________________ णरगविभत्ति 1926 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरसुंदर चेव सेसासु / / 67 // " सूत्र०नि०१ श्रु० 5 अ०१ उ०। (नरकविभक्तिवर्णकः ‘णरग' शब्दे 1904 पृष्ठे गतः) णरगाउन०(नरकायुष ) नारकायुष्के, कर्म०१ कर्मः / णरगावास पुं०(नरकावास) नरकरूपे आवासे, स्था० 8 ठा०। णरगिंद पुं०(नरकेन्द्र) बृहत्त्वात्प्रधानत्वाच्च तथाविधे नरके चतुर्थ्या नरकपृथ्व्यां सप्त नरकेन्द्रकाः। यथोक्तम्-" आरे मारे णारे, तच्छे य.मए य बोधव्ये / क्खोडक्खडे य खडखडे, इंदयनिरया चउत्थीए।।१।।" स्था० 6 ठा०। णरणारीसंपडिवुड त्रि०(नरनारीसंपरिवृत) नरैर्नारीभिश्च समन्तात् परिवृते, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। णरदत्ता स्त्री०(नरदत्ता) श्रीमुनिसुव्रतस्य शासनदेव्याम् , प्रव० 27 द्वार / ती०। परदुगन०(नरद्विक) नरगतिनरानुपूर्वीलक्षणे, कर्म० 3 कर्म० / णरदेवपुं०(नरदेव) नराणां देवाः नरदेवाः / चक्रवर्तिषु, स्था०५ टा०१ उ०।'' पोग्गलपरियट्टद्धं, जं नरदेवंतर सुए भणियं। (805) विशे०। स्वनामख्याते श्रीऋषभदेवपुत्रे, कल्प०७ क्षण। णरभव पुं०(नरभव) ६त० / मनुष्याणां जन्मसु, कर्म० 5 कर्म० / णररुहिर न०(नररुधिर) मनुष्यरुधिरे, तद्धि लोहितवणौत्कटमिति रक्तत्वेनोपमीयते / रा०। णरवइ पुं०(नरपति) राजनि, रा० / दश / औ० / स्था० / आव० / विश्रुते राजनि, प्रश्न०४ सम्ब० द्वार / नरनायके, नरस्वामिनि, स०। औ० / ज्ञा०। णरवइदत्तपयार पुं०(नरपतिदत्तप्रचार) नृपानुज्ञातकामचारे, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०॥ णरवइदिन्नपयारपुं(नरपतिदत्तप्रचार) नृपानुज्ञातकामचारे, ज्ञा० 1 20 16 अ०। णरवरीसरपुं०(नरवरेश्वर) नराणां श्रेष्ठराजानि, " सगरंतंचइत्ता णं, भरह नरवरीसरो।" उत्त० 18 अ० / उत्क्षिप्तकार्ये भारनिर्वाहकत्वात्। स० / णरवसह पुं०(नरवृषभ) नराणां मध्ये गुणैः प्रधानत्वात् (प्रश्न० 4 आश्र० द्वार) धराभारधुरन्धरत्वाद् वृषभकल्पे, कल्प०३ क्षण। णरवाहण पुं०(नरवाहन) स्वनामख्याते भृगुकच्छनरेश्वरे, आव०१ अ० / ती०। आ० म०1 आ० चू० / कुबेरे, वाच०। (सच महाधनः शालिवाहनेन रुद्ध इति पणिहि 'शब्दे वक्ष्यते) णरवाहणा स्त्री० (नरवाहना) कुबेरायां देव्याम् , ती० 8 कल्प। गरविग्गहगइ स्त्री०(नरविग्रहगति) निरयविग्रहगतो, स्था० 10 ठा०। णरवेय पुं०(नरवेद) पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाषे, कर्म० 4 कर्म० / णरसंघाडगन०(नरसंघाटक) नरयुग्मे, जं० 1 वक्ष० / णरसीह पुं०(नरसिंह) शूरत्वात् (प्रश्न० 