्यन्तरभेदे, ज्ञा०१ श्रु०८अ०। असुरे, अनु० स्था०। उत्ता आ०म०) दाणविंद पुं०(दानवेन्द्र) चमराऽऽदौ, आ०म०१अ०१खण्ड। दाणविप्पणास पुं०(दानविप्रनाश) दत्तापलापे; प्रश्न०३संव० द्वारा दाणसट्टपुं०(दानश्राद्ध) प्रकृत्यैवदानरुचौ, ध०३ अधि०। बृ०॥ दाणसूर पुं०(दानशूर) तृतीये शूरभेदे, "दाणसूरे वेसमणे।'' दानशूरो वैश्रवण उतराशालोकपालस्तीर्थकराऽऽदिजन्मपारणकाऽऽदिरत्नवृष्टिपातनाऽऽदिनेति। उक्तं च-''वेसमणवयणसंचोइया उ ते तिरियजभगा देवा / कोडिग्गसो हिरण्णं, रयणाणि य तत्थ उवणेति।।१।।" इति। स्था०४ ठा०३उ०। संथा। दाणाइ पुं०(दानाऽऽदि) वितरणप्रभृती, आदिशब्दाद् गुरुसेवातपः प्रभृतीनां च संग्रहः / पञ्चा०२ विव०। दाणामा स्त्री०(दानमयी) प्रव्रज्यायाम्, "दाणामाए पव्वजाए पव्वइए।" भ०३श०२ उ०। दाणिं अव्य०(इदानीम्) "इदानीमो दाणिं" ||84277 / / शौर सेन्यामिदानीमः स्थाने 'दाणि' इत्यादेशः। प्रा०४ पाद। सम्प्रतीत्यर्थे, भ०३श०२उ०।सूत्रका "अणतरकरणीय दाणिं आणवेदु अय्यो।" व्यत्ययात्प्राकृतेऽपि-''अन्नं दाणिं देहि।' प्रा०४ पाद।''शुणध दाणि हगे ! शक्कावयालतित्थनिवासी धीवले !" प्रा०४ पाद। वाक्यालङ्कारे, बृ०१उ० दाणुवएस पुं०(दानोपदेश) अन्नाऽऽहारप्रदानोपदेशे, आव०६ अ० पञ्चा०। दाथालय न०(उदकस्थालक) उदकास्थालके, भ०१५ श०। दादलिआ स्त्री०(देशी) अङ्गुलौ, देवना०५ वर्ग 038 गाथा। दाम न०(दामन्) दो-मनिन्। "स्नमदामशिरोऽनभः" ||132|| इति पर्युदासान्नपुंस्त्वम्। 'दाम। 'प्रा०१ पादास्रजि, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। मालायाम, भ०११ श०११ उ०। कल्प०। प्रज्ञा औ०। आ०का स्थाका रजौ, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। स्त्रियां डाच्। दामा। मनःशिलाकस्य वेलन्धरनागराजस्याऽऽवासपर्वते, स्था०४ ठा०२ उ०। स्त्रियां डाच / दामा ।दामे। वाचा पाशकविशेषे, विपा०१ श्रु०३अ०। दामग न०(दामक) रज्जुम्नयपादसंयमने, प्रश्न०३ आश्रद्वार। दामट्ठि पुं० (दामास्थि) शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराज्ञः स्वनामख्याते वृषभानीकाधिपतौ, स्था०५ ठा०१उ० दामण न०(दामन) बन्धने, प्रव० 38 द्वार। दामणी स्त्री०(दामनी) गवादीनां बन्धनविशेषभूतायां रजौ, भ०१६ श०६उ०। ज०। अष्टादशतमायां तीर्थकरप्रवर्तिन्याम्, प्रव०६ द्वार / "कुन्थुस्स दामणी खलु।" तिला दामन्याकारे स्त्रीणां सुलक्षणविशेषे च / जं०२ वक्ष०। प्रसवे, नयानयोश्च / देना०५ वर्ग 52 गाथा। दामण्णग पुं०(दामन्नक) राजगृहनगरवास्तव्यस्य मणिकार श्रेष्ठिनः स्वनामख्याते पुत्रे, आव०६ अ० आ००। (स च पूर्व भवे मत्स्यमा सप्रत्याख्यानपरिपालनाद् मणिकारश्रेष्ठिनः पुत्रत्वेनो - त्पन्नः क्रमेण सागरपतिसार्थवाहस्य गहस्वामी जातः / ततो
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________________ दामण्णग 2500 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दायगदोस देवलोक गत्वा ततश्च्युत्त्वा सेत्स्यतीति ‘पचक्खाण' शब्दे उदाहरिष्यते) दामदुग न०(दामद्विक) मालाद्वये, भ०१६ श०६ उ०। स्था०। दामलिवि स्त्री०(दामलिपि) ब्राह्यया लिपेः सप्तदशे भेदे, स०१८ सम०। दामिली स्त्री०(द्राविडी) द्रविडदेशोद्भवायां तद्भाषानिबताया मन्त्रविशेषरूपायां विद्यायाम, सूत्र०२ श्रु०२०।। दामोअर पुं०(दामोदर) "नादियुज्योरन्येषाम्" ||8/4327 / / चूलिकापैशाचिकेऽप्यन्येषामाचार्याणा मतेऽनादौ वर्तमानस्य तृतीयोन / दामोदरो। प्रा०४ पाद। जीर्णदुर्गस्योत्तरदिशि गिरिद्वारे पञ्चमवासुदेवरय प्रतिमायाम्. ती०४ कल्प। दाय पं०(दाय) दा-कर्मणि घञ्। "विभागोऽर्थस्य पित्र्यस्य, पुत्रैर्यत्र प्रकल्पते / " इत्युक्ते पित्रादिसम्बन्धवति तदुपरमे तत्सम्बन्धवति पुत्राऽऽदिभिर्विभजनीय द्रव्ये, विवाहकाले जामात्रादिभ्यो देये धने च / भावे घञ् / वाचका पर्वदिवसाऽऽदौ दाने, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। कल्प०॥ सामान्यदाने च / न०। औ०। ज्ञा० भ०। 'दो' भावेघञ्। खण्डने, 'दैप्' करणाऽऽदौ घञ्। अम्बुनि, स्थाने, लये, सोल्लुण्ठनवाक्ये च। वाच०॥ दायग पुं०(दायक) दातरि, आचा०२ श्रु०१चू०१अ०७ उ०। प्रश्न०। दायगदोस पु०(दायकदोष) ग्रहणैषणायाः षष्ठे दोष, पिं०। अथ दायकद्वारं गाथाषट्केनाऽऽहबाले वुड्ढे मत्ते, उम्मत्ते वेविए य जरिए य। अंधेल्लए पगलिए, आरूढे पाउयाहिं च / / 603 / / हत्थें दुनियलबद्ध, विवज्जए चेव हत्थपाएहिं / तेरासि गुठिवणी बालवच्छ भुंजंति घुसुलंती॥६०४।। भजंती य दलंती, कंडंती चेव तह य पीसंती। पिंजंती रुवंती, कत्तंती पमद्दमाणी य॥६०५।। छक्कायवग्गहत्था, समणट्ठा निक्खिवित्तु ते चेव। ते चेवोगाहंती, संघटुंताऽऽरभंती य॥६०६।। संसत्तेण य दव्वेण लित्तहत्था य लित्तमत्ताय / उव्वत्तंती साहा-रणं व दितीय चोरिययं / / 607 / / पाहुडियं वठवंती, सपचवाया परं च उद्दिस्स। आभोगमणाभोगेण दलंती वजणिज्जा य॥६०८।। बालाऽऽदिका वर्जनीया इति क्रियायोगः / तत्र बालो जन्मतो वर्षाष्टकस्यान्तर्वर्ती १वृद्धःसप्ततिवर्षाणा, मतान्तरापेक्षया षष्टिवर्षाणां वा उपरिवर्ती 2, मत्तः पीतमदिराऽऽदिः 3, उन्मत्तो दृप्तो, ग्रहगृहीतो वा 4, वेपमानः कम्पमानशरीरः 5, ज्वरितो ज्वररोगपीडितः 6, अन्धश्चक्षुविफलः 7, प्रगलितो गलत्कुष्ठः८, आरुढः पादुकयोः काष्ठमयोपानहोः 6 / / 603 / / तथा हस्तेन्दुना करविषयकाष्ठबन्धनेन निगडेन च पादविषयलोहमयबन्धेन बद्धः 10, हस्ताभ्यां पादाभ्यां वर्जितश्छिनत्वात् 11-12, त्रैराशिको नपु-सक: 13, गुर्विणी आपन्नसत्त्वा 14, बालवत्सा स्तन्योपजीविशि-शुका 15, भुञ्जाना भोजनं कुर्वती 16, घुसुलन्ती दध्यादि मथ्नती 17 // 604 / / भर्जमाना चुल्ल्यां कमिल्लकाऽऽदि वनीपकादौ स्फोटयन्ती 18, दलन्तीऽरघट्टेन गोधूमाऽऽदि चूर्णवन्ती 16, कण्डयन्ती उदूखले तन्दुलाऽदिक छड्डयन्ती 20, पिषन्ती शिलायां तिलामलकाऽऽदि प्रमृज्जन्ती 21, पिञ्जन्ती पिजनेन्न रुताऽऽदिक विरलं कुर्वती 22, रुम्वन्ती कापस लोठिन्या लाठयन्ती 23, कृतन्ती कर्त्तनं कुर्वती 24, प्रमृद्गन्ती रुतं कराभ्यां पौनःपुन्येन विरल कुर्वती 25 / / 605 / / षट् कायव्यग्रहस्ता षट्-काययुक्तहरता 26, तथा श्रमणार्थ भिक्षामादाय तानेव षट् कायान् भूमौ निक्षिप्य ददती 27, तानेव षट्कायानवगाहमाना पादाभ्यां वालयन्ती 28, संघट्टयन्ती तनेव षट्कायान् शेषशरीरावयवेन च स्पृशन्ती 26, आरभमाणा तानेव षटकायान् विनाशयन्ती 30 / / 606 // ससंक्तेन दध्यादिना द्रव्येण लिप्तहस्ता खरण्टितहस्ता 31, तथा तेनैव द्रव्येण दध्यादिना संसक्तेन लिप्तमात्रा खरण्टितमात्रा 32, उद्वर्तयन्ती महत्पिठराऽऽदिकमुद्वर्त्य तन्मध्यादती 33. साधारण बहूनां सत्कं ददती 34, तथा चोरितं ददती 35 // 607 / अग्निकूराऽऽदिनिमित्तं मूलस्थाल्यामाकृष्य स्थगतिकाऽऽदी मुञ्चन्ती 36, सप्रत्यपाया संभाव्यमानापायदात्री 37, तथा विवक्षितसाधुव्यतिरेकेण परमन्य साध्वादिकमुद्दिश्य हटात् स्थापितं तद्ददती 38, तथा आभोगेन साधूनामित्थं न कल्पत इति परिज्ञाप्याप्यशुद्ध ददती 36, अथवा-अनाभोगेनाशुद्ध ददती 40, सर्वसंख्यया चत्वारिंशद्दोषाः / / इह मक्षिताऽऽदिद्वारेषु-'संसजि-मेहि वजं. अगारिहिएहिं पि गोरसदवेहि।" इत्यादिग्रन्थेन संसक्ता-ऽऽदिदोषाणामभिधानेऽपि यद् भूयोऽप्यत्र “संसत्तेण य दव्येण लित्तहत्था य लित्तमत्ता य। (607)" इत्याद्यभिधानं, तदशेषदायकदोषाणामेकत्रोपदर्शनार्थमित्यदोषः।६०० संप्रत्येतेषामेव दायकानामपवादमधिकृत्य वर्जनावर्जनवि भागमाहएएसि दायगाणं, गहणं के सिंवि होइ भइयव्वं / केसि वी अग्गहणं, तस्विवरीए भवे गहणं / / 606 / / एतेषां बालाऽऽदीनां दायकानां मध्ये केषाश्चिन्मूलत आरभ्य पञ्चविंशतिसंख्यानां ग्रहणं भजनीय कदाचित्तथाविधं महत्प्रयोजनमुद्दिश्य कल्प्यते, शेषकालं नेति / तथा केषाञ्चित्षट्कायव्यग्रहस्ताऽऽदीना पञ्चदशानां हस्तादग्रहणं भिक्षायाः,तद्विपरीते तु बालाऽऽदिविपरीतेषु दातरि भवेद् ग्रहणम्। संप्रति बालाऽऽदीनां हस्ताऽऽदेर्भिक्षाग्रहणे ये दोषाः संभवन्ति ते दर्शनीयाः, तत्र प्रथमतो बालमधिकृत्य दोषानाह का सड्डिग अप्पाहण, दिन्ने वन्नग्गहण पजंते। कंजियमग्गण दिण्णे, उड्डाहपओसचारभडा।।६१०।। काचिदभिनवा श्राद्धिका श्रमणेभ्यो भिक्षां दद्या इति निजपुत्रिकां (अप्पाहणं ति) संदिश्य भक्तं गृहीत्वा क्षेत्र जगाम, गतायां तस्यां कोऽपि साधुसंघाटको भिक्षामागतः, तया च बालिकया तस्मै तन्दुलौदनो वितीर्णः, सोऽपि च संघाटकमुख्यः साधुस्तां बालिका मुग्धतरामवगत्य लाम्पट्यतो भूयो भूय उवाच-पुनर्देहि पुनर्देहीति। ततस्तया समस्तोऽप्योदनो दत्तः। तत एवमुद्धृत्य धृततक्रदध्यादि--- कमपि।अपराहे च समागता जननी, उपविश्य भोजनाय भणिता च निज पुत्रिकादे हि पुत्रि ! मह्यमोदन मिति / साऽवोचत्-दत्तः समस्तोऽस्योदनः साधये / साऽब्रवीत्-शोभनं कृतवती, मुगान्न म देहि / सा प्राहमुद्गा अपि साधवे सर्वे प्रदत्ताः / एवं यद् यत् किमपि सा
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________________ दायगदोस 2501 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दायगदोस याचते, तत्तत्सर्वसाधवे दत्तमिति। ततः पर्यन्ते काञ्जिकमात्रमयाचि! वालिका भणति-तदपि साधवे दत्तमिति। ततः साऽभिनवश्राद्धिका रुष्टा रस्ती पुत्रिकामेवमपवदति-किमिति त्वया सर्व साधवेदत्तम् ? सा बूतेस साधुभूयो भूयो याचते, ततो मया सर्वमदाथि। ततः सा साधोरुपरि | कोपाऽऽवेशमाविशन्ती सूरीणामन्तिकमगमत् / च अकथच सकलमपि साधुवृत्तान्तं, यथा-भवदीयः साधुरित्थमित्थं मत्पुत्रिकायाः सकाशात् याचित्वा याचित्वा सर्वमोदनाऽऽदिकमानीतवानिति / एवं तस्या महता शब्देन वाथयन्त्यां शब्दश्रवणतः प्रातिवेशिकजनोऽन्योऽपि च परम्परया भूयान्मिलितो, ज्ञातच सर्वैरपि साधुवृत्तान्तः, ततो विदधति तेऽपि कोपावेशिनः साधूनामवर्णवादम्-नूनममी साधुवेषविडम्बिनश्वारभटा इव लुण्टाकाः, न साधुसद्वृत्ता इति / ततः प्रवचनावर्णवादापनोदाय सूरिभिस्तस्याः सर्वजनस्य च समक्षं स साधुनिर्भस्योपकरण च सकलमागृह्य वसतेर्निष्काशितः, तत एवं तस्मिन्निष्काशिते श्राविकाया: कोपः श्ममगमत् / ततः सूरीणामुक्तवतीक्षमाश्रमण ! भगवन् ! मा भन्निमित्तमेष निष्काश्यता, क्षमस्वैकं ममापराधमिति, ततो भूयोऽपि यथावत्साधुः शिक्षित्वा प्रवेशितः / सूत्रं सुगम, नवरम् (उड्डाहपओसचारभमा इति) लोके उड्डाहस्ततो लोकस्य प्रद्वेषभावतश्चारभटा इव लुण्टाका अमीन साधव इत्यवर्णवादः / यत एवं बालाद्विक्षाग्रहणे दोषाः, ततो बालान्न ग्राह्यमिति। संप्रति स्थविरदायकदोषानाहथेरो गलंतलालो, कंपणहत्थो पडिज वा देंतो। अपहु त्ति य अवियत्तं, एगयरे वा उभयओवा।।६११।। अत्यन्तस्थविरो हि प्रायो गलल्लालो भवति, ततो देयमपि वस्तु लालया खरण्टितं भवतीति तद्ग्रहणे लोके जुगुप्सा। तथा- कम्पमानहस्तो भवति, ततो हस्तकम्पनवशतो तद् वस्तु भूमौ निपतति / तथा च-षड्जीवनिकायविराधना, तथा-स्वयं वा स्थविरो ददत नियतेत, तथा च सति तस्य पीडा, भूम्याश्रितषड्जीवनिकायविराधना च। अपि च-प्रायः स्थविरो गृहस्याप्रभुरस्वामी भवति, ततस्तेन दीयमानेनाप्रभुरेष इति विचिन्त्य गृहे स्वामित्वेन नियुक्तस्य "अवियत्तं प्रद्वेषः स्यात्, सच एकतररिमन, साधौ, यद्वा-उभयोरपीति / मत्तोन्मत्तावाश्रित्य दोषानाहअवयास भाणभेओ, वमणं असुइ त्ति लोगगरिहा य। पंतावणं च मत्ते, वमणविवज्जा य उम्भत्ते / / 612 / / मत्तः कदाचिन्मत्ततया साधोरालिङ्गनं विदधाति, भाजनं वा भिनत्ति / यदा-कदाचित् पीतमासवं ददानो वमति, वमँश्च साधु, साधुपात्रं वा खरण्टयति / ततो लोके जुगुप्साधिगमी साधवोऽशुचयो ये मत्तादपीत्थं भिक्षां गृह्णन्तीति / तथा-कोऽपि मत्तो मदवशविह्वलतयारे मुण्ड ! किमत्राऽध्यात इति बुवन् घातमपि विदधाति, तत एवं यतो मत्तेऽवयासाऽऽदयो दोषाः, तस्मान्न ततो ग्राह्यम् / एत एवाऽऽलिङ्गनाऽऽदयो दोषा वमनवर्जा उन्मत्तेऽपि, तस्मात्ततो पि न ग्राह्यम्। संप्रति वेपितज्वरितावाश्रित्य दोषानाहवेवण परिसाडणया, पासे व छुभेज भाणभेओ वा। एमेव य जरियम्मि वि, जरसंकमणं व उड्डाहो // 613|| पितानु दातुः सकाशादिक्षाग्रहणे देयवस्तुनः परिशाटनं भवति। यद्वापाव साधुभाजनाद् बहिः स वेपितो देयं वस्तु क्षिपेत् / यद्वा-येन स्थाल्यादिना भाजनेन कृत्वा भिक्षामानयति तस्य भूमौ निपाते भेदः २फोटनं स्माता एवमेव ज्वरितेऽपि दोषा भावनीयाः। किंच-ज्वरिताद् महणे ज्वरसंकमणमपि साधोर्भवत्, तथा जनोड्डाहोयथा--अहो ! अमी आहारालम्पटाः, यदित्थं ज्वरपीडितादपि भिक्षा गृह्णन्तीति। अन्धगलत्कुष्ठावाश्रित्य दोषानाह-- उड्डाह कायपडणं, अंधे भेओ य पासछुहणं वा। तद्दोसी संकमणं, गलंतभिसभिन्नदेहे रा / / 614|| अन्धादिक्षाग्रहणे उड्डाहः, स चायम् अहो ! अमी औदारिका यदन्धादपि भिक्षां दातुमशक्नुवतो भिक्षां गृह्णन्तीति। तथा अन्धोऽपश्यन् पादाभ्यां भन्याश्रितषड़जीवनिकायघातं विदधाति। तथा-लोष्टाऽऽदौ स्खलितः सन भूमः निपतेत् / तथा-वसतिभिक्षादानायोत्पाटितहतगृहीतस्थाल्यादिभाजनमगा। तथा-स देयं वस्तु पार्चेभाजनबहिस्तात् प्रक्षिपेत्, अदर्शनात्। तस्मादन्धादपि न ग्राह्यम्। तथा त्वग्दोषिनि. किंविशिष्ट? इत्याह-गलितभृशभिन्नदेहे। अत्राऽऽर्षत्वाव्यत्यासेन पदयोजना। सा चैवम्-भृशमतिशयेन गलन् अर्द्धपक्वं रुधिरंच बहिर्वहन भिन्नश्च स्फुटितो देहो यस्य स तथा तस्मिन्, तदादिसंक्रमणे कुष्ठव्याधिसंक्रान्तिः स्यात, तस्माततोऽपि न गाह्यम्। संप्रति पादुकाऽऽरूढादिचतुष्टयदोषानाहपाउयदुरूहपडणं, बद्धे परियाव असुइखिंसा य। करछिन्नाऽसुइखिंसा, ते चिय पायम्मि पडणं च // 615 / / पादुकाऽऽरुढस्य भिक्षादानाय प्रचलतः कदाचिद्दुःस्थितत्वात् पतनं स्यात। लाथा-बद्ध दातरि भिक्षा प्रयच्छति परितापो दुःखं तस्य भवेत्। तथा-(असुइ त्ति) तत्राप्युत्सर्गाऽऽदौ जलेन तस्याशौचकरणासंभवात्, ततो भिक्षाग्रहणे लोके जुगुप्सा, यथा-अमी अशुचयो यदेतस्मादप्यशुचिपूतत्वात भिक्षामाददत इति / एवं छिन्नकरेऽपि भिक्षां प्रयच्छति लोके जुगुप्सा, तथा हस्ताभावेन शौचकरणासंभवात्। एतचोपलक्षणम्, तेन हस्ताभावे येन कृत्वा भाजने न भिक्षा ददाति / यद्वा-देयं वस्तु तस्य पतनमपि भवति। तथा च सतिषड्जीवनिकायव्याघातः। एत एव दोषाः पादेऽपि छिन्नपादेऽपि दातरि दृष्टव्याः, कैवलं पादाभावेन तस्य भिक्षादानाय प्रचलतः प्रायो नियमतः पतनं पातो भवेत्। तथा चसति भूम्याश्रितकीटिकाऽऽदिकसत्त्वव्याघातः। संप्रति नपुंसकमधिकृत्य दोषानाहआयपरोभयदोसा, अभिक्खगहणम्मि खोभणे नपुंसे / लोगदुगुंछा संका, एरिसया नूणमेए वि / / 616 / / नपुरक भिक्षां प्रयच्छति आत्मपरोभयदोषाः / तथाहि-नपुंसकाद भिक्षागहणेऽतिपरिचयो भवति, अतीव परिचयात् तस्य नपुंसकस्य साधोवां क्षोभी वेदोदयरूपः समुपजायते / ततो नपुंसक स्य साधुलिङ्गाऽऽद्यासेवनेन द्वयस्यापि मैथुनसेवया कर्मबन्धः, अभीक्ष्णग्रहणशब्दोपादानाच कदाचित् भिक्षाग्रहणे दोषाभावमाह, परिचयाभावात्। तथा लोके जुगुप्सा-यथैते नपुंसकादपि निकृष्टादिक्षामाददते इति, साधूनामप्युपरि जनस्य शङ्का भवति तस्माद् यथैतेऽपि साधवो नूनमीदृशा नप्सकाः।
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________________ दायगदोस 2502 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दायगदोस कथमत्यासन्नेन सह भिक्षाग्रहणव्याजतोऽतिपरिचयं विदधत इति। ___ संप्रति गुर्विणीबालवत्से आश्रित्य दोषानुपदर्शयतिगुठ्विणी गन्भे संघ-ट्टणा उ उहृत-वेसमाणीए। बालाई मंसें दुग, मज्जाराई विराहिजा / / 617 / / गुर्विण्या भिक्षादानार्थमुत्तिष्ठन्त्या भिक्षां दत्त्वा स्थाने उपविशन्त्याश्च गर्भस्य संघट्टनं संवलनं भवति, तस्मान्न ततो ग्राह्यम्। (बालाई मंसें दुग त्ति) अत्राऽऽर्षत्वाद् व्यत्यासेन पदयोजना-बालमिति शिशु भूमी, मञ्चिकाऽऽदौवा निक्षिप्य यदि भिक्षांददाति, तर्हि तं बालं मार्जाराऽऽदयो विडालसारमेयाऽऽदयो मांसेन्दुकाऽऽदि मांसखण्डं शशकशिशुरिति का कृत्वा विराधयेत् विनाशयेत् / तथा-आहारखरण्टितौ शुष्को हस्तौ भवतः, ततो भिक्षां दत्त्वा पुनर्दात्र्या हस्ताभ्यां गृह्यमाणस्य बालस्य पीडा भवेत, ततो बालवत्सातोऽपि न ग्राह्यम् // 617 / / पिं०॥ किंचथणगं पिज्जमाणी य, दारगं वा कुमारियं / तं निक्खिवित्तु रोयंतं, आहरे पाणभोयणं / / 42 / / स्तनं पाययन्ती, कमित्याह-दारकं वा, कुमारिकाम् / वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः। अत एव नपुंसकं वा / तद्दारकाऽऽदि, निक्षिप्य रुदद् भूम्यादौ आहरेत् पानभोजनम्। अत्रायं वृद्धसंप्रदायः-''गच्छवासी, जइ थणजीवी पियंतो णिक्खित्तो, तो न गिण्हति / रोवउ वा, मा वा, अह अन्न पि आहारेइ, तो जति ण रोवइ, तो गिण्हति, अह रोवइ, तो न गिण्हति / अह अपियंतो णिक्खित्तो थणजीवी रोवइ, तओ ण गिण्हति / अह न रोवति, तो गिण्हति / गच्छणिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा, मा वा, पिवंतओ वा, अपिवंतओ वा ण गिण्हंति / जाहे अन्न पि आहारेउ आढतो भवति, ताहे जइ पिवंतओ, तो रोवउ वा, मा वा, ण गिण्हति / अह अपिवंतओ, तो जइ रोवइ, तो परिहरति, अरोविए गेण्हति / सीसो आह-को तत्थ दोसोऽस्थि? आयरिओ भणइ-तस्स निक्खिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहिं धिप्पमाणस्स अथिरत्तणेण परितावणा दोसा, मज्जाराऽऽदि वा अवहरेज / " इति सूत्रार्थः / / 42 // तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / दितियं पडिआइक्खे,न मे कप्पइ तारिसं // 43 // तद्भवेद् भक्तपानं त्वनन्तरोदितं संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः / // 43 // दश० ५अ०१3०। भुञ्जानां मथ्नन्तीं चाऽऽश्रित्य दोषानाहभुंजंती आयमणे, उदगं वोडी य लोगगरिहा य। घुसुलंती संसत्ते, करम्मि लित्ते वहे रसगा।। 616 / / भुजाना दात्री भिक्षादानार्थमाचमनं करोति, आचमने च क्रियमाणे उदकं विराध्यते, अथ न करोत्याचमनं, तर्हि लोकेबोटिरितिकृत्वा गर्दा स्यात्।तथा-''घुसुलंती' दध्यादि मथ्नन्ती यदि तद् दध्यादिसंसक्तं मथ्नाति, तर्हि तेन संसक्तदध्यादिना लिप्ते करे तस्या भिक्षा ददत्या; तेषां रराजीवानां वधो भवति, ततस्तस्या अपि हस्तान्न कल्पते। संप्रति पेषणाऽऽदिदोषानुपदर्शयति दगवीए संघट्टण, पीसणकंडदलभन्ज्जणे डहणं / पिंजंतं रुवणाई, दिन्ने लित्ते करे उदगं / / 620 // पेषणकण्डनदलनानि कुर्वतीना हस्ताद्भिक्षाग्रहणे उदकवीजसंघट्टनं स्यात् / तथाहि-पिंषन्ती यदा भिक्षादानायोत्तिष्ठति तदा पिष्यमाणतिलाऽऽदिसत्काः काश्चिन्मक्षिकाः सचित्ता अपि हस्ताऽऽदो लगिताः संभवन्ति, ततो भिक्षादानाय हस्ताऽऽदिप्रस्फोटने भिक्षां वा दहत्या भिक्षासंपर्कतस्तासां विराधना भवति / भिक्षां वा दत्त्वा भिक्षाऽवयवखरण्टितौ हस्तौ जलेन प्रक्षालयेत्। ततः पेषणे उदकबीजसंघट्टना। एवं कण्डनदलनयोरपि यथायोग भावनीयम् / तथा भर्जन भिक्षां ददत्या वेलालगनेन कडिल्लक्षिप्तगोधूमाऽऽदीनां दहनं स्यात् / तथा-पिञ्जनं, रुञ्जनमादिशब्दात्कर्तनप्रमर्दनवा कुर्वती भिक्षां दत्त्वा भिक्षाऽवयवखरण्टितौ हस्तौ जलेन प्रक्षालयेत. ततस्तत्राप्युदकं विनश्यतीति नततो भिक्षा कल्पते। सम्प्रति षट्कायव्यग्रहस्ताऽऽदिपञ्चकरवरूपं गाथाद्वयेनाऽऽहलोणदगअगणिवत्थी, फलाइ मच्छाइ सजीय हत्थम्मि। पाएणोगाहणया, संघट्टण सेसकाएणं / / 621 / / खणमाणी आरभए, मज्जऍ धोएज सिंचए किंचि / छेयविसारणमाई, बिंदइ छठे फुरफुरंते / / 622 / / इह सा षट्कायव्यग्रहस्ता उच्यते, यस्या हस्ते सजीवं लवणमुदकमग्निर्वायुपूरितो वा वस्तिः , फलाऽऽदिकं बीजपूराऽऽदिकं मत्स्याऽऽदयो वा विद्यन्ते, ततः सा यद्येतेषां सजीवलवणाऽऽदीनामन्यतमादपि श्रमणभिक्षादानार्थं भूम्यादौ निक्षिप्तः, तर्हि न कल्पते। तथा--अवगाहना नाम यत्तेषां षड्जीवनिकायाना पादेन संघट्टनं शेषकायेन हस्ताऽऽदिना संमर्दनंसंघट्टनमारभमाणा।। 621 / / कुश्यादिना भूम्यादि खनन्ती, अनेन पृथिवीकायाऽऽरम्भ उक्तः। यद्वा-मजन्ती शुद्धेन जलेन स्नाती। अथवाधावन्ती शुद्धेनोदकेन वस्त्राणि प्रक्षालयन्ती / यदि वा किञ्चिद् वृक्षवल्ल्यादि सिञ्चन्ती, एतेनाप्कायाऽऽरम्भो दर्शितः / उपलक्षणमेतत्। ज्वलयन्ती वा फूत्कारेण वैश्वानरं वस्त्यादिकं वा सचित्तवातभृतमितस्ततः प्रक्षिपन्ती, एतेनाग्निवास्तुसमारम्भ उक्तः / तथा-शाकाऽऽदेः छेदविसारणे कुर्वती। तत्र छेदः पुष्पफलाऽऽदेःखण्डनं, विशरणं तेषामेव खण्डाना शोषणायाऽऽतपे मोचनम् / आदिशब्दात्तन्दुलमुद्गाऽऽदीनां शोधनाऽऽदिपरिग्रहः / तथा-छिन्दन्ती षष्ठान् त्रसकायान् मत्स्याऽऽदीन् ‘‘फुरफुरते' इति पोस्फूर्यमाणान्, पीडयोद्वेल्लानित्यर्थः / अनेन त्रसकायाऽऽरम्भ उक्तः / इत्थं षड्जीवनिकायानारभमाणाया हस्तान्न कल्पते। संप्रति षट्कायव्यग्रहस्तेतिपदस्य व्याख्याने मतान्तरमुपदर्शयतिछक्कायवग्रहत्था, केई कोलाइ कन्नलइयाइ। सिद्धत्थगपुप्फाणि य, सिरम्मि दिन्नाअ वजेति / / 623 / / केचिदाचार्याः षट्कायव्यग्रहस्तेतिवचनतः कोलाऽऽदीनि बदराऽऽदीनि, आदिशब्दात्करीराऽऽदिपरिग्रहः / (कन्नलइया इति) कर्णे पिनद्धानि / तथा-सिद्धार्थकपुष्पाणि शिरसि दत्तानि वर्जयन्ती। अन्ने भणंति दससु वि, एसणदोसेसु अत्थि तग्गहणं / तेण न वजं भण्णइ, न तु गहणं दायर गहणे / / 62..
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________________ दायगदोस 2503 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दारपडिरग अन्यत्वाचार्यदशीया भणन्ति। यथा-दशस्वपि शङ्किताऽऽदिषुएषणादोषेषु तं भवे भत्तपणं तु, संजयाण अकप्पियं / मध्ये तद्ग्रहण षट्कायव्यग्रहस्तेत्युपादानमस्ति, तेन कारणेन दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं / / 41 / / लोकाऽऽदियुक्तदेशविवक्षाग्रहण न वयं , तदेतत्पापीयो, यत-आह- तद्भवेद् भक्तपानं तु, तथा निषीदनोत्थानाभ्यां दीयमानं संयतानामभण्यते अत्रोत्तरं दीयते, न तु दायकग्रहणादेषणादोषमध्ये षट्कायव्य- कल्पिकम् / इह च स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोत्थानाभ्यां यथावग्रहस्तेत्यस्य ग्रहणं विद्यते, तत्कथमुच्यते, न तद्ग्रहणमिति। स्थितया दीयमान कल्पिकम् / जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्त्वया सम्प्रति संसक्तिमद्व्यदात्र्यादिदोषानाह प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेवेति संप्रदायः। यतश्चैवसंसजिमम्मि देसे, संसज्जिमदव्वलित्तकरमत्ते। मतो ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मम कल्पते तादृशमित्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः संचारायत्तणओ, उक्खिप्पंते वि ते चेव॥ 625 / / // 41 // दश० ५अ० १उ० / केषुचिद्दायकदोषेषु जीतकल्पानुसारेण संसक्तिमतिसंसक्तिमव्व्यवति, देशे मण्मले. संसक्तिमता द्रव्येण लिप्तः | निर्विकृतिक प्रायश्चित्तम्। जीत०। प्रव०1आचा०। उत्त०। ग०1०। करो मात्रं वा यस्याः सा तथाविधा दात्री भिक्षां ददती करविलग्नान सत्त्वान् ओघ०दश०। पञ्चा०। आचा०नि०चू०। स्था०। (नौगतोऽशनाऽऽदि हन्ति, तस्मात्सा वय॑ते / तथा-महतः पिठराऽऽदेरपवर्तन संचारः, ददाति इत्यत्र 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 665 पृष्ठे उक्तम्) सूचनात्सूत्रमिति संचारिमकीटि-कामत्कोटाऽऽदिसत्त्वव्याघातः। इदमुक्तं दायगसुद्ध त्रि० (दायकशुद्ध) दायकः शुद्धो यत्राऽऽशंसाऽऽदिभवति-महत् पिठर यदा तदा वा नोत्पाठ्यते, नापि यथातथावा सचार्यत, दोषरहितत्वात् / दायकदोषरहिते, भ० 15 श० / दायकशुद्धं तु यत्र महत्त्वादेव, किं तु प्रयोजनविशेषोत्पत्ती सकृत्. ततस्तदाश्रित्य प्रायः दाता औदार्याऽऽदिगुणान्वितः। विपा०२ श्रु० 1 अ०। कीटिकाऽऽदयः सत्त्वाः संभवन्ति / ततो यदा तत्पिठराऽऽदिकमुद्वर्त्य दायण न० (दापन) यथा गृहीतभक्तपानयोर्निवेदने, प्रश्न०१ संब० द्वार० / किञ्चिद्ददाति तदा तदाश्रितजन्तुव्यापादः / एतेच दोषा-उत्पाठ्यमानेऽपि दायणा स्त्री० (दापना) पृच्छाप्रतिपृष्टस्यार्थस्य व्याख्याने, “दायणा महति पिटराऽऽदौ, तवाऽपि हि भूयो निक्षेपणे हस्तसंस्पर्शतो वा तयत्थरस वक्खाणं।" (2632) विशे०। आ०म०। आ०चू० / संचारिमकीटिकाऽऽदिसत्त्वव्याघातः / अपि च त्त्वा तथाभूतस्य महत दायव्व त्रि० (दातव्य) दातुं योग्ये, आचा० २श्रु० 10 110 २उ०। उत्पाटने दात्र्याः पीडाऽपि भवति, तस्मान्न तदुत्पाटनेऽपि भिक्षा कल्पते। दायादपुं० (दायाद) दाय विभजनीयधमादत्ते। आ-दा-कः। पुत्रे, सपिण्डे, __ सम्प्रति साधारण चोरितं वा ददत्या दोषानाह वाच० / पितृपिण्डोदकदानयोग्ये, आचा०१श्रु०२अ०३उ०। साधारणं बहूणं, तत्थ उ दोसा जहवे अणिसङ्के। दायार पुं० (दायार) दायाय दानार्थमियति आगच्छन्तीति दायाराः / चोरियए गहणाई, भयए सुण्हाइ वा देंते / / 626 / / याचके, कल्प० १अधि० ५क्षण।। बहूना साधारण यदि ददाति, तर्हि तत्र यथा प्राक् अनिसृष्टे दोषा | दार पुं० (दार) ब०व०। दारयन्ति विदारयन्ति पुरुषस्यान्तरङ्गगुणानिति उक्तास्तथैव द्रष्टव्याः / तथा-चौर्येण भृतककर्मकरे स्नुषाऽऽदी वा ददति दाराः। आतु०। दारयन्ति भ्रातृस्नेहम्, दृ-णिच, अप्। पत्न्याम, सा हि ग्रहणाऽऽदयो ग्रहणबन्धनतामनाऽऽदयो दोषा द्रष्टव्याः, तस्मात्ततोऽपि पत्युःभातृस्नेह भिनत्तीतिलोकप्रसिद्धम्। वाच०। कलत्रे, प्रव०६द्वार। न कल्पते। पिं०। आ०चू०। आव०। स्त्रियाम, उत्त०२१अ०। विशेषमाह *द्वारन० प्रासादभवनदेवकुलाऽऽदीना (रा०) प्रवेशमुखे, विशे०। प्रव०। गुव्विणीए उवण्णत्थं, विविहं पाणभोयणं / भादश०प्रज्ञा० / नि०चू० / अनु०। रा०। (विजयाऽदीनां जम्बूद्वीपभुंजमाणं विवजिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए।।३६ / / द्वाराणां वक्तव्यता 'जंबूदीव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1372 पृष्ठे उक्ता) गुर्विण्या गर्भवत्या उपन्यस्तमुपकल्पितम् / किं तदित्याह- (सूर्याभविमानद्वारवक्तव्यता 'सूरियाभ' शब्दे द्रष्टव्या) गृहाऽऽदिनिविविधमनेकप्रकार, पानभोजनं द्राक्षापानखण्डखाद्यकाऽऽदि / तत्र र्गमस्थाने, प्रतीहारे, उपाये, मुखे च / वाच० / कटिसूत्रे. देवना० ५वर्ग भुज्यमनं तया विवयम्, मा भूत्तस्याल्पत्वेनाऽभिलाषाऽनिवृत्त्या 38 गाथा। गर्भपतनाऽऽदिदोष इति / भुक्तशेष भुक्तोद्वरित, प्रतीच्छेत, यत्र तस्या दारग पुं० (दारक) दृणाति भिनत्ति उदरं दृ-एवुल्। वाच० / बालके, व्य० निवृत्तोऽभिलाष इति सूत्रार्थः // 36 / / उ० / दश० / रा०। आ०क०। सूत्र०। ज्ञा०। आ०म०। डिम्भदारककिं च कुमारकाणामल्पबहुबहुतरकालकृतौ विशेषः / ज्ञा १श्रु 20 / सिया य समणट्ठाए, गुठ्विणी कालमासिणी। बालिकायाम्, स्त्री०। टाप् / अत इत्त्वम् / वाच० / आ०म० / प्रश्नः / उट्ठिया वा निसीएज्जा, निस्सन्ना वा पुणुट्ठए।। 40 / / अन्त०। आचा० / भेदके, ग्रामशूकरे, पुं० / वाच०। स्याच कदाचिच, श्रमणार्थ साधुनिमित्त, गुर्विणी पूर्वोक्ता, कालमा- दारनक्खिणी स्त्री० (द्वारयक्षिणी) द्वारस्थायां यक्षिण्याम, आव० 4 अ० / सवती गर्भाधानान्नवममासवतीत्यर्थः। उत्थिता वा यथाकयञ्चिन्निषी- | दारट्ठ पुं० (द्वारस्थ) द्वारपाले, बृ० 130 / देन्निषण्णाददामीति साधुनिमित्तम्। निषण्णा वा स्वव्यापारण पुनरुत्ति- दारद्धंता स्त्री० (देशी) पेटायाम्, देना० ५वर्ग 38 गाथा। ष्ठेत् ददामीति साधुनिमित्तमेवेति सूत्रार्थः / / 40|| दारपडियरगपुं० (द्वारप्रतिचरक) अभ्यन्तरमूलस्थायिनि, प्रव०७१ द्वार।
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________________ दारपिंड 2504 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दावरजुम्म दारपिंड पुं० (द्वारपिण्ड) द्वारशाखायाम्, जं०१वक्ष०। जी०। दारपिहाण न० (द्वारपिधान) द्वारकपारस्थगने, (तत्र द्वारपिधाने दोषाः। कारणे तत्कर्तव्यता च 'वसइ' शब्दे वक्ष्यते) णो पिहे ण यावपंगुणे, दारं सुण्णघरस्स संजए। पुढे ण उदाहरे वायं, ण समुच्छे णो संथरे तणं // 13 // केनचिच्छयनाऽऽदिनिमित्तेन शून्य गृहमाश्रितो भिक्षुः, तस्य गृहरय द्वार कपाटाऽऽदिना न पिदधीत न स्थगयेन्नापि तचालयेत् / यावत् (ण यावपंगुणे त्ति) नोद्घाटयेत, तत्रस्थोऽन्यत्र वा केनचिद्धर्माऽऽदिकं मार्ग वर पृष्टः सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेद् न ब्रूयात् / आभिगहिको जिनकल्पिकाऽऽदिर्निरवद्यामपि न ब्रूयात्। तथा न समुच्छिन्द्यात तृणानि कथवर व प्रमार्जनन नापनयेत, नापि शयनार्थी कश्चिदाभिग्राहिकस्तृणःऽऽदिक संस्तरेत्, तृणैरपि संस्तारक न कुर्यात्, किं पुनः कम्बलऽऽदिनोऽन्यो वा शुषिरतृणं न संस्तरेदिति।। 13 / / सूत्र०१श्रु०२अ०२उ०। दारवाल पुं० (द्वारपाल) द्वाररक्षके, आ०म०१अ०१खण्ड। दारविलजोग पुं० (द्वारविलयोग) स्थगने, पं०व०४द्वार। दारमंतभेय पुं० (दारमन्त्रभेद) दाराणा कलत्राणामुपलक्षणत्वाग्मित्राऽऽदीनां च मन्त्रो मन्त्रणं तस्य भेदः प्रकाशनं दारमन्त्रभेदः / स्वदारसन्तोषस्य द्वितीयव्रतस्य तृतीयेऽतिचारभेदे, प्रव० / अस्य चानुवादरूपत्वेन सत्यवाद् यद्यपि नातिचारत्वं घटते, तथाऽपि विश्रब्धभाभितार्थप्रकटनजनितलज्जाऽऽदितः कलत्रमित्राऽऽदेमरणाऽऽदिसंभवेन परमार्थतोऽस्यासत्यत्वात् कथञ्चिद्भङ्गरूपत्वेनातिचारतव। रहस्यदूपर्ण हि रहस्यमाकाराऽऽदिना विज्ञायानधिकृत एव प्रकाशयति, इह तु मन्त्रयितैव स्वयं मन्त्र भिनत्तीत्यनयोर्भे दः / प्रव०६द्वार। दारावती स्त्री० (द्वारावती) सौराष्ट्र देशप्रतिबद्धायां राजधान्याम, प्रज्ञा०१ पद। दारिआ (देशी) वेश्यायाम, दे० ना०५वर्ग 38 गाथा। दारुन० (दारु) काष्ठे, सूत्र० १श्रु०२अ० 330 / स्था०।ज्ञा०नि० चू० / दारुग पुं० (दारुक) वासुदेवस्य धारिण्यां देव्यामुत्पन्न पुत्रे, स वारिष्टने मे रन्तिके प्रव्रज्य सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य द्वादशेऽध्ययने सूचितम्। अन्त०३वर्ग १०।दारुकोऽनगारो वासुदेवस्य पुत्रो भगवतोऽरिष्टनेमिनाथस्य शिष्योऽनुत्तरोपपाति-कोक्तचरित इति। स्था०६ठा० / कृष्णसारथौ च / ज्ञा० १श्रु०१६अ०। दारुस्वार्थे कन। देवदारुवृक्षे, वाच० / काष्ठे न० / आचा०२श्रु०२चू० ३अ०। आ० म०। आव०। उत्त। दारुघर न० (दारुगृह) करपत्रस्फाटितदारुफलकमये गृहे, व्य० 4 उ०। दारुण पुं० (दारुण) 'दृ' भाये उनत् / दारयति विदारयति चित्तमिति दाराणः / चित्तके, वाच० / दारयन्ति जनमनासि इति दारुणाः / विलपिताऽऽक्रन्दिताऽऽदिषु, उत्त० अ० / रौद्ररसे, भयानकरस, याच० / रौद्रे च / ज्ञा० १श्रु० २अ०। प्रश्न० / दारयन्ति मन्दसत्त्वानां संयमविषयां धृतिमिमि दारुणाः / भाषायाम, रखी० / उत्त० २अ० / भयानके, सूत्र० १श्रु०२अ०२उ०। असह्ये, आचा० 1 ०४७०४उ | भयावहे. दुःसहे, भीषणे, भयहेतौ च / वाच०। दारुणभाव पुं० (दारुणभाव) रौद्राध्यवसाये, वृ०३उ०। दारुणमति स्त्री० (दारुणमति) रौद्रमतौ, प्रश्न०१आश्र० द्वार। दारुणविवागपुं० (दारुणविपाक) नरकाऽऽदिदुःखकारणत्वेन घोरोदये, पञ्चा०८ विव० / रौद्रफले, पञ्चा० 15 विव० / तीव्रविपाक कर्मणि, षो०१ विव०। दारुणसहाव त्रि० (दारुणस्वभाव) दारुणः क्रोधान्वितः स्वभावो यस्थाऽसौ दारुणस्वभावः। क्रोधान्वितस्वभावे, व्य० १उ० दारुदंडय न० (दारुदण्डक) रजोहरणस्य काष्ठमयेऽल्पदण्डे, यत्र दारुमयस्य दण्डस्याग्रभागे ऊर्णिका दशिका वध्यन्ते तद्दारुदण्डकम्। बृ०५उ०। दारुपव्वय पुं० (दारुपर्वत) दारुनिर्मापित इव पर्वतविशेषे, जी०३प्रतिक ४उ०। रा०। दारुपाय न० (दारुपात्र) काष्ठमये पात्रे, स्था० ३टा० ३उ० / आचा दारुय पुं० (दारुक) वसुदेवस्य धारिण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, तद्वक्तव्यता गजसुकुमारस्येव। अन्त० २श्रु०३वर्ग० 110 / दारुसंकम पु० (दारुसंक्रम)जले सेत्वादिकरणे, स्थले गर्तालङ्क नाऽऽदिक च। आचा०१श्रु०५अ० १उ०। दालण न० (दारुण) विदारणे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। दालि स्त्री० (दालि) मुद्गाऽऽदिद्विदले, प्रव० 38 द्वार। उत्त० / ध०। दालिअ (देशी) चक्षुषि, दे० ना०५वर्ग 38 गाथा। दालिद्द न० (दारिद्र) "हरिद्राऽऽदौ लः" / / 8 / 1 / 254 / / इति असंयुक्तस्य रस्य लः। 'दालिद / धनराहित्ये, प्रा० १पाद! दालियंब न० (दालिकाम्ल) दाल्या मुद्गाऽऽदिमय्या निष्पादितेऽम्ले, उपा०१०। दालिमरसिय त्रि० (दामिमरसिक) दामिमरससंसृष्ट, विपा० १श्रु० ८अ०। दावपुं० (दाव) दवानले, आव० अ०। दावग्गि पु० (दावाग्नि) दवग्गि' शब्दार्थे, औ०। दावद्दव पुं० (दावद्रव) समुद्रतटवृक्षविशेषे, ज्ञा०१श्रु०१०। स०ा प्रश्न० / आव० / आ० चू० / ('आराहग' शब्दे द्वितीयभागे 377 पृष्ठेऽस्य वक्तव्यता) दावर न० (द्वापर) यदा प्रत्येकस्यापि प्रथमो भङ्गो न प्राप्यते तदा द्वापर इति / समयपरिभाषया द्वितीये, बृ० 130 / दावरजुम्म न० (द्वापरयुग्म) द्वाभ्यामादित एव कृतयुग्माद्वो परिवर्तिभ्यां यदपरं युग्म कृतयुग्मादन्यत्तन्निपातनविध - पिरयुग्मे, भ० / 'जेणं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे अ
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________________ दावरजुम्म 2505 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिअ वहीरमाणे दुपञ्जवसिए। से तं दावरजुम्मे।" भ० 18 श० 4 उ०। / दाहिण त्रि० (दक्षिण) "दुःखदक्षिणतीर्थे वा // 8 / 2 / 72 / / एषु द्विपर्यावसिते राशौ च / स्था० 4 ठा०३ उ०। सूत्र० / संयुक्तस्य हः / 'दाहिणो / दक्खिणो।' प्रा०२ पाद। अवामभागस्थे, दावाणल पुं० (दावानल) वनहुताशने, आव० 4 अ०। वाच० / सू० प्र०। आचा०। दावारय न० (उदकवारक) जलपात्रे, भ०१५ श०॥ दाहिणगामुय पु० (दक्षिणगामुक) दक्षिणस्यां दिशि गमनशीले, सूत्र०२ दासपुर (दास) गूहदास्याः सजाते, दुर्भिक्षाऽऽदिष्वर्थाऽऽदिना वा क्रीत, श्रु०२ अ०। ऋणाऽऽदिष्यतिरे के वा अवरुद्धे, ग० 1 अधि० / ध० / दासा | दाहिणड्डभरहपुं० (दक्षिणा भरत) भरतक्षेत्रस्य दक्षिणाढ़ें, कल्प० १क्षण / दासीपुत्राऽऽदयः / स्था० 3 टा० 1 उ०। सूत्र० / जी० / बृ०। मृतकविशेषे, दाहिणभरहकूड न० (दक्षिणार्द्धभरतकूट) दक्षिणार्द्धभरतनाम्नो ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। चेटके, औ०। प्रश्न / रा०। पं० भा०। पं० चू०। देवस्याऽऽवासभूते कूटे, ज०१ वक्ष००। गठभे कीते अणए, दुब्भिक्खे सावराहरुद्ध वा। दाहिणड्डमाणुस्सखेत पुं० (दक्षिणार्द्धमनुष्य क्षेत्र) दक्षिणार्द्धसमणाण व समणीण व, न कप्पती तारिसे दिक्खा / / 385 / / मनुष्यक्षेत्रभवेषु, "दाहिणडमाणुस्सखेत्ताणं छावहिं चंदा पभासिसुवा, गम्भे त्ति ओगालिदासो, किणित्ता दासो कतो, रिणं अदेतो दासत्तणेण पभासंति वा, पभाविरसंति वा, छावह्रि सूरिया तविंसु वा, तवंति वा, पइट्ठो. दुरिभक्खे ठाति दासत्तणेण पइट्टो, किमवि कारणे अवराधा दंड तविस्सति वा।" रा०६५ सम०। अदितो रण्णा दासो कतो, वंदिगो णिरुद्धो दविणं अतिदासो कतो। एते दाहिणड्डलोगाहिवई पुं० (दक्षिणार्द्धलोकाधिपति) लोकस्यार्द्धदिक्खतुंण कप्पंति। नि० चू० 11 उ० / मर्द्धलोको दक्षिणो योऽर्द्धलोको दक्षिणार्द्धलोकस्तस्य योऽधिपतिः / तस्मिन्, उपा०२ अ०। कल्प०। दासचेडग पु० (दासचेटक) दासस्य भृतकविशेषरय चेटकः कुमारकः दाहिणत्त न० (दक्षिणत्व) सरलत्वे, स०३५ सम० / दासचेटकः1 अथवा-दासश्चासौ चेटकश्चेति दासचेटकः / दासकुमारे, दाहिणदारिय न० (दक्षिणद्वारिक) दक्षिणं द्वारं येषमस्ति तानि ज्ञा० / श्रु०२ अ०। दक्षिणद्वारिकाणि। अश्चिन्यादिषु सप्तनक्षत्रेषु, स्था०७टा० / दक्षिणदिशि दासत्त न० (दासत्व) गृहदासीपुत्रतायाम्, भ०१२ श०७ उ०। रोषु गच्छतः शुभं भवति। स०७ सम। दासपोरुसन० (दासपौरुष) चेटकचेटीपतिप्रमुखाऽऽदिके, उत्त०३ अ०। दाहिणपञ्चच्छिमा स्त्री० (दक्षिणपश्चिमा) नैर्ऋत्यकोणे, रा० / स्था०। दासरहि पुं० (दासरथि) दशरथापत्ये, "तेयाजुगे य दासरहि रामो दाहिणभुय पुं० (दक्षिणभुज) दक्षिणहस्ते, रा०। सू०प्र०। सीयालक्खणसंजुओ पिउआणाए वनवासं गओ।" ती० 25 कल्प। / दाहिणवाय पुं० (दक्षिणवात) दक्षिणस्याः दिशः समागच्छति वाते, प्रज्ञा० दासवाय पु० (दासवाद) दासोऽयमाचार्य्य इति वार्तायाम्, स्था० 6 ठा० / १पद / स्था। दासी स्त्री० (दासी) चेटिकायाम्, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार / औ० / दाहिणा स्त्री० (दक्षिणा) दक्षिणस्यां दिशि, स्था०६ ठा०। रा० / दारयो घटयोषितः सर्वापसदाः, ताभिरपि सह सम्पर्क परिहरेत्। दाहिणायणपुं० न० (दक्षिणायन) रवेः कर्कसंक्रमादनन्तरं षण्मासाऽऽत्मके सूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उ०। समये, सू०प्र०१० पाहु०। दासीखवडिया स्त्री० (दासीकर्वटिका) स्थविरागोदासन्निर्गतस्य दाहिणावत्त पुं० (दक्षिणाऽऽवर्त) अनुकूलप्रवृत्तावावर्ते, स्था० 4 ठा०२ उ०। गोदारगणस्य चतुर्थशाखायाम्, कल्प०८ क्षण / दाहिणिल्ल त्रि० (दाक्षिणात्य) दक्षिणदिग्भवमात्रे, स्था० 4 ठा० दासीचोर पुं० (दासीचौर) चेटीचौरे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। 2 उ०। प्रज्ञा०। दाहपृ०(दाह) "हो घोऽनुस्वारात् / / 8 / 1 / 264 / / इति सूत्र | दि (त्वया) ततीया / "भे दि०।।। 31 38 || इत्यादिना त्वया क्वचिदननुस्वारादिति वचनाद हस्य घः / 'दाहो / दाघो / ' प्रा० इत्यस्य स्थाने दि इत्यादेशः। प्रा० 3 पाद०।" १पाद / बाह्ये संतापे, आ० म०११०२ खण्डा भरमीकरणे, नि० चू० दिअ पुं० (द्विज) द्विर्जायते जन-मः।वृत्तौ संख्याया वारार्थत्वम्। वाच०। 1 उ० / रोगभेदे, जी० 3 प्रति० 4 उ० / विपा० / ज्ञा० / आ० म० ! "सर्वत्र लवरामचन्दे " / / 8 / 2 / 76 / / इति संयुक्तस्याधः स्थितस्य "अहोत्था विउलो दाहो, सव्वगत्तेसु पत्थिवा ! '' (16) उत्त०२० वकारस्य लुक्। द्विजः / दिओ। प्रा०२ पाद०।"द्विन्योरुत्"।।। अ० / गात्र सन्तापे च / वाच०। 1 / 64 / / इति सूत्रे क्वचिन्नेति वचनाद्न उत्वम्। दिओ। प्रा०१ पाद। दाहवकं तिय त्रि० (दाहव्युत्क्रान्तिक) दाहो व्युत्क्रान्त उत्पन्नो यस्याऽसी ब्राह्मणे, ब्राह्मणाऽऽदिवर्णत्रये, "जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारजि दाहव्युत्कान्तः, स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः / दाहोत्पत्ती, भ०६ श० 33 | उच्यते।" दन्ते, अण्डजे विहगाऽऽदौ, तुम्बुरुवृक्षे च। वाच००। उ० / ज्ञा०। * द्विप पु० दाभ्यां मुखशुण्डाभ्यां पिवति / पा-कः / हस्तिनि, दाहास्त्री० (दाहा) प्रहरणविशेषे, ज्ञा०१श्रु०१८ अ०। वाच०।
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________________ दिअंबर 2506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिक्खा दिअंबर पुं० (दिगम्बर) शिवे, नग्ने, आर्हतभेदे, वाच० साधुभेदे, आo विडम्बनाप्राया चैत्रमासपरिहासकृतराजसन्निभा मुख्यनृपदीक्षापत्काम०! ही०। आचा०। किरणेन ज्ञेया ज्ञातव्या।।१।। दिअंबरदसणन० (दिगम्बरदर्शन) दिगम्बराणा शास्त्रे, आ० म०१ अ०१ अधुना दीक्षाया निरुक्तमुपदर्शयन् ज्ञानिन एव तां नियमयन्नाहखण्ड। श्रेयोदानादशिव-क्षपणाच सतां मतेह दीक्षेति। दिअज्झ (देशी) सुवर्णकारे, दे० ना०५ वर्ग 36 गाथा। सा ज्ञानिनो नियोगाद, यथोदितस्यैव साध्वीति / / 2 / / दिअधुत्त (देशी) काके, दे० ना० 5 वर्ग 41 गाथा। श्रेयोदानाच्छे यः सुन्दरं तस्य दानं वितरणं तस्मात्, अशिव दिअरपुं० (देवर) देव अरच। "एत इद्वा वेदना-चपेटा-देवर-फेसरे"। प्रत्यवायस्तत्क्षपणाच तन्निरसाच, सतां मुनीना मताऽभिप्रेता, इह 8 / 1 / 146 / / इति एत इत्वम्। 'दिअरो। देवरो। प्रा० 1 पाद / पत्युः प्रवचने, दीक्षेति प्रागृता / इत्येवमनया निरुक्तप्रक्रियया, सा दीक्षा, कनिष्ठभातरि, वाचा ज्ञानिनो ज्ञातवतो, नियोगान्नियोगेन, यथोदितस्यैवाधिकारिण एव, दिअलिअ (देशी) मूर्खे, दे० ना०५ वर्ग 36 गाथा। साध्वीति निरवद्या वर्तते / / 2 / / दिअसिअ (देशी) सदाभोजने, अनुदिने च / दे० ना० 5 वर्ग 40 गाथा। ननु च यदि ज्ञानिन एव नियमेन साध्वी दीक्षा, ततः कथं पूर्वोक्तज्ञानदिअह पुं० (दिवस) दव्यित्यत्र दिव-असच किच। षष्टिदण्डाऽऽत्मके रामये, त्रयविकलानां माषतुषप्रभृतीनां समये सा श्रेयसी श्रूयत इन्याश''दिअहा जंति झडप्पडहिँ, पमहिँ मणोरह पच्छि।' प्रा० 4 पाद। डक्याऽऽहदिअहम् पुं० (दिवस) षष्टिदण्डाऽऽत्मके समये, जे महु दिण्णा दिअहडा, यो निरनुबन्धदोपा-च्छ्राद्धोऽनाभोगवान् वृजनभीरुः। दइए पवसंतेण / ताण गणंतिएँ अङ्गुलिउ, जजरिआ उ नहेण।" प्रा० 4 गुरुभक्तो ग्रहरहितः, सोऽपि ज्ञान्येव तत्फलतः।।३।। पाद / पवसता चलता दयितेन ये मम दिवसा दत्तास्तान गणयन्त्या य एवंविधो निरनुबन्धदोषाच्छ्राद्धः / निरनुबन्धो व्यवच्छिन्नरान्तानो दोषो रागाऽऽदिनिरनुबन्धश्चासौ दोषश्च तस्माच्छ्राद्धः श्रद्धावान / यस्तु मभानुल्यो नखेन जर्जरिताः। प्रा० दु० 4 पाद। 'नामीषष्टिमितस्तत्र, सावनो दिवसः स्मृतः / सानुबन्धदोषान्निरुपक्रमक्लिष्टकर्मलक्षणात् कथञ्चिाद्धो भवति, सनेह गृह्यते। अनाभोगवान् अनाभोगोऽपरिज्ञानमात्रमेव केवलं ग्रन्थाऽऽदिषु त्रिंशद्धगोऽकराशेस्तु, दिवसः सौर उच्यते॥१॥ सूक्ष्मबुद्धिगम्येषु स विद्यते यस्य स तथा वृजिनं पापंतस्माद्भीराजिनभीरुः चान्द्रस्तुतिथ्यवच्छिन्नो, भौमो भूपरिधेर्मतः।" संसारविरक्तत्वेन / गुरवः पूज्यास्तेषु भक्तो गुरुबहुमानात्। गृह आग्रहो इत्युक्तेषु सावनाऽऽदिषु दिनेषु च। वाच। “भमरा एत्थु बिलम्बडइ, केवि मिथ्याऽभिनिवेशस्तेन रहितो ग्रह रहितोऽनेन सम्यग्दर्शनवत्त्वमस्याऽऽदि अहमा विलम्बु।" प्रा 4 पाद। वेदयति, सोऽपि य एवमुक्तविशेषणवान्, ज्ञान्येव ज्ञानवानेव / तत्फलतो दिअहुत्त (देशी) पूर्वाह्नभोजन, दे० ना०५ वर्ग 40 गाथा। ज्ञानफलसंपन्नत्वेन, ज्ञानस्याऽपि ह्येतदेव फलं संसारविरक्तगुरु-भक्तवादिआहम (देशी) भासपक्षिणि, दे० ना०५ वर्ग 36 गाथा। ऽऽदि, तदस्याऽपि विद्यत इति कृत्वा / / 3 / / दिइ स्त्री०(दृति) दृ-तिन्। जलाऽऽधारे चर्ममये भाजने, ज्ञा०१ श्रु०१८ | कथं पुननिफलं मापतुषाऽऽदेगुरुबहुमानमात्रेण तथाविधज्ञानविकलस्य अ०। अनु०। सन्मार्गगमनाऽऽदीत्याशक्याऽऽहदिइआस्त्री० (दृतिका) चर्मनिर्मितोदकपात्रे, मत्स्यभेदे च / वाच० / अनु० चक्षुष्मानेकः स्या-दन्धोऽन्तस्तन्मतानुवृत्तिपरः। दिक्काण पुं० (द्रेष्काण) मेषाऽऽदीनां लग्नानां दशाशाऽऽत्मके त्रिलवे, गन्तारौ गन्तव्यं, प्राप्नुत एतौ युगपदेव / / 4 / / "कूणदिकाणलोगेसुं, उत्तमद्रं तु कारए। एवं लग्गाणि जाणिजे, दिवाणसु चक्षुरमलमनुपहत विद्यते यस्य स चक्षुष्मानेक कश्चित् स्याद्रेत्पुरुषो ण संसओ॥१॥"द०प०। मार्गगमनप्रवृत्तः, अन्धो दृष्टिविकलोऽन्यस्तदपरः, केवल मार्गानुसारितया दिक्खकाल पुं० (दीक्षाकाल) योगकाले, आ० म०१ अ० 2 खण्ड। विशिष्टविवेकसपन्नत्वेन च। तन्मतानुवृत्तिपरस्तस्य चक्षुष्मतो मतमभिदिक्खभाव पु० (दीक्षाकाल) प्रव्रज्याया भावे, पञ्चा० 16 विव० / प्रायो वचनं वा तन्मूलं तदनुवृत्तिपरस्तदनुवर्तनप्रधानः शेषानुमतबचनदिक्खा स्त्री० (दीक्षा) दक्षिण दिशा / प्रवज्यायाम, ओघ० / स्था० / परित्यागेन / एतौ द्वावपि चक्षुष्मत्सदन्धौ गन्तारौ गमनशीलावनवरतसाम्प्रतं ज्ञानत्रयभावाभावयोर्दीक्षाऽधिकारित्वानधिकारि प्रयाणकवृत्त्या गन्तव्यं विवक्षितनगराऽऽदि / प्राप्नुत एतौ युगपदवैकत्वप्रतिपादनायाऽऽह कासलमेव / इदमुक्तं भवति-चक्षुष्मान् पुरस्ताद् व्रजत्यन्धस्तु पृष्ठतः, अस्मिन् सति दीक्षाया, अधिकारी तत्त्वतो भवति सत्वः। एवमनयोजतोरेकपदन्यास एवान्तरं नापरं महत्, यदि वातदपि इतरस्य पुनर्दीक्षा, वसन्तनृपसन्निभा ज्ञेया।।१।। समानपदन्यासयोः साहित्येन बाहुलग्नयोजतो स्तोत्येवमेकअस्मिन् ज्ञानत्रये, सति विद्यमाने. दीक्षाया विरतिरूपायाः, अधिकारी कालाप्राप्तव्यनगराऽऽदिस्थानप्राप्तयोरपीति / यथैवमेतयोन्तिरं तथा अधिकारवान्, शास्त्रनयोदितत्वेन तत्त्वतः परमार्थतो भवति, सत्वः गुरुमाषतुषकल्पशिष्ययोन्यिज्ञानिनोः फलं प्रति सन्मार्गगमनप्रवृत्तपुमान, इतरस्याऽनधिकारणिः, पुनर्दीक्षा व्रतरूपा, वसन्तनृपसन्निभा | योर्गिपर्यन्तप्राी मुक्त्यवस्थायां न किञ्चिदन्तरमिति गर्भार्थः / / 4 / /
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________________ दिक्खा 2507 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिक्खा एवं समानफलत्वं ज्ञान्यज्ञानिनोः प्रतिपाद्य दीक्षाऽर्हत्व विशेषज्ञानासमन्वितस्यापि दर्शयतियस्यास्ति सत्क्रियाया-मित्थं सामर्थ्ययोग्यताऽविकला। गुरुभावप्रतिबन्धाद, दीक्षोचित एव सोऽपि किल / / 5 / / यस्य विशिष्टज्ञानरहितस्याप्यस्ति विद्यते सत्क्रियाया सदाचारे, इत्थमनन प्रकारेण, सामर्थ्ययोग्यता सामर्थ्येन समानफलसाधकत्वरूपेण योग्यताऽविकला परिपूर्णा, गुरुपुधर्माऽऽचार्याऽऽदिषु भावप्रतिबन्धाभावतः प्रतिबद्धत्वेन हेतुना दीक्षोचित एव दीक्षायोग्य एव प्रस्तुतः, किलत्याप्ताऽऽगमवादः यतः संसारविरक्त एवास्या अधिकारी शेषगुणवैकल्येऽपी-युक्तम् // 5 // इदानीं दीक्षायाः समानफलतया देयत्वमभिदधानो विषमफलस्य चाऽदयत्वमुपदर्शयन्निदमाहदेयाऽस्मै विधिपूर्वं, सम्यक्तन्त्रानुसारतो दीक्षा। निर्वाणबीजमेषे-त्यनिष्टफलदाऽन्यथाऽत्यन्तम्।। 6 / / दया दाव्याऽस्मै योग्याय विधिपूर्व विधानपूर्व सम्यगवेपरीत्येन / तन्त्रानुसारतः शास्त्रानुसारतो दीक्षा व्रतरूपा निर्वाणस्य बीज मोक्षसु खरोहे तुत्वेन / एषे ति दीक्षे वाऽनिष्ट फलदा विपर्ययफला संरगरफलाऽन्यथाऽयोग्याय दीयमानाऽत्यन्तमतिशयेनेति / / 6 / / का पुनरियं दीक्षेत्याहदेशसमग्राऽऽख्ययेयं, विरतियासोऽत्र तदति च सम्यक् / तन्नामाऽऽदिस्थापन-मत्रिद्रुतं स्वगुरुयोजनतः / / 7 / / देशाऽऽख्या, रामग्राऽऽख्या चेयं दीक्षा विरतिरुच्यते, देशविरति-दीक्षा, सर्वविरतिदीक्षा वेत्यर्थः। न्यासो निक्षेपोऽत्र दीक्षाया इतन्यास इत्यर्थः / सा विद्यते यस्य तारतरिंभस्तद्वति च पुरुषे देशदीक्षावति, सर्वदीक्षावति च सम्यग समीचीनं संगतम् / तन्नामाऽऽदिस्थापनं तेषां प्रवचनप्रसिद्धानां नामाऽऽदीन चतुर्था स्थापनमारोपणमविद्रुतं उपद्रवरहितमनुपप्लवमिति यावत् / कथ तन्नामाऽऽदिस्थापनम् ? स्वगुरुयोजनतः स्वगुरुभिरा- त्मीय-पूज्वर्योजन संबन्धनमा चित्येन यत्र तन्नामाऽऽदीना ततः सकशात् ! 7 // कथं पुनर्विशिष्टनामन्यासस्य स्वगुरुभिः प्रसादीकृतस्य दीक्षानिमित्तत्वमिति मन्यमानं परं प्रत्याहनामनिमित्तं तत्त्वं, तथा तथा चोद्धतं पुरा यदिह। तत्स्थापना तु दीक्षा, तत्त्वेनान्यस्तदुपचारः।। 8 / / नामनिमित्त नामहेतुकं तद्रावरतत्त्व नामप्रतिपाद्यगुणाऽऽत्मकत्वम्, कृतप्रशान्ताऽऽदिनाम्नः प्रशमाऽऽदिस्वरूपोपलम्भात् / तन्नाम्नि च तदगुणस्मरणाऽऽद्युपलब्धेस्तथा तथा चोद्धृतं तेन तेन स्वरूपेणोद्धृतमुदूद कृतनिर्वाहम / पुरा पूर्व , यद्यस्मादिह प्रवचने, मुनिभिः तत् स्थापना तु तस्यैव नाम्नः स्थापना तु स्थापनैव नामन्यास एव दीक्षा प्रस्तुता, तत्त्वेन परमार्थनान्यस्तदुपचारोऽन्यक्रियाकलापस्तदुपचारस्तस्या दीक्षाया उपचारों वर्तते, विद्योपचारात्।। 8 / / करमात्पुनामाऽऽदिन्यासे महानादरः क्रियत इत्याशड्क्याऽऽहकीरोिग्यधुवपद-संप्राप्तेः सूचकानि नियमेन / नामाऽऽदीन्याचार्याः, वदन्ति तत्तेषु यतितव्यम्।।६।। कीर्तिः श्लाघा, आरोग्यं नीरुजत्वं, प्राक्तनसहजोत्पातिकरोगविरहेण, धुव्र स्थैर्य भावप्राधान्यान्निद्देशरय। पदं स्थानं विशिष्टपुरुषावस्थारूपमाचार्यत्वाऽऽदि। कीर्तिश्चारोग्यं च ध्रुवं च पदं च कीयाराग्यधुवपदानि, तेषां संप्राप्तिरपूर्वलाभः, तस्या अप्राप्तिपूर्विकायाः प्राप्तेः सूचकानि गमकानि नियमेनावश्यतया, नामस्थापनाद्रव्यभावरूपाण्याचार्याः पूज्या वदन्ति ब्रुवते / तत्तरभातेषु नामाऽऽदिषु यतितव्य यत्नो विधेयः। इह चेद तात्पर्यभवसेयम अन्वर्थनाम्नो हि कीर्तनमात्रादेव शब्दार्थप्रतिपत्तेर्विदुषां प्राकृतजनस्य च मनःप्रसादात्कीर्तिशविर्भवति / यथा सुधर्मभद्रबाहुस्वामिप्रभृतीनामुत्तमपुरुषाणं प्रवचने कीर्तिरुद्रपादि। स्थापनाऽप्याकारवती रजोहरणमुखवस्त्रिकाऽऽदिधारणद्वारेण भावगर्भप्रवृत्या आरोग्यमुपजनयति, द्रव्यमप्याचाराऽऽदिश्रुतं सकलसाधुक्रिया चाभ्यरयमाना व्रतरोपपत्तये प्रभवति, भावोऽपि सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपः पूर्वोक्तपदावाप्तय संपद्यते। न हि विशिष्टभावमन्तरेणाऽऽगमोक्तविशिष्टपदावाप्तिर्भावतो भवति / अथवा सामान्येनैव कीयारोग्यमोक्षसंप्राप्तः सूचकानि सर्वाण्येव नामाऽऽदीनिति॥६॥ किमिति दीक्षाप्रस्तावे नाभाऽऽदिषु यतितव्यमित्याशङ्कयाऽऽहतत्संस्कारादेषा, दीक्षा संपद्यते महापुंसः। पापविषापगमात् खलु, सम्यग्गुरुधारणायोगात्।।१०।। तत्संस्कारान्नाभाऽऽदिसंस्कादादेषा द्विविधा दीक्षा व्रतरूपा संपद्यते संभवति महापुंसा महापुरुषस्य, न ह्यमहापुरुषा व्रतधारिणो भवन्ति / पापं विषमिव पापविषं, तस्यापगमात् खल्वपगमादेव, पापविषयोर्धाsपगमात्। विपापहारिणी दीक्षेति केषाञ्चित् प्रसिद्धिस्तदनुरोधादिदमुक्तम्। पापविषापगमादेव दीक्षेति सम्यगवैपरीत्येन गुरुश्च धारणा च गुरुधारणे, ताभ्यां योगः संबन्धस्तस्माद् गुरुधारणायोगात्। गुरुयोगात्पापापगमो, धारणायोगादेव विषायगम इति / / 10 // दीक्षा सम्पद्यते महापुंस इत्युक्त तत्सम्पती सर्वविरतस्य यद्भवति तदाहसंपन्नायां चास्यां, लिङ्गव्यावर्णयन्ति समयविदः / धर्मकनिष्ठतैव हि, शेषत्यागेन विधिपूर्वम् / / 11 / / संपन्नायां च संजातायां चास्या दीक्षाया लिङ्ग लक्षणं ध्यावर्णयन्ति कथयन्ति समयविदः आगमवेदिनः, धर्मैकनिष्ठतैव हि धर्मतत्परतैव हि, शेषत्यागेन धर्मादन्यः शेषस्तत्यागेन तत्परिहारेण, विधिपूर्वं शास्त्रोक्तविधानपुरःसरं यथाभवत्येवं शेषत्यागेन धर्मकनिष्ठता सेवनीया नान्यथेति भावः। अरयामेव सर्वविरतिदीक्षायां क्षान्त्यादियोजनामार्याद्वयेन दर्शयतिवचनक्षान्तिरिहाऽऽदौ, धर्मक्षान्त्यादिसाधनं भवति। शुद्धं च तपोनियमाद्, यमश्व सत्यं च शौचं च / / 12 / / आकिञ्चन्यं मुख्यं, ब्रह्मापि परं सदागमविशुद्धम्। सर्वं शुक्लमिदं खलु, नियमात्संवत्सरादूर्ध्वम् / / 13 / / वचनक्षान्तिरागमक्षान्तिरिह दीक्षायामादौ प्रथम धर्मक्षान्त्यादिसाधनं भवति / आदिशब्दाद्धर्ममार्दवाऽऽदिग्रहः / धर्मक्षान्त्यादीनां साधनं वचनक्षान्तिर्भवति, तत्पूर्वकत्वात्तेषाम्, शुद्ध चाक्लि
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________________ दिक्खा 2508 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिगु एच तपो द्वादशभेदं नियमान्नियमेन यमश्च सयमश्व, सत्यं चाविसंवाद- दिक्षाप्रतिष्ठाऽऽदिकं न शुद्ध्यत्यन्यानि तु शुद्धयन्तीति, चतुर्मासकमनाऽऽदिरूप शौचं च बाह्याभ्यन्तरभेदम् / / 12 // ध्येऽपि उपस्थापनामालारोपणाऽऽदि विना धर्मकार्याणि सर्वाणि अकिञ्चनस्य भाव आकिञ्चन्य, मुख्य निरुपचरितम, ब्रहापि शुद्ध्यन्ति, कारणवशात्तदपि विजयदशम्यनन्तरं शुद्ध्यतीति योगोपब्रहाचर्यमपि, परं प्रधानम्, सदागमविशुद्धं सदर्थप्रतिपादक आगमः धानव्रतीचाराऽऽदीनां तु दिनशुद्धिरेव विलोक्या न मासवर्षाऽऽदि। 124 सदागमः, तन विशुद्ध निर्दोष, सर्व पूर्वोक्तं दशविधमपि क्षान्त्यादि- प्र०ा सेन०२ उल्ला०1 ('पवज्जा' शब्दे दीक्षाविधिर्वक्ष्यते) सर्वमत्त्वाशुक्लमिदं खलु निरतिचारमिदमेव नियमादितरव्यावत्या शुक्लस्या- भयप्रदानेन भावसत्रे, पं०व०१द्वार योगे. आ०म० अ० २खण्ड। ऽशुक्लनिवर्तकत्वात्संवत्सरादूर्ध्व क्रियामलत्यागेन संवत्सरकाला- प्रक० / पञ्चा०। (नपुंसकाऽऽदीना दीक्षितानां परिष्टापना 'परिट्ठवणा' त्ययेन शुक्लं भवतीति / / 13 / शब्दे वक्ष्यते) अस्यैव दीक्षावतः पूर्वोत्तरकालभाविगुणयोगमाह दिक्खागुण पुं० (दीक्षागुण) जिनदीक्षाधर्मे, जिनसाध्यागमभक्तिध्यानाध्ययानाभिरतिः, प्रथमं पश्चात्तु भवति तन्मयता। प्रभावनाऽऽदी च। पञ्चा०२विव०। षो०। सूक्ष्मालोचनया, संवेगः स्पर्शयोगश्च / / 14 / / दिक्खादावण न० ( दीक्षादापन) प्रौढोत्सवैः सुताऽऽदीना प्रव्राजने, प्रव। ध्यानं धर्म्य शुक्लं च स्थिराध्यवसानरूपं, यथोक्तम-''एकालाब तथैव प्रौढोत्सवः सुताऽऽदीनामादिशब्दात्पुत्रभ्रातृभ्रातृव्यस्वजननसंस्थस्य, सदृशप्रत्ययस्य च। प्रत्ययान्तरनिर्मुक्तः, प्रवाहो ध्यानमुच्यत सुहृत्परिजनाऽऽदीनां दीक्षादापनम्, उपलक्षणत्वादुपस्थापनाकारणं च, // 1 // ' अध्ययन स्वाध्यायपाठः, ध्यानं चाध्ययनं च ध्यानाध्ययने। भूयतेऽपि कृष्णचेटकनृपयोः स्वापत्यविवाहने ऽपि नियमवतो: अध्ययनपूर्वकत्वेऽपि ध्यानस्याल्पाच्तरत्वादभ्यर्हणीयत्वाच पूर्वनि स्वपुत्र्यादीनामन्येषां च थावचापुत्राऽऽदीना प्रौढोत्सवैः प्रव्राजना, इयं पातः, तयोरभिरतिराशक्तिरनवरतप्रवृत्तिः प्रथममादी दीक्षासंपन्नस्य, च महाफला। यतः-"ते धन्ना कयपुन्ना, जणओ जणणी अ सयणवग्गो पश्चात्तु पश्चात्पुनर्भववति / तन्मयता तन्मयत्वं तत्परता, सूक्ष्माश्य अ! जेसिं कुलम्मि जायइ, चारित्तधरो महापुत्तो' || 1 // इति / (66 तेऽर्थाश्च बन्धमोक्षाऽऽदयः, तेषामालोचना, तया सूक्ष्मार्थाऽऽलोचनया, ध०२ अधि०) संवेगो मोक्षाऽभिलाषः स्पर्शयोगश्च स्पर्शस्तत्वज्ञान तेन योगः संबन्धः दिक्खावयपरिणय त्रि० (दीक्षावयःपरिणत) दीक्षावयोभ्यां सम्प्राप्ते, ध० संभवतीति // 14 // 2 अधि०। स्पर्शयोगश्चेत्युक्तं तत्र स्पर्शलक्षणमाह दिक्खाविहाण न० (दीक्षाविधान) दीक्षाविधौ, पञ्चा० 2 विव० / स्पर्शस्तत्तत्त्वाऽऽप्तिः, संवेदनमात्रमविदितं त्वन्यत्। दिक्खिऊण अव्य० (प्रेक्षित्वा ) दृष्ट्वेत्यर्थे, ती० 3 कल्प। दिक्खियजिणोमाण त्रि० दीक्षितजिनावमान अधिवासितजिनबन्ध्यमपि स्यादेतत्, स्पर्शस्त्वक्षेपतत्फलदः / / 15 / / प्रोडणके, पञ्चा०८ विव०। स्पृश्यतेऽनेने वस्तुनस्तत्त्वमिति स्पर्शः, स च कडिगित्याह दिक्खोवयार पुं० (दीक्षोपकार) भव्यसत्त्वस्य दीक्षादानेनानुग्रहे, पञ्चा० तत्तत्त्वाप्तिस्तस्य तस्य वस्तुनो जीवाऽऽदेस्तत्त्वं स्वरूपं तस्याऽऽशि १८विव०॥ रुपलम्मो ज्ञानं स्पर्श उच्यते, संवेदनमात्रं वस्तुस्वरूपपरामर्शशून्यम दिगंबर पुं० (दिगम्बर) 'दिअंबर शब्दार्थे, आ० म०१ अ०१खण्ड। विदितं त्वन्यत् कथञ्चिद्वस्तुग्राहित्वेऽपि न विदितं वस्तु तदित्य दिगायरिय पुं० (दिगाचार्य) दिगाचार्यशब्देन किमुच्यत इति प्रश्ने, उत्तरम्विदितमुच्यते, बन्ध्यमपि विफलमपि स्यादेतत् संवेदनमात्र, स्पर्शस्तु सचित्ताचित्तमिश्रवस्त्वनुज्ञाया दिगाचार्य इति योगशास्त्रप्रकाशवृत्ती स्पर्शः पुनरक्षेपतत्फलदोऽक्षेपेणैव तत्स्वसाध्यं फल ददातीत्ययमनयोः प्रायश्चित्त वैयावृत्यमिति श्लोकव्याख्याने दिगाचार्यशब्दार्था शेय इति। स्पर्शसंवेदनयोर्विशेष इति।। 15 / / 132 प्र०। सेन०१ उल्ला०॥ __संवेगस्पर्शयोगेन दीक्षायान् यत् करोति, तदाह दिगिंछा (देशी) बुभुक्षायाम्, आचा०१श्रु०६ अ०४ उ०। स०भ० व्याध्याभिभूतो यद-निविण्णस्तेन तत्क्रियां यत्नात्। दिगिंछापरिगय त्रि० (दिगिञ्छापरिगत) क्षुधाव्याप्ते, उत्त०२ अ०। सम्यक्करोति तद-द्दीक्षित इह साधुसन्चेष्टाम् / / 16 // आ० चू०। त्याधिना कुष्ठाऽऽदिनाऽभिभूतो ग्रस्तो यद्वद्यया, निविण्णो निर्वेद दिगिंछापरिसहपुं० [दिगिञ्छापरि(री)षह] इह च दिगिञ्छेति देशीवचनेन गाहितस्तेन व्याधिना तत्क्रियां तचिकित्सा व्याधिप्रतीकाररूपा बुभुक्षोच्यते, सैवात्यन्तव्याकुलत्वहेतुरप्यसंयमभीरुतया आहारपरियत्नाद्यत्नेन सम्यक्करोति विधत्ते, तद्वत्तथा दीक्षित इह प्रक्रमे साधूना पाकाऽऽदिवाञ्छाविनिवर्तनन परीति सर्वप्रकारेण सात इति परिषहः। सचेष्टा विनयाऽऽदिरूपा ता साधुसच्चेष्टाम्॥ १६॥षो०१२ विव०। अथ क्षुत्परीषहे, उत्त० 2 अ० / भ० / स०। ('खुहा' शब्दे तृतीयभागे 755 वृद्धपं० शुभविजयगणितकृतप्रश्नस्तदुत्तरं च-यथा तीर्थकृद्भिः सह ये पृष्ठे व्याख्यात्म्) दीक्षां गृह्णन्ति ते कि तीर्थकृद्वत्पाढोच्चाराऽऽदिकं कुर्वन्त्युत भिन्नमिति दिगिंछापरीसह पुं० (दिगिञ्छापरीषह) 'दिगिछापरिसह' शब्दार्थ, प्रश्ने, उत्तरम्-तीर्थकरैः सार्द्ध दीक्षाग्रहणं कुर्वद्भिः स्वयं दक्षत्यात्तत्तत्क्षेत्र- उत्त०२ उ०॥ कालाऽऽद्यनुसारेण तपस्याग्रहणं क्रियते, न तु तीर्थकरवत, प्रथमतीर्थ- | दिगु पुं० (द्विगु) संख्यापूर्वे समासभेदे, "संख्यापूर्वो द्विगु' / / 2 / 1 / कृता सार्द्ध तु तीर्थकरवत् पाठोचारं कुर्वन्तीति ज्ञायते // 187 प्र० / 52 // इति पाणिनियचनम् / अनु० / सेन०२ उल्लाc / सिंहाऽऽदिसंक्रान्तित्रयमध्ये तथाऽऽवर्तिकामासमध्ये से किं तं दिगुसमासे ? दिगुसमासे अणेगविहे पण्णत्ते / तं च कानि कानि धर्मकार्याणि शुझ्ययन्ति, कानि नति प्रश्ने, उत्तरम-- जहा-तिण्णि कडुगाणि तिकडुगं, तिण्णि महुराणि तिमहुरं,
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________________ दिगु 2506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिट्टतपरिणाम तिण्णि गुणाणि तिगुणं, तिण्णि पुराणि तिपुरं, तिणि सराणि तिसरं, तिण्णि पुक्खराणि तिपुक्खरं, तिणि बिंदुआणि तिविंदुअं, तिण्णि पहाणि तिपह, पंच नदीओ पंचनदि, सत्त गया सत्तगयं, नव तुरंगा नवतुरंगं, दस गामा दसगाम, दस पुराणि दसपुरं / सेत्तं द्विगुसमासे। "संख्यापूर्वो द्विगु" / / 2 / 1 / 52 / / त्रीणि कटुकानि समाहृतानि त्रिकटु कम् / एवम -त्रीणि मधुराणि समाहृतानि त्रिमधुर, पत्राऽऽदिगणे दर्शनादिह पञ्चमूलीत्यादिषु स्त्रियामीप्रत्ययो न भवति, एवं शेषाण्यप्युदाहरणानि भावनीयानि / अनु०। दिग्घ पुं० (दी) दृ-घञ् / घस्य नेत्वम्। “दीर्घ वा // 8 // 21 // दीर्घशब्दे शेषस्य घस्य उपरि पूर्वो वा भवति। "दिग्घो। दीहो।"प्रा०२ पाद / शाललतावृक्ष, उष्ट्रे, द्विमात्रे स्वरवर्णे च / आयते, वाच० / स्थूले च / त्रि००२ वक्षः। दिच्छास्त्री० (दित्सा) दातुमिच्छायाम्, अनु०। दिठ्ठ न० (दिष्ट) दिश-क्तः। भाग्ये, "न दिष्टमिष्ट कुरुते इति माघः। काले, पुं०। उपदिष्ट, वाच०। प्रतिपादिते च। त्रि० / नयो०। *दृष्ट न० दृश-क्तः / स्वपरचक्रभये वीक्षिते, वाच०। दर्शने, 01 उ०। नि००। स्था० / अवलोकिते, पञ्चा०७ विव० / प्रज्ञा० / दर्श० / प्रश्न० / आव० / स्था० / सूत्र० / व्य० / उत्त० / उपलब्धे, हा० 31 अष्ट० / अभिमते, अनु०। लौकिके च / त्रि०ा वाच०। आगमतत्त्वं ज्ञेयं, तद् दृष्टेष्टाविरुद्धवाक्यतया / / (10) आगमतत्वं ज्ञेयं भवति, तत्कथ ज्ञेयम् ? दृष्ट प्रत्यक्षानुमानप्रमाणोपलब्धभिष्टमागमेन स्ववचनैरेवाभ्युपगतं, ताभ्यामविरुद्धानि वाक्यानि यस्मिन्नागमतत्वेतद दृष्टेष्टाविरुद्धवाक्यम्, तद्भावस्तया। (10) षो० १विवा दिठत पु० (दृष्टान्त) दृष्टान्तो नाशोऽवसानं यस्मिन् / मरणे, वाच० / दृष्टममन्तं नयतीति दृष्टान्तः अतीन्द्रियप्रमाणदष्ट संवेदनं निष्ठा नयतीत्यर्थः / दश०१ अ०। आ० म०। दृष्टोऽन्तः परिच्छेदो विवक्षितः साध्यसाधनयोः संबन्धस्याविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र ते दृष्टान्ताः। प्रज्ञा०३०पद। साध्यस्योपमाभूते, नं०। उदाहरणे, विशे०। दृष्टान्तफलम्पुव्वमभिन्ना भिन्ना, य वारिया कहमियाणि कप्पंति? सुण आहरणं चोयग! ण कमति सव्वत्थ दिह्रतो / / 168 // पूर्वस्त्रे भवद्भिरभिन्नानि भिन्नानि च वारितानि प्रतिषिद्धानि, कथमिदानीमस्मिन् सूत्रे कल्पन्ते ? इति भणत, न युक्तं पूर्वापरव्याहतमीदृशं वक्तुमिति भावः / अत्राऽऽचार्यः प्राऽऽह---श्रृणु निशमय, आहरणं दृष्टान्तम् हे नोदक ! यथा कल्पते / अत्र नोदको गुरुवचनमनाकर्ण्य दुर्विदग्धतादऽऽध्यमातः प्रतिवक्ति--आचार्य : न सर्वत्राप्यर्थे दृष्टान्तः क्रमते, दृष्टान्तमन्तरेणाप्यर्थप्रतिपत्तेः / तथाहिजइ दिटुंता सिद्धी, एवमसिद्धीउ आणगेज्झाणं। अह ते तेसि पसिद्धी, पसाहए किं उ दिटुंता // 196|| यदि दृष्टान्तादर्थानां सिद्धिस्तर्हि आज्ञाग्राह्याणां निगोदभव्याभव्याऽऽदीनामर्थानामसिद्धिः प्रसज्येत, अथ ते तवाऽऽज्ञया तेषां प्रसिद्धिस्ततः किं नुरिति वितर्के। किमेव दृष्टान्ततोऽर्थसिद्धिः क्रियते। किं चान्यत्कप्पम्मि अकप्पम्मिय, दिट्ठता जेन होति अविरुद्धा। तम्हा न तेसि सिद्धी, विहि अविहि विसोवभोग इव / / 20 / / दृष्टान्तेन यद्यदात्मन इष्ट तत्सर्वं यदृच्छया प्रसाध्यते, तथा कल्प्यते हिंसा कर्तु विधिनेति प्रतिज्ञा, निष्प्रत्यपायत्वादिति हेतुः। यथा विधिना विषोपभोगदृष्टान्तः। अस्य च भावना यथा-विधिना मन्त्रपरिगृहीतं विषं स्वाद्यमानमदोषाय भवति, अविधिना पुनः स्वाद्यमानं महान्तमनर्थमुपढोकयति / एवं हिंसाऽपि विधिना विधीयमाना न दुर्गतिगमनाय प्रभवति, अविधिना तु विधीयमाना न दुर्गतिगमनाय प्रवभवति, अविधिना तु विधीयमाना दुर्गतिगमनायोपदिष्टा, यतश्चैवमतो निष्प्रत्यपायत्वात् कल्प्यते कर्तुं हिंसेति निगमनम् / एवं कल्पोऽकल्पो वा येन कारणेन दृष्टान्ता अविरुद्धा भवन्ति, कल्प्यमप्यकल्प्यम्, अकल्प्यमपि कल्प्यम् / यदृच्छया दृष्टान्तबलेन क्रियत इति भावः / तस्मान्न तेभ्यो दृष्टान्तेभ्योऽर्थानां सिद्धिर्भवति / गाथायां पञ्चम्यर्थ षष्ठी। विधिनाsविधिना च विषोपभोग इवेति। इत्थ नोदकेन स्वपक्षे स्थापिते सति सूरिराहअसिद्धी जइ नाएण, नायं किमिह उच्चते ? अह ते नायतो सिद्धी, नायं किं पडिसिज्झए ? 1 201 / यदि ज्ञातेन दृष्टान्तेनार्थानामसिद्धिः ततस्त्वया ज्ञातं विषदृष्टान्त इह किमुच्यते किमेवमभिधीयते ? अथ ते ज्ञाततो दृष्टान्तसिद्धिः, ततोऽस्माभिरूच्यमानं ज्ञातं किं प्रतिषिध्यते ? किंचअंधकारो पदीवेण, वजए न उ अन्नहा। तहा दिट्ठतिओ भावो, तेणेव उ विसुज्झति / / 202 / / अन्धकारशब्दस्य पुनपुंसकलिङ्गत्वाद् यथाऽन्धकारो रात्रौ प्रदीपेनैव वय॑ते विशोध्यते, न तु नैवान्यथा। विशोधिते च तस्मिन् घटाऽऽदिक वस्तु परिस्फुटमुपलभ्यते, तथाऽत्रापि दार्शन्तिको दृष्टान्तग्राह्यो भावः पदार्थोऽन्धकारवदतिगहनोऽपि तेनैव दृष्टान्तेन प्रदीपकल्पेन विशुद्ध्यते निर्मलीभवति, विशुद्धे च तस्मिन् परिस्फुटा विवक्षितार्थप्रतिपत्तिभवतीति दृष्टान्तोपदर्शनमत्र क्रियते / किञ्चसौख्यप्रीणिता वयं, स्ववाक्येनैव भवता यद् दृष्टान्तेनार्थप्रसाधनमभ्युपगतम्, अस्माकमपि त्वदीय एव दृष्यन्तः सूत्रस्य सार्थकत्वं प्रसाधयिष्यति / बृ०१ उ०।२ प्रक० / आ० चू० / नि० चू० / विशे० / आव० / (न दृष्टान्तमात्रादर्थसिद्धिरिति 'पलब' वक्ष्यते) शास्त्रे, अलङ्कारोक्ते अलङ्कारभेदे चावाच०। दिटुंतपरिणाम पुं० (दृष्टान्तपरिणाम) दृष्टान्तेन श्रद्धापयितव्ये, व्य० / दृष्टानतपरिणामकमाहपरोक्खं हेउगं अत्थं, पञ्चक्खेण उ साहियं / जिणेहिं एस अक्खातो, दिटुंतपरिणामगो।। 57 / /
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________________ दिटुंतपरिणाम 2510 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिटुंताभास परोक्ष, हेतुकं हेतुना, लिङ्गेन गम्यं हेतुकम्, अर्थ प्रत्येक्षेण प्रत्यक्षप्रसिद्धेन दृष्टान्तेन साधयन् आत्मबुद्धावारोपयन यो वर्तते एष दृष्टान्तपरिणामको जिनराख्यातो, दृष्टान्तेन विवक्षितमर्थ परिणाभयत्यात्मबुद्धावारोपय तीति दृष्टान्तपरिणामक इति व्युत्पत्तेः / व्य० 10 उ०1 दिलुताभास पुं० (दृष्टान्ताऽऽभास) दुष्टदृष्टान्ते, रत्ना०। अथ दृष्टान्ताऽऽभासन भासयन्तिसाधर्म्यण दृष्टान्ताऽऽभासो नवप्रकारः / / 68 || दृष्टान्ता हि प्राग द्विप्रकारः प्रोक्तः, साधर्येण वैधhण च। ततस्तदा - भासोऽपि तथैव वाच्य इति साधर्म्यदृष्टान्ताऽऽभासस्तावत् प्रकारतो दर्शितः // 58 // प्रकारानेव कीर्तयन्तिसाध्यधर्मविकलः 1, साधनधर्मविकलः 2, उभयधर्मविकलः३ संदिग्धसाध्यधर्मा 4, संदिग्घसाधनधर्मा ५,संदिग्धोभयधर्मा 6, अनन्वयः 7, अमदर्शितान्वयः 8, विपरीतान्वयच्च / इति // 56 // इतिशब्दः प्रकारपरिसमाप्तौ, एतावन्त एवं साधर्म्यदृष्टान्ताऽऽन्नासप्रकारा इत्यर्थः / / 56 / / क्रमेणामूनुदाहरन्तितत्रापौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वाद् दुःखवदिति साध्यधर्मविकलः (1) / 60 // पुरुषव्यापाराभावे दुःखानुत्पादेन दुःखस्य पौरुषेयत्वात् / तत्रापौरुषेयत्वसाध्यस्यावृत्तरेयं साध्यधर्मविकल इति (1) / 60 / / तस्यामेव प्रतिज्ञायां तस्मिन्नेव हे तो परमाणु वदिति साधनधर्मविकलः (2) / / 61 / / परमाणौ हि साध्यधर्मो ऽपौरुषेयत्वमस्ति, साधनधर्मस्त्वमूर्तत्वं नास्ति, मूर्तत्वात्परमाणोः (2) / / 61 / / कलशवदित्युभयधर्मविकलः (3) / / 65 / / तस्यामवे प्रतिज्ञायां तस्मिन्नेव च हेतौ कलशदृष्टान्तस्य पौरुषेयत्वान्मूर्तत्वाच साध्यसाधनोभयधर्मविकलता (3) / / 62 / / रागाऽऽदिमानयं वकृत्वाद्वेवदत्तवदिति संदिग्धसाध्यधर्मा (4) // 63 // देवदत्ते हि रागाऽऽदयः सदसत्त्वाभ्यां संदिग्धाः, परचेताविकाराणां / परोक्षत्वाद्रागाऽऽद्यव्यभिचारिलिङ्गादर्शनाच (4) // 63 // मरणधर्माऽयं रागाऽऽदिमत्त्वान्मैत्रवदिति संदिग्धसाधनधर्मा (5)64 // मैत्रे हि साधनधर्मो रागाऽऽदिमत्त्वाऽऽख्यः संदिग्धः (5) // 64 / / नायं सर्वदर्शी रागाऽऽदिमत्त्वान्मुनिविशेषवदिति संदिग्धोभयधर्मा (6) / 65 / / मुनिविशेषे सर्वदर्शित्वरागाऽऽदिमत्त्वाऽऽख्यौ साध्यसाधनधर्मा - संदिह्येते, तदव्यभिचारिलिङ्गादर्शनात् (6) / 65 / / रागाऽऽदिमान्विवक्षितः पुरुषो वकृत्वादिष्टपुरुषवदित्यनन्वयः (7) / / 66 / / यद्यपीष्टपुरुषे रागाऽऽदिमत्त्वं च वक्तृत्वं साध्यसाधनधर्मो दृष्टी, तथाऽपि यो यो वक्ता स स रागाऽऽदिमानिति व्याप्त्यसिद्धरनन्वयत्वम् (7) / / 66 / / अनित्यःशब्दः कृतकत्वाद्घटवदित्यप्रदर्शितान्वयः(८) / / 67 // अत्र यद्यपि वास्तवोऽन्वयोऽस्ति तथाऽपि वादिना वचनेनन प्रकाशित इत्यप्रदर्शितान्वयत्वम् / यद्यप्यत्र वस्तुनिष्ठो न कश्चिद्दोषः, तथाऽपि परार्थानुमाने वचनगुणदोषानुसारेण वक्तृगुणदोषौ परीक्षणीयाविति भवत्यस्य वाचनिकं दृष्टत्वम् / एवं विपरीतान्वयाप्रदर्शितव्यतिरेकविषरीतव्यतिरेकेष्वपि द्रष्टव्यम। (8) / / 67 / / अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, यदनित्यं तत्कृतकं घटवदिति विपरीतान्वयः (8) // 68 // प्रसिद्धानुवादेन ह्यप्रसिद्ध विधेय; प्रसिद्ध चाव कृतकत्वं हेतुत्वेनोपादानात, अप्रसिद्ध त्वनित्यत्वं साध्यत्वेन निर्देशाद् इति प्रसिद्धस्य कृतकत्वस्यैवानुवादसर्वनाम्ना यच्छन्देन निर्देशो युक्तः, न पुनरप्रसिद्धस्यानितयत्वस्य, अनित्यत्वस्यैव च विधिसर्वनाम्ना यच्छब्देन परामर्श उपपन्नो, न तु कृतकत्वस्य (6) // 68 / / अथ वैधर्म्यदृष्टान्ताऽऽभासमाहुःवैधयेणाऽपि दृष्टान्ताऽऽभासो नवधा / / 66 / / __ तानेक प्रकारानुद्दिशन्तिअसिद्धसाध्यध्यतिरेकः 1, असिद्धसाधनव्यतिरेक: 2, असिद्धो भयव्यतिरेकः 3, संदिग्धसाध्यव्यतिरेकः 4, संदिग्धसाधनव्यतिरेकः५, संदिग्धोभयव्यतिरेकः ६,अव्यतिरेकः 7, अप्रदर्शितव्यतिरेकः 8, विपरीतव्यतिरेकश्च 6, // 70 // अथैतान् क्रमेणोदाहरन्तितेषु भ्रान्तमनुगानं प्रमाणत्वाद्यत्पुनन्तिं न भवति न तत्प्रमाणं यथा स्वमज्ञानमिति, असिद्धसाध्यव्यतिरेकः स्वप्नज्ञानाद्वान्तत्वस्यानिवृत्तेः (1) / / 71 / / निर्विकल्पकं प्रत्यक्ष प्रमाणत्वाद्, यत्तु सविकल्पकं न तत्प्रमाणं यथा लैङ्गिकमित्यसिद्धसाधनव्यतिरेको लैङ्गिकात्प्रमाणत्वस्याऽनिवृत्तेः (2) // 72 // नित्यानित्यः शब्दः सत्त्वाद्यस्तु न नित्यानित्यः सन संस्त्वथास्तम्भ इत्यसिद्धोभयव्यतिरेकः स्तम्भान्नित्यानित्यत्वस्य सत्त्वस्य चाव्यावृत्तेः (3) // 73 / / व्यक्तमेतत्सूत्रत्रयमपि (3) // 73 / / असर्वज्ञोऽनाप्तो वा कपिलोऽक्षणिकैकान्तवादित्वाद्यः सर्वज्ञ आप्तो वा स क्षणिकैन्तवादी यथा सुगत इति संदिग्धसाध्यव्यतिरेकः सुगतेऽसर्वज्ञतानाप्तवयोः साध्यधर्मयोावृत्तेःसंदेहात् (4) / / 74 // अयं च परमार्थतोऽसिद्धसाध्यध्यतिरेक एव क्षणिकै कान्तस्य प्रमाण बाधितत्वेन तदभिधातुरसर्वज्ञतानाप्सत्व प्राप्ते : के वल
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________________ दिटुंताभास 2511 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिहि तत्प्रतिक्षेपकप्रमाणमाहात्म्यपरामर्शनशून्यानां प्रमातूणा से दिग्ध- येन स तथा / अवगतधर्मे, सूत्र० 1 श्रु०१३ अ०। साध्यव्यतिरेकत्वेनाऽऽभास इति तथैव कथितः (4) / / 74 / / दिट्ठपह पुं० (दृष्टपथ) दृष्टो ज्ञानाऽऽदिको मोक्षस्य पन्था येन स अनादेयवचनः कश्चिद्विवक्षितः पुरुषो रागाऽऽदिमत्त्वाद्यः दृष्टपथः। दृष्टमोक्षमार्ग, आचा० 1 श्रु०२ अ०६ उ०। पुनरादेयवचनः स वीतरागः, तद्यथा-शौद्धोदनिरिति / दिट्ठपाठी पुं० (दृष्टपाठी) दृष्टः पाटो येन स दृष्टपाठी। अधीतवैद्यके, नि० संदिग्धसाधनव्यतिरेकः शैद्धोदनो रागाऽऽदिमत्त्वस्य निवृत्तेः चू०४ उ०॥ संशयात् (5) / / 75 // दिट्ठफल पु० (दृष्टफल) दृष्टमेव प्रत्यक्ष फलं पूजाऽऽदिकं फलमर्थः प्रयोजनं यद्यपि तद्दर्शनानुरागिणां शौद्धोदनेरादेयवचनत्वं प्रसिद्धं, तथापि रागा- यस्याऽसौ दृष्टफलः / अपरोक्षफले, विशे०। ऽऽदिमत्त्वाभावस्तन्निश्चायकप्रमाणवैकल्यतः संदिग्ध एव (5) 1751 दिट्ठभयपुं० (दृष्टभय) दृष्ट संसाराद्वयं सप्तप्रकारवायेन स तथा। अवगतन वीतरागः कपिलः करुणाऽऽस्पदेष्वपि परमकृपया सप्तप्रकारभये, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। ऽनर्पितनिजपिशितशकलत्वात्, यस्तु वितरागः स करुणा से हु दिट्ठभए मुणी, जस्स णत्थि ममाइयं / ऽऽस्पदेषु परमकृपया समर्पितनिजपिशितशकलः, तद्यथा शरीराऽऽदेः परिग्रहात्साक्षात्पारम्पर्येण वा पर्यालोच्यमानं सप्तप्रकारमपि तपनबन्धुरिति संदिग्धो भयव्यतिरेक इति तपनबन्धौ भयभाषनीपद्यत इत्यतः परिग्रहपरित्यागेज्ञातभयत्वमवसीयते। अवगतवीतरागत्वाभावस्य करुणाऽऽस्पदेष्वपि परमकृपयाऽनर्पित संसारभये, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। निजपिशितशकलत्वस्य च व्यावृतेः संदेहात् (6) / 76 / / / दिट्ठमदिट्ठ न० (दृष्टादृष्ट) वन्दनकभेदे, "अंतरितो तमसे वा, ण वंदती तपनबन्धुर्बुद्धो वैधर्म्यदृष्टान्ततया यः समुपन्यस्तः स न ज्ञायते किं बंदती उदीसंतो।" बहुषु वन्दमानेषु साध्वादिना के नचिदन्तस्तमसि वा रागाऽऽदिमानुत वीतरागः, तथा-करुणाऽऽस्पदेषु परमकृपया निजपि सान्धकारप्रदेशेव्यवस्थितो मौन विधायोपविश्य चाऽऽस्ते, न तु वन्दते, दृश्यमानस्तुवन्दते। एतद्दृष्टादृष्टं वन्दनकम्। वृ०३ उ०। आव०। आ० शितशकलानि समर्पितवान्न वा, तन्निश्चायकप्रमाणापरिरफुरणात् (6) ||76 // चू०। ध०। दिट्ठलाभिय पुं० (दृष्टलाभिक) दृष्टस्यैव भक्ताऽऽदेलाभः प्रदृष्टस्यापवरनवीतरागः कश्चिद्विवक्षितः पुरुषोवक्तृत्ववाद्, यः पुनर्वीतरागो फाऽऽदिमध्यान्निर्गतस्य श्रोत्राऽऽदिभिः कृता-पयोगस्य भक्ताऽऽदिलाभन स वक्ता यथोपलखण्ड इत्यव्यत्तिरेकः (7) / / 77 / / स्तेन चरन्ति ये ते दृष्टलाभिकाः। भिक्षाभिग्रहविशेषयुक्ते, सूत्र०२ श्रु०२ यद्यपि किलोपलखण्डादुभयं व्यावृत्तं तथापि व्याप्त्या अ० / ध० / आ० चू०। स्था०1 औ०। व्यतिरेकासिद्धेरव्यतिरेकत्वम् (7) / / 77 / / दिट्ठसार पुं०(दृष्टसार) उपलब्धतत्त्वे, व्य०१० उ०। अनित्य : शब्दः कृतकत्वादाकाशवदित्यप्रदर्शितव्यतिरेकः दिवसाहम्भ न० (दृष्टसाधर्म्य) दृष्ट न पूर्वोपलब्धेनार्थेन सह साधर्म्यम्। (8) // 7 // सामान्यतो दृष्टानुमाने, अनु०। अत्र सदनित्यं न भवति तत् कृतकमपि न भवतीति विद्यमानोऽपि दिट्ठाभट्ट त्रि० (दृष्टाभाषित) कृतदर्शनाऽऽलापे, भ०३ श०१ उ०। व्यतिरेको वादिना स्ववचनेन नोद्भावित इत्यप्रदर्शितव्यतिरेकत्वम् दिट्टि स्त्री० (दृष्टि) दर्शनं दृष्टिः। विशे०। चक्षुत्पिन्नदर्शने, अनु०। स्था०। (8) / / 78 / / सूत्र० / विशे०। द्रव्या० / आचा०। आतु०। न०। समुद्-भूतपदार्थगते अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद्यदकृतकं तन्नित्यं यथाऽऽका सम्यग्दर्शने, सूत्र० 1 श्रु०३ अ० 3 उ० / तद्वति, भ० 6 श० 4 उ० / शमिति विपरीतव्यतिरेकः (8)| 76 // धर्मप्रज्ञापनायाम्, सूत्र० 1 श्रु०३ अ० 3 उ० / जिनप्रणीतवस्तुवैधर्म्यप्रयोगे हि साध्याभावः साधनाभावाऽऽक्रान्तो दर्शनीयो, न तत्त्वप्रतिपत्तौ, प्रज्ञा०३४ पद। जी०। सूत्र०। स्था०।। चवमत्रेति विपरीतव्यतिरेकत्वम् (6)| 76 || रत्ना०६ परि०। जीवाणं भंते ! सम्मबिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी? दिलृतिय त्रि० (दान्तिक) प्रथमेऽभिनयभेदे, स्था०४ ठा० 4 उ०। गोयमा ! जीवा सम्मद्दिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, सम्मामिच्छादिट्ठी रा०आ०म० वि। एवं रइया वि। असुरकुमारा वि एवं चेव० जावं थणियदिगुण पुं० (दृष्टगुण) दृष्टाः प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणतोऽनुभूतगुणधर्मा यस्य कुमारा / पुढविकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! पुढविकाइया नो तस्मिन्, स्या०। सम्मद्दिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी। एवं० जाय दिट्ठत्थपु० (दृष्टार्थ) दृष्ट उपलब्धोऽर्थः छेदश्रुताभिधेयरूपो येन स दृष्टार्थः / वणस्सकाइया / वेइंदियाणं पुच्छा? गोयमा ! वेइंदिया गीतार्थे, बृ० १उ०। सम्मादिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। एवं जाव दिट्टदोसपतिता स्त्री० (दृष्टदोषपतिता) दृष्टः दोषश्चैाऽऽदिर्यस्याः सा चउरिंदिया / पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सवाणमंतरजोतथा / सा चासौ पतिता च दृष्टदोषपतिता / जात्यादिबहिस्कृतायाम, इसिय-वेमाणिया सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, सम्मामिअन्त०३० वर्ग०८ अ०। च्छादिट्ठी, वि। सिद्धाणं पुच्छा? गोयमा ! सिद्धाणं सम्मदिट्ठी, देठ्ठधम्मपुं० (दृष्टधर्म) दृष्टोऽवगतो यथावस्थितो धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यो / णो मिच्छदिट्ठी, णो सम्मामिच्छदिट्ठी।
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________________ दिट्टि 2512 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिद्विवाय (जीवा गं भंते ! किं सम्मदिट्टि इत्यादि) सुगममापदपरिसमाप्तेः, नवरं सास्वादनसम्यक्त्वयुक्तोऽपि सूत्राऽभित्रायेण पृथिव्यादिषु नोत्पद्यते, "उभयाभावो पुढवाइएसु' इति वचनात्। द्वीन्द्रियाऽऽदिषु सास्वादनसम्यक्त्वयुक्त उपपद्यते / ततः पृथिव्यादयः सम्यग्दृष्टयः प्रतिषिद्धा द्वीन्द्रियाऽऽदयोऽभिहिताः।। सम्यग्मिथ्यादृष्पिरिणामः पुनः संक्षिपञ्चेन्द्रियाणां भवति, न शेषाणा, तथास्वाभाव्यात् / अत उभयेऽपि सम्यम् मिथ्यादृष्टयः प्रतिषिद्धाः। प्रज्ञा० 16 पद। जी० भ०। (दृष्टिविषयेऽलगबहुत्वम् 'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे 672 पृष्ठे उक्तम्) अन्तःकरणप्रवृत्ती, सूत्र०२ श्रु०२ अ० / बुद्धौ, उत्त० 2 अ०। नेत्रे, ग०१ अधि०। दिट्ठिआ अव्य० (दिष्ट्या) दिश-यक्--अन्ध्यादि०नि०। वाच० दिया, दिष्ट या इति विश्लेषे "ह-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्यास्वित्' / / 8 / 2 / 104 // इत्यनेन यापूर्व इकारः लोकात्"टस्यानुष्टेष्टासंदष्टे"।।८।२।३४ // इतिटस्य ठः "अनादौ शेषाऽऽदेशयोर्द्रित्वम्" / / 8 / 2 / 86 / / इति नित्ये "कगचजतदपयवां प्रायो लुन्. / / 811 / 177 / / इति यलुक् / 'दिट्टिया। प्रा०ढुं० 2 पाद। मगले, हर्षे, भाग्यनेत्यर्थे च / वाच०। दिट्ठिकीब पुं० (दृष्टिक्लीब) यश्चिलिमिलिकान्तर्गतः सर्वतः सर्व करोति तादृशे क्लीये, "दिट्टिकीबो सव्वं चिलिमिलियंतरितो करेति / नि० चू०४ उ०। दिट्ठिजुद्ध न० (दृष्टियुद्ध) योधपतियोधयोश्चक्षुषोर्निर्निमेषावस्थाने, ज० 2 वक्षः दिट्ठिणिव्वत्ति स्त्री० (दृष्टिनिवृत्ति) निवर्तन निवृत्तिनिष्पत्तिः, दृष्टनिवृत्तिः दृष्टिनिर्वृत्तिः। दृष्टिनिष्पत्ती, भ०। कइविहाणं भंते ! दिद्विणिवत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा दिहिणिवत्ती पण्णत्ता / तं जहा- सम्मदिहिणिवत्ती, मिच्छादिट्ठिणिवत्ती, सम्मामिच्छादिहिणिवत्ती / एवं० जाव वेमाणिया। जस्स जइविहा दिट्टि / भ०१६ श०८ उ०। दिट्ठिदंड पुं० (दृष्टिदण्ड) क्रियास्थानभेदे, आव01 दिट्ठिविवजासओ इमो होइ। जो मित्तममित्तं ती, काउं घाइज अहवा वि।। 46 / / गामाईघाएसुव, अतेण तेणं ति वावि घाइजा। दिद्विविवज्जासे सो, किरिआठाणं तु पंचमयं / / 50 // आव०४ अ०। दिट्टिमं पुं० (दृष्टिमत्) दर्शनं दृष्टि सदनुष्ठानं वा यस्यासौ दृष्टिमान्। आचा० 1 श्रु०६ अ० 5 उ०। यथावस्थितान पदार्थान् श्रद्दधाने, सूत्र० 1 श्रु० 14 अ० / सम्यग् दर्शनिनि, सूत्र०१ श्रु 4 अ०१ उ०। दिट्ठिया स्त्री० दृष्टिका(जा) दृष्टर्जाता दृष्टिजा / अथवादृष्ट दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया यस्यामस्ति सा दृष्टिका / दर्शनार्थ या गतिक्रिया, दर्शनाद्धा यत्कर्मेति सा दृष्टिजा, दृष्टिका वा / स्था० 2 ठा० 1 उ० / आव०॥ दिद्विराग त्रि० (दृष्टिराग) दिहिरागो असियभियं किरियाणं अकिरिय वादीणमाह- "चुलसी णियसत्तट्टी, वेणइआणं च वत्तीस। " स्वकीयायां स्वकीयायां दृष्टौ रक्ता ह्येते, यतो "जिणवयणबाहिरमती, मूढा णियदसणाणुरागेण / सव्वण्णू कहितमेते, मोक्खपह न तु पयजति'' // 1 // स्वकीयायां स्वकीयायां दृष्टौ रक्ते, आ० चू०१ अ०। 'रागेण'' (4) दृष्टिरागाऽऽदिरूपेण गोविन्दवाचकोत्तमाभ्यामिच। ध०२ अधि० / आ०म०। दिट्ठिवाय पुं० [दृष्टिपात(वाद)] दृष्टयो दर्शनानि नया वा उच्यन्ते अभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यत्रासौ दृष्टिवादो, दृष्टिपातो वा / प्रवचनपुरुषस्य द्वादशेऽङ्ग , स्था० 4 ठा० 1 उ० / दृष्टिदर्शन सम्यवत्वाऽऽदि, वदनं वादो, दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः / प्रव० 144 द्वार। दृष्टिवाद पर्यायतो दशधाऽऽहदिट्ठिवायस्य णं दसनामधिजा पण्णत्ता। तं जहा-दिट्ठिवाएइ वा हेतुवाएइ वा भूयवाएइ वा तच्चावाएइ वा सम्मावाएइ वा धम्मावाएइ वा भासाविजएइ वा पुव्वगएइ वा अणुओगगएइ वा सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहेइ वा। हिनोति गमयति जिज्ञासितमर्थमिति हेतुः अनुमानोत्यापकं लिङ्ग मुपचारादनुमानमेव वा वादो हेतुवादः / तथा-भूताः सद्भूताः पदार्थाः, तेषां वादो भूतवादः। तथा-तत्त्वानि वस्तूनामैदम्पर्याणि, तेषां वादस्तत्ववादः, तथ्यो वा सत्यो वादस्तथ्यवादः।तथा सम्यगविपगेतो वादः सम्यगवादः / तथाधर्माणां वस्तुपर्याणां धर्मस्य वा चारित्रस्य वादो धर्मवादः / तथा-भाषा सत्याऽऽदिका, तस्या विचयो निर्णयो भाषाविचयः, भाषाया वाचो विजयः समृद्धिर्यस्मिन् स भाषाविजयः / तथा-सर्वश्रुतात्पूर्व क्रियन्त इति पूर्वाणि उत्पादपूर्वाऽऽदीनि चतुर्दश, तेषु गतोऽभ्यन्तरीभूतस्तत्स्वभाव इत्यर्थ इति पूर्वगतः। तथा अनुयोगः प्रथमानुयोगस्तीर्थकराऽऽदिपूर्वभवाऽऽदिव्याख्यानग्रन्थो गण्डिकाsनुयोगश्च भरतनरपतिवंशजातानां निर्वाणगमनानुत्तर-विमानगमनवक्तव्यताव्याख्यानग्रन्थ इति द्विरूपेऽनुयोगे गतोऽनुयोगगत एतौ च पूर्वगतानुयोगगती दृष्टिवादांशावपि दृष्टिवादतयोक्ताववयवे समुदायोपचारादिति। तथा-सर्वे विश्वे, तेच तेप्राणाश्च द्वीन्द्रियाऽऽदयो भूताश्चतरयो जीवाश्च पञ्चेन्द्रियाः सत्त्वाश्च पृथिव्यादय इति द्वन्द्वे सति कर्मधारयः, ततस्तेषां सुख शुभं वा आवहतीति सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखाऽऽवहः, सुखाऽऽवहत्वं च संयमप्रतिपादकत्वात्सत्त्वानां निर्वाणहेतुत्वाचेति / स्था०१० ठा। से किं तं दिट्ठिवाए ? दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणा आघ-- विजइ / से समासओ पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा-परिकम्मे 1, सुत्ताइ 2, पुव्वगए 3, अणुओग 4, चूलिआ 5 / दृष्टयो दर्शनानि, वदनं वदः, दृष्टीनां वादो यत्र स दृष्टिवादः / अथवापतनं पातो, दृष्टीनां पातो यत्र स दृष्टिपातः / तथाहि-तत्र सर्वनयदृष्टय आख्यायन्ते। तथा चाऽऽह सूरि:- "दिट्ठिवाएण' इत्यादि / दृष्टिवादिनः / अथवा-दृष्टिपातेन। यद्वा-दृष्टिवादे, दृष्टिपाते। णमिति वाक्यालङ्कार। सयभावप्ररूपणा आख्यायते, (से समासतो पंचविधे पन्नत्ते इत्यादि) सर्वभिदं प्रायोव्यवच्छिन्नं, तथाऽपि लेशतो यथागतसंप्रदायक किञ्जि
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________________ दिढिवाय 2513 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिट्टिवाय व्याख्यायते-स दृष्टिवादो, दृष्टि पातो वा समासतः पञ्चविधः प्रज्ञसः / तद्यथा-परिकर्म 1, सूत्रा णि 2. पूर्वगतम् 3, अनुयोगः 4, चूलिका 5 से किं तं परिकम्मे ? परिकम्मे सत्तविहे पण्णत्ते / तं जहासिद्धसेणियापरिकम्मे 1, मणुस्ससेणियापरिकम्मे 2, पुट्ठसेणियापरिकम्मे 3, ओगाढसेणियापरिकम्मे 4, उवसंपज्जणसेणियापरिकम्मे 5, विप्पजहणसेणियापरिकम्मे 6, चुयाचुयसेणियापरिकम्मे 71 से किं तं सिद्धसेणियापरिकम्मे ? सिद्धसेणियापरिकम्मे | चउदसविहे पण्णत्ते / तं जहा-माउयापयाई 1, एगट्ठियपयाई 2, पादोट्ठपयाई 3, आगासपयाइं 4, केउभूयं 5, रासिबद्धं 6, एगगुणं 7, दुगुणं 8, तिगुणं 6, केउभूए 10, पडिग्गहे 11, संसारपडिग्गहे 12, नंदावत्तं 13, सिद्धावत्तं 14 / सेतं सिद्धसेणियापरिकम्मे||१॥ से किं तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे ? मणुस्ससेणियापरिकम्मे च उद्दसविहे पण्णत्ते / तं जहा- ताई चेव माउयापयाई 1, एगट्ठिपयाइं 2, पादाकृपयाई 3, आगासपयाई 4, के उभूयं 4, रासिबद्धं 6, एगगुणं 7, दुगुणं 8, तिगुणं 6, केतुभूए 10, परिग्गहे 11, संसारपरिग्गहे 12, नंदावत्तं 13, माणुस्सावत्तं 14 / सेतं मणुस्ससेणियापरिकम्मे / / 2 / / से किं तं पुट्ठसेणियापरिकम्मे ? पुट्ठसेणियापरिकम्मे | इक्कारसविहे पण्णत्ते / तं जहा- आगासपयाई 1, केउभूयं 2, रासिबद्धं 3, एगगुणं 4, दुगुणं 5, तिगुणं 6, केउभूए 7, परिग्गहे 8, संसारपरिग्गहे 6, नंदावत्तं 10, पुट्ठावत्तं 11 / सेतं पुट्ठसेणियापरिकम्मे // 3 // से किं तं ओगाढसेणियापरिकम्मे ? ओगाढसेणियापरिकम्मे इक्कारसविहे पण्णत्ते / तं जहा-आगासपयाइं 1, के उभूयं 2, रासिबद्धं 3, एगगुणं 4, दुगुणं 5, तिगुणं 6, के उभूए 7, पडिग्गहे 8, संसारपडिग्गहे,नंदावत्तं १०,ओगाढवत्तं 11 / सेतं ओगाढसेणियापडिकम्मे / / 4 / / से किं तं उवसंपञ्जण सेणियापरिकम्मे ? उवसंपज्जण सेणियापरिकम्मे इक्कारसविहे पण्णत्ते / तं जहा-आगासपयाई 1, केउभूयं 2, रासिबद्धं 3, एगगुणं 4, दुगुणं 5, तिगुणं 6, के उभूए 7, पडिग्गहे 8, संसारपडिग्गहे 6, नंदावत्तं 10, उवसंपजणावत्तं 11 / सेतं उवसंपज्जणसेणियापरिकम्मे / / 5 / / से किं तं विप्पजहणसेणियापरिकम्मे ? विप्पजहणसेणियापरिकम्मे एकारसविहे पण्णत्ते ! तं जहा-आगासपयाई 1, के उभूयं 2, रासिबद्धं 3, एगगुणं 4, दुगुणं 5, तिगुणं 6, के उभए 7, पडिग्गहे 8, संसारपडिग्गहे 6, नंदावत्तं 10, विप्पजहणावत्तं 11 / सेतं विप्पजहणसेणियापरिकम्मे / / 6 / / से किं तं चुयाचुयसेणियापरिकम्मे ? चुयाचुय सेणियापरिकम्मे एक्कारसविहे पण्णत्ते / तं जहा-आगासपयाई 1, के उभूयं 2, रासिबद्धं 3, एगगुणं 4, दुगुणं 5, तिगुणं 6, के उभूए 7, पडिग्गहे 8, संसारपडिग्गहे ,नंदावत्तं 10, चुयाचुयावत्तं 11 / सेतं चुयाचुयसेणियापरिकम्मे / / 7 // छ चउक्कनइयाई, सत्त तेरासियाइं। सेतं परिकम्मे // 1 // तत्र परिकर्मनामयोग्यताऽपादनं तद्धेतुः शास्त्रमपि परिकर्भ / किमुक्तं भवति ?-सूत्रपूर्वगतानुयोगः, तत्रार्थग्रहणयोग्यतासंपादनसमर्थानि परिकमाणि, यथा गणितशास्त्रे संकलनाऽऽदीन्याद्यानि षोडश परिकर्माणि शेषगणितसूत्रार्थ ग्रहणयोग्यतासंपादनसमर्थानि! तथाहियथा गणितशास्त्रे तद्योग्यषोडशपरिकर्मगृहितसूत्रार्थः सन् शेषगणितशारजग्रहणयोग्यो भवति, नान्यथा. तथा गृहीतविवक्षितपरिकर्मसूत्रार्थः सन शेपसूत्राऽऽदिरुपदृष्टिवादशुभग्रहणयोग्यो भवति, नेतरथा / तथा चोक्तं चूर्णा-'परिकम्म ति योग्यताकरणं, जहा गणियस्स सोलस परिकम्मा, तग्गहियसुत्तत्थो सेसगणियस्स जो ग्गा भवति, एवं गहियपरिकम्मसुत्तत्थो सेससुत्ताई दिहिवासुयस्स जोग्गो भवइ। इति'' तच परिकर्म सिद्ध श्रेणिकापरिकर्माऽऽदिमूलभेदापेक्षया सप्तविधं, मातृकापदाऽऽद्युत्तरभेदापेक्षया त्र्यशीतिविध, तय समूलोत्तरभेदं सूत्रतोऽर्थत श्च व्यवच्छिन्नं यथागतसंप्रदायतो वाच्यम्, एतेषा सिद्ध श्रेणिकापरिकाऽऽदीनां सत्पानां परिकर्मणामाद्यानि षट् परिकर्माणि स्वसमयवक्तव्यताऽनुगतानि, स्वसिद्धान्तप्रकाशकानीत्यर्थः / ये तु गोशालकप्रवर्तिता आजीविकाः पाषण्डितः तन्मतेन च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्मसहितानि सप्तापि परिकर्माणि, स्वसमयवक्तव्यता तु प्रज्ञाप्यन्ते। संप्रत्येतेष्वेव परिकर्मसु नयचिन्ता। तत्र-नयाः सप्त नैगमाऽऽदयः / नैगमोऽपि द्विधा-सामान्यग्राही, विशेषग्राही च / तत्र यः सामान्यग्राही स संग्रह प्रविष्टः, यस्तु विशेषग्राही स व्यवहारम् / आह च भाष्यकृत्-''जो सामन्नग्गाही, स नेगमो संगहं गओ अहवा / इयरो ववहारमिओ, जो तेण समाणनिहेसो॥ ३६॥(विशे०) शब्दाऽऽदयश्च त्योऽपि नया एक एव नयः परिकल्प्यते, तत एवं चत्वार एव नयाः, एतैश्चतुर्भिर्नयेराद्यानि षट्परिकर्माणि स्वसमयवक्तव्यतया परिचिन्त्यन्ते। तथा चाऽऽह चूर्णिकृत्-''इयाणि परिकम्मनयचिंता, नेगमो दुविहो-- संगहिओ, असंगहिओ य। संगहं पविट्ठोसंगहिओ, असंगहिओ ववहार। तम्हा संगहो, ववहारो, उजुसुओ, सद्दाइ य इक्को, एवं चउरो नया एहिं चउहिं नएहिं ससमयगइपरिकम्मा चितिजति।' तथा चाऽऽह चूर्णिकृत"चउक्कं नृझ्याइति। "आद्यानिषट्परिकर्माणि। चतुर्नयिकानि चतुर्नयोपेतानि। तथा ते एव गोशालकप्रवर्तिता आजीविकाः पाषण्डिनः त्रैराशिका उच्यन्ते। करमादिति चेत्? उच्यते इहतेसर्ववस्तुसात्मकच्छिन्ति। तद्यथाजीवः, अजीवः, जीवाजीवश्च। लोकः, अलोकः, लोकालोकश्च। सत, असद्,
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________________ दिट्ठिवाय 2514 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिट्ठिवाय सदसत / नयचिन्तायामपि त्रिविध नयमिच्छन्ति। तद्यथा-द्रव्यास्तिकम, पर्यायास्तिकम, उभयास्तिकं च। उक्तं च-ततरित्रभी राशिभिश्चरन्तीति राशिकाः, तन्मतेन सप्ताऽपि परिकर्माणि चिन्त्यन्ते / तथा चाऽऽह सूत्रकृत्-''सत्त तेरासिया।" इति / सप्त परिकर्माणि राशिक्यानि राशिकमतानुसारीणि / एतदुक्तं भवति-पूर्वसूरयो नयचिन्तायां त्रैराशिकमतमवलम्बमानाः सप्तापि परिकर्माणि त्रिविधयाऽपि नयचिन्तया चिन्तयन्ते स्मेति। (सेत परिकम्मे) तत् एतत्परिकर्म / / 1 / / से किं तं सुत्ताई? सुत्ताईवावीसं पण्णत्ताई। तं जहा-उज्जुसुयं 1, परिणयापरिणयं 2, बहुभंगियं 3, विप्पच्चइयं 4, अणंतरं 5, परंपरसमाणं 6, संजूहं 7, संभिण्णं , अहवायं 6, सोवत्थियं १०,घंटं 11, नंदावत्तं 12, बहुलं 13, पुट्ठपुढे 14, वियावत्तं 15, एवंभूयं 16, दुयावत्तं 17, वत्तमाणुप्पयं 18, समभिरूढं 16, सव्वओभदं 20, पणुमं 21, दुपडिग्गहं 22 / इच्चे इयाई वावीसं सुत्ताई छिन्नछे यनइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइयाई वावीसं सुत्ताई अछिन्नछे यनइयाणि आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइयाइं वावीसं सुत्ताइं तिगनइयाणि तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इचेइयाइंवावीसं सुत्ताइं चउक्कनइयाणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीइं सुत्ताई भवंतीति मक्खाई। सेतं सुत्ताई / / 2 / / (से किं तं सुत्ताई ति) अथ कानि सूत्राणि ? सर्वस्य पूर्वगतस्य सूत्रार्थस्य सूचनात्सूत्राणि / तथाहि-तानि सूत्राणि सर्वव्याणां सर्वपर्यायाणा सर्वनयानां सर्वभङ्ग विकल्पानां प्रदर्शकानि / तथा चोक्तं चूर्णिकृता"ताणि य सुत्ताणि सव्वदव्वाणं सव्वपज्जवाणं सव्वनयाणं सव्वभंगविकप्पाण य पदंसगाणि सव्वस्स पुव्वगयस्स सुयस्स अत्थस्स य सूयग त्ति सूयण तिसूया भणिया जहाभिहाणत्था।" इति। आचार्य आह-सूत्राणि द्वाविंशतिः प्रज्ञप्तानि / तद्यथा-ऋजुसूत्रमित्यादि / एतान्यपि संप्रति सूत्राणि सूत्रतोऽर्थतश्च व्यवच्छिन्नानि यथागतसंप्रदायतो धावाध्यानि, तानि सूत्राणि नयविभागतो विभज्यमानानि अष्टाशीतिसंख्यानि भवन्ति / कथमिति चेदत आह-(इच्चेयाइं वावीस सुत्ताई इत्यादि) इह यो नाम नयसूत्र छेदेन छिन्नमेवाभिप्रेति न द्वितीयेन सूत्रेण सह संबन्धयति / यथा-'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ" इति श्लोकम् तथा ह्ययं प्लोकः छिन्नच्छेदनयमतेन व्याख्यायमानो न द्वितीयाऽऽदीन श्लोकानपेक्षते, नाऽपि द्वितीयाऽऽदयः श्लोका अमुम् / अयमत्राभिपायः-तथा कथञ्चनाप्यमुश्लोक पूर्वसूरयः छिन्नछेदनयमते व्याख्यान्ति स्म, यथा न मनागपि द्वितीयाऽऽदिश्लोकानामपेक्षा भवति, द्वितीयाऽऽदीनपि श्लोकान् तथा व्याख्यानयन्ति स्म, यथा न तेषां प्रथम श्लोकस्यापेक्षा, तथा सूत्राण्यपि यन्नयाभिप्रायेण परस्पर निरपेक्षाणि व्याख्यान्ति स्म, स छिन्नच्छेदनयः / छिन्नो द्विधाकृतः पृथक्कतः छेदः पर्यन्तो येन सः छिन्नभेदः प्रत्येक कल्पितपर्यन्त इत्यर्थः / स चाऽसौ नय च छिन्नच्छेदनयः, इत्येतानि द्वाविंशतिसूत्राणि स्वसमयसूत्रपरिपाट्या स्वसमयवक्तव्यतामधिकृत्य सूत्रपरिपाट्या विवक्षिताया छिन्नच्छदनयिकानि, अब "अतोऽनेकरचराद्"।७।२।६ // (हेम०) इति मत्वार्थीय इकप्रत्ययः / ततोऽयमर्थ:-छिन्नछेदनयवन्ति द्रष्टव्यानि। तथा (इचेझ्याई इत्यादि) इत्येतानि द्वाविंशतिसूत्राणि आजीविकसूत्रपरिपाट्यां गोशालप्रवर्तिताऽऽजीविक पाषण्डिमतेन सूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायामच्छिन्न-- च्छदनयिकानि। इयमत्र भावनाअच्छिन्नच्छेदनयो नाम यः सूत्रं सूत्रान्तरेण छिन्नमर्थतः सूत्र सूत्रान्तरेण सहाछिन्नमित्यर्थः, तत्संबन्धमभिप्रेति / यथा-"धम्मो मंगलमुक्किट्ट'' इति श्लोकम् / तथा हायं श्लोकोऽछिन्नच्छेदनयमतेन व्याख्यायमानो द्वितीयाऽऽदीन् श्लोकानपेक्षत, द्वितीयाऽऽदयोऽपि श्लोन एनं श्लोकम् / एवमेतान्यपि द्वाविंशतिसूत्राणि अक्षररचनामधिकृत्य परस्परं विभक्तान्यप्यछिन्नच्छदनवमतेनार्थसंबन्धमपेक्ष्य सापेक्षाणि वर्तन्ते / तदेवं नयाभिप्रायेण परस्परं सूत्राणा संबन्धावधिकृत्य भेदो दर्शितः। संप्रत्यन्यथा नयविभागमधिकृत्य भेद दर्शयन्ति-(इइयाइं इत्यादि) इत्येतानि द्वाविंशतिसूत्राणि त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्या विवक्षितायां त्रिकनयकानि / त्रिफेति प्राकृतत्वात्स्वार्थ कप्रत्ययः / ततोऽयमर्थः-त्रिनयिकानि त्रिनयोपेतानि। किमुक्त भवति?त्रैराशिकमतमवलम्व्य द्रव्यास्तिकाऽऽदिनयत्रिकेण चिन्यन्ते इति। तथा इत्येतानि द्वाविंशतिसूत्राणि स्वसमयसूत्रपरिपाट्यां स्वसमयवक्तव्यतामधिकृत्य सूत्रपरिपाट्या विवक्षितायां चतुर्नयिकानि संग्रहव्यवहार ऋजुसूत्रशब्दरूपनयनचतुष्टयोपेतानि संग्रहाऽऽदिनयचतुष्टयेन चिन्त्यन्ते इत्यर्थः / एवमेवोक्तेनैव प्रकारेण (पुटवावरेणं ति) पूर्वाणि चापराणि च पूर्वापर, समाहारप्रधानो द्वन्द्वः, पूर्वापरसमुदाय इत्यर्थः / तत एतदुक्तं भवति-नयविभागतो विभिन्नानि पूर्वाणि अपराणि च सूत्राणि समुदितानि सर्वसंख्या अष्टाशीतिसूत्राणि भवन्ति, चतसृणां द्वाविंशतीनामष्टाशीतिमानत्वाद, इत्याख्यातं तीर्थकरगणधरैः (से तं सुनाई) तान्येतानि सूत्राणि। . से किं तं पुव्वगए ? पुगए च उद्दसविहे पण्णत्ते / तं जहा-- उप्पायपुटवं 1, अग्गेणीयं 2, वीरियप्पवायं 3, अत्थिनत्थिप्पवायं 5, नाणप्पवायं 5, सच्चप्पवायं, आयप्पवायं 7, कम्मप्पवायं 8, पचक्खाणप्पवायंह, विजाणुप्पवायं 10, अवंझं 11, पाणाउं 12, किरियाविसालं 13, लोकबिंदुसारं 14, उप्पायपुवस्स णं दस वत्थू चत्तारि चूलयावत्थू पण्णत्ता। अग्गेणीयपुव्वस्स णं चोद्दस वत्थू दुवालस चूलियावत्थू पण्णत्ता। वीरियपुवस्स णं अट्ठ वत्थू अट्ठ चूलियावत्थू पण्णत्ता / अत्थिणत्थिप्पवायपुवस्स अट्ठारस वत्थू दस चूलियावत्थू पण्णत्ता / नाणप्पवायपुव्यस्स वारस वत्थूपण्णत्ता। सव्वप्पवायपुव्वस्स णं दोणि वत्थूपण्णत्ता। आयप्पवायपुवस्सणं सोलस वत्थू पण्णत्ता। कम्मप्पवाय पुवस्स णं तीसं वत्थू पण्णत्ता। पचरखाणपुटवस्सणं वीसं वत्थूपण्णत्ता। विज्जाणुप्पवायपुवस्स णं पण्णरस वत्थू पण्णत्ता। अबंभपुव्यस्सणं वारस वत्थू पण्णत्ता। पाणाउपुव्वस्स णं तेरस वत्थू पण्णत्ता / किरियाविसालपुव्वस्स णं तीसं वत्थू पण्णत्ता / लोगबिंदुसारपुव्यस्स णं पणवीसं वत्थू पण्णत्ता।''दस चोद्दस अट्ठ अट्ठारसेव वारस दुवे य वथूणि।
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________________ दिट्ठिवाय 2515 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिट्ठिवाय सोलस तीसा वीसा, पण्णरस अणुप्पवायम्मि / / 1 / / बारस इक्कारसमे, वारसमे तेरसेव वत्थूणि। तीसा पुण तेरसमे, चोद्दसमे पण्णवीसा उ।।२।। चत्तारि दुवालस अ-8 चेव दस चेव चूलवत्थूणि। आइल्लाण चउण्हं, सेसाणं चूलिया नत्थि / / 3 / / सेतं पुव्वगए 3 // (सेकें तं इत्यादि ) अथ किं तत् पूर्वगतम् ? इह तीर्थकरस्तीर्थप्रवर्तनकाले गणधरान् सकल श्रुतार्थावगाहनसमर्थानधिकृत्य पूर्व पूर्वगतसूत्रार्थ भाषते, ततस्तानि पूर्वाण्युच्यन्ते, गणधराः पुनस्तत्र रचना विदधले आचाराऽऽदिक्रमेण विदधति, स्थापयन्ति वा / अन्ये तु व्याचक्षते-पूर्व पूर्वगतसूत्रार्थमर्हन भाषते, गणधरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्र विरचयन्ति, पश्चादाचाराऽऽदिकम् / अत्र चोदक आहनन्विदं पूर्वापर - विरुद्ध, यस्मादाचारनियुक्तावुक्तम्-'सव्वेसिं आयारो पढमा इत्यादि। सत्यमुक्तम्, किं तु तत्स्थापनाम-धिकृत्योक्तम् / अक्षररचनामधिकृत्य पुनः पूर्व पूर्वाणि कृतानि, ततो न कश्चित्पूर्वापरविरोधः / सूरिराह(पुव्वगतो इत्यादि) पूर्वगतं श्रुतं चतुर्दशविध प्रज्ञप्तम् / तद्यथा-- उत्पादपूर्वमित्यादि / तत्रोत्पादप्रतिपादक पूर्वमुत्पादपूर्वम् / तथाहि-तत्र सर्वव्याणां सर्वपर्यायाणा चोत्पादमधिकृत्य प्ररूपणा क्रियते। आह च चूणिकृत्-"पढम उप्पायपुव्वं, तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जवाण य उप्पायमंगीकाउं चण्णवणा कया।'' इति / तस्य पद परिमाणमेका पदकोटी। द्वितीयमग्रायणीयम्। अग्रंपरिमाणं तस्य अयनं गमनं, परिच्छेद इत्यर्थः / तस्मै हितमग्रायणीयम्, सर्वद्रव्याऽऽदिपरिमाणपरिच्छेदकारीति भावार्थः / तथाहि-तत्र सर्वद्रव्याणां सर्वपर्यायाणा सर्वजीवविशेषाणा च परिमाणमुपवर्ण्यते / यत उक्तं चूर्णिकृता-''विइयं अग्गेणीय, तत्थ सबटव्वाणं पजवाण य सव्वजीवाण य अगं परिमाणं वन्निज्जइ।' इति / अग्रारणीय, तस्य पदपरिमाण षण्णवतिपदशतसहस्त्राणि तृतीयं पूर्व विरचयन्ति। पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् वीर्यप्रवादं तत्र सकर्मेतराणां जीवानाम-जीवानां च वीर्य प्रवदन्तीति वीर्यप्रवादं, कर्मणि अण्प्रत्ययः। तस्य पदपरिमाणं सप्ततिपदशतसहस्त्राणि / चतुर्थम् अस्तिनास्तिप्रवाद, तत्र यद्वस्तु लोकेऽस्ति धर्मास्तिकायाऽऽदि, यच नास्ति खरशृङ्गाऽऽदि, तत्प्रवदतीत्यस्तिनास्तिप्रवादम् / अथवा-सर्वं वस्तु स्वरूपणास्ति, पररूपेण नास्तीति अस्तिनास्तिप्रवाद, तस्य पदपरिमाणं षष्टिः पदशतसहस्त्राणि / पञ्चमं ज्ञानप्रवादंज्ञानं मतिज्ञानाऽऽदिभेदभिन्न पञ्चप्रकार तत्सप्रपञ्च वदतीति ज्ञानप्रबादं, तस्य पदपरिमाणम्, एका पदकाटी पदेनैकेन न्यूना / षष्ठं सत्यप्रवाद, सत्यं संयमो वचनं वा तत्सत्यसंयमं वचनं वा प्रकर्षेण सप्रपञ्च वदतीति सत्यप्रवाद, तस्य पदपरिमाणम् एका पदकोटी षड्भिः पदैरधिका। सप्तमं पूर्वम-आत्मप्रवादमात्मानं जीवमनेकधा नयमतभेदेन यत्प्रवदतीति तदात्मप्रवाद, तस्य पदप्रमाण षड्विशतिप्रदकोटयः। अष्टमं कर्मप्रवादं कर्म ज्ञानाऽऽवर- | णीयाऽऽदिकमष्टप्रकार, तत्प्रकर्षण प्रकृतिस्थित्यनु-भागप्रदेशाऽऽदिभिर्भेदैः सप्रपञ्चं वदति कर्मप्रवाद, तस्य पदपरिमाणम् एका कोटी अशीतिश्च षट्सहस्राणि, नवम (पचक्खाणं ति) अत्रापि पदैकदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् प्रत्याख्यानप्रवादमिति द्रष्टव्यम् / प्रत्याख्यानं सप्रभेदं यद्वदति तत्प्रत्याख्यानप्रवादं, तस्य पदप्रमाणं चतुरशीतिपदलक्षाणि / दशम विद्याऽनुप्रवाद, विद्याऽनेकातिशयसंपन्ना अनुप्रवदति साधनानुकूल्यन सिद्धिप्रकर्षेण प्रवदतीति विद्याऽनुप्रवाद. तस्य पदपरिमाणम्, एका पदकोटी दश च पदलक्षाः / एकादशमवन्ध्य, वन्ध्यं नाम-निष्फलं, न विद्यते वन्ध्यं यत्र तदवन्ध्यम्। किमुक्तं भवति? -यत्र सर्वेऽपि ज्ञानतपःसंयमाऽऽदयःशुभफलाः सर्वेच प्रमादाऽऽदयोऽशुभफला यत्र वर्ण्यन्ते तदवन्ध्य नाम, तस्य पदपरिमाण षट्विंशतिपदकोटयः। द्वादशं प्राणायुः, प्राणाः पञ्चेन्द्रियाणि, त्रीणि मानसाऽऽदीनि बलानि, उच्छ्वासनिःश्वासो च आयुश्च प्रतीतं, ततो यत्र प्राणा आयुश्च सप्रभेदमुपवर्ण्यते, तदुपचारतः प्राणाऽऽयुरित्युच्यते, तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी षट्पञ्चाशच पदलक्षाणि। त्रयोदशं क्रियाविशालम्-क्रियाः कायिक्यादयः, संयमक्रियाछन्दःक्रियाऽऽदयश्च, ताभिः प्ररूप्यमाणाभिर्विशालं, तस्य पदपरिमाणं नव पदकोटयः / चतुर्दश लोकबिन्दुसारम् लोके जगति श्रुतलोके वा अक्षरस्योपरि बिन्दुरिव सारं सर्वोत्तम सर्वाक्षरसन्निपातलब्धिहेतुत्वाद् लोकबिन्दुसार, तस्य पदपरिमाणमर्द्धत्रयोदशपदकोटयः। (उप्पायपुव्वस्स णं) इत्यादि कणठ्यं, नवरं वस्तु ग्रन्थविच्छेदविशेषः, तदेव लघुतरक्षुल्लकं वस्तु, तानि चाऽऽदिमेष्वेव चतुर्ष पूर्वेषुन शेषेषु। तथा चाऽऽह-"आइल्लाण चउण्हं, सेसाणं चूलिया नस्थि / सेतं पुव्वगए। " तदेतत् पूर्वगतम् / नं०। (अनुयोगव्याख्या 'अणुओग' शब्द प्रथमभाग 341 पृष्ठादारभ्य द्रष्टव्या) (मूलप्रथमानुयोगः 'मूलपढमाणुओग' शब्दे वक्ष्यते) (गण्डिकानुयोगव्याख्या 'गंडियाणुओग' शब्दे तृतीयभागे 761 पृष्ठे द्रष्टव्या) से किं तं चूलियाओ ? चूलियाओ आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं, सेसाई पुव्वाइं अचूलियाई / सेतं चूलियाओ। दिट्ठिवायस्सणं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुओगदारा, संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा, संखिजाओ पडिवत्तीओ, संखिज्जाओ निजुत्तीओ, संखिजाओ संगहणीओ, सेणं अंगठ्याए वारसमे अंगे एगे सुयखंधे, चोद्दस पुव्वाइं, संखिजा वत्थू, संखिज्जा चूलवत्थू, संखिज्जा पाहुडा, संखेजा पाहुडपाहुडा, संखिजाओ पाहुमियाओ, संखिज्जाओ पाहुडपाहुडियाओ, संखिज्जाई पयसयसहस्साइं पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पजवा, परित्ता तसा, अणंताथावरा, सासया कडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविजं ति, पन्नविज्जंति, परूविजंति, दंसिखंति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति। एवं आया, एवं नाया, एवं विण्णाया, एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्ञ्जति। सेतं दिट्ठिवाए।॥ 12 // अथ कारताश्चूलाः ? इह चूला शिखरमुच्यते। यथा मेरौ चूलाः, तत्र चूला इन चूला दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगोक्तानुक्तार्थसंग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयः। या चाऽऽह चूर्णिकृत-दिट्ठिवाए जं परिकम्मसुत्त-पुव्वाणुजोगे चूलिअन मणिय, तं चलासु भणियं ति। अत्र सूरिराह-चूला आदिमानां चतुर्णा पूर्वाणाम्, शेषाणि पूर्वाण्य चूलिकानि, ता एव चूलाः, आदिमानां चतुर्णा पू
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________________ दिट्ठिवाय 2516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिट्ठिसम्मोह वाणां प्राक् पूर्ववक्तव्यताप्रस्तावे चूलावस्तूनीति भणिताः। आह च | दिट्ठिविपञ्जय पुं० (दृष्टिविपर्यय) मिथ्याऽभिनिवेशे, द्वा०८द्वा०। चूर्णिकृत्-'ताओ अचूलाओ आइल्लपुव्वाणं चउण्ह चूलावत्थू / दिट्ठिविपरियासदंड पुं० (दृष्टिविपर्यासदण्ड) दृष्टेर्विपर्यासो रज्जुमिव भणियं / एताश्च सर्वेस्यापि दृष्टिवादस्योपरि किल स्थापिताः। तथैव सर्पबुद्धिस्तया दण्डो दृष्टिविपर्यासदण्डः / लेष्टुकाऽऽदिबुद्ध्या शराऽऽच पठ्यन्ते, ततः श्रुतपर्वते चूला इव राजन्ते इति चूला इत्युक्ताः। तथा द्यभिघातेन चटकाऽऽदिव्यापादने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। चोक्तं चूर्णिकृता-"ते सव्वुवरि ठिया पढिजति य अतो तेसुय पव्ययचूला अहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिद्विविपरियासिया दंडवत्तिए त्ति इव चूला।" इति। तासां च चूलानामियं संख्या प्रथमपूर्वसक्ताश्चतस्त्रः, आहिजइसे जहाणामए केइपुरिसे माइहिं वा पिइहिं वा भाइहिं द्वितीयपूर्वसक्ता द्वादश, तृतीयपूर्वसक्ता अष्टौ, चतुर्थपूर्वसक्ता दश / तथा वा भगिणीहिं वा भजाहिं वा पुत्तेहिं वा धूताहिं वा सुण्हाहिं वा च पूर्वमुक्तं सूत्रे-"चत्तारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूलावत्थूणि सद्धिं संवसमाणे मित्तं अमित्तमेव मन्नमाणे मित्ते हयपुवे भवइ, आइल्लाणं च उण्हं, सेसाणं चूलिया नत्थि।' सर्वसंख्यया चतुरित्रंशत् दिट्ठिविपरियासिया दंडे // 12 // से जहाणामए केइ पुरिसे चूलिकाः (सेतं चूलिय त्ति) अथैताश्चूलिकाः (दिहिवायरसणं) इत्यादि गामघायंसि वा णगरघायंसि वा खेडकव्वडमंडवघायंसि वा पाठसिद्धं, नवरम् (संखेज्जा वत्थु त्ति) संख्येयानि वस्तूनि, तानि च दोणमुहघायंसि वा पट्टणघायंसि वा आसमघायं सि वा पञ्चविंशत्युत्तरे द्वेशते। कथमिति चेत् ? उच्यते-प्रथमे पूर्वेदश वस्तूनि, सन्निवेसघायंसिवा निग्गमघायंसिवा रायहाणिघायंसिवा अतेणं द्वितीये चतुर्दश, तृतीयेऽष्टौ, चतुर्थे अष्टादश, पञ्चमे द्वादश, षष्ठ द्वे, सप्तमे तेणमिति मन्नमाणे अतेणं हयपुव्वे भवइ दिट्ठिविपरियासिया षोडश, अष्टमे त्रिंशत्, नवमे विंशतिः, दशमे पञ्चदश, द्वादश एकादशे, दंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ, पंचपे त्रयोदश द्वादशे, त्रिंशत्रयोदशे, चतुर्दशे पञ्चविंशतिः। तथा च सूत्रे प्राक् दंडसमादाणे दिट्ठिविपरियासिया दंडवत्तिए त्ति आहिए // 13 // पूर्ववक्तव्यतायामुक्तम् अथाऽपरं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्ययिकमित्या"दस चोद्दस अट्ट अट्ठा-रसेव पारस दुवे य वन्थूणि। ख्यायते। तद्यथानाम कश्चित्पुरुषश्चारभटाऽऽदिको मातृपितृभ्रातृभसोलस तीसा वीसा, पन्नरस अणुप्पवायम्मि।। 1 / / गिनीभार्यापुत्रदुहितृस्नुषाऽऽदिभिः सार्धं वसंस्तिष्ठन् ज्ञातिपालनकृते मित्रमेव दृष्टिविपर्यासादमित्रोऽऽयमित्येवं मन्यमानो हन्या व्यापादयेत्, बारस एकारसमे, वारसमे तेरसेव वत्थूणि। तेन च दृष्टिविपर्यासवता मित्रमेव हतपूर्व भवतीति, अतो दृष्टिविपर्यासतीसा पुण तेरसमे, चउदसमे पण्णवीसाओ।।२।।' दण्डोऽयम् // 12 // पुनरप्यन्यथा तमेवाऽऽह-(से जहेत्यादि) तद्यथा सर्वसंख्यया चामूनि द्वे शते पञ्चविंशत्यधिके, तथा संख्येयानि नाम कश्चित्पुरुषः पुरुषकारमुद्वहन् ग्रामघाताऽऽदिके विभ्रमे भ्रान्तचेता चूलावस्तूनि, तानि च चतुस्त्रिंशत्संख्याकानि।नं०। सं०। 60 / आ० दृष्टिविपर्यासादचौरमेव चौरोऽयमित्येवं मन्यमानो व्यापादयेत्, तदेवं तेन म०। दश०। प्रज्ञा०।सूत्रका व्य० / कर्म०। अनु०॥ श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवा भान्तमनसा विभूमाऽऽकुलेनाचौर एव हतपूर्वो भवति, सोऽयं दृष्टिविपर्याऽऽदिभावकथने, ध०१ अधि०। स्था०। सर्वदृष्टीनां तत्र समवतारस्तस्य सदण्डः / तदेवं खलु तस्य दृष्टिविपर्यासवत्तत्प्रत्ययिक सावद्यं कर्माधीजनके, पं० चू०। यते, तदेवं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासप्रत्ययिकमाख्यातमिति ननु स्त्रीणां दृष्टिवादः किमिति न दीयते ? इत्याह // 13 / / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। ध०। आ० चू०। स्था० तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुब्बला घिईए य। दिट्ठिविस पुं०(दृष्टिविष) दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः / दर्वी करसर्पभेदे, इय अइसेसऽज्झयणा, भूयावाओ य नो थीणं / / 552 / / / जी०१ प्रति०। प्रज्ञा० / स्था०1 यदि हि दृष्टिवादः स्त्रियाः कथमपि दीयेत, तदा तुच्छाऽऽदिस्वभावतया | | दिद्विविसभावणा स्त्री० (दृष्टिविषभावना) दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः, अहो ! अहं या दृष्टिवादमपि पठामीत्येवंगर्वाऽऽध्मातमानसाऽसौ तत्स्वरूपप्रतिपादिका दृष्टिविषया भावना। पा० / अङ्गबाह्यकालिकपुरुषपरिभवाऽऽदिष्वपिप्रवृत्तिं विधाय दुर्गतिमभिगच्छेत् / अतो श्रुतविशेषे, पा०। पं०व० व्य०1 निरवधिकृपानीरनीरधिभिः परानुग्रहप्रवृत्तैर्भगवद्भिः तीर्थकरैत्थानुस दिट्ठिसंचालपुं० (दृष्टिसंचार) निमेषाऽऽदौ, ध०२ अधि०। आव०ाल०। मुत्थानश्रुताऽऽदीन्यतिशयवन्त्यध्ययनानि दृष्टिवादश्च स्त्रीणां नानुज्ञातः। | दिद्विसंपण्ण पं० (दृष्टिसंपन्न) सम्यग्दृष्टियुक्ते, ध०३ अधि० / आव०। अनुग्रहार्थ पुनस्तासामपि किञ्चित् श्रुतं देयमित्येकादशाङ्गाऽऽदि स्था०। विरचनं सफलमिति गाथाऽर्थः / / 552 / / विशे०1 कर्म01 बृ०। / दिट्ठिसंपण्णया स्त्री० (दृष्टिसंपन्नता) समग्दृष्टितायाम. स्था० 10 ठा०॥ दिट्ठिवायअक्खेवणी स्त्री० (दृष्टिवादाऽऽक्षेपणी) दिष्टिवादस्य कथाभेदे, | दिट्ठिसंबंध पुं० (दृष्टिसम्बन्ध) संयतीनां दृष्टिरात्मीयया दृष्ट्या संबध्नाति / स्था० 4 ठा०। ('अक्खेवणी' शब्दे प्रथमभागे 152 पृष्ठे व्याख्या) | संयते, व्य०७ उ०। दिट्टिवायउवएसास्त्री० (दृष्टिवादोपदेशा) दृष्टिदर्शनं सम्यक्त्वाऽऽदि वादो | दिद्विसम्मोहपुं० (दृष्टिसम्मोह) अन्यथादर्शनहेतौ, षो०। दृष्टीनां वादो दृष्टिवादस्तद्विषय उपदेशः प्ररूपणयस्याः सा दृष्टिवादोपदेशा दृष्टिसंमोहलक्षणम्इति। तृतीये संज्ञाभेदे, प्रव० 144 द्वार। गुणतस्तुल्ये तत्त्वे, संज्ञाभेदाऽऽगमान्यथादृष्टिः।
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________________ दिविसम्मोह 2517 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दित्तचित्त भवति यतोऽसावधमो, दोषः खलु दृष्टिसंमोहः / / 11 / / दिणक्खय पुं० (दिनक्षय) 'एकस्मिन्सावने त्वह्नि, तिथीनां त्रितयं यदा। गुण उपकारफलं, तदाश्रित्य तुल्ये समाने द्वयोर्वस्तुनोः, तद्भावस्तत्त्व तदा दिनक्षयः प्रोक्तः' इत्युक्ते एकसावनदिनवृत्ति-तिथित्रयरूपे काले, तस्मिंस्तुल्ये सति। संज्ञाभेदाऽऽगमान्यथादृष्टिः, आगमेन आगमविषये वाच० स्था०६ ठा०1 अन्यथा विपरीता दृष्टिर्मतिरस्येत्यागमन्यथादृष्टिबहुव्रीहिसमासः। संज्ञा- दिणबुड्डि स्त्री० (दिनवृद्धि) अधिकदिने, अतिरात्रोऽधिकदिनवृद्धिरिति भेदेन नामभेदेनाऽऽगमान्यथा-दृष्टिरिति पुरुषः परिगृह्यते। भवति जायते, यावत्। स्था०६ ठा०। यतो यस्माद्दोषादसौ दोषोऽधमो निकृष्टः खलुशब्दोऽवधारणे, अधम | दिगरासि पुं० (दिनराशि) अहोरात्रपुजे, व्य०१ उ०। एव दोषो दृष्टिसंमोहाभिधानः / इदमत्र हृदयम्-निदर्शनमात्रेण द्वयोरार- दिणसूरि पुं० (दिनसूरि) इन्द्रदत्तसूरिशिष्ये सिंहगिरिसूरिगुरौ स्वनामम्भयो गोपभोगलक्षणं फलमाश्रित्य तुल्यमेव तत्त्वम्। तत्रैकस्मिन्नारम्भे ख्याते सूरौ, ग० 4 अधि०। प्रवृत्तः पुरुषः तत्फलोपयोगी तमारम्भंसावा मन्यते, अपरस्तु तत्समान दिण्ण त्रि० (दत्त) दा-क्तः / विसृष्टे, त्यक्ते, रक्षिते च / द्वादशपुत्रमध्ये एव प्रवृत्तस्तमारम्भं निर्दोष मन्यते। तत्फलं च स्वयमेवोपभुक्त, यतो (दत्तक) पुत्रभेदे। वाच०। प्रज्ञा०२ पद। औ०।रा०। आचा०। उत्त०। दोषात् स दृष्टिसंमोह इति / अथवा-गुणः परिणामो भावोऽध्यवसाय वितीर्णे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। प्रश्न०!आचा०। नमेरेकविंशतिजिनस्य विशेषस्तदङ्गीकरणेन तुल्ये तत्त्वे संज्ञाभेदाऽऽगमान्यथादृष्टिः पुरुषो यतो प्रथमभिक्षादायके, स०। आ० म०। निवेशिते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। दोषात् प्रवर्तते स दृष्टिसंमोहो नाम दोषो भवति / यत्र तु गुणतो चन्द्रप्रभस्याष्टमजिनस्य प्रथमे शिष्ये, स०। श्रेयांसस्यैकादशमस्य भावाऽऽख्याद् गुणान्न तुल्यं तत्त्वं स्वरूपं द्वयोरारम्भाऽऽत्मनोर्व्यक्तिभेदेन जिनस्य पूर्वभवे जीवे, स०। अष्टापदपर्वतस्थे स्वनामख्याते तापसे च। वस्तुनोस्तत्र चैत्याऽऽयतनाऽऽदिविषये क्षेत्रहिरण्यग्रामाऽऽदौ शास्त्रीया पुं०। उत्त० 10 अ०। आ० म०। भावे क्तः। दाने, "दत्त सप्तविधं प्रोक्तध्यवसायभेदेन प्रवृत्तत्वात् स्वयं च तत्फलस्यानुपभोगात् केवलमागमा मदत्त षोडशाऽऽत्मकम्। पण्यमूल्यं भृतिस्तुष्ट्या, स्नेहात्प्रत्युपकारतः नुसारितया तत्रोपेक्षापरित्यागेन ग्रामक्षेत्राऽऽद्यारम्भमपरिहरतोऽपि न / / 1 / / स्त्रीणां चानुग्रहार्थ च, दत्तं सप्तविध स्मृतम्' इत्युक्ते दानभेदे च / दृष्टिसमोहाऽख्यो दोषः, तत्त्वतस्तस्याऽऽरम्भपरिवर्जनात्।दर्शनमागमो नावाच०। "दिण्णभइभत्तवेयणा।"दत्तं भृतिभक्तलक्षण द्रव्यं भोजनजिनमतं, तत्र संमोहः संमूढता, अन्यथोक्तस्यान्यथाप्रतिपत्तिदर्शन स्वरूपं वर्तनं मूल्यं येभ्यस्ते तथा। ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। पा०। उत्त०। संमोहः / न चैवंविधस्याऽऽगमिकस्य दोषः संभवतीति। तथाचाऽऽगमः * दैन्य न० दीनस्य भावः ष्यञ् / दीनत्वे, कार्पण्ये च / वाच० / शोके च / 'चोएइ चेइआणं, खेत्तहिरण्णाइ गामगावाइ / लगतस्स उ जइणो, स्था० 10 ठा०। आव०। दिण्णगणि(ण) पुं० (दतगणिन्) वीरमोक्षात् सार्द्धद्वादशशते वर्षे जाते तिकरणसोही कहनु भवे ?॥१॥"अयं च स चोद्यः परिहारोऽवसेयः / स्वनामख्याते प्रसिद्धे गणिनि, ति०। यदि वा-अहिंसाप्रशमाऽऽदीनां तन्त्रान्तरेष्वपि तुल्ये तत्त्वे परिभाषाभेद दिण्णय पु० (दत्तक) स्वार्थे कन् / 'दद्याद् माता पिता वा यं, स पुत्रो मात्रेणाऽऽगमेष्वन्यथादृष्टिः पुरुषो यतो भवति स दृष्टिसंमोह इति॥ 11 // दत्तको भवेत्" इत्युक्ते स्वनामख्याते पुत्रभेदे, वाच / दत्तकः पुत्रतया षो०४ विव०। वितीर्णो, यथा बाहुवलिनाऽनिलवेगः श्रूयते, स च पुत्रवत्पुत्रः / स्था० दिह्रिसार पुं० (दृष्टिसार) दृष्टिसद्भावे, आ० चू०१ अ०। 10 ठा०। दिद्विसूलन० (दृष्टिशूल) नेत्रशूले, ज्ञा० 1 श्रु०१३ अ०। दिण्णवयण न० (दीप्तवचन) कुपितवचने, प्रश्न०५ संब०द्वार। दिविसेवा स्त्री० (दृष्टिसेवा) हावभावानुसारेण दृष्टदृष्टिमीलने, प्रव 166 | दित्त पुं (दीप्त) दीप-क्तः / निम्बूके, सिंहे च / स्वर्णे, हिङ्गानि च / द्वार। दश01 नावाचा जाज्वल्यमाने, चं० प्र०१पाहु०। जं०।भ० / नं०1नि०। दिटेल्लय त्रि० (दृष्ट) चक्षुषा उपलब्धे, आ०म०१ अ०२खण्ड। ज्ञा० / उज्जवले, न० / कान्तिमति, रा० / ज्वलिते, दग्धे, भासिते, दिण० (दिन) द्यतितमः सूर्यकिरणोपलक्षिते षष्टिदण्डाऽऽत्मकेतद्विशिष्ट दीप्तिमति, वाच० / भास्वरे च / त्रि० / चं० प्र०१६ पाहु० / ज्ञा० / वा चतुर्थामाऽऽत्मके काले, वाच०। पञ्चा०६ विव। घस्रसूर्याङ्क-दण्ड लाङ्गलिकायाम् अग्निशिखौषधौ, ज्योतिष्मत्यां च / टाप् / वाच० / यामेति पर्यायाः, दिन-दिवस-वासराणां पुन्नपुंसकत्वम्। है।। धातुबलवीर्याऽऽदियुक्ते, "दित्तं च कामा समभिद्दवंति।" उत्त० 34 दिणकय पुं० (दिनकृत) सूर्ये, स्था० 2 ठा० 3 उ०। अ०। प्रसिद्धे, "अड्डा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवणसयणा-सणजाणदिणकर पुं० (दिनकर) दिनं करोति स्वोदयेन कृ-टक्। दिने करः किरणो वाहणाइणा।" भ० 26 श०३ उ०। स्था०। यस्य वा / सूर्ये, वाच०। अनु०। दिनकरणशीले, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। * दृप्त त्रि० दृप-क्तः / गर्विते, वाच / दर्पवति, औ० / दश०। भ०। रा०। सू० प्र० / आ० चू०। आ० म० / स्या०। ज्ञा० / प्रश्न० स्था०। जं०। दिणकरपण्णत्ति स्त्री० (दिनकरप्रज्ञप्ति) सूर्यप्रज्ञप्तिनामके ग्रन्थे, ज्यो० | दित्तचित्त पु०स्त्री० (दीप्तचित्त) हर्षातिरेकेणापट्टतचित्ते, बृ०३ उ०। 21 पाहु०। दीप्तचित्तस्य चिकित्सादिणकिञ्च न (दिनकृत्य) स्वनामख्याते ग्रन्थे, ध०२ अधि० / दिवस- दित्तचित्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावकार्ये, वाच०। च्छे दियस्स निहित्तए अगिलाए तस्स करणिशं वे
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________________ दिद्विसम्मोह 2518 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दित्तचित्त यावडियं जाव ततो रोगातकांतो विप्पमुक्को, ततो पच्छा तस्स अहालहुस्सेगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया।। 11 / / अस्य व्याख्या संक्षेपतः प्राग्वत्।। 11 / / संप्रति भाष्यकारो विस्तरमभिधित्सुराहएसेव गमो नियमा, दित्ताऽऽदीणं पि होति नायव्यो। जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवति अनिच्छियव्वाइं।। 146 / / / एष एवानन्तरः क्षिप्तचित्तस्तत्र गमः प्रकारो लौकिक-लोकोत्तरिकभेदाऽऽदिरूपो, दीप्तानामपि दीप्तचित्तप्रभृतीनामपि नियमाद्वेदितव्यः, यत्पुनर्नानात्वं तदभिधातव्यम्।तदेवाधिकृतसूत्रेऽभिधित्सुराह (जो होइ इत्यादि) यो भवति दीप्तचित्तः सोऽनीप्सितव्यानि बहूनि प्रलपति, बहनीप्सितप्रलपनं तस्य लक्षणं, क्षिप्तचित्तस्त्वपहचित्ततया मौनेनाप्यवतिष्ठते, इति परस्परं सूत्रयोर्विशेष इति भावः / / 146 // अथ कथमेष दीप्तचित्तो भवतीति तत्कारणप्रतिपादनार्थमाहइति एस असंमाणा, खित्तो सम्माणतो हवति दित्तो। अग्गीव इंधणेहिं, दिप्पइ चित्तं इमेहिं तु / / 150 / / इति प्रामुक्तेन प्रकारेण, एष क्षिप्तः क्षिप्तचित्तोऽसंमानतोऽऽपमानतो भवति, दीप्तो दीप्तचित्तः पुनः सम्मानतो विशिष्टसम्मानावाप्तितो भवति। दीप्तचित्तो नामयस्य दीप्तं चित्त, तच चित्तं दीप्यते, अग्निरिवेन्धनैरेभिवक्ष्यमाणैलभिमदाऽऽदिभिः / / 150 / / तानेवाऽऽहलाभमदेण व मत्तो, अहवा जेऊण दुअए सत्तू / दित्तम्मि सातवाहणों, तमहं वुच्छं समासेणं / / 151 / / लाभमदेन वा मत्तः सन् दीप्तचित्तो भवति, अथवा दुर्जवान शत्रून जित्वा, उभयस्मिन्नपि दीप्ते दीप्तचित्ते लौकिको दृष्टान्तः-शातवाहनो राजा, तमहं शातवाहनदृष्टान्त समासेन वक्ष्ये / / 151 / / यथाप्रतिज्ञातमेव करोतिमहुरा दंडाऽऽणत्ती, निग्गय सहसा अपुच्छियं कयरं / / तस्सं य तिक्खा आणा, दुहा गया दो विपाडेउं / / 152 / / गोयावरीए नदीए तडे अपइट्ठाणं नयर, तत्थ सालवाहणो राया, तस्स खरगओ अमचो, अन्नया सो सालवाहणो राया दंडनायगं आणवेइमहुर घेतूण सिग्घमागच्छ। सोय सहसा अपुच्छिऊण दंडेहि सह निग्गतो। ततो चिंता जाया का महुरा घेत्तव्वा, दक्षिणमहुरा, उत्तरमहुरा वा ? तस्स आणा तिक्खा, पुणो पुच्छिउँ न तीरति / ततो दंडा दुहा काऊण दोसु वि पेसिया, गहिया तो दो वि महुराओ। ततो बद्धावगो पेसिओ। तेणाऽऽगंतूण राया बद्धाविओ-देव ! दो वि महुराओ गहियातो, अन्नो आगतो-देव ! अमुगत्थ पदेसे विपुलो निहीपायडो जातो। ततो उवरुवरि कल्लाणनिवेदणेण हरिसवसविसप्पमाणहयहियओ परवसो जातो। ततो हरिसं धरिउमचायतो सयणिज्जं कुट्टइ, खंभे आहणइ, कुडे विद्दवइ, बहूणि य असमंजसाणि पलवति। ततो खरगेणामचेण तमुवाएण पडिबोहिउकामेण खंभा कुड्डा बहु विद्दविया / रण्णा पुच्छियं-केण विद्वविय ? सो भणइ-तुब्भेहिं / ततो मम सम्मुहमलीयमेवं भणति त्ति रुद्रुण रन्ना खरगो पाएण ताडिओ। ततो संकेइयपुरिसेहिं उप्पाडितो, अन्नत्थ संगोविओ य। ततो कम्हि पओयणे समावड़िए रण्णा पुच्छिओ--- कत्थ अमच्चो चिट्ठति ? संकेतियपुरिसेहिं कहियं देव ! तुम्हं अविणयकारि त्ति सो मारितो। राया विसूरिउं पवत्तोदुटु कय मए, तयाणि न किंपि वेइय ति। ततो सभावत्थो जातो, ताहे संकेइयपुरिसेहिं विण्णवितो-देव ! गवेसामि जइ वि कयाइ चंडालेहिं रक्खितो हुन्जा / ततो गवेसिऊण आणीतो, राया संतुट्ठो, अमचेण सब्भावो कथितो, तुट्टेण विउला भोगाझिाणा।' साम्प्रतमक्षरार्थो विव्रियते-शातवाहनेन राज्ञा मथुराग्रहणाय दण्डस्यदलस्याऽऽज्ञप्तिः कृता, ते दण्डाःसहसा का मथुरां गृहीम इत्यपृष्ट्वा निर्गताः, तस्य च राज्ञ आज्ञा तीक्ष्णा, ततो भूयः प्रष्टुं न शक्नुवन्ति, ततस्ते दण्डा द्विविधा गता द्विधा विभज्य, एके दक्षिणमथुरायामपरे उत्तरमथुरायां गता इत्यर्थः / द्वे अपि च मथुरे पातयित्वा ते समागताः / / 152 // सुयजम्म्महुरपाडण-निहिलंभनिवेयणा जुगव दित्तो। सयणिज्जखंभकुड्डे, घट्टेइ इमाई पलवंतो।। 153 / / सुतस्य जन्म, मथुरयोः पातनं, निधेभिस्तस्य च युगपनिवेदनायां स हर्षवशात् दीप्तचित्तोऽभवत् दीप्तचित्ततया च इमानि वक्ष्यमाणानि प्रलपन् शयनीयस्तम्भकुड्यानि धदृयति // 153 / / तत्र यानि प्रजपति तान्याह-- सचं भण गोयावरि। पुव्यसमुद्देण साहिया संती। सालाहणकुलसरिसं, जति ते कूले कुलं अस्थि / / 154 / / हे गोदावरि ! पूर्वसमुद्रेण साधिकृता कृतमर्यादा सती सत्यं भण बहि, यदि तव कूले शातवाहनकुलसदृशं कुलमस्ति / / 154 / / उत्तरतो हिमवंतो, दाहिणतो सालवाहणो राया। समभारभरकता, तेण न पल्हत्थए पुहवी / / 155 / / उत्तरे उत्तरस्यां दिशि हिमवान् गिरिदक्षिणतः शातवाहनो राजा, तेन समभारभराऽऽक्रान्ता सती पृथिवीनपर्यस्यति। अन्यथा यद्यहं दक्षिणतो न स्या, ततो हिमवद्भराऽऽक्रान्ता नियमतः पर्यस्येत्॥ 155 / / एयाणि य अन्नाणि य, पलवंतो सो अभाणियव्वाई। कुसलेण अमच्चेणं, खरगेणं सो उवाएणं / / 156 / / एतान्यनन्तरोदितानि, अन्यानि च सोऽभणितव्यानि बहूनि प्रलपितवान्, ततः कुशलेन खरकनाम्नाऽमात्येनोपायेन प्रतिबोधयितुकामेन। किमित्याहविद्दवियं केणं ति य, तुब्भेहिं पायतालणा खरए। कत्थ त्ति मारितो सो, दुट्ट त्ति य दंसणे भोगा / / 157 / / विद्रवितं विनाशितं समस्तं स्तम्भकुड्याऽऽदि / राज्ञा पृष्टम्-केनेदं विनाशितम् ? अमात्यः संमुखीभूय सरोषं निष्ठुरं च वक्तियुष्माभिः / ततो राज्ञा कुपितेन तस्य पादेन ताडना कृता, तदनन्तरं संकेतितपुरुषैः स उत्पाटितः, संगोपितश्च। ततः समागते कस्मिंश्चित्प्रयोजने राज्ञा पृष्टम्कृत्रामात्यो वर्त्तते ? संकेतितपुरुषेरुक्तम्-देव ! युष्मत्पादानामविनयकारी मारितः / ततो दुष्ट कृतं मयेति प्रभूतं विस्मरितवान् / स्वस्थाभूतेऽस्मिन् ज्ञाते संके तितपुरुषैरमात्यदर्शन कारितम / सद्भावकथनानन्तरं राज्ञा तस्मै विपुला भोगाः प्रदत्ता इति / / 157 /
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________________ दित्तचित्त 2516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दित्ता उक्तौ लौकिको दीप्तचित्तो, लोकोत्तरिकमाह महर्द्धिकस्य, विद्याऽऽदि, आदिशब्दाद् मन्त्रचूर्णाऽऽदिपरिग्रहः, महऽज्झयण भत्तखीरे, कंबलगपडिग्गहे फलगसड्डे / यावत्कर्मापि प्रयुज्य, ततोऽवमतरस्य विशिष्टप्रासादाऽऽदिसंपादने पासाए कप्पट्टे, वायं काऊण वा दित्तो / / 158 / / तस्यापभाजना संपादनीया, येन प्रगुणो भवति / ततः पश्चाद्विद्यामहाध्ययनं पौण्डरीकाऽऽदिकं दिवसेन, पौरुष्या वा समागतम्, ऽऽदिप्रयोगजनितपापविशुद्धये विशोधिःप्रायश्चित्तं प्रतिपत्तव्येति।। 162 // अथवा-भक्तमुत्कृष्ट लब्धं, नास्मिन्क्षेत्रे भक्तमीदृशं केनापि लब्धपूर्व, साम्प्रतमेतदेव विवरीषुराहयदि वा-क्षीरं चातुर्जातकसंमिश्रमवाप्तं, नैतादृशमुत्कृष्ट क्षीरं केनापि उक्कोसं बहुविहियं, आहारोवगरणफलगमादीयं / लभ्यते, यदि वा कम्बलरत्नमतीवोत्कृष्टम्, अथवा-विशिष्टवर्णाऽऽदि- खड्डेणोमतरेणं, आणीतो भामितो पउणो / 163 / / गुणोपेतम, अपलक्षणहीन फ्तद्ग्रह (फलग ति) यद्वा-फलकं चम्पकपट्टा- उत्कृष्ट बहुविधिकं बहुभेदमाहारं भक्तक्षीराऽऽदिकमुपकरण कम्बलऽऽदिकम् / अथवा-श्राद्धमीश्वरमतिदातारमुपासकत्वेन प्रतिपन्न रत्नप्रभृति फलक चम्पकपट्टलिनिसपट्टाऽऽदिकम्, आदिशब्दः स्वगतालब्धम् / यदि वा-प्रासादे सर्वोत्कृष्ट उपाश्रयत्वेन लब्धे, (कप्पढे इति) नेकभेदसूचकः, तथाविधश्राद्धप्रज्ञापनेन विद्याऽऽदिप्रयोगेण वा संपाद्य ईश्वरपुत्रे रूपवति प्रज्ञानिधानेलब्धे प्रमोदते, प्रमोदभरवशाच्च दीप्तचित्तो क्षुद्रेण क्षुल्लकेन, गुणतोऽवमतरेण शतभागसहस्रभागाऽऽदिना हीनन भवति / एतेन लाभमदेन वा मत्त इति लोकोत्तरे योजितम् / अधुना आनीतमुपदर्य सोऽपभ्राजितः क्रियते, ततः प्रगुणो भवति / / 163 / / दुर्जयान शत्रुन् जित्वेत्येतद्योजयति-(वायं काऊण व ति) वादं वा प्रासादाऽऽदिविषये यतनामाहपरप्रवादिना दुर्जयेन सह कृत्वा तं पराजित्यातिहर्षवशतो दीप्तो दीप्तचित्तो अघिट्टसङ्घकहणं, आउट्ठा अभिणवो य पासाओ। भवति / / 158 / / कयमित्ते य विवाहे, सिद्धादिसुया कइयवेणं / / 164 / / साम्प्रतमेनामेव गाथां विनेयजनानुग्रहाय विवरीषुराह यस्तेन श्राद्धो न दृष्टोऽदृष्टपूर्वः, तस्यादृष्टस्य श्राद्धस्य कथनं प्रज्ञापना, पुंडरियमाइयं खलु, अज्झयणं कड्डिऊण दिवसेणं / उपलक्षणमेतत् अन्यस्य महर्द्धिकस्य विद्याऽऽदिप्रयोगतोऽभिमुखीहिरसेण दित्तचित्तो, एवं होजाहि कोई उ / / 156 / / करणं वा, ततस्ते आवृताः सन्तस्तस्य लब्धमानिनः समीपमागत्य कश्चित्पौण्डरीकाऽऽदिकमध्ययनं खलु दिवसेन, उपलक्षणमेतत्- ब्रुवते-वयमेतेन क्षुल्लकेन प्रज्ञापिताः, ततोऽभिनव एव कृतमात्र एव पौराष्यादिना वा, कर्षित्वा पठित्वा, हर्षेण दीप्तचित्तो भवेत्, एवमध्यय- युष्माकं में प्रासादो दत्त इति / तथा सिद्धपुत्राऽऽदिकेषु प्रज्ञापन, नलाभेन दीप्तचित्तता / / 156 / / विद्याऽऽदिप्रयोगं वा कृत्वा तत्सुतः कृतमात्रधीर्बाह्य एव व्रतार्थदुल्लहदव्वे देसे, पडिसेविय तं अलद्धपुव्वं वा। तत्समक्षमुपस्थापनीयो, येन तस्यापभ्रजानोपजायते, ततः पश्चाहत्तः। आहारोवहिवसही, अहुणविवाहो व कप्यट्ठो।। 160 // तथा कैतवेन कपटेन सिद्धाऽऽदिसुताः सिद्धपुत्राऽऽदिसुताः कृतमात्र एव दुर्लभद्रव्ये देशे, तद् दुर्लभद्रव्य, केनाप्यलब्धपूर्व, वाशब्दः समुच्चये, विवाहे उत्पादनीयाः, शकुनाऽऽदिवैगुण्यमुद्भाव्य मुच्यन्ते, यदि न स्यात् प्रतिसेव्य लब्ध्वा, दीप्तचित्तो भवति / एवमाहारे भक्तक्षीराऽऽदीके, उपधौ तात्त्वकी व्रतश्रद्धेति // 164 / / कम्बलरत्नाऽऽदिके, वसतौ प्रासादाऽऽदिरूपायां लब्धायाम् यदि वा-- 'वार्य काऊणं'' इत्यत्र यतनामाह(कप्पट्टात्ति) ईश्वरपुत्रोऽधुना कृतविवाहः प्रज्ञानिधानं शिष्यत्वेन लब्ध चरगाऽऽदि पन्नवेठ, पुव्वं तस्स पुरतो जिणावेंति। इति हर्षेण दीप्तचित्तो भूयात् // 160 / / ओमतरगेण तत्तो, पगुणति ओभामिता एवं / / 165 / / तत्रैतेषु दीप्तचित्तेषु यतनामाह चरकाऽऽदिकं प्रचण्ड परवादिनमधःकृतसाधोदे वाऽसाध्य दिवसेण पोरिसीए, तुमए ठवियं इमेण अद्धेण। पूर्व प्रज्ञाप्य प्ररूपितस्याधिकृतस्य वादाभिमानिनः साधोः पुरतोऽवएयस्स नत्थि गव्वो, दुम्मेहतरस्स को तुज्झं? ||161 / / / मतरेण चरकाऽऽदिकं जापयन्ति वरवृषभाः, ततः स एवमपभाजितः सन दिवसन, पौरुष्या वा त्वया पौण्डरीकाऽऽदिकमध्ययनं स्थापित प्रगुणायते प्रगुणो भवति // 165 / / व्य०२ उ० / बृ०॥ पठितं, तदनेन दिवसस्य, पौरुष्या वा अर्द्धन, तथाप्येतस्य नास्ति गर्वः, दित्तं निग्गं थिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा तव पुनर्दुर्मेधसः को गर्वः ? नैव युक्त इति भावः / एतस्मादपि तव नाइक्कमइ / / 11 / / हीनग्रज्ञवात् // 161 // दीप्तचित्ता निर्ग्रन्थी गृहन्नवलम्बमानो वा नातिक्रामत्याज्ञाम् / तत्र तद्दव्वस्स दुगुंछण, दिलुतो भावणा असरिसेणं / निर्ग्रन्थस्य निर्गन्थ्या वा अपि वक्तव्यता वक्तव्या, नवरमेतत्प्रत्यभिलाप: पगयम्मि पण्णवेत्ता, विजाऽऽदि विसोहि जा कम्मं / / 162 / / / कर्तव्यः। बृ०६ उ०। स्था० / नि० / ओघ०। यतो दुर्लभद्रव्य भक्ष्य क्षीराऽऽदि तेन लब्धं, तस्य द्रव्यस्य जुगुप्सन दित्ततव पुं० (दीप्सतपस्) दीप्तं तपो यस्य स दीप्ततपः / हुताशन इव क्रियते, यथा नेदमतिशोभनम्, अमुको वाऽस्य दोष इत्यादि / यद्वा- / कर्मवनदाहकत्वेन ज्वलत्तेजस्के तपस्विनि, विपा० 1 श्रु० दृष्टान्तोऽन्येनापीदृशमानीतमिति प्रदर्शन क्रियते। तस्य दृष्टान्तस्य 1 अ०। ज्ञा० / स्था०। औ० / नि०। भ०। भावना असदृशेन तस्मात् शतभागेन, सहस्रभागेन वा यो हीनस्तेन दित्तधर पुं० (दीप्तधर) ज्वलितधारके, स्था० १०टा०॥ कर्तव्या / तथा (पगयम्मि इत्यादि) प्रकृते अवमतरस्य विशिष्टे |* दृप्तधर पुं० दर्पवद्धारके, दर्पवर्धक, स्था० 10 ठा०॥ प्रासादाऽऽदिके संपाद्ये तथाविधं श्रावकमितर वा प्राप्य तदभावे कस्यापि | दित्ता स्त्री० (दीप्ता) ज्वलन्त्याम्, उत्त० 16 अ०।
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________________ दित्ति 2520 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिप्पा दित्ति स्त्री० [दिति(ती)] दोऽवखण्डने, तिच् वा डीप् / दैत्यमातरि कश्यपपल्याम्, भावे क्तिन्। खण्डने, वाच० / पुनर्वसुनक्षत्राधिष्ठातुदेवतायाम्, स्था०२ ठा०३ उ०। चं० प्र०। *दीप्ति स्त्री० दीप-क्तिन् / कान्तौ, "कान्तिरेव वयोभोगदेशकालगुणाऽऽदिभिः / उद्दीपिताऽतिविस्तार, प्राप्ता दीप्तिरिहोच्यते / / 1 / / " इत्युक्ते स्त्रीणां गुणभेदे, वाच / दीपने, ज्ञा०१ श्रु०१० अ०। दित्तिमं पुं० (दीप्तिमत्) परवादिनामक्षोभ्ये षड्त्रिंशत् सूरिगुणानां / चतुस्त्रिंशत्तमे गुणे, ग० 1 अधि० आचा० / प्रक०। दित्था स्त्री० (दित्सा) दातुमिच्छायाम, सूत्र०२ श्रु० 4 अ०। दिदिक्खा स्वी० (दिदृक्षा) दृष्टुमिच्छा दिदृक्षा।दर्शनेच्छायाम्, नं०1 षो०। दिदृक्षा भवबीजंचा-विद्या चाऽनादिवासना। भङ्ग यैषैवाऽऽश्रिता साङ्ख्य-शैववेदान्तिसौगतैः॥२६॥ (दिदृक्षेति) पुरुषस्य प्रकृतिविकारान् द्रष्टुमिच्छा दिदृक्षा सैवेयमिति साङ्ख्याः , भवबीजमितिशैवाः, अविद्येति वेदान्तिकाः, अनादिवासनेति सौगाताः / / 26 / / द्वा०१२ द्वा०। दिद्ध पुं० (दिग्ध) दिह-क्तः / विषाक्तवाणे, वह्नौ च / भावे क्तः / स्नेहे. लेपने, न० / कर्मणि क्तः / लिप्ते, वाच०। नि० चू०१ उ०। दिप्प त्रि० (दीप्र) प्रकाशिते, "दीप्रदीपाकुरायते।'' रत्ना० 1 परि०। दिप्पंत त्रि० (दीप्यमान) भासम्मने, नि० चू०१ उ० / दीप्यमानविमलग्रहगणसमप्रभाः। दीप्यमानो रजन्यां भास्वान्। विमलोऽत्र धूल्याद्यपगमेन ग्रहगणो ग्रहसमूहस्तेन समा प्रभा यासा ताः / जी०३ प्रति०४ उ० अनर्थे, दे० ना०५ वर्ग०३६ गाथा। दिप्पमाण त्रि० (दीप्यमान) भासमाने, औ०। कल्प० / "दिप्पमाणसोहं।" दीप्यमाना शोभा यस्य तम्। कल्प०३ क्षण। दीप्या स्त्री० (दीप्रा) दीपाप्रभासदृश्याम, ध०१अधि०। योगदृष्टिभेदे, द्वा० / प्राणायामवती दीप्रा, योगोत्थानविवर्जिता। तत्त्वश्रवणसंयुक्ता, सूक्ष्मबोधमनाश्रिता / / 16 / / प्राणावामवती प्राणायामसहिता दीप्रा दृष्टिः योगोत्थानेन विवर्जिता, प्रशान्तवाहितालाभात् / तत्त्वश्रवणेन संयुक्ता, शुश्रूषाफलभावात / सूक्ष्मबोधेन विवर्जिता, वेद्यसंवेद्यपदाप्राप्तेः // 16 // द्वा०२२ द्वा०। (प्राणायामव्याख्या पाणायाम' शब्दे द्रष्टव्या) (तत्त्वश्रुतिश्च तत्तसुइ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2183 पृष्ठ गता) कर्मदजूविभेदेना-नन्तधर्मकगोचरे। वेद्यसंवेद्यपदजे, बोधे सूक्ष्मत्वमत्र न।। 23 / / (कर्मेति) कर्मव वज्रमतिदुर्भेदत्वात् तस्य विभेदेनानन्तधर्मकं भेदाभेदनित्यत्वानित्यत्वाऽऽद्यनन्तधर्मशबलं यद्वस्तु तद् गोचरे वस्तुनस्तथात्वपरिच्छदिनि, वेद्यसंवेद्यपदजे बोधं सूक्ष्मत्वं यत्तदत्र दीप्रायां दृष्टौ न भवति तदधोभूमिकारूपत्वादस्याः। तदुक्तम्-'भवाम्भोधिसमुत्तारात् कर्मवनविभेदतः। ज्ञेयव्याप्तेश्च कात्स्न्ये न, सूक्ष्मत्वं नाऽयमत्र तु॥ 1 / / / / 23 / / अवेद्यसंवेद्यपदं, चतसृष्वासु दृष्टिषु। पक्षिच्छायाजलचर-प्रवृत्त्याभं यदुल्वणम् / / 24 / / (अवेद्येति) आसु मित्राऽऽद्यासु चतसृषु दृष्टिषु यद्यस्मादवेद्यसंवेद्यपदम् उल्बणमधिकम् / पक्षिच्छायायां जलसंसर्गिण्यां जलधिया जलचरप्रवृत्तिरिवाऽऽभा वेद्यसंवेद्यसम्बन्धिनी यत्र तत्तथा। तत्र हि न तात्त्विकं वेद्यसंवेद्यपद, किं त्वारोपाधिष्ठानसंसर्गितयाऽतात्त्विकम्, अतएवानुल्वणमित्यर्थः / एतदपि चरमासु चरमयथाप्रवृत्तकरणेन एवेत्याचार्याः / तदिदमभिप्रेत्योक्तम्-''अवेद्यसंवेद्यपद, यस्मादासु तथोल्वणम् / पक्षिच्छायाजलचरप्रवृत्त्याभमतः परम्॥१॥" / / 26 // वेद्यं संवेद्यते यस्मि-नपायाऽऽदिनिबन्धनम्। पदं तद् वेद्यसंवेद्य-मन्यदेतद्विपर्यतात्।। 25 / / (वेद्यमिति) वेद्य वेदनीयं वस्तुस्थित्या, तथा भावयोगिसा मान्येनाविकल्पकज्ञानग्राह्यमित्यर्थः / संवेद्यते क्षयोपशमानुरूपं निश्चयाबुद्ध्या विज्ञायते. यस्मिन्नाशयस्थाने, अपायाऽऽदिनिबन्धनं नरकस्वर्गाऽऽदिकारण हिंसाऽऽहिंसाऽऽदि तद्वेद्यसंवेद्यपदम्, अन्यदवेद्यसंवेद्यपदमेतद्विपर्ययादुक्तलक्षणव्यत्ययात् / यद्यपि शुद्धं यथावद्वेद्यसंवेदन माषतुषाऽऽदावसम्भवि, योग्यतामात्रेण च मित्राऽऽदिदृष्टिष्पपि संभवि, तथाऽपि वेद्यसंवेद्यपदप्रवृत्तिनिमित्तं ग्रन्थिभेदजनितो रुचिविशेष एवेति न दोषः / 25 // अपायशक्तिमालिन्यं, सूक्ष्मबोधयिधातकृत् / न वेद्यसंवेद्यपदे, वज्रतण्डुलसन्निभे / / 26 / / (अपायेति) अपायशक्तिमालिन्य नरकाऽऽद्यपायशक्तिमलिनत्वं, सूक्ष्मयोधस्य विघातकृत् अपायहेल्वासेवनक्लिष्टबीजसद्भावात-स्यय सद्ज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमाभावनियतत्वात्। न वेद्यसंवेद्यपदे उक्तलक्षणे वज्रतण्डुलसन्निभे, प्रायो दुर्गतावपि मानसदुःखाभावेन तद्वद्वेद्यसंवेद्यपदवतो भावपाकायोगात्। एतच व्यावहारिक वेद्यसंवेद्यपदं भावमाश्रित्योक्तम् / निश्चयतस्तु प्रतिपतितसद्दर्शनानामनन्तसंसारिणां नास्त्येव वेद्यसवेद्यपदभावः। नैश्चयिक-तद्वति क्षायिकसम्यग्दृष्टौ श्रेणिकाऽऽदाविव पुनर्दुर्गत्ययोगेन तप्तलोहपदन्यासतुल्याया अपि पापप्रवृत्तेश्वरमाया एवोपपत्तेः। यथोक्तम्"अतोऽन्यदुत्तरा स्वस्मात्, पापे कर्माऽऽगतसोऽपि हि। तप्तलोहपदन्यास-तुल्या वृत्तिः क्वचिद्यदि॥१॥ वेद्यसंवेद्यपदतः, संवेगातिशयादिति। चरमैव भवत्येषा, पुनर्दुर्गत्ययोगतः।।२।।" इति // 26 // तच्छक्तिः स्थूलबोधस्य, बीजमन्यत्र चाक्षतम्। तत्र यत्पुण्यबन्धोऽपि, हन्तापायोत्तरः स्मृतः // 27 // (तच्छक्तिरिति ) अन्यत्र चावेद्यसंवेद्यपदे तच्छक्तिरपायशक्तिः स्थूलबोधस्य बीजमक्षतमनभिभूतम् / तत्रावेद्यसंवेद्यपदे यद्यस्मात् पुण्यबन्धोऽपि हन्तापायोत्तरो विघ्ननान्तरीयकः स्मृतः, ततस्तत्पुण्यस्य पापानुबन्धित्वात् / / 27 // प्रवृत्तिरपि योगस्य, वैराग्यान्मोहगर्भतः। प्रसूतेऽपायजननी-मुत्तरां मोहवासनाम् / / 28 / /
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________________ दिप्पा 2521 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिवस (प्रवृत्तिरपीति) तत्रेति प्राक्तनमत्रानुषज्जते / तत्र मोहगर्भतो वैराग्याद् 2 पाहु०। योगस्य प्रवृत्तिरपि सद्गुरुपारतन्त्र्याभावेऽपायजननीमुत्तरां मोहवासनां दियसयर पु० (दिवसकर) सूर्ये, को०। प्रसूते, मोहमूलानुष्यानस्य मोहवासनाऽबन्ध्यबीजत्वात्, अतोऽत्र दियसबंभयारि(ण) पु० (दिवसब्रह्मचारिन्) दिवसे ब्रह्म चरतीत्येवंशीलो योगप्रवृत्तिरप्यकिञ्चित्करीति भावः / / 28 // दिवसब्रह्मचारी / दिवसे मैथुनत्यागिनि, पञ्चा० 10 विव०। स० अवेद्यसंवद्यपदे, पुण्यं निरनुबन्धकम्। आ० चू० भवाभिनन्दिजन्तूनां, पापं स्यात्सानुबन्धकम् / / 26 / / दिया अव्य० (दिवा) दिव-कः। दिवसे, पा० / भ०। (अवेद्येति) अवेद्यसंवेद्यपदे पुण्य निरनुबन्धकमनुबन्धरहितं स्यात्। / दियाभोयण न० (दिवाभोजन) दिवसभोजने, नि० चू० 11 उ० / यदि कदाचिन्न स्यात् पापानुबन्धि, सानुबन्धे तत्र ग्रन्थिभेदस्य नियाम- (दिवाभोजनस्य अवर्णवादे प्रायश्चित्तम् 'राईभोयण' शब्दे वक्ष्यते) कत्वात्। भवाभिनन्दिना क्षुद्रत्वाऽऽदिदोषवतां जन्तूनां पापं सानुबन्धक दियालोगचुय त्रि (देवलोकच्युत) ऋषीभूते, "दियालोकचुयाभासिया। मनुबन्धसहितं स्यात्, रागद्वेषाऽऽदिप्राबल्यस्य तदनुबन्धाबन्धबीज " देवलोकच्युतैः ऋषीभूतैराभाषितानि देवलोकच्युताऽऽभाषितानि। त्यात्।। 26 / / स०४३ सम०। कुकृत्यं कृत्यमाभाति, कृत्यं चाकृत्यमेव हि। दिरअ पुं० (द्विरद)"द्विन्योरुत्"||८|१|१४|| इत्यत्र बहुलाधिअत्र व्यामूढचित्तानां, कण्डूकण्डूयनाऽऽदिवत् // 30 // कारत्वचिदुत्वं न / प्रा०१ पाद। द्वौ रदौ यस्य सः। हस्तिनि, वाच०। (कुकृत्यमिति) कुकृत्यं प्राणातिपाताऽऽदिकृत्य करणीयमाभाति।। दिलिवेढय पुं० (दिलिवेष्टक) ग्राहभेदे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। कृत्यं चाहिंसाऽऽदि, अकृत्यमेव हि अनाचरणीयमेव / अत्राऽवेद्यसंवेद्यपदे दिलिंदिअ (देशी) बाले, दे० ना०५ वर्ग 40 गाथा। व्यामूढचित्तानां मोहगस्तमानसाना, कण्ठूलाना कण्डूयनाऽऽदिवत्। आदिना दिल्लीपुर न० (दिल्लीपुर) यमुनातटस्थे इन्द्रप्रस्थनामके नगरे, ती० कृम्याकुलस्य कृष्ठिनोऽग्निसेवनग्रहः / कण्डूयकाऽऽदीनां कण्ड्वादेरिव १६कल्प। भवाभिनान्दिनामववेद्यसंवेद्यपदादेव विर्पययधीरिति भावः / / 30 / / दिव न० (दिव) स्वर्गे, सूत्र०१श्रु०६ अ01 एतेऽसच्चेष्ट्याऽऽत्मानं, मलिन कुर्वते निजम्। दिवड्ड त्रि० (व्यर्द्ध) द्वितीयमर्द्ध यस्य तद् द्वयर्द्धम् / साढे, सू० प्र० 10 वमिशाऽऽमिषवत्तुच्छे, प्रसक्ता भोगजे सुख / / 31 / / पाहु०। चं० प्र०। आ० म०। ज्यो०। स०। (एत इति) एते भवाभिनन्दिनोद्धसञ्चेष्ट्या महारम्भाऽऽदिप्रवृत्ति * व्यपार्द्ध त्रि० द्वितीयमपार्द्ध यत्र तद्ह्यपार्द्धम् / साढ़ें, स्था० 6 ठा० / दिवड्डखेत्त त्रि० (द्व्यपार्द्धक्षेत्रिक) द्वपार्द्ध क्षेत्रं येषा ते! सार्द्धक्षेत्रिके, स्था० लक्षण्या निजमात्मानं मलिनं कुर्वते, कर्मरजःसम्बन्धात्, बडिशाऽऽ 6 ठा०। मिषवद मत्स्यगलमांसवत्। तुच्छेऽल्पे रौद्रविपाके प्रसक्ताः भोगजे भोग * व्यर्द्धक्षेत्रिक त्रि० द्वयर्ट्स क्षेत्र येषां ते / साझेपतक्षेत्रिके, स० 45 प्रभवे सुखे / / 31 // सम०। ज्यो०। सू० प्र०। चं० प्र०। आ० म०। अवेद्यसंवेद्यपदं,सत्सङ्गाऽगमयोगतः। दिवस पुं० (दिवस)"दिवसे सः"||८|१|२६३ / / इति पाक्षिको तदुर्गतिप्रदं जेयं, परमाऽऽनन्दमिच्छता / / 32 // हः / प्रा०१पाद। दिवसकराप्रभा प्रकाशितनभः-खण्डरूपे सूर्यकिरणा(अवेद्येति) यतोऽस्यायं दारुणो विपाकः, तत्तस्मादवेद्यसंवेद्यपदं ऽऽस्पृष्टव्योमखण्डरूपे वा चतुःप्रहराऽऽत्मके समये, विशे०एस०1औ० / दुर्गतिप्रदं नरकाऽऽदिदुर्गतिकारणम्, सत्सङ्गाऽऽगमयोगतो विशिष्टसंग ध०। प्रश्न / द्वी०। माऽऽगमसम्बन्धात्। परमाऽऽनन्द मोक्षसुखमिच्छता जेयम्, अस्यामेव ता कहं ते दिवसा आहिय त्ति वएज्जा? ता एगमेगस्स णं भूमिकायामन्यदा जेतुमशक्यत्वात् / अत एवानुवादपरोऽप्यागम इति पक्खस्स पन्नरस दिवसा पण्णत्ता / तं जहा-पडिवानि, योगाऽऽचार्या अयोग्यनियोगासिऽरिति / / 32 // द्वा० 22 द्वा०। वितियदिवसे,जाव पण्णरसे दिनो। तास णं पण्णरसण्हं दियपुं० (द्विज) द्विर्जायते, सुजर्थे वृत्तौ दिशब्दः, जन-डः। संस्कृतब्राह्मणे. दिवसागामधज्जा पण्णत्ता। तं जहावाच०। आचा०। सूत्र०। "पुट्वंगे सिद्धमणो-रमे य तत्तो मणोहरे चेव / * दिव न० दिव कः र्वेग, दिवाकरन रन्गनापत दिवस, वने च / जसभद्देय जसोधरें,सकामसमिद्धे ति य॥१॥ वाच०। स०५२ MOT इंदमुद्धाभिसित्ते, सोमणसं धणंजए य बोधव्वे / * द्रिक त्रि० दि०ब० // द्विकसंख्यायां, तद्युक्ते च। त्रि० / वाच०। अत्थसिद्धे अभिजिते, अच्चसणे स्तंजए चेव // 2 // दियपोय पुं० (द्विजपोत) पक्षिशिशौ, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। अग्गिवेसे उवसमे, दिवसाणं नामधेजदं / ' दियसपुं० (दिवस) दीव्यन्त्यत्र, दिव असच किच्च। सूर्य किरणोपलक्षिते | (ता कहं ते इत्यादि) 'ता ' इति पूर्ववत् / कथ 5. एकारण. पञ्चदशमुहूर्ताऽऽत्मके काले, तं।ज्यो / मासस्य त्रिंशत्तमे भागे, ज्यो० / केन क्र मेणेत्यर्थः ? भगवन् ! त्वया दिवसा आख्याता इति 5
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________________ दिवस 2522 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा देत् ? भगवानाह-(एगमेगस्स णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्। एकैकस्य, मणनिव्वुकरं।" ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। "दिव्वजुयलपरिहिओ।" उत्तर अत्रापान्तरालवी , मकारोऽलाक्षणिकः, णमिति वाक्यालङ्कारे। पक्षस्य 22 अ०। मनोहरे, घोलनाऽऽत्मके च। दिवि भवं यत्। लवङ्ग, चन्दने, पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः, वक्ष्यमाणक्रमयुक्ताः / तमेव क्रममाह-(तं शपथरूपे, अलौकिकप्रमाणभेदे, गुग्गलौ, तन्त्रोक्ते भावभेदे च / न०। जहेत्यादि) तद्यथा-प्रतिपत्प्रथमो दिवसो, द्वितीया द्वितीयो दिवसः, नायकभेदे, पु०। वाच०। तृतीया तृतीयो दिवसः, एवं यावत्पञ्चदशीपञ्चदशो दिवसः। (ता एएसि दिव्वग त्रि० (दिव्यक) व्यन्तराऽऽदिना हास्यप्रद्वेषाऽऽदिजनिते उपसर्गभेद, णमित्यादि) तत्र एतेषां पञ्चदशानां दिवसानां क्रमेण पञ्चदशनामधेयानि सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। प्रज्ञप्तानि / तद्यथा-प्रथमः प्रतिपल्लक्षणः पूर्वाङ्गनामा, द्वितीयः दिव्वजाग पुं० (दिव्ययाग) जिनपूजायाम, कल्प०५ क्षण। सिद्धमनोरमः तृतीयो मनोहरः, चतुर्थो यशोभद्रः, पञ्चमो यशोधरः, षष्ठः दिव्वतुमिय न० (दिव्यत्रुटित) वेणुवीणामृदङ्गाऽऽद्यातोद्येषु, स / सर्वकामसमृद्धः, सप्तम इन्द्रमूर्दाभिषिक्तः, अष्टमः सौमनसो, नवमो | *दिव्यतूर्य न० वाद्यभेदे, रा०। धनञ्जयो, दशमोऽर्थसिद्धः, एकादशोऽभिजित्, द्वादशोऽत्यसनं, | दिव्यदेवजुति स्त्री० (दिव्यदेवद्युति) विशिष्टायां शराऽडीरणाऽऽदिदीप्ता, त्रयोदशः शतञ्जयः, चतुर्दशोऽग्निवेशः, पञ्चदश उपशमः / एतानि | स०१० सम०। स्था०। दिवसानां क्रमेण नामधेयानि / च० प्र० 10 पाहु० 13 पाहु०।। दिव्वदेवड्डिस्त्री० (दिव्यदेवर्द्धि) प्रधानपरिवाराऽऽदिरूपायां देवर्धा, स० द्वादशाऽऽदिमुहूर्तो दिवसः। आ० म०२ अ०। अहोरात्रे, स्था०५ ठा०३ १०समा स्था०1 उ०। (दिनरात्रिहानिवृद्धि 'सूरमंडल' शब्दे वक्ष्येते) दिव्वदेवाणुभाव त्रि० (दिव्यदेवानुभाव) उत्तमवैक्रियकरणाऽऽदिप्रभादे, दिवसतिहि रखी० (दिवसतिथि) तिथेः पूर्वभागे, सू० प्र०१० पाहु० / स०१०सम०।स्था०॥ च०प्र०। दिव्वद्धणि पुं० (दिव्यध्वनि) सर्वप्राणिश्रुतिसुखदायां स्वस्वभाषापरिदिवसभयगपुं० (दिवसभृतक) भृयते पोष्यते स्मेति भृतः, स एव भृतकः, णामिन्यां संशयतव्यवच्छेत्र्या योजनव्यापिन्यां भगवद्वाण्याम् दर्श०१ कर्मकर इत्यर्थः / प्रतिदिवसं नियतमूल्येन कर्मकरणार्थं यो गृह्यते सः। तत्त्व०। प्रतिदिवसं नियतमूल्येन कर्मकरणार्थ गृहीते भृत्ये, स्था० 4 टा० 1 दिव्वाग पुं० (दिव्याक) मकुलिसर्पभदे, प्रज्ञा०१ पद। उ०। पं० चू०। 50 भा०। दिव्वायपत्त स्त्री० (दिव्याऽऽतपत्र) शोभने आतपत्रे,रा०। दिवसुजुत्त त्रि० (दिवसोयुक्त) प्रतिदिनमुद्यते, प्रश्न०३ आश्र0 द्वार! / दिव्वासा रत्री० (देशी) चामुण्डायाम्, दे० ना०५वर्ग 36 गाथा। दिवह पुं० (दिवस) 'दिवस' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। दिसा स्त्री० (दिक्) "दिक्प्रावृषोः सः"।।१।१६ // इति अन्तव्यदिवाकर पुं० (दिवाकर) सूर्य, उत्त० 11 अ० / रा० / ज्ञा० / औ० / जनस्य सः। 'दिसा' / प्रा०१ पाद / दिश क्विप् वा टाप / आशायां, "उत्तिटुंते दिवायरे जलंत इव। उत्त०११ अ०। ककुभि च / वाच० / दिशतीति दिक् / आचा० 1 श्रु० 1 अ० 1 उ० / दिवाकरकूड पुं(दिवाकरकूट) जम्बूमन्दरदक्षिणे रूचकवरपर्वतस्याष्टमे दिश्यते व्यपदिश्यतेपूर्वाऽऽदितया वस्त्वनयेति दिक। स्था०३ ठाउ०1 कूटे, स्था०८ ठा०। तां नियुक्तिकृन्निक्षेप्तुमाहदिवागर पुं० (दिवाकर) दिवाकर शब्दार्थे, उत्त०११ अ०। नामंठवणा दविए, खेत्ते तावे य पण्णवगभावे। दिवागरकूड पुं० (दिवाकरकूट) दिवाकरकूड' शब्दार्थे, स्था० 8 ठा०। एस दिसानिक्खेवो, सत्तविहो होइ नायव्यो / 40 / / दिविठ्ठपु० (द्विपृष्ट) द्वितीये वासुदेवे, ति० / आव०। नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रतापप्रज्ञापकभावरूपः सत्पधा दिग्निक्षेपो दिवे अन्य० (दिवा)"किलाऽऽथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवे ज्ञातव्यः, तत्र सचित्ताऽऽदेव्यस्य दिगित्यभिधानं नामदिक, चित्रलि सहुं नाहिं"।।४।४१६ / / इति दिवा इत्यस्य दिव' इत्यादेशः / खितजम्बूद्वीपाऽऽदेर्दिग्विभागस्थापनं स्थापनादिक् / 144 नाच० "दिवे दिवे गंग णहाणु।" प्रा०४ पाद। द्रव्यादिड्नक्षेपार्थमाहदिव्व त्रि० (दिव्य) दा.--- नित-क्यप। उत्तमे, सं० 10 सम०। तरेसपएसियं खलु, तावइएसुं भवे पएसेसुं। औ०। प्रधाने, रा०। प्रश्न०। जी०। भ० / आ. --- / स्था०।० जंदव्यं ओगाढं, जहण्णगं तं दसदिसागं / / 41 // प्र० / सू०प्र०। प्रज्ञा०। विशिष्ट, स०१०सम०एन०। स्वर्गगतवस्तुविषय, दव्यदिग द्वेधा-आपमतो, नोआगमतश्च / आगमतो ज्ञातानपयुक्तः स्था० 3 टा०३उ०। आ० क० भ०। गुरनिर्मिते, आ० म०१ अ०२ नोआगमतो ज्ञशरारमयसरीतिरिक्ता त्वियमत्रयोदशप्रदेशिकं खण्ड। स्था। आ० क०। देवोक्ति, औ०। कल्प०॥ देवरमणे, रा०। द्रव्यमाश्रित्य या प्रवृत्ता, खलुरवधारणे, त्यादराशिकमेव दिक्, न व्यन्तराट्टहासाऽऽदिविषये पापश्रुतभेदे,ध०३ अधि०व्यन्तराऽऽदिकृत पुनर्दशप्रदेशिकं यत् कैश्चिदुक्तमिति, प्रदेशाःपरमाणवस्तैनिष्पादित उपसर्गे, आव०५-10 विश०। उत्त० / कल्प०। सूत्र०। आ० चू०। कार्यद्रव्यं तावत्स्वेव क्षेत्रप्रदेशेष्वगाढ जघन्यं द्रव्यमाश्रित्य दशदिग्विभागदेवा, नद्याः स्वर्गस्तद्वासी देवोऽप्युपचारादयोः, तत्रभवो दिव्यः।। परिकल्पनातो द्रव्यदिगियमिति। तत्स्थापना (2) / त्रिबाहुकं नथप्रदेशिवैमानिकाऽऽदिदेवसम्बन्धिनि, स्था० 4 ठा०३ उ०। "दिव्वं ठान / कमभिलिख्य चतसृषु / दिक्ष्वेकैवगृहिवृद्धिः कार्या।
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________________ दिसा 2523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा क्षेत्रदिशमाहअट्ठपएसो रुयगो, तिरियं लोयस्स मज्झयारम्मि। एस पभवो दिसाणं, एसेव भवे अणुदिसाणं // 42 / / तिर्यक्लोकमध्ये रत्नप्रभापृथिव्या उपरि बहुमध्यदेशे मेर्वन्तर्दा सर्वक्षुल्लकातरौं, तयोरुपरितनस्य चत्वारः प्रदेशा गोस्तनाऽऽकारसंस्थाना अधस्तनस्यापि चत्वारस्तथाभूता एवेत्येषोऽष्टाकाशप्रदेशाऽऽत्मकश्चतुरस्रो रुचको दिशामनुदिशा च प्रभव उत्पत्तिस्थानमिमि / स्थापना 3) / आसामभिधानान्याहइंदऽऽग्गेई जम्मा, य नेरई वारुणी य वायव्वा / सोमा ईसाणा वि य, विमला य तमा य बोधवा / / 43 / / आसाम द्योन्द्री विजयद्वारानुसारेण शेशाः प्रदक्षिणतः सप्तावसेयाः, ऊर्द्ध विमला तमा बोद्धव्या इति। आसामेव स्वरूपनिरूपणायाऽऽहदुपएसाइ दुरुत्तर, एगपएसा अणुत्तरा चेव / चउरो चउरो य दिसा, चउराइ अणुत्तरा दुण्णि / / 44 / / चतस्रो महादिशो द्विप्रदेशाऽऽद्या द्विद्विप्रदेशोत्तरवृद्धाः, बिदिशश्चतत्र एकप्रदेशरचनाऽऽत्मिकाः, अनुत्तरा वृद्धिरहिताः ऊर्भाधो दिगद्वय स्वनुत्तरमा चतुःप्रदेशाऽऽदिरचनाऽऽत्मकम्। किनअंतो साईयाओ, बाहिरपासे अपञ्जवसियाओ। सव्वाणंतपएसा, सव्वा य भवंति कमजुम्मा।। 15 / / सर्वाऽपयन्तमध्ये सादिका रुचकाऽऽद्या इति कृत्वा बहिश्चालोकाऽ..काशाऽऽश्रयणादपर्यवतिाः, सर्वाश्च दशाप्यनन्त-प्रदेशाऽऽत्मिका भवन्ति। ( सव्वा यहवंति कमजुम्मत्ति) सर्वासां दिशा प्रत्येक ये प्रदेशास्ते चतुष्ककेनापहियमाणाश्चतुष्कावशेषा भवन्तीति कृत्वा, तत्प्रदेशाऽऽम्किाच दिश आगमसंज्ञया "कडजुम्म त्ति" शब्देनाभिधीयन्ते / तथा चऽऽगमः- "कइण भते! जुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णता। जहा-कडजुम्मै, तउंए. दावरजुग्मे, कलिओए। से केएटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! जे णं रासीचउक्कगावहारेणं अबहीरमाणे अवहीरमाणे चउपजसिए सिया, सेणं कडजुम्मे / एवं तिपञ्जवसिए तेउए, दुगज्जवसिए दावरजुम्मे, एगपञ्जवसिए कलिआए ति।'' पुनरप्यासां संस्थानमाहसगमुद्धिसंठियाओ, महादिसाओ य होंति चत्तारि। मुत्तावली य चउरो, दो चेव य होंति रुयगनिभा।। 46 // महादिशाश्चतस्रोऽपि शकटोर्द्धसंस्थानाः, विदिशश्च मुक्तावलिनिभाः, ऊधिोदिगद्वयं रुचकाऽऽकारिमिति / तापदिशमाह-- जस्स जओ आइचो, उएइ सा तस्स होइ पुव्वदिसा। जत्तो य अत्थमेइ उ, अवरदिसा सा उ नायव्वा // 47 / / दाहिणसपासम्मि यदा-हिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं। एया चत्तारि दिसा, तावक्खेत्ते उ अक्खाया।। 48 / / तापयतीति ताप आदित्यः, तदाश्रिता दिक् तापदिक्, शेष सुगम, केवलं दक्षिणपाऽऽदिव्यपदेशः पूर्वाऽभिमुखस्येति द्रष्टव्यः। तापदिगङ्गीकरणेनान्योऽपि व्यपदेशो भवतीति प्रसङ्गत आहजे मंदरस्स पुव्वे-ण मणुस्सा दाहिणेण अवरेणं / जे यावि उत्तरेणं, सव्वेसिं उत्तरो मेरु // 46 // सव्वेसि उत्तरेणं, मेरु लवणो य होइ दाहिणओ। पुणं उढेई, अवरेणं अत्थमइ सूरो / / 50 // ये मन्दरस्य मेरोः पूर्वेण मनुष्याः क्षेत्रदिगङ्गीकरणेन, रूचकापेक्षं पूर्वाऽsदिदिवत्वं वेदितव्यं, तेषामुत्तरो मेरुदक्षिणेन लवण इति तापतदगङ्गीरकणेन, शेष स्पष्टम्। प्रज्ञापकदिशमाहजत्थ य जो पण्णवओ, कस्स वि साहइ दिसासु य निमित्तं / जत्तोमुहो य ठाई, सा पुव्वा पच्छओ अवरा / / 51 / / प्रज्ञापको यत्र क्वचित् स्थितः दिशां बलात्कस्यिचिन्निमित्तं कथयति, स यदभिमुखस्तिष्ठति, सा पूर्वा, पृष्ठतश्चापरेति, निमित्तकथन चोपलक्षणमन्योऽपि व्याख्याता ग्राह्य इति। शेषदिकसाधनार्थमाहदाहिणपासम्मि उदा-हिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं / एयासिमंतरेणं, अण्णा चत्तारि विदिसाओ।। 52 / / एतासि चेव अट्ठ-हमंतरा अट्ट होंति अण्णाओ। सोलस सरीरउस्सय-बाहल्ला सव्वतिरियदिसा / / 53 / / हेट्ठा पायतलाणं, अहोदिसा सीसउवरिमा उड्डा। एया अट्ठारस यी, पण्णवगदिसा मुणेयव्वा / / 54 / / एवं पकप्पियाणं, दसण्ह अट्ठह चेव य दिसाणं / नामई वोच्छामी, जहक्कम आणुपुवीए / / 55 / / पुव्वा य पुष्वदक्खिण, दक्खिण तह दक्खिणाऽवरा चेव। अवराय अवरउत्तर, उत्तर पुव्वुत्तरा चेव / / 56 / / सामुत्थाणी कविला, खेलेज्जा खलु तहेव अहिधम्मा। परियाधम्मा य तहा, सावित्ती पण्णवित्ति य / / 57 / / हेट्ठा नेरइयाणं, अहोदिया उवरिमा उ देवाणं / एयाइं नामाई, पण्णवगस्सा दिसाणं तु / / 58 / / एताः सप्त गाथाः कण्ठ्याः , नवरं द्वितीयगाथायां सर्वतिर्यग्दिशाबाहल्य पिण्डः शरीरोच्छ्यप्रमाणमिति। साम्प्रतमासा संस्थनमाह-- सोलस तिरयिदिसाओ, सगडुद्धीसंठिया मुणेयव्या। दो मल्लगमूलाओ, उड्डे य अहे वि य दिसाओ / / 56 / / पोडशाऽपि तिर्यग्दिशः शकटोर्द्धसंस्थाना बोद्धव्याः, प्रज्ञापकप्रदेशे संकटा बहिर्विशालाः, नारकदेवाऽऽख्ये द्वे एव ऊर्धाऽधोगामिन्यौ शरावाऽऽकारे भवतः, यतः शिरोमूले पादमूले च स्वल्पत्वान्मल्लकबुध्नाऽऽकार गच्छन्त्यौ च विशाले भवत इति। आसां सर्वासा तात्पर्य यन्त्रकादवसेयम्, तचेदम् (4) / भावदिनिरूपणार्थमाहमणुया तिरिया काया, तहऽऽग्गवीया चउक्कगा चउरो।
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________________ दिसा 2524 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा देवा नेरइया वा, अट्ठारस हुंति भावदिसा॥६०।। जीवोऽस्तीति, किं भूतः? औपपातिकः, उपपातः-प्रादुर्भावो मनुष्याश्चतुर्भेदाः, तद्यथा-संमुर्छनजाः, कर्मभूमिजाः, अकर्मभूमिजाः, जन्मान्तरसंक्रान्तिः, उपपाते भव औपपातिक इति, अनेन संसारिणः अन्तद्वीपजाश्चेति / तथा-तिर्यञ्चो द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः स्वरूपः दर्शयति, स एवंभूत आत्मा ममास्ति नास्तीति चैवभूता संज्ञा पञ्चेन्द्रियाश्चेति चतुर्दा, कायाः पृथिव्यप्तेजोवायवश्चत्वारः, तथा-- केषाञ्चिदाज्ञानावष्टधचेतसां न जायेत इति / तथा-कोऽहं नारकतिअग्रमूलस्कन्धपर्वबीजाश्चत्वार एव. एते षोडश देवनाकरप्रक्षेपादष्टादश, र्यगमनुष्याऽऽदिः पूर्वजनमन्यासम् ? को वा देवाऽऽदिः 'इतो मनुष्याएभिर्भावैर्भवनाञ्जीवो व्यपदिश्यत इति भावदिगष्टादशभेदोति / अत्र च ऽऽदेर्जन्मनः च्युतो विनष्टः, अह संसारे प्रेत्य जन्मान्तरे भविष्यामिउत्पेसामान्यदिग्रहणेऽपि यस्यां दिशि जीवनामविगानेन गत्यागती स्पष्ट सर्वत्र त्स्ये, एषा च संज्ञा न भवतीति / इह च यद्यपि सर्वत्र भावदिशाधिकारः संभवतः, तयैवेहाधिकार इति तामेव नियुक्तिकृत्साक्षाद्दर्शयति, प्रज्ञापकदिशा च, तथाऽपि पूर्वसूत्रे साक्षात् प्रज्ञापकदिगुपात्ता, अत्र तु भावदिक्काविनाभाविनी सामर्थ्यादधिकृतैव। भावदिगित्यवगन्तव्यम् / ननु चात्र संसारिणां दिग्विदिगागमनाऽऽदिजा यतस्तदर्थमन्या दिशश्चिन्त्यन्त इत्यत आह विशिष्टा संज्ञा निषिध्यते, नसामान्यसंज्ञेति, एतच संज्ञिनिम्मिण्यापन्नवगदिसऽट्ठारस, भावदिसाओ वितत्तिया चेव। त्मनि सिद्धे सति भवति, "सति धम्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते'' इति एक्ककं विंधेज्जा, हवंति अट्ठारसऽद्वारा // 61 / / वचनात्, स च प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणगोचरातीतत्वाद्दुरूपपादः, तथाहिपण्णवगदिसाए पुण, अहिगारो एत्थ होइणायव्यो। नासावध्यक्षेणार्थसाक्षात्कारिणा विषयीक्रियते, तस्यातीन्द्रियत्वाद, जीवण पोग्गलाण य, एयासु गयागई अत्थि।। 62 / / अतीन्द्रियत्वं च स्वभावविप्रकृष्टतवात्, अतीन्द्रियत्वादेव च तदव्यभिप्रज्ञापकाक्षेपया अष्टादशभेदा दिशः, अत्रच भावदिशोऽपि तावत्प्रमाणा चारिकार्याऽऽदि लिङ्गसम्बन्धग्रहणासंभवान्नाप्यनुमानेन, तस्याप्रत्यएव प्रत्येक संभवन्तीत्यत एकैकां प्रज्ञापकदिशं भावदिगष्टादशकेन विन्ध्येत् क्षत्वे तत्सामान्यग्रहणशक्त्यनुपपत्तेः, नाप्युपमानेन, आगमस्याऽपि ताडयेद्, अतोऽष्टादशाष्टादशकाः, तेच संख्यया त्रीणि शतानि चतुर्विश विवक्षाया प्रतिपाद्यमानायामनुमानान्तर्भावात् ।अन्यत्र च बाह्येऽर्थे त्यधिकानि भवन्तीति, एतचोपलक्षणम्, तापदिगादावपि यथासंभवमा संबन्धाभावादप्रमाणत्वम्, प्रमाणत्वेवा परस्परविरोधित्वान्नाप्यागमेन, योजनीयमिति। क्षेत्रदिशितु चतसृष्वेव महादिक्ष संभवो, न विदिगादिषु, तमन्तरेणापि सकलार्थोपपत्ते प्यर्थापत्त्या, तदेवं प्रमाणपञ्चकाऽतीतासामेवप्रदेशिकत्वाच्चतुष्प्रदेशिकत्वाचेति गाथाद्वयार्थः / अयं च तत्वात् षष्ठप्रामणविषयत्वादभाव एवाऽऽत्मनः / प्रयोगश्चायम्दिसंयोकलाप:-"अण्णयरीओ दिसाओ आगओ अहमंसि'' इत्यनेन नास्त्यात्मा, प्रमाणपञ्चकविषयातीतत्वात्, खरविषाणवदिति, तदभावे च विशिष्टसंज्ञाप्रतिषेधाभावसंभवेनानुत्थानमेव सूत्रस्येति, एतत्सर्वमनुपरिगृहीतः। सूत्रावयवार्थश्चायम्-इह दिग् प्रहणात् प्रज्ञापकदिशश्चतस्त्रः पासितगुरोर्वचः / तथाहि-प्रत्यक्ष एवाऽऽत्मा, तद्गुणस्य ज्ञानस्य पूर्वाऽऽदिका ऊर्धाऽधोदिशौ च परिगृह्येते, भावदिशस्त्वष्टादशाऽपि, स्वसवित्सिद्धत्वात्, स्ववविनिष्ठाश्च विषयव्यवस्थितयः, घटपटाऽऽदीअनुदिगग्रहणात्तु प्रज्ञापकविदिशो द्वादशेति, तत्रासंज्ञिना नैषोऽवबोधो नामपि रूपाऽऽदिगुणप्रत्यक्षत्वादेवाध्यक्षत्वमिति, मरणाभावप्रसङ्गाचन ऽस्ति, संज्ञिनामपि केषाञ्चिद्भवति, केषाञ्चिन्नेति, यथाऽहममुष्या दिशः भूतगुणश्चैतन्यमाश कनीयम्, तेषां सदा सन्निधानसंभवादिति, समागत इहेति। "एवमेगेसिंणो णायं भवइ ति" एवमित्यनेन प्रकारेण हेयोपादेयपरिहारोपादानप्रवृत्तेश्चानुमानेन परात्मनि सिद्धिर्भवतीति, प्रतिविशिष्टदिविदिगागामनं नैकेषां विदितं भवतीत्येतदुपसंहारवाक्यम्। एवमनयैव दिशोपमानाऽऽदिकमपि स्वधिया स्वविषये यथासंभवमाएतदेव नियुक्तिकृदाह योज्यं, केवल मौनीन्द्रेणानेनैवाऽऽगमेन विशिष्टसंज्ञानिषेधद्वारेणाहमिति के सिंचि णाणसण्णा, अत्थी के सिंचि नत्थि जीवाणं। चाऽऽत्मोल्ल्खनाऽऽत्मगावः प्रतिपादितः, शेषाऽऽगमानां चानाप्तप्रणीतकोऽहं परम्मि लोए, आसी कयरा दिसाओ वा / / 63 / / त्वादप्रामाण्यमेवेति / अत्र चास्त्यात्मेत्यनेन क्रियावादिनः सप्रभेदा केषञ्चिजीवानां ज्ञानाऽऽवरणीयक्षयोपशमवतां ज्ञानसंज्ञाऽस्ति, नास्तीत्यनेन चाक्रियावादिन एतदन्तःपातित्वाचाज्ञानिकवैनयिकाश्च केषाश्चित्तु तदावृत्तिमतां न भवतीति / यादृगभूता संज्ञा न भवति तां सप्रभेदा उपक्षिप्ताः, ते चामी-"असियसतं किरियाणं, अकिरियवाईण दर्शयति- कोऽहं परस्मिन् लोके जन्मनि मनुष्याऽऽदिरासम्, अनेन होइ चुलसीई। भावदिग् गृहीता, कतरस्या वा दिशः समायातः, इत्यनेन तु प्रज्ञापकदि अन्नाणि य सत्तट्ठी, वेणइयाण च वत्तीसा" / / 1 / / तत्र जीवाजीवागुपात्तेति, यथा कश्चिन्मदिरामदघूर्णितलोललोचनोऽव्यक्तमनोविज्ञानो ऽऽश्रवबन्धपुण्यपापसंवरनिर्जरामोक्षाऽऽख्या नव पदार्थाः स्वपरभेदास्थ्यामार्गनिपतितस्तच्छद्योकृष्टश्वगणापलिह्यमानवदनो गृहमानीतो भ्यां नित्यानित्यविकल्पद्येन च कालनियतिस्वभावेश्वराऽऽत्मामदात्यये न जानाति कृतोऽहमागत इति, तथा प्रकृतो मनुष्याऽऽदिर- ऽऽश्रयणादशीत्युत्तरं भेदशतं भवति क्रियावादिनाम्, एते चास्तित्वादिपीति गाथाऽर्थः। नोऽभिधीयन्ते / इयमत्र भावना-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः न केवलमेषेव संज्ञा नास्ति, अपराऽपि नास्तीति सूत्रकृदाह- / / 1 // अस्ति,जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः॥२॥ अस्ति जीयः परतो अस्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उवावाइए, के अहं नित्यः कालतः / / 3 / / अस्ति जीवः परतोऽनित्यः कालतः / / 4 / / आसी ? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि?1३। इत्येवं कालेन चत्वारो भेदा लब्धाः, एवं नियतिस्वभावेश्वराऽऽत्मभिर अस्ति विद्यते ममेत्यनेन पट्यन्तेन शरीरं निर्दिशति, ममास्य न्येकैकेन चत्वारश्चत्वारो विकल्पा लभ्यन्ते, एते च पञ्च चतुष्ककस शरीरकस्याधिष्ठाता, अतति-गच्छति सततगतिप्रवृत्तः आत्मा- | विंशतिर्भवति / इयं च जीवपदार्थन लब्धा, एवमजीवाऽऽदयोऽ
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________________ दिसा 2525 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा प्यष्टौ प्रत्येक विंशतिभेदा भवन्ति। ततश्च नव विंशतयः शतमशीत्युत्तरं भवति 180 / तत्र स्वत इति स्वेनैव रूपेण जीवोऽस्ति, न परोपाध्यपेक्षया हू सवत्वदीर्घत्वे इव, नित्यःशाश्वतो न क्षणिकः, पूर्वोत्तरकालयोरवस्थिततत्वात, कालत इति काल एव विश्वस्य स्थित्युत्पत्तिप्रलयकारणम्। उक्तं च-''कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। कालः पचति भूतानि, कालः संहरतेप्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः // 1 // ‘स चातीन्द्रियो युगपचिरक्षिप्रक्रियाऽभिव्यङ्गयो हिमोष्णवर्षाव्यवस्थाहेतुः क्षणलवमुहूर्तयामाहोरात्रमासत्रयनसंवत्सरयुगकल्पपल्यापडसागरोयमोत्सपिण्यवसर्पिणी पुद्गलपरावर्तातीतानागतवर्तमानसर्वाद्धाऽऽदिव्यवहाररूपः॥ 1 // द्वितीयविकल्पेतु कालादेवऽऽत्मनोऽस्तित्वमभ्युपेयं, किं त्वनित्योऽसाविति विशेषोऽय पूर्वविकल्पात् ॥२॥तृतीयविकल्पे तु परत एवास्तित्वमभ्युपगम्यते, कथं पुनः परतोऽस्तित्वमात्मनोऽभ्युपेयते? नन्वेतत्प्रसिऽमेव सर्वपदार्थाना परपदार्थस्वरूपापेक्षया स्वरूपपरिच्छेदो, यथा दीर्घत्वापेक्षया हस्वत्वपरिच्छेदो, ह्रस्वत्वापेक्षया च दीर्घत्यस्थेति। एवमेव चानात्मनस्तम्भकुम्भाऽऽदीन् समीक्ष्य तद्वयतिकरते वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्त्तत इति, अतो यदात्मनः स्वरूपं तत्परत एवावधार्यते, न स्वत इति / / 3 / / चतुर्थविकल्पोऽपि प्राग्वादिति चत्वारो विकल्पाः // 4 // तथाऽन्ये नियतित एवाऽऽत्मनः स्वरूपवधारयन्ति, का पुनरियं नियतिरिति ? उच्यते-पदार्थानाभवश्यतया यद्यथीवने प्रयोजनकी नियतिः / उक्त च–'प्राप्तट्यो नियतिबलाऽश्रयेण योऽर्थः, सोऽवइयं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा / भूताना महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥१॥ " इयं च मस्करिपरिव्राण्डमतानुसारिणी प्राय इति। अपरे पुनः स्वभावादेव संसारव्यवस्थामभ्युपयन्ति, कः पुनरयं स्वभावः ? वस्तुनः स्वत एव तथापरिणतिभावः स्वभावः। उक्तंच"कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्य, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः? // 1 // स्वभावतः प्रवृत्तानां, निवृत्तानां स्वभावतः। नाहं कर्तेति भूतानां, यः पश्यति स पश्यति॥२॥ केनाञ्चितानि नयनानि मृगाड्गनाना, कोऽलङ्करोति रुचिराङ्हान मयूरान्। कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति, को वा दधाति विनयं कुलजेषु पुंसु ? // 3 / / " तथाऽन्येऽभिदधते-समस्तमेतज्जीवादीश्वरात्प्रसूतं, तस्मादेव स्वरूपेऽवतिष्ठते, कः पुरयमीश्वरः ? अणिमाऽऽद्यैश्वर्ययोगादीश्वरः / उक्तं च-"अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेच्छवभं वा स्वर्गमेव वा / / 1 // " तथाऽन्ये बुवतेन जीवाऽऽदयः पदार्थाः कालाऽऽदिभ्यः स्वरूपं प्रतिपद्यन्ते, किं तर्हि ? आत्मनः कः पुनरयात्मा ? आत्माद्वैतवीदिना विश्वपरिणतिरूपः। उक्तश्च-"एक एव हि भूताऽऽत्मा, भूते भूते व्यवस्थितः / एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् // 1 // " तथा "पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच भाव्यम्' इत्यादि / एवमस्त्यजीवः स्वतः नित्यः कालत इत्येवं सर्वत्र योज्यम् / तथा अक्रियावादिनोनास्तित्ववादिनः, तेषमपि जीवाजीवाऽऽश्रवबन्धसंबरनिर्जरामाक्षाऽऽख्याः सप्त पदार्थाः स्वपरभेदद्वेयन तथा कालयदृच्छानियतिस्वभावेश्वराऽऽत्मभिः षड्भिश्चिन्त्यमानाश्चतुरशीतिविकल्पा भवन्ति / तद्यथा-नास्ति जीवः स्वतः कालतः, नास्ति जीवः परतः कालतः, इति कालेन द्वौ लब्धी, एवं यदृच्छानियत्यादिष्वपिद्वौ द्वौ भेदौ प्रत्येकं भवतः, सर्वेऽपि जीवपदार्थे द्वादशभवन्ति, एवम जीवाऽऽदिष्वपि प्रत्येक द्वादशैते सप्त द्वादशकाश्चतुरशीतिरिति 84 / अत्रमत्रार्थः-नास्ति जीवः कालत इति, इह पदार्थानां लक्षणेन सत्ता निश्चीयते, कार्यतो वा ? न चाऽऽत्मनस्तादृगस्ति किञ्चिलक्षणं, येन सत्ता प्रतिपद्येमहि, नाऽपि कार्यमणूनामिव महीध्राऽऽदि संभवति, यच लक्षणकार्याभ्यां नाभिगम्यते वस्तु तन्नास्त्येव वियदिन्दीवरत्, तस्मानास्त्यात्मेति / द्वितीयविकल्पोऽपि यच्च स्वतो नात्मानं विभति गगनारविन्दाऽऽदिकं तत्परतोऽपि नास्त्येव, अथ वा सर्वपदार्थानामेव परभागादर्शनात्सर्वाऽर्वाग्भागसूक्ष्मत्वाचोभयानुपलब्धेः सर्वानुपलब्धितो नास्तित्वमध्यवसीयते। उक्तंच-"यावद्दृश्यं परस्तावद्भागः स च न दृश्यते " इत्यादि। तथा "यदृच्छातोऽपि नास्तित्वमात्मनः, का पुनर्यदृच्छा ? अनभिसन्धिपूविकाऽर्थप्राप्तिर्यदृच्छा।" "अतर्कितोपस्थितमेव सर्व .. चित्रं जनानां सुखदुःखजातम्। काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोत्र वृथऽभिमानः॥१॥ सत्यं पिशाचाः स्म वने वसामो, भेरी करागैरपि न स्पृशामः। यदृच्छया सिद्धयति लोकयात्रा, भेरी पिशाचाः परिताडयन्ति / / 2 // " यथा काकतालीयमबुद्धिपूर्वकं, न काकस्य बुद्धिरस्तिमयि तालं पतिष्यति, नापि तालस्याभिप्रायः-काकोपरि पतिष्यामि, अथ च तत्तथैव भवति, एवमन्यदप्यतर्कितोपनतमजाकृपाणीयमातुरभेषजीयमन्धकण्टकीयमित्यादि द्रष्टव्यम्, एवं सर्वं जातिजरामरणाऽऽदिक लोके यादृच्छिकं काकतालीयाऽऽदिकल्पमवसेयमिति / एवं नियतिस्वभावेश्वराऽऽत्मभिरप्यात्मा निराकर्तव्यः / तथा-ज्ञानिकांना राप्तष-ष्टिर्भेदाः / ते चामीजीवाऽऽदयो नव पदार्थाः, उत्पत्श्चि दशमी, सत्, असत्, सदसत्, अवक्तव्यः,सदवक्तव्यः, असदवक्तव्यः, सदसदवक्तव्यः, इत्येतैः सप्तभिः प्रकारौविंज्ञातुं न शक्यन्ते, न च विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति / भावना चेयम्-सन् जीव को वेत्ति, किंवा तेन ज्ञातेन? असन्जीव इति को जानाति ? किंवा ज्ञातेनेत्यादि। एवमजीवाऽऽदिष्वपि प्रत्येक सप्त विकल्पाः,नव सप्तकास्त्रिषष्टिः, अमी चान्ये चत्वारस्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते / तद्यथा- सति भावोत्पत्तिरिति को जानाति? किं वाऽनया ज्ञातया ? एवमसति सदसती अवक्तव्या भावोत्पत्तिरिति को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातयेति, शेषविकल्पत्रयमुत्पत्युत्तरकालं पदार्थावयंवापेक्षमतोऽत्र न संभवतीति नोक्तम् , एतचतुष्टयप्रक्षेपात्सप्तषष्टिर्भवन्ति। तत्र सन् जीव इति को वेत्ति ? इत्यस्यायमर्थ:- न कस्यचिद्विशिष्ट ज्ञानमस्ति, योऽतीन्द्रियान् जीवाऽऽदीनभोत्स्यते, न च तैतिः किं चित्फलमस्ति / तथाहि-यदि नित्यः सर्वगतो मूर्ती ज्ञानाऽऽदिगु
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________________ दिसा 2526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा जोपेतः, एतदगुणवयतिरिक्तो वा ? ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरति, तस्मादज्ञज्ञनमेव श्रेयः / अपि च-तुल्येऽप्यपराधे अकामकरणे लोके स्वल्पो दोषो, लोकोत्तरेऽपि आकुट्टिकानाभोगसहसाकाराऽऽदिषु क्षुल्लकभिक्षुस्थविरोपाध्यायसूरीणां यथाक्रमुत्तरोत्तर प्रायश्चित्तमित्यवभन्येष्वपि विकल्पेष्वायोज्यम्।तथा वैनियिकाना द्वात्रिंशद्भेदाः, ते चानेन विधिना भावनीयाः, सुरनृपयतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृष्वष्टसु मनोवाक्कायप्रदानचतुर्विधविनयकरणात्। तद्यथा-देवानां विनय करोति मनासा वाचा कायेन, तथा देशकालोपपन्नेन दानेनेत्येवमादि। एते च विनयादेव स्वर्गापवर्गमार्गमभ्युपयन्ति, नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकलक्षणो विनयः, सर्वत्र चैवंविधन विनयेन देवाऽऽदिषूपतिष्टमानः स्वर्गापवर्गभाग भवति। उक्तं च -"विणया णाणं णाणा-ओआ दसणं दसणाहि चरणं च। चरणाहिता मोक्खा, गोक्खे सोक्खं अणावाह। 1 / " अब च क्रियाधादिनामस्तित्व सत्यपि केपाश्चित्सर्वगाते नित्योऽनित्यः कर्ताऽकर्ता मूर्तोऽमूर्तः श्यामाकतण्डुलमात्रोऽड्गुठपर्वमात्रों दीपशिखापडो हृदयाधिष्ठान इत्यादिकः / अस्ति चोषपातिकश्च, अक्रियावादिनां त्वात्मेव न विद्यते, कुतः पुनरोपपातिकत्वम् ? अज्ञानिकास्तु नात्मानं प्रति विप्रतिपद्यन्ते, किं तु तज्ज्ञानमकिशित्करमेषामिति, वैनयिकानामपि नात्माऽस्तित्व विपतिपतिः किं त्वन्यन्मोक्षसाधनं विनयादृते न संभवतीति प्रतिपन्नाः / तत्रानेन सामान्याऽऽत्मस्तित्वप्रतिपादनेनाकियावादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः। आत्मास्तित्वानभ्युपगमे च... 'शास्ता शास्त्र शिष्यः, प्रयोजनं वचनहेतुदृष्टान्ताः। सन्ति न शून्य बुवत-स्तदभावाचाप्रमाणं स्यात्।।१।। प्रतिषेद्ध्यप्रतिषधी, स्तश्चेच्छून्यं कथं भवत्सर्वम् ? / तदभावेन तु सिद्धा, अप्रतिसिद्धा जगत्यर्थाः॥ 2 // " एवं शेषाणामप्यत्रैव यथासंभवं निराकरणमुत्प्रेक्ष्यमिति // 3 // गतमानुषङ्गिकम्। प्रकृतमपुस्रियते-तत्रेह "एवनेगेसिं णो णायं भवइ ." इत्यनेन केषाञ्चिदेव संज्ञानिषेधात्केषाञ्चित्तु भवतीत्युक्तं भवति, तत्र सामान्यसंज्ञायाः प्रतिप्राणि सिद्धत्वात्ततकारणपरिज्ञानस्य चेहाकिञ्चिकरत्वाद्विशिष्टसंज्ञायास्तु केषाञ्चिदेव भावात् तस्याश्च भवान्तरगाम्यात्मस्पष्टप्रतिपादने सोपयोगित्वात् सामान्यसंज्ञाकारणप्रतिपादनमनादृत्य विशिष्टिसंज्ञायाः कारणं सूत्रकृदयितुमाह से जंपुण जाणेज्जा सहसंमइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं अंतिए वा सोचा, तं जहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि० जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिं जंणायं भवति-अस्थि मे आयो उववाइए, जा इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ, सोऽहं / / 4|| "से ज पुण जाणेज त्ति' सूत्रं यावत् 'सोऽहमिति।' 'स' इति निर्देशो मागधशैल्या प्रथमैकवचनान्तः, स इत्यनेन च यः प्रानिर्दिष्टो ज्ञाता विशिष्टक्षयोपशमाऽऽदिमारा प्रत्यवमश्यते, यदित्यनेनापि यत्प्राग्निर्दिष्ट दिग्विदिगागमन, तथा कोऽहमभूवमतीतजन्मनि देवो नारस्तिथग्योनो मनुष्यो वा? स्त्री पुमान्नपुंसको वा ? को वाऽमुतो मनुष्यजन्मनः प्रभ्रष्टोऽह प्रत्य देवाऽऽदिर्भविष्यामीत्येत्परामृश्यते, जानीयादवगच्छेद्, इदमुक्तं भवति-न कश्चिदनादौ संसृतौ पर्यटन्नसुमान् दिगागमनाऽऽदिकं जानीयात, यः पुनर्जानीयास्त एवम-(सह सम्मइयाए त्ति) सहशब्दः संबन्धवाची, सदिति प्रशंसायां, मतिः ज्ञानम् / अयमत्र वाक्यार्थःआत्मना सह सदा या सन्मतिर्वर्तते, तया सन्मत्या कश्चिजानीते, सह शब्दविशेषणाच सदाऽऽत्मस्वभावत्वं मतेरावेदित भवति, न पुनर्यथा वैशेषिकाणा व्यतिरिक्ता सती समवायवृत्यात्मनि समवेतेति / यदि वा (सम्मइए त्ति) स्वकीयया मत्या स्वमत्येति, तत्र भिन्नमप्यश्वाऽऽदिक स्वकीयं दृश्टमतः सहशब्दविशेषणं, सहशब्दश्चासमस्त इति, सत्यपि चाऽऽत्मनः सदा मतिसन्निधाने प्रबलज्ञानऽऽवरणाऽऽवृत्तत्वान्न सदा विशिष्टोऽवबोध इति, सा युनः सन्मतिः, स्वमतिर्वा अवधिमनः पर्यायवकंवलज्ञानजातिस्मरणभेदाच्चतुर्विधा ज्ञेयाः, तत्रावधिमनःपर्यायकेवलाना स्वरूपमन्यत्र विस्तरेणोक्त, जातिस्मरणं त्वाभिनिवाधिकविशेषः, तदेवं चतर्विधया मत्याऽत्मनः कश्चिद्विशिष्टदिग्गत्यागती जानाति, कश्चिच परस्तीर्थकृत्सर्वज्ञः,तस्यैव परमाश्रतः परशब्दवाच्यत्वात्परत्व, तस्य तेनवाव्याकरणम्-उपदेशस्तेन जीवांस्तद्भेदाश्च पृथिव्यादीन् तद्गत्यागती च जानाति, अपरः पुनरन्येषां तीर्थकरव्यतिरिक्तानामतिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानातीति, यच्च जानाति तत सूत्रावयवेन दर्शयति / तद्यथा-पूर्वस्या दिश आगताकऽहमस्मि, एवं दक्षिणस्याः पश्चिमाया उत्तरस्या उर्द्धदिशोऽधोदिशोऽन्यतरस्याः दिशोऽनुदिशो वा आगतोऽहमसमीत्येवमेकेषां विशिष्टक्षयोपशमाssदिमतां तीर्थकरान्यातिशज्ञातनबोधितानां च ज्ञान भवति, तथा प्रतिविशिष्टदिगागमनपरिज्ञानान्तरमेषामेतदपि ज्ञानं भवति, यथाऽस्ति मेऽस्य शरीरकस्याधिष्ठाता ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण दपपादुको भवान्तरसंक्रान्तिभागसर्वगतो भोक्ता मूर्ति हितसेऽविनाशी शरीरमात्रव्यापीत्यादिगुणवानात्मेति। स च द्रव्वकषाययोगोपयोग-ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याऽऽत्मभेदादष्टधा, तत्रोपयोगाऽऽत्मना बाहुल्येनेहाधिकारः, शेषास्तु तदंशतयोपयुज्यन्त इति उपन्यस्ताः / तथा-अस्ति च ममाऽऽत्मा. योऽमुष्या दिशोऽनुदिशश्च कसशादनुसञ्चरति गतप्रायोग्यकोणदानादनु पश्चात् संचरत्यनुसंचरति, पाठान्तरं वा-(अणुसंसरइ त्ति) दिग्विदिशां गमनं भावदिगागमनं वा स्मरतीत्यर्थः / साम्प्रत सूत्रावयवेन पूर्वसूत्रोक्तमेवार्थमुपसंहरतिसर्वस्या दिशः सर्वस्याश्चानुदिशा य आगतोऽनुसञ्चरति, अनुसंस्मरतीति वा सः, अहमित्यात्मोल्लेखः, अहं प्रत्ययग्राह्यत्वादात्मनः, अनेन पूर्वाऽद्याः प्रज्ञापकदिशः सर्वा गृहीताः, भावदिशश्चेति। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। आ०चू० / स्था०। (अहं कस्या दिश आगत इति विचारः 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 182 पृष्ठे निदर्शितः) द्वाभ्यां दिग्भ्यां प्रव्राजनाऽऽदि प्रवर्ततेदो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पइ निग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा पव्वावित्तए पाईणंचेव, उदीणंचेवा एवं मुंमावित्तए 1 सिक्खावित्तए 2 उवट्ठावित्तए 3 संभुंजित्तए 4 संवसित्तए 5 सज्झायं उद्दिसित्तए 6 सज्झायं समुद्दिसित्तए 7 सज्झायमणुजाणित्तए 8 आलोइत्तए पडिक्कमित्तए 10 निंदित्तए 11 गरहित्तए 12 विउट्टि--
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________________ दिसा 2527 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा त्तए 13 विसोहित्तए 14 अकरणयाए 15 अब्भुट्टित्तए अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवजित्तए 16 / द्वे दिशौ काष्ठे अभिगृह्याऽङ्गीकृत्य, तदभिमुखीभुयेत्यर्थः / कल्प्यते युज्यते, निर्गता ग्रन्थाद्धनाऽऽदेरिति निर्ग्रन्थाः साधवः, तेषां निगेन्थ्यः साध्व्यः, तसा प्रव्राजयितु रजोहरणाऽऽदिदानेन प्राचीनां प्राची, पूर्वामिभ्यर्थः / उदीचीनामुदीचीमुत्तरामित्यर्थः / उक्तं च -"पुथ्योमुहो उ उत्तर-महो व्व देजाऽहवा पडिच्छेज्जा / जाए जिणादओ वा, हवेज जिणचेझ्याई वा॥१॥" इति। (एवमिति) यथा प्रव्राजनसूत्रं दिग्द्वयाभिलापेन अधीतम्, एवं मुण्डनाऽऽदिसूत्राण्यापि षोडशाऽध्येतव्यानीति ! तत्र मुण्डयितुं शिरोलुचनेन 1, शिक्षयितुं ग्रहणशिक्षापेक्षया सूत्रार्थी ग्राहयितुमासेवनशिक्षापेक्षया तु प्रत्युपेक्षणाऽऽदिशिक्षयितुमिति 2. उत्थापयितुं महाव्रतेषु व्यवस्थापितुम् 3, संभोजयितुं भोजनमण्डमल्या निवेशयितुम् 4, संवासयितुं संस्तारकमण्डल्यां निवेशयितुम् 5, सुष्ठ आ मर्यादयाऽीयत इति स्वाध्यायोगाऽऽदिस्तमुपदेष्ट योगविधिक्रमेण सम्यग्योगेनाधीष्वेदमित्येवमुपदेष्टुमिति 6, समुद्देष्टु योगसमाचार्यव स्थिरपरिचितं कुर्विदमिति वक्तुमिति७, अनुज्ञातं तथैव सम्यगेतद्धारयाऽन्येषः च प्रवेदयेत्येवमभिधातुमिति 8. आलोचयितुं गुरवेऽपराधान् निवेदयितुमिति 6, प्रतिक्रामितु प्रतिक्रमणं कर्तुमिति 10. निन्दितुमतिचारान् रवसमक्षं जुगुप्सितुम् 11 / आह च-'"सचरित्तपत्थयावो / " निन्दति गर्हित गुरुसमक्षं तानेव जुगुप्सितुम 12 / आह च-''गरहा वि तहा जातीयमेव, नवरं परप्पयासणय त्ति।'' (विउद्वित्तए त्ति) व्यतिवतायितुं विबोटयितुं विकृट्टयितुंवा, अतिचारानुबन्धि विच्छेदयितुमित्यर्थः 13, विशोधयितुमतिचारपङ्कापेक्षयाऽऽत्मानं विमलीकर्तुमिति 14, अकरणतया पुनर्न करिष्यामीत्येवमभ्युत्थातुमभ्युपगन्तुमिति 15, यथार्हमतिचाराऽऽद्यपेक्षया यथोचित पापच्छेदकत्वात्, प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्रायश्चित्तम् / उक्तं च-'पावं छिदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भन्नए तेण / पारण वा वि चित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं // 1 // " इति। तपःकर्म निर्विकृतिकाऽऽदिकं प्रतिपत्तुमभ्युपगन्तुमिति 16 / सप्तदशं सूत्रं साक्षादेवाऽऽह-- दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पइ णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा अपच्छि ममारणं तिय संले हणाझू सणाझू सियाण भत्तपाणपडियाइक्खेत्ताणं पाओवगयाणं कालं अणवकंखमाणणं विहरित्तए। तं जहा-पाईणं चेव, उदीणं चेव। पश्चिमैवामङ्गलपरिहारार्थभपश्चिमा, सा चासौ मरणमेव योऽन्तस्तत्र भवा मारणन्तिकी, सा चासौ संलिख्यतेऽनया शरीरककषायाऽऽदीति संलेखना तपोविशेषः, सा चेति अपश्चिममारणान्तिकसंलेखाना, तस्याः (झूसण ति) जोषणा सेवा, तया तल्लक्षणधर्मेणेत्यर्थः। (भूसियापति) सेवितानां, तद्युक्तानामित्यर्थः / तया वा झूषितानां क्षपिताना, क्षपितदेहानामित्यर्थः, तथा भक्तपाने प्रत्याख्याते यैस्ते तथा, तेषां, पादपक्दु पगतानामचेष्टतया स्थितानामनशनविशेष प्रतिपन्नानामित्यर्थः, कालं मरणकालमनवकासिणां तत्रानुत्सुकानां विहर्तुं स्थातुमिति / / 17 / / स्था० 2 ला० 1 उ० / नि० चू०। तिसुभिर्दिग्त्यादि प्रवर्तते तओ दिसाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-उड्डा, अहो तिरिया / (स्था०) एवं आगई वनंती आहारे वुड्डी णिवुड्डी गइपरियाए समुग्घाए कालसंजोगे दंसणाभिगमे णाणाभिगमे जीवभिगमे / तिहिं ठाणेहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पण्णत्ते / तं जहा-उड्ढाए, अहोए, तिरियाए / एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं / एवं मणुस्साण वि। दिडनिरूपणपूर्वक तासु गत्यादि निरूपयन "तओ दिसाओ'' इत्यादि सूत्राणि चतुर्दशानि, सुगमानिच, नवरं दिश्यते व्यपदिश्यते पूर्वाऽऽदितया वस्त्वनयेति दिक, सा च नामाऽऽदिभेदेन सप्तधा। आह च नियुक्तिकृत"मठवणा दविए, खेत्तदिसा तावखेत्त पण्णवए। सत्तमिया भावदिसा, सा होइटारसविहा उ॥४०॥"(आचा०नि०) तत्र द्रव्यस्य पुद्गलस्कन्धाऽऽदेर्दिग् द्रव्यदिकी, क्षेत्रास्याऽऽकाशस्य दिक् क्षेत्रदिक्। सा चैवम्"अट्ठपएसो रुगयो, तिरियं लोगस्स मज्झयारिम्मि। एस पभवो दिसाणं, एसेवभवे अणुदिसाणं॥४२॥" (आचा०नि०) तत्र पूर्वाऽऽद्या महादिशश्चतस्रोऽपि द्विप्रदेशाऽऽदिकाऽऽद्युत्तरा अनुदिशस्तु एकप्रदेशा अनुत्तरा ऊधिोदिशौ तु चतुराऽऽदि अनुत्तरे। यतोऽवाचि"दुपएसाऽदि दुरुत्तर, एगपएसा अणुत्तरा चेव। चउरो चउरो य दिसा, चउराइ अणुत्तरा दोन्नि।। 44 / / सगमुद्रिसठियाओ, महादिसाओ हवंति-चत्तारि। मुत्तावली य चउरो, दो चेव य हो ति रूयगनिभा।। 46 / / " नामानि चासाम्-"इदऽऽगेयी जम्भा, य नेरई वारुणी य वायव्वा / सोना ईसाणा विय, विमला य तमा य बोधव्वा।। 43 // " तापः सविता, तदुपलक्षिता क्षेत्रदिक्तापक्षेत्रदिक्, सा चाऽनियता। यत उक्तम्-"जेसि जत्तो सूरो, उदेइ तेसिं तई हवइ पुष्वा / तावक्खेत्तदिसाओ, पयाहिणं सेरायाओ सा॥४७॥" इति।(आचा०नि०) तथा प्रज्ञापकस्याऽचार्यादेर्दिक प्रज्ञापक-दिक् / सा चैवम्-'"पण्णवओ जो अभिमुहो, सा पुव्वा सेसिया पयाहिणओ। तस्सेवऽणुगंतव्वा, अग्गेयाई दिसा नियमा॥५१॥" भावदिक् चाष्टादशविधा"पुढवि-जल-जलण-वाया, मेलो खंधग्गपोरवीया य। विति चउपंचिंदय-तिरि-य-नारगा देवसंघाया॥१॥ संमुच्छिम-कम्माक--म्मभूगनरा तहऽतरद्दीवा।। भावदिसा दिस्सइ जं. संसारी निययमेहोहिं / / 2 / / " इति। इह च क्षेत्रतापप्रज्ञापकदिग्भिरेवाधिकारः, तत्र च तिर्यग्रहणेन पूर्वाऽऽद्याश्चतस्त्र एव दिशो गृह्यन्ते, विदिक्षु जीवानामनुश्रेणिगमितया वक्ष्यमाणगत्या गतिव्युत्कान्तीनामयुज्यमानत्वात्, शेषपदेषु च विदिशामविवक्षितत्वात् / यतोऽत्रैव वक्ष्यति-"तिहिं दिसाहि जीवाणं गई पवतइ।'' इत्यादि। तथा ग्रन्थान्तरेऽप्याहारमाश्रित्योक्तम् "निव्वाघाएण नियमा छरिसिं ति। " तत्र 'तिहिं दिसाहिति'' सप्तमी तृतीया पञ्चमी वा यथायोग व्याख्येयेति, गतिः प्रज्ञापकस्थानापेक्षयामृत्वाऽन्यत्र गमनमेवमिति पूर्वोक्तामिलापसूचनार्थः / आगतिः प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने आगगनिमिति, व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तिः आहारः प्रतीतः, वृद्धिः शरीरस्य वर्द्धन, हानिः शरीरस्यैव हानिः, गतिपर्याय श्चलनजीवत एव,समुद्धातो वेदनाऽ5--
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________________ दिसा 2528 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा दिलक्षणः कालसंयोगो वर्तनाऽऽदिकाकाललक्षणानुभूति-मरणयोगो वा, दर्शनेनावध्यादिना प्रत्यक्षप्रमाणभूतेनाभिगमो बोधो दर्शनाभिगमः एवं ज्ञानाभिगमः जीवाना ज्ञेयानामवध्यादिनैवाभिगमो जीवाभिगम इति / "तिहिं दिसाहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पन्नत्ते / तं जहा-उड्डा, अहो तिरिया।'' एवं सर्वत्रभिलापनीयमिति दर्शनार्थ परिपूर्णान्त्सूत्राभिधानमिति / एतान्यतीवाभिगमानतनि सामन्यजीवसूत्राणि / चतुर्विशतिदण्डकचिन्तायां तु नारकाऽऽदिपदेषु दिक्त्रये गत्यादीनां त्रयोदशानामपि पदानां सामस्त्येनासम्भवात, पश्शेन्द्रियतिर्थक्ष मनुष्येषु च तत्संभवात्। तदतिदेशमाह-(एवमित्यादि) यथा सामान्यसूत्रेषु गत्यादीनि त्रयोदशपदानि दिक्त्रयेऽभिहितान्येवं पञ्चेन्दियतिर्यग्मनुष्येषु इति भावः / एवं चैतानिषड्विशतिसूत्राणि भवन्तीति। अथैषां नारकाऽऽदिषु कथमसम्भव इति? उच्यते-नारकाऽऽदीनां द्वाविंशतेर्जीवविशेषाणां नारकदेवेषूत्पादाभावादूधिोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा दर्शनज्ञान जीवाजीवभिगमा गुणप्रत्ययया अवध्यादिप्रत्यक्षरूपा दिक्त्रये न सन्त्येव / भवप्रत्ययावधिपक्षे तुनारकजेतिष्कास्तिर्थगवधयो भवनपतिव्यन्तरा ऊर्ध्वावधयो वैमानिका अधोऽवधय एकेन्द्रियाविकलेन्द्रियाणा त्वधि स्त्येवेति। स्था० 3 ठा०२ उ०। षभिर्दिभिश्च गत्यागती प्रवर्तेतेछहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तइ। तं जहा-पाईणाए० जाव अहाए, एवमागई वक्रती आहारे वुड्डी निवुड्डी विगुव्वणा गइपरियाए समुग्घाए कालसंजोगं दंसणाभिगम जीवाऽभिगमे अजीवाभिगमे, एवं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण वि, मणुस्साण वि।। षड्भिर्दिम्भिर्जीवानां गतिरुत्पत्तिस्थानं गमनं प्रवर्तते। अनुश्रेणिगमनात्तेषामित्येवमेतानि चतुर्दश सूत्राणि नेयानि / नवरं गतिरागतिश्च / प्रज्ञापकस्थानापेक्षिरायौ प्रसिद्ध एव, व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तिस्थानप्राप्तस्योत्पादः, सोऽपि ऋजुगतो षट्स्वेव दिक्षु, तथा आहारः प्रतीतः, सोऽपि षट्स्वेव दिक्षु, एतद्वव्यवस्थितपदेशावगाढपुद्गलानामेव जीवेन स्पर्शनात्, स्पृष्टानामेवाऽऽहरणादित्येवं षड्दिकता यथासंभवं वृयादिष्पप्यूह्येति / तथा बुद्धिः शरीरस्य, निर्वृद्धिर्हानिस्तस्यैव, विकुर्वणा वैक्रियकरणं, गतिपर्याथो गमनमात्रं न परलोकगमनरूपः, तस्य गत्यागतिग्रहणेन गृहीतत्वादिति / समुद्धातो वेदनाऽऽदिकः सप्तविधः, कालसंयोगः समयक्षेत्रमध्ये आदित्याऽऽदिप्रकाशसंबन्धलक्षणः, दर्शनं सामान्यग्राही बोधः, तचेह गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षरूपं, तेनाभिगमो वस्तुनः परिच्छेउस्तप्राप्तिर्वा दर्शनाभिगमः / एवं ज्ञानाभिगमोऽपि, जीवभिगमः सत्त्वाऽभिगमो, गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षतः। अजीवाभिगमः पुद्गलास्तिकायद्यानिगमः, सोऽपि तथैवेति / एवमिति, तथा ''छहिं दिसाहिं जीवाणं गई पवत्तइ“ इत्यादिसूत्राण्ययुक्तानि / एवं चतुर्विशतिदण्डकचिन्तयाम् "पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं छहिं दिसाहि गर्ह / " इत्यादिन्यपि वाच्यानि। तथा मनुष्यसूत्राण्यपि, शेषेषु नारकाऽऽदिपदेषु षट्सु दिक्षु गत्यादीनां समास्त्येनासंभवः / तथाहि-नारकाऽऽदीना | द्वाविंशतेर्जीवविशेषाणां नारकदेवेषूत्पादाभावादूधिोदिशोर्विवक्षया गत्यागत्योरभावः, तथा दर्शनज्ञानजीवाऽजीवाभिगमा गुणप्रत्ययावधिलक्षणप्रत्यक्षसन्तानरूपान सन्त्येव, तेषां भवप्रत्ययावधिपक्ष तुनारकज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो, भवनपतिव्यन्ता ऊर्ध्ववधयो, वैमानिकास्त्वधोऽवधयः, शेषा निरवधय एवेति भावना / विवक्षाप्रधानानि च प्रायोऽन्यत्राऽपि सूत्राणिति। स्था०६ ठा०। रायगिहे० जाव एवं वयासी-किमियं भंते ! पाईणे त्ति पवुच्चइ ? गोयमा ! जीवा चेव, अजीव चेव / किमियं भंते ! पडीणे त्ति पवुच्चइ ? गोयमा ! एवं चेव। एवं च दाहिणा, एवं च उदीणा, एवं उड्डा, एवं अहो वि। कइणं भंते दिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! दस दिसाओ पण्णत्ताओ / तं जहा--पुरच्छिमा, पुरच्छिमादाहिणा, दाहिणा, दाहिणपञ्चच्छिमा, पञ्चच्छिमा, पञ्चच्छिमुत्तरा, उत्तरा, उत्तरपुरच्छिमा, उड्डा, अहो / (किमियं भंत ! पाइण त्ति पवुचइ ति) किमेतदस्तु यत्प्राग्व प्राचीनं दिग्विवक्षायां प्राचीना प्राची पूर्वेति प्रोच्यते ? उत्तरं तु जीवाश्चैवाऽजीवाश्चैव जीवाजीवरूपा प्राची, तत्र जीवा एकेन्द्रियाऽदयोऽजीवास्तु धर्मास्तिकायाऽऽदिदेशाऽऽदयः / इदमुक्तं भवति-प्राच्यां दिशि जीवा अजीवाश्च सन्तीति। एयंसिणं भत्ते ! दसण्हं दिसाणं कइ नामधेज्जा पण्णत्ता ? गोयमा ! दस नामधेजा पण्णत्ता। तं जहा-"इंदा अग्गेयी य जमा, य नेरई वारुणी य वायव्वा / सोमा ईसाणीया, विमला य तमा य बोधव्वा / / 1 // " (इंदत्यादि) इन्द्रो देवता यस्याः सैन्द्री, अग्निदेवता यस्याः सा आग्रेयी, एवं यमो देवता याम्या, निर्ऋतिर्देवता नैर्ऋती, वरुणो देवता धारुणी, वायुर्देवता वायव्या, सोमदेवता सौम्या, ईशानदेवता ऐशानी, विमलतया विमला, तमारात्रिस्तदाकारत्वात्तमाऽन्धकारेत्यर्थः, अत्र ऐन्द्री पूर्वा, शेषाः क्रमेण, विकला तूर्द्ध , तमा पुनरधोदिगिति, इह च दिशः शकटोद्धिसंस्थिताः, विदिशस्तु मुक्तावल्याकाराः, ऊर्ध्वाधोदिशौ च रुचकाकारे। आह च-"सगमुद्विसंठियाओ, महादिसाओ हवंति चत्तारि / मुत्तावली य चउरो, दो चेव य होति रुयगनिभा।" (46) इति (आचा०) इदांणं भंते ! दिसा किं जीवाजीवदेसाजीवप्पएसा; अजीवा, अजीवदेसा, अजीवप्पएसा? गोयमा ! जीवा वि, तं चेव० जाव अजीवप्पएसा वि। जे जीवा ते णियमं एगिदिया वेइंदिया० जाव पंचिंदिया आणिंदिया; जे जीवदेसा ते णियमं एगिदियदेसा० जाव अणिंदियदेसा,जे जीवप्पएसा ते णियमं एगिदियप्पएसा० जाव अएिंदिययप्पएसा / जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता। तं जहारूवी अजीवा, अरूवी अजीवा य / जे रूवी अजीवा ते चउव्विहा पण्णत्ता तंजहा-खंधा,खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला। (जीवा वीत्यादि) ऐन्द्री दिग् जीवाः, तस्यां जीवानामस्तिस्यात् / एवं जीवादेशाः, जीवप्रदेशाश्चेति / तथा अजीवानां पुद्गलाऽऽदीनामस्तित्वादजीवाः, धर्मास्तिकायाऽऽदिदेशानां पुनर
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________________ दिसा 2526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा स्त्तिवादजीवदेशाः एवजीवप्रदेशा अपीति। तत्र ये जीवास्ते एकेन्द्रिया- | ऽऽदयोऽनिन्द्रियाश्च केवलिनो, ये तु जीवदेशास्ते एकेन्द्रियाऽऽदीनाम् 6. एवं जीवप्रदेशा अपि। जे अरूवी अजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता / तं जहा-नो धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पएसा; नो अधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्थत्थिकायस्स पएसा; नो आगासत्थिकाए, आगासत्थिकायस्स देसे, आगासस्थिकायस्स पएसा, अद्धासमए।। (जे अरूवी अजीवा ते सत्तविह त्ति) कथम् ? (नोधम्मत्थिकाए) अयमर्थः--धर्मास्तिकायः समस्त एवोच्यते, स च प्राची दिन भवति, तदेकदेशभूतत्वात्तस्याः, किं तु धर्मास्तिकायस्य देशः, सातदेकदेशभागरूपेति। तथा तस्यैव प्रदेशाः सा भवति, असंख्येयप्रदेशाऽऽत्मकत्वात्तस्याः। एवमधर्मास्तिकायस्यदेशः, प्रदेशाश्च 2 / एवमाकाशास्तिकायस्य देशः, प्रदेशाश्च 2 / अद्धासमयश्चेति / तदेवं सप्तप्रकारा रूप्यजीवरूपा ऐन्द्री दिगिति। अग्गेयी णं भंते / दिसा किं जीवा, जीवदेसा, जीवप्पएसा पुच्छा ? गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि, जीवप्पएसा वि%3B अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवप्पएसा वि3; जे जीवदेसा ते णियमा एगिंदियदेसा। ''अग्गेयी णं'' इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु जीवा निषेधनीया विदिशामेकप्रादेशिकत्वादेकप्रदेशे च जीवानामवगाह्मभावात्, असङ्ख्यातप्रदेशावगाहित्वात् तेषाम, तत्र "जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदसे ति।" एकेन्द्रियाणां सकललोकव्यापकत्वादानेय्यां नियमादेकेन्द्रियदेशाः सन्तीति। अद्दवा एगिदियदेसाय, वेइंदियस्स देसे १,अहवा एगिदियदेसा य, वेइंदियस्स देसा 2, अहवा एगिंदियदेसा य, वेइंदियाण य देसा 3, अहवा एगिंदियदेसा, तेइंदियस्स देसे, एवं चेव तिय भंगो भाणियव्वो / एवं जाव० आणिंदियाणं तियभंगो, जे जीवप्पएसा ते णियमा एगिंदियप्पएसा, अहवा एगिंदियप्पएसा य वेइंदियस्स पएसा, अहवा एगिदियप्पएसा य वेइंदियाण य पएसा, एवं आदिल्लविरहिओ० जाव अणिंदियाणं / जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-रूवी अजीवा य, अरूवी अजीवा य,जे रूवी अजीवा ते चउव्विहा पण्णत्तातं जहा-खंधा,खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला / जे अरूवी अजीवा ते सत्तविहापण्णत्ता। तंजहा-नो धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पएसा, एवं अधम्मत्थिकायस्स वि० जाव आगासत्थिकायस्स पएसा, अद्धासमए वि दिसासु नत्थि, जीवा देसे भंगो होइ सव्वत्थ। जमाणं भंते ! दिसा किं जीवा? जहा इंदा तहेव णिरवसेसं, ऐरइया जहा अग्गेयी, वारुणी जहा इंदा, वायव्वा जहा अग्गेयी, सोमा जहा इंदा, ईसाणी जहा अग्गेयी, विमलाए जीवा जहा अग्गेयीए, अजीवा जहा इंदाए, एवं तमा वि, एवरं अरूवी छविहा अद्धासमओ न भण्णइ॥ (अह वेत्यादि) एकेन्द्रियाणां सकललोकव्यापकत्वादेव, द्वीन्द्रियाणां घाल्पत्वेन कृचिदेकस्याऽपितस्यसंभवादुच्यते-एकेन्द्रियाणां देशाश्च, द्वीन्द्रियस्य च देश इति द्विकयोगे प्रथमः 1 / अथवा एकेन्द्रियपदं तथैव, द्वीन्द्रियपदे त्वेकवचनं, देशपदे पुनर्बहुवचनमिति द्वितीयः, अयं च यदा द्वीन्द्रियो व्यादिभिर्देशैस्ता स्पृशति तदा स्यादिति। अथवा एकेन्द्रियपदं तथैव, दीन्द्रियपदं देशपदं च बहुवचनान्तमिति तृतीयः। स्थापना-एके० देशाः 3, द्वी 1 देशः 1 / एके० देशाः 3, द्वी 1 देशः 3 / एके० देशाः 3, द्वी १देशः 3 // एवं त्रिन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियानिन्द्रियैः सह प्रत्येकं भङ्गत्रय दृश्यम्-एवं प्रदेशपक्षोऽपि वाच्यो, नवरमिह द्वीन्द्रियाऽऽदिषु प्रदेशपदं बहुवचनान्तमेव, यतो लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्जजीवानां यत्रैकः प्रदेशस्तत्रावयातास्ते भवन्ति, लोव्यापकावस्थानिन्द्रियस्य पुनर्यद्यप्येकत्र क्षेत्रप्रदेशे एक एव प्रदेशस्तथाऽपि तत्प्रदेशपदे बहुवचनमेवाग्नेय्यां तत्प्रदेशानामसङ्ख्यातानामवगाढत्वादतः सर्वेषु द्विकसंयोगेष्वाद्यविरहितं भङ्गकद्वयमेव भवतीत्येतदेवाऽऽह-(आइल्लविरहिओ ति) द्विकभङ्ग इति शेषः। (विमलाए जीवा जहा अग्गेयीए त्ति) विमलायापि जीवानामन-वगाहात् (अजीवा जहा इंदाए त्ति) समानवक्तव्यत्वात्, एवं (तमा वित्ति) विमलावत्तमाऽपि वाच्येत्यर्थः / अथ विमलायामनिन्द्रियसम्भवात्तद्देशाऽऽदयो युक्ताः, तमा यां तु तस्यासम्भवात्कथं त इति ? उच्यते-दण्डाऽऽद्यवस्थं तमाश्रित्य तस्य देशो, देशाः प्रदेशाश्च विवक्षया तत्रापि युक्ता एवेति / अथ तमायां विशेषमाह-(णविरमित्यादि) (अद्धासमओ न भण्णइ त्ति) समयव्यवहारो हि सञ्चरिष्णुसूर्याऽऽदिप्रकाशकृतः, स च तमायां नास्तीति तत्राद्धासमयो न भण्यत इति। अथ विमलायामपि नास्त्यसाविति, कथं तत्र समयव्यवहारः ? इत्युच्यतेमन्दरावयभूतस्फटिककाण्डे सूर्याऽऽदिप्रभासंक्रान्तिद्वारेण तत्र सञ्चारिष्णुसूर्याऽऽदिप्रकाश-भावादिति / भ०१००१ उ०। दिगविदिकप्रवट्ठद्वारेइंदा णं भंते ! दिसा किमादिया, किंपवहा, कइपदेसादिया, कइपदेसुत्तरा, कइपदेसिया, किंपज्जवसिया, किं संठिया पण्णत्ता? इंदा णं दिसा रुयगादिया रुयगप्पवहा दुपदेसिया दुपदेसुत्तरा, लोगं पडुच असंखेजपएसिया, अलोगं पडुन अणंतपएसिया, लोगं पच सपज्जवसिया, अलोग पञ्च सादिया अपज्जवसिया, लोगं पडुच मुरजसंठिया, अलोगं पडुच्च सगमुद्धियसंठिया पण्णत्ता। अग्गेयीणं भंते ! दिसा किमादिया, किंपवहा, कइपएसादिया, कइपउसवित्थिण्णा, कइपएसिया, किं पज्जवसिया, किंसंठिया पण्णता ? गोयमा! अग्गेयी णं दिसा रुयगादिया रुयगप्पवहा एगपदेसादिया एगपदेसवित्थिपणा अणुत्तरा, लोगं पडुच असंखेज्जपदेसिया, अलोगं पडु अणंतपदेसिया, लोगं पडुच्च सादिया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच अपज्जव
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________________ दिसा 2530 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा सिया छिण्णमुत्तावलिसंठिता पण्णत्ता / जमा जहा इंदा। ऐरई जहा अग्गेयी। एवं जहा इंदा तहा दिसा चत्तारि। जहा अग्गेयी तहा चत्तारि विदिसाओ। विमला णं भंते ! दिसा किमादिया पुच्छा? गोयमा ! जहा अग्गेयी, विमला णं दिसा रुयगादिया रुयगप्पवहा चउप्पदेसादिया दुपदेसवित्थिण्णा अणुत्तरा, लोगं पडुच्च सेसं जहा अग्गेयी, णवरं रुयगसंठिया। एवं तमा वि। (किमादिय त्ति) क आदिः प्रथमो यस्याः सा किमादिका, आदिश्च विवक्षया विपर्ययेणाऽपि स्यादित्य आह- (किंपवहति) प्रवहति प्रवर्ततेऽस्मादिलि प्रवहः कः प्रवहो यस्याः सा तथा। (कतिपएसाइय त्ति) कति प्रदेशा आदिर्यस्याः सा कतिप्रदेशाऽऽदिका। (कइपएसुतर ति) कति प्रदेशा उत्तरे वृद्धी यस्याः सा तथा / (लोगं पडुन मुरजसंठिय त्ति) लोकान्तस्य परिमण्डलाऽऽकारत्वेन मुरजसंस्थानता दिशः स्यात्ततश्च लोकान्तं प्रतीत्य मुरजसंस्थितेत्युक्तम्। एतस्य च पूर्वाऽऽदिदिश्माश्रित्य चूर्णिकारकृतेयं भावना-"पुवुत्तराए एएसहाणी तहादाहिणपुवाए रुरागदेसे भरुयहे? दिसि अते चउप्पएसा दडव्या, मज्झे य तुड हवति त्ति। (अलोगं पडुच्च रागगुद्विसंठिय ति) रुचके तुण्ड कल्पनीयम, आदी सङ्कीर्णन्चात्तत उत्तरोत्तर विस्तीर्णत्वादिति। भ० 13 104 उ०11०। स्था०। जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स बहुमज्झदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुडुगपयरेसु एत्थ णं अट्ठपएसिए रुयगे पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहति / तं जहा-पुरच्छिमा, पुरच्छिमदाहिणा, दाहिणा, दाहिणपचाच्छिमा, पचच्छिमा, पञ्चच्छिमुत्तरा, उत्तरा, उत्तरपुरच्छिमा, उड्डा, अहो / स्था 10 ठा। तुच्छस्य दरिद्रश्रावकस्य दिगाद्यपेक्षया दिश्यते यया शिष्यः सा दिगाचार्योपाध्याया। पञ्चा०५ विव०। एगपक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पति इत्तरियं दिसंवा अण्णुदिसं वा उद्दिसित्तए, जहा वां तस्स गणस्स पत्तियं सिया। एकः समानः पक्ष एकपक्षः सोऽस्यास्तीतिएकपक्षिकः, प्रव्रज्यया श्रुतेन च स्ववर्गस्य, भिक्षोः, कल्पते इत्वरां कियत्कालभाविनीम, इत्वरग्रहणमुपलक्षणम्। यावत्कथिकां च। दिशमाचार्यत्वमुपाध्यायत्वं वा, अनुदिश वा आचार्योध्यायपदद्वितीयस्थानवर्त्तित्व, वाशब्दो विकल्पार्थः / उपदेष्टु वा, तस्य वा स्वयं धारयितुं. यथा वा तस्य गणस्य प्रीतिकं स्यात्, तथा वा दिशमनुदिशं वा उद्दिशेत् / किमुक्तं भवति ?-भिन्नपक्षिकमप्यपवादपदेन स्वगणप्रीत्याऽऽचार्याऽऽदिपदाध्यारोपितं कुर्यादिति संक्षेपार्थः / व्यासार्थ तु भाष्यकृद्विवक्षुः प्रथमतः पूर्वसूत्रेण सह संबन्धमाहनिक्खित्तम्मि उलिंग, मूलं सातिजणाएँ एहाणाऽऽदी। दिएणेसु य होइ दिसा, दुविधा वि य एस संबंधो 316 यदि लिङ्ग रजोहरणं निक्खित्त' परित्यक्त भवति, ततस्तस्मिन्निक्षिप्ते लिङ्गे , यदि वा लिङ्गापरित्यागेऽपि स्मानाऽऽदेः ''साइजमाणे'' अनुमनने, मूलं नाम प्रायश्चित्तं, दानेन समस्तपर्यायोच्छेदतः प्रदत्तेषु | व्रतेषु द्विविधाऽप्याचार्यत्वमुपाध्यायत्वरूपा दिक् दीयते, ततोऽवधावनासूत्रानन्तरं दिकसूत्रोपन्यासः, एष पूर्वसूत्रेण सहाऽरय सूत्रस्य संबन्धः। साम्प्रतमेकपक्षिकत्वं व्याख्यानयतिदुविहो य एगपक्खी, पव्वज सुए य होइ नायव्यो। सुत्तम्मि एगवायण, पव्वज्जाए कुलिव्वाऽऽदी॥३२०।। द्विविधो द्विप्रकार एकपाक्षिको भवति ज्ञातव्यः / तद्यथा-प्रव्रज्यायां, श्रुतेच। तत्र सूत्रे सूत्रविषय एकपाक्षिकवाचन एका समाना परस्परं वाचना येभ्यः स तथा, एकगुरुकुलाधीत इत्यर्थः / प्रव्रज्यया चैकपाक्षिक एककुलवती , आदिशब्दादेकगच्छवर्ति-शिष्यसहाध्यायाऽऽदिपरिग्रहः। एतदेव स्पष्टतरमाहसकुलिव्व उपव्वजा, पक्खित्तो एगवायण सुयम्मि। अब्भुज्जतपरिकम्मे, मोहे रोगे च उत्तरिओ।। 321 / / प्रवज्यापाक्षिको नाम (सकु लिव्व उत्ति) स्वकुलसंभवी, उपलक्षणमेतत्, तेन स्वगणसंभवी स्वशिष्य इत्याद्यपि द्रष्टव्यम्। श्रुते श्रुतपाक्षिकः पुनरेकवाचनः / इह सूत्रे इत्वरदिगग्रहणयावत्कथिक्यपि दिक् सूचिता / तामुभयीमपि व्याख्या नयति-(अभुझ्य इत्यादि) आचार्योऽभ्युद्यतविहारपरिकर्मकामः, उपलक्षणमेतत्, अभ्युद्यतमरणं वा प्रतिपत्तुमनाः / यावत्कथिकमाचार्यमुपाध्यायां वा स्थापयितुमाहचिकित्सां वा कर्तुकाम इत्वरम् / अक्षरयोजना त्वियम-अभ्युद्यतमरणी वा, यावत्कथिकावाचार्योपाध्यायाविति शेषः / मोहे रोग चेस्वरः, बहुवचन द्वित्वद्धपि प्राकृतत्वात्, आचार्यश्च यावत्कथिकाऽऽचार्यस्थापने द्विविधः-सापेक्षो, निरपेक्षश्च। तथा घात्र राजदृष्टान्तः, तमेवाऽऽहदिटुंतो जह राया, सावेक्खो खलु तहेव निरवेक्खो। सावेक्खो जुवनरिंदं, ठवेइ इय गच्छुवज्झायं / / 322 / / दृष्टान्तोऽत्र यथा राजा। तथाहि-राज द्विविधः-सापेक्षो, निरपेक्षश्च / तत्र यः सापेक्षः स जीवन्नेव युवराज स्थापयति, युवराजश्च स स्थापनीयो यस्मिन्ननुरक्ता परिषत् / ततः कालगतेऽपि राज्ञि न वैराग्यमुपजायते, किं तु तदवस्थमेव राज्यमनुवर्तते, यस्तु निरपेक्षः सन् स्थापयति युवराज, तरिंभश्च स्थापिते राज्ञि कालगते दायादानां परस्परकलहतो राज्य विनाशमाविशति एवमाचार्योऽपि द्विविधः सापेक्षो, निरपेक्षश्च / तत्र यो गच्छसापेक्षः स जीवन्नेव गणधरं स्थापयति, तरिमंश्च स्थापित कालगतेऽप्याचार्ये गच्छो न सीदति। तथा चाऽऽह-इति एवं सापेक्षराज इव युवनरेन्द्र, सापेक्ष आचार्यो जीवन्नेवेति वाक्यशेषः, गच्छोपाध्याय गच्छनायक स्थापयति। पुनर्गच्छनिरपेक्षः सन् आचार्य जीवन् स्थापयति। तस्मिन् कालगते परस्परकलहभावतो गच्छो विनाशमुपयाति, तस्माद् जीवत्येव गणधरे आचार्य उपाध्यायो वा स्थापयितव्यः / साम्प्रतं मिथ्यात्वं चाऽऽचार्योपाध्यायस्थापनाविषयमाह-- गणहरपाउग्गासति, पडायअट्ठाविते व कालगते। थेरण पगासेंति, जावऽणो नठावितो तत्थ / / 323 / / गणधरस्य गणधरपदस्य प्रायोग्यो गणधरप्रायोग्यस्तस्यासति अभावे। अथवा-प्रमादतोऽस्थापित एवाऽचार्ये काल
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________________ दिसा 2531 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा गते इत्वर आचार्य उपाध्यायो वा स्थाप्यते, स च यैः स्थाप्यते, ते स्थविराणां गच्छबृहत्तराणां प्रकाशयन्ति-यावत्तत्र, मूलाऽऽचार्यपदे वाऽन्यो न स्थापितो भवति, तावदेव युष्माकमावार्य उपाध्यायो वा प्रवर्तक इति / इह एकपाक्षिको द्विविध उक्त:-प्रव्रज्यया. श्रुतेन च / अत्र च भड़चतुष्टम् / तद्यथा-प्रव्रज्यया एकपाक्षिकश्रुतेन 1, प्रव्रज्यया न श्रुतेन 2, न प्रव्रज्यया श्रुतेन 3, न प्रव्रज्यया नापि श्रुतेन 4 / एतदपि भङ्ग चतुष्टयं कुलाऽऽदिष्वपि योजनीयम् / तथा चाऽऽहपध्वजाऐं कुलस्स य, गणस्स संघस्स चेव पत्तेयं / समगं सुएणं भंगा, कुजा कमसो दिसाबंधे।। 324 / / दिग्बन्धे आचार्यपदे, उपाध्यायपदे वा स्थाप्यमाने इत्यर्थः, प्रवजया कुलस्य गणस्य सङ्घम्य च प्रत्येकं श्रुतेन सार्द्ध भड़चतुष्टयं प्रत्येकं / योजयेदिति भावः / तत्र प्रव्रज्यया भड़चतुष्टयमुपदर्शितम् / इदानीं कुलस्योपदयतकलेनैकपक्षः श्रुतेन च 1 / कुलेनैकपक्षिका ने श्रुतेन 2 / कुलने नैकपक्षिकः कि तु श्रुतेन 31 न श्रुतेन नापि कुलेन 4 / एवं गणेन सडेनच प्रत्यकं भङ्गचतुष्टयं भावनीयम्। तत्र प्रव्रज्यां कुलं गण वाऽधिकृत्य यः प्रथमभङ्गवर्ती स इत्वरो, यावत्कथिको वा स्थापनीयः, तदभावे तृतीयभगवर्ती यदि पुनर्द्वितीयभगवर्तिनं वा स्थापयति, तदा तस्य स्थापयितुः प्रायश्चित्त चत्वारो गुरुमासाः, न केवलमेतत् प्रायश्चित्तं, किं चाऽऽज्ञादयोऽपि दोषाः। तथा चाऽऽहआणाऽऽइणो य दोसा, विराहणा होइ-मेहिँ ठाणेहिं। संकिऍ अभिणएवगहणे, तस्स व दीहेण कालेण / / 325 / / आज्ञाऽऽदय आज्ञाऽनवस्थाप्यमिथ्यात्वविराधनारूपाः, चशब्दोऽनुक्तप्रायश्चित्तसमुचये। तच प्रायश्चित्तं प्रागेवोपदर्शितम्, तथा विराधना गच्छस्य भेदो भवति, आभ्यां वक्ष्यमाणाभ्या स्थानाभ्याम, तो एव दर्शयति, शनितेऽभिनवग्रहणे च साधूनां यदि ग्लानावस्था स्थापयितुः दीर्धेण कालेन रोगचिकित्सां वा कृत्वा समागतस्य शङ्कते। एतेदेव विभावयिषुः प्रथमत इत्वरस्य, यावत्कथिकस्य च स्थापने विषयमाहपरिकम्म कुणमाणे, मरणस्सऽन्भुजयस्स ववहारे / मोहे रोगतिगिच्छा, ओहावंते वि आयरिए / / 326 / / अभ्युद्यतस्य मरणस्य पादपोपगमनलक्षणस्य परिकर्म द्वादशसांवत्सरिकसंलेखनारूप कुर्वाणे, यदि वा अभ्युद्यतविहारस्य जिनकल्पाऽऽदिप्रतिपत्तिलक्षणस्य परिकम तपोभावनाऽऽदिलक्षणं कुर्वति, यावत्कथिक आचार्यः स्थापनीयः, मोहे मोहचिकित्सायां, रोगचिकित्साम्या, यदि वा अवधात्याचार्ये इत्वर आचार्यः स्थापयितव्यः। तत्र श्रुतानेकपाक्षिकेत्वराऽऽचार्यस्थापने दोषमाहदुविहतिगिच्छं काऊ-ण आगतो संकियम्मि कं पुच्छे ? पुच्छंतु च कं इयरे, गणभेदो पुच्छणाहेउं / / 327 / / श्रुतवाऽनेकपाक्षिकेत्वराऽऽचार्यस्थापने द्विविधचिकित्सा, मोहचिकित्सा, रोगचिकित्सा चेत्यर्थः / दीर्घकालं कृत्वा समागतः सन् शङ्किते सूत्रे, अर्थे च कं पृच्छेत् ? नैव कचनेति भावः। स्थापिताऽऽचार्यस्य भिन्नवाचनाकत्वात्, इतरेषा गच्छवासिनि आचार्य नाहचिकित्सा या कुर्वन्तः कं पुच्छन्तु, नैव कञ्चन, पूर्वोक्तादेव हेतोः / सस्ते वाधनाप्रदायकमलभमाना गच्छान्तरमुपसंपद्येरन, गच्छान्तरोपरांपत्तौ च प्रश्नहेतोर्गणभेदः स्यात्। संप्रति श्रुतानकपाक्षिकयावत्कथिकाऽऽचार्यस्थापने दोषमाहन तरइ सो संधाउं, अप्पाधारो व पुच्छिउं देइ। अन्नत्थ व पुच्छंते, सच्चित्ताऽऽदी उगेण्हति / / 328 / / स श्रुतानेकपाक्षिकः स्थापितो यावत्कथिक आचार्यो भिन्नवाचकत्वाद् नशक्नोति संधातुं विस्तृतमालापकं दातुम्। अथवा श्रुतानेकपाक्षिकोऽल्पश्रुतोऽप्युच्यते, ततरेऽल्पाधारः, अल्पस्य सूत्रार्थस्य वाऽऽश्रय इति पृष्टः सन्नव्यं पृष्टमालापकं ददाति, अन्यत्र च गणान्तरे गत्वा पृच्छति, ते गच्छान्तरवर्तिन आचार्यास्तेनोत्पादित सचित्ताऽऽदिकं गृह्णन्ति, अगीतार्थानां न किञ्चिदाभाव्यमिति जिनवचनात्तस्य च तेषा समीपे प्रस्थापनाचा उपसंहारमाहसुयतो अणेगपक्खिं, एए दोसा भवे ठवेंतस्स। पटवजाऽणेगपक्खि , ठवयंते इमे भवे दोसा।। 326 / / श्रुतानेकपक्षिणिमित्वरं, यावत्कथिक वाऽऽचार्य स्थापयत एते अनन्तरोदिता दोषा भवन्ति, प्रव्रज्याऽनेकपक्षिणं पुनरित्वरं,यावत्कथिक वा स्थापयत इमे वक्ष्यमाणा भवन्ति दोषाः। तानेव प्रतिपिपादयिषुराहदोण्ह वि बाहिरभावो, सचित्ताऽऽदीसु भमणं नियमा। होइ गणस्स उभेदो, सुचिरेण न एस अम्हं ति / / 330 / / प्रवज्यानेकपक्षिक इत्वरयावत्कथिकाऽऽचार्यस्थापने द्वयोरपि, गच्छस्याऽऽचार्यस्य चेत्यर्थः / बहिर्भावो बहिर्भावाध्यवसायो भवति / तथाहि-योऽसौ स्थापयति आचार्यः स गच्छवर्तिनः साधून्समस्तानपि परकीयान्मन्यते, साधवोऽपि गच्छवर्तिनस्तं परिमभिमन्यन्ते, एवं परस्परबहिर्भावाध्यवसाये सति स्थापितस्य गच्छवर्तिनां च साधूनामनाभाव्यानि सचित्ताऽऽदीनि गृह्णतां नियमतो भण्डनं कलहो भवति, तथा च सति प्रवचनोड्माहः प्राक्कल्पे व्यावर्णितः, प्रायश्चित्ताऽऽपत्तिश्च अन्यच्च गच्छवर्तिनस्ते साधवो मन्यन्ते सुचिरणापि प्रभूतेनाऽपि कालेन गच्छतानारमाकमेव, परकीयत्वात् / उपलक्षणमेतत्, सोऽप्यभिमन्यते शुचिरेणाप्येते परकीया इत्येवं परस्परमध्यव्यवसायभावतो गणस्य गच्छस्य भेदो भवति। तस्मादित्वरो, यावत्कथिको वा प्रथमभगवर्ती स्थापयितव्यः। अत्रैवापवादमाहअन्नयरतिगिच्छाए, पढमासति तइयभंगमित्तरियं / तइयस्सेय उ असती, वितिओ तस्सासति चउत्थो 331 / अन्यतरीचिकित्सायां मोहचिकित्सायां, रोगचिकित्सायां वा। आचार्यमित्वरमुपलक्षणमेतत्, अभ्युद्यतमरणप्रतिपत्तावभ्युद्यतविहारपरिकर्मप्रतिपत्तो वा यावत्कथिकमाचार्यमुत्सर्गतः प्रथमभङ्गवर्तिनं स्थापयेत्, प्रथगभङ्गवर्तिनोऽसति अभावे, तृतीयतृतीयभङ्गवर्तिनमित्वरम्, उपलक्षणमेतद्यावतकथिकं वा स्थापयेत् / तत्र सूत्रेऽर्थे च स शीघ्र निष्पादथितव्यः / तृतीयस्याऽपितृतीयभगवर्तिनः, एवशब्दोऽपिशब्दार्थः, अ
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________________ दिसा 2532 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा सत्यभावे पुनर्द्वितीयो द्वितीयभङ्गवर्ती, तस्यासति चतुर्थः / तत्र योऽसौ | चतुर्भङ्गवर्ती स्थापयितव्यो भवतिसएतादृशगुणःपयतीऍ मिउसहावं, पगतीए संमतं वि णिययं वा / नाऊण गणस्स गुरुं, छावेंति अमेनपक्खं पि / / 332 // अनेकपक्षिणमपि प्रवज्यापक्षरहिश्रुतसमानपक्षरिहतमपि प्रथमद्वितीयतृतीयभगवर्त्यसंभवे प्रकृत्या, स्वभावेन त्वकपटभावतो मृदुस्वभावमरोषणस्वभावं, तथा प्रकृत्या स्वभावेन सम्मतमभिमतं, समस्तस्याऽपि गच्छस्येति गम्यते। स्वजन-संबन्धभावतो वा निजकमात्मीयं ज्ञात्वा गणस्य गुरुः / स्थापयितव्यः। तस्य चतुर्भङ्गवर्त्तिनः सचित्ताऽऽदिषु य आभवनव्यवहारस्तमभिधित्सुराहसाहारणं तु पढमे, विइए खेत्तम्मि तइ सहदुक्खे। अणहिजंते सीसे, तेसिं एक्कारस विभागा।। 333 // प्रथमे वर्षे साधारणम्, किमुक्तं भवति? यावल्लभते तस्य तद, द्वितीय वर्षे यत्क्षेत्रे तदीय लभ्यते तद्गच्छवर्त्तिनां साधूना, शेषं गणधरस्य, तृतीये वर्षे समदुःखोपनता यद् लभन्ते तत्तेषामेव गच्छवर्त्तिनामाभावयति, शेष गणधरस्य, चतुर्थाऽऽदिषु वर्षेषु सर्व गणधरस्य, एष आभवनव्यवहारोऽनधीयाने शिष्ये / किमुक्तं भवति ? ये स्थापिताऽऽचार्यस्य समीपे न पठन्ति तान् प्रतिद्रष्टव्यः, ये पुनराचार्यस्य सभीपेन पठन्ति तेषामेकादश विभागाः। तथा चाऽऽहशेषेऽवधाने एकादश विभागाः प्रकारा आभवह्यवहारस्य। तानेव प्रतिपिपादयिषुराहपुवुद्दिढ तस्सा, पच्छुद्दिटुं पवाययंतस्स। संवच्छरम्मि पढमे, पडिच्छए जत्थ सच्चित्तं / / 334 // प्रतीच्छिके गठ्छान्तरदध्ययनार्थमधिकृतपच्छोपसंपदं प्रपन्नो यत् / आचार्यपदस्थापनातः पूर्वमुद्दिष्ट सचित्तम्, उपलक्षणमेतत-अचित्तक, वस्त्रपात्रं प्रथमे वर्षे भवति संपद्यते तत्सर्व तस्य प्रतीच्छकस्य एष प्रथमो विकल्पः। यत्पुनराचार्यपदस्थापनातः पश्चादुद्दिष्ट प्रथमे वर्षे संपद्यते सचित्ताऽऽदिकं तत्सर्व प्रवाचयतोऽधिकृतस्थापनाऽऽवार्यस्याध्यापयितुः एष द्वितीयो विकल्पः। पुव्वं पच्छुट्टि, पडिच्छए जंतु होइ सच्चित्तं। संवच्छरम्मि वितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स / / 335 / / आचार्यपदस्थापनातः पूर्व पश्चाद्वा यदुद्दिष्ट सचित्तम, उपलक्षणमेतदचित्तं वा, द्वितीये संवत्सरे भवति संपद्यते / वेत्याह-प्रतीच्छके गच्छान्तरादागत्य सूत्रार्थस्य वा प्रतीच्छन प्रतीच्छा, तया चरति प्रतीच्छिकस्तस्मिन्, तत्सर्व प्रवाचयतोऽध्यापयितुरधिकृतस्थापिताऽऽचार्यस्य वेदितव्यम्। एष तृतीयोऽपि विकल्पः। पुव्वं पच्छुट्टि, सीसम्मि उजतु होइ सचित्तं। संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं गुरुस्स आभवति / / 336 / / / आचार्यपदस्थानापनातः पूर्व पश्चाद्वा उद्दिष्ट यत् सचित्तम्, उपलक्षणत्वादस्याचितं, वस्त्राऽऽदिक, शिष्ये प्रथमवर्षे भवति संपद्यते तत् सर्व गुरोराभवति। एष चतुर्थो विभागः। पुव्वुद्दिढ तस्सा, पच्छुद्दिढे पवाययंतस्स। संपच्छरम्मि विइए, सीसम्मि उजंतु सचित्तं / / 337 / / यत्सचित्तमचित्तं वाऽऽचार्यपदस्थापनातः पूर्वमुद्दिष्ट सचित्तमचित्तं वा शिष्ये द्वितीये संवत्सरे भवति संपद्यते, तत्सर्व तस्य शिष्यस्याऽऽभवति / एष पञ्चमो विभागः / यत्पुनराचार्यपदस्थापनातः पश्चादुद्दिष्ट सचित्तमचित्तं वा शिष्ये तृतीये संवत्सरे भवति संपद्यत, तत्सर्व प्रवाचयतोऽधिकृतगुरोराभवति / एष सप्तमो विभागः / पुटवुद्दिढे तस्सा, पच्छुद्दिटुं पवायंतस्स। संवच्छरम्मि पढमे, तं सिस्सिणिए उ सच्चित्तं / / 338 / / आचार्यपदस्थापनातः पूर्वभुद्दिष्टं सचित्तमचित्तं वा प्रथम संवत्सरे शिष्यिण्याः शिष्याया आभवति। एषोऽष्टमो विभागः 8 / यत्पुनराचार्यपदस्थापनातः पश्चादुद्दिष्ट सचित्ताऽऽदिकं प्रथमे संवत्सरे शिष्यायाः संपद्यते, तत्सर्व प्रवाचयतोऽधिकृतस्य गुरोराभाव्यम् / एष नवमो विभागः। पुव्वं पच्छुट्ठि, सिस्सीए उ जंतु सचित्तं। संवच्छरम्मि वितिए, एतं सव्वं पवाययंतस्स // 336 // पूर्व पश्चादुद्धिष्ट सचित्तमचित्तं वा द्वितीये संवत्सरे शिष्यायाः संपद्यते, तत्सर्वं प्रवाचयतोऽधिकृतस्य गुरोः / एष दशमो विभागः / पुव्वं पच्छुदिटुं, पडिच्छयाए उ जंतु सच्चित्तं / संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं पवाययंतस्स / / 340 / / पूर्व पश्चाद्वा यदुद्दिष्टं सचित्तमुपलक्षणमेतदचित्तं वा प्रथम वर्षे प्रातीच्छिक्याः शिष्यायाः संपद्यते, तत्सर्व प्रवाचयतोऽधिकृतस्य गुरोः / एवं न्यायेन द्वितीयाऽऽदिष्वपि संवत्सरेषूक्तः / एष एकादशोऽपि विभागः। साम्प्रतमुपसंहारमाहजम्हा एते दोसा, दुविहे वि अपक्खिए तु ठवियम्मि। तम्हा उठवेयव्वो, कमेणमेणं तु आयरिओ / / 341 // द्विविधे-अन्यपाक्षिके श्रुतप्रव्रज्यापक्षरहिते वेत्यर्थः / स्थापिते चाऽऽचार्य यस्मादेते अनन्तरोदिता दोषास्तस्मादनेनान्तरोदितेन ‘‘पढमासति तइयभग (331) इत्यादिलक्षणेन क्रमेण स्थापयितव्य आचार्य इति। अथ प्रथमभङ्गवर्ती केन विधिना स्थापयितव्यः? उच्यतेएयस्सेगदुगादी, निप्फण्णा तेसि बंधइ दिसाओ। संपुच्छणओलोयण-दाणे मिलिएण दिद्रुतो।। 342 / / एतस्य प्रथमभङ्गवर्तिनः स्थापिताऽऽचार्यस्य एकद्विकाऽऽदय एकद्वित्रिचतुरादयः शिष्या निष्पन्ना यदि भवन्ति, ततस्तेषां, दिश आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं चेत्यर्थः / बन्धाति, तथा योऽसावाचार्यः सदिष्टोयथैष सूत्रतोऽर्थतश्च निर्माप्याऽऽचार्यपदे स्थापनीयस्तस्य स्थापितगणधरणाऽऽचार्यपदे स्थापितस्य शिष्याणां विप्रतारणार्थ संप्रच्छन्नं दानं वस्त्रपात्राऽऽदेः। एतेषां समाहारो द्वन्ट्टः, तस्मिन्नपि कृते विपरिणामाभावे मिलितेन गोपालद्वयमिलनेन दृष्टान्तो वक्तव्यो, द्वयोर्गोपालयोर्मिलितयोः प्रभूता धनवृद्विरभूत, तथा युष्माकमरमाकं च मिलितानां विहरता भूयान् ज्ञानाऽऽदिलाभो भवतीति मिलितैबिहर्तव्यमिति।
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________________ दिसा 2533 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुरिदमाहगीयमगीया बहवा, गीयत्थसलक्खणा उजे तत्थ। तेसिं दिसाउ दाउं, वियरति सेसे जहरिहं तु / / 343|| गच्छ बहवः साधवो (गीयमगीया इति) गीतार्था अगीतार्थाश्च, तत्र ये गीतास्तित्रापि सलक्षणा आचार्यलक्षणोपेताः, तेषां दिश आचार्यपदानि दत्वा शेषान्साधून्यथाई यथायोग्य, तथा काश्चिदनुरत्नाधिकरवेन केपाश्चित्सामान्यतः शिष्यत्वेन वितरति प्रयच्छति / एतच तदा द्रष्टव्य यदा प्रत्येकं बहवः शिष्याः प्राप्यन्ते, अन्यथा त्वेक एवाऽऽचार्यः स्थापनीयः, शेषाः समस्ता अपि शिष्यत्वेन संबध्यन्ते, तत्रापि सलक्षणानां देशो ज्ञायते। एतदेव सुव्यक्तमभित्सुराहमूशयरि रायणिओ, अणुसरिसो तस्स होउवज्झाओ। गीयमगीया सेसा, मज्झिलया होंति सीसाह / / 344 / / मूलाऽऽचार्यों नाम रात्निको रत्नाधिकः तस्य मूलाऽऽचार्यस्यानुसदृशोऽपनुरुप उपाध्यायः शेषास्तु ये गीतागीतार्थास्ते तस्य 'मज्यिल्लगा' अनुरत्नाधिकाः, हकारोऽलाक्षणिकः, शिष्या भवन्ति / रायणिया गीयत्था, अलडिया धारयंति पुव्वदिसं। अपहुचंतें सलक्खणे, केवलमेगे दिसाबंधो / / 345 / / ये पुना रात्निका व्रतपर्यायेणाधिकाः, गीतार्थाः श्रुतसंपदुपेता व्रतश्रुतनिष्पन्नाश्च केवलं संग्रहे उपगृहे चाऽलब्धिकाः, ते पूर्वदिश पूर्वाऽऽचार्यप्रदत्तं दिशमनुरत्नाधिकत्वलक्षणं धारयन्ति, न त्वाचार्यपदमुपध्यायत्वं वा तेषामारोप्येते, तल्लब्धिहीनत्वात् / एप विधिःयावन्तः स्थापिता आचास्तेिषां प्रत्येकमनुगन्तव्यम्, एतच्च तदा क्रियते यदा भूयासः साधवः थाप्यन्ते / (अपहुचंते इत्यादि) अप्रभवति प्रत्येकमाचार्याणां साधुपरिवारे भूयस्यप्राप्यमाणे केवलमेकस्मिन सलक्षणे विशिष्टाऽऽचार्यलक्षणोपेते दिग्बन्ध आचार्यपदाध्यारोपः क्रियते। एतदेवाऽऽहसीसे य पहुचंते, सव्वेसिंतेसि होति दायव्वो। अपहुचंतेसुं पुण, केवलमेगे दिसाबंधो।। 346 / / शिष्ये शिष्यवर्गे प्रत्येकं प्रभवति तेषामाचार्यलक्षणोपेतानां सर्वेषामपि देशो दातव्यः / अप्रभवत्सु प्रत्येक पूर्णतया साधुष्वप्राप्यमाणेषु केवलमकेरिम्न सलक्षणतरे दिग्बन्धः कर्त्तव्यः, शेषाणां तु सलक्षणानां दिशोऽनुज्ञाप्याः। साम्प्रतं तेष्वाचार्यपदस्थापितेषूपकरणदानविधिमाहअचित्तं व जहरिहं, दिज्जइ तेसुं व बहुसु गीएसु / एस विही अक्खो अग्गीएसुं इमो उ विही॥ 347 / / तेषु वाऽऽचार्यपदस्थापितेषु बहुषु गीतार्थेषु अचित्तं वस्तु पात्राऽऽदि उपकरण यथाऽहं यो यावन्मात्रार्हस्तस्य तावन्मात्रं दीयत, एप विधिराख्याता गीतार्थेषु सूत्रार्थनिष्पन्नेष्वाचार्यलणोपेतुषु, अगीतष्वनधिगतसूत्रार्थेष्वाचार्यलक्षणोपेतष्वयं वक्ष्यमाणो विधिद्रष्टव्यः / तमेवाऽऽहअरिहं व अनिम्मायं, नाउं थेरा भणंति जो ठवितो। एयं गीयं काउं, दिजाहि दिसं अणुदिसं वा / / 348 / / अ) नाम लक्षणोपेततयाऽचार्यपदयोगयः, परमद्यापि सूत्रेऽर्थे च न निर्मातस्तमर्हमनिर्मात ज्ञात्वा यो गणधरस्तत्कालं स्थापितस्तं स्थविरा बृद्धा आचार्या भणन्ति यथा एनं साधु गीतं गीतार्थ कृत्वा दद्यात् भवान् दिशमनुदिवा। सो निम्माविय ठवितो, अत्थति जइ तेण सह ठितो लट्ठ / अह न वि चिट्ठअ तहियं, संघामो ता से दायव्यो / / 346 / याऽसावाचायण संदिष्टो-यथैतं साधु निर्माप्य एतस्मै दिशमनुद्दिशं वा दयात स निमापितो निर्माप्याऽऽचार्यपदे स्थापितः ततः स यदि निर्मापितः स्थापितस्तेन सह तिष्ठति विहरति ततो लष्टं समीचीनम् / अथ नैव, अपिशब्द एवकारार्थो, न तिष्ठति तत्र तस्य समीपे तर्हि (से) तरय सङ्घाटो दातव्यः, यस्य पूर्वाऽऽचार्येण वैयावृत्यकरो दत्तः सोऽपि न सार्द्ध विहरति। तत्र ये स्थापितगणधरेणैको द्वौ त्रयो वा सहाया दत्तश्च पूर्वाऽऽचार्यप्रदत्तो येयावृत्त्यारस्तान पाठयति, ये चाभिनवशैक्षका उपस्थापिताः प्रबाजिताः, प्यात्मनः शिष्यत्वेन संबन्धनीयाः, एवं संजातपृष्टविहारः सन अन्यत्र विहारेण गतः, तस्य तत्र विहरतः शिष्यान् संस्थपितगणधरो विपरिणमयितुकामो यत् समाचरति तदुपदर्शयतिपेसेइ गंतुं व सयं व पुच्छे, संबंधमाणो उवहिं व देती। सज्झंतिया सिं व समल्लिया वि, सचित्तमेवं न लभे करें तो / / 350 / / यत्र स निर्मा पितः स्थापितो विहरति तत्रोदन्तवाहकान्साधून तरा शिष्याणां प्रेषयति। अथवा-स्वयमनतराऽन्तरा गत्वा तान्पृच्छति। यथा-संस्तस्थ यूयं सुखेन, यद् भो भवतां नास्ति तत्कथयत, येनाऽह ददामीति / तथा तान् शिष्यानात्मनः संबन्धयन् उपधिं चान्तराऽन्तरा ददाति / तथा ये स्वाध्यायनिमित्तं समीपस्थायिनोऽनुरत्नाधिका गीतार्था इत्यर्थः, तान् तेषां निर्माप्यस्थापितानामाचार्याणा मुक्त्या नात्मनः समालापयति संश्लेषयति, 'लीङ्' संश्लेषणे इतिवचनात् / एवं तेन गीतार्थाः शिष्याश्च विपरिणम्यमाना निर्मापितस्थापितस्य समीप मुक्त्वा त स्थापितगणधरमुपसंपद्यन्ते / स वैवं सचित्तं साधुवगेलक्षणमात्मसात कुर्वन् न लभते, व्यवहारतो न ते तस्याऽऽभवन्तीति भावः। अर्थवमपि ते विपरिणम्यमाना न विपरिणमन्ति, नाऽपि तस्य समीपमायान्ति, ततोऽनेन दृष्टान्तेन तावत्संब न्धन्ति, तमेव दृष्टान्तमाहगोवलगदिढतं, करेति जह दोषिण भाउणो गोवा। रक्खंती गोणीओ, पिहप्पिहा असहिया दो वि।। 351 / / गेलण्णे एगस्स उ, दिण्ण गोणी उ ताहें अन्नस्स। इय नाझणं ताहे, सहिया जाया दुवे गोवा / / 352 / / "दो णि गोवाला सहो यरभाउगा भंडणं करेत्ता पत्तेयं पत्तेयं बयणएणं गावी ओ रवखंति, अन्नया तेसिं एगो रोगी जातो, ततो त जाव न रविग्यया तो गावीतो परिहीणों जातो, अन्नया विति ओपनिलामा सो वि तहे व परिहीणो / ततो तेहिं एगागि"
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________________ दिसा 2534 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा यस्सन सोहणमिति चिंतिऊण परोप्परं पीती कया, ततो एको पडिलग्गो तस्स वितिओ गावीओ रक्खइ, एवं इयरस्स वि, एवं तेसिं दव्यपरिवुड्डी जाया। एवं अम्हं पिवीसुवीसु विहरंताणं परिहाणी भवति, तम्हा मिलिया विहरामो, जेणं विउला नाणादीणं वुड्डी हवइ, जंतुब्भं तं तुब्भं चेव नाहं तं हरागि। एवं समल्लेयावेत्ता सीसे लब्भंति, एवं विपरिणामेइ, तह वि | सो न लहइ।" संप्रत्यक्षरयोजना / गोपलकदृष्टान्तं करोति-यथा द्वौ गोपौ भ्रातृकौ, तौ द्वावप्यसहितौ पृथक् पृथग् वेतनेन गा रक्षतः, अन्यदा एकस्य ग्लानत्वे गा अन्यस्य गोस्वामिना दत्ताः, स वेतनात् परिभ्रष्टः / एवमितरोऽपि ग्लानरवे वेतनपरिहीणो जातः, तत इति पृथक् असंहतस्थितस्य महती द्रव्यहानिरिति कृत्वा जातौ द्वावपि सहिताविति। उपसंहारमाहएवं दोणि वि अम्हे, पिहप्पिहा तह विहरिमो समगं। वाघाते णऽण्णोण्णे, सीसा उ परं व न भयंति / / 353 / / एवं द्वेऽपि वयं यद्यपि पृथक् पृथक् तिष्टामः, तथाऽपि समकं संहिततया विहरामो, येन व्याघाते ग्लानत्वाऽऽदिलक्षणे, अन्योऽन्यस्य ज्ञानऽऽदिहानिर्नोपजायते, शिष्या वा परं न भजन्ते, एवमपि सत्कुर्वाणो न लभते शिष्यम् / व्य०२ उ०। दिगविपरिणामेजे भिक्खू दिसं दिप्परिणामेइ, विप्परिणामंतं वा साइज्जइ / / 12 // जे भिक्खू दिसं अवहरइ, अवहरंतं वा साइज्जइ / / 13 / / दिशेति व्यपदेशः- प्रव्रजनकाले, उपस्थापनाकाले वा य आचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्य दिशा इत्यर्थः / तस्यापहारः, तं परित्यज्य अन्यमाचार्यमुपाध्याय वा प्रतिपाद्यते इत्यर्थः / संजतीए पवत्तिणी। अवियरागेण व दोसेण व, दिसावहारं करेति जो भिक्खू / सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे / / 125 / / रागेण किंचि णीयल्लग पासित्ता रागो जातो, ताहे तं दिसं गेण्हति, पुरिल्ले आयरिओवज्झाए उज्झेति / दोरोणको वि कम्हि त्ति कारणे उडुसद्धो समणो अण्ण आयरियं संदिसंति, तस्स चउगुरुं पच्छित्तं, आणादिणो दोसा भवति। अहवा इमो रागेण उद्दिसतिजातिकुलरूपभासा-धणबलपरिवारजसतवे लाभे। सत्तवयबुद्धिधारण, उग्गहसीले समायारी।। 126 / / माउपक्सविसुद्धाइ जाती, पियापक्खविसुद्धं इक्खागुमादियं कुलं, सुविभत्तऽगोवंगअहीणपर्चेदियत्तत्तणं रूव, मियमहुरकडु-अभिहाणा भासा, धणिमं पव्वतियस्सता तत्थ मेऽत्थि, उववेयम ससोणिओ बलव, विरिसंतरायखओवसमेण वा बलव, ससमयपरसमयविसारत्तणेण लोगुत्तो य जसो, च उत्थादिणा बाहिरभंतरेण वा तवेण वा जुत्तों | आहारोवकरणलाभसंपण्णे। विद्धिआवईसु अ अणुस्सुओ अइविक्कमो य सत्तमंतारे, दुरज्यावसाणो वा सत्तमंतो, तीसतिवरिसो तिदयो इव क्यवं, उप्पाइयादिचउविहबुद्धिसुवेदो बुद्धिम, बहुधरेति, बहुविधंधरेइ, अणिस्सियं धरेति, असंदिट्ट धरेति, दुद्धरं धरेइ, धुवं धरेइ.एवं उग्गहणे विखमादि, सीलउववेतो सीलवं, चक्कवालसमायारीए जुत्तो कुसलोय। एवंएतेहिं उववेतं, रागेण परं च उद्दिसति कोइ। जच्चाइविहूणं वा, उज्झति कोई परिभवेणं / / 127 / / एतेहिं उववेयं कोइ रागणं अण्णं आयरियं उद्दिसति, एतेहिं चेव जच्चादिएहि विहूर्ण कोइ परिभवेण परिचयति, दोषेणेत्यर्थः / गाहाअहवण मेत्ती पुवं, पूयालद्धिपरिवारतो रागे। अहिकरणमसंमाणे, समावऽणिटुं दोसेणं / / 128|| 'अहवण' शब्दो विकल्पप्रदर्शने, मित्रभावो, मैत्री, तत्पूर्वं तन्निमित्त, महायणपूइयं, तेण वा सो पूइतो अट्ठारादिलद्धिसंपण्ण, परिवारसंपण्णं वा, एतेहिं गुणेहिं उववेयं रागेण आयरिय पडिवज्जति, आयरिएण पुण सद्धिं अधिकरणे उप्पएणे अयरिएण वा असंमाणिओ. सभावेण वा अणिट्ट आयरिय परिचयति एस दोसेण। पुरिसंतरियपरिचाए अण्णमुद्देसेण य इमे दोसाआणादिणो य दोसा, विराहणा होति संजमाऽऽताए। दुल्लभबोहीयत्तं, वितियपयविराहणा चेव / / 126 / / तिस्थकराणं आणाभंगो, आदिसघाओ अणवत्था -जहा एयरस एयमसचं तहा अण्ण पि, एवं मिच्छत्तं जणयति, वितियपदविराहणे संजमविराहणा। अण्णेण भणितो-किमायरिय परिचयसि ? उत्तराउत्तरेण अधिकरणं, एत्थ आयसंजमविराहणा, दुल्लीबोधीयत्तं च णिवत्तेति, तम्हा दिसावहारंणो करे। वितियपदेण अण्णमायरिय उद्दिसिजावितियपए आयविए, ओसण्णोवाइए य कालगते। ओसण्णे छव्विहो खलु, वत्तमवत्तस्स मग्गणया / / 130 / / जइ आयरिओ ओसराणो जातो, ओहाइतो वा, कालगतो वा, एए तिणि दारा / एत्थ ओसण्णो छव्विहोपासत्थो, ओसन्नो, कुसीलो, संसत्तो, अहाछंदो, णितिओ य। तम्मि गच्छे आयरिओ जो संकप्पिओ वत्तो अवत्तो वा सो वत्तावत्तो कह गंधरेति त्ति चउभंगेण मग्गणा कजति / सोलसवरिसाऽऽरेण वयसा अवत्तो, परेण वत्तो, अणधीयणिसीहो अगीयत्थो सुत्तेण अत्थतो वा, सुत्तेण गीयत्थो वएण वत्तो, सुत्तेण विवत्तो वएण वि वत्तो पढमभंगो। वितियओ सुअवत्तोण वएण / ततिओ सुएण अणुवत्तो वएण वत्तो। चउत्थो दोहिं वि अवत्तो। वत्ते खलु गाहावत्ते खलु गीयत्थे, अव्वत्ते वतेण हवइगीयत्थे। ओसाएणो छविहो खलु, अहवोसण्णे य संगमणा 131 वएणवत्तोगीयत्थो एसपढमभंगो, खलुपादपूरणे, अवत्तो वएण एस वितियभंगो, पढमभंगे हवइ गीयत्थेएस ततियभंगो, पढमभंगिल्लो उभयवत्ता, तस्स
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________________ दिसा 2535 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा इच्छा-अण्णमारिय उद्दिसति वा, ण वा, सो वत्तोवमो ओसणायरियं सारेति, चोदयतीत्यर्थः / कह? अण्णं गीतं पेसति, अहवा-ओसण्णे सयं गतुं चोदेतितं,एस च सयं वा गच्छति। गाहाएगाह पणग पक्खे, चउमासे वरिसें जत्थ वा मिलति। चोदेति चोदवेती, अणिच्छे वड्डावऍ सयं तु॥१३२।। एगहो त्ति ओसणे दिणे दिणे गंतुं सारेति, एगाहो वा एगंतरं पंचण्ह / पंचण्हं दिणाण वा सारेति, एवं पक्खे, चाउम्मसे, वरिसंते य, जत्थ वा समोसरणादिसु मिलति, तत्थ वा सारेति, सव्वहाऽणिच्छतं गं सयमेव वड्डावति। अण्णं चअण्णं च उद्दिसावे, पवेयणट्ठाण संगहवाए। जति णाम गारवेण वि, मुएज्जऽणिच्छे सयं ठााति। 133 / सो उभयवत्तो अणं वा आयरियं उद्दिसति, स्यात्किमर्थ? पवेयणट्ठा ण गच्छरस संगहट्टा वग्गस्स गहणट्टा, रवयमेव शक्तत्वात, मम जीवते चेव अण्णमायरियं उद्दिसति, जति णाम एरिसेण गारवेण ओसण्णतणं भएन, तहा वि साधू सव्वहा अणिच्छे, सयमेव आयरियपदे ठायति / गतो पढमभंगो। इयाणिं वितियभंगो। सुथवत्तो गाहासुयवत्तो वयऽवत्तो, भणति गणं तेऽहं धारिउमसत्तो। सारेहि सगणमेयं, अण्णं व वयाम आयरियं / / 134 // जो सुत्तेण वत्तो वएण अव्वत्तो सो त आयरियं भणति एयं ते गण अहं पडुप्पण्णवयत्तणाओ य धारिउ असत्तो, एहि तुमं एयं सगणं सारेहि, अहवाण सारेहि तो अम्हे अण्णं आयरियं वयामो इत्यर्थः / आयरियगाहाआयरिय-मुवज्झायं, पुच्छंते अप्पणो य असमत्थे। तिगसंयच्छरमद्धं, कुलगणसंघे दिसाबंधो / / 135 / / आयादुप्पण्णं वयत्तणातो गणं बद्धावेउमसमत्थो अण्णे आयरियउवज्झाए उद्दिसिउमिच्छंतो पुवायरियं भणति-अम्हे अण्णस्स आयरियस्स णो उवसंपज्जामो, सो णं उवसंपण्णाण अम्हं सचित्तादि हरति, तुम जति सगणं ण सारेति, तो अम्हे णिसर्ल्ड चेव आयरिथ पडिवज्जामो, कुलिव्वं कुलसमवाय दाउं कुले ओवड्डयंति, ताहे कुलण जो दतोस तेसिं तिणि वरिसाणि सचित्तादिणो हरति, एवं गणे संघेया तिहि वरिसाणि। परतो इमा विधीसचित्तादि हरंति ण, कुलं पि णेच्छामों जं कुलं तुझं / वचामो अण्णगणं, संघ वा जति तुम ण ठाासि / / 136 / / पुवायरियन्स अग्गतो भणित-जंतुह कुलं तं कुलिव्वो, अम्हं तिह वरिसाणं उवरि सचित्तादी हरति, जइ तुम्ह अम्हायरियो ण ठासि तो अम्हे अतो विपरतो गणं संघ वा दूरतर वयामो ताहे गणायरिआ ण ठासि, तो अम्हे अतो परभागेणं संघ वा दूरतरं वयामो, तोह गणायरियं उद्दिसार्वेति, गणसमवाए वा उवट्ठायति, सौ वि संवच्छरं सचित्तादी ण हरति, एवं संघे उवट्ठायंति, सो वि छम्मासे सचित्तादी ण हरति, एवं वितियपदेण दिसावहारं करेंति। गाहाएवं वि ठायंते, तावेतुं अद्धपंचमे वरिसे। सयमेव धरेति गणं, अणुलोमवएण सारेइ / / 137 / / एवं अद्धपंचमे वरिसे पुवायरियं चोदणाहिं तावेउं अवतावेउ जाहे सोण ठाइ, ताहे अद्धपंचमेहिं वरिसेहिं वयवत्तीभूतो सयमेव गण धरेति, जत्थ यपासति तत्थय पुवायरियं अणुलोमेहिं वयणेहिं सारोति, चोदयतीत्यर्थः ! गाहाअहवा जति अत्थि थेरा, सत्ता परिकवि ण तं गच्छं। पढमभंगसरिस्सओ, तस्स उगमओ मुणेयव्यो / / 138 / / अथवेति विकल्यवाची, अप्पणा गीयत्थे अण्णे यसे थेरा गच्छपरिकगा अस्थि, तो अण्णं आयरियं ण उद्दियंति, कम्हा न उद्दिसति ? भण्णति-- जतो पढमभगसरिसो चेव एस गमो भवति / गतो वितियभंगा। इदाणिं ततियभंगो। गाहावत्तध्वयो अगीओ, जति थेरा तत्थ केइ गीतत्था। तेसंऽतिए पढंतो, चोदंतो असत्ति अण्णत्थ / / 136 / / जो पुण वयसा प्राग्यो स वयोवत्तो, अगीयत्थो पुण जइ सगच्छे थेरा, गीयत्थो तो सो तेहिं थेराणं अंतिए सभीवे पढतो गच्छस्स चोदणादि सारणं करेति, ओसण्णायरियं वा चोदेति, तेसिं गीयत्थर्थराणं असति गण घेत्तु अघेत्तु वा अण्णायरियसमीवे उवसंपज्जति, सुत्तट्ठाणं अट्ठा। गतो ततियभंगो। इदाणिं चउत्थो / गाहाजो पुण उभओऽवत्तो, बद्धावगअसति सो उ उद्दिसति। सव्वे वि उदिसंता, मोत्तूण इमे तु उद्दिसति / / 140 / / जो सुत्तेण वएण अवत्तो सो गणबद्धावगस्स असति अण्णत्थ आयरिय उद्दिसति, उपसंपद्यतेत्यर्थः। एतेचउभंगिल्ला सव्वे विइमे मोत्तु उदिसंति। गाहासंविग्गमगीयत्थं, असंविग्गं अगीयत्थं / आयरियउवज्झाया, उदिसमाणस्स चउगुरुगा / / 141 // सत्तरत्तं तवो होति, तओ छेदो पहावति। छेदेण छिन्नपरियाए, तओ मूलं ततो दुगं॥ 142 / / छट्ठाणविरहियं वा, संविग्गं वा वि वयति गीयत्थं / चतुरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणादिणो दोसा / / 143 / / संविगं अगीयत्थं, असंविगं गीयत्थं, एते आयरियउवज्झायत्तेण उद्विसंतस्स चउगुरुग भवति॥१४१।। अण्णे सत्तदिणे चउगुरु, छेदो, एवं छल्लहु. छग्गुरुगा वि छेदो सत्तदिणे वा, ततो एकेक्कदिणं मूल, अणवट्ठा, पारंचिया भवन्ति। अहवा-छग्गुरुगतवो परियरणगदिओ, छेदी सत्तदिणेसु
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________________ दिसा 2536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसा णेयो, ततो परं मूलं, अणवट्टपारंचियाए पच्छित्तं वियाणमाणेण संविग्गो गीयत्थो उद्दिसियव्यो / / 142 / / छट्टाणविरहियं सदोसं संचिग गीयत्थं सदोसं जति उद्दिसति, तो चउगुरुगा पायच्छित्तं, आणादिया य दोसा भवंति। छट्ठाणविरहिय त्ति' (143) अस्य व्याख्याछट्ठाण जाणि तेहिं, तविरहित काहिया चउरो। ते चिय उद्दिसमाणा, छट्ठाणगयाण जे दोसा।।१४४ // पासत्थो, ओसण्णो, कुसीलो, संसतो अहाछदो, णितिओ य, एतेहिं छहिं ठाणेहिं विरहितो सदोसो / को भवति ? भण्णतिकाहियादिया चउरो-कोवाए, ममाए, संपसारए, पासणिए। अहवा-काहिए, पासगिए, मासाए, अकियकिरिए। एते उद्दिसमाणस्स ते चेव दोसा, जे छट्ठाणगते भणिया। ओसण्णेत्ति गये। इदाणिं ओहाइयकालगते त्ति दो दाराओहातियकालगते, जाविच्छा ताहें उदिसावेति। अव्वत्ते तिविहे वी, नियमा पुण संगहट्ठाए / / 145 / / तीसु वि दीवितकज्जा-सि वज्जिया जति य तस्सं तं णत्थि। निक्खिविय वयंति दुवे, भिक्खू किं दाणि णिक्खिवितुं 146 दोण्हडट्ठाए दोण्ह वि, णिक्खमणा होति उज्जमंतेसु।। सीयंतेसु तु सगणो, वच्चति मा ते विणासेंज्जा।। 147 // वत्तम्मि जो गमो खलु, गणवच्छे सो गमो उ आयरिए। णिक्खमणे तम्मि चत्ता, जमुदिसे तम्मि ते पच्छा / / 148 / / ओहातियओसण्णे, भणति अणाहा वयं विणा तुज्झं। कमसीमसागरिए, दुप्पडितरगं जतो तिण्हं / / 146 / / जो जेण जम्मि ठाण-म्मि ठावितो दंसणे व चरणे वा। सो तं ततो सुयं त-म्मि चेव काउं भवे णिरिणो। 150 / / जति वि आयरिओ ओहातिओ। ओहावणं च दुविध-सारूवियतगण, गिहरथत्तणेण वा / कालगते आयरिए जो पढमिल्लेसु तिसु भंगसु अवत्ता तिणि भणिया, तेसि जाहे इच्छा आयरियउवज्झाएसु इमो विधी॥ क्तम्भिगाहा / इह गणावच्छेतितो उवज्झाओ, जया उवज्झाआ आयरिओवा अण्णं आयरियं उद्दिसति ताहे जो उभयवत्तम्मि भिक्खुम्मि विधी, स चेघ गणावच्छेए आयरिए य विधी दट्टवो, णवरं गणणिक्खेव काउं वयति सगणे, जे अण्णे आयरियउवज्झाया संविग्गा गीयत्था तेतसिं गणणिक्खेवं करोति, असंविण अगीतेसु तेसु जति णिक्खवंति तो तेण गिक्खिप्पमाणा चत्ता भवंति, तम्हा असंविग्गा गीतेसु णिक्खेवे अण्णभये सगणा घेवं वचंति, जमुदिसति आयरिओ (तम्मि त्ति) तस्य ते सर्वे शिष्या भवंति, पच्छित्तअणुवसंपण्णकालाओ पच्छा, उवसंपवणकालादारभ्य त्यर्थः। ओहाइयगाहा / ओहाइयं ओसण्ण वा आयरिय जत्थ पासति तथिम भणति-तुज्झहिं विणा अणाहा वयं, वयमित्यात्मनिर्देशे / असागरिए पदेस तरस ओसण्णो धावित्ता आयरियस्स कमेसु पदेसु | सीसेण णिवभति, भणइ-एहि पसादेण अब्भुट्टेहासणादी करेह, अम्हे / भो सुयमाउमिभयं पि व इओ तओ दुलुदुलेमो। सीसो पुच्छति-तस्स गिहीभूतरस अचारितिणी किं पादेसु / णिवडिजति ? आयरिओ भणति-दुप्पभितरगं जओ तिहमातु पितु धम्मायरियस्सय, एते परमोवकारिणो, एतेसिं दुक्खेण पञ्चुवकारो काउं सकति / किं चान्यत, जो जेण धम्मोवदेसप्पदाणादिणा दंसणे चरणे वा आवितो, सो तं गुरु दंसणधरणेहिंतो चुयंते देवदंसणचरणेसु ठाविउ जिग्गयरिणो भवति, कृत्युपकारेत्यर्थः / न आयरियउवज्झाया गणपरिखुडा अण्णायरियं उवसंपजंति, सदा इमो विधीणिक्खिवणे वि य अप्पणो, परे य संतेसु तस्स ते देंति। संघाड देयऽसंतो, सो वि ण वावारे ऽणापुच्छा / / 151 / / जया तेहिं आयरिओवज्झाएहिं आलोयणप्पदाणेण अप्पा उवणिविखत्तो भवति, तदा भणंति-इमे य भे साहू, एसपरिणिक्खेवो, तेग वि आयरिएण अप्पणो संतेसु साहुसुण घेत्तव्वा, तस्स चेव ते देति, अह वत्थव्वायरियरस असति साहूण ता सवे घेत्तुं पाडिच्छायरिथरस एगसंघामगं कप्पगं देति, सो वि अपाडिच्छायरियस्स एगसंघामगं कप्पग देति, सो वि अपाडिच्छायरिओ वत्थव्वायरिथस्स अणापुच्छाए ते सिरसे जवावारेति एसणाऽऽदिसु। सुत्तंजे मिक्खू दिसं विप्परिणामेइ, दिसं विप्परिणामंतं या साइज्जइ ||14 // इमो सुतस्स सुत्तेण सह संबंधः / गाहासयमेव य अवहारो, होति दिसाए ण मे गुरु तो से। अहं भणिता विप्परिणा-मणा उ अण्णेसिमा होति / / 152 // सयमिति स्वयम् अतिक्रान्तसूत्रे विप्परिणामणा आत्मगता अभिहिता। इमा पुण वक्खमाणसुत्ते अएणे अण्णस्स दिसाविप्परिणामणं करोतिरागेण व दोसेण व, विप्परिणामं करेति जो भिक्खू / दुविहं तिविह दिसाए, सो पावति आणमादीणि। 153 / दिसं विप्परिणामेति रागेण वा दोसेण वा. रागेणतम्मि सेहे अज्झाववातो गाढं, ताहे तेण रागेण विप्पपरिणमेउ अप्पणो अंते आकड्डेति, टोसेणमा तस्स सीसो भवइत्ति वि विप्परिणामेति, आयरिआ उवज्झाया दुविहा दिसा साहणं, आयरियुवज्झाए वत्तिणीय तिविहा संजतीण दिसा, एया दिसा विप्परिणामें तस्स आणादिया दोसा। सो पुण इमेहिं विप्परिणामेति / गाहाडहरो अकुलीणो त्ति य, दुम्मेहो दमग मंदबुद्धि त्ति। अवि य सपलाभलड्डी, सीसो परिभवति आयरियं / / 154 / / डहरो एस तव गुरु, तुमं च थेरो न जुञ्जते जोगो। अविपक्वबुद्धि एसो, वए करेजा वि जं किं वि / / 155 / / कोइ सेहो परिणयवओ तरुणायरियस्स समीपे पव्वतितुकामः अण्णेण भण्णति-महरो एस तव गुरु, तुम च परिणयवओ,ण एस आयरियसीससंजोगो जुज्जति : कहं पुत्तणंत्तुअसमाणस्स सीसो भविसस्ससि ? कह वा विणयं काहिसि ? किं च ते सजणादिजणो भणिहिति त्ति ? अहवा भणाति-सो महरा अविपक्कबुद्धी, अविपक्कबुद्धित्तणेण अकश पि कलं वयति, अविपकवुद्वित्तणातो किं वि दोसं करेजा।
