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________________ धणमित्त 2656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 4 धणमित्त तं खिविउं नियजाणे, सगिहे पत्तो नमित्तु जिणबिंब / जा संभालइता तीस सहसमाणं तयं जाय / / 46 / / तेण धम्मपरेणं, अन्नं पि समज्जियं बहुंदविण। जाओ जणप्पवाओ, उअह अहो धम्ममाहप्पं / / 5 / / इत्तो तत्थेव पुरे, सुमित्तनामा वसेइ महइभो। स्यणाबलिं स विरए, कोडिमुल्लेहि रयणेहिं / / 51 / / केण वि गुरुकजेणं, तस्स वि वत्तट्ठियस्सपासम्मि। एगागी संपत्तो, धणमित्तो तह निसन्नो य॥५२॥ उचियालावं सह तण काउ इब्भो पओयणवसेण। पत्तो गिहमज्झे काउ कज्जमह एइ जा तत्थ / / 53 / / ता रयणाबलिमनिए, वि भणइ जा विरइओ मए मुक्का। सा कत्थ गया रयणाबलि त्ति भो कहसु धणमित्तं ! / / 54 // न तुम ममं च मुत्तुं, को वि इहासी तओ तुमे चेव। सा गहिया अप्पसुतं, मा चिरकालं विलंबेसु॥५५।। तो चिंतइ धणमित्तो, अहह अहो ! कम्मविलसियं निवह। जं अकए वि य दोसे,इय वयणिज्जाइँलभंति॥५६।। इत्तु च्चिय पडिसिद्धं, परगिहगमणं जिणेहि सहाणे। जं परगिहगमणाओ, कलंकमाई जियाण धुवं / / 57 / / ता परगेहे गेहो, अणज्जवयणिज्जयाइ दोसेण। गुरुकज्जे वि कया विहु, एगागी नेव वच्चिस्सं / / 58 / / इय चिंतिय भणइ अहं, इब्भ ! तुमं पिव न किंचि जाणेमि। सो आह न छुट्टिजइ, एरिसवयणेहि धणमित्त ||56 / / काउ ववहारं राउले वितं लेमि तुह सयासाओ। इयरो विपडिभणेई, जुत्तं कुणसुतं इब्भ ! // 6 // तो धणमित्तो चारु त्ति साहिओ निवइणो सुमित्तेणं। न इमं इमम्मि संभवइ कह वि इय चिंतइ निवो वि॥६१।। एस पुण निच्छएणं, कहेइता पुच्छिमो तयं चेव। अह हकारिय पुट्टो, धणमित्तो कहइजह वित्तं // 62 / पभणइ निवो वि विम्हियहियाओ भो इन्भ ! किमिह कायव्वं?। सो आह देव ! इमिणा,गहिया रयणावली नूणं // 63 / / अह जंपइधणमित्तो, देव ! कलंक इमं न हु सहेमि। पभणेह जेण दिव्वेण तेणिमं पत्तियामि॥६४|| भणइ निवो इभ ! तुमं, होसु सिरे जंगहेइ फालमिमो। आमंतितेण भणिए, ठविओ दिवसो तओ रन्ना।।६५|| सगिहेसु दो विपत्ता, अह धणमित्तो विसेसधम्मपरो। चिट्ठइ सुविसुद्धमणो, पत्तो पुण दिव्वदिवसम्मि॥६६॥ काउंसिणाण अट्ठप्पयारपूवाइपूइऊ जिणे। तह काउ काउसगं, सम्महिट्ठीण देवाणं // 67 / / फाले धम्मिज्जमाणे, पुरो निविटे निवम्मि लोए य। बहुपउरजुओ पत्तो, धणमित्तो दिव्वठाणम्मि॥६८|| इन्भो वितत्थ पत्तो, धणमित्तो जाव गिहिही फालं। इब्भस्स उट्टियाओ, पडिया रयणाबली ताव।।६।। तो भणियं नरवइणा, इब्भ ! किमेयं ति सो वि खुद्वमणो। जा देइ उत्तरं न हु, ता पुट्ठो तेण धणमित्तो॥७०) जीइ रयणावलीए, कए विवाओ तुमाण सा किमियं / होइन व त्ति इमो विहु, जपइ सा चेव देव ! इमा॥७१।। परमत्थमित्थ नवर,मुणंति सव्वन्नुणो तओ राया। नियभंडारियहत्थे स-विम्हओ तं समप्पेइ॥७२॥ सम्म संमाणेउं, सुद्ध ति पमुत्तु सिट्ठिधणमित्तं / नियपुरिसाणं अप्पिय, इभं च गओ निवो सगिह।।