4 आश्र० द्वार) दुःसहपरा- 1 क्रमत्वात् (कल्प०३ क्षण) विक्रमयोगात् (स०) सिंहत्वोपमिते नरे, शरीरार्द्धतो नरे शरीरार्द्धतः सिंहे च / ज्ञा० 1 श्रु० 16 अ० / विशे०। / मानतुङ्गसूर्यन्ववाये जाते स्वनामख्याते सूरौ, "श्रीदेवानन्दगुरुविक्रमसूरिगुरुश्च नरसिंहः / बोधितसिंहकयक्षः''। ग० 4 अधि०। णरसुंदर पुं०(नरसुन्दर) ताम्रलिप्तीनगरीश्वरे स्वनामख्याते राजनि, (ध०२०) तत्कथा पुनरेवम्" पयडियउदया बहुविह-सत्ता वरकम्मगंथवित्ति व्य। नवर बंधविमुक्का, अस्थि पुरी तामलितीह // 1 // सम्मपरिणयजिणसमय-अमयरसहणियविसयविसपसरो। गिहिवाससिढिलचित्तो, राया नरसुंदरो तत्थ / / 2 / / निरुवमलवणिमरूवा, बंधुमई नाम आसि से भइणी। उजेणिसामिणा सा, अवंतिनाहेण परिणीया।। 3 / / सो तीए अणुरत्तो, आसत्तो मजपाणवसणम्मि। जूयम्मि अइपसत्तो, मत्तो वोलेइ बहुकालं॥ 4 // तम्मि निवम्मि पमत्ते, रज्जे रट्टे विसीयमाणम्मि। रजपहाणनरेहि, सचिवेहि य मंतियं सम्म।। 5 / / पुत्तं ठवेमि रज्जे, मज्जं पाइतु निसि पसुत्तो सो। देवीइ समं नियमा-णुसेहिँउज्जाविओ रन्ने।६।। चेलंघले य बद्धो, लेहोऽणागमणसूयगो तस्स। अह गोसे पडिबुद्धो, जा दिसिचक्कं नियइ सया।।७।। हरिहरिणरुद्दसर्दू-लसंकुलं सव्वओ पिता रन्नं। तं लेहं च निरिक्खिय, सविसाओ भणइ इय दइयं / / 8 / / ओ पिच्छ पिच्छु पावा- ताण सामंतमंतिपमुहाणं! तह तह उवयरियाणं, वियरियगुरुदाणमाणाणं / / 6 / / निचंगुरुगुरुतरबहु-पसायपावियपसिद्धिरिद्धीणं। अवराहपए वि सया, सिणिद्धदिट्टीइ दिहाणं / / 10 / / अविभिन्नरहस्साणं, संसइयत्थेसुपुच्छिणिजाणं। नियकुलकमाणुरूवं, चिट्ठियमेवंविहं सुयणु! // 11 // इय विरसं जंपतो, अविभावियदुट्ठदिव्वपरिणामो। राया बंधुमईए, सुजुत्तिजुत्तं इमं वुत्तो / / 12 // किं चिंतिएण सामिय ! विहलीकयसयलपुरिसयारस्स। अघडतघडणरुइणो, हयविहिणो विलसिएणिमिणा? // 13 // लहु पहु ! चयसु विसायं, गच्छामो तामलित्तिनयरीए। नरसुंदरनरनाह, पिच्छामो तत्थ सप्पणयं / / 14 / / रन्ना पडिवन्नमिणं, गंतु पयट्टाइँताइँ तो कमसो। पत्ताइँ तामलित्ती, पुरी समीवट्ठउजाणे / / 15 / / अह बंधुमई जंपई, इहेव चिट्ठेसु सामि ! खणमेगं। तुह आगमणं गंतूण भाउणो जाव साहेमि।। 16 / / कह कह वि होउ एवं, ति जंपिए नरवरेण अह पत्ता। निविडपडिबंधबंधुर-बंधवगेहम्मि बंधुमई॥१७॥ तस्थ य महंतसाम-तविंदसेविजमाणपयजुयलो। पासट्ठियपणतरुणी-करचालियचामरुप्पीलो॥ 18 // जय जीव जीव इय से-वगेहिंवुचंतओ य पइवयणं। सिंघासणोवविठ्ठो, दिवो नरसुंदरो तीए।। 16 / /