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________________ दिसा 2537 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसाकुमारिया गाहाएमेव सेसएसु वि, तं निंदंतो संय परं वाऽवि। संतेण असंतेण व, पसंसए तं कुलादीहिं / / 156 / / सेसा–कुलाऽऽदिया पदा, तेहिं कुलाऽऽदिएहि पदेहिं तं शिंदेति जस्स उवाद्वितो, सो पुण सओ परओ वासंतेहिं वा असतेहिं वा कुलाऽऽदिपहि जरस पदुट्टो सयं परं वा तं जिंदति, तस्स सेहरस जमुद्दिसति तम्मि सतहि वा सयं परयगं वा पसंसतिइमो कुलीणो, सो अकुलीणो, इमो मेहावी, सो दुम्मे हो, इमो ईसरणिक्खंतो, सो दमगो / अहवाइमो वत्थपत्तादिएहिं ईसरो, सो दमगो, इमो सलद्धिम / इमेहि कारणेहिं सिस्सो परो वाए परिभवति आयरियं / अहवा-पसंसते कुलाऽऽदीहिं सेहत कुलमतो, सो अकुलजो / एवं सेसपदेसु वि कारणे विप्परिणामेणं पि करेज। गाहानाऊण य वोच्छेयं, पुव्वगए कालियाणुओगे य। सुत्तत्थजाणगस्सा, कप्पति विस्सासणा ताहे / / 157 / / पूर्ववत् / नि० चू०१० उ०।। "उभे मूत्रपुरीषे च, दिवा कुर्य्यादुदङ्मुखः। रात्रौ दक्षिणतश्चैव, तथा चाऽऽयुर्न हीयते।।१।।' प्रव०१०६ द्वार। दिसिद्धिः-दिग्धर्मोपेतं द्रव्यं प्रमाणतः सिद्धम् / तथाहि-मूर्तेष्वेव द्रव्येषु मूर्त द्रव्यमवधिं कृत्वैतदस्मात्, अतः पूर्वेण दक्षिणेन पश्चिमेनोत्तरेण पूर्वदक्षिणेन दक्षिणापरेणापरेणोत्तरेणोत्तरपूर्वेणाधस्तादुपरिष्टादित्यमी दश प्रत्यया यया भवन्ति मा दिगति / तथा च सूत्रम्-''अत इदमिति यतस्तद्दिशो लिङ्गमिति / एते हि विशेषप्रत्यया नाऽऽकस्मिकाः संभवन्ति / तथा च परस्पराऽऽपेक्षमूर्त्तद्रव्यनिमित्तानामितरेतराऽऽश्रयत्वेऽपि प्राच्यादिभेदेन नानात्वं कार्यविशेषाद् व्यवस्थितम्। प्रयोगश्चात्रयदेतत् पूर्वापराऽऽदि ज्ञानं तद् मूर्तद्रव्यव्यतिरिक्तपदार्थनिबन्धन, त प्रत्यविलक्षणत्वात्। सम्म०३ काण्ड। सूत्र०। "दिसो दिसि एकस्या दिशोऽन्या दिशं, पुनस्तस्या अन्या दिशमित्यर्थः / प्रश्न०३ आश्र० द्वार / विपा० / भ० / नरकपृथिवीषु देवलोकेषु वाऽआसु दिक्षु, चतसृषु वा दिक्षु पक्तिगतनरकाऽऽवासविमानविचारः प्रवर्तते, तत्रनामस्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-ताप-प्रज्ञापक-भावदिशामावश्यकाऽद्युक्ताना सप्तानां मध्य का दिक् प्रवर्तते, एतसां दिशा मध्यवर्तिनी का च दिक्, तथा का च देवलोकाऽऽदिषु दिक्प्रवर्तते, तत्सहेतुकं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्-पक्तिगत नरकाऽऽवासविमानविचाराधिकारे नामाऽऽदीनां सप्तानां दिशा मध्ये क्षेत्रदिग् ज्ञायत इति। 18 प्र० / सेन०२ उल्ला०॥ दिसाकुमार पुं० (दिक्कुमार) भूषणनियुक्तगजरूपचिह्नधरे भवनवासिदेवेभेदे, प्रज्ञा० 2 पद। स०। भ० / स्था०। औ० / प्रव०। (दिक्कुमारसंख्या 'ठाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1705 पृष्टे द्रष्टव्या) दिसाकुमारावासापुं० (दिक्कुमाराऽऽवास) दिक्कुमाराणां भवनाऽऽवासे, 'छावत्तरि दिसाकुमाराणं वाससयसहस्सा पण्णत्ता / स०७५ सम०॥ दिसाकुमारिया स्त्री० (दिक्कुमारिका) दिक् कुमारभवनपतिदेवविशेषजातीयादेवीषु, आ० म०१ अ०१ खण्ड। आ० चू०। रूपाऽऽद्याश्चतस्रो दिक्कुमारिकाःचत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-रूवा, रुवंसा, सुरूवा, रूवावई।। 'चत्तारि दिसा'' इत्यादि सुगम, नवरं दिकुमार्यश्च ता महत्तरिकाश्च प्रधानतमाः, एतासां वा महत्तरिका दिक्कुमारीमहत्तरिकाः, एता मध्यरूचकवास्तव्या अर्हतो जातमात्रस्य नालकर्तनाऽऽदि कुर्वन्तीति। स्था० 4 ठा०१ उ। चित्राऽऽद्याश्चतस्रो दिक् कुमार्यः / आ० म०१ अ० १खण्ड। आ० चू०। ___ रुपाऽऽद्या षड् दिशाकुमारिकाःछ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-रूवा, रूवंसा, सुरूवा, रूवावई, रूअकंता, रूवप्पभा। स्था० 6 ठा० / रिष्टाऽऽदिष्वष्टसु कूटैप्वष्टौ नन्दोत्तराऽऽद्याः दिक्कुमार्य:तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ महिड्डियाओ० जाव पलिओवमद्विईयाओ परिवति / तं जहा-''णंदुत्तरा य णंदा य, आणंदा णंदिवद्धणा / विजया वेजयंती य, जयंती अपराभिवा ||१||"स्था०८ ठा०। आ० म०। आ० चू०! कनकाऽऽदिकूटेषु समाहाराऽऽद्यष्टौ दिक्कुमार्य:तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ महिड्डियाओ० जाव पलिओवमट्ठिईयाओ परिवसंति / तं जहा-"समाहारा सुप्पइन्ना, सुप्पबुद्धा जसोहरा। लच्छीवई सेसवई, चित्तगुत्ता वसुंधरा / / १॥"स्था०८ ठा० / आ० म०। स्वस्तिकाऽऽदिकूटेष्विलादेव्याद्या अष्टौ दिक्कुमार्य:-- तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ महिड्डियाओ० जाव पलिओवमट्टिईयाओ परिवसंति। तं जहा-"इलादेवी सुरादेवी, पुढवी पउमावई एगनासा णवमिया, सीया भद्दाय अट्ठमा / / 1 / / "स्था०८ ठा०। आ० म०। आ० चू०। रत्नाऽऽदिकूटेष्वलम्बुषाऽऽद्या अष्टौ दिक्कुमार्य:तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ महिड्डियाओ० जाव पलिओवमट्ठिईयाओ परिवसंति / तं जहा-"अलं-बुसा मित्तकेसी, पुंडरी गीयवारुणी आसा य सव्वगा चेव, उत्तराओ सिरी हिरी।। 1 // " स्था०८ ठा०। आ० म० / आ० चू०। अधोलोकवासिने भोगङ्कराऽऽद्या अष्टो दिक्कुमार्य:अट्ठ अहो लोगवत्थव्वाओ दिसाकु मारीमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-"भोगंकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी। सुवच्छा वच्छमित्ता य, वारिसेणा वलाहगा।।१।।" स्था० 8 ठा० / आ० म०।
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________________ दिसाकुमारिया 2538 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसाहत्थिकूडे ऊर्ध्वलोकवासिन्यो मेघङ्कराऽऽद्या अष्टौ दिक्कुमार्यः- दिसापरिमाण न० (दिक्परिमाण) सर्वतोऽमुकदिशि वा इयदवधि गमनाअट्ट उड्डलो गवत्थव्वाओ दिसाकु मारीमहत्तरियाओऽऽदीनियमने, ध०२ अधि०। पण्णत्ताओ। तं जहा-"मेहंकरा मेहवई,सुमेघा मेघमालिनी। दिसापोक्खि(ण) पुं० (दिक्प्रोक्षिण) उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पातोयधारा विचित्ता य, पुप्फमाला अणिंदिया।॥१॥" स्था० ____ऽदि यमुचवन्ति तादृशेषुतपस्विवानप्रस्थेषु, औ०। निलाभला आ० चू०। 8 ठा० / आ० म०। दिसबंध पुं० (दिग्बन्ध) आचार्यत्वाऽऽदिलक्षणे दिशो बन्धे, ध० (ताश्च तीर्थकृज्जन्ममहोत्सवे आगता इति 'तित्थयर' शटरिंगमलव / २अधि०। भागे 2276 पृष्ठे द्रष्टव्याः) षट्पञ्चाशद्दिकन्यकानां कुमारीति राना दिसावाल पुं० (दिक्पाल) दिशामधीश्वरेषु, वाच० / आ० म०) / कथभिति प्रश्ने, उत्तरम् अत्र भवनपतयः सर्वेऽपि प्रायः क्रीडाप्रिया दिसामूढ पु० (दिङ्मूढ) पूर्वस्यामपि पश्चिमा इत्याकारकज्ञानवति, भवन्तीति कुमारा उच्यन्ते, तथा एता दिकुमार्याऽपि भवनपति बन "दिसामोहो से जातो, अहवा मूढे दिसं पडुच्च। 'नि० चू०१६ उ०। तबद्धोध्या इति / 325 प्र० / सेन०३ उल्ला०। दिसामोह पुं० (दिमोह) पूर्वस्यामपि पश्चिमा इत्याकारके ज्ञाने, दिसागइंदपुं० (दिग्गजेन्द्र) भूमिधारणाय दिक्ष्यवस्थितेषु गजेषु, द्वी ध०२ अधि०। नि० चू०। जोयणसाहस्सीया, एए कूडा हवेति चत्तारि। दिसायरिस पु० (दिगाचार्य ) गुर्वादिषु दिग्वर्तिसाधूनां सारणाऽऽदि कर्तरी, पुवाइयाऽऽणुपुवी, दिसाणइंदाण ते होंति।। 141 / / ही०१ प्रका०। पञ्चा०। पउमुत्तरें नीलवंतं, सुहत्थिया अंजणागिरी चेव / दिसावलोअ पु० (दिगवलोक) दिग्दर्शन 'सागरयिसरंक्षणहा उड्ढमहो तिरिय च दिसावलोगो कायव्यो। नि० चू०४ उ०।'' एए दिसागइंदा, दिवड्डपलिओवमट्ठितिया॥१४२।। पुव्वेण होइ विमलं, सयंपभे दक्खिणे दिसाभाए। दिसावेरमण न० (दिग्विरमण) प्रथम गुणवतभेद, ध०२ अधि०। दिसासुद्धि स्त्री० (दिक्शुद्धि) तत्कालोच्छलितशङ्खपणवाऽऽदि अवरे पुण पच्छिमओ,णिवुजोयं च उत्तरओ / / 143 / / द्वी०। / निनादश्रवणपुणकुम्भभृङगारच्छत्रध्वजचामराऽऽद्यवलोकशुभगन्धाऽऽदिसाचक्कवाल न० (दिक्चक्रवाल) दिमण्डले, तपाविशषे च / एकत्र घ्राणाऽऽदिस्वभवायां स्वनामख्यातायां शुद्धौ, ध० 2 अधि०। पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलाऽऽदीनि तानादृत्य भुत्ते, द्वितीये तु दिसासोबत्थिय पुं० (दिक्रवस्तिक) जम्बूद्वीपे मेरुपूर्व रुचकपर्वतस्याष्टम दक्षिणस्यामित्येवं दिक् चक्रवालेन तत्रतपःकर्मणि पारणकरणं तत्तपः कर्म कूटे, स्था० 8 ठा०1 दिक चक्रवालमुच्यते। नि०१ श्रु०३ वर्ग०३ अ०। भ०। दिक्सौवस्तिक पु० दिक्प्रोक्षके, दक्षिणाऽऽवर्ते स्वस्तिके च / जी० दिसाचर पुं० (दिक्चर) भगवच्छिष्येषु देशाटेषु, पापितीयेष्यिति 3 प्रति०४ उ०। औ०। ज०।। चूर्णिकारः / दिशायां चरन्ति यन्ति मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्या इति दिसासोवत्थियासण न० (दिक्सौवरि-तिकाऽऽसन) येषामधोभागे दिकचराः, देशाटा वा दिक्चरा भगवच्छिष्याः पार्श्वस्थीभूता इति। न० दिक्खस्वस्तिका अलिखिताः सन्ति तेष्वासनविशेषेषु, जी०३ प्रति० १५श०। 4 उ० / जं० दिसाजत्तिय स्त्री० (दिग्यात्रा) देशान्तरगमने, उपा०१ अ०। दिसाहत्थिकूड पु० (दिग्घस्तिकूट) दिक्षु हत्याकारेषु कूटेषु, जं०। दिसाडाह पु० (दिग्दाह) अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकारे उपरि च दिग्ग्जकूटवक्तव्यतामाहप्रकाशाऽऽत्मके दयमानमाहनगरप्रकाशकल्पे, भ०३ 207 उ० / मंदरे णं भंते ! पव्वए भद्दसालवणे कइ दिसाहत्थिकूडा जी० / नि० चू० / आ० चू०! अनु० / व्य०। स्था०। दिग्दाहा वायव्यादिषु पण्णत्ता? गोयमा ! अट्ठ दिसाहत्थिकूडा पण्णत्ता / तं जहामण्डलेषु भवन शस्राग्नि क्षुत्पीडाविधायी भवति। सूत्र०२ श्रु०२० / "पउमुत्तरे णीलवंते, सहत्थी अंजणागिरी। दिसाणाग पुं० (दिड्नाग) स्वनामख्याते बोद्धविदुषि, सम्म० 1 काण्ड कुमुदे अ पलासे अ, वडेंसे रोअणगिरी।। 1 / / " दिसाणुवाय पुं० (दिगनुपात) दिगनुसरणे, प्रज्ञा० 3 पद। कहि णं भंते ! मंदरे पव्वए भद्दसालवणे पउमुत्तरे णाम दिसादवेक्खा स्त्री० (दिक्चर) आचार्योपाध्यायाऽऽदिपरिवाराऽऽ- दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुलम्बने, पञ्चा० 5 विव०। रच्छिमिल्लाए सीआए उत्तरेणं एत्थ णं पउमुत्तरे णाम दिसाहदिसादाह पुं० (दिग्दाह) दिसाडाह' शब्दार्थ, भ०३ श०७ उ०। त्थिकूडे पण्णत्ते / पंच जोअणसयाई उडू उच्चत्तेणं,पंच गाउअदिसादि पुं० (दिगादि) मेरुमध्यवर्तिनि रुचके, मेरो च / दिशामादिर्दिगादिः। | सयाई उव्वेहेणं, एवं विक्खंभपरिक्खेवो भाणियव्यो चुल्लहिमतथाहि-रुचकाऽऽदिदिशां विदिशां च पभवां रुचकन्चाष्ट्रप्रदेशाऽऽत्मको वंतसरिसो, पासायणं तं चेव, पउमुत्तरो देवो, रायहाणी उत्तरपुभेरुमध्यवर्ती ततो मेरुरपि दिगादिरुच्यते। सू० प्र०५ पाहु० / / रच्छिमेणं / / 1 / /
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________________ दिसाहत्थिकूड 2536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिसाहत्थिकूड एवं णीलवंतदिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरच्छिमेणं पुरच्छिमिल्लाए सीआए दक्खिणेण, एअस्स वि नीलवंतो देवो, रायहाणी दाहिणपुरच्छिमेणं / / 2 / / एवं सुहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरच्छिमेणं दक्खिणिल्लाए | सीओआए पुरच्छिमेणं, एअस्स वि सुहत्थी देवो, रायहाणी / दाहिण पुरच्छिमेणं / / 3 / / एवं चेव अंजणागिरदिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपचच्छिमेणं दक्खिणिल्लाए सीओआए पचच्छिमेणं एअस्स वि अंजणागिरी देवो, रायहाणी पञ्चच्छिमेणं / / 4 / / एवं कुमुदे वि दिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपञ्चच्छिमेणं पञ्चच्छिमिल्लाए सीओआए दक्खिणेणं, एअस्स वि कुमुदो, रायहाणी दाहिणपञ्चच्छिमेणं 5 / / एवं पलासे वि दिसाहत्थिकूडे मंदरस्स उत्तरपञ्चच्छिमेणं पचच्छिमिल्लाए सीओआए उत्तरेणं, एयस्सणं विपलासो देवो, रायहाणी उत्तरपञ्चच्छिमेणं 6 / / एवं वडेंसे वि दिसाहत्थिकू डे मंदरस्स उत्तरपञ्चच्छिमे उत्तरिल्लाए सीआए महाणईए पञ्चच्छिमेणं, एअस्स वि वर्मेसो देवो, रायहाणी उत्तरपच्चच्छिमेणं 7 / एवं रोअणागिरी दिसाहत्थिकूडे मंदरस्स उत्तरपुरच्छिमेणं उत्तरिल्लाए सीआए पुरच्छिमेणं, एअस्स वि रोअणगिरी देवो, रायहाणी उत्तरपुरच्छिमेणं, उत्तरिल्लाए सीआए पुरच्छिमेणं 8 / "मंदरेणं भंते ! पव्वए" इत्यादि प्रश्नसूत्रे दिक्षु ऐशान्यादि-विदिक्प्रभृतिषुहस्त्याकाराणि कूटानि दिग्रहस्तिकूटानि, कूटशब्दवाच्यानामप्येषां पर्वतत्वव्यवहार ऋषभकूटप्रकरण इव ज्ञेयः। स्थानाङ्गेऽष्टमस्थाने तु पूऽऽदिषु दिक्षु हस्त्याकाराणि / उत्तरसूत्रे पद्योत्तरेति श्लोकः / पद्मोत्तरः, नीलवान्, सुहस्ती, अञ्जनागिरिः। "अञ्जनाऽऽदीनां गिरी' / / 3 / 2 / 77 // (हेम०) इत्यादिना दीर्घः। कुमुदः, पलाशः, अवतंसः, रोचनागिरिः / अन्यत्र रोहणागिरिः, अत्रापि दीर्घत्वं प्राग्वत् / अथैषां दिगव्यवस्था पृच्छन्नाह-(कहि णमित्यादि) क भदन्त ! मेरोर्भद्रशालवने पद्मोत्तरो नाम दिग् हस्तिकूटः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! मन्दरस्यैशान्यां पोरर याया मेरुतः पूर्वदिग्वर्तिन्याः शीताया उत्तरस्याम्। अनेनोत्तरदिगवर्तिन्याः शीताया व्यवच्छेदः कृतः / अत्रान्तरे पद्मोत्तरो नाम दिगृहस्तकूटोऽपि मेरुतः पञ्चाशद्योजनातिक्रम एव भवति, प्रासादजिनसमश्रेणिस्थितत्यात् / पञ्च योजनशतान्यू॰चत्वेन, पञ्च गव्यूतशतान्युद्वेधन, एवमुचत्यन्यायेन विष्कम्भः / अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतः / परिक्षेपश्च भणितव्यः / तथाहि-मूले पञ्चयोजनशतानि, मध्ये त्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि, उपरि अर्द्धतृतीयानि योजनशतानीत्येवरूपो विष्कम्भः, तथा मूले पञ्चदश योजनशतानि एकाशीत्यधिकानि, मध्ये एकादश योजनशतानि षडशीत्यधिकानि किञ्चिदूनानि, उपरितः सप्त योजनशतान्ये कनवत्यधिकाति किशिदूनानि इति परिक्षेपः / प्रासादाऽऽदीना च एतद्वर्तिदेवसत्कानां तदेव प्रमाणमिति | गम्यं, यत् क्षुद्रहिमवत्कूटपतिप्रासादस्येति / अत्र बहुवचननिर्देशो वक्ष्यमाणदिग्रहस्तिकूटवर्तिप्रसादेष्वपि समानप्रमाणसूचनार्थम् / पद्मोत्तरदिगृहस्ती पद्मोत्तरोऽत्र देवः, तस्य राजधान्युत्तरपूर्वस्यामुत्तरविदिग्वतिकूटाधिपत्वादस्येति 1 / अथ शेषेषूक्तन्यायेन प्रदक्षिणाक्रमेण दर्शयन्नाह-“एवं नीलवंत'' इत्यादि व्यक्त, नवरम् (एवमिति) पद्योत्तरन्यायेन नीलवन्नाम्ना दिग्रहस्तिकूट / मन्दरस्य दक्षिणपूर्वस्यां पौरस्त्यायाः दक्षिणस्या, ततोऽयं प्राच्यजिनभवनाऽऽग्नेयप्रासादर्यामध्ये ज्ञेयः / एतस्यापि नीलवान देवः प्रभुः तस्य राजधानी दक्षिणपूर्वस्यामिति 2 / "एवं सुहत्थि' इत्यादि व्यक्तं, नवरं दाक्षिणात्याया मेरुतो दक्षिणदिग्वर्तिन्याः शीतोदायः पूर्वतः अनेन मेरुतः पश्चिमदिग्वार्तेन्याः शीतोदायाः व्यवच्छेदः कृतः, अत्रान्तरे सुहस्तिदिग्हस्तिकूटः / आग्नेयप्रासाददाक्षिणात्यजिनभवनमध्यवर्तीत्यर्थः / एतस्याऽपि सुहस्ती देवः, राजधानी तस्य दक्षिणपूर्वस्या, नीलवतः सुहस्तिनोरेकस्यामेव दिशिराजधानीत्यर्थः 3 / एवं समविदिगृहस्तिकूटाधिपयोरेकस्यां विदिशि राजधानीद्वयम् 2 अग्रेऽपि भाव्यम्। "एवं चेव'' इत्यादि व्यक्त, नवर दाक्षिणात्यजिनगृहनैर्ऋतप्रासादयोर्मध्ये इत्यर्थः / एवमित्यादि व्यक्त, नवर पाश्चात्यायाः पश्चिमाभिमुख वहन्त्याः शीतोदाया दक्षिणस्यामिति नैर्ऋतप्रासादपाश्चात्यजिनभवनयोर्मध्यवर्तीत्यर्थः 5 / एवमिति व्यक्त, पाश्चात्यजिनभवनवायव्यप्रासादयोरन्तरे इत्यर्थः 6 / "एवं वडेसे वि दिसाहत्थिकूड़े'' इत्यादि गतार्थ, नवरमुत्तरायां मेरुत उत्तरदिगवर्तिन्याः शीतायाः पश्चिमतः, अनेन पूर्वदिग्वतिन्याः शीताया व्यवच्छेदः कृतः, वायव्यप्रासादोत्तराहिभवनयोर्मध्यवर्तीत्यर्थः 7 / "एवं रोअणागिरी दिसाहत्थिकूडे" इत्यादि व्यक्तं, नवरम् उत्तरायाः शीतायाः पूर्वतः, उत्तराहिजिनभवनेशानप्रासादयोरन्तरलो इत्यर्थः 8 / एषु च बहुभिः पूर्वाऽऽचार्यः शाश्वतजिनभवस्तोत्रेषु जिनभवनान्युच्यन्ते, इह तु सूत्रकृता नोक्तानि, तेन तत्त्वं केवलिनो विदन्ति / इत एवोक्तं रत्नशेखरसूरिभिः स्योपज्ञक्षेत्रविचारे-"करिकूडं नइदह, कुरुकच जमलसमपि इड्ढेसु। जिणभवणविसंवाओ, जो तं जाणंति गीअत्था॥ 1 // " इति / अथैषां यापी चतुष्कप्रासादानां जिनभवनाना करिकूटानां च स्थाननियमने / अत्र वृद्धानां संप्रदायः। तथाहि-भद्रशालवने हि मेरोश्चतस्रोऽपि दिशो नदीद्वय प्रवाहै: रुद्धा अतो दिक्ष्वेव भवनानि भवन्ति, किं तु नदीतटनिकटस्थानि भवनानि, गजदन्तनिकटस्थाः प्रासादाः, भवनप्रागभावित्वात्, शीतायाः, शीतोदाऽन्तरालेष्वष्टसु करिकूटाः, अत एव विशेषतो दर्शातभरोरुत्तरपूर्वस्यामुत्तरकुरूणां बहिः शीताया उत्तरदिग्भागपञ्चाशद्योजनेभ्योऽपरः प्रासादः, तत्परिक्षेपिण्यश्चतस्रो वाप्यः / एवं शेषेष्वपि प्रासादेषु ज्ञेयम् / मेरोः पूर्वस्यां शीतायाः दक्षिणतः 50 योजनेभ्यः परतः सिद्धायतनं, मेरोदक्षिणपूर्वस्या 50 योजनातिक्रमे देवकुरुणां बहिः शीतोदाया दक्षिणतः प्रासादः, पश्चिमाया 50 योजनातिकमे शीतोदाया उत्तरतः सिद्धायतनं, मेरोरपरस्यां 50 योजनान्यवगाह्य उत्तरकुराणां बहिः शातोदायाः पश्चिमतः सिद्धायतनमिति / एतेषां चाष्टस्वन्तरेष्वष्टौ करिकूटा इति। जं० 4 वक्ष०ा स्था०।
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________________ दिसिदेवया 2540 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिणपरिणय दिसिदेवया स्त्री० (दिगदेवता) इन्द्रादिषु, पञ्चा०८ विव०। ध०। पडियं अन्नेण वा आणीयं ताहे कप्पइ। एयं पुण अट्टावयहेमकूडसम्मेयदिसिव्यय न० (दिग्व्रत) प्रथम गुणवतभेदे, आव ६अ। सुपइट्टउज्जंतचित्तकूडअंजणगमंदराऽऽदिसु पव्वएसु भवेजा / एवं अहे साम्प्रतं तेषामेवाणुव्रतानां परिपालनाय भावभूतानि गुणव्रतान्यभि- कूवियाऽऽदिसु विभासा / तिरियं जं पमाणं गहियं, तं तिविहेण वि धीयन्ते। तानि पुनरत्रीणि भवन्ति। तद्यथा-दिगवतम् 1. उपभोगपरिभागे तिकरणेण णातिक्कमियव्वं / खेत्तबुड्डी सावगेण न कायव्वा / कहं ? सो परिमाणम् 2, अनर्थदण्डवर्जनमिति 3 / तत्राऽऽद्यगुणव्रतस्वरूपभिधि- पुवेण भमग गहाय गओ जाव तं परिमाण, ततो परेण भंड अग्धइ त्ति त्सयाऽऽह काउं अवरेण जाणि जोयणाणि ताणि पुष्वदिसाए संछुहइ, एसा खेत्तबुड्डी, दिसिव्वए तिविहे पन्नते।तं जहा-उद्भदिसिव्वए, अहोदिसिव्वए, सेन कप्पइ काउ, सिय त्ति बोलीणो होजा, णियत्तियव्यं विस्सरिए वा न तिरिअदिसिव्वए।। 35 / / गंतव्वं, अन्नो वि न विसझियव्वो, जे अण्णाणाए को विगओ होजा, जं (दिसिव्वए तिविहे इत्यादि) दिशो ह्यनेकप्रकाराः शारजे वर्णिताः, तत्र विसुमरिय खेत्तगत्तेण लद्धं, तन्न गेण्हेजति // 36 / / आव०६ अ०। सूर्योपलक्षिता पूर्वा, शेषाश्च दक्षिणाऽऽदिकास्तनदनुक्रमेण द्रष्टव्याः। ध०। उपा० / श्रा० / पञ्चा० / ध०र० / आ० चू०। तत्र दिशासंबन्धि, दिक्षु वा व्रतम्-एतावत्सु पूर्वाऽऽदिदिग्विभागेषु मया दिसिविभायपुं० (दिग्विभाग) ईशानाऽऽदिषु कोणेषु, सू०प्र०१ पाहु०। रा०) गमनाऽऽानुष्ठयं न परत इत्येवंभूतं दिग्वतम्। एतचोघतसिविध प्रज्ञप्तम्, दिस्स अव्य० (दृश्य) उत्प्रेक्ष्यत्यर्थे. सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। तीर्थकरगणधरैः / तद्यथेति पूर्ववत् / ऊर्द्ध दिक, तत्संबन्धि तस्या वा दिस्समाण त्रि० (दिश्यमान) उपदिश्माने, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। ब्रतम्-एतावती दिगू पर्वताऽऽद्वारोहणावगाहनीया. न परत इत्येवं * दृश्यमान त्रि० चक्षुषा उपलभ्यमाने, आव०५ अ०। आचा०। भूतमिति भावना। अधः दिगधोदिक्, तत्संबन्धि तस्या वा व्रतमधोदि दिस्सा अव्य० (दृष्टा) उत्प्रेक्ष्यत्यर्थे, भ०१८ श०८ उ०। ग्वव्रतम्-एतावमी दिगधः कूपाऽऽद्यवतरणादवगाहनीया, न परत दिह धा० (दिह) उपचये, अनु० / अदा-उभ-सक-अनिट् देग्धि, दिग्धे / अधिक्षत्। अदिग्ध / वाच०। इत्येवभूतमिति हृदयम्। तिर्यग्दिशः पूर्वाऽऽदिकाः, तासां संबन्धितासु दिहागय त्रि० (द्विधागत) "सर्वत्र लवरामचन्द्र" || 8 / 2 / 76 / / वाव्रतं तिर्यगदिग्व्रतम् एतावती दिक् पूर्वेणावगाहनीया, एतावती दक्षिणेने इति वलोपः / धस्य हः। द्विप्रकार प्राप्ते, प्रा० 901 पाद। त्यादि, न परत इत्येवंभूतेतिभावार्थः। अस्मिश्च सत्यवग्रहीतक्षेत्राद बहिः दिहि स्त्री० (धृति) 'दिहि' इत्येतदर्थं तु "धृतेर्दिहिः" / / 8 / 2 / स्थावरजङ्गमप्राणिगाचरो दण्डः परित्यक्तो भवतीति गुणः / 131 / इति वक्ष्याम इतिधृतेर्दिहिः / प्रा' 1 पाद।"धृतेर्दिहि || इदमपि चातिचाररहिमनुपालनीयमतोऽस्यैवातिचा / 21 131 / / इति धुतिशब्दस्य दिहिरत्यादेशे वा। 'दिहि। धिई। प्रा रानभिधित्सुराह पाद। स्त्री। धृ-क्तिप् / तुष्टी, धारणे, योगे विष्कम्भावधिके अष्टमे योग, दिसिव्वयस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणिअव्वा, सुखे, धारणायाम् अवसादेऽपि शरीराऽऽदोः स्तम्भनशक्ती, अष्टादशानसमायरिअव्वा / तंजहा-उडदिसिप्पमाणाक्कमे, अहोदिसिप्प क्षरपादके छन्दोभेदे, अष्टादशसङ्ख्यायां च / वाच०। माणाइक्कमे, तिरिअदिसिप्पमाणाइक्कमे, खेत्तवुड्डी, सइअंतर दीण त्रि० (दीन) दी-क्त, तस्य नः / दुःखिते, भीते च। वाच०। रड्के, धानं // 36 // पञ्चा०६ विव०। दैन्यवति, विपा० 1 श्रु०२ अ०। स्या०। क्षीणसक्ल(दिसिव्वयस्स संमणोवासएणमित्यादि) दिव्रतस्योक्तस्वरूपस्य पुरुषार्थशक्ती, द्वा०१२ द्वा०। पं०व० / करुणाऽऽस्पदे, सूत्र०१ श्रु०१० श्रमणोपासकेनामी पञ्चतिधारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः। तद्यथा-- अ० / दुःस्थे, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / सूत्र० / प्रश्न० / अणु० / ऊर्द्धदिखतप्रमाणातिक्रमः, यावत्प्रमाणं परिगृहीतं तस्यातिलचन- | शृगालावविहारिणि, आचा०१ श्रु०६ अ०। "दीणाभासं दीणे, गति मित्यर्थः / एवमन्यत्रापि भावना कार्या / अधोदिकप्रमाणातिक्रमः, दीणजपिऊपुरिसं। कं पेच्छसि नंदंत, दीणाए दिट्टिएतस्थ॥१॥" व्य० तिर्यदिक्प्रमाणातिक्रमः, क्षेत्रस्य वृद्धिः क्षेत्रवृद्धिरित्येकतो योजनशत ३उ०॥ परिमाणमभिगृहीतमन्यतो दश योजनान्यभिगृहीतानि, तस्यां दिशि दीणजाइ त्रि० (दिनजाति) दीना वा हीना जातिरस्येति दीनजातिः / समुत्पन्न कार्ये योजनशतमध्यादपनीयान्यानि दश योजनानि, तत्रैव हीनजातो, स्थाः 4 टा०२ उ०। सुबुद्ध्या प्रक्षिपति संबर्द्धयत्येकत इत्यर्थः। स्मृते शिोऽन्तर्धान रमृत्य- | दीणदाण न० (दी * भान) कृपणेभ्योऽनुकम्पावितरणे, पञ्चा०७ विव०। न्तानम्-किं मया परिगृहीत, काया मर्यादया व्रतमित्येवमननुस्मरण- दीणदिट्टिन० (द-दृष्टि) विच्छायचक्षुषि, स्था० 4 ठा०२ उ०। मित्यर्थः / स्मृतिमूलं नियमानुष्ठान, भ्रंशे नियमत एव नियमभ्रंश दीणपण्ण पुं० (दीनप्रज्ञ) दीनसूक्ष्मार्थाऽऽलोचने, स्था० 4 ठा०२ उ०। इत्यतिचारः / “एत्थ य सामायारी-उर्दुज पभाणं गहियं, तस्स उवरि दीणपरक्कम पुं० (दीनपराक्रम) हीनपुरुशकारे, स्था० 4 ठा०२ उ० / पव्वयसिहरे सक्खे वा मक्कभाय पक्खी वा सावयस्स वत्थं आभरण वा / दीणपरिणय पुं० (दीनपरिणत) अदीनः सन् दीनतया परिणतोयस्तमिन्, गणिहउँ पमाणाइरेग उवरिभूमिं वचेजा, तत्थ से न कप्पइ गर्नु, जाहे तं | स्था० 4 ठा०२ उ०।
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________________ दीणपरियाय 2541 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दिव दीणपरियाय पुं० (दीनपर्याय) दीनस्येव पर्यायोऽवस्था प्रव्रज्याऽ ऽदिलक्षणो यस्य तरिमन, स्था० 4 ठा०२ उ०। दीणपरिवाल पुं० (दीनपरिवार) दीनः परिवारो यस्य तस्मिन, स्था०४ ਟੀ ਤੇ ਉਹ दीणभावया स्त्री० (दीनभावता) प्रत्यनीकापमानाऽऽदी दैन्ये, दीनो भावो मानसाध्यवसायो यस्यासौ दीनभावो, दीनभावस्य भावो दीनभावता। आतु। दीणभासि(ण) पुं० (दीनभाषिण) दीनवद् भाषणशीले, दीनवट्टीनं वा भाको / स्था० 4 ठा०२ उ० दीणमण पु० (दीनमनस्) स्वभावत एवानुद्धचेतसि, स्था० 4 ठा०२ उ०। दीणया अव्य० (दीनता) दैन्ये, स्था० 4 ठा०२ उ०। दीणववहार पुं० (दीनव्यवहार) दीनान्योदानप्रतिदानाऽऽदिक्रिये, हीनदिवादे च / स्था० 4 ठा०२ उ०। दीणवित्ति पुं० (दीनवृत्ति) दीनस्येव वृत्तिर्वर्तनं जीविका यस्य तस्मिन, स्था० 4 ठा०२ उ०। दीणविमण(स) त्रि० (दीनविमनस्) दीनो दैन्यवान विमनाः शून्यचित्तः, दीनश्वासी विमनाश्चदीनविमनाः। दैन्यवच्छूयाचित्ते, विपा०१ श्रु०२ अ०। दीणविमणवयण त्रि० (दीनविमनोवदन) दीनस्येव विमनस इव वदनं यस्य तस्मिन, भ०६ श०३३ उ० / विपा०। दीणसंकप्प त्रि० (दीनसकल्प) उत्तमचित्तस्वाभाव्येऽपि कथञ्चिद्दीनविमर्श, स्था० 4 ठा०२ उ०। दीणसीलसमायार पुं० (दीनशीलसमाचार) दीनधर्मानुष्ठाने, स्था०४ ठा०२ उ०। दीणसेवि(ण) पुं० (दीनसेविन) दीनं नायकं सेवते यस्तस्मिन् स्था०४ ठा०२ उ०। दीणाणुकंपण न० (दीनानुकम्पन) निःस्वान्धवधिरपद्गुरोगाऽऽर्तप्रभृति ष्वनुकम्पाकरणे, ध०२ अधिo दीणार पुंछन० (दीनार) दी-अरक् नृट् च / स्वर्णभूषणे, मुद्रायां, सुवर्णकर्ष द्वये, निष्कमाने, वाच० आचा० आ० क०। औ०। नि० चू०। आ० म०। दीणारमालिया स्त्री० (दीनारमालिका) दीनाराऽऽकृतिमालायाम्, औ०। दीणोभासी पुं० [दीनावभासि( घि)न दीनवदवभासते प्रतिभाति, अवभाषते वा याचत इत्येवंशीले, स्था० 4 ठा०२ उ०। दीप्प त्रिः (दीप्र) भास्वरे, स्था० 4 ठा०। दीप्पा स्त्री० (दीप्रा) दीपप्रभाया, योगदृष्टौ च / द्वा० 20 द्वा०। (अस्या व्याख्या 'दिप्पा' शब्देऽनुपदमेव 2520 पृष्ठे गता) दीवपुं०(दीप) दीप-कः। प्रदीप, दर्श०१ तत्त्व। षो०नि० चू०।दश। तलाऽऽदिस्नेहयोगेन वर्तिकादाहकशिखाऽन्विते, वाच० / प्रकाशके वस्तुनि, स्था० १०टा०1दीपशिखायाम्, स०१० सम० / दीपनक्रियाविकल्पे च / विशे० / त्रिविधा दीपाः-अवलम्बनदीपाः, शृखलाबद्धा इत्यर्थः / उत्कम्पनदीपा ऊर्द्धदण्डवन्तः। पञ्जरदीपा अभपटलाऽ5दिपञ्जरयुक्ताः। त्रयोऽऽप्येते त्रिविधाः सुवर्णरूप्यतदुभयत्वादिति। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। 'दीपी दीप्तौ / दीपयति प्रकाशयतीति दीपः / भावतः / श्रुतज्ञानलाभे, रात्र०१ श्रु०६ अ०। ("संकट्टसंभवम्मी, अन्नम्मि वि असइ सरिसछारेण / अत्थाइज्जइ पच्छा, सारिस्से दीवगे उ विही / / 28 / / ' इत्यादि 'परिहवण 'शब्दे वक्ष्यते) दीपाद्दीपशतं प्रदीप्यते ज्वलति, सोऽपि प्रदीप्यते, दीपो न पुनरन्यान्यदीपोत्पत्तावपि क्षीयते। उत्त०१ अ०1 (दीपाऽऽदिभिर्जिनपूजा, तत्फलाऽदिकं च ' चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1286 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) *दीपन० द्विर्गता आपोऽत्र। अच् आदेरत इच। वाच०सद्वाभ्यां प्रकाराथ्यां स्थानदातृत्वाहाराऽऽद्युपष्टम्भहेतुलक्षणाभ्यां प्राणिनः पान्तीहज द्वीपाः / जन्त्वावासभूतविशेष क्षेत्रविशेषे, अनु० / जलवृते भूदेशे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। प्रज्ञा०। द्वीपोऽपि पूर्ववचतुर्धातत्र नामद्वीपोयस्य द्वीप इति नाम। स्थापनाद्वीपोया द्वीपस्य स्थापना। यथा-चित्रलिखितजम्बूद्वीपाऽऽदिः / द्रव्यद्वीपो द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च। तत्राऽऽगमतस्तदर्थज्ञातानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरद्रव्यद्वीपी सुबोधौ। तद्वयतिरिक्तद्रय्यद्वीपो द्विधासंदीनः, असं दीनश्च / तत्र यो हि पक्षमासाऽऽदावुदकेन प्लाव्यते स संदीनो, विपरीतस्त्वसंदीनः-सिंहलद्वीपाऽऽदिः। भावद्वीपोऽपि द्विधा आगमतो, नोआगमतश्च। तत्राऽऽगमतस्तदर्थज्ञातोपयुक्तः / नोआगमतस्तु साधुः / कथमित्याह-यथाहि नदीसमुद्रबहुमध्यप्रदेशे सांयात्रिका द्रव्यद्वीपमवाप्याऽऽश्वसन्ति, तथा पारातीतसंसारपारावारान्तरचारखेदभेदस्विनो देहिनः परमपरोपकारैकप्रवृत्तं साधुंसमवाप्याऽऽश्वसन्ति, अतो भावतः परामार्थतो द्वीपो भावदीप उच्यते। सोऽपि संदीनासंदीनभेदाद् द्विधा-तत्र परीषहोपसगर्गाऽऽधैः क्षोभ्यः संदीनः, तदितरस्त्व-संदीनः / अथवा-भावद्वीपः सम्यक्त्व, तच प्रतिपातित्वा-दौपशमिकं, क्षायोपशमिक च / संदीनो भावद्वीपः, क्षायिक चासंदीन इति। ननु क्वचित् तत्पर्यायाऽऽपन्नं वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते, यथाऽत्रैव जम्बूपर्यायमनुभवन भावजम्बूत्वेन निक्षिप्तः / क्वचित्तदन्यपर्यायाऽऽपन्नं वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते, यथाऽत्रैव भावद्वीपपर्यायमनुभवन् साधुः सम्यक्त्वं चेति परस्परमुदाहरणवैषम्यं कथंयुक्तिमदिति? अत्रोच्यते-वस्तुगत्या तत्पर्यायाऽऽधारतया भवनं भाव इति कृत्वा तत्पर्यायधार्ये वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते / यत्तु तद्वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते तत्तद्गतभावगतगुणाऽऽरोपादोपचारिकमिति नदोषः, विवक्षाया विचित्रत्वादिति। प्रस्तुते च-द्विधा गता लवणोदस्याऽऽपोऽस्मादिति / अत्वर्थवशाद् दीपत्वं, पृथिव्यादिपरिणामरुपत्वाद् द्रव्यद्वीपत्वं, तत्र चद्रव्यद्वीपेनात्राधिकारः, तत्राप्यसंदीनेनेति।अथ वेत्थं नामाऽऽदिभेदाद् द्वीपश्चतु नामदीपोद्वीप इति नाम, नामनामवतोरभेदोपचारात् स्थापनाद्वीपो द्वीपस्य स्थालवलयाऽऽद्याकारः / द्रव्यद्वीपो--द्वीपोऽऽरम्भकद्रव्याणि पृथिव्यादीनि, तदात्मकत्वाद् द्वीपानाम जं० / भावद्वीपस्तु स्थालाद्याकृतिमत् स्थलाऽऽत्मकं सर्वतः समुद्रजलप्लावित क्षेत्रखण्डम् / जं०१ वक्षः। स च द्रव्यभावभेदाद् द्विधा-तत्र द्रव्यद्वीप आश्वासद्वीपः, आश्वास्यतेऽस्मिन्नित्याश्वासः, स चासो द्वीपश्चाऽऽश्वासद्वीपः / यदिवाश्वसनमाश्वासः, आश्वासाय द्वीप आश्वासदीप।, तत्र नदीसमुद्रबहुमध्यप्रदेशे भिन्नबोधिस्थाऽऽदयस्तमवाप्याऽऽश्वसन्ति। असावपि द्वेधा-संदीनो, विपरीतस्त्व संदीनः, सिंहलद्वीपाऽऽदिः यथाहि सायत्रिकास्तं द्वीपमसंदीनमुद
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________________ दीव 2542 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दीव न्वदादेरुत्तितीर्षवः समवाप्याश्वसन्त्येवं तं भावराधानायो स्थित अप्पड्डिया वा, महिड्डिया वा ? गोयमा ! कण्लेस्से हिंतां साधुमवाप्यापरे प्राणिनः समाश्वसन्ति / यदि वा दीप इति प्रकाशदीपः णीललेस्सा महिड्डिया० जाव सव्वमहिड्डिया वा तेनुलेस्सा। सेवं प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः, स चाऽऽदित्यचन्द्रमण्यादिरसदीनः, भंते ! भंते ति जाव विहरइ / / भ०१६ श० 13 उ०। अपरस्तु विधुदुल्काऽऽदिः संदीनः / यदि वा प्रचुरेनधनतया विवक्षित- दीवकुमारावास पुं० (द्वीपकुमाराऽऽवास) द्वीपकुमाराणां भवनाऽऽवासे, कालावस्थाय्यसंदीनो, विपरितस्तु संदीन इति। यथा ह्यसौ स्फुटावेद- 'छावत्तरि दीवकुमाराण वाससयसहस्सा यण्णत्ता।" स०७५ सम०। नतो हेयोपादेयहानोपादानवता निमित्तभावमुपयाति तथा कृचित्स- दीवग पुं० (दीपक) दीप-स्वार्थे कन्। प्रदीपे, आम० 1 अ० 2 खण्ड। मुद्राऽऽद्यन्तर्वर्तिनामाश्वासकारि च भवति, एवं ज्ञानसंधानायोत्थितः श्येनपक्षिणि, रागभेदे चावाच०। सम्यक्त्वभेदे, स्वयं तत्त्वश्रद्धानरहित परीषहोपसर्गाक्षोभ्यतयाऽसंदीनः साधुर्विशिष्टोपदेशदानतो ऽपरेषा- एव मिथ्यादृष्टिः परस्य धर्मकथाऽऽदिभिस्तत्त्वश्रद्धानं दीपयति मुपकारायेति / अपरे भावद्वीप, भावदीपं चान्यथा व्याचक्षते। तद्यथा- प्रकाशति, तत्सम्बन्धि सम्यक्त्वं दीपकमुच्यते। विशे०। भावद्वीपः सम्यक्त्वं, तच प्रतिपातित्वादीपशमिकं, क्षायोपशमिक च। सयमिह मिच्छदिट्ठि, धम्मकहाईहि दीवइ परस्स। संदीनो भावद्वीपः, क्षायिक त्वसंदीन इति / तं द्विविधमप्यवाप्य सम्मत्तमिणं दीवगं, कारणफलभावओ णेयं / / 50 / / परीतसंसारत्वात्प्राणिन आश्वासन्ति। भावदीपस्तु संदीनः श्रुतज्ञानम्, स्वयमिह मिथ्यादृष्टिरभव्यो भव्यो वा कश्चिदङ्गारमर्दकवत्। अथ चअसंदीनस्तु केवलमिति। तच्चावाप्य प्राणिनोऽवश्य-माश्वासन्त्येवेति। धर्मकथाऽऽदिभिधर्मकथया मातृस्थानानुष्ठानेनातिशयेन वा केनचिद्दीआचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। समुद्रान्तः पतितस्य जन्तोर्जलकल्लोला पयतीति प्रकाशयति परस्य श्रोतुः सम्यक्त्वमिदं व्यञ्जकम् / आहऽऽकुलितस्य मुमूर्षोरतिश्रान्तस्य विश्रामहेतौ, सम्यक्त्वाऽऽदिके मिथ्यादृष्टः सम्यक्त्ववमिति विरोधः? सत्यम्, किंतु कारणफलभावतो संसारभ्रमणविश्रामहेतौ, सूत्र०१ श्रु०११ अ०! झंयं-तस्य हि मिथ्यादृष्टरेपि यः परिणामः स खलु प्रतिपत्तृसम्यक्त्वस्य (जम्बूद्वीपाऽऽदीनां गणना 'आणुपुव्वी' शब्दे द्वितीयभागे 147 पृष्ठे कारणभाव प्रतिपद्यते, तद्भावभावित्वात्तस्य, अतः कारण एव कार्योपचागता) (जम्बूद्वीपनाम्ना कियन्तो द्वीपा इति 'जंबूढीव' शब्देऽस्मिन्नेव रात्सम्यक्त्वाविरोधः, यथाऽऽयुघृतमिति॥५०॥ श्रा०। रथवीपुरनाम नगराद बहिःस्थेःसवनामख्याते उद्याने, उत्त० 3 अ० / विशे०। आ० भागे 1376 पृष्ठे गताः) (अन्तीपा 'अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठ म०। आ० चू०। आ० क० / कुडकुमे, अर्थालड्कार भेदे च / न० वाच०। उक्ताः ) दीपयति-णिच्--एवुल / यमान्याम, स्त्री० / कार्यप्रकाशके, कुशले थे। दीवअ (देशी) कृकलासे, दे० ना०५ वर्ग 41 गाथा। त्रि० / स्विया टाप, अत इत्वम्। वाच०। दीवंगपुं० (द्वीपांग) सुषमसुषमाजाते चतुर्थे कल्पवृक्षभेदे, दीयः प्रकाशक दीवचंद पुं० (दीपचन्द्र) ज्ञानधाऽऽख्यपाठकशिष्ये स्वनामख्याते वस्तु, तत्करणत्वाद्दीपाः / स्था०१० ठा० / प्रश्न० / यर्थह स्निग्धं पाठके, अष्ट०३२ अष्टा प्रजवलन्त्यः काञ्चनमय्यो दीपिका उद्द्योतं कुर्वाणा दृश्यन्ते तद्वद्वीपाङ्गो दीवचंपय न० (दीपचम्पक) दीपस्थगनके, भ०८ श०६०। रा०। विससापरिणतः प्रकृष्टोद्योतेन सर्वमुद्द्योतयन् वर्तते। तं०। दीवचंवग न० (दीपचम्पक) 'दीवचंपय' शब्दार्थे, भ० 8 206 उ०। दीवकलिया स्त्री० (दीपकलिका) दीपशिखायाम्, अनु० / दीवण पुं० त्रि० (दीपन) प्रकाशने, वाच। ओघ / दीपनं करोति कययदीवकुमार पुं० (दीपकुमार) भूषणनियुक्तसिंहरूपधरेषु भवनवासिविशे तीत्यर्थे, बृ०१ उ०२ प्रक०। षेषु, प्रज्ञा०२ पद। स्था० / औ० / भ०। दीवणिज त्रि० (दीपनीय) दीपयति जठराग्निमिति दीपनीयः, द्वीपकुमाराः सर्वे समाहारा इत्यादिवक्तव्यता बाहुलकात्त्त र्यनीयप्रत्ययः / अग्निदृद्धिकरे, जी० 3 प्रति० 4 उ० दीवकुमारां णं भंते ! सव्वे समाहारा, सय्ये समुस्सासणि स्था०। ज्ञा०। प्रज्ञा०। स्सासा ? णो इणढे समट्टे / एवं जहा पढमसए वितियनुद्देसए दीवमं पुं० (दीव्यत्) क्रीमति, सूत्र०१ श्रु०२अ०२ उ०। दीवकुमाराणं वत्तव्वया तहेव० जाव समाउया समुस्सासणि दीवयंत पुं० (दीपयत्) शोभयति. कल्प०२क्षण स्सासा / एवं णागाऽवि / दीवकुमारा णं भंते ! कइ लेस्साओ दीवय पुं० (दीपक) चित्रके, जी०१ प्रति०। पण्णताओ? गोयमा ! चत्तारिलेस्साओ पण्णत्ताओ? तं जहा- / दीववंदिर न० (द्वीपवन्दिर) स्वनामख्याते श्रावकप्रधाने नगरे, पं० कण्हलेस्सा० जाव तेउलेस्सा। एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं व०४ द्वार। कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिं तो जाव दीवसमुह पुं० (दीपसमुद्र) जम्बूद्वीपाऽऽदिलवणसमुद्राऽऽदिषा, जी०। विसेसाहिया ? गोयमा ! सट्ठवत्थोवा दीवकुमारा तेउलेस्सा, द्वीपसमुद्रवक्तव्यातामाहकाउलेस्सा असंखेजगुणा, णीलले स्सा विसे साहिया, कहिणं भंते! दीवसमुद्दा, केवइयाणं भंते!दीवसमुद्दा, के महालया कण्हलेस्सा विसेसाहिया / एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं णं भंते ! दीवसमुद्दा, किंसंठिया णं भंते ! दीवसमुद्दा किमगारभावकण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण, य कयरे कयरेहिंतो मायराणं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता? गोयमा! जंबुद्दीवा दीवा, ल
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________________ दीवसमुद्द 2543 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दीवसमुद्द वणादिया समुद्दा, संठाणतो एकविहिविह णा, वित्थारतो अणेगविहिविहाणा-दुगुणा दुगुणा पडुप्पाएमाणा पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणवीइया बहुउप्पलपउमकुमुदणलिणसुभगसोगंधियपोंडरीयमहापोडरीयसतपत्तसहस्सपत्तयफुल्लकेसरोवचिया, पत्तेयं पत्तेयं पउ-- मवरवेइया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता अस्सि तिरियलोए असंखेज्जा दीवसमुद्दा सयंभूरमणएज्जव-साणा पण्णत्ता समणाउसो! (कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा इत्यादि) कु कस्मिन, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः? अनेन द्वीपसमुद्राणामवस्थानं पृष्टम् / (केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा इति) कियन्तः कियत्संख्याकाः, भदन्त ! द्वीपसमुद्राः? अनेन द्वीपसमुद्राणा संख्यानं पृष्टम् / (के माहलया णं भंते ! दीवसमुद्दा इति) किं महानालय आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते महालयाः, किंप्रमाणा महालयाः, णमिति प्राग्वता द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः? किंप्रमाण द्वीपसमुद्राणां महत्वमिति पाठः / एतेन द्वीपसमुद्राणाभावामाऽऽदिपरिमाणं पृष्टम् / तथा-(किंसंठिया णं भंते! दीवसमुद्दा इति) किं संस्थितं संस्थानं येषां ते किंसंस्थिताः,णमिति पूर्ववत्। भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः? अनेन संस्थानं पप्रच्छ। (किमागारभावपडोयारा णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता इति) आकारभावः स्वरूपविशेषः, कस्याऽऽकारभावस्य प्रत्यवतारो येषांते किमाकारभावप्रत्यवताराः / बहुलग्रहणाद्वैयधिकरण्येऽपि समासः / णमिति पूर्ववत्। द्वीपसमुद्राः ? किं स्वरूप द्वीपसमुद्राणामिति भावः / अनेन स्वरूपविशेषविषयः प्रश्नः कृतः / भगवानाह-(गोयमेत्यादि) गौतम ! जम्बूद्वीपाऽऽदयो द्वीपाः, लवणाऽऽदिका लवणसमुद्राऽऽदिकाः समुद्राः, अनेन द्वीपानां समुद्राणां चाऽऽदिरक्तः। एतचापृष्टमपि भगवता कथितमुत्तरखोपयोगित्वात्, गुणवते शिष्यायापृष्टमपि कथनीयमिति ख्यापनार्थ च। (संढाणतो इत्यादि) संस्थानतः संस्थानमाश्रित्य (एगविहिविहाणा इति) एकविधि एकप्रकारं विधानं येषां ते एकविधिविधानाः, एकस्वरूपा इति भावः / सर्वेषां वृत्तसंस्थानसस्थितत्वात् / विस्तरतो विस्तारमधिकृत्य पुनरनेकविधिविधानाः, अनेकविधानि अनेकप्रका-राणि विधानानि येषां ते तथा, विस्तारमधिकृत्य नानारूपा इत्यर्थः / तदेव नानारूपत्यमुपदर्शयति--(दुगुणा दुगुणा पडुप्पाएमाणा पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा पवित्थरमाणा इति) द्विगुणं द्विगुणं यथा भवति एवं | प्रत्युत्पद्यमानाः प्रत्युत्पद्यमानाः, गुण्यमाना इत्यर्थः / प्रविस्तरन्तः प्रविस्तरन्तः, प्रकर्षण विस्तारं गच्छन्तः। तथाहि-जम्बूद्वीप एक लक्षं, लवणसमुद्रो द्वे लक्षे, धातकीखण्डश्चत्वारि लक्षाणीत्यादि। (ओभासमाणवीइया इति) अवभासमाना वीचयः कलोल्ला येषां तेऽवभासमानवीचयः / इदं विशेषणं समुद्राणां प्रतीतमेव, द्वीपानामपि वेदितव्यम्, तेष्वपि हृदनदीतडागाऽऽदिषु कल्लोलसंभवात्। तथा बहुभिरुत्पलपद्मकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः (फुल्ल शि) प्रफुल्लैर्विकसितैः (केसरे त्ति) केसरोपलक्षितरुपचिता उपचितशोभाका बहुत्पलपडाकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहा पुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रप्रफुल्लकेसरोपचिताः, तत्र उत्पलं गर्दभक, पदा सूर्यविकाशि, कुमुदं चन्द्रविकाशि, नलिनमीषन्द्रक्तपा, सुभगं पद्मविशेषः, सौगन्धिकं कहार, पुण्डरीकं शताम्बुजं, तदेव बृहत् महापुण्डरीकं शतपत्रसहरसपत्रे पद्मविशेषौ पत्रसंख्याकृतभेदौ। (पत्तेयं पत्तेयमिति) प्रतिशब्दोऽत्राभिमुख्ये, "लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये" ||2|1 / 14 / / इति च समासः, ततो वीप्साविवक्षायां प्रत्येकशब्दस्य निर्वचन, पदावरखेदिका परिक्षिप्ताः, प्रत्येकं प्रत्येक वनखण्डपरिक्षिप्ताश्च। (सयंभूरमणपजवसाणा इति) जम्बूद्वीपाऽऽदयो द्वीपा: स्वयंभूरमणद्वीपपर्यवसानाः- लवणसमुद्राऽऽदयः स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यवसानाः। अस्मिन् तिर्य-ग्लोके यत्र वयं स्थिता असंख्येया द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः। हे श्रमण! हेआयुष्मन् ! इह अस्मिन् "तिरियलोए" इत्यनेन संस्थानमुक्तम्। असंख्येया इत्यनेन संख्यानम्, “दुगुणा दुगुणा'' इत्यादिना महत्त्वम्, ''संठाणतो'' इत्यादिना संस्थानम्। जी०३ प्रति०४ उ०। कियन्ति द्वीपसमुद्राणां नामधेयानीति भगवानाहकेवतिया णं मंते ! दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पण्णत्ता? गोयमा! जावइया लोगे सुभा नामा सुभा वन्ना०जाव सुभा फासा, एवतिया दीवसमुद्दा णामधेन्जेहिं पण्णत्ता। गौतम ! यावन्ति लोके सामान्यतः शुभानि नामानि शङ्खचक्रस्वस्तिककलशश्रीयत्साऽऽदीनि, शुभाः वर्णाः, शुभा गन्धाः, शुभा रसाः, शुभाः स्पर्शाः-शुभवर्णनामानि, शुभगन्धनामानि, शुभरसनामानि, शुभस्पर्शनामानि च, एतावन्तो द्वीपसमुद्रा नामधेयैः प्रज्ञप्ताः, एतावन्ति द्वीपसमुद्राणां नामधेयानीति भावः। सागरोपमप्रमाणतो द्वीपसमुद्रपरिमाणमाहकेवइया णं भंते! दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पण्णत्ता? गोयमा! जावइया अड्डाइजाई उद्धारसागरोवमाणं उद्धारसमया, एवतिया दीवसमुदा उद्धारसमएणं पण्णत्ता। (केवइया ण भंते ! इत्यादि) कियन्तो भदन्त ! द्वीपसमुद्रा उद्धा-- रसमयेन उद्धारपल्योपमसागरोपमप्रामाणेन प्रज्ञप्ता? भगवानाह-गौतम! यावन्तोऽर्द्धतृतीयानामुद्धारसागरोपमाणामुद्धारसमया एकैकसूक्ष्मबालागापहारसमयाः, एतावन्तो द्वीपसमुद्रा उद्धारेण प्रज्ञप्ताः / उक्तं च"उद्धारसागराणं, अड्डाइलाण जत्तिया समया। दुगुणा दुगुणपवित्थरदीवोदहिरज्जु एवइया / / 1 / / दीवसमुद्दा णं भंते ! किं पुढवीपरिणामा,आउपरिणामा, जीवपरिणामा, पोग्गलपरिणामा? गोयमा ! पुढविपरिमाणा वि, आउपरिणामा वि, जीवपरिणामा वि,पोग्गलपरिणामा वि।। (दीवसमुद्दा ण भंते ! इत्यादि) द्वीपसमुद्राः, णमिति पूर्ववत्। भदन्त ! पृथिवीपरिणामा अप्परिणामाः ? भगवानाह-गौतम ! पृथिवीपरिणामा अपि अप्परिणामा अपि, पृथिव्य एव जीवपुद्-गलपरिणामाऽऽत्मकत्वात् सर्वद्वीपसमुद्राणाम्। दीवसमुद्देसु णं भंते ! सव्वपाणा सव्वभूया सव्वजीवा सव्वसत्ता पुढविकाइयत्ताए०जाव तसकाइयत्ताए उववण्ण-पुव्वा? हंता गोयमा! असति अदुवा अणंतखुत्तो, इति दीव-समुद्दा संमत्ता।
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________________ दीवसमुद्द 2544 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दीहकालिगी (दीवसमुद्देसुणं भते! सव्वपाणा सव्वभूया इत्यादि) द्वीपसमुद्रेषु, णमिति (जं रयणिं च णं इत्यादि) यस्या रात्री श्रमणो भगवान महावीरः पूर्ववत्, सर्वेष्विति गम्यते। भदन्त ! सर्वे प्राणाद्वीन्द्रियाऽऽदयः सर्वे भूताः कालगतः, यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः, तस्यां रात्री (नवमल्लई इत्यादि) तरवः, सर्वे जीवाः पञ्चेन्द्रियाः, सर्वे सत्त्वाः पृथिव्यादय उत्पन्नपूर्वाः ? नवमल्लिकाजातीयाः काशिदेशस्य राजानः, नवलेच्छकाजातीयाः भगवानाह-गोतम ! असकृदुत्पन्नपूर्वाः। अथवा अनन्तकृत्वः, सर्वेषामपि कोशलदेशस्य राजानः, ते च कार्यवशाद् गणमेलापकं कुर्वन्ति इति सांव्यवहारिकराश्यन्तर्गतानां जीवानां सर्वेषु स्थानेषु प्रायोऽनन्तश गणराजानोऽष्टादश,ये चेटकमहाराजस्य सामन्ताः श्रूयन्ते, ते तस्यामउत्पादात् / / जी०३ प्रति०४ उ०। मावास्यायां पार संसारपारमाभोगयति प्रापयति यस्तमेवंविध (पोसहोद्वीपसमुद्राणामुच्चत्वम्-- दवासं ति) पोषधोपवासं कृतवन्तः, आहा-रत्यागपाषधरूपम् उपवास सव्वे वि णं दीवसमुद्दा दस जोयणसयाइं उव्वेहेणं पण्णत्ता। चारित्यर्थः / अन्यथा--दीपकरणं न संभवति, ततश्च गतः स भावाद् "सत्वे वि'' इत्यादि सुगम, नवरमुद्वेधम्-'ओंडत्त ति भणिय होइ।' द्योतः, ततो द्रव्योद द्योतं करिष्याम इति तैः दीपाः प्रवर्तिताः, ततः द्वीपानाम् "ऑडत्तणाभावे वि" अधोदिशि सहरसं यावद् द्वीपट्यपदेशः, प्रभृति दीपोत्सवःसवृत्तः, कार्तिकशुक्लप्रतिपदि च श्रीगोतमस्य जम्बूद्वीप तु पश्चिमविदेहे जगतीप्रत्यासत्तौ 'ओंडतमवि अस्थि नि।' केवलमहिमा देवश्चक्रे, अतस्तत्रापि जनप्रमोदः, नन्दिवर्द्धननरेन्द्रश्च स्था०१० ठा०। द्वीपसमुद्रोपपत्ति-प्रतिपादके दीर्घदशानां षष्ठेऽध्ययने, भगवतोऽस्तं श्रुत्वा शोकाऽऽतः सुदर्शनया भगिन्या संबोट्य सादर स्था०१० ठा स्ववेश्मनि द्वितीयायां भोजितस्ततो भ्रातृद्वितीयापर्वरूढिः कल्प०१ दीवसागरपण्णत्ति स्त्री०(द्वीपसागरप्रज्ञप्ति) द्वीपसागराणा प्रज्ञाप्पयो अधि०६क्षण / ती०। दीपाऽऽलिकाऽऽदिपर्वणि सुखभक्षिकाऽऽदिकरणे यस्यां ग्रन्थपद्धता सा द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः / पा० दशभे कालिकश्रुतभेदे, मिथ्यात्वमारम्भो वेति प्रश्रे, उत्तरम-आरम्भो लगतीति ज्ञातमस्ति, न पा०। दी। तु मिथ्यात्वमिति ॥२२४प्र०ा सेन०३उल्ला०। दीवसिहा स्त्री०(दीपशिखा) ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिभार्यायां सागरदत्त- दीविआ (देशी) उपदेहिकाया, मृगाऽऽकर्षण्यां च। देना०५ वर्ग 3 गाथा। वणिकसुतायाम, उत्त०१३ अ०॥ नि०। तिका दीविय त्रि०(दीपित) कथिते, ओधला दीवाइजलणभेय पुं०(दीपाऽऽदिज्वलनभेद) दीपचन्द्रतारकाऽऽदीनां *दीपिक पुं० / शाकुनिकपुरुषसंबन्धिपञ्जरस्थतित्तिरौ, ज्ञा०१ श्रु० दीपनविशथे, पञ्चा०२ विव०। १७अof दीवावह त्रि०(दीपापह) दीपविनाशके, द्वा०२४ द्वा०। *दीपिन् पुं०। चित्रके, आ०म०१ अ०१ खण्ड। भला प्रश्रा प्रज्ञा०। दीवायण पुं०(द्वैपायन) द्वीपमयनं जन्मभूमिर्यस्य स द्वीपायनः, स एवं ज्ञा०। ज०ा स्था। सूत्रका प्रतिका आचा० प्रज्ञाऽऽद्यण। "द्वीपे न्यस्तस्तया बाल-स्ततो द्वैपायनोऽभवत।" इत्युक्ते दीवियग वि०(द्वैप्य) द्वीपसम्भवे, ज्ञा०१ श्रु०११ अ०। व्यासे, वाचा सूत्र०१ श्रु०३अ०४ उ०। षष्ठे ब्राह्मणपरिव्राजके, औ० दीविया स्त्री०(दीपिका) ह्रस्वो दीपो दीपिका / ह्रस्वे दीपे ज०२ वक्ष स्था०ा तीनदशा आ०म०। स चाऽऽगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्या विंशतित- "दीवियाचवचालविंद।"दीपिकानां चक्रवालं सर्वपरिमण्डलरूप वृन्द मस्तीर्थकरो भविष्यति। स० दीपिकाचक्रवालवृन्दम्। जी०३ प्रति०४ उ० ज०। दीवावली स्त्री०(दीपाऽऽवली) दीपपतौ कार्तिकाऽमायां च। ती०२० / दीवस्सव पुं०(दीपोत्सव) दीपमालिकायाम्, अष्ट०३२ अष्टा कल्प / श्रीमहावीरस्य निर्वाणसमये अमावास्या तिथिः, स्वातिनक्षत्र दीवूसयअमावसा स्त्री०(दीवोत्सवामावास्या) कार्तिकामावास्यायाम्, चाभूताम, दीपालिकासंबन्धिगुणनसमये च करिमश्चिद्वर्षे ते भवतः, ती०२० कल्प! करिंमश्विच नेति। एतदुपरि केचनेत्थं कथयन्ति- यद्यदा स्वात्यमावास्ये दीसंत त्रि०(दृश्यमान) चक्षुषा प्रत्यक्षे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४.३०/ भवतस्तदा गुणनीयम् / अन्ये च-यस्मिन दिने "मेरइया" इति दीह पुं०(दीर्घ) दृ-धन, घरय नेत्वम् / शाललतावृक्षे, उष्ट्र, द्विमात्रे स्वरवर्ण लोकप्रसिद्धक्रियाविशेषस्तरिमन् दिने गुणनीयमिति / तत्र ''मेरइया'' च। वाचा 'एगे दीहे।" आयते, स्था०१ठा०। सूत्र०। विशे० प्रा०। करणे भेदो भवति-एतद्देशमध्ये ये गुर्जरलोकाः सन्ति, तैः पाक्षिकदिने औ०। रा०ा प्रचुरे, भ०१ श०६ उ०। असंख्यये, त्रि० विशे० 'दीहरहतानि कृतानि, एत-देशीयैस्तु द्वितीयवासरे, ततः कि स्वस्वदेशानुसारेण स्सहिमपक्काणि।" विपा०१ श्रु०अ०। "मेरइया'' करणदिने गणनीयम्, उत गुर्जरदेशानुसारेणेति? प्रश्रे, उत्तरम् अत्र दीपाऽऽलिकागुणनमाश्रित्य स्वस्वदेशीयलोका यस्मिन् दीहकाल त्रि०(दीर्घकाल) दीर्घःसन्तानापेक्षया अनादित्वात् कालः दिने दीपाऽऽलिका कुर्वन्ति तस्मिन् दिने गुणनीयमिति। 3 प्र०ा ही०४ स्थितिबन्धकालो यस्य तद् दीर्घकालम् / दीर्घस्थितिके, आ०म०१ प्रका०। कल्प अ०२खण्ड। जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए०जाव सव्वदु-- दीहकालिगी स्त्री०(दीर्घकालिकी) कालिसंज्ञायाम, विशेष क्खप्पहीणे, तं रयणिं च णं नवमल्लई-नवलेच्छई कासीको इह दीहकालिगी कालिग त्ति सण्णा जया सुदीहं पि। सलगा अट्ठारसऽवि गणरायाणो अमावासाए पाराभोअं पोस- संभरइ भूयमेस्सं, चिंतेइ य किह णु कायव्वं ? ||508 / / होववासं पट्टविंसु, गए से भावुजुए, दव्वुजुयं करिस्सामो।।१२८।। इह दीर्घशब्दस्य लुप्तदर्शनाद् दीर्घकालिकी 'कालिकी' इ
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________________ दीहकालिगी 2545 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दीहदसा त्युच्यते, कालिकी चासौ संज्ञा च भूबद्भावात् 'कालिकसंज्ञा' इति द्रष्टव्यम् / यया सुदीर्घमपि कालं भूतमतीतम) स्मरति, एष्यच भविष्यद्वस्तु चिन्तयति-कथं नु नाम कर्तव्यम् ? इत्येषा चिन्तामाश्रित्य दीर्थोऽतीताऽनागतवस्तुविषयः कालो यस्यां सा दीर्घकालिकी कालिकासंज्ञोच्यत इत्यर्थः / / 508 / / विशे०। ('सण्णी' शब्द चैतया संझिनो ऐश्व्याः ) दीहकालिय त्रि०(दीर्घकालिक) दीर्घः कालो विद्यते यस्य स दीर्घ कालिकः। स्था०३ टा०१७०चिरन्तने, दशा०७ अ० दीहकालियउवएस पुं०(दीर्घकालिकोपदेश) दीर्घः कालो दीर्घकालः, सोऽस्यास्तीति दीर्घकालिकः, स चासावुपदेशश्च, उपदेशो भणन, दीर्धक लोपदेशः। दीर्घकालिके, भणने, आ०म०१ अ०६ खण्ड। दीहखद्ध त्रि०(दीर्घखद्ध) (खद्धशब्दन प्रचुरभिधीयते / प्रद०२ द्वारा; प्रचुरतरे, व्य०४ उ०। दीहगोरवपरिणाम पुं०(दीर्घगौरवपरिणाम) यत आयुः स्वभावाद जीवस्य दीर्घ दीर्घगमनतया लोकान्ताद् लोकान्तं यावद् गमनशक्तिर्भवति स दीर्घगौरवपरिणामः / अष्टमे आयुषः परिणाम, इह गौरवशब्दो गमनपर्यायः / स्था०टा०। दीहजीह (देशी) शङ्के, दे०ना०५ वर्ग 41 गाथा। दीहडक्क त्रि०(दीर्घदष्ट) सर्पदष्टे, नि०चू०१उ० दीहण पुं०(दृष्टान्त) देशीयशब्दमेतत्। उदाहरणे, दर्श०१ तत्त्व। दीहणिद्दा स्त्री०(दीर्घनिद्रा) मरणे, चिरकालव्यापिन्यां निद्रायाम, आचा०१ श्रु०२१०४ उ०। शुभ्राऽऽदित्वान्न णत्वम्। वाचा दीहणिव पुं०(दीर्घनृप) काम्पिल्यपुरराजे, यो हि ब्रह्मदत्तेन हतः।। उत्त०१३ अन दीहदंत पुं०(दीर्घदन्त) जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्या मुत्सर्पिण्या भविष्यति द्वितीये चक्रवर्तिनि, स०। तिला ती दीहइसा स्त्री०(दीर्घदशा) व०५०। दशाध्ययने ग्रन्थविशेषे, स्थान दीहदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा-- "चंदे सूरे य सुक्के य, सिरिदेवी पहावई। दीवसमुद्दोववत्ती, बहुपुत्ती मंदरे इय / / 1 / थेरे संभूयविजए, पम्ह उस्सासनिस्ससे।।" दीर्घदशाः स्वरूपतोऽनवगता एव, तदध्ययनानि तु कानिचिन्निरयाऽऽवलिकाश्रुतस्कन्धे उपलभ्यन्ते, तत्र चन्द्रवक्तव्यताप्रतिबद्धं चन्द्रमध्ययनम्। तथाहि-राजगृहे महावीरस्य चन्द्र ज्योतिष्कराजो वन्दनं कृत्वा नाट्यविधि चोपदर्य प्रतिगतः, गौतमश्च भगवन्तं तद्वक्तव्यतां पप्रच्छ, भगवाँश्चोवाच श्रावस्त्यामङ्ग जिन्नामाऽयं गृह-पतिरभूत्पार्श्वनाथसमीपे च प्रव्रजितो विराध्य च मनाक श्रामण्यं चन्द्रतयोत्पन्नो, महाविदहे च सेत्स्यतीति। तथा सूरवक्तव्यता–प्रतिबद्धं सूरं, सूरवक्तव्यता चन्द्रवद्, नवरं सुप्रतिष्ठो नाम्ना बभूवेति। शुक्रो गृहः तद्वक्तव्यता चैवम्-राजगृहे भगवन्तं वन्दित्वा शुक्रे प्रतिगते गौतमेन पृष्ट तथैव भगवानुवाचवाराणस्या सौमिलनामा ब्राह्मणोऽयमभवत, पार्श्वनाथ चाऽपृच्छत्-"तं / गते : जवणिज," तथा- "सरिसवया मासा कुलत्था य ते भोजा," तथा- ''एगे भवं दुवे भवं / '' इत्यादि। भगवता चतेषु विभक्तेष्याक्षिप्तः श्रावको भूत्वा पुनर्विपर्यासादारामाऽऽदिलौकिकधर्मस्थानानि कारयित्वा दिक प्रोक्षकतापसत्वेन प्रव्रज्य प्रतिषष्ठपारणकं क्रमेण पूर्वाऽऽ-- दिदिग्भ्य आनीय कन्दाऽऽदिकमभ्यवजहार / अन्यदाऽसौ यत्र वचन गर्ताऽऽदौ पतिष्यामि तत्रैव प्राणांस्त्यक्ष्याम इत्यभिग्रहमभिगृह्य काष्ठमुद्रया मुखंबद्धा उत्तराभिमुखः प्रतस्थौ, तत्र प्रथमदिवसे पराह्नसमये अशोकतरोरधो होमाऽऽदिकर्म कृत्वोवास, तत्र देवेन केनाप्युक्तः-अहो सौमिल ब्राह्मण महर्षे ! दुःप्रव्रजितते, पुनर्द्वितीयेऽहनि तथैव सप्तपर्णस्याध उषित उक्तः, तृतीयाऽऽदिषु दिनेषु अश्वत्थवटोदुम्बराणामध उषिता भणितो देवेन, ततः पञ्चमदिनेऽवादीदसौकथं नु नाम मे दुःप्रव्रजितम्? देवोऽवोचत्त्वं पार्श्वनाथस्य भगवतः समीपे अणुव्रताऽऽदिकं श्रावकधर्म प्रतिपक्षाधुनाऽन्यथा वर्तसे इति दुःप्रव्रजितं तव, ततोऽद्यापि तमेवाणुव्रताऽऽदिक धर्म प्रतिपद्यस्व, येन सुप्रवजितं तव भवतीति / एवमुक्तः तथैव चकार, ततः श्रावकत्वं प्रतिपाल्यानालोचितप्रतिक्रान्तः कालं कृत्वा शुक्रावतसके विमाने शुक्रत्वेनोत्पन्न इति / तथा श्रीदेवीसमाश्रयमध्ययनांश्रीदेवीति। तथाहि-रमा राजगृहे महावीरवन्दनाय सौधर्मादाजगाम, नाट्य दर्शयित्वा प्रतिजगाम च, गौतमस्तत्पूर्वभवं पप्रच्छ। भगवाँस्तं जगोद-राजगृहे सुदर्शन-श्रेष्ठी बभूव प्रियाभिधाना च तद्भार्या, तयोः सुता भूता नाम बृहत्कुमारिका पार्श्वनाथसमीपे प्रव्रजिता शरीरवकुशा जाता सातिचारा च मृत्वा दिवं गता, महाविदेहे च सेत्स्यतीति / तथा प्रभावती चेटकदुहिता वीतभयनगरनायकोदायनमहाराजभार्या, यया जिनबिम्बपूजाऽर्य स्नानानन्तरं चेट्या सितवसनार्पणेऽपि विभ्रमाद्रक्तवसनमुपनीतमनवसरमनयेति मन्यमानया मन्युना दर्पणेन चेटिका हता, मृता च, सा ततो वैराग्यादनशनं प्रतिपद्य देवत्वं प्रतिपन्ना, यया चोज्जयनीराजनं प्रति विक्षेपेण प्रस्थितस्य ग्रीष्मे मासि पिपासाऽभिभूतसमस्तसैन्यस्योदायनमहाराजस्य स्वच्छशीतलजलपरिपूर्णत्रिपुष्करकरणेनोपकारोऽकारीत्येवंलक्षणप्रभाक्तीचरितयुक्तमध्ययनं प्रभावतीति संभाव्यते, न चैवं निरयावलिकाश्रुतस्कन्धे दृश्यत इति पञ्चमम / तथा बहुपुत्रिकादेवीप्रतिबद्धं सैवाध्ययनमुच्यते। तथाहि-राजगृहे महावीरवन्दनार्थ सौधर्माद बहुपुत्रिकाभिधाना देवी समवततार, वन्दित्वा च प्रतिजगाम, केयमिति पृष्ट गौतमेन भगवानवादीत्-वाराणस्यां नगर्या भद्राऽभिधानस्य सार्थवाहस्य सुभद्राऽभिधाना भार्ययं बभूव, सा च बन्ध्या पुत्रार्थिनी भिक्षार्थमागतमार्या संघाटकं पुत्रलाभ पप्रच्छ / स च धर्ममचीकथत। प्रावाजीच सा बहुजनापत्येषु प्रीत्याऽभ्यङ्गोवर्तनापरायणा सातिचारा मृत्वा सौधर्ममगमत्,ततश्च्युत्वा च विमेलसंनिवेशे ब्राह्मणीत्वेनोत्पत्स्यते, ततः पितृभागिनेयभार्या भविष्यति युगलप्रसवा च, सा षोडशभिर्वर्षेत्रिंशदपत्यानि जनयिष्यति, ततोऽसौ तन्निर्वेददार्याः प्रक्ष्यति, ताश्च धर्म कथयिष्यन्ति, श्रावकत्वं च सा प्रतिपत्स्यते, कालान्तरे प्रव्रजिष्यति, सौधर्म चन्द्रसामानिकतयोत्पद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति / तथा स्थविरः संभूतविजयो भद्रबाहुरचामिनो गुरुभ्राता स्थूलभद्रस्य सगडालपुत्रस्य दीक्षादाता, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धमध्ययन स एवोच्यत इति नवमम् / शेषाणि त्रीण्यप्रतीतानि / स्था०१० ठा।
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________________ दीहदिट्टि 2546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दीहवेयड्ड दीहदिट्ठि पुं०(दीर्घदृष्टि) दीर्घकालभावित्वादस्यार्थस्यानर्थस्य च दृष्टिः वणस्सकाइया णं भंते ! केवतिकालस्स निल्लेवणा सिया ? गोयमा ! परालोचनम् / विमृश्यकारित्वे, अविमृश्यकारित्वे हि महा- पड़प्पन्नवणस्स-इकाइयाणं नत्थि निल्लेवणा।" तथा-शरीरोच्छ्याच दोषसम्भवात् / यत उक्तम्-''सहसा दिदधीत न क्रियामविवेकः दी? वनस्पतिः, "वणस्सइकाइयाण भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा परमाऽऽपदा पदम्। वृणते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः पण्णता ? गोयमा ! साइरेग जोयणसहस्सं सरीरोगाहणा।'' नतथाऽन्ये११॥'' इति / ध०१ अधि०। दीर्घा दृष्टिरस्य / पण्डिते, दीर्घा दूरगा षामेकेन्द्रियाणाम्, अतः स्थितमेतत्सर्वथा दीर्घलोको वनस्पतिरिति / दृष्टिर्थया। दूरवीक्षणे, जन्त्रभेदे, वाच०। आचा०१ श्रु०१ अ०४उ०। दीहद्धा स्त्री० (दीर्घाद्धा) पर्याप्ताद्धायाम, क०प्र०१ प्रक०। दीहलोयसत्थ न०(दीर्घलोकशस्त्र) वनस्पत्युत्सादकेऽनौ, आ-चा० दीहपट्टपुं०(दीर्घपृष्ठ) यवराजामात्ये बृ०१ उ०२प्रक०। अस्य च शरवमग्रिः, यस्यात्स हि प्रवृद्धज्वालाकलापाऽऽकुलः सकल तरुगणप्रध्वंसनाय प्रभवति, अतोऽसौतदुत्सादकत्वाच्छस्त्रम्। आचा०१ दीहपास पुं०(दीर्घपार्श्व) ऐरवते भाविनि षोडशे जिनेन्द्र, प्र०व०७ श्रु०१अ०४ उ० द्वार तिला दीहवच्छ पुं०(दीर्घवृक्ष) महति वृक्षे, आचार श्रु०१ चू०४ अ०२ 30 // दीहबाहु पुं०(दीर्घबाहु) ऋषभस्य त्रिसप्ततितमे पुत्रे, कल्प 1 अधि०७ दीहवेयड्ड पुं० दीर्घ(विजयार्द्ध)वैताच्य] दीर्घ अर्द्धक्षेत्रविभागकारके क्षण / जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्यामुत्सप्पिण्या तृतीये बलदेवे, पवर्तविशेष, स्थान स०। जम्बूद्वीपे भारते वर्षे अस्यामेवोत्सप्पिण्या चन्द्रप्रभजिनस्य पूर्वभवे जंबू ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो दीहवेयडपच्चजीव, स० या पण्णत्ता। तं जहा-बहुसमउल्ला०जाव भारहे चेव दीहवेदीहभद्द पुं०(दीर्घभद्र) माठरसगोत्रस्याऽऽर्यसंभूतिविजयस्य स्थ यड्ढे, एरावर चेव दीहवेयड्डे / भारहे णं दीहवेयड्ढे दो गुहाओ विरस्यैकादशे स्वनामख्याते स्थविरऽन्तेवासिनि, कल्प०२अधि०८ क्षण। पण्णत्ताओ। तं जहा-बहुसमउल्लाओ अविसेसमणाणत्ताओ दीहमद्ध न०। दीर्घाद्ध दीर्घा अद्धा कालो यस्य तद्दीर्घाद्धम् / मकार अन्नमन्नं णाइवट्टति आयामविक्खंभुच्चत्तसंठाणपरिणाहेणं / तं आगमिकः। दीर्घकालगम्ये, स्था०२ टा०१३०। प्रश्नका भ०। सूत्र०ा ज्ञा०। जहा-तिमिसगुहा चेव, खंडगप्पवायगुहा चेव। तत्थ णं दो देवा दीर्घाव न०(दीर्घोऽद्धा) मार्गो यस्मिन् तद्दी_ध्वम् / दीर्घमार्गगम्ये, महड्डिया०जाव पलिओवमट्टिइया परिवति / तं जहास्था०२ ठा०१ उ०। प्रश्न० भ०। सूत्र०ा ज्ञा०ा दीर्घमार्ग, स्था०३ कयमालए चेव, गट्टमालए चेव / एरावर णं दीहवेयड्ढे दो गुहा ठा०४उ०। पण्णत्ता / तं जहा-जाव कयमालए चेव, णट्टमालए चेव / दीहमद्धा स्वी०(दीर्घाद्धा) दीर्घोऽद्धा कालो यस्यांसा दीर्घाखा, मकार- (दो दीहवेयड त्ति) वृत्तवैताब्यव्यवच्छेदार्थ दीर्घग्रहण, चैतादयौ स्वागमिकः / दीर्घकालगम्यायाम, स्था०५ ठा०२ उ०। विजयाढ्यो चेति संस्कारः, तौ च भरतैरवतयोर्मध्यभागे पूर्वापरतो दीर्घाध्या स्त्री० / दीर्घोऽध्वा मार्गा यस्यां सा दीर्घाध्वा / दीर्धमार्ग लवणोदधिं स्पृष्टवन्तौ पञ्चविंशतियोजनोच्छ्रिती तत्पादावगाढी गम्यायाम, स्था०५ ठा०२उ०। औ०। पञ्चाशद्विस्तृतौ आयतसंस्थिती सर्वराजतावुभयतो बहिः काचदीहमाउ न०(दीर्घाऽऽयुष) चिरजीविते, शुभमितीह विशेषणं दृश्यमिति / नमण्डनाश्राविति / आह च-"पणावीसं उव्विद्धो, पण्णासं जोयणाणि वित्थिन्नो / यड्ढो रययमओ, भरहक्खेत्तस्स मज्झम्मि / / 1 / / '' इति / स्था०१० ठा०। (भारहे णमित्यादि) वैताब्ये अपरतरतमिस्रागुहागिरिविस्ताराऽऽयामा दीहर पुं०(दीर्घ) "रो दीर्घात्" // 823171 / / इति दीर्घशब्दात्स्वार्थे द्वादशयोजनविस्तारा अएयोजनोच्छ्रया आयतचतुरस्र संस्थाना / दीहरं। दीह।' प्रा०२ पाद। "सर्वत्र लवरामचन्द्रे" |||276 // विजयद्वारप्रमाणद्वारा वज्रकपाटपिहिता बहुमध्ये द्वियोजनान्तराभ्यां इति रलुक् / "खघथधभाम्" !!8/1:187 / / इति घस्य हः / त्रियोजनविस्ताराभ्यामुन्मग्रनिमग्नजलाभिधानाभ्यां नदीभ्यां युक्ता, प्रा०९०१पाद / आयते, 'अन्ने ते दीहरलोअण अनु ते भुअजुअलु।" तद्वत्पूर्वतः खण्डप्रपातगुहेति / (तत्थ णं ति) तयोस्तमिस्रायां गुहायां प्रा०२ पाद। कृतमालकः, इतरस्यां नृत्तमालक इति / (एरवए) इत्यादि तथैव / दीहराय न०(दीर्घरात्र) यावज्जीवे, आव०४ अ०। आचा०। स्था०२ ठा०३उन दीहलोय पुं०(दीर्घलोक) वनस्पती, आचा०। यस्मादसा कायस्थित्या जंबू !मंदरस्स पुरच्छिमेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं अट्ठ परिमाणेन शरीरोच्छ्रयेण च शेषैकेन्द्रियेभ्यो दी? वर्तते / तथाहि- दीहवेयड्डा, अट्ठ तिमिसगुहाओ, अट्ठ खंडगप्पवायगुहाओ, कायस्थित्या तावत् "वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाए त्ति कालओ अट्ठ कयमालगा देवा, अट्ठ गट्टमालगा देवा, अट्ठ गंगाओ, केवचिरं होइ ? गोयमा ! अणतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिअव- / अट्ठ सिंधूओ, अट्ठ गंगाकुंडा, अट्ठ सिंधु कुंडा, अट्ठ सप्पिणीओ, खेत्तओ अणंता लोया असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा. ते णं उसभकू डा पण्णत्ता, अट्ट उसभकू डा देवा पण्णत्ता। जंबू ! पुग्गलपरियट्ट आवलियाए असंखेजइभागे।" परिमाणतस्तु-"पड़प्पन्न / मंदरपुरच्छि मेणं सीयाए महाणईए दाहिणे णं अट्ठ दी
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________________ दीहवेयड्ड 2547 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुंदमिअ हवेयड्डा एवं चेव०जाव अट्ठ उसभकूडा देवा पण्णत्ता, नव- | दुअक्खरय पु०(दव्यक्षरक) दासे, भृतकः कर्मकरस्तद्विषयोऽक्षरको रमेत्थ रत्तारतवईओ, तासिं चेव कूडा। जंबू ! मंदरपञ्चच्छि- | व्यक्षारकः, द्वयक्षरकाभिधानो दास इत्यर्थः। पिं०। मे णं सीओयाए महाणईए दाहिणेणं अट्ठ दहिवेयड्डा०जाव अट्ठ | दुअक्खरिया स्त्री०(यक्षरिका) दास्याम, आ०म०१ अ०२ खण्ड। नट्टमालगा देवा अट्ठ गंगाकुंडा अट्ठ सिंधुकुंडा अट्ठ गंगाओ | दुअल्ल न०(दुकूल) "दुकूले वा लश्च दिः" ||8 / 1 / 116 / / इति अट्ठ सिंधूओ अट्ठ उसभकूडपव्वया अट्ठ उसभकू डा देवा उकारस्य वैकल्पिकोऽकारः,तत्सन्नियोगे लस्य द्वित्वम् / 'दुअल्ल, पण्णत्ता / जंबू ! मंदरपुरच्छिमेणं सीओयाए महाणईए उत्तरेणं दुऊलं / ' आर्षे - 'दुफुल्ल' प्रा०१ पाद / वस्त्रे, औ०। दु-ऊलच-कुक् अट्ठ दीहवेयड्डा०जाव अट्टणट्टमालगा देवा अट्ठ रत्तकुंडा अट्ठ च / दुष्ट कूलति। 'कूल' आवरणे। क्षौमाम्बरे, श्लक्ष्णवस्त्रे, न०। सूक्ष्मवस्त्रे रत्तावईकुंडा अट्ठ रत्ताओ०जाव अट्ट उसभकूडदेवा पण्णत्ता। च वाचन स्था०८ ठा०। साभा दुआइपुं०(द्विजाति)"द्विन्योरुत्"१८/१९४|| इति इकारस्य उत्वम्। (तेषां कृटानि कूड' शब्दे तृतीयभागे 618 पृष्ठे द्रष्टव्यानि) प्रा०१ पाद। "सर्वत्र लवरामचन्द्रे"||८२|७६।। इति वलुक् / प्रा०२ दीहसह पुं०(दीर्घशब्द) दीर्घवर्णाऽऽश्रित, मेघाऽऽदिशब्ददद दूरश्राव्ये ध। पाद। वाचला दे जाती जन्मनि यस्य "ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा स्था०१८ ठा द्विजातयः।" इति मनूक्ते वर्णत्रये, ''मातुरग्रेऽधिजनन, द्वितीयं मौजीदीहसुत्त न०(दीर्घसूत्र) बृहत्सूत्रे, नि०चू०। वन्धने " इत्युक्तेस्तेषां तथात्वम्।वाचा जे भिक्खू सणकप्पासाओ वा पोडकप्पासाओ वा उण्णक दुआइक्ख न०(दुराख्येय) कृच्छ्राऽऽख्येये वस्तुतत्त्वे, स्था०५ टा०१३०। प्पासाओ वा मिलकप्पासाओ वा दीहसुत्ताई करेइ, करंतं वा दुआर न०(द्वार) प्रवेशनिर्गममार्गे , ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। प्रतोल्यां च / साइज्जइ / / 26 / / नि०चू०५ उ०! ज्ञा०१ श्रु०२ अ०॥ / 'सुत्त' शब्दे व्याख्यास्यते चैतत्) दुआरिया स्त्री०(द्वारिका) अपद्वारे, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। दुआवत्त पुं०(द्विकाऽऽवर्त) षोडशेऽच्छिन्नच्छेदनयिके दृष्टिवादस्य सूत्र, दीहसेण पुं०(दीर्घसेन) भरतक्षेत्रजचन्द्रप्रभजिनसमकालिके एरवतजे | जिने, तिला श्रेणिकस्य राज्ञो धारण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, सच स०१२ अङ्ग। दुइअ त्रि०(द्वितीय)"द्विन्योरुत्" ||19|| इतीकारस्योकारः / महावीरस्वामिनोऽन्तिके प्रव्रज्य षोडशवर्षपर्यायः संलेखनया मृत्वा 'दुइओ।' प्रा०१ पाद। "पानीयाऽऽदिष्वित्" ||8/1 / 101 / / इति विजये देवलोके उपपद्य ततश्च्युत्वा महाविदहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरोपपाति ईकारस्य इकारः / 'दुइअ ।'प्रा०१ पाद / "सर्वत्र लवरा०-" कदशानां द्वितीयवर्गस्य प्रथमेऽध्ययने सूचितम्। अणु०१ श्रु०२ वर्ग १अ०। // 8/2176 / / इत्यादिना वलुक / प्रा०२ पाद / "कगचजत०-" अस्मादन्यः श्रेणिकधारणीसुत एतन्नामा वीरान्तिके प्रव्रज्य द्वादशवर्ष / / 8 / 1 / 176 / / इत्यादिना तलोपः / द्वयोः पूरणः द्वितीयः / द्वयोः पूरणे पर्यायः संलेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्ध उपपन्नो महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनु द्वितीये भागे, वाचन त्तरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य षष्ठेऽध्ययने सूचितम् / अणु०१ वर्ग दुइज्जित्तए अव्य०(द्रोतुम्) विहर्तुमित्यर्थे, स्था०५ ठा०२उ०। १अ०। भरतक्षेत्रजशान्तिनाथजिनसमकालिके ऐवतजे जिने च। ति०। दुउच्छ धा०(गुप) भ्वा--आत्म०-अकo-सेट्। कुत्सने, वाचवा "जुगुप्सेः दीहाउ न०(दीर्धाऽऽयुष) "आयुरप्सरसोर्वा" ||/1 / 20 / / इत्य झुणदुगुच्छदुगुञ्छाः " ||814/40 / / इति दुगुच्छाऽऽदेशः। "कग०-" न्त्यव्यज्जनस्य सो वा / 'दीहाउसो / दीहाऊ।' प्रा०१ पाद / दीर्घ ||1177 / / इति गलोपे, "दुउच्छड्। दुगुछड्।' प्रा०४ पाद। सागरोपमपरिमिततया आयुरेषामिति दीर्घाऽऽयुः / उत्त० 5 अ०। दुउण त्रि०(द्विगुण) "द्विन्योरुत्" ||8|16|| इतीकारस्योकारः / चिरजीवित्वे, कल्प०१ क्षण। 'दुउणो / विगणो।' प्रा०१पाद। द्वाभ्यां गुण्यते, गुणघार्थ कः। द्वाभ्यां दीहाउअत्ता स्त्री०(दीर्घायुष्टा) दीर्घस्थितिकजीवितहेतुकर्मत्वे, स्था०३ गुणिते, वाचा ठा०१3०। (एतत्कारणानि आउ' शब्दे द्वितीयभागे 12 पृष्ठे उक्तानि) दुऊल नल(दुकूल) दुअल्ल' शब्दार्थे , प्रा०१ पाद। दीहासण न० (दीर्घाऽऽसन) शय्यारूपे आसने, जं०१ वक्ष०ा जी दुओणय न०(व्यवनत) अवनतिरवनतमुत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, दीहिया स्त्री० (दीर्घिका) ऋजुसारिण्याम्, ज्ञा०१ श्रु०१अ01 रा०ा जंग। द्वे अवनते यस्मिन् तद् व्यवनतम्। द्विरवनम्य वन्दने, आवका एवं यदा अनु०। आचा०। जी०। प्रज्ञा०। भ०। नि०चू० / औ०। प्रथममेव ''इच्छामि खमासमणो वंदिउ जावणिज्जाए निसीहियाए।" दुअव्य०(दुर) अभावे, आचा०१श्रु०२अ०५उ०| जुगुप्सायाम, आ०म०१ इत्यभिधाय च्छन्छोऽनुज्ञापनायाऽवनतमिति द्वितीयं पुनर्यदा कृताऽऽअ०२खण्ड। वो निष्क्रान्तः 'इच्छामि" इत्यादि सूत्रमभिधाय छन्दोऽनुज्ञापनायैदुअं अव्य० (द्रुतम्) त्वरित, अनु० आव०। वाऽवनतमिति। आव०३ अ०। बृ०। प्रव० दुअक्खर (देशी) षण्डे, देवना०५ वर्ग 47 गाथा। दुंदमिअ (देशी) गलगजित, देवना०५ वर्ग 45 गाथा।
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________________ दुंदुभग 2548 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुक्ख दुंदुभग पुं०(दुन्दुभक) अष्टादशे महाग्रहे, "दो दुंदुभगा।'' स्था०२ ठा०३ उ०। चं० प्र०। कल्प०ा जा सू०प्र०। दुंदुभि पुं०(दुन्दुभि) ढक्काविशेषे, भ०६ श०३३उ०। आ० चू०। औ०। रा०ा कल्प० ज०। महत्प्रमाणे मुरजे, निचू०१ उ०। भेाकारे संकटमुखे देवाऽऽतोद्यविशेषे, रा०ा भ०। प्रश्न०। जी०। ज्ञा०। दुंदुमिणी (देशी) रूपवत्याम, देना०५ वर्ग 5 गाथा। दुंदुहि पुं०(दुन्दुभि) 'दुंदुभि' शब्दार्थे, राका दुबती (देशी) सरिति, देवना०५ वर्ग 48 गाथा। दुक्कड न०(दुष्कृत) दुष्टं कृतं दुष्कृतम्। पापे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०३ उ०। आचा०। आ०म०। स०। असदनुष्ठाने, असातावेदनीयोदयरूपे पापफले, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। पापकरणे, सूत्र०१ श्रु०४अ०१उ०। आ०म० अकर्तव्ये, आव०४ अ०। पापविपाके, सूत्र०२ श्रु०१अगदुःखे च। सूत्र०१ श्रु०५ अ०२उ०। “मिच्छाए मणदुक्कमाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए।" आव०३अ० "दुक्कड तिवा, सावजमणुद्वितंति वा, पावकम्ममासेवित ति वा वितहमाइन्नं ति वा एगट्ठा।" आठचू०१अ०! दुक्कडकम्म न०(दुष्कृतकर्म) दुष्टं कृतं दुष्कृतं, तदेव कानुष्ठानम्। पापानुष्ठाने, दुष्कृतेन कर्म ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिक तद दुष्कृतकर्म / सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२उ०॥ दुक्कडकम्मकारि(ण) पुं०(दुष्कृतकर्मकारिण) दुष्कृतं कर्म कर्तु शील येषां ते दुष्कृतकर्मकारिणः / पापानुष्ठानकरणशीलेषु, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२उ०। दुक्कडकारि(ण) पुं०(दुष्कृतकारिण) पापविधायिनि, सूत्र०१ श्रु०८ अ०| दुक्कडगरहा स्त्री० (दुष्कृतगर्हा) दुष्कृतेष्विहपरभवगतेषु गाँ। अकर्तव्य बुद्धिसारापरसाक्षिक्याम, आव०१ अ० दुक्कडतावि(ण) पुं०(दुष्कृततापिन्) दुष्कृतेनातिचाराऽऽसेवनेन तप्यते अनुतापं करोतीत्येवंशीलः दुष्कृततापी। अतिचाराऽऽसेवनानुतापकरणशीले, पञ्चा०१५ विवश दुक्कडि(ण) त्रि०(दुष्कृतिन) दुष्कृतं विद्यते येषां तेदुष्कृतिनः / नारकेषु, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। महापापेषु, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२उ०। दुक्कडिय त्रि०(दुष्कृतिक) दुष्कृतमसदनुष्ठानं पापंवा तत्फलं वा असातावेदनीयोदयरूपंतद्विद्यते यस्मिन् स दुष्कृतिकः / असदनुष्टायिनि, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ० दुक्कप्प पुं०(दुष्कल्प) पार्श्वस्थाऽऽदीनां प्रवचननिन्दिताना कल्पे, पं०भा०। दसणनाणचरित्ते, तवविणए णिच्चकाल पासत्थो। णिचं च निंदओ पव-यणम्मितं जाणसु दुकप्पं / / दुक्कप्पविहारीणं, एगताऽऽसातणाएँ बंधो य। आसायणाएँ बंधेण य दीहो होतु संसारोपं०भा०। इयाणिं दुकपो तत्थ सो दसणाईहि पासत्थो अत्थइ, निच मिदिओ | गरहिओ यपवयणम्मि, जेण ताई ठाणाणि पडिसेवइ। गाहा-(दुक्कप्प - विहारीणं) पाठसिद्ध / ५०चू। दुक्कय त्रि०(दुष्कृत) पापे, षो०१३ विव०। पापकर्मणि, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। दुक्कर त्रि०(दुष्कर) कृ-खल / दुष्करमेव दुष्करम् / कष्टसाध्य, पञ्चा० 13 विव०। कर्तुमशक्ये, आव०५ अ० नि००। ज्यो०। 'अब्बो ! दुक्करकार।'' प्रा०२ पाद। 'पग्गिम्व एइमणोरहइं, दुक्करु दइउ करेइ।" प्रा०४ पाद / दुःखेन कीर्य्यत। कृ-खल्। आकाशे, वाच०। माघे, रात्री, चतुर्थीय स्नाने, देवना०५ वर्ग 4 गाथा। दुकरकरण न०(दुष्करकरण) दुक्करकारितायाम्, व्य०१० उ०॥ नि०चूला "दुक्करकरणं च कह? उच्यते–ण दुक्करं जपडिसेवियं त जीवस्स संफुहाणुकूलं दुक्कर, तओ जं चित्तनिवित्तिकरणं तं दुक्करकरणं ति।' नि०चू० 20 उठा दुक्काल पुं०(दुष्काल) धान्यमहर्घताऽऽदिना दुष्ट समये, जं०१ वक्षः। दुक्कुक्कणिआ (देशी) पतद्ग्रहे, देवना० वर्ग 48 गाथा। दुक्कुलजम्मप्पसत्थि स्त्री०(दुष्कुलजन्मप्रशस्ति) दुष्कुलेषु शकयवनशवरबर्बराऽऽदिसंबन्धिषु यज्जन्म असदाचाराणां प्राणिनां प्रादुर्भावस्तस्य प्रशस्तिः प्रज्ञापना। असदाचाराणा प्रादुर्भावप्रज्ञापनायाम, ध० / तत्र चोत्पन्नानां किमित्याह- "दुःखपरम्परानिवेदनमिति।" दुःखाना शारीरमानसाशर्मलक्षणानां या परम्परा प्रवाहस्तस्या निवेदनं प्ररूपणम्। यथा--असदाचारपारवश्याज्जीवा दुष्कुलेषूत्पद्यन्ते, तत्र चासुन्दरवर्णरसगन्धस्पर्शशरीरभाजा तेषां दुःखनिराकरणनिबन्धनस्य धर्मस्य स्वप्नेऽप्यनुपलम्माद् हिंसाऽनृतस्तेयाशुद्धकर्मप्रवणानां नरकाऽऽदिफलः पापकर्मोपचय एव संपद्यते, तदभिभूतानामिह परत्र चाऽव्यवच्छिनानुबन्धा दुःखपरम्परा प्रसूयते। यदुच्यते- "कर्मभिरेव स जीयो, विवशः संसारचक्रमुपयाति द्रव्यक्षेत्राद्वा भावभिन्नमावर्त्तते बहुशः।।१।।''ध०१ अधिo दुक्कुह (देशी) असहने, दे०ना०५ वर्ग 44 गाथा। दुक्ख न०(दुःख) "वाऽक्ष्यर्थवचनाऽऽद्याः" / / 8 / 133 // इति पुंसि वा प्रयोगः / 'दुक्खा / दुक्खाई।' प्रा०१ पाद। "कगटडतदपसषश *क पामूर्द्ध लुक्" ||8|2|77|| एषां संयुक्तवर्णसंबन्धिनामूर्ध्व स्थितानां लुग भवति। दुःखम्। प्रा०२ पाद / दुःखं करोति दुःखयति, दुःखयतीति दुःखम् / पापकर्मणि, उत्त०६ अ०। सूत्र०। प्रश्नका उपा०। महा०। आचा०। औ०। दुष्करे,बृ०६ उ०। क्लेशे, स०६सम०। संसारे, उत्त० 32 अ०। रोगे, उत्त० २अगसूत्र०। अमनोज्ञसमुत्पादे, सूत्र०१ श्रु०१अ०३उ०। दुष्कृतकर्मफले, दश०१ अ०। असातवेदनीयोदये, आचा०२ श्रु०४ चू०१अ०। प्रतिकूलतयाऽवभासमाने राजसे चित्तधर्मे , द्वा०२१ द्वा०। उदयेन असातवेदनीयोदय प्राप्ते (सूत्र०१श्रु०२१०३उ०) कष्टे, आ०म० १०२खण्ड / आचा०। अज्ञाने, मोहनीये, आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०। असुखरूपे, भ०५
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________________ दुक्ख 2546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुक्ख भ०६उ० तापानुभवरूपे, दश०१ अ०। असंवेद्य, सूत्र० 1 श्रु०२ अ०३७०: विविधबाधनायोगरूपे, सूत्र०१ श्रु१२अ०। असातोदयाऽऽदिरूपे कार्मफले, सूत्र०१ श्रु०१अ०१उ०। अष्टप्रकारके कर्मणि, सूत्र०१ श्रु०६ अ० असातोदये,अष्ट०२१ अष्ट०। आचा० सूत्र०। असातोदयकारणे, आचा०१ श्रु०३ अ०४३० भ०। सूत्र०) उत्त०। असातवेदनीयविपाकजनिते, आचा०१ श्रु०५अ०२उ०। परीपहोपसर्गजनितपीडायां च / सूत्र०१ श्रु०७०) "दुःख स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवेद् गर्भवासे नराणां, बालत्वे चाऽपि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयःपानमिश्रम्। तारुण्ये चाऽपि दुःखं भवति विरहजे वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्याः ! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किश्चित् // " | ध०२० तथाहिजाणंति अणुहवंति य, अणुजम्म जरामरणसंभवे दुक्खे / न य विसयेसु विरजंति, गोयमा ! दुग्गइगमणपत्थए जीवे / / महा०६अ। दुक्खमेवमवीसामं, सव्वेसिं जगजंतुणं। एगं समयं तसभावे, जं सम्मं अहियासियं / महा०२अ०॥ सर्व परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम्। एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः।।१६।। सर्व परवशं पराधीनं दुःखं, तल्लक्षणयोगात् / सर्वमात्मवशम.-. पराधीन सुखम्, अत एव हेलोः, एतदुक्तं मुनिना संक्षेपेण समासेन, लक्षणां स्वरूप सुखदुःखयोः। इत्थं च ध्यानजमेव तत्त्वतः सुखं, नतु पुण्योदयभवमपीत्यावेदितं भवति। तदाह-''पुण्यापेक्षम्मपि ह्येव, सुखं घरवां स्थितम्। ततश्च दुःखमेवैतद्, ध्यानजं तात्त्विकं सुखम् / / 1 // " द्वा०२४ द्वा०॥ सूईहिं अग्गिवन्नाहिं,संमिन्नस्स निरंतरं। जावइयं गोयमा ! दुक्खं, गब्भे अद्वगुणं तओ / / गडभाओ निप्पडं तस्स, जोणिजंतुनिपीलणे। कोडीगुणं तयं दुक्खं, कोडाकोडीगुणं पि वा / / जायमाणाण जं दुक्खं, मरमाणाण जंतुणो। तेण दुक्खविवागेणं, जाईन सरंति अप्पणो / / महा०५अ०। एगे दुक्खे जीवाणं। (एगे दुक्खे) एकमेवान्तिमभवग्रहण सम्भवं दुःखं यस्य स एकदुःखः / "एगे अक्खे त्ति" पाठान्तरे त्वेकधैवाऽऽख्या संशुद्धाऽऽदिळपदेशो यस्य न त्वसंशुद्धः, संशुद्धासंशुद्ध इत्यादिकोऽपि व्यपदेशान्तरनिभित्तस्य कषायाऽऽदेरभावादिति संभवत्येकधाऽऽख्यः / एकधा अक्षो वा जीयो यस्य स तथेति जीवानां प्राणिनामेकभूत एक इवाऽऽत्मोपम इत्यर्थः / एकान्तहितवृत्तित्वात्। एकत्वं चास्य बहूनामपि समस्वभावत्वादिति / अथवा-पत्तेत्यादिसूत्रान्तरमुक्तरूपसं शुद्धादन्येषा स्वरूपप्रतिपादनापर, तत्र प्राकृतत्वात् प्रत्येकमेकं दुःखं प्रत्येकैकदुःखं जीवानां स्वकृतकर्मफलभोगित्वात्। किंभूतं तदित्याह-एकभूतमनन्यतया व्यवस्थितं प्राणिषु, न साङ्ख्यानामिक्बाह्यमिति / स्था० १ठान जीवानां दुःखवर्णकःकालं गमें ति दुक्खे हिं, मणुया पुन्नेहिं उज्झिया। संखित्तमिमं भणियं, सव्वेसिं जगजंतुणं / / दुक्खं माणुसजाईणं, गोयम ! जंतं निबोधत। जमणुसमयमणुभवंताण, सयहा उव्वेइयाण वि।। निविण्णाणं पि दुक्खेहिं, वेरगं न तहा वि भवे / दुविहं समासओ मुणसु, दुक्खं सारीर माणसं घोरं / / एए चंडमहारोह, तिविहं एके कयं भवे / घोरं झाणमुहत्त, घोरपयंडं महारोह // अणुसमयमविस्साम, मुण..................। घोरं मणुस्सजाईणं, घोरपयंडे मुणे तिरिच्छासु / / घोरपयंडमहारोई, नारयजीवाण गोयमा!। माणुस्सं तिविहं जाणे, जहन्न मज्झुत्तमं दुहं / / नत्थि जहन्नं तिरिच्छाणं, दुहमुक्कोसं तु नारयं / जं तं जहण्णगं दुक्खं, माणुस्सं तं दुहा मुणे / / सुहुमवायरभेएणं, निविभागे इतरे दुवे। संमुच्छिमेसु मणुएसु, सुहुमं देवेसु वायरं / / चवणकाले महड्डीणं, आजम्मं आभिओगियाण उ। सारीरं नत्थि देवाणं, दुक्खं णं माणुसेण य / / अइबलियं मज्झिमं हिययं, सयखंडं जहन्न वी फुडे / णिविभागे य जे भणिए, दोन्नि मज्झुत्तमे दुहे / / मणुयाणं ते समक्खाए, गब्भवक्कं तियाण उ। असंखेया उ मणुयाणं, दुक्खं जाणे वि मज्झिमं / / संखेयावसाणं तु, दुक्खं चेव उक्कोसगं / असोक्खं वेयणा, वाही पीडा दुक्खमणिव्वुई।। अ(ण) रागमरई केसं, एवमादी एगट्ठिया बहू। सारीरेयरभेदम्मि, जं भणियचं तं पचक्खइ / / सारीरं गोयमा ! दुक्खं, सुपरिफुडं तमवधारय। बालग्गकोडिलक्खमयं, भागमित्तं ठिवे धुवे // अत्थिरअण्णण्णपदे--ससरं कुंथुमणुहवित्ति खणं / तेण वि करकत्ति सल्लेउं, हिययमद्धसए तणू / / सीयंती अंगमंगाई, गुरुओ वेइ सव्व...। सव्वसरीरस्सऽभंतरं, कंपे थरथरस्सय।। कुंथुफरसियमेत्तस्स, जं सलसले तणू / तमेव संभिन्नसव्वंगे, फलए डज्झंतमाणसे / / चिंतंतो हा किं किमेयं, बाहे गुरुपीडाकरं / दीहुण्हमुक्कनीसासे, दुक्खं दुक्खेण नित्थरे / किमेयं किंचिरं वाऽयं, कियचिरेण वा णट्ठिही। कहं दाऽहं विमुचिस्सं, इमाओ दुक्खसंकडा / / गच्छं चिटुं सुयं उढे, धावण्णेसं पलामिछं। कंडुगयं किं च पुरे काउं, किं वा पच्छं करेमि हं / / एवं तिवग्गवावारं, छिचोरु दुक्खसंकडं। पविट्ठो वाढ संखेज्जा, आवलियाउ किलिस्सयं / /
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________________ दुक्ख 2550 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुक्ख पुण्णाहिं कंडुपाडेसु, कंडू मे अन्नहा णो उवस्समे। ता एयस्सुवसाएणं, गोयम ! णिसुणेसु जं करे।। अहंतं कुंथु वावाए, जइ णो अन्नत्थ गयं भवे / कंडूयमाणे हि भिन्नादी, अणुपसमं णो किलस्मए / जइ वावाएज्ज तं कुंथु, कंडुयमाणो व इयरहा। तो तं अइरोद्दझाणम्मि, पविढं णिच्छयओ मुणे / / अह किलामे तओ भयणा, रोदज्झाणेयरस्स उ। कंडूयमाणस्स उण, देहं सुद्धमट्टज्झाणं मुणे / / समजे रोद्दझाणट्ठो, उक्कोसं नारगाउयं / दुब्भगिस्थीपंडतेरिच्छं, अट्टज्झाणं समजिणे / / कुंथुपदफरिसजणिया-ओ दुक्खाओ उवसमित्थया। एत्थ हल्लफलीभूते, जमवत्थंतरं वए। विवण्णमुहलावण्णे, अइदीणविमणदुम्मणे। सुन्ने वण्णे य मूढदिसे, मंददरदीहनिस्ससे / / अविस्सामं दुक्खहेउयं, असुहं तेरिच्छनारयं / कम्मं निबंधइत्ता णं, भमिही भवपरंपरं / / एवं खउवसमाओ तं, कुंथुवइरजं दुहं।। कह कह बहुकिलेसेणं, जइ खणमेकं पि उवसमे / / ता मह किलेसमुत्तित्तुं, सुहियं से अठणयं / मन्नंतो पमुइओ हिट्ठो, सत्थच्छिन्नो वि चिट्ठइ। चिंतइ किल निव्वुओ मि अहं, निद्दलियं दुक्खं पि मे / कंडुयणा-दिहिं सयमेव, न मुणे एवं जहा भए॥ रोद्दज्झाणगएण इह, अट्टज्झाणे तहेव य। संवग्गइत्ता उ तं दुक्खं, अणंताणंतगुणं कडं / / जं वाऽणुसमयमणवरयं, जहा राई तहा दिणं / दुहमेवाणुभवमाणस्स, वीसामो नो भवेज मे / / खणं पि नरयतिरिएसु, सागरोवमसंखया। रसरसविलज्जए हिययं,जंवा इत्थं ततो ण वि।। अहवा किं कुंथुजणिया, उमुक्को सो दुक्खसंकड़ा। खीणऽट्ठकम्मसरिसा मो, भवेज जणुमेत्तेण वओ।। कुंथुमुवलक्खणं इहई, सव्वं पच्चक्खदुक्खदं / अणुभवमाणो विजं पाणी, ण य संती तेणुवेक्खइ। अन्ने वि गुरुयरे दुक्खे, सव्वेसिं संसारिणं / महा०२ अ०। नारकतिरश्चां दुःखबाहुल्य प्रतीतमेव"अच्छिनिमीलणमित्त, नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्ध / नरए नेरइआणं, अहोनिसं पचमाणाणं / / 1 / / जं नरए नेरइआ, दुक्खं पावंति गोयमा ! तिवखं। तं पुण निगोअमज्झे, अणतगुणिअं मुणेयय्वं / / 2 / / " मानुष्यके गर्भजन्मजरामरणविविधाधिव्याधिदौस्थ्याऽऽद्युपद्रवैदुःखितैव, देवत्वेऽपि च्यवनदास्यपराभवेाऽऽदिभिः। ऊचे च "सूइहिं अग्गिवण्णाहिं, संभिण्णरस निरंतर / जारिसं गोअमा! दुक्ख, गन्भे अट्टगुणं तओ / / 1 / / गब्भाआ नीहरंतस्स, जोणिजंतुनिपीलणे। सवसाहारसअंदुक्खं, कोडाकोडीगुणं पि वा // 2 // चारगनिरोहवहबं-धरोगधणहरणमरणवसणाई। मपसंतावो अजसो, विग्गोवणया य माणुस्से // 3 // चिंतासंतावेहि अ, दारिद्दरुआहि दुप्पउत्ताहिं। लश्रूण वि माणुस्सं, मरंति केइँ सुनिविण्णा ||4|| ईसाविसायमयको-हमायुलोहेहिं एवमाइएिं। देवादिसमभिभूआ, तेसिं कत्तो सुहं नाम? ॥५॥''ध०२अधिका दुःखत्रयाभिहतस्य पुरुषस्य तदपृघ तहेतुत्वाद् जिज्ञासोत्पद्यते / आध्यात्मिकमाधिदैविकमाधिभोतिकं चेति दुःखत्रयम्। तत्राऽऽध्यात्मिकं द्विविधम्-शारीरं, मानसं च। शारीरं वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यनिमित्तम्। मानसं कामक्रोधलोभमोहेयाविषयादर्शननिबन्धनम् / सर्व चैतदान्तरोपायसाध्यत्वादाध्यात्मिकं दुःखम्। बाह्योपायसाध्यं दुःखं द्वेधाआधिभौतिकमाधिदैविर्क चेति / तत्राधिभौतिकंमानुषपशुपक्षिमृगसरीसृय - स्थावरनिमित्तम्। आधिदैविकं यक्षराक्षसग्रहाऽऽद्यावेशहेतुकम्। अनेन दुःखत्रयेण रजःपरिणामभेदेन बुद्धिवर्त्तिना चेतनाशक्तेः प्रतिकूलतया अभिसंबन्धोऽभिघातः। (15) स्या०। दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुडे? गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे / दुक्खी भंते ! नेरइए दुक्खेणं फुडे, अदुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे ?गोयमा ! दुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे, एवं दंडओ० जाव वेमाणियाणं, एवं पंचदंडगा नेयव्वा-दुक्खी दुक्खेणं फुडे, दुक्खी दुक्खं परियाइयइ,दुक्खी दुक्खं उदीरेइ, दुक्खी दुक्खं वेएइ, दुक्खी दुक्खं निजरेइ। (दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुडे त्ति) दुःखनिमित्तत्वाद् दुःखं कर्म, तद्वान् जीवो दुःखी भदन्त ! दुःखेन दुःखहेतुत्वात् कर्मणा स्पृष्टो बद्धः (नो अदुक्खी इत्यादि) नो नैवादुःखी अकर्मा दुःखेन स्पृष्टः, सिद्धस्यापि तत्प्रसङ्गादिति। (एवं पंचदंडगाणेयव्य त्ति) एवमि-त्यनन्तरोक्ताभिलापेन पञ्च दण्डका नेतव्याः, तत्र दुःखी दुःखेन स्पृष्ट इत्येक उक्त एव। (दुक्खी दुक्खं परियाइयइ त्ति) द्वितीयः, तत्र दुःखी कर्मवान् दुःखं कर्मपर्याय ददाति, सामस्त्येनोपादत्ते, निधत्ताऽऽदि करोतीत्यर्थः / (उदीरेइ त्ति) तृतीयः। (वेएइ त्ति) चतुर्थः / (निजरेइ त्ति) पञ्चमः। उदीरणवेदननिर्जरणानि तु व्याख्यातानि प्रागिति / भ०७।०१उ०। (जीवेन कृतं दुःखमिति 'किं भय' शब्दे तृतीयभागे 526 पृष्ठे प्रतिपादितम्) जीवा णं भंते ! किं अत्तकडे दुक्खे, परकडे दुक्खे, तदुभयकडे दुक्खे? गोयमा! अत्तकडे दुक्खे, णो परकडे दुक्खे, णो तदु-भयकडे दुक्खे / एवं०जाव वेमाणियाणं / भ०१७ श०३उ०। जघने, देना०५ वर्ग 42 गाथा।
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________________ दुक्खक्खंध 2551 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुक्खि (ण) दुक्खक्खंघ पुं०(दुःखस्कन्ध) असातोदयपरम्परायाम, सूत्र०१ श्रु०१ | (स्त्रियः) तथा अ०२301 दुक्खरिय पुं०(दुष्करिक) दासे, नि०चू०१६ उ०। दुक्खक्खम त्रि०(दुःखक्षम) दुःखसहे, दुःखमसातवेदनीयोदय- | दुक्खरिया स्त्री०(दुष्करिका) दास्याम्, महाश्राद्ध्याम्, नि०चू० 16 स्तदुदीर्ण सम्यक् क्षमते सहतेन वैक्लव्यमुपयाति नापि तदुपशमार्थ / उ०। वेश्यायां च। नि०चू०१ उम वैद्यौषधाऽऽदि मृग्यते। आचा०२ श्रु०४ चू०१ अol दुक्खविमोक्ख पुं०(दुःखविमोक्ष) घातिकर्मभवोपग्राहिकमदविमोक्षे, दुक्खक्खय पुं०(दुःखक्षय) शारीरमानसानेकक्लेशविलये, पा०।। पं०व०४ द्वार। दुक्खक्खवपुं०(दुःखक्षय) दुःखमसुखं तत्कारणत्वाद्वा कर्म तत् क्षपय- दुक्खविमोक्खय पुं०(दुःखविमोक्षक) दुःखविमोचके, सूत्र०१ श्रु०१ तीति दुःखक्षयः। असुखक्षये, स्था०४ ठा०१3०। अ०२उ दुक्खग्गहण न०(दुःखग्रहण) दुःखसङ्कटे, पं०व०१ द्वार। दुक्खविमोयग पुं०(दुःखविमोचक) अष्टप्रकारकर्माऽपनेतरि, सूत्र०१ दुक्खंत त्रि० दुःखान्त) दुःखानामन्तो दुःखान्तः / दुःखावसाने, | श्रु०६० षो०१६ विवा दुक्खसंभव पुं०(दुःखसंभव) दुःखस्य संभवो येषु ते दुःखसम्भवः। दुक्खंतकर त्रि०(दुःखान्तकर) असुखस्य तद्धेतुभूतस्य भवस्य कर्मणों दुःखभाजनेषु, दुःखं करोति ततो दुःखयतीति वा दुःखं पापकर्म, ततः वा विनाशकारिणि, पञ्चा० 14 विव०॥ संभव उत्पत्तिर्येषां ते दुःखसम्भवाः / पापकर्मजेषु, उत्त०६ अ०॥ दुक्खत्त त्रि०(दुःखाऽऽर्त) दुःखपीडिते, प्रव० 6 द्वार / दुक्खसंभार पुं०(दुःखसम्भार) दुःखबाहुल्ये, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दुक्खत्तगवेसण न० (दुःखाऽऽर्तगवेषण) दुःखाऽऽर्तस्य दुःखपीडितरय दुक्खसमुदीरण त्रि०(दुःखसमुदीरण) असुखप्रवर्तके, प्रश्न० 3 आश्रद्वार। गवेषणमौषधाऽऽदिना प्रतिजागरण दुःखाऽऽर्तगवेषणम्। प्रव०६ द्वार। दुःखितस्य प्रतीकारकरणे, पञ्चा० 16 विव० दुक्खसह त्रि०(दुःखसह) परीषहोपसर्गकृतं दुःखं सहते इति दुःखसहः / दुक्खपडिकूल त्रि०(दुःखप्रतिकूल) दुःखद्वेषिणि, आचा०१ श्रु०२ आचा०१ श्रु०८अ०४301 परीषहजेतरि, दश०७ अ०। ਯ੦੩੦i दुक्खावणता स्त्री०(दुःखापनता) ताशब्दोऽत्र प्राकृतः / मरणलक्षणदुक्खपरंपरा स्त्री०(दुःखपरम्परा) दुःखजन्ममरणेषु वियोगाऽऽदिरू दुःखप्रापणायाम, इष्टवियोगाऽऽदिदुःखहेतुप्रापणायाच। भ०३ श०३३०। पासु संकष्टश्रेणिषु, आतु। दुक्खाविजंत त्रि०(दुःखाय्यमान) दुःखमनुभाव्यमाने, आ०म०१ अ०२ खण्ड। दुक्खपरंपराणिसवेयण न०(दुःखपरम्परानिवेदन) दुःखाना शारीरमानसाशमलक्षणानां प्रवाहप्ररूपणे, आतुन दुक्खासिया स्त्री०(दुःखासिका) उपसर्गाऽऽदिसम्पाद्यवेदनायाम्, स्था०३ टा०४उ०। आचाo दुक्खपालिया स्त्री० (दुःखपालिता) दुःखेन पालयितु शक्यायां दुक्खाहड त्रि०(दुःखाऽऽहत) दुःखेनाऽऽह्रियते इति दुःखाऽऽहृतम् / बालावस्थायाम, तं० दुःखोत्पाद्ये, उत्त०७अ01 दुक्खफास पुं०(दुःखस्पर्श) दुःखं स्पृशतीति दुःखस्पर्शः। असातोदय दुक्खि(ण) त्रि०(दुःखिन्) दुःखमसातवेदनीयमुदयेन यत् प्राप्तं तत्कारणं विपाकिनि, सूत्र०१ श्रु०८० वा दुःखयतीति दुःखं, तदस्यास्तीति दुःखी। दुःखविशिष्टे, सूत्र०१श्रु०२ दुक्खभय त्रि०(दुःखभय) दुःखान्मरणाऽऽदिरूपाद्भयमेषामितिदुःख अ०३उ०ा आचाo नयाः। मरणाऽऽदिभीतेषु, स्था०३ठा०२उ०॥ दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निव्विदेज सिलाघ पूयणं / दुक्खमञ्जिय पुं०(अर्जितदुःख) अर्जितमुपार्जितं दुःखं यैस्ते अर्जित एवं सहितेऽहिपासए, आयतुलं पालेहि संजए।।१२।। दुःखाः / मकारोऽलाक्षणिकः, प्राकृतत्वात्परनिपातः / सशितदुःखे, दुःखमसातवेदनीयोदयेन यत्प्राप्तं तत्कारणं वा, दुःखयतीति दुःखं, उत्त०६अ० तदस्यास्तीति दुःखी सन प्राणी पौनःपुन्येन मोहं याति सदसद्विदुक्खमत्ता स्त्री०(दुःखमात्रा) दुःखलेशे, आचा०१ श्रु०३ अ०४उ०| वेकविकलो भवति। इदमुक्तं भवति-असातोदयाद्दुःखमनुभवन्नार्ता दुक्खमा स्त्री०(दुःषमा) अधमकालाख्यायाम्. दश०१ चू० भूढस्तत्करोति येन पुनः पुनः सुखी संसारसागरमनन्तमस्येति दुक्खमोक्ख त्रि०(दुःखमोक्ष) दुःखानामसातोदयजनितानां विनाशे, तदेवंभूत मोह परित्यज्य सम्यगुत्थानेनोत्थाय निर्वेद्यते जुगुप्सेत सूत्र०१ श्रु०१३ अग परिहरेदात्मश्लाघां स्तुतिरूपाम्, तथा पूजन वस्खाऽऽदिलाभरूपं दुक्खर त्रि०(दुष्कर) दुःखेन क्रियते इति दुष्करः / दुरनुष्ठाने उत्त०३अ०) परिहरेत् / एवमनन्तरोक्तरीत्या परिवर्तमानः सह हितेन वर्तत इति सहितो दुक्खरक्खिया स्त्री०(दुःखरक्षिता) कष्टनरक्षणयोग्यायाम, "दुक्खर- ज्ञानाऽऽदियुक्तो वा संयतः प्रव्रजितोऽपरप्राणिभिः सुखार्थि - क्खियाओ।' तं०। दुःखरक्षिताः कष्टेन रक्षणयोग्या यौवनावस्थाया भिरात्मतुलामात्मतुल्यता दुःखाप्रियत्वसुखप्रियत्वरूपामधिक पश्येत,
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________________ दुक्खि (ण) 2552 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुग आत्मतुल्यान सर्वानपि प्राणिनः पालयेदिति / / 12 / सूत्र०१ श्रु० २अ०३उ० दुक्खिय त्रि०(दुःखित) "दुःखदक्षिणतीर्थे वा" || 812172 / / इति संयुक्तस्य वा हः। 'दुह। दुक्खं / ' प्रा०२ पाद। "निर्दुरोर्वा" ||8/1 / 13 / / इति दुरोऽन्त्यव्यञ्जनस्य वा लुक / “दुक्खिओ। दुहिओ।" प्रा०१ पाद / दुःखमसाताऽऽत्मकं जातमेवामिति दुःखिताः / जातदुःखपु. उत्त०३अ०। 'परदुक्खेण दुक्खिआ विरला।' प्रा०२ पाद। रोगाऽऽदिपीडालक्षव्याप्ते, ती दुक्खुच्छेयट्टि(ण) पुं०(दुःखोच्छेदार्थिन्) संसारक्ले शजिहासुषु, द्वा०२२ द्वा०। दुक्खुण्णेय त्रि०(दुःखोन्नेय) कृच्छ्रबोध्ये, जीवा०३३ अधिका दुक्खुत्त अव्य० (द्विःकृत्वस्) द्वौ वारावित्यर्थे , स्था०५ ठा०२ उ०। दुक्खुव्वेय पुं०(दुःखोद्वेग) दुःखादुद्वेगो यस्य सदुःखानेगः / दुःखाद्विग्न, 'दुक्खुव्वेयसुहेसए।" सुखस्यैषकः सुखैषकः दुःखोद्वेगश्वासः सुखेपका दुःखोद्वेगसुखेषकः / आचा०१ श्रु०२ अ०३उ०। दुखुर पुं०(द्विखुर) द्वौ खुरौ प्रतिपदं येषां ते द्विखुराः / प्रज्ञा०१ पद / गोमहिषाऽऽदिषु, सूत्र०२ श्रु०३अ०। उत्त०। स्थाcा जी०। दुग न०(द्विक) द्वैक्रियनिहवे,उत्तरपदलोपादेकसमये द्वे क्रिये समुदित द्विक्रिय, तदधीयते तद्वादिनो वा दैक्रियाः / कालभेदेन क्रियानुभय - प्ररूपिण इत्यर्थः / आ०म०१अ०२खण्ड। उत्ता स्थाद्वौ सामिका संविग्नसांभोगिकाऽऽदिरूपावेकत एकरिमन् स्थाने समादेश। विहरतः, तत्रैकोऽन्यतरत् अकृत्यं स्थाने प्रतिसेव्य आलोचत / यथगीतार्थः प्रतिसेवितवान् ततस्तस्मै शुद्धतपो दातव्यम्। अथ गीतार्थस्तहि यदि परिहारतपोयोग्यमापन्नस्ततः परिहारतपो दद्यात्, तदनन्तरं स्थाप्यते विविक्तं कृत्वा प्ररूप्यते इति स्थापनीय परिहारतपोयोग्यमनुष्ठान तर स्थापयित्वा प्ररूप्य य आपन्नः स परिहारतपः प्रतिपद्यते, इतरः कल्पस्थितो भवति, स एव च तस्यानुपारिहारिकस्ततस्तेन तस्त्र करणीयवैयावृत्त्यमित्येष सूत्रसंक्षेपार्थः। अधुना नियुक्तिविस्तर:दोसाहम्मिय छव्वारसेव लिंगम्मि होइ चउभंगो। चत्तारि विहारम्मि उ, दुविहो भावम्मि भेदो उ॥३।। द्विशब्दस्य, साधम्मिकशब्दस्य च यथाक्रम षट् द्वादश नामाऽऽदया निक्षेपाः, द्विशब्दस्य षट्, साधम्मिकशब्दस्य द्वादशको निक्षेप इत्यर्थः। लिड़े लिङ्ग विषये चतुर्भङ्गी भवति! सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्। तथा विहारे चत्वारा नामाऽऽदयो निक्षेपाः। तत्र भावे द्विविधा भेदः / एप द्वारगाथासंक्षेपार्थः / व्यासार्थ च प्रतिपदमभिधित्सुः प्रथमतो द्विशब्दरय षटकनिक्षेपमाहनाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य होइ बोधव्वो। भावे य दुगे एसो, निक्खेदो छव्विहो होइ।।४।। नामद्विक, स्थापनाद्विक, द्रव्ये द्रव्यविषयं द्विकम्. एवं क्षेत्रद्विक कालद्विक / च भवति बोद्धव्यं, तथा भावे च भावविषयं च द्विकम्, एतं द्विक्के द्विपदस्य ( षट्को भवति निक्षेपः / तत्र नामद्विक द्वे नामनी। अथवा यस्य द्विकमिति नाम तन्नामद्विक, स्थापनद्विकं द्वे स्थापने, द्विकस्य स्थापना का द्विकम् / संप्रति द्रव्यक्षेत्रकालद्विकप्रतिपादनार्थमाहचित्तमचित्तं एक्के-क्कयस्स जे जत्तिया दुगे भेया। खेत्ते दुपएसाऽऽदी, दुसमयमादी उकालम्मि॥५॥ द्रव्याद्विक द्विविधम्--आगमतो, नो आगमतश्च / तत्राऽऽगमता द्विकशब्दार्थज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तः / नोआगमतस्तु त्रिविधम, ज्ञशरीरभव्यशरीरतद व्यतिरिक्तभेदात् / तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरे प्राग्वत् / तदव्यतिरिक्त सचित्तमचित्तं च / एकैकस्य ये यावन्तो द्विकभेदाः संभवन्ति ते सर्वे वक्तव्याः। ते चेमे-सचित्तं द्रव्यं द्विकं द्विधा-संसारस्थं निर्वृत्तं च / संसारस्थं द्विधा-एकेन्द्रियम्, अनेकेन्द्रियं च। तत्रैकन्द्रियं पञ्चप्रकारम्पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिभेदात्। एकैकमपि द्विधापर्याप्तम्, अपर्याप्त च / अनेकेन्द्रियं द्विधाविकलंन्द्रियं, पझेन्द्रियं च / विकलेन्द्रियं त्रिधाद्वित्रिचतु-रिन्द्रियभेदात् (7) पुनः प्रत्येक द्विधा-पर्याप्तम्, अपर्याप्तम्। पश्शेन्द्रिय द्विधा-संख्यातवर्षाऽऽयुष्कम्, असंख्यातवर्षाऽऽयुष्कं च / एकेक द्विधा-पर्याप्तम्, अपर्याप्तं च / निर्वृत्तमपि द्विधा-अनन्तर सिद्धम्. परम्परसिद्ध च / अथवा-सचित्तं त्रिविधम् / तद्यथा--द्विपद, चतुष्पदम्. अपदं च। तत्र द्विपटं द्वौ पुरुषावित्यादि। चतुष्पदं द्वौ बलीववित्यादि अचित्त द्वौ परिमाणू द्वौ द्विप्रदेशिको, द्वौ त्रिप्रदेशको, यावद् द्वौ सड़ ख्यातप्रदेशिको, द्वावनन्तप्रदेशिको / संख्यातस्य सङ्ख्याता भेदाः / असंख्यातस्य असंख्याताः। अनन्तस्य अनन्ताः / उक्तं द्रव्यद्विकम्। आह-(खेत्ते दुपदेसादी) क्षेत्रे क्षेत्रविषयं द्विप्रदेशाऽऽदि द्वावाका प्रदेशावादिशब्दाद द्विप्रदेशावगाद वा द्रव्यं क्षेत्रद्विक, क्षेत्रे द्विकेतस्यावस्थानात। यदिवातस्य द्वे भारते, द्वे ऐरावते इत्यादिपरिगृहः / उक्त क्षेत्रद्विकम् / कालद्विकमाह-द्विसमयाऽऽदिक, द्वौ समयावादिशब्दाद दे आवलिके, द्वौ मुहूर्तावित्यादिपरिग्रहः / अथवा-द्विसमयस्थितिक द्रव्यं कालद्विके अवस्थानात कालद्विकमादिशब्दाद् द्वयावलिकास्थि-तिकाऽऽदिपरिग्रहः / उक्त कालद्विकम्। ___ अधुना भावद्विकमाह(भावे पसत्थमपसत्थगं च दुविधं दुयं च णायव्यं / अविरयपमायमेव य, अपसत्थं होति दुविधं तु / / 6 / / भावे पसत्थमियरं, होइ पसत्थं तु नाणे णोनाणे / केवलछउमत्थ नाणे, नो नाणे दिट्ठि चरणे य / / 6 / / भावद्विक द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च / तत्राऽऽगमतो द्विकशब्दार्थज्ञाता, तत्र चोपयुक्तः।"उपयोगो भावनिक्षेपः" इति वचनात्। नोआगमता द्विधा : तद्यथा-प्रशस्तम्, इतरच / इतरं नामाऽप्रशस्तम्। तच्चेदम् - सगो, द्वेषश्च / प्रशस्तं द्विधाज्ञानं, नोज्ञानं च / तत्र ज्ञाने छानविषयं द्विकमिदम् / तद्यथा-कैवलिक, छाद्मस्थिकं च / नो ज्ञाने नोइानविषयं द्विकम-दृष्टिः, चरणं च / दृष्टिः सम्यक्त्वं, चरण चारित्रम्। एतदेव सप्रभेद प्ररूपयतिएक्के कं पि यतिविहं, सट्ठाणे नत्थि खइऍ अइयारो। उवसामिएसु दोसु अ, अइयारो होज्ज सेसेसु // 7 //
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________________ दुग 2553 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुगुंछियकुल एकैकमपि दर्शनं, चरणं च, प्रत्येकमित्यर्थः / त्रिविधं त्रिप्रकारम् / तद्यथा--क्षायिकम, औपशमिक, क्षायोपशमिक च / तत्र क्षायिक सम्यक्त्वं क्षायिकसम्यग्दृष्टावौपशमिकमुपशमश्रेण्या, शेषकालं क्षायोपशमिक, चरणमपि क्षायिक क्षपकनिर्ग्रन्थस्य, ओपशमिकमुपशमिकश्रेण्याम, अन्यदा क्षायोपशमिक, तत्र क्षायिके ज्ञाने दर्शन चारित्रे च स्वस्थाने नास्त्यतीचारः। तथाहि-केवलिनस्विष्वपिज्ञानदर्शनचारित्रेषु क्षायिकेषु वर्तमानस्य न तद्विषया काचिदपि विराधना / परस्थानेषु संभवेदपि, तथा श्रुतकेवल्यादेः क्षायिके दर्शने वर्तमानस्य दर्शन नास्ति विराधना, ज्ञानचरणयोस्तु भजनेति / (उवसामिएसु दोसु त्ति) द्वयोर्दर्शनचरणयोरौपशमिके भावे वर्तमानयोः स्वस्थाने चाऽरत्यतीचारः, औपशमिकं हि दर्शन चारित्रं नियमानुपशमशेण्यां भवति, तत्र कषायाणाम पशान्तत्वान्नास्ति कश्विदतीचारसम्भवः / ज्ञानविराधनात् सम्भवेदप्यनुयोगतोऽन्यथा प्ररूपणाचिन्तनाऽऽदिसम्भवात् / उप-- शमश्रणीतः पाते तु भवत्यतीचारः, औदयिकभावे वर्तमानत्वात्। शेषेषु / पुनः क्षायोपशमे स्वस्थाने चातिचारो भवेत्, क्षायोपशमिकत्वात्। एतदेवाऽऽहसट्ठाण परहाणे,खओवसमिएसुतीसु वी भयणा। दंसणउवसमखइए, परठाणे होति भयणा उ॥८|| क्षायोपशमिके भावे वर्तमानेषु त्रिष्वपि ज्ञानाऽऽदिषु स्वस्थाने पररथाने चातिचारः, कदाचिद् भवति, कदाचिन्न भवतीत्यर्थः / दर्शन, उपलक्षणमेतत, चरणे च, औपशमिके क्षायिके च स्वस्थानेऽतीचारो भवति, परस्थाने तु भजना। अत्र येन द्विकेनाधिकारः तदभिधित्सुराहदव्वदुए दुपएणं, सच्चित्तेणं च एत्थ अहियारो। मीसेणोदइएणय, भावम्मि वि होति दोहिं पि||६|| अब द्रव्यद्विकेन चाऽधिकारः-तत्र द्रव्यद्विकेन सचित्तेन तेनाऽपि च द्विपदन साधर्मिकद्वयस्य चिन्त्यमानत्वात्, मावे मिश्रण क्षायोपशमिकेन आंदयिकेन चेति द्वाभ्यां भावाभ्यामधिकारः / अनयोरेवद्वयोर्भावयोर्वतमानस्यातीचारसंभवात्। व्य०२उ०ा द्वौ ककारी यत्रासौ द्विकः / कृतके, पुं०। रत्ना०८परि० दुगुंछ धा०(गुप) कुत्सने, भ्वा०-आत्म०-अक० सेट् / वाच० / "जुगुप्सेझुणदुगुच्छदुगुञ्छाः " ||4|4|| इति जुगुप्सेर्दुगुच्छदुगुछावादेशौ। 'दुगुच्छइ। दुगुछड्।' प्रा०४ पादा जुगुप्सते। अजुगुप्सिष्ट / वाचा दुगुंछग पुं०(जुगुप्सक) गर्हके, आव०३ अ० मुनीनां जुगुप्सां कर्तु योग्यायां योषिति, तं०। दुगुंछण न०(जुगुप्सन) गर्हणे, आचा०१ श्रु०१ अ०७उ०। दुगुंछमाण त्रि०(जुगुप्समान) गर्हमाणे, सूत्र०२ शु०६ अ० दुगुंछा स्त्री०(जुगुप्सा) लोकविहितायां निन्दायाम्, विशे० आ०चूल उत्त०। सूत्र०ा आचा०। यत्पुनरस्नानदन्तधावनमण्डलीभोजनाऽऽदिकमपरं मृतकलेवरविष्ठाऽऽदिकं जुगुप्सते सा जुगुप्सा / साध्वाचार निन्दारूपे आन्तरग्रन्थे, बृ०१ उ०२ प्रक०। "अण्हाणमाइएहि, साहु तु दुगुछति दुगुंछा।" उत्त०४अ०। जुगुप्सा प्रवचनखिंसा विकृताङ्गदर्शनेन मा भूदित्येवं प्रत्ययो यत्र तत्तथा। प्रवचननिन्दायाम्, स्था० ठा०३उ०। दुगुंछाकम्म न०(जुगुप्साकर्म) यदुदयने च विष्ठाऽऽदिवीभत्सपदार्थ-- भ्यो जुगुप्सते तजुगुप्साकर्म। कर्मभेदे, स्था०१० ठा०। दुगुंछामोहणीय न०(जुगुप्सामोहनीय) यदुदयात्सनिमित्तमनिमित्तं वा जीवस्याशुभवस्तुविषया जुगुप्सा भवति, तज्जुगुप्सामोहनीयम्। कर्म०१ कर्म०। यदुदयवशात्पुनर्जन्तोः शुभाशुभवस्तुविषयं व्यलीकमुपजायते तजुगुप्सामोहनीयम्। कर्मभेदे, कर्म०६ कर्म० दुगुंछिउं अव्य०(जुगुप्सित्वा) धिग्मा पापकारिणमित्यादिना निन्दा कृत्येत्यर्थे ,ध०२अधिo दुगुंछिय त्रि०(जुगुप्सित) गर्हित, आचा०२ श्रु०१ चू०१अ०१उ०। जुगुप्सितावद्यगर्हिताः समानार्थाः / आ०म०१०२खण्ड। दुगुंछियकुल न०(जुगुप्सितकुल) छिम्पकाऽऽदिकुलेषु, ओघ०) चर्मकारकुलाऽऽदिषु, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०२०। सूत्रम्जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहंतं वा साइजइ // 26 / / जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहंतं वा साइज्जइ / / 27 / / जे भिक्खू दुगुं-- छियकुलेसु वसहिं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहंतं वा साइजइ / / 2 / / जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं करेइ, करंतं वा साइजइ ||26|| जे मिक्खू दुगुंछियकुलेसुसज्झाइयं उद्दिसइ, उद्दिसतं वा साइज्जइ / / 30 / / जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं समुद्दिसइ, समुद्दिसंतं वा साइज्जइ|३१|| जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं अणुजायइ, अणुजायंतं वा साइजइ // 32 // जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं वाएइ, वायंतं वा साइज्जइ ||33 / / जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ |34|| जे भिक्खू दुगुंछियकुलेसु सज्झायं परिय-ट्टेइ, परियस॒तं वा साइजइ / / 35 / / चउलहुं तेसिं पच्छित्तं। तेसिं इमे भेदा, सरूवं च / गाहादुविहा दुगुंछिता खलु, इत्तरिया हों ति आवकहिया य। एएसिंणाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥६६१।। सूयगमातंगकुला, इत्तरिया ते य होंति निजूदा। जे तत्थ जुंगिता खलु, ते होंती आवकहिया य॥६६२।। णिजूढा जे वण्णकया सलीगपडिय त्ति, आवकहिगाजे जत्थ विसए जात्था दिजुंगिता, जहा दक्खिणापहे लोहे लोहकारकल्ला, लाडेसु णडवरुडचम्मकारादि ते आवकहिया। गाहातेसु असणवत्थादी, वसही अहव वायणादीणि /
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________________ दुगुंछियकुल 2554 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुग्गइवडण जे भिक्खू गिण्हेज्जा, विसेज कुज्जा व आणादी॥६६३।। / दुग्ग त्रि०(दुर्ग) दुःखेन गम्यतेऽसौ कर्मणि-डः / विषमे, सृज०१ श्रु०५ असणवत्थादियाण गहणं, जो वसहीए वा विसेज प्रविसति, वायणादि अ०१०। गहने, दुर्विज्ञेये, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। दर्श०। वा सज्झायं कुज्जा, तस्स आणादिया दोसा। अपराजितायां नील्यां च / स्त्री०। गुग्गुलौ, पुं०। दुःखेन गच्छत्यत्र / दुर्गाहा-- गमआधारे डः। पर्वताऽऽदिभिर्दुर्गमे पुरे कोट्टे (किला) (गढ इतिख्याते अयसो पक्यणहाणी, विप्परिणामो तह दुगुंछाय। दुर्गमदेशे,उच्छिन्ने, दुःखेन संस्तरे संसारे, न०ा वाचलाखातवलयप्राकातेसिं च होति संका, सव्वे एयारिसा समणा / / 664 / / राऽऽदिदुर्गम, भ०७ श०६ उ०। स्तेनपरचक्राऽऽद्यगम्यस्थाने च। बृ०३ उ०। भ० ज०। कष्टसाध्ये, भ०६ श० ३उ०। दुःखाऽऽश्रयणीये, भ०५ असिवे ओमोयरिए, रायद्दढे भए व गेलण्णे / श०६ उ०। पर्वताऽऽदिदुर्गमिव कथमपिलयितुमशक्ये, स्था०५ अद्धाणरोहए वा, अयाणमाणे वि वितियपदं / / 665|| ठा०२उ०। दुर्गमप्रवेशे च। विपा०१ श्रु०३ अादशा०। सर्वे साधवो नीचा इत्यादि अयसः, असंभोजसंपक्क ति कश्चित्प्रव्रज तिविहं च होति दुग्गं, रुक्खे सावऍ मणुस्सदुग्गं वा / तीति एवं पवयणहानी, अभोजे दुभक्तादिग्रहण दृष्ट्वा धम्माभिमुखा निक्कारणम्मि गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा।।११२।। पूर्वप्रतिपन्नगा वा विपरिणमंते, स्वपाकादिसमाना इति जुगुप्सा, जेसु त्रिविधं च भवतिदुर्गम्। तद्यथा-वृक्षदुर्ग, श्वापददुर्ग, मनुष्यदुर्ग च / यद् विगेण्हइ तेसु वि संकासव्ये एयलिंगधारिणो एते एयारिस त्ति अहं परिस।। वृक्षरतीव गहनतया दुर्गम, यत्र वा पथि वृक्षः पतितस्तद् वृक्षदुर्गम्। यत्र इमो अववादो। ध्याघ्रसिंहाऽऽदीना भयं तत् श्वापददुर्गम् / यत्र म्लेच्छबोधिकाऽऽदीनां एतेहिं असिवादिकारणेहिं जयाघेप्पति तदा पग-- मनुष्याणां भयं तन्मनुष्यदुर्गम् / एतेषु त्रिष्वपि दुर्गेषु यदि निष्कारणे गपरिहाणी, जाहे चउलहुं पत्तो ताहे इमाए निर्गन्थीं गृह्णाति अवलम्बते वा चतुर्गुरु, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः / बृ०६ उ०। जयणाए गेण्हति। गाहा दुःखे, कटयां च / देवना०५ वर्ग 53 गाथा। अण्णत्थ व ठावेउं, लिंगविवेगं च काउ पविसेज्जा। दुग्गइ स्त्री०(दुर्गति) दुष्टा गतिर्दुर्गतिः। दुष्टायां गतौ, स्था०। काऊण व उवओगं, अदिट्ठमत्तादिसंवरितो॥६६६।। तओ दुग्गइओ पण्णत्ताओ। तं जहा-णेरइयदुग्गई,तिरिसो दुगुंछितो असणवत्थादी अप्पसारियं अण्णत्थ सुण्णघरादिसु क्खजोणियदुग्गई, मणुस्सदुग्गई (देवदुग्गई)। टवाविञ्जति, तं वि पच्छा गेण्हति, अहवा रओहरणादि उवकरणं अण्णय मनुष्यदुर्गतिर्दुःखितमनुष्यापेक्षया, देवदुर्गतिः किल्विषिकाऽऽद्यपेक्षया टवेत्तु सरक्खादि परलिंग काउं जहा अहसादिदोसा " भवंति, तहा इति / स्था०४ ठा० १उ०। आतु। पविसिउं गेण्हति / अहवा मज्झण्हादिविअणकाले दिग्गावलोयण काउं पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुग्गइंगच्छंति / तं जहा-पाणाइवाएणं० अण्णेण अदिस्संतो मेत्तयं पत्तं वा वासकप्पमादिणा सुटु आवरेत्ता जाव परिग्गहेणं / स्था०५ ठा०१उ० पविसति, गेण्हइ पच्छा दियं पि जहा अविरुद्धंतहा गेण्हति,वसहिं अन्नत्थ "तओ जिए सई होइ, दुविहं दोग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मग्गा, अलभंतो बाहिं सावयतेणभएसु वसहिं गेण्हिज्जइ,जहा ण णजति सज्झाय अद्धाए सुचिरादवि / / 18||" उत्त०७अ० ण करेति, रायदुहादिषु अतिगतो अप्पसागारिसज्झायज्झाणध दुग्गइगय त्रि०(दुर्गतिगत) दुर्गति प्राप्ते, स्था०४ टा०३उ० कहादी वि करेज / नि०चू०१३ उ०। दुग्गइगामि(ण) त्रि०(दुर्गतिगामिन्) दुर्गतिं नारकतिर्यग् रूपामयन्ति दुगुण त्रि०(द्विगुण) द्विरावृत्ते, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०। आचा० स० प्राणिनमिति दुर्गतिगामिन्यः। दुर्गतिगमनहेतौ, तिस्रो लेश्याः दुर्गतिगम"दुगुण करेइ सपावं।" सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०। नहेतवः / स्था०३ ठा०४उ०। दुगतो दरिद्रः सन् दुर्गतिं गमिष्यतीति दुगुल्ल न०(दुकूल) गौडविषये विशिष्ट कासिके वस्त्रे, आचा०२ श्रु०१ दुर्गतिगामी। दुर्गतिगमनशीले च। पुं०। स्था०४ ठा०३उ०। चू०५ अ०१उ०। जी०। दुकूलो वृक्षविशेषस्तस्य वल्कलं गृहीत्वोदूषले दुग्गइपहदायग पुं०(दुर्गतिपथदायक) तिर्यगनारककुमानुषकुदेवरूपजलेन सह कुट्टयित्वा बुसीकृत्य च सूत्रीकृत्य वयते यत्तद्दुकूलम्। ज०२ दुर्गतिमार्गप्रापके, ग०२ अधि०। वक्ष०ा प्रश्न०। दुकूलाभिधानवृक्षत्वग्-निष्पन्ने वरवजातविशेष, भ०११ दुग्गइप्पवाअ त्रि०(दुर्गतिप्रपात) दुर्गतौ नरकाऽऽदिकायां कर्तार श०११ उ०। जी०। ज्ञा०। सू०प्र०। आ०म० दशा०। नि०चू०। प्रपातयतीति दुर्गतिप्रपातः। दुर्गती वा प्रपातो यस्मात् स तथा। दुर्गति"दुगुल्लपट्टपडिच्छण्णे।'' दुकूल वस्त्रतस्य यः पट्टो युगलापेक्षया एकपङ्गः, पतनहेतो. प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तेन आच्छादितः। कल्प०२ क्षण / राणा दुग्गइफल त्रि०(दुर्गतिफल) दुर्गतिः फल यस्य स दुर्गतिफलः / सूत्र०१ दुगूल न०(दुक्ल) 'दुगुल्ल' शब्दार्थे आचा०२ श्रु०१ चू०५ अ०१उ०। श्रु०११ अ०। कुदेवत्वाऽऽदिप्रयोजने, पञ्चा०४ विव०। दुगोय न०(द्विगोत्र) गोत्रधदनीयकर्माद्विके, कर्म01 'गोयवेयणियं।" दुग्गइफलवाइ(ण) पुं०(दुर्गतिफलवादिन्) दुर्गतिः फलं यस्य स इतिवचनाद्गोत्रदेदनीयस्वरूप तत्र गोत्रमुच्चैर्गोत्रनीचर्गोत्रभेदाद् द्विधा / | दुर्गतिफलः, तद्वदनशीला दुर्गतिफलवादिनः / दुर्गतिफलमार्गोपदेष्टरि सातासातभेदावेदनीयमपि द्विधा, इत्येताश्चतस्रः प्रकृतयो गोत्रद्विक- मिथ्यादृष्टी, सूत्र०१ श्रु०११अ०॥ शब्देन गृहान्ते। कर्म०५ कर्म०। | दुग्गइववण न०(दुर्गतिवर्द्धन) संसारवर्द्धने, दश०६ अ०॥
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________________ दुग्गउ 2555 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुजाय दुग्गउ पुं०(दुर्गो) गलिबलीवर्दे, दश०६अ०२उ०। दुघण पुं०(दुघण) द्रुहन्ति अनेन / हुन करणे अप, ह्रस्वः कुत्वं च / दुग्गंध पुं०(दुर्गन्ध) दुष्टो गन्धो दुरभिगन्धो यस्यासौ दुर्गन्धः। / मुद्गरे, परश्वधे भूमिकम्पे च / वाच०। अनु०। सूत्र०। चट्टकरे च / प्रश्न०३ दुरभिगन्धयुक्ते, दर्श०३ तत्त्व / दुरभिगन्धे, स्था०३ ठा०६ उन भ०। आश्र० द्वार। आचा० दुचक्कमूल न०(द्विचक्रमूल) गन्त्रीसमीपे, औ०। दुग्गग्गहण न०(दुर्गग्रहण) पर्वतवनाऽऽदिदुर्गाऽऽश्रयणे, पञ्चा० 3 विव० दुच्चय त्रि०(दुस्त्यज) दुःखेन त्यक्तुं योग्ये, भ०७श०१उ०। दुग्गद्दि पुं०(दुर्गाद्रि) विषमपर्वत, अष्ट० 23 अष्ट०। दुच्चर त्रि०(दुश्वर) दुःखेन चर्यतेऽस्मिन्निति दुश्चरः। दुःखेन चय॑न्त इति दुग्गम त्रि०(दुर्गम) दुःखेन गम्यते इति दुर्गमः / कृच्छ्रगतिके, प्रश्र०१ आश्र० दुश्वराणि / ग्रामाऽऽदिषु, आचा०१ श्रु०६ अ० ३उ० द्वार / गन्तुमशक्ये, अष्ट०२२ अष्ट०। दुस्तरे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२उ०। दुचरलाढचारि(ण) पुं०(दुश्वरलाढचारिण) दुश्चरश्वासौ लाढस्तचीर्णवान् कृच्छ्रवृतौ, स्था०५ ठा०१ उ०। दुःखेन गम्यत इति दुर्गमम् / विहृतवान् सः / दुःश्वरे देशे ग्रामे च विहारं कृतवति, आचा०१ श्रु०१ भावसाधनोऽयम, कृच्छ्रवृत्तिरित्यर्थः। तद्भवति विनेयानामृजुजड़त्वेन, अ०३उन ऋजड़ा वेन च। स्था०५ ठा०१उ०। दुचिण्ण न०(दुश्चीर्ण) मृषावादनपारदाऱ्याऽऽदौ दुश्चरिते, तद्धेतुके कमाण दुग्गय त्रि०(दुर्गत) दुर्गतिरषामस्तीत्यचि प्रत्यये दुर्गतः। दुस्थे, स्था०४ | च। ज्ञा०१ श्रु०१६अ० विपा०। स्था०ा औ०। बृ०॥ टा०१उ०। प्रश्र०। दरिद्रे, धनविहीने, ज्ञानविहीने च पुरुष, दुचेट्ठिय न०(दुश्चेष्टित) दुष्ट प्रतिषिद्ध धावनवल्गनाऽऽदिकार्यक्रियारूपं स्था०६ठा०३उ०॥ चेष्टित यत्र तत्तथा / प्रतिषिद्धे धावनवलानाऽऽदौ कायक्रियारूपे चेष्टिते, तओ दुग्गया पण्णत्ता / तं जहा--णेरइयदुग्गया, तिरिक्ख-- तदुदव च। ध०२ अधिo जोणियदुग्गया, मणुस्सदुग्गया / स्था०३ठा०३उ०। दुचंडिअ (देशी) दुर्ललिते, दुर्विदग्धे च / देना०५ वर्ग 55 गाथा। "दुग्गयरयणाऽऽयररयणग्गहणतुल्ल (40) / " दुर्गतस्य दरिद्रस्य | दुचंबाल (देशी) कलहनिरते, दुश्चरिते, परुषवचने च / दे॰ना० 4 वर्ग रत्नाकरे विचित्रमाणिक्योत्पादस्थान प्राप्तस्य यद्रत्नग्रहणं माणि-- 54 गाथा। यो पादन तेन यत्तुल्यं सदृशमभिलाषोपरमाभावसाधम्यत्तिद् दुचिंतिय न०(दुश्चिन्तित) दुष्टमार्तरौद्रध्यानतया चिन्तितं यत्र सतथा। दुर्गतरत्नाऽऽकररत्नग्रहणतुल्यम्। पञ्चा०१२विव०॥ आर्तरोद्रध्यानतया चिन्तिते, तदुद्भवेच। ध०२ अधिका जीता आ०यू०। दुग्गयणारी स्त्री० (दुर्गतनारी) दारिद्र्योपहतयोषायाम, पञ्चा०६ विवा / दुछक्क त्रि०(द्विषट्क) द्वादशभेदे, ध०२ अधि०। दुग्गयभव पुं०(दुर्गतभव) दरिद्रकुलोत्पत्तौ, वृ०६ उ०। दुजडि (ण) पुं०(द्विजटिन्) चतुरशीतितमे महाग्रहे, ''दो दुजडी।'' दुग्गयसुय पुं०(दुर्गतसुत) दरिद्रपुत्रे, पं०व०३ द्वार। स्था०२ ठा०३उ०। चं०प्र०। सू०प्र०। दुग्गसामि पुं०(दुर्गस्वामिन्) सिद्धर्षिगुरुभातुर्दैलामहत्तरस्य शिष्ये, दुजुगल न०(द्वियुगल) द्वयोर्युगलयोः समाहारो द्वियुगलम् / हास्यसिद्धर्षिकृतस्य उपमितभवप्रपञ्चस्य प्रथमादर्श एतत्साध्यीभिलिखितः / | रत्यरतिशोकलक्षणे नामकर्मोत्तरप्रकृतिद्वन्द्वे, कर्म०५ कर्म०। ज००। दुजण पुं०(दुर्जन) मिथ्यादृष्टिलोके,बृ०१ उ०३ प्रकला आ०चू०। 'शकटं दुग्गह पुं०(दुर्ग्रह) दुर्गृहीतत्वे, द्वा०१२ द्वा०। पञ्चहरतेन, दशहस्तेन शृङ्गिणम्। हस्तिनं शतहस्तेन, देशत्यागेन दुर्जनम् दुग्गा स्त्री०(दुर्गा) महिषाऽऽरूढायामाायाम, ग०२ अधि। // 1 // " परिहरेदित्यर्थः / वाचा आचा०ा अनु दुञ्जणवज्ज त्रि०(दुर्जनवर्ज) दुःशीलरहिते, बृ०१ उ० 3 प्रक०। दुग्गावी रत्री०(दुर्गादेवी) "दुर्गादेव्युदुम्बरपादपतनपादपीठे- दुजंत पुं०(दुर्यन्त) स्वनामख्याते आचार्ये, कल्प० / 'कोसिय दुर्जत ऽन्तर्दः" / / 8 / 1 / 270 / / इति सस्वरस्य मध्ये वर्तमानस्य दकारस्य वा कण्हे य।" कल्प०२ अधि०८क्षण। लुक् / 'दुग्गावी / ' महिषाऽऽरूढायामा-याम्, प्रा०१ पाद / दुञ्जय त्रि०(दुर्जय) अभिभावनानहें, आ०म०११०२ खण्ड / षट्दुग्गूढ त्रि०(दुर्गुढ) दुग्र्गोपिति, नि०चू०१उ०। प्रच्छन्नप्रदेशाऽऽ- पञ्चाशत्तमे ऋषभनन्दने च / कल्प०७ क्षण / दुःखेन जीयतेऽभिभूयते दिभाविनि च / व्य०७उ०। इति दुर्जयः। दुस्त्यजे, उत्त० १३अ०। दुग्घड घडिय त्रि०(दुर्घटघटित) दुराच्छादनया स्पृष्टे, प्रश्न०३ | दुजर (दुर्जर) दुःखेन जीर्यते अच् / 'ग्राहिणी वातला रूक्षा दुर्जरा आश्र० द्वार। तक्रकूर्चिका।'' वाचला स्था०४ ठा०४उ०। दुग्घासपुं०(दुर्गास) दुर्भिक्षे, बृ०३३०। दुजाय न०(दुर्यात) दुष्ट यात दुर्य्यातम् / गमनक्रियागर्हाणाम्, आचा०१ दुग्घुट्ट (देशी) हस्तिनि,देवना०५ वर्ग 44 गाथा। श्रु०५ अ०३०। व्यसने, देना०५ वर्ग 44 गाथा।
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________________ दुजोहण 2556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुणाम दुञ्जोहण पुं०(दुर्योधन) स्वनामख्यातेधृतराष्ट्रपुत्रे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० आ०म०। सिंहपुरनगरराजस्य सिंहरथाभिधानस्य स्वनामख्याते गुप्तिपाले, स्था०१० ठा०। विपा०। दुज्झा स्त्री०(दोह्या) दोहास्याम्, दश०७अ०॥ दुज्झाण न०(दुर्व्यान) आर्त्तरौद्ररूपे ध्याने, ध०२अधि०। दुज्झाय त्रि०(दुति) दुष्टो ध्यातो दुतिः। एकाग्रचित्ततया आतरीद्र लक्षणे,ध०२ अधि० आव०ा दुष्टचिन्ताविषयीकृते , ज्ञा०१ शु०१६ अ० दुज्झोस पुं०(दुज्झौष) दुःक्षये, आचा०१ श्रु०५अ०३उ०। दुट्ट त्रि०(दुष्ट) दोषवति, प्रतिका वृ०। (स च विषयकषायभेदाद् द्विधेति 'पारंचिय' शब्दे व्याख्यास्यते) प्रद्विष्टे च राजनि, नि००१ 301 सूत्रका दुर्मनसि, सूत्र०२ श्रु०२अग *द्विष्ट त्रि० / तत्त्वं प्रज्ञापकं वा प्रतिद्वेषवति, स्था०३ ठा०४ उ०। द्विष्टो द्वेषवान् अत्युत्कटद्वेषाद्यत्र द्विष्टस्तं प्राणग्राह विना न मुशति। दर्श०२ तत्त्व। दुट्ठग्गाह पुं०(दुष्टग्राह) निर्दयमहामकराऽऽदिपु. त०। दुट्टचेय पुं०(दुष्टचेतस्) कलुषान्तःकरणे, आचा०२ श्रु०४ चू०१ अ०२301 दुट्ठकम्मणिट्ठावग पुं०(दुष्टाष्टकर्मनिष्ठापक) दुष्टानामष्टानां कर्मणां निष्ठापके विनाशक केवलजिने, पं०सं०१ द्वार। दुट्ठवाइ(ण) पुं०( दुष्टवादिन्) प्रत्यक्षग्राहिणि, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। दुवस्स पु०(दुष्टाश्च) कुलक्षणघोटके, तागर्दभे च / वृ०१ 702 प्रक०! दुट्ठस्सहत्थिमाइ पुं०(दृष्टाश्वहस्त्यादि) मारकतुरगकरिवरप्रभृता, पञ्चा०१८ विव० दुट्ठसावयसमाहय त्रि०(दुष्टश्वापदरामाहत) दुष्टाः क्षुद्राः श्वापदा व्याघ्राऽऽदयस्तैः समाहतेष्वभिभूतेषु, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दुट्ठहियय त्रि०(दुष्टहृदय) दुष्टचित्ते, तं०। दुट्ठाण न०(दुःस्थान) शीताऽऽतपदंशमशकाऽऽदियुक्तेषु कायोत्सर्गाऽऽ सनाऽऽद्याश्रयेषु, भ०१६ श०२ उ०। दुट्ठाणय न० (द्विस्थानक) स्वनामख्याते स्थानागस्य द्वितीयेऽध्ययने, स्था०टा०१उ० दुट्ठासण न०(दुष्टासन) पादोपरि पादस्थापनाऽऽदिकेऽनौचित्यो पवेशने, प्रव० 38 द्वार। ध०। दुणाम न०(द्विनामन्) द्विविधं द्विप्रकारकं च तद नाम द्विनाभा नामभेदे, अनुज से किं तंदुनामे ? दुनामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगक्खरिए अ, अणेगक्खरिए आसे किं तं एगक्खरिए ? एगखरिए हीः, श्रीः, धीः, स्त्री। सेतं एगक्खरिए। से किं तं अणेगक्खरिए ? अणेगक्खरिएकन्ना, वीणा, लता, माला / सेतं अणेगक्खरिए।। (से किं तंदुनामे इत्यादि) यत एवंद द्विनामात एव द्विविधं द्विप्रकारम् / तद्यथा-एकं च तदक्षरं च तेन निर्वर्त्यमेकाक्षरिकम, अनेकाति च तान्यक्षराणि च तैर्निवृतमनेकाक्षरिकम् / चकारौ समुच्चयाौँ / तत्रैकाक्षरिके हीर्लक्षा, देवनाविशेषो था। श्रीदेवताविशेषः। धीर्बुद्धिः / स्त्री योषिदिति। अनेकाक्षरिका कन्येत्यादि। उपलक्षणं चेदंबलाकापताकाऽऽदीनामाद्यक्षरनिष्पन्ननाम्नामिति। तदेवं यदस्ति वस्तु तत्सर्वमेकाक्षरेण वा नाम्नाऽभिधीयतेऽनेकाक्षरेण वाऽतोऽनेन नामद्वयेन विवक्षितस्य सर्वस्यापि वस्तुजातस्याभिधानाद् द्विनामोच्यते, द्विरूपं तत्सर्वस्य नाम द्विनाम, द्वयोर्वा नाम्नोः समाहारो द्विनामेति। एतदेव प्रकारान्तरेणाऽऽहअहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-जीवणामे अ, अजीवणामे अ। से किं तं जीवणामे ? जीवणामे-देवदत्तो, जण्णदत्तो, विण्हुदत्तो, सोमदत्तो / सेतं जीवणामे ! से किं तं अजीवणामे-घडो, पडो, कडो, रहो। सेतं अजीवणामे / / (अहवा दुनामे इत्यादि) जीवस्य नाम जीवानाम, अजीवस्य नाम अजीवनाम / अत्रापि यदस्ति, तेन जीवनाम्ना, अजीवनाम्ना वा भवितव्यमिति। जीवाजीवनामभ्यां विवक्षितसर्ववस्तुसंग्रहो भावनीयः। शेष सुगमम्। पुनरेतदेवान्यथा प्राऽऽहअहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-विसे सिए, अविसे सिए य / अविसे सिए जीवदवे, अजीवदवे य / विसेसिए णेरइए तिरिक्खजोणिए भणुस्से दुवे, अविसे सिए णेरइए, विसे सिए रयणप्पभाए सक्करप्पभाए बालुअप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाएतमाएतमतमाए, अविसेसिए रयणप्पभाए पुढविणेरइए, विसेसिए पज्जत्तए अ अपज्जत्तए अ, अविसेसिए तिरिक्खजोणिए, विसेसिए एगिदिए बेइंदिए तेइंदिए चउरिदिए पंचिंदिए, अविसे सिए पुढविकाइए आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्सइकाइए, विसेसिए, विसेसिए पुढविकाइए, अविसे सिए एगिदिए, विसेसिए पुढविकाइए सुहुमकाइए अ बादरपुढविकाइए अ, अविसेसिए सुहूमपुढविकाइए, विसेसिए पज्जत्तयसुहुमपुढविकाइए अ, अविसेसिए अ बादरपुढविकाइए, विसेसिए पज्जत्तयबादरपुढविकाइए अ अपजत्तयबादरपुढविकाइए। एवं आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्सइकाइए अ विसेसिअभेदेहिं भाणिअव्वा / अविसेसिए बेइंदिए, विसेसिए पजत्तयवेइंदिए अ अपज्जत्तयवेइंदिय य। एवं तेइंदिअचउरिदिआ विभाणिअव्वा / अविसेसिए पंचिंदिअतिरिक्खजोणिए, विसेसिए जलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए थलयरपंचिंदिअति-रिक्खजोणिए खयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ,अविसेसिए जलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए, विसेसिए समुच्छिमजलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अगभवक्कं ति अजलयर-पंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए संमच्छिमजलयरपंचिंदिअतिरिक्जोणिए, विसे सिए अपज्जत्तयसंमुच्छिमजलय, पंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ अपज्जत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदिअ
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________________ दुणाम 2557 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुणावेढ तिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए गब्भवकं तिअजलयरपंचिं- तारारूवे, एतेसिं पि अविसेसियविसेसियअपज्जत्तयपज्जत्तयभेआ दिअतिरिक्खजोणिए, विसे सिए पज्जत्तयगम्भवक्वं तिअजल- भाणिअव्वा / अविसेसिए वेमाणिए, विसे सिए कप्पोवग्गो अ यरपंचिंदियअतिरिक्खजोणिए अ अपज्जत्तयगब्भवक्कं तिय- कप्पातीतगे अ, अविसेसिए कप्पोवग्गो, विसेसिए सोहम्मए जलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए थलयरपं- ईसाणए सणं कुमारए माहिंदए बंभलोअए लंतयए सुक्कए चिंदिअतिरिक्खजोणिए, विसेसिए चउप्पयथलयरपंचिंदिअ- सहस्सारए आणयए पाणयए आरणयए अचुयए, एते सिं तिरिकखजोणिए अ परिसप्पथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अविसे सियविसेसिअअपञ्जत्तगपज्जत्तगभेदा भाणिअट्वा / अ, अविसे सिए चउप्पयथलयर०, विसे सिए समुच्छिम-- अविसेसिए कप्पातीतए, विसेसिए गेवेञ्जए अ अणुत्तरोववाइए चउप्पयथलयरपंचिंदियअतिरिक्खजोणिए अ गम्भवकं तिअ- अ, अविसेसिए गेवेज्जए, विसे सिए हे हिमहेट्ठिमगे विजए चउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसे सिए हेहिममज्झिमगेविजए हिट्ठिमउवरिमगेविजए अ, अविसेसिए संमुच्छिमचउप्पथलयर०,विसेसिए पज्जत्तयसंमुच्छिमधउप्प-- मज्झिमगेविजए, विसेसिए हेट्ठिममज्झिमगेवेजए मज्झिममयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ अपज्जत्तयसंमुच्छिम -- | ज्झिमगे वेञ्जए मज्झिमउवरिमगेवेञ्जए अ, अविसे सिए चउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसे सिए उपरिमगेवेज्जए,विसेसिए उवरिमहेट्ठिमगेवेन्जए उपरिममज्झिमगब्भवक्कतिअचउप्पयथलयरपंचिंदिअ०, विसेसिए पज्जत्तय- गे वेजए उवरिमउवरिमगे वेजए अ, एते सिं पि सवे सिं गब्भव तिअचउप्पयथलयरपंचिदिअतिरिक्खजोणिए अ अविसे सिअविसे सिअपज्जत्तगाऽपज्जत्तगभेदा भाणिअव्वा / अपञ्जत्तयगम्भवक्कं तिअचउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्ख- अविसेसिए अणुत्तरोववाइए, विसेसिए विजयए वेजयंतए जयंतए जोणिए अ, अविसे सिए परिसप्पथलयर०, विसेसिए उरपरि-- अपराजिअए सव्वट्ठसिद्धए अ, एतेसिं पि सव्वेसिं अविसेसिसप्पथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ भुअपरिसप्पथल- / अविसेसिअपज्जत्तगाऽपज्जत्तगभेदा भाणिअव्वा / अविसे सिए यरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, एते वि संमुच्छिमा पज्जत्तगा अजीवदव्वे, विसेसिए धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासअपज्जत्तगा य, गब्भवकं तिआ वि पज्जत्तगा अपजत्तगा य / त्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए अ, अविसे सिए भाणिअव्वा / अविसेसिए खहयरपंचिंदिय०विसेसिए समुच्छि- पोग्गलत्थिकाए, विसेसिए परमाणुपोग्गले दुपएसिए तिपएसिएक मखहयरपंचिंदिअतिरिक्खभोणिए अ गब्भवक्कं तिअखहयर- जाव अणंतपएसिए अ। सेतं दुनामे / / पंचिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसे सिए संमुच्छिमखहयरपं-- (अहवा दुनामे इत्यादि) द्रव्यमित्यविशेषनाम, जीवे अजीवे च सर्वत्र चिदिअ०विसे सिए पज्जत्तयसंमुच्छिमखहयरपंचिंदिअतिरि- रागावात / जीवद्रव्यगजीवद्रव्यमिति च विशेषनाम, एकरय जीव क्खजोणिए अ अपजत्तयसंमुच्छिमखहयरपंचिंदिअतिरिक्ख- एवान्यस्य त्वजीव एव सद्भावादिति। ततः पुनरुत्तरापेक्षायां जीवद्रव्य - जोणिए अ, अविसेसिए गब्भवतिअखहयरपंचिंदिय० विसेसिए मित्याद्यविशेषनाम्, नारकस्तिर्यगित्यादि तु विशेषनाम, पुनरप्युत्तरापज्जत्तयगढभवकं तिअखहयरपंचिं दियतिरिक्खजोणिए अ, पेक्षया नारकाऽऽदिकमविशेषनाम, रत्नप्रभायां भवो रत्नप्रभ इत्यादि अविसेसिए मणुस्से, विसेसिए समुच्छिममणुस्से अगम्भवक्कंति- तु विशेषनाम, एवं पूर्वमविशेषनाम, उत्तरोत्तरं तु विशेषनाम सर्वत्र अमणुस्से अ, अविसेसिए समुच्छिममणुस्से, विसेसिए पज्जत्तग- भावनीयम, शेषं सुगम, नवरं समूर्च्छन्ति तथा-विधकम्मोदयाद् संमुच्छिममणुस्से अअपज्जत्तगसमुच्छिममणुस्से अ, अविसेसिए गर्भमन्तरेणैवोल्पद्यन्त इति समूच्छिमाः, गर्भे व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तियेषां ते गब्भवतिअमणुस्से, विसेसिए पजत्तयगब्भवतिअमणुस्से अ गर्भव्युत्क्रान्तिकाः,उरसा भुजाभ्यां च परिसर्पन्ति गच्छन्तीति अपनत्तगगम्भवक्कं तिअमणुस्से अ, अविसेसिए देवे,विसेसिए विषधरगोधानकुलाऽऽदयः सामान्येन परिसर्पाः, विशेषतस्तूरसा भवणवासी वाणमंतरे जोइसिए वेमाणिए अ, अविसेसिए / परिसर्पन्तीत्युरःपरिसर्पाः सर्पाऽऽदय एव, भुजाभ्या परिसर्पन्तीति भवणवासी, विसेसिए असुरकुमारे नागकुमारे सुवण्णकुमारे भुजपरिसपां गोधानकुलाऽऽदय एव, शेष सुखोन्नेयम् / तदेवमुक्ताः अग्गिकुनारे दीवकुमारे उदधिकुमारे दिसाकुमारे वाउकुमारे सामान्य विशेषनामभ्या जीवद्रव्यस्य सम्भविनों भेदाः / साम्प्रतं थणियकुमारे, सव्वेसि पि अविसे सिअविसेसिअअपज्जत्तग- / प्रागुद्धिष्टमजीवद्रव्यमपि भेदतस्तथैवोदाहर्तुमाह-(अविसेसिए अजीवपज्जत्तगभेदा भाणिअव्वा / अविसेसिए वाणमंतरे, विसेसिए पिसाए दव्वे) इत्यादि गतार्थ , तदेवं यदस्ति वस्तु तत्सर्व सामान्यनाम्ना भूते जक्खे रक्खसे किण्णरे किंपुरिसे महोरगे गंधव्वे, एतेसिं विशेषनाम्ना वा अभिधीयतेऽन्यत्रापि द्विनामत्वं भावनीयम् / "सेतं पि अविसे सियविसे सियपज्जत्तगअपज्जत्तगभेदा भाणिअव्वा / / दुनामे' इति निगमनम। अनु०। अविसे सिए जोइसिए, विसे सिए चंदे सूरे गहगणनक्खत्ते / दुणावेढ (देशी) अशक्ये, तडागे च। दे०ना० 5 वर्ग 66 गाथा।
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________________ दुण्णय 2558 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुद्धकाय दुण्णय त्रि०(दुर्नय) स्वार्थग्राहिणि इतरांशप्रतिक्षेपिणि द्रव्या०५ अध्या०। / दुण्णेय त्रि०(दुर्जेय) दुरवगमे, आव०४ अ० आ०म०।दुर्लक्ष्ये, दश०४ अ०| नयाऽऽभासे, आ०म०ायस्तुनयान्तरनिरपेक्षः स दुर्नयो नयाभास इति। दुत त्रि०(द्रुत) शीघ्र, पञ्चा०७ विव०॥ त्वरित, स्था०७ ठा०। आशुतथा चाऽऽहाकलङ्क: इत्यर्थे, षो०६ विव० "भेदाभेदाऽऽत्मके ज्ञेये, भेदाभेदाभिसन्धयः। दुत्तर त्रि०(दुस्तर) दुर्लध्ये, सूत्र०१ श्रु०३ अ०। उत्ता ये त्वपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते,ज्ञेयास्ते नयदुर्नयाः॥१॥" दुत्ति (देशी) शीघ्र, दे०ना०५ वर्ग 41 गाथा। अस्याः कारिकाया लेशतो व्याख्या-भेदो विशेषोऽभेदस्तु सामान्य दुत्तितिक्ख त्रि०(दुस्तितिक्ष) परीषहाऽऽदौ दुःसहे, "पुरिमपच्छिमगाणं तदात्मके, सामान्यविशेषाऽऽत्मके इत्यर्थः / ज्ञेये प्रमाणपरिज्ञेयव जिणाणं दुग्गम भवइ / त जहा-दुआइक्खं दुटिवभज दुत्तितिक्ख स्तुनि, ये भेदाभेदाभिसन्धयः सामान्यविशेषयोः पुरुषाऽभिप्राया दुरणुचरं।" स्था०५ठा०१उ०। ('तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2262 अपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते ते यथासङ् ख्यं नयदुर्नया ज्ञातव्याः। किमुक्तं पृष्ठ व्याख्या) भवति?-विशेषसाकास: सामान्यग्राहकाऽभिप्रायो, विशेषपरिग्राहको दुत्तोस त्रि०(दुस्तोष) यस्य तुष्टिः कर्तुं न शक्यते तस्मिन्, दश०५ अ01 वा सामान्यसापेक्षो नयः, इतरेतराकासारहितस्तु दुर्नयः / / आ०म०१ दुत्थ त्रि०(दुस्थ) दुर्गत, स्था०३ उ०। जघने,देवना०५ वर्ग 42 गाथा। अ०२ खण्ड / इतरप्रतिक्षेपी तु नयो नयाऽऽभासो, दुर्नयो वेत्युच्यते। मलयगिरिचरणास्तुनयोदुर्नयः, सुनयश्चेति दिगम्बरव्यवस्था, न दुत्थाह (देशी) दुर्भगे, दे०ना० 5 वर्ग 43 गाथा। त्वरमाक, नयदुर्नययोरर्थाविशेषात्। नयो०। परामर्शा अभिप्रेतधर्माव दुत्थुरुहंड (देशी) पुरुष, कलहशीलायां स्त्रियां च / दे०ना०५ वर्ग धारणाऽऽत्मकतया शंघधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्नयसंज्ञामश्नुवते। 47 गाथा। स्या०ा एते मिथः परस्परं पृथग् भिन्न भिन्न पक्षप्रतिपक्षकदर्थिता दुदंसण न०(द्विदर्शन) द्वयोर्दर्शनयोः समाहारो द्विदर्शनम्। चक्षु-दर्शनावादप्रतिवादकद-र्थनाविडम्बिता नयाः दुर्नया इत्यर्थः। अष्ट०३२ अष्ट / चक्षुर्दर्शनद्वये, कर्म०४ कर्म "स्वकृतपरिणताना दुर्नयानां विपाकः, दुदंत त्रि०(दुर्दान्त) दमयितुमशक्ये, उत्त०२७अ०। चक्षुषि, उत्त० 32 पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निगुणस्य। अाआ०म० स्वयमनुभवतोऽसौ दक्षमोक्षाय सद्यो, दुद्दम त्रि०(दुर्दम) दुर्जये,उत्त०१अ० स्वनामख्यातेऽश्वग्रीवराजदूते, भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते॥१॥ आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। आ०का सर्वे सावधारणाः सन्तो दुर्नयाः, अवधारणविरहितास्ते सुनयाः, सर्वश्च | दुहम्म (देशी) देवरे, दे०ना० 5 वर्ग 44 गाथा। सुनयः स्याद्वादः / अनु० दुद्दसा स्त्री०(दुर्दशा) दीनावस्थायाम, अष्ट०७ अष्टा बृ०। दुण्णाम पुं०(दुर्नाम) मदाद दुष्ट नमनं दुर्नाम इति। मानकषायभेदे, भ०१२ दुट्टि त्रि०(दुर्दष्ट) दुष्ट दृष्ट, आचा०१ श्रु०४ अ०२उ०। श०५ उ०॥ दुद्दिण न०(दुर्दिन) मेघतिमिरदिने, पिं०। दुण्णामधिज्ज त्रि०(दुर्नामधेय) पुराणः पतित इति कुत्सितनामधेये, दुद्दोली (देशी) वृक्षपड्क्तो , देना०५ वर्ग 43 गाथा। दश०१चू०। दुद्ध न०(दुग्ध) "क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स कपामूज़ दुपिणक (देशी) चूर्णिते, दे०ना०५ वर्ग 45 गाथा। लुक"॥२२७७।। इति संयुक्तवर्णाऽऽदिभूतस्य गकारस्य लुक्। प्रा०२ दुण्णिकम त्रि०(दुर्निष्क्रम) दुःखेन नितरां क्रमः क्रमणं यत्र तस्मिन्, पाद। "अनादौ शेषाऽऽदेशयोर्दित्वम्" ||886 // इत्यनादी भ०७ श०६उन वर्तमानस्य शेषस्य धकारस्य द्वित्वम्। 'दुद्धं / प्रा०२ पादाक्षीरे, दुग्ध दुण्णिक्खित्त (देशी) दुश्चरिते. दुर्दशैं , देना०५ वर्ग 45 गाथा। पञ्च भेदं गोमहिषीकरभीछगलिकागड्डरिकासंबन्धित्वेन / प्रव०४ द्वार। दुण्णिद्द न०(द्विनिद्र) द्वयोर्निद्रयोः समाहारो द्विनिद्रम् / निद्राप्रच- उत्त० आ०म० "पांसरू'' इति नाम्ना प्रसिद्धस्य दुग्धस्य भक्षणे कोऽपि लालक्षणे निद्राद्विके, कर्म०५ कर्म। दोषो, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्- लोकोक्त्या दोषः श्रूयते, नत्वात्मीयदुण्णिय न०(दुर्नीत) दुष्टं नीतं दुर्नीतम् / दुष्कृते , सूत्र०१ श्रु 7 अ०। शास्त्रानुसारेणेति। 80 प्र०ा सेन०२ उल्ला०। अथ पं० नगर्षिगणिकृतअप्रावृते, नि०यू० १उ०। प्रश्नस्तदुत्तरं च। यथा-उत्कालितदुग्धमध्ये प्रक्षिप्तगोधूमाऽऽदिचूर्णचिदुण्णियत्थ (देशी) जघनवस्त्रे, जघने च। दे०ना० 5 वर्ग 53 गाथा। प्पटिकया तद् दुग्धं निर्विकृतकं स्यान्न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-गोधूमाऽऽदिदुण्णिरिक्खरूप त्रि०(दुर्निरीक्ष्यरूप) दुःप्रेक्ष्ये, कल्प०३ क्षण। चूर्णे प्रक्षिप्ते सति यद् दुग्धमेकरसं वर्णान्तराऽऽदिप्राप्तं च भवति दुण्णिविट्ठ त्रि०(दुर्निविष्ट) विह्वले निर्भरे, नि०चू०११ उ०॥ तन्निर्विकृतिक भवतीति। 108 प्र०। सेन०२ उल्लाका दुण्णिवोह त्रि०(दुर्निबोध) दुष्प्रापके, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०॥ दुद्धअ (देशी) समूहे, दे०ना०५ वर्ग 42 गाथा। दुण्णिसीहिया स्त्री०(दुनिषद्या) दुःखहेतुस्वाध्यायभूमौ, भ० 16 दुद्धकाय पुं०(दुग्धकाय) दुग्धघटकाये, परिहरणायां दुग्धघटकाय दृष्टान्त श०२ उ० उक्तः। आव०३ अन आ०का
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________________ दुद्धगंधियमुह 2556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुपडोआर दुद्धगंधियमुह (देशी) बाले, दे०ना० 5 वक्ष 40 गाथा। दुद्धजाइ स्त्री०(दुग्पजाति) आस्वादतः क्षीरसदृश्यां मदिरायाम्, जी०३ प्रति०४ उ० दुद्धडी स्त्री०(दुग्धाटी) आम्विलेन युक्ते दुग्धे जातायां किलाटिकायाम, वलाहिकायामित्यन्ये / प्रव०४ द्वार / ध०| दुद्धर त्रि०(दुर्द्धर) दुःखेन धर्तुं शक्यं दुर्धरम् / दश०४ अ०। गहने, स्था०६ ठा०। दुर्वहे, स०। धारयितुमशक्ये, व्य०३ उ०। अनुदरणीय, प्रज्ञा०१ पद। दुद्धरधर त्रि०(दुर्द्धरधर) दुर्धराणि प्राणतिपाताऽऽदिनिवृत्तिलक्ष–णानि पञ्च महाव्रतानि धारयतीति दुर्द्धरधरः / पञ्चमहावतिके, प्रज्ञा०१पाद / दुद्धरपहकरयेग त्रि०(दुर्द्धरपथकरवेग) दुर्द्धरं दुर्वहं पन्थान सम्यग-- दर्शनाऽऽदिकं मोक्षमार्ग करोतीति दुर्द्धरपथकरस्तथाविधी वेगः प्रसरो यस्येति तस्मिन् / बृ०१ उ०। दुद्धरिस पुं०(दुर्द्धष) चतुःपञ्चाशत्तमे ऋषभनन्दने, कल्प०११ अधि०७ क्षण / अनभिभवनीये, त्रि० नं। दुद्धवलेहिया स्त्री०(दुग्धावलेहिका) तन्दुलकचूर्णसिद्धे दुग्धे, प्रव०४ द्वार। ध०२अधि० दुद्धसाडिया स्त्री०(दुग्धशाटिका) द्राक्षामिश्रे राद्धे दुग्धे, दुग्धे शटति गच्छतीति व्युत्पत्तेः / प्रव०४ द्वार। दुद्धसाडी स्त्री०(दुग्धशाटी) द्राक्षासहिते पयसि, ध०२ अधिक। दुद्घाडी स्त्री० (दुग्धाटी) अम्लयुक्ते दुग्धे, ध०२ अधिक। दुद्धिणिआ (देशी) स्नेहस्थापनभाण्डे, तुम्ब्यां च। देना५ वर्ग 54 गाथा। दुद्धिणी (देशी) स्नेहस्थापनभाण्डे, तुम्ब्यां च। देवना०५ वर्ग 54 गाथा। दुद्धोलणी (देशी) या दुग्धाऽपि दुह्यते तस्याम्, देवना०५ वर्ग 46 गाथा। दुप पुं०(द्विप) द्वाभ्यां मुखेन, करेण चेत्यर्थः / पिबतीति द्विपः / 'मूलविभुजाऽऽदयः" / / 5 / 1 / 144|| इतिकप्रत्ययः। हस्तिनि, जी०३ प्रति०१ उ०। आ०म०। दुपएस त्रि०(द्विप्रदेश) द्वौ प्रदेशावारम्भकावस्येति द्विप्रदेशः / न्यणुके, उत्त०१०॥ *द्विप्रवेश त्रि० / द्वौ प्रवेशौ यस्मिस्तद् द्विप्रवेशम्। द्वौ वारी प्रवेश्ये, प्रथमो गुरुमनुज्ञाप्य प्रविशतः, द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति। प्रव०२ द्वार। दुपएसिय त्रि०(द्विप्रदेशिक) प्रदेशद्वयावस्थिते, भ०५ श०७उ०। दुपक्ख पुं०(दुष्पक्ष) दुष्टः पक्षो दुष्पक्षः। असत्प्रतिज्ञाऽभ्युपगमे, सूत्र०१ श्रु०३अ०३उ०। *द्विपक्ष न० / द्वौ पक्षौ समाहृतौ इति द्विपक्षम् / गृहस्थपक्षसंयतपक्षयोः समाहार, बृ०१उ०। सूत्र०। रागद्वेषाऽऽत्मके पक्षद्वये, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२०। 'इमं दुपक्ख इममेगपक्खं, आहंसु छलायतणं च कम्म (6)" | द्वौ पक्षावस्येति द्विपक्षम् / सप्रतिपक्षेऽनैकान्तिके पूर्वापरविरुद्धार्थाsभिधायितयाऽविरोधिवचने, (सूत्र०) कर्मबन्धनिर्जरणे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। द्विपक्ष कर्म सेवन्ते। तद्यथा-प्रव्रज्यामाधाकर्मिमकवसत्यासेवनाद् गृहस्थत्वं च, राग द्वेष च, ईपिथं साम्परायिकं चेत्यादि। आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०२०। दुपडोआर त्रि०(द्विपदावतार)द्वयोः स्थानयोः पर्यवसिते, स्था०। जदत्थिणं लोगे तं सव्वं दुपडोआरं। तं जहा-जीवचेव, अजीव बेव, तस चेय, थावर चेव, सजोणिय चेव, अजोणिय घेव, साउय चेव, अणाउय चेव, सइंदिय चेव, अणिंदियचेव, सवेयग घेव, अवेयग च्चेव, सरूवि चेव, अरूवि चेव, सपोग्गल घेव, अपोग्गल चेव, संसारसमावन्नग चेव, असंसारसमावन्नग चेव, सासय चेव, असासय चेव। आगासे चेव, नोआगासेचेव, धम्मे चेव, अधम्मे चेव, बंधे चेव, मोक्खे चेव, पुन्ने चेव, पावे चेव, आसवे चेव, संवरे चेव, वेयणा चेव, णिज्जरा चेव।। (जदत्थीत्यादि) सहिताऽऽदिः पूर्ववत्, यज्जीवाऽऽदिकं वस्तु अस्ति विद्यते, णमिति वाक्यालङ्कारे / क्वचित्पाठः-(जदत्थि च णं ति) तत्रानुस्वार आगमिकश्चशब्दः पुनरर्थः। एवं चास्य प्रयोगः-अस्त्यात्मादि वस्तु, पूर्वाध्ययनप्ररूपितत्वात् यच्चास्ति लोके पञ्चास्तिकायाऽऽत्मके लोक्यते प्रमीयते इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपे वा, तत्सर्व निरवशेषं द्वयोः पदयोः स्थानयोः पक्षयोर्विवक्षितवस्तुतद्विपर्ययलक्षणयोरवतारो यस्य तद् द्विपदावतारमिति।"दुपडोयार'' इति क्वचित्पठ्यते, तत्र द्वयोः प्रत्यवतारो यस्य तद् द्विप्रत्यवतारमिति स्वरूपवत, प्रतिपक्षवचेत्यर्थः। तद्यर्थत्युदाहरणोपन्यासे। (जीव चेव अजीव चेव त्ति) जीवाश्चैव अजीवाश्चैव / प्राकृतत्वात् संयुक्तपरत्वेन ह्रस्वः / चकारौ समुच्चयार्थो / एक्काराववधारणे। तेन च राश्यन्तरापोहमाह-नोजीवाऽऽख्यं राश्यन्तरमस्तीति चेत्, नैव, सर्वनिषेधकत्वे नोशब्दस्य नोजीवशब्देनाजीव एव प्रतीयते, देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश एव प्रतीयते, न च देशो देशिनोऽत्यन्तव्यतिरिक्त इति जीव एवा-साविति / 'चेय' इति वा एयकारार्थः / "चिय चेय एवार्थे ' इति वचनात्। ततश्च जीवा एवेति विवक्षितवरत्वजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्ष इति / एवं सर्वत्र / अथवा यदस्तीति यत् सन्मात्रं यदित्यर्थः। तत् द्विपदावतारं द्विविधं जीवाजीवभेदादिति / शेष तथैव / अथ त्रसेत्यादिनवसूत्र्या जीवतत्त्वस्यैव भेदान् सप्रतिपक्षानुपदर्शयति-तत्र त्रसनामकर्मोदयतस्त्रस्यन्तीति त्रसाः द्वीन्द्रियाऽऽदयः, स्थावरनामकर्मोदयात्तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावराः पृथिव्यादयः, सह योन्योत्पत्तिस्थानेन सयोनिकाः संसारिणः, तद्विपर्यासभूता अयोनिकाः सिद्धाः, सहाऽऽयुषा वर्तन्त इति सायुषः, तदन्येऽनायुषः सिद्धाः। एवंसेन्द्रियाः संसारिणः, अनिन्द्रियाः सिद्धाऽऽदयः, सवेदकाः स्त्रीवेदाऽऽद्युदयवन्तः, अवेदकाः सिद्धाऽऽदयः, सह रूपेण मूर्त्या वर्तन्ते इति समासान्ते इत्प्रत्यये सति सरूपिणः संस्थानवर्णाऽऽदिमन्तः, सशरीरा इत्यर्थः / न रूपिणोऽ
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________________ दुपडीआर 2560 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुप्पडियार रुपिणा मुक्ताः,सपुद्गलाः कर्माऽऽदिपुद्गलवन्तो जीवाः, अपुद्गलाः सिद्धाः, | दुप्पजीवि(ण) पुं०(दुष्प्रजीविन्) दुःखेन कृच्छ्रेण प्रकोपोदासंसारं भवं समापनका आश्रिताः संसारसमापन्नकाः संसारिणः, तदितरे | रभोगापेक्षया जीवितुं शीले प्राणिनि, दश०१ चू। सिद्धाः, शाश्वताः सिद्धाः, जन्ममरणाऽऽदिरहितत्वात / अशाश्वताः / दुप्पडिक्कंत त्रि०(दुष्परिक्रान्त) दुराक्रान्ते, आचा०। संसारिणस्ताक्तत्वादिति / एवं जीवतत्त्वस्य द्विपदावतार निरूप्या गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुजातं दुप्परिक्वंतं भवति अवियजीवतत्त्वस्य तं निरूपयन्नाह-(आगासे इत्यादि) आकाशं व्योम, ना तस्स भिक्खुणो।।१५६।। आकाशं तदन्यद्धर्मास्तिकायाऽऽदिः, धर्मो धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भ ग्रसति बुद्धयादीन गुणानिति ग्रामः, ग्रामादनुपश्चादपरो ग्रामो गामानुगुणः, तदन्योऽधर्मोऽधर्मास्तिकायः स्थित्युपष्टम्भगुणः, सविपक्षबन्धा ग्रामस्तं दूयमानस्यानकार्थत्वाद्धातूनां विहरत एकाकिनः साधोत्स्यिाऽऽदितत्त्वसूत्राणि चत्वारि प्राग्वदिति! स्था०२ ठा०१उ० तदर्शयतिदुर्यात दुष्ट यातं दुर्यातं गमनक्रियाया गर्दा गच्छत एव नुकूलदुपडोयार न० (द्विप्रत्यवतार) द्वयोः प्रत्यवतारो यस्य तद् द्विप्र-- प्रतिक्लोपसर्गसद्भावादर्हर्हन्नकरयेव कृत्तगतिभेदस्य दुष्टव्यन्तरीजड़ त्यवतारम्। स्वरूपवति, प्रतिपक्षवति च। स्था०२ टा० 130 // धाच्छंदवत्, तथादृष्ट पराक्रान्तमाक्रान्तं स्थानमेकाकिन भवति दुपय पुं०(द्विपद) द्वे पदे यस्याऽसौ द्विपदः / मनुष्ये, स० 12 स्थूलभद्रेयॉपितोपकोशागृहसाधोरिवेति, यदि वा चतुःप्रोषितभर्तृअङ्ग / अनु०। गन्त्र्याम्, ध०२ अधि०। विशे०। सूत्र०। आचा०। आव० कागृहोपितसाधोरिव तस्य महारात्त्वतया अक्षोभेऽपि दुष्पराक्रान्मेवेति! देवे, पक्षिणि, राक्षसे च / 'मिथुनतुलाघटकन्याः, द्विपदाख्याश्चा आचा०१ श्रु०५ अ०४उ०। दुःशब्दोऽभावार्थस्तेन प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यापपूर्वभागश्च / " इति ज्योतिषोक्ते राशिभेदे च / वाच०। प्रव०नि० चू० दिना अप्रतिक्रान्तानामनिवर्तितविपाकानां कर्मणि, विपा०१ श्रु०१० आ०चूल। उत्ताध०र०।"आसाढे मासे दुपया होइ पोरिसी।" पादद्वय दुप्पडिगर त्रि०(दुष्प्रतिकर) दुःखेन प्रतिकर्तुमशक्ये, वृ०३ उठा परिमिते, त्रिका उत्स०२६ अ०! दुप्पडिग्गह न० (द्विप्रतिग्रह) दृष्टियादस्य स्वसमयपरिपाट्या स्थित *द्रुपद पुं०। स्वनामख्याते काम्पिल्यपुरराजे, ज्ञा०१ श्रु०१६अ०। सूत्रविशेष, स०१२ अग। दुपयचउप्पयपमाणाइक्कम पुं०(द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रम) स्थूलपरिग्रहविरमणलक्षणस्य पञ्चमस्याऽणुव्रतस्य चतुर्थेऽति चारे, ध०र०। दुप्पडिपूर त्रि०(दुष्प्रतिपूर) पूरयितुमशक्ये, तक। तथा द्वे पदे येषां तानि द्विपदानि कलत्रावरुद्धदासीदासकर्मकरपदात्या दुप्पडिवूहणीय त्रि०(दुष्प्रतिवृंहणीय) प्रतिवृहणानहे , जीवितमायुष्क दीनि, हंसमयूरकुक्कुटशुकसारिकावकोरपारापतप्रभृतीनि च / चत्वारि ततक्षीणं सत दुष्प्रतिवृहणीयम, दुरभावार्थो नैव वृद्धिीयते इति यावत् / पदानि येषां तानि चतुष्पदानि गोमहिषमेषाविककरभरासभतुरगह निष्प्रत्यूहप्रतिपालनाहे, अशवा-जीवितं संयमजीवितं तद दुष्प्रतिस्त्यादीनि, तानि यद्गर्भ ग्राहयति सोऽतिचार इति संबन्धः / यथा किल बृहणीयं कामानुषक्तजनान्तर्वर्तिना दुखेःन निष्प्रन्यूह संयम प्रतिपाल्य केनाऽपि संवत्सराऽऽद्यवधिना द्विपदचतुष्पदाना परिमाणं कृतं, तेषां च इति। आवा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। विवक्षितसंवत्सराऽऽद्यवधिमध्य एव प्रसवेऽधिकद्विपदाऽऽदिभावाद् | दुप्पडियाणंद त्रि०(दुष्प्रत्यानन्दय) बहुभिरपि संतापकारणैरनुत्पाद्यव्रतभङ्गः स्यादिति, तद्भयात्कियत्यपि काले गते गर्भ ग्राहयतोगर्भस्थ- भानसंतोषे, विपा०१ श्रु०२ अ01 दुःखेन प्रत्यानन्द्यत इति दुष्प्रत्याद्विपदाऽऽदिभावेन बहिश्च तदभावेन कथञ्चिद्व्रतभङ्गाभग रूपोऽतिचार नन्द्यः / इदमुक्तं भवति-तैरानन्दितेनापरेण केनचित् प्रत्युपकारेण हेतुना इति चतुर्थः / प्रव६ द्वार / ध०। उत्त नि०चू०। आव०॥ गर्वाऽऽध्नातो दुःखेन प्रत्यानन्दयते। यदि वा-सत्युपकारे प्रत्युपकारदुप्पउत्त त्रि०(दुष्प्रयुक्त) दुष्टप्रयोगवति, स्था०१ ठा० / अकुशले, स्था०५ भीरानवानन्द्यते, प्रत्युत शठतया उपकारे दोषमेवोत्पादयति / तथा ठा०१०॥ चोक्तम्-"पतिक मशक्तिष्ठाः, नराः पूर्वोपकारिणाम् / दोषमुत्पाद्य दुप्पउत्तकायकिरिया रत्री०(दुष्प्रयुक्तकायक्रिया) दुष्टं प्रयुक्त प्रयोगो यस्य गच्छन्ति, मद् गूनामिव चाग्रतः।।१।।" इति। दशा०६ अ०॥ स दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायक्रियायाम,दुष्ट प्रयुक्तो दुष्प्रयुक्तः, स चाऽसौ दुप्पडियार त्रि०(दुष्प्रत्युपकर) दुःखेन कृच्छ्रण प्रतिक्रियते कृतोपकारेण कायश्च दुष्प्रयुक्तकायस्तस्य क्रियायां च। भ०३ श०१ उ०॥ पुंसा प्रत्युक्रियते इति खल् प्रत्यये दुष्प्रत्युपकरः / प्रत्युपकमशक्ये, दुप्पउल्ल त्रि०(दुष्पक) अर्द्धस्विन्ने, पञ्चा०१ विव०। स्था / दुप्पएसिय पुं०(द्विप्रदेशिक) "दुपएसिया खंधा / '" स्कन्धाऽऽदिषु, तिण्हं दुप्पडियारं समणाउसो ! तं जहा-अम्मापिउणो, स्था० 2 ठा० 4 उ० भट्टिस्स, धम्मायरियस्स, संपाओ वियणं केइ पुरिसे अम्मादुप्पओग पुं०(दुष्प्रयोग) दुष्ट मनोवाकायप्रयोगे, द्रोहाभिमानेाऽऽदि- पियरं सयपागसहस्सपागेहिं तिल्ले हिं अब्भंगेत्ता सुरभिणा लक्षणो मनोदुष्प्रयोगः, वाग् दुष्प्रयोगस्तु हिंस्रपरुपाऽऽदिवचनलक्षणः, गंधवट्टएणं उव्वट्टित्ता तिहिं उदगेहिं मज्जावेत्ता सव्यालंकारविकायदुष्प्रयोगस्तु धावनवल्गनाऽऽदिः / दश०४ अ० भूसियं करेत्ता मणुन्नं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोअणं दुप्पचपेक्खिय त्रि०(दुष्प्रत्युपेक्षित) विभ्रान्तचक्षुषा निरीक्षिते. प्रव० भोआवेत्ता जावजीवं पिट्ठिवडिंसिया ते परिवहेजा, तेणावि तस्स ६द्वार। अम्मापिउस्स दुप्पडियारं भवइ॥
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________________ दुप्पडियार 2561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुप्पणिहाण हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! समस्तनिर्देशो वा-हे श्रमणाऽऽयुष्मन्निति समणाउसो ! केइ महचे दरिदं समुक्कसेज्जा, तए णं से दरिद्धे भगवता शिष्यः सम्बोधितः। अम्बया मात्रा सह पिता जनकः अम्बापिता, समुक्किठे समाणे पच्छा पुरं च णं विउलभोगसमिइसमण्णागए तस्येक स्थानम्, जनकत्वेनैकत्वविवक्षणात्। तथा (भहिस्स ति) भर्तुः यावि विहरेज्जा / तए णं से महाचे अन्नया कयाइंदरिद्दीहूए समाणे पोषकस्य, स्वामिन इत्यर्थः / इत द्वितीयम् / धर्मदाताऽऽचार्यों - तस्स दरिहस्स अंतियं हव्वमागच्छेज्जा / तएणं से दरिद्दे तस्स धर्माऽऽचार्यस्तस्येति तृतीयम्। आह च-"दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ भट्टिस्स सव्वस्सं विदलयमाणे तेणावि तस्स दुप्पडियारं भवइ। स्वामी गुरुश्व लोकेऽरिमन्। तत्र गुरुरिहामुत्र च, सुदुष्करतरप्रतीकारः कश्चित् कोऽपि, महती ऐश्वर्यलक्षणाऽर्चा ज्वाला पूजा वा यस्य / // 1 // " इति। तत्र जनकदुष्प्रतिकार्यतामाह-(संपाओ त्ति) प्रातः प्रभात अथवा-महाश्वासावर्थपतितयाऽचंश्च पूज्य इति महार्चा, महाच्यों वा, तेन संयुतः संप्रातः, संप्रातरपि च प्रभातसमकालमपि च, यदैव प्रातः माहत्यं महत्वं, तद्योगान्माहत्योवा, ईश्वर इत्यर्थः / दरिद्रमनीश्वरं कञ्चन संवृत्तं तदैवेत्यर्थः। अनेन कार्यान्तराव्यग्रता दर्शयति, संशब्दस्या- पुरुषमतिदुःस्थं समुत्कर्षयत् धनदानाऽऽदिनोत्कृष्ट कुर्यात्, ततः तिशयार्थत्वाद्वाऽतिप्रभाते, प्रतिशब्दार्थत्वाद्वाऽस्य प्रतिप्रभातमित्यर्थः / समुत्कर्षणानन्तरं स दरिद्रः समुत्कृष्टो धनाऽऽदिभिः (समाणे त्ति) सन् कश्चिदिति कुलीन एव, न तु सर्वोऽपि, पुरुषो मानवो, देवतिरश्चोरे- (पच्छ ति ) पश्चात् काले (पुरं च णं ति) पूर्वकाले च, समुत्कर्षणकाल वविधव्यतिकरासम्भवात् / शतं पाकानामौषधिकाथानां पाके यस्य, एवेत्यर्थः / अथवा पश्चात् भर्तुरसमक्षं, पुरश्च भर्तुः समक्षं च, विपुलया औषधिशतेन वा सह पच्यते यत्, शतकृत्वो वा पाको यस्य, शतेन वा भोगसमित्या भोगसमुदयेन समन्वागतोयुक्तो यः स तथा, सचापि विहेरत् रूपकाणां मूल्यतः पच्यते य तच्छतपाकम्, एवं सहस्रपाकमपि, ताभ्यां वत्तते , ततोऽनन्तरं स महा! भर्ता। (सव्वस्सं ति) सर्वं च तत् स्वं च तैलाभ्याम्। (अभिगित्ता) अभ्यनं कृत्वा। (गंधट्ठएणं ति) गन्धाटकेन द्रव्यं चेति सर्वस्यं, तदपि आस्ताम्, अल्पमिति। (दलयमाण त्ति) ददन्, गन्धद्रव्यक्षोदेन, उद्वत्योद्वलनं कृत्वा, त्रिभिरुदकैर्गन्धोदकोष्णोदक- न कृतप्रत्युपकारो भवेदिति शेषः / अतस्तेनापि सर्वस्वदानेन शीतोदकैमजयित्वा स्नापयित्वा, मनोज्ञ कलमोदनाऽऽदि, स्थाली सर्वस्वदायकेनापि वा दुष्प्रतिकरमेवेति। स्था०३ ठा०१उ०। पिटरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा। अन्यत्र हि पक्कमपक्वं वान तथाविध अथ धर्माऽऽचार्यदुष्प्रतिकार्यतामाहस्यादितीदं विशेषणमिति। शुद्ध भक्तदोषवर्जितं, स्थालीपाकं च तच्छुद्धं, केइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियमेगमवि स्थालीपाकेन वा शुद्धमिति विग्रहः। अष्टादशभिर्लोकप्रतीतैय॑ज्जनः आरियं धम्मं सोचा निसम्म कालमासे कालं किचा अन्नयरेसु शालनकैः सूपाऽऽदिभिर्व्याकुलं सार्ण यत्तत्तथा। अथवा-अष्टादशभेद देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने / तए णं से देवे तं धम्मायरियं दुब्भितद्व्यञ्जनाऽऽकुलं चेति। अत्र भेदपदलोपेन समासः, भोजनं भोजयित्वा। क्खाओ वा देसाओ सुमिक्खं देसं साहरेज्जा, कंताराओ वा एते चाष्टादश भेदाः णिकतारं करेजा, दीहकालिएणं वा रोआतंकेण अभिभूयं / ' सूबोदगो २जवण्णं 3, तिन्नि य मंसाइ६गोरसो७जूसो।। विमोइज्जा, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवइ। भक्खा गुललावणिया १०.मूलफला११हरियगं१२सागो 13 // 1 // (केइ इत्यादि)(आरियं ति) पापकर्मभ्य आराद्यातमिति आर्यमत एव होइ रसालू इ तहा 14, पाणं पाणीय 16 पाणगं चेव 17 / धाम्भिकमत एव सुवचनं श्रुत्वा श्रोत्रेण निशम्य मनसाऽवधायं, अन्यतरेषु अट्ठारसमो सागो 18, निरुवहओ लोइओ पिंडो / / " देवलोकेष्वन्यतरदेवानां मध्ये इत्यर्थः / देवत्वेनोत्पन्न इति। दुर्लभा भिक्षा अस्य व्याख्या-मांसत्रयं जलजाऽऽदिसत्कं, जूषो मुद्रतन्दुलजी- यस्मिन् देशे स दुर्भिक्षस्तस्मात्संहरेत् नयेत् / कान्तारमरण्यं निर्गतः, रककटुमाण्डाऽऽदिरसः, भक्ष्याणि खण्डखाद्याऽऽदीनि, गुललावणिका कान्तारान्निष्क्रान्तो निष्क्रान्तारस्तं, निष्क्रामितार वा, दीर्घः कालो गुलपर्पटिका लोकप्रसिद्धा, गुडधाना वा, मूलफलान्येकमेव पदं, हरितक विद्यते यस्य सःदीर्घकालिकस्तेन रोगः कालसहः कुष्ठाऽऽदिरातङ्कः जीरकाऽऽदि, शाको वस्तुलाऽऽदिभर्जिका, रसालू मजिका / तल्ल- कृच्छजीवितकारी सद्योघातीत्यर्थः, शूलाऽऽदिः, अनयोर्द्वन्द्वैकत्वे क्षणमिदम्- "दो घयपला महुपलं, दहिस्स अद्धाढय मिरियवीसा। दस रोगाऽऽता, तेनेति धर्मस्थापके न तु भवति कृतोपकारः। शेषं सुगमम्। खंडगुलपलाई, एस रसालू निवइजोगा ||1" इति / पानं सुराऽऽदि, स्था०३ ठा०१उ० पानीयं जलं, पानक द्राक्षापानकाऽऽदि, शाकरतक्रसिद्ध इति। / दुप्पडिलेह त्रि०(दुष्प्रत्युपेक्ष्य) यच्च सम्यक् न शक्यते प्रत्युपेक्षितु यावजीवं यावत्प्राणधारणं पृष्टो स्कन्धे अवतंस इवावतंसः शेखरस्तस्य / तस्मिन्, प्रव० 84 द्वार। करणमवतंसिका पृष्ट्यवतंसिका, तथा परिवहेत, पृष्ट्यारोपितमित्यर्थः। | दुप्पडिले हण त्रि०(दुष्प्रत्युपेक्षण) दुष्टमुद भ्रान्तचेतसा प्रत्युपेक्षणं तेनापि परवाहकेन परिवहनेन वा तस्याम्बापितुर्दुष्प्रत्युपकरमशक्य- दुष्प्रत्युपेक्षणम्। आव० 4 अ० दुर्निरीक्षणे, आव०४ अ०। आ० चू०। प्रतीकार इत्यर्थः / अनुभूतोपकारतया प्रत्युपकारित्वात् / आह च- दुप्पडिलेहिय त्रि०(दुष्प्रत्युपेक्षित) दुर्निरीक्षिते, आचा०१ श्रु०१ चू० ''कयउवयारो जोहोइ सजणो होउ को गुणो तस्स? उववारचाहिरा जे, | दुप्पणिहाण न०(दुष्प्रणिधान) प्रणिधानं प्रयोगः, दुष्ट प्रणिधान हवंति ते सुंदरा सुयणा // 1 // " इति। स्था०३ ठा०१ उ०१ दुष्प्रणिधानम् / आव०६ अ० अशुभमनःप्रवृत्त्यादिरूपे प्रयोगे, स्था०। अथ भर्तुर्दुष्प्रतिकार्यतामाह-- तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते / तं जहा-मणदुप्पणिहाणे, व
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________________ दुप्पणिहाण 2562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुफास यदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे / एवं पंचिंदियाणं०जाव वेमाणियाणं / / दुष्प्रणिधानमशुभमनःप्रवृत्त्यादिसामान्यप्रणिधानवत् व्याख्येयमिति। स्था०३ ठा०१3०। प्रव०ा आ०चू०। भाधा चउव्विहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते / तं जहा-मणदुप्पणिहाणे० जाव उवगरणदुप्पणिहाणे, एवं पंचें दियाणं०जाव वेमाणियाणं / स्था०४ ठा०१०। दुप्पणिहिय त्रि०(दुष्प्रणिहित) विश्रोतोगामिनि, दश०८ अ० स्था) आचा। दुप्पणोल्लिय त्रि०(दुष्प्रणोद्य) दुःखेन प्रणोद्यते इति दुष्प्रणोद्यः / दुस्त्य जे, सूत्र०१ श्रु०३अ०१3०। दुप्पण्णवणिज्ज न०(दुष्प्रज्ञाप्य) दुःखेन प्रज्ञप्तु योग्ये, दुःखेन धर्म संज्ञोपदेशेनानाय॑सङ्कल्पान्निवर्तन्ते। आचा०१ श्रु०१ चू०३अ०१ उ० दुप्पत न०(दुष्पत) अपतनशीले पात्रविशेषे, "ज ठविज्ज़त उड्डठायति, चालियं पुण पलोट्टति, तंदुप्पतं।" नि०चू०१3०1 दुप्पतर त्रि०(दुष्प्रतर) दुरुत्तरे. सूत्र०१ श्रु०५ अ०१3०। दुप्पधंसग त्रि०(दुष्प्रधर्षक) दुर्धर्ष एव दुर्धर्षकः / उत्त०६ अ०॥ शत्रुभिर्दुराकलनीये, उत्त० अ०। दुप्पमजण त्रि०(दुष्प्रमार्जन) अविधिना प्रमार्जने, ध०३ अधिo दुप्पमज्जिय त्रि०(दुष्प्रमार्जित) अविधिना अनुपयुक्ततया च रजो हरणाऽऽदिना विशोधिते, प्रव०६ द्वार / आचा०। आवा०। दुप्पमज्जियचारि(ण) पुं०(दुष्प्रमार्जितचारिण) दुष्प्रमार्जितेऽवस्थाननिषीदनशयनीयक रनिक्षेपोचाराऽऽदिपरिष्ठापनकारके, दशा०१अ० स०। आ०चू०। प्रश्न०। दुप्पयन०(दुष्पद) पुष्पकमूलेन प्रतिष्टिते, बृ०३ उ०। दुप्पयारप्पमद्दण त्रि० (दुष्प्रचारप्रमर्दन) दुष्प्रचाराश्चौराऽऽदयोऽन्यायकारिणस्तान प्रमर्दयति यस्तस्मिन् / अन्यायकारिप्रचारनिवारके, कल्प०१ अधि०३क्षण। दुप्परकंत न०(दुष्पराक्रान्त) प्राणिघातादत्तापहाराऽऽदौ कर्मणि, ज्ञा०१श्रु०१६अ। दुप्परिअल्ल (देशी) अशक्ये दुर्गुणे, अनभ्यस्ते च / दे०ना०५ वर्ग 55 गाथा। दुप्परिकम्मतर न०(दुष्परिकर्मतर) कष्टकर्त्तव्यतेजोजननमगक रणाऽऽदिप्रक्रिये, भ०६ श०१उ०। दुप्परिचय त्रि०(दुष्परित्यज) दुःखेन परित्यक्तुं योग्ये, उत्त०। "दुप्परि चया इमे कामा, नो सुजना अधीरपुरिसेहिं / ' उत्त०८ अ०। दुप्परियतणसील त्रि० (दुष्परिवर्तनशील) महता कष्टेन पश्चाद्वलनशीले, "मच्छो विव दुष्परियतणसीलाओ।' मत्स्यवत् दुष्परिवर्तनशीला महता कष्टेन परिवर्तनं पश्चाद्वालयितुं शील स्वभावो यासा तास्तथा स्त्रियः / तं० दुप्परिवत्तणसील त्रि०(दुष्परिवर्तनशील) 'दुप्परियत्तणसील' शब्दार्थे, तं०। दुप्परिस त्रि०(दुष्प्रधृष्य) अपरिभवनीये, प्रश्न०५ संब० द्वार। दुप्पलिओसहिभक्खणया स्त्री०(दुष्पवौषधिभक्षणता) भोजनतः परिभोग उपभोगव्रतस्यातिचारविशेषे, "दुष्पक्कोसहिभक्खणया।' दुप्पक्ता अग्निना अचित्ता औषधयस्तद्भक्षणता / अतिचारता चास्य पक्कबुद्ध्या भक्षयतः। उपा०१ अ०। ध। ध०र०। आव०। दुप्पलितोसहिभक्खणया स्त्री०(दुष्पक्षौपधिभक्षणता) 'दुप्पलिओसहिभक्खणया शब्दार्थे , उपा०८० दुप्पलिय त्रि०(दुष्पक) मन्दपक्के, ध०२ अधिका दुप्पवियम त्रि०(दुष्प्रावृत) परिधानवर्जिते, तं०। दुप्पवेस त्रि०(दुष्प्रवेश) दुरवगाहे, आ०म०१अ०२खण्ड। अ०। दुप्पवेसतरग त्रि०(दुष्प्रवेशतरक) प्रवेष्टुमशक्ये, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दुप्पसह पुं०(दुष्प्रसह) कल्किनृपसमकालिके राजोपद्रुतसंरक्षक स्वनामख्याते आचार्ये, ती०२० कल्प। "दूसमपजते वारसवरिसिओ पव्वइय दुहझूसियतणू दसवेयालियागमधरो अट्ठसिलोगप्पमाणगणहरमंतजावी छट्टउक्किट्ठतबो दुप्प सहो नाम आयरिओ चरमजुगप्पहाणो अट्ठ वासाई सामण्णं पालित्ता वीसवरिसाओ अट्ठमभत्तेणं कयाणसण' सोहम्मे कप्पे पलिओवमाओसरो एगावयारो उप्पिजहइ दुप्पसहो सूरी फगुसिरी अजा, नाइलो सावगो, सव्वसिरी साविया, एस अपच्छिमो संघो।" ती०२० कल्प। तिका दुप्पसहंतं चरणं, जं भणियं भगवया इहं खेत्ते / आणाजुत्ताणमिणं, न होइ अहुणो त्ति वामोहो / / 57 / / (दुप्पसहतमिति) दुःखेन प्रकर्षप्राप्ततया सह्यत इति दुष्प्रराह, त्द् गुणयोगादाचार्योऽपि दुष्प्रसहः / यथा दण्डयोगाद्दण्डः पुरुष इति / स एवान्ते पर्यन्ते यस्य तत्तथा, चरण चारित्रं भणितं प्रतिपादितं भगवता श्रीमन्महावीरेण, इहास्मिन् क्षेत्रे भरताभिधाने यद्यस्मात्कारणात् तस्मादाज्ञायुक्तानामपि, न केवलमाज्ञाबाह्यानामिदं प्रस्तुतं चारित्रं न भवति न जायतेऽधुनेति साम्प्रतं तत्साध्यातिशयदर्शनाच इति तेषामसद् ग्राहगृहीतचेतसां व्यामोहो मूढतेति यावत् / मूढता च तेषामागमवचनान्यथाकरणादिति गाथार्थः / / 57 / / दर्श० 2 तत्त्व / शत्रुञ्जयतीर्थस्योद्धारके, "सुमङ्गलः शूरसेन इत्यस्योद्धारकारकाः। अवक दुष्प्रसहोदन्त, भावी विमलवाहनः / / 13 / / " ती०१ कल्प।"अस्याः पश्चिममुद्धार, राजा विमलवाहनः / श्रीदुष्प्रसहसूरीणामुपदेशाद्विधास्यति ||1||" ती०१ कल्प। दुप्पस्स त्रि०(दुर्दर्श) दुःखेन दर्श्यत इति दुर्दशः। परीषहाऽऽदौ दुर्दर्श , ''मज्झिमगाणं जिणाणं, दुप्पस्सं दुग्गम भवइ।' स्था० 5 डा०१3०। ('तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2262 पृष्ठे व्याख्या) दुप्पहंसय त्रि०(दुष्प्रहंस्यक) दुरभिभवे, उत्त०११ अ०। दुफास त्रि०(द्विस्पर्श) द्वावविरुद्धौ स्निग्धशीलाऽऽद्यात्मको स्पर्शा वस्येति द्विस्पर्शः / उत्त०पाई०१ अ०। स्निग्धरूक्षशीत:
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________________ दुफास 2563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुव्वलपञ्चवमित्त ष्णस्पर्शानामन्यतराविराद्धस्पर्शद्वययुक्ते, भ०१५ श०६ उ०ा स्था०।। दुवालस पुं०(द्वादशन्) द्वौ च दशच, व्यधिका वा दश, आत्वम्। (वारा) सङ्ख्याभंदे, वाचा प्रश्नासू०प्र०आचा०ा द्विरावृत्ता दश। विंशतिसङ्ख्यायाम. वाचा दुवालसंगन०(द्वादशाङ्ग) आर्षे 'दुवालसंगे' इत्याद्यपि। प्रा०१ पाद। परमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि द्वादश अङ्गान्याचाराऽऽदीनि यत्र तद द्वादशाङ्गम। श्रुते, अनु०॥ दुवालसंगं गणिपिडगं / तं जहा-आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ, विवाहपण्णत्ती, नायाधम्मकहाओ, उवासग-दसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइअदसाओ, पण्हावा-गरणाइं, विवागसुअं, दिट्ठिवाओ अ।(४२) अनु०। पा०। सूत्र० स०) नं० स्था०। दुवालसंगि(ण) पुं०(द्वादशाङ्गिन) श्रुतकेवलिनि,ध०३ अधिक। दुवालसंगी स्त्री०(द्वादशाङ्गी) अङ्गप्रविष्ट श्रुते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२उ०। दुवालसंसिय त्रि०(द्वादशाश्रिक) द्वादश अश्रयः कोटयो यत्र तस्मिन् द्वादशकोणोपेते, अनु०। स्था०। दुवालसम त्रि०(द्वादशम) द्वादशस ख्यापूर्वके, स्था०६ ठा०। दुवालसविह त्रि०(द्वादशविध) द्वादशप्रकारे, प्रश्न०२ संब० द्वार।। अचू० दुवालसायतण न०(द्वादशायतन) द्वादशवस्तुषु, सूत्रका अथ बौद्धमतं निरूप्यतेतत्र हि पदार्था द्वादशायतनानि तद्यथा-चक्षुरादीनि पञ्च, रूपाऽऽदयश्च विषयाः पञ्च, शब्दायतन, धर्मायतनं चाधर्माःसुखाऽऽदयो, द्वादशायतनपरिच्छेदकत्वे प्रत्यक्षानुमाने द्वे एवं प्रधाने प्रमाणे, तत्र चक्षुरादीन्द्रियाण्यजीवग्रहणेनैवोपात्तानि, भावेन्द्रियाणि तु जीवग्रहणेनेति। रूपाऽऽदयश्च विषया अजीवापादनेनोपात्ता न पृथगुपादातव्याः / शब्दायतनं तु पौगलिकत्वाच्छब्दस्थाजीवग्रहणेन ग्रहणम् / न च प्रतिव्यक्ति पृथक् पदार्थला युक्तिसङ्गतेति / धर्माऽऽत्मकं सुखं दुःखं च यद्यसातोदयरूप, तलो जीवगुणत्वाज्जीवेऽन्तर्भावः / अथ तत्कारणं कर्म, ततः पौगालिकत्वादजीव इति / प्रत्यक्षं च तैर्निर्विकल्पकमिष्यते, तचानिश्रयाऽऽत्मकतया प्रवृत्तिनिवृत्त्योरनङ्गमित्यप्रमाणमेव। तदप्रामाण्ये तत्पूर्वकत्वादनुमानमपीति। शेषरत्वाक्षेपपरिहारोऽन्यत्र सुविचारित इति नेह प्रतन्यते। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। दुविलय पुं०(दुविलक) अनार्यदेशभेदे, प्रव० 274 द्वार। सूत्र०/ दुवेयगपुं०(द्विवेदक) स्त्रीपुरुषवेदयुक्त, बृ०४ उ०॥ दुव्वद्ध त्रि०(दुर्बद्ध) अविधिना बद्धे. आचा०२ श्रु०१ चू० 240 ३उ०॥ दुव्वल त्रि०(दुर्बल) कृशारे, दीने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। सूत्र०ा तं०। हीनबले, विपा०१ श्रु०७ अ०स्था०। भ०। असमर्थ , प्रश्न० 3 आश्र० द्वार / रा०ा अविद्यमाननियमे, विपा०१ श्रु०२अ०। व्याधिपीडिते, प्रश्न०१आश्र0 द्वार। अदृढे, नि०चू०२ उ०॥शारीरमानसावष्टम्भरहिते, / जी०३ प्रति०२ उ०। धृतिबलविकले, बृ०४ उ०। नि०चून दुईलिकापुष्पमित्रे, आ०चू०१अ०। ग्लानत्वादधुनैवोत्थितेऽसमर्थशरीरे, वृ०३ उ०। न विद्यते बल गमने यस्मिन् स गाढाऽऽतपासंभवाऽऽदिना दुर्बलो, दुःशब्दोऽभाववाची। जेष्ठा-षाढाऽऽदिके च / व्य०२ उ०। दुव्वलचारित्त पुं०(दुर्बलचारित्र) दुर्बलश्चारित्रे इति दुर्यलचारित्रः। विनाकारणेन मूलोत्तरगुणपरिषेविनि, नि०चू०१ उ०ा व्यका संप्रति दुर्बलचारित्रद्वारमाहमूलगुणउत्तरगुणे,पडिसेवइ पणगमाइ जा चरिमं / धिइवीरियपरिहीणो,दुव्वलचरणो अणट्ठाए। मूलगुणोत्तरगुणविषयानपराधान् यः प्रतिसेवते सेवते। कथमित्याहपञ्चकाऽऽदि यावचरमम् / इह पञ्चकशब्देन यत्र प्रतिसेविते रात्रिन्दिवपञ्चकमापद्यते स सर्वजघन्यश्चरणापराधः परिगृह्यते, आदिशब्दाद् दशरात्रिन्दिवाऽऽदिप्रायश्चित्तस्थानानि याव-चरमं सर्वोत्कृष्टचरणापराधलक्षणं पाराश्चिकप्रायश्चित्तस्थानमिति / कथंभूतः सन् प्रतिसेवते? इत्याह-धृतिवीर्यपरिहीणो मानसिकावष्टम्भबलरहितः सोऽपि यदि पुष्टाऽऽलम्बनतः प्रतिसवते ततो न दोषभाग्भवेदित्याह-(अणट्टाए त्ति) अर्थोदर्शनशानाऽऽदिकं प्रयोजनं, तदभावोऽनर्थ, तेन यः प्रतिसेवते स एष दुबर्लचरणः। एवंविधरय छेदश्रुतार्थदाने दोषबाहुल्यख्यापनार्थमिदमाहपंचमहव्वयभेदो, छक्कायवहो अतेणऽणुण्णाओ। सुहसीलवियत्ताणं, कहेइजो पवयणरहस्सं / / तेनाऽऽचार्येण पञ्चमहाव्रतभेदः, षट् कायवधश्चानुज्ञातः यः सुखशीलाव्यक्तानां शरीरशुश्रूषाऽऽदिकं शीलयन्तीति सुखशीलाः पावस्थाऽऽदयः, अव्यक्ताः श्रुतेन,वयसा च, सुखशीलाश्चाव्यक्ताश्चेति द्वन्द्वः। तेषामिति चूर्णिकृतः। निशीथचूर्णिकृतः पुनरयम्-सुखेशरीरसौख्ये शीलं स्वभावो व्यक्तः परिस्पष्टो येषां ते सुखशीलव्यक्तास्तेषाम् / यद्वासुखं मोक्षसौख्य, तद्विषयं तत् शीलं मूलोत्तरगुणानुष्ठान, ततो विगतो यत्न उद्यम आत्मा वा येषां ते सुखशीलवियत्नाः, सुखशीलय्यात्मनो वा, तेषामुभयत्रापि पार्श्वस्थाऽऽदीनामित्यर्थः / प्रवचनरहस्यं छेदयथार्थतत्त्वं कथयति। कथं पुनस्तेन पञ्चमहाव्रतभेदः, षट्कायवधश्चानुज्ञातो भवतीति? उच्यतेनिस्साणपदं पीहइनिस्साणविहारियं न रोएइ। तं जाण मंदधम्म, इहलोगगवेसगं समणं / / निवागते मन्दवद्धारा सेगा शिक्षिाण उच तत्पदं च निश्राणपदम, अपवादपदमित्यर्थः / तदेव यः स्पृहयति, अनिश्राणविहारिता तुन रोचयति, तमेवंविधं श्रमणं जानीहि मन्दधर्माणमिह-लोकगवेषक, मनोज्ञभक्तपानाऽऽद्युपभोगेन केवलस्यैवेहलोकस्य चिन्तकं परलोकपराड मुखम्, एवंविधस्य च प्रवचनरहस्यप्रदाने विशेषतः पञ्चमहाव्रतभेदः, षट्कायवधश्च भवतीति युक्तमुक्तम्। बृ०१ उ०। १प्रक०) दुव्वलपञ्चवमित्त पुं०(दुर्बलप्रत्यवमित्र) अबलप्रातिवेशिकराजे, स्था०६ ठा०। दुर्बलानामकारणवत्सले, रा०। सूत्र०।
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________________ दुव्वलियत्त 2564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुम दुव्वलियत्त न०(दुर्बलिकत्व) दुष्ट बलमस्यास्तीति दुर्बलिकस्त-दभावो दुडिभगंध त्रि०(दुरभिगन्ध) दुर्गन्धे, स्था०३ टा०३उ०ा तीव्रतराष्ट्रदुर्बलिकत्वम्। दौर्बल्ये, भ०१२ श०२ उ०ा नि०चूना गन्धोपेले, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। कुथितकडेवरकाऽऽदौ, आचा०१ दुव्वलियापूसमित्त न०(दुर्वलिकापुष्यमित्र) आत्मार्थमेव भिक्षा श्रु०६ अ०२उ०रा०। दुरभिगन्धेन कुथितकलेवरातिशायिनि नरके, हिण्डमानो बहूनां दुर्बलिनामाहार संपादयन् दुर्बलिकापुष्यमित्र सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०असह्यगन्धे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। दुष्टगन्धे च / इति। आर्यरक्षितसूरिपितरि स्वनामख्याते आचार्य , स चाऽऽर्यरक्षित- ज्ञा०२ श्रु० अ०॥''एगे दुन्भिगन्धे।'' स्था०१ ठा०ादुरभिगन्धपरिणता ल्वामिनि दिवंगते स्वगणं परिपालयन कर्मविषये विन्ध्येन साक लसुनाऽऽदिवत्। प्रज्ञा०१ पद। विप्रतिपद्यमानं गोष्ठामाहिलमुद्घाटितवान्। स्था०७ ठा०। धर०ा विशेष दुडिभसद्द पुं०(दुरभिशब्द) दुरीभशुभः मनोज्ञो यो न भवति / “एगे आ०म०ा आ०चू०। दुभिसद्दे।" स्था०१ ठा०। अशुभशब्दे, प्रज्ञा०१३ पद। दुट्विभज न०(दुर्विभज) कष्टविभजनीये, स्था०५ ठा०१०। दुभूइ स्त्री० (दुर्भूति) अशिवे, बृ०३उ०। ('तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2262 पृष्ठेऽस्य व्याख्या) दुब्भूय त्रि०(दुर्भूत) दुष्टा जनधान्याऽऽदीनामुपद्रवहेतुत्वाद् दुर्भूताः दुब्भ धा०(दुह) अदा०-उभ०-द्विक०-अनिट् / दोहे. 'भो दुहलिह- यूकामत्कुणोन्दुरतिडुप्रभृतिष्वीतिविशेषेषु सत्त्वेषु, भ०३ श०२उ०। वहरुधामुच्चातः" |4 / 245 / / इति दुहेरन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो अशिवे, जी०३प्रति०४उ०। भो वा, तत्सन्नियोगे क्यस्य लुक् / 'दुब्भइ। दुहिजइ।' प्रा०४ पाद। | दुब्भेय त्रि०(दुर्भद) दुर्मोचे दुःक्षरणीये, विशे०। रा०। दुब्भग त्रि०(दुर्भग) सर्व : परित्यक्ते निर्गतिके, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०| दुभागपत्त त्रि०(द्विभागप्राप्त) द्विभागोऽर्द्ध तत्प्राप्तो द्विभागप्राप्तः / अनिष्टे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार।। द्विभागप्राप्ते आहारे, द्विभागो वा प्राप्तोऽनेनेति द्विभागप्राप्तः / द्विभागप्राप्ते दुब्भगणाम न०(दुर्भगनाम) द्विचत्वारिंशन्नामकर्मभेदे, यदुदयवशा- साधौ च / भ०७ श०१० दुपकारकृदपि जनस्याप्रियो भवति तदुर्भगनाम। उक्तं च "उवकार- | दुम नामधा०(धवलि) श्वेतीकरणे, "धवले?मः" / / 14 / 24 // इति कारगो विहु, न रुचइ दुभग्गे उ जस्सुदए।" इति। कर्म०१ कर्म०। प्रव०। धवलयतर्ण्यन्तस्य वा द्रुमाऽऽदेशः / 'दुमइ। धवलइ।' प्रा०१ पा। पं०सं० श्रा०। दुम पुं० / द्रुः शाखाऽस्त्यस्य द्रुमः। वृक्षे, उत्त०३२ अावाच०। 'दु दु' दुब्भगतिक न०(दुर्भगत्रिक) दुर्भगदुःस्वरानादेयस्वभावरूपे, कर्म० | गतावित्यस्य दुः, द्रुरस्मिन्देशे विद्यत इति तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुपि 1 कर्मा प्राप्ते 'दुद्रुभ्यां मः(७४४ उणा०)" इति मप्रत्ययान्तस्य द्रुम इति भवति। दुब्भगाकरा स्त्री०(दुर्भगाऽऽकरा) सुभगमपि दुर्भगमाकरोति इति दश०१० दुब्भर्गाऽऽकरा। सुभगस्य दुर्भगकारके विद्याभेदे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०) . साम्प्रतं द्रुमनिक्षेपप्ररूपणायाऽऽहदुब्भासिय न०(दुर्भाषित) दुष्ट सावधवागरूप भाषितं यत्र तत्तथा / नामदुमो ठवणदुमो, दव्वदुमो चेव होइ भावदुमो। ध०२अधि०। अनागमिकार्थोपदेशे, पशा०१२ विव०। असद्- एमेव य पुप्फस्स वि, चउव्विहो होइ निक्खेवो // 34 // भूतोद्भावे, जीत०। गर्वे, आ०म०२अ०१खण्ड। दुर्वाचा प्रतिक्रान्ते च। नामद्रुमो यस्य दुम इति नाम अभिधानम् / स्थापनागुमो दुम इति आ०म०१ अ०२ खण्ड। स्थापना। द्रव्यद्रुमश्चैव भवति। भावद्रुमः / तत्र द्रव्यद्रुमो द्विधा-आगमतो, दुब्भि पुं०(दुरभि) दुर्गन्धे वैमुख्यकृति, स्था०१ ठा०। नि० चू०। प्रज्ञा नोआगमतश्च / आगमतो ज्ञातानुपयुक्तो, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यआचा० शरीरोभराव्यतिरिक्तस्त्रिविधः / तद्यथा-एकभविको, बद्धवाऽऽयुष्कोऽभिदुब्भिक्खन०(दुर्भिक्ष) सस्योत्पत्यभावेन (दर्श०१ तत्त्व ) दुर्लभा भिक्षा मुखनामगोत्रश्च / तत्रैकभविको नाम य एकेन भवेनानन्तरं द्रुमेषूत्पत्स्यते। यस्मिन्देशे स दुर्भिक्षः / अलभ्यभिक्षाके देशे, स्था०३ ठा०१ उ० बद्धाऽऽयुष्कस्तु येन द्रुम नामगोवे कर्मणी बद्धे इति। अभिमुखनामगोत्रस्तु भिक्षाभावे, स्था०५ टा०२७०। कालविभ्रमे, आव०६अ०। दुष्काले, येत्तु ते नामगोत्रे कर्मणी उदीरणावलिकायां प्रक्षिप्ते इति / अयं च स०३४ सम०। प्रव०। औ०। अन्नाकाले,दश०१ अ० वीरात्कियन्तो त्रिविधीऽपि भाविभावद्रुमकारणत्वाद् द्रव्यद्रुम इति / भावद्रुमोऽपि दुर्भिक्षा अभवन्, यतः केऽप्येवं कथयन्तिदुभिक्षद्वयमभवत्, परशिष्टप- द्विविधः-आगमतो, नोआगमतश्च / तत्राऽऽगमतो ज्ञातोपयुक्तः। नोआगर्वाऽऽदौ च बहवः सन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-वीरादर्वाक् दुष्काला भूयांसो मतस्तु द्रुम एव गुमनामगोत्रे कर्मणी वेदयन्निति / एवमेव च यथा द्रुमस्य बभूवुः, परं साक्षाद् द्वादशाब्द दुष्कालत्रय शास्त्रे प्रोक्तं दृश्यते, तत्र तथा, किम्? पुष्पस्यापि वस्तुतस्तद्विकारभूतस्य, चतुर्विधो भवति परिशिष्टपर्वणि द्वयं, नन्दीबृत्तौ चैक इति। ये तु दुष्कालद्वयमेव कथयन्ति निक्षेप इति गाथाऽर्थः / / 34 // तत्कस्मिन् शारखे वर्तते, तन्नाम ज्ञापनीय, पश्चात्तदुत्तरविषये ज्ञास्यते साम्प्रतं नानादेशजविनेयगणासंमोहार्थमागमे द्रुमपर्यायइति।३७८प्र० सेन०३ उल्ला शब्दान प्रतिपादयन्नाहदुभिक्खभत्त न०(दुर्भिक्षभक्त) यद् भिक्षुकार्थ दुर्भिक्षे संस्क्रियते / दुमा य पावया रुक्खा, आगमा विडिमा तरू। भक्तभेदे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० स्था०। 'अनविनिग्गयाणं भुक्खत्ताणं जं कुजा महीरुहा वच्छा, रोवगा रुंजगा वि य ||35|| दुभिक्खे रायो देति तं दुब्भिक्खडतं।' नि०यू० 6 उ०। द्रुमाश्च पादपा वृक्षाः आगमा विट पिनस्तरवः कुजा महीरु
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________________ दुम 2565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय हा वरधा रोपका रुजकाऽऽदयश्च / तत्र द्रुमाऽन्वर्थसंज्ञा पूर्ववत् / पद्भ्यां पिवन्ोति पादपा इति। एवमन्येषामपि यथासंभवमन्वर्थसंज्ञा वक्तव्या। रुढिदेशीशब्दा वा एते / इति गाथाऽर्थः / / 35 / / दश० 1 अ०। उत्ता चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराज्ञः स्वनामख्याते पदात्यनीकाधिपती, स्था०.ठा०। श्रेणिकरय राज्ञो धारण्या जाते स्वनामख्याते पुत्रे, सच महावीरस्वामिनोऽन्तिके प्रव्रज्य षोडशवर्षपर्यायः संलेखनया मृत्वाऽपराजिते देवलोके उपपद्य ततश्चुत्त्वा महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य सप्तमेऽध्ययने सूचितम्। अणु०१ श्रु०१ वर्ग२ अ० आरणे कल्पे स्वनाभख्याते विगानभेदे, स०६ सम०। पारिजाते, कुबेरे च / वाचा दुमंतअ (देशी) केशबन्धे, देठना०५ वर्ग 47 गाथा। दुमगण (दुमगण) वृक्षसड्धाते, दश०१ अ०। दुमण न०(धवलन) सेटिकया स्वेतीकरणे, प्रश्न०३ संब० द्वार। दुमणी (देशी) सुधायाम्, दे०ना०५ वर्ग 44 गाथा। दुमत्त त्रि० (द्विमात्र) "द्विन्योरुत्" / / 1 / 64 // इति द्विशब्दे इकारस्योकारः 'दुमत्तो / ' मात्रद्वययुक्ते, प्रा०१ पाद। दुमपत्तय न०(दुमपत्रक) ष०तका वृक्षपणे , उत्त०। अथ वृक्षपर्णतया आयुषश्चलत्वमुपदर्शयन्नाहदुमपत्तेणोवमि यं, अहट्टिईए उवक्कमेणं च / एत्थ कयं आइम्मी, तो दुमपत्तं ति अज्झयणं / / 18 / / द्रुमो दृक्षस्तस्य पत्रं पर्ण दुमपत्र, तेनौपम्यमुपमा, प्रक्रमादायुषः। केन पुनर्गुणेनौपम्यमित्याह-यथास्थित्या स्वकालपरिपाकतः पातरुपपातः, लथा उपक्रमण दीर्घकालभाविन्याः स्थितेः स्वल्पकालताऽऽपादनमुपक्रमः। कोऽर्थः ?-पाकादारत एव वाताऽऽदिनाऽवस्थितिविनाशनं, तेन च, अत्राध्ययने कृतं विहितमादौ प्रथमं यस्मात्ततो द्रुमपत्रमित्यध्ययनमिदमुच्यते, इति शेषः। इति गाथाऽर्थः। यथा चास्य समुत्थानं तथा दर्शयंस्त्रयोविंशतिसड्ख्य गाथाकदम्बकमाहमगहापुरनगराओ, वीरेण विसज्जणं तु सीसाणं / सालमहासालाणं, पिट्ठीचंपंच आगमणं / / 16 / / पव्वजा गागिलस्सय, नाणस्स य उपयाउ तिण्हं पि। आगमणं चंपाए, वीरस्स य वंदणं तेसिं / / 20 / / चंपाएँ पुन्नभद्दम्मि चेइए णायओ पहियकित्ती। आमंतेउं समणे, कहेइ भगवं महावीरे // 21 // अट्टविहकम्ममहणस्स तस्स पयईएँ सुद्धलेसस्स। अट्ठावए नगवरे, निसीहियानिट्ठियट्ठस्स।।२२।। उसहस्स भरहपिउणो, तेल्लोकपगासनिग्गयजसस्स। जो आरोढुं वंदइ, चरिमसरीरो य सो साहू // 23 // साहुं संवासेई, असाहुं ण किर संवसावेइ। अह सिद्धपव्वओ सो, पासे वेयड्डसिहरस्स॥२४॥ चरिमसरीरो साहू, आरुहई नगवरं न अन्नोऽत्थ। एयं तु उदाहरणं, कासी य तहिं जिणवरिंदो // 25|| सोऊण तं भगवओ, गच्छइ तहिँ गोयमो पहियकित्ती। आरुज्झ तं नगवरं, पडिमाओ वंदइ जिणाणं / / 26 / / अह आगओ सपरिसो, सव्विड्डीए तहिं तु वेसमणो। वंदित्तु चेइयाई, अह वंदइ गोयम भयवं / / 27 / / अह पुंडरीयनाम, कहेइ तहिँ गोयमो पहियकित्ती। दसमस्स य पारणए, पव्वावे सीयकोडीणं // 28 // तस्स य वेसमणस्स य, परिसाए सुरवरो य तणुकम्मो। तं पुंडरीयनाम, गोयम ! कहियं निसामेइ // 26 // घेत्तूण पुंडरीयं, वग्गुविमाणाउ सो चुओ संतो। तुंववणे धणगिरिस्सा, अजसुनंदासुओ जाओ॥३०॥ दिन्ने य कोडिदिन्ने, सेवाले चेव होइ तइएसु / एकेकस्स य तेसिं, परिवारो पंचपंसया॥३१।। हिडिल्लाण चउत्थं, मज्झिल्लाणं तु होइ छ8 तु। अट्ठममुवरिल्लाणं, आहारो तेसिमो होइ / / 32 / / कंदाई सञ्चित्तो, हेट्ठिल्लाणं तु होइ आहारो। विइयाणं अचित्तो, तइयाणं सुक्कसेवालो / / 33 / / तं पासिऊण इड्डि, गोयमरिसिणो तओ तिवग्गा वि। अणगारा पव्वइया, सप्परिवारा विगयमोहा।।३४॥ एगस्स खीरभोयणहेउं नाणुप्पया मुणेयव्वा / एगस्स य परिसा दंसणेण एगस्स य जिणम्मि // 35 / / केवलिपरिसं तत्तो, वचंता गोयमेण ते भणिया। इय एह वंदह जिणं, कयकिच जिणेण सो भणिओ // 36 / / सोऊण तं अरहओ, हियएणं गोयमो विचिंतेइ। नाणं मे न उपज्जइ, भणिओ य जिणेण सो ताहे // 37 / / चिरसंसिर्ल्ड चिरपरिचियं च चिरमणुगयं च मे जाण / देहस्स य भेयम्मी, दुन्नि वि तुल्ला भविस्सामो॥३८|| जह मन्ने एयमटुं, अम्हे जाणामों खीणसंसारा। तह भन्ने एयमढे, विमाणवासी वि जाणंति // 36 / / जाणगपुच्छं पुच्छइ, अरहा किर गोयमं पहियकित्ती। किं देवाणं वयणं, गझं आओ जिणवराणं / / 40 / / सोऊणं च भगवओ, मिच्छाचारस्स सो उवट्ठाइ। तन्निस्साएँ भगवओ, सीसाणं देइ अणुसद्धिं // 41 / / उत्त०नि० एलचाक्षरार्थ प्रति स्पष्टमेव, नवरं मगधापुरनगरं राजगृहं, तस्यैव तत्कालापेक्षया मगधासु प्रधानपुरत्वादविद्यमानकरत्वाच, तथा (नायओ पहियकित्ति शि) नायकः सकलजगतस्वामी, ज्ञात एव वा ज्ञातक उदारक्षत्रियः, न्यायतीवा प्रथिता सकलजगत्प्रख्याता कीर्तिर्यस्य स तथा, प्रकृत्या स्वभावेन शुद्धाऽत्यन्तनिर्मला लेश्या यस्य स तथा,(निसीहिय त्ति) निषिध्यन्ते निराक्रियन्ते अस्यां कौणीति नैषेधिका निर्वाणभूमिः, "कृत्यल्युटो बहुलग'' // 3 / 3 / 116 / / इति बहुलग्रहणबलाद् ल्युट्,
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________________ दुमपत्तय 2566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय निष्ठितार्थस्य समाप्तसकलकृत्यस्य, यद्वा निषेधे सकलकर्मनि- सकृदनाकर्णिता तथेति प्रतिपाद्याष्टापदं प्रति प्रयात इत्यहो ते राकरणलक्षणे भवा नैषेधिका मुक्तिगतिस्तया निष्ठितार्थो यस्तस्य, मोहविजृम्भितमित्युक्तं भवति / श्रुत्वा तदुपालम्भं भगवतः संबन्धि ऋषभस्य ऋषभनाम्नः / स चान्योऽपि संभवत्यत आह--भरतपितुरिति / (मिच्छाचारस्स त्ति) आर्षत्वाद् मिथ्यात्वादुक्तरूपाद्गम्यमानत्वात् वन्दते स्तौति, प्रक्रमान्नैषेधिका, प्रतिमा वा, तथा साधु, समिति भृशं प्रतिक्रमितुमुपतिष्ठतीत्युद्यच्छति,तन्निश्रयेति गौतमनिश्रया अनुशिष्टि वासयति संवासयति; कोऽर्थः? रात्रिन्दिवं व्यवस्थापयति, नोऽसाधु शिक्षाम् / एतद्भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः / स चायम्- "तेण कालेणं संहरणाऽऽदिना नीतमपि,किलेति परोक्षाऽऽप्तवादसूचकः, अथेत्यु- तेणं समएणं पिट्ठिचंपा नाम नयरी, तत्थसालो राया, महासालोजुवराया, पन्यासे, सिद्धरुपलक्षितः पर्वतः सिद्धपर्वतः, तात्स्थ्यात्तद्वयपदेश इति तेसिं साल-महासालाणं भगिणी जसवतीति / से पिढरो भत्तारो, तदधिष्ठायक देवताविशेष एवोक्तः। यद्वा-तत्तीर्थानुभाव एवायं जसवतीए अत्तओ पिढरपुत्तो गागली नाम कुमारो, तत्थ बदमाणसामी यदसाधोस्तत्रावस्थानमेव न संपद्यते / तथा चरमशरीरः साधुरारोह- समोसढो सुभूमिभागे उजाणे, सालो निग्गतो, धम्म सोचा ज०णवरं तीत्यत्र पदप्रचारेणेति गम्यते। उदाहरणं कथनं, (कासी यत्ति) अकार्षीत्, महासालं रज्जे ठावेमि, सो अइगतो, तेण आपुच्छितो महासालो भणइ अनेन चैवंविधादेव प्रवादोऽस्थानकारणमुक्तम् / "घित्तूण पुंडरीयं" अहं पि संसारभयउव्विग्गो जहा तुब्भे, इह मेढीपरिमाणं तहा पव्वइयव्वस्स इत्यादिना च प्रसङ्गाऽऽगतं वैरस्वामिजन्मोक्तम्, तथा-(पासिऊण इडि वि। ताहे गागलिं कंपिल्लाओ सद्दाविऊण पट्टो बद्धो, अभिसित्तो, राया ति) तामेव प्रतीतामेव भगवति जड्याचारणलब्धिरूपा, तथा-(तिवग्गा जातो, तस्स माया कपिल्लपुरे नयरे दिण्णिल्लिया पिढरस्स, तेण तओ वित्ति) त्रयो वर्गा येषां ते त्रिवर्गाः, तेऽपि प्रक्रमाद् दिन्नकोडिदिन्नशैवलि- सद्दावितो, सो पुण तेसिं दो सिवियाओ कारेतिजाव ते पव्वइया, सा नस्त्रयोऽपि, नैको, द्वौ वेत्यपिशब्दार्थः। (अणगारे त्ति) अविद्यमा-नगृहाः, भगिणी समणोपासिया जाया। तते णं ते समणा होतगा एक्कारस अंगाई ते च ताएसाऽऽदयोऽपि स्युरत आह-प्रकर्षेण व्रजिता मिथ्यात्वाऽऽदिभ्यो अहिजिया,ततेणं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविरं विहरइ। तेणं विनिर्गताः प्रव्रजिताः, तथा-(एगस्स खीरभोयणहेउत्ति) क्षीरानभोज कालेणं तेणं समएण रायगिह नाम नयरं, तत्थ सामी समोसढो, ताहे नमेव विशुद्धाध्यवसायविशेषोत्पत्तिनिबन्धनतया हेतुः कारण क्षीरभोज सामी पुणो विनिग्गतो, चपंपहाविओ, ताहे सालमहासाला सामी आपुनहेतुः, मयूरव्यंसकाऽऽदित्वात्समासः, तमाश्रित्येतिशेषः / (नाणुप्पय च्छति, अम्हे वि पिट्टीचप वच्चामो, जइ नाम ता ण कोवि वुज्झिज्जा, त्ति) ज्ञानस्योत्पादनमुत्पत्, संपदादित्वात् विप् , ज्ञानोत्पत् / तथा सम्मत्तं वा लहिज्जा, सामी विजाणइ जहा ताणि संबुज्झिहंति, ताहे (चिरससिट्टत्ति) चिर प्रभूतकालं संसृष्टः स्वस्वाम्यादि संबन्धेन संबद्धो सामिणा गोयमसामी सेविजाओ दिनो, सामी चंपं गतो, गोयमसामी यस्तं, चिर परिचितः सहवासाऽऽदिना स पूर्वो यस्तम्। उभयत्र विस्पष्ट पिद्विचपं गतो, तत्थ समोसरणं, गागलीपितरो जसवती य निग्गयाणि, पटुर्विस्पष्टपटुरितिवत् "सहसुपा" ||2 / 1 / 4 / / इत्यत्र सुपेतियोग भगवं धम्म कहेइ, ताणि य धम्म सोऊण संविग्गाणि, ताहे गागली विभागात्समासः। चिरमनुगतमभिप्रायानुवर्तिनम्, आत्मानमिति शेषः / भणइ०जं नवर अम्मापियरो आपुच्छामि, जेट्टपुत्तं च रख्ने ठवेमि, ताणि ममेत्यात्मनिर्देशः। ततः प्रभूतमोहनीयाऽऽच्छादिततया न ते ज्ञानोत्प आपुच्छियाणि भणंति-जइ तुम संसारभयउद्विग्गो, अम्हे वि, ता एसो त्तिरित्यभिप्रायः / देहस्य तु शरीरस्य भेदे विनाशे द्वावप्यावा तुल्यौ पुत्त रज्जे ठाविता अम्मापीतिहिं समं पव्वतितो, गोयमसामी ताणि घेत्तूण चंपं वचइ, तेसिं सालम-हासालाणं पंथ वचंताणं हरिसो जाओ, जहा मुक्तिपदप्राप्त्या समौ भविष्याव इति। मा त्वमधृतिं कृथा इति भावः / संसारं उत्तारियाणि, एवं तेसिं सुहेण अज्झवसाणेण केवलणाणं उत्पन्न / तथा येन प्रकारेण यथा (मन्ने त्ति) आर्षत्वात् पुरुषव्यत्ययः,ततो मन्यसे, इयरेसि पि चिंता जाया-जहा एएहिं अम्हे रज्जे ठावियाणि, संसाराओ त्वमेतं ज्ञानावाप्तिलक्षणमर्थ वस्तु, वयं जानीमोऽवबुद्ध्यामहे, किंवि शिष्टाः मोइयाणि, एवं चिंतंताणं सुहेण अज्झवसाणेणं तिण्हं पि केवलनाण सन्त इत्याह-क्षीणः पुनर्भवाभावतः संसारो येषां ते क्षीणसंसाराः, तेन उप्पन्न, एवं ताणि उप्पन्नणाणाणि चंपंगयाणि, सामीपयाहिणं करेमाणाणि प्रकारेण तथा व्यवच्छेदफलत्वात्तथैव। किमित्याह-(मण्णे त्ति) प्राग्वत्, तित्थ पणमिऊण केवलिपरिसं पहावियाणि / गोयम-सामी भगवं मन्यसे एतमर्थमनन्तरोक्तं, विमानवासिनोऽपि देवा जानन्त्यवबुद्ध्यन्ते? वंदिऊण तिक्खुत्तो पाएसुपडितो उद्वितोभणइ-कहिं वचह, एह तित्थयरं एवं च यथा क्षीणसंसारा जानन्ति, तथा विमानवासिनोऽपि जान वंदह? ताहे सामी भणइ-मा गोयम ! केवली आसाएहि,ताह आउट्टो न्तीत्याशयवतः क्षीणसंसारिणां च परिज्ञानं प्रति साम्यमभिमत-मित्यहो खामेइ, संवेगं च गतो। तत्थ गोयमसामिस्स संका जाया--मा हं चणं तवाविवेकितेत्युपालब्धः / तथा (जाणगपुच्छं ति) ज्ञापकपृच्छया सिज्झिजामि त्ति, एवं गोयमसामी विचिंतेइ। इओ य देवाण संलावो पृच्छति, न हि तस्य भगवतः समस्तज्ञेयविषय विज्ञानचक्षुषः वट्टतिजो अट्ठावयं विलिग्गइ, चेइयाणि य वंदति धरणीगोयरो, सो कचिदज्ञानमस्ति, किं तु गौतमं प्रतियोधयितुमित्थमुपालभते-यथा, तेण भवग्गहणेण सिज्झइ, ताहे सामी तस्स चित्त जाणइ, ताव किम्? दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवास्तेषां वचनं वाचो (गज्झं ति) सयणसंबोहणयं एयस्स वि थिरता भविरसइ त्ति दो वि कयाणि ग्राह्यमुपादेयम् / (आओ ति) आर्षत्वात् आहो-स्वित्, जिनाना भविस्संति, एयस्स वि पचओ, ते विसंबुज्झिरसंति त्ति / सो वि सामि वराःप्रधाना जिनवरा उत्पन्नके वलास्तीर्थकृतः, तेषां, तदनेन आपुच्छति-अट्ठावयं जामि त्ति / तत्थ भगवया भणियंवच अट्ठावयं, एकमरमत्परिज्ञानस्य देवपरिज्ञानस्य च साम्याऽऽपादनम्, अपरंतु साम्ये चेइयाणि वदह / ते एवं भगवं हट्ठतुट्ठो वंदित्ता गतो, तत्थ य अट्ठावए सत्यपि "देहस्स य भेयम्मि वि, दोणि वि तुल्ला भविस्सामो ति" जणाववायं सोऊण तिन्नि तावसा पंच पंच सयपरिवारा पत्तेयं ते अट्ठावयं अस्मद्वचनतः शतशोऽपि श्रुतान्न विनिश्चयमपि विहितवान्, देववचनात्तु | विलग्गामो ति, तत्थ किलिस्संतिकोडिन्नो, दिन्नो, सेवाली, जो
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________________ दुमपत्तय 2567 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय कोडिन्नो सो चउत्थं काऊण पच्छा मूलकदाणि आहारेइ सवित्ताणि, सो | पढम महलं विलग्गो। दिन्नो यछट्टछद्रेण काऊण परिसडिय पडुपण्णाणि आहारेइ, सो विय मेहलं विलग्गो। सेवाली अट्टमं 2 काऊणजो सेवालो सय मइल्लओ तं आहारेइ, सो तइय मेहल विलग्गो / एवं ते वि ताव किलिस्सति। भयवं च गोयमे ओरालिए सरीरे अवहितडतडियतरुणरविकिरणसरिसतेए पत्ते पेच्छिऊण ते भणति- एस किर एत्थ छुल्लओ समणो विलग्गिहि त्ति, जं अम्हे महातवस्सी सुक्का भुक्खा न तरामो विलग्गिउं, भगवं च गोयमे जघाचारणलद्धीए लयातंतुपुडग पिव निरसाए उप्पयइ०जावते य पलोएंति, एस आगओ, एसो अदंसणं गतो त्ति, ताहे ते विम्हिया जाया पसंसति, अत्थंति य पलोइंता, जइ ओयरइ, तो एयरस वयं सीसा, एवं ते पडिच्छता अत्यति, सामी वि चेइयाई वंदित्ता उत्तर-पुरच्छिमे दिसीभाए पुढविसिलापट्टए उयट्टो असोगवरपायवरस अहे तं रयणीवासाए उवगतो। इतो व सक्स्स लोगपालो वेसमणो, सो वि अट्ठावय चेइयं बंदतो एइ, सो चेइयाणि वंदित्ता गोयमसामि वंदइ, ताहे सो धम्म कहेइ, भगवं अणगारगुणे परिकहेउ पवत्तो अंताहारा पताहारा एवं वण्णइ, वेसमणो चिंतेइ-एस भगवं एरिसो साहुगुणे वण्णेइ, अप्पणो य से इमा सरीरसुकुमारया जारिसा देवा- ण विनस्थि, भयवं तरस आकूयं नाउ पुंडरीयं नामऽज्झयणं पन्नवेइ-जहा पोक्खलावइविजए पोंडरीगिणीए नयरीए नलिणवणे उजाणे समो सढे, महापउमे निग्गए, धम्म सोचा जंकणवर देवा–णुप्पिया ! पुंडरीयं कुमारं रजे ठवेमि? अहासुहं मा पडिबंध करेह। एवं जाव पुंडरीए राया जाएजाव विहरइ। तए ण से कडरीएकुमारे जुवराया जाए।तएणं से पउमेराया पुंडरीयरायं आपुच्छइ, तए णं से पुंडरीए सिवियं नीणेइ०जाव पव्वइए, णवरं चउद्दसपुव्वाई अहिजइ बहूहि छट्ठऽट्टममहातवोवहाणेहिं बहूणि वासाणि सामन्न पालिऊण मासियाए संलेहणाए सर्द्धिभत्ताएझोसित्ताजाव सिद्ध। अन्नया यते येरा भगवंता पुव्वाणुपुब्विं विहरमाणेजाव पुंडरीगि-णीए समोसढे, परिसा णिग्गया। तए ण से पुंडरीए राया कंडरीएण जुवरन्ना सद्धि इमीसे कहाए लट्टे समाणे हट्टे० जाव गए धम्म-कहा०जाव सो पुंडरीए सावगधम्म पडिवण्णो० जाव पडिगए सावए जाए। तए णं से कंडरीए जुवराया येराणं धम्म सोचा हट्ठ० जाव जहेव तुब्भे वदह, जं० नवरं देवाणु प्पिया ! पुंडरीयं आपुच्छामि, तए पंजाव पव्वयामि? अहासुहं पव्यय / तए णं से कंडरीए०जाव थेरे नमसइ, नमसित्ता अंतियाओ पडिनिक्खमइ, निक्खमित्ता तामेव चाउग्घंट आसरहं दुरूहइoजाव पचोरुहइ, जेणेव पुंडरीएराया तेणेव उवागच्छइ, करयल०जावपुंडरीयं रायं एवं वयासी-एवं खलु मए देवाणुप्पिया ! थेराणं अंतिएजाव धम्मे निसंते, से धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अहिरुइए।तएणं अहं देवाणुप्पिया! संसारभओव्विग्गे भीए जम्मणमरणाणं, इच्छामि णं तुब्भेहि अणुण्णाए समाण थेराणं अंतिए०जाव पव्वइत्तए ति। तए ण से पुंडरीए राया एवं वयासीमा णं तुम देवाणुप्पिया ! इयाणि थेराणं अंतिएजाव पव्वयाहि। अहं णं तुम महया 2 रायाहिसेएण अभिसिंचिस्सामि / तए णं से कंडरीए पुंडरीयस्स रनो एयमट्ट नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए सचिट्ठइ। तए णं से कंडरीए राय दोच पि तचं पि एवं वयासी-इच्छामिण देवाणुप्पिया ! जाव पव्वइत्तए त्ति / तए णं से पुंडरीए राया कंडरीयं कुमार जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहिं यहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा०४,ताहे विसयपडिकूलाहिं संजममओव्वेगकरीहिं पण्णवणाहि पण्णवेमाणे २एवं वयासी-एवं खलु जाया ! निगथे पावयणे सचे अणुत्तरे केवलिए, एवं जहा पडिक्कमणे०जाव सव्व-दुक्खाण अतं करेइ,किंतु अहीव एगंतदिट्टी, खुरो इव एगत्तधाराए, लोहमया जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निस्सारे, गंगा व महानई पडिसोयं गमणीए, महासमुद्दे इव भुयाहिं दुत्तरे, तिक्खं चंकडियव्यं, असिधारं च तवं चरियव्वं, नो य खलु कप्पइ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं पाणाइवाए वाजाव मिच्छादसणसल्लेइ वा अहाकम्मेइ वा उद्दिरसेइ वा मिस्सजाए वा अब्भावरए पूई कीए पाडिचे अच्छिजे अणिसड्ढे अभिहडेइ वा वितियए वा कंतारभत्तेइ वा दुभि-- क्खभत्तेइ वा गिलाणभत्तेइ वा पाहुणगभत्तेइ वा सेज्जायरपिंडेइ वा मूलभोयणेइ वा कंदभोयणेइ वा फलभोयणेइ वा वीयभोयणेइ वा हरियभोयणेइ वा भोत्तएवा, पायाए वा, तुमंचणं जाया ! सुहस-मुधिए,णो चेवणं दुहसमुचिए, णाल सीत णालं उण्हणालं खुहा णालं पिवासा णाल चोरा णालं वाला णाल दंसा णालं मुसगा णालं वाइयपित्तियसिंभियसन्निवाए विविहे रोगायके उच्चावचेवा गामकंटए वा वावीस परीसहोवसग्गे उदिण्णे सम्म अहियासिए त्ति, णो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुभं खणमवि विप्पओगं, तं अत्थाहि ताव जाया ! अणुभवाहि रजसिरि पच्छा पव्वइहिसि। तएणं से कंडरीए एवं वयासी-तहेव णतं देवाणुप्पिया ! जणं तुब्भे वयह, किंपुण देवाणुप्पिया! निग्गथे पावयणे कीवाणं कायराणं किंपुरिसाणं इह-लोयपडिबद्धाणं परलोगघरम्मुहाणं विसयतिसियाणं दुरणुचरे पागयजणरस, वीरस्स निच्छ्यिस्स अविसियस्सनो खलुएत्थ किंचिदुक्कर करणाए, तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया!जाव पव्वइत्तए त्ति। तएणं कंडरीय पुंडरीए राया जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि य०४ आघवित्तए वा०४, ताहे अकामए चेव निक्खमणं अणुमन्नित्था।तरण से पुंडरीएकोडुवियपुरिसे सद्दावेइ, सद्यावेत्ता एवं वयासी-जहा महग्धं महरिहं निक्खमणमहिम करेह०जाव पव्वइतो, सामाइयमाइयाई एगारस अंगाई अहिजइ, अहिजित्ता बहूहिं चउत्थछट्टठमाईहिं तवोभिहाणेहिं०जाव विहरइ, अण्णया तस्स कंडरीयस्स अंतेहि य पंतेहि यजाव रोगायंके पाउन्भूते जाव दाहवक्कतीए यावि विहरंति। तए णं ते थेरा भगवंतो अण्णया कयाइपुव्वाणुपुब्बिं चरमाणा गामाणुगामं विहरमाणा पुंडरीगिणीए नलिणिवणे समोसढा, तए से पुंडरीए राया इमीसे कहाए लट्ठ० जाव पवासइ / पत्शुया धम्मकहा भगवया / तए णं से पुंडरीए राया धम्म सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छइत्ता कंडरीय वंदइ, नमसइ, नमंसित्ता कंडरीयस्स सरीरं सव्वावाहं रूवं पासइ. पासेत्ता जेणेव थेरा तेणेव उवागच्छइ, थेरं वंदइ, वंदित्ता एवं वयासी-अहं ण भंते ! कडरीयअणगाररस अहापवत्तेहिं तेगिच्छिएहि फासुएसणिज्जेहि अहापव्वत्तेहि ओसहभेसजेहिं भत्तपाणेहिं तिगिच्छ आउट्टामि, तुब्भे ण भंते ! मम जाणसालासु समोसरह / तए णं थेरा, पुंडरीयरस रण्णो एयमट्ट पडिसुणे ति, पडिसुणेत्ता जाणसालासु विहरति / तए णं से
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________________ दुमपत्तय 2568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय पुंडरीए कंडरीयरस तेगिच्छं आउट्टेइ, तंमणुन्नं असणं पाणं खाइम साइमं आहारितस्स समणस्स से रोगायके खिप्पामेव उवसंते, हढे जाए, आरोगे पलियसरीरे, ततो रोगायकामुक्के वि समाणे तेसि मणुण्णंसि असणे०४ मुच्छिए०जाव अज्झोववन्ने विविहे य पाणगंसि, णो संचाएइ बहिया अब्भुञ्जएणं विहारेणं विहरित्तए त्तिा तएणं से पुंडरीए इमीसे कहाए लट्टे समाणे जेणेव कंडरीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीय तिक्खुनो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, वंदइत्ता एवं वयासी-धन्ने सिण तुम देवाणु-प्पिया! एवं संपुण्णे सिणं कयत्थे कयलक्खणं सुलद्धेणं तव देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्भे जीवियफलेजणं तुम रज चजाय अंतउर च विछड्डित्ता०जाव पव्वइए; अहं णं अहणणे अकयपुण्णे, जंण माणुस्सए भवे अणेगजाईजरामरणरोगसोगसारीरमाणसए कामदुक्खवेयणवसणसव्वुपद्धवाभिभूए अधुवे अणितिए असासए संझाइरागसरिसे जलवुव्युयसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे सुमिणगर्दसणोवमे विजुल्लयाचंचले अणिचे सडणपडणविद्धसणधम्मके पुट्विं पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियो इति, तहा माणुस्सयं सरीरयं पि दुक्खाययणं विविहबाहिसय सण्णिकय अट्ठियकुदुट्ठियसिराण्हारुजालउव्वद्ध संपिणद्धं मट्टियभड व दुब्बल असुइसंकिलिट्ठ अणि8 पिय सव्वकालसंदप्पयं जराथुणियजज्जरघर य सडणपडणविद्धसणधम्मय पुव्य वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियवं, कामभोगा वि य णं माणुस्सा वा असुई असासया वंतासवा एवं पित्ता खेला सुक्का सोणिया सव्वा उचारपासवणखेलसिंघाणग-वंतपित्तसुक्कसोणियसमुत्भया अमणुण्णदुरूयमुत्तपूइपुरीस-पुण्णामयगंधुस्सासअसुभनिस्सासउध्वियणगा वीभच्छा अप्पकालिया लहुस्सगा कलमलाहिया सुदुक्खा बहुजणसाहारणा परिकिलेसकिच्छदुक्खसज्झा अवुहजणनिसेविया सदा साहुगरहणिज्जा अणंतसंसारखडण्णा कडुगफलविवागचहुलिव्व अमुचमाणा दुक्खाणुबंधिणो सिद्धिगमणविष्ण पुव्वं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियव्वा भवति त्ति / जे विय ण रज हिरणे सुवण्णे य० जाव सावएजे, से वियणं अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए मचुसाहिए दाइयसाहिए अधुवे अणितिए असासए पुल्विं वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियव्वे भविस्सइ त्ति, एवंविहम्मि रज्जे० जाव अंतेउरे य माणुस्सएसुय कामभोगेसुमुच्छिए नो संचाएमिजावपव्वइत्तए, तंधण्णे सिणं तुमजाव सुलद्धेण मणुयजम्मे, जेणं पव्यइए। तएणं से कंडरीए पुंडरीएणं एवं वुत्ते तुसिणीए संचिट्टइ। तए ण से पुडरीए दोचं पि तचं पि एवं वयासी-धण्णो सि तुम, अहं अहण्णे।तए णं से दोच्च तचं पि एवं वुत्ते समाणे अकामए अवसंवसे लज्जाए गारवेण य पुंडरीय राय आपुच्छइ, थेरेहिं सद्धिं बहिया जणवयविहार विहरइ। तएणं से कंडरी थेरेहिं सद्धि किंचि काल आउग्गे आऊग्गेण विहरित्ता तत! पच्छा रामणत्तणनिध्वग्णे रामणतणनिब्भंछिए समणगुणमुक्कजागे थेराणर अंतियाओ सणियं राणियं पचोसकाइ, जेणेव पुंडरीगिणी नयरी जेणेध पुंडरीयस्सरभो भवणे जेणेव असोगवणिया जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढवीसि-लावट्टए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ताजाव सिलापट्टयं दुरूहइ. दुरूहित्ता ओहयमण संकप्पे०जाव झियाइ।तए ण पुंड-रीयस्रा | अम्मधाई तत्थाऽऽगच्छइ०जाव तं तहा पासेइ, पासित्ता पुंडरोयस्स साहेइ, से वि य णं अंतउरपरियालसंपरिवुडे तत्थ गच्छइ, गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणंजाव धण्णे सि ण सव्यं०जाव तुतिणीए। तए ण पुंडरीए एवं वयासी-अट्ठो भंते ! भोगेहि? हंत ! अहो / तए णं को डुं वियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता कलिकलुसेणे वाऽभिसित्तो रायाहिसेएणजाव रज पसाहेमाणे विहरइ / तए णं से पुंडरीए सयमेव पंचमुट्टियं लोय करेइ, करेत्ता चाउज्जामं धम्म पडिवाइ, कंडरीयस्स आयारं भंडग सध्वसुहसमुदयमित गेण्हइ, गेण्हेत्ता इमं अभिग्गहं गिण्हइकप्पइ मे थेराणं अतिए धर्म पडिवजित्ता पच्छा आहारं आहरित्तए ति कटु थेराभिमुहे निग्गए कंडरीयस्स उतं पाणीयं पाणभोयणं आहारियस्स नो सम्म परियणे वेयणा पाउब्भूया उज्जला विउला०जाय दुरहियासा / तएणं से रज्जे य०जाव अंतेउरेय मुच्छिए जाए अज्झोववण्णे अट्टदुहट्टवसट्टे अकामए कालं किच्चा सत्तमपुढवीए तेत्तीससागरोदमट्टिइए जाते। पुंडरीए वियणं थेरे पप्प एसिं अंतिएते दोचं पि चाउज्जामे धम्मे पडिवजति अट्ठमखमणपारणगंसि अदीणे० जाव माढारेइ, तेण य कालाइक्कतं सीयललुक्खअरसविरसेण अपरिणएण वेयणा दुरहियासा जाया, तए णं से अधारणिजमिइ कट्ट करयलपरिगहियं०जाव अंजलिं कट्ट- "नमोत्थु णं अरहताणंजाव संपत्ताणं," 'नमोत्थु : थेराण भगवंताणं मम धम्मायरियाण धम्मोवएसाणं पुव्विं पि य णं मए थेराण अंतिए सव्वे पाणाइवाए पचक्खाए जावजीवाए०जाव सटवे अकरिज्जे जोगे पचक्खाए, इयाणि पि य णं तेसिं चेव ण भगवंताणं अंतिए सव्वपाणाइवायजाव सव्वं अकरणिज्जजोगं पचक्खामि, ज पि य इमे इम सरीरगंजाव एवं पि चरिमहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरामि त्ति," एव आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किया सव्वट्ठसिद्धे तेत्तीससागरोवमाऊ देवो जातो, ततो चइता महा-विदेहे सिज्झिहि त्ति / तं मा तुम दुब्बलत्तं बलियत्तं वा गेण्हाहि, जहा सो कंडरीओ तेण दोब्बल्लेणं अट्ठदुहट्टवसट्टो सत्तमाए उववन्नो, पुंडरीओ पडिपुण्णगलकवोलो सव्वट्ठसिद्ध उववण्णो / देवाणुप्पिया! बलितो दुब्बलो वा अकारण एत्थ झाणनिगाहो कायव्वो, झाणनिग्गहो परमं पमाणं, तत्थ वैसमणो अहो भगवया अक्खयं नायं ति, एत्थ अईव संवेगमावण्णो त्ति वदित्ता पडिगता ति, तत्थ वेसमणस्स एगो सामाणितो देवो, तेण तं पुंडरीयज्झयणं ओगाहिय, पंच सयाणि सम्भत्तं च पडिवण्णो त्ति / केइ भणंति-जंभगो सो ताहे भगवंकल्ले चेझ्याणि वंदित्ता पचोरुहइ,ततावसा भणंति-तुब्भे अम्हाणं आयरिया, अम्हे तुम्भं सीसा / सामी भणइ-तुभं अम्ह य तिलोगगुरू आयरिया। ते भणंति-तुब्भ वि अण्णो आयरिओ? ताहे सामी भगवंतो गुणसंथवं करेइ, पटवइया देवया, तेसिं लिंगाणि उवणीयाणि, ताहे ते भगवया सद्धि वचंति, भिक्खावेला य जा-या, भगवं भणइ-किं आणिज्जओ? ते भणति-पायसो, भगवं च सव्वलद्धिसंपण्णा पडिगहगं महुसंजुत्तरस पायसस्स भरेत्ता आगतो। ताहे भणइ-परिवाडीए ठाह, ते ठिया, भगवं च अक्खीणमहाणसिओ, ते धाया, ते सुट् टुयरं आउट्टा, ताहे सयमाहारेइ, ताहे पुणरवि पट्टिया, तेसिं च सेबालभक्खगाणं जेमित्ताणं चेव नाणं उप्पण्णं, दिण्णस्स वग्गो छत्ताइच्छनपेच्छ
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________________ दुमपत्तय 2566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय ताणं, कों डिण्णवग्गे सामि दळूण उववण्णं / गोयमसामी पुण पुरतो पकडमाणे सामी पयाहिणीकरेइ / ते वि के वलिपरिसं पहाविया / गोयमसामी भणइ-एह सामि वंदह / साभी भणइ-मा गोयमा ! केवली आसाएहि। गोयमसामी आउट्टो मिच्छादुक्कडं करेइ। ततो गोयमसामिस्स सुट ठुतरं अधिई जाया / ताहे सामी गोयम भणइ-किं देवाण वयण गज्झं, आतो जिणाण? गोयमो भणइ-जिण-वराण / तो कीस अधिई करेसि? ताहे सामी चत्तारिकडे पण्णवे तं जहा-सुट्टुकडे, विदलकडे, चम्मकडे, कंबलकडे / एवं साभी वि गोयमसामीतो केबलकडसमाणो। किं च-चिरसंसिट्ठो सि मे गोयमा ! चिरपरिचिओ सि मे गोयमा !०जाव अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो, ताहे सामी 'दुमपत्तय' नामऽज्झयणं पाण्णवेइ। देवो वि सेससमणसामाणिओ ततो चइत्ता ण तुंबवणसण्णिवेसे धणगिरी नाम गाहावई, सो अड्डो, सो य पव्वइउकामो, तस्स य मायापियरो वारेइ, पच्छा से जत्थ जत्थ वारेति, तत्थतत्थ विपरिणामेति, जहा अहं पवइतुकामो। तरस य तयाणुरुवस्स गाहावइस्स सुणदा नाम धूया। सा भणइ-ममं देह / ताहे सा दिण्णा। तीसे य भाया अज्जसमितो नाम पुव्वपब्वइतो, तीसे य सुणंदाए कुच्छिरिस सो देवो उववण्णो / ताहे भणइ धणगिरी-एस ते गब्भो वितिज्जतो होहिइ, सो सीहगिरिस्स पासे पव्वाइओ। इतो न नवण्हं मासाणं दारओ जातो।" इत्यादि भगवद्वैरस्वामिकथा आवश्यकचूर्णितोऽवसैये-त्युक्तो नामनिष्पन्ननिक्षेपः / संप्रति स्त्राऽऽलापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सतीत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुद्यारणीयम्। तचेदम्दुमपत्तएँ पंडुयए, जह निवडइ रायगणाण अच्चए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ||1|| द्रुमो वृक्षः, तस्य पत्रं पलाश, तदेव तथाविधावस्थाप्राप्त्याऽनुकम्पितं दुमपत्रक, (पंडुयए त्ति) आर्षत्वात् पाण्डुरकं, कालपरिणामतस्तथाविधरोगाऽऽदेर्वा प्राप्तबलक्षभावं, येन प्रकारेण यथा, निपतति शिथिलवृन्तबन्धनत्वाद्भस्यति, प्रक्रमाद्रुमत एव रात्रिगणाना, दिनगणाविनाभावित्वादुपलक्षणत्वाद्वा रात्रिन्दिवसमूहानाम्, अत्ययेऽतिक्रमे, एवमि.. त्येवंप्रकार, मनुष्याणां मनुजाना, शेषजीवोपलक्षणं चैतद, जीवितमायुः, तदपि हि रात्रिन्दिवगणानामतिक्रमे यथास्थित्या स्थितिखण्डकापहाराऽऽत्मकेनाध्यवसायाऽऽदिजनितेनोपक्रमणेन वा जीवप्रदेशेभ्यो भ्रस्थतीत्येवमुच्यते / यतश्चैवमतोऽत्यन्तनिरुद्धः कालः समयस्तम्, अपिशब्दस्य गम्यमानत्वात् समयमपि, आस्तामावलिकाऽऽदि / गौतमेति गौतमसगोत्रेस्येन्द्रभूतरामन्त्रणम्, मा प्रमादीः मा प्रमाद कृथाः, शेषशिष्योपलक्षणं च गौतमग्रहणम्। उक्तं हि नियुक्तिकृता"तन्निस्साए भगवं, सीसाण देइ अणुसहि।।" अत्र च णण्डुरकपदाऽऽक्षिप्तं यौवनस्थाप्यनित्यत्वमाविश्चिकीर्षुराह नियुक्तिकृत्परियट्टियलावण्णं, चलंतसंधिं मुयंतविंटागं। पत्तं वसणं पत्तं, कालं पत्तं भणइ गाहं // 42 / / जह तुब्भे तह अम्हे, तुब्भे वि य होहि य जहा अम्हे / अप्पाहेइ पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं / / 43|| न वि अस्थि न वि य होहि इ, उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं। / उवगा खलु एस कया, भवियजणविबोहणट्ठाए॥४४॥ परिवर्तितं कालपरिणत्याऽन्यथाकृतं, लावण्यमभिरामगुणाऽऽ-- त्मकमस्येति परिवर्तितलावण्यं, यतोऽनन्तस्य प्रागिव सौकुमार्याऽऽदि विद्यते। तथा चलन्तः शिथिलीभवन्तः सन्धयो यरिंमस्तत्तथा, अत एव (मुयंतविंटागं ति) मुञ्चत् त्यजत् सामाद वृक्षं वृन्तं पत्रबन्धनं यस्य तन्मुञ्चदवृन्तकं, वृन्तस्य च वृक्षमोचने पत्रस्यपतनमेव भवतीत्येतदित्युक्त भवति, पत्र पर्ण,व्यसनमा पदं, प्राप्त व्यसनप्राप्त, तथा कालः, प्रक्रमात् पतनप्रस्तावः, तं,प्राप्तं गतं कालप्राप्त, भणत्यभिधत्ते, गीयत इति गाथा, तां छन्दोविशेषरू-पाम् / तामेवाऽऽह-यथेति सादृश्ये,ततो यथा यूर्य संप्रति किशलयभावमनुभवन्तः स्निग्धाऽऽदिगुणैर्गर्वमुद्हन्तोऽस्मानुपहसप, तथा वयमतीतदशायां, तथा यूयमपि च भविष्यथ यथा वयमिति। जीर्णभावे हि यथा वयमिदानीं विवर्णविच्छायतयोपहास्यान्येवं यूयमपि भावीनीति। (अप्पाहेइत्ति) उक्तन्यायेनोपदिशति पितेव पुत्रस्य, पतद् भ्ररयत्पाण्डकपत्रं जीर्णपर्ण, किशलयानामभिनवपत्राणाम्। ननु किमेवं पत्रकिशलयानामुल्लापाः संभवन्ति,येनेदमुच्यते? अत आह-नैवास्ति नव विद्यते, नैव भविष्यति, उपलक्षणत्वान्नैव भूतः, कोऽसौ? उल्लापो वचन, केषाम्? किशलयपाण्डुपत्राणामुक्तरूपाणाम्। आर्षत्वाञ्च य लोपः। तदिह किमेवमुक्तमिति? आह-उपमा उपमितिः, खल्वेवकारार्थः, तत उपमैवेषानन्तरोक्ता, कृताऽभिहिता / (भवियजाणविबोहणट्टाए त्ति) प्रतीतमेव / यह किशलयानि पाण्डुपत्रेणानुशिष्यन्ते, तथा अन्योऽपि यौवनगर्वितोऽनुशासनीयः / तथा चैतदनुवादिना वाचकेनावाचि'परिभवसि किमिति लोक, जरसा परिजर्जरीकृतशरीरम् / अचिरात् त्वमपि भविष्यराि, यौवनगर्व किमुद्रहसि? / / 1 / / " तदेवं जीवितयौवनयोरनित्यत्वमवगम्य न प्रमादो विधेय इति गाथात्रयार्थः / पुनरायुषोऽनित्यत्व ख्यापयितुमाहकूसग्गे जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्ठइ लंबमाणए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए।।२।। कुशो दर्भसदृशस्तृणविशेषः, तनुकत्वाच्च तस्योपादानं, तस्याग्रं प्रान्तस्तस्मिन्, यथेत्युपमाप्रदर्शकः, अवश्यायः शरत्कालभावी श्लक्ष्णवर्षः, तस्य बिन्दुरेव बिन्दुकोऽवश्यायबिन्दुकः, स्तोकमल्पं, कालमिति गम्यते / तिष्ठत्यास्ते, लम्बमानको मनाग निपतन्, बद्धाऽऽस्पदो हि कदाचित् कालान्तरमपि क्षमतेत्येवं विशिष्यते / एवमित्युक्तसदृशं मनुजानां मनुष्याणां, मनुजग्रहणं च प्राग्वत्। (जीविय त्ति) जीवित, यत एक, ततः समय गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः / अमुमेवार्थमुपसंहरनुपदेशमाहइइइत्तरियम्मि आउए, जीवियए बहुपचवायए। विहुणाहि रयं पुरे कडं, समयं गोयम ! मा पमायए / / 3 / / इतीत्युक्तन्यायेन, इत्वरे अयनशीले, कोऽर्थः? स्वल्पकालभाविनि, एत्युपक्रमहेतुभिरनपवर्त्यतया यथास्थित्यवानुभवनीयता गच्छतीत्यायुः, तचैवं निरुपक्रममेव, तस्मिन्, तथाऽनुकम्पितं जीवित जीवितकं, चशब्दस्य गम्यमानत्वात्तस्मिश्चार्यात् सोपक्रमाऽऽयुषि, बहवः प्रभूताः प्रत्यपाया उपघातहेतवोऽध्यवसननिमित्ताऽऽदयो यरिंमस्तत्तथा, अनेन चानुकम्पताहेतुराविष्कृतः, एवं चोक्तरूपद्रुमपत्रोदाहरणतः, कुशाग्रजलबिन्दूदाहरणतश्चे मनुजाऽऽयुर्निरुपक्रम सोपक्रम चेत्वरम्, अतोऽस्थाप्यनित्यतां मत्वा विधुनीहि
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________________ दुमपत्तय 2570 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय जीवात् पृथक् कुरु, रजः कर्म, (पुरे कडं ति) पुरा पूर्व तत्काला-पेक्षया, कृतं विहितं पुराकृतम् / तद् विधुननोपायमाह-समय मपि गौतम ! मा प्रमादीः / पठन्ति च- "एवं मणुयाण जीविए, इत्तरिए बढुपचवायए।" इति सुगममेवेति सूत्रार्थः। स्यात् पुनर्मनुष्यभावावाप्तावुद्यस्याम इत्याहदुल्लभे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्यपाणिणं / गाढा य विवागकम्मुणो,समयं गोयम ! मा पमायए।।४।। दुर्लभो दुरवापः, खलु विशेषणे, अकृतसुकृतानामिति विशेष द्योतयति / मानुषो मनुष्यसंबन्धी, भवो जन्म, चिरकालेनापि प्रभूतकालेनापि, आस्ताम् अल्पकाले नेत्यपिशब्दार्थः / सर्वप्राणिनां सर्वेषामपि जीवानाम् / ननु मुक्तिगमनं प्रति भव्यानामिव केषाञ्चिन्मनुजभवावाप्ति प्रति सुलभत्वविशेषोऽस्ति किमेवम्? अत आहगाढाः विनाशयितुमशक्यतया दृढाः, च इति यस्माद् (विवागकम्मुणो ति) विपाका उदयाः कर्मणां मनुष्यगतिविघातिप्रकृतिरूपाणां, यतएवमतः सभयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः। कथं पुनर्मनुजत्व दुर्लभं, यद्वा-यदुक्तं सर्वप्राणिनां दुर्लभं मनुजत्वमिति, तत्रैकेन्द्रियाऽऽदिप्राणिनां तद् दुर्लभत्वं दर्शयितुकामः कायस्थितिमाहपुढविक्कायमइगतो, उक्कोसं जीवे उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायए / / 5 / / आउक्कायमइगतो,उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए।।६।। तेउक्कायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए / / 7 / / वाउकायमइगओ, उक्कोसं जीयो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायए।।८|| वणस्सइकायमइगतो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालमणंतदुरंतयं, समयं गोयम! मा पमायए ||6|| बेइंदियकायमइगतो, उक्कोसं जीवो उ संवसे / कालं संखेज्जसन्नियं, समयं गोयम ! मा पमायए।।१०।। तेइंदियकायमइगतो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखेज्जसन्नियं, समयं गोयम ! मा पमायए।११।। चउरिदियकायमइगतो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखेज्जसन्नियं, समयं गोयम ! मा पमायए।।१२।। पंचिंदियकायमइगतो, उक्कोसं जीवो उ संबसे। सत्तऽट्ठभवग्गहणं, समयं गोयम ! मा पमायए।।१३।। देवे नेरइय य मइगतो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। एकेकभवग्गहणं, समयं गोयम ! मा पमायए।।१४।। पृथ्वी कटिनरूपा, सैव कायः शरीरं पृथ्वीकायः, तम, अतिशयन मृत्वा मृत्वा तदुत्पत्तिलक्षणेन, गतः प्राप्तोऽतिगतः(उक्कोसं ति) उत्कर्षतो जीवः प्राणी, तुः पूरणे, संवसेत्तद्रूपतयैवावतिष्टेत, कालं सङ्ख्याऽतीतमसङ्ख्यमित्यर्थः, यत एवमतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति / एवमप्काय तेजस्वायतेजस्कायवायुकायसूत्रत्रयमपि व्याख्ययम्।। तथा वनस्पति सूत्र, नवरं कालमनन्तमिति। अनन्तकायिकापेक्षमतेत्, प्रत्येकवनस्पतीना कायस्थितेरसङ्ख्यातल्वात् / तथा-दुष्टोऽन्तोऽस्येति दुरन्तम्, इदमपि साधारणापेक्षयैव, ते ह्यत्यन्ताल्पबोधतया तत उद्भुता अपि न प्रायो विशिष्ट मानुषाऽऽदिभवमाप्नुवन्ति। इह च काल सङ्ख्यातीतमिति विशेषानभिधानेऽप्यसड ख्योत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानम्, अनन्तमिति चानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणमित्यवगन्तव्यम् / यत आगम:"अस्संखोसप्पिणिसप्पिणीतों एगिदियाण उ चउण्हं। ता चेव अणताओ. वणस्सइए उबोधव्वा // 1 // " तथा द्वे द्विसङ्ख्ये इन्द्रिये स्पर्शनरसनाऽऽख्ये येषां ते द्वीन्द्रियाः कृम्यादयः,तत्कायमतिगत उत्कर्षतो जीवस्तु संक्सेत्काल सड़ ख्येयसंज्ञितं सङ्ख्यातवर्षसहस्राऽऽत्मकम्, अतः समयमपि गौतम! मा प्रमादीः // एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये ! / तथा पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्शनाऽऽदीनि येषां ते तथा, ते चोत्तरत्र देवनारकयोरभिधानाद मनुष्यत्वस्य दुर्लभत्वेन प्रक्रान्तत्वात्तिर्यश्च एव गृह्यन्ते, तत्कायमतिगतः, तत्कायोत्पन्न इत्यर्थः / उत्कर्पतो जीवस्तु संवसेत्सप्त वाऽष्ट वा सप्ताष्टानि तानिचतानि भवग्रहणानि च जन्मोपादानानि सप्ताष्टभवग्रहणानि, यतोऽतः समयमपि गौतम! मा प्रमादीः / तथा देवान नैरयिकांश्च अतिगत उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् एकैकभवग्रहण, ततः परमवश्यं नरेषु तिर्यक्षु वोत्पादात्। यद्वा-(उक्कोसं ति) उत्कृष्यते तदन्येभ्य इत्युत्कर्षः, तमुत्कृष्टं कालं त्रयस्त्रिंशत्-सागरोपममानम्, (एक्कक्कभवग्गहणं ति) अपेर्गम्यमानत्वादेकैकभवग्रहणमपि संवसत्यतो जीवः संवसेदतः समयमपि गौतम ! मा प्रभादीरिति सूत्रदशकार्थः / उक्तमेवार्थमुपसंहर्तुमाह-- एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासुहेहि कम्मे हिं। जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए।।१५।। एवमुक्तप्रकारेण पृथिव्यादिकायस्थितिलक्षणेन, भव एव तिर्यगादिजन्माऽऽत्मकः संसियमाणत्वात्संसारो भवसंसारस्तस्मित्संसरति पर्यटति, शुभानि शुभप्रकृत्यात्मकानि, अशुभानि चाशुभप्रकृतिरूपाणि शुभाशुभानि, तैः कर्मभिःपृथ्वीकायाऽऽदि भवति बन्धनैर्जीवः प्राणी, प्रमादैः बहुलो व्याप्तः प्रमादबहुलः, यद्वा-बहून् भेदान् लातीति बहुलो मद्याऽऽद्यनेकभेदः प्रमादो धर्म प्रत्यनुद्यमाऽऽत्मको यस्य स बहुलप्रमादः, सूत्रे च व्यत्ययनिर्देशः प्राग्वत्। इह चायमाशयः यताऽयं जीवः प्रमादबहुलः सन् शुभाशुभानि काण्युपचिनोति, उपचित्य च तदनुरूपासु गतिष्वाभवं जीवभावमुपगम्य भ्राम्यति, ततो दुर्लभत्वात्पुनमानुषत्वस्य, प्रमादमूलत्वाच्च सकलानर्थपरम्परायाः, समरमपि गौतम! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः / एवं मनुजभवदुर्लभत्वमुक्तम्। इदानीं तदवाप्तावत्युत्तरोत्तरगुणावाप्तिरिति दुरापैवेत्यहलखूण वि माणुसत्तणं, आयरियत्तं पुणरावि दुल्लहं। बहवे दसुया मिलक्खुया, समयं गोयम! मा पमायए।॥१६॥ लखूण वि आरियत्तणं, अहीणपंचिंदियता हु दुल्लहा। विगलिंदियता हु दीसई, समयं गोयम ! मा पमायए।।१७।। अहीणपंचिदिंयत्तं पि से लभे, उत्तमधम्मसुती हु दुल्लहा। कुत्तित्थिणिसेवए जणे, समयं गोयम! मा पमायए / / 18|| लखूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा।
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________________ दुमपत्तय 2571 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय मिच्छत्तणिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए।।१६।। धम्म पि हु सद्दहंतया, दुल्लहया काएण फासया। इह कामगुणेहिँ मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए।।२०।। लब्ध्वाऽपि प्राप्यापि मानुषत्वमिदं तावदतिदुर्लभमेव कथशि-- ल्लब्ध्वाऽपीत्यपिशब्दार्थः / आर्यत्वं मगधाऽऽद्यार्यदेशोत्पत्तिलक्षण, पुनरपे भूयोऽपि आकारस्त्वलाक्षणिकः / दुर्लभं दुरवापम् किमित्यत आह.-बहवः प्रभूता दस्यवो देशप्रत्यन्तवासिनश्वीराः। (मिलिक्खुय त्ति) म्लेच्छा अव्यक्तवाचो, न यदुक्तमार्यरवधार्यते. ते च शकयवनशवराऽs - दिदेशोद्भवाः, येऽथवा प्रापयापि मनुजत्वं जन्तुरुत्पद्यते, ते च सर्वेऽपि धम्म धर्मगम्यागम्यभक्ष्याभक्ष्याऽऽदिसकलाऽऽर्यव्यवहारबहिष्कृतास्तियश एव वा। इति समयमपि गौतम ! भा प्रमादीः / इत्थमार्थदेशीत्पत्तिरूपमार्यत्वमपि दुर्लभम्। तथाविधमपि लब्ध्वाऽप्यार्यत्वमुक्तरूपमहीनान्यविकलानि पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्श नाऽऽदीनि यस्थ स तथा तद्भावोऽहीनपञ्चेन्द्रियता। हुरवधारणे भिन्नक्रपश्च, दुर्लभव : यद्वा -हु: पुनरर्थे / अहीनपश्चेन्द्रियता पुनर्दुर्लभा / इहैव हेतुमाह-विकलानि रोगाः ऽदिभिरुपहतानीन्द्रियाणि येषां तद्भावो विकलेन्द्रियता, हुरिति निपातोऽनेकार्थतया च बाहुल्यसूचकः / ततश्च यतो बाहुल्येन विकनेन्द्रियता दृश्यत, ततो दुर्लभाऽहीनपक्षेन्द्रियता, तथा च रामयमपि गौतम! मा प्रमादीः। तथा कथञ्चिदहीनपञ्चेन्द्रियतामप्युक्तन्यायताऽतिदुर्लभभामपि स इति जन्तुर्लभेत प्राप्नुयात, तथाऽप्युत्तमः प्रधानो यो धर्मर तस्य श्रुतिराकर्णना या सा तथा, हुरवधारणे भिन्यक्रमचा ततो दुर्लभव, किमिति, यतः कुत्सितानि च तानि तीर्थानि कुतीर्थानिशाक्योलूकाऽऽदिप्ररूपितानि, तानि विद्यन्ते येषामनुष्छे यतया स्वीकृतत्वात्ते कुतीर्थिनः, तानितरां संवते यः कुतीर्थिकनिषेवको जनो लोकः, कुतीर्थिनो हि यशःसत्काराऽऽद्येषिणो यदेव प्राणि प्रिय विषयाऽऽदि, तदेवोपदिशन्ति, तत्तीर्थकृतामप्येवविधत्वात / उक्त हि"सत्कारयशोलाभार्थिभिश्च मूरिहान्यतीर्थकरैः / अवसादितं जगदिद, प्रियायपश्यान्युपदिशद्भिः।।१।।" इति सुकरैव तेषा सेवा। तत्सेवनाच कुत उत्तमधर्मश्रुतिः? पठ्यतेच- "कुत्तित्थणिसेवए जणे" इति स्पष्टम् / एवं तद दुर्लभत्वमवधार्य समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः / किं यलब्धटाऽपि उत्तमधर्मविषयत्वादुत्तमा ता श्रुतिमुक्तरूपा, श्रद्धानं तत्त्वरूचिरूपं पुनरपि दुर्लभं दुरापमपि / इहैव हेतुमाह-मिथ्याभावो मिथ्यात्वम्-अतत्त्वेऽपि तत्त्वप्रत्ययरूपं, त निषेवते यः स मिथ्यात्वनिषेवको, जनो लोकोऽनादिभवाभ्यस्ततया गुरुकतया च तत्रेव च प्रायः प्रवृत्तेः / यत एवमतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः / / अन्य-धर्म, प्रक्रमात्सर्वज्ञप्रणीतम्, अपिभिन्नक्रमः, हुर्वाक्यालङ्कार / ततः श्रद्धतोऽपि कर्तुमभिलषन्तोऽपि दुर्लभकाः कायेन शरीरेण, उपलक्षणत्वाद मनसा वाचा च, स्पर्शका अनुष्ठातारः / कारणमाह-इहारिमन् जगति कामगुगेषु मूञ्छिता मूढाः, गृद्धिमन्त इत्यर्थः / जन्तव इति शेषः। प्रायेण ह्यपथ्यष्यव विषयेष्वभिष्वङ्गः प्राणिनाम्। यत उक्तम- "प्रायेण हि यद पथ्यं, तदेव चाऽऽतुरजनप्रियं भवति / विषयाऽऽतुरस्य जगतस्तथाऽनुकूलाः प्रिया विषयाः॥१॥"पाठान्तरतः कामगुणैर्मूञ्छिता इव मूञ्छिता विलुप्त धर्मविषयचैतन्यत्वात्, यतश्चैवमतो दुरापामिमामविकलां धर्मस मग्रीमवाप्य समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रपञ्चकार्थः / अन्यच्च-सति शरीरे तत्सामर्थ्य च सति धर्मस्पर्शनति तदनित्यताऽभिधानद्वारेण प्रमादोपदेशमाह परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते। से सोयबले य हायए, समयं गोयम ! मा पमायए / / 21 / / परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते। से चक्खुबले य हायए, समयं गोयम ! मा पमायए / / 22 / / परिजूरइ ते सरीरयं, . केसा पंडुरया हवंति ते। से घाणबले य हायए, समयं गोयम ! मा पमायए॥२३॥ परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते। से जिब्भबले य हायए, समयं गोयम ! मा पमायए // 24 / / परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते। से फासबले य हायए, समयं गोयम ! मा पमायए // 25 परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते। से सव्वबले य हायए, समयं गोयम ! मा पमायए।।२६|| परिजीर्यति सर्वप्रकारं वयोहानिमनुभवति 'ते' तव, शरीरमेव जराऽऽदिभिरभिभूयमानतयाऽनुकम्पनीयमिति शरीरकम् / यदा(परिजूरइ ति) "निन्देर्जूर०-" इति प्राकृतलक्षणात् परिनिन्दतीवाऽऽत्मानमिति गम्यते। यथा धिग्मां, कीदृशं यातमिति ? किमिति, यतः केशाः, शिरसिजाः, उपलक्षणत्वाल्लोमानि च, पाण्डुरा एव पाण्डुरका भवन्ति, पूर्वं जननयनहारिणोऽत्यन्तकृष्णाः, सम्प्रति शुक्लता भजन्ते, 'ते' तत्र, पुनस्तेशब्दोपादानं भिन्नवाक्यत्वादुपदेशाधिकाराचादुष्टम् / एवमुत्तस्त्रापि तथा। (से इति) तद् यत्प्रथममासीत् श्रोत्रयोः कर्णयोर्बलं दूराऽऽदिशब्दश्रवर्णसामर्थ्य श्रोत्रबल, चः समुचये। हीयते जरातः स्वयमपैति / यद्वा-शरीरजीर्णताऽवस्थाभाव्येतद्द्वयमपि योज्यं, यथा च परिजीर्यति शरीरकं तथा च सति केशाः पाण्डुरका भवन्ति / (से इति) अथ श्रोत्रबलं हीयते यतः ततः शरीरस्य तत्सामय॑स्य चास्थिरत्वात् समयमपि गौतम! मा प्रमादीः / एवं सूत्रपञ्चकमपि ज्ञेयम्, नवरमिह प्रथमतः श्रोत्रोपादानं प्रधानत्वात्, प्रधानत्वं च तस्मिन्सति शेषेन्द्रियाणामवश्यंभावात्, पटुतरक्षयोपशमजत्वाच्च तथोपदेशाधिकारादुपदेशस्य च श्रोत्रग्राह्यत्वात्। तथा सर्वबलमिति
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________________ दुमपत्तय 2572 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय सर्वेषां करधरणाऽऽद्यदयवानां स्वस्वव्यापारसामर्थ्यम् / यद्वा-सर्वेषां / सूत्रार्थः। मनोवाकायानां ध्यानाध्ययनचङ्क्रमणाऽऽदिचेष्टाविषयाऽशक्तिरिति कथं च वान्तपानं भवतीत्याहसूत्रषट्कार्थः। अवउज्झिय मित्तबंधवं, जरातः शरीराशक्तिरुक्ता। सम्प्रति रोगतस्तमाह-- विउलं चेव धणोहसंचयं। अरई गंडं विसूइया। मा तं विइयं गवेसए, आयंका विविहा फुसंति ते। समयं गोयम! मा पमायए॥३०|| विहडइ विद्धंसइ ते सरीरयं, अपोह्य त्यक्त्वा, मित्राणि सुहृदो, बान्धवाश्च स्वजना इति समाहारः / समयं गोयम ! मा पमायए॥२७॥ मित्रवान्धवं, विपुलं विस्तीर्ण , चः समुच्चये भिन्नक्रमश्च / एवेति पूरणे। अरतिर्वाताऽऽदिजनितश्चित्तोद्वेगः,गण्ड गण्डु, विध्यतीव शरीरं सूचि- | ततो धनं कनकाऽऽदिद्रव्यं, तस्यौधः समूहस्तस्य संचयो राशीकरणं भिरिति विसूचिका अजीर्णविशेषः, आडिति सर्वाऽऽत्मप्रदे-शाभिव्या- धनौघसंचयः, तंच, मा, तदिति मित्राऽऽदिक, द्वितीयं, पुनर्ग्रहणार्थमिति प्त्याऽऽतङ्कयन्ति कृच्छ्रजीवितमात्मानं कुर्वन्तीत्यातङ्काः सद्योघातिनो गम्यते। गवेषयान्वेषय, तत्परित्यागाच्छ्रामण्यमङ्गीकृत्य पुनस्तदभिष्वरोगविशेषाः, विविधा अनेकप्रकाराः, स्पृशन्ति परामृशन्ति, 'ते' तव, इवान् मा भूः, त्यक्तं हि तद्वान्तोपम, तदभिष्वङ्गश्च वान्तपानप्राय इत्यशरीरकमिति गम्यते / ततश्च विपतति विशेषेण वलोपचयादपैति भिप्रायः / किं तु समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः। इति सूत्रार्थः। विध्वस्यति जीवं विमुक्त विशेषेणाधः पतति शरीरकम्। अतः समयमपि इत्थं प्रतिबन्धनिराकरणार्थमभिधाय दर्शनविशुद्धयर्थमाहगौतम ! मा प्रमादीः / सर्वत्र वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत्। केशपाण्डुरत्वाऽऽदि न हु जिणे अञ्ज दिस्सई, च यद्यपि गौतमेन सम्भवति तथाऽपितन्निश्रयाऽशेषशिष्यप्रतिबोधनार्थ बहुम' दिस्सइ मग्गदेसिए। त्वाददुष्टमिति सूत्रार्थः। संपइणेआउए पहे, यथा चाप्रमादो विधेयस्तथाऽऽह समयं गोयम ! मा पमायए॥३१॥ वोच्छिंद सिणेहमप्पणो, 'नहु' नैव जिनस्तीर्थकृदयास्मिन् काले, दृश्यते अवलोक्यते, यद्यपीति कुमुयं सारइयं व पाणियं / गम्यते। तथाऽपि (बहुमए त्ति) पन्थाः / स च द्रव्यतो नगराऽऽदिमार्गो, से सव्वसिणेहवजिए, भावतस्तु सातिशयश्रुतज्ञानदर्शनचारित्राऽऽत्मको मुक्तिमार्गः तत्रेह समयं गोयम ! मा पमायए // 28|| भावमार्गः परिगृह्यते, दृश्यते उपलभ्यते, (मग्गदेसिए त्ति) भावप्रधान(वाच्छिद त्ति) विविधैः प्रकारैरुत्प्राबल्येन छिनत्यपनयत्युच्छिन्दक, त्वान्निर्देशस्य मार्गत्वेनार्थाद् मुक्तेर्देशितो जिनैः कथितो मार्गदेशितः / स्नेहमभिष्वगं, कस्य संबन्धिनम्? आत्मानं, किमिव? कुमुदमिव अयमाशयः-सम्प्रति यद्यपि जिनो न दृश्यते, तदुपदिष्टस्तु मार्गो दृश्यते, चन्द्रोद्योतविकाश्युत्पलमिव (सारइय व त्ति) सूत्रत्वात् शरदि भवं न चैवंविधोऽयमती-न्द्रियार्थदर्शिनं जिन विना संभवति, संदिग्धचेतसो शारदं, वेत्युपमार्थो भिन्नक्रमश्च प्राग्योजितः। पानीयंजलं, यथा तत्प्रधम भाविनोऽपि भव्या न प्रमादं विधास्यन्तीति।अतः संप्रति इदानीं, सत्यपि जलमग्नमपि जलमपहाय वर्त्तते, तथा त्वमपि चिरसंसृष्टचिरपरिचितत्वा- मयि इति भावः। नैयायिक निश्चितमुक्त्याख्यलाभप्रयोजने, पथि मार्ग, ऽऽदिभिर्मद्विषयस्नेहवशगोऽपितमपनय, अपनीय वस इति। अथानन्तरं समयमपि गौतम ! केवलानुत्पत्तितः संशयविधानेन मा प्रमादीः। यदासर्वस्नेहवर्जितः सन्समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः / इह च जलमपहाय त्रिकालविषयत्वात्सूत्रस्य भाविभव्योपदेशकमप्येतत् / ततोऽयमर्थःएतावति सिद्धे यच्छारदपदोपादानं तच्छारदजलस्येव स्नेहरयाप्यतिम- यथा आद्यमार्गोपदेशक नगरं वा पश्यन्तोऽपि पन्थानमवलोकयन्तनोरमत्वख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः / स्तस्याविच्छिन्नोपदेशतस्तत्प्रापकत्वं निश्चिनोति, तथा यद्यप्याधजिनः, किंच उपलक्षणत्वाद् मोक्षश्व, नैव दृश्यते, तथाऽपि तद्देशितः पन्था मार्यमाणचिचा ण धणं च भारियं, त्वाद् मार्गो मोक्षस्तस्य (देसिए त्ति) सूत्रत्वाद्देशको मार्गदेशको दृश्यते, पच्वइओ हि सि अणगारियं / ततस्तस्यापि तत्प्रापकत्वमाभपश्यद्भिरपि भाविभव्यैर्निश्चेतव्यं, यतश्चैवं मा वंतं पुणो वि आविए, भाविभव्यानामुपदिश्यते,अतः सम्प्रतीत्यादि प्राग्वत्, द्विविधाऽपि चेत्थं व्याख्या, सूचकत्वात् सूत्रस्येति गाथाऽर्थः / समयं गोयम ! मा पमायए||२६|| अत्रैवार्थे पुनरुपदिशन्नाहत्यक्त्वा परिहत्य, णेति वाक्यालङ्कारे / धनं चतुष्पदाऽदि, धशब्दो भिन्नक्रमः। ततो भार्या च कलत्रंच, प्रव्रजितो गृहान्निष्क्रान्तः, हिरिति अवसोहिय कंटगापहं, यस्मात् (सीति) सूत्रत्वेनाकारलोपादसि भवसि. (अणगारियं ति) ओइण्णोऽसि पहं महालयं / अनगारेषु भावभिक्षुषु भवमनगारिकम्, अनुष्टानं चास्य गम्यमानत्वात्, गच्छसि मग्गं विसोहियं, तच, प्रतिपन्नवानसीति शेषः / यद्वाप्रव्रजित प्रतिपन्नः (अणगारियं ति) समयं गोयम ! मा पमायए // 32 // अनगारता, मा 'अमा नो ना' इति निषेधे / वान्तमुद् गीर्ण (पुणो वित्ति) (अवसो हिय त्ति) अवशोध्यापसार्य पृथक् कृत्य, परिहपुनरपि (आविए त्ति) आपिब, किं तु समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति | त्येति यावत / (कण्ट गापहं ति) आकारोऽलाक्षणिकः, क
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________________ दुमपत्तय 2573 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमपत्तय ण्टकाश्च द्रव्यतो वब्बूलकण्टकाऽऽदयो, भावतस्तु चरकाऽऽदिपुश्रुतयः, तैराकुलः पन्थाः कण्टकपथस्तम्, ततश्चावतीर्णोऽस्यनुप्रविष्टो भवसि (पहं ति) पन्थान (महालयं ति) महान्तं महता वा आलय आश्रयों महालयः। स च द्रव्यतो राजमार्गो, भावतस्तु महद्भिरतीर्थकराऽऽदिभिरप्याश्रितः सम्यग दर्शनाऽऽदिमुक्तिमार्गस्तम्। कश्चिदवतीर्णोऽपि मार्ग न गच्छेदत आह-गच्छसि मार्ग,न पुनरवस्थित एवासि, सम्यग्दर्शनाऽऽधनुपालनेन मुक्तिमार्गगमनप्रवृत्तत्वात्। भवतस्तत्राप्यनिश्चयेऽपायप्राप्तिरेव स्यादित्याह--विशोध्येति विनिश्चित्य, तदेव प्रवृत्तः सन् समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः। एवं च पूर्वेण दर्शनविशुद्धिमनेन च मार्गप्रतिपत्तिमभिधाय ततस्तत् प्रतीतावपि कस्यचिदनुतापसंभव इति तन्निराचिकीर्षयाऽऽह अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया। पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोयम! मा पमायए / / 33 / / अबलोऽविद्यमानशरीरसामथ्र्यो, यथेत्यौपम्ये, भारं वहतीति भारवाहकः / गा निषेधे / (मग्गे ति) मार्ग (विरागे त्ति) विषम मन्दसत्त्वेरतिदुस्तरम्, (अवगाहिय ति) अवगाह्य प्रविश्य, त्यक्ताङ्गीकृतभारः सन्निति गम्यते / पश्चात्तत्कालानन्तरं, पश्चादनुतापकः पश्चात्तापकृत, अभूदिति शषः / इदमुक्तं भवति-यथा कश्चिद्देशान्तरगतो बहुभिरुपायैः स्वर्णाऽऽदिकमुपाय॑ स्वगृहाभिमुखमागच्छन्नतिभीरुतयाऽन्यवरत्वन्तर्हित स्वाऽऽदिकं स्वशिरस्यारोप्य कतिचिद्दिनानि सम्यगुबहति, अनन्तर च कचिदुपलाऽऽदिसंकुले पथि अहो! अहमनेन मारणाऽऽक्रान्त इति तमुत्सृज्य स्वगृहमागतोऽत्यन्तनिर्द्धनतयाऽनुतप्यते. किं मया मन्दभाग्येन तत्परित्यक्तमिति? एवं त्वमपि प्रमादपरतया त्यक्तसंयमभारः सन्नेवंविधोमा भूः, किंतु समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः। बहिदमद्यापि निस्तरणीयमल्पं च निस्तीर्णमित्यभिसंघिनोत्साहभङ्गोऽपि स्यादिति तदपनोदायाऽऽहतिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ? अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए // 34 // (लिण्णो हु सित्ति) तीर्ण एवास्यर्णवमिवार्णवम्. (महं ति) महान्तं गुरु, किमिति प्रश्ने, पुनरिति वाक्योपन्यासे / ततः किं पुनस्तिष्ठसि तीर पारमागतः प्राप्तः? किमुक्तं भवति? भवत उत्कृष्टस्थितीनि च कर्माणि भावतोऽर्णव उच्यते, स च द्विविधोऽपि त्वयोत्तीर्णप्राय एवेति केन हेतुना तीरप्राप्तेऽप्यौदासान्यं भजसे? नैवेद तवोचितमित्याशयः, किंतु अभितरन्ति अभ्याभिमुख्येन त्वरस्व शीघ्रो भव पारं परतीरं भावतो मुक्तिपदम्,( गमेत्तए त्ति) गन्तुम्। अतश्च समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सुत्रार्थः। अथापि स्याद् मम पारप्राप्तियोग्यतैव न समस्त्यत आह। अथवा शेषशिष्यापेक्षया किमस्याप्रमादस्य फलं, यत पुनरयमुपदिश्यत इयाह अकडेवरसेणिमुस्सिया, सिद्धिं गोयम ! लोयं गच्छसि / खेमं च सिवं अणुत्तरं, समयं गोयम! मा पमायए।।३।। कडेवर शरीरम्, अविद्यमान कडेवरडेषामकमेवराः सिद्धाः,तेषां श्रेणिरिव श्रेणिरकडवर श्रेणिः,ययोत्तरोत्तरशुभपरिणामप्राप्तिरूपया ते सिद्धिपदमारोहन्ति, क्षपक श्रेणिमित्यर्थः / यद्वा-कडेव-राण्येकेन्द्रियशरीराणि, तन्मयत्वेन तेषां श्रेणिः कडेवर श्रेणिः वंशाऽऽदिविरचिता प्रासादाऽऽदिष्वारोहणहेतुः, तथा च या नसाऽकड़ेवर श्रेणिरनन्तरोक्तरुपैव, ताम् (उस्सिय त्ति) उच्छ्रितां गमिष्यसीति संबन्धः / यद्वा(उस्सिय त्ति) उच्छ्रित्येवोच्छ्रितोत्तरसंयमस्थानावाप्त्या तामुच्छ्रितामिव कृत्वा, सिद्धिमिति सिद्धिनामानं, गौतम! (लोयं गच्छसि त्ति)प्राग्वत्। लोक गमिष्यसि, संशयव्यवच्छेदफलत्वाचास्य गमिष्यस्येव, क्षेमं परचक्राऽऽद्युपद्रवरहितम्। चःसमुच्चये, भिन्नक्रमश्च / शिवमनुत्तरं च, तत्र शिवमशेषदुरितोपशमनेन, अनुत्तर नास्योत्तरमन्यत्प्रधानमस्तीत्यनुत्तर, सर्वोत्कृष्टमित्यर्थः / यतश्चैवं ततः समयमपि गौतम! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः। सम्प्रति निगमयन्नुपदेशसर्वस्वमाहबुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गामगए नगरे व संजए। संतीमग्गं च बूहए, समयं गोमय ! मा पमायए।।३६|| बुद्धोऽवगतहेयाऽऽदिविभागः,परिनिर्वृतः कषायाऽऽद्युपशमतः समन्ताच्छीतीभूतः, चरेरासेवस्व, संयममिति शेषः / (गाम त्ति) सुपो लोपाद् ग्रामे गतः स्थितो, नगरे वा, उपलक्षणत्वादरण्याऽऽदिषु च / किमुक्तं भवति? सर्वरिनन्त्रभिष्वगवान् सम्यग्यतः पापस्थानेभ्य उपरतः संयतः, शाम्यन्त्यस्यां सर्वदुरितानीति शान्तिः निर्वाणं, तस्या मार्गः पन्थाः / यद्वा-शान्तिरुपशमः, सैव मुक्तिः तस्या हेतुर्मार्गः शान्तिमार्गो, दशविधधर्मोपलक्षण शान्तिग्रहणम्। तम्, चशब्दो भिन्नक्रमः , ततो बृहयस्व भव्यजनप्ररूपणया वृद्धि नयेः, ततः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः। इत्थं भगवदभिहितमिदमाकर्ण्य गौतमो यत् कृतवांस्तदाह-- बुद्धस्स निसम्म भासियं, सुकहियमट्ठपओवसोहियं / / रागं दोसं च छिंदिया, सिद्धिगई गए गोयमे (त्ति बेमि) // 37 // बुद्धस्य केवलाऽऽलोकादवलोकितसमस्तवस्तुतत्त्वस्य, प्रक्रमात श्रीमहावीरस्य, निशम्याऽऽकर्ण्य, भाषितमुक्तं , सुष्टु शोभने न नयानुगततत्त्वाऽऽदिना प्रकारेण, कथितं प्रबन्धेन प्रतिपादितं सुकथितम् / अत एवार्थप्रधानानि पदान्यर्थपदानि, तैरुपशोभित जातशोभमर्थपदोपशोभितम्, राग विषयाऽऽद्यभिष्वङ्गविषयम्, द्वेषमपकारिण्यप्रीतिलक्षणं चः समुचेय। छित्त्वाऽपनीय, सिद्धिगति गतः प्राप्तो गौतम इन्द्रभूतिनामा भगवत्प्रथमगणधर इति सू
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________________ दुमपत्तय 2574 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुमुह त्रार्थः / इतिः परिसमाप्तौ / ब्रवीमीति पूर्ववत् / उत्त०पाई० 10 अ०) आ०म०। आ००। स०। नि०चू०। दुमपुप्फियज्झयण न०(दुमपुष्पिकाध्ययन) द्रुमस्य पुष्पं द्रुमपुष्पम्। | अवयवलक्षणः षष्ठीसमासः / द्रुमपुष्पशब्दस्य ''प्रागिवात्कः'' / / 5 / 3 / 70 // इति वर्तमान अज्ञाते कुत्सिते संज्ञायां कनि प्रत्ययेनकारलोपे च कृते द्रुमपुष्पिक इति प्रातिपदिकस्यस्त्रीत्वविवक्षायाम् 'अजाऽऽद्यतष्टाप्" / / 4 / 1 / 4 / / इति टाप् प्रत्ययेऽनुबन्धलोपेच कृते "प्रत्ययस्थात् कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः" / / 7 / 3 / 44|| इतीत्वे कृते "अकः सवर्णे दीर्घः" ||8/1 / 10 // इति दीर्घत्वे परगमने च दुमपुष्पिकेति भवति / द्रुमपुष्पोदाहरणयुक्ता द्रुमपुष्पिकेति / द्रुमपुष्पिका चासौ अध्ययनं चेति समानाऽऽधिकरणस्तत्पुरुषः / द्रुमपुष्पिकाऽध्ययनमिति। अस्य चैकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाहदुमपुप्फिया य आहा-रएसणा गोयरे तया उछो। मेस जलूगा सप्पे, वणऽक्खइसुगोलपुत्तुदगे॥३७।। (एषां पादानामर्थस्तत्तच्छब्देषु) दशवैकालिकस्य द्रुमपुष्पोदाहरणयुक्ते, प्रथमेऽध्ययने, दश०नि०१अ०। दुमराय पुं०(द्रुमराज) प्रधानवृक्षे, स्था०४ठा०४३०॥ दुमसेण पुं०(द्रुमसेन) नवमवासुदेवबलदेवयोः पूर्वभवे स्वनामख्याते धर्माऽऽचायें , सका श्रेणिकस्य राज्ञो धारण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, स च महावीरस्वामिनोऽन्तिके प्रव्रज्य षोडशवर्षपर्यायः संलेखनया मृत्वाऽपराजिते देवलोके उपपद्य ततश्च्युक्त्वा महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्याष्टमेऽध्ययने सूचितम्। अणु०२ वर्ग १अ० दुमिय त्रि०(धवलित) श्वेतीकृते, "दुमियघट्टमढे।" 'दुमिए' सुधापङ्कधवलिते घृष्ट पाषाणाऽऽदिना उपरि घर्षिते ततो मृष्ट मसृणीकृते / सू०प्र०२० पाहुाचं०प्र० भ०। कल्प। दुमिस्स न०(द्विमिश्र) औदारिकमिश्रवैकारिकमिश्रतिके, कर्म०४ कर्म०। दुमुह पुं०(द्विमुख) स्वनामख्याते द्वितीये प्रत्येकबुद्धे, उत्त। काम्पिल्यपुरे जयवर्भराजा, तस्य गुणमाला प्रिया। अन्येधुर्जयवर्मा राजा स्थपतीनेवमाह-अद्भुतमास्थानमण्डपं कुरुत / वास्तु स्तभूमिपूजापुरस्सरं भूमिभाग परीक्ष्य सुमुहूर्ते खातं विरचितं, तत्र खाते पञ्चमदिवसे नानामणिमण्डितः खमणिरिव प्रज्वलन् मुकुटो दृष्टः (मुकुट किरीट पुन्नपुंसकमित्यमरः।) तैर्विज्ञप्तो राजा सहर्ष भूमितस्तं मुकुट जग्राह / त्रिदिवाचित्रिनिर्घोषपूर्व महतोत्सवेन त मुकुटं स्वगृहे ग्रावेशयत् / वस्त्राऽऽद्यैः सत् कृताः शिल्पिनो विमानसदृशमास्थानमण्डपंसद्यश्चक्रुः / चित्रकरैस्तत् सद्यएव विचित्रतम्। भूयःशुद्धमुहूर्ते तमुकुट मस्तके निधाय तस्मिन्नास्थानमण्डप सुसिंहासने निषण्णः, तस्मिन् मुकुटे मूर्द्धस्थिते सति राज्ञो मुखद्वयं दृश्यते, तदनुस राजा लोके द्विमुखतया विख्यातः। अथेय मुकुटकथा अवन्तीशेन चण्डप्रद्योतेन मुकुटवर्णकं श्रुत्वा स्वदूतः प्रहितः / दूतोऽपि तत्र गत्वा द्विमुखं प्रति एवमवादीत्- राजन् ! तव मुकुटमिमं चण्डप्रद्योतभूपतिर्गियति, यदि तव जीवितेन कार्य , तदा तस्याऽयं प्रेष्यः / एवं दूतवचः श्रुत्वा द्विमुख-नरेन्द्रः प्रोवाच-रे दूत ! तव स्वामिनो मम मुकुटग्रहणाभिलाषः स्वयस्तुहारणायैव जातोऽस्ति, त्वं तत्र गत्वा स्वस्वामिनं ब्रूयाः-शिवा देवी राशी 1, अनलगिरिनामा हस्ती २,अग्निभीरुनामा रथः३, लोहजङ्घनामा 4 दूतश्चेति वस्तुचतुष्टयं ममाऽर्यतामित्युक्त्वा द्विमुखनृपेण स दूतो गले धृत्वा निष्क्रासितः, उज्जयिनीं गत्वा चण्डप्रद्योताय तद्वचो निवेदयामास / क्रुद्धोऽथ चण्डप्रद्योतनृपतिर्गणनायकतुरगगजेन्द्ररथपदातिदलपरिवेष्टितः स्थाने स्थाने प्राभूतपूर्वकमभ्यागतानेकराजसैन्यवर्द्धमानबलः पञ्चालदेशसीम प्राप। द्विगुणोत्साहो द्विमुखनृपस्तैः सप्तसुतैः सैनिकलक्षैश्च परिवृतश्चण्डप्रद्योतसंमुखमगात् / तयो?रसंग्रामो बभूव / मुकुटप्रभावाद् द्विमुखराज्ञस्तदा द्विगुणं भुजबलं प्रससार।क्षणेन सकलमपि चण्डप्रद्योतबलं तेन भग्नं नष्ट च चण्डप्रद्योतं रथान्निपात्य बवा च स्वपुरं निन्ये द्विमुखनृपः, तं स्वाऽऽवासे भव्यरीत्या रक्षितवान्। अन्यदा चण्डप्रद्योतेन प्रकामस्वरूपा सलावण्यां कन्या दृष्ट्वा यामिकानामेवमुक्तम्-अस्य द्विमुखराज्ञः कल्यपत्यानि सन्ति? इयभङ्गजा चकस्य ? यामिका ऊचुः-अस्य राज्ञो वनमाला पत्नी सप्त सुतान् सुषुवे, अन्यदा तया चिन्तितम्, मम सप्त पुत्रा जाता लालिताच, पुत्रीतुनैकाऽपि जातेति स्वमनोरथपूर्तये सा मदनयक्षमारराध / अन्यदा सा कल्पद्रुमकलिकां स्वप्ने ददर्श ,क्रमेणेमा सुपुवे। यक्षोपयाचित दत्त्वाऽस्या मदनमञ्जरीति नाम कृतम् / साम्प्रतं सर्वलोकचमत्कारकारी यौवनाऽऽगमे इयं जातेतियामि-कवचनं श्रुत्वा, अप्सरोधिक तद्रूपं च दृष्ट्वा कामाऽऽर्तश्चण्डप्रद्योतश्चिन्तयति-इयं चेन्मम पत्नी स्यात्तदा मम जीवितं सफलं स्यात्, राज्यभ्रंशोऽपि मे कल्याणाय जातः, यदियं दृष्टा, चेद् द्विमुखराजा इमा मह्यं ददातु, तदाऽहमस्य यावजीवं सेवको भवामि। चण्डप्रद्योतस्येदृशः परिणामस्तस्य यामिके त्विा द्विमुखराज्ञे कथितः। राजाऽऽज्ञया यामिकैश्चण्प्रद्योतः सभायामानीतः। द्विमुखराज्ञाऽभ्युत्थानं कृत्वा चण्डप्रद्योतः स्वार्धाऽऽसने निवेशितः स प्राञ्जलीभूय एवं बभाषेमत् प्राणास्तव वशगाः सन्ति, मच्छ्यिस्त्वदायत्ताः सन्ति, त्वं मम प्रभुरसि, अहमतः परं सदैव तव सेवकाऽस्मिा अथ तद्भाववेत्ता द्विमुखराजा चण्डप्रद्योताय तदेव निजां पुत्रीं ददौ, ज्योतिविदिभः सुमुहूर्ते दत्ते चण्डप्रद्योतनृपो द्विमुखराजपुत्री परिणीतवान्, करमोक्षावसरे च तस्मै घनं द्रव्यं दत्तमवन्तीदेशं च दत्तवान् कन्यासहित चण्डप्रद्योत स्वदेशे द्विमुखो विसर्जितवान्। अन्यदा द्विमुखनरेन्द्रस्यपुरे लोकैरिन्द्रस्तम्भोऽद्भुतः कृतः, पूजितश्च, द्विमुखनृपोऽपि तं भृशं पूजितवान्, तस्मिन्महे व्यतीतेऽन्येास्तमिन्द्रस्तम्भं विलुप्तशोभममेध्यान्तःपतितं द्विमुखराजा ददर्श, एवं च चिन्तितवान्-जनर्यः पूजितो, मणिमालाकुसुमाऽऽदिभिश्च शृङ्गारितः सोऽयमिन्द्रस्तम्भः साम्प्रतमीदृशो जातः, यथाऽयं स्तम्भः पूर्वापरावस्थाभेदामाप्तः, तथा सर्वोऽपि संसारो भिन्न भिन्नामवस्थां प्राप्नोति, अवस्थाभेदकारणं रागद्वेषावेव, तत्प्रलयस्तु समताऽऽश्रयणाद्भयति, समता च ममतापरित्यागाद्भवति, ममतापरित्यागस्तु संयम विना न भवतीति वैराग्यमापत्रः शासनदेवतासमर्पितवेषः सर्वविरतिसामायिकं द्विमुखराजः स्वयं प्रतिपद्य प्रत्येकबुद्धो बभूव। उक्तञ्च- "वीक्ष्यार्चित पौरजनैः सुरेशध्वजं च लुप्त पतितं परेऽह्नि। भूर्ति त्वभूति द्विमुखो निरीक्ष्य, बुद्धः प्रपेदे जिनराजधर्मम् // 1 // " इति। उत्त०६ अ० व्य०। महागती।