७३|| अह धणमित्तो नियमित्त-पउरस्रावयगणेण परियरिओ। तित्थुन्नई कुणतो, संपत्तो निययगेहम्मि 74|| इत्तो य तत्थ वत्तो, गुणसायरकेवली तयं नमिउं। धणमित्तो नयरजणो, अपरिजणो नरवई विगओ // 75|| रन्ना गम्भो वितर्हि, आहूओ निसुणिउंच धम्मकह। समए ज वुत्तत, पुट्ठो नाणी कहइ एवं // 76|| इह विजयपुरे नगरे, गेहवई आसि गंगदत्त त्ति। मुडुला मायाबहुला, मगहा नामेण तस्स पिया // 77|| संवोसियाभिहाए, ईसरवणिणो पियाइ वररयणं / पविसिय कहमवि तगिह-मवहरए लक्खमुलं सा / / 78 / / नाड इमा तं मग्गइ, न य कइरी मन्नए वयइ विरसे। तो देइ उवालंभं, वणिभल्ला गंगदत्तस्स // 7 // भज्जानेहषिमोहिय-मणो इमो भणइ गिहमणुस्सेहिं। तुह चेव तं अवहडं, मा अलियं देसुणेआलं / / 8 / / इय सुणिय वणिवदइया, नियवररयणोवलंभतुट्ठा सा। काऊण तावसवयं, उववन्ना वंतरत्तेण ||1|| विहियतहाविहकम्मा, जाया मगहा वि एस इन्भु त्ति। मरिऊण गंगदत्तो, धणमित्तो एस उववन्नो।२।। कुविएण तेण वंतर-सुरेण नियरयणवइयरे तम्मि। इब्भस्स तिन्नि पुत्ता, निहणं गमिया कमेणित्थ / / 83 / / तो रन्ना इब्भमुहे, पलोइए सो भणेह एवं ति। कि तु मरणम्मि तेसिं, हेऊ इम्हि मए नाओ।।४।। पुण भणइ गुरु रयणावली वि, तेणेव अवहडा एसा। पत्तं धणमित्तेणं, आलं किल आलदाणाओ॥८५|| धणमित्तधम्मथिरभावरिजिएहिं सुद्दिडिअमरेहि। तं वंतरडक्कमिउ, रयणावलि मोइया तइया / / 6 / / आह निवो कि अज्ज वि, इमस्स काही सुरो भणइ जाणी। रयणावलीइ सहियं, विहवं हरिही सुमित्तस्स / / 7 / / तो अट्टवसट्टगओ मरिउ इभो भवे बहु भमिही। बंतरसुरजीवो वि हु. बहुहा निज्जाइही वेरं / / 88|| इय सोउसंविग्गो, राया रयणाबलिं सुमित्तस्स। अप्पित्तु ठवित्तु, सुर्य, रज्जे गिण्हेइ चारित्तं // 86 // धणभित्तो वि हु जिट्ठ, पुत्तं ठविऊण नियकुडुबम्मि। गिण्हिय केवलिपासे, दिक्खं कमलो गओ मुक्खं // 60 // ' "इत्यवेत्य धनमित्रवृत्तक, शुद्धवृत्तजनहर्षकारकम्। अन्यगेहगमनं यथा तथा. संत्यजन्तु भविनो हि सत्पथाः॥११॥" इति धनमित्रचरित्रम् ॥ध०२०। दन्तपुननगरस्थे स्वनामख्याते वणिजि, आव०४ अ०। नि०चू० आ०का आ००। (तद्वक्तव्यता ‘णिरवलाव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2111 पृष्ठे द्रष्टय्या) उज्जयिनीनगरस्थे स्वनामख्याते वणिजि, ग० २अधि०। (तद्वक्तव्यता 'आउकाय' शब्दे द्वितीयभागे 24 पृष्ठे गता) (तद्वक्तव्यता 'पिवासापरीसह' शब्देऽपि अस्मिन्नेव भागे द्रष्टव्या) चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते सार्थवाहे, आव०४ अ० आ००। (तद्वक्तव्यता 'संवेग' शब्दे) शत्रुञ्जयशैलस्थशान्तिमरुदेवयोश्चैत्यस्योद्धरकारके श्रावके, ती०१ कल्प। अवसर्पिण्यां जायमानस्य स्वयंभुवासुदेवस्य पूर्वभव
SR No.016146
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1456
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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