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________________ दुमोक्ख 2575 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुरस दुमोक्ख त्रि०(दुर्मोक्ष) दुःखेन मुच्यते इति दुर्मोक्षः / दुरुत्तरे, सूत्र०१ / दुयाह न० (द्विकाह) दिनद्वये, आचा०२ श्रु०१चू०३१०१३०। श्रु०१२ अ० दुय्यण पुं०(दुर्जन)"जद्ययां यः" ||8||26|| मागध्यां जद्ययां स्थाने दुम्मइ त्रि०(दुर्मति) दुष्टा पापोपादानतया मतिर्यस्य सो दुर्मतिः / सूत्र०१ यो भवतीति जस्य यः / प्रा०४ पाद / दुष्टो जनो यस्मात्, यदाचरणेन श्रु०११ अ०। विपर्यस्तबुद्धौ, सूत्र०१ श्रु 11020 साधुरपि दुष्यति / खले, वाचा दुम्मइणी (देशी) कलहशीलायां स्त्रियाम्, देवना०५ वर्ग 57 गाथा। दुर अव्य०(दुर्) अभावे, व्य०२ उ०। दुम्मण त्रि०(दुर्मनस्) दैन्याऽऽदिमति, द्विष्ट इत्यर्थः / स्था०३ टा०२ दुरइक्कम त्रि०(दुरतिक्रम) दुःखेनातिक्रमो लङ्घन विनाशो येषां ते तथा / उ०। "दुम्मणजणदइयवज्जियं।" कल्प०१ अधि०१क्षण। आचा०१ श्रु०२ अ०५उ०। दुरतिलङ्घनीये, आचा०१ श्रु०५ अ०४उ०। दुम्मणिय न०(दौर्मनस्य) दुष्टमनोभावे, दश०६ अ०३उ०। दुरंत न०(दुरन्त) दुष्टोऽन्तो विनाशः प्रान्तो वा यस्य तद् दुरन्तम् / दुम्मय पुं०(दुर्गद) दुष्टो भदो दुर्मदः / दुष्ट भदे, तद्वति च। त्रि०। आचा०१ दुर्विनाशे, दुष्प्रान्ते, तंग आचा०ादुःखेनान्तः पर्यन्तो यस्य तद्दुरन्तम् / उत्त०५ अ०। दुष्टपर्यन्ते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०दुरवसाने, प्रश्न०३ आश्र० श्रु०६अ०२उ० द्वार / विपाकदारुणे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / "दुरतपतलक्खणो।" दुम्मुह पुं०(दुर्मुख) वसुदेवस्व धारण्यां जाते पुत्रे, अन्त०३ वर्ग 1 अ०। दुरन्तानि दुष्टपर्यवसानानि प्रान्तान्यसुन्दराणि लक्षणानि यस्य स तथा। (तद्वक्तव्यता गजसुकुमारस्येव ) मर्कटे, देना० 5 वर्ग 44 गाथा। उपा०२अ०। भग दुम्मेह पुं०(दुर्मेधस्) दुर्दुष्टा मेधा यस्यासौ दुर्मेधाः। उत्त०७ अ०दुर्बुद्धौ, दुरंदर (देशी) दुःखोत्तीर्णे दे०ना०५ वर्ग 46 गाथा। प्रश्न०२ आश्र० द्वार। दश०। विपा०दुष्टा विपर्ययाऽऽ-दिदोषदुष्टत्वेन दुरणुचर न०(दुरनुचर) स्था०५ ठा०१३०। ('तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव मेधा वस्तुरूपाऽवधारणशक्तिर्येषां ते दुर्मेधसः / विषयैर्जितेषु जन्तुषु, भागे 2262 पृष्ठे व्याख्या) दुःखाऽऽसेव्ये प्रवचने च। भ०६श०३३उ०। उत्त०७अ01 ज्ञा०। दुःखेनानुचर्यते सेव्यते यः स तथा / प्रश्न०३ आश्र०द्वार / दुम्मोय त्रि०(दुर्मोच) दुःक्षपणीये, विशेष दुःखाऽऽसव्ये संयमे, पञ्चा०१० विव०। मार्गे, संयमानुष्ठान विधौ च। पुं० दुय न०(द्रुत) शीघ्र, स्था०७ ठा०। नि०यू०। तं०। नाट्यभेदे, जं०५ आचा०१श्रु०४ अ०४उ०। वक्ष०ा आ०चू०। आ०म०। गेयदोष, द्रुतं यत्त्वरितंगीयते, त्वरितगाने हि दुरणुपालय पुं०(दुरनुपालक) दुःखेनानुपाल्यत इति दुरनुपालः, स एव रागपुष्टिरक्षरव्यक्तिश्च न भवति। ज०१ वक्ष०ाजी०॥ द्रवत्यूर्ध्वम् द्रुक्तः / दुरनुपालकः / दुःखानुपालनीये, उत्त०२३ अ०। पञ्चा०। वृक्ष, पुं०। शीघ्रतावति, द्रवीभूते, पलायिते च / त्रि०। वाच०। दुरत्थ त्रि०(दूरस्थ) ग्रामाऽऽदेर्बहिःस्थे, आचा०१ श्रु०८ अ०२७०। दुयअ त्रि०(द्विक) द्विपरिमाणे, भ०८श०१उ०। दुरप्प(ण) पुं०(दुरात्मन्) दुष्टाऽऽचारप्रवृते आत्मनि, उत्त० 20 अ०। *द्विपद त्रि० / द्विपदे, "एवं दुयओ भेओ।' पृथिव्यप्कायप्रयोग ओघ०। आ०म०। प्रश्न परिणतेष्विव द्विको द्विपरिमाणो, द्विपदो वा / भ० 8 २०१उ०। दुरभि पुं०(दुरभि) वैमुख्यकृति, अनु०। दुयग्गा (देशी) द्वावपि दम्पती इत्यस्मिन्नर्थे, उत्त०। "बहुसो परितप्पंती दुरभिगंध पुं०(दुरभिगन्ध) दुरभिः सर्वेषामाभिमुख्येन दुष्टो गन्धो दुधग्गा वि।" उत्त०१३अ०। यस्यासौ दुरभिगन्धः / दुर्गन्धयुक्ते, जी०३ प्रति०२ उ०। आचा०। दुयचारित्त न०(द्रुतचारित्व) असमाधिस्थानभेदे, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। दुरभिगंधणाम न०(दुरभिगन्धनाम) यदुदयात्शरीरेषु गन्धो दुरभिरुपदुयट्ठाण न०(द्विकस्थान) मूलगुणोत्तरगुणस्थाने, पं० धूल। जायते तद् दुरभिगन्धनाम। गन्धनामकर्मभेदे, कर्म०६ कर्मा पं०सं०। दुयविलंविय न० (द्रुतविलम्बित) विलम्बिताभिनये, रा०ा आ०म० दरभिगम त्रि० दरभिगम) दःखेनाभिगन्तव्ये, "तओ पच्छा अहेलोगे णं छन्दोभेदे, वाचा दुरभिगमे पण्णते।" स्था०३ ठा०४उ०ा अध इत्यधोलोकमभि समेति, दुयसीलय न०(दुतशीलत्य) अप-लोच्य संभ्रमाऽऽवेशाद् द्रुतं द्रुतं एवं च सामर्थ्यात्प्राप्तमधोलोको दुरभिगम, क्रर्मण पर्यान्ताभिगम्यत्वादिति। भाषणाऽऽदिषु,ध०। तथाहि-द्रुतशीलत्वं चाऽपर्यालोच्य संभ्रमा- स्था०३ ठा०४उ०। दुरवबोधे च। स०१० अङ्ग। ऽऽवेशाद् द्रुतं द्रुतं भाषणं तथा द्रुतं द्रुतं गमनं द्रुत द्रुतं कार्यकरण दुरवगाह त्रि०(दुरवगाह) दुष्प्रवेशे, "स्वरेऽन्तरश्च" ||8/1 / 14 / / इति स्वभावस्थितेनाऽपि तीव्रोद् द्रेकवशाद्दर्पण स्फुटनमिवेति च / ध०३ दुरन्त्यव्यञ्जनस्य स्वरपरे लुक्न। 'दुरवगाह। आव०१ अगदुष्प्रवेशे, अधिo विशे०। आलम दुःखाध्येये च। स०१० अङ्ग। दुया स्त्री०(द्विता) द्वयोर्भाव, षो० १६विव०। | दुरस न०(द्विरस) रसद्वये, तद्वति च। त्रि०ा भ०१ श०७ उ०। स्था०।
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________________ दुरहि 2576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुल्लभ दुरहि पुं०(दुरभि) दुर्गन्धे, त०। अनेन चोक्तन्यायाल्लोकोत्तरमप्याक्षिप्त वेदितव्यमिति गाशदलाक्षदुरहिगम त्रि०(दुरभिगम) 'दुरभिगम' शब्दार्थे स्था०३ ठा०४ उ०। रार्थः / भावार्थः कथानकादवसेयः। तचेदम्-"किल कोइ तव्वणिओ दुरहिट्ठिय त्रि०(दुरधिष्ठित) दुराश्रये दुःसेवे, दश०६ अ०। जालवावडकरो मच्छगवहाए चलिओ। धुत्तेण भण्णइ-आयरिय! अघणा दुरहियास त्रि०(दुरध्यास) सोढुमशक्ये दुर्विषहे, भ०१५ श०। दुरधिसह्ये, ते कथा / सो भणइ-जालमेत।'' इत्यादि श्लोकादवसेयम्भ०५श०६उ०। उपा०। विपा०। 'कन्थाऽऽचार्याऽधना ते ननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्थान, दुरहियासय त्रि०(दुरध्यासक) दुरधिसहनीये, आचा०१ श्रु०६अ 0 ते मे मद्योपदंशाः पिबसि ननु युतं वेश्यया यासि वेश्याम्। उ०। सूत्र कृत्वाऽरीणां गलेऽहिं क्व नु तव रिपवो येषु सन्धि छिनधि, दुरहिसह त्रि०(दुरधिसह) सोढुमशक्ये, स्था०६ टा०। चौरस्त्वं द्यूतहेतोः कितव इति कथं येन दासीसुतोऽस्मि // 1 // " दुराइन०(द्विरात्र) द्वयो रात्र्योः समाहारे, स्था०५ ठा०२उवा इदं लौकिकम् / चरणकरणानुयोगे तुदुराणुवत्त त्रि०(दुरानुवर्त) दुःखेनानुवर्षे , व्य०३७०। "इय सासणस्स वण्णो, जायइ जेणं न तारिस बूया। दुराराह त्रि०(दुराराध) दुःखेनाऽऽराध्ये, कल्प०३अधि०६क्षण। वादे वि उवहसिजई, निगमणओ जेण तं चेव / / 1 / / " दुरारोह त्रि०(दुरारोह) दुःखेनाऽऽरुह्यतेऽध्यास्यत इति दुरारोहः। उदाहरणदोषता पुनरस्य स्पष्टैवेति। दश०१अ०॥ दुरध्यारो, उत्त०२३ अ० दुरुवयार त्रि०(दुरुपचार) 'दुरुबचार' शब्दार्थे , तं०। दुरालोअ (देशी) तिमिरे, दे०ना० 5 वर्ग 46 गाथा। दुरुव्बूढत्त पुं०(दुरुद्वेष्टक) दुःखेनोद्वेष्टने, व्य०१उ०। दुरासय त्रि०(दुराश्रय) दुःखेनाऽऽश्रीयत इति दुराश्रयः / प्रश्न०३ आश्र० दुरुहमाण त्रि०(दूरोहत्) दुष्टमारोहति, "सेज्जासंथारए दुरुहमाणे / ' द्वार / दुःखेनाऽऽश्रयन्ति यमतिकोपनत्वाऽऽदिभिरिति दुराश्रयः / आचा०२ श्रु०१चू०२१०३उ० "से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णावं उत्त०पाई०१ अ०। क्रूर, उत्त०१०) दुरुहमाणे।" आचा०२ श्रु०१ चू०३अ०१3०। *दुरासद त्रि०। दुःखेनाऽऽसाद्यतेऽभिभूयते इति दुरासदम्। दुरभिभवे, | दुरुहियास त्रि०(दुरध्यास) दुःखेनाधिसह्ये, सूत्र०२ श्रु०१अ०जंग दश०२ अ०। दुःसहे च / उत्त०२२ अ०॥ दुरूढ त्रि०(दूरूढ) आरूढे, स्था०६ ठा०ा जं०। दुरितारि स्त्री०(दुरितारि) श्रीसंभवजिनस्य प्रवचनदेव्याम्, प्रव० 27 द्वार। दुरूव त्रि०(दुरूप) दुष्ट रूपं यस्य सदूरूपः1 सूत्र०२ श्रु०३ अ०। बीभत्सदेहे, दुरिय न०(दुरित) दुष्टमितं गमनं नरकाऽऽदिस्थानमनेनेति / वाचा सूत्र०२ श्रु०१अ०। विरूपे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। “एगे दुरूवे।" अमनोज्ञपापे, आतु रूपे, स्था०१ ठा०। दुःस्वभावे च भ०७श०६ उ०। "दुरूवे दुव्वन्ने / ' दुरियारि स्त्री० (दुरितारि) 'दुरितारि' शब्दार्थे , प्रव०२७ द्वार। भ०१श०८ उ०) स्थान दुरुक्क न० (दुरुक्त) दुष्टमुक्तम्। दुष्टवचने, वाच०। आचा०२ श्रु०१ चू०१ दुरूवताय पुं०(दुरूपताक) दूरूपताहेतुतया परिणमति दूरूपतां करोतीअ०८उ० त्यर्थे , भ०७ श०१०3०1 दुरुत्तर त्रि०(दुरुत्तर) "स्वरेऽन्तरश्च" ||8/1 / 14 / / इत्यन्त्यव्य-- / दुरूवभक्खि (ण) पुं०(दूरूपभक्षिण) अशुच्यादिभक्षके, सूत्र०१ श्रु०५ जनस्य स्वर परे लुक न। प्रा०१ पादा दुःखेन उत्तीर्यते। दुर्-उत्त् ..| अ०१उ०। तृ-खल्। दुस्तरे, दुष्टमुत्तरम्। प्रा०१पाद। दुष्टे उत्तरे, ना वाचा दुर्लङ | दुरूहण न०(दूरोहण) आरोहणे, नि०चू०१२उ०। ध्ये, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२उादुर्गम च। त्रिका सूत्र०१ श्रु०२ अ०१उ०। / दुरूहित्तु अव्य०(दूरुहा) समारुह्येत्यर्थे, समारोप्येत्यर्थे च। सूत्र०१ श्रु०५ दुरुत्तार त्रि०(दुरुत्तार) दुःखेनोत्तरणीये, आव०३ अ०। अ०२उ०। दुरुद्धर त्रि०(दुरुद्धर) दुःखेनोद्धर्तुं शक्ये, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२उ०। दुरूहिय अव्य०(दूरुह्य) आरुह्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। दुरुवचार त्रि०(दुरुपचार) दुष्ट उपचारे, तद्वति च। 'दुरुवचाराओ।' तं०। दुरेह पुं०(द्विरेफ) “द्विन्योरुत्" ||1|4|| इतीत उत्त्वम / 'दुरेहा।' दुरुपचारा:-दुष्ट उपचार उपचारान्वितवचनाऽऽदिविस्तारो यासा प्रा०१ पादा गौ रेफौ वाचकनाम्नि यस्य सः / भमरे, तच्छब्दस्य तास्तथा स्त्रियः / तम रेफद्वयवत्त्वेन तद्वाच्यमधुकरपदार्थेऽपि द्विरेफत्वम्। वाच०। दुरुवणीय पुं०(दुरुपनीत) दुष्टमुपनीतं निगमितमरिमन्निति दुरुपनीतमः | दुली (देशी) कूर्मे, देवना०५ वर्ग 42 गाथा। उपन्यासहेतुभेदे, दश०१ अ०। स्था। दुल्ल (देशी) वस्त्रे, देखना०५ वर्ग 41 गाथा। दुरुपनीतद्वारं व्याचिख्यासुराह दुल्लग्ग (देशी) अघटमाने, देना०५ वर्ग 43 गाथा। अणमिसगिण्हणभिक्खुग, दुरुवणीए उदाहरणं (82) दुल्लभ पुं०(दुर्लभ) दुर्-लभ-खल् / क चूंरे, दुरालभायान्, अनानिमिषा मत्स्याः , तद् ग्रहणे भिक्षुरुदाहरणम. इदं च लौकिकम, श्वेतकण्ट- कायां च / स्त्री० / वाच०। दुरापे, त्रि०। प्रश्न०३
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________________ दुल्लभ 2577 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई आश्र० द्वार। पञ्चा० दशा उत्त०। सूत्र०। आ०म०। आ०चूला आतु०॥ आचा०। भला "जीवियं चयइ, दुचयं चयइ, दुक्करं करेइ, दुलह लहइ, बोहिं बुज्झइ।"(व्याख्याऽस्य 'आउ' शब्दे द्वितीयभागे 13 पृष्ठे द्रष्टव्या) शतपाकसहस्रपाकाऽऽदिद्रव्ये, नि०चू० १उ०। दुल्लभदव्यागाढ पुं०(दुर्लभद्रव्यागाढ) दुर्लभद्रव्यालाभेऽनागाढे, "सतपागसहस्सपागंघयं तेल्लं तेण साहुणोकलं, तम्मि अलब्भंतेदुल्लभदव्वागाढ।' नि०चू०११उ०। दुल्लभबोहिय पुं०(दुर्लभबोधिक) दुर्लभा बोधिर्भवान्तरे जिनधर्मप्राप्तिर्यस्यासौ दुर्लभबोधिकः। भवान्तरे दुरापजिनधर्मके, प्रतिमा स्था० ('सुलभवोहिय' शब्दे वर्णकोऽस्य वक्ष्यते) परिवारपूयहेऊ पासत्थाणं च आणुवत्तीए। जो न कहेइ विसुद्धं, तं दुल्लहबोहियं जाण // 28 // परिवार आत्मव्यतिरिक्तः, ततः परिवारेण पूजा, परिवारस्य वा पूजा | परिवारपूजा / अथवा-परिवारपूजा हस्वस्वप्रीतिप्रभवा, तस्या हेतुर्निमित्तमिति। पार्श्वः सम्यक्त्वं, तस्मिन् ज्ञानाऽऽदिपार्श्व तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः , तेषामनुवृत्तिरनुवर्त्तनं, तया,यो न कथयति न प्रकाशयति, विशुद्धं सर्वविशुद्ध सर्वविदुपदिष्ट यथा-वस्थित मुक्तिमार्ग, तमाचार्य साधु वा दुर्लभबोधिकं जानीहि / अयमत्र भावार्थ:--यो हि मनोज्ञसंविनोऽपि परिवारापेक्षया सम्यक्त्वसाध्याचार न कथयति, अयमन्यथा प्रवृत्तः सम्यतृकथनेन प्रकटो भविष्यति, ततोऽयं मयि सरोषो भविष्यति, ततः शरीराऽऽदिस्थिति न करिष्यति, पूजा वान भविष्यतीति हेतोः, पार्श्व-- स्थानुवृत्त्या वा यदुत मामेते सम्यक् कथयतः प्रकोपं यास्यन्त्यतो वरमात्मसाक्षिकं कृतमिति; एते चानुवर्तिता भवन्त्विति स्वबुद्ध्या सुन्दरमपि विदधानाः संसारसागरे निपतन्ति। यत उक्तम्"जिणाणार कुणताणं, तूणं निव्वाणकारणं। सुंदरं पि सबुद्धीए, सव्वं भवनिबंधणं / / जे गयआरंभरया, ते जीवा होति अप्पदोसयरा। तउ महपाक्यरा, जे आरंभं पसंसति // " यत एवमतः परमाऽऽराध्यकालिकसूरिभिरिव प्राणप्रहाणेऽपि परानुवृत्त्याऽपि नैवान्यथा भाषणीयमिति गाथार्थः // 28 // दर्श० 3 तत्त्व। दुल्लभबोहियता स्त्री०(दुर्लभबोहिकता) दुर्लभा बोधिर्जिनधर्मों यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता। दुर्लभजिनधर्मातायाम्, स्था०५ ठा०२ उ०। प्रति०। रा०ा (पञ्चभिः कारणैर्दुर्लभबोधिकताकर्म करोतीत्युक्तम् 'अवण्णवाय' शब्दे प्रथमभागे 762 पृष्ट) दुल्ललिय न०(दुर्ललित) दुर-'लल' ईप्सायाम, भावे क्तः / वाच०। दुष्टेच्छायाम, दुर्लभवस्तुवाञ्छायाम, महा०६ अ०॥ दुल्लसिआ (देशी) दास्याम, देवना०५ वर्ग 46 गाथा। दुल्लह त्रि०(दुर्लभ) 'दुल्लभ' शब्दार्थे , प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दुल्लहबोहिय पुं०(दुर्लभबोधिक) 'दुल्लमबोहिय' शब्दार्थे, प्रतिक दुल्लहसेज्जा स्त्री०(दुर्लभशय्या) असुलभवसतो, पञ्चा०१७ विव०। निघून दुवअण न०(द्विवचन) "द्विन्योरुत्" ||19|| इति द्विशब्देकारस्योकारः। "दुवअणं।" प्रा०१ पाद। उच्यतेऽनेनोक्तिर्वेति वचनम्। द्वयोरर्थयोर्वचन द्विवचनम् / स्था०३ ठा०६ उ० व्याकरणोक्ते औतस् प्रभृतिप्रत्यये, वाचा वस्तुद्यप्रतिपादके वचने च। यथा वृक्षौ। आचा०२ श्रु०१चू०४ अ०१3०। आ०म० प्रज्ञा०) दुवई स्त्री०(द्रौपदी) द्रुपदराजदुहितरि, ज्ञा०। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं नयरी होत्था। तीसे णं चंपारणयरीए बहिया उत्तरपुरिच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभागे णामं उजाणे होत्था। तत्थ णं चंपाए णयरीएकोणिए णामं राया होत्था / महया हिमवंतवण्णाओ / तत्थ णं चंपाए णयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति / तं जहा-सोमे 1, सोमदसे 2, सोमभूई 3, अड्डा०जाव रिउव्वेय ४०जाव सुपरिणिट्ठिए यावि होत्था। तेसिणं माहणाणं तओ भारियाओ होत्था। तं जहा-नागसिरी, भूतसिरी, जक्खसिरी, सुकुमालपाणिपाया०जाव तेसिं णं माहणाणं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा विउले माणुस्सएकामभोए०जाव विहरति / तएणं तेसिं माहणाणं अण्णया कयाइं एगयओ समुवागयाण जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमे विउलधण०जाव सावएजे अलाहि० जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! अण्णमण्णस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता परिभुंजेमाणा विहरित्तए अण्णमण्णस्स एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता कल्लाकल्लिं अण्णमण्णस्स गिद्देसु विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावें ति, उवक्खडावेत्ता परि जमाणा विहरंति। तए णं तीसे णागसिरीए माहणीए अण्णया कयाइं भोयणवारए जाए यावि होत्था / तए णं सा णागसिरी विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडे ति, उवक्खडेत्ता एगं महं सालइयं तित्ताला-उइय बहुसंभारसंजुत्तं णेहावगाढं उवक्खडावेति, उवक्खमावेत्ता एगं विंदुयं करयलंसि आसाएति, तं खारं कडुयं अखज्जं विसभूयं जाणित्ता एवं वयासी-- घिरत्थु णं मम गागसिरीए अहण्णाए अपुण्णाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगनिंबोलियाए, तं जाए णं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए सुबहुदव्वक्खए य नेहक्खए य कए, तं जइ णं मम जाउयाओ जाणिस्संति, ताओ णं मम खिंसिस्संति, तंजाव ममं जाउया न जाणंति ताव ममं सेयं एयं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारनेहकयं एगते गोवित्तए अण्णं
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________________ दुवई 2578 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई सालइयं महुरालाउयं०जाव ने हावगाढं उवक्खडियए एवं संपेहेति, संपेहेत्ता तं सालइयं०जाव गोवेति, गोवेत्ता अण्णं सालइयं महुरालाउयं उवक्खडेति, उवक्खडेता तेसिं माहणाणं ण्हायाणंजाव सुहासणवरगयाणं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिवेसेइ। तएणं ते माहणा जिमियभुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया सकम्मसंपत्ता जाया यावि होत्था / तए णं ताओ माहणीओ ण्हायाओ०जाव विभूसियाओ तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेंति, आहारेत्ता जेणेव सयाइं गिहाइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउताओ जायाओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेराजाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा णामं णगरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं०जाव विहरंति। परिसा णिग्गया,धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। तए णं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नामं अणगारे उराले०जाव तेयलेस्से मासं मासेणं खममाणे विहरइ। तए णं से धम्मरुई णामं अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, वीयाए पोरिसीए झाणं झाएइ, तइयाए पोरिसीए जहा गोयमसामी तहेव ओगाहेइ तहेव धम्मधोसं थेरं आपुच्छति, आपुच्छित्ता०जाव जेणेव चंपा नयरी उचनीचमज्झिमाई कुलाइं०जाव अडमाणा जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे, तेणेव अणुप्पवितु। तए णं सा णागसिरी धम्मरुईणामं अणगारं एजमाणं पासति, पासित्ता तस्स सालइयस्स तित्तकडुयस्स बहुनेहाए पडिणिट्ठयाए हट्ठतुट्ठा उट्ठाए उट्टेति, जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं सालइयं तित्तालाउयं बहुणेहावगाढं धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहए सव्वमेव निस्सरति। तए णं से धम्मरुई अगारे अहापज्जत्तमिति कट्ठ नागसिरीए माहणीए गिहाओ पडि णि-क्खमति, पडिणिक्खमित्ता चपाएनयरीए मज्झं मज्झेणं पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सुभूमिभागे उज्जणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेणे व धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदूरसामंते इरिया-बहियं पडिक्कमइ, पडिक्कमित्ता अण्णपाणं पडिलेहेइ, पडिले-हेइत्ता अण्णपाणं करयलंसि पडिदंसेति / तए णं ते धम्मघोसा थेरा तस्स सालइयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधेणं अभिभूया समाणा ताओ सालइयाओ णेहावगाढाओ एग बिंदुगं गहाय करयलंसि आसायंति, तित्तगं खारं कडुयं अखचं अभोजं विसभूयं जाणेत्ता धम्मरुइं अणगारं एवं क्यासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया ! एयं सालइयं०जाव बहुणेहावगाढं आहारेइ, तेणं तुम अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि, तं मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! इंमं सालइयं०जाव आहारेसि, मा णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविञ्जसि, तं गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! इमं सालइयं एगंतमणावाए अच्चित्ते थंडिले परिट्ठवेह, परि-ट्ठवेत्ता अण्णं फासुयं एसणिज्जं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिग्गाहेत्ता आहार आहारेहि। तए णं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसाणं थेराणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ता सुभूमिभागाओ उजाणाओ अदूरसामंते थंडिले पडिलेहेति, पडिलेहेत्ता तत्तो सालइयाओ एग बिंदुगं गहाय थंडिलंसि णिस्सरइ / तए णं तस्स सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधेणं बहूणि पिपीलिगासहस्साणि पाउन्भूया, जं जहा णं पिपी-लिया आहारेति, तं तहा अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जइ। तए णं तस्स धम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अब्भत्थिए० जाव समुप्पज्जित्थाजइ ताव इमस्स सालइयस्स०जाव एगम्मि बिंदुयम्मि पक्खित्तम्मि अणेगाई पिपीलियासहस्साई ववरोविजंति, तं जइणं अहं एयं सालइयं थंडलंसि सव्वं णिसिरामि तए णं बहूणं पाणाणं बहूणं भूयाणं बहूणं सत्ताणं बहूणं जीवाणं वहकरणं भविस्सति, तं सेयं खलु ममं तं सालइयं०जाव नेहावगाढं सयमेव आहारेत्तए, ममं चेव एएणं सरीरएणं णिज्जाउ त्ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेत्ता मुहपोत्तियं पडिलेहेति, पडिलेहेत्ता सीसोवरि कायं पमज्जेइ, पम जेत्ता तं सालइयं तित्तकडुयं बहुणेहावगाढं विलमिवं पण्णगभूएणं अप्पाणेणं सव्वं सरीरकोहगंसि पक्खिवति / तए णं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं०जाव णे हावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहुत्तरेणं परिणममाणांसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला०जाव दुरहियासा, तए णं धम्मरुई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्ट आयारभंडगं एगते ठवेइ, ठवेत्ता थंडिलं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारगं संथरेइ, संथरेत्ता दन्भसंथारगं दुरूहति, दुरूहित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकणिसण्णे करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी- "णमोऽत्थु णं अरुहंताणं भगवंताणं०जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थुणं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं मम धम्मोवएसगाणं पुट्विं पि य णं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सव्वं पाणाइवाए पचक्खा जावजीवाएजाव सव्वं परिग्गहे, इयाणिं पिणं अहंतेसि चेव भगवंताणं
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________________ दुवई 2576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई अंतियं सव्वं पाणातिवायं पञ्चक्खामि० जाव सव्वं परिग्गहं पञ्चक्खामि जावजीवाए जहा खंदओ०जाव चरिमेहिं ऊसासेहिं वोसिरामि'' त्ति कटु आलोइयपडिक ते समाहिपत्ते कालगए। तए णं ते धम्मघोसा थेरा धम्मरुइं अणगारं चिरगयं जाणेत्ता समणे निग्गंथे सद्दावें ति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! धम्मरुई णाम अणगारे मासखमणपारण-गंसि सालइयस्स०जाव गाढस्स निसरणट्ठयाए बहिया णिग्गए चिरगए, तं गच्छइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेही तएणं ते समणा निग्गंथा० जाव पडिसुणे ति। पडिसुणेत्ता धम्मघोसाणं थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमइत्ता धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिले तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता धम्मरुइस्स अणगा-रस्स सरीरगं णिप्पाणं णिचढें जीवियाओ विप्पजढं पासंति, पासइत्ता हा हा अहो अकजमिति कट्ट धम्मरुइस्स अणगारस्स परिनिव्याणवत्तियं काउस्सग्गं करें ति, धम्मरुइस्स अणगारस्स आयारभंडगं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता गमणागमणाए पडिक्कमंति, पडिक्कमइत्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्हे तुम्हं अंतियाओ पडिणिक्खमाणा सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपेरते णं धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वं०जाव करेमाणा जेणेव थंडिले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जाव इहं हव्वभागया, तं कालगए णं भंते ! धम्मरुई अणगारे, इमीसे आयरभंडए / तए णं ते धम्मघोसा थेरा पुव्वमए उवओगं गच्छंति, उवओगंगच्छित्ता समणे णिग्गंथे णिग्गंथीओ य सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु अज्जो ! मम अंतेवासी धम्मरुई णामं अणगारे पयइ-भद्दए०जाव विणीए मासं मासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं० जाव णागसिरीए पाहणीए गिहं अणुप्पवितु / तए णं सा णागसिरी माहणी०जाव णिसिरइ / तए णं से धम्मरुई णामं अणगारे अहापजत्तमिति कट्ट०जाव कालं अणवकंखमाणे विहरति, से णं धम्मरुई णाम अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा उढे सोहम्मे०जाव सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे / तत्थ णं अजहण्णमणुकांसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / तत्थ णं धम्मरुइस्स वि तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता / से णं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ०जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, बुज्झिहितिजाव अंतं काहिति / तं धिरत्थु णं अञ्जो ! नागसिरीए माहणीए अहण्णाए अपुण्णाए०जाव निंबोलियाए जइ णं तहारूवे साहूणं साहुरूवे धम्मरुई णामं अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं०जाव णेहावगाढेणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए / तए णं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म चंपाए गयरीए सिंघाडगतिग०जाव बहुजणस्स एवमाइक्खंति०४ घिरत्थु णं देवाणुप्पिया ! णागसिरीए माहणीए०जाव निंबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहूणं साहुरुवे सालइएणं जीवियाओ ववरोवेति / तए णं तेसिं समणाणं अंतिए एयमढें सोचा णिसम्म बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खंति०४ धिरत्थु णं णागसिरीए माहणीए०जाव ववरोविए / तए णं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमढें सोचा णिसम्म आसुरुत्ता०जाव मिसमिसेमाणा जेणेद णागसिरी माहणी, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता णागसिरिं माहणिं एवं वयासी-हं भो णागसिरी! अपत्थियपत्थिए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउद्दसे धिर-त्थु णं तव अधण्णाए अपुणाए निंबोलियाए०जाव णं तुमं तहारूवे साहूणं साहुरूवे मासखमणपारणगंसि सालइएणं० जाव ववरोविए, उचावयाहिं अक्कोसणाहिं अकोसंति, उचा-वयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसें ति, उच्चावयाहिं निब्भत्थणाहिं निभत्थेति, उच्चावयाहिं निच्छू हणाहिं निच्छू हे ति, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडें ति, तज्जेति, तालेति, तजित्ता तालित्ता साओ गिहाओ निब्भच्छे ति / तए णं सा नागसिरी माहणी सयाओ गिहाओ निच्छूढा समाणी चंपाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउम्भुहेसु बहुजणेणं हीलिज्जमाणी खिंसिज्जमाणी निंदिज्जमाणी गरहिजमाणी तजिज्जमाणी तालिजमाणी वहिज्जमाणी पव्वहिज्जमाणी धिक्कारिजमाणी थुक्कारिजमाणी कत्थइ वि ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी दंडिखंडनिवसणा खंडमल्लयखंडघडगहत्थगया फुट्टहडाहडसीमा मच्छियाचडगरेणं अण्णिज्जमग्गाजाव गेहे गेहे णं देहंबलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरति तएणं तीसे नागसिरीए माहणीए तम्भ--वंसि चेव सोलस रोगायंका पाउन्भूया / तं जहा-"सासे 1 खासे 2 जरे 3 दाहे 4, कुच्छिसूले 5 भगंदरे 6 / अरसा 7 जोणिसूले ८०जाव कोढे 16 / " तए णं सा नागसिरी माहणी सोलसहिं रोगाायंकेहिं अभिभूया समाणी अट्टदुहट्टवसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं वावीसं सागरो-वमद्वितीए नेरइयत्ताए उववण्णा / सा णं तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता मच्छेसु उववण्णा / तत्थ णं सत्थवज्झा दाहवकंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमट्ठिईए
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________________ दुवई 2580- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई नेरइयत्ताए उववण्णा / साणं तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता दोचं पि मच्छेसु उववजति / तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवकंतीए दोचं पि अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु उववञ्जति / सा णं तओहिंतो०जाव उव्वट्टित्ता तचं पि मच्छेसु उववण्णा / तत्थ वि य णं सत्थवज्झा० जाव कालमासे कालं किच्चा दोचं पिछट्ठाए पुढवीए उक्कोसेणं, तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता उरगेसु, एवं जहा गोसालो पुढवीसु तहा नेयव्वं०जाव रयणप्पभाओ सत्तसु उव वण्णा, तओ उव्वट्टित्ता सणीसु उववण्णा, तओ उव्वट्टित्ता जाई इमाई खहयरविहाणाई०जाव अदुत्तरं च णं खरवायरपुढविकाइयत्ताएसु अणेगसयसहस्सखुत्तो, सा णं तओऽणंतरं उध्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुञ्छिसि दारियत्ताए पयाया। इदं सर्व सुगमम् / नवरं (सालइयं ति) शारदिकं, सारेण वा रसेन चितं युक्तम-सारचितम्, (तित्तालाउयं ति) कटुकतुम्बकम, (बहुसंभारसंजुत्त) बहुभिः संभारद्रव्यैरुपरि प्रक्षेपद्रव्यैस्त्वगेलाप्रभृतिभिः संयुक्त यनत्तथा, स्नेहावगाढ स्नेहव्याप्तम्। (दुभगसत्तार ति) दुर्भगः सत्त्वः प्राणी यस्याः सा तथा / (दूभगनिंबोलियाए शि) निम्बगुलिकेव निम्बफलमिव अत्यनादेयत्वसाधाद् दुर्भगानां मध्ये निम्बगुलिका दुर्भगनिम्बगुलिका / अथवा-दुर्भगाना मध्ये निन्बोलिता निमञ्जिता दुर्भगनिम्बोलिता, (जाउयाउ त्ति) देवराणां जाया भार्या इत्यर्थः / (विलमिवेत्यादि) बिले इव रन्ध्रे इव पन्नगभूतेन सर्पकल्पेन आत्मना करणभूतेन सर्व तदलाबु शरीरकोष्टकेन प्रक्षिपति। यथा किल बिले सर्प आत्मानं प्रक्षिपति प्रवेशयति पावनि असंस्पृशन्, एवमसौ वदनकन्दरपार्थान् असंस्पृशन्नाहारेण तदसंचारणतस्तदलाबु जटरबिले प्रवेशितवानिति भावः / (गमणागमणाए पडिक्कमति त्ति) गमनागमनामीर्यापथिकीम, (उचावयाहिं ति) असमञ्जसाभिः (अक्कोसणाहिं ति) मृताऽसि त्वमित्यादिभिर्वचनैः(उर्द्धसणाहिं ति) दुष्कुलीनेत्यादिभिः कुलाऽऽद्यभिमानपातनार्थः (निच्छ्रहणाहिं ति) निःसराऽस्मद्गेहादित्यादिभिः (निच्छोडणाहिं ति) त्यजास्मदीयं वस्त्राऽऽदीत्यादिभिः (तति त्ति) ज्ञास्यसि पापे ! इत्यादिभणनतः / (तालिंति चि) चपेटाऽऽदिभिः / हील्यमाना जात्युद्घट्टनेन, खिस्यमाना परोक्षकुत्सनेन, निन्द्यमाना मनसा जनेन, गह्यमाणा तत्समक्षमेव, तय॑माना अङ्गुलीचालनेन ज्ञास्यसि पापे ! इत्यादिभणनतः / प्रव्यथ्यमाना यष्ट्यादिताडनेन, धिविक्रयमाणा धिक् शब्दविषयीक्रियमाणा, एवं थूत्क्रियमाणा, दण्डि कृतसंधानं जीर्णवस्त्रं, तस्य खण्ड निवसन परिधान यस्याः सा तथा, खण्डमल्लक खण्डशराव भिक्षाभाजन, खण्डघटकं च पानीयभाजनं, तौ हस्तयोर्गतौ यस्याः सा तथा। (फुट्ट ति) स्फुटितं स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्णकेशं, (हडाहडं ति) अत्यर्थ, शीर्ष शिरो यस्याः सा तथा। मक्षिकाचटकरेण मक्षिकासमुदायेन, अन्वीयभानमार्गा अनुगम्यमानमार्गा, मलाविलं हि वस्तुमक्षिकाभिर्वेष्ट्यत एवेति। देहवलिमित्येतदव्याख्यानं देहवलिका, तया, अनुस्वरो नैपातिकः। (सत्थवज्झ नि) शस्त्रवध्या, जातेति गम्यते / (दाह-वक्कंतीए ति) दाहव्युत्क्रान्त्या दाहोत्यत्त्या, "खहयरविहाणाई जाव अदुत्तर च' इत्यत्र गोशालकाध्ययनसमानं सूत्रं तत एव दृश्यं, बहुत्वात् तुन लिखितम।। तए णं सा भद्दा सत्थवाही नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं० जाव दारियं पयाया सुकुमालकोमलियगयतालुयसमाणा, तीसे णं दारियाए निव्वत्ताए वारसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गोणं गुणनिप्फन्नं नामधेज करेंति-जम्हा णं एसा दारिया सुकुमालगयतालुयसमाणा, तं होऊणं अम्हं इमीसे दारियाए नामधेनं सुकुमालिया / तए णं तीसे दारियाए अम्मापियरो णामधेजं करेंति सुकुमालिय त्ति। तए णं सा सुकुमालिया दारिया पंचधाईपरिग्गहिया / तं जहा-खीरधाईए, मञ्जणधाईए, मंडणधाईए, अंकधाईए, कीलावणधाईए, गिरिकंदरमल्लीणा इव चंपगलया णिव्वाया निव्वाघायंसि०जाव परिवड्डइ / तए णं सा सुकुमालिया दारिया उम्मुक्कबालभावारूवेण य जोव्व-णेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीराजाया आवि होत्था। तत्थ णं चंपाए णयरीए जिणदत्ते णामं सत्थवाहे परिवसइ अड्डे। तस्स णं जिणदत्तस्स भद्दा भारिया सुकुमाला इट्टा०जाव माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुब्भवमाणा विहरति / तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए णामं दारए सुकुमाले० जाव सुरूवे ! तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे अण्णया कयाइ सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमइत्ता सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स अदूरसामंतेण वीतीवयति, इमं च णं सुकुमालिया दारिया ण्हाया चेडियासपरिवुडा उप्पिं आगा-सतलगंसि कणगमइतंदुसएणं कीलमाणी कीलमाणी विहरति / तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे सुकुमालियं दारियं पासइ, पासइत्ता सुकुमालियाए दारियाए रूवेण य जायविम्हए कोडं-बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-एसणं देवाणु-प्पिया ! कस्स दारिया, किं णामधेजं? तए णं से कोडं बियपुरिसा जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ करयल०जाव एवं वयासी एस णं देवाणुप्पिया ! सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स धूया भद्दाए अत्तए सुकुमालिया णामं दारिया सुकुमालपाणिजाव उकिट्ठा / तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे तेसिं कोर्ने बियाणं अंतिए एयमढं सोचा जेणेव सए गेहे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छ इत्ताहाए मित्तनातिसद्धिं संपरिवु डे चं पाए णयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवाए। तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जिणदत्तं सत्थवाहं
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________________ दुवई 2581 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई एजमाणं पासति, पासइत्ता आसणाओ अब्भुढेति, अन्भुढेत्ता आसगेणं उवनिमंतेति, उवनिमंतेता आसत्थं वीसत्थं सुहासणवरगयं जिणदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-भणदेवाणुप्पिया! किमागमणप्पओयणं ? तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तं सत्थवाह एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तव धूयं भद्दाए अत्तयं सुकुमालियं सागरदत्तस्स भारियत्ताए वरेगि, जइ णं जाणह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो, तो दिजउ ण सुकुमालिया दारिया सागरस्स दारगस्स, तए णं देवाणुप्पिया! भणकिं दलयामो सुकं सुकुमालियाए? तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जिणदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुकुमालिया दारिया एगा जाया इट्ठा०५ जाव किमंग ! पुण पासणयाए, तं नो खलु अहं इच्छामि सुकुमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं, तं जइ णं देवाणुप्पिया ! सागरए दारए ममं घरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सुकुमालियंदारियं दलयामि ? तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सागरं दारयं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता? सागरदत्ते सत्थवाहे ममं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुकुमालिया दारिया इट्ठा५, तं जइ णं सागरए दारए ममं परजामाउए भवतिजाव दलयामि / तए णं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। तएणं से जिणदत्ते सत्थवाहे अण्णया कयाइ सोहणंसि तिहिकरणे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति, उवक्खडावेत्ता मित्तनाई आमंतेति, आमंतेत्ता सकारेत्ता सम्माणे त्ता सागरं दारयं ण्हायं०जाव सव्वालंकारविभूसियं करेति, करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहावेति, दुरूहावेत्ता मित्तनाइ०जाव परिवुडे सव्विड्डीए साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता चंपा नगरिं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सीयाओ पचोरुहेति, पचोरुहेत्ता सागरं दारगं सागरदत्तस्स उवणेइ। तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता०जाव सम्माणेत्ता सागरं दारगं सुकु मालियाए दारियाए सद्धिं पट्टयं दुरूहाथेति, दुरूहावेत्ता सेयापीतएहिं कलसेहिं मज्जावेति, मज्जावेत्ता होम कारावेति, कारावेत्ता सागरदत्तं दारयं सुकुमालियाए दारियाए पाणिं गिण्हावेइ / तए णं सागरए दारए सुकुमालियाए दारियाए इमं एयारूवं पाणिफासं पडिसंवेदेति-से जहाणामए असिपत्तेइ वा०जाव मुम्मुरेइ वा, एत्तो अणिट्टतराए चेव पाणिफासं संवेदेति। तए णं से सागरदारए अकामए अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति। तए णं सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स दारयस्स अम्मापियरो मित्तणाई विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं पुप्फवत्थ०जाव सम्माणेत्ता पडिविसर्जेई / तए णं सागरए दारए सुकुमालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छेत्ता सुकुमालियाए दारियाए सद्धिं तलिमंसि निवज्जइ / तए णं से सागरए दारए सुकुमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगफासं संवेदेतिसे जहाणामए असिपत्तेइ वा०जाव अमणामतराए चेव अंगफासं पचणुभवमाणे विहरति / तए णं तं सागरदारए अंगफासं असहमाणे अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति। तएणं सागरए दारए सुकुमालियं सुहपसुत्तं जाणेत्ता सुकुमालिया एदारियाए पासाओ उढे ति, उढे त्ता जेणेव सए सयणिज्जे ते णेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयंसि निवज्जइ। तएणं सुकुमालिया दारिया तओ मुहु-तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी पतिव्वया पतिमणुरत्ता पतिं पासे अपासमाणी तलिमाओ उद्वेति, उद्वेता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सागरस्स दारगस्स पासे णिवञ्जति। तए णं से सागरए दारए सुकुमालियाए दारियाए दोचं पि इमं एयारूवं अंगफासं पउिसंवेदेति-से जहाणामाए असिपत्तेइ वा० जाव अमणामतराए चेव अंगफासं पचणुब्भवमाणे विहरइ / तए णं सागरए दारए तं अंगफासं असहमाणे अकाममाणे अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति।तएणं सागरए दारए सुकुमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणेत्ता सयणिज्जाओ उठेति, उठूत्ता वासघरस्स दारं विहाडेति, विहाडेत्ता मारामुक्के विव कागए जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए / तए णं सुकुमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया० जाव अपासमाणी सयणिज्जाओ उठेति, उद्वेत्ता सागरस्स दारयस्स सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणी करेमाणी वासघरस्स दारं विहाहियं पासति, पासेत्ता एवं क्यासी-गए णं से सागरए दारए ति कट्ट ओहयमणसंकप्पा० जाव झियायति / तए णं सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउ० दासचेडी सदावेति सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! बर मुहधोवणियं उवणेहि। तए णं सा दासचेडी भद्या. एवं वुत्ता समाणी एयम४ तह त्ति पडिसुणेति, प
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________________ दुवई 2582 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई धोवणियं गिण्हेइ, गिण्हेत्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियंदारियंजाव झियायमाणिं पासेति, पासेत्ता एवं वयासी-किं णं तुम देवाणुप्पिए ! ओहयमण०जाव झियाहि ? तए णं सा सुकुमालिया दारिया तं दासचेडियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया!सागरए दारए ममं सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उठेति, उद्वेत्ता वासघरदुवारं अवगुणेति, अवगुणेत्ताजाव पडिगए, तए णं अहं मुहुरातरस्स०जाव दारं विहाडियं पासामि, गए णं से सागरए त्ति कट्ट ओहयमण०जाव | झियामि / तए णं सा दासचेडी सुकुमालियाए दारियाए एयभट्ट / सोचा जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमढे निवेदेति / तए णं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयम४ सोचा णिसम्म आसुरुत्ते०५ जेणेव जिणदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिणदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-किं णं देवाणुप्पिया ! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा, जंणं सागरए दारए सुकुमालियं दारियं अदिट्ठदोसवडियं विप्पजहाय इहमागए, बहूहिं खिज्जणियाहि य रुंटणियाहि य उवालभति / तए णं जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स एयमढे सोचा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सागरं दारयं एवं वयासी-दुट्ट णं पुत्ता ! तुमे कयं, सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहाओ इह हव्वमागए, तेणं तं गच्छह णं तुम पुत्ता ! एवमवि गए सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स गिहे / तए णं से सागरए जिणदत्तं सत्थवाहं एवं बयासी-अवियाइं अहं ताओ गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुप्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्खणं वा वेहाणसं वा सत्थावाडणं वा गिद्धपढे वा पव्वजं वा विदेसगमणं वा अब्भुवगच्छेज्जामि, नो खलु अहं सागरदत्तस्म सत्थवाहस्स गिहं गच्छेजामि / तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे कुटुंतरिए सागरस्स एयमढे निसामेति, लञ्जिए विले पविढे विव जिणदत्तस्स गिहाओ पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमित्ताजेणेव सए गेहेतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सद्दावेति, सद्दावेत्ता अंके निवेसेति, णिवेसेत्ता एवं वयासी-किं णं तव पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुक्का, अहं णं तुम तस्स दाहामि, जस्सणं तुमंइट्ठाजाव मणाभिरामा भविस्ससि त्ति सुकुमालियं दारियं ताहिं इट्ठाहिं० जाव बहूहिं वग्गूहिं समासासेइ, समाससित्ता पडिविसझेति / तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे अण्णया उप्पिं आगासतलगंसि सुहनिसन्ने रायमग्गं अवलोएमाणे अवलोएमाणे चिट्ठति। तएणं सागरदत्ते सत्थवाहे एगं महं दमगपुरिसं पासति दंडखंडनि-वसणं खंडमल्लगखंडघडहत्थगयं मच्छियासहस्से हिं०जाव अण्णिजमाणमग्गं / तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-तुन्भे णं देवाणुप्पिया! एतं दमगं पुरिसं विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलोभेह, पडिलोभेत्ता गिहं अणुप्पवेसेह, अणुप्पवेसेत्ता खंडमल्लगं खंडघडगं च से एगंते पाडेह, पाडेत्ता अलंकारियकम करेह, करेता पहायं कयवलिकमं०जाव विभूसियं करेह, करेत्ता मणुण्णं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयावेह, भोयावेत्ता मम अंतियं उवणेह। तए णं से कोडुंबियपुरिसा०जाव पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छइ, उवाग-- च्छित्ता तं दमगं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलोभेति, सयं गिहूं अणुप्पवेसंति, अणुप्पवेसेत्ता तं खंडमल्लगं खंडघडगं च तस्स दमगपुरिसस्स एगंते पाडेंति। तए णं से दमगपुरिसे तंसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि य पाडिज्जमाणंसि महया महया सद्देणं आरसति। तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे तस्स दमगपुरिसस्स तं महया महया आरसियसई सोचा णिसम्म (तएणं) सागरदत्ते कोडु वियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दोवत्ता एवं वयासी-किं णं देवाणुप्पिया! एस दमगपुरिसे महया महया सद्देणं आरसति? तए णं ते कोडुबियपुरिसा तं सागरदत्तं सत्थवाहं एवं बयासीएस णं सामी ! तंसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि य पाडिज्जमाणसि महया महया सद्देणं आरसति / तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे तं कोडं बियपु रिसं एवं वयासीमा णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! एयस्स दमगपरिसस्स तं खंडमल्लगं०जाव पाडेइ, पासे ठवेह, जहा णं पत्तियं भवति। ते वि तहेव ठवेंति, ठवेत्ता तस्स दमगस्स पुरिसस्स अंलकारियं कम्मं करेंति, करेत्ता सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं अन्भिंगेंति, अभिंगिए समाणे सुरभिणा गंधुव्वट्टणएणं गायं उव्वदृति, उसिणोदगगंधोदगेणं ण्हाएंति, सीओदगेणं व्हावें ति, पहावेत्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइए गायाइं लूहें ति, लूहेत्ता हंसलक्खणपडलामगं परिहिंति, परिहित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करेत्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयाति, भोयावेत्ता सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स उवणेति / तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे सुकुमालियंदारियं ण्हायं०जाव सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-एसणं दुवाणुप्पिया! मम धूया
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________________ दुवई 2583 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई इट्ठा एयं णं अहं तव भारियत्ताएदलामि, भदियाए भदं भवेज्जामि। तए णं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सुकुमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुप्पविसति, सुकुमालियाए दारियाए सद्धिं तलिमंसि निवज्जति / तए णं से दमग पुरिसे सुकुमालियाए दारियाए सद्धिं इमेयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेति, सेसं जहा सागरस्सजाव सयणिज्जाओ अब्भुट्टेति, अब्भुढेत्ता वासघराओ णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता खंडमल्लगं खंडघडगंच गहाय मारामुक्के विव कागए जामेव दिसिं पाउडभूए तामेव दिसिं पडिगए / तए णं सा सुकुमालिया दारिया०जाव गए णं से दमगपुरिसे त्ति कटु ओहयमण०जाव झियायति / तए णं सा भद्दा कल्लं पाउन्भूया दासचेडिं सद्दावेति, सदावेत्ताजाव सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स एयमलृ निवेदेति / तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे तहेव संभंते समाणे जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकु.-. मालियं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसेत्ता एवं बयासी--अहो णं तुमं पुत्ता ! पुरा पुराणाणं० जाव पच्चणुब्भवमाणी विहरसि, तं मा णं तुमं पुत्ता ! ओहयमण०जाव झियाहि, तुमं णं पुत्ता ! मम महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जहा पोट्टिला. जाव परिभाएमाणी विहराहि / तए णं सा सुकुमालिया दारिया एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं० जाव दलमाणी विहरति। सुकुमालके कोमले काममत्यर्थ गजतालुकसमाना, गजतालुक ह्यस्यर्थ च सुकुमाल भवतीति। "जुत्त वेत्यादि"युक्तं संगतं (पत्तं ति) प्राप्त प्राप्तकालं, पात्रं वा गुणानामेष पुत्रः / श्लाघनीयं या, सहशो वा संयोगो विवाह्ययोरिति। "से जहानामए असिपत्तेइ वा' इत्यत्र यावत्करणादिद द्रष्टव्यम्- 'करपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलंबचीरिकापत्तेइ वा सत्तिअग्गेइ वा कोतग्गेइ वा तोमरग्गेइ वा भिंडिमालग्गेइ वा सूचिकलावएइ वा विच्छुयकडेइ वा कविकच्छूइ या इंगालेइ वा मुंमुरेइ वा अचीइ वा जालेइवा अलाएइ वा सुद्धागणीइवा भवे एयारूवे। नो इणड्डे समढे। एतो अणिहतराए व अकततराए चेव, अप्पियतराए चेव, अमणुण्णतराए चेव, अमणामतराए चेव त्ति / " तत्रालिपत्र खड्गः, करपत्रं ककचं, क्षुरपत्रं छुरः, कदम्बचीरिकाऽऽदीनिलोकरूढ्याऽवसेयानि, वृश्चिककण्टकः, कपिकच्छु: खजूंकारी वनस्पतिविशेषः, अङ्गारो विज्वरो विज्वालोऽनिकणः, मुम्मुरोऽग्निकणमिश्र भस्म, अर्विरिन्धनप्रतिबद्धा ज्वाला, ज्वाला तु इन्धनच्छिन्ना, अलातमुल्मुकं, शुद्धानिरयस्पिण्डान्तर्गतोऽग्निरिति / (अकामए त्ति) अकामको निरभिलाषः / (अवसवसे त्ति) अपस्ववशः, अपगतात्मा तन्त्रत्वे इत्यर्थः / (तलिमसि निवजइ ति) तल्पे शयनीये निषद्यते, (पइंवय ति) पति भर्तारं व्रतयति तमेवाभिगच्छामीत्वेव नियम | करोतीति / पंतिव्रता पतिमनुरक्ता भरि प्रति रागवतीति / (मारामुक विवकागए त्ति) मार्यन्ते प्राणिनो यस्यां शालायां सा मारा शूना, तस्या मुक्तो यः स मारामुक्तो, माराद्वा मरणान्मारकपुरुषादा मुक्तो विच्छुट्टितः, काको वायसः। (बहुवरस्स त्ति) बधूश्च वरश्च वधूवर, तस्य, (कुलाणुरुवं ति) कुलोचितं, वणिजा वाणिज्यमिव (कुलसरिसं ति) श्रीमद्वणिजां रत्न वाणिज्यमिव (अदिट्टदोसवडियं ति) न दृष्ट उपलभ्यस्वरूपे दाषे दूषणे पतिता रामापन्ना अदृष्ट दोषपतिता ता (खिज्जणियाहिं ति) खेदक्रियाभिः, रुण्टनिकाभिः रुदितक्रियाभिः, (मरुप्पवाय वत्ति) निर्जलदेशे प्रपात (सत्थावाडणं ति) शस्त्रेणावपाटनं विदारणमात्मन इत्यर्थः / (गिद्धपट्ट ति) गृधस्पृष्ट गृधैः स्पर्शनं कलेवराणां मध्ये निधत्य गृधे त्मनो भक्षणमित्यर्थः / (अब्भुवगच्छेज्जामि त्ति) अभ्युपैमि / ''पुरापुराणाणं' इत्यत्र यावत्करणादेवं द्रष्टव्यम्-''दुचिण्णाण दुप्पडिकताणं कडाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलवित्ति विसेस ति।" अयमर्थः-- पुरा पूर्वे भवे पुराणानामतीतकालभाविनां तथा दुश्चीf दुश्चरित मृषावादनपारदारिकाऽऽदि, तहेतुकानि काण्यिपि दुश्वीणानि व्यपदिश्यन्ते अतस्तेषामेव दुष्पराक्रान्तं प्राणिघातादत्तापहाराऽऽदिकृतानां प्रकृत्यादिभेदेन, पुराशब्दस्येह संबन्धः पापानामपुण्यरूपाणा कर्मणां ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनां पापकर्म अशुभं फलवृत्तिविशेषम्, उदयवर्तनभेदं प्रत्यनुभवन्ती विहरसिवर्तसे। तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेयलिनाए सुव्वयाओ, तहेव समोसढाओ, तहेव संघाडओ०जाव गिहं अणुप्पविट्ठो, तहेव० जाव सुकुमालिया पडिलाभेइ, पडिलाभेत्ता एवं बयासी-एवं खलु अजाओ ! अहं सागरस्स दारगस्स अणिट्ठाजाव अमणामा, णेच्छइ णं सागरदारए मम नामं वा०जाव परिभोगं वा, जस्स जस्स वि य णं दिज्जामि तस्स तस्स वियणं अणिट्ठाजाव अमणामा भवामि, तुडभे य णं अजाओ बहुणायाओ, एवं जहा पोट्टिला० जाव उदलद्धे, जेणं अहं सागरदारगस्स इट्ठा कंता०जाव भवेजामि। अजाओ तहेव भणंति, तहेव साविया जाया, तहेव चिंता, तहेव सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छति, आपुच्छित्ता० जाव गोबालिया णं अजाणं अंतियं पव्वइया / तएणं सा सुकुमालिया अज्जा जाया इरियासमिया०जाव गुत्तबंभयारिणी बहूहिं चउत्थछट्ठम०जाव विहरति / तए णं सा सुकुमालिया अजा अण्णया कयाई जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदति, नमसति, नमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामि णं अज्जा ! तुम्हेहिं अब्भणुण्णाया समाणी चंपाए णयरीए बाहिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंतेणं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणी विहरित्तए / तए णं ताओ गोवालि
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________________ दुवई 2584 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई याओ अजाओ सुकुमालियं अज्ज एवं बयासी-अम्हे णं अञ्जो ! | समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ०जाव गुत्तबंभयारिणीओ, नो खलु अम्हं कप्पति बहिया गामस्स वा०जाव सण्णिवेसस्स वा०जाव छठें छट्टेणं०जाव विहरित्तए, कप्पति णं अम्हं अंतो उवस्सयस्स वत्तिपरिक्खित्तस्स संघाडिबद्धियाए णं समतलपइयाए आयावित्तए / तए णं सा सुकुमालिया अजा गोवालियाए अजाए एयम४ नो सद्दहति, नो पत्तियति, नो रोवेति, एयमढे असद्दहमाणे अपत्तियमाणे सुभूमिभागस्स उज्जाणरस अदूरसामंते छ8 छट्टेणं०जाव विहरति / तत्थ णं चंपाए नयरीए ललियनामं गोट्ठी परिवसइ, नरवइदिन्नवियारा अम्मापिई निययनिप्पिवासा वेसविहारकयणिके या णाणाविहअविणयप्पहाणा अड्डा०जाव अपरिभूया / तत्थ णं चंपाए णयरीए देवदत्ता णामं गणिया होत्था सुकुमाला जहा अंडणा। तए णं तीसे ललियए गोट्ठीए अण्णया कयाइ पंच गोट्ठिलगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। तत्थ णं एगे गोट्ठिल्लपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरेइ, एगे पुरिसे पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ, एगे पुरिसे पुप्फपूरियं रयति, एगे पुरिसे पाए रएइ, एगे पुरिसे चामरुक्खेवं करेति / तए णं सा सुकुमालिया अजा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहिं गोहिल्लपुरिसेहिं सद्धिं उराले हिं माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणी पासति, पासेत्ता इमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगयसंकप्पे समुप्पज्जित्था-अहो णं इमा इत्थिया पुरा पोराणाणं०जाव विहरति / तं जइ णं मे इमस्स सुचरियस्स तवनियमबंभचेरवासस्स कलाण्णे फलवित्तिविसेसे अस्थि, तो णं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाई उरालाई माणुस्सगाइं०जाव विहरेज्जामि त्ति कटु णियाणं करेइ, करेत्ता आयावणभूमीए पच्चोरुहइ / तए णं सा सुकुमालिया अज्जा सरीरपाउसिया जाया यावि होत्था / अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, अभि०२ पाए धोवेइ, अभि०२ सीसं धोवेइ, अभि०२ मुहं धोवेइ, अभि०२थणंतराइंधोवेइ, अमि० 2 कक्खंतराइं धोवेति, अभि०२ गुज्झंतराई धोवेति / जत्थ णं ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ वि य णं पुव्वामेव उदएणं अन्भुक्खित्ता तओ पच्छा ठाणं वा सिजं वा णिसीहियं वा चेएइ / तए णं ताओ गोवालियाओ अजाओ सुकुमालियं अजं एवं बयासी-एवं खलु अजे ! अम्हे समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ०जाव बंभचेरधारिणीओ, नो खलु कप्पति अम्हं सरीरपाउसियाए होत्तए, तुमं च णं अज्जे ! सरीरपाउसिया / अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेसिजाव चेतेसि, तंतुमं णं देवाणुप्पिया ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि०जाय पडिवजाहि। तए णं सुकुमालिया अज्जा गोवालियाणं अजाणं अंतिए एयमर्स्ट सोचा नो आढाइ, नो परियाणइ, अणाढाइमाणा अपरिजाणमाणा विहरति / तए णं ताओ अज्जाओ सुकुमालियं अजं अभिक्खणं अभिक्खणं हीलेतिजाव परिभवंति, अभिक्खणं अभिक्खणं एयमद्वं निवारेति। तए णं तीसे सुकुमालियाए अजाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिज्जमाणीए०जाव यारिजमा--णीए इमे यारू वे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणो गयसंकप्पे समुप्पञ्जित्था--जया णं अहं अगारमज्झे वसामि, तया णं अहं अप्पवसा, जया णं अहं मुंडा पव्वइया, तया णं अहं परवसा, पुट्विं च णं मम समणीओ आढ़ति, इयाणिं तु नो आदति, तं सेयं खलु ममं कल्लं पाउन्भूया गोवालियाणं अजाणं अंतियाओ पडिणिक्खमेत्ता पाडिएकं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए त्ति कट्ट एवं सपेहेति, संपेहेत्ता कल्लं गोवालियाणं अजाणं अंतियाओपडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता पाडिएवं उवस्सयं उवसंपन्जित्ता णं विहरति / तए णं सा सुकुमालिया अज्जा अणाहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभि-क्खणं हत्थं धो वति०जाव चे एति / तत्थ वि य णं पसत्था पासत्थविहारिणी ओसण्णा ओसण्णविहारिणी कुसीला कुसीलविहारिणी संसत्ता संसत्तविहारिणी बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणंसि देवगणियत्ताए उववण्णा। तत्थेगइयाणं देवीणं नवपलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता / तत्थ णं सुकुमालियाए देवीए नवपलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता / तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कंपिल्लपुरे णाम णयरे होत्था / वण्णओ / तत्थ णं दुवए णामं राया होत्था। वण्णओ / तस्स णं दुवयस्स रण्णो चुलणी णामं देवी होत्था, सुकुमाला०जाव सुरूवा / तस्स णं वयस्स रण्णो पुत्ते चुलणीए देवीए अत्तए धट्ठजणे णामं कुमारे जुवराया होत्था / तए णं सा सुकु मालिया देवी ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कं पिल्लपुरे नगरे दुवयस्सरण्णे चुलणीए देवी कुच्छिं सि दारियत्ताए पयाया / तए णं सा चुलणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपड्पुिण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वइकंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरं दारियं पयाया। तए णं
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________________ 2585 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई तीसे दारियाए निव्यत्ते वारसाहिए दिवसे इमं एयारूवं णाम, जम्हा णं एसा दारिया दुवयस्स रण्णो धूया, चुलणीए देवीए अत्तया, तं होऊणं अम्हं इमीसे दारियाए णामधिज्जं दोवई / तए णं तीसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गोणं गुणनिप्फन्नं णामधेनं करिंति दोवई / तए णं सा दोवई दारिया पंचधाईपरिग्गहिया। तं जहा-खीरधाईए, अंकधाईए,मंडणधाईए, कीलावणधाईए, मजणधाईए / गिरिकंदरमल्लीणा इव चंपगलया णिवाया निव्वाघायंसि सुहं सुहेणं परिववइ / तए णं सा दोवई रायवर-- कण्णा उम्मुक्कबालभावान्जाव उक्किट्ठसरीराजाया यावि होत्था। तए णं सा दोवईरायवरकण्णया अण्णया कयाइं अंतेउरियाओ ण्हायं जाव विभूसियं करेति, दुवयस्सस्नो पायवंदियं पेसेइ। तए णं सा दोवई रायवरकण्णा जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेति / तए णं से दुवए राया दोवई दारियं अंके निवेसेति, दोवईए रायवरकण्णाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवइं रायवरकण्णं एवं बयासी-जत्थणं अहं तुमं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ णं तुमं दुहिया वा सुहिया वा भवेज्जासि? तए णं ममं जावजीवाए हिययदाहे भविस्सति; तं णं अहं पुत्ता ! अज्जयाइ सयंवरं रयामि, अजो ! पाएणं तुम दिण्णसयंवरा,जंणं तुमं सयमेव रायं जुवरायं वा वरेहिसि, से णं तव भत्तारे भविस्सइ त्ति कट्ट ताहिं इठ्ठाहिं कंताहिं०जाव आसासेइ, पडिविसजेति / तए णं से दुवए राया दूयं सद्दावे ति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! वारवइंणगरिं, तत्थ णं तुम कण्हं वासुदेवं समुद्दविजयपामोक्खं दसदसारे बलदेवपामुक्खं पंचमहावीरे उग्गसेणपामोक्खे सोलस रायसहस्से पजुण्णपामोक्खाओ अद्भुट्ठाओ कुमारकोडीओ संवपामोक्खाओ सर्हि दुइंतसाहस्सीओ वीरसेणपाडुक्खाओ एकवीसं वीरपुरिससाहस्सीओ महसेणपामुक्खाओ छप्पण्णं बलवगसाहस्सीओ अण्णे य बहवे राईसरतलवरमाड वियकोडं बियइडभसेट्टिसेणावइसत्थवाहप्पभिइओ करयलपरिग्गहियं दसण्हं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं बद्धावेहि, बद्धावेत्ता एवं बयाहि एवं खलु देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे नगरे दुवयस्स रण्णो धूयाए चुलगीए देवीए अत्तयाए घट्ठजुणकुमारस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तंणं तुब्भे दुवयं रायं अणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणा चेव कंपिल्लपुरे णगरे समोसरह / तए णं से दूए करयल०जाव कट्ट दुवयस्स रण्णो एयमटुं विणएणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घटं आसरह जुत्तामेव उवट्ठवेह०जाव उवट्ठवेति। तएणं से दूएण्हाए०जाव सस्सिरीए चाउग्घंटं आसरहं दुरूहति, दुरूहइत्ता बहूहिं पुरिसे हिं सन्नद्धबद्ध०जाव गहियाउहपहरणे हिं सद्धिं संपरिडे कंपिल्लपुरं णगरं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छति, णिग्गच्छइत्ता पंचालजणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता सुरट्ठजणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव वारवती णगरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वारवई नगरिं मज्झं मज्झेणं अणुप्पविसति, जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं ठवेति, ठवेत्ता रहाओ पचोरुहेइ, मणुस्सवगुरापरिक्खित्ते पायचारविहारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कण्हं वासुदेवं समुद्दविजयपाडुक्खे य दसदसारे०जाव बलवगसा-हस्सीओ करयल०तं चेव०जाव समोसरह / तए णं से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हहतुढे० जाद हियए तं दूर्य सक्कारेइ, सकारित्ता संमाणेइ, माणित्ता पडिविसज्जेइ। तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडं बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्भाए सामुदाणियं भे रिं ताले हि / तए णं से कोडं बियपुरिसे करयल०जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयमढे पडिसुणे ति, पडिसुणेत्ता जेणेव समाए सुहम्माए सामुदाणिया भेरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सामुदाणियं भेरिं महया महया सद्देणं तालेइ / तए णं ताए सामुदाणियाए भेरीए तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामुक्खा दस दसारा०जाव महसेणपामुक्खाओ छप्पन्नं च बलवगसाहस्सीओ पहाया०जाव विभूसिया जहाविभवं इडिसक्कारसमुदएणं अप्पेगइया हयगयगया, अप्पेगइया जाव पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेव तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल०जाव कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं बद्धावें ति / तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगय०जाव पच्चप्पिणंति / तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता ससुत्तजालाउलामिरामे०जाव अंजणगिरिकूड सण्णिभं गयवरं नरवई दुरूढेइ। तएणं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपाडोक्खेहिं दसदसारेहिं जाव अणंगसेणपामो क्खाहिं अणेगाहिं गणियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिखुडे सव्वड्डीएन्जाव रवेणं वारवई णगरिम--
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________________ दुवई 2586- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई ज्झं मज्झेणं णिग्गच्छति, णिग्गच्छइत्ता सुरट्ठजणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पंचालजणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव कंपिल्लपुरे णगरे तेणेव पहारेत्थगमणाए 1 / तण णं से दुवए राया दोचं दूयं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! हत्थिणापुरं णयरं, तत्थ णं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं जुहिडिल्लं भीमसेणं अञ्जुणं नउलं सहदेवं दुजोहणं भायसयसमग्गं गंगेयं विदुरं दोणं जयद्दहं सउणं कीवं अस्सत्थामं करयल०जाय कट्ट तहेवजाव समोसरह। तए णं से दूए एवं बयासी जहा वासुदेवे, णवरं भेरी नत्थिजाव जेणेव कंपिल्लपुरे णगरे तेणेव पहारेत्थगमणाए 2 / एएणेव कमेणं तचं दूयं चंपं नयरिं, तत्थ णं तुम कण्णं अंगराय सल्लनंदिरायं करयल०तहेव जाव समोसरह 3 / चउत्थं दूयं सोत्थिमई णगरिं, तत्थ णं तुमं सिसुपालं दमघोससुयं पंचभाइसयं संपरिवुडं करयल०तहेव०जाव समोसरह 4 / पंचमं दूयं हत्थिसीसंणयर, तत्थ णं तुमं दमदंतं रायं करयल०जाव समोसरह 5 / छठें दूयं महुरिं नगरिं, तत्थ णं तुमं धरराया करयल०जाव समोसरह 6 / सत्तमं दूयं रायगिहं णगरं, तत्थ णं तुम सहदेवं जरासंधसुयं करयल०जाव समोसरह 7 / अट्ठमं दूयं कोडिण्णं णगरं, तत्थ णं तुमं रुप्पिं भीसगसुयं करयल०तहेव ०जाव समोसरह 8 / नवमं दूयं विराडं णगरं, तत्थ णं तुम कीयगं भाउयसयसमग्गंकरयल० जाव समोसरह 6 / दसमं दूर्य अवसेसेसु गामागरणगरेसु अणेगाई रायसहस्साइं०जाव समोसरह 10 / तए णं से दूए तहेव णिग्गच्छति, णिग्गच्छइत्ता जेणेव गामागरणगरजाव समोसरइ। तएणं ताई अणेगाइं रायसहस्साइंतस्स दूयस्स अंतिए एयमद्वं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठा तं दूयं सक्कारेति, संमाणेति, संमाणेत्ता पडिविसजेति / तए णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेयं पत्तेयं ण्हाया सण्णद्धबद्धहत्थिखंधवरगया हयगयरहभडचडगरपहरक 0 सएहिं 2 णगरेहिंतो अभिणिग्गच्छंति, अभिणिग्गच्छंतित्ता जेणेव पंचाले जणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से दुवर राया कोडं बियपुरिसे सद्धावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासीगच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे णगरे बहिया गंगाए महानदीए अदूरसामंतेणं एग महयं सयंवरमंडवं करेह अणेगखंभस-यसंनिविट्ठ लीलट्ठियसालिभंजियागंजाव पचप्पिणं ति / तए णं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दादेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वासुदेवपाडुक्खाणंबहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह, ते वि करेत्ता पचप्पिणंति। तएणं से दुवए राया वासुदेव पामुक्खाणं बहूणं रायसहस्सा-णं आगमणं जाणेत्ता पत्तेयं पत्तेयं जाव हत्थिखंध० जाव सद्धिं संपरिवुडे अग्धं च पज्जं च गहाय सव्वड्डीए कंपिल्लपुराओ णयराओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेवते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता ताई वासुदेवपामुक्खाई अग्घेण य पजेण य सक्कारेति, सम्माणेइ,सम्भाणेत्ता तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं पत्तेयं पत्तेयं आवासे वियरति / तए णं ते वासुदेवपामुक्खा जेणेव सयाई सयाइं आवासाइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाहिंतो पचोरुहंति, पत्तेयं पत्तेयं खंधावारनिवेसं करें ति, करेत्ता सएसु सएसु आवासेसु अणुप्पविसंति, सएसु सएसु आवासेसु य आसणेसु य सण्णिसण्णा य संतुट्ठा य बहूहिं गंधवेहि य णाडएहि य उवगिज्जमाणा य उवगिज्जमाणा य विहरंति / तएणं से दुवए राया कंपिल्लपुरं नगरं अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति, उवक्खडावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सहावेत्ता एवं बयासीगच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च मज्जं च मंसं च सीधुं च पसण्णं च सुबहुं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेसु साहरह, ते वि साहरंति। तएणं ते वासुदेवपामुक्खा तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमंजाव पसण्णं च आसाएमाणा०४जाव विहरंति / जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा०जाव सुहासणवरगया ण बहूहिं गंधव्वेहि य०जाव विहरंति / तए णं से दुवए राया पुत्वावरण्हकालसमयंसि कोडं-बियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरं णयरं सिंघाडगतिगचउक्कचचरम-हापहेसु वासुदेवपाडोक्खाण य रायसहस्साणं आवासेसु हत्थिखंधवरगया महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं बयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कल्लं पाउप्पभाए दुवयस्स रण्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए धट्ठजुणस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! दुवयं रायाणं अणुगिहमाणा पहाया जाव विभूसिया हत्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धारिजमाणेणं सेयवरचामराहिं महया हयगयरह भडचडगरेणं०जाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवरे मंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पत्तेयं पत्तेयं नामंकेसु आसणेसु निसीयह, दोवई रायवरकन्नं पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा
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________________ दुवई 2587- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई चिट्ठह, घोसणं घोसेह, मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह। तए णं ते क्रीडाप्रधाना (गोट्टि त्ति) जनस्य समुदायविशेषः / (नरवइदिन्नवियार कोडुंबियपुरिसा तहेव पञ्चप्पिणंति / तए णं से दुवए राया त्ति) नृपानुज्ञातकामचारा (अम्मापीइंनिययनिप्पिवास त्ति) मात्रादिकोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुन्भे निरपेक्षा (वेसवि-हारकयनिकेय त्ति) वेश्याविहारेषु वेश्यामन्दिरेषु कृतो देवाणुप्पिया ! सयंवरमंडवं आसियं संमज्जितोवलित्तं सुगंध- निकता निवासो यया सा तथा ।(णाणाविहअविणयप्पहाणा) इति वरगंधियं पंचवण्णपुप्फोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदुरुक्क--- कण्ट्य म् / (पुप्फपूरिय रसइ त्ति) पुष्पशेखरं करोति। (पाए रएइ त्ति) तुरुक्क०जाव गंधवट्टियभूयं मंवाइमंचकलियं करेह, करेत्ता पादावलतकाऽऽदिना रञ्जयति / पाठान्तरे- "रोवेइ ति" धूतजवासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पत्तेयं पत्तेयं लाभ्यामार्द्रयति / (सरीरवाउसिय ति) वकुशः शवलचारित्रः, स च नामंकियाइं आसणाई सेयवत्थपञ्चुयाइं रएहि, रएत्ता एयमा- शरीरत उपकरणतश्चेत्युक्त, शरीरवकुशा तद्विभूषाऽनुवर्तिनीति। (टाणं णत्तियं पञ्चप्पिणह, ते वि तहेव० जाव पच्चप्पिणंति / तए णं ते ति) कायोत्सर्गस्थानं निषदनस्थान वा शय्यां त्वग्वर्तन नैषधिकी वासुदेवपामोक्खा बहवे रायाणो कल्लं पाउप्पभाए ण्हाया० जाव स्वाध्यायभूमि चिन्तयति करोति / 'आलोएहि० जाय' इत्यत्र विभूसिया हत्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं यावत्करणात्-"निंदाहि गरिहाहि पडिकमाहि विउट्टाहि विसोहेहि धारिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उद्धृवमाणेहिं महया हयगयर- अकरणयाए अब्भुट्टेहि अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहि।" हभडचडगरेणं सद्धिं संपरिवुडा सव्वड्डीए०जाव रवेणं जेणेव इति दृश्यमिति। तत्राऽऽलोचनं गुरोनिवेदनंनिन्दनं पश्चात्तापो, गर्हण सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता सयंवरं अणु- गुरुसमक्ष निन्दनमेव, प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतदानलक्षणम्, अकृत्याप्पविसंति, अणुप्पविसइत्ता पत्तेयं 2 नामंकि एसु आसणेसु निवर्तन वा। वित्रोटनमनुबन्धछेदन, विशोधनं व्रतानां पुनर्नवीकरण, निसीयंति, णिसीयंतित्ता दुवयरायवरकण्णं पडिवालेमाणा शेषं कण्ठ्यमिति। (पाडिएक ति) पृथक् (अणाहट्टिय त्ति) अविद्यमाचिट्ठति / तए णं से दुवए राया कल्लं पाउप्पभाए पहाया०जाव नोपधट्टको यदृच्छया प्रवर्तमानाया हस्तपादादिना निवर्तको यस्याः सा विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धारिज- तथा / तथा नास्ति निवारको मैवं कार्षीरित्येवं निषेधको यस्याः सा माणेणं सेयवरचामरेहिं उद्धृव्वमाणेहिं महया हयगय०जाव सद्धिं तथा / (अज्जयाए त्ति) अद्यप्रभृति (अग्धं व त्ति) अर्घः पुष्पाऽऽदीनि संपडिवुडे कं पिल्लपुरं णगरं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छति, पूजाद्रव्याणि, (पजं व त्ति) पादहित पाद्य, पादप्रक्षालनस्नेहनोणिग्गच्छइत्ता जेणेव सयंवरमंडवे जेणेव वासुदेवपामोक्खा बहवे द्वर्तनाऽऽदि। मद्यमधुप्रसन्नाऽऽख्याः सुराभेदा एव। (जिणपडिमाण अचर्ण रायवरसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छ इत्ता तेसिं करेइ त्ति) कस्याञ्चिद् वाचनायामेतावदेव दृश्यते / वाचनान्तरेऽत्र तुवासुदेवपामोक्खाणं करयलजाव बद्धावेइ, बद्धावेत्ता कण्हस्स "पहाया०जाव सव्वालंकारविभूसिया मजणघराओ पडिणिक्खमइ, वासुदेवस्स सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे उववी-यमाणे पडिणिक्खमइत्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता चिट्ठति / तए णं सा दोवई रायवरकण्णा कल्लं पाउप्प-भाए जिणधर अणुप्पविसइ, अणुप्पविसइत्ता जिणपडिमाणं आलोए पणाम जेणेव मजणधरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता मजण-वरं करेइ, करेइत्ता लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसइत्ता एवं जहा सूरियाभो अणुपपविसति, अणुप्पविसइत्ता ण्हाया कयबलिकम्मा जिणपडिमाओ अचेति, तहेव भाणियव्बंजाव धूवं डहइ त्ति।" इह कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पा वेसाई मंगलाई पवरव- यावत्करणादर्थत इद दृश्यम्-लोमहस्तकेन जिनप्रतिमा प्रमार्टि, त्थपरिहिया सव्वालंकारविभूसिया मजणघराओ पडिनिक्ख- सुरभिणा गन्धोदकेन स्नपयति, गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, वस्त्राणि मई, पडिनिक्खमेत्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवा-- निवासयति, ततः पुष्पाणां माल्यानां, ग्रथितानामित्यर्थः / गन्धानां गच्छइत्ता जिणघरं अणुप्पविसति,अणुप्पविसइत्ता जिणपडि- चूर्णानां, वस्त्राणामाभरणानां वाऽऽरोपणं करोति स्म, मालाकलापावमाणं आलोए पणामं करेइ, करेत्ता लोमहत्थगं परामुसइ, लम्बनं पुष्पप्रकर, तन्दुलैर्दर्पणाऽऽद्यष्ट मङ्गलकाले रचनं करोति। परामुसइत्ता एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अचेति, तहेव डहइत्ता वामं जाणुं अंचेति, अंचेत्ता दाहिणं जाणुं धरणिभाणियव्यं०जाव धूयं डहति / तलंसि णिसीयइ, णिसीयइत्ता तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि 'कप्पति ण अम्ह इत्यादि)"अम्हं ति" अस्माकं मते, प्रव्रजिताया निवेसेइ, निवेसेत्ता ईसिं पञ्चुण्णमइ, पञ्चुण्णमइत्ता करयल इति गम्यते / अन्तर्मध्ये उपाश्रयस्य वसतेवृत्तिपरिक्षिप्तस्य, परेषामना- जाव कट्ट एव बयासीनमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं लाकनत इत्यर्थः / संघाटी निर्गन्थिकाप्रच्छदविशेषः, सा बड़ा निवेशिता, आदिगराणं तित्थगराणं सयं संबुद्धाणं०जाव ठाणं संपत्ताणं काये इति गम्यते / यया सा संघाटीवद्धिका, तस्याः, णमित्यलङ्कारे, वंदइ, नमसइ, वंदित्तार णमंसित्ता जिणघराओ पडिणिसमतले द्वयोरपि भुवि विन्यस्तत्वात्पदे पादौ यस्याः सा समतलपदिका, क्खमति, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ। तस्याः, सातापयितुमातापनां कर्तु, कल्पत इति योगः। (ललिय ति) | तए णं तं दोवइरायवरकण्णं अंतेउरियाओ सव्वालंकार
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________________ दुवई 2588 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई विभूसियं करें ति, किं ते वरपायपत्तनेउर०जाव चेडियाचक्क- सेयापीएहिं कलसेहिं मञ्जावेति, मजावेत्ता अग्गिहोमं करेति, वालमयहरगइंदपरिक्खित्त अंतेउराओ पडिणिक्खमति, करेत्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवईए य पाणिग्गहणं कारावेइ। तए णं पडिणिक्खमइत्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे से दुवए राया दोवईए रायवरकण्णाए इमं एयारूवं पीइदाणं आभरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता किड्डावि-याए दलयति / तं जहा-अट्ठ हिरण्णकोडीओ०जाव अट्ठ पेसणलेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहति। तए णं से धट्ठजुणे कारीओ, अट्ठ दासीचेडीओ, अण्णं च विपुलं धणकणग०जाव कुन्पारे दोवईए रायवरकन्नाए सारत्थयं करेति / तए णं सा दलयति। तए णं से दुवए राया ताईवासुदेवपामोक्खाई विउलेणं दोवई रायवरकपणा कंपिल्लपुरं णयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव असणं पाणं खाइमं साइमं वत्थगंधजाव पडिविसज्जेति। तए सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवगच्छइत्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता णं से पंडुए राया तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं रहाओ पचोरुहति, पचोरुहइत्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं करयल०जाव एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! हत्थिणा-- सयंवरमंडवं अणुप्पविसति, अणुप्पविसइत्ता करयल०तेसिं उरेणगरे पंचण्हं पंडवाणं दोर्वइए देवीए कल्लाणकरे भविस्सति, वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेति। तए तं तुन्भे णं देवाणुप्पिया ! ममं अणुगिण्हमाणा समोसरह / तए णं सा दोवई रायवरकण्णा एगं महं सिरिदामगंडं, किं ते णं ते वासुदेवपामुक्खा पत्तेयं पत्तेयं०जाव पहारेत्थगमणाए / पाडलमल्लियं चंपय०जाव सत्तच्छयाईहिं गंधड्डणिम्मुयंतं तए णं से पंडुए राया कोडं बियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं परमसुहफासंदरिसणिजं गिण्हति / तए णं सा किड्डाविया सु-- वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरे णगरे पंचण्हं रूवा०जाव वामहत्थेणं चिल्लग दप्पणं गहेऊण सा सललियं पंडवाणं पंच पासायवडिं सए करेह, अब्भुग्गयभूसिय० दप्पणसंकंतबिंबदंसिए य से दाहिणेणं हत्थेणं दरिसेइ पवर- वण्णओ०जाव पडिरूवे / तए णं ते कोडुंबियपुरिसा पडिसुणे रायसीहे फुडविसयविसुद्धरिभियगंभीरमहुरभणिया सा तेसिं तिजाव कारावेंति / तए णं से पंडुए राया पंचहिं पंडदेहिं सव्वेसिं पत्थिवाणं अम्मापिउणं वंससत्तसामत्थगोत्तविक्कति- दोवईए देवीए सद्धिं हयगयरहसं परिवुडे कं पिल्लपुराओ कं तिबहुविहआगममाहप्परूव (जोव्वणगुणलावण्ण) कुल- | पडिणिक्ख-मति, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव सीलजाणिया कित्तणं करेति, पढभं च ताव वहिपुंगवाणं उवागए। तए णं से पंडुए राया तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं आगमणं दसारवरवीरपुरिसाणं तिल्लोक्कबलवगाणं सत्तुसयसहस्साणं जाणेत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह माणोवमहगाणं भवसिद्धियवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवी- णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरस्स णयरस्स बहिया रियरूवजोव्वणगुणलावण्णकित्तिया कित्तणं करेति। ततो पुणो वासुदेवपामु-खाण बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह, उग्गसेणमाईणं जायवाणं जाणइ य सोहग्गरूवकलियवरेहिं अणे गखंभसय० तहे व०जाव पचप्पिणंति / तए गं ते वरपुरिसगंधहत्थीणं जो हु ते होइ हिययदइओ / तए णं सा वासुदेवपाडुक्खा बहवे रायसहस्सा हत्थिणाउरे णयरे तेणेव दोयई रायवरकण्णगा बहूणं रायवरसहस्साणं मज्झं मझेणं उवागच्छंति। तए णं से पंडुए राया ते वासुदेवपामु क्खा०जाव समइत्थमाणी समइत्थमाणी पुव्वकयणियाणेणं चोइज्जमाणी आगए जाणेत्ता हट्ठतुढे छहाए कयबलिकम्मे जहा दुवए राया चोइज्जमाणी जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जहारिहं आवासे दलयति / तए णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे तेपंचपंडवे तेणं दसद्धवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं रायसहस्सा जेणेव सयाई आवासाइं तेणेव उवागच्छंति, करेति, करेत्ता एवं बयासी-एए णं मए पंच पंडवा दरिया / तए उवागच्छइत्ता तहेव०जाव विहरंति / तए णं से पंडुए राया णं ताई वासुदेवपामोक्खाणि बहूणि णयसहस्साणि महया महया हत्थिणारं णयरं मज्झं मज्झेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पसद्देणं उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वयंतिसुवरियं खलु भो / विसइत्ता कोडं बियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासीदोवईए रायवरकण्णाए त्ति कट्ट सयंवरमंडवाओ पडिणि--- तुम्भे णं देवाणु प्पिया ! विउलं असणं पाणं खाइमं साइम क्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सयाइं आवासे तेणेव उवा- तहेव०जाव उवणे ति / तए णं ते वासुदेव--पामुक्खा बहवे गच्छं ति / तए णं धट्ठद्भुणे कुमारे पंचपंडवे दोवइं च राया पहाया कयबलिकम्मा तं विउलं असणं पाणं खाइम रायवरकण्णं चाउग्घंटे आसरहं दुरूहेति, दुरूहेत्ता कंपिल्लपुर साइमं तहेव०जाव विहरंति / तए णं से पंडु ए राया ते मज्झं मज्झेण०जाव सयं भवणं अणुप्पविसति / तए णं दुवए / पंचपंडवे दोवई च देवि पट्टयं दुरूहति, सेयापीएहिं कलसेराया पंचपंडवे दोव विंच रायवरकण्णं पट्टे दुरूहति, दुरूहित्ता | हिंण्हावेति, कल्लाणकं करेति, करेत्ता ते वासुदेवपामोक्खे
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________________ दुवई 2556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई बहवे रायसहस्से विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं पुप्फवत्थ० देवी रूवेण य०जाव लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अवदट्ठा समाणी सक्कारेति, संमाणेति, सम्माणेत्ता०जाव पडिविसजेति। तए णं मम णो आढातिजाव नो पञ्जुवासति, सेयं खलु ममं दोवईए ताई वासुदेवपाडुक्खाई बहूइं रायाइं०जाव पडिगयाइं / तए णं देवीए विप्पियं करित्तए ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेत्ता पंडुराय ते पंच पंडवा दोवईए देवीए सद्धिं कल्लाकल्लिं वारंवारेणं आपुच्छति, आपुच्छइत्ता उप्पयणियं विजं आवाहेइ। ताए उरालाई भोगभोगाइं०जाव विहरंति / तए णं से पंडुए राया उकिट्ठाए०जाव विज्जाहरगइए लवणसमुई मज्झं मज्झेणं अण्णया कयाइ पंचहिं पंडवेहिं कुंती देवी दोवईए देवीए सद्धिं पुरत्थाभिमुहे वीईवयइ, उवयत्ते यावि होत्था / तेणं कालेणं अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवुडा सीहासणवरगया विहरति। इम तेणं समएणं धायईसंडे दीये पुरच्छिमड्डदाहिणड्डभरहवासे च णं कच्छुल्लए नारए दंसणेणं अइभहए विणीए अंतो अंतो य अवरकका नाम रायहाणी होत्था / तत्थ णं अवरकंकाए रायकलुसहियए मज्झत्थउवस्थिए य अल्लीणसोम्मपियदंसणे हाणीए पउमणाभे णामं राया होत्था महया हिमवंतवण्णओ। सुरूवे अमइलसगलपरिहिए कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवच्छे तस्स णं पउमणाभस्स रण्णो सत्त देवीसयाई अवरोधे होत्था। दंडकमंडलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए जण्णोवइयगणेत्तिय - तस्स णं पउमनाभस्स रण्णो पुत्ते सुणाभे णामं पुत्ते जुवराया वि जमेहलवागलधरे हत्थकयकच्छभीए पियगंधवे धरणिगो होत्था। तए णं से पउमणाभे राया अंतेउरंसि अवरोधे संपरि--- वुडे सीहासणवरगए विहरति / तए णं से कच्छुल्लनारए जेणेव यरप्पहाणे संवरणावरणि उयवयणुप्पयणिले सिणीसु य संकामणिआभिओगपण्णत्तिगमणीथंभणीसु य बहुसु विजाह अवरक का रायहाणी जेणेव पउमनाभस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पउभणाभस्स रण्णो भवणंसि झ त्ति रीसु विज्जातु विस्सुयजसे इढे रामस्सय केसवस्स य प ण्ण-- वेगेणं समोवइए / तए णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लनारयं पईवसंव अनिरुद्धनिसढउस्सुयसारणगयसुमुहदुम्मुहाईणं एजमाणं पासति, पासइत्ता आसणाओ अब्भुट्टेति, अग्घेणं० जाव जायवाणं अद्भुट्ठाण य कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कल-- आसणेणं उवनिमंतेइ / तए णं से कच्छुल्लनारए उदगहजुद्धकोलाहलप्पिए भंडणामिलासी बहुसु अ समरेसु य परिपोसियाए दब्भोवरि पव्वत्थयाए मिसियाए निसीयइ०जाव संपराएसु दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे कुसलोदंतं आपुच्छति / तए णं से पउमनाभे राया णियओरोहे असमाहिकरे दसारवरवीर पुरिसतेलोक्कबलवगाणं आमंतेऊणं जायविम्हए कच्छुल्लनारयं एवं बयासी-तुमं देवाणुप्पिया! तं भगवई एक्कमणिं गगणगमणदच्छं उप्पइणियं आवाहइत्ता बहूणि गामाणिजाव गिहाई अणुप्पविससि, तं अत्थियाई ते गगणतलमभिलंघयंतो गामागरनगरखेडकव्वडमडंबदोणमु कहिं वि देवाणुप्पिया! एरिसए ओरोधे दिद्वपुव्वे, जारिसए णं हपट्टणसंवाहसहस्समंडियं थिडियमे इणीयं णिडभयजणपदं मम अवरोधे? तए णं से कच्छुल्लनारए पउमेणं रण्णा एवं वुत्ते वसुहं ओलोइंतो रम्मं हत्थिणाउरं णयरं उवागए, पंडुरायभव समाणे ईसिं विहसियं करेति, करेत्ता एवं बयासी-सरिसेणं तुम णंसि अइवेगेणं समोवयइ / तए णं से पंडुराया कच्छुल्लनारयं पउमनाभा ! तस्स अगडदगुरस्स / के णं देवाणुप्पिया ! से एज्जमाणं पासति, पासइत्ता पंचहिं पंडवेहिं कुंतीए देवीए सद्धिं अगडदडुरे? एवं बयासी। जहा मल्लिणाए। एवं खलु देवाणुआसणाओ अब्भुट्टेति, कच्छुल्लनारयं सत्तट्ठपयाई पच्चुग्ग प्पिया! जंबुद्दीये दीवे भारहे वासे हत्थिणाउरे णयर दुवयस्स च्छइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदइ, रण्णो धूया चुलणीए देवीए अत्तया पंडुस्स सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं नमसइ, नमसइत्ता महरिहेणं आसणेणं उवनिमंतेति / तए णं भारिया दोवई णामं देवी रूवेण य०जाव उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा, से कच्छुल्लनारए उदगपरिपोसियाए दडभोवरि पव्वत्थयाए दोवईए देवीए छिन्नस्स वि पायंगुट्ठस्स अयं तव अवरोहे सयम मिसियाए निसीयति, निसीयइत्ता पंडुरायं रज्जे य०जाव अंतेउरे कलं // अग्धइ त्ति कट्ठ पउमणाभं रायं आपुच्छति, य कुसलोदंतं पुच्छति। तए णं से पंडुए राया कुंती देवी पंच य आपुच्छइत्ता ०जाव पडिगए / तए णं से पउमणाभे राया पंडवा कच्छुल्लनारयं आढं तिजाव पज्जुवासंति / तए णं सा कच्छुल्लनारयअंतिए एयमढें सोचा णिसम्म दोवईए देवीए दोवई देवी कच्छुल्लनारयं आसंजय अविरय अप्पडि- रूवे य लावण्णे य जोव्वणे य मुच्छिए गिद्ध जेणेव पोसहसाला हयअपचक्खायपावकम्मे त्ति कटु नो आढाति०जाव णो पज्जु- तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्तापोसहसालं०जावतं पुव्वसंगइयं वासति। तएणं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इमेयारूवे अब्भत्थि- देवं एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे ए चिंतिएपस्थिए मणोगयसंकप्पे समुप्पज्जित्था अहो णं दोवई, वासे हत्थिणाउरे णयरे०जाव सरीरा,तं इच्छामि णं देवाणुप्पि
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________________ दुवई 2560- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई या ! दोवई देविं इह हव्वमाणीयं / तए णं पुव्वसंगइए देवे पउ- मणाभं एवं बयासीनो खलु देवाणुप्पिया ! एयं भूयं वा, एयं भव्वं वा, एयं भविस्सं वा, जंणं दोवई देवी पंचपडवे मोत्तूण अण्णेणं पुरिसेणं सद्धिं उरालाई भोगभोगाइं०जाव विहरिस्सइ, तहा विय णं अहं तव पीइट्ठाए दोवई देविं इह हव्वमाणेमि त्ति / कट्ट पउमणाभं आपुच्छइ, ताए उक्किट्ठाए०जाव लवणसमुद्घ मज्झं मज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे नगरे तेणेव पहारेत्थगमणाए। तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणाउरे नयरे जुहिडिल्ले राया दोवईए देवीए सद्धिं उप्पिं आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था। तए णं से पुव्वसंगइए देवे जेणेव जुहिढिल्ले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता दोवईए देवीए सोवणिं दलयइ, दलयित्ता दोवइंदेविंगेण्हइ, गेण्हइत्ता ताए उक्किट्ठाए० जाव जेणेव अवरकंका रायहाणी जेणेव पउमणाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छ इत्ता पउमणाभस्स भवणं सि असोगवणियाए दोवइं देविं ठावेइ, सोवणिं अवहरति, जेणेव पउमणाभे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता एवं बयासी-। एसणं देवाणुप्पिया! मए हस्थिणाउराओ णयराओ दोवई देवी इह हव्वमाणीया तव असोगवणियाए चिट्ठति,अओ परं तुम जाणासि त्ति कट्ट जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णं सा दोवई देवी तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपच्चई जाणमाणी एवं बयासी-नो खलु अम्हं इमे सए पासाए, णो खलु एसा अम्हं सगा असोग-वणिया, तं ण णज्जति णं अहं केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा अण्णस्स रण्णो असोगवणियं साहरिय त्ति कट्ट ओहयमणसंकप्पा० जाव झियायति / तए णं से पउमणाभे राया पहाए०जाव सव्वालंकारविभूसिए अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिबुडे जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता दोवई देविं ओहयजाव झियायमाणिं पासइ, पासइत्ता एवं बयासीकिं णं तुमं देवाणुप्पिए ! ओहय०जाव झियाहि, एवं खलु तुमं देवाणुप्पिया ! ममं पुव्वसंगइएणं देवेणं जंबुद्दीवाओ भारहाओ वासाओ हस्थिणाउराओ जयराओ जुहिडिल्लस्स रणो भवणाओ साहरिया, तं माणं तुम देवाणुप्पिया ! ओहय० जाव झियाहि, तुम णं मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं०जाव विहराहि / तए णं सा दोवई देवी पउमणाभं रायं एवं बयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वारवईए नयरीए कण्हे णामं वासुदेवे मम पियाभाउए परिवसइ, तं जइ / णं से छह मासाणं मम कूवं नो हव्वमागच्छति, तए णं अहं देवाणुप्पिया ! जं तुमं वदसि तस्स आणाउवायवयणणिद्देसे चिट्ठिस्सामि। तएणं से पउमणाभे दोवईए देवीए एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता दोवई देविं कण्णंतेउरे ठवेति / तए णं सा दोवई देवी छटुं छटेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ / तए णं से जुहिडिल्ले राया तओ मुहुत्तरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवइं देविं पासे अपासमाणे सयणिजाओ उद्वेइ, उद्वेत्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुई वा पवित्तिं वा अलभमाणे जेणेव पंडुराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पंडुरायं एवं बयासी-एवं खलु ताओ ! मम आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्सपासाओ दोवईए देवीएणणज्जतिकेणइ देवेण वा दाणदेण वा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा, णीया वा, उक्खित्ता वा, तं इच्छामिणं ताओ ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करित्तए। तए णं से पंडुराया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! हत्थि-णाउरे नगरे सिंघाडगतिगचउक्कचचरमहापहपहेसु महया महया सद्देणं उग्धोसेभाणा उग्घोसेमाणा एवं बयह-एवं खलु देवाणु-प्पिया! जुहिद्विल्लस्सरण्णो आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी ण णज्जइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधव्येण वा हिया वाणीया वा उक्खित्ता वा। (वामं जाणुं अंचेइ त्ति) उत्क्षिपतीत्यर्थः / (दाहिणं जाणुधरणितलंसि निहट्ट) निहत्थ, स्थापयित्वेत्यर्थः / (तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेइ) निवेशयतीत्यर्थः / (ईसिं पच्चुण्णमति, पचुण्णमइत्ता करयलपरिगहिय अंजलिं मत्थए कट्ट एवं बयासीनमोऽत्थुणं अरहताण०जाव संपत्ताण बंदति, नमसइ, णमंसइत्ता जिणघराओ पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमइत्ता।" तत्र वन्दति चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन,नमस्यति पश्चात्प्रणिधानाऽऽदियोगेनेति वृद्धाः / न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवन्दनमभिहितम्, सूचनात् सूत्र इति सूत्रप्रामाण्यादन्यस्यापि श्रावकाऽऽ-देस्तावदेव तदिति मन्तव्यम्। चरितानुवादरूपत्वादस्यानच चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति, अन्यथा सूर्याभाऽऽदिदेववक्तव्यताया बहूना शस्त्राऽऽदिवस्तूनामर्चनं श्रूयत इति तदपि विधेयं रयात्। किं चाविरताना प्रणिपातदण्डकमात्रमपि चैत्यवंदनं संभाव्यते, यतो वन्दले, नमस्यतीतिपद्वयस्य वृद्धान्तरव्याख्यानमेवमुपदर्शितं जीवाभिगमवृत्तिकृता / विरतिमतामेव प्रसिद्धचैत्यवन्दनविधिर्भवति, अन्येषां तथाऽभ्युपगमपुरस्सरकायोत्सर्गासिद्धेः।ततोवन्दतेसामान्येन, नमस्करोति आशयवृद्धेः प्रीत्युत्थानरूपनमस्कारेणेति। किं च "समणेण सावरण य, अवस्स कायव्वयं हवति जम्हा / अंतो अहो निसिस्स य, तम्हा आव
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________________ दुवई 2561 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई स्सय नाम // 1 // ' तथा- "जं णं समणो वा समणी वा सावओ वा साविआ वा तचित्ते तल्लेस्से तम्मणे उभओ कालं आवस्सए चिट्ठति, त णं लोउत्तरियए भावावस्सए।" इत्यादेरनुयोगद्वारवचनात् / तथा सम्यग्दर्शनसंपन्नः प्रवचनभक्तिमान्षड्डिधाऽऽवश्यकनिरतः षट्रथानकयुक्तश्च श्रावको भवतीत्युमास्वातिवाचकवचनात् आवकस्य षडियाऽऽव.. श्यकसिद्धावावश्यकान्तर्गतप्रसिद्ध चैत्यवन्दनं सिद्धमेव भवतीति / (सारस्थयं ति) सारथ्य सारथिकर्म"तएणं सा किड्डाविया" इत्यादी यावत्करणादेवं दृश्यम्- "साभावियघस्सं चोद्दहजणरस ऊसुयकर विचित्तमणिरयणबद्धछरुअंति।" तत्र क्रीडापिका क्रीडनधात्री, (साभावियघस्सं ति) स्वाभाविकोऽकैतवकृतो घर्षो घर्षणं यस्य स तथा तं, दर्पणमिति योगः / (चोद्दहजणस्स ऊसुयकर ति) तरुणलोकस्य औत्सुक्यकरं प्रेक्षणलम्पटत्वकरं (विचित्तमणिरयणबद्धछरुअंति) विचित्रमणिरत्नैर्बद्धः छरुको मुष्टिग्रहणस्थानं यः स तथा त (चिल्लग) दीप्यमान, दर्पणमादर्शम् (दप्पणसंकंतबिंबसंदसिए से ति) दर्पण संक्रान्तानि यानि राज्ञां बिम्बानि प्रतिबिम्बानि तैः संदर्शिता उपलम्भिता येते तथा ताँश्च (से) तस्या: दक्षिणहस्तेन दर्शयति स्म, द्रौपद्या इति प्रक्रमः। प्रवरराजसिंहान्, स्फुटमर्थतो विशदं, वर्णतः विशुद्ध, शब्दार्थदोषरहितं, रिभितं स्वरघोलनाप्रकारोपेतं, गम्भीरं मेधशब्दवद मधुरकर्णसुखकरं, भणितं भाषितं यस्याः क्रीडापिकायाः सा तथा तम्, तथा (तेषां) मातापितरौ वंशाऽऽदिक हरिवंशाऽऽदिकं. सत्त्वमापत्स्ववैक्लव्यकरमध्यवसानकरं च / सामर्थ्य बलं, गोत्रं गौतमगोत्राऽऽदि, विक्रान्तिं विक्रम, कान्तिं प्रभा, पाठान्तरेण कीर्ति वा प्रख्याति, बहुविधा - ऽऽगम नानाविधशास्त्रविशारदतामित्यर्थः,माहात्म्यं महानुभावतां, कुलं | वंशस्यावान्तरभेद, शीलं च स्वभावं जानाति,या सा तथा, कीर्तनं करोति न्मेति / वृष्णिपुङ्गवानां यदुप्रधानानां दशाराणां समुद्रविजयाऽऽदीना, दशारस्य वा वासुदेवस्य येवरा वीराश्च पुरुषास्ते तथा, तेचते त्रैलोक्येऽपि बलवन्तश्चेति विग्रहः। वीरास्तेषां शत्रुशतसहस्राणां रिपुलक्षाणां मानमवमृगन्ति ये ते तथा तेषां, तथा भविष्यतीति भवा भाविनी सा सिद्धिर्येषां त भवसिद्धिकास्तेषां मध्ये वरपुण्डरीकाणीव वरपुण्डरीकाणि येते तथा तेषाम (चिल्लगाणं ति) दीप्यमानानां तेजसा। तथा-बलं शारीरं, वीर्य जीवप्रभव, रूप शरीरसौन्दर्य, यौवनं तारुण्य, गुणान् सौन्दर्याऽऽदीन, लावण्यं च स्पृहणीयतां कीर्तयति यासा तथा, क्रीडापिका कीर्तन करोति रमेति पूर्वोक्तमपि किशिद्विशेषाभिधानायाभिहितमिति न दुष्टम् / (समइत्थमाणी ति) समतिक्रामन्ती (दसवण्णेणं ति) इह श्रीदा-- मगण्डेन पूर्वगृहीतेनेति सम्बन्धनीयम् / (कल्लाणकरे त्ति) कल्याणकरण मङ्गलकरणमित्यर्थः। (इमं च ण ति) इतश्च (कच्छुल्लए नारए त्ति) एतन्नामा तापसः / इह क्वचिद् यावत्करणादिदं दृश्यम्-'दंसणेण अइभद्दए'' भद्रदर्शनमित्यर्थः / (विणीए अंतो अंतो य कलुसहियए) अन्तराऽन्तरा दुष्टचित्तः, केलीप्रियत्वादित्यर्थः / (मज्झत्थउवत्थिए य ति) माध्यस्थ्यं समतामभ्युपगतो, व्रतग्रहणत इति भावः। (अल्लीणसोम्मपियदसणे सुरूवे)आलीनानामाश्रितानां सौम्यमरौद्रं प्रियं चदर्शनं यस्य स तथा।(अम-इलसगलपरिहिए) अमलिनं सकलमखण्ड, शकलं वा खण्ड, वल्कवास इति गम्यते / परिहितं निवसिवं येन स तथा। (कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवच्छे) कालमृगचर्म उत्तरासनेन रचितं चक्षसि येन रातथा। (दंडकमंडलुहत्थ जडामउडदित्तसिरएजण्णोवइयगणेत्तियगुजगेहलवागलधरे) गणेत्रिका रुद्राक्षकृतं कलाचिकाभरण, मुञ्जमेखला मुञ्जमयः कटीदवरकः, वल्कलं तरुत्वक् (हत्थकयकच्छभीए) कच्छपिका तदुपकरणविशेषः / (पियगंधव्वे) गन्धर्वप्रियः गीतप्रियः। (धरणिगोयरप्पहाणे) आकाशगामित्वात्। (संवरणावरणिउयवयणुप्पयणिलेसणीसु य संकामणिआभिओगपण्णत्तिगमणीथंभणीसु य बहुसु विजाहरीसु विजासु विस्सुयजसे) इह संवरण्यादिविद्यानामर्थः शब्दानुसारतो वाच्यः। (विजाहरीसुत्ति) विद्याधरसंबन्धिनीषु, विश्रुतयशाः ख्यातकीर्तिः / (इट्टे रामस्सय केसवस्सय पजुन्नपईवसंबअनिरुद्धनिसढउस्सुयसारणगयसुमुहदुम्मुहाईणं जायवाणं अद्भुट्ठाणं य कुमारकोडीणं हिययदइए) वल्लभ इत्यर्थः (संथवए) तेषां संस्तावकः (कलहजुरकोलहिलप्पिए) कलहो वाग् युद्धं, युद्ध तु आयुधयुद्ध, कोलाहलो बहुलोकगहाध्वनिः / (भंडणाभिलासी) भण्डन पिष्टातकऽऽदिभिः (बहुसुयसमरसंपराएसु) संग्रामष्यित्यर्थः / (दसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं ति) सदानमित्यर्थः / (अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिसतेलोक्कबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवतिं एकमणि गगणगमणदच्छ उप्पइणियं जाव गगणतलमभिलंघयंतो गामागरनगरखेडकव्वडमडबदोणमुहपट्टणसंवाहसहस्समंडियं थिमियमेइणीयं णिब्भयजणपदं वसुहं ओलोइतो रम्मं हत्थिणाउर णगरं उवागए.) (असंजयअविरयअप्पडिहयअप्पचक्खायपावकम्मे त्ति कट्ट) असंयतः संयमरहितत्वात,अविरतो विशेषतपस्यरतत्वान्न प्रतिहतानिन प्रतिषेधितानि अतीतकालकृतानि निन्दनतः न प्रत्याख्यातानि च भविष्यत्कालभावी नि पापकर्माणि प्राणातिपाताऽऽदिक्रिया येन / अथवा-न प्रतिहतानि सागरोपमकोटाकोट्याऽन्तः प्रवेशनेन सम्यक्त्वलाभतः, नच प्रत्याख्यातानि सागरोपमकोटाकोट्या संख्यातसागरोपमैन्यूनताकरणेन सर्वविरतिलाभतः पापकर्माणि ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनि येन स तथेति पदत्रयस्य च कर्मधारयः। (कूवं ति) कूजकं व्यावर्तकबलमिति भावः। तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवईए देवीए सुई वा खुइं वा पवित्तिं वा परिकहेइ, तस्स णं ते पंडुए राया विउलं अत्थसंपयाणं दलइ त्ति कट्ट घोसणं घोसावेह, एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह / तए णं ते कोडुबियपुरिसाजाव पञ्चप्पिणंति / तए णं से पंडए राया दोवईए देवीए कत्थइ सुई वाजाव अलभमाणे कुंतिं देविं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासीगच्छड़ णं तुमं देवाणुप्पिया ! वारवई णगरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमहूं णिवेदेहि, कण्हे णं परं वासुदेवे दोवईए देवीए मग्गणगवेसणं करेज्जा, अन्नहा न नजइ दोवईए देवीए सुई वा खुइंवा पवित्तिं वा अवलभेजा।तए णं सा कुंती देवी पंडुएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी०जाव पडि-- सुणेति, पडिसुणेत्ता ण्हाया कयबलिकम्मा हत्थिखंधवरगया हत्थिणारं णयरं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता कुरुजणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव सुरट्ठा जणवए जेणेव वार
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________________ दुवई 2562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई वई णयरी जेणेव अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता हत्थिखंधाओ पचोरुहइ, पचोरुहित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह गं तुब्भे देवाणुप्पिया ! जेणेव | वारवई नगरी तेणेव वारवई णगरि अणुप्पविसह, अणुप्पविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयल०जाव एवं बयह-एवं खलु सामी ! तुब्भं पिउत्था कुंती देवो हत्थिणाउराओ णगराओ इह हव्वमागया तुब्भं दसणं कंखइ। तर णं ते कोडुं बियपुरिसा० जाव कहिंति। तए णं कण्हे वासुदेवे कोडं बियपुरिसाणं अंतिए एयम8 सोचा णिसम्म हट्ठतुट्टे हत्थिखंधवरगए हयगय०जाव वारवईएणयरीए मज्झं मज्झेणं जेणे व कुंती देवी तेणे व उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता हत्थिखंधाओ पचोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता कुंतीए देवीए पायग्गहणं करेति, करेत्ता कुंतीए देवीए सद्धिं हत्थिखंधं / दुरूहति, दुरूहइत्ता वारवई नगरि मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सयं गिहं अणुप्पविसति। तए णं से कण्हे वासुदेवे कुंतिं देविं व्हायं कयबलिकम्म जिमियभुत्तुत्तरागयं०जाव सुहासणवरगयं एवं बयासी-संदिसह णं पिउत्था ! किमागमणपओयणं? तए णं सा कुंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं बयासी-एवं खलु पुत्ता ! हत्थिणाउरे णयरे जुहिडिल्लस्स रण्णो आगासतलगंसि सुह-प्पसुत्तस्स दोवईए देवीए पासाओ ण णज्जइ केणइ अबहिया वा०जाव उक्खित्ता वा, तं इच्छामि णं पुत्ता ! दोवईए देवीए मग्गणगवेसणं कयं / तए णं से कण्हे वासुदेवे कुंतिं देविं पिउत्थं एवं बयासी-जं नवरं पिउत्था ! दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा जाव लभामि, तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ वा अद्धभरहाओ वा समंताओ दुवइं देवि साहत्थिं उवणेमि त्ति कट्ट कुंतिं पिउत्थं सक्कारेइ, समाणेइ, सम्भाणेत्ता०जाव पडिविसज्जेइ। तए णं सा कुंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडि-विसज्जिया समाणी जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिंपडिगया। तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणु प्पिया ! वारवई णयरिं एवं जहा पंडु तहा घोसणं घोसावेति, घोसावेत्ता०जाव पञ्चप्पिणंति, पंडुस्स जहा। तएणं से कण्हे वासुदेवे अण्णया कयाई अंतो अंतेउरगए ओरोहे०जाव विहरति / इमं च णं कच्छुल्लणारए जेणेव कण्हस्स रण्णो गिह तेणेव०जाव समावेएन्जाव णिसीइत्ता कण्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छइ। तएणं से कण्हे / वासुदेवे कच्छुल्लंणारयं एवं बयासी- | तुमं णं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामाणिजाव अणुप्पविससि, तं अस्थियाइं ते कहिं वि दोवईए देवीए सुई वा०जाव उवलद्धा। तए णं से कच्छुल्लए णारए कण्हं वासुदेवं एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अण्णया कयाइ धायईसंडे दीवेपुरच्छिमिल्लं दाहिणभरहं वासं अवरकंकं रायहाणि गए / तत्थ णं मए पउमणाभस्स रण्णो भवणं सि दोवई देवी जारिसिया दिद्वपुव्वा यावि होत्था / तए णं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लं णारयं एवं वयासी-तुभं चेव देवाणुप्पिया ! एयं पुष्वकम्मं / तए णं से कच्छुल्लनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उप्पयणियं विजं आवाहेति, जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णं से कण्हे वासुदेवे दूतं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरं णयरं पंडुस्स रणो एयमढें निवेदेह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे अवरकंकाए रायहाणीए पउमणाभस्स भवणंसि दोवईए देवीए पवत्ती उवलद्धा, तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे पुरच्छिमवेयालिसमुद्दाए मम पडिवालेमाणा चिटुंतु / तए णं से दूतेजाव भणइ-पडियाले माणाजाव चिट्ठह, ते वि०जाव चिह्रति। तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! सण्णाहियं भेरि तालेह, ते वि तालेति / तए णं तीए सण्णाहियाए भेरीए सदं सोचा समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा०जाद छप्पण्णं बलवगसाहस्सीओ सन्नद्धबद्धा०जाव गहियाउहप्पहरणा अप्पेगइया हयगया अप्पेगइया गयगया०जाव वगुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छं ति, उवागच्छइत्ता करयल० जाव बद्धाति / तए णं से कण्हे वासुदेवे हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धारिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहिं महया हयगयभडचडगरपहकरेणं वारवतीए नगरीए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छति, णिग्गच्छइत्ता जेणेव पुरच्छिमवेयालीसमुद्दे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं एगओ मिलति, खंधावारनिवेसं करेति, करेत्ता पोसहसालं कारावेइ, कारावेत्ता पोसहसालं अणुप्पविसति, अणुप्पविसइत्ता सुट्ठियं देवं मणसीकरेमाणे चिट्ठति। तएणं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सुटिओ० जाव आगओ। भण देवाणुप्पिया ! जं मए कायव्वं? तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं देवं एवं बयासीएवं खलु देवाणुप्पिया! दोवई देवी०जाव पउमणाभस्स भवणंसि साहरिया, तंणं तुमं देवाणुप्पिया! ममपंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियराहि,जणं अहं अवरकंकं रायहाणिं दोवईए देवीए कूवं गच्छामि / तए णं से सुटिए देवे
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________________ दुवई 2563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-किं णं देवाणुप्पिया ! जहा चेव णिग्गच्छामि त्ति कट्ट दारुयं सारहिं एवं बयासी-केवलं भो पउमणाभस्सरण्णो पुव्वसंगतिएणं देवेणं दोवई०जाव साहरिया, रायसत्थेसु दूते अवज्झे त्ति कटु असक्कारिय असंमाणिय तह चेव दोवइं देविं धायईसंडाओ दीवाओ भारहा-ओ अवदारेणं णिच्छुभावेमि / तए णं से दारुए सारही पउमणाभेणं वासाओ०जाव हत्थिणाउरं साहरामि, उदाहु पउमणाभं रायं असक्कारिए असंमाणे०जाव निच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि? तए णं से कण्हे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करयल०जाव कण्हं वासुदेवं वासुदेवे सुठ्ठियं देवं एवं बयासी-माणं तुमं देवाणुप्पिया! ०जाय एवं बयासी-एवं खलु अहं सामी ! तुम्ह वयणेणं०जाव साहराहि / तुम णं देवाणुप्पिया ! लवणसमुद्दे अप्पछ-ट्ठस्स णिच्छुभावेइ / तए णं से पउमणाभे राया बलवाउयं सद्दावेति, छण्हं रहाणं मग्गं वितराहि, सयमेवाहं दोवईए देवीए कूवं सद्दावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेकं गच्छामि। तए णं से सुट्ठिए देवे कण्हं वासुदेव एवं बयासी-एवं हत्थिरयणं पडिकप्पेह / तयाणंतरं च णं छेयायरियउवदेसमहोउ, पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणस-- इविगप्पणाविगप्पे हिं०जाव उवणेति / तएणं से पउमणाभे राया मुद्दे मग्गं वियरइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणिं सेणं सण्णद्धबद्धे०जाव आभिसेकं हत्थिरयणं दुरूहति, दुरूहेत्ता पडिविसजेति, पडिविसज्जेत्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे हयगयचाउरंगिणीए सेणाए परिकलिए जेणेव कण्हे वासुदेवे छहिं रहेहिं लवणसमुई मज्झं मज्झेणं वीईवयति, जेणेव अव- तेणेव पहारेत्थगमणाए / तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं रकंकाए रायहाणीए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छ- रायं एजमाणं पासति, पासइत्ता ते पंचपंडये एवं बयासी-हं भो इत्ता रहं ठावेति, ठावेत्ता दारुयं सारहिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं दारगा ! किं णं तुब्भे पउमणाभेणं सद्धिं जुज्झेह, उयाहु बयासी-गच्छह णं तुमं देवाणु प्पिया ! अवरकं कं रायहाणिं पिच्छेह / तए णं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं बयासी-अम्हे अणुप्पविसाहि,पउमणाभस्स रण्णो वामेणं पाएणं पायपीढं अवक्क णं सामी ! जुज्झामो, तुम्हे पेच्छह / तए णं से पंच पाडवा मेत्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामे हि, पणामेत्ता तिवलियं भिउडिं, सन्नद्धबद्धजाव पहरणा रहे दुरूहंति, दुरूहेत्ता जेणेव पउमणाभे निलाडे साहस आसुरुत्ते रुटे कुविए चंडक्किए एवं बयाहि-हं / राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता एवं बयासी-अम्हे वा भो पउमणाभा ! अप्पत्थियपत्थिया। दुरंतपंतलक्खणा हीण-- पउमणाभे वा राय त्ति कट्ट पउभणाभेणं सद्धि संपलग्गे यावि पुण्णचाउद्दसा सिरिहिरिधिइकित्तिपरिवज्जिया अज्ज न भवसि, होत्था / तए णं से पउमणाभे राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव किं णं तुमं न याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणिं दोवई हयमहियपवरविवडियचिंधद्धयपडागाजाव दिसो दिसिं देविं इह हव्वमाणेसि,तं एयमढें विणएणं पचप्पिणाहि-जं दोवई पडिसेहेति। तएणं ते पंच पंडवा पउमणाभेणं रन्ना हयमहियदेविं कण्हस्स वासुदेवस्स पचप्पिणाहि, अहवा जुज्झसज्जो पवरविवडिय०जाव पडिसेहिया समाणा अथामा अबला०जाव णिग्गच्छाहि, एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अधारणिज मिति कट्ट जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति। अप्पछठे दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए। तए णं से दारुए सारही तए णं से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं बयासी-कहं णं कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्तं समाणे हट्टतुटे पडिसुणेति, तुब्भे देवाणुप्पिया ! पउमणाभेणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा / तए णं पडिसुणेत्ता अवरकंकं रायहाणिं अणुप्पविसइ, जेणेव पउमनाभे ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! राया तेणेव उवाग-च्छइ, उवागच्छइत्ता करयल०जाव बद्धावेइ अम्हे तुम्हेहिं अब्भणुण्णाया समाणा सण्णद्धबद्धा रहे दुरूहामो बद्धावेत्ता एवं बयासी-एस णं सामी ! मम विणयपडिबत्ती, इमा जेणेव पउमणाभे रायाजाव पडिहए। तए णं से कण्हे वासुदेवे ते अण्णा मम सामिस्स समुहाऽऽणत्ति कट्ट आसुरुत्ते 5 वामपाएणं पंचपंडवे एवं बयासी-जइणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! एवं बयंता अम्हे पायपीढं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेइ, णो पउमणाभे राय त्ति कटु पउमणाभेणं सद्धिं संपलग्गा, ततो णं पणामेत्ता० जाव कूवं हव्वमागए। तए णं से पउमणाभे राया तुभे णो पउमणाभे हयमहियपवर०जाव पडिसेहिया / तं पेच्छह दारुएणं सारहिणा एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते 5 तिवलिमिउडिं __णं तुब्भे देवाणुप्पिया! अहं णो पउमणाभे राय त्ति कट्ट पउमणाभेणं निलाडे साहट्ट एवं बयासी-ण अप्पणामि णं अहं देवाणुप्पिया! | रन्ना सद्धिं जुज्झामि, रहं दुरूहति, दुरूहइत्ता जेणेव पउमणाभे कण्हस्स वासुदेवस्स दोवइंदेविं। एसणं अहं सयमेव जुज्झसजे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सेयं गोखीरहारधवलं
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________________ दुवई दुवई 2564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 तणुसोल्लियसिंदुवारं कुंदेंदुसन्निगासं निययस्स बलस्स हरि- तथा त भीमम, (संगामिआओग्ग) संग्रामिक आयोगःपरिकरो यस्य स सजणणं रिउसेणाविणासकरं पंचजण्णं संखं परामुसति, तथा तम। (आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पेति, पडिकप्पेना उवणेति परामुसइत्ता मुहवाउपूरियं करेति। तए णं तस्स पउमणाभस्स त्ति) (हयमहियपवरविवडियचिंधद्धयपडागे) हतमथिता अत्यर्थ हताः, तेणं संखसद्देणं बलतिभाए हए०जाव पडिसेहिए। अथवा हताः प्रहारतो, मथिता मानमथनाद् हतमथिताः, तथा प्रवरा (सुई कत्ति) श्रूयत इति श्रुतिः शब्दस्ताम् (खुतिं व त्ति) क्षवणं क्षुतिः विपतिताश्चिह्नध्वजाः कपिध्वजाऽऽदयः, पताकाश्च तदन्या येषां ते तथा / छीत्काराऽऽदिः शब्दविशेष एव, ताम्, प्रयुक्तिं वार्ता, वार्तापर्यायाश्चैत ततः कर्मधारयोऽतस्तान् / यावत्करणात्- "किच्छोवगयपाणे त्ति'' इति : (हिया व ति) हा प्रदेशान्तरे स्थापिता, नीता नेत्रा स्वस्थानं दृश्यम् / कष्टगतजीवितव्यानीत्यर्थः / (अम्हे वा पउमनाभे वा राय त्ति प्रापिता, आक्षिप्ता आकृष्टैवेति / (इमा अन्नेत्यादि) इयमन्या अपरा कट टु इति) अरमाकं पद्मनाभस्य च बलवत्त्वादिह संग्रामे वयं वा भवामः, मदीयस्वामिनः संबन्धिनी, विनयप्रतिपत्तिरिति वर्तते / (समुहाणत्ति पद्मनाभा वा, नोभयेषाम-पीह संयुगे त्राणमस्तीति कृत्वा इति नित्रयं कटु) स्वमुखेन स्वकीयवदनेन भणिता आज्ञप्तिरादेशः स्वमुखाऽऽज्ञप्ति- विधाय संप्रलग्राः, योद्धमिति शेषः। (अम्हे नो पउमनाभे राय त्ति कटु रिति कृत्वा, एवमभिधाय (आसुरुत्ते त्ति) क्रुद्धः(बलवाउए त्ति) त्ति) वयमेवेह रणे जयामोन पद्मनाभो राजेतियदि स्वविषये विजयनिश्चय बलव्यापृतः, सैन्यव्यापारवान्। (आभिसेक्वं ति) अभिषेकमर्हतीत्या- कृत्या पानाभेन सार्द्ध योद्धं संप्रालगिष्यथ , ततो न पराजयं प्राप्स्यथ, भिषेक्यं, मूर्धाभिषिक्तमित्यर्थः / (छेयायरियउवएसमइविगप्पणाविग- निश्चयसारत्वात्फलप्राप्तेः / आह चरुपेहि ति) छेको निपुणो य आचार्यः कलाचार्यः, तस्योपदेशात्तत्पूर्विकाया "शुभाशुभानि सर्वाणि, निमित्तानि स्युरेकतः। मतेर्बुद्धेर्याः कल्पनाविकल्पाः कृतिभेदास्ते तथा तैरिति। इहयावया एकतस्तु मनो याति, तद्विशुद्ध जयाऽऽवहम् // 1 // वत्करणादिदं दृश्यम्-"सुनिउणेहिं ति'' सुनिपुणैर्नरः (उज्जलने तथावत्थहत्थपरिवच्छियं ति) उज्ज्वलनेपथ्येन निर्भलवेषेण (हत्थं ति) स्यान्निचयैकनिष्ठानां, कर्यसिद्धिः परा नृणाम्। शीघ्र, परिपक्षितः परिगृहीतः परिवृतो यः स तथा। तम्। (सुसज्जं) सुष्टु प्रगुणं (वम्मियसन्नद्वबद्धकवचिय उप्पीलियकच्छ-वच्छबद्धगेवेज्जग संशयक्षुण्णचित्ताना, कार्ये संशीतिरेव हि ॥सा" लपवरभूसणविरायंत) वर्मणि नियुक्ता वार्मिकास्तैः सन्नद्धः कृतसन्नाहो शड खविशेषणानि क्वचिद् दृश्यन्ते-(सेयं गोखीरहारधवलं त-- यः स वार्मिकसन्नद्धः, बद्ध कवचं सन्नाहविशेषो यस्य स बद्धकवचः, स गुसोल्लियसिंदुवार कुदेंदुसन्निगासं) (तणुसोल्लिय ति) मल्लिका, एवं बद्धकवचिकः / अथवा-वमितः सन्नद्धो बद्धस्त्वक त्राणबन्धनात् सिन्दुवारो निर्गुण्डिः (निययस्स बलस्स हरिसजणणं रिउसेणाविकवचितच यः स तथा, भेदश्चैतेषालोकतोऽवसेयः / एकार्थाश्चैते शब्दाः, णासकर पंचजण्णं ति) पाञ्चजन्याभिधानम्। संनद्धता प्रकर्षाभिधानायोक्ता इति / तथा उत्पीडिता गाढीकृता कक्षा तए णं से कण्हे वासुदेवे धगुं परामुसति, वेढो धणुं पूरेइ,पूरे-- हृदयरज्जुर्वक्षसि यस्य स तथा। ग्रैवेयकं ग्रीवाऽऽभरणं बद्धंगले कण्ठे यस्य इत्ता धणुसदं करेइ। तए णं तस्स पउमणाभस्स दोच्चे बलतिस तथा। प्रवरभूषणैर्विराजमानो यः स तथा। ततो वर्मिताऽऽदिपदानां भाए तेणं धणुसद्देणं हयमहिय०जाव पडिसेहेति / तए णं से कर्मधारयोऽतस्तम् / (अहियतेयजुत्तं सललितवरकण्णपुरविराइतं पउमणाभे राया तिभागबलादसे से अथामे अबले अवीरिए पलंबओचूलमहुयरकयधगारं) प्रलम्बानि अवचूलानि कटकन्यस्ता- अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्ज मिति कट्ट सिग्धं तुरियं चवलं धोमुखकूर्चका यस्य स प्रलम्बावचूलः, मधुकरैर्भमरैर्मदजलगन्धा जेणेव अवरकं का रायहाणी तेणेव उवागच्छद, उवागच्छइत्ता ऽऽकृष्टै: कृतमन्धकरं येन स तथा / ततः कर्मधारयोऽतस्तम् अवरक कं रायहाणिं अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता दुवाराई (चित्तपरिच्छेयपच्छदं) चित्रो विचित्रः परिच्छेको लघुः प्रच्छदो वस्त्रविशेषो / पिहेति, रोहसज्जे चिट्ठइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव यस्य स तथा तम् / (पहरणावरणभरियजुद्ध-सज्ज) प्रहरणाना अवरकंका णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता रहं ठवेइ, कुन्ताऽऽदीनामावरणानां च कड् कटानां भृतो यः स तथा / स च ठवेइत्ता रहाओ पचोरुहेति, पचोरुहिता वेउव्वियसमुग्धाएणं युद्धसज्जश्चेति कर्मधारयोऽतस्तम्। (सच्छत्तं सच्छायं सज्झयं सघंट समोहणइ, एग महं नरसीहरूवं विउव्वति, विउव्वइत्ता महया पंचामेलयपरिमंडियाभिराम) पञ्चभिरापीडैः शेखरैः परिमण्डतोऽत महया सद्देणं पाददद्दरं करेति / तए णं से कण्हेणं वासुदेवेणं एवाभिरामश्च रम्यो यः स तथा। (ओसा-रियजमलजुयलघट) महया महया सद्देणं पाददद्दरेणं करणं समाणेणं अवरकंका अवसारितमवलम्बितं यमलं समं युगलं द्वयोर्घण्टयोर्यत्र स तथा तम्। रायहाणी संभग्गपायापुरट्टालयचरियतोरणपल्हस्थियपवरभ(विजुपिणद्ध व कालमेहं) घण्टाप्रहरणाऽऽदीनामुज्ज्वलत्वेनवद्युत्क- वणसिरिघराओ सरसरस्स धरणियले सण्णिवाइया / ल्पत्वात, हस्तिदेहस्य च कालत्वेन महत्वेन च मेघकल्पवादिति / / तए णं से पउमणाभे राया अवरक कं रायहाणिं संभग्गं (उप्पाइयपय्वय व चक्कमत) चड् क्रममाणमिवौत्पातिकपर्वतम् / जाव पासित्ता भीए तसिए उव्विग्गे दोवई देवि सरणं पाठान्तरेण औत्पातिक पर्वतमिव (सक्खं ति) साक्षात् (मत्तं ति) उवेइ / तए णं सा दोवई देवी पउमणाभं रायं एवं बयासीमदवन्तं (गुलुगुलुगुलेंतं मणपवणजइणवेग) मनःपवनजयी वेगो यस्य स किं णं तुम देवाणु प्पिया ! ण जाणासि कण्हस्स वासुदेवस्स
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________________ दुवई 2565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई उत्तमपुरिसस्स विप्पियं करेमाणे, तं चेवमवि गते गच्छह, णं तुमं देवाणुप्पिया !ण्हाए उल्लपडसाडए ओचूलगवत्थणियत्थे अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवुडे अग्गाइं पवराई रयणाइं गहाय मम पुरओ काउं कण्हं वासुदेवं करयल०जाव पायपडिए सरणं उवेहि, पणइवच्छला गं देवाणुप्पिया ! उत्तमपुरिसा। तए णं से पउमणाभे राया दोवईए देवीए एयमटुं पडिसुणेति,पडिसुणेत्ता / बहाएजाव सरणं उवेइ, उवेत्ता करयल०जाव कट्ट एवं बयासीदिट्ठा णं देवाणुप्पिया ! उत्तमपुरिसाणं इड्डी०जाव परक्कमे, तं खामेमिणं देवाणुप्पिया ! जाव खमंतु णं देवाणुप्पिया! ०जाव नाहं भुञ्जो भुञ्जो एवं अकरणयाए त्ति कट्ट पंजलिउडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवइं देविं साहत्थिं उवणेइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमनाभं रायं एवं बयासी-हं भो पउमणाभा ! अपत्थियपत्थिया 4 किं णं तुमं न याणासि मम भगिणिं दोवई देविं इह हव्वमाणेसि। तं एवमवि गए नस्थिते ममाहिंतो इयाणिं भयमस्थिति कट्ट पउमणाहं रायं पडिवि-सज्जेइ, पडिविसजेइत्ता दोवतिं देविं गिण्हति, गिण्हइत्ता रहं दुरूहेति, दुरूहेत्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता पंचपंडयाणं दोवई देविं साहत्थिं उवणेइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे पंचपंडवेहिं सद्धिं अप्पछडेहिं रहेहिं लवण-समुई मज्झं मज्झेणं जेणेव जंबुद्दी वे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थगमणाए। तेणं कालेणं तेणं समएणं धायईसंडे दीवे पुरच्छिमड्ढे भारहे वासे चंपा नाम नयरी होत्था, पुण्णभद्दे णामं चेइय। तत्थ णं चंपाए णयरीए कपिले णामं वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवंतवण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्यए अरिहंते चंपाए णयरीए जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव समोसढे, कपिले वासुदेवे धम्म सुणेइ। तए णं से कपिले वासुदेवे मुणिसुव्ययस्स अरहओ धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसई सुणेइ। तए णं तस्स कपिलस्स वासुदेवस्स इमेया-रूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणो गयसंकप्पे समुप्पज्जित्था-किं मन्ने धायईसंडे दीवे भारहे वासे दोचे वासुदेवे समुप्पन्ने, जस्स य अयं संखसद्दे ममं पिव मुहवायपूरियं वीयं भवइ / तए णं मुणिसुव्वए अरहा कपिलं वासुदेवं एवं बयासी-से णूणं कपिला | वासुदेवा ! मम अंतिए धम्म णिसम्ममाणस्स संखसई आकण्णित्ता इमे यारू वे अब्भत्थिए किं मन्ने धायईसंडे दीवेजाव वीयं भवइ,से णूणं कविला वासुदेवा ! अढे समढे हंता अस्थि / तं णो खलु कविला ! एवं भूयं वा, भवियं या भविस्सं वा, जंणं एगखेत्ते एगजुगे एगसमएणं दुवे दुवे अरिहंता वा चक्कवट्टीवा बलदेवा वा वासुदेवा वा उप्पजिंसुवा, उप्पअिंति वा, उप्पजिस्संति वा, एवं खलु कपिला वासुदेवा ! जंबुद्दीवाओ भारहाओ वासाओ हत्थिणाउराओ णयराओ पंडुस्स रण्णो सुण्हा पंचण्डं पंडवाणं भारिआ दोवई देवी तव पउमनाभस्स रण्णो पुटवसंगइएणं देवेणं अवरकंकं रायहाणिं साहरिआ। तए णं से कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछ8 छएहिं रहेहिं अवरकंकं रायहाणिं दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए। तए णं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स पउमनाभेणं रण्णा सद्धिं संगामेमाणस्स ०जाय अयं संखसद्दे तय मुहवायपूरिए इव वीयं भवइ / तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्ययं अरहं वंदइ, णमंसइ, णमंसइत्ता एवं बयासी-गच्छामिण अहं भंते! कण्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसंपासामि। तएणं मुणिसुव्वए अरिहा कपिलं वासुदेवं एवं बयासी-णो खलु देवाणुप्पिआ! एवं भयं वा भव्वं वा भविस्सं वा, जं णं अरिहंता वा अरिहंतं पासंति, चक्कवट्टी वा चक्कवर्टि पासंति, बलदेवा वा बलदेवं पासंति, वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति, तह वि य णं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुद्घ मज्झं मज्झेणं वीईवयमाणस्स सेयापीयाइं धयम्गाई पासिहिसि। तए णं से कबिले वासुदेवे मुणिसुध्वयं अरिहंतं वंदइ, णमंसइ, णमंसइत्ता हत्थिखंधं दुरूहइ, दुरूहइत्ता सिग्धं जेणेव वेलाउले तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीईवयमाणस्स सेयापीयाइं धयग्गाई पासइ, पासइत्ता एवं बयासी-एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीईवयति त्ति कट्टपंचजण्णं संखं परामुसइ,परामुस-- इत्ता मुहवायपूरियं करेइ। तए णं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसद आयण्णेइ, आयपणेइत्ता पंचजण्णं संखं मुहवायपूरियं करेति तएणं दो वि वासुदेवा संखसद्दसामायारिं करेति / तए णं से कविले वासुदेवे जेणेव अवरकंका णयरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता अवरकंकं रायहाणिं संभग्ग-- तोरणं०जाव पासइ, पासइत्ता पउमनाभं रायं एवं बयासी--किं णं देवाणुप्पिआ ! एसा अबरकंका णयरी संभग्गा०जाव सन्निवाइया। तए णं से पउमनाभे कविलं वासुदेवं एवं बयासी-एवं खलु सामी ! जंबुद्दीवाओ भरहाओ वासाओ इहं हव्वभागम्म कण्हे णं वासुदे वेणं तुभे परिभूय अवरकं का णयरी जाव सन्निवाइया / तए णं से कविले वासुदेवे पउमनाहस्स रण्णो अंतिए एयमढे सोचा पउमनाभं रायं एवं बयासीहं भो पउम--णाभा ! अपत्थियपत्थिया ! किं णं तुमं न जाणासि मम सरिसस्स पुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणा, कविले वासुदेवे आसुरुत्ते०जाव पउमणाभं
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________________ दुवई 2566 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई णिव्विसयं आणवेइ, आणवेत्ता पउमनाहस्स पुत्तं अवरकंकाए | आसरुतेजाव तिवलियंभिउडिं निलाडे कट्ट एवं बयासी-अहो रायहाणीए महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ, अभिसिं- जया णं मए लवणसमुदं दुन्नि जोयणसयसहस्सवित्थिन्नं चइत्ता०जाव पडिगए / तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुदं वीईवइत्ता पउमणाहणं हयमहिय० जाव पडिसेहित्ता अवरकंका मज्झमज्झेणं वीईवइत्ता गंगं उवागर ते पंच पंडवे एवं बयासी- संभग्गा, दोवई देवी साहत्थिं उवणीया, तयाणं तुम्हे मम माहप्पं गच्छह णं तुडभे देवाणुप्पिया ! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव न विण्णायं, इयाणिं जाणिस्सइ त्ति कट्ट लोहदंडं परामुसइ, अहं सुट्ठिय लवणाहिवइं पासामि। तए णं ते पंच पंडवा कण्हेणं परामुसइत्ता पंचण्हं पंडवाणं रहं चूरेइ, चूरेत्ता णिदिवसए वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानई तेणेव उवाग-- आणवेइ। तत्थ णं रहमदणे णाम कोट्टे निविटे। तए णं से च्छंति, उवागच्छइत्ता एगट्ठियाए नावाए मग्गणगवेसणं करें ति, कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उवागच्छइ, करेत्ता एगट्ठियाए नावाए गंगं महानइं उत्तरंति, अन्नमन्नं एवं उवागच्छइत्ता सएणं खंधावारेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि बयासी-पभू णं देवाणुप्पिया ! कण्हे वासुदेवे गंगं महानई होत्था / तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव यारवई नयरी तेणेव बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहु णो पभू उत्तरित्तए त्ति कट्ट एगट्ठिय- उवागच्छति, उवागच्छइत्ता अणुप्पवि-सति / तए णं ते पंच णावं मुसंति,मुसंतित्ता कण्हं वासुदेवं पडिबालेमाणा चिट्ठति। पंडवा जेणेव हत्थिणाउरे णयरे तेणेव उवागच्छंति, तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई पासइ, पासइत्ता उवागच्छइत्ता जेणेव पंडुए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छजेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता एगट्ठि- इत्ता करयल०जाव एवं वयासी-एवं खलु ताओ ! अम्हे कण्हेणं याए नावाए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेति, एगट्ठिअं नावं / वासुदेवेणं निविसया आणत्ता। तए णं पंडुराया तं पंचपंडवं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरंगमसारहिं गिण्हइ, गिण्हइत्ता एवं बयासी-कहं णं पुत्ता ! तुब्भे कण्हेणं वासुदेवेणं णिव्विसया एगाए बाहाए गंगं महानई वासद्धिं जोयणाई अद्ध-जोयणं च | आणत्ता / तए णं ते पंच पंडवा पंडुरायं एवं बयासी-एवं खलु वित्थिन्नं उत्तरि पवत्ते यावि होत्था।तए णं से क-हे वासुदेवे ताओ ! अम्हे अवरकंकाओ पडिणियत्ता लवणसमुदं दुन्नि गंगाए महानईए बहुमज्झदेसभाए संपत्ते समाणे संते तंते परितंते जोयणसयसहस्साई वीईवइता, तए णं से कण्हे वासुदेवे अम्हं बद्धसेए जाए यावि होत्था / तए णं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स एवं बयासी-गच्छह णं तुडभे देवाणुप्पिया! गंगं महानई इमेयारूवे अब्भत्थिए०जाव समुप्पजि-त्था-अहो णं पंच पंडवा उत्तरेहे०जाव चिट्ठइ जाव ताव अहं एवं तहेव० जाव चिट्ठामो। महाबलवगा, जेहिं गंगा महानई वासट्ठिजोयणाई अद्धजोयणं तएणं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवइंदवणं तं चेव सव्वं, च वित्थिन्ना बाहाहि उत्तिण्णा, इच्छंतरहिं णं पंचहिं पंडवे हिं णवरं कण्हस्स चिंता ण वुच्चइ०जाव निव्विसए आणवेइ। तए णं पउमनाभे राया हयमहिय०जाय णो पडिसेहिए। तए णं गंगा से पंडुराया ते पंचपंडये एवं बयासीदुढ णं पुत्ता ! कयं कण्हस्स देवी कण्हस्स वासुदेवस्स इमं एयारूवं अब्भत्थियं०जाव वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहिं / तए णं से पंडुराया कुंति जाणित्ता थाहं वितरइ / तए णं से कण्हे वासुदेवे मुहुत्तरं देविं सद्दावेति, सद्दो वेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुम समासासेइ,समासासेत्ता गंगं महानदिं वासटिं०जाव उत्तरइ, देवाणुप्पिया ! वारवई णयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स निवेएहिजेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता पंचपंडवे एवं खलु दवाणुप्पिया ! तुमे पंचपंडवा णं निव्विसया आणत्ता, एवं बयासी- अहो णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! महाबलवगा, जेण तुमं च णं देवाणुप्पिया ! दाहिणड्ढभरहस्स सामी, तं संदिसतु तुब्भेहिं गंगा महानई वासटुिंजाव उत्तिण्णा, इच्छंतएहिं णं देवाणुप्पिया ! ते पंच पंडवा कयरं देसं वा दिसिं वा विदिसिं तुम्मेहिं पउमनाहे०जाव नो पडिसेहिए। तए णते पंच पंडवा वा गच्छंतु णं / तए ण सा कुंती पंडुणा रण्णा एवं वुत्ता समाणी कण्हेणं रासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं बयासी-- हत्थिखधं दुरूहति, दुरूहइत्ता जहा हिट्ठाजाव संदिसतु णं एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुब्भेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव पिउत्था ! किमागमणपओयणं ? तए णं सा कुंती कण्हं वासुदेवं गंगा महानई तेणेव उवागच्छित्ता एगट्ठिआएणावाए मग्गणगवसणं एवं वयासी-एवं खलु तुमं पुत्ता पंच पंडवा णिव्विसया आणत्ता, तं चेव०जाव तुम्हे पडिवा-लेमाणे चिट्ठामो / तए णं से कण्हे तुमंच णंदाहिणड्डभरह-सामी०जाव दिसिंवा विदिसिंवा गच्छंतु / वासुदेवे तेसिं पंचण्हं पंडवाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म [ तए णं से कण्हे वासुदेवे कुंतिं देविं एवं बयासी अपूइवयणा
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________________ दुवई 2567 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवई णं पिउत्था! उत्तमपुरिसा चक्कवट्टी वा वासुदेवा वा बलदेवावा, तं गच्छंतु णं पंच पंडवा दाहिणल्लं वेयालिं, तत्थ पंडमहुरं णिवेसंतु, मम अदिट्ठसेवगा भवंतु त्ति कट्ट कुंतिं देविं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्माणेत्ता० जाव पडिविसज्जेइ / तए णं सा कुंती देवी०जाव पंडुस्स एयमटुं णिवेएइ / तए णं पंडुराया पंचपंडवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुन्भे पुत्ता ! दाहिगिल्लं वेयालिं, तत्थ णं तुब्भे पंडुमहुरं णिवेसेह / तए णं ते पंच पंडवा पंडुस्स रण्णोजाव तह त्ति पडिसुणंति, पडिसुणेत्ता सबलवाहणा हयगय०जाव हत्थिणाउराओ जयराओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव दक्खिणिल्ला वेयाली तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता पंडुमहुरं निवेसंति, निवेसित्ता तत्थ णं ते विपुलभोगसमिइसमन्नागया वि होत्था। तए णं सा दोवई देवी अन्नया कयाई आवन्नसत्ता जाया वि होत्था। तए णं सा दोवई णवण्हं मासाणंजाव सुरूवं दारयं पयाया० जाव सुकुमाले, निव्वत्तवारसाहस्स इमं एयारूवं गुणनिप्फन्नं नामधिलं करिति, जम्हा णं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए अत्तए, तं होऊणं अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेजं पंडुसेणे त्ति, वावत्तरि कलाओ०जाव अलं भोगसमत्थे जाए जुवराया०जाव विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा थेरा समोसढा, परिसा णिग्गया, पंडवा निग्गया, धम्मं सोचा एवं क्यासी-जं णवरं देवाणुप्पिया ! दोवई देविं आपुच्छामो, पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता०जाव पव्वयामो? अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह / तए णं पंच पंडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता दोवई देविं सद्दावें ति, सद्यावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! अम्हेहिं थेराणं अंतिए धर्म णिसंतेजाव पव्वयामो। तुम देवाणुप्पिए ! किं करेसि? तएणं सा दोवई देवी पंच पंडवे एवं बयासी-जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया! संसारभयउव्विगाजाव पव्वजह, मम के अण्णे आलंवे वा० जाव भविस्सइ ? अहं पि य णं संसारभयउव्विग्गा देवाणुप्पिएहिं सद्धिं पव्वइस्सामि / तए णं ते पंच पंडवा पंडुसेणस्स कुमारस्स अभिसेअंजाव राया जाए०जाव रजं पसाहेमाणे विहरइ / तए णं ते पंच पंडवा दोवई देवी य अन्नया कयाई पंडुसेणं रायं आपुच्छति / तए णं से पंडुसेणे राया कोडुंबिय-- पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! णिक्खमणाभिसेयंन्जाव उवट्ठवेह, पुरिससहस्सवा-- हणीओ सिवियाओ उवट्ठवेह ०जाव पच्चोरुहंति, जेणेव थेरा आयरिया आलित्तेणं०जाव समणा जाया चउहस पुवाई अहिजंति, बहूणि वासाणिजाव छहमदसमदुवालसे हिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणे विहरइ / तएणं सा दोवई देवी सीयाओ पच्चोरुहइ, पञ्चोरुहइत्ता०जाव पव्वइया सुव्वयाए अजाए सिस्सणियत्ताए दलयति, एक्कारसंगाईजाव अहिज्जइ, अहिजइत्ता बहूणि वासाणि छट्ठट्ठमदसमदुबालसे हिं जाव अप्पाणं भावेमाणा विहरइ / तर णं ते थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पंडुमहुराओ नयराओ सहस्सबवणाओ उज्जा-णाओ पडि निग्गच्छंति, पडिनिग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति। तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी जेणेव सुरद्वाजणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सुरट्ठाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ / तए णं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ०४-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरिहा अरिट्ठनेमी सुरट्ठाजणवए० जाव विहरइ। तए णं ते जुहिट्ठिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा अन्नमन्नं सद्दावें ति, सद्यावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहा अरिट्ठनेमी पुव्वाणुपुट्विं०जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरा आपुच्छिता अरिहं अरिट्टनेमि वंदणाए गमित्तए, अण्णमण्णस्स एयमढें पडिसुणे ति, पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता थेरे भगवंते वंदंति, णमंसंति, णमंसइत्ता एवं बयासी-इच्छामि णं तुब्भे हिं अब्भणुण्णाया समाणा अरिहं अरिट्टणेमि०जाव गमित्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / तए णं ते जुहिट्ठिल्लपाडोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं अन्भणुन्नाया समाणा थेरे भगवंते वंदंति, णमंसंति, णमंसइत्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता मासं मासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्जमाणाजाव जेणेव हत्थिकप्पे णयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता हत्थिकप्पस्स बहिया सहस्संबवणे उजाणे०जाव विहरंति।तएणं ते जुहिडिल्लवञ्जा चत्तारि अणगारा मासखमणपारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करें ति, वीयाए एवं जहा गोयमसामी, णवरं जुहिडिल्लं आपुच्छंति०जाव अडमाणा हत्थिकप्पे नयरे बहुजणस्स सड़ निसामें ति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहा अरिट्ठनेमी उज्जंतसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसे हिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए०जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / तए णं जुहिडिल्लवजा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयम8 सोचा हत्थिकप्पाओ जयराओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमइत्ता
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________________ दुवई 2568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुवारपिहाण जेणेव सहस्संबवणे उजाणे जेणेव जुहिडिल्ले अणगारे तेणेव / चिह्नानि लाञ्छनानि यत्र तत्तथा। "ददरमलयगिरिसिहरकेसरचामरउवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चक्खंति, गमणागमणं बालयद्धचंदचिधं / '' दईरमलयाभिधानी यौ गिरी, तयोर्यानि पडिक्कमंति, एसणमणेसणं आलोयंति, भत्तपाणं पडिदंसेति, शिखराणि, तत्संबन्धिनो ये केसरचामरबालाः सिंहस्कन्धचमरपडिदंसेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! ०जाव अरिहा पुच्छकेशा अर्द्धचन्द्राश्च तल्लक्षणानि चिह्नानि यत्र तत्तथा / "कालअरिद्वनेमी कालगए, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! इमं हरियरत्तपीयसुक्किलबहुण्हारुसपिनद्धजीवं। " कालाऽऽदिवर्णा या बहवः पुव्वगहिअं भत्तपाणं परिट्ठवित्ता सेत्तुंजए पव्वए सणियं सणियं स्नायवः शरीरान्तबद्धास्ताभिः संपिनद्धा जीवाः प्रत्यथा यस्य स दुरूहित्तए संलेहणाए झोसणाए झुसियाणं कालं अणवकंख-- तत्तथा। "जीवियंतकरणं ति।" शत्रूणामिति गम्यते। (संमग्गेत्यादि) माणाणं विहरित्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिसुणे ति, संभग्नानि प्राकारो गोपुराणि च प्रतोल्यः, अट्टालकाश्च प्राकारोपरिपडिसुणेत्ता तं पुव्वगहियं भत्तपाणं एगंते परिहवें ति, परिद्ववेत्ता स्थानविशेषाः, चरिका च नगरप्राकारान्तरेऽएहस्तो मार्गः, तोरणानि च जेणेव सेत्तुंजए पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता सेत्तुंजयं यस्या सा तथा। पर्यस्तितानि पर्यस्तीकृतानि, सर्वतः क्षिप्तानीत्यर्थः / पव्वयं सणियं दुरूहति, दुरूहइत्ता०जाव कालं अणवकंखमाणा प्रवरभवनानि श्रीगृहाणि च भाण्डागाराणि यस्यां सा तथा / ततः विहरंति / तए णं ते जुहिट्ठिल्लपामोक्खा पंच अणगारा पदद्वयस्य कर्मधारयः / (सरसरस्स त्ति) अनुकरणशब्दोऽयमिति / सामाइयमाइयाइं चउद्दसपुव्वाइं अहिञ्जित्ता बहूणि वासाणि (उल्लपडसाडए त्ति) सद्यः स्नानेन आर्द्रा पटशाटकी उत्तरीयसामन्नपरियागं पाउणित्तादोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता वस्त्रपरिधाने यस्य स तथा। (ओचूलगवत्थनियत्थेत्ति) अवचूलमधोमुजस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावेजाव तमट्ठमारा–हें ति, अणंतेजाव खचूलं मुत्कलाञ्चलं यथा भवतीत्येवं वस्त्रं निवसितं येन स तथा। (तं एवमवि गए नस्थि ते ममाहितो इयाणि भयमत्थि त्ति) तत्तस्मादित्थमपि केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे०जाव सिद्धा। तएणं सा दोवई गते अस्मिन् कार्ये नास्ति अयं पक्षोयदुत ते तव मत्तो भयमस्ति भवति अजा सुव्वयाणं अज्जियाणं अंते सामाइयमाइयाइंइक्कारस अंगाई (एगट्ठिय त्ति) तौ (मुसंति त्ति) गोपयन्ति / श्रान्तः खिन्नः, तान्तः अहिज्जइ, अहिन्जित्ता बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता सूरकाण्डकाङ्गावान् जातः, परितान्तः सर्वथा खिन्नः। एकार्थिकाश्चैते। मासियाए संलेहणाए आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ता कालमासे (इच्छतएहिं ति) इच्छया क्याचिदित्यर्थः / (वेयालीए ति) वेलातटे इति / कालं किचा बंभलोए कप्पे देवताए उववण्णा / तत्थ णं इहापि सूत्रे उपनयो दृश्यते / एवं चासौ द्रष्टव्यःअत्थेगइयाणं देवाणं दससा-गरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं "सुबहू वि तवकिलेसो, नियाणदोसेण दूसिओ संतो। दुवयस्स देवस्स दससागरो-वमाई ठिई पण्णत्ता। से णं भंते ! न सिवाय दोवतीए, जह किल सुउमालिया जम्मे // 1 // " दुवए देवो ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं महाविदेहे वासे सिज्झिहितिजाव संसारस्स अंतं काहिति / एवं खलु जंबू ! अथवासमणेणं भगवया महावीरेणं सोलसमस्स णायज्झयणस्स "अमणुन्नमभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अणत्थाय। अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि। जह कडुयतुंबदाण, नागसिरिभवम्मि दोवहए।रा" इति। (वेढो त्ति) देष्टक एकवस्तुविषयपदपद्धतिः / स चेह धनुर्विषयो ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। ती०। स्था०। प्रश्न०। आ०माही०।प्रति०| जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्धोऽध्येतव्यः / तद्यथा-'अइग्गयबालचंद.... दुवग्ग पुं०(द्विवर्ग) उभयकोटौं, नि०चू०१५ उ०ा आचा०] ईदधणुसन्निगास / ' अचिरोद् गतो यो बालचन्द्रः शुक्लपक्षद्विती- दुवण न०(दुवन) उपतापने, प्रश्न०२आश्रद्वार। याचन्द्रः, तेनेन्द्रधनुषा च वक्रतया सन्निकाशं सदृशं यत्तत्तथा। "वरमहि- दुवय पुं०(द्विपद) 'दुपय' शब्दार्थ स०१२ अङ्ग। सदरियदप्पियदढयणसिंगग्गरइयसारं / ' वरमहिषस्य दृप्तदर्पितस्य दुव्वामतरय पुं०(दुर्वाम्यतरक) दुस्त्याज्यतरकलङ्के, भ०६ श०१उ०। संजातदतिशयस्य यानि दृढानिधनानि च शृङ्गागाणि तैः रचितं सारं | दुवार न० (द्वार)"पद्मछद्ममूर्खद्वारे वा" ||22112 / / इति संयुक्तच यत्तत्तथा / "उरगवरपवरगवलपवरपरहुयभमरकुलनीलिनि- स्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उद्वा। 'दुवारं।' पक्षे 'वारं।' 'देर। 'दारं। प्रा०२ द्धातधोयपटुं।" उरगवरो नागवरः, प्रवरगवलं वरमहिषश्रृङ्गः, प्रवरपर- पाद ! प्रतोल्याम्, आ०म०१ अ०१ खण्ड / ग्रामस्य मुखे, बृ०१ भृता वरकोकिलो, भ्रमरकुल मधुकरनिकरो, नीली गुलिका, एतानीव उ०३प्रक०। प्रासादभवनदेवकुलाऽऽदीनां प्रवेशमुखे च / बृ०१ उ०३ स्निग्धं कालकान्तिमत्, ध्मातमिव ध्मातं च तेजसा ज्वलत, धौतमिव प्रकला प्रज्ञा०। (अपावृतद्वारवसतौ द्वारपिधानं संयतीभिः कर्तव्यमिति धौतं च निर्मल पृष्ठ यस्य तत्तथा।"निउणोचियमिसिमिसिंतमणिरयण- 'वसई शब्देवक्ष्यते) घंटियाजालपारेक्खितं ।'निपुणेन शिल्पिना उपचितानामुज्ज्वालि- दुवारकम्म न०(द्वारकर्म) द्वारस्य विषमायाः भूमेः समीकरणे, नि० चू० तानां मणिरत्नघण्टिकानां यजालं तेन परिक्षिप्त वेष्टित यत्तत्तथा / 5 उ०। "तडितरुणकिरणतवणिजबद्धचिंछ / ' तडिदिव विद्युदिव तरुणाः | दुवारपिहाण न०(द्वारपिधान) कपाटमाश्रित्य द्वारस्थगने, आचा०२ प्रत्ययाः किरणा यस्य तत्तथा, तस्य तपनीयस्य संबन्धीनि बद्धानि | | श्रु०१चू०२अ०२०
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________________ दुवारवाहा 2566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुव्वियड दुवारवाहा स्त्री०(द्वारवाहा) द्वारभावे, आचा०२श्रु०१चू०१अ०५उ०। शब्द (ऽऽदिविषयेष्विष्टानिष्टषु माध्यस्थतां भावयितुं, प्रान्तरूक्षाणि दुवारसाहा स्त्री०(द्वारशाखा) द्वारपार्श्वस्थकाष्ठाऽऽदौ, आचा०२ श्रु० भोतुम्, एवं यथोद्दिष्टया मौनीन्द्राज्ञया असिधारकल्पया दुष्कर १चू० 106 उ०। सञ्चरितुम्, अनुकूलप्रतिकूलश्चि नानाप्रकारानुपसर्गान सोढुम, असहने दुवारिअ पुं०(दौवारिक) "उत्सौन्दर्वाऽऽदौ" ||8/1 / 160 // इति औत च कर्मोदयोऽनाद्यतीतकालसुखभावना च कारणं, जीवो हि स्वभा-वतो उत्। “दुवारिओ।" प्रा०१ पाद। दुःखभीरुरनिरोधसुखप्रियोऽतो निरोधकल्पायामाज्ञायां दुःखं वसति। *दौवारिक पुं०। द्वारे नियुक्तः, ठक् / द्वारपाले, वाचा अवसंश्च किंभूतो भवतीत्याह-(तुच्छए इत्यादि) तुच्छो रिक्त, स च दुवालसावत्त न०(द्वादशाऽऽवर्त) "दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते / द्रव्यतो निर्धनी, घटाऽऽदिरिव जलाऽऽदिरहितो, भावतो ज्ञानाऽऽदितं जहा-" "दुओणयं जहाजायं, कितिकम्मेवारसाज्य। चउसिर तिगुत्ने रहितः / ज्ञानाऽऽदिरहितो हि क्वचित्संशीतिविषये केनचित्पृष्टोऽपरिदुपवेसं एगनिक्खमणं / / 1 / / '' इति सूत्राभिधानगर्भेषुकायव्यापारविशेषेषु, ज्ञानात् ग्लायति वक्तुं, ज्ञानसमन्वितो वा चारित्ररिक्तः पूजासत्कारभस०१समा याच्छुद्धमार्गप्ररूपणावसरे ग्लायति यथावस्थित प्रज्ञापयितुम्। तथाहिदुविट्ठ पुं०(द्वि विष्टप) द्वितीये वासुदेवे, ति०। नवमे भविष्यति वासुदेवे, प्रवृत्तसन्निधिः संनिधिनिर्दोषतामाचष्टे / एवमन्यत्रापीति।यस्तु कषायम हाविषगकल्पभगवदाज्ञोपजीवकः स सुवसुमुनिर्भवत्यरिक्तो नग्लायति राणाती च वक्तुम, यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानादनुष्ठानात् / आह च-(एस दुविह त्रि० (द्विविध) "द्विन्योरुत्" ||16|| इति द्विशब्देका-- इत्यादि) एष इति सुवसुमुनिआनाऽऽद्यरिक्तो यथावस्थितमार्गप्ररूपको रस्योकारः / 'दुविहो।' प्रा०१ पाद / द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधः। वीरः कर्मविदारणात, प्रशंसितस्तद्विदैः श्लाघित इति। आचा०१ श्रु० आचा०१ श्रु०८अ०६उका द्विप्रकारे, सूत्र०१श्रु०८अ आचा०। विशे० २अ०६उ० उत्ता स्था०। प्रश्रा दुव्वह त्रि०(दुर्वह) वोढुमशक्ये, उत्त०१६ अ01 दुविहभूमिपत्त त्रि०(द्विविधभूमिप्राप्त) वयः (व्यञ्जनजातत्वाऽऽदि) श्रुतपर्याय (यावत्पर्यायस्य यच्छ्रुतं दीयते) रूपश्रुतवाचनायोग्यता प्राप्ते, दुव्याइ पुं०(दुर्वाक्) अप्रियवक्तार, दश०२०। निचू०१६301 दुविअडपुं०(दुर्विदग्ध) ज्ञानबलगर्यो रे, जीवा०२० अधि०ा पण्डितदुव्वण्ण न० (दुर्वर्ण) अशुभवणे, नि०चूत। "पंचवण्णोवणेयं दुव्वणं।" ग्मन्ये, स्था० एकस्मिन्नपि पततीत्यर्थः / ''अहवा-प्रवालाकुरसनिभ सुवण्णं, सेसा दुट्विअड्डा स्त्री०(दुर्विदग्धा) मिथ्याऽहड् कारविडम्बिताया पर्षदि, नं० सव्वे दुव्यण्णा।" अनिष्टा इत्यर्थः / नि०चू०१ उ० भ०ा कुरूपे च। त्रि०। दुटिवचिंतिय पुं०(दुर्विचिन्तित) दुष्टो विचिन्तितो दुर्विचिन्तितः। सूत्र०२ श्रु०२ अर चलचित्ततया अशुभे विचिन्तिते, "जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं जं चल दुव्वय त्रि०(दुव्रत) असम्यग्व्रते, स्था०४ठा०३उ०। दुष्टानि व्रतानि येषां तयं चित्तं / ' इति वचनात्। ध०२अधिक। ते तथा / यथा मांसभक्षणं, व्रतकालसमाप्तौ प्रभूततरसत्त्वोपधातेन दुट्विजाण त्रि०(दुर्विज्ञ) दुर्विज्ञातरि, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। मासप्रदानम्, अन्यदपि नक्तभोजनाऽऽदिक दुष्टव्रतमिति। तथाऽन्यस्मिन् दुटिवण्णाय त्रि०(दुर्विज्ञात) दुष्ट विज्ञातंदुर्विज्ञातम्।दुष्ट विज्ञाते,आचा०१ जन्मान्तरे मधुमद्यमांसाऽऽदिकमभ्यवहरिष्यामीत्येवमज्ञानान्धा श्रु०अ०२० जन्मान्तरविधिद्वारेण सनिदानमेव व्रतं गृहन्ति / सूत्र०२ श्रु०२०।। दुटिवणीय त्रि०(दुविनीत) दुर्विनययुक्ते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। आव०॥ व्रतवर्जित, विपा०१ श्रु०१ अ० दशा०॥ __ आ०म० दुव्वलचारित्त पुं०(दुर्वलचारित्र) दुर्बलश्चारित्रे इति दुर्बलचारित्रः। विना | दुविदड्डपुं०(दुर्विदग्ध) 'दुविअट्ट' शब्दार्थे , जीवा०२०अधिo कारणेन मूलोत्तरगुणपरिषेविणि, नि०चू० 130 / व्य०| दुव्विदद्ध पुं०(दुर्विदग्ध) 'दुट्विअड्ढ' शब्दार्थे, जीवा०२० अधि०| दुव्वसुमुणि पुं०(दुर्वसुमुनि) मोक्षगमनायोग्ये, आचा०। दुविदद्धबुद्धि पुं०(दुर्विदग्धबुद्धि) स्वाभिप्रायेणाऽऽगमानुसारिणि, दुव्वसुमुणी अगाणाए तुच्छए गिलाइ यत्तए, एस वीरे पसंसिए दर्श० तत्त्व। (100) दुविभज त्रि०(दुर्विभज) कष्ठविभजनीये, 'मज्झिमगाणं दुविभज (दुव्वसु इत्यादि) वसु द्रव्यम्, एतच भव्येऽर्थे व्युत्पादित, द्रव्यं च भव्य दुग्गम भवज्ञ।" आख्यातेऽपि तत्र दुर्विभज कष्टविभजनीयम्, ऋजुजडइत्यनेन। भव्यश्च मुक्तिगमनयोग्यः, ततश्च मुक्तिगमनयोग्यं यद् द्रव्यं तद् त्वादेव तद्भवतीति / दुःशकं शिष्याणां वस्तुतत्त्वस्य विभागेनावस्थावसु, दुष्टं वसु दुर्वसु, दुर्वसु चासौ मुनिश्च दुर्वसुमुनिः-मोक्षगमनायोग्यः / पनमित्यर्थः / दुर्विभवमित्यत्र पाठान्तरे दुर्विभाव्यम्, दुःशका विभावना रा च कुतो भवति? अनाज्ञया तीर्थकरोपदेशशून्यः, स्वैरीत्यर्थः। किमत्र कर्तु तस्य॑त्यर्थः / स्था०५ठा०१उ०। तीर्थकरोपदेशे दुष्कर, येन स्वैरित्वमभ्युपगम्यते ? तदुच्यते-उद्देश- दुट्विभाव त्रि०(दुर्विभाव) दुर्लक्ष्ये, विशेos त्रि०(दुर्विवृत) दुष्टविवृतो दुर्विवृतः। परिधानवर्जिते, स्था०५ लोक सम्बो , दुष्करखतेष्वात्मानमध्यारोपयितु, रत्यरती निग्रहीतुं. | ठा०१उ०।
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________________ दुवियद्ध 2600- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुसमा दुव्वियद्ध पुं०(दुर्विदग्ध) 'दुविअड्ड' शब्दार्थे, जी०२० अधिक दुव्यियड्ड पुं०(दुर्विदग्ध) 'दुव्विअड्ड' शब्दार्थे, जीवा०२० अधिका दुव्विसह त्रि०(दुर्विषह) दुस्सहे, भ०७।०६उ०। दुट्विसोज्झ त्रि०(दुर्विशोध्य) दुःखेन शुद्धिप्रकर्षग्रापणीये, पञ्चा० १६विव०! दुविहिय पुं०(दुर्विहित) पार्श्वस्थाऽऽदौ, आव०३अ०॥ दुव्वोल (देशी) उपालम्भे, देवना०५वर्ग 42 गाथा। दुस धा०(दुष) दिवा०-पर-अक०-अनिट् / वाचा वकृत्ये, विशेष दुष्यति, अदुषत्, अदुक्षत्। वाच०। दुसंणप्प पुं०(दुःसंज्ञाप्य) दुःखेन कृच्छ्रेण संज्ञाप्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते बोझ्यन्त इति दुःसंज्ञाप्याः। स्था०३ठा०४उ० तओ दुसण्णप्पा पण्णत्ता। तं जहा-दुढे, मूढे, वुग्गाहिए।७।। अस्य संबन्धमाहसम्मत्ते वि अजोग्गा, किमु दिक्खणवायणासु दुट्ठादी? दुस्सण्णप्पाऽऽरंभो,मा मोहपरिस्समो होज्जा / / 327 // दुष्टाऽऽदयस्त्रयः सम्यक् त्वग्रहणेऽप्ययोग्याः, किं पुनर्दीक्षावाचनयोः? अतस्तेषां प्रज्ञापने मोघो निष्फलः प्रज्ञापकस्य परिश्रमो माभूदिति दुःसंज्ञाप्यसूत्रमारभ्यते / अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्याख्यात्रया दुःखेन कृच्छ्ण संज्ञाप्यन्त प्रतिबोद्ध्यन्त इति दुःसंज्ञाप्याः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-दुष्टस्तत्त्वप्रज्ञापकं प्रति द्वेषवान्, र चाप्रज्ञापनीयो द्वेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः / एवं मूढी गुणदोषानभिज्ञः, व्युद्गाहितो नाम कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपरीतबोधः / एष सूत्रार्थः। अथभाष्यविस्तरःदुस्समाप्पो तिविहो, दुट्ठाई दुट्ठों वण्णितो पुव्यिं / मूढस्स य णिक्खेवो, अट्ठविहो होइ कायवो // 328|| दुःसंज्ञाप्यो दुष्टाऽऽदिभेदात्त्रिविधः, तत्र दुष्टः पूर्व पराश्चिकसूत्रे यथा वर्णिस्तथाऽत्रापि मन्तव्यः। मूढस्य पुनरष्टविधो निक्षेपो वक्ष्यमाण-नीत्या कर्तव्यो भवति। तत्र पदत्रयनिष्पन्नामष्टभङ्गीमाहदुढे मूढे दुग्गा-हिते य भयणा उ अट्ठहा होइ। पढमगभंगे सुत्तं, पढमं बिइयं तु चरिमम्मि // 326 / / दुष्टो मूढो व्युद्ग्राहित इति त्रिभिः पदैरष्टधा भजना भवति, अष्टो भड़ा इत्यर्थः / अत्र च प्रथमे भड़े प्रथम सूत्रं निपतति, चरमे ऽध में भड़े ऽदुष्टोऽमूढोऽव्युग्राहित इत्येवंलक्षणे द्वितीयं वक्ष्यमाण सूत्रमिति / 04 उ० अथैया मध्ये के प्रव्राजयितुं योग्याः? के या नेत्याह-- मोत्तूण वेदमूर्ट, अप्पडिसिद्धा उसेसगा मूढा। वुग्गाहिता य दुट्ठा, पडिसिद्धा कारणं मोत्तुं / / 330 / / वेदमूढ मुक्त्वा ये शेषा द्रव्यक्षेत्रमूढाऽऽदयस्तेऽप्रतिपिद्धाः, प्रव्राजयितुं कल्पन्ते इत्यर्थः / ये तु व्युद्गाहिता दुष्टाश्च कषायदुष्टाऽऽदयस्त कारणं | मुक्त्वा प्रतिषिद्धाः, कारणे तु कल्पन्ते इति भावः। किमर्थमते प्रतिषिद्धाः? इत्याहजं तेहिँ अभिग्गहियं, आमरणंता य तं न मुंचंति। सम्मत्तं पिण लग्गति, तेसिं कत्तो चरित्तगुणा? ||331 / / यत्तैर्युदग्राहिताऽऽदिभिः किमपि शाक्याऽऽदिदर्शनमन्यद्वा भारताऽऽदिक मिथ्याश्रुतमभिगृहीतमाभिमुख्येनोपादेयतया स्वीकृतं तदामरणान्तं न मुञ्चन्ति / अथ चैतेषां सम्यक्त्वमपि न लगति, कुतश्चारित्रगुणा इति? कथं पुनरमीषां सम्यक् त्वमपि न लगतीत्याहसोयसुयघोररणमुह-दारभरणपेयकिच्चमइएसु / सग्गेसु देवपूयण-चिरजीवणदाणदिढेसु // 332 / / इच्चेवमाइलोइय-कुस्सुइवुग्गाहणाकुहियकण्णा / फुडमवि दाइजंतं, गिण्हंति न कारणं केइ // 333 / / इह भारताऽऽदौ शौचसुतघोररणमुखदारभरणप्रेतकृत्यमयेषु देवपूजनचिरजीवनदानदृष्टषुच स्वर्गेषु ये भाविता भवन्ति, तथा हि-शौचविधानाद् पुत्रोत्पादनाद्घोरसमरशिरःप्रवेशाद्धर्मपत्नीपोषणात् पिण्डप्रदानाऽऽदिप्रेतकर्मविधानाद्वैश्वानराऽऽदिदेवपूजनात् चन्द्रसहस्राऽऽदिरूपचिरकालजीवनाद् धनधरित्र्यादिदानात् स्वर्गा अवाप्यन्ते, इत्येवमादिलौकिककु श्रुतिव्युद्ग्राहणाकुथिनकर्णाः सन्तस्तस्याः कुथुतेरघटनाया स्फुटमपि दर्यमानं कारणमुपपत्ति केचिद्गुरुकर्माणो प्रतिपद्यन्ते, अतस्ते दुःसंज्ञाप्या मन्तव्याः। बृ०४ उ०॥ दुसमदुसमा स्त्री० (दुःषपदुःषमा) अवसर्पिण्याः षष्ठे उत्सर्पिण्याश्च प्रथमेऽरके,भ० "एकवीसवाससहस्साई कालो दुसमदुसमा।" भ०६ श०७उन स्था०ा ती० तिला आ०चूला तं० ज्यो०। (अस्या वर्णकः "ओसप्पिणी' शब्दे तृ० भागे 122 पृष्ठे, 'उस्सप्पिणी' शब्दे द्वि०भावे 1166 पृष्ठेच द्रष्टव्यः) दुसमय त्रि०(द्विसमय) द्वौ समयौ यत्र स द्विसमयः / समयद्वयजाते, भ०१४श०१3० दुसमयसिद्ध पुं०(द्विसमयसिद्ध) सिद्धत्वसमयात्रितीयसमय-वर्तिनि, प्रकारान्तरेण तृतीयसमयवर्तिनि परम्परसिद्धभेदे, प्रज्ञा०१ पद। दुसमसुसमा स्त्री०(दुःषमसुषमा) अवसर्पिण्याश्चतुर्थे उत्सर्पिण्या-- स्तृतीये चारके, भ०। “एगा सागरोवमकोडाकोडीओ वायालीसए वाससहस्रोहिं ऊणिया कालो दुसमयसुसमा।" भ०६ श०७उ० जना (अस्या वर्णकरतु ओसप्पिणी' शब्दे तृ०भागे 121 पृष्ठे, 'उस्सप्पिणी शब्दे द्वि०भागे 1171 पृष्ठे च द्रष्टव्यः) "एगा दुसमसुसमा।” स्था०पठा०। दुसमा रत्री०(दुःषमा) अवसर्पिण्याः पञ्चमे उत्सर्पिण्या द्वितीये चारके, भ०। "एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुसमा / " भ०६ श०७उ०। स्था०। ती०। ति०। आ००। ज्यो। त०। (अस्या वर्ण कस्तु 'ओसप्पिणी' शब्दे तृतीयभागे 121 पृष्ठे, 'उस्सप्पिणी' शब्दे दिलमान 1166 पृष्टऽपि द्रष्टव्यः) "दसहिं ठाणेहिं ओगाढं दुरसगं जाण वा / त जहा-- अकाले वरिसइ, काले न वरिसइ, असाहू पूइज्जति, साहुन
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________________ दुसमा 2601 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुस्सील पूइज्जति, गुरुसु जणो मिच्छं पमिवण्णो अमणुण्णा सद्दा० जाव फासा।'' किं बहुगा-- बहवे भंडा अप्पे समणा होहिंति, पुवायरियपरंपरागयं स्था० 10 ठा०। (अस्य वक्तव्यता कलिजुग' शब्दे तृ० भागे 380 पृष्ठ) सामायारि मुत्तूण नियगमइविगप्पियं सामायारि सम्भचारित्तं ति रचावित्ता नवरं "तओ गोयमसामी जाणगपुव्वं पुच्छइ-भयवं! तुम्ह निव्वाणानंतरं तहाविह मुसजनं मोहम्मि पामित्ता उस्सुत्तभासिणो अप्पथुइपरनिदापराकिं किं भविस्सइ? पहुणा भणियं सोम! मम मुक्खगयस्स तिहिं वासेहि यणा य केइ होहिंति, बलवंता अनिट्ठनिवा, अप्पबला पूअनिवा अद्धनवमेहि य मासेहिं पंचम अरओ दूसमा लगिस्सइ / मह मुक्खगम- भविरसंति।" ती० 20 कल्प। णाओ वाराणं चउसट्टीए अपच्छिमकेवली जंबूसामी सिद्धिं गमिही। तेणं दुसमाकाल-पुं०(दुःषमाकाल) अवसर्पिण्याः पञ्चमे उत्सर्पिण्या द्वितीये समरणं पजवनाणं, परमोही, पुलायलद्धी, आहारगसरीरखवगसेढी, च समये, ज०२ वक्षः। 'एक्वीस वाससहस्साई कालो दुसमा।' भ०६ उवसमगसेढी, जिणकप्पो, परिहारविसुद्धि–सुहमसंपराय-अहक्खाय श०७ उ०। आचार्याणामुपाध्यायानां धर्माचार्याणां साधुसाध्वीश्रावकचारित्ताणि, केवलनाणं, सिद्धिगमणं च त्ति दुवालस ठाणाई भारहे वारसे श्राविकाणा वा दुःप्रसह यावद् दुःषमाया या संख्या दीपालिकाकल्पा:वुच्छिजिहिति। "अजसुहम्मप्पमुडा, होहिति जुगप्पहाण -आयरिया / ऽदिषु उक्ताऽस्ति, सा कया विवक्षया? पञ्चमारके दिनानि स्तोकानि दुप्पसहो जा सूरी, चउरहिया दोणि य सहस्सा / / 1 / / " सत्तरिसमाऽहिए / जायन्ते, संख्या च बहीति लोकाः पृच्छन्ति, तत्र किमुत्तरं दीयत इति वाससए मूलभद्दगि रागगए चरमाणि चत्तारि पुव्वाणि, सम्मचउरंस प्रश्ने, उत्तरम्-- अत्र भरतक्षेत्रे दुःषमाया अल्पकालत्वेऽपि भूमेः प्राचुर्याद् संठाण, राजरिसहनारायं संघयण, महापाणज्झाणं च बुच्छिजिहिइ। बहुषु देशेषु साध्वादिसंभवेन दीपालिकाकल्पाऽऽद्युक्तयुगप्रधानाऽऽदिवासपंच-एहिं अजवइरे दसमं पुवं संघयणं चउक्कं च अवगच्छिही। मह संख्याऽर्थतः संगच्छते, नत्वात्मज्ञातसाध्वादिनेति बोध्यम्।३८ प्र०। मुक्खगमणाओ पालयनंदचंदगुत्ताइराइसु वोलीणेसु चउसयसत्तरेहि सेन०२ उल्ला०। विकमाइयोराया होही। तत्थ सद्विवरिसाणं पालगस्स रज, पणपण्णसम दुसह-पुं०(दुःसह)"लुकि दुरो वा'"||१|११|दुर उपसर्गस्य रेफलोपे नंदाणं, अट्टोत्तरं सयं मोरियवंसाणं, तीसं दूस मित्तस्स, सट्ठी राति उतऊत्ववा।"दूसहो, दुसहो।' रेफलोपाभावे ''दुस्सहो।' प्रा०१ बलमित्तभाणु मिशाणं, वालीसं नरवाहणरस, तेरस गद्दभिल्बस्स, पाद / "निर्दुराा"।२१११३। इति दुरस्य व्यञ्जनस्य वा लुक् / चत्तारि-गरस, तओ विकमाइयो / सो साहियसुवण्णपुरिसो पुहविं अरिणं "दुरसहो।" प्रा० 1 पाद। चित्राङ्गापरनामके कल्पवृक्षभेदे, तिक काउंनियसंवच्छर पवत्तेही। तह गद्दभिल्लरजस्स छायगो कालिगारियो दुसुमिण-न०(दुःस्वप्न) अशुभसूचके स्वप्ने, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। होही। तेवण्णचउसएहि. गुणसयकलिओ सुअपउत्तो / / 1 / / " दूसमाए दुस्संचार-त्रि०(दुःसंचार) दुर्गमार्गे , दशा० 10 अ०। वट्टमाणीए नयराणि गामभूयाणि होहिंति, मसाण रूवा गामा, जसदंडसमा / रायाणो,दासप्पाया कुडबिणो, लंचगहणपरा निओगिणो, सामिदाहिणो दुस्संबोह-पु०(दुःसम्बोध) दुःखेन सम्बोध्यते धर्मचरणप्रतिपत्तिः कार्यत भिचा, कालरत्तितुल्लाओ सासूओ, सप्पिणीतुल्लाओ बहूओ, णिलज्जया इति दुःसम्बोधः / दुःखेन धर्माऽऽचरणं प्रतिपाद्यमाने, बोधयितुमशक्ये क डक्खपिक्खियाईहिं सिक्खिया वेसाचरियाओ कुलंगणाओ, च। आचा०।१ श्रु०१ अ० १उ०। सच्छदवारिणो पुत्ता य, सीसा य अकालवासिणो कालअवासिणो य, दुस्समाण-पु०(दुष्यमाण) द्वेष कुर्वति, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०॥ महासुहिया रिद्धि-संमाणभायणा च दुजणा, दुहिआ-ऽवमाणपत्ता / दुस्सरणाम-न०(दुःस्वरनाम) यदुदयवशात्खरः श्रोतृणां कर्णकटुः अप्पिडिया य सज्जणा, परचक्कडमरदुभिक्खजुया देसा, खुद्दमत्तबहुला प्रादुर्भवति तद् दुःस्वरनामा नामकर्मभेदे, कर्म०६ कर्म। पं० सं० मेइणी, असज्झायपरा अत्थसुलु विप्पा, गुरुकुलवासचाइणो मंदधम्मा प्रव० श्रा०) कर्महीनस्वरे, कर्म०१ कर्म०। कसायकलु-सियमणा समणा, अप्पबला सम्मदिट्टिणो सुरनरा, ते चेव दुस्सल-स्त्री०(दुःशल) दुहे, दुर्विनीते, बृ०६ उ०। पउरबला मिच्छदिट्टिणो होहिंति / देवा न दाहिति दरिसण, न तहा दुस्सह-पुं०(दुःषह) 'दुसह' शब्दार्थे , प्रश्न०१आश्र० द्वार। फुरतपढावा विज्जामंता, ओसहीणं गोरसकप्पूरसक्कराइदव्याण च दुस्सहिय-त्रि०(दुःसहित) दुःखेनाधिसहिते, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ०१ उ०। रसवणणगधहाणी, नराणं बलमेहाआऊणि हाइस्संति, मासकप्पा उ दुस्साहड-त्रि०(दुःसंहत) दुःखेन सहियते मील्यते स्मेति दुःसंहृतम्। पाउग्गाणि खित्ताणि न भविस्संति, पडिमारूवो सावयधम्मो वुच्छिज्जि दुर्मिले, उत्त० 7 अग हइ, आयरिया वि सीसाणं सम्मं सुयं न दाहिति। दुस्सिज्जा-स्त्री०(दुःशय्या) विषमभ्रमाऽऽदिरूपायां शय्यायाम, दश०८ "कलहकरा डमरकरा, असमाहिकरा अनिव्वुइकराय। दुस्सील-त्रि० (दुःशील) दुष्ट रागद्वेषाऽऽदिदोषविकृतं शील स्वभावः हाहिति इत्थ समणा, दससु वि खित्तेसु सयराई।।१।। समाधिराचारो वा यस्वासौ दुःशीलः / उत्त० 1 अ० दशा० / विपा०। ववहारऍ मंताइएँ, मुनिविज्जयाण य मुनीण। शुभस्वभावहीने, विपा० 1 श्रु०१ अा दुष्टाऽऽचारे, ग०१ अधि० प्रश्नका गलिहिंति आगमत्था, अणस्थलुद्धा य तद्दियहं / / 2 / / उत्ताला दुःसमाधौ च। पिण्डोलके च।"दुस्सीलेणरगाओण मुच्चइ।" उवगरणवत्थपत्ता-इयाण वसहीण सड्ढयाणं च। सूत्र० 1 श्रु० 10 अ०। 'दुस्सीलाओ खरो विव / '' खरवद् उज्झिरसंति कारण जह नरवइणो कुडुबीणं // 3 // " विष्ठाभक्षकगर्दभवत् दुःशीला दुष्टाचारा निर्लज्जत्वेन यत्र तत्र ग्रामनगराऽs
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________________ दुस्सील 2602 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुहविवाग रण्यमार्गक्षत्रगृहोपाश्रयचैत्यगृहगावटिकाऽऽदी पुरुषाणां वाञ्छाकारि- / मन्द्रस्ततश्चक्रवतीत्येयंरूपेऽर्थे, स्था० 10 ठा०। भ०। त्वात् तथाविधवेश्यादुष्टदासीरण्डिकामुण्डिकाऽऽदीनामिव / (स्त्रियः) | दुहओवंका-स्त्री०(द्विधावक्रा) यस्यां वारद्वयं वक्रं कुर्वन्ति सा तंका जिनदासश्रावकस्य भार्यायाम, सा प्रतिमा प्रतिपन्नस्य स्वपत्युर्देह द्विधावक्रा। इयं चोर्ध्वक्षेत्रादाग्नेयदिशोऽधक्षेत्रे वायव्यदिशि गत्वा य लोहकीलकेन व्यथायाञ्चकार / आ०क० उत्पद्यते तस्य भवति। तथाहि-प्रथमसमये आग्नेयास्तिर्यग्नैर्ऋत्यां याति, दुस्सुय-त्रि०(दुःश्रुत) दुष्ट श्रुतं श्रवणं यत्राऽसौ दुःश्रुतः। दुधश्रुते, प्रश्र०२ ततस्तिर्यगेव वायव्या, ततोऽधो वायव्यामेवेति। त्रिसमयेयं त्ररानाड्या आश्र० द्वार। दुष्ट श्रुतंदुःश्रुतम्। दुष्ट श्रुते, ना आचा०१ श्रु० 4 अ०२ उ०) मध्ये बहिर्वा भवतीति। भ०२५ श०३ उठा श्रेणीभेदे, उभयतो वक्रायां दुस्सेजा-स्त्री०(दुःशय्या) दुःखोत्पादकवसती,भ०१ श०६ उ०। स्थापनायाम्। स्था० 7 ठा०। दुह-न०(दुःख) "दुःखदक्षिणतीर्थे वा' |8|2|72 / इति संयुक्तस्य | दुहट्ट-त्रि०(दुर्घट) दुःस्थगे, उपा०२ अादुरवाष्ये, विपा० 1 श्रु८२ अ० हः। 'दुहं / दुक्खं / ' प्रा०२ पाद / नरके, नरकाऽऽवासे, सूत्र०१ श्रु०५ * दुःखाऽऽर्त-वि० / दुःखपीडिते, ज्ञा०१ श्रु० 1 अ० अ०१ उ०। नरकाऽऽदियातनास्थाने, सूत्र० 1 श्रु० 10 अ० - दुहट्टिय-त्रि०(दुःखार्तित) दुःखयताति दुःखं रोयः, तेन आतः पीडितः दुःखहेतुत्वादसदनुष्टाने, असातवेदनीयोदयात् तीव्रपीडाऽऽत्मके असाते, क्रियते इति दुःखार्तितः / रोगपीडिते, उत्त०२ अ० सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। असातवेदनीयोदये, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ | दुहट्ठ-पुं०(दुःखार्थ) दुःखमेवार्थो यस्मिन् स दुःखार्थः / नरके, सूत्र०१ उ०। पीडायाम, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० / शरीरभनसारननुकूल, श्रु०५ अ०१ उन आचा०१ श्रु०३ अ०१ उादुःखोत्पादके चा सूत्र०१ श्रु०१० अ० दुहण-पु०(द्रुघण) चट्टकरे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / मुद्गर विशेष "विपुलकसा य गाढा चंडा दुहा तिव्वा दुरहियासा।" इति एकार्थाः च। प्रश्न०१ आश्र0 द्वार। उपा०। विपा०१ श्रु०१ अ01 ** दोहन-न०। दोहे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। *दोह-पुं० दुह-कर्मणि धम् / दुग्धे, “संदोहश्वाष्टमेऽहनि।" इति | दुहतोआवत्ता-स्त्री०(द्विधातआवृत्ता) द्वीन्द्रियजीयभेदे, जी० 1 प्रति०। रस्मृतिः / आधारे घञ् / दोहनपात्रे, वाचवा भाव घन / दोहने, दुहलोगपडिणीय-पुं०(द्विधालोकप्रत्यनीक) यौाऽऽदिभिरिन्द्रियागोदोहनरथाने च / वृ०३ उ०। र्थसाधनपरे गतिप्रत्यनीके, भ०८ श० 8 उ०। दुहअ-त्रि०(दुर्हत) दुष्ट हतो दुर्हतः। दुष्टहते, आचा० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। दुहव-त्रि०(दुर्भग) "लुकि दुरो वा'' |8/1 / 115 // इति दुर उपसर्गस्य *द्विहत-त्रिण द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यां हतो द्विहतः। द्वाभ्या हत, आचा० रेफलोपं उत ऊत्वं वा / प्रा०१ पाद। "खघधभाम्" ||8 / 4246 / / 1 श्रु०३ अ०३ उ०॥ इति भस्य हः / "दुर्भगसुभगे वः " ||811162 // इति गस्य वः। दुर्भग-त्रि०ा अल्पभाग्ये, प्रा०१ पाद। 'दुहवो।' दूहव / प्रा० 904 पाद। वाचा त्रि०1 दुष्ट भगं भाग्य यस्या अल्पभाग्ये, पतिस्नेहशून्यायां स्त्रियाम्, स्त्री० / वाच० दुहओ-अव्य०(द्विधा) प्रकारद्वये, आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। रा० दुहविमोयणतर-त्रि०(दुःखविमोचनतर) अतिशयेन दुःखविमोच्ये, भ० सूत्रका उत्तम 16 श०२ उ०। *द्विधातस्-अव्य / द्वयोर्भागयोः, भ० 16 श० 6 उ०। उभयत दुहविवाग-पुं०(दुःखविपाक) पापकर्मफले, विपा०। इत्यस्यार्थे च / दशा० 10 अ० आचा० / "दुहओ गुलित्ता।'' बहि पढमस्स णं भंते ! सुयखंधस्स दुहविवागाणं समणेणं० जाव रन्तश्च गोमयाऽऽदिना लिप्ता / रा० / 'दुहतो संविल्लियमाणिय संपत्तेणं के अट्टे पण्णत्ते? तए णं सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं त्थाण।" द्विधातो द्वयोः पार्श्वयोः संवेल्लितानि अग्रणि यस्यतत् द्विधातः एवं बयासी-एवं खलु जंबू ! समणेणं आइगरेणं०जाव संपत्तेणं संवेल्लितात्रं न्यस्त सामर्थ्यादुत्तरं यैस्ते तथा तेषाम् / रा०। चूर्णित, दे० दुह-विवागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता-"मियउत्ते, उज्झियए, ना०५ वर्ग। अभग्गे सगडे, बहस्सई, नंदी। उंबरें,सोरियदत्ते, य देवदत्ता दुहओउण्णय-त्रि० (द्विधोन्नत) उन्नते, भ०११ श०११ उ० जी०। य अंजू य / / 1 / / " दुहओखहा-स्त्री०(द्विधाखा) उभयतोऽड्कुशाऽऽकारायां श्रेण्याम, (भियछत्ते इत्यादिगाथा) तत्र (मियउत्तेत्ति) मृगपुत्राभिधानराजसुतस्था० 7 ज्ञा० / भ०। नाड्या वामपावाऽऽदे डीः प्रविश्य तथैव गत्वा वक्तव्यताप्रतिबद्धमध्ययनं मृगपुत्र एव / एवं सर्वत्र, नवरम् (उज्झिथए अस्या एव दक्षिणपाऽऽदौ ययोत्पद्यते सा द्विधाखा नाडी, त्ति) उज्झितको नाम सार्थवाहपुत्रः, (अभाग त्ति) सूत्रत्वादभग्नसेनविबहिर्भूतयोमिदक्षिणपार्श्वलक्षणयोर्द्वयोराकाशश्रेण्योस्तया स्पृष्ट जयाभिधानचौरसेनापतिपुत्रः। (सगडे त्ति) शकटाभिधानसार्थत्वादिति: भ०२५ श०३ उ०। अहसुतः। (बहस्सइ त्ति) सूत्रत्वादेव बृहस्पतिदत्तनामा पुरोहितपुत्रः। दुहओणंतय-न०(द्विधाऽनन्तक) सर्वातायाम, स्था०१०टा०। (नदी ति) सूत्रत्वादेव नन्दिवर्द्धनो राजकुमारः। (उंबर त्ति) सूत्रत्वादेव दुहओलोगासंसप्पओग-पुं०(द्विधालोकाऽऽशंसाप्रयोग) भवेया- | उम्बरदत्तो नाम सार्थवाहसुतः / (सोरियदत्ते त्ति) सौरिफदत्तो
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________________ दुहविवाग 2603 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दुहिल नाम मत्रराबन्धपुत्रः / चशब्दः समुच्चये। (देवदत्ता यति) देवदत्ता नाम रेकेणाऽऽसेवनाभिमुखतयेति। मनश्चित्तमुद्यावचमसमञ्जस, निर्गच्छति गृहपतिसुता। चः समुच्चये। अजूनाम सार्थवाहसुता। चशब्दः समुच्चये। निर्याति, करोतीत्यर्थः / ततो विनिपातं धर्मभ्रशं संसार या आपद्यते, इति गाथासमासार्थः / विपा०१ श्रु०१ अ० स०। 'न हि दुक्खवि- एबमसी श्रामण्यशय्यायां दुःखमारते इत्येका / तथा केन स्वकीयेन वागाहिं, उववण्णाहिं तहिं तहिं / न य जीवो अजीवो उ, कयपुट्यो उ लभ्यते लम्भनं वेति लाभोऽन्नादिरन्नाऽऽदेर्वा, तेन आशां करोत्याशयति चितए।।१।" द०प०। स नून में दास्यतीत्येवमिमि / आस्वादयति वा लभते चेत् तद् भुक्ते। दुहवेयणतर-त्रि०(दुःखवेदनतर) अतिशयेन दुःखवेद्ये, भ०१६ श०२ उ०। एवं स्पृहयति वाञ्छति, प्रार्थयति याचते, अभिलषतिलब्धेऽप्यधिकतरं दुहसयविवाग-पुं०(दुःखशतविपाक) दुःखशतरूपे कर्मफले प्रश्न० वाञ्छत्तीत्यर्थः / शेषमुक्तार्थमवमप्यसौ दुःखमास्ते इति द्वितीया। तृतीया 3 आश्र० द्वार। कण्ठ्या / अगारवासो गृहवासस्तमावसामि,तत्र वर्ते सम्बाधनं शरीरस्यास्थिसुखत्वाऽऽदिना नैपुण्येन मर्दनविशेषः, परिमर्दनं तु दुहसिज्जा-स्त्री०(दुःखशय्या) शेरते आस्विति शय्याः दुःखदाः शय्या घृष्टाऽऽदेर्मलनमात्रम, परिशब्दस्य धात्वर्थमात्रवृत्तित्वात्, गात्राभ्यदुःशय्याः पान गस्तैलाऽऽदिनाऽङ्ग म्रक्षण, गात्रोत्क्षालनमङ्ग धावनमेतानि लभेत चत्तारि दुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-तत्थ खलुइमा पढमा कश्चिन्निषेधयतीति / शेष कण्ठ्यमिति चतुर्थी / स्था० 4 ठा०३ उ०। दुहसेज्जा-से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए घ०। आचा निग्गंथे पावयणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे निग्गंथं पावयणं णो सद्दहइ, णो पत्तियइ, णो दुहसेज्जा-स्त्री० (दुःखशय्या) 'दुहसिज्जा' शब्दार्थे, स्था० 4 ठा०३उ०॥ रोएइ, निग्गथं पावयणं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावचं नियच्छइ, विणिवायमावज्जइ, पढमा दुहसेज्जा। दुहा-स्त्री०(द्विधा) प्रकारद्वये, आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। ध०॥पञ्चा० / अहावरा दोच्चा दुहसेज्जा-से णं मुंडे भक्तिा अगाराओ अण-- *द्विविध-त्रिका द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधः। द्विप्रकारे, सूत्र०१ श्रु० ७अ० गारियं पव्वइए,एस णं लाभेणं णो तुस्सइ, परस्स लाभपासाएइ, पीहेइ, पत्थेइ, अभिलसइ, परस्स लाभमासाएमाणे० जाव दुहापडिबद्ध-त्रि०(द्विधाप्रतिबद्ध) ( 'पवजा' शब्देऽस्य व्याख्या) अभिलसमाणे मणं उच्चावयं ति विणिवायमावज्जइ, दोच्चा द्विप्रकारेण बढे, स्था०३ ठा०२ उ०। दुहसेज्जा। अहावरा तच्चा दुहसेज्जा–से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ दुहाव-धा०(छिद) रुधा०-उभ०-सक०-अनिट् / द्वैधीकरणे, वाचा अणगारियं पव्वइए दिव्वे माणुस्सए कामभोगे आसाएमाणे०जाव "छिदेर्दुहावणिच्छबल्ले" ||814/124|| इत्यादिना छिदेर्दु-हावाऽऽदेशे अभिलसाणे मणं उच्चावचं णियच्छइ, विणिवायमावज्जइ, तच्चा 'दुहावइ / ' प्रा०४ पाद / छिनत्ति / छिन्ते / अच्छत्सीत्, अच्छिदत् / दुहसेज्जा। अहावरा चउत्था दुहसेज्जासे णं मुंडे भवित्ताजाव अच्छित्। छिदा / वाचा पव्वइए, तस्स णमेवं भवइ-जया णं अहमगारवासमावसामि दुहावह-त्रि०(दुःखावह) दुःखमावहतीति। दुःखोपार्जक, नि०चू०१उ०। तथा णमई संवाहणपरिसहणगाउभंगगाउच्छोलणाई लभामि, दुःखदायके, उत्तका "सव्वे कामा दुहावहा।" सर्वे कामाः शब्दाऽऽदयो जप्पभिई च णं अहं मुंडे भवित्ता०जाव पव्वइए, तप्पभिई च ण | दुःखाऽऽवहाः मृगाऽऽदीनामिव यतो दुःखावाप्तिहेतुत्वान्मत्सरेाविषाअहं संवाहण० जाव गाउच्छोलणाई आसाएमिजाव अभिलसइ, दाऽऽदिभिश्चित्तव्याकुलत्वोत्पादकत्वान्नरकाऽऽदिहेतुत्वाचेति / उत्त० से णं संवाहणजाव गाउच्छोलणाई आसाएमाणे० जाव मणं पाई०१३ अ० सूत्रा उच्चावचं नियच्छइ, विणिवायमावज्जइ, चउत्था दुहसेज्जा। दुहावास-पुं०(दुःखाऽऽवास) नरकाऽऽदिषु, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। (चत्तारीत्यादि) चतस्रश्चतुःसंख्या दुःखदाः शय्याः दुःखशय्याः, ताश्च दुहि(ण)-पुं०(दुःखिन्) दुःखयुक्ते, सूत्र० दी०१ श्रु०१ अ०३ उ०। द्रव्यतोऽतथाविधखट्टाऽऽदिरूपाः भावतस्तु दुःस्थचितया दुःश्रमण उत्त०। आ०म० स्वभावाः प्रवचनाश्रद्धानपरलाभप्रार्थनकामाऽऽशंसन-स्नानाऽऽदिप्रा- दुहिअय-त्रि०(दुःखित) 'स्वार्थ कश्वा वा / / 8 / 2 / 164 / / इति कः / र्थनविशेषिताः प्रज्ञप्ताः सूत्रे इति। तासु मध्ये सकश्चिद गुरुकर्मा, अथार्थी 'दुहिअए. महियअए।' संजातदुःखे, प्रा०२पाद। वाऽयम, स च वाक्योपक्षेपे, प्रवचने शासने, दीर्घत्वं च प्रकटाऽऽदि- | दुहिय-त्रि०(दुःखित) दुःखं संजातमस्येतिदुःखितः। सजातदुःखे, उत्त० त्वादिति / शकित एकभावविषयसंशये संयुक्तः, काक्षितो मतान्तर- | 6 अ० 'दुक्खिय' शब्दार्थे च। प्रा० २पाद। मपि साध्विांतेबुद्धिः, विचिकित्सतः फल प्रति शङ्कावान्, भेदसमापन्ना दुहिया-स्त्री०(दुहिता) "स्वस्रादेह" / / 8 / 3 / 35 / / इति दुहितृशबुद्धेर्दैवीभावाऽऽपन्न:-- एवमिदं सर्वजिनशासनाक्तम्? अन्यथा वेति। ब्दाद् डाप्रत्ययः, 'दुहियाडि।' प्रा०३ पाद / दुहितुः पतिः / अलुक्कलुषसमापन्ना नैतदेवमिति विपर्यस्त इति। न श्रद्धत्ते सामान्यनैवमिद- समासः / जामातरि, वाच०। आ०म०। मिति नो प्रत्येति प्रतिपद्यते प्रीतिद्वारेण, नो रोचयति अभिलाषाति- | दुहिल-न०(द्रुहिल) द्रोहस्वभाव द्रुहिलम्।
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________________ दुहिल 2604 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दूइ यथा द्विधा / तद्यथा-प्रकटा, छन्नाचा तत्र सा तव माता, स च तव पिता एवं "यरय बुद्धिर्न लिप्येत, हत्त्वा सर्वमिदं जगत्। भणति संदेश कथयति, सा प्रकटा। या ततं संदेश छन्त्रवचनेन कथयति आकाशमिव पड्केन,नासौ पापेन युज्यते / / 1 / / सा छन्ना। कलुष बा द्रुहिलं, समता पुण्यपापयोः / " आ०म० 1 अ०२ एनमेवार्थं च सविशेष व्यक्तीकरोति-- खण्ड। पुण्यपापलपनाऽऽदौ, बृ०१उ०। एकेका वि य दुविहा, पागड छन्ना य छन्न दुविहा उ। यथा लोगुत्तरें तत्थेगा, वीया पुण उभयपक्खे वि।। "एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः। इह दूतीसमाचरणमपि दूती, साऽपि चैकै का स्वग्रामविषया, परभद्रे ! वृकपद पश्य, यवदन्त्यबहुश्रुताः।।१।। ग्रामविषया च द्विधा / तद्यथा-प्रकटा, छन्ना च। तत्र छन्ना पुनरपि द्विधा / पिव खादच जातु शोभने !, यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते।। तद्यथा- एका लोकोत्तरे लोकोत्तर एव, द्वितीयसंघाटकसाधोरपि गुप्ता न हि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् // 2 // " इत्यर्थः / द्वितीया पुनरुभयपक्षेऽपि लोकोत्तरे वा, पार्श्ववर्तिनो जनस्य इत्यादि वेदवचनाऽऽदिवत्तथाविधयुक्तिरहितम्। अनु०। संघाटकसत्कद्वितीयसाधोरपि च गुप्तेति भावः। दुहोवणीय-त्रि० (दुःखोपनीत) सामीप्येन प्राप्तदुःखे, दश० 1 चू०। तत्र स्वग्रामपरग्रामविषयां प्रकटां दूतीमाहदुःखेन पीडयोपनीतान्युचारितानि दुःखोपनीतानि। पीडयोसरितषु, न०। भिक्खाई वचंतो, अप्पाहणि नेइ खंतियाईणं / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। सा ते अमुगं माया, सो य पिया ते इमं भणइ / / दूअ-पुं०(दूत) अन्येषां गत्वा राजाऽऽदेशनिवेदके, कल्प०१ अधि० / भिक्षाऽऽदौ भिक्षाऽऽदिनिमित्तं चेत्यर्थः, वजन, तस्यैव ग्रामस्य सत्के, ३क्षण। संघाटकान्तरे परनामे वा (खंतियाईणं) जनन्यादीनाम् / (अप्पाहणिं) दूइज्जंत-त्रि०(दूयमान) गच्छति, व्य०८उ० संदेशं कथयति / यथा सा ते माता अमुकं भणति, स वा ने पिता इदं भणति। *द्रवत्-त्रि० / ग्रामानुग्रामं गच्छति, "दूइज्जता दुविधा, णिकारणिगा तहेव कारणिगा। असिवादी कारणिगा, वक्के मूलाइया इतरे / / 1 / / " संप्रति स्वग्रामपरग्रामविषयां लोकोत्तरे छन्नां दूतीमाहवृ०५ उ०। दूइत्तं खु गरहियं, अप्पाहिउ विइयपचया भणइ। दूइज्जंतग-पुं०(दूइजन्तक) मोराकसन्निवेशरथेषु स्वनामख्यातेषु अविकोविया सुया ते, जा इह इमं भणसु खंतिं / / पाखण्डिषु, 'तत्श मोराए दूइज्जतगा नाम पासंडा, तेसिं तत्थ कोऽपि साधुः कस्याश्चित पुत्रिकाया अप्पाहितः संदिष्टः सन एवं आवासो / '" स्वनामख्याते तेषामधिपती, भगवतो महावीरस्य पितुः चिन्तयतिदूतीत्व खलु गर्हित.सावद्यत्वात्, तत एवं विचिन्त्य द्वितीयसिद्धार्थकस्य वयस्ये, मित्रे च / आ०म० मोराकसंनिवेशं प्राप्तस्य प्रत्ययाद् द्वितीयसंघाटकसाधु दूतीदोषदुष्ट सीदयत्येवमर्थ (तन्निवासी दूइज्जन्तकाभिधानपाखण्डस्थो दूइज्जन्तक एवोच्यते) भङ्गयन्तरेणेदं भणति-यथा अविकोविदा अकुशला जिनशासने सा तव पितुः सिद्धार्थस्य वयस्यो मित्रं स भगवन्तमभिवाद्य वसतिं दत्तवानिति। सुता, या इह इदं भणमदीयां खन्तीं जननीमिति / साऽप्यवगतार्थआ०म०१अ०२खण्ड। आ०चू। संदेशका द्वितीयसंघाटकसाधुचित्तरक्षणार्थमेवं भणतिवारयिष्यामि तां दूइजमाण-त्रि०(दूयमान) विहरति, धातूनामनेकार्थत्वात् / आचा०२ निजसुतां येन पुनरेवं न संदिशतीति। श्रु०१चू० 104 उ० संप्रति स्वग्रामपरग्रामविषयामुभयपक्षप्रच्छन्नां दूतीमाह*द्रवत्-त्रि० / गच्छति, औ०रा०विपा०ा ज्ञा०। आचा० अ०। उभए वि य पच्छन्ना, खंत कहेजाहि खंतियाएँ तुमं / दूइजित्तय-अव्य०(द्रोतुम्) विहर्तुमित्यर्थे , स्था०५ ठा० २उ०। तं तह संजायं ति य, तहेव अह तं करेज्जासि / / 'गामाणुगाम दुइज्जित्तए त्ति / " गामानुग्राम हिण्डितुम् / कल्प० 3 उभयस्मिन्नपि च लोकलोकोत्तररूपे पक्षे प्रच्छन्ना दूती इयं यथा (खंत अधि०६क्षण। त्ति) विभक्तिलोपात् खन्तस्य पितुः, अथवा खन्तिकाया जनन्यास्त्वं दुइपलासय-न०(दूतिपलाशक) वाणिजक्यामे स्वनामख्याते चैत्ये, यत्र कथय-यथा तद्विदितं विवक्षितं कार्यं तथैव संजातम् / अथवा-तद् श्रीमहावीरस्वामी समवसृतः। भ०१० श०३ उ०। आ०चू०| विवक्षितं तथैव कुर्यात्। दूई-स्त्री०(दूती) परस्परसंदिष्टार्थकथिका दूती / पिं० 1 द्वितीये संप्रति प्रकटपरग्रामदूतीमाश्रित्य दोषान् दृष्टान्तेनोपदर्शयतिउत्पादनदोषे, स्था०३ ठा०४ उ०। गामाण दोण्ह वेरं, सेञ्जायरि बूय तत्थ खंतस्स। दूतीपिण्डो यथा बहुपरियणखंतऽभ-त्थणं च नाए कए जुद्धं / / सग्गामें परग्गासे, दुविहा दूई उ होइ नायव्वा / जामाइपुत्तपतिमा-रणं च केई कहिंति जणवाओ। सा वा सो वा पभणइ, भणई तं छन्नवयण / / जामाइपुत्तपइमा-रणं च खंतेण मे सिटुं / / इह दूती द्विधा / तद्यथा- रवग्रामे,परनामे च / तत्र यस्मिन् ग्रामे | विस्तीणों नाम ग्रामः, तस्योपकण्ठे गोकुलाभिधो ग्रामः, साधुर्वसति तस्मिन्नेव ग्रामे यदि संदेशककथिका, ताहे सा स्वग्रामदूती। | विस्तीर्णग्रामे च धनदत्तो नाम कुटुम्बी, तस्य भार्या प्रियमती, तस्या या तु परग्रामे गत्वा संदेश कथयति, सा परग्राम दूती / एकैकाऽपि च / दुहिता देवका, सा च तस्मिन्नेव ग्रामे सुन्दरेण परिणीता, तस्याः
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________________ 2605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दूरालइय पुत्रो बलिष्टा, दुहिता रेवती। सा च गोकुलग्रामे संगमेन परिणीता, प्रियमती दूतविज्जा-रत्री०(दूतविद्या) विद्याभेदे, व्य०१ उ०। काचिद दूतविद्या स्वाऽऽयुःक्षयात् पञ्चत्वमुपगता, धनदत्तोऽपि संसारभयभीतः प्रव्रज्याम- भवति, तया च दूतविद्यया यो दूत आगच्छति, तस्य दंशस्थानमापद्यते, ग्रहीत. गुरुभिश्च सार्द्ध विहरति। ततः कालान्तरे पुनरपि यथाविहारक्रम सेनेतरस्य दशस्थानमुपशाम्यति। व्य०५ उ०। तत्रैव ग्रामे समागतो निजदुहितुर्देवक्या वसतावस्थात् / तदानीं च दूभगसत्ता-रत्री० (दुर्भगसत्त्वा) दुर्भगः सत्त्वः प्राणी यस्याः सा तथा / तयोर्द्वयोरपि ग्रामयोः परस्परं नरं वर्तते स्म / विस्तीर्णग्रामवासिना च दुर्भगप्राणिकायां योषिति, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ गोकुलेन गाकुलग्रामस्योपरि धाटी सूत्रिता, धनदत्तश्व तन्निवारणाय ग्रामे दूभगनिंबोलिया-स्त्री०(दुर्भगनिम्बगुलिका) निम्बगुलिकेव निम्बभिक्षायै व्रजितवास्ततो देवक्या दुहित्र्या शय्यातर्या भणितः यथा हे पितः ! फलमिन अत्यनादेयत्वसाधाद् दुर्भगानां मध्ये निम्बगुलिका त्वं गोकुलग्रामे यास्यसि, ततो निजदौहित्र्या रेवत्याः कथययथा तव दुर्भगनिम्बगुलिका। दुर्भगत्वाग्निम्बगुलिकावदनादेयायाम, ज्ञा० 1 श्रु० जनन्या सदिष्टम-अयं ग्रामस्योपरि छन्त्रधाट्या सभागमिष्यति, ततः १६अ। सकलमपि स्वकीयभकान्ते स्थापयेरिति / ततः साधुना मिव तस्यै *दुर्भगनिर्वोलिता-स्त्री० / दुर्भगानां मध्ये निर्वोलिता निर्मथिता कथितं, त्या च निजभतुः तेन च सकलग्रामस्य कथितम्। ततः सर्वोऽपि निमज्जिता दुर्भगनिर्वोलिता। दुर्भगाना मध्ये निमज्जितायाम, ज्ञा०१ श्रु० गामः सनद्धबद्धक वचो ऽभवत्, आगतश्च द्वितीय दिने धाट्या 16 अ०॥ विस्तीर्णन मो, जातं परस्परं महद्युद्धम् तत्र सुन्दरो बलिष्ठश्च धाट्या सह दूमग-वि० (दाबक) उपतापके, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। गता, संगमश्च गोकुलगामे वसति, त्रयोऽपि च युद्धे पञ्चत्वमुपजग्मुः, देवकी च पतिपुत्रनाभातृमरणमाकर्ण्य विलपितुं प्रावर्तिष्ट, लोकश्च तन्निवारणाय दूमण-न०(दवन) उपतापने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / समागतोऽवादीत्-यदि गोकुलग्रामो धाटीमागच्छन्ती नाज्ञास्यत, *धक्लन-न० / श्वेतकिरणे, व्य०४ उ०। तताऽस-बद्धो वायोत्स्यत् / तथा च न पत्यादयो मियेरन् / ततः केन *दुर्मनस्-त्रि० ।न०। दुष्टमनसि, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० २उ०। दुरात्मना गाकुलग्रामो ज्ञापितः? एतच्च लोकस्य वचः श्रुत्वा संजातकोपा दूमिअ-त्रि०(धवलित)"धवलेर्दुमः" ||14|24|| इति धवलयतेरौवगवादीन मया अजानन्त्या पितादुहितुः संदिष्ट ततस्तेन साधुवेष- पर्यन्तस्य दुमादेश "स्वराणां स्वरा बहुलम्' ||8||238 // इति विडम्बकेन मत्पतिपुत्रजामातृमारकेण पित्रा ज्ञापितः / ततः स लोके दीर्घत्वम्। 'दूमिआ प्रा०४ पाद। सेट्यादिना श्वेतीकृते,ध०३ अधि०। रथाने स्थाने धिक्कार लभते, प्रवचनस्य च मालिन्यमुदपादि। सूत्र सुगगग। कल्प। ज्ञा०ा निचूलादूमिया नाम सुकुमारलेपेन सुकुमारीकृतकुड्या, पिंगा पञ्चा०। ध० ग०। दर्शा नि००दूतनिश्रायां च / व०१ उ०। सेटिकया धवलीकृता वा। बृ०१ उ०॥ दूईपिंड-पुं०(दूतीपिण्ड) कार्वसङ्घटनाय दूत्यं विधत इति दूतीपिण्डः। दूमिय-वि०(धवलित) 'दूमिअ' शब्दार्थे, प्रा०४ पाद। द्वितीये उत्पादनादोषे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०) दूय-पुं०(दूत) अन्येषां गत्वा राजाऽऽदेशनिवेदके, भ०७ श०६उ०। औ०। जे भिक्खू दुईपिंडं भुंजइ, भुजंतं वा साइजइ // 6 // दूयकम्म-न०(दूतकर्म) द्वितीये उत्पादनादोषे, उत्त० 24 अ०। यदा गिहिसंदे सगं णेति, आणेति वा, जं तण्णिमित्तं पिड लभति, सो | गृहस्थगृहे गुप्तप्रकटसमाचारान् स्वजनाऽऽदीनां कथयित्वाऽऽहारं गृह्णाति दूतीपिंडा तदा दूत्तकर्माऽऽख्यो द्वितीयो दोषः / उत्त०। 24 अ०। गाहा दूयपलास-न०(दूतपलाश) वाणिजक ग्रामनगरस्येशानकोणे स्वजे भिक्खू दूतिपिंडं, गेण्हेज सयं तु अहव सातिज्जे / नामख्याते चैत्ये, उपा० 110 सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे।।१३६|| दूयविज्जा-स्त्री०(दूतविद्या) विद्याभेदे, व्य०१ उ०। अप्पणा गेण्हति, अण्णं वा गेण्हतं अणुजाणाति, तस्रा आणादिया | दूर-त्रि०(दूर) विप्रकृष्टे, भ०१ श०१उ०। नि०चू०। अगोचरे च / भ०२ दोसा, चउलहुं च पच्छित्त। श०१ उ०ा विप्रकर्षे , ज्ञा०१ श्रु०१ श्रु०१ अ० नि०। अत्यर्थे च / स०। (अवेतन्पाठस्तु पिण्डनियुक्तिपाटतो गतार्थः) दीर्घकाले, दूरवर्तित्वान्मोक्षे च। पुं०। सूत्र०१ श्रु०२अ०२उ०। नवरं विनियपदे इमेहि कारणेहि करेज्जा दूरगइय-वि०(दूरगतिक) सौधर्माऽऽदिगतिकेषु , स्था०८ ठा०। असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे / दूरपाय-न०(दूरपात) दूरात्पतने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अद्धाणरोहए वा, कुजा तं वा वि जयणाए।१४२।। दूरय-त्रि०(दूरग) असमीपवर्तिनि, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२०॥ पूर्ववत कण्ट्धः / नि०यू०१३ उ०॥ दूरसुचंत-त्रि०(दूरश्रूयमाण) दूरे श्रूयमाणे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दूण-(देशी हस्तिनि, देना०५ वर्ग 44 गाथा। दूरालइय-त्रि०(दूरालयिक) दूरालयो मोक्षस्तन्मार्गो वा, स विद्यते दूत-पुं०(दूरा) अन्येषां ज्ञात्वा राजाऽऽदेशनिवेदके, औला रा०कल्पा यस्येति मत्वर्थीयष्ठन्, दूरालयिकः / मोक्षगामिनि, आचा०१ श्रु०३ ज्ञा०म० अ०३ उन
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________________ दूरालय 2606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दूसियपंडग दूरालय-पुं०(दूरालय) मोक्षे, मोक्षमार्गे च। आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०।। आस्तरकाऽऽदयोऽल्परोमयुक्ता बहुरोमयुक्ता वा ते सर्वेऽप्यन्तर्भवति / दूरल्ल-त्रि०(दूरवत्) दूरस्थे, आव०४ अ०) यदुक्तं निशीथचूर्णी- "जे य वड्डा अत्थरगा इचाइमाण-भेदा मउरोमा दूरुहइत्ता-अव्य०(दुरारुह्य) दुष्टमारुह्येत्यर्थे, उपा०२ अ०। उन्भूतरोमा वा, ते सव्ये इत्थ निवयंति ति।" (वडाअत्थरण नि) यः दूरुहमाणी-स्त्री०(दुरारोहन्ती) दुष्टभारोहन्त्याम, दश० 5 अ०१उ०। किल उष्ट्रोपरि न्यस्यते / तथा कोयविको रुतपूरितः पटः, बरुढीति दूस-धा०(दुष) दिवा०-पर०-अक०-अनिट् / वैकृत्ये, याचा यदुच्यते।ये चान्ये उल्ल्वणरोमाणो नेपालकम्बलप्रभृतयस्ते सर्वेऽत्रान्त"रुषाऽऽदीनां दीर्घ:"||४१२३५।। इति स्वरस्य दीर्घः / भवन्ति। उक्तं च -"जे अन्ने एवमाइभेदा उल्लणरोमा कंवलगादिते सव्वे 'दूसइ।' प्रा०४ पाद। दुष्यति / अदुषत्। अदुध्यत् / वाच०। इत्थ निवयंति।" तथा-दृढगालिधौतिपोतिका ब्राह्मणाना संबन्धि *दूष्य-ना तन्तुसन्तानसंम्भवे, ज०२ वक्षमा वस्खे, ज्ञा० 1 श्रु०१ सदशपरिधानवस्त्र-मित्यर्थः। ये चान्ये द्विसरसूत्रपटीप्रभृतयो भेदास्ते अ० / उत्ता आचा०। आ०म०नि०चू आच्छादनवस्त्रे, औ०। वस्खजालो, सर्वेऽत्र निपतन्ति। उक्तं च - ''विरलिमाई भूरिभेदा सव्वे एत्थ निवयंति जी०३ प्रति०४ उ०। चीवाशुकाऽऽदौ च / सूत्र०२ श्रु०२ अ० प्रव०। त्ति।" (विरलिमादित्ति) दोरियाप्रमुखा, शेषौ च प्रावारकतवकलक्षणी दूसंतर-न०(दूष्यन्तर) वस्त्ररचितभित्त्यन्तरे, उत्त०१६ अ०। प्रसिद्धावेव भेदौ। तत्र प्रावरकः सलोमकः पटः। स चमाणिकाप्रभृतिकः। दूसगणि (ण)-पुं०(दूष्यगणिन) नन्द्यध्ययनकर्तुर्देववाचकस्य अन्ये तु प्रावारको बृहत्कम्बलः परियत्थिर्वेत्याहुः / प्रव०८ द्वार। वृ०॥ स्वनामख्याते गुरौ, नं० अप्रतिलेखितष्यपञ्चके चैकाशनकम्। त्रसवधेऽपि तदेव प्रायश्चित्तम्। जीता दूसण-न०(दूषण) दूष-णिच-ल्युट्। कलड़े, तं०। रावणरय मातृष्वरप्रेये भातरि च / वाचा दूसमा-रत्री०(दुःषमा) 'दुसमा' शब्दार्थे , भ०६ श०६ उ०। दूसपट्टपरिपूय-न०(दूष्यपट्टपूरिपूत) वरवपट्टगालिते. त०। दूसमित्त-पुं०(दूष्यमित्र) पाटलिपुत्रे मौर्यवंशनाशे सत्यभिषिक्त दूसपणग-न०(दूष्यपञ्चक) वस्त्रपञ्चके, दशा स्वनामख्याते राजनि, ती०२० कल्प। दुविहं च दूसपणगं, समासओ तं पि होइ नायव्वं / दूसरणाम-न०(दुःस्वरनाम) 'दुसरणाम' शब्दार्थे, कर्म०६ कर्म०। अप्पडिलेहिय दूसं, दुप्पडिलेहं च विण्णेयं ।।दा दश०१०।। दूसरयण-न०(दूष्यरत्न) प्रधानवस्त्रे, द्वा०१ श्रु०१ श० कल्प० औ०। अप्पडिलेहियदूसे, तूली उवहाणय च णायव्वं / दूसल-(देशी) दुर्भगे, दे०ना० 5 वर्ग 43 गाथा। गंडुवधाणाऽऽलिंगिणि, मसूरए चेव पोत्तमए // 684|| दूसह-पुं०(दुस्सह) 'दुसह' शब्दार्थे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। दुष्यं वस्त्रं तद् द्विविधम् / अप्रत्युपेक्ष्यं, दुष्प्रत्युपेक्षं च। तत्र यत्सर्व दूसासण-पुं०(दुःशासन) "लुप्तयरवशषसां शषसां दीर्घः" थाऽपि न प्रत्युपेक्षित शक्यते तदप्रत्युपेक्ष्यम्, यच्च सम्यक् न शक्यते 1811 / 43 // इति प्राकृतलक्षणवशादुपरि लुप्तशकारस्य शस्याऽऽदेः प्रत्युपेक्षितुं तद् दुःप्रत्युपेक्ष्यम्। तत्र अप्रत्युपेक्षित-दूष्यपक्षक यथा स्वरस्य दीर्घः। 'दूसासणे।' प्रा०१पाद। सनामख्याते दुर्योधनभ्रातरि, तूलीसुसंस्कृतो रूतभृतोऽर्कतूलाऽऽदिभृतो वा विस्तीर्णः शयनीयविशेषः। वाचा तथा उपधानकं हंसरोमाऽऽदिपूर्णमुच्छीर्षकम्।तथा उपधानकस्योपरि | दूसिय-त्रि०(दूषित) दत्तदूषणे, प्राप्तदूषणे, अभिशस्ते, मैथुनापवादकपोलप्रदेशे या दीयते सा गण्डोपधानिका, गल्लमसूरिकेत्यर्थः / तथा | युक्ते, वाच०। औ०। जानुकूर्पराऽऽदिषु या दीयतेसा आलिड्निो / तथा वस्वकृत चर्मकृतं वा | दूसियपंडग-पुं०(दूषितपण्डक) पण्डकभेदे, दूषितपण्डको द्विविधःवृत्तं रूताऽऽदिपूर्णमासनं मसूरकः / एतानि सर्वाण्यपि पोतमयानि आसिक्तः, उपसिक्तश्च / बृ० / उपघातपण्डकोऽपि द्विविधोवदोपधाते, वस्वभयानि प्रायेणेति। उपकरणोपधाते च। अथ दुष्प्रत्युपेक्षितपक्षकमाह तत्र दूषितं पण्डक तावद्व्याख्यानयतिपल्हवि कोयवि पावारग तवए तह य दाढगालीय।। दूसियवेओ दूसिय, दोसु वि वेएसु सज्जए दूसी। दुप्पडिलेहियदूसे, एयं वीयं भवे पणगं / / 685 / / दूसेति सेसवेदो, दोसु व सेविज्जए दूसी। पहविः, कोयविः, प्रावारकः, तवक, तथा दृढगालिच, एतद् दुष्प्रत्यु- दूषितो वेदो यस्य स दूषितवेदः,एष दूषित उच्यते। द्वयोर्वा नपुंसकपेक्षितदूष्यविषयं द्वितीयं पञ्चकं भवेत्। पुरुषवेदयोः, अथवा नपुंसकस्त्रीवेदयोर्यः सञ्जयति प्रसङ्ग करोति, स अशैतदेव व्याख्यानयन्नाह प्राकृतशैल्या दूषी भण्यते। यो वा शेषौ स्त्रीपुरुषवेदौ दूषयति निन्दति स पल्हवि हत्थुत्थरणं, कोयविओ रूयपूरिओ पडओ। दूषी, द्वाभ्यां वा-आस्यकपोलकाभ्यां यः सेव्यते, सेवते वा स दूषी। दढगालि धोयपोती, सेस पसिद्धा भये भेदा॥६८६।। अस्यैव भेदानाहपह्नविर्हस्त्यास्तरणं हस्तिनः पृष्ठे यदास्तीर्यत, खरड इत्यर्थः / ये चान्ये आसित्तो ऊसित्तो, दुविहो दूसी उहोइ नायव्वो।
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________________ दूसियमग 2607 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देव आसित्तो सावच्चो, अणवच्चो होइ ऊसित्तो।। रा दूषी द्विविधो ज्ञातव्यो भवति-आसिक्तः, उपसिक्तश्च / आसिक्तो | नाम-सापत्यो यस्यापत्यमुत्पद्यते, सबीज इति भावः / यस्तु निरप-- त्योऽपत्योत्पादने सामर्थ्यविकलो, निर्वीज इत्यर्थः। स उपसिक्ता उच्यते। बृ० 4 उ०। नि००। पं०भा० / पं०चू० दूसिया-स्त्री०(दूषिका) दूषयति नेत्रं क्लिन्नं करोति। दूष-णिच्–ण्वुल् वाचा नेत्रयोर्मले, नि०चू०३ उ०। रथा०। दूसहल-(देशी) दुर्भगे, देवना०५ वर्ग 43 गाथा। दूहट्ट-(देशी) लञ्जादुर्भनसि, देवना०५ वर्ग 48 गाथा। दूहव-त्रि०(दुर्भग)"उत्वे दुर्भगसुभगे वः" ||16|| इति गस्य वः। 'दूहयो।' अल्पभाग्ये, प्रा०१ पाद। दे-अव्य०(दे) "दे संमुखीकरणे च / " ||8/2 / 196|| संमुखीकरण संख्या आमन्त्रणे च दे इति प्रत्युज्यते / "दे पसिअ ताव सुंदरि ! दे आपसिअ निअत्तसु।" प्रा०२ पाद। देअर-पुं०(देवर) "कगचजतदपयवां०- ||11:177 / / इत्यादिना वलुक। 'देअरो।' प्रा०१ पाद। वाच० अनु०। देउल-न०(दिवकुल) "यावत्तावजीविताऽऽवर्तमानाऽऽवटप्रावारकदेवकुलैव-मेवेवः" ||8/2 / 271 / / इति सव्वरस्य वकारस्यान्तर्वर्तमानस्य वा लुक्। 'देउलं / प्रा०२ पाद / देवन्थाने, आ०म०१ अ० खण्ड। रा०। देउलदरिसण-न०(देवकुलदर्शन) देवप्रतिमादर्शन, पिं०। देउलिया-स्त्री०(देवकुलिका) यक्षाऽऽदीनामावतने, बृ०१ उ०२ प्रक० / देवकुलपरिपालके, ना ओघ०| देख-धा०(दृश) भ्वा०-पर०-सक०–अनिट् / चाक्षुषज्ञाने, वाचा "दृशो नियच्छपेच्छ०-"|४१८१|| इत्यादिना देवखाऽऽदेशः। 'देवखइ।' प्रा०४ पाद / पश्यति। अदर्शत्। अद्राक्षीत् / वाचा देज्ज-त्रि०(देय) दातुं योग्ये, षो० 12 विव०।। देप्पिणु-अव्य०(दत्त्वा) "एप्प्येप्पिएवेव्ये विणवः" ||8|4|440 // इत्यपभ्रंशे क्त्वाप्रत्ययस्यैपिग्वादेशः / दानं कृत्वेत्यर्थे , 'जेप्पि असेसु कसायबलु, देप्पिणु अभउ जयरसु। प्रा०४ पाद। अशेषकषायबलं जित्वा जगतोऽभयं दत्त्वा / प्रा० दु० 4 पाद। देयड-पुं०(दृतिकार) शिल्पाऽऽचार्यभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। ज्ञा०। देर-न०(द्वार) "द्वारे वा" ||811176 / / इति द्वारशब्दे आत एद्वा। 'देर।' वक्षे-दुआरं। दारं / वारं।' निर्गमप्रवेशमुखे, प्रा० 1 पाद। देलमहत्तर-पुं०(देलमहत्तर) सूराऽऽचार्यशिष्ये दुर्गस्वामिगुरौ, अय माचार्योज्योतिर्निमित्तशास्त्रेषु अतिविद्वानासीत् / जै०इ०॥ देव-पुं०-न०(देव) "गुणाऽऽदयःक्लीबे वा" ||8/1 / 34 // इति वा क्लीबत्वम्। 'देवाणि / ' देवाः / प्रा०१ पाद / दीव्यन्ति निरुपमकीडामनुभवन्तीति देवाः। नं० दश०स्था०ा दयिन्ति यथेच्छ क्रीडन्तीति देवाः / आ०म०१०१ खण्ड। प्रज्ञा०। स्था०ा दीव्यन्ति स्वरूपे इति देवाः। अ६०२६ अष्ट तओ ठाणाई देवे पीहेज्जा / तं जहा- माणुस्सगं भवं, आरिए खेत्ते जम्म, सुकुलपञ्चायाई। (पीहेज़ ति) स्पृहयेदभिलपेत् / आर्यक्षेत्रमर्द्धमर्द्धषत्रिंशतिजनपदालामन्यतरं मगधाऽऽदिसुकुले इक्ष्वाक्कादौ देवलोकात्प्रति निवृत्तस्याजातिर्जन्म, आयातिर्वा आगतिः, सुकुलप्रत्याजातिः, सुकुलप्रत्यायातिर्वा, तामिति। स्था० 3 ठा० 3 उ०। (देवपरितापः परिताव' शब्द वक्ष्यते) इथेएहिं तिहिं ठाणेहिं देवे चइस्सामि त्ति जाणइ-विमाणाभरणाई णिप्पभाई पासित्ता, कप्परुक्खगं मिलायमाणं पासित्ता, अप्पणो तेयलेस्सं परिहायमाणं जाणित्ता। विमानाऽऽभरणानां निष्प्रभत्वमौत्पातिकं, तचक्षुर्विभ्रमरूपम् / (कप्परुवखगं ति) चैत्यवृक्षम्, (तेयलेस्सं ति) शरीरदीप्ति, सुखासिका था। 'इथेएहिं इत्यादिनिगमनम्। भवन्ति चैवविधानि लिङ्गानि देवानां च्यवनकाले / उक्तं च- 'माल्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससा चोपरागः। दैन्यं तन्द्रा कामरागाङ्गभङ्गो, दृष्टांन्तिर्वेपथु-श्वारतिश्च 1 / 1 / / " इति। स्था०३ ठा०३ उ०। दीव्यन्ति क्रीडादिधर्मभाजो भवन्ति, दीव्यन्ते स्तूयन्ते ये ते देवाः / स्था० ४टा० 1 उ०। "दिबु" क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिष्विति दिवेरच्प्रत्यये देव इति सिद्धम / दश०१ अ०। भवनपत्यादिषु, आ०म०१ अ०२ खण्ड। आव०। आ०चू० / दर्श०। ओघळा पिं० स०। स्था०। द्वा०। प्रज्ञा०। औ०। सूत्र। उत्त०। विशे०। ज्योतिष्क्वैमानिकपु, उत्त०१६ अ०। अनुत्तरसुरान्तेषु, और देवानामस्तित्वं, साधयन्सप्तमं गणधरं मौर्य प्रत्याह भगवादान्महा वीर: ते पव्वइए सोउं, मोरिओ आगच्छइ जिणसगासं / वचामिण वंदामी, वंदित्ता पज्जुवासामि / / 1864 / / आभट्ठोय जिणेणं, जाइजरामराविप्पमुक्केणं / नामेण य गोत्तेण य, सव्वण्णू सव्वदरिसी णं / / 1865 / / गाथाद्वयमपि प्रकटार्थम् // 1864 / / 1865 / / आभाष्य ततः किमुक्तः? इत्याहकिं मण्णे अत्थि देवा,उयाहु नत्थि त्ति संसओ तुज्झ। वेयपयाण य अत्थं, न जाणसी तेसिमो अत्थो // 1866 / / हे आयुष्मन मौर्य ! त्वमेवं मन्यसे-किं देवाः सन्ति, न वेति, उभयथाऽपि वेदपदश्रवणात्? तथाहि- "रस एष यज्ञायुधी यजमानोऽजसा स्वर्गलोकं गच्छति।' इत्यादि। तथा-"अपाम सोमममृता अभूम, अगमन ज्योतिरविदाम देवान्, के नूनमरमातृणवदरातिः, किमु मूर्तिममृतमय॑स्य / " इत्यादि / तथा 'को जानाति मायोपमान् देवान गीर्वाणानिन्द्रयमवरुणकुबेराऽऽदीन।' इत्यादि। एतेषां च वेदपदानामयमर्थस्तव बुद्धौ प्रतिभासते, यथा स एष यज्ञ एव दुरितवारणक्षमत्वादायुधं प्रहरणं यस्यासी यज्ञायुधी, यजमानोऽजसा प्रगुणेन न्यायेन स्वर्गलोक गच्छति, इति देवसत्ताप्रतिपत्तिः। तथा अपामपीतवन्तः, सोमं लतारसम्, अमृता अमरणधर्माणः, अभूम भूताः स्म, अगमन्गताः,ज्योतिः स्वर्गम्, अविदाम देवान्देवत्व प्राप्ताः स्म, किनूनमस्मादूर्द्ध तृणवत्करिष्यति, कोऽसावित्या
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________________ देव 2608 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देव ह-अरातिः व्याधिः, तथा किमु प्रश्रे, मूर्ति जराम, अमृतमय॑स्ये तिअमृतत्वं प्राप्तस्य मर्त्यस्य, पुरुषस्येत्यर्थः। अमरणधर्मिणो मनुष्यस्य किं करिष्यन्ति जराव्याधय इति भावः / अत्रापि देवसत्ताप्रतिपत्तिः / ''को जानाति मायोपमान'' इत्यादीनि तु देवाभावप्रतिपादकानि, अतस्तव संशयः। अयुक्तश्चायम् / यतोऽमीषां वेदपदानामर्श त्वं न जानासि, चशब्दाधुक्तिं च न वेत्सि / एतेषां हि वेदपदानां नायमों, यस्तवाभिप्रेतः, किं त्वयं वक्ष्यमाणलक्षण इति / अत्र भाष्यम्तं मन्नसि नेरइया, परतंता दुक्खसंपहृत्ता य। न तरंतीहागंतुं, सद्धेया सुव्वमाणा वि / / 1867 // सच्छंदयारिणो पुण, देवा दिव्यप्पभावजुत्ता य। जं न कयाइ वि दसिण-मुवें ति तो संसओ तेसु / / 1868 / / मौर्य ! त्वमेवं मन्यसे-नारकाः स्वकृतपापनरकपाला-ऽऽदिपरतन्त्राः पराधीनवृत्तयोऽतीवदुःखसंघातविह्वलाश्च न शक्नुवन्त्यत्राऽऽगन्तुमतः प्रत्यक्षीकरणोपायाभावात् श्रूयमाणा अपि श्रद्धया भवन्तु, देवास्तु स्वच्छन्दचारिणो दिव्यप्रभावयुक्ताश्च तथाऽपि यस्मान्न कदाचिद्दर्शनपथमवतरन्ति, श्रूयन्ते च श्रुतिरमृत्यादिषु, अतस्तेषु शङ्केति।।१८६७।। 1868 // अत्रोत्तरमाहमा कुरु संसयमेए, सुदूरमणुयाइभिन्नजाईए। पेच्छसु पचक्खं चिय, चउविहे देवसंघाए।।१८६६।। मौर्यपुत्र ! देवेषु मा संशयं कार्षीस्त्वम्, एतानेव हि सुदूरमत्यर्थ मनुजाऽऽदिभ्यो भिन्नजातीयान् दिव्याऽऽभरणविलेपनवसनसुमनोमालाऽलकृतान् भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकलक्षणांश्चतुर्विधदेवसंघातान् मम वन्दनार्थमिहैव समवसरणाऽऽगतान प्रत्यक्षत एव पश्यति // 1866 // अथैतद्दर्शनात्पूर्व य आसीत्संशयः, सयुक्तोऽभवत्। नैवम्। कुतः ? इत्याह-- पुव्वं पिन संदेहो, जुत्तो जं जोइसा सपञ्चक्खं / दीसंति तक्कया विय, उवघायानुग्गहा जगओ।।१८७०।। इह समवसरणाऽऽगतदेवदर्शनात्पूर्वमपि तवान्येपा च संशयो न युक्तो, यद्यस्माचन्द्राऽऽदिल्याऽऽदिज्योतिष्कास्त्वया सर्वेणापि च लोकेन स्वप्रत्यक्षत एव सर्वथा दृश्यन्ते, अतो देशतः प्रत्यक्षत्वात् कथं समस्तामरास्तित्वशङ्का? किं च-सन्त्येव देवाः, लोकस्य तत्कृतानुग्रहोपघातदर्शनात् / तथाहि-दृश्यन्ते चित्केचित्रिदशाः कस्याऽपि किञ्चिद्भिभवप्रदानाऽऽदिनाऽनुग्रह, तत्प्रहरणाऽऽदिना चोपघातं कुर्वन्तः, ततो राजाऽऽदिवत्कथमेते न सन्तीति।।१८७०।। पुनरपि परमाशङ्कय ज्योतिष्कदेवास्तित्वं साधयन्नाहआलयमेत्तं च मई, पुरं व तव्वासिणो तह वि सिद्धा। जे ते देव त्ति मया, न य निलया निच्चपरिसुण्णा / / 1871 / / अथैवंभूता मतिः परस्य भवेत्-आलया एव आलयमा चन्द्राऽऽदिविमानानि, न तु देवाः, तत्कथं ज्योतिष्कदेवानां प्रत्यक्षत्वमभिधीयते? किं तद्यथा आलयमात्रमित्याह- (पुरं ति) यथा पुरं शून्य लोकानामालयमात्र स्थानमात्रं, न तु तत्र लोकाः सन्ति, एवं चन्द्रा ऽऽदिविमानान्यप्यालयमात्रमेव, न तु तत्र देवाः केचित्तिष्ठन्ति, अतः कथं तेषां प्रत्यक्षत्वम् ? अत्रोत्तरमाह- तथाऽपि तद्वासिन आलयवासिनः सामर्थ्याध सिद्धास्ते देवा इति मताः संमताः। यो ह्यालयः स सर्वोऽपि तन्निवासिना अधिष्ठितो दृष्टः, यथा प्रत्यक्षोपलभ्यमाना देवदनाऽऽद्य - धिष्ठिता वसन्तपुराऽऽद्यालयाः, आलयाश्च ज्योतिष्कविमानान्यत आलयत्वान्यथानुपपत्तेर्ये तन्निवासिनः सिद्धास्ते देवा इति मताः। आह-- नुन कथं ते देवाः सिद्ध्यन्ति ? यादृशा हि प्रत्यक्षेण देवदत्ताऽऽदया दृश्यन्ते तेऽपि तादृशा एव स्युरिति / तदयुक्तम्। विशिष्टा हि देवदत्ताधालयेभ्यश्चन्द्राद्यालया इत्यतस्तन्निवासिनोऽपि विशिष्टाः सिध्यन्ति, तेच देवदताऽऽदिविलक्षणा देवा इति। अपरस्त्वाह-नन्वालयत्वादित्ययं हेतुस्तन्निवासिजन-साधनेऽनैकान्तिकः, शून्याऽऽलयैवर्यभिचारात्। अत्रोत्तरमाह--(नय निलयेत्यादि) न च निलया आलया नित्यमेव शून्या भवन्ति / अयमभिप्रायः- ये केचिदालयास्ते प्राग, इदानीमेष्यति वा कालेऽवश्यमेव तन्निवासिभिरधिष्ठिता एव भवन्ति, न तु नित्यमेव परिशून्याः / ततो यदा तदा वा चन्द्राऽऽद्यालयनिवासिनो देवाः सिध्यन्ति, इति॥१८७१।। पुनरप्यत्र पराभिप्रायमाशङ्कय परिहारमाहको जाणइ व किमेयं, ति होञ्ज निस्संसयं विमाणाइं। रयणमयनभोगमना-दिह जह विज्जाहराईणं / / 1872 / / यदि वा एवंभूता मतिः परस्य भवेद्यदुत-चन्द्राऽऽद्यालयत्वेन यद्गीयते भवद्भिस्तदिदं को जानाति किश्चिद्भवेत्किं सूर्योऽग्निमयो गोलश्चन्द्ररत्वम्बुमयः स्वभावतः स्वच्छः, आहोस्विदेवभूता एवैते भास्वररत्नमया गोलका ज्योतिष्कविमानान्यतः कथमेतेषामालयत्वंसिद्धिः? अत्र प्रतिविधानमाह-निःसंशयं विमानान्येतानि, रत्नमयत्वे सति न भोगमनात्, पुष्पकाऽऽदिविद्याधरतपः सिद्धिविमानवदिति। अभ्रधिकारपवनाऽऽदिव्यवच्छदार्थ रत्नमयत्वविशेषणमिति॥१८७२।। अपरमपि पराभिप्राथमाशङ्कय परिहरन्नाहहोञ्ज मई माएयं, तहा वि तक्कारिणो सुरा जे ते। नय मायाइविगारा, पुरं व निचोवलंभाओ। 1873 / / अथ परस्य मतिर्भवन्नैते चन्द्राऽऽदिविमानान्यालयाः, किं तु मायेयं मायाविना केनाऽपि प्रयुक्ता / अत्रोच्यते- मायात्वभमीषामसिद्ध, वाड्मात्रेणव भवताऽभिधानात्तथाऽप्यभ्युपगम्योच्यते, ये तत्कारिणः तथाविधमायाप्रयोक्तारस्ते सुराः सिद्धा एव, मनुष्याऽऽदीना तथाविधवैक्रियकरणादर्शनात् / अभ्युपगम्य च भायात्वममीषामभिहितं, न चैते मायाऽऽदिविकाराः, नित्योपलम्भात्, सर्वेण सर्वदा दृश्यमानत्वादित्यर्थः, प्रसिद्धपाटलिपुत्राऽऽदिपुरवदिति। मायेन्द्रजालकृतानि हि वस्तूनि न नित्यमुपलभ्यतन्त इति नित्यविशेषणोपादानमिति॥१८७३।। प्रकारान्तरेणाऽपि देवास्तित्वं साधयन्नाहजइ नारगा पवना, पगिट्ठपावफलभोइणो तेणं / सुबहुगपुण्णफलभुजो, पवत्तियव्वा सुरगणा वि।।१८७४|| इह स्वकृतप्रकृष्ट पापफलभोगिनस्तावत्क्वचिन्नारकाः प्रतिपतव्याः, ते च यदि प्रपन्नाः (तेणं ति) तर्हि तेनैव प्रकारेण स्वोपाजितसुष्टु बहुक -पुण्यफलभुजः सुरगणा अपि प्रतिपत्तव्याः / अत्राऽऽह-नन्विहैवातिदुःखितनरास्तिर्यशश्वातिदुःखिताः प्रकृष्ट
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________________ 2606 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देव पापफलभुजो भविष्यन्ति, तथा मनुष्या एवातिसुखिताः प्रकृष्टपुण्यफलभुजो भविष्यन्ति, किमदृष्टनारकदेवपरिकल्पनयेति? तदयुक्तम्। प्रवृष्टपापफलभुजां सर्वप्रकारेणापि दुःखेन भवितव्यम्,न चातिदुः खितानामपि नरतिरश्चा सर्वप्रकारं दुःखं दृश्यते, सुखदपवनाऽऽलोकाऽऽदिसुखस्य सर्वेषामपि दर्शनात्। प्रकृष्टपुण्यफलभुजामपि सर्वप्रकारेणाभि सुखेन भवितव्यम्, न चेहातिसुखितानामपि नराणां सर्वप्रकार सुखमवलोक्यते, पूतिदेहोद्भवस्य रोगजराऽऽदिप्रभवस्य च दुःखस्य तेषामपि सद्भावात्, तस्मात्प्रकृष्टपापनिबन्धनसर्वप्रकारदुःखवेदिनो नारकाः, प्रकृष्टपुण्यहेतुकसर्वप्रकारसुखभोगिनो देवाश्चाभ्युपगन्तव्या एवेति / / 1874|| ननु यदि देवाः सन्ति, तर्हि स्वच्छन्दचारिणोऽपि किमित्य-- त्रते कदाचिदपि नाऽऽगच्छन्तीत्याहसंकंतदिव्वपिम्मा, विसयपसत्ताऽसमत्तकत्तव्या। अणहीनमणुयकजा, नरभवमसुभं न एंति सुरा।।१८७५।। नाऽऽगच्छन्तीह सदैव सुरगणाः, संक्रान्तदिव्यप्रेमत्वाद्विषयप्रसतत्वात, प्रकृष्टरूपाऽऽदिगुणकामिनीप्रसक्तरम्यदेशान्तरगतपुरुषवत्: तथऽसमाप्तकर्तव्यत्वाद्, बहुकर्तव्यताप्रसाधननियुक्तविनीतपुरुषवत्। तथा अनधीन मनुजानां कार्य येषां तेऽनधीनमनुजकार्याः, तद्भावस्तत्त्व, तस्मान्नेहाऽऽगच्छन्ति सुराः, अनभिमतग्रेहाऽऽदी निःसङ्गयतिवदिति। तथा अशुभत्वाद् नरभवस्य तद्गन्धासहिष्णुतया नेहाऽऽगच्छन्ति देवाः, स्वपरित्यक्तकलेवरवदिति॥१८७५।। तत्किसर्वथा तेऽत्र नाऽऽगच्छन्ति? नैवम्, अत एवाऽऽहनवरि जिणजम्मदिक्खा-केवलनिव्वाणमहनिओगेणं / भत्तीए सोम्म ! संसय-विच्छेयत्थं व एज-सुरा॥१८७६|| पुवाणुरागओ वा, समयनिबंधा तवोगुणाओ वा। नरगणपीडाऽणुग्गह-कंदप्पाईहिँ वा केइ॥१८७७।। नवरं जिनजन्मदीक्षाकेवलनिर्वाणमहोत्सवनियोगेन तत्कर्तव्यतानियमेनेह देवा आगच्छेयुः। तत्र सौम्य! केचिदिन्द्राऽऽदया निजभक्त्या समागच्छन्ति, केचित्तु तदनुवृत्त्या, अन्ये संशयव्यवच्छेदार्थम्, अपरे तु पूर्वभविकपुत्रमित्राऽऽद्यनुरागात्, समयनिबन्धः प्रतिबोधाऽऽदिनिमित्तः संकेतनिश्चयः, तस्माचकेचिदेवा इहाऽऽगच्छन्ति, अन्ये तुमहासत्त्वसाध्वादितयोगुणसमाकृष्टाः, केचित्तु पूर्ववैरिकनरगणपीडार्थम्, अपरे तु पूर्वसुहृत्पुत्राऽऽद्यनुग्रहार्थम्, केचिदेवाः कन्दर्पाऽऽदिभिरिहाऽऽगच्छन्ति / आदिशब्दात्साध्वादिपरीक्षाहेतोरिति द्रष्टव्यमिति / तदेवं निरूपित देवानामत्राऽऽगमनकारणम्, अनागमनकारणं च / / 1876 / / 1877|| अथ देवसिद्धावन्यदपि कारणमाहजाइस्सरकहणाओ, कासइ पचक्खदरिसणाओ य। विज्जामंतोवायण-सिद्धीओ गहविगाराओ॥१८७८॥ उक्किट्ठपुण्णसंचय-फलमावाओऽभिहाणसिद्धीओ। सव्वाऽऽगमसिद्धाओ, य संति देव त्ति सद्धेयं / / 1876 / / सन्ति देवा इत्येतत् श्रद्धेयमिति प्रतिज्ञा, जातिस्मरणप्रत्ययितपुरुषेण कथनात्, नानादेशाविचारिप्रत्ययितपुरुषावलोकितकथितविचित्रवृहदेवकुलाऽऽदिवस्तुवत्। तथा कस्याऽपि तपः प्रभृतिगुणयुक्तस्य प्रत्यक्ष दर्शनप्रवृत्तेश्र, केनचित्प्रत्यक्षप्रमाणेनोपलम्मादित्यर्थः। दूरविप्रकृष्टनगराऽऽदिवत् / तथा विद्यामन्त्रोपयाचनेभ्यः कार्यसिद्धेः, प्रसादफलानुमितराजाऽऽदिवत् / तथा (गहविगाराउ ति) अत्र प्रयोगःग्रहाधिष्ठितपुरुषदेहो जीवव्यतिरिक्तादृश्यवस्त्यधिष्ठातृकः पुरुषासंभाव्यविकारवतक्रियादर्शनात्, संचरिष्णुयन्त्रव्यतिरिक्तमध्यप्रविष्टदृश्यमानपुरुषाधिष्ठितयन्त्रवत् / तथा तपोदानाऽऽदिक्रियासमुपार्जितोत्कृष्टपुण्यसंभारफसद्धावात्, उत्कृष्टपापप्राग्भारफलसद्भावनिश्चितनारकवत्। एतच प्रागेव भावितम्। तथा देवा इति यदभिधानं ततोऽपि च देवानां सिद्धिः। एतच्चानन्तरमाथायां व्यक्तीकरिष्यते! तथा सर्वेचते आगमाश्च सर्वाऽsगमास्तेष्वविप्रतिपत्त्या सिद्धत्वाच्च सन्ति देवा इति // 1870 / 1876 / / यदुक्तम्-"अभिहाणसिद्धीउ (१८७६)त्ति" तद्भावयन्नाहदेव त्ति सत्थयमिदं सुद्धत्तणओ घडाभिहाणं व। अह व मई मणुओ चिय, देवो गुणरिद्धिसंपन्नो // 1880 / / तं न जओ तच्चत्थे, सिद्धे उवयारओ मया सिद्धी। तच्चत्थसीहसिद्धे,माणवसीहोवयारो व्व / / 1881 // 'देवाः' इत्येतत्पदं सार्थकं, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदत्वात्, घटाऽऽदिवत्। तत्र दीव्यन्तीति देवा इति व्युत्पत्तिमत्त्वम्, समासतद्धितरहितत्वेन च शुद्धत्वम्। भावना चार प्रागुक्कैव / अथ परस्यमतिर्भवेन्ननु मनुष्य एवेह दृश्यमानो देवो भविष्यति, किमदृष्टदेवकल्पनया? किं सर्वोऽपि मनुष्यो देव इति। नेत्याह-गुणसंपन्नो गणधराऽऽदिः, रिद्धिसंपन्नश्चक्रवादिः / अत्रोच्यते- तदेतन्न यस्मात्तथ्ये मुख्ये वस्तुनि कृचित्सिद्धे सत्यन्यत्रोपचारतस्तत्सिद्धिर्मता, यथा मुख्य यथार्थे सिंहेऽन्यत्र सिद्धे ततो माणवके सिंहोपचारः सिध्यति, एवमिहापि यदि मुख्या देवाः क्वचित्सिद्धा भवेयुस्तदा राजाऽऽदेवोपचारो युज्यते, नान्यथेति।।१५८०॥१८८१॥ देवाभावे चाग्निहोत्रक्रियाणां वैफल्यमिति दर्शयन्नाहदेवाभावे विफलं, जमग्गिहोत्ताइयाण किरियाणं / सग्गीयं जन्नाण य, दाणाइफलं च तदजुत्तं / / 1852 / / वा इत्यथवा, इदं दूषणम्-देवाभावेऽभ्युपगम्यमाने, यदग्निहोत्रादिक्रियाणाम्, “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यादिना स्वर्गीयं फलमुक्तं, तथा यज्ञानां च यत्फलमभिहितं, दानाऽऽदिफलं च यत्समस्तलोकेप्रसिद्धम, तत्सर्वमयुक्तं प्राप्नोति / स्वर्गो ह्येतेषां फलमुक्तं, स्वर्गिणां चाभावे कुतः स्वर्ग इति। स एष यज्ञायुधी'' इत्यादीनि च वेदवाक्यानि देवास्तित्वप्रतिपादनपराणि वर्तन्ते / अतः किं तान् न प्रतिपद्यसे? यद्यपि "को जानाति मायोपमान गीर्वाणानिन्द्रयमवरुणकुबेराऽऽदीन" इत्यादि वाक्यं, तदपि नंदेवानां नास्तित्वाभिधायकं, किन्तु सुराणामपि मायोपमत्वाभिधानेन शेषर्द्धिसमुदायानां सुतरामनित्यत्वप्रतिपादकं बोद्धव्यम् / अन्यथा हि देवास्तित्वप्रतिपादकवाक्यानि, श्रुतिमन्त्रपदैरिन्द्राऽऽदीनामाह्वानं चानर्थकं स्यात्।।१८८२।। एतदेवाऽऽहजमसोमसूरसुरगुरु-सारज्जाईणि जयइ जन्नेहिं। मंतावाहणमेव य, इंदाईणं विहा सव्वं // 1553 / / यमेत्यादिपूर्वार्द्धस्यायमर्थः-- उक्थषोमशिप्रभृतिक्रतुभिर्यथाश्रुति ''यम-सोम-सूर्य-सुरगुरु-स्वाराज्यानि जयति" इत्यादीनि देवा
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________________ देव 2610 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 स्तित्वसूचकानि वेदवाक्यानि देवाभावे वृथैव स्युः / इह चोक्थषोडा--- मानयन्त्युपभुजन्ति सुकृतिन एतानीति विमानानि, तेषु भवा शप्रभृतयो यज्ञविशेषा मन्तव्याः, स यूपो यज्ञ एव हि क्रतुरुच्यते, वैमानिकाः। तथेति समुच्चये, इति सूत्रार्थः / यूपरहितस्तु दानाऽऽदिक्रियायुक्तो यज्ञ इति। स्वः स्वर्गस्तत्र राज्यानि एषामेवोत्तरभेदानाहजवत्युपार्जयतीत्यर्थ इति / तथा मन्त्रैरिन्द्राऽऽदीनामावानं देवास्तित्व दसहा उ भवणवासी अट्ठहा वाणमंतरा। एवोपपद्यते, अन्यथा वृथैव स्यात् / इन्द्राऽऽदीना मन्त्रपदैराहानमेवमव पंचविहा जोइसिया, दुविहा वेमाणिया तहा // 204 / / गन्तव्यम्-'इन्द्र ! आगच्छ मेधातिथे भेषवृषण।'' इत्यादि। तरमाधु दशधा त्विति दशधैव (भवणवासि त्ति) भवनेषु वस्तु शलमेषामिति क्तितो वेदवाक्येभ्यश्व सन्ति देवा इति स्थितम्। तदेवं छिन्नो गौर्यपुत्रस्य भवनवासिनः, अष्टधा अष्ट प्रकारा वनेषु विचित्रोपवनाऽऽदिषूपलभगवता संशयः।।१८८३।। विशे०। सूत्रा स्था०। आ०म० क्षणत्वादन्येषु च विविधाऽऽस्यदेषु क्रीडैकरसिकतया चरितु शीलमेदेवानां स्वरूपं यथा षामिति वनचारिणो व्यन्तराः, पञ्चविधाः पञ्चप्रकाराः (जोइसिय त्ति) अमिलायमल्लदामा, अणिमिसनयणा य नीरजसरीरा। ज्योतिःषु विमानेषु भवा ज्योतिष्काः, ज्योतीष्येव वा ज्योतिष्वाः, चउरंगुलेण भूमि, न पिसंति सुरा जिणो कहए। द्विविधा वैमानिकास्तथेति सूत्रार्थः / सुरा देवाश्चतुर्निकायभाविनोऽपि अम्लानमाल्यदामानः, तथा न विद्यते एतानेव नामग्राहमाहनिमेषो येषां ते, अनिमेषे नयने येषां ते अनिमेषनयनाः, तथा नीरजा असुरा नाग सुवन्ना, विज्जू अग्गी विआहिया। निर्मलं शरीरं येषां ते नीरजशरीराः / चतुरड्गुलेन चतुर्भिरगुलैर्भूमि न दीवोदहिदिसावाया, थणिया भवणवासिणो।।२०५।। स्पृशन्ति इति जिनः सर्वज्ञः कथयति / व्य०२ उ०। पिसाय भूय जक्खा य, रक्खसा किन्नरा किंपुरिसा। देवा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-एगसरीरी चेव, विसरीरी महोरगा य गंधव्वा, अट्ठविहा वाणमंतरा / / 206|| चेव / स्था०२ ठा०२ उ०। चंदा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा। देवाश्चतुर्विधास्तद्यथा दिसाविचारिणो चेव, पंचहा जोइसालया॥२०७।। से किं तं देवा ? देवा चउविवहा पण्णत्ता / तं जहा-- भवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया।। वेमाणिया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया। (से किं तमित्यादि)अथ केते देवाः? सुरिराह-देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः / कप्पोवगा य बोधव्वा, कप्पाईया तहेव य॥२०८|| तद्यथा-- भवनवासिनो, व्यन्तराः,ज्योतिष्काः, वैमानिकाः। प्रज्ञा०१ कप्पोवगा वारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा। पद। भ० साजी०। उत्तका सणकुमारमाहिंद-बंभलोगा य लंतगा।।२०६।। देवानाह महासुक्कसहस्सारा, आणया पाणया तहा। देवा चउव्विहा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण। आरणा अच्चुया चेव, इइ कप्पोयगा सुरा // 210 / / भोमिज वाणमंतर, जोइस वेमाणिया तहा / / 203 / / कप्पाईया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया। देवा उक्तनिरुक्ताश्चतुर्विधाश्चतुष्प्रकारा उक्ताः, तीर्थकराऽऽदि-भिरिति गेवेजाऽणुत्तरा चेव, गेवेज्जा नवविहा तहिं / / 211 / / गम्यते। 'ते' इति तान् देवान मे मम कीर्तयतः प्रतिपादयतः शृण्वाकणर्णय हिट्ठिमाहेट्ठिमा चेव, हेट्ठिमामज्झिमा तहा। शिष्यं प्रतीदमाह। तत्कीर्तनं भवनभेदाभिधानं विनंति / तद्भेदानाह- हेट्ठिमाउवरिमा चेव, मज्झिमाहिडिमा तहा // 212|| (भोमिज त्ति) भूमौ पृथिव्यां भवा भौमेयका भवनवासिनः, रत्नप्रभा मज्झिमामज्झिमा चेव, मज्झिमाउवरिमा तहा। पृथिव्यन्तर्भूतत्वाद् भवनानाम्। उक्त हि-'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमाहिट्ठिमा चेव, उवरिमामज्झिमा तहा।।२१३।। असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाएउवरि एगं जोयणसहस्समोगाहेत्ता उवरिमाउवरिमा चेव, इइ गेवेजगा सुरा। हेट्टमेगम्मि जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एल्थ णं भवणवासीण देवाणं सत्तभवण-कोडीओ वावत्तरिं च भवणवारा विजया वेजयंता य, जयंता अपराजिया!॥२१४।। सयसहस्सा हवंतीति मक्खाया '(वाणमंतर त्ति) आर्षत्वाद्विविधान्यन्त सव्वट्ठसिद्धगा चेव, पंचहाऽणुत्तरा सुरा। राण्युत्कर्षापकर्षाऽऽत्मकविशेषरूपाणि निवासभूतानि वा गिरिकन्दर - इइ वेमाणिया एए-ऽणेगहा एवमादओ।।२१५।। विवराऽऽदीनि येषां तेऽमी व्यन्तराः / उक्तं हि- "तेह्यधरितर्यगृर्द्ध च सूत्राण्येकादश प्रायः प्रतीतान्येव, नवरम्, असुरा इत्यसुरकुमाराः। एवं त्रीनपि लोकन स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात् पराभियोगाच प्रायेण प्रतिपन्न- नागाऽऽदिष्वपि कुमारशब्दः संबन्धनीयः। सर्वेऽपि ह्यमी कुमाराऽऽकारनियतगतिप्रचारा मनुष्यानपि क्वचिद् भृत्यवदुपचरन्ति तथाविधेषु च धारिण एव / यथोक्तम्- कुमारवदेव कान्तदर्शनाः कुमाराः मृदुमधुरशेलकन्दरान्तरवनविवराऽऽदिषु प्रतिवसन्त्यतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते / ललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवयोद्धतरूपवेधभाषा(जोइस त्ति) द्योतयन्त इति ज्योतींषि विमानानि, तन्निवासित्वाद्देवा ऽऽमरणप्रहरणवर्णयानवाहनाः कुभारवचोल्ल्वणरागाः क्रीमनपराश्चत्यतः अपिज्योतींषि, ग्रामः सभागत इत्यादौ तन्निवासिजनग्रामवा! विशेषेण / कुगारा इत्युच्यन्ते / (तारागणा इति) प्रकीर्णतारकासमूहाः, दिशासु
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________________ देव 2611 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देव विशेषण गरुपादक्षिण्यनित्यचारितालक्षणेन चरन्ति परिभूमन्तीत्ये.... वंशीला दिशाविचारिणः तद्विमानानि ह्येकादशभिरेकविं शैयों जनशमिरोश्चतसृष्वपि दिक्ष्ववाधया सततमेव प्रदक्षणं चरन्तीति, शेप्येवमुक्ताः ज्योतीष्युक्तन्यायतो विमानान्यालया आश्रया येषां ते ज्योतिरालयाः कल्प्यन्ते इन्द्रसामानिकत्रयस्विशाऽऽदिदशप्रकारत्वेन विभज्यन्त देवा एतेष्विति कल्पा देवलोकाः,तानुपगच्छन्त्युत्पत्तिदिपरतया प्राप्नुवन्तीति कल्पोपमाः, कल्पानुक्तरूपानतीतास्तदुपरिवतिस्थानो पन्नतयाऽतिक्रान्ताः कल्पातीताः। (सोहामीसाणग शि) सुधर्मा नाम शबास्रा सभा, साऽस्मिन्नरतीति सौधर्मः कल्पः, स एषामवस्थितिविषयोऽस्तीति सौधर्मिणः / तथा ईशानोनाम द्वितीय - देवलोकः, तन्निवासिनो देवा अपि ईशानाः, त एवेशानकाः। एवमुत्तरत्रापि व्युत्पत्तिः कार्या / ग्रीवेव ग्रीवा लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जुपरिवर्तिप्रदशः, तन्निविष्टतयाऽतिभ्राजिष्णुतया च तदाभरणभूता ग्रेवयका देवाऽऽवासाः, तन्निवासिनो दे वा अपि ग्रैवयकाः। न विद्यन्ते उत्तराः प्रधानाः स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्यादिभिरेभ्योऽन्ये देवा इत्यनुत्तराः / (हट्ठिम त्ति) अधस्तनानुपरितनषट्कापेक्षया प्रथमास्त्रयस्तष्वपि (हेट्टिम ति) अधस्तना अधस्तनाधस्तनाः प्रथमत्रिकाधोवर्तिनः, (हेद्विम मज्झिमा तह ति) अधस्तनमध्यमाः प्रथमत्रिकमध्यवर्तिनः (हेष्टिमाउवरिमा चव त्ति) अधस्तनोपरितनाः प्रथमत्रिकोपरिवर्तिनांमध्ये भवा मयमा मध्यमत्रिकवर्तिनः,तेष्वपि अधस्तनाः / एवं मध्यममध्यमाः मध्यमोपरितना उपरिवर्तिनस्तेष्वधस्तना उपरिरानाधरतनाः। एवं उपरितननध्यमा उपरितनोपरितनाः। इतिर्भेद समाप्ती। तत एतावद्भेदा एव ग्रैवयकाः सुराः। अभ्युदयविघ्नहेतून विजयन्त इति विजयाः, तथैव वैजयन्ताः "उणादयो बहुलम् // 3 / 3 / 1 / / इति बहुलवचनात् क्तप्रत्यये उपसर्गकारः / एवं जयन्ताः / अपरैरन्यैरभ्युदयविधतहतुभिरजिता अनभिभूता अपराजिताः, सर्वेऽर्थाः सिद्धा इय सिद्धा येषां ते सर्वा सिद्धाः, ते हि विजितप्रायकणि उपस्थितभद्रा एव तत्रोत्पत्तिभाज इशीत्यादीनि निगमनम् / अत्र च वैमानिका इति वैमानिकभेदाःसामान्यविशेषयाः कथशिदनन्यत्वात, एवमादय इति। आदिशब्दस्य प्रकारवचनत्वादेवप्रकाराइत्येकादशसूत्रार्थः। लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्ये परिकित्तिया। एत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउव्विहं // 216| संतई पप्प णाईया, अपज्जवसिया विय। ठिई पडुच्च साईया,सपज्जवसिया विय॥२१७।। क्षेत्रका नाभिधायिसूत्रद्वयं प्राग्वत् सादिसपर्यवराितत्वभावनार्थम। साहियं सागरं एकं, उक्कोसेणं ठिई भवे। भोमेजाणं जहण्णेणं, दस वाससहस्सिया।।२१।। पलिओवममेगं तु, उक्कोसेणं ठिई भवे। वंतराणं जहण्णेणं, दस वाससहस्सिया // 216 / / पलिओवममेगं तु, वासलक्खेण साहियं / पलिओवमट्ठभागो, जोइसेसु जहणिया / / 220 / / दो चेव सागराई, उक्कोसेणं वियाहिया। सोहम्मम्मि जहण्णेणं, एकं च पलिओवमं // 221 / / सागरा साहिया दोन्नि, उक्कोसेणं वियाहिया। ईसाणम्मि जहण्णेणं, साहियं पलिओवमं / / 222 / / सागराणि अ सत्तेव, उक्कोसेणं ठिई भवे। सणंकुमारे जहण्णेणं, दोण्णिओ सागरोवमा // 223|| साहिया सागरा सत्त, उक्कोसेणं ठिई भवे / माहिदम्मि जहण्णेणं, साहिया दुन्नि सागरा ||224 / / दस चेव सागराई, उक्कोसेणं ठिई भवे / बंभलोए जहण्णेणं, सत्तओ सागरोवमा / / 225|| चउद्दस सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे / लंतगम्मि जहण्णेणं, दसओ सागरोवमा // 226 / / सत्तरस सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे। महासुक्के जहण्णेणं, चोइस सागरोवमा // 227 / / अट्ठारस सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे। सहस्सारे जहण्णेणं, सत्तरस सागरोवमा॥२२८|| सागराऊ अणवीसं तु, उक्कोसेणं ठिई भवे। आणयम्मि जहण्णेणं, अट्ठारस सागरोवमा।।२२६।। वीसं तु सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे। पाणयम्मि जहण्णेणं, सागरा अउणवीसई॥२३०॥ सागरा एकवीसं तु, उक्कोसेणं ठिई भवे। आरणम्मि जहण्णेणं, वीसई सागरोवमा।।२३१।। वावीसा सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे। अच्चुयम्मि जहण्णेणं, सागरा इक्वीसई॥२३२।। तेवीस सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे / पढमम्मि जहण्णेणं, वावीसं सागरोवमा।।२३३।। चउवीस सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे। बिइयम्मि जहण्णेणं, तेवीसं सागरोवमा॥२३४।। पणवीस सागराई, उक्कोसेणं ठिई भवे / तइयम्मि जहण्णेणं, चउवीसं सागरोवमा / / 235 / / छव्वीस सागराइं, उक्कोसेणं ठिई भवे। चउत्थम्मि जहण्णेणं, सागरा पण्णवीसई॥२३६।। सागरा सत्तवीसंतु, उझोसेणं ठिई भवे / पंचमम्मि जहण्णेणं, छव्वीसं सागरोवमा // 237 / / सागरा अट्ठवीसं तु, उक्कोसेणं ठिई भवे / छट्ठम्मि जहन्नेणं, सागरा सत्तवीसइं॥२३८।। सागरा अऊणवीसंतु, उक्कोसेणं ठिई भवे / सत्तमम्मि जहण्णेणं,सागरा अट्ठवीसई॥२३६।। तीसं तु सागराई, उक्कोसेणं ठिई भवे / अट्ठमम्मि जहणणेणं, सागरा अऊणतीसई॥२४०।। सागरा इक्कतीसंतु, उक्कोसेण वियाहिया। नवमम्मि जहन्नेणं, तीसई सागरोवमा / / 241 / /
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________________ देव 2612 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देव वत्तीस सागराऊ, उक्कोसेणं वियाहिया। चउसु पि विजयाईसु, जहन्ना इक्कतीसई / / 242 / / अजहण्णमणुक्कोसं, तेत्तीसं सागरोवमा। महाविमाणे सव्वड्डे, ठिई एसा वियाहिया।।२४३।। जा चेव य आउठिई, देवाणं तु वियाहिया। सा तेसिं कायठिई, जहण्णमुक्कोसिया भवे // 244 / / सप्तविंशतिसूत्राणि प्रायो निगदसिद्धान्येव, नवरं (साहियं ति) प्राकृतत्वात् साधिकम् / (सागरं इति) सागरोपममेकम, उत्कृष्टेन स्थितिर्भवति / भौमेयकानां भवनवासिनाम, इयं च सामान्योक्तावप्युत्तरनिकायाधिपस्य बलेरेवावगन्तव्या / दक्षिणनिकाये विन्द्रस्यापि सागरोपममेव। उक्तं हि- "चमरं बलिं सागरमहियं ति।" जघन्यन दशवर्षसहस्राणि प्रमाणमस्या दशवर्षसहस्रिका / इयमपि सामान्योतावपि किल्विषाणानेव स्थितिप्रभावाऽऽदीनां देवेषु सहैव ह्रासादित्युरत्रापि भावनीयम् / तथा पल्योपमवर्षलक्षाधिकमिति। ज्योतिषामुत्कृष्टस्थित्यभिधानम्, चन्द्रापेक्षम्, सूर्यस्य तुवर्षसहस्राधिकंपल्योपममायुः / ग्रहाणामपितदेव नातिरिक्तं, नक्षत्राणां तस्यैवार्द्ध, तारकाणां तच्चतुर्भागः, तथा पल्योपमाष्टभागो ज्योतिःषु जघन्या स्थितिरित्यपि तारकापेक्षमेव।। शेषाणां पल्योपमचतुर्थभागस्यैव जघन्यस्थितित्वात् / यत उक्तम्चतुर्भागः शेषाणामिति। इह च सर्वत्र उक्तरूपयोरुत्कृष्टजघन्यस्थित्योरपान्तरालवर्तिनी मध्यमा स्थितिरिति द्रष्टव्य, तथा प्रथम इति प्रक्रमाद ग्रैवेयके अधस्तनाधस्तने / एवं द्वितीयाऽऽदिष्वपि ग्रैवेयकमितिसंबन्धनीयम् / अविद्यमानं जघन्यमिति जघन्यत्वमस्यामित्यजघन्या। तथा अविद्यमानमुत्कृष्टमित्युकृष्टत्वमस्यामित्यनुत्कृष्टा, अजघन्या चासावनत्कृष्टा च जघन्यानुत्कृष्टा। मकारो लाक्षणिकः / महचतदायुः स्थित्याद्यपेक्षया विमानं च महाविमानं तच तत्। सर्वे निरवशेषा अर्थ्यमानत्यादर्था अनुत्तरसुखाऽऽदयो यस्मिस्तत् सर्वार्थ च महाविमानं सर्वार्थ तस्मिन् स्थितिरिति सर्वत्रायुः स्थितिप्रक्रमाद्देवानां तथा आयुःस्थितिरेय कायस्थितित्वाभिधाने तत्रानन्तरमनुत्पत्तिरेवेत्यभिप्राय इति सप्त-- विशतिसूत्रार्थः / अन्तरविधानाभिधायि च सूत्रद्वयं पूर्ववव्याख्येयम्। अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहण्णयं / विजढम्मि सए काए, देवाणं होज्ज अंतरं / / 245 / / एएसिं वण्णत्तो चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणदेसतो वा वि, विहाणाई,सहस्ससो॥२४६|| सूत्रद्वयं प्राग्वद्व्याख्येयम्। इत्थं जीवानजीवांश्च सविस्तरमुपदर्य निगमयितुमाहसंसारत्था य सिद्धा य, इइ जीवा वियाहिया। रूविणो चेवऽरूवी य, अजीवा दुविहा वि य // 247 / / संसारस्थाश्च सिद्धाश्च इतीत्येवंप्रकारा जीवा व्याख्याता विशेषेण सकलभेदाऽऽद्यवाप्त्या प्रकथिताः / रूपिषाश्चैव (रूवी य त्ति) अकारप्रश्लेषादरुपिणश्चाजीवा द्विविधा अपिव्याख्याता इति योग इति सूत्रार्थः। / यदुक्तं जीवाजीवविभक्तिं शृणुतैकमनस इति, तत्र जीवाजीवविभक्तिमभिधाय शृणुतेकमनस इतिवचनात् कश्विच्छ्रवणश्रद्धानमात्रेणैव कृतार्थतां मन्येत नयतस्तदाशङ्काऽपनोदार्थमाहइइ जीवमजीवे, य, सोचा सद्दहिऊण य। सव्वनयाण अणुमए, रमेज्जा संजमे मुणी // 248|| इतीत्येवंप्रकारान् (जीवमजीव त्ति) जीवाजीवानेताननन्तरोक्तान श्रुत्वा अवधार्य श्रद्धाय च तथेति प्रतिपद्य सर्वे च ते नयाश्च सर्वनया ज्ञानक्रियानयान्तर्गता नैगमाऽऽदयः, तेषामनुमतोऽभिप्रेतस्तस्मिन् / कोऽर्थः? ज्ञानसहितसम्यक्चारित्र रूपे रमेत रतिं कुर्यात्। व? सम्यक्यमन पृथिव्यादिजीवोपमर्दतस्तृणपञ्चकाऽऽद्यजीवोपादानाऽऽदेश्व उपरमणं संयमः, तस्मिन् मुनिरुक्तरूप इति सूत्रार्थः / उत्त०३६अ। पञ्चविधा देवास्तद्यथाकइविहा णं भंते देवा ! पण्णत्ता ? पंचविहा देवा पण्णत्ता। तं जहा- भवियदव्वदेवा, नरदेवा, धम्मदेवा, देवाधिदेवा, मावदेवा। (कइविहा णमित्यादि) दीव्यन्ति क्रीडां कुर्वन्ति, दीव्यन्ते वा स्तूयन्ते आराध्यतया ते देवाः (भवियदव्वदेव त्ति) द्रव्यभूता देवा द्रव्यदेवाः,द्रव्यता चाप्राधान्याद् भूतभावत्वाद्वा,भाविभावत्याद्वा / तत्राप्राधान्यादेवगुणशून्या देवा द्रव्यदेवाः यथा साध्याभासा द्रव्यसाधवः / भूतभावपक्षे तु भूतस्य देवत्वपर्यायस्य प्रपन्नकारणभावदेवत्वाच्च्युता द्रव्यदेवः / भाविभावपक्षे तु-भाविनो देवत्वपर्यायस्य योग्या देवतयोत्पत्स्यमाना द्रव्यदेवाः। तत्र भाविभावपक्षपरिग्रहार्थमाह- भव्याश्च ते द्रव्यदेवाश्चेति। नरदेवाः, (धम्मदेव त्ति) धर्मेण श्रुताऽऽदिना देवा धर्मप्रधाना वा देवा धर्मदेवाः (देवाइदेव त्ति)देवान् शेषानतिक्रान्तः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद्देवा देवातिदेवाः "देवाहिदेव त्ति।" क्वचिद् दृश्यते। तत्र च देवानामधिकाः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद्देवा देवाधिदेवाः (भावदेव त्ति) भावेन देवगत्यादिकर्मोदयजातपर्यायण देवा भावदेवाः। भविकद्रव्यदेवा यथा-- से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ-मवियदव्वदेवा भवियदव्वदेवा? गोयमा! जे भवियपंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु उववज्जित्तए, से तेणटेणं गोयमा !एवं वुच्चइ-भवियदव्वदेवा। (भविए इत्यादि) इह जातावेकवचनमतो बहुवचनार्थ व्याख्येयं, ततश्च ये भव्या योग्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका वा, मनुष्या वा देवेषुत्पत्तु ते यस्माद्भाविदेवभावा इति गम्यम्। अथ तेनार्थेन तेन कारणेन हे गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यते- भव्यद्रव्यदेवा इति। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नरदेवा नरदेवा? गोयमा ! जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी उप्पण्णसम्मत्तचक्करयणप्पहाणा णवणिहिपइणो समिद्धकोसा वत्तीसं रायवरसहस्सा णुयातमग्गा सागरवरमेहलाहिपतिणो मणुस्सिदा से तेणद्वेणं० जाव नरदेवा। (जे इमे इत्यादि) (चाउरंत वक्तवाहित्ति) चतुरन्ताया भर
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________________ देव 2613 - अभिधानराजेन्द्र... भाग देव ....... ) (देवदुर्गतिः 'दुग्गइ' शब्देऽस्मिन्नेव भाने मदेवाकानामदेवीकानां देवाना परिचार: ... . देवानामाशतना आसायण, सहक सध्या (देवानां धार्मिकत्वसिद्धिः चेइय' शब्द को.. गता) (देवानामुद्वेगः 'उव्वेग' शब्दे द्वितीयभाग 17.3 मा बीसको स्तूयन्ते केचित्पूर्वभवपरम्परोधान दिया मित् निविष्टपाधिपत्यसुरासुरमयाधिपतिरिलाय.... :शानाऽऽदिप्रकृष्टगुणवति देवतातिशायिनि जाऽऽदिमाथव्या एते स्वामिन इति चातुरन्ताः, चक्रेण वतनशीलला चक्रवत्तिनः, ततः कर्मधारयः / चतुरन्तग्रहणेन च वासुदगाऽदीनां व्युदासः, यस्मादितिवावयशेषः। (उप्पण्णसम्मत्त चक्करयपहायानि आर्षत्वान्निर्देशरय, उत्पन्न समस्तरन्तप्रधानं चक्रं संपात (सागरदरमहलाहिवइणो त्ति) सागर एव वरा मेखला काञ्ची यस्याः सारमेखला पृथ्वी, तस्या अधिपतयो ये ते तथा, सागरमेखलान्तमाथियधिपतय इति भावः / (से तेणट्टेणं ति) अथ तेनार्थेन तेन लादणन गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यते नरदेवा इति: से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ-धम्मदेवा धम्मदेवा? गोथमा! जे इमे अणगारा भगवंतो इरियासमिया०जाव गुत्तबंभयारी, से तेण-ट्टेणं०जाव धम्मदेवा।। (जेइन इत्यादि सइम नगारा भगवन्तस्त यसमा से के णटेणं भंते ! एवं वुचइ-देवाधिदेवा देवाधिदेवग? गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णणाणदंसणधरा० जाद सव्वद-रिसी, से तेणटेणंजाव देवाधिदेवा देवाधिदेवा।। (जे इम इत्यादि) य इमं अर्हन्ता भगवन्तस्ते यस्मानुराधज्ञानदर्भ . नधरा इत्यादि / (से तेजण ति) अथ तेनार्थेन तान् प्ररित गौतम, एवमुच्यते-देवाधिदेवा-देवाधिदेवा इति। से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ-भागदेवा भावदेवा? गोयमा ! जे इमे भवणवइवाणमंतरजोइसियवेमाणिया देवा देवगइणामगोयाई कम्माइं वेदेति, से तेण?णं जाव भावदेवा भावदेवा / / (जे इ. इत्यादि) ये इमे भवनपत्यादयस्ते यस्मागतिनामगाने वाली तदयन्ति अनेनार्थेन तान् प्रत्येवमुच्यते-भावदेवा भावदे पा लि / 0 52 ज्ञ०६ उ०। (भव्यदेवाऽऽदयःकुत उत्पद्यन्ते इति उपचाय शब्द / द्वितीयभागे 665 पृष्ठे समुक्तम्) (अष्टविधानां लोगतिय' शब्द सूत्रपदम्) चउवीसाए देवेहिं भयण-वाण-जोइस-वेमाणिआणं दसअट्ठपंचएगविहा इअचउवीसं देवा केइ पुण विंति अरिहंता ||३०||आव० 4 अ०। आ०५०। प्रश्र०।। (महर्दिकाऽऽदिदेवानां पुद्गलाऽऽदानपूर्वक गमनाऽऽदि 'युगल भवन ८.क्ष्यत (तेषामनुपरिवर्तना 'अणुपरियण शब्द प्रथमगगे 3.5 प्रश्व्या) (अविशुद्धलेश्यदेवविषकं ज्ञान विभा' 17 .. लन (पुरन्दर ऽऽदिदेवानां लोकानि 'लोग' शब्दे प्रदर्शयिष्यन्ते (यो ! जराभावभाववक्तव्यता जरा' शब्देऽस्मिन्नेव भाने 1425 पृहता. शुक्रसहस्त्रारयोश्चतुर्हस्तदेवाः अन्यत्र त्वन्यथा। यत आह"भवणवणजोइसोहम्मीसाणे सत्त होति रयणीओ। एक्कमहाणि सेसे, दुदुर्ग य दुगे चउक्के य।।१।। गेवेज्जेस य दुन्नि य, एका रयणी अणुत्तरसुरसु / " इति भामाशा.. सान्येवमुत्तरवैक्रियाणि तु लक्षमपि संभवन्ति, उत्कृष्पनेतल, जयातस्वगलासंख्येयभागप्रमाणान्युत्पत्तिकाले भवधारणीयानिमल रवैक्रियाणि त्वगुलासंख्येयभागप्रमाणानीलि / स्था०४ डा०४ उ... (देवानामाहारः 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 506 पृष्ठे गतः) (देवाना उतीतजसमजुओ, अट्ठमहापाडिहेरकयसोहो। अट्ठदसले गोरो, सो देवो नत्थि संदेहो॥॥ .. मोऽधयन्निधानभूतसशनिवेदनपरनया नायकानन्यजनसाधारणचतुस्विंशति देव इति प्रकृतम् / अष्टमहाप्रातिहरशोकाड1 लामा वारस सोऽपि देवः / अष्टादशापैरज्ञानाको देवः / अयमत्र भावार्थ:-- यो हि देवो वः विधमत्तरो वा इत्थंभूतस्फीतिमानत स मवति न स देवइति मात्र संशयः सदेह इति 70 अकस्पिकगणधरस्य पितरि आ०म०१अ०२ विष्यति चतुर्विशतितमे जिने, तिला 'वाविसमा अंबी०२० कल्प। राजनि, आ०म०१ अ०२ खण्ड। नामा० 15 पद / "देवे णाम दीवे बलयाऽऽकार.१६ पाहु०। स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च प्रज्ञा० 15 अनु० आराध्यतमे च / पशा० १विव० / केचन सामान्यामपि सम्यक्त्याऽऽदिकायां सामग्रयां न तद्भव एव मा. नित, अपितु सौधर्माऽऽद्याः पश्चोत्तरविमानावसाना देवा 3.1 श्रु० 15 अ०। स्था०। औ०। मेघाऽऽदीन स्थितान् तहेव मेह व नह व माणवं, नदेव देद तिगिरं वएज्जा। समुहिए उन्नए वापओए. वएजन्दाबुट्टवलाहय त्ति // 52 // ज नमो वा मानवं वाऽऽश्रित्य नो देवदेव इति गिरं वदेत, - देव इति नो वदेत, एवं नभ आकाशं मानवं राजानं मिथ्यावादलाघवाऽऽदिप्रसङ्गात् / कथं तर्हि वा समुत्थित उन्नतो या पयोद इति वदेता वृष्टो मार्श। दश०७ अ०। (देवानां परितापकारणानि देव- दे" / 8 / 1 / 153 / / इति दैवशब्दे ऐल एत् अइच वा। 3 प्रा०१पाद / पूर्वकृते कर्माणि, षो०७ विव० / देवा मंते ! संजयाइ वत्तवं सिया? गोयमा ! णो इणष्टे समह अभक्खाणमे यं देवाणं / देवा णं भंते !
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________________ देव 2614 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवकिदिवस असंजयाइ वत्तव्वं सिया? गोयमा ! णो इणढे समढे ज०) (अयं कुत्र भवतीति 'लोगुज्जोय' शब्दे वक्ष्यते) णिठुरवयणमेयं देवाणं / देवा णं भंते ! संजयासंजयाइ वत्तव्यं / देवकज-न०(देवकार्य) देवकृत्ये, नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अास्था चाहसिया? गोयमा ! णो इणढे समढे असब्भूयमेयं देवाणं / से किं "तं नाणं तं च विन्नाणं, तं कलासु अ कोसलं / सा बुद्धी पोरिसं तं च, खाईणं भंते! देवाइ वत्तव्वं सिया? गोयमा! देवाणं नोसंजयाइ देवकज्जेण जं वए॥१॥" इति। ध०२ अधि०। वत्तव्वं सिया। देवकम्म(ण)-न०(देवकर्मन) देवक्रियायाम, स्था०५ ठा०२ उ०। (देवा णमित्यादि) (से किं खाणं भंते ! देवाइवत्तव्यं सिय त्ति) 'से'' देवकार्मण-न०1 देवश्च कार्मणं च। तथाविधद्रव्यसंयोगे, स्था० 5 इति अथार्थः / किमिति प्रश्नार्थः (खाई ति) पुनरर्थः / णं वाक्याल- टा०२ उ०! ङ्कारार्थः / (देवाइ त्ति) यद्वस्तु तद्वक्तव्यं स्यादिति। (नोसंजयाइ वत्तव्यं | देवकलिया-स्त्री०(देवोत्कलिका) देवानां वातस्येवोत्कलिका देवो-- सियत्ति) नांसंयता इत्येतद्वक्तव्यं स्यात् / असंयतशब्दपर्यायत्वेऽपि त्कलिका / देवलहरौ, स्था०४ ठा०३ उ०। तत्समवाय परिशेषे च / नोसंयतशब्दस्यानिष्ठुरवचनत्वाद् मृतशब्दापेक्षया परलोकीभूत शब्द- | स्था०३ ठा०१ उ० जी० वदिति / भ०५ श०४ उ०। देवकहकहय-पुं०(देवकहकहक) देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छा-- देवई-स्त्री० (देवकी) कृष्णस्य वासुदेवस्य मातरि, स०। आ०क० / | वचनोलः कोलाहलो देवकहकहकः / देवकोलाहले, जी०३ प्रति०५ आव० / तिला सा च जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्या | उ०|आचा०। देवप्रमोदकलकले, स्था०४ ठा०३ उ०। रा०। (अयं कुत्र मुनिसुव्रतो नाम एकादशमो जिनो भविष्यति / स०ा 'एक्कारसमो भवति इति "लोगुज्जोय' शब्दे वक्ष्यते) देवईजीवो मुणिसुव्वओ' ती 16 कल्प। प्रव०। देवकाम-पुं०(देवकाम) देवसंबन्धिविषये, उत्त०७ अ० देवउत्त-त्रि०(देवोप्त) देवेनोप्तो देवोप्तः / देवनिष्पादिते, सूत्र०१ श्रु०१ | देवकिदिवस-पुं०(देवकिल्विष) देवकिल्विषभावनाजनिते देवभेदे, अ०३ उ०। स्था० ४ठा०४ उ०। *देवगुप्त- देवरक्षिते, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 3 उ०। कइविहा णं भंते ! देवकिदिवसिया पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा *देवपुत्र-पुंगा देवस्यपुत्रो देवपुत्रः / देवसुते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३३०॥ देवकिदिवसिया पण्णत्ता / तं जहा-तिपलिओवमट्टिईया, देवउत्तवाइ(ण)--पुं०(देवोप्तवादिन्) देवेनोप्तो देवोप्तः, कर्षकणेव तिसागरोवमट्टिईया, तेरससागरोवमद्विईया / कहि णं भंते ! वीजवपनं कृत्वा निष्पादितोऽयं लोक इत्येवंवादिनि परतीर्थिक, सूत्र०१ तिपलिओवमट्टिईया देवकिदिवसिया परिवसंति? गोयमा ! श्रु०१ अ०३ उ० उप्पिं जोइसियाणं हिटिं सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु / एत्थ णं तिपलिओवमट्टिईया देवकिव्विसिया परिवसंति। कहिणं भंते! इदमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसि आहियं / देवउत्ते अयं लोए, --- तिसागरोवमट्टिईया देवकिव्विसिया परिवसंति? गोयमा ! उप्पिं सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं हिहिँ सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु, इदमिति वक्ष्यमाणं, तुशब्दः पूर्वेभ्यो विशेषणार्थः / अज्ञानमिति एत्थ णं तिसागरोवमट्ठिईया देवकिव्विसिया परिवसंति। कहि मोहविजृम्भणमिहारिमन् लोके एकेषां न सर्वेषामाख्यातमभिप्रायः। कि णं भंते ! तेरससागरोवमट्टिईया देवकिव्विसिया परिवसंति? पुनस्तदाख्यातमिति तदाह-देवेनोप्तो देवोप्तः कर्षकणेव बीजपवनं कृत्वा गोयमा ! उप्पिं बंभलोगस्स कप्पस्स हिहिं लंतए कप्पे, एत्थ निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थः / देवैर्वा गुप्तो रक्षितो देवगुप्तो, देवपुत्रो णं तेरससागरोवमट्ठिईया देवकिदिवसिया परिवति / वेत्यादिकमज्ञानमिति। सूत्र०१ श्रु०१ 103 उ०॥ देवकिदिवसिया णं भंते ! केसु कम्मादाणेसु देवकिदिवसियत्ताए देवउपक-(देशी) पक्वपुष्पे, देवना०५ वर्ग 46 गाथा। उवउत्तारो भवंति? गोयमा ! जे इमे आयरियपडिणीया देवउल-(देवकुल) देवस्थाने, आ०म० अ०२ खण्ड। प्रा० / उवज्झायपडिणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया संघपडिणीया देवे-अव्य०(दातुम) "तुम एवमणाणहमणहिं च" ||4|441 // इति आयरियउवज्झायाणं अयसकरा अवण्णकरा अकित्तिकरा बहूहिं तुम एवादेशे 'देवं।' दानं कर्तुमित्यर्थे , प्रा०४ पाद। असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं वा 3 देवंधगार-पुं०(देवान्धकार) देवानामप्यऽन्धकारोऽसौ तच्छरीर- बुग्गाहेमाणावुप्याएमाणा बहूहिवासाइंसामण्णपरियागंपाउणंति, प्रभाया अपि तत्राप्रभावनादिति देवान्धकारः / तिमिरकाये, स्था०४ पाउणंतित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कता कालमासे ठा० २उगा देवानामपि तत्रोद्योताभावेनान्धकारभावात्। भ०६ श०५ | कालं किच्चा अण्णयरेसु देवकिदिवसिएसु देवेसु देवकिदिव
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________________ देवफिदिवस 2615 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवकिदिवसियत्त सियत्ताए उवउत्तारो भवंति, तं चेव तिपलिओवमट्टिईएसु वा, तिसागरोवमष्ट्रिईएसुवा, तेरससागरोवमट्टिईएसुवा। देवकिविसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववज्जंति? गोयमा ! जाव चत्तारि पंचणेरइयतिरिक्ख-जोणियमणुस्सदेवभवरगहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिझंति, वुझं-ति०जाव अंतं करें ति, अत्थेगइया अणाईयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकं तारं अणुपरियट्टति / भ०६ श० 330 // किल्विषिका देवास्त्रिधा। तद्यथातिविहा देवा किदिवसिया पन्नत्ता / तं जहा-तिपलिओवमद्विईया, तिसागरोवमट्टिईया, तेरससागरोवमट्टिईया / कहिणं भंते ! तिपलिओवमट्ठिईया देवा किव्विसिया परिवसंति? उप्पिं जोइसियाणं हिटिं सो हम्मीसाणे सु कप्पे सु, एत्थ णं तिपलिओवमट्ठिईया देवा किदिवसिया परिवति / कहि णं भंवे ! तिसागरोवमहिईया देवा किदिवसिया परिवसंति? उप्पिं सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं हेट्टि सणंकुमारमाहिं दकप्पेसु, एत्थ णं तिसायरोवमट्टिईया देवा किदिवसिया परिवति / कहि णं भंते ! तेरससागरोवमट्टिईया देवकिदिवसिया परिवसंति? उप्पिं बं भलोयस्स कप्पस्स हिडिं लंतगे कप्पे, एत्थ णं तेरससागरोवमट्ठिईया देवकिविसिया परिवसंति॥ "तिविहा'' इत्यादि स्फुटम्,केवलं (किदिवसिय त्ति) 'नाणस्रा केवलीण, धम्माऽऽयरियस्स संघसाहूण / माई अवन्नवाई, किब्धिसिय भावणं कुणइ / / 1 / / इति / एवंविधं भावनोपात्तं किल्विषं पापमुदय विद्यत येषां ते किल्विषिका देवानां मध्ये किल्विषिकाः पापाः। अथवा देवाक्ष ते किल्विषि काश्चेति देवकिल्विषिकाः, मनुष्येषु चण्डाला इवास्पृश्याः / स्था०३ ठा० 4 उ०। देवकि दिवसिया-स्त्री०(देवकिल्विषिकी) देवानां मध्ये किल्विषाः पापाः, अत एवाऽस्पृश्याऽऽदिधम्मणिश्चाण्डालप्रायाः, तेषामिय दैवकिल्विषिकी। संक्लिष्टभावनाभेदे, वृ० 1 उ०। प्रव०। दश०। अथ देवकिल्विषिकी विभावथिषुराहनाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सव्वसाहूणं / माई अवन्नवाई, किदिवसियं भावणं कुणइ।। ज्ञानस्य केवलिनां धर्माऽऽचार्याणां सर्वसाधूनामेतेषामवर्णवादी, तथा मायी स्वशक्तिगूहनान्मायावान्, एष किल्विषिका भावनां करोतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः / बृ० 1 उ०। देवकिदिवसियत्त-नं०(देवकिल्विषिकत्व) देवानां मध्ये किल्विषश्चाएमालप्रायोऽत एवास्पृश्याऽऽदिधर्मको, देवश्वासौ किल्विपश्चेति वा देवकिल्विषः,तस्य भावस्तत्ता। किल्विषिकदेवत्वे, स्था०४ ठा०४ उ०) चउहिं ठाणेहिं जीवा देवकिव्विसियाए कम्मे पगरेंति। तं जहा- | अरहंताणं अवण्णं वयमाणे, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वयमाणे, आयरियउवज्झायाणमवण्णं वयमाणे वा, चाउव्वण्णस्स संघस्स अवण्णं वयमाणे। अवर्णोऽश्लाघाऽसद्दोषोद्भावनमित्यर्थः / अयमर्थोऽन्यत्रैवमुच्यते'माणस्रा केवलीणं, धम्मायरियाण सव्वसाहूणं / माई अवन्नवाई, किब्धिसियं भावणं कुणइ / / 1 / / " इति / इह कन्दर्पभावना नोक्ता, चतुः स्थानकत्वादित्यवसरवायमस्या इति सा प्रदर्श्यते- 'कंदप्पे कुककुइए,दवसीले यावि हासणकरे य / विम्हावितो य सपर, कंदप्पं भावण कुणइ।।१।।'' इति। कन्दर्पः कन्दर्पकथावान्, कुकुचितो भण्डचेष्टो द्रवशीलो दर्पद्रुतगमनभाषणाऽऽदिः,हासनकरो वेषरचनादिना स्वपरहासोत्पादको, विस्भापक इन्द्रजाली। स्था० 4 ठा०४ उ०। तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अ जे नरे। आयारभावतेणे अ, कुव्वई देवकिव्विसं / 46|| तपस्तेनो वाग्रस्तेनो रूपस्तनस्तुयो नरः कश्चित, आचारभावस्तेनश्च पालयन्नपि क्रियां तथाभावदोषात्, किल्विषं करोति। किल्विषिकं कर्म निवर्तयतीत्यर्थः / तपस्तेनो नाम क्षपकरूपकतुल्यः कश्चित्केनचित् पृष्टस्त्वमसौ क्षपक इति / स पूजाऽऽद्यर्थमाह- अहम् / अथवा वक्तिसाधय एव क्षपकाः, तूष्णीं वाऽऽस्ते। एवं वाकस्तेनो धर्मकथिकाऽऽदितुल्यरूपः कश्चित्केनचित्पृष्ट इति। एवं रूपस्तेनो राजपुत्राऽऽदितुल्यरूपः। एवमाधारस्तेनो विशिष्टाऽऽचारवत्तुल्यरूप इति। भावस्तेनस्तु परोत्प्रेक्षितं कशित् किचित् श्रुत्वा स्वयमनुत्-प्रेक्षितमपि मयैतत्प्रपश्चन चर्चितमित्याहेति सूत्रार्थः। लखूण वि देवत्तं, उववन्नो देवकिदिवसे। तत्थावि से न याणाइ, किं मे किया इमं फलं / / 47 / / लब्ध्वाऽपि देवत्वं तथाविधक्रियापालनवसेन उपपन्नो देवकिल्विषे देवकिल्विषिकाये इति, तत्राप्यसौ न जानात्यविशुद्धावधिर्ना, किं मम कृत्वा इदं फलं किल्विषिकदेवत्वमिति सूत्रार्थः / अत्रैव दोषान्तरमाहततो वि से चइत्ता णं, लब्भिही एलमूअयं / नरगं तिरक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा / / 48 / / ततोऽपि देवलोकादसौ च्युत्त्वा लप्स्यते एलमूकतामजभाषाऽनुकारित्वं मानुषत्वे, तथा नरकं तिर्यग्योनि वा पारम्पर्यण लप्स्यते, बोधिर्यत्र सुदुर्लभा राकलसंपन्निबन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्तिर्दुराया। इह च प्राप्नोत्येलमूकतामिति वाच्ये असकृद्भवप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति भविष्यत्कालनिर्देश इति सूत्रार्थः। प्रकृतमुपसंहरतिएयं च दोसं दठूणं, नायपुत्तेण भासियं / अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवजए॥४६|| एतं च दोषमनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किल्विषिकत्वादिप्राप्तिरूपं दृष्टुराऽऽगमतः ज्ञातपुत्रेण भगवता वर्द्धमानेन भा
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________________ देवकिदिवसियत्त 2616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवबंदग पितमुकम्, अणुमात्रमपि स्तोकमात्र, : . देवकुरुमहदुमावास-पुं०(देवकुरुमहादुमावास) आवासगदे. ''दो भादावर्ती , माया मृषावादमनन्तरोदित : वकतमहाद्रुमावासा।'' स्था० 2 ठा०३ उ०। सत्रार्थः दश०५ अ०२ उ०। देवकुरुय-पुं० टवकुरुज) अकर्मभूमिकमनुष्यभेद, अनु० 'पंचाहें देवकिदिवसीया-स्त्री०(दैवकिल्विषिकी 'दला .:: दबकुरुदहिं!'' प्रज्ञा० 1 पद। बृ०१ उ० देवकुल-न०(देवकुल) राशिखरे देवप्रासादे,प्रश्न० १आश्र द्वारा कम देवकु मार-पुं०(देवकुमार) देवबा, "........ अन आचाला देवबालिकायाम, राधा देवकुलिय-jo(देवकुलिक) देवस्थाननियुक्ते देवपूजके, आoमर देवकुर-ए० (देवकुरु) जम्बूमन्दरपर्व 12 .. 1 असण्ड। देशविशेषे, स्था० 2 ठा०३ उ० ज ज देवकुलिया-स्त्री०(देवकुलिका) देहर्याम्, सेन०। जिनमन्दिने भ्रमन्त्यो स्वनामख्यालेऽन्यतम क्षेत्र, स्था०१० ठान। .::: हरी इल्यपराया देवकुलिकास्त्रयोविंशतिश्चतुर्विशतिर्वा कार्या इति दिशि देवकुरुषु दशेषु स्वनामख्याते हद च / रा - . प्रश, उत्तरम्... मुलनायकात्पृथक् चतुर्विशतिदेवकुलिकाः क्रियन्तं दीप पट सु अकार्मभूमिषु स्वनामख्याताया इ. प्रिया सूत्रधारा वदन्तीति: 283 प्र०ा सेन०३ उल्ला०।। ठा प्रा० / रतिकरपर्वते उत्तरस्थायामी र 1; देवगइ-रत्री०(देवगति) देवेषु गतिर्यख्यासौ देवगतिः, देवत्व-प्रसाधिका राभगक्षताथा अग्रमहिष्याः स्वनामख्याता सा . शमति गतिः / स्था०५टा० 3 उ० दीव्यन्तीति देवाः नाविनः तेक 2010 4 02 उमजी। ती०। जम्बूद्वीप सामनारा: गति सभानन्याद् देवगतिः, नामकर्मोदवसंपाश्चो देवत्वलक्षा: स्वाभाया स्तुर्थे कूट, स्था० 7 ठा० अर्द्ध परयायविशेषो वेति दक्गतिः। गतिभेदे, स्था० 10 ठा०। उता रा०। वास्थ स्वनामख्याते तृतीय वाटे देवगय-गित) अर्हताश्रित, दर्श०५ तत्त्व! दो सास्य दक्षिणपश्चिमाया दिशिनात... देवगुण-०(देवगुण) वीतरागत्वाऽऽदौ, षो०५ विका कुट्याक्षिणपश्चिमर भरवनामरख्यातक्टन Avi देवगुत्त--पुं० (देवगुप्त) स्वनाभख्याते सप्तमे ब्राहाणपरिवाजले, ओम 'दा देवका भा।'' स्था०२ ता० 3.! जमानामरयाले भीष्यत्सु चतुर्विशतितिर्थकरेष्वन्यतमे तीर्थकरे, ति। कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरा लाभ कुरा पण्णता? देवचंद-(दवचन्द्र) दीपचन्द्रपाटकशिष्ये स्वनामख्यातेऽष्टकग्रन्थटीगोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं णिसहस्सवासहरपट्य--- काकतरि, अष्ट यस्स उत्तरेण विज्जुप्पहस्स वक्खारपव्वयस्स पुरच्छिमेणं "तच्छिष्येण सुबोध र्थ, देवचन्द्रेण धीमता। सोमणसस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चच्छिमेयं एत्थ णं महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता, पाईणपडीणायया उदीण व्याख्याता सुगमा शुद्धा, टीकेय तत्त्वबोधिनी // 11 // " दाहिणवित्थिण्णा इक्कारस जोअणसहस्साइं अद्ध य वायाले ''श्रीरयाद्वादरहस्याना, ज्ञानात् लब्धोदयेन च / जोअणसए दुण्णि अएतूणवीसइभाए जोअणस्साधिक्खंभेजह देवचन्द्रेण बोधार्थ, सटीकेयं विनिर्मिता॥१७॥" अष्ट०३२ अष्ट। उत्तरकुराए वत्तव्वया०जाव अणुसज्जमाणा पम्हगंधा मिगगंधा वृह क्षेत्रसमासवृतिकारकस्य सिद्धसूरेः प्रशिष्ये कमसूर: शिष्य, अमधासहा तेयमूली सणिचारी॥ अयमाचार्यः विक्रमसंवत् 1165 मिते वर्तमान आसीत् / द्वितीयो (कहिण भल ! इत्यादि) व भदन्त ! महाविदह वर्ण राना देवचन्द्रसूरिः श्रीहेमचन्द्रसूर : शिष्यः शान्तिनाथचरित्र स्थानाकुरवः प्रक्षमा? गातम ! मन्दरगिरे दक्षिणता निक प्रवृत्तिगन्धयोः कर्ताऽऽसीत् / तृतीयाः प्रद्युम्नसूरिशिष्यो मानदेवसूरिविद्युत्प्रभवक्षाएकाराने ब्रतकोणस्थगजदन्तकोगिरिः पर्वत: गगा- ! पुणे चन्द्रसुरिणोर्गुरुः, स च विक्रमसंवत् 1262 मिते वर्तमान आसीत्। क्षकाराने पश्चिमायाम् अत्रान्तरे देवकुरवो नाग HD !:'. देवचंदगणि-दु(देवचन्द्रगणिन्) सटीकाष्टकस्तुतेः कर्तरि गणेनि, ग खत् / इमाश्चोत्तरकुरूणां यमलजातका वितिसादविदेशमा क मलाका किसान विक्रमसंवत 1648 मिते विद्यमान आसीत्। जै०३० / यथोत्तरकुरूणां वक्तव्यता / कियदमित्या.... यावर स... ! देवचिंतग-पुं०(देवचिन्तक) राज्ञा शुभाशुभचिन्तके, व्य० 10 उ० तारा वर्तमानाः, सन्तीति वर्त्तमानानिर्देशः कालमा देवचेइय-न० (देवचैत्य) जिनप्रतिमायाम, दशा० 10 अ०। . साप्रति पादनार्थः ! के ते इत्याह- पद्मगन्धाः , म:म: देवचण-न०(देवार्चन) देवपूजायाम, "देवगुणपरिज्ञानात्तबावानु५.पाः, तोजाइलिनः शनैश्चारिणः / एते मनुष्यजातिभेदाः ..." गतमाम विधिना। स्यादादराऽऽदियुक्तं, यत्तद्देवार्चन चेष्टम्। 'षो०५ चारठ्यानं प्राक् सुषमावर्णनतो ज्ञेयम। जं०४ वक्षः। देवकुरुमहदुम-पुं०(देवकुरुमहाद्रुम) दुमभेद, मा . सामान देवछंदग-ए० (देवच्छन्दक) देवाऽऽसने, जी०३ प्रति० 4 20 / राल। ठा०३ उ०। आम
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________________ देवजस २६१७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवदत्त देवजस-पुं०(देवयशस्) भगवतोऽरिष्टनेमिनः शिष्ये स्वनामख्यातेऽ- सिद्धान्तो देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैर्नवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकाऽऽरूढः नगारे, आ०म०१ अ०२ खण्ड। आ०चू०। कृतः, ततः पुराऽन्यपुस्तकानिबहून्यभूवन्निति। 23 प्र०। सेन०४ उल्ला०। देवजाण-न०(देवयान) देववाहने, पञ्चा०२ विव० देवढिपत्त-पुं०(देवर्द्धिप्राप्त) देवर्द्धिविकुर्वणासमर्थेषु, कल्प० 1 अधि० देवजाणी-स्त्री० (देवयानी) शुक्रस्य महाग्रहस्य, दुहितरि, ती० 27 कल्प। ६क्षण! देवजिण-पुं०(देवजिन) भारते वर्षे स्वनामख्याते द्वाविंशतितमें देवड्डिवण्णण-न०(देवर्द्धिवर्णन) देवानामृद्धेर्विभूतिरूपाऽऽदिलक्षणयाः भविष्याते जिने, प्रव०७ द्वार। प्रकाशने, ध०। यथा तत्रोत्तमा रूपसंपत्, सस्थितिप्रभावसुखद्यु तिलेश्यायांगो, विशुद्धेन्द्रियावधित्वलक्षणः, प्रकृष्टानि भोगसाधनानि देवजुइ-स्त्री०(देवद्युति) शरीराऽऽमरणाऽऽदीनां दीप्तियोगे, नि०१ श्रु० दिव्यो विमाननियह इत्यादि वक्ष्यमाणमेव, तथा सुकुलाऽऽगमनोक्ति३ वर्ग४ अ०। राम रिति। देवस्थानात् च्युतावपि विशिष्ट देशे विशिष्ट काले निष्कलड़केऽन्यये देवज्जग-पुं०(देवार्जक)देवश्रेष्ठे, आ०म०११०२ खण्ड। उदग्रे सदाचारेणाख्यायिकापुरुषयुक्ते अनेकमनोरथावपूरकमत्यन्तदेवट्ठाण-न०(देवस्थान) देवभेदे, "चउवीस देवडाणा।'' चतुर्विशति निरवहां जन्मेत्यादिवक्ष्यमाणलक्षणैव, तथा कल्याणपरम्पराऽऽख्यानदेवस्थ नानि देवभेदाः दश भवनपतीनाम्, अष्टौ व्यन्तराणा, पञ्च मिति। ततः सुकुलाऽऽगमनादुत्तरं कल्याणपरम्परायास्तत्र सुन्दरं रूपम्, ज्योतिष्काणाम्, एकं कल्पोपपन्नं वैमानिकानाम् / एवं चतुर्विशतिः। आलयो लक्षणाना, रहितमामयेनेत्यादिरूपाया अत्रैव धर्मफलाध्याये स०२४ समन वक्ष्यमाणाया आख्यानं निवेदनं कार्यमिति! ध०१ अधि०। देवट्ठिइ-स्त्री०(देवस्थिति) देवमर्यादायाम्, स्था०। देवढिवायग-पुं०(देवर्द्धिवाचक) स्वनामख्याते आचार्ये, यदाहुचउव्विहा देवाणं ठिई पण्णत्ता। तं जहा-देवे णामेगे, देवसिणाए देवर्द्धिवाचकवराः। कर्म० 5 कर्म०। णामेगे, देवपुरोहिए णामेगे, देवपज्जलणे णामेगे। देवणागसूरि-पुं०(देवनागसूरि)कर्मस्तवटीकाकृतो गोविन्दगणिनो गुरी, ध्यान्हवत्वमपि स्यादतो देवस्थितिसूत्रम्, स्थितिः क्रमो मर्यादा, जै०इ०। राजाऽमात्याऽऽदिमनुष्यस्थितिवत्, देवः सामान्यो, नामेति वाक्या- देवणिकाय-पुं०(देवनिकाय) देवसमानधर्मप्राणिसचे, स्था। लङ्कारे। एकः कश्चित्, स्नातकः प्रधानो देव एव, देवानां वा स्नातक इति नव देवनिकाया पण्णत्ता / तं जहाविग्रहः / एवमुत्तरत्रापि, नवरं पुरोहितः शान्तिकर्मकारी। (पजलणे त्ति) "सारस्सय माइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य। प्रज्वल्यति दीपयति वर्णवादकरणेन मागधवदिति प्रज्वलित इति / तुसिता अव्वावाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य॥१॥" स्था०४ ठा० 10 // सारस्वता आदित्या वह्रयो वरुणा गर्दतीयास्तुषिता अव्याबाधा आग्नेय देवडुहडुहक-न०(देवदुहृदुहेत्येवं) देवदुहदुहेत्येवं शब्दप्रतिपादने, एते कृष्णराज्यन्तरेष्वष्टासु परिवसन्ति, रिष्टस्तु कृष्णराजिमध्यभागजी०३प्रति०४ उ०। रा० वर्तिनि रिष्टाभे विमानप्रस्तटे परिवसतीति। स्था०६ ठा०। सूत्र०) देवड्डि-स्त्री०(देवर्द्धि) विमानरत्नाऽऽदिसंपदि, स्था०३ ठा० ३उ०। | देवतम-न०(देवतमस्) तमःकायभेदे, स्था०४ ठा०२ उ०। परिवाराऽऽदिसम्पदि च / नि० 120 3 वर्ग 4 अ०। बन्धदशाना देवता-न०(देवत्व) देवभावे, स्था०४ ठा०४ उ०। स्वनागख्याते तृतीयेऽध्ययने, स्था० 10 ठा०। ('इड्डि'शब्दे द्वितीय- देवताउववण-न०(देवतोपवन) व्यन्तरकानने, पञ्चा०७ विव०। भागे 582 पृष्ठे वक्तव्यता गता) देवतिग-न०(देवत्रिक) देवगतिदेवानुपूर्वी देवाऽऽयूरूपे, पं० सं०५ द्वार। देवडिगणिखमासमण-पुं०(देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण) स्वनामख्याते देवती-स्त्री०(देवकी) कृष्णस्य वासुदेवस्य मातरि, अन्त०३ वर्ग०८ अ०। बालभ्या वाचनायाः कारके आचार्य , जै०इ०। अयमाचार्यः वीरमोक्षात् | देवथइ-स्त्री०(देवस्तुति) "समासे वा"||१२।६७।। शेषाऽऽ-देशयोः 180 मिते विक्रमसंवत् 510 मिते विद्यमान आसीत्। अनेन वलभीपुरे समासे वा द्वित्वमिति वैकल्पिक थस्य द्वित्वम् / 'देवथुइ / देवथुई' सर्व आगमः पुस्तकाऽऽरू ढोऽकारि / एतत्समये एक पूर्व देवस्तवे, प्रा०२ पाद। व्युच्छेदाऽवशिष्टमासीत् / जै०इ० / “सुत्तत्थरयण भरिए. खम देवदत्त-पुं०(देवदत्त) देवा एनं देवासुरिति देवदत्तः। देवेर्दते, पिं० "जाति दममवगुणेहि संपन्ने / देवड्डिखमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि देवदत्ता, गिहीव अगिही व तेसि दाहामि।" (अत्र देवदत्त पदस्य बहवोऽर्थाः / / 14 / / " कल्प० 2 अधि०८ क्षण / श्रीकल्पसूत्रं श्रीमहावीरादनु 'आधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे 224 पृष्ट प्रतिपादिताः) उत्तरमथुरावानवशताशीतिवर्षातिक्रमे देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैर्लिपितया पुस्तकाऽऽरूढ स्तव्ये स्वनामख्याते वणिजि,दर्श०४ तत्त्व। ती०। धातकीखण्डभरते चक्रे। ततः पुराऽन्यत्किमपि पुस्तकमभून्न वेति प्रश्रे, उत्तरम्- सर्वोऽपि | हरिषणस्य राज्ञः समुद्रदत्तायां भार्यायाजाते स्वनामख्याते पुत्रे, उत्त०६
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________________ देवदत्त 2618 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवदत्ता अ०। (तत्कथा 'णमि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1808 पृष्टे प्रतिपादिता) देवदत्ता-स्वी०(देवदत्ता) चम्पायां नगा स्वनामख्यातायां गणिकायाम, दश०३ अ०। ती०। ज्ञा०। (तत्कथा 'दक्खन' शदेऽस्मिन्नेव भागे 2440 पृष्ठे द्रष्टव्या) वीतभयनगरे उदायननृपता हिप्याः प्रजावत्याः स्वनामख्यातायां चेट्याम्, आ०म०१अ०२ खण्ड आआप्रश्नः। विधाकश्रुतस्य स्वनामख्याते नवमेऽध्ययने, स्था०। तत्र किल सुप्रतिष्ठ नगरे सिंहसेनो राजा श्यामाभिधानदेव्यामनुरक्तः, तद्चनादेवकानानि पञ्च शतानि देवीनां तां मिमारयिषूणि ज्ञात्वा कुपितः रान् तन्माणामेकोनपञ्चशतान्युपनिमन्त्र्य महत्यगारे आवासं दचा भक्ताऽऽदिभिः सम्पूज्य विश्रब्धानि सदेवीकानि सपरिवाराणि सर्वती द्वारबन्धनपूर्वकमग्निप्रदानेन दग्धवांस्ततोऽसौ राजा मृत्वा षष्ट्या पृथिव्यां च गया रोहित के नगरे दत्तसार्थवाहस्य दुहिता देवदत्ताऽभिधानाऽभवत् / सा च पुष्पनन्दिना राज्ञा परिणीता, स्वमातुभक्तिपरतया तत्कृत्यानि कुर्वन्नासामास तया च भोगविघ्नकारिणीति तन्मातुज्वलल्लोहदण्डस्यापानप्रक्षपात्सहसा दाहनबधो व्यधायि, राज्ञा चासौ विधिधविडम्बनाभिर्विडम्व्य विनाशितति विपाकश्रुते देवदत्ताऽभिधानं नवममिति / स्था० 10 ठा० एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रोहीडए णाम णयरे होत्था रिद्ध०२, पुढवीवडिंसए उजाणे, धरणे जक्खे, वेसमणदत्तो राया, सिरी देवी, पूसणंदीकुमारे जुवराया, रोहीडएणयरे दत्तणामं गाहावई परिवसइ अड्डे, कण्हसिरी भारिया। तस्स णं दत्तस्स धूया कण्हसिरीए अत्तया देवदत्ता णामं दारिया होत्था, अहीण० जाव उकिट्ठसरीरा / तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा णिग्गया / तेणं कालेणं तेणं समएणं जेटे अंतेवासी छट्ठखमण तहेव०जाव राय मग्गं ओगाढे हत्थी आसे पुरिसे पासइ, तेसिं पुरिसाणं मज्झगयं पासइ एगं इत्थियं अवउडगबंधणं उक्खित्तकण्णणासं० जावसूलभिज्जमाणं पासइ, इमे अब्भत्थिए 4 तहेव णिग्गए०जाव एवं बयासी- एसिणं भंते ! इत्थिया पुव्वभवे का आसी? एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे सुपतिढे णामं णयरे होत्था रिद्ध० 3, महासेणे राया, तस्स णं महासेणस्स रण्णो धारणीपा-मोक्खं देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्था / तस्स णं महासेणस्स पुत्ते धारिणीए देवीए अत्तए सीहसेणे णामं कुमारे होत्था अहीण-जुवराया, तए णं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अम्मापियरो अण्णया कयाइं पंच पासायवडिंसयाई करेइ अब्भुवगए। तएणं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अण्णया कयाइ सामापामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकण्णगसयाणं एगदिवसेणं पाणि गिण्हावेइ, पंचस-य उदाओ। तए णं सीहसेणस्स कुमारस्स सामापामोक्खेहिं पंचहिं देवीसएहिं सद्धिं उप्पिं० जाव विहरइ। तएणं से महासेणे राया अण्णाया कयाइ कालधम्मुणा० णीहरणं राया जाए महया व तएणं से सीहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिए 4 अवसेसाओ देवीओ णो आढाइणो परिजाणाइ, अणाढाइमाणे अपरिजाणमाणे विहरइ / तए णं तासिं एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एकूणाई पंच माईसयाइं इमीसे कहाए लट्ठाई समाणीयाए, एवं खलु सीहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिए 4, अम्हं धूयाओ णो आढाइ, णो परिजाणइ, तं सेयं खलु अम्हं सामादेवि अग्गिपओगेण वा विसप्पओगेण वा सत्थप्पओगेण वा जीवियाओ ववरोवित्तए, एवं संपेहेइ संपेहेइत्ता सामादेवीए अंतराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य परिजागर-माणीओ विहरंति / तए णं सा सामादेवी इमीसे कहाए लट्ठा समाणे एवं बयासी-एवं खलु मम पंचण्हं सवत्तीसयाई, इमीसे कहाए लढे समाणे अण्णमण्णं एवं बयासी-एवं खलु सीहसेणे राया० जाव पडिजागरमाणीओ विहरंति, तं ण णजति णं ममं के णइ कुमरणेणं मारेस्सति त्ति कट्ट भीया जेणेव कोवघरे तेणेव उवागच्छइ, ओहय० जाव झियाइ / तए णं से सीहसेणे राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे जेणेव कोवघरए जेणेव सामादेवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता सामादेवि ओहयजाव पासइ, पासइत्ता एवं वयासी-किं णं तुमं देवाणु-प्पिा ! ओहय०जाव झियाइ। तए णं सामादेवी सीइसेणेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी उप्फेणउप्फेणियं सीहसेणरायं एवं बयासी-- एवं खलु सामी ! ममं एकूणं पंच सवत्तीसया इं,पंच सवत्तीसयाणं इमीसे कहाए लद्धट्ठएसवणयाए अण्णमण्णं सद्दावेइत्ता एवं बयासी-एवं खलु सीहसेणे राया सामादेवीए मुच्छिए 4 अम्हं धूयाओ णो आढाइ०जाव अंतराणि य छिद्दाणि य०जाव पडिजागरमाणीओ विहरंति, तं ण णज्जइ णं ममं केणइ कुमरणेणं मारिस्सइ त्ति कटु भीया 4 झियामि / तए णं से सीहसेणे राया सामादेविं एवं बयासीमा णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय० जाव झियाहि ति, अहं णं तहा वत्तिहामि, जहा णं तव णत्थि कतो वि सरीरस्स आवाहे वा पवाहे वा भविस्सइ त्ति कटु ताहिं इट्टाहिं समासासे ति, तओ पडि णिक्खमई, पडिणिक्खमइत्ता कोडं बियपुरिसे, सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! सुपइट्ठियस्स नयरस्स बहिया एगं महं कूडागारसालं करेह, अणेगखंभपासाईयं०४ करेह, करे हत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह / तए णं ते कोडं बियपुरिसा करयल०जाव पडिसुणेइ, पडिसुणे इत्ता
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________________ देवदत्ता 2616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवदत्ता सुप्पइट्ठियस्स णयरस्स बहिया पचच्छिमे दिसिभाए एग महं अण्णया कयाइ पहाया०जाव विभूसिया बहूहिं खुजाहिं०जाव कूडागारसालंजाव करेइ, अणेगखंभपासाइया जेणेव सीहसेणे परिक्खित्ता उप्पिं आगासतलगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी राया तेणेव उवागच्छड, उवागच्छइत्ता तमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ। विहरइ / इमं च णं वेसमणदत्ते राया ण्हायाजाव विभूसिए आसं तए णं से सीहसेणे राया अण्णया कयाइ एगूणगाणं पंचण्हं देवी- दुरूहइ, बहूहिं पुरिसेहिं संपरिबुडे आसवाहणियाए णिज्जायमाणे सयाणं एगूणाई पंच माईसयाइं आमंतेइ / तए णं तासिं एगूणं दत्तस्स गाहावइस्स गिहस्स अदूरसामंते वीईवयमाणे / तए णं पंचण्हं देवीसयाणं एगणं पंच माइसयाई सीहसेणेणं रण्णा आ- से वेसमणे रायाजाव वीईवयमाणे देवदत्तं दारियं उप्पिं मंतियाइं समाणाई सव्वालंकारविभूसियाई करेइ, जहा- आगास-तलगंसि कीलमाणिं पासइ, पासइत्ता देवदत्ताए दारियाए विभवेणं जेणेव सुपइ8 णयरे जेणेव सीहसेणे राया तेणेव रूवेण य जोटवणेण य लावण्णेण य०जाव विम्हिए कोडं बियउवागच्छइ, तए णं से सीहसेणे राया एकूणं पंचदेवीसयाणंव पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-कस्स णं देवाणुप्पिया ! एकूणं पंचण्हं माईस-याणं कू डागारसालं आवसहं दलयइ / एसा दारिया, किं वा णामधेन्जेण? तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तए णं से सीहसेणे राया कोडु बियपुरसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता वेसमणरायं करयल०एवं बयासी-एस णं सामी ! दत्तसत्थएवं बयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाणं वाहस्स धूया कण्हसिरिअत्तया देवदत्ता णामं दारिया रूवेण य खाइमं साइमं उवणे ह, सुबहुपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं च जोवणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा / तए णं से कूडागारसालं साहरह / तए णं ते कोडं विय० तहेव०जाव वेसमणे राया आसवाहणिओ पडिणियत्ते समाणे अभिंतरसाहरइ / तरणं तासिं एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणपंचण्हं हाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासीगच्छह णं तुब्भे माईसयाई०जाव सव्वालंकारविभू-सियाइं तं विउलं असणं पाणं देवाणुप्पिया ! दत्तस्स धूयं कण्हसिरीअत्तयं देवदत्तं दारियं खाइमं साइमं सुरं च०६ आसाए-माणा 4 गंधव्वेहिं णाडएहि य पूसणं दिस्स जुवरण्णो भारियत्ताए वरेह, जइ वि य उवगीयमाणाई विहरइ। तएणं से सीहसेणे राया अद्धरत्तकाल- सव्वरजसुक्का / तए णं से अभिंतर-ट्ठाणिज्जा पुरिसा वेसमणसमयंसि बहूहिं पुरिसेहिं संपरिबुडे जेणेव कूडागारसाला तेणेव रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठाकरयल० जाव एवं पडिसुणेइ, उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता कूडागा-रसालाए दुवाराई पिहेइ, पडिसुणेइत्ता बहाया०जाव सुद्धप्पावेससं-परिवुडा / तए णं कूडागारसालाओ समंता अगणिकायं दलयति / तए णं तासिं जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छद, तए णं से दत्ते सत्थवाहे एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणगाणं पंच माइसयाइं सीहरण्णो ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पासइत्ता हट्ठ आसणाओ अब्भुट्टेइ, आलीवियाइं समाणाई रोयमाणाई 3 अत्ताणाई असरणाई सत्तकृपयाइं अब्भुग्गए आसणेणं उवणिमंतेइ, उवणि-मंतेइत्ता कालधम्मुणा संजुताई / तए णं से सीहसेणे राया एयकम्मे 4 | ते पुरिसे आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं बयासी-संदिसंतु सुबहु०जाव समज्जिणित्ता चउतीसं वाससयाई परमाउं पालइत्ता णं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पओयणं? तएणं ते राय-पुरिसा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं वावीसं दत्तं सत्थवाहं एवं बयासी- अम्हे णं देवाणुप्पिया ! तव धूयं सागरोवमाइं ठिती उववण्णे, से णं ताओ अणंतरं उव्व-ट्टित्ता कण्हसिरीअत्तयं देवदत्तं दारियं पूसणं दिस्स जुवरण्णो भारियत्ताए इहेव रोहीडएणयरे दत्तस्स सत्थवाहस्स कण्हसिरीए भारियाए वरेमो, तं जइ णं सि देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिजं कुच्छिसि दारियत्ताए उववण्णे, तेणं सा कण्हसिरी णवण्हं वा सरिसो वा संजोगो, दिजउ णं देवदत्ता भारिया पूसणदिस्स मासाणंजाव दारियं पयाया सुकुमालजाव सुरूवं / तए णं जुवरण्णो, भण देवाणुप्पिया ! किं दलयामो सुक्कं? तए णं से दत्ते तीसे दारियाए अम्मापियरो णिव्यत्तवारसाहियाए विउलं असणं ते अभिंतरठाणपुरिसस्स एवं बयासी-एयं च णं देवाणुप्पिया ! पाणं खाइमं साइमं० जाव मित्तणामधेचं करेइ, होउणं दारिया ममं सुकं जणं वेसमणदत्ते राया ममंदारियाणिमित्तेणं अणुगेण्हइ, देवदत्ता णामेणं / तए णं सा देवदत्तापंचधाईपरिग्गाहिया जाव २ते ठाणपुरिसे विउलेणं पुप्फवत्थ-गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ, परिवड्डइ। तएणं सा देवदत्ता दारिया उम्मुक्कबालभावे जोव्वणेण पडिविसजेइ / तए ण से ठाणपुरिसे जेणेव वेसमणे राया तेणेव य रूवेण य लावण्णे ण य०जाव अईव 2 सरूवा उकिट्ठा उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता वेसमणस्स रण्णो एयमéणिवेदेइ। तए उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था / तए णं सा देवदत्ता भारिया ___णं से दत्ते गाहावई अण्णया सोभणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्त---
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________________ देवदत्ता 2620 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवदत्ता मुहत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेइत्ता मित्तणाई आमतेइ, बहाए०जाव पायच्छित्ते सुहासणवरगए तेणं मित्तणाइसद्धिं संपरिवुडे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा 4 / एवं च णं विहरइ, जिमियभुत्तुत्तरागए आयंते 3 तं मित्तणाई विउलं गंधपुप्फ०जाव अलंकारेणं सक्कारेइ, सक्कारेइत्ता देवदत्तं दारियं ण्हायं०जाव विभूसियं सरीरं पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहेए, दुरूहिएत्ता सुबहुमित्त०जाव सद्धिं संपरिबुडे सव्विड्डीएन्जाव सव्वरवेणं रोहिडगं णयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव वेसमणे रण्णो गिहे जेणेव वेसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करयल० जाव बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता वेसमणे देवदत्तं दारियं उवणेइ। तए णं से वेसमणे देवदत्तं दारियं उवणीयं पासइ, पासइत्ता हट्ठ विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेइत्ता मित्तणाइं आमंतेइ, जाव सक्कारेइ, सम्माणेइ, पूसणंदिकुमारं देवदत्तं दारियं पट्टयं दुरूहेइ, दुरूहेइत्ता सेयापीएहिं कलसेहिं मज्जावेइ, मज्जावेइत्ता वरणेवत्थाई करेइ, करेइत्ता अग्गिहोम करेइ, पूसणंदिकुमारं देवदत्ताए पाणिं गिण्हावेइ। तएणं से वेसमणदत्ते राया पूसणंदिस्स कुमारस्स देवदत्तं दारियं सव्वड्डीए०जाव रवेणं महया इड्डीसक्कारसमुदएणं पाणिग्गहणं करेइ, देवदत्ताए भारियाए अम्मापियरो मित्त० जाव परियणं च विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं वत्थगंधमल्लालंकारे य सक्कारेइ०जाव पडिविसज्जेइतएणं से पूसणंदिकुमारे देवदत्ताए दारियाए सद्धिं उप्पिंपासायफुट्टवत्तीसं उपगिज्झइ, उपगिज्झइत्ता जाव विहरइ / तए णं तीसे वेसमणे राया अण्णया कयाइ कालधम्मुणा णीहरणं०जाव राया जाए पूसणंदी। तए णं से पूसणंदी राया सिरीए देवीए मायाभत्ते याविहोत्था, कल्लाकल्लिं जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पायपडाणं करेइ, करेइत्ता सयपागसहस्सपागे हिं तेले हिं अडिभंगावेइ, अद्विसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउदिवहाए संवाहणाई संवाहावेइ, संवाहावेइत्ता सुरभिणा गंधवट्टएणं उव्वट्टावेइ, उव्वट्टावेइत्ता तिहितिण्णिपाणीए, ण्हवरावइ, उदएहिं मज्जावेइ, मज्जावेइत्ता तं जहा उसिणोदएणं, सीओदसणं, गंधोदएणं, विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयावेइ, सिरीए देवीए ण्हायाए०जाव पायच्छित्ताए०जाव जिमियभुत्तुत्तरागयाए तओ पच्छा ण्हाइ, भुंजेइ वा उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। तए णं तीसे देवदत्ताए देवीए अण्णया पुव्वरत्तावरत्तकाल- सभयंसि कुडुवजागरियं करेइ, करेइत्ता इमेयारूवे अब्मतिथए 4 एवं खलु पूसणंदि-राया सिरीए देवीए माइभत्ते० जाव विहरइ, तं एएणं विधाएणं णो संचाएमि अहं पूसणंदिणा रण्णा सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे, एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता सिरीए देवीए अंतराणि य 3 पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ / तए णं सा सिरी देवी अण्णया कयाइ मज्जावी विरहियसयणिजंसि सुत्ताजाया यावि होत्था। इमंचणं देवदत्ता देवी जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सिरीदेवि मज्जावीयं विरहियसयणिज्जंसि सुहपसुत्तं पासइ, पासइत्ता दिसालोयं करेइ, करेइत्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता लोहदंडं परामुसइ, परामुसइत्ता लोहदंडं तावेई, तावेइत्ता तत्तं समजोइभूयं फुल-किंसुयमाणं संडासएणं गहाय जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सिरीए देवीए अपाणंसि पक्खेवेइ / तए णं सा सिरी देवी महया महया सद्देणं आरसित्ता कालधम्मु-णा०। तए णं से सिरीदेवीए दासचेडीओ आरसियसई सोच्चा णिसम्म जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता देवदत्तं देविं तओ अवकम्ममाणिं पासइ, पासइत्ता जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सिरीदेविं णिप्पाणं णिचेटुं जीवविप्पजढं पासइ, पासइत्ता हा हा अहो अकजमिति कट्ट रोयमाणी 3 जेणेव पूसणंदी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पूसणंदिरायं एवं बयासी-एवं खलु सामी! सिरी देवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव जीवियाओ ववरोविया। तएणं से पूसणंदी राया तासि दासचेडीणं अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म महया माइसोएणं अफुण्णे समाणे फरसुणियत्ते विव चंपगयायवे घसइधरणीतलंसि सव्वंगेहिं सण्णिपडिए। तए णं से पूसणंदी राया मुहुत्तरेणं आसत्थे समाणे बहूहिं राईसर०जाव सत्थवा-हाहिं मित्त० जाव सयणेण य सद्धिं रोयमाणे 3 सिरीए देवीए इड्डीए गीहरणं करेइ, करेइत्ता आसुरत्ते 6 देवदत्तं देविं पुरसेहिं गिण्हावेइ, गिण्हावेइत्ता एएणं विहाणेणं वज्झं आणवेइ / एवं खलु गोयमा ! देवदत्ता देवी पुरा०जाव विहरइ / देवदत्ता णं भंते! देवी इओ कालमाने कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति? गोयमा ! असीइवासाइं पर० कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववण्णे,संसारो वणस्सइ,तओ अणतरं उव्वट्टित्ता गंगपुरे णयरे हंसत्ताए पचाया हिति, से णं तत्थ साउणिएहिं बधिए समाणे तत्थेव गंगपुरे सेट्टिबोही सोहम्मे महाविदेहेसिज्झिहिति०जाव अंत काहिति।
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________________ देवदत्ता 2621 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवद्धिनमण (अध्भुनगय ति) इदमेव दृश्यम्- "अभुग्गयमूसियपहसिए विवा" अभ्युदतोच्छतानि अत्यन्ताचानि प्रहसितानीव हसितुमारब्धानीवेत्यर्थः / / "मणिकणगरयणचित्ते।" इत्यादि। “एगं चणं महं भवण करति अणेगखभसटासनिविलु।' इत्यादि भवनवर्णकसूत्र दृश्यम्। (पंचसथा उदाउ ति) हिरण्यकोटिसुवर्णकाटिप्रभृतीनां प्रेषणकारिकान्तानां पदार्थाना पश्च पक्ष शानि सिंहसेनकुमाराय पितरो दत्तवन्तापित्यर्थः / स च प्रत्येक स्वजारभ्यो दत्तवानिति / 'महया" इत्यनेन ''महयाहिमवतमहामलयनंदरमहिंदसारे'' इत्यादि राज-वर्णको दृश्यः / (भीया जे ति) 'भीया तथा जेणेव !" इत्यर्थः / इह यावत्करणादिदं दृश्यम(आयमणसंकप्पा भूमिगयदिट्ठी डाकरयलपल्हत्थमुही अज्ाणोवगय ति) (उफणफेणिय ति) सकोपोमवचन यथा भवतीत्यर्थः / इतोऽन्त रवाक्यस्यैककमक्षर पुस्तकेषलभ्यते तचैवमयगन्तव्यम- ''एवं खलु सामी ! मभ एणगाणं पचण्ह सवत्तीसयाण एगण पंचाहाईसयाई इमीसे महाए लहाई सवणयाए अन्नमन्नं सदावति, सद्दावेतित्ता एवं क्यासी--एवं खलु सोहरोणे राया सामाए देवीए मुछिए 4 अम्हं धूवाओ गो आहाइन परियाणइ. अणादायमाणे अपरियाणमाणे विहरइ जावति / यावतकरणाचदं दृश्यम्- "तं सेयं खलु अम्हं साम देवि अग्गिप आगेण वा विसप्प-ओगेण वा सत्थपआगेण वा जीविया पवरोवितए एवं संपेथिति, सपेहिता मम अंतराणि पउिजागरमाणीओ विहररि, तननजइणं सामी ! मम केण कुमर मारियांतीति कटु भीया 5 / " यावत्करणात्- "तत्थ तसिया उदियमा आहामणसंकप्पा भूगिगयदिगिया / 'इत्यादि दृश्यम् / (वत्तिहामि ति) यतिष्ये। (नरिया 'त्ते न भवत्ययं पक्षो, यदुत (कत्तो इति) कुतश्चिदपि शरीरकस्य आवाधी वा प्रवाधो वा भविष्यति, तत्र आबाध ईषत्पीडा,प्रवाधः प्रकृष्टा पीडेवा (इति कट्टु त्ति) एवमभिधाय (अणेगखंभ त्ति) अनेकस्तम्श त सन्निविष्टमित्यर्थः। 'पासा०" इत्यनेन 'पासाईयं दरिसणिज्ज अभिरुव पडिरूव'' इति दृश्यम / (जइ वि य सा सरनसुक्क त्ति) यद्यपि सा स्वकीर. राज्यशुल्का, स्वकीयराज्यलभ्येत्यर्थः / (जुत्तं वत्ति) संगतम्। (पत्तं व त्ति) पात्रं वा, अवसरवाप्तं वा / (सलाहणिज व ति) लाष्यभिद (सरिसाद त्ति) उचितः संयागो वधूवरयारिति। (आयंत त्ति) आचान्तो जलग्रह गात् (चोक्ख ति) चोक्षः सिक्थलेपाऽऽद्यपनयनात। किमुक्त भवति (परमसुइभूइ शि) अत्यन्तं शुवीभूत इति (ग्रहाय ति) यावत्करणादिदं दृश्यम्- "कयवलिकम्म कयकोउयमंगलपायच्छित्त'' (सव्वालंकारे त्ति) 'सुवहुमित्त' इत्यत्र यावत्करणात... 'भित्तणाइणियगसयण - संबंधिपरिजत्तेण।" इति दृश्यम् ! "सविड्डीए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्- ''सव्वजुईए'' सर्वद्युत्याऽऽभरणाऽऽदिसंवन्धिन्या सर्वयुक्त्या वा उचितष्टवस्तुघटनालक्षणया, सर्वबलेन सर्वसन्यन सर्वसमुदायेन पौराऽऽदिमीलनेना (सव्वायरेण) सर्वोचितकृल्यकरणरूपेण / (सव्वविभूईए) सर्वसंपदा। (सव्वविभूसाए) समस्तशोभया। (सव्वरांभमेण) प्रमोदकृत्यौत्सुक्येन (सव्वपुप्फगंधमलालकारेण सत्वतूर सद्दसनिनाएण) सर्वतूर्वशब्दाना मीलने यः संगतो नितरां नादो महान घोषस्तानित्यर्थः / अल्पेष्वपि ऋट्यादिषु सर्वशब्दप्रवृतिर्दृष्टा / अत अाह-- ''महता इड्डीए महता जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया तरतुभियजमगसमगपवाइएणं / ' (जमगसमग त्ति) युगपदेत द्विशेषणाऽऽह- (संखपणबपडह-भरिझल्लरिखरमुहिडुका मुरवमुइंगदुंदुहि निग्धासनाइयरवेणं) तत्र शड़खाऽऽदीनां नितरां घोषो निधोषोमहाप्रयत्नात्पादितः शब्दः नादितं ध्वनिमात्रमेतदद्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेनति / (सेया-पीएहिं ति)रजतसुवर्णमयरित्यर्थः / (सिरीए देवीए मायाभत्ते यावि होत्थ त्ति) श्रिया देव्याः, मातेति बहुमानबुट्या भक्तः मातृभक्तश्चान्यभूदिति / (कल्लाकलं ति) प्रातः 2 (गंधवहएणं ति; गन्धचूर्ण न (जिमियभुत्तुत्तरागयाए त्ति) जेमिताया कृतभोजनाया तथा भुक्तो-तरमागतायां स्वस्थानमिति भावार्थः / उदारान्मनोज्ञान भागान भुजाना विहरति / (पुटवरत्तावरत्त त्ति) पूर्वरात्रापररात्रकालसमये रात्रे: पूर्वभाग पश्चादागे चैत्यर्थः / (मज्जाइयत्ति) पीतमद्या (विरहिरासयणिज्जंसि ति) विरहिते विजनस्थाने शयनीय विरहितशयनीय तक (परानुराइ ति) गृह्णाति (समजोइभूयं ति) समस्तुल्यो ज्यातिषाऽनिना भूतो जात! यः स तथा / (रोयमाणीउ ति) अश्रुविनाचनात्। इहान्यदपि पदद्वयमध्येयम् / तद्यथा-(कंदमाणिओ) आकाशब्दं कुर्वन्त्यः (विलय-नजीओनि) विलायान् कुर्वन्त्यः (आसुरुत्तेत्ति) आशु शीघ्ररुष्टः कोपेन विमाहेतः / इहान्यदपि पदचतुपकं दृश्यम् / तद्यथा (रुट्टे ति) उदितरोषः (कुविए नि प्रवृद्धकरपोदयः (चंडिक्किए त्ति) प्रकटितरौद्ररूपः (मिसिमिसेमाणे ति) कोपामिनः दीप्यमान इव। विपा०६ अ० ब्रह्मलोकादुपरि किं सम्यग्दृशा दवा अधिका उत्त मिथ्यादृशोऽधिका इति प्रश्ने, उत्तरम्- पञ्चमदेवलोकात्परता युक्न्या विचार्यमाणे मिथ्यादृष्टिभ्यः सम्यग्दृष्टयो देवा अधिकाः संभाध्यन्त इति / 212 प्र०ा सेन०२ उल्ला०। चतुर्भिरडगुलवा भूमेिं न स्पृशन्तीति यदुथ्यो, तत् कुत्र स्थल इति प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्.... महीतलं कुत्रापि न स्पृशन्तीति संग्रहणीवृत्त्याद्यभिप्रायः / १६७प्र०! सेन०३ उल्ला० / देवानां भवधारणीयनापि वपुया कदाचित्कुत्रापि गमनं संभवति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्- संगमकसुरसंबन्धाऽऽधनु--सारण: देवानां भवधारणीयेनापि वपुषा कदाचिदत्राऽऽगमनं ज्ञायत इति / 352 प्र०ा सन० 3 उल्ला० / देवो देवी मूलशरीरेण भुङ्क्ते, उत वैकियेण वेति प्रश्ने, उत्तरम्- उभयथाऽपि भोगो भवतीत्यक्षराणि श्रीभगवतीप्रज्ञापनाजीवाभिगमराजप्रश्नीयप्रमुखग्रन्थेषु सन्तीति / 356 प्र० / सेन०३ उल्ला०ा देवा मूलशरीरेण नग्नास्तिष्ठन्ति, किंवा वस्त्राणि परिदधतीति प्रश्ने, उत्तरम्-मूलशरीरेण वस्त्रपरिधाननिषेधो ज्ञातो नास्तीति। 361 प्र० सेन०३ उल्ला देवड्डिनमण-न० (देवर्द्धिनमन) श्रीकल्पसूत्रस्य स्थधिरावलीप्रान्त "देवडिमाणे नमसाभि / '' इति गाथा पुस्तकाऽऽरूढकालीना, उत प्राकालीना? यदि पुस्तकाऽऽरूढकालीना तर्हि देवर्द्धिगणिकृतत्व स्वस्थ नमरकरणमनुचितम्, अन्यकृतत्वे तु सर्वा अपि स्थविराव...लीगाथा अन्यकृताः कथं न भवन्ति, इत्यारेका / यदि प्राक्कालीना तदाऽग्रेतनाना नमस्करणं कथमुचितमिति प्रश्ने, उत्तरम्-इयं गाथा देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमाशिष्यणान्येन वा पाश्चात्येन केनापि स्थविरेण कृतेति संभाव्यते, तथैवं सर्वाअपि तत्कृताः संभावनीयाः, अनुपपद्यमानत्वाभावात् / गतिस्तु स्थितस्यैव चिन्तनीया, प्रशमरतिवत्, यतस्तत्राप्युमास्वातिवाचककृताया प्रान्तगाथाकदम्बके तन्नमस्कारो दृश्यते, तेन
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________________ देवनिमण 2622 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवदीव तदेवान्यकृतं ज्ञेयं, न च संपूर्णग्रन्थोऽपि, तत्र विप्रतिपत्तेरभावात्, ग्रन्थस्योमास्वातिवाचककृतत्वेन सुप्रतीतत्वादिति। 56 प्र०। सेन०१ उल्ला देवदव्व-न०(देवद्रव्य) चैत्यद्रव्ये, कर्म० 1 कर्मा ही०। जीवा०। जिनद्रव्यसाधारणप्रस्तावाऽऽविष्करणद्वारेण भक्षणरक्षणव ईनफलोपदर्शनाय गाथात्रयमाहजिणपवयणबुड्डिकर, पभावगं णाणदंसणगुणाणं। भक्खंतो जिणदव्वं, अणंतसंसारिओ होइ॥५८|| जिणपवयणवुड्डिकर, पभावगं णाणदंसणगुणाणं। रक्खंतो जिणदव्वं, परित्तसंसारिओ होइ / / 5 / / जिणपवयणवुनिकर, पभावगं णाणदंसणगुणाणं / वडुंतो जिणदव्वं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो // 60|| आसामक्षरार्थः सुगमः। भावार्थस्तुसमस्तोऽपि पूर्वकथानकादवरोयः। यथा-अनर्थचूलेनानेकशोऽनेकभवपरम्परासु महद्दुःखमनुभूतं, यथा च कश्चनर चिना जिनसाधारणद्रव्यं रक्षता वृद्धिमापादयताऽनेकमवेषु कल्याणमासाद्य तीर्थकृद् भूत्वा शान्तिपदमुपगतः / ततः सर्वथाऽस्मिन्नर्थे यत्नवद्विर्भाव्यमिति गाथात्रयार्थः / दर्श० 1 तत्त्व / दश० / देवद्रव्याधिकारे कथं श्राद्धैर्देवद्रव्यवृद्धि कर्तुं शक्यते, यदुक्तमागमे"भक्खंतो जिणदव्वं, अणतसंसारिओ भणिओ।" इति जानन्नप्यात्मव्यतिरिक्तानां यच्छस्तेषां संसारवृद्धि प्रति कारण भवति, न हि विष कस्यापि विकारकृन्न स्यात्सर्वेषामपायकृदेव स्याद ग्रन्थान्तरे आलोचनाधिकारे मूवकाऽऽदीनामपि दोषोत्पत्तिरुक्ताऽस्ति, तदत्रका वृद्धि प्रति रीतिरिति प्रश्रे, उत्तरम्- स्ववृत्त्या श्राद्धानां देवद्रव्यरय विनाशन एव दोषो, यथाकालमुचितव्याजदानपूर्वक ग्रहणे तु न भूयान् दोषः, समधिकव्याजदाने पुनर्दोषाभावोऽवसीयते, तेन तेषां यत्तद्वर्जन तन्निः शूकताऽऽदिदोषपरिहारार्थ ज्ञेयम् / किञ्च- श्रीजिनशासने देवद्रध्यस्य विनाशे दुर्लभा बोधिता, तद्रक्षाऽऽदिदेशनादानोपेक्षणऽऽदी साधोरपि भवदुःखं च शास्त्रे दर्शितम, ततस्तेन तदभिज्ञानं श्राद्धानां तस्या व्यापारणमेव यौक्तिकं मा कदाचित्प्रमादाऽऽदिना स्वल्पोऽपि तदुपभोगो भवस्थिति सुस्थानस्थापनप्रत्यहसाराऽऽदिकरणपुरस्सरं महानिधानव तत्परिपालेन च तेषामपि न कोऽपि दोषः, किंतु तीर्थकृन्नामकर्मनिबन्धनाऽऽदिहेतुभि एवेति, इतरस्य तु तद्भोगदोषानभिज्ञस्य निःशूकताऽऽद्यसंभवावृद्ध्यर्थ ग्रहणकग्रहणपूर्वकं समर्पणे न दोष इति तथा व्यवहियमाणमस्तीति संभाव्यते, पूषकाऽऽदिषु तु वद्ध्याद्यर्थ समर्पणव्यवहाराभावात्तेषां तद्भक्षणे दोष एवेति। 156 प्र०। सेन०२ उल्लो०। देवद्रव्यस्य वृद्धिकृते श्राद्धः तत् स्वयं व्याजेन गृह्यते, न वेति, तद्ग्राहकाणा दूषणं किं वा भूषणमिति प्रश्रे, उत्तरम्- श्राद्धानां देवद्रव्यस्य व्याजेन न युज्यते ग्रहणं, निःशूकताप्रसङ्गात, ननुवाणिज्याऽऽदी व्यापार-णीय स्वल्पस्य देवद्रव्यभोगस्य शङ्कासंबन्धाऽऽदिष्वतीवाऽऽयतौ दुष्टविपाकजनकतया दर्शितत्वादिति / 374 प्र०। सेन०३ उल्ला०। उपाश्रये सांवत्सरिकाऽऽदिप्रतिक मणावसरे यद् घुसृण-तैलाऽऽदिक मानीते तद्दे वद्रव्ये साधारणद्रव्ये वा समायातीति प्रश्ने, उत्तरम् यथा-प्रतिज्ञ देवद्रव्ये साधारणद्रव्ये वा तत्समायातीत्यवधेयम्। 432 प्र०ा सेन८३ उल्ला०। श्राद्धा देवद्रव्यं व्याजेन गृह्णन्ति, न वेति प्रश्ने,उत्तरम्- महत्कारण विना न गृह्णन्तीति। 461 प्र०ा सेन०३ उल्ला०। अथवटपल्लोयसंघकृतप्रश्नस्तदुसरं च यथा-शतदो कड़क पुष्पाणि मालिकपादि गृहीत्वा जिनप्रतिमायाश्च यज्यते, मालिकस्य तद्रव्यस्थाने धान्यवस्वाऽऽदिक समय॑ते, तदर्पणे च दोक्कडकदशकमुद्वरति तद् द्रटयं देवसत्कं मालिकसंबन्धि वेति प्रश्ने, उत्तरम्- शतदोक्कडकपुष्पाणि गृहीत्वा धान्यादि समय॑ते, तदर्पण च कङ्कोशेरकेण यदुद्वरति तद्देवद्रव्यं भवति, नतु मालिकस्य, यतो लोके शतदोक्कडकपुष्पचटापनयशोवादो जायते, तस्मान्यूनचटापने दोषो लगति, तदुरितं द्रव्यं देवद्रव्यं प्रक्षिप्यते तदा दोषो न लगतीति / 61 प्र०ा सेन०४ उल्ला देवदव्वहरण-न०(देवद्रव्यहरण) चैत्यद्रव्यग्रहणे, कर्म०१ कर्मा देवदार-न०(देवद्वार) सिद्धाऽऽयतनस्य पूर्वदिकस्थे स्वनामख्याते द्वारे, स्था०४ ठा०२ उ०। देवदारु-न०(देवदारु) गन्धाङ्गभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उठा देवानां प्रियं दारु यस्य तत्काष्ठचन्दनस्य देवप्रियत्वात् / स्वनामख्याते वृक्षे, अयं पुमानप्यत्र-"अमुंपुरः पश्यसि देवदारुम्।" वाचा देवदाली-स्वी०( देवदाली) बहुबीजके लताविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। देवदिण्ण-पुं०(देवदत्त) राजगृहे नगरे धननाम्नः सार्थवाहस्य भद्रायां भार्यायां च जाते स्वनामख्याते पुत्र, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। देवप्रसादालब्धेषु सुलसाया द्वात्रिंशत्पुत्रेषु, आ०का देवदीव-पुं०(देवद्वीप) स्वनामख्याते द्वीपे, जी०। देवदीवे दो देवा महिड्ढीया-देवभद्दा, महाभद्दा। ''देवे णं भंते ! दीवे किं समचकवालसंठिए, विसमचक्कवालसहिए? गोयमा ! समचक्कवालसंठिए,नो विसमचक्कवालसंठिए। देवेणं भंते ! दीवे केवइयं चक्कवालविक्ख भेणं केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ता? गोयमा! असंखेजाई जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं असंखेजाई जोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं पन्नत्ते, सेणे एगाएपउमवरवेइयाए एगेणं वणसं मेण परिविखते / 'सुगम,नवरं एकया पद्मवरयेदिकया अष्टयोजनोच्छ्यजगत्युपरि भाविन्येति द्रष्टव्यम् / एवमेकेन वनखण्डेन च / इदं तु सूत्रं बहुषु पुस्तकेषु न दृश्यते, केषुचित् तदेवोत्पत्तिदेश इति लेखितम् / "कइ ण भंते " इत्यादि। कति भदन्त ! देवस्य द्वीपस्य द्वाराणि प्राप्तानि? भगवानाह- गौतम ! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि। तद्यथा- ''विजयवैजयन्त-जयन्तमपराजित।" "कहिणं भंते ! दीवस्स दीवेत्यादि।" व भदन्त ! देवस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम्? भगवानाह-गौतम ! देवद्वीपपूर्वार्द्धपर्यन्ते देवसमुद्रपूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि अत्र एतस्मिन्नवकाशे विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्त, प्रमाण वर्णकश्व जम्बूद्वीपविजयद्वारवत्, नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव। “कहिणं भंते ! इत्यादि / "क भदन्त ! विजयस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता? भगवानाह- गौतम ! विजयस्य द्वारस्य पश्चिमदिशि तिर्यगसंख्येयानि
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________________ देवदीव 2623 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवमहावर योजनशतराहनाण्यवगाह्य अत्रान्तरे विजयस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता / सा च जम्बूद्वीपविजयद्वाराधिपतिविजयस्य देवस्येव वक्तव्या। एवं वैजयन्तजयन्तापराजितद्वारवक्तव्यताऽपि भावनीया, ज्योतिष्कवक्तव्यता सर्वाऽप्यसंख्येयतया वक्तव्या, नामान्वर्थचिन्तायामपि (दो देव त्ति) भद्रदेवमहाभद्री वक्तव्यौ। शेष सर्वमरुणदीपवत् (पुस्तके मुलपाठो नापलभ्यत / ) / जी०३ प्रति०४ उठा देवदूस-न०(देवदूष्य) जिनवरस्य स्कन्धे संयमग्रहणावसरे सुरपति र्यत्सुरदूष्यं मुञ्चति, तस्यावस्थानस्य मान प्रसाद्यमिति प्रश्रे, उत्तरम्दीक्षासमये देवेन्द्रमुक्तजिनवरस्कन्धस्थदेवदूष्यरयावस्थानकालनियममाश्रित्य सप्ततिशतस्थानकानुसारेण श्रीवीरस्य साधिक वर्ष थावच्छेषाणां च तीर्थकृता जावज्जीव देवदूष्यावस्थानकालमान श्रीवीरवदिति शेरामिति / 135 प्र०। रोन० १उल्ला०। देवदूसजुगल-म०(देवदूष्ययुगल) देववस्त्रयुग्मे, जी०३ प्रति० ४उ० देवदेव-पुं०(देवदेव) इन्द्रेषु, तीर्थकरेषु च / आ०चू० 5 अ०। देवदेवमहिय-पुं०(देवदेवाधिक) इन्द्रादप्यधिके तीर्थकराऽऽदौ, आ००५ अ०। *देवदेवमहित-पुं०। देवाधिदेवपूजिते जिने, आ०चू० 5 अ०॥ देवदोणी-स्त्री०(देवद्रोणी) स्थल्याम, "साधम्भियत्थलीरा।" नि० चू०१ उ०। देवपंचिंदियसंसारसमावन्नजीव-पुं०(देवपञ्चेन्द्रियसंसार समापन्नजीव) पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। देवपडिक्खोभ-पुं०(देवप्रतिक्षोभ) तमःकाये, "देवपडिक्खोभेइ वा।" देवप्रतिक्षोभ इति वा, तत्क्षोभहेतुत्वात् / भ०६ 205 उ०। देवपरियारण-न०(देवपरिचारण) श्रीविजयराजगणिकृतप्रश्रस्तदुत्तरच यथा-शक्राऽऽदयो देवाः संभोगं कर्तुकामाः देवलोकविमाने देवीभिः पारिचाराणं कुर्वन्ति, विगानादन्यत्र वा तदाश्रित्य प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्- शकाऽऽदयो देवा देवलोके स्वस्वसुधर्मसभायां देवीभिः सह परिचारणं न कुर्वन्ति, तत्र माणवकचैत्यस्तम्भसमुद्कस्थितजिनदंष्ट्राशातनामयादित्यभिप्रायः प्रज्ञप्तिदशमशतकपञ्चमोद्देशकेऽस्तीत्युपलक्षणत्वादन्यत्र सिद्धाऽऽयतनव्यतिरिक्तस्थाने परिचारणां कुर्वन्तीति संभाव्यते इति / 105 प्र०ा सेन०१ उल्ला०। देवपरिसा-स्त्री०(देवपरिषत्) देवपरिवारे, औ०। देवपव्वय-पुं०(देवपर्वत) जम्बूमन्दरपश्चिमस्थे सीतायाः महानद्या उत्तरकूलस्थे स्वनामख्याते वक्षस्कारपर्वते, स्था०४ ठा०२ उ०। जंग स्था०। पश्चिमवनखण्डवेदिकान्त्यविजयाभ्यां पूर्वस्थे स्वनामख्याते पर्वतयुगले च। 'दो देवपव्वया।" स्था०२ टा०३ उ०॥ देवपुत्थय-न०(देवपुस्तक) देवलोकपुस्तकेषु किंलिपीकृतमस्ति. | किमभिधानं तत् शास्वमिति प्रश्ने, उत्तरम्- देवलोकपुस्तकेषु लिपीकरणं तत्रत्यव्यवहारमाश्रित्य संभाव्यते, तदभिधानं तु कुत्रापि दृष्ट | नास्तीति। 73 प्र०। सेन०२ उल्ला०। देवपूयाइणाय-न०(देवपूजादिज्ञात) देवतार्चनप्रभृत्युदाहरणे, पक्षा०८ विव०। देवपूजारनात्रतश्य(?) तेणानन्तरं श्राद्ध्य आरत्युतारणमङ्गलप्रदीपाऽऽदिकृत्यं कुर्वन्ति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्तथाकरणेऽधुना प्रवृत्तिर्न दृश्यते, निषेधस्तु शास्त्रे दृष्टो नास्तीति क्वचिद्देशविशेष तत्कुर्वन्तीति। 164 प्र०। सेन० २उल्ला०। देवप्पहसूरि-पुं०(देवप्रभसूरि) स्वनामख्याते, आचार्य , दर्श०५ तत्त्व। स च विचारसारप्रकरणकृतः प्रद्युम्नसृरेगुरोः पद्मप्रभसूरेर्गुरुः। द्वितीयोऽपि मुनिचन्द्रसूरिशिष्यः ताराचन्द्रगुरुः, तेन च पाण्डवचरित्रमहाकाव्य मृगावतीचरित्रं चेति ग्रन्थी रचितौ / तृतीयोऽपि विक्रम संवत् 1264 वर्ष मुनिसुव्रतचरित्रकारकस्य पद्यप्रभसूरेर्गुरुरासीत्। जै०इ०। देवप्पिय-पुं०(देवप्रिय) वसन्तपुरे स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ग०२ अधि०। (तत्कथा खुल्लक शब्दे तृतीयभागे 754 पृष्टे द्रष्टव्या) देवफलिक्खोभ-पुं०(देवपरिक्षोभ) तमस्काये, "देवपलिक्खोभेइ व त्ति।'' देवानां परिक्षोभहेतुत्वादिति / भ०६ श०५ उ०। स्था० देवफलिह-पुं०(देवपरिघ) देवानां परिघ इवार्गलेव दुर्लघ्यत्वा हेवपरिघ इति / भ०६श०५ उ० तमस्काये, भ०६ श०५ उ० स्था। देवभद्द-पुं०(देवभद्र) देवद्वीपस्थे स्वनामख्याते देवे, चं०प्र०२ पाहा सू०प्र० / चैत्रगच्छस्थे भुवनेन्द्रसूरिशिष्ये स्वनामख्याते गणिनि, वृ०। चैत्रगच्छमधिकृत्य"तत्र श्रीभुवनेन्द्रसूरिसुगुरुभूभूषणं भासुरज्योतिः सद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणाभवत् (8) उत्पादाम्बुजमण्डन रामभवत् पक्षद्वयीशुद्धिमाजीरक्षीरसदृक्षदूषणगुणत्यागग्रहैवाऽऽदृतः। कालुष्यं च जडोद्भवं परिहरन् दूरेण सन्मानसस्थायी राजमरालवद्गणिवरः श्रीदेवभद्रप्रभुः / / 6 / / " वृ० 6 उ०। ध०र० / ग०। द्वितीयोऽप्येतन्नामा रुद्रपालीयगच्छस्थापकस्याभयदेवसूरेः शिष्यः प्रभानन्दसूरेर्गुरुः, स च विक्रमसंवत् 1266 मिते आसीत्। तृतीयश्व चन्द्रगच्छे भद्रेश्वरसूरिशिष्यः, स विक्रमसंवत् 1242 वर्षे आसीत्, यच्छिण्येण सिद्धिसेनेन प्रवचन-सारोद्धारटीका रचिता। चतुर्थश्च खरतरगच्छे प्रसन्नचन्द्राचार्यस्य शिष्यः विक्रमसंवत् 1168 वर्षे विद्यमान आसीत्, येन पार्श्वनाथ-चरित्रं संवेगरङ्गमाला वीरचरित्रं कथारत्नकोशश्चेत्यादयोऽनेके ग्रन्था रचिताः। पञ्चमश्च चन्द्रसूरेः शिष्यस्तत्कृतसङ् ग्रहिणीटीकाकृत। जै०इ०। देवमइ-स्त्री०(देवमति) स्वर्गिचातुर्ये , जं० 3 वक्षा देवमहाभद्द-पुं०(देवमहाभद्र) देवद्वीपस्थे स्वनामख्याते देवे, सू०प्र० 16 पाहु०। च०प्र० / जी०। देवमहावर-पुं०(देवमहावर) देवसमुद्रस्थे स्वनामख्याते देवे, सू०प्र० 16 पाहु०। चं०प्र०ा जी०
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________________ देवय 2624 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देववंदणविहि स्त्र देवय-न०(दैवत) देवतैव दैवतम्। स्था०३ ठा० 1 उ०ा देवे, ज्ञा० 1 श्रु० / देवरायकुंजरवरप्पमाण-पुं०(देवराजकुञ्जरवरप्रमाण) स्वराजा १अादशा० / भ०। औ०। आव०। ओघा आ०म०ा परमदेवतायां च। देवेन्द्ररतस्य कुञ्जरो हस्ती तद्वद् वरं शास्त्रोक्तं प्रमाण देहमान यस्य स चं०प्र०१८ पाहु। तथा / देवराजहस्तिशरीरप्रमाणसदृश प्रमाणशरीरे, कल्प० अधिक देवया- स्त्री०(देवता) रागाऽऽदिदोषरहिते, (विशे०) जिननायके, २क्षण। धर्माऽऽचार्य , पञ्चा० 1 विव०। प्रति०। इन्द्राऽऽदिदेवेषु, प्रतिमा स्था०। देवल-पुं०(देवल) मुनिभेदे, व्यासशिष्ये,धौम्यस्य ज्येष्ठभ्रातनि देवान ओघा जीविकाथ लाति लावः / देवोपजीविनि, स्वार्थ कन् / वाथे, देवयाणाम-न०(देवतानामन्) देवताऽभिधायके नामनि, अनु०। "देवकोषोपजीवी च, नाम्ना देवलको भवेत् ।"इत्युक्ते विप्रे. वाचा से किं तं देवयाणामे? देवयाणामे अणेगविहे पण्णते। तं जहा--- | अग्गिदेवताहिं जाए अग्गिए अग्गिदिण्णे अग्गिसम्मे अग्गिधम्मे | देवलासुय-पुं०(देवलासुत) उज्जयिनीनृपे, आ०कला आ०चल। अग्गिदेवे अग्गिदासे अग्गिसेणे अग्गिरक्खिए। एवं सव्वनखत्त- देवलोग-jo(देवलोक) देवानामिन्द्रादीनां लोकः स्थानम् / नूत्र०१ देवतानामा माणिअव्वा। श्रु०२ अ०३ उ०। सौधर्माऽऽदिषु द्वादशसुलोकेपु. सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ ___ एत्थ पि संगहणीगाहाओ उ०। भला "अग्गि पयावइ सोमे, रुद्दो अदिति विहस्राई सप्पे। कइविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता? गोयमा ! चउविहा पिति भग अज्जम राविआ, तट्ठा वाऊ अइदंग्गी / / 1 / / देवलोगापण्णता।तं जहा--भवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, मित्तलो इंदो निरती, आओ विस्सो अबंभ विण्हू अ। वेमाणिया। मेएणं भवणवासी दसविहा, वाणमतरा अट्ठविहा, वसु वरुण अय विवडि, पूसा अग्गी जमे चेव / / 2 / / " जाइसिया पंचविहा, वेमाणिया दुविहा। भ०५ श०६ उ01 से तं देवतानामे। देवलोके मिथ्यात्विदेवदेवीनां क आचार इति प्रश्ने, उत्तरम् -- यथः (से किं तं देवयाणामे इत्यादि) अग्निदेवतासु जातः- अग्निकः ! सम्यकदृशां सिद्धाऽऽयतनेषु जिनार्चनाऽऽदिप्रवृत्तिरूप आचारस्तथा एवमरिनदत्तादीन्यपि। नक्षत्रदेवतानां संग्रहार्थमग्नीत्यादिगाथाद्यं, तत्र मिथ्यादृशां तत्रैव वर्तमाननागाऽऽदिप्रतिमापूजना-ऽऽदिरूपः र भाव्यते कृत्तिकानक्षत्रस्याधिष्ठाता अग्निः, रोहिण्याः प्रजापतिः, एवं मृगशिरः इति / 66 प्र० सेन०२ उल्ला०। क्रमेण-सोमी रुद्रोऽदितिः बृहस्पतिः सर्पः पितृ भगः,अर्यमा सविता त्वष्टा / देवलो गगमण-न० (देवलोक गमन) सुकुलप्रत्यागतो. सः वायुः इन्द्राग्नी मित्रः, इन्द्रः, निर्ऋतिः, अम्भः, विश्वः ब्रह्मा, विष्णुः, 7 अङ्ग वसुः, वरुणः, अजः, विवर्द्धिः / अस्य स्थानेऽन्यत्र अहिर्बुधनः पट्यते। | देवलोगसमाण-त्रि०(देवलोकसमान) देवलोकसदृशे, दश० १चू०। पूपाः, अग्निः / यमश्चैवेति / (से तं देवतानामे) अनु०। देवलोय-पुं०(देवलोक) 'देवलोग' शब्दार्थ सूत्र०१ श्रु०२ अ० 330 देवयाणिओग-पुं०(देवतानियोग) देवताद्देशे, पञ्चा०१६ विदा देवलोयगमण-न०(देवलोकगमन) देवलोगगमण' शब्दार्थे, स०.७ अङ्ग। देवयापाणिहाण-न०(देवताप्रणिधान) सर्वक्रियाणां फलनिरपेक्ष देवलोयसमाण-त्रि०(देवलोकसमान) 'देवलोगसमाण' शब्दार्थ, दशल तयेश्वरसमर्पणक्षणे ईश्वरप्रणिधाने द्वा० २२द्वा०। १चू० देवयामिओग-पुं०(देवताभियोग) देवपरतन्त्रतायाम, उपा० २अ०। / देववंदणविहि-स्त्री०(देववन्दनविधि) देवस्तवनविधौ, ध०० (अस्य देवयाहिमुत्ति-स्त्री०(देवताधिमुक्ति) बुद्धकपिलाऽऽदिदेवता विशेषभक्ती, व्याख्या 'वंदन' शब्दे) विंशतिस्थानाऽऽदिषु देववन्दनं मुखवस्त्रिका विना ध०१ अधि। घटते। न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-मुख्यवृत्त्या मुखवरिखकां विना देववन्दन देवर-पुं०(देवर) 'देअर' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। न घटते / 203 प्र०ा सेन०३ उल्ला०ा पदगणनमेकवारदेववन्दनं व देवरण-न०(देवारण्य) देवानामरण्यमिव बलाद्भयेन नाशनत्वाद्यः स विस्मृतं द्वितीयदिने पारणातः प्राक् तत्करोति यदि तदा शुद्धथति, न देवारण्यमिति / तमस्काये, स्था०४ ठा०२ उ०/ वेति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रथमदिने विस्मृतपदगण न एकशो देववन्दनं वा देवरमण-न०(देवरमण) सौभाजन्या नगाः बहिरुत्तर पश्चिमायां दिशि द्वितीयदिने पारणकरणादागवधिपूादि महत्कारणं विना न स्थिते स्वनामख्याते उद्याने, विपा०१ श्रु०४ अ०। शुद्ध्यति, क्रियमाणं तु दृश्यत इति श्राद्धाना, यतीनां तु तन्नियम' देवराय-पुं०(देवराज) देवेषु कान्त्यादिगुणैः राजमाने, कल्प०१ अधिक ज्ञातो नास्तीति / 306 प्र०। सेन०३ उल्ला०ा तथा श्रीवीरहीरसूरीण १क्षण / उपा०। इन्द्रे, आव०४ अ० कोशलाविषये कस्मिंश्चिद् ग्रामे प्रतिमाऽग्रे यो देवान् वन्दते, सवा-सक्षेपं कृत्वा, अन्यथा वेति प्रश्ने, स्थिते स्वनामख्याते कुटुम्बिनि परमश्रावके, पिं०। उत्तरम्- श्रीगुरुप्रतिमाग्रे देवा वन्दितान शुद्धयन्ति, यदि च तीर्थकृत्प्रतिमा *देवराट-पुं०। देवेन्द्रे, "देवीभिरिव देवराट् / " आ०क०। चाले खिता भवति पट्टाऽऽदौ, तदा तदने वासक्षेपं कृत्वा दवा व
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________________ देववंदणविहि 2625 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवसूरि न्दिताः शुद्धयन्तीति ।१५४प्र०ा रोन० 1 उल्ला०। पौषधिके त्रिसन्ध्यं गालाऽऽदिसूत्राणि तथैव, नवरं देवोदकरय समुदाय विजयद्वार विस्तरेण देवा वन्द्यन्ते, तदक्षराणि क्क सन्ति, मध्याह्न देववन्दना तु देवोदकसमुद्रपूर्वार्द्धपर्यन्ते नाम द्वीपपूर्वार्द्ध पश्चिमदिशि, अत्रेति वक्तव्यम-- सामाचारीपौषधविधिकरणाऽऽदिषु दृश्यते इति प्रश्ने, उत्तरम्- यद्यपि नानी विजयद्वारस्य पश्चिमदिशि देवं समुद्र तिर्यगसंख्येयानि पौषधिकश्राद्धानां सामाचार्यादिषु मध्याह्न एव वन्दनं दृश्यते. तथापि योजन शतसहसागि अवगाह्य वक्तव्या ! एवं वैजयन्तजयन्तापराजित"पडियम ओ गिहिणो विहु, सगवेला पंव वेल इअरस्सा पूआसु तिसंहासु द्वारवक्तव्यताऽपि भावनीया, नामान्वर्थाचिन्तायामपि देववरदेवमहावरी अ.होइ तिवेला जहन्नेण'' // 1 / / इत्याद्यक्षरवशात्रिकालपूजारथा- देवा, शेषतर्थव यथा ददो द्वीपः। जी०३ प्रति०। नीयत्वेन परम्परागतत्वेन च त्रिकालं देववन्दनं युक्तिमदेवेति। 26 प्र० देवसम्मण-पुं०(देवशर्मन) काम्पिल्यनगरासन्ने करिमंश्चिद्ग्रामे स्थिते सेन०२ उल्ला। गौतमप्रतिबोधिते (20) स्वनामख्याते ब्राह्मणे उत्त० 13 अ०। आ०चू०। देववर-पुं०(देववर) देवसमुद्रे, स्वनाभख्याते देवे, सृ०प्र० 16 पाहु०। कल्प०। आ०म०। जम्बूद्वीपे ऐरवते वर्षे अस्यामेवोत्सपिण्यां जाते चं०प्र० / जी०। देवसेनापरनामके स्वनामख्याते एकादशे तीर्थकरे, स०। देववायग-पं०(देववाचक) नन्द्यध्ययनकर्तरि दूष्यगणिशिष्ये स्तनाम देवसयणिज्ज-न०(देवशयनीय) देवशय्यायाम. जी. ख्याते अचार्य , ना तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे देवविग्गहगइ-स्त्री०(देवविग्रहगति) देवानां नाकिनां विग्रहान क्षेत्र पण्णत्ते, तस्स णं देवसयणिजस्स अयमेतारूवे वण्णावासे विभागानतिक्रम्य गतिर्गमनं देवविग्रहगतिः / स्थितिनिवृत्तिलक्षणाया पण्णत्ते / तं जहा- नाणामणिमया पेढीपादा सोवणिया पादा मृजुवक्ररूपायां विहायोगतिकाऽऽपाद्याया वा गती, स्था० १०ठा०। नाणामणिमया पायसीया जंबूणदमयातिं गत्ताई वइरामया संधी देववूह-पुं०(देवव्यूह) देवानां व्यूहः सा ग्रामिकट्यूह इव यो नानामणिमए वेजे रयतामया तूली लोहियक्खमया विव्वोयणा तवणिज्जमई गंडोवहाणिया, सेणं देवसयणिजे सालिंगणवट्टिए दुरधिगमत्वात्स देवव्यूहः / सागराऽऽदौ, स्था० 4 ठा०२ उ०। भ०। दुहओ विब्बोयणे दुहओ उण्णए मज्झणए गंभीरे गंगापुलिणदेवसइ-स्त्री०(देवस्मृति) 'नमो बीअरायाणं सव्वण्णूण तेलोक्कपूइआणं वालुउद्दालसालिसए उवचितखो मदुगुलपट्टपडित्थयणे जहडिअवत्थुवाईणं / '' इत्यादिरूपे जिनस्मरणे, ध०२ अधि०। सुविरइरयत्ताणे रत्तंसुयसंबुडे सुरम्भे आईणगरुत्तवूरणवणीयदेवसंघ-पुं०(देवसङ्घ) देवरामुदाये, औग तूलफा-समउए पासातीए। जी०३ प्रति०। देवसंसारविउस्सग्ग-पुं०(देवसंसारव्युत्सर्ग) संसारव्युत्सर्गभेदे, औला देवसिअ-त्रि०(देवसिक) दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिणामो वा दैवासिकः / देवसक्खिय-वि०(देवसाक्षिक) देवताः साक्षिणो यत्र तद्देवसाक्षिकम्। दिवसभवे, आव४ अ०॥ धo। प्रव०। आ०म०। आ०चू। स्त्रियां डीप् / देवसाक्षिगति प्रत्याख्यानाऽऽदौ, पा०1 दिवसे भवा दैवसिकी। दिवसभवायाम, औ०। प्रतिक्रमणभेदे, देवसण्णत्ति-स्त्री०(देवसंज्ञप्ति) देवसंज्ञप्तेर्देवप्रतिवाधना या सा तथा।। (तद्वक्तव्यता पडिक्कमण' शब्दे वक्ष्यते) प्रव्रज्याभेदे, स्था० 10 ठा०1 "उदायणसंबोही पभावाई देवस देवसीह-पुं०(देवसिंह) मथुरानगरस्थे स्वनामख्याते श्रमणोपासके, ण्णत्ती। पं०भा० ! पं०चून ती०६ कल्प। देवसण्णिवाय-पुं०(देवसन्निपात) देवानां भुवि समवतारे, “ति हि | देवसुंदर-पुं०(देवसुन्दर) सोमतिलकसूरिशिष्ये स्वनामख्याते सूरी, ठाणेहिं देवसन्निवाए सिया। तं जहा-अरहंतेहिं जायमाणे हिं अरहंतेहिं ग०४ अधि०। स च विक्रमसंवत् 1447 मितेतपागच्छे विद्यमान आसीत्, पव्वयमाणेहिं अरहंताणं णाणुप्पयमहिमासु. एवं देवुक्कलियादेवकहकहए। विक्रमसंवत्-१३६६ मितेऽस्य जन्म, विक्रमसंवत्-१४०४ मिते दीक्षा, " स्था०३ ठा०१ उ०। (अर्हतां परिनिर्वाणमहिमासु देवसन्निपातो विक्रमसंवत्-१४२० मिते सूरिपदं, ज्ञानसागरकुलमण्डनगुणरत्नसोम'लोगुजोय' शब्दे)देवानां सन्निपातः समागमो रमणीयत्वाद्यत्र स तथा। सुन्दराश्चेति शिष्यास्तस्याऽऽसन् / जै०इ०। देवसमागमोपेते शिलापट्टकाऽऽदौ, भ०२श०१उ०। देवसङ्घाते च। रा०) देवसुय-पुं०(देवश्रुत) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे स्वनामख्याते षष्ठे भविष्यति देवसत्त-पुं०(देवशप्त) नपुंराकभेदे, ग०१ अधि० / पं० भा०। 'देवेहि जिने, प्रव०७ द्वार। तथा षष्ठ देवश्रुतजिनं वन्दे।" प्रव० 4 द्वार / ती०। सत्तो देवसत्तो।'' पं०चू०। देवसूरि-पुं०(देवसूरि) स्याद्वादरत्नाकर-(रत्ना०१परि०) जीवानुशासनदेवसमुद्द-पुं०(देवसमुद्र) स्वनामख्याते समुद्रे, "जत्थ देवोदे समुद्दे दो वृत्तिकारके, जीवा० 36 अधि०। एतस्य महात्मनः संक्षिप्तमितिवृत्तम-गुर्जरदेवा महड्डिया देववरा देवमहावरा / '' देवः समुद्रो वृत्तो बलया- देशमहाहतग्रामे देवनागगृहपतेर्जिनदेव्याभा-यां पूर्णचन्द्रस्वप्नसूचितः सुतो ऽऽकारसंस्थानसंस्थितो यावत् परिक्षिप्य तिष्ठति, अत्राऽपि समचक्र- जज्ञे, स्वप्नानुसारेण पूर्णचन्द्र इति नाम्ना प्रसिद्धिमगमत् / भृगुकच्छपु
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________________ देवसूरि 2626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवाणुभाग रे विक्रमसंवत्- 1152 वर्षे भुनिचन्द्रसूरिपाचे दीक्षां जग्राह / तदानीं | महावीरे।" राग रामचन्द्र इति नाम लेभे, पश्चात्तर्कव्याकरण-साहिल्याऽऽयनेकशार नेषु / देवाइदेव-पुं०(देवातिदेव) देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वपरिनिष्ठां प्राप्य विक्रमसंवत्-- 1174 सूरिपदं सहैव च तेन देवसूरि- योगाद्देवातिदेवाः। पञ्चविधभव्यद्रव्यदेवा-ऽऽदिदेवभेदे, भ० 0220 उ०० रिति नाम लब्धम् / ततः क्रमण धवलकपुरे उदयश्रेष्टिकारितसीम - देवाउय-न०(देवाऽऽयुष) देवानामायुष्कर्मणि, 'चउहि ठाणेहि जीवा न्धरस्वामिप्रतिमा प्रातिष्ठिपत्, अणहिल्लपुरपट्टने वाहडश्रावकस्य देवाउयत्ताए कम्मं पगरेति। तं जहा-पगइभद्दयाए. विणीययाए, सागुमोवीरप्रभुप्रतिमामस्थापयत्। नागपुरराजं सिद्धराजाऽऽक्रान्तगमोचयत। सयाए. अमच्छरियाए।" स्था०४ ठा०४उ० कर्णाटकदेशे कर्णावत्यां नगर्या गत्वा कुमुदचन्द्रनाम वादप्रसिद्ध दिगम्ब देवागमण-न०(देवाऽऽगमन) यद्यपि सुराणामचिन्त्यशक्या सर्वत्राराऽऽचार्य वादे आहूय अणहिल्लपुरपट्टने सिद्धराजसमक्षं तं पराजिग्ये / ऽऽगमनशक्तिररित,तथापि सिद्धान्ते सुराणामागमनं प्रायो निर्याणततः संतुष्टेन सिद्धराजेन तस्मै दीनारलक्षं दातुमुत्सृष्ट, किं तु तेन मार्गेणोक्त दृश्यत इति। 46 प्र०। सेन०२ उल्ला निष्परिग्रहेण नाङ्गीकृतमिति तत्रैव श्रीऋषभदेववैल्यं तद- द्रव्येण कारितम / विक्रमसंवत्-१२२६ वर्षेऽयं देवसूरिदेवलोकमगमत् / जै०ई०। देवाजीव-त्रि०(देवाऽऽजीव) देवं देवं प्रतिमाद्रव्यमाजीवनि। जीव अण। जी। मुनिचन्द्रसूरिशिष्ये रत्नप्रभसूरेर्गुरौ स्वनामख्याले आचार्य, रत्ना० पूजादौ, न०। 8 परि० "येत्र स्वप्रभया, दिगम्बरस्याऽर्पिता पराभूतिः / प्रत्यक्ष देवाणंद-पुं०(देवाऽऽनन्द) ऐरवते वर्षे भविष्यति तुर्विशतितमे विबुधाना, जयन्तु ते देवसूरयो नव्याः // 2 // " निर्जितदुर्जयपरप्रवादाः स्वनामख्याते जिने, स०। "देवाणंदे य अरहा, समाहे पडि देसंतु श्रीदेवसूरिपादाः / स्या० / सामन्तभद्रसूरिशिष्ये रवनामख्याते सूरी, मे।'' तिन गा सर्वदेवसूरेगुरौ स्वनामख्याते सूरी, ग०। देवाणंदसूरि(ण)-पुं०(देवानन्दसूरिन्) जयदेवसूरी-शिष्ये स्व.. वृद्धगच्छमधिकृत्य -- नामख्याते सूरी, ग०४ अधिo! ''अभवत्तत्र प्रथमः सूरिः श्री श्रीसर्वदेवाऽऽहः।।२१।। देवाणंदा-स्त्री०(देवानन्दा) ब्राह्मणकुण्डग्रामे कोडालसगोत्रस्य ऋषभदरूपश्रीरिति नृपति-प्रदत्तविरुदोऽथ देवसूरिरभूत। ताभिधानस्य ब्राह्मणस्य जालन्धरायणसगोत्रायां भायां महावीरश्रीसर्वदेवसूरिज॑ज्ञे पुनरेव गुरुचन्द्रः / / 22 / / " ग०४ अधि०। स्वामिनो मातरि, आचा०२ श्रु०३ चू० १अ० / पुग्न्दराऽऽदिष्टन देवसेण-पुं०(देवसेन) देवा सेना यस्य, देवाधिष्ठिता वा सेना यस्य स हरिनगमोषिदेवेन यदुदरात त्रिशलाभिधानाया राजपत्न्या उदरसंक्रामणं देवसेन इति / शतद्वारनगरस्थे महापद्मापरनामके स्वनामख्याते नृपे, भगवतो महावीरस्य कृतम् / स्था० 10 ठा०1 एतच्च 'महावीर' शब्द "तस्स महापउमस्स रन्नो दव्वे वि नामधिजे भविस्सइ देवसेणे ति।" स्फुटीभविष्यति) स्था०६ ठा० भ०। (एतद्वक्तव्यता 'महापउम' शब्दे वक्ष्यते) ऐरवत इह खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्वभरहे दाहिणमाह-- वर्तमानजिनेषु स्वनामख्याते षोडशे जिने, प्रव०७ द्वार। भारत वर्षे णकुंडपुरसण्णिवेसंसि उसभदत्तस्स माहणस्स कोमालसभविष्यज्जिनस्य विमलवाहनस्य पूर्वभवजीवे, 'देवसेणो विमल गोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणसगोत्ताए वाहणो तित्थयरो।" ती० 20 कल्प / नयचक्रय-थकारके स्वनाम सीहब्भवभूएणं अप्पाणेणं कुच्छिंसि गम्भं वक्रते समणे भगवं ख्याते दिगम्बराऽऽचार्य , "इस्थमेव समादिष्ट, नयचक्रेऽपि तत्कृता।" महावीरे। आचा०२ श्रु०३ चू०१ अ० स० आ०म०! आ०चू० द्रव्या०८ अध्या०ातजन्म विक्रमसंवत्-६५१ वर्षे रामसेनस्यस शिष्यः, कल्प तेन दर्शनसारभावसंग्रहतत्त्वसाराऽऽराधनासारधर्मसंग्रहाऽऽलाप- (देवानन्दायाः प्रव्रज्याऽऽदिवक्तव्यता 'उसमदत्त' शब्दे द्वितीयभागे पद्धत्यादयो ग्रन्था विरचिताः। जै०३०। भहिलपुरनगरे नागस्य गृहपतेः 1153 पृष्ठे द्रष्टव्या) पक्षस्य स्वनामख्याताया पञ्चदश्यां रात्री, ज० सुलसानामभार्यायामुत्पन्ने स्वनामख्याते पुत्रे, स चारिष्टनेमेरन्तिके ७वक्ष। चं०प्र०ा कल्पना "जहा देवाणंदा पुप्फचूलाणं अतिए।'' नि०१ प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां पञ्चमेऽध्ययने सूचितम्। अन्त० श्रु०४ वर्ग 2 अग 1 वर्ग 1 अग देवाणुपुवी-रत्री०(देवानुपूर्वी) एकोनविंशतितमे शुभकर्मभेदे, उत्त० देवसेणगणि-पुं०(देवसेनगणिन्) यशोभद्रसूरिशिष्ये पृथ्वीचन्द्रगुरी, तेन 33 अ०। चपर्युषणकल्पटिप्पणो नाम ग्रन्थो विरचितः। जै० इ०। देवाणुपुटवीए पुच्छा? गोयमा ! जहण्णे णं सागरोवमदेवस्सपरिभोग-पुं०(देवस्वपरिभोग) देवस्वस्य जिनविम्बनिर्मा- सहस्सस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जभागणं पणार्थ कल्पितत्वेन जिनदेवद्रव्यस्य परिभोगो भक्षणं देवस्वपरिभोगः। उक्कोसेणं दससागरोवमकोडाकोडीओ दस य वाससयाई जिनदेवद्रव्यभक्षणे, उपचारात्तद्धेतुकं कर्मा देवस्वपरिभोगः / ततुके अवाहा। प्रज्ञा०२१ पद। कर्मणि च / पञ्चा०५ विव० देवाणु प्पिय-पुं०(देवानुप्रिय) सरलस्वभावे, कल्प० 1 अधिo देवा-स्त्री०(देवा) दिव० अच् / पद्मचारिण्यां लतायाम, असनपा च।। ३क्षण / भ० / रा०ा विपा०।। वाच०। प्रा०॥ देवाणुभाग-j०(देवानुभाग) अद्भुवैक्रियशरीराऽऽदिशक्तियोगे. नि०१ देवाइ-पुं०(देवादि) देवाऽऽदियोगाद्देवाऽऽदिः। जिने, 'देवाइ समण भगवं / श्रु०३ वर्ग 4 अ० गण
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________________ देवाणुभाव 2627 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देवी देवाणुभाव-न०(देवानुभाव) कोषदण्डाऽऽदिजाते देवानां तेजोविशेषे, कायव्वो जहसत्ति, पवरो देविंदणाएणं / / 8 / / सामर्थ्य च / वाचा रा०ा स्था। यथा हि भगवतामर्हतांजन्ममहाऽऽदिषु सुरेन्द्रः सर्वविभूत्या सर्वाऽऽदरेण देवातिदेव-पुं०(देवातिदेव) देवानां मध्येऽतिशयवान् देवातिदेवः। / च शरीरसत्कारं विधत्ते, तद्वदन्यैरप्यसौ विधेयः / / 8 / / पञ्चा० 6 विव०। अर्हति, स्था०५ ठा०१उ०। देविदत्थव-पुं०(देवेन्द्रस्तव) देवेन्द्रवक्तव्यताप्रतिबद्ध स्वनामख्याते देवारण्ण-न० (देवारण्य) देवानां क्रीडास्थाने, ज्यो०६ पाहु०॥ प्रकीर्णकग्रन्थभेदे. द०प०। तमस्काये, देवारण्यमिति वा बलवद्वेवभयान्नश्यतां देवानां तथा देविंदपूइय-पुं०(देवेन्द्रपूजित) देवेन्द्राः शक्राऽऽदयस्तैः पूजितेषु विधाऽऽरण्यमिव शरणभूतत्वात्। भ०६ श०५ उ०॥ समभ्यर्चितेषु अर्हत्सु. पं०सू०१सूत्र०। देवावास-पुं०(देवाऽऽवास) देवानां भवनपत्यादीनां स्थानेषु, भ०१३ / देविंदमुणीसर-पुं०(देवन्द्रमुनीश्वर) रुद्रपालीयगच्छोद्भवे सङ्घतिश०२ उ०। (तद्वक्तव्यता 'ठाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1702 पृष्ठ द्रष्टव्या) लकसूरिशिष्ये, स च विक्रमसंवत् 1470 वर्षे विद्यमान आसीत्, तेनच अश्वत्थवृक्षे, वाचा प्रश्नोत्तररत्नमालावृत्तिनामा ग्रन्थो विरचितः / जै०इ०। देवावासंतर-न०(देवाऽऽवासान्तर) देवाऽऽवासविशेषे, भ० 10 श० देविंदसूरि-पुं०(देवेन्द्रसूराि) जगचन्द्रसूरिशिष्ये, धर्मरत्नटीका - कारके स्वनामख्याते आचार्यो , ध०२०। देवभद्रसूरिशिष्ये च / बृ०६ ३उन देवावुक्कलिया-स्त्री०(देवोत्कलिका) 'देवकलिया' शब्दार्थे , स्था०४ उ०। 'बालतिणं निचं देविंदसूरी जिय मइविहवा जं सुयं गीइनाम झयं ता हुंति।" सङ्घा० 1 अधि०१ प्रस्ता०। डा० 30 देविंदाइअणुगिति-स्त्री०(देवेन्द्राऽऽद्यनुकृति) देवाधिपदेवदानवदेवासुरसंगाम-पुं०(देवासुरसङ्ग्राम) देवासुरयुद्धे, भ०) प्रभृत्याचारानुकरणे, पञ्चा०६ विव०। अत्थि णं भंते ! देवा असुरा संगामा देवा असुरा? हंता | देविंदोग्गह-पुं०(देवेन्द्रावग्रह) अवगृह्यते स्वामिना स्वीक्रियते यः अत्थि। देवासुरेणं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु किं णं तेसिं देवाणं सोऽवग्रहः / देवेन्द्रस्य शक्रस्य ईशानस्य वाऽवग्रहः / दक्षिणलोकार्द्ध , पहरणर-यणत्ताए परिणमंति? गोयमा ! जंणं ते देवा तणं वा उत्तरे च। प्रति०। भ०। देवेन्द्रस्य लोकमध्यवर्तिरुचकदक्षिणार्द्धमवग्रहः / कहूँ वा पत्तं वा सक्करं वा परामुसंति, तं णं तेसिं णं देवाणं आचा०२ श्रु०१चू०७ अ०१ उ01 पहरणरयणत्ताए परिणमंति / जहेव देवाणं तहेव असुरकुमा देविंदोववाय-पुं०(देवेन्द्रोपपात) स्वनामख्याते कालिकश्रुतभेदे, पा० राणं? णो इणढे समढे, असुरकुमारा णं देवा णं णिचं विउव्विया देविंधयार-न०(देवान्धकार) अन्धकारभेदे, स्था०। पहरणरयणा पण्णत्ता। तिहिं ठाणेहिं देविंधयारे सिया। तं जहा-अरिहंतेहिं वोच्छि(जंगलेचा तणं वा कहें वेत्यादि) इह च यहेवानां तृणाऽऽद्यपि प्रहरणीयं जमाणेहिं, अरिहंतपन्नत्ते धम्मे वोच्छिण्णमाणे, पुव्वगए वोच्छिभवति तदचिन्त्यपुण्यसंभारवशात्सुभूमचक्रवर्तिनः स्थालमिव, असुराणां जमाणे॥ तु यन्नित्यविकुर्वितानि तानि भवन्ति तद्-देवापेक्षया, तेषां मन्दतर देवानां भवनाऽऽदिष्वन्धकारं देवान्धकारं, लोकानुभावादेवे ति, पुण्यत्वात्तथाविधपुरुषाणामिवेत्यव-गन्तव्यमिति / भ०१८श०७. लोकान्धकारे उक्तेऽपि यद्देवान्धकारमुक्तं तत्सर्वत्रान्धकारसद्भावदेवाहिदेव-पुं०(देवाधिदेव) देवानामिन्द्राऽऽदीनामधिका देवाः प्रतिपादनार्थमिति / स्था०।३ ठा०१ उ०। पूज्यत्वाद्देवाधिदेवा इति। अष्टादशदोषरहितेषु, दर्श० 1 तत्त्व। तीर्थकरेषु, देविड्डि-स्त्री०(देवर्द्धि) त्रिधात्रिधा प्रकाराभ्यां षट्धा देवर्धिः / स्था०३ ते च चतुर्विंशत् / स०२३ समाआव०। (तद्वक्तव्यता 'तित्थयर' ठा० उ०। शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2274 पृष्ठे द्रष्टव्या ) भायलस्वामिगढस्थायां देवित्थी-स्त्री०(देवस्त्री) स्त्रीभेदे, जी०२ प्रति०। (तद्वक्तव्यता 'इत्थी' जिनप्रतिमायां च / भायलस्वामिगढे देवाधिदेवः / ती०४३ कल्प। शब्दे द्वितीय भागे 565 पृष्ठ गता) आ०क० नि०चू०। देविलासुय-पुं०(देविलासुत) अनुरक्तलोचनायाः पत्यौ स्वनामख्याते देवाहिवइ-पुं०(देवाधिपति) देवेषु अधिपतिर्देवाधिपतिः / देवेष्व उज्जयनीनृपे, आव०४ अ० (तद्वक्तव्यता 'सव्वकामविरत्तया' शब्दे धिककान्तिधारिणि, उत्त०११ अ०। सूत्र०। इन्द्रे, सूत्र० 1 श्रु०६ अ० वक्ष्यते) देविंद-पुं०(देवेन्द्र) दीव्यन्तीति देवा भवनवास्यादयस्तेषामिन्द्राः प्रभवो देवी-स्त्री०(देवी) दीव्यति, दिव अण गौरा०डीए / दुर्गायाम, देवेन्द्राः। चमराऽऽदिषु, आव०४ अ० आ० म०ा कल्पाते च द्वात्रिंशत् / वाचल। उत्त०। 'यत्प्रभावादवाप्यन्ते, पदार्थाः कल्पनां विना। स० / द०प०। उपा०। (तद्वक्तव्यता ‘इंद' शब्दे द्वितीयभागे 535 पृष्ठे सा देवी संविदं नः स्तादस्तकल्पलतोपमा ||3||" उत्त०१ द्रष्टच्या) (देवानां मनुष्यलोकगमनं 'मणुस्सलोय' शब्दे वक्ष्यते) अ०। भूायाम , स्पृक्काया च / देवस्य पत्नी डीप् / देवपत्न्याम्, देविंदणाय-न०(देवेन्द्रज्ञात) देवेन्द्रोदाहरणे, पञ्चा०। वाचा स्थाo। 'देवीणं ठावणा मुणेयव्वा / '' देवीनां सुरव
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________________ देवी 2628 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देसकहा धूनाम्। पञ्चा०२ विव०। प्रव०। राजाग्रमहिष्याम्, व्य०३ उ०। सू०प्र०। | सूरिगुरौ, एतेन जैनमेघदूताऽऽद्या ग्रन्था रचिताः। विक्रमसंवत्-१३७१ प्रश्न। "तस्सणं सेणियरस रण्णो धारणी नामं देवी होत्था।'' ज्ञा०१ वर्षेऽयं स्वरगमत्। जै०३०॥ श्रु० 1 अ०। (देवीवर्णकः 'राज' शब्दे वक्ष्यते) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे | देवेंदसूरि-पुं०(देवेन्द्रसूरिन्) श्रीमज्जगचन्द्रसूरितपागच्छस्थापकशिष्ये अस्यामेवोत्सप्पण्या सप्तमस्यारनाम्नश्चक्रवर्तिनः स्वनामख्यातायां स्वनामख्याते सूरौ, कर्म० 1 कर्म०1 अयमाचार्यः विक्रम संवत्मातरि, सका आव० / अत्रैव दशमस्य हरिषेणचक्रवर्तिनः स्वनाम- 1270-1327 वर्षाणामन्तराले आसीत्, तेन च सटीकः कर्मग्रन्थः, ख्यातायां पत्ल्याम, स०। अस्यामेवोत्सर्पिण्यामष्टादशमस्याऽरस्था- श्राद्धदिनकृत्यटीकावृत्तिः, नव्यकर्मग्रन्थपञ्चाशकवृत्तिः, सिद्धपश्चाशकमिनस्तीर्थकरस्य स्वनामख्यातायां मातरि, स०। प्रव०। आव०॥ वृत्तिः, धर्मरत्नवृत्तिः, सुदर्शनश्रेष्ठिचरित्रं, देववन्दन भाष्य, गुरुवन्द(देवीनामाशातना 'आसायणा' शब्दे द्वितीयभागे 483 पृष्ठे द्रष्टव्या) | नभाष्य, प्रत्याख्यानभाष्यमृषभाऽऽदिवर्द्धमानान्तस्तुतिः, पाक्षिकविप्रस्त्रीणामुपधौ च। "देव्यस्ता विप्रयोषितः।" इत्युक्ते। वाच०। तथेशाने प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिरित्याद्यनेके ग्रन्था विरचिताः। विक्रमसंवत्-१३२७ सौधर्मे ज्योतिश्चक्रे व्यन्तरनिकाये असुराऽऽदिनि-काये च प्रत्येकं देवेभ्यो वर्षेऽयं स्वर्गतः। जै०इ० स्वनामख्याते सूरौ च / 'कहं पुण देविंदसूरीहिं देवीवर्गो द्वात्रिंशदधिकद्वात्रिंशद्गुण इति प्रज्ञापनायां महादण्डके चत्तारि विवाणि अउज्झापुराओ आणीयाणि।" ती० 12 कल्प। प्रोक्तमस्त्यन्यत्र तु "तिगुणातिरूवअहिआ" इत्यादिवचनात्सर्वसुरेभ्यः / देवेसरवंदिय-पुं०(देवेश्वरवन्दित) देवेन्द्रवन्दिते, "देवेसरवंदियं च सर्वदेवीवर्गो द्वात्रिंशद्रूपाधिकद्वात्रिंशद्गुण इत्यत्रोत्तरवचनं कथं संगच्छते / मरुदेव।' स०/ प्रज्ञापनायां सनत्कुमाराऽऽदिदेवेभ्यो देवीनामधिकत्वप्रतिपादाना- देव्व-पुं०(देव) चतुर्थे विवाहभेदे,धा यत्र यज्ञार्थमृत्विजः कन्याप्रदानमेव ऽऽदिप्रश्ने, उत्तरम्-ईशानाऽऽदिषु यद्देवापेक्षया देवीनां द्वात्रिंशद्गुणत्वं | दक्षिणा स दैवः / ध०१ अधिक तदीशानाऽऽदिदेवभोग्यदेव्यपेक्षयाऽवगन्तव्यं, तेनाधिका अपि तत्र देव्यः / देवोववाय-पुं०(देवोपपात) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्यामुसंभाव्यन्ते, ताश्च सनत्कुमाराऽऽदिदेवापेक्षया गण्यमाना द्वात्रिंशदधिक- / त्सर्पिण्या त्रयोविंशतितमे स्वनामख्याते भविष्यति तीर्थकरे, सा द्वात्रिंशद्गुणा भवन्तीतिन कश्चन प्रज्ञापनोपाङ्गे 'तिगुणा तिरूवअहिअ देस-पुं०(देश) जनपदे, बृ०४ उ०। जीता स्था०। आव०नि००! त्ति गाथोक्तभावार्थयोर्भेद इति। 41 प्र०ा सेन०१ उ० रा०। मण्डले, स्था०५ ठा०३ उ०ा जन्मक्षेत्राऽऽदौ, स्था० ३ठा०३ उ०। देवीपडिमा-स्त्री०(देवीप्रतिमा) देव्या मूर्ती, "तत्थ रण्णो देवीओ य / प्रदेशे, स्था० 3 ठा०३ उ०। भ०। अनु० / प्रकारे, विशेष स्थाol पडिमा कया।" आ०म०१अ०२ खण्ड। अवयवविशेषे, स्था० 1 ठा०। जी०। अंशे, आतु० / प्रश्र० / पूर्वाऽs-- देवुक्कलिया-स्त्री०(देवोत्कलिका) देवाना वा तस्यैवोत्कलिका | दिदिक्षु,स्था०७ ठा०। एकदेशे, उपा०१ अ० प्रस्तावे, विशे०। देशः देवोत्कलिका / आ०म० अ०१ खण्ड / प्रश्नका तत्समवायविशेषे, प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम्। दश०१अ० आ० म०| स्था०३ ठा०१ उ०। रा०ा देवलहरौ च / स्था०४ ठा०३ उ०। (देवो- 1 विशे०। ग्रामनगराऽऽदौ, हा०१२अष्टा देशनं देशः। कथने, विशे०। त्कलिका कुत्र भवति इति लोगुज्जोय' शब्दे वक्ष्यते) आ०म० देवज्जोय-पुं०(देवोद्योत) देवप्रकाशे, स्था०। देसकहा-स्त्री०(देशकथा) तृतीये विकथाभेदे, ग०१ अधि० तिहिं ठाणेहिं देवुज्जोओ सिया। तं जहा-अरहंतेहिं जाय- देसकहा चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहा-देसविहिकहा, देसविमाणे हिं, अरहंतेहिं पव्वयमाणे हिं, अरहंताणं णाणुप्पाय- अप्पकहा, देसच्छंदकहा, देसनेवत्थकहा। महिमासु / स्था० ३ठा०१ उ०। आम० रा०| तथा देशे मगधाऽऽदौ विधिर्विरचना भोजनमणिभूमिकाऽऽदीना, (अर्हता परिनिर्वाणमहिमासु देवोद्योतो भवति इति लोगुज्जोय' शब्दे / भुज्यते वा यद्यत्र प्रथमतयेति देशविधिस्तत्कथा देशविधिकथा / वक्ष्यते) एवमन्यत्रापि, नवरं विकल्पः सस्यनिष्पत्तिः, वप्रकूपाऽऽदिदेवकुलदेवेंदगणि(ण)-पुं०(देवेन्द्रगणिन्) देवभद्रगणिशिष्ये तपागच्छस्थे भवनाऽऽदिविशेषश्चेति / छन्दो गम्यागम्यविभागो यथा लाटदेशे स्वनामख्याते गणिनि, देवभद्रगणिमधिकृत्य - "तेषामुभी विनेयो, भातुलभगिनी गम्या, अन्यत्राऽगम्येति / नेपथ्यं स्त्रीपुरुषाणां वेषः देवेन्द्रगणीन्द्रविजयचन्द्राह्रौ।" ग०४ अधि०। वृद्धगच्छीये आम्रदेव स्वभाविको विभूषाप्रत्ययश्चेति इह दोषाः / स्था०४ ठा०२ उ०। आवा सूरिगुरौ, स च विक्रमसंवत्- 1126 मिते विद्यमान आसीत् / दर्शा नि० चू०। औ०। स०। प्रश्नाआ०चू०। उत्तराध्ययनसूत्रोपरि टीका प्रवचनसारोद्धारग्रन्थ आख्यानमणिकोश इयाणिं देसकहाश्वेत्यादिका ग्रन्था अनेन चक्रिरे, अयमाचार्यः सैद्धान्तिकशिरोमणिनाम्ना छंदं विधी विकप्पं, णेवत्थं बाहुविहं जणवयाणं / प्रसिद्धः। जै०३० एता कधा कधिंते, चतु जमला सुकिला चउरो // 125 / / देवेंदवंदिय-पुं०(देवेन्द्रवन्दित) देवानां भुवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क- गाहापच्छद्धं तदेव वैमानिकानामिन्द्राः स्वामिनो देवेन्द्रास्तैर्वन्दितेऽर्हति, कर्म०२ कम०॥ अग्गद्धस्स इमा वक्खादेवेंदसीहसू रि-पुं०(देवेन्द्रसिंहसूरि) अञ्चलगच्छीये अजितसिंह- | छंदो गंमं विधि रयणा चेव य भुजते य जं पुव्दं /
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________________ देसकहा 2626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देसघाइ(ण) सारणिकूवविकल्पो, णेवत्थं भोयडादीयं / / 126|| अथाप्रशस्तस्य कार्यस्य निश्चयोपापपूर्वकं प्रस्तावकालमाहछंदो आयारो, गम्मा जहा लाडाणं माउलदुहिया, माउसस्स धूया वा / निम्माच्छियं महुं पायमो निही खजगावणो सुन्नो। गमा, विहो नाम वित्थरो, रयणा णाम जहा कोसलाविसए आहार-भूमी जा यंगणे पसुत्ता, पउत्थवइया य मत्ता य // 2065 / / हरितोवलित्ता कज्जति, पउमिणिपत्ताइएहिं भूमी अत्थरिजति, ततो निर्माक्षिकमपगतसकलमाक्षिकं मधु, तथा प्रकटश्चाकाशीभूतो निधिः, पुण्णोवयारो कजति, तओ पत्ती ठविज्जति, ततो पासेहिं करोडगा इत्येतद् दृष्ट्वा तद्ग्रहणस्य यःप्रस्तावो ज्ञायते स देशकालः। तथा कट्टोरगा मंकुया सिप्पीओय ठविति, भुजते यजं पुव्वं,जहा-कोकणे खाद्यकाऽऽपणः कुल्लूरिकहट्टः शून्य इत्यवलोक्य यस्तद्गत खाद्याना पया, उत्तरावहे सत्तुया, अन्नेसु वा जं विसएसु दाऊण पच्छा ग्रहणप्रस्तावो निश्चीयते, तथा या वागणे प्रस्तुप्ता प्रोषितपतिका च अणेगभवक्खप्पगारा दिजंति, सारीणीकूवाईओ विकप्पा भण्णति, मदिरामत्ता च, तस्या अपि तदानीमतीमदनाऽऽकुलीकृतत्वाद्यो णेवत्थं भोयमादीयं भवति / भोयडा णाम जा लाडाणं कच्छा सा ग्रहणप्रस्तावो विज्ञायते, स सर्वोऽपि देशकालः / इति नियुक्तिमरहट्टयाण भोयमा भण्णति, तं च बालप्पभिति इत्थिया ताव बंधंति, गाथाद्यार्थः / / 2065 / / विशे०। जाव परिणीया, जाव य आवष्णसत्ता जाया, ततो भायणं कज्जति, देसकालजाणण-न०(देशकालज्ञान) देशकालज्ञतायाम, प्रव०६द्वार। सयण मेलेऊण पडओ दञ्जिति, तप्पभिई फिट्टइ भोयमा। देसकालजुय-त्रि०(देशकालयुत) क्षेत्रकालोचिते, प्रज्ञा०१ पद। __ इदाणिं देसकहा दोसदरिसणत्थं भण्णति देसकालण्णया-स्त्री०(देशकालज्ञता) अवसरोचितार्थसम्पादनरागदोसुप्पत्ती, सपक्खपरपक्खओ य अधिकरणं। रूपायां प्रस्तावज्ञतायाम, भ०२५ श०७ उ० बहुगुण इमो त्ति दोसो, मोत्तुं गमणं व अण्णेसिं // 127 / / देसकालदाण-न०(देशकालदान) कटकाऽऽदौ विशिष्टनृपतेः प्रस्तादेसकहा तंज देसं वण्णेति, तत्थ रागो, इयरे दोसो, रागदोसओ तं वदाने,दश०६ अ०१उ० कम्मबंधो, किं च-सपक्खेण वा परपक्खेण वा सह अहिकरणं भवति, देसकालभावण्ण-पुं०(देशकालभावज्ञ) देशं कालं भावं च जानातीति कह? साधू एणं विसयं पसंसति, अवर जिंदति. ततो सपक्खेण वा परपक्खेण वा भणितो-तुमं किं जाणसि कूवमंडुक्को? तो उत्तरपच्चु देशकालभावज्ञः / देशकालभावाना ज्ञातरि, प्रव०। देशं कालं भाव च त्तरातो अधिकरणं भवति / किं चान्यत्-देसेवण्णिमाणे अण्णो साहू लोकानां ज्ञात्वा सुखेन विहरति शिष्याणा वाऽभिप्रायान् ज्ञात्वा चिंतेति-बहुगुणो इमो देसो वण्णिओ, सो वण्णिओ सोउंतत्थ गच्छति। सुखेनानुवर्त्तयति। प्रव०६५ द्वार। आचा०। देसकहि त्ति दारं। नि० चू०१ उ०। देसकालावइत्ता-न०(देशकालाव्यतीतत्व) प्रस्तावोचिततारूपे चतुर्दशे देसकाल-पुं०(देशकाल) देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय सत्यवचनातिशये.स०३५ समारा०] इत्यनर्थान्तरम् / स देशरूपः कालो देशकालः / अभीप्सितवस्त्व- देसकालसंवरण-न०(देशकालसंस्मरण) स्मरणभेदे, व्य०१उ०। वाप्त्यवसरकालरूपे कालभेदे, विशे०। आतु०। आ०। चू०। देसग-पुं०(देशक) देशयति कथयतीति देशकः / कथके, स०१सम०। इदानी देशकालमभिधित्सुस्तत्स्वरूपं विवृण्वन्नाह देसग्ग-न०(देशाग्र) देशान्ते, ज्ञा०१ श्रु०१५ अ०॥ जो जस्स जयावसरो, कजस्स सुभासुभस्स सो पायं / देसघाइ(ण)-न०(देशघातिन) स्वघात्यज्ञानाऽऽदेर्गुणस्य देश भण्णइ स देसकालो, देसोऽवसरो त्ति थक्को त्ति / / 2063 / / मतिज्ञानाऽऽदिलक्षण तयन्तीत्येवंशीलानि देशघातीनि। देशघातिदेशः, अवसरः,थक्कमितिपर्यायाः, तदूप जलो देशकालः, सभण्यते। प्रकृतीनां रसस्पर्द्धकभेदे, पं०सं०५ द्वार। देशघातीनि रसस्पर्द्धकानि क इत्याह-यो यस्य शुभस्याशुभस्य वा पार्थस्य निश्चितो यदाऽवसरः भवन्ति / स्वस्य ज्ञानाऽऽदेर्गुणस्य देशमेकदेश मतिज्ञानाऽऽदिलक्ष स देशकालो भण्यते, कथं निश्चितः? इत्याह-सोपायं वक्ष्यमाणोपायत घातयन्तीत्येवं शीलानि देशघातीनि / तानि चानेकप्रकारछिद्रशतइत्यर्थः / इति गाथार्थः / / 2063 / / सडकुलानि / तथाहि- कानिचिद् अनेकबृहच्छिद्रशतसंकुलानि, तत्रशुभस्य साध्वादिभिक्षालक्षणस्य कार्यस्य निश्चयोपायगर्म प्रस्ताव- वंशदलनिर्मापितकटवत्। कानिचिन्मध्यमानेकच्छिद्रशतसड् कुलानि, कालमाह कम्बलवत्। कानिचित् पुनरतीव सूक्ष्मानेकच्छिद्रशतसड्कुलानि, तथा निद्भूमगं च गाम, मिहिलाथूभं च सुण्णयं दटुं। विधवस्त्रवत् / तथा तानि स्तोकस्नेहानि विशिष्ट मल्यरहितानि च नीयं च काय ओलिं ति जाया भिक्खस्स हरहरा // 2064 / / भवन्ति / तथा चोक्तम्-'देस-विघाइत्तणओ, इयरी कडकंबलं ओदनाऽऽदिपाकक्रियापरिसमाप्तौ नि मकं च ग्रागं, पानीयवाहि सुसंकासो। विविहबहुछिद्दभरिओ, अप्पसिणेहो अविमलो य" / / 1 / / कामहिलास्तूभं च, कूपाऽऽदितटं शून्यं दृष्ट्वा तथा नीचं च काकाः, क०प्र० (ओलिति त्ति) अवलीयन्ते गृहाणि प्रत्यागच्छन्तीत्यादि च चिह्न दृष्ट्वा देशघातिस्वरूपमाहजानीयात्, यथा संजाता भैक्षस्य (हरहर त्ति) अतीव भिक्षाप्रस्ताव इति देसविघाइत्तणओ, इयरो कमकंबलंसुसंकासो। // 2064 // विविहबहुछिद्दभरिओ, अप्पसिणेहो अवियलो य॥३८||
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________________ देसघाइ(ण) 2630 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देसदसण इतरो देशघाती देशघातित्वात् स्वविषयैकदेशघातित्वाद्भवति, स च यथा कश्विदभ्युपगम्यते-"तस्मिन्ध्यानसमापन्ने, चिन्तारत्नवदास्थिते। विविधबहुछिद्रभृतः / तद्यथा- कश्चित् वंशदलनिर्मापितकट निःसरन्ति यथाकाम, कुर वाऽऽदिभ्योऽपि देशनाः।।१॥'' स्था०६ ठा०। इवातिस्थूरछिद्रशतसंकुलः,कश्चित्कम्बल इव मध्यमविवरशत- देसणिग्गमण-न०(देशनिर्गमन) देशेषु विहारक्रमकरणे, व्य० ३उ०। संकुलः, कोऽपि पुनस्तथाविधमसृणवासोवदतीव सूक्ष्मविवरसंवृतः। देसणिसूदग-त्रि०(देशनिषूदक) देशविनाशके, "विशाखभूतिजीवश्च, (कडकंबलसुसकास इति) कटो वंशदलनिर्मापितः, कम्बलऊर्णामयः, भवं भ्रान्त्वाऽथ केसरी / जज्ञे तुङ्ग गिरौ शङ्ख पुरादेशनिसूदकः अशुकं वस्त्रं, तत्संकाशः, तथा स्वरूपतोऽल्पस्नेहः स्तोकस्नेहाऽवि- ___||1||" आ०क। भागसमुदायरूपः, अविमलश्च नैर्मल्यरहितश्चेति गाथार्थः // 38 // पं० देसणी-स्त्री०(देशनी) प्रज्ञापन्याम्, दश०७ अ०॥ सं०३ द्वार। देशघातिरसस्पर्द्धकान्विते प्रकृतिभेदे, स्त्री० डीप / पं०सं० देसणेवत्थ-न०(देशनेपथ्य) देशानुकूले स्त्रीपुरुषाणां थेषे, देश३ द्वार। 'देसग्घाइरसेणं, पगईओ हाँति देसघाईओ।" देशघातिरसेन कथाभेदे, स्था०४ ठा०२ उ०। (व्याख्या 'देसकहा' शब्देऽनुपदमेव गता) देशघातिरसस्पर्द्धकसंबन्धेन प्रकृतयो मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽ-दिरूपाः देसदसण-न०(देशदर्शन) देशनिरीक्षणे, बृ०। पञ्चविंशतिसइख्या देशघातिन्यो व्यवायन्ते / कर्म० 5 कर्म०। पं० शिष्यः पृच्छति? तेन जिनकल्पिकपदवीसंपादयितुमिच्छता द्वादश स०। (ताश्चमतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिरूपाः पञ्चविंशतिप्रकृतयः 'कम्म' वर्षाणि सूत्रग्रहणं कृतं, द्वादशवर्षेरर्थः समग्रोऽपि गृहीतः, शब्दे तृतीयभागे 266 पृष्ठे उक्ताः ) अतो देशदर्शनेन विना किमिवास्य न सिद्ध्यतीत्युच्यतेदेसचाइ(ण)-पुं०(देशत्यागिन्) देशस्य जन्मक्षेत्राऽऽदेस्त्यागो जइ वि पगासोऽहिगओ, देसीभासाजुओ तहा विखलु। देशत्यागः, स यस्मिन्नविनये प्रभुगालीप्रदानाऽऽदावस्ति स देशत्यागी। जन्मक्षत्राऽऽदित्यागवत्यविनये, स्था०३ ठा०३ उ०। नि०चू०। तदुडुय सिया य वीसुं, परयामाई य पचक्खं / / देसच्चाय-पुं०(देशत्याग) जन्मक्षेत्राऽऽदित्यागे, स्था०३ ठा०३ उ०॥ यद्यपि तेन प्रकाशोऽर्थः सूत्रस्याधिगतः सम्यगविज्ञातः, तथापि खलु देसच्छंद-पुं०(देशच्छन्द) देशविषयके गम्यागम्यविभागे, स्था० 3 ठा० निश्चर्यनासौ विनेयो देशदर्शनेन देशीभाषायुतः कर्तव्यः। कुतः? इत्याह (उडुय इत्यादि)उडुकमिति स्थानम्, (सिय त्ति) स्यात्शब्दो भवत्यर्थे , ३उन आशङ्काया, भजनायां वा। तत्र भवत्यर्थे सुप्रसिद्धः। आशङ्कायां यथादेसच्छंदकहा-स्त्री०(देशच्छन्दकथा) देशकथाभेदे, स्था०३ ठा०३उ०। (व्याख्या 'देसकहा' शब्दे गता) "दव्वथओ भावथओ, दव्वथओ बहुगुणो त्ति बुद्धि सिया।" भजनायां यथा--"सिय तिभागे सिय तिभागति भागे'' इत्यादि / (वीसु त्ति) देसजइ-पुं०(देशयति) "सवेण च देसेण च, तेण जुओ होइ विष्वक्, पृथगित्यर्थः / परकागुन्द्रा भद्रमुस्तक इत्यर्थः / एते, आदिग्रहणात् देसजई।' सर्वेण द्वादशव्रताऽऽत्मकेन देशेन वाऽन्तरव्रतप्रतिपत्ति पयः पिच्च नीरमित्यादयश्च शास्त्रप्रसिद्धाः शब्दाः, तेषु तेषु देशेषु लोकेन लक्षणेन युक्ते श्रावके, आतुला "सम्भईसणसडिओ, गिण्हतो विरइ तथा तथा व्यवहियमाणा देशदर्शनं कुर्वता, प्रत्यक्षमिति प्रत्यक्षत मप्पसत्तीए। एगव्वयाइचरिमा, अणुमोयइ त ति देसजई / / 1 / / " कर्म० रकर्म उपलभ्यन्त इति। देसजय-पुं०(देशयत) देशे संकल्पनिरपराधत्रसवधविषये यतं यमनं आह-- यद्यसौ तान् प्रत्यक्षतो नोपलभेत, ततः का नाम संयमो यस्य स देशयतः / सम्यग्दर्शनयुते एकाणुव्रताऽऽदिधारिणि न्यूनता भवेत्? उच्यतेअनुमतिमात्रश्रावके, यदाह श्रीशिवशर्मसूरिवरः कर्मकृतौ-"एगव्वयाइ जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पच्चक्खओ न उवलद्धो। चरमो, अणुमोयइ त त्ति देसजई।" कर्म०४ कर्म०। जच्चंधस्स व चंदो, फुडो वि संतो तहा स खलु / / देसजुय-पुं०(देशयुत) षट्त्रिंशत्सूरिगुणानां प्रथमे गुणे , प्रव०। यो योऽपि प्रकाशोऽर्थो बहुशो गुणितः स्वभ्यस्तीकृतः, परं न प्रत्यक्षत मध्यदेशे जातो यो वाऽर्द्धषडविंशतिषु जनपदेषु स देशयुतः, स उपलब्धः, स जात्यन्धस्येव चन्द्रः स्फुटोऽपि सन् खलुरवधारणे, ह्यार्यदेशभणितं जानाति। ततः सुखेन तस्य समीपे शिष्याः सर्वेऽप्य- तथैवास्फुट एव मन्तव्यः। इदमत्र हृदयम्-यथा चन्द्रः प्रकटोऽपि साक्षाधीयते। प्रव०६४ द्वार। दर्शनं विना जात्यन्धस्य न परिस्फुटाऽऽकारः प्रतिभासते, एवमस्यापि देसड-पुं०(देश) "एवंपरंसमंधुदमामनाक् एम्ब पर समाणु धुवु मं शास्त्रानुसारतः प्रकटा अपि प्रत्यक्षदर्शनमन्तरेण न परिस्फुटा व्यवहारोमणाउं"|| 18|| इत्यत्र प्रायोग्रहणाद् देशस्य देसडाऽऽदेशः। पयोगिनोऽर्थाः प्रतिभासन्ते। स्थाने, 'माणि पइट्ठइ जइ न तणु, तो देसडा चइज।'' माने प्रणष्ट यदि यतश्चैवं ततःतनुर्न त्यज्यते ततो देशस्त्यज्यते / प्रा० ढुं० 4 पाद। आयरियत्तअभविए, भयणा भविओ परीइ नियमेणं / देसण-न०(देशेन) प्ररूपणे, नं०। अप्पतईओं जहन्ने, उभयं किं वाऽऽरियं खेत्तं?।। देसणा-स्त्री०(देशना) धर्मकथायाम्, षो० 14 विव०। ध० 20 / स्था। आचार्यपदस्याभन्योऽयोग्यस्तस्मिन् भजनाऽर्थग्रहणानन्तरं कथने, जी० 27 अधि०ा आख्यातं भगवतेदं न कुड्याऽऽदिनिः सृतं, | देशदर्शनं कार्यते वा, नवा, यस्तु भव्य आचार्यपदयोग्यः स नि
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________________ देसदसण 2631 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देसदसण यमेन पर्येति देशदर्शनाय पर्यटति। स चाऽऽत्मतृतीयो जघन्येनावश्यन्तया कृत्वा प्रेषणीयः / किं च-उभयमिति किमतुबद्धकालप्रायोग्यमिदं क्षेत्रम्, उत वर्षावासयोग्यम्? तथा किमेतदार्य सार्द्धपञ्चविंशतिजनपदमध्यवर्ति, आहोस्विदनार्यम्? एतत्सर्वमपि देशदर्शनं विदधानो जानाति। अथ देशदर्शनस्यैव गुणान्तराभिधित्सया द्वारगाथामाहदंसणसोही थिरकरण, देस अइसेस जणवयपरिच्छा। काउ सुयं दायध्वं, अविणीयाणं विवेगो य॥ देशदर्शनं कुर्वतो दर्शनशुद्धिरात्मनः, स्थिरीकरणं चान्येषां भवति / (देस त्ति) नानादेशभाषासु कौशलम्, अतिशेषा अतिशया जनपदपरीक्षा च जायते, तत एतानि दर्शनशुद्धयादीनि कृत्वा विनीतेभ्यः श्रुतं दातव्यम्। अविनीतानां विवेकः परित्यागः कर्तव्य इति द्वारगाथासमासार्थः। अथ विस्तरार्थं विभणिषुराहजम्मणनिक्खमणेसु य, तित्थयराणं महाणुभावाणं। इत्थ किर जिनवराणं, आगाढं दंसणं होइ।। जन्मनिष्क्रमणशब्दाभ्यां तदाधारभूता भूमयो गृह्यन्ते, जन्मभूमिषु अयोध्याऽऽदिषु. निष्क्रमणभूमिषु जयन्ताऽऽदिषु, चशब्दाज्झानोत्पत्तिभूमिषु पुरिमतालाऽऽदिषु, निर्वाणभूमिषु सम्मेतशैलचम्पाऽऽदिषु, तीर्थकराणां महानुभावानां सातिशया चिन्त्यप्रभावानां संबन्धिनीषु विहरतोऽत्र किल भगवतां जिनवराणां जन्म जज्ञेऽत्र तु भगवन्तो दीक्षा प्रतिपन्नाः, इह केवलज्ञानमासादितवन्तः, इह पुनः परिवृताः, एवं बहुजनमुखेन श्रुत्वा स्वयं च दृष्ट्वा निःशकितत्वभा-वादागाढमतीव विशुद्ध दर्शनं सम्यक्त्वं भवतीति। गतं दर्शनद्वारम्। अथ स्थिरीकरणद्वारमाहसंवेगं संविग्गण, जणए सुविहिओ सुविहियाणं / आउत्तो जुत्ताणं, विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं / / संविग्नानां साधूनां संवेग जनयति-अहो ! अयं भव्याचार्योऽवगाहितसमस्तसिद्धान्तसिन्धुरभ्यस्तचरणकरणसामाचारीक इत्थं देशदर्शनं करोतीति भावनायाः स्थिरीकरणं करोतीत्यर्थः / स्वयं सुविहितानुष्ठानस्तेषामपि सुविहितानां स्वयमायुक्तो विकथानिद्राऽऽदिप्रमादैरप्रमत्तस्तेषामपि युक्तानामप्रमादिना यश्च विशुद्धलेश्यः तेषामपि सुलेश्यानामिति / गतं स्थिरीकरणद्वारम् / अत्र विशेषश्चूर्णिकृता दर्शनशुद्धिद्वारं विवृण्वतेयं गाथा गृहीता, संवेगस्य सम्यग्दर्शनलक्षणत्वात् संवेगदर्शनेन शुद्धिः कृता भवतीति कृत्वा स्थिरीकरणद्वारं तुमूलत एव नोपात्तं, द्वारगाणायामपि "दसणसोही देसप्पवेस अइसेस जणवयपरिच्छा।" इत्येष एव पाठो गृहीतः, अतस्तदभिप्रायेण गतं दर्शनशुद्धिद्वारम्। अथ देशप्रवेशद्वारं व्याचष्टनाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स / अभिलावें अत्थकुसलो, होइ तओऽणेण गंतव्वं / / कहयति अभासियाण वि, अभासिए आवि पव्वयावेइ! सव्वे वि तत्थ पीई, बंधंति सभासिओणे त्ति // पियधम्मऽवज्जभीरू, साहम्मियवच्छलो असढभावो। संविग्गावेइ परं, परदेसपवेसणे साहू।। नानाप्रकारा मगधमालवमहाराष्ट्रलाटकर्णाटद्रविडगौमविदर्भाऽsदिदेशभवा या देशी भाषा, तस्यां कुशलः सन् नानादेशीकृतस्य नानादेशभाषानिबद्धस्य सूत्रस्याऽभिलापे उच्चारणेऽर्थकथने च कुशलो भवति, यत एवं ततोऽनेन देशदर्शनार्थ गन्तव्यम् / / तथा नमः कुत्सार्थत्वात् कुत्सिता अव्यक्त वर्णविभागा भाषा येषां तेऽभाषिकास्तेषामप्यसौ धर्म कथयति, निःशेषदेशभाषानिष्णातत्वात / अभाषिकाँथापि तद्देशभाषया प्रतिबोध्य प्रव्राजयति; सर्वेऽपि च शिष्यास्तत्राऽऽचार्ये प्रीतिं बध्नन्ति, स्वभाषिको "णेअस्माकमयमितिकृत्वा / तथा प्रियधर्मा धर्मश्रद्धालुरवा पापकर्म तस्माद्भीरुर-- वद्यभीरुः, साधर्मिकाः साधवस्तेषां वत्सलो द्रव्यतो भक्तपानाऽऽदिना, भावतस्त स्खलिलाऽऽदिषु सारणाऽऽदिना, अशठभावो मातस्थानरहितः एवंविधोऽसौ साधः परदेशप्रवेशने वर्तमानः परमन्यं संयमयोगेषु सीदन्तमपि संविग्नयति सदुपदेशदानाऽऽदिना संविग्नं करोतीति / गतं देशद्वारम्, देशप्रवेशद्वार वा। अथातिशयद्वारमाहसुत्तत्थथिरीकरणं, अइसेसाणं च होइ उवलद्धी। आयरियदसणेणं, तम्हा सेविज आयरिए। आचार्याणां- दर्शनेन, सेवनेनेति यावत् / सूत्रार्थस्थिरीकरणमतिशयानाच पूर्वाणामुपलब्धिः प्राप्तिर्भवति, यत एवं तस्माद्सेवेतपर्युपासीताऽऽचार्यान्। एतदेव व्याख्यानयतिउभय निसंकियाई,पुट्विं से जाइँ पुच्छमाणस्स / होइ जओ सुत्तत्थे, बहुस्सुए सेवमाणस्स। उभये सूत्रेऽर्थे च यानि पूर्व (से) तस्य शङ्किता नि पदानि, तानि आचार्याणां समीपे पृच्छतो निःशङ्कितानि जायन्ते। एवं बहुश्रुतान सेवमानस्य जयः सूत्रार्थविषयेभ्यः सातिशयो भवति, अतो बहुश्रुतपर्युपासनं विधेयम्। अपि चभवियाऽऽरिय देसाणं, दसणं कुणइ एस इय सोउं। अन्ने वि उज्जमंते, विणिक्खमंते य से पासे / / भव्याचार्य एष देशानां दर्शनं करोति इति श्रुत्वाऽन्येऽपि पर्युपास्यमानाचार्यसंबन्धिनः शिष्या उद्यच्छन्ते सूत्रार्थग्रहणाऽऽदावुद्यम कुर्वन्ति गृहिणोऽपि च तद्गुणग्रामरञ्जितमनसो विनिष्क्रामन्ति दीक्षां प्रतिपद्यन्ते / (से) तस्य भविष्यदाचार्यस्य पार्श्व इति। अतिशयानामुपलब्धिः कथं भवतीत्याहसुत्तत्थे अइसेसा, सामायारीय विज्जजोगाऽऽई। विज्जाजोगाइसुए, विसंति दुविहा अओ होति।। इहातिशयास्त्रिविधास्तद्यथा- सूत्रातिशयाः, सामाचार्यातिशयाः, विद्यायोगाः। आदिशब्दान्मन्त्राश्चेति त्रयोऽतिशयाः। तत्र विद्या स्वीदेवताऽधिष्ठिता, पूर्वसेवाऽऽदिप्रक्रियासाध्या वा, योगाः पादलेपप्रभृतयो गगनगमनाऽऽदिफलाः,मन्त्राः पुरुषदेवताः,पठितसिद्धा वा। यद्वा-विद्यायोगाः, चशब्दान्मन्त्राश्च श्रुते एवं विशन्ति अन्तर्भवन्ति, अतो द्विविधा अति
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________________ देसदसण 2632 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देसविरइगुणट्ठाण शया भवन्ति, तत्र सूत्रातिशयाः सामाचार्यातिशयाश्वेत्येतेषामति- रजकः संभोज्यो, महाराष्टविषये कपल्यपाला अपि संभोज्या इति। शयानामुपलब्धिखाऽऽचार्यपर्युपासनायां भवति / अपिच___ अथ सामाचार्या अतिशयं विभावयिषुराह सज्झायसंजमहिए, दाणाइसमाउले सुलभवित्ती। णिक्खमणे य पवेसे, आयरियाणं महागुभावाणं। कालुभयहिए खित्ते, जाण पडिणीयरहिए य!। सामायारीकुसलो, अ होइ गणसंपवेसेणं / / स्वाध्यायहितं यत्राखण्डे सूत्रार्थपौरुष्यौ भवतः, संयमहित स्त्रीदोस देशदर्शनं कुर्वाणस्तेषु तेषु नगराऽऽदिषु बहुश्रुतानामाचार्याणां षरहितमल्पबीजरहिताऽऽदि वा / (दाणाइ त्ति) दानश्राद्धरादिग्रहमहानुभावानां संबन्धी यो गणो गच्छस्तन्मध्ये यः सम्यगेकीभावेनै- णादभिगमश्राद्धैर्वा समाकुलम् / अत एव सुलभा सुप्रापा वृत्तिहेतुराकत्रावस्थानलक्षणेन प्रवेशस्तेन बहुशो गणान्तरेषु निष्क्रमणे प्रवेशे च हारस्य सपत्तिर्यत्र तत् सुलभवृत्तिकं, तथा किमिदमागन्तुकभद्रकम्, सामाचारीकुशलो भवति। उत वास्तव्यभद्रकमित्याद्युपलक्षणा द्रष्टव्यम्। (कालुभयहिए खित्तेत्ति) कथमित्याह अमूनि वर्षावासप्रायोग्याणि, अमूनि तु ऋतुबद्धकालयो ग्यानि, आगंतुसाहुभावम्मि अविदिए धन्नसालमाइठिया। इत्युभयकालहितानि क्षेत्राणि जानाति, तथा प्रत्यनीकः साध्वादीउप्पत्तियाउथेरा, सामायारीउठाविति।। नामुपद्रवकारी तद्रहितानि च क्षेत्राणि सम्यग् जानातीति / गतं जनपआगन्तुकाः प्राघूर्णकाः, उपसंपन्ना वा, तेषां साधूनां भावेऽवेदि तै दपरीक्षाद्वारम्। बृ०१ उ०२ प्रक०। कीदृशेनाऽभिप्रायेणाऽऽगताः, के वाऽमीत्यपरिज्ञाते केचित् स्थविरा देसधम्म-पुं०(देशधर्म) देशाऽऽचारे, देशधर्मों देशाऽऽचारः / स च आचार्या धान्यशालायामादिशब्दात् घृतशालाऽऽदिष्ववस्थिता प्रतिनियत एव नेपथ्याऽऽदिभेदलिङ्ग इति / दश० 1 अ०॥ औत्पत्तिकीरनुत्पन्नपूर्वाः सामाचारीः स्थापयन्ति। देसप्पंत-पुं०(देशप्रान्त) देशस्य शेषसीमायाम्, विपा०१ श्रु० 10 कथमित्याह देसबंध-पुं०(देशबन्ध) देशतो देशापेक्षया बन्धः / बन्धभेदे, भ०८ सव्वे वि पडिग्गहए, दंसेउं नीह पिंडवायट्ठा। श०६ उ० आहिमरमाइसंका, पडिलेहेउं व पविसंति॥ देसभासा-स्त्री०(देशभाषा) मालवमहाराष्ट्राऽऽदिप्रसिद्धभाषायाम्, ते आचार्याः पिण्डपातार्थ भिक्षानिमित्तं साधून निर्गच्छतो भणन्ति- | बृ०६ उ०। पुरुषद्वारसप्ततिकलाभभेदे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। सर्वेऽपि प्रतिग्रहान् दर्शयित्वा निर्गच्छत, अदर्शितप्रतिग्रहैर्न गन्तव्यम्। / देसय-पुं०(देशक) देशयतीति देशकः / उपदेष्टरि, आ०म० 1101 कुत इत्थं कुर्वन्तीत्याह- आभिमराऽऽद्याशङ्कया मा कश्विदभिमर खण्ड / आव० उदायिनपमारकवत श्रमणवेषेणाऽऽगतो भवेत, आदिग्रहणेन चौरो वा मा | देसवासी-पुं०(देशवर्षिन्) देशे आत्मनो वा देशेन वर्षतीति देशवर्षी। धान्याऽऽदिमोषणायाऽऽगतो भवेदित्याद्याशयाऽपूर्वा समाचारी | एकदेशमात्रे वर्षणशीले, स्था०४ ठा०४ उ०॥ स्थापयन्ति, भिक्षाप्रतिनिवृत्ता अपि च गुरूणांपुरतः सर्व प्रत्युपेक्ष्य ततः / देवविअप्पकहा-स्त्री०(देशविकल्पकथा) देशकथाभेदे, स्था० प्रविशदिरेवाभिमराऽऽदिभिः कारणैरिति / गतमतिशयद्वारम्। (व्याख्या 'देसकहा' शब्देऽनुपदमेव गता) अथ जनपदपरीक्षाद्वारमाह देसविण्णाण-न०(देशविज्ञान) विविधमण्डलेषु सञ्चरता विचित्रलोअब्भे नदी तलावे, कूवे अइपूरए य नावे वाणीए। कलोकोत्तरव्यवहारज्ञाने, पञ्चा० 17 विवा मंस फलपुप्फभोगी, वित्थिन्ने खेत्तें कप्पविही। देसवित्थाराणंतय-न०(देशविस्तारानन्तक) एक आकाशप्रतरः स देशदर्शनं कुर्वन् जनपदानां परीक्षां करोति-करिमन् देशे कथं सर्वविस्तारानन्तकसर्वाऽऽकाशास्तिकाय इत्येवंरूपेऽनन्तभेदे, स्था० धान्यनिष्पत्तिः, तत्र क्वचिद्देशेऽभैः सस्यं निष्पद्यते, वृष्टिपानीयरित्यर्थः। १०टा०। यथा लाटविषये, क्वपि नदीपानीयैर्यथा सिन्धुदेशे, क्वचित्तु तडागजलैर्यथा देसविरइ-स्त्री० (देशविरति) देशःप्राणातिपाताऽऽदिः, एकदेशस्तु द्रविडविषये, क्वापि कूपपानीयैर्यथोत्तरापथे, क्वचिदतिपूरकेण, यथा वृक्षच्छेदनाऽऽदिः, तयोर्विरमण विरतिर्यस्या निवृत्तौ सा देशविरतिः। छन्नासायां पूरादतिरिच्यमानायां तत्पूरपानीयभावितायां क्षेत्रभूमौ विशे०। अणुव्रतातिप्रतिपत्तिपरिणामे, पञ्चा० 10 विव०। देशविरतिधान्यानि प्रकीर्यन्ते / (नावे ति) यत्र नावमारोप्य धान्यमानीतमुप- सम्यक्त्वधारिणो द्वादशदेवलोके याता न वेति प्रश्ने, उत्तरम्- द्वादशभुज्यते, यथा काननद्वीपे, (वाणि त्ति) यन्न वाणिज्येनैव वृत्तिरुपजायते, देवलोके याता इत्यक्षराणि पन्नवणासूत्रे वृत्तौ च सन्तीति / 75 प्र०। न कर्पणेन, यथा मथुरायाम. (मंस त्ति) यत्र दुर्भिक्षे समापतिते मांसेन सेन०३ उल्ला कालोऽति बाह्यते / तथा यत्र पुष्पफलभोगी प्राचुर्येण लोको, यथा / देसविरइगुणट्ठाण-न०(देशविरतिगुणस्थान) देशविरता एकट्याद्यणुकोङ्कणाऽऽदिषु, तथा कानि विस्तीर्णानि क्षेत्राणि, कानि वा संक्षिप्ता नि व्रतधरभेदाः श्रावकाः, तेषां गुणस्थानम्। आव०४ अ०। श्रावकसम्बन्धि(कप्पे त्ति) कस्मिन् क्षेत्रे कः कल्पो यथा सिन्धुविषयेऽनिमिषाऽऽद्याहारा गुणस्थाने, प्रव०। तथा सर्वसावद्ययोगस्यदेशे एकप्रतविषयस्थूलसावद्यअगर्हिताः। (विहि त्ति) कस्मिन् देशे कीदृशः समाचारो यथा सिन्धुषु / योणाऽऽदौसर्वव्रतविषयानुमतिवर्जलावद्ययोगानो विरतिर्यस्याऽसौ सदेशयि
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________________ देसविरइगुणट्ठाण 2633 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 देसावगासिय रतः, सर्वसावद्ययोगविरतिस्त्वस्य नास्ति, प्रत्याख्यानाऽऽवरणकषायोदयात् सर्वविरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीतिप्रत्याख्यानाऽऽवरणा उच्यन्ते, इति देशविरतः, तस्य गुणस्थानं देशविरतगणस्थानम्। प्रव० 22 द्वार। कर्म०। पं० सं० दर्श०। देसविरइसामाइय-न०(देशविरतिसामायिक) देशविरतिरुक्तस्वरूपैव सामायिकमिति। सामायिकभेदे, अस्य पर्यायाः- "विरयाविरई संवुडमसंवुड बालपडिए चेव देसिक्कदेसविरई अणुधम्मो य।' विशे० आ०म० (एषां पदाना व्याख्या तत्तच्छब्दे) (वक्तव्यता सर्वैव 'सामायिय' शब्दे द्रष्टव्या) देसविराहय-पुं०(देशविराधक) देशं स्तोकमशं ज्ञानाऽऽदित्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं चारित्रं विराधयति / प्राप्तस्य चारित्रस्यापालनादप्राप्तेर्वा देशमात्रस्य विराधके, भ०८ श०६ उ०) देसविरुद्ध-न०(देशविरुद्ध) तत्तद्देशीयशिष्टरनाचीर्णे, ध०। तत्र यद्यत्र देशे शिष्टजनैरनाचीर्णं तत्तत्र देशविरुद्धम् / यथा-सौवीरेषु कृषिकर्मेत्यादि / अथवा जातिकुलाऽऽद्यपेक्षयाऽनुचित देशविरुद्धं, यथा ब्रह्मणस्य सुरापानमित्यादि। ध०२ अधिका देसविहिकहा-स्त्री०(देशविधिकथा) देशकथाभेदे, स्था०४ ठा०२ उ०। (व्याख्या 'देशकहा' शब्देऽनुपदमेव गता) देससंका-स्त्री०(देशशङ्का) देशविषये जीवाऽऽद्यन्यतमपदार्थकदेशगोचरे शङ्काभेद, प्रव०६ द्वार। यथाऽस्तिजीवः केवलं सर्वगतोऽसर्वगतो वासप्रदेशोऽप्रदेशो वेति शङ्का देशविषया, जीवाऽऽद्यन्यतमपदार्थकदेशगोचरेत्यर्थः / प्रव०६द्वार। नि००। देससाहणणबंध-पुं०(देशसंहननबन्ध) देशेन देशस्य संहननलक्षणो बन्धः संबन्धः शकटाङ्गाऽऽदीनामिव / देशसंहननबन्धभेदे, भ०८ श०६ उ०। देसादायारलंघण-न०(देशाऽऽद्याचारलङ्घन) जनपदग्रामकुल प्रभृतिसमाचारातिक्रमे, पञ्चा०२ विव०॥ देसाराहय-पुं०(देशाऽऽराधक) सम्बोधरहितत्वात्क्रियापरत्वाद् देशं स्तोकडश मोक्षमार्गस्याऽऽराधयति। देशमात्राऽऽराधके, भ०८ श०६ उ० देसावगासिय-न०(देशावकाशिक) देशे दिग्वतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य विभागोऽवकाशोऽवस्थानमवतारो विषयो यस्य तद्देशावकाशं, तदेव देशावकाशिकम् / दिग्द्रतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदिनं संक्षेपकरणलक्षणे, सर्वव्रतसंक्षेपकरणलक्षणे वा। स्था०४ ठा०३ उ०। तयाणंतरं च णं देसावगासियस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहा- आणवणपओगे 1, पेसवणपओगे 2, सद्दाणुवाए 3, रूवाणुवाए 4, बहिया पोग्गलपक्खेवे 5 / उपा०१ अ० आव० आ०चू०। सूत्र०। पञ्चा०। श्रावकस्य द्वितीयशिक्षाव्रते, श्रा०ा ध०र०॥धा ___ अधुना देशावकाशिकव्रतातिचारानाहप्रेषणानयने शब्द-रूपयोरनुपातने। पुद्रलप्ररेणं चेति, मता देशावकाशिके 156|| प्रेषणं चाऽऽनयनं चेति प्रेषणानयने, शब्दश्च रूपं चैतयोरनुपातनेऽवतारणे, शब्दानुपातो रूपानुपातश्चेत्यर्थः / पुद्गलप्रेरणं चेति पञ्चा-- तिचारा देशावकाशिके देशावकाशिकनाम्निव्रते ज्ञेयाः / अयं भावःदिग्द्रतविशेष एव देशावकाशिकव्रतम् / इयांस्तु विशेषोदिग्व्रतं यावज्जीवं संवत्सरचतुर्मासीपरिमाण वा,देशावकाशिकं तु दिवसप्रहरमुहूर्ताऽऽदिपरिमाणं, तस्य च पञ्चातिचाराः। तद्यथा-प्रेषणं भृत्यादेविवक्षितक्षेत्राद् बहिः प्रयोजनाय व्यापारणम्, स्वयं गमने हि व्रतभङ्गः स्यादिति अन्यस्य प्रेषणम्, देशावकाशिकव्रतमा भूगमनागमनाऽऽदिव्यापारजनितप्राण्युपमर्द इत्यभिप्रायेण गृह्यते, स तु स्वयं कृतोऽन्येन वा कारित इति न कश्चित्फले विशेषः, प्रत्युत स्वयंगमने ईपिथविशुद्धेर्गुणः, परस्य पुनरनिपुणत्वादीसिमित्यभावे दोष इति प्रथमोऽतिचारः / 1 / आनयनं विवक्षितक्षेत्रा बहिः स्थितस्य सचेतनाऽऽदिद्रव्यस्य विवक्षित क्षेत्रे प्रापणं सामर्थ्यात्प्रेष्येण स्वयं गमने हि व्रतभङ्गः स्यात्, परेण त्वानयने न भन इति बुझ्या यदाऽऽनाययति सचेतनाऽऽदि द्रव्यं तदाऽतिचार इति द्वितीयः शशब्दस्य क्षुत्कासिताऽऽदेरनुपातनं श्रोत्रेऽवतारणं शब्दानुपातनं, यथा विहितस्वगृहवृतिप्राकाराऽऽदिव्यवच्छिन्नभूप्रदेशाभिग्रहः प्रयोजने उत्पन्ने विवक्षितक्षेत्राद बहिर्वतभङ्गभयात्स्वयं गन्तुं बहिः स्थितं चाऽऽहातुमशक्नुवन् वृतिप्राकाराऽऽदिप्रत्यासन्नवर्ती भूय कासिताऽऽदिशब्दम् आह्वानीयानां श्रोत्रेऽनुपातयति, तेच तच्छ्रवणात्तत्समीपमागच्छन्तीति शब्दानुपातननामातिचारस्तृतीयः / 3 / एवं रूपानुपातनं, यथा रूपं शरीरसंबन्धि उत्पन्नप्रयोजनः शब्दमनुचारयन्नाहानीयानां दृष्टावनुपातयति, तद्दर्शनाच्च तत्समीपमागच्छन्तीति रूपानुपातनाऽऽख्योऽतिचारश्चतुर्थः / 4 / तथा पुद्गलाः परमाणवस्तत्सङ्घातसमुद्भवा बादरपरिणाम प्राप्ता लोष्टाऽऽदयोऽपि तेषां प्रेरणं क्षेपणं विशिष्टदेशाभिग्रहे हि सति कार्यार्थी परगृहगमननिषेधाद्यदा लोष्टकान परेषां बोधनाय क्षिपति, तदा लोष्टातिपातसमनन्तरमेव ते तत्समीपमनुधावन्ति, ततश्च तान् व्यापारयतः स्वयमगच्छतोऽप्यतिचारो भवतीति पञ्चमः / 5 / इह चाऽऽद्यद्वयमव्युत्पन्नबुद्धित्वेन सहसाकाराऽऽदिना वा, अन्त्यत्रयं तु मायापरतयाऽतिचारतां यातीति विवेकः / इहाऽऽहुर्वृद्धाः दिग्वतसंक्षेपकरणमणुव्रताऽऽदिसंक्षेपकरणस्याप्युपलक्षणं द्रष्टव्यं, तेषामपि संक्षेपस्यावश्यंकर्तव्यत्वात्। अत्राऽऽहननु अतिचाराश्च दिव्रतसंक्षेपकरणसयैव श्रूयन्ते, नव्रतान्तरसंक्षेपकरणस्य, तत्वार्थव्रतान्तरसंक्षेपकरणंदेशावकाशिकव्रतमिति? अत्रोच्यतेप्राणातिपाताऽऽदिव्रतान्तरसंक्षेपकरणेषु वधबन्धाऽऽदय एवातिचाराः, दिग्वतसंक्षेपकरणे तु संक्षिप्तत्वात्क्षेत्रस्य प्रेष्यप्रयोगाऽऽदयोऽतिचारा भिन्नातिचारसंभवाच दिग्वतसंक्षेपकरणस्यैव देशावकाशिकत्वं साक्षादुक्तम् / / 16 / / इत्युक्ता देशावकाशिक्वतातिचाराः / ध०२ अधि०। संपूर्णदिवसे देशावकाशिकं क्रियते, तत्रोचारणपारणविधिलिखनीयः, तथा तत्र सामायिकं गृहीतं पारितं च शृद्ध्यति, न वा, तथा देशावकाशिकेन सह सामायिकमुचरति, नयेतिप्रश्ने, उत्तरम् देशावकाशिकोच्चारणविधिः- "दे
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________________ देसावगासिय 2634 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दोकिरिय सावगासिअउपभोगं पच्चक्खामि" इत्यादिको दृश्यते, परंपारणविधि- भिक्षावृत्तिः। आ०म०१ अ०२ खण्ड। ातो नास्ति, तथा देशावकाशिकमध्ये सामायिकस्य ग्रहणं पारणं च / देहणी-(देशी) पके,देवना०५ वर्ग 48 गाथा। शुद्ध्यति, तेन सह सामायिकग्रहणमपि शुद्ध्यतीति / 427 प्र०। सेन०३ देहदुव्वलदोस-पु०(देहदुर्बलदोष) संहननदुर्बले, पं०चू०। उल्ला देहपरिणाम-पु०(देहपरिणाम) प्रतिविशिष्टायां शरीरशक्ती, आचा० देसाहिवइ-पुं०(देशाऽधिपति) देशाऽऽरक्षिके, देशव्यापृतिकेवा। बृ०४ १श्रु०१ अ०४ उ उ० स्था देहपलोयण-न०(देहप्रलोकन) आदर्शाऽऽदौ देहदर्शन, दश०३अ०। देसि-त्रि०(देशिन्) देशवति, अवयविनि,विशे। देहबल-न०(देहबल) संहननजनिते शरीरसामयें , बृ०३ उ०) देसिक्कदेसविरय-पुं०(देशैक देशविरत) श्रावके, आतु० / षण्णा देहबलिया-स्त्री०(देहबलिका) भिक्षावृत्तौ, आ०म०१ अ०२ खण्डा पृथिव्यादिकायानां षष्ठांशत्वादेशस्त्रसकायव्यपरोपणलक्षणः, तस्यापि देहमाण-त्रि० (प्रेक्षमाण) पश्यति, "दिट्ठोरा देहमाणो देहमाणो चिल्लइ।'' संकल्पजाऽऽरम्भजत्वेन द्विभेदत्वादेकदेशः संकल्पजत्रसविनाशनि भ०६ श०३३ उ०। सूत्रा वृत्तिरूपः पुनस्तस्यापि सापराधीनरपराधभेदद्वयेन द्विप्रकारत्वादत्र / देहली-स्त्री०(देहली) द्वारशाखाप्रोते अधः खण्डे,आ०म०२४०। नरपराधसंकल्पजत्रसजीवविनाशनिवृत्तिरूपो देशैकदेशस्तेन स्वयं देहविभूसा-स्त्री०(देहविभूषा) स्नानाऽऽदिरूपायां देहपरिष्क्रियायाम्, हननघातनाद्विरतो निवृत्तो देशविरतः। आतु बृ०१ उ० देसिगणि-पुं०(देशगणि) स्वनामख्याते आचार्ये , "तत्तो अथिरचरितं, देहविमुक्क-पुं०(दहचिमुक्त) सिद्धे, भ०८ श०२३०। उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्त / देसिगणिखमासमणं, माढरगुत्तं नमसामि'" / / 1 / / कल्प०२ अधि०८ क्षण। देहव्यावि-पुं०(देहव्यापिन्) शरीरमात्रव्यापके आत्मनि, दश०४ अ०। देहसमाहि-पुं०(देहसमाधि) शरीरसमाधाने, पं०व०४ द्वार। देसितव-त्रि०(देशितवत्) प्रकाशिते, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०/ देहसहाव-पुं०(देहस्वभाव) शरीरस्वरूपे, व्य५ उ०। देसिता-अव्य०(देशित्वा) कथयित्वेत्यर्थे, आ०म०१ अ०१ खण्ड। देसिय-पुं०(देशिक) देशनं देशः कथन, सोऽस्यास्तीति देशिकः / गुरो, देहादिणिमित्त-न०(देहाऽऽदिनिमित्त) शरीरगृहपुत्रकलत्रप्रभृत्यर्थे , पञ्चा० 4 विवा उपदेष्टार, आ०म०१ अ०१ खण्ड। विशेषाव्या देशयतीति देशिकः / अप्रयायिनि, आस०५ अ०। बृहत्क्षेत्रव्यापिनि, आचा०२ श्रु०१ चू०१ देहि-पुं०(देहिन्) आत्मनि, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 170 / अ०३ उ०। दो-पुं०(द्वी) "देः दो वे"|||३।११६॥ द्विशब्दस्य प्रथमायां द्विवचने *देशित-त्रि० / उपदिष्टे, कथिते, विशे०। आव०पा०) जी0) संस्कृते-दौ / प्राकृते- 'दो' इति। प्रा०३ पाद। *दैवसिक-त्रि० / दिवसयाते, "देसियं च अईआई. चितिज्ज अणु दोआल-(देशी) वृषभे, देवना० 5 वर्ग 46 गाथा। पुवसो।" उत्त०२६ अ० दोइ-अव्य०(दोइ) 'दो' इति निपातो विकल्पार्थे , 'दोइ सिणेह देसिल्लग-त्रि०(देशीय) देशोद्भवे, बृ०३ उ०। यथा पाण्डुवर्द्धनकम्। नि० ___उवालब्धं / " बृ०३उ०। चू०१६ उ०। दोकिरिय-पुं०(द्वैक्रिय) द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रिय, तदधीयते तद्वेदिनो देसीतो-अव्य०(देशीतस्) देशीभाषामाश्रित्येत्यर्थे, बृ०२ उ०। वा द्वैक्रियाः / कालाभेदेन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपेषु गङ्गाचार्यप्रवर्तितेषु देसीनाममाला-स्त्री०(देशीनाममाला) देशीभाषानामकोष, रा०। पञ्चमनिहवेषु, स्था०७ ठा०। देसीपोरपमाण-त्रि०(देशीपर्वप्रमाण) अड्गुष्ठपर्वपरिमितमुष्टिप्रमाणे, तद्वक्तव्यतादेशीशब्दस्याऽङ्गुष्ठवाचकत्वात्। व्य०८ उ०। नि०चू०। अट्ठावीसा दो वा-समया 'तइया' सिद्धिं गयस्स वीरस्स। देसीभासा-स्त्री०(देशीभाषा) देशप्रसिद्धाऽपभ्रंशभाषायाम, आ०चू०१ दोकिरियाणं दिट्ठी, उल्लुगतीरे समुप्पन्ना / / 2424 / / अ०। आचा अष्टाविंशत्यधिके द्वे वर्षशते तदा सिद्धिंगतस्य श्रीमन्महावीरस्यात्रान्तरे देसेय-त्रि०(देशैजस्) देशैश्वले (देशैजा देशतश्वलाः) भ० 25 104 उ०। द्वैक्रियनिहवानां दृष्टिरुल्लुकातीरे समुत्पन्नेति // 2424 // देसोहि-पुं०(देशावधि) देशप्रकाशके अवधिज्ञाने, स०। कथं पुनरियमुत्मन्ना? इत्याहदेह-पुं०(देह) दिह' उपचये, देहः / आहारपरिणामजनितोपचये, शरीरे, नइखेडजणवउल्लुग, महागिरि धणगुत्त अजगंगे य। अनु०। उत्त०। आव०। विशे०। प्रव०। आ०चू०। आ०म०। स्था० किरिया दो रायगिहे, महातवोतीरमणिनाए।।२४२५।। पिशाचनामभेदे, प्रज्ञा०१ पद। उल्लु का नाम नदी, तदुपलक्षितो जनपदोऽप्युल्लु का। देहंवलिया-स्त्री०(देहवलिका) अनुस्वारो नैपातिकः / देहबलमित्य- उल्लु कानद्याश्चैक स्मिस्तीरे धूलिप्राकाराऽऽवृतनगरविशेषरूपं स्याऽऽख्याने, ज्ञा०१ श्रु० 16 अ० भिक्षावृत्तौ, देहवलिका नाम | खेटस्थानमासीत्, द्वितीये तु उल्लुकातीर नाम नगरम्, अन्ये त्वा
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________________ दो किरिय 2635 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दोकिरिय 1 हु:- एतदेवाल्लुकातीर धूलीप्राकाराऽऽवृतत्वात्खेटमुच्यते, तत्र च महागिरिशिष्यो धनगुप्तो नाम, अस्यापि शिष्य आर्यगङ्गो नामाऽऽचार्यः / अयं च नद्याः पूर्वतटे, तदाचार्यास्त्वपरतटे / ततोऽन्यदा शरत्समये सूरिवन्दनार्थ गच्छन् गङ्गो नदीमुत्तरति, स च खल्वाटः / ततस्तस्योपरिष्टादुष्णेन दह्यते खल्ली। अधस्तात्तु नद्याः शीतलजलेन शैत्यमुत्पद्यते, ततोऽत्रान्तरे कथमपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयादसौ चिन्तितवान्-अहो ! | सिद्धान्ते युगपत्क्रियाद्वयानुभवः किल निषिद्धोऽहं त्वेकस्मिन्नेव समय शैत्यमौषायं च वेदयामि, अतोऽनुभवविरुद्धत्वान्नेदमागमोक्तं शोभनमाभातीति विचिन्त्यगुरुभ्यो निवेदयामास / ततरतैर्वक्ष्यमाणयुक्तिभिः प्रज्ञापितोऽसौ। यदा च स्वाग्रह-स्तबुद्धित्वान्न किश्चित्प्रतिपद्यते, तदा उद्घाट्य बाहाः कृतो विहरन् राजगृहनगरमागतः, तत्र च महातपस्तीरप्रभवनाम्नि प्रश्रवणे मणिनागनाम्नो नागस्य चैत्यमस्ति। तत्समीपे च स्थितो गङ्गः पर्षत्पुरः सरं युगपत्क्रियाद्वयवेदनं प्ररूपयति स्म! तच श्रुत्वा प्रकुपितो मणिनागस्तमवादीत्-अरे दुष्ट शिक्षक ! कि मेवं प्रज्ञापयसि? यतोऽत्रैव प्रदेशे समवसृतेन श्रीमद्वर्द्धमानस्वामिन एकस्मिन् समये एकस्या एवं क्रियाया वेदनं प्ररूपितम, तचेहस्थितेन मयाऽपि श्रुतम्, तत्किततोऽपिलष्टतरः प्ररूपको भवान्, येनैवंयुगपत्क्रियाद्वयवेदनं प्ररूपयसि? तत्परित्यज चैतां कूटप्ररूपणाम्, अन्यथा नाशयिष्यामि त्वाम्। इत्यादितदुदितभयवाक्यैर्युक्तिवचनैश्च प्रबुद्धोऽसौ मिथ्यादुष्कृतं दत्त्वा गुरुमूलं गत्वा प्रतिक्रान्त इति // 2425|| अत्र भाष्यम्नइमुल्लुगमुत्तरओ, सरए सीयजलमञ्जगंगस्स। सूराभितत्तसिरसो, सीउसिणवेयणोभयओ।।२४२६|| लग्गोऽयमसग्गाहो, जुगवं उभयकिरिओवओगो त्ति। जं दो वि समयमेव य, सीउसिणवेयणाओ मे / / 2527 / / गतार्थे नवरमार्यगङ्गस्यलग्नोऽयमसद्ग्रहो यदुतयुगपत्क्रियाद्यसंवेदनोपयोगोऽस्ति, यद्यस्मात् मे मम द्वे अपि शीतोष्णवेदने सनकालमेव स्तः / प्रयोगश्वात्रयुगपदुभयक्रियासंवेदनमस्ति, अनुभवसिद्धत्वात्, मम पादशिरोगतशीतोष्णक्रियासंवेदनवदिति // 2426 / 2427|| एवं गङ्गेनोक्ते किमभूदित्याहतरतमजोगेणार्य, गुरुणाऽभिहिओ तुम न लक्खेसि / समयाइसुहुमयाओ, मणोऽतिचलसुहुमयाओ य॥२४२८।। गुरुणाऽभिहितोऽसौ--हन्त ! योऽयं युगपत्क्रियाद्वयानुभवस्त्वया गीयते, सतरतमयोगेन क्रमेणैव भवतःसंपद्यते,नयुगपत. परंसदपि क्रमभवनमस्य त्वं न लक्षयसि, समयावलिकाऽऽदेः कालस्य सूक्ष्मत्वात्, तथा मनसश्चातिचलत्वेनातिसूक्ष्मत्वेनाऽऽशुसंचारित्वादिति। तस्मादनुभवसिद्धत्वादित्यसिद्धोऽयं हेतुरिति / / 2428|| हेत्वसिद्धिमेव भावयतिसुहुमासुचरं चित्तं, इंदियदेसेण जेण जं कालं। संवज्झइ तं तम्म-तनाणहेउ त्ति नो तेण / / 2426 / / उवलभए किरियाओ, जुगवं दो दूरभिन्नदेसाओ। पायसिरोगवसीउ-हवेयणाऽणुभवरूवाओ।।२४३०।। सूक्ष्मम् आशुचरं च चित्तं मनः, तत्र सूक्ष्मं सूक्ष्मातीन्द्रियपुद्गलस्कन्धनिर्वृत्तत्वादाशुचरंतु शीघ्रसंचरणशीलत्वात्। ततश्च तदेवंभूतं चित्त येन 2 कायाऽऽद्याकारस्पर्शनाऽऽदिद्रव्येन्द्रियसंबन्धिना देशेन सह यस्मिन् काले सबध्यते संयुज्यते तस्मिन् काले तस्य तन्मात्रज्ञानहेतुर्भवतियेन स्पर्शनाऽऽदिद्रव्येन्द्रियदेशेन संबध्यते तज्जन्यस्यैव शीताऽऽदिविषयस्योष्णाऽऽदिविषयस्य वा एकतरविज्ञानस्य हेतुर्जायते, न तु येनेन्द्रियदेशेन सह तत्काले स्वयं तन्न संबद्ध तज्जन्यज्ञानस्यापि हेतुरित्यर्थः / इतिशब्दो वाक्यसमाप्त्यर्थः / येनैवं, तेन कारणेन नो नैव दूरभिन्नदेशे द्वे क्रिये कोऽपि युगपदुपलभते संवेदयते इति संबन्धः। कथंभूते द्वे क्रिये इत्याह- पादशिरोगतशीतोष्णवेदनयोरनुभवनमनुभवस्तद्रूपे तदात्मके। अत्र पयोगः- इह पादशिरोगतशीतोष्णवेदने युगपन्न कोऽपि संवेदयले, भिन्नदेशत्वाद्विन्ध्यहिमवच्छिखरस्पर्शनक्रियाद्वयवदिति, अनुभवसिद्धत्वात्, इत्यसिद्धोऽयं हेतुरिति / / 2426 / 2430 / / किञ्चउवओगमओ जीवो, उवउज्झइ जेण जम्मि जं कालं / सो तम्मओवओगो, होइ जहिंदोवओगम्मि॥२४३१।। उपयोगेनैव केवलेन निवृत्त उपयोगमयो जीवः / ततः स येन केनापि स्पर्शनाऽऽदीन्द्रियदेशेन करणभूतेन यस्मिन् शीतोष्णाऽऽद्यन्यतरविषये (जं कालं ति) यस्मिन् काले उपयुज्यते सावधानो भवति तन्मयोपयोगो भवति-यत्र शीताऽऽद्यन्यतरार्थ उपयुक्तस्तन्मयोपयोग एव भवति, नान्यथोपयुक्त इत्यर्थः / उदाहरणमाह-(जहिंदो-वओगम्मि त्ति) यथा इन्द्रोपयोगे वर्तमानो माणवकस्तनमयोपयोग एव भवति, न पुनरन्तरमयोपयोगः / इदमत्र तात्पर्यम्-एकस्मिन्काले एकत्रैवार्थे उपयुक्तो जीवः संभवति, न त्वर्थान्तरे, पूर्वोक्तसाकर्याऽऽदिदोषप्रसङ्गात् / ततश्च युगपत्क्रियाद्वयोपयोगानुभवोऽसिद्ध एवेति // 2431 / / एकस्मिन्नर्थ उपयुक्तः किमित्यर्थान्तरेऽपि नोपयुज्यते? इत्याहसो तदुव ओगमेत्तो-वउत्तसत्ति त्ति तस्समं चेव। अत्यंतरोवओगं, जाउ कहं केण वंसेण?||२४३२।। स जीवः (तदुवओगमेत्तोवउत्तसत्ति त्ति) तस्य विवक्षितैकार्यस्योपयोगस्तदुपयोगः, स एव तन्मानंतत्रोपयुक्ता व्यापृता निष्ठां गता शक्तिर्यस्य स तदुपयोगमात्रोपयुक्तशक्तिरिति कृत्वा कथं तत्समकालमेवार्थान्तर उपयोगं यातु? न कथं चिदित्यर्थः, सार्याऽऽदिप्रसङ्गात्। किंच-सर्वैरपि स्वप्रदेशैरेकस्मिन्नर्थे उपयुक्तो जीवः केनोद्वरितेनांशेनार्थान्तरोपयोगं व्रजतु? नास्त्येव हि स कश्चिदुद्वारोऽशो येन तत्समकमेवार्थान्तरोपयोगमसौ गच्छेदिति भावः / / 243 // यदि समकालमेव क्रियाद्वयोपयोगो न भवति, तर्हि कथं तमहं संवेदयामि? इत्याशक्याऽऽहसमयाइसुहुमयाओ, मन्नसि जुगवं च भिन्नकालं पि। उप्पलदलसयवेहं, वजह व तदलायचक्कं ति॥२४३३।। समयावलिकाऽऽदिकालकृतविभागस्य सूक्ष्मत्वाद् भिन्नकाल - मपि कालविभागेन प्रवृत्तमपि क्रि याद्वयसंवेदनमुत्पलपत्रशतवेधवद्युगपत्प्रवृत्तमिव मन्यसे त्वम्। न हि उत्पलपत्रशतमौत्तराधर्येण व्यवस्थापितं सुतीक्ष्णयाऽपि सूच्या छे के न समर्थना
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________________ दोकिरिय 2636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दोकिरिय ऽपि च वेधक समकालमेव विध्यते, किं तु कालभेदेन, उपर्युपरितने अविद्धेऽधोऽधोवर्तिनः पत्रस्य वेधायोगाद्, अथ च वेधकर्ता युगपद्विहितमेव वेध मन्यते, तद्वेधनकालभेदनस्य सूक्ष्मत्वेन दुर्लक्षत्वात्। यथा वा तत्प्रसिद्धमलातचक्र कालभेदेन दिक्षु भ्रमदपि भ्रमणकालभेदस्य सूक्ष्मत्वेन दुरवगमत्वान्निरन्तरभ्रमणमेव लक्ष्यते, एवमिहापिशीतोष्णक्रियानुभवकालभेदस्य सूक्ष्मत्वेन दुरवसेयत्याधुगपदिव तदनुभवं मन्यते भवानिति // 2433 / / मनोऽपि शिरः पादाऽऽदिभिः स्पर्शनेन्द्रियदेशैरिन्द्रियान्तरैश्च युगपन्न संबध्यते, किं तु क्रमेणैव, केवलमाशुचारित्वेन सूक्ष्मत्वेन च तस्य क्रमसंबन्धो न लक्ष्यत इति दर्शयन्नाहचित्तं पिनेंदियाइं, समेइ सममह य खिप्पचारित्ति। समयं व सुक्कसक्कुलि-दसणे सव्वोवलद्धि त्ति / 2434|| चित्तमपि च ,नैवेन्द्रियाणि, सममेव समेति-मनोऽपि नैवेन्द्रियैः सह युगपत्संबध्यते इत्यर्थः / उपलक्षणत्वान्नाऽपि शिरःपादाऽऽदिभिः स्पर्शनेन्द्रियदेशैर्युगपत्संबध्यते, अथ च क्षिप्रचारि शीघ्रसंचरणशीलं तदिति कृत्वा समकमिव युगपदिव सर्वत्र संबद्ध लक्ष्यते इति शेषः। दृष्टान्तमाह(समयं वेत्यादि) समयं वेत्येतदनन्तरं योजितमप्यावृत्त्या पुनरपीह योज्यते। तत्र वाशब्दो यथार्थे , यथाशब्दश्च दृष्टान्तोपन्यासार्थे / यथाशुष्कशष्कुलिकादशने सर्वेषामपि शष्कुलिकागतरूपरसगन्धस्पर्शशब्दानामुपलब्धिः सर्वोपलब्धिरसमकं प्रवृत्ताऽपि समक लक्ष्यते, तथाऽत्रापि मनः शिरः पादाऽऽदिभिरस्पर्शनेन्द्रियदेशैरिन्द्रियान्तरैश्च क्रमेण संबध्यमानमपि युगपत् संबध्यमानं लक्ष्यत इत्यर्थः / इदमत्र हृदयम्-इह दीर्धा शुष्कां च शष्कुलिकां कस्यचिद्भक्षयतस्तद्रूप चक्षुषा वीक्ष्यमाणस्य रूपज्ञानमुत्पद्यते, तद्ग्रन्धं च घ्राणेनाऽऽजिघ्रतो गन्धज्ञानम्, तद्रस च रसनया आस्वादयतो रसज्ञानं, तत्स्पर्श च स्पर्शनेन वेदयतः स्पर्शज्ञानं, चर्वणोत्थं तच्छब्दं च शृण्वतः शब्दज्ञानमुपजायते / एतानि च पञ्चापि ज्ञानानि क्रमेणैव जायन्ते, अन्यथा सार्याऽऽदिदोषप्रसङ्गात्, मत्यादिज्ञानोपयोगकाले चावध्याधुपयोगस्याऽपि प्रप्तिः, एकं च घटाऽऽदिकमर्थ विकल्पयतोऽनन्तानामपि घटाऽऽद्यर्थविकल्पानां प्रवृत्तिप्रसङ्गाच / न चैतदस्ति / ततः क्रमेण जायमानान्यप्येतानि ज्ञानानि प्रतिपत्ता युगपदुत्पद्यन्ते इति मन्येत, समयाऽवलिकाऽऽदिकालविभागस्य सक्ष्यत्वाद्, एवमिहापि शिरःपादाऽऽदिभिः स्पर्शनेन्द्रियदेशैरिन्द्रियान्तरैश्च क्रमेण संबध्यमानमपि मनः प्रतिपत्ता युगपत्संबध्यमानमध्यवस्थति, न तु तत्त्वतोऽसौ मनसः स्वभावः, तथा चोक्तम्- "युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति।" यदि चोक्तन्यायेन सर्वेन्द्रियद्वारेणोत्पद्यमान उपलम्भे क्रमेण संचरतो मनसः संचारोदुलक्षस्तर्हि कथमेकस्यैव स्पर्शनन्द्रियमात्रस्यशीतवेदनोपयोगादुष्णवेदनोपयोगरूप उपयोगान्तरे जन्ये तत्संचारः सुलक्षः स्याद्, अलक्ष्यमाणे च तत्क्रमसंचारे शीतोष्णक्रियाद्वयोपयोगविषयौ युगपदध्यवसायौ भवत इति / / 2434 // एतदेवाऽऽहसव्विंदियउवलंभे, जइ संचारो मणस्स दुल्लक्खो। एगेंदिओवओगं-तरम्मि किह होउ य सुलक्खो // 2435 / / / व्याख्याताथैव / / 2435 // यदि पुनरेकस्मिन्नर्थे उपयुक्तमपि मनोऽर्थान्तरेऽप्युपयोगं गच्छेत्तदा को दोषः स्याद्? इत्याह अन्नविणिउत्तमन्न वि-णिओगं लभइ जइ मणो तेणं / हत्थिं पि ठियं पुरओ, किमन्नचित्तो न लक्खेइ॥२४३६|| अन्यस्मिन् शीतवेदनाऽऽदिकेऽर्थे विनियुक्तमुपयुक्तमन्यविनियुक्तम्, मनो यदि (अण्णं ति) अन्य उष्णवेदनाऽऽदिकोऽर्थस्तद्विषय उपयोगोऽन्यस्तमन्यं विनियोगमुपयोग लभते.(तेणं ति) तर्हि किमित्यन्यचित्तोऽन्यार्थोपयुक्तचित्तो देवदत्ताऽऽदिर्हस्तिनमपि पुरतो व्यवस्थितं न लक्षयति? तस्मादेकस्मिन्नर्थे उपयुक्तं मनो न कदाचिदन्यार्थोपयोग लभते इति / / 2436|| यदि त्वेकोपयोगे उपयोगान्तरमपीष्यते, तदैतदपि किं नेष्यते? किमित्याहविणिओगंतरलाभे, व किं त्थ नियमेण तो समं चेव / पइवत्थुमसंखेज्जा–णंता वा जं न विणिओगा? // 2437|| एकोपयोगकाले विनियोगान्तरस्योपयोगान्तरस्य वा लाभे इष्य-माणे (तो ति) ततः किमत्र क्रियाद्वयोपयोगलक्षणेन नियमेन (जंति) यत्प्रतिवस्तु असंख्येया अनन्ता वा सममेव युगपदेव विनियोगा उपयोगा नेष्यन्ते? इदमुक्तं भवति-यदि शीतवेदनोपयोगकाले उष्णवेदनोपयोगोऽपीष्यते, ताहे किमत्रानेन क्रियाद्वयोपयोगनैयत्येन यदसंख्येया अनन्ता वा प्रतिवस्तु युगपदुपयोगा न भवन्ति, यथैककाले द्वितीयोपयोगस्तथा बहवोऽपि भवन्विति भावः / इह च "दव्याउ असंखो, संखेज्जे आवि पज्जवे लभइ।" इति वचनादेकस्मिन्नर्थे समकालमवधिज्ञानिनः किलोत्कृष्टतोऽसंख्येया उपयोगाः प्राप्नुवन्ति, शेषज्ञानिनां त्वनन्ता इत्यभिप्रायवता प्रोक्तम्- "पइवत्थु असंखेज'' इत्यादि।।२४३७।। अत्र पराभिप्रायमधिकृत्य परिहारमाहबहुबहुविहाइगहणे, नणूवओगबहुया सुएऽभिहिया। तमणेगग्गहणं चिय, उवओगाणेगया न त्थि॥२४३८॥ ननु बहुबहुविधक्षिप्राऽनिश्रिताऽसंदिग्धध्रुवसेतरवस्तुग्रहणे पूर्वमिहैवावग्रहाऽऽदीनामनुज्ञाने एकस्मिन्नुपयोगबहुता श्रुतेऽभिहितैथेति / "पइवत्थुमसंखेज्जे" इत्यादि सिद्धसाधनमेवेति परेणोक्ते सत्याह(तमणेगेत्यादि) तद् बहुबहुविधाऽऽदिरूपं वस्तुनोऽनेकपर्यायाणां सामान्यरूपतया ग्रहणमात्रमेव ज्ञाने उपयोगयोग्यतामात्रव्यवस्थापनमेव, एकस्मिस्तुवस्तुन्येककालमुपयोगानेकता क्वापि नास्ति, क्रमेणवोपयोगाना भावादिति // 2438|| यदुक्तं 'तणेगगहणं चिय'' इति तदुपजीव्य परःप्राहसमकमणेगग्गहणं, जइ सीओसिणदुगम्मि को दोसो? केण व भणियं दोसो, उवाओगदुगे वियारोऽयं // 2436 / / यद्याचार्य ! समकं युगपदनेकेषामर्थानां ग्रहणं त्वयाऽप्यनुज्ञायते, तदा शीतोष्णद्वये गृह्यमाणे को दोषः, येन गङ्गाभ्युपगमो दूष्यते? सूरिराह(केण वेत्यादि) केन पुनर्भणितंहन्त ! यत्समकमनेकार्थग्रहणे दोषागृह्यन्ते युगपदपि सामान्यरूपतया सेनावनग्रामनगरादिवदनेकेऽर्था इत्येतन्न निवारयामः, वयमित्यर्थः, केवलमिहोपयोगद्वये विचारोऽयं प्रस्तुतः। स चोपयोग एकदा एक एव भवति, न त्वनेक इति // 2436 / / /
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________________ दोकिरिय 2637- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दोकिरिय पुनरपि परप्रश्नमाशड्क्योत्तरमाह जं च विसेसं नाणं, सामन्ननाणपुव्वयमवस्सं। समयमणेग्गहणे, एगाणेगोवओगभेओ को? तो सामन्नविसेसं, नाणाइं नेगसमयम्मि // 2445|| सामन्नमेगजोगो, खंधावारोवओगो व्व // 2440|| (तो त्ति) तस्मात्सामान्यग्राहकं विशेषग्राहकं च ज्ञानं द्वेऽपि नैक-समये खंधारोऽयं साम-नमेत्तमेगोवओगया समयं / नैककालं भवत इति द्वितीयगाथायां संबन्धः / कुत इत्याह- (जं पइवत्थुविभागो पुण, जो सोऽणेगोवओग त्ति // 2441 / / सामण्णेत्यादि) यद्यस्मात्सामान्यविशेषौ परस्परमतीव विभिन्नलक्षणी ननु समकं युगपदनेकार्थग्रहणे अभ्युपगम्यमानेकोऽयमेकानेको भिन्नजातीयावतः कथं तावेककालमेकज्ञाने प्रतिभासेते? एकत्वपयोगभेदो नाम, ये नोच्यते- "उवओगाणेगया नस्थि / " इति / प्रसङ्गात्, सामान्यतत्स्वरूपवद्विशेषतत्स्वरूपवता? मा भूत्तत्प्रतिभासअनोत्तरमाह-(सामन्नमेगजोगो त्ति) यः सामान्योपयोगःसएकोपयोगो स्तथापि तज्ज्ञाने युगपद्धविष्यत इत्याह-यस्माच तन्निबन्धनं ऽभिधीयते, स्कन्धावारोपयोगवदिति दृष्टान्तः ।अमुमेवार्थ स्पष्टयति सामान्यविशेषहेतुकं सर्वमपि ज्ञानं, तत्कथं तत्प्रतिभासमन्तरेणोत्प"खंधारोऽयमित्यादि / ' समकं युगपदेव स्कन्धावारोऽयमित्येवं घेत? सामान्यविशेषज्ञानयोरेकत्वादेककालं ते भविष्यत इति चेत्, यत्सामान्य सामान्यमात्रग्राहको य उपयोग इत्यर्थः, स एकोपयोगता तदयुक्तम्, कुतः? इत्याह-यस्माच सुदूरं विभिन्नौ सामान्यविशेषज्ञानभण्यते / यः पुनः प्रतिवस्तु एते हस्तिनः, अमी अश्वाः, इमे रथाः, एते रूपौ- अवग्रहावयाविति कथं समकालं भवतः? यद्यस्माचवश्यं सामान्यग्राहकज्ञानपूर्वकमेव विशेषग्राहकं ज्ञानं, नानवगृहीतमीह्यते, पदातयः एते खग कुन्ताऽऽदयः, शिरसाणकवचाऽऽदयः, पटकुटिकाः, नानीहितं निश्चीयत इत्यादिवचनादतः कथं तयोर्युगपत्संभव इति ध्वजाः,पताकाः, ढकाशव काहलाऽऽदयः, करभरासभाऽऽदयश्चेत्या // 2444 // 2445|| दिको विभागो भेदाध्यवसायः सोऽनेकोपयोग इति / / 2440 // 2441 / / पुनरपि परः प्राऽऽहआह-परमेकानेकोपयोगभेदे भवद्भिर्युगपत्किं निषिध्यते? इत्याहते चिय न संति समयं, सामन्नाणेगगहणमविरुद्धं / होजन विलक्षणाई, समयं सामन्नभेयनाणाई। बहुयाण को विरोहो, समयम्मि विसेसनाणाणं / / 2446|| एगमणेगं पि तयं, तम्हा सामण्णभावेणं // 2442 / / नन्याचार्य ! एवं तर्हास्तु यदुत सामान्यवेदनामात्रग्राहक सामान्य-ज्ञानं, त एवानेकोपयोगाः समकं युगपन्न सन्ति न भवन्तीति निषिध्यन्ते शीतोष्णवेदनाविशेषग्राहकं विशेषज्ञानरूपं भेदज्ञानं चेत्येते द्वे अपि अस्माभिः / यत्तु सामान्येनानेकेषामर्थानां युगपद् ग्रहणं तदविरुद्धमेव / सुदूरविलक्षणत्वात्समकं युगपन्न भवतः बहूनां तु शीतोष्णाss(ताह त्ति) तस्माद्युगपदनेकोपयोगनिषेधेन / किमुक्तं भवतीत्याह दिविशेषज्ञानानां समये एकस्मिन् काले जायमानानां विशेषज्ञान(एगमणेगं पीत्यादि) यदिदं स्कन्धावाराऽऽद्युपयोगे युगपदनेकार्थग्रहण रूपतया तेषां बहूनामपि तुल्यत्वेन वैलक्षण्याभावात्को विरोधः? येन मस्माभिरनुज्ञायते, (लयं ति) तदनेकमप्यनेकार्थग्रहणमपि सदित्यर्थः, शीतोष्णवेदनाविशेषज्ञाने युगपद् गङ्गस्य निषिध्येते इति॥२४४६|| (एणं ति) एकमेव तत्त्वतएकार्थग्रहणमेवेत्यर्थः, केनेत्याह-(सामनभावेणं अत्रोत्तरमाहति) सामान्यरूपतयेत्यर्थः / अयमत्र तात्पर्यार्थः- यदनेकार्थग्रहण लक्खणभेया उ चिय, सामण्णं च जमणेगविसय ति। मनुज्ञायते तत् सामान्यमेव रूपमाश्रित्य, विशेषरूपतया त्वनेकार्थग्रहण नास्त्येव, एकस्मिन् काले एकस्यैव विशेषोपयोगस्य सद्भावादिति तमवेत्तुं न विसेस-नाणाइं तेण समयम्मि // 2447 // ||24422 // तो सामन्नग्गहणा-णंतरमीहियमवेइ तब्भेयं / अमुमेवार्थ प्रकृते योजयन्नाह इय सामन्नविसेसा--वेक्खो जावंतिमो भेओ॥२४४८|| उसिणेयं सीएयं,न विभागो नोवओगद्गमित्थं / तेन कारणेन समये एकस्मिन् काले बहूनि विशेषज्ञानानि न भवन्ति। होज्ज समं दुगगहणं, सामन्नं वेयणा मे त्ति // 2443|| कुतः? इत्याह-लक्षण शीतोष्णाऽऽदिविशेषणस्वरूपं तस्य परस्परं भेदाद्भिन्नत्वान्न तद्ग्राहकाणि ज्ञानानि समकं भवन्ति, यस्माच्चानेउष्णेयं शीतेय वेदना इत्येवं योऽसौ विभागो भेदोऽसौ नेष्टः शीतो कविषयमनेकाधारं सामान्यम्, इत्यतस्तदगृहीत्वा न विशेषज्ञानसष्णविभागेन शीतोष्णविशेषरूपतया युगपद् ग्रहणं नेष्टमित्यर्थः, अत एव भूतिरस्तीत्यतोऽपि न युगपद्विशेषज्ञानानि / इवमुक्तं भवति- पूर्व तद्विषयमुपयोगद्वयं युगपन्नेष्टम् / किं युगपद्वस्तुद्यग्रहणं सर्वथा नेष्टम् ? वेदनासामान्य गृहीत्वा तत ईहां प्रविश्य शीतेयं पादयोर्वेदनेति वेद-- नैवं, कुतः इत्याह-भवेत् समं युगपदस्तुद्वयग्रहणम्। कि विशेषरूपतया? नाविशेष निश्चिनेति। शिरस्यपि प्रथमं वेदनासामान्यं गृहीत्वा तत ईहां नेत्याह-सामान्य सामान्यरूपतयेत्यर्थः / कथम्? वेदना मे मम वर्तत प्रविश्य उष्णेयमिह वेदनेत्यध्यवस्यति। न हि घटविशेषज्ञानादनन्तइत्येवं युगपद द्वयग्रहणं भवेद् न तु शीतोष्णवेदना-विशेषरूपतयेत्यर्थः, रमेव पटाऽऽश्रयसामान्यरूपे गृहीते पटविशेषज्ञानमुपजायते, "उग्गहो युगपदुपयोगद्वयप्रसंगात्, तत्र च दोषाणामुक्तत्वादिति॥२४४३।। ईहश्रवाओ य" इत्यमुतैव क्रमेण घटाऽऽदिविशेषज्ञानोत्पत्त्यभिधानात्। आहननु यदिवेदनामात्रग्राहक सामान्यज्ञानं, तदैवं शीतोष्णवेद एवं च सति विशेषज्ञानादनन्तरमपि विशेषज्ञानं नोत्पद्यते, आस्तां पुनः नाविशेषग्राहकमपि तत् कस्मान्नेष्यते? इत्याह समकालं, सामास्थनिकविशेषाऽऽश्रयत्वात्। तच पूर्वमगृहीत्वा विशेषजं सामण्णविसेसा, विलक्खणा तन्निबंधणं जंच। ज्ञानस्याप्रसवादिति। नाणं जंच विभिन्ना, सुदूरओवग्गहाऽवाया।॥२४४४।। यतश्चैवं सामान्ये ऽगृहीते नास्ति विशेषज्ञानं, (तो त्ति) ततः
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________________ दोकिरिय 2638 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दोतिप्पभा सामान्यग्रहणानन्तरमीहितं तद्भेदं सामान्यभेदं घटत्वाऽऽदिसामा- | ङ्गानि / बृ० १उ०। न्याऽऽयं घटाऽऽदिविशेषमित्यर्थः, अवैति घटाऽऽदिरेवायम् इत्येवं दोच्च-त्रि०(दौत्य) दूतकर्मणि, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०| निश्चिनोतीत्यर्थः / तत उत्तरभेदापेक्षया घट एव सामान्यम् / तरिमञ्च द्वितीय- द्वित्वसंख्यापूरके, विपा०१ श्रु०३अ०। भाउपा०1 गृहीते ईहित्वा धातुजोऽयं न मार्त इत्येवं निश्चिनोति / ततो धातुजो-- दोच्चा-स्त्री०(द्वितीया) द्वितीयसप्तरात्रिन्दिवप्रतिमायाम्, पक्षा० ऽप्युत्तरभेदापेक्षया सामान्यम् / तस्मिश्च गृहीते ईहित्वा ताम्रोऽयं न तु विवा राजताऽऽदिः इतीत्थं निश्चिनोतीति / एवं सामान्यविशेषापेक्षा दोज्झ-त्रि०(दोह्य) दोहनयोग्ये, "जहा गावो दोज्झाति वा।'' आचा० तावत्कर्तव्या, यावदन्तिमो भेदः स कश्चिद्यदनन्तरमोहान प्रवर्तते। ततश्चैवं २श्रु०१चू०४अ०२उ०। न क्वचिद्विशेषज्ञानानां युगपत्प्रवृत्तिसंभवः, सामान्यरूपतया तु दोण-पुं०(द्रोण) माने, चत्वारः पुनराढकाः समुदिता एको द्रोणः। ज्यो० समकालमपि विशेषाणां ग्रहणं भवेत् / यथा-सेना, वनमित्यादि, न तु २पाहु०। औ०। पलप्रमाणं द्रोणमानम् / तं०। द्रोणाऽऽख्ये सिन्धुवेयुग पदुपयोग इत्युक्तमेव / तथा च सति भिन्नकाले एव शीतोष्णविशेष लावलयिते नगरे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। द्रोणः कियन्मणमान इति प्रश्ने, ज्ञाने / ततो भ्रान्तमेव समकालं शीतोष्णक्रियाद्वयवेदनं भवत इति उत्तरम्-चतुर्भिः कुडवैः प्रस्थः, प्रस्यैश्चतुर्भिराढकः चतुर्भिराढोणः ||2447 // 2448|| अत्र नाममालावृत्तौ कुडवशब्देन प्रसृतिद्वयव्याख्यातमस्ति, तदनुसारेण इत्यादियुक्तिशतैः प्रज्ञापितोऽपि न स्वाग्रह मुक्तवान् गङ्गः, यद्भवति तद्रोणमानमवसेयं, परमियन्मणमानो द्रोण इति तु क्वापि व्यक्तं ततः किमित्याह दृष्ट न स्मरतीति।१८८ प्र० सेन 3 उल्ला! इय पन्नविओ विजओ न पवज्जइ तो तओ कओ बज्झो। दोण्अ-(देशी) आयुक्ते, हालिके च / देखना०५ वर्ग 50 गाथा। तो रायगिहे समयं, किरियाओ दो परूवंतो॥२४४६।। दोणक्का-(देशी) सरघायाम्, दे०ना०५ वर्ग 51 गाथा। मणिनागेणारद्धो, भओववत्तिओ पडिबोहिओ वोत्तुं। दोणमुह-न०(द्रोणमुरव) द्वयोः पथोर्मुखमस्येति द्रोणमुखम् / इच्छामो गुरुमूलं, गंतूण तओ पडिक्कंतो // 2450 / / जलस्थलनिर्गमप्रवेशने, आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०ापट्टने, रा०ा प्रश्न०। व्याख्यातार्थे एवेति / / 2446 / 2450 / / विशे०। उत्त०। आ०चूना | व्य०। भाजी बाहुल्येन जलनिर्गमप्रवेशे, दशा०७ अ० स्था०। ग० आ०म०। औलन यत्र जलस्थलपथावुभावपि भवतः। कल्प०१ अधि०४ क्षण / जी० दोक्खर-न०(द्वयक्षर) षण्ढे, बृका नि०चूला जं०१ अनु०। स्था०। उत्त०। "दोणमुहं जलथलपहेण।'' यस्य "गती भये पचवलोइयं च, मिदुत्तया सीयलगत्तया य। तु जलपथेन स्थलपथेन वा द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाण्डमागच्छति तद् धुवं भवे दोक्खरनामधेजा, सकारपचंतरिओ ढकारो।।१।। द्वयोःपथयोर्मुखमिति निरुत्तया द्रोणमुखमुच्यते , तच्च तथा भृगुकच्छ द्वयक्षरनामधेयो भवेत्. तच्चाक्षरद्वयं सकारप्रत्यन्तरितो ढकार इति ताम्रलिप्ती वा / बृ०१ उ० नि०चूला औ०। जलस्थलपथोपेते नगरे, प्रतिपत्तव्यम्, प्राकृतशैल्या सण्ढो, संस्कृते तु षण्ड इति / बृ० ४उ०। प्रश्न०३ आश्र०द्वार। दासे, व्य०४ उ० दोणमेह-पुं०(द्रोणमेघ) यावता वृष्टनाऽऽकाशविन्दुभिर्महती गगरी भ्रियते दोगच्च-न०(दौर्गत्य) दुर्गतिभावे, दारिद्रये च / पं०व०४ द्वार। बृ०। तावत्प्रमाणजलवर्षिणि मेघे, विशे०। नि००। पञ्चा०। दोणसूरि-पुं०(द्रोणसूरि) अणहिलपट्टननगरे अभयदेवसूरिसमकालिके दो गिद्धिदसा-स्त्री०(द्विगृद्धिदशा) स्वरूपतोऽप्यनवसितायाम्, स्वनामख्याते विद्ववरे, येन नवस्वङ्गेषु स्थानाङ्गाऽऽदिषु अभयदेवसूरि"दोगिद्धिदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा-" "वाए विवाए कृतवृत्तः संशोधनमकारि। उववाए णातीसं महासुविणा वावत्तरिसव्वसुमिणाहारे रामगुत्ते एमए दस "अणहिलपाटकनगरे संघवरैर्वर्तमानबुधमुख्यैः। आहिया।" द्विगृद्धिदशाश्व स्वरूपतोऽप्यनवसिता। स्था०१० ठा०। श्रीद्रोणचार्याऽऽद्यै-विद्वद्भिः शोधिता चेति॥१॥" दोगुंछि-त्रि०(जुगुप्सिन) निन्दके, उत्तका जुगुप्सते आत्मानमाहारं विना ''शास्त्रार्थनिर्णयसुसौरभलम्पटस्य, धर्मधुराधरणाक्षममित्येवंशीलो जुगुप्सी। उत्त०६ अ०। विद्वन्मधुव्रतगणस्य सदैव सेव्यः। दोग्ग-(देशी) युग्मे, दे०ना०५ वर्ग 46 गाथा। श्रीनिर्वृताऽऽख्यकुलसन्नदपद्मकल्पः, दोग्गइ-स्त्री०(दुर्गति) दुष्टा गतिः दुर्गतिः / अथवा दुर्गा गतिः दुर्गतिः। श्रीद्रोणसूरिरवनद्ययशःपरागः // 2 // " स्था०१० ठा०। अथवा दुःखं वा यत् सेव्यते सा दुर्गतिः। दुर्गती विषमेत्यर्थः। अथवा- पञ्चाका भला निवृत्तिककुलनभःसूरिमुख्येन पण्डितगणतगणवत्प्रियेण कुत्सिता गतिः दुर्गतिः / अनभिलषितार्थे दुःशब्दः / यथा-दुर्गमः। संशोधिता चेयम्। ज्ञा०१ श्रु०६ वर्ग १अ०। नरकगतौ, तिर्यग्गतौ च / स्था० 1 टा०। दोणी-स्त्री०(द्रोणी) नौकायाम्, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / जलपरिपूर्णायां दोग्गुण-न०(दौर्गुण्य) दुर्गुणत्वे, हा०३१ अष्ट। महत्यां कुण्डिकायाम्, अनु०॥ दोचंग-न० (द्वितीयाग) शाकाऽऽदिभाज्याम, "दोचंग ति' सामयिकी | दोतिप्पभा-स्त्री०(द्युतिप्रभा) चन्द्रस्याग्रमहिष्याम, ज्ञा०१ श्रु०६ वर्ग संज्ञा / ओदनाऽऽदिमूलापेक्षया भोजनस्य राद्धशाकरूपाणी द्वितीया- 1 अ०।
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________________ दोद्धि 2636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दास दोद्धिअ-(देशी) चर्मकूपे,दे०ना०५ वर्ग 46 गाथा। दोधार-पुं०(द्विधाकार) द्रव्यस्य द्विधाकरणे, स्था० 5 ठा० ३उ० दोभागकर-न०(दौर्भाग्यकर) कलाभेदे, स०७२ समका दोभणंसिया-स्त्री०(दौर्मनसिका) वैमन्यस्ये, स्था०५ ठा० 230) दोमासिय-न० (द्वैमासिक) द्विमासपरिणाममस्येति द्वैमासिकम् / मासद्वयपरिमाणे, नि०यू०२० उ०।। दोमासियपडिमा-स्त्री०(द्वैमासिकप्रतिमा) मासद्वयप्रतिमा निर्वाह्य साधुप्रतिज्ञाविशेषे, तत्र हि द्वौ मासौ यावद् द्वे दत्ती भक्तस्य, द्वे एव च पानकस्य। औन दोमिलि-स्त्री०(दोमिली) ब्राम्या लिपेर्लेख्यविधाने, प्रज्ञा० 1 पद। दारे-स्त्री०(दोर) सूत्रदवरके, रज्जौ, आ०म० १अ०२ खण्ड। कटिसूत्रे, दे०ना०५ वर्ग 38 गाथा। दोरज-न० (द्वैराज्य) राज्यद्वयभावे, स्था०३ ठा०१ उ० दोव-पुं०(दोव) अनार्यभेदे, प्रज्ञा०१पद। दोवारिय-पुं०(दौवारिक) प्रतीहारे द्वारपालके, भ०६ श०५ उ०। नि०चू० / ज्ञान रा०1 "दोवारिज्जा तु द्वारिट्टा दो वारिया दारे चेव (अन्तःपुरस्य) जेसिं मिलेति।'' निचू०६ उ०। औ०। दोधारियभत्त-न०(दौवारिकभक्त) द्वारपालस्य कृतवृत्तेः जरापङ् गुलाऽऽदेः पेट्टकाऽऽदिभक्ते, नि०चू०६ उ०। दोविह-त्रि०(द्विविध) द्विविध एव द्वैविध्यम्। द्विःप्रकारे, उत्त०२ अ०। दोवेली-(देशी) सायं भोजने, दे०ना०५ वर्ग 50 गाथा। दोस-पुं०(दोष) मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु, सूत्र०१ श्रु०११ अ० / प्रश्न०। मले. ध०३ अधि० चौर्याऽऽदिके, अन्त०३ वर्ग ०६अ। आत्मनः परस्य वा दूषणे, भ० 12 श०६उ०। मालिन्यकारिचेष्टायाम्, तं०। कालदोषो दुर्भिक्षाऽऽदिः, क्षेत्रदोषः संयमाननुगुणत्वाऽऽदिः, द्रव्यदोषो भक्ताऽऽदिना शरीराननुकूलता, भावदोषो ग्लानत्वज्ञानाऽऽदिहान्यादिः / पञ्चा०१७विव०॥ *द्वेष- द्विष्यत्यनेनेति द्वेषः / द्वेषवेदनीये कर्मणि, यद्वा द्वेषण द्वेषः वेदनीयकाऽऽपादिते भावे, अप्रीतिपरिणामे, पं०सू०१ सूत्र०ा ''एगे दोसे।" स्था०१ ठा०। आव०। औ०। आ०चूला भला आ०म०। सूत्रका ज्ञा०। ति०। नि००। कल्पका प्रव० उपशमत्यागाऽऽत्मके, विकारे, उत्त०६ अ० परद्वेषाध्यवसाये, आतु। दुःखभिज्ञस्य तदनुस्मृतिपूर्वकविगर्हणे, द्वा०२५ द्वा०। स्वपराऽऽत्मनोबोधारूपे, सूत्र०१ श्रु० १६अ०। क्रोधमानकषायाऽऽत्मके, ग०२ अधि०। स्था०। 'दोसे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-कोहे य, माणे य।" प्रज्ञा०२३ पद। अथ दोषस्य द्वेषस्य वा व्याख्यामाहदूसंति तेण तम्मि व, दूसणमह देसणं व देसो वि। देसो च सो चउद्धा, दव्वे कम्मेयरवि भिन्नो // 2666|| "दुष" वैकृत्ये, दुष्यन्ति विकृति भजन्ति तेन तस्मिन् वा प्राणिन इति / दोषः, दूषणं वा दोषाः, इति स्वयमेव द्रष्टव्यम्। अथवा "द्विष" अप्रीती, द्विषन्ति अप्रीति भजन्ति तेन तस्मिन् वा प्राणिन इति द्वेषः, द्वेषणं वा द्वेषः / इत्यपि स्वयमेव दृश्यम् / कुतः पुनरिद दृश्यते इत्याह- (अह देसणं व देसो ति) अथवा द्वेषणं द्वेष इति भावसाधनपक्षोपन्यासादनन्तरोक्तः स्वयमेव दृश्यते / (देसो व सो चउद्धति) स च द्वेषो, वाशब्दाद् दोषो वा, नामाऽऽदिभेदाचतुर्दा द्रष्टव्यः / तत्र ज्ञभव्यशरीरव्यतिरिक्ते द्रव्ये विचार्य (कम्मेयरविभिन्नो ति) कर्मद्रव्यदोषः, नोकर्मद्रव्यदोषश्च भवतीत्यर्थः // 2666|| अस्य च द्विविधस्यापि स्वरूपमाहजुग्गा बद्धा बज्झं-तगाय पत्ता उदीरणावलियं / अह कम्मदव्वदोसो, इयरो दुव्वणाईओ॥२६६७।। पूर्ववच्चतुर्विधाः पुद्गलाः कर्मद्रव्यदोषः, नोकर्मद्रव्यदोषस्तु दुष्टव्रणाऽऽदिरिति / / 2667 // भावदोषं भावद्वेष वा प्राऽऽहजं दोसवेयणिज्जं, समुइण्णं एस भावओ दोसो। वत्थुविकिइस्सहावो-ऽनच्छयमप्पीइलिंगो वा / / 2668) यघोषवेदनीयं द्वेषवेदनीयं वा कर्म, समुदीर्णमुदयप्राप्तमेष भावदोषो भावद्वेषो वा / अयं च स्वभावस्थस्य वस्तुनः शरीरदेशाऽऽदेविकृतिस्वभावः कार्ये कारणोपचाराद्प्रकृत्यन्यथाभावरूपः / तत्र भावदोषोऽनीप्सितलिङ्गीऽनिष्टदुष्टवणाऽऽदिकार्यगम्यः / भावद्वेषस्त्वप्रीतिलिङ्ग इति // 2668 / / अत्र च क्रोधमानयो कोऽपि मिश्रपरिणामोऽप्रीतिजातिसामान्यतः संग्रहमतेन द्वेषः, मायालोभौ तुप्रीतिजातिसामान्यतः, स एव रागमिच्छतीति दर्शयन्नाहकोहं माणं वाऽपीइ, जाईओ वेइ संगहो दोसं / मायालोभे य स पी-इजाइसामन्नओ राग / / 2666 / / गतार्था // 2666 // व्यवहारनयमाश्रित्याऽऽहमायं पि दोसमिच्छइ, ववहारो जं परोवधायाय। नाओवादाणे चिय, मुच्छा लोभो त्ति तो रागो // 2670 // न केवलं क्रोधमानौ, किन्तु मायामपि द्वेषमिच्छति व्यवहारनयो यस्मादियमपि परोपघाताय परवञ्चनायैव विधीयते / ततो माया द्वेषः, परोपघातहेतुत्वात, क्रोधमानवदिति / न्यायेन नीत्या मायामन्तरेणोपादीयते उपाय॑त इति न्यायोपादानं. तस्मिन्न्यायोपादानेऽपि वित्ते यतो भूर्णा भवति, ततस्तदात्मको लोभो रागः। अन्यायोपात्ते तु वित्ते मायाऽऽदिकषायसं भवेन द्वेष एव स्यादिति न्यायोपादानविशेषणमिति भावः / / 2670 / / ऋजुसूत्रमाहउज् जुसुयमयं कोहो, दोसो सेसाणमयमणेगंतो। रागो त्ति व दोसो तिव, परिणामवसेण उ वसेओ / / 2671 / /
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________________ दोस 2640 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दोस ऋजुसूत्रनयस्येद मतम्-क्रोधः प्रथमकषायो द्वेषः, अप्रीत्यात्मकत्वाच्छेषाणां तु मानमायालोभानां रागद्वेषत्वविचारं प्रत्येतत् तस्य मतम, किमित्याह- अनेकान्तोऽनिश्चयः। एतदेव व्याचष्टेशेषे मानाऽऽदिकषायत्रयवर्ग कोऽपि रागः, कोऽपि वा द्वेषः, इत्ययं परिणाभवशेनैवावसेयो निश्चयो नान्यथेति / / 2671 / / कुत इत्याहसंपयगाहि तिनओ,न उवओगदुगमेगकालम्मि। अप्पीइपीइमेत्तो-वओगओतंतहा दिसइ॥२९७२।। यतः साम्प्रतग्राही वर्तमानकक्षणवस्तुग्राही तकोऽसौ ऋजुसूत्रः, ततः क्रोधमानौ द्वेषो, मायालोभौ तु राग इत्येवमसौ न मन्यते, मानाऽऽदिक्षणकाले क्रोधाऽऽदिक्षणाभावात्, तदभावश्च तयोः क्रमभावित्वात्, प्राक्तषस्य चोत्पत्त्यनन्तरमेव विनाशादिति / स एव च मामो द्वेषो भवति,कदा? परगुणेषु यो द्वेषोऽप्रीतिस्तदुपयोगे तदध्यवसायपरिणतिकाल इत्यर्थः / अस्तु वा क्रोधमानाऽऽदीनां समकालभाविता, तथाsप्युपयोगद्वयमसावेककालनमत्यत इति कथं मिश्रकषायद्वयोपगाद द्वेषो रागो वा स्यात? एतदेवाऽऽह- (न उव-ओगदुगमेगकालम्मि त्ति) न च कषायद्वयोपयोगमेककालमसौ मन्यते, येनक्रोधमानौ, द्वेषो, मायालोभी तु रागः स्यादिति। तर्हि किमसौ मन्यते? इत्याह-(अप्पीईत्यादि) अप्रीतिप्रीतिमात्रोपयोगतस्तंत मानाऽऽदिकषायं तथा तथाव्यपदिशति 112672 / / एतदेव भावयतिमाणो रागो त्ति मओ, साहंकारोवओगकालम्मि। सो चेय होइ दोसो, परगुणदोसोवओगम्मि||२६७३।। माया लोभो चेवं, परोवघाओवओगओ दोसो। मुच्छोवओगकाले, रागोऽभिस्संगलिंगो त्ति // 2674|| मानो राग इति ऋजुसूत्रस्य सम्मतः / व? साहङ्कारोपयोगकालेस्वस्मिन्त्रात्मन्यहोऽहं नमो मह्यमित्येवं योऽसावहङ्कारो निजगुणेषु बहुमानोऽभिष्वङ्गस्तदुपयोगकाले तदुपयोगसमये इत्यर्थः, (स एव च मानो द्वेषो भवति कदा? परगुणेषु यो द्वेषोऽप्रीतिस्तदुपयोगे तदध्यवसायपरिणतिलाभ इत्यर्थः) एवं परोपघाताय व्याप्रियमाणौ मायालोभी द्वेषः, स्वशरीरस्वधनस्वजनाऽऽदिषु मूर्योषयोगकाले तु तावेव रागः / कुत? इत्याह-अभिष्वङ्ग लिङ्ग इति कृत्वा / अभिष्वङ्गो हि रागो, यश्च स्वशरीराऽऽदिषु मूर्योपयोगः, स व्यक्तोऽभिष्वङ्ग इति युक्तमस्य रागत्वमिति भावः / / 2673||2674 // अथ शब्दाऽऽदिनयत्रमतमाहसद्दाइमयं माणे, मायाए चिय गुणोवगाराय। उवओगो लोभो चिय, जओ स तत्थेव अवरुद्धो // 2675|| से ससा कोहो विय, परोवघायमइय त्ति तो दोसो। तल्लक्खणो य लोभो, अह मुच्छा केवलो रागो ||2676 / / मुच्छाणुरंजणं वा, रागो संदूसणं ति तो दोसो। सहस्स व भयणेयं, इयरे एक्के कठियपक्खा / / 2977 / / शब्दाऽऽदिनयानामिदं मत, माने मायायां च स्वगुणोपकाराय आत्मन उपकाराय व्याप्रियमाणायां य उपयोगः स लोभ एव, यतः स स्वगुणोपकारोपयोगः स्वात्मनि मूर्छाऽऽत्मकत्वात् तत्रैवलोभेऽवरुद्धोऽन्तर्भूतः। तथा च सति समानमाययोः स्वगुणोपकारोपयोगः स्वाऽऽत्माने मूर्छाss त्मकत्वाल्लोभ इव राग इत्यभिप्रायः / शेषास्तु परोपधातोपयोगरूपा मानमाययोरंशाः क्रोधश्च सर्वः, एते सर्वे परोपघातमयास्ततो द्वेष इति मन्तव्याः / न केवलमेते तथा लोभोऽपि द्वेषः / किं सर्वः? नेत्याहयतस्तल्लक्षणः परोपघातोपयोगरूपः / अथ परानुपधातोपयोगरूपा मऊपयोगाऽऽरमको लोभः पृच्छयते, तत्राऽऽह केवलोराग एवासाविति / अथवा किं बहुनोक्तेन? संक्षिप्य ब्रूमः। किमित्याह-(मुच्छेत्यादि) इह सर्वेष्वपि क्रोधव्यतिरिक्तेषु मानमायालोभकषायेषु यन्मूर्जाऽऽत्मकमनुरञ्जन यः कश्चिन्मूच्र्योपयोग इत्यर्थः / स रागो मन्तव्यः / अथ संदूषणमप्रीत्युपयोगस्ततोऽसौ द्वेषो ज्ञातव्यः / शब्दनयस्वेयं भजना विकल्पना / वाशब्दात् ऋजुसूत्रसय च / शेषौ तु संग्रहव्यवहारनयो नैगमस्यान योरेवान्तर्भावादेकैकस्थितपक्षौ-एकैकः स्थितो नियमितः पक्षो ययोस्तावेकैकस्थितपक्षौ। तथाहि-संग्रहनयः क्रोधमानौ द्वेषमे - वेच्छति, मायालोभौ तु रागम् / व्यवहारनयोऽपि लोभं रागमेव मन्यते, शेषकषायत्रयं तु द्वेषमेवेति। अतः शब्दाऽऽदिनया भजनाऽभ्युपगमपरत्वादेकैकस्थि-तपक्षवादिभ्यां ताभ्यां भिन्ना इति। तदेवं व्याख्यातौ रागद्वेषौ / / 2675||2676||2677|| विशे० "दस दोसे पण्णत्ते / तं जहातञ्जायदोसे मइभगदोसे पसत्थारदोसे परिहरणदोसे सलक्खणकारणहेउदोसे संकामणनिग्गहवत्थू दोसे / " स्था० 10 ठा०। (व्याख्या तत्तच्छब्दोपरि) __ द्वेषे उदाहरणम्"लोकेन बहुना सार्द्ध ,नावा धर्मरुचिं मुनिम्। गङ्गामुत्तारयामास, नन्दनामकनाविकः / / 1 / / लोकोऽगादातरं दत्त्वा, मुनिस्तेन धृतः पुनः। भिक्षावेला व्यतिक्रान्ता,स तथाऽप्यमुचन्न तम्।।सा अमुच्यमानो रुष्टः सः, मुनिर्दविषलब्धकः। आलोक्य क्रूरया दृष्ट्या, तमधाक्षीत् पलालवत्॥३॥ क्वापि ग्रामे सभायां सो-ऽभवद् मृत्वा गृहोलकः। सोऽपि साधुर्गतस्तत्रा-विशद्भोक्तुं च तां सभाम्॥४॥ गृहोलकोऽपि तं दृष्ट्वा, कोयेनाभूज्ज्वलन्निव। भुञानस्य मुनेरुद्ध , चिक्षेप पावकं ततः // 5 // स मुनिर्यत्र यत्राऽऽस्ते, तत्र तत्र तथैव सः / मुनित्विा स एवायं, नन्द इत्यदहत्तथा / / 6 / / गङ्गा विशति पाथोधि, वर्षे वर्षे पराध्वना। वाहस्तत्र चिरत्यक्तो, मृतगङ्गोते कथ्यते // 7 // हंसोऽभून्मृतगङ्गायां, स नन्दाऽऽत्मा गृहोलकः / कर्मधर्मसमायोगात, सार्थेन सममन्यदा।।८।। साधुः संचरमाणः स. महात्मा तेन वर्मना। माघमासे वसंस्तत्र, हंसस्तं प्रेक्ष्य सोऽकुपत्॥६॥ पक्षी भृत्त्वाऽथ नीरेण, शीकरैरशित्तन्मुनिम्। दग्धस्तत्रापि मृत्वा स, सिंहोऽभूदञ्जनाऽचले / / 10 / / सोऽगात्तत्रापि सार्थेन,सिंहस्तं रुषितोऽभ्यगात्। दधस्तेन तथेवासी, वाराणस्यामभूगटुः / / 111 // सोऽपि तत्र गतः साधु-दृष्ट्वा तं बटुरीय॑या। जधान लेष्टुभिर्दुष्ट, मत्वा तमपि सोऽदहत्॥१२॥ अकामनिर्जरायोगा-द्राजा तत्रैव सोऽभवत्।
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________________ दोस 2641 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दोसारण जातीः सस्मार नन्दाऽऽद्या-स्ततो दध्यौ भयद्रुतः // 13 // रित्यागलक्षणमाचारं वा शिक्षयिता भवति१, दुष्टस्य कषायविषयपरिकथञ्चिद्यदि जाने तं, क्षमयाम्यधुनाऽपि तत्। णामवचः, अहङ्कारविष्टस्य वा आचारभावशीलो विनयिता भवति / तदज्ञानोपायभूतां, समस्यां स व्यधादिमाम् // 14 // अथ वा दोषोपनेता भवति 2 / (कंखित त्ति) काक्षितो नाम भक्तपागङ्गायां नाविको नन्दः, सभायां च गृहोलकः। नपरसमयपाखण्डमतपरिज्ञानान्यद्वस्तुदर्शनसमुत्पन्नाभिलाषस्य काश मृतगङ्गातटे हंसः, सिंहश्वाञ्जनपर्वते॥१५।। तत्प्राप्तिरूपा व्युच्छेदयिता तदभिलाषं विनयिता भवति, प्रापयिता वटुर्वाराणसीपुर्या , राजा तत्रैव चाभवत्। इत्यर्थः 3 / वस्त्वन्तरदर्शनात् तदभिलाषापनेता वा भवति 4 / उक्तं च "संपुण्णमेवं तु भवे गणितं, जे कंखियाणं पविणेइ कंखं।" इति। (आय य एता पूरयेतास्य, राज्यार्थ वितराम्यहम्॥१६।। त्ति) आत्मसुप्रणिधितः, कथं संभवतीति चेत्? उच्यते- यदा पठन्ति तत्र सर्वेऽपि, समस्यां तामिमां जनाः। स्वयमेतेष्वनन्तरोक्तेषु न प्रवर्त्तते. तदास सुप्रणिधित उच्यते। प्रणिधानं विहरन् सोऽपि तत्रैवा-ऽऽगत्याऽऽराभे मुनिः स्थितः // 17 // था प्रणिधिः, शोभना निधिः सुप्रणिधिः, तद्वाश्चापि भवति। आकारान्तत्वं तां चाऽऽरामिकपठितां, श्रुत्वा साधुरपूरयत्। प्राकृतत्वात्। 'सेत" इति व्यक्तम्। दशा० 5 अ०। व्या एतेषां घातको यश्च, सोऽप्यत्रैव समागतः // 18 // दोसणिज्जंत-(देशी) चन्द्रे, दे०ना०५ वर्ग 51 गाथा। अधीत्याऽऽरामिकस्तां स, पठति स्म नृपाग्रतः। दोसणिस्सिय-न०(द्वेषनिःसृत) द्वेषे निःसृतं मत्सरिणां गुणवत्यपि राजा मुमूर्छ तत् श्रुत्वा, जघ्नुरारामिकं जनाः // 16 // निर्गुणोऽयमित्यादिरूपे मृषावादे, स्था० 10 ठा०। सोऽवदन्न मयाऽपूरि, स्वस्थो राजा जगाद तम्। दोसदंसि-त्रि०(दोसदर्शिन) दोषस्य स्वरूपतो वेत्तरि, आचा०१ श्रु० के नेयं पूरिता ब्रूहि, स स्माऽऽहाऽऽगन्तुकसाधुना / / 20 / / ३अ०४० नृपस्तत्र नरान् प्रेषीत्, सुप्रसन्नः स चेन्मयि। दोसपडिघायविणय-पुं०(दोषप्रतिघातविनय) दोषाः क्रोधाऽऽदयतदेत्य त्वत्पदोपान्तं, नमामि क्षमयामि च / / 21 / / स्तेषां प्रतिघातो निर्घातना, स एव विनयो दोषप्रतिघातविनयः / अनुज्ञातो भ्येत्य मत्वा, श्राद्धोऽभूद्देशनाश्रुतेः। दोषनिर्घातनाविनये, प्रव०६५ द्वार। अथाऽऽलोच्य प्रतिक्रान्तो, निर्वृतिं साधुरप्यगात् / / 2 / / " दोसपडियारणा-पुं०(दोषप्रतिचारणा) दोषनिषेधे, पञ्चा० 16 विव०। आ०का दोसपडियारण्णाय-पुं०(दोषप्रतिकारज्ञात) रोगचिकित्सोदाहरणे, (रागस्य द्वेषस्य च हेतवः "चरणविहि" शब्दे तृतीयभागे 1128 पृष्ठ पञ्चा० 16 विव०। दर्शिताः) अर्धे , कोपे च। दे०मा०५ वर्ग 51 गाथा। दोसपडिसेहे-पुं०(दोषप्रतिषेध) निर्दोषतायाम्, पञ्चा० 13 विव०। दोसंझाण-न०(द्वेषध्यान) अप्रीतिमात्रं परद्रोहाध्यवसायो वा द्वेषः, तस्य | दोसबंधण-न०(द्वेषबन्धन) द्विष्यत्यनेनेति वा द्वेषः, द्वेष एव बन्धनं ध्यान, मधुदेवपिङ्गलाऽऽदयोरिव धर्मरुचिनाविकनन्दयोरिव वंशोत्पत्तौ द्वेषबन्धनम् / द्वेषबन्धने, आ०चू० 4 अ०। द्वेषमोहनीयसंबन्धे च / वीरकदेवस्येव वा दुर्ध्याने, आतु०॥ प्रज्ञा०२ पद। दोसउरिया-स्त्री०(दोषोरिका) ब्राह्मीलेख्यविधाने, स०१८ समा दोसरहिय-पुं०(दोषरहित) दोषा रोगाऽऽदयः, तैः रहितः। रोगाऽऽदोसकिरिया-स्त्री०(द्वेषक्रिया) द्वेषजन्यक्रियाभेदे, आ०चू० 4 अ०॥ दिरहिते, सू०प्र०२० पाहु०॥ दोसणिग्घायणाविणय-पुं०(दोषनिर्घातनाविनय) क्रुद्धाऽऽदेः क्रोधा- | दोसव-त्रि०(दोषवत्) दोषयुक्ते, पञ्चा० 8 विव० ऽऽद्यपनयनाऽऽत्मके विनयभेदे, दशा०। दोसवत्तिया-स्त्री०(द्वेषप्रत्यया) अप्रीतिकारकायां क्रियायाम, आव०४ से किं तं दोसनिग्घायणाविणए ? दोसनिग्घायणाविणए अ० सा दुविहा पण्णत्ता-कोहणिस्सिया य, माणणिस्सिया य / चउविहे पण्णत्ते / तं जहा- कुद्धस्स कोहं विणएता भवति, कोहणिस्सिया अप्पणाकुप्पइ, परस्स कोहं उप्पाएइ / माणणिस्सिया दुट्ठस्स दोसं गेण्हिता भवति, कंखियस्स कंखं छिदित्ता भवति, सवं मज्जति, परस्स वा माणं उप्पाएइ।' आव०४ अ०। मूभिदे, आयासुप्पणिधिते यावि भवति / से तं दोसनिग्धायणा- स्था०२ टा०४ उ०। क्रियाभेदे, आ०चू० 4 अ०। विणए। दोससयगग्गरी-स्त्री०(दोषशतगर्गरी) दोषा परस्परकलहमत्सरगालिसाम्प्रतं दोषनिर्घातनार्थ पिच्छिषुरिदमाह-- "से किं तं'' इत्यादि / प्रदानमाद् घाटनकलङ्कप्रदानजल्पनशापप्रदानस्वपरप्राणाघातप्रश्नसूत्र कण्ठयम् / गुरुराह-दोषनिर्घातनाविनयश्चतुर्विधतुःप्रकारः। विन्तनादयस्तेषां शतानि तेषां गर्गरिका भाजनविशेषः। दोषशतभृतायां प्रज्ञप्तः। तद्यथा-(कुद्धस्सेति) क्रुद्धस्य क्रोधं विनयिता भवति१, दुष्टस्य | कुम्भयाम्, तं०। दोष निगृहीता भवति 2, कासितस्य कासाव्युच्छेदयिता भवति 3, दोसा-स्त्री०। ब्राह्मीलेख्यविधाने, प्रज्ञा० 1 पद। आत्मसुप्रणिधितश्चापि भवति 4 / तत्र क्रुद्धस्य किञ्चिन्निमित्तमासाद्यो- दोसाणिअ-(देशी) निर्मलीकृते,देवना० 5 वर्ग 51 गाथा। दीर्णक्रोध मृदुलक्षणं मृदृवचनाऽऽदिभिर्विनयिता अनेता भवति। क्रोधप- दोसारण-(देशी) कोपे, देवना०५ वर्ग 51 गाथा।
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________________ दोसिणा 2642 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 दोसिणा दोसिणा-स्त्री०(ज्योत्स्ना) चन्द्रलेश्यायाम्, चं०प्र० ज्योत्स्नालक्षणम्ता कहं ते दोसिणालक्खणे आहिता ति वेदज्जा? ता दोसिणा ति अ चंदलेसा ति अ। दोसिणा ति य किं अटे, किंलक्खणे? ता एगढे एगलक्खणे आहिता / सूरलेस्सा ति य आयवे ति य किं अढे किंलक्खणे? ता एगढे एगलक्खणे / ता छाया ति य अंधकारे ति य किं अट्टे किंलक्खणे? ता एगढे एगलक्खणे। कथं ज्योत्स्नालक्षणमाख्यातमिति? एतदेवरूपमेव प्रश्नसूत्रमाह-(ता कह ते इत्यादि) ता' इति पूर्ववत्, कथं केन प्रकारेण, भगवन! त्वया ज्योत्स्नालक्षणमाख्यातमिति वदेत्? एवं सामान्यतः पृष्ट्वा विवक्षितप्रष्टव्यार्थप्रकटनाय विशेषप्रश्नं करोति (ता चंदलेस्साइ इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्। चन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इति। अनयोः पदयोः / अथवा ज्योत्स्ना इति चन्द्रलेश्या इत्यनयोः पदयोरिहाक्षराणामानुपूर्वीभेदेनार्थभेदो दृष्टो, यथा वदनंनदव इति पदानाम्। अपि चानुपूर्वीभेददर्शनाद - भेददर्शनं यथा पुत्रस्य गुरुः, गुरोः पुत्र इतिवत्। इडापि कदाचिदानुपूर्वीभेदादर्थभेदो भविष्यतीत्याशङ्कावशात् चन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्युक्त्वा, ज्योत्स्ना इति लेश्या इत्युक्तम्। अनयोः पदयोरानुपूाsनानुपूा व्यवस्थितयोः कोऽर्थः, किं परस्पर भिन्ने, उताभिन्ने इति? स च किंलक्षणः किं स्वरूपः, लक्ष्यते तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येन लक्षणमसाधारणं स्वरूपं यस्य स तथा। एवं प्रवे कृते भगवानाह-(ता एग8 एगलक्खणे इति) 'ता' इति पूर्ववत्। चन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्यनयोः पदयोः आनुपूर्त्या अनानुपूर्व्या वा व्यवस्थितयोरेक एवाभिन्न एवार्थः। य एव एकस्य पदस्य वाच्योऽर्थः, स एव द्वितीयस्यापीति भावः / (एगलक्खणे इति) एकमभिन्नमसाधारण लक्षणं यस्य स तथा। किमुक्त भवति? यदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेन पदेन चान्यस्य साधारणं स्वरूप प्रतीयते तदेव ज्योत्स्ना इत्यनेनाऽपि पदेन, यदेव च ज्योत्स्ना इत्यनेन पदेन तदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेनाऽपि पदेनेति / एवम्- आतप इति सूर्यलेश्या इति / तथाऽन्धकार इति छाया इति / अथवा-छाया इति अन्धकार इति / एतेषु पदेषु विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि / चं०प्र०२० पाहुन ज्योत्स्नावृद्धिहानीता कता ते दोसिणा बहू आहिता ति वदेजा? ता दोसिणाप-- क्खेणं दोसिणा बहू आहिता ति वदेज्जा / ता कहं ते दोसिणाप--- क्खे दोसिणा बहू आहिता ति वदेना? ता अंधकारपक्खातो दोसिणे पक्खे दोसिणा बहू आहिता ति वदेज्जा / ता कहं ते अंधकारपक्खातो दोसिणो दोसिणा बहू आहिता ति वदेजा? ता अंधकारपक्खातो णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि वायाले मुहुत्तसते छायालीसं च यावट्ठिभागे मुहत्तस्स जाइं चंदे विरजति, तं जहा-पढमाते पढमभागंजाव पण्णरसीते पण्ण- | रसं भागं / एवं खलु अंधकारपक्खातो दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिता ति वेदजा? ता केवतिताणं दोसिणपक्खे दोसिणा आहिता ति वदेजा? ता परित्ता असंखेज्जा भागा 1 ता कता ते अंधकारे बहू आहिता तिवदेना? ता अंधकारे पक्खे अंधकारे बहू आहिता ति वदेज्जा / ता कहं ते अंधकारे पक्खे अंधकारे बहू आहिता ति वदेजा? ता दोसिणापक्खातो णं अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहिता ति वदेजा। ता कहं ते दोसिणापक्खातो अंधकारे बहू आहिता ति वदेज्जा? ता दोसिणापक्खातो णं अंधकारपक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि वायाले मुहुत्तसते छायालीसं च वावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाइ चंदे रजति, तं जहापढमाते पढम भागंजाव पण्णरसीए पण्णरसं भागं / एवं खलु दोसिणापक्खातो अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहिता ति वदेजा। ता केवति णं अंधकारपक्खे अंधकारे आहिता ति वदेजा? ता परित्ता असंखेजा भागा। (ता कता ते दोसिणा इत्यादि)'ता' इति पूर्ववत्। कदा कस्मिन् काले भगवन् ! ते त्वया ज्योत्स्ना प्रभूता आख्याता इति वदेत्? भगवानाह(ता दो सिणमित्यादि)'ता' इति पूर्ववत्, ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत्? (ता कहं ते इत्यादि) 'ता' इति प्राग्वत्। कथं केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत्? भगवानाह- (ता अंधकार) इत्यादि सुगमम् / "ता कहं ते' इत्यादि प्रश्नसूत्रं निगदसिद्धम् / निर्वचनमाह- (ता अंधकारपक्खाओ इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् / अन्धकारपक्षात् ज्योत्स्नापक्षमयमानश्चन्द्रमाश्चत्वारि मुहूर्तशतानि द्वाचत्वारिंशानि द्विचत्वारिंशदधिकानि षट्चत्वारिंशतं च द्वाषष्टिभागान् मुहूर्तस्य यावत् ज्योत्स्ना निरन्तरं प्रवर्द्धते। तथा चाह यानि यावत् चन्द्रो विरज्यते शनैः शनैः राहुविमानेनाऽऽवृतस्वरूपो भवति, मुहूर्तसंख्यागणिते भावना प्राग्वत् कर्त्तव्या / कथमनावृतो भवतीत्याह / तद्यथा-प्रथमाया प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ प्रथमपञ्चदशद्वाषष्टिभागसत्कभागचतुष्टय-प्रमाण यावदनावृतो भवति, द्वितीयस्यां तिथौ द्वितीय भागं यावत्। एवं तावत् द्रष्टव्यं यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशमपि भागं यावदनावृतो भवति,सर्वाऽऽत्मना राहुविमानेनाऽऽवृतो भवतीति भावः / उपसंहारमाह- (एवं खलु इत्यादि) तत एवमुक्तेन प्रकारेण खलु निश्चितमन्धकारपक्षात् ज्योत्स्ना बहुतराऽऽख्याता इति वदेत्। इयमत्र भावना- इह शुक्लपक्षे यथा प्रतिपत्प्रथमक्षणादारभ्य प्रतिमुहूर्त यावन्मात्रं शनैः शनैः चन्द्रः प्रकटो भवति, तथा अन्धकारपक्षे प्रतिपत्प्रथमक्षणादारभ्य प्रतिमुहूर्त तावन्मानं शनैः 2 धन्द्र आवृत उपजायते / तत एवं सति यावत्येवान्धकारपक्षे ज्योत्स्ना तातत्येव शुक्लपक्षे, या पञ्चदश्यां ज्योत्स्ना साऽन्धकारपक्षादधिकेति। अन्धकारपक्षात् शुक्लपक्षे ज्योत्स्ना प्रभूता आख्यातेति। (ता कह तेइत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्। कियतीज्योत्स्नापक्षेज्योस्ना आख्याता इति वदेत्? भगवानाह- परीताः परिमिता असंख्येया भागा निर्विभागा भागाः / एवमन्धकारसूत्राण्यप्युक्तानुसारेण भावनीयानि, नवरमन्धकारपक्षे अमावास्यायां योऽन्धकारः स ज्योत्स्नापक्षादधिक इति ज्योत्स्नापक्षादन्धकारपक्षे अन्धकारपक्षप्रभूत आख्यात इति / च०प्र० 20 पाहु०। सू०प्र०
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________________ दोसिणाभा 2643 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 द्वितवर दोसिणाभा-स्त्री०(ज्योत्स्नाभा) ज्योतिषेन्द्रस्य चन्द्रस्यागम-हिष्याम विशेषे, कल्प १अधि० 4 क्षण / सूत्र० / षो। 'प्रदीपि दोहदे लः" स्था० 4 ठा० १उ०। जंग। सू०प्र० जी०। // 8 / 1 / 221 / / इति दस्य लः। 'दोहलोः' प्रा०१ पाद। दोसिणी-(देशी) ज्योत्स्नायाम्, देना०५ वर्ग 50 गाथा। दोहा-अव्य०(द्विधा) द्विप्रकारे, "ओच द्विधा कृगः" |||197|| दोसिय-त्रि०(दौषिक) दूष्यं परमस्येति दौषिकः / दूषकक्रयविक्रय-- द्विधाशब्दे कृगधातोः प्रयोगे इत ओत्वं, चकारादुत्वं च / 'दोहा किज्जइ। कारिणि, अनु०। व्य०। दुहा किज्जइ / दोहाइयं / दुहाइअं / ' कृग इति किम- "दिहाग।' दोसियण्ण-न० (दोषान्न) रात्रिपर्युषितेऽन्ने, प्रश्न०५ संब० द्वार। क्वचित्केवलस्याऽपि- "दुहा वि सो सुरबहूसत्थो।" प्रा०१पाद। दोह-पुं०(द्रोह) अनिष्टचिन्तने, अष्ट० 22 अष्ट०। दोहासल-(देशी) कटोतटे, दे०ना० 5 वर्ग 50 गाथा। दोहूअ-(देशी) शवे, देना०५ वर्ग 46 गाथा *दोह-पुं०। दुह-कर्मणि घना दुग्धे, 'सन्दोहश्वाष्टमेऽहानि इति स्मृति / द्रवक्क-न०(भय) "शीघ्राऽऽदीनांबहिल्लाऽऽदयः" ||४२शा इति आधारे घञ्। दोहनपात्रे, भावे घञ्। दोहने, वाच०। सूत्रान्तरपटितभयस्य 'द्रवक्क' इति सूत्रेण भयस्य स्थाने द्रवक्काऽऽदेशः। दोहट्टि-पुं०(दोहट्टि) स्वनामख्याते ग्रामे, "दोहट्टिवसतिवासे, श्रेष्ठिश्री "दिवेहि विढत्तउंखाहि वढ संचि म एक्कुविद्रम्मुकोवि द्रवक्कड सो पडइ जासकस्य दानरुवेः। तदुपटाम्भादपर, च श्राविकाया वसुन्धर्याः जेण समप्पइ जम्मु।" प्रा०४ पाद। ||1||" जीवा० 36 अधिक रोहि-न० (दष्ट) "शीघ्राऽऽदीनां बहिल्लाऽऽदयः" ||4|422 / / इति दोहणवाडण-न०(दोहनपाटन) यत्र ग्रामिका गाः दोन्धि / गोदोहन सूत्रान्तरपठितदष्टे हिः इति सूत्रेण दष्टे स्थाने नेहि आदेशः। 'एकमेकाउं स्थाने, नि०चू०२ उ०॥ जइ वि जो, णदिहरिसु दसव्वायरेण तो वि द्रेह / जहि कहिं विराहो को दोहणहारी-(देशी) जलहारिण्याम्, पारिहारिण्यां च / देवना० 5 वर्ग | सकइ संचरे विदड्डनयणानेहि पलुटाः।' प्रा०४पाद। 56 गाथा। द्वितवर-पुं०(द्वितवर) काकन्दीनगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते गृहपती, दोहणी-(देशी) पड़े, देवना०५ वर्ग 48 गाथा। स च वीरान्तिके प्रव्रज्य षोडशवर्षपर्यायो विपुले पर्वते सिद्ध इत्यन्तदोहल-पुं०(दौहृद) गर्भप्रभावोद्भूतेऽन्तर्वनीफलाऽऽदावभिलाष- कृदशाया षष्ठवर्गस्य षष्ठेऽध्ययने सूचितम्। अन्त०५ वर्ग। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' दकाराऽऽदिशब्द-सङ्कलनं समाप्तम् /
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________________ 2644 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण धकार तितेजितेऽग्निसंयोगेन शोधिते रजतपत्रके, "धंतधोयरुप्पपट्टेइ वा" जी०४ प्रति०४ उ०) जंग धंतधोयरुप्पपट्टअंकसंखचंदकुंदसालिपिट्ठरासिसमप्पभ-त्रि० (ध्मातधौतरूप्यपट्टा कशङ्खचन्द्रकुन्दशालिपिष्टराशिसमप्रभ) ध्मात धौतरूप्यपट्टाङ्कशङ्खचन्द्रकुन्दशालिपिष्टराशिसदृशप्रभे, ज्ञा०१ श्रु०१० ध-पुं०(ध) धे-धा-वा डः / धर्मे, कुवेरे, ब्रह्मणि, गुह्ये, गुह्य के; प्रवरे, वहौ, वादे, देशभेदे, उपरिभागे, इन्द्रेभकुम्भे, धन्वतरौ, ध्वनौ, विशेषे धंधा-(देशी) लज्जायाम्,देवना०५ वर्ग 57 गाथा। निनादे, शशिनि च। षण्ढे, पारुष्ये,धूनने,खड्ने, सामर्थ्य , धने, धान्ये धंसण-न०(ध्वंसन) भंशे, "धंसेइ जो अभूएणं / ' ध्वंसयति मायया च। न०। आधारभूते, धायके, भृते, भीते च। त्रिका भ्रंशयतीति / स०३० सम०। अपनयने, “सउणी जह पंसुगुंठिया, "धो विधाता धनं धर्मो, धो गुह्ये गुह्यके स्वरे। विहुणियधसइ ईसियरयं।" ध्वंसयत्यपनयतीति। सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। अधः पतने, गमने, नाशे च, वाच०। धश्च स्वाधारभूतेऽपि, वहौ वादे च धायके॥ धंसाड-मुच त्यागे, तु०-मुचादि०-उभ०-सक०-अनिट्। "मुचेश्छदेशभेदे भृते भीते, धस्तथोपरि वर्तते। ड्डावहेड-मेल्लोस्सिक-रेअव-णिल्लुञ्छ-धंसाडाः" ||8|4|1|| धचषधपारुष्ये "एका इति सूत्रेण मुञ्चतेधसाडाऽऽदेशः। 'धंसाडइ।' पक्षे- 'मुअइ।' प्रा०४ "धः पुंसीन्द्रभकुम्भे स्याद्, धन्वन्तरि तथा द्वयोः / पाद! मुञ्चति, अमुचत्। वाचका स्याद्ध्वनौ च विशेषे च, निनादशशिधातृषु // 50 // धंसाडिअ-(देशी) व्यपगते, दे०ना०५ वर्ग ५६गाथा। क्लीवे तुधंधूनने च, खङ्गसामर्थ्यदन्तिषु / घअ-(देशी) पुरुषे,दे०ना०५ वर्ग 57 गाथा। ध्ये ॥५१॥"एका धगधगंत-त्रि०(धगधगायमान) जाज्वल्यमाने, "धगधगंतसंदुद्धधंखाहरण-न०(ध्वाड् क्षोदाहरण) काकदृष्टान्ते, "धंखाहरणेण एणं / ' ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। 'पजलंति जत्थ धगधग-धगस्स गुरुणा वि विण्णेया।' ध्वाक्षोदाहरणेन काकज्ञातेन / पञ्चा० 12 विव०। चोइए सीसा।" (धगधगधगस्स त्ति) अनुकरणशब्दोऽयम् / धगधगिति (तत्स्वरूपं 'गुरुकुलवास' शब्दे तृ० भा०६३६ पृष्ठे दर्शितम्) धगधगायमानं यथा स्यात्तथेत्यर्थः / प्राकृतत्वाश्चैवं प्रयोगः। ग०२ अधिक धंग-(देशी) भ्रमरार्थे , देवना०५ वर्ग 57 गाथा। धगधगाइय-त्रि०(धगधगायित) धगधगिति कुर्वति, "धगधगाइयघंत-(देशी) अतिशये, "धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धं अधेणूओ।" जलंतजालुज्जलाभिराम।" कल्प० 1 अधि०३ क्षण। व्याख्या--(धंतं पि त्ति) देशीवचनत्वादतिशयेनाऽपि दुग्धकाक्षी, न घट्ठज्जुण-पुं०(धृषधुम्र) धृष्टं प्रगल्भं द्युम्नं बलं यस्य / 'धृष्टद्युम्ने लभते दुग्धमधेनोः सकाशादिति। बृ० १उ०। जः" ||82 / 64 // इति प्राकृतसूत्रेण णस्य न द्वित्वम् / प्रा०२ *ध्वान्त-न०। ध्वन-क्तः / अन्धकारे, वाच०। पाद! द्रुपदराजपुत्रे, वाचा *ध्मात-त्रि०ा ध्मा-क्तः। दग्धे, आ०म० १अ० 2 खण्ड। विशे० धडिया-स्त्री०(धटिका) "मणैर्दशभिरेका च, धटिका कथिता बुधैः। अग्निसम्पर्केण निर्मलीकृते, आ०म०१ अ०१ खण्ड। जी० नं०रा० इत्युक्तलक्षणे दशमणाऽऽत्मके मानविशेषे, तं०। कल्प। अग्निना तापिते च। औ० शब्दिते, पिं०ा दीर्घश्वासहेतुकशब्दयुक्ते च। *धण-धा०(धण) ध्वाने, भ्वादि०-पर०-सक०-सेट् धणति / वाच०। अग्निसंयोगे, जी०३ प्रति०४ उ०। जं०। ज्ञा०ा 'मा' अधाणीत् / अधणीत् / वाचा शब्दाग्निसंयोगयोरिति वचनात्। आ०म०१ अ० २खण्ड। *ध्रण-धा० / ध्वाने, भ्वादिO--पर-अकo-सेट् / ध्रणति। अध्रणीत्। घंतघोयकणगरुअगसरिसप्पभ-त्रि०(ध्यातधौतकनकरुचकसदृ- अध्राणीत् / वाच०। शप्रभ) ध्यातमग्निना तापितं धौत जलेन क्षालितं यत्कनकं तस्य यो *ध्वण-धा०। ध्वाने, भ्वादि०-पर-अक०-सेट् ध्वणति, अध्याणीत्। रुचको वर्णस्तत्सदृशप्रभः / गौराङ्गे, औ०। अध्वणीत्। वाच०। धंतधोयरुप्पपट्ट-न०(ध्मातधौतरूप्यपट्ट) ध्मातोऽग्निसम्पर्केण *ध्वन-धा० शब्दे, चुरा०-उभ०-सक० सेट् / ध्वनयति / अदिनिर्मलीकृतो धौतो भूतिखरण्टितहस्तसंमार्जनेनातितेजितो रूप्यमयः ध्वनत् / अध्वनयीत् / वाचा ध्वन-घञ् / शब्दे,पुं०। वाच०। रवे, पट्टः विशदीकृतो यो रूप्यपट्टो रजतपत्रम्। जी०४ प्रति४उ०। विशदीकृतो भ्वादि०-पर--अक० सेट् / वा-घटादिः। ध्वनति / अध्वानीत् / यो रूप्यपट्टो रजतपत्रक सध्भातधौतरूप्यपट्टः / रा०ा अन्ये तुव्याचक्ष- अध्वनीत्। ध्वनयति। ध्यानयति। वाच०। तेध्मातोऽग्निसंयोगेन यो धौतः शोधितो रूप्यपट्टः सध्मातधौतरूप्यपट्टः।। *धन-धा० धान्योत्पादने, जुहो०-पर०-अक०-सेट् / दधन्ति, राधा ज्ञा० अग्निसम्पर्केण निर्मलीकृते भृतिखरण्टितहस्तसंमार्जनेना- अधानीत्। अधनीत्।वाचा रय, भ्वादि०-पर०-अक०-सेट्ाधनति।
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________________ धण 2645 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण अधानीत् / अधनीत् / वाच० / धन-अच् / वस्तुनि अर्थ, वाच०। हिरण्यरूप्याऽऽदिके, उत्त०६ अ०। रा०ा ''घडयमियरं तु धणं।' यद् घटितमितरद् वा अघटितं तद्धनमुच्यते / बृ०१ उ०। गोमहिष्यादिके, सूत्र०२ श्रु०१ अ० आव०। औ०। उत्त०। गुडखण्डशर्कराऽऽदिके, धनं गुडखण्डशर्कराऽऽदि, गोमहिष्यजाऽविकाकरभतुरगाऽऽदि वा / आव० 6 अ०। भाण्डाऽऽदिके, आ०चू०६ अ०। 'धनम्' गणिम-धरिम-मेयपारिच्छेद्य-भेदाचतुर्धा / यदाह- ''गणिमं जाईफलफोफलाई, धरिम तु कुंकुमगुडाई। मेज्जं चोपडलोणाइ, रयणवत्थाइ परिछेज्ज। // 1 // (47 लो०) ध०२ अधिo आ०चूला दशा०। कल्प०। औ०। ज्ञा०। भाधनं च न्यायेनेवोपार्जयेदिति गृहिधर्मः। ध०१ अधि० धनार्थिनाऽपि धर्म एव कार्यः। "धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनदः।" "तो पडिभणेइ सेट्टी, धणत्थिणो जइ तुमे तहा वि इमं / धम्मं करह जंए-स देइ धणं कामधेणुसमो॥" ध०र०। अर्थस्यापि पुरुषार्थतया सकलैहिकाऽऽमुष्मिकफलनिबन्धतया च तदुपार्जनं प्रत्यप्रमादो विधेय इति केषाञ्चित्कदाशयः / यत आहुः- "धनैर्दुष्कुलीनाः कुलीनाः क्रियन्ते, घनैरेव पापात्पुनर्निस्तरन्ति। धनेभ्यो विशिष्टो न लोकेऽस्ति कश्चिद्, वनान्यर्जयध्व धनान्यर्जयध्वम् / / 1 / / " इति। तन्मतमपाकर्तुमाहजे पावकम्मेहिँ धणं मणूसा, समाययंती अमतिं गहाय / पहाय ते पास पयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उवें ति / / 2 / / ये केचनाविवक्षितस्वरूपाः पापकर्मभिरिति पापोपादानहेतु भिरनुष्ठा- | नैर्धनं द्रव्यं मनुष्या मनुजाः, तेषामेव प्रायस्तदर्थापायप्रवर्तनादित्थमुक्त म् / समाददते स्वीकुर्वन्ति, अमतिमिति प्राग्वत्, नञः कुत्सायामपि दर्शनात्कुमतिम् उक्तरूपां, (गहाय त्ति) गृहीत्वा संप्रधार्य / पठ्यते च"अभयं गहाए त्ति।" अशोभनं मतममतं नास्तिकाऽऽदिदर्शनम्, अथवाअमृतमिवाऽमृतम्। आत्मनि परमानन्दोत्पादकतया तच प्रक्रमाद्धनम्। (पहाय ति) प्रकर्षेण तन्मध्यादल्पस्याप्यग्रहणाऽऽत्मकेन हित्वा त्यक्त्वा, तानिति धनैकरसिकान्, पश्यावलोकय / विनयमेवाह(पयट्टिए त्ति) आर्षत्वात् स्वत एवाशुभानुभावतः प्रवृत्तान्प्रवर्तितान्वा,प्रक्रमात्पाप-कर्मोपार्जितधनेनैव मृत्युमुखमिति भावः / एतच गम्यते, नरान् पुरुषान्, पुनरुपादानमादरख्यापकमेकान्तक्षणिकपक्षनिरासार्थ वा। एकान्तक्षणिकपक्षे हि नयैरेवं धनमुपार्जितं तेषामेव प्रवर्तनम् / तथा चबन्धमोक्षाभाव श्वेति भावः। एतच पश्य वैरं कर्म 'येरे वजे य कम्मे य" इतिवचनात्। तेनानुबद्धाः सततमनुगता वैरानुगताः, नरक रत्नप्रभाऽऽदिकं नारकनिवासं उपयान्ति एतद्भवभावितया सामीप्येन गच्छन्ति, तएव मृत्युमुखप्रवृत्ता इति प्रक्रमः। यदि वा-पाशा इव पाशाः स्त्र्यादयस्तेषु प्रवृत्तास्तैर्वा प्रवर्तिताः पाशप्रवृत्ताः पाशप्रवर्तिता वा नरकमुपयान्तीति संबन्धः / ते हि द्रव्यमुपायं स्यादिष्वभिरमन्ते, तदभिरत्या च नरकगतिभाज एव भवन्तीति भावः / शेष प्राग्वत्।। तदनेन सूत्रेण धनमिहैव मृत्युहेतुतया परत्र च नरकप्रापकत्वेन तत्त्वतः पुरुषार्थ एव न भवतीति तत्त्यागतो धर्म प्रतिमा प्रमादीरित्युक्तं भवति। नरक प्राप्तिलक्षणश्वापायो न प्रत्यक्षेणावगम्येतेहैवमृत्युलक्षणापायदर्शनमुदाहरणम्। तत्र वृद्धसंप्रदायः-- “एगम्मि नयरे एगो चोरो, सो रत्ति विभवसंपन्नेसुघरेसु खत्तं खणियं, सुबहुंदविणजायं घेत्तुं अप्पणो घरेगदेसे कूवं सयमेव खणित्ता तत्थ दविणजायं पक्खिवति, जहच्छियं च सुंक दाऊण कण्णगं विहेउ पसूयं ति उवद्दवेत्ता तत्थेवागडे पक्खिवइ, मा में भजा चेडरूवाणि परूढपणयाणि होऊण रयणाणि परस्सपगासिंति। एवं काले वचति अण्णया तेणेगा कण्णया विवाहिया अतीवरूविणी सा पसूया संता तेण न मारिया। दारगो य सो अट्टवरिसो जाओ। तेण चिंतियअइचिरकाल विधारिया एयं पुव्वं उद्दवेउं पच्छा दारयं उद्दाविस्सं, तेण सा उद्दवेउ अगडे पक्खित्ता, तेण दारगेण गिहाओ निगच्छिऊण हाहा कया, लोगो मिलितो,तेण भण्णति-एएण मे माया मारिय त्ति। रायपुरिसेहि सुयतेहिं गहितो, दिट्ठो कूवो दव्वभरिओ. अट्टियाणि य सुबहूणि, सो बंधेऊण रायसभमुवणीओ, जायणापगारेहिं सव्वं दव्वं दवावेऊण कुमारेणं मारिओ।" एवमन्येऽपि धनं प्रधानमिति तदर्थ प्रवर्तमानाः तदपहायेहैवानर्थावाप्तितो नरकमुपयान्तीति सूत्रार्थः / उत्त० पाई० 4 अ०। (संयमस्थस्यधनेन चेत्प्रयोजनमुत्पद्येत तदा किं कर्तव्य-मिति तद्वक्तव्यता 'अट्ठजाय' शब्दे प्रथमभागे 241 पृष्ठे उक्ता) स्नेहे, धनिष्ठानक्षत्रे च / वाच० / पार्श्वनाथस्य प्रथमभिक्षादायके, स० राजगृहनगरस्थे स्वनामख्याते सार्थवाहे, आ०म०वि०ा आचू०। आचा०। (तद्वक्तव्यता 'चिलातीपुत्त' शब्दे तृतीयभागे 1186 पृष्ठे उक्ता) ("रोहिणी" शब्दे च दृश्या) देवदत्तदारकस्य पितरि राजगृहनगरस्थे स्वनामख्याते सार्थवाहे, ज्ञा०। तत्कथा राजगृहवर्णनमधिकृत्यएवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था, णगरस्सवण्णओ। तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए णाम राया होत्था, महया वण्णओ / तत्थ णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुंरच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए णामं चेइए होत्था, वण्णओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे जिणुजाणे यावि होत्था, विणट्ठदेउले पडियतोरणघरे णाणाविहगुच्छगुणलयावल्लिवच्छच्छाइए अणेगबालसयसंकणिजे यावि होत्था। तस्स णं जिणुज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भग्गकूवए यावि होत्था, तस्स णं भग्गकूवस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए यावि होत्था, किण्हे किण्होभासे०जाव रम्मे महामेहनिउरंबभूए बहूहिं रुक्खेहि य गुच्छेहि य गुम्मेहि य लयाहि य वल्लीहिय तणेहि य कुसेहि य कुसुमेहि य खाणुएहि य संछण्णेहि य परिछण्णे अंतो झुसिरे बाहिं गंभीरे अणेगबालसयसंकणिज्जे यावि होत्था / तत्थ णं रायगिहे णयरे धणे णामं सत्थवाहे अड्डे दित्ते० जाव विउलभत्तपाणे, तस्स णं धणस्स सत्थवाहस्स भद्दा नाम भारिया
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________________ धण 2646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण होत्था, सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा सुसाणेसु य वाविपोक्खरिणीद्दीहियागुंजालियास य सरेसु य लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजाय- | सरपंतियासु य सरसरपंतियासु य जिणुजाणेसु य भग्गकूवेसु सव्वंगसुंदरगी ससिसोम्माकारकंतपियदसणा सुरूवा करयल- | य मालुया-कच्छएसु य सुसाणेसु य गिरिकंदरलयणउवट्ठाणेसु परिमिवतिवलियमज्झा कुंडलुल्लिहियगंडलेहा कोमुइ यरपणि- य बहुजणस्स छिद्देसु य० जाव एवं च णं विहरइ / तए णं तीसे यरपडिपुण्णसोम्मवयणा सिंगारागारचारुवेसा०जाव पडिरूवा भद्दाए भारियाए अण्णया कयाई पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि बंझा अबियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था / तस्स णं कुथु बजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अब्भत्थिएन्जाव धणस्स सत्थवाहस्स पंथए णामं दासचेडए होत्था, सव्यंगसुंदरंगे समुप्पजित्था-अहं धणेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूणि वासाणि मंसोवचिए बालकीलावणकुसले यावि होत्था / तए णं से धणे सद्दफरिसेरसगंधरूवाणि माणुस्सगाई कामभोगाइं पचणुब्भवसत्थवाहे रायगिहे णयरे बहूणं णगरणिगमसे द्विसत्थवाहाणं माणी विहरामि / णो चेवणं अहं दारगं वा दारियं वा पयायामि। अट्ठारसह य सेणिप्पसणीणं बहुसु कज्जेसु य कूडुं वेसु य तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव सुलद्धेणं माणुस्सए ०जाव चक्खुभूए यावि होत्था, णियमस्स वि य णं बहुसु जम्मजीवियफले, तासिं अम्मयाणं जासिं मण्णे णियगकुच्छिकुडुंबेसु य बहुसु गुज्झेसु य० जाव चक्खुभूए यावि होत्था। संभूयाइं थणदुद्धलुद्धयाई महुरसमुल्लावगाइं मम्मणपयंपियाई तत्थ णं रायगिहे णयरे बहिया विजए णामं तकरे होत्था, पावे थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणाई मुद्धयाइं थणियं पिवंति, चंडालरूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसियदित्तरत्तणयणे खरपरुस तओ य कोमलकमलोवमे हिं हत्थेहिं गिहिऊणं उच्छंगे महलविगयबीभच्छदाढिए असंपुडियउटे उद्धयपइण्णलंबंत णिवेसियाई देतिं समुल्लावए पिए समहुरे पुणो पुर्णा मंजुलप्प भणिए, तं णं अहं अधण्णा अपुण्णा अलक्खणा अकयपुण्णा मुद्धए भमरराहुबण्णे णिरणुक्कोसे णिरनुतावे दारुणे पइभए एत्तो एगमविण पत्ता, तं सेयं मम कल्लं पाउप्पभाए रयणीए०जाव णिस्संसइए णिरणुकंपे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरेव एगधाराए गिद्धेव जलंते धणं सत्थवाहं आपुच्छित्ता धणेणं सत्थवाहेणं अब्भणुआमिसत्तलित्ते अग्गिमिव सव्वभक्खीजलमिव सव्वग्गाही ण्णाया समाणी सुबहु विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उकंचणबंचणमायाणियडकूडकवडमाइसंपओगबहुले चिरगण उवक्खडावेत्ता सुबहुपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं गहाय बहुमित्तरविणट्ठदुट्ठसीलायारचरित्ते जूयपसंगी मज्जपसंगी मंसपसंगी णाइणियगसयणसंबंधिपरियणमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा जाई भोजपंसगी दारुणहिययदारए माहसिए संधिच्छेयए उवहिए इमाइं रायगिहस्स णयरस्स बहिया णागाणि य भूयाणि य विस्संभघाई आलीवगतित्थर्भय लहुहत्थसंपउत्ते परस्स जक्खाणि य इंदाणि य खंदाणि य रुघाणिय सिवाणि य वेसमणि दव्वहरणे णिच्चं अणुबद्धे तिव्ववेरे रायगिहस्स णयरस्स बहूणि य, तत्थ णं बहूणं णागपडिमाण य०जाव वेसमण-पडिमाण य अतिगमणाणि य णिग्गमणाणि य दाराणि य अवदाराणि य महरिहं पुप्फच्चणियं करेत्ता जाणुपायवडिया एवं वइत्तए-जइ छिंडिओ य खंडीओ य णगरणिद्धमणाणि य संवदृणाणि य णं अहं देवाणुप्पिया ! दारगं वा दारियं वा पयायामि, तो णं अहं णिव्वदृणाणि य जूयखलयाणि य पाणागाराणि य वेसागाराणि य तुभ जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणु-बट्टे मि त्ति तक्करठाणाणि य तक्करघराणि य सिंघाडगाणि य तियाणि य कटु उवाइयं उवयाइत्तए एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता कल्लं जाव चउक्काणि य चच्चराणि य णागघराणि य भूयघराणि य जलं ते जेणामेव धणे सत्थवाहे ते णामेव उवागच्छ इ, जक्खदेउलाणि य सभाणि य पव्वताणि य पणियसालाणि य उवागच्छइत्ता एवं बयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं सुण्णघराणि य आभोएमाणे मरगमाणे गवेसमाणे बहुजणस्स सद्धिं बहूणि वासाइं०जाव विहरति समुल्लावए सुमहरे पुणो 2 छिद्देसु य विसमेसु य विहुरेसु य वसणेसु य अब्भुदएसु य सुमंजु-लप्पभणिए तेणं अहं अधण्णा अपुण्णा अकयलक्खणा उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु यजण्णेसु य पव्वणीसु एत्तो एगमवि ण पत्तो, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं य जुद्धेसु य मत्तपमत्तस्स य वक्खित्तस्स य वाउलस्स य अब्भणु--प्रणया समाणी विपुलं असणं वा पाणं वा खाइमं वा सुहियस्स य दुहियस्सय विदेसत्थस्सय विष्यवसियस्स य मग्गं साइमं वा०जाव अणुवट्टेमि उवाइयं करित्तए / तए गं धणे च छिदं च विहरं च अंतरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ, सत्थवाहे भई भारियं एवं बयासीममं पि य णं खलु देवाणुप्पिए ! बहिया वि य णं रायगिहस्स णयरस्स आरामेसु य उजाणेसु य | एस चेव मणोरहे, कहं णं तुमं दारगं वा दारियं वा पया
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________________ घण 2647 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण एजसि भद्दाए सत्थवाहीए एयमढें अणुजाणामि। तए णं सा भद्दा तेणेव ओगाहिंति, ओगाहितित्ता पहायाओ कयवलिकम्माओ सत्थवाही धणेणं सत्थवाहेणं अडभणुण्णाया समाणी हट्टतुट्ठा सव्यालंकार विभूसियाओ विपुलं असणं०४ आसाएमाणीओ० जाव हियया विउलं असणपाणखाइमसइमं उवक्खडावेइ, जाव परिभुंजमाणीओ दोहलं विणेंति,एवं संपेहेइ,संपेहेतित्ता उवक्खडावेइत्ता सुबहु पुप्फगंधमल्लालंकारं गिण्हइ, गेण्हइत्ता कल्लं० जाव जलंते जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, सयाओ गिहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता रायगिह णयरं मज्झं उवागच्छ इत्ता धणं सत्थवाहं एवं बयासी- एवं खलु मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव देवाणुप्पिया! मम तस्स गब्भस्स०जाव विणंति, तं इच्छामि उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पुक्खरिणीए तीरे सुबहु पुप्फगंध- णं देवाणु प्पिया ! तुडभे हिं अब्भुणुण्णाया समाणी०जाव मल्लालंकारं ठवेइ, ठवेइत्ता पुक्खरिणिं ओगाहेइ, ओगाहेइत्ता विहरत्तिए? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / तए णं जलमजणं करे इ, करे इत्ता जलकीडं करेइ, करेइत्ता सा भद्दा सत्थवाही धणेणं सत्थवाहेणं अब्भणुण्णाया समाणी व्हायाकयवलि-कम्मा उल्लपडसाडिया जाई तत्थ उप्पलाइं० हद्वतुट्ठाजाव हियया विउलं असणं०४जावण्हाया कय०जाव जाव सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ, गिण्हइत्ता पुक्खरिणीओ उल्लगपडगसाडगा जेणेव णागघरए०जाव धूव डहेइ, डहेइत्ता पञ्चोरुहइ, तं सुबहुं पुप्फवत्थगंधमल्लं गिण्हइ, गिण्हइत्ता पणामं करेइ, करेइत्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, जेणामेव णागघरए य जाव वेसमणधरए य तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तएणं ताओ मित्तणाइजाव णयरमहिलाओ भदं उवागच्छइत्ता तत्थ णं णाग-पडिमाण य० जाव वेसमणपडिमाण सत्थवाहिं सव्वालंकारविभूसियं करें ति / तए णं सा भद्दा सत्थवाही ताहि मित्तणाइणिय गसयणसंबंधिपरियणणयरमय आलोए पणामं करेइ, करेइत्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, लोमहत्थग हिलियाहिं सद्धिं विपुलं असणं०४ जाव परिमुंजमाणी यदोहलं परामुसइ, णागपडिमाओ य० जाव वेसमणपडिमाओ य विणेति, जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तएणं लोमहत्थेणं पमन्जइ, पमन्जइत्ता उदगधाराए अब्भुक्खेइ, सा भद्दा सत्थवाही संपुण्णदोहला० जाव तं गब्भं सुहं सुहेणं अब्भुक्खेइत्ता पम्हलसुकुमालए गंधका-साईए गायाई लूहेइ, परिवहइ / तए णं सा भद्दा सत्थवाही गवण्डं मासाणं लूहेइत्ता महरिहं वत्थारुहणं मलारुहणं गंधारुहणं चुण्णारुहणं बहुपडिपुण्णाणं अद्भुट्ठमाणं रायंदियाणं सुकुमालपाणिपायं० वण्णारुहणं च करेइ० जाव धूवं डहइ / जाणुपायवडिया जाय दारगं पयाया। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे पंजलिउडा एवं बयासी-जइणं अहं दारगं या पयायामि तो णं दिवसे जाइकम्मं करेंति, तहेव०जाव विपुलं असणं अहं तुभं जायं०जाव अणुवट्टैमित्ति कटू उवाइयं करेइ, जेणेव उवक्खडावेंति, तहेव मित्तणाई भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोणं पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता विउलं असणं वा गुणनिप्फण्णं णामधिज्ज करेंति-जम्हा णं अम्हं इमे दारए पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आसाएमाणी०जाव विहरइ, बहूणं णागपडिमाण य०जाव वेसमणपडिमाण य उवाइयलद्धे, जिमिय०जाव सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, तं होऊणं अम्हं इमे दारए देवदिण्णे णामेणं / तए णं तस्स उवागच्छइत्ता अदुत्तरं च णं भद्दा सत्थवाही चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपु दारगस्स अम्मापियरो णामधिज्जं करेंति देवदिण्णे त्ति। तएणं प्रणमासिणीसु विपुलं असणं०४ उवक्खडेइ, उवक्खडेइत्ता बहवे तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायं च भायं च अक्खयणिहिं च णागा य०जाव वेसमणा य उववायमाणी णमंसमाणी०जाव एवं अणुवट्टेति / तए णं से पंथए दासचेडए देवदिण्णस्स दारगस्स च णं विहरइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही अण्णया कयाइं केणइ बालग्गाही जाए देवदिण्णं दारगं कडीए गिण्हइ, गिण्हइत्ता बहूहि कालंतरेणं आपण्णसत्ता जाया यावि होत्था। तए णं तीसे भद्दाए / डिभएहिं य डिभियाहि य दारएहि य दारियाहि य कुमारेहि य सत्थवाहीए दोसु मासेसु विइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमे कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे अभिरममाणे अमिरमइ / तए एयारूवे दोहले पाउन्भूए-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ० जाव णं सा भद्दा सत्थवाही अण्णया कयाइ देवदिण्णं दारयं ण्हायं कयलक्खणाओ ताओ अम्मयाओ जाओ णं विउलं असणं 0 कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं 4 सुबहु पुप्फगंधमलालंकारं गहाय मित्तणाइणियगसयण- करेइ, पंथयस्स दासचेडयस्स हत्थयंसि दलयइ / तए णं से संबंधिपरियणमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडाओ रायगिहं णयरं | पंथए दासचेडए भद्दाए सत्थवाहीए हत्थाओ देवदिण्णं दारगं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जेणेव पोक्खरिणी | कडीए गिण्हइ, गिण्हइत्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडि
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________________ धण 2648 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण णिक्खमइत्ता बहूहि डिभएहि य डिभियाहि य०जाव कुमारियाहिं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता देवदिण्णं दारयं एगते ठावेइ, बहूहिं डिभएहि य०जाव कुमारि-- याहिं सद्धिं संपरिवुडे पमत्ते यावि विहरइ। इमं च णं विजयतक्करं रायगिहस्स णयरस्स बहूणि दाराणि य अवदाराणि य तहेव जाव आभोएमाणे मग्गमाणे गवेसमाणे जेणेव देवदिण्णे दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता देवदिण्णं दारयं सव्वालंकारविभूसियं पासइ, पासतित्ता देवदिण्णस्स दारगस्स आभरणालंकारे संमुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे पंथवं दासचेडयं पमत्तं पासइ, पासइत्ता दिसालोयं करेइ, करेइत्ता देवदिण्णं दारगं गिण्हइ, गिण्हइत्ता कक्खंसि अलियावेइ, अल्लियावेत्ता उत्तरिजेणं पिहेइ, पिहेइत्ता सिग्घं तुरियं चवलं चेइयं रायगिहस्स णयरस्स अवदारेणं णिग्गचछइ, णिग्गचछइत्ता जेणेव जिणुजाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता देवदिण्णं दारयं जीवियाओ ववरोवेइ, ववरोवेत्ता आभरणालंकारं गिण्हइ, गिण्ह-इत्ता देवदिण्णस्स दारगस्स सरीरं णिप्पाणं णिचेटुं०जाव विप्प-जदं भग्गकूवए पक्खिवइ, पक्खिवइत्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता मालुयाकच्छयं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसइत्ता णिच्चले णिप्फंदे तुसिणीए दिवसं खवेमाणे चिट्ठइ / तए णं से पंथए दासचेडए तओ मुहुत्तंतरस्स जेणेव देवदिण्णे दारए ठविए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता देवदिपणं दारयं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे देवदिण्णस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करेइत्ता देवदिण्णस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुइं वा पउत्तिं वा अलममाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता धणं सत्थवाहं एवं बयासी-एवं खलु सामी! भद्दा सत्थवाही देवदिण्णं दारयं छहायं०जाव मम हत्थंसि दलयइ / तए णं अहं देवदिण्णं दारयं कडीए गिण्हामि, गिण्हइत्ताजाव मग्गणगवेसणं करेमि / तं ण णज्जइ णं सामी ! देवदिण्णे दारए केणइ तेणिए वा अवहरिए वा अक्खित्ते वा पायवडिए धणस्स सत्थवाहस्स एयमद्वं णिवेएइ। तएणं से धणे सत्थवाहे पंययस्स दासवेडयस्स एयमढे सोच्चा णिसम्म तेणेव महया पुत्तसोएणाभिभूए समाणे परसुणियत्ते व चंपगपायवे धस त्ति धरणियलंसि सव्वंगेहिं सण्णिवइए। तए णं से धणे सत्थवाहे तओ मुहुत्तंतरस्स आसत्थे पच्चागयप्पाणे देवदिण्णस्सदारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करेइत्ता देवदिण्णस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता महत्थं पाहुडं गिण्हइ, गिण्हइत्ता जेणेव णयरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेइ, उवणेइत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए देवदिण्णे णामं दारए इटे०जाव उंवरपुप्फ पि व दुलहे सवणयाए, किमंग ! पुण पासवणयाए ! तए णं सा भद्दा देवदिण्णं दारयं पहायं सव्वालंकारविभूसियं पंथगस्स दासस्स हत्थे दलयइ०जाय पायवडिए, तं संमं णिवेइ / तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! देवदिण्णस्स दारयस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए। तए णं ते णयरगुत्तिया धणेणं सत्थावाहेणं एवं वुत्ता समाणा सण्णद्धबद्धकवया उप्पालियसरासणपट्टिया० जाव गहियाउहपहरणा धणेणं सत्थवाहेणं सद्धिं रायगिहस्स णयरस्स बहूणि अइगमणाणि य० जाव पवासु य मग्गणगवेसणं करेमाणा रायगिहाओ णयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव जिणुजाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता, देवदिण्णस्स दारयस्स सरीरं णिप्पाणं निच्चेटुं जीवविप्पजढं पासंति, हा हा अहो अकजमिति कटु देवदिण्णं दारगं भग्गकूवाओ उत्तारेइ, उत्तारेइत्ता धणस्स सत्थवाहस्स हत्थे दलयंति। तए णं ते णयरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता मालुया कच्छयंसि अणुप्पविसंति, विजयं तक्करं ससक्खं सहोढं सगेवेचं जीवग्गाहं गिण्हइ, गिण्हइत्ता अट्टिमुट्ठिजाणुकोप्परप्पहारसंभग्गमहियगत्तं करेंति, अवउडाबंधणं करेंति, करेंतित्ता देवदिण्णस्स दारयस्स आमरणं गिण्हंति, गिण्हतित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधइ, बंधइत्ता मालुया-कच्छयाओ पडिणिक्खमंति, जेणेव रायगिहे णयरे तेणेव उवागच्छंति, रायगिह णयरं अणुप्पविसंति,रायगिहे णयरे सिंघाडगतिगचउक्कचचर-महापहपहेसु कसप्पहारेहि य लयाप्पहारेहि य च्छियाप्पहारेहि य णिवाएमाणा छारं च धूलिं च कयवरं च उवरि पक्खिवमाणा 2 महया 2 सद्देणं उग्धोसेमाणा एवं बयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! विजएणामं तक्करेजाव गिद्धे विव आमिसभक्खी बालघायए य बालकमारए, तं णो खलु देवाणुप्पिया ! एयस्स केइराया वा रायमच्चे वा अवरज्झइ, णऽण्णत्थ अप्पणो सयाई कम्माई अवरज्झंति त्ति कटु जेणामेव चारगसाला तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता हडिबंधणं करिति, भत्तपाणणिरोह करिति, तिसंझं कसप्पहारेहि यजाव णिवाएमाणा विह
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________________ धण 2646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण रंति। तएणं से धणे सत्थवाहे मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरि--- यणेणं सद्धिं रोयमाणेणंजाव विलवमाणेणं देवदिण्णस्सदारगस्स सरीरस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं णीहरणं करेति, करेतित्ता बहूई लोइयाई मयकिचाई करेति, केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि होत्था। तए णं से धणे सत्थवाहे अण्णया कयाइं लहुसयंसि रायावराहसि संपलित्ते जाए यावि होत्था / तएणं ते णगरगुत्तिया धणं सत्थवाहं गिण्हति, गिण्हतित्ता जेणेव चारगे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चारगं अणुप्पविसंति, अणुप्पविसंतित्ता विजएणं तकरेणं सद्धिं एगओ पडिबंधणं करिति / तए ण सा भद्दा भारिया कल्लं जाव जलंते विउलं असणं०४ उवक्खडेति, उवक्खडे वित्ता भोयणपिडयं करेइ, भोयणाई पक्खिवति, लंछियं मुद्दियं करेति, करेतित्ता एगं च सुरभिवारि-पडियुण्णं दगवारयं करेति, करेतित्ता पंथयं दासचेडयं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! इमं विउलं असणं०४ गहाय चारगसालाए धणस्स सत्थवाहस्स उवणेहि / तए णं से पंथए भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे तं भोयणपिडयं तं च सुरभिवरवारिपडिपुण्णं दगवारयं गिण्हइ, गिण्हइत्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता रायगिहं णयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव चारगसाला जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छ इत्ता भोयणपिडयं छवेति, ठवे तित्ता उल्लंछे इ, उल्लंछे इत्ता भायणाइं गिण्हइ, गिण्हइत्ता भायणाई धोवेइ, धोवेइत्ता हत्थसोयं दलयइ, दलयइत्ता धणं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असण०४ परिवेसेइ / तए णं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं बयासी-तुमे णं देवाणुप्पिया ! मम एत्तो विपुलाओ असथा०४ संविभागं करेह / तए णं से धणे सत्थवाहे विजयं तक्कर एवं बयासी-अवियाइं अहं विजया ! एवं विपुलं असणं०४ कागाणं वा सुणगाणं वा दलएज्जा, उक्करडयाए वाणं छड्डेज्जा, णो चेव णं तव पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडिणीयस्स पचामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असणं०४ संविभागं करेज्जामि / तए णं से धणे सत्थवाहे तं विपुलं असणं० 4 आहारेइ, तं पंथयं विसजेइ / तए णं से पंथए दासचेडए तं भोयणपिडगं गिण्हइ, जामेव दिसं पाउडभूए तामेव दिसं पडिगए। तएणं तस्स धणस्स सत्थवाहस्सतं विपुलं असणं०४ आहा-रियसभाणस्स उच्चारपासवणेणं उव्वाहित्था। तए णं से धणे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं बयासी-एहि ताव विजया ! एगंत-मवकमामो, जेणं अहं उच्चारपासवणं परिट्ठवेमि। तए णं से विजए तक्करे धणं सत्थवाह एवं बयासी-तुब्भ देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारियस्स अस्थि उच्चारे वा पासवर्ण वा, मम णं देवाणुप्पिया! इमेहिं बहूहिं कसप्पहारेहि य०जाव लयाप्पहारेहि य तण्हाए य खुहाए य परिभवमाणस्स णत्थि केइ उच्चारे वा पासवणे वा, तं छंदेणं तुम देवाणुप्पिया ! एगते अवक्कमित्ता उच्चारपासवणं परिट्ठवेह। तए णं से धणे सत्थ-वाहे विजएणं तक्करेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ / तए णं से धणे सत्थवाहे मुहुत्तंतरस्स बलियतराग उच्चारपासवणेणं उव्वाहिजमाणे विजयं तक्कर एवं बयासी-- एहि ताव विजया !0 जाव अवक्कमामो ! तए णं से विजए धणं सत्थवाहं एवं बयासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया ! ताओ विपुलाओ असणं०४ संविभागं करेह, तओ णं अहं तुज्झेहिं सद्धिं एगंतं अवकमामि / तए णं से धणे सत्थवाहे विजयं तकरं एवं बयासी-अहं णं ताओ विपुलाओ असणं०४ संविभागं करेस्सामि / तए णं से विजए तक्करे धणस्स सत्थवाहस्स एयमढें पडिसुणेइ। तए णं से विजयए तक्करे धणेणं सद्धिं एगते अवकमइ, उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ, आयंते चोक्खे परमसुइभूए तमेव ठाणं उवसंकमित्ता णं विहरइ / तए णं सा भद्दा कल्लं जाव जलते विपुलं असणं ४०जाव परिवेसेइ / तए णं से धणे सत्थवाहे विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असणं०४ संविभागं करेइ / तए णं से धणे सत्थवाहे पंथयं दासचेडं विसओइ, तए णं से पंथए भोयण पि डयं गहाय चारंगसालाओ पडिणिक्ख-मइ, पडिणिक्खमइत्ता रायगिहं णयरं मज्झे मज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता भई सत्थवाहिणिं एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! धणे सत्थवाहे तव पुत्तघायस्स ०जाव पचामित्तस्स ताओ विउलाओ असणं पाणं खाइमं साइमं संविभागं करेति / तए णं सा भद्दा सत्थावाही पंथयस्स दासचेमस्स अंतिए एयमहूं सोचा आसुरुत्ता रुट्ठा० जाव मिसिमिसेमाणा धणस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ / तए णं से धणे सत्थवो अण्णया कथाइ मित्तणाइणियगसयाणसंबंधिपरियणेणं सएण य अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ, मोयावेइत्ता चारगसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता जेणे व अलंकारिसमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता / अलंकारियकम्मं करोवइ, करावेत्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव
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________________ धण 2650 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अह धोयमट्टियं गिण्हइ, गिण्हइत्ता पुक्खरिणिं ओगाहेइ, ओगाहेइत्ता जलमज्जणं करेइ, पहाए कयवलिकम्मे०जाव रायगिहं णयरं अणुप्पविसइ / रायगिहस्स णयरस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्थगमणाए। तए णं तं धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासित्ता रायगिहे णयरे बहवे णयरणिगमसे ट्ठिसत्थवाहपभिओ आढयंति, पडिजाणंति, सक्कारें ति, सम्माणेति, अम्भुटुंति सरीरकुसलं पुच्छंति / तए णं से धणे सत्थवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जा विय से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं दास त्ति वा, पेस त्ति वा, भइगा ति वा, भाइल्लेति वा, सा वि य णं धणं सत्थबाहं एजमाणं पासइत्ता पायपडियाए खेमकुसलं पुच्छइ, जे वि य से तत्थ अभिंतरिया परिसा भवइ, तं माया इय वा पिया इय वा भाया ति वा भइणी तिवा,सा विय णं धणं सत्थवाहं एन्जमाणं पासइ, पासइत्ता आसणाओ अब्भुटेइ, कंठाकंठियं अवदासियं वाहप्यमोक्खणं करेइ / तए णं से धणे सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ। तए णं सा भद्दा मारिया सत्थवाही धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासइत्ता णो आढाति, णो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परंमुही संचिट्ठइ / तए णं से धणे सत्थवाह भई भारियं एवं बयासी-कि णं तुमं देवाणुप्पिया ! ण तुट्ठा वा ण हरिसा वा णाणंदी वा, जं मए सेएणं अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पा विमोइए। तए णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एवं बयासी-कह णं देवाणुप्पिया ! मम तुट्ठा वा० जाव आणंदे वा भविस्सइ / जेणं तुम मम पुत्तघायकस्स० जाव पचामित्तस्स ताओ विपुलाओ असणं०४ संविभागं करेसि / तए णं से धणे सत्थबाहे भई सत्थवाहिं एवं बयासी-णो खलु देवाणु-प्पिए! धम्मो ति वा तवो त्ति वा कयपडिकइया वा लोगजत्ता ति वा णायए त्ति वा घाडियए ति वा सहाएइ वा सुहि त्ति वा ततो विपुलाओ असणं०४ संविभाएकए, णण्णत्थ सरीरचिंताए। तए णं सा भद्दा सत्थवाही धणेणं सत्थवाद्देणं एवं वुत्ता समाणी हट्ठतुट्ठा०जाव आसणाओ अब्भुट्टेति, कंठाकंठिअवतासेति,खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छइत्ता बहाया०जाव पायच्छित्ता विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ।तएणं से विजए तक्करे चारगसालाए तेहिं बंधेहि य वहेहि य कसप्पहारेहि य०जाव तण्हाएहि य छुहाएहि य पराभवमाणे कालमासे कालं किया णरएसुणेरइत्ताए / उववण्णे,से णं तत्थरइए जाए कालेकालाभासे० जाव वेयणं पच्चणुब्भवमाणा विहरति / से णं तओ उव्वट्टित्ता अणाइयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरं तसंसारकंतारं अणुपरियट्टिस्सइ। एवामेव जंबू ! जेणं अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे विपुलमणिमुत्तियधणकणगरयणसारेणं लुब्मइ, से वि य एवं चेव / तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा णाम थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा० जाव पुवाणुपुट्विं चरमाणा०जाव जेणामेव रायगिहे णयरे जेणे व गुणसिलए चेइए०जाय अहापडिरूवं उग्गाहं उगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ / तए णं तस्स धणस्स सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अब्भत्थिए० जाव समुप्पञ्जित्था। एवं खलु भगवंतो जाइसंपण्णा इहमागया, इह संपण्णा, तं इच्छामि णं थेरे भगवंते वदामि, णमंसामि, पहाएजाव सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए पायविहारचारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता वंदइ, णमंसइ / तए णं थेरा भगवंतो धणस्स सत्थवाहस्स विचित्तं धम्ममाइक्खंति / तए णं से धणे सत्थवाहे धम्म सोच्चा एवं बयासी-सदहामि णं भंते ! णिग्गंथे पाययणे० जाव पव्वइएक जाव बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खाइत्ता मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताई अणसणाई छेदइत्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववण्णे / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं घणस्स देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / से णं धणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं गइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिति० जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति, जहा णं जंबू ! धणेणं सत्थवाहेणं णो धम्मेइ वा० जाव विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असणं०४ संविभागे कए, णण्णत्थ सरीरस्स रक्खणट्ठाए, एवामेव जंबू ! जो णं अम्हं णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा०जाव पव्वइए समाणे ववगयण्हाणुमद्दणपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसिए इमस्स ओरालियसरीरस्स णो वण्णहेउं वारूवहेउवा विसयहेउवातं विपुलं असणं०४ आहारमाहारेइ, णण्णत्थ णाणसणचरित्ताणं वहणट्टयाए, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण अ अच्चणिज्जे०जाव पज्जुवासणिजे भवइ, परलोए वि य णं
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________________ धण 2651 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण णो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य णासाच्छेयणाणि य एवं हियउप्पायपाणि य वसणुप्पाथणाणिय उल्लंठणाणि यपाविहिंति, अणादीयं च णं अणवदग्गं दीहं०जाव वीईवइस्संति जहा व से धणे सत्थवाहे सिवसाहणेसु आहारे विहरिवं तं ण वट्टए साहु देहो तम्हा घणु व्व विजयं साहू, तं तेण पोसिज्जा। एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं०जाव संपत्तेणं दोचस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि॥ एवं खल्वित्यादि तु प्रकृताध्ययनार्थसूत्र, सुगम चैतत्सर्व, नवरं जीर्णोद्यानं चाप्यभूत, चापीति समुच्चये, अपिचेत्यादिवत् / विनष्टानि देवकुलानि परिशटितानि तोरणानि प्राकारद्वारदेब-कुलसंबन्धीनि गृहाणि च यत्र तत्तथा / नानाविधा ये गुच्छा वृन्ताकीप्रभृतयः, गुल्मा वंशजालीप्रभृतयः, लता अशोकलताऽऽदयः, वल्ल्यस्त्रपुषीप्रभृतयः, वृक्षाः सहकाराऽऽदयः, तैश्छादितं यत्तत्तथा। अनेकैालशतैः स्वापदशतैः शकनीय भयजनकं चाष्यभूत, शङ्कनीयमित्येतद्विशेषणसंबद्धस्वात्क्रियावचनस्य न पुनरुक्तता। (मालुकाकच्छ इति) एकास्थिकफला वृक्षविशेषाः मालुकाः प्रज्ञापनाभिहिताः, तेषां कक्षो गहनं मालुका कक्षः / चिर्भिटिकाकच्छ इति तु जीवाभिगमचूर्णिकारः / (किण्हे किण्होभासे) इह यावत्करणदिदं दृश्यम्- ''णीले गीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे णिद्धे णिद्धोभासे तिव्वे तिय्वोभासे किण्हे किण्हच्छाए णीले णीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिद्धे णिद्धच्छाए तिटवे तिय्वच्छाए घणकड़ियकडिच्छाए त्ति / " कृष्णः कृष्णवर्णाञ्जनवत् स्वरूपेण कृष्ण एवावभासते, द्रष्ट्रणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः, किल किश्चिद्वस्तुस्वरूपेण भवत्यन्यादृशं प्रतिभासते तु सन्निधानविप्रकर्षाऽऽदेः कारणादन्यादृशमिति / एवं कृचिद सौ नीलो मयूरग्रीववत्, कचित् हरितः शुकपिच्छवत्, हरितालाभ इति वृद्धाः / तथा शीतः स्पर्शतः वल्ल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः। स्निग्धो न रूक्षः, तीव्रो वर्णाऽऽदिगुणप्रकर्षवान्, तथा कृष्णः सवर्णतः, कृष्णच्छायः छाया च दीतिरादित्यकरावरणजनिता चेति / एवमन्यत्रापि / (घणकडियकडिच्छाए त्ति) अन्योन्यशाखाऽनुप्रवेशात्यनिरन्तरच्छायारम्यो महामेघाना निकुरम्बः समूहस्तद्वद्यः स महामेघनिकुरम्बभूतः। वाचनान्तरे त्वेदमधिकं पठ्यते- " पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरे रिजमाणे।" हरितकश्वासौ (रेरिजमाणे त्ति) भृशं राजमानश्चयः स तथा / (सिरीए अईव 2 उवसोभेमाणे चिट्ठइ त्ति) श्रिया बनलक्ष्म्या अतीव 2 उपशोभमानस्तिष्ठति। (कुसेहि यत्ति) दर्भ : / वचित् "कूवएहिय त्ति" पाठः। तत्र कूपिकाभिः लिङ्गव्यत्ययात् (स्वाणुएहियत्ति) स्थाणुभिश्च / पाठान्तरण-- (खत्तएहिं ति) खातैर्गतरित्यर्थः। अथवा-(कूविएहिं ति) चौरगवेषकैः, (खत्तएहिं ति) खानकैः, क्षेत्रस्येनिगम्यते। चौररित्यर्थः / अयमभिप्रायः-गहनत्वात्तस्य तत्र चौराः प्रविशन्ति तगवेषणार्थमितरे चेति संछन्नो व्याप्तः, परिच्छन्नः समन्तात् अन्तर्मध्ये शुश्रूशु सावकाशत्वात् बहि-गम्भीरो दृष्टरप्रक्रमणात् (अड्डे दित्ते) इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्"दित्ते विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुदासदासोगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुधणबहुजायरूवरयए आओगपओगसंप उत्ते विच्छड्डियविउलभत्तपाणे ति।'' व्याख्या त्यस्य मेधकुमारराजवर्णकवत, भद्रावर्णकस्य तु धारिणीवर्णकवन्नवरं (करयलय ति) अनेन 'करयलपरिमियतिवलियमज्झाइ त्ति" दृश्यम् / (बंझ त्ति) अपत्यफलापेक्षया निष्फला(अवियाउरि त्ति) प्रसवानन्तरमपत्यमरणेनापि फलवतो बन्ध्या भवतीत्यत उच्यते (अवियाउरित्ति) अविजननशीला अपत्यानामत एवाऽऽह-जानुकूर्पराणामेव माता जननी जानुकूर्परमाता। एतान्येव शरीरांशभूतानि तस्याः स्तनौ स्पृशन्ति, नापत्यमित्यर्थः / अथवा-जानुकूर्पराण्येव मात्रा परप्राणाऽऽदेः साहाय्यसमर्थ उत्सङ्गनिवेशनीयो वा परिकरो यस्याः नपुत्र लक्षणः सा जानुकूर्परमात्रा। (दासचेडे त्ति) दासस्य भृतकविशेषस्य चेटः कुमारकः दासचेटः / अथवादासश्चासौ चेटश्वेति दासचेटः। (तक्करे त्ति) चौरः, पापस्य पापकर्मकारिणः चण्डालस्येव रूपं स्वभावो यस्य स तथा चण्डालकमपिक्षया भीमतराणि रौद्राणि कर्माणि यस्य स तथा। (आरुसिय त्ति) आरुष्टस्येव दीप्ते रक्ते नयने यस्य सतथा। खरपरुषे अतिकर्कशे महत्यौ विकृते वीभत्से दंष्ट्रिके उत्तरोष्ठकेशगु-च्छरुपे दशनविशेषरूपे वा यस्य स तथा। असंपतितौ असंपुटितौ असंवृत्तौवा परस्परालग्नौ तुच्छत्वादशनदीर्घत्वाच ओष्ठौयस्य स तथा. उद्धृता वायुना प्रकीर्णा विकीर्णा लम्बमाना मूर्द्धजा यस्य स तथा, भ्रमरराहुवर्णः कृष्ण इत्यर्थः / निरनुक्रोशो निर्दयो, निरनुतापः पश्चात्तापरहितः, अत एव दारुणो रौद्रः, अत एव प्रतिभयो भयजनकः, निःसंशयिकः शौर्यातिशयादेव तत्साधयिष्याम्येवेत्येवं प्रवृत्तिकः / पाठान्तरेण- "निसंसे' नृन्नरान् शंसति हिनस्तोति नृशंसः / निशंसो वा विगतश्लाघः। (निरणुकंपे त्ति) विगतप्राणिरक्षः,निर्गता वा जनानामनुकम्पा यत्र स तथा / अहिरिव एकान्तग्राह्यमेवेदं मयेत्येवमेका निश्चया दृष्टिर्यस्य स तथा। (खुरे व्व एगंतधाराए त्ति) एकत्रान्तरे वस्तुभागेऽपहर्तव्यलक्षणे धारेव धारा परोपतापप्रधानप्रवृत्तिलक्षणा यस्य स तथा। यथा क्षुर एकधार एवमसौ मोषणलक्षणैकप्रवृत्तिक एवेति भावः। (जलमिव सव्वग्गाहि त्ति) यथा जलं सर्व स्वविषयाऽऽपन्नमभ्यन्तरीकरोति तथाऽयमपि सर्वं गृह्णातीति भावः। तथा उत्कञ्चनवञ्चनमायानिकृतिकूटकपटैः सह योऽतिसंप्रयोगो गाय, तेन बहुलः प्रचुरो यः स तथा, तत्र ऊर्द्ध कञ्चनं मूल्याऽऽद्यारोपणार्थमुत्कञ्चनं, हीनगुणस्य गुणोत्कर्षप्रतिपादनमित्यर्थः / वञ्चनं प्रतारणं, माया परवञ्चनबुद्धिः। निकृतिकवृत्त्या गलकर्तकानामिवावस्थानं, कूट कार्षापणतुलाऽऽदेः परवञ्चनार्थ न्यूनाधिककरण, कपट नेपथ्यभाषाविपर्ययकरणम्, अथवा-एभिरुतकचनाऽऽदिभिस्सहातिशयेन यः संप्रयोगस्तेन यो बहुलः स तथा / यदि वा-सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकाऽऽदिना परस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिशयसंप्रयोगः। ततश्चोत्कञ्चनाऽऽदिभिः सातिशयसंप्रयोगेण च यो बहुलः स तथा। उक्त च-"सो होइसाइजोगो, दव्वंजंछुहिय अन्नदव्येसु / दोसगुणा वयणेसु य, अत्थविसंवायणं कुणइ / / 1 / / '' इति एकीय व्याख्यानम्। व्याख्यानान्तरं पुनरेवम्-उत्कञ्चनमुत्कोचा, निकृतिर्वचनप्रच्छादनार्थ कर्म, सातिविसम्भएततसंप्रयोगबहुलः, शेषं तथैव, चिरं बहुकालं यावद नगरे नगरस्य वा विनष्टो विप्लुतः चिरनगरविनष्ट : बहुकालीनो यो नगरविनष्टो भवति स किलात्यन्तं धूर्ती भवतीत्येवं
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________________ धण 2652 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण विशेषितः, तथा दुष्ट शीलं स्वभाव आकार आकृतिश्चरित्रं वाऽनुष्टानं यस्य स तथा। ततः कर्मधारयः / द्यूतप्रसङ्गी द्यूताऽऽसक्तः। एवमितराणि, नवर भोज्यानिखण्डखाद्याऽऽदीनि, पुनरुणग्रहणं हृदयदारक इत्यस्य / विशेषणार्थत्वात् न पुनरुक्तम्।लोकानां हृदयानि दारयति स्फोटयतीति हृदयदारकः / पाठान्तरेण -(जणहियाकारए) जनहितस्याकर्तेत्यर्थः / साहसिको वितर्कितकारी, संघिच्छेदकः क्षेत्रखानकः, औपधिको मायित्वेन प्रच्छन्नचारी, विस्रम्सघाती विश्वासघातकः, आदीपकोऽनिदाता, तीर्थानि तीर्थभूतदेवद्रोण्यादीनि, भिनत्ति द्विधाकरोति, तद्रव्यमोषणाय तत्परिकरभेदनेनेति तीर्थभेदः / लघुभ्यां क्रियासु दक्षाभ्या हस्ताभ्यां संप्रयुक्तो यः स तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः / परस्य द्रव्यहरणे नित्यमनुबद्धः, प्रतिबद्ध इत्यर्थः / तीव्रवैर अनुबद्धविरोधः, अतिगमनानि प्रवेशमार्गान्, निर्गमनानि निस्सरणभार्गान्, द्वाराणि प्रतोल्यः, अपद्वाराणि द्वारिकाः, "छिण्डी' छिण्डिका वृतिछिद्ररूपाः, "खण्डी' प्राकारच्छिद्ररूपाः, नगरनिर्द्धननानि नगरजलनिर्गमक्षालनान् संवर्तनानि मार्गमिलनस्थानानि,निवर्तनानि मार्गनिवर्त्तनस्था नानि, द्यूतखलानि चूतस्थण्डिलानि, पानागाराणि मद्यगेहानि, वेश्यागाराणि वेश्याभवनानि, तस्करस्थानानि शून्यदेवकुलागाराऽऽदीनि, तस्करगृहाणि तस्करनिवासान् शृङ्गाटकाऽऽदीनि प्राग व्याख्यातानि सभाजनोपवेशनस्थानानि, प्रपा जलदानस्थानानि, लिङ्ग व्यत्ययश्च प्राकृतत्वात्। पणितशालाहट्टान् शून्यगृहाणि प्रतीतानि, आभोगयन् पश्यन् मार्गयन् अन्वयधर्मपर्यालोचनतः गवेषयन् व्यतिरेकधर्मपर्यालोचनतः, बहुजनस्य छिद्रेषु प्रविरलपरिचारत्वाऽऽदिषु चौरप्रवेशावकाशेषु विषमेषु तीव्ररोगाऽऽदिजनितातुरत्वेषु, विधुरेषु इष्टजनवियोगेषु व्यसनेषुराजाऽऽद्युपप्लवेषु, तथाऽभ्युदयेषु राजलक्ष्म्यादिलाभेषु, उत्सवेषु इन्द्रोत्सवाऽऽदिषु, प्रसवेषु पुत्राऽऽदिजन्मसु, तिथिषु मदनत्रयोदश्यादिषु, क्षणेषु बहुलोकजनदानाऽऽदिरूपेषु, यज्ञेषु नागाऽऽदिपूजासु, पर्वणीषु कौमुदीप्रभृतिषु अधिकरणभूतासु मत्तः पीतमद्यतया, प्रमत्तश्च प्रमादवान् यः स तथा, तस्य बहुजनस्येति योगः। व्याक्षिप्तस्य च प्रयोजनान्तरोपयुक्तस्य, व्याकुलस्य च नानाविधकार्याक्षेपेण सुखितस्य दुःखितस्य च, विदेशस्थस्य च देशान्तरस्थस्य, विप्रोषितस्य च देशान्तरं गन्तुंप्रवृत्तस्य, मार्ग चपन्थान छिद्रं च अपद्वार, विरहं च विजनम्, अन्तरं चावसर-मिति। आरामादिपदानि प्राग्वत् / (सुसाणेसु य ति) श्मशानेषु, गिरिकन्दरेषु गिरिरन्ध्रेषु, लयनेषु गिरिवर्तिपाषाणगृहेषु, उपस्थानेषु तथाविध-मण्डपेषु, बहुजनस्य छिद्रेष्वित्यादि पुनरावर्तनीयम् / (जाव एवं च णं विहरइ ति) (कुटुंबजागरियं जागरमाणीए ति) कुटुम्बचिन्तायां जागरणं निद्राक्षयः कुटुम्बजागरिका, द्वितीयायास्तृतीयार्थत्वात् / तया जाग्रत्या विशुद्धमानया, अथवा कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्याः कुर्वन्त्याः (पयायामि त्ति) प्रजनयामि। "तासिं मन्ने।" इत्यत्र तासां सुलब्धजन्मजीवित-फलम्, अहं मन्ये वितर्कयामि यासा निजककुक्षिसम्भूतानीत्येवम-क्षरघटना कार्या; निजककुक्षिसंभूतानि डिम्भरूपाणि इति गम्यते / स्तनदुग्धलुब्धकानि मधुरसमुल्लापकामि मन्मनं स्खलत्प्रजल्पितं येषां तानि तथा / स्तनमूलात्कक्षादेशभागमभिसरन्ति संचरन्ति, स्तनज पिबन्ति | ततश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गनिये-शितानि ददति समुल्लापकान् समधुरान, (एतो एगमविन पत्त त्ति) इतः पूर्वमेकमपि डिम्भक न प्राप्ताः / अथवा इत उक्तलक्षणात् डिम्भकविशेषणकलापादेकमपि विशेषणं न प्राप्ता। ''बहिया नागधराणि वा'' इत्यादि प्रतीतम्। (जाणुपायवडिय त्ति) जानुभ्यां पादपतिता जानुपादपतिता, जानुनी भुवि विन्यस्य प्रणति गतेत्यर्थः / “जाय च'' इत्यादि / योगं पूजां दायं पर्व दिवसाऽऽदौ दानं भाग लाभांशम् / अक्षयनिधिमव्ययं भाण्डागारम्, अक्षयनीवी वा मूलधनं, येन जीणीभूतस्य देवकुलस्योद्धारः करिष्यते / अक्षीणकां वा प्रतीतां बर्द्धयामि, पूर्वकाले अल्पं सन्तं महान्तं करोमीति भावः। (उवायइयं ति) उपयाच्यते मृग्यते स्म यत्तत उपयाचितमीप्सित वस्तु याचितुं प्रार्थयितुम् / (उल्लपडसाडिय त्ति) स्नानेनाद्रपटशाटिके उत्तरीयपरिधानवस्त्रे यस्याः सा तथा / (आलोए त्ति ) दर्शने नागाऽऽदिप्रतिमानां प्रणामं करोति / ततः प्रत्युन्नमति, लोमहस्तकं प्रमा निकां परामशति गृह्णाति , ततस्तेन ताः प्रमाजयति। (अब्भुक्खेइ त्ति) अभिषिञ्चति वस्त्राऽरोपणाऽऽदीनि प्रतीतानि। “चाउद्दसी' इत्यादौ "उद्दिट्ठत्ति" अमावास्या. (आपन्नसत्त त्ति) आपन्न उत्पन्नः सत्त्वो जीवो गर्भ यस्याः सा तथा। डिम्भदारकुमारकाणामल्पबहुबहुतरकालकृतो विशेषः।मूञ्छितो मूढो, गतविवेकचैतन्य इत्यर्थः / ग्रथितो लोभतन्तुभिःसन्दर्भितः, गृद्ध आकाक्षावान्, अध्युपपन्नः --अधिकं तदेकाग्रतां गत इति।शीघ्राऽऽदीनि एकार्थिकानि शीघ्रतातिशयख्यापनार्थानि / निःप्राणमुच्छासाऽऽदिरहितं, निश्चेष्ट व्यापाररहितं (जीवविप्पजढं ति) आत्मना विप्रमुक्तो निश्चलो गमनागमनाऽऽदिवर्जितः, निष्पदो हस्ताऽऽद्यवयवचलनरहितः, तूष्णीको वचनरहितः, क्षेपयन् प्रेरयन, श्रुति वार्तामात्रं, क्षुति तस्यैव संबन्धिनं शब्द, तचिह्न वा, प्रवृत्तिं व्यक्त्यन्तरवार्ता नीतो मित्राऽऽदिना स्वगृहे अपहृतश्चौरेण आक्षिप्त उपलोभिताः। (परसुनियत्तेवत्ति) परशुना कुठारेण निकृत्तः छिन्नो यः स तथा तद्वत्। (नगरगुत्तिय त्ति) नगरस्य गुप्तिं रक्षां कुर्वन्तीति नगरगुप्तिका आरक्षिकाः। (संनद्धबद्धवम्मियक्वय त्ति) सनद्धाः संहननाभिः कृतसन्नाहाः,बद्धाः कशाबन्धनेन वम्मिताश्च अङ्गरक्षीकृताः शरीरारोपणेन कवचाः कङ्कटा यैस्ते तथा / ततः कर्मधारयः / अथवा-धर्मितशब्दः क्वचिन्नधीयत एव / (उप्पी-लियसरा-सणपट्टिया) उत्पीडिता आक्रान्ता गुणेन शराऽऽसनं धनुस्तलक्षणा पट्टिका यैस्ते तथा। अथवा-उत्पीडिता बद्धा शरासनपट्टिका बाहुपट्टको यैस्ते तथा / दृश्यते च धनुर्द्धराणां बाही चर्मपट्टबन्ध इति / इह स्थाने यावत्करणादिदं दृश्यम्- "पिणद्धगेवेजबद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टा'' पिनद्धानि परिहितानि गैवेयकाणि ग्रीवारक्षाणि यैस्ते तथा / बद्धो गाढीकरणेन आविद्धः परिहितो मस्तके विमलो वरश्चितपट्टो यैस्ते तथा / ततः कर्मधारयः / ''गहियाउहपहरणा / "गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय प्रहारदानाय यैस्ते तथा / अथवाऽऽयुधप्रहरणयोः क्षेप्याक्षेप्यकृतो विशेषः / (ससक्खं ति) ससाक्षि साक्षिणोऽध्यक्षान् विधायेत्यर्थः। (सहोद ति) समोषम्, (सीवेज ति) सह गैवेयकेन ग्रीवाबन्धनेन यथा भवति तथा गृह्णन्तिा (जीवग्गाहं गिण्हति त्ति) जीवतीति जीवस्तं जीवं जीवन्तं गृह्णन्ति अस्थिमुष्टिजानुकूपरस्तेषु वा ये प्रहारास्तैः संभग्नं मथितं मोटितं जर्जरिति गात्रं शरीरं यस्य स तथा, तं कुर्वन्ति। (अवउमगबंधणं ति) अवकोटनेनावमोटनेन काटिकाया बाह्रोच
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________________ धण 2653 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणंजय पश्चादागे नयनेन बन्धनं यस्य स तथा तं कुर्वन्ति / (कसप्पहारे यत्ति) वधतामनानि, (छिव त्ति) श्लक्ष्णः कशः लता कम्बा, बालघातकः प्रहारदानेन बालमारकः प्राणवियोजनेन, (रायमचे त्ति) राजामात्यः (अवरज्झइ त्ति) अपराध्यति अनर्थ करोति, (नण्णत्थ ति) न त्वन्यवेत्यर्थः / वाचनान्तरे त्विदं नाधीयत एव, स्वकानि निरुपचरितानि नोपचारेणाऽऽत्मनः संबन्धीनि, (लहुस्सगंसि त्ति) लघुः स्व आत्मा स्वरूप यस्य स लघुस्वकः अल्पस्वरूपः, राज्ञि विषये अपराधो राजापराधस्तत्र संप्रज्ञप्तः प्रतिपादितः, पिशुनैरिति गम्यते / (भोयणपिडयं ति) भोजनस्थाल्याधारभूतं वंशमय भाजनं पिटकं, तत्करोति सजीकरोतीत्यर्थः / पाठान्तरेण- (भरेइ त्ति) पूरयति / पाठान्तरेणभोजनपिटकैः करोति-अशनाऽऽदीनिलाञ्छितं रेखाऽऽदिदानतो मुद्रितं कृतमृदादिमुद्रम्, (उल्लंछेइ त्ति) विगतलाञ्छनं करोति (परिवेसयति) भोजयति (अवियाई ति) अपिः संभावने। (आई ति) भाषायाम् / अरेः शत्रोर्वेरिणः सानुबन्धशत्रुभावस्य, प्रत्यनीकस्य प्रतिकूलवृत्तेः, प्रत्यमित्रस्य वस्तु वस्तु प्रति अमित्रस्य, (धणस्स त्ति) कर्मणि षष्ठी, उच्चारप्रस्रवणं कर्तृ, णमि-त्वलङ्कारे। (डव्वाहित्थ त्ति) उद्वाधवति स्म (एहि तावेत्यादि) एहि आगच्छ तावदिति भाषामात्रे / हे विजय ! एकान्तं विजनयपक्रमामो यामः (जेणं ति) येनाहमुच्चाराऽऽदि परिष्ठापयामीति / (छुदेणं ति) अभिप्रायेण, यथारुचीत्यर्थः / (अलंकारियसह ति) यस्यां नापिताऽऽदिभिः शरीरसत्कारो विधीयते, अलंकारिककर्म नखखण्डनाऽऽदि, दासा गृहदासीपुत्राः, प्रेष्वा ये तथाविधप्रयोजनेषु नगरान्तराऽऽदिषु प्रेष्यन्ते भृतका ये आवालत्यात्पोषिताः / (भाइल्लग त्ति) ये भाग लाभस्यलभन्ते, ते क्षेमकुशलमनामुद्भवानर्थप्रतिघातरूपं, कण्ठे च गृहीत्वा कण्ठाकण्ठि। यद्यपि व्याकरणे युद्धविषय एवैवंविधोऽव्ययीजाप इष्यते, तथापि योगविभागाऽऽदिभिरेतस्य साधुशब्दता दृश्येति। (अवयासिय त्ति) आलिङ्गय, वाष्यप्रमोक्षणमानन्दाश्रुजलप्रमोचनम्। (नायएचेत्यादि) नायकः प्रभुः, न्यायदो वा न्यायदर्शी, ज्ञातको या स्वजनपुत्रकः / इतिरूपप्रदर्शने, वा विकल्पे। (घाडियएत्ति) सहचारी, सहायः साहाय्यकारी, सुहृन्मित्रम्, (बंधेहि य त्ति) बन्धो रज्ज्वादिबन्धन, वधो यष्ट्यादिताडनं, कशप्रहाराऽऽदयस्तु तद्विशेषाः (काले कालोभास इत्यादि) कालः कृष्णवर्णः काल एवावभासते द्रष्टणा, कालो वा अवभासो दीप्तिर्यस्य स कालावभासः। इह यावत्करणादिदं दृश्यम्- "गंभीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्ह वण्णेणं, से णं तत्थ निचं भीए निचं तत्थे निच तसिए निच परमसुहसंबद्ध नरग त्ति।" तत्रगम्भीरी महानोमहर्षी भयसभूतो रोमाची यस्य यतो वा सकाशात् स तथा / किमित्येयमित्याह- भीमो भीष्म अत एवोत्त्रास-कारित्वादुत्त्रासनकः। एतदपि कुत इत्याह-परमकृष्णो वर्णेनेति, परां प्रकृष्टां अशुभसंबद्धां पापकर्मणोपनिताम, (अगाइयमित्यादि) अनादिकम्। (अणवदग्गं त्ति)अनन्तम् (दीहमद्धं ति) दीर्घाद्धं दीर्घकालं, दीर्धाध्वं वा दीर्घमार्गम्, चातुरन्तं चतुर्विभागं संसार एव कान्तारमरण्यं संसारकान्तारमिति / अतोऽधिकृतं ज्ञानं ज्ञापनीये योजयन्नाह-(एवामेवेत्यादि) एवमेव विजयचौरवदेव, (सारेणं ति) सारे, णमित्यलद्वारे करणे तृतीया वेयम् / लुभ्यति लोभीभवति / (से वि एवं चेव त्ति) सोऽपि प्रव्रजितो विजयवदेववन्नरकादिकमुक्तरूपं प्राप्नोति। "जहाण " इत्यादिनाऽपि ज्ञातमेव विज्ञापनीये नियोजितम् (नण्णत्थ सरीरसारक्खणट्टाए त्ति) न शरीररक्षणार्थादन्यत्र तदर्थमेवेत्यर्थः / (जहा से धणे त्ति) दृष्टान्तनिमगनम् / इह पुनर्विशेषयोजनामिमामभिदधति बहुश्रुताः। इह राजगृहनगरस्थानीय मनुष्यक्षेत्रं, धनसार्थवाहस्थानीयः साधुजीवः, विजयचौरस्थानीयं शरीरं, पुत्रस्थानीयो निरुपमनिरन्तराऽऽनन्दनिबन्धनत्वेन संयमो भवति। असत्प्रवृत्तिकशरीरात्संयमविघातः। आभरणस्थानीयाः शब्दाऽऽदिविषयाः, तदर्थप्रवृत्तं हि शरीरं संयमविघाते प्रवर्तत, हडिबन्धनस्थानीयं जीवशरीरयोरविभागेनावस्थानं, राजस्थानीयः कर्मपरिणामः राजपुरुषस्थानीयाः कर्मभेदाः, लघुस्वकासराधस्थानीयाः मनुष्याऽऽयुष्कबन्धहेतवः मूत्राऽदिमलपरिष्ठापनस्थानीषाः प्रत्युपेक्षणाऽऽदयो व्यापाराः, यतो भक्ताऽऽदिदानाभावे यथाऽसौ विजयः प्रश्रवणाऽऽदिव्युत्सर्जनाय न प्रवृत्तवान्, एवं शरीरमपि निरशनं प्रत्युपेक्षणाऽऽदिषु न प्रवर्त्तते / पान्थस्थानीयो मुग्धसाधुः, सार्थवाहस्थानीया आचार्याः, ते हि विवक्षितसाधुं भक्ताऽऽदिभिः शरीरमुपष्टम्भयन्तं साध्वन्तरादुपश्रुत्योपालम्भयन्ति विवक्षितसाधुनैव निवेदिते वेदनावैयावृत्यादिके भोजनकारणे परितुष्यन्ति वेति। पठ्यतेच "सिवसाहणेसु आहा-रविरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हाधणो देव विजयं, साहू तं तेण पोसेज्जा // 1 // " एवं खल्वित्यादि निगमनम्, इतिशब्दः समाप्तौ / ब्रवीमीति पूर्ववदेवेति / ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। कौशाम्बीनगरस्थेस्वनामख्याते सार्थवाहे, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। (तत्कथा आतट्ट शब्दे द्वितीयभागे 157 पृष्ठे दृश्या) चम्पानगरीवास्तव्ये सार्थवाहे, ''चंपाए परममाहेसरो धणो णाम सत्थवाहो / "आ०म०१ अ०२ खण्ड / आ०चू० / (तद्वक्तव्यता 'चक्खिदिय' शब्दे तृतीयभागे 1105 पृष्ठे द्रष्टव्या) चम्पानगरीवास्तव्येऽहिच्छत्रासंप्रस्थिते स्वनामख्याते सार्थवाहे, ज्ञा०१ श्रु० 15 अ०। (तत्कथा'णदिफल'' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1753 पृष्ठे द्रष्टव्या) वसन्तपुरस्थे स्वनामख्याते सार्थवाहे, आ०म० अ०२ खण्ड। पाटलिपुत्रनगरस्थे स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, तस्यदुहिता भगवतो महावीरस्य सकाशे प्रव्रजिता / आ०चू०१अ०। अपरविदेहस्थक्षितिप्रतिष्ठितनगरस्थे स्वनामख्याते सार्थवाहे, स च त्रयोदशे भये ऋषभनामा तीर्थकर आसीत् / आ०म० 1 अ०१ खण्ड। आ०चू०। कस्मिंश्चित् सन्निवेशे स्थिते ग्रामाधिपतिसुते धनवतीपतौ स्वनामख्याते सार्थवाहे, पुं०। स च तीर्थकरनामकर्मोदयादरिष्टनेमिस्तीर्थंकरोऽभूत्। उत्त०२२ अ०) धणंजय-पं०(धनञ्जय) धनंजयति जि-स्वच् मुम् च / अर्जुने, वहीं, नागभेदे, पोषणकरे देहव्यापिवायौ, ककुभवृक्षे, चित्रकवृक्षे च / वाचा अपरविदेहस्थमूकाराजधानीभवे स्वनामख्याते नृपे, यस्य पुत्रः प्रियमित्रो विंशतिभिस्तीर्थकरत्वकारणैस्तीर्थक रत्वमवाप / आ०म०१ अ०१ खण्ड / आ० का आ०चूला कल्प०। सौर्यपुरनगरस्थे स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, आव०४ अ० आ००। आ०चू०। (तत्कथा शौचेन योगसंग्रहावसरे 'सुइ' शब्दे दृश्या) पक्षस्य पञ्चदशसु दिवसेषु नवमे दिवसे, ज्यो०४ पाहु० ज०) कल्प०। स्वनामख्याते
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________________ धणंजय 2654 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणमित्त गोत्रे च / "उत्तरापोट्टपदा णक्खत्ते किं गोते पण्णते? धणंजयसगोते आ०का द्वारवतीवास्तव्ये कमलामेलायाः पत्यौ उग्रसेनस्य नप्तरि, पण्णत्ते / " सू०प्र० 10 पाहु०। जंग। धनञ्जयमालाद्विसन्धानमहा- आ०म० अ०१ खण्ड / आ०चूला काम्पिल्यपुरस्थे स्वनामख्याते काव्याऽऽदिकृति जैनकवौ, अयं कविः विक्रमसंवत् 884 मिते विद्यमान वणिजि,उत्त०१३ अ०। (तद्वक्तव्यता 'बभदत्त' शब्दे)कौशाम्बीनगरस्थे आसीत्। जै०इ०। स्वनामख्याते वणिजि, ध०र०। (तद्वक्तव्यता बंभसेण' शब्दे) राजगृहधणकंता-स्त्री०(धनकान्ता) कलिङ्गदेशस्थकाञ्चनपुरनगरस्थधन- नगरस्थधनसार्थवाहस्य स्वनामख्याते पुत्रे,ज्ञा० 1 श्रु०७ अ०॥ वहश्रेष्ठिपत्न्याम्, दर्श०१ तत्त्व। धणधण्णदट्वजाय-न०(धनधान्यद्रव्यजात) धनधान्यरूप्यकारे, धणक्खय-पुं०(धनक्षय) धनहानौ, व्य०३ उ०। धनक्षय इति वा / जी० "निक्खित्ताणियहरंतिधणधण्णदव्वजायाणि।" प्रश्न०३आश्र० द्वार। 3 प्रति०४ उ० धणधण्णपमाणाइक्कम-पु०(धनधान्यप्रमाणातिक्रम) धनधान्ययोः घणगिरि-पुं०(धनगिरि) अवन्तीजनपदस्य तुम्बवनसन्निवेशे स्थिते प्रमाणस्य बन्धनतोऽतिक्रमोऽतीचारः धनधान्यप्रमाणातिक्रमः। ध०२०। स्वनामख्याते इभ्यपुत्रे, आ०म० 1 अ०२ खण्ड। कल्प०ा आ०का इच्छापरिमाणस्य पञ्चमाणुव्रतास्यातिचारभेदे, धनधान्यस्य प्रमाण(तद्वक्तव्यता अजवइर' शब्दे प्रथमभागे 216 पृष्ठे गता) आर्यसिंह- प्राप्तस्याऽधमर्णाऽऽदिभ्योऽधिकलाभेसमुपस्थिते यावन्नातनं विक्रीणीते गिरिस्थविरस्य शिष्ये स्वनामख्याते स्थविरे, (कल्प०)आर्य्यफल्गु- तावद् गृह एव तत्स्थापयतः सत्यकारेण वा स्वीकुर्वतः स्थूलमूढकामित्रस्य शिष्ये स्वनामख्याते वसिष्ठसगोत्रे स्थविरे च / 'थेरस्स णं ऽऽदिबन्धनेन वा धनधान्यतिक्रमरूपः प्रथमोऽतिचार इति / ध०२ अज्जफरगुमित्तस्स गोयमसगुत्तस्स अज्जधणगिरी थेरे अंतेवासी अधि० ध०र० आव०। उपा०) वासिवसगोत्ते।" (कल्प०)"धणगिरिं च वासिट्ठ।" कल्प० २अधि० धणधण्णसंचय-पुं०(धनधान्यसंचय) धनं हिरण्याऽऽदि, धान्य 8 क्षण। शाल्यादि,तयोः संचयो राशिर्धनधान्यसंचयः। धनधान्ययो राशी, धणगुत्त-पुं०(धनगुप्त) कस्मॅश्चिम्नगरे स्थिते स्वनामख्याते आचार्य, उत्त०६अ० आ०चू०४ अ०। (तद्वक्तव्यला ‘पच्छित्त' शब्दे वक्ष्यते) 'आचार्या धणपाल-पुं०(धनपाल) राजगृहनगरस्थधनसार्थवाहसुते रवनामधनगुप्ताख्याः , एकत्र नगरेऽभवन् / ' (1) आ०क० / उल्लुकातीर- ख्याते सार्थवाहे, ज्ञा०१ श्रु०७ अ० कौशाम्बीनगररथे स्वनामख्याते नगरस्थे आचार्यमहागिरिशिष्ये वैक्रियपश्चमनिवधर्माचार्यस्य नृपे, "कोसंबी णयरी, धणपालो राया, येसमणभद्दे अणगारे पडिलाभिए गङ्गाचार्य्यस्य स्वनामख्याते गुरौ, आ०म०१ अ०२ खण्ड। विशेगास्था०। इहं०जाव सिद्धे।" विपा० २श्रु०४अ०। अवन्तीजनपदस्थतुम्बवनसन्निधणगोव-पुं०(धनगोप) राजगृहनगरस्थधनसार्थवाहस्यपुत्रे, ज्ञा०१ श्रु० वेशस्थे स्वनामख्याते इभ्ये च। आ०म०१अ० २खण्ड। सर्वदेवब्राह्मणपुत्रे ७अ० चन्द्रगच्छीयमहेन्द्र-सूरिशिष्येण शोभनाचार्येण प्रतिबोधिते श्रावके, अयं धणणंदि (दी)-पुंगा स्त्री(धननन्दि (न्दी) द्विगुणे देवद्रव्ये, "देवदव्वं च धनपालो भोजराजसमकलिको महाकविरासीत् / जै०इ०। दुगुणं धणणंदी भण्णइ।" दर्श०१ तत्त्व। धणप्पभा-स्त्री०(धनप्रभा) कुण्डलवरद्वीपस्थवैश्रमणप्रभनगरस्योत्तरधणणिहि-पुं०(धननिधि) कोशे, तदात्मके लौकिके निधिभेदे च / पार्श्ववर्तिन्या राजधान्याम्, "धणप्पभा उत्तरे पासे।" दी। स्था०५ ठा०३ उ०। घणवद्धण-पुं०(धनवर्द्धन) धनवृद्धिकारके, स्था० 10 ठा०॥ घणतोसग-त्रि०(धनतोषक) धनेन तुष्यतीति धनतोषकः / चौरा- धणमण-त्रि०(धनवत्) "आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणा ऽऽदिके, "धणतोसगा गहिया य जे नरगणा।" प्रश्न०३ आश्र० द्वार। मतोः" ||8||156 / / इति प्राकृतसूत्रेण मतोरेते आदेशाः। प्रा०२ पाद ! धणत्थि(ण)-त्रि०(धनार्थिन) धनाभिलाषिणि, "तो पडिभणेइ सेट्टी, धनिनि, व्या धणत्थिणो जइ तुमे तहा वि इमं / " ध०र०। अधुना धनवतां स्वरूपमाहधणदत्त-पु०(धनदत्त) राजगृहनगरस्थे धनापरनामधेये स्वनाम-ख्याते कोडिग्गसो हिरण्णं, मणिमुत्तसिलप्पवालरयणाई। सार्थवाहे, नं०। आ०क०ा आ०म०। आ०चू०। (तत्कथा 'चिलाईपुत्त' अज्जयपिउपज्जागय,एरिसया होति धणमंता॥३३०|| शब्दे तृतीयभागे 1188 पृष्ठे गता) वसन्तपुरस्थे तिलक श्रेष्ठिपुत्रे येषामार्या पिता पिता प्रतीतः,पर्यायः प्रपितामहः, तेभ्य आगतं स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, पिं० (तत्कथा 'परावट्टिए' शब्दे वक्ष्यते) कोट्यग्रशः कोटिसंख्यया हिरण्यं मणिमुक्ताशिलाप्रवालरत्नानि च, विस्तीर्णग्रामस्थे स्वनामख्याते कुटुम्बिनि च / पिं०। मणयश्चन्द्रकान्ताऽऽद्याः, मुक्ताफलानि विद्रुमाणि, रत्नानि कर्केतनाधणदेव-पुं०(धनदेव) मण्डिकगणधरस्य पितरि,आ०म०१ अ०२ ऽऽदीनि, ते ईदृशा भवन्ति धनवन्तः। व्य० १उ०३ प्रकला खण्ड / आ०चू० / अस्थिकग्रामापरनामधेर्य वर्द्धमानकनगरस्थे स्वनाम- घणमंत-त्रि०(धनवत्) 'धणमण' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद। ख्याते वणिजि, आ०चू० 1 अ०। आ०म०। कल्पा स्था०। (तद्वक्तव्यता घणमित्त-पुं०(धनमित्र) विनयपुरस्थे वसुश्रेष्ठिसुते स्वनामय्याते श्रेष्ठिनि, 'वीर' शब्दे) "धनदेवो वणिक् तत्राऽऽयातः प्रेक्ष्य महानदीम्।' (13) | ध०र०
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________________ धणमित्त 2655 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणमित्त धनभित्रचरित्रं पुनरेवम"गुरुसत्तगणसमेयं, गाहाइमदलमिवऽस्थि विणयपुरं। तत्थाऽऽसि वसु सिट्ठी, भद्दा नामेण से भज्जा / / 1 / / ताण सुओ धणमित्तो, बालस्स वि तस्स उवरया पियरो। पुन्ने घणे पणट्टे, नट्टो विहयो नइरवुव्व / / 2 / / परिवडिओ दुहेणं, सो कमसो परियणेण वि विमुक्को। परिणयणत्थं अधणु-त्ति को विनय देइसे कन्नं / / 3 / / तो लजिंतो नयराउ णिग्गओ दविणअञ्जणसयण्हे। पिच्छइ कत्थ वि मग्गे, पारोह किंसुयतरुम्मि।।४।। तो सरइ खत्तवार्य, सो सुयपुव्वं जहा अखीरदुडे। जइ दीसइ पारोहो, ता तस्स अहे धणं मुणसु / / 5 / / विल्लपलासेसु धुवं, पारोहे थूलए बहुदव्यं। तणुए थोवं तह निसि, जलरे बहु थोवमियरम्मि।।६।। विद्धे पुण पारोहे,रत्तरसे निग्गयम्मि रयणाई। सेए रययं पीए, कणगं न हुनीरसे कि पि॥७|| जत्तियमिते देसे, पारोहो उच्चओ भवे उवरि। तत्तियभित्ते देसे, अहे विनिहियं धणं मुणसु / / 8|| तणुए उवरि परोहे, हिट्ठा पिहुले धुवं धणं मुणसु। विवरीए तयभावो, इय निच्छेऊण धणमित्तो 6* "नमो धनदाय नमो धरणेन्द्राय नमो धनपालाय'' इति मन्त्रं पञ्च खनति स्म तं प्रदेशम्। किंतु अपुन्नवसेणं, केवलअंगारपूरियं नियइ। तं बमयकलसजुयलं, तओ हमो चिंतइ विसन्नो।।१०।। पारोहपीयरसदसणेण कणयम्मि निच्छिए विधुवं / इंगाल चिय पिच्छेसि केवलेही विगयपुन्नो॥११॥ दविणस्थिणा नरेणं,नहु कायव्यो तहा वि निव्वेओ। जसव्वत्थ वि गिज्झइ, सिरीइ मूलं अनिव्वेओ।।१२।। इय चिंतिय पुरओ विहु, बहुभुभागे खणेइ दविणकए। नय पावइ काणवराडियं पिकत्थइ अपन्नवसा / / 13 / / सिक्खेइधाउवायं, मुत्तु किलेस लहेइ नहु अन्न। होउ वणिओ तो चडइ, पवहणे भज्जइ तयं तो।।१४।। अह थलमग्गवणिज्जं, करेइ अज्जेइ कहंवि किं पि धणं / तं पिनरेसरतकर-पमुहेहि धिप्पए तस्स // 15 // तो सव्यपयत्तेणं, ओलग्गं कुणइ निवइपभिईणं। तह वि तदपुन्नवसओ, न ते वि किं पिहुपसीयंति|१६|| एवं दुहं सहतो, परिभमिरो महियले कया पि इमो। केवलकलियं गुणसायरं गुयं गयउरे नियइ / / 17 / / संजायकम्मविवरो, बहुबहुमाणेण नमइ गुरुचरणे। तो कहइ मुणिवरो तस्स समुचियं धम्मकहमेवं / / 18 / / धम्मेण धणसमिद्धी, जम्मो धम्मेण उत्तमकलम्मि। धम्मेण दीहमाउं, धम्मेण उदग्गमारगं / / 16 / / सयलचउजलहिवलयम्मि निम्मला भमइ धम्मओ कित्ती। हसियरइरमणरूवं, रूवं धम्माउ इह होइ / / 20 / / ज भुजति सुहाई, मणिरयणपहापहासियदिसेसु / भवणेसु भवणवइणो, तं सव्वं धम्ममाहप्पं // 21 // जं हरिसभरुभंत, निवचक्क चक्किणो नमइ चलणे। तं सुद्धधम्मकप्पट-दमस्स कसमग्गमं मन्ने / / 2 / / सरहससुरसुंदरिकर-चालियचलचारुचामरुप्पीलो। सुरलोए सुरनाहो, हवेइ धम्मप्पभावेण // 23 / / किं बहुणा भणिएणं,-धम्मेण हवंति सयलसिद्धीओ। धम्मेण विमुक्काण उ, जियाण न कया वि फलसिद्धी॥२४॥ तं सोउं धणमित्तो, कयंजली जपए नमिय सूरि। एवमिणं मुणिपुंगव ! जंतुब्भेहिं समाइट्ठ॥२५॥ जम्माउ वि मह दुक्खं, मुणह चिय पहु! तुमे सनाणेण / को होऊ पुण इहयं, तो कहइ गुरू सुणसु भद्द! / / 26 / / इह भरहे विजयपुरम्भि गंगदत्तु त्ति गिहवई आसि / मगहा से दइया सो-उधम्मनाम पिन हमणइ॥२७|| धम्मकरणुज्जुयाणं, अन्नेसिं पि हुकरेइ बहुविग्छ / मज्झरभरिओ कस्स वि, लाभन हुसक्कए दटुं।२८॥ जइ पुण कह पि से पिच्छिरस्स बवहरइ कोइ बहुलाभ। एइ जरो सत्तमुहे हि तस्स इय वासरा जंति॥२६ / / अन्नदिणे करुणाए, सुंदरनामेण सावरण इमो। नीओ मुणीण पासे, कहिओ तेहिं पिइय धम्मो // 30 // उवसमविवेगसवर-सारो जहसत्ति नियमतवपवरो। जिणधम्मो कायव्वो, अतुच्छलच्छीइ कुलभवणं / / 31 / / इय सुणिय किंचि भावेण किं पि दक्खिन्नओ वि गिण्हेइ। सो पइदिणचिइवंदण-करणजुएऽभिग्गहे के वि॥३२।। मुणिणो नमित्तु पत्तो, सगिहम्मि पमायपरवसो धणियं / भंजइ अभिग्गहे के, वि के वि अइयरइ मूढमणो।३३।। इक्क पुण चिइवंदण-अभिग्गह पालए निरइयारं। कालक्कमेण मरिउं, संपइ सो एस तं जाओ॥३४॥ पुवकयदुक्कयवसा, तए इस एरिसं फलं पत्तं। जिणवदंणप्पभावा, जायं निहिदंसणाईयं / / 3 / / इय सोउधणमित्तो, संवेयगओ नमित्तुं मुणिनाहं। बहुदुक्खलक्खदलणं, गिहिधम्म गिण्हए सम्म।।३६।। दिवसनिसिपढमपहरे, मुत्तुं धम्मक्खणं अहं सेसं। सहसाणाभोगेणं, विणा पओसंच यज्जिस्सं // 37 // एवं गिव्हिय घोर, अभिग्गह वंदिउंच गुराचरणे। पुरमझे कस्सइ सा-वगस्स गेहम्मि उत्तरइ।।३८|| सूरुदए भोगेण, उच्चिणिउं मालिणा समं कुसुमे। घरजिणहरजिणपडिमाउ निच्चमच्चेइ भत्तीए॥३६।। वीए पहरे लोयागमाविरोहेण कुणइ ववसायं। संपज्जइ अकिलेसेण तेण खलु भोयणं तस्स / / 4 / / जह जह धम्मम्मि थिरो, हवेइ तह तह पवड्डए विहवो। विच्चेइ बहुंधम्मे, वीसुं गिण्हेइ तो गेहं / / 4 / / एमेण महिड्डियसा-बएण दिन्ना य तस्स नियधूया। अइधम्मिउत्ति काउं, दुन्नि वि चिट्ठति धम्मपरा / / 42 / / पत्तो, कया वि सोगो, उलम्मि गुलतिल्लमाइ विक्किणिउं / तं बेल पुण तं गुमन्नगिह गंतुमुच्चलियं / / 43|| त मेहरो य निहिठविय तंबकलसे तओ गहिउकामो। उज्झावइ इंगाले,तं कणयं नियइ धणमित्तो॥४४|| किमिण उज्झाविज्जइ,इय पुढे तेण मेहरो भणइ। कणग ति कहिय पिउणा, पवंचिया इच्चिरं अम्हे ||45 / / संपइ उज्झावेमो, एए इंगालए निएऊणं। तो सुट्टी सुद्धमणो, भणेइ भो भद्द ! सुवन्नमिणं / / 46 / / जपेइ मेहरो दढ-विमूढ ! किं वाउलो सि मत्तो सि। धत्तूरिओ सि अहवा, सव्वं सुन्नं दरिहस्स॥४७|| जइ कणगमिणं ता मज्झ दाउ मुलतिल्लमाइयं किं पि। गिण्हसु इम तुम चिय, तह चेव करेइ सिट्टी वि॥४८||
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________________ धणमित्त 2656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणमित्त तं खिविउं नियजाणे, सगिहे पत्तो नमित्तु जिणबिंब / जा संभालइता तीस सहसमाणं तयं जाय / / 46 / / तेण धम्मपरेणं, अन्नं पि समज्जियं बहुंदविण। जाओ जणप्पवाओ, उअह अहो धम्ममाहप्पं / / 5 / / इत्तो तत्थेव पुरे, सुमित्तनामा वसेइ महइभो। स्यणाबलिं स विरए, कोडिमुल्लेहि रयणेहिं / / 51 / / केण वि गुरुकजेणं, तस्स वि वत्तट्ठियस्सपासम्मि। एगागी संपत्तो, धणमित्तो तह निसन्नो य॥५२॥ उचियालावं सह तण काउ इब्भो पओयणवसेण। पत्तो गिहमज्झे काउ कज्जमह एइ जा तत्थ / / 53 / / ता रयणाबलिमनिए, वि भणइ जा विरइओ मए मुक्का। सा कत्थ गया रयणाबलि त्ति भो कहसु धणमित्तं ! / / 54 // न तुम ममं च मुत्तुं, को वि इहासी तओ तुमे चेव। सा गहिया अप्पसुतं, मा चिरकालं विलंबेसु॥५५।। तो चिंतइ धणमित्तो, अहह अहो ! कम्मविलसियं निवह। जं अकए वि य दोसे,इय वयणिज्जाइँलभंति॥५६।। इत्तु च्चिय पडिसिद्धं, परगिहगमणं जिणेहि सहाणे। जं परगिहगमणाओ, कलंकमाई जियाण धुवं / / 57 / / ता परगेहे गेहो, अणज्जवयणिज्जयाइ दोसेण। गुरुकज्जे वि कया विहु, एगागी नेव वच्चिस्सं / / 58 / / इय चिंतिय भणइ अहं, इब्भ ! तुमं पिव न किंचि जाणेमि। सो आह न छुट्टिजइ, एरिसवयणेहि धणमित्त ||56 / / काउ ववहारं राउले वितं लेमि तुह सयासाओ। इयरो विपडिभणेई, जुत्तं कुणसुतं इब्भ ! // 6 // तो धणमित्तो चारु त्ति साहिओ निवइणो सुमित्तेणं। न इमं इमम्मि संभवइ कह वि इय चिंतइ निवो वि॥६१।। एस पुण निच्छएणं, कहेइता पुच्छिमो तयं चेव। अह हकारिय पुट्टो, धणमित्तो कहइजह वित्तं // 62 / पभणइ निवो वि विम्हियहियाओ भो इन्भ ! किमिह कायव्वं?। सो आह देव ! इमिणा,गहिया रयणावली नूणं // 63 / / अह जंपइधणमित्तो, देव ! कलंक इमं न हु सहेमि। पभणेह जेण दिव्वेण तेणिमं पत्तियामि॥६४|| भणइ निवो इभ ! तुमं, होसु सिरे जंगहेइ फालमिमो। आमंतितेण भणिए, ठविओ दिवसो तओ रन्ना।।६५|| सगिहेसु दो विपत्ता, अह धणमित्तो विसेसधम्मपरो। चिट्ठइ सुविसुद्धमणो, पत्तो पुण दिव्वदिवसम्मि॥६६॥ काउंसिणाण अट्ठप्पयारपूवाइपूइऊ जिणे। तह काउ काउसगं, सम्महिट्ठीण देवाणं // 67 / / फाले धम्मिज्जमाणे, पुरो निविटे निवम्मि लोए य। बहुपउरजुओ पत्तो, धणमित्तो दिव्वठाणम्मि॥६८|| इन्भो वितत्थ पत्तो, धणमित्तो जाव गिहिही फालं। इब्भस्स उट्टियाओ, पडिया रयणाबली ताव।।६।। तो भणियं नरवइणा, इब्भ ! किमेयं ति सो वि खुद्वमणो। जा देइ उत्तरं न हु, ता पुट्ठो तेण धणमित्तो॥७०) जीइ रयणावलीए, कए विवाओ तुमाण सा किमियं / होइन व त्ति इमो विहु, जपइ सा चेव देव ! इमा॥७१।। परमत्थमित्थ नवर,मुणंति सव्वन्नुणो तओ राया। नियभंडारियहत्थे स-विम्हओ तं समप्पेइ॥७२॥ सम्म संमाणेउं, सुद्ध ति पमुत्तु सिट्ठिधणमित्तं / नियपुरिसाणं अप्पिय, इभं च गओ निवो सगिह।।७३|| अह धणमित्तो नियमित्त-पउरस्रावयगणेण परियरिओ। तित्थुन्नई कुणतो, संपत्तो निययगेहम्मि 74|| इत्तो य तत्थ वत्तो, गुणसायरकेवली तयं नमिउं। धणमित्तो नयरजणो, अपरिजणो नरवई विगओ // 75|| रन्ना गम्भो वितर्हि, आहूओ निसुणिउंच धम्मकह। समए ज वुत्तत, पुट्ठो नाणी कहइ एवं // 76|| इह विजयपुरे नगरे, गेहवई आसि गंगदत्त त्ति। मुडुला मायाबहुला, मगहा नामेण तस्स पिया // 77|| संवोसियाभिहाए, ईसरवणिणो पियाइ वररयणं / पविसिय कहमवि तगिह-मवहरए लक्खमुलं सा / / 78 / / नाड इमा तं मग्गइ, न य कइरी मन्नए वयइ विरसे। तो देइ उवालंभं, वणिभल्ला गंगदत्तस्स // 7 // भज्जानेहषिमोहिय-मणो इमो भणइ गिहमणुस्सेहिं। तुह चेव तं अवहडं, मा अलियं देसुणेआलं / / 8 / / इय सुणिय वणिवदइया, नियवररयणोवलंभतुट्ठा सा। काऊण तावसवयं, उववन्ना वंतरत्तेण ||1|| विहियतहाविहकम्मा, जाया मगहा वि एस इन्भु त्ति। मरिऊण गंगदत्तो, धणमित्तो एस उववन्नो।२।। कुविएण तेण वंतर-सुरेण नियरयणवइयरे तम्मि। इब्भस्स तिन्नि पुत्ता, निहणं गमिया कमेणित्थ / / 83 / / तो रन्ना इब्भमुहे, पलोइए सो भणेह एवं ति। कि तु मरणम्मि तेसिं, हेऊ इम्हि मए नाओ।।४।। पुण भणइ गुरु रयणावली वि, तेणेव अवहडा एसा। पत्तं धणमित्तेणं, आलं किल आलदाणाओ॥८५|| धणमित्तधम्मथिरभावरिजिएहिं सुद्दिडिअमरेहि। तं वंतरडक्कमिउ, रयणावलि मोइया तइया / / 6 / / आह निवो कि अज्ज वि, इमस्स काही सुरो भणइ जाणी। रयणावलीइ सहियं, विहवं हरिही सुमित्तस्स / / 7 / / तो अट्टवसट्टगओ मरिउ इभो भवे बहु भमिही। बंतरसुरजीवो वि हु. बहुहा निज्जाइही वेरं / / 88|| इय सोउसंविग्गो, राया रयणाबलिं सुमित्तस्स। अप्पित्तु ठवित्तु, सुर्य, रज्जे गिण्हेइ चारित्तं // 86 // धणभित्तो वि हु जिट्ठ, पुत्तं ठविऊण नियकुडुबम्मि। गिण्हिय केवलिपासे, दिक्खं कमलो गओ मुक्खं // 60 // ' "इत्यवेत्य धनमित्रवृत्तक, शुद्धवृत्तजनहर्षकारकम्। अन्यगेहगमनं यथा तथा. संत्यजन्तु भविनो हि सत्पथाः॥११॥" इति धनमित्रचरित्रम् ॥ध०२०। दन्तपुननगरस्थे स्वनामख्याते वणिजि, आव०४ अ०। नि०चू० आ०का आ००। (तद्वक्तव्यता ‘णिरवलाव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2111 पृष्ठे द्रष्टय्या) उज्जयिनीनगरस्थे स्वनामख्याते वणिजि, ग० २अधि०। (तद्वक्तव्यता 'आउकाय' शब्दे द्वितीयभागे 24 पृष्ठे गता) (तद्वक्तव्यता 'पिवासापरीसह' शब्देऽपि अस्मिन्नेव भागे द्रष्टव्या) चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते सार्थवाहे, आव०४ अ० आ००। (तद्वक्तव्यता 'संवेग' शब्दे) शत्रुञ्जयशैलस्थशान्तिमरुदेवयोश्चैत्यस्योद्धरकारके श्रावके, ती०१ कल्प। अवसर्पिण्यां जायमानस्य स्वयंभुवासुदेवस्य पूर्वभव
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________________ धणमित्त 2657 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणिट्ठा नामधेये, तिला सका व्यक्तगणधरस्य स्वनामख्याते पितरिच। आ०म०१ नस्थे स्वनामख्याते नृपे, विपा०२ श्रु०२ अ०। (तत्कथा विपाकश्रुतस्य अ०२खण्ड। द्वितीये श्रुतस्कन्धे द्वितीयाध्ययने 'भद्दणंदि' शब्दे वक्ष्यते) धणरक्खिय-पुं०(धनरक्षित) राजगृहनगरस्थस्य धनसार्थवाहस्य पुत्रे. | धणविजय-पुं०(धनविजय) लोकनालिकासूत्रभाषावृत्तिकृति आचार्ये, ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। अयं विक्रमसंवत् 1141 मिते विद्यमान आसीत्। जै००। धणराइ-स्त्री०(धनराजि) सिन्धुदत्तसुतायां काम्पिल्यपुरस्थस्य | धणसमिद्ध-त्रि०(धनसमृद्ध) धनेन समृद्धे, 'धणसमिद्धे सत्थवाहब्रह्मदत्तस्यान्तःपुरप्रधानायां महिष्याम, उत्त०१३ अ01 कुलजाओ।" आव०४ अ०। प्रश्नका धणवइ-पुं०(धनपति) ६त०। कुबेरे, वाच० द्वारावतीवर्णनमधिकृत्य- / धणसम्म(ण)-पुं०(धनशमन्) उज्जयिनीनगरस्थे धनभित्रवणिक्-सुते "धणवइमइणिम्मिया 1" धनपतिर्वैश्रवण इति / ज्ञा० 1 श्रु०४ अ०। स्वनामख्याते वणिजि, ग०२ अधि० उत्ता जयपुरनगरस्थे धनावहश्रेष्ठिनो भ्रातरि,दर्श० 4 तत्त्व। वसन्त-पुरनग- धणसिरी-स्त्री०(धनश्री) जयपुरनगरस्थयोधनपतिधनावह-श्रेष्ठिनोः रस्थेधनावहश्रेष्ठिनो भ्रातरि, आ०म०१ अ०२खण्ड। काञ्चीनगरनिवा- स्वनामख्यातायां भगिन्याम्, दर्श०४ तत्त्व / वसन्तपुरस्थयोर्धनसिनि कस्मिंश्चित्सांयात्रिके, येन समुद्रविजयदशाह-प्रतिष्ठापिता पतिधनावहश्रेष्ठिनोर्भगिन्याम्, आ०म० १अ०२ खण्ड / श्रेणिकस्य द्वारावतीस्थिता पार्श्वनाथप्रतिमा द्वारावतीदाहानन्तरं रामुद्रप्लाविताया भार्यायाम, तं०। दन्तपुरनगरस्थस्य धनमित्रसार्थवाहस्य भार्यायाम्, द्वारावत्यां समुद्रे स्थिता निजयानपात्रे देवताति-शयेन स्खलितेऽत्रैव आव४ अ० आ०काआ०चू०। नि०चूला चम्पानगरीस्थस्य धनसार्थजिनबिम्ब तिष्ठतीति दिव्यवाचा निश्चिते नावि-कैरुद्वारिता स्वपुरमानीय वाहस्य भार्यायाम, आव०४ अ० चम्पानगरीमधिकृत्य-"धनमित्रप्रासादे स्थापितेति। ती०५२ कल्प। कनकपुरनगरस्थस्य वैश्रवण- सार्थवाहो, धनश्रीस्तस्य वल्लभा।" आ००। हेमपुरस्थस्य सुरदत्तकुमारस्य युवराजस्य स्वनामख्याते पुत्रे, सुखविपाकाध्ययनेषु श्रेष्ठिनः सुताया जिनमत्याः स्वनामख्यातायां सख्याम्, दर्श०१ तत्त्व। षष्ठेऽध्ययने, विपा०२ श्रु०६ अ० धणसेट्ठि(ण)-पुं०(धनश्रेष्ठिन्) राजगृहनगरस्थे श्रेष्ठिनि, ज्ञा०१ श्रु०१ कणगपुरंणयरं, सेयासेए उज्जाणे, वीरभद्दोजक्खो, पियचंदो अ० (तत्कथा 'धण' शब्देऽनुपदमेव गता) श्रावस्तीवास्तव्ये श्रेष्ठिनि, राया, सुभद्दा देवी, वेसमणे कुमारे जुवराया, सिरीदेवीपामो उत्त०अ०। (तत्कथा ‘क विल' शब्दे तृतीयभागे 387 पृष्ठे क्खाणं पंचसया, तित्थगरागमणं, धणवई जुवरायपुत्तो० जाव गता)पाटलिपुत्रनगरस्थे श्रेष्ठिनि यस्य दुहिता भगवतः सकाशे प्रव्रजिता / पुव्वभवे मणिभया णयरी, मित्तो राया संभूतिविजए अणगारे आ०म०१ अ०२ खण्ड / कस्मिंश्चिन्नगरे स्थिते धनप्रियायाः पत्यौ पडिलाभिए० जाव सिद्धे // विपा०२ श्रु०६ अ०। स्वनामख्याते श्रेष्टिनिच। पिं० धणवई-स्त्री०(धनवती) कलिङ्गविषयस्थकाञ्चनपुरस्थस्य धनावह घणसेण-पुं०(धनसेन) द्वारावतीवास्तव्ये कमलामेलायाः पितरि श्रेष्ठिनः सुतायाम्, दर्श०१ तत्त्व। एकस्मिन् सन्निवेशे स्थितस्य कस्यचिद् स्वनामख्याते नृपे, दर्श०४ तत्त्व / आ०म०। आ०चू०। ग्रामाधिपतिसुतस्य धननाम्नो नवमे भवे भविष्यदरिष्टनेमितीर्थकरस्य धणहाणि-स्त्री०(धनहानि) धनक्षये, तत्कारणीभूते राज्यस्यापभार्यायाम, उत्त०२२ अ०। कल्पा लक्षणभेदे च / यतः सर्वत्र धनक्षयः सम्भवति। ध्य०३उ० घणवसु-पुं०(धनवसु) उज्जयिनीनगरस्थेस्वनामख्याते वणिजि, आव० धणहारि(ण)-त्रि०(धनहारिण) धनं हरतीति धनहारी / धनहरण-- 4 अ०1 (वक्तव्यता 'आवई' शब्दे द्वितीयभागे 245 पृष्ठे गता) शीले, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। "उज्जयिन्यां धनवसुश्चम्पां गन्तुमना वणिक।" आ००। आ००। घणावह-पुं०(धनावह) धणवह' शब्दार्थे, दर्श०१ तत्त्व। घणवह-पुं०(धनवह) कलिङ्ग विषयस्थकाञ्चनपुरस्थे स्वनामख्याते धणि-पुं०(ध्वनि) ध्यन इन् / शब्दे, स्था० 1 ठा० / विशे० आव०। श्रेष्ठिनि, "तत्थ धणवहो णाम सेट्ठी।" दर्श०१ तत्त्व / जयपुरनगरस्थे / तूर्यनिनादे, आ०म०१ अ०२ खण्ड / अव्यक्ते मृदङ्गाऽऽदिशब्दे, धनपतिश्रेष्ठिभ्रातरि, "जयउरं नाम नयरं, जियसत्तू नाम राया, / अलङ्कारोक्ते उत्तमकाव्ये च। वाचा धणवइधणावहा दुवे भायरो सेट्ठी।" दर्श०४ तत्त्व। वसन्तपुरनगरस्थे * धनिन्-पुं०। धनवति, प्रा०२ पाद! धनपतिश्रेष्ठिभातरि, "वसंतपुरं नगरं जियसत्तू राया, धणवई-धणावहा धणिअ-(देशी गाढे, देवना०५ वर्ग 58 गाथा। भायरो सेट्टी।" आ०म०१ अ०२ खण्डा राजगृहनगरस्थे स्वनामख्याते धणिआ-(देशी) प्रियायाम,दे०ना०५ वर्ग ५८गाथा। श्रेष्ठिनि, 'रायगिहे नयरे पहाणस्स धणावहस्स सेट्टिस्स।" आ०म०१ धणिओज्जालिय-त्रि०[धनितो(को)ज्ज्वालित] अत्यर्थमुज्ज्वालिते, अ०२ खण्ड / कौशाम्बीनगरवास्तव्ये मूलायाः पत्यौ स्वनामख्याते जी०३ प्रति० 4 उ०। श्रेष्ठिनि, आ०५० १०"आसीद्धनावहः श्रेष्ठी, मूला तस्य च धणिहा-स्त्री०(धनिष्ठा) अतिशयेन धनवती इष्ठन् इनेलृक् / वसुदेवगे हिनी।" आ०क०। ''तत्थेव णयरे धणवहो सेट्टी, मूला ताके स्वनामख्याले नक्षत्रभेदे, वाचला ज्यो०। स्था०। अनु०। च०प्र०। भारिया / " आ०म०१अ०२ खण्ड। ऋषभपुर स्वस्तूपकरण्डकोद्या- ज०। सू०प्र० स०
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________________ धणिट्ठासंवच्छर 2658 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणेसर पच्चत) धणिट्ठासंवच्छर-पुं०(धनिष्ठासंवत्सर) यस्मिन्संवत्सरे धनिष्ठानक्षत्रण | धणुत्तासणा-स्त्री०(धनुस्त्रासना) धनुषा भयजनने, "सरोवओगो सह शनैश्चरो योगमुपादत्ते सधनिष्ठासम्वत्सरः / इत्युलक्षणे शनैश्चरसं- धणुत्तासणा य।' धानुष्कर्वा पाषाणैर्वा पक्षिणस्वासनां कुर्वन्ति भयमुपवत्सरभेदे,ज०७ वक्षा जनयन्तीत्यर्थः / बृ०२ उ०) धणिय-न०(धणिय) अत्यर्थे , प्रश्न०३ आश्र0 द्वार। 'धणियं अप्पा | धणुद्धय-पु०(धनुर्ध्वज) भविष्यदुत्सर्पिण्यां महापद्मस्य प्रथगतीर्थकरस्य निजो तचो।' धणियमत्यर्थमिति / व्य०२ उ०। आव०। 'धणियं पि / सकाशे प्रव्रजिष्यति स्वनामख्याते नृपे, स्था० 8 ठा०। समत्थचित्तेन / धणियमत्यर्थमिति। आतु०। अत्यन्ते, उत्त०१ अ० | धणुद्धर-पुं०(धनुर्धर) धनुर्धारयतिधृ-अच्। धानुष्के, वाच०। धनुर्द्धराः *धनिक-न० अत्यर्थे, “धीइधणियणिप्पकंपे" धनिकमत्यर्थमिति। कोदण्डप्रहरणा इति। स० औ०। "धणियमाणपहाणो य / " धनिकमत्यर्थम् / ध०२ अधि० | धणुपिट्ठ-न०(धनुष्पृष्ठ) मण्डलखण्डाऽऽकारे क्षेत्रे, स०५७ सम०। धनिवत् कायति-कै-कः। धन्याके, पु० न०। धने, पुं०। धनं जम्बूद्वीपलक्षणवृत्त क्षेत्रस्य हैमवतैरण्यवताऽऽदिवर्षावच्छिन्नस्याऽऽविद्यतेऽस्त्यस्य ठन् / धनस्वामिनि, वाच०। स०६ अङ्गा उत्तमणे च / रोपितज्याधनुष्पृष्ठाकारे परिधिखण्डे च / हैमवतैरण्यवतोरधिकारे त्रिका 'धनिकस्य यथारुचि।" इति स्मृतिः। रित्रया टाप। प्रियङगुवृक्ष, जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य हैमवतैरण्यवताभ्यां द्वितीयषष्ठवर्षाभ्यामवध्वां च / वाच०। वच्छिन्नस्याऽऽरोपितज्याधनुष्पृष्ठाकारे परिधिखण्डे धनुष्पृष्ठे, उच्यते, *धनित-न०। अत्यर्थे, 'धीइधणियबद्धकच्छा / " संथा। तत्पर्यन्तभूते सरलप्रदेशपङ्क्ती तुजीवे इव जीवे इति। स०३७ सम०। *ध्यनित-त्रि० / शब्दिते, वाचा (तच्च कस्य वर्षस्य वर्षधरपर्वतस्य कियत्प्रमाणमिति 'वासहर' शब्दे धणी-(देशी) भार्याप्राप्तिबद्धे, निःशड़े च / देवना०५ वर्ग 62 गाथा। वक्ष्यते) धणु-न०(धभुष) धन्-उस्।"धनुषो वा" ||८/१।२शप्राकृतसूत्रेण | धणुपुहत्तिया-खी०(धनुष्पृथक्त्विका) गव्यूते,"धणुपुहत्तिया वि गाउयं धनुः शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य वा हः। कार्मुके, प्रा०१ पाद / भियाल वि।'' गव्यूत द्विधनुः सहस्रप्रमाणमिति। प्रज्ञा० १पद। वृक्षे, धनुर्द्धर, त्रिका वाच० भ०। चापे, आ० म०१ अ०२ खण्ड / स० धणुबल-न०(धनुर्बल) धनुर्द्धरबले, "धणुबलं वा आलिंगति / " भ० जं०। विपा०। "जावं च णं से पुरिसे धणु परामुसइ।' धनुर्दण्डगुणा- ३श०२ उ०। ऽऽदिसमुदायः / भ०५श०६ उ०। चतुर्भिर्हस्तैर्निष्पन्ने अवमानविशेष. | धणुय-न०(धनुष्क) धणुक्क' शब्दार्थे, स०। अनु०। 'दंडं धणू य जूबं, नालिया य अवखो मुसलं च घणुध्वेय-पुं०(धनुर्वेद) धनुष उपचारात् तत्प्रक्षेपणीयास्व-प्रयोगाऽऽचउहत्थं / " ज्यो०२ पाहु०। प्रव०। जी०। प्रज्ञा०ा तं० ज०। स्था०| देरेपयोगी वेदः / यजुर्वेदस्योपवेदे, शस्त्रास्त्रप्रयोगोप-संहारप्रतिपादक"छण्णउइअंगुलाणि से एगे दंडेइ वा धणूइ वा जूएइ वा नालियाइ वा मन्त्रसहिते शास्त्रभेदे, वाचा धनुःशास्त्रे. जं०२ वक्ष०ा इषुशास्त्र, तच अक्खेइ वा मुसलेइ वा / " भ०६ श०७ उ०। स०। 'धणु च भगवत ऋषभदेवस्य समये आसीत्। "इसुसत्थंधणुव्वेओ।" इषुशास्त्रं पंयंम्मिा" पथि मार्गविधौ धनुरेव मानं मार्गगव्यूताऽऽदिपरिच्छेदो धनुः नाम धनुर्वेदः, स च तदैव राजधर्मे सति प्रावर्तत / आ०म०१ अ०१ संज्ञाप्रसिद्धेनैवावमानविशेषेण क्रियते, न तु दण्डाऽऽदिभिरिति। अनु०॥ खण्ड / शिक्षाशास्त्र, "कुलपुत्रक एकोऽत्र, धनुर्वेदविशारदः। कस्यापि मेषावधिके नवमे राशौ च / न०ा वाच०। यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्राऽऽदि- धानिनःपुत्रान, धनुर्वेदमशिक्षयत्।।१।।" आ०का आ० म०। तदात्मके भिर्वाणैः कर्णाऽऽदीनां च्छेदनभेदनाऽऽदि करोति स धनुः। नारकाणां द्वासप्ततिकलान्तर्गते कलाभेदे, औ०। स०। ज्ञा०। सूत्र०ा तदात्मके कदर्थक दशमे परमाधार्मिकभेदे, पुं० प्रव० 180 द्वार। भ०ा अनु०। पापश्रुतभेदे च। आव०४ अ० समका ('असिपत्त' शब्दे प्रथमभागे 846 पृष्ठे 76 गाथा गता) घणुस्संड-न०(धनुःखण्ड) धनुःशकले. "सषोः संयोगे सोऽग्रीष्मे" घणुकुमल-न०(कुटिलधनुष)कुटिले धनुषि, “धणुकुडिलबंक- / ||8/4/286 // इति सूत्रेण मागध्यां संयोगे वर्तमानयोः सकारषकापागारपरिविखत्ता।" धनुष्कुटिल कुटिलं धनुः। ततोऽपि वक्रेण प्रकारेण रयोरु लोपाऽऽद्यपवादः सः। प्रा०४ पाद। परिक्षिता या सा तथा। रा०ा ज्ञा०| धणुस्सग्ग-पुं०(धनोत्सर्ग) धनसम्पत्तौ, स्था०३ ठा०३ उ०। धणुक्क-न०(धनुष्क) चापे, स०। चतुर्भिर्हस्तैर्निष्पन्ने अवमानविशेष च। / धणुह-पुं०(धनुष) धणु' शब्दार्थ , प्रा०१ पाद। न०। अनु०। पा०। पाञ्चालदेशस्थकाम्पिल्यपुरनृपतेर्ब्रह्मदत्तपितुर्बहा- घणेसर-पुं०(धनेश्वर) भरुकच्छस्थे स्वनामख्याते वणिजि, ती० 6 कल्प। राजस्य स्वनामख्याते सेनापतौ, उत्त०१३ अा आ०का (तद्वक्तव्यता कान्तीनगरवास्तव्ये स्वनामख्यातेसार्थवाहे, येन द्वारावत्यांकृष्णवासुदेवेन 'बंभदत्त' शब्दे वक्ष्यते) प्रतिष्ठापिता पार्श्वनाथप्रतिमा द्वारावतीदाहानन्तरं समुद्रण द्वारावत्यां धणुग्गह-पुं०(धनुर्ग्रह) वातव्याधिविशेष, धनुर्गह इति वा / जी०३ प्रति०४ | प्लावितायां समुद्रमध्ये स्थिता सिंहलद्वीपगमने स्वयानपात्रे स्तम्भिते उधनुर्गहोऽपि वातविशेषो, यः शरीरं कुब्जीकरोति। बृ० ३उ०। व्या | पद्मावतीदेव्यावाक्येन समुद्रमध्यादुद्धृत्य स्वनगरप्रासादेस्थापितेति। ती०
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________________ धणेसर 2656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण्णंतरि 5 क्ल्प / भद्रबाहुस्वामिविरचितबृहत्कल्पभाष्यवृत्तिकर्तुः क्षेमकीर्तिसूरेगुरुपरम्परायां जाते स्वनामख्याते आचार्य, बृ०॥ "श्रीजैनशासननभस्तलतिग्मरश्मिः, श्रीपद्मचन्द्रकुलपद्मविकाशकारी। पूज्यो निरावृतदेगम्बरडम्बरोऽभूत. श्रीमान धनेश्वरगुरुःप्रथितः पृथिव्याम्।।७।। श्रीमच्चैत्रपुरैकमण्डनमहावीरप्रतिष्ठाकृतस्तस्माच्चैत्रपुरप्रबोधतरणिः श्रीचैत्रगच्छोऽजनि। तर श्रीभुवनेन्द्रसूरिसुगुरुभूभूषण भासुरज्ज्योतिः सद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणाऽभवत्॥६॥" बृद६ उ० द्वितीयोऽप्येतन्नामा विशालगच्छीयो जिनवल्लभसूरिर-- चितरार्द्धशतकग्रन्थोपरि टीकाया रचयिताऽयमाचार्यः विक्रमसंवत्११७१ वर्षे आसीत् / अपरोऽप्यतिप्राचीनः शिलाऽऽदित्यराजस्य बलभीपुरराजस्यार्थे शत्रुञ्जयमाहात्म्यग्रन्थकृद्धनेश्वरसूरिः। जै०इ०। धणोहसंचय-पुं०(धनौघसंचय) धनस्यौघः समूहो धनौघस्तस्य संचयो राशीकरणम् / कनकाऽऽदिद्रव्यसमूहस्य राशीकरणे, उत्त० 10 अ०॥ घण्ण-त्रि०(धन्य) धनं लब्धा, धने साधुः, धनमर्हति / भ०२ श०१ उ०। अन्तला स्थान नि०। धनाय हितं धनस्य निमित्तं संयोग उत्पातो. धनं प्रयोजनमस्य वा यत् / वाच० धनलम्भिनि, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। कल्पका भ०। "धण्णाओ अणंताओ अंवगाओ।" आ०म०१ अ०२ खाण्ड। "अहो एयरस्सधण्णया।" आ०म०१ अ० 2 खण्ड। 'धण्णेसि गं तुमं जाया!" धनं लब्धासि / भ०६श०३३ उ०ा धनावहे. ज्ञा०१ शु०१ अ०। सौभाग्याऽऽदेयताऽऽदिना धनाहे, द्वा० 14 द्वा०। धनलाभयोग्ये, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / धनसाधी पुण्यवति, पञ्चा०२ | विवा पं०व० "धण्णणमेयजोगो, धण्णा चेट्टति एवणीतिए। धण्णा बहु मण्णते, धण्णा जे णऽप्पदूसंति' ||1|| धन्याना भावधनलब्धृणां तत्साधनां वा सत्त्वानामिति गम्यते, तद्योगेऽपि धन्याः पुण्यवन्तश्चेष्टन्ते प्रवर्त्तन्त इति / पञ्चा० 2 विव०। श्रेयस्करे, आव०४ अ० श्लाध्ये, "तेधण्णा सप्पुरिसा / " पञ्चा०६ विव०। अश्वकर्णवृक्षे, कृतार्थे , धनोपयोगिन्यर्शशास्त्रे, धनाय हिते, धनकारणे च / वाचा धनं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणमर्हन्तीति धन्याः। साध्वादिषु ज्ञानदर्शनचारित्रधनेषु, "धन्ना नाणाइधणा।" विशे०। 'धण्णा आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति।" धन्या धर्मधनं लब्धारः। पञ्चा० 11 विव०। भ०ा पार्श्वनाथस्य प्रथमभिक्षादायके स्वनामख्याते श्रावके, आ०म०१ अ०१खण्ड / काकन्दीवास्तव्ये स्वनामख्याते सार्थवाहे च / पुं० तत्कथाऽनुत्तरोपपातिकदशाया-स्तृतीयवर्गस्य प्रथमेऽध्ययने / सा च 'धण्णग' शब्दे तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धेऽनुत्तरोपपातिकदशायास्तृतीयवर्गस्य प्रथमेऽध्ययने च / अनु० / आमलक्याम्, धन्याके, वाचा वाराणसीनगर्या कोष्ठचैत्यवास्तव्यस्य सुरादेव गृहपते र्यायां च / स्वी। उपा० 4 अ०। (तत्कथा "सुरादेव" शब्दे वक्ष्यते) *धन्व-न० / धन्व-अच्। चापे, वाचा *धन्वन्-न० धन्व०-कनिन् / धनुषि, मरुदेशे च / वाचा *धान्य-न०। धाने षोषणे साधु-यत् / सतुषे तण्डुलाऽऽदौ, सवीजे शालितिलयवाऽऽदो च / दश०६ अ० वाचला उत्त०। सूत्रका धान्यं व्रीहिकोद्रवमुगमाषतिलगोधूमयवाऽऽदि। आव०६ अ०॥ तच सप्तदश--- विधम्-- "राणसत्तररावीया भवे धण्णं / " शणं सप्तदशं येषां तानि शणसप्तदशानि बीजानि धान्यं भवेदिति / तानि चामूनि- "तानि चामूनि- 'ब्रीहिर्यवो मसूरो, गोधूमो मुद्माषतिलचणकाः / अणवः प्रियडगुकोद्रवमकुष्टकाः शालिराढक्यः / / 1 / / किं च कलायकुलत्थौ, शणसप्तदशानि बीजानि।" बृ०१ उ०२ प्रक० / आ०म०| कुत्रचिधान्यानां चतुर्विशतिभेदा यथासणसत्तरसादीणं, धण्णकाणं तु कोडिकोडीणं / जेसिं तु भायणट्ठा, एरिसया होंति णिइईया // 331 / / गणः सप्तदशो येषां तानि शणसप्तदशानि। तानि चामूनिशालिः, यवः, कोद्रवः, व्रीहिः, रालकः, तिलाः, मुगाः,माषाः, चवलाः, चणकाः, तुवरी, मसूरकः, कुलत्थाः, गोधूमाः, निष्पावाः, अतसी, शणश्च / उक्तं च"सालिजवकोदववीहि-रालगतिलमुग्गमासचवलचणा / तुबरिमसूरकुलत्था, गोहुमनिप्फावअयसिसणा // 1 // " व्य०१ उ०। धन्नाई चउवीसं, जव गोहुम सालि वीहि सट्ठीय। कोदव अणुया कंगू, रालय तिल मुग्ग मासा य / / 1018|| अयसि हरिमंथ तिउगउ, निप्फावसिलिंद राय भासा य। इक्खू मसूर तुबरी, कुलत्थ तह धन्नय कलाया।।१०१६।। धान्यानि चतुर्विशतिर्भवन्ति। यथा-जवाः, गोधूमाः, शालयो, व्रीहयः, षष्टिकाः, कोद्रवाः, अणुकाः, कड्गुः, रालकः, तिलाः, मुद्गा माषाश्च / तथा अतसी, हरिमन्थाः, त्रिपुटका निष्पावा शिलिन्दा राजमाषाः, इक्षवः, मसूराः, तुबरी, कुलत्थाः , तथाधान्यक, कलाय इति / एतानि च प्रायेण लोकप्रसिद्धानि प्रागुक्तानि, नवरं षष्टिकाः शालिभेदाः,ये षटिरात्रेण पच्यन्ते। अणुका जुगन्धरी, बृहच्छिरा कङ्गुः, अल्पतरशिरा रालकः, हरिगन्थाः कृष्णचणकाः, शिलिन्दा मकुष्टाः, राजमाषाश्ववलकाः, धान्य कुस्तुम्भरी, कलाया अत्र वृत्तचणका इति। प्रव० 156 द्वार / केचन भूकटिका वदन्ति यथा श्रीमतां त्रिफलाऽऽद्युत्कटद्रव्यनिष्पन्नचूर्णप्रक्षेपे प्रासुकं पानीयं तथाऽस्माकमप्युत्कटद्रव्यजनितचूर्णप्रक्षेपे धान्यादि प्रासुकीभवतीति किमत्र बाधकमिति प्रश्ने, उत्तरम्- भूकटिककृताशङ्कामाश्रित्य यथा त्रिफलाप्रक्षेपादुदके वर्णाऽऽदिपरावर्तो भवति तथा यदिधान्यफलाऽऽदावपि भवेत्तदोदकवद् धान्यादि प्रासुकं भवति न च तस्मात्तत्कथं प्रासुकं तदिति / 21 प्र० रोन०३ उल्ला०। पञ्चदशकर्माऽऽदाननिषेधवता धान्यनालिकेराऽऽदिफलगुलीहरितालपशूनां विक्रय भङ्गोऽभङ्गोवा? तथा सद्दालपुत्राऽऽदीनां श्राद्धानां कर्माऽऽदानस्य संभवो, निषेधो वेति प्रश्ने, उत्तरम्धान्याऽऽदीनां कृतपरिमाणादूर्द क्रयादिकरणे भङ्गोऽन्यथा न चेति, तथा सद्दालपुत्राऽऽदीनां परिमितत्वादगीलादिकर्मकरणेऽपि न कर्माऽऽदानसंज्ञति वृद्धोक्तिः / 76 / प्र०। सेन०३ उल्लाका धण्णंतरि-पुं०(धन्वन्तरि) धन्वन् शिल्पशास्त्रं तस्यान्तमियति क्र.इन् शकला नारायणांशो भगवान, स्वयं धन्वन्तरिमहान् /
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________________ धण्णंतरि 2660 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण्णय पुरा समुद्रमथने, समुत्तस्थौ महोदधेः / / 1 / / " इत्युक्ते स्वर्गवैद्यभेदे, दिवोदासे काशिराजे, विक्रमाऽऽदित्यसभासदेपण्डितभेदे, "धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशड् कुवेतालभट्ट' इत्यादि। वाच०। वैद्यकशास्त्रप्रणेतरि स्वनामख्याते योगिनि, 'जोगीव जहा महावेजो।" योगी धन्वन्तरिः, तेन च विभङ्ग ज्ञानबलेनाऽऽगामिनि काले प्राचुर्येण रोगसंभवं दृष्ट्वाऽष्टाङ्गाऽऽयुर्वेदरूपं वैद्यकशास्त्रं चक्रे। बृ०१ उ०२ प्रका विजयपुरराजस्य कनकरथस्य स्वनामख्याते वैद्य, तत्कथा विपाकश्रुतस्याष्टमेऽध्ययने इति। स्था० 10 ठा०। (सा च 'उउंबरदत्त' शब्दे द्वितीयभागे 683 पृष्ठ दृश्या) जमदग्निपरीक्षार्थं मनुष्यलोकमुपागते देवलोकस्थे स्वनामख्याते तापसे, "इतश्च जैनमाहेशावभूता द्वौ सुरौ दिवि। स्वं स्व धर्म प्रशंसन्ता-वूचतुः साधु तापसी / / 1 / / " आ०का आ०चू० "इतो य दो देवा वेसानरो सड्ढोधणंतरी तावसभत्तो।'' इति। आ०म०१ अ०२ खण्ड। द्वारावतीवास्तव्ये कृष्णवासुदेवस्य स्वनामख्याते वैद्ये, आ०का ''बारवई वेअरणी, धन्नतरि भविअ अभविए विज्जे। कहणा य पुच्छिअम्भी, गइनिइसे असंबाही" ||1|| आ०क०। "नगरी द्वारवत्यासीदुपकण्ठं पयोनिधे। भोगावतीव पातालादागता मापुरेक्षया // 1 // रत्नान्यतो गृहीत्वैव सर्वरत्नमयी कृता। पुरीयं वेधसाऽथोऽभूदब्धेरेवाब्धिरेष सः।।२।। नाम्ना कृतो नृपस्तत्र, चरित्रैर्धवलः पुनः। अहिमांशुः प्रतापेन, हिमांशुश्च प्रसत्तितः।।३।। विद्येते तत्र वैद्यौ द्वौ, वैद्यविद्याविशारदो। भव्यो वैतरणीनामा,धन्वन्तरिरभव्यकः॥४॥ चिकित्सां ग्लानसाधूना, भव्यः प्रासुकभेषजैः / विदधाति प्रदत्ते च, स्युश्चेत्तानि स्ववेश्मनि।।५।। अभव्यो ग्लानसाधूनामाख्यत्सावद्यभैषजम्। प्रासुकं ब्रूहि नः किञ्चिदित्युक्ते साधुभिः पुनः।।६।। सऊचे न मयाऽधीत, वैद्यकं भवतां कृते। एवं तौ द्वौ महारम्भा, चिकित्सा कुरुतः पुरि॥७॥ प्रभुं कृष्णोऽन्यदाऽप्राक्षी-द्वैद्ययोः क्वाऽनयोर्गतिः?। जीवाशौषधिदानेन, जीवहिंसाविधायिनो बा८॥ स्वाम्यूचे सप्तमी पृथ्वी,पापो धन्वन्तरिर्गमी। भव्यो वैतरणीजीवो, गङ्गाविन्ध्यान्तरे हरिः / / 6 / / स च तत्र वयः प्राप्तो, भावी यूथपतिः स्वयम्। गमिष्यन्त्यन्यदा तत्र, सार्थेन सह साधवः।।१०।। तकस्य मुनेः पादे, मग्न शल्यं दुरुद्धरम्। ततस्तदर्थ सर्वेऽस्थुः,सशल्याहिमुनिर्जनौ॥११॥ मदर्थं वो मृतिर्मा भूत, शल्यमेतन्ममान्तकृत् / तच्छल्योद्धरणाशक्ताः, निर्बन्धात्तेन नोदिताः॥१२॥ मुक्त्वा तं स्थण्डिले शुद्धे, सच्छायस्य तरोस्तले। तेऽपि जग्मुः कथमपि, शोकशल्येन शल्यिताः।।१३।। तदा च तत्र स भ्राम्यन्नागाद्वानरयूथपः। पुरोगैस्तुमुलश्चक्रे. साधुतं वीक्ष्य वानरैः // 14 // यूथपस्तमथोऽपश्यन्नूहापोहेन तत्क्षणात्। जातजातिस्मृतिः सर्व , प्राग्भवं स्मरति स्म सः॥१५।। दृष्ट्वा शल्यं मुनेः शल्यो द्धरणीं शल्यरोहणीम्। गिरौ गत्वाऽनयत्साधु, निःशल्य विदधेऽचिरात्।।१६।। साधोरणे लिखित्वाऽऽख्यत्सोऽथ प्राग्भववैद्यताम्। धर्ममाख्यन्मुनिः सोऽथानशनेन मृतस्त्र्यहात् // 17 // " अथ किं तस्याभूदित्याह"सो वानरजूहबई, कतारे सुविहिआणुकंपाए। भासुरवरबुदिधरो, देवो वेमाणिओ जाओ // 18 // " अनुकम्पा भक्तिः / वैमानिकः सहस्रारे। "प्रयुज्यावधिमद्राक्षीत्तद्वपुस्तं मुनि च सः। द्रागेत्यादर्शयद्दिव्या, देवर्द्धि तां निजा मुनेः // 16 // ऊचे च त्वत्प्रसादने, प्राप्यत श्रीरियं प्रभो! तेनाथोत्पाट्य स मुनि तः स मुनिसन्निधौ / / 20 / / दृष्टास्तेऽस्माहुरागास्त्वं, कथं शल्यमगाच्च ते। सोऽथ वानरवैद्यस्योदन्तं तेषामचीकथत्॥२१॥ वानरः साधुभक्त्यैवं, लेभे सामायिकव्रतम्। अन्यथोपात्तदुःकर्मा, स्याद् वराकः स नारकः / / 22 / / " आका धण्णंतरिकूव-पुं०(धन्वन्तरिकूप) अहिच्छत्रानगरीस्थेस्वनाम-ख्याते कूपे,"धण्णतरिकूवस्स यावि पिंजरवण्णए मट्टियाए गुरुवएसा कंचण उप्पजइ।" ती०६ कल्प। धण्णमण्ण-त्रि०(धन्यमन्य) आत्मानं धन्यं मन्यमाने, "धन्यम न्योऽतिभक्तितः।" आ००। धण्णय-पुं०(धन्यक) शालिभद्रभगिनीपतौ, स्था० 10 ठा०। काकन्दीनगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते सार्थवाहे, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धेऽनुतरोपपातिकदशायास्तृतीयवर्गस्य द्वितीयेऽध्ययने च / स्था०१० ठा०। दृश्यते तु प्रथमेऽध्ययनेजंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं काकंदी णाम नयरी होत्था, रिद्धिस्थमियसमिद्धा / सहसंबवणे उजाणे, सव्वोवरिय, जियसत्तू राया। तत्थ णं काकंदीए नयरीए भद्दा नामं सत्थवाही परिवसइ अडा०जाव अपरिभूता। तीसे णं भद्दाए सत्थवाहीए पुत्ते धण्णे नामदारए होत्था, अहीण० जाव सुरूवे पंचधाइपरिगहितो।तं जहा-खीरधातीए० जहा महाबलो०जाव बावत्तरिकलाओ अहीने जाव अलंभोगसमत्थे जाते यावि होत्था / तते णं सा भद्दा सत्थवाही धण्णं दारयं उम्मुक्कबालभावं०जाव भोगसमत्थं विजाणित्ता बत्तीसं पासायवडं सिए कारेति, अन्भुग्गय भूमीए०जाव अणे गसं भसयसमिणविटुं०जाव वत्तीसाए इब्भवरकण्णयाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हावेति, वत्तीसओ दाओ० जाव उप्पिं पासाय फुटुंति०जाव विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा निग्गया, राया जहा कोणिओ तहा निग्गतो / तते णं तस्स धण्णस्स दारगस्स तम्मि महे जहाजमाली तहा निग्गते, नवरं पायचारेणं० जाव नवरं अम्मयं भदं सत्थवाहिं आपुच्छामि / तते णं अहं
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________________ धण्ण(ग)य 2661 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण्ण (ग)य देवाणुप्पिए! अंतिए० जाव पव्वयामि० जाव जहा जमाली तहा णं अणगारस्स पाणं अयमेयारूवे तवरूवला-वण्णे होत्था-से आपुच्छति, पुच्छिया वुत्तं पडिवुत्तिया जहा महाबले० जाव जाहे जहानामए रुक्खछल्ली ति वा कट्ठपाओया ति वा जरग्गाओ वा नो संचाएति जहा थावचापुत्तस्स जियसत्तू आपुच्छति, छत्तचा- णहेति वा एवामेव धण्णस्स अणगारस्स पाया सुक्का निम्मंसा मराओ सयमेव जितसत्तू निक्खमणं करेति, जहा थावधापुत्तस्स अट्ठिचम्मविरत्ता ते पणायंति नो चेव णं मंससोणि-यत्ताए धण्णं कण्हे०जाव पवइए अणगारे जाए इरियासमिते०जाव अणगारयं ति पायं अयमेयारूवे से जहानामए कलसंगलिया गुत्तबंभयारी / तते णं से धण्ण अणगारे जं चेव दिवसं मुंडे ति वा मुग्गमाससंगलिया ति वा तरुणिया छण्णा उण्हे दिन्ना भवित्ता० जाव पटवइत्तए, तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं सुक्का समाणा गिलायमाणी चिट्ठति, एवामेव धण्णस्स वंदति, नमसति, नमसतित्ता एवं बयासी-एवं खलु इच्छामि णं पायंगुलिआए सुक्काओ०जाव सोणियत्ताए धण्णस्स जंधाणं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणा जावजीवाए छठें छठेणं अयमेयारूवे से जहाणामए कक्कजंघा ति वा केकइजंधा ति वा अणिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं डिणियाति वा जंघायं ति वाजाव सोणियत्ताए, धण्णस्स भावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्स विय णं पारणयंसि कप्पति से जाणूणं अयमेयारूवे, से जहानामए कालिपोरेइ वा मउरपोरेइ आयंबिलं पडिग्गहित्तए नो चेवणं अणायंविलं, तं पिय संसट्ठ वा डिणियालिया पोरेति वाजाव सोणियत्ताए,धण्णस्स उरू नो चेव णं असंसटुं, तं पि य णं उज्झियधम्मियं नो चेव णं अयमेयारूवे, से जहानामए सामकरिइलेइ वा वोरिकरिइल्लेइ अणुज्झिय-धम्मियं, तं पिय णं जं अण्णे बहवे समणमाहण- | वा सल्ल इसामलितरूवं ते छिण्णिऊणिजाव चिट्ठति, एवामेव अतिहिकिवण-वणीमगा नावकंखति अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा धण्णस्स उरू वा सोणियत्ताए, धण्णस्स कडिपट्टस्स इमेयारूवे, पडिबंधं करेह / तते णं से धण्णे अणगारे समणेणं भगवया स जहानामए उट्टयाए ति वा उरूगपाए ति वा महिसपादेइ वा० महावीरेणं अब्मणुण्णति समाणे हट्ठ० जावज्जीवाए छटुं छठेणं जाव सोणियत्ताए, धण्णस्स उदरभाणयस्स इमेयारूवे, से जहाअणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति / तते णं नामए सुकवलदित्तेइ वा भज्जणयकवल्लेइ वा कट्ठकोलंबथोमे से धण्णे अणगारे पढमछट्टसमणपारणयम्मि पढमाए पोरिसीए व उदरं सुकं , धण्णस्स पांसुलियकंडयाणं इमेयारूवे, से सज्झायं करेति, जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छति, जेणेव जहानामए कंसयावली ति वा पाणावली ति वा रूडावली ति काकंदी नगरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता काकंदीए नगरीए | वा, धण्णस्स पिट्ठकरंडयाणं इमेयारूवे,से जहा-नामए चित्तयउच्चनीच० जाव अडमाणे आयंबिलं णो अणायंबिलं०जाव कडरेति वा वायणीघत्तेइ वा तालीयटपत्तेइवा, एवामेव धण्णस्स नावकंखति / तते णं से धण्णे अणगारे ताए अब्भुजतपवत्ताए दाहाणं इमेयारूवे, से जहानामए समिसंगलियाइ वा पहायापरिगाहियत्ताए एसणाए एसमाणे जति णं भत्तं लभति, तो पाणं संगलिया ति वा अगच्छियसंगलिया ति वा, एवामेव धण्णस्स न लभति जति पाणं लभति, तो भत्तं न लभति / तते णं से हत्थाणं अयमेयारूवे, से जहानामए सुक्कछगणियाइ वा वडपत्तेइ धण्णे अणगारे अदीणे अदीणमणे अकलु से अविसाई वा पलासपत्तेइवा, एवामेव धण्णस्स हत्थंगुलीयाणं अयमेयाअपरितंतयोगी जयणघडणजोगचरित्ते अहापज्जत्तसमुदाणं रूवे, से जहानामए कुलसंगलियाति वा मुग्गमासतरुणियाच्छिए पडिगाहिति, पडिगाहितित्ता काकंदीनगरीतो पडिनिक्खमति | आय-वे दिणा सुक्का समाणी, एवामेव धण्णस्स गीवा, से जहा गोयमो तहा पडिदंसेति। तते णं से धणे अणगारे समणेणं जहानामए करगगीवाइ वा कुंडियागीवाइ वा उवत्थवणाए वा, भगवया अब्भणुण्णाते समाणे अमुच्छिए०जाव अणज्झोववण्णे एवामेव धण्णस्स हणुयाए से जहानामए लाउफलेइति वा विलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणं आहारं आहारेति, आहारेतित्ता हओवफलेइ वा अंबगट्टियाए वा, एवामेव धण्णस्स उट्ठाणं से संजमेणं तवसाळजाव विहरति / तए णं से समणे भगवं महावीरे जहाणामए सुक्रजलोया ति वा सेलेसुगुलिया ति वा अलत्तंगअण्णया कया वि काकंदीनयरीतो सहसंबवणाओ पडिनिक्कमति, गुलिया तिवा, एवामेव धण्णस्स जिब्भाए, से जहा वडपत्तेति वा बहिया जणवयविहारं विहरति / तए णं से धण्णे अणगारे उंवरपत्तेति वा सागपत्तेति वा, एवामेव धण्णस्स नासियाए, से समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए जहाणामए अंवडगपेसियाए वा माउलुंगपेसियाइ वा तरुणिया , सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जति, संजमेणं तवसा एवामेव धण्णस्स अच्छीणं, से जहानामए वीणाछिद्द त्ति वा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / तए णं से धपणे अणगारे जहा पभाइयतारगा ति या, एवामेव धण्णस्स कण्णाणं, से जहाणामए खंदओ० जाव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठति, धण्णस्स | सीस-मूला छल्लियाति वा वालुकछल्लीइ वा करेल्लयाछल्लियाइ वा
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________________ धण्ण(ग)य 2662 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धण्णप्पमाण एवामेव धण्णस्स (?) से जहाणामए तरुणगलाओ तिवा तरुणगएलालुय त्ति वा सिल्हलए त्ति वा तरुणएजाव चिट्ठति, एवामेव धण्णस्स अणगारस्स सीसं लुक्खं निम्मंसं अट्ठिचम्मछिरत्ताए पणायंति, नो चेव णं मंससोणियत्ताए, एवं सव्बत्थमेव नवरं उदरभायणा कण्णा जिब्मा ओट्ठा एएसिं अट्ठी न भवति चम्मछिरत्ताए पणाइतं भणंति, धण्णेणं अणगारेणं मुखपायजं धोरुहणादिगतं तम्मिक रालणं क क डाहेणं पिट्ठमंसिएणं उदरभायणेणं वीतिजमाणे हिं पांसुलिकडएहिं अक्खसुत्तमाला विव गणिज्जमाणे हि पिट्ठ करंड गसंधीहिं गंगातरंगभूतेणं उक्खंडगदेसभायणेणं सुक्कसप्पसाणेहिं बाहाहिं सिढिलकडाली बिव लंवंतेहि य अग्गिदहेहिं कंपणाईओ बिब वेयमाणीए सीसघडीए पञ्चातवदन-कमले ओज्झगधडामुहे ओछट्ठणयकोले जीवंजीवेणं गच्छंति जीवंजीवेणं चिटुंति, भासं भासिस्सामि, विगलाइ से जहानामए इंगालसगडियाति वा जहा खंदओ तहा०जाव हुतासणाइभासरासिपालिछिण्णे तवेण तए णं तवतेयं सिरीसउव्व सोभेमाणे सोभेमाणे चिट्ठति / तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिले चेइए सेणिए राया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे, परिसा निग्गया, सेणिओ निग्गओ, धम्मकहा, परिसा निग्गया तए णं से सेणिए राया समणस्स०अंतिए धम्मं सोचा निसम्म समणं भगवं वंदति, नमसति, नमसतित्ता एवं बयासी-इमेसिणं भंते! इंदभूतिपामोक्खाणं चउदसण्हं समणसाहस्सीणं कयरे अणगारे महादुक्करकारए चेव महानिज्जराए चेव? एवं खलु सेणिया ! इमासिं इंदभूतिपामोक्खाणं चउदसण्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महानिज्जराए चेव / से केसि णं भंते ! एवं बुचति-इमासिं०जाव साहस्सीणं धण्णे णं अणगारे णं महादुकरकारए चेव महानिराए चेव? एवं खलु सेणिया ! तेणं कालेणं तेणं समएणं काकंदीनामं नयरी होत्था; उप्पिं पासायवडिंसए विहरति / तते णं अहं अण्णया कयाइ पुटवाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव काकंदी नयरी जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागए अहापडिरूवं उग्गहं संजमेणं जाव विहरामि,परिसा निग्गया तहेव०जाव पव्वतितेजाव विलमिव जाव अहारेति / धण्णस्स णं अनगारस्स पदाइसरीरवण्णतो सव्वोजाव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठति, से तेणट्टेणं सेणिया! एवं वुचति-इमासिं च चउद्दससहस्साणं धम्मे अणगारे महादुकरकारए महानिज्जराए चेव / तते णं से सेणिए राया समणस्स भगवओ अंतिए एअमटुं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ० समणं भगवं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, करेतित्ता वंदति, नमसति, णमंसित्ता जेणेव धण्णे अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता धण्णं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, वंदति, नमसति, णमंसित्ता एवं बयासी-धण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिए ! संपुण्णे सुकयत्थे कंतलक्खणे सुलद्धे णं देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्मजीवियफले त्ति कटु वंदति, नमसति, णमंसतित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं तिक्खुत्तो वंदति, नमसति, णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए / तते णं तस्स धण्णस्स अणगारस्स अण्णया कयाइ पुटवरत्तावरत्तकालसमयं सि धम्मजागरियं जागरमाणे इमेयारूवे अब्भत्थिए-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जहा खंदओ तहेव चिंता आपुच्छणं थेरेहि सद्धिं विपुलं दुरूहति मासियाए संलेहणाए नवमासपरियाओ०जाव कालमासे कालं किच्चा उढेचंदिम० जाव नवगेविजयविमाणपत्थ डे उडं दूरं वीतीवयति, वीतीवतित्ता सव्वट्ठसिद्धे विमाणे देवत्ताए उववण्णे थेरा तहेव उत्तरंतिजाव इमीसे आयारभंडे ति भंते त्ति भगवं गोयमे तहेवपुच्छति, पुच्छतित्ता जहा खंदयस्स भगवं वागरेति०जाव सव्वट्ठसिद्धे विमाणे उववण्णे / धण्णस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! तेत्तीसं सागरोवमा ठिती पण्णत्ता। से णं भंते ! ततो देवलोगाओ कहिं गच्छहिति० कहिं सिज्झिहिति? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति०५, एवं खलु जंबू ! समणेणं० जाव संपत्तेणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते / अणु०३ वर्ग१ अ०। *धान्यक-न० / कुस्तुम्भरीनामके धान्यभेदे, दश०६अ०। धण्णगर-न०(धान्यकर) स्वनामख्याते पुरे, यत्र विमलजिनेन प्रथमभिक्षा लब्धेति। आ०म०१ अ०१ खण्ड। धण्णजक्ख-पुं०(धन्ययक्ष) ऋषभपुरस्थकरण्डकोद्यानस्थ यक्षे, विपा० 2 श्रु०२ अ०। (तत्कथा 'भद्दणंदि' शब्दे वक्ष्यते) धण्णणिहि-पुं०(धान्यनिधि) कोष्ठागारे लौकिके निधिभेदे स्था०५ ठा०३उ० धण्णपत्थय-न०(धान्यप्रस्थक) धान्यमानविशेषे, व्य०१ उ०। घण्णपिडक-न०(धान्यपिटक) धान्यप्रस्थके, व्य०१ उ०) धण्णपुंजियसमाणा-स्त्री०(पुञ्जितधान्यसमाना) खले लूनपूतविशुद्धपुजीकृतधान्यसमाना सकलातिचारकचवरविरहेण लब्धस्वस्वभावत्वात् पुञ्जितस्य धान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात (स्था०) प्रव्रज्याभेदे, स्था०४ ठा०४ उ० धण्णप्पमाण-न०(धान्यप्रमाण) मानमये प्रमाणं, धान्यविषयं मानं प्रमाणं धान्यप्रमाणम् / मानप्रमाणभेदे, अनु०। (धान्यप्रमाणं 'माण' शब्दे वक्ष्यते)
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________________ মা 2663 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म धण्णमाण-न०(धान्यमान) धान्यप्रमाणे, नि०चू०१ उ०। तं०। शिरायाम, उत्त० पाई०२ अ०। कोष्ठकहृद्यन्तरे, नाडीमधिकृत्यधण्णमासफल-न०(धान्यमाषफल) षोडशश्वेतसर्षपाऽऽत्मके | "दुवे दुवे धमणि-अंतरसु'' धमन्यः कोष्ठकहृद्यन्तराणीति / विपा०१ हिरण्याऽऽदिपरिमाणभेदे, स्था०८ ठा०। श्रु०१ असा हट्टविला सिन्याम्, ग्रीवायाम्, हरिद्रायां च / वाच०। धण्णय-J०(धन्यक) धण्णग' शब्दार्थे , स्था० १०टा० धमणिसंतय-त्रि०(धमनिसंतत) धमनीभि मीमिः संततो व्याप्तः। धण्णविक्खत्तसमाणा-स्वी०(विक्षिप्तधान्यसमाना) यद्विकीर्ण गोखुर उत्त०२ अ० नाडीव्याने, ज्ञा०१ श्रु०१अ० "किं से धमणिसंतए।" क्षुण्णतया विक्षिप्त धान्यं तत्समाना विक्षिप्तधान्यसमाना, विक्षिप्तस्य धमनीसंततो नाडीव्याप्तो, मांसक्षयेण दृश्यमाननाडीकत्वात् / भ०२ धान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्। स्था०४ ठा० ४उला या हि श०५ उ०। यस्य शरीरं नशाभिव्याप्त दृश्यत इत्यर्थः / उत्त०२ अ०। सहसमुत्पन्नातिचारकचवरयुक्तत्वात् सामग्र्यन्तरापेक्षितया कालक्षेप धमनयः शिरास्ताभिः संततो व्याप्तो धमनिसंततः। शिरभियाप्त, उत्त० लभ्यस्वस्वभावा सा धान्यविकीर्णसमानोच्यते। इत्युक्तलक्षणे प्रव्रज्या पाई०२ अग भदे, स्था०४ ठा०४०। धमणी-स्त्री०(धमनी) 'धमणि' शब्दार्थे ,उत्त०२ अ०। घण्णविरल्लियसमाणा-स्वी०(विरल्लितधान्यसमाना) खलक एवं धमधमेंत-त्रि०(धमधमायमान) धमधमेति वर्णव्यक्तिमिवोत्पादयति, रद्विरलित विसारितं वायुना पूतपुजीकृतं धान्यं तत्समाना, विर - ज्ञा०१ श्रु०६ अE जितस्य धान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्। स्था०४ ठा०४ उ०। धमधतघोस-त्रि०(धमधमायमानघोष) धमधमायमानो धमधमेति या हिलधुनाऽपि यत्नेन स्वस्वभावं लप्स्यत इत्युक्तलक्षणे प्रव्रज्याभेदे, वर्णव्यक्तिमिवोत्पादयन् घोषः शब्दो यस्य स तथा। धमधमेति वर्णव्यस्था०४०४ उ० फ्त्युत्पादकशब्दोपेते. ज्ञा०१ श्रु०६ अ०॥ घण्णसंकड्डियसमाणा-स्त्री०(संकर्षितधान्यसमाना) यत्रांकर्षित धममहिसी-(देशी) नीहारार्थे, दे०ना०५ वर्ग 61 गाथा। क्षेत्रादाकर्षितं खलमानीत धान्यं तत्समाना / संकर्षितस्य धान्य- धमास-पुं०(धमास) वृक्षभेदे, ल०प्र०ा कपोतलेश्याया वर्णकमधिविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् / स्था०४ ठा०४ उ० या हि कृत्य 'धमाससारेइ वा।" प्रज्ञा० 17 पद। बहुतरातिचारोपेतत्वाद् बहुतरकालप्राप्तव्यस्वस्वभाधा सा धान्यस- धम्म-पुं०(धर्म) धृ-मन् / दश०१ अ०॥ स्वभावे, दर्श०१ तत्त्व। स्था। ङ्कर्षितसभाना। इत्युक्तलक्षणे प्रव्रज्याभेदे, स्था०४ ठा० 4 उ०। आचागदशा दशा ज्ञा०ा विशे०। सूत्र०ा उत्त०।"धम्मस्सभावो त्ति धण्णहाणि-स्त्री०(धान्यहानि) राज्यापलक्षणभेदे, यत्प्रभावाद् वृष्टऽपि एगडा धम्मो त्ति वा सभावो त्ति वा दो वि एगट्ठा।" नि०५० 20 उ०। मेघे शस्यनिष्पत्तिस्तादृशी नोपजायते। व्य० 10 उ०। परिणामः स्वभावः शक्तिर्धर्म इतिपर्यायाः। स्था०६ ठानधर्माःसहधण्णाउस-(देशी) कथ्यमानाऽऽशीर्वाद, दे०ना०५ वर्ग 58 गाथा। भाविनः, क्रमभाविनश्च पाया इति / स्था०२ ठा० 1 उ०। 'सव्वं धण्णागार-न०(धान्यागार) कोष्ठागारे, नि००८ उ०। धम्म जाणितए। धर्म जीवाऽऽदिद्रष्यस्वभावमुपयोगोत्पत्त्यादिक श्रुताऽऽदिरूप वा। स० 10 सम०।" "लोहो सुयस्स धम्मो।" विशे०। धण्णावत्ति-स्वी०(धान्यावाप्ति) शस्यलाभे, ''फलमिह धान्या विशेषे, आचा०१ श्रु०८ अ०८उ० वाप्तिः।' षो०७ विव० (1) धर्मधर्मिणोरेकान्तेन भेदेऽभ्युपगम्यमाने धर्मिणो निःस्व भावताधण्णावह-पुं०(धान्यावह) राजगृहनगरस्थे स्वनामख्याते प्रधान ऽऽपत्तिः, स्वभावस्य धर्मत्वात्तस्य च ततोऽन्यत्वात्, स्वो भावः श्रेष्ठिनि, आ०चू०१०। ऋषभपुरस्थस्तूपकरण्डकोद्यानवास्तव्ये नृपे, स्वभावः, तस्यैवाऽऽत्मीया सत्ता, न तु तदर्थान्तर धर्मरूपं, ततो न विपा०२ श्रु० २अ०। ध००। (तत्कथा भदणंदि' शब्द) निःस्वभावताऽऽपत्तिरिति चेत्, न, इत्थं स्वरूपसत्ताऽभ्युपगमे तदपरधत्त-पुं०(धत्त) बहुबीजके वनस्पतिभेदे, जी०१ प्रति०। निहिते, त्रिका रात्तासामान्ययोगकल्पनाया वैयर्थ्यप्रसङ्गात् / अपि च यद्येकान्तेन आ०म०१ अ०२ खण्ड / ननु "दधातेर्हिः" ||74|42 / / इतिहि धर्मधर्मिणोमेंदस्ततो धर्मिणो ज्ञेयत्वाऽऽदिमिर्धर्मश्ननु बेधात्तस्य शब्दाऽऽदेशस्तर्हि हितमिति भवितव्यं, कथं धत्तमित्युच्यते? प्राकृते सर्वथाऽनवगमप्रसनः, नह्यज्ञेयस्वभावं ज्ञातुं शक्यते इति तथा च सति देशीपदस्याविरुद्धत्वान्न दोषः / अथवा-धत्त इति मित्थवदव्युत्पन्न एव तदभावप्रसङ्गः, कदाचिदप्यवगमाभावात्, तथाऽपि तत्सत्त्वाभ्युपगमेयदृच्छाशब्दः। आव०१ अका ऽतिप्रसङ्गोऽन्यस्यापि यस्य कस्यचित्कदाचिदप्यनवगतषष्ठभूता*धात्त-त्रि० / दधातीति धः,ध आत्तो यस्मिन् स धातः, निष्ठान्तस्य ऽऽदेर्भावाऽऽपत्तेः / एवं च धर्मभावे धमामिपि ज्ञेयत्वप्रमेयत्वाऽऽदीनां "जातिकालसुखादिभ्योऽनाच्छादनात् क्तोऽकृतमितप्रति पन्नाः" निराश्रयत्वादभावाऽऽपत्तिः। न हिधाधाररहिताः क्वापि धर्माः संभवन्ति, // 6 / 2 / 170 / / इति परनिपातः अथवा धेनाऽऽत्तो गहीतो धात्तः। निहिते. तथाऽनुपलब्धेः / अन्यच परस्परमपि तेषा धर्माणामेकान्तेन भेदाभ्युपगमे आव०१अ० सत्त्वाऽऽद्यननुवेधात्कथं भावाभ्युपगमः? तदन्यसत्त्वाऽऽदिधम्माभ्युपगमे च धमण-पुं०(धमन) धम्यतेऽनेनधमल्युः / नले भस्वाभापके, क्रूर च। धर्मित्वप्रसक्तिरनवस्था च, तन्नैकान्तभेदपक्षे धर्मधर्मभावः, त्रिका अग्निसंयोगे, न०। "वीयणधमणाहिधारणा / " आचा०नि०१ नाऽप्येकान्तभेदपक्षे, यतस्तस्मिन्नभ्युपगम्यमाने धर्ममात्र वा स्यात. श्रु०१ अ०७ उ०। धनिमात्रं वा? अन्यथैकान्तभेदानुपपत्तेः, अन्यतराभाया वा अन्यतरधमणि-स्त्री०(धमनि) धम-अनि वा डीप / नाड्याम्, उत्त० 2 अ०। स्याप्यभावः, परस्परनान्तरीयकत्वात् / धर्मनान्तरीयको हि धर्मी, वाच०। ज्ञान प्रश्नः। भा'नव धमणीओ।" धमन्यो रसवहा नाड्यः। धर्मिनान्तरीयकाच धर्माः, ततः कथमेकाभावे पररूपायस्थानमिति? कल्पितो
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________________ धम्म 2664 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म धर्मधर्मिभावः, ततो न दूषणमिति चेत्तर्हि वस्त्वभावप्रसङ्गः / न हि धर्मधर्मिस्वभावरहित किञ्चिद्वस्त्विति, धर्मधर्मिभावश्च कल्पित इति तदभावप्रसङ्गः / धर्मा एव कल्पिता न धर्मः, तत्कथमभावप्रसङ्ग इति चेत्, न, धर्माणां कल्पनामात्रभावत्वाभ्युपगमेन परमार्थतोऽसत्त्वाभ्युपगमात्, तदभावे च धर्मिणोऽप्यभावाऽऽपत्तिः / अथ तदेवैक स्वलक्षणं सकलसजाती। यविजातीयव्यावृत्त्येकस्वभावाः धर्मिव्यावृत्तिनिबन्धनाश्च या व्यावृत्तयो भिन्ना इव विकल्पितास्ता धर्मास्ततो न कश्चिद्दोषः। तदप्ययुक्तम् / एवं कल्पनायां वस्तुनोऽनेकान्तात्मकताप्रसक्तेः / अन्यथा सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्तयोगान्न हि येन निजस्वभावेन घटाद् व्यावर्तते पटस्तेनैव स्तम्भादपि, स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तेः। तथाहिघटाद् व्यावर्तते घटव्यावृत्तिस्यभावतया स्तम्भादपि चेत् धटव्यातृत्तिस्वभावतयैव व्यावर्तते, तर्हि बलात् स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तिः। अन्यथा-ततः तत्स्वभावतया व्यावृत्त्ययोगात्। तस्माद्यतो यतोव्यावर्तत तत्तद्यावृत्तिनिमित्तभूताः स्वभावा अवश्यमभ्युपगन्तव्याः, ते चानेकान्तेन धर्मिणो भिन्नाः, तदभावप्रसङ्गात्। तथा च तदवस्थ एव पूर्वोक्तो दोषः तस्मानिन्ना अभिन्नाश्च / भेदाभेदोऽपि धर्मधर्मिणोः कथमिति चेत्? उच्यते-इह यद्यपि तादात्म्यतो धर्मिणा धर्माः सर्वेऽपि लोलीभावेन व्याप्ताः, तथाऽप्ययं धर्मी, एते धर्मा इति परस्पर भेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तद्भावानुपपत्तिः / तथा च सति प्रतीतिबाधा, मिथो भेदेऽपि च विशिष्टान्योन्यानुवेधेन सर्वधर्माणां धर्मिणा व्याप्तत्वादभेदोऽप्यरित। अन्यथा तस्य धर्मा इति प्रसङ्गानुपपत्तेः / नं० सम्म (2) अथ चैतन्याऽऽदयो रूपाऽऽदयश्च धर्मा आत्माऽऽदेर्घटाऽऽदेश्व धर्मिणोऽयन्तं व्यतिरिक्ता अपि समवायसबन्धेन संबद्धाः सन्तो धर्मिधर्मव्यपदेशमश्नुवते, तन्मतं दूषयन्नाहन धभधभित्वमतीव भेदे, वृत्त्याऽस्ति चेन्न त्रितयं चकास्ति। इहेदमित्यस्ति मतिश्च वृत्तौ, न गौण भेदोऽपि च लोकबाधः / / 7 / / धर्मधर्मिणोरतीव भेदेऽतीवेत्यत्रेवशब्दो वाक्यालङ्कारे / तं च प्रायोऽतिशब्दाकिंवृत्तेश्च प्रयुञ्जते शाब्दिकाः / यथा-"आवजिता किञ्चिदिव स्तनाभ्याम्।" उद्धृतः क इव सुखावहः परेषाम्' इत्यादि। ततश्चैकान्तभिन्नत्येऽङ्गीक्रियमाणे धर्माधर्मित्वं न स्यात्। अस्य धर्मिण इमे धाः, एषां च धर्माणामयमाश्रयभूतो धर्मीत्येवं सर्वप्रसिद्धो धर्माधर्मिव्यपदेशो न प्राप्नोति, तयोरत्यन्तभिन्नत्वेऽपि तत्कल्पनायां पदार्थान्तरधर्माणामपि विवक्षितधर्माधर्मिमत्वाऽऽपत्तेः / एवमुक्ते सति परः प्रत्यवतिष्ठतेवृत्त्याऽस्तीति अयुतसिद्धामामाधार्याऽऽधारभूतानामिह प्रत्ययह तुः संबन्धः समवायः। स च समवयनात्समवाय इति / द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषेषु पञ्चसु पदार्थेषु वर्तनाद्वृत्तिरिति चाऽऽख्यायते / तया वृत्त्या समवायसंबन्धेन तयोर्धर्माधर्मिणोरितरेतरविनिलण्ठितत्वेऽपि धर्मधर्मव्यपदेश इष्यते / इति नान्तरोक्तो दोष इति / अत्राऽऽचार्यः समाधत्तेचेदिति / यद्येवं तव मतिः, सा प्रत्यक्षप्रतिक्षिता, यतो न त्रितयं चकास्तिअयं धर्मी, इमे चास्यधाः , अयं चैतत्सम्बन्धनिबन्धन समवाय इत्येतत्त्रितयं वस्तुत्रयं न चकास्ति, ज्ञानविषयतया न प्रतिभासते। यथा किल शिलाशकलयुगलस्य मिथोऽनुसंधायक रालाऽऽदिद्रव्यं तस्मात्पृथक् तृतीयतया प्रतिभासते, नैवमत्र समवायस्याऽपि प्रतिभानम्। किन्तु द्वयोरेव धर्माधर्मिणोः / इति शपथप्रत्यायनीयोऽयं समवाय इति भावार्थः / किं चायं तेन वादिना एको नित्यः सर्वव्यापको मूर्तश्च परिकल्प्यते, ततो यथा घटाऽऽश्रिताः पाकजरूपाऽऽदयो धाः समवायसंबन्धेन समवेतास्तथा किं न पटेऽपि? तस्यैकत्वनित्यत्वव्यापकत्वैः सर्वत्र तुल्यत्वात्। यथाऽऽकाश एक नित्यो व्यापकः, अमूर्तश्च सन्सः संबन्धिभियुगपदविशेषेण संबध्यते,तथा कि नायमपीति विनश्यदेकवस्तुसमवायाभावे च समस्तवस्तुसमवायाभावः प्रसज्यते। तत्तदवच्छेदकभेदान्नायं दोष इति चेदेवमनित्यत्वा-ऽऽपत्तिः / प्रतिवस्तु स्वभावभेदादिति। अथ कथं समवायस्य न ज्ञाने प्रतिभासनं, यतस्तस्येहेतिप्रत्ययः सावधान साधनम्। इहप्रत्ययश्चानुभवसिद्ध एव। इह तन्तुषु पटः, इहाऽऽत्मनि ज्ञानमिह घटे रूपाऽऽदय इति प्रतीतेरुपलम्भात् / अस्य च प्रत्ययस्य केवलधर्मधर्म्यनालम्बनत्वादस्ति समवायाऽऽख्य पदार्थान्तरं तद्धेतुः इति पराशङ्कामभिसंधाय पुनराहइहेदमित्यस्ति मतिश्च वृत्ताविति। इहेदमिति इहेदमिति आश्रयाऽऽश्रयिभावहेतुक इहप्रत्ययो वृत्तावप्यस्ति समवायसंबन्धेऽपि विद्यते, चशब्दोऽपिशब्दार्थः, तस्य च व्यवहितसंबन्धः, तथैव च व्याख्यातम् / इदमत्र हृदयम-- यथा त्वन्मते पृथिवीत्वाभिसंबन्धात्पृथिवी, तत्र पृथिवीत्वं पृथिव्या एव स्वरुपमस्तित्वाख्य, नापरं वस्त्वन्तरं, तेन स्वरूपणैव सम योऽसावभिसंबन्धः पृथिव्याः, स एव समवाय इत्युच्यते, "प्राप्तानामेव प्राप्तिः समवायः" इति वचनात् / एवं समवायत्वाभिसंबन्धात्समवाय इत्यपि किं न कल्प्यते? यतस्तस्यापि यत्समवायत्वं स्वस्वरूपं, तेन सार्द्ध संबन्धोऽस्त्येव / अन्यथा निःस्वभावत्वात् शशविषाणवदवस्तुत्वमेव भवेत्। ततश्च इह समवाये समवायित्वमित्युल्लेखेन इहप्रत्ययः समवायेऽपि युक्त्या घटत एव / ततो यथा पृथिव्यां पृथिवीत्वं समवायेन समवेतम्, समवायेऽपि समवायत्वमेवं समवायान्तरेण संबन्धनीय, तदप्यपरेणेत्येव दुस्तराऽनवस्थामहानदी। एवं समवायचस्याऽपि समवायत्वाभिसंबन्धे युक्त्या उपपादिते साहसिक्यमालम्ब्य पुनः पूर्वपक्षवादी वदतिननु पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वाऽऽदिसंबन्धनिबन्धन समवायो मुख्यस्तत्र त्वतलाऽऽदिप्रत्ययाभिव्यङ्गयस्य सगृहीतसकलावान्तरजातिलक्षणव्यक्तिभेदस्य सामान्यस्योद्भवात्। इह तु समवायस्यैकत्वेन व्यक्तिभेदाऽभावे जातेरनुभूतत्वाद्रौणोऽयं युष्मत्परिकल्पित इहेतिप्रत्ययसाध्यः समवायत्वाभिसंबन्धः, तत्साध्यश्च समवाय इति। तदेतन्न विपश्चिचेतश्वमत्कारकारणम्। यतोऽत्रापि जातिरुद्भवन्ती केन निरुध्येत? व्यक्तेरभेदेनेति चेत् / न तत्तदवच्छेदकवशात्तभेदोपपतौ व्यक्तिभेदकल्पनाया दुर्निवारत्वात् / अन्यो हि घटसमवायोऽन्यश्च पटसमवाय इति व्यक्त एव समवायस्यापि व्यक्तिभेद इति तत्सिद्धौ सिद्ध एव जात्युद्वस्तस्मादन्यत्राऽपि मुख्य एव समवायः, इहप्रत्य-यस्योभयत्राप्यव्यभिचारात्। तदेतत्सकलं सपूर्वपक्ष समाधान मनसि निधाय सिद्धान्तवादी प्राऽऽह-न गौण इति योऽयं भेदः सनास्ति, गौणलक्षणाभावात् / तल्लक्षणं चेत्थमाचक्षते- 'अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च / विपरीतो गौणोऽर्थः, सति मुख्ये धीः कथं गौणे? / / 1 / / '' तस्माद्धर्मधर्मिणोः संबन्धेन मुख्यः समवायः, समवाये च समवायत्वाभिसबन्धे गौण इत्ययं भेदो नानात्व नास्तीति
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________________ धम्म 2665 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म भावार्थः / किं च-योऽयमिह तन्तुषु पट इत्यादिप्रत्ययात्सम-वायसाधनमनोरथः, स खल्वनुहरते नपुंसकादपत्यप्रसवमनोरथम्, इह तन्तुषु पट इत्यादिव्यवहारस्यालौकिकत्वात्पांशुलपादानामपि इह पटे तन्तव इत्येव प्रतीतिदर्शनात्। इह भूतले घटाभाव इत्यत्रापि समवायप्रसङ्गात्। अत एवाऽऽह-अपि च लोकबाध इति। अपि चेति दूषणाभ्युच्चये। लोकः प्रामाणिकलोक: सामान्यलोकश्व, तेन बाधो विरोधो लोकबाधस्तदप्रतीतव्यवहार-साधनात् बाधशब्दस्य'ईहाऽऽद्याः प्रत्ययभेदतः " इति पुंस्त्रीलिङ्गता / तस्माद्धर्मधर्मिणोरविष्वग्भावलक्षण एव संबन्धः प्रतिपत्तव्यो नान्वः समवायाऽऽदिः / इति काव्यार्थः // 7 // स्या०। (3) धर्मानुरूपो हि सर्वत्रापि धर्मी / यथा काठिन्य प्रति पृथिवी, यदि पुनरनुरूपत्वाभावेऽपि धर्मधर्मिभावो भवेत् ततः काठिन्यजलयोरपि स भवेत, तन्न भवति, तस्मादचेतनाः पुदलाः। तथा चोक्तम्"वाहसभावममुत्तं, विसयपरिच्छेयगं च चेयन्न / विवरीयसहावाणि य, छूढाणि जगप्पसिद्धाणि / / 1 / / ता धम्मधम्मिभावो, कहमेएसिं अणुभवं गाहे। अणुरूवत्ताभावे, काठिन्नजलाण किं न भवे? ||2||" आ०म०१ अ०२ खण्ड / जीवपुद्गलानां गतिपर्यायण धारणाद् धर्मः / धर्मास्तिकाये, भ०२० श०२ उ०। अनु०। "एगे धम्मे।" धर्मो धर्मास्तिकायः / स०१ सम०। स्था० / धर्मो धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भगुणः। स्था०२ ठा०१ उ०। (वक्तव्यता 'धम्मस्थिकाय' शब्दे द्रष्ट व्या) मर्यादायाम, धर्मः, स्थितिः, समयो, व्यवस्था, मर्यादेत्यनर्थान्तरमिति। आ०चू०२ अ०। प्रति०। आचारे, बृ०१ उ०१ प्रकला उत्तका धर्मो यतिश्राद्धाचारलक्षण इति / ध०२ अधि०ा दुर्गती पपततो जीवान् धारयति सुगतौ च तान्स्थापयतीति धर्मः / स्था० 1 ठा०। ''दुर्गति--प्रसृतान जन्तून्, यस्माद्धारयते पुनः / धत्ते चैतान शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः / / 1 / / " नं० आ०चूला आव०। ओघo आ०म०ाला दशा पञ्चा० पासूत्र०। इत्युक्तलक्षणे दुर्गतिगर्तनिपतजन्तुजातधरणप्रवणपरिणामपूर्वके (पञ्चा० १विव०) कुशलानुष्ठाने, पञ्चा० 4 विव०। सूत्र०। दुर्गतिगानिपतञ्जन्तुजातत्राणदानक्षमे, दर्श० 1 तत्त्व। संसारोद्धरणस्वभावे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०! स्वर्गापवर्गमार्गभूते, आचा० 1 श्रु०३अ०१ उ०ादर्श०। ध०र०। आव०ा अभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिसाधने, (ध०१ अधि०) पुण्यलक्षणे आत्मपरिणामे, धर्माधम्मौ पुण्यपापलक्षणौ स्वानुभवत्वादात्मपरिणामरूपाविति / आव०४ अ०। सूत्रा (पुण्यभङ्गास्तद्धक्तव्यता च पुण्ण' शब्दे द्रष्टव्या) सम्यग्दर्शनाऽऽदिके कर्मक्षयकारणे आत्मपरिणामे, सूत्र० 2 श्रु० 5 अ०। सम्यग्दर्शनमूलोत्तरगुणसंहतिस्वरूपो धर्म इति। नंगाधर्मः सम्यग्ज्ञानदर्शनचरणाऽऽत्मक इति / तं०। सम्यग्दर्शनभावज्ञानचारित्राऽऽत्मकं धर्ममिति / सूत्र० 1 श्रु० 15 अ०। श्रुतचारित्राऽऽख्याऽऽत्मके कर्मक्षयकारणे जीवस्याऽऽत्मपरिणामे, सूत्र०२ श्रु०५ अ० धर्मों भावतश्चारित्रधर्मो, धर्महेतुत्वात् श्रुतधर्मश्चेति / दश०१ अ० स०। आ०चू० / धर्मो द्विविधः-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्चेति। आव०५ अ० स० भ० प्रतिकातं०। पं०सू० औ० स्था०ाज। संथा० प्र० सूत्र०। आचाग उत्त०ा पाना धर्मः संसारोद्धरणस्वभावः, जिनप्रणीतं वा श्रुतचारित्राऽऽख्यमिति / सूत्र०१ श्रु०६ अ० उत्त। साधर्मः क्षायिकचारित्राऽऽदिरिति। स्था०३ ढा०१ उ०। सूत्रका दुर्गतिनिषेधेन शोभनगतिधारणाद्धर्म श्रुतचारित्राऽऽख्यमिति / सूत्र०१ श्रु०११ अ०। स्था०। आव०। 'धम्माण कासवो मुहं / ' धर्माणां श्रुतधर्माणां चारित्रधर्माणां च काश्यप आदीश्वरो मुखं वर्तते, धर्माः सर्वेऽपि तेनैव प्रकाशिता इत्यर्थः / उत्त० 25 अ०। सर्ववित्प्रणीतेऽहिंसाऽऽदिलक्षणे सम्यक्त्वे, दर्श०१ तत्त्व। सूत्र०ा दश०। क्षान्त्यादिके श्रमणधर्मे, दश०६ अ० प्रव०। 'न ते धम्मविऊ जणा।" क्षान्त्यादिको दशविधो धर्म इति / सूत्र०१ श्रु०१अ०१उ०। प्रतिका उत्त०। पा०ा स्था०। आव०। प्राणातिपातविरमणाऽऽदिके श्रावकधर्म, दश० 6 अ०। सूत्र०ा दानाऽऽदिके श्रावकधर्मे च। संथा०। धर्मास्तित्वं विशेषावश्यके यथा- "समासु तुल्यं विषमासु तुल्यं, सतीष्य - सवाप्यसतीषु सच / फलं क्रियास्वित्यथ यन्निमित्तं, तद्देहिनां सोऽस्ति नुकोऽपि धर्मः? // 1 // " विशे०। (1618 गाथाटी०) (विस्तरेणानुमानाऽऽदिना तत्सिद्धिः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 252 पृष्ठे दृश्या)(एकान्तेन धर्माधर्मयोरस्तित्वनास्तित्वे नाभ्युपेये इति 'अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे 426 पृष्ठे प्रोक्तम्) (4) अथ धर्मपदवाच्यमाहवचनादविरुद्धाद्य-दनुष्ठानं यथोदितम्। मैत्र्यादिभावसंमिश्र, तद्धर्म इति कीर्त्यते / / 3 / / उच्यते इति वचनमागमः, तस्माद्भवनमनुसृत्येत्यर्थः, ल्वब्लोपे पञ्चमीय,यदनुष्ठानमिहलोकपरलोकावपेक्ष्य हेयोपादेययोरर्थयोरिदेव शाने वक्ष्यमाणलक्षणयोहानोपादानलक्षणा / प्रवृत्तिरिति तद्धर्म इति कीर्त्यत इत्युत्तरेण योगः। कीदृशाद्वचनादित्याह-अविरुद्धात् कषच्छेदताषेषु अविघटमानात्, तत्र विधिप्रतिषेधयोर्बाहुल्येनोपवर्णनं कषशुद्धिः, पदे पदे तद्योगक्षेमकारिक्रियोपदर्शनं छेदशुद्धिः, विधिप्रतिषेधतद्विषयाणां जीवाऽऽदिपदार्थानां च स्याद्वादपरीक्षया यथात्म्येन समर्थनं तापशुद्धिः / तदुक्तं धर्मविन्दौ-"विधिप्रतिषेधौ कषः। तत्संभवपालनाचेष्टोक्तिश्छेदः / उभय-निबन्धनभाववादस्ताप इति।"तचाविरुद्धं वचनं जिनप्रणीतमेव, निमित्तशुद्धेः, वचनस्य हिवक्ता निमित्तमन्तरङ्ग, तस्य च रागद्वेष-- मोहपारतन्त्रयमशुद्धिस्तेभ्यो वितथवचनप्रवृत्तेः, न चैषा शुद्धिर्जिने भगवति, जिनत्वविरोधात्, जयति रागद्वेषमोहरूपान्तरङ्गान् रिपूनितिशब्दार्थानुपपत्तेः, तपनदहनाऽऽदिशब्दवदन्वर्थतया चास्याभ्युपगगाद्, निमित्तशुद्ध्य तावान्नाजिनप्रणीतवचनविरुद्धं, यतः कारणस्वरूपानविधायि कार्य , तन्न दुष्टकारणाऽऽरब्धं कार्यमदुष्टं भवतुिमर्हति निम्बबीजादिवेक्षुयष्टिरिति। अन्यथा-कारणव्यवस्थोपरमप्रसङ्गात,यच्च यदृच्छाप्रणयनप्रवृत्तेषु तीर्थान्तरीयेषु रागाऽऽदिमत्स्वपि घुणाक्षरोत्किरणव्यवहारेण क्वचित्किञ्चिदविरुद्धमपि वचनमुपलभ्यते. मार्गानुसारिबुद्धौ वा प्राणिनि कचित्, तदपि जिनप्रणीतमेव, तन्मूलत्वात्तस्य / तदुक्तमुपदेशपदे- "सव्वप्पयायमूलं, दुवालसंग जओ जिणक्खायं / रयणागरतुल्ल खलु, तो सव्व सुंदर तम्मि' // 1 / / इति। कीदृशमनुष्ठान धर्म इत्याह- "यथोदितम्" यथा येन प्रकारेण कालाऽऽद्यारा धनानुसाररूपेण उदितं प्रतिपादितं, तत्रैवाविरुद्ध वचने इति गम्य--
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________________ धम्म 2666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म म्, अन्यथाप्रवृत्तौ तु तद् द्वेषित्वमेवाऽऽपद्यते न तु धर्माः / यथोक्तम्"तत्कारी स्यात्स नियमात्तद्वेषी चेति यो जडः। आगमार्थ तमुल्लङ्घ्य, तत एव प्रवर्त्तते " // 1 // इति / धर्मदासक्षमाश्रमणैरप्युक्तम्- "जो जहवायं न कुणइ, मिच्छादिट्टीतओ उ को अन्नो? वड्वेई मिच्छत्त, पररस संक जणेमाणो' / / 1 / / इति / पुनरपि कीदृशमित्याह-मैत्र्यादिभावसंमिश्रम्। मत्र्यादयः मैत्रीमुदिताकरुणामाध्यस्थ्यलक्षणा ये भावा अन्तः करणपरिणामाः तत्पूर्वकाश्च बाह्यचेष्टाविशेषाः सत्त्वगुणाऽधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु तैः संमिश्र संयुक्त. मैत्र्यादिभावानां निःश्रेयसाभ्युदयफलधर्मकल्पद्रुममूलत्वेनशास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनात्, तत्र समस्तसत्त्वविषयः स्नेहपरिणामो मैत्री 1, नमनप्रसादाऽऽदिभिर्गुणाधिकेष्वभिव्यज्यमानाऽन्तर्भक्तिरनुरागः प्रमोदः२, दीनाऽऽदिष्वनुकम्पा करुणा : अरागद्वेषभावो माध्यस्थ्यमिति 4 / तदेवंविधमनुष्टानं धर्म इति दुर्गतिप्रपतज्जन्तुजातधारणात्स्वर्गाऽऽदिसुगतौ धानाच धर्म इत्येवरूपत्वेन कीर्त्यत शब्द्यते सकलाकल्पितभावकल्पना-कल्पनकुशल: सुधीभिरिति। नन्वेवं वचनानुष्ठानं धर्म इति प्राप्तं, तथा च प्रीतिभक्त्यसड़ानुटानेष्वव्याप्तिरिति चेन्न, वचनव्यवहारक्रियारूपधर्मस्येवात्र लक्ष्यत्वेनाव्याप्त्यभावादिति / वस्तुतः प्रीतिभक्तित्व इच्छागतजातिविशेषौ, तद्वजन्यत्वेन प्रीतिभक्त्यनुष्ठानयोर्भेदः, वचनानुष्ठानत्व वचनस्मरणनियतप्रवृत्तिकत्वम्, एतत्त्रितयभिन्नानुष्ठानत्वम् असङ्गानुधानत्वं निर्विकल्पस्वरसवाहिप्रवृत्तिकत्वं वा / इह तु वचनादित्यत्र वेदात्प्रवृत्तिरित्यत्रेव प्रयोज्यत्वार्थिका पञ्चमी, तथा च वचनप्रयोज्य - प्रवृत्तिकत्वं लक्षणमिति न कुत्राप्यव्याप्तिदोषावकाशः, प्रीतिभक्त्यसङ्गानुष्ठानानामपि वचनप्रयोज्यत्वानपायात्। "धर्मश्चित्तप्रभवो, यतः क्रियाऽधिकरणाऽऽश्रयं कार्यम्। मलविगमेनैतत् खलु, पुष्ट्यादिमदेष विज्ञेयः / / 2 / / रागाऽऽदयो मलाः ख-ल्वागमसद्योगतो विगम एषाम् / तदयं क्रियात एव हि, पुष्टिश्चित्तस्य शुद्धस्य / / 3 / / पुष्टिः पुण्योपचयः, शुद्धिः पापक्षयेन निर्मलता। अनुबन्धिनि द्वयेऽस्मिन्, क्रमेण मुक्तिः परा ज्ञेया ||4|" (पो०३ विव०।) इत्यादि षोडशक्ग्रन्थानुसारेण तु पुष्टिशुद्धिमचितं भावधर्मस्य लक्षण, तदनुगता क्रिया च व्यवहारधर्मस्येति पर्यवसन्नम्। प्रतिपादितं चेत्थमेव महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिभिरपि स्वकृतद्वात्रिंशिकायाम् / इत्थं च शुद्धानुष्ठानजन्या कर्भमलापगमलक्षणा सम्यग्दर्शनाऽऽदिनिर्वाणबीजलाभफला जीवशुद्धिरेव धर्मः / यच्चेहाऽविरुद्धवचनानुष्ठान धर्म इत्युच्यते, तत्तूपचारात्। यथा-नमुलोदकं पादरोगः / एतेन व्यवहारभावधर्मयोरुभयोरपि लक्षणे उपपादित भवतः, भावलक्षणस्य द्रव्ये उपचारेणैव संभवात, अन्योऽन्यानुगतत्वं च तयोस्तत्र तत्र प्रसिद्धमिति ? // 3 // प्रदर्शितं धर्मलक्षणम्। अमुमेव धर्म भेदतः प्रभेदतश्च विभणिपुराहस द्विधा स्यादनुष्ठातृ-गृहिव्रतिविभागतः। सामान्यतो विशेषाच्च, गृहिधर्मोऽप्ययं द्विधा / / 4 / / स यः पूर्व प्रवतुभिष्टो धर्मो द्विधा द्वाभ्या प्रकाराभ्यां स्याद् भवेता कुत इत्याह- "अनुष्ठातृगृहितिविभागत इति।'' अनुष्ठातारोधमानुष्ठायको / यौ गृहिअतिनी तयोविभागतो विशेषात, गृहस्थधर्मो यतिधर्मश्चति भावः / तत्र गृहमस्यास्तीति गृही, तद्धर्मश्च नित्यनैमित्तिकानुष्ठानरूपः व्रतानि महाव्रतानि विद्यन्ते यस्मिन् स व्रती, तद्धर्मश्च चरणकरणरूपः / तत्र च गृहिधर्म विशिनष्टि-- 'गृहिधर्मोऽपीति / ' साक्षादेव हृदि वर्तमानतया प्रत्यक्षो गृहिधर्म उक्तलक्षणः, किं पुनः सामान्यधर्म इत्यपिशब्दार्थः / द्विधा द्विभेदः, द्वैविध्यं दर्शयति सामान्यतो विशेषाचेति। तत्र सामान्यता नाम सर्वविशिष्टजनसाधारणानुष्ठानरूपः, विशेषात सम्यग्दर्शनाणुव्रताऽऽदिप्रतिपत्तिरूपः, चकार उक्तसमुच्चय इति // 4|| ध०१ अधिवा (गृहिधर्मः 'गिहिधम्म' शब्दे तृतीयभागे 868 पृष्ठे द्रष्टव्यः) (5) अथ लोकोत्तरमाहधम्मो बावीसविहो, अगारधम्मोऽणगारधम्मो य। पढमो य वारसविहो, दसहा पुण बीयओ होइ / / 12 / / धर्मों द्वाविंशतिविधः सामान्येन द्वाविंशतिप्रकारः, अगारधर्मा गृहस्थधर्मः, अनगारधर्मश्च साधुधर्मः / प्रथमश्चागारधर्मो द्वादशविधः। दशधा पुनर्द्वितीयोऽनगारधर्मो भवतीति गाथासमासार्थः / / 12 / / दश० 6 अ०॥ उपा०। पञ्चा०ा स्था०। (यतिधर्मः 'जइधम्म' शब्दे-ऽस्मिन्नेव भागे 1364 पृष्ठ द्रष्टटयः) (6) व्यासार्थ चाहसम्मत्तमूलमणुवय-पणगं तिन्नि उ गुणव्वया होति। सिक्खावयाइँ चउरो, वारसहा होइ गिहिधम्मो // 2 // तत्र सम्यक्त्वं निःसङ्गे ऽपि देशबलाऽऽयातमिथ्यात्वमोहनीयकममलपरिणामः तन्मूलमाद्यं प्रथमं यस्य तत्सम्यक्त्वमूलम, अनि लघूनि व्रतानि अणुव्रतानि, महाव्रतापेक्षया तेषामतिसूक्ष्मत्वात् / यदि वा-अनुपश्चात् महाव्रतकथनापेक्षया कथनीयत्वेन व्रतानि अनु-व्रतानि, तेषां पञ्चकमणुव्रतपञ्चकमनुव्रतपञ्चकं वा। (तिण्णि त्ति) संख्ययैतानि, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् त्रीण्येव न तु पञ्च चत्वारि वा, तेषामन्यथारूढत्वात्। किम्? गुणव्रतानि, प्राकृतत्वात् पुंलिङ्गता, व्रतानि गुणव्रतानि भवन्ति जायन्ते, श्रावकधर्म इत्यध्याहारः। चतुश्चत्वारि शिक्षाऽभ्यासस्तदूपाणि व्रतानि चतुःशिक्षाव्रतानि,तैः सहितः समन्वितः, इतिशब्दस्येह लुप्तदर्शनाद्व्रत इति श्रावकधो द्वादशधा द्वादशप्रकारः / इदमत्र हृदयम्- सम्यक्त्वमूलमणुव्रतपञ्चकं श्रावकधो भवति, त्रीणि गुणव्रतानि च चतुःशिक्षापदसहितश्च श्रावकधर्मो भवति / यद्वा-सम्यक्त्वं मूलमस्य सम्यक्त्वमूलः नपुंसकता तु प्राकृतप्रभवा / अणुव्रतानां पञ्चक यत्र सोऽणुव्रतपञ्चकः, प्राकृतवशाचान्यथानिर्देशः। ततः पञ्चाशुव्रतिकः, शेष पूर्ववदितिगाथार्थः / दर्श०२ तत्त्व तथा चपाणे य णाइवाएज्जा, अदिन्नं पि य णादए। सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमओ।।१६।। प्राणप्रियाणां प्राणिनां प्राणान्नातिपातयेत्। तथा परेणाऽदत्तं दन्तशोधनमात्रमपि, नाददीत न गृण्हीयात्। तथा-सहाऽऽदिना मायया वर्त्तत इति सादिक समायम्, मृषावादं न ब्रूयात्। तथाहि-परवञ्चनार्थ मृषावादोऽधिक्रियते, स च न मायामन्तरेण भवतीत्यतो मृषावादस्य माया आदिभूता वर्त्तते। इदमुक्तभवति-योहिपरवञ्चनार्थ समायो मृषावादःस परिहियते। यस्तु
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________________ धम्म 2667- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म संथमगुप्त्यर्थ न मया मृगा उपलब्धा इत्यादिकः स न दोषायेति। एषयः प्राक् निर्दिष्टो धर्मः, श्रुतचारित्राऽऽख्यस्वभावो वा (बुसीमउ ति) छान्दसत्वान्निर्देशार्थस्त्वयम् / वस्तूनि ज्ञानाऽऽदीनि, तद्वतो ज्ञाना.. ऽऽदिमत इत्यर्थः / यदि वा (वुसीमउ ति) वश्यस्य आत्मवशगस्य, वश्येन्द्रियस्येत्यर्थः / / 16 // अपि चअतिक्कम ति वायाए, मणसा वि न पत्थए। सव्वओ संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे।।२०।। (अइकमतीत्यादि) प्राणिनामतिक्रमं पीडाऽऽत्मक, महावतातिक्रमं वा मनोऽवधतया परतिरस्कार का, इत्येवंभूतमतिक्रमं वाचा मनसाऽपि न प्रार्थयत्। एतद्वयनिषेधे च कायातिक्रमो दूरत एव निषिद्धो भवति / तदेवं मनोवाक्काय-कृतकारितानुमतिभिश्व नवकेन भेदेनातिक्रमं न कुर्यात् / तथा इन्द्रियदमनेन तपसा वा दान्तःसन् मोक्षरयाऽऽदामगुपादानं सम्यग्दर्शनाऽऽदिकं सुष्ठद्युक्तः सम्यग्विस्रोतसिकारहित आहरेत आददीत, गृण्हीयादित्यर्थः / / 20 / / सूत्र० 1 श्रु० ८अ०। (7) अधुना यतिधर्मस्यावसरः / यद्वा-सम्यगभ्यस्तश्रावकधर्मग्यातितीव्रस्यैकान्ततो भवभ्रमणविमुखस्य संयतातिशिवसुखाभिलाषातिरकस्य यतिधर्मकरणश्रद्धोत्पद्यते, अतस्तत्स्वरूपनिरूपणायदमाहखंती य मद्दवऽज्जव, मुत्ती तवसंजमे य बोधव्वे / सचं सोयं आकिं-चणं च बभं च जइधम्मो / / 4 / / प्रायः प्रतीताथैव, नवरमाद्यपदचतुष्टयेन कषायजयः प्रतिपादितः। तपः पुनदिशप्रकार,तचान्यतोऽवसेयम्। संयमश्च सप्तदशविधः। यत उक्तम्"पञ्चाऽऽश्रवाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः। दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः // 1 // " सत्यं सर्वथाऽलीकपरिहरणं, शौचं वचनक्रिययोरविसंवादेन सदाचारता, आकिञ्चन्यं किचनं द्रव्यमुच्यते, ततो न किञ्चनमकिञ्चनमकिञ्चनस्य भाव आकिञ्चन्यमद्रव्यतेत्यर्थः। यतिधो भवतीति सर्वत्र योजनीयम् / मुक्तिपदोपादानेऽप्याकिञ्चनस्य लब्धत्वादाकिञ्चनपदोपादानं विशेषद्योतनार्थम्। विशेषश्चात्र संयमोपष्टम्भनिमित्त किश्चित्प्राशुकैषणीयमुपकरणं धारयन्नपि मुक्ततोपेत एव भवति। ननु पुनरतिजडताऽवष्टब्धमना दिगम्बरपरिकल्पनया मुक्तिमान, नस्या असंयमाऽऽदिदोषदुष्टत्वेनाभिमतत्वात् तर्हि संयमोपकारायैव सकिञ्चनताऽपि भविष्यति मुक्तता, नेत्याह-सर्वथैव संयमोपघातकत्वेनातिदुष्त्वादिति। चशब्दः समुचयार्थः / ब्रह्मच ब्रहाचर्य, रत्रीसेवापरिहार इति गाथार्थः / दर्श०२ तत्त्व / स्था०। तिविहे धम्मे पण्णत्ते। तं जहा-सुयधम्मे, चरित्तधम्मे, अत्थिकायधम्मे। (तिदिहे धम्मे इत्यादि) श्रुतमेव धर्मः श्रुतधर्मः स्वाध्यायः, एवं चारित्रधर्मः क्षान्त्यादिश्रमणधर्मः। अयं च द्विविधोऽपि द्रव्यभावभेदे धर्मे भावधार्म उक्तः / यदाह- "दुविहो उ भावधम्मो, सुयधम्मो खलु वरितधम्मो य। सुयधम्मे सज्झाओ, चरित्तधम्मे समणधम्मो / / 1 / / " इति / अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्ते, तेषां कायो राशिरस्तिकायः, स चासौ संज्ञया धर्मश्चेत्यस्तिकायधम्मो, गत्युपष्टम्भलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यर्थः / अयं च द्रव्यधर्म इति। स्था०३ ठा०३ उ०। प्रकारान्तरेण धर्मभेदानाहतिविहे भगवया धम्मे पण्णत्ते / तं जहा- सुअहिजिए, सुज्झाइए, सुतवस्सिए। जया सुअहिज्जियं भवइ तदा सुज्झाइयं भवई, जया सुज्झाइयं भवइ तया सुतवस्सियं भवइ / से सुअहिजिए सुज्झा-इए सुतवस्सिए सुयक्खाए णं भगवया धम्मे पण्णत्ते॥ "तिविहे" इत्यादि स्पष्ट, केवलं भगवता महावीरणेत्येवं जगाद सुधास्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतीति, सुष्टु कालविनयाऽऽद्याराधनेनाधीतं गुरुसकाशात् सूत्रतः पठितं स्वधीतं तथा सुष्ठ विधिना तत एव व्याख्यानेनार्थतः श्रुत्वा ध्यातमनुप्रेक्षितं श्रुतमिति गम्यं सुध्यातम्, अनुप्रेक्षणाभावे तत्वानवगमेनाध्ययनश्रवणयोः प्रायोऽकृतार्थत्वादिति। अनेन भेदद्वयेन श्रुतधर्म उक्तः। तथा सुष्टु इहलोकाऽऽद्याशंसारहितत्वेन तपसितं तपस्यनुष्ठानं सुतपसितमिति चारित्रधर्म उक्त इति त्रयाणामप्येवमुत्तरोत्तर तोऽविनाभावं दर्शयति- "जया'' इत्यादि व्यक्तं, पर निर्दोषाध्ययनं विना श्रुतार्थाप्रतीतेः सुध्यातं न भवति, तदभावे ज्ञानविकलतया सुतपसितं न भवतीति भावः / यदेतत् स्वधीताऽऽदित्रयं भगवता वर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रज्ञपः (से नि) स स्थाख्यातः सुष्ठूक्तः सम्यग्ज्ञानक्रियारूपत्वात् तयोश्चैकान्तिकाऽऽत्यन्तिकसुखाबन्ध्योपायत्वेन निरुपचरितधर्मत्वात् सुगतिधारणाद्धि धर्म इति / उक्तं च-- "नाणपगासयं सो-हओ तओ संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हं पि समाओगो, माक्लो जिणसासणे भणिओ // 1 // ' इति / णमितिवाक्यालङ्कारे, सुतपसितमिति। रथा०३ ठा०४ उ०। (8) द्रव्यभावभेदेन द्विविधं धर्म प्रतिपिपादयिषुराहदुह दव्वभाव धम्मो, दव्वे दव्वस्स दब्बमेवं वा। तित्ताइसभावो वा, गम्मादित्थी कुलिंगो वा।। धर्मा द्विविधः / तद्यथा- द्रव्यधर्मो, भावधर्मश्च / तत्र द्रव्ये इति द्वारपरामर्शः / द्रव्यविषयो धर्म उच्यते-द्रव्यस्यानुपयुक्तस्य धर्मो मूलोत्तरगुणानुष्ठानं द्रव्यधर्मः, "इह अनुपयुक्तो द्रव्यम्' इति वचनात्। द्रव्यमेव वा धर्मो द्रव्यधर्मः धर्मास्तिकायः (तित्ताइसहावो वा इति) तिक्ताऽऽदिर्वा द्रव्यस्य स्वभावो द्रव्यधर्मः। (गम्मादित्थी कुलिंगो वत्ति) गम्याऽऽदिधर्मः रत्रीविषयो द्रव्यधर्मः, तत्र केषाश्चित मातुलदुहिता गम्या केषाश्चिदगम्येत्यादि। तथा कुलिङ्गो वा कुतीर्थिकधर्मो द्रव्यधर्मः / पाठान्तरम्दुविहो उ होइ धम्मो, दव्वधम्मो य भावधम्मो य / धम्मत्थिकायदव्वे, दव्वस्स व जस्स जो भावो / सुगमा। भावधर्मप्रतिपादनार्थमाहदुह होइ भावधम्मो, सुयचरणे वा सुयम्मि सज्झातो। चरणम्मि समणधम्मो, खंती मुत्ती भवे दसहा / / द्विविधो भवति भावधर्मः / तद्यथा-श्रुतःचरणप्रकार: क्षान्त्यादिः। पाठान्तरम्भावम्मि होइ दुविहो, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य / सुयधम्मो सज्झातो, चरित्तधम्मो समणधम्मो //
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________________ धम्म 2668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म सुगमा / आ०म० २अ०। आ०चूला धम्मो दुर्गतिगर्तानिपतज्जन्तुजातत्राणदानक्षमः, सोऽपि नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाद्भिद्यमानव-तुर्धा संभवति / तत्र नामधर्मो यथा-कस्यचित्पुरुषाऽऽदे: सर्चतनस्यधर्म इति नाम प्रदीयते। स्थापनाधर्मो यथा-कस्यचिद्वस्तुनो धर्म इति स्थापना विधीयते--एष मया धर्मः पुनः समस्तान्यधार्मिकैर्धर्मबुद्ध्या परप्रतारणबुद्ध्या वा विधीयमानः सर्वोऽपि ध्यानाध्ययनाऽऽदिः द्रव्यधर्म एव / तथा-स्वदर्शनप्रतिपन्नानां श्रमणाऽऽदीनां चतुर्णामपि यचैत्यवन्दनप्रतिक्रमणस्वाध्यायाऽऽद्यनुष्ठानसेवनमविधिनाऽनुपयोगे न तथा-परोपरोधपरचित्तरञ्जनवां पार्श्वस्थाऽऽदीनां च यदनुष्ठानं तदपि द्रव्यधर्म एव, विवक्षितार्थसाधकत्वादिति / (विशेषश्वाऽत्र 'दव्वधम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2474 पृष्ठे द्रष्टव्यः) भावधर्मस्तुश्रुतचारित्ररूपः साधुश्रावकाऽऽदिभिः सम्यगुपयोगपूर्वक विधीयते। यच ग्रामदेशकुलराजधर्मभेदाचतुर्विधः, तत्र ग्रामधर्मो ग्रामाऽऽचारः, एवं देशाऽऽदिष्वप्यायोजनीयम् / दानाऽऽदिभेदेन वा चातुर्विध्यम् / तच प्रतीतमेवातो नेह प्रतन्यते। दर्श०४ तत्त्व। तथा च सूत्रकृताङ्ग निर्युक्तौ धर्मस्य नामाऽऽदिनिक्षेपं दर्शयितुमाह - णामं ठवणा धम्मो, दव्वधम्मो य भावधम्मो य। सचित्ताचित्तमीसग-गिहत्थदाणे दवियधम्मे // 2 // (नाम टवणेत्यादि) नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्धा धर्मस्य निक्षेपः / तत्राऽपि नामस्थापनेऽनादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो धर्म:सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा / तत्राऽपि सचित्तस्य जीवच्छरीरस्योपयोगलक्षणो धर्मः स्वभावः / एवमचित्तानामपि धर्मास्तिकायाना यो यस्य स्वभावः स तस्य धर्म इति। तथाहि-''गइलक्खणओ धम्मो, ठाणलक्खणओ अहम्मो या भायणं सव्वदव्याणं, तह अवगाहलक्खणं // 1 // " पुद्गलास्तिकायोऽपि ग्रहणलक्षण इति मिश्रद्रव्याणां च क्षीरोदकाऽऽदीनां यो यस्य स्वभावः स तद्धर्मतयाऽवगन्तव्य इति / गृहस्थानां च यः कुलनगरग्रामाऽऽदिधर्मो , गृहस्थेभ्यो गृहस्थानां वा यो दानधर्मः स द्रव्यधर्मः (सूत्र०)। भावधर्मस्वरूपनिरूपणायाऽऽहलोइयलोउत्तरिओ, दुविहो पुण होति भावधम्मो उ। दुविहो विदुविहतिविहो, पंचविहो होति णायव्यो।।३।। (लोइय इत्यादि) भावधर्मो नोआगमतो द्विविधः / तद्यथा-लौकिको, लोकोत्तरश्च / तत्र लौकिको द्विविधः- गृहस्थानां, पाखण्डिकानां च / लोकोत्तरत्रिविधः-ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात्। तत्राऽप्याभिनिबोधिकं ज्ञानं पञ्चधा / दर्शनमप्यौपशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकवेदकक्षायिकभेदात् पञ्चविधम् / चारित्रमपि सामायिकाऽऽदिभेदात् पञ्चविधम् / गाथाक्षराणि त्वेवं नेयानि / तद्यथा-भावधर्मो लौकिकलोकोत्तरभेदाद् द्विधा, द्विविधोऽपि चाऽयं यथा-संख्येन द्विविधस्त्रिविधः। तत्रैव लौकिको गृहस्थपाखण्डिकभेदाद-द्विविधः / लोकोत्तरोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्राभेदात् त्रिविधः। ज्ञानाऽऽदीनि प्रत्येकं त्रीण्यपि पञ्चधैवेति। सूत्र०१ श्रु० ६अ। (6) धर्मपदमधिकृत्यसूत्रस्पर्शिक नियुक्तिप्रतिपादनाया णामं ठवणा धम्मो, दव्वधम्मो अभावधम्मो उ। एएसिंणाणत्तं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए।।३६।। (णाम ट्वणा धम्मो त्ति) अत्र धर्मशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। नामधर्मः, स्थापनाधो, द्रव्यधर्मो, भावधर्मश्च / एतेषां नानात्वं भेदं वक्ष्ये अभिधास्ये, यथानुपूा यथानुपरिपाट्येति गाथार्थः / / 36 / / साम्प्रतं नामस्थापने क्षुण्णत्वादागमतो नोआगमतश्च ज्ञात्रनुपयुक्तज्ञशरीरेतरभेदॉश्वानादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तद्रव्यधर्माऽऽद्यभिधित्सयाऽऽहदव्वं च अस्थिकाओ, पयारधम्मो य भावधम्मो य। दव्वस्स पजवा जे, ते धम्मा तस्स दव्वस्स।।४।। इह त्रिविधोऽधिकृतो धर्मः 1 तद्यथा-द्रव्यधर्मः, अस्तिकायधर्मः, प्रचारधर्मश्चति / तत्र द्रव्यं चेत्यनेन धर्माधर्मिणोः कथञ्चिदभेदाद्द्रव्यधर्ममाह / तथाऽस्तिकाय इत्यनेन तु सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा उपलक्षणत्वादवयवे समुदायशब्दोपचारादस्तिकायधर्म इति / प्रचारधर्मश्चेत्यनेन ग्रन्थेन द्रव्यदेशमाह / भावधर्मश्चेत्यनेन तु भावधर्मस्य स्वरूपमाह। साम्प्रतं प्रथमोद्दिष्टद्रव्यधर्मस्वरूपाभिधित्सयाऽऽह-द्रव्यस्य पर्याया ये उत्पादविगमाऽऽदयस्ते च धमस्तिस्य द्रव्यस्य, ततश्व द्रव्यस्य धर्मा द्रव्यधर्मा इत्यनासंसक्तै कद्रव्यधर्माभावप्रदर्शनाथों बहुवचननिर्देश इति गाथार्थः / / 40|| इदानीमस्तिकायाऽऽदिधर्मस्वरूपप्रतिपिपादयिषयाऽऽह-- धम्मत्थिकायधम्मो, पयारधम्मो य विसयधम्मो उ। लोइय कुप्पावणिओ, लोगुत्तरलोगिणेगविहो / / 41 / / धर्मग्रहणाद्धर्मास्तिकायपरिग्रहः / ततश्वधर्मास्तिकायएव गत्युपष्टम्भकोऽसंख्येयप्रदेशात्मकोऽस्तिकायधर्म इति / अन्ये तु व्याचक्षतेधर्मास्तिकायाऽऽदिस्वभावोऽस्तिकायधर्मइत्येतच्चायुक्तम् / तत्र धर्मास्तिकायाऽऽदीनां द्रव्यत्वेन तस्य द्रव्यधाव्यतिरेकादिति। तथाप्रचारधर्मश्च विषयधर्म एव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्। तत्र प्रचरणं प्रचारः, प्रकर्षगमनमित्यर्थः / स एवाऽऽत्मस्वभावत्वाद्धमः प्रचारधर्मः / स च किं विषीदन्त्येतेषु प्राणिन इति विषया रूपाऽऽदयः तद्धर्म एव / तथा च वस्तुतो विषयधर्म एवाऽयं यद्रागाऽऽदिमान् सत्त्वस्तेषु प्रवर्तत इति / चक्षुरादीन् द्रव्यवशतो रूपाऽऽदिषु प्रवृत्तिः प्रचारधर्म इति हृदयम्। प्रधानसंसारनिबन्धनत्वेन चास्य प्राधान्यख्यापनार्थ द्रव्यधर्मात्पृथगुपन्यासः / इदानीं भावधर्मः, स च लौकिकाऽऽदिभेदभिन्न इति। आह च-लौकिकः कुप्रावचनिकः / लोकोत्तरस्त्वत्र-(लोगो णेगविहो त्ति) लौकिकोऽनेकविध इति गाथाऽर्थः / / 41 // तदेवानेकविधत्वमुपदर्शयन्नाहगम्मपसुदेसरजे, पुरवरगामगणगोहिराईणं / सावज्जो उ कुतित्थिय-धम्मो न जिणेहिँ उपसत्थो / / 4 / / तत्र गम्यधर्मों यथा दक्षिणापथे मातुलदुहिता गम्या, उत्तरापथे पुनरगम्यैव / एवं भक्ष्याभक्ष्यपेयापेयविभाषा कर्तव्येति / पशुधम्मो मात्रादिगमनलक्षणः / देशधर्मों देशाचारः। स च प्रतिनियत एव नेपथ्याऽऽदिलिङ्ग भेद इति / राज्यधर्मः प्र--
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________________ धम्म 2666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म तिराज्य भिन्नः स च कराऽऽदिः पुरवरधर्मः प्रतिपुरवरं भिन्नः, वचित् किञ्चिद्विशिष्टोऽपि पौरभाषाप्रतिपादनाऽऽदिलक्षणः / सद्वितीया योषिनेहान्तरं गच्छतीत्यादिलक्षणो वा / ग्रामधर्मः प्रतिग्राम भिन्नः। गणधर्मोमल्लाऽऽदिगणव्यवस्था यथा रामपदपातेन विषभग्रह इत्यादि। गोष्ठीधर्मो गोष्ठीव्यवस्था। इह चसमवयःसमुदायो गोष्टी। तद्व्यवस्था पुनर्वसन्ताऽऽदावेवंकर्तव्यमित्यादिलक्षणा / राजधर्मो दुष्टेतरनिग्रहपरिपालनाऽऽदिरिति / भावधर्मता चाऽस्य गभ्याऽऽदीनां विवक्षया भावरूपत्वाद् द्रव्यपर्यायत्वाद्वा तस्यैव च द्रव्यानपेक्षस्य विवक्षितत्वाद् लौकिकैर्वा भावधर्मत्वेनेष्टत्वात्। देशराज्याऽऽदिभेदश्चैकदेश एवानेकराज्य-संभव इत्येवं सुधिया भाव्यम् / इत्युक्तो लौकिकः। कुप्रावचनिक उच्यतेअसावपि सावद्यप्रायो लौकिककल्प एव / यत आह- (सावज्जो उ इत्यादि) अवयं पापं सहावद्येन सावद्यः / तुशब्दरत्वेवकारार्थः / स चावधरणे / सावद्य एव, कः? कुतीर्थिकधर्मश्चरकपरिव्राजकाऽऽदिधर्म इत्यर्थः / कुत एतदित्याह-न जिनरर्हद्भिस्तुशब्दादन्यैश्च प्रेक्षापूर्वकारिभिः प्रशसितः स्तुतः। सारम्भपरिग्रहत्वाद् / अत्र बहुवक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रफलत्वात्प्रस्तुतव्यापारस्येति गाथार्थः / / 4 2 / / उक्तः कुप्रावचनिकः। साम्प्रतं लोकोत्तरं प्रतिपादयन्नाहदुविहो लोगुत्तरिओ, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य। सुयधम्मो सज्झाओ, चरित्तधम्मो समणधम्मो।।४३।। द्विविध द्विप्रकारो, लोकोत्तरो लोकप्रधानो, धर्म इति वर्त्तते / तथा चाऽऽह- श्रुतधर्मः, खलु चारित्रधर्मश्च / तत्र श्रुतं द्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः / खलुशब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि। स हि वाचनाऽऽदिभेदाचित्र इति। आह च-श्रुतधर्मः स्वाध्याय-वाचनाऽऽदिरूपस्तत्त्वचिन्तायां धर्महेतुत्वाद् धर्म इति / तथा चारित्रधर्मश्च तत्र 'चर' गतिभक्षणयोरित्यस्य "अर्तिलूधूसूखन-सहचर इत्रः" / / 3 / 2 / 184 // इति इत्रप्रन्ययान्तस्य चरित्रमिति भवति। चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्र क्षयोपशमरूपं, तस्य भावश्चारित्रमशेषकर्मक्षयाय चेष्टेत्यर्थः। ततश्चारित्रमेव धर्मश्चारित्रधर्म इति / चःसमुच्चये / अयं च श्रमणधर्म एवेत्याहचारित्रधनः श्रमणधर्म इति / तत्र श्राम्यतीति श्रमणः "कृत्यल्युटो बहुलम्" ||3 / 3 / 113 / / इति वचनात् कर्तरि ल्युट् श्राग्यतीति तपस्यतीति / एतदुक्तं भवतिप्रव्रज्यादिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरतौ गुरूपदेशादनशनाऽऽदि यथाशक्त्या प्राणोपरमात्तपश्चरतीति / उक्तं च-"यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च। तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः।।१।।" इति। तस्य धर्मः स्वभावः। श्रमणधर्मश्व क्षान्त्यादिलक्षणो वक्ष्यमाण इति गाथार्थः / / 43 / / दश०१ अ०। / धर्मभेदान् सामान्येन निरूपयन्नाहदसविहे धम्मे पण्णत्ते। तं जहा–गामधम्मे, नगरधम्मे, रट्ठधम्मे, पाखंडधम्मे, कुलधम्मे , गणधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, चरित्तधम्मे, अस्थिकायधम्मे / स्था०० ठा०। (कस्य दर्शन कति धर्मभेदा इति 'वाद' शब्दे वक्ष्यते) (10) धर्मस्य स्वलक्षणाभित्सया सम्बन्धमुपरचयति प्रकरणकार:- | अस्य स्वलक्षणमिदं, धर्मस्य बुधैः सदैव विज्ञेयम्। सर्वाऽऽगमपरिशुद्धं, यदादिमध्यान्तकल्याणम्॥१।। (अस्येत्यादि) अस्य धर्मस्य स्वलक्षणं लक्ष्यते तदितरव्यावृत्तं वरत्वनेनेति लक्षणम् / स्व च तल्लक्षणं चेति स्वलक्षणमिदं वक्ष्यमाणं बुधैर्विद्वद्भिः सदैव सर्वकालमेव विज्ञेयम् / सर्वकालव्याप्त्या लक्षणस्याऽन्यथात्वाभावमुपदर्शयति सर्वैरागमैः परिशुद्ध निर्दोष यदादि-- मध्यान्तकल्याणमादिमध्यावसानेषु सुन्दरमिति योऽर्थः / / 1 / / किं पुनर्धर्मस्य स्वलक्षणमित्याहधर्मश्चित्तप्रभवो, यतः क्रियाऽधिकरणाऽऽश्रयं कार्यम्। मलविगमेनैतत् खलु, पुष्ट्यादिमदेष विज्ञेयः॥२॥ (धर्म इत्यादि) प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः / चित्तरूपत्वाचित्तहेतुकत्वाचरित्रं, चित्तं स चाऽसौ प्रभवश्च चित्तप्रभवः स धम्मों विज्ञेयः। विशेषणसमासाड्गीकरणाद्यच्छब्दन चित्तमेव परामृश्यते, यतश्चित्तात्क्रिया प्रवर्त्तते विधिनिषेधविषया। सा च क्रिया कार्य चित्तनिष्पाद्यत्वात् / तच स्वरूपेण क्रियालक्षणं कार्य कीदृशं यचित्तात्प्रवर्त्तत इत्याहअधिकरणाऽऽश्रयमिह यद्यप्यधिकरणशब्दः सामान्येनाऽऽधारवचनस्तथापि प्रक्रमात चित्तस्याधिकरणमाश्रयः शरीरं, चित्तस्य शरीराssधारत्वात्। क्रियालक्षण कार्यमधिकरणाऽऽश्रय शरीराऽऽश्रयं यतः प्रवर्तते चित्तात्तच्चित्तं धर्म इत्युक्तम् / चित्तात्प्रभवतीति पुनरुच्यते चित्तस्य। एतत्पुष्ट्यादिमदित्यनेन सह संबन्धो न स्यात्। यत् इत्यनेनापि केवलमेव चित्तं न गृहोता तथा धर्मस्यैव विशेष्यत्व स्यान्न चित्तस्य, ततश्च चित्तस्य विशेषणपदैरभिसंबन्धो न स्यादिति दोषः / एतदेव चित्तं मलविगमेन रागाऽऽदिमलापगमेन पुष्ट्यादिमत् पुष्टिशुद्धिद्वयसमन्वितमेष धर्मा विज्ञेय इति / / 2 / / मलविगमेनेतत्खलु पुष्टिमदित्युक्त, तत्र के मलाः कथं च पुष्ट्यादिमत्त्वं चित्तस्येत्येवं वक्तुकामनायो श्रोतुरिदमाह-- रागाऽऽदयो मलाः ख-ल्यागमसद्योगतो विगम एषाम् / तदयं क्रियात एव हि, पुष्टिः शुद्धिश्च चित्तस्य / / 3 / / (रागाऽऽदय इत्यादि) इह मलाः प्रक्रमाश्चित्तस्यैव संबन्धिनः परिगृह्यन्ते। ते च रागाऽऽदयो रागद्वेषमोहा जातिसंग्रहीताः / व्यक्तिभेदेन तु भूयांसः / खलुशब्दावधारणादागाऽऽदय एव नान्ये / आगमनमागमः सम्यकपरिच्छेदस्तेन सद्योगः सद्व्यापारः आगमसहितो वा यः सद्यो-- गः सतक्रियारूपः / ततः सकाशाद्विगम एषां रागाऽऽदीना मलापगमः संजायते / तत् तरमादयमागमसद्योगः क्रिया वर्तते सर्वाऽपि शास्त्रोक्ता विधिप्रतिषेधाऽऽत्मिका / अत एव ह्यागमसद्योगात् क्रियारूपात पुष्टिवक्ष्यमाणस्वरूपा शुद्धिश्च चित्तस्य संभवति / / 3 / / पुष्टिशुद्ध्योर्लक्षणं दर्शयतिपुष्टिः पुण्योपचयः, शुद्धिः पापक्षपेण निर्मलता। अनुबन्धिनि द्वयेऽस्मिन्, क्रमेण मुक्तिः परा ज्ञेया |4|| (पुष्टिरित्यादि) उपचीयमानपुण्यता पुष्टिरभिधीयते, शुद्धिः पापक्षयेण निर्मलता, पाप ज्ञानावरणीयाऽऽदि च सम्यगज्ञानाऽऽदिगुणविघातहेतुर्घातिकर्मोच्यते। तत्क्षयेण यावती काचिद्देशतोऽपि निर्मलता संभवति सा शुद्धिरुच्यते, अनुबन्धः सन्तानः
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________________ धम्म 2670- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 प्रवाहोऽविच्छेद इत्यनान्तरम् / स विद्यते यस्य द्वयस्य तदिदमनुबन्धि तस्मिन् पुष्टिशुद्धिद्वयेऽस्मिन् प्रत्यक्षीकृते सति क्रमेणाऽऽनुपूा पुण्योपचयपापक्षयाभ्यां प्रवर्द्धमानाभ्यां तस्मिन् जन्मनि भवान्तरेषु वा प्रकृष्यमाणवीर्यस्य जीवस्य मुक्तिः परा तात्त्विकी सर्वकर्मक्षयलक्षणा ज्ञेयेति // 4 // कथं पुनरिदमनुबन्धिद्वयं न भवतीत्याहन प्राणिधानाऽऽद्याशय-संविद्वयतिरेकतोऽनुबन्धि तत्। भिन्नग्रन्थेनिर्मल-बोधवतः स्यादितं च परा।।५।। (नेत्यादि) (प्राणिधानाऽऽद्याशयसंविद्व्यतिरेकत इति) प्रणिधानाऽऽदयश्च ते आशयाश्च वक्ष्यमाणाः पञ्चाध्यवसायस्थानविशेषास्तेषां संवित्संवित्तिः संवेदनमनुभवस्तस्याव्यतिरेकोऽभावस्तस्मात्तदाशयसंविदव्यतिरेकेणैतद्वयं पुष्टिशुद्धिरूपं नानुबन्धि भवति, तस्मादेतदद्वयमनुबन्धिक कामेन प्रणिधानाऽऽदिषु यतितव्यम् / इयं च कस्येत्याह-भिन्नग्रन्थेरपूर्वकरणबलेन कृतग्रन्थिभेदस्य तत्प्रभावादेव निर्मलबोधवतो विमलबोधसंपन्नस्य स्याद्भवे दियं च प्रस्तुता प्रणिधानाऽऽद्याशयसंवित् परा प्रधाना / / 5 / / प्रणिधानाऽऽदिराशय उक्तस्तमेव संख्याविशिष्ट नामग्राहमाहप्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नन-यसिद्धिविनियोगभेदतः प्रायः। धर्मज्ञैराख्यातः, शुभाऽऽशयः पञ्चधाऽत्र विधौ / / 6 / / प्रणिधिश्च प्रवृत्तिश्च विघ्नजयश्च सिद्धिश्च विनियोगश्च एत एव भेदास्तानाश्रित्य कर्मणिल्यबलोपे पशमी / प्रणिधिप्रवृत्तिविधनजयसिद्धिविनियोगभेदतः (प्राय इति) प्राचुर्येण शारत्रेषु धम्मधर्मवदिभिराख्यातः कथितःशुभाऽऽशयः शुभपरिणामः पञ्चधा पञ्चप्रकारः। अत्र प्रक्रमे विधौ कर्त्तव्योपदेशे प्रतिपादिताऽऽशयपञ्चकव्यतिरेकण। पुष्टिशुद्धिलक्षण द्वयमनुबन्धि न भवतीति॥६॥ तत्र प्रणिधानलक्षणमाहप्रणिधानं तत्समये, स्थितिमत्तदधः कृपानुगं चैव। निरवद्यवस्तुविषयं, परार्थनिष्पत्तिसारंच!|७|| (प्रणिधानमित्यादि) प्रणिधानं विशेष्यं, शेषपदानि विशेषणानि / तत्समये प्रतिपन्न विवक्षितधर्मस्थानमर्यादायां स्थितिमतप्रतिष्ठितमविचलितस्वभावं तदधः कृपानुग चैव स्वप्रतिपन्नधर्मस्थानरयाधोsधस्ताद्ये वर्तन्ते जीवा न तावती धर्मपदवीमाराधयन्ति, तेषु कृपया कराणया अनुरागमनुगतं तेषु करुणापरम्। न तु गुणहीनत्वात्तेपु द्वेषसमन्वितं निरवद्यवस्तुविषय, निरवद्य सावधपरिहारेण यद्वस्तु धर्मगतं तद्विषयो यस्य परार्थनिष्पत्तिसारंच परोपकारनिष्पत्तिप्रधानं चैवरवरूप प्रणिधानमवसेयम् // 7 // इदानी प्रवृत्तिमाहतत्रैव तु प्रवृत्तिः,शुभसारोपायसद्गतात्यन्तम्। अधिकृतयत्नातिशया-दौत्सुक्यविवर्जिता चैव // 8|| (तत्रैवेत्यादि) तत्रैव तु विवक्षितप्रतिपन्नधर्मस्थाने प्रवृत्तिरेवस्वरूपा भवति। सा च न क्रियारूपा किं त्वाशयरूपा, शुभसारोपायसंगताऽत्वन्तं बाह्यक्रियाद्वारेण विशेषणं सर्वं योजनीयम् / शुभः सुन्दरः सारः प्रकृष्टो नैपुण्यान्वितो य उपायस्तेन संगता युक्ता, अधिकृते धर्मरथाने यत्नातिशयः प्रयत्नाऽऽशयस्तरमात् सा संपद्यते, औत्सुक्यविवर्जिता चैव औत्सुक्यं त्वराभिलाषातिरेकस्तेन विवर्जिता विरहिता प्रयत्नातिशयमेव विधत्ते न त्वौत्सुक्यमिति भावः / / 8 / / अधुना विघ्नजयमाह-- विघ्नजयस्त्रिविधः खलु, विज्ञेयो हीनमध्यमोत्कृष्टः। मार्ग इह कण्टकज्वर-मोहजयसमः प्रवृत्तिफलः ||6|| (विघ्नजयविविधः खलु विज्ञेय इति) विघ्नस्य धर्मान्तरायस्य जयः पराभवो निराकरणं स त्रिविधस्तिस्रो विधा अस्येति त्रिविधस्त्रिभेदः / खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे। त्रैविध्यमेवाऽऽहहीनमध्यमोत्कृष्टः हीनमध्यमाभ्यां सहित उत्कृष्ट एको हीनो विघ्नजयोऽपरो मध्यमोऽपरस्तूत्कृष्ट इति। त्रैविध्यमेव निदर्शनेन साधर्म्यगर्भमाहमार्ग इह कण्टकज्वरमोहजयसम इति। मार्गे प्रवृत्तस्य पुंसः कण्टकविघ्नजयसमो ज्वरविघ्नजयसमोमोहविघ्नजयसमः। इदमत्र तात्पर्यम्-यथा नाम कस्यचित्पुरुषस्य प्रयोजनवशान्मार्गप्रवृत्तस्य कण्टकाऽऽकीर्णमार्गावतीर्णस्य कण्टकविघ्नो विशिष्टगमनविघातहेतुर्भवति / तद्रहिते तु पथि प्रवृत्तस्य गमनं निराकुलं संजायते / एवं कण्टकविघ्नजयसमः प्रथमो विघ्नजयः। कण्टकाश्चैह सर्वे एव प्रतिकूलाः शीतोष्णाऽऽदयो धर्मस्थानविघ्नहेतवस्तैरभिद्रुतस्य धार्थिनोऽपि निराकुलप्रवृत्त्यसिद्धेः। आशयभेदश्वायं बाह्यकण्टकविघ्नजयेनोपलक्ष्यते / तथा-तस्यैव ज्वरवेदनाऽभिभूतशरीरस्य विह्वलपादन्यासस्य निराकुलं गमनं चिकीर्षोरपि, कर्तुमशक्नुवतः कण्टकविघ्नादभ्यधिको ज्वरविघ्नस्तज्जयस्तु विशिष्टगमनप्रवृत्तिहेतुर्निराकुलशरीरत्वेन परिदृश्यते / इहापि ज्वरकल्पाः शारीरा एव रोगाः परिगृह्यन्ते / तदभिभूतस्य विशिष्टधर्मस्थानाऽऽराधनाऽक्षमत्वात्। ज्वरकल्पशारीरदुःखविघ्नजयस्तु सम्यग्धर्मस्थानाऽऽराधनाय प्रभवति / तस्येवाध्वनि जिगमिषोः पुरुषस्य दिग्मोहकल्पो मोहविघ्नस्तेनाभिभूतस्य पुनः पुनः प्रेर्यमाणस्याप्यध्वनीनैर्न गमनोत्साहः कथञ्चित् प्रादुर्भवति। मोहविघ्नजयस्तु स्वयमेव मार्गसम्यक्परिज्ञानात्परैश्वोच्यमानमार्गश्रद्धानान्मन्दोत्साहतापरित्यागेन गमनप्रवृत्तिहेतुर्भवति / इहापि दिइमोहगमनविघ्नकल्पो मिथ्यात्वाऽऽदिजनितो मनोविभ्रमः परिग्रह्यते। तज्जयस्तु मिथ्यात्वाऽऽदिदोषनिराकरणद्वारेण / मनोविभ्रमापसारकत्वेन प्रस्तुतधर्ममार्गेऽनवरतप्रयाणकप्रवृत्या गमनाय संपद्यते। एवं कण्टकज्वरमोहविघ्नजयसमस्त्रिविधी विघ्नक्षय उक्तः। स एव विशिष्यतेप्रवृत्तिफलः प्रवृत्तिधर्मस्थानविषया फलमस्याऽऽशयविशेषस्य विघ्नजयसंज्ञितस्येति प्रवृत्तिफलः / / 6 / / एवं तृतीयमाशयभेदं प्रतिपाद्यं सिद्धिरूपमाशयमाहसिद्धिस्तत्तद्धर्म-स्थानावाप्तिरिह तात्त्विकी ज्ञेया। अधिके विनयाऽऽदियुता, हीने च दयाऽऽदिगुणसारा॥१०॥ (सिद्धिरित्यादि) सिद्धिर्नामाऽऽशयभेदः, सा च स्वरूपतः कीदृशी? तत्तद्धर्मस्थानावाप्तिरिह तात्त्विकी ज्ञेया तस्य तस्य विवक्षितस्य धर्मस्थानरयाऽहिंसाऽऽदेवाप्तिः सिद्धिरुच्यते। साचतात्त्विकादंच विशेषणं तत्तद्धर्मस्थानावाप्रतात्विकत्वपरिहारार्थम् / न ह्यतात्त्विकी सा सिद्धिर्भवितुर्महति / सा च सिद्धिरधिके पुरुषविशेषे सूत्रार्थोभयवेदिन्यभ्यस्तभावनामार्गे तीर्थकल्पे गुरो विनयाऽऽदियुत्ता विनयवैयावृत्त्यबहुमानाऽऽदिसमन्विता हीने च स्वप्रतिपन्नधर्मस्थानापेक्षया हीनगुणे निर्गुणे वा.
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________________ धम्म 2671 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म सामान्येनवै प्राणिगणे दयाऽऽदिगुणसारा दयादानव्यसनपतितदुःखापहाराऽऽदिगुणप्रधानाधिकहीनगुणग्रहणाद् मध्यमोपकारफलवत्यपि सा सिद्धित्युिक्तं भवति / / 10 / / एवं सिद्धिमभिधाय तत्फलभूतमेव विनियोगमाहसिद्धेश्चोत्तरकार्य , विनियोगेऽवन्ध्यमेतदेतस्मिन्। सत्थद्वयसंपत्त्या, सुन्दरमिति तत्परं यावत्॥११॥ सिद्धेश्चोत्तरकार्य विनियोगः सिद्धेरुत्तरकालभावि / कार्य विनियोगा नामाऽऽशयभेदो विज्ञेय इति संबन्धनीयम् / अवन्ध्यं सफल, न कदाचिन्निष्फलमेतर्द्धमस्थानमहिंसाऽऽदि, एतस्मिन् विनियोगे सति संजातेऽन्वयसंपत्त्याऽविच्छेदसंपत्त्या हेतुभूतया सुन्दरमेतत्पूर्वोक्तं धर्मस्थानम् / इतिशब्दो भिन्नक्रमः / परमित्यनेन संबन्धनीयो यावत् (तत्परमिति) तद्धर्मस्थानं पर प्रकृष्ट यावत्संपन्नमनेन विनियोगग्याऽनेक्जन्मान्तरसन्तानक्रमेण प्रकृष्टधर्मस्थानावाप्तिहेतुत्वमावेदयति / इदमत्र हृदयम्--अहिंसाऽऽ दिलक्षणधर्मस्थानावाप्तौ सत्यां स्वपरयोरुपकाराचा विच्छेदेन तस्यैव धर्मस्थानस्य विनियोगो व्यापारः स्वात्मतुन्यपरफलकर्तृत्वमभिधीयते। एवं हि स्वयं सिद्धस्य वस्तुनो विनियोगः सम्यक्कृतो भवति / यदि परस्मिन्नपि तत्संपद्यते विशेषेण नियोगो नियोजन्मध्यारोपणमिति कृत्वा आशयभेदत्वाच्च विनियोगस्याऽबन्ध्यत्वाप्रतिपादनप्रक्रियया स्वरूपोपकारहेतुत्वं दर्शयति सूत्रकारः॥११॥ एवमेतान्प्राणिधानाऽऽदीनभिधाय कथाशित क्रियारूपत्वप्राप्ताचषामाशयविशेषत्वसमर्थनायाऽऽह-- आशयभेदा एते, सवेऽपि हि तत्त्वतोऽवगन्तव्याः। भावोऽयमनेन विना, चेष्टा द्रव्यक्रिया तुच्छा // 12 // आशयभेदा आशयप्रकारा एते पूर्वोक्ताः सर्वेऽपि हि सर्व एव कथञ्चित् क्रियारूपत्वेऽपि तदुपलक्ष्यतया तत्त्वतः परमार्थेनावगन्तव्या विज्ञेयाः परिणामविशेषा एते इति / शुभाऽऽशयः पञ्चधा त्रिविधो वेत्युक्तं स किं भावादपरोऽथ भाव एवेत्याशङ्कायामिदमाह- (भावोऽयमिति) अयं पञ्चप्रकारोऽप्याशयो भाव इत्यभिधीयते / अनेन भावेन विना चेष्टा व्यापाररूपा कायवाड्मनः सङ्गताः द्रव्यक्रिया तुच्छा भावविकला क्रिया द्रव्यक्रिया तुच्छा असारा स्वफलाऽसाधकत्वेन॥१२॥ कस्मात्पुनर्द्रव्यक्रियायास्तुच्छत्वाऽऽपादनेन भावप्राधान्य-माश्रीयत इत्याहअस्माच सानुबन्धा- च्छुद्ध्यन्तोऽवाप्यते द्रुतं क्रमशः। एतदिह धर्मतत्त्वं,परमा योगो विमुक्तिरसः / / 13 / / (अस्माचेत्यादि) अस्मात् पूर्वोक्तादावादाशयपक्षकरूपात सानुबन्धात् अनुबन्धः सन्तानस्तेन सह वर्तते यो भावः स सानुबन्धस्तदविनाभूतः, स चाव्यवच्छिन्नसन्तानस्तस्मादेव-विधादावाच्छुद्धे रन्तःप्रकर्षः शुद्ध्यन्ताऽवाप्यते प्राप्यते द्रुतमविलम्बित प्रभूतकालात्ययविगमेन क्रमशः क्रमेणाऽनुपूा तस्मिन् जन्मन्यपरस्मिन्वा कर्मक्षयप्रकर्षोलभ्यते ननु चैष एव भावो धर्मपरमार्थ आहोस्विदन्यद्धर्मतत्त्वमित्यारेकायां परस्य निर्वचनमाह-एतदिह धर्मतत्त्वम् / अत्र यद्यपि भावस्य प्रस्तुतत्वादेतदित्यत्र पुंलिङ्गतायामेष इति निर्देशः प्राप्नोति तथाऽपि धर्मतत्त्वमित्यस्य पदस्य प्रधानापेक्षया नपुंसकनिर्देशोऽर्थरन्तु एतदिह प्रस्तुतं भावस्वरूपं धर्मतत्त्वं नान्चत् परमो योग इति / अयं भावः-परमो योगों वर्तते, सच कीदृग्? विमुक्तिरसः विशिष्ट मुक्तिर्विमुक्तिस्तद्विषयो रसः प्रीतिविशेषो यस्मिन् योगे स विमुक्तिरसः विमुक्ती रसोऽस्येति वा गमकत्वात् समासः। अथवा-पृथगेवपदान्तरं न विशेषणं, तेनाऽयं भावोविमुक्तौ रसः प्रीतिविशेषो विमुक्तिरस उच्यते एतदुक्तं भवतिभाव एव धर्मतत्त्वं भाव एव च परमो योगो भाव एव च विमुक्तिरस इति !|13|| ननु च भावाच्छुड्यन्तोऽवाप्यते इत्युक्तं, शुद्धिश्च पापक्षयेण प्रागुक्ता कथं पुनः पापमतीतेऽनादौ काले यद् भूयो आसेवितं तत्त्यक्त्वा भावमेवाभिलषति न पुनः पापं बहु मन्यते इत्याहअमृतरसाऽऽस्वादज्ञः, कुभक्तरसलालितोऽपि बहुकालम्। त्यक्त्वा तत्क्षणमेनं, वाञ्छत्युच्चैरमृतमेव / / 14 // (अमृतेत्यादि) अमृतरसस्याऽऽस्वादस्तं जानातीत्यमृतरसाऽऽस्वादज्ञः कुभक्तरसलालितोऽपि कुभक्तानां कदशनाना यो रसस्तेन लालितोऽप्यभिरमितोऽपि पुरुषो बहुकालं प्रभूतकाल नैरन्तर्यवृत्त्याऽत एवं 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' / / 2 / 3 / 5 / / इति द्वितीया / त्यक्त्वा परित्यज्य तत्क्षणं तस्मिन्नेव क्षणे, शीघ्रमेनं कुभक्तरसममृतरसज्ञत्वेन वाञ्छत्यभिलषत्युचैरमृतमेव सुरभोज्यममृतमभिधीयते / तद्धि सर्वरससंपन्नत्वात् स्पृहणीयमतितरां भवति॥१४॥ एवं त्यपूर्वकरणात्, सम्यक्त्वामतरसज्ञ इह जीवः। चिरकालाऽऽसेवितमपि, न जातु बहु मन्यते पापम् / / 25 / / (एवं त्वित्यादि) एवं त्वपूर्वकरणात्। एवमेवापूर्वकरणादपूर्वपरिणामात् सम्यक्त्वामृतरसज्ञ इह जीवः सम्यक्त्वामृतरसमनुभवद्वारेण जानातीति तज्ज्ञ उच्यते / चिरकालाऽऽसे वितमपि प्रभूतकालाभ्यस्तमपि न जातुचित् न कदाचित् बहु मन्यते बहुमानविषयीकरोति पापं मिथ्यादर्शनमोहनीयं तत्कार्य वा प्रवचनोपघाताऽऽदि / इह च कुभक्तरसकल्पं पापमिथ्यात्वाऽऽदि / अमृतरसाऽऽस्वादकल्पो भावः सम्यक्त्वाऽ5दिवसेय इति॥१५॥ सम्यक्त्वामृतरसज्ञो जीवः पापं न बहु मन्यते इत्युक्तम् / तत्र सम्यगदृष्टिरपि विरतेरभावात् पापं कुर्वन् दृश्यते एवेत्याशयाऽऽहयद्यपि कर्मनियोगात्. करोति तत्तदपि भावशून्यमलम्। अत एव धर्मयोगात्, क्षिप्रं तसिद्धिमाप्नोति।।१६।। यद्यपि कथञ्चित् कर्मनियोगात् कर्मव्यापारात् करोति विदधाति तत पाप तदावशून्यमलं तदपि क्रियमाणं पापं भावशून्यमिह पापवृत्तिहेतुर्भावः क्लिष्टाध्यवसायस्तेन शून्यमलमत्यर्थ सम्यग्दृष्टिर्हि पापं कुर्वाणोऽपि न भावतो बहुगन्यते। यथेदमेव साध्विति। अत एव पापाsबहुमानद्वारण। धर्मयोगाद्धोत्साहासर्मसंबन्धाद्वा क्षिप्रमचिरेण तत् सिद्धिमाप्नोति धर्मनिष्पत्तिमवाप्नोतीति // 16 // षो० 3 विव०। (11) अस्य स्वलक्षणमिदं धर्मस्येत्युक्त प्राक्तत्रास्यैव धर्मतत्त्वस्य विस्तरेण लिङ्गान्याहसिद्धस्य चास्य सम्यग, लिङ्गान्येतानि धर्मतत्वस्य / विहितानि तत्त्वविद्भिः, सुखावबोधाय भव्यानाम्॥१॥
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________________ धम्म 2672 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 सिद्धस्य च निष्पन्नस्य चास्य प्रत्यक्षीकृतस्य सम्यगवैपरीत्येन प्रशस्तानि वा लिङ्गानि लक्षान्येतानि वक्ष्यमाणानि धर्मतत्त्वस्य धर्मस्वरूपस्य विहितानि शास्त्रेऽभिहितानि तत्त्व विद्भिः परमार्थवदिभिः सुखावबोधाय सुखपरिज्ञानाय येन तानि सुखेनैव बुद्ध्यन्ते भव्याना योग्यानाम् // 1 // तान्येन लिङ्गानि स्वरूपतो ग्रन्थकारः पठतिऔदार्य दाक्षिण्यं, पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोधः। लिङ्गानि धर्मसिद्धेः,प्रायेण जनप्रियत्वं च // 2 // उदाररु भाव औदार्य वक्ष्यमाणलक्षण, दक्षिणोऽनुकूलस्तद्भावो दाक्षिण्य निर्देक्ष्यमाणस्वरूपं पापजुगुप्सा पापपरिहारः। अथ निर्मलो बोधोऽभिधास्यमानस्वरूपः, लिङ्गानि चिह्नानि धर्मसिद्धर्धर्मनिष्पतेः प्रायेण बाहुल्येन जनप्रियत्वं च लोकप्रियत्वं च / / 2 / साम्प्रतमीदार्यलक्षणमाहऔदार्य कार्पण्य-त्यागाद्विज्ञेयमाशयमहत्त्वम्। गुरुदीनाऽऽदिष्वौचि-त्यवृत्ति कार्ये तदत्यन्तम् / / 3 / / औदार्य नाम धर्मतत्त्वलिङ्ग, कार्पण्यत्यागात् कृपणभावपरित्यागादतुच्छवृत्त्या विज्ञेयमाशयमहत्त्वमाशयस्याध्यवसायस्य महत्त्व विपुलत्वम्। तदेव विशिष्यते-गुरुदीनाऽऽदिष्वौचित्यवृत्ति गुरुषु गौरवाहेषु तदधिकारे। यथोक्तम्- 'माता पिता कलाऽऽचार्यः, एतेषां ज्ञातयस्तथा। वृद्धा धर्मोपदेशशरो, गुरुवर्गः सता मतः / / 1 / / " दीनाऽऽदिषु चानाधारेषु यदौचित्यवृत्ति औचित्येन वृत्तिरस्मिन्नौदार्य आशयमहत्त्वे वा तदौचित्यवृत्ति, कार्ये कार्यविषये तदौदार्यमाशयमहत्त्व वा अत्यन्तमतिशयेन औचित्यवृत्तिकारि वा, एतद् गुर्वादिषु // 3 // षो०४ विव०। (दाक्षिण्यम् [4] इत्यादिना दाक्षिण्यलक्षणं 'दक्खिण्ण' शब्दे 2441 पृष्टेऽत्रैव भागे गतम्) (पापजुगुप्सा [5] इत्यादिना पापजुगुप्सालक्षणं पावदुगुंछा' शब्दे वक्ष्यते) (निर्मल [6] इत्यादिना निर्मलबोधलक्षणं 'णिम्मलबोहवंत' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2084 पृष्ठे गतम्) (युक्तम् [7] इत्यादिना जनप्रियत्वलक्षणं 'जणप्पियत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1388 पृष्ठे रामुक्तम्) / एवं धर्मतत्त्वलिङ्गान्यौदार्याऽऽदीनि विधिमुखेन प्रतिपाद्य धर्मतत्त्वव्यवस्थितानां पुंसां व्यतिरेकमुखेन विषयतृष्णाऽऽदीनां स्वरूप प्रतिपिपादयिषुर्दृष्टान्तपूर्वक विकाराभावमाविर्भावयितुमाह आरोग्ये सति यद-व्याधिविकारा भवन्ति नो पुंसाम्। तद्धाऽऽरोग्ये, पापविकारा अपि ज्ञेयाः ||8|| (आरोग्ये इत्यादि) आरोग्ये रोगाभावे सति जायमाने यद्वदिति यथा व्याधिविकारा रोगविकास भवन्ति नो पुंसामारोग्यवता तद्वदिति। तथा धर्माऽऽरोग्ये धर्मरूपमारोग्यं तस्मिन् सति पापविकारा अपि वक्ष्यमाणा न भवन्तीति विज्ञेयाः ||8|| पापविकारा ये न भवन्ति तान् विशेषतो निर्दिशतितन्नास्य विषयतृष्णा, प्रभवत्युच्चैर्न दृष्टिसंमोहः / अरुचिर्न धर्मपथ्ये, न च पापा क्रोधकण्डूतिः / / 6 / तदेवं स्थिते धर्मतत्त्वयुक्तस्य नास्य पुरुषस्य विषयतृष्णा वक्ष्यमाणलक्षणा प्रभवति जायते उच्चैरत्यर्थ न दृष्टिसंमोहो वक्ष्यमाणलक्षण एव अरुचिरभिलाषाभावो न धर्मपथ्ये नधर्मपथ्यविषये, न च पापा स्वरूपेण पापहेतुर्वा क्रोधकण्डूतिः क्रोध एव कण्डूतिः, कण्डूशब्दः कण्ड्वादिषु | पठ्यते, तस्य क्तिन्नन्तस्यरूपमेतत्।।६।। षो०४ विव०। (विषयतृष्णालक्षणं 'विसयतण्हा' शब्दे वक्ष्यते) (दृष्टिसंमोहश्च 'दिहिसंमोह' शब्देऽरिमन्नेव भागे 2517 पृष्ठे गतः) एवं दृष्टिसंमोहमभिधाय तदनन्तर धर्मपथ्यविषयाया अरुचेर्लिङ्गमाहधर्मश्रवणेऽवज्ञा, तत्वरसाऽऽस्वादविमुखता चैव। धार्मिकसत्त्वाऽऽसक्ति-श्व धर्मपथ्येऽरुचिलिङ्गम् // 12 // (धर्मेत्यादि) धर्मस्य श्रवणमविपरीतार्थमाकर्णनं तत्राऽव ज्ञाऽनादरस्तत्त्वे परमार्थे रस आसक्तिहेतुः तस्याऽऽस्वादस्तस्मिन् विमुखता वैमुख्यं तत्त्वरसाऽऽस्वादविमुखता चैव, धार्मिका ये सत्त्वास्तैरसक्तिरसंयोगोऽसंपर्को धार्मिकसत्त्वासक्तिश्च / धर्मपथ्ये धर्मः पथ्यमिव तस्मिन्नरुचेर्लिङ्ग मिति प्रत्येकमभिसंबन्धः करणीयः / / 12 / / न च पापा क्रोधकण्डूतिरिक्युक्तं तस्याश्चिमाहसत्येतरदोषश्रुति-भावादन्तर्बहिश्च यत् स्फुरणम्। अविचार्य कार्यतत्त्वं, तचिह्न क्रोधकण्डूतेः॥१३॥ (सत्येत्यादि) सत्यदोषश्रुतिभावादसत्यदोषश्रुतिभावाच्चान्तर्बहिवाभ्यन्तरपरिणाममाश्रित्यान्तर्बहिर्गताऽप्रसन्नताऽऽद्याकारद्वारेण बहिश्च यत् स्फुरणं वा वृद्धिश्चलनं वा अविचार्यानालोच्य कार्यतत्त्व कार्यपरमार्थ तचिह्न लक्षणं क्रोधकण्डूतेः क्रोधकण्ड्डाः॥१३।। एवमेते विषयतृष्णाऽऽदयो व्यतिरेकमुखेनोक्तास्तद-भावमुपदर्शयन् मैत्र्यादिगुणसंभवमाहएते पापविकाराः, न प्रभवन्त्यस्य धीमतः सततम्। धर्मामृतप्रभावा-द्भवन्ति मैत्र्यादयश्च गुणाः // 14 // (एते इत्यादि) एते पापविकाराः पूर्वोक्ता न प्रभवन्ति न जायन्तेऽस्य पुरुषस्य धीमतो बुद्धिमतः सततमनवरतं धर्मामृतप्रभावाद्धर्म एवामृतं धर्मामृतं तत्प्रभावाद्भवन्ति संपद्यन्ते मैत्र्यादयश्च गुणा वक्ष्यमाणस्वरूपाः ||14|| मैत्र्यादीनामेव लक्षणमाहपरहितचिन्ता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा। परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा // 15|| (परेत्यादि) परेषां प्राणिनां हितचिन्ता हितचिन्तनं मैत्री, ज्ञेयेति सर्वत्र वाक्यशेषः / परेषां दुःखंतद्विनाशिनी तथा करुणा कृपा, परेषां सुखं तेन तस्मिन् वा तुष्टिः परितोषोऽप्रीतिपरिहारो मुदिता, परेषां दोषा अविनयाऽऽदयः प्रतिकर्तुमशक्यास्तेषामुपेक्षामवधीरणमुपेक्षा, संभवत्प्रतीकारेषु तु दोषेषु नोपेक्षा विधेया।।१५।। एवं मैत्र्यादिगुणान् भावनारूपानभिधाय धर्मतत्त्वलक्षणोपसंहार चिकीर्षुराहएतज्जिनप्रणीतं, लिङ्गं खलु धर्मासिद्धिमज्जन्तोः। पुण्याऽऽदिसिद्धिसिद्धेः, सिद्धं सद्धेतुभावेन // 16 // (एतदित्यादि) एतत् पूर्वोक्तं सर्वमेवौदार्याऽऽदिविधि-प्रतिषेधविषयं जिनप्रणीतं जिनोक्तं लिङ्ग लक्षणं, खलु शब्दो वाक्यालङ्कारे, धम्मासिद्धिमतः धर्मनिष्पत्तिमजन्तोः प्राणिनः पुण्याऽऽदिसिद्धि सिद्धः पुण्य ऽऽद्यु-पायनिष्पत्तेः, सिद्धं प्रतिष्ठितं, सद्धेतुभावेन सत्का
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________________ धम्म 2673 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म रगत्वेनाबन्ध्यहेतुत्वेनेति यावत्। पुण्योपायाश्चत्वारः। यथोक्तम्-''दया भूतेषु वैराग्यं, विधिदानं यथोचितम्। विशुद्धा शीलवृत्तिश्च / पुण्योपायाः प्रकीर्तिताः / / 1 / / '' आदिग्रहणात् ज्ञानयोगपरिग्रहः, ज्ञानयोगोपायपरिनिष्पत्तेश्च सद्धेतुत्वेन सिद्धमेतल्लिङ्गमिति।१६। षो०४ विव०। (12) धर्मद्रुममूलप्रतिपादनपरा गाथामाहजीवदय सञ्चवयणं, परधणपरिवज्जणं सुसीलं च। खंती पंचिंदियनि--गहो य धम्मस्स मूलाइं॥१३॥ जीवाश्चेतनाऽऽदिलिङ्ग व्यङ्गया एकेन्द्रियाऽऽदयः, तेषां दया रक्षण जीवदयेति। -हस्वत्वं प्राकृतप्रभवम् / धर्ममूलं भवतीति सर्वत्र क्रियाऽध्याहारः कार्यः। सत्यं यथार्थ वचनं सत्यवचनं,तदपि परे आत्मव्यतिरिक्ता जनास्तेषां धनं वित्तं परघनं तस्य परि समन्ताद्वर्जन परिहरणं परधनपरिवर्जन, सुष्टु शोभनं शीलं सदाचारश्चतुर्थव्रतं या सुशील, भावप्रधानत्वान्निद्देशस्य। सदाचारत्वं चतुर्थव्रतनिः कलकता चेत्यर्थः / क्षान्तिः कषायोपशमः, पञ्चेति पञ्चसंख्यानीन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राऽऽख्यानि, तेषां निग्रहः, सविषयग्रहणत्यजतावपि रागद्वेषाकरणं व्याघुटनं धर्ममूलं भवति / यद्वा-तानि सर्वाण्यपि धर्मलक्षणवृक्षस्य मूलानीव मूलानि / अयमत्र भावार्थ:-चकारस्यैवकारार्थस्येह संबन्धादेतानि च प्रत्येकं समुदितानिधर्ममहाद्रुमस्य नरसुरशिवसौख्यकुसुमफलप्रदस्य मूलानि, न तु पुनः परपरिकल्पितयागपञ्चाग्रितपः शून्यारण्यनिवासकृतकारिसङ्घभक्ताऽऽदिदानप्रभृतीनि तेषां जीवघातनिष्पाद्यत्वेनाधर्मरूपत्वादिति गाथार्थः / दर्श०२ तत्त्व। 'भक्ष्याभक्ष्यविवेकाच्च, गम्यागम्यविवेकतः। तपोदयाविशेषाच, स धर्मो व्यवतिष्ठते 1 // 1 // '' द्वा०७ द्वा०। धर्मावलम्बनानि- 'धम्म णं चरमाणरस पंच निस्साठाणा पण्णत्ता / तं जहा- छकाया गणो राया गाहावई सरीरं।'' (अस्य व्याख्या 'णिस्साठाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2148 पृष्ठे द्रष्टव्या) "दोहिं ठाणेहिं आया केयलिपण्णत्तं धम्म लभेज सवणयाए।' स्था०२ ठा०४ उ०। (विशेषः 'खओवसमिय' शब्दे तृतीयभागे 660 पृष्ठे मतः) (आरम्भपरिग्रहाभ्यां विरताऽविरतस्य धर्मलाभालाभो 'आरंभ' शब्दे द्वितीयभागे 371 पृष्ठे द्रष्टव्यौ) (13) धर्मानधिकारिण आहसुत्तेण चोइओ जो, अप्पं उद्दिसिअतं ण पडिवजे / सो तत्तवायबज्झो,न होइ धम्मम्मि अहिगारी | सूत्रेण चोदित इदमित्थमुक्तमेवं यः सत्त्वः अन्य प्राणिनमुद्दिश्याऽऽत्मतुल्यमुदाहरणतया तन्न प्रतिपद्यते सौत्रमुक्तं, स एवंभूतस्तत्त्ववादबाह्यः परलोकमङ्गीकृत्य परमार्थवादबाह्यो न भवति धर्मे सकलपुरुषार्थहतावधिकारी, सम्यग्विवेकाभावादिति गाथार्थः / पं०व० 4 द्वार। अथ कलिकालिमामलिनान्तराऽऽत्मानः सन्तः सन्तोऽपि किमवंविधश्रावकश्रमणगुणगणं श्रोतुं श्रद्धां कर्तुं वा शक्नुवन्ति न सर्वेऽपीत्याह(रयणत्थिणो वीत्यादि) अथवा-किमिदंयुगीनमानवाः सर्वथैकान्ततो निराकाङ्क्षतामवलम्ब्येथंभूतगुणगणमदातुं दातुं समर्था भवन्ति / दर्श०३ तत्त्व। (14) अथ सद्धर्मग्रहणयोग्यतामाहसंविग्नस्तच्छुतेरेवं, ज्ञाततत्त्वो नरोऽनघः। दृढं स्वशक्त्या जातेच्छः, संग्रहेऽस्य प्रवर्तते / / 20 / / एवमुक्तनीत्या (तच्छुते :) तस्याः धर्मदेशनायाः श्रुतेः श्रवणान्नरः श्रोता पुमान अनघो व्यावृत्ततत्त्वप्रतिपत्तिबाधकमिथ्यात्वमालिन्यः सन्नत एव ज्ञाततत्वः करकमलतलाऽऽकलितनिस्तलास्थूलामलमुक्ताफलवच्छास्वलोचनबले नाऽऽलो कितसकलजीवाऽऽदिवस्तुवादः, तथा(संविग्नः) संवेगमुक्तलक्षण प्राप्तः सन्जातेच्छो लब्धचिकीर्षापरिणामोऽर्थाद्धमें (दृढम्) अतिसूक्ष्माऽऽभोगपूर्व यथा स्यात्तथा स्वशक्या स्वसामर्थ्येन हेतुभूतेन अस्य धर्मस्य संग्रहे सम्यग् वक्ष्यमाणयोगवन्दनाऽऽदिशुद्धिरूपविधिपूर्व ग्रहे प्रतिपत्तौ (प्रवर्तते) प्रवृत्तिमाधत्ते / अदृढमयथाशक्ति च धर्मग्रहणप्रवृत्तौ भङ्गसं भवेन प्रत्युतानर्थसंभव इति दृढस्वशक्त्योहणं कृतमिति विशेषगृहिधर्मग्रहणयोग्यताप्रतिपादिता भवति शास्त्रान्तरे चैकविंशत्या गुणैर्द्धर्मग्रहणा) भवतीति प्रतिपादितम् / 501 अधि०(ते च गुणा धम्मरयण' शब्दे वक्ष्यन्ते) (15) धर्माधिकारिणःजे पुव्वुट्ठाई णो पच्छा णिवाती,जे पुव्वुट्ठाई पच्छा णिवाती, जे णो पुव्वुट्ठाई णो पच्छा णिवाती,सेऽवि तारिसिए सिया, जे परिण्णाय लोगमण्णे सयंति / / 152|| यः कश्चिद्विदितसंसारस्वभावतया धर्मचरणकप्रवणमनाः पूर्व प्रव्रज्यावसरे संयमानुष्ठानेनोत्थातुं शीलमस्येति पूर्वोत्थायी, पश्चाच श्रवासंवेगतया विशेषेण वर्द्धमानपरिणामो नो निपाती, निपतितु शीलमस्येति विगृह्य णिनिः / निपतनं वा निपातः, सोऽस्यास्तीति निपाती, सिंहतया निष्क्रान्तः सिंहतया विहारी च गणधराऽऽदिवत्प्रथमो भङ्गः। द्वितीयभङ्गं सूत्रेणैव दर्शयन्नाह-- पूर्वमुत्थातुं शीलमस्येतिपूर्वोत्थायी, पुनर्विचित्रत्वात्कर्मपरिणतेस्तथाविध-भवितव्यतानियोगात्पश्वान्निपाती स्यात्, नन्दिवेणवत्। कश्चिद्दर्शनतोऽपि गोष्ठामाहिलवदिति / तृतीयभङ्गस्य चाभावादनुपादानं, स चायम्- (जे णो पुव्वुट्ठायीत्यादि) नो पूर्वोत्थायी पश्चान्निपातीति / तथा ह्युत्थाने सति निपातोऽनिपातो वा चिन्त्यते, सति धम्मिणि धर्मचिन्ता, तदुत्थानप्रतिषेधे च दूरोत्सादितैव निपातचिन्तेति। चतुर्थभङ्ग दर्शयन्नाह यो हि नो पूर्वोत्थायी न च पश्चान्निपाती सोऽविरत एव गृहस्थः सन्नोत्थायी भवति, सम्यग्विरतेरभावान्नापि पश्चान्निपाती, उत्थानाविनाभावित्वानिपातस्य,शाक्याऽऽदयो वा चतुर्थभङ्गापतिता द्रष्टव्याः, तेषामप्युभयासद्भावादिति / ननु च गृहस्था एव चतुर्थभङ्गापतिता युक्ता वक्तुं, तथाहितेषां सावधयोगानुष्ठानेनानुत्थानतया प्रतिज्ञामन्दराऽऽरोपाभावान्निपाताभावः, शाक्याऽऽदिरपि चतुर्थभङ्गपतित इत्यत आह- (सेऽवि इत्यादि) सोऽपि शाक्याऽऽदिर्गणः पञ्चमहाव्रतभाराऽऽरोपणाभावेन सावद्ययोगानुष्ठानतया नो पूर्वोत्थायी, निपातस्य च तत्पूर्वकत्वान्नो पश्चान्निपातीत्यतस्तादृश एव गृहस्थतुल्य एव स्यात्, आश्रवद्वाराणामुभयेषामप्यसंवृतत्वात्, उदायिनृपमारकवत्। अन्येऽपि ये सावद्यानुष्ठायिनस्तेऽपि तादृक्षा एवेति दर्शयन्नाह- (जे परिण्णाय इत्यादि) येऽपि स्वयूथ्याः पार्श्वस्थाऽऽदयो द्विविधयाऽपि परिज्ञया लोक परिज्ञाय पुनः पचनपाचनाऽऽद्यर्थ तमेव लोकमन्वाश्रिता अन्वेषयन्ति वा तेऽपि गृहस्थतुल्या एव भवेयुः / / 152 / /
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________________ धम्म 2674 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म स्वमनीषिकापरिहारार्थमाहएयं णियाय मुणिणा पवेदितं, इह आणाकंखी पंडिते अणिहे, पुव्वावररायं जयमाणे, सया सीलं संपेहाए सुणिया भवे अकामे अझंझे, इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण वज्झओ?||१५३।। (एय इत्यादि) एतद् यदुत्थाननिपाताऽऽदिक प्रागुपन्यस्तं तत्केवलज्ञानावलोकनेन (णियाय त्ति) ज्ञात्वा मुनिना तीर्थकृता प्रवेदित कथितम् / इदं चान्यत्प्रवेदितमित्याह--(इह इत्यादि) इहास्मिन्मानीन्द्र प्रवचने व्यवस्थितः सन आज्ञां तीर्थकृतोपदेशमाकाङ्गितुं शीलमस्यत्याज्ञाकाङ्क्षी आगमानुसारप्रवृत्तिकः, कश्चैर्वभूतः?- पण्डितः सदसद्विवेकज्ञोऽस्निहः स्नेहरहितो रागद्वेषविप्रमुक्तोऽहर्निशं गुरुनिर्देशवर्ती यत्नवान स्यादित्येतदाह-(पुव्वावर इत्यादि) पूर्वरात्रं रात्रेः प्रथमो यामोऽपररात्रं रात्रेः पाश्चात्य एतद्यामद्वयमपि यतमानः सदाचारमाचरेत्, मध्यवर्तियामद्वयमपि यथोक्तविधिना स्वपन वैरागादिकं विध्यात्, रात्रियतनाप्रतिपादनेन चायपि प्रतिपादितैव भवति, आद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहणस्या-वश्यभावित्वात् / किञ्च- (सया सील इत्यादि) सदा सर्वकाल शीलम् अष्टादशभेदसहस्रसख्य, संयम वा। यदि वा चतुर्धा शीलम् .. महाव्रतसमाधानं तिस्रो गुप्तयः पञ्चेन्द्रियदमः कषायनिग्रहश्चेत्येतच्छीलं संप्रेक्ष्य मोक्षाङ्ग तयाऽनुपालयेत नाक्षिनिमेषमात्रमपि काल प्रमादवशगो भूयात् / कश्च शीलसंप्रेक्षकः रयादित्याह- यो हि श्रुत्वा शीलसंप्रेक्षणफलं निःशीलनिर्वतानां च नरकाऽऽदिपातविपाकमाकाऽऽगमात्, 'भवेत् स्याद् अकाम इच्छामदनकामरहित इति तथा नास्य झंझा माया, लोभेच्छा विद्यत इत्यभं झः, कामझाप्रतिषधाच मोहनीयोदयः प्रतिषिद्धः, तत्प्रतिषेधाच्च शीलवान् स्यादिति, एतदुक्तं भवति-धर्म श्रुत्वा स्याद् अकामोऽझञ्झश्चेत्यनेन चोत्तरगुणा गृहीताः, उपलक्षणार्थत्वाच्च मूलगुणा अपि गृहीताः, ततः स्याद अहिंसकः सत्यवादीत्याद्यपि द्रष्टव्यम्। ननु चान्यजीवाच्छरीरमित्येव भावनायुक्त स्यानिगृहीतबलवीर्यस्य पराक्रममाणस्याऽष्टादशशीलाइसहराधारिणोऽपि मे यथोपदेशं प्रवर्तमानस्यापि नाशेषकर्ममलापगमाऽद्यापि भवतीत्यतस्तथाभूतमसाधारणकारणमाचक्ष्व, येनाहमाश्वेवाशेषमलकलङ्करहितः स्याम्, अहं च भवदुपदेशादपि सिंहेनापि सह युझ्य, न में कर्मक्षयार्थ प्रवृत्तस्य किञ्चिदशक्यमस्तीत्यत्रोत्तर सूत्रेणैवाऽऽह(इमेण चेव इत्यादि) अनेनैवौदारिकेण शरीरेणेन्द्रियनोइन्द्रियाऽऽत्मकेन विषयसुखपिपासुना स्वैरिणा सार्द्ध युध्यस्व, इदमेव सन्मार्गावतारणतो वशीकुरु, किमपरेण वाह्यतस्ते युद्धेन? अन्तरारिषड्वर्गकर्मरिपुजवाद्वा सर्वं सेत्स्यति भवतो, नातोऽपरं दुष्करमस्तीति॥१५३॥ किं त्वियमेव सामग्री अगाधसंसारार्णवे पर्यटतो भवकोटि सहरनेष्वपि दुष्प्रापेति दर्शयितुमाहजुद्धारिहं खलु दुलहं जहित्थकुसलेहिं परिण्णाविवेगे भासिते, चुते हुबाले गब्भातिसु रज्जति, अस्सिं चेयं पवुच्चति, रूवंसि वा छणंसि वा, से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अण्णहा लोगमुवहेमाणे, इय कम्म परिण्णाय सव्वसो से ण हिंसति, संजमती णो पगब्भती, उवेहमाणो पत्तेयं सायं, वण्णाएसी णारभे कंचणं सव्वलोए एगप्पमुहे विदिसपतिण्णे णिविण्णचारी अरए पयासु // 154|| (युद्धारिहं इत्यादि) एतदीदारिकं शरीरं भावयुद्धार्ह , खलुवधारणे। स च भिन्नक्रमो, दुर्लभभेव दुष्प्रायमेव, उक्त च- 'ननु पुनरिदमति दुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् / मानुष्यं यखोतक-तडिल्लताविलसितप्रतिमम् / / 1 / / इत्यादि। पाठान्तरं वा- "युद्धारियं च दुल्लह / ' तत्रानार्य संग्रामयुद्धं, परीषहाऽऽदिरिपुयुद्ध त्वार्य, तद दुर्लभमेव तेन युध्यस्व, ततो भवतोऽशेषकर्मक्षयलक्षणो मोक्षोऽचिरादेव भावीति भावार्थः / तच्च भावयुद्धार्ह शरीरं लब्ध्वा कश्चित्तेनैव भवेनाशेषकर्मक्षय विधत्ते ,मरुदेवीस्वामिनीव, कश्चित् सप्तभिरष्टभिर्वा भवैर्भरतवत, कश्चिपार्द्धपुद्गलपरावर्तेन, अपरोन सेत्स्यत्येव, किमित्येवं यत आह(जहाकुसलेहिं इत्यादि) यथा येन प्रकारेणात्रारिमन् संसारे कुशलस्तीर्थकृद्भिः परिज्ञा विवेकः परिज्ञानविशिष्टता, कस्यचित्कोऽप्यध्यवसायः संसारवैचित्र्यहेतुर्भाषितः प्रज्ञापितः-सच मतिमता तथैवाभ्युपगन्तव्य इति / तदेव परिज्ञाननानात्वं दर्शयन्नाह- (चुए इत्यादि) लब्ध्वाऽपि दुर्लभं मनुजत्वं प्राप्य च मोकगमनहेतुंधर्म पुनरपि कर्मोदयात् तस्मात् च्युतो बालः अज्ञः गर्भाऽऽदिषु रज्यते, गर्भ आदिर्येषां कुमारयौवनावस्थाविशेषाणां ते गर्भाऽऽदयः, तेष्वेव गायमुपयाति, यथैभिः सार्द्ध मम वियोगो मा भूत इत्येतदध्यवसायी भवति। यदि वा-धर्मात च्युतस्तकरोति येन गर्भादिषु यातनास्थानेषु सङ्गमुपयाति। 'रिज्जइत्ति' वा वचित्पाठः, रीयते गच्छतीत्यर्थः / स्यात्- क्वोक्तमिदम? यत्प्राग् व्यावर्णितमित्याह-(अस्सि चेयं पवुच्चइ रुवंसि वा छणंसि वा से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे, इय कम्मं परिन्नाय सव्वसो से ण हिराति संजमती णो पगभइ) अस्मिन्निन्याहते प्रवचने एतत्पूर्वोक्त प्रकर्षणोच्यतेप्रोच्यते / एतच वक्ष्यमाणमत्रैवोच्यते इति दर्शयन्नाह-रूपे चक्षुरिन्द्रियविषये अध्युपपन्नो, वाशब्दादन्यत्र वा स्पर्शरसाऽऽदौ क्षणे प्रवर्तते, 'क्षणु' हिंसायां, क्षणनं क्षणो हिंसा,तस्यां प्रवर्त्तते, वाशब्दादन्यत्र चानृतस्तेयाऽऽताविति, रूपप्रधानत्वाद्विषयाणां रूपित्वाका रूपोपादानम, आश्रवद्वाराणां च हिंसाप्रधानत्वात्तदादित्वाच तदुपादानमिति। बालो रूपाऽऽदिविषयनिमित्तं धर्माच्चयुतः सन् गर्भाऽऽदिषु रज्यते. अत्राऽऽर्हत मार्गे इदमुच्यते,यस्तु पुनर्गर्भाऽऽदिगमनहेतुज्ञात्वा विषयसङ्गं धर्मादच्युतो हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवर्त्तते स किंभूतः स्यादित्याह-स जितेन्द्रियो, हुरवधारणे, स एवैक अद्वितीयो मुनिजगत्रयमन्ता संविद्ध-पथः सम्यग्विद्धस्ताडितः क्षुण्णः पन्था मोक्षमार्गो शानदर्शनचारित्राऽऽख्यो येन स तथा। (संविद्धभए ति) वा पाठः / संविद्ध यो दृष्टभय इत्यर्थः, यो ह्याश्रवद्वारेभ्यो हिंसादिभ्यो निवृत्तः स एव मुनिः क्षुण्णमोक्ष-मार्गः इति भावार्थः / किश- अन्येन प्रकारेणान्यथा विषयकषायाभिभूतं हिंसाऽऽदिकर्मसु प्रवृत्तं लोकमगृहस्थ लोक वा पाखण्डिलोकं वा, पचनपाचनौटेशिकसचित्ताऽऽहाराऽऽदिप्रवृत्तमु - त्प्रेक्ष्यमाणोऽन्यथा वाऽऽत्मानं निवृत्ताशुभव्यापारमुत्प्रेक्ष्यमाणः संविद्धपथो मुनिः स्यादिति / लोक चान्यथोत्प्रेक्ष्य किं कुर्यादित्याह- इति पूर्वोक्तहेतुभिर्यबद्ध कर्म तदुपादानं च सर्वतः परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञायाऽपि सर्वतः परिहरेत् / कथं परिहरतीत्याह- (से ण हिंस
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________________ धम्म 2675 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म ति) स कर्मपरिहा कायवाङ्मनोभिर्न हिनस्ति जन्तून. न घातयत्यपरै प्यनुमन्यते / किञ्च-पापोपादानप्रवृत्तमात्मानं संयमयति, सप्तदशप्रकारं वा संयम करोति संयमयति, आचारक्विवन्तं वैतत्-संयम इवाऽऽचरति संयमयति। किंच-(नोपगभइ) 'गल्भ' धाष्ट्ये , अरायमकर्मसु प्रवृत्तः सन् नप्रगल्भत्वमायाति, रहस्यप्यकार्यप्रवृत्तो जिहेति न धृष्टतामवलम्बते इति, उपलक्षणार्थत्वादस्य क्षुण्णमोक्षपथो मुनिन कुध्यति न जात्यादिमानमुद्वहति, न वश्चानां विधत्ते, न लुभ्यति / किमाकलय्यैतत् कुर्यादित्याह-(उवेहमाणे त्ति) उत्प्रेक्षमाणोऽवगच्छन् प्रत्येक प्राणिनां सातं मनोऽनुकूलं नान्यसुखेनान्यः सुखीति नाऽपि परदुःखेन दुःखी, अतः प्राणिनो न हिंस्यात् / इति प्राणिनां प्रत्येक सातमुत्प्रक्षमाणश्च किं कुर्यादित्याह- वर्ण्यते प्रशस्यते येन स वर्णः साधुकारस्तदादेशी वर्णाऽऽदेशी वर्णाभिलाषी सन्नारभते कञ्चन पापाऽ5रम्भ सर्वस्मिन्नपि लोके, यदि वा तपः संयमाऽऽदिकमप्यारम्भ यशः कीत्यर्थ नाऽऽरभते, प्रवचनोद्भावनार्थ त्वारभते। तदुद्भावकाश्चामी"प्रावचनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च / विद्यासिद्धः ख्यातः, कविरपि चोद्भावकास्त्वष्टौ / / 1 / / " यदि वा वों-रूपं तदादेशी-तदभिलाषुकः, नोर्द्धतनाऽऽदिका: क्रिया आरभेत, किंभूतः रान्नेतत् कुर्यादित्याह- (एगप्पमुहे) एको मोक्षोऽशेषमलकलङ्करहितत्वात् संयमो वा रागद्वेषरहितत्वात्तत्र प्रगत मुख यस्य स तथा, मोक्षे तदुपाये वा दत्तैकदृष्टिर्न कञ्चन पापाऽऽरम्भमारभेत इति / किञ्च-मोक्षसंयमाभिमुखा दिक् ततोऽन्या विदिक् ता प्रकर्षण तीर्णो विदिक्प्रतीर्णः, स चैवंभूतः सन्नारम्भी स्यात्, कुमार्गपरित्यागेन न पापारम्भान्वेषी भवतीत्यर्थः। किञ्च-(निवि-णचारी) चरणं चारः अनुष्ठान, निर्विण्णस्य चारो निर्विण्णचारः, सोऽस्यास्तीति निर्विण्णचारी, कुत इति चेत्? यतः प्रजास्वरतः प्रजायन्त इति प्रजाः प्राणिनः तत्रारतः तदारम्भा निवृत्तो निर्ममत्वोवा, यश्च शरीराऽऽदिष्यपि ममत्वरहितः स निर्विण्णचार्येव भवति, यदि वा प्रजाः स्त्रियस्तास्वरत आरम्भेऽपि निर्वेदमागच्छति, कारणाभावे कार्यस्याप्यभावादिति। यश्च प्रजास्वरक्त आरम्भरहितः, स किंभूतः स्यादित्याहसे वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्ज पावं कम्मं तं णो अण्णेसी, जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति पासहा जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा, ण इमं सकं सिढिले हिं अदिज्जमाणे हिं, गुणासातेहिं वंक समायारेहिं पमत्ते हिं गारमावसंतेहिं, मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं, पंतं लूहं च सेवंतिवीरा सम्मत्तदंसिणो, एस ओहंतरे मुणी,तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति वेमि। 155|| (से वसुम) वसु द्रव्यं, स चात्र संयमः, तद्विद्यते यस्य स निवृत्ताऽऽसम्भो मुनिर्वसुमान् (सव्वसमन्नागय ति) सर्वं सम्यगन्वागतं प्रज्ञानं पदार्थाऽऽविर्भावकं यस्याऽऽत्मनस्तेनाऽऽत्मना सर्वसमन्वागतप्रज्ञानरूपाऽऽपन्नेन यदकर्तव्यं पापं कर्म तन्नो कदाचिदप्यन्वेषति, उपलब्धपरमार्थरूपेणाऽऽत्मना न सावद्यानुविधायी स्यादिति भावार्थः। यदेव सम्यग्प्रज्ञानं तदेव पापकर्मवर्जन, यदेव पापकर्मवर्जन तदेव च सम्यग्प्रज्ञानमित्येतद्गतप्रत्यागतसूत्रेणैव दर्शयितुमाह-- सम्यगिति सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वा तत्सहचरितम्, अनयोः सहभावादेकग्रहणे द्वितीयग्रहणं न्याय्यं, यदिदं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वेत्येतत्पश्यत तन्मुनेर्भावो मौनसंयमानुष्ठान-मित्येतत्पश्यत्, यच्च मौनमित्येतत्पश्यत तत्सम्यग्ज्ञानं नैश्चयिक सम्यक्त्वं वा पश्यत, ज्ञानस्य विरति-फलत्वात् सम्यक्त्वस्य चाभिव्यक्तिकारणत्वात् सम्यक्त्वज्ञानचरणानामेकताऽध्य-वसेयेति भावार्थः / एतच्च न येन केनचिच्छक्यमनुष्ठातुमित्याह-- नैतत्सम्यक्त्वाऽऽदित्रयं सम्यगनुष्ठातुं शक्यं, कैः? शिथिलैः अल्पपरिणामतया मन्दवीर्य : संयमतपसोऽतिद्रढिमरहितैरिति / किश्व(आदिज्जमाणेहिं) आर्दैः पुत्रकलत्राऽऽद्यनुषनजनितस्नेहादाद्रीक्रियमागैरेतत् पूर्वोक्तमशक्यमिति संबन्धः, किश-(गुणासाएहि) गुणाः शब्दाऽऽदयस्तेषु आस्वादो येषां ते गुणाऽऽस्वादास्तैरिति / किञ्च(वंकसमायरेहिं) वक्र:- समाचारो येषां ते तथा, तैर्मायाविभिरित्यर्थः / (पमत्तेहिं) विषयकषायाऽऽदिप्रमादैः प्रमत्तैरिति / (गारमावसंतेहिं) अगारं गृह तदाद्याक्षरलोपागारमित्युक्तं तदागारमावसद्भिः सेवमानैः पापकर्मवर्जनरूपं मौनमनुष्ठानमशक्यमिति सर्वत्र योज्यम् / कथं तर्हि शक्यमित्याह-- (मुणी गोण रामायाए धुणे सरीरगं पंत लूहं च सेवंति वीरा सम्मत्तदसिणो) (मुणी मोण ति) मुनिर्जगत्त्रयस्य मन्ता मौन मुनित्वमशेषसावद्यानुष्ठानवर्जनरूपं समादाय गृहीत्वा धुनीयाच्छरीरकमौदारिक कर्मशरीरं वा / कथं च तस्य धुननमित्याह-प्रान्तं पर्युषितं वल्लचणकाद्यल्पं वा तदपि रूक्षं विकृतेरभावात्तत् सेवन्ते तदभ्यवहरन्ति, के ते? वीराः कर्मविदारणसहिष्णवः, किंभूताः? सम्यक्त्वदर्शिनः, समत्यदर्शिनो वा / यश्च प्रान्तरूक्षसेवी सकिंगुणः स्यादित्याह-(एस ओहंतरे मुणी) एषोऽनन्तरोक्तविशेषणविशिष्टः ओघो भावौधः संसारस्तं तरतीति / कोऽसौ? मुनिः "वर्तमानसमीप्ये वर्तमानवद्वा" / / 3 / 3 / 131 // इति तीर्णएवासौ, स बाह्यभ्यन्तरसङ्गाभावान्मुक्तः, कश्चैवंभूतो? यः सावद्यानुष्ठाना-द्विरत इत्येवं व्याख्यातः / इतिरधिकारसमाप्तौ / ब्रवीमिति पूर्ववत। आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०।। इह त्रीणि वयासि-युवा मध्यवया वृद्धश्चेति, तत्र मध्यवयाः परिपक्वबुद्धित्वाद्धार्ह इत्येतद्दर्शयति-- मज्झिमेणं वयसा एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिता सोचा मेधावी वयणं पंडियाणं णिसामित्ता समयाए धम्मे आयरिएहिं पवेदिते ते अणवकं खमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा णो परिग्गहावंति सव्वावंति च णं लोगंसि णिहाय दंडं पाणे हिं अकुव्वमाणे एस महं अगथे वियाहिए। युवा मध्यवया वृद्धश्चेति / तत्र मध्यमवयाः परिपक्वबुद्धित्वाद्धार्ह इत्यतो दर्शयति- मध्यमेन वयसाऽयेके संबुद्धयमाना धर्मचरणाय सम्यगुस्थिता इति, सत्यपि प्रथमचरमवयसोरुत्थाने यतो बाहुल्यायोग्यत्वाच्च प्रायो विनिवृत्तभोगकुतूहलइति निष्प्रत्यूहधर्मा - धिकारीति मध्यमवयोग्रहणम् / कथं संबुद्धमानाः समुत्थिता इत्याह(सोच्चा इत्यादि) इह विविधाः संबुद्ध्यमानका भवन्ति / तद्यथास्वयंबुद्धाः, प्रत्येकबुद्धाः, बुद्धबोधिताश्च / तत्र बुद्धबोधितेनेहाधिकार इति दर्शयति-मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः पण्डिताना तीर्थकृदादीना वचन हिताहितप्राप्तिपरिहारप्रवर्तकं श्रुत्वाऽऽकर्ण्य पूर्वं पश्चान्निशम्याऽऽ
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________________ धम्म 2676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म वधार्य समतामालम्बेत / किमिति? यतः समतया माध्यस्थ्येनार्थस्तीर्थकृद्धिधर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यः प्रवेदित आदी प्रकर्षण वा कथित इति। तेच मध्यमे वयसि श्रुत्वा धर्मसंबुद्ध्यमानाः समुत्थिताः सन्तः किं कुर्युरित्याह- (ते अभिकखमाणा इत्यादि) ते निष्क्रान्ता मोक्षमभिप्रस्थिताः कामभोगानभिकाङ्क्षन्तस्तथा प्राणिनोऽनतिपातयन्तः परिग्रहमपरिगृह्णन्त आद्यन्तयोहणे मध्योपादानमपि द्रष्टव्यम्। तथा मृषावादमवदन्त इत्याद्यपि वाच्यमेवंभूताश्च देहेऽप्यममत्वाः (सज्वावति त्ति) सर्वस्मिन्नपि लोके, चः समुच्चये, स च भिन्नक्रमः णमितिवाक्यालङ्कारे। नोपरिग्रहवन्तश्च भवन्तीति यावत्। किञ्च-(णिहाय इत्यादि) प्राणिनो दण्डयतीति दण्डः परितापकारी तं दण्ड प्राणिषु प्राणिभ्यो वा निधाय क्षिप्त्वा त्यक्त्वा पापं पापोपादानं कर्माष्टादशभेदभिन्नं तदकुर्वा - णोऽनाचरन्नेष महान्न विद्यते ग्रन्थः स बाह्याभ्यन्तरोऽस्येत्यग्रन्थः व्याख्यातस्तीर्थकरगणधराऽऽदिभिः प्रतिपादित इति / आचा०१ श्रु० 8 अ०३उ०। इह हि दुरन्तानन्त चतुरन्तासारविसारिसंसारापारपारावारे निमज्जता भव्यजन्तुना जिनप्रवचनप्रतीतचोलकाऽऽदिदशनिदर्शनदुष्प्रायां कथमपि प्रशस्तसमस्तमनुजजन्माऽऽदिसामग्रीमवाप्य भवजलधिसमुत्तरण-प्रवणप्रवहणस्वधर्मसद्धर्मविधाने प्रयत्नो विधेयः / यदवादि- ''भवकोटीदुष्प्रापामवाप्य नृभवाऽऽदिसकलसामग्रीम् / भवज-लधियानपात्रे, धर्मे यत्नः सदा कार्यः !!1 / / " सङ्घा०१ अधिक 1 प्रस्ताव० / कामार्थयोस्तु बाधायां धर्मो रक्षणीयः, धर्ममूलत्वादर्थकामयोः / उक्तं च-'धर्मश्चेन्नावसीदेत, कपालेनापि जीवतः। आढ्योऽस्मीत्यवगन्तव्यं, धर्मवित्ता हि साधवः / / 1 / / " (13) ध०१ अधिक। (धर्मविषये तेतलिपुत्रकथा 'तेतलिसुय' शब्दे 2352 पृष्ठे गता) "जाव नदुक्ख पत्ता, माणभंसं च पाणिणो पायं। ताव नधम्म गेहति भावाओ तेयलिसुसंव्व'' ||1|| ज्ञा०१ श्रु०१४ अ०1"नेह लोके सुखं किञ्चिच्छादितस्यांहसा भृशम् / मितं च जीवितं नृणां, तेन धर्मे मतिं कुरु" ||1|| आ०म०१२ खण्ड। प्रक्रान्तमेव समर्थयन्नाहजरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्डइ। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे // 36|| जरा वयोहानिलक्षणा यावन्न पीडयति, व्याधिः क्रियासामर्थ्यशत्रुर्यावन्न वर्द्धते। यावदिन्द्रियाणि क्रियासामोपकारीणि श्रोत्रादीनि नहीयन्ते तावदत्रान्तरे प्रस्ताव इति कृत्वा धर्मसमाचरेत् चारित्रधर्ममिति सूत्रार्थः॥३६॥ दश०८ अ० पापाद्विरम्य धर्ममेवाऽऽश्रयेत् तथा चवेराणुगिद्धे णिचयं करेति, इओ चुए सुदुहमट्ठदुग्गं / तम्हा उमेधावि समिक्ख धम्म, चरे मुणी सव्वओ विप्पमुक्के ||6il येन केन कर्मणा परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यते जन्मान्तरशतानु-यायि भवति, तत्र गृद्धो वैरानुगृद्धः। पाठान्तरं या "आरम्मसत्तो त्ति' आरम्भे सावद्यानुष्ठानरूपे सक्तो लग्नो निरनुकम्पो निचयं द्रव्योपचय तन्निमित्ताऽऽपादितकर्मनिचयं स्थानात् च्युतो जन्मान्तरं गतः सन् वा करोत्युपादत्ते, स एवंभूत उपात्तवैरः कृतकर्मोपचय इत्यतोऽस्मात्स्थानाछच्युतो जन्मान्तरं गतः सन् दुःखयतीति दुःखं नरकाऽऽदिक यातनास्थानमर्थतः परमार्थतो दुर्ग विषमं दुरुत्तरमुपैति। यत एवं तत्तस्मान्मेधावी विवेकी मर्यादावान् वा संपूर्णसमाधिगुणं जानानो धर्म श्रुतचारित्राऽऽख्य समीक्ष्याऽऽलोच्याऽङ्गीकृत्य मुनिः साधुः सर्वतः सबाह्याभ्यन्तरात्सङ्गाद्विप्रमुक्तोऽपगतः संयमानुष्ठानं मुक्तिगमनैकहेतुभूत चरेदनुतिष्ठेत स्त्यारम्भाऽऽदिसङ्गाद्विप्रमुक्तो निश्रितभावेन विहरेदिति यावत् / / 6 / / सूत्र०१ श्रु०१० अ०। (16) तथाचदियहाई दो व तिन्नि च, अद्धाणं होइ जंतु लग्गेण / सव्वायरेण तस्स वि, संवलयं लेइ पविसंतो।। जो पुण दीहपवासो, चुलसीइजोणिलक्खनियमेणं / तस्स तवसीलमइयं, संवलयं न चिंतेह / / जहजह पहरे दियहे, माससंवस्सरे ति वोलिंति। तह तह गोयम ! जाणसु, दुक्के आसन्नमरणं च / जस्स न नजइ कालं, न य वेला नेव दियहपरिमाणं / नाए वि णत्थि कोइ वि, जगम्मि अजरामरो एत्थ।। पावो पमायवसओ, जीवो संसारकञ्जमुज्जुत्तो। दुक्खेहिं न निव्विन्नो, मुक्खेहिं न गोयमा ! तिप्पे / / जीवेण जाणिउं वि, सज्जयाणि जो इसएसु देहाणि / थेवेहिँ तओ सयलं, पि तिहुयणं होज पडिहत्थं / / नहदंतमुद्धभमुह-क्खिकेसजीवेण विप्पमुक्केसु / तह वि हविज कुलसे-लमेरुगिरिसन्निभे कूडे / / हिमवंतमलयमंदर-दीवोदहिधरणिसरिसरासीओ। अहियारो आहारो, जीवेणाहारिओ अणंतहुतो॥ गुरुदुक्खभरक्कंत-स्स अंसुनिवारण जं जलं गलियं / तं अगडतलायणई-समुद्दमाईसु ण वि होज्जा / / आवीयं घणछीरं, सागरसलिलाउ बहुयरं होगा। संसारम्मि अणंते, अविलाजोणीए एक्काए।। सत्ताहविवन्नसुकुहिय-साणं जोणीए देसम्मि। किमियत्तणकेवलए-ण जाणि मुक्काणि देहाणि / / तेसिं सत्तमपुढवी-एसिद्धिखेत्तं च पावओ कुरुडं। चोद्दसरज्जु लोग, अणंतभागेण विभरेज्जा।। एते य कामभोगे, कालमणंतं इहं सओवभोगे य। अप्पुवं वि य मन्नइ, जीवो तह वि य विसयसोक्खं / / जह कछुलो तुयमाणो, दुहं मुणेइ सोक्खं / मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं वे ति / / जाणंति अणुहवंति य, अणुजम्मजरामरणसंभवे दुक्खे। नय विसएसु विरज्ज-ति गोयम ! दुग्गइगमाणपस्थिए जीवे / / सव्वगहाणं पभवो, महागहो सव्वदोसपायट्टी। कामग्गहो दुरप्पा, जेणभिभूयं जगं सव्वं / /
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________________ धम्म 2677- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म - - तस्स वसं जे गया पाणी स्याऽनन्तमपि कालं संसारे पर्यटनमभिहितमिति / किं च हुरित्यवजाणंति जह भोगिड्डि-संपयासव्वमेव धम्मफलं। धारणे। नैवाऽतिक्रान्ता रात्रय उपनमन्ति पुनकिन्ते / न ह्यतिक्रान्तो तह वि दढमूलहियए, यौवनाऽऽदिकालः पुनरावर्त्तत इति भावः / तथाहि- "भवकोटिपावं काऊण दोग्गई जंति॥ भिरसुलभं. मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे। न च गतमायुर्भूयः, प्रत्येत्यपि वच्चइ खणेण जीवो, पंतानिलधाउसिंभखोभेहिं। देवराजस्य"॥११॥ नो नैव संसारे सुलभं सुप्रापं संयमप्रधानं जीवितम् / यदि वा-जीवितमायुम्त्रुटितं सत् तदेव संधातुं न शक्यत इति वृत्तार्थः / उज्जमह मा विसीयह,तरतमजोगो इमो दुलहो / / सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०) पंचिंदियत्तणं माणुसत्तणं आरिए जणे सुकुलं। अथ शतवर्षायुष्कस्य जीवस्यान्यस्यापि धर्मोपदेशं ददातिसाहुसमागमसुणणा,सद्दहणा भोगपध्वजा। जो वाससयं जीवइ, सुही भोगे य मुंजई। सूलअहिविसविसूइय-पाणियसस्थग्गिसंभमेहिं च। तस्स वि सेवि उं सेओ, धम्मो य जिणदेसिओ।।२२|| देहतरसंकमणं, करेइ जीवो मुहुत्तेण / / यो जीवो वर्षशतं जीवति, प्राणान् धरतीत्यर्थः / च पुनः सुखी भोगान् जावाउसावसेस,जाव यथोवो वि अस्थि ववसाओ। भुनक्ति, तस्यापि जीवस्य सेवितुं सदा कर्तुं श्रेयो मङ्गलं धर्मो ताव करेज्जऽप्पहियं, मा तप्पिह हा पुणो एत्थ।। दुर्गतिपतञ्जीवाधारः, जिनदेशितः केवलिना भाषितः॥२२॥ सुरधणुविज्जूखणदि-ट्ठनट्ठसंझाणुरागसिमिणसमं। किं पुण सपच्चवाए, जो नरो निच्चदुक्खिओ। देहं इंति सुविपुलसं-मयं भंडवजं भरिउं! सुट्टयरं तेण कायव्यो, धम्मो य जिणदेसिओ // 23 // इय जाव ण चुक्कसि ए-रिसस्स खणभंगुरस्स देहस्स। किं पुनः सप्रत्यपाये संकटे आयुषि काले वा सति इति शेषः / यो नरो उग्ग कटुं घोरं, चरसु तवं नत्थि परिवाडी / / नित्यदुःखितः सदा दुःखाऽऽकुलो भवेत् तेन दुःखितजीवेन जिनदेशितो वाससहस्सं पिजई, काऊणं संजमं सुविउलं पि। धर्मः सुष्टुतरं विशेषतः कर्तव्यो नन्दिषणपूर्वभव-ब्राह्मणवदिति॥२२॥ अंते किलिट्ठभावो, न विसुज्झइ कंडरीय व्व / / महा०६ अ०|| नंदमाणो चरे धम्म, वरं मे लट्टतरं भवे / (17) ते धन्ना जे धम्म, चरिउं जिणदेसियं पयत्तेणं / अनंदमाणो वि चरे, मा मे पावतरं भवे / / 24 // गिहिपासबंधणाओ, उम्मुक्का सव्वभावेणं / / द०प०। नन्दमानः सौख्यं भुञ्जन धर्मं जिनोक्त चरेत्, कुर्यादित्यर्थः, किंभूतं धर्ममुपदिशन भगवानादितीर्थकरो भरततिरस्काराऽऽगत-संवेगान् धर्मम्? वरं श्रेष्ठ शिवप्रापकत्वात्, कया भावनया धर्म कुर्यादित्याहस्वपुत्रानुद्दिश्येदमाह। यदि वा सुरासुरनरोरगतिरश्चः समुद्दिश्य प्रोवाच मे ममात्र भवे परभवे च लष्टतरपतिकल्याणं भवेदिति भावनयेति / अनन्दमानोऽपि सौख्यमभुञ्जन्नपि धर्मं कुर्यात्. कया भावनयेत्याहयथासंवुज्झह किं न दुज्झह, मे मम पापतरं मा भवतु ममातिपापं मा भवतु, एकं तावदह पापफलं भुनज्मि, पुनर्धकिरणे मा भवतु मेऽतिपापमिति भावनयेति // 24 // संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। किञ्चणो हूवणमंति राइओ, न वि जाई कुलं वा वि, विजा नावि सुसिक्खिया। नो सुलभं पुणरवि जीवियं ||1|| तारेइ नरं व नारिं वा, सव्वं पुन्नेहिं वडई // 25|| सं बुध्यध्वं यूयं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणे धर्मे बोध कुरुत / यतः नरं पुरुष, वाशब्दाद्वालाऽऽदिभेदभिन्नं, नारी स्वियं, वाशब्दा-त्क्लीव, पुनरेवंभूतोऽवसरो दुरापः / तथाहि-- मानुषं जन्म, तत्राऽपि कर्मभूमिः जातिर्भातृपक्षः ब्राहाणादिका जातिर्वा, कुलं पितृपक्षः उग्रभोगादिकं कुलं पुनरार्यदशः, सुकुलोत्पत्तिः, सर्वेन्द्रियपाटवं, श्रवणश्रद्धाऽऽदिप्राप्ती सत्यां वा, विद्या वा सुक्षिता वा सदभ्यस्ता वा, नापीति नैव तारयति स्वसंवित्त्यवष्टाभेनाह-किं न बुध्यध्वमित्यवश्यमेवंविधसामस्यावाप्ती भवाब्धितीरं प्रापयति सर्वं स्वर्गापवर्गाऽऽदिसौख्यं पुण्यैः संविग्रसाधुदासत्यां सकर्णेन तुच्छान् भोगान् परित्यज्य सद्धर्मबोधो विधेय इति भावः / नाऽऽदिभिर्वद्धत प्राप्यते इत्यर्थः / अत्राऽन्यत्राऽपि चकारवकाराऽऽतथाहि दिशब्दा यथायोगं पूरणसमुच्चयाऽऽदिकेऽर्थे ज्ञातव्या इति // 25 // 'निर्वाणाऽऽदिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते, पुन्नेहिं हीयमाणेहिं, पुरिसागारो वि हायई। लब्ध स्वल्पमचारु कामजसुखं नो सेवितुयुज्यते। पुन्नेहिं वड्डमाणेहिं, पुरिसायारो वि वड्डई // 26|| वैडूर्याऽदिमहोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे, पुण्यैरनपानवस्त्रपीठफलकौषधाऽऽदिभिःसाधुदानाऽऽदिभिरुपालातुं स्वल्पमदीप्ति काचशकलं किं चोचितं सांप्रतम् // 1|| र्जितशुभफलः हीयमानैः क्षयं गच्छद्भिः पुरुषकारः पुरुषाभिमानः, अकृतधर्मचरणानां तु प्राणिनां संबोधिः सम्यकदर्शनज्ञान-चारित्राऽ- अपिशब्दादन्यदपि यशःकीर्तिस्फीतिलक्ष्म्यादिक हीयते, शनैः क्षयं वाप्तिलक्षणा प्रेत्य परलोकगताना, खलुशब्दस्याऽवधारणार्थत्वात् यातीत्यर्थः पुण्यैर्वर्द्धमानैः पुरुषकारोऽपि वर्द्धते॥२६॥ सुदुर्लभैवं / तथाहि- विषयप्रमादवशात् सकृत् धर्माऽऽचरणाद् भ्रष्ट- पुणाइं खलु आउसो ! किचाई करिणिज्जाइं पीइकराई
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________________ 2678 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 वण्णकराई धण्णकराई जसकराई कित्तिकराई, नो खलु आउसो! एवं चिंतियध्वं-एसंति खलु बहवे समया आवलिया खणा आणापाणू थोवा लवा मुहुत्ता दिवसा अहोरत्ता पक्खा मासा उऊ अयणा संवच्छरा जुग्गा वाससया वाससहस्सा वाससयसहस्सा वासकोडीओ वासकोडाकोडीओ जत्थ णं अम्हे बहूई सीलाई क्याइं सुणाई वेरमणाई पचक्खाणाई पोसहोपवासाइं पडिवजिस्सामो पट्ठविस्सामो करिस्सामो, तो किमत्थं आउसो! नो एवं चिंतेयव्वं भवइ अंतरायबहुले खलु अयं जीविए, इमे बहवे वाइयपित्तियसिंभियसण्णिवाइया विविहा रोगायंका फुसंति जीवियं / / "पुन्नाई" इत्यादि गद्यम् / खलु निश्वये, हे आयुष्मन् ! पुण्यानि शुभप्रकृतिरूपाणि कृत्यानि कार्याणि करणीयानि कर्तु योग्यानि (पीतिकराणि त्ति) मित्राऽऽदिना सह स्नेहोत्पादकाऽऽनि, वर्णकराणि एकदिग्व्यापिसाधुवादकराणीत्यर्थः। धनकराणि सद्रत्नसमृद्धिकराणि, कीर्तिकराणि सर्वदिग्व्यापिसाधुवादकराणीत्यर्थः, नैव च खलु एवार्थत्वात्, हे आयुष्मन् ! एवं वक्ष्यमाणं चिन्तितव्यं मनसा विकल्पनीयम् (एसंती ति) एष्यन्ति, आगमिष्यन्ति, खलुनिश्चये, बहवः समयाः बहवे इत्यग्रेऽपि योज्यम्। तं यत्र समयावलिकाऽऽदौ,णं वाक्यालङ्कार (अम्हे त्ति) वयं बहूनि प्रभूतानि, शीलानि समाधांनानि, व्रतानि महाव्रतानि (गुणाई ति) गुणान् विनयाऽऽदीन् / अत्र 'गुणाद्याः क्लीवे वा" / / 8 / 1 / 34 / / इति क्लीवत्वम् / (वेरमाणाई ति) असंयमाऽऽदिभ्यो निवर्तनानि प्रत्याख्यानानि, नमस्कारस-हितपौरुष्यादीनि, पोषधः पर्वदिनमष्टम्यादि, तत्रोपवासा अभक्तार्थकरणानि पौषधोपवासास्तान् प्रतिपत्स्यामहे आचार्याऽऽदिपार्श्वेऽङ्गीकरीष्यामः (पट्ट विस्सामो ति) प्रस्थापयिष्यामः अङ्गीकरणानन्तरं प्रथमतया कर्तुमारप्स्यामः, करिष्याम इति साक्षात्कारेण सततं निष्पादयिष्यामः / (तत्ति) तावदादी किमर्थ नैव चिन्तयितव्यम् / हे आयुष्मन् ! त्वं श्रृणु, यतो भवति, अन्तरायबहुलं विघ्नप्रचुरमिदं, खलु निश्चये, जीवितमायुर्जीवाना, तथा इमे प्रत्यक्षा बहव वातिका वातरोगोद्भवाः पैत्तिकाः पित्तरोगजाः (सिंभिए त्ति) श्लेष्मभवाः सान्निपातिकाः सन्निपातजन्याः विविधा अनेकप्रकाराः रोगा व्याधयस्ते च ते आतङ्काश्च कृच्छ्रजीवितकारिण इति रोगातड़ा जीवितं स्पृशन्तीति।। अथ किं सर्वे मनुजा एवंविधा भवन्ति, नेति दर्शयति इत्याहआसित खलु आउसो ! पुट्विं मणुया ववगयरोगायंका बहुवाससयसहस्सजीविणो / तं जहा--जुयलधम्मिया अरिहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा धारणा विज्जाहरा; ते | णं मणुया अईव सोमचारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा सुजायसव्वंगसुंदरंगा रत्तुप्पलपउमकरचरणकोमलंगुलितला नगनगरमगरसागरचक्कं कवरलक्खणं कियतला सुपइट्ठिय कुम्मचाचलणा आणुपुच्विं सुजायपीवरंगुलिया उन्नयतणुतंवनिद्धनहा संठियसुडि लिट्ठगूढगुफा एणीकुरुवंदावत्तवट्टाणुपुव्वगंधा समुग्गनिमग्गगूढजाणू गयसुमादंडसुजायसनिभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासगई सुजायवरतुरयगुज्झदेसा आइण्णहय व्व निरुवलेवा पमुइयवरतुरयसीहअइरेगवट्टियकडीसाहयसोणंदमुसलदप्पणनिवारियवरकणगच्छरुसरिसवरवइर-बलियमज्झा, गंगावत्तप्पयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरण-वोहियकोसायपउमगंभीरविडयनाभी उज्जुयसमसहियसुजायजचतणुकसिणनिद्धआइज्जलमहसुकुमालमउयरमणिज्जरोमराई झसविहगसुजायपीणकु च्छी झसोयरा पम्हवियमनाभी संगयपासा सन्नयपासा सुंदरपासा सुजायपासा मियमाईयपीणरईयपासा, अकरमुयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी पसत्थवत्तीसलक्खणधरा कणगसिलायलुजलपसत्थसमतला उवचियवित्थिन्नपिहुलवच्छा सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवट्टियभूया भूयंगीसरविउलभोगआयाणफलिहउच्छूढदीहबाहू जुगसंनिभपीणरइयपीवरपउट्ठसंठियउवचिय (धण) थिरसुवट्टसुसिलिट्ठपव्वसंधी रत्तुप्पवलोचियमउयमंसलसुजायलक्खणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी पीवरवट्टिय-सुजायकोमलवरंगुलिया तंवतलिणसुइरुइरनिद्धनखा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्रपाणिलेहा सोत्थियपाणिलेहा ससिप रवि 2 संख३ चक्क४ सोत्थिय५ विभत्तसुविरइयपाणिलेहावरमहिसवराहसीह-सहूलउसभनागवरविउलउन्नयमउयक्खंधा चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा अवट्ठियसुविभत्तचित्तमंसूमंसलसंठियपसत्थसदूलविउलहणुया उपचिय-सिलप्पवालबिंबफलसंनिभाधरुट्ठा पंडु रससिसगलविमलसंखगोखीरकुं ददगरयमुणालियाथवलदंतसेढी, अखंडदंता, फफ्फोडियदंता अविरलदंता, सुनिद्धिदंता, सुजायदंता, एगदंतसेढी विव अणेगदंता, हुयवहनिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा सारदनवथणियमहुरगंभीरकुंचनिग्धोसदुंदुहिसरा गरुलाययउजुतुंगनासा अवदारियपुंडरीयनयणा कोकासियधबलपुंडरीपत्तलच्छी, आनामियचावरुइलकिन्ह चिहुरराइसुसंठियसंगय-आययसुजायभमुहा अलीणपमाणजुत्तसवणा, सुसवणा, पीणमंसलकपोलदेसमागा, अइरुग्गयसमग्गसुद्धचंदद्धसंठियनिडाला, उडुवइपडिपुन्नसोम्मवयणा, छत्तागारुत्तमंगदेसा, घणनिचियसुद्धलक्खणुन्नयकूडागारनिभनिरुवमपिं डियग्गासिरा, हुयवहनिद्धंतधोयतत्तत-दणिज्जके संतके सभूमी, सामलियचूडघणनिचियछोडियमिउविसयसुहमलक्खणपसत्थसुगंधिसुंदरभुयमोयगभिंगनीलक जलपहट्ठभमरगणनिउरंबभूए निचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया लक्खणवंजणगुणो
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________________ धम्म 2676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म ववेया, माणुम्माणपमाणपडि पुन्नसुजायसवंगसुंदरंगा, ससिसोम्मागारकं तपियदसणा, सब्भावसिंगारचारुरूवा, पासाईया, दरसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरुवा, ते णं मणुया ओहस्सरा मेहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा, मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरघोसा अणुलोमवाउवेगा कंकग्गहणी कवोयपरिणामा, सउणीपासपिढें तरोरुपरिणया पउमुप्पलसुगंधसरिसनीसाससुरमिवयणा छवीनिरायंका, उत्तमपसत्थअइसेसनिरुवमतणू, जल्लमल्लकलंक से यरययदो सवज्जियसरीरा, निरुवलेवा, छाया उज्जोवियंगमंगा, वञ्जरिसहनारायसंघयणा, समचउरंससंठाणसंठिया, छधणुसहस्साई,उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता, ते णं मणुया दोण्हछप्पण्णगपिट्टिकरंडगसया पण्णत्ता, समणाउसो! ते णं मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता पगइपयणुकोहमाणमायलोभा मिउ मद्दवसंपन्ना अल्लीणा भद्दया विणीया अप्पिच्छा असंनिहिसंचया अचंडा असिमसिकिसिवाणिज्जविवज्जिया, विडिमंतर-निवासिगो, इच्छियकामकामिणो, गेहाकाररुक्खकयनिलया, पुढवीपुप्फफलाहारा ते णं मणुयगणा पण्णत्ता, आसीय समणाउसो ! पुट्विं मणुयाणं छविहे संघयणे पण्णत्ते / तं जहा-बजरिसहनारायसंघयणे 1 रिसहनारायसंघयणे 2 नारायसंघयणे 3 अद्धनाराय संघयणे। कीलियासंघयणे 5 छेवट्ठसंघयणे 6 संपइ खलु आउसो ! मणुयाणं छेवढे संघयणे वट्टइ, आसिय आउसो ! पुट्विं मणुयाणं छव्विहा संठाणा पण्णत्ता, तं जहा-समचउरंसे निग्गोहे साए वामणे खुज्जे वामणे हुंडे संपइ खलु आउसो ! मणुयाणं हुंडे संठरणे बट्टइ। (18) अथोपदेशं ददातीत्याहसंघयणं संठाणं, उच्चतं आउयं च मणुयाणं / अणुसमयं परिहायइ, ओसप्पिणिकालदोसेणं / / 1 / / संहनन संस्थानं शरीराऽऽदेरुच्चत्वमुच्छ्यमानमायुश्च मनुजाना चकारादन्येषां च अनुसमयं समयं समयं प्रति परिहीयते अवसर्पिणीकालदोषेणेति // 1 // कोहमयमाणलोभा, ओसन्नं वड्डए य मणुयाणं / कूडतुलकूडमागा, तेऽण्णुमाणेण सव्वं ति // 2 // क्रोधमानमायालोभाश्च (ओसन्न) प्रवाहेण वर्द्धन्ते पूर्वमनुष्या-पेक्षया विशेषतो वर्द्धयन्ति, मनुष्याणां कूटतुलानि कूटतोलनाऽऽद्युपकरणानि कूटमानानि कूटकुडवप्रस्थादिमानानि च वर्द्धयन्ति, तेन कूटतुलाऽऽदिनाऽनुमानेनानुसारेण (सव्वं ति) क्रयाणकवाणिज्याऽऽदिकं कूट वर्द्धते इति // 2 // विसमा अज्ज तुलाओ, विसमाणि य जणवएसु माणाणि। विसमा रायकुलाइं, जेण उ विसमा वासाइँ / / 3 / / विषमा अर्पणायान्यग्रहणायान्याश्च अद्य दुःखमा काले तुला तथा जनपदेसु मगधाऽऽदिदेशेषु मानानि कुडवसेतिकाऽऽदिप्रमाणानि विषमाणि असमानि जातानि, चशब्दादनेकप्रकारवञ्चनानि / तथा विषमाणि अनेकान्यायकारकाणि राजकुलानि वर्तन्तेऽद्य तेन कारणेन तुशब्दोऽप्यर्थः / वर्षाण्यपि संवत्सराण्यपि विषमाणि दुःखरूपाणि जातानीति // 3 // विसमेसु य वासेसु, हुंति असाराई ओसहिबलाई। ओसहिदुब्बल्लेण य, आऊ परिहायइ नराणं / / 4 / / विषमेषु वर्षेषु सत्सु भवन्तीति असाराणि सारवर्जितानि औषधि-- बलानि गोधुमाऽऽदिवीर्याणि औषधिदुर्बलत्वेन नराणामन्येषामपि आयुजीवितं परिहीयते क्षीयते इति // 4 // एवं परिहायमाणे, लोए चंदु व्व कालपक्खम्मि। जे धम्मिया मणुस्सा, सुजीवियं जीवियं तेसिं / / 5 / / एवमुक्तप्रकारेण परिहायमाने लोके कृष्णपक्षे चन्द्रवद ये धार्मिका धर्मयुक्ता मनुष्यास्तेषां जीवितं जीवितकालः सुजीवितं सुष्टु जीवितं ज्ञातव्यमिति / / 5 / / त०। एवं निस्सारे मा–णुसत्तणे जीविए अ विहडंति। न करेइ चरणधम्मं, पच्छा पच्छाणुतप्पिह हा / / 2 / / एवम उक्तप्रकारेण निस्सारे असारे मानुषत्वे मनुजत्वे, तथा जीविते आयुषि रत्नकोटिकोटिभिरपि अप्राप्ये अधिपतति समये समये क्षयं गच्छतीत्यर्थः, न कुरुत यूयं चरणधर्म ज्ञानदर्शनपूर्वक देशसर्वचारित्रं हा इति महत्खेदे, पश्चादायु:-क्षयानन्तरम् आयुः क्षयचरमक्षणे या पश्चात्ताप कायवाङ्मनोभिर्महाखेदं करिष्यथ, नरकस्थशशिराजवदिति / / 24 / / भव्याः प्रश्नयन्ति कथं वयं नात्मस्वरूपं जानीमः, इत्युक्ते गुरुराहघुट्ठम्मि सयं मोहे, जिणेहिँ वरधम्मतित्थमग्गस्स / अत्ताणं च न याणह, इह जाए कम्मभूमीए / / 25|| धर्मस्य जिनोक्तरूपस्य, तीर्थ पवित्रकरणस्थानकं, तस्य मार्गा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः, वरश्वाऽसौ धर्मः तीर्थमार्गश्च संघः,तथा तस्मिन् प्राकृतत्वाद्विभक्तिपरिणामः / जिनः रागाऽऽदिजेतृभिः स्वयमात्मना 'घुट्ठम्मीति'' कथिते निरूपिते सति आत्मानं न यूयं जानीत, व सति? मोहे सति तीव्रमिथ्यात्वमिनमोहनीय-कर्मोदये सतीत्यर्थः / इह कर्मभूमौ जाता अपि, अपेर्गम्यमानत्वादिति / अस्या अर्थोऽन्योऽपि सद्गुरुप्रसादात्कार्य इति // 25 // तं०। एवं खु जरामरणं, पक्खिवइ वग्गुरं च मियजूहं / / नयणं पिच्छह मिच्छ, संमूढा मोहजालेणं / / 27 / / एतज्जरामरणं, खुनिश्चये, जीवमृगयूथं परिक्षपति परिवेष्टयति, च इवार्थे, यथा वागुरा मृगगूथ परिक्षपति, न च पश्यतयूयं प्राप्तं जरामरणं मोहजालेन संमूढा मोहं गताः श्रीगौतमप्रतिबोधितदेवशर्मद्विजवदिति // 27 // 20 // अथोपदेशान्तरं ददातीत्याहजड्डाणं वड्डाणं, निव्विन्नाणं च निव्विसेसाणं / संसारसूयराणं, कहियं पि निरत्थयं होइ॥६। जड़ानां द्रव्यभावमूर्खाणां, वडानां केषाश्चिन्मठपारापतसदृशानां वृद्धाना निर्विज्ञानां विशिष्ट ज्ञानरहिताना निर्विशेषाणामपघादोत्सर्गज्येष्ठे तराऽऽदिविशेषरहितानां संसारशूकराणामेवंवि
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________________ धम्म 2680 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म धानां गृहस्थानां साध्वाभासानामपि कथितमपि उक्तं वक्ष्यमाणं निरर्थक भवति, ब्रह्मदत्तोदायिनृपमारकाऽऽदिवत् / / 6 / / किं पुत्तेहिं पियाहि य, अत्थेण वि पिंडिएण बहुएणं / जो मरणदेसकाले, न होइ आलंबणं किंचि // 10|| पुत्रैरङ्ग जैः किं न किञ्चित्, पितृभिर्वा किमर्थेनापि पिण्डितेन मीलितेन बहुकेन प्रभूतेन किं नन्दमम्मणादिनेव योऽङ्गजाऽऽदिकलापः मरणदेशकाले मरणप्रस्तावे न भवति आलम्बनमाधाररूपं किञ्चिदिति / / 10 / / पुत्ता चयंति मित्ता, चयंति मज्जा विणंऽमयं चयइ। तं मरणदेसकाले, न चयइ सुविअज्जिओ धम्मो / / 11 / / मातापितरं पुत्रास्त्यजन्ति, मित्रं मित्रास्त्यजन्ति, सहजमित्र पूर्वमित्रवत्, भार्याऽपि इमं प्रत्यक्ष जीवन्तमित्यर्थः, मृतं वा स्वकान्तं त्यजति / यद्वा भार्या, णमिति वाक्यालङ्कारे, आर्षत्वादकारविश्लेषे, (अमयमिति) अमृतं जीवन्तं त्यजति, जीवन्तमेव स्वकान्तं मुक्त्वाऽन्यत्पुरुषान्तरं भर्तृत्वेन प्रतिपद्यते, वनमालावत् / यस्मिन् प्रस्तावे ते पुत्राऽऽदयः त्यजन्ति (तमिति) तस्मिन् प्रस्तावे मरणदेशकाले च न त्यजति (सुइ ति) जिनाऽऽज्ञापूर्वकदृढभावेन (वित्ति) विशेषेण निरन्तरकरणेनार्जितः धर्मः श्रुतचारित्ररूप इति // 11 // अथ गाथाचतुष्टयेन धर्ममाहात्म्यं वर्णयतीत्याहधम्मो ताणं धम्मो,सरणं धम्मो गई पइट्ठा य / धम्मेण सुचरिएण य, गम्मइ अजरामरं ठाणं / / 12 / / धर्मः सम्यग्ज्ञानदर्शनचरणाऽऽत्मकः त्राणमनर्थप्रतिहननमर्थसंपादनं च तद्धेतुत्वात्, धर्मः शरणं, रागाऽऽदिभयभीरुकजनपरिरक्षणं,धम्मो गम्यते,दुःस्थितैः सुस्थितार्थमाश्रीयत इति गतिः धर्मः प्रतिष्ठान संसारगर्तापतत्प्राणिवर्गस्याऽऽधारः,धर्मेणि सुचरिते न सुष्वासेवितेन, चशब्दादनुमोदनेन, साहाय्यदानाऽऽदिना गम्यते, अवश्य प्राप्यते, अजरामरं स्थानं मोक्षलक्षणमित्यर्थः, देवकुमारवत्।।१२।। पीइकरो वन्नकरो, भासकरो जसकरो रइकरो य। अभयकरो निवुइकरो, परत्त वी अजिओ धम्मो / / 13 / / प्रीतिकरः परमप्रीत्युत्पादकः, वर्णकर एकदिग्व्यापी कीर्तिकरः, यद्वा वपुषि गौरवत्वाऽऽदिवर्णकरः / यद्वा क्षुराऽऽत्मकज्ञानकरः, भास्करः कान्तिकरः, यद्वा भाषाकरः वचनपटुत्वमाधुर्याऽऽदिगुणकर इत्यर्थः / यशःकरः सर्वदिग्व्यापिकीर्तिकरः, चशब्दात् श्लाघाशब्दकरः, तत्र श्लाघा तत्स्थान एव साधुवादः / अभयकरो निर्भयकरः। निर्वृतिकरः सर्वकर्मक्षयभावकरः / (परत वि अजिओ त्ति) परस्त्र द्वितीये जीवानां परलोके द्वितीय इत्यर्थः धर्मः / / 13 // अमरवरेसु अणोदम-रूवं भोगोवभोगरिद्धी य। विन्नाण नाणमेव य, लब्भइ सुकरण धम्मेण // 14 // अमरवरेषु महामहर्द्धिकदेवेषु अनुपमरूपं भोगोपभोगकृवयं विज्ञानं ज्ञानमेव च लभ्यते, सुकृतेन धर्मेण प्रदेशीराजमेघकुमारधन्यागारा ऽऽनन्दादिनेव। तत्र भोगाः गन्धरसस्पर्शाः, उपभोगाः शब्दरूपविषयाः, यद्वा-सकृद्धोगा उपभोगाः, ते चान्नपाननुलेपनाऽऽदिरूपाः ऋद्धयो देवदेव्यादिपरिवारभूताः, विज्ञानमनेकप्रकार-रूपाऽऽदिकरणं, ज्ञानं नतिश्रुतावधिरूपम्। यद्वा-देवेषु रूपाऽऽदयः प्राप्यन्ते, इह च (विन्नाण त्ति) केवलज्ञान (नाणं ति) ज्ञानचतुष्कं त्रिकं द्विक चेति / / 14 / / देविंदचक्कवट्टि-त्तणाइँ रज्जाइँ इच्छिया भोगा। एयाइँ धम्मलाभो, फलाइँ जं चावि निव्वाणं / / 15 / / देवेन्द्रचक्रवर्तित्वानि राज्यानि गजाश्वरथपदातिभाण्डागारकोष्ठागारवप्रलक्षणानि, यद्वा-स्वाम्यमात्य 2 जनपद 3 दुर्ग 4 बल 5 शस्त्र ६मित्राणि 7, ईप्सिता भोगाः / एतानि धर्मलाभात् फलानि भवन्ति, यच्चापि निर्वाणमिति / / 15 / / तं०। तथा च महानिशीथेधम्मे य णमिट्टे पिए कंते परमत्थसुही सयणजणमित्तबंधूपरिवग्गो धम्मे य णं दिविकरे धम्मे य णं पुट्टिकरे धम्मे य णं बलकरे धम्मे य णं उच्छाहगरे धम्मे य णं निम्मलजसकित्तिपसाइगे धम्मे य णं माहप्पजणगे धम्मे य णं सुछ सोक्खपरंपरादायगे, से य णं सेवणिज्जे, से य णं आराहणिज्जे, से य णं पोसणिज्जे, से य णं पालणिज्जे, से य णं कारणिज्जे, से य णं चरणिज्जे, से य णं अणुट्ठिज्जे, से य णं उवइसणिज्जे, से य णं कहणिज्जे, से य णं भणणिज्जे, से य णं पण्णवणिज्जे, से य णं कारवणिज्जे, सेयणं धुवे सासए अक्खए अचए सयलसोक्खनिही धम्मे, से य णं अलज्जणिज्जे से य णं अउलवलवीरिए पुरिससतपरक्कमे संजुए पवरवरे इडे पिए कं ते दइए सयलसोक्खदालिद्दसंतावुद्देवग-अयसदुक्खणलं भजरामरणाइअसेसभयनिन्नासगे अणण्णसरिससहाए तेलोक्केक्कसामिसाले, ता अलं सुहीसयणजणमित्तबंधुगणधणधण्णसुवन्नहिरण्णरयणोहनिही कोससंवयाइसक्कवाविविजुलयाऽऽडोवचंचलाए सुमुणिंदजालपरिसाए खण्णदिट्ठणभंगुराए अधुवाए असासयाए संसारवुट्टिकारगाए निरयावयारहेउभूयाए सुगइमग्गविग्घदायगाए अणंतदुक्खपयायगाए रिद्धीए सुदुलहा हुवे लाभा धम्मस्स साहणी सम्मदसणनाणचरित्ताराहिणी निरुवयाइसामग्गी अणवरयमहन्निसाणसमएहिणं खंडखंडेहिं तु परिसडइ, आदडघोरनिट्टुरा अचंडा जरासणिसण्णिवायसंचुण्णिए सहजज्जरभंडणे इव अकिंचिकरे मवइ, उदिहाणुदियहेण इमे तणुकिसलयदलगपरिसंठियं जलविंदुमिवाकंडे निमिसभंतरेण बलिकुंडलइजीविए अविढत्तपरलोगपत्थयणाणं तु निष्फले चेव मणुयजम्मे तो भो ण खमे तणुतणुयतरे वि ईसिं पियमाए, जओ णं एत्थ खलु सव्वकालमेव समसत्तुमित्त-भावेहिं भवियव्वं, अप्पमत्तेहिं च पंचमहव्वयं घारेयव्वं / तं जहाकसिणपाणइवायविरती, अणलीयमासित्तं, दंतसोहणमित्तस्स वि अदिन्नररावज्जणं मणोवयकायजोगेहिं तुअखंडियअविराहियण
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________________ धम्म 2681 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म त्तिपरिवेढियस्सणं परमपवित्तस्स सव्वकालमेव दुद्धरबंभचेरस्स धारणं वत्थपत्तसंजमोवयरणेसुं पिणिम्ममतया असणपाणाईणं तु चउव्विहेणेव राईभोयणचाओ उग्गमुप्याय-णेसणाईसु णं विसुद्धपिंडग्गहणं संजोयणाइपंचदोसविरहिएणं परमिएणं काले भिन्ने पंचसमितिविसोहणं तिगुत्तिगुत्तिया इरियाससमिइमाईओ भावणाओ अणसणाइतवोवहाणुट्ठाणं सामाइभिक्खूपडिमाओ विवित्ते दव्वाइअभिग्गहे, अहोणं भूमीसयणे केसलोए निप्पडिकम्मसरीरया सव्वकालमेव गुरुनिओगकरणं खुप्पिवासाइपरीसहाहियासणं दिव्वाइउव-सग्गाविजयलद्धावलद्धवित्तिया, किं बहुणा अचंतदुव्वहे भो वहियव्वे अवीसमंतेहिं चेव सिरिमहापुरिसछूढो अट्ठारससीलंगसहस्सभारे तरियव्वे य भो वाहाहि महाहिसमुद्दे अविसाईहिं वणं भो भक्खियव्वे णिरासाए वालुयाकवलोपरि सक्केयव्वं च भो णिसियसुतिक्खदारुणकरवालधाराए पाणचायणं भो सुहुयवहजालावलीभरियव्वे णं भो सुहुमपवणकोच्छलगे गमियव्वं च णं भो गंगापवाहपडिसोएणं तोलेयव्वं भो साहसतुलाए मंदरगिरिं जेयव्वे य णं भो एगागिएहिं चेव धीरताए सुदुज्जए चाउरंगे वले विधेयव्वा णं भो परोप्परविवरीयभमंतअट्ठचकोवरिं वामच्छिभिउडी उल्लिया गहेयव्वा णं भो सयलतिहुयणविजयाणिं णिम्मलजसकित्तीजयपभागा, ता भो भो जणा! "एयाओ धम्माणु-ट्ठाणाउ सुदुक्करं णत्थि किंचि मन्नंति। / बुझंति नामभारा, ते चिय बुझंति धीसमंतेहिं / / सीलभरो अइगुरुओ, जावजीवमविस्सामो। ता उज्झिऊण पेम्म, घरसारं पुत्तदवेण / / माईयं णीसंगा, अविसाई पयरहसव्वुत्तमं धम्म। णो धम्मस्स भडुक्का-उक्कंचण वंचणा य ववहारो॥ निद्धम्मो भो धम्मो, मायादीसल्लरहिओ य। भूएसु जंगमंतं, तेसु वि पंचिंदियत्तमुक्कोसं / / तेसु वि चिय माणुसत्तं, मणुयत्ते आरिए देसे। देसे कुलं पहाणं, कुले पहाणेइ जाइमुक्कोसा / / तीए रूवसमुद्दे, रूवे य बलं पहाणवरं / होइ बले वि य जीवं, जीए य पहाणयं तु विन्नाणं // विन्नाणे सम्मत्तं, सम्मत्ते सीलसंपत्ती। सीले खाइयभावो, खाइयभावे य केवलं नाणं / / केवलिए पडिपुन्ने, पत्ते अयरामरो मोक्खो। ण य संसारम्मि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स। जीवस्स अस्थि जम्हा, तम्हा मोक्खोववाए उ।। आहिंडिऊण सुइरं, अणंतत्तो हु जोणिलक्खेसु / तस्साहणसामग्गी, पत्ता भो भो बहू इणिह।। तो एत्थ जंण पत्तं, तदत्थ भो उज्जम कुणह तुरियं / विवुहजणणिंदियमिणं, उज्जह संसारअणुबंधं / / लहिउं भो धम्मसुई, अणेगभवकोडिलक्खेसु / विउलद्धं जइ णाणुट्ठह, सम्म ता णवरि बुल्लह होही।। महा०२ चू० तथा चपञ्चसूत्रेजायाए धम्मगुणपडिवत्तिसद्धाए भाविज्जा एएसिं सरूवं पयइसुंदरत्तं अणुगामित्तं परोवयारित्तं परमत्थहेउत्तं, तहा दुरणुवरत्तं भंगे दारुणतं महामोहजणगत्तं भूओ दुल्लहत्तं ति, एवं जहा-सत्तीए उचियविहाणेणं अचंतभावसारं पडिवज्जिज्जा / तं जहा-थूलगपाणाइवायविरमणं,थूलगमुसावायविरमणं,थूलगअदत्तादाणविरमणं, थूलगमेहुणविरमणं, थूलगपरिग्गहविरमणमिच्चाइ पडिवजिऊण पालणे जइज्जा सयाणागाहगे सिआ सयाणाभावगे सिआ सयाणापरतंते सिआ आणा हि मोहविसपरममंतो जलं रोसाइजलणस्स कम्मवाहितिगिच्छासत्थं कप्पपायवो सिवफलस्स वञ्जिज्जा अधम्ममित्तजोगं चिंतिजाऽभिणवपाविए गुणे अणाइभवसंगए अ अगुणे उदग्गसहकारित्तं अधम्ममित्ताणं उभयलोगगरहिअत्तं असुहजोगपरंपरं च, परिहरिज्जा सम्मं लोगविरुद्धे करुणापरे जणाणं न खिंसाविजा धम्म संकि-लेसो खुएसा परमबोहिवीअमवोहिफलमप्पणो त्ति, एवमालोएज्जा न खलु इत्तो परो अणत्थो अंधत्तमेयं संसाराडवीए जगमणिट्ठावायाणं अइदारुणं सरूवेणं असुहाणुबंधमचत्थं सेविज्ज धम्ममित्ते विहाणेणं अंधो विवाणुकट्टए वाहिए विव विज्जे दरिदो विव ईसरे भीओ विव महानायगे नइओ सुंदरमन्नंति बहुमाणजुत्ते सिआ आणाकंखी आणापडिच्छगे आणाअविरहगे आणानिप्फायगे त्ति, पडिवण्णधम्मगुणारिहं च वट्टिज्जा गिहिसमुचिएसु गिहिसमायारेसु परिसुद्धाणुट्ठाणे परिसुद्धमकिरिए परिसुद्धवइकिरिए परिसुद्धकायकिरिए वज्जिज्जा अणेगोवघायकारगं गरहिणिज्जं बहुकिलेसं आयइविराहगं समारंभ, न चिंतिज्जा परपीडं, न भाविजा दीणयं, न गच्छिज्जा हरिसं, न सेविज्जा वितहाभिनिवेसं, उचिअमणपवत्तगे सिआ, न भासिज्जा अलियं, न फरुसं न पेसुन्नं नानिबद्धं, हिअमि अभासगे सिआ, एवं न हिंसिज्जा भूआणि, न गिहिज्ज अदत्तं, न निरिक्खिज्ज परदारं, न कुज्जा अणत्थदंडं, सुहकायजोगे सिआ, तहा लाहोचिअदाणे लाहोचिअभोगे लाहोचिअपरिवारे लाहोचि
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________________ धम्म 2682- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म अनिहिकरे सिआ असंतावगे परिवारस्स गुणकरे जहासतिं कृतगुणानाम् / कथमित्याह- सदाज्ञाग्राहकः स्यात्, अध्ययन श्रवअणुकंपापरे निम्ममे भावेणं, एवं खु तप्पालणे वि धम्मो जह णाभ्याम् / आज्ञा आगम उच्यते, संदाज्ञाभावकः स्यात्, अनुपेक्षा-- अन्नपालणे त्ति / सव्वे जीवा पुढो पुढो ममत्तं बंधकारणं, तहा द्वारेण, सदाज्ञापरतन्त्रः स्यादनुष्ठानं प्रति / किमवमित्याह-आज्ञा हि तेसु तेसु समायारेसु सइसमण्णागए सिआ अमुगोऽहं अमुगकुले मोहविषपरममन्त्रः तदपनयनेन, जलं, द्वेषाऽऽदिज्वलनस्य तद्विध्याअमुगसिस्से अमुगधम्मट्ठाणट्ठिए न मे तब्दिराहणान मेत्तदारंभो पनेन। कर्मव्याधिचिकित्साशास्त्रं, तत्क्षयकारणत्वेन, कल्पपादपः वुड्डी ममेअस्स एअमित्य सारं एयमायभूयं एअं हि असारमन्नं शिवफलस्य, तदवन्ध्यसाधनत्वेना तथा (वज्जेज्जा इत्यादि) वर्जयेत् सव्वं विसेसओ अविहिगहणेणं एवमाह तिलोगबंधू परमकारुणि अधर्ममित्रयोगम् / अकल्याणमित्रसंबन्धं, चिन्तयेत् अभिनवप्राप्तान् गे सम्म संबुद्धे भगवं अरहते त्ति, एवं समालोचिअतदविरुद्धेसु गुणान् स्थूरप्राणातिपातविरमणाऽऽदीन् अनादिभवसङ्गतांश्च अगुणान, समायारेसु सम्मं वट्टिज्जा भावमंगलमेअं तन्निप्फत्तीए तहा सदैवाविरतत्वेन, उदग्रसहकारित्वमधर्ममित्राणाम्, अगुणान्प्रतिजागरेज धम्मजागरिआए, को मम कालो किमेअस्स उचिअं, उभयलोकगर्हितत्वं तत्पापानुमत्यादिना, अशुभयोगपरम्परा च अकुशअसारा विसया नियमगामिणो विरसाबसाणा, भीसणो मच्चू लानुबन्धतः / तथा (परिहरेज्जा इत्यादि) परिहरेत्सम्यग्लोकविरुद्धानि सध्वाभावकारी अविनायागमणो अणिवारणिज्जो पुणो तदशुभाध्यवसायाऽऽदिनिबन्धनानि, अनुकम्पापरी जनानां मा पुणोऽणुबंधी, धम्मो एअस्स ओसह एगंतविसुद्धो महापुरिस भूतेषामधर्मः, न खिंसयेद्धर्मम, न गर्हयेज्जनैरित्यर्थः, सक्लेश एवैषा सेविओसव्वहिअकारी निरइआरोपरमाणं-दहेऊ,नमो इमस्स खिंसाऽशुभभावत्वेन, परमबोधिबीज, तत्प्रद्वेषेण / अबोधिफलमात्मन धम्मस्स नमो एअधम्मप्पगासगाणं, नमो एअधम्मपालगाणं, इति / जनानां तन्निमित्तभावेन, तथा एवमालोचयेत्सूत्रानुसारेण, न नमो एअधम्मपरूवगाणं, नमो एअधम्मपवनगाणं, इच्छामि खल्वतः परोऽनर्थोऽबोधिफलात्, तत्कारणभावाद्वा लोकविरुद्धत्यादिति। अहमिणं धम्म पडिवजित्तए सम्मं मणवयणकायजोगेहिं, होउ अन्धत्वमेतत्संसाराटव्यां हितदर्शनाभावेन, जनकमनिष्टपाताना, ममेअंकल्लाणं परमकल्लाणाणं जिणाणमणुभावओ, सुप्पणिहा नरकाऽऽद्युपपातकारणतया, अतिदारुणं स्वरूण संक्लेशप्रधानत्वात्। णमेवं चिंतिजा पुणो पुणो एअधम्मजुत्ताणमववायकारी सिआ, अशुभानुबन्धमत्यर्थ परम्परोपघातभावेनेत्यत एवोक्तम्- "लोकः पहाणं मोहच्छे-अणमे अं, एवं विसुज्झमाणे भावणाए ख्यल्वाधारः, सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् / तस्माल्लोकवि-रुद्ध, कम्मापगमेणं उवेइ एअयस्स जुग्गयं, तहा संसारविरत्ते संविग्गो धर्मविरुद्ध च सत्याज्यम् / / 1 / / " इत्यादि। तथा (सेवेज इत्यादि) सेवेत भवइ, अममे अपरोवतावी विसुद्धे विसुद्धमाणभावे त्ति। धर्ममित्राणि विधानेन सतप्रतिपत्त्यादिना, अन्ध इवानुकर्षकान. जातायां धर्मगुणप्रतिपत्तिश्रद्धायां भावतस्तथाविधकर्मक्षयोपशमन पाताऽऽदिभयेन व्याधित इव वैद्यान् दुःखभयेन दरिद्र इवेश्वरान्, भावयेदेतेषां स्वरूपं धर्मगुणानाम् / प्रकृतिसुन्दरत्वं जीवसंक्लेश स्थितिहेतुत्वेन / भीत इव महानायकान् आश्रयणीयत्वेना तथा न इतो विशुद्ध्या, आनुगामुकत्वं भवान्तरवासनानुगमेन, परोपकारित्वं धर्ममित्रसेवनात् / सुन्दरतरमन्यदिति कृत्वा बहुमानयुक्तः स्यात् तथापीडाऽऽदिनिवृत्त्या, परमार्थहेतुत्वं परम्परया मोक्षसाधनत्वेन, तथा धर्ममित्रेषु / आज्ञाकानी अदत्तायामस्यां तेषाम्. आज्ञाप्रतीच्छकः दुरनुचरत्वं सदैवानभ्यासात्, भने दारुणत्वं भगवदाज्ञारखण्डनतः, प्रदानकाले तेषामेव, आज्ञाविराधकः प्रस्तुतायां तेषामेव, आज्ञानिमहामोहजनकत्वं धर्मदृषकत्वेन, भूयो दुर्लभत्वं विपक्षानुबन्धपुष्ट्येति पादक इत्यौचित्येन तेषामेव। (पडिवण्णेत्यादि) प्रतिपन्नधर्मगुणार्ह च भाव इति। एवमुक्तेन प्रकारेण यथाशक्ति शक्त्यनुरूपं, न तद्धान्याधि वर्तेत सामान्ये नेव गृहिसमुचितेषु गृहिसमाचारेषु नाना प्रकारेषु क्याभ्यामुचितविधानमेव शास्त्रोक्तेन विधिना, अत्यन्तभावसारं महता परिशुद्धनुष्टानः सामान्येनैव, परिशुद्धमनः क्रियः शास्त्रानुसारेण, प्रणिधानबलेन, प्रतिपद्येत धर्मगुणान्न राभसिकया प्रवृत्त्या, अस्था परिशुद्धवाकक्रियोऽनेनैव, परिशुद्धकायक्रियोऽनेनैवा एतद्विशेषणाभिधाविपाकदारुणत्वात्। किंभूतांस्तानित्याह-(तं जहा इत्यादि) तद्यथा तुमाह-वर्जयेदनेकोपघातकारक सामान्येन, गर्हणीयं प्रकृत्या, बहुक्लेशं स्थूरप्राणातिपातविरमण, स्थूरमृषावादविरमणं स्थूरादत्तादान प्रवृत्ती,आयतिविराधकं परलोकपीडाकर, समारम्भमङ्गारकर्माऽsविरमणं, स्थूरमैथुनविरमणं, स्थूलपरिग्रहविरमणमित्यादि। आदिश दिरूपम् / तथा न चिन्तयेत् परपीडा सामान्येन / न भावयेद् दीनतां दादिवताऽऽद्युत्तरगुणपरिग्रहः / आदावुपन्यासश्चैषां भावत इत्थमेव कस्यचिदसं प्रयोगे, न गच्छेद्धर्ष कस्यचित्संप्रयोगे, न सेवेत वितथाभिप्रारिति। निवेशम, अतत्त्वाध्यवसाय, किन्तुउचितमनः प्रवर्तकः स्याद्वचनानुसारेण, उक्तं च एवं न भाषेतानृतमभ्याख्यानाऽऽदि, न परुष निष्ठुरं, न पैशून्य परप्रीति"सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहत्तेणा सावओ होला। हारि, नानिबद्ध विकथाऽऽदि, किंतु हितमितभाषकः स्यात् सूत्रनीत्या / चरणोवसमखयाण, सागरसंखंतरा होति॥१॥ एवं न हिंस्याद् भूतानि पृथिव्यादीनि, न गृण्हीयाददत्तं स्तोकमपि, न एवं अप्परिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु। निरीक्षेत परदारान्, रागतः / न कुर्यादनर्थदण्ड अपध्यानाऽऽचअण्णतरसेढिवजं. एगभवेणं च सव्वाई।।२।।'' रिताऽऽदि, किंतु शुभकाययोगः स्यादागमनीत्या तथा (लाभोचियदाणेइत्यादि / (पडिवज्जिऊण इत्यादि) प्रतिपद्य पालने यतेत, अधि- | त्यादि) तथा लाभोचित्तदानः- अष्टभागाऽऽद्यपेक्षया तथा, लाभोचितभी
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________________ धम्म 2683 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म ग:-अष्टनागाऽऽद्यपेक्षया, लाभोचितपरिवारः चतुर्भागाऽऽदिभर्तव्यपरिमाणेन, लाभोचितनिधिकारः स्यात्, चतुभार्गाऽऽद्यपेक्षयेव / उक्तं चात्र लौकिकैः"पादमायान्निधिं कुर्या-त्पादं वित्ताय वर्द्धयेत्। धर्मोपभोगयोः पाद, पादं भर्त्तव्यपोषणे // 1 // " तथाऽन्यैरप्युक्तम्"आयादड़ नियुञ्जीत, धर्मे यद्वाऽधिकं ततः। शेषेण शेषं कुर्वीतः, यत्नतस्तुच्छमैहिकम् // 1 // " इत्यादि। तया असंतापकः परिजनस्य स्यादिति वर्तते शुभप्रणिधानेन। गुणकरो यशाशक्ति भवस्थितिकथनशीलत्वेन, अनुकम्पापरः प्रतिफलनिरपेक्षतया, निर्ममो भावेन भवस्थित्यालोचनात्। क एवंगुणः स्यादित्याहएवं यस्मात्तत्पालनेऽपि धर्मः, जीवोपकारभावात, तथाऽन्यपालन इति जीवाविशेषेण / किमित्येतदेवमित्याह-सर्वे जीवाः पृथक्पृथग् वर्तन्ते रवलक्षणभेदेन, किं तु ममत्वं बन्धकारणं लोभरूपत्वात् / उक्तं च"संसाराम्बुनिधौ सत्त्वाः, कर्मोर्मिपरिघट्टिताः। संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते, तत्र कः कस्य बान्धवः ? // 1 / / '' तथा"अत्यायतेऽस्मिन् संसारे, भूयो जन्मनि जन्मनि। सत्त्वो नेवास्त्यसौ कश्चिद्, यो न बन्धुरनेकधा / / 2 / / " इत्यादि। सर्वथा परिभावनामात्रमेतत्स्वजनो न स्वजन इति / (तहा तेसु तेसु इत्यादि) तथा तेषु तेषु समाचारेषु गृहिसमुचितेष्विति वर्तते, स्मृतिसमत्वाऽऽगतः स्यात् आभोगयुक्तः। कथमित्याह-अमुकोऽहं देवदत्ताऽऽदिनामा अमुककुले इक्ष्वाक्काऽऽद्यपेक्षया, अमुकशिष्यो धर्मतः तत्तदाचायापेक्षया, अमुकधर्मस्थानस्थितः अणुव्रताऽऽद्यपेक्षया, न मम तद्विराधना साम्प्रतम, न मम तदारम्भो विराधनाऽऽरम्भः। तथा वृद्धिर्ममैतस्य / धर्मस्थानस्य, एतदत्र सारं धर्मस्थानगेतदात्मभूतमानुगामुकत्वेन, एतद्धितं सुन्दरपरिणामत्वेन, असारमन्यत्सर्वमर्थजाताऽऽदीति, विशेषतोऽविधिग्रहणेन विपाकदारुणत्वात् / यथोक्तम्''पापेनैवार्थरागान्धः, फलमाप्नोति यत् क्वचित्। वडिशामिषवत्तत्तु, विना नाशं न जीर्यति॥१॥" इति। एतदेवमेवेत्याह- एवमाह त्रिलोकबन्धुः, समुपचितपुण्यसंभार: परमकारुणिकः, तथाभव्यत्वनियोगात् / सम्यक्संबुद्धोऽनुत्तरबोधिवीजतः, भगवान्नर्हन् सत्त्वविशेष इति / एवं रामालोच्य तदविरुद्धेषु अधिकृतधर्मस्थानाविरुद्धेषु समाचारेषु विचित्रेषु सम्यग् वर्तेत सूत्रनीत्या भावमङ्गलमेतद्विधिना वर्तनम्, तन्निष्पत्तेरधिकृतसमाचारनिष्पत्तेरिति / (तहा जागरिजेत्यादि) तथा जागृयात् भावनिद्राविरहेण, धर्मजागरया तत्त्वाऽऽलाचनरूपया, को मम कालः वयोऽवस्थारूप:? किमेतस्योचित धर्माऽऽद्यनुष्ठानम्? असारा विषयाः, तुच्छाः शब्दाऽऽदयो, नियमगामिनो वियोगान्ताः, विरसावसानाः परिणामदारुणाः, तथा भयानकोमृत्युः, महाभयजननः, सर्वाभावकारी तत्साध्यार्थक्रियाभावात् / अविज्ञाताऽऽगमनः, अदृश्यस्वभावत्वात मृत्योः / अनिवारणीयः, स्वजनाऽऽदिबलेन / पुनः पुनरनुबन्धी, अनेकयो निभावेना धर्म एतस्यौषधं, मृत्योर्व्याधिकल्पस्य। किविशिष्ट? इत्याह-एकान्तविशुद्धः निवृत्तिरूपः, महापुरुषसे वितस्तीर्थकराऽऽदिसेवितः सर्वहितकारी मैत्र्यादिरूपतया / निरतिचारो तथागृहीतपरिपालनेन, परमानन्दहेतुः निर्वाणकारणमित्यर्थः। नम एतरमै धर्माय अनन्तरोदितरूपाय, नम एतद्धर्मप्रकाशकेभ्योऽर्हद्भ्यः, नम एतद्धर्मपालकेभ्यो यतिभ्यः, नमस्तद्धर्मप्ररूपकेभ्यो यतिभ्य एव, नम एतद्धर्मप्रतिपत्तृभ्यः श्रावकाऽऽदिभ्यः, इच्छाम्यह-मेतं धर्म प्रतिपत्तुम. अनेनैतत्पक्षपातमाहसम्यग्मनोवाकाययोगैः अनेन तु सम्पूर्णप्रतिपत्तिरूपं प्रणिधिविशेषमाहभवतु ममैतत् कल्याणम्, अधिकृतधर्मप्रतिपत्तिरूपं परमकल्याणानां जिनानामनुभावतः, तदनुग्रहेणेत्यर्थः / सुप्रणिधानमेवं चिन्तयेत् पुनःपुनः। एवं हि स्वाऽऽशयादेव तन्निमित्तोऽनुग्रह इति / तथा एतद्धम्मयुक्तानां यतीनामवपातकारी स्यात, आज्ञाकारीति भावः। प्रधानं मोहच्छेद-- नमेतत् / तदाज्ञाकारित्वं तन्मोहच्छेदनयोगनिष्पत्त्यङ्गतयेति हृदयम्। एवं कुशलाभ्यासेन विशुद्भयमानो विशुद्ध्यमान एतत्सेवक इति प्रक्रमः। भावनयोक्तरूपया कर्मापगमेन हेतुना, उपत्यैतस्य धर्मस्य योग्यताम्। एतदेवाऽऽह -तथा संसारविरक्तस्तदोषभावनया, संविग्नो भवति मोक्षार्थी , अममो ममत्वरहितः, अपरोपतापी परपीडापरिहारी, विशुद्धो गन्थ्यादिभेदेन विशुद्धयमानभावः शुभकण्डकवृद्धयेति पं०सू० 2 सूत्र०। (श्रुतधर्ममधिकृत्य धर्मस्तुतिः 'काउस्ससग्ग' शब्दे तृ०भा० 416 पृष्ठे "तमतिमिर" इत्यादिगाथाभिर्भाविता) (16) साम्प्रत पदार्थ उच्यतेधम्मो मंगलमुक्किडं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसति, जस्स धम्मे सया मणो / / 1 / / "धर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट-महिंसा संयमस्तपः। देवा ऽपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः // 1 // " तत्र 'धु' धारणे. इत्यस्य धातोः मप्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति / मङ्गलरूपं पूर्ववत् / तथा- 'कृष' विलेखने, इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य निष्ठान्तस्येदं रूपमुत्कृष्टमिति / तथा- 'तृह' 'हिसि' हिंसायाम्, इत्यस्य ''इदितो नुम् धातोः॥७१।५८|| इति नुमि कृते स्त्र्यधिकारे टाबन्तस्य नअपूर्वस्येदं रूपम्, यदुताहिंसेति। तथा- 'यमु' उपरमे, इत्यस्य धातोः संपूर्वस्याच्प्रत्ययान्तस्य संयम इति रूपं भवति। तथा'तप' सन्तापे, इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य तप इति। तथा- "दिवु' क्रीडाविजिगी-षाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, इत्यस्य धातोरच्प्रत्य-यान्तस्य जसि देवा इति भवति / अपिशब्दो निपातः, तदित्येतस्य सर्वनाम्नः पुंस्त्वविवक्षायां द्वितीयैकवचनंतमिति भवति। तथा नमसित्यस्य प्रातिपदिकस्य 'नमो वरिवश्वित्रडः क्यच् / / 3 / 1 / 16 / / '' इति क्यजन्तस्य लट् क्रियान्तादेशः, ततश्व नमस्यन्तीति भवति। यदिति सर्वनाम्नःषष्ठ्यन्तस्य यस्येति भवति. धर्मः पूर्ववत् / सदेति सर्वस्मिन् काले "सर्वकान्य-किंयत्तदः काले दा'' / / 5 / 3 / 15 / / इतिदाप्रत्ययः, ''सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां दि" / / 5 / 3 / 6 / / इतिस आदेशः सदा। तथा- 'मन' ज्ञाने इत्यस्य धातोरसुन् प्रत्ययान्तस्य मन इति भवति / इति पदानि। साम्प्रत पदार्थ उच्यतेतत्र दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः। तथा चोक्तम्- "दुर्गतिप्रसृतान जीवान, यस्माद्धारयते ततः। धत्ते चैतान शुभे स्थाने, तरमा
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________________ धम्म 2684 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म धर्म इति स्मृतः / / 1 / / मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलमित्यादि पूर्ववत। उत्कृष्ट प्रधानम्, न हिंसा अहिंसा, प्राणातिपातविरतिरित्यर्थः / संयम आश्रवद्वारोपरमः, तापयन्त्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकारं कर्म इति तपः, अनशनाऽऽदि / दीव्यन्तीति देवाः, क्रीडन्तीत्यादिभावार्थः / अपिः संभावने, देवा अपि, मनुष्यास्तु सुतराम् / तमित्येवं विशिष्ट जीवं नमस्यन्तीति प्रकटार्थम्। यस्य जीवस्य किम्? धर्मेप्रागभिहितस्वरूपे, सदा सर्वकालं मन इत्यन्तःकरणम् / अयं पदार्थ इति / पदविग्रहस्तु परस्परापेक्षसमासभाक्त्वेनेह निबन्धनाभावान्न प्रदर्शित इति चालनाप्रत्यवस्थाने तु प्रमाणचिन्तायां यथावसरमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः। (20) प्रवृत्तिः पुनस्तयोरमुनोपायेनेति प्रदर्शयन्नाहकत्थइ पुच्छइ सीसो, कहिँ वि अपुट्ठा कहंति आयरिआ। सीसाणं तु हियट्ठा, विपुलतरागंतु पुच्छाए // 38 // क्वचित् किञ्चिदनवगच्छन् पृच्छति शिष्यः कथमेतदितीयमेव चालना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानम, इत्थमनयोः प्रवृत्तिः / तथा क्वचिदपृष्टा एव सन्तः पूर्वपक्षमाशङ्कय किश्चित्कथयन्त्याचार्याः तत् प्रत्यवस्थानमिति गम्यते / किमर्थ कथयन्त्यत आह-शिष्याणामेव हितार्थ, तुशब्द एवकारार्थः, तथा विपुलतरं तु प्रभूततरं तु कथवन्ति / (पुच्छाए त्ति) शिष्यप्रश्ने सति पटुप्रज्ञोऽयमित्यवगमादिति गाथार्थः / "एवं तावत्समासेन, व्याख्या लक्षणयोजना / कृतेयं प्रस्तुते सूत्रे, कार्यवभपरेष्वपि / / 1 / / '' ग्रन्थविस्तरदोषान्न वक्ष्यामः, उपयोगे तु वक्ष्यामः प्रति सूत्रं, यतः सूत्रस्पर्शकोऽधुना प्रोच्यते / अनुगमनियुक्तिविभागश्च विशेषतः सामायिकबृहद्भाष्याज्ज्ञेयः तत्रोदितं यतः"होइ कयत्थो वोत्तु, सपयच्छेअं सुअंसुआणुगमे। सुत्तालावगनासो, णामादिण्णारविणियोगं |1|| सुत्तप्फासियणिज्जु-त्तिणिओगा सेसओ पयत्थाइ। पायं सो चिय णेगम-णयाइमयगोथरो होइ॥२॥ एवं सुत्ताणुगमो, सुतालावगकओ अनिक्खेवो। सुत्तप्फासियणिज्जु-त्तिणया अ वच्चंति समगं तु / / 3 / " इत्यलं प्रसङ्गेन गमनिकामात्रमेतत्। दश० 110 धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्यादौ धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमतपोग्रहणमयुक्तं, तस्याऽहिंसासंयमतपोरूपत्वाव्यभिचारित्वादिति। उच्यते, नाहिंसाऽऽदीनां धर्मकारणत्वाद्धर्मस्य च कार्यत्वात्कार्यकारणयोश्व कश्चिद् भेदात, कथञ्चिदभेदश्चेति, तस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वात्। उक्तं च- "गस्थि पुढवीविसिट्ठो, घडो त्ति जं तेण जुच्चइ अणणः / जं पुण घडु त्ति पुव्वं, नासी पुढवी इतो अन्नो।।१।।" इत्यादि। गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन तत्स्वरूपज्ञापनार्थं वा, अहिंसाऽऽदिग्रहणमदुष्टमित्यलंविस्तरेण। आहेअहिंसासंयमतपोरूपो धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाज्ञासिद्धम, आहोस्विद्युक्तिसिद्धमपि? अत्रोच्यते-उभयसिद्धम्, कुतः? जिनवचनत्वात्, तस्य च विनेयसत्त्वापेक्षयाज्ञाऽऽदिसिद्धत्वात्। आह च नियुक्तिकारःजिणवयणं सिद्धं चे-व भण्णई कत्थई उदाहरणं / आसज्जउ सोयारं, हेऊ वि कहिं वि भण्णेज्जा / / 6 / / जिनाः प्राग्निरूपितस्वरूपाः, तेषां वचनं तदाज्ञया सिद्धमेव सत्यमेव प्रतिष्ठितमेव, अविचार्य मे वेत्यर्थः, कुतः जिनानां रागादिरहित-- त्वाद्रायाऽऽदिमतश्च सत्यवचनासंभवात् / उक्तं च- 'रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् / / 1 / / " इत्यादि / तथापि तथाविधश्रोत्रपेक्षया तत्रापि भण्यते कृचिदुदाहारणं, तथाऽऽश्रित्य तु श्रोतारं हेतुरपि क्वचिद्भण्यते, न तु नियोगतः, तुशब्दः श्रोतृविशेषणार्थः / किंविशिष्ट श्रोतारम् ? पटुधियं, मध्यमधियं च, न तुमन्दधियमिति। तथाहि-पटुधियों हेतुमात्रोपन्यासादेव प्रभूतार्थावगतिर्भवति, मध्यमधीस्तु तेनैव बोध्यते,न त्वितर इत्यर्थः / तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनभुदाहरणमुच्यते दृष्टान्त इत्यर्थः / साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणश्च हेतुः। इह च हेतुडुल्लडध्य प्रथममुदाहरणाभिधानं, न्यायानुगतत्वात्तबलेनैव हेतोः साध्यार्थसाधकत्वोपपत्तेः / क्वचिद्धेतुमनभिधाय दृष्टान्त एवोच्यत इति न्यायप्रदर्शनार्थ वा। यथा गतिपरिणामपरिणताना जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायश्चक्षुष्मतो ज्ञानस्य दीपवत्। उक्तं च"जीवानां पुद्गलानां च, गत्युपष्टम्भकारणम् / धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चक्षुष्मतो यथा // 1 // " तथा क्वचिद्धतुरेव केवलोऽभिधीयते, न दृष्टान्तः, यथा मदीयोऽयमश्वो, विशिष्टचिह्नोपलब्ध्यन्यथानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः / / 46 / / तथाकत्थइ पंचावयवं, दसहा वा सव्वहान पडिसिद्ध / न य पुण सव्वं भण्णइ, हंदी सविआरमक्खायं / / 50|| श्रोतारमेवाङ्गीकृत्य क्वचित्पञ्चावयवं,दशधा वेति क्वचिद्दशावयव, सर्वथा गुरुश्रोत्रपेक्षया, न प्रतिषिद्धमुदाहरणाद्यभिधानमिति वाक्यशेषः / यद्यपि चन प्रतिषिद्ध तथाप्यविशेषेणैव, न च पुनः सर्व भण्यते, उदाहरणाऽऽदि। किमित्यत आह-(हंदी सवियारमक्खायं ति) हन्दीत्युप्रदर्शने, किमुपदर्शयति-यस्मादिहान्यत्र च शास्त्रान्तरे सविचारं सप्रतिपक्षमाख्यातं, साकल्यत उदाहरणाऽऽद्यभिधानमिति गम्यते। पञ्चावयवाश्व प्रतिज्ञाऽऽदयः / यथोक्तम्- "प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनाः / अवयवा दश पुनः प्रतिज्ञाविभत्तयादयः। वक्ष्यति च-"ते उपइण्णविहत्ती' इत्यादि। प्रयोगांश्चैतेषां लाघवार्थमिहैव स्वस्थाने दर्शयिष्यामीतिगाथार्थः / दश० 10 // 'धम्मो मंगलं'' इत्यादिलक्षणमधिकृत्य निर्दिश्यते-अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मो मङ्गलभुत्कृष्टमिति प्रतिज्ञा, इह च धर्म इति धर्मानिर्देशः, अहिंसा संयमतपोरूप इति धर्मविशेषणमुत्कृष्ट मङ्गलमिति साध्यो धर्मः धर्मिधर्मसमुदायः प्रतिज्ञा, इयं च श्लोकार्द्धनोक्तेति / देवाऽऽदिदेवपूजितत्वादिति हेतुः, आदिशब्दात्सिद्धविद्याधरनरपतिपरिग्रहः। अयं च श्लोकतृतीयपादेन खलूक्तोऽवसेयः, अर्हदादिवदिति दृष्टान्तः / अत्रापि चाऽऽदिशब्दाद्गणधराऽऽदिपरिग्रहः / अयं च श्लोकचरमपादेनोक्तो वेदितव्य इति। नच भावमनोऽधिकृत्यार्हद्-दृष्टान्ते अस्ति कश्चिद्विरोध इति। इह यो यो देवाऽऽदिपूजितः स स उत्कृष्ट मङ्गलं यथाऽर्हदादयस्तथा च देवाऽऽदिपूजितो धर्म इत्युपनयः तस्माद्देवाऽऽदिपूजितत्वादुत्कृष्ट मङ्गलमिति निगमनम्। इदं चावयवद्वयं सूत्रोक्तावयवत्रयाविनाभूतमिति कृत्वा तेन सूचितमवगन्तव्यमित्यत्रं विस्तरेण।
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________________ 2685 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म साम्प्रतमेतानेवावयवान् सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रतिज्ञानिर्देशः / हेतुनिर्देशमाह-हेतुर्यस्मात्सद्भाविकेषु पारमार्थिकषु प्रतिपादयन्नाह निरुपचरितेष्वथेष्वित्यर्थः / अहिंसाऽऽदिष्वादिशब्दान्मृषावादाऽऽदिधम्मो गुण अहिंसा-इया उ ते परममंगलपइन्ना / विरतिपरिग्रहः / अन्ये तु व्याचक्षते (सम्भा-विएहि ति) सद्भावने निरुपचरितसकलदुः खक्षयायैवेत्यर्थः / यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्तीति देवा वि लोगपुज्जा, पणमंति सुधम्ममिइ हेऊ||६|| गाथार्थः। धर्मः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, स च क इत्याह-गुणा अहिंसाऽऽद यः, साम्प्रतं प्रतिज्ञाशुद्धिमभिधातुकामः आहआदिशब्दात्संयमतपःपरिग्रहः / तुरेवकारार्थः / अहिंसाऽऽदय एव ते जह जिणसासणनिरया, धम्म पालेंति साहवो सुद्धं / परममङ्गल प्रधानमङ्गलमिति प्रतिज्ञा, तथा देवा अपि, अपिशब्दात्सिद्धविद्याधरनरपतिपरिग्रहः / लोकपूज्या लोकपूजनीयाः, प्रणमन्ति न कुतिस्थिएसु एवं,दीसइ परिपालणोवाओ ||3|| नमस्कुर्वन्ति, कम्? सुधम्मणि शोभनधर्मव्यवस्थितगित्ययं यथा येन प्रकारेण जिनशासननिरता निश्चयेन रता धर्म प्राग्नि रूपितशब्दार्थ पालयन्ति रक्षन्ति.साधवः प्रव्रजिताः षडजीवनिकायहेतुरर्थसूचकत्वाद्धेतुरिति गाथाऽर्थः / परिज्ञानेन कृतकारिताऽऽदिपरिवर्जनेन च शुद्धमकलङ्क, नैवं तन्त्रान्तदिट्ठतो अरहंता, अणगारा य बहवो उ जिणसीसा। रीयाः,यस्मान्न कुतीथिकेष्वेवं यथा साधुषु दृश्यते परिपालनोपायः, वत्तणुवत्ते नज्जइ, जं नरवइणो वि पणमंति / / 60|| षड्जीवनिकायपरिज्ञानाऽऽद्यभावात्, उपायग्रहण च साभिप्रायकं, दृष्टान्तः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, स चाशोकाऽऽद्यष्टमहाप्रातिहार्याऽऽ शास्त्रोक्तः खलूपायोऽत्र चिन्त्यते, न पुरुषानुष्ठान, कापुरुषा हि दिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तः, तथाऽनगाराश्च बहव एव जिनशिष्या इति। वितथकारिणोऽपि भवन्त्येवेति गाथार्थः। नगच्छन्तीत्यगा वृक्षास्तैः कृतमगारं गृहं तद्येषा विद्यत इत्यर्शाऽऽदेरा अत्राऽऽहकृतिगणत्वादप्रत्ययः / अगारा गृहस्थाः , न अगारा अनगाराः, चशब्द: तेसु वि य धम्मसद्दो, धम्मं निययं च ते पसंसंति। समुच्चयार्थः, तुरेवकारार्थः, ततश्च बहव एव नाल्पाः, रागाऽऽदिजेतृत्वा नणु भणिओ सावज्जो, कुतित्थिधम्मो जिणवरेहिं ||14|| ज्जिनाः, ताच्छिष्यास्तद्विनेया गौतमाऽऽदयः। आह-अहंदादीनां तेष्वपि च तन्त्रान्तरीयधर्मेषु, किम्? धर्मशब्दो लोके रूढः,तथा धर्म परोक्ष वाद् दृष्टान्तत्वमेवायुक्तम् / कथं चैतद्विनिश्चीयतं यथा ते निजं चाऽऽत्मीयमेव यथातथं ले प्रशंसन्ति स्तुवन्ति, ततध देवाऽऽदिपूजिता इति? उच्यते-यत्तावदुक्तम्-परोक्षत्वादिति तद् दुष्टम्, कथमेतदित्यत्रोच्यतेनन्तित्यक्षमायां, भणित उक्तः, पूर्व सावद्यः सपापः, सूत्रस्य त्रिकालगोचरार्थत्वात्। कदाचित्प्रत्यक्षत्वाद्देवाऽऽदिपूजिता इति कुतीर्थिकधर्मश्चरकाऽऽदिधर्मः, कैः? जिनवरैस्तीर्थकरैः, "जिणेहिं चैतद्विनिश्चयायाऽऽह-वृत्तमतिक्रान्तमनुवर्तमानेन साम्प्रतकालभाविना उ पसत्थो'' इति वचनात्, षड्जीयनिकायपरिज्ञानाऽऽद्यभावादेवेज्ञायते, कथमित्यत आह यद्यस्मात नरपतयोऽपि राजानोऽपि त्यत्रापि बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थविस्तरभयादितिगाथार्थः। प्रणमन्तीदानीमपि भावसाधुं ज्ञानाऽऽदिगुणयुक्तमिति गम्यते / अनेन तथागुणानां पूज्यत्वमावेदितं भवतीति गाथार्थः / जो तेसु धम्मसद्दो, सो उवयारेण निच्छएण इहं। उवसंहारो देवा, जइ तह राया वि पणमइ सुधम्म / जह सीहसदु सीहे, पाहण्णुवयारओऽणत्थ / / 65|| तम्हा धम्मो मंगल-मुक्किट्टमिइ अ निगमणं ति / / 61|| यस्तेषु तन्त्रान्तरीयधर्मेषु धर्मशब्दः, स उपचारेणापरमार्थेन, उपरहार उपनयः, स चायम्- देवा यथा तीर्थकराऽऽदींस्तथा निश्चयेनात्र जिनशासने, कथम्? यथा सिंहाशब्दः सिंहे व्यवस्थितः, राजाऽप्यन्योऽपि जनः प्रणमतीदानीमपि सुधर्माणमिति, यस्मादेव प्राधान्येन, उपचारत उपचारेणान्यंत्र माणवकाऽऽदौ, यथा सिंहो तस्माद् देवाऽऽदिपूजितत्वाद्धो मङ्गलमुत्कृष्टमिति च निगमन, माणवकः, उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्याऽऽदयः, धर्मे त्वहिंसाऽऽद्यप्रतिज्ञा हेत्वोः पुनर्वचनं निगमनमिति गाथार्थः। भिधानाऽऽदय इति गाथाऽर्थः / उक्त पञ्चावयवमेतदभिधानाचार्थाधिकारोऽपि धर्मप्रशंसा / साम्प्रत एस पइन्नासुद्धी, हेऊ अहिंसाइएसु पंचसु वि। दशावयवं, तथा च चेहेव जिनशासन इत्यर्थाधिकारं चोपदर्शयति, इह च सब्भावेण जयंती, हेउविसुद्धी इमा तथ्य // 66 / / दशावयवाः प्रतिज्ञाऽऽदय एक प्रतिज्ञाऽऽदिशुद्धिसहिता भवन्ति / एषा उक्तस्वरूपा प्रतिज्ञायाः शुद्धिः प्रतिज्ञाशुद्धिः हेतुरहिंसाऽऽदिषु अवयदत्वं च तच्छुद्धीनामधिकृतवाक्यार्थोपकारकत्वेन प्रतिज्ञाऽऽदीना पञ्चस्वपि सद्भावेन यतन्त इत्ययं च प्राग व्याख्यात एव, शुद्धिमभिमिव भावनीयमित्यत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रत्वात्प्रा धातुकामेन च भाष्यकृता पुनरुपन्यस्त इत्यत एवाऽऽह-हेतोर्विशुद्धिरम्भस्येति। हेतुविशुद्धिर्विषयविभाषाऽवस्थापन विशुद्धिः, इमा इयं, तत्र प्रयोग इति साम्प्रतमधिकृतदशावयप्रतिपादनायाऽऽह गाथार्थः। विइयपइन्ना जिणसा-सणम्मि साहेति साहवो धम्म / जं भत्तपाणउवगर-णवसहिसयणाऽऽसणाइसु जयंति। हेऊ जम्हा सब्भा-विएसु हिंसाइसु जयंति // 2 // फासुयअकयअकारिय-अणणुमयाणुदिट्ठभोई य||७|| द्वितीयापञ्चावयवोपन्यस्तप्रथमप्रतिज्ञापेक्षया प्रतिज्ञा पूर्ववत्, द्वितीया यद्यस्माद्भक्तं च पान चोपकरणं च वसतिश्च शयनाऽऽसनाऽऽदयचाऽसौ प्रतिज्ञा च द्वितीयप्रतिज्ञा, सा चेयं जिनशासने जिनप्रवचने, श्वेति समासस्तेषु / किम् ? यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति कथमेतदेवकिम्? साधयन्ति निष्पादयन्ति, साधवः प्रव्रजिताः, धर्मं प्राग्निरूपि- मित्यत्राऽऽहं यस्मा प्रासुकं चाकृतं चाकारितं चाननुमतं चानुद्दिष्ट तशब्दार्थम् / इह च साधव इति धर्मानिर्देशः, शेषस्तु साधुधर्म इत्ययं / च तद्भोक्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः, तत्राऽऽसवः प्राणाः,
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________________ 2686- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म प्रमता असवः प्राणा यस्मादिति प्रासुकं निर्जीवम् / तच्च स्वकृतमपि भवत्यत आह-अकृतं, तदपि कारितमपि भवत्यत आह-अकारितम्, तदप्यनुमतमपि भवत्यत आह-अननुमतम् / तदप्युद्दिष्टमपि भवति यथावदर्थिकाऽऽदि, न च तदिष्यत इत्यत आह-अनुद्दिष्टमिति, एतत्परिज्ञानोपावश्चो पन्यस्तसकलप्रदानाऽऽदिलक्षणस्तत्रावगन्तव्य इति गाथार्थः। तदन्ये पुनः किमित्यत आहअप्फासुयकयकारिय-अणुमयउद्दिट्ठभोइणो हंदि। तसथावरहिंसाए, जणा अकुसलाउ लिप्पंति / / 68|| अप्रासुककृतकारितानुमोदितोद्दिष्टभोजिनश्वरकाऽऽदयः, हन्दीत्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति-त्रसन्तीति सा द्वीन्द्रियाऽऽदयः, तिष्ठन्तीति स्थावराः पृथिव्यादयः, तेषां हिंसा प्राणव्यपरो पणलक्षणा, तया जनाः प्राणिनः, अकुशला अनिपुणा स्थूलमतयश्चरकाऽऽदयो लिप्यन्ते संबध्यन्त इत्यर्थः / इह च हिंसाक्रियाजनितेन कर्मणा लिप्यन्त इति भावनीयं, कारणे कार्योपचारात्, ततश्च ते शुद्धधर्मसाधका न भवन्ति, साधव एव भवन्तीति गाथार्थः / एसा हेउविसुद्धी, दिर्सेतो तस्स चेव य विसुद्धी। सुत्ते भणिया उ फुडा, सुत्तप्फासे उइयमन्ना ||6|| एषा अनन्तरोक्ता, हेतुविशुद्धिः प्राग्निरूपितशब्दार्था, अधुना दृष्टान्तः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, तथा तस्यैव च दृष्टान्तस्य विशुद्धिः, किम्? सूत्रे भणितोक्तव, स्फुटा स्पष्टा। तच्चेदं सूत्रम्जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं / ण य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं / / 2 / / अत्राऽऽह- अथ कस्मादशावयवनिरुपणायां प्रतिज्ञाऽऽदीन विहाय सूत्रकृता दृष्टान्त एकोक्त इति? उच्यते- दृष्टान्तादेव हेतुप्रतिज्ञे अभ्यूह्ये, इति न्यायप्रदर्शनार्थम् / कृतं प्रसङ्गेन,प्रकृतं प्रस्तुमः / तत्र यथा येन प्रकारेण मस्य प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, पुष्पेषु प्राग्निरूपितशब्दार्थब्वेव, असमस्तपदाभिधानमनुमेयगृहिद्रुमाणामाहाराऽऽदिषु पुष्पाण्य - धिकृत्य विशिष्टसंबन्धप्रतिपादनार्थमिति / तथा चान्यायोपार्जितवित्तदानेऽपि ग्रहणं प्रतिषिद्धमेव, भ्रमरश्चतुरिन्द्रियविशेषः, किम्? आपिवति, मर्यादया पिबत्यापिबति, कम्? रस्यत इति रसस्त निर्यास, मकरन्दमित्यर्थः / एष दृष्टान्तः। अयं च तद्देशादोहरणमधिकृत्य वेदितव्य इत्येतच्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तौ दर्शयिष्यति। उक्तं च-सूत्रस्पर्श त्वियमन्येति। अधुना दृष्टान्तविशुद्धिमाह- न च नैव, पुष्पं प्राग्निरूपितस्वरूप, क्लामयति पीडयति, स च भ्रमरः प्रीणाति तर्पयत्यात्मानमिति सूत्रसमुदायार्थः / अवयवार्थ तु नियुक्तिकारो महता प्रपञ्चेन व्याख्यास्यति / तथा चाऽऽहजह भमरो त्ति य एत्थं, दिटुंतो होइ आहरणदेसे / चंदमुहि दारिगेयं, सोम्मत्तवहारणं ण सेसं / / 10 / / यथा भ्रमर इति चात्र प्रमाणे दृष्टान्तो भक्त्युदाहरणदेशमधिकृत्य, यथा चन्द्रमुखी दारिकेयमित्यत्र सौम्यत्वावधारण गृह्यते, न शेषं कलङ्गाङ्कितत्वाऽनवस्थितत्वाऽऽदीति गाथार्थः / एवं भमराऽऽहरणे, अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं। गहणं दिटुंतविसु--द्धि सुत्ते भणिया इमा चन्ना // 101 / / एवं भ्रमरोदाहरणे अनियतवृत्तित्वं, गृह्यत इति शेषः, न शेषाणामविरत्यादीनां भ्रमरधर्माणां ग्रहणं दृष्टान्त इति / एषा दृष्टान्तविशुद्धिः सूत्र भणिता, इयं चान्या सूत्रस्पर्शिकनियुक्ताविति गाथार्थः / एत्थ य भणिज्ज कोई, समणाणं कीरए सुविहियाणं। पागोवजीविणो त्ति य, लिप्पंतारंभदोसेण / / 102 / / अत्र चैवं व्यवस्थिते सति ब्रूयात्कश्चिद्, यथा- श्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति / एतदुक्तं भवति-यदिदं पाकनिर्वर्तन गृहिभिः क्रियते, इदं पुण्योपादानसंकल्पेन श्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति तपस्विनां, गृह्णन्ति च ते ततो भिक्षामित्यतः पाकोपजीविन इति कृत्वा लिप्यन्ते, आरम्भदोषेणाऽऽहारकरणक्रियाफले नेत्यर्थः। तथा च लौकिका अप्याहुः- "क्रयेण क्रायको हन्ति, उपभोगेन खादकः / घातको वधचित्तने, इत्येष त्रिविधो वधः॥१॥" इति पाथार्थः / साम्प्रतमेतत्परिहरणाय गुरुराहवासइन तणस्स कए, न तणं वड्डइ कए मयकुलाणं / न य रुक्खा सयसाला, फुलंति कए महुयराणं / / 103|| वर्षति न तृणस्य कृते, न तृणार्थमित्यर्थः / तथा न तृणं व ते कृते मृगकुलानामयि, तथा न च वृक्षाः शतशाखाः पुष्यन्ति क्रतेऽर्थाय मधुकराणाम्, एवं गृहिणोऽपि न साध्वर्थं पार्क निर्वर्तयन्तीत्यभिप्राय इति गाथार्थः। अत्र पुनरप्याहअग्गिम्मि हवी हूयइ, आइचो तेण पीणिओ संतो। वरिसइ पयाहियाए, तेणोसहिओ परोहंति / / 104 / / इह यदुक्तं वर्षति न तृणार्थमित्यादि, तदसाधु, यस्मादग्नौहविहूयते, आदित्यस्तेन हविषा घृतेन प्रीणितः सन् वर्षति, किमर्थम्? प्रजाहितार्थ लोकहिताय, तेन वर्षितेन किम्? औषध्यः प्ररोहन्त्युद्गच्छन्ति / तथा चोक्तम्-'अग्नावाज्याऽऽहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते आदित्याज्जायते वृध्वृिष्टरनं ततः प्रजाः / / 1 / / '' इति गाथार्थः / अधुनैतत्परिहारायेदमाहकिं दुभिक्खं जायइ, जइ एवं अह भवे दुरिटुं तु / किं जायइ सव्वत्था, दुभिक्खं अह भवे इंदो / / 10 / / किं दुर्भिक्ष जायते यद्येवं कोऽभिप्रायः? तद्धविः सदा हूयत एव, ततश्च कारणाविच्छेदेन कार्यविच्छेदोऽयुक्त इति / अथ भवेद् दुरिष्ट तु दुर्नक्षत्रं दुर्यजनं वा, अत्राप्युत्तरम्, किं जायते सर्वत्र दुर्भिक्षम्? नक्षत्रस्य दुरिष्टस्य वा नियतदेशविषयत्वात्, सदैव सद्यज्वनां भावात? उक्तं च- "सदैव देवाः सद्गावो, ब्राह्मणाश्च क्रियापराः। यतयः साधवश्चैव, विद्यन्ते स्थितिहेतवः / / 1 / / " इत्यादि। अथ भवेदिन्द्र इति किम्?-- वासइ तो किं विग्छ, निग्घायाईहिँ जायए तस्स। अह वासइ उउसमए, न वासई तो तणट्ठाए // 106 / /
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________________ धम्म 2657 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म वर्षति ततः किं विघ्नोऽन्तरायः निर्धाताऽऽदिभिर्जायते, आदिशब्दादिग्दाहाऽऽदिपरिग्रहः / तस्येन्द्रस्य, परमैश्वर्ययुक्तत्वेन विघ्नानुपपत्तेरिति भावना / अथ वर्षति ऋतुसमये गर्भसङ्घात इति वाक्यशेषः। न वर्षति ततस्तृणार्थ, तस्येत्थमभिसंधेरभावादिति गाथाद्वयार्थः / किं च दुमा पुप्फंती, भमराणं कारणा अहासमयं मा भमरमहुयरिंगणा, किलामएज्जा अणाहारा / / 107 / / किं च द्रुमाः पुष्यन्ति भ्रमराणां कारणात् कारणेन यथासमये यथाकालं, मा भमरमधुकरिगणाः क्लामेयुः ग्लानिं प्रतिपद्येरन्, अनाहारा अविद्यमानाऽऽहाराः सन्तः, काक्वा नैवैतदित्थमिति गाथार्थः / साम्प्रतं पराभिप्रायमाहकस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावइणा। सत्ताणं तेण दुभा, पुप्फंती महुयरिंगणट्ठा / / 108 / / अथ कस्यचिद् बुद्धिः कस्यचिदभिप्रायः स्याधदुत एषा वृत्तिरुपकल्पिता, केन? प्रजापतिना, केषाम्? सत्त्वाना प्राणिना, तेन कारणेन द्रुमाः पुष्यन्ति, मधुकरिगणार्थभवेति गाथार्थः। अत्रोत्तरमाहतं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुध्वविहियस्स। उदएणं पुप्फफलं, निवत्तइंती इमं चन्नं / / 10 / / यदुक्तं परेण तन्न भवति, कुत इत्याह- येन द्रुमा नामगोत्रस्य कर्मणः पूर्वविहितस्य जन्मान्तरोपात्तस्य, उदयेन विपाकानुभवलक्षणेन, पुष्पफलं निवर्तयन्ति कुर्वन्त्यन्यथा सदैव तद्भावप्रसंग इति भावनीयम्। इदं चान्यत्कारण वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः / अत्थि बहू वणसंडा, भमरा जत्थ न उति न वसंति। तत्थ वि पुप्फति दुमा, पगई एसा दुमगणाणं / / 110 // सन्ति बहूनि वनखण्डानि, तेषु तेषु स्थानेषु भ्रमरा यत्र नोपयान्ति अन्यतो न वसन्ति, तेष्वेव, तथाऽपि पुष्यन्ति द्रुमाः, अतः प्रकृतिरेषा स्वभाव एषां द्रुमगणानाभिति गाथार्थः / अत्राऽऽहजइ पगई कीस पुणो, सव्वं कालं न देंति पुप्फफलं। जं काले पुप्फफलं, दयंति गुरुराह अत एव / / 111 / / यदि प्रकृतिः किमिति पुनः सर्वकालं न ददति न प्रयच्छन्ति, किम्? पुष्पफलम्, एवमाशक्याऽऽह--यद्यस्मात् कालेनियत एव पुष्पफलं ददति, गुरुराह-अत एवास्मादेव हेतोः। पगई एस दुमाणं, जं उउसमयम्मि आगए संते। पुप्फंति पायवगणा, फलं च कालेण बंधंति // 112|| प्रकृतिरेषा दुमाणा यदृतुसमये वसन्ताऽऽदावागते सति पुष्यन्ति पादपगणा वृक्षसंघातास्तथा फलं च कालेन बध्नन्ति, तदर्थानभ्युपगमे तु नित्यप्रसङ्ग इति गाथार्थः। साम्प्रतं प्रकृतेऽप्युक्तार्थयोजनां कुर्वन्नाहकिं नु गिही रंधंती, समणाणं कारणा अहासमयं / मा समणा भगवंतो, किलामएज्जा अणाहारा ||113 / / किं नु गृहिणो राध्यन्ति पार्क निर्वर्त्तयन्ति श्रमणानां कारणेन, ] यथाकालं, मा श्रमणा भगवन्त अक्लामन्ननाहारा इति पूर्ववदिति गाथार्थः / नैवैतदित्थमित्यभिप्रायः। अत्राऽऽहसमणणुकंपनिमित्तं, पुण्णनिमित्तं च गिहनिवासीओ। कोइ भणिज्जा पागं, करेंति सो भन्नइ न जम्हा? ||114|| श्रमणेभ्योऽनुकम्पा श्रमणानुकम्पा तन्निमित्तं, न ह्येते हिरण्यग्रहणाऽदिना अस्माकमनुकम्पां कुर्वन्तीति मत्वा भिक्षादानार्थ पार्क निर्वर्तयन्त्यतः श्रमणानुकम्पानिमित्तं, तथा सामान्येन पुण्यनिमित्तं च गृहनिवासिन एव कश्चित् ब्रूयात,पाकं कुर्वन्ति, स भण्यते, नैतदेवं, कुतो? यस्मात्कंतारे दुब्भिक्खे, आयके वा महइ समुप्पन्ने / रत्तिं समणसुविहिया, सव्वाहारं न भुंजंति॥११५।। कान्तारेऽरण्याऽऽदौ,दुर्भिक्षेऽत्राकाले, आतड्ढे वा ज्वराऽऽदौ, महति समुत्पन्ने सति, रात्री श्रमणाः सुविहिताः शोभनानुष्ठानाः, किम्? सर्वाहारमोदनाऽऽदि न भुञ्जते, अह कीस पुण गिहत्था, रत्तिं आयरतरेण रंधति / समणेहिँ सुविहिएहिं, चउब्विहाहारविरएहिं / / 116|| अथ किमिति पुनर्गृहस्थास्तत्रापि रात्रौ आदरतरेणात्यादरेण राद्धयन्ति श्रमणः सुहितेश्चतुर्विधाऽऽहारविरतैः सद्भिरितिगाथात्रयार्थः। किञ्चअत्थि बहुगामनगरा,समणा जत्थ न उति न वसंति। तत्थ विरंधंति गिही, पगई एसा गिहत्थाणं / / 117 / / सन्ति बहूनि ग्रामनगराणि तेषु तेषु देशेषु श्रमणाः साधवो यत्र नोपयान्ति, अन्यतो न वसन्ति, तत्रैव,अथ च तत्रापि राध्यन्ति गृहिणः, अतः प्रकृतिरेषा गृहस्थानामिति गाथार्थः / अमुमेवार्थ स्पष्टन्नाहपगई एस गिहीणं, जंगिहिणो गामनगरनिगमेसु / रंधति अप्पणो परि-यणस्स कालेण अट्ठाए / 118|| प्रकृतिरेषा गृहिणां वर्तते यद् गृहिणो ग्रामनगरनिगमेषु, निगमः स्थानविशेषः, राध्यन्ति आत्मनः परिजनस्यार्थाय निमित्तं कालेनेति योग इति गाथार्थः। तत्थ समणा तवस्सी, परकडपरनिट्ठियं विगयधूमं / आहारं एसंती, जोगाणं साहणट्ठाए।।११।। तत्र श्रमणाः तपस्विन इत्युद्यतविहारिणो नेतरे, परकृतपरिनष्ठितमिति कोऽर्थः ? परार्थ कृतमारब्धं परार्थ च निष्ठितमन्तं गत विगतधूमं धूमरहितम, एकगहणे तज्जातीयग्रहणमिति न्याया द्विगतागारं च, रागद्वेषमन्तरेणत्यर्थः / उक्तं च- "रागेण सइंगालं. दोसेण सधूमग वियाणाहि।" आहारमोदनादिलक्षणमेषन्ते गवेषन्ते, किमर्थमत्राऽऽहयोगानां मनोयोगाऽऽदीनां संयमयोगानां वा साधनार्थ ,नतुवर्णाऽऽद्यर्थमिति माथार्थः। नवकोडीपरिसुद्धं, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं / छट्ठाणरक्खणट्ठा, अहिंसअणुपालणट्ठाए।।१२०।। इयं च किल भिन्न कर्तृकी, अस्या व्याख्यानवकोटि परि
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________________ धम्म 2688 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म शुद्ध तत्रता नवकोट्यः, यदुत-"ण हणइ ण हणावेड. हणत नाणुजाणइ / एवं-न किणइ 3, एवं-न पयइ 3 / " एताभिः परिशुद्ध, तथा उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धमित्येतद्वस्तुतः सकलोपाधिविशुद्धकोटिख्यापनमेव, एवंभूतमपि किमर्थ भुञ्जते? षट्स्थानरक्षणार्थम्? तानि चामूनि- 'वेयणवेयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमट्ठाए। तह पाणवित्तियाए, छट्टे पुण धम्मचिंताए"।।१।। अपि च भवान्तरे प्रशस्तभावनाभ्यासादहिंसानुपालनार्थम् / तथा चाऽऽह-नाहारत्यागतो भावितमते देहत्यागो भवान्तरेऽप्य-हिंसायैव भवतीति गाथार्थः / दिटुंतसुद्धि एसा, उवसंहारो य सुत्तनिहिट्ठो। संती विजंति त्ति य, संतिं सिद्धिं च साहेति // 121 / / दृष्टान्तशुद्धिरेषा प्रतिपादिता, उपसंहारस्तु उपनयस्तु सूत्रनिर्दिष्टः सूत्रोक्तः। तच्चेदं सुत्रम्एमए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया / / 3 / / एवमनेन प्रकारेण एते ये अधिकृताः प्रत्यक्षेण या परिभ्रमन्तो दृश्यन्ते, श्राम्यन्तीति श्रमणास्तपस्यन्तीत्यर्थः / एते च तन्त्रान्तरीया अपि भवन्ति / यथोक्तम्- "निगंथसक्कतावसगेरुयआजीव पंचहा समणा।" अत आह-मुक्ता बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन, ये लोके अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाण, सन्ति विद्यन्ते, अनेन समयक्षेत्रे सदैव विद्यन्त, इत्येतदाह- साधयन्तीति साधवः, किं साधयन्ति? ज्ञानाऽऽदीनि गम्यते / अत्राऽऽह- ये मुक्तास्ते साधव एवेत्यत इदमयुक्तम् / अत्रोच्यते-इह व्यवहारेण निहवा अपि मुक्ता भवन्त्यैव, न च ते साधव इति तद्व्यवच्छेदार्थत्वान्न दोषः / आह -न च ते सदैव सन्तीत्यनेनैव व्यवच्छिन्ना इत्युच्यन्ते, वर्तमानतीर्थापेक्षयैवेदं सूत्रमिति न दोषः / अथवाऽन्यथा व्याख्यायते-ये लोके सन्ति साधव इत्यत्र य इत्युद्देशः, लोक इत्यनेन समयक्षेत्र एव नान्यत्र, किम्? शान्तिः सिद्धिरुच्यते, तां साधयन्तीति शान्ति साधवः / तथा चोक्त नियुक्तिकारेण- "संती विजंति त्ति य, संति सिद्धिं च साहेति।'' इदं व्याख्यातमेव, विहङ्गमा इव भ्रमरा इव पुप्पेषु, किम? दानभक्तैषणासुरताः, दानग्रहणाद्दत्तं गृह्णन्ति नादत्तं, भक्तग्रहणेन तदपि भक्तं प्रासुकं, न पुनराधाकऽऽदि, एषणाग्रहणेन गवेषणाऽ5-- दित्रयपरिग्रहः, तेषु स्थानेषुरताः सक्ता इति सूत्रसमासार्थः / दश० 110 // (21) विहङ्गमानां निक्षेपाऽऽद्युक्त्वा इत्थमनेकप्रकारं विहङ्गममभिधाय प्रकृतोपयोगमुपदर्शयतिइहइं पुण अहिगारो, विहासगमणेहिं भमरेहिँ (127) इह सूत्रे, पुनः शब्दोऽवधारणे, इहैव, नान्यत्र, अधिकारः प्रस्तावः प्रयोजनम् / कैरित्याह-विहायोगमनैराकाशगमनैः, भ्रमरैः षट्पदरिति गाथार्थः। दाणेति दत्तगिण्हण, भत्ते भण सेव फासुगेण्हणया। एसणतिगम्मि निरया, उवसंहारस्स सुद्धि इमा।।१२८|| दानेति सूत्रे दानग्रहण दत्तग्रहणप्रतिपादनार्थम् , दत्तमेव गृहन्ति नाऽदत्तम्। भक्तग्रहणं भज सेवायामित्यस्य निष्टान्तस्य भवति। अर्थश्वास्य प्रासुकग्रहणं प्रासुकमाधाकम्र्माऽऽदिरहितं गृह्णन्ति, नेतरदिति। (एसण त्ति) एषणाग्रहणमेषणात्रितये गवेषणाऽऽदिलक्षणे, निरताः सक्ताः, उपसंहारस्योपनयस्य, शुद्धिरिय वक्ष्यमाणलक्षणेति गाथार्थः / अवि भमरमहुयरिंगणा, अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं / समणा पुण भगवंतो, नादिन्नं भोत्तुमिच्छंति।।१२६।। अपि भ्रमरमधुकरिगणाः, मधुकरीग्रहणमिहापि स्त्रीसंग्रहणार्थम् / जातिसंग्रहार्थमिति चान्ये। अविदत्त सन्तं, किम्? आपिवन्ति, कुसुमरसं कुसुमाऽऽसवं, श्रमणाः पुनर्भगवन्तो नादत्तं भोक्तुमिच्छन्तीति विशेषः / इति गाथार्थः। साम्प्रतं सूत्रेणैवोपसहारविशुद्धिरुच्यते-कश्चिदाह-"दाणभत्तेसणे रया "इत्युक्तम, यत एवमत एव लोको भवत्याकृष्टमानसस्तेभ्यः प्रयच्छत्याधाकर्माऽऽदि। तस्य ग्रहणे सत्त्वोपरोधः, अग्रहणे च स्ववृत्त्यलाभ इति। अत्रोच्यते-क्यं चेत्यादि सूत्रम्वयं च वित्तिं लब्भामो, न य काइ उवहम्मइ। अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरो जहा ||4|| वयं च वृत्तिं लप्स्यामः प्राप्स्यामस्तथा यथा न कश्चिदुपहन्यते। वर्तमानैष्यत्कालोपन्यासस्वैकालिकन्यायप्रदर्शनार्थः / तथा चैते साधवः सर्वकालमेव यथाकृतेषु आत्मार्थमभिनिर्वतिष्वाहाराऽऽदिषु, रीयन्ते गच्छन्ति, वर्तन्त इत्यर्थः। पुष्पेषु भ्रमरा यथा। इत्येतच पूर्व भावितमेवेति सूत्रार्थः। यतश्चैवमतो महुगारसमेत्यादि सूत्रम्महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। नाणा पिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो, त्ति वेमि / / 5 / / मधुकरसमा भ्रमरतुल्याः, बुद्ध्यन्ते स्म बुद्धाः, अधिगततत्वा इत्यर्थः / एवंभूता इत्यत आह-ये भवन्ति वा अनिश्रिताः कुलाऽऽदिष्वप्रतिबद्धा इत्यर्थः। अत्राऽऽहअस्संजएहिँ भमरे-हिँ जइ समा संजया खलु भवंति। एवं उवमं किच्चा, नूणं अस्संजया समणा / / 230 / / असंयतैः कुतश्चिदप्यनिवृत्तः, भ्रमरैः षट्पदेः, यदि समास्तुल्याः, संयताः साधवः खल्विति समा एव भवन्ति। ततश्चासंज्ञिनोऽपि, ते अत एवैनामित्यप्रकारामुपमा कृत्वा इदमापद्यते नूनमसंयताः श्रमणा इति गाथार्थः। एवमुक्ते सत्याहाऽऽचार्यः, एतच्चायुक्तम्, सूत्रोक्तविशेषणतिरस्कृतत्वात्, तथा च बुद्धग्रहणादसंज्ञिनो व्यवच्छेदः, अनिश्चितग्रहणात् त्वसंयतत्वस्येति। नियुक्तिकारस्त्वाहउवमा खलु एस कया, पुव्वुत्ता देसलक्खणोवणया। अणिययवित्तिनिमित्तं, अहिंसअणुपालणट्ठाए।१३१।। उपमा, खल्वेषा, मधुकरसमेत्यादिरूपा, कृता, पूर्वोक्तात् पूर्वोक्तन, देशलक्षणोपनयात् देशलक्षणोपनयेन, यथा चन्द्रमुखी कन्ये ति, तृतीयार्था चेह पक्षमी। इयं चानियतवृत्तिनिमित्त कृता अहिंसाऽनुपालनार्थमिदं च भावयत्येवेति गाथार्थः। जह दुमगणा उ तह नग-रजणवया पयणपायणसहावा। जह भमरा तह मुणिणो, नवरि अदत्तं न भुंजंति / / 132 // यथा दुमगणा वृक्षसंघाताः, स्वणवत एव पुष्पफलन-स्वभावास्तथैव नगर जनपदा नगराऽऽदिलोकाः, स्वयमेव पचनपाच
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________________ धम्म 2686 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म नस्वाभावा वर्तन्ते, यथा भमरा इति भावार्थ वक्ष्यति / तथा मुनयो, प्रधान मङ्गल, धर्मः प्राड् निरूपितशब्दार्थः / इति गाथार्थः / / 137 / / नवरमेतावान्विशेषः-अदत्तं स्वामिभिर्न भुञ्जत इतिगाथार्थः / इदानीं निगमनविशुद्धिमभिधातुकाम आहअभुमेवार्थ स्पष्टयति निगमणसुद्धी तित्थं-तरा वि धम्मत्थमुज्जुया विहरे। कुसुमे सहावफुले, आहारंति भमरा जह तद्दा उ। भन्नइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न करेंति / / 138|| भत्तं सहावसिद्ध, समणसुविहिया गवेसंति।।१३३।। निगमनशुद्धिः प्रतिपाद्यते / अत्राऽऽह-तीर्थान्तरीयाः चरकपरिव्राजकुसुमे पुष्पे, स्वभावफुल्ले प्रकृतिविकसिते, आहारयन्ति कुसुमरसं काऽऽदयः किम्? धर्मार्थ धर्मायोद्यता उद्युक्ता विहरन्ति, अतस्तेऽपि पिबन्ति, भ्रमरा मधुकराः, यथा येन प्रकारेण कुसुमपीडामनुत्पाद- साधव एवेत्यभिप्रायः। भण्यतेऽत्र प्रतिवचनम्- कायानां पृथिव्यादीनां यन्तः, तथा तेनैव प्रकारेण, भक्तमोदनाऽऽदि, स्वभावसिद्धमात्मार्थ ते चरकाऽऽदयः, किम्? यतनां प्रयत्नकरणलक्षणां, न मन्यन्ते न कृतम्, उगमाऽऽदिदोषरहितमित्यर्थः। श्रमणाश्वते सुविहिताश्च श्रमण- जानन्ति, न मन्वतेवा, तथाविधाऽऽगमाऽऽश्रवणान्न कुर्वन्ति परिज्ञानासुविहेताः, शोभनानुष्ठानवन्त इत्यर्थः / गवेषयन्ति अन्वेषयन्तीति भावाद्भावित-मेवेदमधस्तादिति गाथाऽर्थः / / 13 / / गाथार्थः। किंचसाम्प्रतं पूर्वोक्तो यो दोषो मधुकरसमा इत्यत्र, एतत्परिजिहीषेयैव न य उग्गमाइसुद्धं, भुजंती महूयरा वणुवरोही। यावतोपसंहारः क्रियते तदुपदर्शयन्नाह नेव य तिगुत्तिगुत्ता, जह साहू निच्चकालं पि॥१३६।। उवसंहारो भमरा, जह तह समणा वि अवहजीवंति। न चोद्गमादिशुद्धं भुञ्जते, आदिशब्दादुत्पादनाऽऽदिपरिग्रहः / मधुकरा दंत त्ति पुण पयम्मी, नायव्वं वक्सेसमिणं // 134 // इव भ्रमरा इव सत्त्वानामनुपरोधिनः सन्तो नैव च त्रिगुप्तिगुप्ता यथा साधवो उपसंहार उपनयः, भ्रमरा यथा अवधजीविनः, तथा श्रमणा अपि नित्यकालमपि / एतदुक्तं भवति-यथा साधवो नित्यकाल त्रिगुप्तिगुप्ता साधवोऽप्येतावतैवांशेनेति गाथादलार्थः इतश्च भ्रमरसाधूनां नानात्व एवं तेन कदाचिदपि तत्परिज्ञानशून्यत्वात्तरमान्न एते साधवः / इति मवसेयम्।यत आह सूत्रकारः- "नानापिण्डरया दता'' इति। नानाऽ गाथार्थः / / 136 // नेकप्रकाराभिग्रहविशेषात्प्रतिगृहमल्पाल्पग्रहणाच पिण्ड आहारपिण्डः, साधव एव तु साधवः, कथम्? यतःनाना चाऽसौ पिण्डश्च नानापिण्डः, अन्तप्रान्ताऽऽदिर्वा, तस्मिन् रता कायं वायं च मणं, इंदियाइं च पंच दमयंति / अनुद्वेगवन्तः / दान्ता इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन। अनयोश्च स्वरूपमधस्तपसि प्रतिपादितमेव; अत्र चोपन्यस्तगाथा-चरमदलस्थावसरः। दान्ता घारेंति बंभचेरं, संजमयंती कसाए य / / 140 / / इति पुनः पदे सौत्र किम्? ज्ञातव्यो वाक्यशेषोऽयमिति गाथार्थः / काय, वाचं, मनश्च, इन्द्रियाणि च पञ्चदमयन्ति / तत्र कायेन सुलमाकिंविशिष्टो वाक्यशेषः, दान्ता ईर्याऽऽदिसमिताश्च हितपाणिपादास्तिष्ठन्ति, गच्छन्ति वा / वाचा निष्प्रयोजनं न बुवते, तथा चाऽऽह प्रयोजनेऽप्यालोच्य सत्त्वानुपरोधेन / मनसा अकुशलमनोनिरोध, जह इत्थ चेव इरियाइ- एसु सुव्वम्मि दिक्खियपयारे। कुशलगनउदीरणं च कुर्वन्ति। इन्द्रियाणि पञ्चदमयन्ति, इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाकरणेन। पञ्चेति साङ्ख्यपरिकल्पितैकादशेन्द्रियव्यवच्छेदार्थम् / तसथावरभूयहियं,जयंति सब्भावियं साहू ||135 / / तथा च–वाक्पाणिपादपायूपस्थमनांसीन्द्रियाणि तेषामिति। धारयन्ति यथाऽत्रैवाधिकृताध्ययने भ्रमरोपमयैषाणासमितौ यतन्ते, तथा ईर्याऽऽ - ब्रह्मचर्यम्. सकलगुप्तिपरिपालनात् / तथा संयमयन्ति कषायाश्च, दिष्वपि। तथा सर्वस्मिन् दीक्षितप्रचारे साध्वाचरितव्य इत्यर्थः। किम्? अनुदयेनोदयविफलीकरणेन च / इति गाथार्थः / / 140 / / सस्थावरभूतहितम्, यतन्ते सद्भाविक पारमार्थिक साधव इति गाथार्थः। जं च तवे उज्जुत्ता, तेणेसिं साहुलक्खणं पुन्नं। अन्ये पुनरिदं गाथादलं निगमने व्याख्यानयन्ति, नच तदतिचारु,यत तो साहुणो ति भन्न--त्ति साहवो निगमणं चेयं / / 141 / / आहउवसंहारविसुद्धी, एस समत्ता उ निगमणं तेणं / यच तपसि प्राग्वर्णितस्वरूपे, किम्? उद्युक्ताः तेन प्रकारेणैतेषा साधुलक्षणंपूर्णमविकलम्, कथम्? अनेन प्रकारेण साधयन्त्यपवर्गमिति वुच्चंति साहुणोत्ती, जेणं ते महुगरसमाणा / / 136|| साधवः। यतश्चैवं ततः साधव एव भण्यन्ते साधवो, न चरकाऽऽदय इति। उपसंहारविशुद्धिरेषा समाप्ता तु, अधुना निगमनावसरः, तच्च सौत्रमुप निगमनं चैतत् / इति गाथार्थः / / 141 // इत्थमुक्त दशावयवम् / प्रयोगं दर्शयति, निगमनमिति द्वारपरामर्शः / तेनोच्यन्ते साधव इति, येन त्वेवं वृद्धा दर्शयन्ति-अहिंसाऽऽदिलक्षणधर्मसाधकाः साधव एव, कारणेन ते मधुकरसमाना उक्तन्यायेन भ्रमर तुल्या इति गाथार्थः। स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारित्वात्, तदन्यैवंविधपुरुषवत् / विपक्षो निगमनार्थमेव स्पष्टयति दिगम्बरभिक्षुमौताऽऽदिवत्। इह ये स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरितम्हा दयाऽऽइगुणसु-ट्ठिएहिँ भमरो व्व अवहवित्तीहिं। हारिणस्ते उभयप्रसिद्धैवंविधपुरुषवदहिसाऽऽदिलक्षणधर्मसाधका साहूहिं साहिओ त्ती, उक्किटुं मंगलं धम्मो / / 137 / / दृष्टाः / तथा च साधवः स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिण इत्युपनयः तस्माद्दयाऽऽदिगुणसुस्थितैरादिशब्दात्सत्याऽऽदिपरिग्रहः / भमर तस्मात्स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारित्वात्ते अहिंसाऽऽदिलक्षणइवावधवृत्तिभिः। कैः? साधुभिः साधितो निष्पादितः, उत्कृष्ट मङ्गलं | धर्मसाधकाः साधव एव इति निगमनम्। पक्षाऽऽदिशुद्धयस्तु निदर्शिता
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________________ धम्म 2660 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म एवेति न प्रतन्यन्ते एवमर्थाधिकारद्वयवशात्पञ्चावयवदशावयवाभ्यां वाक्याभ्यां व्याख्यातमध्ययनम्। दश०१ अ० "पडिपुण्णधम्मवियल-तणेण इह अंतरायविवराओ। जीवा ण हुति नियमा, तो जत्तो तत्थ काययो / / जन धम्माउ सोहग, धम्मेण हुंति सयलरिद्धीओ। धम्मेण पवररूवं, तत्तो संविग्गए भणियं / / " दर्श०१ तत्त्व। "भद्दा सयलं किरियं, कुणंति मुणिणो सिवत्थमेव सया। तं पुण लब्भइ गयसय-लरागदोसेण धम्मेण / / 13 / / धम्मेण सरागेण उ, लब्भइ सग्गाइयं फलं सो वि। जायइ परंपराए, नियमेण सुक्खहेउ ति / / 14 / / धम्माओ धणलाभो, तिज पि वुत्तं तयं पिन हु जुत्तं। सव्वो विहु पुरिसत्थो, धम्माउ चिय जओ भणिया / / 15 / / " उक्तंच"धनदो धनार्थिनां धर्मः, कामदः सर्वकामिनाम्। धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः।।१६।।"ध००। "धर्मोऽयं धनवल्लमेषु धनदः कामार्थिनां कामदः, सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः किमथवा पुत्रार्थिनां पुत्रद। राज्यार्थिष्वपि राज्यदः किमपरं नानाविकल्पैर्नृणा, तत्किं यन्न ददाति किं च तनुते स्वर्गापवर्गावपि / / 54 / / '' ध०र०॥ "धर्माऽऽरख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधान इति गीयते। पापसत्कं पशोस्तुल्यं, धिग्धर्मरहितं नरम् / / 1 / / स्था०३ ठा०३ उ० (22) धर्मस्य मोक्षकारणत्वं यथासंखाय पेसलं धम्म, दिट्ठिमं परिनिव्वुडे / उवसग्गेऽहियासित्ता, आमोक्खाएपरिव्वए।।२२।। संख्यायेति सम्यक् ज्ञात्वा स्वसंमत्या, अन्यतो वा श्रुत्वा (पेसल त्ति) मोक्षगमनं प्रत्यनुकूलं, किं तद्? धर्म श्रुतचारित्राऽऽख्य, दृष्टिमान् सम्यक्दर्शनी, परिनिर्वृत इति कषायोपशमाच्छीतीभूतः परिनिर्वृतकल्पो वा। उपसर्गाननुकूलप्रतिकूलान्, सम्यड नियम्या-धिसह्याऽऽमोक्षाय मोक्षं यावत् परि समन्ताद् व्रजेत् संयमानुष्ठानेन गच्छेदिति।।२२।। सूत्र० १श्रु०३ अ०४ उ०। ___ अपि चधम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अंतए ठिए। सोयंति य णं ममाइणो, णो लभंति णियं परिग्गहं / / 6 / / धर्मस्य श्रुतचारित्रभेदभिन्नस्य, पारं गच्छतीति पारगः सिद्धान्तपारगामी,सम्यक् चारित्राऽनुष्ठायी वेति / चारित्रमधिकृत्याऽऽहआरम्भस्य सावद्यानुष्ठानरूपस्यान्ते पर्यन्ते तदभावरूपे, स्थितो मुनिर्भवति। ये पुनर्व भवन्ति, ते अकृतधर्माः मरणे दुःखे वा समुत्थिते आत्मानं शोचन्ति / णमिति वाक्यालङ्कारे। यदि च इष्टमरणाऽऽदावर्थनाशे वा (ममाइणो त्ति) ममेदमहमस्य स्वामीत्येवमध्यवसायिनः शोचन्ति / शोचमाना अप्येते निजमात्मीयं परि समन्ताद गृह्यते आत्मसात्क्रियत | इति परिग्रहो हिरण्याऽऽदिरिष्टस्वजनाऽऽदिर्वा, नष्ट मृतं वा, न लभन्ते न प्राप्नुवन्तीति। यदि वा धर्मस्य पारगं मुनिमारम्भस्याऽन्ते व्यवास्थतमनमागत्य स्वजना मातापित्रादयः शोचन्ति समत्वयुक्ताः स्नेहालयः, न च ते लभन्ते निजमप्यात्मीयपरिग्रहबुद्ध्या गृहीतमिति / अत्रान्तरे नागार्जुनीयास्तु पठन्ति"सोऊण तयं उवट्टियं, केइ गिही विग्घेण उठ्ठिया। धम्मम्मि अणुत्तरे मुणी, तं पि जिणिज्ज इमेण पंडिए॥१॥" किं चान्यत्जे धम्म सुद्धमक्खंति, पडिपुण्णमणेलिसं / अणेलिसस्स जंठाणं, तस्स जम्मकहा कओ? ||26|| ये महापुरुषा वीतरागाः करतलाऽऽमलकवत्सकलजगद्दष्टारस्त एवंभूताः परहितैकरताः शुद्धमवदात सर्वोपाधिविशुद्धम्, धर्ममाख्यान्ति प्रतिपादयन्ति, स्वतः समाचरन्ति च। प्रतिपूर्णमायतचरित्रसद्भावात्संपूर्ण यथाख्यातचारित्ररूपं वा। अनीदृशमनन्यसदृशं धर्ममारख्यान्त्युपतिष्ठन्ति / तदेवमनीदृशस्यानन्यसदृशस्य ज्ञानचारित्रोपेतस्य यत् स्थानं सर्वद्वन्द्वोपरमरूपं तदवाप्तस्य कुतो जन्मकथा-जातो मृतो वेत्येवंरूपा कथा, स्वप्नान्तरेऽपि तस्य कर्मबीजाभावात् कुतो विद्यत इति / तथोक्तम्"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाड्कुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाड्कुरः / / 1 / / इत्यादि।।१६।। किश्चान्यत्कओ कयाइ मेधावी, उप्पज्जति तहागया। तहागया अप्पडिन्ना, चक्खू लोगस्सऽणुत्तरा।।२०।। कर्मबीजाभावात्कुतः कस्मात्कदाचिदपि मेधाविनो ज्ञानाऽ5 - त्मकास्तथा पुनरावृत्याऽऽगतास्तथागताः पुनरस्मिन् संसारेऽशुचिगर्भाधाने समुत्पद्यन्ते, न कथञ्चित्कदाचित्कर्मोपादानाभावादुत्पद्यन्त इत्यर्थः / तथा तथागतास्तीर्थकृगणधराऽऽदयो न विद्यन्ते प्रतिज्ञानिदानबन्धनरूपा येषां ते प्रतिज्ञानिदाना निराशंसाः सत्यहितकरणोद्यता अनुत्तरज्ञानत्वादनुत्तरलोकस्य जन्तुगणस्य सदसदर्थनिरूपणकारणतश्चक्षुर्भूता हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वन्तः सकललोकलोचनभूतास्तथागताः सर्वज्ञा भवन्तीति / / 20 / सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। (आपत्सु दृढधर्मता योगसंग्रहायेति 'आवई' शब्दे द्वितीयभागे 245 पृष्ठ गता) धर्माऽऽख्याने तु यथा पित्रादीनामुपकारस्तथा नान्यथा। (लोगतिय' शब्दे चेदं वक्ष्यते) केवलिप्रज्ञप्तधर्मस्य श्रवणता दुर्लभा / यतोऽवाचि-- "सुलहा सरलोयसिरी, रयणायरमेहला मही सुलहा। निव्वुइसुहजणियरुई, जिणवयणसुई जए दुलहा।।११॥” इति। श्रुतस्य वा श्रद्धानता दुर्लभा। उक्तं च-"आहच्च सवणलटुंसद्धा परमदुल्लहा। सोच्चा नेयाउय मग, बहवे परिभस्सइ / / 1 / / इति / स्था०६ ठा०॥ उक्तंच"लब्भइ सुरसामित्तं, लब्भइ पहुअत्तणं न संदेहो। इक्को नवरि न लब्भइ, जिणिंदवरदेसिओ धम्मो / / 1 / / धम्मो पवित्तिरूवो, लब्भइ कइयावि निरयदुक्खभया। जो निअवसुस्सहावो, सो धम्मो दुल्लहो लोए।।२।। नियवत्थुधम्मसवणं, दुल्लह वुत्तं जिणिंदआणाय। अतप्फासणमेग-त हुति केसिचि धीरण / / 3 / / " अष्ट० 2 अष्टा
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________________ धम्म 2661 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म ''एसो य असइ दोसा-सेवणओ धम्मवज्झचित्ताणं। ता धम्मे जइयव्वं, सम्म सइ धीरपुरिसेहिं " ||1 // इति। स्था०६ ठा (23) मनुजभवदुर्लभत्वमुक्त्वा तदवाप्तावनुत्तरोत्तरगुणावाप्ति-रति दुरापैवेत्याहअहीणपंचिंदियत्तं पिसे लहे, उत्तमधम्मसुती हु दुलहा। कुत्तित्थणिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए।॥१८॥ लभ्रूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुलहा। मिच्छत्तणिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए ||16|| धम्म पि हु सहहंतया, दुलहया कारण फासया। इह कामगुणेहिं मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए।।२०|| कथशिदहीनपश्शेन्द्रियतामप्युक्तन्यायतोऽतिदुर्लभामपि स इति जन्तुर्लभेत प्राप्नुयात्, तथाऽप्युत्तमः प्रधानो यो धर्मस्तस्य श्रुतिराकर्णना या सा तथा, हुरवधारणे, भिन्नक्रमश्च / ततो दुर्लभव, किमिति?, यतः कुत्सितानि च तानि तीर्थानि च कुतीर्थानि शाक्योलूकाऽऽदिप्ररूपितानि, तानि विद्यन्ते येषामनुष्ठेयतया स्वीकृतत्वात्ते कुतीर्थिनः, तान्नितरा सेवतेयःकुतीर्थिनिषेवको जनो लोकः, कुतीर्थिनो हि यशः सत्काराऽऽद्योषिणो यदेव प्राणिप्रियं विषयाऽऽदि, तदेवोपदिशन्ति, तत्तीर्थकृतामप्येवं-विधत्वात् / उक्तं हि- "सत्कारयशोलाभार्थिभिश्व मूढैरिहान्यतीर्थकरैः / अवसादितं जगदिदं, प्रियाण्यपथ्यान्युपदिशद्भिः / / 1 / / " इति सुकरैव तेषां सेवा, तत्सेवनाच्च कुत उत्तमधर्मश्रुतिः? पठ्यते च-''कुत्तित्थणिसेवए जणे'' इति स्पष्टम् / एवं तदुर्लभत्वमवधार्य समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः। किंचलब्ध्वाऽपि उत्तमधर्मविषयत्वादुत्तमा तां श्रुतिमुक्त-रूपा, श्रद्धानं तत्त्वरुचिरूपं, (पुणरावि त्ति) पुनरपि दुर्लभं दुरापमपि। इहैव हेतुमाहमिथ्याभावो मिथ्यात्वम्-अतत्वेऽपि तत्त्वप्रत्ययरूपं, तन्निषेवते यः स मिथ्यात्वनिषेवकः, जनो लोकोऽनादिभवाभ्यस्ततया गुरुकर्मतया च तत्रैव च प्रायः प्रवृत्तेः / यत एवमतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः / अन्यच धर्मा प्रक्रमात् सर्वज्ञप्रणीतम्, अपिर्भिन्नक्रमः। हुक्यिालङ्कारे। ततः श्रद्दधतोऽपि कर्तुमभिलषन्तोऽपि दुर्लभकाः कायेन शरीरेण, उपलक्षणत्वान्मनसा वाचा च स्पर्शका अनुष्ठातारः। कारणमाहइहास्मिन् जगति कामगुणेषु मूर्छिता मूढाः. गृद्धिमन्त इत्यर्थः / जन्तव इति शेषः। प्रायेण ह्यपथ्येष्वेव विषयेष्वभिष्वङ्गः प्राणिनाम,यत उक्तम्"प्रायेण हि यदपथ्यं, तदेव चाऽऽतुरजनप्रियं भवति। विषयाऽऽतुरस्य जगतस्तथाऽनुकूलाः प्रिया विषयाः / / 1 / / " पाठान्तरत:-- कामगुणैमूर्छिता इव मूर्छिताः विलुप्तधर्मविषयचैतन्यत्वात् यतश्चैवमतो दुरापामिमामविकलां धर्मसामग्रीमवाप्य समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरिति / उत्त० पाई० 10 अ०। स्था०| (24) पर्यायच्युतस्यैहिकं दोषमाहधम्माओं भट्ट सिरिओववेअं, जण्णग्गि विज्झायमिवऽप्पते। हीलंति णं दुविहिअंकुसीला, दाढट्ठिअंघोरविसं व नाग / / 12 / / धर्मात् श्रमणधर्मतः, भ्रष्ट च्युतं, श्रियाऽपपेतं तपोलक्ष्या अपगतं, यज्ञाग्निमनिष्टोमानिल, विध्यातमिव यामावसानेऽल्पते जसम्, अल्पशब्दो भावतेजःशून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः, हीलयन्ति कदर्थयन्ति, पतितस्त्वमिति पक्त्याऽपसारणाऽऽदिना, एनमुन्निष्क्रान्तं, दुर्विहितमुन्निष्क्रमणादेव दुष्टानुष्ठायिनं, कुशीलास्तत्सकोचिता लोकाः, स एव विशेष्यते- (दाढद्वियं ति) प्राकृतशैल्या उद्धृतदंष्ट्र मुत्खातदंष्ट्र, घोरविषमिव रौद्रविषमिव, नागं सर्प यज्ञाग्निसोपमान, लोकनीत्या प्रधानभावादप्रधानभाय-ख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः / / 12 / / एवमस्य भ्रष्टशीलस्यौघतयैहिकं दोषमभिधाय ऐहिका-ऽऽमुष्मिकमाह-- इहेव धम्मो अयसो अकित्ती, दुण्णामधिजं च पिहज्जणम्मि। चुअस्स धम्माओं अहम्मसेविणो, संभिण्णवित्तस्स य हिट्ठओ गई ||13|| इहैवेहलोके एवाधर्म इत्ययमधर्मफलेन दर्शयति, यदुतायशः अपराक्रमकृतं न्यूनत्वं, तथा अकीर्तिरदानपुण्यफलप्रवाहरूपा तथा दुर्नामधेयं च 'पुराणः पतितः' इति कुत्सितनामधेयं च / क्वेत्याह- पृथगजने सामान्यलोकेऽप्यास्तां विशिष्टलोके, कस्ये-त्याह-च्युतस्य धर्मात्, उत्प्रव्रजितस्येति भावः / तथाअधर्मसेविनः कलत्राऽऽदिनिमित्तं षट्कायोपमर्दकारिणः, तथासंभिन्नवृत्तस्य चाखण्डनीयखण्डितचारित्रस्य च क्लिष्टकर्मबन्धनात् अधस्तादतिर्नरकेषूपपात इति सूत्रार्थः / / 13 / / अस्यैव विशेषप्रत्यपायमाहमुंजित्तु भोगाइँ पसण्णचेअसा, तहाविहं कटटु असंजमं बहुं / गई च गच्छे अणभिजिअंदुहं, बोही असे नो सुलभा पुणो पुणो // 14|| स उत्प्रव्रजितो भुक्त्वा भोगान् शब्दाऽऽदीन्, प्रसन्नचेतसा धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्तेन, तथाविधमज्ञोचितधर्मफलं, कृत्वाऽभिनिर्वृत्त्य, असंयमं कृष्याद्यारम्भरूपं, बहुमसन्तोषात्प्रभूतं, सइत्थं भूतो मृतः सन्, गतिं च गच्छत्यनमिध्यात्वा अभिध्यात्वा, इष्टानिष्टामित्यर्थः / काचित सुखाऽप्येवंभूता भवत्यत आह-दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दरां दुःखजननी, बोधिश्चासौ जिनधर्मप्राप्तिश्चास्योन्निष्क्रान्तस्य न सुलभा पुनः पुनः प्रभूतेष्वपि जन्मसु दुर्लभैव, प्रवचनविराधकत्वादिति सूत्रार्थः / / यस्मादेवं तस्मादेवं तदुत्पन्नदुःखोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजे-दित्याहइमस्स ता नेरइअस्स जंतुणो, दुहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो।
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________________ धम्म 2662 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म पलिओवमं छिज्झइ सागरोवमं, किमंग ! पुण मज्झ इमं मणोदुहं / / 15 / / अस्य तावदित्यात्मन एव निर्देशः, नारकस्य जन्तोः नरकमनुप्राप्तस्येत्यर्थः / दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तदुःखस्य, क्लेशवृत्तेः एकान्तक्लेशवेष्टितस्य सतो, नरक एव पल्योपमं क्षीयते, सागरोपमं च यथाकर्मप्रत्ययम्, किमङ्ग ! पुनर्ममेदं संयमरतिनिष्पन्नं मनोदुःखं तथाविधक्लेशदोषरहितम्, एतत्क्षीयत एवैतचिन्तनेन नोत्प्रव्रजितव्यमिति सूत्रार्थः // 15 // विशेषणेतदेवाऽऽहन मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई, असासया भोगापिवास जंतुणो। न चे सरीरेण इमेणऽवस्सई, अवस्सई जीविअपज्जवेण मे||१६|| न मम चिरं प्रभूतं कालं दुःखमिदं संयमारतिलक्षणं भविष्यति / किमित्यत आह- अशाश्वती प्रायो यौवनकालावस्थायिनी, भोगपिपासा विषयतृष्णा, जन्तोःप्राणिनः / अशाश्वतीत्वे एव कारणान्तरमाह-न चेच्छरीरेणानेनापयास्यति न यदि शरीरेणानेन करणभूतेन वृद्धस्यापि सतोऽपयास्यति, तथाऽपि किमाकुलत्वं यतोऽपयास्यति जीवितपर्यायेण जीवितस्यापगमेन, मरणेनेत्येयनिश्चितः स्यादिति सूत्रार्थः / / 16 / / अस्यैव फलमाहजस्सेवमप्पा उहविज निच्छओ, चइज्ज देह नहुधम्मसासणं / तं तारिसं नो पइलंति इंदिआ, उर्वति वाया व सुदंसणं गिरिं // 17 // यस्येति साधोः, एवमुक्तेन प्रकारेण, आत्मा, तुशब्दस्येव-कारार्थत्वात् आत्मैव, भवेन्निश्चितो दृढः, स त्यजेदेह क्वचिद्विघ्ने उपस्थिते, न तु धर्मशासनं न पुनर्धर्मज्ञानमिति, तं तादृशं धर्मनिश्चितं, न प्रचालयन्ति संयमस्थानान्न कम्पयन्तीन्द्रियाणि चक्षुरादीनि / निदर्शनमाहउत्पतद्वाता इव संपतत्पवना इव सुदर्शन गिरि मेरुम् / एतदुक्त भवतियथा मेरुं वाता न चालयन्ति तथा तमपीन्द्रियाणीति सूत्रार्थः / / 17 / / उपसंहरन्नाहइच्चेव संपस्सिअ बुद्धिमं नरो, आयं उवायं विविहं विआणिआ। कारण वाया अदु माणसेणं, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिट्ठिजासि॥१८|| इत्येवमध्ययनोक्त दुष्प्रजीवित्वाऽऽदि संप्रेक्ष्याऽऽदित आय यथावद् दृष्ट्वा बुद्धिमान्नरः सम्यक् बुद्ध्युपेतः, आयमुपाय विविध विज्ञाय, आयः / सम्यग्ज्ञानाऽऽदेः, उपायस्तत्साधनप्रकारः कालविनयाऽऽदिर्विविधोऽनेकप्रकारस्त ज्ञात्वा, किमित्याह- कायेन, वाचा, अथमनसा, त्रिभिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तैः त्रिगुप्तिगुप्तः सन् जिनवचनमर्हदुपदेशमधितिष्ठेत् यथाशक्ति तदुक्तैकक्रियापालनपरो भूयात्, भवाय सिद्धौ तत्ततो मुक्तिसिद्धेरिति सूत्रार्थः // 18 // दश०१चूल। (25) किमभिसन्ध्यधर्ममाचक्षीतेति दर्शयतिदयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं आइक्खे विभए किट्टे वेदवी से उठ्ठिएसुवा अणुट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए संतिं विरतिं उवसमंणिव्वाणं सोयवियं अञ्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तियं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सवेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेजा। दयां कृपां लोकस्य जन्तुलोकस्योपरि द्रव्यतो ज्ञात्वा, क्षेत्रतः प्राचीनं, प्रतीचीनं दक्षिणमुदीचीनम्, अपरानपि दिग्विभागानभिसमीक्ष्य सर्वत्र दयां कुर्यन धर्ममाचक्षीत, कालतो यावज्जीवं, भावतोऽरक्तोऽदिष्ट : कथमाचक्षीत? तद्यथा- सर्वे जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्सव आत्मोपमया सदा द्रष्टव्या इति / उक्तं च- "तत्तत्परस्य संदध्यात्प्रतिकूलं यदात्मनः / एष संग्रहिको धर्मः, कामादन्यत् प्रवर्तते / / 1 / / " इत्यादि। तथा धर्ममाचक्षाणो विभजेद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदैराक्षेपिण्यादिकथाविशेषैर्वा प्राणातिपातमृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनपरिग्रहरात्रिभोजनविरतिविशेषेर्वा धर्म विभजेत्, यदि या कोऽयं पुरुषः कं नतो देवताविशेषमभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वा एवं विभजेत, तथा कीर्तयेद् व्रतानुष्ठानफलं, कोऽसौ कीर्तयेद्? वेदविदागमविदिति। नागार्जुनीयास्तु पठन्ति- "जे खलु भिक्खू बहुस्सुए बज्झागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहालद्धिसंपन्नो खेत्तं कालं पुरिसं समासज्ज कहेयं पुरिसे कं वा दरिमणमभिसंपन्नो एवं पुण जातीए पभू धम्मस्स आघवित्तए।" इति कण्ठ्यम्। स पुनः केषु निमित्तभूतेषु कीर्तयेदि-त्याह-(से उद्विएसु वा इत्यादि) स आगमवित् स्वसमयपरसमयज्ञ उत्थितेषु वा भावोत्थानेन यतिषु, वाशब्द उत्तरपिक्षया पक्षान्तरद्योतकः / पार्श्वनाथशिष्येषु चतुर्यामोत्थितेष्वेव, वर्द्धमानतीर्थाऽऽचार्याऽऽदिः पञ्चयाम धर्म प्रवेदयेदिति स्वशिष्येषु वा सदोत्थितेष्वज्ञातज्ञापनाय धर्म प्रवेदयेदिति / अनुत्थितेषु वा श्रावकाऽऽदिषु शुश्रूषमाणेषु धर्म श्रोतुमिच्छत्सु गुर्वादः पर्युपारित कुर्वत्सु वा संसारोत्त-रणाय धर्म प्रवेदयेत् / तत्किंभूतं प्रवेदयेदित्याह- "संति' इत्यादि, यावत् "भिक्खू धम्ममाइक्खेजा" शमनं शान्तिरहिंसेत्यर्थः / तामाचक्षीत, तथा विरतिम्, अनेन च मृषावादाऽऽदिशेषव्रतसंग्रहः / तमुपशमं क्रोधजयाद्, अनेन चोत्तरगुणसंग्रहः, तथा निर्वृतिर्निर्वाणं मूलगुणोत्तरगुणयोरहिकाऽऽमुष्मिक-फलभूतमाचक्षीत। तथा शौचं सर्वोपाधिशुचित्वं निर्वाच्यव्रतधारणं, तथा आर्जवं मायावक्रतापरित्यागात्, तथा मार्दवं मानस्तब्धतापरित्यागात्, तथा लाघवं सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थिपरित्यागात् / कथमाचक्षीतेति दर्शयतिअनतिपत्त्य। यथावस्थितं वस्त्वागमाभिहितं, तथाऽनतिक्रम्येत्यर्थः, केषां कथयति? सर्वेषां प्राणिना,दशविधाः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां सामान्यतः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां, तथासर्वेषांभूतानांमुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन भूतानां व्यवस्थिताना, तथा सर्वेषां जीवानां जिजीविषूणा च, तथा सर्वेषां सत्त्वानां तिर्यड्नराभराणां संसारे क्लिश्यमानतया करुणाऽऽस्पदानाम्,ए
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________________ धम्म 2663 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म कार्थिकानि चैतानि प्राणाऽऽदीनि वचनानीत्यतस्तेषा क्षान्त्यादिक दशविधं धर्म यथायोगं प्रागुपन्यस्तं शान्त्यादिपदाभिहितमनु विचिन्त्य स्वपरोऽयं भिक्षणशीलो भिक्षुर्धर्मकथालब्धिमानाचक्षीत प्रतिपादयेदिति। यथा च धर्म कथयेत्तदाहअणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं आसाइजा, णो परं आसाएज्जा, णो अण्णाइं पाणाई भूताई जीवाइं सत्ताई आसाएज्जा, से अणासायए अणासायमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणे, एवं से सरां भवति महामुणी। "अणुवीइ भिक्खू' इत्यादि यावत् "सरणं भवति महामुणि त्ति'। सभिक्षुमुमुक्षुरनुविचिन्त्य पूर्वापरेण धर्म पुरुषं वाऽऽलोच्य यो यस्य कथनयोग्यस्तधर्ममाचक्षाणः, आडितिमर्यादायां, यथाऽनुष्ठानं सम्यग्दर्शनाऽऽदेः शातना आशातना, तमात्मानं नो आशातयेत्, तथा धर्ममाचक्षीत,यथाऽऽत्मन आशातना न भवेत्। यदि वा आत्मन आशातना द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / द्रव्यतो यथाऽऽहारो-पकरणाऽऽदेव्यस्य कालातिपाताऽऽदि-कृताऽऽशातना बाधा न भवति तथा कथयेत्, आहाराऽऽदिद्रव्यबाधया च शरीरस्यापि पीडाभावाऽऽशातनारूपा स्यात, कथयतो वा यथा गात्रभङ्ग रूपा भावाऽऽशातना न तस्य स्यात्तथा कथयेदिति। तथा न परं शुश्रुषुराशातयेत, यतः परो हीलनया कुपितः सन्नाहारोपकरणशरीरान्यतरपीडायै प्रवर्तेताऽतस्तदाशातनां वर्जयन धर्म ब्रूयादिति / तथा नान्यान् वा-सामन्येन प्राणिनो भूतान् जीवान् नो आशातयेद्बाधयेत्, तदेवं स मुनिः स्वतोऽनाशातकैरनाशातयन् तथा परानाशातयतोऽननुमन्य-मानोऽपरेषां वध्यमानानां प्राणिनां भूताना सत्त्वानां जीवानां यथा पीडा नोत्पद्यते तथा धर्म कथयेदिति / तद्यथा यदि लौकिककुप्रावचनिकपार्श्वस्थाऽऽदिदानानि प्रशंसत्यवटतडागाऽऽदीनि वा, ततः पृथिवीकायाऽऽदयो व्यापादिता भवेयुः, अथ दूषयति-ततोऽपरेषामन्तरायाऽऽपादनेन तत्कृतो बन्धविपाकानुभवः स्यात्। उक्तं च-"जे उ दाणं पसंसंति, वहमिच्छ ति पाणिणं / जे उणं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते // 1 // " तस्मात्तदवटतडागाऽऽदिविधिप्रतिषेधव्युदासेन यथाऽवस्थितं दानं शुद्ध प्ररूपवेदसावद्यानुष्ठानं चेति / एवं च कुर्वन्नुभयदोषपरिहारी जन्तूनामाश्वासभूमिर्भवतीत्येतद् दृष्टान्तद्वारेण दर्शयति-यथाऽसौ द्वीपोऽसंदीनः शरणं भवत्येवमसावपि महामुनिः तद्रक्षणोपायोपदेशतो वध्यमानानां बधकानां च तदध्ययवसायान्निवर्तते, न विशिष्टगुणस्थानाऽऽपादनाच्छरण्यो भवति / तथाहि यथोद्दिष्टेन कथाविधानेन धर्मकथा कथयन् काँश्चन प्रव्राजयति, काश्चन श्रावकान्विधते, काँश्वन सम्यग्दर्शनयुतान् करोति, केषाञ्चित्प्रकृतिभद्रतामापादयति। आचा० 1 श्रु०६ अ०५ उ०। किञ्चान्यत्सयं समेचा अदुवा वि सोचा, भासेज धम्मं हिययं पयाणं / जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा / / 16 / / स्वयमात्मना परोपदेशमन्तरेण समेत्य ज्ञात्वा चतुर्गतिकं संसार, तत्कारणानि च मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपाणि, तथाऽशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं, दत्कारणानि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, एतत्सर्व स्वतएवावबुद्ध्यान्यस्माद्वाऽऽचार्याऽऽदेः सकाशात् श्रुत्वाऽन्यस्मै मुमुक्षवे धर्म श्रुतचारित्राऽऽख्यं भाषेत। किंभूतम्? प्रजायन्त इति प्रजाः स्थावरजङ्गमा जन्तवः, तेभ्यो हितं सदुपदेशदानतः सदोपकारिणं धर्म ब्रूयादिति / उपादेयं प्रदर्श्य हेयं प्रदर्शयति-ये गर्हिता जुगुप्सिता मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः कर्मबन्धहेतवः, सह निदानेन वर्तन्त इति सनिदानाः, प्रयुज्यन्त इति प्रयोगा व्यापाराः, धर्मकथाप्रबन्धा वा ममास्मात्सकाशात्पूजालाभसंस्काराऽऽदिकं भविष्यतीत्येवंभूतनिदानाऽऽशंसारूपांस्तांश्चारित्रविघ्नभूतान् महर्षयः सुपीरधर्माणो न सेवन्ते नानुतिष्ठन्ति / यदि वा-ये गर्हिताः सनिदाना वाक्प्रयोगाः, तद्यथा-- कुतीर्थिकाः सावद्यानुष्ठानाविरता निःशीला अनिर्वृताः कुटिलवेण्टलकारिण इत्येवभूतान् परदोषोद्-घाटनया मर्मवेधिनः, सुधीरधर्माणो वाकण्टकान् न सेवन्ते न ब्रुवत इति॥१६॥ किं चान्यत्केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुद पि गच्छेज्ज असद्दहाणे। आउस्स कालाइचरं वधाए, लद्धाणुमाणे य परेसु अढे // 20 // केषाञ्चिन्मिथ्यादृष्टीना कुतीर्थिकभावितानां स्वदर्शनाग्राहिणां, तर्कया वितर्केण स्वमतिपर्या लोचनेन, भावमभिप्राय दुष्टान्तःकरण-- वृत्तित्वमबुध्वा कश्चित्साधुः श्रावको वा स्वधर्मस्थापनेच्छयातीर्थिकतिरस्कारप्रायं वचो ब्रूयात्, सचतीर्थिकस्तद्वषोऽश्रद्दधानोऽरोचयन्नप्रतिपाद्यमानोऽतिकटुकं भावयेत, क्षुद्रत्य मपि गच्छेद्विरूपमपि कुर्यात्, पालकपुरोहितवत् स्कन्दकाऽऽचार्यस्येति / क्षुद्धत्वगमनमेव दर्शयतिस निन्दावचनकुपितोऽपि वक्तुर्यदायुस्तस्याऽऽयुषो व्याघातरूपंपरिक्षयस्वभाव कालातिचार दीर्घस्थितिकमप्यायुः संवर्तेत / एतदुक्तं भवतिधर्मदेशना हि पुरुषविशेष ज्ञात्वा विधेया / तद्यथा- कोऽयं पुरुषो राजाऽऽदिः कञ्चन देवताविशेषं गतः कतरद्वा दर्शनमाश्रितोऽभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वाध्यमित्येवं सम्यक् परिज्ञाय यथार्ह धर्मदेशना विधेया। यश्चैतदबुवा किश्चिद्धर्म-देशनाद्वारेण परविरोधकृद्वचो ब्रूयात् स परस्मादैहिकाऽऽमुष्मि-कयोमरणाऽऽदिकमपकारं प्राप्नुयादिति / यत एवं ततो लब्धमनुमानं येन पराभिप्रायपरिज्ञाने स लब्धानुमानः परेषु प्रतिपाद्येषु यथायोगं यथार्हप्रतिपत्त्याऽर्थान् सद्धर्मप्ररूपणाऽऽदिकान् जीवाऽऽदीन् स्वपरोपकाराय ब्रूयादिति / / 20 / / सूत्र 01 श्रु०१३ अ०। जे भिक्खू मायन्ने अन्नयरं दिसं अणुदिसं वा पडिवन्ने धम्म आइक्खे विभए किट्टे उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेइए संतिविरतिं उवसमं निव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणतिवातियं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूताणं जाव सत्ताणं अणुवाई किट्टिए धम्मं // 57 //
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________________ धम्म 2664 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म स भिक्षुराहारोपधिशयनस्वध्यायाऽऽदीनां मात्रां जानातीति तद्विधिज्ञः सन अन्यतरां दिशमनुदिशं वा प्रतिपन्नः समाश्रितो धर्ममाख्यापयेत्, यद्येन विधेयस्तद्यथाभोग विभजेद्धर्मफलानि च कीर्तयेदाविर्भावयेत्, तबैकार्थप्रवृत्तेन साधुना सम्यगुपस्थितेषु वा कौतुकाऽऽदिप्रवृत्तेषु शुश्रूषमाणेषु श्रोतुं प्रवृत्तेषु स्वपराभिप्रायं वेद-येदावेदयेत्प्रकथये दिति यावत्। श्रोतुमुपस्थितेषु यत्कथयेत्तदर्शयितुमाह-(संतिविरइं इत्यादि) / शान्तिरुपशमः क्रोधजयस्तत्प्रधाना प्राणातिपातिभ्यो विरतिः शान्तिविरतिः / यदि वा-शान्तिरशेषक्लेशापगमरूपा तस्यैतदर्थ विरतिस्तां कथयेत्, तथौपशममिन्द्रियोपशगरूपं रागद्वेषा भावजनितम् / तथानिर्वृतिं निर्वाणमशेषद्वन्द्वोपरमरूपं, तथा (सोयवियं ति) शौचं, तदपि भावशौच, सर्वोपाधिशुद्धता व्रतामालिन्यम्। (अज्जवियं ति) आर्जवममायित्वं, तथा मार्दवं मृदुभावं सर्वत्र प्रश्रयवत्त्वं विनयनम्रतेति यावत्। तथा- (लाधवियं ति) कर्मणां लाघवाऽऽपादनं कर्मगुरोर्वाऽऽत्मनः कर्मापनयनतो लघ्ववस्थासंजननम्। साम्प्रतमुपसंहार द्वारेण सर्वशुभानुष्ठानानां मूलकारणमाह- अतिपतनमतिपातः प्राण्युपमर्दनं, तद्विद्यते यस्यासावतिपातिकस्तत् प्रतिषेधादनतिपातिकस्तं, सर्वेषां प्राणिनां भूतानां यावत्सत्त्वानां धर्ममनुविचिन्त्य वा कीर्तयेत्कथयेत् / इदमुक्तं भवति-सर्वप्राणिनां रक्षाभूतं धर्म कथयेदिति // 57 // साम्प्रतं धर्मकीर्तनं यथानिरूपितमधिभवति तथा दर्शयितुमाह-- से भिक्खू धम्म किट्टमाणे णो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेजा, णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेजा, णो वत्थस्स हेउं धम्ममाइक्खेजा, णो लोणस्स हेउं धम्ममाइक्खेजा, णो सयणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, णो अण्णेसिं विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा, नन्नत्थ कम्मनिज्जरट्ठाए धम्ममाइक्खेज्जा // 5 // स भिक्षुः परकृतपरिनिष्ठिताऽऽहारभोजी यथाक्रियाकुलाऽनुष्ठायी शुश्रूषन सुधर्म कीर्तयन्नान्नस्य हेतोर्ममायमीश्वरो धर्मकथाप्रश्रवणे विशिष्टमाहारजातं दास्यतीति, एतन्निमित्तं न धर्ममाचक्षति, तथा पानवस्त्रलयनशयननिमित्तं न धर्ममाचक्षीत / नान्येषां विरूपरूपा-- णामुचविचानां कार्याणां कामभोगानां वा निमित्तं तथा धर्ममाचक्षीत, ग्लानिमुपगच्छन् न धर्ममाचक्षीत / कर्मनिर्जरायाश्चान्यत्र न धर्म कथयेदपरप्रयोजननिरपेक्ष एवं धर्म कथयेदिति // 58|| धर्मकथाश्रवणफलदर्शनद्वारेणोपसंजिघृक्षुराहइह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म सम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सिं धम्मे समुट्ठिया जेते एवं सव्वोवगता ते एवं सव्वोवरता ते एवं सव्वोवसंता ते एवं सव्वताए परिनिवुडे त्ति बेमि // 56 // इहास्मिन् जगति, खलुक्यालङ्कारे / तस्य भिक्षोर्गुणवतोऽन्तिके समीपे पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट धर्म श्रुत्वा निशम्यावगम्य सम्यगुत्थानेनोत्थाय धी (वी) राः कर्मविदारणसहिष्णवो, ये चैवंभूतास्ते एवं / पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानुष्ठानतया सर्वस्मिन्नपि मोक्षकारणसम्यग्दर्शनाऽऽदिके उप सामीप्येन गताः सर्वोपगतास्तथैवं सर्वेभ्य उपरताः सर्वोपरताः, तथा त एवं सर्वोपशान्ता जितकषायतया शीतलीभूताः, तथा एवं सर्वाऽऽत्मतया सर्वसामर्थ्येन सदनुष्ठानेनोद्यमं कृतवन्तो, ये चैवंभूतास्तेऽशेषकर्मक्षयं कृत्वा परि समन्तान्नित्ता अशेषकर्मक्षयं कृतवन्त इति ब्रवीमीति पूर्ववत्॥५६।। सूत्र०२ श्रु०१ अ०। (26) इह भवजलधिनिमग्नसत्त्वाभ्युज्जिहीर्षाऽभ्युद्यतेन स्वहितसंपादननिपुणेन गुरुलाघवचिन्तावता प्रश्नार्थव्याकरणसमर्थन विदुषा सद्धर्मपरीक्षायां यत्नो विधेयः, सा च परीक्षकमन्तरेण न संभवति, तदविनाभावित्वात्परीक्षायाः सद्धर्मपरीक्षकाऽऽदिभावप्रतिपादनार्थ च आUषोडशाधिकारप्रतिबद्धं प्रकरणमारेभे हरिभद्रसूरिः, तस्य चाऽऽदावेव प्रयोजनाभिधेयसम्बन्धप्रतिपादनार्थमिदमार्थ्यासूत्र जगादप्रणिपत्य जिनं वीरं, सद्धर्मपरीक्षकाऽऽदिभावानाम्। लिङ्गाऽऽदिभेदतः खलु, वक्ष्ये किञ्चित्समासेन॥१।। प्रणिपत्य नमस्कृत्य, जिनं जितरागद्वेषमोहं सर्वज्ञ वीर सदेवमनुष्यासुरलोके श्रमणो भगवान् महावीर इत्यागमप्रसिद्धनामानमनेनेष्टदेवतास्तवद्वारेण मङ्गलमाह / सद्धर्मपरिक्षकस्त्रिविधो वक्ष्यमाणस्तदादयो ये भावास्तेषां किञ्चिदित्यस्य स्वल्पमात्राभिधायित्वाल्लेशं वक्ष्ये लिङ्गाऽऽदिभेदतः खल्विति लिङ्ग वृत्ताऽऽदिविशेषप्रतिपादनद्वारेण यद्यप्यपरैरेव पूर्वाचार्यः सद्धर्मपरिक्षाऽऽदयो भावाः स्फुटमेवाभिहितास्तथाऽप्यहं समासेवैवाभिधास्यामीति (1) // सद्धर्मपरीक्षकस्य त्रिविधस्य व्यापारमुपदर्शयति-- बालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तम्। आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षते सर्वयत्नेन / / 2 / / बालो विशिष्टविवेकविकलो लिङ्गवेषमाकारं बाह्य पश्यति, प्रधानेन धर्मार्थिनोऽपि तस्य तत्रैव भूयसा रुचिप्रवृत्तेः / मध्यमबुद्धिर्मध्यमविवेकसंपन्नो, विचारयति मीमांसते, वृत्तं वक्ष्यमाणस्वरूपं प्राधान्येन समाश्रयति, तत्रैवाभिलाषत्वात्। आगमतत्त्वं त्वागमपरमार्थमैदंपर्यरूप, बुधो विशिष्टविवेकसंपन्नः, परीक्षते समीचीनमवलोकयति / सर्वयत्नेन सर्वाऽऽदरेण धर्माधर्मव्यवस्थाया आगमनिबन्धनत्यात्। यत उक्तम्"धर्माधर्मव्यवस्थायाः, शास्त्रमेव नियामकम् / तदुक्ताऽऽसेवनाद्धमस्त्वधर्मस्तद्विपर्ययात् / / 1 / / "|2|| इदानीं पूर्वोक्तानां बालाऽऽदीनामेव लक्षणमाहबालो ह्यसदारम्भो, मध्यमबुद्धिस्तु मध्यमाऽऽचारः। ज्ञेय इह तत्त्वमार्गे, बुधस्तु मार्गानुसारी यः॥३॥ बालो हि पूर्वोक्तः असन्नसुन्दर आरम्भोऽस्ये त्यसदारम्भोऽविद्यमानं वा यदागमे व्यवच्छिन्नं तदारभत इत्यसदारम्भः, न सदा न सर्वदा स्वशक्तिकालाऽऽद्यपेक्ष आरम्भोऽस्येति वा, मध्यमबुद्धिस्तु पूर्वोक्तो मध्यमाऽऽचार आगमैदंपर्यविकलत्वात् प्रावचनिककार्याप्रवृत्तेः ज्ञेय इह प्रक्रमे तत्त्वमार्गे परमार्थमार्गे प्रवचनोन्न
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________________ धम्म 2665 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म तिनिमित्ते, बुधस्तूतलक्षण एव मार्गानुसारी ज्ञानाऽऽदिवयानुसारी स्वघरयोस्तवृद्धिहेतुत्वेन यः स विज्ञेय इति // 3 // ___कथं पुनर्बाह्यलिङ्ग प्राधान्यदर्शिनो बालत्वमित्याहबाह्य लिङ्गमसारं, तत्प्रतिबद्धान धर्मनिष्पत्तिः / धारयति कार्यवशतो, यस्माच विडम्बकोऽप्येतत् // 4 // बाह्य बहिर्वतिं दृश्यम्, लिङ्गमाकारो वेषस्तदसारम् यतस्तत्प्रतिबद्धात तदविनाभाविनी, न धर्मनिष्पत्तिर्न धर्मसंसिद्धिर्विदुषां मता। धारयति कार्यवशतः कार्याङ्गीकरणेन स्वाभिप्रेतफलसिद्धये, यस्माच विडम्बकोऽप्येतद्धर्मनिष्पत्त्यभावविवक्षया यस्माचेति हेत्वन्तरसूचनम् / एको हेतुर्बाह्यलिङ्गाद्धर्मनिष्पत्तेरभावो, द्वितीयस्तु कुतश्चिन्निमित्ताद्विडम्ब - कस्याऽपि तद्धारणमाभ्यां बाह्यलिङ्गामसारम्। स तु बालस्तदेव प्राधान्येन मन्यत इति // 4 // ननु च बाह्यलिङ्गस्य कथमप्राधान्यं भवद्भिरुच्यते, यतस्तत्परि-- ग्रहत्यागरूपमित्याशक्याऽऽहबाह्यग्रन्थत्यागात्, न चारु न त्वत्र तदितरस्यापि। कञ्चुकमात्रत्यागा-न हि भुजगो निर्विषो भवति // 5 (बाह्येत्यादि) बाह्यग्रन्थत्यागाद्धनधान्यस्वजनवस्त्राऽऽदित्यागात् न चारा न शोभनं बाह्यलिङ्गं, ननु निश्वितमेतदत्र लोके / तद् बाह्यलिङ्गमितरस्यापि मनुष्यतिर्यप्रभृतेः संभवति / एनमेवार्थ प्रतिवस्तूपमया दर्शयति- कञ्चुकमात्रत्यागादुपरि-वर्तित्वड्मात्रपरित्यागान्न हि नैव भुजगः सरीसृपः कथञ्चिन्निर्विषो भवति।५।। प्रस्तुतमेवार्थ तन्त्रान्तरसंवादेनाऽऽहमिथ्याऽऽचारफलमिदं, ह्यपरैरपि गीतमशुभभावस्य। सूत्रेऽप्यविकलमेत-त्प्रोक्तममेध्योत्करस्यापि॥६॥ मिथ्या अलीको विशिष्टभावशून्य आचारो मिथ्याऽऽचारः, तस्य फलं कार्यमिदं बाह्यलिङ्ग केवलमेव, हिर्यस्मादपरैरपि तन्त्रान्तरीयैगर्ति कथितमशुभभावस्याऽऽन्तरशुभभावरहितस्य पुंसः / मिथ्याऽऽचारस्वरूपं चेदम् - "बाह्येन्द्रियाणि संयम्य, य आस्ते मनसा स्मरन् / इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा, मिथ्याऽऽचारः स उच्यते॥१॥"जन्मान्तरोपार्जिताकुशलकर्मविपाकः एवैष यद्भोगोपभोगाऽऽदिरहितेन प्रेक्षायत्पुरुषपरिनिन्दनीयं क्लिष्ट जीविकाप्रायं तथाविधबाह्यलिङ्गधारणमिति। तन्त्रान्तरप्रसिद्धमिममर्थमङ्गीकृत्यापरैरपि इत्युक्तम् / न केवलं तन्त्रान्तरेषु, सूत्रेऽप्यागमेऽपि स्वकीयेऽविकलं परिपूर्णमेतद्बाह्यलिङ्गं स्वकीयमेव प्रोक्तं प्रतिपादितमैहभाविक पारभाविक लिङ्गान्याश्रित्यामेध्योत्करस्याप्युच्चारनिकरकल्पस्यापि, प्रवचनोदिताशेषगुणशून्यस्येति यावत्। यत उक्तम्- "अणंतसो दवलिंगाइ।" // 6 // ___ मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तमित्युक्तम् तत्र किं तदित्याहवृत्तं चारित्रं ख-ल्वसदारम्भविनिवृत्तिमत्तच्च / सदनुष्ठानं प्रोक्तं, कार्ये हेतूपचारेण ||7|| वृत्तं वर्तनं विधिप्रतिषेधरूपं, तच्च चारित्रमेव, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, तच्चेह सदनुष्ठानं प्रोक्तम्। तत्कीदृशम्? असदारम्भविनिवृतिमत, असदारम्भोऽशोभनाऽऽरम्भः प्राणातिपाताऽऽद्याश्रवपञ्च- / करूपः, ततो विनिवृत्तिमद्धिंसाऽऽदिनिवृत्तिरूपमहिंसाऽऽद्यात्मकम्, ननु कथं सदनुष्ठानं चारित्रमभिधीयते / यतश्चारित्रमान्तरपरिणामरूपम्, सदनुष्ठानं तु बाह्य सत्क्रियारूपं, तदनयोः स्वरूपभेदः परिस्फुट एवास्तीत्याशडक्याऽऽह- कार्य हेतूपचारेण कार्ये सदनुष्ठानरूपे हेतूपचारेण भावोपचरेण तत्पूर्वकत्वात् सत्क्रियायाः, यचाऽऽन्तरपरिणामविकलं तत् सदनुष्ठानमेव न भवतीति भावार्थः।।७।। एतच्च सदनुष्ठानं शुद्धाशुद्धभेदं तद्वयमप्याहपरिशुद्धमिदं नियमा-दान्तरपरिणामतः सुपरिशुद्धात् / अन्यदतोऽन्यस्मादपि, बुधविज्ञेयं त्वचारुतया ||| परिशुद्ध सर्वप्रकारशुद्धमिदं सदनुष्ठान नियमान्नियमेनान्तरपरिणामतस्तथाविधचारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमाऽऽदिजन्यात् सुपरिशुद्धाच्छास्त्रानुसारेण सम्यक्त्वज्ञानमूलादिति भावः / अन्यदित्यपरिशुद्धमतोऽन्यस्मादान्तरपरिणामाद्योऽन्यः कश्चिद्धेतुर्लाभपूजाख्यात्यादिस्ततोऽन्यस्मादपि प्रवर्तते / ननु परिशुद्धाऽपरिशुद्धयोः सदनुष्ठानयोः स्वरूप तुल्यमेवोपलभामहे, तत्कथं प्रतिनियतस्वरूपतया ज्ञायत इत्याह-(बुधविज्ञेयं त्वचारुतया) बुधैस्तत्त्वविद्भिरेवाचारुतया असुन्दरत्वे नेतररुप-विविक्तं तद्विज्ञायते यथा-अचार्विति न पुनरितरैस्तेषां तद्गतविशेषानुपलम्भादिति / / 8 / / कः पुनर्विशेषो यदुपलम्भात् सदनुष्ठानासदनुष्ठानयोरिदमवधार्यते, परिशुद्धमेतदिति तदुपदर्शनार्थमाहगुरुदोषाऽऽरम्भितया, तेष्वकरणयत्नतो निपुणधीमिः। सन्निन्दाऽऽदेश्च तथा, ज्ञायत एतन्नियोगेन / / 6 / / गुरून दोषान् प्रवचनोपघातकारिण आरब्धं शीलमस्येति गुरुदोषाऽऽरम्भी, तद्भावस्तया। लधुषु सूक्ष्मेषु दोषेष्वकरणयत्नः परिहाराऽऽदरस्तस्माच निपुणधीभिः कुशलबुद्धिभिस्तथा सतां सत्पुरुषाणां साधुश्रावकप्रभृतीनां निन्दाऽऽदिनिन्दागर्हाप्रद्वेषाऽऽदिस्तस्माच ज्ञायत एतदपरिशुद्धानुष्ठानं, नियोगेनाऽऽवश्यतया, यो हि गुरुदोषाऽऽदिषु प्रवर्त्तते, तस्यान्तः करणशुद्धेरभावादसदनुष्ठानमेतदिति निश्चीयते।।६।। "आगमतत्त्वं तु बुधः परीक्षते (2)" इत्युक्तं किंपुनस्तदित्याहआगमतत्त्वं ज्ञेयं, तदृष्टेष्टाविरुद्धवाक्यतया। उत्सर्गाऽऽदिसमन्वित-मलमैदम्पर्यशुद्धं च / / 10|| आगमतत्त्वं ज्ञेयं भवति, तत्कथम्? ज्ञेयं दृष्टं प्रत्यक्षानुमानप्रमाणे नोपलब्धमिष्टमागमेन स्ववचनै रेवाभ्युपगतं ताभ्यामविरुद्धानि वाक्यानि यस्मिन्नागमतत्त्वे तत् दृष्टेष्टाऽविरुद्धवाक्यं तद्भावस्तया योऽर्यः प्रत्यक्षानुमानाभ्यां परिच्छिद्यते तस्मिन् यथाऽऽगमतत्त्वमप्यविरोधि भवति, तद्विरुद्धस्य ताभ्यामेव निराकरणात्, प्रत्यक्षानुमानविरुद्धस्याऽऽगमस्याप्रमाणत्वात्, स्ववचनैरेवाऽऽगमेनाभ्युपगतेऽर्थे प्रदेशान्तरवर्तिनाऽस्यैवाऽऽगमस्य वचनं यदि विरोधि न भवेदित्यर्थतस्तत आगमतत्त्वमिष्टाविरोधिवाक्यं भवति, परस्पराविरोधि वचनमित्यर्थः, तदेव विशिनष्टि उत्सर्गाऽऽदिसमन्वितमुत्सर्गसामान्यं यथा-"न हिंस्याद् भूतानि" आदिशब्दादपवादो विशेषो ग्लानाऽऽदिप्रयोजनगतस्ताभ्यां युक्तम्। अलमत्यर्थमैदम्पर्यशुद्धं
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________________ धम्म 2666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म च, इदं परं प्रधानमस्मिन्वाक्य इतीदंपरं तद्भाव ऐदर्पयम, वाक्यस्य तात्पर्य शक्तिरित्यर्थस्तेन शुद्धं यदागमतत्त्वं तदिह ज्ञेयमिति / / 10 / / तदेवाऽऽगमतत्त्वमुपन्यस्यति ग्रन्थकार:आत्माऽस्ति स परिणामी, बद्धः सत्कर्मणा विचित्रेण / मुक्तश्च तद्वियोगा-द्धिंसाऽहिंसाऽऽदि तद्धेतुः।।११।। (आत्माऽस्तीत्यादि) आत्मा जीवः, सोऽस्ति लोकायतमतनिरासे - नैव यत्र प्रतिपाद्यते, तदागमतत्त्वमित्येवं पदान्तरेष्वपि सम्बन्धनीयम्। सपरिणामी, स पूर्वप्रस्तुत आत्मा परिणामी परिणामसहितः, पञ्चस्वपि गतिष्वन्वयी चैतन्यस्वरूपः पुरुषः, परिणामलक्षणं चेदम्- 'परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् / न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः / / 1 / / " स च परिमामी जीवो बद्धः सत्कर्मणा विचित्रेण वस्तु सत्कर्म न काल्पनिकं वासनाऽऽदिस्वभावं, तेन बद्धो जीवप्रदेशकमपुद्गलान्योन्यानुगतिपरिणामेन। यथोक्तं बन्धाधिकारे"तत्र पौद्गलमात्मस्थमचेतनमतीन्द्रिवमा बन्धं प्रत्यादि सत्कर्म, संतति प्रत्यनादिकम् // 1 // " (युक्तश्च तद्वियोगात्) कर्मवियोगात्, आत्यन्तिककर्मपरिक्षयात् (हिंसाऽहिंसाऽऽदित तुरिति) हिंसा आदिर्यस्य तद्धिसाऽऽदि, प्राणातिपाताऽऽदिपञ्चकम्। अहिंसा आदिर्यस्थतदहिंसाऽऽदि, महाव्रतपञ्चकम,तयोर्बद्धमुक्तयोरर्थतो बन्धमोक्षयोर्वा हेतुर्वर्त्तते हिंसाऽद्यहिंसाऽऽदि चेति॥११॥ ऐदम्पर्श्वशुद्ध चेत्युक्तम्। का पुनरैदम्पर्य्यशुद्धिरित्याहपरलोकविधौ मानं, वचनं तदतीन्द्रियार्थदृग व्यक्तम्। सर्वमिदमनादिस्या-दैदम्पर्यस्य शुद्धिरिति / / 12 / / परलोकविषयो विधिः कर्त्तव्योपदेशस्तस्मिन्, मानं प्रमाणं, वचनमागमः, कीदृशभित्याह-तद्वचनमतीन्द्रियानर्थान् पश्यतीत्यतीन्द्रियार्थदृक्, सर्वज्ञः सर्वदर्शी, तेन व्यक्तमभिव्यक्तार्थ प्रतिपादितार्थमिति यावत्। सर्वमिदं वचनमनादि स्यात् प्रवाहतः सर्वक्षेत्राङ्गीकरणेनेयमैदम्पर्यस्य शुद्धिरित्येवंप्रकाराऽवसेयेति // 12 // षो०१ विव०॥ अन्यत्राप्यवाचि"तं शब्दमात्रेण वदन्ति धर्म, विश्वेऽपि लोका न विचारयन्ति / स शब्दसास्येऽपि विचित्रभेदैविभिद्यते क्षीरमिवार्जुनीयम् / / 1 / / लक्ष्मी विधातुं सकलां समर्थ, सुदुर्लभ विश्वजनीनमेनम्। परीक्ष्य गृह्णन्ति विचारदक्षाः, सुवर्णबद्धं च न भीतचित्ताः / / 2 / / " इति! परीक्षोपायमेवाऽऽह-- कषाऽऽदिप्ररूपणेति / यथा सुवर्णमात्रसाम्येन तथाविधमुग्धलोकेष्वविचारेणैव शुद्धाशुद्धरूपस्य सुवर्णस्थ प्रवृत्तौ / कषच्छेदतापाः परीक्षणाय विचक्षणैराद्रियन्ते, छथाऽत्रापि श्रुतधर्मे परीक्षणीये कषाऽऽदीना प्ररूपणेति / कषाऽऽदीनेवाऽऽह--"विधिप्रतिषेधौ कष इति।" "विधिरविरुद्धकर्तव्यार्थोपदेशकं वाक्यम्। यथास्वर्गकवलार्थिना तपोध्यानाऽऽदि कर्त्तव्यं,समितिगुप्तिशुद्धा क्रिया / इत्यादि / प्रतिषेधः पुनः- "न हिंस्यात्सर्वभूतानि" "नानृतं वदेत्' इत्यादि / ततो विधिश्च प्रतिषेधश्च विधिप्रतिधौ, किमित्याह- कषः सुवर्णपरीक्षायामिव कषपट्टके रेखा। इदमुक्तं भवति- यन्त्र धर्मे उक्तलक्षणो विधिः, प्रतिषेधश्च पदे पदे सुपुष्कल उपलभ्यते स धर्मः कषशुद्धः / न पुन:-"अन्यधर्मस्थिताः सत्त्वाः, असुरा इव विष्णुना। उच्छेदनीयास्तेषां हि, वधे दोषो न विद्यते / / " इत्यादिकवाक्यगर्भ इति।छेदमाह"तत्संभवपालना चेष्टोक्तिश्छेद इति / तयोर्विधिप्रतिषेधयोरनाविर्भूतयोः संभवः, प्रादुर्भूतयोश्च पालना रक्षारूपा, ततस्तत्संभवपालनार्थ या चेष्टा भिक्षाऽटनाऽऽदिबाह्यक्रियारूपा, तस्या उक्ति छेदः / यथा कषशुद्धावप्यन्तरामशुद्धिमाशकमानाः सौवर्णिकाः सुवर्णगोलिकाऽऽदेः छेदमाद्रियन्ते,तथा कषशुद्धावपि धर्मस्य छेदमपेक्षन्ते / स च छेदो विशुद्धबाह्यचेष्टारूपो, विशुद्धाच चेष्टा सा यत्रासन्तावपि विधिप्रतिषेधावबाधितरूपौ स्वात्मानं लभेते, लब्धाऽऽत्मानौ चातीचारलक्षणापचारविरहितौ, उत्तरोत्तरां वृद्धिभनुभवतः, सायत्रधर्मे चेष्टा सप्रपञ्चा प्रोच्यते स धर्मश्छेदशुद्ध इति / यथा कषच्छेद शुद्धमपि सुवर्ण तापमसहमानं कालिकोन्मीलनदोषान्न सुवर्णभावमश्नुते, एवं धर्मोऽपि सत्यामपि कषच्छेदशुद्धौ तापपरीक्षायामनिर्वहमाणो न स्वभावमासादयत्यतस्तापं प्रज्ञापयन्नाह-'उभयनिबन्धनभाववादस्ताप इति / ' उभयो: कषच्छेदयोरनन्तरमेवोक्तरूपयोर्निबन्धनं परिणामि, किमित्याहतापोऽत्र श्रुतधर्मपरीक्षाऽधिकारे / इदमुक्तं भवतियत्र शास्त्र द्रव्यरूपतयाऽप्रच्युतानुत्पन्नः पर्यायात्मकतया च प्रतिक्षणमपरापरस्वभावाऽऽस्कन्दनेनानित्यस्वभावो जीवाऽऽदिरवस्थाप्यते स्यात्तत्र तापशुद्धिः / यतः परिणामिन्येवाऽऽत्मादौ तथाविधाशुद्धपर्यायनिरोधेन ध्यानाध्ययनाऽऽद्यपरशुद्धपर्याय-प्रादुर्भावादुक्तलक्षणः कषो बाह्यचेष्टाशुद्धिलक्षणश्च छेद उपपद्यते, न पुनरन्यथेति / एतेषां माध्यात्को बलीयानितरो वेति प्रश्ने यत्कर्त्तव्यं तदाह-"अमीषामन्तरदर्शनमिति।" अमीषा त्रयाणां परीक्षाप्रकाराणां परस्परमन्तरस्य विशेषस्य समर्थासमर्थरूपस्य दर्शनं कार्यमुपदेशकेन, तदेव दर्शयति- "कषच्छेदयोरयत्न इति / कषच्छेदयोः परीक्षाक्षमत्वेनाऽऽदरणीयतायामयत्नो ऽतात्पर्य मतिमतामिति / कुत इत्याह- "तदभावेऽपि तापाभावेऽभाव इति / तयोः कषच्छेदयोर्भावः सत्ता तद्भावस्तस्मिन्, किं पुनरतद्भावे इत्यपिशब्दार्थः / किमित्याह-'तापाभावे' उक्तलक्षणतापविरहे अभावः परमार्थतोऽसत्त्व परीक्षणीयस्य, न हि तापे विघटमानं हेम कषच्छेदयोः सतोरपि स्वं स्वरूप प्रतिपत्तुमल, जातिसुवर्णत्वात्तस्य / एतदपि कथमित्याह- "तच्छुद्धौ हि तत्साफल्यमिति / " तच्छुद्धौ तापशुद्धौ, हिर्यस्मात्तत्साफल्यं तयोः कपच्छेदयोः सफलभावः। तथाहि-ध्यानाध्ययनाऽऽदिकोऽर्थो विधीयमानः प्रागुपात्तकर्मनिर्जरणफलः हिंसाऽऽदिकश्च प्रतिषिद्ध्यमानो नवकर्मोपादाननिरोधफलः, बाह्यचेष्टाशुद्धिश्वानयोरेवानाविभूतयोोगेनाऽऽविर्भूतयोश्च परिपालनेन फलवती स्यात्, न चापरिणाणि आत्मन्युक्तलक्षणी कषच्छेदौ स्वकार्य कर्तुप्रभविष्णू स्याततत्, तयोस्तापशुद्धावेव सफलत्वमुपपद्यते न पुनरन्यथेति। ननुफलविकलावपि तौ भविष्यत इत्यत आह"फलवन्तौ च वास्तवाविति।" उक्तलक्षणफलभाजौसन्तौपुनस्तौकपच्छेदी वास्तवौ कषच्छेदौ भवतः, स्वसाध्यक्रियाकारिणो हि वस्तुनो वस्तुत्वमुशन्ति सन्तः, विपक्षे बाधामाह- "अन्यथा याचितकमण्डनमिति / "
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________________ धम्म 2697 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म अन्यथा फलविकलौ सन्तौ वस्तुपरीक्षाधिकारे समवतारितावपि तौ याचितकमण्डनम्, द्विविधं ह्यलङ्कारफलं, निर्वाह सति परिशुद्धाभिमानिकसुखजनिका स्वशरीरशोभा, कथञ्चिन्निर्वहणाभावेच तेनैव निर्वाहः, न च याचितकमण्डने एतद्वितीयमप्यस्ति, परकीयत्वात्तस्य, ततो याचितकमण्डनमिव याचितकमण्डनम्। इदमुक्तं भवति-द्रव्यपर्यायोभयस्वभावे जीवे कषच्छेदौ निरुपचरिततयोपस्थाप्यमानौ स्वफलं प्रत्यबन्ध्यसामाविव स्याता, नित्याऽऽद्येकान्तवादेतु स्ववादशोभार्थ तद्वादिभिः कल्प्यमानावप्येतो याचितकमण्डनाऽऽकारौ प्रतिभासेते, न पुनः स्वकार्यकराविति। ध०१ अधिo (27) कषाऽऽदिस्वरूपमाहपाणावहाइआणं, पावट्ठाणाण जो उ पडिसेहो। झाणज्झयणाऽऽईणं, जो अविही एस धम्मकसो।।२१।। प्राणवधाऽऽदीनां पापस्थानानां सकललोकसम्मतानां यस्तु प्रतिषेधः शाखे, ध्यानाध्ययनाऽऽदीनां यश्च विधिस्तत्रैव, एष धर्मकषो वर्त्तत इति गाथाऽर्थः / / 21 / / वज्झाणुट्ठाणेणं, जेण न बहिजई तयं नियमा। संभवइ अपरिसुद्धं, सो उण धम्मम्मि छेउ त्ति / / 22 / / बाह्यानुष्ठानेन इतिकर्त्तव्यतारूपेण येन न बाध्यते तद्विधिप्रतिषेधद्वयं नियमात संभवति चैतत्परिशुद्धं निरतिचारं, स पुनस्तादृशः प्रक्रमादुपदेशोऽर्थो बाह्यधर्माच्छेद इति गाथाऽर्थः / जीवाऽऽइभाववाओ, बंधाइपसाहगो इह तावो। एएहिँ सुपरिसुद्धो, धम्मो धम्मत्तणमुवेइ // 23 // जीवाऽऽदिभाववादः पदार्थवादः बन्धाऽऽदिप्रसाधको बन्धमोक्षाऽऽदिगुण इह ताप उच्यते / एभिः कषाऽऽदिभिः सुपरिशुद्धः स धर्मः श्रुतानुष्ठानरूपः धर्मत्वमुपैति, सम्यग् भवतीति गाथार्थः // 23 // एएहिँ जो न सुद्धो, अन्नयरम्मि उ ण सुलु निग्घडिओ। सो तारिसओ धम्मो, नियमेण फले विसंवयइ // 24 // एभिः कथाऽऽदिभिर्यो न शुद्धस्विभिरपि अन्यतरस्मिन् वा कथाऽऽदौ न सुष्ठ निर्घटितः, नव्यक्तइत्यर्थः / स तादृशोधर्म श्रुताऽऽदिर्नियमादवश्यतया फले स्वसाध्ये विसंवदति, नतत्साधयतीति गाथार्थः। पं०व०४ द्वार। णाणागमो मच्युमुहस्स अत्थि, इच्छापणीता वंकाऽऽणिकेया। कालगहिता णिचए णिविट्ठा, पुढो पुढो जाई पकप्पयंति / / 131 / / इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवति अहोववाइए फासे पडिसंवेदयंति, चिटुं कूरेहिं कम्मेहिं चिट्ठ परिचिट्ठति, अचिट्ठ कूरेहिं कम्मेहिं णो चिट्ठ परिचिट्ठति, एगे वदंति अदुवा विणाणी गाणी वयंति, अदुवा वि एगे॥१३॥ आवंती केयावंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति, से दिहें चणे सुयं च णे मयं च णे विण्णायं च णे उड्ढ अहं तिरियं दिसासु सवओ सुप्पडिलेहियं चणे सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा अञ्जावे यव्वा परियावेयव्वा किलामेयटवा, परिघेतवा, उद्दवेयव्वा, एत्थं पिजाणह णस्थित्थदोसो, अणारियवयणमेयं, तत्थ जे आरिया ते एवं बयासी-से दुद्दिटुं च भे दुस्सुयं च मे दुम्मयं च भे दुट्विण्णायं च भे उद्धं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहियं च भे, जंणं तुन्भे एवमाइक्खह एवं भासह एवं पण्णवेह एवं परूवेह सव्वे पाणा सव्वे भूया सवे जीवा सव्वे सत्ता हतवा, अज्जावेयव्वा, परितावेयटवा, किलामेयव्वा परिघेतव्वा, उद्दवेतव्वा, एत्थं पि जाणह णत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं, वयं पुण एवमाइ-क्खामो एवं भासामो एवं परूवेमो एवं पण्णवेमो सव्वे पाणा सध्वे भूया सवे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अजावेयटवा, ण परिधे-तव्वा, ण किलामेयव्वा, ण परितावेयव्वा,ण उद्दवेयव्वा, एत्थं विजाणह णत्थित्थ दोसो, आरियवयणमेयं, पुथ्वं णिकायसमयं पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्सामिहं भो पवाइया ! किं भे सायं दुक्खं, उयाहु असायं,समिया पडिवण्णे याविएवं बूयासव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिणिव्वाणं महन्मयं दुक्खं ति वेमि / / 133 // (णाणागमा इत्यादि) न नागमो मृत्योर्मुखस्य कस्यचिदपि संसारोदरवर्तिनोऽस्तीति। उक्तं च"वदत यदीह कश्चिदनुसन्तत-सुखपरिभोगलालितः। प्रयत्नशतपरोऽपि विगतव्यथ--मायुरवाप्तवान्नरः / / 1 / / न खलु नरः सुरौघसिद्धा-सुरकिन्नरनायकोऽपि यः। सोऽपि कृतान्तदन्तकुलि-शाऽऽक्रमेण कृशितो न नश्यति / / 2 / / " तथोपायोऽपि मृत्युमुखप्रतिषेधस्य न कश्चिदस्तीति। उक्तंच"नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां, चरति गुरुव्रतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातरः। तपति तपांसि खादति मितानि करोति च मन्त्रसाधनं, तदपि कृतान्तदन्तयन्त्रकृकचक्रमणैर्विदार्यते॥१॥" ये पुनर्विषयकषायाऽभिष्वङ्गात् प्रमत्ताधर्म नावबुध्यन्ते, ते किं-भूता भवन्तीत्याह- (इच्छा इत्यादि) इन्द्रियमनोविषयानुकूला प्रवृत्तिरिहेच्छा, तया विषयाऽभिमुखमभिकर्मबन्ध संसाराभिमुखं वा प्रकर्षण नीता इच्छाप्रणीताः, ये चैवंभूतास्ते 'वंकाऽऽनिकेता' वङ्कस्यासंयमस्य आमर्यादया संयमावधिभूतया निकेतभूता आश्रया वाऽऽनिकेताः, यको वा निकेतो येषां ते वड्कानिकेताः, पूर्वपदस्य दीर्घत्वम्। ये चैवंभूतास्ते कालगृहीताः कालेन मृत्युना गृहीताः कालगृहीताः, पौनःपुन्यमरणभाज इत्यर्थः, धर्मचरणाय वा गृहीतः-अभिसंधितः कालोयैस्ते कालगृहीताः आहिताग्निदर्शनादार्षत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः। तथाहि-पाश्चात्ये वयसि परुत्परारि वा अपत्यपरिणयनोत्तरकालं वा धर्म करिष्याम इत्येवं गृहीतकालाः, ये चैवंभूतास्ते निचये निविष्टा निचये कर्मनिचये तदुपादाने वा सावद्याऽऽरम्भनिचये निविष्टा अध्युपपन्नाः, ये चेच्छाप्रणी
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________________ धम्म 2668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म ता वढानिकेताः कालगृहीता निचये निविष्टास्ते तद्धर्माणः किमपर कुर्वन्तीति दर्शयितुमाह- (पुढो पुढो इत्यादि) पृथक् पृथगकेन्द्रियद्वीन्द्रियाऽऽदिकां जातिभनेकशः प्रकल्पयन्ति प्रकुर्वन्ति / पाठान्तरं वा"एत्थ मोहे पुणो पुणो'' अत्र अस्मिन्निच्छाप्रणीताऽऽदिके हृषीकानुकूले मोहे कर्मरूपे वा मोहे निमग्नाः पुनः पुनस्तत्कुर्वन्ति येन तदप्रच्युतिः स्यात्। तदप्रच्युतौ च किं स्यादित्याह-(इहभेगेसिं इत्यादि) इहास्मिश्चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके एकेषां मिथ्यात्वविरतिप्रमादकषायवता तत्र तत्र नरकतिर्यग्गत्यादिषु यातनास्थानकेषु संस्तवः परिचयो भूयो भूयो गमनाद्भवति। ततः किमित्याह-(अहो-ववाइए इत्यादि) त एवमिच्छया प्रणीतत्वादिन्द्रियवशगास्तद्वशित्वात्तदनुकूलमाचरन्तो नरकाऽऽदियातनास्थानजातसंस्तवास्तीर्थिका अप्यौद्देशिकाऽऽदिनिर्दोषमाचक्षाणाः। (अहोववाइए त्ति) अध औपपातिकान्नरकाऽसदिभवान् स्पर्शान् दुःखानुभवान् प्रतिसंवेदयन्ति अनुभवन्ति / तथाहि-लौकायतिका बुवते- "पिव खाद च चारुलोचने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्नते। न हि भीरु ! गतं निवर्त्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् / / 1 / / " वैशेषिका अपि सावद्ययोगाऽऽरम्भिणः, तथाहि ते भाषन्ते-"अभिषेचनोपवासब्रह्मवर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानमो(प्रो) क्षणदिड्नक्षत्रमन्त्रकालनियमाः" इत्यादि, अन्येऽपि सावद्ययोगानुष्ठायिनोऽनया दिशा वाच्याः, स्यात् किं सर्वोऽपीच्छाप्रणीताऽऽदिवित्तत्र तत्र कृतसंस्तवोऽध औपपातिकान् स्पर्शान् प्रतिसेयदयत्याहोस्वित्कश्चिदेव तद्योग्यकर्मकार्ये वाऽनुभवति? न सर्व इति दर्शयति- (चिट्ठ इत्यादि) 'चिट्ट' भृशमत्यर्थ, क्रूरैर्वधबन्धाऽऽदिभिः कर्मभिः क्रियाभिः (चिट्टमिति) भृशमत्यर्थमेव विरूपां दशां वैतरणीतरणासिपत्रवनपत्रपाताभिघातशाल्मलीवृक्षाऽऽलिङ्गनाऽऽदिजनितामनुभवंस्तमस्तमाऽऽदिस्थानेषु परितिष्ठति, यस्तु नात्यर्थं हिंसाऽऽदिभिः कर्मभिर्वर्तते सोऽत्यन्तवेदनानिचितेष्वपि नरकेषु नोत्पद्यते। स्यात् क एवं वदतीत्यत आह-(एगे वयंतीत्यादि) एके चतुर्दशपूर्वविदादयो वदन्ति ब्रुवते। अथवाऽपि ज्ञानी वदति, ज्ञानं सकलपदार्थाऽऽविर्भावकमस्यास्तीति ज्ञानी, स चैतद् ब्रवीति-यदिव्यज्ञानीकेवली भाषते, श्रुतकेवलिनोऽपि तदेव भाषन्ते, यच श्रुतके वलिनोऽपि भाषन्ते निरावरणज्ञानिनोऽपि तदेव वदन्तीत्येतद्गतप्रत्यागतसूत्रेण दर्शयति-(णाणी इत्यादि) ज्ञानिनः केवलिनो यद्वदन्ति, अथवाऽप्येके श्रुतकेवलिनो यद्वदन्तितद्यथार्थभावित्वादेकमेव, एकेषां सर्वार्थप्रत्यक्षत्वादपरेषांतदुपदेशप्रवृत्तेरिति वक्ष्यमाणेऽप्येकवाक्यतेति। तदाह-(आवंतीत्यादि) यावन्तः, (केआवंती ति) केचन लोके मनुष्यलोके श्रमणाः पाषण्डिका ब्राह्मणा द्विजाऽऽदयः पृथक् पृथग् विरुद्धो वादो विवादस्तंवदन्ति। एतदुक्तं भवति-यावन्तः केचन परलोक ज्ञीप्सवस्ते आत्मीयदर्शनानुरागितया पाराक्यं दर्शनमपवदन्तो विवदन्ते / तथाहि भागवता ब्रुवते- 'पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानान्मोक्षः, सर्वव्याप्यात्मा निष्क्रियो निर्गुणश्चैतन्यलक्षणो, निर्विशेष सामान्य तत्त्वमिति / " वैशेषिकास्तु भाषन्ते-द्रव्याऽऽदिषट्पदार्थपरिज्ञानान्मोक्षः, समवायिज्ञानगुणेनेच्छाप्रयत्नद्वेषाऽऽदिभिश्च गुणैर्गुणवानात्मा, परस्परनिरपेक्षं सामान्यविशेषाऽऽत्मकं तत्त्वमिति / " शाक्यास्तु वदन्ति- "यथा-परलोकानुयाय्यात्मैव न विद्यते, निः-सामान्य वस्तु | क्षणिकं चेति" मीमांसकास्तु मोक्षसर्वज्ञाभावेन व्यवस्थिता इति। तया केषाञ्चित् पृथिव्यादय एकेन्द्रिया जीवा न भवन्त्यपरे वनस्पतीनामप्यचेतनतामाहुः, तथा द्वीन्द्रियाऽऽदीनामपि कृम्यादीनां न जन्तुस्वभावं प्रतिपद्यन्ते, सद्भावे वा न तदधे बन्धोऽल्पबन्धता येति / तथाहिंसायामपि भिन्नवाक्यता / तदुक्तम्- "प्राणी प्राणिज्ञानं, घातकचित्त च तद्गता चेष्टा। प्राणैश्च विप्रयोगः, पञ्चभिरापद्यते हिंसा / / 1 / / " इत्येवमादिक औद्देशिकपरिभोगाभ्यनुज्ञाऽऽदिकश्च विरुद्धो वादः स्वत एवाभ्यूह्यः / यदिवा-ब्रह्मणाः श्रमणाधर्मविरुद्धं वादं यद्वदन्तितत् सूत्रेणैव दर्शयति- "से दिटुं च णं" इत्यादि यावत्- "णत्थिऽत्थ दोसे त्ति।" 'से त्ति तच्छन्दाथै, यदहं वक्ष्ये तद्दृष्टमुपलब्धं, दिव्यज्ञानेनास्माभिरस्माकं वा संबन्धिना तीर्थकृता आगमप्रणायकेन, चशब्द उत्तरापेक्षया समुचयार्थः, श्रुतं चास्माभिर्गुदिः सकाशात, अस्मद्गुरुः शिष्यैर्वा तदन्तेवासिभिर्वाऽभिमतंयुक्तियुक्तत्वादस्माकमस्मत्तीर्थकराणां वा विज्ञान च तत्त्वभेदपर्यायैरस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण वा स्वतो न परोपदेशदानेन। एतचोर्द्धोधस्तिर्यक्षु दशस्वपि दिक्षुसर्वतः सर्वैः प्रत्यक्षानुमानोपमानाऽऽगमार्थापत्त्यादिभिः प्रकारैः सुष्टु प्रत्युपेक्षितं च पर्यालोचितं च, मनःप्रणिधानाऽऽदिनाऽस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण वा / किं तदित्याहसर्वे प्राणाः सर्वे जीवाः सर्वे भूताः सर्वे सत्त्वा हन्तव्या आज्ञापयितव्याःक्लामयितव्याः परिगृहीतव्याः परितापयितव्या अपद्रावयितव्याः (पुस्तके मूलटीकयोः पाठव्यत्यास उपलभ्यते / ) / अत्रापि धर्मचिन्तायामप्येवं जानीथाः, यथा-नास्त्यत्र यागार्थ देवतोपयाचितकतया वा प्राणिहननाऽऽदौ 'दोषः पापानुबन्ध इति / एवं यावन्तः केचन पाषण्डिका औद्देशिकभोजिनो ब्राह्मणा वा धर्मविरुद्ध परलोकविरुद्ध वा वादं भाषन्ते। अयं च जीवोपमर्दकत्वात् पापानुबन्धी अनार्यप्रणीत इति / आह च(अणारिय इत्यादि) आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यास्तद्विपर्यासादनार्याः क्रूरकर्माणस्तेषां प्राण्युपघातकारीदं वचनम्।ये तु तथा-भूतान ते किभूतं प्रज्ञापयन्तीत्याह-(तत्थ इत्यादि) तत्रेति वाक्योपन्यासार्थे, निर्धारणे वा। ये ते आर्या देशभाषाचारित्रार्यास्तएवमवादिषुर्यथायत्तदनन्तरोक्तं दुर्दृष्टमेतद् दुष्ट दृष्ट दुर्दुष्ट (भे )युष्माभिर्युष्मत्तीर्थकरेण वा, एवं यावद्दुःप्रत्युपेक्षितमिति। तदेवं दुर्दृष्टाऽऽदिकं प्रतिपाद्यदुःप्रज्ञापनानुवादद्वारेण तदभ्युपगमे दोषाऽऽविष्करणमाह- (जंणमित्यादि) णमिति वाक्यालङ्कारे। यदेतद्वक्ष्यमाणं यूयमेवमाचक्षध्वमित्यादि। यावदत्रापि यागोपहाराऽऽदौ जानीथ यूयम्-यथा नास्त्येवात्र प्राण्युपमर्दानुष्ठाते दोषः पापानुबन्ध इति, तदेवं परवाद दोषाऽऽविर्भावनेन धर्मविरुद्धतामाविर्भाव्य स्वमतवादमार्या आविर्भावयन्ति, (क्यमित्यादि) पुनःशब्दः पूर्वस्माद्विशेषमाह- वयं पुनर्यथा धर्मविरुद्धवादो न भवति तथा प्रज्ञापयाम इति, तान्येव पदानि सप्रतिषेधानि तु हन्तय्यादीनि यावन्न केवलमत्रास्मदीये वचने नास्ति दोषोऽत्राप्यधिकारे जानीथ यूयं यथाऽत्र हननाऽऽदिप्रतिषेधविधौ नास्ति दोषः पापानुबन्धः, सावधारणत्वाद्वाक्यस्य नास्त्येव दोषः, प्राण्युपघात-प्रतिषेधाचार्यवचनमेतत्। एवमुक्ते सति ते पाषण्डिका ऊचुः- भवदीयमार्यवचनमस्मदीयं त्वनार्यमित्येतन्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, युक्तिविकलत्वात्, तदत्राऽऽचार्यों यथा परमतस्यानार्यता स्यात्तथा दिदर्शयिषुः स्ववाग्यन्त्रिता वादिनो न विचलयिष्यन्तीति कृत्वा प्रत्येकमतप्रच्छना--
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________________ धम्म 2666 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म र्थमाह- (पुत्वमित्यादि) पूर्वमादावेव समवम्- आगमं यद्यदीयाऽऽगमेऽभिहितं तन्निकाच्य व्यवस्थाप्य पुनस्तद्विरूपाऽऽपादनेन परमतानार्यता प्रतिपाद्येत्यतस्तदेव परमतं प्रश्नयति, यदि वा पूर्व प्राश्निकान्निकाध्य ततः पाषण्डिकान् प्रश्नयितुमाह-(पत्तेयमित्यादि) एकमेकं प्रति प्रत्येकं, भो प्रावादुकाः ! भवतः प्रश्नयिष्यामिः, किं (भे) युष्माकं सातं मन आह्लादकारि, दुःखमसातं मनःप्रतिकूलम्? एवं पृष्टाःसन्तो यदि सातमित्येवं ब्रूयुस्ततः प्रत्यक्षाऽऽगमलोकबाधा स्यात्, अथासातमित्येवं ब्युस्ततः 'समिया' सम्यक् प्रतिपन्नाँस्तान् प्रावादुकान स्ववाग्यन्त्रितानप्येवं ब्रूयात्, अपिः संभावने, संभाव्यत एतगणनं यथा न केवलं भवतां दुःखमसात, सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमसातं. मनसोऽनभिप्रेतमपरिनिवार्णमनिर्वृत्तिरूपमहद्य दुःखमित्येतत् परिगणय्य सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्तव्या इत्यादि वाच्यं, तद्हनने च दोषः / यस्त्वदोषमाह तदनार्यवचनम् / इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् / तदेवं प्रावादुकानां स्ववाग्नियन्त्रणयाऽनार्यता प्रतिपादिता, अत्रैव रोहगुप्त - मन्त्रिणा विदिताऽऽगमसद्भावेन माध्यस्थ्यमवलम्बमानने तीर्थिकपरीक्षाद्वारेण यथा निराकरणं चक्रे तथा नियुक्तिकारो गाथाभिराचष्टेखुडुगपायसमासं, धम्मकह पि य अजंपमाणेण / छण्णेण अण्णलिंगी, परिच्छिया रोहगुत्तेणं // 227 / / अनया गाथया संक्षेपतः सर्व कथानकमावेदितम्-क्षुल्लकस्य पादसमासो गाथापादसंक्षेपस्तमजल्पता धर्मकथा च छन्नेनाप्रकटेनान्यलिगिनः प्रावादुकाः परीक्षिता निरूपिता रोहगुप्तेन रोहगुप्तनाम्ना मन्त्रिणेति गाथासमासार्थः / भावार्थस्तु कथानकादवसेयः। तचेदम्चम्पायां नगयां सिंहसेनस्य राज्ञो रोहगुप्तो नाम महामन्त्री, स चाऽऽर्हद्दर्शनभावितान्तः करणो विज्ञातसदसद्वादः, तत्र च कदाचिद्राजाऽऽस्थानस्थो धर्मविचारं प्रस्तावयति स्म, तत्र यो यस्याभिमतः स तं शोभनमुवाच, सच तूष्णींभावं भजमानो राज्ञोक्तः- धर्म-विचारं प्रति किमपि न ब्रूते भवान्? स त्वाह किमेभिः पक्षपातवचोभिर्विमामः, स्वत एव धर्म परीक्षामहे तीर्थकानित्यभिधाय राजानुमत्या "सकुंडलं वा वदनं न व त्ति।" अयं गाथापादो नगरमध्ये आललम्बे, संपूर्णा तु गाथा भाण्डागारिता,न गा चोघुष्टम्-यथा य एवं गाथापाद पूरयिष्यति, तस्य राजा यथेप्सितं दानं दास्यति, तद्भक्तश्च भविष्यतीति / तं च गाथापादं सर्वेऽपि गृहीत्वा प्रावादुका निर्जग्मुः, पुनः सप्तमंऽसि राजानमास्थानस्थमुपस्थितास्तत्राऽऽदावेव परिवाड्ब्रतीतिभिक्खं परिटेण मएऽज दिटुं, पमदाणुहं कमलविलासनेत्तं / वक्खित्तचित्तेण न सुठु नायं, सकुंडलं वा वयणं न व त्ति // 228|| सुगमा, नवरमपरिज्ञाने व्याक्षेपः कारणमुपन्यस्तं, न पुनवर्वीतरागतेति पूर्वगाथाविसंवादादसौ तिरस्कृत्य निर्धाटितः। पुनस्तापसः पठतिफलोदएणम्मि गिहं पविट्ठो, . तत्थाऽऽसणत्था पमदा में दिट्ठा। वक्खित्तचित्तेण ण सुठु नायं सकुंडलंवा वयणं न व त्ति / / 22 / / "फलोदएणं" इत्यादि सुगम पूर्ववत्। तदनन्तरं शौद्धोदनिशिष्यकः प्राऽऽहमालाविहारम्मि मएऽज्ज दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न सुतु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति // 230|| पूर्ववत्, एवमनया दिशा सर्वेऽपि तीर्थका वाच्याः। आर्हतस्तु पुनर्न कश्चिदागत इति राज्ञाऽभाणि, मन्त्रिणा त्वाहतक्षुल्लकोऽप्येवंभूतपरिणाम इत्येवं संप्रत्यय एषां स्यादित्यतो भिक्षार्थ प्रविष्टः प्रत्यूषस्येव क्षुल्लकः समानीतः, तेनापि गाथापादं गृहीत्वा गाथां बभाषे। तद्यथाखंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स। किं मज्झ एएण विचिंतिएणं, सकुंडलं वा वयणं न व त्ति // 231 / / सुगमा। अत्र च क्षान्त्यादिकमपरिज्ञाने कारणमुपन्यस्तं, न पुनव्यीक्षेप इत्यतो गाथासंवादात् क्षान्तिदमजितेन्द्रियत्वाध्यात्मयोगाधिगतेश्व कारणाद्राज्ञो धर्म प्रति भावोल्लासोऽभूत, क्षुल्लकेन च धर्मप्रश्नोत्तरकालं पूर्वगृहीतशुष्केतरकईमगोलकद्वयं मित्तौ निक्षिप्य गमनमारेभे, पुनर्गच्छन राज्ञोक्तम्-किमिति भवान् धर्म पृष्टोऽपि न कथयति? स चावोचत्-हे मुग्ध ! ननु कथित एव धर्मो भवतः शुष्केतरगोलकद्रष्टान्तेन। एतदेव गाथाद्वयेनाऽऽहउल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवाडिया कुड्डे, जो उल्लो सोऽय लग्गई // 232 // एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा। विरत्ता उन लग्गति, जहा से सुक्कगोलए॥२३३|| (एवं लग्गति) अयमत्र भावार्थ:-ये ह्यङ्गप्रत्यङ्ग निरीक्षणव्यासङ्गात् कामिनीनां मुखं न पश्यन्ति, तदभावे तु पश्यन्ति, ते कामगृध्नुतया सार्दाः, सार्द्रत्वाच संसारपङ्के कर्मकर्दमेवालगन्ति, येतुपुनः क्षान्त्यादिगुणोपेताः संसारसुखपराड्मुखाः काष्ठमुनयः ते शुष्कगोलकसन्निभा न क्वचिल्लगन्तीति गाथाद्वयार्थः। आचा०१ श्रु०४ अ०२उ०। तथा चबहुजणणमणम्मि संवुडो, सव्वदे॒हिं णरे अणिस्सिए। दह एव सया अणाविले, धम्मं पादुरकासि कासवं // 7 // (बहुजणनमणम्मीत्यादि) बहून जनान् आत्मानं प्रति नामयति प्रोकरोति, तैर्वा नम्यते स्तूयते बहुजननमनो धर्मः।
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________________ धम्म 2700 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म स एव बहुभिर्जनैरात्मीयाऽऽत्मीयाऽऽशयेन यथाऽभ्युपगमप्रशंसया स्तूयते प्रशस्यते। कथम्? अत्र कथानकम्-"राजगृहे नगरे श्रेणिको महाराजः, कदाचिदसौ चतुर्विधबुद्ध्युपेतेन पुत्रेण अभयकुमारेण सार्धमास्थानस्थितस्ताभिस्ताभिः कथाभिरा-साशके, तर कदाचि-देवं भूता कथाऽभूत, तद्यथा-इहलोके धार्मिका बहवः, उताऽधार्मिका इति? तत्र समस्तपर्षदाऽभिहितम्-यथाऽत्राऽधार्मिका बहवो लोकाः धर्म तु शतानामपि मध्ये कश्चिदेवैको विधत्ते, कदाकाऽभयकुमारेणोक्तम् यथा प्रायशो लोकाः सर्व एव धार्मिकाः,यदिन निश्चयो भवता, परीक्षा क्रियते / पर्षदाऽप्यभिहितम्- एवमस्तु / ततोऽभयकुमारेण धवलेतरं प्रासादद्वयं कारितं, घोषितं च डिण्डिमेन नगरे, यथा यः कश्चिदिह धार्मिकः स सर्वोऽपि धवलप्रासादं गृहीतवलिः प्रविशतु, इतरस्त्वितरमिति / ततोऽसौ लोकः सर्वोऽपि धवलप्रासादमेव प्रविष्टः / निर्गच्छश्य कथं त्वं धार्मिक इत्येवं पृष्टः कश्चिदाचष्टे-यथाऽहं कर्षकोऽनेकशकुनिगणो मद्धान्यकणैरात्मानं प्रीणयति,खलकसमागतधान्यकणभिक्षादानेन च मम धर्म इति। अपरस्त्वाह-यथाऽहं ब्राह्यणःषट्कर्माऽभिरतस्तथा बहुशौचस्नानाऽऽदिभिर्वेदविहितानुष्ठानेन पितृदेवाँस्तर्पयामि। अन्यः कथयति-यथा वणिक्कुलोपजीवी भिक्षादानाऽऽदिप्रवृत्तः / अपरस्त्विदमाह-यथाऽहं कुलपुत्रको न्यायाऽऽगतं निर्गतिक कुटुम्यं पालयाम्येव। तावत् श्वपाकोऽपीदमाहन्यथाऽहं कुलक्रमाऽऽगतं धर्ममनुपालयामीति, मदाश्रिताश्च बहवः पिशितभुजः प्राणान् धारयन्तीत्येवं सर्वोऽप्यात्मीयमात्मीयं व्यापारमुद्दिश्य धर्मे नियोजयति / तत्राऽपरमसितप्रासादं श्रावकद्वयेन प्रविष्ट, तब किमधर्माऽऽचरणं भवद्भ्यामकारीत्येवं पृष्ट सकृन्मद्यनिवृत्तिभङ्गव्यलीकमकथयत्। यथा--साधव एवाऽत्र परमार्थतो धार्मिका यथा गृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहणसमर्थाः / अस्माभिस्तु"अवाप्य मानुष जन्म, लब्ध्वा जैनं च शासनम्। कृत्वा निवृत्तिं मद्यस्य, सम्यक् साऽपि न पालिता / / 1 / / अनेन व्रतभङ्गेन, मन्यमाना अधार्मिकम्।। अधमाधममात्मानं, कृष्णप्रासादमाश्रिताः / / 2 / / " तथाहि"लजा गुणौघजननी जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः।। तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् // 3 // वरं प्रवेष्टुं ज्वलित हुताशनं, न वापि भग्रं चिरसंचितव्रतम्। वरं हि मृत्युः सुविशुद्धचेतसो. न वाऽपि शीलस्खलितस्य जीवितम् // 4 // " तदेव सर्वोऽप्यात्मानंधार्मिकं मन्यत इति कृतवा "बहुजननमनोधर्मः" इति स्थितम्। तस्मिश्च संवृतः समाहितः सन् नरः पुमान् सर्वार्थर्बाह्याभ्यन्तरैर्धनधान्यकलत्रममत्वाऽऽदिभिरनिश्रितोऽप्रतिबद्धः सन् धर्म प्रकाशितवानित्युत्तरेण सह संबन्धः / निदर्शनमाह-हृद इव स्वच्छाम्भसा भृतः सदाऽनाविलोऽनेकमत्स्याऽऽदिजलचरसंक्रमेणाऽप्यनाकुलोऽ क लुषो वा क्षान्त्यादिलक्षणं धर्म प्रादुरकार्षीत् प्रकट कृतवान् / यदि वा एवंविशिष्ट एव काश्यपंतीर्थकरसंबन्धिनं धर्म प्रकाशयेत्, छान्दसत्वात् 'वर्तमाने भूतनिर्देश इति' |7|| स बहुजननमने धर्मे व्यवस्थितो यादृग धर्म प्रकाशयति तद्दर्शयितुमाह। यदि वोपदेशान्तरमेवाऽधिकृत्याऽऽहबहवे पाणा पुढो सिया, पत्तेयं समतं उवेहिया। जे मोणपदं उवद्विते, विरतिं तत्थ अकासि पंडिए॥८॥ (बहये इत्यादि) बहवोऽनन्ताः, प्राणा दशविधप्राणभोक्तृत्वात्तदभेदोपचारात् प्राणिनः, पृथगिति पृथिव्यादिभेदेव' सूक्ष्मबादरपर्यासकापर्याप्तकनरकगत्यादिभेदेन वा संसारमाश्रितास्तेषां च पृथगाश्रितानामपि प्रत्येकं समतां दुःखद्वेषित्वं सुखप्रियं च समीक्ष्य दृष्टा, यदिवा-समतां माध्यस्थ्यमुपेक्ष्य यो मौनीन्द्रपदमुपस्थितः संयमाऽऽश्रितः स साधुस्तत्राऽनेकभेदभिन्नप्राणिगणे दुःखद्वेषिसुखाभिलाषिणि सति तदुपघाते कर्तव्ये विरतिमकार्षीत् कुर्याद्वति, पापाद्धीनः पापानुष्ठानात् दवीयान् पण्डित इति / / 8|| सूत्र०१ श्रु०२ अ०२० (28) सूत्रकृताङ्गस्य श्रुतस्कन्धीयनवमाध्ययनोक्तः साधूनामाचरणीयानाचरणीयो धर्मो यथाकयरे धम्मे अक्खाए, माहणेण मतीमता। अंजु धम्म जहातचं, जिणाणं *तं सुणेह मे / / 1 / / (कयरे इत्यादि) जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमुद्दिश्येदमाह / तद्यथाकतरः किंभूतो दुर्गतिगमनलक्षणो धर्म आख्यातः प्रतिपादितः (माहणेणं ति) मा जम्बून व्यापादयेत्येवं विनेयेषु वाक् प्रवृत्तिर्यस्याऽसौ माहनो भगवान वीरवर्धमानस्वामी तेन, तमेव विशिनष्टि-मनु-तेऽवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयोपेतं यया सा केवलज्ञानाऽऽख्या मतिः, सा अस्याऽस्तीति मतिमान, तेनोत्पन्नकेवलज्ञानेन भगवतेति प्रष्टे सुधर्मस्याम्याहरागद्वेषजितो जिनास्तेषां संबन्धिनं धर्मम् / (अंजु-मिति) अर्जु मायाप्रपञ्चरहितत्वादवक्रं, तथा- (जहातचमिति) यथावस्थितं मम कथयतः शृणुत यूयं, न तु यथाऽन्यैस्तीर्थिकर्दम्भ-प्रधानो धर्मोऽभिहितस्तथा भगवताऽपीति / पाठान्तरं वा-(* जणगा* तं सुणेह मे) जायन्त इति जना लोकास्तएव जनकास्तेषामामन्त्रणम्-हे जनकाः! त धर्म शृणुत यूयमिति / / 1 / / अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः सूक्तो भवतीत्यतो यथोद्दि ष्टप्रतिपक्षभूतोऽधर्मस्तदाश्रितांस्तावद्दर्शयितुमाहमाहणा खत्तिया वेस्सा, चंडाला अदु वोक्सा। एसिया वेसिया सुद्दा, जे य आरंभणिस्सिया / / 2 / / (माहणेत्यादि) ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्तथा चाण्डालाः, अथ वोकरसा अवान्तरजातीयाः / तद्यथा ब्राह्मणेन शूद्रयां जातो निषादो, ब्राह्मणेनैव वैश्यायां जातोऽम्बष्ठः, तथा निषादेनाम्बष्ट्या जातो वोक्कसः, तथा एषितुं शीलमित्येषिका मृगलुब्धिका हस्तितापसाश्च मांसहेतोर्मुगान् हस्तिनश्च एष्यन्ति, तथा कन्दमूलफलाऽऽदिकं च / तथा ये चाऽन्ये पाषण्डिका नानाविधैरुपायैर्भक्ष्यमेष्यन्त्यन्यानि वा विषयसाधनानि, ते सर्वेऽप्येषिका इत्युच्यन्ते। तथा वैशिका वणिजो मायाप्रधानाः कलोपजीविनः,तथा शूद्राः कृषीबलाऽऽदयः। आभीर-जातीयाःकियन्तो वा वक्ष्यन्त इति दर्शयति। ये चाऽन्ये वर्णा-पसदा नानारूपसावद्याऽऽरम्भनिश्रितायन्त्रपीडननिलाञ्छन
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________________ धम्म 2701 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म कर्माङ्गारदाहाऽऽदिभिः क्रियाविशेषैर्जीवोपमर्दकारिणस्तेषां सर्वेषामेव जीवापकारिणां वैरमेव प्रवर्धत इत्युत्तर श्लोके क्रियेति / / 2 / / परिग्गहनिविट्ठाणं, पावं तेसिं पवड्डइ / आरंभसंमिया कामा, न ते दुक्खविमोयगा ||3|| (परिग्गह इत्यादि) परि समन्ताद् गृह्यत इति परिग्रहो द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यसुवर्णाऽऽदिषु मसीकारः, तत्र निविष्टानामध्युपपन्नानां गाय गताना, पापमसातवेदनीयाऽऽदिक, तेषां प्रागुतनामारम्भनिः श्रितानां परिग्रहे निविष्टानां, प्रकर्षेण वर्द्धते वृद्धिमुप्याति जन्मान्तरेष्वपि दुर्मोचं भवति। क्वचित्पाठः 'वेरं तेसिं पवड्डइ ति।' तत्र येन यस्य यथा प्राणिन उपमर्दः क्रियते सतथैव संसारान्तर्वर्ती शतशो दुःखभागभवति, जमदग्निकृतवीर्याऽऽदीनामिव पुत्रपौत्रानुगं वैरं प्रवर्द्धत इति भावः / किमित्यवेम्? यतस्ते कामेषु प्रवृत्ताः कामाश्चाssरम्भैः सम्यग्भृता आरम्भपुष्टा आरम्भाश्च जीवोपमर्दकारिणोऽतो न ते कामसंभृता आरम्भनिःश्रिताः परगृहे निविष्टा दुःखयतीति दुःखमष्टप्रकार कर्म, तद्विमोचका भवन्ति, तस्याऽपनेतारो भवन्तीत्यर्थः / / 3 / / किं चान्यत्आधायकिचमाहेउ, नाइओ विसएसिणो। अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहँ किच्चती // 4 // (आघायमित्यादि) आहन्यन्ते अपनयन्ति विनाश्यन्ते प्राणिनां दशप्रकारा अपि प्राणा यरिमन् स आघातो मरणं, तरम तत्र वा कृतमग्निसंस्कारजलाञ्जलिप्रदानपितृपिण्डाऽऽदिकमाघातकृत्यं तदाधातुमादाय कृत्वा पश्चात् ज्ञातयः स्वजनाः पुत्रकलभ्रातृव्याऽऽदयः। किंभूताः ? विषयानन्वेष्टु शीलं येषां तेऽन्येऽपि विषयैषिणः सन्तस्तस्य दुखार्जितं वित्तं द्रव्यजातमपहरन्ति स्वीकु र्वन्ति / तथा चोक्तम्"ततस्तेनार्जितैर्द्रव्यैदरिश्च परिरक्षितैः 1 क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन् ! हृष्टास्तुष्टा ह्यलङ् कृताः // 1 // " स तु द्रव्यार्जनपरा-यणः सावद्यानुछानकर्मवान् पापी स्वीकृतैः कर्मभिः संसारे कृत्यते छिद्यते, पीड्यत इति यावत् / / 4 / / माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा। नालं ते तव ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा / / 5 / / (माया पिया इत्यादि) माता जननी, पिता जनकः, स्नुषा पुत्रवधूः भ्राता सहोदरः, तथा भार्या कलत्रं, पुत्राश्च औरसाः स्व-निष्पादिताः, एते सर्वेऽपि मात्रादयो, ये चान्ये श्वशुराऽऽदयः, ते तव संसारचक्रवाले स्वकर्मभिर्विलुप्यमानस्य त्राणाय नालं समर्था भवन्तीति / इहाऽपि तावते त्राणाय किमुतामुत्रेति / दृष्टान्तश्चात्र कालसौकरिकसुतः सुलसनामा अभयकुमारस्य सखा। तेन महासत्वेन स्वजनाऽभ्यर्थितनापि न प्राणिष्वपकृतमपि त्वात्मन्येवेति / / 5 / / किं चान्यत्एयमटुं स पेहाए, परमट्ठाणुगामियं / निम्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाऽऽहियं / / 6 / / (एयमद्वमित्यादि) धर्मरहितानां स्वकृतकर्मविलुप्यमानानामै- | हिकाऽऽमुष्मिकयोर्न कश्चित्त्राणायेति, एनं पूर्वोक्तमर्थ स प्रेक्षापूर्वकारी प्रत्युपेक्ष्य विचार्याऽवगम्य च, परमः प्रधानभूतो मोक्षः संयमो वा, तमनुगच्छतीति तच्छीलश्च परमार्थानुगामुकः सम्यग्दर्शनाऽऽदिः,तंच प्रत्युपेक्ष्य, क्त्वाप्रत्यथान्तस्य पूर्वकालवाचितया क्रियान्तरसव्यपेक्षत्वात् / तदाह-निर्गत ममत्वं बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु यस्मादसो निर्ममः। तथा-निर्गतोऽहड्कारोऽभिमानः पूर्व श्वयेजात्यादिमदजनितः, तथा-तपः-स्वाध्यायलोभाऽऽदिजनितो वा यस्मादसौ निरहड्कारो, रागद्वेषरहित इत्यर्थः / स एवंभूतो भिक्षुर्जिनैराहितः प्रतिपादितोऽनुष्ठितो वा यो मार्गो, जिनानां वा संबन्धी योऽभिहितो मार्गस्तं चरेदनुतिष्ठेदिति।।६।। चिया वित्तं च पुत्ते य, णाइओ य परिग्गहं / चिच्चा ण अंतगं सोयं, निरवेक्खो परिव्वए / / 7 / / (चिचा इत्यादि) संसारस्वभावपरिज्ञानपरिकर्मितमतिर्विदितवेद्यः सम्यक त्यक्त्वा परित्यज्य, किं तद्? वित्तं द्रव्यजातं, तथा पुत्रांश्च त्यक्त्या पुढेष्वधिकस्ने हो भवतीति पुत्रग्रहणम् / तथा–ज्ञातीन स्वजनांश्च त्यक्त्वा, तथा-परिग्रहं चाऽऽन्तरं ममरूपत्वं, णकारी वाक्यालकारे। अन्तगच्छतीत्यन्तगो, दुष्परित्यज इत्यर्थः / अन्तको विनाशकारीत्यर्थः / आत्मनि वा गच्छतीत्यात्मगः, आन्तर इत्यर्थः / तं तथाभूतं शोकं त्यक्त्वा परित्यज्य, श्रोतो वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायाऽऽत्मक कर्माऽऽश्रवद्वारभूतं परित्यज्य / पाठान्तरं वा-"चिचा णऽणंतगसोय।" अन्तं गच्छतीत्यन्तग, न अन्तगमनन्तगं, श्रोतः शोकं परित्यज्य निरपेक्षः पुत्रदारधनधान्यहिरण्याऽऽदिकमनपेक्ष्यमाणः सन् मोक्षाय परि समन्तात् संयमानुष्ठाने व्रजेत् परिव्रजेदिति। तथा चोक्तम्"छलिया अवयक्खंता, निरावयक्खा गया अविग्घेणं। तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण होयट्वं // 1 // भोगे अवयक्खंता, पडति संसारसागरे घोरे। भोगेहिं निरवयक्खा , तरंति संसारकतारं / / 2 / / " इति। स एवं प्रजितः सुव्रतावस्थिताऽऽत्माऽहिंसाऽऽदिषु व्रतेषु प्रयतेत / / 7 / / तत्राहिंसाप्रसिध्यर्थमाहदुढवीआउऽगणिवाऊ-तणरुक्खसबीयगा। अंडया पोयजराउ-रससंसेयउब्भिया ||8|| एतेहिं छहिँ काएहिं, तं विजं परिजाणिया। मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही / / 6 / / ''पुढवीआउ'' इत्यादि श्लोकद्वयम् / तत्र पृथिवीकायिकाः सूक्ष्म-- यादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्नाः, तथाऽप्कायिका अग्निकायिका वायुकायिकाश्चैवभूता एव / वनस्पतिकायिकान्लेशतः सभेदा-नाहतृणानि कुशवचकाऽऽदीनि, वृक्षाश्चूताशोकाऽऽदिकाः। सह बीजैवर्तन्त इति सबीजानि, सबीजानि तु शालिगोधूमयवाऽऽदीनि, एते एकेन्द्रियाः पञ्चापिकाया : / षष्ठत्रसकायनिरूपणायाऽऽह-अण्डजाः शकुनिगृहकोकिलकसरीसृपाऽऽदयः। तथा पोता एव पोतजा हस्तिशरभाऽऽदयः / तथा जरायुजा ये जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते गोमनुष्याऽऽदयः / त
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________________ 2702 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म था रसाद् दधिसौवीरकाद् जाता रसजाः, तथा संस्वेदाजाताः संस्वेदजा यूका मत्कुणाऽऽदयः। उद्भिजाः खञ्जरीटकदर्दुराऽऽदय इति। अज्ञातभेदा हि दुःखेन रक्ष्यन्त इत्यतो भेदेनेपन्यास इति ||8|| एभिः पूर्वोक्त : षभिरपि कायैस्वसस्थावररूपैः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्न रम्भी नापि परिग्रही स्यादिति संबन्धः। तदेतद् विद्वान् सश्रुतिको ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया मनोवाक्कायकर्मभिर्जी वोपमर्दकारिणमारम्भं परिग्रह च परिहरेदिति / / 6 / / शेषव्रतान्यधिकृत्याऽऽहमुसावायं वहिडें च, उग्गहं च अजाइयं / सत्था दाणाइँ लोगंसि, तं विजं परिजाणिया / / 10 / / (मुसावायमित्यादि) मृषा असद्भूतो वादो मृषावादः, तं विद्वान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत्, तथा-(अवहिट्ठमिति) मैथुनम्, अवग्रह परिग्रहम, अयाचितमदत्ताऽऽदानम् / यदि वा- "अवहि-ट्ठमिति।" मैथुनग्रहोऽवग्रमयाचितमित्यनेनादत्ताऽऽदानं गृहीतम् / एतानि च मृषावादाऽऽदीनि प्राण्युपतापकारित्वात् शस्त्राणीव शस्त्राणि वर्तन्ते / तथा दीयते गृह्यतेऽष्टप्रकारे कर्माभिरिति कर्मोपादानकारणानि, अस्मिन् लोके तदेतत्सर्वे विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति // 10 // किं चाऽन्यत्पलिउंचणं च भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि य। धूणा दाणाइँ लोगंसि, तं विजं परिजाणिया // 11 // (पलिउंचणमित्यादि) पञ्चमहाव्रतधारणमपि कषायिणो निष्फलं स्यादतस्तत्साफल्याऽऽपादनार्थ कषायनिरोधो विधेय इति दर्शयति। परि समन्तात् कुञ्च्यन्ते वक्रतामापद्यन्तेक्रिया येन मायाऽनुष्ठानेन तत्परिकुञ्चनं मायेति भण्यते / तथा-भज्यते सर्वत्राऽऽत्मा प्रहीक्रियते येन स भजनो लोभस्तम्, तथा यदुदयेन ह्यात्मा सदसद्विवेकविकलत्यात स्थण्डिलवद्भवति, स स्थण्डिलः क्रोधः / यस्मिश्च सत्यूज़ श्रय ति जात्यादिना दर्पाऽऽध्मातः पुरुष उत्तानीभवति स उच्छ्रायो मानः, छान्दसत्वान्नपुंसकलिङ्गता। जात्यादीनामेलत्स्थानानां बहुत्वात् तत्कार्यस्याऽपि मानस्य बहुत्वमतो बहुवचनम्। चकाराः स्वगतभेदसंसूचनार्थाः, समुचयार्था वा / धूनयेति प्रत्येक क्रिया योजनीया / तद्यथा-परिकुञ्चनं मायां धुनय, धूनीहि वा। तथा भजनंलोभं, तथास्थण्डिलं क्रोध, तथा उच्छ्रायं मानं, विचित्रत्वात् सूत्रस्य, क्रमोल्लइननिर्देशो न दोषायेति / यदि वा-रागस्य दुस्त्यजत्वात् लोभस्य च मायापूर्वकत्वादित्यादावेव मायालोभयोरुपन्यास इति / कषायपरित्यागे विधेये पुनरपरं कारणमाह-एतानि परिकुञ्चनाऽऽदीनि अस्मिन् लोके आदानानि वर्तन्ते तदेतद्विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत // 11 // पुनरप्युत्तरगुणानधिकृत्याऽऽहधोयणं रंयणं चेव, वत्थीकम्मं विरेयणं / वमणंऽजणपलीमंथं, तं विजं परिजाणिया / / 12 / / (धोयणमित्यादि) धावनं प्रक्षालनं हस्तपादयोर्वस्त्राऽऽदेरञ्जनमपि, (?) तथा-विरेचनं निरूहाऽऽत्मकमधोविरेको वा।। वमनमूर्ध्वविरेकः / तथा अञ्जन नयनयोरिति / एवमादिकमन्यदपि शरीरसंस्काराऽऽदिकं यत् संयमपरिमन्थकारि संयमोपघातरूपं, तदेतद्विद्वान् स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाय प्रत्याचक्षीत॥१२॥ अपि चगंधमल्लसिणाणं च, दंतपक्खालणं तहा। परिग्गहित्थि-कम्मंच, तं विजं परिजाणिया / / 13 / / (गंधमल्ल इत्यादि) गन्धाः कोष्टपुटाऽऽदयः, माल्यं जात्यादिकम्, स्नानं च शरीरप्रक्षालनं देशतः, सर्वत्रश्च / तथा-दन्तप्रक्षालनं कदम्बकाष्ठाऽऽदिना, परिग्रहः सचित्ताऽऽदेः स्वीकरणम् / तथा-स्त्रियो दिव्यमानुषतैरश्चः। तथा-कर्म हस्तकर्म, सावद्यानुष्ठानं वा / तदेतत्सर्व कर्मोपादानतया संसारकार-णत्वेन परिज्ञाय विद्वान् परित्यजेदिति // 13 // किं चाऽन्यत्उद्देसियं कीयगडं पामिचं चेव आहडं। पूर्य अणेसणिज्जं च, तं विज्जं परिजाणिया // 24 // (उद्देसियमित्यादि) साध्वाधुपदेशेन यहानाय व्यवस्थाप्यते तदुद्देशिकम्। तथा-क्रीत क्रयस्तेन क्रीतं गृहीतं क्रीतं गृहीतं क्रीतक्रीतं, (पामिचं ति) साध्वर्थमन्यत उद्यतकं यद् गृह्यते तत्तदुच्यते, चकारः समुच्चयार्थः, एवकारोऽवधारणार्थः / साध्वर्थ यद् गृहस्थेन नीयते तदाहृतम्। तथा-(पूयमिति) आधाकर्मावयवसंपृक्तं शुद्धमप्याहारजातं भवति। किंबहुनोक्तेन ? यत् केनचिद्दोषेणानेषणीयमशुद्धं तत्सर्वं विद्वान् परिज्ञाय संसारकारणतया निस्पृहः सन प्रत्याचक्षीतेति।।१४।। किं चआसूणिमक्खिरागंच, रसगिद्धूवघायकम्मगं। उच्छोलणं च ककं च,तं विजं परिजाणिया|१५|| (आसूणि इत्यादि) येन घृतपानाऽऽदिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशूनः सन् आ समन्तात् शूनीभवति बलवानुपजायते, तदाशूनीत्युच्यते / यदि वा-(आसूणि त्ति) श्ल घायतः श्लाघया क्रियमाणया आसमन्तात् शूनश्छूनोलघुप्रकृतिः कश्चिद्दाऽऽध्मातत्यात् स्तब्धो भवति। तथा-अक्ष्णां रागो रञ्जनं सौवीराऽऽदिकमञ्जनमिति यावत् / एवं रसेषु शब्दाऽऽदिषु विषयेषु वा गृद्धिं गाद्ध्य तात्पर्यमासेवा, तथोपद्यातकर्मेत्युच्यते / तदेव लेशतो दर्शयति-(उच्छोलणं ति) अयतनया शीतोदकाऽऽदिना हस्तपादाऽऽदिप्रक्षालनम्, तथा कल्कं लोध्राऽऽदिद्रव्यसमुदायेन शरीरोद्वर्तनकं, तदेतत्सर्वं बन्धनायेत्येवं विद्वान् पण्डितो ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति / / 15|| अपि चसंपसारा य कयकिरिए, पसिणाऽऽयतणाणिय। सागारियं च पिंडं च, तं विजं परिजाणिया।।१६|| (संपसारा य इत्यादि) असंयतैः सार्धं संप्रसारणं पर्यालोचन, परिहरेदिति वाक्यशेषः। एवं संयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशदानम्। तथा-'कयकिरिए' नाम कृता शोभना गृहकरणाऽऽदिक्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवमसंयतानुष्ठानप्रशंसनम्। तथा--प्रश्रस्याऽऽदर्शः प्रश्नाऽऽदेरायतनमाविष्करण कथन यथावस्थित-प्रश्रनिर्णयनानि / यदि वा-प्रश्नाऽऽयतनानि लौकिकानां
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________________ धम्म 2703 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म परस्परव्यवहारे मिथ्याशास्त्रगतसंशये या प्रश्ने सति यथावस्थिताकथनद्वारेणाऽऽयतनानि निर्णयनानीति / तथा-सागारिक: शय्यातरः, तस्य पिण्डमाहारम् / यदि वा-सागारिकपिण्डमिति सूतवगृहपिण्ड, जुगुप्सितवर्णापसदपिण्डच। चशब्दः समुच्चये। तदेतत्सर्वं विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति / / 16 / / किं चान्यत्अट्ठावयं न सिक्खिज्जा, वेहाईयं च णो वए। हत्थकम्मं विवायं च, तं विजं परिजाणिया ||17|| (अट्ठावयमित्यादि) अर्थ्यते इत्यर्थो धनधान्यहिरण्याऽऽदिकः, पद्यते गम्यते येनार्थस्तत् पदं शास्त्रम्, अर्थार्थं पदमर्थपदं चाणक्याऽऽदिकगर्थशास्त्र, तन्न शिक्षयेन्नाभ्यसेन्नाप्यपरप्राण्युपमर्दकारि शास्त्रं शिक्षयेत्, यदि वा अष्टापदं द्यूतक्रीडाविशेषस्तं न शिक्षयेत, नापि पूर्वशिक्षितमनुशीलयेदिति / तथा-वेधो धर्मानुवेधस्तस्मादतीतमधर्मप्रधानं वचो नो वदेत्। यदि वा-वेध इति वर्धवेधो द्यूतविशेषः, तद्गतं वचनमपि नो वदेत्, आस्तां तावत्क्रीडनमिति। हस्तकर्म प्रतीतम्। यदिवा-हस्तकर्म हस्त-क्रिया परस्परं हस्तव्यापारप्रधानः कलहस्तं, तथा विरुद्धवाद, शुष्कवादमित्यर्थः / चः समुचये / तदेतत्सर्व संसारभ्रमणकारणं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत / / 17 / / किचपाणहा उ य छत्तं च, णालीयं बालवीयणं / परकिरियं अन्नमन्नं च, तं विजं परिजाणिया / / 18 / / (पाणहा उ इत्यादि) उपानही काष्ठपादुके च, तथा आतपाऽ5दिनिवारणाय छत्रम् / तथा-नालिका द्यूतक्रीडाविशेषः / तथा-- बालैर्मयूरपिच्छैर्वा व्यजनकं, तथा-परेषां संबन्धिनी क्रियामन्योऽन्यां परस्परतोऽन्यनिष्पाद्यामन्यः करोत्यपरनिष्पाद्या चापर इति / चः समुचये। तदेतत्सर्व विद्वान् पण्डितः कर्मोपादानकारणत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति // 18|| तथाउच्चारं पासवणं, हरिएसु ण करे मुणी। वियडेण वावि साहट्ट, णाऽऽचमे य कयाइ वि ||16|| (उच्चारमिति) उचारप्रस्रवणाऽऽदिकां क्रियां हरितेषूपरि बीजेषु वा स्थण्डिले वा मुनिः साधुन कुर्यात्, तथा विकटेन विगतजी-चेनाप्युदकेन संहृत्यापनीय बीजानि हरितानि वा, नाऽऽचमेत न निलेपनं कुर्यात, किमुताविकटेनेति भावः / / 16 / / हुतनष्टाऽऽदिदोषसंभवाच न विभृयात् / यदि वा-जिनकल्पिकाऽऽदिकोऽचेलो भृत्वा सर्वमपि वस्त्रं परवस्त्रमिति कृत्वा न विभृयात्, एतत्सर्व परपात्रभोर्जनाऽऽदिकं संयमविराधकत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति // 20 // आसंदी पलियंके य, णिसिज्जं च गिहतरे। संपुच्छणं व सरणं वा, तं विजं परिजाणिया।।२१।। आसन्दीति आसनविशेषः / अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्सर्वोऽप्यासनविधिगृहीतः / तथा-पर्यङ्कः शयनविशेषः / तथा गृहस्यान्तर्मध्ये गृहयोर्वा मध्ये निषद्यां वाऽऽसनं वा संयमविराधनाभयात् परिहरेत्। तथा चोक्तम्- "गंभीरझुसिरा एते, पाणा दुप्पडिलेहगा। अगुत्ती बंभचेररस, इत्थीओ वा वि संकणा ||1||" इत्यादि / तथा-तत्र गृहस्थगृहे कुशलाऽऽदिप्रच्छनमात्मीयशरीरावयवप्रच्छनं वा / तथा-पूर्वक्रीडितस्मरणं चेत्येतत्सर्वं विद्वान् विदितवेद्यः सन्ननायेतिज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् // 21 // अपिचजसं कित्तिं सलाघं च, जा य वंदणपूयणा। सव्वलोयंसि जे कामा, तं विजं परिजाणिया॥२२।। (जसं कित्तिमित्यादि) बहुसमरसंघट्टनिर्वहणशौर्यलक्षणं यशः, दानसाध्या कीर्तिः, जातितपोबहुश्रुत्यादिजनिता श्लाघा, तथा-या च सुराऽसुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवाऽऽदिभिर्वन्दना, तथा-तैरेव सत्कारपूर्विका वस्त्राऽऽदिना पूजना / तथा-सर्वस्मिन्नपि लो के इच्छामदनरूपा ये केचन कामाः, तदेतत्सर्व यशः कीर्तिमपकारितया परिज्ञाय परिहरेदिति // 22 // किंचान्यत्जेणेह णिव्वहे भिक्खू, अन्नपाणं तहाविहं। अणुप्पयाणमन्नेसिं,तं विजं परिजाणिया ||23|| (जेणेहमित्यादि) येनान्नेन पानेन वा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धेन, कारणापेक्षया त्वशुद्धेन वा, इहास्मिन् लोके, इदं संयमपात्राऽऽदिकं दुर्भिक्षरोगाऽऽतड़ काऽऽदिकं वा भिक्षुर्निर्वहन्निहियेद्वा, यदन्नं पानं वा तथाविधं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया शुद्धं कल्प्यं गृह्णीयात, तथैतेषामन्नाऽऽदीनामनुप्रदानमन्यस्मै साधवे संयममात्रान्निर्वहणसमर्थमनुतिष्ठेत् / यदि वायेन केनचिदनुष्ठितेन संयम निर्वहन्निहियेदसारतामापादयेत् / तथाविधमशन पानं वा, अन्यद्वा तथावि-धमनुष्ठानं न कुर्यात् / तथा-- एषामशनाऽऽदीनामनुप्रदानं गृहस्थानां परतीथिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपधातकं नानुशीलयेदिति। तदेतत्सर्वं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा सम्यक् परिहरेदिति // 23 // यदुपदेशेनैतत्कुर्यात्तदर्शयितुमाहएवं उदाहु निग्गंथे, महावीरे महामुणी। अणंतनाणदंसी से, धम्म देसितवं सुतं // 24 // (एवं उदाहु इत्यादि) एवमनन्तरोक्तया नीत्या उद्देशकाऽऽदेरारभ्य (उदाहु त्ति) उदाहतवानुक्तवान्, निर्गतो बाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्स निर्गन्थो, महावीर इति श्रीमद्वर्धमानस्वामी, महाँश्चासौ मुनिश्च महामुनिः, अनन्तं ज्ञान दर्शन च यस्यासावनन्तज्ञानदर्शी, स भगवान्,धर्म चारित्रलक्षणं सं किंच परमत्ते अन्नपाणं,ण भुंजेज कयाइ वि। परवत्थं अचेलो वि, तं विजं परिजाणिया।॥२०॥ (परमत्ते इत्यादि) परस्य गृहस्थस्यामत्रं भाजनं परामत्रं, तत्र पुरःकर्म पश्चात्कर्म, तद्भयाद् हुतनष्टाऽऽदिदोषसंभवाचात्र पान च मुनिर्न कदाचिदपि भुञ्जीता यदिवा--पतद्-ग्रहधारिणाऽच्छिद्रपाणेः पाणिपात्रं परपात्रं, यदि वा-पाणिपात्रस्याच्छिद्रपाणेर्जिन कल्पिकाऽऽदेः पतद्ग्रहः परपात्रं, तत्र संयमविराधनाभयान भुञ्जीत, तथा-परस्य गृहस्थस्य / वस्त्रं परवस्त्रं तत् साधुरचेलोऽपि सन् पश्चात्कर्माऽऽदिदोषभयाद्, /
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________________ धम्म 2704 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म सारोत्तरणसमर्थ वा। तथा-श्रुतं चजीवाऽऽदिपदार्थसूचकं, देशितवान् प्रकाशितवान् // 24 // किं चान्यत्भासमाणो न भासेजा, णेव वंफेज मम्मयं / मातिट्ठाणं विवजेजा, अणुचिंतिय वियागरे॥२५|| (भासमाणो इत्यादि) यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासंबन्धभाषक एवस्यात्। उक्तंच-"वयणविहत्तीकुसलो. वओगई बहुविहं वियाणंतो। दिवसं पि भासमाणो, साहू व गुरुत्तयं पत्तो।।१।।' यदि वायत्रान्यः कश्चिद्रत्नाऽऽदिको भाषमाणस्तत्राऽन्तर एव सश्रुतिकोऽहमित्येयमभिमानवान् न भाषेत / तथा-मर्म गच्छतीति मर्मगं वचो न (वंफेज त्ति) नाभिलपेत्। यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यं वा सद्यस्य कस्यचिन्मनः पीडामाधत्ते, तद्विवेकीन भाषेतेति भावः / यदिवा-मामक ममीकारः पक्षपातस्तं भाषमाणो (न वंफेज त्ति) नाभिलपेत् / तथा मातृस्थानं माया-प्रधानं वचो विवर्जयेत्। इदमुक्तं भवति-परवञ्चनबुद्ध्या गूढाऽऽचारप्रधानो भाषमाणोऽभाषमाणो वाऽन्यदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति / यदा तु वक्तुं कामो भवति, तदा नैतद्वचः परमात्मनोरुभयोर्वा बाधकमित्येवं प्राग्विचिन्त्य वचनमुदाहरेत्। तदुक्तक्तम्- "पुव्वं बुद्धीऍपेहिता, पच्छा वक्कमुदाहरे।" इत्यादि।॥२५॥ अपिचतत्थिमा तइया भासा, जं वदित्ताऽणुतप्पति। जं छन्नं तं न वत्तव्वं, एसा आणा णियंठिया ||26|| (तस्थिमेत्यादि) सत्या असत्या-सत्यामृषा-असत्यामृषेत्येवरूपासु चतसृषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृषेत्येतदभिधानात् तृतीया भाषा, सा च किञ्चिन्मृषा किञ्चित्सत्या इत्येवंरूपा। तद्यथा-दशदारका अस्मिन्नगरे जाता मृताः, तदत्रन्यूनाधिकसंभवे सति संख्याया व्यभिचारात्सत्यामृषात्वमिति / यां चैवंरूपां भाषामुदित्या अनु पश्चाद्वाषणाजन्मान्तरे या तजनितेन दोषेण तप्यते पीड्यते क्लेशभाग्भवति। यदि वा-अनुतप्यते, किं ममैवंभूतेन भाषितेनेत्येवं पश्चात्तापं विधत्ते / ततश्चेदमुक्तं भवतिमिश्राऽपि भाषा दोषाय, किं पुनरसत्या, द्वितीया समस्ताऽर्थविसंवादिनी / तथा-प्रथमाऽपि भाषा सत्या, या प्राण्युपतापेन दोषानुषङ्गिणी सानवाच्या। चतुर्थाऽप्यसत्यामृषा भाषा बुधैरनाचीर्णा सा नवक्तव्येति / सत्याया अपि दोषानुषङ्गित्वमधिकृत्याऽऽह-यद्वचः (छन्नं ति) क्षणु हिंसायां, हिंसाप्रधानम् / तद्यथा-बध्यतां चौरोऽयं, लूयन्तां केदाराः, दम्यन्तां गोरथका इत्यादि / यदि वा-(छन्नं ति) प्रच्छन्नं यल्लोकैरपि प्रच्छाद्यते तत्सत्यमपि न वक्तव्यमिति / एषाऽऽज्ञा अयमुपदेशो निर्ग्रन्थो भगवांस्तस्येति॥२६॥ किंचहोलावायं सहीवायं, गोयावायं च नो वदे। तुम तुमं ति अमणुन्नं, सव्वसो तं ण वत्तए // 27 / / (होलावायमित्यादि) होलेत्येवं वादो होलावादः। तथा--स खेत्येवं वादः / सखिवादः, तथा गोत्रोद्घाटनेन वादो गोत्रवादः, यथा-काश्यपसगोत्रो, वासिष्टसगोत्रो वेति इत्येवंरूपं वादं साधु! वदेत्। तथा- 'तुम तुम" | तिरस्कारप्रधानमेकवचनान्तं बहुवचनोचारणयोग्येऽमनोज्ञं मनःप्रतिकूलरूपमन्यदप्येवंभूतमपमानाऽऽपादकं सर्वशः सर्वथा तत् साधूनां वक्तुं न वर्तत इति। यदाश्रित्योक्तं नियुक्तिकारेण / तद्यथा-''पासत्थोसचकुसीलसंथवो ण किल वट्टए काउं। तदिदं'' इत्यादि।।२७।। अकुसीले सया भिक्खू, णेव संसग्गियं भए। सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, पडिबुज्झेज ते विऊ // 28|| (अकुसीलेत्यादि) कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः, स च पार्श्वस्थाऽऽदीनामन्यतमः, न कुशीलोऽकुशीलः, सदा सर्वकालं, भिक्षणशीलो भिक्षुः, कुशीलो न भवेन्न चापि कुशीलैः सार्ध संसर्ग साङ्गत्यं, भजेत सेवेत। तत्संसर्गदोषोद्विभावयिषयाऽऽह- "सुखरूपाः सातागौरवस्वभावाः, तत्र तस्मिन् कुशीलसंसर्गे संयमोपघातकारिण उपसर्गाः प्रादुःष्यन्ति / तथाहि-कुशीलवक्तारो भवन्ति-कः किल प्रासुकोदकेन हस्तपाददन्ताऽऽदिके प्रक्षाल्यमाने दोषः स्यात् / तथा-नाशरीरो धर्मो भवतीत्यतो येन केनचित्प्रकारेणाऽऽधाकर्मसान्निध्याऽऽदिना, तथा-उपानच्छन्नाऽऽदिना च शरीरं धर्माऽऽधारं वर्तयेत् / उक्तं च"अप्पेण बहुमेसेजा, एयं पंडियलक्खणं / " इति। "शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः / शरीरात्स्रवते पापं, पर्वतात्सलिलं यथा // 1 // " तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि, अल्पधृतयश्च संयमे जन्तव इत्येवमादि कुशीलोक्तं श्रुत्वा अल्पसत्त्वास्तत्रानुषज्जन्त्येवं विद्वान् विवेकी प्रतिबुद्ध्येव जानीयात्, बुद्धा चाऽपायरूपं कुशीलसंसर्ग परिहरेदिति // 28|| नन्नत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए। गामकुमारियं किडु, नातिवेलं हसे मुणी // 26 // (नन्नत्थेत्यादि) तत्र साधुर्भिक्षाऽऽदिनिमित्तंग्रामाऽऽदौ प्रविष्टः सन्परो गृहस्थस्तस्य गृहं परगृहं तत्र न निषीदेनोपविशेत, उत्सर्गतोऽस्यापवादं दर्शयति-नान्यत्रान्तरायेणेति / अन्तरायः शक्त्यभावः, स च जरसा रोगाऽऽतङ्काभ्यां स्यात्तस्मिश्चान्तराये सत्युपविशेत्। यदि वा-उपशमलब्धिमान् कश्चित्सुसहायो गुर्वनुज्ञातः कस्यचित्तथाविधस्य धर्मदेशनानिमित्तमुपविशेदपि। तथा ग्रामे कुमारका ग्रामकुमारकास्तेषामियं ग्रामकुमारिकाऽसौ क्रीडा हास्यकन्दर्पहस्तसंस्पर्शनाऽऽलिङ्गनाऽऽदिका।यदि वा वट्टकन्दुकाऽऽदिका, तां मुनिन कुर्यात्; तथा वेला मर्यादा तामतिक्रान्तमतिवेलं न हसेन्मर्यादामतिक्रम्य मुनिः साधुर्ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽद्यष्टविधकर्मबन्धभयान्न हसेत्। तथा चाऽऽगम:- "जीवे णं भंते ! हसमाणे उस्सूयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा।" इत्यादि॥२६॥ किंचअणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिव्वए। चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थऽहियासए|३०|| (अणुस्सुओ इत्यादि) उराला उदाराः शोभना मनोज्ञाये चक्रव यादीनां शब्दाऽऽदिषु विषयेषु कामभोगा वस्त्राऽऽभरणगीतगन्धर्वयानवाहनाऽऽदयः, तथा आज्ञैश्वर्याऽऽदयश्चैतेषूदारेषु दृष्टषु श्रुतेषुवा नोत्सुकः स्यात्। पाठान्तरवा-न निश्रितोऽनिश्रितोऽप्रतिबद्धः स्यात्। यतमानश्च संयमानुष्ठाने, परि समन्तान्मूलोत्तरगुणेषु उद्यम कुर्वन्व्रजेत्संयमं गच्छेत् / तथाचर्यायां भिक्षाऽऽदिकायामप्रमत्तः स्यात्, नाऽऽहाराऽऽदिषुरसगाऱ्या विदझ्या
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________________ धम्म 2705 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म दिति। तथा-स्पृष्टश्चाभिद्रुतश्च परीषहोपसर्गस्तत्रादीनमनस्कः कर्मनिर्जरां मन्यमानो विवहेत सम्यक् सह्यादिति // 30 // परीषहोपसार्गाधिसहनमेवाधिकृत्याऽऽहहम्ममाणो ण कुप्पेञ्जा, वुच्चमाणो न संजले / सुमणे अहियासिज्जा, ण य कोलाहलं करे॥३१।। (हम्ममाणो इत्यादि) हन्यमानो यष्टिमुष्टिलकुटाऽऽदिभिरपि न कुप्यन्न कोपवशगो भवेत्। तथा दुर्वचनान्युच्यभान आक्रुश्यमानो निर्भय॑मानो नसंज्वलेन्न प्रतीपंवदेन्न मनागपि मनोऽन्यथात्वं विदध्यात्, किंतु सुमनाः सर्वं कोलाहलमकुर्वन्नधिसहेतेति॥३१।। किं चान्यतउद्धे कामे ण पत्थेजा, विवेगे एवमाहिए। आयरियाई सिक्खेजा, वुद्धाणं अंतिए सया ||32 / / (लद्धे कामे इत्यादि) लब्धान् प्राप्तानप्राप्तानपि कामानिच्छामदनरूपान् गन्धालङ्कारवस्त्राऽऽदिरूपान् वा वैरस्वामिवन्न प्रार्थयेन्नानुमन्येत, च गृह्णीयादित्यर्थः। यदि वा-यत्र कामावसायितया गमताऽऽदि लब्धिरूपान् कामांस्तपोविशेषलब्धानपि नोपजीव्यान्नाप्यनागतान् ब्रह्मदत्तवत्प्रार्थयेत्, एवं च कुर्वतो भावविवेक आख्यात आविर्भावितो भवति। तथा आर्याण्यार्याणां कर्तव्यानि अनार्यकर्तव्यपरिहारेण / यदि वा--आचर्याणि मुमुक्षूणां यान्याचरणीयानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तानि बुद्धानामाचार्यायामन्तिके समीपे सदासर्वकालं शिक्षेताभ्यसेदिति / अनेन हि शीलवता नित्यं गुरुकुलवास आसेवनीय इत्यावेदितं भवतीति॥३२॥ यदुक्तं बुद्धानामन्तिके शिक्षेत्तत्स्वरूपनिरूपणायाहसुस्सूसमाणो उवासेज्जा, सुप्पन्नं सुतवस्सियं / वी (वी) रा जे अत्तपन्नेसी, घितिमंता जिइंदिया।।३३।। (सुस्सूसमाण इत्यादि) गुरोरादेशं प्रति श्रोतुमिच्छाशुश्रूषा, गुर्वादेयावृत्त्यमित्यर्थः। तां कुर्वाणो गुरुमुपासीत सेवेत।तस्यैव प्रधानगुणद्वयद्वारेण विशेषणमाह-सुष्टु शोभना वा प्रज्ञाऽस्येति सुप्रज्ञः स्वसमयपरसमयवेदी गीतार्थ इत्यर्थः। तथा-सुष्टु शोभनं वा सबाह्याभ्यन्तरं तपोऽस्यास्तीति सुतपस्वी, तमेवंभूतं ज्ञानिनं सम्यक् चारित्रवन्तं गुरु परलोकार्थी सेवेत। तथा चोक्तम्- 'नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना आवक-हाए, गुरुकुल वासंन मुंवंति।।१।। (ग०) य एवं कुर्वन्ति तान् दर्शयति / यदि वा के ज्ञानिनस्तपस्विन इत्याह-वीराः कर्मविदारणसहिष्णावो, वीरा वा परीषहोपसर्गाक्षोभ्याः,धिया बुद्ध्या राजन्तीति वा धीरा ये केचनाऽऽसन्नसिद्धिगमनाः आप्तो रागाऽऽदिवि-प्रमुक्तस्तत्य / प्रज्ञा केवलज्ञानाऽऽख्या तामन्येष्टु शीलं येषां ते आप्तप्रज्ञान्वेषिणः, सर्वज्ञोक्तान्वेषिण इति यावत्। यदि वा-आत्मप्रज्ञान्वेषिण आत्मनःप्रज्ञा ज्ञानमात्मप्रज्ञा तदन्वेषिण आत्मज्ञत्वान्वेषिण आत्महितान्वोषिण इत्यर्थः / तथा-धृतिः संयमे रतिः, सा विद्यते येषां ते धृतिमन्तः। संयमधृत्या हि पञ्चमहाव्रतभारोद्हर्न सूत्रार्थ- भवतीति। -साध्या च सुगतिहस्तप्राप्येति / तमुक्तम्-तस्स तधिई, तस्स तवो, जस्स तक्रे तस्स सग्गई सुलहा। जे अधिइमतपुरिसा, तवो वि खलु दुल्लहो तेसिं / / 1 / / " तया--जितानि वशीकृतानि स्वविषयरागद्वेषविजयेनेन्द्रियाणि स्पर्शनाऽऽदान यैस्ते जितेन्द्रियाः शुश्रूषमाणा यथोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्तीति // 33 // तदभिधित्सुराहगिहे दीवमपासंता, पुरिसाऽऽदाणिया नरा। ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीवियं // 34 // (गिहे दीवमित्यादि) गृहे गृहवासे गृहपाशे वा, गृहस्थभाव इति यावत्। (दीवं ति) दीपी दीप्तौ, दीपयति प्रकाशयतीति दीपः, स च भावदीपः श्रुतज्ञानलाभः। यदि वा-द्वीपः समुद्राऽऽदौ प्राणिनामावासभूतः, स च भावद्वीपः संसारसमुद्रे सर्वज्ञोक्तचारित्रलाभः, तदेवंभूतं दीपं द्वीपं वा गृहस्थभावेऽपश्यन्तोऽप्राप्नुवन्तः सन्तः सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थिता उत्तरोतरगुणलाभेनैवभूता भवन्तीति दर्शयतिनराः पुरुषाः पुरुषोत्तमत्वाधर्मस्य नरोपादानम्, अन्यथा स्त्रीणामप्येतद्गुणभाक्त्वं भवति, अथवा देवाऽऽदिव्युदासार्थमिति / मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीया आश्रयणीयाः पुरुषाऽऽदानीयाः महतोऽपि महीयांसो भवन्ति / यदि वा-आदानीयो हितैषिणां मोक्षस्तन्मार्गो वा सम्यग्दर्शनाऽऽदिकः पुरुषाणां मनुष्याणामादानीयः, स विद्यते येषामिति विगृह्य मत्वर्थीयः 'अर्श आदिभ्योऽच्' / / 5 / 2 / 127 / / इति / तथा य एवंभूतास्ते विशेषेणेरयन्त्यष्टप्रकारं कर्मेति वीराः। तथा बन्धनेन सबाह्याभ्यन्तरेण (पुत्रकलत्राऽऽदि) स्नेहरूपेणोत्प्राबल्येन मुक्ता बन्धनोन्मुक्ताः सन्तो जीवितमसंयमजीवितं, प्राणधारणं वा नाभिकाक्षन्ति नाभिलषन्तीति // 34 // किं चान्यत्अगिद्धे सद्दफासेसु, आरंभेसु अणिस्सिए। सव्वं तं समयातीतं, जमेतं लवियं बहु / / 3 / / (अगिद्धे इत्यादि) अगृद्धोऽनध्युपपन्नो मूर्छितः / व? शब्दस्पर्शेषु मनोज्ञेषु, आद्यन्तग्रहणान्मध्यग्रहणमतो मनोज्ञेषु रूपेषु गन्धेषु रसेषु वा अगृद्ध इति द्रष्टव्यम्। तथेतरेषु वाऽद्विष्ट इत्यपि वाच्यः।तथा-आरम्भेषु सावधानुष्ठानरूपेष्वनिः श्रितोऽसंबद्धोऽप्रवृत्त इत्यर्थः / उपसंहर्तुकाम आह-सर्वमेतदध्ययनाऽऽदेरारभ्य प्रतिषेध्यत्वेन यल्लपितमुक्तं मया बहु, तत्समयादार्हतादागमादतीतमतिक्रान्तमितिकृत्वा प्रतिषिद्धम् / यदपि च विधिद्वारेणोक्तं तदेतत्सर्व कुत्सितसमयातीत लोकोत्तरं प्रधानं वर्तत // 35 // यदपि च तैः कुतीर्थिकैबहु लपितं तदेतत्सर्वं समयातीतमिति कृत्वा नानुष्ठेयमिति प्रतिषिध्य प्रधाननिषेधद्वारेण मोक्षाभिसंधानेनाऽऽहअइमाणं च मायं च, तं परिण्णाय पंडिए। गारवाणि य सव्वाणि, णिव्वाणं संधए मुणी।।३६।। (अइमाणं चेत्यादि) अतिमानो महामानस्तं, चशब्दात्सहचरितं क्रोध च, तथा-माया, चशब्दात्तत्कार्यभूतं लोभंच, तदेतत्सर्वं पण्डितो विवेकी ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत्। तथा सर्वाणि गारवाणि ऋद्धिरससातरूपाणि सम्यक ज्ञात्वा संसारकागान्तन परिहरेत्परिहृत्य च मुनिः साधुर्निर्वाणमशेषकर्मक्षयरूपं, विशिष्टाऽऽकाशदेशंवा संधयेदभिसंदध्यात्, प्रार्थयेदिति यावत्॥३६॥ सूत्र० १श्रु०
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________________ धम्म 2706 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म - 6 अ० (कदा पुनरुत्पन्ननिरावरणज्ञानानां तीर्थकृता वाग्योगो भवति श्रित्य ये विरताः, पञ्चम्यर्थे वा सप्तमी। येभ्यो वा विरताः सम्यक येनासावाकर्ण्यते? उच्यते-धर्मकथावसरे / किंभूतस्तैः पुनर्धर्मः संयमरूपेणोत्थिताः समुत्थितास्ते काश्यपस्यर्षभस्वामिनो वर्द्धमानप्रवेदितस्तद्वक्ष्यते 'लोगसार' शब्दे) स्वामिनो वा संबन्धी यो धर्मस्तदनुचारिणस्तीर्थकरप्रणीतधर्मानुष्ठायिनो केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। भवन्तीत्यर्थः // 25 // केवलिप्रज्ञप्तः, कोऽसौ? धर्मः श्रुतधर्मः, चारित्रधर्मश्च मङ्गलम, अनेन किंचकपिलाऽऽदिप्रज्ञप्तधर्मव्यवच्छेदमाह। आव०४ अ01 जे एयं चरंति आहियं, अपिच नाएणं महया महेसिणा। कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहिं कुसले हि दीवयं / ते उट्ठिय ते समुट्ठिया, कडमेव गहाय णो कलिं, नो तेयं नो चेव दावरं / / 23 / / अन्नोन्नं सारंति धम्मओ॥२६|| कुत्सितो जयोऽस्येति कुजयो द्यूतकारः, महतोऽपि द्यूतजयस्य (जे एयं इत्यादि)। ये मनुष्या एनं प्रागुक्तं धर्म ग्रामधर्मविरतिलक्षणं, सद्भिर्निन्दितत्वादनर्थहेतुत्वाच्च कुत्सितत्वमिति / तमेव विशिनष्टि- कुर्वन्ति चरन्ति। आख्यातं ज्ञातेन ज्ञात पुत्रेण, (महयेति) महाविषयस्य अपराजितो दीव्यन् कुशलत्वादन्येन न जीयते / अक्षैर्वा पाशकैर्दीव्यन् ज्ञानस्याऽनन्यभूतत्वाद् महान् तेन तथाऽनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसक्रीडस्तत्पातज्ञः कुशलो निपुणः यथा असौ द्यूतकारोऽक्षः पाशकैः हिष्णुत्वान्महर्षिणा श्रीमवर्द्धमानस्वामिना आख्यातं धर्म ये चरन्ति, ते कपर्दकै रममाणः (कडमेव त्ति) चतुष्कमेव गृहीत्वा तल्लब्धजयत्वात् एव संयमोत्थाने कुतीर्थिकपरिहारेणोत्थिताः / तथा-निहवाऽऽदितेनैव दीव्यति। ततोऽसौ तल्लब्धजयः सन्न कलिमेकर्क, नाऽपि त्रैक परिहारेण त एव सम्यक्त्वमार्ग-देशनाऽपरित्यागेनोस्थिताः समुत्थिता त्रिकं च, नापि द्वापरं द्विकं गृह्णातीति / / 23 / / इति, नाऽन्ये कुप्रावचनिका जमालिप्रभृतयश्चेति भावः। त एव च दार्धान्तिकमाह यथोक्तधर्मानुष्ठायिनोऽन्योऽन्यं परस्परं धर्मतो धर्ममाश्रित्य धर्मतो वा एवं लोगम्मि ताइणा, भ्रश्यन्तं सारयन्ति चोदयन्ति, पुनरपि सद्धर्मे प्रवर्तयन्तीति // 26 // बुइए जे धम्मे अणुत्तरे। मा पेह पुरा पणामए, अभिकंखे उवहिं धुणित्तए। तं गिण्हह जंऽतिउत्तम, जे दूमण तेहिं णो णया, ते जाणंति समाहिमाहियं / / 27 / / कडमिव सेसऽवहाय पंडिए॥२४॥ (मा पेहेत्यादि) दुर्गतिं संसार वा प्रणामयन्ति प्रह्लीकुर्वन्ति प्राणिनां यथा द्यूतकारः प्राप्तजयत्वात् सर्वोत्तमं दीव्यं चतुष्कमेव गृह्णात्ये- | प्रणामकाः शब्दाऽऽदयो विषयास्तान पुरा पूर्व भुक्तान मा प्रेक्षस्व मा वमस्मिल्लोके मनुष्यलोके तायिना त्रायिणा वा सर्वज्ञेनोक्तोऽयं धर्मः स्मर / तेषां स्मरणमपि यस्मान्महतेऽनाय, अनागताँश्च नोदीक्षेत क्षान्त्यादिलक्षणः श्रुतचारित्राऽऽख्यो वा नाऽस्योत्तरोऽधिकोऽस्ती- नाऽऽकाक्षेदिति। तथा-अभिकाङ्केत अभिलषेदनारत चिन्तयेदनुरूपत्यनुत्तरः, तमेकान्तहितमपि कृत्वाऽत्युत्तमं सर्वोत्तमं च गृहाण विस्रोतसि- मनुष्ठानं कुर्यात् / किमर्थमिति दर्शयति-उपधीयते ढोक्यते दुर्गति कारहितः स्वीकुरु / पुनरपि निगमनार्थ तमेव दृष्टान्तं दर्शयति-यथा प्रत्यात्मा येनाऽसावुपधिर्माया; अष्टप्रकार वा कर्म; तद्भूननाया पनयनाकश्चिद् द्यूतकारः कृतं कृतयुग, चतुष्कमित्यर्थः, शेषमेकाऽऽद्यपहाय याऽभिकाक्षेदिति सम्बन्धः। दुष्टधर्म प्रत्युपनताः कुमार्गानुष्ठायिनत्यक्त्वा दीव्यन् गृह्णाति,एवं पण्डितोऽपि साधुरपि, शेषं गृहस्थकुप्रावच- स्तीथिकाः। यदि वा-(दूमण ति) दुष्टमनःकारिण उपतापकारिणो वा निकपार्श्वस्थाऽऽदिभावमपहाय संपूर्ण महान्तं सर्वोत्तमधर्म गृह्णीयादिति शब्दाऽऽदयो विषयास्तेषु ये महासत्त्वाः न नताः प्रह्वीभूतास्तदाचारानुष्ठाभावः // 24 // यिनोन भवन्ति, ते च सन्मार्गानुष्टायिनो जानन्ति विदन्ति समाधि उत्तर मणुयाण आहिया, रागद्वेषपरित्यागरूपं धर्मध्यानं च आहितमात्मनि व्यवस्थितम् ।आ गामधम्मा इइ मे अणुस्सुयं / समन्ताद्धितं वा त एव जानन्ति, नाऽन्य इति भावः / / 27 / / जंसी विरता समुट्ठिया, तथा कासवस्स अणुधम्मचारिणो।।२५।। णो काहिए होञ्ज संजए, (उत्तरेत्यादि) उत्तराः प्रधानाः दुर्जयत्वात्। केषाम् ? उपदेशार्हत्या पासणिए णय संपसारए। न्मनुष्याणाम्। अन्यथा सर्वेषामेवेति / के ते? ग्रामधाः शब्दाऽऽदि- नचा धम्म अणुत्तरं, विषया मैथुनरूपा वेति / एवं ग्रामधा उत्तरत्वेन सव राख्याताः, कयकिरिए ण यावि मामए / / 28|| मयैतदनुपश्वाच्छुतम् / एतच्च सर्वमेव प्रागुक्त,यच्च वक्ष्यमाणं तन्ना (णो कहिए इत्यादि) संयतः प्रव्राजितः कथया चरतिकाथिको गोचराऽऽदौ भेयेनाऽऽदितीर्थकृता पुत्रानुदिश्याऽभिहितं सत् पाश्चात्यगणधराः सुधर्म- न भवेत्। यदि वा-विरुद्धा पैशुन्याऽऽपादनी स्त्र्यादिकथां वा न कुर्यात्। स्वामिप्रभृतयः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयन्त्यतो मयैतदनुश्रुतमित्यनवद्यम्। तथा-प्रश्नेन राजाऽऽदिकिंवृत्तरूपेण, दर्पणाऽऽदिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा यस्मिन्निति कर्मणि ल्यब्लोपे पञ्चमी, सप्तमी वेति / यान् ग्रामधर्माना- चरतीति प्राश्निको नभवेत्। नापि चसंप्रसारको देववृष्ट्यनर्थकाण्डाऽऽदिसूच
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________________ धम्म 2707 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म ककथाविस्तारको भवेदिति / किं कृत्वेति दर्शयति-ज्ञात्वाऽवबुध्य नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरस्तं श्रुतचारित्राऽऽख्यं धर्म सम्यगवगम्य, तस्य हि धर्मस्यैतदेव फलं यदुत विकथानिमित्तपरिहारेण सम्यक क्रियावान् स्यादिति तदर्शयतिकृता स्वभ्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियस्तथाभूतशच, न चाऽपि मामको ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहाऽऽग्रही भवेदिति // 28 // छन्नं च पसंस णो करे, न य उक्कोस पगास माहणे। तेसिं सुविवेगमाहिए, पणया जेहिं सुजोसिअंधुयं / / 26 / / (छन्नमित्यादि) 'छन्नं ति' माया, तस्याः स्वाभिप्रायप्रच्छादन ... रूपत्वात, तां न कुर्यात् / चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः / तथाप्रशस्थते सर्वैरप्यविगानेनाऽऽद्रियत इति प्रशस्यो लोभः, तं च न कुर्यात् / तथा--जात्यादिभिर्मदस्थानलघुप्रकृति पुरुषभुत्कर्षयतीत्युत्कर्षको मानः, तमपि न कुर्यादिति सम्बन्धः / तथा अन्तर्व्यवस्थितोऽपि मुखदृष्टिभङ्गाविकारैः प्रकाशीभवतीति प्रकाशः क्रोधः, तं च (माहणे त्ति) साधुन कुर्यात्। तेषांकषायाणां यैर्महात्मभिर्विवेकः परित्याग आहितो जनित्स्त एव धर्म प्रति प्रणता इति। यदिवा-तेषामेव सत्पुरुषाणां सुष्ठ विवेकः परिज्ञानरूप आहितः प्रथितः प्रसिद्धिं गतः, त एव च धर्म प्रति प्रणताः, यैर्महासत्त्वैः सुष्ठ जुष्ट सेवितं, धूयतेऽष्टप्रकार कर्म येन तद्भूत संयभानुष्ठानम्। यदि वा–यैः सदनुष्टायिभिः (सुजोसिअंति) सुष्टु क्षिप्त धूननार्हत्वाद्धूते कर्मेति // 26 // अपि चअणिहे सहिए सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए। विहरेज समाहिइंदिए, अत्तहिअंखु दुहेण लब्भइ // 30 // (अणिहे इत्यादि) स्निह्यत इति स्निहः। न स्निहा:-अस्निहः, सर्वत्र ममत्वरहित इत्यर्थः / यदि वा-परीषहोपसर्गनिहन्यते इति निहः, न निहोऽनिहः उपसगैरपराजित इत्यर्थः / पाठान्तरं वा-"अणहे ति।" नास्यघमस्तीत्यनघो, निरवद्यानुष्ठायीत्यर्थः / सह हितेन वर्तत इति सहितः, सहितो युक्तो वा ज्ञानाऽऽदिभिः, स्वहित आत्महितो वा सदनुष्टानप्रवृत्तेः / तमेव दर्शयति-सुष्टु संवृत इन्द्रियनोइन्द्रियस्रिोतसिकारहित इत्यर्थः / तथा-धर्मः श्रुतचास्त्रिाऽऽख्यस्तेनार्थः प्रयोजनं, स एवार्थः, तस्यैव सद्भिरळमाणत्वाद् धर्मार्थः, स यस्याऽस्तीति स धर्मार्थी। तथापेधानं तपः, तत्र वीर्यवान्, स एवम्भूतो विहरेत् संयमानुष्ठान कुर्यात्। समाहितेन्द्रियः संयतेन्द्रिय एव। यत आत्महितं दुःखेनाऽसुमता संसार पर्यटता अकृतधर्मानुष्ठानेन लभ्यते अवाप्यत इति / तथाहि"नपुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम्। मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम्॥१॥" तथाहि-युगसमिलाऽऽदिदृष्टान्तनीत्या मनुष्यभव एव तावद्दुर्लभः, तत्राऽप्यार्यक्षेत्राऽऽदिकं दुरापभित्यत आत्महितं दुःखेनाऽवाप्यत इति मन्तव्यम्। अपिचभूतेषु जङ्गमत्वं, तस्मिन् पञ्चेन्द्रियत्वमुत्कृष्टम्। तस्मादपि मानुष्यं, मानुष्येऽप्यार्यदेशश्च / / 1 / / देशे कुल प्रधान, कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा। जातौ रूपसमृद्धी, रूपे च बलं विशिष्टतमम् / / 2 / / भवति बले चाऽऽयुष्कं, प्रकृष्टमायुष्कतोऽपि विज्ञानम्। विज्ञाने सम्यक्त्वं, सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः॥३॥ एतत्पूर्वश्वाऽय, समासतो मोक्षसाधनोपायः। तत्र च बहु संप्राप्त, भवद्भिरल्पं च संप्राप्यम्॥४॥ तत्कुरुतोद्यममधुना, मदुक्तमार्ग समाधिमाधाय / त्यक्त्वा सङ्ग मनार्य, कार्य सद्भिः सदा श्रेयः // 5 // " इति।।३०।। एतच प्राणिभिर्न कदाचिदवाप्तपूर्वमित्येतदर्शयितुमाहण हि णूण पुरा अणुस्सुतं, अदुवा तं तह णो समुट्ठियं / / मुणिणा सामाइआऽऽहितं, नाएणं जगसव्वदंसिणा॥३१॥ यदेतन्मुनिना जगतः सर्वभावदर्शिना ज्ञातपुत्रीयेण सामायिकाऽऽद्याहितमाख्यातं तन्नूनं निश्चितं न हि नैव पुरा पूर्व जन्तुभिरनुश्रुतं श्रवणपथमायातम्। अथवा-श्रुतमपि तत् सामायिकाऽऽदि यथाऽवस्थित तथा नाऽनुष्ठितभा पाठान्तरंवा-"अवितह त्ति'' अवितथं यथावन्नानुष्ठितमतः कारणादसुमतामात्महितं सुदुर्लभमिति // 31 / / पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याऽऽहएवं मत्ता महंतरं, धम्ममिणं सहिया बहू जणा। गुरुणो छंदाणुवत्तगा, विरया तिन महोघमाहितं / / 3 / / (एवं मत्ता इत्यादि) एवमुक्तरीत्या आत्महितं सुदुर्लभं मत्वा ज्ञात्वा धर्माणां च महदन्तरं धर्मविशेष कर्मणो वा विवरं ज्ञात्वा / यदि वा-(महंतरं ति) मनुष्याऽऽर्यक्षेत्राऽऽदिकमवसरं सदनुष्ठानस्य ज्ञात्वा एनं जैन धर्म श्रुतचारित्राऽऽत्मकं, सह हितेन वर्तत इति सहिता ज्ञानाऽऽदियुक्ता बहवो जना लघुकर्माणः समाश्रिताः सन्तो गुरोराचार्याऽऽदेस्तीर्थकरस्य वा छन्दानुवर्तकास्तदुक्तमार्गानुष्ठायिनो, विरताः पापेभ्यः कर्मभ्यः सन्तस्तीर्णा महोघमपारं संसारसागर-मेवमाख्यातं मया भवतामपरैश्च तीर्थकृद्भिरन्येषाम्॥३२।। सूत्र०१ श्रु०२अ०२उ०। किंचसंधए साहुधम्मं च, पावधम्मं णिराकरे। उवहाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं न पत्थए / / 35 / / (संधए इत्यादि) साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको दशविधः, सम्य-- ग्दर्शनचारित्राऽऽख्यो वा, तमनुसंधयेद् वृद्धिमापादयेत् / तद्यथाप्रतिक्षणमपूर्वज्ञानग्रहणेन ज्ञानम् / तथा शङ्काऽऽदिदोषपरिहारेण, सम्याजीताऽऽदिपदार्थाधिगमेन च सम्यग्दर्शनमस्खलितमूलोत्तरगुणसंपूर्णपालनेन प्रत्यहमपूर्वज्ञानग्रहणेन चारित्रं वृद्धिमापादयेदिति / पाठान्तरं वा-"राहहे साधुधम्म च'' पूर्वाक्तविशेषणविशिष्ट साधुधर्म मोक्षमार्गत्वेन श्रद्दधीत निःशङ्कतया गृह्णीयात्, चशब्दात्सम्यगनुपालये च / तथा-पापं पापोपादानकारणं धर्म प्राण्युपमर्दैन प्रवृत्तं, निराकुर्यात् / तथा-उपधानं तपः, तत्र यथाशक्त्या वीर्यं यस्य स भवत्युपधानवीर्यः, तदेवंभूतो भिक्षुः, क्रोध, मानं च न प्रार्थयेन्न वर्धयति // 35 / / सूत्र० 1 2011 अ०॥
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________________ धम्म 2708 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म सोचा य धम्मं अरहंतभासियं, भवति तदा शोभनं स्यादस्मदभिग्रहस्य सफलत्वप्राप्तेरित्येवं लक्षणो समाहितं अट्ठपदोवसुद्ध। विद्यते यत्र तत्ग्लानभावाभिसंधिमत् साधूनां मुनीनामेतत्समादानमिति तं सद्दहाणा य जणा अणाऊ, योगः / अथवा-साधूनां ग्लानभावाभिसन्धिमदिति योगः। तत्त्वतः इंदा व देवाहिव आगमिस्सं // 26 // परमार्थवृत्त्या तदिति तस्मात्कारणाद् दुष्ट दोषवत, ग्लानभावाभिसन्धि(सोचा य इत्यादि) श्रुत्वा च दुर्गतिधारणाद् धर्म श्रुतचारित्राऽऽ मत्वेन कर्मबन्धहेतुत्वात, ज्ञेयं ज्ञातव्यं, महात्मभिः प्रशस्यस्वभावैरिति / / 4 / / ख्यमहद्भिर्भाषितं सम्यगाख्यातमर्थपदानि युक्तयो हेतवो वा तैरु एवमर्थापत्त्या दोषप्राप्तिरन्यैरप्युपलब्धेति दर्शयन्नाहपशुद्धमवदातं सद्युक्तिकं सद्धेतुक वा, यदिवा अर्थरभिधेयैः पदैश्च वाचकैः लौकिकैरपि चैषोऽर्थो , दृष्टः सूक्ष्मार्थदर्शिभिः। शब्दैरुप सामीप्येन शुद्धं निर्दोषम्। तमेवंभूतमर्हदिर्भाषितं धर्म श्रद्दधानाः। प्रकारान्तरतः कैश्चि-द्यत एतदुदाहृतम् / / 5 / / तथा-अनुतिष्ठन्तो जना लोका अनायुषोऽनपगतायुष्कर्माणः सन्तः लोके विदिता लौकिका वाल्मीकिप्रभृतयः, तैरपि च न केवलं जैनैरेव, सिद्धाः सायुषश्वेन्द्राऽऽद्याः देवाधिपा आगमिष्यन्तीति / / 26 / / सूत्र०१ एषोऽनन्तरादितोऽर्थोऽपित्तिजनितदोषलक्षणो, दृष्ट उपलब्धः। श्रु०७ अ०॥ कि भूतरित्याह--सूक्ष्मार्थदर्शिभिः पटुदृष्टिभिनें यवस्तुविवेचकैर्न वै (26) धर्माधर्मविचारश्च सूक्ष्मबुझ्या कर्तव्यः, धर्मविचारे सू-- ह्यतिस्थूलबुद्धयोऽपित्तिगम्यानेवंविधानर्थान ज्ञातुमलं भवन्ति, ननु मबुद्धेराश्रयणीयतामुपदिशन्नाह मिथ्यादृशा कथं सूक्ष्मार्थदर्शित्वम् ? उच्यते-मत्यज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिक्षसूक्ष्मबुद्ध्या सदा ज्ञेयो, धर्मो धर्मार्थिभिर्नरैः। योपशमविशेषात् अज्ञानं, तर्हि तेषां कथम्? तवाऽप्युच्यतेसदसतोरअन्यथा धर्मबुद्ध्यैव, तद्विघातः प्रसज्ज्यते / / 1 / / विशेषात् आह च- "सयसय-विसेसणाओ गाहा।' प्रकारान्तरतः(सूक्ष्मेति) सूक्ष्मबुद्ध्या निपुणमत्या, सदा सर्वकालं, ज्ञेयो ज्ञातव्यः, अस्मदुक्तप्रकाराद् ग्लानभैषज्यदानाभिग्रहलक्षणादन्येन प्रकारेण कैश्चिद्वाल्मीक्यादिभिरेव, न सर्वः, कथं तैर्दृष्टोऽयमित्यवसितमित्याहकोऽसावित्याह-धर्मो दुर्गतिप्रपातरक्षणे हेतुः, कैरित्याह-धर्मार्थिभिधर्मश्रद्धालुभिर्नरनिवैः, अन्यथा स्थूलबुद्ध्या धर्मविवेचने कुतीर्थिका यतो यस्मा-देतद् वक्ष्यमाणमुदाहृतमभिहितमिति / / 5 / / नामिव धर्मबद्ध्यैव धर्माभिप्रायेणापि, तद्विघातो धर्मव्याहतिः। प्रसज्ज्यते अङ्गेष्वेव जरा यातु, यत्त्वयोपकृतं मम्।। प्राप्नोतीति / / 1 / / नरःप्रत्युपकाराय, विपत्सु लभते फलम् / / 6 / / एतदेव दर्शयन्नाह किल सुग्रीवण ताराऽऽवाप्तौ रामदेव एवमुक्तः-अङ्गेष्वेव मदीय-गात्रेष्वेव गृहीत्वा ग्लानभैषज्य-प्रदानाभिग्रहं यथा। जरा जरणपरिणाम यातु गच्छेतु, मा प्रत्युपकारद्वारेण प्रतियातनीयं तदप्राप्तौ तदन्तेऽस्य,शोकं समुपगच्छतः।।२।। भवत्वित्यवधारणार्थ , किं तत् ? यद्वालेः सकाशात् तारां विमोच्य मन तदर्पणेन त्वया भवता उपकृतमुपकारः कृतः, मर्मत्यात्मानं सुग्रीवो गृहीत्वा आदाय, ग्लानायाशक्ताय, भैषज्यप्रदाने औषधवितरणविषये, निर्दिशति। तस्मात् किमित्येवमित्याह-नर उपकारकारिमानवः उपकार योऽभिग्रहः प्रतिज्ञा, ग्लानाय मया भैषज्यं दातव्यमित्येवरूपः स तथा प्रतीत्याऽऽश्रित्योपकारः प्रत्युपकारः तस्मै प्रत्युपकाराय उपकृतनरेण तं,यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः,तस्यग्लानत्वाभावेन ग्लानभैषज्यप्रदा क्रियमाणाय संपद्यते यत्फलं विपत्सु व्यसनेषु सत्सु लभते प्राप्नोति नस्याप्राप्तिरसंभवस्तदप्राप्तिस्तस्या, तस्य ग्लानभैषज्यप्रदानाभिग्रह तत्फलमुपकारकारिक्रिया-याः साध्यम् / अयमभिप्रायः-उपकारको स्यान्तःकालावधिपूर्त्या पर्यवसानतस्तत्र, शोकमुद्वेगं, समुपगच्छता व्यसनगत एव उपकार-क्रियायाः फलमुपकृतेन कृतं लभते, न पुनरन्यदा व्रजतोऽभिग्रहीतुर्धर्मबुद्ध्याऽप्यधर्मो भवति। तथा सर्वत्रेति प्रकृतमिति॥२॥ व्यसनाभावे, निरवसरत्वेन तदसंभवादिति। किमुक्तं भवति?-मा शोकमेव दर्शयति त्वमापदं प्राप, यस्यामह भवन्तमुपकरोमीति। अन्ये त्याहुःनर उपकृतगृहीतोऽभिग्रहः श्रेष्ठो, ग्लानो जातो न च वचित्। मानवः, प्रत्युपकारार्थ विपत्सूपकारकारि व्यसनेषुलभते फलं, फलहेतुअहो मेऽधन्यता कष्टं, न सिद्धमभिवाञ्छितम् / / 3 / / त्वादवसरमिति // 6 // गृहीत आत्तोऽभिग्रह उक्तरूपा प्रतिज्ञा, श्रेष्ठोऽतिप्रशस्यः, ग्लानो एवं तावद्धर्मार्थप्रवृतावपिधर्मव्याघातो भवत्यनिपुणबुद्धीनां ग्लानभैषरोगवान् जातो भूतोवा, मे मम, धनं लब्धं धनं वाहतीति धन्यस्तगाव- ज्याभिग्रहप्रवृत्ताविवेति समर्थितम्, अधुनैवमेव सर्वास्वपि प्रवृत्तिष्विति स्तत्ता, तन्निषेधोऽधन्यता, कष्टमिति खेदवचनं, न सिद्धं न निष्पन्नमभि- दर्शयन्नाहवाञ्छितमभिमतमिति // 3 // एवं विरुद्धदानाऽऽदौ, हीनोत्तमगतेः सदा। प्रकृतयोजनायाऽऽह प्रव्रज्याऽऽदिविधाने च, शास्त्रोक्तन्यायबाधिते / / 7 / / एवं ह्येतत्समादानं, म्लानभावाभिसन्धिमत्। द्रव्याऽऽदिभेदतो ज्ञेयो,धर्मव्याघात एव हि। साधूनां तत्त्वतो यत्तद्, दुष्टं ज्ञेयं महात्मभिः॥४॥ सम्यग् माध्यस्थ्यमालम्ब्य, श्रुतधर्मव्यपेक्षया / / 8 / / एवमनेन प्रकारेणाभिग्रहविषयाप्राप्तौ शोकगमनलक्षणेन, हिशब्दोऽधि- यथा ग्लानभैषज्यदानाभिगृहे धर्मबुद्ध्या कृतेऽपि धर्मबुद्धिदोषाद् कृताभिग्रहसय धर्मव्याघातरूपताभावनार्थः / एतस्य ग्लानभैषज्यप्रदा- धम्म व्याघातः प्रसज्जात्ये वमनेनै व न्याय न विरुद्धस्य शास्त्र - नाभिग्रहस्य समादानं ग्रहणमेतत् समादानं, यच्छब्दोऽत्र द्रष्टव्यो, विनिवारितस्य जीवोपघातहेतुत्वाद्धे याव्यस्याऽऽधाकमयद्यस्मात ग्लानभावे रोगवत्त्वेऽभिसन्धिरभिप्रायो यदि कश्चित् साधुग्लानो / दिदोषटूषितस्य मांसतिलाऽऽदेवा विरुद्धाय वा सदाषत्वेन शास्त्रनिरा
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________________ धम्म 2706 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्म कृताय पात्राय, दानं वितरणं विरुद्धदानं, तदादिर्यस्य शीलतपोभावनाधर्मस्य गुरुविनयऽऽदेवतापूजनाऽऽदेवा सविरुद्धदानाऽऽदिस्तत्र द्रव्याऽऽदिभेदतो धर्मव्याघात एव, ज्ञेय इति योगः। कुत इत्याह-हीनस्य गुणविमुक्तस्य, देयद्रव्यपात्रस्य वा उत्तम प्रधानमेतदिति गतिरवयमा बोधो हीनोत्तगगतिः, ततो हीनोत्तमगतेः सदा सर्वदा, शास्त्रनिराकृतरवेन हि होनमपि देयं पात्रं चोत्तमभिति बोधविपर्ययादनवगच्छन् यदा दाने प्रवर्तते, तदा धर्मस्य व्याघातः स्फुट एवेति। दातव्यद्रव्यविरुद्धता व-"अनाईण सुझाण कप्पणिज्जाण देसकालजुयं / दाणं जईणमुचियं, गिहीण सिवखावयं भणियं / / 1 / / " इत्येतद्दानविशेषणविपर्ययादवसया / पात्रविरुद्धता पुनरेवम्- "सीलव्वयरहियाण, दाणं जं दिज्जई कुपत्ताण। खलु धोवइ, वत्थं, रुहिरकयं लोहितेणेव / / 1 / / " तथा प्रव्रज्याऽऽदीनां सर्व विरतप्रतिपत्तिप्रभृतीनां विधानं करणं प्रव्रज्याऽऽदिविधानम्, आदिशब्दाद्देशविरत्यादिसंग्रहः / तत्र च न केवल विरुद्धदानाऽऽदावेव, किंमते प्रव्रज्याऽऽदिविधाने? इत्याह-शास्त्रोक्तन्यायबाधितं आगमाभिहितन्यनिराकृते, हीनोत्तमगतेरिति हेतुरिहापि वर्तते, धर्मव्याघातो ज्ञेय इत्यतदत्रापि संबन्धनीयं, तत्र प्रव्रज्याऽऽदिविधाने शास्त्रोक्तोऽयं न्यायः"नियनियसहावलोयण-जणवायावागजोगसुद्धीहि / उचियनं नाऊण, निमित्तओ सइ पइदृज्जा / / 1 / / " तथा'पव्यजाए जोग्गा, आरियदेसम्मि जे समुप्पन्ना। जाइकुलेहिं विसिट्टा, तह खीणप्पायकम्ममला // 1 // " इत्यादी। देशविरतौ पुनः"गुरुम्लेसुय धम्मो, संविगो इत्तरं व इयरं वा। वजेत्तु नओ सरम, वजेइ इमे अईयारे॥१॥" जिनदीक्षायां तु-- "दिक्वाएं चेव रागो, लोगविरुद्धाण चेव चागो ति। सुंदरगुरुजोगो चिय, जस्स तओ एत्थ उचिओ ति॥१॥" एतद् वाधा चैतद्विपर्ययादिति द्रव्याऽऽदिभेदतो द्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषानाश्रित्य विरुद्धदानाऽऽदौ प्रव्रज्याऽऽदिविधाने च ज्ञेयो ज्ञातव्यो / धर्मव्याघातः / एवं च धर्मबाधैव, न तु धर्माऽऽराधनं, तत्र विरुद्धदाने द्रव्यतो धार्मव्याघातो, यथैषणी यत्वेना विरुद्धद्रव्ये कूराऽऽदो साधुरांस्तरणहेतौ सत्यपि अनेषणीयतया विरुद्धम्, अतएव हीनमुत्तमभिति बुद्ध्या ददतः। एवं क्षेत्रतोऽकान्ताराऽऽदिक्षेत्रे, कालतः सुभिक्षकाले, भावतस्त्वग्लानावस्थायाम् / उक्तं च-'संथरणम्मि असुद्धं, दोण्ह वि गिण्हतदेतयाण हियं / आउरहिट्ट तेणं, तं चेव हियं असंथरणे / / 1 / / " तथाप्रव्रज्याऽऽदिविधाने औत्सर्गिकशास्त्रबाधिते द्रव्यतो धर्मव्याघातो यथाशास्त्रनिराकृत नपुंसकाऽऽदिक जीवद्रव्यं प्रव्राजयतः, क्षेत्रतोऽकान्ताराऽऽदिक्षेत्रे, कालतः सुभिक्षकाले, भावतः स्वस्थावस्थायामिति। हिशब्दः स्पुटायः / कथं धर्मव्याघातो ज्ञेय इत्याह- सम्यगविपरीतं, माध्यस्थ्यमनाग्रहत्वमालम्ब्याऽऽश्रित्य, तदपि न स्वरुच्या, किंतु श्रुतधर्मध्यपेक्षया आगमापेक्षया, न तु तदनपेक्षयेति।।८। हा०२१ अष्ट०। (अथ कस्य धर्मानुष्टानत्वं, कस्य नेति 'धम्माणुट्ठाण' शब्देऽग्रे वक्ष्यते) (30) संयतविरतप्रतिप्रत्याख्यातपापकर्माऽऽदीनां धर्मस्थि तत्वाधर्मस्थितत्वाऽऽदि यथासे नूणं भंते ! संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे धम्मे ठिए, असंजयअविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मए अहम्मे ठिए, संजयासंजए धम्माधम्मे ठिए? हंता ! गोयमा ! संजयविरय०जाव धम्माधम्मे ठिए। एएसिणं भंते ! धम्मंसि वा अहम्मंसि वा धम्माधम्मंसि वा चक्किया केइ आसइत्तए वा० जाव तुयट्टित्तए वा? णो इणटे समझे। से केणटेणं खाइअटेणं भंते ! एवं बुच्चइ०जाव धम्माधम्मे ठिए? गोयमा ! संजयविरय०जाव पावकम्मे धम्मट्ठिए धम्म चेव उवसंपञ्जित्ता णं विहरइ, असंजयपावकम्मे अहम्मे ठिए अहम्मं चेव उवसंपञ्जित्ता णं विहरइ, संजयासंजए धम्माधम्मे ठिए धम्माधम्म उवसंपञ्जित्ता णं विहरइ। से तेणतुणं गोयमा ! ०जाव ठिए। (से नणं भंते ! इत्यादि) (धम्म त्ति) संयमे (चक्किया केइ आसइत्तए वति) धर्माऽऽदी शक्नुयात्कश्चिदासयितुम्? नायमर्थः समर्थो , धर्माऽदेरमूर्तत्वात / मूर्त एव चाऽऽसनाऽऽदिकरणस्य शक्यत्वादिति। भ०१७ श०२० 'सिविहे धम्ने पणत्ते / तं जहा-सुयधम्मे, चरित्तधम्मे, अस्थि कायधम्मे।' स्था०३ ठा०३ उ०। (व्याख्या स्वस्वशब्दे द्रष्टव्या) अथ धर्मस्थितत्वाऽऽदिक दण्डकेन निरूपयन्नाहजीवा णं भंते ! किं धम्मे ठिया, अहम्मे ठिया, धम्माधम्मे ठिया? गोयमा! जीवा धम्मे विठिया, अहम्मे विठिया, धम्माधम्मे वि ठिया / णेरइया णं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! णेरइया णो धम्मे ठिया, अहम्मे ठिया, णो धम्माधम्मे ठिया। एवं०जाव चउरिंदियाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णो धम्मे ठिया, अहम्मे ठिया, धम्माधम्मे वि ठिया। मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा णेरइया / भ०१७ श०२ उ०। धर्मप्रतिपादक सूत्रकृताङ्ग द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य नवमेऽध्ययनेच। स०२१ रामा प्रश्न आवला (तदधिकारार्थवक्तव्यता 'धम्मज्झयण' शब्दे वक्ष्यते) धर्मसारतत्वात् षड्जीवनिकायाऽऽख्यदशवैकालिकस्य चतुर्थेऽध्ययने, दश०४ अ० (तदधिकारार्थवक्तव्यता 'छज्जीवणिकाय' शब्दे तृ०भा० 1354 पृष्टगता) धर्मभावंगतोधर्मः। आ० चू०४ अ०। चरणश्रुतधर्मानुगते ध्यानभेदे, आव०४ अ०। 'धम्माणुरंजिय धर्म।" आ० चू०४अाआव०| उत्त० (एतद्वत व्यता 'धम्मज्झाण' शब्दे वक्ष्यते) आत्मनि, देहधारणाद् जीव, वस्त्रगणरूपे, उपमायाम्, न्याये, उपनिषदि, यमे, सोमाध्यायिनि, सत्सड़े य / वाचा दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्त्वसनातं धारयतीति धर्मः।
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________________ धम्म 2710- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मकत्ता पञ्चदशे जिने, आ०म०२० स०। आ०चूला प्रवातीधा अनु०॥ (27) धर्मकषाऽऽदिस्वरूपनिरूपणम्। (एतद्वक्तव्यता 'धम्मजिण' शब्दे वक्ष्यते) आचार्यसिंहस्य शिष्ये / (28) साधूनामाचरणीयानाचरणीयधर्मप्ररूपणम्। शाण्डिल्यस्य गुरौ काश्यप गोत्रोत्पन्ने स्वनामख्याते आचार्ये, 'थेरस्स (26) धर्मविचारे सूक्ष्मबुद्धिराश्रयणीया।। णं अज्जसीहरस कासवगुत्तस्स अजधम्मे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते।'' (30) संयतविरतप्रतिप्रख्यातपापकर्माऽऽदीनां धर्मस्थितत्वाधर्मस्थिकल्प०२अधि०८ क्षण। 'धम्म पि अकासवं वंदे।' कल्प०२ अधि० तत्वाऽऽदिप्रतिपादनम्। 8 क्षण / आचार्यहस्तिनः शिष्ये आचार्यसिंहस्य गुरौ सुव्रतगोत्र *धर्म्य-त्रि० धर्मादनपेतः, धर्मेण प्राप्यो वा यत्। धर्मयुक्ते, धर्मलभ्ये स्वनामख्याते आचार्य, 'थेरस्स णं अजहत्थिस्स कासवगुत्तस्स चावाचा उत्त०ा धर्मः क्षमाऽऽदिलक्षणः, तस्मादनपेतं धर्म्यम्। प्रव० अजधम्मे थेरे अतेवासी सुव्वयगोत्ते।" कल्प०२अधि०८ क्षण। "वंदामि 6 द्वार। जिनप्रणीतभावश्रद्धानाऽऽदिलक्षणे ध्यानभेदे, ना आव० 4 अ०| अजधम्म, सुस्वयं सीललद्धिसंपन्नं / ' कल्प०२ अधि०८ क्षण / धम्मउर-न०(धर्मपुर) स्वनामख्याते पुरभेदे, दर्श०१ तत्त्व विराटविषयस्थ-सिंहपुरनगरस्थे स्वनामख्याते ग्रामचौरे च। पुं०। दर्शक धम्मंग-न०(धर्माङ्ग) धर्मस्य कुशलाऽऽत्मपरिणामविशेषस्याङ्ग मवयवः 2 तत्त्व / धनुषि, "कोयंडे गंडीव,धम्मं धणुय सरासणं चावं।'' को०। कारण वा धर्माङ्गम्। धर्मस्यावयवे, धर्मस्य कारणे च। “धर्माङ्ग ख्यापज्योतिषोक्ते लग्नान्नवमस्थाने च / न०। वाच० नार्थ च, दानस्यापि महामतिः। (3)" हा०२७ अष्ट०। विषयसूची धम्मंतराइय-त्रि०(धर्मान्तरायिक) अन्तरायो विघ्नः, सोऽस्ति येषु (1) धर्मधर्मिणोरेकान्तभेदस्वीकारे विप्रतिपत्तिः। तान्यन्तरायिकाणि, धर्मस्य चारित्रप्रतिपत्तिलक्षणस्यान्तरायिकाणि आत्मघटाऽऽदेश्चैतन्यरूपाऽऽदयो धर्मिणोऽत्यत्तं व्यतिरिक्ता अपि धर्मान्तरायिकाणि / वीर्यान्तरायचारित्रमोहनीयभेदे, 'धम्मतराइयाणं समवायेन संबद्धाः सन्तोधर्मधर्मिव्यपदेश इति परमतनिराकरणम्। कम्माणं।" भ०६ श०३१ उ०। (3) धर्मानुरूपो धर्मीति प्रतिपादम्। धम्मंतराय-पुं०(धर्मान्तराय) धर्मविघ्ने, ग०। (4) धर्मशब्दार्थनिरूपणम्। अथ धर्मान्तरायमाश्रित्य प्रस्तुतमेव निरूपयति(५) लोकोत्तरधर्मप्ररूपणम् / सीलतवदाणभावण-चउविहधम्मंतरायभयभीए। (6) तद्व्यासार्थनिर्देशः। जत्थ बहू गीयत्था, गोयम ! गच्छं तयं भणियं / / 100 / / (7) यतिधर्मनिरूपणम्। दानं शील तपो भावना, एतेषां द्वन्द्वः, ता एव चतरत्रो विधाः प्रकारा (8) द्रव्यभावभेदेन धर्मस्य द्वैविध्यम्। यस्य दानशीलतपोभावनाचतुर्विधः। सूत्रे च बन्धानुलोम्याद् व्य(६) नामस्थापनाद्रव्यभावधर्माणां नानात्वनिरूपणम्। त्ययनिर्देशः / एवंविधो धर्मः, तस्यान्तरायो विघ्नः, तस्माद्यद्भयं तेन (10) धर्मस्य स्वलक्षणाभिधित्सा, भीताः साशङ्का यत्र गच्छे बहवो गीतार्था भवन्ति, हे गौतम ! स गच्छो (11) धर्मतत्त्वस्य लिङ्गानि। भणितः / इति गाथाछन्दः // 100 / / ग०२ अधिo (12) धर्मद्रुममूलप्रतिपादनम्। धम्मंतेवासि(ण)-पुं०(धर्मान्तेवासिन्) अन्ते समीपे वस्तुं शील(१३) ये धर्मानधिकारिणस्तेषां विचारः / मस्येत्यन्तेवासी, धर्मार्थमन्तेवासी धर्मान्तेवासी / शिष्ये, स्था० 10 (14) सद्धर्मग्रहणयोग्यताप्ररूपणम्। गाधर्मप्रतिबोधनतः शिष्यो धर्मार्थितयोपपन्नो वा शिष्यो धर्मान्तेवासी। (15) धर्माधिकारिणां प्ररूपणम्। शिष्यभेदे, स्था०४ ठा०३ उ०। 'अहंणं तुभधम्मंतेवासी।" शिल्पार्थ ग्रहणार्थमपि शिष्या भवन्तीत्यत उच्यते धर्मान्तेवासी। भ० 15 श०। (16) ये प्रमाद्यन्ति तेषां दुःखप्रतिपादनम्। धम्मकंखिय-त्रि०(धर्मकाक्षित) धर्मे काङ्क्षा संजाताऽस्येतिधर्मका(१७) धर्माभिमुखीकरणम् / क्षितः। धर्मेच्छावति, तंग (18) उपदेशदानम्। धम्मकत्ता-त्रि०(धर्मकर्ता) धर्मानुष्ठान विधायके, दर्श०। (16) धर्मपदार्थनिर्वचनम्। गुरोः स्वरूपमाविष्कुर्वन्नाह(२०) धर्मपदार्थे गुरुशिष्ययोः प्रवृत्तिर्येनोपायेन भवति तन्निरूपणम्। धम्मन्नु धम्मकत्ता य, सया धम्मपरायणो। (21) भ्रमरदृष्टान्तेनादत्तग्रहणं प्रतिपाद्य तन्निराकरणम् सत्ताणं धम्मसत्तत्थ-देसओ भयए गुरू।।४।। (22) धर्मस्य मोक्षकारणत्वम्। धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मानुष्ठानविधायकः, एवंविधो हि स्व(२३) दुर्लभमनुजदेहावाप्तावुत्तरगुणप्राप्तेरावश्यैतावर्णनम् / परोपकारकरणक्षमो विशेषेण भवति। यत उक्तम्- "गुणसुट्टियस्सवयण, (24) धर्मभ्रष्टस्यैहिकाऽऽमुष्मिकदोषाभिधानम् / धयमहुसित्तो व्व पायओ भाइ। गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहीणो जह (25) यदभिसन्ध्य धर्माऽऽख्यानं तन्निरूपणम्। पईवो // 1 // " सदा सर्वकालं धर्मपरायणो धर्मानुष्ठायी, तम्चैकदा क्वापि (26) सद्धर्मपरीक्षकाऽऽदिभावप्रतिपादनम् / द्रष्टारमपेक्ष्य प्रवर्ततेयस्तस्थोभयलोकविरोधकत्वात्। उक्तं च- 'से दिया
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________________ धम्मकत्ता 2711 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मकहा वाराओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा।" तथा / सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थोपदेशको गुरुरुच्यत इति गाथार्थः / / 4aa दर्श० 4 तत्त्व। धम्मकरण--न०(धर्मकरण) कुशलानुष्ठानाऽऽसेवने, पञ्चा० 2 विव०। धम्मकस-पुं०(धर्मकष) 'पाणबहाईआणं, पावट्टाणाण जो उ पडिसेहो। झाणज्झयणाईणं, जो अ विही एस धम्मकसो // 1 // " इत्युक्तलक्षणे सम्यग्धर्मपरिशोधनोपायेषु कषच्छेदतापेषु प्रथभे उपाये, पं०व०४ द्वार। (तद्वक्तव्यता धर्मपरीक्षाऽवसरे 'धम्म' शब्देऽनुपदमेव गता) धम्मकहा-स्त्री०(धर्मकथा) दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्त्वसनातं धारयतीति धर्मः, तस्य कथन कथा धर्मकथा। ओघवाध०। धर्मसम्बद्धाया वार्तायाः कथन धर्मकथा। उत्त० 26 अधर्मदेशनाऽऽदिलक्षणवाक्यप्रबन्धरूपे कथाभेदे ग०३ अधिo अहिंसाऽऽदिधर्मप्ररूपणा धर्मकथेति। औ०। यत् पुनः-- इह परत्र च स्वयं च कर्मविपाकोपदर्शनं सा धर्मकथति। बृ०१ उ०३प्रक०। धर्मकथा धर्मोपायकथा। उक्तं च -"दयादानक्षमाऽऽद्येषु, धर्माङ्गेषुप्रतिष्ठिता। धर्मोपादेयतागर्भाः, बुधैर्धर्मकथोच्यते॥१॥" इयं चोत्तराध्ययता-ऽऽदिरूपाऽवसेयेति। स्था०३ठा०३उ०। धर्मकथामेव दर्शयतिअस्थि लोए, अत्थि य अलोए, एवं जीवा, अजीवा , बंधे, मोक्खे, पुण्णे, पावे, आसवे, संवरे, वेयणा, णिज्जरा, अरिहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, नरका, णेरड्या, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ, माया, पिया, रिसओ, देवा, देवलोआ, सिद्धी, सिद्धा, परिणिव्वाणं, परिणिव्वुया, अत्थि पाणाइवाए, मुसावाए, अदिण्णादाणे,मेहुणे परिग्गहे / अस्थि कोहे, माणे, माया, लोभे० जाव मिच्छादंसणसल्ले / अत्थि पाणाइवायवे रमणे, मुसावायवेरमणे, अदिण्णादाणवेरमणे, मेहुणवेरमणे, परिग्गहवेरमणे०जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे। सव्वं अस्थिभावं अत्थि त्ति वयति, सव्वं णत्थिभावं णत्थि त्ति वयति, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, फुसइ पुण्ण पावे, पच्चायंति जीवा, सफल कल्लाणपावए। औ० तमेव धम्म दुविहं आइक्खइ। तं जहा-अगारधम्मं, अणगारधम्मं च / अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वयइ सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिन्नादा-. णाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्याओ परिग्गहाओ वेरमणं, राईभोअणाओ वेरमणं; अयमाउसो ! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते, एअस्स धम्मस्स सिक्खाए उवहिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति / अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ।तं जहा-पंच अणुव्वयाई, | तिणि गुणवयाई, चत्तारि सिक्खावयाई। पंच अणुव्वयाइं / तं जहा--थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे / तिणि गुणव्ययाइं / तं जहा-अणत्थदंडवेरमणं, दिसिव्वयं, उवभोगपरिभोगपरिमाणं / चत्तारि सिक्खावयाई / तं जहा-सामाइअं देसावगासियं, पोसहोववासे, अतिहिसंविभागे, अपच्छिमा मारणंतिआसंलेहणा झूसणाराहणा, अयमाउसो ! अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते / औ०। भ०। उपा० भेदतो धर्मकथामाहधम्मकहा बोधव्वा, चउव्दिहा धीरपुरिसपन्नत्ता। अक्खेवणि विक्खेवणि, संवेगे चेव निव्वेए|६|| धर्मविषया कथा धर्मकथा, असौ बोद्धव्या चतुर्विधा धीरपुरुषप्रज्ञप्ता, तीर्थकरगणधरप्ररूपितेत्यर्थः / चातुर्विध्यमेवाऽऽह- आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगश्चैव, निर्वेद इति। सूचनात् सूत्रमिति न्यायात् संवेजनी, निवेदनी चैवेत्युपन्यासगाऽथाक्षरार्थः // 66 // दश०३अ०। आसां कथाना या यस्य कथनीयेत्येतदाह-- वेणइयस्स पढमया, कहा उ अक्वेवणी कहेयव्या। तो ससमयगहियत्थे, कहिञ्ज विक्खेवणी पच्छा।।१०।। विनयेन चरति वैनयिकः शिष्यस्तस्मै प्रथमतया आदिकथनेन, कथा तु आक्षेपणी उक्तलक्षणा कथयितव्या / ततः स्वसमयगृहीतार्थे सति तस्मिन् कथयोद्विक्षेपणीमुक्तलक्षणामेव पश्चादिति गाथार्थः / / 10 / / किमित्येतदेवमित्याहअक्खेवणिअक्खित्ता, जे जीवा ते लभंति संमत्तं / विक्खेवणीऍ भज, गाढतरागं च मिच्छत्तं // 11 // आक्षेपण्या कथया आक्षिप्ता आवर्जिता आक्षेपण्याक्षिप्ता ये जीवास्ते लभन्ते सम्यक्त्वम् / तथा आवर्जनशुभभावस्य मिथ्यात्वमोहनीये क्षयोपशमोपायत्वात् / विक्षेपण्या भाज्यं सम्यक्त्वं कदाचिल्लभन्ते, कदाचिन्नेति, तच्छ्रवणात्तथाविधपरिणामभावात् गाढतरं वा मिथ्यात्वं जडमतेः पररामयदोषानवबोधाद् निन्दाकारिण एतेन द्रष्टव्या इत्यभिनिवेशेनेति गाथार्थः / / 11 // दश०३अ०॥ धर्गकथाकर्तुः किं फलं स्यादतस्तत्फलमाहधम्मकहाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ, आगामिस्स भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ / / 23 / / धर्मकथया व्याख्यानरूपया निर्जरां जनयति / पाठान्तर-तश्चप्रवचन प्रभावयति प्रकाशयति / उक्तं हि- "पावयणी धम्मकही, वाई नेमित्तिओ तवस्सीया विज़ासिद्धोय कवी, अष्ट्रेव पभावया भणिया॥१॥" (आगमिस्स भदत्ताए ति) सूत्रत्वादागमिष्यदित्यागमिकालभाविभद्रंकल्याणंयरिंमस्तथा तस्य भावस्तया, यदि वा-आगमिष्यतीत्यागम आगामिकालस्तस्मिन
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________________ धम्मकहा 2712 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मकहा शश्वद्भद्रतया अनवरतकल्याणतयोपलक्षित कर्म निबध्नाति शुभानुबन्धि शुभमुपार्जयतीति भावः ।।२३।।उत्त० 26 अ०| ''गयरागदोसमोहा, धम्मकह जे करेंति समयन्नू। अणुदियहमवीसंता, सव्वपावाण मुचंति।'' महा०३ अ०॥ तथा चसंखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति। ते पारगा दोण्ह वि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरंति / / 18 / / सम्यक ख्यायते परिज्ञायते यया सा संख्या, सदबुद्धिरतया स्वता धर्म परिज्ञायाऽपरेषां यथावस्थितं धर्म श्रुतचारित्राऽऽख्य व्यागृणन्ति / प्रतिपादयन्ति। यदि वा-स्वपरशक्तिं परिज्ञाय पर्षद वा प्रतिपाद्य वाथ सम्यगवबुध्य धर्म प्रतिपादयन्ति, ते चैवंविधा बुद्धाः कालत्रयवेदिनो जन्मान्तरसंचितानां कर्मणामन्तकरा भवन्ति। अन्येषां च कर्मापनयनसमर्थो भवतीति दर्शयति-ते यथावस्थित-धर्मप्ररूपकाद् द्वयोरभि पराऽऽत्मना कर्मपाशविमोचनया स्नेहाऽऽदिनिगडविमो बनया वा करणभूतया संसारसमुद्रस्य पारगा भवन्ति। ते चैवंभूताः सम्यक वोधित पूर्वोत्तराविरुद्ध प्रश्न शब्दमुदाहरन्ति / तथाहि-पूर्व बुद्धा पालांच्य कोऽयं पुरुषः कस्य चार्थस्य ग्रहणसमर्थोऽह वा किंभूतार्थप्रतिपादनशक्त इत्येवं सम्यक् परीक्ष्य व्याकुर्यादिति / अथवा-परेण किश्चिदर्थ पृष्टस्त प्रश्न सम्यक परीक्ष्योदाहरेत् सम्यगुत्तरं दधादिति / तथा चोक्तम्-- 'आवरियसयधारिएणं अत्थेण सरियमुणिएणं / तो संधमज्झयारे, ववहरि जे सुहं होति / / 1 // " गीतार्था / यथावस्थितं धर्म कथयन्तः स्वपरतारका भवन्तीति।।१८।। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। ("लोगविजय" शब्द विस्तरतो वक्ष्यते) दुव्वसुमुणी अणाणाए तुच्छए गिलाइवत्तए एस वीरे पसंसिए अब्वे तिलोगसंजोगं पसणाए पवुच्चति-जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति इति कम्म परिणाय सव्यओ जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे जे अण-- ण्णारामे से अणण्णदंसी, जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति जहा तुच्छस्स कत्थति तहा पुण्णस्स कत्थति, अवि य हणे अणाइयमाणे, एत्थं पिजाण सेयंति णत्थि, केयं पुरिसे कं च णए? एस वीरे पसंसिए, जे बद्ध पडिमोयए, उड़े अहं, तिरियं दिसासु, से सव्वओ सव्वपरिण्णाचारी ण लिप्पई छणपदेण, वीरे से मेहावी जे अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधपमोक्खमण्णेसी कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के / / 102 / / से जं च आरभे जंच णारंभे, अणारद्धं च ण आरभे, छणं छणं परिण्णाय लोगसण्णं च सव्वसो॥१०३|| उद्देसो पासगस्स णत्थि बाले पुण णिहे कामसमणण्णे असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवढं अणुपरियट्टइत्ति वेमि। आचा०१ श्रु०२ अ०६उ०। धर्मकथा यतीनां कीदृशीत्याह-. सज्झायाईसंतो, तित्थयरकुलाणुरूवधम्माणं / कुज्जा कहं जईणं, संवेगविवड्डाणिं विहिणा।। स्वाध्यायाऽऽदिश्रान्तः संस्तीर्थकरकुलानुरूपधर्माणां महा मनाम्. किमित्याह-कुर्यात् कथा यतीनां संवेगविवर्द्धनी विधिनाऽऽसनचलनाऽऽदिनेति गाथार्थः / पं०व०३ द्वार। पुरुषेण केवलस्त्रीणां स्त्रिया च केवलपुरुषाणामग्रे धर्मकथा न कर्त्तव्या. तथा चोक्तम्बुड्डाणं तरुणाणं, रत्तिं अज्जा कहेइ जा धम्म / सा गणिणी गुणसागर ! पडिणीया होइ गच्छस्स // 116 / / वृद्धानां स्थविराणां, तरुणानां यूना पुरुषाणां केवलानामकेवलानां वा (रति ति) ''सप्तम्या द्वितीया " // 8 / 3 / 137 / / इति प्राकृतसूत्रेण सप्तमीस्थाने द्वितीयाऽऽदिविधानात् रात्रौ या आर्या गणिनी (धम्मति) धर्मकथां कथयति, उपलक्षणत्वाद्विवसेऽपिया केवलपुरुषाणां धर्मकथा कथयति, हे गुणसागर ! हे इन्द्रभूते ! सा गणिनी गच्छस्य प्र यनीका भवति / अत्र च गणिनीग्रहणेन शेषसाध्वीनामपि तथाविधाने प्रत्यनीकत्वमवसेयमिति / ननु कथं साध्व्यः केवलपुरुषामग्रे धर्म कथां न कथयन्ति? उच्यते-यथा साधवः केवलाना स्त्रीणां धर्म कथा न कथयन्ति, तथा साध्व्वोऽपि केवलानां पुरुषाणामने धर्मकथां न कथयन्ति / यत उक्तश्रीउत्त-राध्ययन- 'नो इत्थीण कह का हवइ, से निग्गथ तं कहमिति च आयरियाऽऽह-निग्गथस्स खलु इत्थीणं कह कहेमाणस्स बभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखावा विगिच्छा वा समुप्पजेजा, भेद वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणेजा, दीहकालिय वा रोगायक भवेजा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भसिज्जा, तम्हा खलु नो इत्थीण कहं कहेज त्ति।"(नो इत्थीण ति) नो स्त्रीणामेकाकिनीनां कथां कथयिता भवति, यथेदं दशब्रह्मचर्यसमाधिस्थानमध्ये द्वितीयं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान साधूनामुक्तं, तथा साध्वीनामप्येतद् युज्यते। तच साध्वीना पुरुषाणामेव कवलानां कथाया अकथने भवतीति। तथा स्थानाङ्गेऽपि- 'नो इत्थीण कह कहत्ता हवइ" इद नवब्रह्मचर्यगुप्तीनां मध्ये द्वितीयगुप्तिसूत्रम / अस्य वृत्तिः- नो स्त्रीणां, केवलानामिति गम्यते / कथां धर्मदेशनाऽऽदिलक्षणवाक्यप्रतिबन्धरूपामित्यादि। यथा च-द्वितीयां गुप्ति साधवः पाल-- यन्ति तथा साध्व्योऽपि पालयन्ति, सा च साध्वीनां पुरुषाणामेव केवलानामग्रे कथाया अकथने भवत्यतः प्रोच्यते न केवलपुरुषा-णां साहव्यो धर्मकथा कथयन्तीति गाथाछन्दः / / 116|| ग०३ अधिक। तथा चमुद्धजणखेत्तसुभवो-हसस्सविद्दवणदक्ख समणीओ। ईईओ वि य काउ वि, अडंति धम्मं कहतीओ।। मुग्धजनः / स्वल्पबुद्धिलोकास्त एव क्षेत्राणि बीजवपनभूमयस्तेषु शुभवोधः प्रधानाऽऽशयः स एव सस्यं धान्यं, तस्य विद्रवणं विनाशकरणं, तत्र दक्षाः पट्यः, प्राकृतत्वाचात्र विभक्तिलोपः। श्रमण्य आर्यिका ईतय इव यथा तिड्डाद्याः काश्वन न सर्वा अटन्ति ग्रामाऽऽदिषु चरन्ति धर्म दानाऽऽदिकं कथय-त्यो बुवाणा इति गाथार्थः /
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________________ धम्मकहा 2713 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मकहा एतदपि निराकर्तुमाहएगतेणं चिय तं, न सुंदरं जेण ताण पडिसेहो। सिद्धतद्देसणाए, कप्पट्ठियए व गाहाए।। एकान्तेनैव सर्वथा, तद्धर्मकथनं, नैव सुन्दरं भव्यं, येन तासांसाध्वीना, प्रतिषेधो निराकरणं, सिद्धान्तदेशनाया भागमकथनस्य, यथा प्रतिषेधः कल्पस्थितयैव गाथयेत्यर्थः। कल्पगाथाभवाऽऽहकुसमयसुईण महणो, विबोहओ भवियपुंडरीयाणं। धम्मो जिणपन्नत्तो, पकप्पजइणा कहेयव्वो। कुसमयश्रुतीनां कुसिद्धान्तमतीनां, मथनो विनाशको, विबोधको विकाशको, भट्यपुण्डरीकाणां मुक्तियोग्यप्राणिशतपत्राणां, धर्मा दानाऽऽनिको, जिनप्रज्ञप्तो मुनीन्द्रगदितः, प्रकल्पयतिना निशीथज्ञसाधुना, कथयितव्यो वक्तव्यो, न पुनः साध्व्येति हृदयमिति गाथार्थः / ननु यदि तासा स दीयतेऽतो निन्द्यते तद्धर्मकथनमित्याह.संपइ पुणो न दिज्जइ, पकप्पगंथस्स ताण सुत्तत्थो। जइया वि य दिजंतो, तइया वि य एस पडिसेहो।। साम्प्रतमधुना, पुनर्नव दीयते वितीर्यते, प्रकल्पग्रन्थस्य निशीथस्य, तासामार्थिकाणां, सूत्रार्थः-सूत्रेण पद्धत्या सहितोऽर्थोऽभिधेयं सूत्रार्थः, उभयमिति हृदयम्।यदाऽपि वा दीयते वितीयते स्म, तदापि च तस्मिन्नपि काले, एष व्याख्यानकरणलक्षणः, प्रतिषेधो निवारणमिति गाथार्थः / / अमुमेवार्थ दृष्टान्तपूर्वकं दर्शयन्नाहहरिभद्दधम्मजणणी-ऍ किं च जाइणिपवत्तिणीए वि। एगो वि य गाहत्थो, नो सिट्ठो तु मुणियतत्ताए।। सूचनात्सूत्रस्य हरिभद्रसूरिधर्मजनन्याऽपि धर्मदात्रीत्वेन प्रतिपन्नमात्रा, किं चाभ्युचये, याकिनीप्रवर्तिन्या एतन्नाममहत्तरया, न केवलमभ्याभिरित्यपिशब्दार्थः / एकोऽपि च गाथार्थोऽभिधेयम्, आस्तां प्रभूत इत्यपेरधः, नो नैव शिष्टः कथितो मुणिततत्त्वया ज्ञातपरमार्थया। तथा च किल-"चक्किदुगं हरिपणग।'' इत्यादि-गाथायाः स्वार्थ पृष्टा हरिभद्रभद्रेण तया च कथित इति सुप्रतीतोऽयमर्थ इति गाथार्थः / एवं ज्ञातजीवोपदेशमाह-- बहु मन्नसु मा चरियं, अमुणिततत्ताण तासिं ता। जीव ! जइ वा निवारिया, ता वारसु महुरवक्केण / / बहु मन्यस्व भव्यमिदमिति मंस्थाः , मेति निषेधे, चरितं धर्मक-- थनलक्षणम्, अमुणिततत्त्वानामविदितपरमार्थाना, तासामार्यि-काणां, तस्माज्जीवाऽऽत्मन् ! यदि वा विकल्पार्थः, तिष्ठन्ति / निवारिता निषिद्धास्ततो वारय निषेधय, मधुरवाक्येन कोमलवचसेति गाथार्थः / जीवा० 27 अधिo अमुणिय मुणीण चरणाा, केई मज्झण्हकालसमयम्मि। इत्थीण केवलीणं, कहिंति धम्म भवाभिरया / / / मुनीनाममुणितचरणा अविदितयतीशचारित्राः, केऽप्येके, मध्याह्नकालसमये प्रहरद्वयोज़ , स्त्रीणां श्राविकाणां, केवलाना श्रावकाsमिश्रिताना, कथयन्तिधर्म श्रुतधर्माऽऽदिकं, किं विशिष्टाः? भवाभिरताः संसाराऽऽसक्ता इति गाथार्थः। एतदपि न संगतमित्याह-- सिद्धतामयपडिपु-न्नकन्नपुडयाण संमयं जम्हा। न इय धम्मकहणम्मी, एए दोसा पसज्जंति / / सिद्धान्तामृतप्रतिपूर्णकर्णपुटकानामागमसुधासंभृतश्रवणच्छदपत्राणां संमतभभिप्रेत, नेति निषेधे, इदमित्थं धर्मकथनं, यस्मादित्येवं कथने प्रतिपादने, एते वक्ष्यमाणा दोषा दूषणानि प्रसज्ज्यन्ते प्रादुर्भयन्तीति गाथार्थः। तानेवाऽऽहइत्थिकहा उ अगुत्ती, मज्झण्हे वस्सयाऽऽगमे संका। पलिमंथो दसवेका-लियम्मि अन्नं इमं भणियं / / स्त्रीषु केवलनारीषु कथा धर्मकथनम्, इदं चोत्तराध्ययने द्वितीयव्याख्याने कथितम् / तुः समुचयते / अगुप्तिः प्रत्यहं तदिन्द्रियदर्शनतो ग्रहाचर्यारक्षा, अकालचारित्वप्रस्तावाऽऽगमनत्वेन हि तासां मध्याह्ने केवलानां यत्युपाश्रये आगमे आगमनमवस्थानतया शहाकिमप्यकार्यमेताभिः करिष्यन्तीत्येवं मन्दमतिरूपा. पलिमन्थः स्वकायव्याघात: साधूना, तथा दशवकालिके समयप्रसिद्ध अन्यदपरमिदं वक्ष्यमाणं भणितं तूक्तमिति गाथार्थः। तदेव श्लोकपञ्चकेनाह-- विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं / नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा।। जहा कुक्कडपोयस्स, निचं कुललओ भयं / एवं तु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं / / हत्थपायपडिच्छिन्नं, कन्ननासविगप्पियं / अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवज्जए।। अंगपचंगसंठाणं, चारुल्लवियपेहियं / इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवङ्गणं / / चित्तमित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअलंकियं / भक्खरं पिव दट्ठण, दिह्रि पडिसमाहारे / / सर्वा अपि प्रकटार्धाः। यत एवमत आहएतो चिय केई पु-व्वसूरिणो मोक्खसोक्खतल्लिच्छा। आसीसं पि हु दिता, ते अहोमुहाएँ दिट्टीए॥ एतस्मादेव कारणात् केऽपि पुण्यभाजः, पूर्वसूरयश्चिरन्तनाऽऽचार्याः, मोक्षसौख्यलिप्सवो निर्वाणसुखाभिलाषनिष्ठा, आशिषमपिधर्मलाभमपि, न केवलधर्मकथामित्यपिशब्दार्थः, हु: पूर्ववत् / अदुर्दत्तवन्तः, श्राविकाणामिति शेषः / अधोमुखया न्यग् स्ववक्रया दृष्ट्या लोचनेनेति गाथार्थः। अत्रापि जीवानुशिक्षामाहसिद्धिवधूवरसुहसं-गलालसो जीव ! जइ तुमं ता मा। कहसु तुम जिणधम्म, इत्थीसु अकालचारीसु॥ सिद्धिवधूवरसुखसङ्ग लालसो मुक्ति कान्ताप्रधानाभिष्वङ्गलम्पटो, जीव ! प्राणिन ! यदि त्वं भवान्, तस्मान्मा निषेधे, कथय
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________________ धम्मकहा 2714 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मघोस वद च, भवान् जिनधर्म सर्वज्ञवृषम्, अकालचारिणीषु प्रस्तावादागतासु माण्य कस्यचित्कर्तृवादः, स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः / सन्तापाऽऽस्त्रीषु नारीषु इति गाथार्थः / जीवा 24 अधि०। (यस्यां वसतौ धर्भकथा- रम्भः पापहानाय चेति, ध्वस्तप्रज्ञाने पञ्चलिङ्गानि जाड्ये // 1 // ' इति शब्दः संयतीभिः श्रूयते, तत्र वस्तव्यं न वेति 'वसई' शब्दे वक्ष्यते) च तद्वाक्यम्। आ०म० १अ०१खण्ड। (अन्तगृहे धर्मकथा न कर्त्तव्येति 'अंतरगिह' शब्दे प्रथमभागे 85 पृष्ठ | धम्मकिरिया-स्त्री०(धमक्रिया) धर्मानुष्ठाने, यो०बिन गतम्) ननु श्रावकस्य धर्मकथनेऽधिकारोऽस्ति? अस्तीति बूमः, | धम्मकुमार-पुं०(धर्मकुमार) नागेन्द्रगच्छीये विबुधप्रभसूरिशिष्ये, गीतार्थादधिगतसूत्रार्थस्य गुरुपरतन्त्रवचनस्य तस्यैव सूत्रार्थस्य कथने ___ अयमाचार्यः विक्रमसंवत् 1334 मिते विद्यमान आसीत् / शालिको नाम नाधिकारः? 'पढइ सुणेइ गुणेइय, जणस्रा धम्म परिकहेइ'' भद्रचरित्रनामग्रन्थमरीरचत्। जै०इ०) इत्यादिवचनात्। तथा चूर्णिः-"सो जिणदाससावओ अनिवउद्दसीसु धम्मक्खाइ(ण)-पुं०(धर्माऽऽख्यायिन्) धम्मामाख्याति भव्यानां उववासं करेइ, पुत्थयं च वाएइ।" इत्यादि / ध० २अधि०ा धर्मस्य | प्रतिपादयतीति धर्माऽऽख्यायी। धर्मप्रतिपादके, औ०। सूत्रका ज्ञा०। श्रुतरूपस्य कथा व्याख्या धर्मकथा। स्वाध्यायभेदे, स्था०५ ग०३ उ०। धर्मख्याति-त्रि०ाधर्माद्वा ख्यातिः प्रसिद्धिर्यस्य सः। धर्मेण प्रसिद्धे, औ०। प्रव०। उत्त०। औ०। धर्मकथा ह्येव स्वरूपतः “सुद्धं धम्मुवएसं, गुरुप्प- धम्मगुज्झ-न०(धर्मगुह्य) धर्मरहस्ये, "इदमत्र धर्मगुह्य, सर्वस्वं चैतदेसारण सम्ममयबुद्ध। सपरोवयारजणगं, जो मग्गस्स कहिन धम्मत्थी।' वास्य।' षो०२ विव०॥ इति / ध०३ अधि[ धर्मप्रधाना कथा धर्मकथा। ज्ञानाधर्मकथाss धम्मगुरु-पुं०(धर्मगुरु) दीक्षाऽऽचायें, "सधर्मगुरुपूजकः।' हा० 25 अष्ट०। ख्यस्य षष्ठस्याङ्गस्य द्वितीये श्रुतस्कन्धे, ज्ञा०१ श्रु०१०। धम्मघोस-पुं०(धर्मघोष) मथुरास्थेपार्श्वनाथस्य शिष्ये स्वनामख्याते तस्याधिकारार्थो यथा आचार्य्य, ती०८कल्प। दक्षिणमथुरास्थे स्वनामख्याते आचार्ये, आ० दोचस्स णं भंते ! सुयखंधस्स धम्मकहाणं समएणं० जाव चू० १अ०। महावीरस्वामिनः शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, आ०चू०४ संपत्तेणं के अट्टे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ! धम्मकहाणं दस अ० आव०ा विमलगणिशिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, विमलगणिमवग्गा पण्णत्ता। ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग 1 अ०॥ धिकृत्य "शिष्यो गच्छपतिः प्रतापतरणिः श्रीधर्मघोषः प्रभुः " दर्श० ('अग्गमहिसी' शब्द प्रथमभागे ? पृष्ठे धर्मकथायाः सर्वे वर्गाः) 5 तत्त्व / कौशाम्बीनगरस्थे धर्मवसोराचार्य्यस्य शिष्ये स्वनामरख्याते धम्मकहि(ण)-पुं०(धर्मकथिन्) धर्मकथा प्रशस्ताऽस्यास्तीति आचार्य, आव०४ अ० आ०चू०। आ०का आतुरप्रत्याख्यानप्रकीधर्मकथी, शिखाऽऽदित्वादिन् / आक्षेपणीविक्षेपणीसंवेगजननी पर्णकवृत्तिकारकस्य महेन्द्रसूरेणुरो स्वनामख्याते आचार्ये, आतु०। स निर्वेदनीलक्षणा चतुर्विधा जनितजनमनः प्रमोदा धर्मकथां कथयति, चाञ्चलगच्छीयो जयसिंहसूरिशिष्यः / येन विक्रमसंवत् 1263 मिते शतध०२ अधि०। प्रव०। प्रवचनप्रभावकभेदे, संथाला नि०चू०। दशा पिं०| पदिका नाम ग्रन्थो विरचितः। अस्य जन्म 1208 वर्षे मरुदेशे आसीत्। जै०३०। अन्योऽपि धर्मघोषसूरिनर्नागेन्द्रगच्छे हेमप्रभसूरेः शिष्यः, आयपरसमुत्तारो, तित्थविवड्डीय होइ कहयंते। सोमप्रभसूरेश्च गुरुः / अन्योऽप्येतन्नामा ऋषिमण्डलस्तोत्रकर्ता / जै० अन्नन्नाभिगप्तेण य, पूयाथिरया य बहुमाणो / / इ० चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते स्थविरे, ज्ञा०१ श्रु 16 अ०। क्षीराश्रवाऽऽदिलब्धिसंपन्न आक्षेपणीविक्षेपणीसंवेगजननी नि तपागच्छस्थे देवेन्द्रसूरेः शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, ग०४ अधिक। वंदनीभेदाच्चतुर्विधां धर्मकथा कथयन् धर्मकथीत्युच्यते, तस्मिन् धर्म अयमाचार्यः सनाऽऽचारकालसप्ततिनामानौ ग्रन्थौ व्यधात्, विक्रमसंवत कथयति आत्मनः परस्य च संसारसागरात समुत्तारो निस्तरणं भवति, 1327 मितेऽयं सूरिपदमाप। जै०इ०। मगधजनपदस्थवसन्तपुरनगरस्थे तीर्थविवृद्धिश्च, भवति, प्रभूतलोकस्य प्रव्रज्याप्रतिपत्तेः। तथा देशना स्वनामख्याते आचार्य , सूत्र०२ श्रु०६ अ०। आ०का वाराणसीनगद्वारेण पूजाफलमुपवान्यान्याभिगमेन अन्यान्यश्रावकयोधनेन पूजायां रस्थे स्वनामख्यातेऽनगारे, आ०चू०४ अ०। आ०क०। ती०। आव० स्थिरता, बहुमानश्च कृतो भवति। बृ०१ उ०। धर्मकथाकथके, पिं०। चम्पानगरीनृमते मित्रप्रभस्य स्वनामख्यातेऽमात्ये, आव०४ अ०॥ धम्मकाम-त्रि०(धर्मकाम) धर्मे श्रुतचारित्रलक्षणे कामो वाञ्छा यस्य स उज्जयिनीवास्तव्ये स्वनामख्यातेऽनगारे, आव०४ अ० आ०क०। धर्मकामः। धर्मवाञ्छावति, तं०। विमलजिनस्य प्रपौत्रके शिष्ये स्वनामख्याते स्थविरे, भला धम्मकाय-पुं०(धर्मकाय) धर्मसाधने शरीरे, "सुसिलिट्टा धम्म तद्वक्तव्यता यथाकायपीडा वि। धर्मसाधनशरीरवेदनेति। पचा० 18 विव०॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मकित्ति-पुं०(धर्मकीर्ति) स्वनामख्याते आचार्ये, नं०। 'विबुधवर- धम्मघोसे णाम अणगारे जाइसंपण्णे | वण्णओ जहा धर्मक्रीर्तिश्रीविद्याऽऽनन्दसूरिमुख्यबुधैः / ' कर्म०२ कर्मा 'पण्डित. के सिसामिस्स, जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे वरधर्मकीर्तिमुख्यबुधैः / ' ध०र०। स्वनामख्याते बौदसूरी, ''वेदप्रा- | पुवाणुपुटिंव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणे व
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________________ धम्मघोस 2715 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मज्झयण हत्थिणाउरे णयरे जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छद, धम्मजागरिया-स्त्री०(धर्मजागरिका) धर्मचिन्तायाम्, 'सो पुटवावउवागच्छद ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हइ, उग्गिण्डइत्ता, रकाले, जागरमाणो उ धम्मजागरियं / ' पं०व०४ द्वार / धर्मध्यानेन संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे,०जाव विहरइ / भ०११ जागरिका धर्मजागरिका। कल्प०३ अधि०६ क्षण। धर्मध्यानानुस्मरणे, श०११ उ० 'धम्म जागरित्तए वा / " धर्मध्यानलक्षणं जागरितुं, धातूनामनेधम्मचक्क-न०(धर्मचक्र) तीर्थकृतां धर्मप्रकाशकं चक्र धर्मचक्रम / कार्थत्वात, "झाण वा झाइत्तए' धर्मध्यानमनुस्मर्तव्यम् / वृ०१ तीर्थकृतां पुरः पद्मप्रतिष्ठिते स्फुरत्किरणचक्रे धर्मप्रकाशके चक्रे, तच उ०१प्रकला धर्माय धर्मचिन्ताया वा जागरिका जागरण धर्मजागरिका। यत्र यत्र जगद्गुरुर्विचरति तत्र तत्र देवैर्नीयमानं गगनगतं गच्छतीति / भ०१२ श०१उ०। धर्मप्रधाना जागरिका। निद्राक्षयेण बोधो धर्मजागप्रव०४० द्वार / आ०म० आ०चू०। तक्षशिलायां बाहुबलिना कारिते रिका / भावप्रत्युपेक्षायाम्, सा चभगवत ऋषभदेवस्य धर्मप्रकाशके चक्रे च, आव०। भगवतस्तक्षशिला- "किं कय किं वा सेसं, किं करणिनं तवं च न करेमि। गमनमधिकृत्य 'कल्लं सव्विड्डीए, पूए मह दलृधम्मचक्क तु।' आव०१ पुव्वावरत्तकाले, जागरओ भावपडिलेहो // 1 // " अ०। 'बाहुबलिना चितियं-कल्ले सव्विड्डीए वंदिस्सामि त्ति निग्गओ, "अहवा को मम कालो, किमेयस्स उचियं, असारा विसया नियमपभाए सामी गतो विहरमाणो अदिडे, अधिति काऊण जहिं भगवं बुच्छो, गामिणो विरसावसाणा, भीसणो मनू'' इत्यादिरूपा। "पुव्वावरत्तकालतत्थ धम्म चक्कचिंध कारियं, तं सव्वरयणामय जोयणपरिमंडलं समयसि नो धम्मजागरिय जागरित्ता भवइ / " स्था०४ ठा० 2 उ०। पंचजोणयुस्सियदंड / " आ०म०१अ०१ खण्ड / आव०ा आ०चू० धर्मेण कुलधर्मेण षष्ठ्या रात्री जागरणं धर्मजागरिका / जन्मतः पष्टे दिने "गयग्गपयए य धम्मचक्के य / " तक्षशिलायां धर्मचक्रे। आचा०२ 203 जागरणमहोत्राचे, "छठे दिवसे धम्मजागरियं जागरेति।" कल्प०१ चू० 15 अ०। प्रतिक्षा तक्षशिलायां बाहुबलिविनिर्मित धर्मचक्रम् / ती० अधि०५ क्षण। 43 कल्प। धम्मजिण-पु०(धमंजिन) दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्त्वसंघातं धारयतीति धर्मः। धम्मचक्कवट्टि(ण)-पुं०(धर्मचक्रवर्तिन) तीर्थकरे, आ०५० 10 // तथा-गर्भस्थेजननी दानाऽऽदिधर्मपरा जातेति धर्मः, स चाऽसौ जिनश्च धम्मचरण-न०(धर्मचरण) क्षान्त्याद्यासेवने, पं०व०१ द्वार। "धम्मचरणं / धर्मजिनः। पञ्चदशे स्वनामख्याते जिने, ध०२ अधिo तत्र सर्वेऽपि पडुच।" जी०१प्रति भगवन्त ईदृशास्ततो विशेषमाह- "गभगएजंजणणी, जायसुधम्म त्ति धम्मचिंतग-पुं०(धर्मचिन्तक) धर्मशास्त्रपाठके सभासदे, औ०। | तेण धम्मजिणो।" भगवति गर्भगते येन कारणेन विशेषतो जननी जात 'धम्मचिंतर वा।" धर्मचिन्तको धर्मसंहितां परिज्ञातवान् सभासदः / सुधर्मा दानदयाऽऽदिरूपशोभनधर्मपरायणा, तेन नामतो धर्मजिनः। ज्ञा०१ श्रु० 14 अ०। याज्ञवल्क्यप्रभृत्यृषिप्रणीतधर्मसंहिताश्चिन्त- आ०म०२अ० स०। कल्प०। (एतद्वक्तव्यता 'तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव यन्ति, ताभिश्च व्यवहरन्ति येते धर्मचिन्तकाः। अनु०॥ भागे 2261 पृष्ठेद्रष्टव्या) "धम्मेणं अरहा दसवाससयसहस्साइंसवाउयं धम्मचिंता-स्त्री०(धर्मचिन्ता) धर्मा जीवाऽऽदिद्रव्याणामनुष्योगोत्पा- पालइत्ता सिद्धे० जाव पहीणे'। स्था० 10 ठा०। दाऽऽदयः स्वभावास्तेषां चिन्ताऽनुप्रेक्षा, धर्मस्य वा श्रुतचारित्राऽऽ- | धम्मजीवि(ण)-पुं०(धर्मजीविन्) संयमै कजीविनि, ''णिग्गंथा त्मकस्य सर्वज्ञभाषितस्य हरिहराऽऽदिनिगदितधर्मेभ्यः प्रधानोऽय- धम्मजीविणो।" दश०६अ। मित्येवं चिन्ता धर्मचिन्ता। स०१० सम० / दशा०। सूत्रार्थानुचिन्त- | धम्मजुटवणकाल-पुं०(धर्मयौवनकाल) अन्त्यपुद्गलपरावर्तकाले. नाऽऽदिलक्षणशुभचित्तप्रणिधाने, "छट्टे पुण धम्मचिंताए।'' ग०२ अन्त्यपुद्गलपरावर्तकालो धर्मयौवनकालश्च कथ्यते। उक्तं च- "तुल्या अधि०। स्था। परिणतिर्भिन्नव्यक्तिषु यत्तदुच्यते / तिर्यक्सामान्यमित्येव, घटत्वं तु धम्मच्छेय-पुं०(धर्मच्छेद) "बज्झाणुट्टाणेणं, जेण न बहिज्जई तयं | घटेष्विव / / 5 / / " द्रव्या० २अध्या०| नियमा। संभवइ अपरिसुद्धं, सोऊणं धम्ममिच्छेओ।'' इत्युक्त--लक्षणे | धम्मजोग-पुं०(धर्मयोग) धर्मोत्साहे, धर्मसम्बन्धे च / 'अत एव धर्मपरिशोधनोपायभेदो, पं०व०४द्वार। धर्मयोगात, क्षिप्रं तत्सिद्धिमाप्नोति।' षो०३ विवा धम्मजणणी-स्त्री०(धर्मजननी) धर्मदातृत्वेन प्रतिपन्नमातरि, यथा | धम्मञ्जिय-वि०(धर्मार्जित) धर्मेण क्षान्त्यादिरूपेणार्जितमुपार्जितम् / हरिभद्रसूरर्याकिनी महत्तरिका "हरिभद्दधम्मजणणी ऐ, किं च जाइणिप- धर्मेणोत्पादिते, 'धम्मज्जियं च ववहार।" धर्मेण साधुधर्मेणोत्पादितः। दत्तिणीए वि।" जीवा० 27 अधिका पञ्चा०॥ उत०१०। धम्मजस-पुं०(धर्मयशस्) कौशाम्बीवास्तव्यस्य धर्मवसोराचार्य्यस्य | धम्मज्झय-पुं०(धर्मध्वज) धर्मचक्रवर्तित्वसूचके केतो, महेन्द्रध्वजे। शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य , आ०क०। आव० आ० चू०। राका ऐरवते भविष्यति स्वनामख्याते जिने, तिला प्रव०। स०। महावीरस्वामिनः स्वनामरख्याते शिष्ये, आव०४ अ० आ० चू०। | | धम्मज्झयण-न०(धर्माध्ययन) सूत्रकृताङ्ग प्रथमश्रुतस्कन्धस्य वाराणसीनगरस्थे स्वनामख्मतेऽनगारे, आव०४ अ आ० चूला तीन धर्मप्रतिपादके नवमेऽध्ययने, सूत्र।
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________________ धम्मज्झयण 2716 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मज्झाणि (ण) तथा च नियुक्तिकृदाह आत्मनः स्वसंवेदनाग्राह्यमन्येषामनुमेयमाध्यात्मिक तत्त्वार्थसंग्रहाऽऽदौ धम्मो पुवुद्दिट्ठो, भावधम्मेण एत्थ अहिगारो। चातुर्विध्येन प्रदर्शितं संक्षेपतोऽन्यत्र दशविधम्। तद्यथा-"अपाधोपायएसेव होइ धम्म, एसेव समाहिमग्गो त्ति।।१।। जीवाजीवविपाकविरागभवसंस्थानाऽऽज्ञाहेतुविचयानि चेति / ' (धम्मो पुव्युट्टिो इत्यादि) दुर्गतिगमनधारणलक्षणो धर्मः, पूर्व प्राम् / लोकसंसारविचययोः संस्थानभवविचययोरन्तर्भावान्नोदिष्टदशभेदेभ्यः दशवैकालिकश्रुतस्कन्धषष्ठाऽध्ययने धर्मार्थकामाऽऽख्ये उद्दिष्टः प्रति पृथगभिधानम्। तत्रापाये विचारो यस्मिस्तदपायविचयम्: एवमन्यत्रापि पादितः / इह तु भावधर्मेणाधिकारः / एष एव च भावधर्मः परमार्थतो योज्यम्, दृष्टमनोवाक्षायव्यापारविशेषाणामपायः कथमनुमान स्यादिधर्मो भवति। अमुमेवार्थमुत्तरयोरप्यध्य-यनयोरतिदिशन्नाह-एप एव त्येवंभूतः संकल्पप्रबन्धो दोषपरिवर्जनस्य कुशलप्रवृत्तित्वादपायवि चयम् / तेषामेव कुशलानां स्वीकरणमुपायः स कथमनुमेयः स्यादिति च भावसमाधिर्भावमार्गश्च भवतीत्यवगन्तव्यमिति। यदि वा-एष एव च संकल्पप्रबन्ध उपायविचयम्। असंख्येयप्रदेशाऽऽत्मकसाकारानाकाभावधर्म एष एव च भावसमाधिरेष एव च तथा भावमार्गो भवति, न तेषां रोपयोगलक्षणाऽनादिस्वकृतकर्मफलोपभोगित्वाऽऽदि जीवस्वरूपानुपरमार्थतः कश्चिद्भेदः। तथाहि-धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यः क्षान्त्यादि चिन्तन जीवविचयम् / धर्माधर्माऽऽकाशकालपुद्गलानामनन्तपर्यायालक्षणो वा दशप्रकारो भवेद्, भावसमाधिरप्येवंप्रकार एव / तथाहि ऽऽत्मकानामजीवानामनुचिन्तनमजीवविचयम्। मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिसम्यगाधानमारोपणं गुणाना क्षान्त्यादीनामिति समाधिः, तदेव मुक्ति नस्य पुद्गलाऽऽत्मकरय मधुरकटुफलस्य कर्मणः संसारिसत्त्वविषयविमार्गोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽख्यो भावधर्मतया व्याख्यातयितव्य इति पाकविशेषानुचिन्तन विपाकविचयम्। कुत्सितमिदं शरीरकंशुक्रशोणित||१|| सूत्र०१ श्रु०६ अ०। समुद्भूतमशुचिभृतघटोपममनित्यमपरित्राणं गदाशुचि, न च छिद्रतया धम्मज्झाण-न० धर्म()ध्यान धर्ममाज्ञाऽऽदिपदार्थस्वरूपपर्या सुशुचि, आधेयाशौच न किञ्चिदत्र कमनीयतरं समस्ति, किम्पाकफलोपलोचनैकाग्रता / स०१ समाधर्मभावंगतो धर्म्यः। आ०चू०४ अ०। धर्मः भोगोपमाः प्रमुखरसिका विपाककटवः प्रकृत्या भड्राः पराधीनाः क्षमाऽऽदिदशलक्षणस्तरमादनऐतधर्म्य सर्वज्ञाऽऽज्ञाऽनुचिन्तनम। प्रव० सन्तोषमृताऽऽस्वादपरिपन्थिनः सद्भिर्निन्दिता विषयाः, तदुद्रयं च सुखं 6 द्वार। श्रुतचरणधर्मादनपेत धर्म्यम्।स्था०४ ठा०१ उ०ा बाह्याऽऽध्या दुःखानुषङ्गि दुःखजनकं च नातोभोगिनां तृप्तिः। न चैतदात्यन्तिकमिति त्मिकभावाना याथात्म्यं धर्मस्तस्मादनपेतं धर्म्यम् / सम्म०३ काण्ड। नात्राऽऽस्था विवेकेनाऽऽधातुं युक्तेति विरतिरेवातः श्रेयस्कारिणीतदेव ध्यानं धर्म (H) ध्यानम्। ध्यानभेदे, औ०। ग०। त्यादिविरागहेतुचिन्तनं वैराग्यविचयम् / प्रेत्य स्वकृतकर्मफलोपतस्वरूपं यथा भोगार्थ पुनः प्रादुर्भावो भवः / स चारघट्टघटीयन्त्रवन्मूत्रपुरीषान्त्रतन्त्र"सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, निबद्धदुर्गन्धजठरपुरकोटराऽऽदिष्वजसमावर्तन, न चात्र किं चिद्जन्तोः बन्धप्रमोक्षगमनाऽऽगमहेतुचिन्ता। स्वकृतकर्मफलमनुभवतश्चेतनमचेतनं वा सहायभूतं शरणतां प्रतिपद्यत पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, इत्यादि भवसंक्रान्तिदोषपर्यालोचनं भवविचयम्। भवनवननगसरित्सध्यानं तु धर्ममिति संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः / / 1 // " दश०१ अ०। मुद्रभूरुहाऽऽदयः पृथ्वीव्यवस्थिताः, साऽपिघनोदधिधनवातलनुवात प्रतिष्ठा, तेऽप्याकाशप्रतिष्टाः, तदपि स्वात्मप्रतिष्ठ, तचाधोमुखमल्लकतचतुर्विधम्-- संस्थानं वर्णयन्त्यधोलोकमित्यादि संस्थानानुचिन्तनं संस्थानविचयम्। धम्मज्झाणे चउव्विहे पन्नत्ते / तं जहा-आणाविजए, अवा अतीन्द्रियत्वाद्धेतूदाहरणाऽऽदिसद्भावेऽपि बुद्ध्यतिशयशक्ति विकलैः यविजए, विवागविजए, संठाणविजए। परलोकबन्धमोक्षधर्माधर्माऽऽदिभावेष्वत्यन्तदुःखबोधेष्याप्तप्रामाअथधर्म चतुर्विधमिति स्वरूपेण चतुर्यु पदेषु स्वरूपलक्षणाऽऽलम्बनानु- ण्यात् तद्विषयं तद्वचनं तथैवेत्याज्ञाविचयम्। आगमविषयप्रतिपत्ती प्रेक्षालक्षणेष्ववतारो विचारणीयत्वेन यस्य तच्चतुष्पदावतारं चतुर्विधस्यैव तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः स्माद्वादप्ररूपकाऽऽगमस्य कषच्छेदतापशुद्धिपर्यायोऽयमिति। क्वचित् 'चउप्पडोयारं'' इति पाठः। तत्र चतुर्षु पदेषु समाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तनं हेतुविचयम् / एतच सर्व धर्मध्यान, प्रत्यवतारो यस्येति विग्रह इति / स्था०४ ठा० 130 / ('झाण' / श्रेयोहे तुत्वात् / एतय "संवररूपमशुभाश्रवप्रत्यनीकत्वात् " शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1663 पृष्ठेव्याख्यातम्) उक्तंच-"आगमउवएसेणं, आश्रवनिरोधः संवर'' इति वचनात् / गुप्तिसमिति धर्मानुप्रेक्षाऽऽदीनां निसग्गओ जं जिणप्पणीयाण / भावाणं सद्दहणं, धम्मज्झाणस्सतं लिंग चाऽऽश्रवप्रतिबन्धकारित्वात् / अयमपि जीवाजीवाभ्यां कश्चिदभिन्ना // 1 // " इति। तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यक्त्वं धर्मस्य लिङ्ग मिति हृदयम्। एव. एकान्त दोषोपपत्तेः / न चायमेकान्तवादिनां घटते, मिथ्याज्ञाना(स्था०) / अथ धर्मस्याऽऽलम्बनान्युच्यते- 'धम्मस्स णं झाणरस मिथ्याज्ञानस्य निमित्तमनुपपत्तेः / संवरशुद्धिस्तुः सर्वदेशभेदोत्पातचत्तारि आलंबणा पण्णत्ता। तं जहा- वायणा, पडिपुच्छणा, परिगङ्गणा, पालेश्याबलाऽऽधानमप्रमत्तसंयतस्यान्तर्मुहूर्त कालप्रमाणं स्वर्गसुखअणुप्पेहा।" (स्था०) अथानुप्रेक्षा उच्यते-- ''धम्मस्सगं झाणरस निबन्धनमेतद्धर्मध्यानं प्रतिपत्तव्यम् / सम्म० 3 काण्ड / आ०चून चतारि अणुप्पेहाओ पन्नत्ताओ। तं जहा-एगाणुप्पेहा, अणिधाणुप्पहा. (विरतरतो वक्तव्यता 'झाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1661 पृष्ठे। असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा।' स्था०४ ठा०१०। औलामा प्रव०। धम्मज्झाणि (ण)-पुं०(धर्मध्यानिन्) धर्मध्यानवति, "जिणसाहुआव०। तच्च द्विविधम्- बाहाम्, आध्यात्मिकं च / सूत्रार्थपर्यालोचन, __गुणुवित्तणपसंसणादाणविणयसंपन्नो / सुअसीलसंजमर, धम्म. दृढव्रतता, शीलगुणानुरागो, निभृतकायवाग्व्यापाराऽऽदिरूपं वाह्यम्। ज्झाणी मुणेअव्वो // 1 // " आव०४ अ०।
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________________ धम्मज्झाणोवगय 2717- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मत्थकाम धम्मज्झाणोवगय-त्रि०(धर्मध्यानोपगत) धर्मध्यानयुक्ते, दर्श०४ तत्व। कल्प० १अधि० १क्षण। रा०ा 'धम्मणायगाणं 22 / " इह धाऽधिधम्मट्ठ-पुं०(धर्मार्थ) धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यस्तेनार्थः प्रयोजनम् / / कृत एत, तस्य (नायकाः) स्वामिनः, तल्लक्षणयोगेन, तद्यथाधर्महतुके प्रयोजने, सूत्र०१ श्रु०२अ०२०॥ धर्मनिमित्ते, आचा०२ श्रु०५ तद्वशीकरणभावात् तदुत्तमावाप्लेरतत्फलपरिभोगात्तद्विधातानुपपत्तेः / अ०१ उ०। हा०। धर्मश्वार्थः, परमार्थतोऽन्यस्थानर्थरूपत्वात् / सूत्र०१ तथाहि-एतद्वशिनो भगवन्तो विधिसमासादनेन विधिनाऽयमाप्तो श्रु०२ अ०३उ०। तस्यैव सदिय॑माणत्वात् (सूत्र०१ श्रु०२अ०२उ०) भगवाद्धेः, तथा निरतिचारपरिपालनतया पालितश्चातिचारविरहेण, एवं धर्मार्थः / सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। धर्मरूपेऽथे , "जे धम्मट्ट वियागरे।" यथोचितदानतो दत्तश्च यथाभव्यम्, तथा तत्रापेक्षाभावेन नामीषां दाने जन्तूतां धर्भरपमर्थ व्याकुर्वन्ति ये धर्मप्रतिपत्तियोग्या इत्यर्थः / सूत्र०१ वचनापेक्षा, एवं च तदुत्तमावाप्तयश्व भगवन्तः प्रधानक्षायिकधर्मावाप्त्या श्रु०१५ अग तीर्थकरत्वात्प्रधानोऽयं भगवतां, तथा परार्थसंपादनेन सत्त्वार्थकरणशीधम्मट्ठकाम-पुं०(धर्मार्थकाम) धर्मः चारित्रधादिस्तस्यार्थः प्रयोजनं लतया, एवं हीनेऽपि प्रवृत्तेः, अश्वबोधाय गमनाऽऽकर्णनात् / तथा मोक्षः, तं कामयतीच्छति विशुद्धविहितानुष्ठानकरणेनेति धर्मार्थकामः। तथाभव्यत्वयोगात् अत्युदारमेतदेतेषाम् / एवं तत्फलपरिभोगायुक्ताः मुमुक्षौ, दश०६ ॐ धर्मार्थकामेषु, दश०६ अ०। सकलसोन्दर्येण निरुपम रूपाऽऽदि भगवतां तथा प्रातिहार्ययोगात् धम्मट्ठवित्तेहा-स्त्री०(धर्मार्थवित्तेहा) धर्मनिमित्तकद्रव्योपार्जनचेष्टायाम, नान्यषामेतत, एवमुदार यनुभूतः समग्रपुण्यसंभारजेय, तथा तदाधिमार्थ रस्य विनेह), तस्यानीहा गरीयसी। प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य, प्रत्यतो भावात्न देवानां स्वातन्त्र्येण, एवं तद्विधातरहिता अबन्ध्यपुण्यदूरावस्पर्शनं वरम् // 6 // " हा०४ अ५० प्रतिका बीजन्यात् एतेषां स्वाश्रयपुष्टमेतत्, तथा अधिकानुपपत्ते तोऽधिकं धम्मट्ठाण-न धर्म (H)स्थान) धर्मश्वासौ स्थानं धर्मस्थानम्। धर्मरूपे पुण्यं, एवं पापक्षयभावाद् निर्दग्धमेतत्, तथाऽहेतुकविघातासिद्धेः सदा आलये, "धम्गट्ठाणे ठिया उ जं परगे।'' दश० १अ०। धर्मादनपेतं सत्त्वाऽऽदिभावेन / एवं धर्मस्य नायका धर्मनायका इति / / 22 / / ला धर्मम,तदा स्थानम् / उपशमप्रधाने द्वितीये क्रियास्थानभेदे, सूत्र०२ धम्मणाह-पुं०(धर्मनाथ) पञ्चदशे स्वनामख्याते जिने, 'श्रीधर्भ-- श्रु०२ अ०। तथा च क्रियास्थानस्याधर्मस्थानधर्मस्थानधर्माधर्मस्थान नाथमानम्य, रत्नवाहपुरे स्थितम् / तस्यैव पुररत्नस्य, कल्पं किञ्चिद् भेदेषु / द्वितीयं धर्मोपादानभूतं पक्षमाश्रित्य पुरुषविजयविभङ्गाद अधीम्यहम् / / 1 / / ' ती०१६ कल्प। वक्ष्यति / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। धम्मणिप्फत्ति-रत्री०(धर्मनिष्पति) धर्मसिद्धौ, षो०३ विव० धम्मट्टि(ण)-पुं०(धर्मार्थिन) धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यरतनार्थो धर्मार्थः / धम्मणिरुच्छाह-पुं०(धर्मनिरुत्साह) सदनुष्ठाननिरुधमे, ''णहु सूत्र०२ श्रु८१ अ०। धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यस्तेनार्थः प्रयोजन, स धम्मणिरुच्छाहो, पुरिसो सूरो सुवलिओ वि।'' सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। एवार्थस्तरसव सद्भिरयमाणत्वाद्धर्मार्थः, स यस्यारतीति धर्मार्थी। | धम्मण्णु-पुं०(धर्मज्ञ) धर्मवेदिनि, षो०२ विव०॥ सकलशास्त्रार्थवेदिनि सूत्र०१ श्रु०२अ०२०। धर्मेणार्थों, धर्म एव वाऽर्थः परमार्थतोऽन्य- च। दर्श०४ तत्त्व। रयानर्थरूप वाद धर्मार्थः, स विद्यते यस्याऽसो धर्मार्थः / धर्मप्रयोज- धम्मतत्त-न०(धर्मतत्व) धर्मपरमार्थ , “एतदिह धर्मतत्त्वम् / षो०३ नवति, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। जीवा 'धम्मट्टी धम्मविऊ।" धर्मः / विव०। धर्मस्वरूप, षो०३ विव०। "लिङ्गान्येतानि धर्मतत्त्वस्य / ' श्रुतचारित्राऽऽख्यस्तैनार्थः, स एवार्थोधर्मार्थः, स विद्यते यस्याऽसौ षो०३ विव०। प्रतिषिद्धोधर्मतत्त्वज्ञैः धर्मस्वरूपवेदिभिः। षो०६ विव०। धर्मार्थी। न पूजाऽऽद्यर्थ क्रियासु प्रवर्तते, अपितु धर्मार्थम्। सूत्र०१ श्रु० | धम्मतित्थ-न०(धर्मतीर्थ) तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ, धर्म एव 16 अ० धम्मट्टी उवहाणवीरिए।'' सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। धर्मप्रधानं वा तीर्थ धर्मतीर्थम् / धर्मरूपे तीथें, धर्मप्रधाने तीर्थे च / शिवसुखाभिलाषितया पक्षपातपरिहारेण पूर्वापरपालोचके, दर्श०५ आ०म० अ०।०ा लग तत्त्व। परलोकभीरां च / प०व०। धम्मतित्थयर-पुं०(धर्मतीर्थकर) तीर्यतेऽनेनेति तीर्थ, धर्मप्रधानं तीर्थ धर्मार्थितायाः फलम् धर्मतीर्थ, धर्मग्रहणाद् द्रव्यतीर्थस्य नद्यादेः शाक्याऽऽदिसम्बन्धिनश्चाधम्मत्थी दिद्वत्थे, दढो व्व पंकम्मि अपडिबंधाओ। धर्मप्रधानस्य परिहारः। तत्करणशीलो धर्मतीर्थकरः। सदेवमनुजासुरायां उत्तारिजंति सुहं, धन्ना अण्णाणसलिलाओ॥७६|| पर्षदिसर्वभाषापरिणामिन्याधर्मतीर्थप्रवर्तके जिने, ध०२अधि०ा आ०म० धार्थिनः प्राणिनः, दृष्टार्थे ऐहिके, दृढ इव वनस्पतिविशेषः, इव | लo "अह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे।" उत्त०२३ अ०॥ पढ़ें प्रतिबन्धात्कारणादुत्तार्यन्ते पृथक् क्रियन्ते, सुखं धन्याः पुण्यभाजः, धम्मतोलण-न०(धर्मतोलन) धर्माधिकरणिकनीतिशास्त्रप्रसिद्ध कुतः? अज्ञानसलिलान्मोहादिति गाथार्थः / पं०व०४ द्वार। धर्मतोलन, व्य०२ उ० ('अट्ठजाय' शब्दे प्रथमभागे 243 पृष्ठे धम्प्रणायग-पुं०(धर्मनायक) धर्मस्य क्षायिक ज्ञानदर्शनचारित्रा-- साधुभिर्भर्मतोलने यथा विद्याऽऽदि उपयोक्तव्यं तथोक्तम्) ऽऽत्मकस्य नायकः स्वामी, यथावत्पालनाधर्मनायकः। स०१ सम०। धम्मत्थकाम-०(धमर्थिकाम) धर्मार्थ कामयतीति / साधा, तद्वीकरणात तत्फलपरिभोगाच धर्मनायकः / जी० 3 प्रति० / तीर्थकरे, | दश०६ अ०। धर्म श्वारित्रधर्माऽऽदिस्तस्यार्थः प्रयोजनं मोक्षः,
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________________ धम्मत्थकाम 2718 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मत्थिकाय तं कामयन्ते इच्छन्ति विशुद्धवेदानुष्ठानकरणेनेति धर्मार्थकामाः। मुमुक्षुषु, दश०६अग धम्मत्थिकाय-पुं०(धर्मास्तिकाय) जीवानां पुद्गलानां व स्वभावत एव गतिपरिणामपरिणतानां तत्स्वभावधारणात् तत् स्वभावपोषणाद्धर्मः, अस्तयश्वेह प्रदेशः, तेषां कायः सङ्घातः, "गणकाए य निकाए, खंधे वग्गे तहेव रासी य / " इति वचनात् / अस्तिकायः प्रदेशसङ्घात इत्यर्थः, धर्मश्चासो अस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः। प्रज्ञा०१ पद / जी०। कर्म०। अनु०। "जीवानां पुदलानां च गत्युपग्रहकारणम् / धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चक्षुष्मतो यथा॥१॥' इत्युक्तलक्षणे, आव०४ अ०। दर्शo! श्रा०। सकललोकव्याप्यसंख्येयप्रदेशाऽऽत्मकामूर्तः। अजीवद्रव्यविशेष, अनु०। दर्श०। (धर्मास्तिकायस्यास्तित्वम् 'अस्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे 516 पृष्ठे गतम्) अथ धर्मास्तिकायस्य लक्षणमाहपरिणामी गतेधर्मो, भवेत्पुद्रलजीवयोः। अपेक्षाकारणाल्लोके, मीनस्येव जलं सदा॥४|| गतेर्गमनस्य, परिणामी अर्थाद्गतिपरिणामी, पुद्गलजीवयोधर्मो धर्मास्तिकायो, भवेत् / कस्माल्लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मकाऽऽका - शखण्डे, अपेक्षाकारणात् परिणामव्यापाररहितादधिकरणरूपीदासीन्यहेतोश्च। तत्र दृष्टान्तमाह- ''मीनस्येव जल सदेति!' सदा निरन्तरं, जलं यथा भीनस्य मत्स्यरय गतिपरिणामि अस्ति, अपेक्षाकारणातगमनाऽऽगमनाऽऽदिक्रियापरिणतस्य मत्स्यस्य जलमपेक्षाकारणमस्ति, तथैव धर्मद्रव्यमपि शेयम्। निष्कर्षस्त्वयम्-स्थले झषक्रिया व्याकुलतया चेष्टाहेत्विच्छाभावादेव न भवति, न तु जलाभावादिति गत्यपेक्षाकारणे मानाभाव इति चेत? न / अन्वयव्यतिरेकाभ्यां लोकसिद्धव्यवहारादेव तद्धेतुत्वसिद्धेरन्यथाऽन्यकारणेनेतराखिलकारणासिद्धिप्रसङ्गा-दिति दिक // 4 // द्रव्या०१० अ० धम्मत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ? गोयमा ! धम्मस्थिकाएणं जीवाणं आगमणगमणभासुम्मेसमणजोगवइजोगकायजोगा जे यावण्णे तहप्पगारा चलसभावा सव्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति, गतिलक्खणेणं धम्मत्थिकाए। (आगमणगमणेत्यादि) आगमनगमने प्रतीते, भाषा व्यक्तवचनम्, 'भाष' व्यक्तायां वाचीति वचनात् / उन्मेषोऽक्षिव्यापारविशेषः, मनोयोगवाग्योगकाययोगाः प्रतीता एव / एतेषां च द्वन्द्वः। ततस्ते इह च मनोयोगाऽऽदयः सामान्यरूपाः, आगमनाऽऽदयस्तु तद्विशेषा इति भेदेनोपात्ताः। भवति च सामान्यग्रहणेऽपि विशेषग्रहणं तत्स्वरूपोपदर्शनार्थमिति / (जे यावण्णे तहप्पगारे त्ति) ये चाप्यन्ये आगमनाऽऽ- | दिभ्योऽपरे तथाप्रकारा आगमनाऽऽदिसदृशा भ्रमणवलनाऽऽदयः / (चलसभाव ति) चलस्वभावाः पर्यायाः, सर्वे ते धर्मास्तिकाये सति प्रवर्त्तन्ते। कुतः? इत्याह- "गतिलक्खणेणं धम्मत्थिकाय त्ति।" भ० 13 श०४ उठा तथा च-"एगे धम्मे।'' एकः प्रदेशार्थतया संख्यातप्रदेशाऽऽत्मकत्वेऽपि द्रव्यार्थतया तस्यै-कत्वात् जीवपुद्गलानां स्वाभाविक क्रियावत्त्वे सति परिणतानां तत्स्वभावधारणाद्धर्मः। स वास्तीनां प्रदेशानां सहऽऽत्मकत्वात् कायोऽस्तिकाय इति / स्था० 1 टा०। न | यतो धर्मास्तिकायविचार:-कोऽसौ धर्मो धर्मास्तिकायः। आह-सिद्धे सति वस्तुनोऽस्तित्वे इदमनेन लक्ष्यते इति वक्तुं युक्तम्, अस्य तु सत्त्वमेवासिद्धम् / अत्रोच्यते-यद्यशुद्धपदवाच्यंतत्तदस्ति। यथा स्तम्भाऽऽदिशुद्धपदवाच्यभावात् प्रमाणान्तरबाधितविषयत्वाख्यादोषरहितत्वेन, न च सिद्धत्वात्, नच खपुष्पाऽऽदिषु संकेतितैः स्वादिशुद्धपदैरनेकान्तो वृद्धपरम्पराऽऽयातसं के तविषयाणामेव शुद्धपदानां वाच्यत्वस्येह हेतुत्वे नेष्टत्वानिपुणेन प्रतिपन्ना भाव्यम्, अन्यथा धूमाऽऽदेरपि गोपालघटिकाऽऽदिष्वन्यथाभावदर्शनादेष प्रसङ्गो दुर्निवारः स्यात्। उक्तं च-"अस्थिति नियविगप्पो,जीवो नियमाउसहतो सिद्धी। कम्मा सुद्धपयता,घडखरसिंगाणुमाणाओ।।१।।" इत्याद्यलं प्रसङ्गेन। उत्त० पाई 28 अ०। (धर्मास्तिकायस्य वर्णाऽऽदिद्रव्याऽऽदिभेदतः स्वरूपं च 'अत्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे 516 पृष्ठे गतम्) धर्मास्तिकायविषये हीरप्रश्ने नगर्षिगणिकृतप्रश्नो यथा सम्पूर्णो धर्मास्तिकायो द्रव्यमुच्यते, स्कन्धो वेति? अत्रोत्तरम्-सम्पूर्णो धर्मास्तिकायो द्रव्यमुच्यते, कुत्रचित् स्कन्धोऽप्युपचारात्, नात्र किमपि बाधकं ज्ञायते। ही०३ प्रकाश सकलमेवधर्मास्तिकायरूपमवयविद्रव्यमाहअवयवी नाम अवयवानां तथारूपसंघातपरिणामविशेष एव, न पुनरवयवद्रव्येभ्यः पृथगर्थान्तरं द्रव्यं, तथाऽनुपलम्भात। तन्तव एव हि आतानवितानरूपं संघातपरिणामविशेषमापन्ना लोके पटव्यपदेशभाज उपलभ्यन्ते, न तदतिरिक्तं पटाऽऽख्य नाम / उक्तं चान्यैरपि"तन्त्वादिव्यतिरेकेण, नपटाऽऽद्युपलम्भनम्।तन्त्वादयो विशिष्टा हि, पटाऽऽदिव्यपदेशिनः।।१।।'' प्रज्ञा० १पद। धर्मास्तिकायस्यैकार्थिकान्याहधम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवइया अभिवयणा पण्णता? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता / तं जहा-धम्मे त्ति वा, धम्मत्थिकाएइ वा, पाणाइवायवेरमणे ति वा, मुसावायवेरमणेति वा, एवं०जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगेति वा०जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगेति वा , इरियासमिए ति वा, भासासमिए ति वा, एसणासमिए ति वा, आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए ति वा, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंधाणपारिट्ठावणियासमिई ति दा, मणगुत्ती ति वा, वइगुत्ती तिवा, कायगुत्ती त्ति वा, जे यावण्णे तहप्पगारा, सव्वे ते धम्मत्थिकायस्स अभिवयणा। (अभिवयण त्ति) अभि इत्यभिधायकानि वचनानि शब्दा अभिवचनानि, पर्यायशब्दा इत्यर्थः। (धम्मेइ व त्ति) जीवपुद्गलानां गतिपर्याये धारणाद्धर्मः, इती रूपप्रदर्शने, वा विकल्प। (धम्मस्थिकाए व त्ति) धर्मश्वासावस्तिकायश्व प्रदेशराशिरिति धर्मास्तिकायः। (पाणाइवायवेरमणे इ वा इत्यादि) इह धर्मश्चारित्रलक्षणः, स च प्राणातिपातविरमणाऽऽदिरूपः, ततश्च धर्मशब्दसाधम्यादस्तिकायरूपस्यापि धर्मस्य प्राणातिपातविरमणाऽऽदयः पर्यायतया प्रवर्तन्त इति। (जे यावण्णेत्यादि) ये चान्ये ऽपि तथा-प्रकारावारित्रधर्माभिधायकाः सामान्यतो विशेषतो वा शब्दाः। ते सर्वेऽपि धर्मास्ति
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________________ धम्मत्थिकाय 2716 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मदेसणा कायस्याभिवचनानीति / भ०२० श०२ उ०। (अस्तिकायानामस्निकायत्वम् 'अस्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे 516 पृष्ठे गतम्) धम्मत्थिकायदेस-पुं०(धर्मास्तिकायदेश) धर्मास्तिकायस्य बुद्धिकल्पितो व्यादिप्रदेशाऽऽत्मको विभागो धर्मास्तिकायदेशः। अजीवद्रव्यभेदे, प्रज्ञा०१ पद। दर्शा जी०।। धम्मत्थिकायप्पएस-पुं०(धर्मास्तिकायप्रदेश) धर्मास्तिकायस्य प्रकृष्टो देशःप्रदेशः, निर्विभागो निरंशो भागोधर्मास्तिकायप्रदेशः। प्रज्ञा०१ पद / अजीवद्रव्यभेदे, दर्श०५ तत्त्व / जी०। "अटु धम्मत्थिकायमज्झप्पएसा पण्णता।" स्था०८ ठा०। धम्मद-पुं०(धर्मद) धर्म चारित्ररूपं ददातीति धर्मदः / जी०३ प्रतिक्षा चारित्रधर्मदायके तीर्थकरे, कल्प०१ अधि०१क्षण। धम्मदत्त-पुं०(धर्मदत्त) स्वनामख्याते कल्किराजसुते. कल्प०१ अधि०६ क्षण / ती०। "कल्किपुत्रो धर्मदत्तो, भावी स परमाऽऽर्हतः। दिने दिने जनबिम्ब, प्रतिष्ठाप्यावभोक्ष्यते।।१॥" ती०१ कल्प। धम्मदय-पुं०(धर्मदय) धर्म श्रुतचारित्राऽऽत्मक दुर्गतिप्रपतञ्जन्तु धारणरवभावं दयते ददातीति धर्मदयः। स०१ सम०। चारित्रधर्मदायके तीर्थकरे, भ०१श०१3०। धम्मदाण-न०(धर्मदान) धर्मकारणं दान, धर्म एव वा दानम्। 'समतृण मणिमुक्ताभ्यो, यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः। अक्षयमतुलमनन्तं, तद्यानं भवति धर्माय / / 1 / / " इत्युक्तलक्षणे दानभेदे, स्था०१० ठा०॥ धम्मदार-न०(धर्मद्वार) धर्मस्य चारित्रलक्षणस्य द्वारमिव द्वारं धर्मद्वारम्।। क्षान्त्यादिक धर्मोपाये, "चत्तारि धम्मदारा पण्णत्ता / तं जहा-खंती, | मुत्ती, अजवे, मद्दये।''धर्मस्य चारित्रलक्षणस्य द्वाराणीव द्वाराण्युपायाः क्षान्त्यादीनि धर्मद्वाराणि / स्था०४ ठा०४उ०। धम्मदासगणि-पुं०(धर्मदासगणि) स्वनामख्याते आचार्ये, दर्श०४ तत्व / ध। अनेन भगवता उपदेशमाला नाम ग्रन्थो रचितः। अयमाचार्यो वीरप्रभोरपि पूर्वबभूवेति प्रसिद्धिः / जै०इ०ा तथा चाहुः- "प्रतिहतसकलव्यामोहतमित्रा धर्मदासगणिमिश्राः।" ०२०तथा चाऽऽहभगवान् धर्मदासगणिः / दर्श०४ तत्त्व। धम्मदिवस-पुं०(धर्मदिवस) चतुर्दश्यष्टमाऽऽदिके धर्मदिने, सूत्र०२ श्रु०७ अ० धम्मदुम-पुं०(धर्मद्रुम) धर्मवृक्षे, संथा। धम्मदूअ-पुं०(धर्मदूत) वृद्धावस्थासूचके पलिताऽऽदिके, तस्या धर्मकरणयोग्यावस्थोपदेशकत्वात्तथात्यम्। आव०४ अ०| धम्मदेव-पुं०(धर्मदेव) धर्मेण श्रुताऽऽदिना देवो धर्मप्रधानो वा देवो धर्मदेवः / भ०१२श०६ उ०। चारित्रवद्रूपे देवभेदे, स्था०५ टा०१उ०। धम्मदेसग-पुं०(धर्मदेशक) धर्म श्रुतचारित्राऽऽत्मकं देशयतीति धर्मदशकः। भ०१श०१उ०। धर्मोपदेशदायके, कल्प०१ अधि०१क्षण / ला धारा धम्मदेसणा-स्त्री०(धर्मदेशना) कुशलानुष्ठानप्ररूपणायाम्, हा० 31 अष्ट। तत्प्रदानविधिमाह सा च संवेगकृत् कार्या, शुश्रूषोर्मुनिना परा। बालाऽऽदिभावं संज्ञाय, यथाबोधं महात्मना।।१६।। सा च देशना संवेगकृरसंवेगकारिणी, संवेगलक्षणं चेदम- 'तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबन्धे, देवे रागद्वेषमोहाऽऽदिमुक्ते / साधौ सर्वग्रन्थसंदर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः / / 1 / / ' मुनिना गीतार्थेन साधुना, अन्यस्य धर्मोपदेशेऽनधिकारित्वात्। यथोक्त निशीथे'ससारदुक्खमहणो, विबोहणो भवियपुंडरीयाणं। धम्मो जिणपण्णत्तो, पकप्पजइणा कहेअव्यो " | // 1 // इति। (प्रकल्पयतिनेति) अधीतनिशीथाध्ययनेन। (परा) शेषतीर्थान्तरीयधर्मातिशायितया प्रकृष्टा कार्या प्रज्ञापनीया। कीदृशस्य पुरतः सा कार्येत्याह-शुश्रूषोः श्रोतुमुपस्थितस्य, मुनिना च किं ज्ञानपूर्वमाख्येयेत्याह- (बालाऽऽदिभावमित्यादि) बालाऽऽदीनां त्रयाणां धर्मपरीक्षकाणाम्, आदिपदेन मध्यबुद्धिबुधयोहणात्, भावं परिणामविशेष स्वरूपं वा संज्ञाय सम्यगवैपरीत्येन ज्ञात्वाऽवबुझ्य। ध०१ अधि०। (बालाऽऽदीनां धर्मपरीक्षकाणां स्वरूप 'धम्म' शब्दे धर्मपरीक्षाऽवसरे 2674 पृष्ठे गतम्) कथं सा कार्येत्याह- (यथाबोधमिति) बोधानतिक्रमे ण, अनवबोधे धर्माऽऽख्यानस्योन्मार्गदशनारूपत्वेन प्रत्युतानर्थसंभवात्। नोमान्धः समाकृष्यमाणः सम्यगध्वानं प्रतिपद्यत इति। मुनिना कीदृशेन? महात्मनातदनुग्रहकपरायणतया महान् आत्मा यस्य स तेन इति संक्षेपतो धर्मदेशनाप्रधानविधिः, विस्तरतस्तु धर्मबिन्दौ (२प्रक०) उक्तः। स चायम्- ''इदानीं तद्विधिमनुवर्णयिष्याम इति / " इदानीं संप्रति तद्विधि सद्धर्मदेशनाक्रमं वर्णयिष्यामो निरूपयिष्यामो वयमिति / तद्यथा- "तत्प्रकृतिदेवताधिमुक्तिज्ञानमिति / " तस्य सद्धर्मदेशनार्हस्य जन्तोः प्रकृति : स्वरूपं गुणवत् सङ्गलोकप्रियत्वाऽऽदिका, देवताधिमुक्तिश्च बुद्धकपिलाऽऽदिदेवताविशेषभक्तिः, तयोर्ज्ञानं प्रथमतो देशकेन कार्यम् / ज्ञातप्रकृतिको हि पुमान् रक्तो द्विष्टो मूढः पूर्वं व्युद्ग्राहितश्च चेन्न भवति, तदा कुशलैस्तथा तथाऽनुवर्त्य लोकोत्तरगुणपात्रतामानीयते / विदितदेवताविशेषाधिमुक्तिश्च तत्तद्देवताप्रणीतमार्गानुसारिवचनोपदर्शनेन दूषणेन च सुखमेव मार्गेऽवतारयितुं शक्य इति / तथा-“साधारणगुणप्रशंसेति।" साधारणानां लोकलोकोत्तरयोः सामान्यानां गुणानां प्रशंसा पुरस्कारो देशनाऽर्हस्याग्रतो विधेया। यथा"प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधिः, प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथन चाप्युपकृतेः / अनुत्रोको लक्ष्भ्यां निरभिभवसाराः परकथाः, श्रुते चासन्तोषः कथमनभिजाते निवसति? ||1 // " तथा- "सम्यक् तदधिकाऽऽख्यानमिति।'' सम्यगविपरीतरूपतया तेभ्यः साधारणगुणेभ्योऽधिका विशेषवन्तो ये गुणाः तेषामाख्यानं कथनम् / यथा"पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम्। अहिंसा सत्यमस्तेय, त्यागो मैथुनवर्जनम् / / 1 / / '' इति / तथा- "अबोधेऽप्यनिन्देति / " अबोधेऽप्यनवगमेऽपि सामान्यगुणानां, विशेषगुणानां वा व्याख्यातानामपि अनिन्दा अहो मन्दबुद्धिर्भवान्य इत्थमाचक्षाणेष्वप्यस्मासुन बुध्यते वस्तुलत्त्वमित्येवं श्रोतुस्तिरस्कारपरिहाररूपा, निन्दितो हि श्रोता किश्चिद् बुभुत्सुरपि सन्दूर विरज्यत इति। तर्हि किं कर्त्तव्यमित्याह- "शुश्रूषाभाव
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________________ धम्मदेसणा 2720 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मदेसणा करणमिति / " धर्मशास्त्रं प्रति श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा, तल्लक्षणो भावः परिणामः, तस्य करणं निर्वर्त्तनं श्रोतुस्तैस्तैर्वचनैरि ति। शुश्रूषामनुत्पादा धर्मकथने प्रत्युतानर्थसंभवः। पठ्यते च- "स खलु पिशाचकी वातकी वा, यः परेऽनर्थिनि वाचमुदीरयति। "भूयो भूय उपदेश इति।' भूयो भूयः पुनः पुनरूपदिश्यत इत्युपदेशः उपदेष्टुभिष्टो वस्तुविषयः कथशिदनवगमे सति कार्यः। किं न क्रियते दृढसन्निपातरोगिणां पुनः पुनः क्रिया तिक्ताऽऽदिक्वाथपानोपचार इति। तथा-"बोधे प्रज्ञोपवर्णनमिति। "योध सकृदुपदेशेन भूयो भूय उपदेशेन वोपदिष्टवस्तुनः परिज्ञाने तस्य श्रोतुः प्रज्ञोपवर्णनं बुद्धिप्रशंसन, यथा-नाऽलघुकम्माणिः प्राणिन एवंविधसूक्ष्मार्थबोद्धारो भवन्तीति। तथा-"तन्त्रावतार इति।" तन्त्रे आगमेऽवतारः प्रवेश आगमबहुमानोत्पादनद्वारेण तस्य विधेयः। आगम-बहुमानअवमुत्पादनीयः"परलोकविधी शास्त्रात, प्रायो नान्यदपेक्षते। आसन्नभव्यो मतिमान्, श्रद्धाधनसमन्वितः / / 1 / / उपदेश विनाऽप्यर्थ-कामा प्रति पटुर्जनः। धर्मस्तु न विना शास्त्रा-दिति तत्राऽऽदरो हितः / / 2 / / अर्शाऽऽदावविधानेऽपि, तदभावः परं नृणाम्। धर्मेऽविधानतोऽनर्थः, क्रियोदाहरणात्परः / / 3 / / तस्मात्सदैव धर्मार्थी , शारत्रयत्नः प्रशस्यते। लोके मोहान्धकारेऽस्मिन्, शास्त्राऽऽलोकः प्रवर्तकः / / 4 / / ' (शास्त्रयत्न इति) शारचे यत्नो यस्येति समासः। "पापाऽऽमयोषधं शारत्रं, शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम्। चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्र, शास्त्र सर्वार्थसाधनम्॥५॥ न यस्य भक्तिरेतस्मि-स्तस्य धर्मक्रियाऽपि हि। अन्धप्रेक्षाक्रियातुल्या, कर्मदोषादसत्फला // 6 // यः श्राद्धो मन्यते मान्या-नहङ्कारविवर्जितः / गुणरागी महाभाग-स्तस्य धर्मक्रिया परा // 7 // यस्य त्वनादरः शास्त्रे, तस्य श्रद्धाऽऽदयो गुणाः। उन्मत्तगुणतुल्यत्वा-न्न प्रशंसाऽऽस्पदं सताम् / / 8 / / मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जल वस्त्रस्य शोधनम्। अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्र विदुर्बुधाः / / 6 / / शास्त्रभक्तिर्जगद्वन्ध-मुक्तिदूती परोदिता। अत्रैवेयमतो न्याय्या, तत्प्राप्त्यासन्नभावतः॥१०॥" (अत्रैवेति) मुक्तावेव (इयमिति) शास्त्रभक्तिः, "तत् प्राप्त्यासन्नभावत इति'' मुक्तिप्राप्तिसमीपभावादिति। तथा- "प्रयोग आक्षेपण्या इति।'' प्रयोगो व्यापारणं धर्मकथाकाले आक्षिप्यन्ते आकृष्यन्ते मोहात्तत्वं प्रति भव्यप्राणिनोऽनयेति आक्षेपणी। (तस्याः कथायाश्चातुर्विध्यम् ‘अक्खेवणी' शब्दे प्रथमभागे 152 पृष्ठे गतम्) तथा-"ज्ञानाऽऽद्या-चारकथनमिति" ज्ञानस्य श्रुतलक्षणस्य, आचारो ज्ञानाऽऽचारः, आदिशब्दादर्शनाऽऽचारश्चारित्राऽऽचारस्तपआचारो वीर्याऽऽचारश्चेति / ततो ज्ञानाऽऽद्याचाराणा कथनं प्रज्ञापनमिति समासः / ध०१ अधिक। अनन्तरोक्तषट्- त्रिंशद्विधे ज्ञानदर्शनाऽऽद्याचारे यथाशक्ति प्रतिपत्तिलक्षणं पराक्रमण, प्रतिपत्तौ व यथावलं पालनेति। तथा-"निरीहशक्यपालनेति।" निरीहेणैहिकपारलौलिकफलेषु राज्यदेवत्वाऽऽदिलक्षणेषु व्यावृत्ताभिलाषेण शक्यस्य ज्ञानाऽऽचाराऽऽदेर्विहितमिदमिति बुद्ध्या पालना कार्या इति च कथ्यत इति। तथा-"अशक्प्रे भावप्रतिपत्तिरिति।" अशक्ये ज्ञानाऽऽचाराऽऽदिविशेष एव, कर्तुमपार्यमाणे कुतोऽपिधृतिसंहननकालबलाऽऽदिवेकल्यात् भावप्रतिपत्तिः। भावेनान्तः करणेन प्रतिपतिरनुबन्धः, न पुनस्तत्र प्रवृत्तिरपि, अकालौत्सुक्यस्य तत्त्वत आर्तध्यानत्वादिति। तथा--"पालनोपायोपदेश इति।" एतस्मिन् ज्ञानाऽऽद्याचारे प्रतिपन्ने सति पालनाय उपायस्याधिकगुणतुल्यगुणलोकमध्यसंबासलक्षणस्य निजगुणस्थानकोचितक्रियापरिपालनानुस्मारणस्वभावरय चोपदेशो दातव्य इति / तथा- 'फलग्ररूपणेति / " अस्याऽऽचारग्य सम्यक्परिपालितस्य सतः फलमिहेव तावदुपप्लवहासो भावैश्चर्यवृद्धिर्जनाप्रियत्व च, परत्रच सुगतिजन्मोत्तमस्थानलाभः परम्परया निर्वाणावाप्तिश्चति यत्कार्यं तस्य प्ररूपणा प्रज्ञापना विधेयेति / ध०१अधिo (देवर्द्धिवर्णन 'देवड्डिवण्णण' शब्देऽरिमन्नेव भागे 2617 पृष्ठ गतम्) (असदाचारगीं 'असदायार' शब्दे प्रथमभागे 840 पृष्ट प्रतिपादिता) (नारकदुः खोपवर्णनम् "णारयदुक्खोववण्णण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2012 पृष्ट गतम्) (दुष्कुलजन्मप्रशस्ति, "दुक्कुलजम्मप्पसत्थि" शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2548 पृष्ठे प्रोक्ता) (मोहनिन्दा 'मोहनिंदा' शब्दे प्रतिपादयिष्यामि) (धर्मबीजं च धम्मवीय' शब्देऽस्मिन्नेव भागऽनुपदमेव वक्ष्यामि) (संज्ञानप्रशंसनं 'सण्णाणप्पसंसण' शब्द प्रतिपादयिष्यते) "बीर्यद्धिवर्णनमिति / " वीर्यढ़ें : प्रकर्षरूपायाः शुद्धाऽऽचारबलभ्यायास्तीर्थकरपर्यवसानाया वर्णनमेति / यथा- 'मेरु दण्ड धरां छत्रं, यत्केचित्वर्तुमीशते। तत्सदाचारकल्पद्रुफलमाहुमहर्षयः / / 1 / " तथापरिणले गम्भीरायाः पूर्वदेशनापेक्षयाऽत्यन्तसुक्ष्माया आत्मास्तित्वतद्वन्धमोक्षाऽऽदिकाया देशनायायोगो व्यापारः कार्यः / इदमुनं भवतियः पूर्व साधारणगुणप्रशंसाऽऽदिरनेकधोपदेशः प्रोक्त आस्ते, स यदा तदाचारककर्महासातिशयादङ्गाङ्गिभावलक्षणं परिणाममुपागतो भवति तदा जीपणे भोजनमिव गम्भीरदेशनायामसौ देशनाहोऽवतार्यत इति / ध०१अधि। इत्थं देशनाविधिं प्रपञ्च्योपसंहरन्नाह- "एवं संवेगकृद्धर्म, आख्ययो मुनिना परः। यथाबोधं हि शुश्रूषोर्भावितेन महात्मना // 1 // " इति व्याख्यातप्रायम्। आह-धम्मख्यिापनेऽपि यदा तथाविधकर्मदोषान्नावबोधः श्रोतुरुत्पद्यते, तदा किंफलं धर्माऽऽरख्यानमित्याह- "अबोधेऽपि फलं प्रोक्तं, श्रोतृणां मुनिसत्तमैः / कथकस्य विधानेन, नियमाच्छुद्धचेतसः // 1 // " इति सुगमम् आह-प्रकारान्तरेणापि देशनाफलस्य संभाव्यमानत्वादलमिहैव यत्नेनेत्याशङ्कयाह''नोपकारो जगत्यस्मि-स्तादृशो विद्यते वचित्। यादृशी दुःखविच्छेदा-हिनी धर्मदेशना // 1 // " इति। (न) नैवीपकारोऽनुग्रहो, जगति भुवने, अस्मिन्नुपलभ्यमाने. तादृशो विद्यते समस्ति, कृचित्काले क्षेत्रे वा, यादृशी यादृगृपा, दुःखविच्छेदात् शारीरमानसदुःखपनयनात, देहिना देशनार्हाणां, (धर्मादेशनेति) धर्मदेशनाजनितो मार्गश्रद्धानाऽऽदिर्गुणः तस्य निःशेषक्लेशलेशाकलइमोक्षाऽऽक्षेपं प्रत्यबन्ध्यकारणत्वात् / इति निरूपितो धर्मबिन्दी सद्धर्मदेशनाप्रदानविधिः।ध०१ अधि०। सङ्घाण बालाऽऽदीनां सद्धर्मपरीक्षाकाणां सप्रपञ्च लक्षणमभिधाय तद्तदेशनाविधिमाहबालाऽऽदिभावमेवं, सम्यग विज्ञाय देहिनां गुरुणा।
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________________ धम्मदेसणा 2721 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मदेसणा सद्धर्मदेशनाऽपि हि, कर्तव्या तदनुसारेण / / 13 / / बालाऽऽदीनां भावः परिणामविशेषः, स्वरूपं वा, तमेवमुक्तनीत्या सम्यगवेपरीत्येन, विज्ञायाऽवबुध्य,देहिनां जीवानां, गुरुणा शारवाभिहितस्वरूपेण / यथोक्तम्- "धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः / सत्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते।।१।।" सद्धर्मरय देशनाऽपि हि प्रतिपादना कर्तव्या / तदनुसारेण बालाऽऽदिपरिणामानुरूपेण यस्य राधोपकाराय संपद्यते देशना, तस्य तथा विधेयेति॥१३॥ अत्रैव हेतुद्वारेण व्यतिरेकगाहयद्भापितं मुनीन्द्रैः, पापं खलु देशना परस्थाने। उन्मार्गनयनमेत-द्भवगहने दारुणविपाकम्॥१४॥ यद्यस्माद्भाषितमुक्तम्, मुनीन्द्रैः समययुक्तः, पापं खलु वर्तते / देशना परस्थान बालसंबन्धिनी मध्यमबुद्धेस्तत्संबन्धिनी बुधस्य स्थाने। किमित्याह... उन्मार्गनयनगुन्मार्गप्रापणमेतद्विपरीतदेशनाकरणम् / भवगहने संसारगहने, दारुणविपाक तीव्रविपाकम्। ते हि विपरीतदेशनया अन्यथा वान्यथा च प्रवर्त्तन्त इति कृत्वा // 14|| कथं पुनर्देशनास्वरूपेण समयोक्तत्वेन सुन्दराऽपि सती परस्थानेऽपायभित्याहहितमपि वायोरोषध-महितं ततश्लेष्मणो यथाऽत्यन्तम् / सद्धर्मदेशनौषध-मेवं बालाऽऽद्यपेक्षमिति / / 15 / / हितमपि योग्यमपि, वायोः शरीरगतस्य वातस्योषधं स्नेहपानाऽऽदि अहितं, नदेवौषधं श्लेष्मणो यथाऽत्यन्तं भवति / तत्प्रकोपहेतुत्वेन सद्धर्मस्य देशनौषधं स्वरूपेण सुन्दरमपि तदवज्ञाहेतुत्वेन एवमहित भवति / (बालाऽऽद्यपेक्षमिति) बालमध्यमबुद्धिबुधापेक्षं तस्मात्तदपायभीरुणातद्धितप्रवृत्तेन च गुरुणा तेषां भावं विज्ञाय, देशना विधेयेति शास्त्रोपदेशः // 15 // षो०१ विव० / गुरुर्दालाऽऽदीनां देशनां विदधातीत्युक्तम्, तत्र विधिमाहबालाऽऽदीनामेषां, यथोचितं तद्विदो विधिर्गीतः। सद्धर्मदेशनाया-मयमिह सिद्धान्ततत्त्वज्ञैः।।१।। वालाऽऽदीनामेषां पूर्वोक्ताना, यथोचितं यथार्हम्, तद्विदो बालाऽऽदिस्वरूपविदः, विधिर्गीतः कथितः। सद्धर्मदेशनायां विषये, अयमिह वक्ष्यमाणः, सिद्धान्ततत्त्वज्ञैरागमपरमार्थनिपुणैरिति / / 1 / / तत्र बालस्य परिणाममाश्रित्य हितकारिणी देशनामाहबाह्यचरणप्रधाना, कर्तव्या देशनेह बालस्य / स्वयमपि च तदाचार-स्तदग्रतो नियमतः सेव्यः / / 2 / / बाह्यचरणप्रधाना बाह्यानुष्ठानप्रवरा, कर्त्तव्या विधेया, देशना प्ररूपणा, इह प्रक्रमे बालस्याऽऽद्यस्य धर्मार्थिनः, स्वयमपि चाऽऽत्मनाऽपि च, तदाचारः-स चासावाचारश्चोपदिश्यमानाऽऽचारस्तदग्रतो बालस्याऽग्रतो, नियमतो नियमेन, सेव्यो भवत्याचरणीयः। यदि पुनः स्वयमन्यथा सेव्यते, अन्यथा चोपदिश्यते, तदा तद्वितथाशङ्कतं जनयति, अतस्तदाववृद्धये समुपदिश्यमानं तथैवाऽऽसेव्यमिति॥२॥ तामेव बालस्य देशनामाह सम्यग् लोचविधानं, ह्यनुपानत्कत्वमथ धरा शय्या। प्रहरद्वयं रजन्याः, स्वापः शीतोष्णसहनं च / / 3 / / सम्यग लोचविधान लोचकरणं, कथनीयं भवतीति योगः / हिशब्दश्चार्थे सर्वत्राभिसंबन्धनीयः। अनुपानत्कत्वं च-न विद्यते उपानही यस्य सोऽयमनुपानत्कस्तद्भावस्त्तत्त्वम अथ धराशय्या-धरा पृथ्वी सैव शय्या शयनीय, नान्यत्पर्यडाऽऽदि, प्रहरद्वयं रजन्याः स्वापः-प्रथमयामे स्वाध्यायकरण सामान्येनैव साधूनां, द्वितीयतृतीयप्रहरयोस्तु स्वापः स्वपन, चतुर्थे पुनः स्वाध्यायकरणं, समयनीत्या शीतोष्णसहनं चशीतोष्णयोः सहनं स्वसामर्थ्याप-क्षमार्तध्यानाऽऽदिपरिहारेण / / 3 / / षष्ठाष्टमाऽऽदिरूपं, चित्रं बाह्यं तपो महाकष्टम्। अल्पोपकरणसंधा-रणं च तच्छुद्धता चैव // 4 // षष्ठाष्टमाऽऽदिरूपं समयप्रसिद्ध, चित्रं नानाप्रकारं, बाह्य तपो महाकष्ट दुरनुचरम, अल्पसत्चैर्दुर्बलसंहननैश्चेति कृत्वा, अल्पोपकरणसंधारणंच अल्पमेवोपकरणम् (संधारणीय) तच्छुद्धता चैव उद्माऽऽदिदोष - विशुद्ध्या / / 4 / / गुर्वी पिण्डविशुद्धि-चित्रा द्रव्याऽऽद्यमिग्रहाश्चैव। विकृतीनां संत्याग-स्तथैकसिक्थाऽऽदिपारणकम्।।५।। गुर्वी पिण्डविशुद्धिराधाकर्माऽऽदित्यागेन चित्रा द्रव्याऽऽद्यभिग्रहाश्चैव द्रव्यक्षेत्रकालभावाभिग्रहाः समयप्रसिद्धाः। विकृतीना संत्यागः क्षीराऽऽ.. दीनाम, तथैकशिक्थाऽऽदिपारणकम् / एकं सिक्थं भोजनं पारणके। आदिशब्दादेककवलाऽऽदिग्रहः / / 5 / / अनियतविहारकल्पः, कायोत्सर्गाऽऽदिकरणमनिशं च / इत्यादि बाह्यमुच्चैः, कथनीयं भवति बालस्य // 6 / / अनियतविहारकल्पोऽनियतश्चासौ विहारश्च नैकक्षेत्रवासित्वम्, तस्य कल्पः सभाधारः, कायोत्सर्गाऽऽदिकरणमनिशं च-कायोत्सर्गस्याऽऽदिशब्दान्निषद्याकरणमासेवनमित्यादि बाह्यमुच्चै ह्यमनुष्ठानं प्रतिश्रयप्रत्युपेक्षणप्रमार्जनकालग्रहणाऽऽदि कथनीय भवति बालस्य सर्वथोपदेष्टव्यं हितकारीति॥६॥ इदानीं मध्यमबुद्धेर्देशनाविधिमाहमध्यमबुद्धेस्त्वीर्या--समितिप्रभृति त्रिकोटिपरिशुद्धम्। आद्यन्तमध्ययोगै-हितदं खलु साधुसवृत्तम् / / 7 / / मध्यमबुद्धस्तु मध्यमबुद्धेः पुनरीर्यासमितिप्रभृति ईर्यासमित्यादिकम्, प्रवचनमातृरूपं साधुसद्वृत्तं, समाख्येयमिति योगः। तच कीदृशं साधूना सदवृत्तम् ?त्रिकोटिपरिशुद्धं रागद्वेषमोहायपरिशुद्धम् / अथवा तिस्रः कोटयो हननपचनक्रयणरूपाः कृतकारितानुमतिभेदेन श्रूयन्ते, ताभिः परिशुद्धम्। अथवा-कषच्छेदतापकोटित्रयपरिशुद्धं, प्रवचनमात्रन्तर्गतत्वात् सकलप्रवचनस्य। तस्य च कषच्छेदतापपरिशुद्धत्वेनाभिधानात्तदेव च वचनमनुष्ठीयमानम्, सद्वृत्तम्, साधुसवृत्तमेव विशिष्यतेआद्यन्तमध्ययोगैर्हितदं खल्विति। आदियोगेन, मध्ययोगेनान्तयोगेनवा, वयसो जीवितव्यस्य वा, हितदमुपकारि।अथवा आदियोगेन प्रथमवयोऽवस्थागतेनाध्ययनाऽऽदिना, मध्यमयोगेन द्वितीयवयोऽवस्थाभाविनाऽर्थश्रवणाऽऽदिना, अन्तयोगेन चरमवयोऽवस्थाभाविना धर्मध्यानाsऽदिना / भावनाविशेषरूपेण, हितद हितकारि हितफलमेवेति // 7 //
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________________ धम्मदेसणा 2722 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मधण एतदेवाऽऽहअष्टौ साधुभिरनिशं, मातर इव मातरः प्रवचनस्य। नियमेन न मोक्तव्याः,परमं कल्याणमिच्छद्भिः / / 8 / / अष्टौ साधुभिरनिशं प्रवचनस्य मातरो न मोक्तव्या इति संबन्धः / ताश्च मातर इव, पुत्रस्येति गम्यते / प्रवचनस्य प्रसूतिहेतुत्वेन, हितकारित्वेन च मातृत्वमवरोयम् / नियमेनावश्यंभावेन / कीदृशः साधुभिः? परम कल्याणमिच्छदिरेहलौकिकपारलौकिकपरमकल्याणकामैः / / 8 / / एतच समाख्येयमएतत्सचिवस्य सदा, साधोर्नियमान्न भवभयं भवति। भवति च हितमत्यन्तं, फलदं विधिनाऽऽगमग्रहणम्।।। एतत्सचिवस्य प्रवचनमातृसहितस्य, सदा सर्वकालं, साधोर्यतर्नियमान्नियमेन, न भवभयं भवति संसारभयं न जायते, निःश्रेयसविषयेच्छानिष्पत्तेः। भवति च संपद्यते च / प्रवचनमातृविधानसंपन्नस्य हित भाव्यपायपरिहारसारत्वेनात्यन्त प्रकर्षवृत्त्या फलद फलहेतुर्विधिना विनयबहुमानाऽऽदराऽऽदिना, आगमग्रहणं वाचनाऽऽदिरूपेणेति / / 6 / / आगभग्रहणस्य गुर्वधीनत्वात् तद्गतमप्युपदेष्टव्यमित्याहगुरुपारतन्त्र्यमेव च, तद्बहुमानात्सदाशयानुगतम्। परमगुरुप्राप्तेरिह, बीजं तस्माच मोक्ष इति / / 10 / / गुरुपारतन्त्र्यमेव च गुर्वायत्तत्वम्, तद्बहुमानाद्गुरुविषयाऽऽन्तरप्रीतिविशेषात् / (न तु दृष्टिमात्रज्ञानात्) सदाशयानुगतम्- सदाशयः संसारक्षयहेतुर्गुरुश्यं ममेत्येवंभूतः कुशलपरिणामः, तेनानुगत गुरुपारसन्यम् / परमगुरुप्राप्तेरिह सर्वज्ञप्राप्तीजम्, गुरुबहुमानाजन्मान्तरे तथाविधपुण्योपादानेन सर्वज्ञदर्शनसंभवाद्गुरुपारतन्त्र्यं सर्वज्ञप्राप्तिबीज भवति। तस्माचैवं विधाद्गुरुपारतन्त्र्यान्मोक्षः (इति हेतोगुरुपारतन्त्र्यं साधुनाऽवश्यं विधेयमिति) // 10 // पूर्वोक्त एव वस्तुनि सदृत्ताऽऽदौ क्रियासंबन्ध दर्शयतिइत्यादि साधुवृत्तं, मध्यमबुद्धेः सदा समाख्येयम् / आगमतत्त्वं तु परं, बुधस्य भावप्रधानं तु // 11 // मध्यमबुद्धेरेवमादि साधुवृत्तं प्रस्तुतम्, सदा समाख्येय प्रकाशनीयम्, आगमतत्त्वं तुपूर्वोक्तं परं केवलमेव, बुधस्य प्रानिरूपितरय, भावप्रधान तु परमार्थसारं समाख्येयमिति // 11 // कृतसबन्धमेव बुधोपदेशमाहवचनाऽऽराधनया खलु, धर्मस्तद्बाधया त्वधर्म इति। इदमत्र धर्मगुह्यं, सर्वस्वं चैतदेवास्य / / 12 / / वचनाऽऽराधनया आगमाऽऽराधनयेव, खलुशब्द एवकारार्थः / धर्मः श्रुतचारित्ररूपः, संपद्यते। तबाधया तु वचनबाधया त्वधर्म इति। इदमत्र विधिप्रतिषेधरूपं वचनमागमाऽऽख्यं धर्मगुह्य धर्मरहस्यम, सर्वस्वं वेतदेवाऽस्य धर्मस्य, एतद्द्वचनमेव सर्वस्वं सर्वसारो वर्त्तत इति / / 12 / अथ किमर्थ बुधस्यैवमुपदेशः क्रियते सकलानुष्ठाभोपसर्जनीमावाऽऽपादानद्वारेणेत्याशङ्कय तन्मूलत्व सकलानुष्ठानानामुपदर्शयन्नाहयस्मात्प्रवर्तकं भुवि, निवर्तकं चान्तराऽऽत्मनो वचनम्। धर्मश्चैतत्संस्थो, मौनीन्द्रं चैतदिह परमम् // 13 // यस्मात् प्रवर्तकं स्वाध्यायध्यानाऽऽदिषु विधेयेषु, भुवि भव्यलोके, निवर्तकं च हिंसाऽनृताऽऽदिभ्यः सकाशादन्तराऽऽत्मनो मनसो वचनमागमरूपं,धर्मश्चैतत्सस्थो वचनसंस्थो वचने सतिष्ठत इति कृत्वा मीनीन्द्र चैतद्वचनमिह प्रक्रमे परमं प्रधानम् / एतदुक्तम्- "सर्वज्ञोक्तेन शास्त्रेण, विदित्वा योऽत्र तत्त्वतः / न्यायतः क्रियते धर्मः, स धर्मः स च सिद्धये // 1 // " ||13|| किमेवं वचनमाहात्म्यं ख्याप्यत इत्याहअस्मिन् हृदयस्थे सति, हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनीन्द्र इति। हृदयस्थिते च तस्मि-नियमात्सर्वार्थसंसिद्धिः / / 14 / / अस्मिन् प्रवचने आगमे,हृदयन्थे सति हृदयप्रतिष्ठिते सति. हृदयस्थश्चित्तस्थरतत्त्वतः परमार्थेन, मुनीन्द्रः सर्वज्ञ इति कृत्वा, हृदयस्थिते च तस्मिन् भगवति मुनीन्द्रे नियमान्नियमेन, सर्वार्थ संसिद्धिः सर्वार्थनिष्पत्तिः / / 14 // किमेवं सर्वप्रयोजनसिद्धिद्वारेण भगवान् संस्तूयत इत्याहचिन्तामणिः परोऽसौ, तेनैवं भवति समरसाऽऽपत्तिः। सैवेह योगिमाता, निर्वाणफलप्रदा प्रोक्ता॥१५।। चिन्ता रत्नं चिन्तामणिः, परः प्रकृष्टोऽसौ भगवान् सर्वज्ञस्तेन भगवतैवमागमबहुमानद्वारेण, भवति जायते, समरसाऽऽपत्तिः समताऽऽपत्तिः / आगमाभिहितसर्वज्ञस्वरूपोपयोगोपयुक्तस्य तदुपयोगाऽनन्यवृत्तेः परमार्थतः सर्वज्ञरूपत्वाद् बाह्याऽऽलम्बनाऽऽकारोपरक्तत्वेन मनसः समापत्तिानविशेषरूपा, तत्फलभूता वा समरसाऽऽपत्तिरित्यभिधीयते। यथोक्त योगशास्त्रे 'क्षीणवृत्तेरभिजात्यस्येव मणेाह्यग्रहीतग्रहणेषु तत्स्थतदनुगता समापत्तिः।" सैषेह प्रस्तुता समापत्तिरभिसंबध्यते योगिमाता योगिजननी, योगी चेह सम्यक्त्वाऽऽदिगुणः पुरुषः। यथोक्तम्-- "सम्यक्त्वज्ञानचारित्रयोगः सद्योग उच्यते / एतद्योगाद्वियोगी स्यात्परमब्रहासा-धकः / / 1 / / " सैव विशिष्यते-निर्वाण-फलप्रदा निर्वाणकार्यप्र-साधनी प्रोक्ता तद्वेदिभि-राचार्यै : / / 15 / / बालाऽऽदीना सद्धर्मदेशनाविधिरधिकृतः, तमेव निगम्यन्नाह-- इति यः कथयति धर्म , विज्ञायौचित्ययोगमनघमति:। जनयति स एनमतुलं, श्रोतृषु निर्वाणफलदमलम् / / 16 / / इति यः कथयति धर्ममेवमुक्तनीत्या यो गुरुर्धर्म कथयति, विज्ञाय ज्ञात्वा, औचित्ययोगमौचित्यव्यापार, तत्संबन्धं या, अनघमतिर्निर्दोष - बुद्धिर्जनयति स गुरुरेनं धर्ममतुलमनन्यसदृशं श्रोतृषु शुश्रूषाप्रवृत्तेषु, निर्वाणफलद मोक्षफलप्रदम्, अलमत्यर्थमिति / / 16 / / षो०२ विव०। श्रीवीरतीर्थङ्करे देशनां दत्त्वा देवच्छन्दान्तः प्राप्ते सति एकादशगणधरमध्याद् ज्येष्ठत्वाद्गौतम् एव धर्मदेशनां ददाति, पट्टधारित्वेन स्थापितत्वात् / सुधर्मस्वामी वा, अन्यो वा यः कश्चिद् गणधरो वेति? प्रश्ने, उत्तरम्-दीक्षया ज्येष्ठत्वात्सति गौतमस्वामिनि गौतमस्वाम्येव धर्मदेशनां विधत्ते, असति च तस्मिन्नन्योऽपि यो ज्येष्ठो भवति, स विधत्ते इति। 277 प्र०। सेन०३ उल्लाका धम्मदेसणाजोग्ग-त्रि०(धर्मदशनायोग्य) लोकोत्तरधर्मप्रज्ञापनाऽहे, "स धर्मदेशनायोग्यो, मध्यस्थत्वाजिनैर्मतः।" ध०१ अधिन धम्मधण-न०(धर्मधन) धर्माऽऽत्मके द्रव्ये, जीवा० 12 अधिक। ''दावेऊण धणणिहिं, ते सिं उप्पाडि आणि अच्छीणि / नाऊण
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________________ धम्मधण 2723 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मप्पलोइ (ण) विजिणवयण, जे इह विहलंति धम्मधणं / / 1 // " संघा० 1 अधि०१ - धम्मपरंपरा-त्रि०(परम्पराधर्म) परम्परया धर्मो यस्य स परम्पराधर्मः। प्रस्ता प्राकृतत्वाच परम्पराशब्दस्य परनिपातः / परम्परया धर्म प्राप्ते, उत्त० धम्मधरोद्धरणमहावराह-पुं०(धर्मधरोद्धरणमहावराह) धर्मः सर्वज्ञ-- 14 अ० प्रणीतः, स एव जीवाऽऽदिपदार्थाऽऽधारत्वेन धरा पृथिवी, तस्या | धम्मपरायण--त्रि०(धर्मपरायण) धर्मानुष्ठायिनि, दर्श० 4 अ०। यदुद्धरणं स्वरूपभ्रंशरक्षणाद् यथाऽवस्थितत्वेनावस्थापनम्, तद्विषये धर्मध्यानतत्परे, उत्त० 14 अ०। धर्मेकनिष्ठे, उत्त०१४ अ० "एवं ते महावराह आदिवराहो धर्मधरोद्धरणमहावराहः। धराया महावराहवद् कमसो बुद्धा, सव्वे धम्मपरायणा।" उत्त० 14 अ०। 'सया धम्मधर्मस्यावस्थापके, "धम्मधरोद्धरणमहावराहजिणचंदसूरिसिस्साण।" | परायणो।" दर्श०४ तत्त्व। प्रव० 276 द्वार। धम्मपरूवणा-स्त्री०(धर्मप्ररूपणा) धर्मविषयायां प्ररूपणायाम्, धम्मधम्मिपत्ति-स्त्री०(धर्मधर्मिप्राप्ति) धर्माणां धर्मिरूपेण प्राप्तिः श्रीविमलनाथप्रपौत्रश्रीधर्मघोषस्थविरपार्श्वे प्रव्रज्य महाबलकुमारः धर्मधर्मिप्राप्तिः / धर्माणा धर्मिरूपेण प्राप्तौ, अने०१अधि० पञ्चमकल्पे दशाब्धिस्थितिमनुपाल्यानन्तरं श्रीवीरपार्वे प्रव्रज्य सिद्ध धम्मधम्मिभाव-पुं०(धर्मधर्मिभाव) धर्मधर्मितायाम्, आ०म० 110 इति भगवत्येकादशशतैकादशोद्देशकाऽऽदावुक्तम्, तथा सति श्रीविमल१खण्ड / (धर्नधर्मिणोर्भेदाभेदविचारो 'धम्म' शब्देऽनुपदमेव 2663 नाथवीरयोः श्रीकल्पसूत्राऽऽदिग्रन्थे महदन्तरं दृश्यते, तत्कथमिति प्रश्रे, पृष्ठगतः उत्तरम्-भगवतीवृत्तौ द्वितीयवृत्तौ द्वितीयव्याख्यानप्रपौत्रके शिष्यधम्मधुरा-स्त्री० (धर्मधुरा) धर्म एवातिसात्त्विकै रुह्यमानतया धूरिव सन्ताने इत्युक्तमस्ति, तेन कल्पसूत्रोक्तकालमानमाश्रित्य न काऽप्यनुपघुर्धर्मधुरः / उत्त०१४ अ०। धर्माऽऽत्मिकाया धुरि, 'धणेण किं धम्म- पत्तिरिति।२५३प्र०। सेन० ३उल्ला०। राहिगारं।" धर्मधुराधिकारे दशविधयतिधर्मधूर्वहनाधिकारे / उत्त० धम्मपाढग-त्रि०(धर्मपाठक) धर्माध्यापके, आ०म० अ० 1 खण्ड। 4 स०। धर्मचिन्तायाम्. बृ०१ उ०। धम्मपारग-त्रि०(धर्मपारग) धर्मस्य श्रुतचारित्राऽऽत्मकस्य पारगः सम्यग् धम्मपइण्ण-त्रि०(धर्मप्रतिज्ञ) धर्मकरणाभ्युपगमपरे, व्य०१३०॥ वेत्ता धर्मपारगः / धर्मस्य सम्यग् वेत्तरि, "बुद्धा धम्मस्स पारगा।" धम्मपक्खिय-त्रि०(धर्मपाक्षिक) पुण्योपादानभूते, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। आचा०१ श्रु०८ अ०८301 धम्मपडिमा-स्वी०(धर्मप्रतिमा) धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः, तद्विषया धम्मपाल-पुं०(धर्मपाल) कौशाम्बीवास्तव्यस्य धनयक्षस्य श्रेष्ठिनः प्रतिमा प्रतिज्ञा, धर्मप्रधानं शरीरं वा धर्मप्रतिमा / धर्मविषयकप्रति- स्वनामख्याते पुत्रे, हा० 23 अष्ट। ज्ञायाम, धर्मप्रधाने शरीरे च / स्था०१टा०। धम्मपिवासिय-त्रि०(धर्मपिपासित) पिपासेव पिपासा, प्राप्तेऽपि तत्स्वरूपमाह धर्मेऽतृप्तिः, धर्मपिपासा संजाताऽस्येति धर्मपिपासितः। धर्मप्राप्तावतृप्ते, "एगा धागपडिमा, ज से आया पज्जवजाए।" प्राग्वन्नवरम्-पर्यवा तं० भ० ज्ञानाऽऽदिविशेषा जाता यस्य स पर्यवजातो, भवतीति शेषः, विशुद्धय- धम्मपुरिस-पुं०(धर्मपुरुष) अर्हति, स्था०। ('पुरिस' शब्दे व्याख्या तीत्यर्थः। आहिताग्न्यादित्वाच जातशब्दस्योत्तरपदत्वमिति। अथवा- वक्ष्यते) धर्मः क्षायिकचारित्राऽऽदिः, तदर्जनपरः पुरुषो धर्मपुरुषः / पर्यवान्, पर्यवेषु वा यातः प्राप्तः पर्यवयातः। अथवा-पर्यवः परिरक्षा, 'धम्मपुरिसो तदज्जणवावापरो जहा साहू।" इत्युक्तलक्षणे पुरुषभेदे, परिज्ञानं वा। शेषं तथैवेति। स्था०१ ठा०। स्था०३ ठा०१ उ०। विशे० आ०म०। आ००। ''सुहावह धम्मपण्णत्ति-स्त्री०(धर्मप्रज्ञप्ति) धर्मप्ररूपणायाम, धर्मप्ररूपणावति धम्मपुरिसाणं / " धर्मपुरुषाणां धर्मप्रधाननराणाम् / पञ्चा०६ विव०॥ दर्शन च। उपा०६ अ०॥"महावीरस्संतिए धम्मपण्णत्तिं उवसंपञ्जित्ताणं धम्मप्पएस-पुं०(धर्मप्रदेश) धर्मशब्देन धर्मास्तिकायो गृह्यते, तस्य विहरित्तए।" उपा०१ अ० धर्मप्रज्ञप्तिर्यथावस्थितधर्मप्रज्ञापनात्। प्रकृष्टो देशः प्रदेशो निर्विभागो भागो धर्मप्रदेशः / धर्मास्तिकायस्य दशवकालिकस्य षड्जीवनिकायाऽऽख्येऽध्ययने च / दश०४ अ०। निर्विभागे भागे, अनु० "आयप्पवायपुव्वा, निजूढा होइ धम्मपण्णत्ती।'' दश० १अ०। धम्मप्पभ-पुं०(धर्मप्रभ) अञ्चलगच्छीये सिंहतिलकसूरिगुरौ, अयमाधम्मपण्णवणा-स्त्री०(धर्मप्रज्ञापना) धर्मस्य क्षान्त्यादिदशलक्षणोपे- चार्यः विक्रमसंवत् 1331 मिते जातः, 1363 मिते स्वर्गतः। जै० इ०। तस्य प्रज्ञापना प्ररूपणा धर्मप्रज्ञापना। धर्मप्ररूपणायाम, "धम्मपण्ण- धम्मप्पलज्जण-त्रि०(धर्मप्ररञ्जन) धर्मे प्ररज्यते आसज्यते इति वणा जा सा।" सूत्र०१श्रु०१अ०२ उ०१ धर्मप्ररञ्जनः / औ०। धर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षण रज्यत इति धर्मप्ररधम्मपत्थ-त्रि०(धर्मपथ्य) धर्माय पथ्यमिव। धर्माय हिते, धर्मश्रवण- जनः / 'रलयोरैक्यमिति' कृत्वा रस्य स्थाने लकारः। धर्माऽऽसक्ते, तत्त्वरसाऽऽस्वाद-धार्मिकसत्त्वसंसर्गादिरूपे, षो०४विव०। ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०॥ धम्मपय-न०(धर्मपद) धर्मफलके सिद्धान्तपदे, "जस्संतिए धम्म- 1 धम्मप्पलोइ(ण)-पुं०(धर्मप्रलोकिन) धर्म प्रलोकयत्युपादेयतया प्रेक्षते फलानि सिक्खे।" दश०६ अ०१ उ० क्षान्त्यादिके च। "विऊण ते / पाखण्डिषु वा गवेषयतीति धर्मप्रलोकी। धर्मरयापादयतया प्रेक्षके, धम्मपयं अणुत्तरं / ' आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। पाखण्डिष धर्मगवेषके च। औ०। ज्ञा०।
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________________ धम्मप्पवाइ(ण) 2724 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मफल धम्मप्पवाइ(ण)-पुं०(धर्मप्रवादिन) धर्म प्रवदितु शीलं यस्य स धर्मप्रवादी। धर्मप्रावादुके, आचाराङ्गचतुर्थाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकार्थाधिकारमधिकृत्य-"विइए धम्मप्पवाइयपरिक्खा।" धर्म प्रवदितुशील येषां ते धर्मप्रवादिनः, त एव धर्मप्रवादिकाः, धर्मप्रावादुका इत्यर्थः / तेषां परीक्षा युक्तायुक्तविचारणम्। आचा०१ श्रु०४ अ०२३०॥ धम्मप्पसंसा-स्त्री०(धर्मप्रशंसा) दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तस्य प्रशंसाधर्मप्रशंसा। सकलपुरुषार्थानामेवधर्मः प्रधानमित्येवरूपे धर्मस्य स्तवे, तथाऽन्यैरप्युक्तम्- "रैदो धनार्थिनां धर्मः कामिना सर्वकामदः / धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः" / / 1 / / दश०१ अ०। षो। धम्मप्पावाउय-पुं०(धर्मप्रावादुक) धर्मप्रवादिनि, आचा०१ श्रु० १४अ०१उ० धम्मप्पिय-त्रि०(धर्मप्रिय) धर्ममित्रे, आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०१ उ०। धम्मफल-न०(धर्मफल) धर्मस्य फलं धर्मफलम्, धर्मेण वा फलं धर्मफलम्। धर्मप्रयोजने, दश०१अ०॥ धर्मफलमाहजया जीवमजीवा य, दो वि एए वियाणइ। तया गइं बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ // 14 // यदा यस्मिन् काले, जीवानजीवाश्च द्वावप्येतौ विजानाति विविध जानाति, तदा तस्मिन् काले, गतिं नरकगत्यादिरूपा, बहुविधां स्वपरगतभेदेनानेकप्रकारा, सर्वजीवानां जानाति / यथा-ऽवस्थितजीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात् // 14 // उत्तरोत्तरां फलवृद्धिमाहजया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ। तया पुन्नं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ / / 15 / / यदि गतिं बहुविधा सर्वजीवानां जानाति, तदा पुण्यं च पाप च बहुविधगतिनिबन्धनं, तथा बन्धं जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं, मोक्ष च | तद्वियोगसुखलक्षणं जानाति / / 15 / / जया पुन्नं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ। तया निव्यिंदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे // 16|| जया निव्विंदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे / तया चयइ संजोगं, सटिभंतरं च वाहिरं // 17 // यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्ष च जानाति, तदा निर्विन्ते मोहाभावात्सम्यग्विचारयत्यसारदुःखरूपतया भोगान् शब्दाऽऽदीन यान् दिव्यान् याँश्च मानुषान्, शेषास्तु वस्तुतो भोगा एव न भवन्ति / / 16 / / (जया इत्यादि) यदा निर्विन्ते भोगान् यान् दिव्यान् , याश्च मानु-पान्, तदा त्यजति संयोग संबन्धं द्रव्यतो भावतः साभ्यन्तरं बाह्यं क्रोधाऽऽदिहिरण्याऽऽदिसंबन्धमित्यर्थः / / 17 / / जया चयइ संजोगं, सभिंतरं च बाहिरं। तया मुंडे भवित्ता णं, पव्वइए अणगारियं / / 18|| यदा त्यजति संयोगसाभ्यन्तरं बाह्यम्, तदा मुण्डो भूत्वा द्रव्यतो भावतश्च / प्रव्रजति प्रकर्षेण व्रजत्यपवर्ग प्रत्यनमारं द्रव्यतो भावतश्वाविद्यमानागारमिति भावः / / 18 // जया मुंडे भविता णं, पव्वइए अणगारियं / तया संवरमुक्किट्ठ, धम्मं फासे अणुत्तरं / / 16 / / यदा मुण्डो भृत्वा प्रव्रजत्यनगारम् (तया संवरमुक्झिट्ट ति) प्राकृतशैल्या उत्कृष्ट संवरं धर्म सर्वप्राणातिपाताऽऽदिविनिवृत्तिरूपं, चारित्रधर्ममित्यर्थः / स्पृशत्यनुत्तरं सम्यगासेवत इत्यर्थः / / 16 / / जया संवरमुक्किट्ठ, धम्मं फासे अणुत्तरं / तया धूणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं / / 20 / / यदोत्कृष्टसंवरं धर्म स्पृशत्यनुत्तरं तदाधुनाति–अनेकार्थत्वात्पातयति कमरजः कम्मवाऽऽत्मरञ्जनाद्रज इव रजः / किंविशिष्ट-मित्याहअबोधिकलुषं कृतम्-अबोधिकलुषेण मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः / / 20 / / जया धूणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कम। तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छ।।२१।। यदा धुनाति कर्मरजः अबोधिकलुषं कृतम्, तदा सर्वत्रगं ज्ञानमशेषज्ञेयविषयं, दर्शनं चाशेषदृश्यविषयम्, अधिगच्छत्यावरणाभावादाधिक्येन प्राप्नोतीत्यर्थः / / 21 / / जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छद। तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली // 22 / / यदा सर्वत्रग ज्ञानं दर्शनं चाधिगच्छति, तदा लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमलोक चानन्तं जिनो जानाति केवली, लोकौ च सर्व, नान्यतरमेवेत्यर्थः / / 22 // जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निरुभित्ता, सेलेसिंपडिवज्जइ / / 23 / / यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति के वली, तदोचितसमयेन योगान्निरुध्य मनोयोगाऽऽदीन शैलेशी प्रतिपद्यते भवोपग्राहिकर्माशक्षयाय / / 23 / / जया जोगे निलंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ। तया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ / / 2 / / यदा योगान्निरुध्य शैलेशी प्रतिपद्यते, तदा कर्मक्षपयित्वा भवोपग्राह्यपि सिद्धिंगच्छति लोकान्तक्षेत्ररूपां. नीरजाः सकलकर्मरजोविनिर्मुक्तः // 24 // जया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छद नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ // 25 / / यदा कर्म क्षपयित्वा, सिद्धिं गच्छति नीरजाः, तदा लोकमस्तकस्थः त्रैलोक्योपरिवर्ती, सिद्धो भवति शाश्वतः कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधमेति भावः। उक्तो धर्मफलाऽऽख्यः षष्ठोऽधिकारः।।२५॥ __ साम्प्रतमिदं धर्मफलं यस्य दुर्लभं तमभिधित्सुराहसुहसायगस्स समण-स्स सायाउलस्स निगामसाइस्स। उच्छोलणापहाविस्स, दुलहा सुगइ तारिसगस्स।२६।। सुखाऽऽस्वादकस्याभिष्वङ्गेण प्राप्तसुखमोक्तुः, श्रमणस्य द्रव्यप्रव्र
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________________ धम्मफल 2725 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मरयण जितस्य, साताऽऽकुलस्य भाविसुखार्थ व्याक्षिप्तस्य, निकामशायिनः मध्ये यो रत्नमिव वर्तते जिनप्रणीतो देशविरतिसर्वविरतिरूपो धर्मो सूत्रार्थवेलामप्युल्लड्घ्य शयानरय, उत्सोलनाप्रधाविन उत्सोलनयोद- धर्मरत्नम्। ध०१ अधि०। जिनप्रणीतदेशविरतिसर्वविरत्यात्मकधर्मकाऽयतनया प्रकर्षेण धावति पादाऽऽदिशुद्धिं करोति यः स तथा तस्य। रूपे सकलैहिकाऽऽमुष्मिकसम्पत्तिजनकेऽचिन्त्यचिन्तामणी, दश० किम्? इत्याह-दुर्लभा दुष्प्रापा, सुगतिः सिद्धिपर्यवसाना, तादृशस्य ४अ० भगवदाज्ञालोपकारिण इति गाथार्थः // 26 // इह हि हेयोपादेयाऽऽदिपदार्थसार्थपरिज्ञानप्रवीणस्य जन्मजरामरणइदानीमिदं धर्मफलं यस्य सुलभं तमाह रोगशोकाऽऽदिदुर्गदौर्गत्यनिपीडितस्य भव्यसत्त्वस्य स्वर्गापवर्गाऽऽदितवगुणपहाणयस्स य, उज्जुमई खंतिसंजमरयस्स। सुखसंपत्संपादनाबन्ध्यनिबन्धनं सद्धर्मरत्नमुपादातुमुचितं, तदुपादानोपरिसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगइ तारिसगस्स|२७|| पायश्च गुरूपदेशमन्तरेण न सम्यग विज्ञायते, न चानुपायप्रवृत्तानामभीपच्छा विते पयाया,खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई। टार्थसिद्धिरित्यतः कारुण्यपुण्यचेतस्तया धर्मार्थिनां धर्मोपादानपालनोजेसिं पिओ तवो सं-जमो य खंती य बंभचेरं च // 28|| पदेशंदातुकामः सूत्रकारः शिष्टमार्गानुगामितया पूर्व तावदिष्टदेवतानमतपोगुणप्रधानस्य षष्ठाष्टमाऽऽदितपोधनवतः, ऋजुमतेर्भार्गप्रवृत्त स्काराऽऽदि-प्रतिपादनार्थमिमां गाथामाहबुद्धेः, क्षान्तिसंयमरतस्य क्षान्तिप्रधानसंयमाऽऽसे विन इत्यर्थः। नमिऊण सयलगुणरय-णकुलहरं विमलकेवलं वीरं। परीषहान क्षुत्पिपासाऽऽदीन, जयतोऽभिभवतः, सुलभा सुगति धम्मरयणत्थियाणं, जणाण वियरेमि उवएसं // 1 // रुक्तलक्षण, तादृशस्य भगवदाज्ञाकारिण इति गाथार्थः / / 27 / / पश्चादपि इह पूर्वार्द्धनाऽभीष्टदेवतानमस्कारद्वारेण विघ्नविनायकोपशान्तये वृद्धावस्थायामपि, ते प्रयाताः प्रकर्षण याता अविराधितसंयमा अपि मङ्गलमभिहितम्, उत्तरार्द्धन, चाभिधेयमिति / सबंन्धप्रयोजने पुनः सन्मार्ग प्रपन्नाः, शीघं गच्छन्ति अमरभवनानि देवविमानानि। ते के? सामर्थ्यगम्ये। तथाहि-संबन्धस्तावदुपायोपेयलक्षणः, साध्यसाधन इत्याह-येषां प्रियं तपः संयमः, क्षान्तिः , ब्रहाचर्य च।।२८|| दश०४ अ०। लक्षणोवा, तत्रेद शास्त्रमुपायः, साधनंवा; साध्यमुपेयं वा शास्त्रार्थपरिधम्मभट्ठ-त्रि०(धर्मभ्रष्ट) धर्मच्युते, दश०१ चू० ज्ञानमिति। प्रयोजनं तु द्विविधम्-कर्तुः, श्रोतुश्च / पुनरनन्तर-परम्परधम्ममइ-स्त्री०(धर्ममति) धर्मबुद्धौ, "इट्ठजणविप्पओगे, आवइँ भेदादेकैकं द्वेधा। तत्रानन्तरंकर्तुः सत्त्वानुग्रहः। परम्परम्-अपवर्गाऽऽपडियरस रोगपत्थरस। वइपरिणामयतहा, धम्ममई होइ पाएण।।१।।" दिप्राप्तिः / तथा चोक्तम्- "सर्वज्ञोक्तोपदेशेन, यः सत्त्वानामनुग्रहम् / दर्श०१ तत्त्व। करोति दुःखतप्ताना, स प्राप्नोत्यचिराच्छिवम् / / 1 / / " इति। श्रोतुः धम्ममग्ग-पुं०(धर्ममार्ग) परलोकगामिनि मार्गे, पं० व० 4 द्वार। पुनरनन्तरंशास्वार्थपरिज्ञानं, परम्परंतस्याप्यपवर्गप्राप्तिः। उक्त चधम्ममाण-त्रि०(ध्मायमान) भस्त्रावातेनोद्दीप्यमाने, "लोहगर 'सम्यक शास्त्रपरिज्ञानाद्विरक्ता भवतो जनाः लब्ध्वा दर्शनसंशुद्धिं, ते धम्ममाणधमधर्मितघोस।" उपा०२ अ० अग्निना ताप्यमाने, ज्ञा० 1 यान्ति परमा गतिम् / / 1 / / " इति / साम्प्रतं सूत्रव्याख्यानत्वा प्रणम्य, कम्? वीर कर्मविदारणातपसो विराजनाद्वर्यबीर्ययुक्तत्वाच जगति यो श्रु०६अ। वीर इति ख्यातः। यदवादि- "विदारयति यत्कर्म, तपसा तद् विराजते / धम्ममित्त-पुं०(धर्ममित्र) धर्मसुहृदि, षो०६ विव० पद्मप्रभजिनस्य तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः // 1 // " तं वीरं श्रीमद्वपूर्वभवनामधेये, सा ईमानस्वामिनम् / किविशिष्टम्-सकलगुणरत्नकुलगृहम्-सकलाः धम्ममुत्ति-स्त्री०(धर्ममूर्ति) अञ्चलगच्छीये शिवसिंहसूरिशिष्ये समस्ता ये गुणाः क्षमामार्दवाऽऽर्जवाऽऽदयः, त एव रौद्रदारिद्रयजयकीर्तिरिगुरो, जै० इ०। मुद्राविद्रावकत्वात्सकलकल्याणकलापकारणत्वाच रत्नानि सकधम्ममुह-न०(धर्ममुख) धर्माणा मुखमिव मुखमुपायो धर्ममुखम् / लगुणरत्नानि, तेषा कुलगृहमुत्पत्तिस्थान, तं सकलगुणरत्नकुलगृहम् / धर्मोपाये, "धम्माणं कासवो मुहं / " उत्त० पाई० 25 अ पुनः किंविशिष्टम्? विमलकेवलम्- विमलं सकलतदावारककर्माणुधम्ममूल-न०(धर्ममूल) धर्मलक्षणवृक्षस्य मूलमिव मूलम्। धर्ममूलभूते रेणुसंपर्कविकलत्वेन निर्मलं केवलं केवलाऽऽख्यं ज्ञानं यस्य स जीवदयाऽऽदिके, दर्श०२ तत्त्व / (तानि च 'धम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विमलकेवलस्तं, क्त्वाप्रत्यस्य चोत्तरक्रियासापेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह२६७३ पृष्ठे दर्शितानि) वितरामि प्रयच्छामि, कम् ? उपदेशम्-उपदिश्यते इत्युपदेशो धम्ममेह-पुं०(धर्ममेघ) यावत्तत्त्वभावनेन फलमलिप्सोः सर्वथा हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तवचनरचनाप्रपश्चस्तम. केभ्यो? जनेभ्यो विवेकख्याती, धर्ममशुक्लकृष्णं मेहति सिञ्चतीति धर्ममेघः, प्रसंख्याने लोकेभ्यः / कथंभूतेभ्यः? धर्मरत्नार्थिभ्यो दुर्गतिप्रपतन्तं प्राणिगणं कुशीदस्य सर्वथा विवेकख्यातौ, धर्ममेघः समाधिरित्युक्तलक्षणे धारयति, सुगतौ धत्ते चेति धर्मः / उक्तं च- "दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून्, असंप्रज्ञातापरनामधेये समाधिभेदे, द्वा० 20 द्वा०। यस्माद्धारयते ततः / धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः धम्मय-पुं०(धर्मद) धम्मद' शब्दार्थ , स०१ सम०। / / 1 / / " इति / स एव रत्नं प्राग्व्यावर्णितशब्दार्थ , तदर्थयन्ते मृगयन्ते धम्मरय-त्रि०(धर्मरत) चारित्रधर्माऽऽसक्तचित्ते, पञ्चा० 5 विव०। इत्येवं शीला येते धर्मरत्नार्थिनस्तेभ्यः, सूत्रे च षष्ठी चतुर्थ्यर्थं प्राकृतलउद्युक्तविहारिणि, 'धम्मरयपुण्वसूरीणं / ' उद्युक्तविहारिचिरन्त क्षणवशात्। यदाहुः प्रभु-श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः स्वकृतप्राकृतलक्षणेनाऽऽचार्याणाम् / जीवा१ अधिo ''चतुर्थ्याः षष्टी / / 8 / 3 / 113 // इति गाथाक्षरार्थः / / भावार्थः पुनधम्मरयण-न०(धर्मरत्न) धर्म एव रत्नं धर्मरत्नम्। दर्श०२ तत्त्व / धर्माणां / रया-नत्वेति पूर्वकालाभिधायिना क्षिप्तोत्तरकालक्रियेण स्याद्वा--
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________________ धम्मरयण 2726 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मरयण दशार्दूलनादसवादिना पदेनैकान्तनित्यानित्यवस्तुविस्तारवादिप्रवादिमृगयोर्मुखबन्धो व्यधायि, यतोऽनैकान्तेन नित्योऽनित्यो वा कर्ता क्रियाद्वयं कर्तुमीष्ट, क्रियाभेदे कर्तृभेदात्, ततो द्वितीयक्रियाक्षणे कर्तुरनित्यवाभावप्रसङ्गाभ्यां द्वयोरप्यपाकृतिरिति / सकलगुणरत्नकुलगृहमित्यनेन भगवतः श्रीमत्पश्चिमतीर्थाधिनाथन्य पूजातिशयः प्रकाश्यते। तथा च पूज्यन्त एवाहप्रथमिकाविधीयमानावनामवशसमुत्पन्नशिरः कोटीरकोटीविटङ्कसंघहैः सुरासुरनरनिकरनायकैरपि गुणवन्तः। उक्तंच"सव्वो गुणेहिं गण्णो, गुणाहियस्स जह लोगे वीरस्स। संभंतमउडविउओ, सहस्सनयणो सययमेइ।।१॥" इति। विमलकेवलमित्यमुना तु ज्ञानातिशयसंपन्नतया प्रसिद्धसिद्धार्थपार्थिवकुलविमलनभस्तलनिशीथिनीनाथस्य जिननाथस्य वचनातिशयः प्रपञ्च्यते / यतः केवलज्ञाने सत्यवश्यंभाविनी भगवतां तीर्थकृतां सद्देशनाप्रवृत्तिः, तीर्थकरनामकर्मण इत्थमेव वेद्यमानत्वात् / यदुक्त श्रीभद्रबाहुस्वामिपादैः- "तं च कहं वेइजइ, अगिलाए धम्मदेसणाईहिं।" इत्यादि। वीरमिति सान्वयपदेन च भगवतः समूतकाषंकषितनिःशेषापायनिबन्धनकर्मशत्रुसङ्घातस्य चरमजिनेश्वरस्यापायापगमातिशयः प्रस्पष्ट निष्टक्यते, यतोऽपायभूतं भवभ्रमणकारणत्वात्सर्वमपि कर्म / तथा चाऽऽगमः- "सव्वं पावं कम्म, भामिजइजेण संसारे।" इति। धर्मरत्नार्थिभ्य इत्यनेन श्रवणाधिकारिणामर्थित्वमेव मुख्यं लिङ्गमित्यभाणि / यदुक्तं परोपकारभूरिभिः श्रीहरिभद्रसूरिभिः-''तत्थऽहिगारी अत्थी, समत्थओ जो न सुत्तपडिकुट्ठो / अत्थी उ जो विणीओ, समुट्टिओ पुच्छमाणो य" // 1 / / इति / जनानामित्यनेन बहुवचनान्तेनेदमुदितं भवति यथा नैकमेवेश्वराऽऽदिकमाश्रित्योपदेशदाने प्रवर्तितव्य, किंतु सामान्येन सर्वसाधारणतया। तथा चाऽऽह भगवान सुधर्मस्वामी--"जहा पुन्नस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ। जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुन्नस्स कत्थई / / 1 / / " इति / वितराम्युपदेशमितीहायमाशयः-न निजप्रज्ञाभिमानेन, न परपरिभवाभिप्रायेण, न कस्यचिदुपार्जनीय प्रवर्तते, किं तर्हि कथं नु नामाऽमी जन्तक सद्धर्ममार्गमासाद्यपूर्यवसितं महानन्दामन्दाऽऽनन्दसंदोहमवाप्स्यन्तीत्यनुग्रहबुद्ध्या परेषामात्मनश्च। यदभाणि"शुद्धमार्गोपदेशेन, यः सत्त्वानामनुग्रहम्। करोति नितरां तेन, कृतः स्वस्याप्यसौ महान् / / 1 / / " तथा'न भवतिधर्मः श्रोतुः, सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्धया, वतुस्त्वेकान्ततो भवति" ||1|| इत्युक्तः सभावार्थः सकलोऽपि गाथार्थः / / 1 / / अथ यथाप्रतिज्ञातं विभणिषुः प्रस्तावयन्नाहभवजलहिम्मि अपारे, दुलहं मणुयत्तणं पि जंतूणं। तत्थ वि अणत्थहरणं, दुलहं सद्धम्मवररयणं / / 2 / / भवन्त्यस्मिन् नारकतिर्यड्नरामररूपेण कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः संसारः, स एव जन्मजरामरणादिजलधारणाजलधिः, तस्मिन्ननादिनिधनतयाऽपारेऽदृष्टपर्यन्ते, वम्भम्यमाणानामिति शेषः। दुर्लभं दुरापं, मनुजत्वमपि मनुष्यभावोऽपि, दूरे तावद्देशकुलजातिप्रभृतिसामग्रीत्यपेरर्थः / यजगदे जगदेकबन्धुना श्रीवर्द्धमानस्वामिनाऽष्टापदादागतं श्रीगौतममहामुनिं प्रति"दुलहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं। गाढा य विवागकम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए // 4 // " इति। ध०र० (अस्या अर्थः 'दुमपत्तय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2570 पृष्ठे उक्तः ) अन्यैरप्युक्तम्"संसारकान्तारमपास्तपारं, बम्भ्रम्यमाणो लभते शरीरी। कृच्छ्रेण नृत्वं सुखसस्यबीज, प्ररूढदुष्कर्मशमेन (भूतम्) नूनप।।१।। नरेषु चक्री त्रिदशेषु वज्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु। मतो महीभृत्सु सुवर्णशैलो, भवेषु मानुष्यभवःप्रधानः।।२।।" तथा"अनाण्यपि रत्नानि, लभ्यन्ते विभवैः सुखम्। दुर्लभ रत्नकोट्याऽपि, क्षणोऽपि मनुजाऽऽयुषः / / 1 / / " इति। जन्तूनां प्राणिनां तत्रापि मनुजत्वे सत्यपि। अनर्थहरणमितिनार्थ्यन्ते नाभिलष्यन्ते ये दारिद्र्यक्षुद्रोपद्रवाऽऽदयोऽपायास्ते ह्रियन्ते विध्वस्यन्ते येन तदनर्थहरणं दुर्लभं दुष्प्रापं, किं तदित्याह-सन् साधुः पूर्वापराविरोधप्रभृतिगुणगणालड्कृतत्वेन परप्रावादुकपरिकल्पितधर्मापेक्षया शोभनो धर्मः सद्धर्मः सम्यग्दर्शनाऽऽदिकः, स एवैहिकार्थमात्रप्रदायीतररत्नापेक्षया शास्वतानन्तमोक्षार्थदातृत्वेन वरं प्रधान रत्नं सद्धर्मवररत्नमिति। अथामुमेवार्थ दृष्टान्तविशिष्ट स्पष्टयन्नाहजह चिंतामणिरयणं, सुलह न हु होइ तुच्छविहवाणं / गुणविहववजियाणं, जियाण तह धम्मरयणं पि / / 3 / / यथा येन प्रकारेण, चिन्तामणिरत्नं सुप्रतीतं, सुलभं सुप्रापम्. (नहु) नैव भवति जायते, तुच्छविभवानाम्-तुच्छः स्वल्पो विभवः-कारणे कार्योपचाराद्विभवकारण पुण्यं येषां ते तुच्छविभवाः, स्वल्पपुण्या इत्यर्थः, तेषान्, तथाविधपशुपालवत् / तथा गुणा अक्षुद्रताऽऽदयो वक्ष्यमाणस्वरूपास्तेषां विशेषेण भवनं सत्ता गुणविभवः / अथवा-गुणा एव विभवो विभूतिर्गुणविभवः, तेन वर्जिताना रहितानां, जीवानां पञ्चेन्द्रियप्राणिनाम्। उक्तं च - ''प्राणां द्वित्रिचतुःप्रोक्ताः, भूतानि तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः / / 1 / / " अपिशब्दस्य वक्ष्यमाणस्येह संबन्धादेवं भावना कार्याएकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां तावद्धर्मप्राप्ति स्ति, पञ्चेन्द्रियजीवानामपि तत्तदयोग्यताहेतुगुणसामग्रीविकलानां तथा तेन प्रकारेण धर्मरत्नं सुलभं न भवतीति प्रकृते संबन्ध इति। पूर्वसूचितपशुपालदृष्टान्तश्चायम्"बहुविबुधजनोपेतं, हरिरक्षितमप्सरःशतसमेज्ञम्। इह अस्थि हत्थिणउरं, पुरं पुरन्दरपुरं व वरं / / 1 / / तत्र श्रेष्ठिगरिष्ठः, पुन्नागो नागदेवनामाऽऽसीत्। निम्मलसीलगुणधरा, वसुंधरा रोहिणी तस्स / / 2 / / तत्तनयो विनयोज्ज्वल-मतिविभवभरो बभूव जयदेवः। दक्खो रयणपरिक्ख, सिक्खइ सो वारस समा उ / / 3 / / विजितान्यहासममलं, वित्रासं चिन्तितार्थदानपटुम। चिन्तामणि पमुत्तु, सेसमणी गणइ उवलसमे / / 4 / / चिन्तामणिरत्नकृते, सुकृती स कृतोद्यमः पुरे सकले। हट्ट हट्टण घरं, घरेण भमिओ अपरितंतो।।५।।
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________________ धम्मरयण 2727 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मरयण न च तमवाप दुरापं, पितरावूचेऽथ यद् मयाऽत्र पुरे। चिंतामणी न पत्तो, तो जामि तयत्थमन्नत्थ।।६|| ताभ्याममाणि वत्स! स्वच्छमते! कल्पनेव खल्वेषा। अन्नत्थ विकत्थइन-स्थि एस परमत्थओ भवणे ||7|| तद्रनैरसपत्नैर्यथेष्टमन्यैरपिव्यवहरच। निम्मलकमलाकलियं, भवणं ते होइ जेणमिणं / / 8 / / इत्युक्तोऽपि स चिन्ता-रत्नाऽऽप्तौ रचितनिश्चयश्चतुरः। वारिजंतो पियरे-हिं निग्गओ हत्थिणापुरओ / / 6 / / नगरगण्यामाकर-कर्वटपत्तनपयोधितीरेषु। त्म्मगणपवणमणो, सुइरं भतो किलिस्संतो।।१०।। तमलभमानो विमनाः, दध्यौ किं नास्ति सत्यमेवेदम? अहब न तस्सऽस्थित्तं, न अन्नहा होइ सत्थुत्तं // 11 // इति निश्चित्य स चेतसि, निपुणं बम्भ्रमितुमारभत भूयः / पउराओ मणिखणीओ, पुच्छीपुच्छिं नियच्छंतो।।१२।। वृद्धनरणैकेन च, सोऽभाणि यथा मणीवतीहास्ति। खाणी मणीण तत्थ य, पवरमणी पावइ सपुन्नी / / 13 / / तत्र च जगाम मणिगण-ममलमनारतमथो मृगयमाणः। एगो य तत्थ मिलिओ, पसुवालो बालिसो अहियं / / 14 / / जयदेवेन निरक्ष्यत्, वर्तुल उपलश्च करतले तस्य। गहिओ परिच्छिओ तह, नाओ चिंतामणि त्ति इमो / / 15 / / सोऽयाचि तेन स मुदा, पशुपाल प्राह किममुना कार्यम्। भणइ वणी सगिहगओ, बालाणं कीलण दाह / / 16 / / सोऽजल्पदीदृशा इह, ननु बहवः सन्ति किन गृह्णासि ? / सिट्ठिसुओ भणइ अहं, समुस्सुओ निययगिहरामणे / / 17 / / तद्देहि मह्यमेनं, त्वमन्यमपि भद्र! लप्स्य से पत्र। अपरोवयारसील-तणेण तह विहु न सो देइ।।१८।। तत एतस्यापि च वर-मयमपकर्ताऽस्तु मा स्म भूदफलः। इय करुणारसियमई, सिट्ठिसुओ भणइ आभीरं / / 26 / / यदि भद्र ! मम न दत्से, चिन्तामणिमेनमात्मनाऽपि ततः। आराहसु जेण तुहं, पिचितियं देइ खलु एसो॥२०|| इतरः प्रोचे यदि स-त्यमेष चिन्तामणिर्मयाऽचिन्ति। ता वोरकरिरकव्वर-पमुह मह देउ लहु बहुयं / / 20 / / अथ हसितविकसितमुखः, श्रेष्ठिसुतः स्माऽऽह चिन्त्यते नैवम्। किं तुयवासतिगतिम-रयणिमुहे लितमहिपीढे / / 22 / / शूचिपट्टनिहितसिचये, स्नपितविलिप्त मणिं निधायोच्चैः। कप्पूरकुसुममाई-हि पूइउं नमिय विहिपुव्वं / / 23 / / तदनु विचिन्त्यत इष्ट, पुरोऽस्य सर्वमपि लभ्यते प्रातः। इय सोउं गोवालो, वि छागियागाममभिचलिओ॥२४|| न स्थास्यति हस्ततले, मणिरत्नं नूनमिदमपुण्यस्य। इय चिंतिय सिविसुओ, वितस्स पुट्टिनछड्डेइ।।२५।। गच्छन् पथि पशुपालः, प्राह मणे ! छागिका इमा अधुना। विछिणिय किणिय घणसा-रमाइ काहामि तुह पूर्य / / 26 / / मचिन्तितार्थपूा, सान्वयसंज्ञो भवेस्त्वमपि भुवने। एवमणिमुल्लवंते ण तेण भणिय पुणो एयं / / 27 / / दुरे ग्रामस्ताव-न्मणे ! कथा कथय काश्चन ममागे। अह न मुणसि तोऽहं तुह, कहेमि निसुणेसु एगग्गो / / 28|| देवगृहमेकहस्त, चतुर्भुजो वसति तत्र देवस्तु। इय पुणरुतं वुत्तो, वि जपए जाव नेव मणी / / 26 / / तावदुवाच स रुष्टो, यदि हुड् कृतिमात्रमपि न मे दत्से। ता चिंतियत्थसंपा-यणम्मि तुह केरिसी आसा?||३०|| तचिन्तामणिरिति ते. नाम मृषा सत्यमेव यदि चेदम्। जं तुह संपत्तीए, विन मह फिट्टइ मणे ! चिन्ता / / 31 / / किं च क्षणमपि योऽहं, रब्धातर्विना न हि स्थातुम् / सत्तो सोहं कहमिह, उववासतिगेण न मरामि? ||32|| तन्मे मारणहेतो-र्वणिजारे ! वर्णितोऽसि तद्गच्छ। जत्थ न दीससि इय भणि-य लखिओ तेण सो सुमणी॥३३॥ जयदेवो मुदितमनाः, संपूर्णमनोरथः प्रणतिपूर्वम्। चिंतामणिं गहिता. नियनयराभिमूहमह चलिओ॥३४॥ मणिमाहात्म्यादुल्लसि-तवैभवः पथिमहा पुरे नगरे। रयणवइनामधूयं, परिणीय सुबुद्धिसिटिस्स / / 35 / / बहुपरिकरपरिकलितो, जननिवर्हर्गीयमानसुणगणः / हत्थिणपुरम्मि पत्तो, पणओ पियराण चलणेसु // 36 / / अभिनन्दितः स ताभ्यां, स्वजनैः संमानितः स बहुमानैः। थुणिओ सेसजणेणं, भोगाणं भायणं जाओ॥३७॥ ज्ञातस्यास्योपनयो-ऽयमुच्चकैरमरनरकतिर्यक्षु / इयरमणीण खणीसु व, परिब्भमंतण कह कह वि॥३८॥ जीवेन लभ्यत इय, मनुजगतिः सन्मणीवतीतुल्या। तत्थ वि दुलहो चिंता-मणि व्व जिणदेसिओ धम्मो॥३६।। पशुपालोऽत्र यथा खलु, मणिं न लेभेऽनुपात्तसुकृतधनः। जह पुण्णचित्तजुत्तो, वणिपत्तो पण तयं पत्तो ||4|| तद्वगतगुणविभवो, जीवो लभते न धर्मरत्नमिदम्। अविकलनिम्मलगुणगण-विहवभरो पावइ तयं तु // 41 // दृष्टान्तमेनं विनिशम्य सम्यक्, सद्धर्मरत्नग्रहणे यदीच्छा। अमुद्रदारिद्रयविनाशदक्षं, तत्सद्गुणद्रव्यमुपार्जयध्वम्॥४२।।" इति पशुपालकथंतिगाथार्थः। कतिगुणसंपन्नःपुनस्तत्प्राप्तियोग्य इति प्रश्नमाशङ्क्याऽऽहइगवीसगुणसमेओ, जुग्गो एयस्स जिणमए भणिओ। तदुवजणम्मि पढम, ता जइयव्वं जओ भणियं / / 4 / / एभिरेकविंशतिगुणैर्वक्ष्यमाणैः समेतोयुक्तः। पाठान्तरेणसमृद्धः सम्पूर्णः, समिद्धो वा देदीप्यमानो, योग्य उचितः, एतस्स प्रस्तुतधर्मरत्नस्य, जिनम तेऽर्हच्छासने, भणितः प्रतिपादितः, तदभिरिति शेषः / ततः किम्? इत्याह-(तदुवजणम्मि त्ति) तेषां गुणानामुपार्जने ग्रहणे, प्रथममादी, 'तरमाद्धेतोर्यतितव्यम् / इहायमाशयः यथा प्रसादार्थिनः शल्योद्धारपीठबन्धाऽऽदावाद्रियन्ते, तदविनाभावित्वाद्विशिष्टप्रासादस्थ, तथा धर्मार्थिभिरेते गुणाः सम्यगुपार्जनीयाः, तदधीनत्वाद्विशिष्टधर्मसिद्धेरिति यतो यस्माद्भणितं गदितं, पूर्वसूरिभिरिति गम्यत इति / ध०२०१अधि०। धम्मरयणस्स जोग्गो, अक्खुद्दो रूववं पगइसोम्मो। लोयप्पिओ अकूरो, भीरू असढो सुदक्खिन्नो // 370 / / लज्जालुओ दयालू, मज्झत्थो सोम्मदिहि गुणरागी। सक्कह-सपक्खजुत्तो, सुदीहदंसी विसेसन्नू // 371 / / बुड्डाणुगो विणीओ, कयन्नुओ परहिअत्थकारी अ। तह चेव लदलक्खो , ऍगदीसगुणो हवइ सडो // 372 / / परतीथिक प्रणीतानां सर्वेषामपि धर्माणा मध्ये प्रधानत्वेन यो रत्नमिव वर्तते स धर्मरत्नम्, जिनो दितो देशविरत्यादिरूप: समाचारः / तस्य योग्य उन्वितः, ईदृफ् स्वरूप एव श्राव
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________________ धम्मरयण 2728 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मरयण को भवति। तद्यथा-अक्षुद्र इत्यादि / तत्र यद्यपि क्षुद्रस्तुच्छः, क्षुद्रः क्रूरः, क्षुद्रो दरिद्रः, क्षुद्रोलधुरित्यनेकार्थः क्षुद्रशब्दस्तथाऽपीह तुच्छार्थो गृह्यते, तस्यैव प्रस्तुतोपयोगित्वात्। ततः क्षुद्रस्तुच्छोऽगम्भीर इत्यर्थः। तद्विपरीतोऽक्षुद्रः। स च सूक्ष्ममतित्वात्मुखेनैव धर्ममवबुध्यते 1 / रूपवान् संपूर्णाङ्गोपाङ्गतया मनोहराऽऽकारः, स च तथारूपसंपन्नः सदाचारप्रवृत्त्या भविकलोकानां धर्मे गौरवमुत्पादयन्प्राभावको भवति / ननु नन्दिषेणहरिकेशबलप्रभृतीनां कुरूपाणामपि धर्मप्रतिपत्तिः श्रूयते, अतः कथं रूपवानेव धर्मेऽधिक्रियते / सत्यम् / इह द्विविध रूपम्-सामान्यम्. अतिशायि च। तत्र सामान्य संपूर्णाङ्गत्वाऽऽदि। तच नन्दिषेणाऽऽदीनामप्यासीदेवेति न विरोधः। प्रायिकं चैतत्, शेषगुणसद्भावेकुरूपत्वस्याप्यदुष्टत्वात् / एवमग्रेऽपि / अतिशायि पुनर्यद्यपि तीर्थकराऽऽदीनामेव संभवति, तथाऽपि येन क्वचिद्देशे काले वयसि वा वर्तमानो रूपवानयमिति जनानां प्रतीतिमुपजनयति तदेवेहाधिकृतंम मन्तव्यम्।। प्रकृत्या स्वभावेन, सौम्योऽभीषणाऽऽकृतिर्विश्वसनीयरूप इत्यर्थः / एवंविधश्च प्रायेण न पापव्यापार व्याप्रियते,सुखाऽऽश्रयणीयश्च भवति 3 / लोकस्य सर्वजनस्येह परलोकविरुद्धविवर्जनेन दानशीलाऽऽदिगुणैश्च प्रियो वल्लभो लोकप्रियः, सोऽपि सर्वेषां धर्मे बहुमानं जनयति / / अक्रूरोऽक्लिष्टाध्यवसायः क्रूरो हि परच्छिद्रान्वेषणस्य लम्पटः कलुषमनाः स्वानुष्ठानं कुर्वन्नपि फलभाग्भवतीति 5 / भीरुरैहिकाऽऽमुष्मिकापायेभ्यस्त्रसनशीलः। स हि कारणेऽपि सति न निःशड्कमधर्म प्रवर्तते 6 / अशठः सदऽनुष्ठाननिष्ठः, शठे हि वञ्चनप्रपञ्चचतुरतया सर्वस्याप्यविश्वसनीयो भवति / सदाक्षिण्यः स्वकार्यपरिहारेण परकार्यकरणैकरसिकान्तःकरणः, स च कस्य नाम नानुवर्तनीयो भवति 8 // 37 / / (लज्जलुओ त्ति) प्राकृतशैल्या लज्जावान् स खल्वकृत्याऽऽसेवनवार्त्तयाऽपि व्रीडति, स्वयमङ्गीकृतमनुष्ठानं च परित्यक्तुं न शक्नोति / / दयालुर्दयावान्,दुःखितजन्तुजातत्राणाभिलाषुक इत्यर्थः / धर्मस्य हि दया मूलमिति प्रतीतमेव 10 / मध्यस्थोरागद्वेषत्यक्तधीः, स हि सर्वत्रारतद्विष्टतया विश्वस्याऽपि वल्लभो भवति 11 / / सौम्यदृष्टिः कस्याप्यनुद्वेजकः, स हि दर्शनमात्रेणाऽपि प्राणिनां प्रीति पल्लवयति 12 / गुणेषु गाम्भीर्यस्थैर्यप्रमुखेषु रज्यतीत्येवं शीलो गुणरागी, स हि गुणपक्षपातित्वादेव सगुणान् बहु मन्यते, निर्गुणांश्वोपेक्षते १३।सकथनरुचय उत्कथाः सदाचारचारित्वाऽऽदिचर्या ये सपक्षा सहयोजनास्तैर्युक्तोऽन्वितो धर्माविबन्धकपरिवार इति भावः। एवंविधश्च न केनिचिदुन्मार्गो गन्तुं शक्यते 14 / अन्ये तु सत्कथः, सपक्षयुक्तश्चेति पृथक् गुणद्वयं मन्यते, मध्यस्थः सौम्यदृष्टिश्चतिद्वाभ्यामप्येकमेवेति। तथा सुदीर्घदर्शी सुपार्याऽऽलोचितपरिणामपेशलकार्यकारी, स किल परिणामिक्या बुद्ध्या सुन्दरपरिणामत्वैहिकमपि कार्यमारभते 15 / विशेषज्ञः सदितरवस्तुविभागवेदी। अविशेषज्ञस्तु दोषानपि गुणत्वेन गुणानपि दोषत्वेनाध्यवस्यति 16 // 371 / / वृद्धान परिणतमतीननुगच्छति, गुणार्जनबुद्ध्या सेवत इति वृद्धानुगः। वृद्धजनानुगत्या हि प्रवर्तमानः पुमान न जातुचिदपि विपदः पदं भवति 17 / विनीतो गुरुजनगौरवकृत, विनयवति हि सपदि संपदः प्रादुर्भवन्ति / स्वल्पमप्युपकारमैहिक पारत्रिकं चापरेण कृतं | जानाति, न निहनुते इति कृतज्ञः / कृतघ्नो हि सर्वत्राप्यमन्दानिन्दा समासादयति 16 / परेषामन्येषां हितानान्प्रयोजनानि कर्तु शीलं यस्य स परहितार्थकारी, सदाक्षिण्योऽभ्यर्थित एव करोत्ययं पुनः स्वत एव परहिताय प्रवर्तते इत्यनयोर्भेदः / यश्च प्रकृत्यैव परहितकरणे नितरां निरतो भवति, स निरीहचित्ततयाऽन्यानपि सद्धर्मे स्थापयति 20 / तथा--लब्धमिव लब्धलक्षं शिक्षणीयानुष्ठान येन स लब्धलक्षः, पूर्वभवाभ्यस्तमिव सर्वमपि धर्मकृत्यं करोत्येवाधिगच्छतीति भावः / ईदृशो हि वन्दनप्रत्युपेक्षणाऽऽदिक धर्मकर्म सुखेनैव शिक्षयितुं शक्यते / तदेवमेकविंशतिगुणसम्पन्नश्राद्धः श्रावको भवतीति / प्र० 266 द्वार / धादर्श०। (१-अक्षुद्रत्वेभीमसोमकथा 'भीमसोम' शब्दे)(२-रूपवत्त्वे सुजातकथा 'सुजाय' शब्दे) (३-प्रकृतिसौम्यत्वे विजयश्रेष्ठिकथा 'विजय-सेट्टि' शब्द) (४-लोकप्रियत्वे विनयंधरकथा ‘विणयंधर' शब्दे) (५-अकूरत्वे कीर्तिचन्द्रकथा'अक्कूर' शब्दे प्रथमभागे 126 पृष्ठे प्रतिपादिता) (६-भीरुत्वे विमलदृष्टान्तः 'विमल' शब्दे)(७-अशठभावे चक्रदेवचरित्रम् 'असद' शब्दे प्रथमभागे 835 पृष्ठे गतम्) (८-सुदाक्षिण्ये क्षुल्लककुमारकथा 'अलोभया' शब्दे प्रथमभागे 785 पृष्ठे गता) (Eलज्जालुत्ये विजयकुमारकथा 'विजयकुमार' शब्दे) (१०-दयालुल्ये यशोधरवृत्तम् ‘सुरिंददत्त' शब्दे) (११-माध्यस्थत्वे सोमवसुवृत्त 'सोमवसु' शब्दे) (१२-गुणानुरागित्वे पुरन्दरराजचरित्रं 'पुरंदर' शब्दे) (१३-सत्कथायां रोहिणीज्ञातं 'रोहिणी' शब्दे) (१४-सुपक्षगुणे भद्रनन्दिवृत्तं 'भद्दणदि' शब्दे) (१५-सुदीर्घदर्शित्वे धनमित्र श्रेष्ठिवृत्त 'धणमित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2655 पृष्ठे गतं, 'भद्दा' शब्दे च) (१६विशेषज्ञत्वे सुबुद्धि-मन्निवृत्तं 'सुबुद्धि' शब्दे) (१७-बृद्धानुगत्ये मध्यमबुद्धिचरित्रं मज्झिमबुद्धि' शब्दे) (१८-विनीतत्वे भुवनतिलकवृत्त 'भुवणतिलय' शब्दे) (१६-कृतज्ञत्वे विमलकुमारकथा विमलकुमार' शब्दे) (२०-परहितकारित्वे भीमकुमारकथा 'भीमकुमार' शब्दे) (२१लब्धलक्ष्यत्वेनागार्जुनकथा'णागजुण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1635 पृष्ठेगता) साम्प्रतमेतन्निगमनायाहएए इगवीसगुणा, सुयाणुसारेण किंचि वक्खाया। अरिहंति धम्मरयणं, चित्तुं एएहि संपन्ना / / 26 / / एते पूर्वोक्तस्वरूपाः, एकविंशतिसंख्या गुणाः श्रुतानुसारेण शास्त्रान्तरोपलम्भद्वारेण, किञ्चिन्न सामस्त्येन, व्याख्याताः स्वरूपतः फलतश्च प्ररूपिताः। किमर्थम्? इत्याह-यतोऽर्हन्ति योग्यतासारं धर्मरत्नं ग्रहीतुं, न पुनर्वसन्तनृपवद्राजलीलामिति भावः। के? इत्याह-एभिरनन्तरोक्तैः गुणैः संपन्नाः संगताः संपूर्णा वेति। आह-किमेकान्तेनैतावदगुणसम्पन्ना धर्माधिकारिण उताऽप वादोऽप्यस्तीति प्रश्न सत्याहपायऽद्धगुणविहीणा, एएसिं मज्झिमावरा नेया। इत्तो परेण हीणा, दरिद्दपाया मुणेयव्वा / / 30 / / इहाधिकारिण स्त्रिधा चिन्त्याः-उत्तमा मध्यमा जघन्याश्च / तत उत्तमाः सम्पूर्ण गुणा एव, पादश्चतुर्थाशोऽर्द्ध दल, गुणशब्दस्य प्रत्येक मभिसंबन्धात् पादप्रमाणे रद्ध प्रमाणे श्च गुण ये विही
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________________ धम्मरयण 2726 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मरयण ना विकलाः, एतेषामुक्तगुणानां मध्याद् ते यथाक्रमं मध्यमावरा ज्ञेयाः, चतुर्थाशविहीना मध्यमाः, अर्द्धविहीना जघन्या इति भावः, तेभ्योऽपि हीनतरेषु का वाता? इत्याह-(इत्तो परेणं ति) एतेभ्योऽपि, परेणादिप्यधिकहींना रहिताः, दरिद्रप्राया अकिञ्चनकजनकल्पाः, 'मुणितव्या' वेदितव्याः / यथाहि दरिद्रा उदरकन्दराभरणचिन्ताव्याकुलत या न रत्नक्रयमनोरथमपि कुर्वन्ति, तथैतेऽपि न धर्माभिलाषमपि विदधतीति। एवं च स्थिते यद्विधेय तदाहधम्मरयणत्थिणा तो, पढमं एयजणम्मि जइयव्वं / जं सुद्धभूमिगाए, रेहइ चित्तं पवित्तं पि।।३१।। धर्मरत्नमुक्तस्वरूप, तदर्थना तल्लिप्सुना, तत्तस्मात् कारणात, प्रथममादावेषां गुणानामर्जने विढपने यतिव्यं, तदुपार्जनं प्रति यत्नो विधेयः, तदविनाभावित्वाद्धर्मप्राप्तेः। अत्रैव हेतुमाह-यस्मात्कारणाच्छुद्धभूमिकायां प्रमासचित्रकरपरिकर्भितभूमाविवाकलङ्काधारे (रहइ ति) राजते, चित्रं चित्रकर्म, पवित्रमपि प्रशस्तमप्यालिखितं सदिति / ध०२०। (प्रभासचित्रकरकथा 'पमासचित्तगर' शब्दे वक्ष्यते) श्रावकसाधुसम्बन्धभेदाद् द्विधा धर्मरत्नं प्रतिपाद्येदानी कः कीदृगिदं कर्तुशक्तोतीत्येतदाहदुविहं वि धम्मरयणं, तरइ नरो चित्तुमविगलं सो उ। जस्सेगवीसगुणरय-णसंपया सुत्थिया अस्थि / / 140 / / द्विविधमपि द्विप्रकारमपि, न पुनरेकतरमेवेत्यपिशब्दार्थः / धर्मरत्न पूर्वोक्तशब्दार्थम्, (तरइ ति) शक्नोति "शके चयतरतीरपाराः" / / 4 / 86|| इति वचनात्। नर इति जातिनिर्देशान्नरो नरजातीयो जन्तुर्न पुनः पुमाने वेति, ग्रहीतुमुपादातुमविकलं सम्पूर्ण, स एव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्। यस्य किमित्याह-यस्य श्रीप्रभमहाराजस्यैवैकविंशतिगुणरत्नसम्बत् "अक्खुद्दो रूववं पगइसोमो।" इत्यादिशाखपद्धतिप्रतिपादिता गुणमाणिक्यविभूतिः, सुस्थिता दुर्बोधाऽऽद्यदूषितत्वान्निरुपद्रवाऽस्तिविद्यते इति / ननु पूर्वमुक्तमेवैकविंशतिगुणसमृद्धो योग्यो धर्मरत्नस्येति तत्कि पुनरिदमुच्यते? सत्यम्, पूर्व योग्यतामात्रमुक्तम्, यथा-बालत्वेऽपि वर्तमानो राजपुत्रो राज्याई उच्यते, संप्रति करणशक्तिरप्यस्याभिधीयते, यथा-प्रौढीभूतो राजपुत्रः कर्तु शक्तीत्येव राज्यमिति। ध०र०। (श्रीप्रभमहाराजकथा 'सिरिप्पभ' शब्दे) धर्मरत्नवक्तव्यताप्रतिबद्धे शान्तिसूरिविरचिते स्वनामख्याते प्रकरणग्रन्थाविशेषे च, ध०र०॥ तत्र चैक विंशतिगुणैर्धर्मरत्नयोग्यो भवतीत्यभिधाय विशेषतः पूर्वाचार्याणां श्लाध्यमाहता सुख इमं भणियं, पुव्वाऽऽयरिएहिं परहियरएहिं। इगवीसगुणोवेओ, जोग्गो मइ धम्मरयणस्स // 141 / / यत एभिर्गुणैर्युक्तो धर्म कर्तुं शक्नोति, ततः सुष्ठ शोभनमिदं भणितमुक्तं पूर्वाऽऽचाय्य : पूर्वकालसंभवसूरिभिः, परहितरतैरन्यजनोपकारकरणतालसैः, किं तत्? इत्याह-एकविंशतिगुणैरूपेतो युक्तो, योग्य उचितः, (सइति) सदा, धर्मरत्नस्य पूर्वव्यावर्णितस्वरूपस्येति। अथ प्रकृतशास्त्रार्थमनुवदन्नुपसंहारगाथायुगलमाह-- धम्मरयणुचियाणं, देसचरित्तीण तह चरित्तीणं / लिंगाइजाइँ समए, भणियाइँ मुणियतत्तेहिं / / 142 / / तेसि इमो भावत्थो, नियमइ विहवाणुसारओ भणिओ। सपराणुग्गहहेउं, समासओ संतिसूरीहि ||143|| धर्मरत्नोचितानामुक्तस्वरूपाणा, देशचरित्रिणां श्रमणोपाशकाना, तथा चरित्रिणा साधूनां, लिङ्गानि चिह्नानि, यानि समये सिद्धान्ते, भणितान्यभिहितानि, मुणिततत्वैरवबुद्धसिद्धान्ततत्त्वैरिति प्रथमगाथार्थः॥१४२।। तेषामयमुक्तस्वरूपो, भावार्थस्तात्पर्य, निजमतिविभवानुसारतः स्वबुद्धिसंपदनुरूपं भणितः, सिद्धान्तमहाम्भोधेः पारस्य लब्धुमशक्यत्वाद्यावदवबुद्धतावद्भणितमिति भावः। किमर्थः पुनरियान्प्रयासः कृतः? इत्याह-स्वपरयोरनुग्रह उपकारः, स एव हेतुः कारणं यस्य भणनस्य तत्स्वपरानुग्रहहेतु, क्रियाविशेषणमेतत्, स्वपरानुग्रहोऽप्यागमादेव भविध्यतीति चेन्न, तत्राऽऽगमे कोऽप्यर्थः / क्वापि भणितस्तमल्पायुषो.. ऽल्पमेधसश्चैदयुगीना नावगन्तुमीशा इति समासतोऽल्पग्रन्थेन भणितः। कैः? इत्याह--शान्तिसूरिभिर्जिनप्रवचनावदातमतिभिः परोपकारैकरसिकमानसैश्चन्द्रकुलविमलनभस्तलनिशीथिनीनाथैरिति द्वितीयगाथार्थः // 143 / / अथ शिष्याणामर्थित्वोत्पादनायोक्तशास्त्रार्थ परिज्ञानस्य फलमुपदर्शयन्नाहजो परिभावइ एयं, सम्मं सिद्धतगब्भजुत्तीहिं। सो मुत्तिमग्गलग्गो, कुग्गहगत्तेसुन हु पडई // 144 / / यः कश्चिद् लघुकर्मा, परिभावयति सम्यगालोचयत्येनं पूर्वोक्तं धर्मलिङ्गभावार्थ , सम्यग् मध्यस्थभावेन, सिद्धान्तगर्भाभिरागम-- साराभिर्युक्तिभिरुपपत्तिभिः, स प्राणी, मुक्तिमार्गे निर्वाणनगराध्वनि लग्नो गन्तुं प्रवृत्तः, कुग्रहा दुःषमाभाविनो मतिमोहविशेषाः, त एव गर्ता अवटा गतिविघातहेतुत्वादनर्थजनकत्वाच, तेषु नैव पतति, हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्। अत एव सुखेन सन्मार्गेण गच्छतीति। उक्त प्रकरणार्थपरिभावनस्यानन्तरफलम्, अधुना परम्परफलमाहइय धम्मरयणपगरण-मणुदियहं जे मणम्मि भावंति। ते गलियकलिलपंका, निव्वाणसुहाई पावंति॥१४५।। इत्यनन्तरोक्त, धर्मरत्नमुक्तशब्दार्थं, तत्प्रतिपादकं प्रकरणं शास्त्रविशेषो धर्मरत्नप्रकरणम्, अनुदिवसं प्रतिदिनम्, उपलक्षणत्वात्प्रतिप्रहरमित्याद्यपि द्रष्टव्यम् / ये केचिदासन्नमुक्तिगमना मनसि हृदये, भावयन्ति विवेकसारं चिन्तयन्ति, ते शुभतराध्यवसायभाजो गलितोऽपेतः कलिलपङ्कः पातकमलोत्करो येभ्यस्ते गलितकलिलपङ्काः / (निव्वाणसुहाई ति) निर्वाणं सिद्धिस्तत आधारे आधेयोपचारादिह निर्वाणशब्देन निर्वाणगता जीवा उच्यन्ते, सिद्धा इत्यर्थः / तेषां सुखानि प्राप्नुवन्ति / ध०२०। धर्मरत्न प्रकरणस्य वृत्तिकारो देवेन्द्रसूरिः। "श्रीधर्मरत्नशास्त्र, बह्वर्थ स्वल्पशब्दसंदर्भम् / स्वपरोपकारहेतोविवृणोमि यथाश्रुतं किञ्चित् ||१||ध०र० "स्वान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेन्द्रसूरिणा। धर्मरत्नस्य टीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे // 8 // प्रथमा प्रतिमाप्रतिमा, विभ्राणो गुरुजनेषु भक्तिभरम्। विद्वान विद्याऽऽनन्दः, सानन्दमना लिलेखास्याः / / 6 / / श्रीहेमकलशवाचक-पण्डिमवरधर्मकीर्तिमुख्यबुधैः।
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________________ धम्मरयण 2730- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टि(ण) स्वपरसमयककुशलै-स्तदैव संशोधिता चेयम्॥१०॥ यद्गदितमल्पमतिना, सिद्धान्तविरुद्धमिह किमपि शास्त्रे। विद्वद्भिस्तत्त्वज्ञैः, प्रसादमाधाय तच्छोध्यम्॥११॥ बहर्थमल्पशब्द, शास्त्रमिद रचयता मया कुशलम्। यदवापि धर्मरत्न-प्राप्तिर्जगतोऽपि तेनाऽस्तु॥१२" ध०र०॥ धम्मरहस्स-न०(धर्मरहस्य) धर्मसर्वस्वे,दर्श०१ तत्त्व।कुशल-कर्मगुह्ये, "एवं धम्मरहस्सं, विण्णेयं बुद्धिमतेहिं / ' पञ्चा०७ विव० धम्मराग-पुं०(धर्मराग) धर्मे चारित्रलक्षणे रागो धर्मरागः / ध०२ अधि०। कुशलानुष्ठानानुरागे, "कंतारे भिन्नहिओ, घयपुन्ने भोत्तुमिच्छइ च्छुहिओ। जह तह सदणुट्ठाणे, अणुराओ धम्मराओ त्ति // 1 // " इत्युक्तलक्षणे (संथा०) कुशलानुष्ठानानुरागे, पश्चा० 3 विव०॥ धर्मरागश्चारित्रधर्मस्पृहेति। द्वा० 15 द्वा०। यो० वि०। धम्मरागि(ण)-पुं०(धर्मरागिन्) श्रुतचारित्रलक्षणधर्मानुरक्ते, पञ्चा० 7 विवश धम्मरुइ-स्त्री०(धम्मरुचि) धर्मपदमात्रश्रवणजनितप्रीतिसहिता धर्मपदवाच्यविषयिणी रुचिर्धर्मरुचिः1 ध०२ अधिoा धर्मश्रद्धायाम्, न चैवं ग्राम्यधर्माऽऽदिपदवाच्यविषयिण्यपि रुचिस्तथा स्यादिति वाच्यम, निरुपपदधर्मपदवाच्यत्वेऽस्यैव ग्रहणात्। न चैवं चारित्रधर्माऽऽदिपदवाच्यविषयिण्यामव्याप्तिः, निरुपपदत्वस्यवास्तवधातिप्रसञ्जकोपपदराहित्यस्य विवक्षणादिति दिक् / ध० 2 अधि०। धर्मे श्रुताऽऽदौ रुचिर्यस्य स तथा / स्था० 10 ठा०। धर्मेण श्रुतधर्मेण रुचिर्यस्य स धर्मरचिः / श्रुतधर्माभ्यासरुचिके, त्रिका उत्त०२८ अ यो हिधर्मास्तिकायं श्रुतधर्म चारित्रधर्म च जिनोक्तं श्रद्धते चारित्रधर्म च जिनोक्तं श्रद्धते स धर्मरुचिरिति। स्था०१० ठा०। धर्मधर्मिणोरभेदाद् धर्मश्रद्धाऽऽल्मके सम्यक्त्व-भेदे च। अथधर्मरुचेः स्वरूपमाहजो अत्थिकायधम्म, सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च / सद्दहइ जिणामिहियं, सो धम्मरुइ त्ति नायव्यो / / 27|| योऽस्तिकायानां धर्माऽऽदीनां धर्मो गत्युपष्टम्भादिरस्तिकायधर्मस्तम्, जातावेकवचनम्, श्रुतधर्ममङ्गप्रविष्टाऽऽद्यागमस्वरूपं, खलुक्याल कारे। चरित्रधर्म वा सामायिकाऽऽदि, चस्य चार्थत्वात् श्रद्दधाति, तथेति प्रतिपद्यते, जिनाऽभिहितं तीर्थकृदुक्तं, स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यो धर्मेषु पर्यायेषुधर्मे वा श्रुतधर्माऽऽदौ रुचिरस्येति। उत्त० पाई० 28 अ०। प्रव०। स्था०। दर्शा वाराणसीस्थे स्वनामख्यातेऽनगारे, ओघ०। (तत्कथा 'गंद' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1748 पृष्टे गता) रोहितकनगरस्थे स्वनामख्याते साधौ, आ० चू० 4 अ० (तत्कथा 'वेदना' शब्दे, परिहावणियासमिइ शब्दे च) मथुरानगरस्थे स्वनामख्याते मुनौ, ती०८ कल्प। चम्पानगरीस्थे धर्मघोषस्याऽऽचार्य्यस्य स्वनामख्याते शिष्ये, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ० (तत्कथा 'दुवई' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2578 पृष्ठे गता) वसन्तपुरस्थस्य जितशत्रोर्नृपस्य स्वनामख्याते पुत्रे, आ०का तथाऽनवद्ये धर्मरुचिकथा"धात्रीक्रोडेसदा सक्तं, वसन्तपुरमर्भवत्। जितशत्रुर्नृपस्तत्र, धारणी सहचारिणी / / 1 / / आसीद्धर्मरुचिः सृनु-यथार्थाऽऽख्यः सुधांशुवत्। सुवासनः पुष्पभिव, ऋजुः कमलनालवत्।।२।। वृद्धत्वादन्यदा राजा, जिघृक्षुस्तापसव्रतम्। दातुकामस्तनूजस्य, राज्यं संविनमानसः / / 3 / / सोऽथ मातरमप्राक्षी-द्राज्यं तातः किमुज्झते? तमूचे जननी वत्स ! राज्य संसारवर्द्धनम् / / 4 / / पुत्रोऽऽप्युवाच तद्देव, कार्य तेन ममाऽपि न। उभावपि ततो जातो. तापसौ तापसाऽऽश्रमे // 5 // चतुर्दश्यामथाश्रावि, घोषणां सर्वतोमुखीम्। अमावास्येत्यनाकुट्टिः, प्रभाते भविता ततः / / 6 / / अद्यैव तत्प्रभातार्थ, कार्यः कन्दाऽऽदिसंग्रहः। अचिन्तयद्धर्मरुचि-रनाकुदिर्वरं सदा / / 7 / / अमावास्यां च दृष्ट्वा स, साधून यातोऽन्तिकाध्वना / अप्राक्षीदद्य वः किं ना-कुर्यािऽथमहद्धनम् // 8 // यावज्जीवमनाकुट्टि-रस्माकं भद्र ! तेऽभ्यधुः / ऊहापोहं प्रपन्नोऽथ, जातिस्मरणमाप सः / / 6 / / ततःप्रत्येकबुद्धोऽभू-द्वेषं शासनदेव्यदात्। सस्मारकादशाङ्गानि, सिद्धः कृत्वा चिरं व्रतम्" / / 10 // एतदेवाऽऽह"सोऊण अणाउट्टि, अणभीओ वजिऊण अणगं तु। अणवजिअं उवगओ, धम्मरुई नाम अणगारो।।११।।" आ०क०। आ०म०। आचाला विशेला वाराणसीस्थे स्वनामख्याते नृपे, आ०म०। आ०चूला न०ा आ०का (तत्कथा ''पारिणामिया'' शब्द) काम्पिल्यपुरस्थे स्वनामख्याते नृपे, ती० 24 कल्प / (तत्कथा 'कपिल्ल' शब्दे तृतीयभागे 176 पृष्ठे गता) धम्मलद्ध-त्रि०(धर्मलब्ध) धर्मेण सुधिकया लब्धं धर्मलब्धम, उद्देशकक्रीतकृताऽऽदिदोषरहिते भक्ताऽऽदौ, "ते धम्मलद्धं पिणिहाय भुजे" (21) सूत्र०१ 2011 अ०। (इयं गाथा अस्या अर्थश्च 'कुसील' शब्दे तृतीयभागे 611 पृष्ठे गतः) धम्मववत्था-स्त्री०(धर्मव्यवस्था) धर्मस्य प्रमाणप्रसिद्धौ, द्वा०७ द्वा० साधुसामग्य धर्मव्यवस्था चानिर्वाह्यत इतीयमत्राभिधीयते। "भक्ष्याभक्ष्यविवेकाच, गम्यागम्यविवेकतः। तपोदयाविशेषाच, सद्धर्मो व्यवतिष्ठते ||1 // " द्वा०६ द्वा०। विदित्वा लोकमुत्क्षिप्य, लोकसंज्ञां च लभ्यते। इत्थं व्यवस्थितो धर्मः, परमाऽऽनन्दकन्दभूः॥३२॥ (विदित्वेति) विदित्वा ज्ञात्वा, लोक स्वेच्छाकल्पिताऽऽचारसक्तजनम्, उत्क्षिप्य निराकृत्य, लोकसंज्ञां बहुभिर्लाकैराचीर्णमेवास्माकमाचरणीयमित्येवंरूपां च लभ्यते प्राप्यते / इत्थमुक्तरीत्या, व्यवस्थितः प्रमाणप्रसिद्धो, धर्माः परमानन्द एव कन्दस्तस्य भूरुत्पत्तिस्थानम् ॥३सा द्वा०७ द्वा० धम्मवं-त्रि०(धर्मवत्) धर्मोपते, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ० धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टि(ण)-पुं०(धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिन) धर्म एव वरं प्रधानं चतुरन्तहेतुत्वात् चतुरन्तं चक्रमिव चातुरन्तचक्रम, तेन वर्तितुशीलं यस्य सः धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती जी०३ प्रति०४उ०ा त्रयः समुद्राश्चतुर्था हिमवानिति चत्वारोऽन्तास्तेषु प्रभुतया भवाश्चातुरन्ताश्चतुरन्तरवामिनः,
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________________ धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टि(ण) 2731 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मवीय विविधा ये चक्रवर्तिनः ते चातुरन्तचक्रवर्तिनः,धर्मस्य वराः श्रेष्ठाः 4 अ०। आ०का (तत्कथा 'अण्णायया' शब्टे प्रथमभागे 464 पृष्ट मना) चातुरन्तचक्रवर्तिनः धर्मावरचातुरन्तचक्रवर्तिनः / कल्प०१अधि०२ धम्मवाय-पुं०(धर्मवाद) धर्मप्रधानो वादा धर्मवादः। 'ज्ञातः स्वशारत्र - क्षण / वयः समुद्राश्चतुर्थो हिमवान्, एते चत्वारोऽन्ताः पृथिव्याः पर्यन्ताः, तत्त्वेन, मध्यस्थेनाघभीरुणा। कथाबन्धस्तत्त्वधिया, धर्मवादः तषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः, सचासौ चक्रवर्ती चातुरन्तचक्रवर्ती, प्रकीर्तितः / / 1 / / " इत्युक्तलक्षणे वादभेदे, द्वा०७ द्वा० अष्ट। वरश्चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती चेति वरचातुरन्तचक्रवर्ती राजातिशवः, (धर्मवादस्वरूपं 'वाद' शब्दे) धर्माणां वस्तुपर्यायाणां धर्मस्य वा धर्मविषये वरचातुरन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती / स०१ सम० चारित्रस्य वादो धर्मवादः। दृष्टिवादे, स्था०१० ठा०। (अस्य स्वरूपम् औ० भ०1 धर्म एव वरमितरचक्रापेक्षया, कपिलाऽऽदिधर्मचक्रापेक्षया 'दिट्ठिवाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2512 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) वा चातुरन्त, दानाऽऽदिभेदेन चतुर्विभागश्वतसृणां वा नरकाऽऽदि धम्मवावार-पुं०(धर्मव्यापार) क्षान्तिप्रत्युपेक्षाऽऽदौ, षो० 10 विव०। गतीनामन्तकारित्वाचतुरन्तं, तदेव चातुरन्त यननं भवारातिच्छेदात् धम्मविउ-त्रि०(धर्मवित) दुर्गतिप्रसृतजन्तुधारणस्वभावं स्वर्गातेन वर्तितुं शीलं यस्य स तथा।भ०१२०१ उ०ा धर्म एव त्रिकोटिपरि पवर्गमार्ग वेत्तीति धर्मवित् / आचा०१ श्रु०३ अ०१उ०। धर्म चेतनशुद्धत्वेन सुगताऽऽदिप्रणीतधर्मचक्रापेक्षया उभयलोकहितत्वेन, चक्र द्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं वा वेत्तीति धर्मवित् / आचा०१ श्रु०३ या विचक्रापेक्षया च वरं प्रधान चतसृणां गतीना नारकतिर्यट् - अ०१७०। धर्म यथावत्तत्फलानिच स्वर्गावाप्तिलक्षणानि सम्यग् वेत्तीति नरामर नक्षणानामन्तो यस्मातचतुरत्नचक्र मिव चक्रं रोद्रमिथ्या धर्मवित् / सूत्र०१ श्रु० 16 अ० यथावस्थितं परमार्थतो धर्म वाऽऽदिभावशत्रुलचनात् तेन वर्तत इत्येवंशीलो धर्मवरचतुरन्त सर्वोपाधिविशुद्धं जानातीति धर्मवित्। सूत्र०२ श्रु०१ अाधर्मपरिच्छेचक्रवर्तः / 'चाउरते त्ति' समृद्ध्यादित्वादात्वम् / ध०२ अधि। शेषधर्मप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वादतिशायिनि धर्मनायके तीर्थकर, दकरणनिपुणे, "नले धम्मविऊ जणा।" ते सम्यगधर्मपरिच्छेदे कर्तव्ये कल्प०१अधि०२ क्षण / तीर्थकरवर्णकमधिकृत्य 'धम्मवरचाउरत विद्वांसो निपुणाः / तथाहि-क्षान्त्यादिको दशविधो धर्मस्तमज्ञात्वैवाचकवट्ठीणं / ' यथाहि पृथिव्यां शेषराजातिशायी वरचातुरन्तचक्रवर्ती न्यथा च धर्म प्रतिपादयन्तीति। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१३०) भवति, तथा भगवान् धर्मविषयेशेषप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वात् धम्मविञ्ज-पुं०(धर्मवैद्य) आचार्य, पं०व०१ द्वार। तथोच्यते / स०१ सम०। इदमत्र हृदयम्-यथोदितधर्म एव वरं प्रधान धम्मविणिच्छय-पुं०(धर्मविनिश्चय) "धनदो धनार्थिनां धर्मः, कामदः वक्रवर्तिचक्रपेक्षया लोकद्वयोपकारित्वेन कपिलाऽऽदिप्रणीतधर्म सर्दकामिनाम् / धर्म एवाऽपवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः / / 1 // चक्रापेक्षया वा त्रिकोटिपरिशुद्धतया चत्वारो गतिविशेषा नारकतिर्यड् इत्यादिरूपे धर्म स्वरूपपरिज्ञानाऽऽत्मके विनिश्चयभेदे, स्था०३ नरामरलक्षणाः, तदुच्छेदेन तदन्तहेतुत्वाचतुरन्त, चतुर्भिर्वाऽन्तो ठा०३३०॥ यस्मिस्तचतुरन्तम्, कैश्चतुर्भिः? दानशीलतपोभावनाऽऽख्यैर्धर्म :, धम्मवित्त-न०(धर्मवित्त) धर्मधने, 'धर्मश्चेन्नावसीदेत, कपालेनापि अन्तः प्रक्रमाद्भवान्तोऽभिगृह्यते। चक्रमिव चक्रमतिरौद्रमहामिथ्यात्वा- जीवतः। आन्योऽस्मीत्यवगन्तव्य, धर्मवित्ता हि साधवः / / 1 / / ' ध०१ 5ऽदिलक्षणभावशत्रुलवनात् / तथा च लूयन्त एवानेन भावशत्रवो अधिo मिथ्यात्वाऽऽदय इति प्रतीते, दानाऽऽद्यभ्यासादाग्रहनिवृत्यादिसिद्धेः, | धम्मवित्तिय-त्रि०(धर्मवृत्तिक) धर्मेणैव चारित्राविरोधेन, श्रुताविरोधेन महात्मनां स्वानुभवसि-द्धमेतत् / एतेन च प्रवर्तन्ते भगवन्तः। तथा वा वृत्ति विका यस्या धर्माविरुद्धजीविके, 'धम्मेण चेव वितिं कप्पेभव्यत्वनियोगतो वरबोधिलाभारभ्य तथा तथौचित्येन असिद्धिप्राप्तः, ___ माणा।" औन एवमेव वर्तनादिति। तदेवमेतेन वर्तितु शीला धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिनः धम्मविरुद्ध-त्रि०(धर्मविरुद्ध) धर्मद्वेषिणि, "धर्मविरुद्धं च संत्या॥२४॥ ला ज्यम् / " पं०सू०२सूत्रा धम्मवररयणमंडियचामीयरमेहलाग-पुं०(धर्मवररत्नमण्डित-. ] धम्मवीमंसय-पुं०(धर्मविमर्शक) धर्मविचारके, प्रश्र०२ आश्र० द्वार। चामीकरमेखलाक) दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, स एव धम्मवीय-न० (धर्मबीज) धर्मकारणे, "तस्मिन् प्रायः प्ररोहन्ति, वररत्नमण्डिता चामीकरमेखला यस्य सः धर्मवररत्नमण्डित धर्मबीजानि गहिनि / विधिनोप्तानि बीजानि, विशुद्धायां यथा भुवि चामीक रमेखलाकः।"शेषाद्वा" / / 7 / 3 / 175 / / इति कप्प्रत्ययः / उत्तर 11१६॥"धा ('गिहिधम्म' शब्दे तृतीयभागे 866 पृष्ठेऽस्य व्याख्या) गुणरूपरत्नमण्डितमूलगुणरूपधर्माऽऽत्मकचामीकरमेखलोपेते संघमेरी, "धर्मबीजं परं प्राप्य, मानुष्यं कर्मभूमिषु / तथा च - सङ्घस्य मेरुरूपकेण स्तवमधिकृत्य-"धम्मवररयणमंडियचामीयरमेहलागस्स।''नाइह धर्मो द्विधामूलगुणरूपः, उत्तरगुणरूपश्च! न सत्कर्मकृषावस्य, प्रयतन्तेऽल्पमेधसः / / 2 / / " तत्रोत्तरगुणरूपो रत्नानि, मूलगुणरूपस्तु मेखला, न खलु मूलगुणरूप अस्येति धर्मबीजस्य / ध०१ अधिका धर्माऽत्मकः चामीकरमेखलाविशिष्टोत्तरगुणरूपवररत्नविभूषण "विधिनोप्ताद् यथा बीजा-दडकुराऽऽद्युदयः क्रमात् / विकल' शोभते / नं०। फलसिद्धिस्तथा धर्म-बीजादपि विदुर्बुधाः / / 1 / / धम्मवसु-पुं०(धर्मवसु) कौशाम्बीनगरस्थे धर्मघोषधर्मयशसागुरी वपनं धर्मबीजस्य, सत्प्रशंसाऽऽदि तद्वतम्। स्वनामख्याते गुरो, 'कोसंविअजियसेणो, धम्मघोसधम्मजसे।'' आव० तचिन्ताऽऽद्य कुराऽऽदिः स्या-त्फलसिद्धिस्तु निर्वृत्तिः / / 2 / /
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________________ धम्मवीय 2732 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मसड्ढा चिन्तासच्छुत्यनुष्ठान, देवमानुषसंपदः। क्रमेणाडकरसत्काण्ड-नालपुष्पसमा मताः॥३॥ फलं प्रधानमेवाऽऽहु-र्नानुषङ्गिकमित्यपि। पलालाऽऽदिपरित्यागात्,कृषौ धान्याऽऽप्तिवद् बुधाः / / 4 / / अत एव च मन्यन्ते, तत्त्वभावितबुद्धयः। मोक्षमार्गक्रियामेका, पर्यन्तफलदायिनीम् // 5 // " ल०। धम्मवीरिय-पुं०(धर्मवीर्य) सुपार्श्वजिनसमकालिके स्वनामख्याते चक्रवर्तिनि, ति०। धम्मवुड्डि-स्त्री०(धर्मवृद्धि) धर्मसमृद्धौ,पञ्चा० २विव०। धम्मसंगह-पुं०(धर्मसंग्रह) संगृह्यतेऽनेनेति संग्रहः,धर्मस्य संग्रहो धर्मसंग्रहः / यद्वा-धर्मस्य संग्रहो यत्र स धर्मसंग्रहः / मानविजयगणिविरचिते स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे, तथाच ग्रन्थकृत्प्रथम श्लोकद्वयेन मङ्गलं समाचरन् श्रोतृप्रवृत्तये स्वाभिधेयं प्रतिजानीते"प्रणम्य प्रणताशेष-सुरासुरनरेश्वरम्। तत्त्वज्ञ तत्त्वदेष्टार, महावीरं जिनोत्तमम् / / 1 / / श्रुताब्धेः सम्प्रदायाच्च, ज्ञात्वा स्वानुभवादपि। सिद्धान्तसारं ग्रथ्नामि, धर्मसंग्रहमुत्तमम् / / 2 / / " ध०१ अधि० साम्प्रत सकलशास्त्रार्थपरिसमाप्तिमुपदर्शयन्नाह"इत्थेष यतिधर्मोऽत्र, द्विविधोऽपि निरूपितः / तत्कात्स्न्ये न हि धर्मस्य, सिद्धिमाप निरूपणम् / / 54 // " इति पूर्वोक्तप्रकारेण, अत्र शास्त्रे, एष प्रत्यक्षः द्विविधः-सापेक्षनिरपेक्षभेदवान, न पुनरेक एवेत्यपिशब्दार्थः। यतिधर्म उक्तलक्षणो निरूपितो निरूपणविषयीकृतः, ततो द्विविधपतिधर्मनिरूपणाद द्विविधगृहिधर्मस्य च प्रागेव निरूपणात्कात्स्न्येन सर्वप्रकारेण धर्मस्य निरुपणं शास्त्राऽऽदौ प्रतिज्ञातं सिद्धिमाप सम्पूर्णतां प्राप। ध०४अधि०) (विशेषस्त्वत्र 'अणगारधम्म' शब्दे प्रथमभागे 276 पृष्ठे गतः) "प्रत्यक्षरं गणनया, ग्रन्थेऽत्र स्युरनुष्टुभाम्। चतुर्दशसहस्राणि, षट्शती चाष्टकोत्तरा // 1 // इत्थं शान्तिविजयसूरिवर्णन प्रतिपाद्य"तेषा विनेय उदिताऽऽदरतो विबने, ग्रन्थं च मानविजयाभिधवाचकोऽमुम्। सूण यदत्र मतिमन्दतया भवेत्तन्मेधाविभिर्मयि कृपां प्रणिधाय शोध्यम् / / 6 / / सत्तर्ककर्कशधियाऽखिलदर्शनेषु, मूर्धन्यतामधिगतास्तपगच्छधुर्याः। काश्यां विजित्य परयूथिकपर्षदोग्याः, विस्तारितप्रवरजैनमतप्रभावाः / / 10 / / तर्कप्रमाणनयमुख्यविवेचनेन, प्रोद्रोधिताऽऽदिममुनिश्रुतकेवलित्वाः / चकुर्यशोविजयवाचकराजिमुख्याः , ग्रन्थऽत्र मप्युपकृति परिशोधनाऽऽद्यैः / / 11 / / बाल इव मन्दगतिरपि, सामाचारीविचारदुर्गम्ये। अत्राभूवं गतिमा-स्तेषा हस्तावलम्चेन // 12 // वर्षे दिग्गजमुनिरस-चन्द्र 1678 प्रमिते च माधवे मासे। शुद्धतृतीयादिवसे, यत्नः सफलोऽयमजनिष्ट // 13 // अहम्मदावादपुरे रसाग्रे, देशे रफुरदगुर्जरदेशमण्डने। श्रीवशजन्मा मनिआऽभिधानो, वणिग्वरोऽभूच्छुभकर्मकर्ता // 14 // नित्यं गेहे दानशाला विशाला, प्रौढोन्नत्या तीर्थराजाऽऽदियात्रा। सप्तक्षेत्र्यां वित्तवापश्च यस्य, ख्यातुं प्रायो हरमदाद्यैरशक्यः // 15 // साधुः श्रीशान्तिदासः प्रवरगुणनिधिस्तत्सुतोऽभूदुदारो, धात्र्यां विख्यातनामा जगडुसमधिकानेकसत्कृत्यकर्मा / रानामन्नवस्त्रौषधसुवितरणादोन दुष्कालनाम्, विध्वस्तं शस्तभूत्या बहुविधि महिता ज्ञातिसाधम्मिकाच // 12 // पुत्रन्यस्तसमस्तगेहकरणीयस्य स्फुट वा के, सिद्धान्तश्रवणाऽऽदिधर्मकरणे बद्धवस्पृहस्थानिशम्। सद्धर्मद्वयसंविधानरचनाशुश्रूषणोत्कण्ठिनस्तस्य प्रार्थनयाऽस्य गुम्फनविधौ जातः प्रयत्नो मम / 17|| ज्ञानाऽऽराधनमतिना, ज्ञानाऽऽदिगुणान्वितेन वृत्तिरियम्। प्रथमाऽऽदर्श लिखिता, गणिना कान्त्यादिविजयेन // 18 // धात्री संपद्विधात्री भुजगपतिधृता सार्णवा यावदास्ते, प्रोचेः सौवर्णशृङ्गोल्लिखितसुरपथो मन्दराद्रिश्च यावत्। विश्वे विद्योतयन्तौ तमनु शशिरवी भ्राम्यतश्चेह यावत्, ग्रन्थो व्याख्यायमानो विबुधजनवरैनन्दतादेष तावत् // 16 // ये ग्रन्थार्थविभावनातिनिपुणाः सम्यगुणग्राहिणः, सन्तः सन्तु मयि प्रसन्नहृदयास्ते किं खलैस्तैरिह। येषां शुद्धसुभाषितामृतरसासिक्तेऽपि चित्ते भृशं, ग्रीष्मत्तौ मरुभूमिकास्विव परं लेशो न संलक्ष्यते / / 20 / / विलोक्यानेकशास्त्राणि, विहिताद् ग्रन्थतस्त्विह। प्रेत्यापि बोधिलाभोऽस्तु, परमानन्दकारणम् ।२१।"ध० ४अधिका धम्मसंहिया-स्त्री०(धर्मसंहिता) धर्मवृद्धयर्थ संहिता बद्धा रचिता सम्-धाक्तः / भनुयाज्ञवल्क्यप्रभृतिप्रणीते धमप्रतिपादनार्थे शास्त्रे, वाचन अनु०। धम्मसड्डा-स्त्री०(धर्मश्रद्धा) धर्मः श्रुतधर्माऽऽदिस्तत्र तत्करणाभिलाषरूपा श्रद्धा धर्मश्रद्धा। धर्मकरणाभिलाषे, उत्त० 26 अ०॥ धर्मश्रद्वैव सकलकल्याणनिबन्धनमिति तामाहधम्मसद्धाए गं भंते ! जीवे किं जणयइ? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रजमाणे विरज्जइ, अगारधम्मं च णं चयइ। अणगारे णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयणभेयणसंजोगाईणं वोच्छेयं करेइ, अव्वावाहं च सुहं निवत्तेइ / / 3 / / धर्मश्रद्धयोक्तरूपया, सातं सातवेदनीयं, तजनितानि सौख्यानि सातसौख्यानि। प्राग्वन्मध्यपदलोपी समासः, तेषु, वैषयिकसुखेष्विपि यावत् / रज्यमानः पूर्व राग कुर्वन् विरज्यते विरक्तिं गच्छति। अगारधर्म च गृहाऽऽचार, गार्हस्थ्यमिति यावत् / चशब्दश्चैह वाक्यालङ्कारे / त्यजते परिहरति / तदत्यागस्य वैषयिकसुखानुरागनिबन्धनत्वात् / ततश्व "अणगारे त्ति" प्राकृतत्वादनगारो यतिः सन् शारीरमानसाना दुःखानाम, किरूपाणा मित्याह- छेदनभेदनसंयोगाऽऽदीनामिति, छेदनं खङ्गादिना द्विधा करणं, भेदन कुन्ताऽऽदिना विदारणम्, आदिशब्दस्येहापि संब
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________________ धम्मसड्ढा 2733 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मसारहि न्धात् ताडनाऽऽदयश्च गृह्यन्ते; ततश्छेदनभेदनाऽऽदिना शारीरदुःखानां संयोगः प्रस्तावादनिष्टसंबन्धः, आदिशब्दादिष्टवियोगाऽऽदिग्रहः, ततः संयोगाऽदीनां मानसदुःखाना विशेषेण पुनरसंभवलक्षणेनोच्छेदोऽ-भावो युच्छे::, तं करोतीति तन्निबन्धनको च्छेदेनेनेति भावः / अत एव यावाधमुपरतसकलपीड मोक्तमिति यावत्। चः पुनरर्थे भिन्नक्रमः, ततः सुखं पुनर्निर्वर्त्तयतिजनयति। पूर्व संवेगफलाभिधानप्रसङ्गेनधर्मश्रद्धायाः फलनि कपणमिह तु स्वातन्त्र्येणेत्यपौनरुक्त्यमिति भावनीयम् / उत्त० पाई०६अ। धर्मश्रद्धाया एव महत्फलमुपदर्शवतिनिसग्गुस्सग्गकारी य, सव्वतो छिन्नबंधणा। एगो वा परिसाए वा, अप्पाणं सोऽभिरक्खइ।। यः तवधर्मश्रद्धाभावतो निसर्गत एव स्वभावत एव उत्सर्गकारी, सर्वतश्छिन्नबन्धनः, सर्वत्र ममत्वरहित इत्यर्थः। स एको वा एकाकी वा, वर्षदि व व्यवस्थित आत्मानमभिरक्षति / व्य०१ उ० धम्मसवालु-त्रि०(धर्मश्रद्धालु) धर्मलिप्सौ, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। धम्मसण्णा-स्त्री०(धर्मसंज्ञा) धर्म श्रद्धायाम्, भ०७ श०६ उ०। मोहनीयक्षयोपसमाजावमाने क्षमाऽऽद्यासेवनरूपे संज्ञाभेदे, आचा० १श्रु०११०१ उ० धम्मसण्णास-पुं०(धर्मसंन्यास) गृहस्थधर्मत्यागे, "धर्मसंन्यास-वान् नवेत् / 3 / ' अष्ट० 8 अष्ट। क्षपक श्रेणि योगिनः क्षायोपशमिकक्षान्त्यादिधर्मनिवृत्तिरूपे सामर्थ्य योगभेदे, द्वा० 16 द्वा०। एतद्व कव्यता जोग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1626 पृष्ठे गता) धम्मसत्थ-न०(धर्मशास्त्र) धर्मप्रतिपादकं शास्त्र धर्मशास्त्रम् / मन्वादिप्रयुक्ते स्मृतिशास्त्रे, वाच०। जीवदयाऽऽदिविचारप्रति-पादके शास्त्रे च / दर्श०३ तत्त्व / "धम्मसत्थरस देसओ।" दर्श०५ तत्त्व। "विसेसओ धम्मसत्थकुसलमई।" धर्माभिधायिग्रन्थनिपुणबुद्धिः / पश्चा०१३ विवा धम्मसमुयायार-पुं०(धर्मसमुदाचार) धर्मरूपश्चारित्राऽऽत्मकः समुदाचारः सदाचारः, सप्रमोदो वाऽऽचारो यस्य स धर्मसमुदाचारः। चारित्रधर्माऽऽत्मकसदाचारोयेते, श्रद्धया चारित्रधर्माऽऽत्मकाऽऽचारोपेते च। औला धम्मसरण-न०(धर्मशरण) धर्माऽऽत्मके शरणे, द०प०। पडिवन्नसाहुसरणो, सरणं काउं पुणो वि जिणधम्म / पहरिसरोमंचपवं-चकंचुअंचियतणू भणइ // 41 // पवरसुकएहिं पत्तं, पत्तेहि वि नवरि केहि वि न पत्तं। तं केवलिपण्णत्तं, धम्म सरणं पवन्नोऽहं // 42 // पत्तेण अपत्तेण य, पत्ताणि य जेण नरसुरसुहाई। मुक्खसुहं पुण पत्ते-ण नवरि धम्मो स मे सरणं / / 43 / / निद्दालियकलुसकम्मो,कहलुसुहजम्मो(?)खलीयकअहम्मो। पमुहपरिणामरम्मो, सरणं मे होउ जिणधम्मो // 44 // कालत्तए वि नमयं, जम्मणजरमरणवाहिसयसमयं / अमयं व बहुमयं जिण-मयं च सरणं पवन्नोऽहं / / 45 / / पसमियकामपमोहं, दिट्ठादिद्वेसुन कलियविरोहं। सिवसुहफलयममोहं, धम्म सरणं पवन्नोऽहं // 46|| नरयगइगमणरोह, गुणसंदोहं पवाइनिक्खोहं। निहणियअबम्हजोह, धम्म सरणं पवन्नोऽहं / / 47 / / भासुरसुवन्नसुंदर-रयणालंकारगारवमहप्पं / निहिमिव दोगच्चहरं, धम्मं जिणदेसियं वंदे 48|| द०प०। धम्मसवण-न०(धर्मश्रवण) दुर्गतौ प्रवतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः श्रुतचारित्ररूपः, तस्य श्रवणमाकर्णनमर्णतो धर्मश्रवणम् / अर्थतो धर्माऽऽकर्णने, णो०१६ विव०। धधर्मशाखाऽऽकर्णने च। पश्चा०१० विव०। तस्माच धर्मश्रवणाद् मनःखेदापनोदाऽऽदिगुणः स्यात्। यदाह"बलान्तमपोद्यति खेद, तप्त निर्वाति बुद्ध्यते मूढम् / स्थिरतामेति व्याकुलमुपयुक्तसुभाषितं चेतः।।१।।" प्रत्यहं धर्मश्रवणं चोत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तिसाधनत्वात्प्रधानमिति // 22 // ध०१ अधि० धर्मश्रवणे यत्नः, सततं कार्यो बहुश्रुतसमीपे। हितकाक्षिभिर्नृसिंहैर्वचनं ननु हारिभद्रमिदम् / / 17 / / दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः श्रुतचारित्ररूपः, तस्य श्रवणमाकर्णनमर्थतः, तस्मिन् धर्मश्रमणे यत्नः प्रयत्न आदरः, सततमनवरतं, कार्यः कर्तव्यो, बहुश्रुतसमीपे बहुश्रुतसन्निधाने, हितकाङ्गिभिहिताभिलाषिभिर्नृसिंह: पुरुषसिंहै:, पुरुषोत्तमैरिति यावत् / वचनं प्रार्थनारूप, नन्विति वितर्के। एवं वितर्कयत यूयं, हरिभद्रस्येदं हारिभद्रमिदमेवविधं यदुत बहुश्रुतसमीपे धर्मश्रवणे यत्नो विधेयः / अथवावचनमागमरूपं, ननु निश्चितं हारि मनोहारि, भद्रमिदं कल्याणमिदं यतो वर्तते, अतो वचनमतधर्मश्रवणे बहुश्रुतरामीपे एव यत्नः श्रेयान्, अबहुश्रुतेभ्यो धर्मश्रवणेऽपि विपरीतार्थोपपत्तेः प्रत्यवायसंभवात् / अथवा-हरिभद्रसूरः स्तुतिं कुर्वाणोऽपर एव कश्चिदिदमाह- 'वचनं ननु हारिभद्रमिदम् / ' हरिभद्रसूरेरिद धर्मगतं वचनं प्रकरणाऽऽयं, तस्माद्धर्मश्रवणे बहुश्रुतसमीपे एव यत्नो विधेयोऽबहुश्रुतेभ्यो हरिभद्राऽऽचार्यवचनानिपलम्भादेवं वचनमाहात्म्यद्वारेण संस्तौति / / 17 / / षो० 16 विव०। धम्मसागर-पुं०(धर्मसागर) कल्पसूत्रोपरि किरणावलिकारके आचार्ये, अनेन च कुमतिकुद्दालाऽऽदयोऽनेके ग्रन्था रचिताः। ते तीव्रभाषानिबद्धा इत्याचार्याणामरुचिपात्रतां गताः / जै०३० धम्मसार-पुं०(धर्मसार) धर्मोत्कर्षे, "जयणा उ धम्मसारो, जं भणिया वीयरागेहि / ' पञ्चा०७ विव०। धर्मसामर्थ्य, 'धम्मस्स सारभुवलब्भ करे पमायं।" आव०५ अाधर्मस्य सारः परमार्थो धर्मसारः / धर्मस्य परमार्थे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। धर्मस्य सारः चारित्रं धर्मसारः / चारित्रे, सूत्र०१ श्रु०८ अ० धम्मसारहि-पुं०(धर्मसारथि) धर्मरथस्य प्रवर्तकत्वेन सारथिरिव धर्मसारथिः / यथा-रथस्य सारणी रथं रथिकमश्वाँश्च रक्षति, एवं भगवान चारित्रधर्माङ्गानां संयमाऽऽत्मप्रवचनाऽऽख्यानां रक्षणोपदेशाद् धर्मसारथिः / भ०१ श०१ उ० जी०। सकारागधर्मस्य स्वपरापेक्षया सम्यक् प्रवर्त्तनपालनदमनयोगतः सारथित्वम् / तद्यथा-सम्यक् प्रवर्तनयोगेन परिपाकापेक्षणात्, प्रवर्तक ज्ञानसिद्धेरपुनर्बन्धकत्वात, प्रकृत्याऽऽभिमुख्योपपत्तेः। तथा–गाम्भीर्ययोगात्साधुसहका
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________________ धम्मसारहि 2734 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मसेण रिप्राप्तेरनुबन्धप्रधानत्वादतीचारभीरुत्वोपपत्तेः / एतेन पालनायोगः प्रत्युक्तः, सम्यकप्रवर्तनस्य निर्वहणफलत्वात, नान्यथा सम्यक्त्वनिति समयविदः / एवं दमनयोगेन दान्तो ह्येवं धर्मः कर्मवशितया कृतो व्यभिचारी अनिवर्त्तकभावेन नियुक्तः स्वकार्ये स्वागोपचयकारितया नीतः स्वात्मीभावं तत्प्रकर्षस्थाऽऽत्मरूपत्वेन। भावधर्माप्तौ हि भवत्येवैतदेवं, तदाद्यस्थानस्याप्येवं प्रवृत्तेरबन्ध्यबीजत्वात् सुसंवृत्तकाश्चनरत्नकरण्डकप्राप्तितुल्या हि प्रथमधर्मस्थानप्राप्तिरित्यन्यैरप्यभ्युपगमात्, तदेवं धर्मस्य सारथयो धर्मसारथयः / / 23 / ल01 ध। धर्ममार्गप्रवर्त्तयितरि तीर्थकरे, "धिइमं धम्मसारही।"(१५) उत्त० १६अ। कल्प०। यथा सारथिरुन्मार्गे गच्छन्तं रथं मार्गमानयति, एवं भगवन्तोऽपि मार्गभ्रष्ट जन मार्गे आनयन्ति। अत्र च मेधकुमारदृष्टान्तः। कल्प०१ अधि०१ क्षण। (मेघकुमारकथा 'मेधकुमार' शब्द) धम्मसासण-न०(धर्मशासन) धर्मज्ञाने, दश० 1 चू०। धर्मशास्त्रे च। दशा "साहित्यस्य विशारदो यदि परं जानाति सल्लक्षणं, तर्के कर्कशमानसोऽतिविभुता यद्यस्ति सा ज्योतिषि। किशानेककलाऽऽलयोऽपि विकलः प्राणी पर गीयते, यो जानाति न स्वर्गमोक्षसुखदं धर्मानुगं शासनम्।१।" दश०६अ। धम्मसाहण-न०(धर्मसाधन) धर्मस्य कर्मानुपादाननिर्जरणलक्षणस्य साधनं हेतुरहिंसाऽऽदिर्धर्मसाधनम्।धर्महेतावहिंसादिके, हा०१२ अष्ट। धम्मसिद्धि-स्त्री० (धर्मसिद्धि) धर्मनिष्पत्ती, "लिङ्गानि धर्मसिद्धेः।" पो०४ विव०॥ धम्मसिरी-पुं०(धर्मश्री) अस्याश्चतुर्विंशतिकायाः प्रागनन्तकालेनातीतायां चतुर्विशतिकायां भवे चरमतीर्थकरे, ग०। अस्याः ऋषभाऽऽदिचतुर्विशतिकायाः प्रागनन्तकालेन याऽतीता चतुर्विशतिका तस्यां मत्सदृशः सप्तहस्ततनुर्धर्मश्रीनामा चरमतीर्थकरो बभूव / ग०१ अधि०। (तत्कथा 'सावज्जायरिय' शब्दे) धम्मसील-त्रि०(धर्मशील) धर्मःशील सततमनुष्ठेयं यस्य सधर्मशीलः। धार्मिक, वाचा धर्मस्वभावे च / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। धम्मसीलसमुयायार-त्रि०(धर्मशीलसमुदाचार) धर्मशीलो धर्मस्वभावो धर्माऽऽत्मकः समुदाचारो यत्किञ्चनानुष्ठानं यस्य सः। धर्मस्वभावाऽऽत्मकानुष्ठाने, सूत्र०२ श्रु०२० धम्मसीह-पुं०(धर्मसिंह) अभिनन्दनजिनस्य पूर्वभवनामधेये, स० पाटलिपुत्रस्थे स्वनामख्याते क्षत्रियमुनौ, संथा० पाडलिपुत्तम्मि पुरे, चंदयपुत्तस्समे य आसी या नामेण धम्मसीहो, चंदसिरी सो पइहिऊणं / / 6 / / पाटलिपुत्रे नगरे (चन्दयपुत्तस्समे यत्ति) चन्द्रगुप्तपुत्रस्य समः सबन्धुः सुहृत, समः सुहृदभिधानेषुदर्शनात्। अथवा-चन्द्रगुप्तसमः मान्यत्वादासीदभूद नाम्ना धर्मसिंह इति। कथंभूतः? (चंदसिरी सो पइहिऊणं) चन्द्रगुप्तश्रीः चन्द्रगुप्तलक्ष्मीकः, (पइ-हिऊण ति) प्रस्तावात् तामेव लक्ष्मी परित्यज्य, चारित्रं गृहीत्वे-त्यर्थः / ततः किं कृतवानित्याहकुल्लयरम्मि पुरवरे, अह सो अब्भुडिओ ठिओ धम्मे। कासी य गद्धपिट्ठ, पञ्चक्खाणं विगयसोगो / / 7 / / अथ कोल्लयरपुरे स धर्मसिंहाभिधानः क्षत्रियमुनिः, अभ्युस्थितोऽभ्युद्यतः भरणाय, स्थितन धर्मे पर्यन्ताऽऽराधनाकृत्यरूपे, (कासी यत्ति) अकार्षीत, (गद्धपिट्ट ति) गृद्धपृष्ठाभिधानमनाथपतितगोकलेवराऽऽदिमध्ये निपतनरूप (पचवखाणं विगयसोगो त्ति) प्रत्याख्यानमनशनाङ्गीकाररूपं, विगतशोको विगतदैन्य इति गाथार्थः // 70 / / अह सो वि चत्तदेहो, तिरियसहस्सेहिँ खायमाणो य। सो वि तह खजमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अटुं // 71 / / अथ स त्यक्तदेहो व्युत्सृष्टशरीरस्तिर्यक्सहस्त्रैः श्ववृकशृगालगृद्धाऽऽदिभिः खाद्यमानश्च, सोऽपि तथा खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थ सम्यगाराधनामित्यर्थः // 71 / / संथा। धर्मजिनस्य प्रथमभिक्षादायक च। सन धम्मसुअक्खायभावणा-स्त्री०(धर्मस्वाख्यातभावना) भावनाभेदे, सा यथा"स्वाऽऽख्यातः खलु धर्मोऽयं, भगवद्भिर्जिनोत्तमैः / यं समालम्बमानो हि, न मजेद्भवसागरे / / 1 / / " स्वाख्याततामेवाऽऽह"संयमः सूनूतं शौचं, ब्रह्माकिञ्चनता तपः। क्षान्तिर्दिवमृजुता, शान्तिश्च दशधा ननु // 2 // " अत्राय भावः-संयमाऽऽदिदशविधधर्मप्रतिपादनप्रकारेण भगवतामहतां स्वाख्यातधर्मत्वानुप्रेक्षणमेवेति / धर्माणां गुगभावना तदाख्यातॄणां भगवतामनुप्रेक्षानिमित्तं स्तुतिरिति / तथा च धर्मकथकोऽहन्निति भावनेत्येव प्रत्यासन्नम्। तथा पूर्वापरविरुद्धानि, हिंसाऽऽदेः कारकाणि च / वासि चित्ररूपाणि, व्याकुर्वद्भिर्निजेच्छया।।३।। कुतीर्थिकः प्रणीतस्य, सद्गतिप्रतिपन्थिनः / धर्मस्य सकलस्यापि, कथं स्वाख्यातता भवेत? ||4|| यच तत्समये कापि, दपासत्याऽऽदिपोषणम्। दृश्यते तद्वचर्चामात्र, बुधैज्ञेयं न तत्त्वतः // 5 // यत्प्रोद्दाममदान्धसिन्धुरघट साम्राज्यमासाद्यते, यन्निःशेषजनप्रमोदजनकं संपद्यते वैभवम्। यत्पूर्णेन्दुसमद्युतिर्गुणगणः संप्राप्यते यत्पर, सौभाग्यं च विजृम्भते तदखिलं धर्मस्य लीलायितम्।।६।। यन्न प्लावयति क्षितिं जलनिधिः कल्लोलमालाऽऽकुलो , यत्पृथ्वीमखिला धिनोति सलिलाऽऽसारेण धाराधरः / यचन्द्रोष्णरुची जगत्युदयतः सर्वान्धकारच्छिदे, तन्निःशेषमपि ध्रुवं विजयते धर्मस्य विस्फूर्जितम्॥७॥ अर्हता कथितो धर्मः, सत्योऽयमिति भावयन्। सर्वसंपत्करे धर्मे धीमान् दृढतरो भवेत्॥८॥" ध०३ अधि०। धम्मसुइ-स्त्री०(धर्मश्रुति) अर्हत्प्रणीतधर्माऽऽकर्णन, उत्त० ३अ०। "किन्नरगेयश्रवणादधिको धर्मश्रुतौ रागः।" षो०११ विव०। आ०का धम्मसेण-पुं०(धर्मसेन) भगवत ऋषभदेवस्य शतपुत्रेषु स्वनामख्यातेऽन्यतमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७क्षणका नन्दनस्य सप्तमबलदेवस्य पूर्वभवनामधेये, सल। ति०।
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________________ धम्मसेणगणिमहत्तर 2735 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्माहिगारि(ण) धम्मसेणगणिमहत्तर-पुं०(धर्मसेनगणिमहत्तर) वसुदेवहिण्डीग्रन्थस्य धम्माणुय-त्रि०(धर्मानुग) धर्म श्रुतचारित्ररूपमनुगच्छतीति धर्मानुगः। द्वितीयतृतीयखण्डयोः कर्तरि, जै०६०। धर्मानुयायिनि, दशा०६अ०। ज्ञा०ा औ०। सूत्र०। धम्महिय-त्रि०(धर्महित) धर्माय हितमुपकारक धर्महितम् : धर्मो- | धम्माणुराग-पुं०(धर्मानुराग) धर्मबहुमाने, भ०१श०७ उ०। पकारके, उत्त० पाई० २अ०। धम्माणुरागरत्त-त्रि०(धर्मानुरागरक्त) धर्मानुरागो धर्मबहुमानः, तेनरत धम्माइगर-पुं०(धर्माऽऽदिकर) धर्मो द्विभेदः-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च / / इव यः स तथा / धर्मबहुमानानुरागिणि, भ०१ श०७ उ०। श्रुतधर्मेणेहाधिकारः, तस्य करणशीलो धर्मादिकरः / आव०५ अ०। धम्माणुरागि(ण)-पुं०(धर्मानुरागिण) श्रुतचारित्रलक्षणधर्मानुरक्ते, श्रुतधर्मस्य सूत्रतः प्रथमकरणशीले तीर्थकरे, ध०२ अधिक प्रसङ्गे, न०। पञ्चा०७ विवाधर्माभिलाषिणि च / दर्श०१ तत्त्व। आव०५ अ आ००। ल०! धम्माधम्मट्ठाण-न०(धर्माधर्मस्थान) उपशमप्रधानानुपशमप्रधाने धम्माणुओग-पुं०(धर्मानुयोग) धारयति दुर्गती प्रपतन्तं सत्त्वमितिधर्मः, क्रियास्थानस्य तृतीये भेदे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। (धर्माधर्मयुक्तं तृतीयं तस्मिन् धर्म धर्मविषयेऽनुयोगो धर्मानुयोगः / उत्तराध्ययनाऽऽदिप्रकी स्थानमाश्रित्य 'पुरिसविजय विभंग' शब्दे वक्ष्यते) करूपेऽनुयोगभेदे, ओघा धर्मकथानुयोग उत्तराध्ययनाऽऽदिक इति / धम्मायरण-न०(धर्माऽऽचरण) धर्मानुष्ठाने, आचा०१श्रु०५अ०२उ०। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०१ धम्मायरिय-पुं०(धर्माऽऽचार्य) श्रुतचारित्रधर्माऽऽचारसाधौ, ध०२ धम्माणुट्ठाण-(धर्मानुष्ठान) कुशलानुष्ठाने,ध०१अधि०। अधिof धर्मः श्रुतधर्मस्तत्प्रधानः प्रणायकत्वेनाऽऽचार्या धर्माचार्यः / “अन्ने भांति तिविह, सययविसयभावजोगओ णवरं। मतोपदेष्टरि, स्था०७ ठा० "धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं ध-मग्मि अणुट्ठाण, जहुत्तर पहाणरूवं तु / / 1 / / महावीरं वदामो।' भ०२ श०१ उ०। धर्मदाताऽचार्यों धर्माचार्यः / एअंच ण जुत्तिखमं, णिच्छयणयजोगओ जओ विसए। स्था०३ठा०१उ०। धर्मदाताचार्ये, ध०२अधि०। धर्मप्रतिबोधके, भावेण य परिहीणं, धम्माणुट्टाणमो किह णु ? ||2|| स्था०४ ठा० ३उ०। बोधिलाभहेतुभूते गुरौ च। पञ्चा०१ विव० / 'धम्मो ववहारओ उ जुञ्जइ, तहा तहा अपुणबंधगाईसु॥" इति। जेणुवइट्ठा, सो धम्मगुरू गिही व समणो वा।'' स्था० ४टा०३उ०। एतदर्थो यथा-अन्ये आचार्या भणन्ति, त्रिविधं त्रिप्रकारं, सतत- धम्मायार-पुं०(धर्माचार) स्त्रीणां चतुषःटिकअन्तर्गत कलाभेदे, विषयभावयोगतः, योगशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् सतताऽऽ- कल्प०७अधि०१क्षण। दिपदानां सतताभ्यासाऽऽदौ लाक्षणिकत्वात् सतताभ्यासविषया- धम्माराम-पुं०(धर्माराम) धर्मे श्रुतधर्माऽऽदावाडित्यभिव्याप्त्या रमते भ्यासभावाभ्यासयोगादित्यर्थः / नवरं केवलं, धर्मेऽनुष्ठान यथो--तरं रतिमान् भवतीति धर्मारामः। उत्त०२ अ०। धर्मविषयकरतिमति साधी, प्रधानरूपं, तुरेवकारार्थः / यद्यदुत्तरं तदेव ततः प्रधानमित्यर्थः। तत्र उत्त०१६अ। धर्म एव सततमानन्दहेतुतया प्रतिपाल्यतया चाऽऽरामो सतताभ्यासो नित्यमेव मातापितृविनयाऽऽदिवृत्तिः / विषया--भ्यासो धर्मारामः। उत्त०२अ० धर्मआराम इव पापसंतापोपतप्तानां जन्तूनां मोक्षमार्गनायकेऽहल्लक्षणे पौनःपुन्येन पूजनाऽऽदिप्रवृत्तिः। भावाभ्यासो निर्वृतिहेतुतया अभिलषितफलप्रदानतश्च धर्माऽऽरामः। धर्माऽऽत्मके भावाना सम्यग्दर्शनाऽऽदीनां भावाद्वेगेन भूयो भूयः परि शीलनम् // 1 // आरामे, "धम्माराम चरे भिक्खू, ठिइम धम्मसारही। धम्मारामे रए एतच द्विविधमनुष्ठानं न युक्तिक्षम नोपपत्तिसह, निश्चयनययोगेन दंते, वंभचेरसमाहिए॥१॥' उत्त०१६ अ०। निश्वयनयाभिप्रायेण यतो मातापित्रादिविनयस्वभावे सतताभ्यासे धम्मारामरय-त्रि०(धर्माऽऽरामरत) धर्माऽऽरामे रत आराक्तिमान् सम्यग्दर्शनाऽऽद्यनाऽऽराधनारूपे धर्मानुष्ठानं दूरापास्तमेव, विषय धर्मारामरतः / धर्माऽऽरभाऽऽसक्ते, उत्त०१६ अ०। धर्म आ समन्तात् इत्थनन्तरमपिर्गम्यः, विषयेऽपि अर्हदादिपूजालक्षणे विषयाभ्यासेऽपि, रमन्त इति धर्मारामाः साधवस्तेषु रतो धर्माऽऽरामरतः। साधुभिः सह भावेन भववैराग्याऽऽदिना परिहीणं धर्मानुष्ठान, कथं नु? न कथञ्चिदित्यर्थः / ओकारः प्राकृतत्यात्। परमार्थोपयोगरूपत्वाद्धर्मानुष्ठानस्य, युक्ते च / उत्त० 16 अ०॥ निश्वयनयमते भावाभ्यास एव धर्मानुष्ठानं, नान्यद्वयमिति निगर्वः / / 2 / / धम्माराहग-पुं०(धर्माऽऽराधक) धर्मानुकूलवर्तिनि, स्था०२ ठा०४ व्यवहारतस्तु व्यवहारनयादेश तु, युज्यते द्वयमपि, तथा तथा तेन तेन उ०। सूत्रा प्रकारेणापुनर्बन्धकाऽऽदिषु अपुनर्बन्धकप्रभृतिषु, तत्रापुनर्बन्धकः पाप धम्माराहण-न०(धर्माराधन) धर्माऽऽसेवने, स्था०२ ठा०४ उ०। 'जे न तीव्रभावात्करोतीत्याद्युक्तलक्षणः / आदिशब्दादपुनर्बन्धकस्यैध केइ महापुरिसा, धम्माराहणसहा इहं लोए।'' चारित्राऽऽराधनसमर्थाः। विशिष्टोत्तरावस्थाविशेषभाजी मार्गाभिमुखमार्गपतितौ अविरत- पं०व०३ द्वार। सम्यग्दृष्ट्यादयश्च गृह्यन्त इति। ध०१अधिका धम्मावाय-पुं०(धर्मवाद) धर्माणां वस्तुपर्यायाणां धर्मस्य वा चारित्रस्य धम्माणुण्ण-त्रि०(धर्मानुज्ञ) धर्मे श्रुतचारित्रलक्षणेऽनुज्ञाऽनुमोदनं यस्य वादो धर्मवादः। दृष्टिवादे, स्था०१० ठा०। सधर्मानुज्ञः। दशा०६ अाधर्म कर्तव्येऽनुज्ञाऽनुमोदनं यस्य सधर्मानुज्ञः। | धम्माहिगारि(ण)-पुं०(धर्माधिकारिण) धर्मग्रहणयोग्ये धार्मिके, ध०१ ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०॥ धर्मानुमोदितरि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। ___अधि०। पञ्चा० / पं०व०।
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________________ धम्मि (ण) 2736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धम्मुत्तरखंति धम्मि (ण) त्रि०(धर्मिन) धर्माऽस्ति यस्याऽसौ धमी। औ० / धर्म | धम्मियववसाय पुं०(धार्मिकव्यवसाय) व्यवसायभेदे, प्रतिक अस्त्यर्थे इतिः / पुण्यवति, वस्तुगुण स्वरूपधर्मयुक्ते, वाच० / आचा०। धम्मियाधम्मियकरण न०(धार्मिकाधार्मिक करण) धार्मिकस्य धम्मिट्ट त्रि०(धर्मिष्ट) अतिशयेन धर्मी / इष्ठन इनेलृक् / अन्थन्त- संयतस्येदं धार्मिकमेवमितरन्नवरमधार्मिकोऽसंयतस्तस्य करणम् / धर्मवति, वाच० / रा०॥धर्मबहुले, सूत्र०२ श्रु०२ उ०। धर्मोऽस्तियस्य | अथवा धर्मे भवं धर्मो वा प्रयोजनमस्येतिधार्मिकम्। विपर्यस्तमितरत्कसधर्मी, स एवान्येभ्योऽतिशयवान् धम्मिष्ठः। औ०। रण धार्मिकाधार्मिककरणम्। करणभेदे, स्था० 3 ठा० 4 उ०। *धर्मेष्ट त्रि०। धर्मः श्रुतरूप एवेष्टो बल्लभः पूजितो वा यस्य स धर्मष्टाः। | | धम्मियाधम्मियोवक्कम पुं०(धार्मिकाधार्मिकोपक्रम) धार्मिकश्वासी प्रियधर्मे, औ०। देशतः संयमरूपत्वादधार्मिकश्च तथैवासंयमरूपत्वाधार्मिकाधार्मिकः / *धर्मीष्ट त्रि० धर्मिणामिष्टो धर्मीष्टः / धर्मिणां वल्लभे, ऑ०। उपक्रम उपायपूर्वक आरम्भो धार्मिकाधार्मिकोपक्रमः / देशविरताऽऽधम्मिड्डि स्त्री०(धर्मद्धि) ऋद्धिभेदे, "सा भण्णइ धम्मिड्डी, जा मण्णइ रम्भरूपे उपक्रमभेदे, स्था० 3 ठा०३ उ०। धम्मकजेसु।" ध०२ अधि०। धम्मियाराहणा स्त्री०(धार्मिकाऽऽराधना) आराधनमाराधना ज्ञानाऽऽधम्मिपरिणाम पुं०(धर्मिपरिणाम) धर्मिणः पूर्वधर्मनिवृत्तावुत्तर- दिवस्तुनोऽनुकूलवर्तित्वं, निरतिचारज्ञानाऽऽद्यासेवनेति यावत्। धर्मेण धर्मोत्पत्तिधर्मिपरिणामः / परिणामभेदे, यथा-मृल्लक्षणस्य धर्मिणः श्रुचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकाः साधवस्तेपाडियं धार्मिकी। सा पिण्डरूपधर्मपरित्यागेन घटरूपार्थान्तरस्वीकारः। द्वा० 24 द्वा०। चासावाराधना चेति निरतिचारज्ञानाऽऽदिपालना धार्मिकाऽराधना / धम्मिय त्रि०(धार्मिक) धर्म चरति सततमनुशीलयति ठक्। धर्मशीले, आराधनाभेदे, स्था०२ ठा०४ उ०। 'धम्मिवाराहणा कुविहा पण्णत्ता। वाच०।"धम्मियमाहणभिक्खुए सिया।" धार्मिका धर्माऽऽचारशीलाः / तं जहा-सुयधम्माराहण चेव, चरित्तधम्भाराहणा चेव।" स्था०२ ठा० सूत्र०१ श्रु०२ अ० 1 उ० / धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरति धार्मिकः / ४उ० / विषयभेदेनाऽऽराधनाभेदे, स्था०२ ठा० 4 उ० / साधौ, स्था०२ ठा०४ उ०। ज्ञा० / सूत्र० / रा०। औ०। भ०। धर्मे धम्मियोवक्कम पुं०(धार्मिकोपक्रम) धर्मे श्रुतचारित्राऽऽत्मके भवः, स श्रुतचारित्राऽऽत्मके भवः / स्था०३ ठा० 3 उ० / धर्मनिरते, द्वा०३ वा प्रयोजनमस्थेति धार्मिकः उपक्रमणमुपक्रम उपायपूर्वक आरम्भो द्वा० / 'न हिस्यात्सर्वभूतानित्याचराणि चराणि च / आत्मवत्सर्वभूतानि, धार्मिकोपक्रमः / श्रुतचारित्राऽऽद्यर्थकाऽऽरम्भाऽऽत्मके उपक्रमभेद, यः पश्यति स धार्मिकः / / 1 / / " अनु० / "एवं परिहायमाणा ,लोगे यदो (स्था०) धार्मिकस्य संयतस्य य चारित्राऽऽद्यर्थ द्रव्यक्षेत्रकालभावानाव्व कालपक्खम्मि। जे धम्मिया मणुस्सा, सुजीवियं जीवियं तेसिं।।१।।'' मुपक्रमः स धार्मिक एवोपक्रमः / स्था० 3 ठा० 3 उ०। ति०। धर्मः प्रयोजनमस्येति धार्मिकः / स्वा०३ टा०१ उ०। धर्मार्थे, दशा० 10 अ० / धर्मे नियुक्तो धार्मिकः / औ० / धर्माय नियुक्त धम्मिल्ल पुं०(धम्मिल्ल) संयतेषु केशेषु, वाच० / 'धम्मिल्लो केसहत्थओ मउली' (57) को०५७ गाथा / स्वनामख्याते साधी, धार्मिकम् / धर्मप्रतिबद्धे, धार्मिको धर्मप्रतिबद्धत्वान , नि०१ श्रु०१ वर्ग१ अ०। धार्मिकस्य संयतस्येद धार्मिकम्। धार्मिकसम्बन्धिनि च। आव०६ अ०।०। (तत्कथा धम्मिल्लहिण्व्यां समासतः पचक्खाण' स्था०३ ठा०१ उ०। शब्देऽपि) कुल्लागसन्निवेशस्थे सुधर्मस्वामिनः पितरि, स्वनामख्याते *धर्मित त्रि० / अतिशयेन सन्नद्धे, "धम्मियसण्णद्धबद्धकवइय विप्रे च। कल्प 2 अधि० 8 क्षण। आ०मा आ० चू०। विपरिणाममापन्ने उप्पीलियकच्छवच्छगेवेयबद्धगलवरभूसण्णविराइयं / " धर्मिताऽऽदयः य त्रि०। अकविलसु-सिणिद्धसुगंधदीहधम्मिल्लसिरवा।' धम्मिल्ला शब्दा एकायो एव सन्नद्धताप्रकर्षख्यापनार्थाः / भेदो यश्चैषामस्ति स च विपरिणामम / पन्नाः संयमविज्ञानाभावात् शिरोजा इति। जं०२वक्ष०। रूढितोऽवसेयः। औ०। धम्मीसर पुं०(धर्मेश्वर) भारतवर्षेऽतीतोत्सर्पिण्यां भवे जिनेश्वरधम्मियकरण न०(धार्मिककरण) धार्मिकस्य संयतस्येदं धार्मिकम् | परपर्याय विंशतितम जिने, प्रव०७ द्वार। कृतिः करणमनुष्टानम् / धार्मिककरणभेदे, स्था० 3 टा० 4 उ०। धम्मुञ्जय त्रि०(धर्मोद्यत) धर्मस्पृहावति, जीवा० 12 अधि०। धम्मियजाण न०(धार्मिकथान) धर्मार्थगमनसाधने याने, “धम्मियं धम्मुत्तर त्रि०(धर्मोत्तर) धर्मेर्गुणैरुत्तरो धर्मोत्तरः / आ०चू० 5 अ० // जाणवचर उवद्ववेह।" धर्मार्थ वानं गमनं येन तद्धर्मयानं, तन्मध्ये प्रवर धर्मः प्रशमाऽऽदिरूपस्तदुत्तरस्तत्प्रधानो धर्मोत्तरः / षो० 10 विव० / श्रेष्ठ शीघ्रगमनत्वाऽऽदिगुणोपेतमिति। दशा० 10 अ०। ज्ञा० / अन्त०। धर्मप्रधाने राम्यग्दर्शनाऽऽदिके,धर्मप्राधान्ये, न०।"धम्मुत्तरं वड्ढउ।" धम्मियजायणा स्त्री०(धार्मिकयाचना) धर्मकथापूर्वके याचने, आचा० / धर्मोत्तरं चारित्रधर्मोत्तरं चारित्रधर्मप्राधान्यं यथा स्यात्। ध० 2 अधि० / 'धम्मियाए जायणाए जाएजा।" धर्मकथनपूर्वकं गच्छान्निर्गतो याचेत। ल० / आव० / न्यायबिन्दुटीकाकारके बौद्धाऽऽचार्ये, अयं सौगतः आचा०२ श्रु०१ चू० 3 अ०३ उ०। वीरसंवत् 884 वर्षे आसीत्। जै० इ०।। धम्मियणाडय न०(धार्मिकनाटक) जिनजन्माभ्युदयभरतनि- | धम्मुत्तरखंति स्वी०(धर्मोत्तरक्षन्ति) धर्मः प्रशमाऽऽदिरूपस्तदुत्तरा ष्क्रमणाऽऽदिधर्मसम्बद्धे नाटके, पञ्चा०६ विव०। तत्प्रधाना क्षान्तिधर्मोत्तरक्षान्तिः / क्षान्तिभेद, षो० 10 विट।
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________________ धम्मेक्कनिट्ठ 2737 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धरण धम्मेक्कणि? त्रि०(धर्मैकनिष्ठ) धर्मतत्परे, षो० 12 विव०। धम्मोवएस पुं०(धर्मोपदेश) धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः, तस्योपदेशो देशना / धर्मदेशनायाम्, 'धर्मोपदेशश्रवणम् / ध०२ अधिक / आचाराङ्ग लोकसाराध्ययनपञ्चमोद्धेशकाऽऽदिमसूत्रे हृदोपमेनाऽऽचार्येण भाव्यमित्यत्र वृत्ती धर्ममाश्रित्य चतुर्भङ्गयां प्रत्येकबुद्धास्तूभयाभावाचतुर्थभङ्ग स्था इत्युक्तप्रकारेण सर्वेऽपि प्रत्येकबुद्धा धर्मोपदेश न ददत्येतत्कथं सजाघटीति ? यतः - ऋषिमण्डल-सूत्रे-"पत्तेअबुद्धसाहू, नमिमो जे भासिइं सिवं पत्ता / पणयालीसं इसिभासियाइँ अज्झयणपवराई" // 1 // इति-गाथायां प्रत्येकबुद्धानामध्ययनमुक्तमिति किमत्र तत्त्वमिति प्रश्ने ? उत्तरम्--आवाराङ्गवृत्त्यनुसारेण प्रत्येकबुद्धाः समाप्रबन्धेन धर्मोपदेशन ददतीत्यवसीयते। ऋषिमण्डले तुतेषामध्ययनप्रणयनरूपधर्मोपदेश इति न किमप्यनुपपन्नम् इति। 383 प० / सेन० 3 उल्लाका धम्मोवएसय त्रि०(धर्मोपदेशक) धर्मदेशकेग, ध०२ अधिक। धम्मोवओग पुं०(धर्मोपयोग) धर्मस्येतिकर्तव्यताबोधे, पं० सू० 4 सूत्र०। धम्मोवगरण न०(धर्मापकरण) संयमोपकरणे, आचा०। धर्मोपकरणस्य च न परिग्रहत्वम् - परिग्गहाओ अप्पाणं अवक्कसेज्जा / (60) परिगृह्यत इति परिग्रहो धर्मोपकरणातिरिक्तमुपकरणं, तस्मादात्मानमवष्वष्केदपसर्पयेत् / अथवा-संयमोपकरणमपि मूर्छ-या परिग्रहो भवति; 'मूच्छा परिग्रहः' (तत्त्वा०७ अ०१७ सूत्र) इति वचनात्। तत आत्मानं परिग्रहादसर्पयन्नुपकरणे तुरगवन्मूर्छा न कुर्यात् / ननु च यः कश्चिद्धर्मोपकरणाऽऽद्यपि परिग्रहो, न स चित्तकालुष्यमृते भवति / तथाहि-आत्मीयोपकारिणि रागः, उपघातकारिणि च द्वेषः, ततः परिग्रहे सतिरागद्वेषौ नेदिष्ठी, ताभ्यां कर्मबन्धः, तत्कथन परिग्रहो धर्मोपकरणम् ? उक्त च - "ममाहमिति चैव या वदभिमानदाहज्वरः कृतान्तमुखमेव ता-वदिति न प्रशान्त्युनयः / यशः सुखपिपासितैरयमसावनोत्तरैः , परैरपसदैः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते / / 1 / / ' नैष दोषः, न हि धर्मोपकरणे ममेदमिति साधूनां परिग्रहग्रहयोगोऽस्ति / तथा ह्यागमःअवि अप्पणो वि देहम्मि, णायरंति ममाइउं / ' यदिह परिगृहीतं कर्मबन्धायोपकल्प्यते, स परिग्रहो, यत्तु पुनः कर्मनिर्जरणार्थ प्रभवति, तत्परिग्रह एव न भवतीति। आहचअण्णहाणं पासए परिहरिजा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए॥६१|| (अण्णहा णं इत्यादि) णमिति वाक्यालङ्कारे अन्यथेत्यन्येन प्रकारेण, पश्यकः सन, परिग्रह परिहरेत् / यथाहि -अविदितपरमार्था गृहस्थाः सुखसाधनाय परिग्रहं पश्यन्ति, न तथा साधुः / तथाहि-अयमस्याऽऽशयः-आचार्यसत्कमिदमुपकरण, न ममेति रागद्वेषमूलत्वात्परिग्रहग्रहयोगोऽत्र निषेध्यो, न धर्मोपकरणं, तेन विना संसारार्णवपारागमनादिति। उक्तं च - 'साध्यं यथाकथञ्चित्, स्वल्पं कार्य महचान तथेति / प्लवनमृते नहि शक्यं, पारंगन्तुं समुद्रस्य॥१॥" अत्र चाऽऽर्हताऽऽभासैर्वोटिक : सह महान विवादोऽस्तीत्यतो विवक्षितमर्थ तीर्थकराभिप्राये णापि सिसाधयिषुराह-(एस मग्गे इत्यादि) धर्मोपकरणं न परिग्रहायैत्यनन्तरोक्तो मार्गः, आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यास्तीर्थकृतः , तैः प्रवेदितः कथितो, न तु यथा बोटिक : कुण्डिकातट्टिकालवणिका - ऽश्वबालधिबालाऽऽदिस्वरुचिविरचितो मार्ग इति। न वा यथा मौदगलिस्वातिपुत्राभ्यां शौद्धोदर्नि ध्वजीकृत्य प्रकाशितः / इत्यनया दिशा अन्येऽपि परिहार्या इति / इह तु स्वशास्त्रगौरवमुत्पादयितुमार्थ : प्रवेदितः / (61) आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। धम्मोवग्गहदाण न०(धर्मोपग्रहदान) ज्ञानाभयप्रदातॄणामाहाराss वैरुपग्रहः / दत्तैर्यर्जायते शुद्धस्तद्धर्मोपग्रहं स्मृतम् // 1 // इत्युक्तलक्षणे दानभेदे. ग०२ अधि०। धम्मोवाय पुं०(धर्मोपाय) प्रवचने, तदस्तरेण धर्मस्यासम्भवात् / चतुर्दशसु पूर्वेषु, आ० म०१ अ०१खण्ड। सामायिकाऽऽदिकेच , आ० म०१ अ०१खण्ड। (धर्मोपायव्याख्या 'तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2261 पृष्ठे गता) धम्मोवायदे सग पुं०(धर्मो पायदेशक) दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः , तस्योपायो द्वादशाङ्गः प्रवचनम् / अथवा-पूर्वाणि देशयतीति देशकः, धर्मो पायस्य देशको धर्मोपायदेशकः / गणधरे, चतुर्दशपूर्ववित्सु, आ० म० 1 अ० 1 खण्ड / चतुर्विशतिसंख्याकेषु जिलेपु, आ०म० / ''धम्मोवाओ पवयण-महवा पुण्याइँ देसया तस्स। सव्वजिणाण गणहरा, चोदसपुब्बी उजे जस्त / / 1 / / '' आ० म०१ अ० १खण्ड। (अस्य गाथाया व्याख्या 'तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2261 पृष्ठ गता) *धय ध्वज 'झय' शब्दार्थे, कल्प०१ अधि० 3 क्षण। को०। धयण (देशी) गृहे. दे० ना०५ वर्ग 57 गाथा। धयरट्ठ पुं०(धार्तराष्ट्र) हंसे, "धयरट्टा कायंबा।'' को० 40 गाथा। धर धृ० पतने, भ्वादि०आ०-अक० --अनिट् / "ऋवर्णस्यारः" ||14|234 // इति प्राकृतसूत्रेण धातोरन्त्यस्य ऋवर्णस्य अरा-ऽऽदेशः / 'धरइ।' प्रा० 4 पाद / धरते। अधृत / वाच० / स्थितो िअक०। धृतौ सक०-स्वादि०-उभ० --अनिट्। धरति,ते, अधार्षीत् अधृता वाच०। तूले, दे० ना०५ वर्ग 57 गाथा। *धर त्रि० / धियतोधरतीति वा धरः, "लिहाऽऽदिभ्यः" / / 5 / 1150 / / इत्यच्प्रत्ययः / न० / धारके, औ०। 'धरइ।' प्रा० 4 पाद। प्रज्ञा०। पर्वत, कूर्मराजे, वसुभेदे, कार्पाससूत्रे च / वाच० / पद्मप्रभस्य षष्ठस्य जिनस्य पितरि कौशाम्बीवास्तव्ये स्वनामख्याते नृपे, आव० 1 अ०। स० / स्था० / अस्यामवसर्पिण्यामरवतवर्षभवे विंशतितमे जिने, स०। पर्वत, को०५० गाथा। धरग्ग (देशी) कार्यासे, दे० ना०५ वर्ग 58 गाथा। धरण पुं०(धरण) धृ०-युच्। पर्वतभेदे, लोके. गुणे, धान्ये, दिवाकरे, सेती च / वाच० / दक्षिणनागकुमारनिकायेन्द्र, स्था० 4 ठा०१ उ० / ति० / द्वी०। प्रज्ञा० / भ० / शलिलाबतीविजयस्थवीतशोकाराजधानीस्थस्य महाबलस्य राजपुत्रस्य स्वनामख्याते सवयस्ये मित्रे, ज्ञा०१ श्रु० 8 अ०। द्वारवतीवास्तव्येषु समुद्रविजयाऽऽदिषु दशसु दशाhष्यन्यतमे दशार्हे, अन्त० 1 01 वर्ग 1 अ०। स०। अनिक्षेपे, ओध०। षोडशरूप्यमा
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________________ धरण 2738 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धरिमप्पमाण षकाऽऽत्मके धरिमप्रमाणभेदे, षोडशरूप्यमाषका एक धरणमिति।। ज्यो०२ पाहु०। अधमर्णाऽऽदिभ्यो लभ्यद्रव्यग्रहणार्थ लङ्घनपूर्वके / उपवेशनेचा नवा धरणं लभ्यद्रव्यग्रहणार्थ लसनपूर्वकमुफ्वेशनम्। ध०२ अधि०। नागकुमारेन्द्र, स्था० धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो धरणप्पभे उप्पायपव्वए दसजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, दसगाउसयाई उव्वेहेणं मूले, दसजोयणसयाई विक्खंभेणं धरणस्स णं०जाव णागकुमाररण्णो कालवालस्स महारण्णो कालप्पभे उप्पायपव्वए दसजोयणसयाइं उठें उच्चत्तेणं एवं चेव०जाव संकवालस्स भूसणंदस्स वि,एवं लोगपालस्स वि, से जहा धरणस्स। स्था०१०ठा। धरणग-न०(धरणक) रोधने, धरणकं रोधनमपकारिणामधम र्णाऽऽदीनां च / प्रव०३८ द्वार। ध्रियते येन तद्धरणम्, धरणमेव धरणकम् / येन धृत्वा तोल्यते तस्मिन् तोलनसाधने वस्तुनि, ज्यो०२ पाहु०। धरणप्पभ-पुं०(धरणप्रभ) धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य स्वनामख्याते उत्पातपर्वते, स्था० 10 ठा०। धरणा-स्त्री०(धरणा) मगधदेशस्थायां स्वनामख्यातायां राजधान्याम्, यत्राला देवी। ज्ञा०२ श्रु०३वर्ग १अ०) धरणिंद-पुं०(धरणेन्द्र) नागराजे, "नागेसु वा धरणिंदमाहु सह।" सूत्र०१ श्रु०६अ०। विश्वपुरस्थे स्वनामख्याते राजनि, ग०२ अधिक। (तत्कथा 'फासिंदिय' शब्दे वक्ष्यते)श्रीपार्श्वनाथप्रसा-दात्सर्पजीवो नमस्कारं श्रुत्वा मौलो धरणेन्द्रो जातः, किं वा सामानिकः, तथोपसर्गावसरे समागात्स मौलः, किं वाऽन्य इति प्रश्ने,उत्तरम्सर्वत्राक्षरानुसारेण मौलो धरणेन्द्रो ज्ञातो नास्तीति। 148 प्र०। सेन०३ उल्ला०। धरणि-स्त्री०(धरणि) धृ-अनि०-वाडीप्। भूमी, स०३१ समासंथा०| सु०प्र०। चं०प्र०ा 'मही मेइणी धरा धरणी।" को वासुपूज्य(१२) / जिनस्य प्रथमाऽऽर्थिकायाम्, प्रव०६ द्वार। स० "धरणीय वासुपुजे।" ति०। कन्दविशेषे, कन्दालौ, वनकन्दे च / वाचा धरणिखील-पुं०(धरणिकील) धरण्याः पृथिव्याः कीलक इव | धरणिकीलकः। मेरौ, सू०प्र०५ पाहु। चं०प्र० धरणितल-न०(धरणितल) महीपीठ, संथा०। सूत्र०। ज्ञा०ा धरणितलगमणतुरितसंजणितगमणप्पयार-त्रि०(धरणितलगमनत्वरितसंजनितगमनप्रचार) धरणितलगमनाय भूतलप्राप्तये त्वरितः शीघ्र संजनित उत्पादितो गमनप्रचारो गतिक्रियाप्रवृत्तिर्येन स तथा / भूतलप्राप्तये शीघ्रोत्पादितगतिक्रियाप्रवृत्ती, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। धरणितलगमणतुरितसंजणितमणप्पयार-त्रि०(धरणितलगमनत्वरितसंजनितमनःप्रचार) भूतलप्राप्तये शीघ्रोत्पादितमनः प्रवृत्तो, ज्ञा०२ श्रु०१ अ०॥ धरणितलवेणिभूय-त्रि०(धरणितलवेणिभूत) धरणितलस्य वेणिभूतो वनिताशिरसः केशबन्धविशेष इव यः कृष्णत्वदीर्धत्वश्लक्ष्णत्वपश्चाद्भागत्वाऽऽदिसाधात् स धरणितलवेणिभूतः। धरण्याः केशबन्धविशेष इव प्रतीयमाने सर्पाऽऽदौ, उपा०२ अ० भ०। धरणिधर-पुं०(धरणिधर) धरणिधरति। धृ-अच्। पर्वत, विष्णौ, कच्छपे च। वाचा विमल(१३)जिनस्य स्वनामख्यातायां प्रथमाऽऽर्यकायाम्, स्वी०। स० प्रव० धरणिसिंग-पुं०(धरणिशृङ्ग) धरण्याः शृङ्गमिव धरणिशृङ्गः। मेरी, च०प्र०५ पाहु०। सू०प्र०। धरणी-स्त्री०(धरणी) धरणि' शब्दार्थे, स०) धरणीखील-पुं०(धरणीकील)'धरणिसील' शब्दार्थे, सू०प्र०५ पाहु०। धरणीतल-न०(धरणीतल) धरणितल' शब्दार्थे, संथा०। धरणीधर-पुं०(धरणीधर) धरणिधर' शब्दार्थे, स०। धरा-स्त्री०(धरा) धृ-अच् / पृथिव्याम्, गर्भाऽऽशये जरायो, मेदोवहायां नाड्या च / वाचा को०२६ गाथा। धराहर-पुं०(धराधर) धरां धारयति धृ-अच् / पर्वते, वराहरूपे विष्णी च / वाच० / वराटविषयस्थे स्वनामख्याते पुरे, ना यत्र बसन्तसनो गृहपतिः। दर्श०२ तत्त्व। (तत्कथा 'राम'' शब्दे वक्ष्यते) धरिजंत-त्रि०(ध्रियमाण) धारणविषयीक्रियमाणे, "छतेणंधरित्रमाणेण।" प्रश्न०४ आश्र० द्वार। औ०। धरिज्जमाण-त्रि०(ध्रियमाण) धरिजत' शब्दार्थ, प्रश्र०४ आश्र० द्वार। धरिणी-स्त्री० (धरिणी) पृथिव्याम्, को० 26 गाथा। धरिम-न०(धरिम) तृणद्रव्ये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विपा०ा उन्मानप्रमाणभेदे, ज्यो०२ पाहु०। स्था०ा धरिम मञ्जिष्ठादीनि / आ० चू०६ अ०। ज्ञा० उत्त०ा धरिमं यत्तुलाधृतं सद् व्यवयिते इति / ज्ञा०१ श्रु०८अग धरिसप्पमाण-न०(धरिमप्रमाण) प्रमाणभेदे, ज्यो| धरिमप्रमाणमाहचत्तारि य मधुरत्तण-फलाणि सो मे (से)असरिसवो एक्को। सोलस यसरिसवा पुण, हवंति मासयफलं एगं / / सोलस य रुप्पिमासो, एक्को धरणो हवेज्ज संखित्तो।। अड्डाइज्जा धरणा, य सुवण्णो सो य पुण करिसो। करिसा चत्तारि पलं, पलाणि पुण अद्धतेरस उ पत्थो / / भारो य तुला वीसं, एस विही होइ धरिमस्स। चत्वारि मधुरतृणफलानि मधुरतृणतन्दुलाः स मेयविषये सकलजगत्प्रसिद्ध एकः श्वेतसर्षपो भवति / षोडश च श्वेतसर्षपा एकं माषफल धान्यमाषफल, द्वे धान्यमाषफले एकं भवति गुञ्जाफल, द्वे च गुजाफले एको रूप्यभाषः, कर्षमाष इत्यर्थः / षोडश च रूप्यमाषका एकं धरणम्। अर्द्धतृतीयानि धरणानि एकः सुवर्णः, स एव
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________________ धरिमप्पमाण 2736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धाईपिंग चैकः सुवर्गः कर्ष इत्युच्यते। चत्वारः कर्षाः पलम्, अर्द्धत्रयोदश पलानि | धवलराय-पुं०(धवलराज) वर्द्धमाननगरस्थे विमलकुमारजनके, सार्द्धानि द्वादशपलानि प्रस्थः, पलशतिका तुला, विंशतितुला भारः, स्वनामख्याते नृपे, ध०र०। (तत्कथा 'विमलकुमार' शब्दे वक्ष्यते) एष पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शितो धरिमप्रमाणविषयो विधिः। तदेवमुक्तो धवलसउण-(देशी) हंसे, दे०ना०५ वर्ग 56 गाथा। धारेमप्रमाणविधिः / ज्यो०२ पाहु०॥ धवलिय-त्रि०(धवलित) धवलवर्णीकृते , स्था०५ ठा०२उ०) धरिस-(धृष) संहतो अक०। हिंसायां सक०-भ्वादि०-पर०-सेट। धव्व-(देशी) वेशे, देवना०५ वर्ग 57 गाथा। "पुषाऽऽदीनामरिः" / / 8 / 4 / 235 / / इति प्राकृतसूत्रेण ऋवर्ण-स्यारिः। धसत्ति-अव्य०(धसदिति) धसधसेत्यस्यानुकरणे, "कुट्टिमत-लंसि प्रा०४ पाद। 'धरिसइ / ' धर्षति / प्रागल्भ्ये, स्वादि०-पर०-अक० सव्वंगेहिं धसत्ति पडिगया।'' धसत्तीत्यनुकरणे, ज्ञा० 1 श्रु०४ अ०। सेट् / धृष्णोति / अधार्षीत्। संबन्धने, चुरा०-आत्म०-अक०-सेट। धसल-(देशी) विस्तीर्णे, देना०५ वर्ग 58 गाथा। धर्षयते। अदीधृषत / अदधर्षत / क्रोधे, अभिभवे च / चुरा०-उभ०। धाई-स्त्री०(धात्री) धीयते पीयतेऽसौ, धा-ष्ट्रन, पित्वाद् डीए / पक्षे०भ्वा दे०-सक०-सेट् / धर्षयति, ते / धर्षति गा अदीधृषत् / "धात्र्याम्" ||८२२८१इति प्राकृतसूत्रेण धात्रीशब्दे रस्व मुग वा। अदधर्षत! अधार्षीत् / वाचा 'धत्ती। ह्रस्वात्प्रागेवरलोपे 'धाई। पक्षे धारी।' प्रा०२ पाद। मातरि, धर्ष-jor धष्-घ। प्रागल्भ्ये, अमर्षे, शक्तिबन्धने, संहतो, हिंसायां वाच०। धयन्ति पिबन्ति बालकास्तामिति, धीयते धार्यते वा बालकानां च / वाचा दुग्धपानाऽऽद्यर्थगिति वा धात्री बालपालिका / प्रव०६७ द्वार / पञ्चाo धरिसण-न०(धर्षण) धृष्-भावेल्युट्। परिभये, रमणे, धर्षशब्दार्थे च। स्तनदायिन्यां जननीकल्पायां बालपालिकायाम, सूत्र० 1 श्रु०४ अ०१उ०। नि० चू०० उ० वांचा साच रुळ्या क्षीरमजनमण्डनक्रीडनाङ्कभेदात्पञ्चधा / पञ्चा० 13 विव०। धव-पुं०(ध्व) धवति, धुनोति, धुनाति वाधु-धू-वा अच्। पत्यौ, ज्ञा०१ आचा०। अनु०। ग०। अन्त०। धारा०ा उत्त० ज्ञा० श्रु०१ अट। व्य०। पं०व०॥ वाच०। तद्भेदानाहवेधवाशब्दव्याचिख्यासुर्धवशब्दस्य भाष्यकारो खीरे य मज्जणे वि य, मंडणे कीलावणंकधाई य। व्याख्यानमाह एक्केका वि य दुविहा, करणे कारावणे चेव / / विगयधवा खलु विधवा, धवं तु भत्तारमाहु नेरुत्ता। क्षीरविषया एका धात्री, या स्तन्यं पाययति / द्वितीया मजनविषया। धारयति वीयते वा, दधाति वा तेण उ धवो त्ति।। तृतीया मण्डनविषया / चतुर्थी क्रीड़नधात्री पञ्चमी अड्कधात्री / विगतधवा खलु विधवा, विगतो धवोऽस्या इति व्युत्पत्तेः / धवं तु एकेकाऽपि च द्विधा / तद्यथा-स्वयं करणे, कारणे च। तथाहि या स्वयं भारमाहुरुक्ता निरुक्तिशास्त्रविदः / कया व्युत्पत्त्येत्याह- धारयति स्तन्यं पाययति बालक सा स्वयं करणे क्षीरधात्री। या त्वन्यया पाययति ता स्वियं, धीयते वा तेन पुंसा सा स्त्री दधाति सर्वात्मना पुष्णाति ता, सा कारणे / एवं मजनधात्र्योऽपि भावनीयाः / तेन कारणेन निरुक्तिवशाधव इत्युच्यते / व्य०७ उ०। स्वनामख्याते सप्रति धात्रीशब्दस्य व्युत्पत्तिमाहबहुवीजके वृक्षविशेषे, आव०५ अ०। रा०। ल० प्र० ज०ा प्रज्ञा०ा ति०| धारेइ धीयए वा, धयंति वा तमिति तेण धाई छ। धूर्ने नरे च / भावे अप् / कम्पने, वाच०। जहविहवं आसि पुरा, खीराई पंचधा ता उ॥ धवल-पुं० धवल) धवं कम्पं लाति, ला-कः। धववृक्षे, वीरणवृक्षे, धारयति बालकमितिधात्री। यद्वा-धीयते भाटकप्रदानेन पोष्यते इति श्वेतमरिचे, वृषश्रेष्ठ, चीनकपूर, श्वेतवर्णे च / वाच०। को०६२ गाथा। धारी / अथवा-धयन्ति पिवन्ति बालकास्तामिति धात्री। धात्रीति राग ओघा ज्ञा०ा तं०1 "धवलकमलपत्तपयराइरेगावप्पभं / " निपातेन ताद्रुप्यनिष्पत्तिः / ताश्च धात्र्यः पुरा पूर्वस्मिन् काले, यथाविभवं कल्प०१ अधि०२ क्षण / तं तद्वति सुन्दरे च / त्रि० / शुक्लवर्णायां विभवानुसारेण, क्षीराऽऽदिविषया बालकयोग्या आसन्, संप्रति गपि, स्त्री०टाप् / गौरा० डीए। वाच०। अयोध्यानगरस्थे स्वनामख्याते तथारूपविभवाभावे तान दृश्यन्ते। पिं० आमलक्यां च। स्वार्थे कन्। श्रावके च। मुगदर्श०३ तत्त्व। स्वस्वजात्युत्तमे, दे०मा०५ वर्ग 57 गाथा। वाचन धवलक्कपुर-न०(धवलार्कपुर) वीरधवलनृपस्य पुरभेदे, ती०४१ कल्प।" धाईपिंड-न०(धात्रीपिण्ड) "धाईदूईनिमित्ते।" (५७४गा०) धयन्ति धवलवकपुरे वसतो-र्धनपत्योर्वकुलबन्दिकयोः।' पञ्चा० 16 विव०। पिबन्ति बालकास्तामिति, धीयते धार्यते बालकानां दुग्धपानाऽऽद्यधवलगिरि-पुं०(धवलगिरि) कैलासापरनामधेयेऽष्टापदपर्वत, ती०४७ थमिति वा धात्री बालपालिका। सा च पशधाक्षीर धात्री मञ्जनकधात्री, कल्प। (तद्वक्तव्यता अट्टावय' शब्दे प्रथमभागे 253 पृष्ठे गता) मण्डनधात्री, क्रीडनधात्री, उत्सङ्गधात्री च / इह धात्रीत्वस्य करणं धवलपुप्फदंत-त्रि०(धवलपुष्पदन्त) धवलपुष्पवत सामर्थ्यात कारण वा तद्धात्रीशब्देनोक्तं द्रष्टव्यम्, तथा-विवक्षणात्। ततो धात्र्याः कुन्दकलिकावद् दन्ता यस्य स धवलपुष्पदन्तः। कुन्दकलिका- पिण्डो धात्रीपिण्डो धात्रीत्वस्य करणेन कारणेन च य उत्पाद्यते पिण्ड: सदृशदन्त, जी०३ प्रति०४ उ०। स धात्रीपिण्डः / प्रव०६७ द्वार / बालस्य क्षीरमजनमण्डनक्रीड
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________________ धाईपिंड 2740 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धाईपिंड नाइधात्र्यः पञ्चातासां कर्म धात्रीत्वं, तेनलब्धः पिण्डो धात्री-पिण्डः। साधुराह-अहंदुःखसहायः, तरमान्निवेद्यतां मे दुःखम्। ततः सा प्राहजीत०। उत्पादनादोषभेदे, पिं0 दर्शo पञ्चा० आचा०। ग०। स्था। अद्य मे मम धात्रीत्वममुकरिमन्नीश्वरगृहे हृतं स्फटित, ततोऽहं विषण्णा / बालस्य क्षीरमजनमण्डनक्रीडनालड काराऽऽरोपणकर्मकारिण्यः पञ्च ततः साधुराहमा त्वं विषादं कार्षी :, अहमवश्य त्वा तत्राऽचिरेण धात्रीं धात्र्यः, एतासां कर्म भिक्षार्थ कुर्वतो मुनेर्धात्रीपिण्डः, ध०३अधि०। स्थापयिष्यामीति प्रतिज्ञां विधाय तस्याः पार्श्व अभिनवस्थापिताया अशनाऽऽद्यर्थ दातुरपत्योपकारे वर्त्तते इति धात्रीपिण्डः। आचा०२ श्रु० धात्र्या वयःप्रभृतिकमजानानः पृच्छति; यथा किं तस्या वयः? तारुण्यं १चू०१अ०६उ परिणतनवा? गण्मावपि स्तनाऽपरपर्यायौ किंकूर्पराऽऽकारवन्तो दीर्घा , तत्र यथा स्तन्यदापनधात्रीत्वं साधुः करोति तथा दर्शयति-- यद्वाऽलिशयेन स्थूलौ, शरीरेऽपि तस्याः किं स्थूलत्वं,किं वा कृशत्वं, खीराहारो रोवइ, मज्झ कयासाय देहि णं पेजे। तत एवं पृष्ट्वा तत्रेश्वरगृहे गतः सन् तत्समक्षं ते बालकं दृष्ट्वा भणति। पच्छा वि मज्झ दाही, अलं व भुजो व एहामि / / किं तद्भणतीत्यत आहपूर्वपरिचिते गृहे साधुभिक्षार्थ प्रविष्टः सम् रुदन्त बालकं दृष्ट्वा अहुणुट्ठियं च अणव-क्खियं च एयं कुलं तु मन्नामि / तजननीमेवमाह-एव बालोऽद्यापि क्षीराऽऽहारः, ततः-क्षीरमन्त- पुन्नेहि जहिच्छाए, धरई बालेण सूचामो।। रेणावसीदन् आरटति, तस्मान्मह्यं कृताऽऽशाय विहितभिक्षाला... अहमिदं मन्ये-इदं युष्मदीयं कुलमुधनोत्थितं संप्रत्येवेश्वरीभूतं. यदि भमनोरथाय, झटित्येव भिक्षादेहि, पश्चात् (ण) एनंबालकं (पेजे) पायय पुनः परम्परागतलक्ष्मीकमिदमभविष्यत्, तर्हि कथं न परम्परया स्तन्यम्।यद्वा-प्रथमत एन स्तन्यं पायय, पश्चान्मा भिक्षा देहि। यदि धात्रीलक्षणकुशलमप्यभविष्यदिति भावः। तथा अनवेक्षितमपरिभावित वा-अलं मे संप्रति भिक्षया, पायय स्तन्य बालकमह पुनर्भूयोऽपि महत्तरपुरुषः, तत एव या वा सा वा धात्री ध्रियते, एतच बालेनासंगतभिक्षार्थमेष्यामि। धात्रीस्तन्यपानविच्छायेन सूचयामो लक्षयामः। तत एवंभूतधात्रीयुक्ततथा गपीदं कुलं धरते क्षेमेण वर्तते, तन्मन्ये पुण्यैः प्राक्तनजन्मकृतैः, यदि मइमं आरोगी दी-हाउ य होइ अवमाणिओ बालो। वा यदृच्छया एवमेव, तत एवमुक्ते सति ससंभ्रमंबालकस्य जननी जनको दुल्लभयं खु सुयमुह, पिज्जेहि अहं व से देमि। वा साधुं प्रत्याह-भगवन्! के धात्र्या दोषाः? अविभानितोऽनषमानितो बालो मतिमान् अरोगी दीर्घायुश्च भवति, ततः साधुर्धात्रीदोषान् कथयतिविमानितः पुनर्विपरीतः। तथा दुर्लभ खलु लोके सुतमुख पुत्रमुखदर्शन, थेरा दुव्वलखीरा, चिमिढो पिल्लियमहो अइथणीए। तस्मात्सर्वाण्यप्यन्यानि कर्माणि मुक्त्वा त्वमेनं बालक स्तन्यं पायय। यदि त्वं नो पाययसि तहि वा ददाम्यस्मै क्षीरं बालकाय, अन्यस्या वा तणुई उ मंदखीरा, कुप्परथणियाएँ सूइमुहो।। स्तन्यं पाययामि / अत्र "अहं व से देमि" इत्यनेन स्वयंकरणधात्रीत्वं या किल धात्री स्थविरा सा अयलक्षीरा अबलस्तन्या भवति। ततो साधौ दर्शितं, शेषपदैः कारणेन। बालो न बलं गृह्णाति / या त्वतिस्ननी तस्याः स्तन्यं पिबन स्तनेन अत्र दोषमाह प्रेरितमुखश्वम्पितमुखावयवौष्ठनासिकश्चिपिटश्चिपिटनासिको भवति। अहिगरणमह प्पंता, सकम्मुदयगिलाणए य उड्डाहो। या तु शरीरेण कृशा मन्दक्षीरा अल्पक्षीरा, ततः परिपूर्ण तस्याः स्तन्य बालो न प्राप्नोति, तदभावाच सीदति / तथा या कूर्परस्तनी, तस्याः चडुकारीइ अवन्नो, नियगो वऽन्नं व णं संके || स्तन्यं पिबन् बालः सूचीमुखो भवति। स हि मुखं दीर्घतया प्रसार्य तस्याः यदि बालकजननी भद्रा धर्माभिमुखी भवति, तर्हि प्राक्तनैः साधुवच स्तन्यं पिबति, ततस्तथारूपाभ्यासतस्तस्य मुखं सूच्या कारं भवति। नैरावर्जिता सती अधिकरणमाधाकर्माऽऽदि करोति / अथ प्रान्ता उक्तचधर्मानभिमुखी. तर्हि प्रद्वेष यातीति शेषः। तथा यदि स्वकर्मोदयात्कथमपि स बालो ग्लानो भवति, तर्हि उडडाहः प्रवचनमालिन्यम् , निस्थामा स्थविरां धात्री , सूच्यास्यः कूर्परस्तनीम्। यथा साधुना तदानीमालपितः, क्षीरं वा पायितोऽन्यत्र वा नीत्वा कस्या चिपिटः स्थूलपक्षोजा, धयँस्तन्वीं कृशो भवेत्॥१॥ अपि स्तन्यं पायितस्तेन ग्लानो जातः। तथाऽतीव चाटुकारीति जाड्यं भवति स्थविरा-यास्तनुक्यास्त्वबलंकरम् / लोकेऽवर्णोऽश्लाधा, तथा निजको वा भर्ता, अन्यद्वा मैथुनाऽऽदिकं, तस्मान्मध्यबलस्थायाः, स्तन्य पुष्टिकरं स्मृतम्॥२॥ णमिति वाक्यालङ्कारे, तथारूपसाधुवचनश्रवणतः शङ्कते संभावयति। अतिस्तनी तु चिपिट, खरपीना तु दन्तुरम्। अथवा प्रकारान्तरेण धात्रीकरणे दोषस्तं दर्शयति मध्यस्तनी महाछिद्रा, धात्री साऽस्य सुखंकरी // 3 // " अयमवरो उ विकप्पो, भिक्खायरि सडि अद्धिई पुच्छा। इत्यादि। एषा चाऽभिनवस्थापिता धात्री उक्तदोषदुष्टा, तस्मान युक्ता, दुक्खसहायविभासा, हियं में धाइत्तणं अञ्जो। किं तु चिरन्तन्यैवेति भावः। वयगंडयथुल्लतणु-तणेहिँ तं पुच्छिउं अयाणंते। तथा-- तत्थ गओं तस्समक्खं, भणाइ तं पासिउं बालं / / जा जेण होइ वन्ने-ण उक्कडा गरहए य तं तेण। अयमपरो विकल्पो धात्रीकरणे, तमेवाऽऽह-भिक्षाचर्याप्रविष्टेन साधुना गरहइ समाण तिव्वं, पसत्थमियरं च दुव्वनं॥ काचिच्छ्राद्धिका अधृतितिरहिता दृष्टा, ततः पृष्टा साकिमद्य त्वं सशोका या अभिनवस्थापिता धात्री, येन वर्णन कृष्णाऽऽदिना उत्कृष्टा दृश्यसे, तत एवमुक्ता सती सा पाह-यो दुःखसहायो भवति तस्मै दुःखं भवति, तां तेन वर्णेन गर्ह ते निन्दति / यथा-"कृष्णा में शयते निवेधते. दुःखसहायश्च स उच्यते, यो दुःखप्रतीकारसमर्थः / ततः / वर्ण गोरी तु बलवर्जिता / तस्मात् श्यामा भवेदात्री, बलव
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________________ धाईपिंड 2741 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धाईपिंड ण : प्रशासिता॥१॥" इत्यादि। तथा यामभिनवस्थापितां गर्हते, तस्याः समाना समानवण्णां च चिरन्तनी स्थाप्यमाना भवति, तर्हि तां जीवामतिशयेन प्रशस्यां प्रशस्तवर्णा श्लाघते, इतरां त्वभिनवस्थापिता दुर्वर्णाग / एवं चोक्ते सति गृहस्वामी साध्वभिप्रेतां धात्रीं धारयति, इतरां तु परित्यजति। तथा सति यो दोषस्तमाह-- उव्वट्टिया पओसं, छोभग उब्भामओ य से जंतु। होज्जा मज्झ वि विग्यो, विसाइ इयरी वि एमेव।। य अभिनवस्थापिता धात्री उद्घर्तिता धात्रीत्वात् च्याविता, सा साधारपरि प्रद्वेष कुर्यात् / तथा सति छोभक दद्यात्, यथा-व्यमुद्भ्रामको जारोऽनया धात्र्या सह तिष्ठतीति / तथा (से) तस्य साधोयत्प्रद्वेषवशात्कर्तव्यं बधाऽऽदि, यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धात्तदपि कुर्यात् / धाऽपि चिरन्तनी राप्रति रथापिता कदाचिदेवं चिन्तयति यथैव तस्या धात्रीत्वत् च्यावनं कृतम्, एवमेव कदावित् रुष्टेन ममापि विध्नो घात्रीच्यावनरूपोऽन्तरायः करिष्यते, तत एवं विचिन्त्य मारणाय वेषाऽऽदि गरप्रभृति प्रयुञ्जति / उक्ता क्षीरधात्री। साम्प्रतं शेषधात्रीराश्रित्य दोषानतिदेशेनाऽऽह-- एमेव सेसियासु वि, सुयमाइसु करण कारणं सगिहे। इड्डीसु य धाईसु य, तहेव उव्वट्टियाण गमो / / अत्र षड्यर्थे सप्तमी। ततोऽयमर्थः--एवमेता यथा क्षीरधात्र्यस्तथा शापिकास्वपि शेषाणामपि मज्जनाऽऽदिधात्रीणां, सुतमातृकल्पानां यत चयं करणं मजनाऽऽदः, यच्चान्यया कारणं, तत् स्वगृहे गतः सन् साधुर्यथा करोति तथा वाच्यं, तथा च सति 'अहिगरण-भद्दपंता'' इत्यादिगायोक्तः दोषा वक्तव्याः यथा तथैव क्षीरगतेनैव प्रकारेण ऋद्धिषु शद्धिमत्लुईश्वरगृहेषु, अभिनवस्थापिताना मज्जनाऽऽदिधात्रीणा (धाईसु यत्ति) भावप्रधानोऽयं निर्देशः, पञ्चम्यर्थे च सप्तमी / ततोऽयमर्थःधात्रीत्वेभ्य उद्घर्तितानां च्यावितानां, यो गमः- "उव्वट्टिया पओसं" इत्यादिरूपः, स सकलोऽपि तथैव वक्तव्यः।। अतिसंक्षिप्तमिदमुक्तमतो विशेषत एतद्विभाषयिषुः प्रथमतो मज्जनधाओत्वस्य करणं कारणं च, तथा अभिनवधात्र्या दोषप्रकटनं चयथा साधुः कुरुते तथा भावयतिलोलइ महीऍ धूली-ऍ गुंडिओ पहाहि अह व णं मजे / जलभीरु अबलनयणो, अइउप्पिलणे अ रत्तच्छो / / / एष बालो मह्या लोलति लोडते, ततो धूल्या गुण्डितो वर्तते, तस्मात् स्नापय / एतद् मज्जनधात्रीत्वस्य करणम्। अथवा-यदि पुनस्वं न स्नपयसि, तर्हि अहं मजामि स्नापयामि। एतत् स्वयं मज्जनधात्रीत्वस्य करणम्। कापि ईश्वरगृहे काऽपि मज्जनधात्री धात्रीत्वात स्फेटिता, साधुश्च तस्या गृह भिक्षार्थ प्रविष्टः, तां च धात्रीत्वात्परिभ्रंशेन विषण्णां दृष्ट्वा पूर्वप्रकारेण च पृष्ट्वा कृत्वा च प्रतिज्ञामीश्वरगृहे च गत्वा अभिनवमजनधात्र्या टोषप्रकटनायाऽऽह-(जलभीरु इत्यादि) अतिशयेन उत्प्लावनेन प्रभूतजलप्लावनेन गुप्यमानो बालो गुरूरपि जातो नद्यादी जलभीरुर्भवति। तथा निरन्तर जलेनोत्प्लाव्यमानोऽबलनयनोऽप्रबलनयनो रक्ताक्षश्च / यदि पुनः सर्वथाऽपि न मज्ज्यते, तर्हि न शरीर बलमादत्ते नापि कान्तिभाग, दृष्ट्या चाऽबलो जागते / एषा च धात्री | बालगतिजलोत्प्लावनेन मज्जयति, ततो जलभीरुताऽऽदयो दोषा वालस्य भविष्यन्ति, तस्मान्नेषा मजनधात्री युक्ता / तत एवमुक्ते सति तामभिनवरथापिता मजनधात्री गृहस्वामी स्फेटयति, चिरन्तनीमेव कुरुते। तथा च सति त एव प्राक्तना "उव्वट्टिया पओसं' इत्यादिरूपा दोषा दातव्याः। एवमुत्तरत्रापि प्रतिगाथा भावनीया। अथ च मजनधात्री कथंभूतं बालं कृत्वा मण्डनधात्र्याः समर्पयति,तत आहअब्भंगिय संवाहिय, उव्वट्टिय मज्जियं च तो बालं। उवणेइ मजधाई, मंडधाईऍ सुइदेहं / / स्नानधात्री प्रथमतः स्नेहेनाभ्यङ्गितं, ततो हस्ताभ्यां संबाधित, तदनन्तरं पिटकाऽऽदिना उर्तितं, ततो मज्जितं, शुचिभूतं वा देहं बालस्य कृत्वा मण्डनधान्याः समर्पयति। उक्ता मजनधात्री। संप्रति मण्डनधात्रीत्वस्य कारण, करणं च, तथा अभिनवस्थापिताया धात्र्या दोषप्रकटनं च यथा साधुः कुरुते तथा दर्शयतिउसुयाइएहिं मंडे-हि ताव णं अह व णं विभूसेमि। हत्थव्वगा व पाए, कया गलिव्वा व पाए वा / / इषुका इषुकारमाभरणम्, अन्ये तिलकमित्याहुः / आदिशब्दात् क्षुरिकाऽऽकाराऽऽद्याभरणपरिग्रहः / इह भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् श्राद्धिकाचित्ताऽऽवजनार्थ बालकमनाभरणमवलोक्य तजननीभेवमाह-इषुकाराऽऽद्यभरणविशषेस्तावदेन बालकं मण्डय विभूषय। एतन्मण्डनधात्रीत्वस्य कारणम् / अथवा-यदि पुनः त्वं न प्रपारयसि, तर्हि अहं विभूषयामि। एतत्स्वयं मण्डनधात्रीत्वस्य करणम् / पूर्वधात्री स्थापनीयेत्यभिनयरस्थापिताया मण्डनधात्र्या दोषानाह-(हत्थव्वग त्ति) हस्तयोग्यानि आभरणानि पादे कृतानि। अथवा-(गलिय्व त्ति) गलसत्कानि आभरगानि पादे कृतानि, तस्मान्नेयं मण्डनधात्री मण्डनेऽभिज्ञा, ततस्तस्या मण्डनधात्रीत्वाच्च्यावनमित्यादि पूर्ववद्भावनीयम्। उक्ता मण्डनधात्री। संप्रत्यभिनवस्थापितायाः क्रीडनधात्र्या दोषप्रकटनं, क्रीडन-धात्रीत्वे च करणं कारणं च यथा विदधाति साधुस्तथाऽऽहदढयरसर युन्नमुहो, मउयगिरा मउय मम्मणालावो। उल्लावणगाईहिं व, करेइ कारेइ वा किडं / / रपा अभिनवस्थापिता क्रीडनधात्री दृढतरस्वरा, ततस्तस्याः स्वरमाकर्मयन वालो बुन्नमुखः क्लीवमुखो भवति। अथवा-मृदुगीरेषा ततोऽनया रम्यमाणो बालो मृद्गीर्भवति / यदि वा मृदुगीः स्वयं ब्रीडा कारयति / उक्ता क्रीडनगीः। मन्मनोल्लापोऽव्यक्तवाक्, तस्मान्नैषा शाभना, किं तु चिरन्तनेवेत्यादि प्रागिव / तथा भिक्षार्थ प्रविष्टः श्रादिकाचित्तावर्जनार्थ बालमुल्लापनाऽऽदिभिः स्वयं क्रीडां करोति, अन्यः कारयति वा / उक्ता क्रीडनधात्री। संप्रत्यड्डधात्र्या अभिनवस्थापितायाः स्फेटनाच सामान्यतो दोपप्रकटनं यथा साधुः करोति तथा दर्शयतिथुल्लाएँ वियमपाओ, भग्गकडीसुक्खडीऍ दुक्खं च / निम्मंसकक्खडकरे-हिँ भीरू उ होइ घेप्पंतो।। इह रथलया गासलया धात्र्या कट्यां ध्रियमाणो बालो विकट.. पादः परस्परवहन्तरालपादो भवति / भग्नकट्या, शुष्ककट्या वा
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________________ धाईपिंड 2742 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धाउपाग ध्रियमाणो दुःखं तिष्ठति / निर्मासकर्कशकराभ्यां वा ध्रियमाणो बालो दत्त आह-भगवन् ! न पश्याम्यन्धकारेण द्वारमिति। ततोऽनुकम्पया भीरुर्भवति। एषा चाऽभिनवस्थापिता धात्री अन्यतमदोषदुष्टा, तस्मान्त स्योष्मणा सूरिभिः निजाङ्गुलिरुद्धृत्य ऊध्वीकृता , सा च दीपशिखेद युक्ता, किं तु प्राक्तनैवेत्यादि प्रागिव / अङ्कधात्रीत्वस्य कारणं, स्वयं ज्वलितु प्रवृत्ता। ततः स दुरात्मा दत्तोऽचिन्तयत्-अहो एतस्य परिग्रहे करणं स्वयमेव भावनीयम / तचैवम्-कोऽपि साधुर्भिक्षार्थ प्रविष्टो बालं वहिरप्यस्ति / एवं चिन्तयन् देवतया निसितः-हा दुष्ट शिष्याधम ! रुदन्तमवलोक्य तजननीमेवमाह–अङ्के गृहाणेदं बालकं येन न रोदिति, एतादृशानपि सर्वगुणरत्नाऽऽकरान् सूरीनन्यथा चिन्तयसि / ततो यदि पुनस्त्वं न प्रपारयसि तर्हि अहं गृह्णामि। मोदकलाभाऽऽदिको वृत्तान्तः सर्वोऽपि यथावस्थितो देवतयाऽभाणि संप्रति क्रीडनधात्रीत्वस्य करणे दोषं दृष्टान्तेन भावयति मासे जाते तस्य भावतः प्रत्यावृत्तिः। क्षामिताः सूरयः, आलोचित सम्यक्। कोल्लइरे वत्थव्वो, दत्तो आहिंडउंगओ सीसो। सूत्र सुगमम, नवरं ‘सा दिव्यं' देवताप्रातिहार्यम्, एतदेव गाथाद्वयेन भाष्यकृद् विवृणोति। अवहरइ धाइपिंडं, अंगुलिजलणे य सा दिव्वं / / पाउसें संगमथेरा, गच्छ विसज्जंति जंधबलहीणा। कोल्लकिरे नगरे वार्द्धके वर्तमानाः परिक्षीणजनाबलाःसंगम-स्थविरा नवभागखेत्तवसही, दत्तस्सय आगमो ताहे / / नाम सूरयः, तैश्चान्यदा दुर्भिक्षे जाते सति सिंहांभिधानः स्वशिष्य उवसयबाहिरठाणं, अंताओ छण्णसंकिलेसोय। आचार्यपदे स्थापयित्वा गच्छंच सकलं तस्य समर्प्य अन्यत्र सुभिक्षे देशे विहारक्रमेण प्रेषितः, स्वयं चैकाकी तत्रैव तस्थौ, ततः क्षेत्र नवभिर्भा पूयण बाले मा रुय, पडिलाभण वियडणा सम्मं / / गैर्विभज्य तत्रैव यतनया मासकल्पान, वर्षारात्रं च कृतवान् / यतना च सुगमं नवरं (पूयणवाले त्ति) पूतना दुष्टव्यन्तरी, तया गृहीत धातृबालके चतुर्विधा / तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च / तत्र द्रव्यतः रोदिति विकाटना आलोचनम्। उक्तं धात्रीद्वारम् / पिं०। प्रव०॥ पीठफलकाऽऽदिषु, क्षेत्रतोवसतिपाटकेषु, कालतः-एकत्र च पाटके मासं जे भिक्खू धाईपिंडं भुंजइ, भुंजंतं वा साइज्जइ / / 5 / / स्थित्वा द्वितीयमासे अन्यत्र वसतिगवेषणा। भावतः सर्वत्र निर्ममत्वम्। गाहाततश्च किञ्चिदूने मासकल्पे व्यतिक्रान्ते सिंहाचार्यस्तेषां प्रवृत्तिनिमित्त जे भिक्खु धातिपिंडं, गेण्हेज सयं तु अहव सातिजे / दत्तनामान शिष्यं प्रेषितवान् / स चाऽऽगतोऽस्मिन्नेव विभागे पूर्व मुक्ताः सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे / / 115 / / सूरयस्तरिमन्नेव स्थिता दृष्टाः / ततः स स्वचेतसि चिन्तयामास / अहो सातिजणा-अण्ण करतं अणुमोदति, सेसं कंट। नि०चू०१३३०। भावतोऽप्यमी मासकल्पं न व्यदधुः, तस्मान्न शिथिलैः सह कत्र अववादे कारणे गेण्हतो अदोसो। गाहा-- वस्तव्यमिति परिभाव्य वसतेर्बहिः मण्डपिकायामुत्तीर्णस्ततो वन्दिताः असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे। सूरयः, पृष्टाः कुशलवार्ताम्, कथितं सिंहाचार्यसदिष्टम्। ततो भिक्षावेला- अद्धाणरोधए वा, जयणागहणं तु गीयत्थे / / 135|| यामाचार्य : सह भिक्षार्थ प्रविवेश, अन्तप्रान्तेषु गृहेषु ग्राहितो भिक्षां असिवाऽऽदिकारणेहिं गीयत्थो पणगपरिहाणिजयणाए गेण्हंतो सुद्धो। जानतो विच्छायमुखः / सतः सूरिभिस्तस्य भावमुपगम्य कस्मिँ- नि०चू० 13 उ०। चिदीश्वरगृहे प्रविष्टम् / तत्र च व्यन्तर्याधिष्ठितः सदैव बालको रोदिति। धाउ-पुं०(धातु) धा-तुन् / “धारणाद् धातवस्ते स्युर्वातपित्तकफाततः सूरयस्तं दृष्ट्वा चप्पुटिकापुरस्सरमालापयामासुर्यथा वत्स ! मा त्वं स्त्रयः' इत्युक्तेषु वाताऽऽदिषु, "रसासृड्मासमेदोऽस्थिमज्जा शुक्राणि रोदीरिति / तत एवमालिप्तसूरिप्रभावतः सा पूतना व्यन्तरी प्राणेशत्, धातवः।" इत्युक्तेषु रसाऽऽदिषु, वाच०। सूत्र०। धारकत्वपोषकत्वाच स्थितो रोदितु बालको, जातः प्रहृष्टो गृहनायकः, ततो दापितास्तेन पृथिव्यादिके, "पुढवी आउ तेऊय, तहा वाऊयएगओ। चत्तारिधाउणो भूयांसो मोदकाः तांश्च ग्राहितो दत्तः सूरिभिः, अजा-यत प्रहृष्टः, ततो रूवं।" सूत्र०१ श्रु० 10 १०गैरिके, लोहाऽऽदिके, प्रश्न०२ आश्र० मुत्कलितो वसतो, ते सूरयः स्वशरीरनिः- स्पृहा यथागमविधिना द्वार / उत्तवा "अयतंबतउयसीसगरुप्पसुवण्णे य वइरे य / हरियाले प्रान्तकुलत्थमदित्वा वसतावुपाजग्मः / प्रतिक्रमणवेलायां च दत्तो हिंगुलए, मणोसिला सीसगंजणप्पवाले / / 1 / / अब्भपडलकवालुया।" भणितोवत्स ! धात्रीपिण्ड चिकित्सापिण्ड चाऽऽलोचय / स त्वाह- उत्त०३६ अ०। व्याकरणोक्ते गणपठिते क्रियावाचके भूप्रभृतौ, नामभेदे युष्माभिरेव सहाऽहं विहृतः, ततः कथं मे धात्रीपिण्डाऽऽदिपरिभोगः / च। धातवो भ्वादयः क्रियाप्रतिपादकाः। प्रश्र०२ संव० द्वार। (तद्वक्तव्यता सूरयोऽवोचन-लघुवालकक्रीडनधात्रीपिण्डः चप्पुटिकाकरणतः, 'धाउय' शब्दे 2743 पृष्ठे द्रष्टव्या) जीवाभिगमे विजयदेववक्तव्यतायां पूतनातो मोचितत्वात चिकित्स-पिण्डः / स प्रद्विष्टः स्वचेतसि चिन्तयति- हरितालहिडलाऽऽदयः पदार्थाः सन्ति, तेषां प्रयोजने सति व्ययादुस्वय भावतोऽपि मासकल्पं न विदधाति, एतादृशं च पिण्ड दिने दिने त्पत्तिःकुतः? इति प्रश्ने, उत्तरम्-हरितालाऽऽदीनामुत्पत्तिर्विरप्रसात गृह्णाति, मां पुनरेकदिनगृहीतमप्यालोचयति। तत एवं विचिन्त्य प्रद्वेषतो इति। १४७प्र०ासेन०२ उल्ला वसतर्बहिः स्थितः / ततस्तस्य सूरिविषयप्रद्वेषदर्शनतः कुपितया | धाउकम्म-न०(धातुकर्मन्) पुरुषद्वासप्ततिकलान्तर्गते कलाभेदे, सूरिगुणा-ऽऽवर्जितया देवतया तस्य शिक्षार्थ वसतावन्धकार सवातं कल्प०१ अधि०७ क्षण। वर्ष विकुर्वितम्। ततः स भयभीतः सूरीनाह-भगवन् ! कुत्राहं व्रजामि? | | धाउक्खोभ-पुं०(धातुक्षोभ) धातुवैषम्ये, औ०। ततस्तैःक्षीरोदजलवदतिनिर्मलहृदयैरभाणिवत्स! एहि वसतौ प्रविशति। | धाउपाग--पुं०(धातुपाक)द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गत कलाभेदे, स०७२ सम०।
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________________ धाउप्पावेयण 2743 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धायइसंमदीव धाउम्पावेयण-न०(धातुप्रावेदन) धातुदर्शने, नि०० 13 उ०। / (धातुपावेदने मयूराङ्कनृपदृष्टान्तः अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 467 | पृष्ठे गतः) धाउय-न०(धातुज) वस्त्रभेदे, पं०भा०। तत्स्वरूपं पञ्चकल्पभाष्ये यथाछुब्भति वंसकरिल्लो, कम्मि वि देसे तरुणतो घडए। वडतो पूरयंती, तं घडयं तिप्पिए तम्मि!! संकोहे तूणयतो, तेसि तु ण्हारूहिँ पच्चए सुत्तं / तेण तुयं जं वत्थं, भन्नइ तं धातुयं णाम / पं०भा०। धातुयं नाम जहा कम्मि देसे वंसकरिल्लो उदेतो चेव घडएण पिहिज्जइ, ताहे सो सुकमालओ तत्थेव आउंडलीगओ वड्डइ, पच्छा पिच्चइ, तओ किसइ, तं सुत्तं विज्जइ, तं धाउयं / पं० चूल भावप्रमाणनिष्पन्नानामभेदे, अनु से किं तं धाउए? भू सत्तायां, (परस्मैभाषा) एध वृद्धौ, स्पर्ध संघर्षे / सेत्तं धाउए। भूयं परस्मैपदी धातुः सत्तालक्षणस्यार्थस्य वाचकत्वेन धातु-ज नामेति / एवमन्यत्रापि / अनु०। धाउरत्त-त्रि०(धातुरक्त) गैरिकोपरञ्जिते, ''धाउरत्ताओ य गिण्हइ।" भ०२ श०१उ०। धातुरक्ता गैरिकोपरञ्जिता, शाटिका इति गम्यम्। औ०। धाउवाइ(ण)-पुं०(धातुवादिन्) वादिभेदे, स्था०६ टा। धामण-न०(धाटन) प्रेरणे, "धातिय हाडेंति य।'' 'धाडेति' प्रेरयन्ति। सूत्र०१ श्रु०४ अ०२उला 'वज्झपुरिसेहिं धाडियंता।'' बध्यपुरुषैर्धाट्यमानाः प्रेर्यमाणाः। प्रश्न०३ आश्र० द्वार। आ०म०ा नाशने, औ०। धाडिअ-पुं०(देशी) आरामे, देवना०५ वर्ग 56 गाथा। . धाडी-(देशी) निरस्ते, दे०ना०५ वर्ग 56 गाथा। धाण-न०(ध्राण) सुभिक्षे, विभवे च / उत्त० ३अ० धाणूरिअ-न०(देशी) फलभेदे, देवना०५ वर्ग 60 गाथा। धाय-पुं०(धाय) पणपन्नव्यन्तरविशेषनिकायेन्द्र, स्था०२ ठा० ३उ०। *ध्रात-नासुभिक्षे, दश०७ अ० "धाए पुण संखडीपुरओ।" ध्रातं सुभिक्षमिति चैकोऽर्थः / बृ०५उ०। धायइ-स्त्री०(धातकी) धातु करोति णिच्, टिलोपः, ण्वुल्। "धातकी कटुकाशीता।' गौरा०-डीए / एकास्थिके वृक्षविशेषे, स०। प्रज्ञा०। अनु। स्था०। धायइखंड-पुं०(धातकीखण्ड) धातकीनां वृक्षविशेषाणां खण्डो वनसमूद्दोधातकीखण्डः। धातकीवने, तद्युक्तो यो द्वीप स धातकीखण्ड एवोच्यते, यथा दण्डयोगाद्दण्डः / स्था०२ ठा०३ उ०) धातकीना खण्डानि वनानि यस्मिन् स धातकीखण्डो द्वीपः। ध०२अधिo आव०। धातकीवृक्षखण्डोपलक्षितो द्वीपो धातकीखण्डः। लवणसमुद्रं परिक्षिप्य स्थिते कालोदसमुद्रपरिक्षिप्से द्वीपभेदे, अनु०। (एतद्वक्तव्यता 'धायइसंमदीव' शब्देऽनुपदमेव वक्ष्यते) धायइरूक्ख-पुं०(धातकीवृक्ष) एकास्थिके वृक्षविशेषे, स्था०८ ठा०। धायइवण-न०(धातकीवन) धातकीसमूहे. "धवइवणंसि वा।' आचा० 2 श्रु०२ घू०१० अ० जी० धायइसंमदीव-पुं०(धातकीखण्डद्वीप) धातकीनां वृक्षविशेषाणां खण्डो वनसमूह इत्यर्थो धातकीखण्डस्तद्युक्तो यो द्वीपः स धातकीखण्ड एवोच्यते / यथा दण्डयोगाद्दण्ड इति धातकी खण्डश्चासौ द्वीपश्चेति धातकीखण्डद्वीपः। लवणसमुद्रं परिक्षिप्य स्थिते कालोदसमुद्रपरिक्षिप्ते द्वीपभेदे, स्था०२ ठा०३उ० सम्प्रति धातकीखण्डद्वीपवक्तव्यतामाहलवणे णं समुद्दे धायइसंडे नाम दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति। (लवणसमुद्द इत्यादि) लवणसमुद्रे धातकीखण्डो नाम द्वीपो वृत्तो बलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समंततः सामरत्येन संपरिक्षिप्य तिष्ठति। धायतिसंडे णं भंते ! किं समचक्कवालसंठिते, विसमचक्कवालसंठिए? गोयमा ! समचक्कवालसंठिते, नो विसमचक्कवालसंठिते॥ (धायइसंडे णं दीवे कि समचक्कवालसंठिए' इति सूत्रं लवणसमुद्रवद् भावनीयम्। धायतिसंडे णं भंते ! दीवे केवतिए चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते? गोयमा ! चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं एगयालीसं जोयणसतसहस्साई दसजोयणसहस्साई णव य एगसटे जोयणसते किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते, से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेणं वणसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता दोण्ह वि वण्णओ दीवसमिया परिक्खेवेणं / ''धायइसड़े णं'' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- गौतम! चत्वारि योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन एकचत्वारिंशदयोजनशतसहस्राणि दशसहसाणि नव च एकषष्ठानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण / उक्तं च "एयालीसं लक्खा, दससयसहसाई जोयणाणं तु / नव य सया इगसट्ठा किंचूणा परिरओ तरस // 1 // " (से णमित्यादि) स धातकीखण्डद्वीप एकया पद्मवरवेदिकया, अष्टयोजनोच्छ्यजगत्युपरिभाविन्येति सामर्थ्याद् गम्यते / एकेन वनखण्डेन पावरवेदिकाबहिभूतेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्तः द्वयोरपि वर्णकः प्राग्वत्। धायतिसंडस्सणं भंते ! दीवस्स कति दारा पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता / तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। (धायइसंडस्स णमित्यादि) धातकीखण्डस्य भदन्त ! द्वीपस्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि? भगवानाह- गौतम ! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि / तद्यथा-विजय, वैजयन्त, जयन्तमपराजितं च। कहि णं भंते ! धायतिसंडस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते? गोयमा ! धायइसंडपुरच्छिमपेरंतं कालोयसमुद्दपुर-- च्छिमद्धस्स पचच्छिमेणं सीयाए महाणदीए उप्पिं एत्था णं धायतिसंहस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते / तं चेवपमा
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________________ धायइसंडदीव 2744 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धायइसंडदीव णं रायहाणी य अण्णम्मि धायइसंडे दीवे सा वत्तव्यया | भाणियव्वा / एवं चत्तारि वि दारा भाणियव्या। (कहिणं भंते ! इत्यादि) व भदन्त ! धातकीखण्डस्य द्वीपस्य विजय नाम द्वारं प्रज्ञप्तम? भगवानाह-गौतम ! धातकीखण्डस्य द्वीपस्य पूर्वपर्यन्ते कालोदसमुद्रपूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि शीताया महानद्या उपरि अत्र एतस्मिन्नन्तरे धातकीखण्डस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम्। तच जम्बूद्वीपविजयद्वारवदविशेषेण वेदितव्यम. नवरात्र राजधानी अन्यस्मिन् धातकीखण्ड द्वीपे वक्तव्या।* "कहि णं भते !" इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह--धातकीखण्डद्वीपदक्षिणपर्यन्ते कालोदसमुद्रदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र धातकीखण्डस्य द्वीपस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम्। तदपि जम्बूद्वीपवैजयन्तद्वारवदविशेषण वक्तव्यम, नवरमत्रापि राजधानी अन्यस्मिन् धातकीखण्डे द्वीपे / "कहि भंते !" इ-यादि प्रश्नसूत्रं गतार्थम् / भगवानाह-गौतम ! धातकीखालद्वीपपचिन ते कालोदसमुद्रपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः शीतोदाया महानद्या उपरि अत्र धातकीखण्डस्य द्वीपस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् / तदपि जम्बूद्वीपजयन्तद्वारवद्वक्तव्यम्। नवरं राजधानी अन्यस्मिन् धातकीखण्डद्वीपे। 'कहिणं भते !'' इत्यादि प्रश्नसूत्र प्रतीतम् / भगवानाह- गौतम ! धातकीखण्डद्वीपोत्तरार्द्धपर्यन्तेकालोदसमुद्र उत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र धातकीखण्डस्य द्वीपस्यापराजितं नाम द्वार प्रज्ञप्तम् / तदपि जम्बूद्वीपगतापराजितद्वारवद्वक्तव्यम्। नवरं राजधानी अन्यस्मिन् धातकीखण्ड द्वीपे। धायइसंडस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवतियं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दस जोयणसतसहस्साई सत्तावीसं च जोयणसहस्साइं सत्त य पणतीसे जोयणसते तिण्णि य कोसे दारस्सय दारस्सय अवाहाए अंतरे पण्णत्ते। (धायइसंडस्स णं भंते ! इत्यादि) धातकीखण्डस्य भदन्त ! द्वीपस्य द्वारस्य च द्वारस्य च परस्परमेतत् अन्तरं कियत् किंप्रमाणमबाधया अन्तरितत्वाद् व्याधातेन प्रज्ञप्तम्? भगवानाह- गौतम्! दशयोजनशतसहस्राणि सप्तविंशतिसहस्राणि सप्तशतानि पञ्चत्रिशानि योजनशतानि त्रयः कोशा द्वारस्यच द्वारस्य च परस्परमन्तरमबाधया प्रज्ञप्तम्। तथाहि-एकैकस्य द्वारस्य द्वारशाखाकस्य जम्बूद्वीपद्वारस्येव पृथुत्वं सार्द्धानि चत्वारि योजनानि। ततश्चतुर्णा द्वाराणामेकत्र पृथुत्वपरिमाणमीलने जातान्यष्टादशयोजनानि, तान्यनन्तरोक्तात्परियपरिमाणात् 4110161 शोध्यन्ते / शोधितेषु च तेषु जातं शपमिदम् - एकचत्वारिंशल्लक्षा दशसहस्राणि नवशतानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि 41106 53 / एतेषां चतुभिभगि हृते लब्धं यथोक्तं द्वाराणा परस्परमन्तरम् / उक्तं च-'पणतीसा सत्त सया, सत्तावीसा सहरसदसलक्खा। धायइसंडे दारंतरंतु अवरं च कोसतियं / / 1 / / " धायइसंडस्स णं भंते ! दीवस्स पदेसा कालोयणं समुदं पुट्ठा? हंता पुट्ठा। ते णं भंते ! किं धायइसंडे दीवे कालोयणे समुद्दे? *"एवं चत्तारिदारा भाणियव्वा।" इत्यनेन गतार्थत्वातमूलपाठ मूले मोक्तः, टीकायामुपन्यस्तः। गोयमा ! धायइसंडे नो खलु ते कालोयणसमु०॥ एवं कालोयस्स विधायइसंडे दीवे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता कालोयणे समुद्दे पव्वायंति ? गोयमा ! अत्थेगइया पव्वायंति, अत्थेगइया नो पव्यायंति। एवं कालोयणे वि अत्थेगतिया पव्वायंति, अत्थेगतिया नो पव्वायंति। "धायइंडस्स णं भंते ! दीवस्स पएसा" इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि प्राग्वदावनीयानि। से के णतुणं भंते ! एवं वुचति-धायइसंडे दीवे, धायइसंडे दीवे? धाइयसंडे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तस्स तस्स देसस्स तहिं तहिं पदेसे बहवे धायइरुक्खा धायइवणा धायइसंडा णिचं कुसुमिया० जाव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति। धायइमहाधायइरुक्खे सुदंसणे पियदंसणे पियदेवा महिड्डिया०जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ, अदुत्तरं च णं गोयमा ०जाव णिचं / (से केणटेणं भंते) इत्यादि! अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेधातकीण्खडो द्वीपो धातकीखण्डो द्वीप इति? भगवानाह-धातकीखण्डे द्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो धातकोवृक्षाः, बहूनि धातकीवनानि बहवो धातकीखण्डाः। वनखण्डयोः प्रतिविशेषः प्रागेवोक्तः। "निचं कुसुमिया।" इत्यादि प्राग्वत्। (धायइमहाधायइरुक्खे इत्यादि) पूर्वार्द्ध उत्तरकुरुषु नीलवनिरिसमीपे धातकीनामा वृक्षोऽवतिष्ठते। पश्चिमार्द्ध उत्तरकुरुषु नीलवगिरिसमीपे धातकीदक्षः, तो च प्रमाणाऽऽदिना जम्बूवृक्षवद् वेदितव्यौ / तयोस्त्र धातकीरकण्डेद्वीपे यथाक्रम सुदर्शनप्रियदर्शनी द्वौ देवौ महर्द्धिको यावत्पल्योपमरिथतिका परिवसतः। ततो धातकीखण्डोपलक्षितो द्वीपो धातकीखण्डद्वीपः। ती चाऽऽह-(सेतेणतुणमित्यादि) गतार्थम्। संप्रति चन्द्राऽऽदिवक्तव्यतामाहधाइयसंडे णं भंते ! दीवे कइ चंदा पहासिंसु वा पहासंति वा पहासिस्संति वा? कति सूरिया तवइंसु वा , तवंति वा, तवइस्संति वा? कइ महग्गहा चारं चारिसुवा, चरिंति वा, चरिस्संति वा? कइ णक्खत्ता जोगं जोएइंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा? कइ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभिंसु वा , सो, ति वा, सोभिस्संतिवा? गोयमा! वारस चंदा पभासेंसुवा, पहासंति वा, पहासिस्संति वा एवं "चउवीसं ससिरविणो, णक्खत्तसताय तिण्णि छत्तीसा। एगं च सयसहस्सं,छप्पण्णं धायईसंडे / / 1 / / अद्वेव सयसहस्सा, तिन्नि सहस्साइँ सत्तय सयाई। धायइसंडे दीवे, तारागणकोडकोडीणं / / 2 / / " सोभं सोभिंसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा। 'धायइसंडे णं भंते ! दीये क इ चंदा।'' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम / भगवानाह- गौतम ! धातकीखण्डे द्वादश चन्द्राः प्रभासितवन्तः, प्रभासन्ते, प्रभासिष्यन्ते। द्वादश सूर्यास्तापितवन्तः तापयन्ति, तापयिष्यन्ति / त्रीणि नक्षत्रशतानि षटत्रिंशानि योग चन्द्रमसा सूर्येण च सार्द्ध युक्तवन्तो,युञ्जन्ति, योक्ष्यन्ति। तत्र त्रीणि
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________________ धायइसंडदीव 2745 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धायइसंडदीव षट्त्रिंशानि नक्षत्राणां शतानि, एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाविंशतेनक्षत्राणां भागत, एक षट्पञ्चाशदधिकं महाग्रहसहस्रं चार चरितवन्तः / चरन्ति, चरिष्यन्ति / एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाशीतेमहाग्रहाणां भावात् / अष्टौ शतसहस्राणि त्रीणि सहस्राणि सप्तशतानि तारागणकोटिकोटीनां शोभितवन्तः, शोभन्ते शोभिष्यन्ते। एतदपि एकशशितारापरिभाणं द्वादशभिर्गुणयित्वा भावनीयम्। उक्तं च'वारस चदा सूरा, नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा। एग च गहसहस्सं, छप्पन्न धायईसंडे / / 1 / / अद्वैव सयसहस्सा, तिन्नि सहस्सा यसत्तय सया उ। धायइसंडे दीवे, तारागणकोडिकोडीओ॥२॥"जी०३ प्रति० 410 / धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धे णं धायइरुक्खे अट्ठ जोयणाई उड्-- ढमुच्चत्तेणं पण्णत्ते, बहुमज्झदेसभाए अg जोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाई अट्ठ जोयणाइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते। धायइसंडदीवपचच्छिमद्धे णं धायइरुक्खे अट्ठ जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ते, बहुमज्झदेसभाए अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाइं अट्ठ जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ते / एवं धायइरुक्खाओ आढवित्ता सव्वेव जंबुद्दीववत्तया भाणियव्वा०जाव मंदरचूलिय त्ति / एवं पञ्चाच्छिमद्धे वि / महाधायइरुक्खाओ आढवित्ता०जाव मंद-- रचूलिय त्ति / स्था०८ठा०। सम्प्रति धातकीखण्डवक्तव्यतानन्तरं "धायइसंडे' इत्यादिना वेदिकासूत्रान्तेन गुन्थेनाऽऽह धायइसंडे णं दीवे पुरच्छिमद्धेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदा-- हिणेणं दो वासा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला०जाव भरहे चेव, एरवए चेव। एवं जहा जंबुद्दीवे तहा एत्थ भाणियव्वं०जावदोसु वासेसु मणुया छव्यिहं पि कालं पच्चणुब्भवमाणा विहरति / तं जहा-- भरहे चेव, एरवए चेव, णवरं कूडसामली चेव, धायईरुक्खे चेव, देवागरुले चेब, वेणुदेवे पियसुदंसणे चेव / धायईसंडदीवपचच्छिमद्धे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पण्णत्ता बहुसमतुल्लाजाव भरहे चेव, एरवए चेव,०जाव छविहं पि कालं पचणुब्भवमाणा विहरंति। तं जहा-भरहे चेव, एरवए चेव, णवरं कूडसामली चेव, महाधायईरुक्खे चेव, देवागरुले चेव, वेणुदेवे पियदंसणे चेव / / कण्ठ्यम : नवरं-चक्रवालस्य विष्कम्भः पृथुत्वं चक्रवालविष्कम्भस्ते नेति / समुद्रवेदिकासूत्र जम्बूवेदिकासूत्रवद्वाच्यमित्यर्थः / क्षेत्रप्रस्तावाल्लवणसमुद्रवक्तव्यताऽनन्तरं धातकीखण्डवक्तव्यता "धायइस." इत्यादिना वेदिकासूत्रान्तेन ग्रन्थेनाऽऽह। कण्ठ्यश्चायम्, नवर धातकीखण्डप्रकरणमपि-जम्बूद्वीपलवणसमुद्रमध्यं वलयाकृति धातकीखण्डमालिख्य हिमवदादिवर्षधरान्जम्बूद्वीपानुसारेण चोभवतः पूर्वापरविभागेन भरतहैमवताऽऽदिवर्षाणि च व्यवस्थाप्य पूर्वापरदिशोर्वलयविष्कम्भमध्ये भेरुं च कल्पयित्वाऽवबोद्धव्यम् / अनेनैव क्रमेण पुष्करवरदीवार्द्धमपीति / तत्र धातकीनां वृक्षविशेषाणां खण्डो वनसमूह इत्यर्थो धातकीखण्डः, तद्युक्तो यो द्वीपः स धातकीखण्ड एवोच्यते। यथा दण्डयागाद् दण्ड इति। धातकीखण्डश्वासी द्वीपश्चेति धातकीखण्डद्वीपः, तस्य (पुरच्छिमं ति) पौरस्त्यं, पूर्वमित्यर्थः / यदर्द्धविभागस्त द्धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्या, पूर्वापरार्द्धता च लवणसमुद्रवेदिकातो दक्षिणत उत्तरतश्च धातकीखण्डवेदिकां यावत् गताभ्यामिषुकारपर्वताभ्यां धातकीखण्डस्य विभक्तत्वादिति। उक्तंच"पंचसयजोयणुचा, सहस्समेगं च होति वित्थिन्ना। कालोयणलवणजले, पुट्ठा ते दाहिणुत्तरओ।।१।। दो उसुयारनगवरा, धायइसंडस्स मज्झयारठिया। तेण दुहा निविस्सइ, पुव्वद्धं पच्छिमद्धं च / / 2 / / '' इति। तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, मन्दरस्य मेरोरित्येवं धातकीखण्डपूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धप्रकरणे प्रत्येकमेकोनसप्ततिसूत्रप्रमाणे जम्बूद्वीपप्रकरणवदध्यतेव्ये, व्याख्येये च / अत एवाऽऽह-(एवं जहा जंबुद्दीवे तहेत्यादि) नवरं वर्षधराऽऽदिस्वरूपमायामाऽऽदिसमता चैवं भावनीया 'पुटवद्धस्स य मज्झे, मेरुस्स पुणो वि दाहिणुत्तरओ। बासाइँ तिणि तिन्नि य, विदेहवासं च मज्झम्मि।।१।। अरविवरसंठियाई, चउरो लक्खाइँ ताइँ खेत्ताई। अंतो सखित्ताई, रुंदयराइं कमेण पुण पुट्ठो // 2 / / भरहे मुहविक्खंभो, छावट्टिसयाइँ चोद्दसऽहियाई। अउणत्तीसं च सय, बारसऽहियदुसयभागेणं / / 3 / / अट्ठारस य सहस्सा, पंचेव सया हवंति सीयाला। पणवन्न अससयं, बाहिरओ भरहविक्खंभो।।४।। चउगुणियभरहवासो, (व्यास इत्यर्थः) हेमवए तं चउगुणं तइयं / (हरिवर्षमित्यर्थः) हरिवारां चउगुणियं, महाविदेहस्स विक्खंभो।।५।। जह विक्खभो दाहिण-दिसाएँ तह उत्तरे विवासतिए। जह पुव्वद्देसु तओ, तह अवर वि वासाई।।६।। सत्ताणउइ सहस्सा, सत्ताणउयाइँ अट्ठ य सयाई।। तिन्नेव य लक्खाई, कुरूण भागा य वाणउई॥७॥(विष्कम्भ इति) अडवन्नसय तेवी-ससहस्सा दो य लक्खजीवाओ। दोण्ह गिरीणाऽऽयामो, संखित्तो तं धणुकुरूणं / / 8 / / वासहरगिरी वक्खा-रपब्वया पुब्वपच्छिमद्धेसु। जंबुद्दीवगदुगुणा, वित्थरओ उस्सए तुल्ला ||6|| कंचणगजमगसुरकुरु-नगा य वेयड्डवट्टदीहा य। विक्खंभु वेहसमु-स्सएण जह जंबुदीवि व्व।।१०।। लक्खाइँ तिन्नि दीहा, विजुप्पहगंधम्मायणा दो वि। छप्पण्णं च सहस्सा, दोन्नि सया सत्तवीसा य / / 11 / / अउणहा दोपिण सया, उणसत्तरिसहस्सलक्खा य। सोमणसमालवंता,दीहा रुंदा दस सयाई॥१२॥ सव्वाओ विनईओ, विक्खम्भोव्बेहदुगुणमाणाओ। सीयासोओयाणं, वणाणि दुगुणाणि विक्खंभो / / 13 / / वासहरकुरूसु दहा, नईण कुंडाई तेसु जे दीवा। उटवेहुस्सयतुल्ला, विक्खंभायामओ दुगुणा / / 14 / / जम्बूद्वीपकापेक्षयेति / कियदूरं जम्बूद्वीपप्रकरणं धातकीख
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________________ धायइसंडदीव 2746 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धायइसंडदीव ण्डपूर्वार्धाभिलापेन वाच्यमित्याह। (जाव दोसुमणुयेत्यादि) एतस्माद्धि सूत्रात्परतो जम्बूद्वीपप्रकरणे चन्द्राऽऽदिज्योतिषा सूत्राण्यधीतानि तानि च धातकीखण्डपुष्करार्द्धपूर्वार्धाऽऽदिप्रकरणेषु न सम्भवन्ति, द्विस्थानकत्वादस्याध्ययनस्य, धातकीखण्डाऽऽदौ च चन्द्राऽऽदीनां बहुत्वादिति। आह च- "दो चंदा इह दीवे, चत्तारि य सायरे लवणतोये / धायइखंडे दीवे, वारस चंदा य सूरा य॥१॥" इति। चन्द्राणां द्वित्वेन नक्षत्राऽऽदीनामपिद्वित्वं न स्यात, ततो द्विस्थानेनावतार इति। जभ्यूद्वीपप्रकरणादस्य विशेषं दर्शयन्नाह-(नवरमित्यादि) नवरं केवलमय विशेष इत्यर्थः, कुरुसूत्रानन्तरं तत्र-''कूडसामली चेव, जंबू चेव सुदसणे त्ति।' उक्तम् / इह तुजम्यूस्थाने 'धायई रुक्खे चेव त्ति'' वक्तव्यं, प्रमाणं च तयोर्जम्बूद्वीपशाल्मल्यादिवत्, तयोरेव देवसूत्रेण 'अणाढिए चेव जंबुद्दीवाहिबई" इत्यत्र वक्तव्यत्वे ''सुदंसणे चेव त्ति" इह वक्तव्यमिति। धायइसंडे दीवे इत्यादि पश्चिमा प्रकरणं पूर्वार्द्धवदनुसतव्यम् / अत एवाऽऽह- (जाव छव्विहं पि कालमित्यादि) विशेषमाह-(नवरं कूडसामलीत्यादि) धातकीखण्डपूर्वार्धोत्तर-कुरुषु धातकीवृक्ष उक्तः, इह तु महाधातकीवृक्षोऽध्येतव्यो, देवसूत्रे द्वितीयः सुदर्शनसूत्राधीतः, इह तु प्रियदर्शनोऽध्येतव्य इति। पूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धमीलनेन धातकीखण्डद्वीपं सम्पूर्णमाश्रित्य द्विस्थानक "धायइखड़े ण'' इत्यादिनाऽऽहधायइसंडपचच्छिमद्धे मंदरस्स पव्वयस्स धायइसंडे णं दीवे दो भरहाई, दो एरवयाई, दो हिमवंताई, दो हेरण्णवयाई, दो हरिवासाई,दो रम्मगवासाई, दो पुव्वविदेहाई, दो अवरविदेहाई, दो देवकुराओ, दो देवकुरुमहदुमा, दो देवकुरुमहदुमावासा देवा, दो उत्तरकुराओ, दो उत्तरकुरुमहदुमाओ, दो उत्तरकुरुमहदुमावासा देवा,दो चुल्लहिमवंता, दो महाहिमवंता, दो निसहा, दो नीलवंता, दो रुप्पी, दो सिहरी, दो सद्दावई, दो सद्दावईवासी साई देवा, दो वियडावई, दो वियडावइवासी पभासी देया,दो गंधावइवासी अरूणा देवा, दो मालवंतपरियारगा, दो मालवंतपरियारगवासी पउमा देवा, दो मालवंता, दो चित्तकूडा, दो पउमकूडा, दो नलिनकूडा, दो एगसेला, दो तिकूडा, दो वेसमणकूडा, दो अंजणा, दो मातंजणा, दो सोमणसा, दो विजुप्पभा, दो अंकावई, दो पम्हावई, दो आसीविसा, दो सुहावहा, दो चंदपव्वया, दो सूरपव्वया, दो णागपव्वया, दो देवपव्वया, दो गंधमायणा, दो उसुगारपव्यया, दो चुल्लहिमवंतकूडा, दो वेसमणकूडा, दो महाहिमवंतकूडा, दो वेरुलियकूडा, दो निसहकूडा, दो रुयगकूडा, दो नीलवंतकूडा, दो उक्दसणकूडा, दो रुप्पिकूडा, दो मणिकंचणकूडा, दो सिहरिकूडा, दो तिगिच्छिकूडा, दो पउमद्दहा, दो पउमद्दहवासिणीओ देवीओ सिरीओ, दो महापउमद्दहा, दो महापउमद्दहवासिणी हिरीओ देवीओ, एवं०जाव दो पुंडरीयदहा, दो पुंडरीयद्दहवासिणीओ लच्छीओ देवीओ, दो गंगप्पवायदहा० जाव दो रत्तवईपवायदहा, दो रोहियाओ० जाव दो रुप्पकूला। स्था। (अन्तर्णदीवक्तव्यता अंतरणई' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठे गता) दो कच्छा, दो सुकच्छा, दो महाकच्छा, दो कच्छगावई, दो आवत्ता, दो मंगलावत्ता, दो पुक्खला, दो पुक्खलावई, दो वच्छा, दो सुवच्छा, दो महावच्छा, दो वच्छगावई, दो रम्मा, दो रम्मगा, दो रमणिज्जा, दो मंगलावई, दो पम्हा, दो सुपम्हा, दो महापम्हा, दो पम्हगावई, दो संखा, दो नलिणा, दो कुमुदा, दो नलिणावई, दो वप्पा, दो सुवप्पा, दो महावप्पा, दो वप्पगावई, दो वग्गु, दो सुवग्गु, दो गंधिला, दो गंधिलावई, दो खेमाओ, दो खेमपुराओ, दो रिट्ठाओ, दो रिट्ठपुराओ, दो खग्गीओ, दो मंजूसाओ, दो ओसहीओ, दो पुंडरीगिणीओ, दो सुसीगाओ, दो कुंडलाओ, दो अपराइयाओ, दो पभंकराओ, दो अंकावईओ, दो पम्हावईओ, दो सुभाओ, दो रयणसंचयाओ, दो आसपुराओ, दो सीहपुराओ, दो महापुराओ, दो विजयपुराओ, दो अवराजियाओ, दो अवराओ, दो असोयाओ, दो विगयसोगाओ, दो विजयाओ, दो वेजयंतीओ, दो जयंतीओ, दो अपराजियाओ, दो चक्कपुराओ, दो खग्गपुराओ दो अवज्झाओ, दो अओज्झाओ, दो भद्दसालवणा, दो णंदणवणा, दो सोमणसवणा, दो पंडगवणा, दो पंडुकं बलसिलाओ, दो अतिपंडुकंबलसिलाओ, दो रत्तकंबलसिलाओ, दो अइरत्तकंबलसिलाओ, दो मंदरा, दो मंरचूलियाओ, धायइसंडस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई उढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। 'धायइसंड' इत्यादिनाऽऽह-द्वे भरते पूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धयोर्दक्षिणदिग्भागे तयोर्भावादित्येवं सर्वत्र भरताऽऽदीनां स्वरूपं प्रागुक्तम् / (टो देवकुरुमहादुम त्ति) द्वौ कूटशाल्मलीवृक्षावित्यर्थः। द्वौ तद्वा-सिदेवी वेणुदेवावित्यर्थः / (दो उत्तरकुरुमहादुम त्ति) धातकीवुक्षमहाधातकीवृक्षाविति / तद्देवो सुदर्शनप्रियदर्शनाविति / चुल्लहिमवदादयः षट् वर्षधरपर्वताः, शब्दापातिविकटापातिमाल्यवत्पर्यायाख्यवृत्तवैताट्याश्च तन्निवासिस्वातिप्रभासारुणपद्मनाभदेवानां द्वयेन द्वयेन सहिताः कमेण द्वी द्वा वुक्ताः। (दोमालवंत त्ति) मालवन्तायुत्तरकुरुतः पूर्वदिग्वर्तिनी गजदन्तको स्तः, ततो. भद्रशालवनतद्वेदिकाविजयेभ्यः परौ शीतोत्तरकूलवर्तिनी दक्षिणोतरायती चित्रकूटौ वक्षष्कारपर्वतो, ततो विजयेनान्तरनद्याविजयेन चान्तरितावन्यौ तथैवान्यौ पुनस्तथैवान्याविति पुनः पूर्ववनखण्डवेदिकाविजयाभ्यामर्वाक्शीतादक्षिणकूलवर्तीनि तथैव त्रिकुटाऽऽदीनां चत्वारि द्वयानि, ततः सौमनसौ देवकुरुपूर्वदिग्वर्तिनौगजदन्तको, ततोगजदन्तकावेव देवकुरुप्रत्यग्भागवर्तिनी विद्युत्प्रभो, ततो भद्रशालवनतद्वेदिकाविजयेभ्यः परतस्तथैवाडावत्यादीनां चत्वारि द्वयानि शीतोदादक्षिणकूलवर्तीनि पुनरन्यानि पश्चिमवनखण्डवेदिकान्त्यविजयाभ्यां पूर्वतः क्रमेण त
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________________ धायइसंडदीव 2747 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धारणा चैव चन्द्रपर्वताऽऽदीनां चत्वारि द्वयानि, ततो गन्धमादनावुत्तरकु- धातकीखण्डद्वीपपोरस्त्याईगते मनुष्यभेदे, स्था०६ टा०। रुपश्चिममागवर्तिनी गजदन्तकाविति / एते धातकीखण्डस्य पूर्वा- | धार-०(धार) धाराभिनिवृत्तम, अण। "धाराभिः पतितं तोय, गृहीत द्वपश्चिमाढ़े च भवन्तीति द्वौ द्वावुताविति इषुकारौ दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः स्फीतवासरा / शिलायां वसुधारायां, शीतायां पतितं च यत् / / 1 / / " धातकीखण्डविभागकारिणाविति / (दोचुल्लहिमवंतकूडा इत्यादि) इत्युपक्रम्य, "भाजने मृण्डये वाऽपि, स्थापितं धारमुच्यते।' इत्युक्ते हिमवदादयः षट् वर्षधरपर्वताः, तेषु ये द्वे द्वे वूटे जम्बूद्वीपप्रकरणे अभिहिते शिलाऽऽदिभाजनधृते वर्षोद्भवेजले, धारके, त्रि०। वृ०३उ०! उत्त०। ते पर्वतानां द्विगुणत्वादेकैकशः स्यातामिति वर्षधराणां द्विगुणत्वात् वाचला लघौ, ना देखना०५ वर्ग 56 गाथा। फ्याऽऽदिलदा अपि द्विगुणाः, तद्देव्योऽप्येवमिति चतुर्दशाना गङ्गाऽऽदि- धारण-न०(धारण) पालने, स्था०३टा०३उ०। अप्रतिस्खलने, “अरती महानदीना पूर्वपश्चिमार्द्धापेक्षया द्विगुणत्वात् तत्प्रपातहदा अपि द्वौ द्वी तत्थ कि विहारए।" विहारयेत् प्रतिस्खलेत्। आचा०१ श्रु०६अ०३उ०। स्युरित्याह--(दो गंगप्पवाय-दहेत्यादि) "दो रोहियाओ'' इत्यादी 'धरति राइणिया इह।" धारयन्ति विभूति। सूत्र०१ श्रु०२ अ०३उ०। नद्यधिकार गड़ाऽऽदिमहानदीनां सदपि द्वित्वं नोक्तं, जम्बूद्वीप- वस्त्राऽऽदीना परिग्रहणे, उपभोगे च। स्था०३ ठा०३उ०। प्रकरणोत्तस्य "महाहिमवंता–ओ वासहरपव्वयाओ महापउमट्टहाओ धारणा-स्त्री०(धारणा) धृ-युच्। "यमाऽऽदिगुणसंयुक्ते, मनसः स्थितिदो महानईआ पवहति / " इत्यादि सूत्रक्रमस्याऽऽश्रयणात् / तत्रहि रात्मनि। धारणा प्रोच्यते सद्भिोगशास्त्रविशारदैः।।१।।" इत्युक्तायारोहिताऽऽदय एवाटी श्रूयन्त इति चित्रकूटपद्मकूटवक्षस्कारपर्वतयारन्तरे मात्मनि चित्तस्य स्थिती, वाचा विषयान्तरपरिहारेण स्थिरीकरणात्मा नीलवर्षधरपर्वतनितम्बव्यवस्थितत्वात् / ग्राहवतीकुण्डावक्षिण- हि चित्तस्य धारणा / यदाह-'देशबन्धश्चित्तस्य धारणेति।' द्वा० 24 तोरणविनिर्गता अष्टाविंशतिनदीसहसपरिवारा शीताधिगामिनी द्वार / मादायाम्, न्याय्यपथस्थिती, अवधारणे, आ०म०१अ०१ कच्छमहाकच्छरिजययोविभागकारिणी ग्राहवती नदी। एवं यथायोगं खण्ड। वाचा पूर्वश्रुतदृष्टाऽऽदिविषयावधारणं धारणेति। दर्श०५ तत्त्व। योयोर्वक्षस्कारपर्वतयार्विजययोरन्तरे क्रमेण प्रदक्षिणया द्वादश्यप्य- गृहीतस्याविस्मरणे, विशे० आवाधला आ०म०। नि०चूला आ०चून न्तरनद्यो योज्याः, तद्वित्वं च पूर्ववदिति / पर्वतीत्यत्र वेगवतीति अवगतार्थविशेषधा-रण धारणा। भ०८ श०२उ०। स्था०। निश्चितस्यैव ग्रन्थान्तरे दृश्यते, क्षारोदेत्यत्र क्षीरोदेत्यन्यत्र, सिह स्रोता इत्यत्र, वस्तुनो व्युतपत्त्यादिरूपेण धारण। विशेा निश्चितस्यैवाविच्युतिस्मृतिशीतस्रोता इत्यपरत्र, फेनमालिनी गम्भीरमालिनी चेति, इह व्यत्ययश्च वासनारूपं धारणं धारणा। प्रव०२१६ द्वार। ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मक्षयोदृश्यत इति माल्यवद्गजदन्तकभद्रशालवनाभ्यामारभ्य कच्छाऽऽदीनि पशमसमुत्थायामविद्योत्पादभेदवत्यां प्रज्ञातवस्तवानुपूर्वीगोचरायां द्वात्रिंशद्विजयक्षेत्रयुगलानि प्रदक्षिणतोऽवगन्तव्यानीति / तथा चित्तपरिणतो, ल०। तदात्मके मतिज्ञानभेदे च / स्था०८ ठा०। दश०। कच्छाऽऽदिषु क्रमेण क्षेमाऽऽदिपुरीणां युगलानिद्वात्रिंशदवगन्तव्यानीति। सम्मका नंगा आ०चूना "धरणं पुण धारणं विति।" धृतिर्धारणमर्थाभद्रशालाऽऽदीनि मेरो श्चत्वारि वनानि; "भूमीए भद्दसालं, नागिति वर्तते। परिच्छिन्नस्य वस्तुनोऽविच्युतिवासनास्मृतिरूपं धरणं महलजुयलम्मि दोन्नि रम्माई। णंदणसोमणसाई, पंडगपरिमडियं सिहरं पुनर्धारणां ब्रुवते। आ०म०१अ०१खण्डा नं // 1 // " इति वचनात्। मेर्वोर्द्वित्वे वचनानां द्वित्यमिति शिलाश्वतम्रो मेरी तथा च मतिज्ञानस्य तृतीयभेदमवायं प्रतिपादयन्तिषडकवनमध्ये चूलिकायाः क्रमेण पूर्वाऽऽदिषु / अत्र गाथे-- स एव दृढतमावस्थाऽऽपन्नो धारणा // 10 // "पंडगवणम्मि चउरो, सिलाओं चउसु वि दिशासु चूलाए। स इति अवायः, दृढतमावस्थाऽऽपन्नः विवक्षितविषयावसाय एव वउजोयसियाओ, सव्वज्जुणकंचणमयाओ॥१|| सादरस्य प्रमातुरत्यन्तोपचितः कशित्कालं तिष्ठन्धारणेत्यभिधीयते। प्च सथायामाओ, मज्झे दीहत्तणद्धरुंदाओ। दृढतमावरस्थाऽऽपन्नो ह्यवायः स्वोपढौकिताऽऽत्मशक्तिविशेषरुपसंचदवसंठियाओ, कुमदोयरहारगोराओ।।२।।" इति। स्कारद्वारेण कालान्तरे स्मरण कर्तुं पर्याप्नोतीति॥१०॥ रत्ना०२परि० नं०। तस्याऽर्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवायःशाल एवायं, शाङ्ग मन्दरे मेरौ चूलिकाशिखरविशेषः। स्वरूपमरयाः- ''मेरुस्स उवरि एवायमित्यादिरूपोऽवधारणाऽऽत्मकप्रत्ययोऽवाय इत्यर्थः / तस्यैवाचूरना, जिणभवणविभूसिया दुवी सुचा। वारस अट्टय चउरो, मूले मज्झुवरि र्थस्य निर्णीतस्य धारणं धारणा / सा च त्रिधा-अविच्युतिः, वासना, रुंदा य॥१॥'' इति वैदिकासूत्र जम्बूद्वीपवत्। स्था०२ ठा०३ उ०। स्मृतिश्च / तत्र तदुपयोगादविच्यवनमविच्युतिः, सा चान्तर्मुहूर्तप्रमाणा। धायइसंडदीवग-त्रि०(धातकीखण्डद्वीपग) धातकीखण्डद्वीपगते, ततस्तया आहितो यः संस्कारः सा वासना। सा च संख्येयमसंख्येयं वा "धायइसंडदीवगाणं चंदाण।'' जी०३प्रति०४उ०। यावरकालं भवति / ततः कालान्तरे कुतश्वित्तादृशार्थदर्शनाऽऽदिकात् धायइसंडदीवपञ्चच्छिमद्ध-न०(धातकीखण्डद्वीपपश्चिमार्द्ध) कारणात् संस्कारस्य प्रबोधे यद् ज्ञानमुदयतेतदेवेदं यन्मया प्रागुपलब्धधातकीखण्डद्वीपस्य पश्चिमेऽर्द्धभागे, स्था०७ ठा०। मित्यादिरूपं सा स्मृतिः। उक्तं च-- "तदनंतरं तदत्थाविचवण जो य धायइसंडदीवपञ्चच्छिमद्धग-पुं०(धातकीखण्डद्वीपपश्चिमार्द्धग) वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुण, अणुसरणं धारणा सा उ॥२६१॥" धातकीखण्डद्वीपपश्चिमार्द्धगते मनुष्यभेदे, स्था०६ ठा। (विशे०) एताश्चाविच्युतिवासनास्मृतयो धारणलक्षणसामान्यात्वर्थधायइसंडदीवपुरच्छिमद्धग-पुं०(धातकीखण्डद्वीपपौरस्त्यार्द्धग) | योगाद्धारणाशब्द वाच्याः / नं। आ०म०ा विशेष
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________________ धारणा 2748 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धारणाववहार अथ चतुर्थो मतिज्ञानभेदो धारणा, इयं धाविच्युतिवासनास्मृति- भेदात्रिधा भवति। अतः सभेदामपि तामाहतयणंतरं तयत्था-ऽविचवणं जो य वासणाजोगो। कालंतरे य जं पुण, अणुसरणं धारणा सा उ॥२६१|| तस्मादपायादनन्तरं तदनन्तरं, यत् तदर्थादविच्यवनम-उपयोगमाश्रित्याभ्रंशः। यश्च वासनया जीवेन सह योगः संबन्धः। यच तस्यार्थस्य कालान्तरे पुनरिन्द्रिय रुपलब्धस्थ, अनुपलब्धस्य वा एवमेव मनसाऽनुस्मरणं स्मृतिर्भवति, सेयं पुनस्त्रिविधाऽप्यर्थ-स्यावधारणरूपा धारणा विज्ञ येति गाथाऽक्षरघटना / भावार्थस्त्व-यम्-अवायेन निश्चितेऽर्थे तदनन्तरं यावदद्यापि तदर्थोपयोगः सातत्येन वर्तत, न तु तस्मान्निवर्त्तते, तावत्तदर्थोपयोगादविच्युतिर्नाम, साधारणायाः प्रथमभेदो भवति। ततस्तस्यार्थोपयोगस्य यदावरणं कर्म तस्य क्षयोपशमन जीवा युज्यते मेम कालान्तरे इन्द्रियव्यापाराऽऽदिसामग्रीवशात् पुनरपि तदर्थोपयोगः-स्मृतिरूपेण समुन्मीलति, सा चेयं तदावरणक्षयोपशमरूपा वासना नाम द्वितीयस्त दो भवति। कालान्तरे च वासनावशात्तदर्थस्येन्द्रियरुपलब्धस्य, अथवा तैरनुपलब्धस्याऽपि मनसि या स्मृतिराविर्भवति, सा तृतीयस्तदद इति / एवं त्रिभेदा धारणा विज्ञेया। तुशब्दोऽवग्रहाऽऽदिभ्यो विशेषद्योतनार्थः / विप्रतिपत्तयस्त्वेतद्विषया अपि प्रागेव निराकृता / इति गाथाऽर्थः / / 261 / / विशे० साऽपि मनःसहितेन्द्रियपञ्चकजन्यत्वात्षोढा / प्रव० 216 द्वार। से किं तं धारणा? धारणा छव्विहा पण्णत्ता / तं जहा-सोई-- दियधारणा, चक्खिदियधारणा, घाणिंदियधारणा, जिभिदियधारणा, फासिंदियधारणा, नोइंदियधारणा / / नं०। __ प्रकारान्तरेण धारणायाः षड् भेदानाहछविहा धारणा पण्णत्ता / तं जहा-बहुं धारेइ, बहुविहं धारेइ, पोराणं धारेइ, दुरुद्धरं धारेइ, अनिस्सडं धारेइ, असंदिद्धं धारेइ / सेत्तं धारणा। स्था०६ ठा० वहु धारयति 1 बहुविधंधारयतिर पुराणं धारयति 3 दुर्द्धर धारयति 4 अनिश्चित धारयति 5 असंदिग्धं धारयति 6 इति षडपिपदानि व्यक्तानि, नवरम् (पोराणं ति) पुराणं जीर्ण प्रभूतकालसंचितं, तदपि यथाश्रुतं धारयति, यदा पृच्छ्यते, तदा धारणासमर्थत्वात् सर्व वदति। (दुरुद्धर ति) दुर दुःखेन धर्तुं शक्यं नयाऽऽगमभङ्गगुपिलं (धारय त्ति"सेत्त" / इत्यादि निगमनवाक्यं व्यक्तम् / दशा०५ अ० धारणाया एकाथिकान्याहतीसे णं इमे एगट्ठिया णाणाघोसा,णाणावंजणा, पंचनामधिज्जा भवति / तं जहा-धरणा, धारणा, ठवणा, पइट्ठा कोठू। सेत्तं , धारणा। अत्रापि सामान्यत एकार्थिकानि, विशेषचिन्तायां पुनर्भिन्नार्थानि, तत्रापायानन्तरमवगतरणार्थस्याविच्युत्या अन्तर्मुहूर्त कालं यावत धरणं धरणा, ततस्तमेवार्थमुपयोगाद् युतं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तादुत्कर्पतोऽसंख्ययात्कालात्परतो यत्स्मरण सा धारणा। तथा स्थापन स्थापना, अपायावधारितस्याऽर्थस्य हृदि स्थापन वासनेत्यर्थः / अन्य तु धारणास्थापनायोय॑त्यासेन स्वरूपमाचक्षते। तथा च प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा, अपायावधारितस्यैवार्थस्य हृदि प्रभेदेन प्रतिष्ठापनमित्यर्थः। काष्ठ इव कोष्ठः, अविनष्टसूत्रार्थधारणमित्यर्थः। (सेत्तं धारणा) सेयं धारणा। नं० न विधेयमित्येवरूपे (स्था०५ ठा०१3०1) निषेधविषयके आदेशे, "आणं वा धारणं वा सम्म पउंजित्ता भवइ।" स्था०७ टा०। धारणा विधेयेषु निवर्तनलक्षणेति / स्था० 5 ठा०२उ०। बहुशो निवेदितातिचारलब्धशुद्धीनामवधारणाऽऽत्मके व्यवहारभेदे, पञ्चा० 16 विव०॥ प्रव०। स्थाof (तद्वक्तव्यता 'धारणाववहार' शब्देऽनुपदभेव वक्ष्यते) बलहरणाऽऽधारभूते स्थूणे गृहावयवविशेषे, "अगारस्स णं झियायमाणस्स किंधारणा झियाइ।" भ०८ श०६उधृ-णिच् ल्युट्न ड्याम, श्रेणौ च / स्त्री०। वाच०। धारणाबल-न०(धारणाबल) प्रतिवादिनः शब्दतदर्थावधारणबले. व्य०१उन धारणाववहार-पुं०(धारणाव्यवहार) गीतार्थसंविग्रेन द्रव्याऽऽधपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता, तामवधार्य यदन्यस्त-त्रैव तथैव तामेव प्रयुक्ते सा धारणा, वैयावृत्यकराऽऽदेर्वा गच्छोपग्रहकारिणोऽशेषानुचितरयोचितप्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां धरणं धारणेति। स्था०५ टा० २उ० सा एव व्यवहारो धारणाव्य-वहारः। पञ्च व्यवहाराणां मध्ये चतुर्थे व्यवहारभेदे, भ०८ श०८ उ०। पञ्चा०ा जीत०। व्य०ा धारणाव्यवहारो नामगीतार्थेन संविग्नेनाऽऽचार्येण द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्वावलोक्य यस्मिन्नपराधे यत्प्रायश्चित्तमदायि तत्सर्वमन्यो दृष्ट्वा तेष्वेव द्रव्याऽऽदिषु तादृश एवापराधे तदेव प्रायश्चित्तं ददाति / एष धारणाव्यवहारः। अथवा-वैयावृत्त्यकरस्य गच्छोपग्राहिणः स्पर्द्धकस्वामिनो वा देशदर्शनसहायस्य वा संविग्नस्योचितप्रायश्चित्तदानं धारणमेष धारणाव्यवहारः। व्य०१उ०। अथ धारणाव्यवहारमाहगीयत्थेणं दिन्नं, सुद्धिं अवराहिऊण तह चेव। दितस्स धारणा तह, उद्धियपयधरणरूवा वा // 865 / / इह गीतार्थेन संविग्रेनाऽऽचार्येण कस्याऽपि शिष्यस्य कचिदपराधे द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्वावलोक्य या शुद्धिः प्रदत्ता, सा शुद्धिः तथैवावधार्य सोऽपि शिष्यो यदाऽन्यत्रापि तादृश एवापराधे च द्रव्यादिषु तथैव प्रायश्चित्तं ददाति, तदाऽसौ धारणा नाम चतुर्थो व्यवहारः / उद्धृतपदधरणरूपा वा धारणा / इदमुक्तं भवति–वैयावृत्त्यकरणाऽऽदिना कश्चिद् गच्छोपकारी साधुरद्याप्यशेषच्छे दश्रुतयोग्यो न भवति, ततस्तस्यानुग्रहं कृत्वा यदा गुरूद्धृतान्येव कानिचित्प्रायश्चित्तपदानि कथयति, तदा तस्य तेषां पदानां धरणं धारणाऽभिधीयत इति। 865|| प्रव०१२६द्वार। धारणववहारो पुण, वत्तव्वो तं जहक्कम वुच्छं / / 642 / / अत उर्द्ध धारणाव्यवहारो वक्तव्यः, तद्यथाक्रमममुं वक्ष्ये इति शृणु। उद्धारणा विधारण, संधारण संपधारणा चेव / नाऊण धीरपुरिसा, धारणववहार तं विति // 643 / / धारणाया श्चत्वार्य कार्थिकानि / तद्यथा-उद्धारणा, विधार
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________________ धारणाववहार 2746 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धारणाववहार सन्धारणा, संप्रधारणा च / तया छेदश्रुतार्थावधारणलक्षणया यः सम्यक दात्या व्यवहारः प्रयुज्यते, तं धारणाव्यवहारं धीरपुरुषा बुवले / स्प्रति तेषानेव चतुर्णामकार्थिनां शब्दव्युत्पत्तिमाह.. पाबल्लेण उवेच व, उद्धियपयधारणा उ उद्धारा। विविहेहिँ पगारेहिं, धारे अत्थं विधारा सा॥६४४|| सम एकीभावम्मी, उद्धरणे ताणि एकभावेण / धारे तत्थ पयाणि उ, तम्हा संधारणा होइ / / 645 / / जम्हा उ संपहारेउं, ववहारं पउंजती। तम्हा उ कारणे तेण, नायव्वा संपहारणा // 646 / / उत प्राबन्येन उपेत्य वा धृतानामर्थपदानां धारणा उद्धारा उद्धारणा। विविध प्रकार विशिष्ट वाऽर्थमुद्धृतमर्थपदं ययाधारणया स्मृत्या धारयति सा विधार। विधारणा / तथा-समशब्द एकीभावे, धृता तु धारणा तात्यर्थपदानि आत्मना सहकभावेन यस्माद्धार-यति तस्मात् धारणा संधारणा भवति। तथा यस्मात्संप्रधार्य सम्यक्प्रकर्षणाऽवधार्य व्यवहार प्रयुक्त, तस्मात्कारणातेन शिष्येणेयं प्रधारणा भवति ज्ञातव्या। धारणववहारो सो पउंजियव्वो उ के रिसे पुरिसे?। भन्नति गुणसंपन्ने, जारिसए तं सुणेहि ति॥६४७।। एष धारणा व्यवहारः कीदृशे पुरुषे प्रयोक्तव्यः? सूरिराह-- भण्यते.-यादूशे गुणसम्पन्ने प्रयाक्तव्यस्तद्वक्ष्यमाणं शृणु? तमेवाऽऽहपवयणजसम्मि पुरिसे, अणुग्गहविसारए तवस्सिम्मि। सुस्सुयबहुस्सुयम्मि य, विवक्कपरिपागसुद्धम्मि॥६४८|| प्रवचनं द्वादशाङ्ग, श्रमणसङ्कोवा तस्य यः कीर्तिमिच्छेत् स प्रवचनय - शस्तस्मिन तपस्विनि, तथा श्रुतं शोभनमाकर्णित, बहुश्रुतं च येन स सुश्रुतबहुश्रुतः। किमुक्तं भवति-यस्य बहपि श्रुतं न विस्मृतिपथमुपयाति स सुश्रुतबहुश्रुतः। अथवा बहुश्रुतोऽपि सन् यस्तरयोपदेशेन वर्तते स मार्गानुसारिश्रुतत्वात् सुश्रुतबहुश्रुतः, तस्मिन्, तथा विशिष्ट विनयाँचित्यान्विते वामपरिपाके विशुद्धिर्यस्मिन्पुरुषे तस्मिन् प्रयोक्तव्यः। एतदेवाऽऽहएएसु धीरपुरिसा, पुरिसज्जाएसु किं चि खलिएसु। रहिए विधारइत्ता, जहारिह देंति पच्छित्तं // 646 / / एतेष्वनन्तरोदितगुणसम्पन्नेषु पुरुषजातेषु किश्चिदत्र मनाक् प्रमादवशाद् गूलगुणविषय उत्तरगुणविषये वाक्स्खलितेषु रहितेऽपि असत्यष्यादिगे व्यवहारखये धीरपुरुषा अर्थपदानि कल्पप्रकल्पव्यवहारगतानि कानिचित् धारयित्वा यथार्ह ददति प्रायश्चित्तम्। __ संप्रति 'रहिए वि धारयित्ता" (646) इत्यस्य व्याख्यानमाहरहिए णाम असंते आइल्लम्मि ववहारतियगम्मि। ताहे विधारइत्ता, वीमसेऊण जं भणियं // 650 / / रहितनाग 3 राति अविद्यमानकेव्यवहारत्रिकसतिततो विधाय यद भणितं भवति / किमुक्त भवति? विमृश्य पूर्वापरपालोचनेन / देशवालाऽऽप्रपेक्षया सम्यक् छेदश्रुतार्थं परिभाव्य। किमित्याह... पुरिसस्स उ अइयारं, वियारइत्ता ण जस्स जं जोग्गं / तं देंति उ पच्छित्तं, केणं देंती उतं सुणह // 651 / / पुरुषस्यातिचारं द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च विचार्य यस्य यदर्ह प्रायश्चित्तं तत केन दीयते। आचार्यः प्राहयेन दीयते तत् शृणु। तदेवाऽऽहजो धारितो सुतत्थो, अणुओगविहीऍ धीरपुरिसेहिं। आलीणपलीणेहि, जयणाजुत्तेहिँ दंतेहिं॥६५२|| यो नाम धीरपुरुषैरालीनालीनैर्यतनायुक्तैर्दान्तश्चानुयोगविधौ व्याख्यानवेलायां श्रुतस्य भेदश्रुतस्यार्थो धारितोऽविस्मृतीकृतस्तेन दीयते। साम्प्रतमालीनाऽऽदिपदानां व्याख्यानमाह-- अल्लीणा णाणाऽऽदिसु, पदें पदें लीणा उ होति पल्लीणा। कोहाऽऽदी या पलयं, जेसि गया ते पलीणाओ / / 653 / / जयणाजुतो पयत्तव, दंतो जो उवरतो उ पावहिं। अहवा दंतो इंदिय-दमेण नोइंदिएणं च / / 654|| ज्ञानाऽऽदिषु आ समन्तात् लीना आलीनाः। पदे पदे लीना भवन्ति प्रलीना अथवा--येषां क्रोधाऽऽदयः प्रलयं गताः ते प्रलीनाः, प्रकर्षण लीना लयं विनाशं गताः क्रोधाऽऽदयो येषामिति व्युत्पत्तेः / यतनायुक्तो नाम सूत्रानुसारतः प्रयत्नवान्, दान्तो यः पापेभ्य उपरतः। अथवा-दान्तो नाम इन्द्रियदमेन, नोइन्द्रियेण नोइन्द्रिय-दमेन चान्यतः। तदेवं छेदश्रुतार्थधारणावशतो धारणाव्यवहार उक्तः। साम्प्रतमन्यथा धारणाव्यवहारमाहअहवा जेणऽण्णइया, दिट्ठा सोही परस्स कीरती। तारिसयं चेव पुणो, उप्पण्णं कारणं तस्स // 655 / / सो तम्मि चेव दवे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। तारिसयं अकरें तो, न हु सो आराहओ होइ॥६५६।। सो तम्मि चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। तारिसयं चिय भूयो, कुव्वं आराहगो होइ।।६५७।। अथवेति प्रकारान्तरे. येनान्यदा परस्य शोधिः क्रियमाणा दृष्टा, स तमर्थ रमरति- यथा एवंभूतेषु द्रव्याऽऽदिष्वेवंभूते कारणे जाते एवंभूतं प्रायश्चित्तं दत्तमिति। पुनरन्यदाऽस्य पुरुषस्य उपलक्षणमेतत्-अन्यस्य वा तादृशमेव पुनः कारणं समुत्पन्नं ततो यदि तस्मिन्नेव, तादृश एवेत्यर्थः। द्रव्ये क्षेत्रे काले, चशब्दाद्भावे च तादृश एव कारणे तस्मिन्नेव तादृशे वा पुरुष तादृशमकुर्वन, रागेण वा अन्य प्रायश्चित्तं ददानो वर्तते, तदा स (न हु) नैव आराधको भवति / अथ यः तस्मिन्नेव द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च कारणे पुरुषे च तादृश करोति, स तदा आराधको भवति। धारणाव्यवहारस्यैव पुनरन्यथाप्रकारमाहवेयावच्चकरो वा, सीसो वा देसहिंडगो वा वि। दुम्मेहत्ता न तरइ, ओहारेउं बहुं जो उ॥६५८।। तस्स उ उद्धरिऊणं, अत्थपयाई तु देंति आयरिया। जेहिं न करेति कजं, ओहारेत्ता उ सो देसं // 656 / /
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________________ धारणाववहार 2750 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धावण यथा आचार्याणां वैयावृत्यकरो, यो वा संमतः शिष्यो, यस्तु वा गतिपञ्चके, "इतीव धारामवधीर्य / " इति नेषधम् / सैन्याग्रिमस्कन्धे देशहिण्डको देशदर्शनं कुर्वतः सहाय आसीत, स समस्तं छेदश्रुतार्थ च / वाचला हस्तिनापुरस्थस्य शिवस्य राज्ञो भार्यायां च / आ०म० दुर्मेधस्त्वाद् नावधारियितुं शक्नोति, ततस्तस्योद्धृत्यानुग्रहाय कानि- १अ०२ खण्ड। रणमुखे,दे० ना०५ वर्ग 56 गाथा। चिदर्थपदान्याचार्या ददति, यैः स छेदश्रुतस्य देशमवधार्य न कार्य / धारावारि-न०(धारावारि) धाराप्रधाने जले, भ०१३ श०६उ०। करोति / एष धारणाव्यवहारः। धारावारिय-त्रि०(धारावारिक) धाराप्रधानं वारि जलं यस्मिन् / उपसंहारमाह धाराप्रधानजलोपेते, "धारावारियलेणाइ वा।" भ०१३ श०६उ०। धारणववहारेसो, अहक्कम दण्णितो समासेणं / / (660) / धारावास-(देशी) मेघे, मेके च। दे०मा०५ वर्ग 63 गाथा। एप धारणाव्यवहारा यथाक्रमं समासेन वर्णितः / व्य०१० उ०। धाराहय-त्रि०(धाराहत) मेघजलधारासिक्ते, "धाराहयकर्यब-पुप्फगं धारणिज्ज-त्रि०(धारणीय) धारयितु योग्ये, भ० 15 श०। आचाo | पिव समुस्ससिअरोमकूवे।" कल्प०१ अधि०१क्षण। भ०) धारयितुं शक्ये, यापनीये च / ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। धारि(ण)-पुं०(धारिन) धारयतीत्येवंशीलः / प्रज्ञा०२ पद / धृणिनिः / धारणी-स्त्री० धा(र)रिणी| सकलगुणधारणाद्धा (र)रिणी। सू०प्र०१ धारणशीले, पीलुवृक्षे, धारणकर्तरि, त्रि०ा वाचा पाहु०। एकादशजिनस्य प्रथमायिकायाम्, स०ा "सिज्जंसजिणरस धा | धारिणी-स्त्री०(धारिणी) धारिणी' शब्दार्थे , सू०प्र०१ पाहु। (र)रिणी पढमा।' तिला द्वारवतीवास्तव्यस्य वसुदेवस्य स्वनामख्या- | धारित्तए-अव्य०(धारयितुम्) पालयितुमित्यर्थे, स्था०६ ठा०। तायां भार्यायाम, "वसुदेवे राया धारणी देवी / ' अन्त०१ श्रु०१ वर्ग परिग्रहीतुमित्यर्थे, उपभोक्तुमित्यर्थे च। 'धारित्तए वा परिहरित्तए वा।" १अ०। द्वारवतीवास्तव्यस्यान्धकवृष्णेः स्वनामख्यातायां भार्यायाम, | धारयितुं परिग्रहे परिहर्तुमासेवितुमिति / अथवा-"धारणया उवभोगो, "अंधगविहिस्सरण्णो धारणी नाम देवी।" अन्त०१ श्रु०१ वर्ग १अ०॥ परिहरणा होइ परिभोगो।" स्था०५ ठा०३उ०। हस्तिशीर्षनगरस्थस्यादीनशत्रोः राज्ञः स्वनामख्यातायां भार्यायाम, धारिय-त्रि०(धारित) सम्यगधारणाविषयीकृते, "धारियगणिय"हत्थिसीसणयरे अदीणसत्तुरण्णो धारणीपामोक्खाणं देवीसहस्साणं।'' समीहिय-निजवणाविउलवायणसमिद्धो / ' धारितं सम्यग् विपा०२ 2010 / अपरविदेहस्थपूतायां राजधान्या स्थितस्य | धारणाविषयीकृतं, न विनष्टमिति भावः। व्य०३उ०॥ धनञ्जयस्य भार्यायाम्, आ०चू०१अ०। मथुरानगरीवास्तव्यस्य धारी-स्त्री०(धात्री) धाई' शब्दार्थे ,प्रा०२ पाद। जितशत्रोः राज्ञो भार्यायाम, आ०म०११०२ खण्ड / कौशाम्बीवा धारोदग-न०(धारोदक) गिरिनिकरजले, बृ०२उ०। स्तव्यस्याऽजितसेनस्य राज्ञो भार्यायाम, आव०४ अ०। आ००। धाव-जवे(धाव) सक०-शुद्धौ च। भ्वादि०-आत्म०-शीघ्रगतो, अक० राजगृहनगरस्थस्य श्रेणिकस्य राज्ञो भार्यायाम, ज्ञा०१ श्रु० १अ०। सेट् / धावते / अधाविष्ट / वाचला "खादधावोर्लुक् / / 8 / 4 / 228 / / इति अणु०। चम्पानगरीस्थस्य मित्रप्रभस्य राज्ञो भार्यायाम, आव०४ अ०। प्राकृतसूत्रेणान्त्यस्य लुक् / प्रा०४ पाद "स्वरादनतो वा'' ||8 / 4 / 240 / / चम्पानगरीस्थस्य दधिवाहनस्य राज्ञः स्वनाभख्यातायां भार्यायाम, इति प्राकृतसूत्रेणाकारान्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातोरन्ते अकाराऽऽगमो आ०म०१अ०२खण्ड / पोतनपुरनगरस्थस्य सोमचन्द्रस्य राज्ञा वा। प्रा०४ पाद / धाइ। धाअइ। धाहिइ। धाओ। बाहुलकाधिकाराद् भार्यायाम, आ०म०१ अ०२ खण्ड / आ०चू०। राजगृहनगरस्थस्य वर्त्तमानाभविष्यविध्याऽऽद्येकवचन एव भवति, तेनेह न धावन्ति। विश्वनन्दिनृपस्य भ्रातुर्विशाखभूते याम्, आ०म०१ अ०१खण्ड। क्वचिन्न भवति। "धावइ पुरओ।" प्रा०४ पाद / "कुलाई जे धावइ मगधनन्दिग्रामस्थस्य गौतमस्य कणवृत्तिकस्य भार्यायाम, "मगमे साउगाई।'' धावति गच्छति। सूत्र०१ श्रु०७ अ०। नन्दिग्रामे, गौतमः कणवृत्तिकः / तत्पत्नी धारणी तस्याः।' आ०क०। धावण-न०(धावन) धाव-ल्युट्ाशीघ्रगमने, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। वाचा आव०) करिमश्चिन्नगरे स्थितसय वज्रसेनस्य राज्ञः स्वनामख्यातायां धावनमिति वेगेन गमनम् / जीता महा०। ज्ञा०। धावनं निष्कारणमङ्ग लावत्यपरनामधेयायां भार्यायाम, आ०चू०१ अ०। मिथिलास्थस्य मतित्वरितमविश्राम गमनम् / जीत०। शोधने, वाच०। अभ्यद्रोद्वर्त्तजितशत्रोः स्वनामख्यातायां भार्यायां च / सू०प्र०१ पाहु०। चं०प्र०। नरनाने, नि०चू०११ उ०। वस्त्राऽऽदीनां प्रक्षालने, प्रव०१ द्वार। सूत्र धारय-त्रि०(धारक) धारणसमर्थे , कल्प०१ अधि०१ क्षण / धारको नि०चूछ। व्य०। ग०। प्र०ा पात्राऽऽदीनां कल्पप्रदाने च / जीता वृ०| धारयितुं क्षमः। औ०। प्रवर्तके च / नि०१ श्रु०३ वर्ग१ अग मुखनयनाऽऽदिधावने, व्य०६ उ०। (गुणा आचार्यातिशयवर्णनप्रस्तावे धारा-स्त्री०(धारा) धृ-णिच्-अड्। खङ्गाऽऽदेनिशिताग्रे. भ० 13 श०६ 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 28 पृष्ठ प्रतिपादिताः) "जे धोयती लूसयतीव उ०। वाच०। 'खुरो इव एगंतधाराए।''ज्ञा०१श्रु० १अ० ज०। उत्त०। वत्थ, अहा हु से णागणियस्स दूरे।'' सूत्र०१ श्रु०७अा वस्त्राण्यधिकृत्यघण्टाऽऽदिच्छिद्रे, सन्तती,द्रवद्रव्यस्य सन्तत्या पतने, उत्कर्षे ,यशसि, ‘णो धोवेजा णो धोतरत्ताई वत्थाई धरेज्जा / '' नो धावये प्रासुकादअतिवृष्टी, समूहे, मेघस्याऽऽसारवर्षणे, वाच०। भ०। कल्पका सदृशे, केनाऽपि न प्रक्षालयेद, गच्छवासिनो ह्यपाप्तवर्षाऽऽदौ ग्लानावस्थायां वा पुरीभेदे, "अश्वानां तु गतिर्धारा, विभिन्ना सा च पक्षधा।" इत्युक्तेऽश्वानां प्रासुकादेकेन यतनया धावनमनुज्ञातं, न तु जिनकल्पिकस्येति /
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________________ धावण 2751 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धावण तथाहि न च धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत्पूर्व धौतानि पश्चाद्रक्तानीति। आचा०१श्रु०५अ०४ उ01 धावनं च संयतानां वर्षाकालादर्वाक कल्पते, | न शेषकाले, अनेकदोषसम्भवात्। पिं०। तानेव दोषान् दर्शयति-- उउबद्धे धुवणे वउसं, बंभविणासो अठाणठवणं च / संपाइमवाउवहो, पावणभूओवघाओ य॥२६|| वर्षाकालस्य प्रत्यासन्नं कालमपहाय शेषे ऋतुबद्धे काले, चीवरस्य धावने चरणं वकुशं भवति, उपकरणवकुशत्वात्। तथा-ब्रह्मविनाशो मशुनप्रत्याख्यानभङ्गः, प्रक्षालितवासः परिधानभूषितशरीरो हि विरूपोऽपि रमणीयत्वेन प्रतिभासमानो रमणीनां रमणयोग्योऽयमिति प्रार्थनीया भवति, किं पुनः शरीरावयवरामणीयकोपशोभितः; ततः समस्तकामिनीनां प्रार्थयमानानां सलीलदर्शिततिर्यग्वलिताक्षिनिरीक्षणाङ्ग मोटनव्याजोपदर्शितकक्षामूलसद्वृत्ततारमणीयपीनकठिनपयोधरविस्तारगम्भीरनाभिप्रदेशपरिभावनतोऽवश्यं ब्रहाचर्यादपभ्रंशमविश्रयते। तथा अस्थानस्थापनम्। इयमत्र भावना-यदि नाम कथञ्चितत्त्व वेदितया संयमविषयनिःप्रकम्पधृत्यवष्टम्भतो न ब्रह्मचर्यादपभृश्यति, त्थाऽपि लोकेन सोऽस्थाने स्थाप्यते-यथा ननमयं कामी, कथमन्यथाऽऽत्मानमित्थं भूषयति, न खल्वकामी मण्डनप्रियो भवति / तथा संपातिमानां मक्षिकाऽऽदीनां प्रक्षालनजलाऽऽदिषु निपतता, वायोश्च वधो विनाशो भवति। तथा प्लावनेन प्रक्षालनजलपरिष्ठापनेन पृथिव्या रेल्लणेन भूतोपघातः पृथिव्याश्रितकीटिकाऽऽदिसत्त्वोपमदों भवति / तस्मान्न ऋतुबद्धकाले वस्खं प्रक्षालनीयम्। नन्वेते दोषा वर्षाकालादर्वागपि धावने संभवन्ति, ततस्तदानीमपि न चीवराणि प्रक्षालनीयानि, तन्न, तदानीं चीवराप्रक्षालनेऽनेकदोषसंभवात्। अइभारवुडणपणए,सीयलपाउरणऽजिण्णगेलण्णे। ओहावणे कायवहो, वासासु अधोवणे दोसा॥२७॥ इह वर्षाकालादगिपि यदि वासांसि न प्रक्षाल्यन्ते तदानीमतिभारो गुरुत्वं वरत्राणां भवति / तथा वासांसि मलविद्धानि यदा जलकणानुपक्तसमीरणमात्रेणापि स्पृष्टानि भवन्ति, तदाऽपि स मलः क्लिन्नीभूय दृढतरं वर नेषु संबन्धमापद्यते, किं पुनर्वर्षासु सर्वतः सलिलमयीषु / ततो वर्षासु क्लिन्नमलसंपर्कतो वासांसि गुरुतरभाराणि भवन्ति। तथा (वुडणं ति) वाससा वर्षाकालादगिप्यधावने वर्षासु जीर्णता भवति, शाटो भवतीत्यर्थः / किमुक्तं भवति?-यदि नाम वर्षाकालादगिपि वरवाणि न प्रक्षाल्यन्ते, ततो वर्षासु तेषां मलक्लिन्नतया जीर्णताभवनेन शाटो भवति / न च वर्षास्वभिनववस्त्रग्रहण, नचाधिकः परिग्रहः, ततो ये वस्त्राभावे दोषाः समये प्रसिद्धास्ते सर्वेऽपि यथायोगमुपढौकन्त इति / तथा मलक्लिन्नेषु वस्त्रेषु शीतलजलकणसंस्पर्शतो मलस्याऽऽद्रीभवतः पनको वनस्पतिविशेषः प्राचुर्येणोपजायते, तथा च सति प्राणिव्यापादनासक्तिः / तथा निरन्तरं सर्वतः प्रसरेण निपतति वर्षे शीतले च मारुते वाति मलस्याऽऽीभवतः शीतलीभूतानां वाससा प्रावरणे भुक्ताऽऽहारस्याजीर्णतायामपरिणतो ग्लानता शरीरमान्द्यमुत्तम्भते, तथा च सति प्रवचनस्यापभाजना। यथा-अहो ! बठरशिरोमणयोऽमी तमस्विनो, न परमार्थतस्तत्त्ववेदिनो, ये नाम, वर्षास्वप्रक्षालिताना वाससा परिभोगे मान्द्यमुपजायते, इत्येतदपि नावबुध्यन्ते; ते पृथग्जनाऽपरिच्छेद्यं स्वर्गापवर्गमार्गमवगच्छन्तीति दुःश्रद्धेयम् / तथा वर्षास्वप्रक्षालितानि वस्त्राणि प्रावृत्य भिक्षाऽऽद्यर्थं विनिर्गतस्य साधोर्मेघवृष्टी मलिनवस्त्रकम्बलसंपर्कतोऽप्कायविराधना भवति / एते वर्षास्विति वर्षाकालप्रत्यासन्नोऽपि कालो वर्षा इत्युच्यते, तत्सामीप्यात् / भवति च तत्सामीप्यात्तच्छन्दव्यपदेशः। यथा-गङ्गायां घोष इत्यत्रा ततो वर्षासु वर्षाप्रत्यासन्ने काले वस्त्राऽऽदीनामप्रक्षालने दोषास्तस्माद वश्यं वांकालादर्वाग वासांसि प्रक्षालनीयानि।येच संपातिमसत्त्वोपघाताऽऽदयो दोषाश्चीवरप्रक्षालने प्रागुक्ताः, तेऽपि सूत्रोक्तनीत्या यतनया प्रवर्त्तमानस्य न संभवन्तीतिवेदितव्यम्।यो हि सूत्राज्ञामनुसृत्य यतनया सम्यक् प्रवर्तते, स यद्यपि कथञ्चित्प्राण्युपमर्दकारी, तथापि नासौ पापभाग्भवति, नाऽपि तीव्रप्रायश्चित्तभागी, सूत्रबहुमानतो यतनया प्रवर्त्तमानत्वात / वक्ष्यति च सूत्रम्- "अप्पत्ते चिय वासे, सव्वं उवहिं धुवंति जयणाए।'' इति / ततो न कश्चिद्दोषः। नापि तदा वस्त्रप्रक्षालने वकुश चरणं, सूत्राज्ञया प्रवर्त्तमानत्वात् / नाप्यस्थाने स्थापनदोषो, लोकानामपि वर्षासु वाससामप्रक्षालने दोषपरिज्ञानभावात् नचैतऽनन्तरोक्ता अतिभाराऽऽदयो दोषा ऋतुबद्धेकाले वाससामप्रक्षालने संभवन्ति, तस्मान्न तदा प्रक्षालनं युक्तमिति स्थितम्। सम्प्रति वर्षाकालादगिपि यावानुपधिरुत्कर्षतो, जघन्यतश्च प्रक्षालनीयो भवति, तावत्तमभिधित्सुराहअप्पत्ते चिय वासे, सव्वं उवहिं धुवंति जयणाए। असईए उ दवस्स य, जहन्नओ पायनिज्जोगो॥२८|| अप्राप्ते एव अनायाते एव, वर्षे वर्षाकाले, वर्षाकालादक्तिने काले इत्यर्थः / जलाऽऽदिसामन्यां सत्यामुत्कर्षतः सर्वमुपधिकरणं यतनया यतयःप्रक्षालयन्ति / द्रवस्य जलस्य च असति अभावे, जघन्यतोऽपि पात्रनिर्योगोऽवश्यं प्रक्षालनीयः। इह निस्पूर्वो युजिरुपकारे वर्तते। तथा चोक्तम्- ''पातोदूसलेन निज्जोगो ढवयारो।'' इति / ततो नियुज्यते उपक्रियतेऽनेनेति निर्योग उपकरणम् / "अकर्त्तरि०" // 3 / 3 / 16 / / इत्यनेन घप्रत्ययः। पात्रस्य निर्योग: पात्रनिर्योगः, पात्रोपकरण पात्रकबन्धाऽऽदिः। उक्तंच- "पत्तं पत्तबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया / पडलाइँ रयत्ताण, तह गोच्छउ पायनिजोगो।।१।।'' इति। आह-किं सर्वेषामेव वस्त्राणि वर्षाकालादगिव प्रक्षाल्यन्ते, किंवाऽस्ति केषाञ्चिद्विशेषः? अस्तीति ब्रूमः / केषामिति चेत्? अत आह आयरियगिलाणाण य, मइला य पुणो वि धोवंति। मा हु गुरूण अवण्णो, लोगम्मि अजीरणं इयरे // 26 / / इह ये कृतपूर्विणो भगवत्प्रणीतवचनानुगताऽऽचाराऽऽदिशास्त्रोपधानानि अधीतिनः स्वसमयशास्त्रेषु ज्ञानिनः सकलस्वपरसमयशास्त्रार्थेषु कृतिनः, कारयितारश्च पञ्चविधेष्वाचारेषु प्रवचनार्थव्याख्याधिकारिणः सद्धर्मदेशनाभियुक्ताः सूरयस्ते आचार्याः, आचार्यग्रहणमुपलक्षणम्तेनोपध्यायाऽऽदीना प्रभूणां परिग्रहः। तेषां तथा ग्लाना मन्दास्तेषां च पुनर्मलिनानि वस्त्राणि धाव्यन्ते प्रक्षाल्यन्ते / मलिनानीत्यत्र नपुंसकत्ये प्राप्तेऽपि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलक्षणवशात् / तथाऽऽह पाणिनिः
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________________ धावण 2752 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धावण स्वप्राकृतलक्षणे- "लिङ्ग व्यभिचार्यपीति।" प्रस्तुतेऽर्थे कारणमाह मा भवतु, हुनिश्चितं, गुरूणां मलिनवस्त्रपरिधाने लोकेऽवर्णोऽश्लाघा--राथा निराकृतयोऽमी मलदुरभिगन्धोपदिग्धदेहाः, ततः किमेतेषामुपकण्ठ गतैररमाभिरिति? तथा इतरस्मिन् ग्लाने मा भवत्वजीर्णमिति भूयो भुयो मलिनानि तेषां प्रक्षाल्यन्ते। सम्प्रति ये उपधिविशेषा न विश्रम्यन्ति तन्नामग्राहं गृहीत्वा तेषां धावने विधिमाहपायस्स पडोयारी, दुनिसिज तिपट्ट पोत्ति रयहरणं। एए उन वीसामे, जयणा संकामणा धुवणं / / 30 / / प्रत्यवतीति पात्रमरिमन्निति प्रत्यवतार उपकरणम, पात्रस्य प्रत्यवतार: पावर्जः पात्रनिर्योगः षड्डिधः, तथा रजोहरणेऽस्य सत्के व निषध / तद्यथा-बाहाऽऽभ्यन्तराच। इह संप्रति दशिकाऽऽदिभिः सह यादण्डिका क्रियते, सा सूत्रनीत्या केवलेव भवति, न सदशिका, तस्या निषधात्रयम्, तत्र या दण्डिकाया उपरि एकहस्तप्रमाणाऽऽयामा तिर्यग्वेष्टकत्रयपृथुत्वा कम्बलीखण्डरूपा सा आद्या निषद्या, तस्याश्चाग्रे दशिकाःसंबध्यन्ते, ता च सदशिकामगे रजोहरणशब्देनाऽऽचार्यो ग्रहीष्यति / ततो नासाविह ग्राहा। द्वितीया त्वेनामेव निषद्या तिर्यक् बहुभिर्वेष्टकरावेष्टयन्ती किञ्चिदधिकहस्तप्रमाणाऽऽयामा हस्तप्रमाणमात्रपृथुत्वा वस्त्रमयी निषद्या सा अभ्यन्तरा निषद्योच्यते। तृतीया तु तस्या एवाऽऽभ्यन्तरनिपद्यायास्तिर्यग्वेष्टकान कुर्वती चतुरङ्गुलाधिकैकहस्तमाना चतुरस्रा कम्बलमयी भवति। सा च उपवेशनोपकारित्वादधुना पादप्रोञ्छनकमिति नढा, सा बाह्या निषद्येत्यभिधीयते / मिलितं च निषधात्रयं दण्डिकासहित रजोहरणमुच्यते। ततो रजोहरणस्य सत्के द्वे निषधे, इति न विरुद्यते। तथा त्रयः पट्टाः, तद्यथा-संस्तारपट्टः, उत्तरपट्टः, चोलपट्टश्च / एते च सुप्रतीताः। तथा (पोत्ति ति) मुखपोतिकामुखपिधानाय पोतं वर गुखपोतम, मुखपोतमेव ह्रस्वं चतुरङ्गुलात्मिकावितरितमात्रप्रमाणत्वात मुखपोतिका, मुखवस्तिकेत्यर्थः / "अतिवर्तन्ते स्वार्थिप्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्ग वचनानि।" इति वचनाच्च प्रथमतो नपुसकत्येऽपि प्रत्यये समानीते स्वीत्वम् / तथा-(रयहरण त्ति) दण्डिका वेष्टकत्रयप्रमाणप्रथुत्वा एकहस्ताऽऽयामा हस्तत्रिभागाऽऽयामदशापरिकलिता प्रथमा या निषद्या प्रागुक्ता सा रजोहरणम् / तथा च भाष्यद्वक्ष्यति- ''एगनिसेज च रयहरणं / '' बाह्याऽऽभ्यन्तरनिषद्यारहितमेकनिषद्यं सदश रजोहरणमिति / एतानुपधिविशेषान्न विश्रमयेत् नापरिभोग्यान स्थापयेत। करमादिति चेत्? उच्यते-प्रतिवासरमवश्यमेतेषां विनियोगभावात् / ततो यतनया वस्त्रान्तरितेन हस्तन ग्रहणरूपया संक्रमणा षटापटकानामप्रक्षालनीयेषु वस्त्रेषु संक्रमणं ततो धावनं प्रक्षालनमिति। एतामेव गाथा भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति... पायस्स पडोयारो, पत्तगवञ्जो य पायनिजोगी। दोन्नि निसिजाओ पुण, अमिंतर बाहिरा चेव / / 32|| संथारुत्तरचोलग, पट्टा तिन्नि य हवंति नायव्वा। मुहपोत्ति त्ति पोत्ती, एगनिसिजंच रयहरणं / / 33 / / एए उन वीसामे, पइदिणमुवओगओ य जयणाए। संकामिऊण धावं-ति छप्पंया तत्थ विहिणाए।।३४।। एतास्तिस्रोऽपि व्याख्यातार्थाः, नवरं (संकामिऊण इत्यादि) तत्र | विश्रामाभावे सति यतनया षट्पदिका अन्यत्र संक्रमय्य विधिना धावयन्ति प्रक्षालयन्ति। तदेवमविश्रमणीय उपधिरुक्तः, तगणनाच शेषो विश्रमणीयोपधिर्गम्यते। ततस्तस्य विश्रमणे विधि बिभणिषुरिदमाहजो पुण वीसामिज्जइ, तं एवं वीयरायआणाए। पत्ते धावणकाले, उवहिं वीसामए साहू // 35 // यः पुनरुपधिः प्राप्ते धावनकाले प्रक्षालनकाले, अनेन अकालप्रक्षालनेन भगवदाज्ञाभङ्गलक्षणं दोषमुपदर्शयति; विश्रभ्यते नि:शेषषट्पदिकाविशोधनार्थमपरिभुक्तो ध्रियते, तमुपधिं वीतरागाऽऽज्ञया सर्वज्ञोपदेशन, सर्वज्ञोक्तमित्यवधार्यमिति भावः। एवं वक्ष्यमाणन प्रकारण साधुर्विश्रमयेत्। विश्रमणाप्रकारमेवाऽऽहअभिंतरपरिभोगं, उवरि पाउणइ नाइदूरे य। तिन्नि य तिन्नि य एगं, निसिं तु काउं परिच्छिज्जा / / 33 / / इह साधूनां द्वो कल्पा क्षौमौ। एकः कम्बलमयः। तत्र यदाते प्राव्रियन्ते, तदा एकः क्षोमाऽभ्यन्तरं प्राब्रियते, शरीरलगः प्राव्रियते इत्यर्थः। द्वितीयः क्षामस्तस्योपरि कम्बलमयः तस्याऽप्युपरि / ततः प्रक्षालनकाले विश्रमणाविधिप्रारम्भे रात्री स्वपने अभ्यन्तरपरिभोग सदैव शरीरेण सह संलग्नं परिभुज्यमानं क्षौमं कल्पमुपरि शेषकल्पद्वया बहिणीणि दिनानि यावत् प्रावृणोति / येन तत्थाः षट्पदिकाः क्षुधा पौड्यमाना आहारार्थम, अथवा शीताऽऽदिना पीड्यमानास्त बहिः प्राब्रियमाणं कल्पमपहायाऽऽन्तरे कल्पद्ये शरीरे वा लगन्ति। एष प्रथमो विश्रामणाविधिः / एवं त्रीणि दिनानि प्रावृत्य ततस्त्रीण्येव च दिनानि यावत् रात्री स्थापकाले नातिदूरे स्थापयति / किमुक्तं भवति? स्वापकाले सस्तारकतट एव स्थापयति, येन प्रथम विश्रमणविधिना या न निःसृताःषट्- पदिकास्ता अपि क्षुधा पीड्यमाना आहारार्थ ततो विनिर्गत्य संस्तारकाऽऽदी लगन्ति / एष द्वितीयो विश्रामणाविधिः। तत एकां निशां रात्रिम. तुः समुच्चये। स्वापस्थानस्योपरि लम्बमानमधोमुखं शरीरलग्नप्राय पर्यन्ते प्रसारितं कृत्वा स्थापयेत् / संस्थाप्य च पश्वात्परीक्षेत, दृष्ट्या, प्रावरणेन च षट्पदिकां निभालयेत् / तद्यथाप्रथम तावद् दृष्ट्या, निभालयेत्, दृष्ट्या निभालिता अपि यदि न दृष्टास्ततः सूक्ष्मषट्पदिकारक्षणार्थ भूयः शरीरे प्रावृणोति; येन ता आहारार्थ शरीरे लगन्तिा एवं परीक्षणे कृते यदिता न स्युस्तदा प्रक्षालयेत्। अथ स्युस्तर्हि पुनः पुनर्निभाल्य यदा न सन्तीति निश्चितं भवति तदा प्रक्षालयेत्। एवं सप्तभिर्दिनः कल्पशोधना / एतदनुसारेण शेषस्याप्युपधेः शोधना भावनीया / इह विश्रमणा प्रक्षालनीयस्यापरिभोगरूपा उक्ता, ततो यस्तस्य बहिः प्रावरणाऽऽदिरूपः परिभोगः स परमार्थतोऽपरिभोग इति न तदापि विश्रमणा विरुद्धयते। एतामेव गाथा भाष्यकृयाख्यानयतिधोवत्थं तिन्नि दिणे, उवरि पाउणइ तह य आसन्न / धारेइ तिन्नि दियहे, एगदिणं उवरि लंबतं / / इयं व्याख्यातार्था। अत्रैव विश्रमणाविधी मतान्तरमाहकेई एकेक्क-निसिं, संवासेउं तिहा परीच्छंति।
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________________ धावण 2753 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धावण पाउणिऍ जइन लग्गं-ति छप्पया ताहें धोवंति // 37 / / के चेदेके सूरय एवमाहुः-एकैकां निशां रात्रि त्रिधा त्रिभिः प्रकारः पूर्वोक्तः सवास्य। तद्यथा-एकां निशां शोधनीय कल्प बहिः प्रावृणोति, द्वितीयां निशः संस्तारकतटे स्यापयति, तृतीयां तु निशा स्वपन स्वापस्थानस्योपरि लम्बमानमधोमुख प्रसारित शरीरलक्ष्मप्रायपर्यन्त स्थापयति / एवं त्रिधा। संवास्य परीक्षन्ते दृष्ट्या निभालयन्ति। निभालिताश्चेन्न दृष्टाः, ततः सूक्ष्मषट्पदिकाविशोधनार्थ प्रावृण्वन्ति, प्रावृतो च यदि न लगन्तिन लगाः प्रतिभासन्तेषट्पदिकास्ततः प्रक्षालयन्ति, लगन्ति चेत्तर्हि भूयो भूयस्तावद् दृष्ट्या, शरीरप्रावरणेन च परीक्षन्ते, यावन्न रान्तीति निश्चित भवति ततः प्रक्षालयन्तीति / एषोऽपि विधिरदूषणात्समीचीन इवाऽ5चार्यस्य प्रतिभासत इति मन्यामहे / वस्त्रप्रक्षालनं च जलेन भवत्यतो जलग्रहणे विशेषमाह . तिव्वोदगस्स गहणं, केई भाणेसु असुइपडिसेहो। गिहिभायणेसु गहणं, ठिऐं वासे मीसगं छारो॥३८|| वर्षासु गृहच्छादनप्रान्तगलितं जलं तीव्रोदकं, तस्य॑ह यदि वर्षाकालादर्वाक् सर्वोऽप्युपधिः कथञ्चित्सामाग्यभावतो न प्रक्षालितस्तर्हि प्राप्ते वर्षे सति साधुभिस्तीव्रोदकस्य गृहपटलान्तोत्तीपर्णस्य जलस्य वस्थप्रक्षालनार्थ ग्रहणमादानं कर्त्तव्यम्। तद्धिरजोगुण्ठितधूमधूम्रीकृतदिनकरतापसंपर्कसोष्मतीब्रसंस्पर्शतः परिणतत्त्वादचित्तम्, अतस्तद्ग्रहणे न काचिद्विराधना। तीव्रोदकस्य ग्रहणे केचिदाहुजिनेषु स्वपात्रेषु तीवोदकस्य ग्रहण कर्तव्यमिति / अत्राऽऽचार्य आह-(असुइपडिसेहो) 'असुइ त्ति' भावप्रधानोऽयं निर्देशः। ततोऽयमर्थः-अशुचित्वादपवित्रत्वारपरोक्तविधिना तीव्रोदकस्य प्रतिषेधः। तीव्रोदकं हि न मलिनत्वात् शुचि, लतः कथं येषु पात्रेषु भोजन विधीयते, तेषु तस्य ग्रहणमुपपन्नं भवति / मा भूत् लोके प्रवचनगर्दा, यथाऽमी अशुचय इति / ततो गृहीभाजनेषु गृहिसत्केषु कुण्डिकाऽऽदिषु, तस्य तीव्रोदकस्य ग्रहणम्। तच्च तीब्रोदकग्रहण स्थिते निवृत्ते वर्षे वृष्टावतमुहूर्तादू मिति गम्यते। अन्तर्मुहूर्तेन सर्वाऽऽत्मना परिणमनसंभवात् / अस्थिते किमित्याह(मीसगं ति) मिश्रकं निपतति वर्षे तत्तीव्रोदकं मिश्रं भवति / तथाहिपूर्वनिपतितमचित्तीभूत, तत्कालं तु निपतत्सचित्तमिति मिश्रम् / ततः स्थिते वर्षे तत्प्रतिग्राह्यं तम्मिश्च प्रतिगृहीते तन्मध्ये (छारो त्ति) क्षार: प्रक्षेपणीयो, येन भूयः सचित्तं न भवति। जलं हि केवलं प्रासुकीभूतमपि भूयः प्रहरत्रयादूर्द्ध सचित्तीभवति। ततः तन्मध्ये क्षारः प्रक्षिप्यते। अपि च-क्षारप्रक्षेपे समलमपि जलं प्रसन्नतामामजति, प्रसन्नेन च जलेन प्रक्षाल्यमानानि आचार्याऽऽदिवासांसि सुतेजांसि जायन्ते / तत एतदर्थभपि क्षारप्रक्षेपो न्याय्यः / संप्रति धावनगतमेव क्रमविशेषमाहगुरुपचक्खाणिगिला-णसेहमाईण धोवणं पुव्वं / तो अप्पणों पुव्वमहा-कडे य इयरे दुवे पच्छा / / 36 / / गुरुप्रत्याख्यानिग्लानशैक्षाऽऽदीनां पूर्व प्रथमं धावनं कुर्यात्ततः पश्चादात्मनः / इयमत्र भावना-इह साधुभिः परमहितमात्मनः समीक्षमाणेरवश्यं गुर्वादिषु विनयः प्रयोक्तव्यः, विनयबलादेव सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रवृद्धिसंभवात्। अन्यथा दुर्विनी तस्य सतो गच्छवासस्यैवासभवतः सकलमूलहानिप्रसक्तः। ततो धावनप्रवृत्तेन साधुना प्रथमतो गुरूणामाचार्याणां वासांसि प्रक्षालनीयानि, ततः प्रत्याख्यानिना क्षपकप्रवृत्तीनां तदनन्तरंग्लानानां, ततोऽप्यनन्तरं शैक्षकाऽऽदीनाम्। तत्र शैक्षाअभिनवप्रवजिताः। आदिशब्दाबालाऽऽदिग्रहः सूत्रे च- "सेहमाईण' इत्यत्र मकारोऽज्ञाक्षणिकः। ततस्तदनन्तरमात्मनः / इह सर्वेषामपि गुवादीनां यथायोगं त्रिविधान्यपि प्रक्षालनीयवस्वाणि संभवन्ति / तद्यथायथाकतानि, अल्पपरिकर्माणि, बहुपरिकर्माणि च। तत्र यानि परिकर्मरहितान्येव तथारूपाणि लब्धानि, तानि यथाकृतानि / यानि चैकं वार खण्डित्वा सीवितानि, तान्यल्पपरिकर्माणि / यानि च बहुधा खण्डित्वा सीवितानि, तानि बहुपरिकर्माणि / ततस्तत्रापि धावनक्रममाह(पुव्वमहागडे यत्ति) पूर्व प्रथमं सर्वेषामपि यथाकृतानि वासांसि धाववेत् / पश्चात्क्रमण इतरे द्वे। किमर्थमिति चेत्?उच्यते-विशुद्धाध्यवसायस्फीतिनिमित्तम् / तथाहि-यान्यल्पपरिकर्माणि तानि बहुकर्मापेक्षया स्तोक संरामध्याघातकारीणि भवन्तीति / तदपेक्षया शुद्धानि / तेभ्योऽपि यथाकृतान्यतिशुद्धानि, मनागपि पलिमन्थदोषकारित्वाभावात् / ततो यथा पूर्व पूर्व शुद्धानि प्रक्षाल्यन्ते, तथा संयमबहुमानवृद्धिभावतो विशुद्धाध्यवसायस्फीतिरिति पूर्व यथाकृतानीत्यादिक्रमः। संप्रति प्रक्षालनक्रियाविधिमुपदर्शयतिअच्छो डपिट्ट णासु य न धुवे धोए पयावणं न करे। परिभोग अपरिभोगे, छायाऽऽतवे च पेह कल्लाणं / / 4 / / इह वस्त्राणि धावत आच्छोटपिट्टनाभ्यां न धावेत् / तत्राऽऽच्छोटनंरजकरिव शिलायामास्फालनम् / पिट्टनंधनहीनरण्डारमणीभिरिव पुन पुनः पानीयप्रक्षेपपुरस्सरमुद्वयोस्पिट्टनेन कुट्टनम् / सूत्रे च सप्तमी तृतीयार्थे / यथा-"तिसु अलंकिया पुहवी" इत्यादौ / चशब्दोऽनुक्तसमुचयार्थः / स च पाणिपादेन प्रमृज्य प्रमृज्य यतनया प्रक्षालयेदिति समुचिनोति / ततो धौते प्रक्षालिते धावनजलस्पर्शजनितशीतापनोदाथाऽऽत्मनो वस्त्रस्य वा शीषणाय अग्नेः प्रतापनं न कुर्यात् / मा भूद्धावनक्षारजलाऽऽीभूतहस्ताऽऽदितो वस्त्रतो वा कथचिद्विन्दूपनिपातेनाग्निकायविराधना। यद्येवं तर्हि कथं वस्त्रस्य शोषणं कर्तव्यमिति। शोषणविधिमाह-परिभोग्यानि, अपरिभोग्यानि च यथाक्रम छायाऽऽतपयोः शोषयेत्। सूत्रे च विभक्तिलोप आर्षत्वात्। परिभोग्येषु हि वस्त्रेषु तथा पूर्वशोधितेष्वपि कथञ्चित् षट्पदिका संभवति। सा च प्रक्षालनकाले तथोपमर्दिताऽपि कथशिजीविता सती दिनकराऽऽतपसंपर्क म्रियते, ततस्तद्रक्षणार्थ तानि छायायां शोषयेत्। इतराणि त्वातपे, दोषाभावात्। तानि छायायामातपे च शोषार्थ विशारितानि निरन्तर (पेह त्ति) प्रेक्षत, येन परास्कन्दिनो नापहरन्ति / इह पूर्वोक्ताविधिना यतनापुरःसरमपि धाव्यमानेषु वस्त्रेषुकथशिद्वायुविराधनारूपः, षट्पदिकोपमर्दाऽऽदिरूपो वाऽरांयमोऽपि संभाव्यते / ततस्तच्छुद्ध्यर्थं तस्य साधोगुरुणा कल्याणसंज्ञ प्रायश्चित्त देयम्। पिं०। ओघ०। नि०चू० सचित्तेण उ धुवणे, मुहणंतगमादिए वि चउलहुया। अचित्ते, धोवणम्मि वि, अकारणे उवधिणिप्फण्णं / / 152|| सचित्ते ण उदगेण जइ वि मुहणं तग धुवति, तदा वि चउलहुयं /
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________________ धावण 2754 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धिइबलिय अह अचित्तेण उदगेण अकारणे धुवति, तओ उवहिणिप्फण्ण भवति / विष्कुम्भावधिकेऽष्टमे योगे, अष्टादशाऽक्षरपादके छन्दोभेदे, अष्टाशजहण्णोवकरणे पणगं, मज्झिमे मासलहुं, उकोसे चउलहुँ। सचित्तेणा- संख्यायां च। वाचा भिक्खणं धोवणे अडेहिंसपदं, मीसे दसहिंसपदं, अचित्तेण विणिक्कारणे धिइकंद-पुं०(धृतिकन्द) धृतिश्चित्तस्वास्थ्य, स एव कन्दः स्कन्धाधोअभिक्खं धोवणे उवहिणिप्फण्णे सट्टाणा उवरिमं णायव्वं : नि० चू०। भागररूपोयस्य स तथा। चित्तस्वास्थ्यरूपस्कन्धाधोभागयुते संवरपादपे, उ०। शुभाध्यवसायान्मिथ्यात्वपुद्गलानां सम्यक्त्वभावसंजननरूपे प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। कर्मणोऽवस्थाभेदे च। आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। धिइकूड--न०(धृतिकूट) धृतिस्तिगिच्छदसुरी तस्याः कूट धृतिकूटम्। धाविय-त्रि०(धावित) धावितु प्रवृत्ते, कल्प०१ अधि०३ क्षण। जम्यूमन्दरदक्षिणस्या दिशि स्थितस्य निषधवर्षधरपर्वतस्य तिगिच्छधि(क)-अव्य० (धिक्) धाo-धक्क वा डिकिः / अनिष्टशरदर्भयजनने. हृदाधिष्ठात्र्या धृतिदेव्याऽधिष्टिते स्वनामख्याते कूटे, ज० 4 वक्षा निर्भर्त्सन, निन्दायाग, स्था०७ ठाण वाच० व्या जंगा "धिगत्थु से स्थान धिइजुत्त-त्रि०(धृतियुक्त) धृतिश्चित्तस्वास्थ्यं तद्युक्तो धृतियुक्तः / धिइ-स्त्री०(धृति) धरणं धृतिः / आ०म०१अ०१खंड / धृ-क्तिन। चित्तरवास्थ्यापेते, पश्चा० 18 विव०॥ "इत्कृपाऽऽदौ" ||811 / 128 // इति प्राकृतसूत्रेणेकारः / प्रा०१ पाद। धिइजुय-त्रि०(धृतियुत) धृतिश्चित्तावष्टम्भस्तद्युतो धृतियुतः / माधारणे, आ०म०१ अ०१ खंड / पतनप्रतिबन्धकसंयोगे, द्वा०४ द्वा० नसावष्टम्भयुते, स हि नातिगहनेष्वप्यर्थेषु भ्रममुपयाति। ठा० 1 अधि०। धारणारूपे मतिज्ञानभेदे, विशे०। सन्तोषे, कल्प०१ अधि०५ क्षण। प्रव०। धृतिर्येन केनचिद्वसनभोजनाऽऽदिना निर्वाहमात्र-निमित्तेन सन्तोषः। धिइधणिय-पुं०(धृतिधनिक) धृतेर्मनःस्वास्थ्यस्य धनिकःस्वामी योगबिंगा अष्टा धैर्ये, कल्प०१अधि०५ क्षण।धृतिर्धयं चित्तस्यैकाग्रम्। धृतिधनिकः / मनःस्वास्थ्यस्वामिनि, स०६ अङ्ग। उत्त०३२ अ०॥ धृतिः संयमे धैर्य चित्तसमाधानम्। सूत्र०१ श्रु०८ अ०) धिइधणियणिप्पकंप-त्रि०(धृतिधनिकनिष्प्रकम्प) धृतिरज्जुबन्धनेन रागद्वेषानाकुलतया मनःप्रणिधाने, आव०५ अ०। धृतिर्वजकुड्यवदच्छेद्य धनिकमत्यर्थ निष्प्रकम्पोऽविचलो यः स मध्यमपदलोपाद्धतिधनिकप्रणिधानम् / बृ०६उ०। ज्ञा०। स्था०। धला या०। संथा० ग०। निष्प्रकम्पः। धृतिरज़ुबन्धनेनात्यर्थमविचले, औ०] धृतिरुनेगाऽऽदिदोषपरिहारेण चित्तस्वास्थ्यम् / पञ्चा०४ विव०। स०। धिइधणियबद्धकच्छ-त्रि०(धृतिधनिकबद्धकक्ष) धृतिरेव धनिकबृ०। प्रव०। चं०प्र०। धृतिश्चित्तदाढ्यमिति / प्रश्न०१ सम्ब० द्वार / सृ० मत्यर्थ बद्धा कक्षा येन स तथा। भ०६।०३३ उ०। धृतौ सन्तोषे, धैर्ये वा प्र०ा विपा०ा धरणं धृतिः / सम्यग्दर्शनचारित्रावस्थाने, सूत्र०१ श्रु० "धणिय ति'' अत्यर्थ बद्धकक्षः धृतिधनिकबद्धकक्षः। कल्प०१ अधि०५ 11 अ०1 उत्त०। “भई धिइवेलापरिगयस्स।" धृतिर्मूलोत्तरगुणविषयः क्षण / धृत्या चित्तस्वास्थ्येन "धणियं ति" अत्यर्थ बद्धा कक्षा येन स प्रतिदिवसमुत्सहमान आत्मपरिणामविशेषः। नं०1 तत्परिपालनीय तथा / ज्ञा०१ श्रु०१ अ० संथाला धृतिश्चित्तसमाधानं, तद्रूपा "धणिय त्यादहिंसायाम्। प्रश्न०१ सम्ब०द्वार। न रागाऽऽद्याकुलतया धृतिर्मनः त्ति" अत्यर्थ,बद्धा निष्पीडिता कक्षा बन्धविशेषो यत्र तत्तथा / प्रणिधान, विशिष्टा प्रीतिः। इयमप्यत्र मोहनीयकर्मक्षयोपशमाऽऽदि धृतिबलयुक्ते, स०११ अङ्ग। "धिइधणियबद्धकच्छा।" धृत्या चित्तसंभूता, रहिता दैन्यौत्सुक्याभ्यां, धीरगम्भीराऽऽशयरूपा अबन्ध्य स्वास्थ्येन धनिकमत्यर्थ बद्धा कृता आराधनारूपा कक्षा प्रतिज्ञा परिकरो कल्याणनिबन्धना वस्त्वापत्युपशया। ल०। 'धितौ तु मोहस्स उधरामे वा यैस्ते धृतिधनिकबद्धकक्षाः। संथा। होइ।" मोहक्षयोपशमाद् धृतिर्भवति / नि०चू०१ उ०। "होइ धितीयऽहिगारो, विसेसओ खित्तकालेसु।" आचा०१ श्रु०५ अ०१उ०॥ धिइबल-न०(धृतिबल) धृतेश्चित्तसमाधेबलमवष्टम्भो धृतिवलम्। चित्तद्रव्ये तावदरसविरसप्रान्तरक्षाऽऽदिके धृतिर्भावयितव्या, क्षेत्रेऽपि समाधेरवष्टम्भे, ध०३ अधि०। धृतिश्चित्तसमाधिर्बलमवष्टम्भो धृतिबलम्, कुतीर्थिकभाविते प्रकृत्यभद्रके वा नोद्वेगः कार्यः, कालेऽपि दुष्काला तत्कारणत्वान्महाव्रतमपि धृतिबलम् / चित्तसमाधिलक्षणे सामर्थ्य , ऽऽदौ यथालाभसन्तोषिणा भाव्यम्, भावेऽप्याक्रोशोपहसनाऽऽदौ पा०। पञ्चा०ाधला तत्कारणत्वान्महाव्रताऽऽदौ च / पा०। सात्त्विके, कातरे नोद्दीपितव्यम्। विशेषस्तु क्षेत्रकालयोरवमयोरपिधृतिर्भाच्या, द्रव्यभाव च। त्रि०ा बृ०१उ०॥ योरपि प्रायशस्तन्निमित्तत्वात् / आचा० 1 श्रु० 5 अ०२३०। धैर्या | धिइबलय-न०(धृतिबलक)स्वार्थे कः / चित्तसमाधिलक्षणे सामर्थ्य, धिष्ठात्र्या देवतायाम, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०, जम्बूमन्दरदक्षिणरयां दिशि __ तत्कारणत्वान्महाव्रताऽऽदौ च / पा०। स्थितस्य निषधवर्षधरपर्वतस्य तिगिच्छद्रदाधिष्ठाभ्यां धृतिकूटस्थायां * धृतिबलद-त्रि०ा चित्तसमाधिलक्षणसामर्थ्यदायके महाव्रताऽऽदौ, पा०। देवतायान, स्था०३ ठा०४उ०। जंगा धृतिस्तिगिच्छद्रदसुरीति। स्था०६ | धिइबलिय -त्रि०(धृतिबलिक) तिर्वजकुड्यवदच्छेद्यं प्रणिधानं, तया ठाला निरयावलिकोपाङ्गस्य पुष्पचूलाऽऽख्यचतुर्थवर्गस्य तृतीयाध्ययने- बलिको बलवान् / बृ०६उ०। अतिशयेन धृतिमति, दर्श०१ तत्त्व / प्रतिबद्धवक्तव्यतायां स्वनामख्यातायां देव्याम, नि०१ श्रु०४ वर्ग 1 अ० चित्तसमाधानलक्षणसामर्थ्ययुक्ते च / पञ्चा०७ विवाधा
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________________ धिइमइ 2755 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धीमह धिइमइ-स्त्री०(धृतिमति) धृतौ मतितिमतिः। आव०४ अ०। / धिज्ज-न०(धैर्य) धीरस्य भावे ष्यञ्। "ईद् धैर्ये" ||8/1 / 155 / / धृतिप्रधाना मतिधृतिमतिः। आव०४ अ०। सा योगसंग्रहभेदे, आ० इतिप्राकृतसूत्रेण धैर्यशब्दे ऐत ईः / प्रा०१ पाद / "धैर्ये वा' चू०४ अ० प्रश्रा / / 8/2164 // धैर्ये यस्य रोवा। 'धीरं। धिज्जं / ' प्रा०५ पाद / “स्याद्धृतिमतिद्वारमाह भव्य-चैत्य-चौर्य-समेषु, यात् // 62 / 107 / / इतिप्राकृतसूत्रेण "नगरी य पंडुमहुरा, पंडववंसे मई असुमई अ। चौर्यसमेषु शब्देषु संयुक्तस्य यात्पूर्व इद् भवति / 'धीरियं / ' प्रा०२ वारीवसभाऽऽहरणे, उप्पाइअसुट्ट एअपव्वजा।।१।।" पाद। "स्थिरचित्तोन्नतिर्या तु, तद्धर्यमिति गीयते।" इत्युक्ते मनसः वारिवृषभः प्रवहणम्। स्थैर्ये , वाचा 'धैर्य्य चित्तसमाधानम्। सूत्र०१ श्रु०८ अ० "पत्तियाई घिजाई।' प्रीतौ दाने वा स्थैर्य्यवन्ति / कल्प०३ अधि०६ क्षण / षो०। 'नगरी च पाण्डुमथुरा, तत्राऽऽसन् पञ्च पाण्डवाः। सत्त्वे, प्रश्न०२ संब० द्वार। "मनसो निर्विकारत्वं,धैर्य सत्स्वपि हेतुषु / ' स्थापितः प्रव्रजद्भिस्तै-निजराज्ये निजः सुतः / / 2 / / इत्युक्ते मनसो विकाराभावे, अव्याकुलत्वे, विघ्नाऽऽद्युपस्थितावपि नेमिनं तु दधावुस्ते (?), हस्तिकल्पपुरेऽन्तरा। प्रारब्धापरित्यागहेतौ चित्तवृत्तिभेदे च / वाचा भिक्षागताः प्रभु काल-गतं श्रुत्वा विषादिनः / 3 / / * धेय-त्रि०) धारणीये, पालनीये, ज्ञा०१ श्रु०१०॥ आत्त भक्तं परित्यज्य, गत्वा शत्रुञ्जयाचले। * ध्येय-त्रिका हृदि धारणीये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० विधायानशनं प्राप्य. केवलं निर्वृतिं ययुः / / 3 / / धिजाइय-त्रि०(धिगजातिक) धिग्जातिमति, आव०२०। नि० चू० तद्वंश पाण्डुसेनोऽभू-नृपस्तस्य सुताद्वयम्। 'तत्थ भद्दा नाम धिज्जाइणी।' आ०म०१ अ०२ खण्ड। मतिश्च सुमतिश्चैव, ते / अपि च रैवते॥४।। धिजाईय-त्रि०(धिग्जातीय) धिगजात्युत्पन्ने, आव०३ अ०नि०चू०। नन्तु चैत्यानि पोतेन, प्रस्थिते सागराध्वना। आ० म० उत्पाते तत्र संजाते, रुद्राऽऽदीन जनताऽस्मरत् / / 5 / / धिजीविय-न०(धिगजीवित) कुत्सितजीविते, सूत्र०२ श्रु०२०॥ ताभ्यां पुनर्भृशं स्वात्मा, संयमे विनियोजितः। चिट्ठ-त्रि०(धृष्ट) धृष्-क्तः। 'मसृण-मृगाड् क-मृत्यु-शृङ्ग-धृष्ट वा" भिन्नप्रवहणे प्राप्य, ज्ञानं मुक्तिरलभ्यत / / 6 / / / / 8 / 1 / 130 / / इति प्राकृतसूत्रेण ऋत इद्वा। प्रा०१ पाद। निर्लजे, प्रगल्भे, सुस्थितो लवणाधीशो-ऽकार्षीत्पूजा तदङ्गयोः। नायकभेदे च / वाचा दिव्योद्योतेन तत्तीर्थ, प्रभासाभिधयाऽभवत्॥७॥" आ०क० धिप्प-धा०(दीप) दीप्तौ, दिवा०-आत्म० सेट् / ''दीपौ धो या'' धिइमइववसायदुब्बल-त्रि०(धृतिमतिव्यवसायदुर्बल) धृतिम- / / 811 / 223 / / दीप्यतौ दस्य धो वा। धिप्पइ। दिप्पइ।' प्रा०१ पाद। तिव्यवसाया दुर्बला यस्य स तथा / धृतिमतिव्यवसायेषु दुर्बलो दीप्यते / अदीपि। अदीपिष्ट / दीपू-णिच् / अदीदीपत्-त। अदीदिपत्धृतिमतिव्यवसायदुर्बलः / दुर्बलधृतिमतिव्यवसाये, धृतिमतिव्य- त।वाचन वसायेषु दुर्बले च। स०४२ समा धिम्मल-न०(धिङ् मल) निन्द्यमले, तं०। धिइमंत-त्रि०(धृतिमत्) धैर्यवति, उत्त० 26 अ०। चित्तस्वास्थ्ययुक्ते, घिसण-पुं०(धिषण) बृहस्पतौ, को०६७ गाथा। अरतिरत्यनुलोमप्रतिलोमोपसर्ग सहे, स्था०८ ठा०। असह्य- धी-स्त्री०(धी) ध्य-क्विप, सम्प्रसाराणं च / बुद्धौ, धीर्बुद्धिरित्यपरीषहाभिद्रुतोऽपि चारित्रधृतिमानिति / सूत्र०१ श्रु०६ अ०। धृतिः नर्थान्तरम्। पं० चूा आचाला गाना ''धी मई बुद्धी।" को०३१ गाथा। समाधान संयमे यस्य स धृतिमान् / आचा०२ श्रु० 4 चू०१६ अ०। आतु०। गा०। सूत्र० अनु०। आचा०ा तत्त्वावगमे च / धीर्बुद्धिसूत्रा संयमस्वस्थे, ध०३ अधि०। दश० "धितिमंता जिइंदिया।" स्तत्त्वावगमः। धिय-ई-श्री:धीः बुद्धिसम्पत्तौ च। गा०। धीश्चित्तं तत्र य ई: धृतिः संयमे रतिः, सा विद्यते येषां ते धृतिमन्तः। संयमधृत्या हि कामः स धीः। चित्तस्य कामे, गा० अभेदोपचारात् पण्डिते च / पुं०। गा| पञ्चमहाव्रतभारोदहनं सुसाध्यं भवतीति / सूत्र०१ श्रु०६ अ० दशा | धीउ-त्रि०(धीयु) धीर्बुद्धिर्विज्ञान, तस्या युरपृथग्भूतः धीयुः। बुद्धियुते, गा०) (एतच्च धम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2705 पृष्ट समुक्तम्) धीधण-त्रि०(धीधन) बुद्धिधने, "नियमेनधीधनैः पुंभिः।" षो०१६ विव०। धिइवीरियपरिहीण-त्रि०(धृतिवीर्यपरिहीण) मानसिकावष्टम्भ धीम-पुं०(धीम) धीर्बुद्धिस्तत्त्वतस्तन्मिमीते शब्दयति प्ररूपयति धीमः। बलरहिते, बृ०२०। बुद्धितत्त्वप्रतिपादके भनवति कपिले, गा०। धियं ज्ञानमेव मिमीते धिक्कय-त्रि०(धिकृत) धिक् निन्दनीयः कृतः / कृ-तः। धिक्कार प्राप्ते, शब्दयति प्रापयति धीमः। बहिराऽऽकाराणामविद्यादर्शितत्वादविद्यव्य०१ उ०। भावे तु धिक्कारे, ना बृ०६ उ०। मानत्वेन ज्ञानाद्वैतप्रतिपादके बुद्धे, गा० ज्ञानत्रयाभिरामत्ये, कल्प०१ धिकरण-न०(धिक्करण) धिक्शब्दविषयीकरणे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ अधि०३ क्षण। धिक्कार-पुं०(धिक्कार) धिक्-कृ-घञ् / तिरस्कारे, वाच०। धिग- धीमह-त्रि०(धीमह) अभेदोपचाराद् धियः पण्डिताः महन्तीति महः धिक्षेपार्थ एव, तस्य करणमुच्चारणं धिक्कारः। स्था०७ ठा०। धिक्-कृ- पूजका आराधकाः, महेः विप। धियां महः धीमहः / विद्वज्जनपर्युघञ्। तिरस्कारे, वाचा तदात्मके दण्डनीतिभेदे, स्था०७ ठा०। जं० पासकेषु, गााधियः पण्डिता महः पूजका यस्य स तथा / विद्वआ०म० कल्प। तिन जनपर्युपासिते, गाग
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________________ धीमंत 2756 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुत्तक्खाण धीमंत-पुं०(धीमत्) धीः प्रज्ञाऽस्त्यस्य मतुप / बृहस्पती, बुद्धिमति, - धुक्कुधुअ-न०(देशी) उल्लसिते, दे०ना०५ वर्ग 60 गाथा। पण्डिताऽऽदौ च / त्रिभवाचा द्वा० 16 द्वार / यो० बिं०। कल्प। | धुक्कुधुगिअ-न०(देशी) उल्लसिते, दे०ना० 5 वर्ग 60 गाथा। ज्ञानचतुष्टययोगाद् महाप्रज्ञे च। हा०२७ अष्ट। धुंधुमार-पुं०(धुन्धुमार) सुंसुमारपुरस्थे स्वनामख्याते नृपे, धीर-त्रि०(धीर) धियं बुद्धिं राति ददातीति धीरः। रा-कः। उत्त०७ अ०। ''सुंसुमारधुंधुमारे, अंगारवई य पञ्जोए।" आ०चू० 4 अ०। आ० कला आतु०॥ धिया औत्पत्यादिकया बुद्ध्या राजत इति धीरः। ग०१अधि०। इन्द्राण्याम्, देवना०५ वर्ग 60 गाथा। (तत्कथा 'संवेग' शब्दे वक्ष्यते) व्या आचा०। सूत्र०। उत्तानं० आव० आतु०। धियमीरयति धी ईर धुण-धा०(धुव) धूग कम्पने, भ्वादि०-उभ०-सक०-वेट्। 'धूगेर्धवः" अण, धी क्रन्वा। वाचा तीर्थकरे, गणधरे च। आचा०१ श्रु०५ अ०२उ०। / / 14 / 56 / / इति प्राकृतसूत्रेण धुव इत्यादेशो या। 'धुवइ। प्रा०४ पाद / आव०। आतु० बुद्ध्या विराजिते, ध०२ अधि०। आचा०। धीरो "चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो म्हस्वश्च'' ||8 / 4 / 241 / / विशुद्धबुद्धिमानिति / आतु०। धीरः सदबुद्ध्यलकृतः।' सूत्र०१ श्रु० एषामन्ते णकाराऽऽगमो, न्हस्वश्च / 'धुणइ ।'प्रा०४ पाद / धावति-ते। 13 अ०। बुद्धिमति, प्रश्न०५ संब० द्वार। दश०। व्य०। पश्चा०। सूत्र० / अधावीत्। अधविष्ट 1 अधोष्ट / वाचा धूकम्पने, स्वा० उभ०-सक०उत्त०। विवेकिनि, सूत्र० 1 श्रु०७ अ०। विदुषि, आतु। धीरा वेट् / धूनोति / धुनीते / धुनाति / धुनीते / अधावीत् / अधविष्ट / विदितवेदितव्याः। सूत्र०१ श्रु०१३अ०। आतुला साहसिके, सूत्र० १श्रु० अधोष्ट / 'धूनोति चम्पकवनानि धुनात्यशोकम्।" इति। "वायुर्विधून१ अ०४ उ०। दृढचित्ते, दर्श०५तत्त्व। पं०चूना परीषहोपसर्गाऽऽदिभिर- यति।" इति च कविरहस्यम्। वाचा भावकर्मणोः "नवा कर्मभावे व्वः क्षोभ्ये, अष्ट०३० अष्ट०ा प्रश्न०। सूत्र०ा उत्त० / पिं०। स्था०। आचा०। क्यस्य च लुक् / / 8 / 4 / 242 / / इति प्राकृतसूत्रेण क्यस्य लुक्, द्विरुक्तो बृ०ा औ०। धीराः कर्मविदारणसहिष्णवः / सूत्र० 1 श्रु०३अ०४ उ०। ट्वकाराऽऽगमः / 'धुव्वइ / धुणिज्जइ।" प्रा०४ पाद। स्थिरे, आ०म०१अ०१ खण्ड। उत्तानका महासत्त्वे, पञ्चा० 4 विव०। धुणण-न०(धूनन) अपनयने, सूत्र०ा कृशीकरणे, आचा०१ श्रु०४अ० सूत्र० स०। धैर्यान्विते, विनीते, बलिराजे, बुद्धिप्रेरके बुद्धिसाक्षिणि 40 / परित्यागे, आचा०१ श्रु०६अ०१ उ०। स्था०। भिन्नपरमेश्वरे च। पुं०ग कुडकुमे, नानायिकाभेदे, काकोल्याम, महाज्योति- ग्रन्थैरनिवृत्तिकरणेन सम्यक्त्वावस्थानरूपे कर्मणोऽवस्थाभेदे, मत्याम् स्थिरायां चित्तवृत्तौ च / स्त्री०। वाच०। आचा०१श्रु० अ०१3०। * धैर्य-न०'धिज्ज' शब्दार्थे / प्रा० 1 पाद / धुणित्तए-अव्य०(धूनयितुम्) अपनेतुमित्यर्थे , सूत्र०१ श्रु०२ उ०। धीरकरण-न०(धीरकरण) धीरत्वोत्पादने, धीरकरणकारणानि। स० "उवहिं धुणित्तए।"धूननायापनयनाय। सूत्र०१ श्रु०२ अ०२०॥ 6 अङ्ग। धुणिया-अव्य०(धूत्वा) क्षपयित्वेत्यर्थे, दश०६ अ०३उ०। सूत्र०। धीरकित्तिपुरिस-पुं०(धीरकीर्तिपुरुष) धीराणां सतां या कीर्ति- धुणेज्ज-न०(धूननीय) पापकर्मणि, आ०चू० १अ० स्तत्प्रधानः पुरुषो धीरकीर्तिपुरुषः / सत्कीर्तिप्रधाने पुरुष, प्रश्न०४ धुण्ण-(धून्य) पापे, दश०६ अ०१ उ० आश्र०द्वार। धुण्णबहुल-न०(धून्यबहुल) धूयते इति धून्यं प्रारबद्ध कर्म तत्प्रचुरे, धीरत्त-न०(धीरत्व) परीषहोपसर्गाक्षोभ्यतायाम, सूत्र०१ श्रु०८ अol दशा०६ अ०॥ "धीरस्स पस्स धीरतं, सव्वधम्माणुवत्तिणो।" उत्त०७ अ० धुण्णमल-न०(धून्यमल) पापमले, दश० अ०१ उ०। धीरपुरिस-पुं०(धीरपुरुष) धीर्बुद्धिस्तया राजत इति धीरः, स चाऽसौ धुतोवाय-पुं०(धुतोपाय) अष्टप्रकारकर्मधूननोपाये संयमाऽऽदिके, पुरुषश्च धीरपुरुषः / प्रज्ञा०१ पद / एकान्ततो वीर्यान्तरायकर्मापगमात् आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०।। तीर्थकरे, धिया राजितत्वाद् गणधरे च / आव०४ अ० व्या दश० / धुत्त-पं०(धूर्त) धुर्व-धुर-वा-क्तः। "तस्याऽधूर्ताऽऽदौ" ||8||30 / / महासत्त्वे, महाबुद्धौ, "धीरपुरिसपण्णत्त।" महासत्त्वमहाबुद्धितीर्थकर इति प्राकृतसूत्रेणाधूर्ताऽऽदाविति निषेधात् तस्य टो न। प्रा०२ पाद। गणधरप्ररूपितम्। आव०६०। बुद्धिमति नरे, अक्षोभ्यनरे च।। धुरतूरवृक्षे, चोरकवृक्षे, नायकभेदे, "धूर्तोऽपरा चुम्बति।" लौहकीटे, पञ्चा०४ अ० विड्लवणे च / वञ्चके, घृतकारके च। त्रि०। "धुत्तेव कलिणा जिए।' धीरवणा-स्त्री०(धीरापना) दुःखेन परिताप्यमानस्य धीरो भव धीरो उत्त० ५अ०। विस्तीर्णे , दे०ना०५ वर्ग 58 गाथा। भव, अहं तवैतद् दुःखं विश्रामणाऽऽदिनाऽपनेष्यामि, अपि च धुत्तक्खाण-न०(धू ऽऽख्यान) धूर्तकथानके, ग०। तद्यथापुण्यभागिन् ! सहस्वैतद् दुःखं सम्यग, अत एव तत्सहनानन्तरम- ''अवंतीजणवए उज्जेणी णाम णगरी। तीसे उत्तरपासे जिण्णुजाणं नाम चिरात्सर्वदुःखप्रहीणो भविष्यसीत्यादिके आश्वासने, 'धीरवणं चेव उज्जाणं / तत्थ बहवे धुत्ता समागया। तेसिं अहिबइणो इमे-सगो 1, धम्मकहणाय।" व्य०१ उ०। एलासाढो 2, मूलदेवो 3, खंडपाणा य इत्थिया 4 / एक्केकस्स पंच पंच धीरिय-न०(धैर्य) 'धिज्ज' शब्दार्थे ,प्रा०१ पाद। धुत्तसता / धूत्तीण य पंच सता खंडपाणाए / अहण्णया पाउसकाले धुअगाअ-न०(देशी) भ्रमरार्थ, देवना०५ वर्ग 57 गाथा। सत्ताहबद्दले भुक्खत्ताणं इमेरिसी कहा संवुत्ताको अम्हं देन भत्तं ति? मू
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________________ धुत्तक्खाण 2757 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुत्तक्खाण लदेवो भणति-जं जेण अणुभूयं,सुयं वा, सो त कहयतु, जो तंण पत्तियइ तेण सव्वधुत्ताणं भत्तं दायव्वं / जो पुण भारहरामायणसु-इसमुत्थाहि उठणयउववत्तीहिं पत्तीहिति, सो मा किंचि दलयतु। एवं मूलदेवेण भणिए सव्वेहिं वि भणियं-साहु साहु त्ति / ततो मूल-देवेण भणियं-को पुव्वं कहयति? एलासाढेण भणियं अहं भे कहयामि। ततो सो कहिउमारतोअहयं गावीओ गहाय अडविंगओ। पेच्छामि चोरे आगच्छमाणे, तो मे पावरणिं कंबलिं पत्थ-रिऊण तत्थ गावीओ छुभिऊणाऽहं पोट्टलयं बंधिऊण गाममागओ, पेच्छामि य गाममज्झयारे गोदहे रममाणे / ताऽहं गहियगावो पत्थिउमारद्धो(?) खणमेत्तेण यते चोरा कलयलं करेमाणा तत्थेव णिवइता। सो य गामो सदुपदचउप्पदो, एकं वालुक एगाए अजियाए गलियं, साऽवि अजिया चरमाणी अजगरेण गसिया / सोवि अजगरों एगाए देंकाए गहिओ, सा उड्डिउं वमपायवे णिलीणा। तीसे य एगो पाओ पलबति। तस्सय वडपायवस्स अहे खंधायारो ठिओ। तम्मि वटे देंकाए गयवरो आगलितो / सा उड्डिउ पयत्ता, आगस्सिओ पाओ, गयवरे कट्टितुमारद्धे डोयेहिं कलयलो कओ। तत्थ सद्दवेहिणो गहियचावा पत्ता। तेहिं सा जमगसमगस-रेहिं पूरिया। सा मया। रण्णा तीए पेट्ट फाडावियं, अयगरो दिहो / सो वि फाडाविओ, अजिया दिट्ठा। सा वि फाडाविया, वालुक-दिटु रमणिशं / एत्थंतरे ते \दहा उपरता पतंगसेणा इव भूबिलाओ, सो गामो वालुंकाओ णितुमारद्धो। अहं पि गहियगावो णिणओ, सव्वो सो जणो सहाणा णिग्गओ। अहं पि अवउज्झिय गावो इहमागतो। तं भणह कह सचं? सेसगा भणंतिसव्यं सन्चे / एला-साढो भणति-कहं गावीओ कंवलीए मायाओ? गामो वा वालुंके? सेसगा भणंति-भारहसुतीए सुचतिजहा पुष्वं आसी एगण्णवं जगं सव्वं, तम्मिय जले अंडमासी। तम्मि अअंडगे ससेलवणकाणणं जग सव्वं जइ मायं तो कह तुह कंबलीए गावो, वालुके वा गाममा-णमाहिति। जं भणसि जहा₹कुदरे अयगरो, तस्स य अजिया, तीए वालुंकं, एत्थ वि भण्णइ उत्तरससुरासुरं सनारकं ससेलव-णकाणणं जगं सव्वं जइ वि पहुस्स उदरे मायं, सो वि य देवईउदरे माओ, सा वि य सयणिज्जे माया जइ एयं सवं तो तुह वयणं कहं असचं भविस्सति? ||1|| ततो सगो कहितमारद्धो-अम्हे कुडविपत्ता। कयाइंच करिस–णाणि अहं सरयकाले छेत्तुं अतिगओ। तम्मि अखेत्ते तिलो वुत्तो। सो य एरिसो जातो, जो परं कुढादेहिं छेत्तव्वं, तं समंता परिन्भ-माडि, पेच्छामि य गआयवर रण्णं, तणमिओ छिन्नो पलाओ(?) पेच्छामि य अइप्पमाण तिलरुक्खं। तम्मि विलगो, पत्तोय गय–वारो सोमं अपावंते कुलालचक्कं व तं तिलरुक्खं परिभमति। चालेइ य तं तिलरुक्ख, तेण य चालिओ जलहरो विवतिलोऽतिवुट्टि मुंचति / तेण य ममतेण चक्कतिला विव ते तिला पीलिया। तओ तेल्लोदा णाम णदी छूढा, सो य गओ तत्थेव, तिलचलणीए खुत्तो मओ य, मया वि से चम्म गहिय / दतिओ कओ, तेल्लस्स भरिओ, अहं पि खुधिओ खलभारं भक्खयामि / दस य तेल्लघडा तिसिओ पिबामि, तं च तेल्लपडिपुन्नं दइयं घेत्तु गाम पहिओ, गामबहिया रुक्खसा-लए णिक्खिविउ तं दइयं गिहमतिगओ, पुत्तो य मे दइयस्स पेसिओ, सो तं जाहे ण पावइ, ताहे रुक्खं पाडेउं गहिय हत्थे अहं पि गिहाओ उडिओ परिभमंतो इहमागओ। एयं पुण मे अणुभूय, जो णपत्ति-यति, सो देउ भत्तं / सेसगा भणति-अस्थि एसोय भावो, भारह रामायणे सुई सुणिज्जति-"तेषां कटतटभ्रष्टगजानां मदबिन्दुभिः। प्रावर्त्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ||1||" जं भणिसि कहं एमहतो तिलरुक्खो भवति? एत्थ भण्णइ-पाइलिपुत्ते किल मासपादवे भेरी णिम्मविया, तो किह तिलरुक्खो एमहंतो न होज्जाहि? ||2|| ततो मूलदेवो कहिउं मारद्धो / सो भणति-तरुणतणे इत्थियसुहाभिलासी धाराधरणद्धपाए सामिगिह पट्टिओ छत्तकमंडलुहत्थो, पेच्छामि य वणगज मम वहाए एजमाण, ततोऽह भीतो अत्ताणो असरणो किं चि णिलुम गट्ठाणं अपासमाणे जलछडुणणालएणं कमंडलु अतिगउम्मि।सो वि य गयवरो मम वहाए तेणेवंतेण अति-गओ। ततो मे सो गयवरो छम्मासं अंतो कुडियाए वामोहिओ। तओऽहं छट्टमासंते कुंडियगीवाए णिग्गओ / सो वि गयवरो तेणेवं तेण णिगओ / णवरं बालग्गेण गीवाए लग्गो। अहमवि पुरओ पेच्छामि अणोरयारं गंगं, सा मे गोपयामिव तिण्णा गओम्हि सामिगिह, तत्थ मे तण्हा छुहा समे अगणेमाणेण गंगाओ पडती मत्थए छम्मासा धारिया धारा / तओ पणमिऊण महासेणं पयाउं संपत्तो उज्जेणि, तुझंच इह मिलिओ इति। तंजइ सच एयं तो मे हेऊहि पत्तिया-वेह। अहमन्नहा अलिय, तो धुत्ताण देहउ भत्तं / तेहिं भणियं सच्चं / मूलदेवो भणइ-कह सच्चं / ते भणंतिसुणेह, पुव्वं बंभणस्स मुहाओ विप्पा णिग्गया, बाहाओ खत्तिया, ऊरूसु वइस्सा, पादेसु सुद्दा / जइ इत्तिओ जणवओ तस्सुदरे माओ, तो तुम हत्थी य कुडियाए कि ण माहिह। अण्णं च किल बंभणो विण्डू य उड्डाई कुणतो धावंता गता, दिव्वं वाससहस्संतहा वि लिंगस्संऽतो ण पत्तो, तं जइएमहं तं लिंग उमाए सरीरे मायं तो तुहं हत्थीय कुंडियाए ण माहिह / जं भणसि-वालग्गे हत्थी कह लग्गो? तं सुणसु-विण्हू जग्गस्स कत्ता, एगण्णवे तप्पति तवं जलसयणगतो, तस्स य णाभीओ बंभो पउमगढभणिभो णिग्गओ, णवरं पंकयं णाभीएलग्गो, एवं जइ तुम हत्थी य वि णिग्गता, हत्थी वालग्गे लग्गो, को दोसो? जं भणसि-गंगा कहमुत्तिण्णा? रामेण किल सीताए पवित्तिहेउं सुग्गीवो, तेणावि हणूमंतो, सो बाहाहि समुह तरिउं लंकापुरिं पत्तो / सीयाए पुच्छि ओ-कहं समुहो तिण्णो?भण्णति-"तव प्रसादात् वचसः प्रसादा-द्भर्तुश्च ते देवि ! गुरुप्रसादात्। साधुप्रसादाच पितुः प्रसादा-तीर्णो मया गोष्पदवत्समुद्रः / / 1 / / " जइ तेण तिण्णो समुद्दो बाहाहि, तेण तुम कहं गंगंण तरिस्ससि? जं भणसि–कह छम्मासे धारा धरिता। एत्थ वि सुणसु-दिव्वं वाससहस्सं तवं कुणमाणं भगीरहं दट्टुं तत्थागयमाणेहिं लोगहियत्था सुरगणेहि गंगा अब्भत्थिता-अवतराहि मणुयलोग। तीए भणियं-को मे धरेहि ति णिवमिति? पसुवइणा भणिय-अहं ते एगजडाए धारयामि / तेण सा दिव्वं वास-सहस्सं धरिया / जइ तेण सा धरिया। तुम कहं छम्मासं ण धरिस्स सि? ||3|| अह पत्ता खंडपाणा, कहितुमारद्धा / सा य भणति"उल्लंधितं ति अम्हे-हि भणह जइ अंजलिं करिय सीसे। उवसप्पह जइ अ मम, तो भत्तं देमि सव्वेसि / / 1 / / तत्तो भणंति धुत्ता, अम्हे सव्वं जगं तुलेमाणा। कह एवं खलु वयण, तुज्झ सगासे भणीहामो?" ||2|| ततो ईसिंहसिऊण खंडपाणा कहयति-अहं रायरयगस्स धूया,
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________________ धुत्तक्खाण 2758 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयमोह अह अण्णया सह पिउणा वत्थाणं महासगडं भरेऊण पुरिससह-स्सेण सूत्र० १श्रु०७ अाधूतं सङ्गानांत्यजनम्, तत्प्रतिपादकमध्ययनं धूतम् / समं णदि सलिलपुण्ण पत्ता / धोयाई वत्थाई, तो आयवे दिण्णाणि स्था० 6 ठा०। आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य षष्ठेऽध्ययने च / न०। उव्वायाणि, आगतो महावाओ / तेण ताणि सव्वाणि वत्थाणि आचा०१श्रु०६ अ०१ उ०। स०। (तद्वक्तव्यता धुयज्झयण' शब्देऽनुअवहरियाणि / ततोऽहं रायभया गोहारूवं काऊण रयणीए णगरुज्जाणं पदमेव वक्ष्यते) कम्पिते, स्फेटिते, नं० बृज क्षिप्ते, आतु०। दश०। गया। तत्थाहं रत्तासोगपासं चूयलया जाता। अण्णया य सुणेमि-जहा अपनीते, सूत्र० 1 श्रु०४ अ०२उ०। त्यक्ते, "धुतकेसमंसु लोमनहेहिं / ' रयगा उम्मिलतु, अभयघोसं पडहसई सोऊण पुणण्णवसरीरा जाया, प्रश्न०१ संब० द्वार। भत्सिते, तर्किते, वाच०। अपगते च। त्रि०ा वृ०६ उ०। तस्स सगडस्स णाडगवरत्ताय जंबुएहिं भक्खियाओ। तओ मे पिउणा संप्रति निक्षेपः, स च चतुर्धा, तत्रापि नामस्थापने सुगमत्वादपाडगवरत्ताओ अण्णिस्स-माणेण महिसछिप्पा लद्धा / तत्थ भणह नादृत्य द्रव्यभावधूतप्रतिपादनाय गाथाशकलमाहकिमेत्थ सचं? ते भणति-बंभकेसवा अंतण गया लिंगरस वाससहस्सेण दव्वधुतं वत्थादी, भावधुयं कम्ममट्टविहं (251) जति तं सच्चं तुह वयणं कहमसचं भविस्सइ ति? रामायणे विसुणिजइजं (दव्वधुतमित्यादि) द्रव्यधूतं द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च आगमतो हणुमंत-स्स पुच्छं महंतमासी, तं च किल अणेगेहिं वत्थसहस्सेहि ज्ञाता, तत्र चोपयुक्तः / नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त वेढिऊण तेल्लघडसहस्सेहिं सिंचिऊण पलीवियं, तेण किल लंका पूरी द्रव्यधूतम् / द्रव्यं च तद्वस्त्राऽऽदि, धूतं च रजोऽपनयनार्थं द्रव्यधूतम्। दड्डा / एवं जई महिसस्स वि महंतपुच्छेण णाडगवरत्ताओ जायाओ आदिग्रहणाद् वृक्षाऽऽदिफलार्थं, भावधूतं काष्टविध तद्विमोक्षार्थधूयत कोदोसो? अण्णं च इमं सुई सुचई-जहा गंधारो राया, रणे कुवत्तणं इति गाथाशकलार्थः। पत्तो, अवरो वि राया किमस्सो (?) णाम महाबलपरक्कमो, तेण य पुनरप्येतदेवार्थं विशेषतः प्रतिपादयितुमाहसक्को देवराया समरे णिजिओ। ततो तेण देवराइणा साववसतो-ऽरपणे अहियासेत्तुवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। अयगरो जाओ। अन्नया य पंडुसुआ रज्जभट्ठाऽरण्णे निग्गवा, अन्नया य रआहराय निग्गओ भीमो, तेणय अयगरेण गसिओ, धम्मसुतोय अयगरं जो विहुणइ कम्माई, भावधुयं तं वियाणाहि / / 252 / / पत्तो, ततो सो अयगरो माणुसीएवायाए तंधम्मसुयं सत्त पुच्छातो पुच्छेइ / अधिकमासह्यात्यर्थ सोढा, कानतिसह्य?, उपसर्गान्, किंभूतान्? तेण यं कहियाओ सत्त पुच्छातो। ततो भीमं णिग्गिलइ, तस्स य सावस्स दिव्यान्मानुषास्तिरश्वांश्च, यः कर्माणि संसारतरुबीजानि, विधूनयत्यअंतो जाओ / जातो पुणरवि राया, जइ एयं सचं तो तुमं पि सब्भूतं पनयति, तद्भावधूतमित्येवं जानीहि / क्रियाकारकयोरभेदाद्वा कर्मधूननं गोहाभूय सभावं गंतूण पुणण्णवा जाया। तो खंडपाणा भणइ-एवं गते वि मावधूतं जानीहीति भावार्थः / / आचा० 1 श्रु० ३अ०१उ०। मज्झ पणाडं करेह। जइ कहंचि न जिप्पह, तो काणा वि कवष्टिया तुभं | धुयकिलेस-त्रि० [धु(धूतक्लेश] क्षिप्तसप्तभयक्लेशे, आतु०। धूता मुल्लंण भवति। ते भणति-को अम्हे सत्तो णिजिणिउं? तो सा हसिऊण अपनीताः क्लेशाः कर्माणि येनासाविति। क्षीणाष्टकर्मणि, बृ०१ उ०। भणति-तेसिं-वा तहरियाणं वत्थाणं गवेसणाय निग्गयाणं पुच्छि-ऊण, धुयचारि(ण)-धु(धूतचारिन् धुनातीति धुतं, संयमो मोक्षो वा, तं अण्णं च मम दासचेडा गट्ठा, तयं अण्णेसाभि, ताहे गामण-गराणि चरतीति। संयमाऽऽदिचरणशीले, आचा०१ श्रु०२ अ०३उ०। अडमाणी इहं पत्ता / तं ते दासचेडा तुम्हे, ताणि वत्थाणि धुयज्झयण-न० धु(धू)ताध्ययन आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्यइमाणि,जाणि.तुम्भ परिहिआणि / तं जइ सच्चं तो देह वच्छा / अह षष्ठेऽध्ययने, आचा० अलिअं तो देहि / भत्तं / * (एतच्च निशीथपुस्तकाद् लिखितमित्यगे तस्योद्देशार्थाधिकारं नियुक्तिकारो विभणिषुराहलिखितमस्ति।) ग०२ अधिक। नि०चू०। पढमे नियगविहुणणा, कम्माणं वितिएँ तइयम्मि। धुत्तसंवलय-न०(धूर्तशम्बलक) पुरुषद्वासप्ततिकलाऽन्तर्गत कलाभेदे, उवगरणसरीराणं, चउत्थए गारवतियस्स॥२५०|| कल्प०१ अधि०७ क्षण। उवसग्गा सम्माणा, य विहुणया पंचमम्मि उद्देसे (251) धुत्ति-स्त्री०(धूर्ति) जरायाम, आ०म०१अ०२ खण्ड। प्रा०। प्रथमोद्देशके निजकाः स्वजनास्तेषां विधूननेत्ययमर्थाधिकारः, द्वितीये धुत्तिमा-पुं०(धूर्तिमा) धूर्तल्वे, 'वेमाऊल्याद्याः स्त्रियाम् ||8/1 / 35 // | कर्मणा, तृतीये उपकरणशरीराणां, चतुर्थे गौरवत्रिकस्य, विधूननेति इति वा स्त्रीत्वम्। प्रा०१ पाद। सर्वत्र सम्बन्धनीयम् / उपसर्गाः समाननानि च यथा साधुभिर्विधूतानि धुम्म-पुं०(धूम्र) धूमं तद्वर्ण राति। रा–कः-पृषो०। कपोतवणे, स्था०१ तथा पञ्चमोद्देशके प्रतिपाद्यत इत्यर्थः / आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। ठा० सिह्रके, वाचा घुयपाव-त्रि० [धु(धू)] तपाप अपनीतपापे, “नमोत्थु धुयपावाणं।" धुय-न० [धु(धूत] त्यजने, स्था०६ ठा०ा संयमे, सूत्र०१ श्रु०७ अ० आतुन धूयतेऽष्टप्रकार कर्म येन तद्धृतम्। संयमानुष्ठाने, धूननार्हत्वाद्धृतम्। धुयबहुल-त्रि० [धु(धू)तबहुल] धूयते इति धूतं, प्राग् बद्ध कर्मा, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२०। धूयते इति धूतम्। प्राग्बद्धे कर्मणि, सूत्र०२ तत्प्रचुरे, सूत्र०२ श्रु०२० श्रु०२ अ०। बृOअष्टप्रकारके कर्मणि, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। मोक्षे. धुयमोह-त्रि० [धु(धू)तमोह धूतो मोहरागद्वेषरूपो येन सः। सूत्र०१ * एतच निशीथपुस्तकाद् लिखितमित्यग्रे लिखितमस्ति। श्रु०४ अ०२उा धूतो मोहोऽज्ञानं येन सः। विक्षिप्तमोहे, दश०१ अ०।
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________________ धुयरय 2756 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयवाय धुयरय-त्रि० [धु(धू)तरज] धूतमपनीतं रजः कर्म येन स धूतरजाः। सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ अ०। धूतं कम्पितं स्फोटितं रजो बध्यमानं कर्म येन ल धूतरजाः। नं०। अपगतपापकर्मणि, बृ०६ उ०। धुयरागमग्ग-पुं० [धु(धू)तरागमार्ग] धूतोऽपनीतो रागमार्गो रागपन्था यस्मिन् / अपनीतरागपथे. सूत्र०१ श्रु०४ अ०२उ० धुयवाय-पुं० [धु(धू)तवाद] धूतमष्टप्रकारं कर्म,धूननं ज्ञातिपरित्यागो वा, तस्य वादो धूतवादः / कर्मपरित्यागकथने, आचा०। आयाण भो, सुस्सूस भो, धुयवायं पवेदइस्सामि / इह खलु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कुलेहिं अभिसेएणं अभिसंभूता, अभिसंजाता, अभिणिव्वट्टा, अभिसंवड्वा, अभिसंबुद्धा, अभिणिक्खंता, अणुपुट्वेणं महामुणी।।१७६|| भारिति शिष्याऽऽमन्त्रणे, यदहमुत्तरत्राऽऽवेदयिष्यामि भवतस्तद् आजानीहि अवधारय, शुश्रूषस्व श्रवणेच्छा विधेहि, भोरिति पुनरप्यामन्त्रणमर्थगरीयस्त्वख्यापनाय, नाऽत्र भवता प्रमादो विधेयो, धूतवाद कथयिष्याम्यहम् / धूतम्-अष्टप्रकारकर्मधूननं ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादो धूतवादः, तं प्रवेदयिष्यामि, अवहितेन च भवता भाव्यमिति / नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-(धूतोवायं पवेएतित्ति) अष्टप्रकारकर्मधूननोपाय, निजधूननोपायं वा प्रवेदयन्ति तीर्थङ्कराऽऽदयः। कोऽसावुपायः? इत्यत आह-इहास्मिन् संसारे, खलुक्यालकारे। आत्मनो भाव आत्मता-जीवास्तिता, स्व-कृतकर्मपरिणतिर्वा , तयाऽभिसंभूताः-संजाताः,न पुनः पृथिव्यादिभूतानां कायाऽऽकारपरि- | णामतया, ईश्वरप्रजापतिनियोगेन येति / तेषु तेषूचावचेषु कुलेषु यथास्वकर्मादयाऽऽपादितेष्वभिषेकेण शुक्रशोणितनिषेकाऽऽदिक्रमेणेति। तत्राऽयंक्रमः- "सप्ताह कललं विद्यात्, ततः सप्ताहमर्बुदम्। अर्बुदाजायते पेशी, पेशीतोऽपि धनं भवेत्" / / 1 / / इति। तत्र यावत् कललं तावदभिसंभूताः, पेशी यावदभिसंजाताः, ततः साङ्गोपाङ्गस्नायुशिरोरोमाऽऽदिक्रमाभिनिर्वर्तनादभिनिर्वृताः, ततः प्रसूताः सन्तोऽभिसंवृद्धा धर्मश्रवणयोग्यावस्थायां वर्तमाना धर्मकथाऽऽदिक निमित्तमासाद्योपलब्धपुण्यपापतयाउभिसंबुद्धाः, ततः सदसद्विवेकं जानाना अभिनिष्क्रान्ताः, ततोऽधीता चाराऽऽदिशास्त्रास्तदर्थभावनोपबृंहितचरणपरिणामा आनुपूर्येण शिक्षक-गीतार्थ-क्षपक-परिहारवि-शुद्धिकैकाकिविहारिजिनकल्पिकावसाना मुनयोऽभूयन्निति / / 17 / / अभिसंबुद्धं च प्रव्रजिषुमुपलभ्य यन्निजाः कुर्युस्तद्दर्शयितुमाहतं परिक्कमंतं परिदेवमाणा मा णे चयाहि इति ते वयंति छंदोवणीया अज्झोववण्णा अक्कंदकारी जणगा रुदंति, अतारिसे मुणी, ण ओहं तरए जणगा जेण विप्पजढा, सरणं तत्थ णो समेति, कहं णु णाय से तत्थ रमति? एयं णाणं सया समणुवासिज्जासित्ति बेमि!|१८०।। तमवगततत्त्वं गृहवासपराङ् मुख महापुरुषसेवितं पन्थानं पराक्रममाणमुपलभ्य मातापितृपुत्रकलत्राऽऽदयः परिदेवमाना माऽस्मान् परित्यज, इत्येतत्ते कृपामापादयन्तो वदन्ति, किं चापर वदन्तीत्याहछन्देनोपनीताः छन्दोपनीताः, तवाभिप्रायाऽनुवर्तिनः, त्वयि चाभ्युप- | पन्नाः, तदेवंभूतानस्मान्मान्माऽवमंस्था इत्येवमाक्रन्दकारिणो जनकाः मातापित्रादयो, जना वा रुदन्ति / एवं च घदेयुरित्याह- न तादृशो मुनिर्भवति, न चौघं संरग़रं तरति, येन पाषण्डविप्रलब्धेन जनका मातापित्रादयोऽपोढाः त्यक्ता इति / स चावगतसंसारस्वभावो यत्करोतीति तदाह-न ह्यसावनुरक्तमपि बन्धुवर्ग तत्र तस्मिन्नवसरेशरण समेति, न तदभ्युपगमं करोतीत्यर्थः / किमित्यसौ शरणं नैतीत्याह-कथं नु नामाऽसौ तत्र तस्मिन् गृहवासे सर्वनिकाराऽऽस्पदे नरकप्रतिनिधी शुभद्वारपरिधे रमते? कथं गृहवासे द्वन्द्वैकहेतौ विघटितमोहकपाटः सन् रतिं कुर्यादिति। उपसंहरन्नाह-एतत् पूर्वोक्तं ज्ञानं सदा आत्मनि सम्यगनुवासयेः व्यवस्थापथेः, इति' अधिकारपरिसमाप्तौ, धूताध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः परिसमाप्तः / उक्तः प्रथमोद्देशकः। साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते। अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तरोद्देशके निजकविधूनना प्रतिपादिता, सा चैवं फलवती स्याद्यदि कर्मविधूननं स्यादतः कर्मविधूननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्योद्देशकस्याऽऽदिसूत्रम् आउरं लोयमायाए चइत्ता पुव्वसंजोगं हिचा उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणित्तु धम्म अहा तहा अहेगे तमचाईति कुसीला ||181 / / (आउर इत्यादि) लोक मातापितृपुत्रकलाऽऽदिक तमातुरं स्नेहानुषङ्गतया वियोगात्कार्यावसादेन वा,यदि वा जन्तुलोकं कामरागाऽऽतुरम, आदाय ज्ञानेन परिगृहीत्वा परिच्छिद्य, तथा त्यक्त्वा च पूर्वसंयोग मातापित्रादिसंबन्धं, तथा हित्वोपशमम्। उषित्वाऽपि ब्रह्मचर्ये , किंभूतः सन्निति दर्शयति-वसु द्रव्यं, तद्भूतः कषायकालिकाऽऽदिमलापगमाद् वीतराग इत्यर्थः, तद्विपर्ययेणानुवसुः, सराग इत्यर्थः / यदि वा-वसुः साधुः, अनुवसुः श्रावकः। तदुक्तम्-''वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा। सरागो ह्यनुवसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपि वा / / 1 / / " तथा ज्ञात्वा धर्म श्रुतचारित्राऽऽख्यं यथा तथावस्थितं धर्म प्रतिपद्याप्यथैके मोहोदयात्तथाविधभवितव्यतानियोगेन तं धर्म प्रतिपालयितु न शक्नुवन्ति। किंभूताः?कुत्सितं शील येषां ते कुशीला इति। यत एव धर्मपालनाशक्ता अत एव कुशीलाः / / 181 / / एवंभूताश्च सन्तः किं कुर्युरित्याहवत्थं पडिग्गहं कं बलं पायपुंछणं विउसेज्जा, अणुपुवेण अणहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए, कामे ममायमाणस्स इयाणिं या मुहूत्तेण वा अपरिमाणाए भे दो, एवं से अंतराइएहिं कामेहिं अ केवलिएहिं अवितिण्णा चेए / / 182 // (वत्थं इत्यादि) के चिद्भवशतकोटिदुरापमवाप्य मानुषं जन्म समासाद्या-लब्धपूर्वा संसारार्णवोत्तरणप्रत्यलां बोधिद्रोणीमङ्गीकृत्य मोक्षतरुबीज सर्वविरतिलक्षणं चरणं पुनर्दुर्निवारतया मन्मथस्य, पारिप्लवतया मनसो, लोलुपतयेन्द्रियग्रामस्यानेकभवाभ्यासाऽऽपादितविषयमधुरतया प्रबलमोहनीयोदयादशुभवेदनीयोदयाऽऽसन्न प्रादुर्भावादयशः कीर्युत्कटतया अविगणय्यमतिमविचार्य कार्याकार्यमुररीकृत्य महाव्यसनसागरं साम्प्रतेक्षितया अधः कृतकुलक्रमाऽऽ
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________________ धुयवाय 2760- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयवाय चारास्तत्त्यजेयुः। तत्त्यागश्च धर्मोपकरणपरित्यागाद्भवतीत्यतस्तद्दर्श - यतिवस्त्रमित्यनेन क्षीमिककल्पो गृहीतः, तथा पतद्ग्रहः पात्रं, कम्बलमौर्णिक कल्प, पात्रनिर्योगं वा / पाद प्रोज्छनकं रजोहरणम् / एतानि निरपेक्षतया व्युत्सृज्य, कश्चिद्देशविरतिमभ्युपगच्छति, कश्चिद्दर्शनमेवाऽऽलम्बते, कश्चित्ततोऽपिभ्रस्यति, कथं पुनदुर्लभ चारित्रमवाप्य पुनस्तत्यजेदित्याह-परीषहान दुरधिसहनीयाननुक्रमेण परिपाट्या योगपद्येन वोदीर्णानविसहमानाः परीषदर्भग्नमोहपरवशतया पुरस्कृतदुर्गतयो मोक्षमार्ग परित्यजन्ति / भोगार्थ त्यक्तवतामपि पापोदयाद्यत्स्यात्तदाह(कामे इत्यादि) कामान् विरूपानपि (ममायमाणस्स त्ति) स्वीकृर्वतो भोगाध्यवसायिनोऽन्तरायोदयादिदानीं तत्क्षणमेव प्रव्रज्यापरित्यागानन्तरमेव, भोगप्राप्तिसमनन्तरमेवान्तर्मुहूर्तेन वा, कण्डरीकस्येवाहोरात्रेण वा,ततोऽप्यूर्द्ध शरीरभेदो भवत्यपरिमाणाय, एवंभूत आत्मना सार्द्ध विवक्षितशरीरभेदो भवति / येनानन्तेनापि कालेन पुनः पञ्चेन्द्रियत्वं नावाप्नोति / एतदेवोपसंजिहीर्षुराह-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण, स भोगाभिलाषी, आन्तरायिकैः कामैर्बहुप्रत्यपातैर्न केवलं तत्रभवा अकेवलिकाः सद्वन्द्वाः सप्रतिपक्षा इति यावदसंपूर्णा वा, तैः सद्भिरवितीर्णाः संसारं तीवा, द्वितीयार्थे तृतीया / चः समुच्चये / एत इति भोगाभिलाषिणः कामैरतृप्ता एव शरीरभेदमवाप्नुवन्तीति तात्पर्यार्थः // 18 // अपरे त्वासन्नतया मोक्षस्य कथश्चित् कुत्रचित्कदाचिदवाप्य चरणपरिणामं प्रतिक्षण लघुकर्मतया प्रवर्द्ध मानाध्यवसायिनो भवन्तीति दर्शयितुमाह अहेगे धम्ममादाय आदाणप्पभितिसु पणिहिए चरे अपली-- यमाणे दढे // 183 / / सव्वं गिद्धिं परिणाय एस पणते महामुणी / / 154 // अइयच सव्वतो संगंण महं अस्थि ति इति एगो अहमस्सिं जयमाणे एत्थ विरते, अणगारे, सव्वसो मुंडे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिट्ठति ओमोयरियाए॥१८५|| से आकुठे वा, हए वा, लुंचिते वा, पलियं पकंथे, अदुवा पकंथे, अतहेहिं सद्दफासेहिं इति संखाए एगतरे अण्णतरे अभिण्णाय तितिक्खमाणे परिव्वए / जे य हिरी जे य अहिरीमाणे चिचा सव्वं विसोत्तियं फासे समियदंसणे॥१८६।। (अहेगे इत्यादि) अथानन्तरमेके विशुद्धपरिणामतया आसन्नापवर्गतया धर्म श्रुतचारित्राऽऽख्यमादाय गृहीत्या वस्त्रपतगृहाssदिधर्मोपकरणसमन्विता धर्मकरणेषु प्रणिहिताः परीषहसहिष्णवः सर्वज्ञोपदिष्ट धर्म चरेयुरिति / अत्र च पूर्वाणि प्रमादसूत्राण्यप्रमादाभिप्रायेण्ण पठितव्यानीति / उक्तं च - "यत्र प्रमादेन तिरोऽप्रमादः, स्याद्वाऽपि यत्नेन पुनः प्रमादः / विपर्ययेणाऽपि पठन्ति तत्र, सूत्राण्यधीकारवशाद्विधिज्ञाः / / 1 / / '' किंभूताः पुनर्धर्म चरेयु रित्याह-(अपलीय इत्यादि) कामेषु मातापित्रादिके वा लोके न प्रलीयमाना अप्रलीयमाना अनभिसक्ता धर्मचरणे दृढास्तपः-- संयमाऽऽदी द्रढिमानमालम्बमाना धर्म चरन्तीति / / 183 // किश-(सव्वं इत्यादि) सर्वा गृद्धि भोगकाशा दुःखरूपतया, परिज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यजेत, परित्यागे गुणमाह-(एस इत्यादि) (एस इति) कामपिपासापरित्यागी,प्रकर्षेण नतः प्रहः संयमे, कर्मधूननायां वा महामुनिर्भवति नापर इति 184 / / किञ्च(अइयच इत्यादि) अतिगत्याऽतिक्रम्य सर्वतः सर्वैः प्रकारैः सङ्गसंबन्धं पुत्रकलबाऽऽदिजनितं, कामानुषङ्ग वा, किं भावयेदित्या-ह-(ण मह अस्थि इत्यादि) न मम किमप्यस्तीति यत्संसारे एतत् आलम्बनाय स्यादिति, तदभावाचेत्युक्तक मेणैकोऽहमस्मिन् संसारोदरे, न चाहमन्यस्य कस्यचिदित्येतद्भावनाभावितश्च यत् कुर्यात्तदाह-(जयमाणे इत्यादि) अत्राऽरिमन्मौनीन्द्र प्रवचने विरतः सन्सावद्यानुष्ठानाद्दशविधचक्रवालसामाचार्या यतमानः, कोऽसावनगारः प्रव्रजितः, एकत्वभावनां भावयन्नवमौदर्य सन्तिष्ठत इत्युत्तरसूत्रेण संबन्धः / इयमेव क्रियाऽनन्तर सूत्रेष्वपि लगयितव्येति / किञ्च-(सव्वओ इत्यादि) सर्वतोद्रव्यतो भावतश्च मुण्डो रीयमाणः संयमानुष्ठाने गच्छन्, किंभूत इत्याह-(जे इत्यादि) योऽचेलोऽल्पचेलो जिनकल्पिको वा पर्युषितः संयमे उद्युक्तविहारी अन्तप्रान्तभोजी तदपि न प्रकाममित्याह (संचिट्ठइ) संतिष्टते अवमौदर्ये न्यूनोदरतायां वर्तमानः सन् // 18 // कदाचित्प्रत्यनीकतया ग्रामकण्टकैस्तुद्यतेत्येतद्दर्शयितुमाह-(से इत्यादि) स मुनिर्वाग्भिराक्रुष्टो वा, दण्डाऽऽदिभिर्हतो वा, लुञ्चितो वा केशोत्पाटनतः, पूर्वकृतकर्मपरिणत्युदयादेतदवगच्छन् सम्यक् तितिक्षमाणः परिव्रजेदित्येतच भावयेत्। तद्यथा- "पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुट्विं दुचिण्णाणं दुप्परिक ताणं वेइयत्ता मोक्खो णस्थि अवेयइत्ता तवसा वा झोसइत्ता।'' इत्यादि / कथं पुनर्वाग– भिराक्रुश्यत इत्याह-(पलियं इत्यादि) पलियं त्ति) कर्म जुगुप्सितमनुष्ठानं, तेन पूर्वाऽऽवरितेन कुविन्दाऽऽदिना प्रकथ्य जुगुप्स्यते / तद्यथा-भोः कोलिक ! प्रव्रजत त्वमपि मया सार्द्धमेवं जल्पसीति? अथवा-जकारचकाराऽऽदिभिरपरैः प्रकारैर्निन्दा विधत्ते एभिर्वा वक्ष्यमाणैः प्रकारैरित्याह- (अतहेहि इत्यादि) अतथ्पैविंत थैरसद्भूतैः शब्दैश्चौरस्त्वं पारदारिक इत्येवमादिकः, स्पर्शश्च असद्-भूतैः साधोः कर्तुमयुक्तैः करचरणच्छेदनाऽऽदिभिः, स्वकृतादृष्टफलमित्येतत् संख्याय ज्ञात्वा तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति। यदि वैतत् संख्याय (अत्रस्थः पाटः परीसहोपसर्गसहनविषयः 'परीसह' शब्द द्रष्टव्यः) परीषहाश्चानुकूलप्रतिकूलतया भिन्ना इत्येतदर्शयितु-माह--(एगयरे इत्यादि) एकतराननुकूलानन्यतरान् प्रतिकूलान् परीषहानुदीर्णानभिज्ञाय, सम्यक् तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति। यदिवा-अन्यथा परीषहाणां द्वैविध्यमित्याह-(जे इत्यादि)येच परीषहाः सत्कारपुरस्काराऽऽदयः साधोरेरिणो मनआह्लादकारिणो, ये तु प्रतिकूलतया अहारिणो मनसोऽनिष्टाः। यदि वा-हीरूपा याचनाऽचेलाऽऽदय अहीमनसश्चालज्जाकारिणः शीतोष्णाऽऽदय इत्येतान् द्विरूपानपि परीषहान् सम्यक् तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति। किञ्च-(चिचा इत्यादि) त्यक्त्वा सर्वां परीषहकृतां विश्रोतसिकाम्। परीषहाऽऽपादितान स्पर्शान दुःखानुभवान् स्पृशेदनुभवेत् सम्यगतिसहेत / स किंभूतः? सम्यगितं गतं दर्शनं यस्य स समितदर्शनः, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः / / 186 // तत्सहिष्णवश्व किंभूताः स्युरित्याहएते भोणगिणा वुत्ता, जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो // 187 / /
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________________ धुयवाय 2761 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयवाय (एए भो इत्यादि) भोरित्यामन्त्रणे, एते परीषहसहिष्णवो निष्किशना निन्था भावनग्नाः, उक्ता अभिहिताः। यस्मिन् मनुष्यलोके, अनागमनं धर्मो येषां ते अनागमनधर्माणः, यथाऽऽरोपितप्रतिज्ञाभारवाहित्वान्न पुनर्गृहं प्रत्यागमनेप्सव इति // 187|| किञ्चआणाए मामगं धम्म (?) एस उत्तरवादे इह माणवाणं वियाहिते॥१५॥ (आणाए इत्यादि) आज्ञाप्यतेऽनयेत्याज्ञा तया मामकं धर्म सम्यगनुपालयेत्तीर्थकर एवमाहेति / यदि वा-धर्मानुष्ठानेऽप्येवमाहधर्म एवैको मामकोऽन्यतु सर्व पारक्यमित्यतस्तमहमाज्ञया तीर्थकरोपदेशेन सम्यक् करोमीति / किमित्याज्ञया धर्मोऽनुपाल्यत इत्यत आह(एस इत्यादि) एषोऽनन्तरोक्त उत्तरवाद उत्कृष्टवाद इह मानवानां व्याख्यात इति / / 188|| किञ्चएत्थोवरए तं झोसमाणे आयाणिज्जं परिणाय परियारणं विगिंचइ॥१८६ (एत्थोवरए इत्यादि) अत्राऽस्मिन् कर्मधूननोपाये संयमे उप सामीप्यन रत उपरतः, तदष्टप्रकारं कर्म शोषयन् क्षपयन् धर्म चरेदिति। किश्चापर कुर्यादित्याह-(आयाणिज्ज इत्यादि) आदीयत इत्यादानीयं कर्म, तत्परिज्ञाय मूलोत्तरप्रकृतिभेदतो ज्ञात्वा, पर्यायण श्रामण्येन विवेचयति, क्षपयतीत्यर्थः / अत्र वा शेषकर्मधूननासमर्थ तपस्तद् बाह्यमधिकृत्य व्याख्यातम् // 186 इहमेगेसिं एगचरिया होति / तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धसणाए सव्वेसणाए सो मेहावी परिव्वए / सुन्भिं अदुवा दुभिं / अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति / ते फासे पुट्ठो धीरो अहियासिजासि त्ति बेमि।।१९।। (इहमेगेसिं इत्यादि) इहास्मिन् प्रवचने, एकेषां शिथिलकर्मणामेकचर्या भवत्येकाकिविहारप्रतिमाऽभ्युपगमो भवति। तत्र च नानारूपा अभिग्रहविशेषास्तपश्चरणविशेषाश्च भवन्तीत्यतस्तावत्प्राभृतिकामधिकृत्याऽऽह-(तत्थियरा इत्यादि)तस्मिन्नेकाकि-विहारे. इतरे सामान्यसाधुभ्यो विशिष्टतरा इतरेष्वन्तप्रान्तेषु कुलेषु शुद्धषणया दशैषणादोषरहितेनाऽऽहाराऽऽदिना, सर्वेषणयेति, सर्वा याऽऽहाराऽऽद्युद्गमोत्पादनग्रासैषणरूपा, तया सुपरिविशुद्धेन विधिना संयमे परिवजन्ति / बहुत्वेऽप्येक देशतामाह-(सो मेहावी इत्यादि) स मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः संयम परिव्रजेदिति। किञ्च--(सुटिभं इत्यादि) स आहाररतेष्यितरेषु कुलेषु सुरभिर्वा स्याद् अथवा-दुर्गन्धः। न तत्र रागद्वेषौ विदध्यात्। किच-(अदुवा इत्यादि) अथवा तत्रैकाकिविहारित्वे पितृवनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतो भैरवा भयानका यातुधानाऽऽदिकृताः शब्दाः प्रादुर्मवेयुः / यदि वा-भैरवा बीभत्साः प्राणाः प्राणिनो दीप्तजिह्वाऽऽदयोऽपरान् प्राणिनः क्लेशयन्त्युपतापयन्ति; त्वंतु पुनस्तैः स्पृष्टस्तान् स्पर्शन दुःख विशेषान् धीरोऽक्षोभ्यः सन्नतिसहस्व / इतिरधिकारपरिसमाप्तो, ब्रवीमीति पूर्ववद्धृताध्ययनद्वितीयोद्देशकः परिसमाप्तः / / 160|| उक्तो | द्वितीयोद्देशकः / आचा०१ श्रु०६ अ०२०। तदेवं संसार श्रेणि विश्लेषयित्वा यः संसारसागर तीर्णवत्ती! मुक्तवन्मुक्तो विरतो व्याख्यातस्तं च तथाभूतं किमरतिरभिभवेदुत न वेति अधिन्यसामर्थ्यात्कर्मणोऽभिभवेदित्यतदेवाऽऽहविरयं भिक्खु रीयंतं चिररातोसियं अरती तत्थ किं विधारए? संधेमाणे समुट्ठिए, जहा से दीये असंदीणे / / 196 / / (विरयं इत्यादि) विरतमसंयमाद्भिक्षणशीलं भिक्षू, रीयमाणं निश्चरन्तमप्रशरतेभ्योऽसंयमरथानेभ्यः प्रशस्तेष्वपि गुणोत्कर्षादुपर्युपरि वर्तमान चिररात्रं प्रभूतकाल संयमे उषितश्विररात्रोषितस्तमेवं गुणयुक्तमरतिः संयमोद्विग्नता, तत्र तस्मिन् संयमे वर्तमानं किंधारयेत् किं प्रतिस्खलेत ? किंशब्दः प्रश्रे, किं तथाभूतमपि मोक्षप्रस्थितं प्रणाय्यविषयमरतिर्विधारयेत्? ओमित्युच्यते / तथाहि- दुर्बलान्यविनयवन्ति चेन्द्रियाण्यचिन्त्या मोहशक्तिर्विचित्रा कर्मपरिणतिः किं न कुर्यादिति / उक्तं च"कम्माणि णूण घणचि-कणाइ गरुआइवइरसाराईणाणड्वियं पिपुरिस, पंथाओ उप्पहती णे / / 1 / / " यदि वा किं क्षेपे किं तथाभूत विधारयेदरतिनव विधारयेदित्यर्थः / तथा ह्यसौ क्षणे क्षणे विशुद्धतरचरणपरिणामतया विष्कम्भितमोहनीयोदयत्वाल्लघुकर्मा भवतीति कुतस्तमरतिर्विधारयेदित्याह-(संधेमाणे इत्यादि) क्षणे क्षणेऽव्यवच्छेदेनोत्तरोत्तर संयमस्थानकण्डक संदधानः स सम्यगुत्थितः समुत्थित उत्तरोत्तरगुणस्थानकं वा संदधानो यथाख्यातचारित्राभिमुखः समुत्थितोडसावतस्तमरतिं कथं विधारयोदिति। स चैवंभूतो न केवलमात्मनखाता, परेषामप्यरतिविधारकत्वात् त्राणायेत्येतदर्शयितुमाह-(जहा से इत्यादि) द्विर्गता आपोऽस्मिन्निति द्वीपः, स द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, तत्र द्रव्यद्वीप आश्वासद्वीपः, आश्वास्यतेऽस्मिन्नित्याश्वासः, स चासो द्वीपश्चाऽऽश्वासदीपः / यदि वा-आश्वसनमाश्वासः, आश्वासाय द्वीप आश्वासदीपस्तत्र नदीसमुद्रबहुमध्यप्रदेशे भिन्नबोधिस्थाऽऽदयस्तमवाप्याऽऽश्वसन्त्यसावपि द्धासंदीनोऽसंदीनश्चेति यो हि पक्षमासावुदकेन प्लाध्यते स संदीनो, विपरीतस्त्वसन्दीनः सिंहलद्वीपाऽऽदिः / यथा हि सांयात्रिकास्तं द्वीपमसन्दीनमुदन्वदादेरुत्तितीर्षवः समवाप्याऽऽश्वसन्त्येवं तं भावसंधानायोत्थितं साधुमवाप्यापरे प्राणिनः समाश्वसन्ति / यदि वा-दीप इति प्रकाशद्वीपः, प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः, स चादित्यचन्द्रमण्यादिरसन्दीनोऽपरस्तु विधुदुल्काऽऽदिः संदीनः / यदि वा प्रचुरेन्धनतया विवक्षितकालावस्थाय्यसन्दीनो, विपरीतस्तु संदीन इति / यथा ह्यसौ स्फु टावेदनतो हेयोपादेयहानोपादानवता निमितभाव-मुपयाति, तथा क्वचित्समुद्राऽऽधन्तर्वर्तिनामाश्वासकारी च भवत्येवं ज्ञानसन्धानायोत्थितः परीषहोपसर्गाक्षोभ्यतयाऽसन्दीनः साधुर्विशिष्टोपदेशदानतोऽपरेषामुपकारायेत्यपरे भावद्वीपं भावदीप वाऽन्यथा व्याचक्षते / तद्यथा-भावद्वीपः सम्यक्त्वं, तच प्रतिपातित्वादोपशमिक, क्षायोपशमिकं च सन्दीनो भावद्वीपः, क्षायिक त्वसंदीन इति / तं द्विविधभप्यपरतिसवसारत्वात्प्राणिन आश्वासन्ति, भावदीपस्तु सन्दीनः श्रुतज्ञानम्, असन्दीनस्तु केवलमिति, तचावाप्य प्राणिनोऽवश्यमाश्वासन्त्येवेति / अथवा-धर्म संदधानः समुत्थितः रान्नरते र्दुष्प्रधृष्यो भवतीत्युक्ते कश्चिचादयेत्-किंभूतोऽसौ धर्मो
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________________ धुयवाय 2762 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयवाय यत्सन्धानाय समुत्थित इति? अत्रोच्यते-यथाऽसौ द्वीपोऽसन्दीनः सलिलप्लुतो वरुगूवहनानामितरेषां च बहूनां जन्तूनां शरण्यतयाऽऽश्वासहेतुर्भवति / / 166 / / एवं से धम्मे आरियपदेसिए।।१९७|| एवमसावपि धर्म आर्यप्रदेशितस्तीर्थङ्करप्रणीतः कषतापच्छेदनर्वण्टितोऽसन्दीनः,यदि वा कुतर्काप्रधृष्यतया संदीनोऽक्षोभ्यः प्राणिना त्राणायाऽऽश्वासभूमिर्भवति, तस्य चाऽऽर्यदेशितस्य धर्मस्य किं सम्यगनुष्ठायिनः केचन सन्ति? ओमित्युच्यते॥१६७|| यदि सन्ति, किंभूतास्त इत्यत आहते अणवकंखमाणा पाणे अणातिवातेमाणा दतिआ मेहाविणो पंडिया / / 198|| एवं तेसिं भगवओ अणुट्ठाणे जहा से दियपोए। एवं ते सिस्सा दियाय राओ य अणुपुव्वेणं वाइय त्ति बेमि॥१६६।। (ते इत्यादि) ते साधवो भावसंधानोद्यताः संयमारतेः प्रणोदका मोक्षनेदिष्ठाभोगाननवकासन्तो धर्मे सम्यगुत्थानवन्तः स्युरित्येतदुत्तरत्रापि योज्यम् / तथा प्राणिनोऽनतिवातयन्त उपलक्षणार्थत्वाच्छेषमहाव्रतग्रहणमायोज्यम्। तथा कुशलानुष्ठानप्रवृत्तत्वाद्दयिताः सर्वलोकानाम् / तथा मेधाविनो मर्यादाव्यवस्थिताः, पण्डिताः पापोपादानपरिहारतया सम्यक् पदार्थज्ञा धर्मचरणाय समुत्थिता भवन्तीति॥१६८| ये पुनस्तथाभूतज्ञानाभावात्सम्यग् विवेकविकलतया नाद्यापि पूर्वोक्तसमुत्थानवन्तः स्युस्ते तथाभूता आचार्याऽऽदिभिः सम्यगनुपाल्य यावद्विवेकिनोऽभूवन्नित्येतद्दर्शयितुमाह-(एवं इत्यादि) एवमुक्तविधिना तेषामपरिकर्मितमतीनां भगवतो वीरवर्द्धमानस्वामिनो धर्मे सम्यगनुत्थाने सति तत्परिपालनतस्तथा सदुपदेशदानेन परिकर्मितमतित्वं विधेय-मिति। अत्रैव दृष्टान्तभाह-(जहा से इत्यादि) द्विजः पक्षी, तस्य पोतः शिशुद्धिजपोतः, स यथा तेन द्विजेन गर्भप्रसवात्प्रभृत्यण्डकोच्छूनोच्छूनतरभेदाऽऽदिकारववस्थासु यावन्निष्पन्नपक्षस्ताव-त्पाल्यते, एवमाचार्येणापि शिष्यकः प्रव्रज्यादानादारभ्य सामाचार्युपदेशदानेनाध्यापनेन तावदनुपाल्यते यावदगीतार्थोऽभूत् / यः पुनराचार्योपदेशमतिलघ्व स्वैरित्वाद्यथाकथञ्चित्क्रियामनुप्रवर्त्तत स उज्जयिनीराजपुत्रवद्विनश्यदिति। तद्यथा-उज्जयिन्यां जितशत्रो राज्ञो द्वी पुत्री, तत्रज्येष्ठो धर्मघोषाऽऽचार्यसमीपे संसारासारतामवगम्य प्रवद्वाज, क्रमेण चाधीताऽऽचाराऽऽदिशास्त्रोऽवगततदर्थश्व जिनकल्पं प्रतिपत्सुद्वितीयां सत्त्वभावनां भावयति। सा च पञ्चधातत्र प्रथमोपाश्रये, द्वितीया तबहिः तृतीया चतुष्के चतुर्थी शून्यगृहे, पञ्चमी श्मशाने / तत्र पञ्चमी भावनां भावयतः स कनिष्ठो भ्राता तदनुरागादाचार्यान्तिकमागत्योवाचमम ज्यायान् भ्राता काऽऽस्ते? साधुभिरभाणि-किं तेन?: स आहप्रव्रजाम्यहम्। आचार्येणोक्तोगृहाण तावत् पुनर्द्रक्ष्यसि। स तु तथैव चक्रे। पुनरप्यपृच्छत् / आचार्याऊचुः-किं तेन दृष्टन? नासौ कस्य चिदुल्लापमपि ददाति जिनकल्पं प्रतिपत्तुकाम इति / असावाह-तथापि पश्यामि तावदिति निर्बन्धे दर्शितस्तूष्णीं भावस्थित एव वन्दितः, तदनुरागाच निषिद्धोऽप्याचार्येण निवार्यमाणोऽप्युपाध्यायन ध्रियमाणोऽपि साधुभिरसाम्प्रतमेतद्भवतो दुष्करं दुरध्ययसेयमित्येवं कथ्यमानेऽप्यहमपि तेनैव पित्रा जात इत्यवष्टाभेन मोहात्तथैव तस्थौ, यथा ज्येष्ठ भ्रातेति। इतरो देवतयाऽऽगत्य वन्दितः। शिक्षकस्तुरवन्दितः। ततोऽसावपरिकर्मितमतित्वात् कुपितः। अविधिरिति कृत्वा देवताऽपि तस्योपरि कुपिता सती तलप्रहारे-णाक्षिगोलको बहिनिश्चिक्षेप / ततस्तद्ज्यायान् हृदयेनैव देवातामाह-किमित्ययमन्यस्त्वया कदर्थितः, तदस्याक्षिणी पुनर्नवी कुरु। सा त्ववादीजीवप्रदेशैमुक्ताविमौ गोलको, न शक्यौ पुनर्नवीकर्तुम् / इत्युत्वा ऋषिवचनमलव नीयमित्यवधार्य तत्क्षणश्च पाकव्यापादितैलाक्षिगोलको गृहीत्वा तदक्षिणी चकारेति / एवं सदुपदेशप्रवर्त्तनं सापायमित्यवधार्य शिष्येण सदाऽऽचार्योपदेशवर्तिना भाव्यम्, आचार्येणाऽपि सदा स्वपरोपकारवृत्तिना सम्यक स्वशिष्या यथोक्तविधिना प्रतिपालनीया इति स्थितमिति / / 168 // तदेवोपसंहरन्नाह-(एवं इत्यादि) यथा द्विजपोतो मातृपितृभ्यामनुपाल्यते, एवमाचार्येणापि शिष्या अहर्निशमनुपूर्वण क्रमेण वाचिताः पाठिताः, शिक्षा ग्राहिताः, समस्तकार्यसहिष्णवः संसारोत्तरणसमर्थाश्च भवन्तीति / इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् / आचा०। साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते / अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराद्देशके शरीरोपकरणधूननाऽभिहिता, सा च परिपूर्णा, न गौर वत्रि-कसमन्वितस्येत्यतस्त धूननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्योद्देशकस्यास्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयम्। तचेदम् एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेणं वाइया तेहिं महावीरेहिं पण्णाणमंतेहिं, तेसंतिए पण्णाणमुवलब्भहेचा उवसमं फारुसियं समादियंति॥१००। वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं णो त्ति मण्णमाणा।।१०१॥ (एवं ते सिस्सा इत्यादि) एवमिति द्विजपोतसंवर्द्धनक्रमेणैव, ते शिष्याः स्वहस्तप्रवाजिता उपसंपदागताः प्रातीच्छकाश्च, दिवा चरात्री चानुपूर्वेण क्रमेण वाचिताः पाठितास्तत्र कालिकमह्नः प्रथमचतुर्थपौरुष्योरवाप्यते, उत्कालिकं तु कालवेलावर्ज सकलमप्यहोरात्रमिति। तथाऽध्यापनाऽऽचाराऽऽदिक्रमेण क्रियते। आचारश्च त्रिवर्षपर्यायोऽध्याप्यत इत्यादि क्रमेणाध्यापिताः शिष्याश्चारित्र ग्राहिताः, तद्यथा--युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यम् कूर्मवत्संकुचिताङ्गेन भाव्यमित्यादि। एवं शिक्षा ग्राहिता वाचिता अध्यापिताः। कैरिति दर्शयतितैर्महावीरैस्तीर्थकरगणधराऽऽचार्याऽsदिभिः / किम्भूतैः? प्रज्ञावद्भिानिभिरेवोपदेशाऽऽदिदत्तं लगतीत्यतो विशेषणम्, ते तु शिष्या द्विप्रकारा अपि प्रेक्षापूर्वकारिणस्तेषामाचार्याऽऽदीनामन्तिके समीपे, प्रकर्षण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं श्रुतज्ञानं, तस्यैवापरस्भादवाप्तिसद्भावादित्यतस्तदुपलभ्य लब्धबहुश्रुतीभूताः प्रबलमोहोदयापनीतसदुपदेशोत्कटमदत्वात् / त्यक्तोपशमम् / स च द्वेधाद्रव्यभावभेदात् / तत्र द्रव्योपशमः-कतकफलाऽऽद्यापादितः कलुषजलादेः भावोपशमस्तुज्ञानाऽऽदित्रयात् / तत्र यो येन ज्ञानेनोपशाम्यति स ज्ञानोपशमस्तद्यथा-आक्षेपण्याद्यन्यतरया धर्मकथया कश्चिदुपशाम्यतीत्यादि / दर्शनोपशमस्तु-यो हि शुद्देन सम्यग्दर्शनेनो परमुपशमयति, यथा श्रेणि के नाश्रद्दधानी देवः प्रतिबीधित इति, दर्शनप्रभावकैर्वा संमत्यादिभिः कश्चिदुपशाम्यति / चारित्रोपशमस्तुक्रोधाऽऽद्युपशमो विनयनम्रतेति / तत्र केचन क्षुद्रका ज्ञानोदन्वतोऽद्याप्युपर्यव प्लवमानास्तमेवंभूतमुपशमं त्यक्त्वा ज्ञानलवोत्तम्भितगर्वाऽऽध्नाताः पारुष्य परुषतां समाददति गृहन्ति। तद्यथा
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________________ धुयवाय 2763 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयवाय परस्परगुणनिकायां, मीमांसायां वा / एकोऽपरमाहत्वं नजानीये, न चैषां शब्दानामयमर्थो यो भवताऽभाणि। अपि च कश्चिदेव मादृशः शब्दार्थनि यायालं न सर्व इत्युक्ते च पृष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिद न वा वादिनि च मल्लमुख्ये च मादृगेवान्तरं गच्छेत् / द्वितीयस्त्वाहनन्वस्मदाचार्या एवमाज्ञापयन्तीत्युक्ते पुनराहसोऽपि वाक्कुण्ठो बुद्धिविकलः किं जानीते, त्वमपि च शुकवत्पाठितो निरूहापोह इत्यादीन्यन्यान्यपि, दुर्गृहीतकतिचिदक्षरो महोपशमकारणं ज्ञानं विपरीततामा पादयन् स्वौद्धत्यमाविर्भावयन भाषते। उक्तं च"अन्ये स्वेच्छारचिता-नर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय। कृत्स्नं वाइभयमित इति, खादन्त्यङ्गानि दर्पण // 1 // क्रीडनकगीश्वराणां, कुक्कुटलावकसमानवाल्लभ्यः। शास्त्राप्यपि हास्यकथां, लघुता वा क्षुल्लको नयति / / 2 / / " इत्यादि। पाठान्तर वा-"हेचा उवसम अहेगे फारुसिय समारुहति।" त्यक्तोपशमम्, अथानन्तरं बहुश्रुतीभूता एके, न सर्वे , परुषतामालम्बते, ततश्चालपिता शब्दिता वा तूष्णीं भावं भजन्ते, हुङ्कार शिरः कम्पनाऽsदिना वा प्रतिवचनं ददति / किञ्च-(वसित्ता इत्यादि) एके पुनर्ब्रह्मचर्य संयमः, तत्रोषित्था, आचारो वा ब्रह्मचर्य, तदर्थोऽपि ब्रह्मचर्यमेव, बोषित्वा आचारार्थानुष्ठायिनोऽपि तद्भसितास्तामाझा तीर्थकरोपदेशरूपां नो मन्यमानाः, नोशब्दो देशप्रतिषेधे, देशतस्तीर्थकरोपदेशन बहु मन्यमानाः सातगौरवबाहुल्याच्छरीरयाकुशिकतामालम्बन्ते। यदि वा अपवादमालम्ब्य प्रवर्तमाना उत्सर्गचोदनाचोदिताः सन्तो नैषा तीर्थकराऽऽज्ञेत्येवं मन्यन्ते / दर्शयन्ति चाऽपवादपदानि- "कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहियं / " इत्यादि / ततश्च यो येन ग्लायति तस्य तदपनयनार्थमाधाकर्माऽऽद्यपि कार्यं स्यादेतत्किं तेषां नाख्याताः कुशीलानां प्रत्यपायाः, यथा-आशातनाबहुलानां दीर्घः संसार इति॥१०१॥ तदुच्यतेअग्घा(क्खा)यं तु सोचा णिसम्म समणुण्णा जीविस्सामो, एगे णिक्खम्म ते असंभवं ता वि मज्झमाणा कामे हिं गिद्धा अज्झोववण्णा समाहिमाघायमजुसंता सत्थारमेव फरुसं वदंति॥१०२।। (अग्घायं ति) तुरवधारणे / आख्यातमेवैतत् कुशीलविपाकाऽऽदिकं श्रुत्वा निशम्यावबुद्ध्य चाऽऽशास्तारमेव परुष वदन्तीतिसम्बन्धः। किमर्थ तर्हि शृण्वन्तीति चेत्तदाह-"समणुण्णा' इत्यादि। समनोज्ञाः लोकसम्मताः, जीविष्यामइति कृत्वा प्रश्नव्याकरणार्थ शब्दशास्त्राण्यधीयते / यदि वा-अनेनोपायेन लोकसम्मता जीविष्याम इति कृत्वैके निष्क्रम्याऽथ वा समनोज्ञा उद्युक्तविहारिणः सन्तो जीविष्यामः संयमजीवितेनेत्येवं निष्क्रम्य पुनर्मोहोदयादसम्भवन्तस्ते गौरवत्रिकान्यतरदोषा ज्ञानाऽऽदिके मोक्षमार्गे न सम्यग् भवन्तो नोपदेशे वर्तमाना विविधं दह्यमानकामैद्धा गौरवत्रिकेऽध्युपपन्ना विषयेषु समाधिमिन्द्रियप्रणिधानमाख्यातं तीर्थकृतादिभिर्यमावेदितं तमजुषन्तः सेवमाना दुर्विदग्धा आचार्याऽऽदिना शास्त्राभिप्रायेण चोद्यमाना अपि तच्छास्तारमेव परुष वदन्तिनास्मिन् विषये भवान् किञ्चन जानाति, यथाऽहं सूत्रार्थ शब्दं गणितं निमित्तं वा जाने तथा कोऽन्यो जानीते, इत्ये वमाचार्याऽऽदिकं शास्तारं हीलयन्ति परुषं वदन्ति / यदि वा-शास्ता तीर्थकृताऽऽदिस्तमपि परुषं वदन्ति। तथाहि-वचित् स्खलितचोदिता जगदुः-केमन्यदधिकं तीर्थकृद्रक्ष्यत्यस्मद्गलकर्तनादपीति। इत्यादिभिरपाचीनैरालापैरलीकविद्यामदावलेपाच्छास्त्रकृतामपि दूषणानि वदेयुः / / 102 / / न केवलं शास्तारं परुष वदन्त्यपरानपि साधूनपवदेयुरित्येत-दाहसीलमंता उवसंता (संखाए) रीयमाणा असीला अणुवयमाणस्स वितिया मंदस्स बालया॥१०३।। (सीलमंता इत्यादि) शीलमष्टादशशीलाङ्गसहस्रसंख्यम्। यदि-वामहाव्रतसमाधान, पोन्द्रियजयः, कषायनिग्रहस्विगुप्तिगुप्तता चेत्येतच्छील विद्यते येषां ते शीलवन्तः। तथोपशान्ताः कषायापेशान्ताः कषायोपशमात् / अत्र शीलवद्ग्रहणेनैव गतार्थत्वादुपशान्ता इत्येतद्विशेषणं कषायनिग्रहप्राधान्यख्यापनार्थम्। सम्यक् ख्याप्यते प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या प्रज्ञा, तया रीयमाणाः संयमानुष्ठाने पराक्रममाणाः सन्तः कस्यचिद्विश्रान्तभागधेयतयाऽशीला एत इत्येवमनुवदतोऽनु पश्चाद्वदतः पृष्ठतोऽपृष्ठतोऽपवदतोऽन्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना कुशीला इत्येवमुक्तेऽनुवदतः पार्श्वस्थाऽऽदेर्द्वितीयैषा मन्दस्यान्यस्य बालता मूर्खता, एकं तावत् स्वतश्चारित्रापगमः, पुनरपरानुद्युक्तविहारिणोऽपवदत इत्येषा द्वितीया बालता।यदिवा-शीलवन्त एते उपशान्ता वेत्येवमन्ये - नाभिहिते, केषां प्रचुरोपकरणानां शीलवत्तोपशान्तता वा इत्येवमनु वदतो हीनाऽऽचारस्य द्वितीया बालता भवतीति / / 103 / / अपरे च वीर्यान्तरायोदयात् स्वतोऽवसीदन्तो पामरसाधुप्रशंसाऽन्धिता यथाऽवस्थितमाचारगोचरमावेदयेयु रित्येतद्दर्शयितुमाहणियट्टमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंति / 104|| णाणभट्ठा दसणलूसिणो णममाणा एगे जीवितं विप्परिणामंति॥१०५।। पुट्ठा वेगे ण्णियटृति जीवियस्सेव कारणा णिक्खंतं पि तेसिं दुपिणक्खंतं भवंति / / 106|| (णियट्टमाणा इत्यादि) एके कर्मोदयात्संयमान्निवर्तमाना लिङ्गादा, वाशब्दादनिवर्तमाना वा यथावस्थितमाचारगोचरमाचक्षतेवयं तु कर्तुमसहिष्णव आचाररत्वेवं भूतमित्येषां द्वितीया बालता न भवत्येव, न पुनर्वदन्त्येवम्भूत एवाऽऽचारो योऽस्माभिरनुष्ठीयते, साम्प्रतंदुःषमाऽनुभावेन बलाऽऽद्यपगमान्मध्यभूतैव वर्तिनी श्रेयसी, नोत्सर्गावसर इति / उक्त हि"नात्यायतं न शिथिलं, यथा युञ्जीत सारथिः। यथा भद्रं वहन्त्यश्वाः, योगः सर्वत्र पूजितः।।१।।" अपि च"जो जत्थ होइ भग्गो, उवसास सो परं अविदंतो। गंतुं तत्थ वयंतो, इमं पहाणं ति घोसेइ" / / 1 / / इत्यादि। / / 104 / / किम्भूताः पुनरेतदेव समर्थये युरित्याह-(णाणभट्ठा) सदसद्विवेको ज्ञानं, तस्माद् भ्रष्टाः / तथा-(दंसणलूसिणो त्ति) सम्यग्दर्शनविध्वंसिनोऽसदनुष्ठानेन स्वतो विनष्टा अपरानपि शड्कोत्पादनेन सन्मार्गाद् च्यावयन्ति। अपरे पुनर्बाह्यक्रियोपेता
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________________ धुयवाय 2764 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयवाय अप्यात्मानं नाशयन्तीत्याह-(णममाणा इत्यादि) नमन्तोऽप्याचार्याऽऽदेव्यतः श्रुतज्ञानार्थ ज्ञानाऽऽदिभावविनयाभावात्कर्मोदयादेके, न सर्वे संयमजीवितं विपरिणामयन्त्यपनयन्ति, सच्चरितादात्मानं ध्वंसयन्तीत्यर्थः / / 105 / / किं चापरमित्याह-(पुट्ठा वेगे इत्यादि) एके अपरिकर्मितमतयो गौरवत्रिक प्रतिबद्धाः स्पृष्टाः परीषहै निवर्तन्ते संयमाल्लिङ्गाद्वेति, किमर्थम्? जीवितस्यैवासंयमाऽऽख्यस्य, कारणान्निमित्तात्, सुखेन वयं जीविष्याम इति सावधानुष्ठानतया संयमान्निवर्तन्ते / तथा-भूतानां च यत्स्यात्त-दाह-(णिवखतं पि इत्यादि) तेषां गृहपाशान्निष्क्रान्तमपि ज्ञानदर्शनचारित्रमूलोत्तरगुणान्यतरोपघातान्निष्क्रान्तं दुनिष्क्रान्तं भवति / / 106 / / तद्धर्माणां च यत्स्यात्तदाहबालवयणिज्जा हु ते णरा, पुणो पुणो जातिं पगप्पंति, अहे संभवंता विद्यायमाणा अहमस्सि विउक्कसे, उदासीणे फरुसं वदंति पलियं पगंथे, अदुवा पगंथे अतहेहिं, तं मेहावी जाणिज्जा धर्म ||107 // (बाल इत्यादि) हुर्हेतौ / यस्मादसम्यगनुष्ठानादुर्निष्क्रान्तास्तस्माद् बालानां प्राकृतपुरुषाणामपि वचनीया गया बालवचनीयाः। (ते णरा इति) किञ्च-(पुणो पुणो इत्यादि) पौनः-पुन्येनारहट्टघटीयन्त्रन्यायेन जातिसत्पत्तिस्ता कल्पयन्ति / किम्भूतास्त इत्याह-(अहे इत्यादि) अधः संयमस्थानेषु सम्भवन्तो वर्तमाना विद्ययावाऽधो वर्तमानाः सन्तो विद्वांसो व्यमित्येवं मन्यमाना लघुतयाऽऽत्मानं व्युऽऽत्कर्षययुरात्मनः श्लाघां कुर्वते, यत् किश्चित् जानानोऽपि मानोत्तम्भितत्वाद्रससातागौरवबहुलोऽहमेवात्र बहुश्रुतो यदाचार्यो जानाति तन्मयाऽल्पेनैव कालेनाधीतमित्येवमात्मानं व्युत्कर्षयेदिति / नात्मा श्लाघ्यतयैवाऽऽसते परानप्यपवदेयुरित्याह-(उदासीणे इत्यादि) उदासीना रागद्वेषरहिता मध्यस्था बहुश्रुतत्वे सत्युपशान्ताः, तान् स्खलितान् चोदनोद्यतान् परुष वदन्ति / तद्यथा-स्वयमेव तावत्कृत्यमकृत्यं वा जानीहि, ततोऽन्येषामुपदेक्ष्यसीति / यथा च परुषं वदन्ति तथा सूत्रेणैव दशयितुमाह-(पलियं इत्यादि)(पलियं ति) अनुष्ठानं, तेन पूर्वाऽऽचरितेनानुष्ठानेन तृणऽऽहाराऽऽदिना प्रकथयेदेवम्भूतस्त्वमिति। अन्यथा वा कुण्टमण्टाऽऽदिभिर्गुणैर्मुखविकाराऽऽदिभिर्वा प्रकथयेदिति। किम्भूतैरतथ्यैरविद्यमानैरित्युपसंहरन्नाह (तं इत्यादि) तद्वाच्यमवाच्यं वा, तं वा धर्म श्रुतचारित्राऽऽख्यं, मेधावी मर्यादाव्यवस्थितो, जानीयात्सम्यक् परिच्छिन्द्यादिति।।१०७।। सोऽसभ्यवादप्रवृत्तो बालो गुर्वादिना यथाऽनुशास्यते, तथा दर्शयितुमाह अहम्मट्ठी तुमं सि णाम बाले, आरंभट्ठी, अणुवयमाणे हणमाणे घायमाणे, हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे उदीरिए उवेहइ, णं अणाणाए एस विसपणे वितद्दे वियाहिए ति बेमि॥१०८।। (अहम्मट्ठी इत्यादि) अर्थोऽस्यास्तीत्यर्थी, अधर्मेणार्थी, यतो नाम त्वमेवम्भूतोऽनुशास्यते, कुतोऽधार्थी , यतो बालोऽज्ञः, कुतो बालो यत आरम्भार्थी सावद्याऽऽरम्भप्रवृत्तः, कुत आरम्भार्थी , यतः प्राण्युप मर्दवादाननुवदन्नेतद् ब्रूषे / तद्यथा-जहि प्राणिनोऽपरैरेव धातयन् घ्नतश्चापि समनुजानासि गौरवत्रिकानुबद्धः पचनपाचनाऽऽदिक्रियाप्रवृत्तस्तत्पिण्डतर्की तत्समक्षं ताननुवदसिकोऽत्र दोषो? न ह्यशरीरैर्धर्मः कर्तुं पार्यत, अतो धाऽऽधारं शरीरं यत्नतः पालनीयमिति। उक्तं च'शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः। शरीराच्छ्रते धर्मो, यथा बीजात्सदकुरः / / 1 / / " इति। किञ्चैवं ब्रवीषि त्वं, तद्यथा--घोरो भयानको धर्मः सर्वाऽऽश्रवनिरोधाद् दुरनुचर उत्प्राबल्येनेरितः कथितः प्रतिपादितस्तीर्थकरगणधराऽऽदिभिरित्येवमध्यवसायी भवान्तरमनुष्ठानत उपेक्षते उपेक्षां विधत्ते, णमिति वाक्यालङ्कारे। नाना-ज्ञया तीर्थकरगणधरानुपदेशेन, स्वच्छया प्रवृत्त इति, क एवम्भूत इति दर्शयति-एष इत्यनन्तरोक्तोऽधर्थीि बाल आरम्भार्थी प्राणिनां हन्ता घातयिता नतोऽनुमन्ता धर्मोपेक्षक इति विषण्णः कामभोगेषु विविध तदर्शयतीति वि तर्दो हिंसकः, 'तर्द' हिंसायामित्यस्मात्कर्तरि पचाऽऽद्यत् / संयम वा प्रतिकूलो वितर्द इत्येवंरूपस्त्वमेष व्याख्यात इत्यतोऽहं ब्रवीमि, त्वं मेधावी धर्म जानीया इति / / 106|| एतच्च वक्ष्यमाणमहं ब्रवीमीत्यत आहकिमणेण भोजणेण करिस्सामि त्ति मण्णमाणा एवं एगे विदित्ता, मातरं पितरं हिचा णाइओ य परिग्गहं वीरायमाणे समुट्ठाय अविहिंसा सुव्वया दंतापास दीणे उप्पइए पडिवयमाणे / / 106 / / वसट्टा कायरा यजणा लूसगा भवंति।।११०।। अहमेगेसिं सिलोए पावए भवति, से समणविभंते समणविभंते // 111 // (किमणेणं इत्यादि) केचन विदितवेद्या धीरायमणाः सम्यगुत्थानेनोत्थाय पुनः प्राण्युपमईका भवन्तीति कथमुत्थाय किमहमनेन, भोरित्यामन्त्रणे, जनेन मातापितृपुत्रकलत्राऽऽदिना स्वार्थपरेण परमार्थतोऽनर्थरूपेण करिष्यामीति, न ममार्य कस्यचिदपि कार्यस्य रोगापनयनाऽऽदेरलमित्यनेन किमहं करिष्ये ? यदि वा-प्रव्रजिषुः केनचिदभिहितः किमनया सिकताकवलसन्निभया प्रव्रज्यया करिष्यति भवान्, अदृष्टवशाऽऽयातं तावदोजनाऽऽदिकं भुड् क्ष्वेत्यभिहितो विरागतामापन्नो ब्रवीतिकिमहमनेन भोजना-ऽऽदिना करिष्ये, भुक्तं मयाऽनेकशः संसारे पर्यटता, तथापि तृप्ति भूत्किमिदानीमनेन जन्मना भविष्यतीत्येवं मन्यमाना एके विदितसंसारस्वभावा विदित्वाऽप्येवं ततो मातर जननीं पितरं जनयितारं हित्वा त्यक्त्वा, ज्ञातयः पूर्वापरसंबन्धिनः स्वजना वा, परिगृह्यत इति परिग्रहो धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदाऽऽदिस्तं, किम्भूताः? धीरमिवात्मानमाचरन्तो धीरायमाणाः, सम्यक् संयमानुष्ठानेनोत्थाय समुत्थाय विविधैरुपायैः, न विद्यते विहिंसा येषा ते अविहिंसाः, तथा शोभनं व्रतं येषां ते सुब्रताः, दान्ता इन्द्रियदमनाद्दान्ता इत्येवं समुत्थाय / नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-- "समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू अहिंसगा सुव्वया दंता परदत्तभोइणो पावं कम्मंण करेस्सामो समुट्ठाए।" सुगमत्वान्न विवियत इति। एवं समुत्थाय पूर्वं पश्चात्पश्य निभालय दीनान शृगालत्वविहारिणो व्रतं जिघृक्षून् पूर्वमुत्पतिता न संयमाऽऽरोहणात्पश्चात्पापोदयात् प्रतिपतत इति / / 106 // किमिति दीना भवन्तीति दर्शयलियतो वशा इन्द्रिय--
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________________ धुयवाय 2765 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयवाय विषयकषायाणां तत आर्ता वशाऽऽतः, तथाभूतानां च कर्मानुषङ्गः। तदुक्तम्- ''सोइंदियवसट्टणं भंते ! कति कम्मपगडीओ बंधइ? गोयमा ! आउवजाओ सत्त कम्मपगडीओ० जाव अणुपरियट्टइ / कोहवसट्टे णं भंते ! जीवे किं ? एवं ते चेव।" एवं मानाऽऽदिष्वपीति तथा कातराः परीषहोपसर्गोपनिपाते सति विषयलोलुपा वा कातराः। के ते? जनाः, किं कुर्वन्ति? ते प्रतिभग्नाः सन्तोलूषका भवन्तिको ह्यष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि धारयिष्यतीत्येवमभिसंधाय द्रव्यलिङ्ग, भावलिङ्ग वा परित्यज्य प्राणिनां विराधका भवन्ति॥११०|| तेषांव च पश्चात्कृतलिङ्गानां यत्स्यात्तदाह-(अहमेगेसिं इत्यादि) अथाऽऽनन्तर्ये, एकेषां भव्नप्रतिज्ञानां सुप्रव्रजितानां तत्समनन्तरमेवान्तर्मुहूर्तेन वा पञ्चत्वाऽऽपत्तिः स्यात्, एकेषां तु श्लोकः श्लाघारूपः पापको भवेत् स्वपक्षात्परपक्षाद्वा महत्ययशः कीर्तिर्भवति। तद्यथा-स एव पितृवनकाष्ठसमानो भोगाभिलाषी व्रजति तिष्ठति वा, नास्य विश्वसनीय, यतो नास्याकर्तव्यमस्तीति। उक्तं च-- "परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् / आत्मानं यो न सन्धत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः / / 1 / / '' इत्यादि / यदि वा सूत्रेणैवाश्लाघतां दर्शयितुमाह-(से समण इत्यादि) सोऽयं श्रमणो भूत्वा विविधं भ्रान्तो भग्नः श्रमणविभ्रान्तः श्रमणविभ्रान्तः / वीप्सयाऽत्यन्तजुगुप्सामाह // 111 / / किञ्चपासहेगे समण्णागएहिं असमण्णागए णममाणेहिं अणममाणे विरतेहिं अविरते दविएहिं अदविए अमिसमेचा पंडिए मेहावी णिट्ठियढे धीरे आगमेणं सया परक्कमेजासि त्ति वेमि // 112 / / पश्यत यूयं कर्मसामर्थ्यमेके विश्रान्तभागधेयाः समन्वागतैरुधुतविहारिभिः सह वसन्तोऽप्यसमन्वागताः शीतलविहारिणः, तथा नममानैः संयमानुष्ठानेन विनयवद्भिरनममाना निघृणतया सावद्यानुष्ठायिनो, विरतैरविरता द्रव्यभूतैरद्रव्यभूताः पापकलङ्कितत्वादैवभूतैरपि साधुभिः सह वसन्तोऽप्येवम्भूतानभिसमेत्य ज्ञात्वा, किं कर्त्तव्यमिति दर्शयतिपण्डितस्त्वं ज्ञातज्ञेयो मेधावी मर्यादाव्यवस्थितो निष्ठितार्थो विषयसुखनिष्पिपासो धीरः कर्मविदारणसहिष्णुर्भूत्वाऽs - गमेन सर्वज्ञप्रणीतोपदेशानुसारेण, सदा सर्वकालं परिक्रामयेत्, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्, धूताध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः / उक्तश्चतुर्थोद्देशकः।। साम्प्रतं पञ्चम आरभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके कर्मविधूननार्थ गौरवत्रयविधूननाऽभिहिता, सा च कर्मविधूननोपसर्गविधूननाव्यतिरेकेण न संपूर्णभावमनुभवति, नापि सत्कारपुरस्कारात्मिकां समानधूननामन्तरेण गौरवविधूनना सम्पूर्णतामियादित्यत उपसर्गसमानविधूननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्योद्देशकस्यास्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्। तच्चेदम् से गिहेसु वा गिहतरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा णगरेसु वा णगरंतरेसु वा जणवएसु वा जणवयंतरेसु वा संतेगतिया जणा लूसगा संति, अदुवा फासा फुसंति, ते फासे पुट्ठो धीरो अहियासए ओएसमियदंसणे॥११३|| "से गिहेसुवा इत्यादि,०जाव धीरो अहियासए।" (से ति) स पण्डितो मेधावी निष्ठितार्थो धीरः सदा सर्वज्ञप्रणीतोपदेशानुविधायी गौरवत्रिकाप्रतिबद्धो निर्ममो निष्किञ्चनो निराशि एकाकिविहारितया ग्रामानुग्रामं रीयमाणः क्षुद्रतिर्यग्नरामरकृतोपसर्गप-- रीषहाऽऽपादितान् दुःखस्पर्शान्निजरार्थी सभ्यगधिस हेत / व पुनर्व्यवस्थितस्य केपरीषहोपसर्गा अभिपतेयुरितिदर्शवति-आहाराऽऽद्यर्थ प्रविष्टस्य गृहेषुवा, उचनीचमध्यमावस्थासंसूचकं बहुवचनम्। तथा गृहान्तरेषु प्रसन्ति बुद्ध्यावीन् गुणानितित्रामाः, तेषु वा तदन्तरातेषु वा। नैतेषु करोऽतीति नकराणि, तेषु वा, तदन्तरालेषु वा। जनाना लोकानां पदान्यवस्थानानि येषु ते जनपदा यवन्ह्यादयः साधुविहरणयोग्या अर्द्धषशितिः, तेषुवा, तदन्तरालेषु वा, ग्रामनगरान्तरे वा, ग्रामजनपदान्तरे वा, नगरजनपदान्तरे वा, उद्याने वा, तदन्तरे वा, विहारभूमिमागतस्य वा गच्छतो वा तदेवं तस्य भिक्षोामाऽऽदीनधिशयानस्य कायोत्सर्गाऽऽदि वा कुर्वत एके कालुष्योपहताऽऽत्मानो ये जना लूषका भवन्ति, 'लूष' हिंसायामित्यस्माद् ल्युडन्ते रूपम्। सन्ति विद्यन्ते, तत्र नारकाभावादुपसर्गकरण प्रत्यवस्तु (?) तिर्यगमरयोरपि कादाचित्कत्वान्मे तूष्णीमेवानुकूलप्रतिकूलवगावाजनग्रहणम् (?) यदि वा-जायन्त इति जनाः तिर्यग्नरामरा एव जनशब्दाभिहिताः, ते च जना अनुकूलप्रतिकूलान्यतरभयोपसर्गाऽऽपादनेनोपसर्गयेयुरिति / तत्र दिव्याश्चतुविधाः। तद्यथा-हास्यात्, प्रद्वेषाद्विमर्शात, पृथग्विमात्रातो वा / तत्र केलीकिलः कश्चित् व्यन्तरो विविधानुपसर्गान् हास्यादेव कुर्यात-यथा भिक्षार्थ प्रविष्टः क्षुल्लकैर्भिक्षालाभार्थ पललविकटतर्पणाऽऽदिनोपयाचितकं व्यन्तरस्य प्रपेदे, भिक्षाऽवाप्तौ च तज्जायमानस्य कुतश्चिदुपलभ्य विकटाऽऽदिकं तैईढोके, तेनापि केल्यैव ते क्षुल्लकाः क्षीवा इव व्यध्यायिषत प्रदेषेण यथा भगवतो माघमासरजन्यां तापसीरूपधारिण्या व्यन्तर्योदकजटाभारवल्कलविप्रभिः सेचनमकारि विमर्शार्थ मयं दृढधर्मा न वेत्यनुकूलप्रतिकूलोपसगै : परीक्षयेत् / तथा संविग्नः साधुर्भावितया कयाचिद् व्यन्तर्या स्त्रीवेषधारिण्या स्तन्यदेवकुलिकावासितः साधुरनुकूलोपसर्गरुपमर्दितो दृढधर्मेति च कृत्वा वन्दित इति / तथा पृथग्विधा मात्रा येषूपसर्गेषु ते पृथग्विमात्रा हास्याऽऽदित्रयान्यतराऽऽरब्धा अन्यतरावसायिनो भवन्ति। तद्यथा-भगवतिसंगमकेनेव विमर्शाऽऽरब्धः प्रद्वेषेध पर्यवसिता इति मानुषा अपिहास्यप्रद्वेषविमर्शकुशीलप्रतिषेधनाभेदाचतुर्धा / तत्र हास्याद्देवसेना गणिका क्षुल्लकमुपसर्गयन्ती दण्डेन ताभिता राजानमुपस्थिता, क्षुल्लकेन तथाभूतेन श्रीगृहोदाहरणेन राजा प्रतिबोधित इति / प्रद्वेषाद्गजसुकुमारस्येवश्वशुरभूतेनेति विमच्चिन्द्रगुप्तो राजा चाणक्यचोदितो धर्मपरीक्षार्थमन्तः पुरिकाभिर्धर्ममावेदयन्तं साधुमुपसर्गयति, साधुना च प्रत्यायता श्रीगृहोदाहरणं राजे निवेदितमिति / तत्र कुत्सितं शीलं कुशीलं, तस्य प्रतिसेवनं कुशीलप्रतिसेवन, तदर्थ कश्चिदुपसर्गकुर्याद्यथालुगृहपर्युषितः साधुश्चतसृभिः सीमन्तिनीभिः प्रोषितभर्तृकाभिः सकलां रजनीमेकैकया प्रतिमया उपसर्गितो, न चाऽसौ तासु लुलुभे, मन्दरवन्निष्प्रकम्पोऽभूदिति तैर्यथैता अपि भवप्रद्वेषाऽऽहारापत्यसंरक्षणभेदाचतुर्द्धव / तत्र भवात् साऽऽदिभ्यः प्रद्वेषाद्यथा गगनतवण्डकौशिकात् आहारात सिंहव्याघ्राऽऽदिभ्यः अपत्यसरक्षणात्काक्यादिभ्य इति। तदेवमुक्तविधिनोपसर्गाऽऽपादकत्वाजना लूषका भवन्ति / अथवा तेषु ग्रामाऽऽदिषु स्थानेषु तिष्ठ
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________________ धुयवाय 2766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुयवाय तो गच्छतो वा स्पर्शान दुःखविशेषान् आत्मसंवेदनीयाः स्पृशन्त्यभिभवन्ति। ते चतुर्विधाः। तद्यथा-घट्टनताऽक्षिकणुकाऽऽदिना, पतनता भ्रमिमूर्छाऽऽदिना, स्तम्भनता घाताऽऽदिना, श्लेषणता तालुतः पातादड् गुल्यादेर्वा स्यात् (? / यदि वा-वातपित्तश्लेष्माऽऽदिक्षोभात् स्पर्शाः स्पृशन्ति / अथवा-निष्किञ्चनतया तृणस्पर्शदंशमशकशीतोष्णाऽऽदितापिताः स्पर्शा दुःखविशेषाः कदाचित् स्पृशन्त्यभिभवन्ति, तैश्च स्पृष्टपरीषहस्तान् स्पर्शानदुःखविशेषान् धीरोऽक्षोभ्योऽधिसहेत, नरकाऽऽदिदुःखभावनयाऽबन्ध्यकर्मोदयाऽऽपादितं पुनरपि मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य सम्यक् तितिक्षेदिति। कीदृक्षोऽधिसहेत? इत्यत आह-यदि वा स एवम्भूतो न केवलमात्मनखाता, तदुपदेशदानतः परेषामपीति दर्शयितुमाह-(ओए इत्यादि) ओज एको रागाऽऽदिविरहात् सम्यगितं गतं दर्शनमस्येति समितदर्शनः, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः / यदिवा शमितमुपशमं नीतं दर्शनं दृष्टिनिमस्येति समितदर्शनः, उपशान्ताध्यवसाय इत्यर्थः / अथवा-समतामितं गतं दर्शनं दृष्टिरस्येति समितदर्शनः समदृष्टिरित्यथः। एवम्भूतः स्पर्शानधिसहेत यदि वा धर्ममाचक्षीतेत्युत्तर क्रियया सह सम्बन्धः।।११३|| आचा। (किमभिसन्ध्य धर्ममाचक्षीतेति 'धम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2662 पृष्ठे दर्शितम्) किंगुणश्वाऽसौ द्वीप इव शरण्यो भवनीत्याहएवं से उहिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिलेस्से परिव्वए ||116 / संखाय पेसलं धम्म दिद्विमं परिणिव्वुडे / / 120 // तम्हा संगं ति पासहा गंथेहिं गंथिया णरा विसण्णा कामक्कंता, तम्हा लूहाओ णो परिवित्तसेज्जा / / 121|| (एवं इत्यादि) एवमिति वक्ष्यमाणप्रकारेण, स शरण्यो महामुनि वोत्थानेन संयमानुष्ठानरूपेण, उत्प्राबल्येन स्थित उत्थितः, तथा स्थितो ज्ञानाऽऽदिके मोक्षाध्वन्यात्मा यस्य स स्थिताऽऽत्मा, तथा स्निह्यतीति स्निहो, न स्निहोऽस्निहः रागद्वेषरहितत्वाद प्रतिबद्धः, तथा चन चलतीत्यचलः परीषहोपसर्गवातेरितोऽपीति। तथा चलोऽनियतविहारित्वात्तथा संयमादहिर्निर्गता लेश्याऽध्यवसायो यस्य स बहिर्लेश्य, यो न तथा सोऽबहिर्लेश्यः, स एवम्भूतः परि समन्तात्सयमानुष्ठाने व्रजेत्पविजेत्, न क्वचित्प्रतिबध्यमान इतियावत्॥११६॥ स च किमिति संयमानुष्ठाने परिव्रजेदित्याह-(संखाय इत्यादि) सङ्ख्यायाऽवधार्य्य पेशल शोभनं धर्ममविपरीतार्थं, दर्शनं दृष्टिः, सदनुष्टानं वायस्यास्त्यसौ दृष्टिमान, स कषायोपशमात् क्षयादा परि समन्तान्निर्वृतः शीतीभूतः // 120 / / यस्त्वसङ्घ यातवान् पेशलं धर्म मिथ्यादृष्टिरसौ न निर्वातीति दर्शयितुमाह-(तम्हा इत्यादि) इतिहेतोर्यस्मादिपरीतदर्शनो मिथ्यादृष्टिः सगवान्न निर्वाति तस्मात्सङ्ग मातापितृपुत्रकलत्राऽऽदिजनितं, धनधान्यहिरण्याऽऽदिजनित वा सङ्ग, विपाक वा पश्यत यूयं विवेकनावधारयत। सूत्रेणैव सङ्गमाह-(गंथेहिं इत्यादि) त एव सङ्गिनो नराः सबाह्याभ्यन्तरैन्थैिथिता अवबद्धा विषण्णा ग्रन्थसङ्गे निमग्नाः कामैरिच्छामदनरूपराक्रान्ता अवष्टब्धा न निर्वन्ति यद्येवं ततः किं कर्तव्यमित्याह-(तम्हा इत्यादि) यस्मात्कामद्वयाऽऽसक्तचेतसः स्वजनधनधान्याऽऽदिमूर्छिता। कामजैः शारीरमानसाऽऽदिभिर्दुःखैरुपतापितास्तस्मात् रूक्षात्सयमात् निःसङ्गाऽऽत्मकान्नो परिवित्रसेन्न संयमानुष्ठानादिभियात्। यतः प्रभूतनरदुःखानुषङ्गिणो हि सङ्गिन इति / / 121 / / करय पुनः संयमान्न परिवित्रसनं सम्भाव्यत इत्याह-- जस्सिमे आरंभा सव्वतो सव्वत्ताए सुपरिण्णाया भवंति, जेसिमे लूसिणो णो परिवित्तसंति, से वंता कोहं च माणं च मायं च लोहंच, एस तुट्टे वियाहिए त्ति बेमि।।१२२।। कायस्स वि वाघाए स संगामसीसे वियाहिए, से हु पारंगमे मुण अविहम्ममाणे फलगायतट्ठी कालोवणीए कंखेज कालं जाव सरीरभेदो त्ति बेमि।।१२३।। (जस्सिमे इत्यादि) यस्य महामुनेरवगतसंसारमोक्षकारणस्येमे सङ्गा आरम्भा अनन्तरोक्तत्वादतिजानतः सर्वजनाऽऽचरितत्वात्प्रत्यक्षाऽऽसन्नवाचिनेदमभिहतः सर्वतः सर्वाऽऽत्मकतया सुपरिज्ञाता भवन्ति / किम्भूता आरम्भाः ? येष्विने ग्रन्थग्रथिताः विषण्णाः कामभराऽऽक्रान्ता जना लूषिणो लूषणशीला हिंसका अज्ञातमोहोदयान्न परिवित्रसन्ति न बिभ्यति, यो ह्येवंभूताश्चाऽऽरम्भान ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरति तस्यैते सुपरिज्ञाता भवन्ति। यश्वाऽऽरम्भाणां परिज्ञाता स किमपरं कुर्यादित्याह (सेवंता इत्यादि) स महामुनिः पूर्वव्यावर्णितस्वरूपो वान्त्वा त्यक्त्वा क्रोधं चमानं च मायां च लोभं चेति स्वगतभेदसंसूचनार्थो व्यस्तनिर्देशः, सर्वानुयायित्वात् क्रोधस्य प्रथमोपादानम्, तत्सम्बन्धत्वान्मानस्य लोभार्थ नायोपादीयत इत्यतस्तत्कारणत्वान्मायाया लोभस्याऽऽदावुपन्यासः, ततः स च दोषाऽऽश्रयत्वात्सर्वगुरुत्वाच सर्वोपरि लोभस्य क्षपणाक्रमं वाऽऽश्रित्यायमुपन्यास इति। चकारो हीतरेतरापेक्षया समुच्चयार्थः / स एवं क्रोधाऽऽदीन्वान्त्वा मोहनीय त्रोटयति, स चैष अपगतमोहनीयः संसारसन्ततेः, 'तुट्ठो' अपसृतो व्याख्यातस्तीर्थकृतादिभिः, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ / ब्रवीम्येतत्पूवोक्तम् / यदि वैतद्वक्ष्यमाणमित्याह-(कायस्स इत्यादि) काय औदारिकाऽऽदित्रय, घातिचतुष्टयं वा, तस्य व्याघातो विनाशः। अथवा चीयत इति कायस्तस्य विशेषेणाङ्मऽऽदियाऽऽयुष्कक्षयाबधिलक्षणया, घ तो व्याघातः शरीरविनाश एव सङ्ग्रामशीर्षरूपतया व्याख्यातः। यथा हि-सङ्ग्रामशिरसि परानीकनिशाताऽऽकृष्टकृपाणनिर्यत्नप्रभासं चलितोद्यत्सूर्यत्विहुभूतविद्युन्नयनचमत्कृतिकारिणि कृतकरणोऽपि सुभटश्चित्तविकारं विधत्ते, एवं मरणकालेऽपि समुपस्थिते परिकर्मितमतेरप्यन्यथाभावः कदाचित्स्यादतो यो मरणकाले न मुह्यति, स पारगामी मुनिः संसारस्य कर्मणो वा उक्षिप्तभारस्य वा पर्यन्तयायीति / किन-(अविहम्ममाणे इत्यादि) विविधं परीषहोपसर्ग -- हन्यमानो विहन्यमानो, न विहन्यमानोऽविहन्यमानः, न निर्विण्णः सर्वहानसंगद्धे (?) पृष्टमन्यद्वा बालमरणं प्रतिपद्यत इति / यदि वाहन्यमानोऽपि सबाह्याभ्यन्तरतया तपःपरीषहोपसर्गः फलक-वदवतिष्ठते नकातरीभवति। तथा कालेनोपनीतः कालोपनीतो मृत्युकालेनाऽऽत्मवशता नीतः सन द्वादशवर्षसङ्लेखनयाऽऽत्मानं संलिख्य गिरिगह्वराऽऽदिस्थण्डिलपादपोपगमनेङ्गितमरणभक्तपरिज्ञान्यतरावस्थोपगतः कालं मरणकालमायुष्कक्षयं यावच्छरीरस्य जीवेन सार्द्ध भेदो भवति, ता
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________________ धुयवाय 2767 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुवसंतकम्म वदाकाङ्केत, अयमेव च मृत्युकालो यदुत शरीरभेदो, न पुनर्जीव- वसितत्वाद् ध्रुवं कर्म, तत्फलभूतः संसारो या, तस्य निग्रहहेतुस्याऽऽत्यन्तिको विनाशोऽस्तीति / इतिरधिकारपरिसमासौ / / त्वान्निग्रहो ध्रुवनिग्रहः। आवश्यके, अनु०॥ अवीमीत्यादिकं पूर्ववदिति पञ्चमोद्देशकः। तत्समाप्तौ च सप्राप्तं धुताऽऽख्य धुवपगडि-स्त्री०(ध्रुवप्रकृति) ध्रुवकर्मप्रकृती, आचा०ा ध्रुवकर्मषष्ठाध्ययनमिति। आचा०१ श्रु०६ अ०५ उ०॥ प्रकृतयश्चेमा:-पश्चधा ज्ञानाऽऽवरणीयं, नवधा दर्शनाऽऽवरणीयं, धुर-पुं०(धुर) अष्टाशीतिमहाग्रहेष्वन्यतमे स्वनामख्याते ग्रहे, "दो मिथ्यात्वं कषायषोडशकं, भयं, जुगुप्सा, तैजसकार्मणशरीरवर्णधुरा।" स्था०२ ठा०३ उ०। कल्प। गन्धरसस्पर्शाः, गुरुलघूपघातनिर्माणानां पञ्चधाऽन्तरायः / एताः धुरा-स्वी०(धुरा) धुर्व--किप।"रो रा"1८/११६॥ इति प्राकृतसूत्रेण सप्तचत्वारिंशद्धवप्रकृतयः। आचा०१ श्रु०२१०१ उ01 (अस्या भेदाः स्त्रियामन्त्यरेफस्य रा इत्यादेशः / प्रा०१पाद। चिन्तायाम्, स्थाग्रभागे, 'णाणावरणिज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1665 पृष्ठे प्रतिपादिताः) यानमुखे, भारे च / टाप् / धुराऽप्यत्र / वाच०। (दर्शनाऽऽवरणीयभेदाः 'दंसणावरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2437 पृष्ठे धुरी-स्त्री०(धुरी) अक्षे, अनु०॥ गताः ) (मिथ्यात्वभेदवर्णन 'मिच्छत्त' शब्दे) (कषायषोडशकस्वरूप धुव-पुं०(ध्रुव) शङ्कौ, विष्णौ, हरे, उत्तानपादनृपपुत्रे, वसुभेदे, ज्यौ 'कसाय' शब्दे तृतीयभागे 364 पृष्ठे गतम्) (भयस्वरूपं 'भय' शब्दे तिषोक्ते योगभेदे, नासाग्रे, स्थाणौ, ललाटस्थे आवर्तभेदे, भूगोल विस्तरतो वर्णयिष्यामि) (जुगुप्सालक्षणं 'दुगुंछा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे स्योत्तरदक्षिणकेन्द्रद्वयोपरि स्थिते स्थिरे ताराभेदे च / वाचा भगवत 2553 पृष्ठे गतम्) (तैजसकार्मणश-रीरवर्णनम् 'अगुरुलहुय' शब्दे ऋषभदेवस्य भरताऽऽदिशतपुत्रेष्वन्यतमे स्वनामख्याते पुत्रे, कल्प०१ प्रथमभागे 157 पृष्ठे गतम्) (वर्णस्वरूपं 'वण्ण' शब्दे वर्णयिष्यामि) अधि०७ क्षण / शाश्वतत्वाद् मोक्षे, तदुपाये संयमे च / सूत्र०१ श्रु०२ (गन्धविस्तरः 'गंध' शब्दे तृतीयभागे 764 पृष्ठे गतः) (रसविभागः 'रस' अ०१उ०। 'धुवमग्गमेव पवयंति।" धुवो मोक्षः संयमो वा तन्मार्गमव शब्दे स्पष्टी भविष्यति) (स्पर्शविवेचन फास' शब्दे वक्ष्यते) (गुरुलधुस्वप्रवदन्ति / सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। आचा०। मोक्षकारणीभूते रूपं 'अगुरुलहुय' शब्दे प्रथमभागे 157 पृष्ठे गतम्) (उपघातभेदाः ज्ञानाऽऽदिके, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। कर्मणि, तत्फलभूते संसारे, 'उवघाय' शब्दे द्वितीयभागे 880 पृष्ठे विस्तरतो गताः) (निर्माणअनु०। स्थैर्ये , षो० 12 विव०। अत्यन्ते, विशे० / 'धुवमोगिण्हइ।'' नामस्वरूपम् 'णिम्माणणाम (ण)' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2084 पृष्ठे धुवमत्यन्त, सर्वदेत्यर्थः / स्था०६ ठा० अवश्यमिर्थे, आ० तर्के, आकाशे, द्रष्टव्यम्) (सर्वेऽप्यन्तरायप्रकृतिभेदाः 'अंतरा (य) इय' शब्दे प्रथमभागे उत्तरात्रयरोहिणीनक्षत्रेषु च। न०। वाचा अर्थतो ध्रुवत्वाच्छाश्वतत्वाद् 68 पृष्ठे प्रदर्शिताः) ध्रुवम्। आवश्यके, विशे। त्रिकालभावित्वाद् धुवः। नित्ये, "धुवे णितिए धुवबंध-पुं०(ध्रुवबन्ध) यःपुनरग्रेऽपि नव्यः कदाचिद् व्यवच्छेद सासए अक्खए अव्यए अवट्टिए निचे।" (स्था०) इन्द्रशक्राऽऽदिवत्पर्याय प्राप्स्यति, सोऽभव्यसंबन्धी बन्धो ध्रुवबन्धः / कर्मबन्धभेदे, क०प्र० शब्दा ध्रुवाऽऽदयोनानादेशजविनेयप्रतिपत्त्यर्थमुपन्यस्ताः / स्था०५ २प्रका ठा०३ उ०। विशे०। आचाof गOn आ०म०। ध्रुवोऽप्रच्यु–तानुत्पन्नस्थिर- धुवबंधिणी-स्त्री०(ध्रुबवन्धिनी) धुवो बन्धो विद्यते यस्यां सा स्वभावः। सूत्र०२ श्रु०४ अ०। अप्रतिहार्ये नि० चू० 5 उ०। "धुवा जे ध्रुवबन्धिनी / कर्मप्रकृतिभेदे, पं० सं०३ द्वार / निजहेतुसद्भावे यासां अविणासधम्मिणो / ' आ०चू०१ अ०॥ त्रिकालावस्थायित्वाद् धुवं, प्रकृतीनां ध्रुवोऽवश्यंभावी बन्धो भवति, ता ध्रुवबन्धिन्यः कर्मप्रकृतः। मेदिवदचले, जी०३ प्रति०४ अधि० भ० / ध्रुवोऽवश्यंभावित्वात्। कर्म०५ कर्म०। (ताश्च सप्तचत्वारिंशत्संख्याकाः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे स्था०५ ठा०३ उ०ा अवश्यं भाविनि, सूत्र०२ श्रु०१अ०। विशे०। आव०॥ 261 पृष्ठे) निश्चिते, विशे०। आचा०। उत्त। धुवं नियतं नैत्यिक मिति धुवमग्ग-पुं०(ध्रुवमार्ग) धुवो मोक्षः संयमो या, तस्य मार्गः / मोक्षमार्गे, त्रयोऽष्येकार्थाः / व्य०१ उ०। द्वा०। बृ०ा अव्यभिचारिणि च / सूत्र०१ ___ संयममार्गे च / 'धुवमग्गमेव पवयंति।" सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। श्रु० 2 अ०१ उ० आचा०। सन्नते, अपरिणामिनि नित्ये, स्थिरे च / धुवराहु-पुं०(ध्रुवराहु) सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् संचरति राहुभेदे, त्रि०मूर्यायाम, शालपा च। स्त्री०। शरारिपक्षिणि, पुंस्त्री०संज्ञायां सू०प्र०२० पाहु०। च०प्र०। (तद्वक्तव्यता 'राहु' शब्दे-ऽवधार्या) कन् / गीतिभेदे, न०। वाचा धुववग्गणा-स्त्री०(ध्रुववर्गणा) धुवा नित्या लोकव्यापितया सर्वकालावधुवकम्मिय-पु०(ध्रुवकर्मिक) लोहकाराऽऽदौ, व्य०१ उ०। कल्पका स्थायिनी वर्गणा ध्रुववर्गणा / वर्गणाभेदे, आ०म० 1101 खण्ड / ओघा (तद्वक्तव्यता वग्गणा' शब्दे) धुवचारि(ण)-पुं०(ध्रुवचारिन्) ध्रुवो मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानाऽऽदि ध्रुवं, धुववण्ण-पुं०(ध्रुववर्ण) ध्रुवोऽव्यभिचारी, स चाऽसौ वर्णः संयमो मोक्षो तदाचरितुं शीलं यस्य / मोक्षचरणशीले, मोक्षकारणज्ञानाऽऽद्याचरण- वा धुववर्णः / अव्यभिचारिणि संयमे, मोक्षे च। ध्रुवो वर्णो यशः कीर्तिर्वा शीले च। आचा०१ श्रु०२अ०२उ०। ध्रुववर्णः / शाश्वते यशसि, शाश्वत्यां कीर्त्यां च। 'धुववण्णं स पेहिया।" धुवजोगि(ण)-पुं०(ध्रुवयोगिन) नित्ययोगवति, दश०१० अ०। आचा०१ श्रु०६ अ०१० धुवणिग्गह-पुं०(ध्रुवनिग्रह) प्रवाहतोऽनादिकालीनत्वाद् धुवं कर्म, | धुवसंतकम्म-न०(ध्रुवसत्कर्म) यत्सर्व संसारिणामनवाप्तोत्तरतन्निगृह्यतेऽनेनेति ध्रुवनिग्रहण विशे० अनादित्वात् क्वचिदप्यपर्य- | गुणानां सातत्ये न भवति तद् ध्रुवसत्कर्म / कर्म भेदे, पं०सं०
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________________ धुवसंतकम्म 2768 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुमवण्ण ३द्वार। (धुवसत्कर्मप्रकृतयः 'कम्म' शब्देतृतीयभागे 261 पृष्ठेद्रष्टव्याः) जलिय जोइं, धूमके दुरासयं।" धूमकेतोरग्नेया॑तिज्वोला प्रस्कन्देत। धुवसंतकम्मिया-स्वी०(ध्रुवसत्कर्मिका) ध्रुवं सत्कर्म यस्याः सा उत्त० 22 अ० धूमकेतुं धूम चिह्न धूमध्वज नोल्काऽऽदिरूपम् / ध्रुवसत्कर्मिका। कर्मप्रकृतिभेदे, क०प्र०२ प्रक०। दश०२अ०) "दो धूमकेऊ।" स्था०२ ठा० ३उ०। धुवसत्तागा-स्त्री०(धुवसत्ताका) धुवा अव्यवच्छेदकालादाक्का- | धूमचारण-पुं०(धूमचारण) चारणभेदे, धूमवर्तितिरक्षीनामूर्द्धगां लभाविनी सत्ता यस्याः सा ध्रुवसत्ताका / कर्मप्रकृतिभेदे, पं० सं०३ वाऽवलम्ब्यास्खलितगमनाऽऽस्कन्दिनोधूमचारणाः। ग०२ अधिका प्रव०। द्वार / या सर्वसंसारिणाम प्राप्तसम्यक्त्वाऽऽद्युत्तरगुणानां सातत्येन भवन्ति | धूमजोणि-पुं०(धूमयोनि) धूमो योविरस्य। मेघे, मुस्तके च / 6 त०। ता ध्रुवसत्ताकाः / कर्म०५ कर्मा (ताश्च त्रिंशदुत्तरशतसंख्याः 'कम्म' वह्नौ, आर्द्रकाष्ठे च।वाचा "अब्भाइँ धूमजोणी।" को०२७ गाथा। शब्दे तृतीयभागे 261 पृष्ठ द्रष्टव्याः) ध्रुवसत्ताकत्वं तासां सम्यक्त्व- धूमज्झय-पुं०(धूमध्वज) वह्नौ, धूमचिह्न वह्नौ,दश०२अ०। एकालाभादर्वाक् सर्वजीवेषु सदैव सद्भावात्। कर्म०५ कर्मा र्थिकानि- "धूमज्झओ हुयवहो, विहावसू पावओ सिही वण्ही। अणलो धुवसेण-पुं०(धुवसेन) वीरनिर्वाणान्नवशताशीतिवर्षेष्वतीतेषु जाते | जलणो दुहणो, हुआसणो हव्ववाहो य॥६॥" को०६ गाथा। स्वनामख्याते नृपे, यस्य पुत्रमरणाऽऽर्तस्य शोकापहारार्थ कल्पसूत्रस्य धूमण-न०(धूमन) अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपाने, दश०३ अ०। नापि वाचनाऽऽरब्धेति / कल्प०१ अधि०६ क्षण। काशाऽऽद्यपनयनार्थ तं धूम योगवर्ति निष्पादित मापिबेत् / सूत्र०२ धुवोदया-स्त्री०(ध्रुवोदया) ध्रुव आ उदयकालव्यवच्छेदा दक्किा श्रु०१० लावस्थायी उदयो विपाकानुभवनलक्षणो यस्याः सा ध्रुवोदया / धूमदोस-पुं०(धूमदोष) अन्तप्रान्ताऽऽदाबाहारे द्वेषाचारित्रस्यापि "अधुच्छिण्णो उदओ, जाणं पयडीण ता धुवोदइया / " यासाम धूननाद्भूमदोषः / आचा०२ श्रु०१ अ०३उ०। निन्दन पुनः पुनश्चारिव्यवच्छिन्नाऽनुसन्ततः स्वोदयव्यवच्छेदकालं यावत्। पं०सं०३ द्वार / वेन्धनम्, दहन् धूमकरणाद्धूमदोषः / ग्रासैषणादोषभेदे, ध०३ अधि०। कर्म०1 उदयास्ता ध्रुवोदयाः, ('कम्म शब्दे विवृतमेतत्) द्वेषेण भुञानस्यधूमदोषः। जीत०। उत्त०। 'दोसेण सधूमगं मुणेयव्वं / ' धूआ-स्त्री०(दुहित) अङ्गजायाम्, 'धूआ दुहिआ।'' को० 252 गाथा। पिं०॥ द्वेषेणाऽऽध्मातस्य यद् भोजनं तत्सधूम, निन्दाऽऽत्मककलुषभावधूअरायमग्ग-पुं०(धूतराजमार्ग) धूतोऽपनीतो राजमार्गों राजपन्था रूपधूमसंमिश्रत्वात्। पिं० यस्मिन्। अपनीतराजपथे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२उ०। धूमदार-(देशी) गवाक्षे, देना०५ वर्ग 61 गाथा। धूओवाय-पुं०(धूतोपाय) धुओवाय' शब्दार्थे, आचा०१ श्रु०६अ०१ उ०। धूमद्धअ-(देशी) तटाके, महिषे च / दे०ना०५ वर्ग 63 गाथा। वह्नौ, धूण-(देशी) गजे, दे०ना०५ वर्ग 60 गाथा। को०६ गाथा। धूम-पुं०(धूम)धू-मक्। आर्द्रकाष्ठजाते मेघकज्जलयोःकारणे वहिध्वजे धूमद्धयमहिसी-स्त्री०(देशी) कृत्तिकासु, दे०ना०५ वर्ग 62 गाथा। पदार्थे, वाच० "अंतो धूमेण नारेइ।" धूमेन वहिलिङ्गेन / स०३० धूमपलीयाम-पुं०(धूमप्रदीप्ताम) आमभेदे, नि०चू०। 'धूम-पलियामं सम०। व्याधिशमनाय धूमश्चायोगर्भः / पं०व०४ द्वार। औ०। धूमो णाम जहा खड्डे खणित्तातत्थ करीसो छुब्भति, तीसे खड्डाए परिपेरतेहिं मनःशिलाऽऽदिसम्बन्धीभूतवासनाऽऽदिकः / उत्त० 15 अ०॥ द्वेषे, अण्णाओ खड्डाओ खणित्ता तासु तेदुआदीणि फलाणि छुभिता जा, "इंगालधूमपरिसुद्धं उवहिं धारए स भिक्खू जो हंगालो त्ति रागो धूमो सा करीसगखड्डुगा, तत्थ अग्गी छुडभति सा तेसिं च तेंदुगखड्डाणं त्ति दोसो तेहिं, परिसुद्धं न तेहिं।'' परिभुञ्जतीत्यर्थः। नि०चू०१६ उ०॥ द्वेषाग्निना दह्यमानस्य निन्दाऽऽत्मके कलुषभावे च / धूमो द्विधा / मिलिया, ताहे धूमो तेहिं पविसित्ता ताणि फलाणि पावति, तेणं ते पचंति, तद्यथा- द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र द्रव्यतो योऽर्द्धदग्धानां काष्टाऽऽदीनां तत्थ जे अपक्काते धूमपलियामा भण्णंति॥' नि०चू०१५ उ०। सम्बन्धी / भावतो द्वेषाग्निना दह्यमानस्य सम्बन्धी कलुषभावो धूमप्पभा-स्त्री०(धूमप्रभा) धूमस्य प्रभा यस्यां सा धूमप्रभा / धूमाऽऽनिन्दाऽऽत्मकः / पिं० चरणेन्धनस्य द्वेषेण धूमवत इव करणं भद्रव्योपलक्षिताया स्वनामख्यातायामपरिष्टापरनामधेयायां पञ्चम्यां मतुपप्रत्ययलोपाद् धूमः / ग०१ अधि० चारित्रेन्धनस्य धूमवत इव पृथिव्याम, प्रव०१७ द्वार / स्था०। अनु०। भ०। प्रज्ञा०। सम० करणमिति विग्रहे कारिते मतुब्लोपे च धूमः / चारित्रेन्धनस्य (धूमप्रभाया कियदकाशे नैरयिकानां वास इति 'ठाण' शब्देऽस्मिन्नेव धूमायमानतारूपे ग्रासैषणादोषभेदे, पञ्चा०१३ विव०। भागे 1701 पृष्ठे द्रष्टव्यः) धूमंग-(देशी) भ्रमरार्थे , देवना०५ वर्ग 57 गाथा। धूममहिसी-स्त्री०(धूममहिषी) धूमस्य महिषीव / कुज्झटिकायाम्, धूमके उ-पुं०(धूमकेतु) धूम इव केतुः। उत्पातरूपेऽशुभसूचके. वाचा / वाचा 'धूममहिसी य।" को० 55 गाथा। अष्टाशीतिमहाग्रहाणामन्यतमे महाग्रहे, च०प्र०२० पा० 01 | धूमरी-(देशी) नीहारार्थे , दे०ना० ५वर्ग 61 गाथा। पाहु०पाहु०। प्रज्ञा प्रश्न०। स्था०ा कल्प०। सू०प्र० / अग्नौ, "पक्खंदे | धमवण्ण-पुं०(धूमवर्ण) पाण्डुरे, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०।
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________________ धूमसिहा 2769 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धूवण धूमसिहा-स्त्री०(धूमशिखा) धूमाग्रभागे, ''चत्तारि धूमसिहाओ न्ताद् अप्रत्ययः / प्रा०४ पाद / आन्तान्ताद् डाः" 184432 / / इति पग्णताओ / तं जहा-वामा णाममेगा वामावत्ता, वामा णाममेगा प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानादप्रत्ययान्तप्रत्ययान्तात् डाप्रत्ययः / दाहिणावत्ता, दाहिणा णाममेगा वामावत्ता, दाहिणाणाममे गा 'धूलडअआ' इत्यवस्थायाम् 'अस्येदे" ||841433 / / इति प्राकृतदाहिणावत्ता | स्था०४ ठा०२ उ०ानीहारार्थे, दे०ना०५ वर्ग 61 गाथा / सूत्रेणापभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानस्य नाम्नो योऽकारस्तस्याकारे प्रत्यये परे धूमा-स्त्री०(धूमा) धूमिकायाम्, स्था०१० ठा! इकारः / प्रा०४ पाद / धूल्याम, वाच०। धूमिआ-(देशी) नीहारार्थे, देवना०५ वर्ग 61 गाथा। धूलि-स्त्री०(धूलि) धू-लि-कः,वा डीप् / रजसि, परागे च / जी०३ धूमिय-त्रि०(धूमित) धूमयुते, "अप्पत्तियधूमधूमितं चरणं / ' पिं०। प्रति०४ अधि। धूमिया-स्त्री०(धूमिका) मिहिकाभेदे, धूमिका मिहिकाभेदः, वर्णतो | धूलिजंघ-त्रि०(धूलिजङ्घ) धूल्या धूसरे जड़े यस्य स धूलिजङ्घः / धूमिका धूमाऽऽकारा, धूमेत्यर्थः / स्था०१० ठा०। धूमिका शाकपार्थिवाऽऽदिदर्शनान्मध्यमपदलोपी समासः। पादलग्नधूलिके, मिहिकयोर्वर्णकृतो भेदः। धूमिका धूम्रवर्णा, धूसरेत्यर्थः / मिहिका व्य०१० उ०। नि०चू त्वापाण्डुरेति / भ०३ श०७ उ०। दे०ना० / "धूमिया य मिहिया य।" धूलिणाय-न०(धूलिज्ञात) चिक्खिल्लज्ञाते, तीर्थकराऽऽचार्य-गणधरको 38 गाथा / धूमिका रूक्षा प्रविरलाधूनाभा प्रतिपत्तव्या / अनु०। शिष्याणां समीपे स्वाध्यायमधिकृत्य ''इति उदिए धूलिणायमाहंसु।" जी०। स्था०। तदात्मके आन्तरिक्षेऽस्वाध्यायभेदे, स्था० 10 ठा०। यथा धूलिरेकत्र स्थापिता, तत उद्धृत्यान्यत्र यत्राऽऽस्तीर्यते तत्रावश्यं किश्चित्परिशटति, ततोऽप्यन्यत्र प्रस्तीर्यमाणा भूयो भूयः परिशटति, धूय-न०(धूत) 'धुय' शब्दार्थे , स्था०६ठा। यथा वा प्रासादे लिप्यमाने मनुष्यपरम्परया चिक्खिल्लः प्रत्यय॑माणो धूयकिलेस-त्रि०(धूतक्लेश) धुयकिलेस' शब्दार्थे, आतु०। बहु परिशटितः स्तोकमात्रवशेष एव सर्वान्तिममनुष्यस्य हस्तं प्राप्नोति / धूयचारि(ण)-पुं०(धूतचारिन्) धुयचारि(ण)' शब्दार्थे, आचा०१ श्रु० बृ०१ उ०२प्रक २अ०३उन धूलिधूसर-त्रि०(धूलिधूसर) लग्नधूलिके, "धूलिधूसरसर्वाङ्गी।'' आ० धूयज्झयण-न०(धूताध्ययन) धुयज्झयण' शब्दार्थे, आचा०१ श्रु०८ क० / आचा अ०४उ०॥ धूलिबहुल-त्रि०(धूलिबहुल) प्रचुरपांशुके, भ०७श०६उ०। धूयपाव-त्रि०(धूतपाप) धुयपाव' शब्दार्थे, आतु धूलिवरिस-पुं०(धूलिवर्ष) पांशुवृष्टौ, "धूलीवरिसं वरिसइ / ' आ० धूयबहुल-त्रि०(धूतबहुल) धुवबहुल' शब्दार्थे, सूत्र०२ श्रु०२ उ०। म० 1 अ०२ खण्ड। धूयमोह-त्रि०(धूतमोह) 'धुयमोह' शब्दार्थे , सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ धूली-स्त्री०(धूली) धूलि शब्दार्थ ,जी०३प्रति०४उ०। उ० दशा धूलीवट्ट-(देशी) अश्वे, दे०ना०५ वर्ग 61 गाथा। धूयरय-त्रि०(धूतरजस्) 'धुयरय' शब्दार्थे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२उ०। धूव-पुं०(धूप) "पो वः" ||81 / 331|| स्वरात्परस्याऽसंयुक्तस्यनादेः धूयरागमग्ग-पुं०(धूतरागमार्ग) 'धुयरागमम्ग' शब्दार्थे, सूत्र०१ श्रु०४ पस्य प्रायो दन्तोष्ठस्थानीयो वकारः। 'धूवो / ' प्रा०१ पाद / धूपयति अ०२३०। रोगान् दोषान् वा। धूप अच्। गुग्गुलप्रभृतिगन्धद्रव्योत्थेधूमे, तत्साधनद्रव्ये धूयवाय-पुं०(धूतवाद) 'धुयवाय' शब्दाथें, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। / च। वाचला "कप्पूरमलयचंदणकालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुराकधूवडझंतधूया-स्त्री०(दुहित) दोग्धिच केवलं जननी स्तन्यार्थमिति दुहिता। ततश्च सुरभिमघमघतगंधुद्धयाभिरामे।" धूपश्च दशाङ्गाऽऽदिगन्धद्रव्यसंयोगजः। "दुहितरि धो हिलोपश्च / " इति वचनादादेर्धत्ये हिलोपे च "ऊदुत्सु ज०१ वक्षः। एतेषां सम्बन्धी योधूपस्तस्य दह्यमानस्य सुरभिर्यो मघमपुष्पोत्सवोत्सुकदुहितृषु।" इति वचनात् उत ऊत्वे च "धूया। (57) घायमानोऽतिशयवान् गन्ध उद्धृत उद्भूतः, तेनाभिराममभिरमणीयं उत्त० 1 अ०) 'दुहितृभगिन्योधूया-वहिण्यौ" / / 8 / 2 / 125 / / इति यत्तत्तथा। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०नि०चूला आ०म०प्रज्ञाला प्रश्रा ज०ा अनु०। प्राकृतसूत्रेण दुहितृशब्दस्य वा धूयाऽऽदेशः। "धूया। दुहिआ।' प्रा०२ धूवघडी-स्त्री०(धूपघटी) "पो वः" / / 8 / 1 / 231 / / इति पस्य वकारः पाद / सुतायाम, वाचला जं०। उत्त०। 'ताणं धूयाणं / ' आचा०१ प्रा०१ पाद / धूपभृतघटिकायाम, "ताओ णं धूवघडीओ कालगुरुपश्रु०२अ०५ उ०। नि०यू०। आ०म० वरकुंदुरुक्कतुरुमधूवमघमघंतगंधु आभिरामाओ सुगंधवरगंधिआओ धूरिअ-न०(देशी) दीर्घ दे०ना०५ वर्ग 62 गाथा। गंधवट्टिभूआओ उरालेणं मणुण्णेणं घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं ते पएसे धूलडिअआ-स्त्री०(धूलिका) 'धूलि-कः।" ''अ-डड--डुल्लाः सव्वओ समंता आपूरेमाणीओ सिरीए अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति।" स्वार्थिककलुक्च" // 84426 / / इति सूत्रेणापभ्रंशे स्वार्थे धूलिशब्दाद् ज०१ वक्ष०ा जी0। डडप्रत्ययः / डिति परे इकारलोपे "धूलड'' इति। "योगजश्चैषाम्' | घूवण-पुं०(धूपन) धूप-ल्युः / यक्षधूपे, वाच०। धूपप्रदाने, ||8|41430 // इतित सूत्रेणापभ्रंशे ग-डड-डुल्लानां योगे डडप्रत्यया- ना 'अण्णयरेण धूवणजाएण धू वेज वा / ' आचा०२
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________________ धूवण 2770 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धुवु श्रु०२ चू०१३ अ०धूपनमित्यात्मवस्त्राऽऽदेः, तचानाचरितम्। ज्ञा०१ | स्वरभेदे, वाच० "धेवयस्सरसंपण्णा, भवंति कलहप्पिया।" स्था०७ ठा०। श्रु०१७ अ० नो शरीरस्य स्वीयवस्त्राणां वा धूपनं कुर्यात् / सूत्र०२ | धोज-त्रि०(धुर्य) धौरेये, "धोजेहिं हुति उवणीया।" धुर्म्य धरियैः। श्रु०१ अ०॥ व्य०१ उ० धूवणजाय-न०(धूपनजात) धूपनप्रकारे, आचा०२ श्रु०२ चू० १३अ०। धोय-त्रि०(धौत) धाव-क्त-ऊट् / अतिनिर्मलीकृते, जी०३ प्रति०४ धूवणविहि-पुं०(धूपनविधि) धूपदानप्रकारे,"धूवणविहिपरिमाणं करेइ उ०। आ०म०। ज्ञा०। जलाऽऽदिना प्रक्षालिते, भ०६ श०३ उ०) णण्णत्थ अगुरुतुरुकधूवमाइएहिं / ' उपा०१ अ०। (विशेषस्तु प्रभूतजलक्षालनक्रियया धौतं मलिनं सत् प्रक्षालितम् / बृ०१ उ०२ 'आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 106 पृष्ठे द्रष्टव्यः) प्रका औला "कह देहो धोइउसको।" धोतु क्षालयितुं शक्यम्।तं०। अतिनिशितीकृते, रा०ा प्रज्ञाश धौतं 'चोक्खं' कृतमिति / 70 ३उ०। धूवधूम-पुं०(धूपधूम) अगुर्वादिगन्धद्रव्योत्थेधूमे, दर्श०१ तत्त्व। शोधिते, ज्ञा०१ श्रु०१अ० रा०ा जीवाशुभ्रे च / रजते, न० वाचा धूवपूया-स्त्री०(धूपपूजा) धूपप्रदानरूपे पूजाभेदे, दर्श०१ तत्त्व। धोयरत्त-त्रि०(धौतरक्त) पूर्व धौतेपश्चाद्रक्ते वस्त्राऽऽदौ, "णो धोयरत्ताई धूविय-त्रि०(धूपित) धूप-क्त-वा आयाभावः। अध्वादिगमनेन श्रान्ते, वत्थाईधारएजा।" पूर्व धौतानिपश्चाद्रक्तानि आचा०१ श्रु०८ अ०४उ०) सन्तापिते च। वाचला अगुर्वादिसुगन्धिद्रव्यैः सुगन्धीकृते च। "दुग्गंध त्ति धोवण-न०(धावन) 'धावण' शब्दार्थ, प्रव०१ द्वार। काउं अगुरुभाईहिं सुगंधीकयं ।'ग०१ अधि। दुर्गन्धाऽऽद्यपनयनार्थ ध्रुव-(धुग) व्यक्तायां वाचि, " (बू)गो ध्रु(ब्रुवो वा" ||8/4/361 / / धूपाऽऽदिना धूपित इति। आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०१७०। अपभ्रंशे बु(बू)गो धातोर्बु (बु) व आदेशो वा भवति। "ध्रुवह सुहासिउ धूसर-पुं०(धूसर) गर्दभे, उष्ट्रे, कपोते, तैलाऽऽकारे ईषत्पाण्डुवर्ण, किं पि" पक्षे-"इत्तउंद्रोप्पिणुसउणिठिउ, पुणु दूसासणु ब्रोप्पि।तो हउँ कृष्णश्वेतवर्णे,शुक्लपीतवर्णे च। तद्वर्णवति, त्रि०ावाचा "धूलिधूस जाणउं एहो हरि, जइ महुअग्गइँ ब्रोप्पि / / 1 / / " दुर्योधनोक्तिरियम्रसङ्गिौ / " आ०क०। आचा०) शकुनि म मातुल इयद् बूक्त्वा स्थितः पुनर्दुःशासनो ब्रूत्वा स्थितः / घूसरिअ-त्रि०(धूसरित) 'गुंडिअं उद्धूलिअं च धूसरिअं।"को० अहं ततस्तर्हि जाने यदि एष हरिर्ममाग्रे बुत्वा तिष्ठति शेष इत्यर्थः / पक्षे१६२ गाथा। ब्रूत्वा / प्र०) "एप्प्येप्पिण्वेटयेविणवः" !!814 / 440 / / क्त्वास्थाने धे-धा०(ध्यै) चिन्तने, भ्वा-पर०-सक०-अनिट् / ध्यायति / एप्यिणु / "स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ||8/4 / 326 / इति एकारेण अध्यासीत् / वाच०। भ०१श०१ उ०। सहकारस्य उकारः / ब्रोप्पिणु। प्पिणु। क्त्वा प्र०) "एप्पेप्पिणु०" * धै-धागतृप्तौ,भ्या--पर०-अक०-अनिट्।ध्रावति। अध्रासीत्। वाचा ||841540 // इति क्त्वास्थाने। एप्पि। शेषं पूर्ववत्। ब्रोप्पि। प्रान्टुं०४ धेज-त्रि०(धेय) धारणीये, पालनीये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० पाद। यथाऽत्र भरते मेरुदिशिध्रुवो वर्तते, तथा महाविदेहेष्वैरव ते वर्तते नवा? तथा-जम्बूद्वीपे कति ध्रुवास्सन्ती? इतिप्रश्ने, उत्तरम्-भरतव* ध्येय-त्रिका हृदि धारणीये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विपा० दन्यत्रापि ध्रुवाः संभाव्यन्ते, परमेतत्प्रतिपादकान्यक्षराणि तुन दृष्टानि घेणु-स्त्री०(धेनु) धयति सुतान् धे-नु-इय। नवप्रसूतायां गवि, वाचला स्मरन्तीति। 222 प्र०। सेन०३ उल्ला०) बृ०१ उ०२प्रक० प्रा०। आचा ध्रुवु-न०(ध्रुवम्) "एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक् एम्व-पर-समाणुधेवय-पुं०(धैवत) अतिसंधयते अनुसंधयतिशेषस्वरानिति निरुक्तिवशाद् ध्रुवु-मं-मणाउं" ||84418|| इति प्राकृतसूत्रेण धुवमो ध्रुवुः / धैवतः।"अनुसंधयते यस्मा-देतान् पूर्वोत्थितान् स्वरान् / तस्मादय नित्यमित्यर्थ , प्रा०४ पाद। "चंचल जीविउ ध्रुवु मरणु, पिइ रूसिज्जइ स्वरस्यापि, धैवतत्वं विधीयते / / 1 / / '' इत्युक्तार्थकरैवतापरनामधेये, काइँ। होसइँ दिअहा रूसणा दिव्वइँ वरिससयाई॥१॥'' जीवितं चञ्चलं, स्या०७ ठा०। अनु०। गत्वा नाभेरधोभाग, वस्तिं प्राप्योर्ध्वगः पुनः। / मरणं ध्रुवं, हे प्रिये ! रुष्यते कथं? रोषण-स्य दिवसा अपि दिव्यानि धावन्निव च यो याति, कण्ठदेशं स धैवतः / / 1 // ' इत्युक्तलक्षणे कण्ठोक्ते / वर्षशतानि भविष्यन्तीत्यर्थः / प्रा०४ पाद। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' धकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् /
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________________ 2771 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 4 नकार DDDDDD--- - - - - मिलित्वा क्रीडन्तीत्यर्थः / प्रा०४ पाद। "नं ब्रह्मणि तथाऽनन्ते, सानन्द नं च नन्दने॥७६॥" एका० "नमाढ्यज्ञानयोर्भवेत्।"(५३) एका। नंदण-न०(नन्दन) देववने, 'नंदणं अमरुज्जाण।" को०६७ गाथा। (अस्य बहवोऽर्थाः 'णंदण' शब्देसस्मिन्नेव भागे 1746 पृष्ठे दर्शिताः) नंदणा-स्वी०(नन्दना) तनयार्याम्, "अंगया नंदणा सुआ, तणया।" न-पुं०(न) न इति तवर्गस्य पञ्चमो वर्णः स्पर्शसंज्ञो नासिकादन्त को० 102 गाथा। स्थानीयः। "नो नरे च सनाथेऽपि, नोऽनाथेऽपि प्रदृश्यते / (76) एकाo"नशब्दस्विषु लिङ्गेषु, पठ्यते भिन्नसूक्ष्मयोः / / 53 / / " एका०। नंदी-स्त्री०(नन्दी) हर्षे, ज्ञानपञ्चके, ज्ञाते, आ०म०१ अ०१ खण्ड / "नः पुंसि वहौ हेरम्बे (52)" "नकारस्तु स्त्रियां नाभौ (53) / ' 'नंदी मंगलहेउं / "बृ०१ उ० गवि, 'नंदी तंबा बहुला, गिट्टी गोला य रोहिणी सुरही।" को० 45 गाथा। (नन्द्याः परिपूर्णतया व्याख्या 'गंदि' नशब्दस्त्रिषु लिङ्गेषु, पठ्यते भिन्नसूक्ष्मयोः / / 53 // " एका०र०। शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1751 पृष्ठे प्रतिपादिता) न-अव्य०। निषेधे, “वाऽऽदौ" ||8 / 1 / 226 / / असंयुक्तस्याऽऽदौ नकर-न०(नगर) नगा वृक्षाः पर्वता वा सन्त्यस्मिन्निति नगरम् / पुरभेदे, वर्तमानस्य नस्य णो वा भवति। णत्वपक्षणाप्रा०१पाद। "नात्पुनर्या ''चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्यद्वितीयौ'' ||8|4 / 32 / / इति गस्य दाइ वा ' / / 81 / 65 / / नत्रः परे पुनः शब्दे आदेरस्य आ आइ इत्यादेशौ कः / 'नगरं / नकरं। प्रा०४ पाद। वा भवतः। 'न उणा, न उणाइ।' पक्षे 'न उण, न उणो' प्रा०१ पाद। * नक्कसिरा-स्त्री०(नासिकाशिरा) घ्राणशिरायाम्, 'खुंखुणओ नअ-पुं०(नग) क-ग--च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो 'लुक / नक्कसिरा।" को०११४ गाथा। // 8/1/177 / / इति गलुक् / पर्वते, प्रा०१ पाद। नक्ख-पुं०(नख) कररुहे, 'सेवाऽऽदौ वा'' ||8 / 2 / 66 // इति खद्वित्वम् / नअण-न०(नयन) "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक" | प्रा०२ पाद / जी०। औ०। देवना०। 'नक्खा नहा कररुहा।" को० // 81 / 177 // इति यलुक् / प्रा०१ पाद। चक्षुषि, प्रा०१ पाद / 106 गाथा। नअर-न०(नगर) 'क-ग-च०' // 8 / 1 / 177 / / इत्यादिना गलुक् / / नक्खत्त-न०(नक्षत्र) ज्योतिष्कभेदे, द०प० स्था०। जं०।' 'रिक्खंडडु "अवर्णो यश्रुतिः" // 811180 / / इति अकारो यश्रुतिकः / कृचिन्न-- नक्खत्त / " को०६६ गाथा / सू०प्र०। चं०प्र०। (विस्तरतो व्याख्या नअरं। पुरे, प्रा०१ पाद। ‘णक्खत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1760 पृष्ठे गता) नई-स्त्री०(नदी) सरिति, सूत्र०१ श्रु०१ अ०५ उ०। ''वाऽऽदौ" | नग्गोह-पं०(न्यग्रोध) वटे, प्रज्ञा०१पदा नि०चूला "नग्गोहं वडरुक्खं / " पाबा१।२२६।। असंयुक्तस्याऽऽदौ वर्तमानस्य नस्य णो वा भवति।। को02910 गाथा। 'नई। पक्षे–णई। प्रा०१पाद / म०। प्रश्न "सरिया तरंगिणी निण्ण- 1 नट्ट-न०(नाट्य) नृत्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। बृ० ज०। रा०ा "नट्ट लार्स या नई आवया सिंधू ।'को०२८ गाथा / (अत्र विशेषवक्तव्यता तडवं।" को० 166 गाथा। (अस्य द्वात्रिंशद्भेदाः ‘ण?' शब्देऽस्मिन्नेव 'णई शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1738 पृष्ठे गता) भागे 1768 पृष्ठ दर्शिताः) नउ-अव्य०(नउ) "इवार्थे नं--नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः'' नढ-पुं०(नट) नाटकानां नाटयितरि, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। 'नडो / / 8 / 4 / 44 4 / / इति इवार्थे नउ इत्यादेशः। 'रविअत्थमणि समाउले- कुसीलओ।"को०२७२ गाथा। (अस्य भेदौ 'णड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ण कण्ठि विइण्णु न छिण्णु / चझिं खण्डु मुणालिअहे, नउ जीवग्गलु 1804 पृष्ठे दर्शितौ) दिण्णु ||1||" सूर्यास्तमने समाकुलेन चक्रवाकेन कण्टे वितीर्ण दत्तं / नडिअ-न०(नटित) विडम्बिते, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० "जूरिअंउत्तम्मि स्थापितं सत् मृणालिकायाः कमलिन्याः खण्ड न छिन्नं न भक्षितं, 'नउ' | नडिअं।" को०१६६ गाथा। उत्प्रेक्ष्यते, जीवस्य निर्गच्छतोऽर्गला दत्ता / / प्रा०४ पाद। नत्तंचर-पुं०(नक्तञ्चर) नक्ते नक्तं वा चरतीति नक्तञ्चरः / राक्षसे, चौरे, नं-अध्य०(नं) 'इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः" | विडाले च / “क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्" / / 8 / 4 / 444 // इति इवार्थे नं इत्यादेशः / "मुख-कबरी-बन्ध-तहे, 181 / 177 // इति कलुक् / 'नत्तंचरो' प्रा०१ पाद। सोह धरहि, नं मल्ल-जुज्झुससि-राहु करहि। तहें सोह-हिं कुरल | नक्षून-अव्य०(नष्ठा) नश-ता। "थून-त्थूनौष्टः" / / 814 / 313 // इति भभरउलतुलिअ,नं तिमिरमिभ खेलंति मिलि।" तस्या मुखकबरी- ष्ट्वा इत्यस्य स्थाने खूनादेशः। अदृश्यीभूयेत्यर्थे , प्रा०४ पाद। बन्धौ वदनवेणबिन्धौ शोभा धरतः 'नं' उत्प्रेक्षते-शशिराहू मल्लयुद्ध | नम्म-न०(नर्मन) हास्ये, "केली नम्मंच परिहासो।" को०१६६ गाथा। कुरुतः / तस्याः कुरलाः केशाः शोभन्ते। किंभूताः। भ्रमरकुलतुलिता "स्नमदामशिरोऽनभः" / / 8 / 1 / 62 / / इति प्राकृते वा पुंस्त्वम् / मधुकरयूथसमानाः, 'न' उत्प्रेक्ष्यते-तिमिरडिम्भा अन्धकारबालका | "नम्मो।" परिहासे, केलौ च / प्रा०४ पाद।
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________________ नम्मया 2772 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 नासा पासपी) नम्मया-स्त्री०(नर्मदा) विन्ध्यागिनिर्गतायां प्रसिद्धनद्याम, 'मेअलकन्ना | उत्प्रेक्ष्यते-वल्लभविरहमहाहृदस्यस्तांघ गवेषयतीत्यर्थः / प्रा०४ पाद / य नम्मया रेवा।" को० 130 गाथा। आवा० नाम-न०(नामन्) अन्यबोधाय कृते पदार्थानां संज्ञायाम्, 'सन्ना गुत्तं च *नम्रता-स्त्री०। औचित्ये, नमनशीलतायाम,द्वा० 12 द्वा०। नाम अभिहाण।'' को०१६१ गाथा। (नाम्नो भेदा 'णाम' शब्देऽस्मिन्नेव नयण-न०(नयन) प्रापणे, आ०म०१अ०१ खण्ड निवेशने, पं० सं०५ | भागे 167 पृष्ठे दर्शिताः) द्वार। नेत्रे, "अच्छिं नयणं च लोअणं नित्तं / " को०१११ गाथा। नारी-स्त्री०(नारी) नरस्त्रियाम, बृ०४ उ०।"पुरिसाणां नो अन्नो एरिसो नयणजल-न०(नयनजल) नेत्रजले, "वप्फवाहो य नयणजलं।"को० अरी अत्थि त्ति नारी उ।" तं०। (व्याख्या 'णारी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 112 गाथा। 2013 पृष्ठे गता) नयणा-स्त्री०(नयन) "वाऽक्ष्यर्थवचनाऽऽद्याः" / / 8 / 1 / 33 / / इति एकार्थिकानिनयनशब्दस्य प्राकृते स्वीत्वमपि / 'नयणा--नयणाई।' प्रा०१ पाद। "रामा रमणी सीम-तिणी बहू वामलोअणा विलया। नर-पुं०(नर) पुरुषे, प्रा०१ पाद / आचा०ा आ०म० "मणुआ नरा महिला जुवई अबला, निअविणी अंगणा नारी // 12 // " मणुस्सा, मचा तह माणवा पुरिसा।" को०६० गाथा। (नराणां भेदाः तद्भेदेऽप्येकार्थिकानि"णर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1603 पृष्ठे उक्ताः ) "सच्छंदा उद्दामा, निरम्गला मुक्कला विसंखलया। नरणाह-पुं०(नरनाथ) राजनि, "नरनाहो पत्थिओ निवो राया।" को० निरवग्गहा य सइरा. निरंकुसा हुंति अप्पवसा / / 13 / / " 100 गाथा। को०१२-१३-गाथा। नल-(नर) "रसोर्लशौ" ||8/4 / 288 / / इति मागध्या रस्य लः / नले, | नारुट्ट-पुं०(नारुट्ट) कूसारे, को०१३२ गाथा। दे०ना० प्रा०४ पाद। नालिअ-त्रि०(मूढ) "शीघ्राऽऽदीनां बहिल्लाऽऽदयः" ||841422| नलय-न०(नलक) कमलतन्तौ, "नलयं लामजयं उसीरं च।'' को० इत्यन्तर्गणसूत्रेण मूढस्य नालिआऽऽदेशः / मूर्खे, बाले, जडे, प्रा०ा "जो 146 गाथा। पुणु ममणि जिखसफसिहूअत्त, चिंतइ देइनदम्मुन रूअउ। रइ-वसनलिण-न० (नलिन) कमले, "अंबुरुहं सयवत्तं, सरोरुहं पुंडरी भमिरू करग्गुल्लालिउ, धरहिं जि कोंतु गुणइ सो नालिउ / / 1 / / " यः अमरविंदं / राईवं तामरसं, महुप्पलं पंकय नलिणं / / 10 // " को० 10 पुनर्मनस्येव (खसफसिहूअउ) व्या कुलीभूतः सन् चिन्तयतिद्रम्म न गाथा / (अस्य बहवोऽर्थाः ‘णलिण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1628 पृष्ठे ददाति न रूपकम, स मूढो रतिवशेन भ्रमणशीलः सन् कराग्रोल्लालितं दर्शिताः) कुन्तं भल्लं गृहे एव गुणयति, चालयतीत्यर्थः / प्रा०४ पाद। नलिणी-स्त्री०(नलिनी) कमलिन्याम् ,"भिसिणी नलिणी कमलिणी नालिआ-स्त्री०(नाडिका) समयनियामके यन्त्रविशेषे, "नालिया घडिआ।"को०२७२ गाथा। ज्यो०ा अनु०॥ (नालिका किंप्रमाणेत्यादि या'को० 146 गाथा। पद्मिन्याम्, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। सर्वा वक्तव्यता 'णालिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2014 पृष्ठे गता) नवरंग-त्रि०(नवरङ्ग) "रगयं च नवरंग।" को०२६१ गाथा। नालिका-स्त्रीला ताम्राऽऽदिमयघटिकायाम्, अनु०॥ नवरि-अव्य० / शीघ्र, "सयराहं नवरि य दु-त्ति झत्ति सहसत्ति भावइ-अव्य०(नावइ) इवार्थे, "इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइजणिइक्कसरिअ च / अविहाविअं-मिक्कवए, अतक्कि तक्खणं सहसा जणवः" ||8/4/444 / / इति इवार्थे नावइ आदेशः। "पेक्खेविणु मुह // 17 // " को०१७ गाथा। जिणवरहो, दीहरनयण सलोणु। नावइ गुरुमच्छरभरिउ, जलणि पवीसइ नवसिअ-त्रि०(नमस्थित) नमस्कारकर्तरि, "ओवाइअं नवसि।" लोणु॥१॥' 'नावइ उत्प्रेक्ष्यते, गुरुमत्सभृतं लवणं ज्वलने प्रविशति, को० 156 गाथा। किं कृत्वा? जिनवरस्य दीर्घनयनं सलवणं सलावण्यं मुखं प्रेक्ष्येत्यर्थः / नह-पुं०(नख) पाणिपादजे,प्रव०४०द्वार।'नक्खा नहा कररुहा।" प्रा०४ पाद। को०१०६ गाथा। नास-पुं०(नाश) अभाव, द्रव्या० 6 अध्या०। (अस्य भेदप्रतिपादन * नभस्-ना आकाशे, एकार्थिकानि-"खं अब्भं अंतरिक्खं, वोम 'णास' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2015 पृष्ठे गतम्) "पलयो निहणं नासो।' नह-मवरं गयणं / "को०२७ गाथा। को०१६७ गाथा। नाअ-पुं०(नाक) स्वर्गे , "तिविट्ठपं तह सुरालओ नाओ।" को०६५ | *नाशि-धा०(नश) णिच-विधाते, "स्वराणां स्वराः" / / 8 / 4 / 238|| गाथा। इति ह्रस्वाकारस्थाने दीर्घाऽऽकारः। प्रा०४ पाद। * ज्ञात-त्रि०। अवबुद्धे,प्रा०४ पाद। नासइ-धा०(नश्यति) "नशेर्विउड-नासव-हारव-विप्पगालनाइ-अव्य०(नाइ) 'इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः'' पलावाः" // 8431 / / इति नशेर्ण्यन्तस्य नासाऽऽदेशः / 'नासइ।' ||8/4 / 444 // इति इवार्थे 'नाइ' आदेशः। 'वलया-वलिनिवडणभए- | नाशयति / प्रा०४ पाद। णधण उद्धब्भुअजाइ। वल्लहविरहमहादहउ, थाह-गवसेइ नाइ॥१॥" | नासा-स्त्री०(नासा) घ्राणग्रहणेन्द्रिये, "नासा धाणं घोणा।" को० नायिका वलयावलिनिपतनभयेन ऊर्ध्वभुजा याति / "नाइ'' | 111 गाथा।
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________________ निअंब 2773 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 निग्गहट्ठाण निब-पुं०(नितम्ब) कटिपश्चाद् मागे, कटके च / वाच०। "रमणतियं निअंबो।" को० 115 गाथा। निअंबिणी-स्त्री०(नितम्बिनी) स्त्रियाम्, को० 12 गाथा / (अस्यैकार्थिकानि 'नारी' शब्दे गतानि) निअंसण-न०(निवसन) परिधाने, औ०। जीवा०। उत्त०। कटीवस्त्र, "जाण सिचयं कडिल्लं, निअसणं साहुली य परिहणयं। ''को०६६ गाथा / निअक्कल-त्रि०(निअक्कल) गोलाऽऽकारे, ''पेढाल-निअक्कल वटुलाई परिमंडलस्थम्मि।'को० 84 गाथा। देना। निअगुणसलाहा-स्त्री०(निजगुणश्लाघा) स्वगुणप्रशंसायाम्, 'विगत्थण निअगुणसलाहा।" को०२४७ गाथा। निअत्त-त्रि०(निवृत्त) "निवृत्तवृन्दारके वा'' 181 / 132 / / इति ऋत उद्धा / 'निवृत्त / निअत्तं / ' विरते, प्रा०१ पाद / निअय-त्रि०(नियत) नियमिते, "निचं निअयं सासयं / " को० 160 गाथा / सूत्र० / बृ० ('निच' शब्देऽस्य बहून्येकार्थिकानि (153) गाथार्द्धन प्रतिपादितानि) * निजक-त्रिका स्वकीये, "अप्पुल्लयंनिअयं।" को०२३१ गाथा। आव०। निअर-पुं०(निकर) समुदाये, को०१५-१६-गाथा / (अस्यै कार्थिकानि निउरंब' शब्दे वक्ष्यते) निअलिअ-त्रि०(निगडित) बद्धे, "बद्ध संदाणिअंनिअलिअंच।'' को० 167 गाथा। निआण-न०(निदान) आदिकारणे, को० 176 गाथा। (अत्र विशेषः 'णियाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2064 पृष्ठे गतः) निउंचिअ-त्रि०(निकुञ्चित) संकुचिते, "संकोडिअं निउचिओ' को० 186 गाथा। निउण-त्रि०(निपुण) कुशले. "चउरा निउणा कुसला, छेआ विउसा बुहा य पत्तट्ठा।" को०६० गाथा / (अस्य शब्दस्य बहवोऽर्थाः 'णिउण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2017 पृष्ठे दर्शिताः) * निगुण-त्रि०ा नियतगुणे, विशे०। निउरब-पुं०(निकुरम्ब) समूह, एकार्थिकानि- "उप्पंको उप्पीलो, उक्केरो पहयरो गणो पयरो। ओहो निवहो संघो, संघाओ संहरो निअरो ||१८||संदोहो निउरबो, भरो निहाओ।" को०१५-१६-गाथा। औ०। राजी। निलिव-त्रि०(निष्कृप) निर्दये, "निबंधसा निसंसा, निधुड्डा निक्किवा अकरुणा य / " को०७३ गाथा / पं०व०। (अस्य लक्षणं 'णिक्वि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2022 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) निक्खय-त्रि०(निक्षत) 'णिक्खय' शब्दार्थे, को०२४० गाथा। देना। निक्खित्त-त्रि०(निक्षिप्त) "णिक्खित्त' शब्दार्थे, "निमिअं निहिअंच निक्खित्तं / ' को० 163 गाथा। निग्गहट्ठाण-न०(निग्रहस्थान) वादकाले वादी प्रतिवादी येन निग्रह्यते तन्निग्रहस्थानम्। सूत्र०१ श्रु०१२ अगवादिवञ्चनार्थक प्रतिज्ञाहान्यादौ, स्था०१ ठा०। विप्रतिपत्तिः, अप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम्। तत्र विप्रतिपत्तिः साधनाभासे साधनबुद्धिर्दूषणाभासे च दूषणबुद्धिरिति / अप्रतिपत्तिः साधनस्यादूषणं, दूषणस्य चानुद्धरणम् / तच्च-निग्रहस्थानं द्वाविंशतिविधम् / तद्यथा-प्रति-ज्ञाहानिः 1, प्रतिज्ञाऽन्तरम् 2, प्रतिज्ञाविरोधः 3, प्रतिज्ञासन्यासः 4, हेत्वन्तरम् 5, अर्थान्तरम् 6, निरर्थकम् 7, अविज्ञातार्थकम् 8, अपार्थकम् 6, अप्राप्तकालम् 10, न्यूनम् 11, अधिकम् 12, पुनरुक्तम् 13, अननुभाषणम् 14, अज्ञानम् 15 अप्रतिभा 16, विक्षेपः 17, मतानुज्ञा 18, पर्यनुयोज्योपेक्षणम् 16, निरनुयोज्यानुयोगः 20, अपसिद्धान्तः 21, हेत्वाभासाश्च 22 // तत्र १-हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्युपग-च्छतः प्रतिज्ञाहानि म निग्रहस्थानम् / यथा-- अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वाद् घटवदिति प्रतिज्ञासाधनाय वादी वदन् परेण सामान्यमैन्द्रियकत्वमपि नित्यं दृष्टमिति हेतावनैकान्तिकीकृते यद्येवं ब्रूयात्-सामान्यवघटोऽपि नित्यो भवत्विति। स एवं ब्रुवाणः शब्दानित्यत्वप्रतिज्ञा जह्यात् १४२प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव धर्मिणि धर्मान्तरं साधनीयमभिदधतः प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रहस्थानं भवति / अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वादिल्युक्ते तथैव सामान्येन व्यभिचारे चोदिते यदि ब्रूयाद्युक्तं सामान्यमैन्द्रियक नित्यम्, तद्धि सर्वगतम्, असर्वगतस्तु शब्द इति / तदिदं शब्दे अनित्यत्वलक्षणपूर्वप्रतिज्ञातः प्रतिज्ञाऽन्तरमसर्वगतः शब्द इति निग्रहस्थानम्। अनया दिशा शेषाण्यपि विंशतिज्ञेयानि 2 / स्या०। (३-प्रतिज्ञाविरोधविवेचनम्- 'पइण्णाविरोह' शब्दे) / (४–प्रतिज्ञासंन्यासविवरणम्- 'पइण्णासंण्णास' शब्दे पञ्चमभागे दर्श-यिष्यते)। (५-हेत्वन्तरव्याख्या- 'हेउअंतर' शब्दे द्रष्टय्या)। ६-"प्रकृतादर्थादप्रतिसम्बद्धार्थमर्थान्तरम्" / गौ०सू०। यथोक्त-लक्षणे पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहे हेतुतः साध्यसिद्धौ प्रकृलायां श्रूयात्-नित्यः शब्दोऽस्पर्शत्वादिति हेतुः / हेतु म हिनोतेर्धातोस्तुनि प्रत्यये कृदन्तपदं, पदं च नामाऽऽख्यातोपसर्गनिपाताः। अभिधेयस्य क्रियाऽन्तरयोगाद्विशिष्यमाणरूपः शब्दो नाम, क्रियाकारकसमुदायः कारकसंख्याविशिष्टक्रियाकालयोगाभिधाय्याख्याते, धात्वर्थमात्र चकालाभिधानविशिष्टं, योगेष्वर्थादभिद्यमानरूपा निपाताः, उपसृज्यमानाः क्रियावद् द्योतका उपसर्गा इत्येवमादि, तदर्थान्तरं वेदितव्यमिति / भा०। (अस्य 'अत्यंतर शब्देऽपि, प्रथमभागे 507 पृष्ठे किञ्चिद्वक्तव्यमस्ति)(७-निरर्थकविवेचनम्'निरन्थय शब्देऽग्रे 2775 पृष्ठे वक्ष्यते) ५-"परिषत्प्रतिवादिभ्या त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थम् / " गौ०सू०। यद्वाक्यं परिषदा, प्रतिवादिना च त्रिरभिहितमपि न विज्ञायते श्लिष्टशब्दमप्रतीतप्रयोगमतिद्रुतोच्चारितमित्येवमादिना कारणेन तदविज्ञातमविज्ञातार्थमसाम र्थ्यसंवरणाय प्रयुक्तमिति निग्रहस्थानम्। भा०। (सूत्रस्याऽस्य वृत्तिर्ग्रन्थतोऽवसेया)। (E-"पौर्वापर्यायोगादप्रतिसंबद्धार्थमपार्थकम् 10 / " गौ०सूला यत्रानेकस्य पदस्य, वाक्यस्य वा पौर्वापर्येणान्वययोगो नास्तीत्यसम्बद्धार्थकत्वं गृह्यते, तत्समुदायोऽर्थस्यापायादपार्थकम् / यथा-दश दाडिमानि, षडपूषाः, कुण्डमजाजिनंपललपिण्डः, अथरौरुकमेतत् कुमार्याः पाय्यं, तस्याः पिता अप्रतिशीन इति / भा०। (ग्रन्थादेव वृत्तिर्विलोक्या)
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________________ निग्गहट्ठाण 2774 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 निद्देस १०-"अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् 11" गौ०सू० / प्रति- भविष्यति शरावाऽऽदिलक्षणं धर्मान्तरमिति प्रवृत्तिर्भवति अभूदिति च ज्ञाऽऽदीनामवयवानां यथालक्षणमर्थवशात् क्रमः, तत्रावयवविपर्यासेन प्रवृत्त्युपरमः तदेतन्मृद्धर्माणामपि न स्यात् / एवं प्रत्यवस्थितो यदि वचनमप्राप्तकालसम्बन्धार्थकालं निग्रहस्थानमिति / भा०। अप्राप्तकालं सतशाऽऽत्म-हानमसतश्चाऽऽत्मलाभमभ्युपैति, तदस्यापसिद्धान्तो लक्षयति अवयवस्य कथैकदेशस्य विपर्यासो वैपरित्यम् / तथा च निग्रहस्थानं भवति / अथ नाभ्युपैति पक्षोऽस्य न सिद्ध्यति / भा०। समयबन्धविषयीभूतकथ / क्रमविपरीतक्रमेणाऽभिधानं पर्ययसन्नम्, (वृत्तिर्ग्रन्थादेवावसेयेति) (२२-हेत्वाभासा हेउआभास' शब्दे द्रष्टव्याः) तत्रायं क्रमःवादिना साधनमुक्त्वा सामान्यतो हेत्वाभास उद्धरणीय गौ० सू०या०भा० वि० वृक्ष इत्येकः पादः / प्रतिवादिनश्च तत्रापालम्भो द्वितीयः पादः। प्रतिवादिनः | निग्गिण्ण-त्रि०(निर्गीर्ण) निर्गीणे, "नीहरिअं निग्गिणं / " को० 167 स्वपक्षसाधनं, तत्र हेत्वाभासोद्धरणीयश्चेति तृतीयः पादः। जयपराज गाथा। यव्यवस्था चतुर्थः पादः / एवं प्रतिज्ञाहेत्वादीनां क्रमः। तत्र सभाक्षोभ निग्घत्तिअ-त्रि०(निक्षिप्त) निक्षिप्ते, "खित्तं निग्घत्तिअंच आइद्ध। 'को० व्यामोहाऽऽदिना व्यत्यस्ताभिधानमप्राप्तकालमिति वृत्तिः / / 11 / / 186 गाथा। (न्यूनव्याख्या 'नून' शब्देऽनुपदमेव 2777 पृष्ठे करिष्यते) (१२अधिकव्याख्या 'अहिय' शब्दे प्रथमभागे 887 पृष्ठे गता) (13-- निच-त्रि०(नित्य) "णिच' शब्दार्थे, "सइ अविरय अविराम, अणुवेल पुनरुक्तविषयः 'पुणरुत्त' शब्दे द्रष्टव्यः)। 14 "विज्ञातस्य परिषदा संतयं सया निच्छ।" को०८७ गाथा। त्रिरभिहितस्याप्यनुचारणमननुभाषणम् 17' / गौ० सू०। विज्ञातस्य निचुडु-त्रि०(निचुडु) 'निकिव' शब्दार्थे , को०७३ गाथा। वाक्यार्थस्य परिषदा प्रतिवादिना विरभिहितस्य यदप्रत्युचारणंतदननु- | निच्छुढ-त्रि०(उद्धृत्त) "तेनाप्फुण्णाऽऽदयः" / / 4 / 258/ / इति भाषणं नाम निग्रहस्थानमिति, अप्रत्युचारयन् किमाश्रयं परपक्षप्रतिषेधं उद्धृत्तस्थाने निच्छूढाऽऽदेशः। 'निच्छूढं। उद्वृत्तम्' / उत्क्षिप्ते, प्रा०४ पाद। ब्रूयात् / भा०। अननुभाषण लक्षयतिपरिषदा विज्ञातस्य विशिष्य निज्झर-न०(निर्झर) उदकप्रस्रवणे, भ०५ श०७ उ०। "ओज्झर बुद्धार्थस्य यादिना विभिरभिहितस्य तथा च प्रथमवचनेऽननुभाषणे निज्झरं।" को० 216 गाथा। क्षि-धातोस्तु 'णिज्झर' एव / स च वादिना वारत्रय वाक्यमिति दर्शितम्, तथा च त्रिभिरभिधानेऽपि यत्रानु- णकाराऽऽदिसंकलने गतः / "क्षेणिज्झरो वा'||४।२०।। इति भाषणविरोधी व्यापारः, तत्राननुभाषणं निग्रहस्थानमित्यर्थः / (अत्रत्या णकाराऽऽक्रान्त एव / प्रा०४ पाद।। ऽवशिष्टा वृत्तिस्तु ग्रन्थतोऽवसेया) 15- "अविज्ञातं चाऽज्ञानम् 18" / निज्झाय-धा०(दृश) प्रेक्षणे, "दृशो निअच्छ-पेच्छावयच्छा-वयज्झगौ० सू०। विज्ञातार्थस्य परिषदा प्रतिवादिना त्रिरभिहितस्य यदविज्ञानं वज-सव्ववदेक्खौ अक्खावक्खावअक्ख-पुलोए-पुलएनिआवआसतदज्ञान निग्रहस्थानमिति। अयं खल्वविज्ञाय कस्य प्रतिषेधं ब्रूयादिति।। पासाः / / 8 / 4 / 181 // " इति दृशेः 'निज्झाय' आदेशः / 'निज्झाअइ।' (पुनरस्य वक्तव्यं 'अण्णाण' शब्दे प्रथमभागे 487 पृष्ठऽप्यस्ति)१६ पश्यति / प्रा०४ पाद। उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा 16" / गौ० सू०ा परपक्षप्रतिषेधः उत्तरं तद् यदा न प्रतिपद्यते तदा निगृहीतो भवति / भा०। अप्रतिभा लक्षयति निठुइअ-त्रि०(क्षरित) क्षरिते, "निट्टइ खरिअं छिप्पिअं च उत्तराहेण परोक्तं बुध्वाऽपि यत्रोत्तर समये उत्तरं न प्रतिपद्यते तत्राप्रतिभा नीसंदिअंच पज्झरिओ" को० 80 गाथा। निग्रहस्थानम् / न चात्राननुभाषणस्याऽऽवश्यकत्वात् / तदेव दूषणम निवर-त्रि०(निष्ठुर) 'णिटुर' शब्दार्थे , “कढिणा य कक्कसा निठुस्त्विपि वाच्यम् / परोक्ताऽवनुवादे हि तत् यत्र परोक्तमनूद्यापि नोत्तरं राखरा खप्पुरा फरुसा।" को०७४ गाथा। प्रतिपद्यते तत्रासाङ्कात् स्वसूचनश्लोकपाठाऽऽधुन्नेया चेयमिति वृत्तिः निडाल-न०(निडाल) "कपाले, भालं अलिअनिडाल / को०११२ 116 // (१७-विक्षेपो 'विक्खेव' शब्दे)। (१८-मतानुज्ञा-'मयाणुण्णा' गाथा / केचिदव्युत्पन्नमपि वदन्ति / ललाटशब्दस्य तु "ललाटे च" शब्दे)। (१६-पर्यनुयोज्योपेक्षणं- 'पजणुजुजुपेक्खण' शब्दे)।(२०- / / 8 / 1 / 257 / / इति सूत्रेण ललाटस्य णकाराऽऽ-दिरेवाऽऽदेशः / निरनुयोज्यानु योगः "निरणुजु-जाणुओग' शब्देऽग्रे वक्ष्यते) 21- | "णिडालं" प्रा०१ पाद। "सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात् कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः 24 / " गौ०व निड्ड-न०(नीड) "नीडं निड्डं कुलायंच।"को०१२६ गाथा। पक्षिणा सू०। कस्यचिदर्थस्य तथाभाव प्रतिज्ञाय प्रतिज्ञातार्थविपर्ययादनियमात् कथां प्रसञ्जयतोऽपसिद्धान्तो वेदितव्यः यथा न सदात्मानं जहाति, न निण्णया-स्वी०(निम्नगा) नीचैर्गामिनि नद्याम, को०२८ गाथा। प्रज्ञा०। सतो विनाशो, नासदात्मान लभते, नासदुत्पद्यत इति सिद्धान्तमभ्यु ('नई'शब्देऽनुपदमेव विशेषो गतः) पेत्य स्वपक्ष व्यवस्थापयति। एकप्रकृतीदं व्यक्तं विकाराणामन्वयदर्शनाद् नित्त-न०(नेत्र) नयने, स्था०१० ठा०ा "अच्छी नयणं च लोअणं मृदन्वितानां शरावाऽऽदीनां दृष्टमेकप्रकृतिकत्वम्। तथा चायं व्यक्तभेदः नित्त / "को० 111 गाथा। सुखदुःखमोहान्वितो दृश्यते, तस्मात् समन्वयदर्शनात् सुखाऽऽदिभिरेकप्रकृतीदं शरीरमिति एवमुक्तवाननुयुज्यते--अथ प्रकृतिविकार इति नित्थाम-त्रि०(निःस्थामन्) बलहीने, "ओलुग्गो नित्थामो / " को० कथं लक्षितव्यमिति ? यस्यावस्थितस्य धर्मान्तरनिवृत्तौ धर्मान्तरं 170 गाथा। प्रवर्तते सा प्रकृतिः, यच धर्मान्तरं प्रवर्तते स विकार इति / सोऽयं निहलिअ-त्रि०(निर्दलित) मर्दिते, "उच्छुण्णं मदिअंच निद्दलिअं।" प्रतिज्ञातार्थविपर्यासादनियमात् कथा प्रसञ्जयति प्रतिज्ञात खल्वनेन को० 201 गाथा। नासदाविर्भवति सत् तिरोभवतीति / सदसतोश्च तिरोभावाऽऽविर्भाव- | निद्देस-पुं०(निर्देश) आज्ञायाम्, "आएसो सासणं च निद्देसो।" मन्तरेण न कस्यचित्प्रवृत्तिः प्रवृत्त्युपरमश्च भवति, मृदिखल्ववस्थिताया | को० 173 गाथा / (अत्र बहु वक्तव्यं 'णिद्देस' शब्देऽस्मिन्नेव
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________________ निहेस 2775 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 निविट्ठ भागे 2072 पृष्ठे गतम्) (निर्देशनिक्षेपः, तत्स्व रूपं च 'उद्देस' शब्दे एवमवसरमतीत्य कथनमपि यथा उच्यमानग्राह्यस्यापशब्दाऽऽदेः द्वितीयभागे 766 पृष्ठे गतम्) परिसमाप्तौ एवमनुक्त ग्राह्याज्ञानाऽऽद्यननुभाषणावसरे ऽनुद्भाव्य निद्धंधस-त्रि०(निर्धन्धस) निर्दये, को०७३ गाथा। (अस्यैका-र्थिकानि | बोधाऽऽविष्करणानुभाषणप्रवृत्ते वादिनि तदुद्भावनमित्यादिकमूह्यमिति "निक्विव" शब्देऽनुपदमेव गतानि) वृत्तिः। 23 / गौ० सू० वा० भा० वि० वृक्ष निद्धाडिअ-त्रि०(निर्धाटित) निर्गते, "निद्धाडि नीणि।" को० निरत्थ(ग)य-पुं०(निरर्थक) सप्तमे निग्रहस्थानभेदे, स्था०। 'वर्णक्रम१७६ गाथा। निर्देशवन्निरर्थकम् / "8 गौ०सू०। यथा-नित्यः शब्दः कचटतपाः निबंधण-न०(निबन्धन) कारणे, "निबंधणं कारणं निआणं च।'' को० जवगडदशत्वात् झभवढधष्वदिति एवं प्रकारं निरर्थकम्। अभिधाना१७६ गाथा / विशेष वाचा भिधेयभावानुपपत्तौ अर्थगतेरभावाद् वर्णा एव क्रमेण निर्दिश्यन्त इति। निभर-त्रि०(निर्भर) अतिशयपूरिते, "निभर-मइसयभरियं।" को० भा०। निरर्थक लक्षयति-वर्णानां क्रमेण निर्देशो जवगडेत्यादिप्रयोगः, 214 गाथा। वाचा आ०म०। तत्तुल्यो निर्देशो निरर्थकं निग्रहस्थानम्, अवाचकपदप्रयोग इति निम्भिण्ण-त्रि०(निर्भिन्न) विदारिते, "कप्परिअंदारियं च नरिभण्णं।'' फलितार्थः / वाचकत्वं शक्त्या, निरूढलक्षणया, शास्त्रपरिभाषया या बोध्यम्। समयबन्धव्यति-रेकेणेति विशेषणीय, तेन यत्रापभ्रंशेन विचारः को०१६६ गाथा। निमिअ-त्रि०(स्थापित) णिक्खित्त' शब्दार्थे, 'क्तेनाप्फुण्णाऽऽदयः" कर्तव्य इति समय-सम्बन्धस्तत्रापभ्रंशे न दोषः, झटिति संवरणे तु न 8/4/258|| इति स्थापितस्य 'निमिअ' आदेशः। प्रा०४ पाद। दोष इत्युक्तप्रायम् / अस्य सम्भवः प्रमादादित्यवधेयमिति वृत्तिः / / (अस्यैकार्थिकानि 'निक्खित्त' शब्दे गतानि) गौ० सू० वा० भा०वि००। बृक्षा उत्त०। विशे०। निरवग्गहा-स्त्री०(निरवग्रहा) स्वच्छन्दविहारिण्यां रमायाम, को०१३ निम्मल्ल-न०(निर्माल्य) देवाद्रिव्ये, वाचा "उम्मालो निम्मल्लं।" गाथा। (पर्यायाश्वास्य 'नारी' शब्दे गताः) को० 141 गाथा। पिं० निराय-त्रि०(निराय) सरले, "पउणं निरायं उजुयं।" को० 175 गाथा। निम्महिअ-त्रि०(निर्मथित) निराकृते, "गंधुग्गिरणम्मि निम्म-हि।'' को०१६६ गाथा। निरोह-पुं०(निरोध) तापे, 'धम्मो तावो डाहो, उम्हा उण्हं निरोहोय।" को०४६ गाथा। (अस्यान्येऽप्यर्थाः "णिरोह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2116 निम्माण- धा०(निरमा) विरचने, 'निर्मो निम्माण-निम्मवी' / / 8 / 4 / 16 / / नि:वस्य मिमेतेरेतावादेशौ वा / निम्माणइ / निम्मइ / पृष्ठे गताः) विरचयति। ग्रा० 4 पाद। निलय-पुं०(निलय) गृहे, उत्त०३२ अ० को (अस्यैकार्थिकाः 'निहेलण' शब्दे वक्ष्यन्ते) निम्माय-त्रि०(निर्मात) निष्पन्ने, बृ०६ उ०। "निव्वडिअं निम्मायं / " को० 200 गाथा। निलीण-त्रि०(निलीन) लीने, “परिलीणंच निलीणं।"को०१६६ गाथा। नियच्छि अ-त्रि०(निदर्शित) मिलिते, ''सचविअ-दिहलइअ निव-पुं०(नृप) 'इत्कृपाऽऽदौ" ||81 / 128 // इति आदेत इत्त्वम्। नियच्छियाइं निहालिअ-ऽत्थम्मि।" को०७८ गाथा। 'निवो।' प्रा०१ पाद / राजनि, को० 100 गाथा। नि०चू०। आचाला नियड-त्रि० (निकट) समीप, अस्यैकार्थिकानि-"अब्भासं अभण्णं, बृ०। (अस्य पर्यायाः 'नरणाह' शब्दे द्रष्टव्याः) आसन्नं सीवहमतिअंनिअड। "को०६१ गाथा। निवह-पुं०(निवह) सङ्घाते, को०१६ गाथा। (अस्य पर्यायाः 'निउरंब' निरंकु सा-स्त्री०(निरङ्कुशा) स्वतन्त्रस्त्रियाम्, को० 13 गाथा। शब्द)(गम-नशोस्तुणकाराऽऽक्रान्त एवादेशः ‘णिवह' इति) (निवह(अस्यैकार्थिकाः 'नारी' शब्दे गताः) णिवह-शब्दयोस्तुल्यार्थत्वम्) निरग्गला-स्त्री०(निरर्गला) स्वच्छन्दनार्याम, को० 13 गाथा। (एतत् | निव्व-न०(नीव) पटले, "निव्वं पडलं।" को० 211 गाथा / ककुदे, पर्यायाः 'नारी' शब्दे गताः) देना०५ वर्ग 48 गाथा। निरणुजुजाणुओग-पुं०(निरनुयोज्यानुयोग) विंशतितमे निग्रह- | निव्वडिअ-त्रि०(निष्पतित) कृते, को० 166 गाथा। (अत्र पर्यायविषये स्थानभेदे, स्था०।"अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्या 'निम्माय' शब्दो विलोकनीयः) नुयोगः / " 23 / गौ०सू०। निग्रहस्थानलक्षणस्य मिथ्याध्यवसायाद निव्वल-त्रि०(निर्बल) निर्गतं बलं सामर्थ्य यस्येति निर्बलम्, "निरः निग्रहस्थाने निगृहीतोऽसि परं ब्रुवन् निरनुयोज्यानुयोगान्निगृहीतो पदेवलः" / / 8/4/128 // निर पूर्वस्य पदेर्बल इत्यादेशः। 'निव्वलइ।' वेदितव्य इति। भा०ा निरनुयोज्यानुयोगं लक्षयति-अवसरे यथार्थनि पक्षे निप्पज्जइ निस्सारे, प्रा०४ पाद। ग्रहस्थानोद्भावनाऽतिरिक्तं यन्निग्रहस्थानोद्भावनं तदित्यर्थः / एतेनावसरे निव्वाण-न०(निर्वाण) मोक्षे, पर्यायाः-"लोअग्गं परमपयं, मुत्ती सिद्धी निग्रहस्थानोद्भावने एकनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानान्तरोगावने च सिवं च निव्वाणं / '' को० 20 गाथा। (अत्र विशेषः 'णिव्वाण' नाव्याप्तिः / सोऽयं चतुर्धाबलं, जातिः, आभासोऽनवसरग्रहणं च / शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2121 पृष्ठादारभ्य द्रष्टव्य एवास्ति) आभासो व्यभिचाराऽऽदावसिद्ध्यायुद्भावनम् / अनवसरग्रहणञ्चाकाले | निविट्ठ-त्रि०(निर्विष्ट) उपभुक्ते, "निव्यिर्ल्ड उवहुत्तं।'' को०१७७ गाथा। एवोद्भावनम्। यथात्यक्ष्यसिचेत्प्रतिज्ञाहानिः विशेषयसिचेत् हेत्वन्तरम्।। अनुपारिहारिके, स्था०३ ठा०४उ०ा उचिते, देना०४ वर्ग 34 गाथा।
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________________ निसंस 2776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 नीरंगी निसंस-त्रि०(नृशंस) "शषोः सः" ||8/1 / 260 / / इति शस्य सः। | निहण-न०(निधन) प्राणत्यागे, “पलयो निहणं नासो।"को० 167 'निसंसो।' श्लाघारहिते, प्रा०१ पाद / क्रूरे, को०७३ गाथा / (अस्य गाथा। पर्यायाः 'निक्किव' शब्दे गताः) निहय-त्रि०(निहत) मारिते, उत्त०१२ अ० भावरिपुभिरिन्द्रयनिसा-स्त्री० (निशा) रात्रौ, हरिद्रायाम्, बृ०५ उ० वाचा निशा- ___ कषायकर्मभिर्हन्यमाने,आचा०१ श्रु०४ अ०३उ० "निहयं निक्खयं / " शब्दपर्यायाः-"रयणी विहावरी सव्वरी निसा जामिणी राई।" को० को०२४० गाथा। 47 गाथा। निहस-पुं०(निकष) "निकष स्फटिक-चिकुरे हः ||8/11186 / / इति निसाअर-पु०(निशाचर) रात्रिचरे, "इः सदादौ वा '118/1 / 72 / / इति कस्य हः। प्रा०१ पाद। "शषोः सः" / / 8 / 1 / 260 // इति षस्य सः / इत्वपक्षे– 'निसिअरो।' प्रा०१ पाद / वाच०। "अवर्णो यश्रुतिः" प्रा०१ पाद। कषपट्टरेखायाम्, प्रज्ञा०१७ पद 2 उ०। 'निहसो कसो।'' / / 8 / 1 / 180 / / इति यश्रुतौ 'निसायरो / ' अस्य प्रायिकत्वपक्षे- / को०२६३ गाथा। 'निसाअरो।' प्रा०१ पाद। निहाअ-(निघात) समूहे, को० 16 गाथा / दे०ना०। (अस्यपर्यायाः निसामिअ-त्रि०(निशामित) श्राविते, को०१८४ गाथा। 'निउरंब' शब्दे गताः) निसामिअय-त्रि०(निशामितक) आकर्णिते, "निसुअ आयण्णिअं | निहालिअ-त्रि०(निभालित) दृष्टे, "सचविअ-दिट्ठ-पुलइअनिसामिअयं!" को०१८४ गाथा देना निअच्छिआई निहालिअ-ऽत्थम्मि।" को०७८ गाथा। निसायंत-न०(निशातान्त) तीक्ष्णधारविशिष्टे, "अच्छायंतं निसा- निहिअ-त्रि०(निहित) स्थापिते, "निमिअंनिहिअंच निक्खित्तं।'' को० यतं / '' को०२७० गाथा। 163 गाथा / नि-धा-क्तः। “सेवाऽदौ या'' ||8/266 // इति तद्वित्वं निसाय-त्रि०(निशात) तीक्ष्णीकृते, "तिक्खालिअंनिसा।'' को० वा। निहित्तं / पक्षे-तो लोपः / प्रा०२ पाद। निक्षिप्ते, पञ्चा० 10 विव०॥ 200 गाथा। निहिनाथ-पुं०(निधिनाथ) कुबेरे, "वेसमणो निहिनाहो, जक्खाहिवई निसायर-पुं०(निशाकर) चन्द्रे, "इंदू निसायरो सस-हरो विहू गहवई कुबेरो य।" को०२४ गाथा। रयणिनाहो / मयलंछणो हिमयरो, रोहिणिरमणो ससी चंदो / / 5 / / " | निहुअ-त्रि०(निभृत) "उदृत्वादौ' ||81 / 131 / / ऋतु इत्यादिषु शब्देषु को०५ गाथा। रात्रिचरे, वाचा "कगच०-१८१११७७॥ इत्यादिना आदेत उत्त्वम्। प्रा०१ पाद / तदर्थमनुद्युक्ते, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। कलोपे "अवर्णो यश्रुतिः' / / 8 / 1 / 180 / / इति यश्रुतिः। 'निसायरो।' निर्व्यापारे, बृ०३उ० निश्चले, उत्त०१६अ०असंभ्रान्ते, कायस्थित्या प्रा०१ पादा उचितधर्मे दश०६ अ०। "मसिणं सणिअंमट्ठ, मंदं अलसं जडं मरालं निसीढ-पुं०(निशीथ) "निशीथपृथिव्योर्वा" // 811 / 216|| इतिथस्य च / खेलं निहुअंसइर, वीसत्थं मंथरं थिमि॥१५॥" को० 15 गाथा। ढो वा। 'निसीढो निसीहो।' अर्द्धरात्रे, रात्रिमात्रे च / प्रा०१ पाद। निहेलण-पुं०(निलय) "गोणाऽऽदयः" ||82 / 174|| इति निलयस्थाने निसुअ-त्रि० (निश्रुत) आकर्णिते, "निसुअं आयणि निसामि- | 'निहेलण' आदेशः / गृहे, प्रा०२ पाद। 'भवणं घर-मावासो, निलयो अअं।" को० 184 गाथा / देवना०।। वसही निहेलणमगारं।" को०४६ गाथा। निसुदिअ-त्रि०(नत) भारनभे, "निसुढिअं अकंतभरोणयं।'' को० 164 नीअ-त्रि०(नीत) गते, " हिनी।" को०२६७ गाथा। गाथा। * नीच-त्रि०। अत्यन्तावनतकन्धरे, उत्त०१ अ० उच्चविपरीते, निसुद्ध-त्रि०(निशुद्ध) शुद्धे, “ओसद्धं पाडिअंनिसुद्धं च।'' को० 164 स्था०३ठा०४उ०। अपूज्ये, भ०३ श०१ उ०। निम्ने, नि०चू० 130 / गाथा। नीचैः स्थाने, मालाऽऽदौ, उत्त०१ अ०1 "अहमा इयरा य पायया निसेह-पुं०(निषेध) "निषेधेर्हक्कः" ||84134 / / इति निषेधेकादेशो नीआ।" को०१०३ गाथा। वा। 'हक्कइ, निसेहइ।' प्रतिषेधे, प्रा०४ पाद। * नित्य-त्रि०ा सदाऽवस्थायिनी, स्था० 10 ठा०॥ निस्स-त्रि०(निःस्व) निर्धने, "रोरो अकिंचणो दुम्विहो दरिद्यो य दुग्गओ नीचअ-अव्य०(नीचैस्) नीचे, "उद्यैर्नीचैसि अअः" / / 8 / 1 / 154 // इति निस्सो।" को०३५ गाथा। ऐतो अअ इत्यादेशः। 'नीच' अल्यल्पे, क्षुद्रे च। प्रा०१ पाद। निस्से णि-स्त्री०(निःश्रेणि) अधिरोहण्याम, "अधिरोहणिआ य | नीड-न०(नीड) कुलाये, “निडुनीड कुलाय च।"को० 126 गाथा। प्रा० निस्सेणी।" को० 120 गाथा। नीणि अ-त्रि०(नीणित) गते, "निद्धाडिअंनीणि।" अव्युत्पन्न एवायं निह-न०(निभ) छले,"छलं अवएसो निहं च मिस।' को०१४२ गाथा। शब्दः / व्युत्पत्तिपक्षे तु-''णीणिअ' इत्येव णकाराऽऽक्रान्तो भविष्यतीति सदृशे, आ०म०१ अामायिनि, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। क्रोधाऽऽदिभिः पीडिते, विशेषः / को० 176 गाथा। स्वस्थानं प्रापिते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ सूत्र०१ श्रु०२ अ०१उ०आघातस्थाने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०| उत्त०। सूत्र * स्निह-त्रि०) रागवति, आचा०१ श्रु०४ अ०३उ०। रागद्वेषयुक्त, नीरंगी-स्त्री०(नीरङ्गी) शिरोऽवगुण्ठने, "नीरंगी अंगुट्ठी।'' को०११६ आचा०१श्रु०५ अ०३उ०। ममत्वसहिते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२०। गाथा। देना
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________________ नीमी 2777 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 नोमालिया नीमी-स्त्री०(नीवी) "स्वप्ननीया / / 8 / 1 / 256 / / इति वस्य मो वा। प्यवयवेन न्यूनम्" 12 गौ०सू० प्रतिज्ञाऽऽदीनामवयवानामन्य'नीमी, नीवी। मूलधने, वस्त्रे च। प्रा०१ पाद। तमेनाप्यवयवेन हीनं न्यून निग्रह स्थानं, साधानाभावे साध्यासिद्धिरिति। नीर-न०(नीर) जले, "अंबु सलिलं वणं वारि, नीर उदयं दयं पयं तोयं / ' | भा०ान्यून लक्षयति-अवयवेन स्वशास्वसिद्धेन तेन सौगतस्य द्यायवाको०२८ गाथा / दर्श०। भिधानेऽपिन न्यूनत्वम् नन्ववयवहीनत्वम्-अवयवत्वावच्छिन्नाभावः, नीलकंठ-पुं०(नीलकण्ठ) मोरे, ''मोरो सिही बरहिणो, सिहंडी तथा चाकथनमेव स्यादत आह-अन्यतमेनापीति। तथा च यत्किञ्चिनीलकठोय।" को०४२ गाथा। शक्रस्य देवेन्द्रस्य महिषानीकाधिपती, दवयवशून्यावयवाभिधानं फलितम् / नचायमपसिद्धान्तः, सिद्धान्तस्था०४ ठा०२ उ० विरुद्धानभ्युपगमात्, अपि तु सभाक्षोभाऽऽदिनाऽनभिधानादिति वृत्तिः // 12 // गौ० सू० वा० भा० वि० वृ०॥ नीलुप्पल-न०(नीलोत्पल) नीलकमले, "नीलुप्पलं वियाणह, कुवलयं इंदीवरं च कंदुट्ट।'' को०३६ गाथा। कुवलये, जं० 1 वक्ष०ा उपा०।। नूमिअ-त्रि०(छादित) प्रच्छादिते, "पच्छाइअ-नूमिआइँ वइआई।" को० 176 गाथा / "छदेणैर्गुम नूमसन्नुम-ढकौम्बाल-पव्वालाः" नीव-पुं०(नीप) "पो वः" / / 8 / 1 / 231 / / स्वरात्परस्यासं युक्तस्यानादेः // 4 // 21 // इति छदेय॑न्तस्यैर्त षडादेशा वा भवन्ति / 'नमइ।' पक्षेपस्य प्रायो वो भवति। 'कासवो पावं। उवमा।' प्रा०१ पाद। "कलंबो, 'छायइ।' प्रा०४ पाद। नीवो।" को०२५५ गाथा। नेउर-न०(नूपुर) स्त्रीणां पादाऽऽभरणे, "हंसयं नेउरं च मंजीरं।" को० नीवी-स्त्री०(नीवी) वस्त्रग्रन्थौ, "उअट्टी उचओ नीवी।" को० 175 112 गाथा। गाथा। मूलधने, वाचन नेलच्छ-पुं०(पण्डक) षण्डे, वृषभेऽपि, 'नेलच्छो पंडओ।'' को०२३५ नीसंदिअ-त्रि०(निःष्यन्दित) निष्पतिते, "निटुअखिरिअंछिप्पि, गाथा / "गोणाऽऽदयः" बा२।१७४!इति पण्डक शब्दस्य च नीसंदिअंच पज्झरिअं।" को०८० गाथा। नेलच्छाऽऽदेशः / "नो णः" / / 8 / 1 / 228|| इत्यस्य वैकल्पिकत्वात् नीसामन्न-पुं०(निःसामान्य) गाम्भीर्ययुक्ते, "नीसामन्ना गरुआ।" णत्वाभावपक्षे रूपम्। प्रा०१ पाद। को०१०३ गाथा। नेवत्थ-न(नेपथ्य) वेषे, "वेसो नेवत्थं।" को०२३३ गाथा। नीहरिअ-त्रि०(निःसृत) निर्गीणे, "नीहरिअं निग्गिणं' 167 गाथा। स्त्रीपुरुषाणा वेषे, स्था०४ ठा०२ उ०। परिधानाऽऽदिरचने, ज्ञा०१ देना श्रु०१०। केशचीवरसमारचने, दर्श०४ तत्त्व। नि०ा औ०। निर्मलवेषे, नीहार-पुं०(नीहार) मूत्रपुरीषोत्सर्गे,स०३४ समा "धूमिका-याम," ज्ञा०१ श्रु०१६अ। स्था० "सिण्हा नीहारो धू-मिआ य-महिआ य धूममहिसी य।" को०३८ | नेह-पुं०(स्नेह) "क-ग-च-ज-त-द-प-य वां प्रायो लुक्" गाथा। वि।१।१७७।। इति सलुक् / प्रा०१ पाद / मोहोदयजे प्रीतिविशेषे, नु-स्त्री०(नु) स्तुतौ, "प्रस्तुते वा परिश्लिष्ट, शुद्धे निणेतरि स्मृतः / नुः पुत्राऽऽदिष्वत्यन्तानुरागे, आतु०। जीत०। स्त्रियांनुस्तुतौ।" एका०५४ श्लोकानुः स्तुतौ दीर्घ ह्रस्व स्त्री। वारिणि, नो-पुं०(नो) स्तुती, एका पृच्छायां, वितर्के, एका०७८ श्लोक। * नौ-(स्तुतौ) पुं०। स्त्रीला एकाला 'नौश्चरणोऽस्त्रियाम्।' एका० नुन्न-त्रि०(नुन्न) मिष्टयुतार्थे, "नुन्नशब्दस्त्रिलिङ्गः स्यान्मिष्टयुतार्थस्य / नोमालिया-स्त्री०(नवमालिका) "ओत् पूतर-वदर नव-मालिकावाचकः ।“एका०५५ श्लोक। नवफलिका-पूगफले" ||8/1 / 170 / / इति ओत्वम् / प्रा०१ पाद / नू-पुं०(नू) दर्पे, "नूदपेऽपि तथ्मेदितः।" एका०७७ श्लोक। "नूशब्दः 'नेवार' इति ख्याते सुगन्धपुष्पप्रधाने वृक्षभेदे, जं०१ वक्ष०ा ज्ञा०। पातके पुंसि, वायौ क्लीये।" एका०७६ श्लोक। जी०। (प्रायः णकाराऽऽदयः सर्वे शब्दाः "वाऽऽदौ"||८/११२२६।। नून-न०(न्यून) एकादशे निग्रहस्थानभेदे, स्थान। "हीनमन्यतमेना- इत्यस्य वैकल्पिकत्वाद् नकाराऽऽदिषु बोध्याः) इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' नकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / तत्समाप्तौ च समाप्तोऽयं चतुर्थो भागः ||4||
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________________ || श्रीः // दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनश्रुतः / संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् /